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View Full Version : भूपेन हजारिका : श्रद्धांजलि


arvind
05-11-2011, 05:44 PM
विस्तार है अपार प्रजा दोनों पार
करे हाहाकार निःशब्द सदा
ओ गंगा तुम, गंगा बहती हो क्यों

नैतिकता नष्ट हुयी, मानवता भ्रष्ट हुयी
निर्लज्ज भाव से बहती हो क्यों

इतिहास की पुकार करे हुंकार
ओ गंगा की धार निर्बल जन को
सबल संग्रामी समग्र गामी बनाती नहीं हो क्यों

विस्तार है अपार प्रजा दोनों पार
करे हाहाकार निःशब्द सदा
ओ गंगा तुम, ओ गंगा बहती हो क्यों

अनपढ़ जन अक्षरहीन, अनगिन जन खाद्य विहीन
नेत्र विहीन देख मौन हो क्यों

इतिहास की पुकार करे हुंकार
ओ गंगा की धार निर्बल जन को
सबल संग्रामी समग्र गामी बनाती नहीं हो क्यों

विस्तार है अपार प्रजा दोनों पार
करे हाहाकार निःशब्द सदा
ओ गंगा तुम, गंगा बहती हो क्यों

व्यक्ति रहे व्यक्ति केंद्रित, सकल समाज व्यक्तित्व रहित
निश्प्राण समाज को तोड़ती न क्यों

इतिहास की पुकार करे हुंकार
ओ गंगा की धार निर्बल जन को
सबल संग्रामी समग्र गामी बनाती नहीं हो क्यों

विस्तार है अपार प्रजा दोनों पार
करे हाहाकार निःशब्द सदा
ओ गंगा तुम, गंगा बहती हो क्यों

श्रुतस्विनी क्यों न रहीं, तुम निश्चय चेतन नहीं
प्राणों में प्रेरणा देती न क्यों, उन्मद अवनी कुरुक्षेत्र बनी
गंगे जननी नव भारत में, भीष्मरूपी सुतसमरजयी जनती नहीं हो क्यों

विस्तार है अपार प्रजा दोनों पार
करे हाहाकार निःशब्द सदा
ओ गंगा तुम, गंगा बहती हो क्यों

arvind
05-11-2011, 05:48 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=13290&stc=1&d=1320497540

गंगा की धारा अभी भी अविरल बह रही है.... पर उसके बहने पर क्रंदन करने वाले भूपेन हजारिका हम सब को छोड़ कर चले गए। मेरी तरफ से उन्हे भावभीनी श्रद्धांजलि।

arvind
05-11-2011, 06:01 PM
गुवाहाटी के एक कार्यक्रम में स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर ने कहा था - ‘हम असम को भूपेन हजारिका के नाम से जानते हैं।' भूपेन हजारिका के बहुआयामी व्यक्तित्व के कितने रूपख हैं - गीतकार, संगीतकार, गायक, साहित्यकार, पत्रकार, फिल्म निर्देशक, पटकथा लेखक, चित्रकार - और हर रूप अद्वितीय है, अनूठा है। असम की माटी की सोंधी महक को सुरों में रुपान्तरित कर उन्होंने देश-विदेश में असम के संगीत को प्रचारित किया है। वे असम की जनता की चार पीढ़ियों के सबसे चहेते गायक हैं। बिहू समारोहों में वर्षा में भींगते हुए रात-रात भर लोग उनको गाते हुए देखते-सुनते हैं।

असम की संस्कृति, ब्रह्मपुत्र नदी, लोक परम्परा, समसामयिक समस्या - जीवन के हरेक पहलू को उन्होंने गीतों में रूपान्तरित किया है।

arvind
05-11-2011, 06:06 PM
रंगाली बिहू। प्रथम वैशाख। असमिया नववर्ष का पहला दिन। गुवाहाटी के चांदमारी इलाके में रात के 1॰.3॰ बजे हजारों लोग बेसब्री के साथ अपने प्रिय गायक डॉ. भूपेन हजारिका की एक झलक पाने के लिए इंतजार कर रहे हैं। बिहू मण्डप में कहीं सूई रखने की भी जगह नहीं है। लोग सड़कों पर, फ्लाई ओवर पर खड़े हैं। दर्शकों में मुख्यमंत्री और अन्य कई मंत्री भी उपस्थित हैं।

भूपेन हजारिका मंच पर आते हैं। जनता को प्रणाम करते हैं। सबको बिहू की शुभकामनाएं देते हैं।
फिर मुस्कराते हुए कहते हैं, ‘मुझे खुशी है कि मैं अपने मोहल्ले के बिहू उत्सव में गाने के लिए आया हूं।'

चूंकि चांदमारी इलाके में ही उन्होंने संघर्षपूर्ण जीवन के कई साल गुजारे हैं।

वे गाना शुरू करते हैं - ‘बरदै शिला ने सरू दै शिला ...' बिहू की परम्परा पर आधारित गीत। आवाज में वही गम्भीरता, वही खनक, वही दिल को छू लेने वाली मिठास है, केवल उम्र का प्रभाव नजर आने लगा है। पहले वे बिहू उत्सवों में रात-रात भर गाते रह जाते थे, परन्तु अब स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता।

वे गाना शुरू करते हैं - ‘मानुहे मानुहर बावे, यदिउ अकनो ने भावे ...' इसी गीत को वे बांग्ला में
भी गाते हैं, असमिया में भी गाते हैं, हिन्दी में भी गाते हैं। फिर वे कहते हैं, ‘मैं एक प्रेमगीत
सुनाना चाहता हूं।' वे गाने लगते हैं - ‘शैशवते धेमालिते ...' गीत का भाव है - ‘बचपन में हम सा
थ-साथ खेलते थे। वैशाख में ब्रह्मपुत्र में तैरते थे। तुमने मुझसे वादा किया था कि साथ-साथ जिएंगे।

तुमने कहा था कि तुम्हारे बिना जी नहीं सकूंगी, जान दे दूंगी। मगर मेरे पास धन नहीं था।
तुम अपना वादा भूल गयी और एक धनवान के साथ ब्याह कर चली गयीं। एक दिन मैंने
तुम्हें महंगी पोशाकों में देखा। क्या तुम सोच रही थी कि तुम्हारे बिना मैं अपनी जान दे दूंगा ? मैं जा न नहीं दूंगा, बल्कि जीता रहूंगा, ताकि एक नये समाज का निर्माण कर सकूं। युवावस्था में उन्होंने यह गीत लिखा था, जो आज भी सुनने वालों के हृदय को स्पर्श करता है।

फिर वे गाने लगे ‘जीवन बूहलिषलै आह ...' इसी गीत को उन्होंने बांग्ला में भी गाया। वे थक गए थे।

उन्होंने एक नवोदित गायिका की तरफ इशारा करते हुए कहा, ‘घर की लड़की है। दो गाने सुनाएगी।
फिर मैं गाऊंगा। ‘दमन' फिल्म का एक गाना भी सुनाएगी।' ‘दमन' में भूपेन हजारिका ने अपने पुराने लोकप्रिय गीतों को नये अन्दाज में पेश किया है। गायिका ने गाना शुरी किया ‘बिजुलीर पोहर मोट नाई', फिर गाया - ‘ओ राम-राम आलता लगाऊंगी ...' भूपेन हजारिका ने ताली बजाकर गायिका की प्रशंसा की। अब उन्होंने फिर गाना शुरू किया - ‘सागर संग मत कतना सातूरिलो, तथापितो हुआ नाई क्लान्त ...' यह गीत उन्हें बहुत पसन्द है। इस गीत में उनका जीवन दर्शन छिपा हुआ है - सा गर संगम में कितना तैरा मैं, फिर भी मैं थका नहीं। निरन्तर जूझते रहने का जीवन दर्शन।

अब वे गाने लगे - ‘बूकू हूम-हूम करे, घन घम-घम करे ओ आई ...' गुलजार ने फिल्म ‘रूदाली' के लिए इसका अनुवाद किया है। हिन्दी में भी उन्होंने गाया - ‘दिल हूम-हूम करे ...'। यह गीत जब खत्म हुआ तो उन्होंने कहा - ‘एब्सट्रेक्ट पेंटिंग्स हो सकती है, एब्सट्रेक्ट फिल्म हो सकती है तो एब्सट्रेक्ट गीत क्यों नहीं हो सकता ...'। इसके साथ ही अपना मशहूर गीत गाने लगे - ‘विमूर्त मोर निशाति जेन मौनतार सूतारे बोवपा एखनि नीला चादर ...' मेरी विमूर्त रात मानो मौन के धागे से बुनी हुई एक नीली चादर है ...।

उन्होंने कहा - ‘मुझे पता चला है कि आज के इस कार्यक्रम को इण्टरनेट के जरिए दुनिया भर
में प्रसारित किया जा रहा है। मैं बाहर बसे असम के लोगों के लिए, भारतवासियों के लिए,
विश्ववासियों के लिए गाना चाहता हूं' - वे गाने लगे - ‘वी आर इन द सेम बोट ब्रदर, वी आर इन
द सेम बोट ब्रदर ...' फिर इसी गीत को असमिया में और बांग्ला में भी गाकर सुनाया - ‘आमि
एखनरे नावरे यात्री, आमि यात्री एखनरे नावरे ...'।

उन्होंने विनीत होकर दर्शकों को प्रणाम किया। एक घण्टे तक मंत्रमुग्ध दर्शक उन्हें देख रहे थे - सुन रहे थे। इन दर्शकों में चार पीढ़ियां थीं - असम की चार पीढ़ियों के दिल में भूपेन हजारिका बसते हैं।

प्रेम, विषाद, विरह, करुणा - हर रस के गीत को उन्होंने रचा है, जनमानस के मन में घुल-मिल गये हैं। यही कारण है कि केवल उन्हें एक बार देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं।

Dark Saint Alaick
05-11-2011, 06:08 PM
असम के लोकसंगीत के माध्यम से हिंदी फिल्मों में जादुई असर पैदा करने वाले ‘ब्रह्मपुत्र के कवि’ भूपेन हजारिका ने ‘दिल हूम हूम करे’ और ‘ओ गंगा बहती हो’ में अपनी विलक्षण आवाज से लाखों लोगों को अपना प्रशंसक बना लिया । पेशे से कवि, संगीतकार, गायक, अभिनेता, पत्रकार, लेखक, निर्माता और स्वघोषित ‘यायावर’ हजारिका ने असम की समृद्ध लोकसंस्कृति को गीतों के माध्यम से पूरी दुनिया में पहुंचाया । उनके निधन के साथ ही देश ने संस्कृति के क्षेत्र की एक ऐसी शख्सियत खो दी है, जो ढाका से लेकर गुवाहाटी तक में एक समान लोकप्रिय थी ।
सादिया में 1926 में शिक्षकों के एक परिवार में जन्मे हजारिका ने प्राथमिक शिक्षा गुवाहाटी से, बीए बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से और पीएचडी :जनसंचार: कोलंबिया विश्वविद्यालय से की । उन्हें शिकागो विश्वविद्यालय से फैलोशिप भी मिली । अमेरिका में रहने के दौरान हजारिका जाने-माने अश्वेत गायक पॉल रोबसन के संपर्क में आए, जिनके गाने ‘ओल्ड मैन रिवर’ को हिंदी में ‘ओ गंगा बहती हो’ का रूप दिया गया, जो वामपंथी कार्यकर्ताओं की कई पीढियों के लिए एक तरह से राष्ट्रीय गान रहा । कई साल पहले एक राष्ट्रीय दैनिक को दिए साक्षात्कार में हजारिका ने अपने गायन का श्रेय आदिवासी संगीत को दिया था । दादासाहब फाल्के पुरस्कार विजेता हजारिका ने इस साक्षात्कार में कहा था, ‘‘मैं लोकसंगीत सुनते हुए ही बड़ा हुआ और इसी के जादू के चलते मेरा गायन के प्रति रुझान पैदा हुआ । मुझे गायन कला मेरी मां से मिली है, जो मेरे लिए लोरियां गातीं थीं । मैंने अपनी मां की एक लोरी का इस्तेमाल फिल्म ‘रुदाली’ में भी किया है ।’’
उन्होंने अपना पहला गाना ‘विश्व निजॉय नोजवान’ 1939 में 12 साल की उम्र में गाया । असमी भाषा के अलावा हजारिका ने 1930 से 1990 के बीच कई बंगाली और हिंदी फिल्मों के लिए गीतकार, संगीतकार और गायक के तौर पर काम किया । उनकी लोकप्रिय हिंदी फिल्मों में लंबे समय की उनकी साथी कल्पना लाजमी के साथ की ‘रुदाली’, ‘एक पल’, ‘दरमियां’, ‘दमन’ और ‘क्यों’ शामिल हैं। हजारिका को ‘चमेली मेमसाब’ के संगीतकार के तौर पर 1976 में सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का पुरस्कार दिया गया। इसके अलावा उन्हें अपनी फिल्मों ‘शकुंतला’, ‘प्रतिध्वनि’, और ‘लोटीघोटी’ के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार भी दिया गया । साल 1967 से 1972 के बीच असम विधानसभा के सदस्य रहे हजारिका को 1977 में पद्मश्री से नवाजा गया। इस महान कलाकार और एक बेहतरीन इंसान को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि !

