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View Full Version : डार्क सेंट की पाठशाला


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Dark Saint Alaick
26-05-2012, 01:25 AM
मित्रो, यह सूत्र दरअसल एक विचार-वीथी है अर्थात मनोरंजक रूप में ज्ञान का खज़ाना ! यदि आपको कुछ सीखने की तमन्ना हो, तो ही इस पर आगे बढ़ें, अन्यथा मेरी यह 'निजी डायरी' आपके किसी काम की नहीं !

Dark Saint Alaick
26-05-2012, 01:28 AM
शब्द कभी नहीं मिटते

आचार विचार और सोच यह हमारी आदतों में शुमार है। हम जो कुछ भी सोचते, करते और कहते हैं, उसका प्रतिबिंब हमारे मुख पर अंकित हो जाता है। यदि शब्दों की ही बात करें, तो हमारे मुख से जो शब्द निकलते हैं उसमें असीम सामर्थ्य होता है। ऐेसा सामर्थ्य जिसका मानव जीवन पर पूर्णतया प्रभाव पड़ता है। इसलिए कहा गया है कि धरती-आकाश भले ही मिट जाएं,किंतु उच्चारित शब्द कभी नहीं मिटते। सन 1916 के यूरोपियन युद्ध में इस शब्द शक्ति ने बड़ा कमाल कर दिखाया। फ्रांस के उच्चतम सैनिक अधिकारी जनरल पेंता ने अपने सैनिकों के दिलों में यह विश्वास भर दिया कि जर्मन सैनिक हमारी धरती पर पांव नहीं रख सकते । उनके शब्दों में ऐसी शक्ति, ऐसा सामर्थ्य था कि सैनिकों में अदम्य साहस जाग गया। उनमें उत्साह का ऐसा संचार हुआ कि वे जी जान से लड़ते हुए विजयी हुए। युद्ध में कार्यरत डॉक्टरों का कहना था कि घायल सैनिकों की तो बात ही क्या, जो सैनिक शहीद हो गए थे, उनके चेहरे पर भी विजय की झलक साफ दिखाई दे रही थी। वस्तुत हमारे मुंह से निकला शब्द सन्देशवाहक का काम करता है। यदि उससे प्रेम के शब्द निकलेंगे, तो प्रेम का संदेश देंगे और वैर-विरोध के शब्द निकलेंगे, तो वैर-विरोध का संदेश देंगे। मन में विचारे शब्दों की अपेक्षा मुंह से उच्चारित शब्दों का सामर्थ्य कई गुना अधिक होता है। किसी अच्छे वक्ता के मुंह से अच्छा भाषण सुनकर मनुष्य के चित्त पर जो प्रभाव पड़ता है, वह उसी प्रकार की किसी पुस्तक को पढ़कर नहीं पड़ता। पढ़े और सुने हुए शब्दों में काफी बड़ा अंतर होता है। लिखित शब्द भूले जा सकते हैं, मगर सुने हुए शब्दों को आसानी से भुलाया नहीं जा सकता । उन शब्दों के पीछे जो विचार शक्ति है, वह शक्ति संपन्न होनी चाहिए। आप सदा मन में यह विचार करें कि मैं यह कार्य कर सकता हूं। मैं इसे करके दिखाऊंगा। मैं इसे अवश्य करूंगा। इन शब्दों को केवल मन में ही न रखें, इसका बार-बार मुंह से उच्चारण भी करें। फिर देखें कि आप वह सब कर सकते हैं या नहीं। यही आपके लिए जीत की सबसे बड़ी सीढ़ी साबित हो जाएगी।

Dark Saint Alaick
26-05-2012, 01:32 AM
समस्याओं का निपटारा करें

जीवन में किसी भी प्रकार की समस्या के सामने आ जाने से अथवा किसी कारणवश कोई मनोवेग या भावना उत्पन्न होने पर तत्काल कुछ कह देना या कर देना दुर्बल मन मस्तिष्क का परिचायक होता है। इसी प्रकार कोई इच्छा आपके मन में जागृत हो रही है, तो उस इच्छा के उत्पन्न होने पर तत्काल उसको बिना जांचे पूरा करने में लग जाना भी एक तरह से अविकसित व्यक्तित्व का ही लक्षण होता है। पहले तो यह ठान लीजिए कि आपको अपने मन का स्वामी बनना है। इसलिए सबसे पहले अपनी समस्या, इच्छा या मनोवेग को अपने विवेक के तराजू पर पूरी संजीदगी के साथ तौलिए। उसके अच्छे और बुरे परिणामों पर भी भरपूर सोचिए। इसके बाद जो नतीजे सामने आते हैं, उन नतीजों के आधार पर कुछ कहिए या कीजिए। यदि आपको लगता है कि उस समय कुछ कहना या करना कतई उचित नहीं है, तो शांत रहिए और मौन धारण कर लीजिए और अपने काम में जुट जाइए। इससे निश्चित तौर पर आपकी इच्छा शक्ति और व्यक्तित्व का विकास होगा। कई बार यह देखा गया है कि लोग अपनी समस्याओं को या कठिनाइयों को एक बार में ही निपटा देना चाहते हैं। इसका कारण यह है कि वे समस्याओं या कठिनाइयों का समूह देख कर बेहद घबरा जाते हैं और उनके उत्साह पर पानी फिर जाता है। वे बेतरतीब तरीके से उन समस्याओं के समाधान में जुटने का प्रयास करने लगते हैं, जो कतई उचित नहीं है। समस्याओं या कठिनाइयों को निपटाने का सही ढंग यह है कि सबसे पहले उन सभी को कागज पर लिख डालिए। इसके बाद उस समस्या को उसके महत्व के क्रम से लगा लीजिए। यह देखिए कि वर्तमान में सबसे महत्वपूर्ण कौन सी समस्या है, जिसका आपको सबसे पहले निपटारा करना है। फिर उस समस्या को कई छोटे-छोटे भागों में बांटिए और उसके प्रारंभिक हल में जुट जाइए। इस प्रकार एक समय में एक ही समस्या को हल करने में अपना ध्यान लगाइए। इस विधि को अपनाने से आपका मनोबल और उत्साह बढ़ेगा। आप अपना काम और कुशलता से करने के कारण सरलता से सफलता प्राप्त कर सकेंगे।

Dark Saint Alaick
26-05-2012, 01:36 AM
अहंकार का भूत

अहंकार या घमंड एक ऐसी बीमारी है, जो जिसके भी शरीर में प्रवेश कर जाती है, वह फिर कहीं का नहीं रहता। यह भी तय है कि ऐसे मनुष्य को अपने अहंकार के कारण एक न एक दिन पछताना भी पड़ता है। इसलिए मनुष्य कितना भी महान क्यों न हो जाए या कितना भी बड़ा पद क्यों न पा ले, उसे कभी भी अहंकार रूपी बीमारी को अपने पास नहीं फटकने देना चाहिए अन्यथा उस मनुष्य का बड़ा होना या बड़ा पद पा लेना कोई मायने नहीं रखता। एक बहुत रोचक कथा से इसे सरल रूप में समझें - एक राजा के दो बेटे थे। बड़ा भाई अहंकारी था, जबकि छोटा भाई मेहनती और परोपकारी। राजा की मौत के बाद बड़ा भाई गद्दी पर बैठा। उसके अत्याचारों से समूची प्रजा परेशान हो गई। उधर छोटा भाई चुपके-चुपके परेशान प्रजा की मदद करता रहता था। कुछ दिनों बाद चारों तरफ छोटे भाई की प्रशंसा होने लगी। जब बड़े भाई को इसका पता लगा, तो उसने छोटे भाई को बुलाकर कहा - "मैं इस राज्य का राजा हूं। मेरी अनुमति के बगैर तुम प्रजा के हित में कोई काम नहीं करोगे।" छोटा भाई बोला - "भैया, प्रजा की सेवा करना तो मेरा धर्म है।" बड़े भाई ने राज्य का एक छोटा सा हिस्सा देकर उसे अलग कर दिया। छोटे भाई ने अपने हिस्से की जमीन में आम का बगीचा लगाया। उसकी देखभाल वह स्वयं करता था। जल्दी ही उसमें फल आने लगे। उस रास्ते से जो भी यात्री जाता, उसके फल पाकर प्रसन्न होता और छोटे भाई को दुआएं देता। बड़े भाई ने सोचा कि वह भी यदि ऐसा ही कोई बगीचा लगाए, तो फल खाकर लोग उसकी भी प्रशंसा करेंगे और छोटे भाई को भूल जाएंगे। यह सोचकर उसने भी राज्य के मुख्य मार्ग के किनारे एक बगीचा लगवाया और उसकी देखभाल के लिए दर्जनों मजदूरों की नियुक्ति की। पेड़ बड़े हो गए, मगर उनमें फल नहीं आए। बड़े भाई ने माली से पूछा - "इनमें फल क्यों नहीं आए?" माली को कोई जवाब नहीं सूझा। तभी एक संत उधर से गुजर रहे थे। उन्होंने कहा - "इनमें फल नहीं आएंगे, क्योंकि इन पर अहंकार के भूत की छाया पड़ी हुई है।" यह सुनकर बड़ा भाई शर्मिंदा हो गया।

Dark Saint Alaick
26-05-2012, 01:39 AM
सभी मौसम अच्छे बशर्ते ...

एक गांव में एक सेठ रहते थे। वे काफी विचारवान थे और हर फैसला काफी सोच समझ कर किया करते थे। जब सेठ का बेटा जवान हुआ, तो सेठ ने निश्चय किया कि वह अपने पुत्र के लिए ऐसी समझदार वधू लाएंगे, जिसके पास हर समस्या का समाधान हो। वे अपने विवेक के साथ समझदार लड़की ढूंढने में जुट गए। सेठ जब भी किसी लड़की को देखने जाते, तो उससे प्रश्न करते कि सर्दी, गर्मी और बरसात में सबसे अच्छा मौसम कौन सा होता है? एक लड़की ने सेठ को उत्तर दिया - "गर्मी का मौसम सबसे अच्छा होता है। उसमें हम लोग पहाड़ पर घूमने जाया करते हैं। सुबह-सुबह टहलने में भी काफी सुख मिलता है।" दूसरी लड़की से मिले, तो उससे भी वही सवाल किया। उस लड़की ने कहा - "मुझे तो सर्दी का मौसम पसंद है। इस मौसम में तरह - तरह के पकवान बनते हैं। हम जो भी खाते हैं, सब आसानी से पच जाता है। इस मौसम में गर्म कपड़ों का अपना ही सुख है।" सेठ तीसरी लड़की से मिले और फिर वही सवाल दागा, तो उस लड़की ने कहा - "मुझे तो वर्षा ऋतु सबसे ज्यादा पसंद है। इस मौसम में पृथ्वी पर चारों ओर हरियाली होती है। खेतों-खलिहानों से मिट्टी की सोंधी-सोंधी खुशबू आती है। कभी-कभी तो उसमें इतनी महक होती है कि उसे खाने की इच्छा होती है। आसमान में इंद्रधनुष देखकर मन बेहद आनंदित हो जाता है। इसके अलावा बारिश में भीगने का अपना ही मजा है।" सेठ को तीनों लड़कियों की बातें अच्छी तो लगीं, पर वह उनके जवाब से संतुष्ट नहीं हुए। अपनी इच्छा के अनुसार जवाब न मिलने के कारण वह थोड़ा निराश भी हो गए और उन्होंने सोचा कि शायद वे अपने बेटे के लिए अपने विचारों वाली बहू नहीं ढूंढ पाएंगे। तभी अचानक एक दिन वे अपने एक रिश्तेदार के घर पहुंचे, जहां उनकी मुलाकात एक लड़की से हुई। उससे भी उन्होंने वही सवाल दोहराया। लड़की ने जवाब दिया - "अगर हमारा मन और शरीर स्वस्थ है, तो सभी मौसम अच्छे हैं। अगर हमारा तन-मन स्वस्थ नहीं है, तो हर मौसम बेकार है।" सेठ इस उत्तर से बेहद प्रभावित हुए। उन्होंने उस लड़की को बहू बना लिया।

Dark Saint Alaick
26-05-2012, 02:59 AM
फूलों के बीज का थैला

मनुष्य को हमेशा यही सोचना चाहिए कि वह अपने लिए तो सब कुछ करता ही है, लेकिन समाज और देश के लिए भी उसका जो कर्तव्य है उसे भी वह भलीभांति कैसे निभाए। अक्सर हम यही सोचते हैं कि हमारे अकेले के करने से क्या दुनिया बदल जाएगी। लेकिन ऐेसा नहीं है। हम अपने स्तर पर जो भी प्रयास कर सकते हैं जरूर करें। हो सकता है उसका लाभ सीधे तौर पर हमें कभी भी न मिले, लेकिन आने वाली पीढ़ी उसका लाभ जरूर उठा सकती है। तय मानिए जिस दिन से आप ऐसा सोचने लगेंगे, आपको एक सुखद शांति मिलेगी कि आपके कामों का लाभ किसी और को मिल रहा है। प्रसिद्ध रूसी विचारक मैडम लावत्स्की अपनी हर यात्रा में एक थैला रखती थीं, जिसमें कई तरह के फूलों के बीज होते थे। वह जगह-जगह उन बीजों को जमीन पर बिखेरती रहती थीं। लोगों को उनकी यह आदत बड़ी बेतुकी लगती थी। लोग समझ नहीं पाते थे कि इस तरह बीज बिखेरते रहने से क्या होगा। उन्हें आश्चर्य होता था कि मैडम लावत्स्की जैसी समझदार महिला सब कुछ जानते हुए भी ऐसा क्यों कर रही हैं। पर लोगों को उनसे इस बारे में पूछने का साहस ही नहीं होता था, लेकिन एक दिन एक व्यक्ति ने पूछ ही लिया। मैडम, अगर बुरा न मानें, तो कृपया बताएं कि आप इस तरह क्यों फूलों के बीज बिखराती रहती हैं? मैडम ने सहज होकर कहा- वह इसलिए कि बीज सही जगह अंकुरित हो जाएं और जगह-जगह फूल खिलें। उस व्यक्ति ने इस पर फिर सवाल किया-आपकी बात तो सही है पर क्या आप यह दोबारा देखने जाएंगी कि बीज अंकुरित हुए या नहीं। फूल खिले कि नहीं। इस पर मैडम ने कहा-इससे क्या फर्क पड़ता है कि मैं उन रास्तों पर दोबारा जाऊं या नहीं। मैं अपने लिए फूल नहीं खिलाना चाह रही। मैं तो बस, बीज डाल रही हूं, ताकि चारों तरफ फूल खिलें और धरती का शृंगार हो जाए। धरती सुंदर हो जाए। फिर जो इन फूलों को देखेगा, उनकी आंखों से भी मैं ही देखूंगी। फूल हों या अच्छे विचार, उन्हें फैलाने के काम में हर किसी को योगदान करना चाहिए। अगर प्रयासों में ईमानदारी है, तो सफलता मिलेगी ही।

Dark Saint Alaick
26-05-2012, 03:04 AM
खुद करें अपनी मार्केटिंग

लोग आपको तब तक आदर नहीं देंगे, जब तक आप स्वयं को आदर नहीं देंगे। लोग आपकी कीमत तब तक नहीं समझेंगे, जब तक आप अपनी कीमत नहीं समझेंगे। लोग आपकी प्रतिभा को तब तक नहीं पहचानेंगे, जब तक आप अपनी प्रतिभा नहीं पहचानेंगे। मीडिया के वर्तमान युग में मार्केटिंग सफलता में अहम भूमिका निभाने लगी है। आप स्वयं को और अपनी प्रतिभा को किस तरह से पेश करते हैं, यह आज के दौर में बेहद महत्वपूर्ण हो गया है। कुछ लोग कहते हैं कि यदि आपके अंदर योग्यता और प्रतिभा है, तो वह एक दिन अवश्य ही पहचानी जाएगी। यह एक श्रेष्ठ विचार है, परन्तु वर्तमान युग में हर किसी की प्रतिभा अपने आप पहचान ली जाए, यह संभव भी नहीं है। लाखों लोग प्रतिभावान हैं, परन्तु चंद लोग ही शिखर पर जगह बना पाते हैं। आपकी प्रतिभा और आपके गुण आपके भीतर ही दबे रह जाते हैं, यदि आप उन्हें पेश नहीं करते हैं, उन्हें प्रदर्शित नहीं करते हैं। हमें कई ऐसे लोग मिलते हैं, जो चमत्कारिक तेजी से शीर्ष पर पहुंच जाते हैं और अपने समकक्ष लोगों को काफी पीछे छोड़ देते हैं। ऐसे लोग अपने विशिष्ट गुणों के साथ जीत का कॉमनसेंस भी इस्तेमाल करते हैं अर्थात सफलता के लिए जीनियस होने से कहीं ज्यादा है, कॉमनसेंस का होना। यदि आप एक सफल गायक बनना चाहते हैं, तो आपको अपने शानदार बायोडाटा, प्रशंसा पत्र, विशिष्ट फोटोग्राफ और अपने गीतों का आडियो सीडी या कैसेट विभिन्न कंपनियों और निर्देशकों को भेजना होगा। आपको अपनी मार्केटिंग खुद करनी होगी। अपने गुणों को सर्वश्रेष्ठ रूप से प्रस्तुत करना होगा। यदि आप सोच रहे हैं कि बिना मार्केटिंग किए घर बैठे ही एक न एक दिन आपकी प्रतिभा को कोई पहचान लेगा, तो आप गलत सोच रहे हैं। जमाना मार्केटिंग का है और इसमें आपको पारंगत होना ही होगा, तभी आप अपनी प्रतिभा के दम पर वह मुकाम हासिल कर पाएंगे, जिसके सपने आपने देखे या देख रहे हैं। आज से ही यह उपक्रम शुरू कर दें कि आपको अपने दम पर ही कामयाब होना है और आपको अपनी मार्केटिंग खुद ही करनी है। तय मानें, आप जरूर जीत जाएंगे।

Dark Saint Alaick
27-05-2012, 11:06 PM
तनाव को छुपाएं नहीं

अक्सर लोग तनाव के कारणों को अपने भीतर ही छुपा लेते हैं। वे यह नहीं चाहते कि दूसरे भी उनकी वजह से बिना कारण ही तनावग्रस्त हो जाएं। वे अक्सर यह भी नहीं चाहते कि दूसरे उनको कमजोर समझें या दूसरों को उनकी अंदरूनी बातों का पता चल जाए। ऐसे लोगों को धीरे-धीरे अपने ही तनाव से घुटन सी होने लगती है, क्योंकि उन्हें तनाव को बाहर निकालने का रास्ता नहीं मिलता। ऐसे में तनाव अंदर ही अंदर बढ़ता चला जाता है। इसका नतीजा यह होता है कि वे या तो आत्मघाती कदम उठा लेते हैं या कोई भी गलत निर्णय कर बैठते हैं। ज्यादा बेहतर यही होगा कि आप अपनी पत्नी से, परिवार के सदस्यों से या करीबी मित्रों से समस्या बांट लें। तय मानिए, जैसे ही आप बात करना शुरू करते हैं, तनाव घटने लगता है। फिर जैसे-जैसे तनाव कम होता है, आपके दिमाग में समाधान आने लगते हैं। दरअसल तनाव सोचने की सकारात्मक प्रक्रिया पर ही विराम लगा देता है। जब आप दूसरों से अपनी समस्या के लेकर चर्चा करते हैं, तो उनकी सलाह से कभी-कभी आपको एकदम नए हल मिल जाते हैं। समाधान ढूंढने की मानसिकता आपके अंदर ही पैदा हो जाती है। ऐसे कई तथ्य हैं, जो अनजाने में आपने नजरअंदाज कर दिए थे, इससे वे आपके सामने आ जाते हैं। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। किसी मरीज को शरीर के किसी हिस्से में इंफेक्शन हो जाने से वहां मवाद बन जाता है। असहनीय दर्द होना शुरू हो जाता है। सूजन आ जाती है। धीरे-धीरे वह सूजन बढ़ती चली जाती है। साथ ही दर्द भी बढ़ने लगता है। ऐसे में दवा भी किसी प्रकार का असर नहीं करती। डॉक्टर उस सूजन में छोटा चीरा लगाते हैं। जैसे ही दबाव को निकलने की जगह मिलती है, तेजी से मवाद और इंफेक्शन उस जगह से बाहर आने लगता है। मरीज को चमत्कारिक आराम मिलने लगता है। इसके साथ ही दवाएं भी असर करने लगती हैं। कहने का सार यही है कि दबाव एवं तनाव को बाहर निकलने का रास्ता दे दीजिए। अपनी समस्या को बांटिए। अपने अंदर कभी भी दबा कर मत रखिए। तय मानिए, आप खुद को काफी हल्का महसूस करेंगे।

Dark Saint Alaick
27-05-2012, 11:10 PM
न्याय का सम्मान

जो सच है, उसके विपरीत कभी न झुकना ही सच्ची इंसानियत कहलाती है। मनुष्य का पेशा कोई भी हो, जहां तक संभव हो, उसके साथ न्याय जरूर करना चाहिए, क्योंकि पेशे के साथ न्याय करके ही मनुष्य न केवल समाज में ऊंचा उठ सकता है, बल्कि उस पेशे से जुड़े अन्य लोगों के लिए भी वह एक नायाब उदाहरण बन सकता है। जो कर्तव्य है, उसका बगैर किसी के दबाव में आए सही ढंग से पालन करने पर मनुष्य को समाज में ख्याति ही मिलती है, यह तय है। माधव राव मराठा राज्य के पेशवा थे और राम शास्त्री प्रधान न्यायाधीश। न्यायाधीश की नियुक्ति पेशवा करते थे, लेकिन राम शास्त्री के कामकाज में वह कभी हस्तक्षेप नहीं करते थे। एक बार मराठा राज्य के वफादार और पेशवा के करीबी सरदार बिसाजी पंत लेले ने अंग्रेजों का जहाज लूट लिया। फिरंगियों ने इसकी शिकायत राम शास्त्री से की। उन्होंने लेले को न्यायालय के सामने हाजिर होने का आदेश दिया, लेकिन लेले हाजिर नहीं हुए। तब शास्त्री ने आदेश दिया कि उन्हें गिरफ्तार कर हाजिर किया जाए। इससे पूरे राज्य में हड़कंप मच गया। कई सरदारों ने राम शास्त्री की शिकायत माधव राव से की। माधव राव ने राम शास्त्री को बुलवाया और पूछा - आपने लेले को इतना कठोर दंड क्यों दिया? शास्त्री ने कहा - श्रीमंत, अदालत के सामने सब बराबर होते हैं। लेले ने जो अपराध किया है, उसी का दंड उन्हें दिया गया है। माधव राव ने पूछा - क्या यह मराठा राज्य के हित में होगा कि फिरंगियों की शिकायत पर हम अपने ही सरदार को दंडित करें? शास्त्री ने कहा - आपको लेले को क्षमा करने का अधिकार है, लेकिन उस समय न्याय की कुर्सी पर राम शास्त्री नहीं, कोई दूसरा बैठा होगा। माधव राव ने कहा - शास्त्री आप ऐसा न कहें। आप के रहते ही तो मराठा राज्य पूरी तरह सुरक्षित है। शास्त्री बोले - ठीक है कि लेले को फिरंगियों की शिकायत पर दंडित किया गया है, लेकिन राज्य में यदि न्याय के प्रति विश्वास नहीं रहेगा और न्यायालय की अवमानना होगी, तो शासन व्यवस्था को चरमराते देर नहीं लगेगी। माधव राव इस जवाब को सुन निरुत्तर हो गए।

Dark Saint Alaick
29-05-2012, 11:00 PM
खुशनुमा और सकारात्मक बनें

अगर आप रोज सुबह सकारात्मक मूड में ऑफिस जाते हैं, तो आपकी छवि ऐसे व्यक्ति की बन जाएगी, जिस पर तनाव, मुश्किलों और समस्याओं का असर उस तरह नहीं होता, जिस तरह एक बतख की पीठ पर पानी का। इससे आपकी छवि ऐसे व्यक्ति के रूप में बन जाएगी, जो हमेशा नियंत्रण में रहता है और शांत, आरामदेह, आत्मविश्वास से परिपूर्ण और बहुत परिपक्व है। यह सब किसी एक गाने की धुन से भी हो सकता है, जिसकी सीटी बजाते हुए आप अपनी डेस्क तक पहुंचते हैं। हर समय खुशनुमा रहें। बाहर बारिश हो रही है, काले बादल छाए हुए हैं और जाड़े की दोपहर बहुत उदासी भरी है। बिजनेस मंदा है, ब्याज दरें एक बार फिर ऊपर चढ़ गई हैं, बॉस खराब मूड में है अथवा हर कर्मचारी मुंह लटकाए बैठा है। इसके बावजूद आप अपनी मुस्कान को मिटने न दें। ठीक है, यह बुरा दिन है; लेकिन यह गुजर जाएगा और सूरज आसमान में दोबारा लौट आएगा। आपकी स्थिति चाहे जो हो, चीजें हमेशा बेहतर होंगी। खुशनुमा और सकारात्मक नजरिया कायम रखना एक कला है। पहले तो आपको इस पर यकीन करने की जरूरत नहीं है - बस, इसे कर दें। नाटक करें। अभिनय करें, लेकिन करें। कुछ समय बाद आप पाएंगे कि आप नाटक नहीं कर रहे, आप तो वाकई खुशनुमा महसूस कर रहे हैं। यह एक चाल है। आप किसी दूसरे से नहीं खुद से चाल चल रहे हैं। मुस्कुराने से आपके हार्मोन प्रवाहित होते हैं। ये हार्मोन आपको बेहतर महसूस करवाएंगे। जब आप बेहतर महसूस करेंगे, तो आप ज्यादा मुस्कुराएंगे। इससे और हार्मोन पैदा होंगे। इसके लिए सिर्फ पहले कुछ दिन मुस्कुराने का नाटक करना पड़ेगा। इसके बाद तो ऐसा चक्र शुरू हो जाएगा कि आपको हर वक्त बेहतर महसूस होने लगेगा। जब आपको खुशनुमा और सकारात्मक व्यक्ति के रूप में देखा जाने लगेगा, तो लोग आपके साथ ज्यादा वक्त गुजारना चाहेंगे। खुशनुमा व्यक्ति जैसा शक्तिशाली चुंबक दूसरा नहीं होता। खुशनुमा बनने और सकारात्मक बनने में गुजारा गया हर पल आपकी जिंदगी में एक पल जोड़ देता है। बेहतर ही चुनें। अब चुनाव सिर्फ आपके हाथ में है।

Dark Saint Alaick
29-05-2012, 11:05 PM
मेहनत की कमाई

कहते हैं, मेहनत ही इंसान को आगे ले जाती है। बगैर मेहनत अगर कोई यह सोचे कि उसे अपार संपदा मिल जाएगी, तो यह ख्याल ही अपने आप में गलत है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि मनुष्य मेहनत तो करता है, लेकिन उसे उसका वांछित प्रतिफल नहीं मिलता। ऐसे में वह अपने उद्देश्य से भटक भी सकता है। वह अपनी मेहनत को ऐसे काम में लगा देता है, जो न तो उचित होता है और न ही उसके लिए हितकारी। ऐसे में बेहतर यही होता है कि हम उचित मार्गदर्शन के साथ अपना काम करें। एक छोटी सी कथा है, ज़रा नज़र करें - किसी शहर में दो चोर रहते थे। वे बेहद चालाक थे। लोग उन्हें पकड़ने की कोशिश करते, पर वे कभी हाथ नहीं आते। उनकी एक विचित्र आदत थी। वे चोरी का माल दो हिस्सों में बांटते थे। एक हिस्सा वे स्वयं रखते और दूसरा भगवान को चढ़ा देते थे। एक रात वे चोरी के लिए निकले। इधर-उधर भटकने पर भी उन्हें चोरी का अवसर नहीं मिला। वे बैठकर बातें कर रहे थे कि तभी एक महात्मा उधर से निकले। महात्मा ने शांत भाव से पूछा - तुम दोनों कौन हो और यहां क्या कर रहे हो? एक चोर ने कहा - महाराज हम लोग चोर हैं। आज हम चोरी न कर पाए, इसलिए सुबह होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इस पर महात्मा ने कहा - तुम लोग जो करते हो, वह उचित है या अनुचित, क्या इस पर कभी सोचा भी है? चोर बोले - हम जो करते हैं, वह उचित ही होगा, क्योंकि चोरी करके हम जो भी वस्तु हासिल करते हैं, उसका एक हिस्सा भगवान को चढ़ा देते हैं। भगवान अवश्य ही हमसे प्रसन्न होंगे। यदि वह हमसे नाराज होते, तो हमें अपने कार्य में सफलता क्यों मिलती। यह सुनकर महात्मा ने अपने झोले से एक जीवित मुर्गा निकाला और उन्हें देते हुए कहा - आज तुम चोरी न कर सके। इस कारण तुम निराश लग रहे हो। यह रख लो। इसके दो भाग कर देना। एक भाग स्वयं रख लेना और दूसरा भगवान को चढ़ा देना। चोरों को इसका कोई जवाब न सूझा। कुछ देर सोचने के बाद उन्होंने कहा - हम समझ गए आप क्या कहना चाहते हैं। अब हम मेहनत की कमाई खाएंगे और उसका एक हिस्सा प्रभु के चरणों में अर्पित करेंगे।

Dark Saint Alaick
30-05-2012, 02:28 AM
खुद को पूरी तरह पहचानें

अगर आप नियमों के खिलाड़ी बनने वाले हैं, तो आपको अपने बारे में बिल्कुल निष्पक्ष रहना होगा। बहुत से लोग ऐसा नहीं कर पाते। वे पूरी तरह से खुद पर स्पॉटलाइट नहीं घुमा सकते हैं, जितनी बारीकी से लोग उन्हें देखते हैं। मामला सिर्फ इतना ही नहीं है कि दूसरे हमें कैसे देखते हैं। मामला यह भी है कि हम खुद को कैसे देखते हैं। हम सभी के दिमाग में अपनी एक छवि होती है। हम कैसे दिखते हैं, हम कैसे बोलते हैं, हमें कौन सी चीज चलाती है, हम कैसे काम करते हैं। किन्तु यह छवि कितनी वास्तविक है? हम सोंचते हैं कि हम रचनात्मक और अजीब तरीके से काम करते हैं, जबकि दूसरे सोचते हैं कि हम अव्यवस्थित हैं। इनमें से कौन सी बात सच है? वास्तविकता क्या है? अपनी शक्तियों और कमजोरियों को समझने के लिए आपको पहले तो अपनी भूमिका समझनी होगी। अगर आपको शक है, तो सूची बना लें। जिन्हें आप अपनी शक्तियां और कमजोरियां मानते हैं, उन्हें कागज़ पर लिख लें। यह सूची किसी करीबी मित्र को दिखाएं, जिसके साथ आप काम नहीं करते हों या जिनके साथ आपके व्यावसायिक सम्बन्ध नहीं हों। उससे निष्पक्ष मूल्यांकन करने को कहें। फिर इसे किसी ऐसे विश्वस्त व्यक्ति को दिखाएं, जिसके साथ आप काम करते हैं। आप सच्चाई के कितने करीब हैं? क्या इस बारे में दोनों के मूल्यांकन में फर्क है? तय मानिए, उनमें काफी फर्क होगा। ऐसा इसलिए कि दोस्ती की आपकी विशेष योग्यताएं कामकाजी रिश्तों की आपकी योग्यताओं से अलग होती है। कई लोग सोचते हैं कि उनकी शक्तियों और कमजोरियों को पहचानने का मतलब है कि उन्हें बुरी चीजों से छुटकारा पाना चाहिए और सिर्फ अच्छी चीजों के साथ ही काम करना चाहिए। यह सच नहीं है। यह इलाज भी नहीं है। यह तो असल दुनिया है। हम सभी में कमजोरियां होती हैं। गोपनीय रहस्य तो उनके साथ काम करना सीखना है। आदर्श बनने की कोशिश क्यों करें? यह तो अयथार्थवादी और गैरजरूरी है। आप अपनी कमजोरियों का बेहतर इस्तेमाल भी तो कर सकते हैं और तब वे शक्तियां बन जाएंगी, है न? तो इस बारे में आज से ही, बल्कि अभी से सोचना शुरू कर दें।

Dark Saint Alaick
30-05-2012, 02:32 AM
एक संत की सीख

एक बार संत तिरुवल्लुवर अपने शिष्यों के साथ कहीं चले जा रहे थे। रास्ते में आने-जाने वाले लोग उनका अभिवादन कर रहे थे। तभी एक शराबी झूमता हुआ उनके सामने आया और तनकर खड़ा हो गया। उसने संत से कहा - आप लोगों से यह क्यों कहते फिरते हैं कि शराब घृणित और खराब चीज है, मत पिया करो। क्या अंगूर खराब होते हैं? क्या चावल बुरी चीज है? अगर ये दोनों चीजें अच्छी हैं, तो इनसे बनने वाली शराब कैसे बुरी हो गई? शराबी के इस सवाल पर लोग उसे हैरत से देखने लगे और सोचने लगे कि संत तिरुवल्लुवर इस पर क्या जवाब देते हैं। संत तिरुवल्लुवर मुस्कराकर बोले - भाई,अगर तुम पर मुट्ठी भर-भरकर कोई मिट्टी फैंके या कटोरा भर कर पानी डाल दे, तो क्या इससे तुम्हें चोट लगेगी? शराबी ने न में सिर हिलाया, तो संत तिरुवल्लुवर ने फिर कहा - लेकिन इस मिट्टी में पानी मिलाकर उसकी ईंट बनाकर तुम पर फेंकी जाए तब...? शराबी ने कहा - उससे तो मैं घायल हो जाऊंगा। मुझे बड़ी चोट लग सकती है। संत तिरुवल्लुवर ने समझाते हुए कहा - इसी प्रकार अंगूर और चावल भी अपने आप में बुरे नहीं हैं, मगर यदि इन्हें मिलाकर शराब बनाकर सेवन किया जाए, तो यह मनुष्य के लिए नुकसानदेह है। यह स्वास्थ्य को खराब करती है। इससे व्यक्ति की सोचने की क्षमता पर बुरा असर पड़ता है। इसके कारण तो परिवार नष्ट हो जाते हैं। संत की इस बात का उस शराबी पर गहरा असर पड़ा और उसने उस दिन से शराब से तौबा कर ली। यही नहीं, वह दूसरों को भी शराब छोड़ने की सलाह देने लगा। वह संत तिरुवल्लुवर के सत्संग में नियमित रूप से आने लगा। उसका जीवन बदल गया। इस कथा से तीन बातें स्पष्ट होती हैं - पहली कभी भी इन्सान को कोई भी तर्क देने से पहले हजार बार सोचना चाहिए कि वह जो बात कर रहा है, उसमें अखिर कितना दम है। दूसरा - नशा कोई भी हो, वह बुरा होता है। अपने स्वार्थ की खातिर नशे को अच्छा बताना समाज को ही गलत दिशा दिखाना होता है। और तीसरी - जब भी हमें संत कोई उपदेश दें, तो हमें उस पर गौर अवश्य करना चाहिए।

abhisays
30-05-2012, 03:42 PM
बहुत ही बढ़िया और ज्ञानवर्धक सूत्र है. इस पाड्शाला में तो रोज़ हाजिरी लगानी पड़ेगी. :bravo:

Kalyan Das
31-05-2012, 07:17 PM
[size="5"][color="purple"][b][i] युद्ध में कार्यरत डॉक्टरों का कहना था कि घायल सैनिकों की तो बात ही क्या, जो सैनिक शहीद हो गए थे, उनके चेहरे पर भी विजय की झलक साफ दिखाई दे रही थी।

आपके इन शब्दों से तो मुझमे भी अदम्य साहस जाग उठा है !!

khalid
31-05-2012, 08:42 PM
बहुत ही बढ़िया और ज्ञानवर्धक सूत्र है. इस पाड्शाला में तो रोज़ हाजिरी लगानी पड़ेगी. :bravo:

सत्य हैँ
मैँने पहले ध्यान क्योँ नहीँ दिया ;(

Dark Saint Alaick
31-05-2012, 10:13 PM
खतरे को भांपना सीखें

खतरे हमारी तरफ हर दिशा से, हर वक्त आते रहते हैं। बर्खास्तगी, छंटनी, कम्पनी का अधिग्रहण, प्रतिशोधात्मक सहकर्मी, चिड़चिड़े बॉस, नई प्रौद्योगिकी, नए सिस्टम, नई विधियां। दरअसल ये खतरे इतने बड़े हैं कि इनके बारे में कई पुस्तकें लिखी जा चुकीं हैं। खास तौर से परिवर्तन के खतरे के बारें में। जैसे 'हू मूव्ड माई चीज' और 'हाउ टू हैंडल टफ सिचुएशन एट वर्क'। अगर हम तेजी से सोच सकते हैं, तो लकीर के फकीर बनने से मुक्ति पा सकते हैं। लचीले रहकर तेजी से कदम उठा सकते हैं, जमकर मुक्के बरसा सकते हैं और दूरी को पार कर सकते हैं; तो हम न सिर्फ परिवर्तन के बावजूद बचने में कामयाब हो जाएंगे, बल्कि हम सर्वोच्च कोटि के कलाकार और खिलाड़ी भी बन जाएंगे। जाहिर है, हम यह सब नही कर सकते हैं। कई मौकों पर खतरा हम पर हावी हो जाएगा और हमें कुचल देगा। यह हम सभी के साथ होता है। इस सच्चाई से इनकार करने का कोई मतलब नहीं है कि जिंदगी कई बार पॉइंट ब्लैक रेंज से हम पर गोलियां चलाने लगती है और हमें सिर झुकाने का समय भी नहीं मिल पाता, लेकिन जोखिम हमेशा जोखिम ही रहता है। जब यह वास्तविकता बनता है, तभी हम इससे निपट सकते हैं। जब तक यह जोखिम है, जब तक यह सिर्फ डराता है, लेकिन कोई नुकसान नहीं कर सकता । कौन सा जोखिम, वास्तविक बन जाएगा, यह यह भांपना ही असल योग्यता, प्रतिभा है। असल में जोखिम तो बहुत होते हैं और हम उन सभी पर प्रतिक्रिया नहीं कर सकते। वास्तविक चुनौतियां कम ही होती हैं और हमें उन्हीं पर प्रतिक्रिया देनी होती है। अगर हम जोखिम को जोखिम न मानकर अवसर के रूप में देखें, तो इससे हमें काफी मदद मिल सकती है। जिंदगी में वास्तविक बनने वाले हर जोखिम विकास तथा परिवर्तन करने, अपनी विधियों और प्रबंधन शैली को ढालने और उन्हें दोबारा गढ़ने का मौका देते हैं। अगर हमारा नजरिया सकारात्मक है, तो हम में जोखिमों को नकारात्मक की बजाय सकारात्मक मानने की प्रवृत्ति होती है। वह हमें अपनी काबिलीयत को साबित करने का मौका देती है। अगर हमें कभी चुनौती ही न मिले, तो हम कभी बेहतर नहीं बन पाएंगे।

Dark Saint Alaick
31-05-2012, 10:40 PM
नेता की पहचान

यह घटना उस समय की है, जब रूस के जन नेता ब्लादिमीर इल्यीच लेनिन पर उनके कुछ शत्रुओं ने हमला कर दिया था। वे उस हमले में घायल हो गए थे और बिस्तर पर थे। डॉक्टरों ने उन्हें आराम की सख्त हिदायत दी हुई थी। वे अभी पूरी तरह स्वस्थ भी नहीं हो पाए थे कि एक दिन उन्हें समाचार मिला कि देश की सबसे प्रमुख रेल लाइन टूटी हुई है। रेल लाइन की शीघ्र मरम्मत आवश्यक थी। सभी देश भक्त लोग समाचार मिलते ही उनके पास जमा होने लगे। एक ने कहा - हम लोग वैतनिक मजदूरों पर निर्भर नहीं रह सकते। वे यह काम पूरा नहीं कर सकेंगे। यह सुन कर वहां उपस्थित अन्य देश भक्त बोले - हां, हम खुद ही इसे पूरा करेंगे। कार्य कठिन था, लेकिन सभी के मन में उत्साह व जोश भरा हुआ था। सभी लेनिन को पसंद करते थे और उनमें राष्ट्रवाद तथा समाज हित की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी। सब लोगों के साथ मिलकर काम करने से शीघ्र ही रेल लाइन को ठीक कर दिया गया। कुछ ही देर में वहां पर लोगों की जबर्दस्त भीड़ लग गई। सभी इस बात से बेहद रोमांचित थे कि कुछ देश भक्त लोगों ने एकजुट होकर रेल लाइन को ठीक कर दिया है। अचानक वहां उपस्थित लोगों की नजर मजदूरों के बीच थके- हारे व बीमार लेनिन पर पड़ी। सभी यह जानकर दंग रह गए कि उन्होंने भी घायल होने के बावजूद मजदूरों के साथ मिलकर काम किया था। लेनिन से जब पूछा गया कि वह वहां क्यों आए, तो उन्होंने सहजता से जवाब दिया - अपने साथियों के साथ काम करने। एक प्रतिष्ठित नागरिक बोला - लेकिन साथी भी तो यह काम कर ही सकते थे। दुर्बल शरीर से भारी-भारी लट्ठे ढोने की अपेक्षा जन नेता को स्वास्थ्य की चिंता करते हुए आराम करना चाहिए। इस पर लेनिन मुस्करा कर बोले - जो जनता के बीच में न रहे, जनता के कष्टों को न समझे, अपना आराम पहले देखे, उसे भला कौन जन नेता कहेगा? लेनिन का जवाब सुनते ही वहां खड़े सभी लोग गद्गद हो गए और उन्होंने लेनिन के प्रति आभार तो जताया ही, साथ ही उन्हें इस बात पर बेहद खुशी हुई कि उनके जैसे नेता के कारण ही उनका देश आगे बढ़ रहा है।

sombirnaamdev
31-05-2012, 10:57 PM
खुद करें अपनी मार्केटिंग

लोग आपको तब तक आदर नहीं देंगे, जब तक आप स्वयं को आदर नहीं देंगे। लोग आपकी कीमत तब तक नहीं समझेंगे, जब तक आप अपनी कीमत नहीं समझेंगे। लोग आपकी प्रतिभा को तब तक नहीं पहचानेंगे, जब तक आप अपनी प्रतिभा नहीं पहचानेंगे। मीडिया के वर्तमान युग में मार्केटिंग सफलता में अहम भूमिका निभाने लगी है। आप स्वयं को और अपनी प्रतिभा को किस तरह से पेश करते हैं, यह आज के दौर में बेहद महत्वपूर्ण हो गया है। कुछ लोग कहते हैं कि यदि आपके अंदर योग्यता और प्रतिभा है, तो वह एक दिन अवश्य ही पहचानी जाएगी। यह एक श्रेष्ठ विचार है, परन्तु वर्तमान युग में हर किसी की प्रतिभा अपने आप पहचान ली जाए, यह संभव भी नहीं है। लाखों लोग प्रतिभावान हैं, परन्तु चंद लोग ही शिखर पर जगह बना पाते हैं। आपकी प्रतिभा और आपके गुण आपके भीतर ही दबे रह जाते हैं, यदि आप उन्हें पेश नहीं करते हैं, उन्हें प्रदर्शित नहीं करते हैं। हमें कई ऐसे लोग मिलते हैं, जो चमत्कारिक तेजी से शीर्ष पर पहुंच जाते हैं और अपने समकक्ष लोगों को काफी पीछे छोड़ देते हैं। ऐसे लोग अपने विशिष्ट गुणों के साथ जीत का कॉमनसेंस भी इस्तेमाल करते हैं अर्थात सफलता के लिए जीनियस होने से कहीं ज्यादा है, कॉमनसेंस का होना। यदि आप एक सफल गायक बनना चाहते हैं, तो आपको अपने शानदार बायोडाटा, प्रशंसा पत्र, विशिष्ट फोटोग्राफ और अपने गीतों का आडियो सीडी या कैसेट विभिन्न कंपनियों और निर्देशकों को भेजना होगा। आपको अपनी मार्केटिंग खुद करनी होगी। अपने गुणों को सर्वश्रेष्ठ रूप से प्रस्तुत करना होगा। यदि आप सोच रहे हैं कि बिना मार्केटिंग किए घर बैठे ही एक न एक दिन आपकी प्रतिभा को कोई पहचान लेगा, तो आप गलत सोच रहे हैं। जमाना मार्केटिंग का है और इसमें आपको पारंगत होना ही होगा, तभी आप अपनी प्रतिभा के दम पर वह मुकाम हासिल कर पाएंगे, जिसके सपने आपने देखे या देख रहे हैं। आज से ही यह उपक्रम शुरू कर दें कि आपको अपने दम पर ही कामयाब होना है और आपको अपनी मार्केटिंग खुद ही करनी है। तय मानें, आप जरूर जीत जाएंगे।
ji han agar kisi safl hona hai to khud market ke liye taiyar karna hoga tabhi toaap logo tak pahunch payenge

Dark Saint Alaick
31-05-2012, 11:11 PM
अपनी हीनभावना निकाल फेंकें

किसी भी इंसान को दूसरे उतना धोखा नहीं देते, जितना वह खुद को देता है। किसी भी इंसान की अवनति के लिए दूसरे उतने उत्तरदायी नहीं होते, जितना वह खुद होता है। कुछ विफलताओं के बाद व्यक्ति के मन में हीन भाव आ जाता है और वह कायर हो जाता है। वह इस बात पर चिंतन नहीं कर पाता कि जीत और हार तो जीवन का हिस्सा है। वह उन कारणों को नहीं ढूंढ पाता, जिनकी वजह से उसके प्रयास विफल हुए हैं। वह खुद को भाग्यहीन मान लेता है। उसे लगता है कि संसार में उसका कोई मूल्य नहीं है। वह यह मान लेता है कि दूसरे उससे बेहतर हैं और वह आम रहने के लिए पैदा हुआ है। चाहे आपके साथ जो घटा हो, आपने कितना भी बुरा जीवन क्यों न जिया हो, आपके जीवन का अभी अंत नहीं हुआ है। आपका मूल्य खत्म नहीं हुआ है। किसी को भी हक नहीं कि किसी अनुपयोगी वस्तु की तरह आपको कबाड़ में डाल दे। आप फिर खड़े हो सकते हैं। आप फिर मंजिल को पा सकते हैं। महत्व आपके अतीत का नहीं है। महत्व है, तो आपके भविष्य के प्रति आपकी सोच का। ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं, जिसमें दुनिया ने किसी शख्स को चुका हुआ मान लिया था, उनका तिरस्कार होने लगा था, लेकिन उनके हौसलों की उड़ान ने उन्हें फिर से खड़ा कर दिया। वे सारे लोग, जो कल तक उनका अपमान करते थे, आज फिर उनके प्रशंसक हैं और जय जयकार कर रहे हैं। रात चाहे कितनी भी गहरी हो, सूर्य को हमेशा के लिए नहीं ढक सकती। सोना चाहे कितना भी धूल से सना हो, सोना ही रहता है। यदि आप अपनी इच्छा से एक खराब और मजबूर जिंदगी चुन रहे हैं, तो कोई आपकी मदद नहीं कर सकता, लेकिन यदि आप बीती विफलताओं की वजह से डरे हुए हैं, तो उठिए। यदि आप किसी कारण से हीनभावना से घिरे हैं, तो अपने मन के अंदर उतरिए। आप पाएंगे कि बहुत से कार्य हैं, जिन्हें आप बहुत अच्छे से कर सकते हैं। आप अपने आसपास देखिए। आपको बहुत से ऐसे लोग मिलेंगे, जिनमें आपके जैसी योग्यता नहीं है, फिर भी वे खुशहाल हैं। अपनी हीनभावना निकाल फेंकें । यदि दुनिया में दूसरे लोग सुखी रह सकते हैं, तो आप भी रह सकते हैं।

Dark Saint Alaick
31-05-2012, 11:19 PM
रास्ते का पत्थर

मनुष्य को हमेशा अपने अलावा दूसरों के बारे में भी सोचना चाहिए। उसे यह जरूर देखना चाहिए कि जिन-जिन वजहों से उसे कष्ट होता है, वही वजह दूसरों के लिए भी कष्टकारी हो सकती है। अपना भला तो सभी चाहते हैं, लेकिन वास्तव में सज्जन पुरूष वही होता है, जो दूसरों की भी भलाई चाहे। निस्संदेह इसमें कभी कभार कष्ट भी उठाना पड़ता है, लेकिन उस कष्ट का आनंद ही कुछ और है, जो दूसरों के लिए उठाया जाए। लौह पुरूष सरदार वल्लभ भाई पटेल का बचपन गांव में बीता था। वह जिस गांव में रहते थे, वहां कोई अंग्रेजी स्कूल नहीं था, इसलिए गांव के बच्चे रोज दस-ग्यारह किलोमीटर पैदल चलकर दूसरे गांव पढ़ने जाया करते थे। गर्मियों में स्कूल में पढ़ाई सुबह सात बजे से ही शुरू हो जाती थी, इसलिए गांव के बच्चों को सूर्योदय से पहले ही निकलना पड़ता था। एक दिन छात्रों की टोली स्कूल जाने के लिए निकली, तो उन्होंने पाया कि उनकी टोली में से एक छात्र कम है। दरअसल वल्लभ भाई पटेल पीछे रह गए थे। लड़कों ने मुड़कर देखा, तो पाया कि वल्लभ भाई एक खेत की मेड़ पर किसी चीज से जोर आजमाइश कर रहे हैं। साथियों ने दूर से ही आवाज दी - क्या हुआ? तुम रुक क्यों गए? वल्लभ भाई ने वहीं से चिल्लाकर कहा - जरा यह पत्थर हटा लूं, उसके बाद आता हूं। तुम लोग आगे चलो। साथियों को ध्यान में आया कि खेत की मेड़ पर एक नुकीला सा पत्थर लगा था, जिससे कई बार उन्हें ठोकर लग चुकी थी, पर आज तक किसी को उसे हटाने का ख्याल नहीं आया। साथी वहीं खड़े वल्लभ भाई का इंतजार करने लगे। वल्लभ भाई ने जब पत्थर हटा लिया, तो साथियों के पास पहुंच गए और फिर चलते हुए बोले - रास्ते के इस पत्थर से अक्सर बाधा पड़ती थी। अंधेरे में न जाने कितनों को इससे ठोकर लगती होगी और वे गिर भी जाते होंगे। ऐसी चीज को हटा ही देना चाहिए। इसलिए आज घर से तय करके ही चला था कि उस पत्थर को हटा कर ही दम लूंगा। सारे बच्चे आश्चर्य से वल्लभ भाई को देख रहे थे। दूसरों के हित के लिए कष्ट उठाने की भावना उनमें बचपन से ही आ गई थी। धीरे-धीरे यह भावना और बढ़ती गई। यही वह सबसे बड़ी वज़ह भी है, जिसने उन्हें नेतृत्व के शिखर तक पहुंचाया।

Dark Saint Alaick
01-06-2012, 10:18 PM
दूसरों के लिए आदर्श बनें

कई लोगों की दिनचर्या अस्त-व्यस्त होती है। वे कई प्रकार के रोगों को शरीर में स्थान दे देते हैं। मानसिक रोग भी इसका कारण हो सकता है। व्यर्थ के तनाव से चिड़चिड़ापन पैदा होता है, मानसिक उलझनें रोग का रूप ले लेती हैं। समय पर भोजन न करना, जब मन चाहा, तभी कुछ खा लिया। न समय पर शौच, न समय पर स्नान। न समय पर काम करना। ये सब अव्यवस्थित कार्य हैं और यह एक बड़ी वज़ह है, जो कई रोगों को आमंत्रित करती है। अपने अव्यवस्थित क्रियाकलाप द्वारा आप खुद रोगों को निमंत्रण दे देते हैं। इसमें किसी का क्या दोष? इस अव्यवस्था का सबसे अधिक प्रभाव तो कार्य-व्यवसाय पर पड़ता है। इस बात का हमेशा ध्यान रखें कि जो कुछ भी शारीरिक व्यथा या आर्थिक हानि होती है या सम्मान में कमी होती है, तो उसके लिए हम खुद ही जिम्मेदार हैं। जब इस प्रकार की स्थिति आती है, तो आप उसके कारणों पर ध्यान दें। यदि आप ईमानदारी से विवेचना करेंगे, तो उसके लिए आप अपने आपको ही जिम्मेदार पाएंगे। आप ऐसी स्थिति आने ही क्यों देते हैं ? अपना सारा काम निश्चित समय पर तथा व्यवस्थित ढंग से करने पर शायद ही आपके सामने कोई समस्या आए। सब कुछ व्यवस्थित होने पर भी समस्या आएगी, तो तत्काल उसका हल भी निकल आएगा। समस्या सुलझ जाएगी। आपको किसी खास परेशानी का सामना भी नहीं करना पड़ेगा। जो व्यक्ति अपने जीवन में सफल हैं, उनको देखिए। आपको उनका सब कुछ व्यवस्थित नजर आएगा। महात्मा गांधी का जीवन बहुत ही सादा, पर अत्यंत व्यवस्थित था। उनका हर काम एक व्यवस्था के साथ होता था। उनकी व्यवस्था एक आदर्श थी। उनके आदर्श पर चलें और फिर खुद आप भी दूसरों के लिए आदर्श बनें। घर परिवार से लेकर अपने बाह्य जगत में भी आप अपने आपको व्यवस्थित रखें। जब आप ऐसा करेंगे, तो आपको इसका एक अलग ही आनंद प्राप्त होगा। आपकी कार्यक्षमता भी बढ़ जाएगी। आपका समय व्यर्थ नहीं जाएगा। आपका हर काम ठीक समय पर होगा। आपका जीवन सादा हो या भड़कीला, बिना व्यवस्था के काम करने से सारा मजा ही किरकिरा हो जाता है।

Dark Saint Alaick
01-06-2012, 10:24 PM
राजा के सवाल

कभी-कभी मनुष्य के सामने यह यक्ष प्रश्न खड़ा हो जाता है कि वह जो कुछ कर रहा है, वह सही भी है या नहीं। आम तौर पर इंसान ऐसे सवालों का जवाब खुद ढूंढ ही नहीं पाता, क्योंकि उसे ऐेसा ही लगता है कि वह जो कह या कर रहा है, वह उचित ही है। ऐसे में इंसान को चाहिए कि वह किसी के जरिए इसे जानने का प्रयास करे। इसके लिए उसे कोई योग्य पात्र भी ढूंढना पड़ेगा। योग्य पात्र मिलने पर उस इंसान को अपने सवाल का जवाब जरूर मिल जाएगा। किसी जमाने में एक राजा अपने पास आने वाले सभी लोगों से तीन प्रश्न पूछता। पहला - व्यक्तियों में सर्वश्रेष्ठ कौन है? दूसरा - सर्वोत्तम समय कौन सा है? तीसरा - सर्वश्रेष्ठ कर्म क्या है? अनेक लोग अपने तरीके से उत्तर देते, पर वह संतुष्ट नहीं होता था। एक दिन राजा जंगल में इधर-उधर भटकता हुआ एक कुटिया में पहुंचा। वहां एक साधु पौधों में पानी डाल रहा था। राजा पर नजर पड़ते ही साधु अपना काम छोड़कर राजा के लिए ठंडा पानी और फल लेकर आ गया। उसी समय एक घायल व्यक्ति भी वहां आ पहुंचा। अब साधु राजा को छोड़ कर उस व्यक्ति की सेवा में लग गया। उसने उसके घाव धोए और उस पर जड़ी-बूटी का लेप किया। जब उस आदमी को थोड़ा आराम मिला, तो राजा ने वही तीनों सवाल साधु से पूछे। साधु ने कहा - आपने अभी-अभी मेरा जो व्यवहार देखा, उसी में इन प्रश्नों के उत्तर मौजूद हैं। राजा ने पूछा-कैसे? साधु ने समझाया - जब आप कुटिया में आए, तो मैं पौधों को सींच रहा था, जो मेरा कर्तव्य था, लेकिन आप आ गए, तो मैं अतिथि के स्वागत में लग गया। जब मैं आपकी भूख-प्यास शांत कर रहा था, तब यह घायल व्यक्ति आ गया। मैं अतिथि सेवा का कर्तव्य त्याग कर इसकी चिकित्सा में लग गया। जो भी आपकी सेवा प्राप्त करने आए, उस समय वही सर्वश्रेष्ठ मनुष्य है। उसकी जो सेवा हम करते हैं, वही सर्वोत्तम कर्म है और कोई भी कार्य करने के लिए वर्तमान ही सर्वोत्तम समय है। उसके अलावा कोई और समय नहीं है। राजा को साधु से अपने तीनों सवालों का सही जवाब मिल गया। वह साधु को प्रणाम कर वापस अपने राज्य को चला गया।

Dark Saint Alaick
04-06-2012, 11:05 AM
अवसर को लपक लें

हर काम योजना बना कर करें - दीर्घकालीन भी और अल्पकालीन भी, लेकिन कुछ पल ऐेसे भी आते हैं, जब योजनाओं को खिड़की से बाहर फैंक देना चाहिए। इन पलों को ही अवसर कहा जाता है। मेरा एक परिचित युवक था। वह अपनी प्रमोशन योजनाओं में ज्यादा तरक्की नहीं कर पा रहा था। एक दिन उसने ट्रेन के एक कम्पार्टमेन्ट में खुद को अपने चेयरमैन के साथ अकेला पाया। यह सुनहरा मौका था। वह गलत बातें बोल सकता था, खुद को बेवकूफ भी साबित कर सकता था, बहुत संकोच भी कर सकता था या घबरा सकता था। इस सबका परिणाम यह होता कि वह मौके का फायदा नहीं उठा पाता, लेकिन उसने ऐसा कुछ नहीं किया। उसने आदर्श तरीके से अपनी बात चेयरमैन के सामने रखी। उसने औपचारिक रूप से बातचीत की, लेकिन चेयरमैन को पूरा सम्मान भी दिया। उसने बातचीत में कंपनी के इतिहास, मिशन, स्टेटमेंट और आम लक्ष्यों पर अपनी मजबूत पकड़ साबित कर दी। वह असरदार, स्मार्ट और बोलने में निपुण था। उसने अपनी हर बात स्पष्ट और असरदार अंदाज में रखी और सबसे महत्वपूर्ण बात, उसने नाजायज फायदा उठाने की स्पष्ट कोशिश भी नहीं की। वह जानता था कि कब मुंह बंद रखना है और पीछे हटना है। इससे यकीनन मदद मिली। नतीजा क्या हुआ? चेयरमैन ने उसके विभाग प्रमुख से कहा कि उसके विभाग में एक स्मार्ट युवक है, उसे आगे बढ़ाओ। अब विभाग प्रमुख के पास उसे तरक्की देने के अलावा क्या चारा था? इसे कहते हैं, अवसर को लपकना। आप इसे अपनी योजना में शामिल नहीं कर सकते, क्योंकि ऐसे पल अचानक आते हैं। जब वे आएं, तो आपको उन्हें पहचानना होगा। इनका अच्छी तरह से फायदा उठाना होगा। बेहतरीन और शालीन दिखना होगा। अवसर को गेंद की तरह देखना सीखें। अगर कोई गेंद आपकी ओर फैंकी जाती है, तो आपके पास उसे पकड़ने के लिए पल भर का समय होता है। सवाल पूछने, पलटकर देखने, सकारात्मक व नकारात्मक बातों को तौलने या फॉक्स ट्रॉट डांस करने के लिए आपके पास जरा भी वक्त नहीं होता। आप या तो गेंद लपक लेते हैं या फिर नहीं लपक पाते।

Dark Saint Alaick
04-06-2012, 11:09 AM
पानी की तरह झुकना सीखो

कहते हैं कि अभिमान इंसान को पथ भ्रष्ट कर देता है। मनुष्य कितना भी बड़ा हो जाए या कितना भी ज्ञानी हो जाए, उसे कभी भी अपने बड़प्पन पर इतराना या घमंड नहीं करना चाहिए। हो सकता है कि कुछ समय के लिए ऐसा करके वह खुद को श्रेष्ठ साबित करने में कामयाब हो जाए, लेकिन वक्त के साथ-साथ उसकी कीमत निश्चित रूप से गिरने लगती है। स्वामी श्रद्धानंद के एक शिष्य थे सदानंद। स्वामी के सान्निध्य में रह कर सदानंद ने काफी मेहनत की और विभिन्न विषयों का भरपूर ज्ञान प्राप्त किया था, लेकिन ज्यों-ज्यों समय गुजरने लगा, सदानंद को अपने ज्ञान पर अहंकार होता चला गया। अहंकार बढ़ने के कारण धीरे-धीरे उनके व्यवहार में भी बदलाव आता दिखने लगा। वह हर किसी को हेय दृष्टि से देखने लगे। यहां तक कि वह अपने साथ शिक्षा ग्रहण कर रहे अपने मित्रों से भी दूरी बनाकर रहने लगे। वह जब भी चलते तनकर ही चलते। उनके बढ़ते अहंकार की बात स्वामी श्रद्धानंद तक भी पहुंची। पहले तो उन्हें लगा कि सदानंद के साथी शायद ऐसे ही कह रहे हैं। हो सकता है सदानंद के किसी आचरण से इन्हें ठेस पहुंची हो, लेकिन एक दिन स्वामी श्रद्धानंद उनके सामने से गुजरे, तो सदानंद ने उन्हें अनदेखा कर दिया और उनका अभिवादन तक नहीं किया। स्वामी श्रद्धानंद समझ गए कि इन्हें अहंकार ने पूरी तरह जकड़ लिया है। इनका अहंकार तोड़ना आवश्यक है, अन्यथा भविष्य में इन्हें दुर्दिन देखने पड़ सकते हैं। उन्होंने उसी समय सदानंद को टोकते हुए उन्हें अगले दिन अपने साथ घूमने जाने के लिए तैयार कर लिया। अगली सुबह स्वामी श्रद्धानंद उन्हें वन में एक झरने के पास ले गए और पूछा - पुत्र, सामने क्या देख रहे हो ? सदानंद ने जवाब दिया - गुरुजी, पानी जोरों से नीचे बह रहा है और गिर कर फिर दोगुने वेग से ऊंचा उठ रहा है। स्वामी श्रद्धानंद ने कहा - पुत्र, मैं तुम्हें यहां एक विशेष उद्देश्य से लाया था। जीवन में अगर ऊंचा उठकर आसमान छूना चाहते हो, तो थोड़ा इस पानी की तरह झुकना भी सीख लो। सदानंद अपने गुरु का आशय समझ गए। उन्होंने उनसे अपने व्यवहार के लिए क्षमा मांगी और भविष्य में अहंकार कदापि नहीं करने का वचन दिया।

Dark Saint Alaick
06-06-2012, 02:36 AM
परिवार सबसे पहले

सफलता सिर्फ धन, समृद्धि और नाम से नहीं मापी जाती। यह भी महत्व रखता है कि जिन लोगों ने आपको उस मुकाम तक पहुंचाने में आपका साथ दिया, उनके लिए आपने क्या किया? क्या आप अपने बच्चों को उचित संस्कार देने के लिए समय निकाल पाए? क्या सुख-दुख में आप अपनी पत्नी के साथ रह पाते हैं ? पिछली बार आप कब अपनी मां की गोद में सिर रख कर सोए? कब आपने पूछा कि पापा आपको किस चीज की जरूरत है? इंसान की तरक्की, सुख-सुविधा, क्लब, लेट नाइट पार्टी आदि के बीच कुछ छूट रहा है, तो वह है परिवार। कई शहरों के कई घरों के बच्चे विदेशों में ऊंचे पदों पर हैं और माता-पिता बुढ़ापे में एक-दूसरे के सहारे समय काट रहे हैं। कुछ बच्चे अपने माता-पिता को अपने साथ ले जाना नहीं चाहते, तो कुछ घरों में माता-पिता ही इस उम्र में पराए देश में जाने की इच्छा नहीं रखते। आज बच्चे युवा होते ही जनरेशन गैप के नाम पर अपने माता-पिता का अपमान करते हैं। शादी होते ही चन्द दिनों में उन्हें अकेला छोड़ जाते हैं। उन्हें सोचने की जरूरत है, क्योंकि ऐसा ही एक दिन उनके साथ भी घटेगा। अगर आप चाहते हैं कि आपके बच्चे आपका ख्याल रखें, तो आज से ही आप अपने माता-पिता का ख्याल रखिए। बच्चे बहुत ग्रहणशील होते हैं। उनकी आंखें हर चीज देखती हैं। उनके कान हर बात सुनते हैं। उनका दिमाग हर वक्त उन्हें मिलने वाले संदेशों को समझने और नतीजे निकालने में लगा रहता है। अगर वे देखेंगे कि हम परिवार के सदस्यों के लिए घर में धैर्यपूर्वक सुखद माहौल बनाते हैं, तो वे जीवन भर इस नजरिए को अपनाएंगे। अपने माता-पिता, पुराने मित्रों और परिजन के साथ सदैव आदर और विनम्रता से पेश आइए। आपकी कामयाबी में, आपकी ऊंचाइयों में, आपके व्यक्तित्व में वे गुण भरने में, संस्कार पैदा करने में संसार में सबसे ज्यादा योगदान माता-पिता और इष्टजन का होता है। माता-पिता के काम का कोई भी मोल नहीं चुका सकता। विनम्रता, आदर, शिष्टाचार, कृतज्ञता जैसे गुण किसी युग में पुराने नहीं होंगे, बासी नहीं होंगे। यदि ये चले जाएंगे, तो सारे संसार में जंगल राज हो जाएगा। इसलिए परिवार सबसे पहले है।

Dark Saint Alaick
06-06-2012, 02:40 AM
नियम का सम्मान

इन्सान चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो, उसे कानून का पालन तो करना ही चाहिए। ऐसा इसलिए भी जरूरी हो जाता है कि बड़े ही नियम तोड़ेंगे, तो फिर अन्य लोग उसका अनुसरण करने लगेंगे। काफी पहले मद्रास (आज का चेन्नई) में एक शानदार मछली घर बनाया गया था। इसकी चर्चा दूर-दूर तक फैल गई। बड़ी संख्या में लोग इसे देखने आने लगे। उसकी देखभाल बड़ी कक्षा के विद्यार्थी किया करते थे। मछलीघर देखने के लिए प्रवेश शुल्क निर्धारित था। हर किसी को टिकट लेना पड़ता था। एक दिन हैदराबाद के निजाम सपरिवार आए। निजाम को लगा कि देश के शासक वर्ग से जुड़े होने के कारण वे खास व्यक्ति हैं। उन्हें टिकट लेने की क्या जरूरत। वह बिना टिकट लिए आगे बढ़ने लगे, तो मछली घर के व्यवस्थापकों व कर्मचारियों ने सोचा कि ये इतने बड़े आदमी हैं। इनका आना ही बड़ी बात है। अब इनसे क्या शुल्क लिया जाए। यह सोचकर सब अपने-अपने काम में मशगूल रहे। किसी ने उनसे टिकट लेने को नहीं कहा। जब निजाम आगे बढ़े, तो बुद्धिमान व परिश्रमी छात्र माधवराव ने उनके सामने आकर कहा - महोदय, यहां प्रवेश शुल्क निर्धारित है। बिना पैसे दिए मछली घर के अंदर जाना मना है। यह सुनते ही निजाम कुछ शर्मिंदा होकर अपने निजी सचिव की ओर देखने लगे। सचिव ने इशारा पाते ही सभी के लिए टिकट खरीदे। उनके जाने के बाद अधिकारीगण चिंतित हुए। एक बोला - यदि हम उनसे रुपए नहीं लेते, तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ता? दूसरा बोला - हां, ऐसा भी नहीं था कि उनसे प्रवेश शुल्क नहीं न लेने से हमें भारी आर्थिक हानि होती। सभी अपनी-अपनी राय देते रहे। कुछ देर बाद माधवराव बोले - प्रश्न रुपए लेने का नहीं है। प्रश्न तो नियम के पालन का है। नियम का पालन सभी के लिए जरूरी है। बड़े व्यक्तियों का तो विशेष फर्ज बनता है कि वे नियम का सम्मान करने में आगे रहें, ताकि सामान्य जन भी उनका अनुकरण करें। अगर विशिष्ट लोग ही नियम तोड़ेंगे, तो आम आदमी से उनके पालन की उम्मीद कैसे की जा सकती है? माधवराव का जवाब सुनकर सभी चुप हो गए।

Dark Saint Alaick
08-06-2012, 08:09 AM
लोगों की निगाह में रहें

ऑफिस की जिंदगी बहुत भागदौड़ भरी और व्यस्त होती है। ऐसे में यह बहुत स्वाभाविक है कि लोग आपके काम को नजरअंदाज कर दें। आप दिन रात कोल्हू के बैल की तरह मेहनत करते हैं। हो सकता है, इस चक्कर में आप यह महत्वपूर्ण बात भूल जाएं कि आपको अपना ओहदा बढ़ाने और अपने काम की धाक जमाने की जरूरत है। अगर आप प्रमोशन चाहते हैं, तो आपको अपने काम की और अपनी अलग पहचान बनानी होगी, ताकि आप और लोगों से अलग हटकर दिखें। इसका सबसे अच्छा तरीका है कि आप अपनी सामान्य कामकाजी दिनचर्या से बाहर निकलें। अगर हर दिन आपको निश्चित चीजें प्रोसेस करनी हैं, तो उससे ज्यादा चीजें प्रोसेस करने से आपको खास फायदा नहीं होगा, लेकिन अगर आप अपने बॉस को यह रिपोर्ट बना कर दें कि किस तरह हर कर्मचारी और ज्यादा चीजें प्रोसेस करके दे सकता है, तो आप उसकी निगाह में आ जाएंगे। यह बिन मांगी रिपोर्ट भीड़ से अलग दिखने का एक बेहतरीन तरीका है। इससे यह पता चलता है कि आप मौलिक चिंतन कर रहे हैं और अपनी पहल-शक्ति का इस्तेमाल कर रहे हैं, लेकिन इसका इस्तेमाल जरूरत से ज्यादा भी नहीं करना चाहिए। अगर आप अपने बॉस को बिन मांगी रिपोर्ट्स की बाढ़ में डुबो देंगे, तो वे आप पर गौर तो करेंगे, लेकिन नकारात्मक अंदाज में। ऐसी रिपोर्ट कभी-कभार ही पेश करें। यह भी सुनिश्चित करें कि आपकी रिपोर्ट कारगर हो। इससे कंपनी का फायदा होगा। साथ ही, यह भी सुनिश्चित करें कि इसमें आपका नाम अच्छी तरह से उभर कर सामने आए। वह रिपोर्ट न केवल बॉस देखे, बल्कि उसका बॉस भी देखे। जरूरी नहीं कि वह रिपोर्ट ही हो। यह कंपनी के न्यूजलेटर का लेख भी हो सकता है। जाहिर है, अपने काम को निगाह में लाने का सबसे अच्छा तरीका उस काम में बहुत अच्छा बनना है और अपने काम में अच्छा बनने का सर्वश्रेष्ठ तरीका उसके प्रति पूरी तरह से समर्पित होना और बाक़ी हर चीज को नजरअंदाज करना है। काम के नाम पर बहुत सारी राजनीति, गपशप, खेल, समय की बर्बादी और सामाजिक जनसंपर्क चलता रहता है, लेकिन यह काम नहीं है।

Dark Saint Alaick
08-06-2012, 08:13 AM
ईश्वर से कहो

बतायो नाम का एक फकीर हुआ था। एक बार राह चलते हुए उसके पांव में फांस पड़ गई। तब वह जोर से चीखने लगा। रास्ते में इधर-उधर लोग खड़े थे। वे फकीर की चिल्लाहट सुनकर उसके पास इकट्ठे हो गए। उन्होंने फकीर से पूछा कि क्या हो गया है आपको? तो फकीर ने अपना पांव उनके सामने फैला दिया और कहा कि मेरे पांव में कुछ लग गया है। भीड़ में से एक व्यक्ति नीचे झुका। उसने देखा कि फकीर के पांव में फांस चुभी हुई है। उस व्यक्ति ने फकीर के पांव में लगी फांस को निकाल दिया। पास में ही एक दूसरा व्यक्ति जो खड़ा था। उसने देखा कि पैर में छोटी सी ही फांस लगी थी, लेकिन यह संत हैं और इस मामूली फांस के कारण इतनी जोर से चीख रहे हैं। आखिर इसका कारण क्या है? उससे रहा नहीं गया। उसने फकीर से पूछा - इतनी सी बात पर इतनी जोर से क्यों चीखे? बतायो ने कहा कि देखो - वह जो ऊपर वाला है, इसका स्वभाव विचित्र है। फकीर का संकेत ईश्वर से था। उन्होंने कहा, आदमी ज्यों-ज्यों सहता जाता है, ईश्वर उसे और अधिक कष्ट देता जाता है। मैं यदि यह तकलीफ सह लूंगा, तो संभव है कि कल वह मेरे पांव में भाला चुभो दे। बतायो के कहने का मतलब यह था कि कष्ट से परेशान होकर मैं नहीं चीख रहा हूं। मैं सजग हूं। जो कुछ भी घटित हो रहा है, वह अनजाने में घटित नहीं हो रहा है। एक फांस भी यदि मेरे पांव में लगती है, तो उसका मुझे अनुभव होता है। हम यह नहीं मानते कि ईश्वर किसी को कष्ट देता है। और व्यक्ति सहन कर लेता है, तो फिर उसे दोगुना-चौगुना कष्ट देता है। दुखों का सीधा सम्बंध व्यक्ति के अपने कर्म से है, लेकिन यह निश्चित है कि जो अपने जीवन के हर क्षण के प्रति जागरूक रहता है, उसके कष्ट स्वयं कम हो जाते हैं। जितने भी कष्ट आते हैं, हमारी जागरूकता की कमी से आते हैं। मनुष्य जहां-जहां प्रमाद में जाता है, वहां - वहां उसकी कष्टानुभूति तीव्र हो जाती है। प्रमाद जितना कम होता है और जागरूकता बढ़ती है, कष्ट की उपस्थिति उतनी कम हो जाती है। इसलिए यह आवश्यक है कि कोई भी मनुष्य विशिष्टता के क्षेत्र में प्रवेश करने से पहले अपने जीवन की छोटी-छोटी बातों के प्रति जागरूक बने।

