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View Full Version : जीने की कला


Dr. Rakesh Srivastava
10-05-2012, 03:53 PM
जैसे - जैसे तेरी भी सीरत संवरती जायेगी ;
ख़ुश्बुओं - सा दूर तक तुझको हवा फैलायेगी .

बन्द हैं जो खिड़कियाँ , तुम जितना खोलोगे उन्हें ;
रौशनी घर में तेरे भी उतनी बढ़ती जायेगी .

पास में जो रंग हैं उनको ख़्वाब में ढंग से भरो ;
धीरे - धीरे इक हसीं तस्वीर बनती जायेगी .

तुम हुकूमत ख़ुद पे करना सीख लोगे जितना ही ;
सल्तनत दुनिया में तेरी उतनी बढ़ती जायेगी .

फ़लसफ़ा तेरा अगर होगा न जीवन से जुड़ा ;
तेरी हर इक सोच बस बकवास बन रह जायेगी .

गफलतों में जी के तू ख़ुद को सिकन्दर मत समझ ;
ख़ाली हाथों ज़िन्दगी इक दिन फ़ना हो जायेगी .

इस जहाँ की बेहतरी के वास्ते कुछ कर गुज़र ;
जाने फ़िर ये ज़िन्दगी हाथ आयेगी , ना आयेगी .

रचयिता ~~ डॉ . राकेश श्रीवास्तव
विनय खण्ड - 2 , गोमती नगर , लखनऊ .

(शब्दार्थ - सीरत = आन्तरिक सौंदर्य ,
फ़लसफ़ा = दर्शन / फिलोसोफी , फ़ना = नष्ट )

abhisays
10-05-2012, 05:10 PM
इस गर्मी में डॉक्टर साहब की कविता ठंडी हवा के झोंके की तरह आई है और मन को मोह लिया है. :bravo::bravo::bravo:

~VIKRAM~
10-05-2012, 06:05 PM
kuch meri tarf se...
उम्र का एक ऐसा पड़ाव भी आता है जब जीने की कला को देख घुटने भी जवाब दे जाते है, कहता है ये दिल ये जीना किसने बनाया इस जीने की जगह सरकार ने लिफ्ट क्यों नहीं लगवाया !

Suresh Kumar 'Saurabh'
10-05-2012, 06:17 PM
........................

ndhebar
10-05-2012, 07:52 PM
a beauty from master......

Kalyan Das
10-05-2012, 07:56 PM
kuch meri tarf se...
उम्र का एक ऐसा पड़ाव भी आता है जब जीने की कला को देख घुटने भी जवाब दे जाते है, कहता है ये दिल ये जीना किसने बनाया इस जीने की जगह सरकार ने लिफ्ट क्यों नहीं लगवाया !
:bang-head:

Sikandar_Khan
10-05-2012, 09:15 PM
जैसे - जैसे तेरी भी सीरत संवरती जायेगी ;
ख़ुश्बुओं - सा दूर तक तुझको हवा फैलायेगी .

बन्द हैं जो खिड़कियाँ , तुम जितना खोलोगे उन्हें ;
रौशनी घर में तेरे भी उतनी बढ़ती जायेगी .

पास में जो रंग हैं उनको ख़्वाब में ढंग से भरो ;
धीरे - धीरे इक हसीं तस्वीर बनती जायेगी .

तुम हुकूमत ख़ुद पे करना सीख लोगे जितना ही ;
सल्तनत दुनिया में तेरी उतनी बढ़ती जायेगी .

फ़लसफ़ा तेरा अगर होगा न जीवन से जुड़ा ;
तेरी हर इक सोच बस बकवास बन रह जायेगी .

गफलतों में जी के तू ख़ुद को सिकन्दर मत समझ ;
ख़ाली हाथों ज़िन्दगी इक दिन फ़ना हो जायेगी . :fantastic:

इस जहाँ की बेहतरी के वास्ते कुछ कर गुज़र ;
जाने फ़िर ये ज़िन्दगी हाथ आयेगी , ना आयेगी .

रचयिता ~~ डॉ . राकेश श्रीवास्तव
विनय खण्ड - 2 , गोमती नगर , लखनऊ .

(शब्दार्थ - सीरत = आन्तरिक सौंदर्य ,
फ़लसफ़ा = दर्शन / फिलोसोफी , फ़ना = नष्ट )

डॉक्टर साहब , आपकी कविता की ये पंक्ति हमारे जीवन की सच्चाई बयान करती है |

Dr. Rakesh Srivastava
13-05-2012, 08:50 PM
इस गर्मी में डॉक्टर साहब की कविता ठंडी हवा के झोंके की तरह आई है और मन को मोह लिया है. :bravo::bravo::bravo:

मित्र Abhisays जी ;
पढ़ने व पसंद करने हेतु आपका आभार प्रकट करता हूँ .

