PDA

View Full Version : दोहावली


sombirnaamdev
15-01-2012, 12:23 PM
मोको कहाँ ढूंढे रे बंदे ,मैं तो तेरे पास में

ना तीरथ में ना मूरत में , ना एकांत निवास में
ना मंदिर में ना मस्जिद में ,ना काशी कैलास में
मोको कहाँ ढूंढे रे बंदे ,मैं तो तेरे पास में
ना मैं जप में ना मैं तप में ,ना मैं ब्रत उपबास में
ना मैं किरिया करम में रहता नहीं जोग सन्यास में
मोको कहाँ ढूंढे रे बंदे ,मैं तो तेरे पास में

खोजी हो तो तुरत पा जाये पल भर की तलाश में
कहे कबीर सुनो भाई साधो , मैं तो हूँ बिस्वास में
मोको कहाँ ढूंढे रे बंदे ,मैं तो तेरे पास में
===========================
यह एक बूढे तोते की आवाज़ है , यदि कर्कश लगे तो क्षमा करना !
===========================
निवेदक : व्ही. एन. श्रीवास्तव "भोला"
सहयोग : श्रीमती कृष्णा भोला श्रीवास्तव

sombirnaamdev
15-01-2012, 12:24 PM
देनहार कोउ और है, भेजत सो दिन रैन ।
लोग भरम हम पै धरैं, याते नीचे नैन ॥


बसि कुसंग चाहत कुसल, यह रहीम जिय सोस ।
महिमा घटी समुन्द्र की, रावन बस्यो परोस ॥


रहिमन कुटिल कुठार ज्यों, कटि डारत द्वै टूक ।
चतुरन को कसकत रहे, समय चूक की हूक ॥


अच्युत चरन तरंगिनी, शिव सिर मालति माल ।
हरि न बनायो सुरसरी, कीजो इंदव भाल ॥

sombirnaamdev
15-01-2012, 12:25 PM
अमर बेलि बिनु मूल की, प्रतिपालत है ताहि ।
रहिमन ऐसे प्रभुहिं तजि, खोजत फिरिए काहि ॥


अधम बचन ते को फल्यो, बैठि ताड़ की छाह ।
रहिमन काम न आइहै, ये नीरस जग मांह ॥


अनुचित बचन न मानिए, जदपि गुराइसु गाढ़ि ।
है रहीम रघुनाथ ते, सुजस भरत को बाढ़ि ॥


अनुचित उचित रहीम लघु, करहि बड़ेन के जोर ।
ज्यों ससि के संयोग से, पचवत आगि चकोर ॥

sombirnaamdev
15-01-2012, 12:25 PM
अब रहीम मुसकिल परी, गाढ़े दोऊ काम ।
सांचे से तो जग नहीं, झूठे मिलैं न राम ॥


ऊगत जाही किरण सों, अथवत ताही कांति ।
त्यों रहीम सुख दुख सबै, बढ़त एक ही भांति ॥
आप न काहू काम के, डार पात फल फूल ।
औरन को रोकत फिरैं, रहिमन पेड़ बबूल ॥

आदर घटे नरेस ढिग, बसे रहे कछु नाहिं ।
जो रहीम कोटिन मिले, धिक जीवन जग माहिं ॥


आवत काज रहीम कहि, गाढ़े बंधे सनेह ।
जीरन होत न पेड़ ज्यों, थामें बरै बरेह ॥

sombirnaamdev
15-01-2012, 12:27 PM
एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय ।
रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अघाय ॥


अंजन दियो तो किरकिरी, सुरमा दियो न जाय ।
जिन आंखिन सों हरि लख्यो, रहिमन बलि बलि जाय ॥


अंतर दाव लगी रहै, धुआं न प्रगटै सोय ।
कै जिय जाने आपुनो, जा सिर बीती होय ॥


असमय परे रहीम कहि, मांगि जात तजि लाज ।
ज्यों लछमन मांगन गए, पारसार के नाज ॥

sombirnaamdev
15-01-2012, 12:29 PM
अंड न बौड़ रहीम कहि, देखि सचिककन पान ।
हस्ती ढकका कुल्हड़िन, सहैं ते तरुवर आन ॥
उरग तुरग नारी नृपति, नीच जाति हथियार ।
रहिमन इन्हें संभारिए, पलटत लगै न बार ॥
करत निपुनई, गुण बिना, रहिमन निपुन हजीर ।
मानहु टेरत बिटप चढ़ि, मोहिं समान को कूर ॥ 21

sombirnaamdev
15-01-2012, 12:30 PM
ओछो काम बड़ो करैं, तो न बड़ाई होय ।
ज्यों रहीम हनुमंत को, गिरधर कहै न कोय ॥ 22 ॥

कमला थिर न रहीम कहि, यह जानत सब कोय ।
पुरूष पुरातन की बधू, क्यों न चंचला होय ॥ 23 ॥


कमला थिर न रहीम कहि, लखत अधम जे कोय ।
प्रभु की सो अपनी कहै, क्यों न फजीहत होय ॥ 24 ॥


करमहीन रहिमन लखो, धसो बड़े घर चोर ।
चिंतत ही बड़ लाभ के, जगत ह्रैगो भोर ॥ 25 ॥

sombirnaamdev
15-01-2012, 03:54 PM
कहि रहीम धन बढ़ि घटे, जात धनिन की बात ।
घटै बढ़े उनको कहा, घास बेचि जे खात ॥ ॥


कहि रहीम संपति सगे, बनत बहुत बहु रीत ।
बिपति कसौटी जे कसे, तेई सांचे मीत ॥ ॥


कहि रहीम या जगत तें, प्रीति गई दै टेर ।
रहि रहीम नर नीच में, स्वारथ स्वारथ टेर ॥ ॥


कहु रहीम केतिक रही, केतिक गई बिहाय ।
माया ममता मोह परि, अन्त चले पछिताय ॥


कहि रहीम इक दीप तें, प्रगट सबै दुति होय ।
तन सनेह कैसे दुरै, दूग दीपक जरु होय ॥

sombirnaamdev
15-01-2012, 03:56 PM
कहु रहीम कैसे बनै, अनहोनी ह्रै जाय ।
मिला रहै औ ना मिलै, तासों कहा बसाय ॥


काज परे कछु और है, काज सरे कछु और ।
रहिमन भंवरी के भए, नदी सिरावत मौर ॥


कहु रहीम कैसे निभै, बेर केर को संग ।
वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग ॥

कागद को सो पूतरा, सहजहि में घुलि जाय ।
रहिमन यह अचरज लखो, सोऊ खैंचत बाय ॥


काम न काहू आवई, मोल रहीम न लेई ।
बाजू टूटे बाज को, साहब चारा देई ॥

sombirnaamdev
15-01-2012, 03:57 PM
कैसे निबहैं निबल जन, करि सबलन सों गैर ।
रहिमन बसि सागर बिषे, करत मगस सों बैर ॥


