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View Full Version : किताबें कुछ कहती है


sombirnaamdev
21-01-2012, 09:11 PM
हमारे आसपास बिखरी हैं किताबें। नई किताबें..पुरानी किताबें..। अच्छी किताबें..बुरी किताबें..। बड़ों की किताबंे..बच्चों की किताबें..। किताबों का साम्राज्य है..किताबों का शासन है..। किताबें ही प्रजा हैं..किताबें ही राजा हैं..। किताबों की सड़क है और किताबों की ही इमारत है.। वाह, कितना सुखद स्वप्न है यह, या फिर एक कोरी कल्पना..। आज के इंटरनेट युग में किताबों का ऐसा संसार कहां? किताबें तो अब किताबों की बातें बन चुकी हैं।

हमारे पास इतना समय ही कहां कि इस इंटरनेट की दुनिया से बाहर आएं और किताबों के पन्ने पलटें। हम तो रच-बस गए हैं इंटरनेट के मायाजाल में। फंस गए हैं जानकारियों के ऐसे चक्रव्यूह में, जहां से बाहर निकलना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन लगता है। सबकी खबर है हमें, केवल स्वयं को छोड़कर।

आओ किताबों की इस खत्म होती दुनिया में मन की किताब खोलें और उस किताब में एक नाम जोड़ें विश्वास का..आत्म-अनुशासन का..आत्मसम्मान का..स्वाभिमान का..। आओ शुरुआत करें और प्रयास करें मन की एक नई किताब लिखने का। आज की पीढ़ी का मानो किताबों से नाता ही टूट गया। हर बात के लिए उनके पास ‘गूगल बाबा’ हैं ना! एक यही ‘बाबा’ हैं, जो हमें हर जगह हमेशा ले जाने को तैयार हैं। इसके बिना तो आज किसी भी ज्ञान की परिकल्पना ही नहीं की जा सकती।

युवाओं के हाथों में किताब तो है, पर उसे वे ऐसे देखते हैं मानो कोई अजूबा हो। छोटे-छोटे नोट्स से ही उनका काम चलता है। अच्छा भी है शायद, अब किसी पोथी से उनका वास्ता ही नहीं पड़ता। पोथी देखकर वे बिदकने लगेंगे। हमारे पास ज्ञान के लिए ‘गूगल बाबा’ हैं, यह सच है। पर इनके दिए ज्ञान को हम कब तक अपने दिमाग में रखते हैं? ‘गूगल बाबा’ के ज्ञान से केवल परीक्षा ही दी जा सकती है। पर हमारे पूर्वजों ने जो ज्ञान दिया है, वह तो जीवन की परीक्षा में पास होने के लिए दिया है, जीवन की चुनौतियों का सामना करने के लिए दिया है। आज उनके दिए ज्ञान का उपयोग कम से कम हो पा रहा है।

शोध बताते हैं कि ‘गूगल बाबा’ की शरण में रहने वालों की स्मृति कमजोर होने लगी है। आखिर कहां जाएंगे कमजोर याददाश्त लेकर हम सभी? सब कुछ है ‘गूगल बाबा’ के पास। पर शायद नहीं है, तो मां का ममत्व, पिता का दुलार, बहन का अपनापा या फिर प्रेमी या प्रेयसी का प्यार। हम जब मुसीबत में होते हैं, तब चाहकर भी ‘गूगल बाबा’ हमारे सिर पर हाथ नहीं फेर सकते।

हमारे आंसू नहीं पोंछ सकते। हमें सांत्वना नहीं दे सकते। ‘बाबा’ हमें ज्ञानी तो बना सकते हैं, पर एक प्यारा-सा बेटा, समझदार भाई, प्यारे-से पापा, अच्छा पति नहीं बना सकते। इसलिए कहता हूं ‘बाबा’ को घर के आंगन तक तो ले आओ, पर घर के अंदर घुसने न दो। अगर ये घर पर आ गए, तो समझो हम सब अपनों से दूर हो जाएंगे, हम गैरों से घिर जाएंगे। यहां सब कुछ तो होगा, पर कोई अपना न होगा। कैसे रहोगे फिर उस घर में?

किताबों से दोस्ती करो। ये हमारी सबसे अच्छी दोस्त हैं। हमारे सुख-दुख में यही काम आएंगी। जब ये हमसे बातें करेंगी, तो हमें ऐसा लगेगा, जैसे मां हमें दुलार रही हैं, पिता प्यार से सिर पर हाथ फेर रहे हैं, बहना और दीदी हमसे चुहल कर रही हैं।

अपनापे और प्यार का समुद्र लहराने लगेगा। किताबें हमसे कुछ कहने के लिए आतुर हंै। वह दिन बहुत ही यादगार होगा, जब यही किताबें तुमसे ज्ञान प्राप्त करेंगी। हम सब गर्व से कह उठेंगे कि किताबों जैसा कोई नहीं। तो हो जाओ तैयार पढ़ने के लिए एक किताब प्यारी-सी।

sombirnaamdev
21-01-2012, 09:14 PM
रीडर और बुक्स के बीच दूरियां पनप रही हैं। रीडर बिजी और किताबें महंगी। न बुकशॉप जाने का वक्त, न इतनी महंगी किताबें खरीदने की इच्छा। दूरियां बढ़ती रहीं, जब तक कि इंटरनेट ने दस्तक न दे दी। अब लोग किताबों की तरफ लौट रहे हैं। ई-कॉमर्स पोर्टलों ने किताबें खरीदना बहुत आसान बना दिया है। कई पोर्टल आ गए हैं तो उनमें होड़ भी मची है - सस्ती दरों पर अच्छी किताबें मुहैया कराने की, और वह भी लॉन्च के फौरन बाद।

books.indiatimes.com : इंडियाटाइम्स uread.com के सहयोग से इंटरनेट पर किताबें बेचने की सर्विस चला रहा है। इसकी खासियत है, कई किताबों पर मिल रहे डिस्काउंट। कई किताबों पर 40 फीसदी तक डिस्काउंट मिल जाता है। इंडियाटाइम्स एक और स्कीम चलाता है, जिसके तहत लोग 500 रुपये सालाना जमा कराकर साल भर 25 फीसदी डिस्काउंट पर किताबें खरीद सकते हैं। ऊपर से 750 रुपये की किताबें उपहार में दी जाती हैं। यहां किताबों का चुनाव लगभग दो दर्जन कैटेगरी के बीच से या फिर ब्रैंड्स के आधार पर किया जा सकता है।

flipcart.com : फ्लिपकार्ट पर करीब दो दर्जन कैटिगरी में किताबें उपलब्ध हैं। इस पर कई अनूठी सुविधाएं हैं, जैसे कम्प्लीट कलेक्शन ऑर्डर करना (हैरी पॉटर जैसे मामलों में, जहां एक ही सीरीज में कई किताबें आती हैं), लॉन्च होने जा रही किताबों के लिए पहले से ऑर्डर करना, आधी कीमत पर मिलने वाली किताबें वगैरह। नई-नई लॉन्च हुई किताबों और बुकर प्राइज विनर्स के लिए अलग सेक्शन हैं। डिलिवरी फ्री है।

avbooksindia.com : यहां करीब 30 कैटिगरी में किताबें मौजूद हैं, जिन्हें अलग-अलग विषयों के हिसाब से ढूंढकर ऑर्डर किया जा सकता है। खरीदी गई किताबों को रजिस्टर्ड मेल या एयरमेल से फ्री भेजा जाता है। नई किताबें अलग-से दिखाई जाती हैं और पहले से मौजूद किताबों को सर्च करने की अच्छी सुविधा है। किताबों पर सीमित डिस्काउंट भी उपलब्ध हैं।

books.rediff.com : इंडियाटाइम्स की ही तरह भारत के इस एक और बड़े इंटरनेट पोर्टल पर किताबों का भारी-भरकम स्टोर मौजूद है, जिसमें करीब 35 लाख किताबें बताई जाती हैं। करीब 40 हजार लेखकों की किताबें 500 कैटिगरी में उपलब्ध हैं। इन्हें विषयों, किताबों के नामों और लेखकों के नामों से सर्च किया जा सकता है। जहां तक डिस्काउंट का सवाल है, वह यहां दिखाई नहीं दिया। अलबत्ता, किताबों को डाक से फ्री भेजा जाता है और डिलिवरी पर पेमेंट करने की भी सुविधा है।

