PDA

View Full Version : विदेश में हिन्दी लेखन


anoop
09-12-2011, 05:35 PM
विदेश में रहने वाले हिंदी साहित्यकार इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि उनकी रचनाओं में अलग-अलग देशों की विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक परिस्थितियाँ हिन्दी की साहित्यिक रचनाशीलता का अंग बनती हैं, विभिन्न देशों के इतिहास और भूगोल का हिन्दी के पाठकों तक विस्तार होता है। विभिन्न शैलियों का आदान प्रदान होता है और इस प्रकार हिंदी साहित्य का अंतर्राष्ट्रीय विकास भी होता है।

Sikandar_Khan
09-12-2011, 05:37 PM
अनूप जी एक अच्छी सुरूवात है सूत्र को गति प्रदान करेँ |

anoop
09-12-2011, 05:37 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14239&stc=1&d=1323437777
डॉ. अनिल प्रभा कुमार

जन्म- दिल्ली में।

शिक्षा- दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी ऑनर्स और एम.ए. करने के बाद आगरा विश्वविद्यालय से 'हिंदी के सामाजिक नाटकों में युगबोध' विषय पर शोध करके पीएच.डी की उपाधि पाई।

कार्यक्षेत्र- १९६७ से १९७२ तक दिल्ली दूरदर्शन पर हिंदी 'पत्रिका' और 'युवा पीढ़ी' कार्यक्रमों में व्यक्त रही। १९६७ में 'ज्ञानोदय' के 'नई कलम विशेषांक' में 'खाली दायरे' कहानी पर प्रथम पुरस्कार पाने पर लिखने में प्रोत्साहन मिला। कुछ रचनाएँ 'आवेश', 'संचेतना', 'ज्ञानोदय' और 'धर्मयुग' में भी छपीं। १९७२ में अमरीका में आकर बस गई हूँ। १९८२ तक न्यूयार्क में 'वायस ऑफ अमरीका' की संवाददाता के रूप में काम किया और फिर अगले सात वर्षों तक 'विजन्यूज़' में तकनीकी संपादक के रूप में। इस दौर में कविताएँ लिखी। फिर ज़िंदगी के इस तेज़ बहाव में लिखना हाथ से छूटता ही गया। पिछले कुछ वर्षों से अभिव्यक्ति अनुभूति के साथ साथ वर्त्तमान-साहित्य के प्रवासी महाविशेषांक 'अन्यथा' और 'हंस' में भी कहानियाँ प्रकाशित।

संप्रति- विलियम पैट्रसन यूनिवर्सिटी, न्यूजर्सी में हिंदी भाषा और साहित्य का प्राध्यापन कर रही हैं।

पेश है इनकी कहानी - उसका इंतजार

anoop
09-12-2011, 05:38 PM
उसका इंतजार


झाड़न से तस्वीरों पर की धूल हटाते-हटाते, धरणी के हाथ रुक गए। बाबू जी की तस्वीर के सामने आकर उसकी आँखें अपने आप झुक गईं। बाबू जी की आँखें जैसे अभी भी किसी के आने का इंतज़ार करती हों। एक ही प्रश्न होता था उनका। उस दिन भी यही हुआ था।
''कोई बात बनी?''
प्रश्न सुनते ही सभी ठठा कर हँस पड़े थे। यह प्रत्याशित प्रश्न था। बेटे का परिवार अभी दरवाज़े से घर में दाखिल भी नहीं हो पाया कि न नमस्ते न जय राम जी की। सीधे-सादे बाबू जी की उत्कंठा एकदम औपचारिकता के सारे जाल को लाँघ कर प्रगट हो उठी।
सब लोगों के हँसने से थोड़ा वह झेंप गए और थोड़ा समझ गए कि जवाब ना में है।
ना हँस सकी तो धरणी। जी चाहा, बाबू जी को छोटे बच्चे कि तरह बाहों में भर ले और सहला कर कहे कि मैं समझती हूँ आपकी बेचैनी, पर कुछ कर नहीं सकती।
अब तो यह घटना भी यादों वाली कोठरी में पड़ी धूल फाँक रही होगी। कितना वक्त बीत गया, बाबू जी को बीते भी कई बरस हो गए। धरणी ख़ुद भी उम्र के इस पड़ाव पर खड़ी होकर, पीछे मुड़-मुड़ कर देखती है। आगे देखते डर जो लगता है। बात तो अभी तक नहीं बनी। वह तो बस इंतज़ार ही कर रही है। एक बहुत हल्की-सी आशा की लौ, अभी भी उसके शरीर में कंपकंपाती है।

''विधु, कोई मिला? कोई पसन्द आया? कोई बात बनी?''
''माँ...!'' सिर्फ़ एक शब्द का उत्तर मिलता। इस एक शब्द के पीछे कितने मतलब हो सकते थे, वह सब जानती थी। माँ जो थी, तुतलाहट से लेकर झल्लाहट तक की भाषा समझती थी। शब्द सिर्फ़ एक ही था - माँ, पर लहजा अर्थ बदल देता था।
माँ, क्यों तंग करती हो? फिर वही सवाल? तुम्हें कुछ और नहीं सूझता? परेशान मत करो! जब कोई मिलेगा तो बता दूँगी। कभी लम्बी चुप्पी और नाराज़गी। अब यही बात करोगी तो मैं घर पर ही नहीं रहूँगी। फिर वर्जना... तुम सीमा का उल्लंघन कर रही हो, यह मेरा निजी मामला है। कभी हताशा और कातरता - मैं ख़ुद ही असुरक्षित और अकेलापन महसूस करती हूँ, पूछ कर क्यों ज़ख्म को और छील देती हो? कभी खीज... तुम मुझे चैन से क्यों नहीं बैठने देती, मैं खुश हूँ अपनी ज़िन्दगी से।
आखिरी बार, ''माँ...?'' उसने इतने ग़ुस्से और हिकारत से कहा था कि फिर उस लक्ष्मण-रेखा को लाँघने की, धरणी की हिम्मत ही नहीं हुई। अब बहुत अरसे से वह सिर्फ़ चुप रहती है।

anoop
09-12-2011, 05:40 PM
अनूप जी एक अच्छी सुरूवात है सूत्र को गति प्रदान करेँ |

जरुर सिकन्दर भाई, मेरी कोशिश रहेगी कि मैं लगातार इसे उअपडेट करता रहूँ

anoop
09-12-2011, 05:41 PM
झील जैसी गहरी आँखों और चाँदनी जैसे रंग वाली बेटी कब जवान होकर अपनी स्वतंत्र ईकाई बन गई, पता ही नहीं चला।
कॉलेज में काफ़ी लड़के विधु के पीछे लगे रहते थे। धरणी को थोड़ी असहजता होती। बातों-बातों में कभी इस का उदाहरण दे और कभी उस का। ज़्यादातर अपनी ही माँ की बातों को अनजाने ही दोहरा देती। फिर आधुनिक माँ बन जाती। कहती, अपने पाँव पर खड़ी होकर व्यस्क निर्णय लेना। पर निर्णय क्या लेना चाहिए, अपरोक्ष रूप से यह भी बता देती। पशु-पक्षी भी तो एक रंग-रूप की ही जोड़ी बनाते हैं। मूल्य समान हों, अपने जैसी ही पृष्ठ-भूमि हो तो ज़िन्दगी आसान हो जाती है। अपने देशी लड़कों में स्थिरता होती है, शादी के बाद ''बार'' में नहीं जाते, घर पत्नी और बच्चों के पास लौटते हैं। वही बोली, वही खाना-पीना, वही मूल्य, वही रंग-रूप की समता। कम से कम बाहरी बातों का संघर्ष तो नहीं रहता, अन्दर की हज़ार बातें होती हैं - ताल-मेल करने को।

विधु बस सुनती रहती थी। उसे लगता जैसे उसके ऊपर अपरोक्ष रूप से भार रखा जाता है, जो उसे मंज़ूर नहीं। पर पटक सके, इतनी ताक़त भी तो नहीं। उसके मानस-पटल पर अमरीकी लड़कों की तस्वीर थी। उसे छह फ़ुट लम्बे क़द, बलिष्ठ शरीर, गहरी धँसी आँखें, चेहरे का रेखांकन करती नुकीली ठुड्डी और जबड़े की हड्डियों में ही पुरुषत्व का आकर्षण दीखता।

सागर और धरणी इसे बेटी का बचपना समझते। फिर अचानक ही एक दिन बड़ी बेटी का निमंत्रण-पत्र मिला। मुझे मालूम था कि आप कभी स्वीकृति नहीं देंगे इसलिए मैंने आठ अगस्त को एरिक से शादी करने का निर्ण्य कर लिया है। अगर आप चाहें तो आकर शादी में आकर आशीर्वाद दे सकते हैं।

सागर के लिए यह बहुत बड़ा झटका था। उन्हें लगा जैसे उनका स्वाभिमान, इज़्ज़त, मान्यताएँ, सब कुछ, जिसमें वह विश्वास रखते थे, टूट- टूट कर बिखर गया। नपुंसक और दयनीय क्रोध में आकर वह चीख़ते, चीज़ें पटक डालते। विधु दरवाज़ों की ओट में खड़ी होकर काँपती।

anoop
09-12-2011, 05:42 PM
धरणी को भी आघात कम नहीं लगा था। सोचती उसकी परवरिश में कहाँ कमी रह गई? पर वह दिल की बात सहेलियों से कर लेती। सभी इन्हीं हादसों से गुज़र रहीं थीं। एक-दूसरे को देख कर तसल्ली कर लेतीं।
दो-तीन दिन बाद जब आवेग थम गया तो धरणी ने कहा, ''जी, दुख तो मुझे भी कम नहीं हो रहा, पर हम ऐसा कोई काम न करें कि दस साल बाद हमें अफ़सोस हो।''
सागर निरीह से देखते रहे।
''शादी का तो उसने निश्चय कर ही लिया है। हम अपनी ओर से बाद में दावत दे देते हैं ताकि बेटी से सम्बन्ध तो न टूटे।'' धरणी ने सुझाया।
''जो तुम ठीक समझो।'' कह कर सागर शिथिलता से लेट गए।
एक अनजाने शहर के होटल में आकर टिके पति-पत्नी एक दूसरे की ओर देखते - चुप और बेबस।
धरणी बार-बार फ़ोन डॉयल करती। उधर से रिकॉर्डिंग मिलती। वह कई बार संदेश भी छोड़ चुकी थी।
सागर आशा भरी नज़रों से देखते। धरणी निराशा से सिर हिला देती जैसे डॉक्टर रोगी के बचने की उम्मीद न होने पर हिलाता है।
''वह फ़ोन उठा नहीं रही।'' धरणी हार कर बैठ गई।
''हमें इतना शर्मिन्दा भी किया और ऊपर से नाराज़गी भी, जैसे क़ुसूरवार हम ही हों।''
''बस अब चुप कर जाइए।'' धरणी जैसे हवा में उड़ते तिनकों को इकट्ठा करने की कोशिश कर रही थी।
वह पति के साथ सहमत थी। आख़िर दोनों ने एकमत होकर ही तो विधु की सगाई भारत में जाकर करने का प्रयास किया था - विधु की अनुमति से।
सागर के बचपन के दोस्त का बेटा, पढ़ा-लिखा, सुन्दर, सुसंस्कृत। विधु ने तस्वीर भी पसन्द की थी। माँ-बेटी दोनों गई थीं तो विधु को लगा, गिनने में तो अंक ठीक ही लगते हैं पर मन में कुछ हिलोर नहीं उठी। कहाँ गया वह सपना कि कोई उसके प्रेम में पाग़ल है और वह उसे अपना जीवन साथी चुनती है। सोचा, मैं तो इसे जानती भी नहीं। इसका और मेरा वातावरण कितना अलग है? यह तो कुछ भी नहीं जानता उस दुनिया के बारे में, जहाँ मैं रहती हूँ। पर कहा इतना ही, ''सोच कर बताऊँगी।''

anoop
09-12-2011, 05:43 PM
धरणी, पिता और भाई-भाभियों के दबाव में आ गई।
''विधु, यहाँ ऐसे नहीं होता। हम सब को रिश्ता ठीक लग रहा है। इतनी दूर से आई हो तो अब सगाई करवा ही लो।'' बड़े मामा ने विधु को समझाया।
दो दिन में सगाई भी हो गई। विधु सकते में थी। अकेले में रात को जब होश आया तो वह माँ से तड़प कर बोली थी ''माँ, तुम भी यहाँ आकर इन सब से मिल गई हो? मुझे बछिया की तरह एक अनजान खूँटे से बाँधने को तैयार हो गईं?'' माँ के विश्वास-घात की चोट ने उसे चंडी के रूप में बदल दिया, ''अब तुम्ही तोड़ो यह सगाई।''
धरणी रोने-रोने हो गई।
''बहन जी, यहाँ हमारी इज़्ज़त का सवाल है। आप चाहे बाद में बेशक अमरीका जाकर तोड़ दीजिएगा।'' बड़े भाई ने धरणी को समझा दिया।

विधु के रोष का ठिकाना नहीं। सभी की इज़्ज़त... डैडी की, मम्मी की, ख़ानदान की और बलि किसकी? मेरी!
धरणी ने एक सवाल पूछा, ''तूने अगर हिन्दुस्तान के लड़के से शादी करवानी नहीं थी, तो फिर यहाँ आने को तैयार क्यों हो गई?''
''सोचा था, शायद मेरे मन को कोई भा ही जाए? मैंने आपकी बात मानने की क़ोशिश तो की?'' उसने खोख़ली आवाज़ में जवाब दिया।
विधु को बड़ी बहन की शादी पर हुई डैडी की प्रतिक्रिया का ध्यान था। उसके बाद जो उन्हें दिल का दौरा पड़ा उसकी दहशत से वह कभी उबर नहीं पाई। डैडी से बहुत प्रेम करती थी वह। अपनी वजह से उन्हें कोई दुख नहीं देना चाहती थी। पर ज़बरदस्ती की हुई सगाई ने उसे प्रचंड विरोधी बना दिया।

वह अपने मन के विरुद्ध, तर्कों का साथ नहीं दे सकती। वापस चली गई थी वह अपनी नौकरी पर, उसी बेगाने शहर में। क्रिसमस की छुट्टियों पर सभी अपने घर गए और सिर्फ़ वह अकेली ही रही उस एपार्टमेंट बिल्डिंग में। न थैंक्स-गिविंग पर घर गई, न ही किसी ने बुलाया। कितना रोयी थी वह ग़ुस्से में, मजबूरी में। सोचती, मेरे ही अपने मेरा साथ नहीं दे रहे। अपनी ज़िन्दगी के साथ जुआ न खेलने के लिए मुझे ही दोषी ठहरा रहे हैं। डैडी ने तो यहाँ तक कह दिया कि अब उस लड़के की ज़िन्दगी तो ख़राब मत करो। कम से कम उसकी पैटीशन तो फ़ाइल कर दो, ताकि वह मंगेतर- वीसा पर तो आ सके।
उसने ज़हर का घूँट भर कर, रात-भर जाग कर वह सारे फ़ॉर्म भर दिए थे। बस, उसके बाद से विधु ने सबसे बात करना बंद कर दिया। अकेले में रोती रही, कोई चुप कराने वाला भी नहीं था। अब तीन महीने बाद शायद माँ की ममता जागी होगी। यहीं शहर में आकर टिके हैं अब फ़ोन पर फ़ोन किए जा रहे हैं।
वह किसी से नहीं मिलना चाहती, बस!
धरणी को दमे का दौरा पड़ा था। विधु ने स्वाभिमान निगल लिया। माँ का इतना ख़्याल रखा कि धरणी ने रोम-रोम से दुआएँ दीं। उसने अपना रुख बदल लिया। कह दिया, '' विधु जा, जो भी तुझे पसन्द है, उसी से शादी कर ले।''
विधु को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। लगा सिर पर से कोई चट्टान सरक गई।
''मम्मी अभी कोई नहीं है।''
''क्यों?''
''काम में बहुत व्यस्त रहती हूँ न। समय ही नहीं मिलता।''
''बेटा, हमारे पास आकर रह। इस शहर में कोई नौकरियों की कमी है?''
''क़ोशिश करूँगी।''
धरणी आश्वस्त हुई। सोचा, यहाँ रहेगी तो किसी जान-पहचान वाले से मुलाक़ात तो करवाई ही जा सकती है।
विधु जाने कैसे भाँप गई। बोली, ''एक शर्त्त पर, तुम लोग मुझसे कभी शादी करवाने की बात नहीं करोगे।''
कुछ सोच कर धरणी ने कहा, ''अच्छा!''
सागर उठ कर दूसरे कमरे में चले गए। विधु उनके पास लौट आई थी।
शाम को सागर काम से घर लौटे तो धरणी ने मेज़ पर खाना लगा दिया। उन्होंने प्रश्न भरी आँखों से धरणी को देखा। धरणी ने होठों पर उँगली रख कर चुप रहने का इशारा कर दिया। उसका अपना दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था। कान ऊपर की आवाज़ों से स्थिति का अन्दाज़ा लगाने की क़ोशिश में थे।
विधु हाथ में किसी पुरुष की फोटो लिए धड़धड़ाती हुई नीचे आई।
''यह फोटो मेरे कमरे में किसने रखी?''
''मैंने'', धरणी ने बड़े संयत स्वर में जवाब दिया।
''आपने कहा था न कि आप लोग मुझे शादी के बारे में तंग नहीं करेंगे?''
''विधु देख, हमने कुछ भी नहीं किया। नीना आंटी ने तेरे लिए यह फ़ोटो दी है। कहती हैं, ''बहुत हैंडसम है, अपना बिज़नेस है, बहुत अमीर हैं और लड़का स्वभाव का बहुत ही अच्छा है। मैंने तो कुछ नही कहा। जो फोटो उन्होंने दी, मैंने तेरे कमरे में रख दी।''
''तो वह अपनी बेटी की शादी क्यों नहीं इससे कर देतीं?''
फ़ोटो को ज़मीन पर पटक कर विधु क़सरत के लिए चली गई। उसे जब भी तनाव होता है वह भागना शुरू कर देती है। तब तक भागती रहती है जब तक बिल्कुल बेदम न हो जाए।

anoop
09-12-2011, 05:44 PM
सागर अब तक चुपचाप कौर निगलते रहे थे अब और नहीं खा पाए।
''क्या होगा इसका, धरणी क्या होगा?'' उनका गला रुँधने लगा।
धरणी क्या उत्तर देती?
''मैं बहुत मजबूर महसूस करता हूँ। कर्त्ता आदमी हूँ, पर इस लड़की ने मेरे हाथ-पैर बाँध दिए हैं।''
''जब वक्त आएगा, इसका संयोग होगा तो अपने-आप कुछ हो जाएगा।''
''क...ब?'' सागर अधीरता वश ज़ोर से बोल गए।
''तीस से ऊपर की हो गई है। हम ढूँढ नहीं सकते, कोई बताता है तो इसका दुश्मन हो जाता है, ख़ुद इसे कोई मिलता नहीं।''
''मिलते हैं, पर यह उनमें भी नुक़्स निकाल देती है।''
''क्यों?
''पता नहीं किस इन्द्र-धनुष के पीछे भाग रही है? वह ऐसा राजकुमार ढूँढ रही है, जो है ही नहीं तो मिलेगा कहाँ से?''
धरणी चिंता में खो सी गई।
अगले दिन सागर ने बेटी के नाम एक ख़त लिखा।


