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View Full Version : 'अष्टावक्र गीता' का हिन्दी रूपांतर


GForce
06-11-2011, 12:06 AM
बंधुओ ! 'श्रीमदभगवदगीता' के अनुरूप ही 'अष्टावक्र गीता' की भी महिमा है ! देवभाषा संस्कृत में रचे गए इस श्रेष्ठ ग्रन्थ का मृदुलकीर्ति द्वारा किया गया हिन्दी अनुवाद मैं इस सूत्र में प्रस्तुत कर रहा हूं ! आशा करता हूं कि सुधि पाठक इसे स्वयं के लिए उपयोगी पाएंगे ! ... तो प्रारंभ करते हैं सार से, तदुपरांत क्रमशः एक-एक अध्याय !


अष्टावक्र गीता सार


यह देह, मन, बुद्धि, अहम् भ्रम जाल किंचित सत नहीं ,
पर कर्म कर कर्तव्य वत्बिन चाह फल के, रत नहीं ! [1]

अब तेरी चेष्टाएं सब प्रारब्ध के आधीन हैं,
कर्म रत पर मन विरत, चित्त राग द्वेष विहीन हैं ! [2]

पर रूप में जो अरूप है, वही सत्य ब्रह्म स्वरूप है,
दृष्टव्य अनुभव गम्य जो, तेरे भाव के अनुरूप है ! [3]

तू शुद्ध, बुद्ध, प्रबुद्ध, चिन्मय आत्मा चैतन्य है,
बोध रूप अरूप ब्रह्म का, तत्व है तू धन्य है ! [4]

यह तू है और मैं का विभाजन, अहम् मय अभिमान है,
व्यक्तिव जब अस्तित्व में मिल जाए तब ही विराम है ! [5]

निर्जीव होने से प्रथम, निर्बीज यदि यह जीव है,
उन्मुक्त, मुक्त विमुक्त, यद्यपि कर्मरत है सजीव है ! [6]

अनेकत्व से एकत्व का, जब बोध उदबोधन हुआ ,
बस उसी पल आत्मिक जीवन का संशोधन हुआ ! [7]

विक्षेप मन चित, देह और संसार के निःशेष हैं ,
सर्वोच्च स्थिति आत्मज्ञान में आत्मा ही शेष है ! [8]

ब्रह्माण्ड में चैतन्य की ही ऊर्जा है, विधान है,
निर्जीव रह निर्बीज कर, यही मूल ज्ञान प्रधान है ! [9]

GForce
06-11-2011, 12:07 AM
प्रथम प्रकरण / श्लोक 1-10

जनक उवाचः

हे ईश ! मानव ज्ञान कैसे, प्राप्त कर सकता अहो !
हमें मुक्ति और वैराग्य कैसे, मिल सकें कृपया कहो [1]

अष्टावक्र उवाचः

प्रिय तात यदि तू मुमुक्ष, तज विषयों को, जैसे विष तजें,
सन्तोष, करूणा सत, क्षमा, पीयूष वत नित-नित भजें. [2]

न ही वायु, जल, अग्नि, धरा और न ही तू आकाश है,
मुक्ति हेतु साक्ष्य तू, चैतन्य रूप प्रकाश है. [3]

यदि पृथक करके देह भाव को, देही में आवास हो
तब तू अभी सुख शांति, बन्धन मुक्त भव, विश्वास हो. [4]

वर्ण आश्रम का न आत्मा, से कोई सम्बन्ध है,
आकार हीन असंग केवल, साक्ष्य भाव प्रबंध है. [5]

सुख दुःख धर्म-अधर्म मन के, विकार हैं तेरे नहीं,
कर्ता, कृतत्त्व का और भर्ता भाव भी घेरे नहीं. [6]

सर्वस्व दृष्टा एक तू, और सर्वदा उन्मुक्त है,
यदि अन्य को दृष्टा कहे, भ्रम, तू ही बन्धन युक्त है. [7]

तू अहम् रुपी सर्प दंषित, कह रहा कर्ता मैं ही,
विश्वास रुपी अमिय पीकर कह रहा, कर्ता नहीं. [8]

मैं सुध, बुद्ध, प्रबुद्ध, चेतन, ज्ञानमय चैतन्य हूँ,
अज्ञान रुपी वन जला कर, ज्ञान से मैं धन्य हूँ. [9]

सब जगत कल्पित असत, रज्जु मैं सर्प का आभास है
इस बोध का कारण कि तुझमें, भ्रम का ही वास है.[10]

GForce
06-11-2011, 12:09 AM
प्रथम प्रकरण / श्लोक 11-20


अष्टावक्र उवाचः


जो मुक्त माने, मुक्त स्व को, बद्ध माने बद्ध है,
जैसी मति वैसी गति, किंवदंती ऐसी प्रसिद्ध है ! [11]

