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View Full Version : योगा


~VIKRAM~
12-05-2012, 10:50 AM
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~VIKRAM~
12-05-2012, 10:52 AM
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~VIKRAM~
12-05-2012, 10:52 AM
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~VIKRAM~
12-05-2012, 10:52 AM
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~VIKRAM~
12-05-2012, 11:02 AM
प्राणायाम
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~VIKRAM~
12-05-2012, 12:59 PM
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~VIKRAM~
12-05-2012, 01:13 PM
योगा का पालन करने से व्यक्ति की मानसिक और शारीरिक शक्ति बढ़ जाती है, जिसके कारण उसका कार्य और व्यवहार और अच्छे से अमल में आता है|
आपको आजीवन युवा बनाए रखने में सक्षम है आप इन्हें किसी योगा एक्सपर्ट से अच्छे से सीखकर करें। यह बंध, मुद्रा, क्रिया, आसन है।

*# हस्त मुद्रा : 1.ज्ञान मुद्रा, 2.पृथ्वी मुद्रा, 3.वरुण मुद्रा, 4.वायु मुद्रा, 5.शून्य मुद्रा, 6.सूर्य मुद्रा, 7.प्राण मुद्रा, 8.लिंग मुद्रा, 9.अपान मुद्रा और 10.अपान वायु मुद्रा।


**# बंध-मुद्रा : 1.महामुद्रा, 2.महाबंध, 3.महावेधश्च, 4.खेचरी मुद्रा, 5.उड्डीयान बंध, 6.मूलबंध, 7.जालंधर बंध 8.विपरीत करणी मुद्रा, 9.वज्रोली मुद्रा, 10.शक्ति चालन।


***# आसन : 1.शीर्षासन, 2.मयूरासन, 3.भुजपीड़ासन, 4.कपोत आसन, 5.अष्टवक्रासन, 6.एकपाद कोंडियासन, 7.वृश्चिक आसन, 8.हलासन, 9.अर्धमत्स्येंद्रासन, 10.चक्रासन।


****# प्राणायाम : 1.अनुलोम विलोम, 2.भस्त्रिका, 3.कपालभाती, 4.भ्रामरी, 5.उज्जायी, 6.शितकारी, 7.शितली, 8.उद्गीथ, 9. बाह्य और 10. अग्निसार।


टॉप टेन क्रिया : 1.धौति, 3. गणेश, 3.बस्ती, 4.नेति, 5.त्राटक, 6.न्यौली, 7.कपालभाती, 8. कुंजल, 9.धौंकनी, 10.शंख प्रक्षालयन।


क्रियाओं को छोड़कर प्रत्येक व्यक्ति इन्हें थोड़े से अभ्यास से सीख सकता है। इन्हें सीखने के बाद किसी भी प्रकार के रोग और शोक व्यक्ति के पास फटक नहीं सकते। कारण यह कि यह योगा आपकी सेहत ही नहीं आपके मानसिक स्तर का भी ध्यान रखते हैं। यह आपमे पॉजिटिव एनर्जी का लेवल बढ़ाकर दुखों से निजात भी दिलाते हैं।

~VIKRAM~
12-05-2012, 01:22 PM
ज्ञान मुद्रा
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=16480&stc=1&d=1336811094

विधि : अँगूठे को तर्जनी (इंडेक्स) अँगुली से स्पर्श करते हुए शेष तीन अँगुलियों को सीधा तान दें। इस मुद्रा के लिए कोई विशेष समय अवधि नहीं है। सिद्धासन में बैठकर, खड़े रहकर या बिस्तर पर जब भी समय मिले आप इसका अभ्यास कर सकते हैं।

लाभ : ज्ञानमुद्रा ज्ञान स्मृति शक्ति बढ़ती है। यह मुद्रा एकाग्रता को बढ़ाकर अनिद्रा, हिस्टीरिया, गुस्सा और निराशा को दूर करती है। यदि इसका नियमित अभ्यास किया जाए तो सभी तरह के मानसिक विकारों तथा नशे की आदतों से मुक्ति मिल सकती है। इसके अभ्यास से मन प्रसन्न रहता है।

Sikandar_Khan
12-05-2012, 01:25 PM
विक्रम जी , आपका ये सूत्र अत्यंत लाभदायक है |

~VIKRAM~
12-05-2012, 04:29 PM
सफलता के top-10 योगा टिप्स
(1) अंग-संचालन : अंग-संचालन को सूक्ष्म व्यायाम भी कहते हैं। इसे आसनों की शुरुआत के पूर्व किया जाता है। इससे शरीर आसन करने लायक तैयार हो जाता है। सूक्ष्म व्यायाम के अंतर्गत नेत्र, गर्दन, कंधे, हाथ-पैरों की एड़ी-पंजे, घुटने, नितंब-कुल्हों आदि सभी की बेहतर वर्जिश होती है।

(2) प्राणायाम : अंग-संचालन करते हुए यदि आप इसमें अनुलोम-विलोम प्राणायाम भी जोड़ देते हैं तो यह एक तरह से आपके भीतर के अंगों और सूक्ष्म नाड़ियों को शुद्ध-पुष्ट कर देगा।

(3) मालिश : बदन की घर्षण, दंडन, थपकी, कंपन और संधि प्रसारण के तरीके से मालिश कराएं। इससे मांस-पेशियां पुष्ट होती हैं। रक्त संचार सुचारू रूप से चलता है। इससे तनाव, अवसाद भी दूर होता है। शरीर कांतिमय बनता है।