''प्रिय विधु,
तुम मुझसे बात नहीं करना चाहती इसलिए एक घर में रहते हुए भी मुझे तुमसे पत्र लिख कर बात करनी पड़ रही है। बेटा, मैं बस इतना चाहता हूँ कि मेरे जीते-जी तुम्हारा एक सुखी परिवार हो, कोई तुम्हारा ख़्याल करने वाला, सुख-दुख बाँटने वाला हो और मैं अपनी ज़िम्मेदारी से छुट्टी पाऊँ। जो भी लड़का तुम्हें पसन्द हो, तुम उससे शादी कर लो। मैं सिर्फ़ तुम्हें अपनी घर-गृहस्थी में ख़ुश देखना चाहता हूँ।
विधु कोई भी इन्सान सर्व-गुण सम्पन्न नहीं होता। किसी न किसी लड़के में कोई न कोई कमी तो होगी ही। तुम कोई एक या दो बातें चुन लो जो तुम्हारे लिए अहमियत रखती हों। बस, उन्हीं पर ध्यान केन्द्रित करो। छोटी- मोटी बातों को जाने दो। सभी गुण तो द्रौपदी को भी एक पति में नहीं मिले थे, इसे पाँच पति मिल कर ही पूरा कर पाए।

उम्र तो अपनी गति से चलती है, बढ़ेगी ही। ज्यों-ज्यों तुम्हारी उम्र बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों तुम्हारे लिए वर मिलने की उम्मीद फीकी होती जाती है। चाहता हूँ कि किसी तरह हाथ बढ़ा कर किसी अनहोनी की आशंका को रोक सकूँ।
हम लोग उम्र के आख़िरी पड़ाव पर हैं। कल नहीं होंगे तो कौन तुम्हारा खयाल रखेगा? यह विचार जब आता है तो मैं नींद से उठ कर बैठ जाता हूँ। मेरी बच्ची, बिना मतलब इतनी ज़िद, इतनी कट्टरता और विरोध कहीं नहीं ले जाएगा। थोड़ा विचारों में लचीला पन लाओ और व्यावहारिक बनो। हम तुम्हारे शुभ-चिन्तक हैं, इसका विश्वास रखो।
ढेर सारे प्यार सहित,
तुम्हारा डैडी

anoop
09-12-2011, 05:44 PM
विधु ने ख़त पढ़ा। हाथ में लेकर सोचती रही। एक और भाषण- बाप का बेटी के नाम। ख़त धीरे से उसने रद्दी की टोकरी में सरका दिया।
मन्दिर में जाकर दिया जलाते ही धरणी की आँखें भीग गईं।
''प्रभु इस बच्ची का भला करो।'' उद्वेग से गला रुँध गया। कितने व्रत- उपवास कर चुकी, कितनी मन्नतें माँगी। कितनी बार घर में हवन- पूजा करवाई, विधु की सिर्फ़ फ़ोटो ही सामने रख कर। विधु की मौसी आए दिन भारत से कभी कोई तावीज़, कभी किसी हवन की भस्म और कभी किसी अंगूठी में पत्थर लगवा कर भेजती - विधु को पहनवा देना। विधु बिन किसी चूँ- चपड़ के पहन भी लेती।
''विधु, तेरे दफ़्तर में कोई लड़का नहीं है क्या?'' धरती पूछती।
''है माँ, पर सब शादी-शुदा हैं।'' विधु दूसरी ओर देखते हुए जवाब देती।
हर साल ''वैलेन्टाइन डे'' वाला दिन विधु पर बहुत भारी पड़ता। खौफ़ खाती थी वह उस दिन से। लगता दफ़्तर में हर आता-जाता आदमी जैसे उसकी ही मेज़ को घूरता था। कहीं कोई चॉकलेट नहीं, कार्ड या फूल भी नहीं। शायद अगले साल? अब उसने सबसे बचने का तरी॔क़ा सोच लिया। ख़ुद ही अपने को फूल भिजवा दिए।ज़ुबानें तो बन्द हो गईं।
दफ़्तर में उसके साथ काम करने वाले लड़के या उसकी अपनी सहेलियों के दोस्त पता नहीं क्यों उससे इतना अपनापन दिखाते हैं? अपनी प्रेमिकाओं को सगाई की अंगूठी देने के लिए उसकी राय पूछते। वह खुशी-ख़ुशी उनकी शॉपिंग में मदद भी करवा देती। घर लौट कर अंधेरे कमरे में बिलख-बिलख कर रोती। इन संवेदना-हीन लोगों को क्या मेरी ख़ाली उँगली दिखाई नहीं देती?

धरणी बस विधु के चेहरे के भाव ही देखती रहती है। समझ में नहीं आता कि क्या करे? किसी ने बताया कि भारतीय मूल के प्रशिक्षित युवा लोगों का कोई सम्मेलन इस बार न्यूयॉर्क में हो रहा है। उसने विधु से पूछ कर उसका नाम भी रजिस्टर्ड करवा दिया। विधु गई तो पर ख़त्म होने से पहले ही लौट भी आई। धरणी की आँखों में सवाल उभरा, ''कोई बात बनी?''
विधु तीर सी आगे निकल गई। धरणी ने बाद में उसे फ़ोन पर बात करते सुना, ''वहाँ ऐसे-ऐसे अंकल-नुमा लड़के थे कि क्या बताऊँ? ढीले-ढाले से, पढ़ाकू, कोई चश्मे वाला, किसी के बाल उड़े हुए। मुझ से तो अगर कोई बात करने की कोशिश भी करता तो मैं तो मुँह ही दूसरी ओर कर लेती या फिर अपने सैल-फ़ोन से झूठ- मूठ व्यस्त होने का बहाना करती।
दूसरी तरफ़ से पता नही किसी ने क्या कहा कि विधु तुनक गई।
''पर मैं अपनी उम्र से बहुत छोटी लगती हूँ। जब मैंने इतने सालों तक इन्तज़ार किया है तो बेहतर है कि उस आदमी के सिर पर बाल तो हों।''
लेटे-लेटे धरणी चुपचाप छत की ओर देखती रही। सामने अल्मारी में गुलाबी शादी का जोड़ा वैसे ही मलमल की धोती में सहेज कर रखा हुआ था जो उसने ख़ास विधु के लिए दस साल पहले अपनी किसी सहेली के हाथ, चंडीगढ़ से मँगवाया था।
आज घर में मातम सा वातावरण था। लगा जैसे कोई ख़ुशी बहुत पास आने वाली थी कि छिन गई। सागर को लगा था विधु को शायद आदित्य पसन्द आ गया है। वह पीछे ही रहे हालाँकि धरणी सब बताती रही। सुदर्शन, चिकित्सक, अमरीका का ही पढ़ा-लिखा, सभ्य और सुसंस्कृत- सभी बातें दिखती थीं उसमें। उन्होंने ख़ुद जाकर नीना को धन्यवाद दिया था, उनका रोम-रोम शुक्रगुज़ार था। लगता था जैसे कोई सपना पूरा होने ही वाला है। आदित्य से मिल कर विधु रात गए लौटी तो धरणी उसके हाव- भाव देख कर ही ठिठक गई, पर चुप रही। आदित्य दो दिन के लिए हयुस्टन से न्यूयार्क आया था, विधु से ही मिलने। आज सारा दिन विधु उसे लेकर बाहर घुमाने गई हुई थी। सुबह उसने अस्वाभाविक चुप्पी के साथ नाश्ता किया और फिर घर से निकल गई।
शाम को लौटी तो यों लगा जैसे किसी का दाह-संस्कार कर के आई हो।
सागर अनमने से पियानो पर बैठे थे। मन जैसे भँवर में डोल रहा था।
दोनों माँ-बाप की नज़रें उसकी ओर उठीं जैसे पूछ रही हों... ''कोई बात बनी?''
''आदित्य की और मेरी बात ख़त्म, बस। अब इस बारे में कोई मुझसे बात नहीं करेगा।'' दॄढ़ता से कह कर वह अपने कमरे में चली गई। बड़ी ज़ोर से दरवाज़ा बन्द होने की आवाज़ हुई। पूरे घर में निस्तब्धता इतनी कि जैसे सांस लेने की भी मनाही हो।
अगली शाम काम से विधु घिसटते क़दमों से घर लौटी। डैडी को सामने पाकर ठिठकी, फिर आगे बढ़ गई। ज़ाहिर था कि सागर सारा दिन घर पर ही रहे थे। कोई बोझ था उनके मन पर।
''विधु, मैं तुमसे बात करना चाहता हूँ।''
''मुझे किसी से बात नहीं करनी। मेरी तबियत ठीक नहीं।''
''लेकिन हम बात करना चाहते हैं।'' धरणी ने थोड़े कठोर होकर कहा।
''आख़िर बात क्या हुई?''
''मैं बात ही नहीं करना चाहती।''
''मुझसे नहीं तो कम से कम अपनी माँ से तो कर सकती हो।'' कह कर सागर उठ गए।
धरणी ने प्यार से हाथ बढ़ा कर विधु को अपने पास बिठा लिया।
''विधु, जब तुम छोटी थीं तो और बात थी। अब इस उम्र में कोई ज़्यादा लड़के दिखाई नहीं देते। कितने सालों बाद तो कोई लड़का मिला है, भला अब इस में तुम्हें क्या बात ग़लत दिखाई दी।''
''जानना चाहती हो?'' विधु आहत होकर खड़ी हो गई।
''कल जब हम सब लोग साथ थे, तो उसने तीन ड्रिन्कस लीं, फिर उसने सिर्फ़ अपने हिस्से के पैसे निकाले।''
''यहाँ अमरीका में तो सभी लड़के पीते हैं।''
''उसकी कई गर्ल-फ़्रेन्डस भी रह चुकी हैं।''
''अब जब इतनी उम्र के हो जाओ तो स्वाभाविक ही है।''
''वह पहले एक लड़की के साथ रहता था।''
अब धरणी चुप हो गई। फिर उसने एक हारते हुए वकील की तरह कहा, ''चल अब तो नहीं रहता न। वह उसका अतीत था। हमें क्या लेना-देना?''
''और जब कल रात को वह मुझे छोड़ने आया था तो उसने मुझे ज़बरदस्ती 'किस्स' करने की भी कोशिश की।'' विधु चोट से फ़ुंफ़कार उठी।
धरणी को जैसे किसी ने गहरे कुँए में धक्का दे दिया। धँसते हुए उसके शब्द भी डूब गए, ''यह यहाँ की संस्कृति है।''
कई बीमारियाँ और उनकी उतनी ही दवाइयाँ। धरणी सोती है तो बेहोश होकर। सागर को अब ऊँचा सुनाई देता है। विधु फ़्लू से बेहाल थी। पता नहीं कब से अपने कमरे से पुकारती रही। ''माँ... पानी''।
धरणी बाथरूम जाने के लिए उठी तो आवाज़ सुनाई दी। धीरे-धीरे सीढ़ियाँ उतर कर रसोई-घर में आई। पानी का गिलास लेकर विधु के कमरे में गई। हाथ बढ़ा कर उसका माथा छुआ, तप रहा था। विधु ने हाथ झटक दिया।
उसी हालत में तैयार होकर काम पर जाने का संघर्ष करती रही। छुट्टी लेना इतना आसन नहीं।
बाहर बर्फ़ पड़ रही थी।
''विधु चाभी दे, मैं बर्फ़ हटा कर तुम्हारी कार गर्म कर देता हूँ।'' सागर ने कोमलता से कहा।
विधु बिना कुछ खाए पीये, अपने को घसीटती हुई, कार के ऊपर से बर्फ़ हटाने लगी।
''मैं हटा देता हूँ।''
''नो, थैंक्स।'' उसने नज़रें उठा कर उनकी तरफ़ देखा भी नहीं।
सागर हार कर भीतर लौट आए।
सारी हताशा धरणी के सामने बिखर गई।
''क्या करेगी यह लड़की? कल को यह क्या करेगी?''
धरणी क्या जवाब दे?
''रात बीमार थी तो माँ को पुकार रही थी, पानी देने के लिए। कल जब माँ नहीं होगी, अकेली रह जाएगी तो किस को पुकारेगी? कौन देगा इसको उठ कर पानी?''
सागर को लगा जैसे वह रो पड़ेंगे।
धरणी ने उन के कंधे थपथपा दिए पर कुछ कह न सकी।
अब धरणी कुछ नही कहती किसी से भी नहीं। बस जाकर अपने इष्ट-देव के आगे हाथ जोड़ आती है।
''प्रभु, भला करो।'' प्रार्थना करने के अलावा और कोई शक्ति बची नहीं उसमें।
एक दिन कैविन उनकी प्रार्थना का जवाब बन कर आ ही गया। कैविन घर के बाहर कार रोक कर, वहीं से विधु को फ़ोन करता; ''बाहर आ जाओ।''
विधु बाहर लपकती तो धरणी को भी देखने की उत्सुकता होती कि बेटी किस के साथ जा रही है? सुरक्षा के लिए भी कार का और कार वाले का हुलिया जानना ज़रूरी था। विधु आँखे तरेरती।
''दरवाज़ा बन्द करने आ रही हूँ,'' वह खिसियानी होकर कहती।
''मेरे चले जाने के बाद करना।'' विधु सख़्ती से कहती।
दरवाज़ा बन्द कर धरणी सीधे, सोने वाले कमरे में बनाए मंदिर की ओर दौड़ती।
फिर एक दिन वह नीना के घर ही थी, विधु काम से लौटते वक्त उसे वापिस लेने पहुँची।
विधु का चेहरा देख कर धरणी के दिल में हौल सा उठा। नीना ने विधु को हाथ पकड़ कर बिठा लिया। विधु वहीं फूट-फूट कर रो पड़ी। बहुत पूछने पर बस यही कह सकी, ''कैविन अब मुझसे कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहता।''
''आखिर क्यों?''
''कहता है कि मैं बहुत अच्छी हूँ और वह मेरे लायक नहीं।''
धरणी मुँह -बाये सुनती रही। उसे यह सब बातें समझ नहीं आती।
''उसने मुझे अस्वीकार कर दिया है माँ।'' विधु ने जैसे चीख़ मार कर उसे समझा दिया।
धरणी ने उसे सीने से लगा कर ढाँढस बँधाने की क़ोशिश की।
विधु घायल तो थी ही पर अब ग़ुस्से से जैसे फ़ुंफ़कार उठी।
''जब मैं जवान थी, आकर्षक थी, तब आप लोगों ने बेहूदा से देसी लड़के दिखा- दिखा कर मेरा वक्त ख़राब कर दिया। होश आते ही मेरी शादी करवाने को तुल गए। कितना विरोध करना पड़ा है मुझे। अब आप लोग मेरी मन-पसन्द के लड़के से मेरी शादी करने को राज़ी हुए हैं तो लड़के हैं ही कहाँ? और अगर कोई है तो वह मुझसे प्रेम नहीं करते क्योंकि अब मैं आकर्षक ही नहीं रह गई।'' विधु फिर से फफक-फफक कर रो उठी।

anoop
09-12-2011, 05:45 PM
धरणी ने चुपचाप सारे आरोप सुन लिये, स्वीकार कर लिए।
''चल, हमारी ही ग़लती सही। पर भगवान तुझे सुखी रखे।''
पता नही कितना ही समय धीरे-धीरे सरक गया। अचानक एक दिन विधु ने ख़ुद ही माँ से कहा।
''माँ, तुम्हे कैसा लगेगा अगर मैं शादी के बिना ही किसी के साथ रहना शुरू कर दूँ?''
धरणी को जैसे लकवा मार गया।
''ग्रेग यही चाहता है और मैंने उसे मना कर दिया है।''
धरणी ने फिर से साँस ली, पर बोझिल-सी। विधु आजकल अक़्सर ग्रेग की बाते करती थी। धरणी को उम्मीद थी कि शायद ग्रेग ही विधु के सपनों का राजकुमार हो!
विधु के भाव-हीन चेहरे के ऊपर ख़ामोशी की मोटी-सी पर्त्त पड़ गई। मन के अंधेरे में वह कुछ टटोल रही थी। मूल्यों की इस भूल-भुलैया में वह अपने को बेगाना-सा महसूस करती है। कुछ मूल्य थे जो उसने इस घर से लिए हैं, कुछ उसने बाहर से उठा लिए। दोनों ने मिलकर एक अजीब-सी यह भूल-भुलैया रच दी। वह इसके दरवाज़े पर कब से खड़ी है। जिधर भी जाती है, फिर लौट कर वहीं अपने को खड़ा पाती है।
धरणी विधु के चेहरे को देखती रही। कितना ग़ुस्सा करती है, पर मन और चेहरा कितना भोला है? कहाँ, क्या गड्ड-मड्ड हो गया?
''सब गड़बड़ है, इस लड़की का सोचने का तरीक़ा ही गड़बड़ है।'' सागर परेशान होकर कहते।
''आप क्यों परेशान होते रहते हैं? जो भगवान चाहेगा, वही होगा।''
''कहीं भगवान ने यह चाहा कि इसकी शादी ही न हो, तो?''
''क्या...?'' धरणी अपने कानों पर विश्वास न कर सकी।
''मुझे तो लगता है कि अब इसकी शादी कभी नहीं होगी।'' सागर की काँपती आवाज़ में हताशा थी।
''कैसे कह दी आपने इतनी बड़ी बात?'' धरणी चीत्कार कर उठी।
''आप भगवान हैं क्या? विधु की क़िस्मत आपके हाथ में है क्या? आप जो चाहे फ़ैसला दे सकते हैं? आपने एक माँ के सामने ऐसी बात कैसे कह दी?''
सागर सकते में खड़े थे। कभी अपने पति के सामने ऊँची आवाज़ में न बोलने वाली धरणी हाहाकार कर उठी। जैसे उन्होंने उसकी बेटी के लिए कोई शाप-शब्द कह दिए हों। सागर आहत मातृत्व के सामने बहुत छोटे हो गए। सभी शब्द चुक गए। न कुछ सफ़ाई देने वाले बचे और न क्षमा माँगने वाले ही।
धीरे से उठे, नीचे स्टडी में आकर बैठ गए... बिना रोशनी के ही।
पिछले तीन दिनों से विधु ने छुट्टी ले रखी थी। आज उसकी माँ दमे के भारी हमले से फिर बच कर, अस्पताल से घर आ गई थी। उसने ख़ास सफ़ाई वाली टीम को बुलवा कर पूरा घर किटाणु-रहित करवाया। एयर-कंडीशनींग की छाननियों में, फ़ायर-प्लेस की चिमनी में, अल्मारियों के ऊपर, पर्दों के पीछे, कहीं धूल-किटाणु न रह जाएँ जिससे धरणी का दमा फिर भड़क उठे। उसे हिन्दुस्तानी ढंग से खाना पकाना तो नहीं आता, पर जो-जो समझ में आया, बाज़ार से लाकर सब फ़्रिज में भर दिया। बड़ी मुस्तैदी से उसने घर सँभाल लिया।

