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View Full Version : श्री कृष्ण-गीता (हिन्दी पद्द-रूप में)


anoop
07-11-2011, 06:15 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=13379&stc=1&d=1320749545

anoop
07-11-2011, 06:16 PM
श्री कृष्ण-गीता (हिन्दी पद्द-रूप में)


गीता-माहात्म्य
जो गीता निशि-दिन गाता है, वह भव सागर तर जाता है
जो गीता सुनता बार-बार, उसके मन उपजें सद विचार
जो गीता को मन में धारे, उस नर के कष्ट मिटें सारे
जिस घर में गीता का आदर, वह घर है स्वर्ग धरातल पर

anoop
07-11-2011, 06:17 PM
भूमिका
महारज शांतनु के पश्चात उनका बड़ा पुत्र चित्रांगद हस्तिनापुर के राज-सिंहासन पर बैठा। उसकी अकाल मृत्यु हो जाने के कारण उसके छोटे भाई विचित्रवीर्य को राज-भार संभालना पड़ा। विचित्रवीर्य के दो पुत्र थे। एक का नाम धृतराष्ट्र और दूसरे का पांडु था। धृतराष्ट्र बड़ा था, पर जन्मांध था। इसलिए, हस्तिनापुर का उत्तराधिकारी पांडु बना। पांडु के पुत्र युधिष्ठिर , भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव पांडव कहलाए और धृतराष्ट्र के दुर्योधन, दःशासन आदि सौ पुत्र कौरव। राज्य पर पांडवों का अधिकार था। परन्तु दुर्योधन ने छल से उनसे राज्य हथिया लिया। इस कारण न्याय और अधिकार हेतु पांडवों के लिए लड़ना अनिवार्य हो गया। अर्जुन ने भाईयों से लड़ना उचित नहीं समझा, इसलिए उसने युद्ध करने से इनकार कर दिया। इस अवसर पर श्रीकृष्ण ने वीरवर अर्जुन को धर्मार्थ युद्ध लड़ने की प्रेरणा देने का उपदेश दिया।

श्रीकृष्ण के इस उपदेश से प्रेरणा पाकर अर्जुन युद्ध के लिए तैयार हो गया। युद्ध आरंभ होने से पहले व्यास जी धृतराष्ट्र से मिलने आए। धृतराष्ट्र ने व्यास जी से प्रार्थना की - "मैं अंधा हूँ, इसलिए इस महान युद्ध में दोनों पक्षों से लड़ने वाले वीरों की वीरता और युद्ध-कौशल की जानकारी से वंचित रह जाऊँगा। आप कोई ऐसा उपाय करें, जिससे मैं यहाँ बैठे-बिठाए युद्ध का वर्णन सुन सकूँ।"

धृतराष्ट्र के इस प्रार्थना को व्यास जी ने स्वीकार किया। उन्होंने अपने योगबल से संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान की। तत्पश्चात वे वहाँ से चले गए। इस दिव्य दृष्टि से संजय बैठे-बैठे महाभारय का समस्त युद्ध देखता रहा और धृतराष्ट्र को उसके बारे में बताता रहा।

anoop
07-11-2011, 06:19 PM
पहला अध्याय

सेना वर्णन

धृतराष्ट्र-
मेरे और पांडु के बेटे कुरुखेत की पावन धरती पर
जो हुए इकट्ठे लड़ने को और आपस में कट-मरने को
उनका क्या हुआ बता, संजय;
तू उनका हाल बता संजय

संजय-
तब देख पाण्डवों के लश्कर
जो खड़े हुए थे सज-धज कर
जा पास गुरु द्रोण के तत्क्षण
दुर्योधन ने ये कहे वचन
यह सजी खड़ी भारी सेना
है पांडवों की सारी सेना
इसका श्रृंगार किया जिसने
इसको तैयार किया जिसने
वह धृष्टधुम्न है द्रुपद लाल
वह शिष्य आपका है कमाल
जो इस सेना में खड़े वीर
जो लड़ने-मरने को अधीर
वे शुरवीर हैं वीर्यवान
रण बीच भीम-अर्जुन समान
वह है विराट, वह कुन्तिभोज,
वह सात्यकि, वह उत्तमौज
वह पुरुजित, वह है चेकितान,
वह धृष्टकेतु है वीर्यवान
वह शैव्य मनुष्यों में विशेष
वह खड़ा हुआ काशी-नरेश
वे द्रपदी के हैं पाँच लाल
ये सब सेनानी हैं कमाल
अब उन्हें जान लें पुण्यवान
जो मेरी सेना के हैं प्रधान
उन सब के नाम गिनाता हूँ
मैं सहज सभी समझाता हूँ
मेरी सेना के प्रथम वीर
हैं भीष्म, आप और कर्ण धीर
अश्वत्थामा व विकर्ण आर्य
संग्राम-विजयी हैं कृपाचार्य
है सोमदत्त का लाल बली
हैं एक-से-एक कमाल बली
ये सव सेना की शान-बान
इन सब पर मुझको है गुमान
ये सब हैं लड़ने को तत्पर
मेरे हित मरने को तत्पर
उनकी सेना के भीम ताज
उनके नायक हैं भीम आज
इसलिए जीतना नहीं कठीन
है आज हमारी जय का दिन
हैं भीष्म कुशल नायक अपने
सच होंगे सब जय के सपने
लेकिन फ़िर भी दूँ सब से कह
अपने-अपने मोर्चे पर रह
निज-निज कर्तव्य निभाना तुम
मत कोई कमी उठाना तुम

anoop
07-11-2011, 06:20 PM
शंख-ध्वनि

संजय-
सुन दुर्योधन के वीर वचन
जो पुलकित करते थे तन-मन
उठ खड़े हुए भीष्म मानव महान
निज सेना को कर सावधान
यों कर भीषण हुँकार उठे
जैसे वनराज दहाड़ उठे
ले शंख युद्ध का बजा दिया
सोई सेना को जगा दिया
तब एक साथ सब ही बाजे
थे जितने भी जंगी बाजे
उन से भीषण आजाज हुई
अम्बर डोला, भू काँप गई
जिस रथ की शोभा थी महान
रथ और न था जिसके समान
उसमें बैठे थी पार्थ वीर
थे साथ सारथी कृष्ण धीर
दोनों ने शंख उठा कर में
भर दिया घोर रव अम्बर में
ले पांचजन्य का शंख हाथ
अति घोर ध्वनि की यदुनाथ
तब भीम ने भयानक नाद किया
ले पौंड्रशंख को बजा दिया
ले शंख मणिपुष्पक-सुघोष
सहदेव-नकुल ने किया घोष
काशी-नरेश धनुधारी ने
और धृष्टधुम्न बलशाली ने
सात्यकि शिखंडी भूपालों ने
द्रौपदी के पाँचों लालों ने
अर्जुन के लाल निराले ने
उस बड़ी भुजाओं वाले ने
विराट द्रुपद राजाओं ने
दूसरे सभी योद्धाओं ने
हे राजन! अलग-अलग सबने
तब फ़ूँके शंख अपने-अपने
उनसे भीषण आवाज हुई
अम्बर काँपा, भू डोल गई
कौरव-दल का दिल टूट गया
साहस का पल्ला छूट गया

anoop
07-11-2011, 06:21 PM
सेना-निरीक्षण

तीरों के चलने से पहले
वीरों के लड़ने से पहले
हाथों में ले कर धनुष-बाण
अर्जुन बोला - हे दयावान
इस रथ को जरा बढ़ा देवें
रिपु-सेना मुझे दिखा देवें
अर्जुन के ऐसा कहने पर
रिपु-सेना में रथ ले जा कर
(कृष्ण) बोले अर्जुन अब कौरवों पर
ले डाल जरा तू एक नजर
तब वीर पृथा-सुत अर्जुन ने
देखा दोनों सेनाओं में
हैं खड़े हुए सब बंधुगण
चाचे, मामे, भाई, गुरुजन
यों देख सभी अपने प्रियजन
अर्जुन बोला हो शोकमग्न
हे भगवन नहीं बता सकता
क्या हुआ नहीं समझा सकता
है शिथिल हुआ जाता शरीर
मन होता जाता है अधीर
तन कांप रहा, मुँह सुख रहा
है नहीं मुझे कुच सूझ रहा
कर से गांडीव गिरा जाता
मैं खड़ा नहीं अब रह पाता

