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View Full Version : कुतुबनुमा


Dark Saint Alaick
15-03-2012, 02:07 PM
मित्रो ! आज मैं फोरम पर अपना ब्लॉग शुरू कर रहा हूं ! यह शीर्षक इसलिए कि मैं कभी इसी शीर्षक से एक सायंकालीन अखबार में प्रतिदिन समाज के प्रति अपने सरोकारों का प्रतिदान किया करता था ! मैं प्रयास करूंगा कि समाज में उठ रहे ज्वलंत मुद्दों पर अपने विचारों से आपको प्रतिदिन अवगत कराऊं, कभी समयाभाव के कारण यह संभव नहीं हो पाया, तो मेरा प्रयास रहेगा कि किसी एक दिन दो-तीन मुद्दों को अपनी टिप्पणी में शामिल कर लूं ! धन्यवाद !

Dark Saint Alaick
15-03-2012, 02:13 PM
व्यर्थ है विरोध के लिए 'विरोध'

लोकसभा में बतौर रेल मंत्री पहली बार बजट पेश कर रहे दिनेश त्रिवेदी ने बुधवार को जब कहा कि रेलवे बहुत कठिनाई के दौर से गुजर रही है और उसके कंधे और कमर झुक गई है, तो लगा पिछले आठ बरस में जो रेल बजट पेश हुए, उनमें कहीं न कहीं इस सचाई को वास्तव में छिपाया गया कि दुनिया की सबसे बड़ी परिवहन व्यवस्था भारतीय रेल उस खुशनुमा हालत में नहीं है, जैसी कि बजट में दिखाई जाती रही है, वरना वर्तमान रेल मंत्री को यह नहीं कहना पड़ता कि रेलवे ‘आईसीयू’ में है और अगर यात्री किराए में बढ़ोतरी नहीं की गई, तो हालात काफी खराब हो सकते हैं। रेलवे की परिचालन लागत में लगातार हो रही बढ़ोतरी के अलावा सुरक्षा व खानपान समेत अनेक ऐसे विषय हैं, जहां खर्च निरन्तर बढ़ रहा है। इसी को ध्यान में रखकर रेल मंत्री ने सभी श्रेणियों के रेल यात्री किराए में दो पैसे से 30 पैसे प्रति किलोमीटर वृद्धि करने के साथ रेल टिकट की न्यूनतम दर 4 रूपए से बढ़ाकर 5 रूपए करने की घोषणा की है। अब भले ही विपक्षी दल ‘परम्परा’ के तहत किराए में बढ़ोतरी का विरोध करें या तृणमूल कांग्रेस के ही कोटे से मंत्री बने दिनेश त्रिवेदी की पार्टी की मुखिया भी उन पर किराए में बढ़ोतरी वापस लेने का दबाव बढ़ाएं, लेकिन रेल बजट में जो कुछ सकारात्मक प्रस्ताव किए गए हैं, उनसे परिचालन लागत को कम करने में तो अवश्य मदद मिलेगी; साथ ही रेलवे को अपनी क्षमता बढ़ाने का अवसर भी प्राप्त होगा। इसके अलावा रेल मंत्री रेलवे सुरक्षा को अब भी कमजोर पहलू मानते हुए, उसे यूरोप और जापान जैसी विश्व की आधुनिक रेल प्रणालियों वाली सुरक्षा की कसौटी पर खरा उतारना चाहते हैं । आंकड़े भी कहते हैं कि देश में 40 प्रतिशत से अधिक रेल दुर्घटनाएं बिना चौकीदार वाले फाटकों पर होती हैं अर्थात स्पष्ट है कि यात्री को सुरक्षित रेल सफर चाहिए, रेल में मिलने वाला खाना भी बेहतर होना चाहिए और यात्रा भी आरामदायक चाहिए तो कहीं न कहीं जेब तो ढीली करनी पड़ेगी ही। हालात तो हम देख ही रहे हैं। पिछले आठ बरसों में रेल किराया नहीं बढ़ा, तो उसके बदले सुविधाएं भी कितनी बढ़ी? ज़ाहिर है कि केवल विरोध के लिए विरोध देश के रेल परिवहन की दशा नहीं सुधार सकता।

sombirnaamdev
15-03-2012, 02:29 PM
व्यर्थ है विरोध के लिए 'विरोध'

लोकसभा में बतौर रेल मंत्री पहली बार बजट पेश कर रहे दिनेश त्रिवेदी ने बुधवार को जब कहा कि रेलवे बहुत कठिनाई के दौर से गुजर रही है और उसके कंधे और कमर झुक गई है, तो लगा पिछले आठ बरस में जो रेल बजट पेश हुए, उनमें कहीं न कहीं इस सचाई को वास्तव में छिपाया गया कि दुनिया की सबसे बड़ी परिवहन व्यवस्था भारतीय रेल उस खुशनुमा हालत में नहीं है, जैसी कि बजट में दिखाई जाती रही है, वरना वर्तमान रेल मंत्री को यह नहीं कहना पड़ता कि रेलवे ‘आईसीयू’ में है और अगर यात्री किराए में बढ़ोतरी नहीं की गई, तो हालात काफी खराब हो सकते हैं। रेलवे की परिचालन लागत में लगातार हो रही बढ़ोतरी के अलावा सुरक्षा व खानपान समेत अनेक ऐसे विषय हैं, जहां खर्च निरन्तर बढ़ रहा है। इसी को ध्यान में रखकर रेल मंत्री ने सभी श्रेणियों के रेल यात्री किराए में दो पैसे से 30 पैसे प्रति किलोमीटर वृद्धि करने के साथ रेल टिकट की न्यूनतम दर 4 रूपए से बढ़ाकर 5 रूपए करने की घोषणा की है। अब भले ही विपक्षी दल ‘परम्परा’ के तहत किराए में बढ़ोतरी का विरोध करें या तृणमूल कांग्रेस के ही कोटे से मंत्री बने दिनेश त्रिवेदी की पार्टी की मुखिया भी उन पर किराए में बढ़ोतरी वापस लेने का दबाव बढ़ाएं, लेकिन रेल बजट में जो कुछ सकारात्मक प्रस्ताव किए गए हैं, उनसे परिचालन लागत को कम करने में तो अवश्य मदद मिलेगी; साथ ही रेलवे को अपनी क्षमता बढ़ाने का अवसर भी प्राप्त होगा। इसके अलावा रेल मंत्री रेलवे सुरक्षा को अब भी कमजोर पहलू मानते हुए, उसे यूरोप और जापान जैसी विश्व की आधुनिक रेल प्रणालियों वाली सुरक्षा की कसौटी पर खरा उतारना चाहते हैं । आंकड़े भी कहते हैं कि देश में 40 प्रतिशत से अधिक रेल दुर्घटनाएं बिना चौकीदार वाले फाटकों पर होती हैं अर्थात स्पष्ट है कि यात्री को सुरक्षित रेल सफर चाहिए, रेल में मिलने वाला खाना भी बेहतर होना चाहिए और यात्रा भी आरामदायक चाहिए तो कहीं न कहीं जेब तो ढीली करनी पड़ेगी ही। हालात तो हम देख ही रहे हैं। पिछले आठ बरसों में रेल किराया नहीं बढ़ा, तो उसके बदले सुविधाएं भी कितनी बढ़ी? ज़ाहिर है कि केवल विरोध के लिए विरोध देश के रेल परिवहन की दशा नहीं सुधार सकता।


व्यर्थ है विरोध के लिए 'विरोध' ek dum sahi hai

khalid
15-03-2012, 09:10 PM
भाई जान आप ने बहुत अच्छी तरह से यह मुद्दा उठाया हैँ
लेकिन नतीजा भी वही होगा ढाक के तीन पात
किराया चाहे मर्जी जितना बढा ले ले देकर यात्री होगा बदहाल ही
क्षमा करे यह मेरी अपनी सोच हैँ

Dark Saint Alaick
15-03-2012, 09:39 PM
भाई जान आप ने बहुत अच्छी तरह से यह मुद्दा उठाया हैँ
लेकिन नतीजा भी वही होगा ढाक के तीन पात
किराया चाहे मर्जी जितना बढा ले ले देकर यात्री होगा बदहाल ही
क्षमा करे यह मेरी अपनी सोच हैँ

मित्र, आपकी बात अपनी जगह बिलकुल उचित है, लेकिन एक मंत्री को अपनी सदिच्छा को पूरा करके दिखाने के बजाय इस्तीफा देने को विवश करना मेरे खयाल से उचित नहीं है ! श्री दिनेश त्रिवेदी को एक मौक़ा दिया जाना चाहिए था ! यह विचारणीय है कि झूठे दावे करते हुए आपकी इस जेब में पैसा रख, उस जेब से निकालने वालों के बजाय, सीधी-साफ़ बात करने वाले लोग ज्यादा भरोसेमंद होते हैं और मुझे श्री त्रिवेदी ऐसे ही इंसान लगते हैं, जो अपने दूरदर्शी क़दमों के कारण बलि की भेंट चढ़ा दिए गए ! क्या आपको पता है कि हाल ही डीजल और पेट्रोल की कीमतों में की गई कमी की कीमत आपने कहां चुकाई है ? जिस दिन यह कमी की गई ठीक उसी रात विमानों के लिए ईंधन की दरें बढ़ा दी गई अर्थात भुगतना आपको ही है, क्योंकि बहुत सी ऎसी चीजें विमानों से भी ढोई जाती हैं, जिन्हें हम इस्तेमाल करते हैं ! मेरा मानना है कि यदि श्री त्रिवेदी यह चाहते थे कि 'जर्जर और झुकी कमर वाली' रेल के बजाय एक बेहतर रेल जनता को चाहिए तो उसे मामूली वृद्धि से गुरेज नहीं करना चाहिए, तो यह उचित सोच थी ! आपकी प्रतिक्रया के लिए धन्यवाद !

sombirnaamdev
15-03-2012, 10:04 PM
मित्र, आपकी बात अपनी जगह बिलकुल उचित है, लेकिन एक मंत्री को अपनी सदिच्छा को पूरा करके दिखाने के बजाय इस्तीफा देने को विवश करना मेरे खयाल से उचित नहीं है ! श्री दिनेश त्रिवेदी को एक मौक़ा दिया जाना चाहिए था ! यह विचारणीय है कि झूठे दावे करते हुए आपकी इस जेब में पैसा रख, उस जेब से निकालने वालों के बजाय, सीधी-साफ़ बात करने वाले लोग ज्यादा भरोसेमंद होते हैं और मुझे श्री त्रिवेदी ऐसे ही इंसान लगते हैं, जो अपने दूरदर्शी क़दमों के कारण बलि की भेंट चढ़ा दिए गए ! क्या आपको पता है कि हाल ही डीजल और पेट्रोल की कीमतों में की गई कमी की कीमत आपने कहां चुकाई है ? जिस दिन यह कमी की गई ठीक उसी रात विमानों के लिए ईंधन की दरें बढ़ा दी गई अर्थात भुगतना आपको ही है, क्योंकि बहुत सी ऎसी चीजें विमानों से भी ढोई जाती हैं, जिन्हें हम इस्तेमाल करते हैं ! मेरा मानना है कि यदि श्री त्रिवेदी यह चाहते थे कि 'जर्जर और झुकी कमर वाली' रेल के बजाय एक बेहतर रेल जनता को चाहिए तो उसे मामूली वृद्धि से गुरेज नहीं करना चाहिए, तो यह उचित सोच थी ! आपकी प्रतिक्रया के लिए धन्यवाद !


ठीक कहा है भाई जी अगर गाय को निरंतर दूध निकलते रहे
और खाने को कुछ न दे , तो वो गाय कितने दिन दूध देगी
रेलवे को आज ट्रेन की संख्या बढ़ने की बजाये
उसकी स्पीड बढ़ने की और ध्यान देना होगा
और स्पीड बढ़ने के लिए उसका पटरी वाला ढ़ांच मजबूत करना पड़ेगा
जिसके लिए पैसे की जरूरत होगी वो कहाँ से आएगा

Dark Saint Alaick
17-03-2012, 04:15 AM
अब आप थोड़ी महंगी सिगरेट, थोड़ी सस्ती माचिस से सुलगाएं

मित्रो ! अगर आप मेरा सूत्र 'एकदम ताज़ा ख़बरें' देखते हैं, तो आप सवाल करेंगे कि केन्द्रीय वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी द्वारा प्रस्तुत बजट पर उसमें मैंने बतौर 'प्रतिक्रिया' सिर्फ सरकारी पक्ष प्रस्तुत किया है ! एक भी विपक्षी दल की प्रतिक्रिया नहीं दी ! ऐसा क्यों ? वज़ह सिर्फ यह है कि आप सब जानते हैं कि विपक्ष का काम सिर्फ आलोचना करना है, लेकिन उनकी किसी टिप्पणी में तार्किक बात नहीं होती ! यह बजट जन-विरोधी है, यह ग़रीबों का जीना मुश्किल कर देगा, जनता की कमर करों के बोझ से दोहरी हो गई है और ... इसी प्रकार की टिप्पणियां हम पिछले साठ साल से निरंतर सुन रहे हैं और अब कान पक चुके हैं ! हां, सिर्फ सत्ता पक्ष के विचार प्रस्तुत करने के पीछे मेरा मकसद क्या है, यह मैं स्पष्ट किए देता हूं ! मेरी कामना है कि जिन मतदाताओं ने इन्हें संसद में भेजा है और इस काबिल बनाया है कि यह मंत्री बन कर ऐश करें, वही ... हां, वही जनता इनके विचारों अथवा कहें कि 'अपनी ढफली, अपना राग' से अवगत अवश्य हो, ताकि उसे इनका गला पकड़ने में आसानी हो और वह इनसे साधिकार कह सके, "महाशय, बहुत हुआ ! अब आप नीचे आ जाइए !" आपने यदि गौर से पढ़ा हो, तो एक 'मज़ाक' पर आपकी नज़र अवश्य गई होगी - 'सिगरेट महंगी, माचिस सस्ती !' यानी अब आप थोड़ी महंगी सिगरेट, थोड़ी सस्ती माचिस से सुलगाएं ! यह बजट ऐसे तमाम मजाकों से भरा हुआ है ! लेकिन ज़रा ठहरिए, इस मज़ाक में भी एक गंभीर बात छिपी हुई है, वह यह कि देश का बच्चा-बच्चा जानता है कि आज एक माचिस एक रुपए में आती है ! आप उसकी कीमत कितनी कम करेंगे ? दस-बीस ... पच्चीस पैसे ? अगर कोई वित्त मंत्री से पूछे, "महाशय, ये सारे सिक्के तो आप बंद कर चुके हैं, फिर इस कम कीमत का फायदा जनता को क्या हुआ - उसे तो माचिस अब भी एक रुपए में ही मिलेगी ! इस एक माचिस की न कोई रसीद मिलती है, न किसी उपभोक्ता फोरम में इसकी कोई शिकायत ही की जा सकती है ! ऎसी स्थिति में यह फायदा किसकी जेब में जा रहा है? क्या आप कालेधन पर काबू पाने की घोषणा करते हुए उसे बढ़ाने के लिए कई और खिड़कियां नहीं खोल रहे हैं ? ... तो मेरे विचार से किसी के पास कोई जवाब नहीं है ! अगर आप आंकड़ों पर गौर करेंगे, तो दादा का कौशल अथवा चतुराई, साफ़ आपके समझ आ जाएगी ! वैसे दोष इसमें दादा का भी नहीं है, क्योंकि अब तक लगभग सभी वित्त मंत्री यही करते रहे हैं ! पिछले सालों में पेश हुए तमाम बजट की 'सस्ता यह हुआ' सूची पर नज़र डालें, नज़र तकरीबन ऎसी ही चीजें आएंगी - मच्छरदानी, चिमटा, कपड़ा धोने का साबुन, झाडू, कान कुरेदने वाली सलाई, स्वेटर बुनने वाली सलाई, लालटेन, खुरपी, चम्मच, गमछा ... आदि ! दरअसल ऎसी सामग्री बजट को ग्राम्योंमुखी साबित करने के लिए पूरी तरह मुफीद है ! यह अनुभव कर अफ़सोस होता है कि देश की अधिकांश शहरी जनता तो आज के ग्रामीण भारत से वाकिफ है ही नहीं, देश के लिए योजनाएं बनाने का जिम्मा जिन लोगों ने संभाल रखा है, उन्होंने भी कभी गांव देखा ही नहीं ! इन्हें कौन बताए, कि महाशय जिस वाशिग मशीन, टीवी, कार, एसी और फ्रिज पर आप कर बढ़ा रहे हैं, वह आज ग्रामीण भारत के लिए सामान्य चीजें हैं ! यहां मैं उन गांवों की बात नहीं कर रहा, जहां आपकी 'कृपा' से अब तक बिजली ही नहीं पहुंची है और जो आदिम अवस्था में जीने के कारण किसानों की आत्महत्याओं का अभिशाप झेलने को विवश हैं, लेकिन अब अधिकांश ग्राम्य भारत वह नहीं है, जैसा आप सोचते हैं ! कृपया गांव को देखें ... समझें और फिर उसके लिए बजट बनाएं ! यह कतई न सोचें कि देश की जनता निपट मूर्ख है, 'जैसी पट्टी हम पढ़ाएंगे, पढ़ लेगी' ! यह भूल एक दिन बहुत महंगी साबित होगी, ऐसा मेरा मानना है !

Dark Saint Alaick
19-03-2012, 08:06 PM
प्रधानमंत्री का यह दुखद सच

जब मैं यह खबर पढ़ रहा था कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने संसद में घोषणा की है कि रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी का इस्तीफा मंजूरी के लिए राष्ट्रपति को भेज दिया गया है और नए रेल मंत्री मुकुल राय कल प्रातः दस बजे शपथ ग्रहण करेंगे, तो मेरे मस्तिष्क में सबसे पहले उभरने वाला विचार था - यह भारतीय संसदीय इतिहास का वह दुखद क्षण है जिसने अंततः यह साबित कर दिया कि श्री मनमोहन सिंह देश के इतिहास के अब तक के सबसे असहाय और निर्बल प्रधानमंत्री हैं ! मेरे विचार से आप सभी को याद होगा कि इन्हीं मुकुल राय को इन्हीं प्रधानमंत्री ने कुछ अरसा पहले अपनी अवज्ञा के लिए रेल राज्य मंत्री पद से हटाया था ! जिन्हें स्मरण नहीं है, उनके लिए उल्लेख करता चलूं कि असम में हुई एक रेल दुर्घटना के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने तत्कालीन रेल राज्य मंत्री मुकुल राय को दुर्घटना स्थल जाकर हालात का जायजा लेने के निर्देश दिए थे ! संवेदनहीनता की यह पराकाष्ठा थी कि जहां राय को स्वेच्छा से जाना चाहिए था, वहां वह प्रधानमंत्री के निर्देश के बावजूद नहीं गए ! इससे खफा प्रधानमंत्री ने उनका विभाग बदल दिया था ! अब वही राय तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी के अनुपम हठ के कारण बढ़े हुए दर्जे के साथ रेल मंत्री बनने जा रहे हैं ! यह मेरे विचार से भारतीय इतिहास को कलंकित करने वाली दुर्घटना है ! इससे सिर्फ मनमोहन सिंह का ही व्यक्तित्व उजागर हुआ हो, ऐसा नहीं है; इस घटना ने कवयित्री, दार्शनिक, चिन्तक और जुझारू नेत्री मानी जाने वाली ममता बनर्जी के कुछ आवरण भी हटा दिए हैं ! एक बेहतर लेखक की सबसे बड़ी पहचान एक श्रेष्ठ मनुष्य भी है ! कहा गया है कि श्रेष्ठ लेखक वही हो सकता है, जो एक बेहतर इंसान भी हो और बेहतर इंसान की पहली शर्त संवेदनशीलता है ! कुछ मित्र कह सकते हैं कि इस मामले में तो ममताजी बाजी मार ले गईं, क्योंकि उन्होंने अपनी संवेदनशीलता के कारण ही जनता के लिए यह जंग लड़ी है ! लेकिन यह साफ़ समझा जाना चाहिए कि मामला सिर्फ किराया बढ़ोतरी ही नहीं है, इसके पीछे बहुत कुछ है ! अगर ऐसा ही होता, तो आज ममता बनर्जी के सुर में यह बदलाव नहीं आया होता कि ऊपरी श्रेणी के किराए में वृद्धि मंजूर की जा सकती है, लेकिन निचली श्रेणी के में नहीं ! यही शर्त उन्होंने त्रिवेदी के समक्ष रखी होती और उन्होंने नहीं मानी होती, यह तर्क तभी चल सकता था ! घटनाक्रम स्पष्ट संकेत दे रहा है कि राय पर वे कुछ अतिरिक्त मेहरबान हैं और इसी कारण वे ऐसे ही किसी पल की शिद्दत से प्रतीक्षा कर रही थीं, जिसमें वे मनमोहन सिंह को बता सकें कि संप्रग की यह सरकार उनके रहमो-करम पर है और वे एक कठपुतली से ज्यादा कुछ नहीं हैं ! यदि ऐसा नहीं है, तो सवाल यह है कि मुकुल राय ही क्यों ? क्या अठारह-उन्नीस सांसदों में एकमात्र वे ही इतने योग्य हैं कि उनके लिए बढ़ाए गए किराए में कमी के साथ कुछ समझौता भी मंजूर है !

और अंत में -

किसी मित्र ने मुझे बताया कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के एक जिक्र के रूप में एक एसएमएस संचार जगत में तेज़ी से फ़ैल रहा है, वह कुछ इस प्रकार है !

नरेंद्र मोदी ने कहा कि मुझे एक एसएमएस मिला, जिसमें कहा गया था कि मनमोहन सिंह को ऑस्कर अवार्ड मिला है ! मैंने भेजने वाले से पलट कर पूछा, भाई मनमोहन सिंह को ऑस्कर कैसे मिला? उन्होंने बताया, "प्रधानमंत्री के रूप का श्रेष्ठ अभिनय करने के लिए !"

arvind
19-03-2012, 08:13 PM
प्रधानमंत्री का यह दुखद सच

जब मैं यह खबर पढ़ रहा था कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने संसद में घोषणा की है कि रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी का इस्तीफा मंजूरी के लिए राष्ट्रपति को भेज दिया गया है.....

.......भाई मनमोहन सिंह को ऑस्कर कैसे मिला? उन्होंने बताया, "प्रधानमंत्री के रूप का श्रेष्ठ अभिनय करने के लिए !"
जो देश की जितनी ज्यादा वाट लगा सकता है, वही सबसे अच्छा राजनीतिज्ञ है।

khalid
19-03-2012, 08:21 PM
जो देश की जितनी ज्यादा वाट लगा सकता है, वही सबसे अच्छा राजनीतिज्ञ है।

बिल्कुल सत्य हैँ
राज +निती
राज करना हो तो निती से करो

Dark Saint Alaick
29-03-2012, 09:49 AM
दोस्तो, भारत में एक तिब्बती कार्यकर्ता जामयांग येशी ने आत्मदाह किया ! दुनिया में यह पहला नहीं है, खुद चीन में तकरीबन चालीस बौद्ध भिक्षु यह कदम उठा कर मौत का साक्षात्कार कर चुके हैं, लेकिन ज़रा-ज़रा सी बात पर खाड़ी देशों का रुख करने वाले पश्चिम के कानों पर जूं नहीं रेंग रही ! इस स्थिति की व्यथा मेरे इन शब्दों में प्रकट हुई है ! यद्यपि अभी मैं इस अभिव्यक्ति को अधूरा पाता हूं, तथापि यहां आपके लिए प्रस्तुत है !


वे क्यों आएं तिब्बत


उन्हें जरूरत नहीं धवल उत्तुंग पर्वत चोटियों की
उन्हें भाती हैं बुर्ज-खलीफा सी अट्टालिकाएं

उन्हें नहीं चाहिए पहाड़ों के सीने चीर
बह रहा खनिज युक्त शुद्ध जल
उनके पास हैं तमाम शुद्धि-यंत्र
और प्रयोगशालाएं

उन्हें पसंद नहीं पहाड़ से तने सीने
और वज्र से कठोर अंग
उन्हें मिस तिब्बत से नहीं बिकवानी
बालों को रंगने वाली क्रीम

उन्हें गवारा नहीं
तुम्हारी बर्फ सी आंखों में बसे
सच के स्वप्न
उन्हें बेचना है हॉलीवुड का रंगीन झूठ

बोलो, तुम क्या खरीद सकते हो
विमान का क्या करोगे तुम
तोप छोड़ो, अखबार तो निकाल नहीं सकते तुम
तुम्हारा धर्म अहिंसक है, बन्दूक का क्या करोगे तुम
यह सब बेकार है तुम्हारे लिए

ओ भोले तिब्बतियो
आत्मदाह में नष्ट न करो
वह अमूल्य तेल जो चाहिए उन्हें
जिसके लिए आते हैं वे इराक़, मिस्र, सीरिया, ईरान ...

बताओ तो, वे क्यों आएं यहां
यहां नहीं है कोई तानाशाह
यहां है एक खौफनाक ड्रैगन
जो रातों को भी डराता है उन्हें !

Dark Saint Alaick
31-03-2012, 12:01 AM
विरोध का मतलब हिंसा तो नहीं

पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की 31 अगस्त 1995 को दिन-दहाड़े हत्या के मामले में मौत की सजा का सामना कर रहे बलवंतसिंह राजोआना पर दया करने के लिए पंजाब की मौजूदा सरकार ने जिस तरह का अभियान छेड़ा उसकी उच्चतम न्यायालय द्वारा की गई कड़ी निंदा ने यह तो साबित कर ही दिया है कि अपने राजनीतिक हित के लिए सत्तारूढ़ सरकार ने राज्य के हितों को ही मानो तिलांजली दे दी थी। यह तो अच्छा रहा कि केन्द्र सरकार ने समय रहते पंजाब में बिगड़ती कानून व्यवस्था की दशा को देखते हुए राजोआना की फांसी पर रोक लगा दी, वरना पंजाब में हिंसा और भी उग्र रूप धारण कर सकती थी, जिसे संभालना राज्य सरकार के लिए बेहद मुश्किल हो जाता क्योंकि वह एक तरह से सरकार प्रायोजित ही थी। जहां तक फांसी की सजा का सवाल है,हो सकता है इससे व्यक्ति के मूल मानवाधिकार का घोर हनन होता हो। यह एक बहस का विषय हो सकता है लेकिन इसके मायने यह तो नहीं कि कानून को ही अपने हाथ में ले लिया जाए और वो भी सरकार के समर्थन से? दुनिया के 96 देशों में फांसी की सजा पर रोक है। संविधान निर्माता बी.आर.अंबेडकर ने भी संविधान सभा में मृत्युदंड हटाने का समर्थन किया था। यह भी हो सकता है कि मौत की सजा मानव धर्म का अपमान हो लेकिन इसका विरोध करने के और भी शांतिपूर्ण तरीके हो सकते हैं। यही कारण है कि उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश जी.एस. सिंघवी और न्यायाधीश एस.जे. मुखोपाध्याय की पीठ को गुरूवार को कहना पड़ा कि एक व्यक्ति को हत्या के आरोप में दोषी ठहराया गया है। मुख्यमंत्री की दिनदहाड़े हत्या की गई थी। यह अपने आप में विरला उदाहरण हैं जहां आतंकी कृत्य के लिए दोषी ठहराए गए व्यक्ति को राजनीतिक समर्थन मिला है। दोनो न्यायाधीशों की पीठ ने राजोआना की फांसी की सजा के विरोध में सिख संगठनों के आह्वान पर पंजाब में बंद और उस दौरान हुई हिंसक घटनाओं पर चिंता जताई और इसे राजनीतिक ड्रामा करार दिया। अब देखना तो यह है कि उच्चतम न्यायालय की इस अपूर्व टिप्पणी से सत्तारूढ़ सरकार क्या सबक सीखेगी क्योंकि यह मुद्दा भले ही कुछ दिनो के लिए टल गया है लेकिन पंजाब की मौजूदा सरकार लगता है इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न भी बना चुकी है।

Dark Saint Alaick
01-04-2012, 09:28 PM
भाजपा को जवाब तो देना ही होगा

भाजपा के शासन वाले हो बड़े राज्यों गुजरात और मध्य प्रदेश में हाल ही में नियंत्रक एंव महालेखा परीक्षक(सीएजी) तथा लोकायुक्त छापों की कार्यवाही ने पार्टी के शुचिता और साफ सुथरे प्रशासन के दावे की मानो हवा ही निकाल दी है। दो माह पहले सीएजी ने राज्य सरकार को रिपोर्ट दी जिसमें एक ही वर्ष में 16,706 करोड़ रूपए का भ्रष्टाचार होने का खुलासा किया गया। इस तरह सीएजी ने नरेन्द्र मोदी सरकार के अब तक के कार्यकाल में कुल 43 हजार करोड़ रूपए से अधिक के भ्रष्टाचार का खुलासा किया है। रिपोर्ट में यह भी साफ किया है कि कच्चे तेल की खोज के नाम पर सरकारी कोष को हजारों करोड़ का चूना लगाया गया है। तेल खोज के नाम पर करोड़ों रूपए कहां खपाए कोई नहीं जानता जबकि विशेषज्ञों ने शंका जता दी थी कि तेल खोज में बड़ी कामयाबी नहीं मिलेगी। और तो और तेल खोज के नाम पर राज्य के पेट्रोलियम निगम को करीब साढ़े बारह हजार करोड़ का नुकसान उठाना पड़ा। इसी तरह सरकार ने जाने माने अदानी समूह को कच्छ के मुंदडा में 5.94 करोड़ वर्ग मीटर जमीन 32 रूपए प्रति वर्ग मीटर की दर से उपलब्ध कराई जबकि उसकी बाजार कीमत 15 हजार रूपए प्रति वर्ग मीटर है। सीएजी की रिपोर्ट के अनुसार मोदी सरकार ने अदानी समूह के अलावा रिलायंस और एस्सार को भी बहुत फायदा पहुंचाया। उधर मध्य प्रदेश पर नजर दौडाएं तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आ रहे हैं। राज्य में महज पिछले दो वर्षों में लोकायुक्त छापों में सरकारी कर्मचारियों की 348 करोड़ की काली कमाई जब्त की गई है। यह आंकड़ा तो राज्य सरकार द्वारा विधानसभा में रखा गया अधिकृत है। अपुष्ट आंकड़ा तो न जाने कहां तक पहुंच सकता है। पिछले दो बरसों में जिन 67 सरकारी कर्मियों के ठिकानों पर छापे मारे गए उनमें चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी से लेकर भारतीय प्रशासनिक सेवा के बड़े अफसर शामिल हैं। जब चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी जैसे अदने कर्मचारियों के यहां छापों में करोड़ों रूपए की बेनामी संपत्ति मिल रही है, आला अफसरों और मंत्रियों की काली कमाई क्या होगी, इसका तो अंदाजा लगाना ही मुश्किल है। भ्रष्टाचार विरोध केनाम पर संसद तक ठप कर देने वाली भाजपा गले तक भ्रष्टाचार में डूबे इन दो राज्यों को लेकर चुप क्यों है, यह समझ से परे है। उसे जवाब तो देना ही होगा।

Dark Saint Alaick
02-04-2012, 07:24 PM
व्यावसायिक शिक्षा एक दूरदर्शी कदम

कहते हैं जो समय से पहले ही चेत जाए वह हर चुनौती का सामना आसानी से कर सकता है। केन्द्र सरकार ने देश की बढ़ती आबादी को देखते हुए सन 2020 में शिक्षा और रोजगार की संभावनाओं का आकलन कर जो तैयारी अभी से की है वह एक बड़ा दूरदर्शी कदम कहा जा सकता है। सरकार को राष्ट्रीय व्यावसायिक शिक्षा पात्रता ढांचा (एनवीईक्यूएफ) पर राज्यों के शिक्षा मंत्रियों की समिति की जो रिपोर्ट मिली है उसमें कहा गया है कि 2020 में जब बीस से पैंतीस वर्ष के लोगों की आबादी 32.5 करोड़ हो जाएगी, तब लोगों को रोजगार उपलब्ध कराना महत्वपूर्ण चुनौती हो जाएगी । इस समस्या का हल व्यावसायिक शिक्षा के माध्यम से निकाला जा सकता है। इस लक्ष्य को ध्यान में रखकर ही शिक्षा को रोजगारोन्मुखी बनाने की कवायद के तहत सरकार अगले वर्ष से स्कूली स्तर से स्नातक स्तर तक व्यवसायिक पाठ्यक्रम शुरू करने जा रही है। सरकार ने व्यवसायिक शिक्षा पाठ्यक्रम का जो खाका तैयार किया है, उसमें सात स्तरों के प्रमाणन की व्यवस्था होगी और यह स्नातक स्तर तक होगी । पहले दो स्तरों तक पढ़ाई और प्रशिक्षण कार्य सीबीएसई एवं राज्य शिक्षा बोर्ड के तहत होगा। इसके तहत नवीं, दसवीं, 11वीं और12वीं स्तर के छात्रों को प्रतिवर्ष 1000 घंटे से 1200 घंटे तक पढ़ाई एवं प्रशिक्षण जरूरी बनाया गया है। इसे स्नातक स्तर तक बढ़ाया जाएगा। व्यवसायिक शिक्षा में आटोमोबाइल, मनोरंजन, सूचना प्रौद्योगिकी, दूरसंचार, मार्केटिंग, कृषि, निर्माण, एप्लायड साइंस, पर्यटन तथा प्रिंटिंग व पब्लिशिंग क्षेत्र का लगभग हर विषय पाठ्यक्रम में होगा। अब तक उपलब्ध सरकारी आंकड़ों के अनुसार स्कूल स्तर पर फिलहाल 11वीं और 12वीं के केवल तीन फीसदी बच्चे व्यवसायिक शिक्षा पाठ्यक्रम के दायरे में हैं जबकि लक्ष्य 25 प्रतिशत निर्धारित है। कुल मिला कर आने वाले समय की सभी संभावनाओं को देखते हुए सरकार जो कदम उठाने जा रही है उसके दूरगामी परिणाम तो सामने आएंगे ही साथ ही एक दशक बाद भी भारत का युवा रोजगार के क्षेत्र में खुद को इसलिए आत्म निर्भर महसूस करेगा क्योंकि उसके सामने नौकरी ही विकल्प नहीं होगा । वह खुद का व्यवसाय भी आसानी से शुरू कर सकेगा। युवाओं को सरकार की इस पहल का स्वागत करना चाहिए।

Dark Saint Alaick
03-04-2012, 09:01 PM
भारत की प्रतिबद्धता पर अमेरिकी मुहर?

आतंकवाद के खिलाफ मौजूदा केन्द्र सरकार जिस गंभीरता के साथ काम कर रही है, उसे एक बड़ी कामयाबी मंगलवार को उस समय मिली, जब अमेरिका ने मुम्बई हमलों के मास्टर माइंड, पाकिस्तान स्थित आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा के संस्थापक और इस संगठन की राजनीतिक शाखा जमात-उद-दावा के प्रमुख हाफिज मोहम्मद सईद पर एक करोड़ अमेरिकी डालर के इनाम की घोषणा की। इस घोषणा के साथ ही उसने आतंक के खिलाफ भारत की प्रतिबद्धता पर भी एक तरह से मुहर लगा दी। भारत नवंबर 2008 में मुंबई पर आतंकी हमले के बाद से लगातार सभी मंचों से कहता आया है कि इन हमलों में पाकिस्तान समर्थित आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा का हाथ है। भारत यह भी खुलासा कर चुका है कि लश्कर के प्रशिक्षण का मुख्य केन्द्र पाकिस्तान में लाहौर के पास मुरीदके में है और इसकी शाखाएं पाकिस्तान में फैली हुई हैं। यही कारण है कि मंगलवार को अमेरिकी घोषणा के बाद विदेश मंत्री एस. एम. कृष्णा ने कहा कि सईद पाकिस्तान में कहीं सुरक्षित रह रहा है। निश्चित रूप से अब यह कहा जा सकता है कि आतंकवाद के खिलाफ मनमोहन सिंह सरकार द्वारा हाल के बरसों में उठाई गई आवाज के चलते पाकिस्तान में लगातार पनप रही आतंकी चुनौतियों की प्रकृति पर भारत और अमेरिका में पारस्परिक समझ काफी गहरी हुई है। यही कारण है कि विदेश मंत्री कृष्णा ने न केवल अमेरिकी सरकार के ‘रिवार्ड्स फॉर जस्टिस’ कार्यक्रम के तहत सईद के खिलाफ एक करोड़ अमेरिकी डालर के इनाम की घोषणा का स्वागत किया, बल्कि यह भी कहा कि अमेरिका दुनियाभर में इन सभी आतंकवादियों पर नजर रखता है, उसे सईद पर भी अपनी नजर रखनी चाहिए थी, क्योंकि भारत हमेशा जोर देता रहा है कि सईद मुम्बई हमले का मास्टरमाइंड है। एक बात और है कि भारत और अमेरिका ने हाल के वर्षों में आतंकवाद विरोधी संयुक्त कार्य समूह, आतंकवाद विरोधी सहयोग पहल, गृह सुरक्षा वार्ता और खुफिया तथा कानून प्रवर्तन एजेंसियों के बीच सूचनाओं के नियमित आदान प्रदान के जरिए आतंक के खिलाफ जिस सहयोग को मजबूत किया है उससे लश्कर और आतंकी संगठनो के बीच यह संदेश भी जाएगा कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय एकजुट है। ... लेकिन विचारणीय यह है कि क्या इसे अमेरिका की भारतीय हितों और न्याय के प्रति प्रतिबद्धता माना जाना चाहिए ! कहना ही होगा कि जब तक पाकिस्तान पर भारत के वांछितों पर कार्रवाई का कोई प्रत्यक्ष दबाव अमेरिका की ओर से नज़र नहीं आता, यह मान लेना सिर्फ खुशफहमी ही होगा !

Dark Saint Alaick
04-04-2012, 09:48 PM
भरोसेमंद युवा पीढ़ी को तराशने की जरूरत

अक्सर हमें यही सुनने को मिलता है कि आज का युवा केवल अपने करियर,पढ़ाई, कंप्यूटर और आधुनिक सुख-सुविधाओं में ही उलझा रहता है, लेकिन हाल ही में छेड़े गए एक खास अभियान के निष्कर्षों को चौंकाने वाला कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। अंतर्राष्ट्रीय मानवीय संगठन केयर इंडिया द्वारा दिल्ली और हैदराबाद में युवाओं की सोंच का पता लगाने के लिए पिछले दिनो चलाए गए एक अभियान में सामने आया कि आज के युवा और छात्र अपनी पढ़ाई के अलावा न केवल सामाजिक कार्यों से भी जुड़ना चाहते हैं बल्कि इसके लिए फेस बुक जैसे आधुनिक संचार माध्यम को अपना हथियार भी बनाना चाहते हैं। भारत में महिलाओं और लड़कियों की समस्याओं के प्रति छात्रों और युवाओं को जागरुक करने के मकसद से चलाए गए इस अभियान के तहत करीब चालीस हजार छात्रों से संपर्क किया गया। इनमें 9 हजार छात्रों ने लिखित रूप से तथा 21 हजार छात्रों ने ई-मेल के जरिए महिलाओं और लड़कियों की स्थिति बेहतर बनाने के अभियान को समर्थन देने का संकल्प जताया। यदि हम इस अभियान को एक पैमाना माने तो यह साफ हो जाएगा कि आज की युवा पीढ़ी वाकई बेहद संवेदनशील है और समाज के प्रति अपने गुरूत्तर दायित्व को भी भली-भांति समझती है। अभियान से यह तथ्य भी सामने आया कि नई पीढ़ी बदलाव चाहती है और अपने देश के लिये कुछ करना चाहती है। वह चाहती है कि इसके लिए उसे उचित दिशा, मंच और राह मिले। निश्चित रूप से यह हमारे देश के लिए एक शुभ संकेत तो है लेकिन हमें यह भी समझना होगा कि हम इस पीढ़ी की उम्मीदों को किस नजरिए से देखते हैं। इस अभियान ने यह तो साबित कर दिया युवा पीढ़ी को अगर सही नेतृत्व मिले तो वह समाज को एक नई दिशा दे सकता है। वह चाहता भी है कि उसे समाज का एक महत्वपूर्ण अंग मान कर उसका इस्तेमाल किया जाए। महिलाओं और युवतियों के प्रति हमारे युवाओं की जो सोंच इस अभियान में परीलक्षित हुई है, उससे हम इतने तो भरोसेमंद हो ही सकते हैं कि आज का युवा अपने इर्द-गिर्द हो रही हर हलचल पर नजर रखे हुए है। बस,जरूरत है तो ऐसी पारखी नजरों की जो बेहतर सोच वाले युवाओं को तराश कर उन्हे देश सेवा से जुड़े कार्यों से जोड़ सके।

aksh
05-04-2012, 10:12 PM
मित्र, आपकी बात अपनी जगह बिलकुल उचित है, लेकिन एक मंत्री को अपनी सदिच्छा को पूरा करके दिखाने के बजाय इस्तीफा देने को विवश करना मेरे खयाल से उचित नहीं है ! श्री दिनेश त्रिवेदी को एक मौक़ा दिया जाना चाहिए था ! यह विचारणीय है कि झूठे दावे करते हुए आपकी इस जेब में पैसा रख, उस जेब से निकालने वालों के बजाय, सीधी-साफ़ बात करने वाले लोग ज्यादा भरोसेमंद होते हैं और मुझे श्री त्रिवेदी ऐसे ही इंसान लगते हैं, जो अपने दूरदर्शी क़दमों के कारण बलि की भेंट चढ़ा दिए गए ! क्या आपको पता है कि हाल ही डीजल और पेट्रोल की कीमतों में की गई कमी की कीमत आपने कहां चुकाई है ? जिस दिन यह कमी की गई ठीक उसी रात विमानों के लिए ईंधन की दरें बढ़ा दी गई अर्थात भुगतना आपको ही है, क्योंकि बहुत सी ऎसी चीजें विमानों से भी ढोई जाती हैं, जिन्हें हम इस्तेमाल करते हैं ! मेरा मानना है कि यदि श्री त्रिवेदी यह चाहते थे कि 'जर्जर और झुकी कमर वाली' रेल के बजाय एक बेहतर रेल जनता को चाहिए तो उसे मामूली वृद्धि से गुरेज नहीं करना चाहिए, तो यह उचित सोच थी ! आपकी प्रतिक्रया के लिए धन्यवाद !

पिछले दस सालों में सार्वजनिक जीवन में मूल्यों में तेजी से गिरावट आयी है और ममता बनर्जी जैसी गरीबों की हिमायती होने का दम भरने वाले नेता खुद निरंकुश होकर शासन करना चाहते हैं...जनता की भावनाओं, जमीनी हकीकतों से इन लोगों का सरोकार नहीं रह गया है ये बात खुल कर सामने आ गयी है और इस सबसे एक बात और रेखांकित होती है कि इन लोगों का लोकतंत्र में विश्वास का दावा एक दम खोखला है क्योंकि अगर ऐसा होता तो उक्त रेल मंत्री को एक तानाशाही आदेश का पालन करने के लिए विवश ना होना पड़ता..

मैं अपने चारों तरफ देखता हूँ और यही पाता हूँ कि सत्ता का लालच विकेन्द्रीयकरण के रास्ते गाँव मोहला स्तर तक और गाँव के स्तर तक पहुँच जाने का एक नुक्सान ये हुआ है कि हर स्तर पर फैसले ढुलमुल तरीके से और वोटों की राजनीती को ध्यान में रखकर लिए जा रहे हैं...

इसी विकेन्द्रीयकरण के चलते हमारे गली और मोहल्ले अराजकता के अड्डे बन चुके हैं क्योंकि कुछ सत्ता लोलुप नेता ये चाहते हैं कि उनको सता मिलती रहनी चाहिए...फिर चाहें देश में क़ानून का राज रहे या ना रहे, देश में समता रहे या ना रहे....और सबसे बड़ी बात...देश में लोकतंत्र रहे या मरे...

Dark Saint Alaick
05-04-2012, 10:18 PM
आपका कथन एकदम सत्य है, मित्र ! यह भी देखिए कि मैंने पहले ही कहा था कि किराए में एक धेला कम होने वाला नहीं है ! यह बस, ममता बनर्जी की एक चाल है - प्रधानमंत्री और संप्रग को नीचा दिखाने तथा अपने मनपसंद व्यक्ति को मंत्री पद पर काबिज़ कराने की ... और अब यह सच साबित हो गया है !

Dark Saint Alaick
06-04-2012, 11:45 PM
पाक को ठोस कदम तो उठाना ही होगा

पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी रविवार को हांलाकि एक तरह से निजी यात्रा पर भारत आ रहे हैं, लेकिन पाकिस्तान ने उनकी इस यात्रा और भोजन पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से जरदारी की मुलाकात को भी आखिर कश्मीर से जोड़ ही दिया। पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अब्दुल बासित का यह कहना तो ठीक है कि दोपहर के भोजन पर जरदारी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की मुलाकात विश्व के इस भाग में अंतर-क्षेत्रीय शांति एवं समृद्धि को बढावा देने के राष्ट्रपति के विचारों को मूर्त रूप देने में योगदान करेगी और इससे क्षेत्र में शांति बहाली के प्रयासों को बल मिलेगा, लेकिन बासित को यह कहने की जरूरत आखिर क्यों आ पड़ी कि दोनों नेता पड़ोसी मुल्कों के द्विपक्षीय संबंधों में लगातार महत्वपूर्ण बने रहने वाले सभी मुद्दों पर बात करेंगे, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि हम अन्य मामलों विशेष तौर पर जम्मू कश्मीर पर अपने रूख से समझौता करेंगे। उन्होंने कहा कि कश्मीर विवाद दोनों देशों के बीच अहम मुद्दा है। जम्मू कश्मीर विवाद पर पाकिस्तान का अपने रूख में बदलाव लाने को कोई सवाल ही पैदा नहीं होता है। इससे यह साफ हो गया है कि पाकिस्तान कहता कुछ है और करता कुछ है। यही हाल लश्कर-ए-तैयबा के संस्थापक हाफिज सईद को लेकर सामने आया है। अमेरिका ने जैसे ही सईद के खिलाफ एक करोड़ डॉलर के ईनाम की घोषणा की पाकिस्तानी प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी ने कह दिया कि सईद का मामला एक आंतरिक मुद्दा है तथा यदि जमात उद दावा प्रमुख के खिलाफ कोई ठोस सबूत है तो उसे पाकिस्तान को मुहैया कराया जाना चाहिए। जहां तक सईद के खिलाफ सबूतों का सवाल है, भारत मुंबई पर आतंकी हमले में सईद के लिप्त होने के सबूत पाकिस्तान को दे चुका है लेकिन पाकिस्तान ने कोई जांच नहीं की। गृह मंत्री पी. चिदंबरम की ओर से पाकिस्तान को सौंपे गए डोजियर में सईद के मुंबई हमले में शामिल होने संबंधी सारा ब्यौरा मौजूद है। ऐसे में भारत के विदेश मंत्री एसएम कृष्णा का यह कहना बेहद तार्किक है कि किसी न्यायिक जांच के बगैर भारत द्वारा सौंपे गए दस्तावेजों से पाकिस्तान मुकर कर बच नहीं सकता। पाकिस्तान को चाहिए कि वह आतंक के खिलाफ अपनी प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करने के लिए धरातल पर कुछ ठोस कदम उठाकर इसे साबित करे।

Dark Saint Alaick
08-04-2012, 10:34 PM
चेन्नई सुपर किंग्स बनाम डेक्कन चार्जर्स
दिन ही जडेजा का था.....