arvind
05-11-2011, 06:10 PM
8 सितम्बर, 1926 को भूपेन हजारिका का जन्म शदिया में हुआ। नाजिरा निवासी नीलकान्त हजारिका गुवाहाटी के कॉटन कॉलेज में पढ़ते थे और अपने सहपाठी अनाथबन्धु दास के घर में रहते थे। अनाथबन्धु अच्छे गायक और संगीतकार थे। सितार बजाते थे। टाइफाइड की वजह से केवल 23 वर्ष की उम्र में अनाथबन्धु की मौत हो गयी। अनाथबन्धु की मां ने अपनी बेटी शान्तिप्रिया का विवाह नीलकान्त हजारिका से करवा दिया। बी. ए. की पढ़ाई पूरी करने के बाद नीलकान्त हजारिका को शदिया के एम. ई. स्कूल में शिक्षक की नौकरी मिली। विवाह के दो वर्ष बाद ही भूपेन पैदा हुए।

तब शदिया अंचल ब्रिटिश पोलटिकल एजेण्ट के अधीन था। भूपेन के पिता पोलटिकट एजेण्ट के घर में ट्यूशन पढ़ाते थे। प्रसव के समय शान्तिप्रिया को काफी तकलीफ हुई थी। वहां के एकमात्र मेडिकल ऑफिसर को बुलाया गया। उसने कहा कि ‘फोरसेप डिलीवरी' करनी होगी। इसका मतलब था कि शिशु के सिर का आकार बड़ा था और सिर को तोड़कर प्रसव किया जाना था। डॉक्टर ने नीलकान्त हजारिका से पूछा था, ‘आपको बच्चा चाहिए या पत्नी ?' ‘सम्भव हो तो दोनों को बचा लें, नहीं तो बच्चे की मां को बचा लें।' नीलकान्त हजारिका ने जवाब दिया था। परन्तु सिर तोड़ने की जरूरत नहीं हुई। भूपेन हजारिका इस तरह दुनिया में आये।

असम के पूर्वी छोर में स्थित शदिया उस समय एक दुर्गम क्षेत्र था, जहां आदिवासी जनजाति के लोग रहते थे। भोले-भाले जनजातीय लोगों के साथ शिक्षक नीलकान्त हजारिका का आत्मीय सम्बन्ध था। सामान्य उपहारों के बदले जनजातीय लड़कियां शान्तिप्रिया के साथ घरेलू कार्यों में हाथ बंटाया करती थीं। लड़कियां बालक भूपेन को बहुत प्यार करती थीं।
पोलटिकल एजेंट को जब पता चला कि शिक्षक नीलकान्त हजारिका के घर पुत्र ने जन्म लिया है तो उसने लकड़ी की गाड़ी बच्चे को घुमाने के लिए उपहार के रूप में दिया। जनजातीय लड़कियां उस गाड़ी पर बालक भूपेन को घुमाती फिरतीं। एक दिन वे बालक को घुमाने ले गयीं तो शाम को लौटकर नहीं आयीं। रात हो गयी। नीलकान्त और शान्तिप्रिया चिन्तित और परेशान हो उठे। अगली सुबह लड़कियां बालक भूपेन को लेकर लौटीं। उन्होंने बताया कि बस्ती की औरतें उसे अपने पास रखना चाहती थीं। शान्तिप्रिया ने पूछा - ‘वह तो मां का दूध पीता है। दूध के बिना वह रात भर कैसे रह पाया ?'

लड़कियों ने खिलखिलाकर उत्तर दिया - ‘बस्ती की कई औरतों ने भूपेन को अपना दूध पिलाया।'
भूपेन हजारिका की नानी ने एक दिन सपना देखा। नानी ने बताया - ‘मैंने एक सपना देखा है। मेरा पुत्र अनाथबन्धु दुबारा शान्ति के गर्भ में लौट आया है। सपने में उसने मुझसे कहा - मां, तू क्यों रो रही है, मैं फिर तुम्हारे परिवार में लौटकर आ रहा हूं। अपनी बहन के गर्भ में आ रहा हूं। नानी जब तक जीवित रहीं, वह भूपेन को अनाथबन्धु कहकर पुकारती रहीं।

arvind
05-11-2011, 06:28 PM
एम. ई. स्कूल के शिक्षक नीलकान्त हजारिका बाद में सरकारी अधिकारी बन गये थे और उनका तबादला असम के कई शहरों में होता रहा था। बचपन के शुरुआती कुछ साल भूपेन हजारिका ने गुवाहाटी में अपने ननिहाल में गुजारे थे। गुवाहाटी के भरलुमुख इलाके में नाना का घर था। विभिन्न भाषा-भाषी लोग रहते थे। बंगाली लोगों का कीर्तन कार्यक्रम देखने भूपेन जाते। वहीं थाने में बिहारी सिपाही रहते थे, जो भोजपुरी में गाया करते थे। उनके गीतों को भी भूपेन मन लगाकर सुना करते थे। मां के साथ ‘ओजापाली' (महापुरुष शंकरदेव द्वारा प्रारम्भ की गयी नृत्यनाटिका की परम्परा) देखने जाते थे।

नाना के घर के पास से छोटी नदी ‘भरलू' बहती थी, जो ब्रह्मपुत्र में मिलती थी। सबको तैरते हुए देख भूपेन का जी चाहता कि वह भी तैरें, मगर तैरना नहीं आता था। एक दिन भूपेन ने देखा कि एक छोटी लड़की नदी में नहा रही है। किनारे पर खड़े किसी आदमी ने कहा कि वह डूब जाएगी। भूपेन फौरन नदी में कूद गये। बच्ची ने उन्हें जकड़ लिया। दोनों डूबने लगे। तभी एक बिहारी पुलिसवाले ने उन्हें पानी से बाहर निकाला। बाहर निकालने के बाद पुलिस वाले ने भूपेन को धमकाया कि आइन्दा इस तरह की हरकत नहीं करे। उसकी डांट सुनने के बाद बालक भूपेन ने तय कर लिया कि वह तैरना अवश्य सीखेगा। अगले दिन वह एक बांस की सहायता से तैरना सीखने लगा। एक घण्टे तक कोशिश करने के बाद वह तैरना सीख गया। जब तैरना आ गया तो भूपेन ने तय किया कि रेलवे के पुल पर उस समय खड़ा होकर पानी में छलांग लगाने में बड़ा मजा आएगा, जब रेलगाड़ी आ रही होगी। उसने वैसा ही किया। कामाख्या स्टेशन से रेलगाड़ी गुवाहाटी की तरफ आ रही थी। तभी भूपेन पानी में कूद गया। तैरते हुए किनारे के एक पेड़ के पास पहुंचा। रेलगाड़ी आगे जाकर रुक गयी। गार्ड ने उतर कर फटकारा, ‘मरना चाहता है क्या ?' भूपेन भागता हुआ नानी के पास पहुंच गया और सारा हाल कह सुनाया।

गार्ड ने जो फटकारा था, उससे बालक भूपेन नाराज हो गया था। उसने तय किया कि रेलगाड़ी को पटरी से गिराना होगा, तब उस गार्ड को सजा मिल जाएगी। अगले दिन भूपेन ने रेल की पटरी पर पत्थरों को ढेर के रूप में रख दिया। इसके बाद घर में आकर खाट के नीचे छिप गया और बेसब्री के साथ रेलगाड़ी की प्रतीक्षा करने लगा। रेलगाड़ी की आवाज सुनाई पडी। भूपेन के दिल की धड़कन तेज हो गयी। रेलगाड़ी तेजी से गुजर गयी। पटरी से रेलगाड़ी उतरी नहीं। बालक भूपेन ने दुबारा वैसी कोशिश नहीं की।

arvind
05-11-2011, 06:29 PM
नीलकान्त हजारिका का जल्दी-जल्दी तबादला होने का प्रभाव बालक भूपेन की पढ़ाई पर पड़ना स्वाभाविक था। 1933 में गुवाहाटी के सोनाराम स्कूल की तीसरी कक्षा में भूपेन का दाखिला हुआ। 1935 में धुबड़ी के प्राइमरी स्कूल में भूपेन का दाखिला हुआ। छह महीने बाद ही भूपेन का दाखिला गुवाहाटी के काटन कॉलेजिएट स्कूल में करवाया गया। जहां से पांचवीं की पढ़ाई पूरी करने के बाद भूपेन को पिता के साथ तेजपुर जाना पड़ा। तेजपुर हाई स्कूल की छठी कक्षा में भूपेन का दाखिला हुआ। 1936 से 194॰ तक भूपेन तेजपुर में रहा और ये चार वर्ष उसके जीवन के अत्यन्त ही महत्वपूर्ण वर्ष साबित हुए, क्योंकि इन्हीं चार वर्षों में भूपेन के भीतर की प्रतिभा को उजागर होने का मौका मिला।

तेजपुर में उस समय असमिया साहित्य-संस्कृति के दो युग पुरुष ज्योतिप्रसाद अग्रवाल और विष्णु राभा सक्रिय थे। उनके प्रयासों से तेजपुर में सांस्कृतिक वातावरण बन गया था। पद्मधर चालिहा, पार्वती प्रसाद बरुवा जैसे गीतकार-संगीतकार थे। इन सबके सम्पर्क में आने के साथ ही भूपेन के भीतर का कलाकार पल्लवित-पुष्पित होने लगा। बंगाली मंच पर रवीन्द्र संगीत प्रतियोगिता हुई। तब भूपेन को केवल एक रवीन्द्र गीत गाना आता था, जिसे गाकर भूपेन ने प्रथम पुरस्कार प्राप्त किया। पुरस्कार के रूप में सोने का पदक मिला। पांच वर्ष की उम्र से भूपेन हारमोनियम बजाना सीखने लगा था। तेजपुर में विष्णुराभा ने शास्त्रीय संगीत की बुनियादी बातें सिखाई।

असम में तब लोकगीतों एवं सत्रों के नृत्य-संगीत को प्रचारित करने का कोई प्रयास नहीं हुआ था। बांग्ला भाषा के तर्ज पर फूहड़ और सस्ते गीतों का प्रचलन हो गया था। ज्योतिप्रसाद और विष्णुराभा इस माहौल को बदलने की कोशिश कर रहे थे। वे असमिया लोकगीतों को जनप्रिय बनाने का आन्दोलन चला रहे थे। संगीत के क्षेत्र में नये-नये प्रयोग कर रहे थे। विष्णु राभा गजल के अंदाज में असमिया में गीत लिखते थे और भूपेन को सिखाते थे। एक ऐसा ही गीत था ‘आजली हियार माजे बिजुली कण मारे, पूवर दुवार भेलि आहे ताई किरण ढालि, हिया जे मोर चमके ...' (भोले दिन में बिजली की तरह वाण मारती है, पूरब का दरवाजा खोलकर वह किरणें फैलाती है, मेरे दिल में रोशनी फैल जाती है)। भूपेन छोटा था और ऐसे गीतों का भावार्थ समझ पाने में असमर्थ था। इसके बावजूद मंच पर वह गाने लगा था। भविष्य के कलाकार को खाद-पानी मिलने लगा था। भूपेन बचपन में ही सोचने लगा था कि क्या गीत से समाज का कुछ उपकार किया जा सकता है ? स्कूल में छठी कक्षा में पढ़ते हुए उसने पहला गीत लिखा - ‘कुसुम्बर पुत्र श्रीशंकर गुरु'। 1939 में एक और गीत लिखा - मई अग्निकुमार फिरिंगीत'। फिर लिखा - ‘कंपि उठे किय ताजमहल'।

तेजपुर के वाण रंगमंच पर आये दिन सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता था। भूपेन के पिता भी नाटकों में अभिनय करते थे। ज्योतिप्रसाद पिआनो बजाते थे। भूपेन मां के साथ कार्यक्रम देखने जाता और महिलाओं की गैलरी में बैठकर कार्यक्रम देखता। ज्योतिप्रसाद के व्यक्तित्व का उस पर गहरा प्रभाव पड़ रहा था। तभी भूपेन को पता चला कि ज्योतिप्रसाद ने असमिया की पहली फिल्म ‘जयमती' बनायी थी, हालांकि तब तक फिल्म प्रदर्शित नहीं हो पायी थी। ज्योतिप्रसाद ने वाण रंगमंच को जीवन्त रूप प्रदान किया था। अधिकतर लोग केवल उनकी एक झलक देखने के लिए आते थे। जब तक ज्योतिप्रसाद से परिचय नहीं हुआ था तब तक भूपेन के मन में बड़ी इच्छा थी कि किसी तरह ज्योतिप्रसाद के करीब पहुंच जाए।

महापुरुष शंकरदेव (असम के प्रख्यात वैष्णव सन्त) की जयन्ती के अवसर पर भूपेन की मां ने उसे धोती-कुर्ता पहनाकर जयन्ती कार्यक्रम में एक ‘बरगीत' गाने के लिए भेज दिया। मां ने भूपेन को ‘बरगीत' गाना सिखाया था - ‘जय जय यादव जलनिधि यादव धाता'। इससे पहले केवल पांच साल की उम्र में भूपेन ने गुवाहाटी में मंच पर पहली बार गीत गाया था। तब असमिया साहित्य के जनक लक्ष्मीनाथ बेजबरुवा ने मंत्रमुग्ध होकर उसे चूम लिया था। दूसरी बार धुबड़ी में भूपेन ने गाया था। तीसरी बार तेजपुर में बरगीत का गायन प्रस्तुत कर भूपेन ने भूरि-भूरि प्रशंसा अर्जित की। लोग कहने लगे कि नीलकान्त हजारिका का लड़का मीठे सुर में बरगीत गाता है।

