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View Full Version : "ईद-उल-जुहा"


Sikandar_Khan
07-11-2011, 09:01 AM
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‘ईद-उल-जुहा’ सच्चाई पर कुर्बान होने की नीयत करने और खुदा से मुहब्बत के इजहार का जरिया है. इस मौके पर लोग खुदा से अपने लगाव और सच्चाई की लगन का खुलकर ऐलान करते हैं. यह त्योहार बंदों को हर आजमाइश पर खरा उतरने की प्रेरणा देता है|

Sikandar_Khan
07-11-2011, 09:05 AM
कुर्बानी का मतलब आमतौर पर ईद-उल-जुहा यानी बकरीद के दिन ऊंट, बकरे आदि को जिबाह (काटना) कर देने से है। यह ठीक है लेकिन हकीकत यह है कि इस्लाम धर्म कौम से जिंदगी के हर क्षेत्र में कुर्बानी मांगता है। इसमें धन व जीवन की कुर्बानी, नरम बिस्तर छोड़कर कड़कती ठंड या भीषण गर्मी में बेसहारा लोगों की सेवा के लिए जान की कुर्बानी वगैरह ज्यादा महत्वपूर्ण बलिदान हैं। कुर्बानी का असल अर्थ यहां ऐसे बलिदान से है, जो दूसरों के लिए दिया गया हो। जानवर की कुर्बानी तो सिर्फ एक प्रतीक भर है कि किस तरह हजरत इब्राहीम (बाइबल में अब्राहम) ने अल्लाह के लिए हर प्रकार की, यहां तक कि बेटे तक की कुर्बानी दे दी लेकिन खुदा ने उन पर रहमत भेजी और बेटा जिंदा रहा।

Sikandar_Khan
07-11-2011, 09:08 AM
ईद-उल-जुहा या ईद-उल-फितर मुसलमानों के उसी प्रकार दो खास फेस्टिवल हैं जैसे हिंदुओं के होली या दीवाली। ईद-उल-जुहा की एक खासियत यह भी है कि इसके कई नाम हैं। इसे नमकीन ईद और ईद-ए-कुर्बां भी कहते हैं। मगर लोग आमतौर पर इसे 'बकरीद' कहते हैं। यह हजयात्रा के समापन पर यानी अंतिम दिन मनाई जाती है। इस्लाम में इसे 'सुन्नते इब्राहीमी' का नाम दिया गया है। हजरत इब्राहीम क्योंकि अल्लाह को बहुत प्यारे थे, उनको 'खलीलुल्लाह' की पदवी भी दी गई है |

Sikandar_Khan
07-11-2011, 09:39 AM
वैसे इस शब्द का बकरों से कोई रिश्ता नहीं है और न ही यह उर्दू का शब्द है। असल में अरबी में 'बक़र' का अर्थ है बड़ा जानवर जो जिब्ह किया जाता है। उसी से बिगड़कर आज भारत, पाकिस्तान व बांग्लादेश में इसे 'बकरीद' कहते हैं। ईद-ए-कुर्बां का अर्थ है बलिदान की भावना। अरबी में '.कर्ब' बहुत पास रहने को कहते हैं यानी इस मौके पर ईश्वर मनुष्य के बहुत करीब हो जाता है।

Sikandar_Khan
07-11-2011, 09:43 AM
कुर्बानी उस जानवर को जिब्ह करने को कहते हैं जिसे 10, 11, 12 या 13 जलिहिज्ज (हज का महीना) को खुदा को प्रसन्न करने के लिए दी जाती है। कुरान में लिखा है : 'हमने तुम्हें हौज-ए-.कौसा दिया तो तुम अपने अल्लाह के लिए नमाज पढ़ो और कुर्बानी करो।'

Sikandar_Khan
07-11-2011, 09:45 AM
वैसे तो इस पावन पर्व की नींव अरब में पड़ी, मगर तुजक-ए-जहांगीरी में लिखा है : 'जो जोश, खुशी और उत्साह भारतीय लोगों में ईद मनाने का है, वह तो समरकंद, कंदहार इस्फाहान, बुख़ार, .खोरासां, बगदाद, और तबरेज जैसे शहरों में भी नहीं पाया जाता, जहां इस्लाम का आगमन भारत से पहले हुआ। बादशाह सलामत जहांगीर अपनी रिआया के साथ मिलकर ईद-उल-जुहा मनाते थे। .गैर मुसलिमों की दिल आजजारी (दिल टूटना) न हो, इसलिए ईद वाले दिन शाम को दरबार में उनके लिए विशेष शुद्ध वैष्णव भोजन हिंदुओं बावर्चियों द्वारा ही बनाए जाते थे। बड़ी चहल-पहल रहती थी। बादशाह सलामत इनाम-इकराम भी खूब देते थे। मुगल बादशाहों ने कुर्बानी के लिए गाय की सख्त मनाही की थी क्योंकि गाय बिरादरान-ए-वतन (हिंदुओं) के निकट पवित्र मानी जाती थीं और आस्था का पात्र थी।'

Sikandar_Khan
07-11-2011, 09:47 AM
यह बात सोलह आने सच है कि न सिर्फ अकबर व जहांगीर के वक्त बल्कि आज भी ईद का जो असली मनोरंजन है, वह भारत में ही देखने को मिलता है। ईद वाले रोज ऐसा लगता है कि मानो यह मुसलमानों का ही नहीं, हर भारतीय का पर्व है।