काह कामरी पागरी, जाड़ गए से काज ।
रहिमन भूख बुताइए, कैस्यो मिलै अनाज ॥


कहा करौं बैकुंठ लै, कल्प बृच्छ की छांह ।
रहिमन ढाक सुहावनै, जो गल पीतम बांह ॥ ॥


कुटिलत संग रहीम कहि, साधू बचते नांहि ।
ज्यों नैना सैना करें, उरज उमेठे जाहि ॥


को रहीम पर द्वार पै, जात न जिय सकुचात ।
संपति के सब जात हैं, बिपति सबै लै जात ॥


गगन चढ़े फरक्यो फिरै, रहिमन बहरी बाज ।
फेरि आई बंधन परै, अधम पेट के काज ॥

sombirnaamdev
15-01-2012, 04:01 PM
कहु रहीम कैसे बनै, अनहोनी ह्रै जाय ।
मिला रहै औ ना मिलै, तासों कहा बसाय ॥


काज परे कछु और है, काज सरे कछु और ।
रहिमन भंवरी के भए, नदी सिरावत मौर ॥
कहु रहीम कैसे निभै, बेर केर को संग ।
वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग ॥ ॥

कागद को सो पूतरा, सहजहि में घुलि जाय ।
रहिमन यह अचरज लखो, सोऊ खैंचत बाय ॥


काम न काहू आवई, मोल रहीम न लेई ।
बाजू टूटे बाज को, साहब चारा देई ॥


कैसे निबहैं निबल जन, करि सबलन सों गैर ।
रहिमन बसि सागर बिषे, करत मगस सों बैर ॥

काह कामरी पागरी, जाड़ गए से काज ।
रहिमन भूख बुताइए, कैस्यो मिलै अनाज ॥


कहा करौं बैकुंठ लै, कल्प बृच्छ की छांह ।
रहिमन ढाक सुहावनै, जो गल पीतम बांह ॥


कुटिलत संग रहीम कहि, साधू बचते नांहि ।
ज्यों नैना सैना करें, उरज उमेठे जाहि ॥

को रहीम पर द्वार पै, जात न जिय सकुचात ।
संपति के सब जात हैं, बिपति सबै लै जात ॥

sombirnaamdev
15-01-2012, 04:02 PM
गगन चढ़े फरक्यो फिरै, रहिमन बहरी बाज ।
फेरि आई बंधन परै, अधम पेट के काज ॥


खरच बढ़यो उद्द्म घटयो, नृपति निठुर मन कीन ।
कहु रहीम कैसे जिए, थोरे जल की मीन ॥


खैर खून खासी खुसी, बैर प्रीति मदपान ।
रहिमन दाबे न दबैं, जानत सकल जहान ॥


खीरा को मुंह काटि के, मलियत लोन लगाय ।
रहिमन करुए मुखन को, चहियत इहै सजाय ॥

गति रहीम बड़ नरन की, ज्यों तुरंग व्यवहार ।
दाग दिवावत आप तन, सही होत असवार ॥

sombirnaamdev
15-01-2012, 04:03 PM
गहि सरनागत राम की, भव सागर की नाव ।
रहिमन जगत उधार कर, और न कछु उपाव ॥

गुरुता फबै रहीम कहि, फबि आई है जाहि ।
उर पर कुच नीके लगैं, अनत बतौरी आहिं ॥


गुनते लेत रहीम जन, सलिल कूपते काढ़ि ।
कूपहु ते कहुं होत है, मन काहू के बाढ़ि ॥

गरज आपनी आप सों, रहिमन कही न जाय ।
जैसे कुल की कुलवधु, पर घर जात लजाय ॥


चढ़िबो मोम तुरंग पर, चलिबो पावक मांहि ।
प्रेम पंथ ऐसो कठिन, सब कोउ निबहत नाहिं ॥

sombirnaamdev
15-01-2012, 05:58 PM
चित्रकूट में रमि रहे, रहिमन अवध नरेस ।
जापर विपदा पड़त है, सो आवत यहि देस ॥ ॥


छोटेन सों सोहैं बड़े, कहि रहीम यह लेख ।
सहसन को हय बांधियत, लै दमरी की मेख ॥


चरन छुए मस्तक छुए, तेहु नहिं छांड़ति पानि ।
हियो छुवत प्रभु छोड़ि दै, कहु रहीम का जानि ॥


चारा प्यारा जगत में, छाल हित कर लेइ ।
ज्यों रहीम आटा लगे, त्यों मृदंग सुर देह ॥


छमा बड़ेन को चाहिए, छोटेन को उत्पात ।
का रहीम हरि जो घट्यो, जो भृगु मारी लात ॥ ॥

sombirnaamdev
15-01-2012, 06:00 PM
जलहिं मिलाइ रहीम ज्यों, कियों आपु सग छीर ।
अगवहिं आपुहि आप त्यों, सकल आंच की भीर ॥

जब लगि जीवन जगत में, सुख-दु:ख मिलन अगोट ।
रहिमन फूटे गोट ज्यों, परत दुहुन सिर चोट ॥


जहां गांठ तहं रस नहीं, यह रहीम जग जोय ।
मंडप तर की गांठ में, गांठ गांठ रस होय ॥
जब लगि विपुने न आपनु, तब लगि मित्त न कोय ।
रहिमन अंबुज अंबु बिन, रवि ताकर रिपु होय ॥


जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोह ।
रहिमन मछरी नीर को, तऊ न छांड़ति छोह ॥


जे अनुचितकारी तिन्हे, लगे अंक परिनाम ।
लखे उरज उर बेधिए, क्यों न होहि मुख स्याम ॥


जे गरीब सों हित करै, धनि रहीम वे लोग ।
कहा सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग ॥ 62 ॥


जेहि रहीम तन मन लियो, कियो हिय बिचमौन ।
तासों सुख-दुख कहन की, रही बात अब कौन ॥


जेहि अंचल दीपक दुरयो, हन्यो सो ताही गात ।
रहिमन असमय के परे, मित्र शत्रु है जात ॥


जे रहीम विधि बड़ किए, को कहि दूषन काढ़ि ।
चन्द्र दूबरो कूबरो, तऊ नखत ते बाढ़ि ॥

sombirnaamdev
15-01-2012, 06:02 PM
जैसी परै सो सहि रहै, कहि रहीम यह देह ।
धरती ही पर परत हैं, सीत घाम और मेह ॥ ॥

जो पुरुषारथ ते कहूं, संपति मिलत रहीम ।
पेट लागि बैराट घर, तपत रसोई भीम ॥ ॥


जे सुलगे ते बुझि गए, बुझे तो सुलगे नाहिं ।
रहिमन दाहे प्रेम के, बुझि बुझि के सुलगाहिं ॥ ॥