तेजपुर के घर में गुवाहाटी से आने वाले मेहमान ठहरते थे। भूपेन तब आठवीं के छात्र थे, जब उनका परिचय गुवाहाटी से आये कमलनारायण चौधरी से हुआ। कमल बहुत अच्छे गायक थे। उन्होंने भूपेन को एक गजल गाना सिखा दिया।

भूपेन तब छठी में था, जब एक दिन ज्योतिप्रसाद अग्रवाल, विष्णु राभा और फणि शर्मा भूपेन के पिता से मिलने आये। ये तीनों व्यक्ति तेजपुर के सांस्कृतिक आकाश के झिलमिलाने वाले सितारे थे। उन्होंने बताया कि भूपेन को कलकत्ता ले जाना चाहते हैं और उसकी आवाज में रिकार्ड तैयार करना चाहते हैं।

दो दिन दो रात का सफर तय कर भूपेन कलकत्ता गये। रिकार्डिंग कम्पनी एचएमवी के स्टुडियो में भूपेन ने गाया। बालक भूपेन के कद के हिसाब से माइक ऊंची थी, इसलिए दो लकड़ी के बक्से जोड़कर भूपेन को उस पर खड़ा कर दिया गया था। ‘जयमती' और ‘शोणित कुंवरी' फिल्म के लिए नायिका की आवाज में भूपेन ने गीत रिकार्ड करवाए। भूपेन को ‘यंगेस्ट आर्टिस्ट ऑफ हिज मास्टर्स व्यॉइस ऑफ इण्डिया रिकार्ड संगीत' का सम्मान मिला। गले में सोने का मेडल पहनकर भूपेन ने जो तस्वीर खिंचवाई उसे बंगाल की ‘रिकार्ड संगीत' पत्रिका ने आवरण पर प्रकाशित किया। इससे पहले मास्टर मदन ने कम उम्र में गाने का कीर्तिमान स्थापित किया था। फिल्मों में गाने रिकार्ड हो गये तो ज्योतिप्रसाद ने तय किया कि दो गाने स्वतंत्र रूप से भूपेन की आवाज में रिकार्ड किए जाएं। विष्णु राभा ने गीत रचा और आधे घण्टे में धुन तैयार की और रिकार्डिंग करवा दी। इससे पहले असमिया गानों के इक्के-दुक्के रिकार्ड निकले थे। पहला रिकार्ड अच्छा लगा तो ज्योतिप्रसाद ने भूपेन की आवाज में दूसरा रिकार्ड भी तैयार करवा दिया।

कलकत्ता से लौटकर भूपेन ने परीक्षा दी और उत्तीर्ण हुए। गणित में खराब नम्बर मिले। शिक्षकगण भी भूपेन को अजीब नजरों से देखने लगे - कैसा लड़का है, जो पढ़ाई-लिखाई छोडकर गाने रिकार्ड करवा रहा है। भूपेन के पिता स्वयं शिक्षक थे, इसलिए घर पर भूपेन को पढ़ाते थे। घर में साहित्यिक पत्रिका ‘जयन्ती' और ‘असमिया' आती थी। भूपेन उन पत्रिकाओं को पढ़ते थे और कुछ लिखने की छटपटाहट उनके भीतर होने लगी थी। तेजपुर गवर्नमेण्ट हाई स्कूल की हस्तलिखित पत्रिका के लिए भूपेन ने ‘अग्नियुगर फिरिंगति' गीत की रचना की। भूपेन के पिता ने चार हजार दो सौ रुपए में एक फोर्ड कार खरीदी थी और एक गैरेज बनाया था। भूपेन उसी गैरेज में बैठकर आरम्भिक साहित्य साधना करने लगे। घर में एक विशाल पलंग पर माता-पिता और भाई-बहनों के साथ भूपेन सोते थे। जब पिता को पता चला कि भूपेन गैरेज में बैठकर पढ़ता-लिखता है तो उन्होंने भूपेन के लिए एक अलग कमरे की व्यवस्था कर दी। भूपेन ने पिता से वादा किया कि एकान्त पाकर वह मन लगाकर पढ़ाई करेंगे। मगर पिता ने भांप लिया कि अलार्म बजने पर भूपेन मां का उबला हुआ अण्डा खा लेते हैं और फिर रजाई में दुबक कर सो जाते हैं। पिता ने भूपेन को रात में उबला हुआ अण्डा देने पर रोक लगा दी।

शुरू में भूपेन का प्रिय विषय इतिहास था। इतिहासकार पद्मनाथ गोहाईंबरुवा से मिलने के लिए भूपेन अक्सर जाते थे। इसी तरह इतिहास के मर्मज्ञ राजमोहन नाथ भूपेन के पिता से मिलने के लिए आते थे। उन्होंने भूपेन से कहा था - एक पत्थर को उठाना, पूछना, पत्थर तुमसे ढेर सारी बातें करेगा। वह बताएगा - मेरे सीने से ह्वेनसांग गुजरा था, मेरे सीने में उषा ने स्नान किया था। पिता ने भूपेन को ‘बुक ऑफ नॉलेज' के दस खण्ड खरीद कर दिये थे। इसके अलावा हिटलर की आत्मकथा का बांग्ला अनुवाद का बांग्ला अनुवाद पढ़कर काफी प्रभावित हुए थे। बालक भूपेन पर जिस व्यक्ति का सबसे गहरा प्रभाव पड़ा था, वह थे ज्योतिप्रसाद। जीवन के प्रति एक सर्वांगीण दृष्टिकोण विकसित करने में ज्योतिप्रसाद ने उल्लेखनीय योगदान किया। तेजपुर में भूपेन चार साल रहे। इन चार सालों में भविष्य के भूपेन के निर्माण के लिए ठोस बुनियाद रखी जा चुकी थी।

arvind
05-11-2011, 06:29 PM
1940 में मैट्रिक की पढ़ाई पूरी कर भूपेन ने तेजपुर को अलविदा कर दिया। गुवाहाटी के कॉटन कॉलेज में भूपेन को दाखिला मिला। तब भूपेन मामा के घर में रहकर पढ़ाई करने लगे। भूपेन ने केवल 13 साल 9 महीने की उम्र में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। वास्तव में उनकी पढ़ाई तीसरी कक्षा से शुरू हुई थी और उनके पिता ने उनकी उम्र एक वर्ष बढ़ाकर लिखवाई थी। हाफ पैंट पहनकर जब भूपेन कॉलेज गए तो चौकीदार ने पूछा-- ‘क्या तुम कॉटन कॉलेजिएट स्कूल में पढ़ते हो ?' भूपेन ने कहा-- ‘मैं कॉलेज में पढ़ने आया हूं।' चकित होकर चौकीदार ने पूछा-- ‘क्या तुमने मैट्रिक पास कर लिया है ?' भूपेन ने कहा-- ‘हां !' इसी तरह कक्षा में अध्यापक पी. सी. राय ने नन्हें भूपेन को देखकर वही सवाल पूछा। फिर जब भूपेन ने दृढ़ता के साथ बताया कि वह मैट्रिक उत्तीर्ण कर कॉलेज में पढ़ने आये हैं, तब जाकर पी. सी. राय को यकीन हुआ।

कॉलेज में नवागत विद्यार्थियों के लिए स्वागत समारोह आयोजित हुआ। भूपेन को पिता ने एक भाषण अंग्रेजी में लिखकर दिया था। जब भूपेन को मंच पर बुलाया गया तो भाषण भूलकर उन्होंने गाना सुनाया -

दुरनिर हरिणी सरू गांवखनि

तार एटि पंजाते सरू बांधेर मुखबनि ...

विद्यार्थियों के साथ ही अध्यापकगण भी भूपेन का गायन सुनकर मंत्रमुग्ध हो उठे। पी. सी. राय, वाणीकान्त काकती, लक्ष्मी चटर्जी, डॉ. सूर्य कुमार भुइयां आदि अध्यापकों ने भूपेन को आशीर्वाद दिया। भूपेन कॉलेज में लोकप्रिय हो गये।

भूपेन संगीत विषयक पुस्तकें ढूंढ-ढूंढकर पढ़ते थे। भातखण्डे की पुस्तक का बांग्ला अनुवाद उन्होंने पढ़ा। इसके अलावा लक्ष्मीराय बरुवा लिखित ‘संगीत कोष' का भी उन्होंने अध्ययन किया। साहित्यिक पत्रिका ‘आवाहन' में प्रकाशित होने वाले संगीत विषयक लेखों को भी वह गौर से पढ़ते थे।


भूपेन के पिता गुवाहाटी आ गये थे और एक छोटे से किराये के घर में भूपेन अपने माता-पिता के साथ रहने लगे थे। उसी समय द्वितीय विश्वयुद्घ छिड गया था और कॉटन कॉलेज अमेरिकी सैनिकों का अड्डा बन गया था। अचानक महंगाई बढ़ गयी थी। चावल पांच रुपए प्रति सेर बिकने लगा था। उधर पिता सेवानिवृत्त होने वाले थे और पेंशन के रूप में उन्हें 145 रुपये प्रतिमाह मिलने वाले थे। तब भूपेन आठ भाई-बहन थे। इतने बड़े परिवार के भविष्य का प्रश्न था। पिता ने जीवन भर दूसरों की मदद की थी। कभी अपने परिवार के सुरक्षित भविष्य के लिए कोई बचत नहीं की थी, न ही जमीन-जायदाद खरीदी थी।

युद्घ के कारण जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो गया था। 1942 में भूपेन के पिता सेवानिवृत्त हुए। परिवार का गुजारा चलना मुश्किल हो गया। उस दौरान भूपेन को भयंकर अभाव की स्थिति का सामना करना पड़ा। गोपीनाथ बरदलै को भी फाकाकशी की स्थिति से गुजरना पड़ रहा था। भूपेन के पिता के साथ उनकी दोस्ती थी। वे आपस में चावल बांटते थे, ताकि दोनों के परिवार के चूल्हे जलते रहें। पिता ने भूपेन से कहा कि उसे बनारस जाकर आगे की पढ़ाई करनी होगी। कलकत्ता में बम गिराया गया था और वहां के हालात ठीक नहीं थे। इसीलिए पिता ने भूपेन को बनारस भेजने का फैसला किया। पिता ने कहा कि वह प्रतिमाह भूपेन को 6॰ रुपये भेजेंगे। 6॰ रुपये से ही भूपेन को अपने रहने, खाने और पढ़ने का खर्च चलाना पड़ेगा।

arvind
05-11-2011, 06:31 PM
सन् 1942 में भूपेन बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए आ गये। तब बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की ख्याति दुनिया भर में फैली हुई थी। सर्वपल्ली राधकृष्णन विश्वविद्यालय के कुलपति थे। स्वतंत्रता आन्दोलन के वरिष्ठ नेता अक्सर भाषण देने के लिए आते थे। समावर्तन समारोहों में आचार्य कृपलानी, पण्डित जवाहरलाल नेहरू, तेज बहादुर सप्रू, मौलाना अब्दुल कलाम आजाद आदि नेताओं का वक्तव्य भूपेन ने सुना था। जयप्रकाश नारायण विश्वविद्यालय में छिपकर रहते थे। आचार्य नरेन्द्रदेव ने विश्वविद्यालय में सोशलिज्म फोरम का गठन किया था। देशप्रेम की जो लहर चल रही थी, भूपेन पर उसका गहरा प्रभाव पड़ा था। बनारस पहुंचकर भूपेन का हिन्दी और उर्दू साहित्य के साथ परिचय हुआ था। मुंशी प्रेमचन्द, फिराक गोरखपुरी आदि की रचनाएं भूपेन पढ़ने लगे थे। शास्त्रीय संगीत के नये रूप से भूपेन का साक्षात्कार हुआ था, भूपेन गजल गाने लगे थे।

विश्वविद्यालय में अनुसूचित जाति के विद्यार्थियों को मासिक शुल्क नहीं देना पड़ता था। भूपेन चाहते तो आवेदन पत्र देकर मासिक सात रुपये बचा सकते थे। पर उन्होंने वैसा नहीं किया। उनके मन में जिद थी कि किसी प्रकार की अनुकम्पा लेकर आगे नहीं बढ़ना है। जो भी पाना है, अपनी प्रतिभा और मेहनत के सहारे ही पाना है।

उसी दौरान बनारस की एक जनसभा को सम्बोधित करते हुए गोपीनाथ बरदलै ने हिन्दी में कहा था - हमारे असम को अगर लेना चाहते हैं जिन्ना साहब, पाकिस्तान का हिस्सा बनाना चाहते हैं तो हम कहते हैं कि वे आसमान का चांद भी ला सकते हैं, लेकिन असम को कभी भारत से अलग नहीं कर सकते।

बनारस में पढ़ रहे असमिया विद्यार्थियों ने ‘असम एसोसिएशन' का गठन किया था, जिसकी बैठकों में भूपेन शामिल होते थे। एसोसिएशन की वार्षिक पत्रिका में भूपेन का लेख प्रकाशित हुआ था।