(4) व्रत : जीवन में व्रत का होना जरूरी है। व्रत ही संयम, संकल्प और तप है। आहार-विहार, निंद्रा-जाग्रति और मौन तथा जरूरत से ज्यादा बोलने की स्थिति में संयम से ही स्वास्थ्य तथा मोक्ष घटित होता है।

(5) योग हस्त मुद्राएं : योग की हस्त मुद्राओं को करने से जहां निरोगी काया पायी जा सकती हैं वहीं यह मस्तिष्क को भी स्वस्थ रखती है। हस्तमुद्राओं को अच्*छे से जानकर नियमित करें तो लाभ मिलेगा।

(6) ईश्वर प्राणिधान : एकेश्वरवादी होने से चित्त संकल्पवान, धारणा सम्पन्न तथा निर्भिक होने लगता है। यह जीवन की सफलता हेतु अत्यंत आवश्यक है। जो व्यक्ति ग्रह-नक्षत्र, असंख्*य देवी-देवता, तंत्र-मंत्र और तरह-तरह के अंधविश्वासों पर विश्वास करता है, उसका संपूर्ण जीवन भ्रम, भटकाव और विरोधाभासों में ही बीत जाता है। इससे निर्णयहीनता का जन्म होता है।

(7) ध्यान : ध्यान के बारे में भी आजकल सभी जानने लगे हैं। ध्यान हमारी ऊर्जा को फिर से संचित करने का कार्य करता है, इसलिए सिर्फ पांच मिनट का ध्यान आप कहीं भी कर सकते हैं। खासकर सोते और उठते समय इसे बिस्तर पर ही किसी भी सुखासन में किया जा सकता है।

(8). प्रार्थना : बहुत से लोग हैं जिनका मन ध्यान में नहीं लगता उन्हें अपने ईष्ट की प्रतिदिन प्रार्थना करना चाहिए। यहां स्पष्ट कर दें की पूजा नहीं प्रार्थना करें। ईष्ट के चित्र के समक्ष दीया या अगरबत्ती जलाकर, हाथ जोड़कर कम से कम 10 मिनट तक उनके प्रति समर्पण का भाव रखकर उनकी स्तुति करने से मन और मस्तिष्क में सकारात्मकता और शांति का विकास होता है जिससे व्यक्ति के जीवन में शुभ और लाभ होने लगता है।

(9) स्वाध्याय : स्वाध्याय आत्मा का भोजन है। स्वाध्याय का अर्थ है स्वयं का अध्ययन करना। आप स्वयं के ज्ञान, कर्म और व्यवहार की समीक्षा करते हुए पढ़ें वह सब कुछ जिससे आपके आर्थिक, सामाजिक जीवन को तो लाभ मिलता ही हो, साथ ही आपको इससे खुशी *भी मिलती हो। तो बेहतर किताबों को अपना मित्र बनाएं और स्वयं के मन को बेहतर दिशा में मोड़ें।

(10) सत्य : सत्य में बहुत ताकत होती है यह तो सुनते ही आए हैं, लेकिन कभी आजमाया नहीं। अब आजमाकर देखें। योग का प्रथम अंग 'यम' है और यम का ही उप अंग है सत्य।

जब व्यक्ति सत्य की राह से दूर रहता है तो वह अपने जीवन में संकट खड़े कर लेता है। असत्यभाषी व्यक्ति के मन में भ्रम और द्वंद्व रहता है, जिसके कारण मानसिक रोग उत्पन्न होते हैं। असत्य या झूठ बोलने से व्यक्ति की प्रतिष्ठा नहीं रहती और लोग उसकी सत्य बात का भी भरोसा नहीं करते।

~VIKRAM~
13-05-2012, 07:14 PM
कुण्डलिनी शक्ति
यह रीढ की हड्डी के आखिरी हिस्से के चारों ओर साढे तीन आँटे लगाकर कुण्डली मारे सोए हुए सांप की तरह सोई रहती है। इसीलिए यह कुण्डलिनी कहलाती है।
जब कुण्डलिनी जाग्रत होती है तो यह सहस्त्रार में स्थित अपने स्वामी से मिलने के लिये ऊपर की ओर उठती है। जागृत कुण्डलिनी पर समर्थ सद्गुरू का पूर्ण नियंत्रण होता है, वे ही उसके वेग को अनुशासित एवं नियंत्रित करते हैं। गुरुकृपा रूपी शक्तिपात दीक्षा से कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होकर ६ चक्रों का भेदन करती हुई सहस्त्रार तक पहुँचती है। कुण्डलिनी द्वारा जो योग करवाया जाता है उससे मनुष्य के सभी अंग पूर्ण स्वस्थ हो जाते हैं। साधक का जो अंग बीमार या कमजोर होता है मात्र उसी की यौगिक क्रियायें ध्यानावस्था में होती हैं एवं कुण्डलिनी शक्ति उसी बीमार अंग का योग करवाकर उसे पूर्ण स्वस्थ कर देती है।
इससे मानव शरीर पूर्णतः रोगमुक्त हो जाता है तथा साधक ऊर्जा युक्त होकर आगे की आध्यात्मिक यात्रा हेतु तैयार हो जाता है। शरीर के रोग मुक्त होने के सिद्धयोग ध्यान के दौरान जो बाह्य लक्षण हैं उनमें यौगिक क्रियाऐं जैसे दायं-बायें हिलना, कम्पन, झुकना, लेटना, रोना, हंसना, सिर का तेजी से धूमना, ताली बजाना, हाथों एवं शरीर की अनियंत्रित गतियाँ, तेज रोशनी या रंग दिखाई देना या अन्य कोई आसन, बंध, मुद्रा या प्राणायाम की स्थिति आदि मुख्यतः होती हैं ।