simplybooks.in : यूं तो यह एक नया पोर्टल है लेकिन पूरी तरह किताबों से संबंधित होने के नाते इसने बुक लवर्स के बीच जगह बना ली है। यहां किताबों की सैकड़ों कैटिगरी मौजूद हैं, और बहुत-सी किताबों पर 25 फीसदी डिस्काउंट भी मिल जाता है। अलग-से मौजूद डिस्काउंट सेक्शन में यह थोड़ा ज्यादा भी हो सकता है। नई रिलीज और बेस्टसेलर्स पर भी अलग सेक्शन मौजूद हैं, ताकि ट्रेंडी किताबें ज्यादा ढूंढनी न पड़ें। कुरियर के जरिए देश भर में फ्री शिपिंग की सुविधा है।

sombirnaamdev
21-01-2012, 09:16 PM
पुस्तकें अपनी पहचान और महत्व को खोती जा रहीं हैं । पढ़ने की संस्कृति विलुप्त हो रही है । फिर दौड़भाग भरी जिंदगी में टीवी, इंटरनेट, फेसबुक और ईबुक जैसे माध्यमों ने किताबों की प्रासंगिकता को खत्म कर दिया है। किताबें जनता के बजट से बाहर हो चुकी हैं । ऐसे में कुछ कठिन सवाल हर बार उठते हैं । पुस्तक मेले और बड़ी साहित्यिक गोष्ठियों में ये प्रश्न और भी मारक रूप से सामने आते हैं। चिंता व्यक्त की जाती है, शोक मनाया जाता है। सबका एक ही सवाल आखिर किताबों का भविष्य क्या है ? इस तरह के प्रश्नों पर कई तरह के मत सामने आते हैं।
http://3.bp.blogspot.com/_KnYAIIGXuc8/TT1arTkeOGI/AAAAAAAAAN0/wcCT2UDLolk/s320/book.jpg (http://3.bp.blogspot.com/_KnYAIIGXuc8/TT1arTkeOGI/AAAAAAAAAN0/wcCT2UDLolk/s1600/book.jpg) प्रोफेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी किताबों के भविष्य को लेकर चिंतित हैं । वे कहते हैं कि यह बुक रीडिंग का नहीं स्क्रीन रीडिंग का युग है। इसका यह अर्थ नहीं है कि रीडिंग के पुराने रूपों का खात्मा हो जाएगा।किंतु यह सच है कि स्क्रीन रीडिंग से पुस्तक, पत्र-पत्रिका आदि के पाठक घटेंगे। यह रीडिंग का प्रमुख रूप हो जाएगा। पुरानी रीडिंग के रूप वैसे ही बचे रह जाएंगे जैसे अभी भी राजा बचे रह गए हैं। एकदम शक्तिहीन। पुस्तक का भी यही हाल होगा।
जब लोग 6-8 घंटे स्क्रीन पर पढ़ेंगे या काम करेंगे तो पुस्तक वगैरह पढ़ने के लिए उनके पास समय ही कहां होगा! बच्चों के बीच धैर्य कम होता चला जाएगा।इस समूची प्रक्रिया को इनफोटेनमेंट के कारण और भी गंभीर खतरा पैदा हो गया है। अब टीवी देखते समय हम सोचते नहीं हैं, सिर्फ देखते हैं। बच्चे किताब पढ़ें इसके लिए उन्हें शिक्षित करना बेहद मुश्किल होता जा रहा है।
लेकिन आईआईएमसी की लाइब्रेरियन प्रतिभा शर्मा के विचार कुछ भिन्न हैं । उनका मानना है कि किताबों का क्रेज कभी कम नहीं हो सकता। जिन्हें पुस्तकों में दिलचस्पी है वे किताब पढ़े बिना संतुष्ट नहीं होते भले ही किताब में लिखी बात अन्य मीडिया के माध्यम से वे जान चुके हों।
शायद इन्हीं विचारों को पुष्ट करने के लिये वे अपने कार्यकाल के पहले ही वर्ष संस्थान में पुस्तक मेले का एक सफल आयोजन करती हैं । इसके पीछे वे एक अलग तरह का कारण बताती हैं । वे कहती हैं ज़माना बदल गया है आज के छात्र लाइब्रेरियन या अध्यापक द्वार चुनी हुई या कहें थोपी हुई किताबों से संतुष्ट नहीं है । वैश्वीकरण के दौर में उनकी पसंद में जबर्दस्त बदलाव आया है । उनके चुनाव करने की क्षमता भी विकसित हुी है ।
इसी बात को ध्यान में रखते हुए मैने इस मेले का आयोजन करवाया । यहां छात्रों और अध्यापकों को अपने पसंद की किताबों को अपने लाइब्रेरी के लिये चयन का अधिकार दिया गया है। यह एक नई परंपरा है आशा है यह छात्रों को भी पसंद आयेगी ।
प्रोफेसर आनंद प्रधान का मानना है कि यह एक बेहतरीन पहल है। किताबें हमारे जीवन का एक नया दरवाजा खोलती हैं । किताबें तो दुनिया की खिड़की होती हैं। पुस्तक प्रदर्शनी का उद्देश्य ही होता है पढ़ने लिखने की संस्कृति को प्रोत्साहन देना । उनका मानना है कि वैश्वीकरण के इस दौर में किताबें भी ग्लोबल हो रही हैं । दुनिया के बड़े बड़े प्रकाशक भारत आ रहें हैं । भारतीय प्रकाशक भी देश की सीमाओं को लांघने लगे हैं।
किताबों के भविष्य उज्ज्वल है।
http://2.bp.blogspot.com/_KnYAIIGXuc8/TT1arjngxwI/AAAAAAAAAOE/QiqsDNcwfLA/s320/book3.jpg (http://2.bp.blogspot.com/_KnYAIIGXuc8/TT1arjngxwI/AAAAAAAAAOE/QiqsDNcwfLA/s1600/book3.jpg)
लेखक एवं व्यंगकार यशवंत कोठारी कहते हैं कि भइया किताबें कितनी भी मंहगी क्यों न हो जायें मेरे झोले में पत्र पत्रिकाओं के अलावा किताबें हमेशा रहती हैं। हर पुस्तक मेले में जाता हूं। किताबें उलटता हूं, पलटता हूं, कभी कभी कुछ अंश वहीं पर पढ़ लेता हूं या फोटोकॉपी करा लेता हूं, मगर पुस्तक खरीदना हर तरह से मुश्किल होता जा रहा है।
वास्तव में हर किताब एक मशाल है। एक क्रान्ति है, ऐसा किसी ने कहा था। किताब व्यक्ति के अन्दर की नमी को सोखती है। थके हुए आदमी को पल दो पल का सुकून देती है, किताबें। हारे हुए आदमी को उत्साह, उमंग और उल्लास देती है किताबें। वे जीने का सलीका सिखाने का प्रयास करती है। सूचना, विचार दृष्टिकोण, दस्तावेज़, प्यार, घृणा, यथार्थ, रोमांस, स्मृतियाँ, कल्पना, सब कुछ तो देती हैं किताबें मगर कोई किताब तक पहुँचे तब न।
पुस्तकें हमारे जीवन का सच्चा दर्पण हैं। वे हमारे व्यक्तित्व, समाज, देश, प्रदेश को सजाती है, सँवारती है, हमें संस्कार देती है । किसी व्यक्ति की किताबों का संकलन देखकर ही आप उसके व्यक्तित्व का अंदाजा लगा सकते हैं। कहते हैं कि किताबें ही आदमी की सच्ची दोस्त होती हैं और दोस्तों से ही आदमी की पहचान भी। अतः किताबों के भविष्य पर शंका करने से बेहतर है कि हम उनसे दोस्ती बढ़ायें उन्हे अपना हमराही बनायें । कहते हैं न कि मित्र हमेशा आपके पास आपकी मदद के लिये नहीं रह सकतें हैं लेकिन किताबें और उनसे मिलने वाला ज्ञान परदेश और वीरानें के अकेलेपन में भी आपकी सच्ची मार्गदर्शक और मित्र होती हैं ।

अंत में कुछ विद्वानों के कथन से पुस्तकों की महत्ता को परिभाषित किया जा सकता है --

थोमस ए केम्पिस कहते हैं-"बुद्धिमानो की रचनाये ही एकमात्र ऐसी अक्षय निधि हैं जिन्हें हमारी संतति विनिष्ट नहीं कर सकती. मैंने प्रत्येक स्थान पर विश्राम खोजा, किन्तु वह एकांत कोने में बैठ कर पुस्तक पढ़ने के अतिरिक्त कहीं प्राप्त न हो सका."
क्लाईव का कथन है कि " मानव जाति ने जो कुछ किया, सोचा और पाया है, वह पुस्तकों के जादू भरे पृष्ठों में सुरक्षित हैं".
वहीं बाल गंगा धर तिलक ने कहा था " मैं नरक में भी पुस्तकों का स्वागत करूँगा क्यूंकि जहाँ ये रहती हैं वहां अपने आप ही स्वर्ग हो जाता है".