बनारस में भूपेन चार वर्षों तक रहे। 1946 में राजनीतिशास्त्र विषय से उन्होंने एम.ए.की परीक्षा उत्तीर्ण की। सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने भूपेन से कहा-- यू आर दी यंगेस्ट इट सिम्स ! भूपेन ने कहा-- यस सर। बीस साल की उम्र में भूपेन ने एम.ए.की पढ़ाई पूरी कर ली थी।

बनारस की दालमण्डी गली में कोठे पर अक्सर तवायफों का गायन सुनने के लिए जाते थे। कोठे पर जाने के लिए पच्चीस रुपये देने पड़ते थे। भूपेन अपने साथियों के साथ पांच-पांच रुपये का चन्दा देकर इस राशि का इन्तजाम करते थे। भूपेन की उम्र कम थी और तवायफें अक्सर उनका मजाक उडाती थीं - देवर, तू क्यों आया ! भूपेन कजरी और गजल सुनने के लिए उनके मजाक की तरफ ध्यान नहीं देते थे।

इसी दौरान भूपेन के मन में तूफान मचा हुआ था - भविष्य को लेकर। दस भाई-बहन का परिवार। पिता को 145 रुपये पेंशन मिल रहा था। भूपेन सोचते थे कि एम. ए. पढ़ने के बाद पत्रकारिता करेंगे। कानून की पढ़ाई करेंगे। यह सोचकर भूपेन ने हार्डिंग यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया था। अर्ल लॉ कॉलेज में भी दाखिला लिया था। कलकत्ता गये तो वहां भी लॉ कॉलेज में दाखिला लिया था। शुरू से मन में इच्छा थी - नौकरी नहीं करनी है, गाते रहना है। भूपेन सोचते थे कि ‘नतून असमिया' या ‘असम ट्रिब्यून' में पत्रकारिता करेंगे। कभी यह नहीं सोचा था कि केवल संगीत उनकी जीविका का आधार बनेगा।

परिवार में अभाव की स्थिति गम्भीर होती जा रही थी। जब भूपेन एम.ए.में पढ़ रहे थे तब उनके सबसे छोटे भाई समर हजारिका का जन्म हुआ था। भूपेन ने प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए नहाते हुए शेक्सपीयर की भाषा में चिल्लाकर कहा था - दस फार एण्ड नो फर्दर। बदले में भूपेन को पिता का चांटा खाना पड़ा था। भाई अमर हजारिका रेडियो इंजीनियरिंग पढ़ने के लिए पूना जाना चाहता था। एक भाई बॉटनी की पढ़ाई कर रहा था। खर्च का इन्तजाम भूपेन को करना था। बहन सुदक्षिणा का विवाह करवाना था।

उस समय देश स्वतंत्रता की प्रसव पीड़ा से गुजर रहा था। भूपेन पर कार्ल माक्र्स, महात्मा गांधी का प्रभाव पड़ रहा था, दूसरी तरफ असम के शंकरदेव, ज्योतिप्रसाद आगरवाला और विष्णुप्रसाद राभा का प्रभाव पड़ रहा था। धरती को सुन्दर बनाने का सपना दिमाग में कौंध रहा था। कला को समाज परिवर्तन का हथियार बनाने का संकल्प दृढ़ होता जा रहा था। आगरा में ताजमहल देखकर उसी दौरान भूपेन ने लिखा था - ‘कांपि उठे किय ताजमहल ...'।

सन् 1948 में असम में भारतीय गण नाट्य संघ की स्थापना हुई। भूपेन संघ के साथ जुड गये। ज्योतिप्रसाद आगरवाला, हेमांग विश्वास, विष्णुप्रसाद राभा आदि सांस्कृतिक कर्मियों के साथ भूपेन समाज परिवर्तन के लिए संस्कृति के हथियार का इस्तेमाल करने में जुट गये थे।

गुवाहाटी लौटकर परिवार की तंगहाली को देखते हुए सन् 1947 में भूपेन गुवाहाटी के बी. बरुवा कॉलेज में अध्यापक की नौकरी करने लगे थे। इसके बाद उन्हें आकाशवाणी में नौकरी मिल गयी थी। डेढ साल तक आकाशवाणी में नौकरी करने के बाद भूपेन को अमेरिका में मास कम्युनिकेशन विषय में शोध करने के लिए छात्रवृत्ति मिल गयी थी। माता-पिता ने प्रोत्साहन दिया था - जाओ, शोध करके लौट आओ। फिर जो करना होगा, करना। भूपेन अमेरिका जाने के लिए तैयार हो गये थे।

arvind
05-11-2011, 06:31 PM
स्वतंत्रता के बाद गोपीनाथ बरदलै असम के प्रथम प्रधानमंत्री (उस समय असम में मुख्यमंत्री नहीं प्रधानमंत्री होते थे) बने थे। उनके प्रयास से भूपेन को अमेरिका जाने के लिए छात्रवृत्ति मिली थी। सितम्बर 1949 में भूपेन की यात्रा शुरू हुई। गुवाहाटी से डेकोटा जहाज में सवार होकर भूपेन कलकत्ता पहुंचे। फिर समुद्र के मार्ग से तेरह दिन की यात्रा कर मार्स बन्दरगाह तक पहुंचे। जहां से रेलगाड़ी में सवार होकर पेरिस पहुंचे। पेरिस दर्शन करते हुए भूपेन कोलम्बिया विश्वविद्यालय पहुंच गये।

कोलम्बिया विश्वविद्यालय में भी भूपेन ने संगीत के जरिए सहपाठियों का दिल जीत लिया। भारतीय विद्यार्थियों के बीच भूपेन काफी लोकप्रिय हो गये। भूपेन ने देखा कि अधिकांश भारतीय विद्यार्थी अमीर परिवारों से ताल्लुक रखते थे। अमेरिका के मुक्त जीवन के साथ भूपेन का परिचय हुआ।

भूपेन के युवा जीवन में एक लड़की आयी थी, जो शिलांग में रहती थी। अमेरिका में भी भूपेन को उस लड़की की याद आती थी। अपने साथ भूपेन उसके खत लेकर गये थे। बीच-बीच में खत खोलकर पढ़ते थे। दिल में टीस होती थी। माता-पिता की भी याद आती थी।

इण्डियन स्टूडेण्ट एसोसिएशन का चुनाव हुआ और भूपेन को सचिव चुन लिया गया। दाखिला लेने से पहले अंग्रेजी ज्ञान का एक टेस्ट देना पड़ता था। भूपेन उस समय टेस्ट में प्रथम आये। अध्यापकों को आश्चर्य हुआ था कि जिस टेस्ट में फ्रांस, जर्मनी, आस्ट्रिया आदि देशों के विद्यार्थी शामिल हुए थे, उसमें भूपेन किस तरह प्रथम आ गये थे। पढ़ाई करते हुए भूपेन को इण्टरनेशनल हाउस में एक घण्टा लिफ्ट चलाने का काम मिल गया, जिसके बदले उन्हें चार डॉलर मिलते थे। इसके साथ ही भूपेन स्विमिंग पुल के बाहर कपड़ों की पहरेदारी का भी काम करते थे। गर्मी की छुट्टियों में हॉलीवुड जाकर पार्ट टाइम नौकरी करते थे।

भूपेन की दोस्ती केरल के छात्र राव से हुई थी, जो कम्युनिस्ट था। तब भारत में तेलंगाना कृषि विद्रोह चल रहा था। राव विद्यार्थियों से चन्दा लेकर तेलंगाना भेजता था। भूपेन गीत गाकर पैसे जुटाने लगे और राव के उद्देश्य की सहायता करने लगे।

भूपेन को केवल दो साल के लिए छात्रवृत्ति मिली थी। राजनीतिशास्त्र में एम. ए. होने के कारण उन्हें नये सिरे से मास कम्युनिकेशन विषय में एम.ए.की पढ़ाई करनी पड़ी थी। पी.एच.डी करने का अर्थ था ज्यादा समय अमेरिका में ठहरना। वैसी स्थिति में उन्हें छात्रवृत्ति का पैसा नहीं मिलने वाला था। उन्हें प्रतिमाह दो सौ पचास डॉलर मिलता था। फिर भी किल्लत की स्थिति बनी रहती थी। उसी दौरान भूपेन ने एक गीत की रचना की थी - ‘शतिकार रूपकथा किबा जेन विसारि ...'।

जाकिर हुसैन की सिफारिश पर भूपेन संयुक्त राष्ट्र संघ के रॉबर्ट ट्रेस से मिले। रॉबर्ट ट्रेस ने दस महीने तक भूपेन को अपने सहायक का काम दिया। बदले में प्रतिमाह भूपेन को सौ डॉलर मिल रहे थे। अतिरिक्त डॉलर को भूपेन जमा कर रहे थे ताकि छात्रवृत्ति खत्म हो जाने पर उनकी पढ़ाई जारी रह सके।

विजयलक्ष्मी पण्डित राजदूत बनकर अमेरिका गयी थीं। भारतीय छात्र संघ के सचिव होने के नाते भारतीय दूतावास के कार्यक्रमों में भूपेन को आमंत्रित किया जाता था। 26 जनवरी के अवसर पर भारतीय दूतावास में एक सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया गया। उसमें भूपेन से एक कार्यक्रम पेश करने के लिए कहा गया। कार्यक्रम की तैयारी करने में प्रियंवदा पटेल नामक एक गुजराती युवती ने भूपेन की मदद की। प्रियंवदा सरदार वल्लभ भाई पटेल के परिवार से ताल्लुक रखती थी। इण्टरनेशनल रिलेशंस विषय की पढ़ाई कर रही थी। वह अपने माता-पिता के साथ अफ्रीका में रहती थी। एम. ए. की पढ़ाई पूरी कर वह अफ्रीका लौटने वाली थी। कुछ दिनों तक शान्ति निकेतन में रही थी। नृत्य में पारंगत थी। बांग्ला बोलना जानती थी। भूपेन गीत गाने वाले थे और प्रियंवदा नाचने वाली थी। रिहर्सल शुरू हो गया। भूपेन ने गीत चुना था - ‘ए जय रघुर नंदन ...' इस गीत पर प्रियंवदा को भावाभिनय करना था। इसके अलावा गरबा, रवीन्द्र संगीत आदि की तैयारी की गयी थी। भूपेन ने एक असमिया परिवार से मेखला-चादर का जुगाड किया ताकि कार्यक्रम के दिन प्रियंवदा मेखला-चादर पहनकर नृत्य पेश कर सके। धूप-अगरबत्ती जलाकर भूपेन ने बरगीत का गायन शुरू किया और प्रियंवदा नाचने लगी। दोनों प्रथम स्थान पर रहे। दोनों के नाम की धूम मच गयी। भारत में ‘इलस्ट्रेटेड वीकली' ने सचित्र समाचार प्रकाशित किया।

एक दिन बर्फ गिर रहा था। पैदल चलते हुए भूपेन गिर पड़े और बेहोश हो गये। चेहरे की हड्डी टूट गयी थी। अस्पताल में प्रियंवदा लगातार भूपेन की देखभाल करती रही थी। उसी दौरान भूपेन ने महसूस किया कि प्रियंवदा उनके प्रति लगाव अनुभव कर रही थी। प्रियंवदा के पिता डॉ. एम. एम. पटेल अमीर डॉक्टर थे। कम्पाला में उनका अस्पताल था। भूपेन जब स्वस्थ होकर लौटे तो सहपाठियों ने उन्हें प्रियंवदा के नाम पर छेड़ना शुरू कर दिया।

भूपेन बीच-बीच में रामकृष्ण मिशन जाते थे। प्रियंवदा भी मिशन जाने लगी। इसी दौरान भूपेन ने प्रियंवदा का ‘प्रियम' कहना शुरू कर दिया था और उसे असमिया बोलना सिखा दिया था।

अचानक एक दिन प्रियम ने भूपेन से कहा - ‘मैं एम. ए. की पढ़ाई करने के लिए चार साल के लिए यहां आयी थी। अब पापा ने वापस बुलाया है। जाने से पहले तुमसे विवाह करना चाहती हूं।'

भूपेन ने कहा, ‘मेरे भविष्य का कोई ठिकाना नहीं है। तुम चली जाओगी। मुझे तीन साल और पढ़ना होगा।' इसके अलावा भूपेन ने प्रियम को अपने खस्ताहाल परिवार के बारे में बताया। तीस रुपये के किराये के घर में दस भाई-बहनों का परिवार गुजारा करता है। पिताजी को 145 रुपये पेंशन के रूप में मिलते हैं।

प्रियम ने पूछा, ‘और कोई रुकावट है ?'

मैं एक लड़की को चाहता था। ये रहे उसके खत' - भूपेन ने खत प्रियम को पढ़ने के लिए दिया।

‘वह कहां है ?'