~VIKRAM~
14-05-2012, 09:49 AM
प्राणायाम से केवल कुण्डलिनी शक्ति ही जागृत ही नहीं होती बल्कि इससे अनेकों लाभ भी प्राप्त होते हैं। ´योग दर्शन´ के अनुसार प्राणायाम के अभ्यास से ज्ञान पर पड़ा हुआ अज्ञान का पर्दा नष्ट हो जाता है। इससे मनुष्य भ्रम, भय, चिंता, असमंजस्य, मूल धारणाएं और अविद्या व अन्धविश्वास आदि नष्ट होकर ज्ञान, अच्छे संस्कार, प्रतिभा, बुद्धि-विवेक आदि का विकास होने लगता है। इस साधना के द्वारा मनुष्य अपने मन को जहां चाहे वहां लगा सकता है। प्राणायाम के द्वारा मन नियंत्रण में रहता है। इससे शरीर, प्राण व मन के सभी विकार नष्ट हो जाते हैं। इससे शारीरिक क्षमता व शक्ति का विकास होता है। प्राणायाम के द्वारा प्राण व मन को वश में करने से ही व्यक्ति आश्चर्यजनक कार्य को कर सकने में समर्थ होता है। प्राणायाम आयु को बढ़ाने वाला, रोगों को दूर करने वाला, वात-पित्त-कफ के विकारों को नष्ट करने वाला होता है। यह मनुष्य के अन्दर ओज-तेज और आकर्षण को बढ़ाता है। यह शरीर में स्फूर्ति, लचक, कोमल, शांति और सुदृढ़ता लाता है। यह रक्त को शुद्ध करने वाला है, चर्म रोग नाशक है। यह जठराग्नि को बढ़ाने वाला, वीर्य दोष को नष्ट करने वाला होता है।
कुण्डलिनी शक्ति को जागरण के अनेक प्राणायाम-
कुण्डलिनी शक्ति के जागरण के लिए अनेक प्रकार के प्राणायामों को बनाया गया है- ये प्राणायाम है-

भस्त्रिका
कपाल भांति
सूर्यभेदी
निबन्ध
रेचक
वायवीय कुम्भक
प्राणायाम संयुक्त

इन प्राणायामों के द्वारा कुण्डलिनी शक्ति का जागरण किया जाता है। ध्यान रखें कि इन प्राणायामों का अभ्यास किसी योग गुरू की देखरेख में ही करना चाहिए। योग गुरू की देखरेख में प्राणायाम का अभ्यास करें ताकि वह आपके शरीर के स्वभाव, रूचि, आयु, समय, मौसम आदि को देखते हुए आप को उसी के अनुसार प्राणायाम का अभ्यास करने की सलाह दें। प्राणायाम में पूर्ण रूप से सफलता प्राप्त कर चुके व्यक्ति ही आपको प्राणायाम को आरम्भ में कितनी बार करना चाहिए व कैसे करना चाहिए और किस गति से अभ्यास को बढ़ाना चाहिए। इन सभी चीजों को बता पाएंगे।
कुण्डलिनी जागरण के लिए प्राणायाम-

प्राणायाम के लिए सिद्धासन में बैठ जाए। बाएं पैर को घुटने से मोड़कर एड़ी को दाईं ओर गुदा और अंडकोष के बीच जांघ से सटाकर रखें। इसी तरह बाएं पैर को भी घुटने से मोड़कर बाईं ओर गुदा और अंडकोष के बीच जांघ से सटाकर रखें। इसके बाद बाएं पैर के अंगूठे और तर्जनी को बांई जांघ और पिंडली के बीच में रखें। इस तरह दाएं पैर के अंगूठे और तर्जनी को भी बाईं जांघ और पिंडली के बीच में रखें। आसन की इस स्थिति में शरीर का पूरा भार एड़ी और सिवनी पर होना चाहिए। पूर्ण रूप से आसन बनने के बाद अपने दाएं हाथ के अंगूठे से नाक के दाएं छिद्र को बन्द कर दें और बाएं छिद्र से अन्दर के वायु को बाहर निकाल दें (रेचन करें)। पूर्ण रूप से सांस (वायु) को बाहर निकालने के बाद पुन: बाएं छिद्र से ही सांस (वायु) को अन्दर खींचें। फिर अन्दर के वायु को दाएं छिद्र से बाहर निकाल दें (रेचन करें)। इस तरह इस क्रिया का कई बार अभ्यास करें।
ध्यान रखें कि सांस बाहर निकालते समय जालन्धर बंध, मूलबंध व उडि्डयान बंध मजबूती से लगते हुए दोनों हथेलियों को घुटनों पर रखें और अपने ध्यान को नाक के अगले भाग पर केन्द्रित करें।