anoop
07-11-2011, 06:22 PM
अर्जुन का मोह

अपनों से लड़ना ठीक नहीं
है यह रण करना ठीक नहीं
इसमें कल्याण नहीं भगवन
सब दिख रहे उल्टे लक्षण
मुझको पाना है राज नहीं
मुझको पाना यश-ताज नहीं
मुझको जिनके हित लड़ना है
यश-राज प्राप्त यह करना है
जीवन की इच्छा त्याग, अगर
लड़ने को हैं वे हीं तत्पर
फ़िर लड़ने का क्या अर्थ प्रभू
यह लड़ना बिल्कुल व्यर्थ प्रभू
मैं ऐसा कभी न कर सकता
अपनों से कभी न लड़ सकता
बिनमौत स्वीकार मुझे मरना
लेकिन स्वीकार नहीं लड़ना
यह रण कर के पाप लगेगा हीं
मन को संताप लगेगा हीं
अपने को मार न सुख होता
तन को दुख, मन को दुख होता
ये लोभ के मारे लड़ते हैं
और पाप के पथ पर चलते हैं
मैत्री का मोल नहीं जानें
कुल-नाश के दोष नहीं मानें
इससे बढ़कर है पाप नहीं
इससे बढ़कर संताप नहीं
कुछ हमें सोचना हीं होगा
यह युद्ध रोकना हीं होगा
कुल मिटे धर्म मिट जाता है
तब पाप पंख फ़ैलाता है
है पाप बहुत बढ़ जाता जब
नारी दूषित हो जाती तब
नारी के दूषित होने पर
लेते हैं जन्म वर्ण-संकर
इन वर्ण-संकर के दोषों से
सारे समाज के लोगों के
हो जाते हैं कुल-धर्म नष्ट
हो जाती है जातियाँ भ्रष्ट
इनके कुल और कुल-घातक
पाते हैं सारे घोर नरक
पिन्ड और जल-दान न हो पाता
पितरों का तब नाश हो जाता
ऐसे कुल-धर्म से गिरे लोग
जन्मों तक भोगें नरक भोग
इस कारण दुख होता भगवन
हम सब हो कर बुद्धिमान-जन
यह घोर पाप करने को हैं
आपस में लड़-मरने को हैं
हम स्वार्थ के मारे लड़ते हैं
कुल-नाश से हम न डरते हैं
मुझे शस्त्र-हीन पर वार करें
कौरव मेरा संहार करें
तो भी मैं बुरा न मानूँगा
कल्याण इसी में जानूँगा
यह कह रण में अर्जुन महान
तज अपने कर से धनुष-बाण
दुख के सागर में पैठ गया
था जहाँ वहीं पर बैठ गया

anoop
07-11-2011, 06:24 PM
पहला अध्याय समाप्त

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=13380&stc=1&d=1320749627

anoop
07-11-2011, 06:27 PM
दूसरा अध्याय

अर्जुन की निराशा

संजय-
तब उस निराश मन अर्जुन से
तब उस हताश मन अर्जुन से
जिसका तन, जिसका मन डोले
भगवान कुपित हो कर बोले

भगवान-
क्या अर्जुन वीर महान हुआ?
क्यों संकट में अज्ञान हुआ?
यह श्रेष्ठ पुरूष का काम नहीं
इससे होता है नाम नहीं
इसलिए न साहस छोड़ सखे
तू रण से मत मुँह मोड़ सखे
हे अर्जुन कायरता तजकर
उठ हो जा लड़ने को तत्पर

अर्जुन-
अपनों से लड़ना नहीं उचित
अपनों को मार न होता हित
अपनों से लड़, अपनों को मार
भू पर निष्कंटक कर विहार
जो भोगूँगा धन और धाम
तो डोबूँगा मैं वंश-नाम
यह पाप-पूर्ण जीवन जीना
इससे अच्छा है विष ही पीना
है बूरी-भली क्या बात प्रभू
है मुझे नहीं क्या ज्ञात प्रभू
है मेरे वश की बात नहीं
है हार-जीत भी ज्ञात नहीं
कायरपन ने आ घेरा है
दिखता सब ओर अँधेरा है
मोहित मति ने भरमाया है
निज धर्म से मुझे गिराया है
जो निश्चित हित-मय साधन हो
हे भगवन मुझको बतला दो
मैं भटका हूँ, भरमाया हूँ
बन शिष्य शरण में आया हूँ
बस वही मुझे दो ज्ञान प्रभू
जिससे हो हित-कल्याण प्रभू
देवों का स्वामी बन जाऊँ
सुख, वैभव, राज भले पाऊँ
पर जो दुख मन को जला रहा
पर जो दुख तब को जला रहा
उसका उपचार न पाऊँगा
उससे उद्धार न पाऊँगा
यह कह दुख में वह पैठ गया
था जहाँ वहीं पर बैठ गया
तब देख पार्थ को शोकाकुल
तब देख पार्थ का मन व्याकुल

बोले भगवान - जरा अर्जुन
अब ध्यान से मेरी बातें सुन

anoop
07-11-2011, 06:28 PM
ज्ञान-योग

दुख करना उचित नहीं जिस पर
तू क्यों दुख करता है उसपर ?
जिनको हो जाता आत्म-ज्ञान
जो खुद को लेते समझ-जान
इस बात की केवल उन्हें खबर
नर कभी नहीं सकता है मर
तू ही मुझको वह काल बता
जब तू न था, जब मैं न था
जब ये योद्धा, ये वीर न थे
ये बड़े-बड़े रणधीर न थे
ऐसा न कभी होगा आगे
हम तुम न रहें, न रहें सब ये
मरकर केवल नर-तन क्षय हो
क्षय हो कर मिट्टी में लय हो
पर नहीं सके नर-आत्मा मर
इसलिए न इसकी चिन्ता कर
आत्मा कभी न मरती है
न किसी को मारा करती है
आत्मा नित्य, आत्मा अजर
आत्मा अजन्मी और अमर
जैसे पहले पहने कपड़े उतार
नर लेता है फ़िर नए धार
वैसे हीं पहला तन तज कर
आत्मा नया तन लेती धर
आत्मा नहीं काटे कटती
आत्मा नहीं बाँटे बँटती
आत्मा नहीं क्षय हो सकती
आत्मा नहीं लय हो सकती
आत्मा नहीं जल सकती है
आत्मा नहीं गल सकती है
यह नहीं बदलने वाली है
मरने न जनमने वाली है
जो तू इसको नश्वर माने
मरने-मिटने वाला जाने
तो भी चिन्ता बेकार, सखे
यह बात निपट निस्सार, सखे
इक दिन सब को उठ जाना है
सब का जीवन लुट जाना है
फ़िर क्यों चिन्ता, क्यों शोक करें ?
फ़िर मरने से क्यों पार्थ डरें ?
हम पूर्व जन्म या बाद मरण
होते हैं सारे ही बिन-तन
बस बीच जन्म और मरण के ही
हम पाते हैं काया नर की
पर इसको जान न सकते हम
इसको पहचान न सकते हम
आत्मा अजर सबके तन में
आत्मा अमर सबके तन में
फ़िर तेरा मन क्यों इसके हित
है होता व्याकुल और चिन्तित

anoop
07-11-2011, 06:29 PM
क्षात्र-धर्म

भगवान-
अर्जुन, कुछ सोच-विचार जरा
निज धर्म की ओर निहार जरा
यह कायरता है पाप घोर
वीरों के हित अभिशाप घोर
रणवीरों के हित स्वर्ग-द्वार
है प्राप्त न होता बार-बार
ऐसा अवसर अर्जुन महान
पाते हैं केवल भाग्यवान
यदि तू यह अवसर छोड़ेगा
यदि तू रण से मुँह मोड़ेगा
तू अपनी इज्जत खो देगा
तू अपना धर्म डूबो देगा
तू खुद को पाप लगा लेगा
मन को संताप लगा लेगा
संसार तुझे धिक्कारेगा
कह कायर-नीच पुकारेगा
तेरा अपयश घर-घर होगा
तेरा अपयश दर-दर होगा
अपयश होता मृत्यु-समान
कब सह सकते हैं नर महान
तू कष्ट बहुत हीं पाएगा
तू जीते-जी मर जाएगा
रण में आएगा अगर काम
मर कर पाएगा स्वर्ग-धाम
यदि जीत समर तू जाएगा
तो राज धरा का पाएगा
हार और जीत दोनों समान
इसलिए युद्ध हीं श्रेष्ठ जान
यह कायरता है पाप बड़ा
उठ लड़ने को हो पार्थ खड़ा

anoop
07-11-2011, 06:30 PM
कर्म-योग

भगवान-
अब तक बतलाया ज्ञान-योग
अब तक समझाया ज्ञान-योग
अब कर्म-योग बतलाता हूँ
इस पथ में कहीं न बाधा है
यह पथ अति सीधा-सादा है
अर्जुन, जो यह पथ अपनाए
दुख उसके पास नहीं आए
कर्मों में कोई पाप नहीं
कर्मों से हो संताप नहीं
कर्मों से इज्जत-नाम मिले
कर्मों से सुख-आराम मिले
कर्मों से पुण्य कमाते नर
कर्मों से सब कुछ पाते नर
इसलिए कर्म तू करता चल
कर्मों के पथ पर तू चलता चल
कर्मों में कहीं नहीं दुख है
कर्मों में कहीं नहीं सुख है
फ़ल हीं में दुख रहता, अर्जुन
फ़ल हीं में सुख रहता, अर्जुन
जो फ़ल की चिन्ता करता है
सुख-दुख में वह ही पड़ता है
मूर्ख हीं फ़ल की चिन्ता करते
सुख-दुख के बंधन में पड़ते
जो नर होते हैं समझदार
वे नहीं करें फ़ल का विचार
नर तो बस कर्म किया करता
फ़ल मैं हीं सदा दिया करता
हैं सभी कर्म तेरे अधीन
हो कभी नहीं तू कर्महीन
फ़ल का कर कभी विचार नहीं
फ़ल पर तेरा कोई अधिकार नहीं
उठ कर्महीनता त्याग पार्थ
उठ मोह-नींद से जाग पार्थ
जो नर फ़ल में ही लीन रहे
वह दीन, सदा हीं दीन रहे
जो फ़ल का कभी न ध्यान धरे
निश्चिंत हुआ जो कर्म करे
दुख उसके निकट नहीं आए
अर्जुन, वह भटक नहीं पाए।

anoop
07-11-2011, 06:32 PM
दूसरा अध्याय समाप्त

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=13367&stc=1&d=1320676308

anoop
07-11-2011, 06:37 PM
अब शायद शनिवार को आना हो सके तो उस दिन आगे के कुछ अध्याय (जो टाईप हो सकेगा) पोस्ट करुँगा। आशा है आप सब को गीता की यह प्रस्तुति पसन्द आएगी....(मुझे गीता का ऐसा सरल अनुवाद बहुत पसन्द है)। इसके मूल रचनाकार हैं दिल्ली के - नरेश कुमार ’अनजान’ और यह पुस्तक रूप में २००४ में छपी थी पुस्तक महल से, फ़िर इसके नए संस्करण नहीं निकले। मुझे एक प्रति मिल गई तो मैंने सोंचा कि इसे आप सब तक पहुँचाई जाए।

arjun_sharma
07-11-2011, 08:01 PM
यह मेरा सबसे पसंदीदा विषय है.. अनूप जी सूत्र को बढाते जाइए. काफी ज्ञानवर्धक बातें सामने आती जायेगी.