परिपूर्ण, पूर्ण है, एक विभु, चैतन्य साक्षी शांत है,
यह आत्मा निःस्पृह विमल, संसारी लगती भ्रांत है ! [12]

यह देह मन बुद्धि अहम्, ममकार, भ्रम है, अनित्य है,
कूटस्थ बोध अद्वैत निश्चय, आत्मा ही नित्य है ! [13]

बहुकाल से तू देह के अभिमान में आबद्ध है,
कर ज्ञान रूपी अरि से बेधन, नित्य तब निर्बद्ध है ! [14]

निष्क्रिय निरंजन स्व प्रकाशित, आत्म तत्व असंग है,
तू ही अनुष्ठापित समाधि, कर रहा क्या विसंग है ! [15]

यह विश्व तुझमें ही व्याप्त है, तुझमें पिरोया सा हुआ,
तू वस्तुतः चैतन्य, सब तुझमें समाया सा हुआ ! [16]

निरपेक्ष अविकारी तू ही, चिर शान्ति मुक्ति का मूल है,
चिन्मात्र चिद्घन रूप तू, चैतन्य शक्ति समूल है ! [17]

देह मिथ्या आत्म तत्व ही, नित्य निश्चल सत्य है,
उपदेश यह ही यथार्थ, जग आवागमन, से मुक्त है ! [18]

ज्यों विश्व में प्रतिबिम्ब अपने रूप का ही वास है,
त्यों बाह्य अंतर्देह में, परब्रह्म का आवास है ! [19]

ज्यों घट में अन्तः बाह्य स्थित सर्वगत आकाश है,
त्यों नित निरंतर ब्रह्म का सब प्राणियों में प्रकाश है ! [20]

GForce
06-11-2011, 11:39 AM
द्वितीय प्रकरण / श्लोक 1-12



बोधस्वरूपी मैं निरंजन, शांत प्रकृति से परे,
ठगित मोह से काल इतने, व्यर्थ संसृति में करे. [1]

ज्यों देह देही से प्रकाशित, जगत भी ज्योतित तथा,
या तो जगत सम्पूर्ण या कुछ भी नहीं मेरा यथा . [2]

इस देह में ही विदेह जग से त्याग वृति आ गई
आश्चर्य ! कि पृथकत्व भाव से ब्रह्म दृष्टि भा गई [3]

ज्यों फेन और तरंग में, जल से न कोई भिन्नता,
त्यों विश्व, आत्मा से सृजित, तद्रूप एक अभिन्नता [4]

ज्यों तंतुओं से वस्त्र निर्मित, तन्तु ही तो मूल हैं.
त्यों आत्मा रूपी तंतुओं से, सृजित विश्व समूल हैं. [5]

ज्यों शर्करा गन्ने के रस से ही विनिर्मित व्याप्त है,
त्यों आत्मा में ही विश्व, विश्व में आत्मा भी व्याप्त है. [6]

संसार भासित हो रहा, बिन आत्मा के ज्ञान से,
ज्यों सर्प भासित हो रहा हा, रज्जू के अज्ञान से. [7]

ज्योतिर्मयी मेरा रूप मैं, उससे पृथक किंचित नहीं ,
जग आत्मा की ज्योति से, ज्योतित निमिष वंचित नहीं. [8]

अज्ञान से ही जगत कल्पित, भासता मुझमें अहे,
रज्जू में, अहि सीपी में चांदी, रवि किरण में जल रहे. [9]

माटी में घट जल में लहर, लय स्वर्ण भूषन में रहे ,
वैसे जगत मुझसे सृजित, मुझमें विलय कण कण अहे. [10]

ब्रह्मा से ले पर्यंत तृण, जग शेष हो तब भी मेरा,
अस्तित्व, अक्षय, नित्य, विस्मय, नमन हो मुझको मेरा. [11]

मैं देहधारी हूं, तथापि अद्वैत हूं, विस्मय अहे,
आवागमन से हीन जग को व्याप्त कर स्थित महे. [12]

anoop
06-11-2011, 07:00 PM
अद्भुत है मित्र....

GForce
06-11-2011, 07:03 PM
अद्भुत है मित्र....


धन्यवाद, बन्धु !

anoop
06-11-2011, 07:38 PM
धन्यवाद, बन्धु !