‘उसका विवाह हो चुका है।'

प्रियम ने कहा कि भूपेन गम्भीरता पूर्वक उसके विवाह के प्रस्ताव पर विचार करे।

arvind
05-11-2011, 06:32 PM
प्रियम ने भूपेन को बताया कि एक-एक हजार की दस साड़ियां लेकर एक अमीर युवक उसे विवाह का प्रस्ताव देने आया था। लड़का बम्बई में संयुक्त राष्ट्र संघ कार्यालय में काम करता था। प्रियम ने प्रस्ताव को ठुकरा दिया। रॉबर्ट केनेडी की पत्नी एथोलो प्रियम के साथ कोलम्बिया में पढ़ती थी। गर्मी की छुट्टियों में एथोलो हेलीकॉप्टर में प्रियम को बिठाकर अपने घर ले जाती थी। प्रियम विजय लक्ष्मी पण्डित के घर भी आती-जाती थी।

भूपेन ने प्रियम से कहा कि वह पढ़ाई कर चुकी है, इसीलिए अपने घर लौटकर जा सकती है।

प्रियम ने कहा, ‘तुम अगर आज भी उस लड़की को नहीं भूल पाये हो, वह तुम्हें मिलने वाली भी नहीं है। मैं किसी और से शादी नहीं करूंगी।'

भूपेन दुविधा में फंस गये। भूपेन को अपनी प्रेमिका की याद आ रही थी, जिसने एक अमीर लड़के से विवाह कर लिया था और हावड़ा में रह रही थी। अपने दिल के दर्द को भूपेन ने ‘शैशवते धेमालीते ...' गीत रचकर व्यक्त किया था।

भूपेन ने प्रियम को स्पष्ट बता दिया कि भूपेन उसे सुख-सुविधाओं से भरपूर जीवन नहीं दे पाएंगे, न ही आर्थिक सुरक्षा दे पाएंगे। प्रियम को कोई एतराज नहीं था। इस तरह दोनों विवाह करने के लिए तत्पर हुए। भारतीय विद्यार्थियों ने टेपरिकार्डर पर बिस्मिल्ला खान की शहनाई बजाई, बंगाली लड़कियों ने अल्पना अंकित की, गुजराती लड़कियों ने गरबा नृत्य पेश किया। एक ब्राह्मण बंगाली अध्यापक ने मंत्रोच्चारण किया। फिर सिटी कोर्ट में जाकर दोनों ने कानूनी रूप से एक-दूसरे को पति-पत्नी मान लिया। इस विवाह के लिए न तो भूपेन के माता-पिता तैयार थे न ही प्रियम के माता-पिता।


प्रियम ने कहा, ‘मैं एक सन्तान गर्भ में लेकर चली जाऊंगी।' प्रियम की इच्छा पूरी हुई। वह कम्पाला लौट गयी। प्रियम के पिता का घर बड़ौदा में भी था। प्रियम कम्पाला से बड़ौदा गयी।

भूपेन मेस छोडकर एक किराये के घर में रहने लगे और पढ़ाई पूरी करने में जुट गये। इसी बीच प्रियम के मामा एच. एम. पटेल भूपेन से मिलने आये। मामा ने लौटकर प्रियम को बताया कि भूपेन रात-रात भर घर से गायब रहते हैं। प्रियम ने फोन कर भूपेन से कैफियत पूछी। कहीं-न-कहीं सन्देह का भाव प्रियम के मन में पैदा होने लगा। चार दिनों का दाम्पत्य जीवन गुजारने के बाद दोनों के बीच ढाई साल का अन्तराल था।

इसी दौरान भूपेन का पॉल राबसन से परिचय हुआ। पॉल राबसन रात्रिकालीन गोष्ठियां चलाते थे, जिसमें माक्र्सवाद पर विचार प्रकट किया जाता था। भूपेन माक्र्सवाद से काफी प्रभावित थे और नियमित रूप से पॉल राबसन की गोष्ठी में भाग लेते थे।

भूपेन को सूचना मिली की प्रियम ने एक पुत्र को जन्म दिया है। भूपेन को पिता के पत्र से पता चला कि गोपीनाथ बरदलै भूपेन को लौटते ही डी. पी. आई. की नौकरी देने वाले थे। कोलम्बिया में भी यूनेस्को की तरफ से भूपेन को नौकरी का प्रस्ताव मिला था। पी. एच. डी. पूरा करने के साथ ही भूपेन ने प्रियम को सूचित किया कि अब वे असम लौटने वाले हैं। प्रियम ने जवाब दिया कि भूपेन अफ्रीका के रास्ते भारत लौटने का टिकट लें, ताकि प्रियम के माता-पिता भूपेन से मिल सकें। पॉल राबसन ने भूपेन से कहा कि लन्दन में रजनीपाम दत्त रहते हैं, जो घोर साम्यवादी हैं, भूपेन जरूर मुलाकात करें।

लन्दन पहुंचकर भूपेन रजनीपाम दत्त से मिले। भूपेन ने उनसे पूछा - ‘असम लौटकर एक पतनशील समाज के साथ मैं किस तरह तालमेल कायम कर पाऊंगा ? मैं निम्न मध्यवर्ग का हूं। मेरा मन टूट रहा है। मैं ब्यूरोक्रेसी का हिस्सा बनना नहीं चाहता। विश्वविद्यालय में काम मिले तो करूंगा।'

दत्त ने कहा, ‘तुम निराश क्यों हो रहे हो ? निराश नहीं होना चाहिए। तुम जिस बिन्दु पर रहोगे, उसी बिन्दु पर रहकर अगर दस लोगों के विचार बदल सकोगे तो वही तुम्हारी सार्थकता होगी। मान लो, तुम लोक निर्माण विभाग में इंजीनियर बनकर एक पुल का निर्माण कर रहे हो। वैसी स्थिति में तुम्हें यह नहीं देखना है कि पुल किसके लिए बना रहे हो, बल्कि पुल का निर्माण ठीक से हो, इस बात का ध्यान रखना है। तुम वहां जाकर पढ़ाओगे, विद्यार्थियों को अपने विचार से बदलने की कोशिश करोगे। लड़कों का हृदय परिवर्तन कर तुम समाज का परिवर्तन कर सकते हो।'

असम लौटते समय भूपेन काफी चिन्तित थे। नौ भाई-बहनों की देखभाल करनी होगी। एक अमीरजादी पत्नी के साथ गृहस्थी बसानी होगी। फिलहाल परिवार जिस किराये के घर में था, उसमें बहुत कम जगह थी।

भूपेन अफ्रीका पहुंचे। अफ्रीका में प्रियम के पिता ने अपने दामाद की खूब आवभगत की। भूपेन को नये-नये स्थानों की सैर करवाई गयी। अफ्रीका से भूपेन बम्बई पहुंचे। फिल्म अभिनेता अशोक कुमार से अमेरिका में परिचय हुआ था। भूपेन बम्बई में अशोक कुमार से मिले। तब अशोक कुमार ‘परिणीता' की शूटिंग कर रहे थे। अशोक कुमार ने भूपेन से पूछा कि क्या वे फिल्म उद्योग में आना चाहेंगे ? भूपेन ने कहा कि फिल्म में रुचि तो है, पर अभी कुछ तय नहीं किया है। भूपेन बलराज साहनी से मिले।

भूपेन और प्रियम का एक अन्तराल पर मिलन हुआ। दो साल के अपने बेटे को भूपेन ने पहली बार देखा। बड़ौदा में भूपेन का शाही स्वागत हुआ। शहर के नामी-गिरामी लोगों के साथ भूपेन का परिचय करवाया गया।

भूपेन प्रियम और बेटे के साथ कलकत्ता पहुंचे। कलकत्ता से गुवाहाटी तक का सफर रेलगाड़ी से तय किया गया। गुवाहाटी स्टेशन पर काफी आत्मीय लोग स्वागत करने के लिए आये थे। किराये के घर के एक कमरे को माता-पिता ने सजाकर नवदम्पति के लिए रखा था। पिताजी ने एक नौकरानी भी रख ली थी। मगर भूपेन ने देखा कि इतने बड़े परिवार के लिए किराये का घर बहुत छोटा था। पिता कर्ज में डूबे थे। भाई-बहनों की सेहत भी ठीक नहीं लग रही थी।

भूपेन ने रेडियो में काम करना शुरू कर दिया। अलग से 5॰ रुपये मासिक किराये वाला घर ले लिया। गीत लिखकर गाने लगे। गणनाट्य संघ के कार्यक्रमों में भाग लेने लगे। प्रियम ने भी अपने-आप को असम की बहू के रूप में परिवर्तित कर लिया। कई तरह के प्रलोभन आ रहे थे। प्रियम के पिता भूपेन को घर जमाई बनाना चाहते थे। असम सरकार भूपेन को कोई बड़ा पद देना चाहती थी, मगर तत्कालीन मुख्यमंत्री विष्णुराम मेधी को इस बात पर एतराज था कि भूपेन ‘कम्युनिस्ट' बन गए थे।

arvind
05-11-2011, 06:34 PM
गुवाहाटी लौटने के दो साल बाद बिरंचि कुमार बरुवा के प्रयास से भूपेन को विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के लेक्चरर की नौकरी मिल गयी। शैक्षणिक माहौल में भूपेन का मन रमने लगा।

सन् 1954 में गणनाट्य संघ के आमंत्रण पर भूपेन मघाई ओझा के साथ कलकत्ता गये। वेलिंग्टन स्क्वायर पर भूपेन ने गीत गाया और मघाई ओझा ने ढोल वादन प्रस्तुत किया। कलकत्ता में भूपेन की जबर्दस्त प्रशंसा हुई। पत्र-पत्रिकाओं ने उनकी तारीफ में काफी कुछ लिखा। सुचित्रा मित्र ने भूपेन को घर बुलाकर उनका अभिनंदन किया।

हेमांग विश्वास के साथ मिलकर भूपेन ने गणनाट्य संघ का अधिवेशन आयोजित किया, जिसमें बाइस हजार लोगों को आमंत्रित किया। बम्बई से अधिवेशन में शामिल होने के लिए बलराज साहनी आये। उस समय असम के एक दैनिक पत्र ने भूपेन की रचनाधर्मिता पर साम्यवादी दर्शन का प्रभाव बताते हुए आरोप लगाया कि उनकी रचनाओं से कुछ और गन्ध आ रही है।

‘असम ट्रिब्यून' के संस्थापक राधा गोविन्द बरुवा के प्रोत्साहन से गुवाहाटी के उजान बाजार इलाके में भूपेन ने पहली बार मंच पर बिहू कार्यक्रम आयोजित करने का सिलसिला शुरू किया था। मजेदार बात यह थी कि उस कार्यक्रम में भूपेन को गाने नहीं दिया गया क्योंकि कार्यक्रम में सरकार के मंत्री उपस्थित थे। अगले दिन भूपेन के गीतों को छापकर दर्शकों के बीच बांट दिया गया।

वीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य अक्सर भूपेन के घर आते थे। वे थाह लेना चाहते थे कि भूपेन सोशलिस्ट हैं या नहीं। भूपेन ने कहा कि पहले वे समाज को ठीक से पहचान लेना चाहते हैं।

गुवाहाटी का अभिजात वर्ग शास्त्रीय संगीत कार्यक्रम आयोजित करता था। भूपेन उसके पास ही लोकसंगीत कार्यक्रम आयोजित करते थे और लोगों से कहते थे कि यही जनता का संगीत है।

सन् 1954 में भूपेन कृश्न चन्दर, एम. एम. हुसैन, बालचन्दर, इस्मत चुगताई, मुल्कराज आनन्द के साथ फिनलैण्ड गये। उससे पहले असम के प्रगतिशील कलाकार दिलीप शर्मा चीन गये थे, तब भूपेन ने उनके लिए एक गीत लिखा था - ‘प्रतिध्वनि शुनू, नतून चीनर प्रतिध्वनि शुनू'। इस गीत का बांग्ला अनुवाद हुआ और यह गीत बंगाल में बहुत लोकप्रिय हुआ।

फिनलैण्ड में युद्घविरोधी सम्मेलन में ज्यां पाल सार्त्र समेत दुनिया भर के बुद्घिजीवी शामिल हुए थे। फिनलैण्ड से लेनिनग्राड, मास्को, काबुल होते हुए जब भूपेन गुवाहाटी लौटे तो उन्हें पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार लौटने में तीन दिन देर हो गया। तार भेजकर उन्होंने इसकी सूचना विश्वविद्यालय प्रशासन को दे दी थी। मगर प्रशासन ने उनके नाम ‘कारण बताओ' नोटिस जारी कर दिया। भूपेन के भावुक दिल पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा। उन्होंने इस्तीफा देने का फैसला किया। पिता एवं दूसरे शुभचिन्तकों ने भूपेन को समझाने की कोशिश की, पर भूपेन अपने फैसले पर अटल थे। जिस दिन भूपेन ने त्याग-पत्र दिया, उसी दिन तेजपुर से गंगा प्रसाद अग्रवाल और फणि शर्मा भूपेन से मिलने आये। वे ‘पियली फुकन' नामक फिल्म बनाना चाहते थे और भूपेन को संगीतकार की भूमिका निभाने के लिए कहने आये थे। अग्रिम राशि के रूप में उन्होंने सौ रुपये भूपेन को दिये और अनुबन्ध पत्र पर दस्तखत करवा लिया। भूपेन ने इस्तीफा दे दिया। फिल्म का संगीत तैयार करने के लिए भूपेन कलकत्ता आ गये और एक किराये का घर लेकर संगीत सृजन में जुट गये। प्रियम और बेटे को भूपेन ने बड़ौदा भेज दिया था। जाते समय प्रियम ने कहा था - ‘भूपेन, इस कठिन वक्त को गुजर जाने दो, तुम्हें खुद ही रास्ता ढूंढना होगा। हम कभी तुम्हारी मदद नहीं करेंगे, क्योंकि तुम मदद स्वीकार नहीं करोगे।'