यही तो है क्रिकेट की खूबी। गत दो बार से आईपीएल जीत रही चेन्नई सुपर किंग्स इस बार अपने पहले ही मैच में जब मुंबई इंडियन से हारी तो लगा सूरमाओं से भरी यह टीम अब आगे क्या करेगी । लेकिन दूसरे मैच में इस सीजन में बीस लाख डॉलर में बिके सबसे मंहगे खिलाड़ी रविंदर जडेजा ने पहले बल्ले और फिर गेंद से जो करिश्मा दिखाया, लगा यह टीम यूं ही खेलती रही तो उसे तीसरी बार जीतने से कौन रोक सकेगा। इंडियन प्रीमियर लीग के छठे मैच में शनिवार रात चेन्नई सुपर किंग्स ने विशाखापट्टनम में डेक्कन चार्जर्स पर 74 रन से धमाकेदार जीत हासिल की जिसमें जडेजा ने पहले 29 गेंद पर तीन चौकों और तीन छक्कों की मदद से 48 रन बनाए और फिर अपने करियर का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए 16 रन देकर पांच विकेट भी झटक लिए यानी शनिवार जडेजा का दिन था। चेन्नई सुपरकिंग्स के कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी और उनकी टीम ने टास हारने के बाद पहले बल्लेबाजी के लिए मिले न्यौते का जमकर फायदा उठाया। जडेजा ने तो बल्लेबाजी में हाथ दिखाए ही, डी.ब्रावो ने भी 18 गेंद पर नाबाद 43 रन की पारी खेली। ब्रावो ने आखिरी दो ओवर में पांच छक्कों की बरसात की । रनों की बहती गंगा में फाफ डु प्लेसिस ने चार छक्कों की मदद से 39 रन और एस बद्रीनाथ ने 25 रन रूपी हाथ धोए और उसकी बदोलत चेन्नई सुपर किंग्स ने छह विकेट पर 193 रन का बड़ा स्कोर खड़ा कर डाला। चार्जर्स के दो गेंजबाजों मनप्रीत गोनी और सुधींद्र कुलकर्णी ने आठ ओवर में 100 रन लुटा दिए।
जब डेक्कन चार्जर्स के बल्लेबाज इस मुकाम को हासिल करने मैदान में उतरे तो किसी भी ओवर में नहीं लगा कि वे लक्ष्य पाने के लिए आगे बढ़ रहे हैं। और जब जडेजा ने 11वें ओवर में गेंद संभाली तो फिर डेक्कन चार्जर्स का ऐसा फ्यूज उड़ा कि उसने चार ओवर में छह विकेट गंवा दिए और पूरी टीम 17.1 ओवर में 119 रन पर ढेर हो गर्ई। जाहिर है शानदार प्रदर्शन के लिए 'मैन आफ द मैच' का पुरस्कार तो जडेजा के खाते में जाना ही था। पुरस्कार लेते समय जडेजा ने कहा- यह मेरा शानदार प्रदर्शन था। मैं अपनी मां और परिवार का आभार व्यक्त करना चाहूंगा। मैं बहुत खुश हूं कि मेरे लिए आज का दिन बहुत अच्छा रहा।

Dark Saint Alaick
08-04-2012, 10:36 PM
ठोस कदमों पर टिकी रिश्तों की बुनियाद

पाकिस्तान और भारत के बीच आपसी रिश्ते निश्चित रूप से पाकिस्तान द्वारा आतंकवाद के खिलाफ ठोस कदम उठाने पर ही टिके हैं। यह बात रविवार को तब और पुख्ता हो गई जब करीब सात घंटों की निजी यात्रा पर भारत आए पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी को मेहमानवाजी के तहत दिए दोपहर के भोज से पहले आधे घंटे की बातचीत के दौरान प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कह ही डाली। अमेरिका द्वारा प्रतिबंधित लश्कर-ए-तैयबा के संस्थापक हाफिज सईद के खिलाफ एक करोड़ डॉलर के ईनाम की घोषणा के बाद भले ही पाकिस्तान पिछले चार दिनो से यह सफाई दे रहा हो कि सईद के खिलाफ कोई सबूत नहीं हैं लेकिन सच्चाई तो यही है कि सईद मुंबई पर हुए आतंकी हमले का मास्टर माइन्ड है और भारत उसके खिलाफ सभी सबूत पाकिस्तान को दे भी चुका है। रविवार को डॉ. मनमोहन सिह ने जिस तरह जरदारी से मुलाकात में यह दो टूक कह दिया कि हाफिज सईद और मुंबई आतंकी हमले के अन्य साजिशकर्ताओं के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए और यह कार्रवाई ही द्विपक्षीय संम्बधों में प्रगति के आकलन का महत्वपूर्ण बिन्दु होगी,साफ हो गया कि भारत चाहता है कि केवल बातचीत ही नहीं पाकिस्तान ठोस कदम भी उठाए ताकि दोनो देशों के बीच लंबित मसलों पर भी आगे बातचीत हो सके। मनमोहन सिंह ने जरदारी से यह भी कह दिया है कि पाकिस्तान की जमीन से भारत के खिलाफ हो रही गतिविधियों को रोकना अत्यंत आवश्यक है । अब देखना तो यही है कि पाकिस्तान इस विषय पर क्या कदम उठाता है क्योंकि डॉ. सिंह से मुलाकात के बाद जरदारी ने सईद के मुद्दे पर कहा कि दोनों देशों की सरकारों को इस मामले पर आगे और बातचीत की आवश्यकता है। भारत और पाकिस्तान के गृह सचिवों की जल्द होने वाली मुलाकात में इस मसले पर चर्चा होगी। जरदारी अमन चैन की दुआ के लिए अजमेर मे ख्वाजा की चौखट पर भी पहुंचे जो उनकी भारत यात्रा का मुख्य उद्देश्य भी था लेकिन कहते हैं कि ताली एक हाथ से नहीं बजती। भारत तो हमेशा ही चाहता है कि पड़ौसी से उसके रिश्ते बेहतर रहें लेकिन आतंक के खिलाफ पाकिस्तान को वे कदम तो उठाने ही होंगे जो इन रिश्तों को सामान्य बनाने में कहीं ना कहीं आड़े आ रहे हैं।

Dark Saint Alaick
12-04-2012, 11:18 AM
पड़ौसी से सचेत तो रहना ही पड़ेगा

पाकिस्तान की कथनी और करनी में फर्क हमेशा ही से देखने को मिला है। हाल ही में सामने आई एक रिपोर्ट में जो चौंकाने वाला खुलासा हुआ है वह निश्चित रूप से भारत के लिए भी सावचेती के साथ आंखें खुली रहने जैसा है। अमेरिका की संस्था रिचिंग क्रीटिकल विल आॅफ द वूमेंस इंटरनेशनल लीग फार पीस एंड फ्रीडम ने दुनिया में परमाणु आधुनिकीकरण शीर्षक से एक रिपोर्ट तैयार की है। डेढ़ सौ से ज्यादा पेज वाली इस रिपोर्ट में कहा गया है कि पाकिस्तान जिस तरह से अपने परमाणु हथियारों के जखीरे में तेज से वृद्धि कर रहा है उसके बारे में अनुमान है कि उसके पास भारत से अधिक परमाणु हथियार हैं। हाल ही पाकिस्तान के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी निजी दौरे पर भारत आए थे तो उसकी पूर्व संध्या पर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री युसूफ रजा गिलानी ने पत्रकारों के एक सवाल के जवाब में कहा था कि पाकिस्तान कभी भी पहला परमाणु हमला भारत पर नहीं करेगा। सवाल यही उठता है कि जब पाकिस्तान की सोच यही है तो फिर वह परमाणु हथियारों का जमावड़ा बढ़ा क्यों रहा है जबकि शांतिप्रिय भारत से तो उसे ऐसा कोई खतरा होना ही नहीं चाहिए। अगर हम पिछला इतिहास उठा कर देखें तो जब-जब अमेरिका ने भारत के साथ सामरिक रिश्तों को मजबूत करने के प्रयास किए हैं, तब तब पाकिस्तान खौफ में आकर या तो सीमा पर अपनी हरकतें तेज कर देता है या अपने सैन्य जमावड़े में बढ़ोतरी के प्रयास करने लगता है। ताजा रिपोर्ट में रहा गया है कि अनुमान के मुताबिक पाकिस्तान के पास 90 से 110 परमाणु हथियार हैं। यही नहीं पाकिस्तान के पास कम दूरी, मध्यम और लंबी दूरी की जमीन से जमीन पर मार करने वाली कई बैलिस्टिक मिसाइलें विकास के अलग अलग चरणों में हैं। इसके अलावा उसके पास 2750 किलोग्राम हथियार बनाने वाला उच्च संवर्द्धित यूरेनियम है। यह प्रयास साफ यही इशारा कर रहे हैं कि हमारा पड़ौसी याने पाकिस्तान भले ही अपने विकास के साधनो पर खर्च होने वाली राशि में कमी कर रहा हो लेकिन खुद को हथियारों से लैस करने व परमाणु हथियार विकसित करने पर अपने सामर्थ्य से ज्यादा सालाना करीब 2.5 अरब डालर खर्च कर रहा है। पाकिस्तान के इस कदम पर लगातार नजर रख कर भारत को सावचेत तो रहना ही पड़ेगा।

Dark Saint Alaick
14-04-2012, 12:37 PM
जनता के समक्ष विकल्प ही क्या है ?

मध्य प्रदेश में आठ वर्षों से सत्तारूढ़ शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व वाली सरकार पिछले कई महीनों से जिस तरह खनन माफिया और भ्रष्ट मंत्रियों के बीच साठगांठ के आरोप से घिरी है, उससे बच निकलने का उसे कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा है। खास बात तो यह है कि मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस की ओर से राज्य सरकार के खिलाफ विधानसभा में लाए गए अविश्वास प्रस्ताव में उठाए गए इस सभी गंभीर मुद्दों का भी सरकार की तरफ से कोई सकारात्मक जवाब नहीं आया। ऐसे में कांग्रेस ने इसका करारा जवाब देने के लिए जो कदम उठाया है, वह निश्चित रूप से भाजपा को और संकट में डाल देगा। कांग्रेस ने सरकार के खिलाफ उठाए गए सभी आरोपों की एक पुस्तक प्रकाशित की है और अब उसे जनता के सामने रखने का फैसला किया है। इस पुस्तक में राज्य में अवैध खनन व मंत्रियों के भ्रष्टाचार से लेकर राज्य में कानून-व्यवस्था की बिगड़ती स्थिति और हर संवेदनशील मसलों को समाहित किया गया है। इसमें कोई हो राय नहीं कि पिछले वर्षों में राज्य में अवैध खनन नासूर की तरह से फैल गया और खास बात यह रही कि जब-जब ऐसे मामले सामने आए,उसमें राज्य के ही किसी मंत्री का नाम भी जुड़ता गया। मुख्यमंत्री चौहान लाख सफाई देते रहें कि राज्य में अवैध खनन नहीं हो रहा है, लेकिन यह सच्चाई से परे है। मुरैना, भिंड, टीकमगढ़ और पन्ना जिले तो अवैध खनन के मुख्य अड्डे बने हुए हैं और माफिया मंत्रियों की शह पर बेखौफ अपना काम ही नही कर रहा, बल्कि विरोध करने वालों को जान से भी हाथ धोना पड़ रहा है। मुरैना जिले में युवा पुलिस अधिकारी नरेंद्र कुमार की हत्या इसका ज्वलंत उदाहरण है। खुद भाजपा के लोग मानते हैं कि यह समस्या विकराल रूप ले रही ही। भाजपा के बैतूल जिला अध्यक्ष हेमंत खंडेलवाल ने स्वयं एक पत्र सरकार को लिखा है, जिसमें उन्होंने जिले में रेत के अवैध खनन का जिक्र किया है। बताया जाता है कि वहां राज्य की एक मंत्री का भाई ही अवैध खनन में लगा है। इसके बावजूद प्रश्न यह है कि क्या यह स्थिति सिर्फ इसी शासन की देन है ? जवाब है - नहीं, यह तो हमेशा से होता आया है । ... तो फिर यह हाय-तौबा क्यों ? जनाब, मुख्य विपक्षी दल इसके अलावा और क्या कर सकता है । ज़रा, पड़ोसी राज्य राजस्थान का उदाहरण लीजिए। काबिले-गौर है कि एमपी में इसी मुद्दे पर हाय-तौबा कर रही कांग्रेस ही यहां सत्ता पर काबिज है। यहां एक मंत्री ने वन-भूमि में ही अपने पुत्रों को खानें आवंटित कर दी थीं। मामला उजागर होने पर भी कुछ नहीं हुआ और काफी जद्दो-जहद के बाद जब कोर्ट ने लताड़ लगाई, तब भारी मन से मंत्री को विदा किया गया। ऐसे ही उदाहरण अन्य अनेक राज्यों में भरे पड़े हैं। लेकिन मध्य प्रदेश की स्थित अलग इसलिए है, यहां इन दोनों दलों के अलावा जनता के समक्ष कोई अन्य विकल्प ही नहीं है । वह करे, तो क्या ? राज किसी का भी हो, पिसना तो उसी को है !

Dark Saint Alaick
15-04-2012, 10:09 PM
रणनीति में मात खा गए माही

पहले रणनीति बनाकर और बाद में उसे फंसा कर विरोधी टीम को मात देने में माहिर माने जाने वाले महेन्द्र सिंह धोनी लगता है इस बार आईपीएल में अपनी रणनीति को अंजाम देने में कहीं ना कहीं खुद मात खा रहे हैं वरना शनिवार रात पुणे वारियर्स को जीतने का 156 रनो का अच्छा लक्ष्य देने के बाद भी वे इस मैच को अपने हाथ से केवल जाता हुए ही देखते रह गए। अंतिम ओवर में जब उन्होने यो महेश को गेंद थमाई तो उनके चेहरे पर आत्म विश्वास नहीं झलक रहा था यह तो साफ नजर आ रहा था लेकिन इसके साथ ही वे यह भी शंका छोड़ गए कि फटाफट क्रिकेट में उनके पैंतरे अब कमजोर जरूर पड़ रहे हैं वरना हार के बाद उन्हे यह कहने की नौबत ही नहीं आती कि उनकी टीम को पावरप्ले और डेथ ओवरों में गेंदबाजी में सुधार करना होगा। चेन्नई सुपर किंग्स ने पुणे में खेले गए इस मैच में पांच विकेट पर 155 रन का स्कोर खड़ा किया था जिसके जवाब में पुणे वारियर्स ने 19.2 ओवर में तीन विकेट पर 156 रन बनाकर मैच जीता और अंक तालिका में अव्वल आ बैठी। पुणे वारियर्स चार में से तीन मैच अब तक जीत चुकी है। धोनी ने मैच के बाद स्वीकार किया कि मुकाबला बराबरी का था लेकिन हम अपनी रणनीति को सही तरह से अंजाम नहीं दे पाए। अंतिम ओवर में महेश को गेंदबाजी सौंपने के बारे में रणनीति क्या थी यह पूछने पर धोनी ने कहा, मैं देखना चाहता था कि कौन अंतिम ओवर फेंकने को तैयार है। महेश से पूछा कि तो वह सकारात्मक दिखा । मैंने उसे गेंदबाजी दी। दूसरी तरफ पुणे के कप्तान सौरव गांगुली ने मैच में मिली सात विकेट से जीत का श्रेय बल्लेबाज जेस्सी राइडर व स्टीव स्मिथ को दिया । निश्चित रूप से राइडर इस श्रेय के हकदार थे। राइडर ने 56 गेंद में सात चौकों और एक छक्के की मदद से 73 रन की नाबाद पारी खेलने के अलावा स्मिथ (नाबाद 44) के साथ 6.4 ओवर में 66 रन की साझेदारी की जिससे पुणे टीम जीती। धोनी को अब सतर्क हो जाना चाहिए क्योंकि इस बार आईपीएल में सबसे कमजोर माने जाने वाली पुणे की टीम ने उन्हे मात दी है। वैसे माही हार मानने वाले हैं नहीं और उन्हे पता है कि आईपीएल का सफर अभी बहुत लंबा है।

Dark Saint Alaick
15-04-2012, 10:18 PM
बच्चों के भविष्य से न हो खिलवाड़

कहते हैं कि बच्चे देश का भविष्य होते हैं लेकिन छत्तीसगढ़ में सरकारी अनदेखी व कोताही का असर राज्य के बस्तर अंचल के आदिवासी बच्चों पर ऐसा पड़ रहा है कि वे चाहते हुए भी स्कूल जाने से कतराते हैं और अगर चले भी जाते हैं तो उन्हें पुलिस और नक्सलियों के बीच संघर्ष के चलते नतीजों को भुगतना पड़ता है, जिसके कारण उनकी पढ़ाई ही चौपट हुए जा रही है। हाल ही यह जानकारी सार्वजनिक हुई कि छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित इलाकों में एक ओर पुलिस स्कूली छात्रों को नक्सलियों का मुखबिर बता रही है, वहीं दूसरी ओर नक्सली इन्ही छात्रों को पुलिस का मुखबिर बता रहे हैं। इन शंकाओं के चलते छात्रों की पढाई पर व्यापक असर पड़ रहा है। पुलिस की तरफ से आधिकारिक तौर पर कहा जा रहा है कि नक्सली छात्रों की आड़ लेकर हिंसा की घटनाएं करते हैं। नक्सली संगठनों ने पुलिस की गोपनीय सूचना एकत्र करने और उन पर निगरानी के लिए बाल संगम का गठन किया है। बाल संगम के सदस्य पुलिस की आवाजाही और उसके क्रियाकलापों पर निगरानी रखकर उसकी सूचना नक्सली आकाओं को देते हैं। कुछ छात्रों को तो हथियार चलाने का प्रशिक्षण भी दिया गया है। ऐसे छात्र स्कूली गणवेश में भीड़भाड़ वाले इलाकों में जाकर हिंसा की घटनाओ को अंजाम भी देते हैं। हाल में कुछेक ऐसी घटनाएं होने के कारण पुलिस इन छात्रों को नक्सलियों का मुखबिर मान चुकी है। उधर, दूसरी तरफ नक्सली नेता छात्रों पर पुलिस का मुखबिर होने की शंका कर रहे हैं। इसके चलते हाल ही में नारायणपुर के राष्ट्रीय स्तर के एक खिलाड़ी पाकलू का अपहरण किया गया था। पाकलू नक्सलियों के चंगुल से तो भाग निकला, लेकिन आज वह उनकी हिटलिस्ट में है। इस घटना के अलावा एक गांव में 12वीं के छात्र की पुलिस मुखबिर होने की शंका में हत्या कर दी गई। ये घटनाएं साबित करती हैं कि राज्य के नक्सल प्रभावित इलाकों में बढ़ रही समस्याओं पर राज्य सरकार ध्यान नहीं दे रही। माना नक्सल हिंसा व्यापक रूप ले चुकी है, लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि इससे प्रभावित हो रहे स्कूली बच्चों को भी दयनीय हालत में छोड़ दिया जाए और वे पढ़ाई जैसे मूलभूत अधिकार से ही वंचित होने लग जाएं। सरकार को इस ज्वलंत मुद्दे पर गौर करना चाहिए। साथ ही एक अपील नक्सलियों से यह कि कोई भी 'वाद' या 'विचारधारा' इतनी निकृष्ट नहीं हो सकती कि अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए मासूम बच्चों को निशाना बनाने की इजाज़त दे। उन्हें चाहिए कि यदि वे अपने उद्देश्य को पवित्र साबित करना चाहते हैं, तो उन्हें बच्चों को निर्भय करना ही होगा, अन्यथा सामान्य डकैतों और उनमें अंतर ही क्या और किसे नज़र आएगा ?

Dark Saint Alaick
16-04-2012, 11:26 PM
शाही जीत में रहाणे का रौबदार अंदाज

इसे कहते हैं शाही जीत। राजस्थान रॉयल्स ने रविवार रात रायल चैलेंजर्स बेंगलूरू को चिन्नास्वामी स्टेडियम में आईपीएल के अपने पांचवें मैच में जो शिकस्त दी वह वाकई में ही शाही जीत थी। पहले बल्लेबाजी और बाद में गेंदबाजी में जो कहर रॉयल्स की युवा टीम ने बरपाया उससे रायल चैलेंजर्स की टीम अंत तक भी उभर नहीं पाई। सपाट शब्दों में कहा जाए तो रॉयल्स की यह एकतरफा जीत थी। पहले बल्लेबाजी के दौरान अजिंक्य रहाणे के एक ओवर में छह चौकों के रिकार्ड प्रदर्शन के साथ नाबाद शतक की बदौलत रॉयल्स टीम ने दो विकेट पर 195 रन का विशाल स्कोर खड़ा किया । ओवैस शाह ने भी 26 गेंद पर पांच चौकों और इतने ही छक्कों की मदद से 60 रन की तूफानी पारी खेली। बाद में गेंदबाजी में सिद्वार्थ त्रिवेदी के चार विकेट के कहर ने रायल चैलेंजर्स को 19.5 ओवर में 136 रन पर ढेर कर दिया और 59 रन से जीत दर्ज की। रहाणे को उनकी पारी के लिए मैन आफ द मैच चुना गया। इससे पहले रहाणे किंग्स इलेवन पंजाब के खिलाफ भी 98 रन बना चुके हैं। निश्चित रूप से रहाणे के रूप में राजस्थान रॉयल्स के पास एक विस्फोटक बल्लेबाज है और वे अपने खास खेल से लोगों को चौंका भी रहे हैं। मैच के बाद खुद रहाणे ने कहा, यह मेरी विशेष पारी है। मैं अपने साथियों को भी उनके प्रदर्शन के लिए बधाई देना चाहूंगा। अभी हमें लंबा रास्ता तय करना है। यह केवल पांचवां मैच है और मैं अपनी इस फार्म को आगे भी बरकरार रखना चाहूंगा। रहाणे ने अपनी इस फार्म का श्रेय टीम के कप्तान राहुल द्रविड़ को दिया व कहा, मेरे लिए सौभाग्य की बात है कि मैं अपने आदर्श खिलाड़ी के साथ खेल रहा हूं। राहुल से मैं काफी कुछ सीख रहा हूं। वह बल्लेबाजी में मेरी काफी मदद करते हैं। याने साफ हो गया कि पूरी टीम राहुल के नेतृत्व की कायल है और पिछले पांच में से तीन मैच जीत कर अंक तालिका में शीर्ष पर आकर राहुल ने इसे साबित भी कर दिया है। जहां तक रायल चैलेंजर्स की बात है उसकी कुछ कमजोरियां सामने आई हैं और इन्ही कमजोरियों के चलते वह लगातार अपना तीसरा मैच हारी है। खुद कप्तान डेनियल विटोरी ने माना कि मध्यक्रम के बल्लेबाजों का खराब प्रदर्शन और पांचवें गेंदबाज की कमी उन्हें बुरी तरह खल रही है। गेंदबाजी में समस्या की जड़ पांचवें अच्छे गेंदबाज का अभाव है। हमें इस समस्या से जल्दी पार पाना होगा ताकि टूर्नामेंट में वापसी की जा सके। हम लक्ष्य का पीछा कर पाने में इसलिए भी नाकाम हो रहे हैं क्योंकि पहले बल्लेबाजी करते हुए टीमें बड़ा स्कोर बना रही हैं। अब देखना यह है कि राजस्थान रॉयल्स अपनी इस बेहतर जीत को किस मुकाम तक ले जाती है।

Dark Saint Alaick
16-04-2012, 11:39 PM
मनमोहन के वक्तव्य का मंतव्य

प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने सोमवार को दिल्ली में आंतरिक सुरक्षा पर राज्यों के मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में संजीदगी के साथ देश को विश्वास दिलाया कि आतंकवाद, वामपंथी उग्रवाद, धार्मिक कट्टरता और जातीय हिंसा के मामले में पिछले दिनों कमी आई है, लेकिन हमें अभी और लंबा रास्ता तय करना है। निश्चित रूप से पिछले कुछ वर्षों पर नजर दौड़ाई जाए, तो यह तो कहा जा सकता है कि सरकार ने आतंकवाद और हिंसा पर नकेल कसने के जो प्रयास किए हैं, उसके बेहतरीन नतीजे सामने आए हैं। इसका ज्वलंत उदाहरण आतंकवाद से लंबे समय तक प्रभावित रहा राज्य जम्मू कश्मीर है, जहां हाल के कुछ वर्षों में न केवल देश-विदेश के पर्यटकों, बल्कि विभिन्न धार्मिक स्थलों पर पहुंचने वाले तीर्थयात्रियों की संख्या में आशा से भी ज्यादा बढ़ोतरी हुई है। जम्मू के माता वैष्णोदेवी मंदिर में तो वर्ष 2011 में रिकॉर्ड एक करोड़ से ज्यादा धर्मावलम्बी पहुंचे। वहां पंचायत चुनाव सफल रहे और लंबे समय बाद फिर से बॉलीवुड फिल्मों की शूटिंग भी बड़ी संख्या में हो रही है। इससे साफ पता चलता है कि न केवल जम्मू-कश्मीर, बल्कि पूरे देश की जनता हिंसा और आतंकवाद के साये से निकलकर सामान्य जीवन जीने की इच्छा रखती है। प्रधानमंत्री के बयान से यह भी साफ हो गया कि भले ही देश में आतंकवाद और हिंसा को लेकर हालात काबू में है, लेकिन सरकार को हर वक्त चौकस और चौकन्ना रहने की जरूरत लगातार बनी हुई है। प्रधानमंत्री का यह बयान ही इस मुद्दे पर उनकी चिंता को प्रदर्शित करता है कि आंतरिक सुरक्षा हालात भले ही संतोषजनक हैं, लेकिन अभी और अधिक करने की जरूरत है । आंतरिक सुरक्षा की चुनौतियां अभी बनी हुई हैं। हमें अपनी ओर से इन चुनौतियों के प्रति लगातार सतर्क रहना होगा। इन चुनौतियों से कड़ाई से निपटने की आवश्यकता है, लेकिन पूरी संवेदनशीलता के साथ। आने वाले समय में भी सरकार ने आतंकवाद की समस्या से निपटने के लिए मजबूत एवं प्रभावशाली संस्थागत तंत्र स्थापित करने के इरादे से राज्यों के साथ मिलकर काम करने की जो तैयारी की है, उससे यह संकेत मिलता है कि अब धीरे-धीरे ही सही, आतंक और हिंसा से देश को निजात मिल सकती है, लेकिन विचित्र स्थिति यह है कि देश की इन परिस्थितियों में भी राज्य क्षेत्रीयता की संकुचित मानसिकता नहीं छोड़ पा रहे हैं। आतंक के खिलाफ एक केन्द्रीय इकाई हो और वह पूरे देश पर नज़र रखे, तो इसमें राज्यों के अधिकारों में कटौती या हस्तक्षेप की बात कहां से आ जाती है, यह समझ से परे है ! वह भी उस स्थिति में जब वे किसी भी ऐसे हादसे के लिए केन्द्रीय खुफिया एजेंसियों और सुरक्षा बलों की चूक को जिम्मेदार ठहराते रहे हैं।

Dark Saint Alaick
21-04-2012, 04:02 AM
भारत ने फिर दिखा दी अपनी ताकत

ओडिसा में बालासोर के निकट समुद्र में व्हीलर द्वीप से गुरूवार सुबह परमाणु क्षमता से लैस और स्वदेशी तकनीक से विकसित पहली इंटर कॉन्टिनेटल बैलेस्टिक मिसाइल(आईसीबीएम)अग्नि पांच का सफल परीक्षण कर भारत ने एक बार फिर दुनिया को अपनी क्षमता और ताकत का अहसास तो करवा ही दिया है साथ ही उन चुनिंदा देशों के क्लब में शामिल हो गया है जिनके पास आईसीबीएम है। फिलहाल इस क्लब में अमेरिका,रूस,फ्रांस,ब्रिटेन और चीन शामिल हैं। निश्चित रूप से आज हर भारतीय के लिए यह गौरव का दिन है क्योंकि हमारे वैज्ञानिकों ने कड़ी मेहनत और समर्पण से भारत को अग्रणी देशों की पंक्ति में ला खड़ा किया है। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी ने इसे बड़ी सफलता बताया और कहा, यह कामयाबी देश के मिसाइल शोध और विकास कार्यक्रम में मील का पत्थर है। भारत ने हमेशा ही अपनी सामरिक क्षमता को अपने बूते केवल शांति और सुरक्षा के मकसद से ही विकसित किया है और अग्नि पांच उसी की एक कड़ी है। भारत की इस बड़ी कामयाबी की जहां सभी सर्वत्र प्रशंसा हो रही है वहीं चीन इस सफलता को पचा नहीं पा रहा है। उसका कहना है कि मिसाइल की ताकत में भारत अब भी पीछे है और अग्नि पांच के परीक्षण से भारत को कुछ भी हांसिल होने वाला नहीं है जबकि रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन( डीआरडीओ ) के प्रमुख डॉ. वी. के. सारस्वत का मानना है कि मिसाइल तकनीक के लिहाज से कुछ मामलों में भारत चीन से भी आगे है। चीन भले ही तेवर दिखा रहा हो लेकिन इसके विपरीत नाटो के सेक्रेट्री जनरल एंडर्स एफ राममुसेन ने कहा कि हमें नहीं लगता कि अग्नि पांच का परीक्षण कर भारत नाटो के सहयोगी देशों के लिए कोई खतरा पैदा करेगा। अब भारत की इस कामयाबी पर प्रतिक्रियाएं तो होती रहेंगी लेकिन हमारे वैज्ञानिकों ने साबित कर दिया है कि वे किसी से कम नहीं हैं। इससे पहले अग्नि के चार संस्करण के अलावा हमारे वैज्ञानिक पृथ्वी, धनुष, ब्रह्मोस, सागरिका, आकाश और प्रहार जैसी मिसाइलें भारत को दे चुके हैं और गुरूवार को अग्नि पांच का सफल परीक्षण व हिन्द महासागर में अचूक निशाना लगा कर उन्होने फिर साबित कर दिया है कि भारत ठान ले तो कुछ भी कर सकता है।

Dark Saint Alaick
21-04-2012, 04:45 AM
लोकतंत्र की मजबूती के लिए सीआईआई का सुझाव

लोकतंत्र की मजबूती के लिए पिछले दिनो उद्योग मंडल सीआईआई ने जो सुझाव दिया है वह निश्चित रूप से देश और चुनावी व्यवस्था के लिए बेहद कारगर साबित हो सकता है। सीआईआई ने सुझाव दिया है कि कंपनियों सहित सभी आयकरदाताओं पर 0.2 प्रतिशत का लोकतंत्र उपकर लगाया जाना चाहिए और इसी उपकर का राजनीतिक गतिविधियों और देश में चुनाव के दौरान होने वाले खर्च में उपयोग किया जाना चाहिए। इन सुझावों वाली रिपोर्ट सीआईआई ने मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी को सौंपी है और अब आगे इन पर कैसे अमल संभव है इसका आकलन चुनाव आयोग को ही करना है। अगर सुझावों पर आगे बढ़कर काम किया जाए तो तय है कि देश में चुनाव के दौरान होने वाले बेतहाशा खर्च पर अंकुश लगाने में मदद मिलेगी साथ ही देश के हर आयकरदाता को यह महसूस होगा कि वह केवल वोट के जरिए ही नहीं बल्कि अपनी आय के एक हिस्से को देश के ऐसे काम में लगा रहा है जिससे लोकतंत्र मजबूत होगा। इस कदम को पूर्ण रूप से पारदर्शी बनाने के बारे में भी व्यापक सुझाव दिए गए हैं और कहा गया है कि इसमें ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए कि करदाता सीधे उपकर की राशि का चेक अपनी पसंद के राजनीतिक दल या फिर चुनाव आयोग द्वारा मान्यता प्राप्त दल के खाते में डाल सके। आयकरदाता को खुद यह फैसला करने दिया जाए कि वह किस राजनीतिक दल का समर्थन करना चाहता है। अगर कोई आयकर दाता एक से ज्यादा राजनीतिक दल को उपकर की राशि देना चाहता है तो वह ऐसा कर सके इसकी व्यवस्था भी होनी चाहिए। इसके अलावा सुझावों में यह भी कहा गया है कि अगर किसी करदाता द्वारा सीधे राजनीतिक दलों को किया गया भुगतान इस उपकर से कम हो तो शेष राशि को सरकार के खाते में जमा करवा देना चाहिए। इस उपकर सुझाव में सबसे बेहतरीन सुझाव यह भी है कि इस तरह के उपकर देने वाले करदाता को आयकर में छूट का प्रवधान भी किया जाना चाहिए। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि सीआईआई ने लोकतंत्र को मजबूत करने के सरकार के प्रयासों को सार्थक करने में मददगार रहने का यह सुझाव देकर अपनी दूरदृष्टि का जो परिचय दिया है वह स्वागत योग्य है। सरकार को इस पर निश्चित रूप से पहल करनी चाहिए।

Dark Saint Alaick
22-04-2012, 12:17 PM
आय बढ़ाने के चक्कर में दर्शक परेशान न हो

पिछले कई अर्से से टेलीविजन चैनल्स पर एक विज्ञापन लगातार प्रसारित हो रहा है जिसमें उपभोक्ताओं को उनके हक से रूबरू करवाया जाता है कि वे जो भी सामान खरीदें उसका बिल लें या उत्पाद पर लिखी गई कीमत से ज्यादा अदा न करें वगैरह-वगैरह। ‘जागो ग्राहक जागो’ शीर्षक वाले इस विज्ञापन में कभी-कभार कोई बड़ी हस्ती भी दिख जाती है जो ग्राहक को यह बताने का प्रयास करती है कि बाजार से जो भी सामान खरीदा जाए उसे देख-परख लिया जाए। आम तौर पर माना जाता है कि मीडिया लोगों को सही और गलत की पहचान करवाता है लेकिन इन दिनो ‘जागो ग्राहक जागो’वाला विज्ञापन प्रदर्शित करने वाले कई चैनल्स पर उपभोक्ताओं को कथित तौर पर भ्रमित करने वाले विज्ञापनों का प्रसारण भी हो रहा है। उससे दर्शक यह समझ ही नहीं पा रहे कि सही क्या है और गलत क्या। मूल रूप से ये विज्ञापन लोगों की धार्मिक भावनाओं से खेलते दिखाई देते हैं। मसलन एक चैनल पर देर रात धार्मिक यंत्रों वाला एक विज्ञापन प्रसारित होता है जिसमें दर्शकों को बताया जाता है कि उक्त यंत्र को घर के मंदिर में रखने से लक्ष्मी का आगमन होता है। दर्शक को यह भी कहा जाता है कि इस यंत्र के साथ यदि वे कुछ और धार्मिक वस्तुएं भी लेंगे तो भविष्य सुखमय होगा। ताज्जुब की बात तो यह है कि इस तरह के यंत्र की बाजार में तो कीमत बहुत ज्यादा बताई जाती है लेकिन यदि उस चैनल के दर्शक विज्ञापन में दिखाए गए नंबर पर बात कर यंत्र खरीदेंगे तो उसकी कीमत आधी ही रहेगी। अब एक आम दर्शक इस विज्ञापन को किस संदर्भ में ले, यह बताने वाला कोई नहीं है। इसी तरह एक चैनल पर इन दिनो एक धार्मिक पुस्तक को लेकर देर रात में विज्ञापन प्रसारित हो रहा है जिसमें एक नामचीन कलाकार उसका प्रचार-प्रसार करते नजर आते हैं और कहते हैं कि इस पुस्तक को घर में रखने से दुख दूर हो जाते हैं। इस विज्ञापन में कुछ ऐसे लोगों के साक्षात्कार भी दिखाए जाते हैं जो पुस्तक खरीदने के बाद कथित तौर पर लाभान्वित हुए हैं। अब अगर हम इन विज्ञापनो को इन दिनो चर्चा में रहे निर्मल बाबा के समागम वाले विज्ञापन से जोड़ कर देखें तो दोनो में कोई अंतर नहीं दिखाई देगा। लोगों की धार्मिक भावनाओं से खेलने वाले ऐसे विज्ञापन पहले तो चैनल खुद दिखाते हैं लेकिन जब ग्राहक या दर्शक ही ठगे जाते हैं तो वही चैनल उसे ऐसा मुद्दा बनाते हैं मानो आसमान टूट पड़ा। यही हाल विभिन्न चैनल्स पर दिखाए जाने वाले टेली शॉपिंग विज्ञापनो का है जहां ग्राहक को सिर्फ नंबर डायल कर अपनी मनचाही वस्तु खरीदने का आॅफर किया जाता है और यह भी बताया जाता है कि उक्त वस्तु बाजार में नहीं मिलेगी क्योंकि हमारी कोई शाखा नहीं है। ऐसे में उपभोक्ता का भ्रमित होना लाजिमी है। मीडिया को चाहिए कि वह ऐसे विज्ञापनो के प्रसारण से पहले ठोक बजा कर यह तो पता कर ही ले कि कहीं अपनी आय बढ़ाने के चक्कर में वे जो विज्ञापन दिखा रहे हैं उससे उनका नियमित दर्शक आर्थिक या मानसिक रूप से बाद में परेशान तो नहीं होगा। मीडिया को खुद आगे चल कर ऐसी नीति बनानी चाहिए जिसमें ऐसे विज्ञापनो के प्रसारण से पहले दर्शक को चेता दिया जाए कि जो हम दिखा रहे हैं वह केवल और केवल एक विज्ञापन है।

aksh
22-04-2012, 05:56 PM
आय बढ़ाने के चक्कर में दर्शक परेशान न हो

पिछले कई अर्से से टेलीविजन चैनल्स पर एक विज्ञापन लगातार प्रसारित हो रहा है जिसमें उपभोक्ताओं को उनके हक से रूबरू करवाया जाता है कि वे जो भी सामान खरीदें उसका बिल लें या उत्पाद पर लिखी गई कीमत से ज्यादा अदा न करें वगैरह-वगैरह। ‘जागो ग्राहक जागो’ शीर्षक वाले इस विज्ञापन में कभी-कभार कोई बड़ी हस्ती भी दिख जाती है जो ग्राहक को यह बताने का प्रयास करती है कि बाजार से जो भी सामान खरीदा जाए उसे देख-परख लिया जाए। आम तौर पर माना जाता है कि मीडिया लोगों को सही और गलत की पहचान करवाता है लेकिन इन दिनो ‘जागो ग्राहक जागो’वाला विज्ञापन प्रदर्शित करने वाले कई चैनल्स पर उपभोक्ताओं को कथित तौर पर भ्रमित करने वाले विज्ञापनों का प्रसारण भी हो रहा है। उससे दर्शक यह समझ ही नहीं पा रहे कि सही क्या है और गलत क्या। मूल रूप से ये विज्ञापन लोगों की धार्मिक भावनाओं से खेलते दिखाई देते हैं। मसलन एक चैनल पर देर रात धार्मिक यंत्रों वाला एक विज्ञापन प्रसारित होता है जिसमें दर्शकों को बताया जाता है कि उक्त यंत्र को घर के मंदिर में रखने से लक्ष्मी का आगमन होता है। दर्शक को यह भी कहा जाता है कि इस यंत्र के साथ यदि वे कुछ और धार्मिक वस्तुएं भी लेंगे तो भविष्य सुखमय होगा। ताज्जुब की बात तो यह है कि इस तरह के यंत्र की बाजार में तो कीमत बहुत ज्यादा बताई जाती है लेकिन यदि उस चैनल के दर्शक विज्ञापन में दिखाए गए नंबर पर बात कर यंत्र खरीदेंगे तो उसकी कीमत आधी ही रहेगी। अब एक आम दर्शक इस विज्ञापन को किस संदर्भ में ले, यह बताने वाला कोई नहीं है। इसी तरह एक चैनल पर इन दिनो एक धार्मिक पुस्तक को लेकर देर रात में विज्ञापन प्रसारित हो रहा है जिसमें एक नामचीन कलाकार उसका प्रचार-प्रसार करते नजर आते हैं और कहते हैं कि इस पुस्तक को घर में रखने से दुख दूर हो जाते हैं। इस विज्ञापन में कुछ ऐसे लोगों के साक्षात्कार भी दिखाए जाते हैं जो पुस्तक खरीदने के बाद कथित तौर पर लाभान्वित हुए हैं। अब अगर हम इन विज्ञापनो को इन दिनो चर्चा में रहे निर्मल बाबा के समागम वाले विज्ञापन से जोड़ कर देखें तो दोनो में कोई अंतर नहीं दिखाई देगा। लोगों की धार्मिक भावनाओं से खेलने वाले ऐसे विज्ञापन पहले तो चैनल खुद दिखाते हैं लेकिन जब ग्राहक या दर्शक ही ठगे जाते हैं तो वही चैनल उसे ऐसा मुद्दा बनाते हैं मानो आसमान टूट पड़ा। यही हाल विभिन्न चैनल्स पर दिखाए जाने वाले टेली शॉपिंग विज्ञापनो का है जहां ग्राहक को सिर्फ नंबर डायल कर अपनी मनचाही वस्तु खरीदने का आॅफर किया जाता है और यह भी बताया जाता है कि उक्त वस्तु बाजार में नहीं मिलेगी क्योंकि हमारी कोई शाखा नहीं है। ऐसे में उपभोक्ता का भ्रमित होना लाजिमी है। मीडिया को चाहिए कि वह ऐसे विज्ञापनो के प्रसारण से पहले ठोक बजा कर यह तो पता कर ही ले कि कहीं अपनी आय बढ़ाने के चक्कर में वे जो विज्ञापन दिखा रहे हैं उससे उनका नियमित दर्शक आर्थिक या मानसिक रूप से बाद में परेशान तो नहीं होगा। मीडिया को खुद आगे चल कर ऐसी नीति बनानी चाहिए जिसमें ऐसे विज्ञापनो के प्रसारण से पहले दर्शक को चेता दिया जाए कि जो हम दिखा रहे हैं वह केवल और केवल एक विज्ञापन है।

बहुत ही अच्छा विषय उठाया है मित्र आपने...मन इसमें एक और दिन दहाड़े हो रही धोखाधड़ी को जोड़ना चाहता हूँ जो शायद मैंने पहले भी उठाई है...पर एक बार और सब के सामने लाना चाहता हूँ...

ये उन लोगों के लिए एक सबक है जो ये सोचते हैं कि मीडिया पर सरकारी नियंत्रण है...और संचार कम्पनियाँ भी सरकार के कड़े नियंत्रण का शिकार है...

कुछ टी वी चैनल अक्सर एक प्रोग्राम दिखा रहे होते हैं जिसमें एक सरल सा आसानी से पहचाने जाना वाला चित्र दिखाते हैं और पब्लिक से पुरजोर अपील की जा रही होती है उस चेहरे को पहचानने के लिए.

उस प्रोग्राम में जितने भी फोन आते हैं वो गलत जवाब ही देते हैं और इनाम की राशि बढती रहती है..
बिना पढ़ा लिखा मजबूर टेलीफोन उपभोक्ता ( जो अक्सर प्री पैड कस्टमर होता है...) इनाम की राशि जीतने के चक्कर में अपने सेंकडों रूपये गँवा बैठता है...और ये पैसे टेलीफोन कंपनी और टेलीविजन चैनल आपस में बंदरबांट कर लेते हैं...

क्योंकि इस प्रोग्राम में दिखाए जाने वाले चित्र इतने आसान होते हैं कि कोई भी उनको पहचान लेता है और इस तरह के प्रोग्राम का एक मात्र लक्ष्य सिर्फ भोले भाले लोगों को उल्लू बना कर पैसा कमाना होता है...और वो भी दिन दहाड़े लूट कर....

Dark Saint Alaick
23-04-2012, 02:58 AM
बहुत ही अच्छा विषय उठाया है मित्र आपने...मन इसमें एक और दिन दहाड़े हो रही धोखाधड़ी को जोड़ना चाहता हूँ जो शायद मैंने पहले भी उठाई है...पर एक बार और सब के सामने लाना चाहता हूँ...

ये उन लोगों के लिए एक सबक है जो ये सोचते हैं कि मीडिया पर सरकारी नियंत्रण है...और संचार कम्पनियाँ भी सरकार के कड़े नियंत्रण का शिकार है...

कुछ टी वी चैनल अक्सर एक प्रोग्राम दिखा रहे होते हैं जिसमें एक सरल सा आसानी से पहचाने जाना वाला चित्र दिखाते हैं और पब्लिक से पुरजोर अपील की जा रही होती है उस चेहरे को पहचानने के लिए.

उस प्रोग्राम में जितने भी फोन आते हैं वो गलत जवाब ही देते हैं और इनाम की राशि बढती रहती है..
बिना पढ़ा लिखा मजबूर टेलीफोन उपभोक्ता ( जो अक्सर प्री पैड कस्टमर होता है...) इनाम की राशि जीतने के चक्कर में अपने सेंकडों रूपये गँवा बैठता है...और ये पैसे टेलीफोन कंपनी और टेलीविजन चैनल आपस में बंदरबांट कर लेते हैं...

क्योंकि इस प्रोग्राम में दिखाए जाने वाले चित्र इतने आसान होते हैं कि कोई भी उनको पहचान लेता है और इस तरह के प्रोग्राम का एक मात्र लक्ष्य सिर्फ भोले भाले लोगों को उल्लू बना कर पैसा कमाना होता है...और वो भी दिन दहाड़े लूट कर....

मित्र ! मेरी राय आप सभी को यह है कि आप में से कोई भी दिनांक और समय दर्शाने वाले कैमरे से उस प्रोग्राम का चित्र उतार लें और फिर नियामक संस्था तथा सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को शिकायत करें ! इसके लिए भारतीय प्रेस परिषद् से भी शिकायत की जा सकती है ! हालांकि वह इसके लिए उपयुक्त संस्था नहीं है, तथापि मेरा मानना है कि वर्तमान अध्यक्ष जस्टिस काटजू काफी मुखर हैं और इस विषय को वे सरकार के समक्ष पुरजोर तरीके से अवश्य उठा सकते हैं ! यकीन मानें कार्यवाही अवश्य होगी !

Dark Saint Alaick
23-04-2012, 03:03 AM
अफसर के अपहरण से खुली दावों की पोल

छत्तीसगढ़ में माओवादियों द्वारा एक आईएस अफसर के अपहरण ने भाजपा के नेतृत्व वाली रमन सिंह सरकार के इस दावे की पोल खोल दी है कि राज्य में सब कुछ ठीक चल रहा है और सरकार नक्सली हिंसा से कड़ाई से निपट रही है। इस घटना से साबित हो गया है कि राज्य में न तो खुफिया तंत्र अपनी भूमिका को ढंग से निभा पा रहा और न पुलिस नक्सलियों के मामले में गंभीर दिख रही है वरना क्या कारण है कि माओवादी आला पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों के बीच से एक आईएएस अफसर को राइफल और बंदूक की नोक पर उठा ले जाने की हिमाकत कर गए और सभी अफसर या तो छुप गए या केवल घटना को देखते भर रहे। यह हालत तो तब है, जब केन्द्र सरकार के गृह मंत्रालय ने खुफिया सूचना के बाद तीन-तीन पत्र भेज कर राज्य सरकार को आगाह किया था कि माओवादी ओडिसा में विधायक के अपहरण के बाद छत्तीसगढ़, खासकर राज्य के बस्तर अंचल में कोई बड़ी वारदात कर सकते हैं, लेकिन राज्य के खुफिया विभाग ने केन्द्र की सूचना की अनदेखी कर दी और उसी का नतीजा था कि माओवादियों ने शुक्रवार को संसदीय सचिव के काफिले पर हमला किया और शनिवार को बस्तर जिले में कलेक्टर को ही अगवा कर ले गए। इसमें राज्य सरकार की कोताही खुलकर सामने आ गई है। कुछ दिनों पहले सरकार ने वाहवाही लूटने के इरादे से ग्राम सुराज अभियान शुरू किया था, तब मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने भी आगाह किया था कि सरकार को अभियान रूपी यह नाटक बंद कर वरिष्ठ अधिकारियों की सुरक्षा पर गौर करना चाहिए, लेकिन रमन सिंह सरकार ने इसे भी नजरअंदाज कर दिया और कलेक्टर के अपहरण के बावजूद हठधर्मिता दिखाते हुए घोषणा की कि ग्राम सुराज अभियान जारी रहेगा। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि यह घटना राज्य सरकार की ढिलाई का नतीजा है। अब भी समय रहते सरकार को चेत जाना चाहिए और माओवादियों के बाहुल्य वाले इलाकों में लोगों की दयनीय दशा को संभालने के ठोस कदम उठाने चाहिए। राज्य सरकार का यह तर्क एकदम बेमानी है कि माओवादी या नक्सली हिंसा के खिलाफ केन्द्र द्वारा मदद से ही कुछ हो सकता है। आखिर राज्य के लोगों की सुरक्षा का जिम्मा तो राज्य सरकार पर ही है।

Dark Saint Alaick
28-04-2012, 01:09 AM
अंतरिक्ष कार्यक्रम को मिली बड़ी कामयाबी

वैज्ञानिकों ने एक और बड़ी कामयाबी हासिल करते हुए पीएसएलवी- सी 19 के माध्यम से रीसेट- एक का गुरूवार को प्रक्षेपण कर उसे अंतरिक्ष में स्थापित कर देश का मस्तक गौरव से ऊंचा कर दिया। करीब एक सप्ताह पहले ही अग्नि - 5 का सफल परीक्षण कर देश के वैज्ञानिक अपनी क्षमता का लोहा पहले ही मनवा चुके हैं। इस उपग्रह के प्रक्षेपण के साथ ही भारत अमेरिका, कनाडा, जापान व यूरोपीय संगठन के उस समूह में शामिल हो गया है जिनके पास मौसम की सटीक जानकारी हासिल करने की अत्याधुनिक तकनीक उपलब्ध है। 1858 किलोग्राम वजनी माइक्रोवेव रिमोट सेंसिंग उपग्रह रीसेट- एक के प्रक्षेपण के साथ ही भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने जटिल आप्टिकल इमेजिंग तकनीक के क्षेत्र में भी महारत हासिल कर ली है। रीसेट- एक की खास बात यह है कि इस पर सिंथेटिक अपरचर राडार लगा है जो किसी भी मौसम,दिन और रात तथा बादलों के छाए रहने की स्थिति में भी सटीक जानकारी देने में सक्षम है। पूरी तरह स्वदेश में निर्मित इस उपग्रह को 2008 में मुंबई में हुए आतंकवादी हमलों के बाद प्राथमिकता के आधार पर तैयार किया गया है। इससे देश की दूर संवेदी क्षमता में इजाफा तो होगा ही साथ ही कृषि तथा आपदा प्रबंधन के क्षेत्र में भी मदद मिलेगी। भारत कृषि प्रधान देश है। यहां अधिकतर फसलें आज भी मानसून पर निर्भर रहती हैं। देश को अब तक भारत कनाडाई उपग्रह की तस्वीरों पर निर्भर रहना था क्योंकि मौजूदा घरेलू दूर संवेदी उपग्रह बादलों की स्थिति में धरती की तस्वीरें नहीं ले सकते थे । ऐसे में मौसम की सटीक जानकारी सही समय पर नहीं मिल पाती थी और किसान अच्छी फसल के बावजूद कई बार अपनी फसल को यकायक खराब होने वाले मौसम से बचा नहीं सकते थे। अब हमारे देश के वैज्ञानिकों ने जो कर दिखाया है वह निश्चित रूप से कृषि क्षेत्र में मील का पत्थर साबित होगा। यह उपग्रह जब मिट्टी की नमी, ग्लेशियरों की स्थिति और अन्य विवरणों जैसी महत्वपूर्ण जानकारी देने लगेगा तो तय है इससे देश को बड़ा फायदा होगा और इस फायदे को कामयाबी की सीढ़ी बनाकर भारत के लिए आर्थिक क्षेत्र में काफी आगे बढ़ने के अवसर और बढ़ेंगे। इसके लिए हमारे देश के वैज्ञानिक बधाई के पात्र हैं।

Dark Saint Alaick
29-04-2012, 10:50 PM
सोशल मीडिया को अब गंभीरता दिखानी होगी

सभी जानते हैं कि हमारे लोकतांत्रिक देश भारत में सभी को अपने विचार व्यक्त करने की पूरी आजादी है। संविधान में भी इसका उल्लेख है और अभिव्यक्ति की आजादी को सर्वोपरि माना गया है, लेकिन इस आजादी के यह मायने तो नहीं है कि हम इसका सदुपयोग करने की बजाय दुरूपयोग करने लग जाएं। यह ध्यान तो रखना ही होगा कि इस आजादी के सहारे हम कहीं उच्छृंखल न हो जाएं। आम आदमी के साथ- साथ यह बात मीडिया पर भी लागू होती है कि वह अभिव्यक्ति की आजादी की अपनी जिम्मेदारियों के दायरे में रख कर ही काम करे, लेकिन पिछले दिनों जो सामने आया, उससे यह साफ हो गया कि मीडिया, खास कर सोशल मीडिया ने इस सहूलियत का बेजा फायदा उठाया और अदालती आदेश तक की अनदेखी कर डाली। सोशल मीडिया में लोगों, संगठनों, धर्मों और समुदायों को बदनाम करने के लिए इसका दुरुपयोग करने का नया चलन शुरू हो गया है। जाहिर है जब इस तरह की घटनाएं बढ़ेंगी, तो लोगों का भरोसा धीरे-धीरे मीडिया पर से भी उठने लगेगा, जबकि देश में मीडिया को जानकारी का सबसे सशक्त माध्यम माना जाता है। यही कारण था कि काटजू को केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी को पत्र लिख कर यह आग्रह करने का बहाना मिल गया कि सरकार को मीडिया की आजादी को जिम्मेदारियों से जोड़ने तथा सोशल मीडिया का दुरुपयोग लोगों और संगठनों को बदनाम करने से रोकने के तरीके तलाशने के लिहाज से विशेषज्ञों का एक दल बनाना चाहिए। यह वजह एक सीडी के सोशल मीडिया पर प्रसार के कारण पैदा हुई, जिसमें सीडी बनाने वाले तक ने यह स्वीकार किया कि उच्चतम न्यायालय के एक प्रतिष्ठित वरिष्ठ वकील और संसद सदस्य को बदनाम करने तथा एक केंद्रीय मंत्री को धमकाने के लिए इसमें छेड़छाड़ की गई है। ऐसे में सोशल मीडिया पर नजर रखने के लिहाज से कानून बनाने की वकालत करने वाले काटजू के इस तर्क में दम नज़र आने लगती है कि जब तक सोशल मीडिया पर कुछ लगाम नहीं कसी जाती, तब तक भारत में किसी की प्रतिष्ठा सुरक्षित नहीं रहेगी। निश्चित रूप से निरन्तर बढ़ती जा रही इस समस्या से निपटने के रास्ते तलाशने के लिए सरकार को विधि एवं तकनीक विशेषज्ञों की एक टीम तो बनानी ही चाहिए और अगर यह लगता है कि इस पर रोक अनिवार्य है, तो सरकार को इस तरह की आपत्तिजनक सामग्री को सोशल मीडिया की साईट से हटाने के लिए उचित कानून बनाने की प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए। सोशल मीडिया को भी खुद इसमें आगे आकर पहल करनी चाहिए और जो सामग्री वह प्रसारित करने जा रहा है, पहले उसके गुण-दोष को उसे खुद पहचानना होगा। साथ ही यह भी ध्यान में रखना होगा कि कहीं वह ऐसी कोई सामग्री अपने उपभोक्ता को नहीं परोस दे, जिसके चलते किसी के निजी जीवन पर ही आंच आ जाए। सोशल मीडिया को इस विषय पर अपने मकसद भी सार्वजनिक करने होंगे, ताकि लोगों में किसी तरह का भ्रम न फैले और वह उसका उपयोग केवल जानकारी हासिल करने तक ही सीमित कर सकें। उम्मीद की जानी चाहिए कि सोशल मीडिया गंभीरता से इस मुद्दे पर विचार करेगा।