~VIKRAM~
14-05-2012, 09:50 AM
कुण्डलिनी जागरण प्राणायाम-

इस प्राणायाम के अभ्यास के लिए पहले की तरह ही सिद्धासन में बैठ जाएं। आसन में बैठने के बाद नाक के दोनों छिद्र से सांस (वायु) अन्दर खींचें। वायु को तब तक अन्दर खींचें जब तक वायु पूर्ण रूप से नाभि में न भर जाएं। सांस अन्दर खींचने के बाद सांस को अपनी क्षमता के अनुसार अन्दर ही रोककर रखें। साथ ही जालन्धर बन्ध लगाएं और मूलबन्ध के द्वारा अपान वायु को ऊपर उठाकर नाभि में मौजूद प्राण वायु से मिलाने की कोशिश करें। अपान वायु को ऊपर की ओर उठाते समय उडि्डयन बन्ध लगाएं। सांस को अन्दर रोककर रखते हुए ही इन तीनों बन्ध को लगाएं। अब सांस को जितनी देर तक रोककर रखना सम्भव हो रोककर रखें। फिर सांस छोड़ने से पहले तीनों बन्धों को खोलकर सांस बाहर निकाल दें (रेचन करें)।
इस तरह इस क्रिया को बार-बार करने से कुण्डलिनी जागरण में जल्द लाभ प्राप्त होता है। इस प्राणायाम के द्वारा वीर्य और प्राण के ऊर्ध्वगमन से बुद्धि तंत्र के बन्द कोष खुलते और मस्तिष्क में सूक्ष्म शक्ति को जानने की शक्ति बढ़ती है, साथ ही शरीर की नस-नस में अत्यंत शक्ति, साहस व पुलक का संचार होने से क्रियाशीलता और उत्फुल्लता का विकास भी होता है।

~VIKRAM~
14-05-2012, 10:06 AM
पृथ्वी मुद्रा


http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=16514&stc=1&d=1336972801
मुद्राओं में पृथ्वी मुद्रा का बहुत महत्व है। यह हमारे भीतर के पृथ्वी तत्व को जागृत करती है। योगियों ने मनुष्य के शरीर में दो मुख्य नाड़ियाँ बतलाई हैं। एक सूर्यनाड़ी और दूसरी चन्द्र नाड़ी।

पृथ्वी मुद्रा करने के दौरान अनामिका अर्थात सूर्य अँगुली पर दबाव पड़ता है, जिससे सूर्य नाड़ी और स्वर के सक्रिय होने में सहयोग मिलता है।

विधि : तर्जनी अँगुली को अँगूठे से स्पर्श कर दबाएँ। बाकि बच गई तीनों अँगुलियों को उपर की और सीधा तान कर रखें। आप इस मुद्रा को कहीं भी किसी भी समय कर सकते हैं।

लाभ : पृथ्वी मुद्रा से सभी तरह की कमजोरी दूर होती है। इससे वजन बढ़ता है। चेहरे की त्वचा साफ और चम

~VIKRAM~
14-05-2012, 10:21 AM
वरुण मुद्रा

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=16513&stc=1&d=1336972340

परिचय-

वरुण का मतलब जल (पानी) होता है। जल ही जीवन है। जिस तरह हमारे जीने के लिए वायु बहुत जरूरी है उसी तरह पानी भी उतना ही जरूरी है। किसी भी व्यक्ति को अगर कुछ दिन तक भोजन ना मिले तो वो जी सकता है लेकिन अगर उसे 1-2 दिन भी पानी न मिलें तो उसका जीना मुश्किल हो जाता है। जल का गुण होता है तरलता। जल भोजन को तरल बनानें में ही मदद नहीं करता बल्कि उससे कई प्रकार के अलग-अलग तत्वों को निर्माण करता है। अगर शरीर को जल नही मिले तो शरीर सूख जाता है तथा शरीर की कोशिकाएं भी सूखकर बेकार हो जाती है। जल तत्व शरीर को ठंडकपन और सक्रियता प्रदान करता है।

मुद्रा बनाने का तरीका-

हाथ की सबसे छोटी उंगली (कनिष्का) को जल तत्व का प्रतीक माना जाता है। जल तत्व और अग्नि तत्व (अंगूठें) को एकसाथ मिलाने से बदलाव होता है। छोटी उंगली के आगे के भाग और अंगूठें के आगे के भाग को मिलाने से `वरुण मुद्रा´ बनती है।

समय-

इस मुद्रा को सर्दी के मौसम में कुछ समय के लिए ही करें। गर्मी या दूसरें मौसम में इस मुद्रा को 24 मिनट तक किया जा सकता है। वरुण मुद्रा को ज्यादा से ज्यादा 48 मिनट तक किया जा सकता है।

लाभकारी-

इस मुद्रा के नियमित अभ्यास से शरीर का रूखापन दूर होता है।
`वरुण मुद्रा´ को करने से शरीर में चमक बढ़ती है।
इस मुद्रा को करने से खून साफ होता है और चमड़ी के सारे रोग दूर होते है।
`वरुण मुद्रा´ को रोजाना करने से जवानी लंबे समय तक बनी रहती है और बुढ़ापा भी जल्दी नही आता।
ये मुद्रा प्यास को शांत करती है।

विशेष-

एक्यूप्रेशर के मुताबिक बाएं हाथ की सबसे छोटी उंगली शरीर के बाएं हिस्से को प्रतिनिधित्व करती है। दाएं हाथ की सबसे छोटी उंगली शरीर के दाएं भाग का प्रतिनिधित्व करती है। बाएं और दाएं भाग पर असर डालने वाली सबसे छोटी उंगली अग्नि तत्व से प्रभावित होती है। दोनों के दबाव से शरीर का दायां और बायां भाग स्वस्थ और ताकतवर बनता है। इस मुद्रा में अंगूठें से छोटी उंगली की मालिश करने से शक्ति संतुलित होती है। बेहोशी टूट जाती है।