Dark Saint Alaick
08-06-2012, 05:35 PM
वादे छोटे, परिणाम बड़े

अगर आप जानते हैं कि आप कोई काम बुधवार तक कर सकते हैं, तो हमेशा शुक्रवार तक का समय मांगें। अगर आप जानते हैं कि आपके विभाग को एक हफ्ते का समय लगेगा, तो दो हफ्ते का समय मांगें। अगर आप जानते हैं कि किसी मशीन को इंस्टॉल करने और चालू करने के लिए दो अतिरिक्त कर्मचारियों की जरूरत पड़ेगी, तो तीन मांगें। यह बेईमानी नहीं समझदारी है; लेकिन अगर यह राज खुल जाए और सबको पता लग जाए कि आप ऐसा करते हैं, तब क्या करें? बस, सहजता से और ईमानदारी के साथ इसे स्वीकार कर लें। कहें कि आप अनुमान लगाते समय हमेशा आपातकालीन स्थितियों को भी शामिल करते हैं। इसके लिए वे आपको फांसी पर नहीं लटका सकते। यह पहली चीज है। छोटे वादे करें। अगर आपने शुक्रवार या दो हफ्ते या जो भी कहा है, तो इसका यह मतलब नहीं कि आप इस अतिरिक्त अवधि में मजे कर सकते हैं और गप्पे लड़ा सकते हैं। कतई नहीं। आपको तो यह सुनिश्चित करना है कि आप बड़े परिणाम दें, निर्धारित बजट में दें और वादे से बेहतर दें। यह दूसरा हिस्सा है। परिणाम ज्यादा दें। इसका मतलब है कि अगर आपने सोमवार तक रिपोर्ट देने का वादा किया है, तो यह उस वक्त तक न केवल पूरी हो जाए, बल्कि उसमें कुछ अतिरिक्त भी जुड़ा हो। यह न सिर्फ एक रिपोर्ट हो, बल्कि इसमें एक नई इमारत के लिए पूरी अमली योजनाएं भी शामिल की गई हों। अगर आपने कहा हो कि आप रविवार तक अपने स्टाफ के दो अतिरिक्त सदस्यों के साथ प्रदर्शनी लगाएंगे, तो न सिर्फ ऐसा करें; बल्कि अपने प्रमुख प्रतिस्पर्धी को शो से बाहर निकालने की व्यवस्था भी कर डालें। जब आप वादे छोटे करते हैं और परिणाम बड़े देते हैं, तो आपका लक्ष्य स्पष्ट होना चाहिए। नियमों के खिलाड़ी के रूप में आपका लक्ष्य सिर्फ यह होना चाहिए कि आप कभी परिणाम देर से नहीं देंगे या कम नहीं देंगे। अगर आपको सारी रात खून-पसीना एक करना पड़े तो करें। बाद में ज्यादा देर लगाने और सामने वाले को निराश करने के बजाय पहले ही ज्यादा समय मांगना हमेशा और हर मामले में बेहतर होता है। वाहवाही लूटने के चक्कर में कभी उतावलापन नहीं करना चाहिए।

Dark Saint Alaick
08-06-2012, 05:38 PM
किसान का खरबूज

स्वामी श्रद्धानंद एक दिन अपने कुछ शिष्यों और दर्शनार्थ आए भक्तों के साथ बैठे हुए सत्संग कर रहे थे। वहां जो भी भक्त आ रहा था, वह अपने साथ लाए फल-फूल और मिठाइयां आदि स्वामी श्रद्धानंद के चरणों में भेंट कर रहा था। स्वामी श्रद्धानंद की आदत थी कि जो भक्त फल लाता था, उसे वे वहीं कटवा कर मौजूद लोगों में बंटवा दिया करते थे। हमेशा की तरह उस दिन भी वे फल काटकर उसे प्रसाद के रूप में वहां उपस्थित लोगों को बांट रहे थे। तभी एक बुजुर्ग किसान अपने खेत का एक खरबूज लेकर आया। उसने स्वामी श्रद्धानंद से उसे खाने का अनुरोध किया। स्वामी श्रद्धानंद ने उसका अनुरोध स्वीकार कर खरबूज को काटा और उसकी एक फांक खा ली, लेकिन उस दिन उन्होंने बाकी का खरबूज बांटा नहीं, बल्कि खरबूज की एक-एक फांक काट कर खुद ही पूरा खा लिया। उनका यह व्यवहार वहां मौजूद भक्तों को थोड़ा अटपटा लगा कि आज स्वामी श्रद्धानंद ने ऐसा क्यों किया, पर वे चुप रहे। उधर वह किसान काफी खुश हुआ कि स्वामी श्रद्धानंद ने उसका पूरा खरबूज खा लिया। वह स्वामी श्रद्धानंद को प्रणाम कर वहां से चला गया। उसके जाने के बाद एक भक्त से रहा नहीं गया और उसने पूछा - स्वामी जी, क्षमा करें। एक बात पूछना चाहता हूं। जो भी भक्त आपके पास फल लाता है, आप उसके फल को प्रसाद की तरह सभी में बंटवा देते हैं, पर आपने उस किसान के खरबूज को प्रसाद की तरह काटकर क्यों नहीं बांटा? स्वामी श्रद्धानंद बोले - प्रिय भाई, अब क्या बताऊं? वह फल बहुत फीका था। अगर मैं किसी को भी बांटता, तो तय मानो वह किसी को भी पसंद नहीं आता। अगर मैं इसे आप लोगों के बीच बांटता, तो मुझे भी अच्छा नहीं लगता और अगर उस किसान भाई के सामने ही इसे फीका कह देता, तो उस बेचारे का भी दिल ही टूट जाता। वह बड़े प्रेम से मेरे पास खरबूज लाया था। उसके स्नेह का सम्मान करना मेरे लिए बहुत आवश्यक था। खरबूजे में उसके स्नेह के अद्भुत मधुर रस को मैं अब तक अनुभव कर रहा हूं। यह सुनकर सभी भक्त स्वामी श्रद्धानंद के प्रति श्रद्धा से भर उठे। याद रखें, सच्चा संत वही होता है, जो किसी का दिल नहीं दुखाता।

Dark Saint Alaick
09-06-2012, 12:48 AM
आपको जो चाहिए, वह बांटो

जिंदगी बूमरैंग की तरह होती है। आपका किया हुआ व्यवहार घूम कर आपके पास आता है। आपके कहे हुए शब्द घूम कर आपके पास आते हैं। आप जो भी दुनिया को देते हैं, वह आपके पास कई गुना होकर लौट आता है; इसलिए जैसा व्यवहार आप अपने साथ चाहते हैं, वैसा ही व्यवहार दूसरों के साथ कीजिए, क्योंकि आप जो बोएंगे, वही आपको काटना पड़ेगा। जो भी चीज आप सबसे ज्यादा चाहते हैं, उसे सबसे ज्यादा बांटिए। आप चाहते हैं कि दूसरे आपकी मुश्किलों में मदद करें, तो आप उनकी मुश्किलों में उनके साथ खड़े रहिए। यदि आप दूसरों को श्रेय देंगे, तो आपको भी पलटकर श्रेय मिलेगा। यदि आपको सम्मान पसंद है, तो दिल खोल कर दूसरों का सम्मान कीजिए। यदि आप दूसरों का तिरस्कार करेंगे, तो बदले में आपको भी तिरस्कार ही मिलेगा। यदि आप दूसरों की दिल खोल कर प्रशंसा करेंगे, तो आप बदले में वही पाएंगे। जीवन का यह बेहद सरल सिद्धांत है, परन्तु फिर भी अधिकांश लोग इसे अमल में नहीं लाते। आप किसी भी क्षेत्र में कामयाबी पाएं, लेकिन यह महत्वपूर्ण है कि लोग आपको पसंद करें, क्योंकि लोग जिसको पसंद करते हैं, उनके साथ काम करना चाहते हैं। आपको यह बात ध्यान में रखनी होगी। इसके लिए यह जरूरी नहीं कि हम दूसरों के पीछे सब कुछ लुटा दें या जान बिछा दें। इसके लिए जरूरी है कि हमारा व्यवहार संयमित हो। प्रशंसा और खुशी जाहिर करने से पहले हम एक बार भी नहीं सोचें, लेकिन आलोचना या गुस्सा करने से पहले सौ बार सोचें। बिना जरूरत के तर्क-वितर्क नहीं करें, वाद-विवाद में नहीं पड़ें। अपने समग्र लक्ष्य का ध्यान रखें और बढ़ते रहें। यदि आपकी बातों से आपके साथ खड़े लोग थोड़ा बेहतर महसूस करते हैं , खुश होते हैं, प्रफुल्लित होते हैं; तो तय है कि आपको कोई परेशानी नहीं होगी। यदि वे आपके साथ समय गुजार कर अच्छा महसूस करेंगे, तो वही व्यवहार बदले में आपको देंगे। आपके प्रशंसक बनेंगे और जरूरत पड़ने पर आपके काम आएंगे।

Dark Saint Alaick
09-06-2012, 12:53 AM
सबसे बड़ा ज्ञानी

मनुष्य को कभी अपने ज्ञान पर घमंड नहीं करना चाहिए। यदि कोई ऐसा करता है, तो वह महाज्ञानी होने के बावजूद भी दुनिया के सामने साधारण ही हो जाता है। बहुत पुरानी कथा है। यूनान में एक व्यक्ति ज्ञान प्राप्त करने के लिए जगह-जगह भटक रहा था। वह चाहता था कि उसे कोई ऐसा शख्स मिले, जो उसे ज्ञान दे सके। वह एक संत के पास पहुंचा। उसने संत को प्रणाम किया। कुछ देर झिझकने के बाद उनसे कहा - महात्माजी, मेरे जीवन में कुछ प्रकाश हो जाए, ऐसा कुछ ज्ञान देने की कृपा करें। मैं कई जगह घूमा, पर कामयाब नहीं हो पाया हूं। इस पर संत ने उससे कहा - भाई, मैं तो एक साधारण व्यक्ति हूं। मेरी क्या हैसियत है। मैं भला तुम्हें क्या ज्ञान दूंगा। यह सुन कर उस व्यक्ति को बहुत हैरानी हुई। उसने कहा - ऐसा कैसे हो सकता है। मैंने तो कई लोगों से आपके बारे में सुना है और उसके बाद ही मैने यहां आने का निर्णय किया है। इस पर संत बोले - एक काम करो। तुम्हें अगर ज्ञान चाहिए, तो सुकरात के पास चले जाओ। वही तुम्हें सही ज्ञान दे सकेंगे। वे ही यहां के सबसे बड़े ज्ञानी हैं। कुछ देर बाद वह व्यक्ति सुकरात के पास पहुंचा और बोला - महात्माजी, मुझे पता लगा है कि आप सबसे बड़े ज्ञानी हैं। मुझे आपसे ज्ञान चाहिए। इस पर सुकरात मुस्कराए और उन्होंने पूछा कि यह बात उससे किसने कही है। उस व्यक्ति ने उस महात्मा का नाम लिया और कहा - अब मैं आपकी शरण में आया हूं। इस पर सुकरात ने जवाब दिया - तुम उन्हीं महात्माजी के पास चले जाओ। मैं तो साधारण ज्ञानी भी नहीं हूं, बल्कि मैं तो अज्ञानी हूं। यह सुनने के बाद वह व्यक्ति फिर उस संत के पास पहुंचा। उसने संत को सारी बात कह सुनाई। इस पर संत बोले - भाई, सुकरात जैसे व्यक्ति का यह कहना कि मैं अज्ञानी हूं, उनके सबसे बड़े ज्ञानी होने का प्रमाण है। जिसे अपने ज्ञान का जरा भी अभिमान नहीं होता, वही सच्चा ज्ञानी है। उस व्यक्ति ने इस बात को अपना पहला पाठ मान लिया। ज़ाहिर है कि उसने ज्ञान की राह पर मज़बूत कदम बढ़ाने शुरू कर दिए थे।

Dark Saint Alaick
12-06-2012, 12:40 AM
पीछे मुड़कर भी देखें

अक्सर कहा जाता है कि पुरानी बातों को भुलाकर हमें भविष्य के बारे में सोचना चाहिए। जीवन में सफलता के लिए दूरदृष्टि अनिवार्य मानी जाती है। मानव जीवन का लक्ष्य है - हमेशा आगे बढ़ते रहना, लेकिन आगे बढ़ने का अर्थ क्या हमेशा भविष्य की ओर यात्रा है ? शायद नहीं। आगे बढ़ने के लिए पीछे भी जाना होता है। हम कई मुद्दों पर पाते हैं कि इंसान पहले ही ठीक था। आंख मूंदकर आगे की ओर बढ़ते हुए हमने अपने लिए कुछ मुसीबतें मोल ले ली हैं। जैसे पर्यावरण को ही लें। आज जब इससे जुड़े कई तरह के संकट हमारे जीवन में उथल-पुथल मचा रहे हैं, तो हमें बीते दिनों की जीवन पद्धति याद आने लगी है। अब कई पुराने तौर-तरीकों को फिर से प्रतिष्ठित किया जाने लगा है। ऐसा इसलिए किया जा रहा है कि मानव जाति बेहतर जीवन जी सके। उसका भविष्य सुखद हो सके यानी एक सुखद भविष्य के लिए हमें अतीत की ओर जाना पड़ रहा है। अपने जीवन से अतीत को काटकर अच्छा भविष्य भी नहीं गढ़ा जा सकता। दरअसल हर आदमी कोशिश करता है कि वह समय से आगे दिखे। कोई अपने को पिछड़ा नहीं साबित करना चाहता, लेकिन दिलचस्प बात यह है कि हर आदमी का समय अलग-अलग होता है और आदमी को इसका पता तक नहीं रहता। अक्सर ऐसा होता है कि एक शख्स अपने जानते समय से बहुत आगे की चीज बता रहा होता है, लेकिन उसे इसका अंदाजा नहीं होता कि उसका दिमाग हकीकत में दो दशक पीछे अटका हुआ है। इसका मतलब यह हुआ कि वह असल में बीते दो दशक से आगे की बात कह रहा है, लेकिन वर्तमान के हिसाब से वह पीछे की ही बात साबित होती है। एक समय में रहकर भी लोग अलग-अलग समय में जी रहे होते हैं। यह अंतर इसलिए होता है कि हर व्यक्ति को आगे बढ़ने के बराबर मौके नहीं मिल पाते। इंसान और इंसान के बीच वर्ग, भाषा और शिक्षा के आधार पर काफी फर्क होता है। इसलिए आधुनिकता भी हमेशा दूसरे के संदर्भ में ही होती है। इसका कोई एक मापदंड नहीं। अतः यदि आपको उचित प्रगति करनी है, तो अपने अतीत में निरंतर झांकते रहिए।

Dark Saint Alaick
12-06-2012, 12:43 AM
सफलता का सच्चा रास्ता

प्रसिद्ध स्कॉटिश इतिहासकार और लेखक थॉमस कार्लाइल ने अनेक वर्षों की मेहनत के बाद एक महान पुस्तक 'फ्रांस की क्रांति' की रचना की। उन्होंने अपनी इस अनूठी रचना के बारे में एक बेहद करीबी मित्र से इसकी चर्चा की, तो उसने ग्रंथ की पांडुलिपि पढ़ने के लिए मांगी। कार्लाइल ने खुशी-खुशी वह पांडुलिपि अपने मित्र को दे दी। एक दिन उनका मित्र पांडुलिपि को पुरानी पत्र-पत्रिकाओं के बीच रखकर बाहर चला गया। उस समय उसका नौकर घर की साफ-सफाई में लगा था। उसने पुरानी पत्र-पत्रिकाओं के साथ उस पांडुलिपि को भी रद्दी समझकर जला दिया। लौटने पर मित्र ने जब नौकर से पांडुलिपि के बारे में पूछा, तो नौकर बोला - साहब, मैंने तो उसे भी पुरानी रद्दी व समाचार-पत्रों के साथ बेकार समझकर जला डाला है। यह सुनकर मित्र आपा खो बैठा, किंतु कर भी क्या सकता था; गलती तो उसी की थी। उसने बड़ी मुश्किल से स्वयं को कालाईल को यह बात कहने के लिए तैयार किया। यह खबर पाकर कालाईल की पत्नी के तो आंसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे। कालाईल की वर्षों की मेहनत मानो मिट्टी में मिल गई थी। उधर, मित्र भी डर के मारे थर-थर कांप रहा था। मित्र की हालत को देखते हुए कालाईल ने स्वयं पर पूरी तरह काबू रखा और बोले, कोई बात नहीं। ऐसी दुर्घटनाएं तो होती रहती हैं। धैर्य व साहस के बावजूद कालाईल खुद भी टूट तो रहे थे, लेकिन उन्होंने संकल्प लिया कि वे हार मान कर नहीं बैठेंगे। अपनी इस पुस्तक पर दोबारा काम करेंगे। क्या पता अगली पुस्तक पहले वाली से बेहतर बने। वे फिर से अपनी पुस्तक तैयार करने में जुट गए। दो वर्ष बाद उन्होंने फिर से उसी पुस्तक की रचना की और आज वह एक बेजोड़ किताब के रूप में जानी जाती है। फ्रांस की क्रांति को समझने के लिए वह एक प्रामाणिक किताब है। इस तरह कालाईल ने अपने धैर्य व विपत्ति में न घबराने की प्रवृत्ति के कारण हाथ से छूटी सफलता को फिर से पा लिया।

Dark Saint Alaick
13-06-2012, 02:38 AM
सच्चा साधक

एक बार एक संत के पास सुशांत नामक एक युवक आया। उसने कुछ देर तक तो संत के साथ धर्म चर्चा की, फिर थोड़े संकोच के साथ उनसे कहा - कृपया आप मुझे अपना शिष्य बना लीजिए। संत ने थोड़े विस्मय के साथ उस युवक से पूछा - मेरा शिष्य बनकर तुम क्या करोगे? उस युवक ने कहा - मैं भी आपकी तरह साधना करूंगा। संत मंद-मंद मुस्कराए और बोले - वत्स, जाओ यह सब कुछ भुलाकर जीवनयापन के लिए अपना कर्म करते रहो। संत की बात सुनकर सुशांत वहां से चला गया, मगर कुछ दिनों बाद फिर संत के पास आया। वह अपने जीवन से संतुष्ट नहीं था। उसने शिष्य बना लेने की अपनी मांग फिर संत के सामने दोहराई। इस बार संत ने उससे कहा - अब तुम स्वयं को भुलाकर घर-घर जाओ और भिक्षा मांगो। ऊंच-नीच, धनी-निर्धन का भेद भुलाकर जहां से जो भी भिक्षा ग्रहण करो; उसी से अपना गुजारा करते रहो। सुशांत संत के आदेशानुसार भिक्षा मांगने निकल पड़ा। भिक्षा लेते समय वह हमेशा अपनी नजरें नीची किए रहता। जो मिल जाता, उसी से संतोष करता। कुछ दिनों तक तो उसने संत के आदेश के तहत भिक्षा मांगी और उसके बाद फिर वह संत के पास आया। उसे आशा थी कि इस बार संत उसके आग्रह के नहीं ठुकराएंगे और उसे अवश्य अपना शिष्य बना लेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ । इस बार संत ने कहा - जाओ नगर में अपने सभी शत्रुओं और विरोधियों से क्षमा मांग कर आओ। शाम को घर-घर घूमकर सुशांत वापस आया और संत के सामने झुककर बोला -प्रभु, अब तो इस नगर में मेरा कोई शत्रु ही नहीं रहा। सभी मेरे प्रिय और अपने हैं और मैं सबका हूं। मैं किससे क्षमा मांगूं। इस पर संत ने उसे गले लगाते हुए कहा - अब तुम स्वयं को भुला चुके हो। तुम्हारा रहा सहा अभिमान भी समाप्त हो चुका है। तुम सच्चे साधक बनने लायक हो गए हो। अब मैं तुम्हें अपना शिष्य बना सकता हूं। यह सुनकर सुशांत की खुशी का ठिकाना न रहा।

Dark Saint Alaick
13-06-2012, 02:42 AM
कामयाबी के पैमाने

हर दौर में समाज में सफलता का एक निश्चित पैमाना होता है। हम उसी पर लोगों को कसने के आदी हो जाते हैं, लेकिन ज्यों ही कोई उन्हीं पैमानों पर सफल होता है, खुद सफलता का उसका पैमाना बदल जाता है। इसलिए हम बहुत से सफल व्यक्तियों को असंतुष्ट पाते हैं। ऐसे लोग एक समय के बाद खुद को विफल मानना शुरू कर देते हैं। असल में हमारी इच्छाओं का अंत नहीं है। बहुत सी चीजें पा लेने के बाद भी लोग दूसरों से अपनी तुलना करते रहते हैं। जो भी चीज उनके पास नहीं होती, उसे लेकर परेशान हो जाते हैं। संभव है कि एक सफल व्यक्ति किसी को आराम करता देख दुखी हो जाए और यह सोच कर ही खुद को विफल घोषित कर दे कि उसके जीवन में सुकून नहीं है। इसीलिए संतों-विचारकों ने सफलता की अवधारणा को हमेशा संदेह की नजर से देखा, क्योंकि यह हमेशा अस्थिर रहती है। ऊपरी तौर पर भले ही इसका निश्चित रूप दिखाई देता है, किन्तु हमारे मन के भीतर यह रूप बदलती रहती है। सफल होने के लिए जरूरी है कि हम आगे देखते रहें और भविष्य की सोचें। विकसित देश तो पचास वर्ष आगे तक की योजना तैयार करके रखते हैं, लेकिन व्यक्ति के संदर्भ में मामला उलटा है। बाहर की दुनिया में भले ही वह आगे की सोचे, पर आंतरिक दुनिया में वह अक्सर पीछे भी लौटता रहता है। हम जब भी अकेले होते हैं, अपने अतीत के बारे में सोचते हैं। बीते हुए सुख को ही नहीं, दुख को भी याद करते हैं। सफलता के शिखर पर बैठा शख्स भी स्मृति में जरूर लौटता है। कितना अच्छा हो कि हम अपने बाहरी यानी सामाजिक जीवन में भी इसी तरह पीछे लौटते रहें। अगर कोई समृद्ध व्यक्ति अपने पुराने अभाव के दिनों को याद करता रहे, तो संभव है उसका वर्तमान ज्यादा सुखी हो। वह संवेदनशील बने और दूसरों के दुख को भी समझे। हालांकि आम तौर पर लोग दोहरा जीवन जीते हैं। वह अपने मन को अपने रोजमर्रा जीवन से अलग रखते हैं। अगर हर आदमी अंदर और बाहर एक जैसा हो जाए, तो दुनिया अवश्य ही थोड़ी बेहतर हो सकती है।

Dark Saint Alaick
13-06-2012, 04:16 AM
लिंकन की चाय

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन का शुरुआती जीवन अभावों में गुजरा था। जीवनयापन के लिए कम उम्र में उन्हें कई तरह के काम करने पड़े। कुछ दिनों तक उन्होंने चाय की दुकान पर भी नौकरी की। उन्हीं दिनों की बात है। एक महिला उनकी दुकान पर आई। उसने उनसे पाव भर चाय मांगी। लिंकन ने जल्दी-जल्दी उसे चाय तौलकर दी। रात में जब उन्होंने हिसाब-किताब किया, तो उन्हें पता चला कि उन्होंने भूलवश उस महिला को आधा पाव ही चाय दी थी। वह परेशान हो गए। पहले तो उन्होंने सोचा कि कल जब वह फिर आएगी, तो उसे आधा पाव चाय और दे देंगे। लेकिन फिर ख्याल आया कि अगर वह नहीं आई तो...। संभव है वह इधर कदम ही न रखे। वह समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें, वह अपराधबोध से घिर गए थे कि उन्होंने उसे सही मात्रा में चाय क्यों नहीं दी। फिर उन्होंने तय किया कि इसी वक्त जाकर उस महिला को बाकी चाय दी जाए। आखिर उसकी चीज है, उसने उसके पूरे पैसे दिए हैं। संयोग से लिंकन उसका घर जानते थे। उन्होंने एक हाथ में चाय ली और दूसरे हाथ में लालटेन लेकर निकल पड़े। उसका घर लिंकन के घर से तीन मील दूर था। उन्होंने उस महिला के घर पहुंचकर दरवाजा खटखटाया। महिला ने दरवाजा खोला तो उन्होंने कहा - क्षमा कीजिए, मैंने गलती से आपको आधा पाव ही चाय दी थी। यह लीजिए बाकी चाय। महिला आश्चर्य से उन्हें देखने लगी। फिर उसने कहा - बेटा, तू आगे चलकर महान आदमी बनेगा। उसकी भविष्यवाणी सच निकली।

Dark Saint Alaick
13-06-2012, 04:23 AM
समय के पाबन्द रहें

जो आजीवन समय का पाबन्द रहता है, उसे लगातार कामयाबी मिलती रहती है। यदि आप अपने प्रत्येक दिन का शुभारंभ ठीक तरीके से करते हैं, तो उसका परिणाम सुखद ही होगा। प्रत्येक दिन के सुखद परिणाम आपको उन्नति की ओर ही ले जाएंगे। आप अपना लक्षय पा लेंगे। प्रत्येक दिन के सुंदर, सुखद और सरल भाव आपके लिए उन्नति के दरवाजे ही खोलते हैं। हेनरी फोर्ड खेत में पैदा हुए थे। उन्होंने सोलह साल की उम्र में खेत छोड़ा और जाने-माने आविष्कारक थॉमस अल्बा एडिसन की डेट्राइट एडिसन कंपनी में फोरमैन बन गए और प्रगति करने लगे; तब तक, जब तक कि वे चीफ इंजानियर नहीं बन गए। स्पष्ट है एडिसन उनके लिए बहुत बड़े व्यक्ति थे। हेनरी फोर्ड ने खुद से कहा, कभी इस प्रख्यात अविष्कारकर्ता से बात करने का अवसर मिलेगा, तो उनसे एक प्रश्न अवश्य पूछेंगे। हेनरी फोर्ड को 1898 में यह अवसर मिल ही गया। उन्होंने एडिसन को रोका और कहा - मिस्टर एडिसन, क्या मैं आपसे एक सवाल पूछ सकता हूं? क्या आपको लगता है कि मोटरकारों के लिए पेट्रोल ईंधन का अच्छा स्रोत हो सकता है? एडिसन के पास फोर्ड से बात करने का समय नहीं था। उन्होंने केवल हां कहा और वहां से चले गए। बात समाप्त हो गई, लेकिन इस जवाब ने फोर्ड को उत्साहित कर दिया। यहीं से फोर्ड ने एक लक्ष्य तय कर लिया और संकल्प ले लिया। ग्यारह वर्ष बाद उन्होंने 1909 में टिन लिजी नामक एक कार बनाई। उन्होंने अनेक आलोचनाएं झेली, लेकिन उन ग्यारह वर्षों में उन्होंने काम किया और इंतजार किया। उन्होंने ऊर्जा में कमी का अनुभव किया, किंतु थकान का कभी अनुभव नहीं किया। यही कारण है कि वे लक्ष्य तक पहुंचे और कामयाबी हासिल की। यदि उस समय को हाथ से निकल जाने दिया होता, तो क्या वे फोर्ड जैसी कामयाब कार कंपनी खड़ी करने में कामयाब होते? याद रखें। जब तक आप अपने विचारों, धन और समय का प्रबंधन करना नहीं सीखेंगे, तब तक आप कोई भी महत्वपूर्ण चीज हासिल नहीं कर पाएंगे। यदि आप सफल होना चाहते हैं, तो आपको विफलताओं से कभी डरना नहीं चाहिए। न ही आपको विफलताओं के माध्यम से विकास करने से डरना चाहिए।

Dark Saint Alaick
13-06-2012, 04:26 AM
धूल का कमाल

सही समय पर अपनी अक्ल का इस्तेमाल ही समझदार की सबसे बड़ी निशानी होती है। विकट हालात में घबराए बगैर अपनी बुद्धि के दम पर भी बड़ी से बड़ी आफत को टाला जा सकता है। कभी भी विपरीत हालात में अपना विवेक नहीं खोना चाहिए। आपकी जीत का सबसे बड़ा हथियार विवेक ही होता है। यह उन दिनों की बात है, जब द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था। जर्मनी के सेनापति रोमेल अपनी खास रणनीतियों के लिए जाने जाते थे। एक बार अफ्रीका के एक रेगिस्तान में जर्मन सेना अंग्रेजों से युद्ध कर रही थी । तब उसके तोपखाने के गोले खत्म हो गए। अंग्रेज सेना सामने से बढ़ी चली आ रही थी। बारूद व गोले न होने से अंग्रेज सेना को रोक पाना असंभव सा हो गया था। ऐसे में साथी सेनाधिकारी दौड़े- दौड़े घबराहट में रोमेल के पास आए और बोले - सर, अंग्रेजों ने हमला बोल दिया है। हमारे पास इस समय खाली तोपों के अलावा और कुछ भी नहीं है। ऐसे में हम क्या करें ? इतनी जल्दी इस समय तो किसी भी चीज की व्यवस्था करना काफी मुश्किल है। साथियों की बातें सुनकर रोमेल थोड़ा भी नहीं घबराए। वह धैर्यपूर्वक बोले - देखो, इस तरह परेशान होने से कुछ नहीं होगा। बुद्धि और चतुराई से काम लेकर दुश्मन सेना के छक्के छुड़ाने होंगे। हमारे पास गोले ओर बारूद न सही, धूल तो है। तोपों में धूल भरो और दनादन दागो। कुछ हवाई जहाजों को भी उड़ने के लिए ऊपर छोड़ दो। रोमेल की बात मानकर ऐसा ही किया गया। तोपों की गड़गड़ाहट से आसमान हिल उठा । चारों ओर धूल ही धूल उड़ती देख कर अंग्रेज डर गए। उन्होंने समझा कि शत्रु की भारी-भरकम सेना आगे बढ़ती चली आ रही है। उड़ती हुई धूल में वे वास्तविकता का पता नहीं लगा सके। इधर जर्मन हवाई जहाजों ने भी खाली उड़ान भरकर शत्रु सेना को आतंकित कर दिया। अचानक दहशत में आ जाने से शीघ्र ही शत्रु सेना के पांव उखड़ गए और वह भाग खड़ी हुई। इस तरह रोमेल की बुद्धि और चतुराई से बिना किसी हथियार के ही सफलता मिल गई। भले ही द्वितीय विश्व युद्ध में निर्णायक जीत जर्मनी को न मिली हो, पर रोमेल को उनके शत्रु देशों के सैन्य अधिकारी भी याद करते हैं।

Dark Saint Alaick
13-06-2012, 04:31 AM
सबसे बड़ी कला

अगर कोई प्रतिभावान हैं और उसे वे सभी कलाएं आती हैं, जो एक प्रतिभावान के पास होनी चाहिए; तो उस प्रतिभावान को कभी अपनी प्रतिभा पर घमंड करना या इतराना नहीं चाहिए, वरना उसकी प्रतिभा के कोई मायने नहीं होते। एक युवा ब्रह्मचारी था। वह बहुत ही प्रतिभावान था। उसने मन लगाकर शास्त्रों का अध्ययन किया था। वह प्रसिद्धि पाने के लिए नई-नई कलाएं सीखता रहता था। विभिन्न कलाएं सीखने के लिए वह अनेक देशों की यात्रा भी करता था। एक व्यक्ति को उसने बाण बनाते देखा, तो उससे बाण बनाने की कला सीख ली। किसी को मूर्ति बनाते देखा, तो उससे मूर्ति बनाने की कला सीख ली। इसी तरह कहीं से उसने सुंदर नक्काशी करने की कला को भी सीख लिया। वह लगभग पंद्रह-बीस देशों में गया और वहां से कुछ न कुछ सीख कर लौटा। इस बार जब वह अपने देश लौटा, तो अभिमान से भरा हुआ था। अहंकारवश वह सबका मजाक उड़ाते हुए कहता, भला पृथ्वी पर है कोई मुझ जैसा अनोखा कलाविद्। मेरे जैसा महान कलाकार भला कहां मिलेगा। बुद्ध को उस युवा ब्रह्मचारी के बारे में पता चला, तो वह उसका अहंकार तोड़ने के लिए एक वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण कर उसके पास आए और बोले - युवक, मैं अपने आप को जानने की कला जानता हूं। क्या तुम्हें यह कला भी आती है? वृद्ध ब्राह्मण का रूप धरे बुद्ध को युवक नहीं पहचान पाया और बोला - बाबा, भला अपने आप को जानना भी कोई कला है? इस पर बुद्ध बोले - जो बाण बना लेता है, मूर्ति बना लेता है, सुंदर नक्काशी कर लेता है अथवा घर बना लेता है वह तो मात्र कलाकार होता है। यह काम तो कोई भी सीख सकता है। पर इस जीवन में महान कलाकार वह होता है, जो अपने शरीर और मन को नियंत्रित करना सीख जाता है। अब बताओ, ये कलाएं सीखना ज्यादा बड़ी बात है या अपने जीवन को महान बनाना। बुद्ध की बातों का अर्थ समझकर युवक का अभिमान चूर-चूर हो गया और वह उनके चरणों में गिर पड़ा। वह उस दिन से उनका शिष्य बन गया।

sombirnaamdev
13-06-2012, 08:38 AM
इस जीवन में महान कलाकार वह होता है, जो अपने शरीर और मन को नियंत्रित करना सीख जाता है।

sahi kaha hai vo hi vyakti mahaan hai jisne apne aap par kaabu pa liya hai !

Dark Saint Alaick
14-06-2012, 11:07 AM
संत की भिक्षा याचना

एक गांव में एक संत रहा करते थे। संत की आदत थी कि वह रोज एक प्रतिमा के सामने खड़े हो जाते थे तथा उस प्रतिमा से ही हाथ जोड़ कर भिक्षा की याचना करते थे। नियमित रूप से उन्हें ऐसा करते कई लोगों ने देखा, पर किसी को उनसे यह पूछने की हिम्मत नहीं पड़ी कि आखिर रोज-रोज प्रतिमा के आगे खड़े होकर भिक्षा मांगने की उनकी इस हरकत का औचित्य क्या है? एक दिन एक युवा साधु ने हिम्मत जुटाई और आखिरकार उनसे पूछ ही लिया कि गुरुदेव एक जिज्ञासा है। आप प्रत्येक दिन प्रतिमा के आगे हाथ फैलाते हैं और उससे भिक्षा की याचना करते हैं, जबकि आप तो जानते ही होंगें कि पत्थर की प्रतिमा के आगे रोज-रोज इस तरह हाथ पसारने से कुछ भी नहीं मिल सकता। फिर आप व्यर्थ कष्ट क्यों करते हैं? युवा साधु की इस जिज्ञासा पर पहले ते संत कुछ देर चुप रहे। फिर उन्होने कहा - बालक, तुम्हारी यह जिज्ञासा एकदम उचित है कि मैं रोज रोज ऐसा क्यों करता हूं। मैं यह भली भांति जानता हूं कि यह प्रतिमा मुझे कुछ भी नहीं देने वाली है, फिर भी मैं उससे कुछ मांगता रहता हूं। मैं किसी आशा से इस प्रतिमा से कुछ नहीं मांगता। यह मेरा नित्य का अभ्यास कर्म है। मांगने से कुछ नहीं मिलता, यह सोचकर ही मेरे भीतर एक खास तरह का धैर्य पैदा होता है। इस धैर्य के दम पर ही मैं किसी घर में याचना करूं और मुट्ठी भर अन्न न मिले, तो मेरे मन में किसी भी तरह की निराशा नहीं पैदा होगी। मेरे मन की शांति भंग न हो, इस प्रयास के कारण ही मैं रोज इस प्रतिमा के आगे खड़ा होकर इससे कुछ मांगता हूं। यह सुनकर युवा साधु ने कहा - यह तो अद्भुत बात है। मैं तो सोच भी नहीं सकता था। सच कहूं, तो मुझे और लोगों की तरह आपकी मानसिक दशा पर संदेह होता था। क्षमा करें। वास्तव में आपने मुझे साधना का एक और तरीका बता दिया। मैं भी अब इस तरह से अभ्यास करने का प्रयत्न करूंगा। युवा साधु ने उस संत को प्रणाम किया और वहां से चला गया।

Dark Saint Alaick
14-06-2012, 11:16 AM
खुद बनाएं अपना भाग्य

स्वामी विवेकानंद ने एक बार कुछ युवाओं से कहा, 'तुम अपनी गलतियों के लिए दूसरों को दोष क्यों देते हो? असल में तो तुम जो बोते हो वही काटते हो। दूसरों पर दोषारोपण हमें दुर्बल बनाता है। अपनी दुर्बलताओं के लिए किसी और को दोष मत दो। सारी जिम्मेदारी अपने कंधे पर लो। जानो कि अपने भाग्य के निर्माता तुम स्वयं हो। कोई भी देवता आकर हमारा बोझ उठाने वाला नहीं है।' जब हम यह समझ लेते हैं कि किसी कार्य के लिए स्वयं हम ही जिम्मेदार हैं, तब हम अपने श्रेष्ठतम रूप में सामने आते हैं। सारी शक्तियां और सफलताएं असल में इंसान के निकट ही होती हैं। ऐन्द्रिक सुखों एवं भोगों की इस दौड़ का कोई अंत नहीं होता, लेकिन जैसे बुरे विचार और बुरे कर्म हमेशा इंसान को नष्ट करने के लिए आतुर रहते हैं, वैसे ही अच्छे विचार और कर्म भी हजार देवदूतों के समान उसकी रक्षा के लिए सदैव तैयार होते हैं। इसलिए कोल्हू के बैल की तरह कुछ पाए बिना सिर्फ एक ही गोल घेरे में भटकने से कोई लाभ नहीं है। इंसान को स्वयं ही इस चक्र से बाहर निकलना होगा। जीवन के इस संग्राम में धूल -मिट्टी उड़ना स्वाभाविक है। जो इस धूल को सहन नहीं कर सकता, वह आगे कैसे बढ़ सकेगा? ये विफलताएं ही सफलता के मार्ग की अनिवार्य सीढ़ियां हैं। यदि कोई व्यक्ति आदर्श के साथ एक हजार गलतियां करता है, तो बिना आदर्श के वह पचास हजार गलतियां करेगा। इसलिए हर व्यक्ति के जीवन में अपना एक आदर्श होना आवश्यक है। इसे कभी नहीं छोड़ना चाहिए। इस पर डटे रहने से हम कई जगह फिसलने से बच जाते हैं। व्यक्ति का चरित्र और कुछ नहीं, उसी की आदतों और वृत्तियों का ही सार है। हमारी आदतें और व्यवहार ही हमारे चरित्र का स्वरूप निश्चित करती हैं। चित्त की विशेष अवस्था उसकी श्रेष्ठता और निकृष्टता के अनुरूप ही हमारे चरित्र की सफलता और निर्बलता सुनिश्चित होती है। अच्छे चिंतन और आचरण के रूप में जिस चरित्र गठन होता है, वही बाद में साधना का रूप ले लेता है।

Dark Saint Alaick
17-06-2012, 10:31 AM
संत के सवाल

यह मनुष्य का स्वभाव है कि वह अपने हित के लिए अक्सर प्रकृति से भी आमना- सामना कर बैठता है, जो बाद में उसी के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है। इसलिए मनुष्य को प्रकृति का उतना ही दोहन करना चाहिए जितनी उसे जरूरत है। आज मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए निरन्तर पेड़ों की कटाई कर रहा है, जो आने वाले समय के लिए उचित नहीं है। एक गांव में एक संत सदानंद का प्रवचन चल रहा था। प्रवचन के बीच में सवाल-जवाब का दौर चलता, तो कभी हंसी-मजाक का भी। एक छोटे बच्चे को संत ने बुलाया । खाने को उसे लड्डू भी दिया। फिर पूजा की थाली में रखा दीपक जलाया और लोगों को सुनाते हुए बच्चे से ठिठोली के अंदाज में पूछा - बताओ बेटा। दीपक में यह ज्योति कहां से आई? सभा में उपस्थित लोग प्रवचन का आनंद ले रहे थे। सभी इस सवाल पर विचारमग्न हो गए कि दीपक में प्रकाश आया कहां से? लेकिन इस सवाल का जवाब वह बच्चा भला कैसे दे पाएगा? तभी वह बच्चा उठा और उसने फूंक मारकर दीपक को बुझा दिया। फिर उसने संत से पूछा - महाराज, अब आप बताइए, दीपक का प्रकाश कहां गया? संत को इस प्रश्न की आशा नहीं थी। वह सोच में पड़ गए। सारी सभा में सन्नाटा छा गया। तभी संत ने उस बच्चे को गले लगाते हुए कहा - बेटा एक गूढ़ प्रश्न का गूढ़ उत्तर देकर तुमने मुझे निरुत्तर कर दिया और इससे मेरा अभिमान भी पिघला दिया। मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूं कि तुम एक दिन दिव्यात्मा बनोगे। संत ने फिर मामले को संभालते हुए प्रवचन शुरू किया और कहा - देखा आपने? इस बच्चे ने मासूमियत में ही सही, एक बड़े तथ्य की ओर इशारा कर दिया कि जो रोशनी प्रकृति से आती है, वह वहीं चली भी जाती है। ऊर्जा अपना रूप बदलती रहती है। उसके विभिन्न रूपों का हम हमेशा सार्थक प्रयोग करें। हम सब बहुत सी चीजों को समझते हैं, पर उस समझ पर लालच और अहंकार का आवरण चढ़ जाता है। यह कदापि उचित नहीं है। संत के कथन का मर्म उपस्थित लोगों के हृदय तक उतर गया।

Dark Saint Alaick
17-06-2012, 10:35 AM
कभी स्थिर न बैंठें

ज्यादातर लोग हर दिन जब दफ्तर जाते हैं, तो उनके दिमाग में सिर्फ एक ही विचार होता है - घर लौटने तक का समय गुजारना। उस जादुई समय तक पहुंचने के लिए वे दिनभर में जैसे-तैसे उतने ही काम करते हैं, जिन्हें किए बिना काम नहीं चल सकता, लेकिन आप ऐसा नहीं करेंगे। आप स्थिर नहीं बैठेंगे। नौकरी मिल जाने के बाद ज्यादातर लोगों को यही पर्याप्त लगता है कि वे लगातार वहीं काम करते रहें और हमेशा स्थिर बने रहें, लेकिन काम करना आपका अंतिम लक्ष्य नहीं है। यह तो सिर्फ लक्ष्य तक पहुंचने का साधन है। आपका असल लक्ष्य तो प्रमोशन, ज्यादा पैसा, सफलता, ऊपर का पायदान, बेहतर संपर्क बनाना और अनुभव हासिल करना है, ताकि आप कंपनी के शिखर पर पहुंच सकें। अपना स्वतंत्र बिजनस शुरू कर सकें। एक तरह से नौकरी तो अप्रासंगिक है। हां, आपको काम निपटाना होता है और हां, आपको इसे बहुत अच्छी तरह से करना होता है, लेकिन आपकी निगाह हमेशा अगले पायदान पर होनी चाहिए। नौकरी में आपका हर काम आपकी प्रगतिशील योजना में एक पड़ाव जैसा होना चाहिए। बाक़ी कर्मचारी अगले टी ब्रेक के बारे में सोच रहे हैं। शेष कर्मचारी सचमुच काम किए बिना शाम ढलने की राह देख रहे हैं, लेकिन आप नहीं। आप तो अपने अगले दांव की योजना बनाने और उस पर अमल करने में व्यस्त हैं। आदर्श स्थिति में नियमों का खिलाड़ी अपना हर काम लंच से पहले निपटा लेता है। फिर लंच के बाद शाम तक वह अपने अगले प्रमोशन के लिए अध्ययन करता है, करीबी सहयोगियों से मिल रही प्रतिस्पर्धा का मूल्यांकन करता है, हर कर्मचारी के लिए काम की प्रक्रिया को बेहतर बनाने के तरीकों पर शोध करता है, कंपनी के इतिहास और उसकी नीतियों के बारे में अपना ज्ञान बढ़ाता है। आप अपना काम लंच तक पूरा नहीं कर पाते हैं, तो आपको इसके लिए कोई ऐसा तरीका खोजना ही होगा कि जिससे आप इन सभी चीजों को दिन में कभी कर सकें और फिर लगातार आगे बढ़ते रहें।

sombirnaamdev
17-06-2012, 11:25 AM
आदर्श स्थिति में नियमों का खिलाड़ी अपना हर काम लंच से पहले निपटा लेता है। फिर लंच के बाद शाम तक वह अपने अगले प्रमोशन के लिए अध्ययन करता है, करीबी सहयोगियों से मिल रही प्रतिस्पर्धा का मूल्यांकन करता है, हर कर्मचारी के लिए काम की प्रक्रिया को बेहतर बनाने के तरीकों पर शोध करता है,
ek dum sahi baat hai srimaan ji

Dark Saint Alaick
25-06-2012, 08:02 AM
साबुन और शब्द

विख्यात लेखक अर्नेस्ट हेमिंग्वे को अपने घर के बेहतरीन वातावरण से बहुत कुछ सीखने को मिला। बचपन से ही उन्हें यह सिखाया गया था कि जीवन में कभी गलत शब्द का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। हमेशा अच्छे शब्दों का ही प्रयोग करना चाहिए। अच्छे और सकारात्मक शब्द विफलता के दौर में भी प्रेरक बन कर सही राह दिखाते हैं। किसी से लड़ाई-झगड़ा हो जाने पर भी अनुचित भाषा व शब्दों का प्रयोग व्यक्ति की गरिमा के खिलाफ है। जब वे छोटे थे, तो घर के बड़े-बुजुर्गों ने ऐसा नियम बना दिया था कि अगर घर में कोई भी गलत शब्द बोलेगा, तो उसे साबुन के पानी से कुल्ला करके मुंह धोना पड़ेगा। नियमानुसार बचपन में जब भी अर्नेस्ट हेमिंग्वे के मुंह से कोई गलत शब्द निकल जाता, तो उन्हें साबुन से कुल्ला करके मुंह धोना पड़ता था। इसके अलावा घर के सदस्यों के अपशब्दों की एक सूची भी बनाई जाती थी। इस तरह हिसाब रखा जाता था कि किसने कितने गलत शब्द कहे। धीर-धीरे अर्नेस्ट के गलत और अनुचित शब्दों की संख्या बढ़ती जा रही थी और उन्हें हर बार साबुन से कुल्ला करना पड़ता था। यह बड़ा ही कटु अनुभव था। अपशब्द कहने के कारण बार-बार साबुन से कुल्ला करने से उनकी हालत खराब होती जा रही थी। आखिर उन्होंने निश्चय किया कि साबुन और शब्दों की इस लड़ाई में जीत शब्दों की होनी चाहिए, साबुन की नहीं। अब वे यब भरपूर कोशिश करेंगे कि गलत शब्द न बोलें। ऐसा करते-करते वे शब्दों के ही महारथी बन गए और उनकी लेखन पर भी पकड़ मजबूत होती गई। बाद में उन्होंने अपने पुराने और नए अनुभव के आधार पर एक लेख लिखा - इन डिफेंस ऑफ़ डर्टी वर्ड्स। उनका वह लेख काफी सराहा गया। अनेक लोगों ने उनके लेख को पढ़ा और उससे सीख लेकर अपने व्यक्तित्व में और बोलने की भाषा में सुधार किया। इस प्रकार घर के स्वच्छ वातावरण ने अर्नेस्ट हेमिंग्वे को एक महान लेखक बनाकर पूरे विश्व के सामने प्रस्तुत किया।

Dark Saint Alaick
25-06-2012, 08:06 AM
समर्पण के साथ करें काम

अगर आपको बहुत तेजी से तरक्की करनी है, तो आपको अपने काम में सौ फीसदी समर्पित होना होगा। आप एक पल के लिए भी अपने दीर्घकालीन लक्ष्य से नजरें नहीं हटा सकते। आपके लिए कोई छुट्टी नहीं है। वक्त बर्बाद करने की इजाजत नहीं है, गलतियां करने की गुंजाइश नहीं है, योजना से भटकने की अनुमति नहीं है। आपको अपराध जगत के निष्णात खिलाड़ियों जैसा बनना होगा - वे अपने जीवन में क़ानून का बहुत सख्ती से पालन करते हैं, क्योंकि वे छोटा सा कानून तोड़ने का जोखिम भी नहीं ले सकते वरना लोगों का ध्यान उनकी ओर आकर्षित हो जाएगा और उनके बड़े अपराध जाहिर हो जाएंगे। आपको अपने काम में सचमुच उत्कृष्ट बनना और दिखना होगा। आपको चौकस, समर्पित, जागरूक, उत्साही, तैयार, सतर्क और लगनशील बनना होगा। वैसे यह बहुत बड़ा काम है। आप तो यह मान कर चलें कि आपके शहर में सब आंख बंद कर चल रहे हैं। सिर्फ आपकी ही दोनों आंखें खुली हैं और आप ही देख पाने में सक्षम हैं। तय मानिए, आप पाएंगे कि जब आप गौर से देखने लगते हैं, तो आपको ज्यादा कुछ नहीं करना होता। लोगों की दिशा बदलने के लिए आपको बहुत तेज धक्का देने की जरूरत नहीं होती, सिर्फ हल्के धक्के से भी काम चल जाता है। आपका व्यवहार अविश्वसनीय रूप से संवेदनशील और नरम बन जाएगा, लेकिन इसके लिए आपको समर्पित तो रहना ही होगा। अगर आप समर्पण के बिना ही कोई काम करने की कोशिश करेंगे, तो वह ऐसा ही होगा; जैसे आप मामूली हथियारों के साथ युद्ध में उतरे हैं। समर्पण के बिना काम करने पर न तो आपमें आत्मविश्वास होगा और न ही खुद पर कोई नियंत्रण। पूरे समर्पण से काम में जुटने के बाद आपको आगे-पीछे देखने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। आप अपना रास्ता खुद अच्छी तरह से जान जाएंगे। सौ प्रतिशत समर्पण का निर्णय अपने आप लिया जा सकता है। यह बहुत आसान है। लेकर तो देखिए।

Dark Saint Alaick
25-06-2012, 08:43 AM
बेकार की बातें

सुकरात अपनी विद्वता और विनम्रता के कारण काफी मशहूर थे। वे हर बात को पहले पूरी तरह से समझ लेते थे और उसके वजन के हिसाब से ही उसका जवाब दिया करते थे। बेवजह की बातों पर वे न तो गौर करते थे और न ही उसका जवाब देने की जरूरत महसूस करते थे। एक बार वे बाजार से गुजर रहे थे। उसी बाजार से उनका एक परिचित भी जा रहा था। उसने पहले तो सुकरात को नमस्कार किया फिर कहा - जानते हैं, कल आपका मित्र आपके बारे में क्या कह रहा था। वह मित्र आगे अपनी बात कहता उससे पहले ही सुकरात ने उसे बीच में ही टोका और बोले - मित्र, मैं तुम्हारी बात जरूर सुनूंगा, पर पहले मेरे तीन छोटे-छोटे प्रश्नों के उत्तर दो। उनके उस परिचित ने उन्हें हैरत से देखा कि मेरे कुछ कहने से पहले ही सुकरात मुझसे क्या पूछने वाले हैं। फिर इशारे से मित्र ने सुकरात को प्रश्न पूछने की अनुमति दी। सुकरात बोले - पहला प्रश्न यह है कि जो बात तुम मुझे बताने जा रहे हो क्या वह पूरी तरह सही है? उस मित्र ने पहले तो कुछ सोचा फिर कहा - नहीं । मैंने यह बात सुनी है। इस पर सुकरात बोले - इसका मतलब तुम्हें पता ही नहीं कि वह सही है। खैर, अब क्या तुम जो बात मुझे बताने जा रहे हो, वह मेरे लिए अच्छी है? उस मित्र ने बिना सोच विचार के तत्काल कहा - नहीं, वह आपके लिए अच्छी तो नहीं ही है। आपको उसे सुनकर दुख ही होगा। इस पर सुकरात ने कहा - अब तीसरा प्रश्न, तुम जो बताने जा रहे हो क्या वह मेरे किसी काम की है? उस मित्र ने कहा - नहीं तो ...। उस बात से आपका कोई काम नहीं निकलने वाला। तीनों उत्तर सुनने के बाद सुकरात बोले - ऐसी बात जो सच नहीं है, जिससे मेरा कोई भला नहीं होने वाला ... उसे सुनने से मुझे क्या फायदा ! और एक बात तुम भी सुनो। जिस बात से तुम्हारा भी कोई फायदा नहीं होने वाला हो, वैसी बात तुम क्यों करते हो। यह सुनकर सुकरात का मित्र बेहद लज्जित हो गया और बिना कोई सवाल जवाब किए चुपचाप वहां से चला गया।

Dark Saint Alaick
25-06-2012, 08:47 AM
निपुण बनें और आगे बढ़ें

आपको हमेशा अपने गुणो और शक्ति की पहचान रहनी चाहिए। इसके बाद आपको यह फैसला करना चाहिए कि आपका विशेषज्ञ ज्ञान कहां उपयोगी हो सकता है। हो सकता है, आप कंप्यूटर्स या अन्य प्रौद्योगिकी में बहुत निपुण हों या आप बहुत रचनात्मक हों और बहुत सी ऐसी उपयोगी चीजें जानते हों, जिन्हें दूसरे नहीं जानते। उदाहरण के लिए एक कंपनी में एक कर्मचारी प्रिंट बिजनेस को अंदर से बाहर तक पूरी तरह जानता है। प्रिंटिंग के काम की जरूरत पड़ने पर बॉस हमेशा उसी के पास जाते थे। इससे उसकी एक खास जगह बन गई और उसे इसका फायदा भी मिला अर्थात ढेरों ऐसे क्षेत्र हैं, जिनमें आप निपुण हो सकते हैं और उस क्षेत्र में आगे जा सकते हैं। यह फाइनेंस का क्षेत्र भी हो सकता है। आप चाहे जिस क्षेत्र में विशेषज्ञ बनने का फैसला करें; बस, यह सुनिश्चित कर लें कि वह क्षेत्र प्रासंगिक हो, स्थानीय हो और इतना रोचक हो कि उसमें काम करते वक्त आप उसमें रम जाएं। इस तरह आपकी सेवाओं की जरूरत पड़ने पर दूसरे लोग आपके पास आएंगे। अगर आप कोई ऐसी चीज जानते हैं, जिसे वे नहीं जानते, तो तय मानिए आप सिर्फ एक कर्मचारी नहीं रह जाएंगे। आप परामर्शदाता बन जाएंगे। इसे एक और उदाहरण से समझा जा सकता है। एक बार एक आदमी ने अपने शहर के रात्रिकालीन जीवन को जानने का बीड़ा उठाया। उसने रात में चलने वाले रेस्तरां, नाइट-क्लब, थिएटर और इसी तरह की सभी चीजों की जानकारी जुटाई। उससे जुड़े लोगों को यह पहले तो थोड़ा अप्रासंगिक लगा, लेकिन जब उसकी कंपनी के बाहर के ग्राहक आकर रात में रुकने लगे, तो उसने अपनी विशेषज्ञता के चलते उन पर अपना सिक्का जमा लिया। उन्हें शाम को घुमाने ले जाने लगा, खाते-पीते वक्त उनके साथ रहने लगा और एक बार जब वह इस स्तर पर बॉस लोगों के साथ उठने-बैठने लगा, तो उसे भी उनकी जमात में शामिल होने में ज्यादा वक्त नहीं लगा। उसे पदोन्नति ही नहीं मिली, बल्कि कम्पनी में उसकी एक ख़ास जगह बन गई।

Dark Saint Alaick
28-06-2012, 01:01 PM
सत्य का साथ इस हद तक दें

सेंट स्टीफंस कॉलेज के प्रिंसिपल का पद खाली था। इस पद के लिए चयनकर्ताओं के सामने दो उम्मीदवार के नाम थे। पहले दीनबंधु एंड्रयूज और दूसरे प्रोफेसर सुशील कुमार रूद्र । निश्चित तारीख को दोनों उम्मीदवार साक्षात्कार के लिए उपस्थित हुए। प्रोफेसर रुद्र काफी प्रतिभावान थे और उनकी प्रतिभा से दीनबंधु पहले से ही काफी प्रभावित थे। चयन समिति के प्रमुख लाहौर के लेफ्राय थे। उन्होंने दीनबंधु एंड्रयूज को पास बुलाकर कहा - मिस्टर एंड्रयूज, आप यह तो जानते ही हैं कि चयन आप दोनों में से ही किसी एक का होना है। आप इस प्रतियोगिता में अपने को विजयी समझकर कार्यभार संभालने के लिए पूरी तरह तैयार रहिए, क्योंकि कोई भी भारतीय इस कॉलेज में अनुशासन नहीं रख सकेगा और अन्य प्राध्यापक भी उसे वह सम्मान नहीं दे सकेंगे, जो इस कॉलेज के एक प्रिंसिपल को मिलना चाहिए। इसलिए मेरी राय तो यही है कि प्रिंसिपल पद के लिए किसी अंग्रेज की नियुक्ति ही ठीक रहेगी। इस पक्षपातपूर्ण निर्णय को सुनकर दीनबंधु पहले तो काफी चौंक गए, लेकिन वे चुप न रह सके। वे लेफ्राय की इस रंगभेद की नीति के कारण बुरी तरह से तिलमिला उठे। उन्होंने बेहद नाराजगी भरे शब्दों में लेफ्राय से कहा - सर, यह आप नहीं, आप पर सवार रंगभेद की नीति बोल रही है। क्या आप प्रोफेसर रुद्र की योग्यताओं से परिचित नहीं हैं ? वे भारतीय हैं, तो क्या हुआ, योग्यताओं के तो वे धनी हैं। सब दृष्टि से उनका ही प्रिंसिपल रहना उचित है। उनकी योग्यता ही ऐसी है कि कॉलेज के सभी लोग उनका भरपूर सम्मान करेंगे। यदि आप ऐसा नहीं मानते हैं, तो मैं अभी अपने पद से त्यागपत्र देता हूं और प्रिंसिपल पद की उम्मीदवारी से अपना नाम वापस लेता हूं। जब आप को एक उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य करने के लिए समिति में रखा गया है, तो चयन में अपना न्याय दीजिए। शायद आप नहीं जानते कि रंगभेद की दृष्टि से पक्षपातपूर्ण निर्णय देने पर अच्छे परिणामों की आशा नहीं की जा सकती। अंत में प्रिंसिपल के लिए प्रोफेसर रुद्र को चुन लिया गया।

Dark Saint Alaick
28-06-2012, 01:05 PM
सिक्के के दोनों पहलू देखें

आम तौर पर देखते हैं कि लोग इकतरफा ही सोचते हैं। हमें हमेशा सिक्के के दोनों पहलुओं को देखने की आदत डालनी चाहिए। उदाहरण के लिए आम तौर पर कार्यालयों में बहुत से कर्मचारियों का नजरिया प्रबंधन के प्रति नकारात्मक होता है। उन्हें कर्मचारियों का पक्ष लेना और प्रबंधन को भला बुरा कहना ही हमेशा अच्छा लगता है, लेकिन आपको ऐसा नहीं करना चाहिए। हमेशा अपना सही नजरिया विकसित करें और इस तरह की मानसिकता वाले नहीं बने कि हमें बस, विरोध के लिए ही विरोध करना है। आपको हर स्थिति के दोनों पहलुओं का अध्ययन करना चाहिए। आपको अपनी के साथ-साथ दूसरों की स्थिति को समझना भी सीखना होगा। हो सकता है कार्यालय में आपके सहकर्मी प्रबंधन की नीति के बारे में शिकवे-शिकायत करें, लेकिन आप निष्पक्षता से पहले हालात का विश्लेषण करें। समझदारी भरा कदम तो यह होता है कि हमेशा सहमति में सिर हिलाएं, खुद कभी शिकायत न करें। सही नजरिए का मतलब है, सबसे अच्छी कोशिश करना। केवल एक दिन के लिए नहीं, बल्कि हर दिन अच्छी कोशिश करें। सही नजरिए के दम पर आप मीलों आगे जा सकते हैं। हमेशा सिर उठाकर जिएं, कभी शिकायत न करें, हमेशा सकारात्मक तथा उत्साही रहें और लगातार फायदों की तलाश करते रहें। सही नजरिया है, मानदंड विकसित करना और उन पर अडिग रहना। इसका मतलब है अपना लाभ सुनिश्चित करना और यह जानना कि किस मुद्दे पर आगे आने की जरूरत है। सही नजरिया इस बारे में जागरूक रहने से संबंधित है कि आपके पास बहुत ज्यादा शक्ति है और आप इस शक्ति का इस्तेमाल दयालुता, संयम, विनम्रता और विचारशीलता के साथ करेंगे। आप किसी को नीचा नहीं दिखाएंगे। आप बेरहम या शोषक नहीं बनेंगे। आप नैतिकता के उच्च धरातल पर रहेंगे और अपनी छवि बेदाग रखेंगे। सही नजरिए का मतलब यह है कि आप अच्छा बनने के साथ तीव्र गति वाले बनें ।

Dark Saint Alaick
28-06-2012, 11:22 PM
टीम भावना बनाती है महान

आपकी या आपसे जुड़ी टीम क्या है और यह कैसे काम करती है? सफल नेतृत्व करने के लिए हमें इन सवालों के जवाब मालूम होने चाहिए। टीम सिर्फ लोगों का समूह ही नहीं होती है। यह तो एक ऐसा संगठन है, जिसकी अपनी खुद की शक्तियां, गुण और परंपराएं होती हैं। इन्हें जाने बगैर आप लड़खड़ा जाएंगे, लेकिन इन्हें जानकर आप अपनी टीम के साथ महानता के शिखर पर पहुंच सकते हैं। हर टीम में तरह-तरह के लोग होते हैं, जो अलग-अलग दिशाओं में और अलग-अलग शक्ति से धक्का देते हैं। कुछ ज्यादा तेजी से कंधा मारकर आगे निकलने के चक्कर में रहते हैं। कुछ पीछे से दूसरों को धक्का मारकर ही खुश हो लेते हैं। बाकी लोग सोचने के अलावा कुछ भी करते नजर नहीं आते हैं, लेकिन आपको विचारों के लिए उनकी जरूरत होती है। अगर आपने अब तक टीम की शक्तियों पर गौर नहीं किया हो, तो आप मेरिडिथ बेल्बिन की 'मैनेजमेंट टीम्स - व्हाई दे सक्सीड ऑर फेल' पढ़ लें। यह उन मैनेजरों के लिए हैं, जो अपने प्रमुख कर्मचारियों से सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करवाकर परिणाम हासिल करना चाहते हैं। बेल्बिन का कहना है कि टीम में नौ भूमिकाएं होती हैं - और हम सभी इनमें से एक या ज्यादा भूमिकाएं निभाते हैं। हां, अपनी भूमिका को पहचानना मजेदार है, लेकिन ज्यादा उपयोगी यह है कि आप अपनी टीम की भूमिका पहचानें और फिर उस आधार पर काम भी करें। टीम एक ऐसा समूह है, जहां सभी सदस्य किसी सामूहिक लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करते हैं। कोई भी टीम अच्छी तरह काम नहीं कर सकती, अगर उसका हर सदस्य अपने व्यक्तिगत लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित कर रहा हो, चाहे वह ऑफिस की छुट्टी का इंतजार हो, व्यक्तिगत तरक्की हो, बॉस की चापलूसी करना हो या ऑफिस में सिर्फ दिल बहलाना हो। जब आप ‘मैं’ और ‘मैंने’ से ज्यादा बार ‘हम’ और ‘हमने’ सुनेंगे, तो आप जान जाएंगे कि आपके पास टीम है।

Dark Saint Alaick
28-06-2012, 11:30 PM
अपने कामों का बखान

एक बार एक डाकू गुरु नानकदेवजी के पास आया और चरणों में माथा टेकते हुए बोला - मैं डाकू हूं और रोज-रोज की चोरी और डाका डालने वाली अपनी जिंदगी से तंग आ गया हूं। मैं सुधरना चाहता हूं। आप मेरा मार्गदर्शन कीजिए, मुझे अंधकार से उजाले की ओर ले चलिए। मैं अपनी जिंदगी को कैसे सुधारूं? नानकदेवजी ने कहा - तुम आज से चोरी करना और झूठ बोलना छोड़ दो। सब अपने आप ही ठीक हो जाएगा। डाकू नानकदेवजी को प्रणाम करके चला गया। कुछ दिनों बाद वह फिर आया और कहने लगा - मैंने झूठ बोलने और चोरी से मुक्त होने का बेहद प्रयत्न किया, किंतु मुझसे ऐसा नहीं हो सका। मैं चाहकर भी अपने आप को बदल नहीं सका। आप मुझे उपाय अवश्य बताइए। गुरु नानक सोचने लगे कि इस डाकू को सुधरने का क्या उपाय बताया जाए। उन्होंने अंत में कहा - तुम्हारे मन में जो आए करो, लेकिन दिन भर झूठ बोलने, चोरी करने और डाका डालने के बाद शाम को लोगों के सामने किए हुए अपने कामों का बखान कर दो। डाकू को यह उपाय काफी सरल जान पड़ा। इस बार डाकू पलटकर नानकदेवजी के पास नहीं आया, क्योंकि जब वह दिन भर चोरी आदि करता और शाम को जिसके घर से चोरी की है, उसकी चौखट पर यह सोचकर पहुंचता कि नानकदेवजी ने जो कहा था कि तुम अपने दिनभर के कर्म का बखान करके आना, लेकिन वह अपने बुरे कामों के बारे में बताते में बहुत संकोच करता और आत्मग्लानि से पानी-पानी हो जाता। वह बहुत हिम्मत करता कि मैं सारे काम बता दूं, लेकिन वह नहीं बता पाता। हताश - निराश मुंह लटकाए वह डाकू एक दिन अचानक नानकदेवजी के सामने आया। अब तक न आने का कारण बताते हुए उसने कहा - मैंने तो उस उपाय को बहुत सरल समझा था, लेकिन वह तो बहुत कठिन निकला। लोगों के सामने अपनी बुराइयां कहने में लज्जा आती है। अत: मैंने बुरे काम करना ही छोड़ दिया। नानकदेवजी ने उसे कहा - अब तुम अपराधी नहीं रहे। अब तुम एक अच्छे और बेहतर इंसान हो। याद रखना, अपना जो कार्य अन्यों को बताने में लज्जा का अनुभव हो, वही पाप है। तुम जब तक यह स्मरण रखोगे, बुराई की तरफ कभी नहीं जाओगे। ज़ाहिर है, वह फिर कभी बुराई की ओर नहीं गया।

Dark Saint Alaick
30-06-2012, 03:23 PM
मन के जीते जीत है

जीवन में परिस्थितियां बदलती रहती है। सफलता-विफलता, हानि-लाभ, जय-पराजय के अवसर मौसम के समान हैं। कभी कुछ स्थिर नहीं रहता। जिस तरह इंद्रधनुष के बनने के लिए बारिश और धूप दोनों की जरूरत होती है, उसी तरह एक पूर्ण व्यक्ति बनने के लिए हमें भी जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों से होकर गुजरना पड़ता है। जीवन में सुख भी है, दु:ख भी है। अच्छाई भी है, बुराई भी है। जहां अच्छा वक्त हमें खुशी देता है, वहीं बुरा वक्त हमें मजबूत बनाता है। हम अपनी जिन्दगी की सभी घटनाओं पर नियंत्रण नहीं रख सकते, पर उनसे निपटने के लिए सकारात्मक सोच के साथ सही तरीका तो अपना ही सकते हैं। कई लोग अपनी पहली नाकामी से इतना परेशान हो जाते हैं कि लक्ष्य ही छोड़ देते हैं। कभी-कभी तो अवसाद में चले जाते हैं। अब्राहम लिंकन भी अपने जीवन में कई बार नाकाम हुए और अवसाद में भी गए, किन्तु साहस और सहनशीलता के गुण ने उन्हें सफलता दिलाई। अनेक चुनाव हारने के बाद 52 वर्ष की उम्र में अमेरिका के राष्ट्रपति चुने गए। हर रात के बाद सुबह होती है। जिन्दगी हंसाती भी है, रुलाती भी है। जो हर हाल में आगे बढ़ने की चाह रखते हैं, जिन्दगी उन्हीं के आगे सर झुकाती है। हम जो भी कार्य करना चाहते हैं, उसकी शुरुआत करें, आने वाली बाधाओं के बारे में सोच कर बैठ न जाएं। कई लोग सफल तो होना चाहते हैं, किन्तु थोड़ी सी कठिनाई अथवा विफलता से परेशान हो जाते हैं और कहने लगते हैं कि हम तो ये नहीं कर सकते या मुझसे ये नहीं हो सकता। ऐसा कौन सा काम है, जो इंसान नहीं कर सकता। हम ये क्यों नहीं सोचते कि हम ये काम कर सकते हैं और आज नहीं तो कल अपना लक्ष्य जरूर हासिल कर लेंगे।यदि हम बीच में रुक गए, तो हमेशा मन में अफसोस रहेगा कि काश, हमने कोशिश की होती। अधूरे छूटे कार्य हमें हमेशा कमजोर होने का अहसास दिलाते हैं। जो लोग ईमानदारी से सोचते हैं, वे बाधाओं से उबरने के तरीके तलाशते हैं। वे भले ही विफल हो जाएं, पर सफल होने की चाह उनको नए तरीकों से आगे बढ़ने की प्रेरणा देती रहती है।

Dark Saint Alaick
30-06-2012, 03:28 PM
मिट्टी जैसी मुश्किलें

एक गांव में दो दोस्त रहते थे। एक का नाम राम था और दूसरे का श्याम। दोनों ही काफी गरीब थे। सुबह का खाना खा लेते थे, तो शाम के खाने का ठिकाना नहीं रहता था। रहने को पक्का घर भी नहीं था। सर्दी, गर्मी और बरसात में उन्हें परेशानी ही परेशानी झेलनी पड़ती थी। उस गांव में ऐसा कोई काम भी नहीं था कि वे दोनों कुछ कमा कर अपना गुजारा कर पाते। बेहद परेशान होकर दोनों ने गांव से सटे शहर में जाकर वहां कोई काम धंधा करने की सोची। दोनों ही शहर पहुंच गए। कुछ दिनों तक दोनों काम की तलाश में भटकते रहे। राम को एक अच्छा काम मिल गया, लेकिन श्याम मेहनती नहीं था, अतः छोटा-मोटा काम करने लगा। राम और श्याम शहर से कमाकर पैसे लेकर घर लौट रहे थे। अपनी मेहनत से राम ने तो खूब पैसे कमाए थे, जबकि अपनी आदत के कारण श्याम कम ही कमा पाया था। श्याम के मन में खोट आ गया। वह सोचने लगा कि किसी तरह राम का पैसा हड़पने को मिल जाए, तो खूब ऐश से जिंदगी गुजरेगी। रास्ते में एक छोटा कुआं आया, तो श्याम ने राम को उसमें धक्का देकर गिरा दिया। राम मेहनती था, सो गढ्डे से बाहर आने का प्रयत्न करने लगा। श्याम ने सोचा कि अगर यह ऊपर आ गया, तो मुश्किल हो जाएगी। वह पूरे गांव वालों को मेरी करतूत के बारे में बता देगा। इसलिए श्याम साथ लिए फावड़े से मिट्टी खोद-खोदकर कुएं में डालने लगा, लेकिन जब राम के ऊपर मिट्टी पड़ती, तो वह अपने पैरों से मिट्टी को नीचे दबा देता और उसके ऊपर चढ़ जाता। मिट्टी डालते-डालते श्याम इतना थक गया था कि उसके पसीने छूटने लगे, लेकिन तब तक वह कुएं में काफी मिट्टी डाल चुका था और राम उस मिट्टी पर चढ़ कर ऊपर आ गया। अत: जीवन में कई ऐसे क्षण आते हैं, जब बहुत सारी मुश्किलें एक साथ हमारे जीवन में मिट्टी की तरह आ पड़ती हैं। जो व्यक्ति इन मुश्किलों पर विजय प्राप्त कर आगे बढ़ता जाता है, उसी की जीत होती है और वही जीवन में बुलंदियों को छूता है।

