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View Full Version : उर्दू की कुछ चुनिन्दा कहानियाँ


Sikandar_Khan
17-04-2012, 09:01 AM
प्यारे दोस्तों , सलाम क़ुबूल कीजिये
आपकी खिदमत में मैं उर्दू की कुछ चुनिन्दा कहानियाँ पेश कर रहा हूँ
जिनका अनुवाद हिंदी मैं किया गया है |
उम्मीद करता हूँ आप सभी को पसंद आएँगी |

Sikandar_Khan
17-04-2012, 09:03 AM
अपने आँगन से दूर
ख़दीजा मस्तूर
(उर्दू कहानी : अनुवाद : शम्भु यादव)
लाहौर आकर तीन-चार दिन मामू के साथ उनकी सरकारी कोठे में गुजारने पडे . वह भी इस तरह कि आलिया सारा दिन एक छोटे-से कमरे में बन्द पड़ी रहती। वह हर वंक्त यह सोचती रहती कि इस उदास माहौल में किस तरह जिन्दगी गुजारेगी। हाँ, अम्मा बहुत खुश थी। भाई और अँग्रेंज भावज के साथ रहने की बड़ी पुरानी इच्छा अब पूरी हुई थी। उन्होंने जिन्दगी भर साथ रहने के प्रोग्राम बना लिए थे, और आलिया से नारांज थीं कि वह सबसे अलग-अलग पड़ी रहती है। और कुछ नहीं तो अपनी भाभी से फर-फर अँग्रेंजी बोलने का अभ्यास ही कर ले मगर उसने तो इन चार दिनों में सिर्फ बड़ी चाची और बड़े चाचा को कई-कई संफों खत लिखे थे।

पाँचवें दिन मामू ने एक छोटी-सी कोठी का ताला तुड़वा कर अम्मा को उनके घर जाने पर मजबूर कर दिया। उन्होंने अम्मा को चलते-चलते समझाया कि अँग्रेंज औरतें अपनी माँ के साथ भी रहना पसन्द नहीं करतीं।

अम्मा ने आलिया से ये बातें छुपानी चाहीं मगर जब वह अपने नए घर जा रही थी तो मामी ने टूटी-फूटी उर्दू में समझा ही दिया कि सबका अलग-अलग रहना ठीक होता है।

Sikandar_Khan
17-04-2012, 09:03 AM
कोठी में एक-एक चीज अपनी जगह पर मौजूद थी। खाने की मेज पर बर्तन करीने से लगे हुए थे और बर्तनों की नक्काशी को धूल ने छुपा दिया था। ऐसा महसूस होता था कि बस अभी पर्दे के पीछे से निकलकर कोई आएगा और खाने के लिए बैठ जाएगा। बावर्चीखाने में पीतल के बर्तन अलमारी में लगे थे और कुछ बर्तन फर्श पर लुढक़े पड़े थे। और ड्राइंगरूम के कालीन और सोफे सब पर धूल विराजमान थी और गुलदान में लगे हुए फूल झड़कर मेंज पर बिखरे हुए थे। सिर्फ काली-काली सूखी शांखें अब तक गुलदान में ठुँसी हुई थीं। सोने के कमरे में बिस्तरों पर पलंगपोश बिछे हुए थे और सिरहाने तिपाई पर रखा हुआ लैम्प औंधा पड़ा था। इस कमरे के साथ छोटे-से कमरे में आतिशदान पर कृष्ण महाराज की मूर्ति रखी थी। माला के फूल झड़कर आसपास बिखरे पड़े थे और गले में सिर्फ पीला डोरा लटका रह गया था।

Sikandar_Khan
17-04-2012, 09:04 AM
''भई, इसे तो यहाँ से हटाओ। बाहर बच्चों को दे दो, खेलेंगे।'' जब से अम्मा यहाँ आयी थीं, उन्होंने कई बार कहा था।

आलिया ने अम्मा को कोई जवाब नहीं दिया। मूर्ति कई दिन तक यों ही रखी रही। फिर जब इस कमरे को इस्तेमाल किये बगैर अम्मा का गुजारा नामुमकिन हो गया तो आलिया ने मूर्ति को अपने बकसे में छुपा दिया।

दिन बड़ी बोरियत से गुजर रहे थे। बैठे-बैठे उकता गयी थी। उसके खतों के जवाब भी न आते थे।

शामें बड़ी मुश्किल से कटतीं। सहायता-कमेटियाँ घर-घर चक्कर लगाती फिरतीं। अपने शरणार्थी भाइयों की मदद करो। काफिले आ रहे हैं, मदद करो और अम्मा बड़ी दीन बनकर बतातीं कि हम तो ख़ुद शरणार्थी हैं। लोग चले जाते मगर आलिया का जी चाहता अम्मा की आँखों में धूल झोंककर सब कुछ उन्हें दे दे।

मामू और उनकी बेगम कभी-कभी शाम को आ निकलते तो आलिया की समझ में न आता कि वह कौन-से चुहिया के बिल में जा छुपे। अम्मा बौखला जातीं और उनकी समझ में न आता कि अपनी भाभी को किसके सर-आँखों पर बिठा दें।

Sikandar_Khan
17-04-2012, 09:05 AM
चन्द दिन तक खामोश बैठे रहने के बाद उसने एक हाई स्कूल में नौकरी की अर्जी दे दी, जो जल्दी ही मंजूर हो गयी और नौकरी ने उसे बहुत-सी परेशानियों और दुखों से बचा लिया।

एक दिन मामू अकेले आये तो उन्होंने बताया कि कोठी अम्मा के नाम एलाट करा दी है। अब उसे किसी भी सूरत में छोड़ना नहीं। फिर उन्होंने फर्नीचर बगैरा की कुछ रसीदें दीं कि अगर कोई पूछे तो ये दिखा देना कि हमने यहाँ आकर सब कुछ खरीदा है।

अम्मा अपने भाई के कारनामों पर खुश होती रहीं, ''भाई हो तो ऐसा हो। मेरे आराम के लिए उसने क्या नहीं किया!''