sombirnaamdev
21-01-2012, 09:17 PM
हमारे देश में किताबें खरीदने की परम्परा है, पढ़ने की नहीं। मैंने तथाकथित विद्वानों को देखा है, जिन्हें अपने संग्रह पर गर्व है। लेकिन मुझे सन्देह है कि उनके संग्रह की किताबें कभी खोली भी गयी या नहीं! किताबें खरीदी जरूर गयी, सिलसिलेवार ढंग से रखी भी गयी, पर पढ़ने की बात तो दूर, कभी खोलकर देखी भी नहीं गयी।
कभी लगता है यह हमारे वैदिक अतीत का अवशेष है। किताबें बांचने का जिम्मा ब्राह्मणों को सौंपकर हम खेती करते रहें, आर्येतर जातियों से लड़ते भिड़ते रहे। श्रम विभाजन का एक नायाब तरीका था वह। हो सकता है उस कालखण्ड के लिए जरूरी भी था। लेकिन आज भी अपने ‘जीन’ कोशों में हम इसी आदत को ढो रहे हैं।
नहीं तो, इस बात की क्या व्याख्या हो सकती है कि कम्युनिस्ट भी किताबें नहीं पढ़ते? सोवियत रूस में समाजवाद ढह जाने के बाद भारत में किताबों का आना रूक गया यानि माक्र्सवाद-लेनिनवाद से संबंधित किताबें। कुछ किताबें भारत में छपने लगी, लेकिन आज भी, सभी धड़ों को मिलाकर जितना बड़ा साम्यवादी आन्दोलन भारत में है, उसके अनुपात में छपनेवाली किताबों की संख्या नगण्य है।
किताबें अगर बिकती, तो अधिक संख्या में छपती भी। सच्चाई यही है कि माक्र्सवाद-लेनिनवाद से संबंधित किताबें बिकती ही नहीं है – खासकर हिन्दीभाषी प्रदेशों में। माओ की संकलित रचनाएं भी अपेक्षित हद तक नहीं बिकती।
अगर केवल किताबों की बिक्री तक ही मामला सीमित रहता तब बात उस हद तक चिन्ताजनक नहीं बनती। किताबें बिकती है, तब ही पढ़ी जाती है। किताबें पढ़ी नहीं जाती है। यह एक अकाट्य सच है। ‘माओवाद’ की शक्ल में जो विचलन हमारी नजरों के आगे से गुजर रहा है, उसकी वजह भी यही है। माक्र्स-लेनिन-माओ के कुछ वाक्य, जिन्हें सन्दर्भ से काटकर काडरों को पिला दिया जाता है, उन्हीं पर माओवादियों का सैद्धान्तिक आधार टिका है।
इतना कमजोर आधार पर क्या कोई आन्दोलन टिक सकता है? नहीं! विकल्प है अमृत समझकर जहर पीना, जो माओवादी पी रहे हैं या फिर महाभारत की वह कहानी – द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने आटे के पानी को ही दूध समझ लिया और उसे पीकर नाचने लगा कि उसने दूध पी लिया है। इसके जहरीले नतीजे भी सामने आ रहे हैं जिसके अद्यतन उदाहरण के रूप में ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस कांड को देखा जा सकता है। कितने निरपराध लोग इस कांड में मारे गये? कमाल की बात है कि आज भी माओवादी नेतृत्व, ममता बनर्जी के तर्ज पर सीबीआई जांच की मांग कर रहा है, जब कि सीबीआई जांच कर निष्कर्ष निकाल चुकी है।
सम्पूर्ण विश्व में बड़े-बड़े परिवर्तन हो रहे हैं। अरब देशों में तानाशाही के खिलाफ उभार, समाजशास्त्रियों के सारे आकलनों को झुठला रहे हैं। माओवादी तरीकों से चलते हुए ऐसे उभार को अंजाम देना नामुमकिन था। लातिन अमेरिकी देशों में साम्राज्यवाद-विरोधी सरकारें सत्ता में आ रही हैं, आम चुनाव के रास्ते। फौज इन सरकारों की सहायता कर रही है। खास अमेरिका के पिछवाड़े में ऐसी घटनाएं बहुत कुछ कहती है, पर क्या माओवादी सुनने को तैयार हैं? नही! दन्तेवाड़ा में बैठकर वे स्वप्नजाल बुनते ही रहेंगे – छद्म मानवाधिकारवादी उनके पक्ष में तर्क गढ़ते ही रहेंगे – जब तक उनके बचे-खुचे सैनिक भी संयुक्त सुरक्षा बलों के हमले से ढेर न हो जायें।
दुनिया भर में चुनाव कराकर सरकार बनवाने और उसे सत्ता सौंपने की मांग जोर पकड़ती जा रही है। जहां ऐसी सरकारें बन चुकी हैं, वहां इन सरकारों को हथियार बनाकर जनता निहित स्वार्थों पर हमला तेज कर रही है। माक्र्सवाद-लेनिनवाद के नये-नये क्षितिज उभर रहे हैं और अन्ततया यह प्रमाणित हो रहा है कि माक्र्सवाद-लेनिनवाद कोई वेद नहीं है जिसे पुश्त दर पुश्त रट कर किसी भी मौके पर निकाल दिया जा सके, सन्दर्भ चाहे कुछ भी हो। माओ विचारधारा भी कोई वेद नहीं है – जो अजर-अमर हो!
क्रांति के सन्दर्भ में माओ के बाद सर्वाधिक लोकप्रिय नाम ‘चे गेवारा’ का है। हाल के दिनों टयुनिशिया में चे की तस्वीर छाती से चिपकाए प्रदर्शनकारी सरकारी पुलिस से टकरा रहे थे, टी.वी. पर मैंने देखा। बहुत ही कम दिनों तक जीवित रहे चे गेवारा। लेकिन उतनी ही आयु काफी थी लातिन अमरिकी जनता को क्रांतिकारी दर्शन से रू-ब-रू कराने के लिए। चे ने क्यूबा में सफल क्रांति का नेतृत्व किया, फिर विश्व को अपना देश मानते हुए निकल पड़े। देश-विदेश में जुझारू साम्राज्यवाद-विरोध को मूत्र्तरूप देने के लिए। आज सम्पूर्ण विश्व में चे की छवि अतिमानवीय बन चुकी है। गुरिल्ला युद्ध के सिद्धान्तकार के रूप में उनकी ख्याति माओ से कोई कम नहीं है।
लेकिन चे ने भी कई हिदायतें दी थी। उनकी हिदायतें लिखित रूप में उपलब्ध है-उनकी पुस्तक ‘गुरिल्ला वारफेयर’ की भूमिका में। चे गेवारा की तस्वीर टी-शर्टों पर दिखती, पोस्टरों पर भी दिखती है, लेकिन शायद ही चे की हिदायतों पर किसी ने गौर किया हो। चे लिखते हैं-‘‘किसी किस्म के आम चुनाव के जरिये अगर कोई सरकार सत्ता में आती है (भले ही वह चुनाव साफ-सुथरा हो या फर्जी) और अगर वह सरकार संवैधानिक वैधता की ढोंग भी बनाए रखती है, तब गुरिल्ला उभार को अंजाम देना अनुचित है, चूंकि शांतिपूर्ण संघर्ष की संभावना समाप्त हो चुकी है – ऐसा मान लेना नामुमकिन है।’’
चे की यह उक्ति छद्म क्रान्तिकारियों के चेहरे पर चांटे समान है – वे जो मौके बे मौके तथाकथित ‘गुरिल्ला संघर्ष’ को अंजाम दे बैठते हैं और अपनी विफलता के लिए संसदीय वामपंथियों को जिम्मेदार ठहराते हैं। संसदीय वामपंथी, माओवादियों की उम्मीद के विपरीत अपने जनाधार को अब तक बचाए हुए हैं। तमाम क्रांतिकारी लफ्फाजी के विपरीत यह माओवादियों का जनाधार है जो टूट रहा है। आत्मसमर्पण वे कर रहे हैं, अपनी पार्टी को छोड़कर अन्य पार्टियों मे वे शामिल हो रहे हैं और उनका नेतृत्व संसदीय वामपंथियों को गालियां दे रहा है। काश, वे अपने गिरेबान में झांकते, और इस सत्य को स्वीकार कर लेते कि उन्होंने कुछ भी नहीं पढ़ा है – माक्र्स को नहीं, लेनिन को नहीं – माओ को भी नहीं। अगर पढ़े होतें तो वाम मार्गी तांत्रिकों की तरह शव-साधना नहीं करते, जीवन-साधना करते।
क्रांति पुष्प जीवन वृक्ष की टहनियों पर खिलते हैं। मृत्युवृक्ष पर प्रतिक्रांति उगती है जो देखने में भले पुष्प जैसी हो, पर जहरीली।