विधु से अक़्सर लोग पूछते, ख़ासकर अमरीकी लोग कि वह अभी तक अपने माँ-बाप के साथ क्यों रह रही है?
इन अनचाहे प्रश्नों की बौछार को रोकने के लिए विधु के पास एक बहुत बड़ा कवच था। कहती, ''माँ दमे की मरीज़ है और पिता दिल के। अगर वह भी उन्हें छोड़ कर चली जाए तो कौन उनका ख़्याल रखेगा?'' विधु को लगता है कि कहीं शायद मम्मी-डैडी के मन में बेटा न होने का मलाल भी छिपा हुआ है। वह अपनी ओर से उन्हें यह बात महसूस नहीं होने देना चाहती। बड़ी बहन ने तो शादी के बाद इधर आकर झाँका भी नहीं और विधु से तो उसकी बोल-चाल भी नहीं है। वही है बस अब सब कुछ मम्मी-डैडी की। विधु ने झाँका तो माँ लेटे-लेटे छत की ओर निहार रही थी।
धरणी के मन में आजकल कबीर की यह पंक्तियाँ घुमड़ती रहती हैं:
''माया मुई न मन मुआ, मरि मरि गया शरीर। आशा तॄष्णा न मुई, यों कहि गया कबीर॥
''माँ बूढ़ी हो गई है।'' विधु सोचती है। धीरे से पास आकर लेट गई।
धरणी उसका सिर सहलाने लगी। ऐसे में विधु को बहुत अच्छा लगता है। उमर के साथ माँ-बेटी के सम्बन्धों से ऊपर उठा एक रिश्ता। बस औरत होने का साँझापन।
''मैं चली गई तो इसका क्या होगा?'' धरणी सिहरी।
''यह चली गई तो मेरा क्या होगा?'' विधु अकुला उठी। एक ख़ामोशी थी पर संवादों से बोझिल।
धरणी ने चुप्पी की दीवार को सरकाया, ''विधु मैं कब तुम्हें दुल्हन बनी देखूँगी?''
''माँ,'' विधु ने घुड़का पर नक़ली ग़ुस्से से।
''सोचती हूँ अब तो तेरी सहेलियों के बच्चे भी किशोर हो गए। तुझ से छोटी तेरी चचेरी, ममेरी बहनों की शादी भी कब की हो गई।''
''शायद मेरी क़िस्मत में कोई है ही नहीं।''
''ऐसा नहीं कहते बेटे।''
''कोई नज़र आता है क्या?''
''एक बात कहूँ, तू बुरा तो नहीं मानेगी?''
''आगे कौन-सी बात भला तुमने नहीं कही?''
धरणी थोड़ा झिझकी। फिर काफ़ी अरसे से मन में आ रही बात को थोड़ा साधा।
''विधु अब तुम्हारी उमर के हिसाब से कोई कुँआरा लड़का मिलना मुश्किल ही लगता है। अगर कोई विधुर या तलाक़-शुदा ही हो...।''
''अब यही बचे हैं मेरे लिए? '' विधु ने घायल होकर कहा। कुछ देर अनमनी-सी रही।
''अब यह हालत आ गई है।'' रुँआसी-सी होकर उसने हथियार डाल दिए।
''नहीं बेटा, मैं तो व्यवहारिकता की बात कर रही हूँ। तुम चालीस को पार कर चुकी हो और...।''
''माँ, आँकड़ों पर मत जाओ।'' विधु तड़प कर उठ बैठी।
''जब मैंने इतना इंतज़ार किया है तो थोड़ा और सही। इतनी साधारण लड़कियों को भी इतने अच्छे पति मिल जाते हैं तो मैं इतनी गई-गुज़री तो नहीं। मैं सिर्फ़ शादी करने के लिए अपने दिल से समझौता नहीं करूँगी। इतनी हताश नहीं हुई अभी मैं।''
धरणी की आँखों में हताशा का भाव देख कर, विधु उसे समझाने लगी या शायद अपने को ही।
''जो सपना होश आने के बाद से ही देख रही हूँ उसे कैसे ध्वंस कर दूँ? अभी भी मैं आकर्षक हूँ, पढ़ी-लिखी हूँ, अच्छा कमाती हूँ, और...।'' उसने पल भर के लिए आँखें माँ पर टिका दीं। ...और अभी तक कुमारी भी हूँ। बहुत कम लड़कियाँ मिलती हैं मुझ जैसी।''

विधु की लम्बी पतली गर्दन और ऊँची हो गई। तराशी हुई चेहरे की रेखाएँ कोमल हो गईं और गहरी आखों में एक चमक झिलमलाई। गुलाबी भरे हुए होंठ शब्दों को राह देने लगे।
''माँ, तुम देखना, एक दिन ज़रूर आएगा वह। छह फ़ुट लम्बा, सुन्दर, आकर्षक, गठीला शरीर, बेहद पढ़ा-लिखा, अमीर, ख़ानदानी, हँसमुख, मुझ पर जान छिड़कने वाला, हाज़िर-जवाब, दिलचस्प, गम्भीर, उदार विचारों वाला, बिल्कुल अमरीकी मॉडल लगेगा पर मूल्य बिल्कुल भारतीय होंगे, मैं उसे देखते...ही पहचान लूँगी और वह...।''
विधु के होंठ बुदबुदा रहे थे और गाल पर ढुलक आए आँसू का उसे पता ही नहीं चला।
समाप्त

anoop
09-12-2011, 05:50 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=14240&stc=1&d=1323438539
अभिरंजन
कानपुर में जन्मे अभिरंजन पेशे से इंजीनियर हैं और देश विदेश की अनेक संस्थाओं में अनुभव की सीढ़ियाँ चढ़ते फिलहाल अमेरिका में कार्यरत हैं।

विज्ञान और साहित्य में समान रुचि रखने के कारण विज्ञान कथाओं में विशेष रुचि हैं। कुछ रचनाएँ यत्रतत्र प्रकाशित वेब पर प्रकाशित होने वाली यह पहली कहानी हैं।

अभिरंजन की कहानी— 'कस्तूरी कुंडल बसे'

anoop
09-12-2011, 05:52 PM
कस्तूरी कुंडल बसे


अभी एक उनींदा-सा झोंका आँखों में आकर ठहरा ही था कि आवाज़ आई, "कॉल फ्राम वेराइजन वायरलेस..." फोन सविता ने उठाया। हमारा इकलौता बेटा तरुण अपनी माँ द्वारा दिन में की गई काल के जवाब में फ़ोन पर था। मैं वापस नींद में जाने को ही था कि बातों ने ध्यान आकर्षित कर लिया,
"क्यों क्या पेट दर्द हो रहा है?... ठीक है मै वीकेण्ड पर आते हुए ले आऊँगी। ...
हाँ, अच्छा ठीक है मैं कल ही ओवरनाइट करती हूँ। अहँ..अहँ क्यों? ... इतना गड़बड़ है क्या? ... तुमने टायलोनॉल ली क्या? अच्छा! कब से? ... ठीक है, मैं कल ही आती हूँ।"

मेरी नींद अब तक टूट गई थी। पत्नी ने बताया, ''तरुण को कई दिनों से सर दर्द हो रहा है। लगातार टायलोनॉल की गोलियों से काम चला रहा है।'' मैंने राहत की साँस ली। कालेज में पढ़ते नवयुवक कब गलत संगत में पड़ जायें, पता नहीं चलता। वैसे तो तरुण अपने पर संयम रखता है, पर जब किसी धुन में लग जाता है, तो आगा पीछा कुछ नहीं सोचता। लगा- शायद लगातार काम करने की थकान से स्वाभाविक सर दर्द हो गया होगा। पर नींद के प्रभाव में पुनः आने तक मेरे आखिरी विचार यही थे कि, शायद बात कुछ गंभीर है क्योंकि तरुण द्वारा हमारे घरेलू पाचन चूर्ण `बुकनू` की माँग करना काफी अस्वाभाविक था। अगली सुबह मैंने कार्यालय में अपने साथियों को सूचित कर दिया कि तरुण की तबियत खराब है और हम उसे देखने के लिए मैरीलेंड जा रहे हैं।
लगभग साढे आठ बजे हम घर से निकल पड़े। इस समय तक टर्न पाइक पर रोज़ के आने जाने वालों की भीड़ कम हो जाती है, इसलिए हम लगभग ३ घंटों में बिना रुके जॉन हापकिन्स के कैंपस पहुँच गए। रेजीडेंसी में होने के कारण अब तरुण ने एक फ्लैट किराये पर ले लिया था और अपने एक और साथी के साथ रहता था।

दरवाज़े की घंटी कई बार बजाने पर ही दरवाज़ा खुला और हम अपने सामने खड़े व्यक्ति को देखकर भौंचक्के रह गये। तरुण के बाल और ढाढ़ी तो बढ़े ही थे, उसका चेहरा भी उतरा हुआ था। तरुण भी मुझे देखकर आश्चर्य चकित था, उसने नहीं सोचा था कि, मैं भी वहाँ पहुँच जाऊँगा। उसने मेरे पैर छुए और बोला,
"आप बेकार परेशान हुए, मैंने तो माँ से ही केवल कहा था..."। मैं बोला,
"तुमने बात ही ऐसी की थी कि मेरा चौंकना स्वाभाविक था। तुम तो हमेशा से ही बुकनू से दूर भागते थे, अगर तुम बुकनू को स्वास्थ्य सुधारने के लिए प्रयोग करना चाहते हो तो बात निश्चित रूप से साधारण नहीं है।" हम तीनों ही जानते थे कि खाने पीने की चीज़ों में उसकी रुचियाँ बड़ी बेढब थीं और जो चीजें उसे पसंद नहीं थी, उन्हें हम उसे बचपन से आज तक कभी भी खिला नहीं पाए।

anoop
09-12-2011, 05:52 PM
तरुण स्वयं ही बोला, "पता नहीं क्या हो रहा है, मैंने कितने ही टेस्ट करवाए, पर हर शाम को अजीब-सा सर दर्द शुरू हो जाता है। कैट स्केन, ई.एम.जी., एम. आर. आई. सब कर चुके हैं, पर कुछ भी पता नहीं चला। जैकब से कह कर उसके न्यूरो के प्रोफेसर साहब से भी बात की। उन्हें भी कुछ समझ नहीं आ रहा है। इधर मेरा काम सब बिगड़ता जा रहा है। पिछले हफ्ते तक मैं शाम को तो किसी काम के लायक नहीं रहता था, पर कम से कम सुबह के समय तो अस्पताल जा पा रहा था, पर अब तो रात में ठीक से सो न पाने के कारण सुबह भी ठीक से ध्यान नहीं दे पा रहा हूँ। लगातार टायलोनॉल लेकर काम चला रहा हूँ। इससे अधिक शक्तिशाली ड्रग्स लेने में दूसरे खतरे हैं। आप तो जानते ही हैं कि मैं इन चीज़ों से दूर ही रहता हूँ।"

मैंने कहा, "जल्दी से कुछ साफ कपड़े पहन लो, फिर देखते हैं... सत्य प्रकाश शायद अभी लंच में घर पर आया हो तो उससे घर पर ही मिल लेते हैं। वहीं और विस्तार से बात करेंगे। तुम तो जानते ही हो कि मुझे उस पर बहुत भरोसा है। वैसे तो तुम खुद ही डॉक्टर हो, पर वो कहते हैं ना कि अपना इलाज खुद नहीं होता। और अब तक अपनी सीमा में जो कुछ हो सकता है वह तो तुम कर ही चुके होगे।" मैं उससे कह नहीं रहा था, पर असली बात यह थी कि मुझे न तो स्वास्थ्य संबंधी ज़्यादा जानकारी है और न ही अपने पर इस मामले में कोई भरोसा।

सत्य प्रकाश के घर जाते हुए रास्ते में मैंने उसके सेल फोन पर बता दिया कि हम क्यों आ रहे हैं। हमारे पहुँचने तक वह अपना लंच कर चुका था। तरुण को देखते ही बोला, "मैंने तुमसे ये उम्मीद नहीं की थी तरुण, कम से कम मुझे तो बताना चाहिए था।" तरुण झेंपता-सा बोला, "सॉरी अंकल, मैंने खुद ही नहीं सोचा था कि बात इतनी बढ़ेगी। वैसे जितने हो सकते थे, सारे टेस्ट मैं करवा चुका हूँ, और डॉ. सिल्विया कालिन्स से भी मिल चुका हूँ। अब तो मेरी अक्ल ने काम करना बंद कर दिया है, क्योंकि कोई भी टेस्ट अभी पॉजिटिव नहीं आया है। सभी की सलाह है कि अत्याधिक काम करने से हुई थकान ही मेरी मुख्य समस्या है। मुझे आराम करना चाहिए और धीरे-धीरे सभी ठीक हो जाएगा।"
सत्य प्रकाश ने पूछा, "वैसे तो तुम और तुम्हारे साथी इस पर पहले ही विचार कर चुके होगे, लेकिन फिर भी तुम्हें ऐसी कोई भी बात याद आती है, जिससे अंदाज़ा लगाया जा सके कि समस्या का मूल क्या है?''
तरुण बोला, "मैंने सोचा तो बहुत कुछ, पर ऐसा कुछ भी याद नहीं आता जिससे पता लगे कि इसका कारण क्या हो सकता है। मैंने पिछले २-३ महीनों से ज़्यादा समय से बाहर किसी रेस्तरां में खाना तक नहीं खाया जो कोई अनजाना वायरस या बैक्टीरिया अपना असर दिखा रहा हो। अपनी आँखो की जाँच करवा चुका हूँ, और वे तो बिलकुल ठीक-ठाक हैं। मैंने अपने अपार्टमेंट में प्रकाश की भी ठीक-ठाक व्यवस्था कर ली है। सर दर्द के अन्य कारण जैसे तेज इत्र, कैफीन, मौसम, भूख आदि मेरे ध्यान में अब तक जो कुछ भी आया है, मैंने सभी को परखा है, परंतु अभी तक कोई कारण नहीं समझ में आया है। इसीलिए तो मैंने माँ से बुकनू माँगा था।"
सत्य प्रकाश ने भौंहें चढ़ाईं, बुकनू? उसका इससे क्या मतलब है? तरुण बोला, "ओह, वो तो मैं टायलोनॉल खाते-खाते उकता गया था, तो मुझे याद आया कि सर दर्द के लिए माँ बुकनू लेती थी, तो मैंने सोचा कि मैं भी लेकर देखूँ।"
सत्य प्रकाश ने प्रश्नात्मक दृष्टि से तरुण की ओर देखा और कहा, ''और..?''
तरुण बोला, "उसका असर अभी तक नहीं देखा क्योंकि अभी तक उसे आज़माने का मौका ही नहीं मिला है।"

anoop
09-12-2011, 05:53 PM
सत्य प्रकाश ने तरुण से उसकी स्वास्थ्य संबंधी सभी रिपोर्ट सुरक्षित ईमेल से भेजने के लिए कहा तो उसके उत्तर में तरुण ने एक यू.एस.बी. ड्राइव उसे दी जिसको लगाकर सत्यप्रकाश और तरुण दोनों ही तरुण की जाँचों को फिर से देखने लगे। सत्यप्रकाश ने कुछ देर बाद सिर हिलाया और कहा, ''कारण तो कोई समझ में नहीं आता।''
पर कुछ और दूर की संभावनाओं को परखने के लिए टेस्ट लिखकर दिए और उनको तुरंत करवाने के लिए कहा। हम उसका पर्चा लेकर तुरंत क्वेस्ट की लैब में गए। लैब पैथालाजिस्ट को तरुण ने अपना पहचान पत्र दिखाकर कहा कि हमें जल्दी है, हो सके तो फोन पर डॉ सत्य प्रकाश या फिर डॉ तरुण को विश्लेषण दे दें।

लैब से निकलने के बाद हम सभी जान हापकिन्स के कैंपस वापस गए। हमें वहाँ देखकर तरुण भी उत्साहित हो गया था और कॉलेज की लाइब्रेरी में कुछ पुराने केसों के बारे में माइक्रोफिल्म पर देखना चाहता था। मैं और पत्नी भी वहीं लाइब्रेरी में कुछ और पुस्तकें देखने लगे। लगभग दो घंटे बाद तरुण हतोत्साहित वापस आया। उसका चेहरा पुनः थका दिख रहा था। मैंने उसे उत्साहित करने के लिए कहा, चिंता मत करो हम इस समस्या का हल कुछ न कुछ ढूँढ़ ही निकालेंगे।

घर वापस पहुँचने से पहले ही तरुण को सेल पर लैब का टेक्सट मेसेज आया। तरुण उसे देखकर बोला, "कुछ फायदा नहीं हुआ। सारे रिजल्ट फिर से नेगेटिव आए हैं।" रास्ते में मेरी नज़र दायीं और बैठे तरुण के चेहरे पर पड़ी, वह हारा हुआ लग रहा था, बोला, "पापा, सर फिर से दर्द करने लगा है।"
मैंने पूछा, "क्या तुम्हारे पास टायलोनॉल है अभी?"
उसने इन्कार में सिर हिलाया। मैंने कहा, "पंद्रह मिनट तो कम से कम लगेंगे ही अभी घर तक पहुँचने में, तब तक काम चल पाएगा कि नहीं? नहीं तो हम लोग रास्ते में किसी सीवीएस फार्मेसी या वालमार्ट से दवा ले लें।"
तरुण ने कहा, "रहने दीजिए, जितनी देर ढूँढ़ने में लगेगी, उतनी देर में तो घर ही पहुँच जाएँगे।"
अगले तीन-चार मिनट तक कोई कुछ नहीं बोला। हम सभी चुपचाप अपने-अपने ख़यालों में खोये हुए बैठे थे।
अचानक तरुण बोला, "माँ, क्या आपके पास वो येलो साल्ट है, या आप अपार्टमेंट पर ही छोड़ आईं?"
उसकी माँ ने कहा, नहीं वो तो डिक्की के सामान में ही है। मैंने तरुण के चेहरे के भाव देखे तो चुपचाप गाड़ी हाई वे के किनारे सोल्डर पर रोक ली। उतर कर पीछे से बैग निकाल लाया और उसमें से निकाल कर बुकनू की शीशी तरुण को पकड़ा दी। उसने हथेली पर रखकर कुछ बुकनू पानी के साथ फाँक लिया। बाकी का सारा रास्ता चुपचाप गुज़रा। हम घर पहुँचे और तरुण की हालत देखते हुए उसे टायलोनॉल लेने की सलाह दी। उसने भी बिना कुछ कहे ५०० मिग्रा की एक गोली ले ली। उसे एक्सट्रा स्ट्रेंग्थ टायलोनॉल लेते देख मैं फिर से चिंतित हो गया। सत्य प्रकाश को फिर से फोन मिलाया तो वाइस मेल में उसकी आवाज़ सुनकर फोन काट दिया। उस रात हमने कुछ अनमने मन से ही खाना खाया। समस्या विचित्र थी, हम तरुण को आकस्मिक इलाज के लिए एमरजेन्सी में भी नहीं ले जा सकते थे। उससे तो वेबजह बात और फैलती, और फिर इमरजेंसी में वो लोग आखिर क्या करते। उसे सिडेटिव देकर सुला देते। तरुण वही तो नहीं चाहता था, नहीं तो डॉक्टर होने के नाते कब का वैसा कर चुका होता। साथ ही रोज़ कैसे सिडेटिव लिया जाता।