सावधानी-

जिन लोगों को सर्दी और जुकाम रहता है उन्हे वरुण मुद्रा का अभ्यास ज्यादा समय तक नहीं करना चाहिए।

~VIKRAM~
14-05-2012, 07:03 PM
वायु मुद्रा
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=16523&stc=1&d=1337003941
यह वायु के असंतुलन से होने वाले सभी रोगों से बचाती है। दो माह तक लगातार इसका अभ्यास करने से वायु विकार दूर हो जाता है। सामान्य तौर पर इस मुद्रा को कुछ देर तक बार-बार करने से वायु विकार संबंधी समस्या की गंभीरता 12 से 24 घंटे में दूर हो जाती है।

विधि : इंडेक्स अर्थात तर्जनी को हथेली की ओर मोड़ते हुए उसके प्रथम पोरे को अँगूठे से दबाएँ। बाकी बची तीनों अँगुलियों को ऊपर तान दें। इसे वायु मुद्रा कहते हैं।

लाभ: प्रतिदिन 5 से 15 मिनट तक इस मुद्रा का अभ्यास 15 दिनों तक करने से जोड़ों, पक्षाघात, एसिडिटी, दर्द, दस्त, कब्ज, अम्लता, अल्सर और उदर विकार आदि में राहत मिल सकती हैं।

~VIKRAM~
14-05-2012, 07:09 PM
शून्य मुद्रा
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=16524&stc=1&d=1337004545

अंगूठे से दूसरी अंगुली (मध्यमा,सबसे लम्बी वाली अंगुली) को मोड़कर अंगूठे के मूल भाग (जड़ में) स्पर्श करें और अंगूठे को मोड़कर मध्यमा के ऊपर से ऐसे दबायें कि मध्यमा उंगली का निरंतर स्पर्श अंगूठे के मूल भाग से बना रहे..बाकी की तीनो अँगुलियों को अपनी सीध में रखें.इस तरह से जो मुद्रा बनती है उसे शून्य मुद्रा कहते हैं..


लाभ - इस मुद्रा के निरंतर अभ्यास से कान बहना, बहरापन, कान में दर्द इत्यादि कान के विभिन्न रोगों से मुक्ति संभव है.यदि कान में दर्द उठे और इस मुद्रा को प्रयुक्त किया जाय तो पांच सात मिनट के मध्य ही लाभ अनुभूत होने लगता है.इसके निरंतर अभ्यास से कान के पुराने रोग भी पूर्णतः ठीक हो जाते हैं..

इसकी अनुपूरक मुद्रा आकाश मुद्रा है.इस मुद्रा के साथ साथ यदि आकाश मुद्रा का प्रयोग भी किया जाय तो व्यापक लाभ मिलता है.

~VIKRAM~
14-05-2012, 07:16 PM
सूर्य मुद्रा
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=16525&stc=1&d=1337004935

अंगूठे से तीसरी अंगुली अनामिका (रिंग फिंगर) को मोड़कर उसके ऊपरी नाखून वाले भाग को अंगूठे के जड़ (गद्देदार भाग) पर दवाब(हल्का) डालें और अंगूठा मोड़कर अनामिका पर निरंतर दवाब(हल्का) बनाये रखें तथा शेष अँगुलियों को अपने सीध में सीधा रखें.....इस तरह जिस मुद्रा का निर्माण होगा उसे सूर्य मुद्रा कहते हैं...

लाभ - यह मुद्रा शारीरिक स्थूलता (मोटापा) घटाने में अत्यंत सहायक होता है...जो लोग मोटापे से परेशान हैं,इस मुद्रा का प्रयोग कर फलित होते देख सकते हैं..

( अनामिका को महत्त्व लगभग सभी धर्म सम्प्रदाय में दिया गया है.इसे बड़ा ही शुभ और मंगलकारी माना गया है.हिन्दुओं में पूजा पाठ उत्सव आदि पर मस्तक पर जो तिलक लगाया जाता है,वह इसलिए कि ललाट में जिस स्थान पर तिलक लगाया जाता है योग के अनुसार मस्तक के उस भाग में द्विदल कमल होता है और अनामिका द्वारा उस स्थान के स्पर्श से मस्तिष्क की अदृश्य शक्ति जागृत हो जाती हैं,व्यक्तित्व तेजोमय हो जाता है)

~VIKRAM~
14-05-2012, 07:21 PM
प्राण मुद्रा
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=16526&stc=1&d=1337005236

अंगूठे से तीसरी अनामिका तथा चौथी कनिष्ठिका अँगुलियों के पोरों को एकसाथ अंगूठे के पोर के साथ मिलाकर शेष दोनों अँगुलियों को अपने सीध में खडा रखने से जो मुद्रा बनती है उसे प्राण मुद्रा कहते हैं..


लाभ - ह्रदय रोग में रामबाण तथा नेत्रज्योति बढाने में यह मुद्रा परम सहायक है.साथ ही यह प्राण शक्ति बढ़ाने वाला भी होता है.प्राण शक्ति प्रबल होने पर मनुष्य के लिए किसी भी प्रतिकूल परिस्थितियों में धैर्यवान रहना अत्यंत सहज हो जाता है.वस्तुतः दृढ प्राण शक्ति ही जीवन को सुखद बनाती है..

इस मुद्रा की विशेषता यह है कि इसके लिए अवधि की कोई बाध्यता नहीं..इसे कुछ मिनट भी किया जा सकता है.