Dark Saint Alaick
02-07-2012, 11:58 PM
यथार्थवादी होकर करें काम

यथार्थवादी होने का मतलब यह है कि आप जानते हैं कि आपके और आपके साथ काम करने वाले लोगों की क्षमता क्या है और अधिकारी उनसे क्या उम्मीद करते हैं। आप अपनी काबिलीयत से अधिकारियों और अपने साथियों का ऐसा मेल करा दें, जिससे दोनों पक्ष खुश रहें। आप अपने साथियों पर इतना दबाव नहीं डाल सकते कि वे हार मान बैठें और न ही आप अपने अधिकारी को यह सोचने दे सकते हैं कि आप ढीले हैं। अगर आपके अधिकारी अयथार्थवादी लक्ष्यों को तय करने पर जोर देते हैं, तो आपको उन्हें यह साफ-साफ बता देना चाहिए कि ऐसा नहीं हो सकता। ऐसा करते समय बहस या टालमटोल न करें, बल्कि उन्हें वस्तुस्थिति से अवगत करवाएं। इसके बारे में अपना पक्ष जरूर रख दें। उनसे पूछें कि उन्हें कैसे लगता है कि लक्ष्य हासिल हो सकते हैं। उन्हें बता दें कि ये लक्ष्य यथार्थवादी नहीं है। अच्छी तैयारी करें और तर्क देकर अपनी बात साबित करें कि आपको ऐसा क्यों लगता है। इसके बाद उनसे दोबारा पूछें कि उनके हिसाब से इन लक्ष्यों को हासिल कैसे किया जा सकता है। उनसे उन लक्ष्यों को हासिल करने के उपाय भी पूछ सकते हैं। इसके बाद अपना खुद का यथार्थवादी लक्ष्य उनके सामने रखें, जो आंकड़ों और तथ्यों के तारतम्य में हो। अधिकारी को अपनी समस्या बता दें और समाधान देने का आग्रह करें। देर-सवेर उन्हें या तो ज्यादा यथार्थवादी लक्ष्य निर्धारित करना होगा या फिर असंभव लक्ष्य को ही हासिल करने का आदेश देना होगा। दोनों ही तरह से आपने अपनी समस्या सुलझा ली है। अगर वे आपके लिए यथार्थवादी लक्ष्य निर्धारित कर देते हैं, तो आपको बस, उन्हें पूरा करना है । आप जानते हैं कि आप ऐसा कर सकते हैं। अगर वे आपको अयथार्थवादी लक्ष्य हासिल करने का आदेश देते हैं, तब भी वे बाद में आपको दोष नहीं दे सकते। जब आप असंभव लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाएंगे, तो आप उन्हें यह बता सकते हैं कि लक्ष्य तय करते समय ही आपने विरोध किया था। पूरा मामला दोबारा उनके सामने रख दें।

Dark Saint Alaick
03-07-2012, 12:02 AM
अंतर्यात्रा मार्ग के पड़ाव

किसी जमाने में एक इंजीनियर था। हालांकि वह अपने काम में काफी माहिर था, लेकिन उसने कभी धन अथवा प्रसिद्धि आदि की चाह नहीं की। वह चाहता, तो अपने काम के दम पर जीवन में बड़ी से बड़ी पदवी पर आसीन हो सकता था, पर वह हमेशा उन गुरुओं की खोज में लगा रहा, जो उसे वीणा, शतरंज, पुस्तक, चित्र, और तलवार की पूर्ण शिक्षा दें। काफी समय तक तलाश के बाद उसने अपने मन मुताबिक गुरू तलाश लिया। वीणा की शिक्षा के दौरान उसने संगीत प्राप्त किया, जो आत्मा को अभिव्यक्ति देता है। शतरंज के जरिए उसने रणनीति की व्यूह-रचना करने और दूसरों की प्रतिक्रिया का अनुमान लगाना सीखा। पुस्तकों से उसे अकादमिक शिक्षाएं मिलीं। चित्रकला ने उसमें सौंदर्य और कलात्मक अभिरुचि उत्पन्न की। तलवार चलाना सीखने से उसमें आक्रमण और रक्षा करने की प्रवीणता आई। धीरे-धीरे वह अपने उस मकसद में कामयाब हुआ और उसने अपनी चहेती शिक्षा में प्रावीण्य भी हासिल कर लिया। सब कुछ सीखने के बाद एक दिन एक बच्चा उसके पास आया। उस बच्चे ने इंजीनियर से पूछा, यदि आप हाल ही सीखे अपने पांच कौशल भूल जाओ, तो क्या होगा? यह सुनकर पहले तो इंजीनियर बहुत भयभीत हो गया। उसे कुछ जवाब ही नहीं सूझ रहा था। कुछ देर बाद जब वह संभला, तो उसने विचार-मनन किया। वह जान गया था कि वीणा उसके बजाए बिना अपने आप नहीं बज सकती है। खिलाड़ियों के बिना शतरंज की बिसात ही अधूरी होती है और वह बिछी ही रह जाती है। यदि कोई पढ़ने वाला ही न हो तो पुस्तक की कोई उपयोगिता नहीं है। वे ऐसे ही पड़ीं रहती हैं। चित्र बनाने वाली तूलिकाएं स्वत: पटल पर नहीं चलतीं। उन्हें भी चलाना पड़ता है और योद्धा के नहीं होने पर तलवार म्यान में ही पड़ी रह जाती है। इंजीनियर को यह बोध हो गया कि इन कौशलों को अर्जित करने में ही जीवन में उसका उत्कर्ष नहीं है। ये सब तो अंतर्यात्रा पर ले जाने वाले मार्ग के पड़ाव हैं।

Dark Saint Alaick
03-07-2012, 03:24 AM
कर्म की शक्ति सबसे बड़ा उपहार

केवल बौद्धिक क्षमताओं के कारण ही सृष्टि में मानव को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। प्रकृति के इस विशिष्ट उपहार के सदुपयोग द्वारा ही मानव मन में उठने वाली बेचैनी, चिंता, भय, दुविधा, कशमकश, संशय, आलस्य, प्रमाद, क्रोध, भ्रान्ति और वासनाओं को नष्ट करने में समर्थ बन जाता है और शुद्ध एवं स्थिर-चित्त होकर उपलब्ध परिस्थितियों का लाभ उठाकर उन्नत भविष्य का निर्माण करता है । उसे यह आत्मानुभूति हो जाती है कि वर्तमान में अकुशलता से कार्य करने पर उसे भविष्य में कोई बड़ी सफलता हाथ नहीं लगने वाली, अत: वह हर कदम पर सावधानी बरतता है कि कहीं विषम परिस्थितियां उसके मानसिक-संतुलन पर हावी न हो जाएं । ऐसा ज्ञानी मनुष्य किसी दिव्य और श्रेष्ठ लक्ष्य पर दृष्टि रखकर अपनी बुद्धि से अपने मन पर नियंत्रण रखकर सब प्रकार के कर्तव्य-कर्म करते हुए भी सदैव आनंदित रहकर अपना समय व्यतीत किया करता है, क्योंकि शुद्ध अन्त:करण वाले उस व्यक्ति के लिए फिर दु:ख मनाने का कोई निमित्त रह ही नहीं जाता। वस्तुत: मनुष्य की कर्म करने की शक्ति ही उसे कुदरत द्वारा दिया गया उसका सबसे बड़ा पुरस्कार और उपहार है, क्योंकि श्रेष्ठ कर्म करने के संतोष और आनंद में वह अपने आप को भूल जाता है, लेकिन सत्य तो यह है कि हममें से अधिकांश लोग विफलता के भय से किसी महान कार्य को अपने हाथ में लेना ही स्वीकार नहीं करते और यदि एक मुट्ठी भर लोग ऐसा साहस करते भी हैं, तो थोड़ा सा विघ्न आने पर इतने निरुत्साहित हो जाते हैं कि अपने कार्य को अधूरा ही छोड़ दिया करते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है हम में मन:स्थिरता का अभाव, क्योंकि हम काम शुरू करते नहीं कि भविष्य में संभावित हानि की कल्पना से स्वयं को भयभीत बना लेते हैं। दरअसल हम यह भूल जाते हैं कि कर्मफल स्वयं कर्म से अलग वस्तु नहीं है। भविष्य का निर्माण वर्तमान में हुआ करता है और हर कर्म की पूर्णता उसके फल में निहित होती है। अत: अपने मन में उठने वाले विक्षेपों पर अपनी बुद्धि से अंकुश लगाकर क्यों न अपना उद्धार स्वयं ही कर लें।

Dark Saint Alaick
03-07-2012, 03:28 AM
बिना नींव का मकान

बुद्ध अपने प्रवचनों में शिष्यों को कथाएं सुनाते थे। यह कथा भी उन्हीं में से एक है। कभी किसी काल में किसी नगर में राम और श्याम नामक दो धनी व्यापारी रहते थे। दोनों ही अपने धन और वैभव का बड़ा प्रदर्शन करते थे। एक दिन राम अपने मित्र श्याम के घर उससे भेंट करने गया। राम ने देखा कि श्याम का घर बहुत विशाल और तीन मंजिला था। ढाई हजार साल पहले तीन मंजिला घर होना बड़ी बात थी और उसे बनाने के लिए बहुत धन और कुशल वास्तुकार की आवश्यकता होती थी। राम ने यह भी देखा कि नगर में सभी निवासी श्याम के घर को बड़े विस्मय से देखते थे और उसकी बहुत तारीफ करते थे। अपने घर लौटने पर राम बहुत उदास था कि श्याम के घर ने सभी का ध्यान खींच लिया था। उसने उसी वास्तुकार को बुलवाया, जिसने श्याम का घर बनाया था। उसने वास्तुकार से श्याम जैसा तीन मंजिला घर बनाने को कहा। वास्तुकार ने हामी भर दी और काम शुरू हो गया। कुछ दिनों बाद राम निर्माण स्थल पर गया। जब उसने नींव के लिए मजदूरों को गहरा गड्ढा खोदते देखा तो वास्तुकार को बुलाया और पूछा कि इतना गहरा गड्ढा क्यों खोदा जा रहा है? वास्तुकार ने कहा - मैं आपके बताए अनुसार तीन मंजिला घर बनाने के लिए काम कर रहा हूं। सबसे पहले मैं नींव बनाऊंगा। फिर पहली, दूसरी मंजिल और तीसरी मंजिल बनाऊंगा। राम ने कहा, मुझे इस सबसे कोई मतलब नहीं है। तुम सीधे तीसरी मंजिल बनाओ और उतनी ही ऊंची बनाओ, जितनी श्याम के लिए बनाई थी। नींव और बाकी मंजिलों की परवाह मत करो। वास्तुकार ने कहा, ऐसा तो नहीं हो सकता। राम ने कहा, ठीक है ... यदि तुम यह नहीं करोगे, तो मैं किसी और से करवा लूंगा। उस नगर में कोई वास्तुकार नींव के बिना वह घर नहीं बना सकता था। फलत: वह घर कभी न बन पाया। अत: किसी भी बड़े कार्य को सम्पन्न करने के लिए उसकी नींव सबसे मजबूत बनानी चाहिए एवं काम योजनाबद्ध तरीके से किया जाना चाहिए।

Dark Saint Alaick
08-07-2012, 04:35 AM
गुणों का आदर

महान रूसी लेखक टॉल्सटॉय की यह आदत थी कि वह किसी भी आदमी से मिलते थे तो वह उसकी शैक्षिक योग्यता से ज्यादा उसके व्यवहार को देखकर उसका आकलन करते थे। एक बार टॉल्सटॉय को अपने लिए सचिव की नियुक्ति करनी थी। इसके लिए उन्होंने कई लोगों को साक्षात्कार के लिए बुलाया। उनके एक मित्र ने अपने एक परिचित को भी साक्षात्कार के लिए भेजा लेकिन टॉल्सटॉय ने उसका चयन नहीं किया। मित्र टॉल्सटॉय के पास पहुंचा और कहा - मैंने तुम्हारे पास एक योग्य व्यक्ति को भेजा था। उसके पास उसकी प्रतिभा के कई प्रमाणपत्र थे, लेकिन आश्चर्य है कि तुमने अपने सचिव के पद के लिए उसे नहीं चुना। मैंने सुना है कि तुमने उस पद के लिए जिस व्यक्ति को चुना है उसके पास ऐसा कोई प्रमाणपत्र नहीं था। आखिर उसमें ऐसा कौन सा गुण था कि तुमने मेरी बात की उपेक्षा कर दी ? टॉल्सटॉय ने मुस्कराते हुए कहा - मैंने जिसे चुना है, उसके पास अमूल्य प्रमाणपत्र हैं। मित्र ने आश्चर्य से पूछा - ऐसा क्या है उसके पास। जरा मैं भी सुनूं। टॉल्सटॉय ने कहा - उसने मेरे कमरे में आने से पहले इजाजत मांगी थी। अंदर आने से पहले उसने दरवाजों को इस तरह पकड़ कर धीरे-धीरे सटाया कि आवाज न हो। उसके कपड़े साधारण पर साफ-सुथरे थे। उसने बैठने से पहले कुर्सी साफ कर ली थी। उसमें गजब का आत्म विश्वास था। वह मेरे प्रश्नों के ठीक और संतुलित जवाब दे रहा था। मेरे प्रश्न समाप्त होने पर वह मेरी इजाजत लेकर चुपचाप उठा और चला गया। उसने किसी तरह की चापलूसी या चयन के लिए सिफारिश की कोशिश नहीं की। ये ऐसे प्रमाणपत्र थे, जो बहुत कम व्यक्तियों के पास होते हैं। मेरा मानना है कि ऐसे गुण संपन्न लोगों के पास यदि लिखित प्रमाणपत्र न भी हों, तो कोई बात नहीं। असली प्रमाणपत्र तो व्यवहार है। लिखित प्रमाणपत्र तो कोई भी हासिल कर सकता है। तुम ही बताओ, मैंने ठीक किया कि नहीं। यह सुनकर टॉल्सटॉय का मित्र निरुत्तर रह गया।

Dark Saint Alaick
08-07-2012, 04:38 AM
जो बीत गया, सो बीत गया

लोग अक्सर गलतियां करते हैं। कई बार तो बड़ी गंभीर गलतियां भी करते हैं। आम तौर पर ये गलतियां जान-बूझकर नहीं की जाती हैं। कई बार तो लोगों को पता ही नहीं होता कि वे क्या कर रहे हैं। अगर अतीत में लोगों ने आपके साथ बुरा बर्ताव किया है, तो यह जरूरी नहीं कि वे ऐसा करना चाहते थे। ये गलतियां उन्होंने की नहीं थीं, बल्कि हो गई थीं, क्योंकि उन्हें बेहतर विकल्प का पता ही नहीं था। अगर आप चाहें, तो द्वेष, अफसोस और क्रोध की भावनाओं को छोड़ सकते हैं। आप मान सकते हैं कि आप अपने साथ हुई बुरी चीजों के कारण नहीं, बल्कि उनके कारण ही अनूठे इंसान बने हैं। जो बीत गया, सो बीत गया। अब आपको आगे बढ़ने की जरूरत है। ‘अच्छे’ और ‘बुरे’ के लेबल्स का इस्तेमाल न करें। हां, कुछ मामले सचमुच बुरे होते हैं, लेकिन हम उनसे जिस तरह प्रभावित होने का फैसला करते हैं, दरअसल वह सचमुच ‘बुरा’ होता है। आप इन चीजों को बाहर निकाल सकते हैं, इनसे चरित्र का निर्माण कर सकते हैं और आम तौर पर नकारात्मक के बजाय सकारात्मक बन सकते हैं। एक शख्स का बचपन मनोवैज्ञानिक दृष्टि से बहुत ज्यादा असामान्य था और इस वजह से वह कुछ समय तक कुढ़ता रहा। वह अपने भीतर की हर कमजोर, खराब या गलत चीज के लिए अपनी परवरिश को दोष देने लगा, लेकिन जब एक बार जब उसने यह स्वीकार कर लिया कि बीत गया, सो बीत गया; तो हालात काफी सुधर गए। अगर कोई आदमी अपने सामने उन सभी लोगों को ले आए, जिन्होंने अतीत में उसके साथ गलत किया है, तब भी वे लोग इस मामले में कुछ नहीं कर सकते। वह आदमी उन पर चीख-चिल्ला सकता है, उन्हें बुरा-भला कह सकता है, उन पर अपनी भड़ास निकाल सकता है, लेकिन वे उसकी भरपाई करने या चीजों को सही करने के लिए कुछ भी नहीं कर सकते। उन सबको भी यह मानना पड़ेगा कि जो बीत गया, सो बीत गया। पीछे मुड़कर जाने का मतलब ही नहीं है, बस, आगे बढ़ना है। यह जीवन का सूत्र वाक्य बना है - आगे बढ़ते रहें।

Dark Saint Alaick
08-07-2012, 05:04 AM
खुद की पीठ थपथपाएं

अगर आप यह मान लेते हैं कि जो बीत गया, सो बीत गया; तो आपके पास वर्तमान ही बचता है। आप न तो पीछे जा सकते और न अपना अतीत बदल सकते। जो इस वक्त आपके पास है, उसी से आपको काम करना होगा। आपको बेहतर बनने या खुद को बदलने या पूर्ण बनाने की कोशिश करने की कोई जरूरत नहीं है। जब आप कोई चीज स्वीकार कर लेते हैं, तो मतलब है आप अपनी भावनात्मक उलझनों, कमजोरियों और बाकी चीजों को स्वीकार कर लेते हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि हम अपनी हर चीज से खुश हैं या हम आलसी बनकर गलत ढंग से जीवन जीने का विकल्प चुनें। हम तो स्वीकार कर रहे हैं कि हम जैसे हैं, वैसे हैं। अगर हमें कुछ पसंद नहीं आता, तो हम खुद को प्रताड़ित नहीं करते हैं। हम तो खुद को स्वीकार करते हैं। हम जैसे हैं, हमें खुद को उस रूप में स्वीकार करना ही होगा। हमें अपने साथ हुई हर चीज के नतीजों को स्वीकार करना होगा। आप भी सभी की तरह इंसान हैं। आप इच्छाओं, वेदना, पाप, ओछेपन, गलतियों, बुरे स्वभाव, बदतमीजी, असामान्यता, झिझक और दोहराव से पूरी तरह भरे पड़े हैं। यही जटिलता तो इंसान को इतना अद्भुत बनाती है। हममें से कोई भी कभी परिपूर्ण नहीं बन सकता। हम उससे शुरुआत करते हैं, जो हमारे पास है और जो हम हैं। हम तो बस, हर दिन कुछ बेहतर बनने की कोशिश करने का विकल्प चुन सकते हैं। वैसे यह बात भी याद रखनी चाहिए कि कई दिन ऐसे भी होंगे, जब आप अपने मकसद में कामयाब नहीं होंगे। इसमें कोई बुराई नहीं है। इसके लिए खुद को प्रताड़ित न करें। खुद को ऊपर उठाएं और दोबारा शुरुआत करें। स्वीकार करें कि आप कई बार नाकाम होंगे। यह मुश्किल हो सकता है, लेकिन अगर आपने कुछ करने की ठान ली है, तो तय मानिए फिर आप बेहतरी की राह पर चलने लगेंगे। अपनी गलतियां खोजना बंद कर दें। खुद को कोसना छोड़ दें। इसके बजाय इस सच्चाई को स्वीकार करें कि आप जैसे हैं, वैसे हैं। इसलिए खुद की पीठ थपथपाएं और आगे बढ़ें।

Dark Saint Alaick
08-07-2012, 05:07 AM
बिना काम का विशाल पेड़

एक बार चीन के नानपोह कस्बे के निवासी संत त्सुचि शांग एक ऊंचे पर्वत पर बैठे आराम कर रहे थे। इस दौरान वे चारों तरफ नजर दौड़ा कर पूरे इलाके का जायजा भी ले रहे थे। तभी उन्हें कुछ दूर पर एक अत्यंत विशाल वृक्ष दिखाई पड़ा। वह इतना बड़ा था कि दूर-दूर तक केवल उसी पर नजर जाती थी। वृक्ष को देखकर संत त्सुचि के मुंह से सहसा निकला, अरे इतना विशाल भी कोई वृक्ष हो सकता है, जिसकी छांह में राहगीर अपनी थकान मिटाते हैं? यह किस प्रजाति का होगा? आखिर यह वृक्ष इतना विशाल कैसे है? वह पूरी तरह सोच में डूब गए। उन्होने सोचा, क्यों न पास जाकर ही इस वृक्ष के बारे में जानकारी की जाए। फिर वह उसका परीक्षण करने के उद्देश्य से वृक्ष के नजदीक पहुंच गए। उन्होंने स्वयं से कहा, जरूर इसकी लकड़ी बहुत अच्छी किस्म की होगी। वह पेड़ के चारों ओर घूमे, तो देखा कि हर ओर उसकी शाखाएं टेढ़ी-मेढ़ी हैं। उन्होंने सोचा कि इस वृक्ष की शाखाएं तो इतनी ज्यादा मुड़ी हुई हैं कि उनसे एक नाव तक नहीं बनाई जा सकती। पेड़ के तने में इतनी गांठें हैं कि उनसे एक लकड़ी का तख्त तक तैयार नहीं किया जा सकता। फिर उन्होंने पेड़ का एक पत्ता तोड़ा और उसे मुंह में डाला, तो वे परेशान हो उठे। पत्ता इतना कड़वा था कि उनका रोम-रोम कांप उठा और पत्ते की तेज गंध व तीखेपन ने उनके जीभ और होंठों को छील दिया। वृक्ष का पूर्ण रूप से परीक्षण करने के बाद वे स्वयं से बोले, अगर कोई व्यक्ति भूल से इन पत्तों को चख ले, तो दो-तीन दिनों तक वह अपनी सुध-बुध ही भूल जाएगा। इसके बाद वे वृक्ष से थोड़ा दूर हुए और उसे निहारते हुए बोले -ओह, अब पता चला कि यह वृक्ष इतना विशाल क्यों है? बुद्धिमानों को इससे सीख लेनी चाहिए। यदि वे किसी के काम न आएं, तब उनके बड़े होने का क्या लाभ? व्यक्ति यदि छोटा होने पर भी किसी के काम आता है, तो भी उसके अस्तित्व को सराहा जाता है, किंतु यदि बड़ा व्यक्ति किसी के काम नहीं आ सकता, तो उसका अस्तित्व व्यर्थ है।

Dark Saint Alaick
08-07-2012, 04:30 PM
सच्चा मित्र कौन

एक गुरुकुल था, जिसमें प्रतिदिन शिष्यों के लिए सत्संग समागम होता था। रोज उस समागम में अलग-अलग विषय के अधिष्ठाता आते थे और शिष्यों की विभिन्न समस्याओं और उनके प्रश्नों का समाधान करते थे। एक दिन गुरुकुल के शिष्यों ने सत्संग समागम में आए एक अधिष्ठाता से पूछा, देव। धन, कुटुंब और धर्म में से कौन सच्चा सहायक है? अधिष्ठाता ने कुछ देर तो विचार किया, फिर सवाल का सीधा उत्तर न देकर एक कथा सुनाई। उन्होंने कहा - एक गांव में एक व्यक्ति रहता था। उसके तीन मित्र थे। एक बहुत प्यारा, दूसरा थोड़ा कम प्यारा और तीसरे से परिचय भर था। एक बार अचानक वह किसी मुसीबत में फंस गया। इससे कैले छुटकारा पाया जाए, यह सोचता हुआ वह घर से चल पड़ा। सोचा, विपत्ति के समय मित्र ही साथ देते हैं। पहले वह अपने सबसे प्रिय मित्र के पास गया। उसे परिस्थिति बताई और सहायता मांगी। राजदरबार तक साथ देने को कहा। परम प्रिय मित्र ने स्पष्ट इंकार कर दिया। वह घर से बाहर कहीं जाने के लिए तैयार ही नहीं था। इसके बाद वह व्यक्ति थोड़ा कम प्यारे दोस्त के पास पहुंचा और वही बात उससे कही। उसने अन्य प्रकार से सहायता करने का तो भरोसा दिलाया, पर राजदरबार तक जाने में जो खतरा हो सकता था, उसे उठाने से इंकार कर दिया। अब तीसरे मित्र की बारी थी। उससे घनिष्ठता तो कम थी, पर सोचा कि क्यों न उसे भी परख लें। तीसरे ने मित्रता निभाई। राजदरबार तक गया और पूरी सहायता कर के उसे संकट से उबारा। कहानी सुनने के बाद अधिष्ठाता ने कहा - वत्स, धन वह है , जिसे परमप्रिय समझा जाता है, पर वह मरने के बाद एक कदम आगे नहीं जाता। कुटुंब वह है, जो यथासंभव सहायता तो करता है, पर उसका सहयोग भी शरीर भर के काम आता है। धर्म ही है, जो इहलोक तथा परलोक में साथ देता है। दुर्गति से बचाता है। चिरस्थायी सुख शांति प्रदान करता है। यद्यपि उसकी उपेक्षा की जाती है, पर हमारा सच्चा मित्र वही है।

Dark Saint Alaick
08-07-2012, 04:33 PM
सोच को लचीला रखें

जीवन में ज्यादा से ज्यादा पाने के लिए आपको सभी विकल्प खुले रखने चाहिए। आपको अपनी सोच और जीवन दोनों को लचीला रखना चाहिए। जब कोई विपरीत परिस्थितियां आए, तो आपको झुकने के लिए तैयार रहना होगा। दरअसल जब विपरीत परिस्थितियों का सबसे कम अंदेशा होता है, तभी वह तेजी से आती हैं। जब आप किसी परेशानी में फंस जाते हैं, तो एक तरह से आप दिशा से भटकने के लिए खुद को तैयार कर लेते हैं। ऎसी परिस्थिति के लिए ही आपको अपनी सोच लचीली रखनी चाहिए। लचीली सोच कुछ हद तक मानसिक मार्शल आर्ट्स जैसी है - झुकना, लहराना, चकमा देने और लयबद्ध गतिविधि के लिए तैयार रहना। आपको चाहिए कि आप जिंदगी को दुश्मन नहीं, दोस्ताना मुक्के मारने वाले साथी के रूप में देखें। अगर आप लचीले हैं, तो तय मानें आपको मजा आएगा। जब आप जमीन पर कसकर पैर जमा लेते हैं, तो इस बात की पूरी आशंका रहती है कि जिंदगी आपको जमकर धक्के मारेगी। आपको जिंदगी को रोमांचक अनुभवों की श्रृंखला के रूप में देखना चाहिए। दरअसल हर रोमांचक अनुभव मजे लेने, कुछ सीखने, दुनिया को टटोलने, अनुभव तथा दोस्तों का दायरा बढ़ाने और अपने क्षितिजों का विस्तार करने का अवसर होता है। अगर आप इन अनुभवों के दरवाजें बंद कर देंगे, तो इसका मतलब है - आप बंद हो जाते हैं। जब भी आपको किसी रोमांचक अनुभव, अपनी सोच बदलने या खुद को बाहर कदम रखने का अवसर मिले, उसको झपट लें, उसका फायदा उठाएं। वैसे हर अवसर के लिए हां कहना भी कोई पत्थर की लकीर नहीं है, क्योंकि यह भी लचीलापन नहीं होगा। सचमुच लचीले लोग जानते हैं कि कब ‘न’ कहना है और कब ‘हां’ कहना है। अगर आप जानना चाहते हैं कि आपकी सोच कितनी लचीली है, तो इस सवाल से अपनी जांच करें कि क्या आपके बिस्तर के सिरहाने रखी पुस्तकें वैसी ही है, जैसी आप हमेशा पढ़ते हैं? यदि ऐसा है, तो शायद दिमाग का विस्तार करने और अपनी सोच की बेड़ियां उतारने का वक्त आ चुका है।

Dark Saint Alaick
11-07-2012, 04:39 PM
सुधर गया राजा

एक राज्य में एक अत्यंत निर्दयी और क्रूर राजा का शासन था। राजा था तो मनमानी करने की उसकी आदत भी थी। वह जो ठान लेता था, तो कोई लाख कहे, वह अपनी ही बात पर अड़ा रहता था। चूंकि वह बेहद निर्दयी था, तो उसे दूसरों को पीड़ा देने में भी बहुत आनंद आता था। अपनी आदत के मुताबिक एक बार उसने अपने अधीनस्थों को आदेश जारी किया कि उसके राज्य में रहने वाली प्रजा में से प्रतिदिन एक अथवा दो आदमियों को फांसी लगनी ही चाहिए। उसके इस आदेश से प्रजा बहुत दुखी हो गई, क्योंकि यह आदेश तो पूरी प्रजा का चैन ही छीन रहा था। एक दिन उस राज्य के कुछ वरिष्ठजन ने इस बड़ी समस्या के समाधान का उपाय सोचा और राय लेने के लिए एक प्रसिद्ध संत के पास पहुंचे और बोले - महाराज । हमारी रक्षा कीजिए। यदि राजा का यह क्रम जारी रहा, तो पूरा नगर ही खाली हो जाएगा। संत भी काफी दिनों से यह देख-सुन रहे थे। वे अगले ही दिन दरबार में जा पहुंचे। राजा ने उनका स्वागत किया और आने का प्रयोजन पूछा। तब संत बोले - मैं आपसे एक प्रश्न करने आया हूं। यदि आप शिकार खेलने जंगल में जाएं और मार्ग भूलकर भटकने लगें और प्यास के मारे आपके प्राण निकलने लगें, ऐसे में कोई व्यक्ति सड़ा - गला पानी लाकर आपको इस शर्त पर पिलाए कि तुम आधा राज्य उसे दोगे, तो क्या तुम ऐसा करोगे? राजा ने कहा - प्राण बचाने के लिए आधा राज्य देना ही होगा। संत बोले - अगर वह गंदा पानी पीकर तुम बीमार हो जाओ और तुम्हारे प्राणों पर संकट आ जाए, तब कोई वैद्य तुम्हारे प्राण बचाने के लिए शेष आधा राज्य मांग ले, तो क्या करोगे? राजा ने तत्क्षण कहा - प्राण बचाने के लिए वह आधा राज्य भी दे दूंगा। जीवन ही नहीं, तो राज्य कैसा? तब संत बोले - अपने प्राणों की रक्षार्थ आप राज्य लुटा सकते हैं, तो दूसरों के प्राण क्यों लेते हैं? संत का यह तर्क सुनकर राजा को चेतना आई और वह सुधर गया। सार यह है कि अपने अधिकारों का उपयोग लोकहित में और विवेक सम्मत ढंग से किया जाना चाहिए।

Dark Saint Alaick
11-07-2012, 04:42 PM
आपको ही चुनना है विकल्प

हर दिन आपके सामने कई विकल्प होते हैं। विकल्प यह होता है कि आप देवदूतों के समूह में रहना चाहते हैं या दरिंदों के। आप किस विकल्प को चुनने जा रहे हैं? हम जो भी काम करते हैं, उसका हमारे परिवार, आस-पास के लोगों, समाज और दुनिया पर भी असर पड़ता है। वह प्रभाव सकारात्मक भी हो सकता है या नकारात्मक भी हो सकता है। कई बार यह चुनाव मुश्किल होता है कि हम क्या करें। आप इस बारे में दुविधा में पड़ सकते हैं। देवदूतों के पाले में रहने का निर्णय करना अक्सर मुश्किल होता है, लेकिन अगर आप जीवन में सफल होना चाहते हैं, तो आपको यह तय करना होगा कि आप देवदूतों के पाले में रहेंगे। यह एक ऐसा चुनाव है, जो आपको हर दिन, बहुत बार करना होगा। यही नहीं, प्रभावी बनने के लिए आपको यह चुनाव पूरी चेतना के साथ करना होगा। समस्या यह होती है कि आपको कोई लाइन खींचकर यह नहीं बताने वाला कि देवदूत या दरिंदों के काम कौन से हैं। यहां पर आपको अपने पैमाने खुद ही बनाने होंगे, लेकिन घबराएं नहीं, यह ज्यादा मुश्किल नहीं है। ज्यादातर चीजें तो बिलकुल स्पष्ट होती हैं। मेरे किसी काम से किसी को ठेस पहुंचती है या किसी का भला होता है? आप समस्या का हिस्सा हैं या समाधान का? अगर आप कोई खास काम करते हैं, तो उससे चीजें बेहतर होंगी या बदतर? ये ऐसे विकल्प हैं, जिन्हें आपको खुद चुनना होगा। देवदूत या दरिंदे का आपका व्यक्तिगत विश्लेषण महत्वपूर्ण है। दूसरों को यह बताने से कोई फायदा नहीं होगा कि वे दरिंदों के पाले में हैं, क्योंकि हो सकता है कि उनकी परिभाषा आपसे बिलकुल ही अलग हो। दूसरे लोग क्या करते हैं, यह उनका चुनाव है और तय मानें कि वे अपनी निंदा करने के लिए आपको धन्यवाद नहीं देंगे। जाहिर है, आप निष्क्रिय, निष्पक्ष प्रेक्षक की तरह देख सकते हैं और मन ही मन सोच सकते हैं, मैं ऐसा कभी नहीं करता या मेरे ख्याल से उन्हें देवदूत होने का चुनाव करना चाहिए या यह भी कि कैसा दरिंदों जैसा व्यवहार है; लेकिन आपको कुछ कहने की जरूरत नहीं है।

Dark Saint Alaick
11-07-2012, 11:22 PM
पुख्ता रखें हर जानकारी

हमेशा यह ध्यान रखें कि दुनियाभर में क्या चल रहा है। इसका उद्देश्य है आपका विकास। इसका मतलब यह भी नहीं कि आप चौबीसों घंटे टीवी पर समाचार देखते रहें। पढ़कर, सुनकर और चर्चा करके भी नवीन घटनाओं की जानकारी रखी जा सकती है। जो नियम से चलते हैं और नियमों के सफल खिलाड़ी होते हैं, वे अपने जीवन की छुटपुट घटनाओं में नहीं फंसे रहते हैं। वे नन्हे बुलबुलों में नहीं जीते। दुनिया में क्या ताजा घट रहा हैं, संगीत-फैशन, विज्ञान, फिल्म, खान-पान आदि क्षेत्रों में क्या चल रहा है, इसकी जानकारी हासिल करने का जज्बा आप में होना चाहिए। अगर आप हर घटना से वाकिफ रहेंगे, तो लगभग हर मुद्दे पर बातचीत कर सकते हैं, क्योंकि आप ताजा घटनाओं में दिलचस्पी लेते हैं। जरूरी नहीं है कि आप हर चीज खरीदें, लेकिन आपको एक मोटा अंदाजा होना चाहिए कि आपके आस-पास और दुनिया के दूसरे हिस्सों में क्या बदल रहा है। क्या नया है और क्या हो रहा है। अगर आप यह मानेंगे कि मैंने यह पहले कभी नहीं किया है, तो अब करने की क्या जरूरत है? इस तरह की मानसिकता में डूबना बहुत ही आसान है। जीवन में सुखी, संतुलित और सफल लोग वे हैं, जो हर चीज का हिस्सा होते हैं। वे दुनिया से अलग-थलग नहीं हैं, बल्कि दुनिया का हिस्सा हैं। हम उन्हीं लोगों को सबसे दिलचस्प और प्रेरक मानते हैं और उन्हीं के साथ रहना चाहते हैं, जो अपने आस-पास की घटनाओं में बहुत दिलचस्पी लेते हैं। मान लीजिए, रेडियो पर अमेरिका के जेल विभाग प्रमुख का इंटरव्यू आ रहा है और वह दंड प्रक्रिया में सुधार के बारे में बोल रहा है। इस मुद्दे पर हो सकता है, आप यह कहकर दिलचस्पी नहीं लें कि मेरा कोई परिचित अमेरिकी जेल में नहीं है। आप यह भी तर्क दे सकते हैं कि मुझे अमेरिकी जेलों के बारे में जानने की कोई जरूरत नहीं है, लेकिन कभी कभार ऐसे विषयों पर भी दिलचस्पी लेनी चाहिए। हो सकता है आपका सामना कुछ ऐसे अच्छे विचारों से हो, जो आपको एक नई दिशा दे सकते हों। ऐसा करने में कभी कोई बुराई नहीं होती, बल्कि आपको फायदा ही होगा।

Dark Saint Alaick
11-07-2012, 11:25 PM
नम्रता का पाठ

अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज वाशिंगटन अक्सर नगर की स्थिति का जायजा लेने के लिए निकल पड़ते थे, ताकि वे यह जान सकें कि शहर के लोगों को क्या-क्या परेशानियां हैं और वे उन परेशानियों को कैसे दूर कर सकते हैं। एक बार जॉर्ज वाशिंगटन हालात का जायजा लेने निकले। रास्ते में एक जगह भवन निर्माण कार्य चल रहा था। वे कुछ देर के लिए वहीं रुके और चल रहे कार्य को गौर से देखने लगे। उन्होंने देखा कि कई मजदूर एक बड़ा पत्थर उठा कर इमारत पर ले जाने की कोशिश कर रहे हैं, किंतु पत्थर बहुत भारी था, इसलिए इतने मजदूरों के उठाने पर भी उठ नहीं रहा था। ठेकेदार उन मजदूरों को पत्थर न उठा पाने के कारण डांट रहा था, पर खुद किसी भी तरह उन्हें मदद को तैयार नहीं था। वाशिंगटन यह देखकर उस ठेकेदार के पास आकर बोले - इन मजदूरों की मदद करो। यदि एक आदमी और प्रयास करे, तो यह पत्थर आसानी से उठ जाएगा। ठेकेदार वाशिंगटन को पहचान नहीं पाया और रौब से बोला - मैं दूसरों से काम लेता हूं, मैं मजदूरी नहीं करता। यह जवाब सुनकर वाशिंगटन घोड़े से उतरे और पत्थर उठाने में मजदूरों की मदद करने लगे। उनके सहारा देते ही पत्थर उठ गया और आसानी से ऊपर चला गया। इसके बाद वह वापस अपने घोड़े पर आकर बैठ गए और बोले - सलाम ठेकेदार साहब, भविष्य में कभी तुम्हें एक व्यक्ति की कमी मालूम पड़े, तो वाशिंगटन भवन में आकर जॉर्ज वाशिंगटन को याद कर लेना। यह सुनते ही ठेकेदार उनके पैरों पर गिर पड़ा और अपने दुर्व्यवहार के लिए क्षमा मांगने लगा। ठेकेदार के माफी मांगने पर वाशिंगटन बोले - मेहनत करने से कोई छोटा नहीं हो जाता। मजदूरों की मदद करने से तुम उनका सम्मान हासिल करोगे। याद रखो, मदद के लिए सदैव तैयार रहने वाले को ही समाज में प्रतिष्ठा हासिल होती है। इसलिए जीवन में ऊंचाइयां हासिल करने के लिए व्यवहार में नम्रता का होना बेहद जरूरी है। उस दिन से ठेकेदार का व्यवहार बिल्कुल बदल गया और वह सभी के साथ अत्यंत नम्रता से पेश आने लगा।

Dark Saint Alaick
12-07-2012, 02:53 AM
संघर्ष का दूसरा नाम है जिंदगी

जिंदगी वाकई बहुत मुश्किल है। जीवन में अगर सब कुछ सरल और मखमली होता, तो जिंदगी से हमारा परिचय कैसे होता? अगर जिंदगी हमें आजमाती नहीं, तो हम विकास नहीं कर पाते, सीख नहीं पाते या खुद को बदल नहीं पाते। हमें खुद से ऊपर उठने का मौका नहीं मिल पाता। यह भी तय है कि अगर जिंदगी पूरी तरह अथवा कहें कि सिर्फ सुहानी होती, तो हम इससे बहुत जल्द ऊब जाते। अगर सब कुछ आसान होता, तो हम ज्यादा मजबूत नहीं बन पाते अर्थात हमें इस बात के लिए ईश्वर का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि जिंदगी कई बार संघर्ष जैसी लगती है। आप तो यह जान लें कि सिर्फ मरी हुई मछलियां ही धारा के साथ बहती हैं, जबकि इंसान को धारा के खिलाफ तैरना होता है। इंसान को तूफानों और तेज बहाव से जूझना होता है। उसके पास इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं है। उसे तैरते रहना होगा, वरना धारा उसे दूर बहाकर ले जाएगी। इंसान जितना हाथ-पैर पटकेगा, वह उतना ही ज्यादा मजबूत और फिट बनेगा। एक सर्वे से पता चलता है कि बहुत से लोगों के लिए रिटायरमेंट बुरा होता है। बहुत सारे लोग रिटायरमेंट के कुछ ही समय बाद टूट से जाते हैं, क्योंकि उन्होंने धारा के खिलाफ तैरना छोड़ दिया और धारा उन्हें बहाकर ले गई। इसलिए तैरते रहो। हर विपत्ति को बेहतर अवसर के रूप में देखना चाहिए। विपत्ति आपको कमजोर नहीं मजबूत बनाती है। जाहिर है, परेशानियां कभी खत्म नहीं होती, लेकिन आप यह भी मान कर चलें कि बीच-बीच में राहत का दौर भी आता है। वह राहत का दौर ऐसा होता है कि हम कुछ वक्त आराम कर सकते हैं और उस पल का आनंद ले सकते हैं। इससे पहले कि हमारी राह में अगली मुश्किल आकर खड़ी हो जाए, हमें राहत का भी आनंद लेना चाहिए। जिंदगी इसी तरह चलती है। दुनिया बनाने वाले ने जिंदगी इसी तरह बनाई है। संघर्षों और राहतों की शृंखला। आप इस वक्त जिस भी स्थिति में हों, यह तय मानिए कि यह भी बदलने वाली है। इसलिए हर बदलने वाली स्थिति के लिए तैयार रहें। आखिर इसी का नाम तो जिंदगी है।

Dark Saint Alaick
12-07-2012, 02:57 AM
प्रसन्न रहने का गुर

एक संत सदा प्रसन्न रहते थे। उनसे मिलने जब भी कोई जाता, वे उसे सदा प्रसन्न रहने के बारे में ही प्रवचन दिया करते थे। दूर दराज से लोग उन संत से जीवन को सुखमय रखने की शिक्षा ग्रहण करने पहुंचते थे। संत को कोई लालच नहीं था और वे प्रसन्नता के साथ लोगों को उपदेश दिया करते थे। जब भी कोई अच्छी बात होती, वे जोरदार ठहाके लगाते रहते थे। उस इलाके में घूमने वाले कुछ चोरों को संत की हमेशा हंसते रहने वाली बात अजीब सी लगती थी। वह समझ नही पाते थे कि कोई व्यक्ति हर समय इतना खुश कैसे रह सकता है। उन्हें बस, यही शंका रहती थी कि इन संत के पास अपार धन है, इसलिए वे हमेशा मौज में रहते हैं और हंसते रहते हैं। चोरों ने संत के पास भरपूर धन की शंका के चलते उनका अपहरण कर लिया । वे उन्हें दूर जंगल में ले गए और बोले - संतजी, सुना है कि तुम्हारे पास काफी धन है, तभी इतने प्रसन्न रहते हो। अब सारा धन हमारे हवाले कर दो वरना तुम्हारी जान की खैर नहीं। संत एक बार तो हैरत में पड़ गए कि क्या करें। फिर कुछ देर सोच विचार कर एक-एक कर हर चोर को अलग-अलग अपने पास बुलाया और कहा मेरे पास सुखदा मणि है, मगर मैंने उसे तुम चोरों के डर से जमीन में दबा दिया है। यहां से कुछ दूर पर वह स्थान है। अपनी खोपड़ी के नीचे चन्द्रमा की छाया में वह जगह खोदना। शायद मिल जाए। यह कहकर संत एक पेड़ के नीचे सो गए। सभी चोर अलग-अलग दिशा में जाकर खोदने लगे। जरा सा उठते या चलते तो छाया भी हिल जाती और उन्हें जहां-तहां खुदाई करनी पड़ती। रात भर में सैकड़ों छोटे-बड़े गढ्ढे बन गए, पर कहीं भी मणि का पता नहीं चला। चोर हताश होकर लौट आए और संत को बुरा-भला कहने लगे। संत हंस कर बोले - मूर्खो, मेरे कहने का अर्थ समझो। खोपड़ी तले सुखदा मणि छिपी है अर्थात श्रेष्ठ विचारों के कारण मनुष्य प्रसन्न रह सकता है । तुम भी अपना दृष्टिकोण बदलो और जीना सीखो। चोरों को यथार्थ का बोध हुआ। वे भी अपनी आदतें सुधार कर प्रसन्न रहने की कला सीखने लगे।

Dark Saint Alaick
14-07-2012, 07:09 AM
खुद बनें अपने सलाहकार

जब आप कोई बुरा काम करते हैं, तो आपको अपने दिल की गहराई में पता चल जाता है। आप जान जाते हैं कि आपको कब माफी मांगनी चाहिए, भूल सुधारनी चाहिए, चीजों को पटरी पर लाना चाहिए। एक बार जब आप अपने भीतर की उस आवाज को सुनना या भावना को महसूस करना शुरू कर देते हैं, तो आप पाएंगे कि इससे आपको काफी मदद मिल सकती है। कोई काम करने से पहले उसके विचार को अपने दिल से फिल्टर करके देखें कि आपको कैसी प्रतिक्रिया मिलती है। जब आप ऐसा करने के आदी हो जाएंगे, तो यह आसान लगने लगेगा। आप यह कल्पना करें कि कोई छोटा बच्चा आपके पास खड़ा है और आपको उसे समझाना है। अब कल्पना करें कि वह बच्चा आपसे सवाल पूछ रहा है कि आप ऐसा क्यों कर रहे हैं? सही और गलत क्या है? क्या हमें ऐसा करना चाहिए? आपको इन सवालों के जवाब देने हैं। बहरहाल इस स्थिति में आप ही सवाल पूछते हैं और आप ही जवाब देते हैं। इस प्रक्रिया में आप पाएंगे कि आप पहले से ही वह हर चीज जानते हैं, जिसे जानने की जरूरत है या जरूरत पड़ेगी। समझदारी तो इसमें है कि अपने सलाहकार आप खुद बनें, क्योंकि आपके पास ही सारे तथ्य हैं, सारा अनुभव है और उंगलियों पर सारा ज्ञान है। किसी दूसरे के पास यह सब नहीं है। कोई दूसरा आपके भीतर नहीं जा सकता और ठीक-ठीक यह नहीं देख सकता कि वहां क्या चल रहा है। बहरहाल एक चीज साफ है। सुनने से मतलब वह सब सुनने से नहीं है, जो आपके दिमाग के भीतर चल रहा है। वहां तो उल्टी-सीधी बातें भरी रहती हैं। यहां मतलब शांत, धीमी आवाज से है। महत्वपूर्ण बात तो यह है कि हम जो करने जा रहे हैं, हमें जो बड़े निर्णय लेने हैं, उनमें हम किस तरह से काम करें; यह हमको खुद ही तय करना पड़ेगा। अपना लक्ष्य खुद ही बनाना होगा और गहराई में उतर कर हमें यह भी पता लगाना होगा कि हम जो कर रहे हैं, वह सही है या गलत । तय मानिए, एक बार आपने यह फैसला कर लिया, तो आपकी कामयाबी कोई नहीं रोक सकता।

Dark Saint Alaick
14-07-2012, 07:13 AM
चित्त को रखें साफ

एक शिष्य अपने गुरू के पास पहुंचा और उनसे कहा कि विचारों का प्रवाह उसे बहुत परेशान कर रहा है। उस गुरू ने उसे निदान और चिकित्सा के लिए अपने एक मित्र साधु के पास भेजा और उससे कहा - जाओ और उसकी समग्र जीवन-चर्या ध्यान से देखो। उससे ही तुम्हें मार्ग मिल जाएगा। वह शिष्य गुरू के आदेश की पालना करते हुए साधु से मिलने चल पड़ा। जिस साधु के पास उसे भेजा गया था, वह सराय में रखवाला था। उसने वहां जाकर कुछ दिन तक उसकी दिनचर्या देखी, लेकिन उसे उसमें कोई खास बात सीखने जैसी दिखाई नहीं पड़ी। वह साधु अत्यंत सामान्य और साधारण व्यक्ति था। उसमें कोई ज्ञान के लक्षण भी दिखाई नहीं पड़ते थे। हां, बहुत सरल था और शिशुओं जैसा निर्दोष मालूम होता था, लेकिन उसकी दिनचर्या में तो कुछ भी न था। उस व्यक्ति ने साधु की पूरी दैनिक चर्या देखी थी, केवल रात्रि में सोने के पहले और सुबह जागने के बाद वह क्या करता था, वही उसे ज्ञात नहीं हुआ था। उसने उससे ही पूछा। सराय के रखवाले साधु ने कहा - कुछ भी नहीं करता। रात्रि को मैं सारे बर्तन मांजता हूं और चूंकि रात भर में उन पर थोड़ी बहुत धूल जम जाती है, इसलिए सुबह उन्हें फिर धोता हूं। बरतन गंदे और धूल भरे न हों, यह ध्यान रखना आवश्यक है। मैं इस सराय का रखवाला जो हूं। वह व्यक्ति साधु की बात से निराश हो अपने गुरु के पास लौटा। उसने साधु की दैनिक चर्या और उससे हुई बातचीत गुरु को बताई। गुरु ने कहा - जो जानने योग्य था, वह तुम सुन और देख आए हो, लेकिन समझ नहीं सके। रात को तुम भी अपने मन को मांजो और सुबह उसे धो डालो। धीरे-धीरे चित्त निर्मल हो जाएगा। सराय के रखवाले को इस सबका ध्यान रखना आवश्यक है। चित्त की नित्य सफाई अत्यंत आवश्यक है। उसके स्वच्छ होने पर ही समग्र जीवन की स्वच्छता या अस्वच्छता निर्भर है। जो उसे विस्मरण कर देते हैं, वे अपने हाथों अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारते हैं। शिष्य को सारी बात समझ आ गई। वह गुरू को प्रणाम कर चला गया।

Dark Saint Alaick
16-07-2012, 10:05 AM
कुछ करने की ठान लें

कभी-कभी हम यह सोचते हैं कि काश मैंने यह किया होता। इसमें तीन तरह की परिस्थितियां होती है। पहली तो तब जब हमको सचमुच महसूस हो कि हमने किसी अवसर का फायदा नहीं उठाया या कोई मौका चूक गए। दूसरी तब, जब हम किसी महान काम करने वाले व्यक्ति को देखते हैं और मन ही मन में सोचते हैं कि काश उसकी जगह पर मैं होता। तीसरी और आखिरी प्रकार की परिस्थिति में निश्चित रूप से हम नहीं, बल्कि दूसरे होते हैं, जो स्थाई रूप से ‘मैं भी प्रतिस्पर्धा कर सकता था’ मानसिकता ओढ़े रखते हैं। जो सोचते हैं कि काश मुझे मौके, खुशकिस्मती के वरदान, सुनहरे अवसर मिले होते। बहरहाल, इस आखिरी समूह के लिए बुरी खबर यह है कि अगर खुशनसीबी आकर उनकी गोद में भी बैठ जाए, तब भी वे उसे नहीं देख पाएंगे। दूसरों की सफलता देखने के बारे में यह दुनिया दो हिस्सों में विभाजित है। कुछ लोग दूसरों को ईर्ष्या से देखते हैं और कुछ प्रेरणा के साधन के रूप में। अगर आप मन ही मन यह कहें, काश मैंने वह किया होता, काश मैंने वह सोचा होता, काश मैं वहां गया होता,काश मैंने वह देखा होता, काश मैंने वह समझा होता। इसके बाद आपको यह कहना भी सीखना चाहिए - अब मैं उसे करूंगा। ज्यादातर मामलों में जिस चीज को न करने का आपको अफसोस होता है, उसे आप अब भी कर सकते हैं। हो सकता है कि यह उस तरह न हो पाए जिस तरह आप पहले कर सकते थे। जाहिर है, अगर आपको 34 साल की उम्र में इस बात का अफसोस हो कि 14 साल की उम्र में एथलेटिक्स छोड़ने के कारण आप ओलिंपिक की 400 मीटर रेस में स्वर्ण पदक नहीं जीत पाए, तो यह अब नहीं होने वाला। ऐसी स्थिति में आप सिर्फ यह संकल्प कर सकते हैं कि अपने पास से ऐसे अन्य अवसरों को यूं ही नहीं जाने देंगे। इसके बाद आप डाइविंग का प्रशिक्षण ले सकते हैं, ताकि आपको आज से 20 साल बाद यह अफसोस न हो कि काश मैंने डाइविंग सीखी होती।

Dark Saint Alaick
16-07-2012, 10:08 AM
छोटा काम, बड़ा इनाम

एक राजा था। वह बेहद न्यायप्रिय, दयालु और विनम्र था। उसके तीन बेटे थे। जब राजा बूढ़ा हुआ, तो उसने किसी एक बेटे को राजगद्दी सौंपने का निर्णय किया। इसके लिए उसने तीनों की परीक्षा लेनी चाही। उसने तीनों राजकुमारों को अपने पास बुलाया और कहा - मैं आप तीनों को एक छोटा सा काम सौंप रहा हूं। उम्मीद करता हूं कि आप सभी इस काम को अपने सर्वश्रेष्ठ तरीके से करने की कोशिश करेंगे। राजा के कहने पर राजकुमारों ने हाथ जोड़कर कहा - पिताजी, आप आदेश दीजिए। हम अपनी ओर से कार्य को सर्वश्रेष्ठ तरीके से करने का भरपूर प्रयास करेंगे। राजा ने प्रसन्न होकर उन तीनों को कुछ स्वर्ण मुद्राएं दीं और कहा कि इन मुद्राओं से कोई ऐसी चीज खरीद कर लाओ, जिससे कि पूरा कमरा भर जाए और वह वस्तु काम में आने वाली भी हो। यह सुनकर तीनों राजकुमार स्वर्ण मुद्राएं लेकर अलग-अलग दिशाओं में चल पड़े। बड़ा राजकुमार बड़ी देर तक माथापच्ची करता रहा। उसने सोचा कि इसके लिए रूई उपयुक्त रहेगी। उसने उन स्वर्ण मुद्राओं से काफी सारी रूई खरीद कर कमरे में भर दी और सोचा कि इससे कमरा भी भर गया और रूई बाद में रजाई भरने के काम आ जाएगी। मंझले राजकुमार ने ढेर सारी घास से कमरा भर दिया। उसे लगा कि बाद में घास गाय और घोड़ों के खाने के काम आ जाएगी। उधर छोटे राजकुमार ने तीन दीपक खरीदे। पहला दीपक उसने कमरे में जलाकर रख दिया। इससे पूरे कमरे में रोशनी भर गई। दूसरा दीपक उसने अंधेरे चौराहे पर रख दिया, जिससे वहां भी रोशनी हो गई और तीसरा दीपक उसने अंधेरी चौखट पर रख दिया, जिससे वह हिस्सा भी जगमगा उठा। बची हुई स्वर्ण मुद्राओं से उसने गरीबों को भोजन करा दिया। राजा ने तीनों राजकुमारों की वस्तुओं का निरीक्षण किया। अंत में छोटे राजकुमार के सूझबूझ भरे निर्णय को देखकर वह बेहद प्रभावित हुआ और उसे ही राजगद्दी सौंप दी। अत: व्यक्ति की योग्यता उसके सूझ-बुझ और उन कार्यों से आंकी जाती है, जो ज्यादा से ज्यादा जनहित में हों।

Dark Saint Alaick
17-07-2012, 01:15 AM
अपनी अंतरात्मा का सम्मान करें

हमारी अपनी भावनाएं ही हकीकत में हमारी सच्ची प्रेरक होती हैं और वे ही हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा देती हैं। अपनी अंतरात्मा का सम्मान करने पर हमें सफलता अपने आप मिलेगी यह तय है। आखिर सफलता का पैमाना क्या है? क्या खूब पैसा कमाना ही कामयाबी है? शायद नहीं। पैसा अच्छी चीज है। सभी को पैसा कमाना अच्छा लगता है। पैसे से ढेर सारा सामान तो खरीदा जा सकता है, लेकिन ढेर सारा पैसा कमाने मात्र से आप सफल इंसान नहीं बन जाते। पैसा कमाने के साथ नेक मकसद भी तो होना चाहिए। एक अच्छा मकसद ही आपको हकीकत में अमीर बना सकता है। आप सच्चे तो अमीर तभी बनते हैं, जब लोग आपका सम्मान करते हैं और आप पर भरोसा करते हैं। अहम सवाल यह है कि सच्ची खुशी कैसे मिले? इसका जवाब है दूसरों की मदद करके। अगर आप खुद कोई दर्द भोग रहे हैं या भोग चुके हैं, तो ऐसे लोगों की सहायता जरूर करें, जो आपकी तरह ही दर्द से जूझ रहे हैं। अगर आपके पास खूब पैसा है, तो उससे दूसरों की मदद करें। समाज को वापस लौटाना सबसे बड़ी बात है। मार्टिन लूथर किंग ने एक बार कहा था - हर कोई मशहूर नहीं बन सकता, लेकिन हर कोई महान जरूर बन सकता है, क्योंकि महानता सेवा से आती है। खास बात तो यह है कि सेवा के लिए किसी योग्यता की जरूरत नहीं होती। सेवा के लिए आपके अंदर सिर्फ मदद की इच्छा होनी चाहिए। यकीन मानिए, लोगों की मदद करके आपको अच्छा ही लगेगा और सच्ची खुशी भी मिलेगी। हमारा जीवन हमको कई सबक सिखाता है। कई बार ये सबक कठिनाइयों के रूप में भी हमारे सामने आते हैं। जीवन हमेशा हमको दबे स्वर में संकेत भर देता है। ऐसे में बेहतर है कि कठिनाइयों का संकेत मिलते ही हम अलर्ट हो जाएं। चुनौतियों से निपटने के दौरान ही हमें समस्या के हल मिल जाते हैं। सीखने का बेहतर तरीका है खुद में सुधार। खुद को एक अच्छा इंसान बनाने के लिए खुद में सुधार करना होगा।

Dark Saint Alaick
17-07-2012, 01:20 AM
चांद बनें, प्रतिबिम्ब नहीं

एक व्यक्ति एक प्रसिद्ध संत के पास गया। वह व्यक्ति था तो काफी विद्वान, लेकिन एक अजीब सी उलझन को वह चाह कर भी नहीं सुलझा पा रहा था। पहले तो उसने अपनी तरफ से प्रयास किए कि वह अपनी उलझन को खुद ही सुलझा ले, लेकिन जब कोई हल नहीं सूझा, तो संत के आश्रम में जा पहुंचा। वहां जाकर वह संत से बोला - गुरुदेव, मुझे जीवन के सत्य का पूर्ण ज्ञान है। मैंने अनेक शास्त्रों का भी काफी ध्यान से अध्ययन किया है। उन शास्त्रों के दम पर मैंने कई अच्छे कामों पर भी अपना ध्यान केन्द्रित करने का भरपूर प्रयास किया, फिर भी मेरा मन किसी काम में नही लगता। जब भी कोई काम करने के लिए बैठता हूं, तो मन न जाने क्यों भटकने लगता है और फिर मैं उस काम को ही छोड़ देता हूं। इस अस्थिरता का कारण मैं समझ ही नहीं पा रहा हूं। आप कृपया मेरी इस समस्या का समाधान कीजिए। संत ने उसे जवाब के लिए रात तक इंतजार करने के लिए कहा। रात होने पर संत उसे एक झील के पास ले गए और झील के अन्दर चांद का प्रतिबिम्ब दिखा कर बोले - एक चांद आकाश में और एक झील में। तुम्हारा मन इस झील की तरह है। तुम्हारे पास ज्ञान तो है, लेकिन तुम उसको इस्तेमाल करने की बजाय सिर्फ उसे अपने मन में लाकर बैठे हो। ठीक उसी तरह जैसे झील असली चांद का प्रतिबिम्ब लेकर बैठी है। तुम्हारा ज्ञान तभी सार्थक हो सकता है, जब तुम उसे व्यवहार में एकाग्रता और संयम के साथ अपनाने की कोशिश करो। झील का चांद तो मात्र एक भ्रम है। तुम्हें अपने काम में मन लगाने के लिए आकाश के चंद्रमा की तरह बनना है। झील का चांद पानी में पत्थर गिराने पर हिलाने लगता है, उसी तरह तुम्हारा मन जरा-जरा सी बात पर डोलने लगता है। तुम्हें अपने ज्ञान और विवेक को जीवन में नियमपूर्वक लाना होगा और अपने जीवन को सार्थक और लक्ष्य हासिल करने में लगाना होगा। खुद को आकाश के चांद के बराबर बनाओ। शुरू में थोड़ी परेशानी आएगी, पर कुछ समय बाद ही तुम्हें इसकी आदत हो जाएगी।

Dark Saint Alaick
17-07-2012, 10:20 PM
जज्बा है तो जीत भी तय

हर कोई झटपट मंजिल पाना चाहता है। दरअसल मंजिल से ज्यादा अहम है यात्रा। यात्रा का मजा लो। जरूरी नहीं है कि आप जो कुछ करना चाहते हैं, उसे आप तुरंत पा लें। मंजिल की राह में तमाम मुश्किलें आएंगी। बेहतर है कि हम मुश्किलों से घबराने की बजाय उनसे मुकाबला करना सीखें। अगर बिना नाकामी के मंजिल मिल गई, तो जिंदगी के अहम अनुभव कैसे हासिल होंगे ? यकीनन संघर्ष का रास्ता कठिन है, लेकिन जीवन में संघर्ष का अपना मजा है। संघर्ष से आपको अहम सीख मिलती है। यह समझना जरूरी है। मंजिल को पाने की चाहत और डटे रहने की जिद आपको तमाम बातें सिखाती हैं। इस अनुभव का मजा लो और आगे बढ़ो। खुद पर भरोसा रखो। अपनी ताकत और अपनी क्षमता को पहचानो। दूसरे को बेवजह अपने से ज्यादा अहमियत देना गलत है। अपनी क्षमताओं को नजरअंदाज मत करो। आप किसी से कम नहीं हैं। यह भाव अपने अंदर होना चाहिए। जाने माने फिल्म अभिनेता अनुपम खेर ने एक बार अनुभव बांटे और बताया कि वे बहुत साधारण परिवार से थे। पिता वन विभाग में क्लर्क थे और चाहते थे कि वे भी साधारण सी सरकारी नौकरी कर लें, लेकिन वे कुछ अलग करना चाहते थे। उन्हें कभी नहीं लगा कि वे किसी से कम हैं । कभी नहीं लगा कि वे एक्टिंग नहीं कर सकते। सबसे अहम यह है कि हम अपनी क्षमताओं को पहचानें। तमाम दबावों के बावजूद उन्होंने नौकरी नहीं की। एक्टिंग की ट्रेनिंग ली और तय किया कि एक्टर ही बनना है। आज वे किस मुकाम पर हैं, सभी जानते हैं। कुछ लोग अपनी हार के बारे में बात नहीं करना चाहते हैं। उन्हें हार पर शर्म महसूस होती है, लेकिन अगर कामयाब होना है, तो अपनी हार के बारे में भी लोगों से चर्चा करनी चाहिए। खुद पर भरोसा होना जरूरी है। कितनी भी मुश्किलें आएं, यह मत सोचो कि मैं यह नहीं कर सकता। जिस दिन आपके मन में यह ख्याल आया, आप वाकई हार जाएंगे। जब तक जज्बा है, जीत का रास्ता खुला है।

Dark Saint Alaick
17-07-2012, 10:29 PM
प्रकृति बदल देती है प्रवृत्ति

राजकुमार स्थावर सर्ग की उच्छृंखल वृत्तियों और उद्दंडता से जितना उनके पिता राजा दुमिल दुखी थे, उससे अधिक वहां की प्रजा थी। वह हर वक्त अपनी उच्छृंखल वृत्तियों और उद्दंडता में ही मगन रहते थे। महाराज दुमिल ने उनकी इस प्रवृत्ति को दूर करने के लिए एक से बढ़कर एक विद्वान बुलाए, अच्छे-अच्छे नैतिक उपदेशों के लिए उस समय के नामी-गरामी वक्ताओं की भी व्यवस्था की, किंतु जिस तरह चिकने घड़े पर पानी का प्रभाव नहीं पड़ता, उसी प्रकार राजकुमार स्थावर सर्ग पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उनका वही रवैया जारी रहा। अंत में महाराज दुमिल ने पूज्यपाद अश्वत्थ की शरण ली और उनसे आग्रह किया कि जो भी हो, वे उन्हें इस परेशानी से मुक्त करें। प्रजा के हित को ध्यान में रखकर महर्षि अश्वत्थ ने राजकुमार को ठीक करने का आश्वासन तो दे दिया, पर उन्होंने महाराज से स्पष्ट कह दिया कि उनकी किसी भी योजना में किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न नहीं की जानी चाहिए। महाराज दुमिल ने उस शर्त को सहर्ष स्वीकार कर लिया। महर्षि अश्वत्थ की आज्ञा से सर्वप्रथम स्थावर सर्ग की राज्य वृत्ति रोक दी गई। उनके पास की सारी संपत्ति छीन ली गई और सम्राट की ओर से उन्हें बंदी बनाकर अप-द्वीप पर निष्कासित कर दिया गया। यह वह स्थान था, जहां न तो पर्याप्त भोजन ही उपलब्ध था और न ही जल। अतिवृष्टि के कारण रात में सो सकना कठिन था। वहां दिन में हरदम हिंसक जंतुओं का भय बना रहता था। कुछ ही दिन में स्थावर सर्ग सूख कर कांटा हो गए। अब तक तो उनके मन में जो अहंकार था, वह प्रकृति की कठोर यातनाओं के आघात से टूटकर चकनाचूर हो गया। महाराज को इस बीच कई बार पुत्र के मोह ने सताया भी, पर वे महर्षि अश्वत्थ को वचन दे चुके थे, इसलिए कुछ बोल भी नहीं सकते थे। समय पूरा होने को आया। प्रकृति के संसर्ग में रहकर स्थावर सर्ग बदले और जब लौट कर आए, तो सबने उनका मुखमंडल दर्प से नहीं, करुणा और सौम्यता से दीप्तिमान देखा। जो काम मनुष्य नहीं कर सके, वह प्रकृति की दंड व्यवस्था ने पूरा कर दिखाया। प्रजा ने राहत की सांस ली। यह कथा पढ़ कर भी कोई सज्जन कुछ न समझें हों, तो उनके लिए स्पष्टीकरण है - प्रकृति के वैषम्य को देखें, फिर उसके पारस्परिक संबंधों पर विचार करें, स्पष्ट हो जाएगा कि मनुष्य का बदलना कितना आसान है।

Dark Saint Alaick
27-07-2012, 03:46 PM
कठिनाइयों से सबक लें

जीवन की भौतिक उपलब्धियां आपकी खुशी तय नहीं कर सकतीं। आपकी शिक्षा और आपका प्रभावशाली सीवी आपकी जिंदगी नहीं है। जीवन कठिन है, जटिल है। किसी के नियंत्रण में नहीं है। समझदारी है कठिनाइयों से सबक लेने में और अपनी ऊर्जा को सही दिशा में इस्तेमाल करने में। सच्ची खुशी तब मिलती है, जब आप अपनी वास्तविक क्षमताओं को समझने लगते हैं। इसलिए पराजय से घबराने की कोई जरूरत नहीं है। हार हमें खुद को पहचानने का मौका देती है। इसका फायदा उठाइए। ईश्वर ने इंसान को वह कल्पनाशक्ति प्रदान की है, जिसकी मदद से वह दूसरों की तकलीफों को महसूस कर सकता है, पर ज्यादातर लोग दूसरों के बारे में सोचना ही नहीं चाहते। वे दूसरों की पीड़ा समझने के लिए अपने दिल-दिमाग के दरवाजे नहीं खोलना चाहते। वे अपने संकरे घेरे में जीना चाहते हैं। यह सही नहीं है। आप जितना ज्यादा शिक्षित, योग्य और संपन्न हैं, आपकी जिम्मेदारी भी उतनी ही ज्यादा है और यह जिम्मेदारी अपने देश की सीमाओं तक ही सीमित नहीं है। दुनिया के अन्य हिस्सों में रह रहे लोगों के प्रति भी आपकी जिम्मेदारी बनती है। कई बार ऐसा हो सकता है कि जिस क्षेत्र में कोई विफल रहा हो, उसी क्षेत्र में आप सफल हो जाएं, लेकिन ऐसा नहीं हो सकता कि कोई व्यक्ति हमेशा जीतता ही रहे। कभी-कभी आपको हार का सामना भी करना पड़ता है। विफलता से कोई नहीं बच सकता। हार ही से आप यह तय कर सकते हैं कि आपके अंदर कितनी जबरदस्त इच्छाशक्ति है, अनुशासन है। ऐसा भी हो सकता है कि आप विफलता या हार से परिचित न हों, लेकिन आपके मन में भी हार-जीत को लेकर चिंता जरूर होगी। अब यह तो आपको तय करना है कि आपके लिए हार का क्या मतलब है। लोग अपने-अपने ढंग से आपके ऊपर हार-जीत के मानक थोपने की कोशिश करेंगे, लेकिन यह भी आपके ऊपर है कि उस मानक को आप किस संदर्भ में लेते हैं।

Dark Saint Alaick
27-07-2012, 03:48 PM
संत इबादीन की सादगी

फारस के विख्यात संत इबादीन हमेशा खुदा की इबादत और दीन-दुखियों की सहायता में लगे रहते थे। वह रूखा-सूखा जो भी मिलता था, उसे खाकर भी बेहद प्रसन्न और संतुष्ट रहते थे। चूंकि वे काफी विख्यात थे, इसलिए रोजाना उनके पास ढेरों लोग आते थे और अपनी विभिन्न समस्याएं उनके सामने रखते थे। संत इबादीन बड़े ध्यान से उन सबकी बातें सुनते और सलाह मशविरा करके समस्या का समाधान करने की कोशिश करते। कई लोगों की समस्या बड़ी जटिल होती थी, तो वे उससे उबरने का रास्ता भी बताया करते थे। जो भी उनके पास समस्या लेकर आता, समाधान होने पर संतुष्ट होकर घर लौटता था। धीरे-धीरे उनकी शोहरत पूरे इलाके में फैलने लगी। उनकी शोहरत के किस्से फारस के शाह तक जा पहुंचे। जब कई लोगों ने शाह से संत इबादीन की उदारता और उनकी विद्वता की चर्चा की, तो शाह भी उनसे बेहद प्रभावित हो गए। वह संत इबादीन से मिलने के लिए उत्सुक हो उठे। शाह ने संत से मिलने का विचार किया। एक दिन वह ढेर सारे उपहार, खाने का सामान और कीमती कपड़े लेकर संत इबादीन की कुटिया में पहुंच गए। उन्होंने संत के चरणों में कीमती शॉल रखा और उनसे कहा कि वे पुराने शॉल को उतार कर नया शॉल ओढ़ लें। इस पर संत ने पूछा - तुम्हारे यहां तो बहुत से स्वामीभक्त सेवक होंगे? शाह इस सवाल पर कुछ देर के लिए तो हैरत में पड़ गए, फिर संत की तरफ देखते हुए 'हां' कहा। संत ने फिर पूछा - और अगर कोई नया आदमी नौकरी मांगने आ जाए, तो क्या तुम पुराने वफादार सेवकों को नौकरी से हटा दोगे? शाह ने कुछ सोचते हुए कहा नहीं - नहीं उन्हें क्यों हटाऊंगा। वे पहले की तरह मेरी सेवा करते रहेंगे। इस पर संत ने समझाया - इसी तरह तुम्हारे नए और कीमती कपड़े मिलने पर क्या पुराने कपड़ों को छोड़ देना ठीक होगा? कभी नहीं। आखिर ये वफादार सेवक की तरह हैं। तुम अपने ये कपड़े छोड़कर जा सकते हो, मगर पुराने कपड़े तो अपना समय पूरा करके ही हटेंगे। संत की सादगी के सामने शाह नतमस्तक हो गए। वे सारा सामान वहां छोड़कर चले गए।