अगली सुबह चाय के समय तरुण अपने कमरे से बाहर आया तो हम दोनों ने तरुण की तरफ़ सवालिया निगाहों से देखा। वह थका हुआ था, और चेहरे पर उलझन साफ दिख रही थी।
बैठते ही बोला, "समझ में नहीं आ रहा है कि क्या कहूँ? कल रात उतनी परेशानी नहीं हुई। इसका कारण आप लोगों का यहाँ पर मेरे साथ होना है या बुकनू...?" हम दोनो पति-पत्नी भी असमंजस में पड़ गए। मैंने अपना वापस लौटना स्थगित कर दिया और सोचा, एक दिन और तरुण के साथ रहना ठीक रहेगा।

anoop
09-12-2011, 05:53 PM
अगला दिन ठीक-ठाक गुज़रा पर शाम होते ही मुसीबत आ खड़ी हुई-- फिर वही सिरदर्द। हमने सोचा, परेशान होने से तो अच्छा है कि तरुण टायलोनॉल और बुकनू दोनों ही ले ले। मैं उस रात ही वापस लौट आया, पर सविता वहीं रुक गई। आफिस से लौटते समय रास्ते में मैंने धड़कते दिल से तरुण का हाल पूछा तो पता लगा कि कल की तरह आज भी उसने दर्द को सहने के लिए दोनों तरीके अपनाये थे।

मैंने सत्य प्रकाश को फोन करके पूछा कि कोई प्रगति हुई। झिझक के कारण बुकनू वाली बात उसे नहीं बता सका। मुझे भी कुछ निश्चित नहीं था कि पाचन चूर्ण से कोई फायदा हो सकता था या नहीं। सत्य प्रकाश ने बताया कि उसने आज कई और विशेषज्ञों को फोन किया था पर अभी तक कोई समुचित समाधान नहीं मिला था। सभी विशेषज्ञों की धारणा बन रही थी, कि यह कोई नया वायरस या बैक्टीरिया है जो अभी तक चिकित्सा क्षेत्र में पहचाना नहीं गया है। मैंने उसे बताया कि दो दिन जब हम लोग वहाँ थे तो तरुण को कम परेशानी हुई।
सत्य प्रकाश बोला, "हो सकता है कि कोई मनोवैज्ञानिक समस्या हो जिसके बारे में तरुण हमें बता नहीं पा रहा हो। मैं कल उसके साथियों आदि से इधर-उधर की बातें करके पता करता हूँ कि कोई और बात तो नहीं है।" मुझे भी उसकी बात जँची। ऐसा हो सकने की संभावना तो थी ही।

अगले दो हफ्तों में तरुण की हालत काफी सुधर गई। यहाँ तक कि सविता भी वापस आ गई। हम अपने रोज़मर्रा के कामों में उलझ गए। हमारे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब तरुण ने बताया कि उसने टायलोनॉल लेना बंद कर दिया है और केवल एक बार एक चम्मच बुकनू लेता है, और इतने से ही उसका काम चल रहा है। हम खुद समझ नहीं पा रहे थे कि इन हालातों में क्या करें। इसी तरह लगभग एक महीना गुज़र गया।
रात के लगभग एक बज रहे थे। मैं एक सपने के बीच में था... ऊपर की ओर चढ़ते हुए किसी हवाई जहाज़ में, अचानक सुनाई दिया... "काल फ्राम वेरिजान वायरलेस...'' नींद तुरंत उड़ गई और फोन उठाते हुए मेरा दिल अचानक आशंका से काँप उठा, क्या फिर वही! कनेक्शन मिलते ही फोन पर तरुण की घबराई हुई आवाज सुनाई दी,
"पापा मेरे पास बुकनू खत्म हो गया है। क्या आप माँ से कहेंगे कि वो और बुकनू मुझे भेज देंगी?"
"हाँ ज़रूर। पर क्या तुम्हारा ध्यान पहले नहीं गया था?"
"मैंने सोचा था कि आपसे कहूँगा, पर आजकल ठीक ही चल रहा हूँ, इसलिए ढीला पड़ गया था।"
"क्या दर्द फिर से हो रहा है?"
"नहीं अभी तो नहीं, पर आजकल जो काम पीछे रह गया था उसकी भरपाई कर रहा हूँ, यदि ऐसे में गड़बड़ हुआ तो फिर मेरे प्रोफेसर अच्छा नहीं समझेंगे।"
"सुबह होते ही भेजते हैं।" मैंने उसे आश्वस्त करते हुए फोन बंद किया।
अबतक सविता भी जाग गई थी, बोली, "मैंने तो सोचा ही नहीं था कि ऐसी ज़रूरत पडे़गी, अब तो बुकनू खत्म हो गया है। ऐसा करते हैं कि भारत में मुकेश से कहो कि वे भेज दें।" मैं अपने चचेरे भाई मुकेश को फोन करने ही वाला था कि याद आया, एफ.डी.ए. वाले कूरियर से खाने की साम्रगी के नाम पर कोई भी मसाले आदि लाने से रोक देंगे। इसका मतलब ये हुआ कि भारत से आने वाले किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत सामान के साथ ही मँगाना पड़ेगा। यदि कोई नहीं मिला तो स्वयं जाना पड़ जाएगा।

anoop
09-12-2011, 05:54 PM
कितनी विडम्बना होगी कि विकासशील देशों, यहाँ तक कि अमेरिका के कई अन्य शहरों से लोग अपना इलाज करवाने यहाँ हमारे शहर न्यू यार्क आते हैं और हमें अपने पुत्र के स्वास्थ्य के लिए बुकनू लाने भारत जाना पड़ जाए। अगले दो दिन बड़े ही असमंजस में बीते। सप्ताहांत आते-आते तरुण ने बताया कि अब उसके पास बिलकुल भी बुकनू नहीं बचा था। हम उसकी बेबसी समझ रहे थे। न्यू जर्सी में लगभग सभी दुकानों पर ढूँढ़ने के बाद हम कुछ सामग्री जुटा पाए जिससे यहीं पर वह मिश्रण बनाया जा सके। उसे लेकर जब हम तरुण के पास पहुँचे तो उसने एक चम्मच चूर्ण खाया और खाते ही बोला, "यह तो कुछ अजीब-सा स्वाद वाला है।" हमने उसे सारी बात बताई तो उसने कुछ कहा तो नहीं पर वह आश्वस्त नहीं लग रहा था। मैंने अपने सभी परिचितों में कह रखा था कि यदि कोई भारत गया हो तो बता दें, क्योंकि हमें एक छोटा मसाले का पैकेट मँगाना है जिसे मसाला होने के कारण सीधे कूरियर से नहीं मँगाया जा सकता।
आशंका के बोझ से दबे हम घर लौटे। दो दिनों बाद ही तरुण का फोन शाम को आया कि उसकी समस्या हल नहीं हुई है। मैंने सत्य प्रकाश को फोन किया तो उसने कहा कि उसे और तो कुछ अभी तक पता नहीं चल पाया था, पर वह कहने लगा कि हम सीडीसी से संपर्क कर सकते हैं। मैंने पूछा कि इसमें सीडीसी क्या करेगी, तो उसने बताया कि अटलान्टा में सेन्टर फॉर डिसीज कंट्रोल से ज़्यादा विस्तृत वायरस और बैक्टीरिया का डाटाबेस किसी के पास नहीं है। यहाँ तक द्वितीया विश्व युद्ध में पकड़े गए जर्मन वैज्ञानिकों और उनकी जैविक युद्ध संबंधी सभी सामग्री भी केवल सी़डीसी के पास ही है।

अगले दिन मन नहीं माना तो हम पति-पत्नी फिर से मैरीलैंड चल दिए। इस बार हम दोनों मन बनाकर आए थे कि जब तक कोई पक्का हल नहीं मिलता कम से कम तरुण की माँ तो उसके साथ रहेगी ही। चाहे हमारा उसके साथ रहना हो या फिर मसाले वाला चूर्ण, हमें इस समस्या का निदान ढूँढना ही है।

मैंने सत्य प्रकाश से मिल कर बात की तो उसने कहा कि, "मैंने सीडीसी एटलान्टा में अपने दोस्त साइमन को तरुण के जैविक त्याज्य के कुछ सैम्पल भेज दिए हैं और उनके डाटाबेस में इसका मिलान करने के लिए कहा है। मुझे उससे बड़ी उम्मीदें हैं। साइमन ने कम के कम ४८ घंटो का समय माँगा है।" मैं चौंका! मेरे चेहरे के भावों को देखकर सत्यप्रकाश बोला, "करोड़ों वायरसों और बैक्टीरियाओं के गुणों का मिलान करने में, उनके शक्तिशाली कम्प्यूटरों को भी समय लग ही जाता है। सबसे बड़ी समस्या ये है कि इनमें से कई संभावनाओं को मिलाने का काम अभी भी जानकार वैज्ञानिकों को खुद ही करना पड़ता है। इस प्रकार के मामलों में स्वचालित विधि पर भरोसा नहीं कर सकते हैं।"

हम लोग रुट ९५ से होते हुए ४९५ के वृत्त पर पहुँचे और वापस तरुण के अपार्टमेंट पहुँच गए। तरुण की कमज़ोर काया और कमज़ोर होती जा रही थी और हम दुनिया के सबसे विकसित देश में होने और उसके स्वयं डॉक्टर होने के बावजूद भी उसके लिए कुछ नहीं कर पा रहे थे। मैं पत्नी को छोड़ वापस घर की ओर चल पड़ा। पिछले चार हफ्तों मे जीवन इतना अस्त-व्यस्त हो गया था कि रोज़ के काम अटके हुए थे। उन्हें सँभालना ज़रूरी था। इस बीच शायद भारत से मेरे चचेरे भाई द्वारा भेजा गया पाचन चूर्ण आ गया हो, यह भी देखना था। अचानक मुझे कौंधा कि एक बार भारत में जब मैं ३ महीने के लिए टायफाइड की चपेट में आ गया था, तब दवाइयों से उकता कर कुछ दिनों तक प्राणायाम का सहारा लिया था। इन हालातों में लगातार दवा खाने से बचने के लिए मैं तो शायद कुछ भी करने के लिए तैयार हो जाता पर डॉ तरुण को शायद यह पसंद आए या न आए समझना मुश्किल था। फिर भी मन में आई बात को अपने तक रखने की बजाय मैंने सेल फोन पर काल करके सविता से कहा कि हो सके तो वह तरुण को भ्रामरी प्राणायाम करने के लिए तैयार करे। तनाव न भी दूर हुआ तो कम से कम इससे कोई और समस्या तो नहीं आने वाली थी।

anoop
09-12-2011, 05:55 PM
अगले दिन कार्यालय से लौटते हुए दूध लेने के लिए जब चौबीसों घंटे चलने वाली दुकान ७-११ में रुका तो उसी प्लाजा में एक पत्रिकाओं की दुकान में घुस गया, सोचा कि कुछ पत्रिकाएँ लेता चलूँ, शायद तरुण और पत्नी दोनों का मन बहलता रहेगा। घर से शतरंज और स्क्रैबिल के खेल भी उठा लिए थे। जब तक सीडीसी से कुछ जबाब नहीं आता, तब तक हम लोगों की साँस अटकी हुई थी। इतना तो लगने लगा था कि जो कुछ भी है, साधारण नहीं है। गैस स्टेशन पर गैस भरवाते समय ली हुई पत्रिकाओं में से एक वैज्ञानिक पत्रिका के पन्ने यों ही पलट रहा था कि अचानक एक ऐसे लेख पर मेरी नज़र पड़ी जो कि आनुवांशिक गुणों की जानकारी साधारण लोगों तक पहुँच जाने के बारे में लिखा गया था। मैंने तुरंत सत्य प्रकाश को फोन घुमाया और उससे पूछा कि इस मामले में उसकी क्या राय है। पहले तो वह हिचकिचाया, पर बोला, "ठीक है सीडीसी का निर्णय आ जाने दो तब इसके बारे में सोचते हैं।"
दो दिनों बाद सीडीसी से साइमन का फोन आया तो पता लगा कि उसे आंशिक सफलता मिली थी। तरुण की लार के सैम्पल से यह तो निश्चित हो गया कि कोई नया वायरस या बैक्टीरिया उसके शरीर में मौजूद है। पर उसकी पहचान नहीं हो पाई थी। इस प्रकार के प्रभाव वाले इसी प्रजाति के कुछ मिलते जुलते बैक्टीरिया गर्म जलवायु वाले देशों में ही पाए गए थे। सबसे बड़ी समस्या यह थी कि तरुण के शरीर में अनजान बैक्टीरिया की जो संख्या थी वह मानव शरीर पर असर करने की सीमा से थोड़ी ही ऊपर थी। इसलिए पक्का पता नहीं चल पा रहा था। मैंने सत्य प्रकाश से कहा कि अब मैं और रुक नहीं सकता, बल्कि मैं कल ही आनुवांशिक पहचान के लिए तरुण का टेस्ट करवाता हूँ। तरुण के अपार्टमेंट में पहुँच कर हमने जेनेटिक डिकोडिंग वाली तीनो कंपनियों, २३ एण्डमी, डिकोड और नेविजेनिक्स में आन लाईन आवेदन कर दिया। उनके द्वारा बताई गई विधि के अनुसार लार या थूक के सैम्पल भी अगले दिन नार्थ कैरोलाइना, सियाटल तथा रिकजाविक (आईसलैंड) में भेज दिए गए। आश्चर्य इस बात का था कि आनुवांशिक जानकारी के लिए केवल लार या थूक का सैम्पल ही लिया जाता है। तीनों कंपनियों की वेबसाईट पर उपलब्ध सूचना के अनुसार हमें कम से कम तीन सप्ताह का इंतजार तो रिपोर्ट मिलने के लिए करना ही था। इस प्रकार के परीक्षणों में इन तीनों कंपनियों का अपना-अपना विशेष क्षेत्र है। जैसे डिकोड हृदय रोग, कैंसर और टाइप२ डायाबिटीज के क्षेत्र में महारत रखती है और बाकी कंपनियाँ कुछ अन्य बीमारियों के क्षेत्र में विशेषता रखती हैं। हमारी उत्सुकता तीनों जाँचों मे बराबर थी क्योंकि हमारी समस्या नई थी और इसके बारे में कहीं से भी महत्त्वपूर्ण जानकारी मिल सकती थी।

अगली सुबह तरुण ने चाय पीते हुए बताया कि लगभग चार माह पहले अपनी स्मरण शक्ति को बढ़ाने के लिए एक महीने तक वह एक ऐसा कम्प्यूटर गेम खेलता रहा था जिससे मस्तिष्क की क्षमता बढ़ाई जा सकती है। इस खेल में आपको कुछ चित्र दिखाए जाते हैं, और फिर उनके क्रम के बारे में सवाल पूछे जाते हैं। इस खेल का प्रयोग अक्सर अलझाइमर या पार्किन्सन के रोगियों के लिए किया जाता है। इस अभ्यास को आरंभ करने के कुछ दिनों के बाद से लगातार उसे अजीब से स्वप्न आते रहते हैं। जैसे उसे कोई उठा कर हवा मे लिए उड़ा जा रहा हो। मैं चौंक गया पर कहता क्या? हाँ तब राहत सी महसूस हुई जब तरुण ने कहा कि पिछले दो महीनों से फिर वह स्वप्न नहीं आया है। लगभग दस बजे सत्य प्रकाश का फोन आया, "जो बैक्टीरिया तरुण के स्पेसीमेन मे मिला है वह तो पिछली शताब्दी में भारत मैं भैंसों में पाया जाता था। पर सन १९५१ के बाद से ये फिर चर्चा में नही आया है। इसी कारण इस विषय पर विस्तृत जानकारी आजकल ठीक से उपलब्ध नहीं है। पर बॉस्टन के न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में १९५१ में छपे एक लेख के अनुसार इस बैक्टीरिया के कारण कुछ लोगों की मृत्यु उस वर्ष हुई थी, पर चूँकि इस घटना की पुनरावृत्ति नहीं हुई इसलिए अधिक शोध भी नहीं हुआ।"

