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View Full Version : सौरभ-सप्तक भाग-2 (व्यथा-सिन्धु)


Suresh Kumar 'Saurabh'
04-05-2012, 12:54 PM
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1-
तुम्हें इससे क्या?


मेरा धन है आँखों का पानी,
मैं तो अपना धन खो रहा हूँ,
तुम्हें इससे क्या?
आँसू की धारा बह रही है,
आज मैं रो रहा हूँ,
तुम्हें इससे क्या?
.
अभी जो मेरे साथ हो रहा है होने दो/
जाओ, तुम अपना काम करो, मुझे रोने दो/
रोकर ही आज आराम पायेगा मेरा दिल /
न सुलझाने की कोशिश करो मेरी मुश्किल/
मैं और उलझना चाहता हूँ,
उलझनें पिरो रहा हूँ,
तुम्हें इससे क्या?
आज मैं रो रहा हूँ,
तुम्हें इससे क्या?
.
किसी साथी-दोस्त की नहीं तलाश मुझे/
अब तो किसी पर भी नहीं विश्वास मुझे/
हमदर्द का नाटक करके क्या दोगे मुझे?
जैसे औरों ने दिया वैसे ही दग़ा दोगे मुझे/
कहो, मैं शक्की हो रहा हूँ,
हाँ! हाँ! हाँ! हो रहा हूँ,
तुम्हें इससे क्या?
आज मैं रो रहा हूँ,
तुम्हें इससे क्या?
.
तुम मुझे मनमानी करने दो, टोको मत/
मैं खेती करने चला हूँ, मुझे रोको मत /
बीज पड़ चुका है दिल के खेत में दर्द का/
नहीं जोहा बाट गर्मी-बरखा-सर्द का/
सींचकर अश्रु के जल से,
दु:ख की फसल बो रहा हूँ,
तुम्हें इससे क्या?
आज मैं रो रहा हूँ,
तुम्हें इससे क्या?
.
हर घड़ी, हर पल होता हूँ नाकाम अब/
बेवजह, सरेआम होता हूँ बदनाम अब/
कोई आशा नहीं दुर्भाग्य के बदलने की/
हिम्मत नहीं ज़िन्दगी लेकर चलने की/
मौत के हवाले कर दूँगा 'सौरभ',
ये जीवन ढो रहा हूँ,
तुम्हें इससे क्या?
आज मैं रो रहा हूँ,
तुम्हें इससे क्या?

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रचनाकार :- सुरेश कुमार 'सौरभ',
पता :- जमानिया कस्बा (वार्ड नं.-24, मोहल्ला- बुद्धिपुर/पठान टोली) जिला गाजीपुर, उत्तर प्रदेश
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Suresh Kumar 'Saurabh'
04-05-2012, 01:07 PM
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2-

कैसे उबरूँ पीर से?


हृदय छलनी हो गया है, न जाने किस तीर से।
हाय! कैसे उबरूँ, कैसे उबरूँ मैं इस पीर से?
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शब्द किधर चले गये, भाव कहाँ खो गया है/
व्याग्र हूँ, विस्मित हूँ, ये क्या मुझे हो गया है/
कल्पना धुमिल भई, अब कुछ सोचा नहीं जाता/
कलम है, पृष्ठ है, हाथ कुछ लिख नहीं पाता/
उँगलियाँ जकड़ ली गईं हैं, लगता है जंज़ीर से।
हाय! कैसे उबरूँ, कैसे उबरूँ मैं इस पीर से।।
.
कहीं स्वयं से ही मैं न, अब कोई द्वन्द कर लूँ/
कहीं लिखना ही आज से, मैं ना बन्द कर दूँ/
लिखने के वचन से मैं, यूँ ही नहीं फिर गया/
जब भी मैं कुछ लिखने चला, दो-बूँद गिर गया/
धुल गये शब्द सारे, मेरे नयनों के गिरे नीर से।
हाय! कैसे उबरूँ, कैसे उबरूँ मैं इस पीर से।।
.
उड़ना चाहता था पंछी, किन्तु कट ही गया पाँख/
चन्दन बेचारा जलकर, बन गया चिता का राख/
अपनी ही सेना शत्रु बनी, आशा तार-तार हुई/
जिसकी जीत सुनिश्चित थी, उसी की हार हुई/
विक्षोभ क्या है 'सौरभ', पूछो पराजित वीर से।
हाय! कैसे उबरूँ, कैसे उबरूँ मैं इस पीर से।।

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रचनाकार :- सुरेश कुमार 'सौरभ',
पता :- जमानिया कस्बा (वार्ड नं.-24, मोहल्ला- बुद्धिपुर/पठान टोली) जिला गाजीपुर, उत्तर प्रदेश
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Suresh Kumar 'Saurabh'
04-05-2012, 01:17 PM
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3-