Dark Saint Alaick
05-05-2012, 08:41 PM
सामने आई नीतीश की दोहरी चाल

अब इसे गिरगिट की तरह से रंग बदलना कहें या सोंची समझी सियासी चाल कि कल तक गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को फूटी आंख नहीं सुहाते थे, उन्हीं मोदी से नीतीश मेलमिलाप की पींगें लड़ाते दिख रहे हैं। शनिवार को राजधानी दिल्ली में प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में हुई एनसीटीसी पर सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक में जिस तरह से नीतीश कुमार ने कैमरों की मौजूदगी में न सिर्फ मोदी से हाथ मिलाया, बल्कि काफी देर तक उनसे बतियाते भी रहे तो यह एकदम साफ हो गया कि दोनों ही नेता अपने-अपने मकसद को कहीं न कहीं पूरा करने के लिए अपने पुराने गिल-शिकवे दूर कर राजनीति की नई गोटियां फिट करने में लगे हैं। हालांकि इसे दूर के ढोल सुहावने वाली कहावत के रूप में ही लिया जा सकता है कि दोनों को आगामी लोकसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री पद की दावेदारी की संभावनाएं नजर आ रही हैं। राजनीतिक क्षेत्र में वक्त के साथ ऊंट किस करवट बैठेगा, यह भविष्यवाणी तो कम से कम कोई भी नहीं कर सकता, लेकिन जिस तरह से अब तक धर्मनिरपेक्षता की चादर ओढ़ कर घूम रहे नीतीश कुमार ने सार्वजनिक तौर पर मोदी से मिलकर उस चादर को हटा फैंका हैं, उससे नीतीश की दोहरी चाल का तो पर्दाफाश हो ही गया है, मोदी को बार-बार सांप्रदायिक कहने वाले नीतीश इस मेलमिलाप के बाद बेनकाब भी हो गए। यह वही नीतीश हैं, जो मोदी के साथ फोटो खिंचवाने से भी परहेज करते रहे हैं और जब बिहार में विधानसभा चुनाव हुए थे, तो उन्होंने मोदी की सांप्रदायिक छवि के चलते ही उन्हें राज्य में चुनाव प्रचार से अलग रखा था। नीतीश यह भलीभांति जानते हैं कि आने वाले लोकसभा चुनाव में यदि उन्हें केन्द्र की राजनीति की तरफ रुख करना है, तो उन सिद्धान्तों को तो ताक पर रखना ही होगा, जिन्हें लेकर वे अब तक स्वच्छ राजनीति का ढिंढोरा पीटते रहे हैं। हो सकता है कि उन्हें उन लोगों का भी साथ लेना पड़ जाए, जिन्हें वे अब तक देखना भी पसंद नहीं करते थे। जो भी हो नीतीश ने सार्वजनिक तौर पर मोदी से नजदीकियां दिखा कर यह साबित तो कर ही दिया कि अपने राजनीतिक हित के लिए वे किसी भी सीमा तक जा सकते हैं, फिर भले ही उन्हें अपनी विचारधारा से ही समझौता क्यों न करना पड़े।

Dark Saint Alaick
06-05-2012, 08:28 PM
इस्तीफों की महत्वाकांक्षाएं

राजस्थान भाजपा में भूचाल आया हुआ है। महत्वाकांक्षाएं आपस में टकरा रही हैं। ढाई-तीन साल पहले की राजनीति एक बार फिर शुरू हो गई है। ऐसे में राजनीति के जानकारों को कर्नाटक के पुराने मुख्यमंत्री बी.एस. येदियुरप्पा की शतरंज की चालें याद आ रही हैं। भाजपा के वरिष्ठ नेता गुलाबचंद कटारिया की मेवाड़ में प्रस्तावित 28 दिन की जनजागरण यात्रा पर फैसला लेने के लिए शनिवार शाम बुलाई गई पार्टी की कोर कमेटी की बैठक में अपनी दाल गलती नहीं देखकर वसुंधरा राजे ने जिस तरह बिफरते हुए पार्टी से इस्तीफे की धमकी दी, उससे साफ जाहिर हो गया कि वे अपने सामने प्रदेश में किसी का राजनीतिक कद बढ़ता हुआ नहीं देखना चाहती। हालांकि कटारिया ने अपनी यात्रा वापस लेने की घोषणा कर दी, लेकिन इसके बाद जो भाजपा में जो राजनीतिक खेल शुरू हुआ है, उसके कई मायने हैं, जिनके दूरगामी असर दिखाई देंगे। रविवार को भाजपा विधायकों ने इस्तीफों का जो खेल शुरू किया, वह साफतौर पर आलाकमान पर दबाव बनाने की शतरंजी बिसात है। यह बात राजे के नजदीकी भवानी सिंह राजावत के मीडिया को दिए गए बयानों से भी साफ हो गई कि भाजपा विधायकों ने आगामी विधानसभा चुनाव में राजे कोे मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने की मांग को लेकर अपने इस्तीफे नेता प्रतिपक्ष को सौपे हैं। इसका मतलब राजे गुट को इस बात को खतरा है कि डेढ़ साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में आलाकमान किसी अन्य नेता को मुख्यमंत्री पद के लिए प्रोजेक्ट कर सकता है। राजे गुट के मन में डर समाया हुआ है। उन्हें कटारिया से भी इसी बात का खतरा है, इसीलिए उन्होंने पिछले दिनों किरण माहेश्वरी के जरिए राजसमंद में हुई पार्टी की बैठक में कटारिया की मौजूदगी में यात्रा के विरोध का डंका बजाया। मामला दिल्ली में आलाकमान के पास पहुंचा तो आलाकमान ने कटारिया की यात्रा की गेंद प्रदेश भाजपा के पाले में डालते हुए 5 मई को कोर कमेटी की बैठक बुलाकर फैसला करने के निर्देश दे दिए। भाजपा के एक धड़े को पहले से ही इस बात का अहसास था कि कोर कमेटी की बैठक शांतिपूर्ण तरीके से नहीं होगी, इसमें कोई न कोई अनहोनी जरूर होगी। वसुंधरा राजे ने शनिवार रात जो बगावती तेवर दिखाए, वह कोई नई बात नहीं है। वे पहले भी येदियुरप्पा की तरह आलाकमान को आंखें दिखा चुकी हैं। ढाई-तीन साल पहले वसुंधरा राजे को आलाकमान ने जब नेता प्रतिपक्ष के पद से हटा दिया था, तब भी राजे ने पार्टी को अलग-थलग कर इसी तरह के बगावती तेवर दिखाए थे। बाद में भाजपा के कमजोर आलाकमान ने राजे को फिर से नेता प्रतिपक्ष के पद पर बैठा दिया। किसी राजनीतिक दल में ऐसा पहली बार हुआ था कि किसी नेता को पद से हटाकर कुछ दिन बाद वापस उसी पद पर बैठा दिया गया। बहरहाल, वसुंधरा राजे अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के चलते अब फिर से दबाव की राजनीति कर रही हैं। इससे उन्हें क्या फायदा और नुकसान होगा, यह कहना अभी मुश्किल है, लेकिन इससे यह बात साफ नजर आ रही है कि पार्टी नेताओं में आपसी कलह कम होने के बजाय और बढ़ेगी और इसका नुकसान भाजपा को ही उठाना पड़ेगा।

ndhebar
06-05-2012, 09:03 PM
भाजपा के भीतर की कलह ही पार्टी को पीछे धकेल रही है

abhisays
07-05-2012, 06:30 AM
भाजपा के भीतर की कलह ही पार्टी को पीछे धकेल रही है


सही बात है, अगर ऐसा ही चलता रहा तो यह लोग फिर २०१४ में भी हार जायेंगे..

Dark Saint Alaick
14-05-2012, 06:23 AM
पाक को बेनकाब करने वाला विधेयक

आतंकवाद को शह और प्रश्रय देने के आरोप अक्सर पाकिस्तान पर लगते रहते हैं। भारत तो आरोप ही नहीं दस्तावेजी सबूतों के आधार पर यह बता चुका है कि भारत में मुंबई हमले जैसे कारनामों के तार सीधे-सीधे पाकिस्तान से जुड़े हैं लेकिन पाकिस्तान हमेशा ही उससे मुकरता रहा है। ऐसे में अमेरिकी संसद में पेश किए गए एक विधेयक से यह शक और पुख्ता हो जाता है कि पाकिस्तान कहीं ना कहीं इस तरह की गतिविधियों को अपना मूक समर्थन देता रहा है। जो विधेयक पेश किया गया है उसमें इस बात का प्रावधान किया गया है कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई की करतूत से जब भी कोई अमेरिकी मारा जाएगा तो पाकिस्तान को मिलने वाली अमेरिकी मदद में से पांच करोड़ डॉलर की राशि की कटौती कर ली जाएगी। विधेयक में पाकिस्तान पर यह आरोप भी लगाया गया है कि उसने दशकों से अपने यहां आतंकवादी संगठनों को भारत और अफगानिस्तान में हमले करने की खुली छूट दे रखी है। सांसद डाना रोहराबाशेर की ओर से पेश ‘पाकिस्तान आतंकवाद जवाबदेह कानून 2012’ विधेयक के प्रावधानों के तहत रक्षा मंत्रालय को पाकिस्तान सरकार के कुछ तत्वों की ओर से समर्थन प्राप्त और देश में तथा अफगानिस्तान में बेधड़क अपनी गतिविधियां चलाने वाले आतंकवादी संगठनों द्वारा मारे गए सभी अमेरिकियों की सूची तैयार करनी होगी। मारे गए हर अमेरिकी के बदले पाकिस्तान को अमेरिका की ओर से दी जा रही आर्थिक मदद में से पांच करोड़ डॉलर की राशि की कटौती की जाएगी। यह राशि पीड़ितों के परिजनों को दी जाएगी। विधेयक में कहा है कि पाकिस्तान आईएसआई के जरिए आतंकवादी संगठनों का भारत के खिलाफ कश्मीर में भी इस्तेमाल करता है। निश्चित रूप से यह विधेयक गहन अध्ययन और जांच के बाद ही अमेरिकी संसद में रखा गया होगा जो यह साबित करता है कि पाकिस्तान ना तो पहले और ना ही अब तक अपनी हरकतों से बाज आ रहा है। संभवतया यह पहला मौका होगा जब अमेरिका की संसद में किसी देश के खिलाफ इस तरह की व्यवस्था वाला ऐसा विधेयक पेश किया गया है। विधेयक को मंजूरी मिलगी या नहीं यह तो समय ही बताएगा, लेकिन इससे पाकिस्तान एक बार फिर दुनिया के सामने बेनकाब तो हो ही गया है।

Dark Saint Alaick
15-05-2012, 02:53 PM
मीडिया की भूमिका पर उठते सवाल

मीडिया आजकल राजनीतिक रूप से चर्चा में है। मीडिया की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए जा रहे हैं। रविवार को राजस्थान की राजधानी जयपुर में मीडिया से जुड़े दो बड़े कार्यक्रम हुए। एक कार्यक्रम नेशनल सैटेलाइट चैनल के शुभारंभ का था और दूसरा पत्रकारों के सम्मान का। सेटेलाइट टीवी के कार्यक्रम में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत मुख्य अतिथि थे, जबकि पत्रकार सम्मान समारोह में देश के जाने-माने पत्रकार रामबहादुर राय। दोनों कार्यक्रमों में मीडिया की वर्तमान स्थिति पर सवाल उठाते हुए चिंता जताई गई और जिम्मेदारियों की चर्चा गई। इसमें कोई दोराय नहीं कि टीवी चैनल पर प्रसारित और अखबारों में छपी खबरों को लोग सबसे ज्यादा तरजीह देते हैं। गांव-देहात सहित शहरों में भी छपी हुई खबरों को सबसे ज्यादा विश्वसनीय माना जाता है। गांव-ढाणियों में तो लोग इस बात पर अच्छी-खासी बहस भी करते हैं कि अखबार में छपी है, इसलिए यह बात गलत हो ही नहीं सकती। सच्चाई यह है कि मीडिया का व्यापारीकरण होता जा रहा है। इसके अलावा भी कई कारण हैं। इसलिए कई बार असावधानीवश या अन्य कारणों से अखबारों या टीवी चैनलों पर गलत खबरें भी आती हैं। टीवी चैनलों पर आजकल सबसे चर्चित शख्स निर्मल बाबा भी संकट में फंसे हुए हैं। वे फलां रंग के कपड़े पहनने, गोलगप्पे खाने, चैटिंग करने, फलां मंदिर में जाकर इतने रुपए का प्रसाद चढ़ाने के नुस्खे लोगों को बताते थे, अब उनके खिलाफ पुलिस जांच कर रही है। निर्मल बाबा के टीवी चैनलों पर छाए रहने का कारण पूरा व्यावसायिक है। अब बात करें पत्रकार सम्मान समारोह की। इसमें जाने-माने पत्रकार रामबहादुर राय ने मीडिया को आईना दिखाने में कसर नहीं छोड़ी। उनका कहना था कि आज की परिस्थितियों में मीडिया मोटा और रोगी हो गया है और इसका चरित्र बदल गया है। उन्होंने देश में चलने वाले 650 चैनल और प्रकाशित होने वाली बयासी हजार पत्र-पत्रिकाएं जो कुछ छपता और प्रसारित होता है, उस पर सवाल उठाए। राय का कहना था कि समय के साथ अखबार मुनाफाखोरी और सत्ता की बांह मरोड़ने वाला उपक्रम बन गए हैं। इतना ही नहीं, चुनाव के समय खबरों के बेचने-खरीदने के साथ अब तो सामान्यत: संस्थानों की खरीद हो रही है। उन्होंने मीडिया पर एकाधिकार करने वाले समूहों को लोकतंत्र का खतरा बताते हुए कहा कि ये देश के नीति निर्माताओं को दबाने के लिए किया जा रहा है। इन सब चर्चाओं का निष्कर्ष यही है कि मीडिया की विश्वसनीयता और चरित्र पर आज जो सवाल उठ रहे हैं, उस पर मीडिया संस्थानों और पत्रकार संगठनों को विचार करने की जरूरत है ताकि खबरों पर लोगों का विश्वास बना रहे।

Dark Saint Alaick
15-05-2012, 03:14 PM
जो कहा, उस पर अमल करें सांसद

संसद के साठ वर्ष पूर्ण होने के मौके पर आयोजित विशेष सत्र में जिस तरह से प्रधानमंत्री समेत वक्तव्य देने वाले सभी सदस्यों ने संसद को सर्वोच्च मानते हुए जो भावनाएं व्यक्त की, वह निश्चित रूप से हमारे लोकतंत्र के लिए एक अच्छा संकेत है। सदस्यों ने कार्यवाही में बार-बार बाधा पहुंचाए जाने पर चिन्ता व्यक्त करते हुए आत्मनिरीक्षण करने की आवश्यकता जताई, साथ ही दलगत राजनीति से ऊपर उठकर संसद के आधिपत्य का संरक्षण किए जाने पर भी जोर दिया। सदन के नेता प्रणव मुखर्जी ने ऐसी व्यवस्था बनाने की जरूरत बताई, जिससे संसद की कार्यवाही बाधित नहीं हो और चर्चा के माध्यम से मुद्दों का समाधान निकाला जाए। यह तो तय है कि कई बार सदन में कई मुद्दों पर उत्तेजना बढ़ जाती है, जिसके कारण कार्यवाही बाधित होती है और प्रणव मुखर्जी ने भी माना कि इसमें हमारे दल के लोग भी होते हैं और दूसरे दलों के लोग होते हैं, लेकिन अगर कामकाज बाधित होता है, तब हम अपनी बात नहीं रख पाते। हमें ऐसी व्यवस्था बनाने की जरूरत है, जिससे सदन का कामकाज बाधित नहीं हो; लेकिन लगता है कि विपक्ष कहता कुछ है और करता कुछ है। रविवार को हुई इस गहन चर्चा के बावजूद विपक्षी सदस्यों ने सोमवार को दोनों सदनों में केन्द्रीय मंत्री पी. चिदम्बरम के एक मामले को लेकर शोर किया और सदन की कार्यवाही भी दो बार स्थगित करनी पड़ी। राज्यसभा में भाजपा के बलबीर पुंज चिदम्बरम के एयरसेल मामले को उठाने लगे, तो सभापति डॉ. हामिद अंसारी ने कहा कि यह मामला शून्यकाल में उठाया जाना चाहिए, लेकिन पुंज ने एक नहीं सुनी और बार-बार चिदम्बरम का मामला उठाने लगे। प्रश्नकाल बाधित हो गया और सदन की कार्यवाही पर भी इसका असर पड़ा। इस पर संसदीय कार्य राज्यमंत्री राजीव शुक्ला ने कहा- कल ही हमने कसमें खाई हैं। आज तो ऐसा न कीजिए। अपना धैर्य मत खोइए। तब जाकर पुंज ने अपना स्थान ग्रहण किया। कुल मिलाकर संसद सदस्यों को अब यह तो देखना ही होगा कि उनकी करनी और कथनी में अंतर न हो। निश्चित रूप से संसद हमारे लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था है और यहां जिन भी विषयों पर चर्चा होती है वह न केवल मूल्यवान होती है, बल्कि उस पर अमल भी होता है। ऐसे में सभी सदस्यों, खासकर विपक्ष को संसद की गरिमा का ध्यान रखना ही चाहिए। यहां अटल बिहारी वाजपेयी के संसदीय आचरण का स्मरण किया जाना चाहिए कि किस तरह वे 'सिर्फ विरोध के लिए विरोध' नहीं कर अच्छे कार्यों के लिए सत्ता पक्ष की सदैव प्रशंसा भी किया करते थे और यही वह सबसे बड़ी वज़ह थी कि जब भी वे कोई प्रतिकूल टिप्पणी करते थे, तो सारा देश उसे गंभीरता से लेता था ! आज जरूरत यही है कि प्रत्येक संसद सदस्य उसी आचरण का अनुसरण करे !

Dark Saint Alaick
17-05-2012, 12:59 AM
फिक्सिंग के जाल से बचना ही होगा

हमारे शास्त्रों में कहा गया है - अति सर्वत्र वर्जियेत। अति किसी भी चीज की हो, कहीं भी हो, खराब ही होती है। देश में क्रिकेट बेहद लोकप्रिय खेल हो चुका है। बारहों माह हमारे देश की टीम और उसके खिलाड़ी किसी न किसी मैच में खेलते दिखार्ई दे जाएंगे। इस खेल में खिलाड़ियों को पैसा भी मानो छप्पर फाड़ कर मिल रहा है, मगर फिर भी यह खेल स्पॉट फिक्सिंग के दलदल में फंसता चला जा रहा है। फटाफट क्रिकेट के नए संस्करण 'आईपीएल' ने भी देश के क्रिकेट प्रेमियों को एक नया मनोरंजन प्रदान किया। इस स्पर्धा में भी पैसा अनाप-शनाप है, लेकिन एक टीवी चैनल ने दावा किया कि उसने एक स्टिंग आपरेशन किया है, जिसमें कई खिलाड़ियों को छिपे हुए कैमरे में यह स्वीकार करते हुए कैद किया गया है कि उन्हें अनाधिकृत रूप से आईपीएल नीलामी में तय राशि से कहीं अधिक पैसा मिलता है। इसकी प्रारंभिक जांच हुई। आईपीएल के अध्यक्ष राजीव शुक्ला ने मंगलवार शाम घोषणा की कि पांच प्रथम श्रेणी क्रिकेटरों को स्पाट फिक्सिंग प्रकरण में क्रिकेट के सभी प्रारूपों से निलंबित कर दिया गया है। शुक्ला ने यह भी कहा कि ये खिलाड़ी तब तक निलंबित रहेंगे, जब तक आयुक्त रवि स्वामी इस मामले जांच पूरी नहीं कर लेते। स्वामी की रिपोर्ट बीसीसीआई की अनुशासन समिति को अंतिम कार्रवाई के लिए सौंपी जाएगी। निलंबित किए गए पांच खिलाड़ी टी.पी. सुधींद्र, मोहनीश मिश्रा, अभिनव बाली, अमित यादव और शलभ श्रीवास्तव हैं। इस पूरे प्रकरण में यह बात साफ हो गई कि क्रिकेट में इतनी दौलत बरसने के बावजूद खिलाड़ियों को पैसे के लिए किस तरह बरगलाया जा सकता है। ऐसे में सरकार और क्रिकेट प्रबंधन से जुड़े लोगों को इस पर न केवल गौर करना होगा, बल्कि यह भी ध्यान देना होगा कि भद्र लोगों का माना जाने वाला यह खेल कहीं फिक्सिंग में ही उलझ कर अपनी चमक न खो दे, क्योंकि आईपीएल तो वैसे भी विशुद्ध रूप से पैसों की चमक वाली स्पर्धा है। इस खबर के सामने आते ही उच्च स्तर पर हलचलें तेज हुई, जो यह जाहिर करता है कि सरकार इस विषय पर काफी गंभीर है। राजीव शुक्ला ने पहले ही कह दिया था कि यदि कोई खिलाड़ी स्पाट फिक्सिंग का दोषी पाया गया, तो उसके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी। आशा की जानी चाहिए भारतीय क्रिकेट में अब ऐसा नहीं होगा।

Dark Saint Alaick
17-05-2012, 11:10 PM
दाऊद के साथियों पर प्रतिबंध : अच्छा कदम

दक्षिण एशिया में अपराध और आतंकवाद के गठजोड़ को निशाना बनाते हुए अमेरिका ने कुख्यात अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद इब्राहिम के दो आला गुर्गों छोटा शकील और टाइगर मेमन को मादक पदार्थों का प्रमुख तस्कर घोषित कर इन पर ‘किंगपिन अधिनियम’ के तहत प्रतिबंध लगाने की जो घोषणा की है, वह वास्तव में स्वागतयोग्य कदम है। अमेरिका का यह कदम भारत द्वारा इस विषय पर अब तक उठाए जा रहे कदमों की ही एक तरह से पुष्टि भी है, क्योंकि भारत पिछले कई बरसों से यह कहता आ रहा है कि नारकोटिक आतंकवाद केवल भारत के लिए नहीं, बल्कि दुनियाभर के लिए खतरा है। भारत तो अब तक यह भी कहता रहा है कि छोटा शकील, टाइगर मेमन के अलावा उनका आका दाऊद पिछले कई वर्षों से पाकिस्तान में हैं और उसे वहां पूरा संरक्षण भी मिला हुआ है। भारत द्वारा पाकिस्तान को दी गई ‘सर्वाधिक वांछित’ लोगों की सूची में इन तीनों के नाम भी हैं। अमेरिकी वित्त विभाग के विदेशी संपत्ति नियंत्रण कार्यालय ने छोटा शकील और टाइगर मेमन को मादक पदार्थों का विशेष रूप से नामित तस्कर तो करार दिया ही है, साथ ही यह भी घोषणा की है कि भविष्य में कोई अमेरिकी नागरिक उनके साथ वित्तीय या वाणिज्यिक लेन-देन नहीं कर सकेगा। यदि शकील और मेमन की कोई संपत्ति अमेरिका के अधिकार-क्षेत्र में होगी, तो उसे भी जब्त कर लिया जाएगा। छोटा शकील दाऊद का दायां हाथ माना जाता है, जो दाऊद की ‘डी कंपनी’ और दूसरे संगठित आपराधिक एवं आतंकवादी संगठनों के बीच समन्वय कायम करने का काम करता है। टाइगर मेमन भी दाऊद का दूसरा भरोसेमंद साथी है, जो समूचे दक्षिण एशिया में संगठन के कारोबार पर नियंत्रण रखता है। वर्ष 1993 के मुंबई धमाकों में दाऊद, शकील और मेमन की संलिप्तता के लिए भारतीय अधिकारी तो उनकी तलाश कर ही रहे हैं, इंटरपोल ने भी शकील और मेमन के लिए औपबंधिक गिरफ्तारी वारंट या रेड कॉर्नर नोटिस जारी कर रखा है। खुद दाऊद को अमेरिका ने 2003 में विशेष तौर पर नामित वैश्विक आतंकवादी और वर्ष 2006 में मादक पदार्थों का प्रमुख विदेशी तस्कर घोषित किया था। ऐसे में इन्हें संरक्षण देने वालों को चाहिए कि वह इन्हें सहारा देने की बजाय न्याय के दायरे में लाएं।

Dark Saint Alaick
18-05-2012, 02:22 AM
स्वतंत्र न्यायपालिका पर विश्वसनीयता की मुहर

भारत की न्यायपालिका कितनी विश्वसनीय है उस पर अंतर्राष्ट्रीय न्याय अदालत (आईसीजे) ने हाल ही में उस वक्त मुहर लगा दी, जब उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश दलबीर भंडारी का चयन आईसीजे में किया गया। यह भारत के लिए तो गर्व की बात है ही, साथ ही इससे यह भी साबित होता है कि दुनिया की नजरों में भारतीय न्यायपालिका की शीर्षस्थ अदालत की छवि कितनी साफ-सुथरी है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों को पूरी दुनिया की अदालतों में उदाहरण के रूप में पेश भी किया जाता है। खुद न्यायाधीश भंडारी ने अपने चयन के बाद कहा कि अपनी स्वतंत्रता, साख एवं लोकतंत्र को मजबूती देने के लिए भारतीय उच्चतम न्यायालय की अलग पहचान और इज्जत है और इसी का नतीजा है कि एक भारतीय को 15 सदस्यीय आईसीजे में स्थान मिला है। 64 वर्षीय भंडारी का चुनाव आईसीजे के सदस्य जार्डन के न्यायाधीश शौकत अल खास्वानेह के इस्तीफे के कारण खाली हुई सीट पर हुआ है और इस चुनाव में उन्होंने फिलीपींस के न्यायाधीश फ्लोरेण्टिनो फेलिसियानो को हराया। न्यायाधीश भंडारी को संयुक्त राष्ट्र महासभा के 180 में से 122 वोट मिले। जबकि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के 15 में से 13 वोट भंडारी के पक्ष में पड़े। प्राप्त मतों के आधार पर ही यह कहा जा सकता है कि 95 प्रतिशत मत भारत के पक्ष में पड़े जो यह साबित भी करता है कि भारत को लेकर दुनिया के अन्य देशों में कितना विश्वास है। न्यायाधीश भंडारी का कहना है कि हाल के वर्षों में आईसीजे का महत्व काफी बढ़ गया है। पहले केवल समुद्री क्षेत्रों से जुडे मामले आते थे लेकिन अब पर्यावरण और पारिस्थितिकी संरक्षण से जुडे मामलों का बोझ भी काफी बढ़ता जा रहा है। भंडारी संयुक्त राष्ट्र के प्रधान न्यायिक संस्थान आईसीजे में छह साल सेवाएं देंगे। वह दोबारा नौ साल के लिए फिर चुने जा सकते हैं। एक भारतीय का इस संस्थान में पहुंचना सचमुच गौरव की बात है और इस पद के चुनाव में भंडारी की जीत भारत, भारतवासियों और जीवंत एवं स्वतंत्र न्यायपालिका की भी बड़ी जीत है। हर देशवासी की अब यही इच्छा होगी कि जो गरिमा भारतीय न्यायपालिका ने अब तक हासिल की है, वह गरिमा न्यायाधीश भंडारी की आईसीजे में मौजूदगी से और बढ़े और खुद भंडारी आईसीजे की उम्मीदों पर खरे उतरें।

Dark Saint Alaick
21-05-2012, 02:33 AM
व्यावसायिकता में नख-दन्त और नेत्र विहीन होता मीडिया

गत दिनों तमिलनाडु की मुख्यमंत्री के नेतृत्व वाली अन्ना द्रमुक सरकार ने जब अपने कार्यकाल का एक वर्ष पूरा किया, तो उसे लेकर मीडिया ने जो कवरेज किया उससे साफ जाहिर हो गया कि अब मीडिया के मायने और उसके काम करने के तरीके ही बदल चुके हैं। एक राज्य के मुख्यमंत्री का एक साल का कार्यकाल पूरा हो और उसकी चमक दमक केवल चेन्नई तक ही नहीं, राजधानी दिल्ली तक पहुंच जाए, तो यह साफ कहा जा सकता है कि इसमें मीडिया, खासकर प्रिंट मीडिया की भी बड़ी भूमिका रही है। यदि इसकी गहराई में उतरा जाए, तो एक बात तो साफ हो जाती है कि तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता इतना तो जान ही चुकी हैं कि अपने मकसद के लिए मीडिया का इस्तेमाल किस तरह से किया जा सकता है। सप्ताह भर पहले से ही अखबारों में, जिनमें खुद को राष्ट्रीय स्तर का बताने वाले अखबार भी शामिल हैं, सरकारी तौर पर होने वाले समारोह के बड़े-बड़े फोटो प्रकाशित होने लगे थे। ऐसा लगा मानो जयललिता ने इन अखबारों को मुंहमांगी कीमत देकर खरीद लिया हो। केवल दिल्ली ही नहीं, बल्कि देश के लगभग सभी अंग्रेजी अखबारों के पहले और अंतिम पेज जयललिता के गुणगान से पटे रहे। लग रहा था कि इस सरकार ने एक ही साल में इतना काम कर दिया, जितना शायद ही पहले कभी हुआ हो। इसे मीडिया का व्यावसायिकता की तरफ बढ़ना ही कहा जाएगा कि देश के लगभग सभी प्रमुख अंग्रेजी समाचार पत्रों के 16 मई के अंक में मुख्य पृष्ठ पर जया ही छाई रहीं । कुछ अखबारों में चार पेज के भी विज्ञापन दिए गए हैं। अंग्रेजी अखबारों के पहले पेज जया की आदमकद फोटो के साथ एक साल के उनके कामकाज के गुणगान से भरे पड़े थे। अगर उपलब्ध सूचनाओं को सच माना जाए, तो मीडिया के लिए इस विज्ञापन अभियान की खातिर जयललिता ने 25 करोड़ का बजट तय किया गया था। हद तो तब हो गई, जब कई समाचार पत्रों में जयललिता को उनके चुनावी वादों जैसे चावल के मुफ्त वितरण, मिक्सर ग्राइंडर्स, गाय-बकरियां और बेटी की शादी के लिए मंगलसूत्र देते हुए चित्रों को भी दर्शाया गया अर्थात यह साफ हो गया कि ऐसा सब कुछ प्रकाशित करने से पहले मीडिया ने यह देखने तक की जहमत नहीं उठाई कि जो सामग्री वे प्रकाशित कर रहे हैं, उसमें सच्चाई भी है अथवा नहीं। जयललिता ने तो अपनी आत्म-प्रशंसा के लिए पैसे को पानी की तरह बहाया, लेकिन इससे यह भी सिद्ध हो गया कि मीडिया में अब विज्ञापनों का ही बोलबाला हो गया है। पैसा फैंको और तमाशा देखो की स्थिति बन गई है, लेकिन यहां सवाल उठता है कि जब पैसे के आगे विवेक नतमस्तक हो जाएगा, तो मीडिया अपने पाठकों या दर्शकों को सच्चाई से रूबरू कैसे करवा पाएगा। हाल ही इस विषय पर हुई बहस में भी यह सामने आया था कि इलेक्ट्रोनिक व प्रिंट मीडिया में इन दिनों विज्ञापनों की भरमार के कारण वे अपने पाठकों या दर्शकों के साथ न्याय नहीं कर पा रहे हैं। सरकार ने भी इस मसले पर गौर किया है और पिछले दिनों यह निर्णय किया गया कि ऐसा प्रावधान किया जाएगा कि कोई चैनल एक घंटे के कार्यक्रम में बारह मिनट से ज्यादा का विज्ञापन प्रसारित न करे। ट्राई ने हाल ही ऐसे निर्देश जारी भी कर दिए हैं। निश्चित रूप से अब ऐसा करना जरूरी भी हो गया है, वरना व्यावसायिकता की दौड़ में मीडिया अपनी मूल भावना से ही भटक जाएगा और वही करेगा, जो पिछले दिनों जयललिता के मामले में हुआ।

ndhebar
21-05-2012, 11:31 AM
विरादरी पर ही सवाल उठा रहे हैं बड़े भाई

Dark Saint Alaick
23-05-2012, 01:07 PM
अपनी बिरादरी पर कलम चलाना खतरे से खाली नहीं है, और खतरों से खेलना ही मेरा शगल है, अतः मीडिया पर मैं लगातार लेखन करता हूं ! कई पत्र-पत्रिकाओं में मेरा 'मीडिया-विमर्श' बहुत लोकप्रिय माना जाता है ! वहां मैं नियमित लिखता हूं, यहां अवसर विशेष होने पर, बस ... यही फर्क है !

Dark Saint Alaick
23-05-2012, 04:15 PM
सपा सरकार के पीछे हटने से पैदा होता संदेह

उत्तर प्रदेश में पिछली बहुजन समाज पार्टी सरकार के भ्रष्ट मंत्रियों के खिलाफ जांच के बाद लोकायुक्त की सिफारिश पर अब तक कोई कार्रवाई नहीं होना वास्तव में संदेह पैदा करता है। लोगों को यह अंदेशा होने लगा है कि जिस सरकार से तंग आकर उन्होने समाजवादी पार्टी को सत्ता सौंपी थी, वह भी किसी प्रकार के कदम उठाने से क्यों हिचकिचा रही है। इसी आशंका के आधार पर राज्य कांग्रेस ने अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली सपा सरकार के कामकाज पर ही ऐतराज उठाया है, जो काफी हद तक वाजिब भी लगता है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और विधायक अखिलेश प्रताप सिंह ने हाल ही सवाल उठाया कि सपा सरकार मायावती के कार्यकाल के घोटाले की जांच के लिए एजेंसी का गठन कर रही है, लेकिन लोकायुक्त एन.के. मेहरोत्रा की सिफारिश पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। उनका यह भी कहना है कि लोकायुक्त ने बसपा सरकार में मंत्री रहे नसीमुद्दीन सिद्दीकी और रामवीर उपाध्याय के खिलाफ सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय से जांच के आदेश दिए हैं। सरकार जांच का आदेश नहीं देकर भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई के अपने वादे से मुकर रही है। सपा ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में भी यह वादा किया था कि अगर पार्टी सत्ता में आई, तो भ्रष्ट राजनीतिज्ञों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई होगी। आखिर क्या वजह है कि अब सत्ता का सुख भोग रही यह सरकार कोई कदम उठाने से हिचकिचा रही है और लोकायुक्त की सिफारिश के बावजूद कुछ नहीं हो रहा है। हालांकि लोकायुक्त ने कार्रवाई के लिए मुख्यमंत्री को कई बार पत्र भी लिखा है। मौजूदा सरकार जिस तरह से लोकायुक्त की सिफारिश को नजरअंदाज कर रही है, उस पर तो शक होना लाजिमी है ही, साथ ही ऐसा लगता है कि सरकार लोकायुक्त जैसी संस्था को कमजोर करने में लगी है। अभी समय ज्यादा गुजरा नहीं है। मौजूदा सपा सरकार को चाहिए कि वह राज्य के लोगों की भावनाओं का आदर करे, क्योंकि राज्य की जनता ने भ्रष्टाचार से परेशान होकर ही समाजवादी पार्टी को इस उम्मीद के साथ सत्ता सौंपी थी कि अब उसे स्वच्छ प्रशासन मिलेगा। यह तो तय है कि पिछली सरकार ने कई योजनाओं में जनता के धन की बर्बादी की थी, लेकिन अब उस भ्रष्टाचार को लोगों के सामने लाने का जिम्मा सपा का है और उसे यह जिम्मा उठाना ही चाहिए।

Dark Saint Alaick
26-05-2012, 12:54 AM
अपनों के ही दबाव में फंसती भाजपा

इन दिनों भाजपा में जो कुछ भी हो रहा है, उससे तो यही लगता है कि यह दल अपने ही नेताओं के दबाव के दलदल में फंसता जा रहा है। गुरूवार को पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की मुंबई में शुरू हुई बैठक से ऐन पहले जिस तरह से कार्यकारिणी के आमंत्रित सदस्य संजय जोशी ने इस्तीफा दिया, उसने साफ कर दिया कि पार्टी गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और राजस्थान में प्रतिपक्ष की नेता वसुंधरा राजे के कितने दबाव में है। कई दिनों से यह चर्चा तो थी कि पार्टी प्रमुख नितिन गडकरी से अपनी नाराजगी और अपने धुर विरोधी संजय जोशी की कार्यकारिणी की बैठक में मौजूदगी के चलते मोदी इस बैठक में नहीं आएंगे, लेकिन इन चर्चाओं पर सच्चाई की मुहर उस वक्त लग ही गई, जब जोशी के इस्तीफे के कुछ ही घंटे बाद मोदी ने यह ऐलान किया कि वे राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में भाग लेने जा रहे हैं। मोदी ने गत वर्ष दिसंबर में नई दिल्ली में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में भी इसलिए हिस्सा नहीं लिया था कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के प्रचार में गडकरी ने संजय जोशी को शामिल किया था। मोदी ने तब विधानसभा चुनाव में भी प्रचार में हिस्सा नहीं लिया था अर्थात मोदी बार-बार भाजपा में अपना वर्चस्व दिखाने में सफल हो रहे हैं और पार्टी प्रमुख कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं। इसके पीछे गडकरी की क्या मजबूरी है, यह तो वे खुद या भाजपा ही जाने, लेकिन इस घटनाक्रम ने यह साबित कर दिया कि पार्टी अब तक जिस अंदरूनी अनुशासन के लिए जानी जाती थी, उस नाम की कोई चीज अब वहां नहीं रह गई है। पार्टी को इस पर विचार करना चाहिए कि वे क्या परिस्थितियां हैं, जिनके कारण बुधवार को उत्तराखंड में उनके विधायक किरण मंडल ने पार्टी छोड़ कांग्रेस में शामिल होने की घोषणा तो कर ही दी और विधानसभा से भी इस्तीफा दे दिया, ताकि मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा उनकी सीट से चुनाव लड़ सकें। अब तो यह जगजाहिर हो चुका है कि भाजपा में दबाव की राजनीति हावी होती जा रही है और क्षेत्रीय नेता अपने निजी लाभ के लिए किसी भी सीमा तक जा रहे हैं। कर्नाटक में जो हुआ और अब तक हो रहा है, उससे भी यह लगने लगा है कि पूर्व मुख्यमंत्री बी.एस. येदियुरप्पा बेलगाम हो चुके हैं और पार्टी के मुखिया उन पर नियंत्रण में नाकाम हो रहे हैं। खुद येदियुरप्पा ने भी कुछ दिनों पहले कहा था कि वे पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में हिस्सा लेने नहीं जाएंगे। कार्यकारिणी की बैठक में कल हुआ घटनाक्रम और भी चिंतनीय है ! येदियुरप्पा ने नरेंद्र मोदी को पार्टी का प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करने की मांग कर डाली और सुषमा स्वराज और लालकृष्ण आडवानी के बारे में सूचनाएं आईं कि वे पार्टी की रैली में नज़र नहीं आएंगे, इससे कयास लगाए गए कि पार्टी पर गडकरी और मोदी की पकड़ मज़बूत हो गई है, लेकिन ऐसा मान लेना अभी जल्दबाजी होगा ! पार्टी के आधार रहे नेताओं को किनारे लगा कर कोई भी संगठन आज तक जनता का मन नहीं जीत सका है, इतिहास इसका गवाह है ! ज़ाहिर है कि अगर भाजपा को अगले लोकसभा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन करना है, तो उसे अपने नेताओं को अनुशासन का पाठ पुनः पढ़ाना होगा !

abhisays
26-05-2012, 06:46 AM
अलैक जी, अंग्रेजी में एक कहावत है "too many cooks spoil the broth"

आज भाजपा के साथ यही हो रहा है, अगर 2014 में इनलोगों की सत्ता वापसी करनी है तो अभी से सतर्क हो जाना होगा। नहीं तो मंजिल और दूर हो जायेगी।

Dark Saint Alaick
27-05-2012, 11:22 PM
बिहार में बढ़ती जा रही है लोगों की नाराजगी

बिहार में इन दिनों जनता का आक्रोश जिस तरह से सामने आ रहा है, उससे यह स्पष्ट हो रहा है कि राज्य में लोग नीतीश कुमार सरकार के कामकाज से खुश नहीं है। जिस तरह से लोगों की सुरक्षा के लिए तैनात रहने वाले जवान ही उन पर हमला कर रहे हैं, उससे लोगों का गुस्सा और भी भड़क रहा है। दो दिन पहले बक्सर जिले के चौसा गांव में गुस्साए लोगों ने मुख्यमंत्री के काफिले पर ही इसलिए हमला कर दिया था कि वे उनसे मिलना चाहते थे, जबकि पुलिसकर्मियों ने लोगों को रोक दिया। दरअसल मुख्यमंत्री के काफिले पर ग्रामीणों के हमले को जनता की स्वाभाविक प्रतिक्रिया के रूप में भी देखा जा सकता है, क्योंकि पानी, बिजली और सड़क जैसी मूलभूत सुविधाओं से तो वे जूझ ही रहे हैं, राज्य में अपराधी बेखौफ घटना को अंजाम दे रहे हैं। यही नहीं सुरक्षाकर्मी भी कथित तौर पर बेलगाम होते दिखाई दे रहे हैं। शनिवार को राज्य के सीतामढी जिले के बैरगनिया थाना क्षेत्र में सशस्त्र सीमा बल (एसएसबी) के एक जवान ने पढ़ाई कर गांव लौट रही एक छात्रा के साथ छेड़छाड़ कर दी। इसे लेकर जब आक्रोशित ग्रामीणों ने एसएसबी शिविर में जाकर प्रदर्शन शुरू कर दिया, तो वहां पहरा दे रहे एक जवान ने गोली चला दी। बाद में कुछ और जवान वहां पहुंचे और उनकी गोलीबारी में एक ग्रामीण की मौत हो गई। उल्लेखनीय है कि कुछ माह पहले राज्य के अररिया जिले के कुर्साकांटा थाना अंतर्गत आशाभाग-बटरा गांव में एसएसबी जवानों द्वारा ही की गई गोलीबारी में चार ग्रामीणों की मौत के बाद इस मामले में एसएसबी के तीन जवानों को गिरफ्तार तथा अवर निरीक्षक रामचंद्र दास और आरक्षी चंदन कुमार को निलंबित कर दिया गया था। तब मुख्यमंत्री ने राज्य के पुलिस महानिदेशक नीलमणि और गृह सचिव आमिर सुबहानी को भविष्य में ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न होने के निर्देश दिए थे, लेकिन इसके बावजूद शनिवार को फिर एसएसबी जवानों ने गोलीबारी कर दी। समाजकंटक भी इन दिनों बेखौफ हैं। शनिवार को ही राज्य के रोहतास जिले में अपराधियों ने प्रेम प्रसंग के चलते एक छात्र की गोली मारकर हत्या कर दी। इस घटनाक्रम से यह साफ लगने लगा है कि बिहार में हिंसा की घटनाएं जिस तरह से बढ़ी हैं, उन पर सरकार की कोई लगाम दिखाई नहीं दे रही और लोग खफा हो रहे हैं, जो अच्छे संकेत नहीं हैं।

abhisays
29-05-2012, 06:52 PM
मुझे भी लगता है, नितीश का हनीमून खत्म हो गया है. इनको बिहार में सत्ता में आये हुए ७ साल हो गए. लेकिन बिहार में कुछ खास अंतर नज़र नहीं आ रहा है.

khalid
29-05-2012, 10:16 PM
मुझे भी लगता है, नितीश का हनीमून खत्म हो गया है. इनको बिहार में सत्ता में आये हुए ७ साल हो गए. लेकिन बिहार में कुछ खास अंतर नज़र नहीं आ रहा है.