~VIKRAM~
14-05-2012, 07:27 PM
लिंग मुद्रा/अंगुष्ठ मुद्रा
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=16527&stc=1&d=1337005654
लिंग या अँगुष्ठ मुद्रा पुरुषत्व का प्रतीक है इसीलिए इसे लिंग मुद्रा कहा जाता है।

विधि : दोनों हाथों की सभी अँगुलियों को एक-दूसरे से मिलाकर ग्रीप बनाएँ तथा अंदर छूट गए अँगूठे को दूसरे अँगूठे से पकड़ते हुए सीधा तान दें। इससे शरीर में गर्मी उत्पन्न होती है।

लाभ : यह छाती की जलन और कफ को दूर करती है। यह मुद्रा बलगम को रोककर फेफड़ों को शक्ति प्रदान करती है। व्यक्ति में स्फूर्ति और उत्साह का संचार करती है। अवांछित कैलोरी को हटाकर मोटापे को कम करने में भी यह लाभदायक है।

इस मुद्रा को तभी करें जबकि इसकी आवश्यकता हो। इस मुद्रा को करने के बाद पानी पीना चाहिए।

~VIKRAM~
14-05-2012, 07:32 PM
अपान मुद्रा
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=16528&stc=1&d=1337005923

अंगूठे से दूसरी अंगुली (मध्यमा) तथा तीसरी अंगुली (अनामिका) के पोरों को मोड़कर अंगूठे के पोर से स्पर्श करने से जो मुद्रा बनती है,उसे अपान मुद्रा कहते हैं..

लाभ - यदि मल मूत्र निष्कासन में समस्या आ रही हो,पसीना नहीं आ रहा हो, तो इस मुद्रा के चालीस मिनट के प्रयोग से इस अवधि के मध्य ही शरीर से प्रदूषित विजातीय द्रव्य निष्काषित हो जाते हैं.देखा गया है कि जब औषधि तक का प्रयोग निष्फल रहता है, इस मुद्रा का प्रयोग त्वरित लाभ देता है..

~VIKRAM~
14-05-2012, 07:38 PM
अपान वायु मुद्रा

मुद्रा बनाने का तरीका-

अपने हाथ की तर्जनी उंगली को अंगूठे की जड़ में लगाकर अंगूठे के आगे के भाग को मध्यमा उंगली और अनामिका उंगली के आगे के सिरे से लगा देने से अपानवायु मुद्रा बनती है लेकिन कनिष्ठका (छोटी उंगली) उंगली बिल्कुल सीधी रहनी चाहिए।

लाभकारी-

ये मुद्रा दिल के रोगों में तुरंत ही असर दिखाती है। किसी व्यक्ति को दिल का दौरा पड़ने पर ये मुद्रा करने से तुरंत ही लाभ होता है। दिल के रोगों के साथ-साथ अपानवायु मुद्रा आधे सिर का दर्द भी तुरंत ही कम कर देती है। इसके निरंतर अभ्यास से पेट के सभी रोग जैसे पेट में गैस आदि तथा पुराने रोग जैसे गठिया और जोड़ों के दर्द में लाभ होता है।

समय-

अपानवायु मुद्रा को सुबह और शाम लगभग 15-15 मिनट तक करना चाहिए।

जानकारी-

इस मुद्रा को करने से दिल के रोग और ब्लडप्रेशर जैसे रोग पूरी तरह जड़ से समाप्त हो जाते हैं।

~VIKRAM~
14-05-2012, 07:48 PM
सूर्य नमस्कार की विधि
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=16529&stc=1&d=1337006841
सूर्य-नमस्कार को सर्वांग व्यायाम भी कहा जाता है, समस्त यौगिक क्रियाऒं की भाँति सूर्य-नमस्कार के लिये भी प्रातः काल सूर्योदय का समय सर्वोत्तम माना गया है। सूर्यनमस्कार सदैव खुली हवादार जगह पर कम्बल का आसन बिछा खाली पेट अभ्यास करना चाहिये। इससे मन शान्त और प्रसन्न हो तो ही योग का सम्पूर्ण प्रभाव मिलता है।

प्रथम स्थिति- स्थितप्रार्थनासन
सूर्य-नमस्कार की प्रथम स्थिति स्थितप्रार्थनासन की है।सावधान की मुद्रा में खडे हो जायें।अब दोनों हथेलियों को परस्पर जोडकर प्रणाम की मुद्रा में हृदय पर रख लें।दोनों हाथों की अँगुलियाँ परस्पर सटी हों और अँगूठा छाती से चिपका हुआ हो। इस स्थिति में आपकी केहुनियाँ सामने की ऒर बाहर निकल आएँगी। अब आँखें बन्द कर दोनों हथेलियों का पारस्परिक दबाव बढाएँ । श्वास-प्रक्रिया निर्बाध चलने दें।

द्वितीय स्थिति - हस्तोत्तानासन या अर्द्धचन्द्रासन
प्रथम स्थिति में जुडी हुई हथेलियों को खोलते हुए ऊपर की ऒर तानें तथा साँस भरते हुए कमर को पीछे की ऒर मोडें।गर्दन तथा रीढ की हड्डियों पर पडने वाले तनाव को महसूस करें।अपनी क्षमता के अनुसार ही पीछे झुकें और यथासाध्य ही कुम्भक करते हुए झुके रहें ।