Dark Saint Alaick
27-07-2012, 04:04 PM
संयमित जीवन से मिलता है लक्ष्य

अगर आपके जीवन में लक्ष्य होता है, तभी आप खुद को जीवंत महसूस करते हैं। लक्ष्य तय करने का मतलब सिर्फ पढ़ाई और केरियर में मुकाम हासिल करना नहीं होता। लक्ष्य तय करने का मतलब एक संयमित सफल जीवन जीना भी होता है। संयमित सफलता का मतलब है, अपनी सेहत का ध्यान रखना, अपने रिश्तों को मजबूत बनाना और मानसिक शांति बनाए रखना। एक खुशहाल जीवन के लिए यह बहुत जरूरी है। अगर आपकी पीठ में चोट लगी हो, तो क्या आप कार ड्राइविंग का मजा ले पाएंगे? अगर आपका दिमाग तनाव से भरा हो, तो क्या आपको शॉपिंग करने में मज़ा आएगा ? सच्ची खुशी तभी महसूस होती है, जब जीवन में शांति और प्यार हो। अगर जीवन में सौहार्द नहीं होगा, तो आपके अंदर का उत्साह और जोश खत्म होने लगेगा। अपने अंदर की चिनगारी को बनाए रखने के लिए एक और बात जरूरी है। वह यह है कि जीवन में बहुत ज्यादा गंभीर नहीं होना चाहिए। जीवन में सीरियस नहीं, सिंसियर होना चाहिए। बेवजह की गंभीरता ओढ़ने से कोई लाभ नहीं होगा। बेहतर है कि हम अपने काम और अपनी जिम्मेदारियों के प्रति ईमानदार बनें। बहुत ज्यादा गंभीर होने की जरूरत नहीं है। बस, अपने अंदर की चिनगारी को निराशा और अन्याय से बचाकर रखें। विफलता को स्वीकार करना बहुत मुश्किल होता है। कई बार आपको लगेगा कि दूसरे आपसे ज्यादा भाग्यशाली हैं, लेकिन बेहतर यह है कि जो आपको मिला है, उसे लेकर आप खुश रहें और जो नहीं मिला, उसे स्वीकार करने की हिम्मत रखें। उम्र बढ़ने के साथ भी अपने प्रिय शौक बनाए रखें। गैरजरूरी त्याग न करें। ऐसा करने से आपके अंदर की ऊर्जा खत्म होने लगती है। खुद से प्रेम करना भी जरूरी है। हम एक तरह से लिमिटेड वैलिडिटी वाले प्रीपेड कार्ड की तरह हैं। अगर हम भाग्यशाली रहे, तो अगले पचास साल तक जीवित रहेंगे। पचास साल का मतलब है 2,500 वीकेंड। इस समय को आनंद से गुजारें।

Dark Saint Alaick
27-07-2012, 04:07 PM
बीज का सही उपयोग

किसी गांव में एक बहुत धनवान व्यक्ति रहता था। उसके पास काफी धन संपदा थी और उसके चर्चे भी दूर दूर तक हुआ करते थे, लेकिन उसके पास जो धन संपदा थी, वह उसने खुद की मेहनत से अर्जित नहीं की थी। जो कुछ भी था, वह सब उसे पिता से पैतृक सम्पति के रूप में मिला था। वह दिन-रात यही सपने देखता रहता था कि किस तरह उसकी सम्पति बढ़ती चली जाए। वह और अधिक संपत्ति पाने की लालसा ही पाले रहता था, लेकिन उसके लिए न तो मेहनत और न ही किसी प्रकार की कोशिश करता था। एक दिन उसने सोचा कि धन कमाने के लिए क्यों न किसी साधु-महात्मा से राय ली जाए। एक दिन वह एक संत के पास पहुंचा। उसने संत को प्रणाम कर कहा - महात्मा जी, आप तो जीने की कला जानते हैं। कृपया कोई ऐसी युक्ति बताइए, जिससे मेरी संपत्ति में लगातार वृद्धि हो। संत ने उसे कुछ बीज देते हुए कहा - ये बीज बड़े चमत्कारी हैं। तुम इन्हें अपने आंगन के किसी कोने में नमी वाली जगह पर बो देना। तुम्हारे धन में बढ़ोतरी होने लगेगी। वह धनी व्यक्ति बीज ले आया और उसने उन्हें आंगन के एक कोने में बो दिया। कुछ दिनों के बाद पौधे उग आए। पौधे बड़े हुए। उसमें फल आने लगे, पर उसकी संपत्ति नहीं बढ़ी। वह फिर संत के पास पहुंचा और दुखी होकर बोला - महाराज, मैंने तो बीज बो दिए, पर मेरी संपत्ति में थोड़ी भी बढ़ोतरी नहीं हुई। संत ने मुस्कराकर कहा - मैंने सोचा था कि तुम मेरी बात समझ जाओगे, पर तुम तो कुछ समझ ही नहीं पाए। तुमने बीजों का सही उपयोग किया। उन्हें बोया और अब वे फल दे रहे हैं। तुम ही नहीं तुम्हारा सारा परिवार उनका सुख ले रहा है। तुमने बीज बोया, पौधों को पानी दिया, तभी तो फल मिला। उसी तरह अपने धन को भी किसी उद्यम में लगाओ। इससे तुम्हें भी लाभ होगा और अनेक लोगों के लिए रोजी-रोजगार की व्यवस्था होगी। फिर उससे जो पैसे मिलें, उन्हें जनकल्याण में लगाओ। बिना उद्यम के संपत्ति कैसे बढ़ सकती है। धन का उपयोग बीज की तरह करो, नहीं तो जो धन है, वह भी नष्ट हो जाएगा। उस व्यक्ति को बात समझ में आ गई।

Dark Saint Alaick
29-07-2012, 12:44 AM
अंधेरे में पड़ी रस्सी

बाबा फरीद अपने स्वभाव के अनुसार हमेशा शांत भाव से रहते थे। अक्सर वे चलते-चलते ही मनन भी करते रहते थे। लोगों को उनकी इस आदत के बारे में जानकारी थी, इसलिए वे मनन के समय बाबा फरीद को टोकते नहीं थे। एक बार बाबा फरीद मनन करते हुए ही कहीं जा रहे थे। तभी एक व्यक्ति उनके साथ चलने लगा। हालांकि वह बाबा के स्वभाव को जानता नहीं था, लेकिन उसकी जिज्ञासा ने उसे बाबा के साथ कर दिया था। कुछ देर तक साथ चलने के बाद व्यक्ति ने बाबा से पूछा - क्रोध को कैसे जीता जा सकता है? काम को कैसे वश में किया जा सकता है? अक्सर ऐसे प्रश्न लोग बाबा से पूछते रहते थे। बाबा ने बड़े स्नेह से उस व्यक्ति का हाथ पकड़ा और बोले - तुम मेरे पीछे आते आते और चलते चलते थक गए होगे। चलो किसी पेड़ की छाया में विश्राम करते हैं। वहां बैठकर ही मैं तुम्हारे सवालों का जवाब दूंगा। दोनों ने एक छायादार पेड़ देखा और उसके नीचे बैठ गए। बाबा बोले - बेटा, दरअसल समस्या क्रोध और काम को जीतने की नहीं, इन दोनों को जानने और समझने की है। वास्तव में न हम क्रोध को जान पाते हैं और न काम को समझ पाते हैं। हमारा यह अज्ञान ही हमें बार-बार हराता है। इन्हें जान लो, तो समझो आपकी जीत पक्की है। जब हमारे अंदर क्रोध प्रबल होता है अथवा काम प्रबल होता है, तब हम नहीं होते हैं। हमें होश ही नहीं होता है कि हम क्या कर रहे हैं। इस बेहोशी में जो कुछ होता है, वह मशीनी यंत्र की भांति हम करते चले जाते हैं। बाद में केवल पछतावा बचता है। बात तो तब बने, जब हम फिर से सोयें नहीं। अंधेरे में पड़ी रस्सी सांप जैसी नजर आती है। इसे देख कर कुछ तो भागते हैं, कुछ उससे लड़ने की ठान लेते हैं, लेकिन गलती दोनों ही करते है। ठीक तरह से देखने पर पता चलता है कि वहां सांप तो है ही नहीं। बस, जानने की बात है। इस तरह इंसान को अपने को जानना होता है। अपने में जो भी है, उससे ठीक से परिचित भर होना है। बस, फिर तो बिना लड़े ही जीत हासिल हो जाती है। उस व्यक्ति को अपने सवाल का जवाब मिल गया।

Dark Saint Alaick
29-07-2012, 12:48 AM
मूल्यों से समझौता नहीं करें

खुद पर भरोसा रखिए। ठान लीजिए कि आपके अंदर प्रतिभा है और आप चुनौतियों का बखूबी सामना कर सकते हैं। बस, आपको अपने अंदर यह विश्वास पैदा करना होगा कि आप अपने लक्ष्य को पूरा कर सकते हैं। हो सकता है कि कई बार आपको यह समझ में नहीं आ रहा होता है कि आप क्या करें। खुद को साधारण मान कर पीछे भी हटने लगते हैं। कभी खुद को साधारण न मानें। आप यह महसूस करें कि अन्य लोगों की तरह आपके अंदर भी प्रतिभा है। मैं किसी से कम नहीं हूं। मैं भी वह सब कर सकता हूं, जो मेरे साथ वाले लोग कर सकते हैं। अपने मन में कभी यह ख्याल नहीं आने दें कि हालात की वजह से आप आगे नहीं बढ़ पाएंगे। परिस्थितियों को कभी बाधा नहीं बनने दें। हो सकता है, आपका जन्म एक साधारण परिवार में हुआ हो। माता-पिता भी साधारण नौकरी करते हों। जाहिर है कि वे अमीर लोगों की तरह आपको बड़ी-बड़ी सुविधाएं नहीं दे सकते, लेकिन वे हमें जीवन के मूल्य सिखाते हैं। इन्हीं मूल्यों की मदद से आप आगे बढ़ सकते हैं। अपने मूल्यों से समझौता मत कीजिए। विनम्र रहें। कृतज्ञ होना सीखें। हमें हर स्थिति में सच्ची कोशिश जारी रखनी चाहिए। आप कभी मत यह सोचें कि बहुत देर हो चुकी है। न कभी बहुत देर होती है और न कभी बहुत जल्दी। अच्छा काम आप कभी भी शुरू कर सकते हैं। सपने देखें, बड़े सपने देखें। अपने सपनों पर भरोसा रखें। आप अपनी किस्मत खुद लिख सकते हैं। कोशिश करनी होगी। बिना देर किए। हार से कभी मत डरिए। खतरा लेने से मत डरिए। खुद से सवाल पूछिए। यह बेवकूफी भरे सवाल भी हो सकते हैं। यह सोचकर मत डरिए कि कहीं वापस न आना पड़े। हार के भय से कोशिश करना मत छोड़िए। जैसे-जैसे आप जिंदगी में आगे बढ़ेंगे, मुश्किलें आएंगी। चुनौतियां आएंगी। कई बार भ्रम की स्थिति आएगी। हो सकता है कि कई बार आपकी बनाई योजनाएं विफल हो जाएं। आपके बेहतरीन विचारों में गलतियां निकाली जाएं। आपको इन सबसे निपटना होगा। बस, खुद को तैयार कीजिए।

Dark Saint Alaick
29-07-2012, 12:59 AM
नकली लड़ाई, नकली जीत

हर किसी के भीतर खुद को विजेता समझने की एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है। इसलिए कि मानव ने कई स्तरों पर लड़कर ही सभ्य जीवन हासिल किया है। कोई भी व्यक्ति अपने को कमजोर नहीं मानना चाहता। वह हर समय एक ताकतवर पहचान से खुद को जोड़े रखना चाहता है। इसके लिए वह अपने को एक ताकतवर समुदाय का वंशज बताने में लगा रहता है। यह प्रवृत्ति दूसरे रूप में भी सामने आती है। हम खुद को श्रेष्ठ तो बताते ही हैं, दूसरों को कमजोर भी ठहराते हैं। यहां तक कि हम बहुत सफल व्यक्ति की भी जड़ें खोजने लगते हैं और उसे किसी कमतर समुदाय का ठहराकर एक मनोवैज्ञानिक संतोष प्राप्त करते हैं। यह एक तरह की जीत होती है यानी एक लड़ाई हमारे मन में चल रही होती है सभ्यता के आरंभिक दिनों की तरह। इस नकली लड़ाई में हम नकली जीत पाकर प्रसन्न होते हैं। अपने अहम् से बाहर निकलने और खुद को तुच्छ समझने की बात कहने वाले महापुरुष हमें इसी नकली संघर्ष से बाहर निकालना चाहते थे। दरअसल एक दुनिया सबके भीतर होती है। कई बार किसी गली से गुजरते हुए लगता है, हम उस गली में पहले रहा करते थे। इसी तरह जब हम किसी व्यक्ति से मिलते हैं, तो उसकी तुलना किसी पुराने शख्स से या किसी रिश्तेदार या किसी दोस्त से करने लग जाते हैं। हम हमेशा नई चीजों में पुरानी चीजों को खोजते रहते हैं। दूसरी तरफ हमेशा वर्तमान से ऊबे रहते हैं और बदलाव चाहते हैं, लेकिन जब नई चीजें आती हैं, तो हम पुरानी चीजों से उन्हें मिलाने की कोशिश करने लग जाते हैं। जब हमारा किसी एक चीज से रिश्ता बनता है, तो वह कभी टूटता नहीं है। हम कुछ भी छोड़ना नहीं चाहते, चाहे वह कितना अप्रिय क्यों न हो। शायद हमारी यही बात हमें इंसान बनाती है। हम खुद भी एक सृष्टि कर रहे होते हैं। हर किसी के जेहन में अपनी एक दुनिया बसी होती है, जिसका रूप वह अपने हिसाब से तय करता है। शायद इसलिए हम नयों को पुरानों से और पुरानों को नयों से जोड़ते रहते हैं।

Dark Saint Alaick
29-07-2012, 01:05 AM
सच्चे संत की भलाई

सिखों के छठे गुरु हरगोविंद ने सबसे पहले सिखों के शस्त्रीकरण की बात कही थी। उनका मानना था कि मजबूत शरीर में ही सबल मन का निवास होता है। सभी लोग उनकी इस बात से सहमत थे। किन्तु जहां गुरु हरगोविंद की ख्याति चारों ओर फैलती जा रही थी, वहीं उनके दुश्मनों की संख्या भी बढ़ती जा रही थी। कुछ समय बाद सम्राट जहांगीर ने अपने एक दीवान चंदूलाल की शिकायत पर गुरु हरगोविंद को ग्वालियर के किले में कैद कर लिया। दरअसल चंदूलाल भी गुरु हरगोविंद की बढ़ती ख्याति को पचा नहीं पा रहा था। जब गुरु हरगोविंद को कैद करने की खबर फैली पर चारों तरफ हंगामा मच गया। सभी को जहांगीर के इस कदम पर आश्चर्य हुआ और नाराजगी भी हुई। तब लाहौर के मशहूर फकीर मियां मीर ने जहांगीर को चेतावनी दी कि एक दुष्ट दीवान के कहने पर एक सच्चे तपस्वी को बंदी बनाने का परिणाम उसे भुगतना होगा। यदि उसने गुरु हरगोविंद को मुक्त नहीं किया, तो भारी गड़बड़ी फैल सकती है। यह सुनकर जहांगीर घबरा गया। उसे अपनी गलती का अहसास हो गया। उसने तुरंत गुरु हरगोविंद को मुक्त करने का हुक्म दिया। शाही हरकारे बादशाह का हुक्मनामा लेकर ग्वालियर के किले में पहुंचे, लेकिन गुरु हरगोविंद ने कैद से छूटने से इंकार कर दिया। सब चकित हो उठे। जब उनसे इसका कारण पूछा गया, तो वे बोले - मैंने इस कैदखाने में तमाम बेगुनाहों को जुल्म सहते देखा है। साधु हमेशा बंधन मुक्त होता है। जो आजाद है, वह दूसरों के बंधन को भी नहीं झेल सकता। गुरु हरगोविंद ने चेतावनी देते हुए हरकारे से कहा - बादशाह जहांगीर से कह दो कि या तो सभी बेगुनाह कैदियों को छोड़ दें या फिर मुझे भी यहीं कैद रखा जाए। गुरु हरगोविंद की बात का इतना असर था कि जहांगीर ने सभी बेगुनाह कैदियों को रिहा कर दिया। सिख परंपरा आज भी गुरु हरगोविंद के नाम के आगे बंदी छोड़ का विशेषण लगाती है। गुरु हरगोविंद ने अपनी जान की परवाह न करते हुए भी एक सच्चे संत की तरह पहले दूसरों की भलाई के बारे में सोचा।

Dark Saint Alaick
31-07-2012, 04:25 PM
रंगीन पत्थरों के सहारे इलाज

कहते हैं कई बार आदमी के शरीर के अंदर कोई बीमारी होती ही नहीं, फिर भी वह अक्सर यह सोचने लगता है कि वह किसी न किसी बीमारी से जरूर पीड़ित है। दरअसल यह कोई बीमारी नहीं होती, केवल आदमी की मानसिकता ही इसका बड़ा कारण बन जाती है। आदमी की सोच भी फिर वैसी ही बनती चली जाती है। ब्राजील के एक बहुत ही अनुभवी डॉक्टर थे डॉ.सिमोन। पूरे देश में उनका काफी नाम था। वह असाध्य बीमारियों का उपचार तो करते ही थे, इसके अलावा मानसिक समस्याओं का समाधान भी बखूबी किया करते थे। वह आदमी को देख कर ही भांप लेते थे कि उसका किस पद्धति से इलाज करना बेहतर है। उनके मधुर स्वभाव और स्नेहपूर्ण संवाद से मरीज उनसे बेहद आत्मीयता महसूस करते थे। एक दिन उनकी कार का ड्राइवर डॉ. सिमोन के पास अपने एक रिश्तेदार जीमर को लेकर आया। जीमर को शराब की लत थी। वह नशा किए बगैर एक दिन भी नहीं रह पाता था। डॉ. सिमोन को उसने बताया कि वह शराब छोड़ना तो चाहता है, पर चाहकर भी नहीं छोड़ पा रहा है। उसने बहुत कोशिश की, पर उसे सफलता मिल ही नहीं रही है। जब रोज शाम को उसे तलब लगती है, तो वह शराब के लिए पागल जैसा हो उठता है। डॉ. सिमोन समझ गए कि यह शराबी कोरे उपदेशों से या जबर्दस्ती शराब छोड़ने वाला नहीं है। वह अंदर जाकर रंगीन पत्थरों के छोटे-छोटे टुकड़े ले आए और जीमर को देते हुए बोले - देखो, ये पत्थर दवा हैं। आज से ग्लास में शराब डालने से पहले इनमें से एक पत्थर उसमें डाल लेना। इसी तरह हर रोज एक - एक पत्थर बढ़ाते रहना। इन पत्थरों के प्रभाव से तुम्हारे नशे की आदत कम होते-होते एक दिन पूरी तरह समाप्त हो जाएगी। जीमर ने वैसा ही किया। दिनों दिन उसके गिलास में पत्थर बढ़ते रहे और शराब कम होती रही। एक वक्त ऐसा भी आया, जब वह एकदम कम पीने लगा। फिर शराब में उसकी रुचि ही समाप्त हो गई। इस प्रकार जीमर जान भी नहीं पाया कि शराब छुड़ाने में पत्थरों ने नहीं, सिमोन की मनोवैज्ञानिक युक्ति ने कमाल दिखाया था।

Dark Saint Alaick
31-07-2012, 04:40 PM
समय को बरबाद क्यों करें

अक्सर हम यह कह देते हैं कि समय कम है। ऐसा कह कर हम बच नहीं सकते। यह तो जीवन की एक सच्चाई है। अगर समय कम है, तो फिर समझदारी इसी बात में दिखती है कि हम इसे जरा भी बर्बाद न करें। दरअसल जिंदगी में सफल वही होते हैं, जो जीवन से आखिरी बूंद की संतुष्टि और ऊर्जा भी निचोड़ लेते हैं। वे इसी सरल नियम पर अमल करके ऐसा करते हैं। वे अपने जीवन में उन चीजों पर ही ध्यान देते हैं, जिन पर उनका नियंत्रण होता है और फिर वे बस, मितव्ययिता से (समय की दृष्टि से) बाकी चीजों की चिंता छोड़ देते हैं। अगर कोई आपसे सीधे मदद मांगता है, तो आप मदद कर सकते हैं या इनकार भी कर सकते हैं। चुनाव आपका है, लेकिन अगर सारी दुनिया आपसे मदद मांगने लगे, तो आपके वश में कुछ खास नहीं होता। इस बात पर खुद को कोसने से कोई फायदा नहीं होगा, सिर्फ समय ही बर्बाद होगा। कई ऐसे क्षेत्र होते हैं, जिनमें आप व्यक्तिगत फर्क डाल सकते हैं और बाकी क्षेत्र ऐसे होते हैं, जहां आप सुई की नोक बराबर भी फर्क नहीं डाल सकते। अगर आप किसी ऐसी चीज को बदलने में वक्त बर्बाद कर रहे हैं, जो कभी नहीं बदलने वाली, तो जिंदगी आपके पास से फर्राटे से गुजर जाएगी और आप मौके चूक जाएंगे। दूसरी ओर, अगर आप खुद को ऐसी चीजों या क्षेत्रों में समर्पित करते हैं, जिन्हें आप बदल सकते हैं या जहां आप फर्क डाल सकते हैं, तो जिंदगी ज्यादा समृद्ध और सार्थक बन जाएगी। जाहिर है, अगर हममें से ज्यादातर लोग मिलकर कोशिश करें, तो हम कुछ भी बदल सकते हैं। खुद से शुरू करें और फिर इसे बाहर की ओर फैलने दें। इस तरह उन लोगों को उपदेश देने में हमारा वक्त बर्बाद नहीं होगा, जो सुनना ही नहीं चाहते। हम उन चीजों में अपनी कोशिश, ऊर्जा या संसाधन बर्बाद नहीं करेंगे, जिन पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है या जहां किसी भी तरह की सफलता तय नहीं है। जहां तक खुद को बदलने का सवाल है, परिणाम तय है। बेहतरीन परिणाम।

Dark Saint Alaick
02-08-2012, 12:47 PM
सपने को हकीकत में बदलें

अक्सर लोग अपने सपनों को बहुत सीमित कर लेते हैं, लेकिन ऐसा नहीं करना चाहिए। आप अपने सपनों को बख्श दें। उन पर कोई सीमा न लादें। यथार्थवादी तो योजनाओं को होना चाहिए, सपनों को नहीं। दरअसल लोग अपने सपनों को उसी तरह सीमित कर लेते हैं, जिस तरह वे अपनी जीत को कर लेते हैं। यह तय मानें कि बुरी से बुरी स्थिति में भी सपने हानिरहित होते हैं, इसलिए उन्हें सीमित न करें। आपको यह भी पूरी छूट है कि आप जितने चाहें उतने ऊंचे, लंबे-चौड़े, बड़े, असंभव, अतिरंजित, अजीबोगरीब, अनोखे या अयथार्थवादी सपने देखें। आपको इस बात की भी छूट है कि आप अपने दिल में कोई भी हसरत रख सकते हैं। हरसतें और सपने निजी मामले हैं। हसरतों पर पुलिस निगरानी नहीं करती है, न ही सपनों के डॉक्टर होते हैं, जो अयथार्थवादी मांगों के लिए इंजेक्शन लगा देंगे। यह आपके और सपनों के बीच का निजी मामला है। आपके अलावा कोई और है ही नहीं। हां, इस बारे में बहुत सतर्क रहें कि आप किस तरह की इच्छा करते हैं या सपने देखते हैं। ध्यान रहे कि आपकी इच्छा या सपना साकार हो सकता है। फिर आपका क्या होगा? बहुत से लोग सोचते हैं कि उन्हें सिर्फ यथार्थवादी सपने ही देखने चाहिए। यह गलत बात है। यथार्थवादी तो योजना होनी चाहिए और वह बिलकुल अलग चीज है। हर समझदार शख्स योजनाएं बनाता है और उन्हें पूरा करने के लिए तार्किक कदम उठाता है, लेकिन सपने तो असंभव हो सकते हैं। उन्हें इतना असंभव बनने की छूट है कि उनके साकार होने की रत्ती भर भी संभावना न हो और यह न सोचें कि आप खुली आंखों से सपने देखकर कुछ हासिल नहीं कर पाएंगे। सबसे सफल लोगों में से कई ऐसे थे, जिन्होंने सबसे ज्यादा सपने देखने का जोखिम लिया। यह महज संयोग नहीं है। इसलिए सपने देखें और उन्हें पूरा करने की भी ठानें। यह तय मानिए कि अगर आपने सपने को हकीकत में बदलने की ठान ली, तो आप कामयाब भी होंगे।

Dark Saint Alaick
02-08-2012, 12:50 PM
एक मां की अनूठी शिक्षा

एक बार व्यापार के लिए निकले एक अफगान व्यापारी बशीर मुहम्मद ने मालदा शहर के एक बड़े बगीचे में रात बिताई। सवेरे अपना सामान समेटकर वह वहां से आगे कि लिए चल पड़ा। कई मील दूर पहुंचने पर जब उसने अपना सामान देखा, तो याद आया कि रुपयों से भरी थैली तो उस बगीचे एक पेड़ की डाली पर ही लटकी रह गई है। यह जानकर वह काफी दुखी हुआ। उसने सोचा कि थैली तो मिलने से रही। उसे तो कोई ले ही गया होगा। फिर रुपयों के बिना व्यापार के लिए भी आगे नहीं जाया जा सकता। दुखी मन से वह वापस उसी ओर चल पड़ा। संयोगवश वीरेश्वर मुखोपाध्याय नामक एक बालक बगीचे में पहुंचा। खेलते - खेलते वह उस पेड़ के पास पहुंच गया, जिस पर रुपयों से भरी थैली टंगी थी। बालक ने उत्सुकतावश थैली को नीचे उतारा। उसके अंदर सोने की मुद्राएं देखकर वह हैरान रह गया। उसने बगीचे के रखवाले से पूछा कि यहां कौन आया था? रखवाले ने बताया कि काबुल का व्यापारी रात गुजारकर यहां से दक्षिण की ओर रवाना हुआ है। यह सुनते ही बालक थैली लेकर दक्षिण की ओर दौड़ चला। तभी उसे बशीर मुहम्मद उस ओर आता हुआ नजर आया। बालक ने उसकी पोशाक देखकर अंदाजा लगा लिया कि यही काबुली व्यापारी है। उधर बशीर मुहम्मद ने भी बालक के हाथ में अपनी थैली देखी। बालक बोला - महाशय शायद यह थैली आपकी ही है। मैं इसे आपको लौटाने के लिए आ रहा था। एक नन्हे बालक के मुंह से यह सुनकर बशीर मुहम्मद दंग होकर बोला - क्या तुम्हें रुपयों से भरी थैली देखकर लालच नहीं आया? यह सुनकर बालक सहजता से बोला - मेरी मां मुझे कहानियां सुनाते हुए बताया करती है कि दूसरे के धन को मिट्टी के समान समझना चाहिए। चोरी करना घोर पाप है। थैली देखकर मेरा मन जरा भी नहीं डगमगाया। बालक की बात पर बशीर मुहम्मद बोला - धन्य है तुम्हारी मां। अगर हरेक मां अपने बच्चे को ऐसी ही शिक्षा दे, तो समाज से बुराई पूरी तरह खत्म हो जाएगी। इसके बाद बशीर मुहम्मद बालक को आशीर्वाद देकर चला गया।

Dark Saint Alaick
03-08-2012, 12:15 AM
अतीत को भूल वर्तमान में जिएं

अतीत चाहे जैसा भी हो, जा चुका है। जो बीत चुका है, उसे बदलने के लिए आप कुछ नहीं कर सकते। इसलिए आपको अपना ध्यान वर्तमान की ओर मोड़ना चाहिए। जो गुजर गया, उसमें अटके रहने के प्रलोभन को छोड़ना मुश्किल होता है, लेकिन अगर आप जिंदगी में सफल होना चाहते हैं, तो आपको अपना ध्यान उस ओर मोड़ना होगा, जो इस वक्त हो रहा है। अतीत में फंसे रहना आपको इसलिए रास आ सकता है, क्योंकि वह या तो भयंकर था या फिर अद्भुत था। दोनों ही मामलों में आपको उसे पीछे छोड़ना होगा, क्योंकि सही तरह से जीने का इकलौता तरीका वर्तमान में है। अगर आप पश्चाताप की वजह से अतीत की यात्राएं कर रहे हैं, तो आपको यह समझना चाहिए कि आप पलटकर वहां नहीं जा सकते और अपनी की हुई चीज को पलट नहीं सकते। अपराध बोध का शिकार होकर आप सिर्फ खुद को नुकसान पहुंचा रहे हैं। हम सभी ने अपने अतीत में बुरे निर्णय लिए हैं, जिनकी वजह से हमारे आस-पास के लोगों को नुकसान हुआ है। जिनसे हम प्रेम करने का दावा करते हैं, उनके साथ हमने जाने-अनजाने में शर्मनाक बर्ताव किया है। आप स्लेट साफ करने के लिए कुछ नहीं कर सकते। आप तो सिर्फ यह संकल्प कर सकते हैं कि दोबारा इस तरह के बुरे निर्णय नहीं लेंगे। हमसे कोई इससे ज्यादा क्या उम्मीद कर सकता है कि हम यह मान लें कि हमने गड़बड़ की और हम उस चीज को न दोहराने की अपनी सबसे अच्छी कोशिश कर रहे हैं। अगर आपको अतीत बेहतर लगता था और आप पुराने सुनहरे दिनों के लिए लालायित हैं, तो उन यादों को सुहानी मानें, लेकिन आगे बढ़ जाएं और अपनी ऊर्जा वर्तमान की दिशा में लगाएं, ताकि अब आपको अलग तरह का अच्छा समय मिल सके। हर दिन जागने पर हमारी नई शुरुआत होती है और हम इसे जैसा चाहें, वैसा बना सकते हैं। इस पर खाली कैनवास की तरह जो चाहें, लिख सकते हैं। यहीं पर जिएं, अभी जिएं, वर्तमान पल में जिएं।

Dark Saint Alaick
03-08-2012, 12:19 AM
एक वैज्ञानिक की उदारता

प्रसिद्ध वैज्ञानिक वॉटसन अक्सर अपने अनुसंधानों के लिए घर से बाहर रहते थे। इसके अलावा उन्हें कई देशों में व्याख्यानों के लिए भी जाना पड़ता था। वे जहां भी जाते थे, लोगों को विज्ञान से जुड़े बारीक से बारीक विषयों पर पूरी जानकारी भी दिया करते थे। इसके चलते लोगों में उन्हें सुनने और उनसे विज्ञान से जुड़ी जानकारियां हासिल करने की लालसा बनी ही रहती थी। इसी के चलते उन्हें कई-कई दिनों तक घर से बाहर रहना पड़ता था। उनकी पत्नी उनके लौटने का इंतजार ही करती रहती थी। एक बार लंबे विदेश दौरे से स्वदेश वापसी से पहले वॉटसन ने अपने घर पत्नी को संदेश भिजवाया कि मैं अमुक तारीख को वापस घर आ रहा हूं। तुम मुझे लेने गाड़ी लेकर जरूर स्टेशन पहुंच जाना। यह संदेश पाकर वॉटसन की पत्नी काफी प्रसन्न हुईं। उन्होंने अपने पति के स्वागत की तैयारी शुरू कर दी। निश्चित दिन वह नौकर को साथ लेकर गाड़ी से रेलवे स्टेशन पहुंच गईं। उन्होंने गाड़ी में बैठे-बैठे ही नौकर को अपने साहब को लेकर आने को कहा। नौकर नया था। उसे कुछ दिन पहले ही काम पर रखा गया था। वह वॉटसन को नहीं पहचानता था। उसने मालकिन से साहब की पहचान पूछी। वॉटसन की पत्नी ने कहा - तुम्हें सूट-बूट में कोई अधेड़ व्यक्ति अपने ब्रीफकेस के अलावा किसी और का भी सामान उठाया हुआ दिखाई दे, तो समझ लेना वही तुम्हारे साहब हैं। नौकर सुन हैरान रह गया। जब प्लेटफॉर्म पर पहुंचा, तो देखा कि शालीन कपड़े पहने, हैट लगाए एक सज्जन एक हाथ में ब्रीफकेस और दूसरे हाथ में एक वृद्धा का बड़ा ट्रंक उठाए चले आ रहे हैं। उनके चेहरे के हाव-भाव और सेवा भावना से नौकर समझ गया कि जरूर वही उसके साहब होंगे। वह उनके प्रति श्रद्धा से भर उठा। उसका अनुमान सही था। वही वॉटसन थे। उसने अपने मालिक को अपना परिचय दिया और उन्हें लेकर आ गया। वॉटसन इसी तरह हर मौके पर दूसरों की मदद का कोई अवसर नहीं चूकते थे। अनेक लोगों ने इसी कारण उन्हें अपना आदर्श माना था और वे उन्हीं के जैसा आचरण करने की कोशिश करते थे।

Dark Saint Alaick
03-08-2012, 08:40 PM
जीवन का हर क्षण आनंददायक

आज के भौतिकवादी युग में धन, सुख, प्रतिष्ठा, अच्छा परिवार और ओहदा होने के बावजूद भी न जाने क्यों अधिकांश लोगों के चेहरे प्रफुल्लित नहीं दिखाई देते। एक खिंचाव और तनाव बना रहता है। थोड़ी सी भी प्रतिकूलता असहनीय हो जाती है और मन चिंतित और तन शिथिल होने लगता है। असमंजस का शिकार होते देर नहीं लगती। न जाने क्यों भूल जाते हैं कि मन के जीते जीत है और मन के हारे हार। दरअसल जीवन का हर क्षण एक दैवी आनंद, स्फूर्ति और प्रेरणा से भरपूर होता है। शायद हम उसे ही जीना चाहते हैं। सच मानिए, हम उस आनंदमय जीवन के ही अधिकारी हैं। बस, अपने कर्तव्य पथ पर चलते हुए तपस्वी बनना होगा। यही आदेश है करुणासागर, महान पथ प्रदर्शक एवं योगेश्वर भगवान कृष्ण का, जिन्होंने मोहग्रस्त अर्जुन को कर्तव्याभिमुख करने के लिए गीता का उपदेश देते हुए कहा था कि सफल और संतुष्ट जीवन जीने के लिए मानव को तीन तप करते रहना होगा। वे तीन तप हैं - शारीरिक, वाणी का तथा मानसिक तप। वस्तुत: तपाचरण का अर्थ मात्र शारीरिक उत्पीड़न नहीं होता, अपितु इसका प्रायोजन तो अपनी शक्तियों का संचय करके और फिर उन्हें रचनात्मक कार्यों में प्रयोग करके आत्मविकास एवं आत्म साक्षात्कार करना होता है। अपने नैतिक विकास के लिए हमारा यह कर्तव्य बनता है कि हम अपने आराध्य, आदर्श अथवा इष्ट या लक्ष्य के प्रति श्रद्धा, भक्ति, आदर एवं सम्मान भाव रखें तथा जिन सत्पुरुषों ने इस आदर्श को प्रस्तुत किया, उन विद्वानों, गुरुओं तथा इस आदर्श के अनुमोदक ज्ञानीजन के प्रति भी सदैव दिल से कृतज्ञ रहें। शारीरिक स्वच्छता के साथ-साथ हम अपने व्यवहार को भी सरल बनाने का यथासंभव प्रयास करते रहें, क्योंकि हमारा कुटिल व्यवहार हमारे व्यक्तित्व को विभाजित करके हमारे मानसिक संतुलन और शारीरिक सामर्थ्य के लिए खतरा बन सकता है। इन्द्रिय नियंत्रण और अहिंसा में निष्ठा आदि को शारीरिक तप की संज्ञा दी गई है। ज़ाहिर है कि इसी में आत्म-कल्याण निहित है।

Dark Saint Alaick
03-08-2012, 08:43 PM
लालची वैद्य का इलाज

एक शहर में एक मशहूर वैद्य रहता था। उसकी दवाएं अचूक होती थीं। वह जिस भी रोगी का इलाज करता, वह कुछ समय बाद स्वस्थ हो जाता था। इसके चलते उस वैद्य की ख्याति दूर-दूर तक हो गई थी, लेकिन उसमें एक खराबी थी कि वह लालची बहुत था। एक बार एक महिला अपने बच्चे को लेकर वैद्य के पास आई। उसने कई जगहों पर जाकर कई वैद्यों से अपने बच्चे को दिखाया और इलाज करवाया था, किन्तु कोई भी बच्चे के मर्ज को न तो सही तरीके से समझ पाया था और न ही मर्ज के अनुसार इलाज कर पाया था। थक हार कर वह महिला काफी उम्मीद लेकर इस वैद्य के पास आई थी। वैद्य ने बच्चे को देखकर दवाई दी। संयोगवश दवा ने ऐसा असर दिखाया कि बच्चा कुछ समय बाद बिल्कुल ठीक हो गया। हर बार वह औरत वैद्य को कुछ नकद रुपए देती थी, लेकिन इस बार बच्चे के बेहतर होते स्वास्थ्य के बारे में जानकर उसे बहुत खुशी हुई और उसने उपहार में वैद्य को रेशम का एक कीमती बटुआ दिया। बटुआ देखकर वैद्य नाक - भौं सिकोड़ने लगा और बोला - बहनजी, मैं इलाज का केवल नकद रुपया ही लेता हूं। ऐसे उपहार मुझे स्वीकार नहीं हैं। कृपया आप आज के इलाज का शुल्क भी उपहार रूप में नहीं, बल्कि नकद देकर ही चुकाइए। वैद्य के मुंह से यह सुनकर महिला दंग रह गई और बोली - आप के आज के इलाज के कितने रुपए हुए? वैद्य बोला - तीन सौ रुपए। महिला ने झट से उस रेशमी बटुए में से तीन सौ रुपए निकाले और वैद्य की ओर बढ़ा दिए। इसके बाद वह महिला वैद्य से बोली - अच्छा हुआ तुमने अपनी लालची प्रवृत्ति मेरे सामने उजागर कर दी। दरअसल मैंने खुश होकर इस बटुए में पांच हजार रुपए रखे थे। ये रुपए मैं तुम्हें अपनी श्रद्धा से देना चाहती थी। मेरा बच्चा तुम्हारे इलाज से सही हुआ था, इसलिए मैंने अतिरिक्त इनाम तुम्हें देना चाहा था, किंतु तुमने नहीं लिया। यह सुनकर वैद्य लज्जित हो गया और उसने उसी क्षण निश्चय किया कि आगे से वह कभी लालच नहीं करेगा और प्रत्येक व्यक्ति का इलाज सेवा-भावना से करेगा।

Dark Saint Alaick
07-08-2012, 03:55 PM
संयम की सूचक है वाणी

दरअसल हमारे पास स्वयं को अभिव्यक्त करने का जो सबसे सशक्त माध्यम है, वह है हमारी वाणी। यह हमारी बौद्धिक पात्रता, मानसिक शिष्टता एवं शारीरिक संयम की सूचक होती है। यही कारण है कि वाणी के सतत क्रियाशील रहने से हमारी शक्ति का सबसे अधिक अपव्यय होता है और इसके संयम से ही एक बड़ी मात्रा में अपनी शक्ति का संचय भी किया जा सकता है, लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि हम मौन रहकर आत्मनाश या पर-उत्तेजन का कारण बनते रहें। वाक्शक्ति के सदुपयोग द्वारा हम अपने व्यक्तित्व को सुगठित कर सकते हैं, इसलिए जरुरी है कि हम बोलते समय सावधान रहें, ताकि हम जो बोलें वह सत्य, प्रिय और हितकारी हो। सत्यवाणी हमारी शक्ति को व्यर्थ नष्ट होने से बचाती है। शब्दों की कटुता का मोल हमें कई बार अपने जीवन में या तो असफलता अथवा अपने मित्र-बंधुओं को खो कर चुकाना पड़ता है। निरर्थक भाषण से तो हमें केवल थकान ही हुआ करती है। सत्य, प्रिय और हितकारी वाणी द्वारा सुरक्षित की गई अपनी शक्ति का सदुपयोग हम ज्ञानवर्धक साहित्य का अध्ययन करने में, उसके अर्थ को ग्रहण करने में और यथासंभव अपने जीवन को बेहतर बनाने में कर सकते हैं। यही होता है वाणी का तप, जिसके आधार पर एक मनुष्य केवल श्रेष्ठतर आनंद की प्राप्ति ही नहीं करता, बल्कि अपने वचनों से किसी निराश अथवा जीवन से हार मान चुके हुए व्यक्ति को फिर से जीवन के प्रति सकरात्मक बनाकर सम्मान के साथ जीने की प्रेरणा देने जैसा पुण्य कर्म करने से कभी भी पीछे नहीं हटता। मन की शांति से बढ़कर इस संसार में कुछ है ही नहीं और जब इस दुनिया के साथ हमारा संबंध स्नेह, प्रेम, समझ, ज्ञान, क्षमा और सहिष्णुता जैसे स्वस्थ मूल्यों पर आधारित होता है, तब हमारा मन सदैव एक दिव्य शांति का आभास किया करता है। इसी शांत मन में सौम्यत्व का निवास होता है अर्थात बिना मानसिक शांति के मानव प्राणिमात्र के प्रति प्रेम और कल्याण की भावना की अनुभूति नहीं कर सकता।

Dark Saint Alaick
07-08-2012, 03:57 PM
उज्ज्वल वेषधारी बगुला

एक बड़े संत की यह आदत थी कि वे चलते-चलते भी अपने शिष्यों को उपदेश देते थे और रास्ते में जो भी घटित होता था, उसको उदाहरण के साथ पेश कर अपने उपदेश से जोड़ कर उसका हल भी बतलाया करते थे। एक बार एक वे संत अपने शिष्यों के साथ वन में चले जा रहे थे। संत आगे-आगे चल रहे थे और शिष्य पीछे-पीछे। तभी रास्ते में एक विशाल सरोवर आ गया। उस सरोवर के पास से गुजर रहे एक पक्षी पर संत की नजर पड़ी। वह एक बगुला था। बगुला बड़ी मंद गति से चल रहा था। ऐसा लग रहा था, जैसे कोई साधु काफी संभल-संभल कर अपना पथ देखते हुए चल रहा हो। यह देख कर संत ने शिष्यों से कहा - देखो तो, ये पक्षी कैसे संभल-संभल कर चल रहा है। मानो वह परम धार्मिक हो। चलते समय वह अपने पांव भी कितनी सावधानी से रख रहा है। ऐसा लग रहा है कि कहीं उसके पांव के नीचे दबकर कोई जीव मर न जाए। वास्तव में यह कोई बड़ा साधु हृदय पक्षी लगता है। बगुले की प्रशंसा में संत अपने शिष्यों से कुछ न कुछ कहे जा रहे थे। अचानक तभी सभी को सरोवर से एक आवाज आती सुनाई दी। आवाज आने पर संत और उनके शिष्यों का ध्यान उस ओर जाना स्वाभाविक था। दरअसल सरोवर से आने वाली वह आवाज एक मछली की थी। वह कह रही थी - अरे ओ दुग्ध हृदय संत। जैसा आपका दिल दूध जैसा सफेद है, वैसा ही आप उस बगुले को भी देख रहे हो, जबकि हकीकत तो यह है कि बगुले की उज्ज्वलता तो ऊपरी है। उसके भीतर की रहस्य भरी बातें आप क्या जानो। यह भले ही सफेद दिख रहा है, लेकिन इसके मन में तो कालापन भरा हुआ है। आप इसके पास नहीं रहते और पहली बार आपने इसे देखा है। ये बातें तो वे ही जान सकते हैं जो इस बगुले के आसपास ही रहते हैं। आपके इस उज्जवल वेषधारी बगुले ने मेरा वंश चुन-चुन कर समाप्त कर दिया है। उसकी इस साधना का रहस्य जानना हो, तो मुझसे जानिए। ऐसे बहुत सारे लोग मिल जाएंगे, जो अपने पाप ढंकने के लिए धार्मिक काम करते रहते हैं। ऐसे लोगों से सावधान रहना चाहिए।

Dark Saint Alaick
10-08-2012, 08:32 PM
जज्बे और क्षमता पर भरोसा रखें

महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित करना किसी धार्मिक परंपरा का हिस्सा नहीं हो सकता। महिला अधिकार ही मानवाधिकार है और मानवाधिकार ही महिला अधिकार है। महिलाओं के अधिकारों की रक्षा किए बगैर आप मानवाधिकारों की रक्षा नहीं कर सकते। एक महिला जब तरक्की करती है, तो सच मानिए पूरा समाज तरक्की करता है। अब तो शिक्षा ने महिलाओं के विकास के नए दरवाजे खोले हैं। आज महिलाएं बड़ी कंपनियों का नेतृत्व कर रही हैं, बेहतरीन खिलाड़ी हैं, शिक्षा और राजनीति में भी उन्हें उच्च पद हासिल हुए हैं। महिलाएं सामाजिक कार्यों में भी पीछे नहीं हैं। शिक्षा महिलाओं के विकास के लिए ही नहीं बल्कि पूरे समाज के विकास के लिए बेहद जरूरी है। अगर किसी समाज को आगे बढ़ाना है तो सबसे पहले इसकी महिलाओं को शिक्षित करना होगा। महिलाओं को पीछे धकेलकर कोई समाज आगे नहीं बढ़ सकता। शिक्षा केवल महिलाओं को किताबी ज्ञान नहीं प्रदान करती बल्कि उनके अंदर आत्मविश्वास पैदा करती है। महिलाओं का आत्मविश्वास ही समाज की ताकत है। दुनिया के सामने इस समय कड़ी चुनौतियां हैं। आर्थिक मंदी, आतंकवाद, ग्लोबल वार्मिंग, यौन उत्पीड़न, बीमारियों का प्रकोप और बहुत कुछ। महिलाएं इन समस्याओं से निपटने में अहम भूमिका अदा कर सकती हैं। महिलाएं खुद अपने आदर्शो व विचारों की दूत हैं। उनको दुनिया का नेतृत्व करना है, इन तमाम चुनौतियों से निपटने के लिए। उनकी भूमिका केवल घर व समाज तक सीमित नहीं है। महिलाओं में समाज और दुनिया को चलाने की क्षमता है, कठिनाइयों से जूझने का जज्बा है। महिलाएं पुरुषों से कम नहीं हैं। हर क्षेत्र में उनका दखल होना चाहिए, हर क्षेत्र में उनका वजूद होना चाहिए, परंतु तरक्की के नए अवसरों के साथ ही महिला की जिम्मेदारी बढ़ जाती है। वे अपने समाज का भविष्य तय कर सकती हैं और नई मिसाल कायम कर सकती हैं। महिलाओं को अपने जज्बे और क्षमता पर पूरा भरोसा करना चाहिए।

Dark Saint Alaick
10-08-2012, 08:33 PM
सिपाही की उदारता

एक बहादुर फ्रांसिसी सिपाही लेफायेटे ने अमेरिकी क्रांति के दौरान जंग में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। जंग काफी लंबी चली। जंग की समाप्ति के बाद उसने सेनापति से घर जाने की अनुमति मांगी। जंग में उसकी बहादुरी देख सेनापति ने तत्काल उसको घर जाने के लिए अवकाश भी स्वीकृत कर दिया। वह काफी खुश हुआ क्योंकि वह अरसे बाद अपने घर जा रहा था। जब अपने गांव वापस पहुंचा तो वहां लोगों की हालत देख काफी परेशान हो गया। उन दिनों उसके और उसके आसपास के गांवों में गेहूं की फसल पूरी तरह से खराब हो गई थी। गांव के सभी लोग फसल खराब होने के कारण बेहद दुखी थे। बच्चे व बूढ़े भूख से तड़प रहे थे। किसी को समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर इस आकस्मिक आपदा से किस तरह से निपटा जाए। लेफायटे जब अपने घर में दाखिल हुआ तो यह देखकर हैरान रह गया कि उसके घर के गोदाम गेहूं से भरे हुए हैं। उसे पता चला कि उसके परिवार वालों ने पिछले कुछ सालों में दिन-रात मेहनत कर गेहूं इकट्ठा करके गोदाम में रख दिया था। गांव का जो प्रधान था वह अवसर का लाभ उठाने में माहिर माना जाता था। जब प्रधान को पता चला तो वह लेफायटे के पास आकर बोला- आपके यहां तो गेहूं के गोदाम भरे हैं। मेरे ख्याल से यह अच्छा अवसर है। कम समय में ज्यादा कमाई का इससे बेहतर जरिया कोई हो ही नहीं सकता। आपको अपने गोदाम में जमा गेहूं को भूखे मर रहे लोगों को ऊंचे दाम पर बेचकर काफी मुनाफा कमा लेना चाहिए। लेफायेटे प्रधान की बात सुनकर दंग रह गया। वह बोला-आपको ऐसा कहना शोभा नहीं देता। गांव के लोग भूखे मर रहे हैं और आप कह रहे हैं कि मैं गेहूं ऊंचे दामों पर बेचकर मुनाफा कमाऊं। इससे बड़ी शर्मनाक बात कोई हो ही नहीं सकती। यह वक्त तो गेहूं सबको बांटने का है ताकि विपदा से सहजता से जूझा जा सके। विपदा का लाभ उठाकर लोगों को मौत के मुंह में धकेल कर कमाई का पाप मैं नहीं कर सकता। प्रधान शर्मिंदा हो गया। उसने भी अपने गोदामों में जमा गेहूं बांटने का फैसला कर लिया।

abhisays
11-08-2012, 06:57 AM
अलैक जी, इस सूत्र से काफी प्रेरणा मिल रही है और अच्छी अच्छी बातें पता चल रही है। इस मंच के मेरे पसंदीदा सूत्रों में से एक यह बन गया है। इस शानदार सूत्र के लिए आपको बहुत बहुत आभार :bravo:

Dark Saint Alaick
14-08-2012, 03:50 PM
एकता आज की सबसे बड़ी जरूरत

तेरह मई 1952 को भारतीय संसद का पहला सत्र शुरू हुआ। इसके बाद 22 मई को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बहस का जवाब देते हुए जो ऐतिहासिक भाषण दिया, वह आज भी हमारे लिए प्रेरणादायक है। साथ ही वह देश में संसदीय परंपरा की शुरुआत के बौद्धिक स्तर को भी दिखाता है। पंडित नेहरू ने अपने भाषण में कहा था कि हमें अंग्रेजों से आजादी मिल चुकी है। अच्छी बात यह है कि हमें यह आजादी शांतिपूर्वक मिली लेकिन उसके बाद देश में भारी उथल-पुथल हुई है। देश में सामूहिक आक्रमण और कई हिंसक घटनाएं घटीं। साम्यवादी और सांप्रदायिक तत्वों ने समझा कि नई सरकार देश में सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन करेगी, लेकिन वे ऐसा नहीं चाहते थे। इसलिए भारत में सांप्रदायिक उथल-पुथल की आड़ में हिंसक आंदोलन हुए। ये आंदोलन राष्ट्रीय खतरे के रूप में सामने आए। सांप्रदायिक गुटों ने देश भर में अलग-अलग तरीकों से परेशानी पैदा करके इस राष्ट्रीय संकट से अनुचित लाभ उठाने की कोशिश की। इस दौरान कुछ ऐसी घटनाएं घटीं, जिनसे भारत की एकता भंग हो सकती थी और इसके खंड-खंड हो जाते। ऐसे समय में कांग्रेस ने वे फैसले किए जो देश की अखंडता के लिए जरूरी थे। जहां तक भाषावार राज्यों के गठन का मसला है तो मैं कहना चाहता हूं कि अगर जनता भाषावार राज्यों का निर्माण चाहती है तो सरकार बाधा नहीं बनेगी, लेकिन इस समय सबसे बड़ी चिंता देश की एकता और अखंडता बनाए रखने की है। ऐसे किसी भी कार्य को जिसकी वजह से देश की एकता भंग होती है टाला जाना चाहिए। याने पंडित नेहरू ने उसी वक्त भविष्य को पढ़ लिया था और वे जानते थे कि इस विशाल देश के सामने आने वाले समय में किन तरह की समस्याएं सामने आ सकती हैं। इसीलिए उन्होंने देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने पर ही सबसे ज्यादा जोर दिया था।

Dark Saint Alaick
14-08-2012, 03:51 PM
चित्रकार का देश भक्ति पाठ

श्रीपाद दामोदर सातवलेकर वैदिक विद्वान होने के साथ कुशल चित्रकार भी थे। उनके चित्रों को लोग काफी रूचि के साथ देखते थे और जो चित्र उन्हें पसन्द आ जाते थे, उन्हें खरीद भी लिया करते थे। उन्होंने अपनी तूलिका से बड़े-बड़े धनपतियों तथा अन्य लोगों के चित्र बनाए थे। चित्रकला में वे इतने गुणी थे कि दूर दूर तक उनका नाम काफी लोकप्रिय हो रहा था। चित्रकला के माध्यम से ही वह अपने परिवार का पालन-पोषण करते थे। उस वक्त उन्हे अपने चित्रों से इतने रूपए तो मिल ही जाते थे कि घर का खर्च आसानी से चल जाता था। वह अपनी उतनी कमाई से काफी खुश भी रहते थे। उन दिनों भारत गुलाम था। एक दिन सातवलेकर के मन में ख्याल आया कि अपनी मातृभूमि को स्वतंत्र कराने के लिए उन्हें वेद-ज्ञान के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना जागृत करने में योगदान करना चाहिए। उसी दिन से उन्होंने चित्र बनाने का काम बंद कर दिया और अपना अधिकतर समय वेदों के प्रचार-प्रसार में लगाना शुरू कर दिया। वह लोगों को इकट्ठा कर उन्हें वेद-ज्ञान के साथ-साथ देश को आजाद कराने के लिए एकता का पाठ पढ़ाने लगे। अनेक लोग उनके साथ जुड़ते चले गए और सभी स्वतंत्रता के स्वप्न देखने लगे, लेकिन इससे उनके परिवार के सामने आर्थिक संकट उत्पन्न हो गया। एक दिन एक व्यक्ति उनके परिवार पर आर्थिक संकट की बात सुनकर उनके पास आया और उनके सामने ढेर सारे रुपये रखकर बोला- पंडितजी आप हमारे नगर के रायबहादुर का चित्र बना दीजिए और इन रुपयों को एडवांस समझ कर रखिए। चित्र पूरा होने पर आपको और अधिक रुपए दिए जाएंगे, जिससे आपका संकट दूर हो जाएगा। व्यक्ति की बात सुनकर सातवलेकर बोले-अंग्रेजों से रायबहादुर की उपाधि प्राप्त किसी अंग्रेजपरस्त व्यक्ति का चित्र बनाकर उससे मिले अपवित्र धन को मैं स्पर्श भी नहीं कर सकता। आप इन रुपयों को उठाइए और इन्हे लेकर यहां से चले जाइए। वह व्यक्ति आर्थिक संकट में भी सातवलेकर की देशभक्ति की भावना को देखकर उनके प्रति श्रद्धा से भर उठा।

Dark Saint Alaick
15-08-2012, 01:30 AM
महत्व खो बैठेगा विपक्ष

(बाईस मई 1952 को भारतीय संसद के पहले सत्र में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बहस के जवाब में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के ऐतिहासिक भाषण का अंश)

देश के सदन में शक्तिशाली विपक्ष का होना अच्छा है, ताकि सरकार हमेशा अधिक सतर्क होकर देश की तरक्की के लिए काम करे। लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं है कि विपक्ष सरकार के सभी कामों की आलोचना करे। यदि विरोधी दल ऐसा ही करते रहे, तो वे महत्व खो बैठेंगे। मैं यहां पर अपने पुराने साथियों को देख रहा हूं जो अब विरोधी पार्टियों के सदस्य हैं। मैं यह कतई नहीं मानता कि जिन लोगों के साथ पहले हमारा सहयोग का रिश्ता रहा हो अब हम उनके साथ सहयोग नहीं कर सकते। मैं मानता हूं कि उनके साथ सहयोग के तरीके खोजे जा सकते हैं। मतभेदों के बावजूद हम विपक्ष से सहयोग की अपेक्षा करते हैं। मणिपुर के एक सम्मानित सदस्य ने जनजातीय समुदाय के लोगों के बारे में कुछ सवाल उठाए थे। मैं कहना चाहता हूं कि देश के जनजातीय समुदाय से जुड़ा मुद्दा बेहद अहम है केवल इसलिए नहीं कि देश में बड़ी संख्या में जनजातीय समुदाय के लोग हैं बल्कि इसलिए कि उनकी विशेष संस्कृति है। मैं मानता हूं कि उनकी संस्कृति की रक्षा होनी चाहिए। हमें यह भी देखना होगा कि जनजातीय समुदाय की संस्कृति का किसी प्रकार से शोषण न हो। अंत में मैं शरणार्थियों के पुनर्वास के बारे में बात करूंगा। हम इस बात को लेकर पूरी तरह से सजग हैं। हम जानते हैं कि बड़ी संख्या में देश में मौजूद शरणार्थी खासकर पूर्वी बंगाल से आने वाले शरणार्थियों का पुनर्वास किया जाना है। मैं इस बात को बढ़ा-चढ़ाकर नहीं कह रहा, लेकिन सच यह है कि इस क्षेत्र में हमने उल्लेखनीय कार्य किया है। दुनिया में हम अकेले ऐसे देश नहीं हैं जिसने शरणार्थियों के पुनर्वास पर काम किया है। हमने बाहर से मिलने वाली आर्थिक मदद के बिना ही पुनर्वास क्षेत्र में काम किया है। अगर विस्थापितों ने खुद आगे बढ़कर सहयोग नहीं किया होता तो हम यह नहीं कर पाते।

Dark Saint Alaick
15-08-2012, 01:32 AM
बापू के उपदेश ने बदली सोच

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने देश को आजाद करवाने के लिए जो जंग लड़ी वह अहिंसा के मार्ग पर चलकर ही लड़ी थी । वो मानते थे कि अहिंसा में इतनी ताकत होती है कि बड़े से बड़ा आदमी भी उसके आगे झुकने को मजबूर हो जाता है। बात उन दिनों की है जब महात्मा गांधी अंग्रेजों से देश को आजाद कराने के लिए विभिन्न मोर्चों पर संघर्ष कर रहे थे। इस कड़ी में जनसंपर्क कर अधिकाधिक लोगों को अपने अभियान में शामिल करना उनका प्रमुख लक्ष्य था। इसके लिए महात्मा गांधी कई शहरों व गांवों में जाते थे और लोगों को राष्ट्र-हितकारी कार्यों से जुड़ने के लिए प्रेरित करते थे। इसी सिलसिले में एक बार महात्मा गांधी दिल्ली के किसी मोहल्ले में रुके हुए थे। एक दिन वे अपने कमरे में कोई आवश्यक कार्य कर रहे थे कि उन्हें किसी की बातचीत सुनाई दी। बातचीत एक लड़के और लड़की के बीच हो रही थी और अंग्रेजी में हो रही थी। महात्मा गांधी ने दोनों को भीतर बुलाकर पूछा-आप कौन हैं? दोनों अचकचा गए और कुछ बोल ही नहीं पाए क्योंकि महात्मा गांधी उन्हें भली-भांति जानते थे। महात्मा गांधी ने फिर पूछा- बोलो, आप कौन हो? दोनों ने कहा-बापू हम सगे भाई.बहन हैं। महात्मा गांधी ने अगला प्रश्न किया- तुम कहां के रहने वाले हो? उत्तर मिला- पंजाब के। महात्मा गांधी बोले- तुम तो पंजाबी और हिंदी दोनों भाषाएं जानते हो फिर बातचीत में इनका प्रयोग क्यों नहीं करते? अंग्रेजी के गुलाम बनकर अपने देश की भाषाओं पर तुम अत्याचार कर रहे हो। अंग्रेजी को मैं बुरी भाषा नहीं मानता, किंतु उसके लिए मातृभाषा का तिरस्कार करना उचित नहीं है। ऐसे लोगों से अंग्रेजी में जरूर बात करो जो हमारी भाषाएं नहीं समझते। विश्व की सभी भाषाएं सम्मान के योग्य हैं किंतु स्वदेश में मातृभाषा का ही प्रयोग करना चाहिए। राष्ट्र के प्रति निष्ठा व्यक्त करने का यह एक माध्यम है। दोनों भाई-बहनों ने बापू से क्षमा मांगी और उन्हे वचन दिया कि वे दोनो तो अब आपस में मातृभाषा में बात करेंगे ही, अपने परिचितों से भी ऐसा ही करने का आग्रह करेंगे।

Dark Saint Alaick
18-08-2012, 02:41 PM
कामयाबी के लिए प्रयास जरूरी

कामयाबी उसी को मिलती है जिसके भीतर उसे पाने की इच्छा होती है। कामयाबी पाने की इच्छा के साथ-साथ कामयाबी पाने की रीति मालूम होनी चाहिए। इसके बाद आपको तब तक निरन्तर प्रयत्न करते रहना चाहिए जब तक कामयाबी न मिले। कामयाबी पाने की चाह ही काफी नहीं है। उसके लिए प्रयत्न करना अनिवार्य है। ऐसा भी नहीं है कि आप प्रयत्न नहीं करते हैं। प्रयत्न करते हैं, करते ही जाते हैं, लेकिन फिर भी सफल नहीं हो पाते हैं। दरअसल होता यह है कि हम बेतहाशा प्रयत्न करते जाते हैं लेकिन अपने दोषों और कमियों को दूर करना नहीं भूलते हैं। अतीत को विस्मरण कर बैठते हैं। उसकी जांच-पड़ताल करना ही नहीं चाहते हैं। अतीत की जांच-पड़ताल हमें बहुत कुछ सिखाती है। प्रत्येक नाकामयाबी एक नया पाठ सिखाती है यानि कामयाबी का एक सूत्र देती है। किसी भी योजना को पूर्ण करने के लिए दो प्रकार होते हैं। एक सकारात्मक और दूसरा नकारात्मक। कहने का तात्पर्य यह है कि धनी बनने के लिए या तो आय बढ़ाएं या व्यय घटाएं। आप उत्पादन बढ़ाना चाहते हैं तो आपको कार्य की अवधि बढ़ानी होगी या फिर कार्य के समस्त विघ्न या व्यर्थ के विलम्ब को दूर करना होगा। कामयाबी के प्रदेश की यात्रा प्रारम्भ करने से पूर्व अपने समस्त दुर्गुणो, कमियों और समस्त नकारात्मक विचारों व पछतावों को आपको त्यागना होगा। मन में कामयाबी पाने का दृढ़ विश्वास होना चाहिए। आपको कामयाबी मिले इसलिए परमात्मा को अपना सहयोगी अवश्य मानें क्योंकि ऐसा करने से आपमें एक विश्वास उत्पन्न होता है। जब आपके मन में होगा कि मुझे कामयाबी अवश्य मिलेगी और प्रयत्न भी योजनाबद्ध होगा तो ईश्वर आपका अपने आप सहयोगी बन जाएगा और आपको कामयाबी के प्रदेश की यात्रा कराकर ही मानेगा। इसलिए जो भी काम करें या कामयाबी के लिए जो भी कदम उठाएं पूरे विश्वास के साथ उठाएं।

Dark Saint Alaick
18-08-2012, 02:42 PM
धूल समान है प्रशंसा और निंदा

एक पर्वत पर एक पहुंचे हुए संत रहते थे। एक दिन एक भक्त उन संत के पास आया और बोला-महात्मा जी, मुझे कुछ समय के लिए तीर्थयात्रा के लिए जाना है। मेरी यह स्वर्ण मुद्राओं की थैली अपने पास रख लीजिए। इसमें काफी संख्या में स्वर्ण मुद्राएं हैं। संत ने कहा-भाई,हमें इस धन-दौलत से क्या मतलब? भक्त बोला-महाराज, आपके सिवाय मुझे और कोई सुरक्षित एवं विश्वसनीय स्थान नहीं दिखता जिसके पास मैं अपनी यह कीमती थैली रख दूं। कृपया इसे यहीं कहीं अपने पास रख लीजिए। यह सुनकर संत बोले-ठीक है,इस थैली को यहीं गड्ढा खोदकर उसमें दबा कर रख दो। भक्त ने वैसा ही किया और गड्ढा खोदकर उसमें थैली इत्मिनान से दबा कर रख दी। वह तीर्थयात्रा के लिए निकल पड़ा। लौटकर आया तो महात्माजी से अपनी थैली मांगी। महात्मा जी ने कहा-जहां तुमने रखी थी वहीं खोदकर निकाल लो। भक्त ने थैली निकाल ली। प्रसन्न होकर भक्त ने संत का खूब गुणगान किया लेकिन संत पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। भक्त घर पहुंचा। उसने पत्नी को थैली दी और नहाने चला गया। पत्नी ने पति के लौटने की खुशी में लड्डू बनाने का फैसला किया। उसने थैली में से एक स्वर्ण मुद्र्रा निकाली और लड्डू के लिए जरूरी चीजें बाजार से मंगवा लीं। भक्त जब स्रान करके लौटा तो उसने स्वर्ण मुद्र्राएं गिनीं। एक स्वर्ण मुद्रा कम पाकर वह सन्न रह गया। उसे लगा कि जरूर उसी संत ने एक मुद्रा निकाल ली है। वह तत्काल संत के पास पहुंच गया। वहां पहुंचकर उसने संत को भला-बुरा कहना शुरू किया। अबे ओ पाखंडी, मैं तो तुम्हें पहुंचा हुआ संत समझता था पर स्वर्ण मुद्रा देखकर तेरी भी नीयत खराब हो गई। संत ने कोई जवाब नहीं दिया। तभी उसकी पत्नी वहां पहुंची। उसने बताया कि एक मुद्र्रा उसने निकाल ली थी। यह सुनकर भक्त लज्जित होकर संत के चरणों पर गिर गया। उसने रोते हुए कहा-मुझे क्षमा कर दें। मैंने आपको क्या-क्या कह दिया। संत ने दोनों मुट्ठियों में धूल लेकर कहा,ये है प्रशंसा और ये है निंदा। दोनों मेरे लिए धूल के बराबर है। जा, तुम्हें क्षमा करता हूं।

Dark Saint Alaick
18-08-2012, 03:38 PM
अपने नजरिए का विस्तार करें

कहते हैं नजरिया अपना अपना होता है। आप जिस नजर से जो वस्तु देखेंगे वह आपको वैसी ही लगने लगेगी। दरअसल जो मकड़ी की तरह जीते हैं वे ही परेशान और दुखी रहते हैं। आपने देखा होगा मकड़ी स्वयं जाला बुनती है और स्वयं ही उसमें उलझी रहती है। व्यक्ति भी स्वयं परिस्थितियों का जाला बुनता है और फिर उसमें उलझता और निकलता रहता है। इसी ऊहापोह में उसका जीवन दुखी बना रहता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने भविष्य का निर्माता स्वयं है। ऐसे बहुत से लोग हैं जो अस्वस्थ होते हुए भी रोग का बहाना बनाकर घर नहीं बैठते हैं और काम में संलग्न रहते हैं या अपना कष्ट भूलकर दूजों के हित में सक्रिय रहते हैं और ऐसे भी बहुत से लोग हैं जो छींक आने पर या हल्का बुखार आ जाने पर कठिन रोग का बहाना बनाकर बिस्तर पर लेट जाते हैं और लम्बा आराम करते हैं। दुख, कष्ट या अभाव कभी परिस्थितियों पर निर्भर नहीं करते हैं वह तो आपकी बुद्धि और आपके दृष्टिकोण पर निर्भर करते हैं। जब तक आप अपने अन्तर में समाए इस अज्ञान को नहीं छोड़ेंगे तब तक आप इससे मुक्त नहीं हो सकेंगे। जब आप अपने दृष्टिकोण का विस्तार करके संसार को देखने लगेंगे तो आप इस परिस्थिति जन्य दुख को पास ही नहीं आने देंगे। आपके पास आपकी हर समस्या का हल होगा। परिस्थितियां आपको उलझा कर मकड़ी बना ही नहीं पाएगी। फिर कोई भी यह नहीं कहेगा कि आप तो हर समय अपने में ही उलझे रहते हैं। ऐसी भी क्या उलझन जो हर समय उसी में उलझे रहो, मकड़ी बने बैठे रहो। ऐसा भी क्या जीना जो मकड़ी ही बन गए। से नहीं मुक्त हो सकेंगे। मन में व्याप्त संकीर्णता और हीनता को त्याग करके जब आप विस्तृत दृष्टि से अपने आस-पास या संसार को देखते हुए सदाचार का पालन करेंगे तो मकड़ी नहीं बनेंगे और आपके समक्ष होगा परिस्थितियों से मुक्त ऐसा संसार कि सहसा आप कह उठेंगे कि दृष्टि क्या बदली सब कुछ ही बदल गया।

Dark Saint Alaick
18-08-2012, 03:39 PM
दान और व्यापार में अंतर

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के पास रोजाना अनेक व्यक्ति अपनी विभिन्न प्रकार की समस्याएं लेकर पहुंचते थे। वहां जो भी आता था उसे यही उम्मीद रहती थी कि महात्मा गांधी उनकी समस्याओं को ध्यान से सुनेंगे और उसका निराकरण भी बताएंगे। चूंकि महात्मा गांधी का स्वभाव काफी उदार था और वे सबके साथ सहयोगपूर्ण रवैया रखते थे इसलिए आम जनता से लेकर खास लोगों तक सभी को यह लगता था कि महात्मा गांधी उसके अपने हैं और उसकी बात को बड़े ध्यान से सुनेंगे। इसी कारण कोई भी उनके पास आने में कतई संकोच नहीं करता था। वे जब भी अपने नियमित कार्यों से फुरसत पाते,लोगों से भेंट-मुलाकात का उनका सिलसिला चल पड़ता। ऐसे ही एक बार महात्मा गांधी के पास एक सेठ आए। वह सेठ काफी सम्पन्न थे और दूर-दूर तक उनका नाम भी था। उस सेठ को लोग दानदाता सेठ के नाम से भी जानते थे क्योंकि वे हर अच्छे काम के लिए मोटी रकम दान में देते थे। महात्मा गांधी उनका चेहरा देखकर समझ गए कि वह काफी परेशानी में हैं। उन्होंने सेठ से बड़े स्नेह से समस्या के विषय में पूछा तो वे शिकायती लहजे में बोले-देखिए न बापू,दुनिया कितनी कपटी है। मैंने पचास हजार रुपए लगाकर एक धर्मशाला बनवाई। धर्मशाला बनने पर मुझे ही उसकी प्रबंध समिति से अलग कर दिया गया। जब तक वह नहीं बनी थी तब तक वहां कोई नहीं आता था और अब बन जाने पर पचासों उस पर अधिकार जताने आ गए है। महात्मा गांधी ने मुस्कराकर समझाया-दान का सही अर्थ न समझ पाने के कारण आपको दुख है। किसी चीज को देकर कुछ पाने की इच्छा दान नहीं, व्यापार है और जब व्यापार किया है तो लाभ और हानि के लिए आपको तैयार रहना चाहिए। व्यापार में लाभ भी हो सकता है और हानि भी। दान तभी फलितार्थ होता है जब वह प्रतिदान की इच्छा से रहित हो। निस्वार्थ और निरपेक्ष भाव से किया गया दान सही मायने में दान है। इसके बगैर दान का कोई अर्थ नहीं है। महात्मा गांधी की बात सुनकर सेठ को अपनी गलती का अहसास हुआ।

Dark Saint Alaick
22-08-2012, 12:44 AM
सच्चे दोस्त होते हैं माता -पिता

कई बार खुशी को लेकर भ्रम हो जाता है। कई बार आपको लगता है कि भौतिक चीजों से मिलने वाली संतुष्टि आपको सच्ची खुशी दे सकती है, लेकिन यह सच नहीं है। जैसे-जैसे आप जीवन के तमाम उतार-चढ़ाव से गुजरेंगे, आपको लगेगा कि भौतिक चीजों से मिलने वाली संतुष्टि आपको सच्ची खुशी नहीं दे सकती। हो सकता है कि आज आपके पास सब कुछ हो। सफलता, शोहरत और दौलत भी। सुख-आराम की तमाम चीजें, लेकिन कभी आजमा कर देखिए। इन चीजों से आपको वह खुशी नहीं मिलती, जो आपको किसी से मिले प्यार के कारण मिलती है। वे लोग भाग्यशाली होते हैं, जिनके माता-पिता उनके साथ रहते हैं। जब वे साथ रहेंगे, तो आपको अपने आप यह अहसास होने लगेगा कि आपके पास ऐसे लोग हैं, जो आपसे प्यार करते हैं। यह प्यार ही सबसे बड़ी खुशी है। सच्ची खुशी उन चीजों में छिपी होती है, जिन्हें आप अपनी दौलत में नहीं गिनते। बच्चों के साथ खेलना, उनके साथ वक्त बिताना सबसे बड़ी खुशी है। जीवन के वे पल सबसे बेहतरीन क्षण होते हैं, जब आप अपने ऐेसे लोगों के साथ होते हैं, जो आपसे प्यार करते हैं। इसलिए आपको इस पल में मिलने वाली खुशी को समझना होगा। माता-पिता जीवन भर आपके लिए बहुत कुछ करते हैं, लेकिन बदले में वे आपसे कुछ नहीं मांगते। आप चाहे जो गलती करें, आप चाहे जैसी शरारतें करें, आपके माता-पिता हर हाल में आपके सच्चे दोस्त होते हैं। जब भी आप मुसीबत में होते हैं, सबसे पहले आपके माता-पिता आपके पास होते हैं, क्योंकि वे आपके दर्द को बेहतर समझते हैं। जो लोग बचपन में अपने माता-पिता को खो देते हैं, वही समझ सकते हैं कि उनके न होने का गम क्या होता है। उन्हें जीवन भर उनकी कमी बहुत खलती है। माता-पिता ही एकमात्र आपके ऐसे दोस्त हैं, जो आपको बिना शर्त प्यार करते हैं। इसलिए भरपूर कोशिश करो कि उनका साथ आपको मिले। वही सबसे बड़ी खुशी है।