Sikandar_Khan
07-11-2011, 09:48 AM
ईद-उल-जुहा या ईद-उल-आहा का इतिहास काफी पुराना है जो हाजरत इब्राहीम से जुड़ा है। हाजरत इब्राहीम आज से कई हजार साल पहले ईरान के शहर 'उर' में पैदा हुए थे। जिस वातावरण में उन्होंने आंखें खोलीं, उस समाज में कोई भी बुरा काम ऐसा न था जो न हो रहा हो। आपने इसके खिलाफ आवाज उठाई तो सारे कबीले वाले और यहां तक कि परिवार वाले भी आपके दुश्मन हो गए। रेगिस्तानों और तपते पहाड़ों में ज्यादातर जीवन जनसेवा में बीता। संतानहीन होने की वजह से उन्होंने खुदा से गिड़गिड़ाकर प्रार्थना की जो सुनी गई और काफी ज्यादा उम्र मे उन्हें चांद सा बेटा दिया, जिसका नाम इस्माइल रखा गया |

Sikandar_Khan
07-11-2011, 09:51 AM
अभी इस्माइल की उम्र 11 साल भी न होगी कि हजरत इब्राहीम को सपना आया, जिसमें उन्हें आदेश हुआ कि खुदा की राह में कुर्बानी दो। उन्होंने अपने सबसे प्यारे ऊंट की कुर्बानी दे दी। मगर फिर सपना आया कि अपनी सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी दो। उन्होंने अपने सारे जानवरों की कुर्बानी दे दी। मगर तीसरी बार वही सपना आया कि अपनी सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी दो|

Sikandar_Khan
07-11-2011, 09:54 AM
वह समझ गए कि अल्लाह को उनके बेटे की कुर्बानी चाहिए। वह जरा भी न झिझके और पत्नी हाजरा से कहा कि नहला-धुलाकर बच्चे को तैयार कर दिया जाए। हाजरा ने ऐसा ही किया क्योंकि वह इससे पहले भी एक अग्निपरीक्षा से गुजरी थीं, जब उन्हें हुक्म दिया गया कि वह अपने बच्चे को जलते रेगिस्तान में ले जाएं। हजरत इब्राहीम बुढ़ापे में रेगिस्तान में बीवी और बच्चे को छोड़ आए थे |

Sikandar_Khan
07-11-2011, 09:59 AM
तपते रेगिस्तान में बच्चे को प्यास लगी। मां अपने लाडले के लिए पानी तलाशती फिरी, मगर पानी तो क्या पेड़ की छाया तक न थी उस बीहड़ रेगिस्तान में। बच्चा प्यास से तड़पकर मरने को हुआ। वह एडियां रगड़ने लगा और और खुदा के हुक्म से फौरन चश्मा (तालाब) जारी हो गया ।और आज भी जिसे हम सब "आबे जम जम"कहते हैं पानी का फौव्वारा हजरत इस्माइल के पांव के पास फूटा और रेगिस्तान में यह करामत हुई। उधर, मां सोच रही थी कि शायद इस्माइल की मौत हो चुकी होगी। मगर ऐसा नहीं था। वह जीवित रहे। अब इस घटना के बाद जब यह पता चला कि बेटे का गला पिता द्वारा खुदा के लिए काटा जाएगा, तो हाजरा ने कोई हावभाव प्रकट नहीं किए। वह ऐसी बन गईं मानों मां नहीं, वह पत्थर की कोई देवी हो क्योँकि वो जनती थी की उनका खुदा ही उनके लिए सब कुछ है |

Sikandar_Khan
07-11-2011, 10:07 AM
जब हजरत इब्राहीम इस्माइल को कुर्बानी की जगह ले जा रहे थे तो इबलीस (शैतान) ने उनको बहकाया कि क्यों अपने जिगर के टुकड़े को जिब्ह करने पर तुले हो, मगर वह न भटके और उसे पत्थर मारकर भगा दिया था |जिसे आज भी हज के दौरान शैतान का प्रतीक एक जगह पर पत्थर मारकर हजरत इब्राहिम कि सुन्नत को पूरा किया जाता है | हां, छुरी फेरने से पहले नीचे लेटे बेटे ने पिता की आंखों पर रूमाल बंधवा दिया कि कहीं ममता आड़े न आ जाए और हाथ डगमगा न जाएं। पिता ने छुरी चलाई और आंखों पर से पट्टी उतारी तो हैरान हो गए कि बेटा तो उछलकूद कर रहा है और उसकी जगह एक भेड़ की बलि खुदा की ओर से कर दी गई है। यह देखकर हजरत इब्राहीम की आंखों में आंसू आ गए और उन्होंने खुदा का बहुत शुक्रिया अदा किया। यह खुदा की ओर से इब्राहीम की एक और अग्निपरीक्षा थी। तभी से यह परंपरा चली आ रही है कि जलिहिज्ज के इस महीने में अपने हलाल के कमाए हुवे पैसों से जानवर खरीदकर या फिर घर में पाल कर जानवर की कुर्बानी दी जाती है|

Sikandar_Khan
07-11-2011, 10:10 AM
‘‘उस इंसान पर कुर्बानी वाजिब है, जिसके पास साढ़े सात तोला सोना या ५२ तोला चांदी या इसकी कीमत की कोई संपत्ति है. अगर किसी इंसान के पास इतनी कूवत नहीं है तो उस पर कुर्बानी वाजिब नहीं है.’’