sombirnaamdev
21-01-2012, 09:19 PM
पुस्तक प्रेमी अक्सर इस बात की चर्चा करते है कि किस प्रकार कोई किताब उनके जीवन में परिवर्तन लाने वाली सिद्ध हो जाती है। किताबें पाठकों के सामने एक नई दुनिया खोल देती है और इसी के साथ वे मस्तिष्क की सोचने-विचारने व कल्पनाशक्ति की वृद्धि में सहायक सिद्ध होती है।
पत्रकार विजेता शंकर राव कहती है, ''पढ़ने से बुद्धिमत्ता में वृद्धि होती है। किताबें आपको अधिक ज्ञानी तथा आत्मविश्वास से परिपूर्ण बनाती हैं।'' उन्हीं की तरह एक दूसरी पुस्तक प्रेमी महिला नंदिनी श्रीनिवास की स्वीकारोक्ति है, ''मैं पढ़ना पसंद करती हूं और मैंने घर पर एक छोटा सा पुस्तकालय बना रखा है। मेरे लिए अध्ययन सांस लेने जितना महत्वपूर्ण है।'' यह सत्य है कि अध्ययन आपकी दुनियादारी का दायरा बढ़ाता है। यह जीवन को नई दृष्टि से देखने के अवसर प्रदान करता है और आपके मस्तिष्क को कल्पना के नये आयामों तक ले जाता है।
[कैसे चुनें किताबें]
अध्ययन का अर्थ यह नहीं है कि कुछ भी पढ़ डाला जाए। यह मस्तिष्क के लिए आहार के समान होता है, इसीलिए इसे भी शारीरिक आहार की तरह गुणवत्तापूर्ण होना चाहिए। ऐसी पुस्तकों का चयन करे, जो आपके जीवन को प्रभावित करने की क्षमता रखती हों अथवा कम से कम इनसे आपको कुछ सीखने को मिले। अगर आप पुराने साहित्य में रुचि रखती है, तो शुरुआत के लिए मुंशी प्रेमचंद अथवा इंग्लिश में जेन ऑस्टन श्रेष्ठ सिद्ध हो सकते है। यदि आपकी रुचि कविता में है, तो प्रेमपूर्ण कविताएं इस दिशा में अच्छी शुरुआत होंगी। यदि आपकी रुचि समकालीन साहित्य में है, तब तो आपके सामने बहुत सारे विकल्प है। नजदीकी पुस्तक विक्रेता के पास आप हिंदी साहित्य से जुड़ी पत्रिकाओं से लेकर समकालीन साहित्यकारों की रचनाओं का विशाल संग्रह प्राप्त कर सकती है।
यदि आप पुस्तकों के संदर्भ में कुछ सुझाव प्राप्त करना चाहती है, तो नजदीकी पुस्तकालय में जाइए। अधिसंख्य पुस्तकालयों में पाठकों की पसंद तथा पुस्तकालयाध्यक्ष द्वारा संस्तुत की गई बेहतरीन पुस्तकों की सूची प्रदर्शित की जाती है। पुस्तकालय कर्मचारियों को इस बात का बखूबी अंदाज होता है कि कौन सी पुस्तकें अधिक लोकप्रिय है और किस वजह से? पुरस्कृत पुस्तकें आपको स्वत: ही अपनी ओर आकर्षित करती है। इसी के साथ ही विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित पुस्तक चर्चा स्तंभ भी आपकी सहायता कर सकते है। इनमें प्रकाशित पुस्तक की संक्षिप्त झलक आपको इस बात का अंदाजा दे देती है कि पुस्तक का स्तर क्या है?
किताबों के संसार में हर एक व्यक्ति की रुचि के अनुसार सामग्री उपस्थित है। यदि आप गंभीर साहित्यिक लेखन पढ़ने में रुचि नहीं रखती है तो यात्रा, पोषण, आत्मविकास, प्रेमकथाएं अथवा आध्यात्मिकता से संबंधित पुस्तकों को चुन सकती है। कुल मिलाकर बात यह है कि ऐसी पुस्तकों को चुनें, जिनसे आपको संतुष्टि का आभास हो और वे आपकी अंतदर्ृष्टि को विकसित करने में सहायक सिद्ध हों। कई प्रतिष्ठित पुस्तक प्रकाशक अपनी पुस्तकों का सूची पत्र तैयार करते है। यदि आप किसी पुस्तक विक्रेता की दुकान पर अपना नाम दर्ज करवा दें, तो यह सूची पत्र डाक द्वारा आपके पते पर भेज दिये जाते है। इसकी सहायता से आप अपने मन की पुस्तकों का चयन कर सकती है।
[अध्ययन के लाभ]
यह सर्वसिद्ध तथ्य है कि अध्ययन आपकी भावनात्मक बुद्धिमत्ता में सुनिश्चित तौर पर वृद्धि करता है। हार्वर्ड विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिक डैनियल गोलमैन के अनुसार भावनात्मक बुद्धिमत्ता पांच गुणों जागरूकता, भावनाओं पर नियंत्रण, आत्मप्रेरण, समानुभूति तथा लोकव्यवहार का सम्मिश्रण है। पुस्तकें हमें विभिन्न किस्म के लोगों, व्यवहारों तथा अनुभवों से परिचित कराती है, जो वास्तविक जीवन से उत्पन्न होते है। पुस्तकें इस बात में हमारी सहायता करती है कि दूसरे किस प्रकार सोचते है? किसी उपन्यास में पात्रों की मनोदशा का विश्लेषण करते हुए पाठक दूसरों की भावनाओं से परिचित होने लगता है और कभी-कभी तो इनमें उसे अपना प्रतिबिंब दिखाई देने लगता है। इस प्रक्रिया से भावनात्मक बुद्धिमत्ता में वृद्धि होती है।
एक युवा मां दीप्ति राजपुरिया का कहना है, ''प्रत्येक अभिभावक को पुस्तकें पढ़ने की आदत डालनी चाहिए। मेरे बच्चों ने छोटी उम्र से ही पुस्तकों को पलटना शुरू कर दिया था, क्योंकि वे ऐसा करके अपनी मां जैसा दिखना चाहते थे। लगभग प्रत्येक शाम को मैं टेलीविजन देखने की जगह कोई अच्छी पुस्तक पढ़ना पसंद करती हूं। मेरे बच्चों ने भी मुझसे यह आदत सीख ली है। मेरा मानना है कि अभिभावकों को बच्चों के सामने खुद को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करना होता है जिससे वे अच्छी आदतें सीख सकें।''
नई दिल्ली के एक स्कूल में हेड लाइब्रेरियन के रूप में कार्यरत मिताली बाजपेयी का कहना है, ''मेरा मानना है कि अध्ययन आपके सामने नए अवसर और विचारों को प्रस्तुत करता है। यह न केवल आपको दूसरों की भावनाओं को समझने का अवसर देता है, बल्कि कई बार आपकी उग्र अथवा उपेक्षित भावनात्मक स्थिति को भी शांत करता है। इस दुनिया में कई महान पुरुष और स्त्रियां हुए है और यह दुर्लभ सी बात है कि आप इन सभी से मिल सकें। हां, पुस्तकें इस बात का रास्ता खोलती है कि आप इन महान विचारकों से परिचित हो सकें और उनसे कुछ सीख सकें। यदि आप पुस्तकों से दूरी रखती है तो निश्चित मानिए ज्ञान आपसे दूरी बना लेगा।''
यह वास्तविकता है कि तकनीक के दौर में लोगों की पुस्तकों से दूरी बढ़ गई है। सेलफोन, केबल टी.वी. और इंटरनेट ने हमें कुंद बुद्धि और मशीनों पर निर्भर इंसान बना दिया है। हर समय चलती-फिरती तस्वीरों के कारण इंसान की कल्पनाशीलता समाप्त होती जा रही है। इसके विपरीत जब आप कोई पुस्तक पढ़ती है, तब आपका दिमाग तेजी से काम करने लगता है। नई-नई कल्पनाएं जन्म लेती है, तार्किक क्षमता बढ़ती है और आप तथ्यों को अपनी स्वतंत्र कसौटी पर कस पाती है। मनुष्य को दूसरे पशुओं से बेहतर इसीलिए माना गया था, क्योंकि वह मस्तिष्क का ऊपर बताए गए तरीकों से प्रयोग कर सकता था। क्या 21 वीं शताब्दी में मनुष्य का मस्तिष्क मशीनों का गुलाम हो जाएगा अथवा उसकी कल्पनाशीलता और बढ़ेगी, इस प्रश्न का उत्तर केवल इस बात में छिपा है कि इस आलेख को पढ़ने के बाद आपका हाथ रिमोट उठाने के लिए बढ़ता है अथवा किसी अच्छी किताब को उठाने के लिए

sombirnaamdev
05-02-2012, 01:12 PM
गूगल ने सोमवार से इलेक्ट्रॉनिक बुक स्टोर की दुनिया में कदम रखते हुए अमेजन को जोरदार टक्कर दी। गूगल पर पढ़ी जा सकने वाली मुफ्त किताबों के कारण भी विवाद हुआ। लेकिन गूगल का कहना है कि इससे ज्यादा लोग किताबें पढ़ सकेंगे।