Dark Saint Alaick
22-08-2012, 12:47 AM
धर्म का आचरण

कवि कनकदास का जन्म विजय नगर साम्राज्य के बंकापुर प्रांत में एक गड़रिया परिवार में हुआ था। वह अपना अधिकांश समय ईश्वर की भक्ति साधना तथा अपने इष्टदेव तिरुपति के प्रति पदों की रचना में व्यतीत करते थे। गरीबों की सेवा करने के लिए वह हमेशा तत्पर रहते थे। एक बार उन्हें सोने की मुद्राओं से भरा एक बड़ा घड़ा प्राप्त हुआ। उन्होंने यह बात जब अपने सभी मिलने वालों को बताई तो सभी ने घड़े के मालिक को खोजने के प्रयास किए, पर अथक प्रयासों के बाद भी घड़े का कोई मालिक सामने नहीं आया। आखिरकार घड़ा कनकदास को सौंप दिया गया। कनकदास उस धन को अपने ऊपर खर्च करना पाप समझते थे। काफी सोच - विचार करके उन्होंने उस धन में से आधा हिस्सा निर्धनों के कल्याण पर खर्च कर दिया तथा आधे से कुलदेवता आदि केशव का मंदिर बनवाया। इसके बाद भी थोड़ा बहुत धन बच गया। वह यह विचार करने लगे कि इस धन को कहां खर्च किया जाए, तभी उनके परिवार के एक सदस्य ने कहा कि इसका कुछ अंश क्यों न परिवार की आवश्यकताओं पर खर्च किया जाए। यह सुनकर वह अपने घर के सदस्यों से बोले - बिना परिश्रम के प्राप्त हुए कोई भी धन का अपनी सुख-सुविधाओं के लिए उपयोग करना तो सरासर धर्म के विरुद्ध है। मैं अपनी कविताओं के माध्यम से लोगों को धर्माचरण का उपदेश देता हूं, फिर स्वयं अधर्म का आचरण कैसे कर सकता हूं? मैं अपने परिवार की आवश्यकता के लिए परिश्रम से धन अर्जित कर सकता हूं। आप सभी जानते हैं कि मुझे लेखन तथा काव्य से अत्यंत प्रेम है। मुझे अपनी इस प्रतिभा को निखारकर धन अर्जित करना चाहिए। उसी धन का उपयोग मेरे लिए सही है। कनकदास की बात सुनकर उनके परिवार के सदस्य चुप हो गए। कनकदास ने बचे धन को अपंगों में बांट दिया। इसके कुछ समय बाद ही कनकदास के साहस, निकलंक छवि और समर्पण भाव को देखते हुए बंकापुर राज्य का सेनाध्यक्ष नियुक्त कर दिया गया।

Dark Saint Alaick
23-08-2012, 12:01 PM
हार के पीछे ही छिपी होती है जीत

कामयाबी एक खूबसूरत अहसास है। हर कोई सफलता चाहता है लेकिन सफलता आपको बुद्धिमान नहीं बनाती। आप अपनी सफलता किसी और को नहीं दे सकते। अगर आप सफल हैं तो जरूरी नहीं है कि आपके बच्चे भी सफल हों। सफलता के सूत्र पर बात करना समय की बरबादी है। कई बार लोग इसलिए भी सफल हो जाते हैं कि क्योंकि उन्हे असफलता से बहुत डर लगता है। कई लोगों को जीत की खुशी से ज्यादा हार का डर सताता रहता है। ऐसा तब होता है जब या तो मनुष्य कमजोर हो या ऐसे हालात में होता है वह कुछ कर नहीं पाता। ये हालात मनुष्य के भीतर तनाव और निराशा पैदा करते हैं। कई बार मनुष्य मैंने अपने आस पास के वातावरण को देख कर भी हतोत्साहित हो जाता है। ऐसे में उसके अंदर हार और नाकामयाबी का डर बढ़ जाता है। ऐसा नही होना चाहिए। प्रयास तो जारी रखने ही चाहिए। पहले भले ही कोई काम छोटा नजर आता हो लेकिन यह तय मानिए कि कोई भी काम छोटा नहीं होता। छोटे काम के साथ ही मनुष्य आगे बढ़ता है और एक दिन ऐसा भी आता है जब वह उसी छोटे काम के दम पर बड़ा काम कर जाता है। बस, यहीं से कामयाबी के दरवाजे खुल जाते हैं। हार के पीछे ही जीत का रहस्य छिपा है। हार आपको खुद को सुधारना सिखाती है। असफलता आपको संघर्ष करना सिखाती है। विफलता आपको हकीकत से रूबरू कराती है। नाकामयाबी आपको सच्चे दोस्तों की पहचान करना सिखाती है क्योंकि जो लोग हार के बाद आपका हौसला बढ़ाने आते हैं वही आपके सच्चे दोस्त होते हैं। कई असफलताओं के बाद आपको खुद को यह अहसास होने लगेगा कि आपके अंदर और बेहतर करने की क्षमता है। हारने बाद आपको यह भी अहसास होने लगेगा कि आपके अंदर जबर्दस्त आत्मविश्वास है। इसलिए हार से मत डरो। कहा भी जाता है कि हार को आत्मविश्वास से जीत में बदला जा सकता है। खुद को पहचाने तो जीत तय है।

Dark Saint Alaick
23-08-2012, 12:01 PM
सामूहिकता में विश्वास

बात उस समय की है जब नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने देश को ब्रिटिश गुलामी से मुक्त कराने के लिए आजाद हिंद फौज की स्थापना की थी। आजाद हिंद फौज के जवानो के साहस और उनकी एकता से अंग्रेज भी खौफ खाया करते थे। सभी जवानो में आपस में ऐसा तालमेल था कि कोई चाहकर भी उन्हे अलग करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता था। नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज में सभी संप्रदायों के लोगों को शामिल होने का न्यौता दिया था। उनका विचार था कि भारत में रहने वाले सभी हिंदु, मुस्लिम, सिख आदि पहले भारतीय हैं फिर कुछ और। इसलिए वे आजाद हिंद फौज के दरवाजे सभी के लिए खुले रखते थे। जिसके भी सीने में देश को आजाद करने की आग हो और जो फौज के सभी जवानो के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम कर सके वह उनकी फौज में शामिल हो सकता था। इसलिए आजादी की इस सेना में सभी तरह के लोग थे। उन्ही में से कैप्टन शाहनवाज खान भी आजाद हिंद फौज में शामिल हुए थे। एक बार अंग्रेजों ने उनकी किसी गतिविधि को लेकर उन पर मुकदमा दायर किया। कैप्टन के वकील बने भूलाभाई देसाई। इस बीच मुहम्मद अली जिन्ना ने कैप्टन शाहनवाज खान को संदेश भिजवाया कि यदि आप आजाद हिंद फौज के साथियों से अलग हो जाएं तो मुस्लिम भाई होने के नाते मैं आपका मुकदमा लड़ने को तैयार हूं। शाहनवाज खान ने तत्काल जवाब भिजवाया-हम सब हिंदुस्तानी कंधे से कंधा मिलाकर आजादी की लड़ाई लड़ रहे हैं। हमारे कई साथी इसमें शहीद हो गए और हमें उनकी शहादत पर नाज है। आपकी पेशकश के लिए शुक्रिया। हम सब साथ-साथ ही उठेंगे या गिरेंगे, परंतु साथ नहीं छोड़ेंगे। उनके इस सटीक जवाब से उनके सभी साथी बहुत प्रसन्न हुए। उन्हीं में से एक बोला-धर्म और जाति की संकीर्णता से ऊपर रहने वाला देश ही उन्नति करता है। इसलिए हमें समानता की दृष्टि से सबको देखते हुए सामूहिकता में विश्वास रखना चाहिए।

Dark Saint Alaick
27-08-2012, 05:53 AM
अच्छी पहल खुद करनी पड़ेगी

नोबेल पुरस्कार से सम्मानित प्रोफेसर मोहम्मद यूनुस ने अपने माइक्रो फाइनेंस से न केवल बांग्लादेश बल्कि पूरी दुनिया के गरीबों को एक नई राह दिखाई है। यूनुस ने एक अमेरिकी विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में पीएचडी की डिग्री हासिल की और वहां की मिडिल टेनिसी यूनिवर्सिटी में बतौर अस्टिस्टेंट प्रोफेसर काम किया। बाद में उन्होंने स्वदेश लौटकर गरीबों के लिए बैंकिंग प्रणाली शुरू करने का फैसला किया। उनकी यह पहल कारगर साबित हुई। ड्यूक यूनिवर्सिटी के छात्रों को संबोधित करते हुए प्रोफेसर यूनुस ने युवाओं को सामाजिक कारोबार की प्रेरणा दी। उन्होने कहा,आप खुशनसीब हैं कि आपकी पीढ़ी को सूचना तकनीक की सुविधाओं का लाभ मिला है। हमारे जमाने में यह सुविधा नहीं थी। तब हमें संदेश भेजने के लिए पत्र लिखना पड़ता था और इसमें लंबा समय लगता था। आज समय बदल गया है। अब आप कुछ सेकंड में दुनिया में किसी भी कोने में बैठे व्यक्ति को ई-मेल के जरिए संदेश भेज सकते हैं। आप हर पल एक दूसरे के संपर्क में रह सकते हैं। संचार और संवाद आसान हुआ है। इंटरनेट के जरिए आपके पास सूचनाओं का अंबार है। तकनीक ने आपके लिए रास्ते आसान किए हैं। सब कुछ अब आपके हाथ में है। अब फैसला आपको करना है कि इस तकनीक का इस्तेमाल कैसे करते हैं। क्या आप तकनीक का इस्तेमाल सिर्फ पैसा कमाने के लिए करेंगे या फिर तकनीक के जरिए इस दुनिया को एक बेहतर जगह बनाने की कोशिश भी करेंगे? मर्जी आपकी है, फैसला आपका है। आप चाहें तो दुनिया को बदल सकते हैं। आप चाहें तो इस तकनीक की मदद से तमाम जरूरतमंद लोगों की मदद कर सकते हैं। रास्ते खुले हैं। हम पहल कर सकते हैं। आज आपके हाथ में तकनीक नाम का अलादीन का चिराग है। डिजिटल डिवाइस नामक जिन्न है। इसकी मदद से आप सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं। तकनीक का इस्तेमाल समाज के विकास में होना चाहिए।

Dark Saint Alaick
27-08-2012, 05:54 AM
महत्वाकांक्षा ने खोली आंखें

किसी जमाने में एक बौद्ध मठ में सुवास नामक एक भिक्षु रहता था। वह बहुत ही महत्वाकांक्षी था। इस महत्वाकांक्षा के चक्कर में वह ऐसी बातें भी सोचने लगता था जो उसके वश में नहीं होती थी। वह हमेशा यही सोचता रहता था कि बुद्ध की तरह वह भी नव भिक्षुओं को दीक्षित करे और उसके शिष्य उसकी नियमित चरण वंदना करें। मगर वह यह समझ नहीं पा रहा था कि अपनी इस इच्छा की पूर्ति कैसे करे। अपनी इस आदत के कारण वह मठ में रहने वाले दूसरे भिक्षुओं से आम तौर पर कटा-कटा सा रहता था। कई बार जब दूसरे भिक्षु उसे कुछ कहने का प्रयास करते तो वह उनसे दूरी बनाने की कोशिश करता या ऐसा कुछ कहता जिससे उसकी श्रेष्ठता साबित हो। दूसरे भिक्षु इस कारण उससे नाराज रहते थे लेकिन उसकी आदत को समझ कर उससे ज्यादा तर्क-वितर्क नहीं करते थे। एक दिन बुद्ध ने जब प्रवचन समाप्त किया और सारे शिष्यों के जाने के बाद सभा स्थल खाली हो गया तो अवसर देख सुवास ऊंचे तख्त पर विराजमान बुद्ध के पास जा पहुंचा और कहने लगा- प्रभु,आप मुझे भी आज्ञा प्रदान करें कि मैं भी नव भिक्षुओं को दीक्षित कर उन्हे अपना शिष्य बना सकूं और आपकी तरह महात्मा कहलाऊं। यह सुनकर बुद्ध खड़े हो गए और बोले- जरा मुझे उठाकर ऊपर वाले तख्त तक पहुंचा दो। सुवास बोला-प्रभु इतने नीचे से तो मैं आपको नहीं उठा पाऊंगा। इसके लिए तो मुझे आपके बराबर ऊंचा उठना पड़ेगा। बुद्ध मुस्कराए और बोले-बिल्कुल ठीक कहा तुमने। इसी प्रकार नव भिक्षुओं को दीक्षित करने के लिए तुम्हें मेरे समकक्ष होना पड़ेगा। जब तुम इतना तप कर लोगे तब किसी को भी दीक्षित करने के लिए तुम्हें मेरी आवश्यकता नहीं पड़ेगी। मगर इसके लिए प्रयास करना होगा। केवल इच्छा करने से कुछ नहीं होगा। सुवास को अपनी भूल का अहसास हो गया। उसने बुद्ध से क्षमा मांगी। उस दिन से उसका व्यवहार और सोच पूरी तरह बदल गई और उसमें विनम्रता आ गई।

Dark Saint Alaick
28-08-2012, 10:48 AM
जब गूंजा भारत माता की जय

भारत के स्वतंत्र होने के बाद देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू पिलानी के एक स्कूल में मुख्य अतिथि बनकर पहुंचे। स्कूल में विद्यार्थियों ने ऐसे विविध रंगारंग कार्यक्रम पेश किए कि पंडित नेहरू मंत्रमुग्ध होकर देखते ही रहे। हर रंगारंग प्रस्तुति के बाद वे जोर-जोर से तालियां बजाकर विद्यार्थियों का खूब उत्साह बढ़ा रहे थे। कार्यक्रम समाप्त होने के बाद अपने विचार प्रकट करने के लिए पंडित नेहरू को मंच पर आमंत्रित किया गया। पंडित नेहरू मंच पर आकर बोले-आज मुझे इस स्कूल में आकर बेहद गर्व का अनुभव हो रहा है। हमारे नन्हे-मुन्ने बच्चों ने काफी मेहनत से विविध रंगारंग कार्यक्रम पेश किए और मंच पर अपने काम को पूरी कुशलता के साथ अंजाम दिया है। इन्हीं बच्चों को आने वाले समय में हमारे देश की नींव को मजबूत करना है। भारत माता का नाम रोशन करना है। तभी उत्सुकतावश एक छोटे विद्यार्थी ने पंडित नेहरू से पूछा- भारत माता कौन हैं? उस छोटे विद्यार्थी के मुंह से निकले इस सवाल को सुनकर पंडित नेहरू के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई। उन्होंने उस विद्यार्थी से कहा-बेटा, सोचो भारत माता कौन हैं? बालक कुछ देर तो सोचता रहा फिर बोला-हमारा देश भारत है। उसकी माता भारत माता हुई। इस पर पंडित नेहरू बोले-बच्चों, हमारा पूरा देश, इसके पहाड़, पवित्र नदियां, गांव, शहर,उद्योग सभी भारत माता हैं। हम सभी भारत माता की संतान हैं। हमारा फर्ज है कि हम अपनी भारत माता की सेवा करें, उसे विकास की नई ऊंचाइयों तक पहुंचाएं। संतान का कर्त्तव्य अपनी माता की देखभाल करना है, उसका नाम रोशन करना है। इसलिए हमें ऐसे कार्य करने होंगे कि हमारा देश विश्व के भाल पर मणि की तरह चमके। यह सुनकर वहां उपस्थित स्वाधीनता सेनानी-उद्योगपति घनश्यामदास बिड़ला के साथ अध्यापक-अध्यापिकाएं भाव-विभोर हो उठे और विद्यालय का प्रांगण भारत माता की जय के उद्घोष से गूंज उठा।

Dark Saint Alaick
28-08-2012, 04:21 PM
सच्ची कोशिश से मिलती है कामयाबी

सफलता का मतलब जीतना नहीं बल्कि जीतने की सच्ची कोशिश करना है। अगर पूरी कोशिश करने के बाद भी आप सफल नहीं होते हैं तो दिल में यह सुकून होता कि चलो मैंने सच्ची कोशिश की। यह सुकून ही आपकी सफलता है। आप सफल हैं या नहीं यह तय करने का अधिकार सिर्फ आपको है। अधिकांश माता-पिता चाहते हैं कि उनके बच्चे को क्लास में ए या बी ग्रेड मिले। अगर किसी बच्चे को सी ग्रेड मिले तो कोई मानने को तैयार नहीं होता। उन्हें लगता है कि सी ग्रेड तो उनके बच्चे के लिए बना ही नहीं है। माता-पिता किसी हालत में अपने बच्चों को रैंकिंग में पिछड़ता नहीं देखना चाहते हैं। उनके लिए सफलता का मतलब ऊंची रैंक हासिल करना था। यह सोच सही नहीं है। ईश्वर ने हर इंसान को अलग-अलग प्रतिभा और भिन्न-भिन्न शक्ल-सूरत दी है। सभी लोग एक जैसे नहीं हो सकते। हर बच्चे को क्लास में ए या बी ग्रेड मिले यह जरूरी तो नहीं। जीत का मतलब नंबर वन बनना नहीं है। किसी विषय में अच्छे अंक पाकर या फिर किसी प्रतियोगिता में ऊंची रैंक हासिल करके आप सफल नहीं बन सकते। कहा जाता है कि दूसरों से बेहतर बनने की कोशिश मत करो। दरअसल उनका आशय यह होता है कि दूसरों से होड़ लेने की बजाय बेहतर यह है कि उनकी अच्छी आदतें सीखो। हमें वह कार्य करना चाहिए जो हम कर सकते हैं , जो हमारी क्षमता में है। अगर आप ऐसा कुछ भी करने की कोशिश करेंगे जो आपकी क्षमता से बाहर है तो यह आपके उन लक्ष्यों को भी प्रभावित करेगा जो आप हासिल कर सकते हैं। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि आप सफल हुए या नहीं। महत्वपूर्ण यह है कि आपने लक्ष्य को पाने के लिए कितनी मेहनत की। अगर आपने लक्ष्य हासिल करने के लिए भरपूर कोशिश की है, तो निश्चित रूप से आप सफल हैं। अब अगर आपने किसी काम को करने की कोशिश ही नहीं की है और आप सफल होने की उम्मीद करें, तो यह कदापि संभव नहीं है।

Dark Saint Alaick
30-08-2012, 02:07 PM
परिणाम जो भी हो, धैर्य जरूर रखें

अगर आपने कोई काम सच्ची कोशिश के साथ किया लेकिन अगर आपको सफलता न मिले तो मन में एक आत्मसंतोष रहता है कि चलो मैंने पूरी कोशिश की। यह अहसास आपके दिल को सुकून देता है। यह सुकून ही आपकी सफलता है। अगर आप किसी चीज को हासिल करने के लिए सच्ची कोशिश करते हैं और अगर आपको लगता कि आपने कहीं कोई कसर नहीं छोड़ी तो यह आपकी जीत है। सफलता का मतलब पा लेना नहीं बल्कि पाने की सच्ची कोशिश करना है। आप सफल हैं या नहीं इसे तय करने का अधिकार सिर्फ आपको है किसी और को नहीं क्योंकि सिर्फ आप जानते हैं कि आपने सच्ची कोशिश की है। अक्सर लोग अपनी छवि को लेकर चिंतित रहते हैं। आपकी छवि इस बात पर निर्भर है कि आप खुद को कैसे देखना चाहते हैं। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि आप कैसे दिखना चाहते है। महत्वपूर्ण यह है कि आप वाकई कैसे हैं। इसी हकीकत पर आपका चरित्र निर्भर है। कई बार हम यह महसूस करते हैं कि मैं वह नहीं बन पाया जो मैं बनना चाहता था लेकिन आपको यह मान कर चलना चाहिए कि आज आप जो भी हैं वही आपके लिए बेहतर है। सफलता के लिए जरूरी है कि जो काम करो उसकी समय सीमा बांधो। समय बहुत कीमती है। हमें इसकी अहमियत समझनी चाहिए। हर इंसान को समय का पाबंद होना चाहिए। आप समय पर काम शुरू करिए और समय पर खत्म भी। इसके अलावा सफलता के लिए मेहनत और उत्साह तो जरूरी है साथ ही आपके अंदर विश्वास और धैर्य भी होना चाहिए। आज जो काम कर रहे हैं उसे पूरे मन से करिए ताकि आपको काम का मजा आए। परिणाम चाहे जो हो धैर्य बनाए रखिए। हम अक्सर बात करते हैं कि युवाओं में धैर्य की कमी है। वे सब कुछ बदलना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि बदलाव ही तरक्की है। जरूरी नहीं है कि जैसा हम चाहते हैं वैसा ही हो। हमें भरोसा होना चाहिए कि जो उचित है उसके लिए हमें हर मुमकिन कोशिश करेंगे।

Dark Saint Alaick
30-08-2012, 02:10 PM
एक पद ने सिखाया दायित्व

एक भिक्षुक एक बार एक राजा के पास पहुंचा और कहा- राज्य के संचालन का उत्तरदायित्व ऐसे व्यक्ति पर हो जो भगवान बुद्ध के संदेशों को फैला कर उनके अनुसार राज्य व्यवस्था चला सके। इसके लिए हम दोनों में से कौन उपयुक्त है? राजा ने कहा-भंते! आप योग्य हैं। अच्छा हो कि इसका उत्तरदायित्व आप संभालें। आपने त्रिपिटकों का गहरा अनुशीलन किया है पर मेरा निवेदन है कि अगर आप एक बार त्रिपिटकों का अध्ययन और करें तो...। भिक्षुक बोला-इसमें क्या है! अभी मैं त्रिपिटकों का अध्ययन कर लौटता हूं। भिक्षुक कुछ महीने बाद राजसभा में लौटा। उसने स्पष्ट शब्दों में कहा- राजन! राजसत्ता अब मुझे सौप दें। राजा बोले- क्षमा करें एक बार आप फिर त्रिपिटकों का अनुशीलन करने का कष्ट करें। भिक्षुक की आंखों में क्रोध उतरा, परंतु उसने एकांत में समग्र त्रिपिटकों का शीघ्रता से अध्ययन किया, फिर राजसभा में लौटा सत्ता की बागडोर लेने। राजा शांत थे। भिक्षुक का सम्मान करते हुए एक बार फिर उससे त्रिपिटकों का अनुशीलन करने का आग्रह किया। भिक्षुक ने रोष भरे शब्दों में कहा- राजन, यदि तुम राज नहीं देना चाहते तो व्यर्थ मुझे इतना परेशान क्यों किया। राजा विनम्र बने रहे। बोल-भंते! मैं आप को दुखी नहीं करना चाहता। मेरा उद्देश्य तो केवल इतना ही है कि त्रिपिटकों का पारायण ढंग से हो, ताकि आप सभी कार्य सुगमतापूर्वक कर सके। भिक्षुक कुटिया में लौटा। गंभीरतापूर्वक अध्ययन करने लगे। सहसा एक पद आया-अप्प दीपोभव (अपने लिए दीपक बनो) इस बार भिक्षुक के सामने इसका अर्थ खुला। उसने सोचा, यदि उसने इस बात को ठीक से समझा होता, तो विरक्त भाव में रमण करने वाला फिर इस संसार में लौटने का प्रयत्न नहीं करता। वह फिर राजसभा में नहीं गया। राजा कुटिया में पहुंचे। प्रार्थना की- भंते पधारें, सत्ता संभालें। भिक्षु ने एक ही वाक्य कहा- राजन, मैंने अपनी सत्ता संभाल ली है। किसी अन्य सत्ता की अब मुझे कतई अपेक्षा नहीं है।

Dark Saint Alaick
01-09-2012, 04:35 PM
सिर्फ डिग्री के लिए नहीं लें शिक्षा

आजकल के हर युवा के मन में भविष्य को लेकर ढेर सारी उम्मीदें और सपने होते हैं। अगर सच्ची कोशिश की जाए तो ये सपने जरूर पूरे होते हैं। जीवन में शिक्षा का बहुत बड़ा महत्व है। शिक्षा आपको नया जीवन देती है। दरअसल शिक्षा हासिल करने का मतलब सिर्फ डिग्री हासिल करना नहीं है। शिक्षा आपको एक बेहतर इंसान बनाती है, सभ्य बनाती है, तहजीब सिखाती है। शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ ज्ञान हासिल करना नहीं है। यह आपको कई तरह की जिम्मेदारियों का अहसास कराती है। पहली जिम्मेदारी आपकी खुद के प्रति है और फिर समाज के प्रति। आपकी सबसे पहली जिम्मेदारी यह पता लगाना है कि आप क्या करना चाहते हैं? ऐसा कौन सा कार्य है, जिसे करने में आपको खुशी मिलेगी, आपके शौक क्या हैं, आपका जुनून क्या है? उदाहरण के लिए कोंडोलीजा राइस अफ्रीकी मूल की पहली अमेरिकी महिला थी, जो अमेरिका के विदेश सचिव के पद तक पहुंचीं। राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश के कार्यकाल में वह उनकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार भी रहीं। उन्होंने तीन साल की उम्र से संगीत सीखना शुरू किया, क्योंकि उन्हें संगीत से प्यार था, परंतु जब वे बड़ी हुई तो उन्हें लगा कि संगीत भले ही उनका शौक है, पर यह उनका करियर नहीं हो सकता है। फिर यूनिवर्सिटी में पहुंच कर उन्होने अंग्रेजी साहित्य की पढ़ाई शुरू की, लेकिन अंग्रेजी भी उनमें दिलचस्पी नहीं पैदा कर सकी। आखिरकार उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का अध्ययन शुरू किया और फैसला किया कि उन्हें राजनयिक ही बनना है। वे अपने फैसले पर खरी उतरीं । कामयाब भी रहीं और उन्होंने अपनी राजनयिक की भूमिका को बखूबी निभाया। इसलिए आप करियर के लिए वही क्षेत्र चुनें, जिसमें आपकी गहरी दिलचस्पी है। अगर आप अपनी रुचि वाला काम करेंगे, तो आपको ज्यादा सफलता मिलेगी। अब यह तय तो आपको ही करना है कि लिए कौन सा क्षेत्र आपके करियर के लिए उचित है।

Dark Saint Alaick
01-09-2012, 04:38 PM
अहंकार तले दबा ज्ञान

एक युवा ब्रह्मचारी की यह तमन्ना हुई कि वह दुनिया में जितनी भी कलाएं हैं, उन सभी को सीखे। उसका मानना था कि वह जितनी कलाएं सीख लेगा, उसका रूतबा उतना ही बढ़ता जाएगा और वह बड़ा आदमी कहलाएगा। अपने इस इरादे के साथ ही उसने कई देशों में घूमकर अनेक कलाएं सीखीं। पहले वह एक देश में पहुंचा और वहां उसने एक व्यक्ति से बाण बनाने की कला सीखी। जब उसे लगा कि वह बाण बनाना सीख गया है, तो कुछ दिनों के बाद वह अन्य देश की यात्रा पर निकल गया। वहां पहुंचकर उसने जहाज बनाने की कला सीखी, क्योंकि वहां बहुतायत में जहाज बनाए जाते थे। फिर वह तीसरे देश में जा पहुंचा और कई ऐसे लोगों के संपर्क में आया जो गृह निर्माण करते थे। यहां उसने तरह-तरह की गृह निर्माण कला सीखी। इस प्रकार वह सोलह देशों में गया और कई तरह की कलाओं का ज्ञाता होकर लौटा। घर वापस आकर वह इस अहंकार में भर गया कि उसने कई तरह की कलाएं सीख ली हैं। अपने अहंकार के चलते वह लोगों से कहता- इस संपूर्ण पृथ्वी पर मुझ जैसा कोई गुणी व्यक्ति है? लोग हैरत से उसे देखते। धीरे-धीरे यह बात बुद्ध तक भी पहुंची। बुद्ध उसे जानते थे। वह उसकी प्रतिभा से भी परिचित थे। वह इस बात से चिंतित हो गए कि कहीं उसका अभिमान उसका नाश न कर दे। एक दिन वे भिखारी का वेश बनाकर हाथ में भिक्षापात्र लिए उसके सामने गए। ब्रह्मचारी ने बड़े अभिमान से पूछा - कौन हो तुम ? बुद्ध बोले - मैं आत्मविजय का पथिक हूं। ब्रह्मचारी ने उनके कथन का अर्थ जानना चाहा तो वे बोले - एक मामूली हथियार निर्माता भी बाण बना लेता है, नौ चालक जहाज पर नियंत्रण रख लेता है, गृह निर्माता घर भी बना लेता है। केवल ज्ञान से ही कुछ नहीं होने वाला है। असल उपलब्धि है निर्मल मन। अगर मन पवित्र नहीं हुआ, तो सारा ज्ञान व्यर्थ है। अहंकार से मुक्त व्यक्ति ही ईश्वर को पा सकता है। यह सुनकर ब्रह्मचारी को अपनी भूल का अहसास हो गया।

Dark Saint Alaick
01-09-2012, 04:40 PM
दुनिया को एकजुट करती है तकनीक

आधुनिक तकनीक ने हमें वैश्विक रूप से एकजुट होने की ताकत प्रदान की है। यह पहला अवसर है, जब आम लोगों को दुनिया को बदलने की ताकत मिली है। अब चंद शक्तिशाली लोग मनमाने ढंग से अपने देश की विदेश नीति तय नहीं कर सकते। विदेश नीति तय करते समय उन्हें लोगों की भावनाओं का ध्यान रखना होगा, जो इंटरनेट के जरिए बाकी दुनिया से जुड़े हैं। समय के साथ समस्याओं का स्वरूप बदला है। आज से दो सौ साल पहले की घटना को याद कीजिए, जब ब्रिटेन में गुलामों के व्यापार को लेकर जबर्दस्त विरोध प्रदर्शन हुए थे। उस आंदोलन को जनता का पूरा समर्थन मिला था, लेकिन ऐसा होने में 24 साल का लंबा वक्त लगा। काश, उस जमाने में उनके पास आज की तरह ही आधुनिक संचार माध्यम होते, लेकिन पिछले एक दशक में बहुत कुछ बदला है। वर्ष 2011 में फिलीपींस में करीब दस लाख लोगों ने वहां की भ्रष्ट सरकार के खिलाफ मोबाइल पर संदेश भेजकर विरोध किया और सरकार को जाना पड़ा। इसी तरह जिम्बाव्वे में चुनाव के दौरान वहां की सत्ता के लिए धांधली करना मुश्किल हो गया, क्योंकि जनता के हाथ में मोबाइल फोन था, जिसकी मदद से वे मतदान केन्द्रों की तस्वीरें लेकर कहीं भी भेज सकते थे। म्यामांर के लोगों ने ब्लॉगों के जरिये दुनिया को अपने देश के हालात से अवगत कराया। तमाम कोशिशों के बावजूद वहां की सत्ता उस आवाज को नहीं दबा पाई, जो आंग सान सू की ने उठाई थी अर्थात यह कहा जा सकता है कि आधुनिक तकनीक ने इतनी विशाल दुनिया को भी इतना छोटा कर दिया है कि कोई दूरी अब दूरी लगती ही नहीं है। चंद पलों में एक संदेश एक जगह से दूसरी जगह चला जाता है। हालांकि इसका गलत इस्तेमाल होने की संभावना भी है, जैसे भारत में इसी सप्ताह अफवाह फैलाने में इसी आधुनिक तकनीक का बड़ा हाथ रहा। यह तो मानव पर निर्भर है कि वह अच्छी चीज का उपयोग किस संदर्भ में करता है।

Dark Saint Alaick
01-09-2012, 04:42 PM
मां का पुरुषार्थ मंत्र

रायगढ़ के राजा धीरज अपना राज भली-भांति चला रहे थे। प्रजा भी उनके शासन से खुश थी। अच्छे शासन के कारण उनकी प्रसिद्धि के चलते राजा धीरज के अनेक शत्रु भी हो गए। एक रात उन शत्रुओं ने गहरी साजिश रच कर राजदरबार के पहरेदारों को अपनी ओर मिला लिया और महल में जाकर राजा को दवा सुंघा कर बेहोश कर दिया। उसके बाद उन्होंने राजा के हाथ-पांव बांधकर एक गुफा में ले जाकर बंद कर दिया। राजा को होश आया, तो वह अपनी दशा देखकर घबरा उठा। तभी उसे अपनी मां का बताया हुए एक मंत्र - ‘कुछ कर, कुछ कर, कुछ कर’ याद आ गया। राजा की निराशा दूर हो गई और उसने शक्ति लगाकर हाथ-पैरों का बंधन तोड़ डाला। तभी अंधेरे में उसका पैर सांप पर पड़ गया, जिसने उसे काट लिया। राजा घबराया, किंतु फिर तत्काल ही उसे वही मंत्र - ‘कुछ कर, कुछ कर, कुछ कर’ याद आ गया। उसने तत्काल कमर से कटार निकाल कर सांप के काटे स्थान को चीर दिया। खून की धारा बहने से वह फिर घबरा उठा, लेकिन फिर उसी मंत्र की प्रेरणा पाकर कपड़ा फाड़कर घाव पर पट्टी बांध ली, जिससे रक्त बहना बंद हो गया। इतनी बाधाएं पार कर लेने के बाद उसे उस अंधेरी गुफा से निकलने की चिंता होने लगी। साथ ही भूख-प्यास भी व्याकुल कर रही थी। निकलने का कोई उपाय न देख वह सोचने लगा कि अब तो यहीं भूख-प्यास से तड़प-तड़प कर मरना होगा। वह उदास होकर बैठा ही था कि फिर उसे मां का बताया हुआ मंत्र याद आ गया और वह द्वार के पास आकर गुफा के मुंह पर लगे पत्थर को धक्का देने लगा। लगातार जोर लगाने पर अंत में पत्थर लुढ़क गया और राजा गुफा से निकल कर अपने महल में वापस आ गया। जिस समय उसकी मां ने उसे वह मंत्र दिया था, उस समय उसे वह बड़ा अजीब और बेकार लगा था, लेकिन उसी ने उसकी जान बचाई। वह समझ गया कि कभी भी निराश होकर बैठने के बजाय अपने पुरुषार्थ से संकट का हल निकालना चाहिए।

Dark Saint Alaick
03-09-2012, 04:37 AM
हर तर्क को गौर से सुनें

जीवन आसान नहीं है। मुश्किलें भी आएंगी। कई बार यह तय करना मुश्किल होता है कि आप सही हैं या नहीं। संदेह होता है कि कहीं आपका फैसला गलत न हो जाए। आपकी दूसरी बड़ी जिम्मेदारी यह सुनिश्चित करना है कि आप जो कर रहे हैं, वह सही है या नहीं। जब कोई फैसला करें, तो उन लोगों से जरूर बात करें, जो आपसे असहमत हैं। जो आपकी हां में हां मिलाते हैं, सिर्फ उनकी सुनने से बात नहीं बनेगी। आप उनके भी तर्क सुनें, जो आपके फैसले से सहमत नहीं हैं। इस बारे में बिल्कुल स्पष्ट और निष्पक्ष रवैया होना चाहिए। अगर लगे कि सामने वाला शख्स सही बोल रहा है, तो उसकी जरूर सुनें। लचीला रुख आपको सही फैसला लेने में मदद करता है। यह कभी न भूलें कि आपकी शिक्षा और आपकी तरक्की में आपके माता-पिता, परिवार और दोस्तों का सहयोग भी शामिल है। उन्होंने किसी न किसी रूप में आपकी मदद जरूर की है। यह बात आपको समझनी होगी। आप इसे नजरअंदाज नहीं कर सकते। करियर में जब आप कोई बड़ा लक्ष्य हासिल करते हैं, तो यकीनन उसमें आपकी टीम, आपके सहकर्मियों का योगदान शामिल होता है। आपके साथ ही वे भी बधाई के पात्र हैं। सफलता मिलने पर टीम को श्रेय देना न भूलें। यकीन मानिए, जब दूसरों को श्रेय देते हैं, तो वे इससे प्रोत्साहित होते हैं। यह प्रोत्साहन बहुत जरूरी है भविष्य में आगे और बड़े लक्ष्य हासिल करने के लिए। आपको दूसरों के योगदान और उनकी अहमियत को महत्व देना चाहिए। यह नजरिया आपको नई ऊंचाइयों तक ले जाएगा। उन लोगों का पूरा ध्यान रखें, जिन्होंने हालात बदलने के लिए कड़ी मेहनत की, क्योंकि उनके मन में भविष्य को लेकर सकारात्मक नजरिया था। तमाम दिक्कतों के बावजूद उन्होंने उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा। उन्होंने आपके साथ कदम से कदम मिला कर काम किया। इसलिए बहुत जरूरी है कि आप ऐसे लोगों को ज्यादा से ज्यादा प्रोत्साहित करें।

Dark Saint Alaick
03-09-2012, 04:40 AM
ईश्वर खोलता है दरवाजा

हेलेन केलर जब केवल डेढ़ साल की थीं, तभी वह तेज बुखार से पीड़ित हो गईं। इससे उनके देखने, सुनने और बोलने की शक्ति चली गई। घर के सभी सदस्य उनकी बदकिस्मती पर आंसू बहाने लगे। जब वह कुछ बड़ी हुईं, तो उनकी मां ने उन्हें अनेक चिकित्सकों को दिखाया, लेकिन कहीं पर भी उनका इलाज नहीं हो पाया। तभी उन्हें एक कुशल अध्यापिका एनी सुलिवान मिलीं। एनी सुलिवान स्वयं कुछ सालों तक दृष्टिहीन रह चुकी थीं। डॉ. एनेग्नास ने उनकी आंखों के नौ आपरेशन कर उन्हें आंखों की रोशनी प्रदान की थी। उसके बाद एनी सुलिवान नेत्रहीन बच्चों को पढ़ाने लगी थीं। सुलिवान हेलेन को उनके माता-पिता से कुछ समय के लिए दूर ले गईं और वहां पर उन्होंने हेलेन को समझाया कि जीवन में मनुष्य जो पाना चाहता है, उसके लिए उसे सही तरीके से परिश्रम करना पड़ता है। कुछ दिनों के बाद हेलेन में सीखने की ललक के साथ-साथ काम करने का उत्साह भी पैदा होता गया और सुलिवान के अथक प्रयासों से हेलेन अंग्रेजी, लैटिन, ग्रीक, फ्रेंच और जर्मन भाषाओं की जानकार बन गईं। इसके बाद हेलेन में लिखने की लालसा जागी और उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखीं। आज उनकी विश्वप्रसिद्ध कृतियां, 'मेरा धर्म' और 'मेरी जीवन कहानी' अनेक भटके हुए लोगों को राह दिखाती हैं। उन्होंने ब्रेल लिपि में अनेक ग्रंथ लिखे और कई प्रसिद्ध कृतियों को ब्रेल लिपि में प्रकाशित करवाया। वह पूरे विश्व के सामने एक अद्भुत एवं महान महिला बनकर उभरीं, जिन्होंने अपनी किस्मत पर आंसू बहाने के बजाय मेहनत और लगन से अपने जीवन को संवारा। उनका कहना था कि ईश्वर एक दरवाजा बंद करता है, तो दूसरा खोल देता है, पर हम उस बंद दरवाजे की ओर टकटकी लगाए बैठे रहते हैं। दूसरे खुले दरवाजे की ओर हमारी दृष्टि ही नहीं जाती। हेलेन की उपलब्धियों ने यह सिद्ध कर दिया था कि शारीरिक अपंगता व्यक्ति के विकास में बाधक नहीं होती। वह उससे पार पा सकता है।

Dark Saint Alaick
15-09-2012, 08:28 PM
पहले खुद में बदलाव लाएं

हममें से ज्यादातर लोग व्यवस्था को बदलने का आग्रह करते हैं। ऐसे लोगों को अपने जीवन में कभी समाधान प्राप्त नहीं हो सकता। समाधान पाने के लिए खुद में बदलाव लाना जरूरी है। आज पहले की अपेक्षा सुविधावाद अधिक बढ़ गया है। पुराने जमाने में जो साधन-सामग्री सिर्फ राजाओं-महाराजाओं के लिए हुआ करती थी वह आज साधारण जन के लिए भी आसानी से उपलब्ध है। फिर भी हर व्यक्ति तनावग्रस्त है। उसके सामने विविध प्रकार की समस्याएं हैं। आज कठिनाइयों के रूप बदल गए हैं। लेकिन जीवन के साथ उनका अटूट सम्बंध है। जहां जीवन है वहां समस्याएं और कठिनाइयां भी हैं। जो परिस्थितिवादी होता है वह स्वयं के सुधार और बदलाव पर ध्यान नहीं दे कर सिर्फ परिस्थितियों को ही दोष देता है। मसलन,एक भोली महिला ने एक दिन दर्पण में अपना चेहरा देखा। वह बहुत क्रोधित हुई। उसने उस दर्पण को बाहर फेंक दिया। उसने तीन-चार बार ऐसा किया। पास ही एक और महिला खड़ी थी। उसने कहा, यदि आपके पास दर्पण अधिक हों तो मुझे दे दो। पहली महिला ने कहा इन्हें लेकर क्या करोगी? इनमें खराब प्रतिबिंब दिखता है। यह सुनकर दूसरी महिला ने पहली महिला की ओर देखा। फिर बोली, बहन! एक बार मेरा कहना मान कर आप अपने चेहरे की सफाई कर लो। पहली महिला भोली थी पर जिद्दी नहीं थी। उसने उसके सुझाव के अनुसार पानी से अपना चेहरा अच्छी तरह से धोया। फिर जब दर्पण देखा तो प्रसन्न हो गई। बोली, यह दर्पण अच्छा है। इसमें चेहरा साफ दिखता है। इसे मैं अपने पास रखूंगी। तब उस समझदार महिला ने कहा, दर्पण पर दोष लगाना ठीक नहीं है। पहले आपके चेहरे पर धब्बे लगे थे। चेहरे की सफाई करने से आपका प्रतिबिंब सुंदर दिखाई देने लगा। याने मनुष्य खुद के भीतर देख ले और समस्या को समझ जाए तो जीवन में कोई कठिनाई ही नहीं रहेगी लेकिन आज हम इस विचारधारा से दूर होकर केवल व्यवस्था से नाराज हो जाते हैं जो उचित नहीं है।

Dark Saint Alaick
15-09-2012, 08:29 PM
जिन्दगी का कड़वा सच

एक शहर में भिखारी था। भीख मांगते-मांगते उसने न जाने कितने वर्ष गुजार दिए यह कोई भी नहीं जानता था। दरअसल उस शहर में उसका कोई अपना सगा-सम्बंधी या रिश्तेदार नही रहता था, इसलिए वह मजबूरी में सड़क किनारे बैठा या पड़ा रहता था और आते जाते लोगों से भीख मांगता रहता था। बढ़ती उम्र के कारण वह न ठीक से कोई चीज खा पाता था और न पी पाता था। इस वजह से उसका बूढ़ा शरीर धीरे -धीरे सूखकर कांटा हो गया था। उसके शरीर की एक-एक आसानी से हड्डी गिनी जा सकती थी। उसकी आंखों की ज्योति भी काफी धुंधली हो गई थी। शारीरिक दर्बलता के चलते उसे कोढ़ हो गया था। ऐसे में रास्ते के एक ओर बैठकर गिड़गिड़ाते हुए भीख मांगा करता था। एक युवक उस रास्ते से रोज निकलता था और उसकी नजर रोज ही उस भिखारी पर पड़ती थी । भिखारी को देखकर उसे बड़ा बुरा लगता और उसका मन बहुत ही दुखी हो जाता था। वह सोचता था कि आखिर यह आदमी क्यों भीख मांगता है? आखिर उसे जीने से उसे मोह क्यों है? भगवान उसे उठा क्यों नहीं लेते? एक दिन उससे न रहा गया। वह भिखारी के पास पहुंच गया और बोला-बाबा,तुम्हारी ऐसी हालत हो गई है फिर भी तुम जीना चाहते हो? तुम भीख मांगते हो पर ईश्वर से यह प्रार्थना क्यों नहीं करते कि वह तुम्हें अपने पास बुला ले? भिखारी ने युवक को देखा और बोला -भैया तुम जो कह रहे हो वही बात मेरे मन में भी उठती है। मैं भगवान से बराबर प्रार्थना करता हूं पर क्या करूं वह मेरी सुनता ही नहीं। शायद वह चाहता है कि मैं इस धरती पर रहूं जिससे दुनिया के अन्य लोग मुझे देखें और समझें कि एक दिन मैं भी उनकी ही तरह था, लेकिन वह दिन भी आ सकता है, जबकि वे मेरी तरह हो सकते हैं। इसलिए किसी को घमंड नहीं करना चाहिए। लड़का भिखारी की ओर देखता रह गया। उसने जो कहा था, उसमें कितनी बड़ी सच्चाई समाई हुई थी। यह जिंदगी का एक कड़वा सच था, जिसे मानने वाले प्रभु की सीख भी मानते हैं।

Dark Saint Alaick
16-09-2012, 03:43 PM
हीनता की ग्रंथि को तोड़ना ही होगा

जब तक मनुष्य अपने जीवन में आत्मविश्वास की ज्योति नहीं जलाता, तब तक उसकी शक्तियां मूर्च्छित और सुप्त ही रहती हैं। आत्मविश्वास के अभाव में वह अपनी पहचान करने में असमर्थ होता है। कहा जाता है कि ज्ञान का सागर विशाल है, पर जब तक मनुष्य अपने स्वरूप को नहीं पहचानेगा और आत्मविश्वास पैदा नहीं करेगा, ज्ञान के सभी पक्ष अधूरे हैं। उसके अभाव में मनुष्य सम्राट होकर भी स्वयं को भिखारी के समान समझता है या इसका उलटा भी हो सकता है। आइंस्टीन आरंभ में अन्य विद्यार्थियों की तुलना में मंदबुद्धि समझे जाते थे। वे अपने शिक्षकों के सवालों के ठीक - ठीक उत्तर नहीं दे पाते थे। इसके लिए उनके सहपाठी उनकी पीठ पर मूर्ख और बुद्धू जैसे उपहासास्पद शब्द लिख देते थे, पर आइंस्टीन कभी हीनता की भावना का शिकार नहीं हुए। बाद में वे महान वैज्ञानिक के रूप में सारे विश्व में प्रसिद्ध हुए। व्यक्ति और परिस्थिति का गहरा सम्बंध है। जिसे जीवन में अनुकूल स्थितियां प्राप्त होती हैं, वह बड़ी सहजता से विकास कर सकता है। प्रतिकूल परिवेश में सफलता पाना किसी के लिए भी कठिन होता है, लेकिन असंभव हरगिज़ नहीं होता। ऐसी स्थिति में जीवन का संघर्ष बढ़ जाता है, लेकिन विपरीत परिस्थिति में भी दीनता से मुक्ति पाना जरूरी है। दीनता और हीनता की ग्रंथि कारागार के बंधन के समान है। उसे तोड़े बिना विकास का कोई भी सपना साकार नहीं हो सकता। जिस प्रकार अभिमान करना पाप है, उसी प्रकार स्वयं को दीन - हीन समझना भी पाप है। इससे सहज विकास का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। हम अपने मनोबल से धीरे - धीरे परिस्थितियों को बदल सकते हैं। एक बार एक सिंह शावक परिवार से बिछुड़ गया और सियारों के समूह में मिल गया। वह खुद को उन्हीं का बच्चा समझने लगा। एक दिन जंगल में उसे किसी सिंह के दहाड़ने की आवाज सुनाई दी। इससे उसका सोया हुआ सिंहत्व जाग गया। उसने भी जोर से दहाड़ मारी। सारे सियार भाग खड़े हुए अर्थात मनोबल और आत्मविश्वास सब कुछ बदल सकता है।

Dark Saint Alaick
16-09-2012, 03:46 PM
अंतरात्मा की आवाज

विश्वविख्यात वैज्ञानिक सीवी रमन रंगून में ब्रिटिश सरकार की नौकरी में थे। वह लेखपाल के पद पर काम कर रहे थे। रमन बहुत ही स्वाभिमानी थे। उनमें देशभक्ति की भावना भी कूट-कूट कर भरी हुई थी। यदि उनका अंग्रेज अधिकारी कोई भी ऐसा आदेश देता, जो उनकी दृष्टि में अथवा सामान्य रूप से अनुचित होता था, तो वह नि:संकोच उसे मानने से इंकार कर देते थे और उसके नुकसान की परवाह भी नहीं करते थे। उन्होंने तय कर रखा था कि जीवन में वह एक सीमा से ज्यादा समझौता किसी भी हालत में नहीं करेंगे। एक दिन एक अंग्रेज अधिकारी ने उन्हें अपने कमरे में बुलाया और कहा - एक बौद्ध नागरिक की भूमि को एक अंग्रेज के नाम करना है। तुम इसके लिए आवश्यक दस्तावेज बनवा दो और जल्दी से उन्हें मेरे सामने लेकर आओ। यह सुनकर रमन घबराए नहीं और निर्भीकता से बोले - सर, मैं भगवान श्रीकृष्ण तथा उनकी गीता का उपासक हूं। किसी की खून पसीने से अर्जित की गई कमाई अथवा उसकी जायज जमीन को धोखाधड़ी से मैं किसी दूसरे के नाम करके अधर्म नहीं करना चाहता। मेरी नजर में यह पाप है। मैं किसी भी हालत में ऐसा नहीं कर सकूंगा। अच्छा है कि आप भी इस पापकर्म को न करें। यह अधर्म है। यह सुनकर अंग्रेज अधिकारी को बेहद गुस्सा आ गया और वह तमतमाकर बोला - नौकरी के अंतर्गत अधिकारी की आज्ञा मानना तुम्हारा धर्म है। इस पर रमन बोले - सर, यदि अधिकारी कोई गलत कार्य अथवा पाप कर्म करने को कहे तो उसकी अवहेलना करना भी मेरा धर्म है। मैं अपना धर्म निभा रहा हूं। रमन की बात पर अधिकारी ने कहा - यदि तुम्हें नौकरी करनी है, तो जो मैं कहूंगा, तुम्हें वही करना पड़ेगा। तुम्हें मेरी बात माननी होगी। रमन ने आत्म विश्वास से कहा - मैं तुम्हारी बात नहीं अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनूंगा और ईमानदारी का साथ दूंगा। इसके बाद उन्होंने तत्काल अपना त्यागपत्र अंग्रेज अधिकारी को सौंप दिया। अंग्रेज अधिकारी एक सच्चे भारतीय की निष्पक्षता और सत्य के प्रति निष्ठा देखकर दंग रह गया।

Dark Saint Alaick
28-09-2012, 11:58 PM
लिंकन का उदार व्यवहार

अपने शानदार स्वभाव और व्यवहार के कारण राष्ट्रपति बनने से पहले ही अब्राहम लिंकन पूरे अमेरिका में लोकप्रिय हो गए थे। वे जहां भी जाते थे, लोगों का मन जीत लेते थे। स्वभाव और व्यवहार का असर उनकी वाणी में भी था। वे बेहतर वक्ता थे और अपनी बात को पूरे तर्क के साथ पेश करते थे। शायह ही कभी ऐसा हुआ होगा जब लोगों ने उनकी बातों पर गौर ना किया हो। अच्छा वक्ता होने के कारण उनको व्याख्यान के लिए देश की विभिन्न जगहों से निमंत्रण मिलते रहते थे। वे सभी जगहों पर जाते थे और अपने भाषणो से लोगों की जमकर वाहवाही लूटा करते थे। एक बार वे एक बड़े शहर में व्याख्यान के लिए पहुंचे। चूंकि लिंकन व्याख्यान देने वाले थे इसलिए सभागार भी खचाखच भरा था। संयोग से श्रोताओं के बीच लिंकन के गांव का एक गरीब किसान भी बैठा था। सभा समाप्त होते ही किसान मंच पर जा चढ़ा। सभागार के लोग उसे आश्चर्य से देखने लगे। उसने मंच पर पहुंचकर लिंकन के कंधे पर हाथ रखा और कहा-अरे अब्राहम, तू तो बड़ा आदमी बन गया रे। तुम्हें सुनने को तो पूरा शहर ही उमड़ पड़ा है। शाबाश,तूने तो पूरे गांव का नाम रोशन कर दिया। तभी आयोजकों की नजर उस किसान पर पड़ी। वे समझ नहीं पाए कि यह कौन है और कैसे मंच पर चढ़ गया। वे उसे मंच से उतारने के लिए आगे बढ़े। तभी लिंकन ने किसान का हाथ अपने हाथ में लेकर कहा - अरे, आप यहां। ये तो मेरा सौभाग्य है कि आप मेरा व्याख्यान सुनने आए। और गांव में सब ठीक है न? फिर लिंकन उसे एक कोने में ले गए और उससे अपने गांव के लोगों के बारे में पूछने लगे। लिंकन से मिलने की चाह रखने वाले लोग इंतजार करते रहे। किसान ने लौटते हुए कहा-मुझे जो सम्मान दिया है वह मेरे लिए जीवन की अनमोल निधि बन गया है। फिर लिंकन उसे बाहर तक छोड़ने आए। लोगों ने लिंकन की सहजता और उदारता की प्रशंसा की।

Dark Saint Alaick
28-09-2012, 11:59 PM
कई रूपों में जीते हैं हम

दरअसल हमें पता ही नहीं लगता लेकिन हम एक साथ कई रूपों में जीते हैं। लेकिन आपको यह भी पता होना चाहिए कि अपना जीवन सिर्फ हम ही नहीं जीते, दूसरे लोग भी हमारा जीवन किसी ना किसी रूप में जी रहे होते हैं। यानी जो हमें जानते हैं या जो हमसे किसी न किसी रूप में जुड़े हैं अपने मन में हमारी एक छवि बनाए रखते हैं। अब यह छवि कैसी है और कैसी नहीं इसका पता हमको नहीं होता। हमारी बातों को,हमारे व्यवहार-आचरण को वे अपने तरीके और अपनी सोच के आधार पर दर्ज करते चलते हैं और हमारे व्यक्तित्व में कई तरह के रंग भी भरते हैं। याने वे हमें अपने मन व दिमाग के सांचे में अपनी विचारधारा के आधार पर ढाले रहते हैं। ऐसे में एक दिन हम चौंक जाते हैं यह जानकर कि अमुक व्यक्ति तो हमारे बारे में ऐसा सोचता है,वैसा सोचता है। कई बार हमे यह सुखद भी लगता है और कई बार हमे यह कम या ज्यादा अप्रिय भी लगता है। पर इसमें हम कुछ नहीं कर सकते। यह हमारे वश में है ही नहीं। दूसरों को अपनी एक खास छवि बनाने से रोकना आसान ही नहीं नामुमकिन भी होता है। हां,अगर हम थोड़े भी सतर्क या जागरुक रहें तो इतना तो संभव है कि हम अपने बेहद करीबी लोगों के प्रति अपने आचरण में कुछ ना कुछ बदलाव ला सकते हैं। पर इसके बावजूद हमारे जीवन को मनमाने रंग में रंगने की उनकी स्वतंत्रता हम नहीं छीन सकते। हम उन्हे यह कह कर नहीं टोक सकते कि आप मेरे बारे में ऐसे विचार क्यों रखते हैं या आप मेरे बारे में ऐसा क्यों सोचते हैं। यह उनकी आजादी है कि वे आपके बारे में कोई भी विचारधारा रख सकते हैं और इस आजादी पर आप लगाम लगाना चाहें भी तो नहीं लगा सकते। ठीक वैसे ही जैसे हमारी आजादी कोई नहीं छीन सकता। यह भी तय है कि जिस प्रकार अन्य लोग हमारे बारे में छवि बनाते हैं,हम भी अपने भीतर दूसरों की एक खास छवि बनाए रखते हैं। इस तरह देखा जाए तो हर कोई एक-दूसरे का जीवन जी रहा होता है।

Dark Saint Alaick
01-10-2012, 02:07 PM
विपरीत स्वभाव को स्वीकारें

यह तो मानव का स्वभाव है कि हर आदमी दूसरों से कुछ ना कुछ अपेक्षाएं जरूर रखता है। चाहे वह समाज हो या फिर परिवार। वह चाहता है कि लोग उससे एक खास तरह से मिलें, बोलें। उसकी इच्छा रहती है कि लोग उसे तरजीह दें और उसकी बातों को गैर से सुने। अधिकांशतया ऐेसा भी होता है कि इंसान दूसरों में भी अपना ही अक्स खोजता रहता है। यानी वह दूसरों को अपने जैसा ही देखना चाहता है। और जैसा व्यवहार वह खुद करता है वैसा ही दूसरों से भी उम्मीद करता है। अगर अगला वैसा नहीं करता तो उसे अटपटा लगता है। उसे यह लगता है कि मैं तो इसके बारे में सकारात्मक सोच रखता हूं लेकिन सामने वाला मेरे प्रति अलग या गलत धारणा क्यों रखता है। ऐसे में वह इसमे ही उलझ कर रह जाता है। यह मनुष्य की बेहद विचित्र प्रवृत्ति है कि वह सबको एक ही रंग में देखता है और एक ही रंग में देखते ही रहना भी चाहता है। इंसान का सामाजिक होने का अर्थ है अलग-अलग रंगों को स्वीकार करना और उनसे तालमेल बनाना। हम अपने विपरीत स्वभाव को कितना स्वीकार कर पाते हैं, उससे कितना तालमेल बैठा पाते हैं इससे ही हमारी सामाजिकता तय होती है। कहा भी जाता है कि राजनीति में वही कामयाब हो सकता है जो विपरीत गुण वाले ज्यादा लोगों को साथ लेकर चल सके। वह जितने लोगों को साथ लेता जाएगा,उसकी लोकप्रियता भी उतनी ही बढ़þती चली जाएगी। इस लोकप्रियता या कामयाबी के लिए उसे अपने अहं का त्याग जरूर करना पड़ेगा। इसलिए संतों ने भी अहं के त्याग की बात कही, खुद को भुलाने की बात कही। कामयाबी का यह सबसे बड़ा मूल मंत्र भी माना जा सकता है। अगर हमारे मन में अपनी कोई छवि ही नहीं होगी तो हम दूसरों को भी किसी सांचे में ढालने की कोशिश नहीं करेंगे। हम कतई नहीं चाहेंगे कि कोई हमारी गलत छवि बनाकर रखे। तय है इस तरह किसी की उम्मीद नहीं टूटेगी और विरोधी विचारों का भी आदर होगा।

Dark Saint Alaick
01-10-2012, 02:08 PM
एक वैज्ञानिक की शादी

प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रोफेसर लुई पाश्चर को दुनिया रेबीज टीके के आविष्कारक के रूप में जानती है। काम के प्रति उनकी दीवानगी का यह आलम था कि वह खाना-पीना और सोना तक छोड़ देते थे। जब भी वे अपने काम में व्यस्त होते थे तो उन्हे ना समय का भान रहता और ना दिन रात का। प्रोफेसर पाश्चर की युवावस्था की एक घटना है। वह एक विश्व विद्यालय के वाइस चांसलर की बेटी से प्रेम करते थे और उससे विवाह करना चाहते थे। जब लड़की के माता-पिता तक बात गई तो उन्होंने इस विवाह के लिए स्वीकृति प्रदान कर दी। विवाह का स्थान, दिन व समय तय कर दिया गया। पाश्चर बड़े प्रसन्न थे क्योंकि उनका विवाह उनकी इच्छा अनुसार लड़की से हो रहा था। लेकिन जिस दिन विवाह समारोह आरंभ हुआ, पाश्चर नहीं पहुंचे। सभी उनके बारे में पूछने लगे और और उनकी तलाश शुरू की गई। उनके सभी परिजन, मित्र और लड़की के परिवार वाले आश्चर्यचकित थे। एक मित्र ने ढूंढा तो वह प्रयोगशाला में मिले। वह किसी प्रयोग में व्यस्त थे। मित्र बोला-यार,हद हो गई। आज तुम्हारा विवाह है,चर्च में तुम्हारी प्रतीक्षा हो रही है। बंद करो अपना यह प्रयोग। यह तो बाद में भी हो जाएगा। पाश्चर ने अपनी तल्लीनता में उसकी ओर देखे बिना कहा-जरा रुको। कई वर्षों से मैं जो प्रयोग कर रहा था उसके परिणाम अब निकल रहे हैं। ऐसा न हो कि मेरी वर्षों की मेहनत बेकार हो जाए। महान कार्य यूं ही पूरे नहीं हो जाते। उन्हें पूर्ण करने के लिए अपनी हार्दिक इच्छाओं को भी परे करना होता है। पाश्चर की बात सुनकर उनका मित्र उनके समीप खड़ा होकर उनके प्रयोग के समाप्त होने की प्रतीक्षा करने लगा। पाश्चर अपना प्रयोग पूरा करने के बाद ही चर्च के लिए रवाना हुए और फिर उनका विवाह धूमधाम से संपन्न हुआ। बाद में जब मेहमानों को पाश्चर के दोस्त ने सब कुछ बताया तो वे दंग रह गए। सबने काम के प्रति उनकी लगन की प्रशंसा की।

Dark Saint Alaick
05-10-2012, 08:39 AM
असमानता खत्म करनी होगी

बिल क्लिंटन की गिनती अमेरिका में सबसे लोकप्रिय अमेरिकी राष्ट्रपतियों में होती है। राष्ट्रपति पद से मुक्त होने के बाद क्लिंटन अपने फाउंडेशन के जरिये दुनिया के कई देशों में शिक्षा व स्वास्थ्य के क्षेत्र में महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं। एक भाषण में क्लिंटन ने दुनिया में व्याप्त सामाजिक और आर्थिक असमानता पर चिंता जताते हुए उम्मीद जताई कि सकारात्मक पहल के जरिये असमानता को खत्म किया जा सकता है। वाकई में दुनिया में बड़े पैमाने पर असमानता है। आधी से ज्यादा आबादी को प्रतिदिन पचास रूपए से कम में गुजारा करना पड़ता है। करीब एक अरब लोगों को पीने का साफ पानी नहीं मिलता,ढाई अरब को शौचालय उपलब्ध नहीं, एक अरब लोग रोजाना भूखे पेट सो जाते हैं, हर चार में एक व्यक्ति की मौत एड्स, टीबी, मलेरिया या गंदे पानी की वजह से होने वाली बीमारियों से हो जाती है। सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि इस तरह मरने वालों में 80 फीसदी पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चे होते हैं। गैर बराबरी की त्रासदी सिर्फ गरीब देशों तक सीमित नहीं है। अमीर देशों के भीतर भी असमानता की खाई बढ़ रही है। मसलन अमेरिका में वर्ष 2001 के बाद विकास दर में बढ़ोतरी तो हुई लेकिन मध्यवर्ग का वेतन स्थिर रहा। इस वजह से नौकरी-पेशा परिवारों की संख्या में गिरावट दर्ज की गई। नतीजा यह हुआ कि गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की तादाद में चार प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। ऐसे नौकरी-पेशा परिवार जिन्हें स्वास्थ सेवाएं प्राप्त नहीं हैं उनकी संख्या में चार प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई। असमानता के साथ ही अस्थिरता भी एक बड़ी समस्या है। दुनिया अस्थिरता के गंभीर दौर से गुजर रही है। आतंकवाद बड़ी समस्या बनकर उभरा है। आज हमारे सामने वैश्विक बीमारियों का खतरा है जो पहले नहीं था। पर्यावरण असंतुलन भी एक बड़ा संकट है। कुल मिलाकर हमें प्रयास करना होगा कि असमानता, आतंकवाद और असंतुलन समाप्त हो।

Dark Saint Alaick
05-10-2012, 08:40 AM
सीखने का सिलसिला

यूनानी दार्शनिक अफलातून हर विषय के जानकार थे। किसी भी विषय पर उनसे बात की जाती तो वे उसका जवाब देने या हल जरूर करने की कोशिश करते थे। अफलातून के पास आए दिन अनेक विद्वानों का जमावड़ा लगा ही रहता था। सभी उनसे कुछ न कुछ ज्ञान प्राप्त करने के लिए पहुंचते थे और अपनी जिज्ञासा शांत करके ही जाया करते थे। लेकिन स्वयं अफलातून की यह आदत थी कि अपने को कभी भी ज्ञानी नहीं मानते थे और हर दिन कुछ नया सीखने में ही लगे रहते थे। कई बार तो वह छोटे-छोटे बच्चों व युवाओं के बीच भी पहुंच जाते थे और उनसे भी कुछ नया सीखने का प्रयास करते रहते थे। एक दिन उनके एक परम मित्र उनके पास आए और उन्होने कहा-महोदय,आपके पास दुनिया के बड़े-बड़े विद्वान कुछ न कुछ सीखने और जानने आते हैं और आपसे बातें करके अपना जन्म धन्य समझते हैं। किंतु आपकी एक बात आज तक मेरी समझ में नहीं आई है। मित्र की बात पर अफलातून बोले- कहो मित्र अब तुम्हें किस बात पर शंका पैदा हो गई है? इस पर मित्र बोला- आप स्वयं इतने बड़े दार्शनिक और विद्वान हैं कि बड़े बड़े ज्ञानी भी आपके पास कुछ ना कुछ ज्ञान लेने के इरादे से आते रहते हैं लेकिन फिर भी आप दूसरे से शिक्षा ग्रहण करने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं और वह भी बड़े उत्साह के साथ। उससे भी बड़ी बात यह है कि आपको साधारण व्यक्ति से सीखने में भी झिझक नहीं होती। आपको सीखने की क्या जरूरत है? मित्र की बात पर अफलातून पहले तो देर तक हंसते रहे फिर उन्होंने कहा- हर किसी के पास कुछ न कुछ ऐसी चीज है जो दूसरों के पास नहीं। इसलिए हर किसी को हर किसी से सीखना चाहिए। ज्ञान अनंत है। इसकी सीमा नहीं है। जब तक दूसरों से सीखने में शर्म नहीं आएगी मैं सीखता रहूंगा। अफलातून की बातें सुन उनका मित्र उनके सामने नतमस्तक हो गया।

Dark Saint Alaick
17-10-2012, 09:59 PM
नम्रता से परास्त होता है क्रोध

अक्सर कहा जाता है कि क्षमा ही सच्चे समाजवाद की आधारशिला है। यह वास्तव में सौ फीसदी सही बात है। क्षमावणी पर्व हमें सहनशीलता से रहने की प्रेरणा देता है। पहली बात तो यह है कि हमें क्रोध को उत्पन्न ही नहीं होने देना चाहिए और अगर क्रोध उत्पन्न हो भी जाए तो हमारा प्रयास होना चाहिए कि हम उसे अपने विवेक-नम्रता से विफल कर दें। जाने-अनजाने में हुई गलतियों के लिए स्वयं को क्षमा करना और दूसरों के प्रति भी उसी भाव को रखना ही सच्ची मानवता है। क्षमा न तो कोई विचार है और न ही यह शास्त्रों से मिलती है। क्षमा अंतरंग और आचार की वस्तु है और आत्मा का स्वाभाविक गुण है। जैसे पानी-पानी कहने से ही किसी की प्यास नहीं बुझ सकती वैसे ही मात्र हाथ जोड़ कर माफी मांगता हूं् और माफ करना कहने से ही क्षमा धर्म का निर्वहन नहीं होता। यदि वास्तव में क्षमा धर्म धारण करना है तो जिन्हें हमने अपने व्यवहार से दुख पहुंचाया है,कटु वचन से तड़पाया है,धन और बल के अभिमान में छोटेपन का अहसास कराया है या जिनके आत्म-सम्मान को ठेस पहुंचाई है उन सभी का उपचार करना होगा। हमें उन सम्बंधों को फिर से जोड़ना है जो हमारे अहंकार से टूट गए हैं। उन बिछुड़ों का पुन: मेल कराना है जो हमारे कारण रूठ गए हैं। उन नयनों की वेदना हरनी है जिनमें हमारे व्यवहार के कारण कभी नीर भरा है। जब यह सब हम मन,वचन एवं काया से पूर्ण निर्मल भाव सहित करके क्षमा बोलेंगे तो अंतर से निकली हुई वो उत्तम क्षमा अपनी पराई सब पीर हर लेगी। अगर हम यह कुछ न कर सकें तो क्षमा मांगना वैसा ही है जैसे आप भीड़ भरे चौराहे पर गाली देकर सूनी गली में अकेले में सॉरी कह दें। हमें दूसरों की भावनाओं की भी कद्र करना आना चाहिए। जब तक हममे यह भावना नहीं आएगी हम किसी को भी क्षमा करने की हालत में नहीं होगें क्योंकि केवल दिखावे के लिए सॉरी बोल देने का कोई मतलब नहीं होता।

Dark Saint Alaick
17-10-2012, 10:00 PM
दया ने बनाया बादशाह

अरब देश में सुबुक्तीन नामक एक बादशाह राज्य करता था । युवावस्था में वह उसी राज्य के राजा की सेना में एक सिपाही था। बचपन से ही उसे शिकार का बहुत शौक था। शिकार में वह काफी माहिर भी था। उसका निशाना इतना अचूक होता था कि कोई भी शिकार उसके वार से बच ही नहीं पाता था। वैसे तो वह सेना के काम में दिन भर व्यस्त ही रहता था लेकिन जब भी समय मिलता वह शिकार के लिए निकल पड़ता था। एक दिन वह समय निकाल कर शिकार के लिए जंगल की तरफ निकल पड़ा। शिकार की खोज में उसने पूरा जंगल छान मारा लेकिन उस दिन उसको कोई जानवर ही नहीं मिला। वह बहुत देर तक जंगल में भटकता रहा। सुबह से शाम होने को आई किन्तु उसे कुछ भी हाथ न लगा। निराश होकर वह वापस लौट रहा था तो उसने देखा कि एक हिरनी अपने छोटे से बच्चे के पास खड़ी होकर उसे प्यार कर रही है । सुबुक्तीन के मन में विचार आया कि खाली हाथ लौटने से तो अच्छा है कि कुछ ही हाथ लग जाए इसलिए क्यों ना इसी जानवर का शिकार कर लिया जाए। वह शिकार के इरादे से घोड़े से उतर गया। हिरनी आहट सुनकर झाड़ियों में छिप गई परन्तु बच्चा इतना छोटा था कि वह फुर्ती नहीं दिखा पाया। सुबुक्तीन ने उस बच्चे को पकड़ लिया और उसे बांधकर घोड़े पर रख लिया और चल पड़ा। ममता के कारण हिरनी घोड़े के पीछे पीछे चलने लगी। बहुत दूर जाने के बाद सुबुक्तीन ने पीछे मुड़कर देखा तो हिरनी भी आ रही थी। उसे हिरनी पर दया आ गयी और उसने बच्चे को छोड़ दिया। बच्चा पाकर हिरनी बहुत प्रसन्न हुई । उस रात सुबुक्तीन ने स्वप्न में देखा एक देवदूत उसे कह रहा है कि तूने आज एक असहाय पशु पर दया की है इसलिये खुदा ने तेरा नाम बादशाहों की सूची में लिख दिया है । तू अवश्य एक दिन बादशाह बनेगा । उसका सपना सच हो गया वह उन्नति करता हुआ सैनिक से बादशाह बन गया ।

Dark Saint Alaick
28-10-2012, 01:24 AM
व्यापारी ने खोली आंखें

तपस्वी जाजलि श्रद्धापूर्वक वानप्रस्थ धर्म का पालन करने के बाद खडे होकर कठोर तपस्या करने लगे। उन्हें गतिहीन देखकर पक्षियों ने उन्हें वृक्ष समझ लिया और उनकी जटाओं में घोंसले बनाकर अंडे दे दिए। अंडे बढेþ और फूटे। उनसे बच्चे निकले। बच्चे बड़े हुए और उड़ने भी लगे। एक बार जब बच्चे उड़कर पूरे एक महीने तक अपने घोंसले में नहीं लौटे तब जाजलि हिले। वह अपनी तपस्या पर आश्चर्य करने लगे और अपने को सिद्ध समझने लगे। उसी समय आकाशवाणी हुई। जाजलि गर्व मत करो। काशी में रहने वाले व्यापारी तुलाधार के समान तुम धार्मिक नहीं हो। आकाशवाणी सुनकर जाजलि को आश्चर्य हुआ। वे उसी समय काशी चल पड़े। उन्होंने देखा कि तुलाधार तो एक अत्यंत साधारण दुकानदार हैं। अपनी दुकान पर बैठकर ग्राहकों को तौल-तौलकर सौदा दे रहे थे। जाजलि को तब और भी आश्चर्य हुआ जब तुलाधार ने उन्हें प्रणाम किया, उनकी तपस्या, उनके गर्व तथा आकाशवाणी की बात भी बता दी। जाजलि ने पूछा तुम्हें यह सब कैसे मालूम? तुलाधार ने विनम्रतापूर्वक कहा,सब प्रभु की कृपा है। मैं अपने कर्त्तव्य का सावधानी से पालन करता हूं। न मद्य बेचता हूं न और कोई निंदित पदार्थ। अपने ग्राहकों को मैं तौल में कभी ठगता नहीं। ग्राहक बूढ़ा हो या बच्चा मैं उसे उचित मूल्य पर उचित वस्तु ही देता हूं। किसी पदार्थ में दूसरा कोई दूषित पदार्थ नहीं मिलाता। ग्राहक की कठिनाई का लाभ उठाकर मैं अनुचित लाभ भी उससे नहीं लेता हूं। ग्राहक की सेवा मेरा कर्त्तव्य है। मैं राग-द्वेष और लोभ से दूर रहता हूं। यथाशक्ति दान करता हूं और अतिथियों की सेवा करता हूं। हिंसारहित कर्म ही मुझे प्रिय है। कामना का त्याग करके संतोषपूर्वक जीता हूं। जाजलि समझ गए कि आखिर क्यों उन्हें तुलाधार के पास भेजा गया। उन्होंने तुलाधार की बातों को अपने जीवन में उतारने का संकल्प किया।

Dark Saint Alaick
28-10-2012, 01:24 AM
विपरीत स्वभाव से सामना करें

हम इस बात के लिए परेशान रहते हैं कि अमुक व्यक्ति का स्वभाव ऐसा क्यों है या ऐसा क्यों नहीं है। इसकी एक वजह यह है कि हम सुविधा चाहते हैं यानी हमारी इच्छा रहती है कि हमें दूसरों के साथ सामंजस्य बिठाने में तकलीफ न हो हमारा तुरंत तालमेल हो जाए। विपरीत स्वभाव हमें चुनौती देता है। असुविधा पैदा करता है। हमें समझ में नहीं आता हम सामने वाले से किस तरह पेश आएं। थोड़ी देर के लिए सोचें कि अगर हरेक व्यक्ति एक ही स्वभाव का होता तो क्या होता? क्या दुनिया एकरस नहीं हो जाती? शायद तमाम चीजों का विकास एक ही दिशा में हुआ होता। विपरीत स्वभाव से सामना होने के कई लाभ हैं। हम मनुष्य जीवन के नए आयाम से परिचित होते हैं। वह नया आयाम अच्छा हो या बुरा,हम उससे निपटने के लिए अपने को तैयार करते हैं। इस तरह हमारा व्यक्तित्व एक नई दिशा की ओर बढ़ता है। सामाजिक जीवन में वे लोग ज्यादा सफल होते हैं जो विपरीत स्वभाव के लोगों को स्वीकार करने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। इसको एक उदाहरण से समझा जा सकता है। बिल्ली का एक छोटा बच्चा भी जानता है कि क्या चीज पास दिखे तो भाग जाना चाहिए और क्या नजर आए तो उसे दबोच लेना चाहिए। लेकिन हमारा बच्चा काफी बड़ा हो जाने के बाद भी ऐसी बुनियादी बातों में गलतियां कर बैठता है। ऐसा क्यों? सभी जीव अपने बच्चों को ऐसे कौशल सिखाते हैं जो उनके जिंदा रहने के लिए जरूरी हैं। अकेला इंसान ही है जो अपने बच्चों को नैतिकता सिखाता है। क्या अच्छा है,क्या बुरा है,क्या करना चाहिए,क्या नहीं करना चाहिए। हम अपने बच्चों को अपनी औकात भर अच्छा बनना सिखाते हैं लेकिन वास्तविक दुनिया का सामना होते ही उनकी अच्छाई उनकी दुश्मन बन जाती है। जिंदा रहने के लिए उन्हें बुराई से समझौता करना पड़ता है। ठीक है, हम उन्हें बुराई नहीं सिखा सकते लेकिन समय रहते इसकी पहचान तो करा सकते हैं।

rajnish manga
23-11-2012, 03:28 PM
अहंकार का भूत

छोटे भाई ने अपने हिस्से की जमीन में आम का बगीचा लगाया। उसकी देखभाल वह स्वयं करता था। जल्दी ही उसमें फल आने लगे। उस रास्ते से जो भी यात्री जाता, उसके फल पाकर प्रसन्न होता और छोटे भाई को दुआएं देता। बड़े भाई ने सोचा कि वह भी यदि ऐसा ही कोई बगीचा लगाए, तो फल खाकर लोग उसकी भी प्रशंसा करेंगे ----एक बगीचा लगवाया---
तभी एक संत उधर से गुजर रहे थे। उन्होंने कहा - "इनमें फल नहीं आएंगे, क्योंकि इन पर अहंकार के भूत की छाया पड़ी हुई है।" यह सुनकर बड़ा भाई शर्मिंदा हो गया।

आपकी डायरी के इस पन्ने को पढ़ कर मुझे ऑस्कर वाइल्ड की कहानी ”दी सेल्फिश जाएंट” को पढ़ने जैसा ही आनंद आया. इन पन्नों में जीवन में आगे बढ़ने के लिये व्यवहारिक मार्ग सुझाए गए हैं. समय का सदुपयोग, किये जाने वाले कामों को प्राथमिकता के आधार पर वर्गीकृत कैसे और क्यों किया जाये आदि के विषय में आपके विचार बाईबिल के समान हैं और हर व्यक्ति के लिये मददगार साबित हो सकते हैं.