इस बीच कूरियर से बुकनू मँगाने का प्रयास असफल हो जाने के बाद हमने एक परिचित को ढूँढ लिया था जो भारत से लौट रहे थे, और अगर एफडीए के अधिकारियों ने एयरपोर्ट से निकलते समय उनसे बुकनू जब्त न कर लिया तो कम के कम हमें आधिकारिक बुकनू मिल जाने वाला था। मैंने अपना पक्का मन बना लिया था कि यदि बुकनू आज भी न आ पाया तो मैं सबसे पहला टिकट मिलते ही भारत जाऊँगा और इस बार बुकनू स्वयं लेकर आऊँगा। सौभाग्य से इतनी समस्या नहीं हुई और आधा किलो का बुकनू का पैकेट मेरे मित्र बिना किसी समस्या के लेकर आ गए। उसे लेकर मैं उसी शाम वापस मैरीलैंड लौट गया। तरुण की आवाज़ का उत्साह मुझसे छुपा नही रहा था, जब मैंने उसे फोन पर इस बारे में बताया था।

anoop
09-12-2011, 05:55 PM
लगभग साढ़े तीन सप्ताह बाद तीनों प्रयोगशालाओं की लगभग ४०-५० पन्नों की तरुण के सैम्पल पर आधारित जेनेटिक रिपोर्ट हमें मेल से मिली। इन परीक्षणों का आधार भूत सिद्धान्त यह है कि, मानव शरीर में पाया जाना वाला डीएनए लगभग ३ खरब आधार भूत जोड़ों से मिलकर बनता है। ये आधार भूत जोड़े वास्तव में चार आधार भूत रसायनों जिन्हें ए, टी, जी और सी के नाम से जाना जाता है पर बने होते हैं। ये रसायन आपस में खरबों संभावनाओं के मार्ग को लेकर अपने नये युग्म बनाते हैं। इन्हीं युग्मों से मानव शरीर की संरचना होती है। कभी-कभी इन आधार भूत रसायनों का ऐसा युग्म बनता है जिसे हम लीक से हटकर बना संयोजन या एक त्रुटिपूर्ण मिलान कह सकते हैं। जब कई ऐसे मनुष्य जिनमें इस प्रकार के त्रुटिपूर्ण मिलान वाला डीएनए पाया जाता है तो हम उन्हें सिंगल न्यूक्लोटाइट पॉलीफार्मिज्म या फिर ''स्निप्स” कहते हैं। डीएनए टेस्ट करने वाली कंपनियाँ लोगों के स्निप्स की जाँच करके ऐसी गणनाएँ करती हैं जिनसे यह पता चलता है कि इस प्रकार के लोगों को किन संभावित रोगों का खतरा है। अगर साधारण शब्दों में कहें तो ये कंपनियाँ अभी तक हुई आनुवांशिक खोज द्वारा प्राप्त जानकारी को एकत्र करके लोगों के डीएनए क्रम से मिलाती हैं और इस प्रकार अपने निष्कर्ष प्रस्तुत करती हैं।

यह विज्ञान अभी अपनी शैशव अवस्था में हैं और आने वाले समय में जैसे-जैसे अधिकाधिक लोग अपना डीएनए क्रम उनके पास प्रस्तुत करेंगे, यह जानकारी अपनी गुणवत्ता स्थापित कर सकेगी। सौभाग्य से तरुण का डीएनए क्रम पूर्णतया भारतीय होने की वजह से उनके निष्कर्ष काफी हद तक सही होने की संभावना थी। यदि तरुण के स्थान पर कोई ऐसा व्यक्ति होता जिसके माँ, बाप या फिर पूर्वज किसी अलग-अलग भौगोलिक भाग या फिर अलग जाति, जैसे यूरोपीय या अफ्रीकी आनुवांशिकता से होते तो निष्कर्ष शायद उतने सही न बतलाए जा सकते थे। तरुण ने उसे बहुत ध्यान से पढ़ा और सत्य प्रकाश से भी राय ली। तीनो ब्यौरों मे एक बात सभी जगह थी, तरुण की जेनेटिक रिपोर्ट के अनुसार भारतीय होने की वजह से और उसमें भी उत्तर भारत के मैदानी इलाकों की आनुवांशिकता के कारण उसे इस प्रकार के बैक्टीरियाओं का खतरा था और संभवत उनमें से एक अब उसे परेशान कर रहा था। सत्य प्रकाश और तरुण दोनों ही स्तब्ध थे। इस पर और अधिक जानकारी के लिए तरुण में मुझे न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन का एक लेख भेजा। इस लेख में मैंने जब इस बैक्टीरिया "बफैसिलस" के बारे में पढ़ा तो, उससे प्रभावित लोगों की मृत्यु किस प्रकार से हुई थी, यह पढ़ते ही मेरे रोंगटे खड़े हो गए, क्योंकि मेरे खुद के दादा जी कि मृत्यु सन १९५१ में बिलकुल इसी प्रकार हुई थी। मुझे यह भी याद आया कि हमारे गाँव के घर में दूध की पर्याप्त मात्रा में उपलब्धि के लिए कई भैंसे पाली हुईं थी।
इस बारे में और अधिक खोज करने के लिए तरुण ने अपने अस्पताल के विशेषज्ञों से सहायता ली तथा इस संबंध में भारत जाने का निर्णय लिया। तरुण और उसके मित्र फिल स्टैन ने भारत जाकर वहाँ पर उतर प्रदेश के कन्नौज जिले और आस पास के शहरों में सभी बड़े अस्पतालों में जाकर उनके पुराने ब्यौरों को देखा और वहाँ के चिकित्सकों से बातचीत भी की। इस बीच हम अपने अपने जीवन में व्यस्त हो गए थे।

तरुण भारत से एक सप्ताह पहले लौटा है। हमें विस्तार से उसके सर दर्द की हालत के बारे में बात किए हुए तो लगभग एक महीना हो चुका है। आज उससे मिलकर उसके शोध के विषय में विस्तृत जानकारी के लिए मैं और सविता सुबह सुबह मैरीलेंड के लिए निकल पड़े। वहाँ पहुँचते हुए हमें लगभग ग्यारह बज रहे था, इसलिए हमने तरुण के साथ सत्य प्रकाश और फिल को विश्वविद्यालय के पास ही एक उच्च स्तरीय भारतीय वस्त्रों में आने का निमंत्रण दिया।

तरुण को देखकर खुशी हुई। उसके चेहरे पर पुरानी चमक वापस विराजमान थी। हमने उसका हाल पूछना चाहा तो वह बोला कि, बस पाँच मिनट में ही सत्य प्रकाश अंकल और सिल्विया भी रजनीगन्धा पहुँचने वाले हैं, वहीं चलकर इस बारे में बात करेंगे। हमें तरुण का हाल जानने की उत्सुकता तो बहुत थी, पर फिलहाल हम उसे स्वस्थ और प्रसन्न देखकर ही संतुष्ट हो रहे थे।

रजनीगंधा में अपनी खाने की मेज पर भोजन समाप्त करने के बाद हम सभी अपनी पसंदीदा मीठी चीज़ों के आने का इंतज़ार कर रहे थे, कि सिल्विया बोल पड़ी। ''अब मुझसे सब्र नहीं किया जा रहा है, बताओ तो सही तरुण कि तुमने क्या जाना अपनी इस खोज में?''

तरुण ने खड़े होकर सबसे पहले अपने लिए अग्रिम बधाइयाँ ली और तब सबसे पहले हमें बताया कि उसका एक शोध पत्र न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में छप गया है। इतने प्रतिष्ठित जर्नल में पेपर छपना सबके लिए गर्व की बात थी। तरुण ने आगे कहा,
''भारत में लगभग १९४५ से १९५१ के समय के बीच में कन्नौज और आस पास के क्षेत्रों में भैंसों की अकाल मृत्यु होने लगी। उसके बाद कन्नौज के आस-पास के लगभग १०० से अधिक गाँवों में इस अवधि में अंदाज़न हज़ार से अधिक लोगों की मृत्यु हुई थी। वहाँ से मिले आँकड़ो के अनुसार मैंने और फिल ने मिलकर जो थ्योरी बनाई है, उसके हिसाब से मूलतः भैंसों के शरीर में पाया जाने वाला बैक्टीरिया अचानक भैंसों की आबादी कम हो जाने के कारण अपने जीवन को आगे चलाने के लिए व्युत्पत्ति (म्यूटेशन) के मार्ग पर आगे बढ़ा।

''चूँकि मानव शरीर में भैंसों के मुकाबले कम प्रतिरोधक क्षमता थी इसलिए मानवों के शरीर में पहुँचने पर इसका असर काफी भयानक हुआ। यह बैक्टीरिया दूध के रास्ते मानव शरीर में प्रविष्ट हुआ और इसने रीढ़ की हड्डी को अपना घर बनाया। वहाँ से मस्तिष्क तक पहुँचकर कई लोगों के लिए भीषण सरदर्द और कुछ लोगों की मृत्यु का कारण बना। यहाँ तक कि, कुछ महीनों के छोटे से अंतराल में लगभग १००० के करीब प्रभावित लोग इस तरह से काल के ग्रास बन गए।
''उसी समय के आसपास वहाँ किसी आयुर्वैदिक वैद्य ने संभवतः लोगों को मेरा पसंदीदा येलो साल्ट यानि बुकनू खाने को दिया होगा। इस चूर्ण में उपस्थित हल्दी, अजवायन, बहेरा, पिपली आदि सभी मिलकर इस बैक्टीरिया पर प्रतिरोधक असर डालते हैं। इस प्रकार का म्यूटेटेड बैक्टीरिया निष्क्रिय अवस्था में उस क्षेत्र के लोगों में आज भी पाया जाता है। बैक्टीरिया बहुत अधिक संख्या में बढ़ तो नहीं पाता पर पूर्णतया मरता भी नहीं है। यह बैक्टीरिया मेरे परदादा की मृत्यु का कारण बना, पर उसके बाद दादा और पिता जी के शरीरों में लगभग निश्चित है कि उपस्थित होगा। मेरे शरीर में भी पहले से ही रहा होगा। पर जब मैंने काम के बोझ के कारण अपनी उत्पादकता बढ़ाने के लिए एक स्मृति बढ़ाने वाला कम्प्यूटर गेम खेला तो मेरी कार्य क्षमता तो बढ़ गई, पर प्रतिरोधक क्षमता कम हो गई। जब मेरा शरीर कमज़ोर हो गया तो यह बैक्टीरिया पुनः शक्तिशाली हो गया और मेरे लिए समस्या बन गया। यहाँ अमेरिका में रहने के कारण और यहाँ का वातावरण कीटाणुरहित होने की वजह से भी मेरे शरीर की प्रतिरोधक क्षमता वैसे ही समय के साथ कम होती गई है, इसीलिए मेरे शरीर पर बैक्टीरिया आसानी से हावी हो सका। पर जब मैंने बुकनू का सेवन करना शुरु किया तो यह वापस नियंत्रण में आ गया। इसका कोई इतिहास यहाँ पर न उपलब्ध होने के कारण मुझे अमेरिकी शोध का कोई फायदा नहीं मिल पाया।''

जब हम मैरीलैंड से वापस चले तो तरुण का सर दर्द पूर्णतया नियंत्रण में था और उसके पास पर्याप्त मात्रा में बुकनू उपलब्ध था। वापस घर के लिए चलते समय तरुण के कमरे में लगे हिरण के चित्र पर मेरी निगाह गई तो मैं सोच रहा था कि "कस्तूरी कुंडल बसै..."


समाप्त

anoop
09-12-2011, 05:57 PM
आशा है मेरा यह प्रयास आप सब को पसन्द आया। आपके विचार मुझे इस सुत्र को आगे बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करेंगें।

Dark Saint Alaick
12-12-2011, 03:03 AM
अभिरंजनजी को पहली बार पढ़ा ! कथा नव सृजन की तरह अनगढ़ अवश्य है, किन्तु उसमें कच्चे दूध की सी सुगंध है ! अनगढ़ कहने पर कुछ मित्रों को आपत्ति हो सकती है, लेकिन आप ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे कि 'आयुर्वेदिक वैद्य' जैसे कई गलत प्रयोग लेखक ने किए हैं ! यहां वैद्य का प्रयोग ही पर्याप्त है, क्योंकि वैद्य आयुर्वेदिक चिकित्सक का ही पर्याय है, जैसे एलोपैथी और होम्योपैथी के डॉक्टर और यूनानी के हकीम हैं ! वैसे भी विज्ञान पर लेखन और उस पर भी कथा रचना दुरूह है ! लेखक ने बेहतर प्रयास किया है ! उनकी उपमाओं और प्रतीकों में मुझे कस्तूरी जैसे शब्द देख कर प्रसन्नता हुई कि प्रवासी अपनी संस्कृति से वर्षों बाद भी उसी सघनता से जुड़े हुए हैं ! उम्मीद है ऎसी ही और भी रोचक तथा श्रेष्ठ कथाएं इस सूत्र में पढने का सौभाग्य प्राप्त होगा ! धन्यवाद !

anoop
12-12-2011, 04:54 PM
अभिरंजनजी को पहली बार पढ़ा ! कथा नव सृजन की तरह अनगढ़ अवश्य है, किन्तु उसमें कच्चे दूध की सी सुगंध है ! अनगढ़ कहने पर कुछ मित्रों को आपत्ति हो सकती है, लेकिन आप ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे कि 'आयुर्वेदिक वैद्य' जैसे कई गलत प्रयोग लेखक ने किए हैं ! यहां वैद्य का प्रयोग ही पर्याप्त है, क्योंकि वैद्य आयुर्वेदिक चिकित्सक का ही पर्याय है, जैसे एलोपैथी और होम्योपैथी के डॉक्टर और यूनानी के हकीम हैं ! वैसे भी विज्ञान पर लेखन और उस पर भी कथा रचना दुरूह है ! लेखक ने बेहतर प्रयास किया है ! उनकी उपमाओं और प्रतीकों में मुझे कस्तूरी जैसे शब्द देख कर प्रसन्नता हुई कि प्रवासी अपनी संस्कृति से वर्षों बाद भी उसी सघनता से जुड़े हुए हैं ! उम्मीद है ऎसी ही और भी रोचक तथा श्रेष्ठ कथाएं इस सूत्र में पढने का सौभाग्य प्राप्त होगा ! धन्यवाद !

प्रतिक्रिया के लिए आपका आभार व्यक्त करना चाहुँगा।
कोशिश रहेगी की और भी कहानियाँ यहाँ लगा सकूँ।

anoop
12-12-2011, 04:57 PM
अनिल प्रभा कुमार की कहानी— 'दिवाली की शाम'
(इनका परिचय पृष्ठ १ पर पोस्ट कर चूका हूँ।)

ड्राइव-वे पर लट्टू ने कार रोकी तो वह दरवाज़ा खोल कर बाहर निकल आए। धीमे-धीमे कदमों से अपने घर की ओर बढ़ते वह वहीं बीच में रुक गए, वह अक्सर ऐसा करते थे जैसे अपने ही घर को किसी और की नज़रों से तोल रहे हों। सफ़ेद भव्य घर, छोटी-छोटी ईंटों की तरह की सफ़ेद टाइलें। दो बड़े दरवाज़ों के ऊपर पूरी दूसरी मंज़िल जितनी बड़ी शीशे की खिड़की में से झाँकता फ़ानूस।

सोचते, क्या ताजमहल लगता है। मुँह से निकलता, शुक्र है मालिक तेरा शुक्र है। दिल से मरोड़ उठती, "काश यही घर हिंदुस्तान में होता तो कम से कम उनके दोस्त आकर उनका यह वैभव तो देखते।

उन्होंने पीछे घूम कर देखा। सारी सड़क पर कोई देखने वाला नहीं था। नवंबर की शाम थी। ठंड पड़ी नहीं थी सिर्फ़ अपने आने की सूचनाएँ भेज रही थी। पत्ते भी मौसम के हिसाब से अपने रंग बदल कर धराशायी हो गए। सब घरों के बाहर बढ़ना शुरू हो रहा था। कोई गाड़ी पास से गुज़रती तो हकबका कर बाहर की रोशनी जग जाती। उनका मन जो अपना घर देख कर थोड़ा मुग्ध हुआ था, वही अब आस-पड़ोस के घर देखकर क्षुब्ध हो गया। दिवाली का दिन है और कहीं कोई शगुन तक के लिए भी रोशनी नहीं। सिर्फ़ काले पड़ते पेड़ों की डालियों से छन कर आता आकाश का फीका-सा उजाला था।

anoop
12-12-2011, 04:58 PM
लट्टू ने कार में से आख़िरी प्लास्टिक के थैले उठाए और जल्दी से घर की ओर बढ़ता हुआ बोला, ''पापा जल्दी अंदर आ जाइए, ठंड लग जाएगी।'' वह थके कदमों से गैराज की ओर से घर के अंदर दाखिल हुए। बायीं ओर मुड़ कर हाथ जोड़ दिए। उस कमरे में मंदिर जो था। फिर दायीं ओर बढ़े। हाथ का बैग खाने की मेज़ कर रख दिया। कोट वहीं कुर्सी की पीठ पर डाल कर वह बैठ गए। उन्हें लगा कि जैसे चुप्पी के इस अंधेरे-उजाले में वह बरसों से अकेले रह रहे हैं। यह घर लौटने की घड़ी, यह संध्या का वक़्त, रोशनी को जब दिन नहीं कहा जा सकता और अँधेरे को रात नहीं कहा जा सकता, यह वक़्त उन्हें हिला गया। सूनेपन का अँधेरा उनके अंदर एक अंधे कुएँ की तरह उतरने लगा। वह यों ही निश्चल बैठे रहे।

किसी को भी किसी की प्रतीक्षा नहीं थी। उनके आस-पास सब कुछ वैसे था जैसे सफ़ेद और काले रंगों से बनाई गई कोई जड़ तस्वीर हो। इस तस्वीर में चीज़ें ही चीज़ें थीं, ढेर सारी चीज़ें। सिंक में ढेर सारे जूठे बर्तन, काउंटर पर जल्दी-जल्दी खोला गया बिस्कुट का पैकेट, पीज़ा का पुराना डिब्बा, आधी पी गई सोडे की बोतल। एक स्टोव पर कड़ाही थी और दूसरे पर खुला प्रेशर कुकर। कोने में मिक्सी और टोस्टर पड़े थे पर उनकी रेखाएँ धूमिल-सी थीं। उन्होंने सोचा कि अगर कोई दूसरा उनको देखे तो शायद कुर्सी पर बैठी उनकी आकृति भी इस जड़ तस्वीर का ही एक हिस्सा लगेगी।

उन्होंने दायीं तरफ़ से बड़े से फैमिली रूम की ओर नज़र घुमाई। ज़िंदगी की तस्वीर सिर्फ़ रुकी हुई ही नहीं बोझिल भी थी। भारी-सा कालीन, उस पर उससे भी भारी सोफा, उस पर रंगीन गद्दियों का ढेर जिन्हें वह ठीक से देख नहीं सकते थे बस हल्के अँधेरे में अंदाज़ा लगा सकते थे। सभी कुछ ठहरा हुआ था, उनकी भीतरी ज़िंदगी की तरह। उन्होंने ज़ोर से साँस ली जैसे कि इस रुकी हुई ज़िंदगी में जान डालने की कोशिश कर रहे हों।

लगा, गद्दियों के भीतर से जैसे कुछ हलचल हुई। उन्होंने अंदाज़े से ही पहचाना लक्ष्मी की आँख लग गई होगी। अगर घर में कुछ पकने की ही खुशबू आ रही होती तो शायद यह तस्वीर थोड़ी सजीन हो जाती। पर अब लक्ष्मी बहुत अरसे से खाना नहीं पकाती। बहुत पकाया है बेचारी ने। सत्तर से ऊपर की हो गई है वह। भारी शरीर को बीमारियों ने भी दबोच रखा है। वह धीरे से उठी। चलते-चलते उसका शरीर थोड़ा-सा बायीं ओर झूल जाता था। उठ कर उसने बिजली का बटन दबाया। रोशनी में सब कुछ साफ़ हो गया। आप कब आए? मुझे तो आपके आने का पता ही नहीं चला। वह चुप रहे।

फिर पास आकर उसने बड़ी आत्मीयता से पूछा, ''पानी दूँ?''
''नहीं, रहने दे। अब खाना ही खाएँगे।''
''बच्चे अभी नहीं आए?'' उन्होंने आदतन पूछ तो लिया फिर खुद ही लगा कि उनकी आवाज़ में अब ''बच्चे'' कहते वक़्त कितना खोखलापन आ जाता है। किन को बच्चे कहना चाहिए था और किन को बच्चे कर रहे हैं। लक्ष्मी तो समझती हे कि उनका बच्चों से मतलब पैंतालीस साल के कुबेर या बयालीस साल की मौनिका या छत्तीस साल के लट्टू से होता है पर उम्र के इस पड़ाव पर बच्चों से मतलब नातियों और पोतों से होना चाहिए था। कितना चाहते थे वह कि मनी की शादी हो जाए। एक डॉक्टर लड़के को सगाई करके ले भी आए। शुक्र है कि जल्दी ही पता लग गया कि वह ग्रीन-कार्ड लेने के चक्कर में शादी करना चाहता था। बस, वह सगाई तोड़ देने के बाद उनकी हिम्मत ही नहीं पड़ी किसी और लड़के पर विश्वास करने की।

कुबेर ने भी कितनी देर तक अपना विवाह स्थगित किए रखा। बड़ा भाई डॉक्टर है, बहुत बड़ा आकर्षण था लड़के वालों के लिए। लक्ष्मी को भी लगता कि बहू पहले आ गई तो कहीं कुबेर को बहन को शादी का खर्चा करने से रोक न दे। लक्ष्मी के तीनों भाई सपरिवार यहीं थे। बड़ी भाभी तो साफ़ कहती, ''बहन जी, हर चीज़ की कीमत होती है, अमरीका आने की भी एक कीमत है।''
सुन कर दोनों को लगता जैसे किसी ने उनके पके हुए ज़ख्म को छू दिया हो। उनके बच्चों की बड़ी उमर और अभी तक शादी न होने के बारे में कोई न कोई फ़िकरा कस ही देता था।
''अगर आप भारत में होते तो आप के बच्चों की कब की शादियाँ हो चुकी होतीं।''
अब उन्हें भी संदेह होने लगा था कि क्या सचमुच इस बड़े घर, कारों, और मोटी चैक-बुक की कीमत उनके बच्चों ने अपनी जवानी से तो नहीं चुकाई? उम्र सिक्कों में तो नहीं मिलती, पता ही नहीं चला कि क्या पाने के लिए क्या और कितना दे दिया?