anoop
08-11-2011, 02:56 PM
यह मेरा सबसे पसंदीदा विषय है.. अनूप जी सूत्र को बढाते जाइए. काफी ज्ञानवर्धक बातें सामने आती जायेगी.

धन्यवाद भाई। आज पुनः आने का मौका मिल गया तो कुछ और पृष्ठ पोस्ट कर रहा हूँ। आशा है पसन्द आएगा।

anoop
08-11-2011, 02:58 PM
तीसरा अध्याय

कर्म की आवश्यकता

अर्जुन-
हे जगतेश्वर! हे परमेश्वर
कर्मों से अच्छा ज्ञान, अगर
फ़िर मुझे कहें क्यों लड़ने को ?
यह कर्म भयानक करने को ?
यह उलझी बात है उलझाती
मुझ भरमाये को भरमाती
इसलिए कहें बस बात वही
जो हो भगवन मेरे हित की

भगवान-
दो पथ हैं दुनिया में अर्जुन
इक ज्ञान दूसरा कर्म है सुन
कोई भी पथ नर अपनाए
निष्कर्म नहीं पर हो पाए
अपने स्वभाव के हो अधीन
नर रहता हरदम कर्मलीन
कर्मों को त्याग न सकता नर
कर्मों से भाग न सकता नर
जिसका मन भोगों में बहता
पर खुद को है रोके रहता
वह खुद हीं खुद को छलता है
वह पाप के पथ पर चलता है
पर अनासक्त होकर जो नर
अपने मन को अपने वश कर
है राह पकड़ता कर्मों की
उसके समान न कोई भी
इसलिए कर्म तू करता चल
कर्मों के पथ पर चलता चल
पर कर्म नहीं करता जो जन
उसका निर्बल हो जाता तन
निर्बल पाता है दुख-ही-दुख
निर्बल को प्राप्त न होता सुख
निर्बल का जीवन रीता है
निर्बल आँसू पी जीता है
जो नर होते हैं ज्ञानवान
जो नत होते हैं बुद्धिमान
वे कर्म कमाया करते हैं
निज धर्म निभाया करते हैं
पर फ़ल की बात नहीं करते
पर कल की बात नहीं करते
चाहे कर्मों से युक्त रहें
ऐसे नर तो भी मुक्त रहे
तू इनके पथ पर चलता चल
निज धर्म क पालन करता चल
है मुझे न कोई पाबंदी
जग के कर्मों को करने की
फ़िर भी मैं कर्म किया करता
कर्मों के पथ पर हूँ चलता
जो मैं कर्मों से मुँह मोड़ूं
जो कर्मों से नाता तोड़ूं
सब मेरा पथ अपनाएँगे
कर्मों से विमुख हो जाएँगे
कर्मों से विमुख हो कर ये नर
सब दुख भोगेंगे जीवन भर
लोगों को ऐसा मार्ग दिखा
मैं कभी नहीं सुख पा सकता
कर्मों के बन्धन भी उसको
फ़ल की चिन्ता करता है जो
मैं कहता हूँ जो वही कर
कर्मों के बन्धन से मत डर
तू कर्म किए जा निर्भय हो
सब अर्पण करता जा मुझको
फ़ल की चिन्ता को त्याग पार्थ
भ्रम की निद्रा से जाग पार्थ
उठ हो जा लड़ने को तत्पर
उठ हो रण करने को तत्पर

anoop
08-11-2011, 03:00 PM
चौथा अध्याय

योग-महिमा

भगवान-
हे अर्जुन! दुनिया बीच कहीं
इस योग सा और है योग नहीं
यह योग नहीं मिटने वाला
यह योग है योगों में आला
भारत की पावन धरती पर
सबसे पहले मैंने आकर
यह योग सुनाया सूरज को
यह योग बताया सूरज को
फ़िर सूरज से मनु पे आया
मनु से मनु-बेटे ने पाया
यह योग रहा यों ही चलता
यह योग रहा यों ही फ़लता
पर बहुत समय से यही योग
भूले धरती के सभी लोग
तू परम भक्त मेरा अर्जुन
इसलिए तुझे बतलाता सुन
यह योग दूर दुख करता है
यह योग सभी दुख हरता है
यह योग सुखों की खान समझ
यह योग श्रेष्ठ वरदान समझ

अर्जुन-
सूरज तो हुआ बहुत पहले
जब मैं न था, जब आप न थे
फ़िर हे प्रभो! आपने सूरज से
यह योग कहा कब और कैसे?

भगवान-
लाखों हीं जन्म हुए मेरे
लाखों ही जन्म हुए तेरे
है ज्ञात नहीं कुछ भी तुझको
पर ज्ञात सभी कुछ है मुझको
मैं जन्म नहीं लेता अर्जुन
और कभी नहीं मरता हूँ सुन
मैं सब जीवों से ऊपर हूँ
हे अर्जुन, मैं हीं ईश्वर हूँ
अपने स्वभाव को कर अधीन
खुद को माया में कर विलीन
यों कभी-कभी मैं तन धर कर
अवतरित हुआ करता भू पर
जब धर्म अधर्म से डरता है
जब पाप धरा पर बढ़ता है
तब मैं तन धार लिया करता
तब मैं अवतार लिया करता
पापी लोगों का कर संहार
और साधू लोगों को उबार
मैं भार धरा का हरता हूँ
और धर्म स्थापित करता हूँ
मेरा हर जन्म अलौकिक है
मेरा हर कर्म अलौकिक है
मुझको पहचान लिया जिसने
है मुझको जान लिया जिसने
वह जन्म-मुक्त हो जाता है
फ़िर जन्म नहीं वह पाता है
वह हो जाता है मेरे समान
उसमें मुझमे मत भेद जान
मेरे कुछ ऐसे भक्त रहे
जो मुझ में हीं अनुरक्त रहे
चलते मेरे अनुसार रहे
करते मुझ-सा व्यवहार रहे
फ़ल की चिन्ता से दूर रहे
सुख से हर दम भरपूर रहे
मुझमें हीं आकर व्याप्त हुए
मेरे स्वरूप को प्राप्त हुए
पर जो नर फ़ल की आशा ले
अपने मन में अभिलाषा ले
शुभ कर्म कमाया करते हैं
निज धर्म निभाया करते हैं
उनको फ़ल उनके कर्मों का
हे पार्थ! शीघ्र ही है मिलता
पर कर्म के बन्धन से उनकी
है कभी नहीं मुक्ति होती
उनका मन भटका रहता है
सुख-दुख में अटका रहता है
वे मुझ तक कभी न आ सकते
वे मुझको कभी न पा सकते
अब जो मुझ को पाए हैं
अब तक जो मुझ तक आए हैं
वे सब करते थे कर्म सभी
पर उन्हें न चिन्ता थी फ़ल की
वे कर्म को कर्म समझते थे
वे कर्म को धर्म समझते थे
वे नर कर्मों से युक्त रहे
फ़िर भी कर्मों से मुक्त रहे
तू चल उन पुरखों के पथ पर
मैं कहता हूँ जो वही कर
जो फ़ल का कभी न ध्यान धरें
निष्काम भाव से कर्म करें
वे लोग हुआ करते योगी
चाहे वे कर्मों के भोगी
जो कर्म किया करते महान
पर कभी नहीं करते गुमान
जो कभी नहीं हैं इठलाते
मेरा प्रताप-बल बतलाते
मैं उनमें ज्ञान जगाता हूँ
उनका अज्ञान मिटाता हूँ
पावक से तूल जले जैसे
सत्ज्ञान से पाप जले वैसे
सबसे ऊपर तू ज्ञान जान
कुछ और नहीं इसके समान
है कर्म कौन सा बुरा-भला
यह ज्ञान हमें सकता बतला
यह मन पवित्र करने वाला
यह तन पवित्र करने वाला
जो नर होता है श्रद्धावान
केवल पाता है वही ज्ञान
ज्ञानी पाता है सुख हीं सुख
ज्ञानी को प्राप्त न होता दुख
विश्वास-रहित होता जो नर
उसमें संशय लेता घर कर
संशय उसको खा जाता है
वह कभी नहीं सुख पाता है
तू ज्ञान-रूप तलवार धार
अपना संशय-अज्ञान मार
उठ हो जा लड़ने को तत्पर
उठ हो रण करने को तत्पर
*** *** ***

anoop
08-11-2011, 03:01 PM
अब आगे टाईप करने के बाद, शायद अगले शनिवार तक पोस्ट कर पाऊँगा

Dark Saint Alaick
08-11-2011, 03:17 PM
एक श्रेष्ठ सूत्र के लिए मेरी ओर से बधाई स्वीकार करें ! गीता एक अनुपम ग्रन्थ है ! इसका सन्देश सरल पद्य में पढ़ना और भी अच्छा लगता है ! इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपका धन्यवाद !