आलिया चुपचाप सब कुछ सुनती रही। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि यह सब क्या हो रहा है, किसी का हक कौन उड़ाए लिये जा रहा है, ये रसीदें कहाँ से आ गयीं? यह कोठी उसकी किस तरह हो गयी? मगर आलिया यह सब कुछ किससे पूछती? अम्मा सिर्फ अम्मा थीं, उसकी तनंख्वाह मिलने और कोठी की मालिक बनने के बाद पहले की ही तरह गर्वीली और आत्मतुष्ट।

वंक्त घिसट-खिसटकर गुजर रहा था। स्कूल से आकर वह परेशान फिरा करती। आसपास की कोठियों में भी किसी से मिलना-जुलना न था। जाने कहाँ से लोग आकर बस रहे थे।

अम्मा को इतनी फुर्सत ही न मिलती कि इसकी तरफ भी देख लेतीं। सारा दिन कोठी की देखभाल में गुंजर जाता। दस रुपये महीने पर रखी हुई बाई अगर किसी चींज को जरा जोर से रख देती तो अम्मा का कलेजा दुख जाता, ''ये इतनी-इतनी महँगी चींजें खरीदी हैं और तुम आपे में नहीं रहतीं। जरा होश से काम लिया करो!''

Sikandar_Khan
17-04-2012, 09:06 AM
बहुत दिन नहीं गुजरे थे कि मामू करांची तब्दील हो गये। जब वह विदा हो रहे थे तो अम्मा का रो-रोकर बुरा हाल हो गया। उनकी भाभी इस बेकरारी को देखकर मुसकराती हैं, ''हमारा टो बचा लोग बी बहोट डूर-डूर चला जाटा है मगर कोई नहीं रोटा।''

आलिया को उनके चले जाने का न सदमा हुआ, न खुशी। चले गये तो चले गये। उसका उन लोगों से वास्ता ही क्या था ? यहाँ आने के बाद मामू ने कई बार कहा भी था कि आलिया अपने बाप की तरह दिल से उन्हें नापसन्द करती है।

वह यह सब सुनकर हँस दी थी। उस वक्त उसे अब्बा कितनी शिद्दत से याद आते थे! मगर अब तो वह उनकी कब्र तक को दूसरे मुल्क में छोड़ आयी थी। वहाँ से नाता टूट गया था। किसी ने उसके खत का जवाब तक न दिया था।


समाप्त

Sikandar_Khan
17-04-2012, 09:14 AM
आख़...थू

प्रेमनाथ 'दर'

(उर्दू कहानी : अनुवाद : शम्भु यादव)

फ्लेवर पैदा करना आसान खेल नहीं। एक महिला भी नहीं कर सकती। वही कर सकता है जिसने मछली का सही तौर पर विश्लेषण किया हो। जिसने रातों को बैठकर अनुभव किया हो। जिसकी नाक अनुभवी हो ताकि वो एक-एक भाप की माप को सूँघे और पहचाने। दुर्गन्ध से फ्लेवर तक कई मोड़ होते हैं कई मंजिलें।

और उस दिन जब मेघ बरस रहा था और छुट्टी का दिन था मछुआरा एक बड़ा सिंघाड़ा बंगालियों से छुपाता हुआ मेरे पास ले आया। मछली का शरीर अकड़ा हुआ तांजा था। कनपटियों के नीचे मछली का खून अभी तक लाल था। मछली को देखकर ही मेरे मुँह में पानी आ गया। वह माल किसी और को कैसे देता।

कड़ाही में तेल कड़कड़ाने लगा। तेल के भँवर से लहरें उठने लगीं। कभी आँखों पर कभी कनपटियों और कभी मुँह के भीतर स्वाद को जलाने लगीं।

फिर जब मछली उबलने लगी, तेल की मारी हुई बास लहरों की तरह फ्लेबर बनकर निकलने लगी। और ऐसा प्रतीत होने लगा कि यह गर्म-गर्म फ्लेबर बाहर पानी में नहीं जाएगा, घर के अन्दर की घूमता रहेगा, तो हमने जी भर के मछली खायी, वह मछली एक-एक साँस में बसी हुई थी जो हमने खायी। वही साँस, वही डकार वही गर्म-गर्म स्वाद। बैठक में एक मस्ती का वातावरण था, मुझे औरों का तो पता नहीं पर मैं स्वयं इस मस्ती के स्वागत में कहीं खोने लगा।

देखता क्या हँ कि हमारा दरवांजा मछली के मुँह की तरह खुल गया और उसी स्वाद की खोज में उसमें घुस गया। पर वहाँ मुँह नहीं एक दरवाजा था। मछली की खोपड़ी खुली थी। जीभ हिली और मैं दूसरी ओर जा निकला।

मुझे इस बात पर भी हैरानी नहीं हुई कि इस दरवांजे के पार एक अनदेखा बांजार गर्म था। वही अपने बांजारों की गहमा-गहमी और चमक, पर लूटमार नहीं थी। बांजार बड़ा सजा-सजाया था और लोगों के आवागमन में व्याकुलता नहीं थी। भीड़ थी लेकिन खलबली नहीं थी। जिसका चेहरा देखो, आध्यात्मिक चमक से ढँका हुआ था। भावनाओं में ठहराव और दृष्टि में एक तलाश थी। हर कदम एक निर्णय के साथ उठता। एक संगठित समाज का आवागमन था। जो जहाँ जी रहा है और पूरे विश्वास से जी रहा है।

Sikandar_Khan
17-04-2012, 09:15 AM
देखा कि एक ऊँची दुकान के आगे एक लम्बी लाइन धीरज धरे खड़ी है। चूँकि मेरी आदत थी मैं भी उस लाइन की तरफ भागा, जाने क्या-क्या वस्तुएँ मिलती होंगी। ऊपर चीलें भी मँडरा रही थीं और उतर-उतर कर छीना-झपटी भी कर रही थीं। स्पष्टत: वहाँ मांस बिक रहा था। मांस की और भी कई दुकानें थीं मगर वहाँ चीलों का समूह क्यों नहीं था। वह दुकान साफ-सुथरी थी। इसके बीच में तीन बड़ी अलमारियाँ खड़ी थीं और शीशे के पीछे तीन लम्बे-लम्बे मांस के टुकड़े लटक रहे थे।