और बहुत कुछ उन के द्वारा लिए गए फैसले भी हैँ
आज अल्पसंख्यक के वजह और मदरसा के वजह से वैसे लोग टीचर बने बैठे हैँ जिसे 100 तक गिनती तक याद नहीँ

Dark Saint Alaick
29-05-2012, 10:55 PM
भरोसे लायक नहीं है पाकिस्तान का प्रस्ताव

इन दिनों अमेरिका की भीषण नाराजगी झेल रहे पाकिस्तान ने सियाचिन से सेनाएं हटाने का जो प्रस्ताव भारत के समक्ष रखा है, वह कतई भरोसे के लायक नहीं है। उसी का नतीजा है कि सेना प्रमुख जनरल वी.के. सिंह ने पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल अशफाक कयानी के सियाचिन से सेनाएं हटाने के प्रस्ताव को महज शगूफा बताते हुए इसे पूरी तरह से ठुकरा दिया है और कहा, इस तरह के शगूफा पाकिस्तानी प्रतिष्ठान की ओर से समय समय पर छोड़े जाते रहे हैं और हम इसमें फंसेंगे, तो मूर्ख ही होंगे। इससे पहले रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी भी स्पष्ट कर चुके हैं कि सियाचिन के मुद्दे पर भारत के रूख में कोई परिवर्तन नहीं आया है। उन्होंने रक्षा मंत्रालय के कामकाज पर संसद में हुई बहस के दौरान ही साफ कर दिया था कि सियाचिन के मामले पर दोनों देशों के बीच जून में होने वाली रक्षा सचिव स्तर की वार्ता से किसी नाटकीय नतीजे की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। दरअसल भारत यह जानता है कि पाकिस्तान जब-जब भी किसी अंतर्राष्ट्रीय दबाव में आता है, तो वह भारत के प्रति अपने रूख में नरमी दिखाने की कोशिश करने लगता है। इसके पीछे एक कारण यह भी रहता है कि पाकिस्तान अपनी जनता का ध्यान मूल मुद्दे से भटकाने के लिए भी ऐसा करता है। इन दिनों पाकिस्तान पर अमेरिका ने जिस तरह से आतंकवाद के मुद्दे पर दबाव बनाया है और उसे मिलने वाली मदद में कटौती का जो प्रस्ताव वहां की सीनेट ने पास किया है, उससे लोगों का ध्यान हटाने के लिए ही पाकिस्तान ने यह शगूफा छोड़ा है कि दोनों देशों को सियाचिन से सेना हटा लेनी चाहिए। हाल ही सियाचिन में हिम स्खलन में पाकिस्तान के सौ से अधिक सैनिकों के मारे जाने के बाद ही पाकिस्तान ने यह प्रस्ताव क्यों रखा, इसके भी कहीं न कहीं कोई मायने छिपे हैं। सभी जानते हैं कि भारत से दोस्ती बढ़ाने के पहले भी पाकिस्तान ने जो प्रयास किए हैं, वे केवल दिखावा मात्र थे। करगिल में जो कुछ भी हुआ, उसके बाद तो भारत कभी भी पाकिस्तान के किसी प्रस्ताव पर विचार के लिए हजार बार सोचता है। ऐसे में पाकिस्तान का यह ताजा प्रस्ताव किसी भी सूरत में स्वीकार्य नहीं कहा जा सकता। भारत के हर क्षेत्र में बढ़ रहे प्रभाव ने भले ही पाकिस्तान को जमीनी हकीकत से रूबरू करवा दिया है, लेकिन यह तय है कि अब भारत ऐसे किसी भी प्रस्ताव को शंका की ही नजर से देखेगा और ऐसा करना वैश्विक बिरादरी किसी भी नज़रिए से गलत भी नहीं ठहरा सकती।

Dark Saint Alaick
30-05-2012, 02:17 AM
गलती का अहसास हुआ भाजपा को

भ्रष्टाचार के मामले में हमेशा ही खुद को पाक साबित करने और इस मसले पर जंग का दावा करने वाली भारतीय जनता पार्टी को इन दिनों न जाने क्या हो गया है कि वह अपनी हर बात से ही पलटती नजर आ रही है। कडप्पा से सांसद व वाईएसआर कांग्रेस के अध्यक्ष जगनमोहन रेड्डी आय से अधिक संपत्ति के मामले में सीबीआई के शिकंजे में हैं और इस समय हैदराबाद की चंचलगुड़ा जेल में बंद हैं। वे आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिवंगत राजशेखर रेड्डी के पुत्र भी हैं। लेकिन भाजपा प्रवक्ता राजीव प्रताप रूढ़ी ने न जाने सोमवार को किस मकसद से रेड्डी की तरफदारी की और सरकार पर आरोप लगा दिया कि राजनीतिक बदले की भावना से कार्रवाई की जा रही है और जो लोग कांगे्रस का विरोध कर रहे हैं, उनके खिलाफ सीबीआई का दुरूपयोग किया जा रहा है। एक दिन बाद ही भाजपा को अपनी गलती का अहसास हो गया और मंगलवार को पार्टी प्रवक्ता निर्मला सीतारमण कहा, रेड्डी की गिरफ्तारी काफी विलंब से की गई है। उन्होंने साथ ही मांग की कि आंध्र प्रदेश में 2004 से 2009 के बीच के भ्रष्टाचार का खुलासा होना चाहिए। सीतारमण ने यह आरोप भी लगाया कि कांग्रेस ने यह विलंब कराया है। जगन की गिरफ्तारी काफी समय पहले ही हो जानी चाहिए थी। इस नजरिए को क्या कहा जाए। एक दिन पार्टी प्रवक्ता कुछ कहते हैं और दूसरे दिन अन्य प्रवक्ता पहले वाली की बात से ही पलट जाते हैं। दरअसल भाजपा यह तय नहीं कर पा रही कि किसी विषय पर क्या रुख अपनाया जाए। भाजपा के कुछ नेता आरोपों में घिरे हुए हैं और पार्टी को यह भय सता रहा है कि आने वाले समय में उन पर भी शिकंजा कस सकता है। इस समय भाजपा दक्षिणी राज्यों में अपनी खराब होती जा रही छवि के लेकर भी परेशान है। कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा के दिग्गज नेता बीएस येदियुरप्पा पिछले कई महीनों से भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे हैं और इसे लेकर भाजपा सकते में है। भाजपा को समझना चाहिए कि जन भावनाओं से जुड़ने के लिए वह भ्रष्टाचार की आड़ रूपी सीढ़ी के जरिए दक्षिणी राज्यों में लोकप्रियता की वैतरणी पार करना चाहती है, वह उसी के लिए घातक साबित हो सकता है। पार्टी जिस तरह से दोराहे पर आकर खड़ी हो गई है, यह स्थिति भाजपा के लिए आंखें खोलने वाली है।

Dark Saint Alaick
03-06-2012, 05:33 AM
जल्दबाजी में भटक रही है ब्रेकिंग न्यूज

पिछले दिनों तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई में द्रविड़ मुनेत्र कषगम (द्रमुक) की तरफ से एक सभा का आयोजन किया गया। यह पार्टी केन्द्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार में सहयोगी भी है। लिहाजा इसकी सभा की महत्ता और भी बढ़ गई थी। सभा समाप्त भी नहीं हुई थी कि निजी टेलीविजन चैनल्स पर ब्रेकिंग न्यूज शुरू हो गई। मानो होड़ मची हो कि पहले कौन खबर ब्रेक करता है। खबर यह दी जा रही थी कि द्रमुक प्रमुख एम. करुणानिधि ने सभा में पेट्रोल के मूल्यों में बढ़ोतरी के फैसले के विरोध में संप्रग सरकार से समर्थन वापस लेने के संकेत दिए हैं और इसके बाद तो ऐसा लगने लगा कि मानो बस, अब सरकार पर बड़ा संकट ही आ गया है। कई चैनल्स तो बाकायदा यह तालिका तक दिखाने लगे कि सरकार को समर्थन कर रहे सहयोगी दलों के सांसदों की लोकसभा में कितनी संख्या है और अगर द्रमुक सरकार से समर्थन वापस ले लेती है, तो क्या - क्या संभावनाएं बनेंगी। फिर शुरू हुआ उस सभा में गए विभिन्न चैनल्स के संवाददाताओं से सीधे बात करने का सिलसिला। एक संवाददता ने कहा - करुणानिधि सभा में पेट्रोल के मूल्यों में बढ़ोतरी के खिलाफ केंद्र सरकार पर जम कर बरसे हैं। उन्होंने चेतावनी भरे लहजे में कहा है कि पूर्व के गठबंधनों के दौरान जब उनकी पार्टी के सिद्धांतों को कुचला गया, तो गठबंधन को छोड़ने में वह नहीं झिझके, चाहे वह वी. पी. सिंह की सरकार रही हो या भाजपानीत राजग। जो नीतियां लोगों के विरूद्ध हों, उनके खिलाफ आवाज उठाना हमारा कर्तव्य है। कुछ चैनल्स तो यहीं तक नहीं रुके और एक दिन पहले ही रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी के उस बयान पर चले गए, जिसमें उन्होंने कहा था कि पेट्रोल की कीमतें बढ़ाने से आम आदमी परेशान होगा। ... और इसके बाद शुरू हो गया अपना-अपना आकलन । एक चैनल ने कहा कि जब सहयोगी दल और खुद सरकार के एक मंत्री पेट्रोल के दाम बढ़ाने का विरोध कर रहे हैं, तो अब आने वाले समय में सरकार संकट में फंसने वाली है, लेकिन थोड़े समय बाद ही करुणानिधि ने स्पष्ट किया कि उनकी बात को ठीक से समझा ही नहीं गया और मीडिया ने जल्दबाजी में यह सब फैला दिया, जबकि राष्ट्रपति चुनाव के मद्दे-नजर उनकी पार्टी सरकार को अस्थिर नहीं करेगी। उन्होंने यह नहीं कहा कि उनकी पार्टी गठबंधन छोड़ देगी, बल्कि सिर्फ पिछली बातों का जिक्र किया था कि जब भी नीतियों का टकराव होता है, तो वह गठबंधन से बाहर निकल जाती है। अब चाहे करुणानिधि ने किसी भी तरीके से अपनी बात रखी हो या सफाई दी हो, लेकिन यहां एक बार फिर यह तो सामने आ ही गया कि चैनल्स किसी भी खबर को पहले दिखाने या पहले ब्रेकिंग न्यूज देने की अपनी होड़ में खबरों की गहराई तक तो अब भी नहीं पहुंच रहे। एक ब्रेकिंग खबर के आधार पर सरकार के संकट में फंसने तक अपनी राय प्रकट करना निहायत ही जल्दबाजी भरा फैसला था और चैनल्स लगातार ऐसा कर रहे हैं। इलेक्ट्रोनिक मीडिया निसंदेह खबरें पहले दिखाने का दावा करता है और दिखाता भी है, लेकिन अगर अपनी विश्वसनीयता बनाए रखनी है, तो बगैर तथ्यों पर गए केवल हवा में अपनी बात कहने से गुरेज करना ही चाहिए। पहले भी कई बार ऐसे अवसर आए हैं, जब ब्रेकिंग न्यूज के चक्कर में खबरों के तथ्यों के साथ खिलवाड़ हुआ है। मीडिया को अब इससे सबक लेना ही चाहिए और जब तक सारी स्थिति साफ न हो जाए, इस तरह से जल्दबाजी में किसी तरह की खबर का प्रसारण नहीं करना चाहिए, अन्यथा 'भेड़िया आया...' की तर्ज़ पर वे दर्शकों की नज़र में कहीं के नहीं रहेंगे।

Dark Saint Alaick
03-06-2012, 05:50 AM
उघड़ती जा रही भाजपा की दुर्दशा की परत

आखिर सम्पूर्ण पारदर्शी और स्वच्छ पार्टी को यह हो क्या रहा है ? कभी कार्यकर्ताओं के बल पर हुंकार भरने वाली भाजपा अब अपने नेताओं के आचरण से ही कटघरे में आ रही है ! उसका भीतरी सच लगातार सामने आता जा रहा है। अपने ब्लॉग में भाजपा के शीर्ष नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने मान लिया है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ पार्टी की मुहिम कमजोर हुई है और पार्टी का मनोबल भी ऊंचा नहीं है। उधर पार्टी के मुखपत्र ‘कमल संदेश’ के ताजा अंक के संपादकीय में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का नाम तो सीधे-सीधे नहीं लिखा गया है, लेकिन परोक्ष रूप से उन पर प्रहार करते हुए कहा गया है कि किसी के ऐसे व्यवहार से पार्टी नहीं चल सकती कि सिर्फ उसकी चलेगी, नहीं तो किसी की नहीं चलेगी। मुंबई में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के बाद से ही यह खबरें सामने आ गई थीं कि भाजपा में इन दिनों कुछ भी सही नहीं चल रहा। बैठक से ऐन पहले मोदी के दबाव के चलते संजय जोशी का इस्तीफा पूरी बैठक में छाया रहा। रही सही कसर आडवाणी के नए ब्लॉग ने पूरी कर दी है और पानी की तरह साफ हो गया है कि आडवाणी लगातार दूसरी बार अध्यक्ष बनाए गए नितिन गडकरी के कामकाज से खुश नहीं हैं। उनके ब्लॉग में यह पीड़ा भी परोक्ष रूप से सामने आ गई कि गडकरी के अब तक के निर्णयों ने ही पार्टी की यह दशा की है। आडवाणी ने 1984 के लोकसभा चुनाव में पार्टी की खराब स्थिति से मौजूदा हालात की तुलना भी की है और लिखा है कि संसद के दोनों सदनों में हमारे सांसदों की संख्या अच्छी खासी है और पार्टी की नौ राज्यों में सरकार भी हैं, लेकिन जिस तरह की चूक पार्टी की ओर से की जा रही है, उसका ख़मियाजा इन तथ्यों से पूरा नहीं किया जा सकता। यह पार्टी के लिए आत्म-चिंतन का वक्त है। भाजपा की दशा क्या है, यह पार्टी के मुखपत्र के संपादकीय में लिखी इन दो पंक्तियों से स्पष्ट होता है - ‘‘कक्षा का विद्यार्थी बिगड़े, तो समझ में आता है; पर यहां तो शिक्षक और प्रधानाचार्य पटरी से उतरने की तैयारी कर रहे हैं। जरूरत से ज्यादा जब हम किसी की प्रशंसा करते हैं, तो व्यक्ति के बिगड़ने की संभावना का द्वार हम स्वत: खोल देते हैं।’’ विचारणीय यह है कि यह नरेंद्र मोदी को पीछे धकेलने की साज़िश है या वाकई वे निरंतर दम्भी होते जा रहे हैं ? अनेक कथाएं हैं, जो हमें बताती हैं कि श्रेष्ठ मनुष्य वही है, जो जितना ऊपर चढ़े, उतना ही विनम्र होता जाए, लेकिन परिस्थितियां जो दिखा रही हैं, उनसे स्पष्ट है कि मोदी की रीति-नीति में कुछ परिवर्तन अवश्य हुआ है और अगर यह बदला नहीं गया, तो पार्टी के लिए ही नहीं स्वयं मोदी के लिए भी यह बहुत खतरनाक और नुकसानदेह साबित होगा।

Dark Saint Alaick
04-06-2012, 11:00 AM
नई विज्ञान नीति के दूरगामी नतीजे होंगे

विज्ञान के क्षेत्र में जिस तरह से भारत प्रगति कर रहा है, उस पर सारी दुनिया की नजर है। पिछले पांच वर्षों की कामयाबी पर नजर डाली जाए, तो कहा जा सकता है कि हमारे वैज्ञानिकों ने पूरी दुनिया को यह दिखा दिया है कि तकनीक के क्षेत्र में अब भारत किसी से कम नहीं है। देश और दुनिया में जिस तेजी से वैज्ञानिक वातावरण बदलता जा रहा है, उसे भारत सरकार भी समझ रही है और इसी के चलते शनिवार को कोलकाता में भारतीय विज्ञान कांग्रेस संगठन के शताब्दी समारोह में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि सरकार एक वर्ष के अंदर नई विज्ञान एवं तकनीक नीति बना सकती है, ताकि विकेन्द्रीकृत तरीके से सार्थक विकास को बढ़ावा दिया जा सके। वैसे यह भी एक सुखद पहलू है कि इस शताब्दी वर्ष को भारत में विज्ञान वर्ष घोषित करने का निर्णय किया जा चुका है। देश में विज्ञान की तरक्की और इस क्षेत्र से जुड़े लोगों की समृद्धि के लिए सरकार ने हाल के वर्षों में भारतीय विज्ञान पर जितना पूंजी का निवेश किया है, उतना कभी पहले नहीं हुआ। कई वर्षों तक वैज्ञानिक एवं तकनीक आधारभूत संरचनाओं की हमारी क्षमताएं काफी सीमित रही, जिसे सरकार ने समझा और उसी की जरूरत को समझते हुए विश्वस्तरीय संस्थान बनाए। यही वजह है कि आज इसरो जैसा संस्थान देश का मस्तक बना हुआ है और इससे जुड़े हमारे वैज्ञानिक भारत को विकसित देशों की पंक्ति में लाने में कामयाब हुए हैं। हालांकि प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने यह भी माना कि हमने विज्ञान एवं तकनीक का उपयोग विकास की प्रक्रिया में उतना काम अब तक नहीं किया, जितना होना चाहिए था, लेकिन साथ ही उनका यह आश्वासन भी देश के लिए सुखद है कि सरकार उच्च प्रौद्योगिकी, अक्षय ऊर्जा एवं कुपोषण जैसी स्वास्थ्य चुनौतियों पर न केवल विशेष ध्यान देने में जुटी है, बल्कि इन चुनौतियों से निपट कर देश को आगे बढ़ाने का प्रयास करेगी। ध्यान यह देना होगा की यह सिर्फ आश्वासन बन कर न रह जाए, अपितु इस पर काम भी हो। प्रधानमंत्री ने इस वर्ष से प्रतिवर्ष सौ डॉक्टोरल शोध फेलोशिप योजना शुरू करने की घोषणा कर भी एक अच्छा कदम उठाया है। इससे विज्ञान के क्षेत्र में आगे आने वाले युवाओं को काफी फायदा भी होगा। अगर ये कदम ईमानदारी से उठाए गए और इन पर भविष्य में भी काम उसी ईमानदारी से होता रहा तो, निसंदेह भारत आने वाले वर्षों में विज्ञान के क्षेत्र में बड़ी शक्ति बनकर उभरने में कामयाब हो जाएगा।

Dark Saint Alaick
06-06-2012, 02:54 AM
मायावती की अंधेर नगरी के खुलते राज

उत्तर प्रदेश में मायावती के नेतृत्व वाली पिछली बसपा सरकार के खिलाफ यों तो घपलों-घोटालों आरोप लगते रहे और सत्ता से हटने के बाद कई मामलों की जांच भी शुरू हुई है, लेकिन हाल ही एक चौंकाने वाला मामला सामने आया है, जो यह साबित करता है कि मायावती के राज में अंधेर नगरी जैसा शासन चल रहा था। न कोई देखने वाला था और न ही कोई सुनने वाला। गत वर्ष उत्तर प्रदेश माध्यमिक संस्कृत शिक्षा परिषद के लखनऊ मंडल द्वारा संचालित संस्कृत स्कूलों में 12 प्रधानाध्यापक, चार साहित्य शिक्षक, 14 व्याकरण शिक्षक, 15 आधुनिक शिक्षक सहित कुल 45 पदों पर नियुक्ति के लिए 2011 अभ्यर्थियों ने आवदेन किया था। अभ्यर्थियों को बाद में साक्षात्कार के लिए बुलाया गया। चयन से वंचित अभ्यर्थियों ने सरकार को शिकायत की थी कि साक्षात्कार में धांधली की गई है। शिकायत मिलने पर माध्यमिक शिक्षा सचिव पार्थसारथी ने शिक्षा निदेशक वासुदेव यादव को इस शिकायत की जांच के निर्देश दिए। शिक्षा निदेशक यादव ने अपनी जांच रिपोर्ट में कहा है कि अपने चहेतों को शिक्षक बनाने के लिए साक्षात्कार में अफसरों द्वारा पेंसिल से नम्बर देने का मामला सही पाया गया है। साक्षात्कार समिति में जो लोग शामिल थे, उन्होंने जांच अधिकारी को यह भी बताया था कि उन्होंने तत्कालीन संयुक्त शिक्षा निदेशक के.के. गुप्ता के मौखिक आदेश पर अभ्यर्थियों को पेंसिल से नम्बर दिए थे, ताकि बाद में पसंदीदा अभ्यर्थियों को नम्बर बढ़ाकर ‘उपकृत’ किया जा सके। रिपोर्ट में शासन से आग्रह किया गया है कि संबंधित उत्तरदायी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए, क्योंकि अफसरों ने साक्षात्कार में पेंसिल से नम्बर चढ़ाकर लिफाफा सील बंद नहीं किया। इस जांच ने यह साबित कर दिया है कि मायावती के राज में भ्रष्टाचार और अपने लोगों को उपकृत करने का खेल बड़े पैमाने पर खेला गया होगा। जब शिक्षा विभाग में मात्र दो हजार लोगों की नियुक्ति के लिए साक्षात्कार में ऐसी धांधली की जा सकती है, तो गत पांच वर्षों में अन्य विभागों में बड़े पैमाने पर हुई नियुक्तियों में तो क्या हाल हुए होंगे इसकी कल्पना ही की जा सकती है। इस व्यवस्था से तंग आकर ही उप्र की जनता ने मायावती को शासन से बेदखल किया है और अब मौजूदा सरकार को काफी संजीदगी से काम करना होगा। यह अवश्य है कि जनता मायावती के कुशासन की वज़ह से सपा के पिछले कार्यकाल के कुछ धूमिल अध्याय भूल गई और उसे फिर सत्ता सौंप देना महज़ इसलिए उचित समझा कि उसे कोई विकल्प नहीं सूझा, लेकिन यह नहीं भूला जाना चाहिए कि सपा ने अपनी पिछली ग़लतियां दोहराईं, तो जनता उसे कभी माफ़ नहीं करेगी।

Dark Saint Alaick
13-06-2012, 03:36 AM
युवाओं को आगे लाने की अच्छी पहल

देश में जिस तरह से अनुसंधान एवं शोध क्षेत्र में युवाओं की रुचि घटती जा रही है, उससे किसी भी सरकार का चिंतित होना लाजिमी है। हाल ही यह चिंता उस वक्त और बढ़ गई थी, जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 99वीं विज्ञान कांग्रेस में कहा था कि पिछले कुछ दशकों में विज्ञान एवं शोध के क्षेत्र में भारत की स्थिति में गिरावट दर्ज की गई है और चीन हमसे आगे निकल गया है। भारत जिस रफ्तार से आगे बढ़ रहा है, उसे देखते हुए यह जरूरी है कि युवाओं में अनुसंधान एवं शोध को लेकर रुचि बढ़ाई जाए। इसी को ध्यान में रख कर सरकार ने पीएचडी करने वाले स्नातकों की वर्तमान संख्या को प्रति वर्ष एक हजार से बढ़ाकर 2025 तक प्रति वर्ष दस हजार करने की जो योजना बनाई है, वह वाकई स्वागतयोग्य कदम है। पिछले दिनों मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने देश में योग्य एवं प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी को ध्यान में रख कर काकोदकर समिति का गठन किया था। इस समिति ने कहा है कि पीएचडी करने वाले स्नातकों की संख्या को 2025 तक बढ़ाकर प्रति वर्ष दस हजार किया जाना चाहिए। समिति ने जो सिफारिशें पेश की हैं, उसमें कहा गया है कि किसी भारतीय संस्थान में बीटेक पाठ्यक्रम के तीसरे वर्ष के छात्र को एक आईआईटी में पीएचडी करने का मौका दिया जाना चाहिए। प्रारंभ में आईआईटी में ऐसे तीन सौ छात्रों को शामिल करने करने और अगले दस वर्ष में इसे बढ़ाकर ढाई हजार करने का भी समिति ने सुझाव दिया है। साथ ही उद्योगों में काम करने वाले पेशेवरों के लिए कार्यकारी एमटेक कोर्स का प्रस्ताव किया है। उद्योग और इंजीनियरिंग कॉलेजों को दूरस्थ शिक्षा के जरिए एमई पाठ्यक्रम शुरू करने की दिशा में मिलकर काम करने का सुझाव दिया गया है। हाल ही मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने भी कहा था कि जब तक हम भारत में शोध की गुणवत्ता नहीं बढ़ाएंगे, तब तक हम ऐसे आंकड़े नहीं प्राप्त कर पाएंगे, जो नीतिगत निर्णय के लिए जरूरी हों। उन्होंने देश में अनुसंधान एवं शोध के क्षेत्र में कमियों को ध्यान रखते हुए नवोन्मेष केंद्र का प्रस्ताव भी किया, जिसका उद्देश्य विभिन्न विषयों में नए एवं बहुआयामी क्षमता एवं दक्षता कौशल को बढ़ाना है। निश्चित रूप से सरकार के इन प्रयासों का आने वाले वर्षों में काफी लाभ मिलेगा और नौजवान अनुसंधान और शोध के क्षेत्र में रूचि लेकर देश को अग्रिम पंक्ति में ला खड़ा करेंगे।

Dark Saint Alaick
25-06-2012, 08:39 AM
बैंकों पर लाल घेरा लगाने की बेतुकी चाल

फ्रांस की ऋण रेटिंग कंपनी फिमालेक की एक सहायक वैश्विक रेटिंग एजेंसी फिच ने भारतीय बैंकों और वित्तीय संस्थानों के ऋण रेटिंग पर लाल घेरा लगाने की जो कोशिश की है वह किसी भी मायने में सही नजर नहीं आती। फिच ने भारतीय स्टेट बैंक, आईसीआईसीआई, पंजाब नेशनल बैंक समेत 12 भारतीय वित्तीय संस्थानों के भविष्य के ऋण परिदृश्य को दो दिन पहले स्थिर से घटाकर नकारात्मक कर दिया। कुछ दिनों पहले इसी एजेंसी ने भारत के वित्तीय ऋण परिदृश्य को भी स्थिर से घटाकर नकारात्मक कर दिया था। फिच ने जिन अन्य बैंकों और वित्तीय संस्थानों की रेटिंग घटाई हैं उनमें बैंक आफ बडौदा, केनरा बैंक, आईडीबीआई बैंक और एक्सिस बैंक, निर्यात-आयात बैंक, हडको, आईडीएफसी और भारतीय रेल वित्त निगम भी शामिल हैं। एजेंसी के इस कदम को सरकार ने भी गलत बताया है और कहा है कि इन संस्थानों में पूंजी की कोई कमी नहीं है और चिंता की कोई बात नहीं है। भारतीय बैंकिंग प्रणाली में पूंजी संकट की बात करना बात को काफी बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक पूंजी से परिपूर्ण हैं। सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को वित्तीय लिहाज से मजबूत बनाने के लिए चालू वित्त वर्ष के दौरान उनमें 15,500 करोड़ रूपए की पूंजी डालने का प्रस्ताव किया है। ऐसे में ऐसी कोई वजह नहीं दिखाई देती जिससे भारतीय बैंकों की रेटिंग कम की जाए। दरअसल फिच के इस कदम को शंका के रूप में भी देखा जा सकता है। पूरी दुनिया, खासकर यूरोप के कई देश इस समय आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहे हैं और वहां मंदी की आहट भी सुनाई दे रही है जबकि इसके विपरीत भारत में सरकार द्वारा उठाए गए कदमों के चलते किसी प्रकार की कोई कठिनाई पैदा होने के आसार नहीं है। ऐसे में फिच का यह कदम भारत की सुदृढ़ स्थिति को नजरअंदाज करने की एक चाल भी हो सकता है। वित्तीय सेवाओं के सचिव डी.के. मित्तल ने फिच के कदम की कड़ी आलोचना करते हुए कहा है कि ऐसे समय जब भारतीय संस्थान अपने विदेशी प्रतिस्पर्धियों की तुलना में बेहतर कर रहे हैं उनकी रेटिंग कम करना पूरी तरह से बेतुका है। संकट के इस दौर में इस तरह की कारवाई से निश्चित रूप से उन देशों में अविश्वास और बढ़ेगा जो कि बेहतर ढंग से प्रगति कर रहे हैं।

Dark Saint Alaick
28-06-2012, 06:02 PM
पाकिस्तान की पेशकश फिर एक छलावा

मुम्बई में वर्ष 2008 में हुए हमले से जुड़े आतंककारियों के आका और लश्करे तैयबा के कथित आतंकवादी सैयद जबीउद्दीन उर्फ अबू जिन्दाल उर्फ अबू हमजा की गिरफ्तारी ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि इस हमले में कहीं न कहीं पाकिस्तान की बड़ी भूमिका थी। आशंका के बादल तब और घने हो जाते हैं जब अबू हमजा की गिरफ्तारी के चंद घंटों बाद ही दुनिया को दिखाने के लिए भारत स्थित पाकिस्तानी उच्चायोग भारत के साथ आतंकवाद रोधी सहयोग की पेशकश करता है और कहता है कि ‘जैसी कि पाकिस्तान और भारत के बीच उच्चतम स्तर पर सहमति है, आतंकवाद साझा चिंता का विषय है और आतंकवाद रोधी सहयोग दोनों देशों के पारस्परिक हित में है।’ आखिर कब तक पाकिस्तान इस तरह से खुद को ही भ्रमित करता रहेगा? अबू हमजा को दिल्ली पुलिस ने 21 जून को महाराष्ट्र में बीड़ जिले के गोराई कस्बे से गिरफ्तार किया था और उस वक्त उसके पास पाकिस्तानी पासपोर्ट था। साथ ही वह वहां कथित तौर पर लश्करे तैयबा के भर्ती मिशन पर काम कर रहा था। उसकी गिरफ्तारी के बाद चौंकाने वाली कई बातें भी सामने आई हैं। उसने मुम्बई हमले को अंजाम देने वाले 10 आतंकवादियों को हिन्दी सिखाई थी। उसकी गिरफ्तारी के साथ मुम्बई हमले के दौरान लश्करे तैयबा के 10 आतंकवादियों और पाकिस्तान में बैठे उनके आकाओं के बीच बातचीत के दौरान रिकॉर्ड की गई रहस्यमयी आवाज की पहचान हो गई है। पकड़ी गई बातचीत में हमजा को ‘प्रशासन’ जैसे कुछ खास हिन्दी शब्दों का इस्तेमाल करते सुना गया था और वह आतंकवादियों को अपनी पाकिस्तानी पहचान छिपाने को कह रहा था तथा निर्देश दे रहा था कि वे खुद को हैदराबाद के टोली चौक से सम्बंधित डेक्कन मुजाहिदीन का सदस्य बताएं। उसकी मौजूदगी का उल्लेख मुम्बई हमलों में जीवित पकड़े गए एकमात्र आतंकवादी आमिर अजमल कसाब ने भी किया था। कसाब ने अदालत को बताया था कि अबू जिन्दाल उर्फ अबू हमजा नाम के एक व्यक्ति ने 10 आतंकवादियों को हिन्दी बोलना सिखाया था। कुल मिलाकर हमजा की गिरफ्तारी भारत की एक बड़ी कामयाबी है। पाकिस्तान को भी अब अहसास होने लगा है कि वह मुम्बई हमले में पेश भारत के सबूतों को ज्यादा समय तक नजरअंदाज नहीं कर सकता।

Dark Saint Alaick
28-06-2012, 11:17 PM
अपने बूते मजबूती की तरफ सरकार के कदम

भारत की जो विशाल अर्थव्यवस्था है उससे जुड़ी समस्याओं के हल के लिए देश को बाहर से किसी बहुत बड़ी मदद की उम्मीद नहीं करनी चाहिए बल्कि देश को अपनी समस्याओं का समाधान खुद निकालना होगा। यह सटीक बात कहकर प्रधानमंत्री ने यह साफ जता दिया है कि अब सरकार किसी के भरोसे ना रहकर अपने बूते अर्थव्यवस्था को और मजबूत बनाने की तरफ कदम बढ़ाने जा रही है। सिंह ने यह बात ऐसे समय की है जब घरेलू अर्थव्यवस्था कुछ मुश्किलों से गुजर रही है और अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए सरकार कुछ नए उपाय करने की तैयारी में दिखती है। दरअसल पिछले कुछ दिन की घटनाओं से सरकार को इस बात का तो पक्का यकीन हो गया है कि भारत जैसे विशाल देश के लिए कोई अंतर्राष्ट्रीय समाधान नहीं है। हमें अपनी अर्थव्यवस्था की योजना इस सोच के साथ तैयार करनी होगी कि हमें कठिनाई के समय बाहर से इतनी बड़ी मदद नहीं मिलेगी कि हम उसके भरोसे संकट को पार कर जाएं। इसी के चलते प्रधानमंत्री ने वादा किया है कि राजकोषीय प्रबंधन की समस्या का हाल प्रभावी तथा विश्वसनीय तरीके से किया जाएगा। भुगतान संतुलन के घाटे तथा चालू खाते के घाटे के प्रबंधन की समस्याआें को भी हल कर लिया जाएगा। सिंह ने कहा है कि भारत वित्तीय संतुलन कायम करने के लिए पहले से कहीं अधिक मेहनत करेगा। हमें भुगतान संतुलन की समस्या तथा विदेशी निवेश के लिए माहौल बनाने के लिए व्यवस्थित तरीके से काम करना होगा। इसके लिए केन्द्र के साथ साथ राज्यों की सरकारों को भी आगे बढ़कर काम करना होगा। चूंकि भारत की राजनीतिक प्रणाली अर्द्ध-संघीय है ऐसे में केंद्र और विभिन्न राज्यों में सत्तारूढ़ सभी राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी है कि वे मिल कर देश को आर्थिक वृद्धि की उस तीव्र राह पर फिर वापस लाने के लिए विश्वसनीय तरीके निकालें जिस तीव्र राह पर देश अब तक चल रहा था। यह तो तय है कि अर्थव्यवस्था को लेकर इस समय बहुत सी परेशानियों की जड़ भारत से बाहर है। 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट की वजह से भी हमारी वृद्धि दर प्रभावित हुई और सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर 9 से घटकर 6.7 प्रतिशत पर आ गई। अगले दो साल में हमारी स्थिति सुधरी, लेकिन फिर यूरो क्षेत्र का संकट आ गया। कुल मिलाकर सरकार हर हालात से वाकिफ है और उससे पार पाने में लगी है।

Dark Saint Alaick
30-06-2012, 03:17 PM
वैज्ञानिकों की एक और बड़ी कामयाबी

विज्ञान के क्षेत्र में भारत की प्रगति की रफ्तार जिस गति से चल रही है उसका लोहा तो दुनिया भी मानने लगी है लेकिन उसके साथ ही अंतरिक्ष और सैन्य क्षेत्र में भारत द्वारा किए जा रहे कामो पर भी सभी की नजरें जमी हुई हैं। ऐसे में देश के वैज्ञानिकों द्वारा हासिल एक नई तकनीक ने तो गर्व से हमारा सीना ही चौड़ा कर दिया है। भारतीय वैज्ञानिकों ने हाल ही में पानी के भीतर से छोड़ी जाने वाली परमाणु मिसाइल पूरी तरह विकसित करने में कामयाबी हांसिल कर ली है और अब इसे पनडुब्बी से जोड़े जाने का काम तेज गति से चल रहा है। रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन के प्रमुख एवं रक्षा मंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार डॉ. वी. के. सारस्वत की अगुवाई में वैज्ञानिकों ने यह कामयाबी पाई है। डॉ. सारस्वत का कहना है कि इस मिसाइल की से जुड़ी तकनीक का विकास का काम तो पूरा हो ही गया है और इसे दागने के सभी पहलुओं पर भी हमने अपना काम पूरा कर लिया है। एक रक्षा समाचार वेबसाइट को साक्षात्कार में डॉ.सारस्वत ने कहा कि चूंकि इस मिसाइल की तकनीक को पूर्ण रूप से विकसित किया जा चुका है इसलिए वैज्ञानिकों को इस मिसाइल के पनडुब्बी में लगाने के काम में कोई अड़चन की आशंका नजर नहीं आ रही है। दर असल इस तरह की मिसाइल को विकसित कर लेना ही अपने आप में काफी पेचीदा है क्योंकि पानी के भीतर से छोड़ी जाने वाली मिसाइल की तकनीक आम मिसाइल तकनीक से बहुत जटिल होती है। मिसाइल को पनडुब्बी से छोड़े के बाद पानी में से ही होकर गुजरना पड़ता है। पानी से बाहर आने और फिर लक्ष्य की ओर बढ़ने की तकनीक की अपनी अलग ही जटिलताएं हैं। इस सभी जटिलताओं को ध्यान में रखना, उन्हे दूर करना और फिर उसमें कामयाब होना वास्तव में हमारे वैज्ञानिकों की एक बड़ी सफलता ही कहा जा सकता है। पानी के भीतर से छोड़ी जाने वाली इस मिसाइल की रेंज 700 किलोमीटर है और भविष्य के खतरों को देखते हुए इसकी रेंज बढ़ाने की जरूरत भी रहेगी। खबर है कि यह परीक्षण इसी साल के अंत तक होने की संभावना है। दूसरी ओर सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल ब्रह्मोस के पानी के भीतर से छोड़ने वाले प्रक्षेपास्त्र का विकास भी हो चुका है और उसके भी परीक्षण की तैयारियां चल रही हैं। यह परीक्षण भी इसी साल होने की उम्मीद है। ऐसा होगा तो हर भारतवासी और गोर्वान्वित होगा।

Dark Saint Alaick
08-07-2012, 04:32 AM
मुकरने की सीमा लांध चुका है पाकिस्तान

लगता है कि पाकिस्तान यह ठान चुका है कि भारत चाहे लाख कहे वह यह मानेगा ही नहीं कि मुंबई पर हुए आतंकी हमले में पाकिस्तान सरकार से सम्बंधित किसी व्यक्ति या किसी सरकारी ऐजेंसी का हाथ था। तीन दिन पहले ही पाकिस्तान के गृह मंत्री ने इस बात से इनकार किया था और भारत के दौरे पर आए पाकिस्तान के विदेश सचिव जलील अब्बास जिलानी ने गुरूवार को कहा कि हम भारत में किसी आतंकी हमले में पाकिस्तान की किसी सरकारी एजेंसी के शामिल होने की बात को खारिज करते हैं। पाकिस्तान तो मुंबई हमलों की संयुक्त जांच का इच्छुक है। दरअसल पाकिस्तान का इस तरह बार-बार मुकरना ही यह साबित करता है कि वह आतंकियों को अपने यहां शह दे रहा है। वह यह कह कर पूरी दुनिया को भ्रमित करने में लगा है कि जितना भारत आतंकवाद से प्रभावित है उतना ही पाकिस्तान भी आतंकवाद से पीड़ित है जबकि सच्चाई तो यही है कि भारत में आतंक की कोई भी हरकत पाकिस्तान की जमीन पर ही जन्म लेती है। अबू हमजा की गिरफ्तारी और उसके द्वारा उगले जा रहे राज इस बात के पुख्ता सबूत बनते जा रहे हैं कि मुंबई हमले में पाकिस्तानी ऐजेंसियों की मिली भगत थी और इसी के चलते केन्द्र्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने पाकिस्तान के इस दावे का खुलेआम दो बार खंडन कर चुके हैं कि मुंबई में हुए आतंकवादी हमलों में पाकिस्तानी सरकार से सम्बंधित किसी व्यक्ति का हाथ नहीं था। भारत के पास जो सबूत हैं उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि पाकिस्तान सरकार के समर्थन के बिना वहां आतंकवादियों का कंट्रोल रूम बनना संभव नहीं था। ऐसे में पाकिस्तान इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि मुंबई हमलों में शामिल आतंकवादियों को उसकी सरकार से जुड़े लोगों का समर्थन हासिल था। मुंबई हमलों के मामले में गिरफ्तार अजमल आमिर कसाब और अबू हमजा के बयान भारत के हर दावे को पुष्ट ही कर रहे हैं। यही कारण है कि भारत ने एक बार फिर पाकिस्तान को यह साफ बता दिया है कि मुंबई हमले के दोषियों को कानून के दायरे में लाना ही पाकिस्तान द्वारा किया जा सकने वाला सबसे बड़ा विश्वास बहाली उपाय होगा। अब भारत पाकिस्तान की किसी भी बात पर भरोसा कर ही नहीं सकता क्योंकि वह लगातार मुकरने की अपनी सीमा पार कर चुका है।

Dark Saint Alaick
08-07-2012, 05:12 AM
प्रधानमंत्री की नायाब सलाह, नहीं खरीदें सोना

देश की अर्थ व्यवस्था को सही राह पर ले जाने और तेजी से आर्थिक विकास के लिए प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने लोगों को यह नायाब सलाह दी है कि वे अपनी बचत से सोना नहीं खरीदें, बल्कि उसे स्थाई निवेश में लगाएं, ताकि उसका सीधा फायदा देश को मिले। डॉ. सिंह खुद एक जाने माने अर्थशास्त्री हैं और इसलिए उनका यह सुझाव भी गौर करने लायक है कि लोगों को सोना खरीदने की बजाय इन पैसों को बचत के रूप में स्थायी निवेश में लगाना चाहिए। प्रधानमंत्री का मानना है कि सोने के भाव में इन दिनों हो रहे उतार- चढ़ाव के चलते ये धातु निवेशकों की पहली पसंद बना हुआ है। दरअसल डॉ. सिंह का यह सुझाव दूरदर्शिता का परिचायक है, क्योंकि लोग अगर सोना खरीदने के प्रति दीवानगी को कम नहीं करेंगे, तो निवेश के बंद हो चुके अन्य दरवाजे कहां से खुलेंगे। तय है, जब लोग अपनी बचत को अन्य जगह लगाने की सोचेंगे, तो वह बचत उत्पादक निवेश में लगाई जाएगी और जब निवेश उत्पादकता क्षेत्र में बढ़ेगा, तो देश का विकास होगा और जब देश का विकास होगा, तो लोगों का विकास भी अपने आप होगा। वैसे भी सरकार अब अर्थ व्यवस्था को गति देने के अपने प्रयासों को तेज कर रही है। वित्तीय घाटे पर नियंत्रण, कर प्रणाली में स्पष्टता, म्यूचुअल फंड और बीमा उद्योग में जान फूंकना, विदेशी निवेश के लंबित प्रस्तावों को हरी झंडी देना और इंफ्रास्ट्रक्चर में तेजी से सुधार करना सरकार के मुख्य एजेंडे में है। विदेशी निवेशकों को भी भारत की तरफ आकर्षित करने के उपाय किए जा रहे हैं और देश में उनके लिए बेहतर माहौल तैयार किया जा रहा है। सरकार राजकोषीय घाटा कम करने के लिए तर्कसंगत उपायों पर काम कर रही है। प्रधानमंत्री का मानना है कि सरकार कर से जितना कमाती है, उससे कहीं अधिक खर्च करती है, जिससे राजकोषीय घाटा होता है। राजकोषीय घाटा कम करना सरकार के एजेंडे में टॉप पर है। कुल मिलाकर सरकार की तरफ से प्रयासों में तो कोई कोर कसर नहीं छोड़ी जा रही है, लेकिन सरकार की लोगों से जो अपेक्षाएं हैं, उन पर तो लोगों को ही खरा उतरना होगा। स्व हित देखना कोई बुरा नहीं है, लेकिन केवल अपने हित को देख कर देश हित की तरफ ध्यान न देना भी कोई अच्छा संकेत नहीं होता। ऐसे में प्रधानमंत्री के सुझाव पर भी हमें गौर तरना चाहिए, ताकि हमें भी एक जिम्मेदार नागरिक का अहसास हो सके।

Dark Saint Alaick
08-07-2012, 05:39 AM
बागियों के इशारे पर नाच रही है भाजपा

बागी नेता भाजपा में किस कदर हावी हैं और वे पार्टी को अपने इशारे पर कैसे नचाते रहते हैं, इसका एक और उदाहरण कर्नाटक में सामने आया है। भाजपा आलाकमान ने कर्नाटक के मुख्यमंत्री सदानंद गौड़ा को हटा कर उनकी जगह पूर्व मुख्यमंत्री बी.एस.येदियुरप्पा के करीबी जगदीश शेट्टर को आसीन करने का फैसला किया है जो यह साबित करता है कि पार्टी में अब वही हो रहा है, जो बागी नेता करवाना चाहते हैं। पार्टी के लिए इससे शर्मनाक बात और क्या हो सकती है कि उसे चार साल के शासन में तीसरा मुख्यमंत्री चुनना पड़ा है। दरअसल येदियुरप्पा को लेकर पिछले कई महिनो से भाजपा काफी परेशान थी क्योंकि येदियुरप्पा के समर्थन में भाजपा के आधे से भी अधिक विधायकों ने बगावत का बिगुल फूंक रखा था। खुद येदियुरप्पा भी कई बार यह सार्वजनिक बयान दे चुके थे उन्हे इस पद पर फिर से आसीन किया जाए क्योंकि पिछले साल अगस्त में येदियुरप्पा को भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते भाजपा आलाकमान ने जब मुख्यमंत्री पद से हटाया था तो उन्हे भरोसा दिलाया था कि आरोप मुक्त होने पर उन्हे वापस मुख्यमंत्री की गद्दी सौंप दी जाएगी। हालांकि येदियुरप्पा उस आरोप से तो मुक्त होकर जेल से बाहर आ गए है लेकिन अब भी उन पर घोटाले के मामले विचाराधीन हैं और भाजपा कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहती इसलिए उसने येदियुरप्पा को फिर से सत्तासीन करने से इनकार कर दिया था। इस पर येदियुरप्पा ने लिंगायत समुदाय के नेता जगदीश शेट्टर को मुख्यमंत्री बनाने की पेशकश की और दबाव बढ़ाने के लिए पिछले सप्ताह नौ मंत्रियों ने सदानंद गौड़ा मंत्रिमंडल से इस्तीफे की घोषणा भी कर दी। इस पूरे घटनाक्रम ने यह साबित कर दिया है कि खुद को पार्टी विद डिफरेंट बताने वाली भाजपा का आला नेतृत्व अब पूरी तरह से नाकाम हो चुका है और पार्टी में उन्ही की चल रही है जो धोंस और धमकी के दम पर अपना मतलब साध रहे हैं। चार साल में तीन मुख्यमंत्री बदल कर भाजपा ने यह भी जता दिया कि वह केवल अपने अंदरूनी झगड़ों में ही उलझती रही है और इस दौरान उसका कर्नाटक के विकास से कोई सरोकार नहीं है। कर्नाटक में हुए नाटक के बाद तो अब उन नेताओं के हौंसले और बुलन्द हो जाएंगे जो बगावत का झंडा लेकर अन्य राज्यों में घूम रहे हैं।

Dark Saint Alaick
11-07-2012, 11:14 PM
पाकिस्तान के झूठ का एक और पर्दाफाश

पाकिस्तान अपनी करतूतों के चलते रोज किसी न किसी नए विवाद में फंसता जाता है और ताज्जुब की बात तो यह होती है कि वह बड़ी आसानी से उस विवाद से पल्ला झाड़ने की कोशिश से भी बाज नहीं आता। अब ताजा विवाद पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के पूर्व प्रमुख जनरल जियाउद्दीन बट्ट के बयान को लेकर पैदा हुआ है। बट्ट ने दावा किया है कि एक पाकिस्तानी ब्रिगेडियर ने ओसामा बिन लादेन को संरक्षण दे रखा था और इसकी पूरी जानकारी पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ को थी। एक साक्षात्कार में यह चौंकाने वाली बात कहते हुए बट्ट ने कहा कि ब्रिगेडियर एजाज शाह के पूर्व सैन्य शासक परवेज मुशर्रफ से नजदीकी रिश्ते थे और मुशर्रफ शासन में यह ब्रिगेडियर बेहद ताकतवर हुआ करता था। एजाज ने ही ऐबटाबाद में ओसामा को पनाह दी थी। शाह मुशर्रफ के कार्यकाल में गुप्तचर ब्यूरो प्रमुख था। बट्ट का यह बयान पूर्व में व्यक्त की जा रही इस आशंका को पुष्ट करता है कि बगैर पाकिस्तानी सरकार की शह के ओसामा वहां संरक्षण पा ही नहीं सकता था। बट्ट ने तो यह दावा भी किया है कि ऐबटाबाद के जिस परिसर में ओसामा ने पनाह ले रखी थी उसे ब्रिगेडियर एजाज के आदेश पर बनाया गया था। दरअसल बट्ट के इस आरोप में काफी सच्चाई भी दिखती है क्योंकि काफी पहले पूर्व प्रधानमंत्री बेगम बेनजीर भुट्टो ने यह आशंका जताई थी कि ब्रिगेडियर एजाज आतंकवादियों के साथ मिलकर उनकी हत्या की साजिश रच रहा है। एजाज 2007 में उस रात को बेनजीर के सुरक्षा मामलों का प्रभारी भी था जब बेनजीर की हत्या कर दी गई थी। 2004 में एजाज को मुशर्रफ ने ही आस्ट्रेलिया में उच्चायुक्त नामित किया था जो बट्ट के इस बयान की पुष्टि करता है कि एजाज के मुशर्रफ से नजदीकी रिश्ते थे हालाकि बाद में आस्ट्रेलियाई सरकार ने शाह की नियुक्ति को स्वीकार नहीं था क्योंकि माना जाता था कि शाह के आतंकवादियों के साथ भी रिश्ते हैं। अब भले ही बट्ट के आरोपों को एजाज नकार रहा हो लेकिन यह तय है कि आग वहीं लगती है जहां चिंगारी हो। बट्ट के बयानो को शत प्रतिशत सही ना भी माना जाए तो कुछ आधार तो ऐसा होगा ही कि बट्ट इतना बड़ा बयान दे रहे हैं। पाकिस्तान लाख बचने की कोशिश करे लेकिन उसके झूठ का पर्दाफाश रोज-ब-रोज हो रहा है।

Dark Saint Alaick
14-07-2012, 02:33 AM
दूरस्थ चिकित्सा की नई तकनीक मील का पत्थर

भारत जैसे विशाल देश में चिकित्सा सुविधा के विस्तार और इस सुविधा को दूरदराज के गांवों तक पहुंचाना अपने आप में एक बड़ी चुनौती का काम है। ऐसे में गांवों और अन्य सुदूर इलाकों में अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचाने के लिए रक्षा अनुसंधान और विकास संस्थान ने अपनी दूरस्थ चिकित्सा तकनीक को व्यवसायिक रूप देने का जो फैसला किया है वह वास्तव में आने वाले समय में मील का पत्थर साबित हो सकता है। इस तकनीक के जरिए दुनिया के किसी एक कोने में बैठे विशेषज्ञ से किसी बीमारी या चोट आदि के इलाज के बारे में जानने के लिए संपर्क किया जा सकता है। दरअसल गांवों और सुदूर इलाकों में डॉक्टरों की तैनाती बहुत कम होती है। ऐसे में वहां यह तकनीक खास तौर पर मददगार होगी। इसमें एक ऐसा सिस्टम लगाया जाएगा जो मरीज के ईसीजी, खून के दबाव, सांस लेने की गति, धड़कन की दर, शरीर का ताप आदि की जानकारी लैपटॉप की मदद से उपग्रह के जरिए स्वास्थ्य केंद्र तक भेज देगा। इन्हें देखकर डॉक्टर मरीज के लिए जरूरी निर्देश दे सकेंगे। हांलाकि सैन्य शिविरों में रहने वाले सैनिकों के लिए इस तकनीक का इस्तेमाल अभी हो रहा है और यह काफी कामयाब भी रहा है। इसी कामयाबी को देखते हुए अब इसे गांवों और जन स्वास्थ्य केंद्र्रों में इस्तेमाल का निर्णय किया गया है। दूरस्थ चिकित्सा तकनीक के इस पोर्टेबल तंत्र का विकास बंगलुरू के डिफेंस बायो इंजीनियरिंग एंड इलेक्ट्रोमेडिकल लैबोरेट्री में किया गया था। इस पोर्टेबल तंत्र को किसी भी सुदूर इलाके में लगाया जा सकता है। अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप बना हुआ यह तंत्र शून्य से नीचे के तापमानों पर भी कार्य कर सकता है। इसे ऐसे इलाकों में लगाया जा सकता है जहां पर स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुंच नहीं है। इस तकनीक को सुदूर इलाकों तक पहुंचाने में आने वाला खर्च हांलाकि शुरूआती दौर में कुछ ज्यादा होगा लेकिन जब ज्यादा संख्या में यह सिस्टम बनाए जाएंगे तो उसकी लागत में अपने आप कमी होने लगेगी। याने आने वाले वर्षों में भारत के छोटे से छोटे गांव और दूरदराज इलाकों में रहने वाली जनता को भी स्वास्थ्य सम्बंधी छोटी-छोटी परेशानियों के लिए इधर उधर भागना नहीं पड़ेगा और उनकी प्रारंभिक परेशानियां वहीं हल हो जाएंगी जो उनके लिए वरदान साबित होंगी।

Dark Saint Alaick
17-07-2012, 01:11 AM
लाइलाज है कर्नाटक भाजपा का संकट

जैसी कि पूर्व में ही आशंका व्यक्त की जा रही थी, कर्नाटक में सत्तारूढ़ भाजपा की कलह मुख्यमंत्री बदलने के बावजूद भी कम नहीं हुई है। अब जो नई समस्या खड़ी हुई है उससे यह साबित हो गया है कि भाजपा में सभी केवल और केवल कुर्सी की खातिर लड़ रहे हैं और जिसे मनमाफिक कुर्सी नहीं मिल रही वही बागी होकर पार्टी नेतृत्व के सामने आंखें तरेर रहा है। मंत्रिमंडल के गठन को लेकर पहले दिन से परेशान नए मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टार की मुश्किलें थमने का नाम ही नहीं ले रही हैं। नए मंत्रिमंडल में जगह ना मिलने से नाराज कुंडपुर विधानसभा सीट से विधायक हलादि श्रीनिवास शेट्टी ने तो इस्तीफा देने की घोषणा पहले ही दिन कर दी थी और अब सुलिया विधानसभा सीट से विधायक एस. अंगरा ने भी धमकी भरे अंदाज में कह दिया है कि वे जल्द ही इस्तीफा दे देंगे। राज्य में भाजपा विधायकों की दबंगता कितनी बढ़ गई है वह इसी बात से साबित होता है कि मंत्री पद नहीं मिलने से नाराज अंगरा ने कहा, ‘‘मेरी ईमानदारी और वफादारी को मेरी कमजोरी के रूप में देखा जा रहा है। पार्टी के हित को देखते हुए मैं अब तक खामोश रहा, लेकिन अब मैं विधायक पद छोड़ दूंगा।’’ इस तरह के बयान यह साफ साबित करते हैं कि भाजपा में अब नेतृत्व नाम की कोई चीज ही नहीं बची है और क्षेत्रीय नेता इतने बेलगाम हो चुके हैं कि ना तो उन्हे राज्य के विकास से कोई लेना देना है और ना ही वे जनता के दुख दर्द की परवाह कर रहे हैं। कर्नाटक इस बार वैसे ही मानसून की कमजोरी के कारण सूखे की संभावना की तरफ बढ़ रहा है। राज्य के लोग परेशानियों का सामना कर रहे हैं लेकिन लगता है कि भाजपा के नेताओं और विधायकों को इससे कोई लेना देना ही नहीं है। जब जगदीश शेट्टार ने मुख्यमंत्री पर संभाला था तो उन्होने राज्य में सूखे की संभावना को देखते हुए अपनी पहली प्राथमिकता लोगों को सूखे से होने वाली परेशानियों से निजात दिलाने की बताई थी लेकिन वे कोई कदम बढ़ाएं उससे पहले ही उनके अपने ही विधायक उनकी टांग खींचने में लगे हैं। लगता तो यही है कि भाजपा के लिए कर्नाटक का संकट अब नासूर बन चुका है और इसका कोई इलाज पार्टी नेतृत्व के पास नहीं है। ऐसे में कांग्रेस की यह मांग कि राज्य में मौजूदा सरकार बर्खास्त कर नए चुनाव करवाए जाने चाहिए कौन और किस तरह नाजायज़ करार दे सकता है ?

abhisays
17-07-2012, 09:48 AM
कुछ नहीं अब अगले विधान सभा चुनाव में हार जायेंगे तो सभी की अक्ल ठिकाने पर आ जायेगी.