जो घर ही में घुसि रहै, कदली सुपत सुडील ।
तो रहीम तिन ते भले, पथ के अपत करील ॥


जो बड़ेन को लघु कहे, नहिं रहीम घटि जांहि ।
गिरिधर मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नांहि ॥

sombirnaamdev
15-01-2012, 06:03 PM
जो रहीम करिबो हुतो, ब्रज को यही हवाल ।
तो काहे कर पर धरयो, गोबर्धन गोपाल ॥


जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग ।
चन्दन विष व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग ॥


जो रहीम ओछो बढ़ै, तौ ही इतराय ।
प्यादे सों फरजी भयो, टेढ़ो टेढ़ो जाय ॥


जो मरजाद चली सदा, सोइ तो ठहराय ।
जो जल उमगें पार तें, सो रहीम बहि जाय ॥


जो रहीम गति दीप की, कुल कपूत गति सोय ।
बारे उजियारे लगै, बढ़े अंधेरो होय ॥

sombirnaamdev
15-01-2012, 06:03 PM
जो रहीम दीपक दसा, तिय राखत पट ओट ।
समय परे ते होत है, वाही पट की चोट ॥


जो रहीम भावी कतहुं, होति आपने हाथ ।
राम न जाते हरिन संग, सीय न रावण साथ ॥

जो रहीम मन हाथ है, तो मन कहुं किन जाहि ।
ज्यों जल में छाया परे, काया भीजत नाहिं ॥


जो रहीम होती कहूं, प्रभु गति अपने हाथ ।
तो काधों केहि मानतो, आप बढ़ाई साथ ॥


जो रहीम पगतर परो, रगरि नाक अरु सीस ।
निठुरा आगे रोयबो, आंसु गारिबो खीस ॥

sombirnaamdev
15-01-2012, 06:05 PM
जो विषया संतन तजो, मूढ़ ताहि लपटात ।
ज्यों नर डारत वमन कर, स्वान स्वाद सो खात ॥


टूटे सुजन मनाइए, जो टूटे सौ बार ।
रहिमन फिरि फिरि पोहिए, टूटे मुक्ताहार ॥


जो रहीम रहिबो चहो, कहौ वही को ताउ ।
जो नृप वासर निशि कहे, तो कचपची दिखाउ ॥


ज्यों नाचत कठपूतरी, करम नचावत गात ।
अपने हाथ रहीम ज्यों, नहीं आपने हाथ ॥


तरुवर फल नहीं खात है, सरवर पियत न पान ।
कहि रहीम परकाज हित, संपति-सचहिं सुजान ॥


तैं रहीम मन आपनो, कीन्हो चारु चकोर ।
निसि वासर लाग्यो रहै, कृष्ण्चन्द्र की ओर ॥


तन रहीम है करम बस, मन राखौ वहि ओर ।
जल में उलटी नाव ज्यों, खैंचत गुन के जोर ॥


तै रहीम अब कौन है, एती खैंचत बाय ।
खस काजद को पूतरा, नमी मांहि खुल जाय ॥
तबहीं लो जीबो भलो, दीबो होय न धीम ।
जग में रहिबो कुचित गति, उचित न होय रहीम ॥


तासो ही कछु पाइए, कीजे जाकी आस ।
रीते सरवर पर गए, कैसे बुझे पियास ॥

sombirnaamdev
15-01-2012, 06:06 PM
दादुर, मोर, किसान मन, लग्यौ रहै धन मांहि ।
पै रहीम चाकत रटनि, सरवर को कोउ नाहि ॥


थोथे बादर क्वार के, ज्यों रहीम घहरात ।
धनी पुरुष निर्धन भए, करे पाछिली बात ॥


दिव्य दीनता के रसहिं, का जाने जग अन्धु ।
भली विचारी दीनता, दीनबन्धु से बन्धु ॥


दीन सबन को लखत है, दीनहिं लखै न कोय ।
जो रहीम दीनहिं लखत, दीबन्धु सम होय ॥


दुरदिन परे रहीम कहि, भूलत सब पहिचानि ।
सोच नहीं वित हानि को, जो न होय हित हानि ॥


दीरघ दोहा अरथ के, आरवर थोरे आहिं ।
ज्यों रहीम नट कुंडली, सिमिटि कूदि चढ़ि जाहि ॥


दुरदिन परे रहीम कहि, दुश्थल जैयत भागि ।
ठाढ़े हूजत घूर पर, जब घर लागति आगि ॥॥


दु:ख नर सुनि हांसि करैं, धरत रहीम न धीर ।
कही सुनै सुनि सुनि करै, ऐसे वे रघुबीर ॥


धनि रहीम जलपंक को, लघु जिय पियत अघाय ।
उदधि बड़ाई कौन है, जगत पिआसो जाय ॥

धन थोरो इज्जत बड़ी, कह रहीम का बात ।
जैसे कुल की कुलवधु, चिथड़न माहि समात ॥

sombirnaamdev
15-01-2012, 10:30 PM
धनि रहीम गति मीन की, जल बिछुरत जिय जाय ।
जियत कंज तजि अनत बसि, कहा भौंर को भाय ॥


धन दारा अरु सुतन सों, लग्यों रहै नित चित्त ।
नहि रहीम कोऊ लख्यो, गाढ़े दिन को मित्त ॥


दोनों रहिमन एक से, जौलों बोलत नाहिं ।
जान परत है काक पिक, ॠतु बसन्त के भांहि ॥


नात नेह दूरी भली, जो रहीम जिय जानि ।
निकट निरादर होत है, ज्यों गड़ही को पानि ॥


धूर धरत नित सीस पर, कहु रहीम केहि काज ।
जेहि रज मुनि पतनी तरी, सो ढ़ूंढ़त गजराज ॥

sombirnaamdev
15-01-2012, 10:32 PM
नाद रीझि तन देत मृग, नर धन देत समेत ।
ते रहिमन पसु ते अधिक, रीझेहुं कछु न देत ॥


नहिं रहीम कछु रूप गुन, नहिं मृगया अनुराग ।
देसी स्वान जो राखिए, भ्रमत भूख ही लाग ॥


निज कर क्रिया रहीम कहि, सिधि भावी के हाथ ।
पांसे अपने हाथ में, दांव न अपने हाथ ॥


परि रहिबो मरिबो भलो, सहिबो कठिन कलेम ।
बामन हवैं बलि को छल्लो, दियो भलो उपदेश ॥

नैन सलोने अधर मधु, कहु रहीम घटि कौन ।
मीठो भावे लोन पर, अरु मीठे पर लौन ॥
पन्नगबेलि पतिव्रता, रति सम सुनो सुजान ।
हिम रहीम बेली दही, सत जोजन दहियान ॥


पसिर पत्र झंपहि पिटहिं, सकुचि देत ससि सीत ।
कहु रहीम कुल कमल के, को बेरी को मीत ॥