तृतीय स्थिति - हस्तपादासन या पादहस्तासन
दूसरी स्थिति से सीधे होते हुए रेचक (निःश्वास) करें तथा उसी प्रवाह में सामने की ऒर झुकते चले जाएँ । दोनों हथेलियों को दोनों पँजों के पास जमीन पर जमा दें। घुटने सीधे रखें तथा मस्तक को घुटनों से चिपका दें यथाशक्ति बाह्य-कुम्भक करें। नव प्रशिक्षु धीरे-धीरे इस अभ्यास को करें और प्रारम्भ में केवल हथेलियों को जमीन से स्पर्श कराने की ही कोशिश करें।

चतुर्थ स्थिति- एकपादप्रसारणासन
तीसरी स्थिति से भूमि पर दोनों हथेलियाँ जमाये हुए अपना दायाँ पाँव पीछे की ऒर फेंके।इसप्रयास में आपका बायाँ पाँव आपकी छाती केनीचे घुटनों से मुड जाएगा,जिसे अपनी छाती से दबाते हुए गर्दनपीछे की ऒर मोडकर ऊपर आसमान कीऒर देखें।दायाँ घुटना जमीन पर सटा हुआ तथा पँजा अँगुलियों पर खडा होगा। ध्यान रखें, हथेलियाँ जमीन से उठने न पायें। श्वास-प्रक्रिया सामान्य रूप से चलती रहे।

पंचम स्थिति- भूधरासन या दण्डासन
एकपादप्रसारणासन की दशा से अपने बाएँ पैर को भी पीछे ले जाएँ और दाएँ पैर के साथ मिला लें ।हाथों को कन्धोंतक सीधा रखें । इस स्थिति में आपका शरीर भूमि पर त्रिभुज बनाता है , जिसमें आपके हाथ लम्बवत् और शरीर कर्णवत् होते हैं।पूरा भार हथेलियों और पँजों पर होता है। श्वास-प्रक्रिया सामान्य रहनी चाहिये अथवा केहुनियों को मोडकर पूरे शरीर को भूमि पर समानान्तर रखना चाहिये। यह दण्डासन है।

षष्ठ स्थिति - साष्टाङ्ग प्रणिपात
पंचम अवस्था यानि भूधरासन से साँस छोडते हुए अपने शरीर को शनैःशनैः नीचे झुकायें। केहुनियाँ मुडकर बगलों में चिपक जानी चाहिये। दोनों पँजे, घुटने, छाती, हथेलियाँ तथा ठोढी जमीन पर एवं कमर तथा नितम्ब उपर उठा होना चाहिये । इस समय 'ॐ पूष्णे नमः ' इस मन्त्र का जप करना चाहिये । कुछ योगी मस्तक को भी भूमि पर टिका देने को कहते हैं ।

सप्तम स्थिति - सर्पासन या भुजङ्गासन
छठी स्थिति में थॊडा सा परिवर्तन करते हुए नाभि से नीचे के भाग को भूमि पर लिटा कर तान दें। अब हाथों
को सीधा करते हुए नाभि से उपरी हिस्से को ऊपर उठाएँ। श्वास भरते हुए सामने देखें या गरदन पीछे मोडकर
ऊपर आसमान की ऒर देखने की चेष्टा करें । ध्यान रखें, आपके हाथ पूरी तरह सीधे हों या यदि केहुनी से मुडे
हों तो केहुनियाँ आपकी बगलों से चिपकी हों ।

अष्टम स्थिति- पर्वतासन
सप्तम स्थिति से अपनी कमर और पीठ को ऊपर उठाएँ, दोनों पँजों और हथेलियों पर पूरा वजन डालकर नितम्बों को पर्वतशृङ्ग की भाँति ऊपर उठा दें तथा गरदन को नीचे झुकाते हुए अपनी नाभि को देखें ।

नवम स्थिति - एकपादप्रसारणासन (चतुर्थ स्थिति)
आठवीं स्थिति से निकलते हुए अपना दायाँ पैर दोनों हाथों के बीच दाहिनी हथेली के पास लाकर जमा दें। कमर को नीचे दबाते हुए गरदन पीछे की ऒर मोडकर आसमान की ऒर देखें ।बायाँ घुटना जमीन पर टिका होगा ।

दशम स्थिति - हस्तपादासन
नवम स्थिति के बाद अपने बाएँ पैर को भी आगे दाहिने पैर के पास ले आएँ । हथेलियाँ जमीन पर टिकी रहने दें । साँस बाहर निकालकर अपने मस्तक को घुटनों से सटा दें । ध्यान रखें, घुटने मुडें नहीं, भले ही आपका मस्तक उन्हें स्पर्श न करता हो ।

एकादश स्थिति - ( हस्तोत्तानासन या अर्धचन्द्रासन )
दशम स्थिति से श्वास भरते हुए सीधे खडे हों। दोनों हाथों की खुली हथेलियों को सिर के ऊपर ले जाते हुए पीछे की ऒर तान दें ।यथासम्भव कमर को भी पीछे की ऒर मोडें।

द्वादश स्थिति -स्थित प्रार्थनासन ( प्रथम स्थिति )
ग्यारहवीं स्थिति से हाथों को आगे लाते हुए सीधे हो जाएँ । दोनों हाथों को नमस्कार की मुद्रा में वक्षःस्थल पर जोड लें । सभी उँगलियाँ परस्पर जुडी हुईं तथा अँगूठा छाती से सटा हुआ । कोहुनियों को बाहर की तरफ निकालते हुए दोनों हथेलियों पर पारस्परिक दबाव दें।