Dark Saint Alaick
26-11-2012, 07:48 PM
तर्क-वितर्क में न उलझें

परमात्मा शांत स्वरूप हैं तो फिर इंसान के जीवन में अशांति कहां से आई? यह तो उसने अपने आप पैदा की है। शांति पाने के लिए भटकने की आवश्यकता नहीं है। जीवन से उन दोषों को दूर करो जिसने तुम्हें अशांत कर रखा है। और उन्हें तुम अच्छी तरह से जानते और पहचानते हो? उसके दूर होने पर फिर जीवन में शांति ही शेष बचेगी। उसके लिए फिर कहीं भटकने की आवश्यकता नहीं है। अशांत तो इंसान को उसके दोषों ने कर रखा है। उस पर दोषों को दूर करने के बजाए खोज रहे हैं शांति को। दूसरी चीज परमात्मा ने हमें जो यह जीवन दिया है उसे बेकार की उधेड़बुन में, तर्क-वितर्क में व्यर्थ न करें। इससे कुछ हासिल नहीं होगा। अनमोल समय और शक्ति का सदुपयोग करने पर आपके जीवन में आनंद बढ़ जाएगा। फिर किसी भी कार्य को करने में कठिनाई का सामना नहीं करना पडेþगा। कठिनाइयां आएंगी जरूर पर आपका विश्वास आपका रास्ता आसान कर देगा। लोभ इंसान को कहीं का नहीं छोड़ता। इसलिए इससे बचना चाहिए। इससे छुटकारा पाने का एक ही उपाय है कि अपने-पराए का भाव हृदय से निकाल कर जरूरतमंदों की सेवा करें। वैसे भी परमार्थ का भाव तो हम में कूट-कूट कर भरा है। अगर हम उसे भूल जाएंगे तो फिर यह सब कौन करेगा? हमारे महापुरुषों ने परमार्थ और इस देश के लिए अपना सब कुछ अर्पण कर दिया। खाओ पिओ और मौज करो यह हमारी संस्कृति ना तो पहले कभी थी और ना ही यह संस्कृति अभी है। बल, बुद्धि और विद्या आदि को दूसरे के हित में लगाना ही परमार्थ कहलाता है। इससे हमारी पहचान बनी है। यह शरीर भोग के लिए नहीं, दूसरों की सेवा के लिए है। मनुष्य को किसी से कुछ लेने की नहीं बल्कि देने की आदत डालनी चाहिए। लेना जड़ता है और देना चेतना है। सेवा करना मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। विपत्तियों से घबराएं नहीं। इससे प्रसन्नता बनी रहेगी और वह प्रसन्नता समस्याओं के समाधान की राह दिखाएगी।

Dark Saint Alaick
26-11-2012, 07:49 PM
पेड़ न काटने का संदेश

महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संत नामदेव केवल महाराष्ट्र ही नहीं पूरे देश में अपनी विद्वता के लिए पूजे जाते थे। वे दूसरों के प्रति हमेशा ही दया भाव रखते थे। इतना ही नहीं वे पेड़-पौधों के प्रति भी बेहद संवेदनशील रहते थे। संत नामदेव के बचपन की एक घटना है। एक दिन नामदेव जंगल से घर आए तो उनकी धोती पर खून लगा था। जब उनकी मां की नजर खून पर गई तो वे घबरा गईं। आखिर एक मां को अपने बच्चे के कपड़ों पर लगा खून कैसे विचलित नहीं कर सकता? मां तत्काल नामदेव के पास पहुंची और पूछा, नामू तेरी धोती में कितना खून लगा है। क्या हुआ कहीं गिर पड़ा था क्या? नामदेव ने उत्तर दिया, नहीं मां गिरा नहीं था। मैंने कुल्हाड़ी से स्वयं ही अपना पैर छीलकर देखा था। मां ने धोती उठाकर देखा कि पैर में एक जगह की चमड़ी छिली हुई है। इतना होने पर भी नामदेव ऐसे चल रहे थे मानो उन्हें कुछ हुआ ही न हो। नामदेव की मां ने यह देखकर पूछा, नामू तू बड़ा मूर्ख है। कोई अपने पैर पर भला कुल्हाड़ी चलाता हैं? पैर टूट जाए, लंगड़ा हो जाए, घाव पक जाए या सड़ जाए तो पैर कटवाने की नौबत आ जाएगी। मां की बात सुनकर नामदेव बोले, तब पेड़ को भी कुल्हाड़ी से चोट लगती होगी। उस दिन तेरे कहने से मैं पलाश के पेड़ पर कुल्हाड़ी चलाकर उसकी छाल उतार लाया था। मेरे मन में आया कि अपने पैर की छाल भी उतारकर देखूं। मुझे जैसी लगेगी, वैसी ही पेड़ को भी लगती होगी। नामदेव की बात सुनकर मां को रोना आ गया। वह बोली, नामू तेरे भीतर मनुष्य ही नहीं पेड़-पौधों को लेकर भी दया का भाव है। तू एक दिन जरूर महान साधु बनेगा। मुझे पता चल गया कि पेड़ों में भी मनुष्य के ही जैसा जीवन है। अपने चोट लगने पर जैसा कष्ट होता है, वैसा ही उनको भी होता है। अब ऐसा गलत काम कभी तुझसे नहीं कराऊंगी। नामदेव की मां ने फिर कभी नामदेव को पेड़ काटने के लिए नहीं कहा।

Dark Saint Alaick
01-12-2012, 10:46 PM
प्रतिशोध की भावना न रखें

जिस रोज अजमल कसाब को फांसी दी गई उस रोज कुछ इलाकों में दीवाली सा माहौल देखा गया। यह हमारे भीतर छुपी प्रतिशोध की भावना की अभिव्यक्ति थी जो एक आम प्रतिक्रिया है। सदियों से यह दुष्चक्र चला आ रहा है। अपराध और सजा। समाज में कहीं भी अपराध होता है तो सभी के मन में पहला भाव यही उठता है कि अपराधी को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए। फिल्मों में और टीवी सीरियलों में भी यही डायलॉग होता है। इससे एक मनोदशा बन गई है कि सजा देने से अपराध और अपराधी के प्रति हमारी जिम्मेदारी समाप्त हो गई और जो पीड़ित है उसे न्याय मिल गया। लेकिन क्या वाकई इस सजा से अपराध बंद होते हैं? क्या वह अपराधी आगे कभी अपराध नहीं करता? क्या इससे अन्य अपराधियों के अपराधों पर रोक लगती है। सच्चाई तो यह है कि अपराधियों की संख्या में इजाफा हो रहा है। अदालतों में क्रिमिनल केस के अंबार लगे हुए हैं। जेलों में अब और अपराधियों को रखने की जगह नहीं है। तब भी हम किसी नए तरीके से सोचने को तैयार नहीं हैं। ओशो ने इस स्थिति पर गहरा विचार किया है और उनकी सोच हमारी परंपरागत सोच से हटकर है। वे कहते हैं कि सजा देने की पूरी अवधारणा ही अमानवीय है। अपराधी को कारागृहों की बजाय मनोचिकित्सा के अस्पतालों की जरूरत है। एक तो अपराधी उसी समाज का एक हिस्सा है जिसमें हम जीते हैं। तो इस पर भी सोचना चाहिए कि यह समाज ऐसा क्यों है? इसे इतनी भारी संख्या में पुलिस, अदालत और वकीलों की जरूरत क्यों है? जिस समाज मे कारागृह छोटे पड़ रहे हैं,क्योंकि अपराधी बढ़ते जा रहे हैं,क्या उस समाज की मानसिक चिकित्सा करने की जरूरत नहीं है? ये अपराधी कहां से आते हैं? परिवार से। अगर फल जहरीला हुआ तो हम बीज की जांच करते हैं कि उसमें तो कोई खराबी नहीं है। फिर जब बच्चे हिंसक हो रहे हैं तो क्या मां-बाप की मानसिकता की जांच नहीं करनी चाहिए? इस पर गौर करना ही चाहिए।

Dark Saint Alaick
01-12-2012, 10:47 PM
मौन ही सवालों का जवाब

संत तिलोपा के बारे में कहा जाता था कि उनके पास हरेक प्रश्न का उत्तर है। जो भी पूछा जाए वह जवाब जरूर देते हैं। यह सुन मौलुक पुत्त नाम का दार्शनिक उनके पास अपने प्रश्नों का जवाब पाने के लिए आया। कुछ देर तो वह सकपकाया कि सवाल पूछे जाएं कि नहीं लेकिन बाद में हिम्मत जुटा कर उसने सवाल रखे। तिलोपा ने उसके सभी प्रश्नों को बड़े धीरज से सुना और बोले,क्या तुम सच ही उत्तर चाहते हो। लेकिन तुम्हें उनकी कीमत चुकानी होगी। मौलुक पुत्त सोचने लगा कि मैं बूढ़ा हो गया हूं। अब तक उत्तर भी बहुत मिले लेकिन कोई सही उत्तर नहीं मिल सका। हो सकता इनका उत्तर मुझे संतोष दे सके। यह सोचकर उसने कीमत चुकाने के लिए हामी भर दी। तिलोपा ने कहा,ठीक है। लोग प्रश्न पूछते हैं पर उनकी कीमत नहीं चुकाना चाहते। बहुत दिनों बाद आने वाले तुम ऐसे व्यक्ति हो जो कीमत चुकाने के लिए राजी हुए हो। अब मैं तुमको कीमत बताता हूं और वह यह है कि तुम्हें दो वर्ष तक मेरे पास चुप बैठना पड़ेगा। इस बीच तुम्हें बिल्कुल नहीं बोलना है चाहे कोई कष्ट हो या परेशानी अथवा कोई अन्य कारण। तुम्हें चुप रहना है। जब दो वर्ष बीत जाएंगे तो मैं तुमसे खुद ही कहूंगा कि अब जो भी पूछना हो मुझसे पूछ लो। मैं वादा करता हूं कि तुम्हें तुम्हारे सभी सवालों के सही जवाब दे दूंगा। विचित्र कीमत थी पर अन्य कोई उपाय भी तो न था। मौलुक पुत्त तैयार हो गया। वह दो साल तक संत तिलोपा के पास रुका रहा। दो वर्ष बीत गए तिलोपा भी भूले नहीं। तिथि और दिन सभी कुछ उन्होंने याद रखा। हालांकि मौलुक पुत्त तो सब भूल गया था क्योंकि जिसके विचार धीरे-धीरे शांत हो जाएं उसका समय का बोध भी खो जाता है। जब तिलोपा ने उससे सवाल पूछने के लिए कहा तो उसने सिर झुकाते हुए कहा,आप की कृपा से मैं अब जान गया हूं कि मन के मौन में सभी प्रश्नों के उत्तर हैं।

rajnish manga
03-12-2012, 09:55 PM
१. जीवन से उन दोषों को दूर करो जिनसे तुम्हें अशांति मिलती है ..... लोभ तथा खाओ, पियो और मौज करो की कृत्रिम संस्कृति को छोड़ कर और अपने पराये का भेद मिटाते हुये जरूरतमंदों की सेवा में अपने को अर्पित कर दो ....... परमार्थ में मन लगाओ. इससे हमें संतोष और शान्ति की प्राप्ति होगी.
२. संत नामदेव ने अपनी माता को किस भांति यह समझाना पड़ा कि पेड़ों में भी मनुष्यों की भांति जान होती है, काटने पर कष्ट होता है.
३. अपराधी आखिर बना कैसे? क्या कोई जन्मजात अपराधी होता है? सच्चाई यही है की परिस्थतियाँ इंसान को अपराधी बनाती हैं. अपराधी सजा का नहीं मनो चिकित्सा का हकदार है. इसके लिये उन हालात की जाँच होनी चाहिये जो उसे अपराध करने को प्रेरित करती हैं. फिर उसका विधिवत इलाज शुरू किया जाय. महात्मा गाँधी ने भी कहा था कि अपराध से घृणा करो अपराधी से नहीं. ओशो ने प्राचीन चीन की एक घटना सुनाते हुये बताया की एक चोर को चोरी की सजा देते वक्त उस धनाड्य व्यक्ति को भी सजा तजवीज़ की गयी जिसके यहाँ चोरी हुई थी. कारण यह कि धनी व्यक्ति ने इतनी सम्पदा एकत्र कर ली कि वो एक शरीफ व्यक्ति को चोरी के लिये उकसाने लगी.
४. संत तिलोपा ने सिध्द कर दिया कि मौन में असीम शक्ति है जिससे सभी शंकाओं का समाधान भलीभांति किया जा सकता है.

सेंट अलैक जी, आपकी डायरी में दर्ज हुये इन प्रसंगों में शाश्वत ज्ञान की मंदाकिनी निसृत हो रही है. मानवता के प्रति समर्पित आपके लेखन और करुणा को नमन.

Dark Saint Alaick
05-12-2012, 03:21 AM
आम के पेड़ पर ब्रह्मराक्षस

यह विवेकानंद के बचपन की घटना है। तब वह नरेन्द्र के नाम से जाने जाते थे। अक्सर वे अपने हम उम्र बच्चों के साथ खेला करते थे। एक बार वह बच्चों के साथ आम के बगीचे में खेल रहे थे। तभी बच्चों की नजर आम लगे एक पेड़ पर पड़ गई। बच्चे आम तोड़ने के लिए पेड़ पर चढ़ने के लिए दौड़ पड़े। तभी वहां उस बगीचे का रखवाला आ गया। उसने देखा कि अगर उसने बच्चों को नहीं रोका तो वे सारे आम तोड़ लेंगे। रखवाले के दिमाग में एक विचार आया। उसने वहां जमा बच्चों से कहा, तुममे से कोई भी उस पेड़ के पास न जाना क्योंकि उस पर ब्रह्मराक्षस रहता है जो आम तोड़ने वाले लड़कों को खा जाता है। इस पर नरेन्द्र्र ने पूछा, ब्रह्मराक्षस क्या होता है? रखवाले का उत्तर था कि किसी की असामयिक मृत्यु होने से वह राक्षस का रूप धारण कर लेता है और फिर वह अपना बदला लेता है। यह सुनकर बच्चे डरकर अपने घर की ओर भाग गए पर नरेन्द्र वहीं डटे रहे। नरेन्द्र ने रखवाले से पूछा कि क्या उसने ब्रह्मराक्षस को कभी अपनी आंखों से देखा है? रखवाले ने कहा, नहीं पर मैंने सुन रखा है। यह कहकर वह भी अपनी झोपड़ी में चला गया। सब बच्चे घर पहुंच गए पर नरेन्द्र नहीं पहुंचे। उनके परिवार वाले परेशान हो उठे। उन्होंने दूसरे बच्चों से उनके बारे में पूछा। तब वे बगीचे में आए और नरेन्द्र को आवाज लगाई। नरेन्द्र एक पेड़ पर बैठे थे। उन्होने कहा, मैं इस पेड़ पर हूं। मैं ब्रह्मराक्षस का इंतजार कर रहा हूं। मैं उसे देखना चाहता हूं और पूछना चाहता हूं कि वह मनुष्य को क्यों सताता और क्यों खाता है? इस पर नरेन्द्र के पिता ने कहा, बेटा ! ब्रह्मराक्षस जैसी कोई चीज नहीं होती। यह सब मनगढ़ंत बातें हैं। तुम्हें ऐसी बातों पर विश्वास नहीं करना चाहिए। धर्म में घुसे अंधविश्वास के प्रति विरोध का भाव उसी समय से नरेन्द्र के भीतर गहरा गया। आगे चलकर उन्होंने अंधविश्वास का प्रबल विरोध किया।

Dark Saint Alaick
05-12-2012, 03:22 AM
अपनी ताकत को पहचानें

हमारा सारा जोर इस बात पर रहता है कि हम जो कुछ भी करें, उसमें हमेशा आनंद या खुशी महसूस करें। आज के इस दौर में जब हम सब एक चूहा दौड़ में फंसे हुए हैं, क्या आनंदमय हो पाना संभव है? इंसान जो भी काम करता है उसमें उसे खुशी की ही तलाश रहती है। फिर चाहे वह चूहा दौड़ में शामिल हों या डायनासोर दौड़ में। आप उसे खुशी-खुशी क्यों नहीं पूरी कर सकते? अगर आपकी यह दौड़ लंबे समय तक चलने वाली है तो उतने सारे वर्षों तक क्या आप नाखुशी से दौड़ सकेंगे? लेकिन आप कहते हैं कि आप तभी खुश हो पाएंगे जब या तो यह दौड़ थम जाए या फिर आप इस दौड़ से बाहर हो जाएं। यह तो हमेशा दुख या पीड़ा में रहने की एक दलील है। आनंद यह नहीं है कि आप क्या करते हैं और क्या नहीं। असली आनंद वह है कि आप अपने भीतर से कैसे हैं? अगर आपका मन आपकी इच्छानुसार काम करता है,अगर आपका मन आपसे निर्देश लेता है तो निश्चय ही आप अपने मन को आनंदित ही रखेंगे। यहां सवाल आनंद या दुख का नहीं बल्कि इसका है कि आपका मन आपके नियंत्रण में है या नहीं? अगर आपका मन आपके नियंत्रण में है तो आप निश्चित रूप से अपने लिए आनंदमय वातावरण बनाएंगे। ऐसे ही अगर आपका मन आपके नियंत्रण में नहीं है तो वह बाहरी घटनाओं से प्रभावित होगा। और नतीजतन आप आनंद या सुख से वंचित हो जाएंगे। हालांकि बाहरी घटनाओं को आप एक सीमा तक ही नियंत्रित कर सकते हैं। भले ही आप किसी दौड़ में हों या न हों, बाहरी घटनाएं एक हद तक ही आप को प्रभावित कर सकती हैं। लेकिन आपकी अंदरूनी ताकत अगर बाहरी घटनाओं के प्रभाव के विरोध में खड़ी हो जाती हैं तो फिर शायद ही आप कोई आनंद प्राप्त कर पाएं। जिन्हें हम बाहरी कह रहे हैं, वे ऐसे लाखों तत्व हैं जिन पर हमारा नियंत्रण नहीं है। लेकिन आपके अंदर सिर्फ एक ही है और वह आप खुद हैं। इसलिए हमें हमारी अंदरूनी ताकत को पहचानना होगा।

Dark Saint Alaick
08-12-2012, 12:04 AM
अपना प्रभाव नहीं जानते

अपने पिता वेद व्यास की आज्ञा से शुकदेव आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए राजा जनक की मिथिला नगरी में जा पहुंचे। जनक की मिथिला नगरी वास्तव में बहुत ही आकर्षक थी। वहां उनके स्वागत के लिए अनेक लोग सजे हुए हाथी,घोडेþ व रथ के साथ खड़े थे लेकिन शुकदेव पर इनका कोई असर नहीं हुआ। वह इस चमक-दमक से अप्रभावित अपने में खोए रहे। महल के सामने ड्योढ़ी पर जब वे पहुंचे तो द्वारपालों ने उन्हें वहीं धूप में रोक दिया। शुकदेव वहीं धूप में खड़े हो गए। वे जरा भी परेशान या खिन्न नहीं हुए। चौथे दिन एक द्वारपाल ने उन्हें दूसरी ड्योढ़ी पर ठंडी छाया में पहुंचा दिया। वे वहीं बैठकर आत्मचिंतन करने लगे। इसके बाद एक मंत्री ने आकर उन्हें एक अत्यंत सुंदर वन में पहुंचा दिया। वहां नवयुवतियों ने उन्हें भोजन कराया और उसके बाद हंसती-गाती वन की शोभा दिखाने ले गईं। रात होने पर उन्होंने शुकदेव को आरामदेह बिछावन पर बिठा दिया। वे पैर धोकर रात के पहले भाग में ध्यान करने लगे, मध्य भाग में सोए और चौथे पहर में उठकर फिर ध्यान करने लगे। ध्यान के समय भी युवतियां उन्हें घेरकर बैठ गईं किन्तु उनके मन में कोई विकार पैदा नहीं हुआ। अगले दिन राजा जनक ने आकर उनकी पूजा की और ऊंचे आसन पर बैठाकर उनका सम्मान किया। फिर स्वयं आज्ञा लेकर धरती पर बैठ गए और उनसे बातचीत करने लगे। बातचीत के अंत में राजा जनक ने कहा,आप हर दृष्टि से परिपूर्ण हैं। आपने परम तत्व को प्राप्त कर लिया है और स्वंय से तटस्थ हो गए हैं। फिर भी यह आपका बड़प्पन है कि आप अपने ज्ञान में कमी मानते हैं। मेरे विचार में आपमें इतनी ही कमी है कि आप परमज्ञानी होकर भी अपना प्रभाव नहीं जानते। आप सुख-दुख की अनुभुति से ऊपर उठ चुके हैं। यह स्थिति आपको दिव्य शांति प्रदान करती है। राजा जनक के ऐसा कहने पर शुकदेव को अपने स्वरूप का ज्ञान हो गया।

Dark Saint Alaick
08-12-2012, 12:12 AM
कर्म ही श्रेष्ठ पुरस्कार

मन में कभी भी गलत भावना मत आने दीजिए। इससे आपके मन में सदा रहेगी एक रचनात्मक भावना। मैं ईश्वर की संतान हूं, मैं कभी अकेला नहीं हूं, मैं उस परमसत्ता का अभिन्न अंश हूं। तब क्या होगा? आपका मन बहुत शक्तिशाली हो जाएगा। बहुत मानसिक बल मिलेगा और आपकी साधना, जप और ध्यान के द्वारा वह मानसिक बल और भी मजबूत होता जाएगा। यही हुआ रचनात्मक प्रयास और इस तरह आपको अपने भीतर पाप बोध या हीनभावना का बोध आने नहीं देना चाहिए। मैं तो निरक्षर हूं, मैं तो मूर्ख हूं, इस तरह की हीनभावना मनुष्य को मानसिक रूप से कमजोर कर देती हैं। आप कुछ करना चाहते हैं और उस समय आपने कहा, मैं इसे करने का प्रयास करूंगा। आप यदि मन में इस तरह की शिथिलता को प्रश्रय देंगे, तो जीवन में कभी भी सफल नहीं हो सकेंगे। इसलिए यह नहीं कहें कि मैं चेष्टा करूंगा, बल्कि कहें, मैं निश्चय ही करूंगा। यदि आप कहें कि मैं चेष्टा करूंगा, तो उचित मान में पहुंचने के लिए अर्थात् यथार्थ मानसिकता तैयार होने में हजारों साल लग सकते हैं। इस मानसिकता से कभी प्रभावित नहीं होना चाहिए। मैं कोशिश करूंगा नहीं, मैं करूंगा। अभी इसी मुहूर्त से मैं काम शुरू कर दूंगा। एक आदर्श मनुष्य के लिए प्रत्येक मुहूर्त अति मूल्यवान है। जो कुछ करना चाहते हैं, उसी मुहूर्त में उसे शुरू कर दें। बुरा कर्म करने से रोकने के लिए कभी मन को पुरस्कार देने की बात नहीं सोचे। आपका कर्म ही आपका पुरस्कार हुआ। आपका कर्म ही आपका सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार है। अच्छा काम करेंगे, तो लोग आपको जीवन भर याद करेंगे, लेकिन यदि आपसे कोई एक भी गलत काम हो जाए, तो लोग टोकने से नहीं चूकते। बस, ठानना तो आपको ही है कि आप जो तय कर रहे हैं, उसे पूरा करने की लगन में जुट जाएं। आज का काम मैं आज ही निपटाऊंगा, इसी भावना से काम करें। काम हो जाएगा या काम कर लेंगे की भावना हमें हमारी मंजिल तक नहीं पहुंचने देती।

Triple-S HARYANVI
11-12-2012, 09:38 AM
ये पाठशाला तो वाकई में बहुत ही शिक्षा प्रद है

Dark Saint Alaick
14-12-2012, 12:03 AM
समझ की परीक्षा में पास

यूरोप के एक देश में वायरलेस बनाने वाली एक बड़ी कम्पनी में इंजीनियर के पद के लिए साक्षात्कार चल रहा था। सभी प्रत्याशी आरामदेह सोफों पर बैठे गपशप में लीन थे और इंतजार कर रहे थे कि कब उनकी बारी आएगी। इतने उम्मीदवारों में केवल एक उम्मीदवार अकेला एक कुर्सी पर निराश बैठा किसी गहरी सोच में डूबा था। डिग्रियां तो सब के पास समान ही थीं लेकिन उसके पास आकर्षक व्यक्तित्व न था। उसने अत्यंत साधारण कपड़े पहन रखे थे। देखने में भी वह किसी मामूली परिवार का ही लगता था। स्वाभाविक है बाकी लोग उसकी तरफ देख तक नहीं रहे थे। तभी लाउड स्पीकर पर खट-खट की आवाज आई। सबसे अलग-थलग बैठा वह प्रत्याशी उठा और सीधे इंटरव्यू वाले कमरे में चला गया। थोड़ी देर बाद वह मुस्कराता हुआ हाथ में नियुक्ति पत्र लिए कमरे से बाहर आया। उसके साथ कम्पनी का एक अधिकारी भी बाहर आया। अधिकारी ने घोषणा की कि इंटरव्यू पूरा हो गया है। एक ही पद था और उसके लिए उपयुक्त उम्मीदवार का चुनाव हो चुका है। यह सुन कर अन्य उम्मीदवार अवाक रह गए। सबने आपत्तियां उठाईं, भ्रष्टाचार के आरोप लगाए। उस अधिकारी ने कहा, आप लोगों ने लाउडस्पीकर पर आया संकेत नहीं सुना जबकि आप सभी वायरलेस के एग्जीक्यूटिव इंजीनियर के पद के लिए आए थे। इंटरव्यू बोर्ड ने सांकेतिक कोड वाली आवाज में संकेत दिया था कि हम ऐसे व्यक्ति को इस पद के लिए चाहते हैं जो पूरी तरह सावधान और सचेत है। जो इस संदेश को सुन कर सबसे पहले आएगा उसे नियुक्ति पत्र तैयार मिलेगा। इस नौजवान ने संकेत को सुना इसलिए हमने इसे नियुक्त कर लिया। हम आपकी इसी समझ की परीक्षा ले रहे थे। पर आप में से किसी और ने समझा ही नहीं। हम यही तो परख रहे थे कि कौन कितना सावधान और सतर्क है। यह सुनकर दूसरे प्रत्याशियों का मुंह लटक गया।

Dark Saint Alaick
14-12-2012, 12:06 AM
धन से नहीं मिलती है खुशी

हम पैसे या ताकत से खुशी नहीं खरीद सकते। जो जितना शक्तिशाली है, उसके अंदर उतनी ही ज्यादा चिंता और भय है। यह भय और चिंता ही हमारे दुखों की वजह है। मानसिक सुख आपकी शारीरिक पीड़ा को हल्का कर सकता है लेकिन भौतिक सुख आपकी मानसिक पीड़ा को कम नहीं कर सकता। तिब्बतियों के 14वें धर्मगुरु हैं दलाई लामा। लगभग पूरी दुनिया उन्हें किसी शासनाध्यक्ष की तरह ही सम्मान देती है। यह दलाई लामा की मेहनत ही है जिसने तिब्बत की आजादी के सवाल को कभी मरने नहीं दिया। आज नोबेल पुरस्कार विजेता दलाई लामा को मानवता का सबसे बड़ा हिमायती माना जाता है। आयरलैंड की लिमरिक यूनिवर्सिटी में भाषण देते हुए दलाई लामा ने कहा था कि कि दुनिया में शांति के लिए मानवीय मूल्यों को प्रोत्साहित करना होगा। दरअसल हम सब इंसान हैं। हम सब एक जैसे हैं, हमारी भावनाएं एक हैं, हमारे अहसास समान हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम किस धर्म के हैं, किस जाति के हैं और किस देश के हैं। पूरी दुनिया में मानवता एक है। आज हमारे बीच में जो भी समस्याएं हैं उनकी वजह यह है कि हम इंसानियत को भूल जाते हैं। हमें दूसरों को समझना होगा, उन्हें तवज्जो देनी होगी। आप चाहे जितने अमीर हों,चाहे जितने शक्तिशाली हों, आप इंसान ही रहेंगे। इंसानियत से ऊपर कुछ नहीं है। हम इंसानियत को नजरअंदाज नहीं कर सकते। ज्यादातर लोग ‘मैं’ और ‘मेरा’ के भ्रम में पड़े रहते हैं। पर कोई नहीं जानता कि ‘मैं’ क्या है? ‘मेरा’ से उनका क्या आशय है? कई बार हमारे अंदर मौजूद यह ‘मैं’ की भावना दर्द की वजह बन जाती है। अगर हम सब ‘मैं’ की बजाय एक-दूसरे के बारे में सोचें तो हमारे दुखों का अंत आसानी से हो जाएगा। ‘मैं’की भावना हमारे अंदर स्वार्थ की भावना पैदा करती है और हम दूसरों के दर्द को समझ नहीं पाते हैं। हमें अपने बारे में जरूर सोचना चाहिए पर दूसरों के बारे में भी विचार करना चाहिए।

Dark Saint Alaick
14-12-2012, 12:48 AM
संकल्प ले आया किनारे पर

ब्रिटेन में एक विख्यात लेखक हुए हैं मार्क रदरफोर्ड। मार्क को पढ़ने के लिए वहां के लोग काफी लालायित रहते थे। उनका लेखन ऐसा था कि सभी को काफी रुचिकर लगता था। सभी वर्गों के लोग उनके लिखे को पढ़ने में रुचि दिखाते थे। रदरफोर्ड के बचपन की घटना है। एक दिन वे समुद्र किनारे बैठे थे। दूर सागर में एक जहाज लंगर डाले खड़ा था। वह जहाज तक तैर कर जाने के लिए मचल उठे। मार्क तैरना तो जानते ही थे, इसलिए मन की इच्छा पूरी करने के लिए कूद पड़े समुद में और तैर कर जहाज तक पहुंच गए। मार्क ने तैरते-तैरते ही जहाज के कई चक्कर लगाए। उनका मन खुशी से झूम उठा। विजय की खुशी और सफलता से उनका आत्मविश्वास काफी बढ़ा हुआ था, लेकिन जैसे ही उन्होंने वापस लौटने के लिए किनारे की तरफ देखा, उन पर निराशा हावी होने लगी, क्योंकि किनारा बहुत दूर लगा। वास्तव में तैरते हुए वे बहुत अधिक दूर निकल आए थे। सफलता के बाद भी निराशा बढ़ रही थी, अपने ऊपर अविश्वास हो रहा था। जैसे-जैसे मार्क के मन में ऐसे विचार आते रहे, उनका शरीर वैसा ही शिथिल होने लगा। फुर्तीले नौजवान होने के बावजूद बिना डूबे ही डूबता सा महसूस करने लगे, लेकिन जैसे ही उन्होंने संयत होकर अपने विचारों को निराशा से आशा की तरफ मोड़ा, क्षण भर में ही चमत्कार सा होने लगा। वह अपने अंदर परिवर्तन अनुभव करने लगे। शरीर में एक नई शक्ति का संचार हुआ। वह तैरते हुए सोच रहे थे कि किनारे तक नहीं पहुंचने का मतलब है मर जाना और किनारे तक पहुंचने का प्रयास है, मरने से पहले का संघर्ष। इस सोच से जैसे उन्हें संजीवनी मिल गई। उन्होंने सोचा कि जब डूबना ही है, तो सफलता के लिए संघर्ष क्यों न करें। भय का स्थान विश्वास ने ले लिया। इसी संकल्प से तैरते हुए किनारे पहुंचने में सफल हुए। इस घटना ने उन्हें आगे भी काफी प्रेरित किया और इसी की वज़ह से वे अन्य अनेक के लिए प्रेरणा स्रोत भी बने।

Dark Saint Alaick
14-12-2012, 12:51 AM
विवेक नष्ट करती है ईर्ष्या

यदि हम अभावग्रस्त और अज्ञानी लोगों के बीच रहते हैं, तो इतना आप तय मानिए कि आप किसी भी तरह से सुरक्षित नहीं हो सकते। ऐसे समाज में अपनी समृद्धि का प्रदर्शन तो दूर, ऐसे लोगों के बीच सामान्य जीवन व्यतीत करना भी असंभव हो जाता है, क्योंकि अज्ञानी लोग न तो आपकी अहमियत को समझ पाते हैं और न ही आपके विवेक को पढ़ सकते हैं। यदि आपके मित्र और रिश्तेदार अच्छी हैसियत के मालिक हैं, तो आप जैसा सुखी इंसान और कोई नहीं हो सकता। वो आपको बेशक अपनी समृद्धि में शरीक न करें, लेकिन आपको कष्ट तो नहीं देंगे, क्योंकि उन्हें आपसे किसी तरह की परेशानी ही नहीं है। और जब कोई परेशानी ही नहीं रहेगी, तो फिर क्यों कोई ख्वाहमख्वाह आपको परेशान करेगा। यदि हम सकारात्मक सोच से भरे हुए हैं, तो हम उन लोगों से प्रेरणा और प्रोत्साहन लेकर स्वयं भी आगे बढ़ सकते हैं, जो खुद समृद्ध हैं। हमेशा यह देखने में आया है कि जो लोग दूसरों के सुख-समृद्धि में आनंद पाते हैं, वो लोग उन लोगों से बहुत अच्छे हैं, जो दूसरों की सुख-समृद्धि से ईर्ष्या करते हैं। ईर्ष्या हमारे विवेक को ऐसा नष्ट करती है कि हम स्वयं अपने उद्धार से भी विमुख होने लगते हैं। ईर्ष्या ऐसी चीज है, जो अपनी आंख गंवा कर भी दूसरे को अंधा बना देने में संतोष महसूस करती है। ईर्ष्या के कारण तो महाभारत जैसा युद्ध तक हो गया था। इसलिए कहा जाता है कि ईर्ष्या मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन होती है। ईर्ष्या के कारण मनुष्य अपना विकास तो रोक ही देता है, साथ ही वह उस शख्स की नजरों में भी गिर जाता है, जिससे वह ईर्ष्या करता है। हमारी हमेशा ही यह कोशिश होनी चाहिए कि हम किसी से कभी ईर्ष्या न करें। मतलब सीधी सी बात यही है कि यदि समाज में सुख-समृद्धि का स्तर बढ़ता है, तो सारा समाज लाभान्वित होता है और समाज लाभान्वित होता है, तो उसका असर देश पर पड़ता है। जब देश लाभान्वित होता है, तब हम स्वयं भी उस लाभ से वंचित नहीं रहते।

bindujain
22-12-2012, 08:04 PM
एसी पाठशालाओ की जरूरत है |
बिगडे न सुधर पाए तो कोई बात नहीं पर सुधरे हुए न बिगड़े यह भी जरूरी है

Dark Saint Alaick
02-01-2013, 03:15 AM
बादशाह के मन में चोर

एक बादशाह इत्र का बहुत शौकीन था। वह हर किस्म के इत्र अपने पास रखता था। दुनिया का कोई ऐेसा इत्र ऐसा नही था जो राजा के पास नहीं हो। लोगों को भी उसके इत्र के शौक के बारे में जानकारी थी इसलिए जब भी कोई उससे मिलने आता था तो उपहार में इत्र लेकर जाता था। उसके पास इत्र का इतना बड़ा भंडार हो गया कि पूरे महल में ही इत्र की खुश्बू फैली रहती थी। एक दिन राजा दरबारियों के साथ बैठा चर्चा में व्यस्त था और बीच-बीच में अपनी घनी दाढ़ी में इत्र भी लगा रहा था। अचानक इत्र की एक बूंद नीचे गिर गई। बादशाह ने चारों तरफ देखा और सबकी नजरें बचाकर उसे उठा लिया। लेकिन पैनी नजर वाले वजीर ने यह देख लिया। बादशाह ने भांप लिया कि वजीर ने उसे देख लिया है। दूसरे दिन जब दरबार लगा तो बादशाह एक मटका इत्र लेकर बैठ गया। वजीर सहित सभी दरबारियों की नजरें बादशाह पर गड़ी थीं। थोड़ी देर बाद जब बादशाह को लगा कि दरबारी चर्चा में व्यस्त हैं तो उसने इत्र से भरे मटके को ऐसे ढुलका दिया मानो वह अपने आप गिर गया हो। इत्र बहने लगा। बादशाह ने ऐसी मुद्रा बनाई जैसे उसे इत्र बह जाने की कोई परवाह न हो। इत्र बह रहा था। बादशाह अनदेखी किए जा रहा था। वजीर ने कहा, जहांपनाह, गुस्ताखी माफ हो। यह आप ठीक नहीं कर रहे हैं। जब इंसान के मन में चोर होता है तो वह ऐसे ही करता है। कल आपने जमीन से इत्र उठा लिया तो आपको लगा कि आपसे कोई गलती हो गई है। आपने सोचा कि आप तो शहंशाह हैं। आप जमीन से भला क्यों इत्र उठाएंगे, लेकिन वह गलती थी नहीं। एक इंसान होने के नाते आपका ऐसा करना स्वाभाविक था, लेकिन आपके भीतर शहंशाह होने का जो घमंड है उस कारण आप बेचैन हो गए और कल की बात की भरपाई के लिए बेवजह इत्र बर्बाद किए जा रहे हैं। सोचिए आपका घमंड आपसे क्या करवा रहा है। बादशाह लज्जित हो गया।

Dark Saint Alaick
02-01-2013, 03:17 AM
अनिवार्य है मन की साधना

जीवन में द्वन्द्व या शंका के कारण हमारे भीतर परस्पर विरोधी विचार उत्पन्न होते रहते हैं। विचार वास्तविकता का मूल है। पहले एक विचार ने स्वरूप ग्रहण करना प्रारंभ किया ही था कि दूसरे विचार ने दूसरा स्वरूप ग्रहण करना प्रारंभ कर दिया। उसने इस तरह पहले विचार को बरबाद कर दिया। इसी तरह बाद में दूसरे विचार को तीसरे ने और तीसरे विचार को चौथे ने धराशायी कर दिया। हर विचार, हर इच्छा अथवा हर संकल्प के साथ यही क्रम जीवन भर चलता रहता है। जीवन में सफलता हासिल करने के लिए इस निरर्थक और घातक क्रम को रोकना जरूरी है। जिस तरह से हम एक डॉक्टर या न्यूट्रीशियन से परामर्श करके उचित आहार-विहार का चार्ट बनाकर उसका पालन कर सकते हैं, ब्यूटी पार्लर में जाकर चेहरे तथा दूसरे अंगों का ट्रीटमेंट या स्थाई बदलाव के लिए कॉस्मेटिक सर्जरी करा सकते हैं और कपड़ों के चुनाव और डिजाइनिंग के लिए फैशन डिजाइनर की सेवाएं ले सकते हैं उसी प्रकार से विरोधी भावों के त्याग अथवा द्वन्द्व की समाप्ति की ट्रेनिंग लेना भी संभव है। जीवन में यही एक ऐसा क्षेत्र है जिसके प्रशिक्षण की बड़ी आवश्यकता है। लेकिन यही क्षेत्र अधिकाधिक उपेक्षित रहता है। विचारों का उद्गम मन है। अत: मन के उचित प्रशिक्षण द्वारा न केवल उपयोगी विचारों का बीजारोपण संभव है बल्कि साथ ही विचारों के विरोधी भावों का बीजारोपण रोकना भी संभव है। इसके लिए मन की साधना अनिवार्य है। मन की साधना अर्थात मन को विकारों से मुक्त कर उसमें उपयोगी विचार या सुविचार डाल कर उस छवि को निरंतर मजबूत करते जाना। ध्यान द्वारा अपेक्षित उपयोगी विचार, इच्छा अथवा संकल्प को कल्पना चित्र या विजुलाइजेशन द्वारा लगातार मजबूत करके वास्तविकता में परिवर्तित किया जा सकता है। पूरी ऊर्जा को एक केंद्र बिंदु पर एकाग्र करना ही ध्यान, मेडिटेशन अथवा द्वन्द्व का समापन है। सफलता का अंतिम पथ भी यही है।

Dark Saint Alaick
03-01-2013, 12:20 AM
दो कप चाय की जगह

दर्शन शास्त्र के एक अध्यापक जब भी कक्षा में जाते थे, पढ़ाने के लिए कोई सामान साथ ले जाते और उसी को आधार बना कर बच्चों को पढ़ाते थे। एक बार अध्यापक ने कांच का एक बड़ा सा जार मेज पर रखा और उसमें टेबल टेनिस की गेंदें तब तक डालते रहे जब तक कि उसमें एक भी गेंद के लिए जगह नहीं बची। फिर उन्होंने छात्रों से पूछा क्या जार पूरा भर गया? हां। आवाज आई। फिर अध्यापक ने छोटे कंकड़ जार में भरने शुरू किए। धीर-धीरे जार को हिलाया तो काफी सारे कंकड़ जहां जगह खाली थी, समा गए। फिर उन्होंने पूछा,क्या अब यह भर गया? छात्रों ने फिर हां कहा। अब अध्यापक ने जार में रेत डालना शुरू किया। रेत भी जहां संभव था बैठ गई। अध्यापक ने फिर पूछा क्यों अब तो यह जार पूरा भर गया ना? हां अब पूरी भर गया है। सभी ने कहा। अध्यापक ने टेबल के नीचे से चाय के दो प्याले निकाल कर उनमें से चाय निकाल जार में डाली। चाय भी रेत के बीच की जगह में सोख ली गई। अध्यापक ने कहा,हमारा जीवन भी इस जार के समान है। टेबल टेनिस की गेंदें सबसे महत्वपूर्ण अर्थात नैतिकता, शिक्षा, परिवार, मित्र, स्वास्थ्य का प्रतीक हैं। छोटे कंकड़ हमारी नौकरी, मकान और जीने के लिए जरूरी सामान आदि का रूप हैं। रेत का मतलब है छोटी-छोटी बातें, मनमुटाव झगड़े आदि। अब यदि हमने जार में सबसे पहले रेत भरी होती तो टेबल टेनिस की गेंदों और कंकड़ों के लिए जगह ही नहीं बचती या कंकड़ भर दिए होते तो गेंदें नहीं भर पाते। हां, रेत जरूर रह सकती थी। ऐसे ही यदि हम छोटी-छोटी बातें जीवन में भरते रहे तो अपनी ऊर्जा उसमें ही नष्ट कर देंगे। हमारे पास मुख्य बातों के लिए अधिक समय नहीं रहेगा। तभी एक छात्र ने पूछा,सर चाय के दो प्याले क्या हैं?अध्यापक हंस कर बोले,जीवन हमें कितना ही संतोषजनक लगे, लेकिन उसमें मित्रों के साथ दो कप चाय पीने की जगह हमेशा होनी चाहिए।

Dark Saint Alaick
03-01-2013, 12:21 AM
संतुलित ढंग से निभाएं कर्तव्य

बहुत से लोग सोचते हैं कि आध्यात्मिक साधना केवल संन्यासी लोग करेंगे। यह बात बिल्कुल गलत है। अध्यात्म मनुष्य को सहज और समरस बनाने का मार्ग है। यह हमें ईश्वर से जोड़ता है। इसके लिए तो कोई भी साधना कर सकता है। संन्यासी का एक ही कर्त्तव्य रहता है। लेकिन गृहस्थ के कर्त्तव्य दोहरे हो जाते हैं। उसे अपने परिवार का भी पालन करना होता है। स्त्री,पुत्र और परिजनों की देखभाल करनी होती है। उन्हें त्याग कर न संन्यासी ही बना जा सकता है और न अध्यात्म की साधना ही की जा सकती है। चुनौती छोड़ कर भागने वाला कायर बन सकता है, लेकिन भला आध्यात्मिक कैसे हो सकता है। गृहस्थ का दूसरा कर्त्तव्य यह है कि उसे दूसरों के कल्याण के लिए भी कुछ करना होता है। इस दूसरे कर्त्तव्य को खूब संभाल कर संतुलित ढंग से करना होता है। मान लो, कोई व्यक्ति महीने में दो हजार रुपए कमाता है। यदि उसमें से वह एक हजार नौ सौ रुपए दान कर दे तो उसके पास केवल सौ रुपये बचेंगे। तब तो उसके परिवार की बड़ी दुर्दशा हो जाएगी। हर बात का अभाव होगा और परिजनो से भयंकर लड़ाई होगी। पत्नी को घर-संसार संभालना पड़ता है, रसोई बनानी पड़ती है तो वह क्रोधित होगी। इसलिए आध्यात्मिक व्यक्ति को यह सोच कर चलना होगा कि कोई ऐसा काम न हो जिससे पत्नी को यातना से गुजरना पड़े। यह देख कर चलना होगा कि छोटे परिवार की भी देखभाल हो सके और बड़े परिवार के लिए भी थोड़ा-बहुत जो करणीय है, वह कर सके। दोनों ओर संतुलन बना कर चलना पड़ेगा। इसलिए गृहस्थ को आध्यात्मिक बनना है तो उसे अपने छोटे और बड़े संसार दोनों में एक संतुलन रखना होगा और उसको संभाल कर चलना पड़ेगा। यह संतुलन गृही का कर्त्तव्य है, संन्यासी का नहीं। संन्यासी के पास तो जो आता है उसे वह बड़ी आसानी से संसार के लिए दान कर देगा। लेकिन गृही तो ऐसा नहीं कर सकता। गृहस्थ और संन्यासी के जीवन के नियम अलग-अलग हैं।

Dark Saint Alaick
04-01-2013, 09:28 PM
विचारों में द्वन्द्व कभी न रखें

फिल्में तो हम सभी देखते हैं। यदि कभी हम फिल्मी कहानियों पर गौर करें तो पाएंगे कि कमोबेश हर फि ल्म में नायक-नायिका के अतिरिक्त एक खलनायक या एक खलनायिका भी कहानी में जरूर मौजूद रहते हैं। और फिर इन्हीं के प्रताप से कहानी आगे बढ़ती है। खलनायक और खलनायिका बाधा उत्पन्न करते रहते हैं और कहानी जितना चाहो आगे बढ़ती रहती है। जीवन में ऐसा नहीं होना चाहिए। जिस कहानी में खलनायक अथवा खलनायिका नहीं होते वहां अनेक विषम परिस्थितियां ही खलनायक की भूमिका का निर्वाह करते हुए कहानी के विस्तार में सहायक बनती हैं। जीवन के हर क्षेत्र में यही क्रम लागू होता है। जहां खलनायक अथवा खलनायिका का काम खत्म हुआ नायक-नायिका का मिलन हो जाता है। इसके साथ ही फिल्म की कहानी भी पूरी हो जाती है। फिल्मी कहानी में नायक-नायिका के मिलन में बाधा डालने वालों की तरह ही हमारे अनेक कार्यों अथवा संकल्पों की पूर्ति में भी एक ऐसा ही बाधक खलनायक होता है और वह है द्वन्द्व। हमारे संकल्पों के पूरा न होने का एक कारण तो यही है कि हम अपने संकल्प के प्रति आश्वस्त ही नहीं होते। यानी हमें विश्वास ही नहीं होता कि हमारा संकल्प पूरा हो जाएगा। और इस प्रकार हम एक संकल्प विरोधी बात सोच लेते हैं कि मेरे संकल्प कभी पूरे नहीं होते। असल में यह भी एक संकल्प है लेकिन एकदम नकारात्मक और अनुपयोगी। जिस प्रकार किसी कहानी के सृजन अथवा कथा के विस्तार के लिए द्वन्द्व जरूरी तत्व होता है उसी प्रकार से कार्यों की पूर्णता या संकल्प पूर्ति के लिए नकारात्मक और अनुपयोगी संकल्प अथवा विचारों में द्वन्द्व की समाप्ति उससे भी ज्यादा जरूरी है। द्वन्द्व की स्थिति में हमारे संकल्प की भावना पर बार-बार प्रहार होता है और मूल संकल्प कब और किस रूप में प्रभावी होकर वास्तविकता ग्रहण करता है हमें पता ही नहीं लग पाता। इसलिए कोशिश करें कि कभी द्वन्द्व की स्थिति ना बने।

Dark Saint Alaick
04-01-2013, 09:28 PM
सुखी और दुखी सन्त

एक आश्रम में दो संत रहते थे। दोनों नियमित सत्संग करते थे। हर समय ईश्वर की आराधना में ही लगे रहते थे। लेकिन फिर भी खास बात यह था कि दोनों में से एक संत हमेशा प्रसन्न रहते थे और दूसरे संत अत्यंत दुखी। इस कारण लोगों ने दोनों के नाम ही सुखी व दुखी संत रख दिया था। लोग इनके पास परामर्श लेने के लिए तो आते ही थे, साथ ही यह भी देखते थे कि एक जैसे ही कार्य करने के कारण भी दोनों में एक सुखी हैं और एक दुखी। दोनों ही लोगों की समस्याओं के समाधान भी बताते थे। हैरानी इस बात की थी कि दुखी संत के समाधान भी सही और प्रेरणादायक होते थे। दुखी संत अपने दुख का कारण जानना चाहते थे। यह जानने की इच्छा लिए वह सुखी संत के साथ अपने वयोवृद्ध गुरु के पास पहुंचे। दुखी संत बोले, गुरुजी मेरा नाम तो सात्विक था, लेकिन लोगों ने मेरे चेहरे पर दुख के भावों को देखकर मुझे दुखी संत की संज्ञा दे दी। इस पर सुखी संत बोल, मेरा नाम भी पहले सत्गुण था, लेकिन मेरे चेहरे पर प्रसन्नता के भावों को देखकर मुझे सुखी नाम दे दिया गया। दुखी संत बोले, हम दोनों की सभी गतिविधियां एक जैसी हैं लेकिन फिर भी मैं दुखी रहता हूं और सुखी खुश। भला ऐसा क्यों होता है? गुरु दोनों की बात सुनकर मुस्कराते हुए बोले, दुखी बेटा, दरअसल एक जैसे काम करते हुए भी सुख और दुख के भाव अलग-अलग हो सकते हैं। उसके पीछे कारण यह है कि जो व्यक्ति हमेशा हर समस्या और दुख का सामना शांत व निश्चल मन से करता है उसका मन प्रसन्न रहता है क्योंकि वह जानता है कि उसकी आंतरिक शक्तियां इतनी शक्तिशाली हैं कि कोई भी विकराल समस्या या दुख उनके आगे ठहर ही नहीं सकता। यही भावना उसे प्रसन्न रखती है। पर यदि व्यक्ति का आत्मविश्वास डगमगाने लगता है तो वह दुखी हो जाता है। आत्मविश्वास की मजबूत डोर ही व्यक्ति को हर परिस्थिति में सुखी बनाए रखती है। दुखी संत को बात समझ आ गई।

Dark Saint Alaick
08-01-2013, 12:03 AM
हर हाल में खुश रहें

हम आम लोगों में एक बहुत बड़ी कमजोरी होती है कि हम जिंदगी का कोई एक ही पहलू देखते हैं और दूसरे को नजरअंदाज कर देते हैं। जैसे सिक्के के दो पहलू होते हैं, इसी तरह जीवन के भी दो रूप हैं। यह हम पर निर्भर करता है कि हम इसके किस पहलू को देख कर जीना चाहते हैं। हर हाल में संतुष्ट और खुश रहना इस जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। जिस दिन जीवन की अनमोलता का बोध हो जाएगा,उस दिन हमें जिंदगी से असली प्यार होगा और हम सदा खुश रहना सीख जाएंगे क्योंकि आंतरिक खुशी किसी चीज की मोहताज नहीं होती। वह अपने आप से प्राप्त होती है। धन-वैभव जिंदगी को खुशनुमा नहीं बना सकते। ईश्वर का प्रेम हमें आनंद देता है और यह अंतर्मुख होने तथा पूर्ण समर्पण से संभव होता है। कबीर ने इसी के बारे में लिखा- चाह गई, चिंता गई, मनुवा बेपरवाह। जाको कछु ना चाहिए वो ही शहंशाह। ईश्वर निरंतर हमारे साथ ही होता है पर हम उसे भुलाए रहते हैं । ऐसा नहीं होना चाहिए। एक मजदूर से पूछें तो वह बताएगा जीवन का अनुभव कि भगवान की कृपा से पेट का गुजारा हो ही जाता है। और कभी-कभी इससे थोड़ा ज्यादा भी मिल जाता है। लेकिन यही बात किसी धनवान से पूछें तो वह मायूस होकर बोलेगा कि क्या करें? दिन भर कितने तरह की परेशानियां बनी रहती हैं। जीवन की शांति कहां गायब हो गई? वह यह नहीं समझ पाता कि शांति नहीं गायब हुई है, बल्कि वह खुद असंतोष से भर उठा है। तो मित्रो! जिंदगी जिंदादिली का नाम है। और इसे खुशनुमा बनाना हम पर निर्भर करता है। ईश्वर के प्रति समर्पण का भाव हमारे भीतर संतोष का गुण विकसित करता है। धूप-छांव की तरह सुख-दुख तो आने ही है, लेकिन दोनों ही स्थितियों में जीवन खुशनुमा रहे, इसके लिए जरूरी है कि हम अपने भीतर जिंदगी के प्रति खुशी और संतोष का भाव विकसित करें। तभी हम जिंदगी का सही महत्व जान सकेंगे और जब हम ऐसा करेंगे तभी हम खुश रह पाएंगे।

Dark Saint Alaick
08-01-2013, 12:04 AM
तराजू कहीं और से ले लो

एक बार एक आदमी को अपना सोना तोलना था। सोना तोलने के लिए वह घर से बाहर निकला और तलाश करने लगा कि आखिर तराजू उसे कहां मिलेगा। तभी उसे एक सुनार की दुकान दिखाई दी। वह सुनार के पास पहुंचा और उससे आग्रह किया कि वह कुछ देर के लिए उसका तराजू दे दे। सुनार ने एक बार तो उसकी तरफ देखा ही नहीं। उसे लगा कि वह आदमी केवल उसका समय खराब करने ही आया है। बाद में ना जाने क्या सोच कर उससे कहा, मियां, अपना रास्ता लो। मेरे पास छलनी नहीं है। उसने सुनार से कहा, मजाक मत करो भाई। मुझे छलनी नहीं, तराजू चाहिए। इस पर सुनार ने अजीब सा जवाब देते हुए कहा, मेरी दुकान में झाडू नहीं हैं। वह आदमी परेशान हो गया और बोला, मसखरी करना छोड़ो। मैं आपसे तराजू मांगने आया हूं वह दे दो और जान बूझकर बहरा बन कर ऊटपटांग बातें मत करो। इस पर सुनार पहले तो हंसा फिर बोला मित्र, मैंने तुम्हारी बात पहले ही सुन ली थी। तुमको यह बता दूं कि मैं बहरा नहीं हूं। तुम यह न समझो कि मैं गोलमाल कर रहा हूं। तुम बूढ़े आदमी सूखकर कांटा हो रहे हो। शरीर कांपता हैं। तुम्हारा सोना भी कुछ बुरादा है और कुछ चूरा है। इसलिए तौलते समय तुम्हारा हाथ कांपेगा और सोना गिर पड़ेगा तो तुम फिर आओगे कि जरा झाड़ू देना ताकि मैं सोना इकट्ठा कर लूं और जब बुहार कर मिट्टी और सोना इकट्ठा कर लोगे तो फिर कहोगे कि मुझे छलनी चाहिए ताकि खाक को छानकर सोना अलग कर सको। हमारी दुकान में छलनी कहां? मैंने पहले ही तुम्हारे काम के अन्तिम परिणाम को देखकर दूरदर्शिता से कहा था कि तुम कहीं दूसरी जगह से तराजू मांग लो। जो मनुष्य केवल काम के प्रारम्भ को देखता है वह अन्धा है। जो परिणाम को ध्यान में रखे वह बुद्धिमान है। जो मनुष्य आगे होने वाली बात को पहले ही से सोच लेता है उसे अन्त में लज्जित नहीं होना पड़ता।

rajnish manga
08-01-2013, 06:44 PM
विचारों में द्वन्द्व कभी न रखें
संकल्पों की पूर्ति में भी एक ऐसा ही बाधक खलनायक होता है और वह है द्वन्द्व। हमारे संकल्पों के पूरा न होने का एक कारण तो यही है कि हम अपने संकल्प के प्रति आश्वस्त ही नहीं होते। यानी हमें विश्वास ही नहीं होता कि हमारा संकल्प पूरा हो जाएगा ... द्वन्द्व की स्थिति में हमारे संकल्प की भावना पर बार-बार प्रहार होता है और मूल संकल्प कब और किस रूप में प्रभावी होकर वास्तविकता ग्रहण करता है हमें पता ही नहीं लग पाता। इसलिए कोशिश करें कि कभी द्वन्द्व की स्थिति ना बने।
:bravo:
अलैक जी, आपने बड़े रोचक अंदाज़ में उक्त सूत्र को समझाया है. दृढ़ निश्चय, लगन, लक्ष्य के प्रति एकाग्रता, शांत चित्त ये सब उद्देश्य प्राप्ति के आवश्यक उपादान है. महर्षि पतंजलि ने भी अपने ग्रन्थ योग दर्शन में (विभूतिपाद: ३/२४) एक बड़ा प्रभावी सूत्र दिया है:
बलेषु हस्तिबलादीनि II
बलेषु = (भिन्न भिन्न) बलों में (संयम करने से), हस्तिबलादीनि = हाथी आदि के बल के सदृश (संयम के अनुसार भिन्न भिन्न प्रकार के) बल प्राप्त होते हैं. अर्थात यदि कोई व्यक्ति हाथी के बल में संयम करता है तो उसे हाथी के बल के समान बल मिल जाता है.
इसी प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय का श्लोक भी दृष्टव्य है:
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन I
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् II (2/33)

भावार्थ: (हे अर्जुन! इस कर्मयोग में) निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है; किन्तु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनंत होती हैं.

Dark Saint Alaick
13-01-2013, 12:56 AM
:bravo:
अलैक जी, आपने बड़े रोचक अंदाज़ में उक्त सूत्र को समझाया है. दृढ़ निश्चय, लगन, लक्ष्य के प्रति एकाग्रता, शांत चित्त ये सब उद्देश्य प्राप्ति के आवश्यक उपादान है. महर्षि पतंजलि ने भी अपने ग्रन्थ योग दर्शन में (विभूतिपाद: ३/२४) एक बड़ा प्रभावी सूत्र दिया है:
बलेषु हस्तिबलादीनि II
बलेषु = (भिन्न भिन्न) बलों में (संयम करने से), हस्तिबलादीनि = हाथी आदि के बल के सदृश (संयम के अनुसार भिन्न भिन्न प्रकार के) बल प्राप्त होते हैं. अर्थात यदि कोई व्यक्ति हाथी के बल में संयम करता है तो उसे हाथी के बल के समान बल मिल जाता है.
इसी प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय का श्लोक भी दृष्टव्य है:
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन I
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् II (2/33)

भावार्थ: (हे अर्जुन! इस कर्मयोग में) निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है; किन्तु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्धियाँ निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनंत होती हैं.