Dark Saint Alaick
27-07-2012, 03:54 PM
केशुभाई बने मोदी के लिए खतरे की घंटी

गुजरात में इन दिनों पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा से खफा नेता केशुभाई पटेल जिस तरह से राज्य भर में परिवर्तन सम्मेलन कर रहे हैं, उससे मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के पेशानी पर तो बल पड़ रहे ही हैं, भाजपा में भी इस बात की खलबली है कि दिसम्बर में होने वाले विधानसभा चुनाव तक अगर केशुबापा के ये बगावती तेवर जारी रहे तो राज्य में पार्टी के एक बार फिर सत्तारूढ़ होने के सपने टूट सकते हैं। गुजरात भाजपा के संस्थापकों में शामिल रहे केशुबापा राज्य की पटेल लॉबी के एक छत्र और सर्वमान्य नेता माने जाते हैं और आज भी सौराष्ट्र इलाके में लोग उनके एक आह्वान पर बड़ी संख्या में जुट जाते हैं। दरअसल केशुबापा पार्टी और मोदी से तभी से नाराज हैं जबसे उन्हे हटा कर मोदी को राज्य के मुखिया का पद सौंपा गया था। दस वर्षों से पटेल इस अपमान के घूंट को पीकर चुप बैठे थे लेकिन अब वे ठान चुके हैं कि अगले चुनाव में वे मोदी को सत्ता में नहीं आने देंगे। चर्चा है कि वे राज्य भर में परिवर्तन सम्मेलन के बाद नए दल का गठन कर सकते हैं। उन्हे मोदी विरोधी सुरेश मेहता,गोरधन झड़पिया ,कांशीराम राणा और फकीर वाघेला जैसे नेताओं का समर्थन भी मिल चुका है। पिछले कुछ दिनो से मोदी पर केशुबापा के हमले तीखे होते जा रहे हैं। उनका कहना कि भले ही वे अब तक खुलकर सामने नहीं आए रहे लेकिन अब वह प्रजा धर्म निभाकर परिवर्तन लेकर रहेंगे। भीष्म बनकर चुप नहीं रहेंगे। उन्होंने मोदी पर यह आरोप लगा कर तो सनसनी ही फैला दी है कि वर्ष 1986 से 95 के बीच भाजपा के कई नेता नरेन्द्र मोदी का विरोध करते थे लेकिन पार्टी के हित में वे उस समय मोदी के खिलाफ नही गए। उन्होंने यह आरोप भी लगाया है कि वर्ष 1998 से 2001 के दौरान दिल्ली में भाजपा के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी के बंगले पर जिद, भूख हड़ताल और आत्महत्या की धमकी देकर और साजिश रच कर अंत में मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री बन गए। पटेल के अनुसार मोदी की हिटलरशाही एवं ठग-मदारी जैसे प्रशासन से पार्टी और प्रशासन परेशान हो चुका है। मुट्ठीभर लोगों के लिए मोदी कामधेनू एवं पारसमणि के समान है। केशुबापा के ये आरोप वाकई काफी गंभीर हैं। जिस तरह से वे इन दिनो मोदी को सत्ता से हटाने की मुहिम छेड़े हुए हैं और उन्हे जन समर्थन मिल रहा है यह भाजपा और मोदी के लिए खतरे की घंटी है।

Dark Saint Alaick
27-07-2012, 03:57 PM
भाजपा की एक और मजबूरी

चार दिन पहले तक जो भाजपा राष्ट्रपति चुनाव में पीए संगमा के साथ खड़ी थी यकायक अब उनसे पल्ला झाड़ने में लगी है। भाजपा ने संगमा के साथ अदालत तक जाने से भी इंकार कर दिया है। इससे यह बात तो अब साफ हो गई कि भाजपा पूरे राष्ट्रपति चुनाव अभियान के दौरान संगमा के साथ केवल और केवल मजबूरी में खड़ी थी और उसे यह भी अच्छा तरह से पता था कि संगमा मौजूदा परिस्थितियों में किसी भी हाल में चुनाव नहीं जीत सकते। संगमा ने राष्ट्रपति पद पर निर्वाचित प्रणव मुखर्जी के खिलाफ अदालत में जाने की घोषणा तो तभी कर दी थी जब चुनाव आयोग ने मुखर्जी के खिलाफ की गई संगमा की दो अलग अलग शिकायतों को काफी पहले ही खारिज कर दिया था। उस समय भाजपा का यह बयान क्यों नहीं आया कि अदालत का दरवाजा खटखटाने का निर्णय संगमा का निजी मामला है। अब पार्टी यह कह रही है कि भाजपा का संगमा के निर्णय से कोई लेना देना नहीं है। दरअसल यह भाजपा की उस छवि का ही एक हिस्सा है जो उसकी अवसरवादी राजनीति के चलते बन चुकी है। संगमा हारे तो अब भाजपा भी पलट गई है और वह हारे हुए उम्मीदवार पर कोई दांव नहीं खेलना चाहती है। लगता है कि भाजपा को यह तो समझ में आ ही गया है कि संगमा का समर्थन कर उसने बहुत बड़ी गलती की। इस बार के राष्ट्रपति चुनावों में पहले ही भाजपा और उसके नेतृत्व वाले राजग की अंदरूनी कलह सामने आ गई थी और उसके दो घटक दलों ने खुले आम मुखर्जी का साथ देने की घोषणा कर दी थी। ऐसे में भाजपा खुद को अलग थलग महसूस तो कर ही रही थी लेकिन केवल विरोध के लिए विरोध की अपनी अड़ियल नीति के चलते संगमा के साथ होने का एक तरह से नाटक ही किया था। नाटक इस संदर्भ में कि अगर वाकई भाजपा दिल से संगमा के साथ होती तो हारने के बाद इस तरह से उनका साथ नहीं छोड़ती। हो सकता है संगमा आने वाले दिनो में भाजपा के इस रवैये को लेकर अपनी पीड़ा कहीं ना कहीं व्यक्त भी कर दें। कुल मिलाकर यह स्पष्ट होता जा रहा है कि भाजपा इस समय पूरी तरह से भटकी हुई पार्टी के रूप में चौराहे पर खड़ी है और किसी भी विषय पर वह अपना कोई रुख साफ नहीं कर पा रही है। इससे इस चर्चा को भी और बल मिलता है कि भाजपा नेतृत्व अब पूरी तरह दिशाहीन हो चुका है।

Dark Saint Alaick
28-07-2012, 11:08 PM
अखिलेश के बार-बार बदलते फैसले

लगता है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के बारे में पिछले दिनों समाजवादी पार्टी के महासचिव और वरिष्ठ नेता मोहन सिंह ने जो टिप्पणी की थी वह सच्चाई के बेहद नजदीक है। मोहन सिंह ने कहा था कि अगर राज्य सरकार के कुछ निर्णय सही नहीं हैं तो इसके लिए अखिलेश को दोष नहीं दिया जाना चाहिए, क्योंकि वे अभी सरकार चलाने के गुर सीख रहे हैं। वैसे तो पिछले कुछ समय से अखिलेश द्वारा किए जा रहे निर्णयों पर ऐतराज हुए हैं और कुछ निर्णयों को तो वापस भी लेना पड़ा है लेकिन उन्होने वरिष्ठ मंत्री आजम खां से मेरठ जिले का प्रभार लेने का निर्णय कर एक और आफत मोल ले ली जिसका नतीजा यह हुआ कि आजम खां ने मंत्री पद छोड़ देने की पेशकश कर डाली। नगर विकास मंत्री खां ने अखिलेश को भेजे गए पत्र में कहा है कि अगर वह उनके काम से संतुष्ट नहीं हैं तो उन्हें पद से हटा दिया जाना चाहिए। यह तो ठीक हुआ कि मामला गंभीर होता उससे पहले सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह ने हस्तक्षेप किया और उसके चलते आजम खां को वापस मेरठ जिले का प्रभार सौंप दिया गया। आजम खां से मेरठ का प्रभार लेकर पंचायती राज मंत्री बलराम यादव को सौंपा गया था,जबकि खां को मेरठ के बदले पीलीभीत के प्रभारी मंत्री की जिम्मेदारी सौंपी गयी थी। दरअसल अखिलेश यादव भले ही राज्य के मुखिया को तौर पर काम कर रहे हैं लेकिन अनुभवहीनता के चलते वे जो कदम उठा रहे हैं वह ना तो उप्र के लिए ठीक हैं और ना ही सत्तारूढ़ सपा के लिए। राज्य में हिंसा का घटनाएं यकायक बढ़ रही हैं, वहीं अपराधों का ग्राफ भी चढ़ता जा रहा है। आरोप तो यहां तक लग रहे हैं कि कानून व्यवस्था को अपने हाथ में लेने के जो मामले बढ़ रहे हैं, उनमें समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं की बड़ी भूमिका है। गुरूवार को राजधानी लखनऊ के गोमती नगर इलाके में पूर्व मुख्यमंत्री मायावती की प्रतिमा को क्षतिग्रस्त करने के मामले में भी सपा कार्यकर्ताओं का हाथ होने के आरोप सामने आए हैं। ऐसे में राज्य में चुनाव से पहले व्यक्त की जा रही इस आशंका को बल ही मिलता है कि समाजवादी पार्टी के शासन में असामाजिक तत्वों का उन्माद बढ़ जाता है। अखिलेश यादव को आने वाले समय में संजीदगी से काम करना होगा वरना कहीं ऐसा न हो कि उनकी अनुभवहीनता सपा को भारी पड़ जाए।

Dark Saint Alaick
29-07-2012, 12:51 AM
कर्नाटक में स्कूली बच्चों से दुर्व्यवहार

कर्नाटक में जिस तरह से शिक्षा के अधिकार कानून का माखौल उड़ाया जा रहा है उसे लेकर राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने कड़ी आपत्ति जताई है। इस आपत्ति से यह साफ होता है कि राज्य की भाजपा सरकार ना तो शिक्षा क्षेत्र पर पर्याप्त ध्यान दे रही है और ना ही निजी स्कूलों पर किसी तरह का नियंत्रण रख पा रही है। यही वजह है कि आयोग ने बेंगलूर के एक नामी निजी स्कूल में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के बच्चों से कथित बदसलूकी के मामले को गंभीरता से लेते हुए राज्य सरकार से कहा है कि ईडब्ल्यूएस के तहत दाखिला पाने वाले छात्रों के साथ अपमानजनक व्यवहार पर संबंधित स्कूलों के खिलाफ सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। अगर जरूरत महसूस हो तो ऐसी स्कूलों की मान्यता पर भी रोक लगाई जानी चाहिए। शिक्षा के अधिकार कानून के तहत निजी स्कूलों में 25 फीसदी सीटें आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग से ताल्लुक रखने वाले बच्चों के लिए आरक्षित है लेकिन आयोग को यह भी सूचना मिली है कि राज्य में कई स्कूल इसकी पालना नहीं कर रहे हैं और बच्चों के साथ दुर्व्यवहार के मामले सामने आए हैं। इनमें सही स्कूल यूनीफॉर्म नहीं पहनने पर दंडित करने, कक्षा में अलग बैठाने और सांस्कृतिक गतिविधियों में शामिल नहीं करने जैसे घटनाएं शामिल हैं। इन बच्चों के माता-पिता का आरोप है कि स्कूल में उनके बच्चों को अपमानित किया गया और उनके साथ भेदभाव रखा गया। एक लड़की की मां ने तो यह आरोप भी लगाया कि उन्होंने जब अपनी बेटी के सहपाठी द्वारा उसके बाल काटे जाने की घटना की जानकारी दी तब भी स्कूल ने कोई कार्रवाई नहीं की। याने राज्य के निजी स्कूल पूरे देश में लागू एक सशक्त कानून का सरेआम उल्लंघन कर रहे हैं और राज्य का शिक्षा विभाग गहरी नींद सो रहा है। बच्चे देश का भविष्य होते हैं और स्कूलों की इस तरह की हरकतों से निश्चित रूप से बच्चों का ना केवल आत्म विश्वास डगमगाता है बल्कि उनमें असमानता की भावना भी पनपने लगती है। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने जो कदम उठाया है वह वास्तव में सराहनीय कार्य है और राज्य सरकार को इस मुद्दे पर ठोस कदम उठाना चाहिए। माता पिता को भी चाहिए कि वे अपने बच्चों के साथ किसी भी तरह के अन्याय को चुपचाप ना देखें।

Dark Saint Alaick
31-07-2012, 02:49 PM
सीमा पर सुरंग ने बढ़ाए और संदेह

पाकिस्तान से भारत में घुसपैठ के अब तक तो सीमा उल्लंघन के मामले ही सामने आए थे लेकिन हाल ही में घुसपैठ के लिए सुरंग बनाने का जो मामला सामने आया है वह चौंकाने वाला है। सुरंग खोज निकालने के बाद सुरक्षाकर्मियों ने आशंका जताई है कि जम्मू-कश्मीर में आतंकवादियों द्वारा घुसपैठ और हथियारों की आपूर्ति के लिए ऐसी कई और सुरंगें हो सकती हैं। जम्मू के दक्षिणी जिले साम्बा में अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर बनी एक चौकी के निकट गत शनिवार को एक किसान को खेत में खुदाई के दौरान सुरंग नजर आई थी। वह सुरंग निर्माणाधीन अवस्था में है। करीब तीन फुट व्यास के आकार की यह सुरंग चार सौ मीटर लंबी बताई जा रही है। ताज्जुब की बात तो यह है कि यह सुरंग कटीले तारों के लगभग पच्चीस फुट नीचे खोदी जा रही थी। बताया जा रहा है कि इस सुरंग में आक्सीजन पहुंचाने के लिए दो इंच व्यास का पाइप भी डाला गया। इससे यह बात साबित हो जाती है कि आतंकवादियों के इरादे अब और भी खतरनाक होते जा रहे हैं। वे सुरंग के जरिए पाकिस्तान सीमा से आसानी से घुसपैठ तो कर ही सकते हैं साथ ही हथियार तथा गोला-बारूद भी ला सकते हैं। जो जानकारी सामने आई है उसके अनुसार यह सुरंग जम्मू से 55 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम में पाकिस्तान की चौकी लेंब्रियाल और भारतीय चौकी चिलायारी के बीच सिर्फ 500 मीटर की दूरी है। ये पूरा इलाका जंगलों से घिरा है जिस कारण कई बार सीमा सुरक्षा बल को उस इलाके में हो रही गतिविधियों पर नजर रखना मुश्किल हो जाता है। इस सुरंग ने कई सवाल तो खड़े कर ही दिए हैं साथ ही भारतीय सुरक्षाकर्मियों को पूरी तरह से सावचेत रहने के संकेत भी कर दिए हैं। सीमा पार से अक्सर घुसपैठ की खबरें तो मिलती ही रहती हैं और हमारे चौकस जवान कई बार इस तरह की घुसपैठों को नाकाम भी कर चुके हैं, लेकिन आतंकवादी जिस तरह से घुसपैठ के नए तरीके अपनाने की कोशिश कर रहे हैं उससे अब और सावधानी बरतने की जरूरत महसूस होने लगी है। भले ही पाकिस्तान समय-समय पर ऐसे संकेत देता रहा हो कि वह भारत के साथ शांति चाहता है लेकिन अब तक के अनुभव रहे हैं कि पाकिस्तान कभी भरोसे लायक नहीं रहा है और इस तरह की सुरंग का पता लगना उसकी नियत पर संदेह को और पुख्ता ही करता है।

Dark Saint Alaick
31-07-2012, 03:16 PM
नीतीश कुमार के इरादे

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इन दिनों काफी चर्चा में हैं और भाजपा नेतृत्व की नींद उड़ा रहे हैं। सबसे पहले तो उन्होंने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर ताबड़तोड़ हमले किए। तब यह समझा गया कि नीतीश मुस्लिम वोटों की खातिर ऐसा कर रहे हैं। शायद वे नहीं चाहते कि मोदी से घनिष्ठता दिखाकर मुस्लिमों से दूर होने का खतरा मोल लें। जब उन्होंने राष्ट्रपति चुनाव में एनडीए उम्मीदवार पी.ए. संगमा की बजाय प्रणव मुखर्जी का गुणगान करते हुए उन्हें अपने दल का समर्थन देने की घोषणा की तब भी बिहार भाजपा ने उनके इस फैसले पर कोई विरोध नहीं जताया। कहा गया कि सच्चे लोकतंत्र में ऐसा होता है, लेकिन अब भाजपा के शीर्ष नेतृत्व में नीतीश के इरादों पर गुपचुप चर्चा शुरू हो गई है। उन्हें यह समझ में नहीं आ रहा है कि नीतीश ने ऐसा क्यों किया। कहा गया कि शायद केन्द्र सरकार से और फंड लेने के लिए नीतीश ने यह कदम उठाया है। इसके पीछे और भी कई तर्क दिए गए। लेकिन बहुत सी बातें लोगों के गले नहीं उतर रही हैं। ज़ाहिर है कि नीतीश राजनीतिक खेल खेल रहे हैं। वह चुपचाप अगले चुनाव पर नजर रखकर अपने कदम बढ़ा रहे हैं। उन्हें पता है कि बिहार में लालू यादव की पार्टी आरजेडी धीमे-धीमे और कमजोर पड़ती जा रही है। ऐसे में उनकी पार्टी बिहार में उसकी जगह ले सकती है अर्थात वह अपने बूते पर सरकार बना सकते हैं। नीतीश के इस विश्वास के पीछे कारण भी है और वह कि 243 सदस्यों वाले विधानसभा में उनके 118 सदस्य हैं यानी बहुमत से थोड़ा ही कम। अगर वह थोड़ा और प्रयास कर लें तो बहुमत पा लेंगे ठीक वैसा ही जैसा नवीन पटनायक ने उड़ीसा में किया। नवीन पटनायक ने राजनीति के कुशल खिलाड़ी के तौर पर पहले वहां भाजपा को साथ लेकर और बाद में उसे धत्ता बताकर अपनी ही सरकार बना ली। नवीन पटनायक का यह खेल भाजपा नेतृत्व को आज भी याद है। उन्हें भय है कि अगले चुनाव में नीतीश मुस्लिम वोटों की खातिर कहीं ऐसा कदम न उठा लें, लेकिन जानकारों का यह भी कहना है कि नवीन पटनायक की तर्ज पर चलना नीतीश के लिए आत्मघाती हो सकता है। बिहार के वोट पैटर्न को देखें तो हम पाएंगे कि यह खेल उतना आसान नहीं है। जेडीयू को वोटों का एक बड़ा प्रतिशत भाजपा के कारण ही मिला है। ऐसे में क्या नीतीश इतना बड़ा कदम उठा सकते हैं? यह खेल दिलचस्प हो सकता है। सोचना भाजपा नेतृत्व को है। उसे बड़ी सावधानी से आगे कदम रखना होगा ताकि तख्ता न पलट जाए। राजनीति के कुशल खिलाड़ी कब क्या करेंगे, वे नहीं जानते। जाहिर है, ऐसे में चुप रहना सबसे बढ़िया विकल्प है।

abhisays
31-07-2012, 04:18 PM
नितीश कुमार जाति के कुर्मी हैं. अगर वो भाजपा से अपने रास्ते अलग कर लेते हैं तो उनको फॉरवर्ड कास्ट का वोट नहीं मिलेगा. मसलन भूमिहार, ब्राह्मण, कायस्थ आदि. मेरे यहाँ तो लोग जन-संग के ज़माने से भाजपा को ही वोट देते आये हैं.. :india:
अगर नितीश अलग हो जाते हैं तो बिहार में त्रिशंकु विधान सभा हो जायेगी.

जिस तरह मोदी ने गुजरात को आगे बढ़ाया है उस प्रकार से नितीश बिहार में नहीं कर पाए हैं. और मेरा तो मानना है की वो २०१४ में third front की सरकार होते हुए देख रहे हैं, इसलिए भाजपा से दुरी बना रहे हैं. तीसरा मोर्चा का हश्र तो हम लोगो ने १९९७ में देखा ही था इसलिए ज्यादा अच्छा यही होगा की कांग्रेस नहीं तो बीजेपी की ही सरकार बने.

देश की भलाई इसी में है की केंद्र में two पार्टी सिस्टम मजबूत हो जाए, एक तरह BJP हो जो की सेण्टर राईट है और दूसरी तरफ कांग्रेस हो जो की सेण्टर लेफ्ट है. अगर ऐसा हो गया है तो भारत में डेमोक्रेसी के असल फायदे देखने को मिलेगे. इंग्लैंड और अमेरिका में लगभग ऐसा ही है.

Dark Saint Alaick
31-07-2012, 04:36 PM
मैं भी आपकी टिप्पणी से सहमत हूं और अमेरिकी राष्ट्रपति प्रणाली का समर्थक हूं ! यह पद्धति भारत की कई समस्यायों का समाधान कर सकती है !

Dark Saint Alaick
01-08-2012, 12:22 PM
मायने क्या हैं इस नाराजगी के

कांग्रेस बनाम राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के शरद पवार की रहस्यमय नूरा कुश्ती का आखिरकार सुखद अंत हो गया। इस संघर्ष का यही फलित संभावित था, क्योंकि शरद पवार और उनके दल का विरोध और बहिष्कार किसी जनहित के मुद्दे को लेकर न होकर अपने दल और मातहतों के निजी हित साधना था, जिसमें वे सफल रहे। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार में घटक दल की नाराजगी मनचाही मुरादों की उपलब्धि बनती रही है। लिहाजा दलों के मुखियाओं ने समय का फायदा उठाकर नैतिक कम, अनैतिक हित साधने में ज्यादा दबाव बनाया। ममता बनर्जी को अपवाद स्वरुप छोड़ भी दें, तो करुणानिधि, शरद पवार, लालू यादव और अजीत सिंह ने गठबंधन के भीतर रह कर व्यक्तिगत लाभ-हानि के समीकरण साधे, तो दूसरी तरफ बाहर से गठबंधन में टेका लगा रहे मुलायम सिंह और मायावती ने भी अनैतिक लक्ष्यों की मकसद पूर्ति के लिए दमखम दिखाया। हालांकि प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने राकांपा से सुलह के बाद बेबाकी से स्वीकारा भी कि गठबंधन की राजनीति में लेन-देन चलता रहता है, लेकिन परस्पर हित साधक बने इन राजहठों ने जनता को जरुर यह संदेश दे दिया है कि गठबंधन की राजनीति गरीब एवं वंचितों की राजनीति नहीं रह गई है। संप्रग गठबंधन और राकांपा के बीच चली रार का अंत इस बहाने खत्म हो गया कि संप्रग में बेहतर समन्वय बनाने के लिए एक तंत्र तैयार किया जाएगा, जिसकी अध्यक्ष सोनिया गांधी होंगी। हकीकत में तो राकांपा की नाराजगी महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण द्वारा सिंचाई विभाग के कामकाज पर श्वेतपत्र लाने के फैसले के विरोध में थी। वह भी इसलिए कि एक समय यहीं सिंचाई महकमा शरद पवार के चहेते भतीजे अजित पवार के पास था। जाहिर है श्वेतपत्र के मार्फत सिंचाई परियोजनाओं में धांधलियों की जो सडांध बाहर आती, उससे अजीत का हाजमा तो बिगड़ता ही, शरद और राकांपा भी दलदल में हाथ-पैर मारते नजर आते। रहस्यों से पर्दा उठाते हुए यह जानकारी भी सामने आई है कि महाराष्ट्र की गठबंधन सरकार में शामिल राकांपा के जिन मंत्रियों की गड़बड़ियों की गोपनीय चरित्रावली तैयार की जा रही थी, उनमें राकांपा के ताकतवर नेता तथा लोक निर्माण मंत्री छगन भुजबल का भी नाम दर्ज किया जा रहा था। अपने कुटुम्बियों और चहेते मंत्रियों पर भ्रष्टाचार की गाज न गिरे, इस गरज से शरद पवार नाराजगी की कुटिल चाल चल रहे थे। वैसे भी बीते आठ साल से शरद पवार ने जनहितों से जुड़े मुद्दों की राजनीति कतई नहीं की। कृषि मंत्री होने के बावजूद उन्होंने कभी किसान और किसानी की चिंता नहीं की। बढ़ती मंहगाई को लेकर उनके चेहरे पर कभी शिकन दिखाई नहीं दी। विदर्भ में आत्महत्या कर रहे किसानों की बजाय उनकी चिंता में सड़े अनाज से शराब बनाने वाले माफिया और चीनी उत्पादक शामिल रहे। ऐसे हालात में गठबंधन राजनीति की विवशता बनाम सौदेबाजी अनैतिकता की ही मिसाल मानी जाएगी। बहरहाल यदि अजीत पवार और छगन भुजबल की अनैतिकताओं का लेखा-जोखा तैयार करने का दमखम मुख्यमंत्री चव्हाण दिखा रहे थे, तो उनकी इस भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को गठबंधन में लेन-देन के चल रहे खेल से बाधित करने की जरुरत नहीं थी। यदि राकांपा की यह सौदेबाजी मंहगाई को नियंत्रित करने, भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने अथवा बिगड़ी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने को लेकर होती, तो इसे चिंता का सबब माना जाता। लेकिन परत दर परत राज खुलने के बाद जाहिर हो गया कि यह नाराजगी महज कदाचरणों पर पर्दा डालने की गरज से राजनीतिक सौदेबाजी के निहितार्थों की मकसद पूर्ति के लिए है। सौदेबाजी के ऐसे ही अनैतिक समीकरणों को गठबंधन में रहकर भुनाने का काम करुणानिधि और लालू यादव ने किया। ऐसे ही अनैतिक मकसद को अंजाम देने की दृष्टि से मुलायम और मायावती संप्रग गठबंधन को बाहर से समर्थन दे रहे हैं। नतीजतन ऐसे ही टोटकों के चलते कांग्रेस की सत्ता में बने रहने की मंशा आठ साल से पूरी होती चली आ रही है। अब यदि ऐसे हितों की पूर्ति के लिए केंद्र की गठबंधन सरकार लेन-देन की सौदेबाजी करती है, तो यह सौदा न तो व्यक्तिगत हित साधन के दायरे में आता है और न ही इससे देशहित को पलीता लगता है। यह लेन-देन पारदर्शी होने के साथ जन आंकाक्षाओं की पूर्ति करने वाला है, लिहाजा ऐसी नाराजगियों को एक बार जायज ठहराया जा सकता है, लेकिन पवार की नाराजगी को कतई जायज नहीं कहा जा सकता है।

Dark Saint Alaick
02-08-2012, 12:43 PM
कहीं दिखावा तो नहीं है ये नाराजगी

खबर है कि समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश की करीब चार माह पुरानी अपने बेटे अखिलेश यादव की सरकार के अब तक के कामकाज से खफा हैं और उन्होंने साफ -साफ चेतावनी दी कि अगर मौजूदा सरकार के मंत्री अपने कामकाज में सुधार नहीं करेंगे, तो उन्हे कड़े फैसले लेने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। मुलायम की इस चेतावनी को दो पहलुओं में देखा जा सकता है। पहला तो ये कि अगर उन्हें यह लगता है कि सरकार बेहतर तरीके से काम नहीं कर रही है, तो उन्हें खुद पहल करनी चाहिए। आखिर वे सत्तारूढ़ पार्टी के मुखिया हैं, तो उन्हें रोकने वाला है कौन। दूसरा पहलू, जिसकी संभावना ज्यादा है, यह हो सकता है कि अब तक के कार्यकाल में अखिलेश ने जो अनुभवहीनता दिखाई है और उसे लेकर लोगों में जो गलत संदेश गया है, उस पर मुलायम नाराजगी दिखा कर परदा डालना चाह रहे हैं। जो भी हो, यह तो अब साफ हो गया है कि सपा सरकार ने इन चार महीनों में अब तक ऐसा तो कोई काम नहीं किया है, जिसे उल्लेखनीय कहा जा सके । उल्टे सरकार जनता से दूर होती जा रही लगती है, तभी तो मुलायम सिंह को विधायकों की बैठक में साफ-साफ कहना पड़ा कि हमें जनता के बीच काम करना चाहिए, ताकि लोगों को सरकार का फर्क महसूस हो सके। चुनाव में जो वादे किए गए थे, वह पूरे होने चाहिए। सरकार तेज गति से काम करे। मुलायम यह भी जानते हैं कि सरकार में उच्च स्तर पर तालमेल नहीं है, इसलिए उन्हें यह भी हिदायत देनी पड़ी कि अगर मंत्रियों या विधायकों में किसी बात पर असहमति है, तो सार्वजनिक चर्चा नहीं होनी चाहिए। आपस में बातचीत करनी चाहिए। इस सरकार से जनता को काफी उम्मीदें हैं । तमाम कठिनाइयों के बावजूद उम्मीदों को पूरा करने का उत्तरदायित्व सरकार पर है। इसमें कोई बहानेबाजी नहीं चलेगी। हालांकि खुद अखिलेश ने भी इस बैठक के बाद कहा कि अगर पार्टी प्रमुख सरकार के काम से नाखुश हैं, तो हम आने वाले समय में वह नाराजगी दूर करने का प्रयास करेंगे, लेकिन इतना कह देने भर से अब काम चलने वाला नहीं है। भले ही मुलायम ने नाराजगी जाहिर कर सरकार की नाकामी पर परदा डालने की कोशिश की हो, लेकिन अखिलेश को यह तो समझना ही पड़ेगा कि जनता अगर सत्ता सौंप सकती है, तो मौका आने पर छीन भी सकती है।

Dark Saint Alaick
03-08-2012, 08:36 PM
प्रतिबंधित दवाओं की बिक्री पर रोक जरूरी

यह खबर चौंकाने वाली है कि जिन दवाओं के अमेरिका, ब्रिटेन एवं अन्य यूरोपीय देशों में बेचने पर प्रतिबंध है, उन दवाओं को भारत में धड़ल्ले से बेचा जा रहा है साथ ही मरीजों को सुझाया जा रहा है कि वे ये दवाएं ले सकते हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय से जुड़ी संसद की स्थाई समिति ने इस बाबत एक रिपोर्ट तैयार की है जिसके अनुसार जिन दवाओं पर अमेरिका, यूरोप और अधिकांश विकसित देशों में प्रतिबंधित लग चुका है उन्हें खुले तौर पर भारत में बेचा जा रहा है। समिति ने रिपोर्ट में कहा कि उसके पास इस बात के पर्याप्त साक्ष्य हैं कि दवा बनाने वाली कंपनियों, कुछ चिकित्सकों और नियामक संगठनों के अधिकारियों के बीच साठगांठ के चलते ऐसा हो रहा है और इसी कारण कई दवाओं को बिना जांचे परखे मंजूरी भी दी जा रही है। समिति को यह जानकारी भी मिली है कि देश के अलग-अलग क्षेत्रों में होने के बावजूद चुनिंदा दवा के बारे में कुछ चिकित्सा विशेषज्ञों ने एक ही प्रकार की सिफारिश की। यहां तक कि उनके पत्रों की भाषा और सुझाव भी एक ही प्रकार के थे। याने इससे इस आशंका को बल मिलता है कि कहीं ना कहीं सोची समझी साजिश के तहत ऐसा किया जा रहा है। अंतराष्ट्रीय क्लिनिकल परीक्षण एवं शोध का बाजार करीब 20 अरब डालर का है। भारत में यह बाजार करीब दो अरब डालर का हो गया है और यह 50 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है। दवा बाजार से जुड़े विशेषज्ञों का कहना है कि, ज्यादातर नई दवाओं का आविष्कार तो अमेरिका, जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस, स्विटजरलैंड जैसे विकसित देशों में होता है, लेकिन इनका परीक्षण भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, श्रीलंका जैसे विकासशील और गरीब अफ्रीकी देशों में किया जाता है। क्लिनिकल परीक्षण से संरक्षण प्रदान करने और इसके नियमन के लिए 1964 में हेलसिंकी घोषणापत्र पर भारत समेत दुनिया के सभी प्रमुख देशों ने हस्ताक्षर किए थे। घोषणापत्र में यह साफ शर्त है कि लोगों पर इस तरह के परीक्षण का प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए और दवाओं का परीक्षण दबाव, जोर जबर्दस्ती या लालच देकर नहीं कराया जाए। ऐसे में बाहरी देशों में प्रतिबंधित दवाओं की बिक्री पर रोक लगनी ही चाहिए।

Dark Saint Alaick
14-08-2012, 03:45 PM
ममता के बयानों पर उठती अंगुलियां

तृणमूल कांग्रेस की नेता और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अक्सर जिस तरह से बयान देती हैं, उसे लेकर कई बार उनकी कामकाज की शैली पर ही अंगुलियां उठती रहती हैं। तत्काल टिप्पणी कर देना उनकी आदत में शुमार है और इसे लेकर वे कई बार विवादों में भी आ चुकी हैं। हाल ही में उनकी एक टिप्पणी ने एक भोले भाले किसान को बेवजह सलाखों के पीछे धकेल दिया जबकि वह तो सार्वजनिक रूप से ममता से उनके पश्चिम बंगाल में अब तक के कामकाज के बारे में सवाल ही पूछ रहा था। कभी माओवादियों का गढ़ रहे राज्य के पश्चिमी मिदनापुर के बेलपहाड़ी में कुछ दिनो पहले को ममता एक जनसभा को संबोधित करने पहुंची थीं। अपने भाषण के बाद ममता ने सभा में मौजूद लोगों से कहा कि क्या वे कोई सवाल पूछना चाहते हैं। इस पर सभा में मौजूद करीब 40 साल के किसान शिलादित्य चौधरी ने पूछा कि उनकी सरकार किसानों के लिए क्या कर रही हैं? पैसों की कमी के कारण किसान मर रहे हैं। खाली वादों से कुछ नहीं होने वाला। किसान के इतना पूछते ही ममता अपनी आदत के मुताबिक भड़क गई और उन्होंने गुस्से में कहा कि यह आदमी जरूर माओवादी होगा। इस पर पुलिस ने उसे पकड़ लिया। पूछताछ के बाद पुलिस ने उसे जाने दिया, लेकिन उन्होंने मुख्यमंत्री की सभा में बाधा पहुंचाने के आरोप में शिलादित्य को उसके घर से गिरफ्तार कर लिया। अब सवाल यह पैदा होता है कि क्या किसी राज्य के मुख्यमंत्री से कोई सवाल करना इतना बड़ा गुनाह है कि उसे गिरफ्तार ही कर लिया जाए। दरअसल ममता बनर्जी की जो कार्यशैली है उसमें यदाकदा दंभ की बू आती है। वे अतिरेक में वह कदम उठा जाती हैं, जो बाद में उनके लिए ही परेशानी का सबब बन जाता है। शनिवार को ममता ने सोशल नेटवर्किग साइट फेसबुक पर लिख दिया कि देश में रीढ़विहीन नेताओं की संख्या बढ़ती जा रही है। साहस और आदर्शों की कमी और जमीन से जुड़े आम लोगों के साथ कोई सम्बंध न होने के कारण नेता आम आदमी से जुड़े मुद्दों को उठाने में डरते हैं। इस तरह की टिप्पणी यह साफ जाहिर करती है कि ममता बनर्जी पिछले दिनों की गई अपनी राजनीतिक भूलों से कोई सबक नहीं लेना चाहती हैं और यही मान कर चलती हैं कि वे जो कह रही हैं, एकमात्र वही सच है। मेरा मानना है कि ममताजी को अपने रवैये में अति शीघ्र बदलाव लाना चाहिए अन्यथा उन्हें बहुत बड़ी हानि उठानी पड़ेगी, यह तय है।

Dark Saint Alaick
15-08-2012, 01:27 AM
बापू की यादों को संजोने का प्रयास

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की यादों को यूं तो देश के कई स्थानो पर संजो कर रखा गया है मगर हाल ही में केन्द्र सरकार ने महात्मा गांधी की धरोहरों और विरासत से जुड़े प्रतीकों के संरक्षण के लिए ‘गांधी धरोहर स्थल मिशन’ की स्थापना पर जो विचार शुरू किया है वह वाकई स्वागत योग्य कदम है। इससे ना केवल बापू से जुड़ी हर स्मृतियों को औैर भी बेहतर तरीके से सजो कर रखा जा सकेगा बल्कि प्रस्तावित मिशन के जरिए हो सकता है कुछ ऐसे पहलू भी सामने आ जाएं जो अब तक देशवासियों के लिए अनछुए रहे हैं। इस मिशन की स्थापना के विचार से पहले केन्द्र सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल और महात्मा गांधी के पौत्र गोपालकृष्ण गांधी की अध्यक्षता में गांधी धरोहर स्थल समिति का गठन किया था, जिसे महात्मा गांधी से सम्बद्ध धरोहर स्थलों के विकास के संबंध में सिफारिशें देने का काम सौंपा गया था। गांधी धरोहर स्थल समिति ने पिछले कई महिनो के अथक प्रयासों से ना केवल महात्मा गांधी से जुड़े अनेक स्थलों की पहचान की है बल्कि यह प्रयास भी किया है कि इन स्थलों के बारे में ज्यादा से ज्यादा पुष्ट तथ्य एकत्र किए जाएं। यह समिति अब तक महात्मा गांधी के जीवन से जुड़े 39 प्रमुख स्थलों और करीब 2000 अन्य स्थलों की पहचान कर चुकी है जो वास्तव में एक अच्छा प्रयास है। इससे देश के लोगों को बापू के बारे में और ज्यादा जानने का मौका मिलेगा। सरकार भी इस समिति को बापू के जीवन से जुड़ी की दुर्लभ वस्तुएं उपलब्ध करवाने में पूरा सहयोग कर रही है और इसी का नतीजा है कि दक्षिण अफ्रीका के जिस कालेनबाख परिवार के साथ महात्मा गांधी ने कई वर्ष गुजारे थे उस परिवार के लोगों के पास सुरक्षित रखी गई महात्मा गांधी से जुड़ी चीजों व पत्रों को सरकार ने पिछले माह ही खरीदा है और उन्हे राष्ट्रीय अभिलेखागार में सुरक्षित रखा गया है। इसके अलावा सरकार ने अनेक संग्रहालयों, भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार, गांधी स्मृति और दर्शन समिति, नेहरू स्मृति संग्रहालय और पुस्तकालय तथा महात्मा गांधी से संबंधित अन्य संगठनों के माध्यम से उनसे जुड़ी सामग्रियों, दस्तावेजों तथा वस्तुओं को संरक्षित करने के लिए कार्रवाई की है। भविष्य में जब भी गांधी धरोहर स्थल मिशन की स्थापना होगी ,देशवासियों को बापू के बारे में और अधिक जानकारियां मिल सकेंगी।

Dark Saint Alaick
18-08-2012, 02:47 PM
हार को भूल लौटानी होगी हॉकी की गरिमा

लंदन में ओलिंपिक खेल समाप्त हो गए। अब चार साल बाद पांच अगस्त 2016 से ब्राजील के रियो द जनेरियो में फिर दुनियाभर के खिलाड़ी अपना दमखम दिखाने जमा होंगे। इस बार लंदन में भारत का प्रदर्शन बहुत ठीक तो नहीं रहा लेकिन इतना संतोष जरूर रहा कि हमने बीजिंग ओलिंपिक के मुकाबले पदक ज्यादा जीते। वो बात अलग है कि सोने का तमगा तो हम फिर भी नहीं ला पाए। जो भी हो हम फिलहाल उन खिलाड़ियों का सम्मान तो कर ही सकते हैं जिन्होने इस बार भारत का नाम रोशन किया लेकिन इस बार जिस खेल ने हमे सबसे ज्यादा निराश किया वो था हॉकी। जिस खेल में भारत का एक समय रूतबा रहा करता था और ध्यानचंद के जादू के दम पर भारत ओलिंपिक में स्वर्ण पदक का ही दावेदार रहा करता था उसी देश की टीम इस बार 12वें यानी अंतिम स्थान पर रही। इन हालातों को देखकर भारतीय हॉकी के कर्णधारों को ना केवल अब हॉकी की दुर्दशा पर गहराई से सोचना होगा बल्कि कुछ कड़े फैसलों पर भी गौर करना होगा। इस बार भारतीय टीम ने जो छह मैच खेले उनमें एक में भी नहीं लगा कि हमारे खिलाड़ी मन लगाकर मैदान में उतरे। लगातार छह हार यह भी साबित करती है कि जितना ध्यान और तवज्जो हॉकी को दी जानी चाहिए वह इस खेल को मिल ही नहीं पा रही है। भारतीय हॉकी के जाने माने पूर्व खिलाड़ी परगट सिंह ने हाल ही में एक साक्षात्कार में कहा था कि हार से ज्यादा जीत के लिए प्रयास नहीं करने का भारतीय खिलाड़ियों का रवैया इन हालात के लिए जिम्मेदार है। अब बिना डरे और बिना किसी पक्षपात के कुछ कड़े फैसले लेने होंगे। दरअसल अच्छी टीमें रातों-रात नहीं बनती। एक दीर्घकालिक रणनीति जरूरी है और समय-समय पर यह आकलन भी करना होगा कि हमारी तैयारी सही दिशा में है या नहीं। मौजूदा हालात को देखते हुए टीम के रणनीतिकारों और चयनकर्ताओं को भी यह देखना होगा कि आखिर कमी कहां रह गई। टीम रैंकिंग की बात करें तो ओलिंपिक के बाद भारत 10वें से 11वें पायदान पर खिसक गया है जबकि भारतीय महिला टीम ओलिंपिक के बाद की रैंकिंग में 12वें स्थान पर है। भारतीय हॉकी से जुड़े तमाम लोगों को अब पिछली हारों को भूलते हुए तुरंत ही सकारात्मक कदम उठाने पर विचार करना चाहिए। ऐसा नहीं किया गया तो जो हॉकी एक समय भारत की शान थी वह अपना अस्तित्व ही खो बैठेगी।

Dark Saint Alaick
18-08-2012, 03:37 PM
एकजुट होकर करें अफवाह का मुकाबला

अफवाहों के चलते पूर्वोत्तर के लोगों के बेंगलूर, पुणे और देश के अन्य क्षेत्रों से हो रहे पलायन के बाद केन्द्र सरकार और सभी विपक्षी दलों ने चिंता व्यक्त कर एक स्वर में जो भावनाएं व्यक्त की है उसने साबित कर दिया है कि देशहित में सभी मिल कर कदम उठाएं तो किसी भी समस्या का समाधान निकाला जा सकता है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी कहा है कि उन तत्वों को बख्शा नहीं जाएगा जिन्होने अफवाह फैला कर कुछ राज्यों में अस्थिरता की नाकाम कोशिश की है। इसके साथ ही शुक्रवार को संसद के दोनो सदनो में सभी दलों के नेताओं ने एक स्वर में सरकार के साथ कंधे से कंधा मिलाकर सहयोग का वादा किया है उससे फितरती तत्वों को यह संदेश तो मिल ही गया होगा कि देश हित के मसले पर सभी दलगत राजनीति से ऊपर उठकर काम करने को तैयार हैं। भारत एक विशाल देश है और हर देशवासी को भारत के किसी भी भाग में रहने, पढ़ाई करने और रोजी-रोटी कमाने का पूरा अधिकार है। इसमें पूर्वोत्तर के लोग भी शामिल हैं। ऐसे में देश के हर नागरिक का भी कर्तव्य बन जाता है कि वह अफवाहें फैलाने और सौहार्द बिगाड़ने के किसी भी कुत्सित प्रयास का पूरी दमदारी के साथ जवाब दें। खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इस विषय पर सम्बंधित राज्यों के नेताओं से व्यक्तिगत रूप से सम्पर्क में हैंं। ऐसे में पूर्वोत्तर के लोगों,खासकर युवाओं को यह महसूस करना चाहिए कि यह देश उनका भी उतना ही है जितना हर भारतवासी का है। हां, यह बात जरूर है कि पिछले कुछ दिनों में देश के विभिन्न हिस्सों में रह रहे पूर्वोत्तर के लोगों में असुरक्षा की भावना बढ़ी है और सरकार इसे भलीभांति समझ कर हर संभव उपाय कर रही है लेकिन ऐसी स्थिति में सभी को एकजुट होकर वहां के लोगों में सुरक्षा की भावना पैदा करनी चाहिए। साथ ही अफवाहें फैलाने वाले के प्रति कड़ा रूख अपनाते हुए ऐसे तत्वों पर अंकुश लगाने के सरकार के प्रयासों को पूरा समर्थन भी करना चाहिए। यह एक संवेदनशील मामला है और बेंगलूर,पुणे, मुंबई और देश के अन्य हिस्सों में जो घटनाएं हुई है उससे न केवल देश की एकता और अखंडता बल्कि साम्प्रदायिक सौहार्द भी दांव पर लगा है। आशा है कि अशांति फैलाने वालों का जल्द पता लगा कर उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी।

Dark Saint Alaick
23-08-2012, 12:30 PM
संघर्ष विराम का बार बार हो रहा उल्लंधन

संघर्ष विराम का उल्लंघन कर गोलीबारी करने और उसकी आड़ में उग्रवादियों को भारतीय भूभाग में प्रविष्ट कराने के लिए मदद करने की पाकिस्तान की बढ़ती हरकतें चिंताजनक रुख अख्तियार करती जा रही है। दो दिन पहले ही पाकिस्तानी रेंजरों ने देर रात जम्मू जिले के अखनूर सेक्टर में अंतरराष्ट्रीय सीमा पर माला बेला, गरखल, सिदरा कैंप और नाका नंबर दस पर मौजूद भारतीय चौकियों पर गोलीबारी की। पिछले एक पखवाड़े में यह 14 वां संघर्ष विराम उल्लंघन है जब पाकिस्तान ने अंतरराष्ट्रीय सीमा और नियंत्रण रेखा पर गोलीबारी की है। याने लगभग हर दिन पाकिस्तान अपने नापाक इरादे जाहिर करता है और भारतीय जांबाजों को उसके इरादे विफल करने पड़ते हैं। अंतरराष्ट्रीय सीमा पर 17 अगस्त को भारतीय चौकियों तथा आरएसपुरा सब सेक्टर में कोरोटोना बॉर्डर आउट पोस्ट पर पाकिस्तान की ओर से गोलीबारी की गई थी जिसमें बीएसएफ का एक जवान शहीद हो गया था। सांबा सेक्टर में अंतरराष्ट्रीय सीमा पर पंसार बॉर्डर आउट पोस्ट तथा नियंत्रण रेखा पर कृष्णागति पट्टी पर 15 अगस्त को पाकिस्तान ने दो बार गोलीबारी की और संघर्ष विराम का उल्लंघन किया था। तेरह अगस्त को पाकिस्तानी सैनिकों ने जम्मू जिले के अरनिया सेक्टर में भारतीय चौकियों पर गोलीबारी की थी। इन्हीं चौकियों पर 11 जुलाई को भी पाकिस्तानी पक्ष ने गोलीबारी की थी और बीएसएफ का एक जवान घायल हो गया था। सात अगस्त को राज्य में नियंत्रण रेखा और अंतरराष्ट्रीय सीमा पर संघर्ष विराम के उल्लंघन को लेकर भारत ने पाकिस्तान के समक्ष कड़ा विरोध जताया था। पाकिस्तान ने इस साल अब तक 37 बार संघर्ष विराम का उल्लंघन किया है। वर्ष 2011 में संघर्ष विराम की 51, वर्ष 2010 में 44 और वर्ष 2009 में 28 घटनाएं हुई थीं। आठ अगस्त को भी पाकिस्तानी सैनिकों ने पुंछ जिले के कृष्णागति सब सेक्टर में कई भारतीय चौकियों पर गोलीबारी की थी। छह अगस्त को कठुआ जिले के हीरानगर सेक्टर में सीमा चौकी पर राकेट दागे और गोलीबारी की। इससे पहले 28 जुलाई को जम्मू कश्मीर के सांबा सेक्टर में 400 मीटर लंबी सुरंग का पता चला था और इस मुद्दे पर भारत ने 31 जुलाई को कड़ा विरोध जताया था। पाकिस्तान को अब भारत की तरफ से कड़ा संदेश दिया जाना चाहिए।

Dark Saint Alaick
27-08-2012, 05:49 AM
खबरें बनाम मीडिया की सार्थकता

हाल ही जहां एक ओर असम दंगों की आग में समूचा देश झुलस रहा था, वहीं दूसरी ओर कुछ मीडिया संगठनों ने अतिवाद से प्रभावित होकर खबरों का प्रकाशन-प्रसारण किया। इसने न चाहते हुए भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से दंगों में जल रहे असम की चिंगारी देश के दूसरे हिस्सों में भी सुलगाई। आखिर, असम से दूर बैठे लोग-दर्शक तो अखबारों और समाचार चैनलों के जरिए असम की पल-पल की जानकारी ले रहे थे। वहीं, सोशल साइट्स पर अधिकतर लोग दंगों के जिम्मेदार और सरकारी अकर्मण्यता पर अपनी-अपनी राय जाहिर करने में व्यस्त थे। खास बात यह भी थी कि ऐसे लोग भी राय जाहिर करने में व्यस्त थे, जिन्हें दंगों के बारे में जानकारी ‘कच्चे कानों’ से मिल रही थी। कुछ शरारती तत्वों ने सोशल साइट्स और मोबाइल्स के जरिए ऐसे भावनात्मक मसले पर भी ‘मसखरी’ करना नहीं छोड़ा। इसके बाद अगर ऐसे तत्व देशहित की बात करें तो सिवाए हंसने के कुछ नहीं किया जा सकता। अधिकतर लोग यह भी कह रहे थे कि देश में सब कुछ बिक चुका है। इन लोगों से पूछा जाना चाहिए कि अगर देश में सब कुछ बिक चुका है तो क्या इस सब कुछ में वे भी शामिल नहीं हैं। और अगर नहीं हैं तो फिर बिके हुए देश में क्या कर रहे हैं। असल में अधिकतर लोगों के ऐसे स्वार्थी विचारों के चलते ही देश विकास के सम्पूर्ण लक्ष्य को हासिल नहीं कर पा रहा है। वहीं, मीडिया भी ऐसे मसलों पर लोगों को जागरूक करने की जगह कवरेज के नाम पर फिजूल की बातों को ही अधिक तवज्जो दे रहा है। खासकर, न्यूज चैनल्स जो स्टूडियो में कुछ कथित विशेषज्ञों के साथ पूरे देश के विचार तय कर रहे हैं। समझ में नहीं आता कि आखिर मुट्ठीभर लोग समूचे देश के विचार कैसे तय कर पाएंगे! जहां तक सरकारी मशीनरी के काम-काज का सवाल है तो जो वह कर रही है, उससे ज्यादा करने की उसकी क्षमताएं शायद नहीं हैं। वहीं, विपक्ष द्वारा किसी भी मसले पर सरकार को कठघरे में खड़ा कर इस्तीफों की मांग करने का पैंतरा शायद अब बहुत पुराना हो चुका है। मसलन, देश का आम आदमी इस नौटंकी को अब समझने लगा है। सो नेताओं को भी चाहिए कि कुछ नया करें। कब तक एक ही घिसे-पिटे राग को गाते रहेंगे। जहां तक वक्त का तकाजा है तो उग्रवाद भड़का रही साइट्स पर पाबंदी लगाना अगर देशहित में है तो इसे गलत कदम नहीं कहा जा सकता और अगर यह गलत कदम है तो देश का इतिहास ऐसी राजनीतिक गलतियों से भरा पड़ा है। इन सबके बावजूद, मीडिया को चाहिए कि सबसे तेज के फेर में मानवीय भावनाओं और राष्ट्रहित पर भी ध्यान दे, क्योंकि मीडिया की सार्थकता इसी में निहित है।

Dark Saint Alaick
01-09-2012, 04:27 PM
सब्सिडी पर वित्त समिति का अहम सुझाव

सरकारी सहायता (सब्सिडी) के सही उपयोग पर जोर देते हुए संसद की वित्त संबंधी स्थायी समिति ने छह लाख रुपए सालाना से अधिक कमाई करने वालों को सरकारी सहायता प्राप्त घरेलू एलपीजी सिलेंडर की आपूर्ति बंद कर देने का जो सुझाव दिया है उससे मुद्रास्फीति व राजकोषीय घाटे को कम करने में काफी मदद मिल सकती है। दरअसल सब्सिडी प्राप्त उत्पादों के एक बड़े हिस्से का उपभोग समाज के धनाढ्य वर्ग द्वारा किया जाता है। रिजर्व बैंक की हाल की प्रतिक्रियाओं से भी यह सामने आया है कि चालू वित्त वर्ष के दौरान सब्सिडी में वृद्धि से मुद्र्रास्फीति और सरकारी घाटे को कम करने के जो लक्ष्य रखे गए हैं उन्हें हासिल करने में चूक हो सकती है। ऐसे में सब्सिडी के साथ तालमेल बिठाने तथा कम संसाधनों के उचित प्रयोग पर जोर दिया जाना चाहिए। सरकार को खाद्यान्न, उर्वरक और पेट्रोलियम पदार्थों पर दी जानी वाली सब्सिडी पर हर साल भारी राशि खर्च करनी पड़ती है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में दाम बढ़ने की वजह से उर्वरक और पेट्रोलियम पदार्थों का सब्सिडी बोझ भी बढ़ता ही जा रहा है। आंकड़ों से भी यह साबित होता है कि वर्ष 2010-11 में पेट्रोलियम कंपनियों को डीजल, घरेलू रसोई गैस और मिट्टी तेल पर 78 हजार करोड़ रुपए की कम वसूली हुई वहीं वर्ष 2011-12 में यह बढ़कर एक लाख तीस हजार करोड़ रुपए तक पहुंच गई और चालू वित्त वर्ष के दौरान भी इसके एक लाख करोड़ से अधिक रहने का अनुमान है। इसकी भरपाई सरकारी सहायता और तेल उत्पादन एवं खोज क्षेत्र की कंपनियों के योगदान से की जाती है। ऐसे में समिति का यह सुझाव उचित लगता है कि सरकार को सामाजिक वचनबद्धताओं को क्षति पहुंचाए बिना, वित्तीय समेकन को प्रभावी रूप से प्राप्त करने के लिए सामंजस्यपूर्ण और प्रभावी विनिवेश नीति तैयार करके अपने संसाधनों को बढ़ाना चाहिए। हांलाकि सरकार ने उर्वरकों में पोषक तत्व आधारित सब्सिडी प्रणाली शुरू करने और पेट्राल के दाम सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने के जो उपाय किए हैं उससे सरकारी सहायता पर खर्च को कुछ सीमा तक कम करने में मदद मिली है लेकिन आम आदमी के लिए सामाजिक -आर्थिक वचनबद्धता को ध्यान मे ंरखते हुए सब्सिडी का बेहतर उपयोग और उसे सही लक्ष्य तक पहुंचाने की जरूरत है।