~VIKRAM~
15-05-2012, 10:00 AM
________________ बंध-मुद्रा _______________
महामुद्रा
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पाइल्स या बवासीर एक ऐसा रोग है जिसमें रोगी का स्वास्थ्य काफी दयनीय हो जाता है। साथ ही असहनीय पीड़ा भी सहन करना पड़ती है। योग शास्त्र में इस रोग की पीड़ा से निपटने के लिए श्रेष्ठ मुद्रा महामुद्रा बताई गई है।

महामुद्रा की विधि
किसी स्वच्छ और साफ स्थान पर कंबल या दरी बिछाकर दोनों पैरों को सामने फैलाकर बैठ जाएं। अब दाहिने पैर को मोड़ते हुए एड़ी को गुदा द्वार के नीचे रखें। इसके बाद झुकते हुए बाएं पैर के अंगूठे को दोनों हाथों से पकड़ें तथा सांस लें। मूल बंध एवं जालंधर बंध लगाएं। कुंभक करते हुए अंतर्चेतना को ऊध्र्वमुखी बनाने का प्रयास करें। कुण्डली चक्रों का ध्यान करें एवं बंध हटाएं। धीरे-धीरे रेचक क्रिया करें। यही क्रम दाहिने पैर से करें। एवं यथा संभव कुंभक करें। यह मुद्रा कम से कम 4-5 बार करें।
जालंधर बंध, पूरक, रेचक, कुंभक आदि से संबंधित लेख पूर्व में प्रकाशित किए जा चुके हैं।

मुद्रा के लाभ
इस मुद्रा से पेट संबंधी रोग जैसे कब्ज, एसीडिटी, कब्ज, अपच जैसी बीमारियां दूर होती हैं। बवासीर और प्रमेह का नाश होता है। ध्यान के लिए उत्कृष्ट एवं कुंडली जागरण में यह मुद्रा काफी फायदेमंद है। बढ़ी हुई तिल्ली एवं क्षय रोग (टीबी) में भी यह मुद्रा लाभ पहुंचाती है। पुराना बुखार भी इस मुद्रा से ठीक हो जाता है

~VIKRAM~
15-05-2012, 02:48 PM
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पाचन तंत्र के लिए महामुद्रा
स्वामी ज्योतिर्मयानंद की पुस्तक से अंश
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मूलबंध लगाकर दाहिनी एड़ी से कंद (मलद्वार और जननांग का मध्य भाग) को दबाएँ। बाएँ पैर को सीधा रखें। आगे की ओर
झुककर बाएँ पैर के अँगूठे को दोनों हाथों से पकड़े। सिर को नीचे झुका कर बाएँ घुटने का स्पर्श कराएँ। इस स्थिति को जानुशिरासन भी कहते हैं।

महामुद्रा में जानुशिरासन के साथ-साथ, बंध और प्राणायाम, किया जाता है। श्वास लीजिए। श्वास रोकते हुए जालंधर बंध करें (ठुड्डी को छाती के साथ दबाकर रखें)। श्वास छोड़ते हुए उड्डीयान बंध (नाभी को पीठ में सटाना) करें। इसे जितनी देर तक कर सकें करें।

दाहिने पैर को सीधा रखते हुए बाई एड़ी से कंद को दबाकर इसी क्रिया को पुन: करें। आज्ञाचक्र पर ध्यान करें। भ्रू मध्य दृष्टि रखें। इसके अतिरिक्त सुषुम्ना में कुंडलिनी शक्ति के प्रवाह पर भी ध्यान कर सकते हैं।

जितनी देर तक आप इस मुद्रा को कर सकें उतनी देर तक करें। इसके पश्चात महाबंध और महाभेद का अभ्यास करें। महामुद्रा, महाबंध और महाभेद को एक दूसरे के बाद करना चाहिए।

लाभ : यह मुद्रा महान सिद्धियों की कुँजी है। यह प्राण-अपान के सम्मिलित रूप को सुषुम्ना में प्रवाहित कर सुप्त कुंडलिनी जाग्रत करती है। इससे रक्त शुद्ध होता है। यदि समुचित आहार के साथ इसका अभ्यास किया जाय तो यह सुनबहरी जैसे असाध्य रोगों को भी ठीक कर सकती है। बवासीर, कब्ज, अम्लता और शरीर की अन्य दुष्कर व्याधियाँ इस के अभ्यास से दूर की जा सकती हैं। इसके अभ्यास से पाचन क्रिया तीव्र होती है तथा तंत्रिकातंत्र स्वस्थ और संतुलित बनता है।
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=16554&stc=1&d=1337086529

~VIKRAM~
18-05-2012, 06:47 PM
shilpa ji ab aap hi hoga ki class le ..
f86xno9pSwg

~VIKRAM~
18-05-2012, 06:57 PM
2suc92QBL2g

~VIKRAM~
18-05-2012, 07:00 PM
die-QkGf5r0

~VIKRAM~
19-05-2012, 04:07 PM
BkCEendMJOk

~VIKRAM~
19-05-2012, 04:08 PM
W6aCW3Pc3zY

~VIKRAM~
19-05-2012, 04:08 PM
OEI-LdU8YkU

khalid
19-05-2012, 04:17 PM
बहुत उपयोगी सुत्र का निर्माण किया हैँ आप ने विक्रम जी:bravo:

~VIKRAM~
19-05-2012, 04:42 PM
S112X48zV5I

anoop
21-05-2012, 10:51 PM
बहुत बढ़िया....