सूत्र में आपके इस अनुपम योगदान के लिए मैं हृदय से आभारी हूं रजनीशजी। आपकी प्रतिक्रिया सदैव सूत्र के अधूरेपन को पूर्णता प्रदान करती है और मैं आपके इस सद्गुण का प्रशंसक हूं। धन्यवाद। :cheers:

Dark Saint Alaick
13-01-2013, 12:58 AM
रचनात्मकता को निखारें

हर इंसान में किसी न किसी तरह की रचनात्मकता जरूर होती है। आप यह कहकर चुप नहीं बैठ सकते कि मैं क्रिएटिव नहीं हूं। सॉफ्टवेयर इंजीनियर, बिजनेसमैन व सोशल साइट ट्विटर के सह-संस्थापक बिज स्टोन का उदाहरण सामने रख कर हम इसे और भी आसानी से समझ सकते हैं। बिज स्टोन हाई स्कूल पास करने के बाद न्यूयॉर्क की एक पब्लिशिंग कंपनी में काम करने लगे। उनका काम बॉक्स उठाकर रखना था। एक दिन जब स्टाफ के लोग लंच के लिए बाहर गए हुए थे, तब उन्होने एक किताब का कवर डिजाइन कर दिया और चुपके से उन कवर डिजाइन के बीच रख दिया जो संपादकीय टीम की मंजूरी के लिए जाने थे। आर्ट डायरेक्टर की उस कवर पर नजर पड़ी, तो उन्हें शक हुआ। उन्होंने स्टोन को बुलाकर पूछा कि इस कवर को किसने डिजाइन किया है? स्टोन ने बताया कि यह मैंने डिजाइन किया है। वह स्टोन की ओर पलटे और कहा, तुम्हारा डिजाइन चुन लिया गया है। उन्होंने स्टोन को कवर डिजाइनर की फुलटाइम नौकरी का आफर दिया। स्टोन इस बेहतरीन मौके को गंवाना नहीं चाहते थे। स्टोन ने कॉलेज छोड़ यह नौकरी करने का फैसला किया। स्टोन के आर्ट डायरेक्टर स्टोन से 30 साल बड़े थे। उनके साथ काम करके स्टोन को पता चला कि रचनात्मकता की कोई सीमा नहीं है। आप लगातार नए प्रयोग कर सकते हैं। प्रयोग करने की संभावनाएं असीमित हैं। हमें लगातार अपनी रचनात्मकता को निखारने की कोशिश करनी चाहिए ताकि हम और बेहतर कर सकें। इतना तो तय है कि हम जितना बेहतर करेंगे उसका फल भी हमे उतना ही बेहतर मिलेगा। बस जरूरत तो केवल इस बात की है कि हम जो भी काम करें पूरे मन से करें और उसमें अपनी पूरी रचनात्मकता झौंक दें। तय मानिए, जब हम कोई काम पूरे मनोयोग और रचनात्मकता के साथ करते हैं, तो हमें उसका परिणाम भी बेहतर ही मिलता है।

Dark Saint Alaick
13-01-2013, 01:01 AM
बुद्ध के प्रवचन का भाव

एक बार बुद्ध एक गांव में अपने किसान भक्त के यहां गए। शाम को किसान ने उनके प्रवचन का आयोजन किया। बुद्ध का प्रवचन सुनने के लिए गांव के सभी लोग उपस्थित थ लेकिन वह किसान भक्त ही कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। गांव के लोगों में कानाफूसी होने लगी कि कैसा भक्त है कि प्रवचन का आयोजन करके स्वयं गायब हो गया। प्रवचन खत्म होने के बाद सब लोग घर चले गए। रात में किसान घर लौटा। बुद्ध ने पूछा, तुम कहां चले गए थे? गांव के सभी लोग तुम्हें पूछ रहे थे। किसान ने कहा, दरअसल प्रवचन की सारी व्यवस्था हो गई थी, पर तभी अचानक मेरा बैल बीमार हो गया। पहले तो मैंने घरेलू उपचार करके उसे ठीक करने की कोशिश की, लेकिन जब उसकी तबीयत ज्यादा खराब होने लगी, तो मुझे उसे लेकर पशु चिकित्सक के पास जाना पड़ा। अगर नहीं ले जाता, तो वह नहीं बचता। आपका प्रवचन तो मैं बाद में भी सुन लूंगा। अगले दिन सुबह जब गांव वाले पुन: बुद्ध के पास आए, तो उन्होंने किसान की शिकायत करते हुए कहा, यह तो केवल आपका भक्त होने का दिखावा करता है। प्रवचन का आयोजन कर स्वयं ही गायब हो जाता है। बुद्ध ने उन्हें पूरी घटना सुनाई और फिर समझाया कि उसने प्रवचन सुनने की जगह कर्म को महत्व देकर यह सिद्ध कर दिया कि मेरी शिक्षा को उसने बिल्कुल ठीक ढंग से समझा है। उसे अब मेरे प्रवचन की आवश्यकता नहीं है। मैं यही तो समझाता हूं कि अपने विवेक और बुद्धि से सोचो कि कौन सा काम पहले किया जाना जरूरी है। यदि किसान बीमार बैल को छोड़ कर मेरा प्रवचन सुनने को प्राथमिकता देता, तो दवा के बगैर बैल के प्राण निकल जाते। उसके बाद मेरा प्रवचन देना ही व्यर्थ हो जाता। मेरे प्रवचन का सार यही है कि सब कुछ त्याग कर प्राणी मात्र की रक्षा करो। इस घटना से गांववालों ने भी उनके प्रवचन का भाव समझ लिया।

Dark Saint Alaick
16-01-2013, 03:07 AM
खुद को छोटा न समझें

हमारे अंदर परमात्मा छुपे हैं। अपने मन वाले तिल को पीस कर खली अलग कर दो तो तेल मिल जाएगा। तुम्हारे मन वाले दही का मंथन करो तो मट्ठा और मक्खन अलग हो जाएगा। मन वाली दरिया का बालू हटा दो तो पानी निकल आएगा। तुम्हारे मन में जो अपवित्रताएं हैं, जो पाप हैं, जो गुनाह हैं, जो संकीर्णताएं है, जो खुदपरस्ती हैं उन्हें हटा दो। परमपिता खुश हो जाएंगे। यह जो भक्तिमूलक साधना है जिसमें है मैं और मेरा ईश्वर। और मुझे चलना है परमपिता की ओर। यह जो उपासना है यही सही उपाय है और उसी को लेकर जो आगे चलते हैं वे परमपिता को अवश्य पाएंगे। यह काम कौन कर सकता है? जो बहादुर है, जो वीर है, जो संग्रामी है। यह बहादुरी का, वीरता का, संग्रामी का काम कौन कर सकता है? जो भक्त है वही कर सकता है। जो भक्त है वही हिम्मती है, वही बहादुर है। हिम्मत के साथ भक्ति का बहुत निकट संपर्क है। जो पापी है वही डरपोक है। तुम लोग साधक हो। तुम लोग भक्त बनो। अपनी भक्ति की बदौलत मन के मैल को हटा दो। परमपिता तुम्हारे हैं। तुम उनके बेटा हो, तुम उनकी बेटी हो, उनके पास पहुंचना तुम्हारा फर्ज है। थोड़ी चेष्टा करने से आसानी से पहुंच जाओगे। तुम्हारे लिए कोई बड़ी बात नहीं है। अपने पिता के पास पहुंचना तो स्वाभाविक है। अपने आप को कभी छोटा मत समझो, नीच मत समझो। और कोई नीच समझे मगर यह याद रखोगे कि परमपुरुष के पास तुम छोटे नहीं हो, नीच नहीं हो। तुम उनके बेटा-बेटी हो तो अपने आदर्श को सामने रखो। हिम्मत के साथ आगे बढ़ो, जय अवश्य ही होगी। लेकिन इस यात्रा में सिर्फ अपने बारे में न सोचो। उनके बारे में भी सोचो, जो पीछे छूट गए हैं। हो सके,तो उनकी मदद भी करो। कहा तो यही जाता है कि जो दूसरों की मदद करता है ईश्वर इनकी मदद जरूर करता है। मतलब खुद में इच्छा शक्ति हो तो इंसान कोई भी काम आसानी से कर सकता है। इसलिए जो भी करो पूरी लगन के साथ करो।

Dark Saint Alaick
16-01-2013, 03:07 AM
मुफ्त अनारों की कीमत

एक समय की बात है। एक शहर में एक धनी आदमी रहता था। उसकी लंबी-चौड़ी खेती-बाड़ी थी और उसके अलावा वह कई तरह के व्यापार करता था। बड़े विशाल क्षेत्र में उसके बगीचे फैले हुए थे जहां पर भांति-भांति के फल लगते थे। उसके कई बगीचों में अनार के पेड़ बहुतायत में थे जो दक्ष रखवालोंं की देख-रेख में दिन दूनी और रात चौगुनी गति से फल-फूल रहे थे। उस व्यक्ति के पास अपार संपदा थी किंतु उसका हृदय संकुचित न होकर अति विशाल था। वह दिल खोल कर अपना काम किया करता था। शिशिर ऋतु आते ही वह अनारों को चांदी के थालों में सजाकर अपने द्वार पर रख दिया करता था। उन थालों पर लिखा होता था,आप कम से कम एक अनार तो ले ही लें। मैं आपका स्वागत करता हूं।् लोग इधर-उधर से देखते हुए निकलते रहते थे किंतु कोई भी व्यक्ति फल को हाथ तक नहीं लगाता था। लोग ऐसा क्यों करते ते वह उसके कबी समझ में नहीं आता था। तब उस आदमी ने गंभीरतापूर्वक इस पर विचार किया और किसी निष्कर्ष पर पहुंचा। अगली शिशिर ऋतु में उसने अपने घर के द्वार पर उन चांदी के थालों में एक भी अनार नहीं रखा बल्कि उन थालों पर उसने बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा,हमारे पास अन्य सभी स्थानों से कहीं अच्छे अनार मिलेंगे, किंतु उनका मूल्य भी दूसरे के अनारों की अपेक्षा अधिक लगेगा। और तब उसने पाया कि न केवल पास-पड़ोस के, बल्कि दूरस्थ स्थानों के नागरिक भी उन अनारों को खरीदने के लिए टूट पड़े। कथा का संकेत यह है कि भावना से दी जाने वाली अच्छी वस्तुओं को हेय दृष्टि से देखने की मानसिकता गलत है। सभी सस्ती या नि:शुल्क वस्तुएं या सेवाएं निकृष्ट नहीं होतीं। वस्तुत: आवश्यकता वह दृष्टि विकसित करने की है जो भावना और व्यापार में फर्क कर सके और वस्तुओं की गुणवत्ता का ठीक-ठाक निर्धारण कर सके।

Dark Saint Alaick
24-01-2013, 01:45 PM
सोने की थाली और लोभ

एक बार भगवान बुद्ध एक व्यापारी के घर पैदा हुए। उसी नगर में सेरिव नाम का व्यापारी भी था। जब भगवान बुद्ध बड़े हुए तब उनके व्यापारी पिता ने सेरिव के साथ उन्हें व्यापार के लिए भेजा। सेरिव चतुर और कपटी व्यापारी था। बुद्ध दयालु और सरल हृदय थे। दोनों एक नगर में पहुंचे और फेरी लगाने लगे। एक सेठ परिवार के घर के सामने से सेरिव गुजरा। वह आवाज दे रहा था - मोती की माला ले लो। सेठ की बेटी ने मां से कहा, अगर तुम कहो तो हमारे पास पीतल की एक पुरानी थाली पड़ी है उसे बेचकर माला ले लूं। मां ने उसकी बात मान ली। सेठ की बेटी ने फेरीवाले को बुलाकर कहा,यह थाली ले लो और मुझे एक माला दे दो। सेरिव ने थाली देखी। थाली सोने की। सेरिव बोला,यह तो दो कोड़ी की है। इसमें माला क्या एक मोती भी नहीं मिल सकता। यह तो पीतल की है और वह थाली फेंककर चला गया। सेठ की बेटी निराश हो गई। थोड़ी देर बाद दूसरा फेरीवाला आया। उसने इसे भी थाली दिखाकर एक माला मांगी। यह फेरीवाला भगवान बुद्ध थे। उन्होंने देखकर कहा,यह तो सोने की है और इसका मूल्य बहुत है। मेरे पास तो पांच हजार मुद्रा है। सेठ की बेटी ने खुश होकर कहा ठीक है वही दे दो । बुद्ध ने पांच हजार मुद्रा और एक माला देकर वह थाली खरीद ली और चले गए। कुछ देर बाद सेरिव आया और बोला, लो उस बेकार थाली के बदले ही में एक माला दे दूं। सेठ की बेटी बोली, तुम झूठ बोलते हो। वह थाली सोने की थी। एक फेरीवाला आया था और वह पांच हजार मुद्राओं में खरीदकर ले गया। सेरिव बहुत दुखी हुआ। जब वह बुद्ध से मिला तब वह उसको देखते ही सारी बात समझ गए। उन्होंने कहा, तुम तो पुराने हो लेकिन इतनी सी बात भूल गए की लोभ करने और धोखा देने से व्यापार में बढ़ोतरी नहीं होती है। ईमानदारी से व्यापार करने वाले को ही सोने की थाली मिलती है।

Dark Saint Alaick
24-01-2013, 01:46 PM
पहले अपना लक्ष्य तय करें

अगर हमारे सामने कोई निश्चित लक्ष्य नहीं है तो हम अपनी उर्जा को बरबाद करते रहेंगे और नतीजा कुछ खास नहीं निकलेगा लेकिन इसके विपरीत जब हम लक्ष्य को ध्यान में रखेंगे तो हमारी उर्जा सही जगह उपयोग होगी और हमें सही नतीजे देखने को मिलेंगे। जिससे पूछिए वही कहता है कि मैं एक सफल व्यक्ति बनना चाहता हूं पर अगर ये पूछिए कि क्या हो जाने पर वह खुद को सफल व्यक्ति मानेगा तो इसका उत्तर कम ही लोग पूरे विश्वास से दे पाएंगे। सबके लिए सफलता के मायने अलग अलग होते हैं और यह मायने लक्ष्य द्वारा ही निर्धारित होते हैं। तो यदि आपका कोई लक्ष्य नहीं है तो आप एक बार को औरों की नजर में सफल हो सकते हैं पर खुद कि नजर में आप कैसे तय करेंगे कि आप सफल हैं या नहीं? इसके लिए आपको अपने द्वारा ही तय किए हुए लक्ष्य को देखना होगा। हमारी जिंदगी में कई अवसर आते-जाते हैं। कोई चाह कर भी सभी अवसरों का फायदा नहीं उठा सकता। हमें अवसरों को कभी हां तो कभी ना करना होता है। ऐसे में ऐसी परिस्थितियां आना स्वाभाविक है, जब हम तय नहीं कर पाते कि हमें क्या करना चाहिए। ऐसी स्थिति में आपका लक्ष्य आपको गाइड कर सकता है। जैसे एक महिला का लक्ष्य एक ब्यूटी पार्लर खोलने का है। ऐसे में अगर आज उसे एक ही साथ दो जगह काम करने का प्रस्ताव मिलें, जिसमें से एक किसी पार्लर से हो तो वह बिना किसी सोच विचार के पार्लर ज्वाइन कर लेगी भले ही वहां उसे दूसरे कर्मचारी से कम वेतन मिले। वहीं अगर सामने कोई लक्ष्य ना हो तो हम तमाम प्रस्तावों का आकलन ही करते रह जायें और अंत में शायद ज्यादा वेतन ही निर्णायक फैक्टर बन जाए। अर्नोल्ड एच ग्लासगो का कथन है कि फुटबाल कि तरह जिन्दगी में भी आप तब तक आगे नहीं बढ़ सकते जब तक आपको अपने लक्ष्य का पता ना हो। यह बिलकुल कथन उपयुक्त लगता है। यदि आपने लक्ष्य निर्धारित किया है तो इस दिशा में सोचना शुरू कीजिए।

Dark Saint Alaick
03-02-2013, 07:56 PM
यह तो संगत का असर है

बादशाह अकबर शाम को टहलने निकला करते थे। शाम को टहलना उनका लगभग रोज का क्रम था। वे इस दौरान अक्सर अपने साथ बीरबल को भी ले जाया करते थे ताकि टहलने के साथ बीरबर से आवश्यक चर्चाएं भी होती रहें। एक शाम अकबर और बीरबल शाही बगीचे में प्रसन्नतापूर्वक टहल रहे थे। चलते चलते बीरबल ने अपनी आदत के अनुसार बादशाह अकबर पर कोई टिप्पणी कर दी। बाहशाह चौंके कि बीरबल ये क्या कह रहा है क्योंकि उन्हें बीरबल की टिप्पणी पसंद नहीं आई। बाहशाह अकबर थोड़े खफा हो गए परन्तु बीरबल ने बादशाह की नाराजगी पर कोई ध्यान ही नहीं दिया। वह अप्रत्यक्ष रूप से बादशाह के साथ मजाक करता ही रहा। कुछ समय तक तो बादशाह खामोश रहे और अपना गुस्सा पीते रहे लेकिन आखिर में उनसे रहा नहीं गया। जब बादशाह अपने क्रोध पर काबू नहीं रख पाए तो चिल्लाते हुए बोले,अपने बादशाह सलामत की शान में इस प्रकार कुछ भी कहने की आखिर तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई? यह सच है कि मैं तुम्हारी बुद्धिमता से प्रभावित होता हूं परन्तु मैं यह देख रहा हूं कि तुम तो अपनी सारी सीमाओं को ही पार कर रहे हो। जो मन में आ रहा है लगातार बोले ही जा रहे हो। मैं यह देख रहा हूं कि बात करते-करते तुम्हारा व्यवहार भी असभ्य हो गया है। हमेशा की तरह अपने दिमाग का प्रयोग करते हुए बीरबल बादशाह अकबर के सामने झुका और बोला,महाराज,यह मेरी गलती नहीं है। यह सब मेरी संगत का असर है। दरअसल आपके साथी आपके व्यवहार को प्रभावित करते हैं। यह सुनकर बादशाह ठहाके मार कर हंसे। वह जानते थे कि बीरबल अपना सर्वाधिक समय स्वंय बादशाह के साथ ही बिताता है। इस प्रकार बीरबल ने एक बार फिर अपनी बुद्धिमता से बादशाह को प्रभावित किया। इससे यह साबित होता है कि आपकी संगत हमेशा अच्छी ही होनी चाहिए।

Dark Saint Alaick
03-02-2013, 07:56 PM
सुख-दुख को समान समझो

नानक दुखिया सब संसार है। यह उद्गार गुरु नानक देव के हैं जिन्होंने संसार को दुख स्वरूप बताया। प्रत्येक व्यक्ति को अपना दुख दूसरे के दुख से अधिक लगता है। लोग एक दूसरे के दुख से दुखी होने की अपेक्षा उसका आनंद लेते हैं । इससे दुख कम होने की अपेक्षा बढ़ जाता है। जब दुख बढ़ जाता तभी ईश्वर याद आता है। संत कबीर ने भी कहा है कि- दुख में सुमिरन सब कर, सुख में करे न कोय। वास्तव में सुख-दुख मन का विकार है। मन अनुकूल परिस्थितियों में सुख तथा प्रतिकूल परिस्थिति में दुख का अनुभव करता है। यह दुख-सुख मनुष्य की बुधि व मन की उपज है। भगवान कृष्ण ने भी गीता के द्वितीय अध्याय के 35 वे श्लोक में कहा है कि हे अर्जुन सुख-दुख व जय-पराजय को समान मानकर कर्तव्य समझ कर युद्ध कर। तुझे पाप नहीं लगेगा। किसी मां को खबर मिली की उसके लड़के का एक्सिडेंट हो गया। उसे दुख हुआ और घटना स्थल पर गई। वहां पता लगा कि दुर्घटना में उसका लड़का नहीं किसी और का लड़का घायल हुआ है तो उसका दुख खत्म हो गया। इस प्रकार जहां मनुष्य का अपनापन जुड़ जाता है उसे उसी प्रकार की अनुभूति होने लगती है। जिसने इस बात को समझ लिया कि दुनिया में क्या साथ लाए थे क्या लेकर जाएंगे,खाली हाथ आए और हाथ पसारे जाएंग वही सुखी है। ईश्वर अंत में सब वापस ले लेता है। शेष रहा जाता है तो पाप-पुण्य मात्र। इसी प्रकार हमारे शास्त्रों में माता कुंती का उदाहरण आता है कि जब महाभारत के बाद भगवान कृष्ण द्वारका जाने लगे तो कृष्ण ने कहा बुआ मैं द्वारका जा रहा हूं तुम्हारी कुछ इच्छा हो तो मांगो। माता कुंती का उत्तर था यों तो आपने सब कुछ दिया है परंतु यदि देना है तो तुम मुझे दुख का वरदान दो। कृष्ण हंसे व कहा बुआ दुख क्यों मांग रही हो? माता ने कहा जब-जब हम पर दुख आया,आपको याद किया और आपने आकर तुरंत सहायता की है। अत: सुख-दुख को समान मान कर चलोगे तो कभी दुख आएगा ही नहीं।

Dark Saint Alaick
05-02-2013, 01:55 PM
नए विचार ही बढ़ाते हैं आगे

सैम पित्रोदा जाने-माने टेलीकॉम आविष्कारक और उद्यमी हैं। राष्ट्रीय ज्ञान आयोग के अध्यक्ष रह चुके पित्रोदा वर्तमान में पब्लिक इनफॉर्मेशन इन्फ्रास्ट्रक्चर ऐंड इनोवेशन मामलों पर प्रधानमंत्री के सलाहकार हैं। एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए उन्होंने देश में इनोवेशन संस्कृति विकसित करने पर जोर दिया और कहा मैं मानता हूं कि इनोवेशन 21वीं सदी की कुंजी है। इतिहास गवाह है कि भारत ने हमेशा से नए विचारों और नई खोजों को प्रोत्साहित किया है। शून्य की खोज हमने की। इस खोज ने गणित में क्रांति कर दी। अगर हम अपनी ऐतिहासिक व सांस्कृतिक धरोहरों पर नजर डालें तो पाएंगे कि भारतीयों ने शिल्प और वास्तुकला के क्षेत्र में अद्भुत नमूने पेश किये। ताजमहल और कुतुबमीनार जैसी इमारतें इसका सबूत हैं। शिल्प कला ही क्यों, हर्बल दवाओं के क्षेत्र में भी हमने तमाम नई खोज कीं। अगर शिक्षा की बात करें तो नालंदा और तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालयों की स्थापना नए विचारों की ही देन हैं। इनोवेशन्स की वजह से ही गूगल, माइक्रोसाफ्ट, फेसबुक, एप्पल जैसी कंपनियों का जन्म हुआ। आज से 25 साल पहले इन कम्पनियों का कोई अस्तित्व नहीं था। आज ये कम्पनियां खरबों रुपये का व्यापार करती हैं और हजारों लोगों को रोजगार देती हैं। यह सब उन लोगों की वजह से संभव हो पाया है जो लीक से हटकर कुछ नया करने की तमन्ना रखते हैं। एक नया आइडिया क्रांति कर सकता है। मुझे लगता है कि नए आइडिया किसी भी देश का भाग्य बदल सकते हैं। वैसे आजकल हर कोई इनोवेशन पर जोर दे रहा है। दुनिया की हर कम्पनी कुछ नया करना चाहती है। हो सकता है कि कोई बड़ी कम्पनी नई खोज न कर पाएं और एक छोटी कम्पनी एक नए आइडिया की मदद से कुछ बड़ा कमाल कर दे। याने कहा जा सकता है कि हमें हमेशा कुछ ना कुछ नया करने पर ध्यान देना चाहिए। इससे देश व समाज की ही उन्नति होगी।

Dark Saint Alaick
05-02-2013, 01:58 PM
... और चूहे ने पा लिया लक्ष्य

एक शहर में दूध के कलेक्शन का एक सेंटर था। सेंटर में एक मोटा और एक छोटा चूहा रहते थे और अक्सर खूब धमा-चौकड़ी मचाते रहते थे। इसी उछल-कूद के दौरान एक दिन दोनों ताजा दूध के एक टब में जा गिर। दोनों बाहर निकलने की कोशिश में घंटों तैरते रहे, लेकिन टब की सीधी और फिसलने वाली दीवारें उनकी दुश्मन बनी हुई थीं। अब उन्हें मौत निश्चित दिखने लगी। तैरते-तैरते मोटे चूहे की हिम्मत जवाब दे गई। बचने की कोई उम्मीद ना देखकर वो बुदबुदाया जो भाग्य में निश्चित है उसके खिलाफ लड़ना अब बेकार है। मैं तैरना छोड़ रहा हूं। ये सुनकर छोटा चूहा जोर से बोला, तैरते रहो, तैरते रहो। छोटा चूहा अब भी टब के गोल चक्कर काटता जा रहा था। ये देखकर मोटा चूहा थोड़ी देर और तैरा और फिर रुक कर बोला, छोटे भाई कोई फायदा नहीं। बहुत हो चुका। हमें अब मौत को गले लगा लेना चाहिए। अब बस छोटा चूहा ही तैर रहा था। वो अपने से बोला, कोशिश छोड़ना तो निश्चित मौत है। मैं तो तैरता ही रहूंगा। दो घंटे और बीत गए। आखिर छोटा चूहा भी थक कर चूर हो चुका था। पैर उठाना भी चाह रहा था तो उठ नहीं रहे थे। ऐसे लग रहा था जैसे कि उन्हें लकवा मार गया हो, लेकिन फिर उसके जेहन में मोटे चूहे का हश्र कौंधा। उसने फिर पूरी ताकत के साथ आगे बढ़ना शुरू किया। कुछ देर और उसके तैरने से दूध में लहरें उठती रहीं फिर एक वक्त ऐसा भी आया कि छोटा चूहा भी निढाल हो गया। उसे लगा कि अब वो डूबने वाला है लेकिन ये क्या। उसे अपने पैरों के नीचे कुछ ठोस महसूस हुआ। ये ठोस और कुछ नहीं, बल्कि मक्खन का एक बड़ा टुकड़ा था। वही मक्खन जो चूहे के तैरते-तैरते दूध के मंथन से बना था। थोड़ी देर बाद छोटा चूहा आजादी की छलांग लगा कर दूध के टब से बाहर था। इस कथा से स्वामी विवेकानंद का यह आह्वान सार्थक होता है कि जागो, उठो और लक्ष्य पूरा होने तक मत रुको।

Dark Saint Alaick
05-02-2013, 11:00 PM
नाकामी के भय से निकलें

जरूरी नहीं है कि इनोवेशन के लिए बहुत सारे लोग काम करें। एक अकेला व्यक्ति भी नया अविष्कार कर सकता है। जरूरी है सिर्फ एक आइडिया। हां, यह सच है कि हमारा इतिहास नई खोजों और नये विचारों से भरपूर रहा है लेकिन आज आधुनिक समय में हमारे यहां इनोवेशन संस्कृति का अभाव है। हमें नए विचारों के लिए अनुकूल माहौल बनाना होगा। लीक से हटकर सोचने की आदत विकसित करनी होगी। इनोवेशन का मतलब प्रयोगशाला या विज्ञान से कतई नहीं है। इसके लिए न केवल हमारे पास नया आइडिया होना चाहिए बल्कि उस पर काम करने का साहस भी। कुछ नया करने के लिए हमें सफलता और असफलता के भय से बाहर निकलना होगा। हर आइडिया अच्छा नहीं होता और हर आईडिया सफल भी नहीं होता। सैम पित्रोदा एक बढ़ई के बेटे हैं। वे टेलीकॉम इंजीनियर बने और मैने खुद को परखने की कोशिश की। अमेरिका गए जहां उन्हे कुछ नया करने का मौका मिला और वे अविष्कारक बन गया। वे वापस भारत आए और सामाजिक क्षेत्र में काम करने का फैसला किया। कुछ नया करने के लिए उनको ऐसे क्षेत्र में काम करना पड़ता है जिसके बारे में पहले किसी ने न सोचा हो। हमारे देश में दिक्कत यह है कि ज्यादातर स्नातक प्रशिक्षित नहीं हैं। विश्वविद्यालय इस क्षेत्र में ज्यादा काम नहीं करते हैं। हमारे प्रोफेसर शोध में दिलचस्पी नहीं रखते। वैसे हर कोई कुछ नया करना चाहता है लेकिन उन्हें नहीं मालूम कि इसे कैसे करें। इनोवेशन का माहौल तैयार करना होगा। हमें माइंडसेट बदलना होगा। हम एक अरब आबादी वाले देश हैं। अच्छी बात यह है कि हमारी आबादी का बड़ा हिस्सा युवा है। युवा हमारी ताकत हैं। युवाओं को इनोवेशन के लिए प्रेरित करना होगा। अगर युवा इस विचारधारा के साथ आगे आएं कि कुछ नया करना है तो देश की प्रगति कोई रोक नहीं सकता। हां, इसके साथ कामयाबी व नाकामी जुड़ी हो सकती हैं पर इससे घबराएं नहीं।

Dark Saint Alaick
05-02-2013, 11:01 PM
समझदारी ने बचा ली जान

एक गांव के समीप एक नदी बहती थी। नदी के दूसरी तरफ घना जंगल था। जंगल में खरगोश रहता था। एक दिन नदी से बड़ा कछुआ आकर रहने लगा। खरगोश और कछुए में दोस्ती हो गई। एक दिन खरगोश से पूछा तुम क्या क्या जानते हो? कछुए ने घमंड से कहा,मैं बहुत सी विद्या जानता हूं। खरगोश ने मुंह लटकाकर कहा,मैं केवल एक ही विद्या जानता हूं। दोनो रोज साथ-साथ खेलते थे। एक दिन मछुआरे ने नदी में जाल डाला। जाल में कछुआ भी फंस गया। खरगोश को चिंता हुई। वह कछुए से मिलने नदी पर गया तो देखा कछुआ मछुआरे के जाल में फंसा है। खरगोश चुपके से कछुए के पास गया और उससे कहने लगा,क्या हुआ। तुम तो बहुत सारी विद्या जानते हो। कोई उपाय कर बाहर आ जाओ। कछुए ने कोशिश की परन्तु बाहर नहीं निकल पाया। उसने खरगोश से मदद मांगी। खरगोश ने कछुए से कहा,जब मछुआरा यहां आए तो तुम मरने का नाटक करना। वह तुम्हे मरा जानकर जाल से निकाल नदी किनारे रख देगा। उसी समय तुम नदी में चले जाना। कछुए ने ऐसा ही किया। मछुआरे ने कछुए को मरा हुआ जानकर जाल से निकाल नदी के बाहर जमीन पर रख दिया। मौका देख कछुआ उठा और नदी की तरफ चलने लगा। खरगोश ने कछुए से कहा जल्दी करो मछुआरा आ जाएगा। कछुए ने कहा,मेरा पांव घायल है। मुझसे तेज नहीं चला जा रहा है। शायद अब मैं बच न सकूंगा। तुम जाओ और अपनी जान बचाओ। कहीं मछुआरे की नजर तुम पर न पड़ जाए। खरगोश बोला,घबराओ मत मैं कुछ करता हूं। खरगोश लंगड़ा कर चलने लगा। मछुआरा उसे पकड़ने भागा। खरगोश ने मछुआरे को जंगल में खूब भगाया और मछुआरे को दूर ले गया। तब तक कछुआ नदी में जा चूका था। खरगोश को वापस नदी पर देख कछुए ने उसे धन्यवाद दिया। खरगोश ने समझदारी से कछुए को जान बचा ली।

Dark Saint Alaick
06-02-2013, 01:43 AM
सुनने की क्षमता कुंद न हो

आज के तनाव भरे समय में ऐसा इंसान मिलना मुश्किल है जिसे कोई शारीरिक तकलीफ या मानसिक परेशानी न हो। वैसे तो लोगों को अपने स्वास्थ्य में कुछ गड़बड़ नहीं दिखाई देती पर कुछ ऐसा भी है जो दुरुस्त नहीं लगता। दरअसल नैरोग्य (वैलनेस) की अनुभूति हमसे दूर चली गई है। यह अनुभूति उस समय पैदा होती है जब देह व मन एक स्वर में गुनगुनाते हैं। वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं कि हमारा संपूर्ण स्वास्थ्य व सुख इस बात पर निर्भर करता है कि हम देह व मस्तिष्क के बीच के इस सम्बंध के प्रति कैसा नजरिया रखते हैं। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि हमें बौद्धिक समझ प्रदान करने वाली हमारे सचेत मन की पतली सी परत हमारे समूचे अस्तित्व के दसवें हिस्से का ही प्रतिनिधित्व कर पाती है। इस चेतन परत की बजाय मन की अवचेतन परतें अधिक महत्वपूर्ण हैं। अवचेतन की इसी शक्ति को ध्यान में रखकर ओशो ने एक प्राचीन तिब्बती पद्धति को पुनर्जीवित किया जिसे बॉडी माइंड बैलेंसिंग कहते हैं। इसमें लोग देह और मन का इस्तेमाल करना सीखते हैं। देह अपने आप बहुत समझदार है क्योंकि वह लाखों साल पुरानी है। मन उसके मुकाबले बहुत नया है। देह अपनी जरूरतों को एकदम ठीक-ठीक समझती है और समय-समय पर हमारी मदद करने के लिए हमें संदेश देती रहती है। दिक्कत यह है कि मीडिया के कोहराम ने हमारी सुनने की क्षमताओं को कुंद कर दिया है और हम देह के संदेशों को सुनना भूल ही गए हैं। यही कारण है कि अब देह आपका ध्यान खींचने के लिए और कठोर भाषा अपनाती है। उसका संदेश तरह-तरह की बीमारियों के रूप में सुनाई देता है जैसे सिरदद, अनिद्रा, दुर्घटनाओं के आघात, लाइलाज बीमारियां, पीठ और पेट के रोग। पीड़ा कोई भी हो वह देह का संदेश है। यह ध्यान पद्धति सिखाती है कि देह की आवाज को एक बार फिर कैसे सुनना शुरू किया जाए। अगर हम देह की आवाज को सुन लें तो शारीरिक तकलीफ परेशानी पैदा नहीं कर सकती।

Dark Saint Alaick
06-02-2013, 01:52 AM
जब शत्रु मित्र बन जाए

बरगद का एक पुराना पेड़ था। उस पेड़ की जड़ों के पास दो बिल थे। एक बिल में चूहा रहता था और दूसरे में नेवला। पेड़ की खोखली जगह में बिल्ली रहती थी। डाल पर उल्लू रहता था। बिल्ली, नेवला और उल्लू तीनों चूहे पर निगाह रखते कि कब वह पकड़ में आए और उसे खाएं। उधर बिल्ली चूहे के अलावा नेवला तथा उल्लू पर निगाह रखती थी कि इनमें से कोई मिल जाए। इस प्रकार बरगद में ये चारों प्राणी शत्रु बनकर रहते थे। चूहा और नेवला बिल्ली के डर से दिन में नहीं निकलते थे। रात में भोजन की तलाश करते। उल्लू तो रात में निकलता था। बिल्ली इन्हें पकड़ने के लिए रात में भी चुपचाप निकल पड़ती। एक दिन वहां एक बहेलिया आया। उसने खेत में जाल लगाया और चला गया। रात में चूहे की खोज में बिल्ली खेत की ओर गई और जाल में फंस गई। कुछ देर बाद चूहा उधर से निकला। उसने बिल्ली को जाल में फंसा देखा, तो खुश हुआ। तभी घूमते हुए नेवला और उल्लू आ गए। चूहे ने सोचा, ये दोनों मुझे नहीं छोड़ेगे। बिल्ली तो मेरी शत्रु है ही। अब क्या करूं? उसने सोचा, इस समय बिल्ली मुसीबत में है। मदद के लालच में शत्रु भी मित्र बन जाता है, इसलिए इस समय बिल्ली की शरण में जाना चाहिए। चूहा बिल्ली के पास गया और बोला, मैं जाल काटकर तुम्हें मुक्त कर सकता हूं, किन्तु कैसे विश्वास करूं कि तुम मित्रता का व्यवहार करोगी? बिल्ली ने कहा, तुम्हारे दो शत्रु इधर ही आ रहे हैं। तुम मेरे पास आकर छिप जाओ। मैं तुम्हें मित्र बनाकर छिपा लूंगी। चूहा बिल्ली के पास छिप गया। नेवला और उल्लू आगे निकल गए। बिल्ली ने कहा, आज से तुम मेरे मित्र हो। अब जल्दी से जाल काट दो। चूहे ने जाल काट दिया और भागकर बिल में छिप गया। बिल्ली ने चूहे को आवाज दी, मित्र बाहर आओ। डरने की क्या बात है? चूहा बोला, मैं तुम्हें खूब जानता हूं। शत्रु केवल मुसीबत में फंसकर ही मित्र बनता है। मैं तुम पर विश्वास नहीं कर सकता।

Dark Saint Alaick
06-02-2013, 01:57 AM
परेशानी शांति से सुलझाएं

एक व्यक्ति सड़क के किनारे टहल रहा था। चलते-चलते वह एक नौजवान से मिला, जो एक लंबे तार से जूझ रहा था। इस पर उस व्यक्ति ने पूछा, आप को इसमें क्या दिक्कत आ रही है। नौजवान ने कहा की जब भी मैं इसे सीधा करने की कोशिश करने लगता हूं, यह तार और उलझ जाता है। यही हालत हर इन्सान की है। हम इस तरह उलझे हुए है कि चाह कर भी अपनी उलझनों को समाप्त नहीं कर पा रहे हैं । हम एक समस्या का समाधान करते हैं और फिर सोचते हैं कि हमने सारी उलझनें समाप्त कर दी, परन्तु उसी समय दूसरी उलझन आ जाती है और हमारा जीवन इसी में बीत जाता है । फिर हम निराश होकर सोंचते है की कब ऐसा वक्त आएगा जब हम अपनी सारी उलझनों का निपटारा कर सकेंगे और हम शांति से रह सकेंगे। या फिर हम भगवान को कोसने लग जाएंगे कि हमने तो किसी का बुरा किया नहीं परन्तु हमारे साथ ऐसा क्यों हुआ? परन्तु इन्सान यह भूल जाता है की कभी न कभी उसने भी बुरा किया होता है। इन्सान कभी अपनी गलती नहीं मानता और भगवान पर उंगली उठा देता है। आज समाज में हर इंसान किसी न किसी तनाव से गुजर रहा है। इससे इनका जिस्म और दिमाग दोनों ही बुरी तरह प्रभावित हो रहे हैं। तनाव सबसे ज्यादा हमारे दिमाग पर असर करता है और यही कारण है बीमारियों का। आप देख सकते हैं कि आज छोटे से लेकर बड़े तक कोई न कोई बीमारी है। तनाव का कोई एक कारण नहीं है। कई कारण होते है तनाव के परन्तु हम उसे सुलझाने के बजाय उसे नकारते हैं या उससे भागते हैं, जबकि जरूरत है कि हम ऐसा तरीका निकालें जिससे दिमागी तनाव और शरीर पर पड़ने वाले उसके प्रभाव को दूर किया जा सके और ऐसा करने से हम अपना जीवन शांति से बिता सकते हैं। एक यही मात्र रास्ता है तनाव से मुक्ति पाने का। किसी परेशानी को अगर हम ध्यान और शांतिपूर्वक सुलझाने की कोशिश करें तो हम अपना जीवन शांतिमय बना सकते हैं।

Dark Saint Alaick
06-02-2013, 02:01 AM
फूट से होता है विनाश

एक जंगल में बटेर का बड़ा झुंड था। एक शिकारी ने उन बटेरों को देख लिया। सोचा कि अगर थोड़े-थोड़े बटेर रोज पकड़कर ले जाऊं, तो मुझे शिकार के लिए भटकने की जरूरत नहीं पड़ेगी। अगले दिन शिकारी बड़ा जाल लेकर आया। बहुत से चतुर बटेर खतरा समझ भाग गए। कुछ नासमझ और छोटे बटेर थे, वे फंस गए। शिकारी बटेरों के इतने बड़े खजाने को हाथ से नहीं जाने देना चाहता था। वह उन्हें पकड़ने की नई-नई तरकीबें सोचने लगा। फिर भी बटेर पकड़ में न आते। अब शिकारी बटेर की बोली बोलने लगा। आवाज सुनकर बटेर जैसे ही एकत्र होते, शिकारी जाल फैंककर उन्हें पकड़ लेता। इस तरकीब में शिकारी सफल हो गया। बटेर धोखा खा जाते और शिकारी के हाथों पकड़े जाते। धीर-धीरे उनकी संख्या कम होने लगी। एक रात एक बूढ़े बटेर ने सबकी सभा बुलाई और कहा, "इस मुसीबत से बचने का एक उपाय मैं जानता हूं। जब तुम लोग जाल में फंस ही जाओ, तो सब एक होकर वह जाल उठाना और किसी झाड़ी पर गिरा देना। जाल झाड़ी पर उलझ जाएगा और तुम नीचे से निकल जाना, लेकिन वह तभी हो सकता है, जब तुममें एकता होगी।" अगले दिन से बटेरों ने एकता दिखाई और वे शिकारी को चकमा देने लगे। शिकारी खाली हाथ लौटने लगा, तो उसकी पत्नी ने कारण पूछा। वह बोला बटेरों ने एकता का मंत्र जान लिया है। जिस दिन उनमें फूट पड़ेगी, वे फिर पकड़े जाएंगे। कुछ दिन बाद बटेरों का एक समूह जाल में फंसा, तो उनमें जाल को लेकर उड़ने पर बहस छिड़ गई। वे आपस की बहस कर ही रहे थे कि शिकारी आ गया और उसने सब बटेरों को पकड़ लिया। अगले दिन बूढ़े बटेर ने बचे हुए बटेरों को समझाया कि एकता ही संकट का मुकाबला कर सकती है। कलह से सिर्फ विनाश होता है। अगर इस बात को भूल जाओगे, तो अपना विनाश कर लोगे। फिर वह शिकारी कभी भी बटेर नहीं पकड़ सका।

Dark Saint Alaick
06-02-2013, 10:26 PM
नए विचारों से ही होती है खोज

सवाल उठाने की इच्छा ही इनोवेशन के लिए प्रेरित करती है। इनोवेशन के लिए कुछ बातें बहुत अहम हैं। पहली बात यह है कि इनोवेशन का मतलब विज्ञान और तकनीक से कतई नहीं है। इनोवेशन छोटा भी हो सकता है और बड़ा भी। हमारे अंदर हम कर सकते हैं और हम करेंगे की भावना होनी चाहिये। दूसरी बात यह है कि हमें गरीबों की समस्याओं को दूर करने के लिए इनोवेशन करने चाहिए न कि अमीरों की। अमीर तो हर हाल में अपनी जरूरतों को पूरा कर सकते हैं क्योंकि उनके पास पैसा है। हमें पानी, भोजन, स्वास्थ्य जैसे क्षेत्र में नए प्रयोग करने चाहिए, ताकि गरीबों को राहत मिल सके। हमें कुछ नया करने वाले लोगों को प्रोत्साहित करना चाहिये। नई खोज के लिए बहस और असहमति जरूरी है। जब हम बहस करते हैं और सवाल उठाते हैं तब नई चीजों के रास्ते खुलते हैं। सैम पित्रोदा ने एक बार एक समारोह में इससे जुड़ा एक दिलचस्प वाकया सुनाया। एक बार पित्रौदा ने अपने एक मित्र को अपने घर पर खाने के लिए न्यौता दिया और यह बात उन्होने अपनी डायरी में नोट कर ली ताकि उन्हे याद रहे कि वे मित्र किस दिन उनके घर खाना खाने आएंगे। इस बीच पित्रौदा अपनी डायरी पलटना भूल गए। उन्हें याद ही नहीं रहा कि उन्होने किसी मित्र को घर पर खाने का न्यौता दिया है। तय कार्यक्रम के मुताबिक पित्रौदा के मित्र मेरे घर पहुंच गए। उन्हें देखकर पित्रौदा को याद आया कि उन्हें आमंत्रित किया था। जाहिर है पित्रौदा ने उस दिन उनके खाने का कोई प्रबंध नहीं किया था इसलिए उन्हे काफी परेशानी हुई। तब उन्होने सोचा कि क्यों न एक ऐसी डायरी बनाई जाए जो हमें सही समय पर अलर्ट कर सके। इस तरह से उनके दिमाग में इलेक्ट्रानिक डायरी बनाने का ख्याल आया। एक साधारण विचार ने नई खोज को जन्म दिया। आइडिया कीमती होते हैं। उन्हें नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। अगर दिमाग में कोई आइडिया आए तो सोचो और तुरंत काम शुरू करो।

Dark Saint Alaick
06-02-2013, 10:30 PM
शीशे का अनोखा चमत्कार

किसी जंगल में एक बंदर रहता था। वह बहुत समझदार व चतुर था। एक बार वह जंगल घूमने निकला। उसे जंगल में एक थैला मिला। थेले में कंघा और एक शीशा था। उसने कंघा उठाया और उसे उलट-पलटकर देखने लगा। उसे कुछ समझ नहीं आया, तो उसने कंघा फैंक दिया। फिर उसने शीशा उठाया। उसे भी उलट-पलटकर देखने लगा। शीशे में अपना चेहरा देख कर उसे समझ आ गया की जो भी उसके सामने आएगा, इसमें दिखाई देगा। उसने सोचा कि इसका मैं क्या करूं? उसने वह शीशा वापस थैले में रख लिया और चल पड़ा। अब उसकी चाल कुछ बदली हुई थी। रास्ते में उसे भालू मिला। वह बोला, अरे ओ बंदर, इतना अकड़कर क्यों चल रहा है? भालू की बात सुन बंदर बोला, मैं तो ऐसे ही चलूंगा। तू क्या कर लेगा मेरा? तेरे जैसों को तो मैं अपने थैले में रखता हूं। उसी समय शेर वहां आ गया। शेर ने पूछा, तुम दोनों क्यों लड़ रहे हो? भालू ने कहा, महाराज यह बंदर अकड़ रहा है। शेर ने बंदर पूछा, अरे ओ बंदर। क्या यह सच है? बंदर ने शेर से भी अकड़ते हुए कहा, क्यों न अकडूं । मैं सबसे ताकतवर हूं। बंदर की बात सुन शेर को गुस्सा आ गया और बोला, भाग यहां से। एक पंजा मार दिया तो यहीं मर जाएगा । बंदर ने कहा तू मुझे क्या मारेगा? तेरे जैसे को तो में अपने थैले में रखता हूं। बंदर की निडरता देख शेर बोला, अच्छा मैं भी तो देखूं। निकाल मेरे जैसा शेर अपने थैले में से। बंदर ने थैला खोला, शीशा निकाला और शेर के मुंह के सामने कर दिया। शेर ने उसमें अपना चेहरा देखा और समझा कि इसमें कोई दूसरा शेर है। यह देख कर वह डर गया और उसने सोचा, यह बंदर सचमुच बड़ा ताकतवर है। इससे लड़ना ठीक नहीं। शेर ने बंदर से हाथ जोड़ते हुए कहा, भाई साहब, आपसे मेरा क्या झगड़ा? आप जो चाहें करें। शेर की बात सुन भालू भी डर गया। अब तो बंदर निडर होकर मजे से जंगल में रहने लगा।

sauravpaul12
07-02-2013, 10:14 AM
Nice moral stories, hats off to the poster. :hello:

Dark Saint Alaick
09-02-2013, 01:11 AM
शोषण से बचाती है शिक्षा

डॉ. सीमा समर अफगान मानवाधिकार आयोग की अध्यक्ष हैं। इससे पहले वह अफगानिस्तान में महिला मामलों की मंत्री भी रह चुकी हैं। डॉ. सीमा लंबे समय से महिलाओं और बच्चों की शिक्षा व स्वास्थ्य के लिए काम कर रही हैं। एक बार उन्होने एक यूनिवर्सिटी के दीक्षांत समारोह को संबोधित करते हुए महिला अधिकारों की रक्षा की वकालत की और कहा कि उनकी शुरुआती शिक्षा अफगानिस्तान के हेलमंड प्रांत में हुई। उनके स्कूल में लड़के-लड़कियां साथ पढ़ते थे। आज यह प्रांत हिंसा व जुर्म की चपेट में है। आज यहां बच्चियों को पढ़ाना बेहद कठिन है। उन पर हर समय धमकी का खतरा मंडराता है। उन्होने 1982 में काबुल यूनिवर्सिटी से मेडिकल की डिग्री हासिल की। लेकिन उन दिनों देश के हालात अच्छे नहीं थे। इसलिए उन्हे दीक्षांत समारोह में डिग्री हासिल करने का मौका नहीं मिला। वह तालिबान हिंसा व खौफ का दौर था। अफगानिस्तान में स्कूल तोड़ दिए गए व बच्चियों को स्कूल जाने से रोका गया। उन्होने देश में महिलाओं पर घोर अत्याचार देखे हैं। उन्हे याद है किस तरह हिंसा व खौफ की वजह से उनको अपना देश छोड़ना पड़ा था। वे अपने बेटे को लेकर पाकिस्तान चली गई थी। वहां शरणार्थी शिविरों में महिलाओं को बुरे हालात में देखा। महिला शरणार्थियों की हालत देखकर उन्होने शरणार्थियों के लिए अस्पताल बनाने का फैसला किया। पहले स्वास्थ्य शिविर में तीन सौ महिलाएं आईं। उन्हें इलाज की जरूरत थी। उनके बीच काम करके उन्होने महसूस किया कि महिलाओं को शोषण व अत्याचार से बचाने के लिए उन्हें शिक्षित करना जरूरी है। उन्हे लगता है कि अफगानिस्तान में हिंसा का दौर इतने लंबे समय तक इसलिए चला क्योंकि वहां महिलाओं को शिक्षा से महरूम रखा गया। याने कहा जा सकता है कि अगर महिलाएं शिक्षित हैं तो वे समाज व देश के हालात बदल सकती हैं। इससे जुड़े कई देशों के उदाहरण हमारे सामने भी हैं।

Dark Saint Alaick
09-02-2013, 01:14 AM
चोरी न करने का निर्णय

संजय बहुत अच्छा बच्चा था, पर उसको चोरी करने की बुरी आदत थी। अध्यापक उसे कई बार दंड और कई बार धमकी भी दे चुके थे, परंतु फिर भी वह बच्चों के बस्तों से उनकी चीजें चुरा लेता था। सभी का शक संजय पर ही था कि उनके बस्तों से वही चीजें चुराता है। आखिर एक दिन अध्यापक ने संजय को तेज आवाज में डांटते हुए कहा, यदि अब किसी भी बच्चे का सामान चोरी हुआ तो मैं तुम्हें पाठशाला से निकाल दूंगा। इस बात को कुछ दिन बीत गए। एक दिन एक बच्चा अचानक रोने लगा। अध्यापक के पूछने पर उसने बताया की उसकी गणित की किताब खो गई है । यह सुन अध्यापक बहुत नाराज हुए और उन्होंने उस बच्चे को सबके बस्ते में अपनी किताब ढूंढने को कहा। सभी के बस्तों में देखने के बाद आखिर किताब पंकज के बस्ते में से मिली। यह देख कर अध्यापक को बहुत आश्चर्य हुआ कि पंकज जैसा ईमानदार और मेहनती बालक भी चोरी कर सकता है। पूरी कक्षा में सन्नाटा छा गया। सब एकदम चुप होकर इधर-उधर देखने लगे, क्योंकि किसी को भी इस बात पर यकीन नहीं हो रहा था कि पंकज ऐसा कर सकता है। अध्यापक ने भी उसे कुछ नहीं कहा। सिर्फ आगे से ऐसा न करने को कह कर बैठा दिया। कुछ देर बाद अध्यापक के बाहर जाते ही संजय पंकज से पूछने लगा अरे, किताब तो मैंने चुराई थी, लेकिन वह तुम्हारे बस्ते में कैसे चली गई? पंकज ने कहा, यदि इस बार तुम पकड़े जाते, तो निश्चय ही अध्यापक तुम्हें पाठशाला से निकल देते। मैंने तुम्हें किताब उठाते और छिपाते हुए देख लिया था। फिर भी मैंने ऐसा किया क्योंकि मेरे अपमानित होने से तुम्हारा वर्ष बच गया और तुम्हारी मेहनत भी। संजय इस बात को सुन दुखी हुआ। उसने जीवन में कभी चोरी न करने का निश्चय किया और दूसरे ही दिन उसने पूरी कक्षा के सामने और अध्यापक के सामने अपनी गलती स्वीकार कर ली।

Dark Saint Alaick
09-02-2013, 01:17 AM
इच्छा शक्ति से मिलता है लक्ष्य

महिला अधिकारों की रक्षा के लिए लोगों को जागरुक करने की जरूरत है। इसके लिए यह समझना होगा कि महिला अधिकार का सीधा सम्बंध मानवाधिकार से है। अफगानिस्तान जैसे देश में जहां महिलाओं को लंबे समय से शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे बुनियादी अधिकारों से वंचित रखा गया है, वहां मानवाधिकार हनन का मामला बनता है। यह देखकर पीड़ा होती है कि महिलाएं अपने पूरे जीवनकाल में एक बार भी डॉक्टर के पास नहीं जाती हैं यानी ये महिलाएं बिना इलाज के ही दम तोड़ देती हैं। शिक्षा व स्वास्थ्य इंसान का बुनियादी हक है। भला महिलाओं को इस अधिकार से कैसे वंचित रखा जा सकता है। इस मामले को गंभीरता से लेने की जरूरत है। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को भी इस संबंध में मदद के लिए आगे आना चाहिए। महिलाएं सम्मान से जीना चाहती हैं। उन्हें पूरा हक है कि वे आम नागरिक की तरह आजादी व सम्मान के साथ जिएं। हां, हालात में कुछ सुधार हुआ है पर बहुत कुछ किया जाना बाकी है। कई बार बड़ी-बड़ी बातें होती हैं पर जमीनी हकीकत कुछ और ही होती है। अफगानिस्तान में आज भी बड़ी संख्या में महिलाओं को स्कूल जाने और बीमार होने पर इलाज पाने की सुविधा नहीं मिलती है। आर्थिक आत्म-निर्भरता के मामले में वे पुरुषों से बहुत पीछे हैं। कानूनी लड़ाई में महिलाओं के लिए न्याय पाना आसान नहीं होता। इसकी एक वजह यह भी है कि न्यायिक सेवा में बहुत कम महिलाओं को जगह मिली है। आखिर ऐसा क्यों है? महिलाओं को उनके हक से कब तक वंचित रखा जाएगा? उन्हें भी चाहिए आजादी व सम्मान। महिलाओं को समान अधिकार देने के लिए राजनीतिक इच्छा शक्ति बेहद जरूरी है। इसके बगैर इस लक्ष्य को पाना कठिन होगा। हमको इतनी इच्छा शक्ति तो जागृत करनी ही होगी कि समाज का वह वर्ग जो अपने अधिकार से वंचित है उसे उसके अधिकार मिलें। देश और समाज की प्रगति के लिए ऐसा करना जरूरी है।

Dark Saint Alaick
09-02-2013, 01:21 AM
देख रहा है भगवान

एक किसान अपने खेत में काम कर रहा था। उसका बेटा रामू भी वहीं था। पड़ोसी के खेत में गाजर उगी हुई थी। रामू ने एक गाजर खींचकर निकल ली। गाजर खींचते देख किसान रामू से बोला, बेटा वह खेत दूसरे किसान का है। तुमने गाजर क्यों निकाली? रामू बोला, मैं जानता हूं, यह खेत राधे काका का है, परंतु काका इस समय नहीं हैं। बेटे की बात सुन किसान बोला, राधे ने तुम्हें नहीं देखा, परंतु भगवान तो देख रहा है। वह सबको देखता है। रामू को अपने पिता की बात समझ आ गई। एक बार बरसात नहीं हुई। सभी खेत सूख गए। खाने के लिए भी किसी के घर में अनाज नहीं था। सभी किसान बहुत परेशान थे। भूख से बेचैन हो रामू का पिता सोचने लगा, क्या करूं? अनाज कहां से लाऊं? केवल पड़ौसी राधे के खलियान में ही अनाज था। पिछले साल उसके खेत में गेहूं की खूब पैदावार हुई थी। रामू के पिता ने राधे के खलियान से अनाज चोरी करने की योजना बनाई। रात को उसने रामू को जगाया। दोनों राधे के खलियान पर पहुंचे। किसान बोला, तुम देखते रहना। यदि कोई आए, तो मुझे बता देना। बेटे को समझाकर किसान राधे के खलियान में घुस गया। जैसे ही किसान ने अनाज उठाना शुरू किया रामू बोला, पिताजी रुक जाइए। किसान जल्दी से रामू के पास आकर बोला, क्या कोई यहां आ रहा है या कोई देख रहा है? रामू ने बड़े भोलेपन से कहा, पिताजी इस तरफ कोई आ तो नहीं रहा, लेकिन भगवान देख रहा है। रामू के मुख से यह सुनकर किसान की गरदन शर्म से झुक गई। उसका हाथ कांपने लगा। अनाज की बोरी हाथ से छूट गई। वह बोला, हां बेटे, भगवान तो देख ही रहा है। मैं भूल गया था। अच्छा हुआ तुमने याद दिला दिया। किसान ने बेटे को छाती से लगा लिया और भगवान से माफी मांगने लगा। फिर दोनों भगवान को याद करते हुए घर चल दिए। पिता ने सोचा, बुरा काम कभी भी, कैसी भी परिस्थिति में नहीं करना चाहिए।

rajnish manga
14-02-2013, 12:13 PM
देख रहा है भगवान

..... लेकिन भगवान देख रहा है। ..... वह बोला, हां बेटे, भगवान तो देख ही रहा है। मैं भूल गया था। अच्छा हुआ तुमने याद दिला दिया। किसान ने बेटे को छाती से लगा लिया और भगवान से माफी मांगने लगा। .....

:bravo:

बहुत सुन्दर और शिक्षाप्रद कथा कही है, अलैक जी. यदि इतनी सी बात को ह्रदय में धारण कर लिया जाए कि हर जीव में भगवान बसते हैं और भगवान हर जगह विद्यमान है तथा भगवान हर अच्छे बुरे काम को देखते हैं तो समाज की बहुत सी बुराइयों का उन्मूलन सहज ही हो जाएगा. शेयर करने के लिए धन्यवाद, अलैक जी.

Dark Saint Alaick
17-02-2013, 01:02 PM
भगवान का न्याय

बीरबल बादशाह अकबर के दरबार का सबसे बुद्धिमान व प्रभावशाली मंत्री था। बादशाह के सामने जब भी समस्या आती वह बीरबल की मदद से उसका हल निकाला करता था। बीरबल भी अपनी समझ से बादशाह को सही और उचित सलाह देता था। बादशाह सदैव उसके कठिन प्रश्न रखते थे परन्तु वह शीघ्र ही उनके सटीक उतर देकर बादशाह को लाजवाब कर देता था। एक दिन अकबर दरबार का कार्य कर रहे थे। उन्होंने बीरबल से पूछा, बीरबल, बताओ हम भगवान का न्याय कब देख सकते है? बीरबल कुछ क्षण सोचता रहा। दरबारी और महाराज उतर की प्रतीक्षा कर रहे थे। बीरबल बादशाह के समक्ष झुककर बोला, हम केवल तभी भगवान का न्याय देख सकते हैं जब आपके द्वारा सही न्याय नहीं होगा। जब आप कोई गलत न्याय करेंगे भगवान उसके सुधार के लिए अपना न्याय दिखाएगा। बादशाह बीरबल की बात से सहमत हो गए। इसके बाद उन्होंने कभी जल्दबाजी में कोई फैसला नहीं किया तथा सदैव इस बात का ध्यान रखते की कही अन्याय न हो जाए। इस समस्या को सुलझाने के बाद बादशाह ने बीरबल से कहा, क्या तुम जानते हो कि एक मूर्ख और ज्ञानी व्यक्ति में क्या अंतर है? बीरबल ने कहा,महाराज जानता हूं । अकबर ने कहा,क्या तुम विस्तार से बता सकते हो? बीरबल बोला, वह व्यक्ति जो अपनी बुद्धि का प्रयोग मुश्किल, चुनौतीपूर्ण तथा प्रतिकूल परिस्थितियों में अपना नियन्त्रण खोए बिना करता है वह ज्ञानी होता है। वह व्यक्ति जो प्रतिकूल परिस्थितियों को इस प्रकार सुलझाता है कि वे और प्रतिकूल हो जाती है मूर्ख कहलाता है। अकबर ने सोचा की बीरबल कहना चाहता है की एक पढ़ा लिखा व्यक्ति ही ज्ञानी होता है क्योकि उसे पता होता है कि कब किस समस्या का समाधान कैसे करना है। बीरबल के चतुर जवाब से बादशाह के दिल में उसका स्थान और पक्का हो गया।

Dark Saint Alaick
17-02-2013, 01:03 PM
बीता समय नहीं लौटता

वर्तमान बेहद अहम है। इसे न गंवाएं। अपने आज को भरपूर जिएं, क्योंकि बीता समय फिर नहीं लौटता। आज जो कर रहे हैं उसे शिद्दत से करें। स्कूल टाइम में पढ़ाई पर ध्यान देना जरूरी है तो युवा अवस्था में अपने व्यवसाय सम्बंधी जिम्मेदारियों को मेहनत से निभाना जरूरी है। आप चाहे जिस पेशे में हों, अपने काम को गंभीरता से लें। ऐसा न हो कि आगे चलकर आपको लगे कि काश मैंने यह इस कार्य को ऐसे किया होता तो कितना बेहतर होता। कैरियर के साथ ही परिवार भी बहुत अहम है। परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को नजरअंदाज न करें। कैरियर को लेकर आपकी महत्वाकांक्षा सही है लेकिन परिवार के प्रति भी अपनी जिम्मेदारी को न भूलें। अपने बच्चों को पूरा समय दें और उन्हें अहसास कराएं कि आप उनसे कितना प्यार करते हैं। माता-पिता को सम्मान दें, उनकी सेवा करें। उन्हें बताएं कि आपके जीवन में उनकी क्या जगह है। आप उम्र के जिस भी पड़ाव में हों, सीखने की चाहत बरकरार रखें। सीखना एक सतत प्रक्रिया है। जीवन में अच्छा हो या बुरा, हर तरह की घटना हमें कुछ न कुछ संदेश जरूर देती है। यह हमारे ऊपर है कि हम उससे क्या सबक लेते हैं। खुद को नई चुनौतियों और कठिनाइयों के लिए तैयार रखें। जिंदगी हर मोड़ पर इम्तिहान लेती है। एक युवक की उम्र करीब 22-23 साल की रही थी। उसके बॉस ने उससे कहा कि वह बेहद नकारा इंसान है और उनके साथ काम करने के लायक नहीं है। यह उस युवक के लिए बहुत बड़ा झटका था। उसे लगा कि उसकी सारी उपलब्धियां, पढ़ाई, डिग्रियां सब कुछ बेकार हैं। घर लौटा और बहुत रोया। उस समय लगा कि जीवन खत्म हो गया है। सब कुछ अंधकारमय लग रहा था। वह बहुत निराश था लेकिन उसने खुद को संभाला और नई नौकरी ढूंढ़ने की कोशिश की। दो महीने बाद कोशिश रंग लाई और सब ठीक हो गया। जीवन के हर मोड़ पर हिम्मत रखें। घबराए नहीं। मुश्किलें अपने आप हल हो जाएंगी।

Dark Saint Alaick
17-02-2013, 01:04 PM
मदद का जज्बा होना चाहिए

खुद खुश रहें और दूसरों को भी खुशी देने की कोशिश करें। जरूरी है कि आप चीजों को लेकर सकारात्मक नजरिया अपनाएं। जिंदगी बहुत खूबसूरत है। मुश्किलों का मतलब यह कतई नहीं है कि जीवन कठिन है। अगर आप सहज दिमाग से हल खोजेंगे तो मुश्किलें आसान हो जाएंगी। एक बेहतर समाज वह है जहां सब एक-दूसरे की मदद करते हैं। आप में दूसरों की मदद का जज्बा होना चाहिए। मदद का मतलब यह कतई नहीं कि आप दूसरों पर बहुत ज्यादा धन या समय खर्च करें। सोचें कि आप जिस पद पर या जिस पेशे में हैं वहां रहकर आप दूसरों के लिए क्या कर सकते हैं। आपकी छोटी-सी पहल किसी को बहुत बड़ी खुशी दे सकती है। कई बार बहुत कम हैसियत वाले लोग दूसरों की मदद में बहुत बड़ा योगदान देते हैं जबकि दूसरी तरफ ऐसे लोग हैं जो बहुत ज्यादा सक्षम हैं पर वे दूसरों की परवाह ही नहीं करते हैं। सिर्फ अपने बारे में न सोचें। दूसरों का खयाल रखना भी जरूरी है। अगर किसी ने कुछ अच्छा काम किया है तो उसकी तारीफ करना न भूलें। इससे न केवल उसका उत्साह बढ़ेगा बल्कि उसे खुशी भी मिलेगी। इस तरह आपकी दुनिया काफी खूबसूरत बन सकती है। जब दूसरे खुश होंगे तभी आपको सच्ची खुशी नसीब होगी। आर्थिक तरक्की सब कुछ नहीं है। भौतिक उपलब्धियां आपको सच्ची खुशी नहीं दे सकती है। मन में शांति और सकून न हो तो पैसा आपको खुशी नहीं दे पाएगा। पैसा कमाना ठीक है लेकिन पैसा ही जीवन का लक्ष्य नहीं होना चाहिए। पैसे से ज्यादा अहम है सेहत। खुद का खयाल रखें ताकि आपकी सेहत अच्छी रहे। सेहत के साथ अपने रिश्तों पर भी ध्यान दें। कहीं तरक्की की दौड़ में आप सेहत और रिश्तों से समझौता तो नहीं कर रहे हैं? सेहत और रिश्तों पर निवेश कीजिए। हम हर चीज को फायदे-नुकसान से नहीं जोड़ सकते। बात अगर फायदे की हो तो सिर्फ तत्कालीन फायदे पर ध्यान न दें। हमें दीर्घकालीन फायदे के बारे में सोचना चाहिए।

Dark Saint Alaick
17-02-2013, 01:06 PM
प्रजा को प्रिय राजा

एक ताकतवर जादूगर था। वह अपनी जादूगरी में काफी महारत हासिल किए हुए था। एक बार उसको न जाने क्या सूझी कि उसने किसी शहर को तबाह करने की ठान ली। उसने कई उपायों पर विचार किया कि आखिर किस तरह से उस शहर को बरबाद किया जाए। आखिर में उसको एक तरकीब सूझी। उसने पूरे शहर को ही खत्म करने की नीयत से वहां के कुएं में कोई जादुई रसायन डाल दिया। उस रसायन के असर से जिसने भी उस कुएं का पानी पिया वह पागल हो गया। सारा शहर ही उसी कुएं से पानी लेता था। अगली सुबह उस कुएं का पानी पीने वाले सारे लोग अपने होश-हवास खो बैठे। शहर के राजा और उसके परिजनों ने उस कुएं का पानी नहीं पिया था, क्योंकि उनके महल में उनका निजी कुआं था, जिसमें जादूगर अपना रसायन नहीं मिला पाया था। राजा ने अपनी जनता को सुधबुध में लाने के लिए कई फरमान जारी किए, लेकिन उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ा, क्योंकि सारे कामगारों और पुलिसवालों ने भी उसी कुएं का पानी पिया था। सभी को यह लगा कि राजा बहक गया है और ऊल-जलूल फरमान जारी कर रहा है। सभी राजा के महल तक गए और उन्होंने राजा से गद्दी छोड़ देने के लिए कहा। राजा उन सबको समझाने-बुझाने के लिए महल से बाहर आ रहा था, तब रानी ने उससे कहा, क्यों न हम भी जनता कुएं का पानी पी लें। हम भी फिर उन्हीं जैसे हो जाएंगे। राजा और रानी ने भी जनता कुएं का पानी पी लिया और वे भी अपने नागरिकों की तरह बौरा गए और बेसिरपैर की हरकतें करने लगे। अपने राजा को बुद्धिमानीपूर्ण व्यवहार करते देख सभी नागरिकों ने निर्णय किया कि राजा को हटाने का कोई औचित्य नहीं है। उन्होंने तय किया कि राजा को ही राजकाज चलाने दिया जाए। इस तरह से जादूगर की योजना तो नाकाम हो ही गई, प्रजा भी जान गई कि उनका राजा उनके लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार हो सकता है।

Dark Saint Alaick
17-02-2013, 10:48 PM
अफवाह ने मचाई भगदड़

एक गधा बरगद के पेड़ के नीचे आराम कर रहा था। तभी जोर के धमाके की आवाज आई। वह उठा और चीखने लगा-भागो-भागो धरती फट रही है। वह पागलों की तरह एक दिशा में भागने लगा। एक अन्य गधे ने उससे पूछा तो उसने कहा, तुम भी भागो। धरती फट रही है। यह सुन दूसरा गधा भी भागने लगा। देखते-देखते सैकड़ों गधे भागने लगे। गधों को भागता देख अन्य जानवर भी डर गए। चारों तरफ जानवरों की चीख-पुकार मच गई। सभी जानवर भागने लगे। हल्ला सुन जंगल का राजा शेर गुफा से निकला और दहाड़ के साथ बोला - कहां भागे जा रहे हो तुम सब? बंदर बोला, महाराज धरती फट रही है। शेर ने पूछा - किसने कहा ये सब? सब एक दूसरे का मुंह देखने लगे। अंत में पता चला कि यह बात सबसे पहले गधे ने बताई थी। शेर ने गधे को बुलाया और पूछा - तुम्हें कैसे पता चला कि धरती फट रही है? गधा बोला, मैंने अपने कानों से धरती के फटने की आवाज सुनी महाराज। शेर ने कहा - मुझे उस जगह ले चलो और दिखाओ कि धरती फट रही है। ऐसा कहते हुए शेर गधे को उस तरफ धकेलता हुआ ले जाने लगा। बाकी जानवर भी उनके पीछे हो लिए और डर-डर कर उस ओर बढ़ने लगे। बरगद के पास पहुंच कर गधा बोला, मैं यहीं सो रहा था कि तभी जोर से धरती फटने की आवाज आई। मैंने खुद उड़ती धूल देखी और भागने लगा। शेर ने पास जाकर देखा और मामला समझ गया। उसने सभी को कहा, ये गधा महामूर्ख है। दरअसल पास ही नारियल का एक ऊंचा पेड़ है और तेज हवा चलने से उस पर लगा एक बड़ा सा नारियल नीचे पत्थर पर गिर पड़ा। पत्थर सरकने से आस-पास धूल उड़ने लगी और ये गधा न जाने कैसे इसे धरती फटने की बात समझ बैठा। ये तो गधा है, पर क्या आपके पास भी दिमाग नहीं है। अपने - अपने घर जाइए और आइन्दा किसी अफवाह पर यकीन करने से पहले दस बार सोचिए।

Dark Saint Alaick
17-02-2013, 10:49 PM
गलती को सच्चाई से स्वीकारें

माना जाता है कि उम्र बढ़ने के साथ-साथ हम ज्यादा समझदार होते जाते हैं लेकिन ऐसा होता नहीं लगता। नियम यह है कि हम फिर भी नासमझ बने रहते हैं और उम्र बढ़ने के बावजूद बहुत सी गलतियां करते हैं। फर्क सिर्फ इतना होता है कि हम नई गलतियां करते हैं, अलग तरह की गलतियां करते हैं। हम अनुभवों से सीखते हैं, इसलिए हो सकता है कि हम वही गलतियां दोबारा न करें, लेकिन फिर भी कुछ अवसर ऐसे आते हैं जो यह चाहते हैं कि हम उससे टकराकर गिर जाएं। असल बात इस सच्चाई को स्वीकार करना है। जब आप नई गलतियां करें तो खुद को कोसने न लगें। नियम तो यह है कि जब आपसे चीजें गड़बड़ हो जाएं तो खुद के प्रति दयालु रहें। क्षमावान बनें और इस सच्चाई को स्वीकार करें कि हमारी उम्र तो बढ़ेगी लेकिन हमारी समझदारी नहीं बढ़ेगी। हम हमेशा अपनी पुरानी गलतियों को देख सकते हैं, लेकिन भविष्य की गलतियों को देखने में असफल रहते हैं। समझदारी इसमें नहीं है कि गलतियां न हों। समझदारी तो यह सीखने में है कि गलतियां करने के बाद अपनी गरिमा और मानसिक संतुलन को बरकरार रखते हुए उनसे कैसे उबरा जाए। जबानी में हमें लगता है कि बुढ़ापा ऐसी चीज है, जो सिर्फ बूढ़े लोगों के साथ होती है। लेकिन यह हम सभी के साथ होती है। हमारे पास इसे गले लगाने और इसके साथ रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता। चाहे हम जो भी करें और चाहे हम जैसे भी हों, असलियत यही है कि हम बूढ़े होंगे। और जैसे-जैसे हमारी उम्र बढ़ती जाती है, बुढ़ापे की यह प्रक्रिया तेज होती जाती है। आप इसे इस तरह समझ सकते हैं कि आपकी उम्र जितनी ज्यादा होगी, आप उतने ही ज्यादा क्षेत्रों में गलतियां कर चुके होंगे। बहरहाल, इसके बावजूद कई नए क्षेत्र होंगे, जहां हमारे पास कोई दिशानिर्देश नहीं होंगे, इसलिए उनमें हम गड़बड़ करेंगे, अति प्रतिक्रिया करेंगे, गलती करेंगे। यह सच्चाई हमें समझनी ही पड़ेगी।

Dark Saint Alaick
18-02-2013, 11:46 PM
गलती ना दोहराने का संकल्प करें

हम जितने ज्यादा लचीले, रोमांच-प्रेमी और जीवन को गले लगाने वाले होंगे, हम उतने ही ज्यादा क्षेत्रों में कदम रखेंगे और जाहिर है, उनमें गलतियां भी करेंगे। अगर हम पीछे मुड़कर देख सकते हैं कि हमसे कहां गलती हुई, अगर हम उन गलतियों को न दोहराने का संकल्प कर सकते हैं, तो इतना ही काफी है। हम इससे ज्यादा कुछ कर भी नहीं सकते। याद रखें, आप पर जो नियम लागू होते हैं, वही आपके आस-पास के हर व्यक्ति पर भी लागू होते हैं। वे भी बूढ़े हो रहे हैं और खास समझदार भी नहीं हो रहे हैं। एक बार जब आप यह स्वीकार कर लेते हैं, तो आप अपने तथा दूसरों के प्रति ज्यादा क्षमाशील और दयालु हो जाएंगे। अंत में समय घाव भर देता है और आपकी उम्र बढ़ने के साथ इस क्षेत्र में आपकी स्थिति बेहतर होती जाती है। देखिए, आप अगर पहले ही बहुत ज्यादा गलतियां कर चुके हैं तो भविष्य में उतनी ही कम नई गलतियां करेंगे। सबसे अच्छा तो यह होता कि आप जिंदगी में जल्दी ही ढेर सारी गलतियां कर लें, ताकि बाद में मुश्किल तरीके से सीखने की संभावनाएं कम हो जाएं और जवानी इसी का तो नाम है - ज्यादा से ज्यादा गलतियां करने और उन्हें अपने रास्ते से हटाने का अवसर। मतलब यही है कि दुनिया का कोई भी शख्स यह दावा नहीं कर सकता कि वह गलती नहीं कर सकता। हां, गलती सभी से होती है लेकिन उसे बार बार दोहराने पर दो बातें सामने आती हैं। एक तो यह कि जो शख्स गलती कर रहा है वह समझना ही नहीं चाहता कि उसने गलती की है तो माना जा सकता है कि वह किसी भी दशा में सुधरना ही नहीं चाहता। दूसरा, गलती होने के बाद भी उसे दोहराने का मतलब है वह शख्स उससे सबक सीखना नहीं चाहता। ऐसा नहीं होना चाहिए। आप बड़े हो गए इसका मतलब यह कतई नहीं हो सकता कि आप गलती नहीं कर सकते। गलती होगी और आपको उसे सच्चे मन से स्वीकार करना ही होगा।

Dark Saint Alaick
18-02-2013, 11:46 PM
चींटी ने दी मकड़ी को सीख

एक मकड़ी ने जाला बनाने का विचार किया और सोचा कि जाले में खूब कीड़े, मक्खियां फंसेंगी और मै उसे आहार बनाऊंगी और मजे से रहूंगी। उसने कमरे के एक कोने में जाला बुनना शुरू किया। कुछ देर में आधा जाला बुन कर तैयार हो गया। मकड़ी खुश हुई कि अचानक उसकी नजर एक बिल्ली पर पड़ी जो उसे देखकर हंस रही थी। मकड़ी को गुस्सा आ गया और वह बिल्ली से बोली, हंस क्यो रही हो? बिल्ली ने जवाब दिया, यहां मक्खियां नहीं हैं। ये जगह बिलकुल साफ-सुथरी है। यहां कौन आएगा तेरे जाले में। उसने अच्छी सलाह के लिए बिल्ली को धन्यवाद दिया और जाला अधूरा छोड़ दूसरी जगह तलाश करने लगी। उसने इधर-उधर देखा। एक खिड़की में जाला बुनना शुरू किया। कुछ देर वह जाला बुनती रही। तभी एक चिड़िया आई और मकड़ी से बोली, तू भी कितनी बेवकूफ है। यहां खिड़की से तेज हवा आती है। तू जाले के साथ ही उड़ जाएगी। वह सोचने लगी अब कहां जाला बनाया जाए? समय काफी बीत चूका था और उसे भूख भी लगने लगी थी। उसे एक आलमारी का खुला दरवाजा दिखा और उसने उसी में जाला बुनना शुरू किया। तभी उसे एक काक्रोच नजर आया। काक्रोच बोला, आलमारी को कुछ दिनों बाद बेच दिया जाएगा और तुम्हारी सारी मेहनत बेकार चली जाएगी। वह काफी थक चुकी थी और उसके अंदर जाला बुनने की ताकत ही नही बची थी। भूख की वजह से वह परेशान थी। उसे पछतावा हो रहा था कि अगर पहले ही जाला बुन लेती तो अच्छा रहता। उसने पास से गुजर रही चींटी से मदद करने का आग्रह किया। चींटी बोली, मैं बहुत देर से तुम्हे देख रही थी। तुम बार-बार अपना काम शुरू करती और दूसरों के कहने पर उसे अधूरा छोड़ देती। और जो लोग ऐसा करते हैं, उनकी यही हालत होती है। और ऐसा कहते हुए वह अपने रास्ते चली गई और मकड़ी पछताती हुई निढाल पड़ी रही।

Dark Saint Alaick
23-02-2013, 01:49 AM
अवसर का पूरा लाभ उठाएं

आपको जिंदगी को रोमांचक अनुभवों की शृंखला के रूप में देखना होगा। हर रोमांचक अनुभव मजे लेने, कुछ सीखने, दुनिया टटोलने, अनुभव तथा दोस्तों का दायरा बढ़ाने और अपने क्षितिजों का विस्तार करने का अवसर होता है। रोमांचक अनुभवों के दरवाजे बंद करने का मतलब बिलकुल यही है कि आप बंद हो जाते हैं। जिस पल आपको किसी रोमांचक अनुभव, अपनी सोच बदलने या खुद को बाहर कदम रखने का अवसर दिया जाए, उसका फायदा उठाएं। फिर देखें कि क्या होता है। अगर इस विचार से आप घबरा रहे हों तो याद रखें कि उस अनुभव के बाद आप अपने खेल में दोबारा घुस सकते हैं, बशर्ते आप ऐसा चाहते हों। लेकिन हर अवसर के लिए हां कहना भी कोई पत्थर की लकीर नहीं है, क्योंकि यह भी लचीलापन नहीं होगा। सचमुच लचीले लोग जानते हैं कि कब नहीं कहना है और कब हां कहना है। अगर आप जानना चाहते हैं कि आपकी सोच कितनी लचीली है, तो इन सवालों से अपनी जांच कर लें कि क्या आपके बिस्तर के सिरहाने पर रखी पुस्तकें वैसी ही हैं, जैसी आप हमेशा पढ़ते हैं? क्या आप इस तरह की बात कहते है कि मैं उस तरह के किसी व्यक्ति को नहीं जानता या मैं इस तरह की जगहों पर नहीं जाता हूं? अगर ऐसा है, तो शायद आपके दिमाग का विस्तार करने और अपनी सोच की बेड़ियों को उतारने का वक्त आ चुका है। आपको ना केवल खुद को लचीला बनाना होगा बल्कि अपनी कुछ महत्वाकांक्षाओं को ताक में भी रखना होगा। आपको केवल अपने बूते ही सब कुछ कर लेने की आदत भी बदलनी होगी क्योंकि दुनिया में कोई भी इंसान इतना परिपक्व नहीं होता कि सब कुछ अपने ही बूते कर ले। उसे कहीं ना कहीं दूसरों का भी साथ चाहिए होता है। खुद को लचीला बनाएं और उतना ही करें जितना क्षमता है। क्षमता से ज्यादा कुछ भी करने की तमन्ना आपको किसी संकट में भी डाल सकती है। खतरे उठाएं लेकिन सोच समझ कर।

Dark Saint Alaick
23-02-2013, 01:49 AM
कलाकार का उत्साह

बहुत समय पहले की बात है। उन्नीसवीं सदी के मशहूर पेंटर दांते गेब्रियल रोजेटी के पास एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति पहुंचा। उसके पास कुछ स्केच और ड्राइंग्स थीं जो वो रोजेटी को दिखा कर उनकी राय जानना चाहता था की वे अच्छी हैं या कम से कम उन्हें देखकर कलाकार में कुछ टैलेंट जान पड़ता है। रोजेटी ने ध्यान से उन ड्राइंग्स को देखा। वह जल्द ही समझ गए कि वे किसी काम की नहीं हैं और उसे बनाने वाले में नहीं के बराबर आर्टिस्टिक टैलेंट है। वे उस व्यक्ति को दुखी नहीं करना चाहते थे पर साथ ही वो झूठ भी नहीं बोल सकते थे इसलिए उन्होंने बड़ी सज्जनता से उससे कह दिया कि इन ड्राइंग्स में कोई खास बात नहीं है। उनकी बात सुन व्यक्ति थोड़ा निराश हुआ लेकिन शायद वो पहले से ही ऐसी उम्मीद कर रहा था। उसने रोजेटी से उनका समय लेने के लिए माफी मांगी और अनुरोध किया कि यदि संभव हो तो वे एक यंग आर्ट स्टूडेंट के द्वारा बनाई कुछ पुरानी पेंटिंग्स भी देख लें। रोजेटी तैयार हो गए और एक पुरानी फाइल में लगी कृतियां देखने लगे। उन्होंने अपनी ख़ुशी जाहिर करते हुए कहा,वाह, ये पेंटिंग्स तो बड़ी अच्छी हैं। इस नौजवान में बहुत टैलेंट है। उसे हर तरह का प्रोत्साहन दीजिए। यदि वह इस काम में लगा रहता है और जी-तोड़ मेहनत करता है तो कोई शक नहीं कि एक दिन वो महान पेंटर बनेगा। रोजेटी की बात सुनकर उस व्यक्ति की आंखें भर आयीं। रोजेटी ने पूछा,कौन है यह नौजवान? तुम्हारा बेटा? उसने कहा, नहीं,ये मैं ही हूं। तीस साल पहले का मैं । उस समय किसी ने आपकी तरह प्रोत्साहित किया होता तो आज मैं एक खुशहाल जिन्दगी जी रहा होता। रोजेटी ने कहा,उत्साह एक ऐसी चीज है जो हमारे अन्दर का बेस्ट बाहर लाती है,हमें और भी अच्छा करने के लिए मोटीवेट करती है। इसलिए जब कभी हमें मौका मिले हम उस शख्स को जरूर उत्साही करें जिसमें टेलेंट है।

Dark Saint Alaick
24-02-2013, 01:32 AM
सोच को लचीला बनाए रखें

जब आपकी सोच सख्त, तय और स्थापित हो जाती है तो आप लड़ाई हार जाते हैं। जब आप यह सोच लेते हैं कि आपके पास सारे जवाब हैं तो तय मानिए आपको किसी भी वक्त पीछे हटना पड़ सकता है। जब आपके तरीके पूर्व निर्धारित और स्थापित हो जाते हैं, तो संभवत: आप इतिहास का हिस्सा बन चुके हैं। जीवन से अधिकतम पाने के लिए आपको अपने सभी विकल्प खुले रखने चाहिए। आपको अपनी सोच और जीवन को लचीला रखना चाहिए। जब तूफान आए, तो आपको सिर झुकाने के लिए तैयार रहना होगा। जब आपको तूफान का सबसे कम अंदेशा होता है, तभी यह सचमुच तेजी से आ जाता है। जिस पल आप किसी निश्चित परिपाटी में फंस जाते हैं तो एक तरह से आप दिशा से भटकने के लिए खुद को तैयार कर लेते हैं। आपको अपनी सोच की काफी गौर से जांच करनी चाहिए। लचीली सोच कुछ हद तक मानसिक मार्शल आर्ट्स जैसी है - झुकना और लहराना, चकमा देने और लयबद्ध गतिविधि के लिए तैयार रहना। जिंदगी को दुश्मन नहीं, दोस्ताना मुक्के मारने वाले साथी के रूप में देखने की कोशिश करें। अगर आप लचीले हैं, तो आपको मजा आएगा। अगर आप जमीन पर कसकर पैर जमा लेते हैं तो इस बात की आशंका है कि जिंदगी आपको जमकर धक्के मारेगी। हम सभी के जीवन में तयशुदा आदतें होती है। हम इस या उस चीज पर लेबल लगाना पसंद करते हैं। हम अपनी राय और धारणाओं पर काफी गर्व महसूस करते हैं। हम सभी कोई निश्चित अखबार पढ़ना पसंद करते हैं, निश्चित टीवी कार्यक्रम या फिल्म देखना पसंद करते हैं, हर बार एक खास किस्म की दुकानों में जाते हैं, खास किस्म का भोजन करते हैं, खुद को बाकी सभी संभावनाओं से पूरी तरह काट लें, तो हम नीरस, सख्त और कड़क बन जाते हैं। इस तरह हमारे इधर-उधर ठोकर खाने की संभावना हो जाती है। इससे बचें।

Dark Saint Alaick
24-02-2013, 01:36 AM
गुब्बारे वाले की सीख

एक आदमी बेहद गरीब था, लेकिन उसकी सोच काफी बड़ी थी। आर्थिक रूप से अन्य लोगों के मुकाबले काफी कमजोर होने के बावजूद भी वह कभी अपनी सोच को कमजोर नहीं होने देता था। वह आदमी गुब्बारे बेच कर जीवन-यापन करता था। वह अपने गांव में तो गुब्बारे बेचता ही था, साथ ही जब भी मौका मिलता, आस-पास लगने वाली हाटों में भी जाता था और गुब्बारे बेचा करता था। बच्चों को लुभाने के लिए वह तरह-तरह के गुब्बारे रखता। लाल, पीले, हरे, नीले। उसे पता होता था कि बच्चे किस तरह के रंग के गुब्बारे पसंद करते हैं। और जब कभी उसे लगता की गुब्बारे की बिक्री कम हो रही है, वह झट से एक गुब्बारा हवा में छोड़ देता, जिसे उड़ता देखकर बच्चे खुश हो जाते और गुब्बारे खरीदने के लिए उसके पास पहुंच जाते। इसी तरह एक दिन वह हाट में गुब्बारे बेच रहा था और बिक्री बढ़ाने के लिए बीच-बीच में गुब्बारे उड़ा रहा था। पास ही खड़ा एक छोटा बच्चा ये सब बड़ी जिज्ञासा के साथ देख रहा था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि गुब्बारे वाला ऐसा क्यों कर रहा है। इस बार जैसे ही गुब्बारे वाले ने एक सफेद गुब्बारा उड़ाया, वह तुरंत उसके पास पहुंचा और मासूमियत से बोला, अगर आप ये काला वाला गुब्बारा छोड़ेंगे, तो क्या वो भी ऊपर जाएगा? गुब्बारा वाले ने थोड़े अचरज के साथ उसे देखा और बोला - हां, बिलकुल जाएगा बेटा। गुब्बारे का ऊपर जाना इस बात पर नहीं निर्भर करता है कि वो किस रंग का है, बल्कि इस पर निर्भर करता है कि उसके अन्दर क्या है। ठीक इसी तरह हम इंसानों के लिए भी ये बात लागू होती है। कोई अपनी जिंदगी में कितना ऊपर जाएगा या ऊंचाई के किस मुकाम को छुएगा, ये उसके बाहरी रंग-रूप पर निर्भर नहीं करता है । ये इस बात पर निर्भर करता है कि उसके अन्दर क्या है? अंतत: हमारा आत्मविश्वास ही यह बताता है कि हम किस ऊंचाई को छुएंगे।

rajnish manga
24-02-2013, 11:16 AM
सोच को लचीला बनाए रखें

जब आपकी सोच सख्त, तय और स्थापित हो जाती है तो आप लड़ाई हार जाते हैं। जब आप यह सोच लेते हैं कि आपके पास सारे जवाब हैं तो तय मानिए आपको किसी भी वक्त पीछे हटना पड़ सकता है। जब आपके तरीके पूर्व निर्धारित और स्थापित हो जाते हैं, तो संभवत: आप इतिहास का हिस्सा बन चुके हैं। जीवन से अधिकतम पाने के लिए आपको अपने सभी विकल्प खुले रखने चाहिए। आपको अपनी सोच और जीवन को लचीला रखना चाहिए। जब तूफान आए, तो आपको सिर झुकाने के लिए तैयार रहना होगा। जब आपको तूफान का सबसे कम अंदेशा होता है, तभी यह सचमुच तेजी से आ जाता है। जिस पल आप किसी निश्चित परिपाटी में फंस जाते हैं तो एक तरह से आप दिशा से भटकने के लिए खुद को तैयार कर लेते हैं। आपको अपनी सोच की काफी गौर से जांच करनी चाहिए। लचीली सोच कुछ हद तक मानसिक मार्शल आर्ट्स जैसी है - झुकना और लहराना, चकमा देने और लयबद्ध गतिविधि के लिए तैयार रहना। जिंदगी को दुश्मन नहीं, दोस्ताना मुक्के मारने वाले साथी के रूप में देखने की कोशिश करें। अगर आप लचीले हैं, तो आपको मजा आएगा। अगर आप जमीन पर कसकर पैर जमा लेते हैं तो इस बात की आशंका है कि जिंदगी आपको जमकर धक्के मारेगी। हम सभी के जीवन में तयशुदा आदतें होती है। हम इस या उस चीज पर लेबल लगाना पसंद करते हैं। हम अपनी राय और धारणाओं पर काफी गर्व महसूस करते हैं। हम सभी कोई निश्चित अखबार पढ़ना पसंद करते हैं, निश्चित टीवी कार्यक्रम या फिल्म देखना पसंद करते हैं, हर बार एक खास किस्म की दुकानों में जाते हैं, खास किस्म का भोजन करते हैं, खुद को बाकी सभी संभावनाओं से पूरी तरह काट लें, तो हम नीरस, सख्त और कड़क बन जाते हैं। इस तरह हमारे इधर-उधर ठोकर खाने की संभावना हो जाती है। इससे बचें।

:bravo:

बहुत सुन्दर, अलैक जी. विख्यात दार्शनिक बर्ट्रेंड रसेल से किसी ने पूछा कि क्या आप अपनी धारणाओं को ले कर मरने के लिए तैयार होंगे? उन्होंने उत्तर दिया -
"बिलकुल नहीं, अरे भाई! मैं गलत भी तो हो सकता हूँ."