‘पियली फुकन' से पहले भूपेन ‘सती बेउला' में संगीत दे चुके थे। ‘पियली फुकन' को स्वर्ण पदक मिला। भूपेन को बांग्ला फिल्म में संगीत देने का प्रस्ताव मिलने लगा। असम के नगांव शहर के निवासी असित सेन उस समय बांग्ला फिल्में बना रहे थे। उसी दौरान सत्यजीत राय की फिल्म ‘पथेर पांचाली' बनी थी। भूपेन के मन में एक फिल्म बनाने की योजना पनपने लगी थी।

भूपेन को एक साथ चार बांग्ला फिल्मों में संगीत देने का प्रस्ताव मिला था। ‘पियली फुकन' में संगीत देने के लिए उन्हें छह सौ रुपये मिले थे।

भूपेन ने कलकत्ता में घर खरीद लिया। पचीस हजार रुपये का प्रबन्ध किया और ‘एरा बाटर सुर' नामक फिल्म बनाने में जुट गये। पटकथा लिखते समय प्रियम ने उनकी सहायता की थी। फिल्म के लिए भूपेन ने कई नये कलाकारों की खोज की। फिल्म का नायक जयन्त निशा नामक लड़की से प्रेम करता है, पर निशा उसकी नहीं हो पाती। अन्त में नायक असम छोडता है और कहता है - ‘असम की धरती मुझे गलत तो नहीं समझेगी।' भूपेन ने बाद में स्वीकार किया कि इस फिल्म के जरिए उन्होंने अपने जीवन के एक हिस्से को सेल्यूलाइड पर उतारने की कोशिश की थी।

भूपेन अपनी फिल्म के दो गाने लता मंगेशकर की आवाज में रिकार्ड करना चाहते थे। लता के साथ उनका परिचय नहीं था। हेमन्त कुमार के साथ भूपेन का परिचय था। हेमन्त कुमार ने ही भूपेन का परिचय एच. एम. वी. कम्पनी के साथ करवाया था।

भूपेन ने हेमन्त कुमार को पत्र लिखा कि वे लता मंगेशकर से बात करें। हेमन्त कुमार ने जवाब दिया कि लता तैयार हैं। भूपेन बम्बई गये और हेमन्त कुमार के घर में ठहरे। लता के साथ पहली बार परिचय हुआ। लता ने कहा, ‘मैं आपको दादा कहकर पुकारूंगी।' पहला गाना था ‘जोनाकर राति ...' और दूसरा गाना भूपेन व हेमन्त के साथ था। गाना रिकार्ड होने के बाद धूम मच गयी। ‘टाइम्स ऑफ इण्डिया' ने गाने की भूरि-भूरि प्रशंसा की।

खुद लता मंगेशकर ने अभिभूत होकर भूपेन से कहा, ‘आज तक मैंने ऐसा सुर नहीं सुना था दादा!'

arvind
05-11-2011, 06:34 PM
'एरा बाटर सुर' बनाने के बाद भूपेन ने निश्चय किया कि ‘नील आकाशेर नीचे' नामक बांग्ला फिल्म बनाएंगे। बनारस में पढ़ते समय भूपेन का परिचय महादेवी वर्मा से हुआ था। महादेवी वर्मा की एक कहानी के आधार पर भूपेन इस फिल्म का निर्माण करना चाहते थे। उसी समय डेलू नाग नामक व्यक्ति ने आकर भूपेन को बताया कि इस कहानी पर फिल्म बनाने का अधिकार वह महादेवी वर्मा से खरीद चुका है। कहानी एक चीन देश के फेरीवाले के जीवन पर आधारित थी जो एक बंगाली लड़की को बहन बनाता है। बाद में फेरीवाले की मौत हो जाती है।

भूपेन ने डेलू नाग से कहा कि वह कहानी का अधिकार उनको बेच दे। नाग तैयार हो गया। भूपेन ने सोचा कि पटकथा ऋत्विक घटक से लिखवानी चाहिए। उन दिनों घटक ‘अयांत्रिक' बना रहे थे और उनके पास समय नहीं था। भूपेन ने मृणाल सेन से बात की। पन्द्रह सौ रुपये लेकर मृणाल सेन ने पटकथा लिखी। भूपेन हेमन्त कुमार से मिले। हेमन्त कुमार ने आश्वासन दिया कि फिल्म के लिए रुपये वे देंगे। संगीतकार के रूप में हेमन्त-भूपेन का नाम जाएगा। इसी दौरान भूपेन को किसी ने बताया कि डेलू नाग ने कहानी का अधिकार खरीदने के बारे में झूठी जानकारी दी थी। वास्तव में कहानी का अधिकार उसके पास नहीं था।

भूपेन महादेवी वर्मा से मिलने रानीखेत गये। महादेवी उनको पहचान नहीं पायीं। भूपेन ने बनारस की मुलाकात के बारे में बताया। अपना ‘सागर संगमत' गीत गाकर सुनाया और हिन्दी में उसका अर्थ बताया। महादेवी प्रसन्न हुईं। भूपेन को उन्होंने खाना खिलाया। भूपेन ने उनसे पूछा कि चीनी फेरीवाले की कहानी उन्होंने बेच दी है क्या ? महादेवी ने बताया कि एक लड़का आया था, जो खरीदना चाहता था, मगर वह दुबारा नहीं आया। भूपेन ने उनसे अपनी योजना के बारे में बताया। महादेवी ने उनको अपनी कहानी का अधिकार दे दिया। उस समय देश में हिन्दी- चीनी भाई-भाई का माहौल था। चीन के काउंसलर को बुलाकर भूपेन ने मुहुर्त करवाया था। लता मंगेशकर को क्लैपिस्टिक देने के लिए आमंत्रित किया था। लता ने मजाक में कहा था - ‘भूपेन दा, मैं जिस फिल्म के लिए क्लैपिस्टिक देती हूं, वह फिल्म बनती नहीं है।' लता का मजाक सच साबित हुआ। रातोंरात भूपेन-हेमन्त प्रोडक्शन की जगह हेमन्त-बेला प्रोडक्शन बन गया और मृणाल सेन फिल्म के निर्देशक बन गये। एक तरह से लंगडी मारी गयी थी और फिल्म के प्रोजेक्ट से भूपेन को बाहर कर दिया गया। मृणाल सेन ने फिल्म बनायी। जिस दिन फिल्म कलकत्ता में रिलीज हुई, उसी दिन चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया और फिल्म बुरी तरह पिट गयी।

भूपेन हताश नहीं हुए। उन्होंने ग्वालपाडा के लोकजीवन को पृष्ठभूमि में रखकर ‘माहुत बन्धुरे' का निर्माण किया। इस फिल्म में ग्वालपाडा की बोली का प्रयोग किया गया था और ग्वालपडिया लोकगीत की गायिका प्रतिमा पाण्डेय के गीतों का इस्तेमाल किया गया था। ‘माहुत बन्धुरे' को जबर्दस्त सफलता मिली। फिल्म की प्रशंसा जवाहरलाल नेहरू ने की। उन्होंने सभी दूतावासों को यह फिल्म भिजवाई।

arvind
05-11-2011, 06:36 PM
भूपेन को भीषण आर्थिक संघर्ष करना पड़ रहा था। प्रियम बीच-बीच में आती थी और वापस बड़ौदा चली जाती थी। एक फिल्म में संगीत देने के बदले चार हजार रुपये मिलते थे। तब तक गीत गाने के बदले भूपेन पैसे नहीं लेते थे।

सन् 1960 में कलकत्ता में पोस्टर लगाया गया - ‘भूपेन हजारिका का खून चाहिए।' असम में चल रहे बांग्ला विरोधी आन्दोलन की प्रतिक्रिया में कलकत्ता में असमिया लोगों के खिलाफ घृणा का वातावरण तैयार हो रहा था। असम से सूर्य बोरा ‘शकुन्तला' फिल्म के सिलसिले में कलकत्ता गये थे और भूपेन के घर में ठहरे थे। बाहर निकलने पर उनकी हत्या कर दी गयी। उत्तम कुमार ने भूपेन को सन्देश भेजा कि जरा भी असुविधा महसूस हो तो वे उनके घर आकर रह सकते हैं। ज्योति बसु तब मंत्री नहीं बने थे। उन्होंने भूपेन को लाने के लिए गाड़ी भेज दी थी।

भूपेन जहां रहते थे, उस इलाके में ‘मस्तान' टाइप लड़कों ने उनसे कहा - ‘हम आपका बाल भी बांका होने नहीं देंगे। हमारी लाश पर चढ़कर ही कोई आप तक पहुंच सकता है। असम से भागे बंगाली सियालदह पहुंच चुके हैं। आपको असली खतरा उन लोगों से ही है।' भूपेन के खिलाफ पोस्टर चिपका रहे एक लड़के को ऋत्विक घटक ने थप्पड़ मारकर पूछा था - ‘किसने सिखाया है तुझे भूपेन हजारिका के खिलाफ पोस्टर लगाने के लिए ?' बाद में पता चला था कि एक संगीतकार के इशारे पर वैसा किया गया था।

एक दिन भूपेन बाहर से घूमकर घर लौटे तो नौकर ने बताया कि पैंतीस आदमी आये थे। कह रहे थे कि वक्त ठीक नहीं है। भूपेन दा से कहना रात नौ बजे के बाद कहीं गाने के लिए न जाएं।

20 अगस्त 1960 को असम के खिलाफ कलकत्ता की सड़कों पर जुलूस निकला था। उस दिन भूपेन महाजाति सदन के पास खड़े थे। उनके साथ कृष्णफली चाय बागान के समर सिंह थे। जुलूस आगे बढ़ रहा था। समर सिंह ने कहीं छिपने के लिए कहा। भूपेन ने कहा कि उन्हें कोई डर नहीं है। मगर समर सिंह नहीं माने। दोनों सोनागाछी चले गये। एक वेश्या के कोठे पर गये। वेश्या स्नान कर बाहर निकली। उसने कहा कि यह सब क्या हो रहा है। आज तो पूरा बाजार बन्द है, आप लोग कैसे आये ?

भूपेन ने अपना परिचय नहीं दिया। उन्होंने कहा कि वे रात गुजारना चाहते हैं। वेश्या ने उनके लिए भोजन का प्रबन्ध किया। फिर वह बोली - ‘आप लोग बैठिए, मैं जरा बाहर से आ रही हूं।' भूपेन को आशंका हुई कि कहीं गुण्डों को बुलाने के लिए तो नहीं जा रही है ! कुछ देर बाद वह ढेर सारे रिकार्ड लेकर लौटी। रिकार्ड प्लेयर पर वह रिकार्ड बजाने लगी। पहला गाना था भूपेन का ‘सागर संगमत', दूसरा गाना था भूपेन का, तीसरा और चौथा गाना भी भूपेन का ही था। वेश्या ने कहा - ‘सुना है असमिया-बंगाली के बीच कुछ हुआ है ? ऐसी हालत में आपलोग यहां क्यों आये हैं ? मैं यह धंधा जरूर करती हूं पर आपको दूर से देखने के लिए महाजाति सदन में जाती हूं। आफ गाने मुझे बहुत अच्छे लगते हैं। मैं असम जा चुकी हूं। एक चाय बागान के मालिक के साथ। नाम नहीं बताऊंगी। असम इतना प्यारा है। यह सब क्या हो रहा है।'

सुबह पौ फटते ही भूपेन ने महिला से विदा मांगी और अपने घर लौट आये। 1960 में असमिया विरोध का जो माहौल बना, उसका गहरा प्रभाव भूपेन पर पड़ा। उनको फिल्म का काम मिलना बन्द हो गया। प्रियम बड़ौदा में थी। भूपेन और नौकर को गुजारे के लिए हर महीने पांच सौ रुपये की जरूरत होती थी। पांच सौ रुपये का जुगाड कर पाना कठिन हो जाता था। काफी कर्ज हो गया था। गुवाहाटी में भी परिवार को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा था।

इसी दौरान भूपेन ने ‘आमार प्रतिनिधि' में स्तम्भ लिखना शुरू किया। मासिक दो सौ रुपये मिल जाते थे। भूपेन ने सोचा कि किसी तरह पैसों का जुगाड कर ‘शकुन्तला' बनायी जाए। उधार लेकर उन्होंने ‘शकुन्तला' का निर्माण किया। फिल्म काफी सफल हुई। ‘शकुन्तला' को श्रेष्ठ आंचलिक फिल्म का पुरस्कार मिला। इस फिल्म के चलने से भूपेन को आर्थिक रूप से कुछ राहत मिली। एक साल तक के लिए भूपेन निश्चिन्त हो गये।

भूपेन ने कम बजट में एक हास्य आधारित फिल्म ‘लटिघटी' बनायी, जिसकी शूटिंग उन्होंने तेरह दिनों में पूरी की। भूपेन को प्राग जाने का निमंत्रण मिला। प्राग से लौटने के बाद भूपेन असम गये और हेमांग विश्वास के साथ सांस्कृतिक टोली बनाकर जगह-जगह घूमते हुए असमिया-बंगाली सद्भाव का सन्देश देने लगे। तत्कालीन मुख्यमंत्री विमला प्रसाद चालिहा ने लगभग रोते हुए भूपेन से कहा था कि वे स्थिति को नियंत्रित नहीं कर पा रहे हैं और उनके जैसे कलाकार ही कुछ कर सकते हैं। भूपेन को कई तरह की धमकियों का भी सामना करना पड़ा, परन्तु धैर्य खोए बिना उन्होंने अपना सांस्कृतिक अभियान जारी रखा। उत्पल दत्त ने ‘न्यू एज' में लिखा -‘भूपेन हजारिका की तरह कौन कलाकार अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए सड़क पर उतरता है ? क्या हम उतरते हैं ? क्या हमने कलकत्ता में ऐसा कोई प्रयास किया है ?'