गूगल की प्रवक्ता जेनी होर्नुंग का कहना है, हमें विश्वास है कि यह दुनिया का सबसे बड़ा ई-बुक पुस्तकालय होगा। मुफ्त पढ़ी जा सकने वाली किताबों को मिला कर इनकी कुल संख्या तीस लाख से ज्यादा है।

मैकमिलन, रैन्डम हाउस, साइमन एंड शूस्टर जैसे मशहूर प्रकाशकों की हजारों डिजिटल किताबें ई-बुक स्टोर में बेची जाएँगी। गूगल का कहना है कि अगले साल वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विस्तार करेगा।

गूगल ई-बुक्स इंटरनेट क्लाउड पर ऑनलाइन रखी जाएँगी और वेब से जुड़े किसी भी कंप्यूटटर या फिर एप्पल के आईफोन, आईपैड, आई पॉड टच और ऐसे स्मार्ट फोन्स जिस पर गूगल के एन्ड्रॉइड सॉफ्टवेयर हो, उन पर पढ़ी जा सकेंगी।

ई-बुक्स पर बेची गई किताबें सोनी रीडर, बार्नेस और नोबल के नूक सहित दूसरे ई-रीडर पर पढ़ी जा सकेंगी लेकिन अमेजन के किंडल पर नहीं।

गूगल का मानना है कि अधिकतर लोग लॉग इन करके किताबें ऑनलाइन पढ़ना पसंद करेंगे और इसके लिए वे जो भी गेजेट आसानी से उपलब्ध होगा उसका इस्तेमाल करेंगे। ठीक उसी तरह से जैसे वह वेब पर जी-मेल अकाउंट चेक करते हैं।

हॉर्नुंग का कहना है, आप एक किसी भी किताब को क्लाउड की एक लायब्रेरी में जमा कर के रख सकेंगे और गूगल अकांउट के जरिए कहीं से भी उस किताब को पढ़ सकेंगे।

गूगल बुक्स के इंजीनियरिंग डायरेक्टर जेम्स क्रॉफर्ड का कहना है, मुझे विश्वास है कि आने वाले सालों में हम किसी भी बुक स्टोर से सिर्फ ई-बुक्स ही खरीदेंगे, उन्हें वर्चुअल रैक में रखेंगे और किसी भी डिवाइस पर उसे पढ़ेंगे। अभी उस सपने की शुरुआत है।

स्वतंत्र बुक स्टोर पॉवेल, ऑनलाइन बुक शॉप एलिब्रिस और अमेरिकी पुस्तक विक्रेता संघ गूगल के लॉन्चिंग डे पार्टनर्स हैं जो गूगल की डिजिटल किताबें बेचेंगे।

ई-बुक स्टोर न्यूयॉर्क (http://analytics.webdunia.com/tracklinks.php?linkid=126) टाइम्स के बेस्ट सेलर उपन्यासों से लेकर तकनीकी पुस्तकों तक सब कुछ उपलब्ध हो सकेगा और इसके वर्चुअल पन्नों पर ग्रॉफिक्स भी आसानी से देखे जा सकेंगे।

जहाँ तक कीमतों का सवाल है, ई-बुक्स स्टोर की किताबें बाजार के हिसाब से होंगी जबकि कई फ्री किताबें पहले ही गूगल पर उपलब्ध हैं। गूगल पुस्तक प्रेमियों की सोशल वेबसाइट गुड रीड्स के साथ हाथ मिलाएगा ताकि ऐसा नेटवर्क बने जहाँ लोग आसानी से ऑनलाइन ई-बुक्स खरीद सकें।

होर्नुंग ने बताया कि विचार कुछ ऐसा है कि आप अपनी पसंद के विक्रेता से पुस्तक खरीदें और आपके पास जो डिवाइस मौजूद है उस पर उसे जहाँ चाहे वहाँ पढ़ें। गूगल के साथ फिलहाल चार हजार प्रकाशक हैं।

2004 में गूगल बुक्स प्रजेक्ट शुरू होने के बाद से गूगल ने सौ देशों से, चार सौ भाषाओं में करीब डेढ़ करोड़ किताबें डिजिलाइस की हैं। हालाँकि इस पर विवाद भी हुआ और अमेरिकी कोर्ट का फैसला अभी इस मुद्दे पर आना है। लेखकों और प्रकाशकों ने गूगल के किताबें डिजिटलाइज करने पर आपत्ति उठाई थी।

जिन किताबों का कॉपीराइट है या फिर जिनके लेखकों का कोई अता पता नहीं है ऐसी किताबें ई-बुक स्टोर पर नहीं बेची जाएँगी। उम्मीद की जा रही है कि इस साल अमेरिका में ई-बुक्स पर 96.6 करोड़ डॉलर खर्च किए जाएँगे और 2015 तक ये बढ़कर 2.81 अरब डॉलर हो जाएगा।

एक शोध के मुताबिक अमेरिका में ई-बुक डिवास का इस्तेमाल करने वाले लोगों की संख्या इस साल के आखिर तक एक करोड़ से ज्यादा हो जाएगी। और 2015 तक 2 करोड़ 94 लाख अनुमानित है। फॉरेस्टर सर्वे के मुताबिक ई-बुक पढ़ने वाले लोगों में 35 फीसदी लोग लैपटॉप पर किताब पढ़ते हैं, 32 फीसदी अमेजन के किंडल पर और 15 फीसदी लोग एप्पल के आई फोन पर पढ़ते हैं।

sombirnaamdev
05-02-2012, 01:13 PM
मेरा ऐसा मानना है कि शिक्षा अकेली ऐसी चीज है, जो किसी की प्रकृति को बदल सकती है। चाहे फिर वो किताबों से मिले या किसी की निजी जिंदगी से।
विचारों की उड़ान हो या कल्पनाशीलता की भव्यता, जाति और धर्म को लेकर समझ को बनाने में इन किताबों ने खासा महत्वपूर्ण योगदान दिया। इन किताबों से चीजों को देखने का नजरिया बदला है।

sombirnaamdev
05-02-2012, 01:14 PM
अब तक कहा जाता था किताबें ही सब कुछ हैं। वे ही हमारी सच्ची मित्र होती हैं। पर हम ही उसे अब झ़ुठला रहे हैं। बदलते जीवन और बदलते मूल्यों के साथ यह किताबें हमसे दूर होती जा रही हैं। आज बड़े से बड़े महाकाव्य एक सीडी में समाने लगे हैं। सीडी की छोड़ो, अब तो उसे हम एक छोटी सी पेनड्राइव में भी कैद कर सकते हैं। फिर चाहे उसे हम पढ़ें या न पढ़ें। वे हमारी कैद में रहेंगी। पहले किताबों को दीमक से डर था, पर इसे अब वाइरस का डर है। पहले किताबों को कहीं ले जाना बहुत कठिन काम था, लेकिन अब तो यह काम बहुत ही आसान हो गया है। पहले किताबें प्राप्त करने के लिए काफी जद्दोजहद करनी पड़ती थी। अपनी मनचाही किताबों के लिए लोग भटकते रहते थे। काफी मुश्किलों से प्राप्त किताबों को पढ़ने में भी आनंद आता था। आज सहजता से दुर्लभ किताबें भी मिल जाती हैं तो भी पढ़ने में आनंद नहीं आता। पहले किताबें जो कहती थीं, हमें आसानी से समझ में आता था, लेकिन अब नहीं आता। आसानी से उपलब्ध होकर, करीब आकर बहुत दूर होने लगी हैं, किताबें हमसे। बहुत ही करीब से वह हमें कुछ कहती हैं, पर हम उसे सुन नहीं पाते। पहले आलमारियों में सजकर गर्व का अनुभव करती थीं किताबें, अब सीडी में कैद होकर छटपटा रही हैं किताबें। खोने लगा है किताबों का अनूठा संसार। वे किताबें अब भी कुछ कहना तो चाहती हैं, पर उसकी भाषा समझने का साम*र्थ्य हममें नहीं है।