Dark Saint Alaick
13-09-2012, 04:10 AM
पाकिस्तान ने दिखाई है कुछ गंभीरता

पिछले दो दशक से पाकिस्तान की जेल में बंद 49 वर्षीय भारतीय कैदी सरबजीत सिंह के मामले में पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने जो गंभीरता दिखाई है और उन्होंने अपने कार्यालय को इस मामले में विस्तृत रूप से गौर करने का निर्देश दिया वह अच्छे संकेत माने जा सकते हैं। जरदारी ने इसे मानवीय मानते हुए यह भी कहा है कि सरबजीत हमारी जेलों में बीस सार काट चुका है और ऐसे में उसकी उम्र और स्वास्थ्य जैसे विषयों पर विचार करने के भारत के प्रस्ताव पर विचार किया जाएगा। सरबजीत पाकिस्तान में वर्ष 1990 में हुए बम विस्फोटों में कथित संलिप्तता को लेकर दोषी है, लेकिन उसके परिवार का कहना है कि वह गलत फंस गया है। हालाकि भारतीय विदेश मंत्री एस.एम.कृष्णा के पिछले सप्ताह के पाकिस्तान दौरे पर अभी कुछ कहना जल्दबादी होगा लेकिन उनके इस दौरे के बाद सरबजीत के मामले में पाकिस्तान की तरफ से आए बयान को सकारात्मक जरूर कहा जा सकता है। इसके अलावा पाकिस्तान ने उदारवादी वीजा नीतियों पर भारत के साथ समझौता करके अतीत के तनाव से आगे बढ़ने की इच्छा का संकेत दिया है। वीजा समझौता महत्वपूर्ण उपलब्धि है क्योंकि खास बात यह है कि इस समझौते का उद्देश्य वरिष्ठ नागरिकों, पर्यटकों, श्रद्धालुओं और कारोबारियों की यात्रा पर लंबे समय से लगी पाबंदियों को कम करना है। वहां के अखबारों ने भी जिस तरह से कृष्णा के दौरे को लेकर खबरें छापी है उससे यह साफ हो जाता है कि देर से ही सही, पाकिस्तान को यह अहसास हो रहा है कि भारत के साथ बेहतर रिश्ते ही उसकी बिगड़ी छवि को साफ कर सकते हैं। उदारवादी ‘द एक्सप्रेस ट्रिब्यून’ और आमतौर पर भारत की आलोचना करने वाले एक दक्षिणपंथी अखबार ने भी अपनी खबर में शीर्षक दिया कि भारत और पाकिस्तान बातचीत की राह पर बढ़ चले हैं। अब पाकिस्तान को यह भी समझना चाहिए कि मुंबई हमलों को लेकर अब तक भारत ने जो सबूत उसके सामने रखे हैं, वह काफी अहम है और बगैर किसी हील हुज्जत के पाकिस्तान को उन सबूतों के आधार पर ठोस कदम उठाने चाहिए, तभी वह भारत का सही मायने में भरोसा जीत पाएगा।

Dark Saint Alaick
15-09-2012, 08:59 PM
दिखावे की दोस्ती में अटके भाजपा-जदयू

लगता है कि राजग के दो घटक दल भारतीय जनता पार्टी और जनता दल (यू) केवल दिखावे के लिए ही साथ-साथ हैं, वरना पिछले कुछ महीनों से दोनों के बीच जो खटर-पटर चल रही है, उसे देख कर तो लगता है कि यह ऊपरी दिखावे वाली दोस्ती अब ज्यादा दिनों तक नहीं चलेगी। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के शाब्दिक बाण तो पिछले कई महीनों से चल रहे हैं, लेकिन यदा कदा कुछ अन्य विषयों को लेकर भी दोनों दलों के नेता परस्पर विरोधी बयान देकर यह जता देते हैं कि उनमें कहीं न कहीं वैचारिक मतभेद जरूर हैं। जदयू और भाजपा के बीच दो दिन पहले ही एक नए मसले पर मतभेद सामने आए। भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने अपने ब्लॉग में असीम त्रिवेदी की गिरफ्तारी की तुलना आपातकाल से कर दी। आडवाणी ने लिखा कि भारत को आजाद हुए 65 साल बीत चुके हैं, इसके बावजूद अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मामले में देश के हालात 1975-77 जैसे हैं। वर्तमान हालात तो आपातकाल से भी बदतर हैं। आजवाणी के इस विचार से जदयू के अध्यक्ष शरद यादव इत्तेफाक नहीं रखते। यादव ने आडवाणी की टिप्पणी पर आपत्ति जताई है और कहा है कि इस तरह के गिरफ्तारी के मामले को आपातकाल से जोड़ कर नहीं देखा जा सकता है। आपातकाल में मीडिया पर पूरी तरह से प्रतिबंध था, जबकि अभी ऐसा नहीं है। आपातकाल की तुलना किसी छोटी-मोटी घटना से नहीं की जा सकती है। यादव ने यह भी कहा कि महाराष्ट्र सरकार ने असीम त्रिवेदी के मामले में गलतियां जरूर की हैं। बिना सोचे समझे त्रिवेदी पर देशद्रोह का आरोप लगा दिया, जिसे किसी भी तरह जायज नहीं ठहराया जा सकता है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि त्रिवेदी की गिरफ्तारी से देश में आपातकाल जैसे हालात पैदा हो गए। इससे यह तो साफ हो ही गया है कि भले ही दोनों दल राजग का हिस्सा बने हुए हैं, लेकिन वैचारिक मतभेदों की तलवार निकालने में कोई भी चूक नहीं रहा है। ऐसे में तो यही अच्छा है कि दोनों एक दूजे से किनारा कर लें, ताकि जनता भी किसी भ्रम में नहीं रहे। ऐसा करके तो दोनों ही दल यही साबित करने में लगे हैं कि वे केवल राजनीतिक हितों के लिए ही साथ हैं। जनता से उन्हें कोई सरोकार नहीं है।

Dark Saint Alaick
01-10-2012, 03:09 PM
चौंकाने वाले हैं सर्वे के आंकड़े

अब इसे इत्तफाक कहें या वक्त का तकाजा कि लोगों का भरोसा धीरे-धीरे उस क्षेत्र से भी कम होता जा रहा है जिसे अब तक न्यायपालिका और कार्यपालिका के बाद सबसे ताकतवर और भरोसेमंद माना जाता रहा है। हाल ही में अमेरिका में किए गए एक सर्वेक्षण में यह बात सामने आई है कि इस देश के लोगों का मीडिया पर भरोसा बहुत कम हो गया है। गैलअप नामक संस्था ने यह सर्वे किया था। उस सर्वे के मुताबिक 60 फीसदी अमेरिकी लोगों का जन मीडिया में बहुत थोड़ा या एकदम यकीन नहीं है। यह सर्वे रिपोर्ट कुछ दिनो पहले जारी की गई थी। सर्वेक्षण में बताया गया है कि 2004 के बाद पिछले कुछ साल से मीडिया पर अविश्वास बढ़ता जा रहा है। सर्वेक्षण के मुताबिक मीडिया के प्रति नकारात्मक भावना राष्ट्रपति चुनाव के इसी वर्ष में सबसे ज्यादा है। गैलअप ने बताया कि वर्ष 2004 से पहले मीडिया में विश्वास बहुत अधिक और नकारात्मक की तुलना में अधिक सकारात्मक था। सर्वेक्षण से यह जाहिर हुआ है कि मीडिया के प्रति नकारात्मक भावना वे लोग फैला रहे हैं जो रिपब्लिकन और किसी दल से जुड़े हुए नहीं हैं। गैलअप ने बताया कि सर्वेक्षण में शामिल 39 फीसदी लोगों ने मीडिया पर भरोसा होने की बात कही। सितंबर 2008 में राष्ट्रपति चुनाव से पहले यह आंकड़ा 43 फीसदी था। भले ही यह सर्वे अमेरिकी संदर्भ में किया गया है लेकिन इससे इस आशंका को तो बल मिलता ही है कि जब दुनिया के इतने विकसित देश में मीडिया की यह दशा होती जा रही है तो अन्य देशों में इसे किस रूप में लिया जा रहा होगा। अगर हम अपने ही देश का उदाहरण सामने रखें तो यहां भी तस्वीर कोई अच्छी नहीं है। प्रिंट हो या इलेक्ट्रोनिक मीडिया, यही छवि बनती जा रही है कि यह क्षेत्र अब पूरी तरह से पेशेवर हो चुका है और समाज सेवा या जन सेवा का इसका मूल उद्देश्य अपनी राह से पूरी तरह भटक चुका है। सब अपनी ढपली और अपना राग अलाप रहे हैं और आम पाठक या आम दर्शक इनसे दूर होता जा रहा है। एक समय था कि जब पेड न्यूज की कल्पना भी नहीं की जा सकता थी वही आज यह विषय ना केवल एक ज्वलंत रूप ले चुका है बल्कि गंभीर रुख भी अख्तियार करता जा रहा है और सरकार को भी इस विषय पर सोचने को मजबूर होना पड़ रहा है। देश में नित नए चैनल बढ़ते जा रहे हैं लेकिन उनकी गुणवत्ता पर कोई भरोसा नहीं कर पा रहा है। दरअसल इसके पीछे एक कारण यह भी है कि दिनो दिन चैनल तो बढ़ते जा रहे हैं लेकिन उससे जुड़े लोग पत्रकारिता की ज्यादा समझ नहीं रखते हैं जबकि इस क्षेत्र में अनुभव के लिए काफी लंबे प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है तभी जाकर सटीक और विश्वसनीय पत्रकारिता हो सकती है। अमेरिका की तरह ही अगर भारत में भी सर्वे किया जाए तो यह शायद यह बात खुल कर सामने आ सकती है कि स्तरीय पत्रकारिता के अभाव में देश में मीडिया के प्रति लोगों की सोच अब वैसी नहीं रही जो आज से पंद्रह-बीस वर्ष पहले थी। मीडिया से जुड़े लोगों को इस पर गंभीरता से विचार और जनता का भरोसा जीतने का प्रयास करना चाहिए तभी मीडिया की सच्ची सार्थकता सिद्ध होगी।

Dark Saint Alaick
28-10-2012, 01:17 AM
छत्तीसगढ़ सरकार के सभी दावे खोखले

जागरूकता अभियान चलाने के छत्तीसगढ़ सरकार के दावों की उस समय पोल खुल गई जब नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ कि छत्तीसगढ़ में भ्रूण हत्या के मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं। वर्ष 2011 की रिपोर्ट के अनुसार छत्तीसगढ़ में एक साल में भ्रूण हत्या के 21 मामले सामने आए हैं। इस आधार पर छत्तीसगढ़ भ्रूण हत्या के मामले में पहले पांच राज्यों की सूची में दूसरे पायदान पर आ गया है। इसी तरह शिशु हत्या के मामले में भी छत्तीसगढ़ देश में दूसरे स्थान पर है। यहां 2011 में कुल 8 शिशुओं की हत्या के मामले दर्ज किए गए। छत्तीसगढ़ में वर्ष 2010 में भ्रूण हत्या के नौ मामले दर्ज किए गए थे जबकि भाजपा शासित मध्यप्रदेश में 18 मामले दर्ज हुए। हालांकि प्रदेश की महिला एवं बाल विकास मंत्री लता उसेंडी रिपोर्ट को सिरे से नकार रही हैं और कह रही हैं कि ये आंकड़े पूरी तरह से गलत हैं लेकिन बढ़ते मामले इनके दावों को साफ नकार रहे हैं। वैसे भ्रूण हत्या के मामले में ही पहले नंबर पर मध्य प्रदेश है। यहां 38 मामले दर्ज किए गए। ब्यूरो के अनुसार लैंगिक असमानता और भ्रूण हत्या के लिए बदनाम पंजाब की स्थिति छत्तीसगढ़ से बेहतर है। पंजाब में वर्ष 2011 के दौरान भ्रूण हत्या के मात्र 15 प्रकरण सामने आए वहीं छत्तीसगढ़ में 21 प्रकरण दर्ज हुए। गौरतलब है कि तमाम तरह की जागरूकता अभियानों के बावजूद देश में भ्रूण हत्या के मामले में 19 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज हुई है। ब्यूरो की रिपोर्ट में यह बात भी सामने आई है कि छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर अब क्राइम कैपिटल में तब्दील होती जा रही है। महिला आयोग में इस वर्ष अब तक महिलाओं के खिलाफ अत्याचार के 1170 मामले दर्ज हुए हैं। महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले में रायपुर नम्बर एक पर है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि राज्य सरकार इन दोनों विषयों पर गंभीर नजर नहीं आ रही। अपराध बढ़ते जा रहे हैं और जन्म से पहले ही कन्याएं मारी जा रही हैं। वैसे सच यह भी है कि बाक़ी देश की स्थिति भी इस परिदृश्य से बहुत ज्यादा भिन्न नहीं है, जो बहुत चिंताजनक है।

Dark Saint Alaick
31-10-2012, 01:25 AM
कालिख पुते सूरज का दिन

हर साल वे दो क्रूर दिन आते हैं जो उन कालिख भरे सूरज के दिनों की याद दिलाते हैं। वर्ष 1948 का 30 जनवरी और 1984 का 31 अक्टूबर । निश्चय ही स्वतंत्र भारत के सर्वाधिक कालिख पुते सूरज को दिन रहे, इसलिए कि पहले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और फिर धर्मनिरपेक्ष भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी धर्मान्धता की शिकार हुई। दोनों हत्याओं में कुछ नहीं बदला। बदले तो सिर्फ सन्दर्भ, अंधेरे की धुरी में फर्क नहीं आया। फिलहाल आज का दिन। अपने ही सुरक्षाकर्मियों की गोलियों से दिवंगत संसार की सर्वाधिक शक्तिशाली और विशाल लोकतंत्र की प्रधानमंत्री ‘लौह महिला’ इंदिरा गांधी की हत्या से उस समय सारा देश शोक संतप्त, तो विश्व स्तब्ध था। यह केवल एक प्रधानमंत्री की हत्या नहीं, भारत के नैतिक मूल्यों, शाश्वत आदर्शों और उन संवैधानिक मान्यताओं की हत्या थी जिनके लिए श्रीमती गांधी जीवन पर्यन्त संघर्ष करती रही। इस जघन्य कृत्य को याद रखने वालों का कहना है कि इंदिरा गांधी की हत्या से समस्त देशवासी दु:खी थे, चाहे उनके सिद्धान्तों, आदर्शों, मान्यताओं और राजनीतिक शैली से इत्तफाक रखने वाले हो अथवा नाइत्तफाकी वाले। दु:खी थे तो इसलिए कि तत्कालीन समय में अंदर और बाहर विखंडन, आतंक और अराजकता की सैंकड़ों चुनौतियों का साहसिक मुकाबला करने वाला चट्टान की तरह अटल रहने वाल व्यक्तित्व सदैव के लिए हमसे छीन लिया गया था। संताप इस बात का भी रहा कि अहिंसा के पुजारी भारत देश को अपना नेतृत्व हिंसक कृत्य में गंवाना पड़ा। अधिक अवसाद इस बात का भी रहा कि प्रधानमंत्री पार्टी का नहीं, संपूर्ण देश का होता है और प्रधानमंत्री की हत्या देश की महिमा-गरिमा की हत्या होती है। मगर इंदिरा गांधी का स्वयं का गौरव तो शिखर पा गया। देश प्रेम इंदिरा गांधी की सांसों में बसता और लहू में बहता था, सो उन्होंने अपनी हत्या से पूर्व की रात्रि में ही उड़ीसा में विशाल आम सभा में कहा था, ‘देश सेवा की खातिर यदि मैं मर भी जाती हूं तो मेरा गौरव बढेगा।’ उन्होंने अपने बलिदान से गौरव ही नहीं अमरत्व भी प्राप्त कर लिया। श्रीमती गांधी में धर्म निरपेक्षता का अद्भुत गुण था। जब उनके सामने एक समय उनके अंगरक्षकों में से सिखों को हटा देने का प्रस्ताव आया, तब उस साहसी महिला का जवाब था कि एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के प्रधानमंत्री को यह शोभा नहीं देता। उनके स्वयं और मनुष्य के कर्त्तव्यों पर यह एक तरह का विश्वासघात था और निर्णय लेते वक्त घातक संभावना उनके मन में नहीं रही होगी, यह नहीं माना जा सकता, फिर भी वे अपने निर्णय पर अड़िग रहीं ताकि आत्मोत्सर्ग होने पर देश की आंखों पर बंधी धर्मान्धता की पट्टी की एकाध पर्त खुल सके और धर्मान्ध लोगों में दृष्टि का थोड़ा भी संचार हो सके। वस्तुत: उनके बलिदान को देश के हित में सार्थक कहा जा सकता है। बस, उन्होंने अंधेरा छांटने के लिए अनुकरणीय आत्मोत्सर्ग कर दिखाया।

rajnish manga
23-11-2012, 02:49 PM
[QUOTE=Dark Saint Alaick;173308]कालिख पुते सूरज का दिन

आपके ब्लॉगपुंज “कुतुबनुमा” के अन्तर्गत प्रकाशित ब्लॉग ‘कालिख पुते सूरज का दिन’ भीतर तक आंदोलित कर गया. हम कितना भी अहिंसा और धर्मनिरपेक्षता का नाम लेते रहें, सच्चाई यह है कि देश में अभी भी बहुत से तबके या संगठन ऐसे हैं जो हमारे राष्ट्र, संस्कृति और संविधान के इन आधारभूत स्तंभों पर चोट करने से गुरेज़ नहीं करते. बल्कि कुछ लोग तो ऐसे घृणित कामों को अन्जाम देने वालों को ही सम्मानित करने में अपना गौरव समझते हैं. राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी और लौह पुरुष (जी हाँ, लौह पुरुष) इंदिरा गाँधी का बलिदान भारत की गरिमा और अस्मिता का ध्वज वाहक बन कर हर वर्ष हमें ३० जनवरी और ३१ अक्टूबर के कालिख पुते दिन याद दिलाने आएगा और साथ ही उन आदर्शों की भी याद दिलाएगा जिनके लिए उन दोनों महान आत्माओं ने अपने प्राणों का उत्सर्ग किया. कृपया श्रंखला बढ़ाने का उद्यौग करते रहें. धन्यवाद.

Dark Saint Alaick
26-11-2012, 01:14 AM
दरअसल कोई प्रतिक्रिया नहीं मिलने से यह अहसास हो रहा था कि मैं कहीं कोई ताला लगी डायरी तो नहीं लिख रहा। अब आपकी टिप्पणी के बाद लगता है कि सृजन जारी रहना चाहिए। आपके आग्रह का मान रखते हुए मैं शीघ्र ही कुछ नई टिप्पणियां प्रस्तुत करूंगा, मित्र। आभार।

raju
26-11-2012, 07:42 AM
दरअसल कोई प्रतिक्रिया नहीं मिलने से यह अहसास हो रहा था कि मैं कहीं कोई ताला लगी डायरी तो नहीं लिख रहा। अब आपकी टिप्पणी के बाद लगता है कि सृजन जारी रहना चाहिए। आपके आग्रह का मान रखते हुए मैं शीघ्र ही कुछ नई टिप्पणियां प्रस्तुत करूंगा, मित्र। आभार।


अलैक जी, सृजन जारी रखे, यहाँ आपके काफी पाठक है और नए बनते जा रहे हैं। लेकिन कमेंट करना सबके बस की बात नहीं होती। :gm:

arvind
26-11-2012, 10:34 AM
हे तमस ऋषि,
पढ़ने का काम तो हम भी कर रहे है, परंतु समयाभाव के कारण टिप्पणियाँ टिप नहीं पाते।

आप लिखते रहे, हम पढ़ते रहेंगे।
:egyptian::egyptian:

ndhebar
26-11-2012, 10:57 AM
अलैक भाई आपका ये ब्लॉग तो इस फोरम की जान है

Dark Saint Alaick
26-11-2012, 07:55 PM
मध्य प्रदेश सरकार के आंकड़ों से फैला भ्रम

मध्य प्रदेश सरकार अपने काम को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने के लिए पहले ही काफी चर्चा में रह चुकी है लेकिन वह लोगों में भ्रम बनाए रखने के कोई मौका चूकना ही नहीं चाहती ऐेसा लगता है। हाल ही में नर्मदा बचाओ आंदोलन (एनबीए) ने आरोप लगाया कि सरकार ने एक निजी कम्पनी एस.कुमार्स की सहायक कंपनी महेश्वर हाइडल पावर कंपनी लिमिटेड (एसएमएचपीसीएल) को फायदा पहुंचाने के लिए झूठे आंकड़े पेश किए हैं। प्रदेश में ऊर्जा सचिव मोहम्मद सुलेमान ने एक मार्च 2011 को केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के विशेष सचिव को लिखे पत्र में कहा था कि महेश्वर पनबिजली परियोजना के पुनर्वास का 70 प्रतिशत से ज्यादा काम पूरा हो चुका है जबकि हाल ही में सरकार ने नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के समक्ष पेश किए गए शपथ-पत्र में कहा है कि निजी कंपनी पुनर्वास के लिए धनराशि उपलब्ध कराने में विफल रही है। शपथ-पत्र में कहा गया है कि पुनर्वास के काम के लिए 740 करोड़ में से कंपनी ने केवल 203 करोड़ मुहैया कराए। यह राशि कुल राशि की सत्ताईस प्रतिशत है। ऐसी स्थिति में सत्ताईस राशि से सत्तर प्रतिशत से ज्यादा लोगों का पुनर्वास किस तरह से संभव हुआ इस पर सवालिया निशान है। पुनर्वास के लिए कंपनी जिम्मेदार है जिसमें वह विफल हुई है। इससे एक बार फिर साबित हो गया कि राज्य सरकार अपने फायदे के लिए किसी भी तरह की गलत बयानी कर सकती है अथवा गलत आंकड़े पेश कर सकती है। जो जानकारी सामने आ रही है उससे पता चलता है कि महेश्वर परियोजना से 60 हजार लोग प्रभावित हो रहे हैं। इसमें से 15 प्रतिशत का पुनर्वास और व्यवस्थापन नहीं हो पाया है। जिन लोगों के पुनर्वास की बात हो रही है, शर्तों के अनुसार उनमें से एक भी प्रभावित को न्यूनतम दो हेक्टेयर जमीन भी आवंटित नहीं की गई है। आखिर क्यों सरकार एक निजी कम्पनी के गलत कदमो को छिपा रही है, यह समझ से परे है।

Dark Saint Alaick
26-11-2012, 07:55 PM
सनसनीखेज खबरों से बचना ही होगा

सनसनीखेज खबरों की प्रस्तुति को लेकर मीडिया पर काफी कुछ कहा और लिखा जा रहा है। इससे लगने लगा है कि मीडिया कहीं ना कहीं अपने मूल उत्तरदायित्व से चूकता जा रहा है। देश में इलेक्ट्रोनिक चैनल व समाचार पत्रों की संख्या को हम देखें तो कहा जा सकता है कि लोगों के जीवन में मीडिया काफी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। हमारे देश में कई धर्म, भाषाएं और विचारधाराएं है। ऐसे समाज और राज्य व्यवस्था को बनाए रखने के लिए एक स्वतंत्र और जिम्मेदार मीडिया होना ही चाहिए। हमें गर्व होना चाहिए कि भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की संवैधानिक गारंटी है। हमारे देश में मीडिया सिर्फ जनता की राय का एक विश्वसनीय पैमाना ही नहीं है बल्कि यह हमारे राष्ट्र की अंतरात्मा का प्रतीक भी है। देश में सामाजिक शांति और सौहार्द बना रहे इसके लिए मीडिया को निरंतर सतर्क रहते हुए इस दिशा में लगातार काम करना चाहिए। मीडिया की रिपोर्टिंग और राय निष्पक्ष,उद्देश्यपूर्ण और संतुलित होनी चाहिए। सनसनीखेज खबरें बनाने की इच्छा से बचा जाना चाहिए भले ही यह कभी-कभी बहुत आकर्षक होती है। हमारे समाज और देश को बांटने से सम्बंधित कुछ भी लिखने में संयम बरतते हुए और इसके प्रसारण से बचने का प्रयास किया जाना चाहिए। समुदायों और क्षेत्रों के अंतर को दूर करते हुए संपर्क बनाने के लिए भी जागरूक प्रयास किए जाने चाहिए। मीडिया लोगों की आकांक्षाओं और जनता की राय दोनों को प्रतिबिंबित करता है। ऐसे में मीडिया को चाहिए कि वह सनसनीखेज समाचारों से पूरी तरह बचे। कुछ समय पहले प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने केरल और हाल ही में दिल्ली में एक समारोह में मीडिया को गैर जिम्मेदाराना पत्रकारिता से बचने की सलाह दी थी। केरल में जहां डॉ. सिंह ने कहा कि मीडिया को सनसनीखेज खबरों से बचना चाहिए वहीं दिल्ली में उनका कहना था कि मीडिया को आत्म-नियमन करना चाहिए कि वह जो प्रकाशित -प्रसारित कर रहा है वह सच के दायरे में हो। हालांकि उन्होंने कहा कि यह सही है कि कभी-कभी गैर जिम्मेदार पत्रकारिता से सामाजिक सौहार्द और व्यवस्था पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है लेकिन मीडिया को खुद अपने आप पर नियंत्रण चाहिए। स्वतंत्र एवं निष्पक्ष मीडिया को लोकतंत्र का स्तम्भ करार देते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के दिनों से ही मीडिया सामाजिक बदलाव, लोगोंं को उनके अधिकारों के बारे में बताने और राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में हिस्सा लेने के लिए जागरूकता फैलाने का काम करता रहा है। कुल मिलाकर हम यह कह सकते हैं कि देश-समाज को मीडिया से हर क्षेत्र में सकारात्मक रुख की उम्मीद रहती है। खास कर संवेदनशील मुद्दों पर तो मीडिया को खास सतर्कता बरतनी ही चाहिए। हाल ही में एक सर्वे में भी यह सामने आया है कि 44 फीसदी लोग संवेदनशील मामलों में मीडिया के रोल को खराब मानते है। मीडिया को यह छवि मिटानी ही होगी।

Dark Saint Alaick
26-11-2012, 10:32 PM
आंकड़ों का खेल

इस्पात मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा ने लोकसभा में एम. आनंदन और सुरेश अंगाड़ी के प्रश्न के लिखित उत्तर में बताया कि विश्व इस्पात संघ के आंकड़ों के मुताबिक भारत दुनिया का चौथा सबसे बड़ा इस्पात उत्पादक देश है। विश्व इस्पात संघ द्वारा जारी वैश्विक आंकड़ों के अनुसार भारत 2010, 2011 और 2012 में सितंबर तक दुनिया का चौथा बड़ा इस्पात निर्माता देश है। जनवरी से सितंबर, 2012 के बीच चीन सबसे बड़ा इस्पात उत्पादक देश रहा है। इस मामले में उसके बाद जापान और अमेरिका का स्थान है।
अभी तक की सूचना पढ़ कर आप खुशी से झूम सकते हैं, लेकिन आंकड़ों का यह खेल देख कर आप हैरान रह जाएंगे कि अपनी नाकामियां छुपाने के लिए कोई इनका किस तरह अपने पक्ष में इस्तेमाल कर सकता है। इस मुद्दे पर आगे बढूं, इससे पहले सोवियत संघ के समय का एक प्रचलित मज़ाक आपसे शेयर करना चाहूंगा। मॉस्को निवासी मेरे एक मित्र हर बार नए साल के आसपास स्वदेश आते हैं। पति-पत्नी दोनों वहीं कार्यरत हैं। उनका पैतृक मकान मेरे अपार्टमेन्ट से कुछ ब्लॉक ही दूर है, लेकिन संबंधों की नजदीकियों की वज़ह यह नहीं है, बल्कि यह है कि कभी जयपुर में मार्क्सवादी साहित्य का केंद्र रहे 'किताबघर' (यह अब बंद हो चुका है) में हमारी लम्बी बैठकें होती थीं और अक्सर मैं बहस में उन्हें हरा देता था। किन्तु अब स्थिति उलट है, इसलिए कि अब जब भी वे आते हैं, तो मेरे लिए दो बोतलें लाते हैं - एक तो स्कॉच और दूसरी रूस की शुद्ध वोदका। ज़ाहिर है, अब मैं कभी-कभी उनसे जान-बूझ कर हार जाता हूं। खैर, यह तो मैं भटक गया। मुद्दे पर आते हैं। बात चल रही थी आंकड़ों के खेल और मज़ाक की। उन्होंने मजाक जो बताया, वह यह था कि सोवियत सत्ता उस समय अपने श्रेष्ठ कार्य का बखान करने में इस कदर आत्म मुग्ध थी कि एक गांव में साक्षरता की लक्ष्य प्राप्ति शत-प्रतिशत बता दी गई, बाद में पोल खुली, तो पता चला कि उस गांव में पहले सिर्फ एक व्यक्ति साक्षर था और स्थानीय कोम्सोमोल ने एक और व्यक्ति को साक्षर बना कर उपलब्धि को दोगुना यानी शत-प्रतिशत मान कर केन्द्रीय कमेटी को भेज दिया।
अब आते हैं अपनी सरकार पर। अगर मैं आपको बताऊं कि 2009-10 में भारत का इस्पात निर्यात 6029.82 मिलियन अमेरिकन डॉलर था, 2010-11 में 4714.53, 2011-12 में 4399.28 और 2012-13 में अब तक (यानी सितम्बर तक) सिर्फ 1103.84 मिलियन अमेरिकन डॉलर हुआ है अर्थात इसके बहुत ज्यादा बढ़ने की संभावना नहीं है और अब निर्यात में जो एक नंबर के शीर्ष पर विराजमान है, उसका निर्यात अब तक 5167.89 मिलियन अमेरिकन डॉलर हुआ है यानी आपके 2009-10 के आंकड़े से वह अभी पीछे है, किन्तु नंबर वन है। ... और आप चौथे स्थान पर खिसकने का जश्न मना रहे हैं। केंद्र सरकार यह अपनी उपलब्धि गिना रही है या नाकामी को छुपा रही है? आपको कैसा लगा आंकड़ों का यह खेल? क्या ख्याल है आपका ?

sombirnaamdev
26-11-2012, 10:56 PM
अलैक जी, सृजन जारी रखे, यहाँ आपके काफी पाठक है और नए बनते जा रहे हैं। लेकिन कमेंट करना सबके बस की बात नहीं होती। :gm:


:iagree:hum bhi aap ke :think:sath hai lage rhiye :iagree:

jai_bhardwaj
26-11-2012, 11:09 PM
आंकड़ों का खेल

इस्पात मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा ने लोकसभा में एम. आनंदन और सुरेश अंगाड़ी के प्रश्न के लिखित उत्तर में बताया कि विश्व इस्पात संघ के आंकड़ों के मुताबिक भारत दुनिया का चौथा सबसे बड़ा इस्पात उत्पादक देश है। विश्व इस्पात संघ द्वारा जारी वैश्विक आंकड़ों के अनुसार भारत 2010, 2011 और 2012 में सितंबर तक दुनिया का चौथा बड़ा इस्पात निर्माता देश है। जनवरी से सितंबर, 2012 के बीच चीन सबसे बड़ा इस्पात उत्पादक देश रहा है। इस मामले में उसके बाद जापान और अमेरिका का स्थान है।
अभी तक की सूचना पढ़ कर आप खुशी से झूम सकते हैं, लेकिन आंकड़ों का यह खेल देख कर आप हैरान रह जाएंगे कि अपनी नाकामियां छुपाने के लिए कोई इनका किस तरह अपने पक्ष में इस्तेमाल कर सकता है। इस मुद्दे पर आगे बढूं, इससे पहले सोवियत संघ के समय का एक प्रचलित मज़ाक आपसे शेयर करना चाहूंगा। मॉस्को निवासी मेरे एक मित्र हर बार नए साल के आसपास स्वदेश आते हैं। पति-पत्नी दोनों वहीं कार्यरत हैं। उनका पैतृक मकान मेरे अपार्टमेन्ट से कुछ ब्लॉक ही दूर है, लेकिन संबंधों की नजदीकियों की वज़ह यह नहीं है, बल्कि यह है कि कभी जयपुर में मार्क्सवादी साहित्य का केंद्र रहे 'किताबघर' (यह अब बंद हो चुका है) में हमारी लम्बी बैठकें होती थीं और अक्सर मैं बहस में उन्हें हरा देता था। किन्तु अब स्थिति उलट है, इसलिए कि अब जब भी वे आते हैं, तो मेरे लिए दो बोतलें लाते हैं - एक तो स्कॉच और दूसरी रूस की शुद्ध वोदका। ज़ाहिर है, अब मैं कभी-कभी उनसे जान-बूझ कर हार जाता हूं। खैर, यह तो मैं भटक गया। मुद्दे पर आते हैं। बात चल रही थी आंकड़ों के खेल और मज़ाक की। उन्होंने मजाक जो बताया, वह यह था कि सोवियत सत्ता उस समय अपने श्रेष्ठ कार्य का बखान करने में इस कदर आत्म मुग्ध थी कि एक गांव में साक्षरता की लक्ष्य प्राप्ति शत-प्रतिशत बता दी गई, बाद में पोल खुली, तो पता चला कि उस गांव में पहले सिर्फ एक व्यक्ति साक्षर था और स्थानीय कोम्सोमोल ने एक और व्यक्ति को साक्षर बना कर उपलब्धि को दोगुना यानी शत-प्रतिशत मान कर केन्द्रीय कमेटी को भेज दिया।
अब आते हैं अपनी सरकार पर। अगर मैं आपको बताऊं कि 2009-10 में भारत का इस्पात निर्यात 6029.82 मिलियन अमेरिकन डॉलर था, 2010-11 में 4714.53, 2011-12 में 4399.28 और 2012-13 में अब तक (यानी सितम्बर तक) सिर्फ 1103.84 मिलियन अमेरिकन डॉलर हुआ है अर्थात इसके बहुत ज्यादा बढ़ने की संभावना नहीं है और अब निर्यात में जो एक नंबर के शीर्ष पर विराजमान है, उसका निर्यात अब तक 5167.89 मिलियन अमेरिकन डॉलर हुआ है यानी आपके 2009-10 के आंकड़े से वह अभी पीछे है, किन्तु नंबर वन है। ... और आप चौथे स्थान पर खिसकने का जश्न मना रहे हैं। केंद्र सरकार यह अपनी उपलब्धि गिना रही है या नाकामी को छुपा रही है? आपको कैसा लगा आंकड़ों का यह खेल? क्या ख्याल है आपका ?


अलैक जी नमस्कार।
मित्र, क्या ये आंकड़े रूपये के निरंतर अवमूल्यन के कारण इतने अस्थिर हुए हैं?
विश्व में किसी धातु के उत्पादन में हम चौथे स्थान पर हैं। हाँ, यह सांख्यिकीय खेल हो सकता है किन्तु मौलिक स्थिति इससे बहुत अधिक दूर भी नहीं होनी चाहिए। घटती निर्यात-राशि का संपर्क तो मुद्रा के अवमूल्यन से जुड़ा हुआ भी हो सकता है और निर्यात की मात्रा में कमी आने से भी। निर्यात में कम मात्रा का कारण घरेलू खपत का बढना भी हो सकता और मूल उत्पादन में कमी होना भी संभव है। घरेलू खपत बढ़ने का तात्पर्य घरेलू विकास से हो सकता है। यह हमारी सुदृढ़ता का प्रतीक है।
वैश्विक मंदी के दौर को भी नहीं भुलाना चाहिए। यह वही दौर था जब विश्व के बहुत से देशों के आर्थिक प्रबंधन का ढांचा ही चरमरा गया था किन्तु उस दौर में भी भारत कहीं न कहीं अटल और स्थिर रहते हुए अपने मौद्रिक प्रबंधन का लोहा मनवाया था। मुझे लगता है कि यह आंकड़े बाजी भी कई बार आवश्यक होती है। इति ।

abhisays
27-11-2012, 07:01 AM
आंकड़ों का खेल

इस्पात मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा ने लोकसभा में एम. आनंदन और सुरेश अंगाड़ी के प्रश्न के लिखित उत्तर में बताया कि विश्व इस्पात संघ के आंकड़ों के मुताबिक भारत दुनिया का चौथा सबसे बड़ा इस्पात उत्पादक देश है। विश्व इस्पात संघ द्वारा जारी वैश्विक आंकड़ों के अनुसार भारत 2010, 2011 और 2012 में सितंबर तक दुनिया का चौथा बड़ा इस्पात निर्माता देश है। जनवरी से सितंबर, 2012 के बीच चीन सबसे बड़ा इस्पात उत्पादक देश रहा है। इस मामले में उसके बाद जापान और अमेरिका का स्थान है।
अभी तक की सूचना पढ़ कर आप खुशी से झूम सकते हैं, लेकिन आंकड़ों का यह खेल देख कर आप हैरान रह जाएंगे कि अपनी नाकामियां छुपाने के लिए कोई इनका किस तरह अपने पक्ष में इस्तेमाल कर सकता है। इस मुद्दे पर आगे बढूं, इससे पहले सोवियत संघ के समय का एक प्रचलित मज़ाक आपसे शेयर करना चाहूंगा। मॉस्को निवासी मेरे एक मित्र हर बार नए साल के आसपास स्वदेश आते हैं। पति-पत्नी दोनों वहीं कार्यरत हैं। उनका पैतृक मकान मेरे अपार्टमेन्ट से कुछ ब्लॉक ही दूर है, लेकिन संबंधों की नजदीकियों की वज़ह यह नहीं है, बल्कि यह है कि कभी जयपुर में मार्क्सवादी साहित्य का केंद्र रहे 'किताबघर' (यह अब बंद हो चुका है) में हमारी लम्बी बैठकें होती थीं और अक्सर मैं बहस में उन्हें हरा देता था। किन्तु अब स्थिति उलट है, इसलिए कि अब जब भी वे आते हैं, तो मेरे लिए दो बोतलें लाते हैं - एक तो स्कॉच और दूसरी रूस की शुद्ध वोदका। ज़ाहिर है, अब मैं कभी-कभी उनसे जान-बूझ कर हार जाता हूं। खैर, यह तो मैं भटक गया। मुद्दे पर आते हैं। बात चल रही थी आंकड़ों के खेल और मज़ाक की। उन्होंने मजाक जो बताया, वह यह था कि सोवियत सत्ता उस समय अपने श्रेष्ठ कार्य का बखान करने में इस कदर आत्म मुग्ध थी कि एक गांव में साक्षरता की लक्ष्य प्राप्ति शत-प्रतिशत बता दी गई, बाद में पोल खुली, तो पता चला कि उस गांव में पहले सिर्फ एक व्यक्ति साक्षर था और स्थानीय कोम्सोमोल ने एक और व्यक्ति को साक्षर बना कर उपलब्धि को दोगुना यानी शत-प्रतिशत मान कर केन्द्रीय कमेटी को भेज दिया।
अब आते हैं अपनी सरकार पर। अगर मैं आपको बताऊं कि 2009-10 में भारत का इस्पात निर्यात 6029.82 मिलियन अमेरिकन डॉलर था, 2010-11 में 4714.53, 2011-12 में 4399.28 और 2012-13 में अब तक (यानी सितम्बर तक) सिर्फ 1103.84 मिलियन अमेरिकन डॉलर हुआ है अर्थात इसके बहुत ज्यादा बढ़ने की संभावना नहीं है और अब निर्यात में जो एक नंबर के शीर्ष पर विराजमान है, उसका निर्यात अब तक 5167.89 मिलियन अमेरिकन डॉलर हुआ है यानी आपके 2009-10 के आंकड़े से वह अभी पीछे है, किन्तु नंबर वन है। ... और आप चौथे स्थान पर खिसकने का जश्न मना रहे हैं। केंद्र सरकार यह अपनी उपलब्धि गिना रही है या नाकामी को छुपा रही है? आपको कैसा लगा आंकड़ों का यह खेल? क्या ख्याल है आपका ?


पहली बात तो मैं यह कहना चाहूँगा की क्या बड़ा निर्माता देश इसको कितने मिलियन डॉलर के निर्यात हुआ उससे मापा जाना चाहिए या कितने टन स्टील का निर्यात हुआ। मान लिए दो मिठाई की दुकाने हैं एक में हर दिन 10,000 की मिठाई बिकती है तो दुसरे में हर दिन 8000 की मिठाई बिकती है। लेकिन इससे हम यह तो पता नहीं कर सकते है किसने कितने किलो बेचे। इस डाटा के हिसाब से लोग बोलेंगे की पहली वाली दूकान मिठाई की बड़ी एक्सपोर्टर लेकिन हो सकता है की पहली दूकान में मिठाई महंगी बिकती हो और दूसरी दूकान ने ज्यादा किलो मिठाई बेचीं हो लेकिन कम दाम में।

तो इस इस्पात वाले डाटा में भी यही लग रहा है मुझे। कौन सबसे बड़ा निर्यातक है इसका फैसला इससे होने चाहिए की किसने कितने टन इस्पात निर्यात किया।

जहाँ तक रूपये के निरंतर अवमूल्यन का सवाल है इससे हमेशा एक्सपोर्ट में फायदा होता है और इम्पोर्ट यानी आयात में नूक्सान। चूँकि सरकार सारा डाटा डॉलर में दे रही है इसलिए रूपये के अवमूल्यन को उसमे consider नहीं किया गया है।

फिर भी सरकार का यह सब डाटा डॉलर के हिसाब से देना यह जाहिर करता है दाल में कुछ काला है। वैसे जाते जाते अपने बेनी प्रसाद वर्मा तो इतने योग्य नहीं है की यह सब हेरफेर कर सके जाहिर यह सब कारगुजारी मिनिस्ट्री ऑफ़ स्टील के अधिकारियों की होगी। :devil:

Dark Saint Alaick
01-12-2012, 10:56 PM
आर्थिक अपराध रोकने की तरफ बड़ा कदम

लोकसभा में गुरूवार को सरकार की तरफ से पेश धन शोधन निवारण संशोधन विधेयक का पारित होना निश्चित रूप से आर्थिक अपराध रोकने की दिशा में कारगर हथियार साबित होगा। सरकार ने पूरी तैयारी के साथ इसे पेश किया और इस कानून को अंतर्राष्ट्रीय मानक के अनुरूप बनाया गया है जो इस मामलों से जुड़ी एजेंसियों के समक्ष आ रही दिक्कतों को दूर करने में सहायक होगा। विधेयक पेश करते हुए वित्त मंत्री पी.चिदंबरम ने कहा भी है कि वित्त मंत्रालय से जुड़ी संसद की स्थाई समिति की सभी 18 सिफारिशों को स्वीकार करते हुए सम्बंधित कानून में संशोधन के जरिए आर्थिक अपराध पर लगाम लगाने की दिशा में महत्वपूर्ण पहल की गई है। दरअसल यह कानून इसलिए भी प्रभावी रहेगा क्योंकि इस विधेयक में भारतीय कानून और विदेशी कानून के प्रावधानों का समावेश करते हुए इसे अंतर्राष्ट्रीय मानक के अनुरूप तैयार किया गया है। इसके तहत गलत तरीके से धन अर्जित करने और उसे छिपाने को आपराधिक कृत्य तो घोषित किया ही गया है साथ ही इस कानून के तहत जुर्माने की राशि को पांच लाख रुपए किया गया है और सम्पत्ति कुर्क करने का विधान भी किया गया है। भारत के वित्तीय कार्यवाही कार्य बल और धन शोधन पर एशिया प्रशांत निकाय का सदस्य होने के नाते यह विधेयक महत्वपूर्ण है। वास्तव में यह एक महत्वपूर्ण विधेयक है और इसको लेकर भले ही विपक्ष यह आरोप लगाए कि इस विधेयक में आतंकवादियों को वित्त पोषण पर लगाम लगाने व मानव तस्करी को रोकने के लिए कानून के प्रावधान का अभाव है लेकिन कुल मिलाकर देखा जाए तो यह विधेयक आर्थिक अपराधों पर नियंत्रण में बड़ा सहायक साबित होगा। इस विधेयक के पारित होने के साथ ही यह भी साबित हो गया कि सरकार सभी महत्वपूर्ण मसलों पर काफी गंभीर है और चाहती है कि विपक्ष भी उसे धन शोधन निवारण संशोधन विधेयक समेत अन्य जरूरी विधेयकों को पारित करवाने में सहयोग करे।

jai_bhardwaj
01-12-2012, 11:15 PM
आर्थिक अपराध रोकने की तरफ बड़ा कदम

लोकसभा में गुरूवार को सरकार की तरफ से पेश धन शोधन निवारण संशोधन विधेयक का पारित होना निश्चित रूप से आर्थिक अपराध रोकने की दिशा में कारगर हथियार साबित होगा। सरकार ने पूरी तैयारी के साथ इसे पेश किया और इस कानून को अंतर्राष्ट्रीय मानक के अनुरूप बनाया गया है जो इस मामलों से जुड़ी एजेंसियों के समक्ष आ रही दिक्कतों को दूर करने में सहायक होगा। विधेयक पेश करते हुए वित्त मंत्री पी.चिदंबरम ने कहा भी है कि वित्त मंत्रालय से जुड़ी संसद की स्थाई समिति की सभी 18 सिफारिशों को स्वीकार करते हुए सम्बंधित कानून में संशोधन के जरिए आर्थिक अपराध पर लगाम लगाने की दिशा में महत्वपूर्ण पहल की गई है। दरअसल यह कानून इसलिए भी प्रभावी रहेगा क्योंकि इस विधेयक में भारतीय कानून और विदेशी कानून के प्रावधानों का समावेश करते हुए इसे अंतर्राष्ट्रीय मानक के अनुरूप तैयार किया गया है। इसके तहत गलत तरीके से धन अर्जित करने और उसे छिपाने को आपराधिक कृत्य तो घोषित किया ही गया है साथ ही इस कानून के तहत जुर्माने की राशि को पांच लाख रुपए किया गया है और सम्पत्ति कुर्क करने का विधान भी किया गया है। भारत के वित्तीय कार्यवाही कार्य बल और धन शोधन पर एशिया प्रशांत निकाय का सदस्य होने के नाते यह विधेयक महत्वपूर्ण है। वास्तव में यह एक महत्वपूर्ण विधेयक है और इसको लेकर भले ही विपक्ष यह आरोप लगाए कि इस विधेयक में आतंकवादियों को वित्त पोषण पर लगाम लगाने व मानव तस्करी को रोकने के लिए कानून के प्रावधान का अभाव है लेकिन कुल मिलाकर देखा जाए तो यह विधेयक आर्थिक अपराधों पर नियंत्रण में बड़ा सहायक साबित होगा। इस विधेयक के पारित होने के साथ ही यह भी साबित हो गया कि सरकार सभी महत्वपूर्ण मसलों पर काफी गंभीर है और चाहती है कि विपक्ष भी उसे धन शोधन निवारण संशोधन विधेयक समेत अन्य जरूरी विधेयकों को पारित करवाने में सहयोग करे।

हाँ, सच में पढने पर अच्छा लगा कि आर्थिक भृष्टाचार रोकने के लिए ठोस कदम उठाये गए हैं। किन्तु यही सरकार अपनों को लाभ अर्जित कराने के उद्देश्य से किसी भी कठोर कानून में ताबड़तोड़ संशोधनों से क़ानून की मौलिकता को समाप्तप्राय कर देती है। धन्यवाद बन्धु।

rajnish manga
02-12-2012, 10:04 PM
आंकड़ों का खेल

विश्व इस्पात संघ द्वारा जारी वैश्विक आंकड़ों के अनुसार भारत 2010, 2011 और 2012 में सितंबर तक दुनिया का चौथा बड़ा इस्पात निर्माता देश है। जनवरी से सितंबर, 2012 के बीच चीन सबसे बड़ा इस्पात उत्पादक देश रहा है। इस मामले में उसके बाद जापान और अमेरिका का स्थान है .......
मॉस्को निवासी मेरे एक मित्र हर बार नए साल के आसपास स्वदेश आते हैं। पति-पत्नी दोनों वहीं कार्यरत हैं। उनका पैतृक मकान मेरे अपार्टमेन्ट से कुछ ब्लॉक ही दूर है, लेकिन संबंधों की नजदीकियों की वज़ह यह नहीं है, बल्कि यह है कि कभी जयपुर में मार्क्सवादी साहित्य का केंद्र रहे 'किताबघर' (यह अब बंद हो चुका है) में हमारी लम्बी बैठकें होती थीं और अक्सर मैं बहस में उन्हें हरा देता था। किन्तु अब स्थिति उलट है, इसलिए कि अब जब भी वे आते हैं, तो मेरे लिए दो बोतलें लाते हैं - एक तो स्कॉच और दूसरी रूस की शुद्ध वोदका। ज़ाहिर है, अब मैं कभी-कभी उनसे जान-बूझ कर हार जाता हूं। खैर, यह तो मैं भटक गया। मुद्दे पर आते हैं ... और आप चौथे स्थान पर खिसकने का जश्न मना रहे हैं। केंद्र सरकार यह अपनी उपलब्धि गिना रही है या नाकामी को छुपा रही है? आपको कैसा लगा आंकड़ों का यह खेल? क्या ख्याल है आपका ?

:cheers:

सेंट अलैक जी, इतने गंभीर मुद्दे को आपने इतनी सरलता से हमें समझा दिया, इस के लिये आपका धन्यवाद. इस्पात मंत्रालय के आंकड़ों पर आपका विवेचन सारगर्भित है. लेकिन इसके इतर भी आपने अपने मित्र के माध्यम से एक कमाल का प्रसंग इतनी सहजता से बताया कि मज़ा आ गया. ऐसे हलके फुल्के प्रसंग आपके लेखन को और भी अधिक पठनीय बना देते है.