Sikandar_Khan
08-11-2011, 03:30 PM
भारतीय साहित्य विभाग मे एक अनमोल सूत्र जोड़ने के लिए आपका हार्दिक आभार

ashokmuz
09-11-2011, 12:31 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=13462&stc=1&d=1320827446

anoop
09-11-2011, 06:35 PM
धन्यवाद बंधुगण...

anoop
01-12-2011, 06:17 PM
पिछले कई दिनों से यहाँ आना न हो सका था। अब जल्द हीं आगे भी पोस्ट करुँगा।

anoop
11-12-2011, 05:18 PM
पाँचवा अध्याय
निष्काम कर्म-योग
अर्जुन-
कर्मों का मैं सन्यास धरूं
अथवा निष्काम हो कर्म करूं
जो हित में हो वह बतला दें
मेरा पथ मुझको दिखला दें
भगवान-
दोनों पथ सुख करने वाले
दोनों पथ दुख हरने वाले
लेकिन मैं जो कहता हूँ कर
निष्काम कर्म के पथ पर चल
यह पथ आसान बड़ा, अर्जुन
इस पथ में कहीं न बाधा सुन
इसमें है बात न संशय की
हैं अलग-अलग पथ दोनों हीं
पर दोनों में है सुख अपार
दोनों पहुँचाते स्वर्ग-द्वार
नर ज्ञान-योग से जो पाए
वह कर्मों से भी मिल जाए
लेकिन बिन कर्मों के, अर्जुन
नर ज्ञान नहीं पा सकता सुन
निष्काम हुआ, जो कर्म करे
वह प्राप्त शीघ्र निर्वाण करे
अपने मन को अपने वश कर
तज विषय-वासना को जो नर
दुनिया के सारे काम करे
सब-के सब मेरे नाम करे
फ़ल में होवे अनुरक्त नहीं
फ़ल में होवे आसक्त नहीं
वह सच्चे सुख को पाता है
दुख उसको नहीं सताता है
जिसके वश में है मन-शरीर
जो कभी नहीं होता अधीर
जो सबको अपने-सा जाने
जो सबको अपने-सा माने’
निर्धन हो या हो विश्व-भूप
जो सब में देखे ब्रह्म-रूप
जग में करता सब काम-काज
धरती पर करता हुआ राज
जो मन में मान नहीं लाता
जो मन में तनिक न इतराता
जो कहता, करता दाता है
नर मूरख जो इठलाता है
ऐसा नर सबसे ऊपर है
ऐसा नर खुद हीं ईश्वर है
अज्ञान को ज्ञान हरे ऐसे
सूरज तम को हरता जैसे
है जिसके मन में दीप्त ज्ञान
वह ईश्वर का ही रूप जान
वह पाप नहीं कर सकता है
दुख में न कभी पड़ सकता है
वह जग के बीच रहे ऐसे
पानी में कमल रहे जैसे
*** *** ***

anoop
11-12-2011, 05:20 PM
छ्ठा अध्याय
योगी के लक्षण
भगवान-
कर्मों के फ़ल का ध्यान न कर
सत्कर्म किया करता जो नर
चाहे हो वह कर्मों का भोगी
हे अर्जुन! वह तो भी योगी
जिसको कर्मों से प्यार नहीं
अपने मन पर अधिकार नहीं
वह नर योगी हो कर है भोगी
है पाप उसे कहना योगी
योगी कहलाना चाहे जो
इस पद को पाना चाहे जो
वह इच्छाओं से रहे परे
निष्काम हुआ वह कर्म करे
जो इच्छाओं का दास नहीं
जिसमें विषयों का वास नहीं
वह नर योगी कहलाता है
उसको दुख नहीं सताता है
है अपना शत्रु आप हीं नर
और आप ही अपना है हितकर
अपने मन को अपने वश कर
अपने तन को अपने वश कर
है कर्म किया करता जो नर
वह जान आप अपना हितकर
जो खुद हीं मन के वश में हो
जो खुद हीं तन के वश में हो
है कर्म किया करता, अर्जुन
वह अपना शत्रु आप है सुन
वह निशि-दिन पाप कमाता है
जीवन को नरक बनाता है
उसको सुख कभी न मिल सकता
उसका मन कभी न खिल सकता
अर्जुन, तन-मन के हो अधीन
तू क्यों बनता है कर्म-हीन?
अपने तन-मन को वश में कर
उठ हो जा लड़ने को तत्पर

anoop
11-12-2011, 05:21 PM
ध्यान-योग
हे अर्जुन! जो नर वन में जा
और सुन्दर-स्वच्छ धरातल पा
स्थापित कर ऐसे आसन को
अति ऊँचा और न नीचा जो
फ़िर उस पर बिछा कुशा आला
और सुन्दर सी एक मृग-छाला
अपने तन को अपने वश कर
अपने मन को अपने वश कर
उस पर आसीन करे खुद को
और ध्यान में लीन करे खुद को
गर्दन और कमर को रख सीधा
और अपने तन को अचल बना
निज नाक-नोक पर टिका नजर
देखता नहीं जो इधर-उधर
अपने मन को यों कर अधीन
जो मुझमें होता है ध्यान-लीन
वह परम मोक्ष को पाता है
मेरे समान हो जाता है
जग के जितने भी आकर्षण
उन सब से रोक के अपना मन
जो मुझमें ध्यान लगाता है
उसका मन न डोल पाता है
उसका मन रहता है ऐसे
बंद वायु में दीपक जैसे
उसका मन भटक नहीं सकता
विषयों में अटक नहीं सकता
वह नर पापों से दूर रहे
सुख से हरदम भरपूर रहे

anoop
11-12-2011, 05:22 PM
अर्जुन-
मन चंचल ठहर न पाता है
पल में विचलित हो जाता है
ज्यों वश में करना कठिन पवन
त्यों मुश्किल से वश में हो मन
भगवन, मन है गतिमान बड़ा
भगवन, मन है बलवान बड़ा
इसलिए बताएं वह साधन
जिससे कभी न भटके मन
यह वश में रहे सदा मेरे
भ्रम कभी नहीं इसको घेरे

anoop
11-12-2011, 05:22 PM
भगवान-
माना मन है गतिमान बड़ा
माना मन है बलवान बड़ा
माना यह ठहर न पाता है
पल में विचलित हो जाता है
लेकिन अभ्यास से सब कुछ हो
वश में कर सकते हो मन को
अभ्यास नहीं करता जो नर
वह मन को सके न वश में कर
उसका मन भटकता रहता है
विषयों में अटका रहता है
जो नर रहता अभ्यास-लीन
मन हो जाता उसके अधीन
उसका मन भटक नहीं सकता
विषयों में अटक नहीं सकता

anoop
11-12-2011, 05:24 PM
योग-भ्रष्ट की गति
अर्जुन-
नर सच्चे मन से करे जतन
यदि फ़िर भी ठहर न पाए मन
उसका बतलाएं क्या होगा?
उसका समझाएं क्या होगा?

aspundir
11-12-2011, 05:24 PM
अनूप जी, सुन्दर सूत्र के लिए शतशः नमन ।

anoop
11-12-2011, 05:24 PM
भगवान-
जो मन से जतन किया करता
अच्छे कर्मों को करने का
उसका श्रम होता नहीं विफ़ल
इक दिन उसमें आता है फ़ल
जो नर होते हैं पुण्यवान
जो नर होते हैं भाग्यवान
वह जन्म दूसरा लेता जब
जा उनके घर पैदा हो तब
फ़िर पूर्वजन्म का योगाभ्यास
आ जाता उसमें अनायास
वह योग साधना करता है
फ़िर पहले के पथ पर चलता है
इस योग साधना के कारण
उसके वश में हो जाए मन
ऐसे उसका अभ्यास उसे
ले आता मेरे पास उसे
वह हो जाता मेरे समान
उसमें मुझमें मत भेद जान
*** *** ***