नई पीढ़ी के लिए तो अजूबा ही हैं किताबें। बस्ते का बोझ अब किताबों से नहीं, बल्कि कॉपियों से बढ़ने लगा है। पहले लोग किताबें पढ़कर गर्वोन्मत्त होते थे, अब किताबें लिखकर गर्व का अनुभव करते हैं। हमारे आसपास बिखरी हैं किताबें। नई किताबें, पुरानी किताबें। अच्छी किताबें, बुरी किताबें। बड़ों की किताबें, बच्चों की किताबें। किताबों का साम्राज्य है और किताबों का शासन है। किताबें ही प्रजा हैं, किताबें ही राजा हैं, किताबों की सड़क है और किताबों की ही इमारत है। ओह कितना सुखद स्वप्न है यह, या फिर महज एक कोरी कल्पना। आज के नेट युग में किताबों का ऐसा संसार कहां? किताबें तो अब किताबों की बातें बन चुकी हैं। हमारे पास इतना समय ही कहां कि इस नेट की दुनिया से बाहर आएं और किताबों के पन्ने पलटें। हम तो रच-बस गए हैं नेट के मायाजाल में। फंस गए हैं जानकारियों के ऐसे चक्रव्यूह में जहां से बाहर निकलना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है। सबकी खबर है हमें केवल स्वयं को, अपने लोगों की छोड़कर। आओ किताबों की इस खत्म होती दुनिया में मन की किताब खोलें और उस किताब में एक नाम जोड़ें विश्वास का, आत्म अनुशासन का, आत्म सम्मान का और स्वाभिमान का।


आइए शुरुआत करें और प्रयास करें मन की एक नई किताब लिखने का। आज की पीढ़ी का मानो किताबों से नाता ही टूट गाया। हर बात के लिए उनके पास गूगल बाबा हैं ना! एक यही बाबा हैं जो हमें हर जगह हमेशा ले जाने को तैयार हैं। इसके बिना तो आज किसी भी ज्ञान की परिकल्पना ही नहीं की जा सकती। यह है तो कमी क्या है! आज युवाओं के हाथों में किताबें तो हैं पर उसे वे ऐसे देखते हैं मानो कोई अजूबा हो। छोटे-छोटे नोट्स से ही उनका काम चल जाता है। अच्छा भी है शायद। अब किसी पोथी से उनका वास्ता ही नहीं पड़ता। पोथी देखकर वे बिदकने लगेंगे। हमारे पास ज्ञान के लिए गूगल बाबा हैं, यह सच है। पर इनके दिए ज्ञान को हम कब तक अपने दिमाग में रखते हैं? गूगल बाबा के ज्ञान से केवल परीक्षा ही दी जा सकती है। पर हमारे पूर्वजों ने जो ज्ञान दिया है, वह तो जीवन की परीक्षा में पास होने के लिए दिया है। जीवन की चुनौतियों का सामना करने के लिए दिया है। आज उनके दिए ज्ञान का उपयोग कम से कम हो पा रहा है।


शोध बताते हैं कि गूगल बाबा की शरण में रहने वालों की स्मृति कमजोर होने लगी है। आखिर कहां जाएंगे कमजोर याददाश्त लेकर हम सभी? सब कुछ है गूगल बाबा के पास। पर शायद नहीं हैतो मां का ममत्व, पिता का दुलार, बहन का अपनापा या फिर प्रेमी या प्रेयसी का प्यार। हम जब मुसीबत में होते हैं, तब चाहकर भी गूगल बाबा हमारे सर पर हाथ नहीं फेर सकते। हमारे आंसू नहीं पोंछ सकते। हमें सांत्वना नहीं दे सकते। बाबा हमें ज्ञानी तो बना सकते हैं पर एक प्यारा सा बेटा, समझदार भाई, प्यारे से पापा, अच्छा पति नहीं बना सकते। इसलिए कहता हूं बाबा को घर के आंगन तक तो ले आओ, पर घर के अंदर घुसने न दो। अगर ये घर पर आ गए तो समझो, हम सब अपनों से दूर हो जाएंगे। हम गैरों से घिर जाएंगे। यहां सब कुछ तो होगा, पर कोई अपना न होगा। कैसे रहोगे फिर उस घर में? किताबों से दोस्ती करो, क्योंकि ये हमारी सबसे अच्छी दोस्त हैं। किसी भी तरह के सुख-दु:ख में यही हमारे काम आएंगी। जब ये हमसे बातें करेंगी तो हमें ऐसा लगेगा, जैसे मां हमें दुलार रही है। पिता प्यार से सर पर हाथ फेर रहे हैं। बहना और दीदी हमसे चुहल कर रहीं हैं। इससे अपनापे और प्यार का समुद्र लहराने लगेगा। किताबें हमसे कुछ कहने के लिए आतुर हंै। वह दिन बहुत ही यादगार होगा, जब यही किताबें आपसे ज्ञान प्राप्त करेंगी। हम सब गर्व से कह उठेंगे कि किताबों जैसा कोई नहीं। तो हो जाओ तैयार पढ़ने के लिए एक किताब प्यारी सी।

sombirnaamdev
05-02-2012, 01:16 PM
भास्कर ब्लॉग. . पाकिस्तान के अजीम और नफासत से भरे शायर अहमद फराज की एक गजल है। मुखड़ा यूं है कि ‘अब के बिछड़े हम शायद ख्वाबों में मिले, जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिले’, इस गजल को प्रसिद्ध गजल गायक मेहंदी हसन ने अपनी रेशमी, मखमली आवाज में गाकर दिल के जख्मों को आवाज दे दी है। कहते हैं कि कइयों को मेहंदी हसन की आवाज और उसमें भी अहमद फराज की गजलों को सुने बिना नींद ही नहीं आती थी।

दरअसल यह गजल उस गुजिश्ता जमाने की यादगार गजल है, जब फूल खिलते थे और हाथों में किताबें होती थीं। किताबों के सफे पलटे जाते थे। यह किताबों और नोट्स बनाने का जमाना था। किताब का कोई पेज या हिस्सा अच्छा लगता तो उसमें एक फूल दबाकर रख दिया जाता था। ये सूखे फूल एक पूरी क्रमिक यादगारों का हिस्सा होते थे।

कभी नोट्स एक्सचेंज के बहाने या किताब के लेन-देन पर वह फूल वाला हिस्सा खुल जाता तो इसके मायने समझने में देर नहीं लगती थी। पर यह तब इतना आसान भी नहीं होता था। खुदा का कहर कि जब तक मोहब्बत का इजहार करना होता कि बिछुड़ने के कई बहाने बन जाते।

माशूका के निकाह की खबर मिलती या उनके अब्बू की बदली दूसरे शहर में हो जाती। रह जाते तो वे सूखे फूल, जो किताबों में एक यादगार बनकर बस जाते थे। मोहब्बत तो मोहब्बत होती है। जब तक रहती है बहुत शिद्दत से मन पर छाई रहती है फिर तो सूखे फूलों का ही सहारा होता।

उस जमाने में रंग-बिरंगे फूल बहुत होते थे। छोटा-सा घर हो या बड़ा, हरी घास का एक टुकड़ा घर के आगे होता ही था। उसके चारों ओर क्यारियों में फूल खिले होते थे। एक फूल तोड़ा और उसे सहेजकर किताब या नोट बुक में दबा दिया। जब कभी किताब या नोटबुक के नोट्स की अदला-बदली होती तो वे सूखे फूल उसी खास जगह दबे मिलते, जहां भावनाओं और अनुभूतियों का इजहार करना होता था। किताबों की या नोट्स की अदला-बदली में यह सूखे फूल मोहब्बत का पैगाम होते। इससे बढ़कर या इससे सुंदर कोई और प्यारा-सा पैगाम का माध्यम हो सकता था?