लक्ष्मी ने बाद में खुद ही आग्रह करके कुबेर को शादी करने पर तैयार कर लिया। श्री मायादास की सभी शर्तों को पूरा करती थी। वह डॉक्टर भी थी, भारत की ही पढ़ी हुई, मतलब बिगड़ी हुई नहीं, शिकागो में पढ़ाई का दूसरा साल पूरा कर रही थी, मतलब अमरीका आकर यहाँ की परीक्षा में फेल होने का ख़तरा नहीं। देखने में गोरी पर घरेलू लगती थी। भला और क्या चाहिए था और यहीं मात खा गए मायादास। उन्हें डॉक्टर तो मिल गई पर 'बहू' नहीं मिल पाई।

श्री ने दो साल रेज़ीडेन्सी के शिकागो में ही बिताए और कुबेर न्यू-जर्सी में प्रैक्टिस करता रहा। एक तरह से मनी को लेकर जो अजीब-सी असुविधा घर में सबको थी, वह भी काफ़ी कुछ आसान हो गई क्यों कि श्री बस मेहमान की ही तरह घर में आती थी। फिर जब उसे शर्त के मुताबिक दो साल के लिए भारत जाकर रहना पड़ा तो लगा कि संतुलन डगमगा गया। लौटी तो फेलोशिप करने के लिए न्यूयार्क में रहने लगी। सभी लोग आशा लगाए बैठे थे कि अब गृहस्थी बस जाएगी। पढ़ाई पूरी कर शायद श्री माँ बनना चाहे। जब न्यू-जर्सी में अपनी लाईन की नौकरी नहीं मिली तो कुबेर का धैर्य भी जवाब दे गया।
''इतना पढ़-लिख कर अब घर तो नहीं बैठ सकती न।''
श्री के इस उत्तर से वह निरुत्तर हो गया। शादी में समझौते का क्या मतलब होता है, अब उसकी समझ में आ गया था।
इस बार भी दिवाली श्री-विहीन ही थी।

anoop
12-12-2011, 05:00 PM
-------------------

चारों तरफ़ फैले शॉपिंग के थैलों को देख कर लक्ष्मी को थोड़ी खीज-सी हुई फिर पी गई। जब से मनी की सगाई टूटी है तब से उसकी यह शॉपिंग की आदत हद से बाहर हो गई है। लगातार हर वक़्त चीज़ें ख़रादती रहती है। घर को सजाने की, अपनी, भाइयों की, ममी की, पापा की, ज़रूरत की और ज़्यादातर बेज़रूरत की।
''क्यों कूड़ा-कबाड़ इकठ्ठा करती रहती है?'' लक्ष्मी खीजती। पर मनी घर में चीज़ें भरती जाती, भरती जाती जैसे कोई असीमित खालीपन हो, भरता ही न हो।
अब लक्ष्मी उसे कुछ नहीं कहती।
''ज़रा मनी को आवाज़ दो, ऊपर होगी।'' उसने पति से कहा।
पापा की आवाज़ सुन कर मनी दौड़ती हुई नीचे आ गई।
''लट्टू भी ऊपर है क्या? क्या कर रहा है?''
''इंटरनेट पर बैठा है, लड़कियाँ देख रहा होगा।'' मनी ने जैसे शिकायत लगाई।
''क्या बात करती है बेटे? उन्होंने प्यार से बेटे की तरफ़दारी की।'' उसको भी नीचे बुला ले।''
''पापा, श्री साउथ-कैरोलाइना से जो उसके लिए पटाखे लाई थी न वह उन्हें चलाने की सोच रहा है।''
''ना,ना,ना, यह कभी न करने देना उसे, ग़ैर-कानूनी है यहाँ पटाखे चलना।'' मायादास को अपरिपक्व बुद्धि वाले अपने इस छोटे बेटे से हमेशा ही ख़तरा बना रहता था।
''दिवाली वाले दिन पटाखे चलाना ग़ैर-कानूनी है?'' मनी ने त्यौरियाँ चढ़ा कर प्रश्न दाग़ा।

मायादास चुप ही रहे क्या जवाब देते?
फिर उन्होंने बात बदल कर बहुत प्यार से कहा, ''मनी बेटे, आज दिवाली है, कुछ तो पूजा की तैयारी कर लो।''
''पापा, बहुत थकी हुई आई हूँ काम से।'' कह कर मनी ने बाकी के घर की बत्तियाँ भी जला दी। एक उड़ती हुई उम्मीद से उसने अपने पापा के आस-पास नज़र डाली। कहीं कोई रंगीन थैला न देख, मन मसोस कर चुप-सी हो गई। ध्यान आया, अमरीका आने के कुछ साल बाद ही हालात कितने अच्छे हो गए थे। कुबेर की प्रैक्टिस तो अच्छी चल ही पड़ी थी उधर पापा ने ज़िंदगी की दौड़ के इस दूसरे दौर को भी मेहनत करके जीत लिया था। थोक के कपड़ों का व्यापार चला कर, पुरस्कार लट्टू के हाथ में थमा दिया और खुद उसके पीछे हो लिए। वह तो ख़ैर थी ही सबसे पहली बैंक में नौकरी करने वाली। क्लर्क से शुरू होकर मैनेजर बन गई थी अब। चार जनों की कमाई आने लगी थी अब घर में। ईस्ट-पटेल नगर वाले उस छोटे से घर को सभी भूल चुके थे। जब से कुबेर की डॉक्टरी के साथ श्री की भी डॉक्टरी का गठ-बंधन हुआ तभी से सभी और भी बड़ा घर लेने की बातें करने लगे थे।

anoop
12-12-2011, 05:01 PM
श्री और कुबेर की शादी के बाद पहली दिवाली आई थी तो मायादास घर की तीनों औरतों के लिए सोने के गहने लाए थे। मिठाई भी खूब आई थी उस बार। लट्टू ने भी पड़ोसियों को ठेंगा दिखाते हुए, खिड़कियों पर दो महीने पहले ही, क्रिसमस की रोशनियाँ लगा कर दिवाली की तैयारी कर दी। यह बात अलग थी कि श्री तब शिकॉगो में रेज़ीडेंसी कर रही थी और दिवाली उसके बिना ही हुई। फिर पता नहीं कब धीरे-धीरे उपहारों का यह सिलसिला बंद हो गया। मायादास शायद इस बार भी कोई उपहार नहीं लाए।
''क्या बनाया है आज खाने को?'' मायादास ने लक्ष्मी की ओर मुँह करके पूछा।
''मैंने तो बस दोपहर को दाल ही रख दी थी।'' लक्ष्मी ने बड़ी बेचारगी के साथ कहा। उससे अब खड़े होकर काम नहीं होता।
''आते वक़्त हमने एडीसन से मिठाई के साथ-साथ थोड़े नान और मटर पनीर की सब्ज़ी भी उठा ली थी। तू फ़िक्र न कर। आज दिवाली है न।''
वह किसी भी तरह से यह बात महसूस करना चाहते थे या करवा देना चाहते थे कि आज ख़ास दिन है।

लक्ष्मी वहीं उनके पास बैठ गई। चुपचाप सेब काटने शुरू कर दिए। जब यहाँ आने के तीन साल बाद ही उन्होंने यह घर ख़रीदा था तो कितना उत्साह था उसमें। दिवाली पर उसने अपने तीनों भाइयों को सपरिवार आमंत्रित किया था। दो दिन बाद भैया-दूज भी थी न, कहा कि 'टीका' भी लगवाते जाना। उन दिनों खुशी के मारे उसके ज़मीन पर पाँव नहीं पड़ते थे। सोच-सोच कर हैरान होती, इतना बड़ा घर उसका है? पिछवाड़े कभी-कभी हिरण भी दिख जाते। वह उनके लिए बासी बचा हुआ खाना डाल आती और बेतरतीब फैला हरा फैलाव देख कर सोचती, इतना सारा जंगल हमारा है? ड्राइव-वे में खड़ी चारों कारों को देख कर पूछती, ''हाय राम! यह सारी कारें हमारी ही हैं क्या?''

वह अभी तक सौ हज़ार डॉलर को, लाख डॉलर ही कहती। उसे लाख रुपया अब बड़ी मामूली-सी चीज़ लगता था- सिर्फ़ ढाई हज़ार डॉलर्स। वह सब को बुलाकर अपना नया-नया वैभव दिखाना चाहती थी। पर उसे लगता कि उसके भाई और भाभियाँ उससे प्रभावित ही नहीं होते थे। शायद वह उससे पहले के यहाँ आए हुए थे, इसी बात को लेकर उनमें एक अहं का भाव था। उसे अमरीका बुलाया भी तो बड़े भाई ने ही था, वह इस बात को कब का भुला चुकी थी।

उस दिन बड़े भाई ने ही पूछा था, ''लक्ष्मी तुझे अमरीका पसंद है न?''
''हाँ, मुझे तो बहुत पसंद है। कितनी साफ़ जगह है। यहाँ न मिट्टी है न धूल। पानी, बिजली सब काम करते हैं। भगवान की दया से पैसे की भी कोई कमी नहीं है हमें।''
''हर चीज़ के लिए कीमत देनी पड़ती है बहन जी।'' बड़ी भाभी ने पता नहीं क्या सोच कर कहा।
''क्यों, हमें यहाँ भला किस बात की कमी है?'' लक्ष्मी ने चिढ़ कर पूछा।
''हिंदुस्तान में होते तो अब तक सब बच्चों की शादी हो जाती।'' भाभी ने फिर से दाग़ दिया।
लक्ष्मी और मायादास दोनों के मुँह का स्वाद कसैला हो गया।
''शादी होने में कौन-सी देर लगती है, बस पास रोकड़ा होना चाहिए। कुबेर की जो बहू आएगी, उसने नोट ही तो गिनने हैं आकर।''
''पैसा'' उनके पास एक ऐसा ट्रंप कार्ड था जिससे वह हर चीज़ को मात देने की सोचते थे।

anoop
12-12-2011, 05:01 PM
--------------------

गैराज का दरवाज़ा खुलने और फिर बंद होने की आवाज़ आई। कुबेर घर के भीतर आ चुका था। दायें हाथ से टाई उतारते हुए उसने मनी को आवाज़ लगाई।
''बहुत भूख लगी है। मनी, जल्दी से खाना डाल दे।''
मनी ने फ़ुर्ती से खाना माइक्रोवेव में गर्म किया और काग़ज़ की प्लेटें और प्लास्टिक के चम्मच सब के आगे रख दिए। सभी चुपचाप खा रहे थे, सिवाय मनी के। एक पिटे हुए रिकार्ड की तरह उसकी शिकायतें पृष्ठ-भूमि में चल रही थीं।
''दिवाली है, कोई और तो घर में दिलचस्पी लेता नहीं। मैं अकेली क्या-क्या करूँ?''
उसकी बातों को बिल्कुल अनसुना कर लक्ष्मी बोली, ''जा मनी, मंदिर में जाकर ज़रा पूजा की तैयारी तो कर दे। हम अभी आते हैं। आख़िर दिवाली की पूजा तो करनी है न।''

रसोई के बायीं ओर, मंदिर वाले कमरे में जाकर सभी बैठ गए। चाँदी की बड़ी-सी थाली में, सात चाँदी के ही दीये जगमगाने लगे। जयपुर से ख़ास लाई गई संगमरमर की मूर्तियाँ, उनके लिए ज़री के वस्त्र, सोने का पानी चढ़े आभूषण और लाल रंग का सिर्फ़ पूजा के लिए ही रखा गया कालीन। मायादास विभोर हो गए। दीवार के साथ टेक लगा कर कुबेर लट्टू चुपचाप, थके हारे से बैठ गए। लक्ष्मी से अब ज़मीन पर बैठा नहीं जाता। उसने बायीं टाँग सीधी ही रखी, घुटना मोड़ने से दर्द उठता था। पति से बोली, ''ज़रा इन गणेश-लक्ष्मी के सिक्कों को दूध से धोकर, केसर और चावल का तिलक तो लगा दीजिए।''
उसने मिठाई का डिब्बा खोल कर रख दिया। लक्ष्मी ने आँखें बंद करके आरती करनी शुरू कर दी। कमरे में लैंप की रोशनी बहुत धीमी थी, आऱती के दिये की लौ काँप-काँप जाती। मनी सबसे पीछे जाकर, बड़े से तुलसी के ग़मले के पास जाकर बैठ गई। पहले हर दिवाली को उसके मन में एक उम्मीद की कंपकंपाहट होती थी। शायद, अगली दिवाली पर कोई दूसरा घर हो और वह खुद गृहलक्ष्मी हो। लाल साड़ी मे गहनों से झिलमिलाती वह किसी की तरफ़ यों ही प्यार से देखे और कहे, ''ज़रा गणेश-लक्ष्मी जी को तिलक तो लगा दीजिए।''
उसने आँखें बंद की हुई थीं और आज उस ख़याल की एक छोटी-सी झलक भी अंदर नहीं तिरी। कितनी दीपावलियाँ बीत गई- यों ही इस घर में। उसने सीने से एक हल्की-सी कराहती-सी साँस उठी और फिर वहीं हल्के अँधेरे में सिमट गई।

लट्टू की आँखें दियों पर टिकी थी, वैसी ही एक चमक उसकी अपनी आँखों में भी थी। पापा ने आज कार में लौटते वक़्त कहा था, ''लट्टू तू छत्तीस का हो गया तो उससे क्या फ़र्क पड़ता है? इंडिया जाकर चौबीस-पच्चीस सालकी किसी सुंदर-सी लड़की से तेरी शादी करा देंगे। बस, पास पैसा होना चाहिए, लोग छोटी-छोटी लड़कियाँ भी ब्याह देते हैं।''
लट्टू के चेहरे पर मुस्कान आ गई। उसने अपने हल्के होते हुए बालों पर उस्तरा फिरवा कर, सिर बिल्कुल ''क्लीन-शेव'' करवा लिया था। उसने सिर पर हाथ फेरते हुए बड़े फ़िल्मी अंदाज़ से, गर्दन को थोड़ा टेढ़ा किया। अचानक उसे ध्यान आया कि मलीसा फ़ोन का इंतज़ार कर रही होगी। वह ऊपर भागा। कुबेर ने महसूस किया कि श्री कभी दिवाली पर यहाँ नहीं होती। असल में कभी भी नहीं होती। बस महीने में दो-तीन दिन की छुट्टी लेकर भागती-दौड़ती आती है, ऐसे ही सब कुछ बेतरतीब से फैला कर, फिर वैसे ही वापस लौट जाती है। यहाँ होती तो शायद माँ आज की पूजा उससे करवातीं। पता नहीं, तब मनी को कैसा लगता? श्री तो उम्र में मनी से भी दो साल छोटी है। उसने गहरी नज़र से मूर्तियों को देखा, या शायद नहीं। ज़रा-सा प्रसाद मुँह लगा कर वह उठ गया।
''मुझे नींद आ रही है, सुबह फिर जल्दी उठना है।'' उसने धीरे से कहा।
''लो, अब यह इतनी सारी मिठाई कौन खाएगा?'' लक्ष्मी ने शिकायत के लहजे से कह तो दिया, फिर लगा नहीं कहना चाहिए था। मायादास और लक्ष्मी की आँखें मिलीं और वापस जाकर मक्खन का पेड़ा हाथ में उठाए, बाल-गोपाल की तस्वीर पर ठहर गईं।
दोनों पति-पत्नी वहीं टिमटिमाते दियों की काँपती रोशनी में चुपचाप बैठे रहे। मनी का जाना न किसी ने देखा और न महसूस ही किया। मायादास के कानों में कहीं बहुत दूर दिवाली के बम फूटने की आवाज़ें गूँज रही थीं। अमावस्या की रात में उनके मन में जैसे रोशनी की इच्छा ने सिर उठाया।
''अगली दिवाली हिंदुस्तान में मनाएँगे। सभी जाएँगे। बस, पास रोकड़ा होना चाहिए।''
मोम के दीयों की लौ चटखने लगी थी। अपनी आवाज़ के इस अजनबी खोखलेपन सेवह खुद ही घबरा गए। लक्ष्मी मुँह बाये उनकी ओर देखती रही।

anoop
12-12-2011, 05:02 PM
----------------

बिस्तर की ओर बढ़ते हुए कुबेर का पाँव किसी चीज़ में अटक गया। अँधेरे में ही हाथ बढ़ा कर उसने उठा लिया। श्री की साड़ी थी, जो लापरवाही से वह यों ही कुर्सी पर फेंक गई थी। उठा कर वापस रखते हुए उसका हाथ रुक गया। उसने धीरे से उठा कर, उसे अपने पलंग के सिरहाने पर रख दिया, वहाँ, जहाँ आने पर श्री का सिर रख कर सोया करती थी।