anoop
11-12-2011, 05:25 PM
अनूप जी, सुन्दर सूत्र के लिए शतशः नमन ।

धन्यवाद मित्र, उम्मीद है जल्द हीं पूरा टाईप करके पोस्ट कर पाऊँगा

anoop
11-12-2011, 05:27 PM
सातवाँ अध्याय
विश्वरूप - वर्णन
भगवान-
हे अर्जुन मुझको जान जरा
ले मुझको अब पहचान जरा
मैं अपना आप बताता हूँ
तुझको सब कुछ समझाता हूँ
पृथ्वी, पानी, आकाश, पवन
अपनापन, बुद्धि, पावक-मन
जो मेरा है जड़ रूप सखे
ये आठ भेग हैं उस ही के
जिसको कहते हैं जीव-प्राण
वह मेरा चेतन रूप जान
मेरे इस दोनों रूपों से
है बना हुआ सारा जग ये
मुझसे है कुछ भी नहीं अलग
मुझसे है बना हुआ सब जग
मैं ही जग का हूँ आदि-अंत
मैं ही दिक् हूँ, मैं ही दिगंत
मुझको रवि का उजियार समझ
तू वेदों में मुझे ओंकार समझ
मैं ही पानी में हूँ गीलापन
मैं ही पावक में जलन-तपन
मैं ही चातक की हूँ पुकार
मैं ही प्रेमी का मधुर-प्यार
मैं ही कलियों का मधुर हास
मैं ही हूँ, हर फ़ल के मिठास
मैंम्ही बल हूँ बलवानों का
मैं ही गुण हूँ गुणवानों का
मैं ही सब जीवों का तन-मन हूँ
मैं ही सब जीवों का जीवन हूँ
यह सब मेरी ही माया है
जग इसका भेद न कभी पाया है
मुझको वह ही नर जान सके
मुझको वही नर पहचान सके
जिनका मन किरणों सा उज्जवल
जिनका मन गंगा सा निर्मल
कुछ भय से मुक्ति पाने को
कुछ धन, यश, पुण्य कमाने को
हैं मेरा नाम लिया करते
हैं मुझको याद किया करते
वे मुझको कभी न पा सकते
वे मुझ तक कभी न आ सकते
मुझको बस वे ही पाते हैं
मुझ तक बस वे ही आते हैं
निष्काम मुझे जो भजते हैं
निष्काम मुझे जो जपते हैं
वे हो जाते मेरे समान
उनमें मुझमें मत भेद जान
*** *** ***

anoop
11-12-2011, 05:29 PM
आठवाँ अध्याय

भजन-प्रताप
भगवान-
नर अंत समय जिसको ध्याये
वह नर वैसी ही गति पाए
जो धन की चिन्ता में मरता
वह सर्पयोनि में है पड़ता
जो करता है बल का गुमान
वह लेता सिंह का जन्म जान
जो करता विषयों का विचार
वह शूकर का ले जन्म धार
जो नर सोचे घर-द्वार-खेत
वह मर कर बनता भूत-प्रेत
जो नर करता संतान-ध्यान
वह मर कर लेता जन्म-श्वान
जो मांस-सुरा का ध्यान करे
वह गिद्ध-चील का जन्म धरे
इस तरह करे जो, जो विचार
नर लेता वह ही जन्म धार
यों नर जन्मे हैं बार-बार
हो सकता भव से नहीं पार
पर जो नर मुझको ध्याता है
वह जन्म नहीं फ़िर पाता है
जीवन भर जिसे ध्याता नर
है याद जिसे कर पाता नर
याद उसी की अंत में आए
वह नाम उसी का ले पाए
तू मुझे याद करता प्रतिपल
निर्भय हो कर रण करता चल
तब मरते क्षण भी हे अर्जुन
तू मुझको हीं याद करेगा सुन
तू जन्म नहीं फ़िर पाएगा
मुझ में ही लय हो जाएगा
*** *** ***

anoop
11-12-2011, 05:30 PM
नौवाँ अध्याय

निजस्वरूप-वर्णन
भगवान-
अब कहता हूँ, जो गुढ़ ज्ञान
तू उसे समझ, तू उसे जान
तू उसे जान यदि जाएगा
दुख छुटेगा, सुख पाएगा
उस सब विद्याओं से ऊपर
यह उत्तम और बड़ा हितकर
यह गंगा-सा पावन-निर्मल
यह देता है मंगलमय फ़ल
जिस नर को इसका नहीं ज्ञान
जो इसकी महिमा से अजान
वह जन्म-मृत्यु में रहे पड़ा
वह मुझको कभी न सकता पा
मेरा स्वरूप जग बीच व्यापत
जग को उसका आधार प्राप्त
वायुमय जैसे आसमान
तू जगमय वैसे मुझे जान
मुझसे जग का रचना-संहार
होता रहता है बार-बार
अपने स्वभाव के हो अधीन
जग की रचना में रहूँ लीन
पर कर्म के बंधन में न पड़ूँ
मैं काम-रहित हो कर्म करूँ
जब-जब आता मैं तन धरकर
जो होते हैं अज्ञानी नर
वे मुझको जान नहीं सकते
मुझको पहचान नहीं सकते
पर जिनके मन में दीप्त ज्ञान
हर रूप में वे लें मुझे पहचान
वे मेरे गीत सदा गाएँ
वे भव-सागर से तर जाएँ

anoop
11-12-2011, 05:31 PM
निष्काम उपासना
भगवान-
जो मेरे सच्चे भक्त, पार्थ
जो मेरे पक्के भक्त, पार्थ
नित मेरा नाम लिया करते
मेरा गुणगान किया करते
मुझको ध्याने में लगे रहते
मुझको पाने में लगे रहते
वे मेरे प्यारे भक्त सदा
रहते मुझमें अनुरक्त सदा
कुछ सेवा के पथ को अपना
कुछ मन में ज्ञान का दीप जला
मुझको पाने का जतन करें
मुझ तक आने का जतन करें
क्योंकि यज्ञ, पावक, घृत मैं हूँ
सत, असत, मृत्यु, अमृत मैं हूँ
जग का धारणकर्ता मैं ही
जग का पालनकर्ता मैं ही
मैं हीं कर्मों का फ़ल दाता
मैं पिता, पितामह, और माता
शुभ और अशुभ लखता मैं ही
जग का कर्ता-धर्ता मैं ही
पर जो नर इच्छाएँ सँजों
पूजे यज्ञों द्वारा मुझको
वह सदा स्वर्ग पाता, अर्जुन
सुख सकल वहाँ के भोगे सुन
पर पुण्य-रहित होकर वह नर
फ़िर आ जाता है धरती पर
इस भांति जगत में बार-बार
उसका आना हो लगातार
जो नर तज फ़ल की इच्छा को
मुझको भजता है मेरा हो
वह जन्म मुक्त हो जाता है
फ़िर जन्म नहीं वह पाता है
जो मन में ले फ़ल की इच्छा
है अन्य देवता को भजता
ऐसा करने वाला भी जन
मेरा ही करता है पूजन
पर उसका यह पूजन, अर्जुन
विधि के अनुसार नहीं है सुन
मैं सारे जगत का परम पिता
इस सच का उसको नहीं पता
इसलिए पार्थ जो ऐसा जन
भोगा करता है जनम-मरण
पूजते अमर जो, पाएँ अमर
पूजते पितर जो, पाएँ पितर
जो मेरी महिमा गाते हैं
वे नर मुझको ही पाते हैं
जो भक्ति-भाव हृदय में भर
फ़ल की इच्छा का ध्यान न कर
मुझको नित भोग लगाता है
फ़ल, फ़ूल और पत्र चढ़ाता है
यह प्रेमपूर्ण उसका अर्पण
स्वीकार सदा करता तत्क्षण
तू जो भी कर्म करे, अर्जुन
तू जो भी धर्म करे, अर्जुन
सब अर्पण करता जा मुझको
फ़ल की इच्छा में लीन न हो
तू कर्म-मुक्त हो जाएगा
तू परम शान्ति, सुख पाएगा

anoop
11-12-2011, 05:32 PM
भक्ति-महिमा
भगवान-
मैं सारे जग का परम पिता
सब जग है मेरे लिए बच्चों सा
इसलिए समान मुझे सारे
इसलिए सब हैं मुझे प्यारे
कोई भी मेरे लिए गैर नहीं
है मुझे किसी से वैर नहीं
जो प्रेम से मेरा करे ध्यान
मैं उसी का हो जाऊँ जान
चाहो हो कोई पापी जन
यदि मुझे करे प्रेम से स्मरण
वह हो पापी से पुण्यवान
तू उसे संत के तुल्य जान
हो वैश्य, शुद्र या कोई जन
आ जाए अगर मेरी शरण
तत्काल उसे अपना लेता मैं
अपना उसे बना लेता मैं
फ़िर उसमें प्रकटा परम ज्ञान
हर लेता, भय-भ्रम, मोह-मान
तू सखे शरण में मेरी आ
मैं तुझमें दूँगा ज्ञान जगा
तू तज देगा तन का विचार
जो क्षणभंगुर, जो है असार
तू मोह-पाश से छूटेगा
रण में रत हो यश लूटेगा
*** *** ***

anoop
11-12-2011, 05:34 PM
दसवाँ अध्याय

शक्ति-बखान
भगवान-
तू पर्थ भक्त मेरा जैसा
है और नहीं कोई वैसा
मैं कहता हूँ हित में तेरे
सुन मन से परम वचन मेरे
है पार्थ किसी को नहीं ज्ञात
मुझ परमेश्वर की जन्म-जात
मैं हूँ अनादि, मैं हूँ अनन्त
मेरी शक्ति का है नहीं अंत
अर्जुन, मैं हीं हूँ विश्वराज
मैं करता जग के सब काज
ये सूर्य, चन्द्र, जल, आग, हवा
सब चलते मेरी आज्ञा पा
मेरी आज्ञा बिन क्या बिसात
हिल पाए जो लघु एक पात
जिसको मेरी शक्ति का भास
उसमें न पाप कर सके वास
मुझको अर्पित कर निज तन-मन
मुझको अर्पित कर निज जीवन
जो मेरी महिमा गाता है
जो मुझमें ध्यान लगाता है
उसके मन में मैं ज्ञान जगा
उसका देता अज्ञान मिटा
अज्ञान छूट जिसका जाता
अर्जुन वह नर मुझको पाता