Dark Saint Alaick
05-12-2012, 02:58 AM
अलैक जी नमस्कार।
मित्र, क्या ये आंकड़े रूपये के निरंतर अवमूल्यन के कारण इतने अस्थिर हुए हैं?
विश्व में किसी धातु के उत्पादन में हम चौथे स्थान पर हैं। हाँ, यह सांख्यिकीय खेल हो सकता है किन्तु मौलिक स्थिति इससे बहुत अधिक दूर भी नहीं होनी चाहिए। घटती निर्यात-राशि का संपर्क तो मुद्रा के अवमूल्यन से जुड़ा हुआ भी हो सकता है और निर्यात की मात्रा में कमी आने से भी। निर्यात में कम मात्रा का कारण घरेलू खपत का बढना भी हो सकता और मूल उत्पादन में कमी होना भी संभव है। घरेलू खपत बढ़ने का तात्पर्य घरेलू विकास से हो सकता है। यह हमारी सुदृढ़ता का प्रतीक है।
वैश्विक मंदी के दौर को भी नहीं भुलाना चाहिए। यह वही दौर था जब विश्व के बहुत से देशों के आर्थिक प्रबंधन का ढांचा ही चरमरा गया था किन्तु उस दौर में भी भारत कहीं न कहीं अटल और स्थिर रहते हुए अपने मौद्रिक प्रबंधन का लोहा मनवाया था। मुझे लगता है कि यह आंकड़े बाजी भी कई बार आवश्यक होती है। इति ।

प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद, जय भाई। महज मुद्रा का अवमूल्यन इतने बड़े अंतर का कारण नहीं हो सकता। 6029.82 मिलियन अमेरिकन डॉलर और 1103.84 में बहुत बड़ा अंतर है और वह भी महज चार वर्ष में। मुद्रा का इतना भी अवमूल्यन नहीं हुआ कि आंकड़े हमें इस तरह मुंह चिढ़ाएं। जहां तक उत्पादन का प्रश्न है यह 2007 में 53.5, 2008 में 57.8, 2009 में 62.8, 2010 में 68.3 और 2011 में 72.2 मिलियन टन रहा है यानी लगातार बढ़ा है। जहां तक घरेलू खपत का सवाल है, वह गत पांच वर्ष के दौरान सिर्फ 25 फीसदी बढ़ी है, और हमारा निर्यात तकरीबन 75 प्रतिशत नीचे आ गया है। ज़ाहिर है, भारत के इस बाज़ार पर चीन कब्जा कर चुका है और हम चौथे स्थान पर खिसक कर भी चैन की बंशी ही नहीं बजा रहे हैं, उस पर उल्लास की धुनें भी निकाल रहे हैं। जहां तक मौद्रिक प्रबंधन की बात है, मेरा मानना है कि इसमें सरकार की कोई बड़ी बाजीगरी नहीं थी, बल्कि यह इस देश के नागरिकों की संतोषी प्रवृत्ति का कमाल था। धन्यवाद।

Dark Saint Alaick
05-12-2012, 03:15 AM
पहली बात तो मैं यह कहना चाहूँगा की क्या बड़ा निर्माता देश इसको कितने मिलियन डॉलर के निर्यात हुआ उससे मापा जाना चाहिए या कितने टन स्टील का निर्यात हुआ। ... तो इस इस्पात वाले डाटा में भी यही लग रहा है मुझे। कौन सबसे बड़ा निर्यातक है इसका फैसला इससे होने चाहिए की किसने कितने टन इस्पात निर्यात किया।

अभिषेकजी, टन में अगर देखें, तो इस्पात मंत्रालय के अनुसार भारत का इस्पात निर्यात 2007-08 में 5077000, 2008-09 में 4437000, 2009-10 में 3251000, 2010-11 में 3637000, 2011-12 में (अनुमान/संभावना) 4241000 टन है। अगर यह अनुमान सत्य सिद्ध हो जाता है, तो आप दूसरे स्थान पर आ जाएंगे, नहीं तो 2008 से 2010 तक का चौथा स्थान सुरक्षित है ही।

Dark Saint Alaick
14-12-2012, 12:37 AM
इस विकास के कोई मायने नहीं

पू रे देश में इस समय कहा जा रहा है कि देश का दूसरा सबसे बड़ा राज्य बिहार प्रगति के पथ पर तेजी से आगे बढ़ रहा है। बिहार से होकर गुजरने वाले राष्ट्रीय राजमार्गों पर यात्रा करने पर आपको कुछ ऐसा आभास हो भी सकता है। जो राजमार्ग दस वर्ष पूर्व तक गड्ढों का पर्याय बने रहते थे, आज उसी जगह पर ऊंची, चौड़ी, मजबूत व सुरक्षित काली चमकती हुई 4 लेन सडकें दिखाई दे रही हैं। कमोबेश यही हाल अंतर जिला सड़कों का भी है। शहरों में भी मजबूत सीमेंटड सड़कें व गलियां बन चुकी हैं। बिजली आपूर्ति भी पहले से बेहतर दिखाई दे रही है। आम लोगों का रहन-सहन, खान-पान, पहनावा तथा खरीदारी की क्षमता भी बेहतर दिखाई दे रही है। लड़कियां अब पहले से ज्यादा संख्या में स्कूल जाने लगी हैं, परंतु इसी बिहार के कथित विकास का एक दूसरा पहलू यह भी है कि अब भी बिहार में गंदगी का वह साम्राज्य फैला हुआ है, जिसकी शायद कल्पना भी नहीं की जा सकती। राज्य के किसी भी जिले में यहां तक कि राजधानी पटना में भी आप कहीं चले जाएं तो चारों ओर नालों व नालियों में कूड़े का ढेर देखने को मिलेगा। नालों व नालियों में गंदा पानी ठहरा रहता है। पान व खैनी-सुरती आदि खाने के शौकीन लोग वहां की सड़कों, इमारतों यहां तक कि सरकारी दफ्तरों, कोर्ट-कचहरी, पोस्ट आफिस जैसे भवनों की दीवारों को मुफ्त में रंगते रहते हैं। अफसोस की बात तो यह है कि जिन गंदे, बदबूदार व जाम पड़े नालों के पास आप एक पल के लिए खड़े भी नहीं होना चाहेंगे, उसी जगह पर बैठकर तमाम दुकानदार खुले हुए बर्तनों में खाने-पीने का सामान रखकर बेचते दिखाई दे जाएंगे। ऐसा प्रतीत होता है कि गोया वहां का आम आदमी भी गंदगी से या तो परहेज से कतराता है या फिर उसे इस विषय पर पूरी तरह जागरूक नहीं किया गया है। पिछले दिनों मुझे दरभंगा जाने का अवसर मिला। वहां एक बीमार मित्र के लिए रक्तदान को मशहूर ललितनारायण मिश्रा मेडिकल कॉलेज पहुंचा। गंदगी, लापरवाही, कुप्रबंधन का जो खुला नजारा इस मेडिकल कॉलेज में देखने को मिला, उसकी कभी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। हॉस्पिटल के ओपीडी के मुख्य प्रवेश द्वार पर टोकरी में रखकर सामान बेचते औरतें व पुरुष दिखाई दिए। पूरे अस्पताल के चारों ओर ड्रेनेज सिस्टम बंद पड़ा हुआ था। जिस समय मेरा रक्त लिया जा रहा था, उस समय एक कर्मचारी अपने हाथों से ब्लड बैग को खुद अपने हाथ से हिला रहा था। मेरे पूछने पर पता लगा कि ब्लड बैग शेकिंग मशीन खराब है, इसलिए वह हाथ से ऐसा कर रहा है। बिहार के सबसे बड़े मेडिकल कॉलेज के अपने परिसर में गंदगी का यह आलम देख वहां के स्वास्थ्य विभाग से मेरा विश्वास ही उठ गया है। यहां बिहार के विकास को लेकर किसी बहस में पड़ने से कुछ हासिल नहीं कि वहां दिखाई दे रहे विकास का सेहरा केंद्र सरकार के सिर पर रखा जाए या फिर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को इसका श्रेय दिया जाए, परंतु जिस प्रकार नीतीश बिहार के विकास का सेहरा अपने सिर पर रखने के लिए लालायित दिखाई देते हैं तथा जिस प्रकार उन्होंने सैकड़ों करोड़ रुपए अपनी पीठ थपथपाने वाले पोस्टरों, बोर्डों, विज्ञापनों व अन्य प्रचार माध्यमों पर खर्च कर रखे हैं उन्हें देखकर विकास बाबू को यह सलाह तो देनी ही पड़ेगी कि आसमान की ओर देखने से पहले अपने नाकों तले फैली उस बेतहताशा जानलेवा गंदगी को साफ कराने की कोशिश तो कीजिए, जिस पर विकास की बुनियाद खड़ी होती है। लोगों को गंदगी से होने वाले खतरों से आगाह कराने की कोशिश करें। जब तक बिहार से गंदगी का खात्मा नहीं हो जाता, तब तक बिहार की विकास गाथा लिखे जाने का कोई महत्व नहीं।

Dark Saint Alaick
22-12-2012, 11:13 PM
भाषा सुधारने पर गौर करना ही होगा

मीडिया इन दिनों किस तरह बाजार के चंगुल में है, इसे वर्तमान पत्रों और चैनल्स की भाषा से समझा जा सकता है। अस्सी के दशक में देश में अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ने लगा। हिन्दी माध्यम के विद्यालयों ने भी अपने बोर्ड बदल कर उन पर अंग्रेजी माध्यम लिखवा दिया। आज 25 वर्ष बाद एक ऐसी पीढ़ी अस्तित्व में आ गई है, जो न ठीक से हिन्दी जानती है, न अंग्रेज़ी। हिन्दी अंकावली तो प्राय: पूरी तरह से ही गायब हो गई है। इसी का नतीजा है कि इस पीढ़ी तक पहुंचने के लिए कई अखबारों ने अपनी भाषा में जबरन अंग्रेजी शब्दों की घुसपैठ करा दी है। कई तो शीर्षक में ही अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल करने लगे हैं। एक समय था, जब इन अखबारों के माध्यम से लोग अपनी भाषा सुधारते थे, पर अब वही मीडिया भाषा बिगाड़ने में लगा है। कई चैनल्स पर समाचारों तथा नीचे आने वाली लिखित पट्टी में हिन्दी के साथ जैसा दुर्व्यवहार होता है, उसे देखकर सिर पीटने की इच्छा होती है। स्पष्ट है कि मीडिया का उद्देश्य इस समय केवल पैसे कमाना हो गया है। पत्र-पत्रिकाओं से लेखक व साहित्यकारों को एक पहचान मिलती है। पहले कई अखबार नए और युवा लेखकों को प्रोत्साहित करते थे, पर अब देखते हैं कि ये अखबार खास किस्म के लेखकों को ही स्थान देते हैं। अंग्रेजी लेखकों के अनुवादित लेख परोसने में भी अब हिन्दी के अखबार पीछे नहीं रहते । वे भूल जाते हैं कि हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में लिखने वाले कम नहीं हैं, पर जब उद्देश्य केवल पैसा हो, तो इस ओर ध्यान कैसे जा सकता है ? इस बाजारवाद ने ही पेड न्यूज (विज्ञापन को समाचार की तरह छापने) के चलन को बढ़ाया है। चुनाव के समय यह प्रवृत्ति खास कर क्षेत्रीय चैनल्स व अखबारों में बहुत तीव्र हो जाती है। 100 लोगों की बैठक को विराट सभा बताना तथा विशाल सभा के समाचार को गायब कर देना, इसी कुप्रवृत्ति का अंग है। यद्यपि कुछ पत्रकारों और संस्थाओं ने इसके विरुद्ध आवाज उठाई है, जो एक शुभ लक्षण है। मीडिया में समाचार और विचार दो अलग धारणाएं हैं। अखबारों में यदि संवाददाता या संपादक किसी समाचार के पक्ष या विपक्ष में कोई विचार देना चाहे, तो उसके लिए सम्पादकीय पृष्ठ का उपयोग होता है। कुछ पत्र इस नीति का पालन करते हैं, पर कई में इसका अभाव है। चैनल्स पर भी हम देखते हैं कि एंकर या संवाददाता अपने विचारों के अनुसार समाचार को तोड़-मरोड़ देता है। कई एंकर तो जानकारी देते समय वक्ताओं से सवाल पूछ-पूछ कर यहां तक हालत पैदा कर देते हैं कि वक्ता को कहना पड़ता है कि वो इस सवाल का जवाब नहीं देंगे। इससे पत्रकारिता के तय सिद्धान्तों की विश्वसनीयता तो कम होती ही है, मीडिया की प्रतिष्ठा पर भी आंच आती है। खबरों को तोड़ मरोड़ कर पेश करना अथवा उसमें अपने विचारों का समावेश कर देना, तो लोकतंत्र और जनाकांक्षा दोनों के लिए ही हानिकारक हैं। मीडिया को इससे बचना चाहिए, साथ ही भाषा की प्रस्तुति में सुधार पर पूरा ध्यान देना चाहिए, ताकि आने वाली पीढ़ी में भाषागत ग़लतियां नहीं रहें।

Dark Saint Alaick
02-01-2013, 03:10 AM
बेहतर तकनीक से उपभोक्ता को फायदा

इंटरनेट के जरिए इन दिनो घर बैठे जरूरत का सारा सामान खरीदने का चलन जिस तरह से जोर पकड़ रहा है उससे यह लगने लगा है कि भारत के लोग भी तकनीक के बेहतर और हर सुलभ उपायों का बखूबी इस्तेमाल करने लगे हैं। जो जानकारियां सामने आ रही हैं उसके मुताबिक 2012 में ई-कॉमर्स कंपनियों ने भारत के घरेलू बाजार में इस कारोबार में जमकर व्यापार किया और उनकी आय 14 अरब डॉलर पहुंच गई। इससे एक बात यह भी साफ हो गई कि लगातार बढ़ती महंगाई का ई-कॉमर्स पोर्टल के कारोबार पर कोई खास असर नहीं पड़ा है क्योंकि इंटरनेट के जरिए सामान बेचने वाली कंपनियों ने विशेष छूट और पेशकश के जरिए ग्राहकों को लुभाए रखा। दरअसल देश में इंटरनेट का तेजी से बढ़ता दायरा एवं भुगतान के विकल्प बढ़ने से ई-कॉमर्स उद्योग तेजी से फल-फूल रहा है। ग्राहक भी इलेक्ट्रॉनिक सामानों के अलावा फैशन एवं जूलरी, रसोई के सामान और टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुओं की खरीद में रुचि दिखा रहे हैं जिससे ई-कॉमर्स कारोबार में तेजी देखने को मिली। यह कारोबार हालांकि तेजी से अपने पांव पसार रहा है लेकिन उपभोक्ताओं को बेहद सावचेती के साथ उत्पाद की खरीददारी करनी चाहिए क्योंकि कुछ ऐसी कम्पनियां भी इस दौड़ में शामिल हो जाती हैं जो उपभोक्ताओं के साथ धोखाधड़ी कर सकती हैं। ऐसे में उपभोक्ता को पहले यह पता लगा लेना चाहिए कि वह जो उत्पाद ई-कॉमर्स कंपनियों से खरीद रहा है उसकी गुणवत्ता कितनी है और जिन कम्पनियों से वे उत्पाद करीद रहे हैं उनकी विश्वसनीयता कितनी है। वैसे जिस तरह से यह कारोबार अपने पांव पसार रहा है उसमें उतनी ही तेजी से प्रतिस्पर्धा भी बढ़ रही है और जहां प्रतिस्पर्धा बढ़ती है वहां फायदा उपभोक्ता को ही होता है। इसलिए ई-कॉमर्स कंपनियों के फर्जीवाड़े के अवसर भी कम हो जाते हैं। यही कारण है कि देश में ई-कॉमर्स के प्रति लोगों का रुझान लगातार बढ़ता ही जा रहा है।

Dark Saint Alaick
03-01-2013, 12:17 AM
एक फैसले की ज़द में अनेक चेहरे

गुजरात की राज्यपाल द्वारा लोकायुक्त की नियुक्ति पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कांग्रेसी खेमे की ओर से आनन-फानन में अनेक पारंपरिक प्रतिक्रियाएं आ गईं, लेकिन तब तक शायद उन्हें यह पता नहीं था कि इस निर्णय ने भले ही मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की कार्यशैली पर सवालिया निशान लगाए हों, लेकिन खुद उनका दामन कुछ ज्यादा ही दागदार होकर उभरा है। उच्चतम न्यायालय ने लोकायुक्त के तौर पर न्यायाधीश (सेवानिवृत) आर.ए. मेहता की नियुक्ति को बरकरार रखा और उसके पीछे कारण यह बताया कि ‘इस मामले के तथ्यों से गुजरात राज्य की चिंताजनक स्थिति का पता चलता है, जहां लोकायुक्त का पद नौ साल से भी अधिक समय से रिक्त था।’ साथ ही राज्यपाल कमला बेनीवाल की भूमिका पर भी यह कहते हुए अंगुली उठाई, राज्य सरकार से परामर्श के बगैर ही इस पद पर नियुक्ति के संबंध में राज्यपाल ने ‘अपनी भूमिका का गलत आकलन’ किया। न्यायाधीशों ने कहा, ‘वर्तमान राज्यपाल ने अपनी भूमिका का गलत आकलन किया और उनकी दलील थी कि कानून के तहत लोकायुक्त की नियुक्ति के मामले में मंत्री परिषद की कोई भूमिका नहीं है और इसलिए वह गुजरात उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और विपक्ष के नेता से परामर्श करके नियुक्ति कर सकती हैं। इस तरह का रवैया हमारे संविधान में परिकल्पित लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुरूप नही है।’ न्यायाधीशों ने कहा, ‘राज्यपाल ने कानूनी राय के लिए अटार्नी जनरल से परामर्श किया और मंत्री परिषद को विश्वास में लिए बगैर ही उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से सीधे पत्राचार किया। इस संबंध में उन्हें यह गलत सलाह दी गई थी कि वह राज्य के मुखिया के रूप में नहीं, बल्कि सांविधिक प्राधिकारी के रूप में काम कर सकती हैं।’ न्यायाधीशों ने कहा कि इस मामले में तथ्यों से स्पष्ट है कि परामर्श की प्रक्रिया पूरी हो गई थी, क्योंकि मुख्यमंत्री को मुख्य न्यायाधीश के सारे पत्र मिल गए थे और ऐसी स्थिति में नियुक्ति को गैरकानूनी नहीं कहा जा सकता है। साफ़ है कि सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल की भूमिका को गलत माना, लेकिन नियुक्ति इसलिए रद्द नहीं की कि राज्य सरकार की ओर से नियुक्ति में रूचि नहीं दिखाई गई। साफ़ है कि कांग्रेस के लिए यह खुशी मनाने का अवसर तो कतई नही है, वह भी उस स्थिति में जब राजस्थान जैसे उसके द्वारा शासित अनेक राज्यों में भी अब तक लोकायुक्त नियुक्त नहीं किए गए हैं, जबकि वहां दोबारा चुनाव सर पर हैं यानी वहां कांग्रेस लोकायुक्त के बिना लगभग पूरा शासन काल गुज़ार चुकी है। (गौरतलब यह भी है कि गुजरात की राज्यपाल कमला बेनीवाल राजस्थान की ही हैं और भाजपा के नेता सौमय्या दो बार राजधानी जयपुर जाकर उन पर भूमि खरीद में धांधली के आरोप लगा चुके हैं और यह दावा कर चुके हैं कि लोकायुक्त नहीं होने के कारण ही मामले की जांच की मांग रद्दी की टोकरी के हवाले कर दी गई है।) ऎसी स्थिति में देर सवेर उसके भी कुछ मुख्यमंत्री ऎसी ही स्थिति में फंस सकते हैं, तब शायद कांग्रेस का मासूम जवाब उसकी परंपरा के अनुसार यह होगा- हम अदालतों का सम्मान करते हैं, अतः उनके निर्णयों पर कोई टिप्पणी नहीं करते।

Dark Saint Alaick
04-01-2013, 09:25 PM
जरदारी के कदम को लेकर अटकलें

पाकिस्तानी के राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो की हत्या की जांच रिपोर्ट सार्वजनिक करने से गृह मंत्री रहमान मलिक को क्यों रोक दिया इसे लेकर चर्चाओं का बाजार गर्म हो गया है। पाकिस्तान के उर्दू अखबार ‘डेली एक्सप्रेस’ ने जो जानकारी हाल ही में दी है उसके अनुसार जरदारी ने बेनजीर की पांचवीं पुण्यतिथि पर पिछले सप्ताह सत्ताधारी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की केंद्रीय कार्यकारी समिति की बैठक में मलिक को रिपोर्ट जारी करने से रोक दिया। जरदारी के इस कदम पर शंका और बढ़ जाती है क्योंकि यह घटनाक्रम ऐसे समय हुआ है जब जरदारी और मलिक के बीच मतभेद बढ़ने की खबरें भी पिछले काफी दिनो से मिल रही हैं। उल्लेखनीय है कि मलिक ने इससे पहले मीडिया को रिपोर्ट जारी करने के अपने इरादे से अवगत कराया था। बेनजीर की एक आत्मघाती हमलावर ने रावलपिंडी में 27 दिसम्बर 2007 को उस समय हत्या कर दी थी, जब वह एक चुनावी रैली को संबोधित करने के बाद जा रही थीं। खबर तो यह भी है कि पिछले दिनों से मलिक ने संघीय जांच एजेंसी दल के उन सदस्यों एवं अन्य वरिष्ठ अधिकारियों से मुलाकात की थी जो भुट्टो की हत्या की जांच कर रहे हैं। उन्होंने सैकड़ों पृष्ठों वाली रिपोर्ट के प्रकाशन के कार्य की स्वयं समीक्षा भी की ती। लेकिन अब जरदारी ने यह रिपोर्ट जारी करने से मलिक को क्यों रोका इसको लेकर अटकलें काफी बढ़ गई हैं। दरअसर पाकिस्तान में अंदरूनी सत्ता संघर्ष कोई नई बात नहीं है और वाद विवाद की खबरें भी अकसर सामने आती रहती हैं। ऐसे में जांच रिपोर्ट को सार्वजनिक करने से रोकने का जरदारी का कदम कई सवाल पैदा कर रहा है। आखिर ऐसे कौन से कारण या तथ्य हैं जिन्हे जरदारी लोगों के सामने लाने से कतरा रहे हैं। मलिक ने तो रिपोर्ट की प्रतियां पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के नेताओं और पत्रकारों के बीच बांटने की भी योजना बनाई थी। हो सकता है आने वाले समय में इस कदम का खुलासा हो।

Dark Saint Alaick
08-01-2013, 12:02 AM
अपराधों पर लगाम के नायाब सुझाव

बढ़ते अपराधों पर लगाम के लिए हाल ही में दो नायाब सुझाव सामने आए हैं जिस पर अमल हो तो ना केवल अपराध कम होंगे बल्कि अपराधियों के मन में भी खौफ पैदा होगा। एक सुझाव केन्द्रीय गृह सचिव आर.के.सिंह ने दिया है जिसमें उन्होने कहा है कि अगर कोई पुलिसकर्मी शिकायत दर्ज करने से इन्कार करता है, तो उसे तत्काल निलंबित किया जाना चाहिए। इसमें कोई हिचक नहीं होनी चाहिए। शिकायत दर्ज नहीं करना कानून का उल्लंघन है। दरअसल सिंह ने यह सुझाव इसलिए दिया है कि लोगों को थाने में शिकायत दर्ज कराने से लेकर अपनी शिकायत पर हुई कार्रवाई का पता लगाने तक कदम-कदम पर मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। इस व्यवस्था को यदि हम बदल दें तो लोगों को थाने तक जाने में होने वाली हिचकिचाहट दूर हो जाए। ऐसा माहौल होना चाहिए जिसमें महिलाएं एवं कमजोर तबकों के लोग बिना किसी कठिनाई के अपनी शिकायत थाने में दर्ज करा सकें। छेड़छाड़ जैसी घटनाओं की जानकारी पुलिस तक पहुंचाने में आने वाली मुश्किलों के कारण ही कई लोग थाने जाने से हिचकते हैं और अगर पहुंच भी जाते हैं तो रिपोर्ट दर्ज करवाने में उन्हे टालमटोल का सामना करना पड़ता है। इसलिए गृह सचिव का यह सुझाव सटीक है कि जो पुलिसकर्मी शिकायत दर्ज करने से इन्कार करता है तो उसे निलंबित किया जाना चाहिए। ऐसा ही एक अन्य सुझाव पूर्व प्रधान न्यायाधीश एम.एन. वेंकटचलैया ने दिया है और कहा है कि जरूरी नहीं कि अपराध रोकने के लिए अपराधी को कठोर सजा ही हो। होना यह चाहिए कि अपराधी को सजा निश्चित तौर पर हो इसका प्रावधान होना चाहिए तभी अपराधियों में नैतिक भय पैदा होगा। छूट की भावना के कारण छेड़छाड़ करने वाला दुष्कर्म की वारदात तक पहुंच जाता है। सरकार को इन दोनो सुझावों पर गौर करना चाहिए ताकि देश में अपराधों में कमी हो सके।

Dark Saint Alaick
13-01-2013, 12:53 AM
मध्य प्रदेश में रसूख वालों का बढ़ता दबदबा

मध्य प्रदेश में नियमो को ताक पर रख कर सरकारी काम किस तरह से किए जा रहे हैं, इसका एक नमूना हाल ही में सामने आया है। जो जानकारी सामने आई है उसके अनुसार तमाम नियमों को दरकिनार कर महज एक चिट्ठी पर सरकार के एक विभाग ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के असेसमेंट का कार्य एक एनजीओ को दे दिया गया। वह भी तब जबकि राज्य योजना आयोग इस एनजीओ को असेसमेंट काम के लिए अयोग्य करार दे चुका था। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि महिला चेतना मंच नामक जिस एनजीओ को यह काम दिया गया है वह राज्य की पूर्व मुख्य सचिव निर्मला बुच का है। मंच ने 11 मार्च 2010 को ग्रामीण विकास विभाग के तत्कालीन अपर मुख्य सचिव आर.परशुराम को एक चिठ्ठी लिखकर मनरेगा में इम्पैक्ट असेसमेंट स्टडी करने का प्रस्ताव दिया था। इसके बाद वित्तीय नियमों की अनदेखी करके 10 दिसंबर 2010 को राज्य रोजगार गारंटी परिषद की कार्यकारिणी ने असेसमेंट का काम महिला चेतना मंच को दे दिया। इसके लिए करीब 25 लाख रूपए देना तय हुआ। यह काम देने में न कोई विज्ञापन हुआ और न कोई टेंडर किए गए। यह भी नहीं देखा गया कि महिला चेतना मंच असेसमेंट की क्षमता रखता है या नहीं। पंचायत एवं ग्रामीण विकास की विजिलेंस एंड मानीटरिंग कमेटी के सदस्य तथा संस्था प्रयत्न के अजय दुबे ने इस मामले में 29 जून 2011 को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को पत्र लिखकर शिकायत भी की थी। इसके बावजूद कुछ नहीं हुआ तो गत वर्ष फरवरी में लोकायुक्त को भी इसकी शिकायत की गई। इस पर राज्य रोजगार गारंटी परिषद ने मामले में लीपापोती कर दी। मुख्य सचिव ने मामले में जांच कराने के लिखा तो परिषद ने अब सब कुछ नियमानुसार होने की रिपोर्ट बनाकर मुख्य सचिव को भेज दी। याने कहा जा सकता है कि राज्य में रसूख वाले लोगों का दबदबा बढ़ता जा रहा है और राज्य सरकार मौन है।

Dark Saint Alaick
13-01-2013, 12:53 AM
भटकाव पर गौर करना ही होगा

पत्रकारिता की अपनी एक संस्कृति है। खासकर भारत के संदर्भ में पत्रकारिता जन जागरण का मानो एक अनुष्ठान है। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में देश में तेजी से पत्रकारिता का विकास हुआ और इसके चलते देशभक्ति,जन जागरण और समाज सुधार के भाव इसकी जड़ों में हैं। आजादी के बाद इसमें कुछ बदलाव आए और आज बाजारवादी शक्तियों का प्रभाव इस माध्यम पर इस कदर देखा जा रहा है कि लगता है मीडिया अपने मूल उद्देश्यों से निरन्तर भटकता जा रहा है। प्रभावशाली संचार माध्यम होने के नाते मीडिया में यह बदलाव क्यों आया उस पर तो हमें गौर करना ही चाहिए साथ ही, हमें मौजूदा समय में उसकी भूमिका पर भी विचार करना ही होगा। हमें तय करना होगा कि किस तरह मीडिया लोक संस्कारों को पुष्ट करते हुए अपनी जड़ों से जुड़ा रहे। साहित्य हो या मीडिया दोनों का काम है जन मंगल के लिए काम करना। राजनीति का भी यही काम है। जन मंगल हम सबका ध्येय है। लोकतंत्र का भी यही उद्देश्य है। संकट तब खड़ा होता है जब जन हमारी नजरों से ओझल हो जाता है। लोग हमारे संस्कारों का प्रवक्ता होते हैं। वह हमें बताते हैं कि क्या करने योग्य है और क्या नहीं है। जन मानस की मान्यताएं ही हमें संस्कारों से जोड़ती हैं और इसी से हमारी संस्कृति पुष्ट होती है। मीडिया दरअसल अब जिस ताकत के रूप में उभर रहा है उससे तो लगता है कि वह उच्च वर्ग की वाणी बन रहा है जबकि मीडिया की पारंपरिक संस्कृति और इतिहास इसे आम आदमी की वाणी बनने की सीख देते हैं। जाहिर तौर पर समय के प्रवाह में समाज के हर क्षेत्र में कुछ गिरावट दिख रही है किंतु मीडिया के प्रभाव के मद्देनजर इसकी भूमिका बड़ी है। उसे लोगों का प्रवक्ता होना चाहिए पर वह इससे भटकता जा रहा है। ऐसे में यह बहुत जरूरी है कि हम इसकी सकारात्मक भूमिका पर विचार करें। लोगों से बेहतर संवाद से ही बेहतर समाज का निर्माण हो सकता है। मीडिया इसी संवाद का केंद्र है। वह हमें भाषा भी सिखाता है और जीवन शैली को भी प्रभावित करता है। आज खासकर दृश्य मीडिया पर जैसी भाषा बोली और कही जा रही है उससे लोगों से बेहतर संवाद कायम नहीं होता बल्कि इससे तो लगता है कि वह लोगों से दूर ही हो रहा है और बाजार ही सारे मूल्य तय कर रहा है। ऐसे में तो यही समझ में आता है कि छवि में लगातार हो रही गिरावट पर गौर करने का मीडिया के पास समय ही नहीं है। मीडिया को अब सावचेत हो ही जाना चाहिए। साथ ही समाज के प्रतिबद्ध पत्रकारों,साहित्यकारों को भी आगे आकर इस चुनौती को स्वीकार करने की जरूरत है क्योंकि लोगों की उपेक्षा कर केवल बाजार आधारित प्रस्तुति से तो लगता है कि मीडिया अपनी पूर्व की विरासत को ही गंवा रहा है जबकि इसके संरक्षण की जरूरत है। इसे बचाने, संरक्षित करने और इसके विकास के लिए मीडिया को समाज को साथ लेकर आगे आना होगा तभी मीडिया अपनी भूमिका को सही ढंग से निभा पाएगा। मीडिया अगर पत्रकारिता क्षेत्र में महात्मा गांधी के योगदान को याद रखे तो तय है उसका भटकाव हो ही नहीं सकता।

Dark Saint Alaick
04-02-2013, 12:02 AM
ममता के लिए खड़ी हो रही चुनौती

तृणमूल कांग्रेस के हलकों में विपक्षी वाम मोर्चा के फिर से मजबूत होने को लेकर उतनी चिंता नहीं है, जितनी चिंता अलग प्रदेश की मांग को लेकर गोरखा जन्मुक्ति मोर्चा द्वारा पेश की चुनौती से है। मोर्चा ने गोरखालैंड की मांग को लेकर फिर से आंदोलन तेज करने की योजना बनाई है। गोरखा जन्मुक्ति मोर्चा के नेताओं में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अपनी ही छवि देखती हैं। बिमल गुरुंग और रोशन गिरी जैसे गोरखा ममता बनर्जी की तरह ही अड़ियल और जिद्दी हैं, जो अपनी मांगों को मनवा कर ही दम लेते हैं। वे ममता की तरह ही कहते हैं कि उनकी मांगों को बिल्कुल उसी तरह पूरा किया जाए जैसा वे चाहते हैं। आज गठबंधन राजनीति के तहत आम सहमति द्वारा राजनीतिक निर्णय पर आने का माहौल बन रहा है, लेकिन ममता बनर्जी और गोरखा जन्मुक्ति मोर्चा के नेता किसी प्रकार के बीच का रास्ता अपनाने में विश्वास नहीं रखते। ममता बनर्जी के अपनी बात पर अड़े रहने के कारण ही सिंगुर से आखिर टाटा प्रोजेक्ट को हटना पड़ा था। नंदीग्राम में भी उसी तरह का हिंसक आंदोलन चलाया गया था। इन आंदोलनों के बाद तृणमूल कांग्रेस ने 34 साल से सरकार चला रहे वामदलों को पराजित कर सत्ता से बाहर कर दिया। तृणमूल नेताओं ने यह कहने में तनिक भी देर नहीं लगाई कि उन दोनों आंदोलनों के कारण ही उनकी जीत हुई। उनके दावों पर बहस की जा सकती है, लेकिन सच्चाई यही है कि सिंगूर आज भी एक पिछड़ा हुआ ग्रामीण इलाका बना हुआ है और नंदीग्राम तो अभी मध्य युग में पड़ा दिखाई दे रहा है। इससे भी भयानक बात यह है कि इन घटनाओं के कारण पश्चिम बंगाल का निवेश माहौल बुरी तरह खराब हो गया है। इसका एक उदाहरण हल्दिया में 25 करोड़ रुपया खर्च कर किया गया वह सरकारी आयोजन था, जो एक भी निवेश प्रस्ताव को आकर्षित नहीं कर पाया। क्या ममता बनर्जी को इस बात का गम है कि उनकी पार्टी के कारण पश्चिम बंगाल के कारण बुरा हाल हुआ है? बिल्कुल नहीं। टाटा द्वारा सिंगूर छोड़ने के कुछ ही घंटों के अंदर उन्होंने कहा कि हमने जो कुछ भी किया, उस पर हमें गर्व है और यदि ऐसी स्थिति पैदा हुई, तो हम इसे फिर दुहराना चाहेंगे। अब उत्तरी बंगाल का भविष्य दाव पर लगा हुआ है। वहां गोरखा जन्मुक्ति मोर्चा के नेता ममता बनर्जी जैसा ही अड़ियल रुख अपना रहे हैं। दार्जिलिंग में एक दशक से भी ज्यादा समय तक होने वाले हिंसक आंदोलनों के कारण वहां से ट्रैफिक की दिशा को बदलकर सिक्किम की तरफ मोड़ दिया गया है। इस खराब दशा से बेपरवाह गोरखा जन्मुक्ति मोर्चा के नेता कहते हैं कि आजादी की कीमत हमेशा चुकानी पड़ती है और इसके लिए चुकाई गई कोई भी कीमत कम है। उनके इस बयानों से किसी को आश्चर्य नहीं होता। एक बार तो इस मोर्चा के पूर्ववर्ती गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट के नेता ने तो एक अलग देश के निर्माण की मांग तक कर दी थी और उसके लिए संयुक्त राष्ट्र संघ को चिट्ठी तक लिख डाली थी। कांग्रेस के नेता अरूणवा घोष का कहना है कि ममता बनर्जी की राजनीतिक शैली अपने कमजोर दिख रहे राजनीतिक विरोधियों को समाप्त कर देने की है। यही कारण है कि उन्होंने कमजोर हो रहे एक मुख्यमंत्री बुध्ददेव भट्टाचार्य द्वारा बुलाई गई एक सर्वदलीय बैठक में शामिल होने से मना कर दिया था। दूसरी तरफ उन्होंने गोरखा जन्मुक्ति मोर्चा और माओवादियों से चुपके से दोस्ती कर ली, क्योंकि वे वाम मोर्चा के खिलाफ थे। गोरखा जन्मुक्ति मोर्चा ने भी तृणमूल को अच्छी तरह समझ लिया है। जाहिर है आने वाले दिनों में गोरखा समस्या ममता बनर्जी के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी।

Dark Saint Alaick
05-02-2013, 01:53 PM
युवा पीढ़ी के लिए बेहतर पहल

केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने स्कूली स्तर पर जो 44 व्यावसायिक पाठ्यक्रम पेश किए हैं उससे ना केवल आने वाले समय में युवाओं के लिए नए अवसर पैदा होंगे बल्कि उन्हे अपनी प्रतिभा दिखाने का भी काफी अच्छा अवसर मिलेगा। हालांकि उद्योगों की जरूरतों को पूरा करने और कौशल विकास के मद्देनजर सरकार की व्यावसायिक शिक्षा योजना को आगे बढ़ाते हुए बोर्ड ने यह पेशकश की है लेकिन इसके दूरगामी नतीजे सामने आएंगे। सीबीएसई ने स्कूलों एवं संस्थाओं के प्रमुखों को पत्र लिखकर ये पाठ्यक्रम शुरू करने को कह भी दिया है। बोर्ड ने स्कूलों में उच्च माध्यमिक स्तर पर 40 व्यावसायिक पाठ्यक्रम और माध्यमिक स्तर पर चार पाठ्यक्रम पेश किए गए हैं। बोर्ड ने नए व्यावसायिक पाठ्यक्रम पेश करने के लिए सेंट्रल इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलॉजी आस्ट्रेलिया के साथ समझौता भी किया है। इससे स्कूली बच्चों को विदेशी तकनीक से भी रूबरू किया जा सकेगा। योजना के तहत शिक्षकों को प्रशिक्षित करने का कार्र्य सीबीएसई और उद्योग जगत के सहयोगी करेंगे। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने राष्ट्रीय व्यावसायिक शिक्षा पात्रता ढांचा के तहत स्कूलों, कालेजों एवं पॉलीटेक्निक संस्थाओं के साथ विश्वविद्यालय स्तर पर व्यावसायिक शिक्षा लागू करना तय किया गया है। योजना के तहत नौवीं कक्षा में शैक्षणिक सत्र 2013-14 से चार व्यावसायिक पाठ्यक्रम लागू किए जा रहे हैं। इनमें खुदरा क्षेत्र, सुरक्षा, सूचना एवं प्रौद्योगिकी और आटोमोबाइल प्रौद्योगिकी पर पाठ्यक्रम शामिल हैं। चारों पाठ्यक्रम अतिरिक्त अनिवार्य विषय के रूप में नौंवी एवं दसवीं कक्षा में पढ़ाए जाएंगे। कुछ स्कूलों में इसकी शुरुआत हो भी चुकी है। बोर्ड वर्तमान पाठ्यक्रम को उन्नत बनाने और अर्थव्यवस्था की जरूरतों के अनुरूप नए पाठ्यक्रम पेश करने की पहल को जिस तरह से आगे बढ़ा रहा है वह देश की युवा पीढ़ी के लिए मील का पत्थर साबित होगा।

Dark Saint Alaick
09-02-2013, 01:04 AM
पाक-चीन रिश्तों पर नजर रखनी होगी

पाकिस्तान ने जिस तरह से औपचारिक रूप से अपने निर्माणाधीन ग्वादार पोर्ट का जिम्मा चीन को सौंप देने का फैसला किया है उससे भारत की चिंताएं बढ़ना स्वाभाविक है। पिछले कुछ अर्से से हिंद महासागर में चीन का दखल निरन्तर बढ़ता ही जा रहा है। चीन ने श्रीलंका के हंबनटोटा में पहले ही अपनी पैठ बना ली है और पिछले कई दिनो से वह मालदीव को भी अपने पाले में करने की कोशिश कर रहा है। इसके अलावा बांग्लादेश के चटगांव में भी चीन एक पोर्ट बना रहा है। ऐसे में बंगाल की खाड़ी,हिन्द महासाहर और अरब सागर में चीन की मौजूदगी भारत के लिए चिंता का सबब बन सकती है। पहले ग्वादर पोर्ट को पूरा करने की जिम्मेदारी सिंगापुर की कम्पनी के पास थी हालांकि पोर्ट का शुरूआती निर्माण चीन ने ही किया था। बाद में सिंगापुर की कम्पनी पीएसए इंटरनेशनल से पोर्ट के विकास के लिए पाकिस्तान का कांट्रेक्ट हुआ। यह कम्पनी जिस धीमी गति से काम कर रही थी उससे पाकिस्तान संतुष्ट नहीं था। जमीन हस्तान्तरण,बुनियादी ढांचे की कमी और सुरक्षा कारणों से कम्पनी और पाकिस्तान की नौ सेना के बीच मनमुटाव हो गया तो कम्पनी ने कांट्रेक्ट से हाथ खींच लिया। अब पाकिस्तान ने पोर्ट के आपरेशन का जिम्मा चीन की ओवरसीज पोर्ट होल्डिंग को सौंप दिया है। पाकिस्तान चाहता है कि चीन जल्द से जल्द इस पोर्ट का काम पूरा कर दे। पाकिस्तान ने यह भी कहा है कि अगर चीन पोर्ट पर अपना नेवल बेस बनान चाहे तो बना सकता है। पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ने दो वर्ष पहले भी यह घोषणा की थी कि अगर चीन चाहे तो पाकिस्तान इस पोर्ट का मालिकाना हक चीन की कंपनी को ट्रांसफर कर सकता है अर्थात कहीं ना कहीं इस पोर्ट की आड़ में चीन और पाकिस्तान अंदरूनी तौर पर कोई गुल भी खिला सकते हैं और इसी वजह से भारत ग्वादार पोर्ट का जिम्मा चीन को सौपे जाने से चिंतित है। दो चरणों मे पूरा होने वाला यह पोर्ट करांची से करीब 460 किलोमीटर दूर बन रहा है। भारत को इस पर नजर रखनी होगी।

Dark Saint Alaick
10-02-2013, 07:51 AM
तय करनी ही होगी चिन्तन की दिशा

स्पर्धा की अंधी दौड़ में खबरों को गढ़ना, पैसा कमाने के लिए खबर को बेचना या किसी दुर्भावना से किसी के जीवन को ध्वस्त करने वाली खबरों को पकाना यही है आज का सच। भले ही इस प्रवृति पर अंकुश लगाने के काम को कोई नियन्ता संस्था अपने हाथ में ले या वरिष्ठ एवं अनुभवी मीडिया कर्मियों का कोई ग्रुप सामने आए, यह अभियान अब जरूर चलना चाहिए कि मीडिया में घुसी विकृतियों का शमन हो, और उसमें सकारात्मकता हो, सृजनात्मकता हो, सांस्कृतिक पहचान हो, कलात्मकता हो, राष्ट्रीयता का बोध हो, सामाजिक सरोकार हो, सम्मान हो, समृद्धि हो और उसके बाद हो स्पर्धा। यह सब कुछ हो मगर इसके निर्धारण के लिए आत्मसमझ का विकास होना पहली जरुरत है। पत्रकारिता एवं मीडिया के विकास को क्रमिक तौर पर देखें तो पत्रकारिता प्रगति भी कर रही है। यह पत्रकारिता और पत्रकारों के उत्थान का, उसके सम्मान का और उसके विस्तार का दौर है। बेशक पत्रकार का जीवन स्तर उच्चता की ओर बढ़ा है, उसके जीवन में आर्थिक समृद्धि आई है, उसका राजनीतिक हलकों और नौकरशाही में प्रभाव और रुतबा बढ़ा है। मगर इसके अनुपात में मीडिया संस्थान बेहिसाब समृद्ध और ताकतवर बने हैं। अब वह जमाना चला गया, जब संपादक सहित सभी पत्रकार चना-चबैना खाकर पत्रकारी धर्म निभाया करते थे। अब किसी को भी वेतन भत्तों के लाले नहीं हैं। उसकी अब राजनीतिक हलकों और प्रशासनिक तंत्र में इतनी घुसपैठ और रुआब है कि वह किसी अपराधी को भी जेल से छुड़ा सकता है, लाइसेंस, पट्टा, परमिट-कोटा और सोना उगलती खानों का आवंटन करा सकता है। मगर तस्वीर का एक पहलू यह भी है कि मीडिया की विश्वसनीयता का क्षरण हुआ है। अब वह उद्योग बन, उद्योगपति का विजिटिंग कार्ड सा बन गया है। उसमें जन-मानस का दर्द नहीं है, सांस्कृतिक पहचान की झलक नहीं है, उसमें राष्ट्रबोध भी नहीं है। अब यह भी पता नहीं चलता कि ‘पेड न्यूज’ कौन सी है और ‘न्यूज’ कौन सी? पत्रकारिता अब प्रतिमान गढ़ने लगी है, खबरें बुनने लगी है। नतीजन उसकी विश्वसनीयता और मान में गिरावट आई है। बेशक पत्रकारिता एक दुरूह, जटिल, मनोवैज्ञानिक और जीवन कौशल की विधा है। बावजूद इसके यह निर्विवाद है कि पत्रकारिता में समृद्धि बढ़ी है। बाजार मूल्यों के अनुसार उसे पारिश्रमिक सुविधा हासिल है। भले ही इसकी संख्या कम हो, संस्थान भी कम हो लेकिन बदलते सामाजिक और व्यवासायिक मूल्यों के अनुरूप आज पत्रकार शान से जी सकता है। एक अंतर्राष्ट्रीय सर्वे में बताया गया है कि हमारे यहां मीडिया की विश्वसनीयता में 62 फीसदी तक कमी आई है। कारण स्पष्ट है कि इस कमी के पीछे पत्रकारिता के बाजारीकरण और गला काट स्पर्धा का प्रमुख हाथ है। क्या इससे यह नहीं लगता कि सब कुछ बाजारू सा हो गया है? आज माडिया का मानवीय पक्ष गायब है। दर्शकों, पाठकों या ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए तनाव और सनसनी का सृजन प्रारंभ हो गया है, जिससे पत्रकारिता की आत्मा का हनन होता चला गया है। इस दिशा में चिन्तन की दिशा निर्धारित करनी ही होगी।

rajnish manga
13-02-2013, 09:57 PM
तय करनी ही होगी चिन्तन की दिशा

..... संपादक सहित सभी पत्रकार चना-चबैना खाकर पत्रकारी धर्म निभाया करते थे। अब किसी को भी वेतन भत्तों के लाले नहीं हैं। उसकी अब राजनीतिक हलकों और प्रशासनिक तंत्र में इतनी घुसपैठ और रुआब है कि वह किसी अपराधी को भी जेल से छुड़ा सकता है, लाइसेंस, पट्टा, परमिट-कोटा और सोना उगलती खानों का आवंटन करा सकता है। मगर तस्वीर का एक पहलू यह भी है कि मीडिया की विश्वसनीयता का क्षरण हुआ है।....

एक अंतर्राष्ट्रीय सर्वे में बताया गया है कि हमारे यहां मीडिया की विश्वसनीयता में 62 फीसदी तक कमी आई है। ..... तनाव और सनसनी का सृजन प्रारंभ हो गया है, जिससे पत्रकारिता की आत्मा का हनन होता चला गया है। इस दिशा में चिन्तन की दिशा निर्धारित करनी ही होगी।

:bravo:

बहुत अच्छे, अलैक जी. लोकतंत्र के चौथे खम्बे के रूप में आज आये बदलाव के फलस्वरूप पत्रकारिता से जुड़े व्यक्तियों, चाहे वे संस्थानों के स्वामी हों अथवा मसीजीवी पत्रकार, के जीवन में आर्थिक सम्पन्नता एवं रुतबा-बुलंदी दोनों ही आये हैं. यह ओवरड्यू था चाहे इसमें चना चबेना खाने वालों का खून-पसीना भी परोक्ष रूप से सहयोगी था.
हाँ, विश्वसनीयता का जहाँ तक सवाल है, यह जरूर बड़ी चिंता का विषय है. जैसा कि स्पष्ट है यह बीमारी सिर्फ हमारे यहाँ ही नहीं बल्कि वैश्विक स्तर पर नासूर बनती जा रही है. इसका इलाज भी चौथे स्तम्भ को ही खोजना होगा वरना काटजू साहब तो पहले ही प्रेस से जुड़े समुदाय को अपने तरीके से परिभाषित कर चुके है.