उस मांस की बनावट नई थी और इसका रंग न लाल था न सफेद, दोनों रंगों के बीच का था। सतह ऐसी समतल कि मुर्गे का हो, मोटा ऐसा कि जैसे बकरे का हो, मुलायम ऐसा कि जैसे मछली का हो। उसमें से छुरी जैसे हवा में से गुजरती थी।

'मंजे आएँगे आज, जवान है ये जवान' एक ग्राहक होठों पर जीभ फेरता हुआ दूसरे से कह रहा था।

शब्द 'जवान' मांस के लिए प्रयोग होते नहीं सुना था। मांस बड़े का हो, बूढ़े का हो, जवान का नहीं सुना था। केवल शब्द सुनकर ही मेरे मुँह में पानी आने लगा था। पर मांसाहारी कितना भी मांस का प्रेमी हो, नए मांस का नाम पहले सुनना चाहता है।

गर्दन लम्बी करके देखा कि पीछे सिर और पाये रखे पड़े थे। देखकर मेरा दिल धड़कने लगा। सिर और पाये थे तो ऍंधेरे में पर इनसान के किसी सम्बन्धी के दिखाई दे रहे थे। मेरे मुँह में आया हुआ पानी एक गन्दा स्वाद बन गया और पेट में चक्की-सी घूमने लगी। थूकना मैंने अच्छा नहीं समझा। समीप खड़े एक बूढ़े से मैंने पूछा—

''मियाँ ये कौन-सी नेमत है?''

''बड़ी नेमत भाई'', इतनी तेजी से बूढ़े ने कहा जैसे मेरे प्रश्न का पूरा जवाब दिया हो। मैंने फिर पूछा—

''कौन-सी नेमत मियाँ?''

Sikandar_Khan
17-04-2012, 09:16 AM
''बड़ी नेमत भाई'', इतनी तेजी से बूढ़े ने कहा जैसे मेरे प्रश्न का पूरा जवाब दिया हो। मैंने फिर पूछा—

''कौन-सी नेमत मियाँ?''

''भाई बड़ी कह रहा हँ बड़ी'', उसके कथन में सूचना थी व्यंग्य नहीं, स्पष्ट था कि इस मांस का नाम बड़ी नेमत था जैसे हमारे यहाँ हलाल और महाप्रसाद के नाम थे। पर मैं तो इस मांस के जानवर का नाम पूछ रहा था। मैं इसी उलझन में खड़ा था कि एक बूढ़े भिक्षुक ने मेरे काँधे पर हाथ रखा और अलग ले जाकर कहा, ''क्या सोच रहे हो बेटा, आओ मैं बता दूँ। इस मांस का नाम है बड़ीर नेमत। प्रतिदिन बिकता है पर आज का मांस उत्तम है, जवान है, ये मांस कभी-कभी मिलता है क्योंकि जवानों का शिकार करना कठिन है। बूढ़े, बच्चे और मादा तो प्रतिदिन बिकते हैं। और सुनो, तुम भगवान का नाम खड़े होकर लेते हो या लेटकर?''

''हंजरत इस जानवर का नाम क्या है।''

''मैं सब कुछ बता दूँगा, तुम मेरे प्रश्न का उत्तर दो।''

''लेटने, खड़े होने का बन्धन नहीं है साहब।''

''बस! बस फिर ठीक है। तुम तीसरे प्रकार के मानव निकले, न इधर न उधर। सुनो अगर तुम लेटकर नाम लेनेवालों में से होते तो तुम फिर जवान थे।'' भिक्षुक ने मेरे कन्धों पर हाथ फेरते हुए कहा, ''फिर आज इसी दुकान पर तीन की जगह चार मांस लटकते।''

मैं धप से सड़क पर बैठ गया। एक आँधी-सी चली और मुझे इस भिक्षुक के बाल कभी ठुड्डी पर लटकते कभी सिर पर उछलते दिखाई दिये। और एक ऍंधेरे में मुझे ऐसा प्रतीत होने लगा कि स्वयं मुझे ही उलटा टाँग दिया गया है और मेरी पीली-पीली खाल उतार दी गयी है...पर मैं तो तीसरे प्रकार का मानव था, मेरी खाल क्यूँ उतरती? इस बात का ढाढस बाँधते हुए भिक्षुक ने मेरा हाथ थाम लिया।

''तुम लोग मछली के उस पार रहने वाले बनते बहुत हो, बड़ी नेमत को खाते नहीं, मियाँ चख के देख लो एक बार। मन मार-मार के क्यूँ बर्बाद कर रहे हो।''

''बाबा-बाबा'' मेरी घिघ्घी बँध गयी और पैर जो दौड़ना चाहते थे केवल हिलते रहे। ''बाबा-बाबामुझे मछली के पार धकेलो। बाबा मछली के पार...''

''हँ-इनसान जैसे नेमत को खाते नहीं...''

''आख्ख़ थू, बाबा थू-थू-थू...''

''थूकना तो देखिए इनका।''

''थू-थू-थूआख्ख़ थू...''

''इनसान से बूँद-बूँद चूस लेते हैं। बोटियाँ उतारते हैं। बोटियों को भूनते हैं, खाते नहीं।''

''थू-थू-थू-बाबा-थू ।क्या कहा ? भूनते हैं? थू ,हम? इनसान की बोटी को? थू-थू-थू बाबा, बाबा इनसान। प्राणिवर्ग में सबसे उत्तम, संसार की प्रगति की आख़री मंजिल इंसान ! वही जिसके आगे फरिश्तों ने सजदा किया था। जिसके रूप में अवतार आये। इंसान...इंसान...''

''हाँ-हाँ। यह भूनना भी क्या हुआ? थोड़ा देखिए तो...''