anoop
11-12-2011, 05:34 PM
महिमा-बखान
अर्जुन-
हे परम ब्रह्म! हे परम रूप
हे परम विष्णु! हे शिव स्वरूप
कहते सब ऋषिगण, देव, संत
हैं आप अनादि और अनन्त
हैं आप सनातन, नित्य, अजर
हैं आप अजन्मे और अमर
हैं आप सर्वशक्तिमान-निधान
कण-कण में रहते विद्यमान
हे प्रभो! आपका बल अपार
सुर-असुर नहीं पा सके पार
अपनी अनन्त महिमा-बखान
इस बार करें कर कृपादान
जिससे मन का अभिमान मिटे
जिससे संशय-अज्ञान मिटे

anoop
11-12-2011, 05:35 PM
भगवान-
मेरी महिमा का नहीं अंत
अर्जुन, मेरी महिमा है अनन्त
मेरी महिमा का नहीं पार
इसलिए कहूँगा सार-सार
मैं हीं जीवों में प्राण, पार्थ
मैं हीं मनुजों में ज्ञान, पार्थ
मैं ज्वाला पुंजों में दिनकर
मैं ही रुद्रों में हूँ शंकर
पर्वत-शिखरों में हूँ सुमेरू
यक्षों में मैं ही हूँ कुबेर
मैं वेदों में हूँ सामवेद
चार नीतियों में हूँ मैं भेद
मैं वचनों में ओंकार, पार्थ
मैं हूँ वामन अवतार, पार्थ
अर्जुन, नागों में हूँ शेषनाग
अर्जुन, वसुओं में हूँ आग
मुनियों में मै हूँ वेद-व्यास
ऋतुओं में मैं हूँ मधुरमास
कालों में मैं हूँ महाकाल
व्यालों में मैं हूँ महाव्याल
नभचर में मैं ही हूँ उकाब
फ़ूलों में मैं ही हूँ गुलाब
वृक्षों में मैं ही बरगद हूँ
ऋषियों में मैं ही नारद हूँ
देवों में मैं हूँ देवराज
जितने भूषण उनमें हूँ ताज
मासों में मैं ही अगहन हूँ
जीवेन्द्रियों में मैं हीं मन हूँ
मैं ही तारों में चंदा हूँ
मैं ही नदियों में गंगा हूँ
वनचरो में मैं ही हूँ नाहर
कुंजरों में एरावत कुंजर
गिरियों में मैं हिमगिरि महान
महर्षियों में मुझे भृगु जान
पितरों में मैं ही पितरेश्वर
मीनों में मैं ही मीन मकर
मैं जल स्त्रोतों में हूँ सागर
मैं सात स्वरों में पंचम स्वर
गंधर्वों में मैं गंधर्वराज
सिद्धों में मैं ही सिद्धराज
मैं कार्तिकेय सेनापतियों में
मैं परम गति सब गतियों में
धामों में मैं हूँ काशीधाम
धनुर्धारियों में हूँ मैं राम
मैं भूपों में हूँ महाभूप
मैं रूपों में हूँ कामरूप
मैं ब्रह्म-विद्या सभी विद्याओं में
कामधेनु हूँ मैं सभी गायों में
जग के जितने भी आकर्षण
वे सब मुझसे ही हैं उत्पन्न
हे सखे! रहा जो कुछ निहार
सब मेरा ही है चमत्कार
अर्जुन, जो कहता हूँ कर
उठ, दुष्ट कैरवों से तू लड़
*** *** ***

anoop
11-12-2011, 05:38 PM
ग्यारहवाँ अध्याय

विश्वरूप-दर्शन
अर्जुन-
मंगलमय मार्ग दिखा कर के
मंगलमय मार्ग बता कर के
मुझ पर है जो उपकार किया
मुझ पर है जो आभार किया
मैं उसको नहीं भूला सकता
उसका ऋण नहीं चुका सकता
पर थोड़ा सा उपकार और
मुझ पर कर दें करतार और
दिखला दें अपना विश्वरूप
जो है अनुपम, जो है अनूप

anoop
11-12-2011, 05:38 PM
भगवान-
अर्जुन, मेरा वह विश्वरूप
इतना अनुपम, इतना अनूप
अपनी साधारण आँखों से
तू देख सकेगा नहीं उसे
इसलिए देखने को वह रूप
मैं देता हूँ तुम्हें आँखें अनूप

anoop
11-12-2011, 05:39 PM
संजय-
भगवन ने रच अपनी माया
तब विश्वरूप निज दिखलाया

anoop
11-12-2011, 05:40 PM
भगवान-
मुझमें ज्योति-अंधकार देख
मुझमें सारा संसार देख
मुझमें धरती-आकाश देख
मुझमें पतझर-मधुमास देख
तू उदय देख, अवसान देख
तू पतन और उत्थान देख
तू स्वर्ग देख, पाताल देख
गत और अनागत काल देख
बहती सरिता की धार देख
तू जंगल और पहाड़ देख
तू सुबह देख, तू शाम देख
जग का होता हर काम देख
तू हरे-भरे सब खेत देख
तू भूत और सब प्रेत देख
तू ब्रह्मा और महेश देख
तू विष्णु और सुरेश देख
तू मुझमें काल और रुद्र देख
तू जीव बड़े और क्षुद्र देख
तू छांव देख, तू धूप देख
तू रंक देख, तू भूप देख
तू होता हर एक कांड देख
मुझमें सारा ब्रहमांड देख
तू देख खड़े सब सेना दल
तू देख मची रण में हलचल
चलते बाणों पर बाण देख
दुर्योधन का अवसान देख
तू देख पांडवों को लड़ते
तू देख कौरवों को मरते
सारे कौरव दल हार रहे
पांडव जयकार पुकार रहे
सब जन्म रहे हैं मुझसे पा
फ़िर मर कर रहे मुझमें समा
तू जन्म-मृत्यु का मेल देख
यह अद्भुत मेरा खेल देख

anoop
11-12-2011, 05:40 PM
अर्जुन-
मन देख देख अब घबराता
अब और नहीं देखा जाता
यह विश्वरूप अब दूर करें
अब फ़िर वह पहला रूप धरें

anoop
11-12-2011, 05:42 PM
संजय-
अर्जुन के ऐसा कहने पर
फ़िर पहला रूप लिया झट धर

anoop
11-12-2011, 05:42 PM
भगवान-
हे अर्जुन! नाम कमा ले तू
उठ, धनु और बाण उठा ले तू
यह अवसर हाथ न आएगा
तू जीवन भर पछताएगा
तू मत डर यह रण करने से
तू मत डर मारने-मरने से
हे अर्जुन! कायरता तज कर
उठ, हो जा लड़ने को तत्पर

anoop
11-12-2011, 05:43 PM
संजय-
भगवान के ऐसा कहने पर
अर्जुन ने धनुष लिया झट धर
भगवान को झुक कर बार-बार
अर्जुन ने की शत नमस्कार
*** *** ***

anoop
11-12-2011, 05:44 PM
आगे फ़िर टाईप करने के बाद दो-तीन दिन में पोस्ट करुँगा।

anoop
16-04-2012, 09:38 PM
बारहवाँ अध्याय

साकार-निराकार उपासना
अर्जुन-
कुछ जपें आपको सगुण मान
कुछ जपें रूप-रंग-रहित जान
हैं भक्त कौन से प्रिय प्रभो?
निर्गुण या सगुण उपासक जो?