Dark Saint Alaick
17-02-2013, 12:56 AM
भरोसा न तोड़ दे होड़ की हाबड़तोड़

इन दिनों जिस तरह से देश का इलेक्ट्रोनिक मीडिया हर घटनाक्रम में मीनमेख निकालने की होड़ में जुटा है, वह पत्रकारिता जगत के लिए स्वास्थ्यवर्धक तो किसी भी कोण से नहीं माना जा सकता, ऊपर से हर खबर में अव्वल रहने की होड़ ने ऐसी हाबड़तोड़ मचा रखी है कि न तो तथ्यों पर गौर किया जा रहा है और न ही यह सोचा जा रहा है कि दर्शकों पर इस तरह के ऊटपटांग तथ्यों का असर क्या पड़ने वाला है। हाल के दो घटनाक्रमों ने इलेक्ट्रोनिक मीडिया में ‘सबसे तेज’ की होड़ ने ऐसी पोल खोली कि टेलीवजन का आम दर्शक यही सोचता रहा कि किसे सही माना जाए और किसे नहीं। पहला वाकया दिल्ली की तिहाड़ जेल में अफजल की फांसी को लेकर सामने आया। शनिवार नौ फरवरी को सुबह करीब सात बजकर पचास मिनट पर अचानक एक समाचार चैनल ने अपना निर्धारित कार्यक्रम रोक कर 'ब्रेकिंग न्यूज’ दी कि अफजल गुरू को तिहाड़ में फांसी दे दी गई है। बस, फिर क्या था, पूरा इलेक्ट्रोनिक मीडिया इस खबर पर टूट पड़ा और दावे शुरू हो गए कि ‘सबसे पहले हमने’ इस खबर को अपने दर्शकों तक पहुंचाया है। उनके दावों से तो ऐसा लग रहा था मानो हर चैनल का अपना रिपोर्टर उस जगह खड़ा है, जहां अफजल को फांसी दी गई है। हां, इसमें कोई दो राय नहीं कि जो खबर दी जा रही थी, उसकी गंभीरता पर तो चैनल संजीदा थे, लेकिन जिस हड़बड़ी में उसे प्रस्तुत किया जा रहा था, उससे लगा कि कहीं कोई चूक न हो जाए और वो हो गई। एक चैनल ने ‘तेजी’ के चक्कर में बता दिया कि फांसी सुबह करीब साढ़े सात बजे दी गई, जबकि केन्द्रीय गृहमंत्री ने दस बजे अपनी आधिकारिक घोषणा में फांसी का समय सुबह आठ बजे बताया। इस तरह तथ्य से भटकना या भटकाना कोई अच्छा संकेत नहीं है। दूसरी खबर इलाहाबाद में कुंभ यात्रियों की भगदड़ से जुड़ी है। रविवार रात अचानक एक चैनल ने ‘सबसे पहले’ के चक्कर में ब्रेकिंग न्यूज दी कि कुंभ मेले में भगदड़ में कुछ लोगों के मरने की खबर आ रही है। एक दूसरे चैनल ने भी वही ब्रेकिंग न्यूज दी कि इलाबाहाबाद स्टेशन पर भगदड़ में कई कुंभ यात्री मारे गए हैं यानी शुरूआती दोनों ब्रेकिंग न्यूज से शंका पैदा हो गई कि भगदड़ कुंभ मेले में मची या इलाहाबाद स्टेशन पर। करीब दस मिनट बाद जाकर पहले वाले चैनल ने सही राह पकड़ी और बताया कि भगदड़ स्टेशन पर मची है, न कि कुंभ मेले में अर्थात ‘सबसे तेज’ के चक्कर में तथ्य के साथ जिस तरह से खिलवाड़ किया गया, वह उचित नहीं कहा जा सकता। दोनों घटनाक्रम बड़े थे, लेकिन उन्हें लेकर जो जल्दबाजी दिखाई गई, वह साबित करती है कि मीडिया के कामकाज के स्तर में कहीं न कहीं गिरावट आती जा रही है। महज चंद पलों की देरी से कोई पहाड़ नहीं टूट जाएगा या उस चैनल की विश्वसनीयता पर कोई बड़ी आंच नहीं आएगी, लेकिन इलेक्ट्रोनिक मीडिया यह क्यों नही समझ पाता कि जल्दबाजी में तथ्यों से खिलवाड़ उसकी विश्वसनीयता को जरूर कम कर सकता है। इससे जुड़े लोगों को इस पर गौर करना चाहिए और बेवजह की दौड़ से बचना चाहिए।

Dark Saint Alaick
17-02-2013, 12:53 PM
छत्तीसगढ़ में बाघों की घटती आबादी

छत्तीसगढ़ में बाघों की संख्या लगातार कम होती जा रही है और राज्य सरकार को लगता है इसकी कोई फिक्र ही नहीं है। यही नहीं, बाघों के लिए रहने का इलाका भी अतिक्रमणों के चलते कम हो रहा है और राज्य प्रशासन इसकी भी लगातार अनदेखी कर रहा है। कुछ समय पहले उच्च न्यायालय ने भी बाघों की गिरती संख्या पर चिंता जताई और यहां तक टिप्पणी की कि आने वाली पीढ़ियां बाघ देख पाएंगी या नहीं? न्यायालय ने नेशनल बाघ कंजर्वेशन अथॉरिटी से भी इस बाबत जवाब-तलब किया था। ताज्जुब तो इस बात का है कि बाघों के संरक्षण के लिए मुख्यमंत्री और वनमंत्री की अध्यक्षता में समितियां भी बनी हुई हैं, लेकिन सरकार के पास संभवतः फुर्सत नहीं है। पांच साल में इन समितियों की एक भी बैठक नहीं हुई। यहां तक कि फील्ड डायरेक्टर भी नियमित रूप से बैठक नहीं ले रहे हैं। छत्तीसगढ़ में तीन टाइगर रिजर्व हैं, जिनमें बाघों की संख्या 22 से 28 के बीच बताई जाती है, जबकि पहले अकेले अचानकमार टाइगर रिजर्व में ही 28 बाघ थे। नेशनल टाइगर कंजर्वेशन अथॉरिटी की रिपोर्ट के मुताबिक पिछले छह साल में बाघों का रहवास क्षेत्र बढ़ने के बजाय सौ वर्ग किमी तक घट गया है। पहले 3609 वर्ग किमी रहवास क्षेत्र था, जो अब घटकर 3514 वर्ग किमी हो गया है। इसके बावजूद राज्य का वन अमला बाघ संरक्षण के प्रति संवेदनशील नहीं है। जानकार तो यह भी मानते हैं कि बाघों के रहवास इलाकों में भी अतिक्रमण बढ़ते जा रहे हैं, जिसके चलते बाघों को परेशानी भी बढ़ रही है। या तो उनकी मौत हो रही है या फिर आसपास के आवासीय इलाकों में घुस रहे हैं। यही वजह है कि तीन साल के भीतर तीन बाघों की मौत हो चुकी है। टाइगर्स रिजर्व इलाकों में बाघों की सुरक्षा में भी कोताही बरती जा रही है। रिजर्व इलाकों में सुरक्षा के लिए करीब सवा चार सौ सुरक्षाकर्मी में से केवल दो सौ ही कार्यरत हैं। राज्य सरकार को इस तरह की लापरवाही पर गौर कर उचित कदम उठाने चाहिए।

Dark Saint Alaick
17-02-2013, 01:09 PM
एटमी परीक्षण पर भारत की चिंता

उत्तर कोरिया द्वारा एटमी परीक्षण किए जाने पर भारत ने जो चिंता व्यक्त की है वह मौजूदा समय को देखते हुए जायज कही जा सकती है। भारत ने कहा कि उत्तर कोरिया को अपनी अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धता का उल्लंघन करने वाले ऐसे कदम से परहेज करना चाहिए था जिससे क्षेत्र में शांति और अस्थिरता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़े। खास बात तो यह है कि उत्तर कोरिया का खास मित्र देश चीन और वैश्विक शक्तियां भी इस कदम से हैरान है क्योंकि उसने इस सम्बंध में अपनी अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं का उल्लंघन करते हुए यह कदम उठाया है। परीक्षण से तीन घंटे पहले भूगर्भ विशेषज्ञों ने चीन की सीमा के समीप एक तेज असामान्य झटके का पता भी लगा लिया था। इस भूमिगत परीक्षण की संयुक्त राष्ट्र ने भी कड़ी निंदा करते हुए इसे ‘भर्त्सनीय’ बताया और कहा कि यह सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों का स्पष्ट उल्लंघन है। दरअसल उत्तर कोरिया ने जो एटमी परीक्षण किया है उससे इस आशंंका की पुष्टि होती है कि वह बैलिस्टिक मिसाइल में परमाणु आयुध लगाने की दिशा में एक कदम और आगे बढ़ गया है। यह उत्तर कोरिया का यह तीसरा एटमी परीक्षण है। इससे पहले वह वर्ष 2006 और वर्ष 2009 में परमाणु परीक्षण कर चुका है। इन परीक्षणों के बाद उस पर संयुक्त राष्ट्र ने कई प्रतिबंध भी लगाए थे। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने कई बार चेतावनी भी दी लेकिन उत्तर कोरिया उच्च स्तरीय परमाणु परीक्षण करने की धमकी देता रहा है, जिससे यह साबित हो रहा है कि वह पूरी तरह मानमानी पर उतर आया है। इसको ध्यान में रखकर कर ही भारत ने जो चिंताएं जताई हैं वह सामयिक है, क्योंकि इससे तनाव और बढ़ेगा तथा क्षेत्रीय पड़ोसियों, चीन, जापान और दक्षिण कोरिया के लिए भी इसको लेकर समस्या पैदा होने की संभावना बढ़ जाएगी जो आने वाले समय के लिए काफी चिंताजनक हो सकती है। भारत समेत सभी देशों को मिलकर इस सम्बंध में विचार कर ऐसी नीति बनानी चाहिए जिससे तनाव के हालात पैदा न हों।

Dark Saint Alaick
17-02-2013, 10:17 PM
संसद में बहस की गंभीरता जरूरी

संसद में पिछले कुछ समय से विपक्ष द्वारा संसद की कार्यवाही को बार-बार स्थगित किए जाने के परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने जो चिंता जताई है वह काफी संजीदा है और विपक्षी दलों को इस चिंता पर विचार करना चाहिए। राष्ट्रपति बनने से पहले लोकसभा के नेता रहे मुखर्जी सरकार की तरफ से ऐसे गतिरोध को दूर करने में प्रमुख भूमिका निभाते रहे हैं और हाल ही में राष्ट्रपति भवन में आयोजित एनकेपी साल्वे स्मारक व्याख्यान में उन्होने अपने इसी अनुभवों को बांटा भी। संसद एवं राज्य विधानसभाओं की कार्यवाही में बार-बार बाधाएं डाले जाने की प्रवृत्ति इन दिनो काफी बढ़ गई है । दरअसल ये व्यवधान ऐेसे मामूली मुद्दों को लेकर होता है जिनका समाधान किया जा सकता है लेकिन सदस्य, खासकर विपक्षी सदस्य जो हंगामा करते हैं वह उचित नहीं कहा जा सकता। राष्ट्रपति ने भी माना कि अधिकतर समय विवाद इस बात पर होता है कि किसी मुद्दे पर संसद के किस नियम के तहत चर्चा हो। उन्होंने कहा कि अधिकतर अवसरों पर संसद के किसी भी सदन में विपक्ष के नेता इस आधार पर आपत्ति करते हैं कि किस नियम के तहत चर्चा हो। संविधान निर्माताओं ने भी यह नहीं सोचा था कि संसद में इस तरह की बाधा आने वाले समय में ‘प्रचलन’ बन जाएंगी। सभी को मिलकर इस पर विचार करना चाहिए और इन विकृतियों को दूर किया जाना चाहिए। इन बाधाओं के कारण वित्तीय मामलों पर सदन में चर्चा करने की शक्ति का भी पूरा उपयोग नहीं हो पाता है। राष्ट्रपति ने भी माना कि पहले संसद में पंचवर्षीय योजना पर विस्तार से चर्चा होती थी लेकिन मुझे याद नहीं है कि आठवीं, नौवीं और दसवीं योजनाओं पर सदन में चर्चा हुई। यह वास्तव में एक विचारणीय प्रश्न है कि अगर विपक्ष गंभीर विषयों पर भी सदन में चर्चा के लिए गंभीरता नहीं दिखाएगा तो सदन के मायने ही क्या रह जाएंगे। सभी दलों को राष्ट्रपति की चिंता को समझ कर इस समस्या के समाधान में ठोस पहल करनी चाहिए।

Dark Saint Alaick
18-02-2013, 11:41 PM
सरकार की नीतियों से उद्योग जगत आशावान

सरकार की नीतियों को लेकर भारतीय उद्योग जगत काफी आशावान दिखाई दे रहा है और उसका यह मानना है कि आगामी बजट में आर्थिक वृद्धि को प्रोत्साहन देने के सरकार के प्रस्तावित उपायों से आने वाले महीनों में कारोबारी धारणा सुधरेगी और कुल मिलाकर स्थितियां बेहतर होंगी। भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग महासंघ (फिक्की) को भी आगामी बजट से काफी उम्मीदें हैं। फिक्की ने इस वर्ष की पहली छमाही की अवधि में ज्यादा बिक्री और मुनाफे की संभावना भी जताई है। यह भारत की अर्थव्यवस्था के लिए अच्छे संकेत माने जा सकते हैं। भारतीय उद्योग जगत को नए बजट की प्रतीक्षा है। उसे पूरी उम्मीद है कि इसमें सरकार आर्थिक विकास को गति देने के अपने कदम को और तेजी से आगे ले जाएगी । अगर सरकार आर्थिक सुधारों को लागू करने के अपने प्रयास को तेज करेगी तो उसके अच्छे नतीजे सामने आएंगे। सरकार अपने प्रयासों में कितनी संजीदा है इसका पता इसी बात से लग जाता है कि उसने निवेश के लिए अलग से मंत्रिमंडलीय समिति के गठन भी किया है। उद्योग जगत का मानना है कि इससे पूंजी की कमी के कारण बीच में रुकी परियोजनाएं शुरू की जा सकेंगी तथा नई परियोजनाओ और निवेश का रास्ता खुलेगा। फिक्की और पीएचडी चैंबर द्वारा अलग-अलग कराए गए सर्वेक्षण में ज्यादातर भारतीय कंपनियों ने कहा कि औद्योगिक घरानों के बीच सकारात्मक सोच है और उन्हें कारोबारी स्थितियां बेहतर होने की उम्मीद है। दोनों ही सर्वेक्षण में रिजर्व बैंक के नीतिगत दरों में कमी लाने के हाल के कदम को निवेशक धारणा में सुधार के अनुकूल बताया गया और उम्मीद जताई गई कि इससे निकट भविष्य में निवेश बढ़ेगा। कहा जा सकता है कि बेहतर नीतियों वाला परिवेश उपलब्ध कराने और निवेशकों को भरोसा दिलाने के लिए यह सबसे अच्छा मौका है। सरकार इसमें अभी और प्रयास करेगी।

Dark Saint Alaick
24-02-2013, 01:20 AM
सार्थकता तो सिद्ध करनी ही होगी

कहा तो यही जाता है कि मीडिया सच को सामने लाने का सबसे बड़ा माध्यम है, लेकिन कई बार ऐसा लगता है कि मीडिया कुछ बड़ी घटनाओं तक या तो पहुंच नहीं पाता या किसी वजह से उसे नजरअंदाज कर देता है, जबकि कई बार ऐसा लगता है कि प्रायोजित घटनाएं खबर बन कर सामने आ जाती हैं। हाल ही में एक ऐसी जानकारी सामने आई जो दिल दहलाने वाली तो थी ही, परम्परा के नाम पर लोगों में भ्रम भी पैदा करती है, लेकिन न जाने क्यों मीडिया ने इस खबर को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया। गुजरात में कुछ दिनों पहले चालीस आदिवासियों को खौलते तेल में हाथ डालकर अग्निपरीक्षा देने के लिए विवश किया गया और इस दुष्कृत्य की मीडिया ने खबर बनाने के बजाय अनदेखी कर दी, जबकि अग्निपरीक्षा जैसी धूर्त चालों के जरिए लोगों को मूर्ख बनाने वालों के षड़यन्त्र को मीडिया द्वारा प्रमुखता से विश्व के समक्ष उजागर करना चाहिए था। सवाल तो यह भी उठना चाहिए कि जब सती प्रथा जैसी अवैज्ञानिक और अमानवीय कुप्रथा को प्रतिबन्धित करके, इसका महिमामंडन प्रतिबन्धित और अपराध घोषित किया जा चुका है, तो किसी भी प्रकार से अग्निपरीक्षा जैसी अमानवीय और नृशंस क्रूरता की कपोल-कल्पित कहानियों के बूते भ्रम पैदा करने वालो को क्यों रोका नहीं जा रहा है? इनके चलते ही लोगों के अवचेतन मन में ऐसे अमानवीय और क्रूर विचार पनपते हैं। दुर्भाग्य यह है कि मीडिया भी इस पर पुरजोर तरीके से आवाज नहीं उठाता। एक और उदाहरण हाल ही में इलाहाबाद में कुम्भ के दौरान हुए हादसे में कई दर्जन निर्दोष लोगों की जान चली जाने का है। इसमें भी मीडिया एक राय नजर ही नहीं आया। कोई राज्य सरकार को जिम्मेदार ठहरा रहा था, तो कोई रेलवे मंत्रालय को। लेकिन इस तरह के हादसे न हों, इस पर मीडिया की तरफ से कोई सुझाव या कवरेज दिखाई ही नहीं पड़ी। अब तो सभी उसे भूल ही गए हैं। फिर कोई हादसा होगा, तो कुछेक दिन मीडिया उसे भुनाएगा और फिर भूल जाएगा। दरअसल लोकतंत्र में मीडिया वो सशक्त माध्यम होता है, जो हर विषय पर लोगों को जागरुक बनाए। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में तो मीडिया की जिम्मेदारी और भी अहम हो जाती है। इस समय तो बस यह लग रहा है कि मीडिया केवल वहीं अपनी रूचि दिखाता है, जहां से उसको व्यावसायिक हित नजर आता है। शायद यही वजह है कि अब इस क्षेत्र में काम करने वालों में विषय की गंभीरता भी नजर नहीं आती। हाल ही में हैदराबाद में दो धमाकों में कई लोगों ने अपनी जान गंवा दी। शाम सात बजे घटना हुई और इलेक्ट्रोनिक मीडिया टूट पड़ा कवरेज के लिए। तभी एक चैनल पर समाचार प्रस्तुत कर रही एंकर ने घटना की गंभीरता से इतर जाते हुए कहा - ‘अब तक सात लोगों की मौत की खबर है और मरने वालों का स्कोर बढ़ने की संभावना है...।’ गोया कि यह दर्दनाक हादसा नहीं किसी खेल की कमेंट्री चल रही हो। मीडिया से जुड़े लोगों को अब यह गौर करना ही होगा कि खबरों की प्रस्तुति खबर की गंभीरता को लेकर हो । जो खबर है, उस तक पहुंचा जाए और जो प्रायोजित है, उसे छोड़ा जाए, तभी मीडिया की मौजूदगी की सार्थकता सिद्ध होगी।

Dark Saint Alaick
28-02-2013, 02:57 AM
अंतरिक्ष जगत में एक और कामयाबी

भारतीय ध्रुवीय अंतरिक्ष यान पीएसएलवी ने सात उपग्रहों को सोमवार को कक्षा में सफलतापूर्वक स्थापित कर लगातार 22वें त्रुटिरहित प्रक्षेपण के साथ भारत ने अंतरिक्ष में अपना दबदबा और मजबूत कर लिया। यह ना केवल हमारे वैज्ञानिकों की बड़ी उपलब्धि है बल्कि इससे दुनिया में यह संदेश भी गया है कि विज्ञान के क्षेत्र में भारत किसी से कम नहीं। इसरो के अंतरिक्षयान पीएसएलवी-सी20 ने बेहद सटीक ढंग से उड़ान भरी और एकल अभियान में सभी सात उपग्रह - भारतीय-फ्रांसीसी समुद्र विज्ञान अध्ययन उपग्रह ‘सरल’ तथा छह विदेशी लघु एवं सूक्ष्म उपग्रहों को बिना किसी त्रुटि के कक्षा में स्थापित कर दिया। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी भी इस ऐतिहासिक क्षण का साक्षी बने। यह इसरो का 103वां अभियान था और इसने अंतरिक्ष में भारत के बढ़ते दबदबे को रेखांकित किया है। भारत 2008 में ही एक एकल अभियान में एक साथ 10 उपग्रहों को सफलतापूर्वक अंतरिक्ष में स्थापित कर चुका है। इससे अंतरिक्ष में भारत की क्षमताएं उजागर हुईं।अंतरिक्षयान पीएसएलवी-सी20 को शाम पांच बज कर 56 मिनट पर प्रक्षेपित किया जाना था, लेकिन अंतरिक्ष के मलबे से इसके टकराने की संभावनाओं से बचने के लिए पांच मिनट बाद प्रक्षेपित किया गया। प्रक्षेपण के करीब 18 मिनट बाद पीएसएलवी-सी 20 ने सबसे पहले 409 किलोग्राम के भारतीय-फ्रांंसीसी समुद्र विज्ञान अध्ययन उपग्रह ‘सरल’ को उसकी कक्षा में स्थापित किया। इसके बाद चार मिनट में एक के बाद बाद एक अन्य छह उपग्रहों को कक्षाओं में स्थापित दिया। सफल प्रक्षेपण और उपग्रहों के कक्षा में बिना किसी व्यवधान और खामी के स्थापित होने पर वैज्ञानिकों में खुशी की लहर दौडना स्वाभाविक है क्योंकि यह काम करके उन्होने भारत की श्रेष्ठता एक बार फिर साबित की है। इन विदेशी उपग्रहों के प्रक्षेपण से भारत ने व्यवसायिक प्रक्षेपण की अपनी क्षमताओं को और मजबूती से स्थापित कर दिया।

Dark Saint Alaick
03-03-2013, 11:29 PM
बंद करना होगा शब्दों से खिलवाड़

आधुनिकता के इस दौर में परिवर्तन की एक व्यापक बयार चल रही है। खान-पान, पहनावा, रहन-सहन, सोच-फिक्र, शिष्टाचार, पढ़ाई-लिखाई, रिश्ते-नाते, अच्छे-बुरे की परिभाषा सब बदल रहा है। जाहिर है पत्रकारिता जैसा जिम्मेदारी भरा पेशा भी इस परिवर्तन से अछूता नहीं है। परिवर्तन के इस दौर में तमाम क्षेत्रों में जहां सकारात्मक परिवर्तन देखे जा रहे हैं वहीं पत्रकारिता के क्षेत्र में आधुनिकता व सकारात्मकता के बावजूद कुछ ऐसे परिवर्तन दर्ज किए जा रहे हैं जो न केवल पत्रकारिता जैसे जिम्मेदाराना पेशे को रुसवा व बदनाम कर रहे हैं बल्कि हमारे देश के अदब, साहित्य तथा शिष्टाचार की प्राचीन रिवायत पर भी आघात पहुंचा रहे हैं। रेडियो तथा प्रारंभिक दौर के टेलीविजन की यदि हम बात करें तो हमें कुछ आवाजें ऐसी याद आएंगी जो शायद आज भी कानों में गूंजती होंगी। कमलेश्वर, देवकीनंदन पांडे, अशोक वाजपेयी, अमीन सयानी, जसदेव सिंह, जे.बी. रमन, शम्मी नारंग जैसे कार्यक्रम प्रस्तोता की आकर्षक, सुरीली, प्रभावशाली तथा दमदार आवाज। इनके बोलने में या कार्यक्रम के प्रस्तुतीकरण के अंदाज में न केवल प्रस्तुत की जाने वाली सामग्री के प्रति इनकी गहरी समझ व सूझबूझ होती थी, बल्कि इनके मुंह से निकलने वाले शब्द साहित्य व शब्दोच्चारण की कसौटी पर पूरी तरह खरे उतरते थे। होना भी ऐसा ही चाहिए, क्योंकि रेडियो व टीवी जैसे संचार माध्यमों का प्रस्तोता समाज पर, विशेषकर युवा पीढ़ी पर साहित्य सम्बंधी प्रभाव छोड़ता है। आज के युग की ग्लैमर भरी पत्रकारिता पर अगर हम नजर डालें तो आज टीवी के प्रस्तोता कार्यक्रम प्रस्तुतीकरण के अपने अंदाज, दिखावे तथा बात का बतंगड़ बनाने जैसी शैली पर अधिक विश्वास करते हैं। ऐसे में आज की पत्रकारिता ऐसे लोगों के हाथों में जाने से साहित्य व शिष्टता से दूर होती दिखाई देने लगी है। उनके बोलने के अंदाज व उच्चारण का साहित्य से दूर दूर तक रिश्ता नजर नहीं आता। जिम्मेदार पत्रकारों, कार्यक्रम प्रस्तोताओं व एंकर को यह भलीभांति ध्यान रखना चाहिए कि उनके मुंह से निकले हुए एक-एक शब्द व उनके अंदाज दर्शकों व श्रोताओं द्वारा ग्रहण किए जा रहे हैं। जो कुछ वे बोल रहे हैं या जिस अंदाज में उसे प्रस्तुत कर रहे हैं उसी को हमारा समाज साहित्य व शिष्टता के पैमानों पर तौलता है तथा उसकी मिसालें पेश करता है। ऐसे पत्रकार व कार्यक्रम प्रस्तोता साहित्य व उच्चारण की समझ रखने वाले लोगों की नजरों से तो गिरते ही हैं,अपने गलत उच्चारण व बेतुके प्रस्तुतीकरण से नई पीढ़ी पर भी अपना दुष्प्रभाव छोड़ते हैं। ऐसे लोगों को पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश से पहले अपना साहित्यिक ज्ञान जरूर बढ़ाना चाहिए। खासतौर पर शब्दोच्चारण के क्षेत्र में तो अवश्य पूरा नियंत्रण होना चाहिए। अन्यथा जिस प्रकार इन दिनो कई चैनल पर कार्यक्रम प्रस्तोता अपने गलत शब्दोच्चारण के चलते साहित्य से दूर होते जा रहे हैं,आने वाली युवा पीढ़ी को भी उससे वंचित कर रहे हैं। समाचार चैनल मालिकों की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वे प्रस्तोता के रूप में ऐसे लोगों का चयन करें जो शब्दों के साथ खिलवाड़ न करें क्योंकि यह खिलवाड़ उन्ही के चैनल पर भारी भी पड़ सकता है।

Dark Saint Alaick
06-04-2013, 09:27 AM
उत्तर कोरिया की धमकी बनी चिंता का सबब

संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने अमेरिका को लेकर उत्तर कोरिया से अपना रूख बदलने की जो सलाह दी है वह मून द्वारा उठाया गया एक सकारात्मक कदम है। उल्लेखनीय है कि उत्तर कोरिया ने अमरीका के खिलाफ परमाणु हमले की धमकी दी है। व्हाइट हाउस प्रवक्ता जे.कार्नी ने भी इन धमकियों को अफसोसजनक बताया है और कहा कि अमरीका इनसे निपटने के लिए सभी जरूरी कदम उठा रहा है। बान की मून ने भी कहा है कि परमाणु धमकियां कोई खेल नहीं हैं। ये बहुत ही गंभीर है और किसी भी गलत निर्णय के गंभीर परिणाम होंगे। दरअसल बढ़ते तनाव को देखते हुए यह आवश्यक है कि संकट से जुड़े सभी पक्षों को स्थिति को शांत करने और बातचीत शुरू करने के प्रयास करने चाहिए क्योंकि अगर भविष्य में यह तनाव और बढ़ता है तो यह पूरी दुनिया के लिए ही चिंता का कारण बन सकता है। दरअसल उत्तर कोरिया जिस तरह के कदम उठा रहा है वह भी इस तनाव को बढ़ाने में काफी मददगार हो रहा है। फरवरी में उत्तर कोरिया ने अपना तीसरा परमाणु परीक्षण किया जिसके बाद संयुक्त राष्ट्र ने उसके खिलाफ प्रतिबंध लगाए। उत्तर कोरिया ने औपचारिक रूप से सुरक्षा परिषद के नौ मार्च के उस प्रस्ताव को भी खारिज कर दिया है जिसमें उससे अपने परमाणु कार्यक्रम रोकने को कहा गया था। अमेरिका और दक्षिण कोरिया के साझा सैन्य अभ्यास ने भी उत्तर कोरिया की नाराजगी को बढ़ा दिया है। गुरुवार को पूर्वी तट पर उत्तर कोरिया द्वारा परमाणु मिसाइल मुसुदन तैनात करने के बाद पश्चिमी देशों में हड़कंप मचा है। खबर है कि तीन हजार किलोमीटर मारक क्षमता वाली इस मिसाइल की जद में जापान, दक्षिण कोरिया और अमेरिका भी आ रहा है। कुल मिलाकर बढ़ते तनाव को जितना जल्द हो कम या खत्म करना जरूरी है क्योंकि हालात अगर इसी तरह बने रहे या आने वाले समय में और भी खतरनाक रूप लेते हैं तो यह विश्व शांति के प्रयासों को बड़ा झटका होगा।

Dark Saint Alaick
15-04-2013, 12:47 AM
साथ होने के दिखावे का औचित्य क्या है?

भाजपा और जनता दल (यू) के बीच आखिर कैसी खिचड़ी पक रही है कि दोनो साथ भी रहना चाहते हैं और एक दूजे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने से भी नहीं चूकते। जनता दल (यू) प्रवक्ता केसी त्यागी ने एक नया आरोप भाजपा पर मढ़ा है। उनका कहना है कि पार्टी की कई प्रदेश इकाइयों ने शिकायत की है कि भाजपा उसके साथ गठबंधन धर्म नहीं निभा रही है। कर्नाटक, झारखंड, राजस्थान, महाराष्टñ आदि राज्यों के अध्यक्षों ने इस बात की शिकायत की कि भाजपा गठबंधन धर्म नहीं निभा रही है। भाजपा लगातार लोकसभा और विधानसभा चुनावों में जद(यू) को सीटें कम दे रही है तथा अपनी सीटें बढ़ा रही है। कर्नाटक तथा झारखंड मेें तो उसने गत चुनाव में जद (यू) के साथ गठबंधन भी नहीं किया। अब सवाल उठता है कि जब भाजपा गठबंधन धर्म नहीं निभा रही है तो जद(यू) उसके साथ बना हुआ क्यों है क्योंकि एक तरफ तो जद(यू) कह रहा है कि भाजपा गठबंधन धर्म नही निभा रही वहीं दूसरी तरफ यह भी कहता है कि पार्टी भाजपा से नाता नहीं तोड़ेगी बल्कि उसके साथ उसकी दोस्ती बनी रहेगी। यह दोस्ती कब तक चलेगी यह तो समय ही बताएगा लेकिन ऐसा लगता है कि जद (यू) जिस तरह से प्रधानमंत्री पद के लिए भाजपा से उसके उम्मीदवार का नाम बताने को कह रहा है,उसे शक है कि भाजपा इस मामले में भी गठबंधन का धर्म निभाएगी या नहीं। यह तो जग जाहिर है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के बीच छत्तीस का आंकड़ा है और रविवार को भी उन्होने परोक्ष तौर पर मोदी की तरफ इशारा करते हुए कहा कि जद(यू) उसी को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में मंजूर कर सकता है जिसकी छवि धर्मनिरपेक्ष हो। राजग के ये दल जिस तरह एक दूजे को शक की निगाहों से देख रहे हैं उससे तो इनके साथ होने के दिखावे का औचित्य ही समझ में नहीं आ रहा। कौन कब पल्ला झाड़ लेगा कुछ कहा नहीं जा सकता।

Dark Saint Alaick
19-04-2013, 01:14 AM
विदेशी निवेशकों को भारत पर भरोसा

केन्द्र सरकार की नीतियों के चलते जिस प्रकार देश की अर्थव्यवस्था मजबूत बनी हुई है उसी का नतीजा है कि भारत देश ही नहीं विदेशी निवेशकों को यह भरोसा दिला रहा है कि भारत में उनका निवेश पूरी तरह सुरक्षित है। निवेशकों को आकर्षित करने के लिए इस समय वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम अमेरिका के दौरे पर हैं और वहां भी वे कह चुके हैं कि भारत के पास निवेशकों को यह गारंटी देने की पूरी काबिलियत है कि उनके निवेश की सुरक्षा की जाएगी। जिस तरह से देश की अर्थव्यवस्थाएं तेजी से आगे बढ़ रही है,विदेशी निवेशकों को यह पूरा भरोसा होना चाहिए कि भारत में उनकी पूंजी सुरक्षित रहेगी और सरकारों की मर्जी का उन पर कोई असर नहीं होगा। हालाकि वित्त मंत्री भी यह मानते हैं कि हमारे देश के उभरते बाजार को अंतर्राष्ट्रीय निवेशकों के लिए रास्ते अभी और आसान करने होंगे ताकि उनके मन में यह भावना घर कर जाए कि उनकी पूंजी की अच्छी तरह सुरक्षा हो रही है। वित्त मंत्री का ऐसा कहना सही भी है क्योंकि अगर कानूनों में बदलाव से या सरकारों की मर्जी से निवेशकों की पूंजी पर कोई नकारात्मक असर पड़ता है तो वह क्यों निवेश करेंगे। किसी भी देश में निवेश की सुरक्षा की सबसे अच्छी गारंटी एक स्थिर और लोकतांत्रिक राजनीतिक ढांचा, कानून व्यवस्था में विश्वास और एक पारदर्शी तथा स्वतंत्र कानून प्रणाली होती है। भारत में यह तीनों हैं। पिछले करीब दस वर्षों से जिस तरह से संप्रग के नेतृत्व वाली सरकार ने देश की अर्थव्यवस्था को एक दिशा दी है उसको देखते हुए यह कहा जा सकता है कि इससे विदेशी निवेशकों का भरोसा तो भारत के प्रति बना ही है साथ ही वे यह भी मानते हैं कि कठिन हालातों में भी मौजूदा सरकार ने अर्थव्यवस्था को गति देने या उसे स्थिर रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। भारत ही नहीं पूरी दुनिया का यह मानना है कि आर्थिक शक्ति का केंद्र्र अब उभरते बाजारों की ओर खिसक रहा है और इसे देखते हुए नए बहुपक्षीय संगठनों की जरूरत है।

Dark Saint Alaick
23-04-2013, 10:15 PM
चीन की घुसपैठ गंभीर मामला

चीन रह-रह कर जिस तरह से उकसावे की कार्यवाही कर रहा है वह भारत के लिए चिंताजनक बात है लेकिन सरकार भी काफी सोच विचार कर कदम उठा रही है ताकि तनाव के कोई हालात पैदा ना हों। यही वजह है कि चीनी सेना के हाल में भारत में घुसपैठ से उपजे हालात में सुधार के उद्देश्य से दोनों देशों के सैन्य कमांडर फ्लैग मीटिंग कर रहे हैं। चीनी सेना ने 15 अप्रेल को भारतीय सीमा में प्रवेश के बाद लद्दाख में एक टैंट पोस्ट तैनात कर दी थी। चीनी सेना के भारत में दस किमी अंदर लद्दाख तक घुस आने की रिपोर्ट के बाद भारतीय सेना ने भी और सैनिकों को इस क्षेत्र में भेजा है। सेना की इन्फ्रेंट्री रेजीमेंट को लद्दाख के दौलत बेग ओलदी (डीबीओ) सेक्टर भेजा गया है। भारत-तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी) ने भी चीनी सेना द्वारा बनाई गई टेंट पोस्ट के पास ही एक टेंट पोस्ट भी बना ली है। भारत ने पिछले सप्ताह चीन के समक्ष यह मुद्दा उठाया भी था। चीनी राजदूत को साउथ ब्लॉक में तलब किया गया था। वहीं विदेश मंत्रालय में संयुक्त सचिव ने अपने बीजिंग में अपने समकक्ष से बात की थी। चीनी पक्ष का कहना था कि वे इस मामले को देखेंगे व जवाब देंगे। हालांकि बाद में चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता हुआ चुनियांग ने कहा था कि चीनी सेना दोनों देशों के बीच हुए समझौतों का पालन कर रही है तथा दोनों देशों के बीच तय सीमा शर्तों को मान रही है। याने इन हरकतों को देखते हुए यह तो कहा जा सकता है कि सीमा पर सब कुछ शांत नहीं है लेकिन दोनों देशों को प्रयास करना चाहिए कि तनाव किसी भी सूरत में पैदा नहीं हो क्योंकि एशिया के दो बड़े देशों के बीच तनाव का असर अर्थव्यवस्था समेत सभी क्षेत्रों पर पड़ता है। हालांकि सरकार नहीं चाहती कि यह मामला ज्यादा उछले लेकिन कहा जा रहा है कि सरकार चिंतित है क्योंकि मामला गंभीर व स्थिति तनावपूर्ण है। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि चीनी सेना भारतीय सीमा के अंदर घुसी है। चीनी सेना इससे पहले भी सीमा पार कर चुकी है।

Dark Saint Alaick
30-04-2013, 10:23 PM
कालेधन की समस्या पर नियंत्रण के आसार

भारत और अमेरिका के बीच एक ऐसा करार होने की तैयारी चल रही है जिसमें अमेरिकी नागरिकों द्वारा भारतीय बैंकों में जमा धन की जानकारी मिल सकेगी। करार के तहत भारत भी यह जान सकेगा कि अमेरिकी बैंकों में किन-किन भारतीयों का कितना धन जमा है। अगर यह करार हो जाता है तो काले धन की समस्या पर थोड़ा नियंत्रण जरूर लगेगा। अमेरिका इस मामले में अपने एक कानून के तहत भारत से एक करार करना चाहता है। भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) फिलहाल अमेरिका के इस अंतर सरकार करार (आईजीए) के मसौदे की जांच कर रहा है। वित्त मंत्रालय ने भी भारतीय रिजर्व बैंक से प्रस्तावित आईजीए पर उसके विचार और सुझाव मांगे हैं। सेबी, रिजर्व बैंक और अन्य अंशधारकों के सुझाव हासिल करने के बाद अंतिम आईजीए वित्त मंत्रालय द्वारा तैयार किया जाएगा। यह करार अगले वर्ष के प्रारंभ तक लागू हो जाएगा। करार लागू होने के बाद अमेरिकी कर विभाग और आंतरिक राजस्व सेवा को अमेरिकियों के विदेशों में खातों और अन्य संपत्तियों की जानकारी मिल सकेगी। भारत को भी अमेरिका इसी प्रकार की सहायता देगा। दरअसल जिस तरह से की काले धन को छिपा कर दूसरे देशों में जमा करने की प्रवृति जिस तरह से बढ़ती जा रही है उसको देखते हुए इस तरह के करार अब आवश्यकता बनते जा रहे हैं। दुनिया के तमाम बड़े देशों में यह समस्या बड़ा रूप लेती जा रही है। भारत भी इससे अछूता नहीं है। अक्सर आरोप लगते हैं कि बड़ी संख्या में भारतीयों ने काला धन स्विस बैंकों में जमा कर रखा है लेकिन किसी प्रकार की संधि न होने के कारण जमा धन का आंकड़ा भारत को नहीं मिल पाता है। काले धन को छिपाने का यह जरिया सभी के लिए सिरदर्द बनता जा रहा है। ऐसे में अगर भारत और अमेरिका के बीच यह करार हो जाता है तो अन्य देशों से भी इसी तरह के करार के रास्ते खुलेंगे और समस्या के समाधान की राह कुछ आसान होगी।

Dark Saint Alaick
24-05-2013, 12:32 AM
अव्वल की होड़ में भरोसा खोता मीडिया

पिछले कई दिनों से एक खबर काफी सुर्खियों में छाई हुई है। फटाफट क्रिकेट यानी ट्वन्टी-ट्वन्टी के ग्लैमरस संस्करण आईपीएल में खेल रहे तीन खिलाड़ी स्पॉट फिक्सिंग में ऐसे पकड़े गए कि पूरे क्रिकेट जगत में हंगामा खड़ा हो गया। अब खबर है तो मीडिया को तो सक्रिय होना ही था। 16 मई को सुबह एक चैनल ने सबसे पहले एक समाचार ऐजेंसी के हवाले से खबर को ब्रेकिंग न्यूज के रूप में जारी किया कि तीन खिलाड़ी स्पॉट फिक्सिंग के चक्कर में पुलिस ने गिरफ्तार किए हैं। बस फिर क्या था, जिस चैनल पर देखो, यही खबर शुरू हो गई। अब इसमें देखा जाए तो नया कुछ नहीं था। एक बड़ी खबर थी और उसे सभी चैनल्स को दिखाना ही तो था। लेकिन यहीं से शुरू हो गया होड़ लेने का सिलसिला और हड़बड़ी में खबर क्या है और उसके वास्तविक तथ्य क्या हैं ये किसी भी चैनल ने शायद जानने की कोशिश ही नहीं की। एक चैनल ने खबर दी कि तीनो खिलाड़ियों को मुंबई के एक होटल से पकड़ा गया है तो एक अन्य चैनल ने अपने मुंबई संवाददाता को लाईव दिखाते हुए खबर दी कि केवल दो को ही पकड़ा गया है। संवाददाता ने अपने मोबाइल पर उसके सूत्र से मिला एसएमएस भी दिखाया और दावा किया कि हमारे सूत्र सही कह रहे हैं कि केवल दो ही खिलाड़ी पकड़े गए हैं। जब स्टूडियो में बैठे एंकर ने कहा कि ऐसी खबरें आ रहीं हैं कि तीन खिलाड़ी पकड़े गए हैं तो संवाददाता ने कहा कि हमारा चैनल सही है। दो ही खिलाड़ी पकड़े गए है। बाद में पिक्चर पूरी तरह साफ हुई और यही सामने आया कि तीन खिलाड़ियों को पकड़ा गया है। अब सवाल तो यह उठता है कि मीडिया इस तरह की खबरों में हड़बड़ी क्यों दिखाता है? जब तक खबर पुख्ता और तथ्यों पर आधारित न हो, जितनी जानकारी हो उतनी ही प्रसारित की जानी चाहिए। लेकिन इन दिनों जिस तरह से समाचार चैनलों के बीच फटाफट और सबसे पहले खबरें दिखाने की जो होड़ चल रही है उसमें वे ना केवल वे दर्शकों का भरोसा तोड़ रहे हैं बल्कि पत्रकारिता के मान्य सिद्धांतों की भी पूरी तरह बलि चढ़ा रहे हैं। आरंभिक खबरों में बिना पुष्टि के यह भी कहा गया था कि तीनो को एक होटल से पकड़ा गया है जबकि गिरफ्तार करने वाली दिल्ली पुलिस के आयुक्त ने शाम को संवाददाता सम्मेलन में कहा था कि तीनो को अलग अलग जगहों से पकड़ा गया है। कुल मिलाकर इससे यह बात साफ हो जाती है कि इन दिनो मीडिया पर संजीदा न होने का जो दोष मढ़ा जा रहा है वह काफी हद तक सहीं साबित हो रहा है। एक समय था जब मीडिया तथ्यों की पूरी छानबीन के बाद ही समाचार दिया करता था और अगर गलती से खबर सही नहीं होती थी तो बाकायदा उसके लिए क्षमा भी मांगी जाती थी लेकिन अब तो ऐसा देखने में भी नहीं आता। मीडिया से जुड़े लोगों , खास कर वरिष्ठ मीडिया कर्मियों का यह फर्ज बन जाता है कि वे इस तरह की हो रही घोर लापरवाहियों को लेकर अब संजीदा हों क्योंकि मीडिया की विश्वसनीयता पहली जरूरत है जो अब धीरे-धीरे गायब होती जा रही है। हड़बड़ी या अव्वल रहने की हौड़ में कहीं ऐसा न हो कि मीडिया जो बची हुई विश्वसनीयता है वह भी खो दे।

dipu
18-08-2013, 10:06 AM
thanks for updates

Dark Saint Alaick
04-06-2015, 09:59 PM
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बारे में - 1

देश का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अज़ब चीज़ है, विशेषकर ख़बरिया चैनल। किसी ने कुछ कहा, ये फ़ौरन उस पर एक तमगा चस्पां कर देंगे - विवादित। मेरे मन में सवाल अक्सर उठता है - हुज़ूरे-आला, आपका काम सूचना पहुंचाना है या तमगे बांटना ? चार खम्भों में से एक खम्भा आपको सौंपा गया था और आपने तो स्वयं चारों खम्भे हथिया लिए हैं।
एक चैनल के कार्यक्रम का ही नाम है 'थर्ड डिग्री', मानो आप टीवी स्टूडियो में नहीं हिटलर के किसी प्रताड़ना शिविर में सादर आमंत्रित किए गए हों। काफी समय पहले की बात है, इसी शो में एक बाबा का इंटरव्यू लेते तीन डिग्रीधारियों को देखा। शायद जवाब देते थक चुके बाबा ने कहा - मैं आपसे एक सवाल पूछूं।
एक डिग्रीधारी फ़ौरन बोली - नहीं, यहां सवाल हम पूछते हैं। आप नहीं पूछ सकते।
मैंने मन में सोचा - वाह, जनाबे-आला ! इस पर तुर्रा यह कि हम लोकतंत्र में रह रहे हैं। … और रिमोट का बटन दबा कर चैनल बदल लिया।
एक और वाकया याद आता है। देश में किसी को भगवान मानने - न मानने पर विवाद चल रहा था। एक धर्माचार्य ने उनके ख़िलाफ़ ऐलान कर दिया था। ज़ाहिर है, ऐसा मौक़ा कोई ख़बरिया चैनल गंवा दे, तो उसके पेट में अफ़ारा होने लगता है।
क्रोधी स्वभाव में ऋषि दुर्वासा से होड़ करती प्रतीत होती महिला कार्यक्रम प्रस्तोता थीं। उन्होंने शुरुआत में ही धर्माचार्य को ललकारा - वे कौन होते हैं, मुझे यह बताने वाले कि मैं किसकी पूजा करूं या नहीं करूं। उन्हें 'उनके' इतने सारे अनुयायियों की भावनाओं की भी परवाह नहीं है।
मैंने अक्सर देखा है कि इडियट बॉक्स के ऐसे बहस-मुबाहिसों में आने वाले या तो दबाव में आ जाते हैं या उनके विचारों को कटी पतंग बना दिया जाता है। मेरे मन में प्रश्न उठा कि अगर ऐसा नहीं है, तो 'लेडी दुर्वासा' से किसी ने यह पूछने की हिमाकत क्यों नहीं की कि 'मोहतरमा, किसी परम्परा पर टिप्पणी करने से पहले उसके महत्त्व के विषय में अवश्य मालूमात और उस पर विचार कर लेना चाहिए। फिर, जो आरोप आप 'उधर' लगा रही हैं, वही कार्य यानी भावनाएं आहत करने का, क्या आप स्वयं नहीं कर रहीं ? ख़ैर, मैं तो स्टूडियो में था नहीं, तो कुछ और देख लेने के सिवा कर भी क्या सकता था ?
ताज़ा उदाहरण है 'अय भौं पू' चैनल का। मुझे लगता है कि इसके कारनामे तो कभी न कभी इतिहास की अमर पुस्तक में स्वर्णाक्षरों में दर्ज़ किए जाएंगे। यह सब मैंने इसलिए लिखा कि इस चैनल पर एक समाचार देखा। शपथ लेने वाले मंत्री के एक बयान को यह चैनल बेतुका बता रहा था।
मसला यह था - छत्तीसगढ़ के एक विधायक महोदय ने सूट-बूट पहन कर मंत्री पद की शपथ ग्रहण की। इस पर अपनी आदत से मज़बूर कांग्रेस ने सवाल उठाए।
मीडिया ने प्रतिक्रिया पूछी, तो नए-नवेले मंत्री महोदय ने जवाब दिया - ये सामान्य कपड़े हैं। ये नहीं पहनूं, तो क्या नंगा होकर शपथ ग्रहण करूं ?
अब आप खुद सोचिए - यह जवाब बेतुका है अथवा शपथ लेने वाले के कपड़ों पर उठाए गए सवाल ? क्या यह इतिहास का पहला अवसर था, जब किसी ने सूट पहन कर शपथ ग्रहण की ? नहीं, तो इस ख़बरिया चैनल ने उस पर सवाल उठाने वालों से क्यों नहीं पूछा कि आप ऐसा बेतुका मुद्दा क्यों छेड़ रहे हैं ? और नहीं पूछा, तो स्वयं न्यायाधीश बन जाने की जल्दबाज़ी क्यों की ? आप सूचना देते, फैसला जनता को करने देते कि बेतुका सवाल था या जवाब ?
आप क्या सोचते हैं ?

Dark Saint Alaick
04-06-2015, 10:04 PM
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बारे में - 2

चैनल और बीमारी डिवेट की

इंडियन चैनल्स को डिवेट की बीमारी है। गाहे-ब-गाहे जरूरी नहीं होने पर भी वे डिवेट पर सन्नद्ध नज़र आते हैं। किन्तु हमें तकलीफ डिवेट से नहीं है। खूब करें-कराएं। तकलीफ़ तब होती है, जब एंकर शुरुआत में ही अपने चैनल के मंतव्य का संकेत अपने वक्तव्य में दे देता है और उस लाइन से हट कर बोलने वालों पर या तो व्यंग्यपूर्ण मुस्कान की बारिश करता है (संभवतः मन ही मन यह कहते हुए - अगली बार आपको बुलाना संभव नहीं है) अथवा बोलने से ही रोक कर मनपसंद वक्तव्य प्रदाता को एक सुदीर्घ भाषण की छूट दे देता है।
एक उदाहरण देता हूं। 'सबसे धीमे' चैनल पर भूमि अधिग्रहण बिल पर बहस का कार्यक्रम था। एंकर थे 'बहुत ही क्रांतिकारी' जर्नलिस्ट। कांग्रेस की तरफ से श्री दिग्विजय सिंह और बीजेपी की ओर से श्री नितिन गडकरी। शुरुआत दिग्गी बाबू ने की। शुरू हुए पंडित जवाहर लाल नेहरू से, उसके बाद इंदिराजी, राजीवजी ने ग़रीब और किसानों के लिए क्या-क्या किया, यह सब बताने के बाद समापन किया श्री राहुल गांधी इस वर्ग के कितने हितैषी हैं, इस पर। शुक्र है कि श्री नरसिम्हा राव, श्री मनमोहन सिंह आदि अपने प्रधानमंत्री उन्हें याद ही नहीं थे, अन्यथा वक्तव्य और लंबा होता।
अब बारी थी श्री गडकरी की। जैसे ही श्री गडकरी ने पंडित नेहरू की नीतियों पर सवाल खड़ा किया, 'बहुत ही क्रांतिकारी' जर्नलिस्ट फ़ौरन हस्तक्षेप कर बैठे - गडकरी जी, इतिहास में न जाएं। ऐसे तो हमारे सारे कार्यक्रम का समय इसी में निकल जाएगा।
क्या मेरी तरह आपके मन में भी सवाल उठता है - दिग्गी बाबू को इतिहास पुराण का वाचन करने की छूट किस बिना पर दी गई थी ? किन्तु स्मरण रखें, 'थर्ड डिग्री' में से एक डिग्री अपनी दाढ़ी में छुपाए ये सज्जन इस प्रश्न का जवाब देने के बजाय इसे प्रेस की स्वतंत्रता का हनन बता सकते हैं।
अब आगे चलिए, 'बहुत ही क्रांतिकारी' महाशय ने 2013 के बिल और वर्तमान एनडीए सरकार द्वारा किए गए संशोधनों की तुलना दिखानी शुरू की। पहली ही तुलना पर श्री गडकरी ने जोरदार प्रतिवाद किया। उन्होंने कहा - अरे, यह आप क्या दिखा रहे हैं? यह सब आप कहां से लाए हैं ? मेरे पास दोनों बिल हैं और उनमें यह सब कहीं नहीं है।
किन्तु 'बहुत ही क्रांतिकारी' जर्नलिस्ट पर कोई असर नहीं हुआ। वे बोले - अभी हमें दिखाने दीजिए। आप अपनी बात बाद में रखिएगा। .... और एक केन्द्रीय मंत्री की मौजूदगी में उन्होंने संदिग्ध अथवा कहूं, झूठे आंकड़े मज़े से दिखाए और केन्द्रीय मंत्री महोदय खीजते हुए देखते रहे। मैंने पूरा कार्यक्रम देखा, केन्द्रीय मंत्री महोदय को उन आंकड़ों पर सफाई का मौक़ा एक क्षण को भी नहीं दिया गया।
मेरे मन में सवाल उठता है - क्या यही वह पत्रकारिता है, जिसके लिए श्री गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे पत्रकारिता के लिए जीवन होम कर देने वाले लोगों के नाम पर हम कई पुरस्कार प्रति वर्ष उन लोगों को प्रदान करते हैं, जो इसके योग्य तो दूर, पासंग भी नहीं हैं। क्या सोचते हैं आप ?

rajnish manga
05-06-2015, 09:23 AM
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बारे में - 1

देश का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अज़ब चीज़ है, विशेषकर ख़बरिया चैनल। ....
......इस ख़बरिया चैनल ने उस पर सवाल उठाने वालों से क्यों नहीं पूछा कि आप ऐसा बेतुका मुद्दा क्यों छेड़ रहे हैं ? और नहीं पूछा, तो स्वयं न्यायाधीश बन जाने की जल्दबाज़ी क्यों की ? आप सूचना देते, फैसला जनता को करने देते कि बेतुका सवाल था या जवाब ?
आप क्या सोचते हैं ?

ख़ुश'आमदीद, अलैक जी. आपने जो परिदृश्य सामने रखा उसमे कोई अतिशयोक्ति नहीं है. आम तौर पर टीवी के एंकरगण पूर्वाग्रह से ग्रस्त नज़र आते हैं और बहस जैसे जैसे आगे बढ़ती है, इसका प्रमाण भी मिलता जाता है. नतीजा यह होता है कि वे जाने-अनजाने निर्णायक की भूमिका अख्तियार कर लेते हैं.

टीवी पर आज दर्जनों न्यूज़ चैनल अपने अपने ढंग से देश की समस्याओं का हल ढूँढने में व्यस्त नज़र आते हैं. बहुत से चैनल तो नयी समस्यायें ढूँढने और उनको परोसने में ही व्यस्त रहते हैं. किसी निष्कर्ष तक पहुँचने के लिये इनके पास सबसे सरल रास्ता होता है, बहस करवाने का. यहाँ पर यह हाल होता है कि प्रतिभागी एक दूसरे का गला पकड़ने को तैयार दिखाई देते हैं. अंत में थर्ड अंपायर की तरह सूत्रधार ही सारी बहस पर निर्णय सुना देता है.

पिछली महाशिवरात्रि के अवसर पर एक मुस्लिम विद्वान् (?) ने घोषणा कर दी कि हिन्दुओं के देवता शिव जी ही मुसलमानों के पैगम्बर हैं. फिर तो हर चैनल में इसी विषय पर बहस-मुबाहिसे शुरू हो गये. मेरे कहने का अर्थ यह है कि कई बार ख़ामख्वाह के मुद्दे गढ लिए जाते हैं जिनमे कोई तंत नहीं होता.

अभी पिछले दिनों एक टीवी बहस के दौरान आप पार्टी के नेता आशुतोष बीजेपी के प्रवक्ता की बातों पर पूरा समय हँसते रहे. उन्हें एंकर ने एक बार भी ऐसा न करने से नहीं रोका. अभी कल ही एक बहस में किसी रिपोर्ट पर चर्चा चली तो बीजेपी के नुमाइंदे ने जानना चाहा कि यह रिपोर्ट किसने जारी की है तो उसे कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दिया गया. यदि इसी प्रकार की बे-सिर-पैर की बहस करवानी है तो उसका उद्देश्य क्या हुआ?