पात-पात को सीचिबों, बरी बरी को लौन ।
रहिमन ऐसी बुद्धि को, कहो बैरगो कौन ॥


बड़ माया को दोष यह, जो कबहूं घटि जाय ।
तो रहीम गरिबो भलो, दुख सहि जिए बलाय ॥ 1


पुरुष पूजै देवरा, तिय पूजै रघूनाथ ।
कहि रहीम दोउन बने, पड़ो बैल के साथ ॥

sombirnaamdev
15-01-2012, 10:32 PM
पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन ।
अब दादुर वक्ता भए, हम को पूछत कौन ॥

प्रीतम छवि नैनन बसि, पर छवि कहां समाय ।
भरी सराय रहीम लखि, आपु पथिक फिरि जाय ॥ 117 ॥


बड़े दीन को दुख सुने, लेत दया उर आनि ।
हरि हाथी सों कब हुती, कहु रहीम पहिचानि ॥


बड़े बड़ाई नहिं तजैं, लघु रहीम इतराइ ।
राइ करौंदा होत है, कटहर होत न राइ ॥


बड़े पेट के भरन को, है रहीम दुख बाढ़ि ।
यातें हाथी हहरि कै, दयो दांत द्वै काढ़ि ॥

sombirnaamdev
15-01-2012, 10:33 PM
बढ़त रहीम धनाढय धन, धनौं धनी को जाई ।
धटै बढ़ै वाको कहा, भीख मांगि जो खाई ॥
बड़े बड़ाई ना करें, बड़ो न बोलें बोल ।
रहिमन हीरा कब कहै, लाख टका है मोल ॥
रहीम कानन बसिय, असन करिय फल तोय ।
बन्धु मध्य गति दीन हवै, बसिबो उचित न होय ॥


बिपति भए धन ना रहै, रहै जो लाख करोर ।
नभ तारे छिपि जात हैं, ज्यों रहीम ये भोर ॥


बांकी चितवनि चित चढ़ी, सूधी तौ कछु धीम ।
गांसी ते बढ़ि होत दुख, काढ़ि न कढ़त रहीम ॥

sombirnaamdev
15-01-2012, 10:35 PM
विरह रूप धन तम भए, अवधि आस उधोत ।
ज्यों रहीम भादों निसा, चमकि जात खद्दोत ॥

बसि कुसंग चाहत कुसल, यह रहीम जिय सोस ।
महिमा घटी समुन्द्र की, रावन बस्यो परोस ॥


बिगरी बात बने नहीं, लाख करो किन कोय ।
रहिमन बिगरै दूध को, मथे न माखन होय ॥


भावी काहू न दही, दही एक भगवान ।
भावी ऐसा प्रबल है, कहि रहीम यह जानि ॥


भीत गिरी पाखान की, अररानी वहि ठाम ।
अब रहीम धोखो यहै, को लागै केहि काम ॥


भजौं तो काको मैं भजौं, तजौं तो काको आन ।
भजन तजन ते बिलग हैं, तेहिं रहीम जू जान ॥


भावी या उनमान की, पांडव बनहिं रहीम ।
तदपि गौरि सुनि बांझ, बरू है संभु अजीम ॥

भलो भयो घर ते छुटयो, हस्यो सीस परिखेत ।
काके काके नवत हम, अपत पेट के हेत ॥


भूप गनत लघु गुनिन को, गुनी गुनत लघु भुप ।
रहिमन गिरि ते भूमि लौं, लखौ तौ एकै रुप ॥

महि नभ सर पंजर कियो, रहिमन बल अवसेष ।
सो अर्जुन बैराट घर, रहे नारि के भेष ॥

sombirnaamdev
15-01-2012, 10:35 PM
मनसिज माली कै उपज, कहि रहीम नहिं जाय ।
फल श्यामा के उर लगे, फूल श्याम उर जाय ॥


मथत मथत माखन रहै, दही मही विलगाय ।
रहिमन सोई मीत है, भीत परे ठहराय ॥


मन से कहां रहीम प्रभु, दृग सों कहा दिवान ।
देखि दृगन जो आदरैं, मन तोहि हाथ बिकान ॥


माह मास लहि टेसुआ, मीन परे थल और ।
त्यों रहीम जग जानिए, छुटे आपने ठौर ॥

मांगे मुकरिन को गयो, केहि न त्यागियो साथ ।
मांगत आगे सुख लहयो, ते रहीम रघुनाथ ॥

sombirnaamdev
15-01-2012, 10:37 PM
मान सरोवर ही मिलैं, हंसनि मुक्ता भोग ।
सफरिन भरे रहीम सर, बक बालक नहिं जोग ॥


मान सहित विष खाय के, संभु भए जगदीस ।
बिना मान अमृत पिए, राहु कटायो सीस ॥


मांगे घटत रहीम पद, कितौ करो बड़ काम ।
तीन पैग वसुधा करी, तऊ बावने नाम ॥

मूढ़ मंडली में सुजन, ठहरत नहीं विसेख ।
स्याम कंचन में सेत ज्यों, दूरि कीजिअत देख ॥


यद्धपि अवनि अनेक हैं, कूपवन्त सर ताल ।
रहिमन मान सरोवरहिं, मनसा करत मराल ॥


मुनि नारी पाषान ही, कपि पसु गुह मातंग ।
तीनों तारे रामजु तीनो मेरे अंग ॥


मंदन के मरिहू, अवगुन गुन न सराहि ।
ज्यों रहीम बांधहू बंधै, मरवा हवै अधिकाहि ॥


मुक्ता कर करपूर कर, चातक-जीवन जोय ।
एतो बड़ो रहीम जल, ब्याल बदन बिस होय ॥ ॥


यह रहीम मानै नहीं, दिन से नवा जो होय ।
चीता चोर कमान के, नए ते अवगुन होय ॥


यों रहीम सुख दु:ख सहत, बड़े लोग सह सांति ।
उदत चंद चोहि भांति सों, अथवत ताहि भांति ॥

sombirnaamdev
21-01-2012, 10:32 PM
एक ते जान अनन्त, अन्य एक हो आय ।
एक से परचे भया, एक बाहे समाय ॥ ॥


कबीरा गरब न कीजिए, कबहूँ न हँसिये कोय ।
अजहूँ नाव समुद्र में, ना जाने का होय ॥


कबीरा कलह अरु कल्पना, सतसंगति से जाय ।
दुख बासे भागा फिरै, सुख में रहै समाय ॥


कबीरा संगति साधु की, जित प्रीत कीजै जाय ।
दुर्गति दूर वहावति, देवी सुमति बनाय ॥


कबीरा संगत साधु की, निष्फल कभी न होय ।
होमी चन्दन बासना, नीम न कहसी कोय ॥


को छूटौ इहिं जाल परि, कत फुरंग अकुलाय ।
ज्यों-ज्यों सुरझि भजौ चहै, त्यों-त्यों उरझत जाय ॥


कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान ।
जम जब घर ले जाएँगे, पड़ा रहेगा म्यान ॥