भगवान-
अपने मन को एकाग्र बना
और एक जगह पर ध्यान टिका
जो जपें रूप मेरा निर्गुण
वे भक्त मुझे प्यारे हैं सुन
जो भक्ति-भाव हृदय में भर
निज तन-मन मुझको अर्पित कर
मुझको फल-फूल और पत्र चढ़ा
हैं भजते रूप सगुण मेरा
वे भक्त नहीं कम प्यारे हैं
वे भी आँखों के तारे हैं
निर्गुण होता है निराधार
वह अगम-अगोचर-निराकार
मन वहाँ नहीं टिक पाता है
पल में विचलित हो जाता है
पर सरल पूजना रूप सगुण
मन सहज वहाँ टिक जाए सुन
तू सगुण रूप जप-भज मेरा
अर्जुन, इसमें हीं हित तेरा
उसमें भी ध्यान न टिके अगर
अभ्यास से मन को वश में कर
हो फ़िर भी अगर न वश में मन
कर कर्म सभी मुझको अर्पण
इतना भी अगर न तुझसे हो
तो अर्जुन, तज फल-इच्छा को
इससे होता है सुख ही सुख
तन-मन को त्रास न पाता दुख
हैं श्रेष्ठ भक्त के लक्षण जो
अब ध्यान से जान-समझ उसको
जो स्वार्थ-रहित, जो द्वेष-रहित
जो करे किसी का नहीं अहित
जो नर है सागर-सा उदार
जो सबसे करता स्नेह-प्यार
जो दयावान, जो क्षमावान
जिस नर को लाभ-हानि समान
जो वश में कर अपना तन-मन
जो मति को कर मेरे अर्पण
नित मेरा ध्यान लगाता है
वह भक्त श्रेष्ठ कहलाता है
जिससे न किसी को कोई भय
जो स्वयं सदा रहता निर्भय
जो हर्ष, शोक, भय से अजान
वह भक्त श्रेष्ठ है, तू मुझसे जान
जिसको छू पाया नहीं मान
जो पावन है गंगा समान
जिसको कोई भी नहीं गैर
जो सबकी मांगे सदा खैर
जिसमें फरेब का नहीं नाम
निन्दा-चुगली से नहीं काम
जिसके मन में है मन-शरीर
जो थिर बुद्धि, संतुष्ट, धीर
जो भक्तियुक्त, जो धर्मयुक्त
जो काम-भावना से है मुक्त
मेरा करता हर समय ध्यान
वह भक्त श्रेष्ठ है, तू मुझसे जान
*** *** ***

anoop
16-04-2012, 09:39 PM
तेरहवाँ अध्याय

परम ब्रह्म
भगवान-
अब कहता हूँ वह परम ज्ञान
तू सुख पाएगा जिसे जान
वह परम ब्रह्म अद्भुत अनूप
उसके अनेक आकार-रूप
उसके अनगिन हैं सिर, मुख, धड़
उसके अनगिन है दृग, पग, कर
वह जग में सबको कर आवृत
नित अपने में रखता है स्थित
इस जग का है आधार वही
इस जग का पालनहार वही
जल, थल, नभ में वह करे वास
सारा ब्रह्माण्ड उसका निवास
वह ही मन है, वह ही उमंग
वह ही जल, वह ही तरंग
वह तिमिर-रहित ज्योति महान
वह है प्रकाशमय परम ज्ञान
वह बसा-समाया कण-कण में
वह विद्यमान जड़-चेतन में
कुछ ज्ञान से उस प्रभु को पाते
कुछ प्रेम से उसको प्रकटाते
कुछ पाते कर्म के पथ पर चल
कुछ पाते हैं विश्वास के बल
पर जो नर प्रभु को पाते हैं
वे भव-सागर तर जाते हैं
*** *** ***

anoop
16-04-2012, 09:41 PM
चौदहवाँ अध्याय

सत-रज-तम
भगवान-
है ज्ञानों में जो परम ज्ञान
अब उसे समझ, अब उसे जान
यह परम ज्ञान मुनिजन पाकर
बिना यास गए भव-सागर तर
यह परम ज्ञान जो ग्रहण करे
वह जन्म-मृत्यु में नहीं पड़े
इस परम ज्ञान को धारण कर
मेरे स्वरूप को पाता नर
मैंने अपनी माया द्वारा
यह खेल रचाया है सारा
क्या सतगुण, रजोगुण, और तमोगुण
ये तीनों ही हैं माया-कृत, अर्जुन
इनमें अद्भुत है आकर्षण
मोहित कर लें नर का तन-मन
सत, बाँधे धर्म के बंधन में
रज, बाँधे कर्म के बंधन में
तम, बन कर भ्रम का फ़ंदा
नर को कर देता है अंधा
सत, करता नर को धर्मलीन
रज, करता नर को कर्मलीन
तम, भ्रम को उत्पन्न कर
नर का विवेक लेता है हर
सत, रज-तम पर जाए यों छा
ज्यों अंधकार पर सूर्य-प्रभा
रज, सत-तम पर छाए ऐसे
तन-मन पर मादकता जैसे
ऐसे तम छाये सत-रज पर
जैसे नभ में आंधी-अंधड़
जब कर्मों से हो दीप्त ज्ञान
तब सत मन में है उदित जान
जब लोभ-लालसा अधिक बढ़े
तब राजस मन पर राज करे
जब भ्रम-अज्ञान बढ़े, अर्जुन
तब जानो तामस का शासन
जिसमें सतगुण का है निवास
वह स्वर्गलोक में करे वास
जो नर होता रजगुण-धारी
वह कर्म-लोक का अधिकारी
जो तम प्रधान होता, अर्जुन
वह नरकलोक को पाता है, सुन
सतगुण का है फ़ल निर्मल
रजगुण का दुखमय होता फ़ल
तमगुण का फ़ल होता तममय
जो नर का कर देता है क्षय
सतगुण से उपजे परम ज्ञान
जो नर को देता सुख महान
रजगुण से लेता लोभ जन्म
जो नर में भर देता उद्यम
तमगुण से उत्पन्न हो प्रमाद
जो नर में भर देता है विषाद
जो नर हो जाता है गुणातीत
वह तन-मन लेता सहज जीत
वह हो जाता मेरे समान
उसमें मुझमें मत भेद जान

anoop
16-04-2012, 09:41 PM
गुणातीत के लक्षण
अर्जुन-
क्या गुणातीत नर के लक्षण?
कृपा करें, बतलाएँ, हे भगवन!
वह नर कैसे दिखते हैं?
वह नर कैसे बोलते-चलते हैं?
हे प्रभु! कहें वह परमरीत
जिससे नर बनता गुणातीत

anoop
16-04-2012, 09:42 PM
भगवान-
जो करे किसी में नहीं भेद
जो कर गए का न करे खेद
जिसको छू पाया नहीं मान
जो पावन है गंगा समान
जो मोह-लोभ में नहीं पड़े
जो काम-क्रोध से रहे परे
वह नर होता है गुणातीत
वह जन्म-मुक्त, वह मृत्यु-जीत
जो गुणातीत बनना चाहे
जो इस रंग में रंगना चाहे
वह साफ़ करे मन का दर्पण
सब कर्म करे मुझे अर्पण
शुभ कर्म कमाता रहे सदा
निज धर्म निभाता रहे सदा
चलता मेरे अनुसार रहे
करता मुझ-सा व्यवहार रहे
वह नर बन जाता गुणातीत
खुद ही लेता खुद को है जीत
*** *** ***

anoop
16-04-2012, 09:43 PM
पंद्रहवाँ अध्याय

परमपद और पुरूषोत्तम
भगवान-
मिट गया पार्थ जिसका गुमान
सुख-दुख है जिसके लिए समान
जिसके वश में है क्रोध और काम
पा लेता है वही परम धाम
जिस परम धाम को पा कर नर
तर जाता है यह भव सागर
मैं रवि बन नित्य प्रकाशित हो
देता हूँ जीवन जीवों को
मैं निशि में चांद-चांदनी बन
करता हूँ पौधों का पोषण
अर्जुन, मैं ही हूँ वह धरती
जो जीवों को धारण करती
मैं ही बन कर के जठरानल
हूँ रक्त बनाता, ले भोजन-जल
जन-जन में मैं ही वर्तमान
कण-कण में मैं ही विद्यमान
मैं ही वेदों का परम सार
मैं ही वेदों का जानकार
अर्जुन, मैं ही सर्वोत्तम हूँ
अर्जुन, मैं ही पुरूषोत्तम हूँ
जो नर लेता है मुझे जान
वह हो जाता मेरे समान
*** *** ***

anoop
16-04-2012, 09:44 PM
सोलहवाँ अध्याय

सुर और असुर
भगवान-
सुर-असुर कौन अब जान जरा
दोनों को ले पहचान जरा
निर्धन को द्रव्य लुटाते जो
निर्धन को सुख पहुँचाते जो
जो दीनों का दुख हरते हैं
पतितों को थामा करते हैं
जो कभी नहीं होते अधीर
जो कर्म-वीर, जो धर्म-वीर
जिनके मन में है नहीं वैर
जिनको कोई भी नहीं गैर
जो क्षमावान, जो दयावान
जो पापमुक्त, जो पुण्यवान
अर्जुन, होते सुर ऐसे नर
सुरधर्म कमाते धरती पर
जिनके मन में है दुर्विचार
है नहीं दया, है नहीं प्यार
है पाप-मूल जिनमें गुमान
अर्जुन, उनको तू असुर जान
जग काम-वासना से उत्पन्न
है काम-वासना ही जीवन
जग का कोई न सृजनहार
अर्जुन, जिनका ऐसा विचार
जो क्रूर कर्म करने वाले
जो हैं अधर्म करने वाले
जिनके स्वभाव में है विकार
जिनके दुषित तन-मन-विचार
जो दम्भ-मान-मद में हैं चूर
जिनसे विवेक और अज्ञान दूर
जिनका मन विषयों का निवास
जो काम-क्रोध के बने दास
जिनकी तृष्णा का नहीं पार
जो करते मन में यह विचार
पाया है आज मुझे धन यह
कल प्राप्त होगा मुझे धन वह
इस अरि को मैंने मारा है
वह अरि भी मुझसे हारा है
मुझ-सा कोई धनवान नहीं
मुझ-सा कोई बलवान नहीं
मैं ही उत्तम, मैं ही महान
हैं और नहीं मेरे समान
हैं असुर कहाते ऐसे नर
भू-भार बढ़ाते ऐसे नर
सुर भार धरा का हरते हैं
असुरों को मारा करते हैं
अर्जुन, तू सुर बन असुर मार
उठ धनुष धार, हर धरा भार
*** *** ***