Sikandar_Khan
17-04-2012, 09:17 AM
भिक्षुक ने हाथ लहराया और धरती की गाँठ खुल गयी और एक आत्मा भभक उठी, मैं अपना दामन मुँह और नाक में ठूँस कर कराहने लगा। भिक्षुक ने मेरी गर्दन पर अपना भारी हाथ रखा और मुझे आँखें खोलने पर मजबूर कर दिया। देखता क्या हँ कि गन्दा धुआँ उठ रहा है। धुएँ के नीचे एक नगर का आकार है, वही अपनी गलियाँ हैं। गली-गली में कूड़ा जल रहा है और कूड़े पर मांस के लोथड़े सड़ रहे हैं। धुआँ इनसे भी उठ रहा है। पर कूड़े में लोथड़े की तरह ये धुआँ भी अलग है। इसकी रंफ्तार भारी है। भभक में जो सड़े तीव्र नाखून हैं, धुएँ की यही अलग-अलग गहरी-गहरी लकीरें हैं।

''कूड़े में भून रहे हैं बड़ी नेमत को! देखो तो सही। खटोलों के परवाने और सड़े हुए बाण; गन्दी और गली हुई बोटियाँ, काली पूछें। इन्हीं की आग में भूनना चाहते हैं बड़ी नेमत को। और जब धुआँ उठता है, मुँह नाक में दामन ठूँसने लगते हैं। बदबू नहीं तो क्या ख़ुशबू उठती।''

आँखें फाड़-फाड़कर फिर देखा तो वही अपनी गलियाँ थीं, अपनी बस्तियाँ, मछली के उस पार की। वह लोथड़े नहीं अपने ही चेहरे थे। वही टाँगें, वही जाँघें।

भिक्षुक ने मेरी थूक मेरे ही अन्दर उतार दी। मेरे धड़कन दबा दी। और जब मैंने कुछ लाशों को बोरों, मेंजों, किताबों में जलते देखा जाने क्यूँ मैं उसका ध्यान इस अन्तर की ओर आकर्षित करवाना चाहता था। पर ऐसा न हुआ। मुझको उसने अनुभवहीन बना दिया। अब मैं या तो नीचे खाई में या इसकी आँखों में देख सकता था। भिक्षुक ने एक मोटा थूक निकाला और उसी खाई में फेंक कर कहा

''आख्ख़़ थू! इस अज्ञानता पर और इस गन्दगी पर। ये भभक कुछ और देर तक आती रही तो अपना वातावरण गन्दा हो जाएगा। जाने क्या-क्या बीमारियाँ फैलेंगी यहाँ'' उसने हाथ लहराया और वह खाई भर गयी।

उसने एक दरवाजा खोला और मुझे एक गर्म घर के अन्दर ले गया। उसके घर की दीवारों पर प्रकाश फिसल-सा रहा था और धरती ऐसी जैसे दूध से धोया गया हो। एक कोने में सुनहरी ईंटों की एक समाधि-सी थी। जिस पर कई दीये जल रहे थे। दीये की लौ एक जैसी थीं। लौ का रंग ंखून जैसा था जैसे कई छोटी-छोटी खून से लथपथ जीभें एक साथ निकल रही हों। दीयों के ऊपर चाँदी जैसे धातु के दायरे खड़े थे जिन पर इसी धातु के कई बड़े-बड़े हाँडे चढ़े हुए थे। हाँडियों में कुछ उबल रहा था। इनमें से भपकारे ऐसे निकलते थे जैसे इनके नीचे मनों ईंधन जल रहे हों। और हर भपकारे के साथ फ्लेबर की ऐसी लहर निकलती थी कि मेरे प्राण शरीर के शेष भाग को छोड़कर नाक से मस्तिष्क तक जो गली है उसमें आ बसे।

Sikandar_Khan
17-04-2012, 09:18 AM
एकाएक इस कमरे के आगे एक और दरवांजा खुला जहाँ मूँछ समेत सर थे। दाढ़ी वाले चेहरे थे, छिली हुई जाँघ, अधछिले फुसफुसे पिंडे, फिरी हुईं पुतलियाँ, निकले हुए जीभ, बैठे हुए जबड़े, फेफड़े, दिल इत्यादि। ख़ुशबू थी या बदबूवहाँ वास से फ्लेबर तक न मोड़ दिखाई दिये न मंजिलेंमेरे प्राण नाक की उसी गली में फँसकर फुदकने लगे। निकली हुई जीभों ने मेरे कानों में जैसे चीख़ना प्रारम्भ किया और मैं अपने मुँह को मूँछों समेत दामन से लिपटाकर रोने लगा।

''बदबू कहाँ है जो मुँह को लपेटे हुए हो। देखते नहीं बड़ी नेमत मसाले में धोयी जा रही है। कितना अकड़ा हुआ वो मांस है। ताजा है। कनपटियों के नीचे देखो, खून अभी लाल है। मियाँ यहाँ तुम्हारी अधूरी सभ्यता, तुम्हारी नीम हकीम विज्ञान की फूहड़ विधियाँ नहीं हैं। बड़ी नेमत आग पर पकायी जाती है। मसाले के भाप में बड़ी नेमत और फिर बदबू?''

मेरे पैर में हिलने की शक्ति तो नहीं, मेरा सारा शरीर एक स्थान पर गड़े हुए कल की तरह खट-खट-खट-खट हिलने लगा। और मेरा सिर एक दीवानगी में अपने सीने में घुसने की कोशिश करने लगा। फिर जैसे सीना खुल गया और मैं अपने सीने में घुस भी गया। देखा कि वहाँ कई किताबें पड़ीं हैं। कई भाषाओं में। दायें से बायें, बायें से दायें कई प्रकार के अक्षरों की भरमार थी। पर जब मैंने पढ़ने की कोशिश की और उसमें लीन हो जाना चाहा अक्षर क्रमश: मिटते चले गये और इसी उदासी में अन्दर-ही-अन्दर मेरी चीख़ निकलती चली गयी। भिक्षुक बोलता गया

''और यह है वह मांस, अच्छी तरह सफाई की आवश्यकता है। इसकी बोटियाँ यूँ नहीं काटी जातीं। उसके लम्बाई में दो भाग किये जाते हैं। मुँह, नाभि औरये देखो दो हो गये। इसी लम्बाई में टुकड़े किये जाते हैं। ख़ुशबू में धोया जाएगा। फिर ये मांस मीठे रस में पकाया जाएगा। फिर इसकी वी चींज बनेगी जिसे जनशीरनी कहते हैं। बड़ी स्वादिष्ट होती है।''

Sikandar_Khan
17-04-2012, 09:20 AM
खट-खट-खट-खट...