काह भरोसा देह का, बिनस जात छिन मारहिं ।
साँस-साँस सुमिरन करो, और यतन कछु नाहिं ॥

काल करे से आज कर, सबहि सात तुव साथ ।
काल काल तू क्या करे काल काल के हाथ ॥

sombirnaamdev
21-01-2012, 10:33 PM
काया काढ़ा काल घुन, जतन-जतन सो खाय ।
काया बह्रा ईश बस, मर्म न काहूँ पाय ॥

कहा कियो हम आय कर, कहा करेंगे पाय ।
इनके भये न उतके, चाले मूल गवाय ॥


कुटिल बचन सबसे बुरा, जासे होत न हार ।
साधु वचन जल रूप है, बरसे अम्रत धार ॥


कहता तो बहूँना मिले, गहना मिला न कोय ।
सो कहता वह जान दे, जो नहीं गहना कोय ॥


कबीरा मन पँछी भया, भये ते बाहर जाय ।
जो जैसे संगति करै, सो तैसा फल पाय ॥


कबीरा लोहा एक है, गढ़ने में है फेर ।
ताहि का बखतर बने, ताहि की शमशेर ॥


कहे कबीर देय तू, जब तक तेरी देह ।
देह खेह हो जाएगी, कौन कहेगा देह ॥


करता था सो क्यों किया, अब कर क्यों पछिताय ।
बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से खाय


कस्तूरी कुन्डल बसे, म्रग ढ़ूंढ़े बन माहिं ।
ऐसे घट-घट राम है, दुनिया देखे नाहिं


कबीरा सोता क्या करे, जागो जपो मुरार ।
एक दिना है सोवना, लांबे पाँव पसार ॥

sombirnaamdev
21-01-2012, 10:34 PM
कागा काको घन हरे, कोयल काको देय ।
मीठे शब्द सुनाय के, जग अपनो कर लेय ॥


कबिरा सोई पीर है, जो जा नैं पर पीर ।
जो पर पीर न जानइ, सो काफिर के पीर ॥

कबिरा मनहि गयन्द है, आकुंश दै-दै राखि ।
विष की बेली परि रहै, अम्रत को फल चाखि

कबीर यह जग कुछ नहीं, खिन खारा मीठ ।
काल्ह जो बैठा भण्डपै, आज भसाने दीठ ॥


कबिरा आप ठगाइए, और न ठगिए कोय ।
आप ठगे सुख होत है, और ठगे दुख होय ॥


कथा कीर्तन कुल विशे, भव सागर की नाव ।
कहत कबीरा या जगत, नाहीं और उपाय ॥


कबिरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा ।
कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुनगा ॥


कलि खोटा सजग आंधरा, शब्द न माने कोय ।
चाहे कहूँ सत आइना, सो जग बैरी होय ॥


केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह ।
अवसर बोवे उपजे नहीं, जो नहिं बरसे मेह


कबीर जात पुकारया, चढ़ चन्दन की डार ।
वाट लगाए ना लगे फिर क्या लेत हमार ॥

sombirnaamdev
21-01-2012, 10:35 PM
कबीरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय ।
जाके विषय विष भरा, दास बन्दगी होय ॥

गाँठि न थामहिं बाँध ही, नहिं नारी सो नेह ।
कह कबीर वा साधु की, हम चरनन की खेह


खेत न छोड़े सूरमा, जूझे को दल माँह ।
आशा जीवन मरण की, मन में राखे नाँह ॥


चन्दन जैसा साधु है, सर्पहि सम संसार ।
वाके अग्ङ लपटा रहे, मन मे नाहिं विकार


घी के तो दर्शन भले, खाना भला न तेल ।
दाना तो दुश्मन भला, मूरख का क्या मेल


गारी ही सो ऊपजे, कलह कष्ट और भींच ।
हारि चले सो साधु हैं, लागि चले तो नीच ॥


चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय ।
दुइ पट भीतर आइके, साबित बचा न कोय


जा पल दरसन साधु का, ता पल की बलिहारी ।
राम नाम रसना बसे, लीजै जनम सुधारि ॥


जब लग भक्ति से काम है, तब लग निष्फल सेव ।
कह कबीर वह क्यों मिले, नि:कामा निज देव


जो तोकूं काँटा बुवै, ताहि बोय तू फूल ।
तोकू फूल के फूल है, बाँकू है तिरशूल ॥

sombirnaamdev
21-01-2012, 10:38 PM
जो तोकूं काँटा बुवै, ताहि बोय तू फूल ।
तोकू फूल के फूल है, बाँकू है तिरशूल ॥

जा घट प्रेम न संचरे, सो घट जान समान ।
जैसे खाल लुहार की, साँस लेतु बिन प्रान


ज्यों नैनन में पूतली, त्यों मालिक घर माहिं ।
मूर्ख लोग न जानिए, बहर ढ़ूंढ़त जांहि ॥


जाके मुख माथा नहीं, नाहीं रूप कुरूप ।
पुछुप बास तें पामरा, ऐसा तत्व अनूप
आप तहाँ आपदा, जहाँ संशय तहाँ रोग ।
कह कबीर यह क्यों मिटैं, चारों बाधक रोग


जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥


जल की जमी में है रोपा, अभी सींचें सौ बार ।
कबिरा खलक न तजे, जामे कौन वोचार ॥


जहाँ ग्राहक तँह मैं नहीं, जँह मैं गाहक नाय ।
बिको न यक भरमत फिरे, पकड़ी शब्द की छाँय ॥


झूठे सुख को सुख कहै, मानता है मन मोद ।
जगत चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद ॥


जो तु चाहे मुक्ति को, छोड़ दे सबकी आस ।
मुक्त ही जैसा हो रहे, सब कुछ तेरे पास ॥


जो जाने जीव आपना, करहीं जीव का सार ।
जीवा ऐसा पाहौना, मिले न दीजी बार ॥

sombirnaamdev
02-02-2012, 10:04 PM
ते दिन गये अकारथी, संगत भई न संत ।
प्रेम बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भगवंत ॥


तीर तुपक से जो लड़े, सो तो शूर न होय ।
माया तजि भक्ति करे, सूर कहावै सोय ॥


तन को जोगी सब करे, मन को बिरला कोय ।
सहजै सब विधि पाइये, जो मन जोगी होय ॥


तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे नसूर ।
तब लग जीव जग कर्मवश, जब लग ज्ञान ना पूर ॥


दुर्लभ मानुष जनम है, देह न बारम्बार ।
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥

sombirnaamdev
02-02-2012, 10:05 PM
दस द्वारे का पींजरा, तामें पंछी मौन ।
रहे को अचरज भयौ, गये अचम्भा कौन ॥

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सीचें सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥


न्हाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाय ।
मीन सदा जल में रहै, धोये बास न जाय ॥


पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय ।
एक पहर भी नाम बीन, मुक्ति कैसे होय ॥


पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय ।
ढ़ाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंड़ित होय ॥

sombirnaamdev
19-02-2012, 10:45 PM
तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे न सूर ।
तब लग जीव जग कर्मवश, ज्यों लग ज्ञान न पूर


आस पराई राख्त, खाया घर का खेत ।
औरन को प्त बोधता, मुख में पड़ रेत ॥


सोना, सज्जन, साधु जन, टूट जुड़ै सौ बार ।
दुर्जन कुम्भ कुम्हार के, ऐके धका दरार ॥


सब धरती कारज करूँ, लेखनी सब बनराय ।
सात समुद्र की मसि करूँ गुरुगुन लिखा न जाय ॥


बलिहारी वा दूध की, जामे निकसे घीव ।
घी साखी कबीर की, चार वेद का जीव ॥


आग जो लागी समुद्र में, धुआँ न प्रकट होय ।
सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय ॥


साधु गाँठि न बाँधई, उदर समाता लेय ।
आगे-पीछे हरि खड़े जब भोगे तब देय ॥


घट का परदा खोलकर, सन्मुख दे दीदार ।
बाल सने ही सांइया, आवा अन्त का यार ॥


कबिरा खालिक जागिया, और ना जागे कोय ।
जाके विषय विष भरा, दास बन्दगी होय ॥


ऊँचे कुल में जामिया, करनी ऊँच न होय ।
सौरन कलश सुरा, भरी, साधु निन्दा सोय ॥

sombirnaamdev
19-02-2012, 10:46 PM
सुमरण की सुब्यों करो ज्यों गागर पनिहार ।
होले-होले सुरत में, कहैं कबीर विचार ॥

सब आए इस एक में, डाल-पात फल-फूल ।
कबिरा पीछा क्या रहा, गह पकड़ी जब मूल ॥

जो जन भीगे रामरस, विगत कबहूँ ना रूख ।
अनुभव भाव न दरसते, ना दु:ख ना सुख

सिंह अकेला बन रहे, पलक-पलक कर दौर ।
जैसा बन है आपना, तैसा बन है और ॥


यह माया है चूहड़ी, और चूहड़ा कीजो ।
बाप-पूत उरभाय के, संग ना काहो केहो ॥

जहर की जर्मी में है रोपा, अभी खींचे सौ बार ।
कबिरा खलक न तजे, जामे कौन विचार ॥


जग मे बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय ।
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय ॥


जो जाने जीव न आपना, करहीं जीव का सार ।
जीवा ऐसा पाहौना, मिले ना दूजी बार ॥

कबीर जात पुकारया, चढ़ चन्दन की डार ।
बाट लगाए ना लगे फिर क्या लेत हमार ॥


लोग भरोसे कौन के, बैठे रहें उरगाय ।
जीय रही लूटत जम फिरे, मैँढ़ा लुटे कसाय ॥

sombirnaamdev
19-02-2012, 10:47 PM
एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार ।
है जैसा तैसा हो रहे, रहें कबीर विचार ॥

जो तु चाहे मुक्त को, छोड़े दे सब आस ।
मुक्त ही जैसा हो रहे, बस कुछ तेरे पास ॥

साँई आगे साँच है, साँई साँच सुहाय ।
चाहे बोले केस रख, चाहे घौंट भुण्डाय ॥


अपने-अपने साख की, सबही लीनी मान ।
हरि की बातें दुरन्तरा, पूरी ना कहूँ जान ॥॥


खेत ना छोड़े सूरमा, जूझे दो दल मोह ।
आशा जीवन मरण की, मन में राखें नोह ॥


लीक पुरानी को तजें, कायर कुटिल कपूत ।
लीख पुरानी पर रहें, शातिर सिंह सपूत ॥


सन्त पुरुष की आरसी, सन्तों की ही देह ।
लखा जो चहे अलख को, उन्हीं में लख लेह ॥


भूखा-भूखा क्या करे, क्या सुनावे लोग ।
भांडा घड़ निज मुख दिया, सोई पूर्ण जोग ॥


गर्भ योगेश्वर गुरु बिना, लागा हर का सेव ।
कहे कबीर बैकुण्ठ से, फेर दिया शुक्देव ॥

प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बनाय ।
चाहे घर में वास कर, चाहे बन को जाय ॥

sombirnaamdev
19-02-2012, 10:48 PM
कांचे भाडें से रहे, ज्यों कुम्हार का देह ।
भीतर से रक्षा करे, बाहर चोई देह ॥॥


साँई ते सब होते है, बन्दे से कुछ नाहिं ।
राई से पर्वत करे, पर्वत राई माहिं ॥ ॥
केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह ।
अवसर बोवे उपजे नहीं, जो नहीं बरसे मेह ॥


एक ते अनन्त अन्त एक हो जाय ।
एक से परचे भया, एक मोह समाय ॥ ॥


साधु सती और सूरमा, इनकी बात अगाध ।
आशा छोड़े देह की, तन की अनथक साध ॥


हरि संगत शीतल भया, मिटी मोह की ताप ।
निशिवासर सुख निधि, लहा अन्न प्रगटा आप ॥


आशा का ईंधन करो, मनशा करो बभूत ।
जोगी फेरी यों फिरो, तब वन आवे सूत ॥


आग जो लगी समुद्र में, धुआँ ना प्रकट होय ।
सो जाने जो जरमुआ, जाकी लाई होय ॥


अटकी भाल शरीर में, तीर रहा है टूट ।
चुम्बक बिना निकले नहीं, कोटि पठन को फूट ॥


अपने-अपने साख की, सब ही लीनी भान ।
हरि की बात दुरन्तरा, पूरी ना कहूँ जान ॥

sombirnaamdev
19-02-2012, 10:49 PM
आस पराई राखता, खाया घर का खेत ।
और्न को पथ बोधता, मुख में डारे रेत ॥


आवत गारी एक है, उलटन होय अनेक ।
कह कबीर नहिं उलटिये, वही एक की एक ॥


आहार करे मनभावता, इंद्री की स्वाद ।
नाक तलक पूरन भरे, तो कहिए कौन प्रसाद ॥ ॥


आए हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर ।
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बाँधि जंजीर ॥


आया था किस काम को, तू सोया चादर तान ।
सूरत सँभाल ए काफिला, अपना आप पह्चान ॥


उज्जवल पहरे कापड़ा, पान-सुपरी खाय ।
एक हरि के नाम बिन, बाँधा यमपुर जाय ॥


उतते कोई न आवई, पासू पूछूँ धाय ।
इतने ही सब जात है, भार लदाय लदाय ॥


अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक होय ।
मानुष से पशुआ भया, दाम गाँठ से खोय ॥


एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार ।
है जैसा तैसा रहे, रहे कबीर विचार ॥ ॥
ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोए ।
औरन को शीतल करे, आपौ शीतल होय ॥

sombirnaamdev
25-02-2012, 02:48 PM
हे गणपति निज भक्त को, दो ऐसी निज भक्ति
काव्य सृजन में ही रहे, जीवन-भर अनुरक्ति।

sombirnaamdev
25-02-2012, 02:48 PM
हे लम्बोदर है तुम्हें, बारंबार प्रणाम
पूर्ण करो निर्विघ्न प्रभु ! सकल हमारे काम।

sombirnaamdev
25-02-2012, 02:48 PM
मेरे विषय-विकार जो, बने हृदय के शूल
हे प्रभु मुझ पर कृपा कर, करो उन्हें निर्मूल।

sombirnaamdev
25-02-2012, 02:48 PM
गणपति महिमा आपकी, सचमुच बहुत उदार
तुम्हें डुबोते हर बरस, उनको करते पार।

sombirnaamdev
25-02-2012, 02:48 PM
मातु शारदे दो हमें, ऐसा कुछ वरदान
जो भी गाऊँ गीत मैं, बन जाये युग-गान।

sombirnaamdev
25-02-2012, 02:49 PM
शंकर की महिमा अमित, कौन भला कह पाय
जय शिव-जय शिव बोलते, शव भी शिव बन जाय।

sombirnaamdev
25-02-2012, 02:49 PM
मैं भी तो गोपाल हूँ, तुम भी हो गोपाल
कंठ लगाते क्यों नहीं, फिर मुझको नंदलाल।

sombirnaamdev
25-02-2012, 02:50 PM
स्वयं दीप जो बन गया, उसे मिला निर्वाण
इसी सूत्र को वरण कर, बुद्ध बने भगवान।




गुरु ग्रन्थ के श्रवण से, मिटें सकल त्रयताप
ये मन्त्रों का मन्त्र है, हैं ये शब्द अमाप।



नानक और कबीर-सा, सन्त न जन्मा कोय
दोयम, त्रेयम, चतुर्थम, सब हो गए अदोय।

sombirnaamdev
25-02-2012, 02:51 PM
मीरा ने संसार को, दिया नाचता धर्म
उसके स्वर में है छुपा, वंशीधर का मर्म।




भक्तों में कोई नहीं, बड़ा सूर से नाम
उसने आँखों के बिना, देख लिये घनश्याम




तुलसी का तन धारकर, भक्ति हुई साकार
उनको पाकर राममय, हुआ सकल संसार।



मर्यादा और त्याग का, एक नाम है राम
उसमें जो मन रम गया, रहा सदा निष्काम।




अपना ही हित साधते, सारे देश विशेष
सर्व-भूत-हित-रत सदा, वो है भारत देश।

sombirnaamdev
25-02-2012, 02:51 PM
जो प्रकाश की साधना, करता आठो याम
आभा रत को जोड़कर, बनता भारत नाम।



हमने इक परिवार ही, माना सब संसार
सदा सदा से हम रहे, सभी द्वैत के पार।




आत्मा के सौन्दर्य का, शब्द रूप है काव्य
मानव होना भाग्य है, कवि होना सौभाग्य।



दोहा वर है और है, कविता वधू कुलीन
जब इनकी भाँवर पड़ी, जन्मे अर्थ नवीन।




निर्धन और असहाय थे, जब सब भाव-विचार
दोहे ने आकर किया, उन सबका श्रृंगार।

sombirnaamdev
25-02-2012, 02:52 PM
गागर में सागर भरे, मुँदरी में नवरत्न
अगर न ये दोहा करे, है सब व्यर्थ प्रयत्न।




जो जन जन के होंठ पर, बसे और रम जाय
ऐसा सुन्दर दोहरा, क्यों न सभी को भाय।




झूठी वो अनुभूति है, हुआ न जिसका भोग
बिन इसके कवि-कर्म तो, है बस क्षय का रोग।




दिल अपना दरवेश है, धर गीतों का भेष
अलख जगाता फिर रहा, जा-जा देस विदेश।




ना तो मैं भवभूत हूँ, ना मैं कालीदास
सिर्फ प्रकाशित कर रहा, उनका काव्य प्रकाश।

sombirnaamdev
02-03-2012, 07:20 PM
ते दिन गये अकारथी, संगत भई न संत ।
प्रेम बिना पशु जीवना, भक्ति बिना भगवंत ॥॥

तीर तुपक से जो लड़े, सो तो शूर न होय ।
माया तजि भक्ति करे, सूर कहावै सोय ॥


तन को जोगी सब करे, मन को बिरला कोय ।
सहजै सब विधि पाइये, जो मन जोगी होय ॥


तब लग तारा जगमगे, जब लग उगे नसूर ।
तब लग जीव जग कर्मवश, जब लग ज्ञान ना पूर ॥


दुर्लभ मानुष जनम है, देह न बारम्बार ।
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥

sombirnaamdev
02-03-2012, 07:21 PM
दुर्लभ मानुष जनम है, देह न बारम्बार ।
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥


दस द्वारे का पींजरा, तामें पंछी मौन ।
रहे को अचरज भयौ, गये अचम्भा कौन ॥

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सीचें सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥


न्हाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाय ।
मीन सदा जल में रहै, धोये बास न जाय ॥


पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय ।
एक पहर भी नाम बीन, मुक्ति कैसे होय ॥ ॥


पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय ।
ढ़ाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंड़ित होय ॥

sombirnaamdev
02-03-2012, 07:21 PM
पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात ।
देखत ही छिप जाएगा, ज्यों सारा परभात ॥


पाहन पूजे हरि मिलें, तो मैं पूजौं पहार ।
याते ये चक्की भली, पीस खाय संसार ॥ ॥


पत्ता बोला वृक्ष से, सुनो वृक्ष बनराय ।
अब के बिछुड़े ना मिले, दूर पड़ेंगे जाय ॥


प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बजाय ।
चाहे घर में बास कर, चाहे बन मे जाय ॥ ॥


बन्धे को बँनधा मिले, छूटे कौन उपाय ।
कर संगति निरबन्ध की, पल में लेय छुड़ाय

sombirnaamdev
02-03-2012, 07:23 PM
बूँद पड़ी जो समुद्र में, ताहि जाने सब कोय ।
समुद्र समाना बूँद में, बूझै बिरला कोय ॥

बाहर क्या दिखराइये, अन्तर जपिए राम ।
कहा काज संसार से, तुझे धनी से काम ॥


बानी से पहचानिए, साम चोर की घात ।
अन्दर की करनी से सब, निकले मुँह की बात ॥


बड़ा हुआ सो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर ।
पँछी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर ॥


मूँड़ मुड़ाये हरि मिले, सब कोई लेय मुड़ाय ।
बार-बार के मुड़ते, भेड़ न बैकुण्ठ जाय ॥

sombirnaamdev
02-03-2012, 07:24 PM
माया तो ठगनी बनी, ठगत फिरे सब देश ।
जा ठग ने ठगनी ठगो, ता ठग को आदेश ॥


भज दीना कहूँ और ही, तन साधुन के संग ।
कहैं कबीर कारी गजी, कैसे लागे रंग ॥


माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय ।
भागत के पीछे लगे, सन्मुख भागे सोय ॥॥