anoop
16-04-2012, 09:44 PM
सत्रहवाँ अध्याय

श्रद्धा, आहार, तप, यज्ञ, दान
अर्जुन-
देवों की पूजा करते जो
देवों की सेवा करते जो
उनकी जो गति हो बतलाएँ
हे प्रभो! कृपा कर बतलाएँ

anoop
16-04-2012, 09:45 PM
भगवान-
जिसकी होती श्रद्धा जैसी
उसकी गति भी होती वैसी
सात्विक-जन पूजें देवों को
राजस-जन पूजें यक्षों को
तामस-जन पूजें भूतों को
तामस-जन पूजें प्रेतों को
जिसका जैसा होता भोजन
वह उसी तरह का जाता बन
सात्विक-जन खाते भोजन वो
बल, बुद्धि, आयु बढ़ाता जो
रसमय, स्वादिष्ट, प्रिय भोजन
खाया करते हैं राजस-जन
भोजन कच्चा, बासी, नीरस
खाया करते हैं जन-तामस
जो कर्म-धर्ममय हो, अर्जुन
वह यज्ञ होता है सात्विक सुन
जिसमें हो फ़ल का अहंकार
उस यज्ञ को राजस यज्ञ विचार
जिसमें कोई विधि मंत्र न हो, अर्जुन
वह यज्ञ तामस होता है सुन
गुरू, ज्ञानी, सुर, ब्राह्मण पूजा
यह तप महान तप है तन का
पढ़ना ग्रंथों को सुबह-शाम
लेना ईश्वर का नित्य नाम
बोलना मधुर-मीठा, अर्जुन
है तप महान वाणी का सुन
पावन चिंतन, पावन विचार
मन पर रखना संयम अपार
निज मन को रखना साफ़ सदा
अर्जुन, महान तप है मन का
जो तप होता फ़ल इच्छा बिन
उस तप को तू सात्विक तप गिन
जो तप होता पाने को यश
अर्जुन, वह तप होता है राजस
तप अनहित कारण होता जो
अर्जुन, ऐसा तप तामस हो
जन, देश, काल को देख जान
कर्त्तव्य-भाव से दिया दान
सात्विक सच्चा कहलाता है
वह सात्विक फ़ल का दाता है
मन में प्रतिफ़ल की कर आशा
अर्जुन, जो दान दिया जाता
वह दान, सर्वथा हो राजस
उससे नर पाता वैभव-यश
जो बिन सत्कार दिया जाता
वह दान है तामस कहलाता
उससे नर पाप कमाता है
जीवन में अपयश पाता है
*** *** ***

anoop
16-04-2012, 09:46 PM
अठारहवाँ अध्याय

त्याग
हे दयावान कर तनिक दया
दें मुझे त्याग का अर्थ बता

भगवान-
कर्मों को तजना त्याग जान
हर त्याग नहीं होता समान
जो त्याग करे हो मोह के वश
हे पार्थ, त्याग उसका तामस
जो त्याग करे पाने को यश
हे पार्थ, त्याग उसका राजस
जो करे त्याग फल-इच्छा का
हे पार्थ, त्याग सात्विक उसका
जो नर फल त्यागी, अर्जुन
वह नहीं कर्म-फल भोगे सुन
अर्जुन हैं पाँच कर्म-कारण
कर्त्ता, साधन, थल, दैव, जतन
फ़िर खुद को ही कहना कर्त्ता
है नादानी और मुर्खता
जिसमें कर्त्ता का नहीं मान
हे अर्जुन, वह नर है महान

anoop
16-04-2012, 09:47 PM
ज्ञान, कर्म, बुद्धि, धृति और सुख
भगवान-
सुख, ज्ञान, कर्म आदि अर्जुन
सात्विक, राजस, तामस हों सुन
जिससे ब्रह्ममय दिउखे जहान
वह ज्ञान सात्विक और महान
जिससे जग ब्रह्ममय नहीं लगे
वह होता राजस ज्ञान, सखे
जिससे जग लगे न नाशवान
अर्जुन, तामस वह ज्ञान जान
कर्त्तापन का तजकर गुमान
फ़ल की इच्छा से हो अजान
जो कर्म किया जाता, अर्जुन
वह कर्म सात्विक होता सुन
कर्त्तापन का ले कर गुमान
फ़ल ही में अपना लगा ध्यान
अर्जुन, जो कर्म किया जाता है
वह कर्म राजस कहलाता है
जिसका प्रेरक हो नहीं ज्ञान
बिन-हित-अनहित का किए ध्यान
अर्जुन जो कर्म किया जाता
वह कर्म है तामस कहलाता
है ज्ञान से प्रेरित होता जो
अर्जुन, वह कर्त्ता सात्विक हो
जो कर्म से प्रेरित हो, अर्जुन
वह कर्त्ता राजस होता सुन
अर्जुन, हो जो अज्ञान के वश
वह कर्त्ता होता है तामस
है ज्ञानमय बुद्धि होती जो
अर्जुन, सात्विक कहलाती सो
जो कर्मों से प्रेरी जाती
वह बुद्धि राजस कहलाती
जो बुद्धि हो अज्ञान के वश
अर्जुन, वह बुद्धि है तामस
जिससे मति भ्रमित न हो पाती
वह धृति है सात्विक कहलाती
जो धर्म, अर्थ और कर्ममयी
वह धृति राजस कही गयी
जो भय-भ्रम-चिन्तामय, अर्जुन
वह धृति होती है तामस सुन
अर्जुन, जो ज्ञान से उपजता
वह सुख सात्विक कहलाता
जो केवल कर्म से उपजा हो
है राजस सुख कहलाता वो
जिसमें केवल निद्रा-आलस
ऐसा सुख होता है तामस
अर्जुन, स्वर्ग, नरक, भू पर
है हुआ न कोई ऐसा नर
मायाकृत सत, रज, तम, गुण जो
भोगता नहीं इन तीनों को
आधार बना कर कर्मों का
है किया विभाजन वर्णों का
इन कर्मों के आधार पर हीं
है दिया नाम वर्णों को भी
बाँटना धर्म, बाँटना ज्ञान
ब्राह्मण के पावन कर्म जान
जन-जीवन, धन-रक्षा व दान
ये कर्म क्षत्रिय के हैं महान
वैश्यों का है व्यापार कर्म
शुद्रों का सेवा-कर्म धर्म
जिस नर का जो भी हुआ कर्म
यदि उसे समझता हुआ धर्म
जो तन-मन से करता, अर्जुन
वह परम सिद्धि पाता है सुन
नर निज स्वाभाविक कर्म कमा
अर्जुन, मुझको सकता है पा
जो पाले अपना धर्म सदा
करता स्वाभाविक कर्म सदा
वह नर पाता है सुख-ही-सुख
उस नर को प्राप्त न होता दुख
जिस नर के हैं पावन विचार
जिसके जीवन में सदाचार
जो राग-द्वेष को मार चुका
तन-मन पर कर अधिकार चुका
जो काम, क्रोध, मद, लोभ रहित
जो कभी नहीं होता विचलित
वह मेरा प्यार सदा पाता
वह नर भव-सागर तर जाता
निष्काम कर्म-योगी, अर्जुन
पाता अविनाशी पद है सुन
जो नर तन-मन से मेरा हो
सब कर्म करे अर्पण मुझको
उस नर के पास न आए दुख
वह नर पाता है सुख ही सुख
तू भी तन-मन से मेरा हो
कर कर्म सभी अर्पण मुझको
सुख पाएगा, दुख छूटेगा
हर कर्म का बंधन टूटेगा
तदि सोचे यह तू भ्रम में पड़
मैं भाग चलूँ रण को तजकर
तो भी रण से न विरत होगा
तू निजपन-वश रण-रत होगा
निजपन-निजधर्म लड़ाएगा
अर्जुन, बचकर कहाँ जाएगा
तुझको लड़ना निश्चित होगा
यह रण करना निश्चित होगा
मैं ही जग का हूँ परम-पिता
मैं ही जग का कर्त्ता-धर्त्ता
जो मेरी शरण गहेगा तू
चिन्ता से दूर रहेगा तू
अब तुझे लगे जो भी हितकर
हे अर्जुन! तू वैसा ही कर
फिर भी मैं अपना तुझे जान
इक बात कहूँ, ले उसे मान
अपने मन से संशय तज कर
उठ हो जा लड़ने को तत्पर

anoop
16-04-2012, 09:47 PM
अर्जुन-
मिट गया मोह मेरा भगवन
हो गया प्रकाशित मेरा मन
हो भले जीत, हो भले हार
रण करना मन में लिया धार

anoop
16-04-2012, 09:48 PM
संजय-
पा व्यास कृपा से दिव्य नजर
देखें देते प्रभु ज्ञान अमर
कर स्मरण प्रभु के परम वचन
हर्षित होता तन-मन राजन
कर स्मरण प्रभु का रूप-लिखित
राजन, मन होता बहुत चकित.
*** *** ***

anoop
16-04-2012, 09:49 PM
इसके साथ हीं यह हिन्दी में पद्द-रूप में गीता पूरी हुई, आशा है आप सब को पसन्द आई होगी।

anoop
16-04-2012, 09:50 PM
हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे॥