ज्यादातर मोहब्बतें नाकाम रहतीं। जब कभी मौका मिला या समय मिला तो किताबों की रैक को यूं ही खंगाला जाता। तब वह सूखे फूल एक ख्वाब की तरह नजरों से गुजर जाते। पता नहीं कितनी यादें लिए वह जमाना फिल्म की रील की तरह आंखों के सामने एक के बाद एक यादें लिए गुजरता जाता।

अब मोहब्बतें गुम हो गई हैं। एसएमएस और ईमेल का तथा इससे भी आगे बढ़कर फेसबुक का जमाना है। इन्हें जब भेजा जाता है तो इनमें दबे हुए सूखे फूलों की वह भीनी-सी महकती खुशबू नहीं होती। अब फूलों की क्यारियां भी तो नहीं दिखतीं। दूर-दूर तक रंगीनियत से भरे इठलाते-खिलते फूल कहीं दिखलाई नहीं पड़ते।

यहां तक कि वे किताबें भी कहां हैं, जिन्हें दोनों हाथों से थामकर दुपट्टे के नीचे दबाए क्लास रूम में दाखिल हुआ जाता था। आजकल नोटबुक्स के नोट्स की अदला-बदली नहीं होती कि सूखे फूल कोई पैगाम ले आएं या ले जाएं।

कोई जरूरी मसला कहना होता है तो ई-मेल से फॉरवर्ड कर दिया जाता है। अब! इस ई-मेल को कहां तक सेव करके इसमें सूखे फूलों की खुशबू सूंघेंगे?

ख्याल आ रहा है कि अहमद फराज होते तो आज किताबों की इस गैर-मौजूदगी पर क्या गजल कहते? कंप्यूटर पर ई-मेल से या मोबाइल पर भेजे एसएमएस से भेजे मुहब्बत के संदेशों में किन सूखे फूलों से उस अल्हड़ मोहब्बत की याद करते? वाकई हम बिछुड़ गए हैं। मुहब्बतें भी खो गई हैं। फूल भी तो कंप्यूटर या मोबाइल पर खिलकर सूखकर बेशुमार यादों का पिटारा खोल नहीं सकते। कहां हैं वे फूल, कहां हैं? वे किताबें कहां हैं?

sombirnaamdev
11-02-2012, 10:17 PM
कहते हैं, किताबें सच्ची दोस्त होती हैं जो हमें नैतिकता का पाठ पढ़ाती हैं, कल्पना लोक में ले जाती हैं और जीवन की हकीकत से भी रू-ब-रू कराती हैं. अगर ये दोस्त आसानी से सुलभ हो जाएं तो कहना ही क्या. बस ऐसी ही पहल पिछले दिनों झारखंड में भी नजर आई. राज्*यपाल डॉ. सैयद अहमद ने बच्चों के लिए अपने किस्म की पहली मोबाइल लाइब्रेरी को हरी झंडी दिखाई. इस कार्यक्रम के दौरान बच्चों की उमड़ी फौज में सातवीं कक्षा में पढ़ने वाली बेहद पढ़ाकू और हाजिरजवाब प्राची और उसका भाई प्रशांत भी शामिल थे. ये दोनों भाई-बहन काफी परेशान और हैरान दिख रहे थे. और हो भी क्यों न, इतनी सारी किताबें जो वहां थीं. उनके लिए यह तय कर पाना काफी मुश्किल भरा था कि इस चलती-फिरती लाइब्रेरी में से कौन-सी किताब पढ़ें. वह जल्दी-जल्दी बहुत कुछ पढ़ लेना चाहते थे.


और भी... http://aajtak.intoday.in/story.php/content/view/68475/71/299

sombirnaamdev
11-02-2012, 10:18 PM
ऐसी ही पशोपेश में दूसरे बच्चे भी थे. बच्चों को असमंजस में देखकर इस पुस्तकालय को लाने वाले स्थानीय एनजीओ बाल भवन के अध्यक्ष और सिटीजन फाउंडेशन के सचिव गणेश रेड्डी ने उनके कान में कुछ कहा और फिर ये बच्चे कूद-फांदकर तालियां बजाने लगे. यह पूछने पर कि उन्होंने बच्चों से क्या कहा, रेड्डी बताते हैं, ''मैंने उन्हें सिर्फ इतना बताया कि यह बच्चों की चलती-फिरती लाइब्रेरी है. इसमें उनके पढ़ने के लिए किताबें हैं. कार्टून फिल्म देखने के लिए प्रोजेक्टर है. सबसे बड़ी बात यह कि यह लाइब्रेरी उनके मोहल्ले और इलाके में नियमित रूप से दस्तक देगी.''
हालांकि देश के कई अन्य हिस्सों में मोबाइल लाइब्रेरी प्रचलन में है. जैसे कोलकाता के बच्चों की बोई गाड़ी, जिससे बच्चे हर हफ्ते साइकिल पर पुस्तकें रखकर ग्रामीण इलाकों के बच्चों के बीच पहुंचते हैं. पंजाब में ही अप्रवासी भारतीय जसवंत सिंह ने 2005 में चार गांव के लोगों, खासकर बच्चों के लिए मोबाइल लाइब्रेरी शुरू की थी. लेकिन झारखंड के लिए यह बिल्कुल ही नया प्रयोग है.