समाप्त

anoop
12-12-2011, 05:06 PM
यू.एस.ए. से अनिल प्रभा कुमार की कहानी— 'फिर से'
(इनका परिचय पृष्ठ १ पर है)

केशी पाँच सीढ़ियाँ नीचे धँसे फ़ैमिली रूम में, आराम-कुर्सी पर अधलेटे से चुपचाप पड़े थे। व्यस्तता का दिखावा करने के लिए सीने पर किताब नन्हे से बच्चे की तरह सोयी थी। आँखे टेलीविजन के स्क्रीन को घूर रही थीं पर देखती कुछ और ही थीं। कानों में ही जैसे सभी इन्द्रियाँ समाहित हो गईं। ऊपर से आने वाली एक-एक आवाज़ को वह बरसों से प्यासे की तरह पीने को आतुर हो उठे।
बाहर घंटी बजी। वह उठ कर सीधे बैठ गए। सोहम के तेज़ क़दमों से बढ़कर बाहर का दरवाज़ा खोलने की आवाज़ आई।
आवाज़ों का एक जुलूस घर के अन्दर घुस आया। संजना और करण अपनी माँ को लेकर लौटे होंगे? शायद सोहम ने तिया के पाँव छुए होंगे।
''ओह, माई गॉड!'' तिया की ही आवाज़ थी। वही उल्लास भरी। बच्चों जैसी चहक, ज़िन्दादिल।
''कितना ख़ूबसूरत घर है मेरी बच्ची का?'' आवाज़ सुनाई दी। तिया ने शायद ड्राइंग-रूम में बाहें फैला कर, चारों ओर घूमते हुए कहा होगा।
केशी तिया की आवाज़ की घात को सह नहीं पाए। चार साल बाद सुनी थी यह आवाज़। दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था, सिर घूम गया। लगा, जैसे किसी ने उन्हें बालों से पकड़ कर, उनका चेहरा जलते अलाव के पास रख दिया हो। उन्होंने आँखे बन्द कर लीं। संजना और करण की ज़िद ने उन्हें कहाँ झोंक दिया?

anoop
12-12-2011, 05:07 PM
आख़िरी बार जब तिया से पति के हक़ से उलझे थे तब भी यही ज़िन्दा अलाव में झोंके जाने की अनुभूति हुई थी। अपने घोंसले को बिखरने से बचाने और तिया को रोक पाने की क़ोशिश में वह झुलसे जा रहे थे।
''सारा शहर जानता है कि मैं जब युद्ध के समय, जान पर खेल कर सीमाओं की रक्षा कर रहा था तो तुमने किस तरह मेरे घर की मान-मर्यादाओं की सीमा को तोड़ा। है फिर भी बच्चों की ख़ातिर मैं तुम्हारे साथ सब कुछ भूल कर रहने को तैयार हूँ।''
''मुझे तुम्हारा उपकार नहीं चाहिए।'' तिया के स्वाभिमान ने उनके प्रस्ताव को ठोकर मार दी।
आख़िरी सांस तक लड़ता सिपाही। उन्होंने पूरा ज़ोर लगा कर अपने आख़िरी हथियार का भी जुआ खेल डाला।
''इस घटना के बाद संजना से कोई शादी नहीं करेगा।''
''तुम्हारे साथ ज़िन्दगी गुज़ारते हुए मैं ज़िन्दा दफ़न हो रही हूँ। मुझे जीने के लिए हवा चाहिए। मैं अपने को बचाऊँ या लाश बन कर बच्चों को देखूँ?'' और तिया सब को छोड़ कर चली गई।

सोहम धीरे-धीरे सीढ़ियों से नीचे उतर कर आया।
''डैडी, मम्मी आ गई हैं।''
उन्होंने सिर हिला दिया कि हाँ जानता हूँ।
''उन्हें नहीं मालूम कि आप यहाँ बैठे हैं।''
वह चुप रहे।
सोहम कुछ देर असमंजस में खड़ा रहा।
''आप खाना ऊपर हमारे साथ खाएँगे?''
''नहीं, भूख नहीं।''
''अच्छा, नीचे ही ले आता हूँ। थोड़ा-सा खा लीजिए।''
सोहम एक ही प्लेट में दुगुना खाना भर कर, उसके नीचे एक ख़ाली प्लेट छिपा कर नीचे आ गया।
''थोड़ा-सा मुझसे ले लीजिए।'' कह कर उसने प्लेट में उनके लिए खाना निकाल दिया।
सोहम ने टेलीविजन पूरे ज़ोर पर चला दिया। केशी देखते रहे। शायद टेलीविजन देखने का बहाना करके नीचे आ गया है। फिर उनके साथ होने के लिए या संजना और करण को माँ के साथ अकेला छोड़ने के लिए।

केशी से खाया नहीं गया।
सोहम ने प्रश्न-भरी नज़रों से देखा।
''सिर में दर्द है।'' वह बोले।
''मम्मी से अलग होने पर डैडी को एक साल तक लगातार सिर में दर्द होता रहा था।'' संजना ने बताया था सोहम को।
''डैडी,'' सोहम ने चुप्पी तोड़ी।
केशी ने जैसे बड़ी मुश्किल से पलकें खोलीं।
''शुक्रिया, बहुत-बहुत। आपने जो हम सब की भावनाओं को ध्यान में रख कर हमारा साथ दिया है न, उसका। संजू के मन से भार उतर गया है। आप संजना और करण की ख़ातिर यहाँ आने को राज़ी हो गए, इससे आप हमारी नज़रों में और भी ऊँचे हो गए हैं डैडी।''
वह फीका-सा मुस्कराए। उन्हें सोहम बहुत प्यारा लगता है। उनके इस हवा में डोलते परिवार को, ख़ास कर उनकी संजू को इसी ने थाम लिया था।
''डैडी, मैं मम्मी को बहुत मिस करती हूँ।। संजना ने चार साल में यह पहली बार कहा था।
''मेरी शादी हो रही है और मम्मी जानती तक नहीं।''
''कोई हक़ नहीं है उसे जानने का।'' केशी घायल वन्य-पशु की तरह तिलमिला उठे। अनजाने ही अपनी संजू पर भी वार कर दिया।
''अगर वह शादी में होगी तो फिर..., मैं नहीं आऊँगा।''

संजना तड़पती है। कितनी कठिन होती है अपने दोनों में से किसी एक को चुनने की मजबूरी। क्यों देते हैं लोग अपनी ही संतान को यह ज़िन्दा मौत की सज़ा? चुनो! इसे या उसे?
''तेरा मन नहीं करता माँ को मिलने का?'' सोहम ने संजू से विवाह के बाद फिर पूछा।
''करता है, पर जो उन्होंने किया है उसके लिए मैं उसे माफ़ नहीं कर पाती। डैडी ने तो हम लोगों को नहीं छोड़ा। मैं और करण उनके साथ हैं। बस इन्हीं बैसाखियों के सहारे वह खड़े हैं। नहीं तो वह एक टूटे हुए इन्सान हैं। मैं ऐसा कुछ नहीं करूँगी जिससे उन्हें मुझसे भी चोट पहुँचे।''
''तुम अब सिर्फ़ उनकी बेटी ही नहीं, मेरी पत्नी भी हो। अपना निर्णय ख़ुद लो।''
शादी के बाद भी चार महीने लगे संजना को निर्णय लेने में। भारत उसने कई लोगों को ई-मेल कर-कर के मम्मी का फ़ोन नम्बर लिया। सोहम ने ही कान्फ़्रेंस-कॉल की थी जिसमें न्यूयॉर्क में बैठी संजना, वाशिंगटन में बैठा करण और दिल्ली में बैठी तिया एक साथ फ़ोन पर थे।
एक घड़ी, एक पल, जिस पर बहुत कुछ टिका था।
''मम्मी।'' संजना ने यहाँ से कहा।
'संजूऽऽऽऽ''। तिया आवेग से पागल हो उठी।
''मेरी बच्ची।'' उसके आँसू, हिचकियाँ रुक नहीं रहे थे।
''आज मेरी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा ख़ुशी का दिन है। कहाँ हो तुम लोग?''
''अमरीका में।''
तिया चुप हो गई। यह तो उसकी सोच के बाहर था कि बच्चे देश छोड़ कर ही चले जाएँगे और वह उन्हें देखने को ही तरस जाएगी। इतनी बड़ी सज़ा!
''शादी भी हो गई? करण की पढ़ाई भी पूरी हो गई?''

anoop
12-12-2011, 05:08 PM
फिर संभाल लिया उसने अपने को। कोई बात नहीं, बाक़ी की ज़िन्दगी तो है ना।
तिया को खोए बच्चे मिल गए। अक़्सर ई-मेल करती, फ़ोन करती। रो-रो पड़ती। किसी से माँग कर वीडियो-कैम भी ले आई।
बस देख लूँ अपनी संजू को, सोहम को - अपने जमाई को।
करण बात करता तो बिल्कुल बच्चों की तरह रो पड़ता।
मम्मी की कमी महसूस करता था, पर माँ ने ही उसे एक ऐसा घाव दिया था कि वह नहीं जानता कि कभी किसी भी औरत पर विश्वास कर सकेगा।
उसे अपने ऊपर ही अब विश्वास नहीं। किसी पर भी नहीं। बस संजना पर है। संजना बड़ी बहन है, माँ जैसी । नहीं-नहीं, मम्मी जैसी बिल्कुल नहीं। डैडी जैसी भी नहीं, उस जैसी भी नहीं। बस अपने-आप जैसी।
सोहम और संजना ने उसी पर ज़िम्मेदारी डाल दी थी - डैडी को बताने की।
''डैडी, हम ने मम्मी से बात की है।'' उसने बहुत हिम्मत करके केशी को बताया।
केशी को इस बात की सम्भावना थी।
''कब?''
''दो हफ़्ते हुए।''
'मुझे पहले क्यों नहीं बताया?'' उनकी आवाज़ में कड़क थी।
''हमें डर था कि पता नहीं आपकी क्या प्रतिक्रिया हो?''
''ठीक है।'' वह ढीले होकर बैठ गए।

न करण और न संजना को ही उम्मीद थी कि डैडी इतनी शांति से यह बात स्वीकार कर लेंगे। उनके ऊपर से बोझ उतर गया।
संजना ने शुक्रगुज़ार हो कर केशी को फ़ोन किया, ''डैडी आप बहुत अच्छे हैं।''
एक टूटा हुआ आदमी, अच्छा क्या और बुरा क्या? वह कुछ नहीं बोले थे।
''डैडी हम अभी आते हैं''। सोहम की आवाज़ ने उन्हें वर्तमान में घसीट लिया। लगा कि भोजन वग़ैरह सब हो चुका होगा। सोहम उठ कर ऊपर चला गया।
''चलिए मम्मी, हम आप को अपना फ़ैमिली-रूम दिखाएँ''। संजना की आवाज़ थी।
केशी की सांस थम-सी गई - साक्षात्कार की घड़ी!

संजना और करण के साथ तिया कमरे में दाख़िल हुई। आराम-कुर्सी पर केशी को बैठा देख सकपका गई।
उसने संजना की ओर देखा। संजना का चेहरा जैसे इस्पात का बन गया था। जैसे चुनौती दे रहा हो, आज तुम लोग कुछ नहीं जान पाओगे। बरसों के तूफ़ान आपस में ही भिड़ गए थे और चेहरे पर वही थमी हुई प्रलय का भाव।
''सरप्राईज़!'' करण ने जैसे उस अटपटे क्षण को सामान्य करने का प्रयास किया।
केशी ने सिर घुमाया पर तिया के चेहरे को नज़रें छू न सकीं। उसकी नीली साड़ी के बादलों में ही अटक कर रह गईं। उन क्षणों में कितना कुछ ध्यान से गुज़र गया। महसूस हुई तो सिर्फ़ एक टीस, दर्द की एक तीखी लहर। मन की पीड़ा को सुन्न करने का कोई इलाज अभी तक क्यों नहीं बना? उन्होंने आँखे बन्द कर लीं।
''सॉरी, मुझे मालूम नहीं था कि आप यहाँ हैं। तिया कुछ लड़खड़ा-सी गई। शुरू-शुरू में केशी के यहाँ होने का ख़याल तो उसे कई बार आया था पर अब तक वह उनकी अनुपस्थिती के बारे में आश्वस्त हो चुकी थी। अब अचानक सामने पाकर वह उखड़ी, फिर सम्भल गई।

तिया ने आँख उठा कर उन्हें देखा और चेहरे को पढ़ने में ही खो गई। वही लंबा सरु जैसा क़द, चेहरे पर कोमल नाक-नक़्श पर कितना ढल गया है चेहरा? बाल भी बेवक्त पक गए। सफ़ेद होती हुई दाढ़ी में एकदम ऋषि-मुनि जैसे ही लगते हैं।
संजना पता नहीं कब सोहम को पुकारती हुई ऊपर सरक गई। करण माँ को बाँह से लपेटे पास बैठा रहा। संजू हमेशा डैडी की बेटी थी और वह मम्मी का बेटा। वह इन क़ीमती, फिर से हाथ आए पलों को मुट्ठी में खोल-बन्द कर के देखता रहा। हालाँकि उसे ख़ुद ही लगा कि वह उन दोनों के बीच में उजबक-सा बैठा हुआ है।
संजना के आगे-आगे सोहम हाथों में गिलासों की ट्रे और बर्फ़ लेकर आया।
''आज शैम्पेन खोलें? उसने तिया से पूछा।
संजना ने आँखें तरेरीं। बोली, ''डैडी सिर्फ़ स्कॉच ही लेते हैं।''

केशी ने स्कॉच का गिलास थाम लिया। सोहम ने अपने लिए भी थोड़ी-सी स्कॉच ढाली, बर्फ़ डाल कर सोडे से गिलास भर लिया। बाकी तीनों गिलासों में भी वाइन डाल कर सब को गिलास थमा दिए। सबके गिलास एक साथ उठे।
''हैप्पी रियूनियन'' सोहम ने कहा।
गिलास टकराए। साथ ही तिया और केशी की नज़रें भी। पल भर के लिए सब कुछ ठिठक गया- एक इतिहास, साथ जिया उम्र का एक खूबसूरत हिस्सा, एक रिश्ता - जो कभी नितान्त अपना था और अब जाकर पहचान के दूसरे छोर पर खड़ा था। वह चुपचाप बैठे धीरे-धीरे घूँट भरते रहे।
सोहम ने फ़ॉयर-प्लेस ऑन कर दिया। लकड़ियाँ पहले से ही सजी थीं सिर्फ़ गैस का स्विच घुमाया और लपटें उन लकड़ियों के इर्द-गिर्द नाचने लगीं। न धुआँ न राख सिर्फ़ आग और उष्णता का आभास। तिया को अजीब-सा लगा पर कुछ बोली नहीं। कोई भी कुछ नहीं बोला। कमरे की चुप्पी का दिमागों में चल रहे कोलाहल से कोई वास्ता नहीं था।

छोटी-सी संजू घंटों घर बनाने का खेल खेला करती। बरामदे के एक कोने में रामू की मदद से दो खड़ी चारपाइयाँ जोड़ कर तिकोना घर बनता। उसके अन्दर होती संजू की छोटी-सी दुनिया। गुड़िया का सोने का कमरा, ड्राइंग-रूम, छोटा-सा किचन उसमें खिलौनों के बर्तन थे। फिर किसी ने उसे प्लास्टिक का एक टी-सैट भेंट कर दिया। संजू उसमें चाय पीती थकती न थी।
केशी शाम को लौटते तो संजू को ढूँढ़ते हुए वहीं पहुँच जाते। केशी को उसके घर में मेहमान की तरह दस्तक देकर आना होता था। संजू झूठ-मूठ की मिठाइयाँ और नमकीन चाय के साथ परोसती।
केशी आँखो में शरारत भर कर कहते, ''आज बरफ़ी बहुत अच्छी बनी है।''
संजू चिढ़ जाती, ''बरफ़ी नहीं है, चॉकलेट पेस्ट्री है।''
'ओह, सॉरी। अब खिलौने की प्लेट पर पड़े भूरे रंग के कागज़ के टुकड़े को कुछ भी समझा जा सकता है।''
''मम्मी आप भी मेरी चाय-पार्टी में आओ ना।'' वह ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ लगाती।
''तू अपने डैडी को ही चाय पिला।'' तिया कहती।
''बच्ची का दिल रखने के लिए ही दो मिनट के लिए आ जाओ।'' जब केशी भी साथ मिल जाते तो करण को गोदी में उठाए-उठाए तिया आती।

anoop
12-12-2011, 05:09 PM
संजू खिल जाती। उसकी व्यस्तता और बढ़ जाती। करण को वह असली लॉली-पॉप निकाल कर देती।
तिया केशी को देख कर मुस्कराती। संजू जो चीज़ किसी को न दे, करण को देकर ख़ुश होती थी।
''अब हो गया न तेरा घर-घर का खेल। चलो अब चल कर खाना खा लो।''
संजू उमंग से उठ कर केशी का हाथ पकड़ लेती।''डैडी, कल फिर खेलेंगे।''

पिछले चार बरसों से तो संजू ने ही केशी और करण का हाथ पकड़ रखा था। टूट गए थे केशी, बिखर गया था करण। कहाँ क्या ग़लत हो गया? क्या कमी रह गई थी? कोई छोटा-सा छेद जो उन्होंने गम्भीरता से नहीं लिया और अचानक महासागर बन कर सब कुछ लील गया। क्या कमी थी उनमे जो तिया उनसे विमुख होकर दूसरी दिशा में मुड़ गई? उनका अहं लहु-लूहान था।
करण चोट से बौखला कर दिशा ही भूल गया। संजू ने करण का हाथ थाम लिया, आकर पिता के बगल में खड़ी हो गई। कुमारी कन्या माँ बन गई पिता और भाई की। छोड़ दिया वह घर, वह देश वह वातावरण, जहाँ यादों और उठती उँगलियों ने हवा में ज़हर घोल दिया था। शरणार्थियों की तरह घर छोड़ कर आ गए थे, एक नए देश में। हीथ्रो एयर-पोर्ट से दो हवाई जहाज़ अलग-अलग दिशाओं में उड़े थे - केशी और करण अपने भाई के पास, संजना कैनेडा की तरफ़ - अनजानी फुफेरी बहन के घर।