सारा शरीर मिश्रित होता गया, सिर कभी धड़ में, कभी बाहर होता रहा। ये देखकर मेरे मुँह में थूक जमा हो गया। जिसको मैं थूकना चाहता था पर वह थूक अन्दर चला गया। भिक्षुक ने फिर हाथ लहराया

देखता क्या हँ कि वही अपनी खलबली रेलमपेला, एक जलूस, जलूस क्या जैसे एक जलते हुए शहर का धुआँ फैलता जा रहा हो। वही दाढ़ियाँ, वही चोटियाँ, वही शलवार, वही धोतियाँ, पत्थर, ईंटें, भाले, बरछे और वही नारे और भीड़ के बीच में पाँच हल्की-हल्की, सफेद-सफेद झुकी-झुकी मूर्तियाँ, पर सूत का धागा न था। इनमें वह भी स्पष्ट थे जिनको मैंने कभी देखा न था। मेरा सिर पूरी तरह सीने से बाहर आ गया। मेरी गर्दन लम्बी हुई। और मैंने इस गर्म घर के भयानक दृश्य की तरफ से आँखें मोड़ीं और इन्हीं मूर्तियों को देखने लगा। कुछ अपने से लोगों को देखकर साहस बढ़ा। शरीर का खट-खट रुक गया। दिल में मानवीय भावनाएँ उभरने लगीं। अब मैं बोलना चाहता था कि देख यह है जनशीरनी का वो मसाला जिसने हमारे यहाँ उत्तम गानों को जन्म दिया। सवोत्तम साहित्य को सँवारा। कला के बड़े-बड़े माहिर पैदा किये। पर भीड़ में एक दराँती लहरायी और एक मूर्ति का सीना बिगड़ गया। मूर्ति गिरी और एक नारा ऊँचा हुआ और दूसरी मूर्तियों की टाँगों में ऐंठन होनी शुरू हुई और मेरी जगह वही खट-खट करने लगीं।

''तौबा-तौबा इतने फूहड़ तो हमारे बच्चे भी नहीं। यह वस्तु भला दराँती से उतारने की थी। देखो तो? जैसे चीलों ने नोंच खाया हो।''

मैंने भीड़ की ओर फिर देखा। मूर्तियाँ काले कोलाहल में ऐसे गुम हो गयीं जैसे गरजती टकराती घटाओं ने नन्हीं-नन्हीं बिजलियाँ निगल ली हों। भिक्षुक ने हाथ वापस लहराया

''और यह है शीरख्वार मांस। इसकी तो केवल बिरयानी बनती है। ये मांस आँच कम लेता है और समय भी कम''

''भिक्षुक-भिक्षुक!!'' मेरा सीना भी मानो बाहर आ गया था और बोल रहा था

''भिक्षुक तुझे क्या हुआ है। तू स्वयं मानव है तेरा भी मांस है। तेरे बच्चे होंगे। उनकी भी बिरयानी हो सकती। भिक्षुक...''

खट-खट-खट''भिक्षुक...भिक्षुक।''

''पर ये मांस तो अल्पसंख्यकों का है। हमारा मांस कैसे बन सकता है।''

''पर मछली के उस पार भिक्षुक...''

भिक्षुक ने फिर हाथ लहराया फिर वही कोलाहल धुएँ में से एक सूरमा निकल आया और एक पहलवान। दोनों ने एक बच्चे को दीवार के साथ फैलाया और मांस मलाई में एक लम्बी कील ठोंक दी। बच्चे का सीना गिरी हुई मलाई की तरह बिखर गया। और नारे फिर तीव्र हुए। किसी ने एक और की बोटियाँ उतार दीं और उनसे एक माँ की गोद भरी और किसी ने गिन-गिन के दर्जनों को आग में झोंक दिया। एक और आया और उसने बच्चे को तीन मंजिले से सड़क पर पटक दिया और बच्चा एक धब्बे की तरह बिखर गया।

Sikandar_Khan
17-04-2012, 09:21 AM
''कितनी बिरयानी बर्बाद हो गयी! ये घाटा ये छीछालेदर।''

इसने हाथ वापस लहराया तो देखता क्या हँ कि सुनहरी समाधि पर कड़ाही में तेल कड़कड़ा रहा है। एक मूँछ समेत सर आँखें खोल धीरे-धीरे लाल हो रहा है। और तेल के भँवर में लहरें कभी आँखों में, कभी नाक में घुसकर भीतर के स्वाद को जला रही हैं।

''ये विधियाँ ये सुगढ़ता, कब आएगी इन लोगों को।''

खट-खट-खट-खट। ''ब-ब-बस कर भिक्षुक। त-त-ततुम अपनी विधियाँ'', भिक्षुक ने अब के ंकहंकहा लगाकर कहा

''भाई मैं कब कहता हँ कि तुम लोग अज्ञानी हो मैं तो कहता हँ कि बस एक ंकदम शेष है। बस तुम्हारा शिष्टाचार इतना ही, इस मंजिल की व्याख्या चाहता है। जिसकी तरफ तुम आते तो ंजरूर हो, पर झिझककर, सफाई से नहीं, तरींके से नहीं। और तुम जो ंकिस्मत से इधर आ गये हो तुम्हें तो इनसान बना के ही भेजेंगे।''

''आख्ख़़ थू-थू-थूभिक्षुकथू...''