रोना अच्छा लग रहा


बीती हुई यादों में अब खोना अच्छा लग रहा।
मौका निकाल कर मुझे रोना अच्छा लग रहा।।
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मेरे आँसू बहते हैं तो आती है उनको हँसी/
उनको हँसता देखकर मुझको भी होती है खुशी/
इसीलिए अश्क़ों से चेहरा धोना अच्छा लग रहा।
मौका निकाल कर मुझे रोना अच्छा लग रहा।।
.
मेरे उपर हर घड़ी बस उनका ये सितम रहे/
मेरे संग-संग सिर्फ मेरे टूटे दिल का ग़म रहे/
जो भी पाया था उसे अब खोना अच्छा लग रहा।

मौका निकाल कर मुझे रोना अच्छा लग रहा।।
.
ज़िन्दगी में मेरे बनके आयी थी वो गुलिस्ताँ/
वो न आती ज़िन्दगी मेरी न झेलती ख़िज़ाँ/
काँटों की माला मुझे पिरोना अच्छा लग रहा।

मौका निकाल कर मुझे रोना अच्छा लग रहा।।
.
मुझको अब तो फूलों से नफरत-सी होने है लगी/
मुझको शायद काँटों से उल्फ़त-सी होने है लगी/
काँटों से यह प्यार का अब होना अच्छा लग रहा।

मौका निकाल कर मुझे रोना अच्छा लग रहा।।
बीती हुई यादों में अब खोना अच्छा लग रहा।
मौका निकाल कर मुझे रोना अच्छा लग रहा।।
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रचनाकार :- सुरेश कुमार 'सौरभ',
पता :- जमानिया कस्बा (वार्ड नं.-24, मोहल्ला- बुद्धिपुर/पठान टोली) जिला गाजीपुर, उत्तर प्रदेश
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Suresh Kumar 'Saurabh'
04-05-2012, 01:31 PM
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4-

कोई अपना भी है


अब पुष्प सैय्या से ऊब चुका,
चाहता हूँ पथ में काँटे बोना,
बस वही बोने नहीं देता ।
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अब कुछ पाने की आशा नहीं,
चाहता हूँ सब कुछ खोना,बस वही खोने नहीं देता ।
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अब मुस्काने की इच्छा नहीं,
चाहता हूँ दिन भर रोना,
बस वही रोने नहीं देता ।
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पल भर सोकर दु:ख जाता नहीं,
चाहता हूँ चीर निद्रा में सोना,
बस वही सोने नहीं देता।
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न जाने क्या कर जाता मैं तो,
बस वही कुछ होने नहीं देता,
बस वही कुछ होने नहीं देता।
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जुड़ गया जीवन में मेरे वो,
सुख की ऐसी लड़ी बनकर,
व्यथा के कंटक पिरोने नहीं देता।
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उत्साह बढाता, धीरज बँधाता,
जिजीविषा जाग गयी मुझमें,
जीवित रहना भी है।
मैंने मान लिया 'सौरभ'
कोई अपना भी है।
कोई अपना भी है।

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रचनाकार :- सुरेश कुमार 'सौरभ',
पता :- जमानिया कस्बा (वार्ड नं.-24, मोहल्ला- बुद्धिपुर/पठान टोली) जिला गाजीपुर, उत्तर प्रदेश
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Suresh Kumar 'Saurabh'
04-05-2012, 01:40 PM
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5-

सांत्वना मत दो रो लेने दो



जब छाये व्यथा का मेघ मन में,
जितना भी चाहे बरसने दो
स्वंत्रता यदि चाहे आँसू,
स्वतंत्र करो न तरसने दो
बढ़ जाय हृदय का इतना दुख
हो जाय अलक-सा काला मुख
धुल जाय अखिल अंजन का सुख
यदि मंशा है आँसुन की यही,
इनको काजल धो लेने दो।
सांत्वना मत दो रो लेने दो।।
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सुख चैन किसी ने छीना है
तो घुँट-घुँट कर क्यों जीना है
नयनों का जल क्यों पीना है
एकान्त यदि अवसर पाते
रोने से नहीं हम घबराते
रोने से मिले जब हमको चैन
गीला ही क्यों न रखे फिर नैन
कोमल सैय्या पर बहुत बिछा,
शीशा तोड़ो सो लेने दो।
सांत्वना मत दो रो लेने दो।।
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'सौरभ' से रूठी कुसुम लड़ी
ज्योत्सना की आभा धुमिल पड़ी
दिनकर से रश्मी दूर खड़ी
चहुदिक् मुझको तम ने घेरा
है घोर तिमिर जीवन मेरा
डाला निशि ने मन पर डेरा
मैंने भी उषा से मुँह फेरा
होती है वहाँ दीवाली तो,
हो लेने दो, हो लेने दो।
सांत्वना मत दो रो लेने दो।।

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रचनाकार :- सुरेश कुमार 'सौरभ',
पता :- जमानिया कस्बा (वार्ड नं.-24, मोहल्ला- बुद्धिपुर/पठान टोली) जिला गाजीपुर, उत्तर प्रदेश
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