दोस्त की श्रेणी में शामिल करो भाई

GForce
08-11-2011, 11:10 PM
द्वितीय प्रकरण / श्लोक 13-25


मुझको नमन आश्चर्यमय ! मुझसा न कोई दक्ष है.
स्पर्श बिन ही देह धारूँ, जगत क्या समकक्ष है. [13]

मैं आत्मा आश्चर्य वत हूँ , स्वयं को ही नमन है,
या तो सब या कुछ नहीं, न वाणी है न वचन है. [14]

जहाँ ज्ञेय, ज्ञाता,ज्ञान तीनों वास्तविकता मैं नहीं,
अज्ञान- से भासित हैं केवल, आत्मा सत्यम मही. [15]

चैतन्य रस अद्वैत शुद्ध,में,आत्म तत्व महिम मही,
द्वैत दुःख का मूल, मिथ्या जगत, औषधि भी नहीं. [16]

अज्ञान- से हूँ भिन्न कल्पित, अन्यथा मैं अभिन्न हूँ,
मैं निर्विकल्प हूँ, बोधरूप हूँ, आत्मा अविछिन्न हूँ. [17]

में बंध मोक्ष विहीन, वास्तव में जगत मुझमें नहीं,
हुई भ्रांति शांत विचार से, एकत्व ही परमं मही. [18]

यह देह और सारा जगत, कुछ भी नहीं चैतन्य की,
एक मात्र सत्ता का पसारा, कल्पना क्या अन्य की. [19]

नरक, स्वर्ग, शरीर, बन्धन, मोक्ष भय हैं, कल्पना,
क्या प्रयोजन आत्मा का, चैतन्य का इनसे बना. [20]

हूँ तथापि जन समूहे, द्वैत भाव न चित अहो,
एकत्व और अरण्य वत, किसे दूसरा अपना कहो. [21]

न मैं देह न ही देह मेरी, जीव भी में हूँ नहीं,
मात्र हूँ चैतन्य, मेरी जिजीविषा बन्धन मही. [22]

मैं महोदधि, चित्त रूपी पवन भी मुझमें अहे,
विविध जग रूपी तरंगें, भिन्न न मुझमें रहे. [23]

मैं महोदधि चित्त रूपी, पवन से मुझमें मही,
विविध जगरूपी तरंगें, भाव बन कर बह रहीं. [24]

मैं महोदधि, जीव रूपी, बहु तरंगित हो रहीं,
ज्ञान से मैं हूँ यथावत, न विसंगति हो रही. [25]

ashokmuz
16-11-2011, 08:29 PM
बहुत ही अच्छी है

GForce
18-11-2011, 01:20 AM
तृतीय प्रकरण / श्लोक 1-7



अद्वैत आत्मिक अमर तत्व से, सर्वथा तुम् विज्ञ हो,
क्यों प्रीति, संग्रह वित्त में, ऋत ज्ञान से अनभिज्ञ हो. [1]

ज्यों सीप के अज्ञान से,चांदी का भ्रम और लोभ हो,
त्यों आत्मा के अज्ञान से,भ्रमित मति, अति क्षोभ हो. [2]

आत्मा रूपी जलधि में, लहर सा संसार है,
मैं हूँ वही, अथ विदित, फ़िर क्यों दीन, हीन विचार हैं. [3]

अति सुन्दरम चैतन्य पावन, जानकर भी आत्मा,
अन्यान्य विषयासक्त यदि,तू मूढ़ है, जीवात्मा. [4]

आत्मा को ही प्राणियों में,आत्मा में प्राणियों
आश्चर्य !ममतासक्त मुनि, यह जान कर भी ज्ञानियों. [5]

स्थित परम अद्वैत में, तू शुद्ध, बुद्ध, मुमुक्ष है,
आश्चर्य ! है यदि तू अभी, विषयाभिमुख कामेच्छु है. [6]

काम रिपु है ज्ञान का, यह जानते ऋषि जन सभी,
आश्चर्य ! कामासक्त हो सकता है मरणासन्न भी. [7]

GForce
18-11-2011, 01:25 AM
तृतीय प्रकरण / श्लोक 8-14



विरत नित्यानित विवेचक, भोग हैं निरपेक्ष में,
आश्चर्य ! है यद्यपि मुमुक्षु, भय तथापि मोक्ष में. [8]

ज्ञानी जन तो भोग पीडा, भाव में समभाव हैं,
हर्ष क्रोध का आत्मा, पर कोई भी न प्रभाव है. [9]

देह में वैदेह ऋत अर्थों में, है ज्ञानी वही,
हों भाव सम निंदा प्रशंसा में कोई अन्तर नहीं. [10]

अज्ञान जिसका शेष, ऐसा धीर इस संसार को,
मात्र माया मान, तत्पर मृत्यु के सत्कार को. [11]

इच्छा रहित मन मोक्ष में भी, महि महिम महिमा महे,
उस आत्म ज्ञानी से तृप्त जन की, साम्यता किससे अहे. [12]

धीर ज्ञानी जानता है, जगत छल है प्रपंच है,
ग्रहण त्याग से मन परात्पर, न रमे कहीं रंच है. [13]

वासना के कषाय कल्मष, जिसने अंतस से तजे,
निर्द्वंद दैविक सुख या दुःख, पर शान्ति अंतस में सजे. [14]