Dr. Rakesh Srivastava
13-05-2012, 08:55 PM
kuch meri tarf se...
उम्र का एक ऐसा पड़ाव भी आता है जब जीने की कला को देख घुटने भी जवाब दे जाते है, कहता है ये दिल ये जीना किसने बनाया इस जीने की जगह सरकार ने लिफ्ट क्यों नहीं लगवाया !

मित्र विक्रम जी ,
वैसे तो मुझे आपकी प्रतिक्रिया समझ नहीं आई किन्तु आप जैसे समर्थ व्यक्ति की है तो सार गर्भित ही होगी .

Dr. Rakesh Srivastava
13-05-2012, 09:01 PM
a beauty from master......

नहीं . एक प्रयास , प्रशिक्षु की तरफ से .
बहरहाल , आपका बहुत शुक्रिया मित्र n.dhebar जी .

Dr. Rakesh Srivastava
13-05-2012, 09:05 PM
डॉक्टर साहब , आपकी कविता की ये पंक्ति हमारे जीवन की सच्चाई बयान करती है |

मित्र सिकंदर जी ;
पढ़ने व पसंद करने के लिए आपका आभार व्यक्त करता हूँ .

Dr. Rakesh Srivastava
13-05-2012, 09:08 PM
मित्र कल्याण दास जी '
मनोयोग से पढ़ने के लिए आपका आभारी हूँ.

~VIKRAM~
14-05-2012, 09:25 AM
मित्र विक्रम जी ,
वैसे तो मुझे आपकी प्रतिक्रिया समझ नहीं आई किन्तु आप जैसे समर्थ व्यक्ति की है तो सार गर्भित ही होगी .

ये कविता नहीं पर कविता का पोस्ट मार्टम है !:giggle:
मजाक में लिखा है भैया जी

sombirnaamdev
23-05-2012, 11:08 PM
जैसे - जैसे तेरी भी सीरत संवरती जायेगी ;
ख़ुश्बुओं - सा दूर तक तुझको हवा फैलायेगी .

बन्द हैं जो खिड़कियाँ , तुम जितना खोलोगे उन्हें ;
रौशनी घर में तेरे भी उतनी बढ़ती जायेगी .

पास में जो रंग हैं उनको ख़्वाब में ढंग से भरो ;
धीरे - धीरे इक हसीं तस्वीर बनती जायेगी .

तुम हुकूमत ख़ुद पे करना सीख लोगे जितना ही ;
सल्तनत दुनिया में तेरी उतनी बढ़ती जायेगी .

फ़लसफ़ा तेरा अगर होगा न जीवन से जुड़ा ;
तेरी हर इक सोच बस बकवास बन रह जायेगी .

गफलतों में जी के तू ख़ुद को सिकन्दर मत समझ ;
ख़ाली हाथों ज़िन्दगी इक दिन फ़ना हो जायेगी .

इस जहाँ की बेहतरी के वास्ते कुछ कर गुज़र ;
जाने फ़िर ये ज़िन्दगी हाथ आयेगी , ना आयेगी .

रचयिता ~~ डॉ . राकेश श्रीवास्तव
विनय खण्ड - 2 , गोमती नगर , लखनऊ .

(शब्दार्थ - सीरत = आन्तरिक सौंदर्य ,
फ़लसफ़ा = दर्शन / फिलोसोफी , फ़ना = नष्ट )
dr saab kai din se gair hajir hone ke karan aapki is rachna ko

thoda late padh paya mafi chahta hun lekin hamesha ki tarah hi ek arth puran kavita padhane ko mili , iske liye aapka dhanyavaad

malethia
25-05-2012, 04:44 PM
जीवन की सच्च्चाई को दर्शाते हुए एक शानदार कविता के लिए डॉ. साहेब का बहुत बहुत आभार !

Dr. Rakesh Srivastava
21-06-2012, 12:52 AM
शुक्रिया मलेथिया जी .

sombirnaamdev
21-06-2012, 11:35 PM
kuch meri tarf se...
उम्र का एक ऐसा पड़ाव भी आता है जब जीने की कला को देख घुटने भी जवाब दे जाते है, कहता है ये दिल ये जीना किसने बनाया इस जीने की जगह सरकार ने लिफ्ट क्यों नहीं लगवाया !


उम्र का एक ऐसा पड़ाव भी आता है जब जीने की कला को देख घुटने भी जवाब दे जाते है, कहता है ये दिल ये जीना (सीढ़ी ) किसने बनाया इस जीने (सीढ़ी )की जगह सरकार ने लिफ्ट क्यों नहीं लगवाया