मथुरा भावै द्वारिका, भावे जो जगन्नाथ ।
साधु संग हरि भजन बिनु, कछु न आवे हाथ ॥ ॥


माली आवत देख के, कलियान करी पुकार ।
फूल-फूल चुन लिए, काल हमारी बार ॥॥

sombirnaamdev
10-03-2012, 07:56 PM
रहिमन थोरे दिनन को, कौन करे मुंह स्याह ।
नहीं छनन को परतिया, नहीं करन को ब्याह ॥

sombirnaamdev
10-03-2012, 07:57 PM
रहिमन रहिबो व भलो जौ लौं सील समूच ।
सील ढील जब देखिए, तुरन्त कीजिए कूच ॥


रहिमन पैंडा प्रेम को, निपट सिलसिली गैल ।
बिछलत पांव पिपीलिका, लोग लदावत बैल


रहिमन ब्याह बियाधि है, सकहु तो जाहु बचाय ।
पायन बेड़ी पड़त है, ढोल बजाय बजाय ॥

sombirnaamdev
10-03-2012, 07:57 PM
राम नाम जान्या नहीं, जान्या सदा उपाधि ।
कहि रहीम तिहि आपनो, जनम गंवायो बादि ॥

रहिमन जगत बड़ाई की, कूकुर की पहिचानि ।
प्रीति कैर मुख चाटई, बैर करे नत हानि

सबै कहावै लसकरी सब लसकर कहं जाय ।

रहिमन सेल्ह जोई सहै, सो जागीरें खाय ॥

sombirnaamdev
10-03-2012, 07:58 PM
रहिमन छोटे नरन सों, होत बड़ों नहिं काम ।
मढ़ो दमामो ना बने, सौ चूहे के चाम ॥


रहिमन प्रीत न कीजिए, जस खीरा ने कीन ।
ऊपर से तो दिल मिला, भीतर फांके तीन ॥


रहिमन धोखे भाव से, मुख से निकसे राम ।
पावत मूरन परम गति, कामादिक कौ धाम ॥

sombirnaamdev
10-03-2012, 07:58 PM
रहिमन मनहि लगई कै, देखि लेहु किन कोय ।
नर को बस करिबो कहा, नारायन बस होय ॥


रहिमन असमय के परे, हित अनहित है जाय ।
बधिक बधै भृग बान सों, रुधिरै देत बताय ॥

लोहे की न लोहार की, रहिमन कही विचार ।
जो हानि मारै सीस में, ताही की तलवार ॥

sombirnaamdev
10-03-2012, 07:59 PM
रहिमन जिह्वा बावरी, कहिगै सरग पाताल ।
आपु तो कहि भीतर रही, जूती खात कपाल ॥

रहिमन निज मन की विथा, मन ही राखो गोय ।
सुनि अठिलै है लोग सब, बांटि न लैहे कोय ॥


रहिमन जाके बाप को, पानी पिअत न कोय ।
ताकी गैर अकास लौ, क्यों न कालिमा होय ॥

रहिमन उजली प्रकृति को, नहीं नीच को संग ।
करिया वासन कर गहे, कालिख लागत अंग ॥

sombirnaamdev
22-03-2012, 12:32 AM
रहिमन थोरे दिनन को, कौन करे मुंह स्याह ।
नहीं छनन को परतिया, नहीं करन को ब्याह ॥


रहिमन रहिबो व भलो जौ लौं सील समूच ।
सील ढील जब देखिए, तुरन्त कीजिए कूच ॥


रहिमन पैंडा प्रेम को, निपट सिलसिली गैल ।
बिछलत पांव पिपीलिका, लोग लदावत बैल ॥


रहिमन ब्याह बियाधि है, सकहु तो जाहु बचाय ।
पायन बेड़ी पड़त है, ढोल बजाय बजाय ॥


रहिमन प्रिति सराहिए, मिले होत रंग दून ।
ज्यों जरदी हरदी तजै, तजै सफेदी चून ॥ ॥


रहिमन तब लगि ठहरिए, दान मान, सम्मान ।
घटत मान देखिए जबहि, तुरतहिं करिय पयान ॥


राम नाम जान्या नहीं, जान्या सदा उपाधि ।
कहि रहीम तिहि आपनो, जनम गंवायो बादि ॥ ॥


रहिमन जगत बड़ाई की, कूकुर की पहिचानि ।
प्रीति कैर मुख चाटई, बैर करे नत हानि ॥


सबै कहावै लसकरी सब लसकर कहं जाय ।
रहिमन सेल्ह जोई सहै, सो जागीरें खाय ॥


रहिमन करि सम बल नहीं, मानत प्रभु की थाक ।
दांत दिखावत दीन है, चलत घिसावत नाक ॥

sombirnaamdev
22-03-2012, 12:33 AM
रहिमन छोटे नरन सों, होत बड़ों नहिं काम ।
मढ़ो दमामो ना बने, सौ चूहे के चाम

sombirnaamdev
22-03-2012, 12:33 AM
रहिमन प्रीत न कीजिए, जस खीरा ने कीन ।
ऊपर से तो दिल मिला, भीतर फांके तीन

sombirnaamdev
22-03-2012, 12:33 AM
रहिमन धोखे भाव से, मुख से निकसे राम ।
पावत मूरन परम गति, कामादिक कौ धाम

sombirnaamdev
22-03-2012, 12:34 AM
रहिमन मनहि लगई कै, देखि लेहु किन कोय ।
नर को बस करिबो कहा, नारायन बस होय ॥ ॥


रहिमन असमय के परे, हित अनहित है जाय ।
बधिक बधै भृग बान सों, रुधिरै देत बताय ॥

sombirnaamdev
22-03-2012, 12:34 AM
लोहे की न लोहार की, रहिमन कही विचार ।
जो हानि मारै सीस में, ताही की तलवार ॥

रहिमन जिह्वा बावरी, कहिगै सरग पाताल ।
आपु तो कहि भीतर रही, जूती खात कपाल ॥॥
रहिमन निज मन की विथा, मन ही राखो गोय ।
सुनि अठिलै है लोग सब, बांटि न लैहे कोय

sombirnaamdev
22-03-2012, 12:34 AM
रहिमन जाके बाप को, पानी पिअत न कोय ।
ताकी गैर अकास लौ, क्यों न कालिमा होय ॥

रहिमन उजली प्रकृति को, नहीं नीच को संग ।
करिया वासन कर गहे, कालिख लागत अंग ॥

sombirnaamdev
22-03-2012, 12:35 AM
रहिमन कठिन चितान ते, चिंता को चित चेत ।
चिता दहति निर्जीव को, चिंता जीव समेत ॥


रहिमन विद्या बुद्धि नहीं, नहीं धरम जस दान ।
भू पर जनम वृथा धरै, पसु बिन पूंछ विषान ॥