संजना रात गए उस कमरे की छत और दीवारों को ताकती। कहाँ है वह? यह न मायका है, न ससुराल, न अपना घर। ज़िन्दगी इसी किसी रिश्तेदार के घर में आकर रुक गई। उम्र तो अपनी गति से चलती रही। रिश्तेदार का तबादला हो गया। वह फिर बुआ के घर आ गई।
फ़ोन आते-जाते। ''डैडी, मैं बिल्कुल ठीक हूँ, ख़ुश हूँ। आप किसी बात की चिन्ता न करें। आप ठीक हैं न?''
केशी को गिरने से बचा रही थी तो यही संजना और करण की वैसाखियाँ। बच्चे उनके साथ हैं, बस यही एक बात काफ़ी थी उन्हें ज़िंदा रखने के लिए। तिया उनकी कुर्की नहीं कर सकी। बच्चे तिया के नहीं, उनके साथ हैं। उनका सिर तिया से कई हाथ ऊपर उठ जाता।
कहीं गहरे एक सुख था, उनके अहं को सान्तवना मिलती थी। वह धराशायी किए जाने के बावजूद, फिर से उठकर और अकेले अपनी बेटी का विवाह कर पाने की सामर्थ्य रखते हैं।
सब कुछ होगा पर तिया के बिना।

संजू आहत हुई पर वक्त की नज़ाकत को देखते हुए समझौता कर लिया। डैडी को समझती है। बच्चे ही तो नहीं थे तिया के पास, वह उनके साथ हैं। इसी एक बात पर वह ज़िन्दा थे, खड़े थे। अगर उन्हें लगे कि वह भी तिया के सांझे में आ गए हैं तो शायद चरमरा कर टूट जाएँगे।
बिना माँ के गले लगे संजू सोहम के घर आ गई।

anoop
12-12-2011, 05:10 PM
संजू विवाह के चार महीने बाद पिता से मिलने आई थी। सोहम और करण शहर देखने निकल गए। संजना केशी के पास आकर बैठ गई। सामने चाय की ट्रे रख दी। प्याला थमाया। आँखे कुछ कहती थीं। केशी भावों को तोलते रहे। संजू चुप थी।
आज वह उन्हें बोलने की पहल का हक़ दे रही थी।
''मुझे मालूम है, तुम्हारी माँ आ रही है।'' उन्होंने बात शुरू की।
संजू चुप, चाय पीती रही। आखें भर-भर आतीं, आसुओं को लौटाने की असफ़ल कोशिश।
''आई एम फ़ाईन विद इट।'' तुम शादी-शुदा हो जो मर्ज़ी करो।''
संजू के चेहरे पर कई रंग उभरे और डूब गए।
केशी देखते रहे। क्या चाहती है यह लड़की?
''डैडी आप भी आ जाइए।''
वह चौंके। अवाक बस देखते रहे।
''प्लीज़ डैडी।'' संजना के होंठ थरथराए। इस बार आँसू पलकों की सीमा लांघ गए।
केशी के भीतर एक बड़ी ज़बरदस्त प्रतिक्रिया हुई। सांस रुकने-सी लगी। उनका सिर दायें से बांये, फिर बांये से दांये हिलने लगा।
''नामुमकिन!'' संजू ने पढ़ा। समझ कर दोनों हथेलियों में चेहरा गढ़ा, फूट-फूट कर रो पड़ी। कंधे, सारा बदन झटके खा रहा था।

केशी उठे, बाहर निकल गए, सहन नहीं कर पाए। दोस्त की लहू-लुहान लाश सामने देख कर भी वह हटे नहीं थे, अपने मोर्चे पर डटे रहे पर संजना का रोना? जिसने इन चार सालों में एक आँसू नहीं बहाया था। वह उसे सिंह बच्ची कहते थे पर आज? वह सड़क पर तेज़ रफ़्तार से चलते हुए एक सूने मोड़ पर मुड़ गए और दौड़ना शुरू कर दिया। भागते रहे, भागते रहे। लांघ गए कितनी यादें, कितना समय, कितनी चोटें। सबसे कठिन था अपने टूटे अहं के मलबे को लांघना। मलबे के पार संजू बैठी थी। चेहरा ह्थेलियों में धँसाए, हिचकियों के झटके खाती उसकी देह। उनका अपना बिलखता पितृत्व। लौट आए पस्त होकर।
संजू वहीं, वैसे ही बैठी थी। चुप, शान्त, दूर कहीं अंधेरे में आँखे टिकाए। केशी अपराधी की तरह आकर बगल में खड़े हो गए।

संजू ने जान लिया पर उसमें कोई हरकत नहीं हुई।
प्यार से केशी ने उसके सिर पर हाथ रख दिया। संजू सिहरी।
''तुम फिर से ''घर-घर'' खेलना चाहती हो?''
संजू ने सिर झुका लिया। होंठ कांपे। आँख उठाई, आँसुओं को रोके रखा - एक याचना, एक गुहार ''हाँ डैडी, प्लीज़, मेरी ख़ातिर।''
वह संजू के चेहरे को देखते रहे। सीने से एक गहरी सांस निकल गई - ''जो तुम चाहो।''

-----------------------

anoop
12-12-2011, 05:10 PM
सोहम ने फिर से सबके गिलस भर दिए। उसे अपना वहाँ होना बड़ा अटपटा लग रहा था। उसे लगा कि वह बाहर का आदमी है। धीरे से बाहर निकल आया। संजना ने देखा, पर रोका नहीं।
केशी उसी आराम कुर्सी पर सीधे होकर बैठ गए। तिया सोफ़े के एक कोने तक सरक आई। अब वह और केशी आमने-सामने थे। इतने कि उसके सेंट की सुगंध केशी को छू गई। वही चिर-परिचित खुशबू। उन्होंने चाहने पर भी अभी तक तिया को भरपूर नज़रों से देखा नहीं था। करण तिया के पास से उठ कर संजना के पास जाकर दूसरे सोफ़े पर बैठ गया। संजना ने बिना कुछ कहे उसका हाथ अपने हाथ में पकड़ लिया - मज़बूती से। पता नहीं उसे ख़ुद इस वक्त सहारे की ज़रूरत थी या उसे लगा कि करण को सहारा चाहिए होगा।
करण ने संजना की ओर देखा, ''अब?''

संजना ने करण की ओर सिर घुमा दिया। तनी हुई गर्दन, निर्भीक दृष्टि। वह सब को खींच कर इस बिन्दु तक ले आई थी, आगे जो भी हो्गा उस घटित को झेल जाने का विश्वास।
''तुम दुबले हो गए हो।'' तिया ने ही घिसे-पिटे फ़िकरे से चुप्पी की बोझिलता हटाने की कोशिश की। उसे कुछ और सूझा ही नहीं।
''डैडी साल भर तक बीमार रहे।'' संजना का इरादा नहीं था पर बात में सूचना देने का कम और आरोप लगाने का लहज़ा आ ही गया।
तिया ने अनसुना कर दिया। ''देखो, करण कितना हैन्डसम निकल आया है?'' वह बेटे को देख कर विभोर हो उठी।
एक विद्रूप की हँसी करण के चेहरे पर फैल गई। जैसे कह रही हो, '' सिर्फ़ शरीर ही देख पा रही हो। माँ होकर भी तुम्हे मेरे अन्दर की कुरूप ग्रन्थियों का अन्दाज़ा भी नहीं। उसे भूलता नहीं वह डरावना दिन, जिस दिन डैडी बोर्डिंग स्कूल में उसे अकेले ही मिलने आए और कितने ठंडेपन से मम्मी से अलग होने की बात बता गए थे।

वही बात उसके दिमाग़ में उत्पात मचा गई। दोस्तों के साथ नशीले धुएँ में ही थोड़ी धुंधली पड़ती, नहीं तो फुंफकार मारती रहती। वह बचने के लिए जैसे अन्धेरे कुएँ में उतर रहा था। पता नहीं, पढ़ाई और अंक कहाँ विलीन हो गए। डैडी और संजू ने उस अंधेरे कुँए में झाँक लिया था। फ़ैसला हो गया, बस अब यहाँ नहीं रहना। तीनों ने स्वेच्छा से देश निकाला ले लिया।
शायद संजना भी अतीत की खाई में झाँक आई थी। अचानक उठ खड़ी हुई। तिया से बोली, ''मम्मी, अभी तो कुछ दिन आप यहीं हैं न? कल बात करेंगे।'' कह कर उसने करण का हाथ खींचा। आँख से इशारा किया, ''उठो!''
करण ने धीमे से कहा, ''गुड नाइट मम्मी -डैडी।'' एक हल्की-सी सिहरन उसके बदन से गुज़र गई। कितने सालों बाद ये शब्द ''मम्मी और डैडी'' उसके मुँह से एक साथ निकले थे। वह संजना के पीछे-पीछे ऊपर चला गया।

तिया चुपचाप केशी की ओर देखती रही। जानती है केशी शब्दों के इस्तेमाल के मामले में ज़्यादा उदार नहीं हैं।
''तुम अभी भी मुझसे नाराज़ हो?''
केशी ने पहली बार भरपूर दृष्टि से तिया को देखा। हमेशा की तरह उनके सामने बैठी, आत्म-विश्वास से भरी, मुस्कराती तिया। लगा वह यों ही अपने घर में बैठे हैं और तिया उनसे कुछ पूछने, कोई आपसी बात बताने पास आकर बैठ गई है।
वही बोलती आखें, वही खिला हुआ चेहरा, हँसती है तो और भी आकर्षक लगती है उनकी तिया।
केशी के चेहरे पर कोमलता बिखर गई।

तिया ने आराम कुर्सी के हत्थे पर पड़ी उनकी बाँह पर अपना हथ रख दिया। आँखो में नमी तिर गई, होंठ काँपे और चिबुक पर दो छोटे - छोटे बल उभरे।
''आई एम सॉरी, वैरी सॉरी। मेरी वज़ह से तुम्हें और बच्चों को जो तकलीफ़ हुई।'' वह रोने लगी।
केशी बस उसे देखते रहे। क्या कहते? कहने से होगा भी क्या?
''तुम खुश हो?'' उन्होंने अब उसकी ओर देखते हुए कहा।
''हाँ, बहुत खुश हूँ।'' तिया ने अपने को सँभाल लिया था।

केशी अपने को जान नही पाए कि वह तिया से किस उत्तर की आशा कर रहे थे। वह खुश है यह जानकर पता नहीं उन्हें अच्छा लगना चाहिए या बुरा?
''पिताजी के जाने का मुझे बहुत अफ़सोस है।'' तिया गम्भीर हो गई।
केशी की आँखो के आगे अस्पताल के बिस्तर पर, कोमा में पड़ी पिता की आकृति घूम गई।
''इस धक्के को सहने की उनमें शक्ति नहीं थी।'' शायद उन्होंने अपने से ही कहा। अस्पताल की गन्ध उनकी चेतना में उभरी और फिर धुंधली हो गई। तिया अभी भी उनकी ओर देखे जा रही थी।
''तुम कभी जाती हो चंडीगढ़?''

anoop
12-12-2011, 05:11 PM
तिया ने नकारात्मक सिर हिला दिया। एक गहरा उच्छवास उसके भीतर से निकल गया।
''माँ के सिवा सबने नाता तोड़ लिया है।''
केशी चुप सुनते रहे। तिया बताती रही कि कैसे दोनो भाई उसे ज़मीन का हिस्सा देने से मुकर गए हैं। छोटे जीजा ने बहन को उससे मिलने से मना कर दिया है। उसने फिर से एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने की नौकरी शुरू कर दी है।
केशी के होंठ भिंचे। तिया ने देख लिया।
''फिर क्या करती?'' कह कर तिया उनकी ओर देखने लगी। वही भोली आँखो की नमी उन्हें भीतर तक भिगो गई। तिया का चेहरा उनके इतने पास था और फ़ायर-प्लेस की सुलगती, बल खाती लपटों की परछाईं उसके चेहरे को जैसे किसी स्वपन की चीज़ बना रही थी। तिया की खुशबू जो उन्होंने पहले कभी नहीं महसूस की। केशी ने दोनो हथेलियों में तिया का चेहरा भर कर चूम लिया। तिया निःशब्द रो रही थी।
''तुम ने मुझे बहुत बड़ी सज़ा दी है।'' तिया फफक उठी।
केशी सीधे होकर बैठ गए।
''मुझसे मेरे बच्चे छीनकर यहाँ आ बसे।'' तिया की शिकायत हिचकियों के बीच भी साफ़ थी।
केशी वार खाकर तमतमा उठे। ''तुम ख़ुद ज़िम्म्मेदार हो इस सबकी। यह तुम्हारा निर्णय था। तुम ख़ुद उन्हें छोड़ कर गई थीं।'' कटुता से उनका चेहरा तमतमा गया।

तिया बिफ़र उठी।
''बच्चे तुम्हारे पास न छोड़ती तो तुम पाग़ल हो जाते। मुझे मालूम था तुम्हारा अहं यह कभी बर्दाश्त नहीं कर पाएगा कि मैं तुम्हें छोड़ कर भी जा सकती हूँ। बच्चे छोड़े थे - तुम्हें सहारा देने के लिए।'' तिया खड़ी हो गई, हांफ़ने लगी।
''पर तुमने मुझसे प्रतिशोध लिया है। एक माँ को उसके बच्चों से दूर करके तुम्हारे अहं को कहीं गहरी सान्तवना मिली है।''
''तुम्हें कोई हक़ नहीं रहा अब दोबारा उनकी ज़िन्दगी में आने का। तुम इस घर की बर्बादी की वजह हो।''
''घर की नहीं तुम्हारे अहं की।'' तुम्हारा अहं आहत हुआ है कि तिया, केशी द ग्रेट को छोड़ कर भी जी सकती है, खुश रह सकती है।''
केशी क्रोध और अपमान से थरथराए। उठ खड़े हुए। गिलास में थोड़ा सोडा और ढेर सारी बर्फ़ भर ली। तिया सोफ़े पर ही अधलेटी हो गई।
''सुनो, मैं यहाँ तुमसे लड़ने नहीं आई।'' उसने बेहद पस्त और ठंडी आवाज़ में कहा।

केशी दूर हट कर सीढियों के पास वाले सोफ़े पर बैठ गए। सारे घर में ख़ामोशी थी। रात शायद काफ़ी बीत गई होगी।
तिया चुपचाप, स्थिर लेटी थी। केशी दूर बैठे उसकी ओर देखते रहे।
याद नहीं कभी यों ऐसे एकदम एक-दूसरे के आमने-सामने बैठे रहे हों। हाँ शायद विवाह से पहले। आतिया ज़रा नहीं बदली सिवाए उम्र की वजह से थोड़ी भर गई है। व्यक्तित्व में भी वही बहाव, चपलता, ज़िन्दादिली, आज को जी लेने की पूरी ललक। भविष्य, परिणाम कुछ नहीं सोचती। आशंकित नहीं होती, न दुविधा, न डर। सिंह बच्ची की माँ - सिंहनी। उनके चेहेरे पर मुस्कराहट फैल गई।

चिंघाड़ती-सी फ़ोन की घंटी बजी। निंदियारे घर में एक हलचल सी हुई। इस वक्त किस का फ़ोन? तिया सीधी उठ कर बैठ गई। केशी होश में आ गए। सीढ़ियों पर किसी के चलने की आवाज़ आई और फ़ैमिली- रूम के दरवाज़े के बाहर आकर रुक गई।
''मम्मी फ़ोन उठा लीजिए।'' सोहम ने बिना अन्दर आए कहा।
तिया ने बड़े सहज भाव से तिपाई पर पड़े फ़ोन का चोंगा उठा लिया। धुंधली रोशनी में उसके चेहरे की रेखाएँ स्पष्ट नहीं थी।
''ओह, आई एम सो सॉरी। मैं बस बच्चों से मिलने के उत्साह में फ़ोन करना ही भूल गई।'' तिया चहक उठी थी, पूरी तरह जीवन्त।
''देखो, अपना ख़्याल रखना। दो हफ़्तो की ही तो बात है।''
''नही, और कोई नहीं है यहाँ।'' तिया की आवाज़ थोड़ी-सी थरथराई।''
''आई मिस यू टू, लव यू।''
तिया चोंगा रख कर वहीं, वैसे ही थोड़ी देर झुकी खड़ी रही। पलटी, केशी जा चुके थे।

---------------------------------

anoop
12-12-2011, 05:12 PM
संजना बेकरी से नाश्ते के लिए ताज़े बेगल, ब्रैड लेकर घर में घुसी और उन्हें रसोई के काउंटर पर ही रख, केतली में चाय का पानी भरने लगी।
''संजना, डैडी जा रहे हैं।'' सोहम ने कुछ इतनी शांति से बात कही कि संजना को लगा कि जैसे सिवाए उसके सबको यह बात मालूम है। वह ऊपर बैड-रूम की सीढ़ियों की तरफ़ लपकी तो सोहम ने पीछे से उसकी बांह को पकड़ लिया। पता नहीं क्या कहना चाहता था? पल भर संजना की आँखो में देखता रहा, फिर दूसरे हाथ से संजना के हाथ को थपथपा कर छोड़ दिया।

संजना सम्भल कर सीढ़ियाँ चढ़ने लगी। धीरे से केशी के बंद दरवाज़े को ठेल कर अन्दर आ गई। उनका सारा सामान सिमट चुका था। ख़ाली कमरे के बीचोंबीच खड़े वह बाढ़ में सब कुछ जल-ग्रस्त हो जाने के बाद खड़े एकाकी पेड़ जैसे लग रहे थे। नितान्त अकेला, उदास वृक्ष। प्रकृति जैसे उसे पीटने के बाद, रहम खाकर, ज़िन्दा रहने के लिए छोड़ गई हो।
संजना ने उनके सीने पर सिर रख दिया। बाहों का घेरा उनकी कमर तक ही पहुँचा, उसने उन्हें कस लिया।
''डैडी, प्लीज़, सिर्फ़ कुछ दिनों के लिए, नाटक ही सही! क्या हम फिर से वही एक घर, परिवार, उन खोये हुए पलों को दोबारा नहीं जी सकते? मैं, करण, मम्मी और आप - फिर से एक बार इकट्ठे। प्लीज़ डैडी..''
केशी ने संजना के कंधे को बाँह से घेर लिया। उसके सिर पर उनकी ठुड्डी काँपी।
''सॉरी संजू। बस, अब और नहीं...।''
संजना को लगा जैसे डैडी के शरीर में एक ज़ोर की सिहरन उठी। वह सिपाही, युद्ध में जिसके सिर के पास से गोली छू कर निकल गई और जिसके बदन में सिहरन तक नहीं हुई। वह आज लहू-लुहान खड़ा है।
संजना पल भर उन्हें थामे यों ही खड़ी रही। लगा जैसे डैडी के शरीर से उठी सिहरन उसके अपने भीतर उतर गई हो। उसने अपने हाथों की पकड़ ढीली कर दी।
निगाहें नीची कर लीं और बड़ी सधी आवाज़ में कहा, ''जाइए''।

समाप्त