''तुम्हें पवित्र बनाना है। जबरदस्ती खिलाएँगे। जानवर का मांस नहीं, गाय और सुअर का नहीं हम तुम्हें बड़ी नेमत खिलाएँगे।'' और उसने इस लाल-लाल, दहकते हुए सिर को एक मूँछ से पकड़कर कड़ाही में से निकाला।

मेरे पेट में चक्की ऐसी घूमी कि मेरा सारा शरीर हिला और मैं उछल पड़ा।

देखता क्या हँ कि बैठक में घर के लोग हँसकर लोट-पोट हो रहे हैं। और कमरे में वही मछली बसी हुई है। वह सब हँसते गये और मैं फ्लेवर से बाहर भागते हुए बारिश में सँभला।

मेरी पत्नी भी बाहर आ गयी। ''क्यूँ जी क्या बात है?''

''कुछ नहीं कुछ नहीं। मन उलटी-सा कर रहा है। उलटी आ रही है।''

''मन उलटी-सा कर रहा है तो थोड़ी-सी मछली चख लीजिए ना...कहो तो सिर ला दूँ।''
समाप्त

Suresh Kumar 'Saurabh'
18-04-2012, 11:53 AM
सुन्दर प्रयास है!!

Sikandar_Khan
19-04-2012, 07:24 AM
सुन्दर प्रयास है!!

सुरेश भाई जी , बहुत -बहुत शुक्रिया |

Sikandar_Khan
19-04-2012, 07:35 AM
आर्ट का पुल

फ़हीम आज़मी

(उर्दू कहानी : अनुवाद : शम्भु यादव)

पहले तो सारा इलाका एक ही था और उसका नाम भी एक ही था। इलाका बहुत उपजाऊ था। बहुत से बाग, खेत, जंगली पौधे, फूल और झाडियाँ सारे क्षेत्र में फैली हुयीं थीं। इस इलाके के वासियों को अपने जीवन की आवश्यकताएँ जुटाने के लिये किसी और इलाके पर आश्रित नहीं होना पडता था।खेतों से अनाज, पेसों से मकान बनाने और जलाने के लिये लकडियाँ, भट्टों से पकी हुयी इँटें, पास के बागों से फूल और साग-सब्जी, पास के तालाब से मछलियाँ ...अर्थात आवश्यकता के सभी पदार्थ उपलब्ध थे।

धीरे-धीरे पास के व्यापारिक नगर से व्यापारिक सभ्यता और विकास की लहरें इस इलाके की ओर बढ़ने लगीं और एक दिन इस इलाके में बहुत बड़ा नाला खोदा गया जिसने इस क्षेत्र को दो भागों में बाँट दिया। किसी ने कहा कि यह गङ्ढा बिजली के तारों को खम्भे के ऊपर से ले जाने के स्थान पर धरती के नीचे दबाने के लिए खोदा गया है। कोई कहता था कि इस इलाके में टेलीफोन आनेवाला है और यह टेलीफोन की लाइनें बिछाने के लिए खोदा गया है। अथवा जितने मुँह उतनी बातें बस सवेरे ही ट्रेक्टर और कुटियर और उसके साथ कुछ मंजदूर आ जाते थे, फावड़े और गेंती के साथ। ये लोग इस गङ्ढे को गहरा करना शुरू कर देते थे और शाम को चले जाते थे। यदि इनसे कोई पूछता था तो बस यही कहते थे कि ठेकेदार से पूछ लो, हमें नहीं मालूम कि यह गङ्ढा क्यों खोदा जा रहा है।

दिन-प्रतिदिन गङ्ढा गहरा होता गया और एक दिन उसने इलाके के बीच में एक सूखे नाले का रूप धारण कर लिया। अब इसको पार करना लगभग असम्भव-सा हो गया और इस प्रकार नाले के इस पार के लोगों तथा उस पार के लोगों का सम्बन्ध-विच्छेद हो गया। कभी-कभी नाले के इस पार के लोग उस पार के लोगों से नाले के दोनों ओर खड़े होकर वार्तालाप कर लेते थे और अधिकतर बात का विषय यह नाला ही होता था। उन्हें उन कोयलों, फांख्ताओं और मैनाओं से बहुत स्पर्धा होती थी, जो बिना किसी बन्धन के नाले के इस पार के पेड़ों से उड़कर उस पार के पेड़ों पर बैठ जाते थे और इस पार के खेत से उड़कर उस पार के खेत में दाने चुगने लगते थे।

Sikandar_Khan
19-04-2012, 07:39 AM
और एक दिन ठेकेदार के आदमी चले गये। नाला उसी प्रकार खुदा रहा। सम्भवत:, दूसरा ठेकेदार, जिसे तार बिछाना था या तीसरा ठेकेदार, जिसे गङ्ढा पाटना था, अभी तक निश्चित नहीं किया गया था। या वह किसी दूसरे इलाके में व्यस्त था। यह सूखा नाला यों ही पड़ा रहा, यहाँ तक कि वर्षा आयी और यह पानी से भर गया। धीरे-धीरे उसके दोनों ओर के किनारे टूटने लगे और उसने एक नदी का रूप धारण कर लिया, जो आगे चलकर एक बड़े नाले में मिल जाती थी और फिर उस दरिया में मिल जाती थी, जो इलाके के पास ही बहता था।

सर्दी आयी तो लोगों ने सोचा कि नाले का पानी खुश्क हो जाएगा और शायद ठेकेदार के आदमी उसको पाट दें। कुछ ऐसे भी लोग थे जिन्होंने उसे स्वयं पाटने का विचार किया, परन्तु जैसे ही सर्दी समाप्त हुई और गर्मी आयी, आस-पास की पहाड़ियों पर बर्फ पिघलने लगी। यह बर्फ पहले भी पिघलती थी, परन्तु छोटी-छोटी नालियों के रूप में फैल जाती थी और तेजी से ढलान की ओर बहकर उनका पानी बड़े दरिया में मिल जाता था। यदि कहीं पानी फैला भी तो अधिक समय तक नहीं रुकता था, किन्तु अब सारा पानी बहकर इलांके के उस नाले में आ गया। गर्मी बीती, वर्षा आयी, नाला और विस्तृत हो गया। फिर सर्दी आयी और पानी उसी प्रकार बहता रहा। फिर पहाड़ियों पर बर्फ पिघली और नाला अधिक विस्तृत हो गया। किनारे और टूटे तथा यह नाला हर बरस चौड़ा होता गया और फिर एक बड़े दरिया ने इलांके को दो भागों में बाँट दिया। इलाके के निवासियों को दो भागों में बाँट दिया। रिश्तेदार कुछ इधर और कुछ उधर रह गये और जब मुहम्मद खान की पुत्री के विवाह की समस्या सामने आयी, तो मुहम्मद खान की पत्नी ने कहा, ''तो फिक्र काहे की है? तुम्हारे भाई के बेटे के साथ तो बचपन में रिश्ता हो चुका है।''