arvind
05-11-2011, 06:39 PM
'लटीघटी' बनाने के बाद भूपेन ने खासी समुदाय की पृष्ठभूमि पर ‘प्रतिध्वनि' फिल्म का निर्माण किया। इस फिल्म को पेरिस फिल्म महोत्सव में दिखाया गया। पैसे की कमी के कारण भूपेन फ्रेंच में फिल्म के सबटाइटल की व्यवस्था नहीं कर पाए।

इस बीच भूपेन के दाम्पत्य जीवन में दरार बढ़ता जा रहा था। दस सालों के अन्तराल के बाद अचानक भूपेन की प्रेमिका को प्रियम अपने साथ घर लेकर आयी। उस दिन भूपेन को बुखार था। तब बड़ौदा से प्रियम आयी थी। उस दिन कलकत्ता के एक क्लब में एक असमिया परिवार ने दावत दी थी और भूपेन को आमंत्रित किया था। भूपेन जा नहीं पाए। दावत में प्रियम गयी थी। वहीं प्रियम की मुलाकात भूपेन की पूर्व प्रेयसी से हुई, जो किसी और की पत्नी थी। दोनों में घनिष्टता हो गयी। प्रियम के साथ वह अक्सर भूपेन के घर आने लगी। भूपेन प्रथम प्रेम को भूल नहीं पाये थे और इतने दिनों के बाद उसे पाकर पिघलने लगे थे।

इसी तरह बम्बई की एक मशहूर कलाकार जब कलकत्ता आती थी तो भूपेन के घर में ठहरती थी। उसने प्रियम से कहा कि वह भूपेन जैसे जीनियस कलाकार की देखभाल ठीक से नहीं कर पा रही है। एक दिन भूपेन और प्रियम उस कलाकार को विदा करने हवाई अड्डे पर गये। कलाकार ने प्रियम के साथ एकान्त में बातचीत की और विमान पर सवार हो गयी। प्रियम रोने लगी। भूपेन ने रोने की वजह पूछी तो प्रियम ने बताया - ‘वह कह रही थी कि मुझसे ज्यादा वह तुमसे प्यार करती है।'

पूर्व प्रेमिका के साथ भूपेन का मेलजोल बढ़ता गया। उसके पति को भी मामला समझ में आ गया। उसने दोस्ती का सम्मान किया। चारों एक साथ फिल्म देखने जाने लगे, होटल में खाना खाने लगे।

सन् 1950 में भूपेन ने प्रियम से विवाह किया था। 1963 में दोनों ने तय किया कि विवाह बन्धन से मुक्त हो जाना उचित होगा। भूपेन ने सिद्घार्थ शंकर राय को अपना वकील बनाया। दोनों ने तलाक ले लिया। भूपेन ने मुस्कराते हुए हावड़ा स्टेशन पर प्रियम को अलविदा कहा। प्रियम कनाडा में रहती है। भूपेन जब भी जाते हैं, प्रियम से जरूर मिलते हैं।

तलाक के बाद प्रियम का छोटा भाई यादवपुर विश्वविद्यालय में पढ़ने आया तो वह भूपेन के साथ ही रहने लगा। पढ़ाई पूरी करने के बाद वह लंदन स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स में उच्च पढ़ाई करने चला गया, जहां से उसने भूपेन को खत लिखा कि वह भूपेन की छोटी बहन रूबी से ब्याह करना चाहता है। भूपेन ने प्रियम के साथ सलाह-मशविरा किया। प्रियम ने अपनी सहमति दे दी और कहा कि रूबी को किसी प्रकार की तकलीफ नहीं होगी। भूपेन ने रूबी का ब्याह प्रियम के भाई के साथ करवा दी।

दाम्पत्य जीवन से मुक्त होने के बाद भूपेन खुद को काफी एकाकी महसूस करने लगे और काफी शराब पीने लगे। रात-रात भर घर से बाहर रहने लगे।

सन् 1965 तक भूपेन कहीं गाने जाते थे तो उसके लिए पैसे नहीं लेते थे। उनकी आदत-सी बन गयी थी कि हर कार्यक्रम के लिए एक नये गीत की रचना जरूर करनी है। सन् 1965 में जोरहाट के इण्टर कॉलेज में गायन प्रस्तुत करने के बाद भूपेन को हवाई यात्रा के अलावा पारिश्रमिक के रूप में पांच सौ रुपए मिले थे।

भूपेन को बार-बार यह अहसास सालता था कि अपने परिवार को वे कुछ ठोस मदद नहीं दे पा रहे थे। मां को लकवा मार गया था। भूपेन की मां पहले सामाजिक कार्यों में सक्रिय भूमिका निभाती थी। उन्होंने असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति से हिन्दी की पढ़ाई भी की थी।

छोटा भाई अमर हजारिका दो बार टीबी का शिकार हो चुका था। भूपेन ने अमर को एक छोटा प्रेस खोलने में सहायता की थी। एक और भाई प्रवीण हजारिका नेफा में नौकरी करते थे। बाद में लन्दन में अध्यापक की नौकरी मिल गयी। छोटे भाई-बहनों को भूपेन कलकत्ता के घर में बुलाकर रखते थे और सबकी पढ़ाई-लिखाई और रोजगार की चिन्ता करते थे।

भूपेन के छोटे भाई जयन्त हजारिका ने गायक के रूप में जबर्दस्त प्रसिद्घि हासिल की थी। अल्पायु में जयन्त की मौत हो गयी। जयन्त की दर्दीली आवाज के प्रशंसक असम के लोग आज भी हैं।

सन् 1966 में भूपेन के पिता का देहान्त हो गया। श्राद्घ में विष्णुप्रसाद राभा, फणि बोरा आदि आये थे। विष्णुप्रसाद राभा ने भूपेन से कहा था - ‘क्या तू लेटर टू एडीटर ही बना रहेगा ? आर्ट के क्षेत्र में कुछ करने के लिए विधानसभा के भीतर जाना होगा। वहीं अपनी बात को कानून बना सकोगे।' फणि बोरा ने नाउबैसा विधानसभा सीट से चुनाव लड़ने का सुझाव दिया। भूपेन ने कहा कि वे पहले नाउबैसा इलाके का दौरा करेंगे, उसके बाद कोई फैसला करेंगे।

भूपेन जब लखीमपुर पहुंचे तो अनगिनत प्रशंसकों को पाकर अभिभूत हो गये। युवाओं ने कहा कि देवकान्त बरुवा ने जो उम्मीदवार खड़ा किया है, वह एक नम्बर का गुण्डा है, जो बान्ध तोड़कर नये सिरे से बान्ध बनाने का ठेका लेता है। दूसरे प्रतिद्वन्द्वियों ने कहा कि अगर भूपेन चुनाव लड़ना चाहेंगे तो वे भूपेन का समर्थन करेंगे। भूपेन कोई निर्णय लिए बिना कलकत्ता लौट गये। इसी बीच अखबारों में छपा कि भूपेन हजारिका चुनाव लड़ने वाले हैं। माकपा की असम शाखा ने कहा कि वह भूपेन का समर्थन करेगी।

सन् 1967 में भूपेन ने चुनाव लड़ा और देवकान्त बरुवा के उम्मीदवार को चौदह हजार मतों से पराजित किया। उस साल भूपेन के साथ-साथ विष्णुप्रसाद राभा, लक्ष्यधर चौधरी, सतीनाथ देव और महीधर पेगू जैसे साहित्यकार व्यक्ति एम. एल. ए. बनकर असम की तत्कालीन राजधानी शिलांग पहुंचे थे।

सन् 1967 से 1971 तक विधायक रहते हुए भूपेन तीन महीने शिलांग में गुजारते थे। शेष नौ महीने संगीत और फिल्म में व्यस्त रहते थे। वे निर्दलीय उम्मीदवार थे और उन्होंने शुरू में ही कह दिया था कि विपक्ष में रहकर वे जनहित के सवालों को उछालते रहेंगे।

arvind
05-11-2011, 06:40 PM
अपने बारे में भूपेन हजारिका ने लिखा है - ‘असम की मिट्टी मुझे गलत तो नहीं समझेगी' - यह संवाद मैंने जयन्त दुवरा नामक एक काल्पनिक चरित्र के मुंह से कहलवाया था ‘एरा बाटर सुर' फिल्म में। चरित्र मेरा ही था। मैंने स्वाभिमान के साथ कहा था - गलत तो नहीं समझेगी, क्योंकि मैं कुछ दिनों के लिए असम से बाहर जाऊंगा। जो असुविधा हो रही थी, वह दिखा दिया गया था। जाने के रास्ते में कुछ बाधाएं थीं, उन्हें हटाकर वह क्षितिज की ओर चला गया। वैसा रूठकर मैंने लिखा था। असम की मिट्टी ने मुझे कभी गलत नहीं समझा। असम की मिट्टी ने जवाब दिया है, करोड़ों लोगों ने जवाब दिया है, स्वीकार किया है, स्नेह दिया है। वैसा मैंने यूं ही कहा था। जिस तरह मां से रूठकर कहा जाता है। वैसा कहने में कोई घृणा का भाव नहीं था।

... मैंने 13 साल की उम्र में ‘अग्नियुगर फिरिंगति' गाना लिखा था और दस साल की उम्र में शंकरदेव के बारे में गाना लिखा था। जब सन् 1946 में ‘अग्नियुगर फिरिंगति' को ज्योतिप्रसाद आगरवाला ने फिल्म में स्थान दिया तो मुझे प्रोत्साहन मिला। ज्योतिप्रसाद आगरवाला ने मुझसे कारेंगर लिगिरी, शोणित कुंवरी के गाने गवाए, ‘इन्द्र मालती' फिल्म में मुझे अपना गीत ‘विश्व विजयी न जबान' गवाया। मुझ पर प्रभाव पड़ा कि अपनी मिट्टी की गन्ध से प्यार करना चाहिए। ज्योतिप्रसाद आगरवाला एवं विष्णुप्रसाद राभा ने बचपन में मुझे यह प्रेरणा दी। जब मैं विदेश गया तो वहां भी देखा, पॉल राबसन जैसे कलाकार नये-नये प्रयोग कर रहे हैं। वहां से लौटकर ‘डोला हे डोला' और ‘सागर संगमत' जैसे गीतों की मैंने रचना की। मैं खुद ही गीत लिखता हूं, खुद ही धुन तैयार करता हूं, खुद ही गाता हूं, इसीलिए अपने गीत की शैली के बारे में खुद ही कोई राय नहीं दे सकता। अगर मेरी रचना में किसी को विशेष शैली नजर आती है तो शायद विषयवस्तु के कारण नजर आती है।

मैंने कई गीत फिल्मों या नाटकों के किरदारों को ध्यान में रखकर लिखा है। उन गीतों से मेरे दर्शन का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता।

... मैं एक सफल गायक हूं या नहीं, कह नहीं सकता। मेरी आवाज जन्मजात देन है। संगीत सीखे बिना मैं बचपन में गाने लगा था -तोते की तरह। पांच साल की उम्र से ही लोग मेरे गीत की सराहना करते रहे हैं। जब मैं युवावस्था में पहुंचा, तब मैंने महसूस किया कि मुझे बहुत कुछ सीखना है। और मैंने लगातार सीखने का प्रयास किया है।

जब मैं मंच पर गाता हूं, भावुक हो जाता हूं, ऐसे लोगों का कहना है। तब मैं अपने-आप को भूल जाता हूं। गाते समय मैं इस कदर रम जाता हूं कि सब कुछ भूल जाता हूं। गीत के एक-एक शब्द को मैं अनुभव करता हूं। मुझे ऐसा लगता है कि अगर मैं उन शब्दों को महसूस कर पाऊंगा तो श्रोता भी उनको अच्छी तरह महसूस कर पाएंगे।

मैं जीवन भर सीखता रहा हूं। एकलव्य की तरह कई लोगों से मैंने प्रेरणा ग्रहण की है। बहस करता रहा हूं और सीखता रहा हूं। मैंने पॉल राबसन से पूछा था-- आपने अमुक जगह वह गाना गाया था, यहां क्यों नहीं गाया ? पॉल राबसन ने कहा था-- ‘गीत मेरे लिए हथियार है। जहां जिस हथियार की जरूरत होती है, उसी का इस्तेमाल करता हूं।'

मैं जब गीत लिखता हूं तो उसमें तत्कालीन समय का चित्र होता है। तब मैं यह मानकर नहीं चलता कि गीत भविष्य में भी उतना ही प्रासंगिक रहेगा। गीत रचने का नियम पता हो तो नियम तोड़ने का साहस किया जा सकता है। मुझे ऐसे गीत अच्छे लगते हैं, जिसमें मिट्टी की गन्ध और आम आदमी के दिल की बात शामिल हो। जिन धार्मिक गीतों में भगवान कृष्ण हम जैसे मनुष्य बन गये हैं, वैसे गीत मुझे पसन्द हैं। फिल्म के संगीतकार के रूप में मेरा मानना है कि संगीत के जरिए मुझे फिल्म को नियंत्रित नहीं करना है। फिल्म की गति को आगे बढ़ाने के लिए मैं संगीत का इस्तेमाल करता हूं।