और भी... http://aajtak.intoday.in/story.php/content/view/68475/71/299

sombirnaamdev
21-03-2012, 11:24 PM
बीसवें अंतरराष्ट्रीय पुस्तक मेले में इस बार अंग्रेजी के मुकाबले हिन्दी किताबों के स्टॉल्स पर ज्यादा भीड़ दिखी और यह भी खबर है कि बिक्री हिन्दी की किताबों की ज्यादा हुई। इधर हिन्दी के पाठकों का स्वरूप भी बदला है। अब हिन्दी के पाठक सिर्फ हिन्दी साहित्य से जुड़े लोग नहीं हैं, बल्कि नौजवान ‘प्रोफेशनल्स’ भी हिन्दी पढ़ने में रुचि लेने लगे हैं। इस बदलाव पर नजर डाल रहे हैं प्रभात रंजन
दिल्ली में चल रहे 20 वें अंतरराष्ट्रीय पुस्तक मेले के बारे में ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ में यह खबर छपी है कि इस दफा हिंदी के पुस्तकों के खरीदार पहले से अधिक आ रहे हैं। उस समाचार में एक और महत्वपूर्ण बात की ओर इशारा किया गया है कि अब हिंदी में पाठक-समाज का विस्तार हो रहा है। पहले हिंदी साहित्य के पाठक आमतौर पर वही माने जाते थे, जिनका हिंदी पढ़ने-पढ़ाने से किसी तरह का नाता होता था, लेकिन अब ‘प्रोफेशनल्स’ की रुचि भी हिंदी साहित्य की तरफ हुई है। हिंदी पट्टी में जो नया युवा वर्ग तैयार हो रहा है, वह मल्टीनेशनल्स में काम करता है, जिसकी क्रय क्षमता अच्छी है। लेख में इस ओर भी ध्यान दिलाया गया है कि अब हिंदी में पुस्तकों का प्रकाशन पहले से अधिक आकर्षक ढंग से होने लगा है। विषय-वैविध्य भले न हुआ हो, लेकिन बात यह है कि लोग अपनी बोली में ‘अपना साहित्य’ पढ़ना चाहते हैं। पिछले 20 वर्षों से मेले में जा रहे इतिहासकार व अंग्रेजी के कला-समीक्षक पाथरे दत्ता ने इस पुस्तक मेले के बारे में यह टिप्पणी की कि इस बार अंग्रेजी प्रकाशकों के हॉल्स में उतनी भीड़ नहीं दिखी, जितनी हिंदी के हॉल्स में। कुल मिला कर, हिंदी पुस्तकों का बाजार बढ़ रहा है, व्यापार बढ़ रहा है। जब से हिंदी में हार्पर कॉलिंस तथा पेंगुइन जैसे कॉरपोरेट प्रकाशकों ने पांव पसारे हैं, मार्केटिंग के नए-नए नुस्खे हिंदी किताबों के बाजार को बढ़ाने के लिए आजमाए जाने लगे हैं। एक नुस्खा अनुवादों को लेकर आजमाया जा रहा है। अभी हाल में पेंगुइन ने नोबेल पुरस्कार प्राप्त लेखक वी. एस. नायपॉल की अनेक प्रसिद्ध पुस्तकों के हिंदी अनुवाद प्रकाशित किए हैं, जिनमें ‘ए हाउस फॉर मिस्टर बिश्वास’, ‘हाफ ए लाइफ’, ‘मिलियन म्यूटिनीज नाऊ’ जैसी प्रसिद्ध पुस्तकें शामिल हैं। पुस्तकें हिंदी में छपी हैं, लेकिन उनके शीर्षक वही रहने दिए गए हैं, जो अंग्रेजी में हैं। यह अटपटा जरूर लग सकता है, लेकिन यह मार्केटिंग की सोची-समङी रणनीति है। हिंदी का आम पाठक भी अंग्रेजी के प्रसिद्ध पुस्तकों के नाम जानता है। हिंदी मीडिया के माध्यम भी अंग्रेजी के लेखकों, उनकी पुस्तकों के बारे में छापते हैं। हिंदी के अखबार, पत्रिकाएं अपने पन्नों पर अंग्रेजी के बेस्टसेलर्स की सूची छापते हैं। मसलन, उनके लिए भी हिंदी के किसी लेखक से बड़ा ‘स्टार राइटर’ चेतन भगत ही है। इसके कारण होता यह है कि हिंदी के किस लेखक को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला या ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला, हिंदी पट्टी के पाठक ठीक से नहीं जान पाते, लेकिन उनको यह पता रहता है कि किस भारतीय या भारतीय मूल के लेखक को नोबेल पुरस्कार मिला या बुकर मिला है, कौन-सी किताबें अंग्रेजी में चर्चित हुईं। कहने का मतलब है कि अंग्रेजी की चर्चित पुस्तकों का एक बना-बनाया बाजार हिंदी में रहता है, अनुवादों के माध्यम से जिनकी पूर्ति होती है। पुस्तक मेले में भी अनूदित पुस्तकों को लेकर रुझान अधिक रहा। चाहे वह वी. एस. नायपॉल की पुस्तकें हों या अंग्रेजी में दस लाख की तादाद में बिकने वाली युवा लेखक रविंदर सिंह की पुस्तक ‘आई टू हैड ए लव स्टोरी’ का हिंदी अनुवाद- ‘एक प्रेम कहानी मेरी भी’। अंग्रेजी की पुस्तकों का मूल नाम से प्रकाशन कोई नया फॉमरूला नहीं है। पहले भी बुकर पुरस्कार मिलने के बाद अरविन्द अडिगा के उपन्यास ‘व्हाइट टाइगर’ का हिंदी अनुवाद एक प्रसिद्ध प्रकाशक ने उसी नाम से छापा था। पेंगुइन ने भी मुंबई के अपराध-जीवन पर लिखे गए विक्रम चंद्रा के उपन्यास ‘द सेक्रेड गेम्स’ का हिंदी अनुवाद मूल नाम से ही प्रकाशित किया था, क्योंकि मोटी एडवांस राशि मिलने के कारण उस पुस्तक की प्रकाशन के पूर्व चर्चा हुई थी। यह अलग बात है कि हिंदी में वह पुस्तक नहीं चली, क्योंकि अंग्रेजी में भी उसकी उत्साहवर्धक समीक्षाएं प्रकाशित नहीं हुई थीं। लब्बोलुबाव यह कि अंग्रेजी में चर्चित-अचर्चित होना हिंदी के पुस्तक-बाजार को प्रभावित करता है। हाल में हिंदी में अनूदित पुस्तकों का वितान भी इसी कारण बदला है। हिंदी के जो परम्परागत तथाकथित ‘बड़े’ प्रकाशक हैं, वे अधिकतर उन पुस्तकों के हिंदी अनुवाद छापते रहे हैं, जो कुछ क्लासिक का दर्जा रखती हों। लेकिन अंतरराष्ट्रीय प्रकाशकों की आमद तथा हिंदी के कुछ प्रकाशकों की पहल के कारण अब हिंदी में यह संभव हो पाया है कि अंग्रेजी में हाल में चर्चित हुई किताबों का हिंदी में प्रकाशन संभव हो सके। यह पहले संभव नहीं था कि एप्पल के संस्थापक कंप्यूटरविद् स्टीव जॉब्स की जीवनी अंग्रेजी में छपने के महज एक महीने के भीतर हिंदी में छप कर आ जाए। कारण यह था कि उस पुस्तक में स्टीव जॉब्स के भारत से आध्यात्मिक लगाव के बारे में विस्तार से लिखा गया है या स्पैनिश भाषा के लेखक मारियो वर्गास लोसा को नोबेल पुरस्कार मिलने के एक महीने के भीतर उनके उपन्यास का हिंदी अनुवाद छप कर आ जाए। हिंदी भाषी इलाके का पाठक विश्व भाषाओं में चर्चित पुस्तकों को पढ़ना चाहता है, लेकिन अपनी भाषा में। अनुवाद का बाजार बढ़ रहा है। नहीं तो जो प्रकाशक मौलिक पुस्तकों के लेखकों को ठीक से रायल्टी नहीं देता, वही प्रकाशक अनुवादकों को सम्मानजनक मानदेय कैसे देता है? यह अलग बात है कि हिंदी पुस्तकों के इस बढ़ते बाजार का फायदा लेखकों तक नहीं पहुंच पा रहा है। हिंदी के अधिकांश प्रकाशक पुस्तकों की बिक्री के ठीक-ठीक आंकड़े नहीं देते। वे अधिकतर सरकारी खरीद पर ही निर्भर बने रहना चाहते हैं। पुस्तक मेलों में बिक्री को लेकर एक हिंदी प्रकाशक ने टिप्पणी की थी कि यह हिंदी के प्रकाशकों के लिए कम्बल ओढ़ कर घी पीने का अवसर होता है। अधिकांश हिंदी प्रकाशक मेलों में पुस्तकों की नगद बिक्री ही करते हैं। खरीदार पाठकों के लिए क्रेडिट कार्ड जैसी सामान्य सुविधा भी कितने प्रकाशकों के पास होती है? पुस्तक बाजारों की बिक्री हिंदी प्रकाशकों के लिए दिखाने का नहीं, छुपाने का अवसर होता है। किताबों की लोकप्रियता, उनकी बिक्री के सही आंकड़े सामने नहीं आ पाते। प्रकाशक इस भ्रम को बनाये रखना चाहते हैं कि हिंदी की किताबें नहीं बिकतीं, कि वे हिंदी में प्रकाशन का व्यवसाय चला कर अपनी राष्ट्रभाषा की बहुत बड़ी सेवा कर रहे हैं, इसलिए सरकार को अधिक से अधिक हिंदी पुस्तकें खरीद कर उनकी मदद करते रहना चाहिए। मेलों-आयोजनों में हिंदी किताबों के प्रति इस बढ़ती रुचि में बड़ी भूमिका, भले ही खामोश तौर पर, मीडिया के नए माध्यमों ब्लॉग, फेसबुक आदि की भी है। मीडिया के इन नए माध्यमों ने हिंदी का एक नया लेखक-वर्ग तैयार किया है, जिसकी वजह से हिंदी का एक नया पाठक वर्ग बन रहा है, जो हिंदी की किताबें खरीद रहा है, पढ़ रहा है। यह वर्ग वह है, जो अंग्रेजी की पुस्तकों के विषय में अच्छी जानकारी रखता है और जैसे ही उस भाषा की किसी चर्चित पुस्तक को हिंदी में देखता है, खरीद लेता है या खरीदने के बारे में सोचता है। यह लेखकों-पाठकों का वह वर्ग है, जो हिंदी की पुस्तकों की अधिक कीमत का रोना नहीं रोता। हिंदी में पुस्तकें पढ़ना, उनके बारे में ब्लॉग, फेसबुक जैसे सोशल मीडिया के माध्यमों पर उनके बारे में चर्चा करने में वे किसी तरह की शर्म महसूस नहीं करता। दुनिया भर में फैला यह ऐसा समुदाय है, जो अपनी भाषा के माध्यम से अपनी जड़ों से जुड़ना चाहता है। भले हिंदी में बाजारवाद का सबसे अधिक विरोध हो रहा हो, लेकिन हिंदी का बाजार बड़ा होता जा रहा है। यह कयास लगाये जाने लगे हैं कि पहले भारत के अंग्रेजी साहित्य का विश्व स्तर पर बाजार बना, देर-सवेर हिंदी पुस्तकों के अंग्रेजी अनुवादों का बाजार भी बनेगा। यह माना जाने लगा है कि अगर भारतीय समाज को सही ढंग से समझना है तो उसमें हिंदी साहित्य ही सबसे मददगार साबित होगा। पता नहीं, फिलहाल तो हिन्दुस्तान में हिंदी का ‘स्पेस’ बढ़ रहा है, जिसमें कोई संदेह नहीं की अनूदित पुस्तकों की बड़ी भूमिका है।