Sikandar_Khan
19-04-2012, 07:47 AM
मुहम्मद खान पहले तो चुप रहे, फिर उन्होंने एक ठंडी साँस ली और बोले, ''क्या बात करती हो? अरे, वे लोग उस पार के हैं। अब हमारा उनसे क्या वास्ता! अपने इलांके में रिश्ता खोजो।''

''तो ऐसी कौन-सी बात है, हम एक ही तो हैं। वह उस पार रहता है, तो क्या हुआ! तुम्हारा भाई ही तो है।''

''नहीं, अब वह उस पार रहता है, बीच में दरिया है। इस पार के लोग उस पार के लोगों से अलग हैं। वह मेरा भाई था, लेकिन तब, जब दरिया नहीं था।''

''तो दरिया खून के रिश्ते को तो नहीं तोड़ सकता।''

''हाँ, तोड़ सकता है। दरिया सरहदें (सीमाएँ) बना देता है। मुल्कों को अलग कर देता है। इनसानों को अलग कर देता है।''

''यह तुम कह रहे हो।''

''मैं तो वही कह रहा हँ जिसे और लोग कहते हैं। और फिर यह भी तो नहीं कि दरिया को पार करके आसानी से इधर से उधर जाएा जा सके। दरिया पर पुल भी नहीं है। उसमें नाव भी नहीं चलती।''

Sikandar_Khan
19-04-2012, 07:50 AM
और हुआ भी यही था। पुल बनाने के सारे प्रयत्न व्यर्थ हो गये थे। जब भी पुल बनता था, एक मौसम भी नहीं निकालता था। सर्दी में बनता था, तो गरमी में टूट जाता था। पहाड़ों से आनेवाले पानी का वेग बहुत तेज होता था। दरिया के किनारे भी टूट जाते थे। मिट्टी बह जाती थी। लोग मिट्टी भरकर लकड़ी का पुल बनाते थे। कोई सीमेंट का पक्का पुल तो बनता ही नहीं था। भला मिट्टी का पुल कैसे टिका रहता। और नाव, उसका भी प्रयास किया गया। कुछ लोगों ने सोचा कि पुल नहीं बनता और लोग दरिया को पैदल भी पार नहीं कर सकते, तो नाव ही बना लें। उसी पर चढ़कर दरिया पार कर लिया करेंगे। परन्तु हुआ यों कि जब पहली नाव बनी तो मंगू दूधवाला सवेरे-सवेरे आया और मुहम्मद खान से बोला, ''खान साहब! सुना आपने, वह जो चार घड़ों को उलटा करके और ऊपर कीकर तथा सरपत का मचान बनाकर नाव बनायी गयी थी, उसके दो घड़ों में जहरीले साँप घुस गये और दो मुसांफिरों को डस लिया। अब मुखिया जी ने कहा है कि नाव नहीं चलेगी।''

''क्यों नहीं चलेगी! अरे ऐसे हादसे (दुर्घटनाएँ) तो होते ही रहते हैं। आइन्दा (भविष्य में) एहतियात (सावधानी) से काम लिया जाएगा।''

''क्या एहतियात (सावधानी) होगी? घड़ा तो उलटा होता है। पानी के अन्दर से साँप निकलकर बैठ जाए, तो वह दिखाई भी नहीं देता और इतना वक्त किसके पास है कि वह मचान को पीटता रहे और साँप को भगाता रहे।''

''अरे हर मुश्लि काम में एहतियात (सावधानी) रखनी पड़ती है। अगर हम कुछ दिन तक मचान पीटते रहेंगे और नाव चलती रहेगी, तो साँप खुद ही डर कर भाग जाएगा।''

''मगर चलेगी कैसे? मुखिया ने तो रोक दिया है, घड़े तोड़ दिये गये हैं?''

Sikandar_Khan
19-04-2012, 07:56 AM
मुहम्मद खान ने मुखिया को धीरे-से एक मोटी-सी गाली दी और चुप हो गया। वह और कर ही क्या सकता था! मुखिया से कौन झगड़ा मोल लेता! परन्तु मुहम्मद खान का दिल नहीं माना। उसने सोचा कि पंचायत बुलायी जाएे। हो सकता है पंचायत के कहने से मुखिया मान जाए। तब मुहम्मद खान ने लोगों के घर जा-जाकर उन्हें समझाना आरम्भ कर दिया, ''देखो ना। आखिर इसमें क्या हर्ज है। दुनिया का निजाम (व्यवस्था) तो मुहब्बत पर चलता है। नंफरत से तो कोई मसला (समस्या) हल नहीं होता। फिर तुम तो जानते ही हो कि तुम्हारे भी रिश्तेदार, दोस्त उस पार रह गये हैं। अगर हमारे बीच यह दरिया रुकावट है, तो क्या हुआ। नाव चलाने से हम अपना मेल-जोल तो कायम रख सकते हैं। अरे घुस गया होगा साँप। साँप तो घरों में भी घुस जाते हैं। उससे कोई घर थोड़े ही छोड़ देता है।''

कुछ लोगों ने मुहम्मद खान की बात मानी, कुछ चुप रहे और कुछ ने उसका कड़ा विरोध किया।