जब कोई घटना या व्यक्ति का कोई पल मुझे सोचने के लिए मजबूर करता है तो मैं उसे पकड़ने की कोशिश करता हूं। जब तक ऐसा कर नहीं लेता, काफी मानसिक परिश्रम करना पड़ता है। प्रत्येक गीत का आदि, मध्य और अन्त होता है। मोती की तरह किसी गीत को चमकाने के लिए सोचने का वक्त चाहिए। हर तरह का सृजन प्रसव वेदना के समान होता है।

मैं अपने गीत ‘सागर संगम' को अपनी सर्वश्रेष्ठ रचना मानता हूं। पूरी दुनिया के बारे में सोचते हुए मैंने इस गीत की रचना की थी। इस गीत की रचना मैंने स्वदेश लौटते हुए की थी। मगर इसे सम्पूर्ण करने में काफी समय लगा था।

पर्फार्मिंग आर्टिस्ट के रूप में मुझे जनता का अपार स्नेह मिलता रहा है। रात-रात भर हजारों लोग मुझे सुनने के लिए प्रतीक्षा करते रहते हैं। दमदम स्टेशन पर अन्धे भिखारी मेरे गीत गाकर भीख मांगते हैं। मेरे लिए यह स्वीकृति सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के स्वर्ण पदक से कहीं बढ़कर है।

भूपेन हजारिका के नाम पर गुवाहाटी में 2001 में ‘भूपेन हजारिका ट्रस्ट' की स्थापना हुई। यह ट्रस्ट भूपेन संगीत का संरक्षण का काम करेगा। संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष के रूप में भूपेन हजारिका ने असम के सत्रीया नृत्य को भारतीय शास्त्रीय नृत्य के रूप में मान्यता दिलवायी है।

जैसा कि प्रत्येक किंवदन्ती पुरुष के साथ होता है, भूपेन हजारिका के खिलाफ भी असम के अखबारों में काफी कुछ लिखा जाता रहा है। कल्पना लाजमी के साथ उनके सम्बन्ध को लेकर इन अखबारों ने हमेशा आक्रामक तेवर अपनाया है। सन् 1971 में भूपेन आत्माराम की फिल्म ‘आरोप' में संगीत देने के लिए मुम्बई गये थे। कल्पना लाजमी गीता दत्त की बहन की बेटी है। तभी उससे उनका परिचय हुआ था। पहले श्याम बेनेगल की सहायक थी। बाद में भूपेन हजारिका की ‘स्थायी सचिव' बन गयी। ‘एक पल', ‘रूदाली', ‘दमन' जैसी फिल्मों का निर्देशन करने वाली कल्पना लाजमी ने ‘सानन्दा' को दिये एक साक्षात्कार में कबूल किया था कि वह भूपेन हजारिका के साथ ‘लिव टूगेदर' के सिद्घान्त के तहत जीवन यापन कर रही है। असम के कला समीक्षक मानते हैं कि कल्पना लाजमी ने भूपेन हजारिका को असम से दूर करने का प्रयास किया है और भूपेन हजारिका का ‘अधिकाधिक व्यावसायिक उपयोग' वह करती रही है।

गुवाहाटी में एक संवाददाता सम्मेलन में कल्पना और पत्रकारों के बीच झड़प भी हो चुकी है। कल्पना अपने साक्षात्कार में कह चुकी है कि वह भूपेन हजारिका की सेहत को ध्यान में रखते हुए कुछ बंदिशें लगाती रही है, जिसे लेकर असम के लोग बुरा मानते रहे हैं।

भूपेन हजारिका के जिन गीतों का अनुवाद नरेन्द्र शर्मा एवं गुलजार ने हिन्दी में किया है, वे गीत देश-विदेश में काफी लोकप्रिय हुए हैं। भूपेन ने अपने पुराने गीतों के धुनों को कल्पना की फिल्मों में इस्तेमाल किया है। समीक्षक मानते हैं कि ‘दमन' और बाद के म्यूजिक एलबमों में अनुवाद का स्तर सही नहीं है, क्योंकि स्तरीय गीतकारों ने उनका अनुवाद नहीं किया है।

किंवदन्ती पुरुष भूपेन हजारिका आज असम की जनता के हृदय में वास करते हैं। अपने बारे में भूपेन हजारिका ने कहा भी है-- ‘मुझे बुढापे का अहसास सताता नहीं है। मेरी जीवन-लालसा अभी भी खत्म नहीं हुई है। मैं इस धरती पर बहुत दिनों तक जीवित रहना चाहता हूं। पहले सोचता था गाते-गाते जब पचास साल पूरे हो जाएंगे तो गाना छोड दूंगा। किसी एकान्त में जाकर बैठ जाऊंगा। मगर मनुष्य के जीवन की राह पहले से निर्धारित नहीं होती, यह बात मैं आज महसूस कर रहा हूं। अब सोचता हूं, मेरे जैसे व्यक्ति के लिए सेवानिवृत्त होना जरूरी नहीं है।'

arvind
05-11-2011, 06:45 PM
भूपेन हजारिका का साहित्य

गद्य
1. सुन्दरर न दिगन्त
2. सुन्दरर सरू बड आलियेदि
3. समयर पखी घोडात उठि
4. ज्योति ककाईदेऊ
5. विष्णु ककाईदेऊ
6. कृष्टिर पथारे-पथारे
7. दिहिंगे दिपांगे
8. बोहाग माथो एटि ऋतु नहय
9. बन्हिमान लुइतर पारे-पारे
10. नंदन तत्वर कर्मीसकल
11. मई एटि यायावर
12. संपादकीय

गीत संग्रह

1. जिलिकाबो लुइतरे पार
2. संग्राम लग्न आजि
3. आगलि बांहरे लाहरी गगना
4. बन्हिमान ब्रह्मपुत्र
5. गीतावली

शिशु साहित्य

1. भूपेन मामार गीते माते अ आ क ख

पटकथा

1. चिकमिक बिजुली
2. एरा बाटर सुर
3. माहुत बन्धुरे

पत्रिकाओं का संपादन

1. न्यू इंडिया - न्यूयार्क, 1949-50 (अमेरिका में भारतीय छात्र संघ का मुखपत्र)
2. गति (कला पत्रिका) - गुवाहाटी, 1964-67
3. बिन्दु (लघु पत्रिका) - गुवाहाटी, 1970
4. आमार प्रतिनिधि (मासिक पत्रिका) - कलकत्ता, 1964-80
5. प्रतिध्वनि (मासिक पत्रिका) - गुवाहाटी

arvind
05-11-2011, 06:46 PM
भूपेन हजारिका को दी गयी विविध उपाधियां

1. सुधाकण्ठ
2. पद्मश्री
3. संगीत सूर्य
4. सुर के जादूगर
5. कलारत्न
6. धरती के गन्धर्व
7. असम गन्धर्व
8. गन्धर्व कुंवर
9. कला-काण्डारी
10. शिल्पी शिरोमणि
11. बीसवीं सदी के संस्कृतिदूत
12. यायावर शिल्पी
13. विश्वबन्धु
14. विश्वकण्ठ

arvind
05-11-2011, 06:48 PM
भूपेन हजारिका की पसन्द/नापसंद।

प्रिय रंग : लाल और सफेद

प्रिय फूल : रातरानी

प्रिय भोजन : भात और मछली का झोल

प्रिय मछली : कोई भी छोटी मछली

प्रिय चिडिया : पण्डुक

प्रिय पेड़ : बरगद

प्रिय कलाकार : शंकरदेव

प्रिय जगह : तेजपुर

प्रिय साहित्यकार : लक्ष्मीनाथ बेजबरुवा

प्रिय गीत : जिसके बोल सुन्दर और शाश्वत हों

प्रिय फिल्म : अकिरा कुरोसोवा की फिल्में/विशेष रूप से ‘रशमेन'

प्रिय फिल्म निर्देशक : अकिरा कुरोसोवा

कब दुःख होता है : जब सुख की मात्रा ज्यादा हो जाती है

कब हंसी आती है : जब नेता अभिनेता बनने की कोशिश करते हैं। जब नेता खराब अभिनय करने लगते हैं तब हंसी रुक नहीं पाती।

कब गुस्सा आता है : नमकहरामों को देखकर। वैसे अब पहले की तरह गुस्सा नहीं आता।

मुख्य शत्रु : स्वयं। स्वयं से ही डर लगता है।

कब तक गाएंगे : अन्तिम दम तक।

मनोरंजन : फुरसत नहीं मिलती : जरा-सा वक्त मिलता है तो चित्र बनाते हैं। व्यंजन तैयार करना भी अच्छा लगता है।

समालोचना : समालोचना का स्वागत करते हैं। एक गीत भी लिखा है - ‘समालोचना की आग में तपाकर मुझे विकसित करो'। परन्तु अगर सृजन की तुलना में व्यक्ति केन्द्रित हो तो मन पर चोट लगती है।

Dark Saint Alaick
07-11-2011, 12:23 PM
इस सम्पूर्ण और अभिनव जानकारी के लिए आपका धन्यवाद अरविन्दजी ! संभव हो तो इस सूत्र को भूपेनदा की रचनाओं के प्रस्तुतीकरण से कृपया जारी रखें !

arjun_sharma
07-11-2011, 08:02 PM
भूपेन हजारिका के निधन से समस्त संगीत जगत को बहुत ही बड़ी क्षति हुई है.

Sikandar_Khan
08-11-2011, 07:08 PM
इस सम्पूर्ण और अभिनव जानकारी के लिए आपका धन्यवाद अरविन्दजी ! संभव हो तो इस सूत्र को भूपेनदा की रचनाओं के प्रस्तुतीकरण से कृपया जारी रखें !
जनाबे आली आपकी ये ख्वाहिश हम पूरी किये देते हैं |

Sikandar_Khan
08-11-2011, 07:14 PM
बिन्दु


निंदिया बिन रैना -
कोमल चांद पिघला
मुंह अंधेरे ओस की बूंदें उतरी
मेघ को चीरते हुए राजहंस
सूरज के सातों
घोड़ों की मंथर गति की आवाज
मेरी चेतना में प्रवेश करते हैं
सीने का स्पर्श करता है
एक नया गहरा सागर
लहर विहीन
जिसकी एक बिन्दु
हौले से लटक रही है
मेरे आंगन में
झड़े हुए
रातरानी की सफेद पंखुड़ी पर
शायद शरत आ गया
एक गुप्तांग
दो स्तन
कुछ अल्टरनेट सेक्स
छिप न सके, इसके लिए
डिजाइनर की तमाम कोशिश
हर आदमी एक द्वीप की तरह
एके फोर्टी सेवन जिन्दाबाद
आदिम छन्द हेड हंटर का।

Sikandar_Khan
08-11-2011, 07:16 PM
मग्न

क्षण-क्षण करते हुए
क्षण का विश्लेषण
क्षण होता ध्यानमग्न
मग्न ज्योति की बेड़ियां तोड़कर
चमकता स्फुर्लिंग
वहीं तुमसे मिला

Sikandar_Khan
08-11-2011, 07:23 PM
बन्धु
(कैमरामैन संतोष शिवन के लिए)


बन्धु

कुछ शराब

कुछ सिगरेट

कुछ लापरवाही

कुछ धुआं

कुछ दायित्वहीनता

सोचते हो यही है सुकून

मगर बन्धु

मरोगे मरोगे

उम्र शून्य -

मृत्यु के बाद

तुम क्या

तुम रह जाओगे, बन्धु -

दृश्य अदृश्य होता है

देह सौन्दर्य पहेली बनता है

बची रहती है

आग की चमक

बन्द दुर्ग

जीवन रंगशाला है

तुम कहां हो

गजदन्त मीनार पर या

किसी बन्द दुर्ग के भीतर

मीनार को ढंक दिया है बादल ने

मीनार जीर्ण-शीर्ण हो गया है

दुर्ग धंस रहा है

टूट रहा है आदर्श का दुर्ग

और तुम

नर्सिसस, अपने-आप में

व्यस्त

झूठा

झूठा स्वर्ग।

Sikandar_Khan
08-11-2011, 07:25 PM
दशमी


एक सुर

दो सुर, सुर के पंछियों का झुण्ड

झुण्ड के झुण्ड सुर बसेरे बनाते हैं

मन-शिविर में

आवाजाही जारी रहती है

शब्द का पताका तूफान

कुछ लोग गीतों के जरिए

सामने आते हैं

कण्ठरुद्घ प्रकाश

कण्ठहीन कण्ठ से

अनगिनत अन्तराएं

आबद्घ होता है नाद ब्रह्म

एक सुर दो सुर

सुर के पंछियों का झुण्ड

शून्य में उड़ता है

विसर्जन की प्रतिमा की तरह

Sikandar_Khan
08-11-2011, 07:26 PM
आईना

चाह की ऊंचाई पर

मन भी कैसा है

कैसा है आईना

पूरी तरह कोई

मन को ही बना देता है आईना

आईना को सौंपोगे कुछ

न इंकार करेगा न स्वीकार।

आईना से मांगोगे कुछ

लेगा नहीं कुछ, न ही देगा

फेंकेगा नहीं कुछ

कैसा है आईना

मन कैसा है

चाह की ऊंचाई पर ...