''तुम क्या रिश्तेदारों की बातें करते हो। उस पार के लोगों से कैसा रिश्ता? इतने दिनों में सब कुछ तो बदल गया। देखते नहीं हो, उनकी सलवारों के घेरे कितने बढ़ गये हैं। चादरों में कितना फर्क है। खाने में खटाई भी बहुत ज्यादा होती है। रोटी भी कितनी पतली होती है। मकान की ईंटें कितनी बड़ी होती हैं। और वे लोग तोता भी तो नहीं पालते। उनकी मिट्टी बिलकुल नमकीन है। इधर हमें देखो, हम मिट्टी के कितने सुन्दर बर्तन बनाते हैं। हमारी धरती भी तो कितनी जरखेज (उपजाऊ) है। नहीं जी, अब हमारा उनसे क्या रिश्ता! तुम अपनी सरहदों में लोगों से रिश्ता जोड़ो। अब तो उनकी जुबान भी तुम्हारी समझ में न आएगी।''

Sikandar_Khan
19-04-2012, 07:57 AM
पंचायत हुई। लोग बोलते रहे। धीरे-धीरे, जोश से। बूढ़े और जवान सब बोले, लेकिन मुखिया ने बस एक बात कह दी, ''तुम नाव बनाने की बात कहते हो। तुम तो बस यही समझते हो कि नाव में बैठकर लोग इस पार से उस पार जाएँगे। देखो अपनी धरती की तरफ। देखो अपने लहलहाते खेत। हम कितने खुश हैं। क्या हमारे खेतों का अनाज और हमारे पेड़ों के फल नाव से उस पार न जाने लगेंगे? फिर तुम क्या करोगे, किसको रोकोगे। नहीं जी, हम अपनी इलाके में खुश हैं। अपनी रोटी उनको दे देंगे, तो खुद क्या खाएँगे। पेट से बढ़कर भी कुछ और हो सकता है?''

और मुखिया पंचायत में अकेला तो आया नहीं था, हाथों में लाठियाँ और बल्लम लिए हट्टे-कट्टे जवान साथ थे। मुखिया तो अपनी जगह पर बैठ गया। परन्तु ये जवान भीड़ के चारों ओर खड़े हो गये। अपनी लाठियों और बल्लमों को यों उठाये रखा कि सबको दिखाई दें।

मुखिया बोल चुका, तो लोगों में काना-फूसी होने लगी। फिर लोग ऊँचे स्वर से बोलने लगे। फिर विवाद और प्रतिवाद आरम्भ हो गया। हाथापाई की नौबत आ गयी और पंचायत समाप्त हो गयी।

Sikandar_Khan
19-04-2012, 07:58 AM
आज मुहम्मद खान के भाई के बेटे का विवाह था। दरिया के पार शहनाई की आवांज सुनाई दे रही थी। वह आवाज बहुत सुरीली लग रही थी। मुहम्मद खान दरिया के किनारे बैठ आवांज को सुन रहा था और सोच रहा थाकाश! यह बारात उनके घर में आयी होती। परन्तु यह कैसे सम्भव था। बीच में दरिया था और बारात को तो उसी ओर जाना था। दरिया को कैसे पार किया जा सकता था।

और मुहम्मद खान सोचने लगा यहूदियों ने कहा था कि खुदा इस्राईल का खुदा है। फिर इस्राईल बारह कबीलों में बँट गये। फिर उनके बीच सरहदें खिंच गयीं फिर उनकी जबानें बदल गयीं। फिर वे एक-दूसरे के दुश्मन हो गये मगर खुदा एक ही रहा, सबका खुदा।

और फिर अरब से आवांज आयी। हमारा भी खुदा वही है। पूरब का खुदा वही है, पश्चिम का खुदा वही है और आज सब कहते हैं, हम सबका खुदा वही है। फिर दरिया ने क्या बदला, खुदा हो तो बदला नहीं।

शहनाई की आवांज फिर गूँजी। और मुहम्मद खान ने सोचा दरिया उस आवांज को तो रोक नहीं सका और रोक भी नहीं सकता। यह तो दरिया के पानी से टकराकर और भी अच्छी लगती है।

Sikandar_Khan
19-04-2012, 07:58 AM
और फिर देखते-ही-देखते कुछ और लोग मुहम्मद खान के पास आ बैठे और सोचने लगेक्या अच्छी आवांज आ रही है, दरिया के उस पार से। हमारी सरहदें अलग हैं और बीच में दरिया है, मगर यह गाने-बजाने की आवांज कितनी मधुर लग रही है। शादी हो गयी और शहनाई की आवांज भी बन्द हो गयी, परन्तु अब तो लोगों को चस्का पड़ गया था। दरिया के किनारे पर प्रतिदिन सायंकाल को मेला लगने लगा। उस पार के गीत और सितार की मधुर आवांज सुनते रहते और फिर उस पार के लोग भी अपनी तरफ के किनारे पर बैठने लगे, इस पार के गीत सुनने के लिए। दरिया के पानी से छनकर आनेवाली मधुर आवांज कितनी दर्द भरी थी, कितनी सुरीली। और फिर इन आवांजों के साथ और बहुत कुछ आया। दरिया के किनारों पर पिकनिक होने लगी। पकवान पकने लगे। वर्षा से बचने के लिए छप्पर बन गये। बैठने के लिए चबूतरे और भोजन की सुगन्ध और गाने की महक और शरीरों की झलक। अब दोनों तरफ के इलांकों में नंफरत का एहसास समाप्त हो गया था। और एक दिन इस इलाके का मुखिया आया और कहने लगा, ''तुम्हारे यहाँ गानेवालों और शायरों की क्या कमी है कि तुम उस पार के गानों की आवांज इतने शौक से सुनते हो। अरे, अपने इलांके के गाने गाओ! अपने इलाके वालों की आवाज सुनो। बस्ती में जाकर बैठो। वे तो उस पार के लोग हैं।''

परन्तु मुहम्मद खान बोला, ''मुखिया जी! अब यह तुम्हारे बस की बात नहीं है कि इनको रोको। इन्हें अब नाव की जरूरत नहीं। ये तो आसानी से उस पार चले जाते हैं आर्ट के पुल पर से...।'' और इस बार किसी ने मुहम्मद खान की बात को नहीं काटा।

मुखिया अपनी आँखों पर दायें हाथ की हथेली से साया करके और उचक-उचककर दरिया पर बना हुआ पुल तलाशने लगा।
समाप्त