Dark Saint Alaick
26-02-2013, 03:53 PM
नाकामियों से डरें नहीं

किसी भी इंसान को दूसरे उतना धोखा नहीं देते, जितना वह खुद को देता है। किसी भी इंसान की अवनति के लिए दूसरे उतने उत्तरदायी नहीं होते जितना वह खुद होता है। कुछ असफलताओं के बाद व्यक्ति के मन में हीनभावना आ जाती है और वह कायर हो जाता है। वह इस बात पर चिंतन नहीं कर पाता कि जीत और हार तो जीवन का हिस्सा है। वह खुद को भाग्यहीन मान लेता है। उसे लगता है कि संसार में उसका कोई मूल्य नहीं है। वह यह मान लेता है कि दूसरे उससे बेहतर हैं और वह आम रहने के लिए पैदा हुआ है। चाहे आपके साथ जो घटा हो, आपने कितना भी बुरा जीवन क्यों ना जिया हो, आपके जीवन का अभी अंत नहीं हुआ है। आपका मूल्य खत्म नहीं हुआ है। किसी को भी हक नहीं कि किसी अनुपयोगी वस्तु की तरह आपको कबाड़ में डाल दे। आप फिर खड़े हो सकते हैं। आप फिर मंजिल को पा सकते हैं। महत्व आपके अतीत का नहीं है। महत्व है तो आपके भविष्य के प्रति आपकी सोच का। ऐसे सैंकड़ों उदाहरण हैं जिसमें दुनिया ने किसी शख्स को चूका हुआ मान लिया था, उनका तिरस्कार होने लगा था लेकिन उनके हौंसलों की उड़ान ने उन्हें फिर से खड़ा कर दिया। वे सारे लोग जो कल तक उनका अपमान करते थे, आज फिर उनके प्रशंसक हैं और जय जयकार कर रहे हैं। रात चाहे कितनी भी गहरी हो, सूर्य को हमेशा नहीं ढक सकती। सोना चाहे धूल से सना हो, सोना ही रहता है। यदि आप अपनी इच्छा से एक खराब और मजबूर जिंदगी चुन रहें हैं तो कोई आपकी मदद नहीं कर सकता। लेकिन यदि आप बीती असफलताओं से डरे हुए हैं तो उठिए। यदि आप किसी कारण से हीन भावना से घिरे हैं तो अपने मन के अंदर उतरिए। आप पाएंगे कि बहुत से कार्य हैं जिन्हे आप बहुत अच्छे से कर सकते हैं। आप अपने आसपास देखिए। आपको बहुत से ऐसे लोग मिलेंगे जिनमें आपके जैसी योग्यता नहीं है फिर भी वे खुशहाल हैं। अपनी हीनभावना निकाल फैंकें।

Dark Saint Alaick
26-02-2013, 03:55 PM
सुल्तान को सलाम नहीं

शिवाजी के समक्ष एक बार उनके सैनिक किसी गांव के मुखिया को पकड़ कर ले आए। मुखिया पर एक विधवा की इज्जत लूटने का आरोप साबित हो चुका था। उस समय शिवाजी मात्र 14 वर्ष के थे पर वह बड़े ही बहादुर, निडर और न्याय प्रिय थे और विशेषकर महिलाओं के प्रति उनके मन में असीम सम्मान था। उन्होंने तत्काल निर्णय सुना दिया कि इसके दोनों हाथ और पैर काट दो। ऐसे जघन्य अपराध के लिए इससे कम कोई सजा नहीं हो सकती। शिवाजी जीवन पर्यन्त साहसिक कार्य करते रहे और गरीब, बेसहारा लोगों को हमेशा प्रेम और सम्मान देते रहे। शिवाजी के साहस का एक और किस्सा प्रसिद्द है। पुणे के करीब नचनी गांव में एक भयानक चीते का आतंक छाया हुआ था। वह अचानक ही कहीं से हमला करता था और जंगल में ओझल हो जाता। गांव वाले अपनी समस्या लेकर शिवाजी के पास पहुंच। शिवाजी ने कहा आप लोग चिंता मत करिए,मैं यहां आपकी मदद करने के लिए ही हूं। शिवाजी अपने सिपाहियों और कुछ सैनिकों के साथ जंगल में चीते को मारने के लिए निकल पड़े। बहुत ढूंढने के बाद जैसे ही वह सामने आया, सैनिक डर कर पीछे हट गए पर शिवाजी बिना डरे उस पर टूट पड़े और पलक झपकते ही उस मार गिराया। शिवाजी के पिता का नाम शाहजी था। वह अक्सर युद्ध लड़ने के लिए घर से दूर रहते थे इसलिए उन्हें शिवाजी के निडर और पराक्रमी होने का अधिक ज्ञान नहीं था। किसी अवसर पर वह शिवाजी को बीजापुर के सुलतान के दरबार में ले गए। शाहजी ने तीन बार झुककर सुलतान को सलाम किया और शिवाजी से भी ऐसा ही करने को कहा लेकिन शिवाजी अपना सर ऊपर उठाये सीधे खड़े रहे। विदेशी शासक के सामने वह किसी भी कीमत पर सर झुकाने को तैयार नहीं हुए और शेर की तरह शान से चलते हुए दरबार से चले गए। उन्होने साबित कर दिया कि वे किसी से भी नही डरते।

Dark Saint Alaick
28-02-2013, 02:58 AM
धारा के खिलाफ तैरना सीखें

जिंदगी मुश्किल है और इस बात के लिए आपको ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए। अगर सब कुछ सरल और मुलायम होता, तो जिंदगी में हमारा इम्तिहान नहीं होता, हमें आजमाया नहीं जाता, हमें ढाला नहीं जाता। हम विकास नहीं कर पाते, सीख नहीं पाते या बदल नहीं पाते। हमें खुद के ऊपर उठने का मौका नहीं मिल पाता। अगर जिंदगी सुहाने दिनों की शृंखला होती तो हम इससे जल्दी ही ऊब जाते। अगर बारिश नहीं होती तो हमें इसके बंद होने पर समुद्र तट पर जाने की खुशी कैसे मिलती? अगर सब कुछ आसान होता, तो ज्यादा मजबूत नहीं बन पाते। तो इस बात के लिए ईश्वर का शुक्रिया अदा करें कि जिंदगी कई बार संघर्ष जैसी लगती है। बस यह जान लें कि सिर्फ मरी हुई मछलियां ही धारा के साथ बहती हैं। इंसान को धारा के खिलाफ तैरना होता है, चढ़ाई करने के लिए संघर्ष करना होता है। हमें जलप्रतापों, तूफानों और तेज बहाव से जूझना होता है। लेकिन हमारे पास और कोई विकल्प नहीं है। हमें तैरते रहना होगा, वरना धारा हमें दूर बहाकर ले जाएगी। और हमारे हाथ-पैर पटकने की हर हरकत, हमारे तैरने की हर गतिविधि हमें ज्यादा मजबूत और फिट बनाती है। ज्यादा छरहरा और खुश बनाती है। एक सर्वे से पता चलता है कि बहुत से लोगों के लिए रिटायरमेंट सचमुच बुरा होता है। बहुत सारे लोग रिटायरमेंट के कुछ ही समय बाद मर जाते हैं। उन्होंने धारा के खिलाफ तैरना छोड़ दिया और धारा उन्हें बहाकर ले गई। इसलिए तैरते रहो, तैरते रहो। हर विपत्ति को बेहतर बनने के अवसर के रूप में देखें। यह आपको कमजोर नहीं, ज्यादा मजबूत बनाती है। आप पर सिर्फ उतनी ही विपत्तियों का बोझ लादा जाएगा, जितनी आप उठा सकते हैं। संघर्ष कभी खत्म नहीं होता, लेकिन बीच-बीच में राहत का दौर भी आता है, शांत जल, जहां हम कुछ वक्त आराम कर सकते हैं और उस पल का आनंद ले सकते हैं। जिंदगी इसी तरह चलती है।

Dark Saint Alaick
28-02-2013, 03:01 AM
चर्चा करो, चिल्लाओ मत

एक बार एक संन्यासी अपने शिष्यों के साथ गंगा नदी के तट पर नहाने पहुंचा। वहां एक ही परिवार के कुछ लोग अचानक आपस में बात करते-करते एक दूसरे पर क्रोधित हो उठे और जोर-जोर से चिल्लाने लगे। संन्यासी यह देख तुरंत पलटा और अपने शिष्यों से पूछा, क्रोध में लोग एक दूसरे पर चिल्लाते क्यों हैं ? शिष्य कुछ देर सोचते रहे। एक ने उत्तर दिया, क्योंकि हम क्रोध में शांति खो देते हैं इसलिए। संन्यासी ने पुन: प्रश्न किया कि जब दूसरा व्यक्ति हमारे सामने ही खड़ा है तो भला उस पर चिल्लाने की क्या जरुरत है। जो कहना है वो आप धीमी आवाज में भी तो कह सकते हैं। कुछ और शिष्यों ने भी उत्तर देने का प्रयास किया पर बाकी लोग संतुष्ट नहीं हुए। अंतत: संन्यासी ने समझाया कि जब दो लोग आपस में नाराज होते हैं तो उनके दिल एक दूसरे से बहुत दूर हो जाते हैं और इस अवस्था में वे एक दूसरे को बिना चिल्लाए नहीं सुन सकते। वे जितना अधिक क्रोधित होंगे उनके बीच की दूरी उतनी ही अधिक हो जाएगी और उन्हें उतनी ही तेजी से चिल्लाना पड़ेगा। क्या होता है जब दो लोग प्रेम में होते हैं ? तब वे चिल्लाते नहीं बल्कि धीरे-धीरे बात करते हैं क्योंकि उनके दिल करीब होते हैं, उनके बीच की दूरी नाम मात्र की रह जाती है। संन्यासी ने बोलना जारी रखा - और जब वे एक दूसरे को हद से भी अधिक चाहने लगते हैं तो क्या होता है? तब वे बोलते भी नहीं। वे सिर्फ एक दूसरे की तरफ देखते हैं और सामने वाले की बात समझ जाते हैं? प्रिय शिष्यो, जब तुम किसी से बात करो तो ये ध्यान रखो की तुम्हारे ह्रदय आपस में दूर न होने पाएं। तुम ऐसे शब्द मत बोलो, जिससे तुम्हारे बीच की दूरी बढ़े, नहीं तो एक समय ऐसा आएगा कि ये दूरी इतनी अधिक बढ़ जाएगी कि तुम्हे लौटने का रास्ता भी नहीं मिलेगा। इसलिए चर्चा करो, बात करो लेकिन कभी किसी पर चिल्लाओ मत। शिष्यों को संन्यासी की बात समझ आ गई।

rajnish manga
28-02-2013, 08:30 AM
चर्चा करो, चिल्लाओ मत

एक बार एक संन्यासी अपने शिष्यों के साथ गंगा नदी के तट पर नहाने पहुंचा। वहां एक ही परिवार के कुछ लोग अचानक आपस में बात करते-करते एक दूसरे पर क्रोधित हो उठे और जोर-जोर से चिल्लाने लगे। संन्यासी यह देख तुरंत पलटा और अपने शिष्यों से पूछा, क्रोध में लोग एक दूसरे पर चिल्लाते क्यों हैं ? शिष्य कुछ देर सोचते रहे। एक ने उत्तर दिया, क्योंकि हम क्रोध में शांति खो देते हैं इसलिए। संन्यासी ने पुन: प्रश्न किया कि जब दूसरा व्यक्ति हमारे सामने ही खड़ा है तो भला उस पर चिल्लाने की क्या जरुरत है। जो कहना है वो आप धीमी आवाज में भी तो कह सकते हैं। कुछ और शिष्यों ने भी उत्तर देने का प्रयास किया पर बाकी लोग संतुष्ट नहीं हुए। अंतत: संन्यासी ने समझाया कि जब दो लोग आपस में नाराज होते हैं तो उनके दिल एक दूसरे से बहुत दूर हो जाते हैं और इस अवस्था में वे एक दूसरे को बिना चिल्लाए नहीं सुन सकते। वे जितना अधिक क्रोधित होंगे उनके बीच की दूरी उतनी ही अधिक हो जाएगी और उन्हें उतनी ही तेजी से चिल्लाना पड़ेगा। क्या होता है जब दो लोग प्रेम में होते हैं ? तब वे चिल्लाते नहीं बल्कि धीरे-धीरे बात करते हैं क्योंकि उनके दिल करीब होते हैं, उनके बीच की दूरी नाम मात्र की रह जाती है। संन्यासी ने बोलना जारी रखा - और जब वे एक दूसरे को हद से भी अधिक चाहने लगते हैं तो क्या होता है? तब वे बोलते भी नहीं। वे सिर्फ एक दूसरे की तरफ देखते हैं और सामने वाले की बात समझ जाते हैं? प्रिय शिष्यो, जब तुम किसी से बात करो तो ये ध्यान रखो की तुम्हारे ह्रदय आपस में दूर न होने पाएं। तुम ऐसे शब्द मत बोलो, जिससे तुम्हारे बीच की दूरी बढ़े, नहीं तो एक समय ऐसा आएगा कि ये दूरी इतनी अधिक बढ़ जाएगी कि तुम्हे लौटने का रास्ता भी नहीं मिलेगा। इसलिए चर्चा करो, बात करो लेकिन कभी किसी पर चिल्लाओ मत। शिष्यों को संन्यासी की बात समझ आ गई।

:bravo:

khalid
28-02-2013, 10:11 AM
:bravo::bravo::bravo::bravo:
शब्द नहीँ हैँ तारीफ के लिए

Sikandar_Khan
01-03-2013, 09:39 PM
चर्चा करो, चिल्लाओ मत

एक बार एक संन्यासी अपने शिष्यों के साथ गंगा नदी के तट पर नहाने पहुंचा। वहां एक ही परिवार के कुछ लोग अचानक आपस में बात करते-करते एक दूसरे पर क्रोधित हो उठे और जोर-जोर से चिल्लाने लगे। संन्यासी यह देख तुरंत पलटा और अपने शिष्यों से पूछा, क्रोध में लोग एक दूसरे पर चिल्लाते क्यों हैं ? शिष्य कुछ देर सोचते रहे। एक ने उत्तर दिया, क्योंकि हम क्रोध में शांति खो देते हैं इसलिए। संन्यासी ने पुन: प्रश्न किया कि जब दूसरा व्यक्ति हमारे सामने ही खड़ा है तो भला उस पर चिल्लाने की क्या जरुरत है। जो कहना है वो आप धीमी आवाज में भी तो कह सकते हैं। कुछ और शिष्यों ने भी उत्तर देने का प्रयास किया पर बाकी लोग संतुष्ट नहीं हुए। अंतत: संन्यासी ने समझाया कि जब दो लोग आपस में नाराज होते हैं तो उनके दिल एक दूसरे से बहुत दूर हो जाते हैं और इस अवस्था में वे एक दूसरे को बिना चिल्लाए नहीं सुन सकते। वे जितना अधिक क्रोधित होंगे उनके बीच की दूरी उतनी ही अधिक हो जाएगी और उन्हें उतनी ही तेजी से चिल्लाना पड़ेगा। क्या होता है जब दो लोग प्रेम में होते हैं ? तब वे चिल्लाते नहीं बल्कि धीरे-धीरे बात करते हैं क्योंकि उनके दिल करीब होते हैं, उनके बीच की दूरी नाम मात्र की रह जाती है। संन्यासी ने बोलना जारी रखा - और जब वे एक दूसरे को हद से भी अधिक चाहने लगते हैं तो क्या होता है? तब वे बोलते भी नहीं। वे सिर्फ एक दूसरे की तरफ देखते हैं और सामने वाले की बात समझ जाते हैं? प्रिय शिष्यो, जब तुम किसी से बात करो तो ये ध्यान रखो की तुम्हारे ह्रदय आपस में दूर न होने पाएं। तुम ऐसे शब्द मत बोलो, जिससे तुम्हारे बीच की दूरी बढ़े, नहीं तो एक समय ऐसा आएगा कि ये दूरी इतनी अधिक बढ़ जाएगी कि तुम्हे लौटने का रास्ता भी नहीं मिलेगा। इसलिए चर्चा करो, बात करो लेकिन कभी किसी पर चिल्लाओ मत। शिष्यों को संन्यासी की बात समझ आ गई।

:fantasic::fantasic:
बहुत खूब .........

Dark Saint Alaick
06-03-2013, 01:25 AM
समय बिल्कुल बर्बाद न करें

समय कम है। यह एक ऐसा तथ्य है, जिससे आप बच नहीं सकते। यह तो जीवन की सच्चाई है। अगर समय कम है तो फिर समझदारी इसी बात में दिखती है कि हम इसे जरा भी बर्बाद न करें। इसकी एक छोटी सी प्यारी बूंद भी नहीं। हमने देखा है कि जिंदगी में सफल वही होते हैं, जो जीवन से आखिरी बूंद की संतुष्टि और ऊर्जा भी निचोड़ लेते हैं। वे इसी सरल नियम पर अमल करके ऐसा करते हैं। वे अपने जीवन में उन चीजों पर ही ध्यान देते हैं, जिन पर उनका नियंत्रण होता है और फिर वे बस मितव्ययिता से (समय की दृष्टि से) बाकी चीजों की चिंता छोड़ देते हैं। अगर कोई आपसे सीधे मदद मांगता है, तो आप मदद कर सकते हैं या इनकार भी कर सकते हैं। चुनाव आपका है। लेकिन अगर सारी दुनिया आपसे मदद मांगने लगे तो आपके बस में कुछ खास नहीं होता। इस बात पर खुद को कोसने से कोई फायदा नहीं होगा, सिर्फ समय ही बर्बाद होगा। देखिए, इसका मतलब यह नहीं कि चीजों की परवाह ही न करें या जरूरतमंद लोगों की तरफ से मुंह मोड़ लें। यह जान लें कि कई ऐसे क्षेत्र होते हैं, जिनमें आप व्यक्तिगत फर्क डाल सकते हैं और बाकी क्षेत्र ऐसे होते हैं, जहां आप सुई की नोक बराबर भी फर्क नहीं डाल सकते। अगर आप किसी ऐसी चीज को बदलने में वक्त बर्बाद कर रहे हैं जो कभी नहीं बदलने वाली, तो जिंदगी आपके पास से फर्राटे से गुजर जाएगी और आप मौके चूक जाएंगे। दूसरी ओर अगर आप खुद को ऐसी चीजों या क्षेत्रों में समर्पित करते हैं जिन्हें आप बदल सकते हैं या जहां आप फर्क डाल सकते हैं तो जिंदगी ज्यादा सार्थक बन जाएगी। विचित्र बात यह है कि यह जितनी ज्यादा सार्थक बनेगी, आपके पास उतना ही ज्यादा समय होगा। जाहिर है, अगर हममें से ज्यादातर कोशिश करें तो कुछ भी बदल सकते हैं, लेकिन यह नियम आपके लिए है-ये आपके निजी नियम है। सिर्फ उतने तक ही सीमित रहें, जिसे आप बदल सकते हैं।

Dark Saint Alaick
06-03-2013, 01:29 AM
गुरू का आखिरी उपदेश

गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त कर रहे शिष्यों में आज काफी उत्साह था। उनकी बारह वर्षों की शिक्षा आज पूर्ण हो रही थी और अब वो अपने घरों को लौट सकते थे। गुरुजी भी शिष्यों को आखिरी उपदेश की तैयारी कर रहे थे। गुरु ने अपने हाथ में कुछ लकड़ी के खिलौने थे। उन्होंने शिष्यों को खिलौने दिखाते हुए कहा, आपको इन तीनों में अंतर ढूंढने हैं। सभी खिलौनों को देखने लगे। तीनों लकड़ी से बने एक समान दिखने वाले गुड्डे थे। सभी चकित थे कि इनमें क्या अंतर हो सकता है? तभी किसी ने कहा, ये देखो इस गुड्डे के में एक छेद है। यह संकेत काफी था। जल्द ही शिष्यों ने पता लगा लिया और गुरु से बोले, इन गुड्डों में बस इतना ही अंतर है कि एक के दोनों कान में छेद है। दूसरे के एक कान और एक मुंह में छेद है और तीसरे के सिर्फ एक कान में छेद है। गुरु बोले, बिलकुल सही और उन्होंने धातु का एक पतला तार देते हुए उसे कान के छेद में डालने के लिए कहा। शिष्यों ने वैसा ही किया। तार पहले गुड्डे के एक कान से होता हुआ दूसरे कान से निकल गया। दूसरे गुड्डे के कान से होते हुए मुंह से निकल गया और तीसरे के कान में घुसा, पर कहीं से निकल नहीं पाया। तब गुरु ने शिष्यों से गुड्डे अपने हाथ में लेते हुए कहा, इन तीन गुड्डों की तरह ही आपके जीवन में तीन तरह के व्यक्ति आयेंगे। पहला गुड्डा ऐसे व्यक्तियों को दर्शाता है, जो आपकी बात एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल देंगे। ऐसे लोगों से कभी अपनी समस्या साझा न करें। दूसरा गुड्डा ऐसे लोगों को दर्शाता है, जो आपकी बात सुनते हैं और उसे दूसरों के सामने जाकर बोलते हैं। इनसे बचें और कभी अपनी महत्वपूर्ण बातें इन्हें न बताएं। तीसरा गुड्डा ऐसे लोगों का प्रतीक है, जिन पर आप भरोसा कर सकते हैं। उनसे किसी भी तरह का विचार विमर्श कर सकते हैं, सलाह ले सकते हैं। यही वो लोग हैं, जो आपकी ताकत हैं और इन्हें आपको कभी नहीं खोना चाहिए।

Dark Saint Alaick
06-03-2013, 02:44 PM
अपने मन का स्वामी खुद बनें

जीवन में कोई समस्या के सामने आने अथवा किसी कारण कोई मनोवेग या भावना उत्पन्न होने पर तत्काल कुछ कह देना या कर देना दुर्बल मन मस्तिष्क का परिचायक होता है। इसी प्रकार कोई इच्छा आपके मन में जाग्रत हो रही है, तो उस इच्छा के उत्पन्न होने पर तत्काल उसको बिना जांचे पूरा करने में लग जाना भी एक तरह से अविकसित व्यक्तित्व का ही लक्षण होता है। पहले तो यह ठान लीजिए कि आपको अपने मन का स्वामी बनना है। इसलिए सबसे पहले अपनी समस्या, इच्छा या मनोवेग को अपने विवेक के तराजू पर पूरी संजीदगी के साथ तौलिए। उसके अच्छे और बुरे परिणामों पर भी सोचिए। इसके बाद जो नतीजे सामने आते हैं, उनके आधार पर कुछ कहिए या कीजिए। यदि आपको लगता है कि उस समय कुछ कहना या करना कतई उचित नहीं है, तो शांत रहिए और मौन धारण कर लीजिए और अपने काम में जुट जाइए। इससे निश्चित तौर पर आपकी इच्छा शक्ति और व्यक्तित्व का विकास होगा। कई बार लोग अपनी समस्या या कठिनाई को एक बार में ही निपटा देना चाहते हैं। इसका कारण यह है कि वे समस्या या कठिनाई देख कर बेहद घबरा जाते हैं और उनके उत्साह पर पानी फिर जाता है। वे बेतरतीब तरीके से उन समस्याओं के समाधान में जुटने का प्रयास करने लगते हैं, जो कतई उचित नहीं है। समस्याओं को या कठिनाइयों को निपटाने का सही ढंग यह है कि सबसे पहले उन सभी को कागज पर लिख डालिए। इसके बाद समस्याओं को उनके महत्व के क्रम से लगा लीजिए। यह देखिए कि वर्तमान में सबसे महत्वपूर्ण कौन सी समस्या है, जिसका आपको सबसे पहले निपटारा करना है। फिर उस समस्या को कई छोटे-छोटे भागों में बांटिए और उसके प्रारंभिक हल में जुट जाइए। इस प्रकार एक समय में एक ही समस्या को हल करने में अपना ध्यान लगाइए। इसको अपनाने से आपका मनोबल और उत्साह बढ़ेगा।

Dark Saint Alaick
06-03-2013, 02:48 PM
बोल का मोल

एक बूढ़े के चार बेटे थे। बेटे सभी कम जानते थे, किन्तु बोलचाल और आचरण में चारों एक जैसे न थे। एक बार चारों बेटे और पिता यात्रा पर जा रहे थे। यात्रा के बीच उनके पास खाने को कुछ भी न बचा था। धन भी खत्म हो चुका था। वे लोग कई दिन से भूखे थे। पांचों सड़क के किनारे विश्राम कर रहे थे। तभी एक व्यापारी बैलगाड़ी हांकता हुआ निकला। व्यापारी मेले में पकवान और मिठाई बेचने जा रहा था। पकवान और मिठाइयों की महक से पांचों के मुंह में पानी आने लगा। बूढे ने कहा, जाओ व्यापारी से मांगो। शायद कुछ खाने को दे दे। एक बेटा व्यापारी के पास गया और बोला, ओ व्यापारी, इतना माल ले जा रहा है। थोड़ा मुझे दे। भूख लगी है। व्यापारी ने सोचा यह जितनी कठोर वाणी बोल रहा है, इसे उतना ही कठोर पकवान दूंगा। यह सोचकर उसने एक सूखा हुआ पकवान दे दिया। व्यापारी थोड़ी दूर गया कि दूसरा भाई पहुंचा। बोला बड़े भाई, प्रणाम। क्या छोटे भाई को खाने के लिए कुछ भी न दोगे? व्यापारी ने सोचा, इसने मुझे भाई कहा है। छोटे भाई को देना मेरा कर्तव्य है। उसने दोनाभर कर मिठाई दे दी। अब तीसरा भाई गया और बोला आदरणीय आप मेरे पिता समान हैं। मुझे कुछ खाने को दें। व्यापारी ने सोचा, यह मुझे पिता जैसा आदर दे रहा है। इसे भरपेट मिठाई देनी चाहिए। उसने कई पकवान और मिठाई भरकर दे दी। अंत में चौथा पुत्र गया। उसने कहा-मित्र, मुसीबत की घड़ी में क्या तुम मुझे भूखा ही रखोगे? व्यापारी ने सोचा, यह मित्र मुसीबत में है। इसकी मदद करनी चाहिए। उसने कहा, इस गाड़ी से लदे सारे पकवान और मिठाई तुम्हारे लिए हैं। चलो, कहां ले चलूं? वे दोनों वहां आ गए, जहां पिता के साथ बाकी तीनों बेटे बैठे थे। पिता ने सबसे कहा, अब तुम सब अपनी-अपनी मांगी हुई भोजन साम्रगी की तुलना करो। जिसने जैसा बोला और आचरण किया, उसे वैसा मिला। क्या अब भी अपने बोल का मोल नहीं समझे?

Dark Saint Alaick
18-03-2013, 12:42 PM
भावुक होना ही काफी नहीं

आज की पीढ़ी के साथ दिक्कत यह है कि वह मुद्दों को लेकर बहुत जल्दी संजीदा हो जाती हैं और फिर उन्हें आसानी से भूल भी जाती है। यह बड़ी समस्या है। सिर्फ भावुक होना या गुस्सा होना काफी नहीं है। जब तक किसी मसले का हल न निकले, हमें उसे जरूर याद रखना चाहिए। चेन्नई में जन्मे सिद्धार्थ ने बिजनेस मैनेजमेंट की पढ़ाई के बाद एक्टिंग करने का फैसला किया। दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान वह थियेटर ग्रुप से जुड़े रहे। अभिनय करने के अलावा वह एक प्रभावशाली वक्ता भी रहे। वह अपने कॉलेज की डिबेटिंग सोसाइटी के अध्यक्ष बने और वर्ल्ड डिबेटिंग चैंपियनशिप में हिस्सा लिया। हैदराबाद में उद्यमियों के कार्यक्रम में एक बार सिद्धार्थ ने मौजूदा पीढ़ी से अपने अनुभव बांटते हुए कहा कि आजकल क्या हो रहा है? उनका कहना था कि जब कोई भी कोई घटना घटती है तो हम चीखते हैं, चिल्लाते हैं और आंसू बहाते हैं। हमारे अंदर किसी एक घटना को लेकर जोश या फिर गुस्सा पनपता है, लेकिन बहुत जल्दी हम यह सब भूल जाते हैं। मसलन, मुंबई का आतंकी हमला। उस घटना के बाद कितना शोर-शराबा हुआ था। मीडिया ने उस हमले को खूब दिखाया। कई दिनों तक लगातार टीवी चैनलों पर लाइव कवरेज चलता रहा। अगले दिन मुंबई में लोग अपने रूटीन काम पर जाते दिखे। ऐसा लगा मानो कुछ हुआ ही न हो। या यूं कहें कि किसी को फर्क ही नहीं पड़ता कि उनके शहर में इतनी बड़ी घटना घटी है। या फिर उनके पास यह सोचने का वक्त ही नहीं है कि उनके शहर में इतने सारे लोग आतंकी हमले में मारे गए हैं। जो लोग हमले के बाद गमजदा नजर आए वे भी कुछ दिनों में सब भूल गए। कुछ घटनाओं को लेकर गुस्सा बना रहे, तो बेहतर है; ताकि हम उनके खिलाफ लड़ सकें। लेकिन किसी घटना को जल्दी भूल जाना भी ठीक नहीं होता। उसे नतीजे तक तो पहुंचना ही चाहिए। मौजूदा पीढ़ी को यह समझना ही होगा कि हमें हर कदम को अंजाम तक पहुंचाना है।

Dark Saint Alaick
18-03-2013, 12:45 PM
बड़ा सोचो, बड़ा सपना देखो

अत्यंत गरीब परिवार का एक बेरोजगार युवक नौकरी की तलाश में दूसरे शहर जाने के लिए रेल से सफर कर रहा था। घर में कभी-कभार ही सब्जी बनती थी, इसलिए उसने रास्ते में खाने के लिए सिर्फ रोटियां ही रखी थीं। आधा रास्ता गुजर जाने के बाद उसे भूख लगी और वह टिफिन से रोटियां निकाल कर खाने लगा। उसके खाने का तरीका अजीब था। वह रोटी का एक टुकड़ा लेता और उसे टिफिन के अन्दर कुछ ऐसे डालता मानो रोटी के साथ कुछ और भी खा रहा हो, जबकि उसके पास तो सिर्फ रोटियां थीं। आस-पास के यात्री देख कर हैरान हो रहे थे। आखिरकार एक व्यक्ति से रहा नहीं गया। उसने पूछ ही लिया कि भैया तुम ऐसा क्यों कर रहे हो? तुम्हारे पास सब्जी तो है ही नहीं, फिर रोटी के टुकड़े को हर बार खाली टिफिन में डालकर ऐसे खा रहे हो मानो उसमें सब्जी हो। तब उस युवक ने जवाब दिया, भैया, इस खाली ढक्कन में सब्जी नहीं है, लेकिन मैं अपने मन में यह सोच कर खा रहा हूं कि इसमें बहुत सारा अचार है। मैं अचार के साथ रोटी खा रहा हूं। फिर व्यक्ति ने पूछा, खाली ढक्कन में अचार सोच कर सूखी रोटी को खा रहे हो, तो क्या तुम्हें अचार का स्वाद आ रहा है? युवक ने जवाब दिया, हां, बिलकुल आ रहा है। मैं रोटी के साथ अचार सोचकर खा रहा हूं और मुझे बहुत अच्छा भी लग रहा है। एक व्यक्ति बोला, जब सोचना ही था तो अचार की जगह पर मटर-पनीर सोचते, शाही गोभी सोचते। तुम्हें इनका स्वाद मिल जाता। तुम्हारे कहने के मुताबिक तुमने अचार सोचा तो अचार का स्वाद आया। और स्वादिष्ट चीजों के बारे में सोचते तो उनका स्वाद आता। सोचना ही था तो छोटा क्यों सोचते हो। तुम्हें तो बड़ा सोचना चाहिए था। जैसा सोचोगे, वैसा पाओगे। छोटी सोच होगी, तो छोटा मिलेगा, बड़ी सोच होगी, तो बड़ा मिलेगा। इसलिए जीवन में हमेशा बड़ा सोचो, बड़े सपने देखो, तो हमेशा बड़ा ही पाओगे ।

Dark Saint Alaick
18-03-2013, 12:46 PM
वर्तमान का हर पल कीमती

अगर कभी आपको लगे कि अतीत सचमुच बेहतर था, तो शायद आपको ठीक-ठीक पता होगा कि ऐसा क्यों था पैसा, शक्ति, सेहत, स्फूर्ति, आनंद, यौवन। फिर दूसरे क्षेत्रों को टटोलने के लिए आगे बढ़ जाएं। हम सभी को अच्छी चीजें पीछे छोड़नी पड़ती हैं। हमें प्रेरित करने वाली नई चुनौतियां, नए क्षेत्र खोजने पड़ते हैं। हर दिन जागने पर हमारी नई शुरुआत होती है और हम इसे जैसा चाहे वैसा बना सकते हैं, इस पर खाली कैनवास की तरह जो चाहे लिख सकते हैं। इस उत्साह को बरकरार रखना मुश्किल हो सकता है, कुछ हद तक नियमित व्यायाम करने की तरह। शुरूआत में काफी कष्ट होता है, लेकिन अगर आप लगन से जुटे रहें, तो एक दिन पाएंगे कि आप बिना किसी स्पष्ट कोशिश के जॉगिंग कर रहे हैं, तेज-तेज चल रहे हैं या तैर रहे हैं। लेकिन शुरूआत करना सचमुच मुश्किल होता है और इसे कायम रखने के लिए एकाग्रता, उत्साह, समर्पण और लगन की प्रबल शक्तियों की जरूरत होती है। अतीत को एक ऐसे कमरे के रूप में देखने की कोशिश करें, जो उस कमरे से अलग है, जिसमें आप इस वक्त रहते हैं। आप वहां कभी-कभार जा तो सकते हैं, लेकिन यह याद रखें कि अब आप वहां रहते नहीं हैं। आप यात्रा करने तो जा सकते हैं, लेकिन अब वह आपका घर नहीं है। आपका घर तो वर्तमान में है। इस वर्तमान का हर पल कीमती है। उस पुराने कमरे में ज्यादा वक्त बिताकर अपने कीमती समय की बूंदों को बर्बाद न करें। पलटकर देखने के चक्कर में वर्तमान पल या अवसर न गंवाएं, वरना बाद में आप इसी वक्त की ओर पलटकर सोचेंगे कि आपने इसे बर्बाद क्यों कर दिया। यहीं पर जिएं, अभी जिएं, वर्तमान पल में जिएं। हमें अतीत में जीने की आदत को तो बदलना ही होगा। इसके अलावा हमें यह भी तय करना होगा कि हम केवल और केवल वर्तमान में ही जीएं तभी हम आगे बढ़ पाएंगे। सच तो यही है कि वर्तमान ही हमारा भविष्य तय करता है।

Dark Saint Alaick
18-03-2013, 12:50 PM
पुजारी का व्यवहार

एक समृद्ध व्यापारी सदैव अपने गुरू से परामर्श करके कुछ न कुछ सुकर्म किया करता था। एक बार वह गुरु से बोला - गुरुदेव, धनार्जन के लिए मैं अपना गांव पीछे जरूर छोड़ आया हूं, पर मुझे लगता है कि वहां पर एक ऐसा देवालय बनाया जाए, जिसमें देवपूजन के साथ-साथ भोजन की भी व्यवस्था हो, अच्छे संस्कारों से लोगों को सुसंस्कृत किया जाए, अशरण को शरण मिले, वस्त्रहीन का तन ढके, रोगियों को दवा और चिकित्सा मिले, बच्चे अपने धर्म के वास्तविक स्वरूप से अवगत हो सकें। गुरु बोले - गांव में ही क्यों, तुम ऐसा ही एक मंदिर अपने इस नगर में भी बनवाओ। व्यापारी को सुझाव पसंद आया और उसने अपने गांव और नगर, जहां वह अपने परिवार के साथ रहता था, में देवालय बनवा दिए। दोनों देवालय लोगों की श्रद्धा के केंद्र बन गए। कुछ दिन बाद व्यापारी ने देखा कि नगर के लोग गांव के मन्दिर में आने लगे हैं, जबकि वहां पहुंचने का रास्ता काफी कठिन है। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा क्यों हो रहा है? वह गुरु के पास गया। गुरू ने उसे परामर्श दिया कि वह गांव के मंदिर के पुजारी को नगर के मन्दिर में सेवा के लिए बुला ले। उसने ऐसा ही किया। नगर के पुजारी को गांव और गांव के पुजारी को नगर में सेवा पर नियुक्त कर दिया। कुछ ही दिन में गांव के लोग नगर के मन्दिर की ओर रुख करने लगे। उसे हैरानी हुई। वह गुरुजी के पास गया और कहने लगा कि समस्या तो पहले से भी गम्भीर हो चली है । अब तो मेरे गांव के परिचित और परिजन कष्ट सह कर और किराया खर्च कर नगर के देवालय में आने लगे हैं। गुरु सारी बात समझ गए और बोले, गांव वाले पुजारी का स्वभाव ही इतना अच्छा है, जो लोग उसी देवालय में जाना चाहते हैं, जहां वे होते हैं। उनका व्यवहार ही लोगों को उनकी ओर आकर्षित करता है। अब व्यापारी को अपने गुरू की सारी बात समझ में आ चुकी थी।

Dark Saint Alaick
18-03-2013, 12:53 PM
अफसोस नहीं, फैसला करें

कभी कभी हम किसी बात पर अफसोस करते हैं औैर कहते हैं, अफसोस, मैंने यह नहीं किया या काश ऐसा होता। इस बात के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। लेकिन कई बार ऐसा करना बेहद उपयोगी साबित हो सकता हैं बशर्ते आप तरक्की करने के लिए उनका फायदा उठाने का फैसला करें। ‘काश मैंने यह किया होता’ में तीन तरह की परिस्थितियां होती है। पहली तो तब, जब आपको सचमुच महसूस हो कि आपने किसी अवसर का फायदा नहीं उठाया या कोई मौका चूक गए। दूसरी तब, जब आप किसी महान काम करने वाले व्यक्ति को देखते हैं और मन ही मन में सोचते हैं कि काश, उसकी जगह पर आप होते। तीसरी और आखिरी प्रकार की परिस्थिति में निश्चित रूप से आप नहीं, बल्कि दूसरे होते हैं, जो स्थाई रूप से ‘मैं भी प्रतिस्पर्धा कर सकता था’ मानसिकता ओढ़े रखते हैं। जो सोचते हैं कि काश, मुझे मौके, खुशकिस्मती के वरदान, सुनहरे अवसर मिले होते। बहरहाल, इस आखिरी समूह के लिए बुरी खबर यह है कि अगर खुशनसीबी आकर उनकी गोद में भी बैठ जाए, तब भी वे उसे नहीं देख पाएंगे। दूसरों की सफलता देखने के बारे में यह दुनिया दो हिस्सों में विभाजित है। कुछ लोग दूसरों को ईर्ष्या से देखते हैं और कुछ प्रेरणा के साधन के रूप में। अगर आप मन ही मन यह कहें, ‘काश मैंने वह किया होता,काश मैंने वह सोचा होता, काश मैं वहां गया होता, काश मैंने वह देखा होता, काश मैंने वह समझा होता’, तो इसके बाद आपको यह कहना भी सीखना चाहिए ‘और अब मैं उसे करूंगा....।’ काश, मैंने यह किया होता। ज्यादातर मामलों में जिस चीज को न करने का आपको अफसोस होता है, उसे आप अब भी कर सकते हैं, हालांकि हो सकता है कि यह उस तरह न हो पाए, जिस तरह आप पहले कर सकते थे, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि आप अब वैसा काम कर नहीं सकते। बस, आपको खुद को तय करना पड़ेगा।

Dark Saint Alaick
18-03-2013, 12:57 PM
जहां प्रेम, वहां प्रवेश

एक औरत अपने घर से निकली, तो घर के सामने सफेद लम्बी दाढ़ी वाले तीन साधु - महात्माओं को बैठे देखा। वह उन्हें पहचान नहीं पाई । उसने कहा, मैं आप लोगों को नहीं पहचानती, बताइए क्या काम है? एक साधु बोला, हमें भोजन करना है। महिला ने कहा, मेरे घर में पधारिये और भोजन ग्रहण कीजिए। साधुओं ने स्त्री को बताया, हम किसी घर में एक साथ प्रवेश नहीं करते। औरत ने अचरज से पूछा ऐसा क्यों है? जवाब में मध्य में खड़े साधु ने कहा, पुत्री मेरी दायीं तरफ खड़े साधु का नाम धन और बायीं तरफ खड़े साधु का नाम सफलता है और मेरा नाम प्रेम है। अब जाओ और अपने पति से विचार-विमर्श करके बताओ कि तुम हम तीनों में से किसे बुलाना चाहती हो। औरत अन्दर गई और अपने पति से सारी बात बता दी। पति ने खुश होकर कहा, जल्दी से धन को बुला लेते हैं । उसके आने से हमारा घर धन-दौलत से भर जाएगा। औरत बोली, क्यों न हम सफलता को बुला लें। उसके आने से हम जो करेंगे, वो सही होगा और हम देखते-देखते धन-दौलत के मालिक भी बन जायेंगे। पति बोला, तुम्हारी बात भी सही है, पर इसमें मेहनत करनी पड़ेगी। थोड़ी देर उनकी बहस चलती रही। अंतत: निश्चय किया कि वह साधुओं से कहेंगे कि धन और सफलता में जो आना चाहे आ जाए। औरत ने यह आग्रह साधुओं के सामने दोहरा दिया। साधुओं ने एक दूसरे की तरफ देखा और जाने लगे। महिला ने कहा, आप लोग इस तरह वापस क्यों जा रहे हैं? इस पर साधुओं ने कहा, दरअसल हम तीनों इसी तरह हर घर में प्रवेश करने का प्रयास करते हैं। जो व्यक्ति लालच में आकर धन या सफलता को बुलाता है, हम वहां से लौट जाते हैं और जो अपने घर में प्रेम का वास चाहता है, उसके यहां बारी-बारी से हम दोनों भी प्रवेश कर जाते हैं। इसलिए इतना याद रखना कि जहां प्रेम है, वहां धन और सफलता की कमी नहीं होती।

rajnish manga
20-03-2013, 12:50 PM
जहां प्रेम, वहां प्रवेश

..... इस पर साधुओं ने कहा, दरअसल हम तीनों इसी तरह हर घर में प्रवेश करने का प्रयास करते हैं। जो व्यक्ति लालच में आकर धन या सफलता को बुलाता है, हम वहां से लौट जाते हैं और जो अपने घर में प्रेम का वास चाहता है, उसके यहां बारी-बारी से हम दोनों भी प्रवेश कर जाते हैं। इसलिए इतना याद रखना कि जहां प्रेम है, वहां धन और सफलता की कमी नहीं होती।

:bravo:

बहुत सुन्दर बोध कथा कही है आपने, अलैक जी. जिस घर या हृदय में हर किसी के लिए प्रेम छलकता है वहां धन और सफलता के साथ सुख व शान्ति का भी बसेरा होता है. आपका हार्दिक धन्यवाद.

Dark Saint Alaick
30-03-2013, 04:18 AM
आप भला तो जग भला

किसी भी कार्यालय में कर्मचारी को दिनभर के टारगेट को पूरा करने के लिए टीम की तरह काम करने की जरूरत होती है। यह दरअसल तब खासकर लागू होता है जब एक टाइम लिमिट में काम पूरा करना होता है। सहयोगियों और सहकर्मियों की मदद के लिए तैयार रहने या उनकी मदद से आपको अलग संतुष्टि महसूस कर सकते हैं। अगर परफ्यूम लगाने का शौक है, कार्यालय में जाने से पहले उसकी स्मेल लाइट या सॉफ्ट रखें। हम यह यकीन के साथ नहीं कह सकते कि हर परफ्यूम की खुशबू हमारे सहयोगियों को पसंद आएगी ही आएगी। हार्ड स्मेल से सहकर्मियों को परेशानी हो सकती है और आफिस में डिस्कम्फर्ट की फीलिंग आ सकती है। हमारी कुछ आदतें ऐसी हो सकती हैं, जिनसे दूसरे परेशानी महसूस कर सकते हैं। जैसे, अक्सर नाक खोदना, पेन या पेंसिल खोलना बंद करना वगैरह वगैरह। ये कुछ ऐसी हरकतें हैं जिन्हे आप करते हैं तो आप खुद तो अच्छा महसूस कर सकते हैं लेकिन जरूरी नहीं कि आपके साथ काम करने वाले उसे सही मानते हों। आखिर आप अपनी आदतों के कारण ही तो लोगों के बीच लोकप्रिय हो सकते हैं। ऐसे में ध्यान रखें कि कोई ऐसा काम नहीं करें जिससे आपके साथियों को परेशानी पैदा हो। इसलिए जरूरी है कि आप ऐसी आदतों पर जो दूसरों को अच्छी नहीं लगती हों, पर नजर रखना आज से ही शुरू कर दें, नहीं तो लोगों को परेशानी हो सकती है। अगर ऐसा कुछ हो तो उस पर तुरंत काबू करने की कोशिश करें। आप तुरंत ही फर्क महसूस करेंगे। आपको लगने लगेगा कि आपके साथी आपसे घुल-मिल कर बात भी कर रहे हैं और आपको पूरी तवज्जो भी दे रहे हैं। कुल मिला कर कहा जा सकता है कि लोग आपसे कैसा व्यवहार करें, यह आप पर ही निर्भर है। कहा भी गया है कि आप भला तो जग भला। दूसरों को परेशानी में डालने वाला कोई काम नहीं करें, इसी में आपकी भलाई है।

Dark Saint Alaick
30-03-2013, 04:19 AM
मेहमान की आवभगत

एक गांव में किसान अपनी पत्नी के साथ रहता था। वह स्वभाव में बेहद भोला-भाला और सीधा-सादा था। उस किसान की एक आदत थी कि उसे घर में मेहमानों की आवभगत करने में बड़ा ही मजा आता। जो भी मेहमान उसके घर आता वह उसके लिए तरह तरह के पकवान बनवाता, उसकी पूरी आवभगत करता और इसी कोशिश में रहता था कि मेहमान को तकलीफ ना हो। वह मेहमान की सभी सुविधाओं का भी पूरा पूरा ख्याल रखता था और यही कोशिश करता था कि उसकी तरफ से कोई कमी ना रह जाए। मेहमानवाजी की इस आदत के कारण उसकी बीवी उससे बड़ी परेशान रहती थी लेकिन कुछ कर नहीं पाती थी। एक दिन फिर वह किसान एक मेहमान को लेकर घर आया। बीवी को हमेशा कि तरह से काफी झुंझलाहट हुई लेकिन वह कुछ कर नहीं पा रही थी। वह मेहमान की खातिरदारी में जुट गई। उसने सोचा कि चाहे कुछ भी हो जाए वह अब मेहमान को भगा कर ही मानेगी। उसे एक चालाकी सूझी। उसने चतुराई से किसान को हाथ-पैर धोने अंदर भेजा और बैठ गई नए आए मेहमान के पास। बातों ही बातों में वह कहने लगी,क्या करूं, इनका तो दिमाग खराब है। किसी को भी पकड़ लाते हैं और फिर उसे मूसल से मारते हैं। मेहमान घबराकर अपना बोरिया-बिस्तर समेट कर भागा। इतने में किसान अंदर से आया। मेहमान को जाता देख पत्नी से पूछा,वो कहां जा रहे हैं? किसान की पत्नी बोली,अरे कुछ नहीं। सासू मां की आखिरी निशानी मूसल मांग रहे थे। मैंने मना कर दिया तो नाराज होकर जाने लगे। किसान चिल्लाया,तू भी कैसी औरत है? मूसल बड़ी होती है या पावणे। ठहर जा, मैं उन्हें मूसल देकर आता हूं नही तो वे नाराज हो जाएंगे। किसान मूसल लेकर दौड़ा तो मेहमान ये सोचते हुए कि औरत सही कहती थी ,उसे देखकर और तेजी से दौड़ने लगा। उसे लगा किसान सच में पागल है। उधर किसान की बीवी हंस-हंस कर बेहाल हो गई।

rajnish manga
30-03-2013, 05:03 PM
मेहमान की आवभगत

..... वह मेहमान की खातिरदारी में जुट गई। ..... बातों ही बातों में वह कहने लगी,क्या करूं, इनका तो दिमाग खराब है। किसी को भी पकड़ लाते हैं और फिर उसे मूसल से मारते हैं। मेहमान घबराकर अपना बोरिया-बिस्तर समेट कर भागा। ..... मूसल बड़ी होती है या पावणे। ठहर जा, मैं उन्हें मूसल देकर आता हूं नही तो वे नाराज हो जाएंगे। किसान मूसल लेकर दौड़ा तो मेहमान ये सोचते हुए कि औरत सही कहती थी ,उसे देखकर और तेजी से दौड़ने लगा। उसे लगा किसान सच में पागल है। उधर किसान की बीवी हंस-हंस कर बेहाल हो गई।

वाह अलैक जी, आपकी पाठशाला में ऐसा गज़ब का पाठ और वो भी मेहमाननवाज़ी के ऊपर, कभी पढ़ने को नहीं मिला. सच कहता हूँ बहुत दिनों बाद इतना हँसा हूँ. इस ज़बरदस्त पाठ के लिए बहुत बहुत धन्यवाद, अलैक जी.

Dark Saint Alaick
06-04-2013, 09:31 AM
यथार्थवादी बनकर करें काम

कभी-कभार हम कुछ लोगों या मामलों के बारे में अधिक संवेदनशील हो उठते हैं। ऐसे मामलों और लोगों के साथ काम करते हुए उनका ध्यान रखें। फिर समस्या के मूल में जाएं। एक बार उसका पता चलने पर उसे सुलझाने के लिए प्रयास करें। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो आपको शीघ्र ही अन्य प्रोजेक्ट या टीम में स्थानांतरित कर दिया जाएगा जो आपके कॅरियर पर एक दाग की तरह होगा। इसी तरह महत्वाकांक्षी होना अच्छा है लेकिन एक यथार्थवादी योजना निर्माता होना बेहद जरूरी होता है। यदि आप कार्य के दौरान जल्दी संवेदनशील हो जाते हैं तो उससे जूझने के लिए योजना बनाना जरूरी होता है। अधूरे कार्यों को अपने मार्ग में रुकावट न बनने दें। अपनी कार्यशैली में यथार्थवादी बनें और उसी के अनुसार काम करें। यह सच है कि दफ्तर के हरेक कार्य में आप सिध्दहस्त नहीं हो सकते इसलिए अपने कमजोर पक्षों को पहचानें और उन्हें मजबूत करने पर जोर दें। कहा भी गया है कि मनुष्य हर काम में सिध्दहस्त नहीं हो सकता। वह भगवान नहीं, मनुष्य है और मनुष्य की एक सीमा होती है। ऐसे में अगर आप अपनी सीमाओं को नहीं जानेंगें तो तय है कि या तो आप वो काम नहीं कर पाएंगे जो आप करना चाहते हैं या अगर करेंगें भी तो उसमें गलती होना अवश्यंभावी है। गलत काम करना आपकी कमियों को ही दर्शाता है। अपनी सीमाएं पहचान कर ही आप भावनात्मक संतुलन बनाने में समर्थ होंगे। अपनी संवेदनाओं पर काबू करना एक दीर्घकालिक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में रातों-रात किसी करिश्मे की उम्मीद न करें और न ही अधीर होकर आधे रास्ते से ही लौट पड़ें। शुरुआत शांत मन से करें। जल्दबाजी आपको कहीं ना कहीं नुकसान पहुंचाएगी ही। हां, यह जरूरी है कि अपनी अति भावुकता के कारण हो सकने वाली समस्याओं को आप हमेशा दिमाग में रखें। यही इससे निपटने की कुंजी है। अगर आप ऐसा नहीं करते हैं तो आपकी विफलता तय है।

Dark Saint Alaick
06-04-2013, 09:32 AM
अकबर का आधा भाई

बाल्यावस्था में अकबर की देखभाल एक दाई करती थीं। वह उन्हें अपना दूध भी पिलाती थी। राजा बन जाने के बावजूद भी वह अपने आया, जिसे वो दाई मां कहते थे, का बहुत सम्मान करते थे। दाई मां का भी एक पुत्र था। अकबर उसे अपने भाई समान समझते थे। जब उनका यह आधा भाई उनसे मिलने आता, बादशाह उसका आदर-सत्कार करते। उसकी आवभगत में बादशाह अकबर इतने व्यस्त हो जाते थे की दरबार भी नहीं जाते थे। उनकी यह आदत दरबारियों तथा बीरबल को पसंद नहीं थी क्योंकि इस तरह बादशाह का दरबार में उपस्थित न होना उन्हें हितकर नहीं लगता था। राज-काज सम्बंधी कई विषयों पर विचार-विमर्श करना होता था। देश-विदेश से आने वाले अतिथियों से भी बातचीत करनी होती थी। जब बादशाह दरबार में आएंगे ही नहीं तो काम कैसे चलेगा? दरबारी चिन्तित थे। एक दिन कुछ दरबारियों के साथ बीरबल अकबर के महल में गए। अकबर ने बीरबल से पूछा, मेरे आधे भाई के समान तुम्हारा भी कोई आधा भाई है? बीरबल ने कहा, जी महाराज। मेरा भी एक आधा भाई है। अकबर ने कहा, तुम उसे कभी दरबार में क्यों नहीं लाए? बीरबल ने कहा, महाराज अभी वह बहुत छोटा है। बादशाह ने कहा, तुम उसे यहां अवश्य लाओ। बीरबल ने बादशाह की बात मन ली। अगले दिन सभी दरबारी यह देख हैरान हो गए कि बीरबल एक बछड़े को अपने साथ खींचकर ला रहा है। यह देख बादशाह भी हैरत में पड़ गए और पूछा, तुम्हारा दिमाग सही है बीरबल? तुम इस बछड़े को यहां क्यों लाए हो? बीरबल ने कहा, महाराज मैने तो केवल आपकी बात का सम्मान किया है। बचपन से ही मेरी परवरिश गाय के दूध से ही हुई है। मैने उसका दूध पिया इसलिए वह मेरी मां समान हुई और उसका यह बछड़ा मेरा आधा भाई ही तो हुआ। अकबर हंस पड़े। वो समझ गए कि बीरबल उन्हें क्या कहना चाहता है।

Dark Saint Alaick
10-04-2013, 10:01 AM
सोच सदा सकारात्मक रखें

जब भी आप अपने लक्ष्य के बारे में सोचें तो सबसे पहले आप में सकारात्मक सोच होनी चाहिए। यदि आप प्रशासनिक सेवा में जाना चाहते हैं तो आप अपनी पूरी लगन और मेहनत के साथ परीक्षा के विभिन्न चरणों को ध्यान में रखकर अपनी तैयारी करें। साथ ही यह भी ध्यान रखें कि आप चयनकर्ताओं की उम्मीदों पर खरे उतरें। अगर आप खुद को चयनकर्ताओं के अनुसार प्रस्तुत करेंगे तो आपको सफलता जरूर मिलेगी। इसमें कोई भी संदेह नहीं है कि आपकी सफलता को कोई भी रोक नहीं सकता है। इस दौरान जरूरी है कि आप अपनी सोच को सदा सकारात्मक बनाएं। अपनी कुशल रणनीति के आधार पर आप अपनी सफलता को सुनिश्चित कर सकते हैं। लेकिन केवल रणनीति बनाने से सफलता नहीं मिलती है बल्कि आप अपनी बनायी रणनीति को ईमानदारी से फॉलो करें। कोई भी कार्य करने से पहले हमें वैसा ही माहौल उत्पन्न करना चाहिए और उसके अनुसार काम करना चाहिए। इसके अलावा अपनी मेहनत हमेशा सही दिशा में करनी चाहिए। जिससे हमें सफलता के दरवाजे आसानी से खुलते हुए नजर आएंगे। अगर आप अपने जीवन में सफल लोगों से मिलेंगे तो देखेंगे कि उनकी सोच ही सकारात्मक होती है और वह किसी भी कार्य को हमेशा सकारात्मक ही लेते हैं। इसमें सफलता के चांस ज्यादा ही बढ़ जाते हैं। इस तरह से जो लोग अपनी असफलता और सफलता के लिए स्वयं को जिम्मेदार मानते हैं वे सकारात्मक सोच वाले होते हैं क्योंकि वे अपनी असफलता को किसी अन्य के माथे नहीं मढ़ते हैं। कभी-कभी यह भी होता है कि कड़ी मेहनत के बाद भी सफलता नहीं मिलती है। ऐसे में कुछ लोग हतोत्साहित हो जाते हैं। लेकिन जो अपने कॅरियर के चोटी पर पहुंचते हैं, वह अपनी असफलता का कारण ढूंढ़ते हैं और जल्द से जल्द उसे समाप्त करना चाहते हैं। ऐसे लोग जीवन में कभी भी पीछे नहीं रहते हैं।

Dark Saint Alaick
10-04-2013, 10:06 AM
भगवान को दिया धोखा

एक गांव में एक आदमी रहता था। वह जो कहता था, करता नहीं था। एक बार दुर्भाग्य से वह आदमी बीमार पड़ गया। कुछ दिन तो उसने सोचा कि बीमारी मामूली होगी तो ठीक हो जाऊंगा, लेकिन बीमारी ठीक होने के लगातार बढ़ती चली गई। उसने गांव के चिकित्सक को दिखाया। चिकित्सक ने कुछ दिनों तक तो अपनी समझ के अनुसार उसका इलाज किया, लेकिन फिर भी बीमारी काबू में नहीं आई। उस चिकित्सक ने भी उसको जवाब दे दिया कि उसकी बीमारी का इलाज उसके पास नहीं है। उस व्यक्ति के जीवित रहने की उम्मीद बिल्कुल समाप्त हो गई थी। वह घबराया और उसने अंतिम हथियार के रूप में भगवान से विनती की कि यदि वह जीवित बच गया, तो सौ बैलों का दान भगवान कस लिए करेगा। भगवान ने उसकी विनती स्वीकार कर ली तथा वह व्यक्ति धीरे-धीरे ठीक होने लगा। जब वह व्यक्ति पूरी तरह ठीक हो गया, तो उसके मन में लालच आ गया और उसने बैलों की मूर्तियां बनवाई और वेदी पर रख कर प्रार्थना की कि ओ स्वर्ग में रहने वाले भगवान, मेरी भेंट स्वीकार करो। भगवान यह देख कर नाराज हो गए और उसे सबक सिखाने के लिए एक उपाय किया। उसी रात भगवान ने उस व्यक्ति को उसके सपने में दर्शन दिए और कहा, हे मानव, समुद्र किनारे जाओ। वहां पर तुम्हारे लिए सौ मुद्राएं रखी हैं। व्यक्ति को लालच आ गया और सुबह होते ही वह समुद्र किनारे पहुंचा, परन्तु उसे वहां कुछ नहीं मिला। लालच के चक्कर में वह समुद्र के किनारे-किनारे चलने लगा। वह एकदम निर्जन व वीरान जगह पर पहुंच गया, जहां चट्टानों की आड़ में समुद्री डाकू छिपे बैठे थे। डाकुओं ने उसे पकड़ा और बंदरगाह पर ले गए। वहां जाकर उन्होंने उसे गुलाम बनाकर बेच दिया तथा सौ मुद्राएं प्राप्त कर ली। उस व्यक्ति को सीख मिल गई धोखा देने वाले का कभी भला नहीं होता।

Dark Saint Alaick
15-04-2013, 12:51 AM
जीत की खुशी का मोल नहीं

हमारा देश महान है। हम लगभग सवा अरब आबादी वाले देश के नागरिक हैं। यहां कई बड़ी समस्याएं हैं जिन्हें लेकर लगातार चर्चा व बहसें चलती रहती हैं। गरीबी और बेरोजगारी बड़ी समस्याएं हैं। इन पर गंभीरता से काम करने की जरूरत है। बैडमिंटन कोच पुलेला गोपी चंद ने एक बार कहा था कि देश की समस्याओं के बीच अगर आप खेल क्षेत्र को प्रोत्साहन देने की बात करते हैं या फिर खिलाड़ियों को सुविधाएं देने की बात करते हैं तो कहा जाता है कि यहां लोगों को भरपेट भोजन नहीं मिल रहा और आप विशाल खेल स्टेडियम बनाने की बात कर रहे हैं। लोगों के पास नौकरी नहीं है और आप चाहते हैं कि खिलाड़ियों को बेहतरीन ट्रेनिंग दी जाए। शायद इसीलिए हमारे यहां कभी खेल से जुड़े मुद्दों को लेकर चर्चा नहीं होती। वैसे मुझे इस बात पर कोई अपत्ति नहीं है कि जब लोगों की बुनियादी जरूरतें पूरी न हो रही होंए तब आप भला खेल पर क्या चर्चा करेंगे। दरअसल देश की ज्वलंत समस्याओं का हल होना चाहिए। रोजी-रोटी बड़ी समस्या है। इन समस्याओं पर चर्चा भी होनी चाहिए और इनके समाधान भी खोजे जाने चाहिए। लेकिन जब हमारे देश का कोई खिलाड़ी वर्ल्ड चैंपियन बनता है या फिर इंडिया टीम किसी खेल प्रतियोगिता में विजय हासिल करती है तो देशवासियों को आपार खुशी मिलती है। क्या आपको उनकी खुशियों का अंदाजा है? उस समय हम सारी समस्याओं को भूलकर अपनी टीम की जीत का जश्न मनाते हैं। हर ऐसी जीत पर देशवासियों के चेहरे पर बिखरने वाली मुस्कान अनमोल है। उस जीत के समय हमें कहां याद रहता है कि हमारे देश की जीडीपी क्या है। जीत की खुशी का मोल नहीं है। लोगों को यह मौका मिलना चाहिये कि वे देश के खिलाड़ियों की जीत पर जश्न मना सकें, उस पर नाज कर सकें और खुशियां मना सकें। देशवासियों की खुशियों को आप पैसों से नहीं तौल सकते हैं। इसलिए खेलों को प्रोत्साहन मिलना चाहिए।

Dark Saint Alaick
15-04-2013, 12:54 AM
हंस को मिली गलत सजा

एक राज्य में एक राजा था। किसी कारण वह अन्य गांव में जाना चाहता था। एक दिन वह धनुष-बाण सहित पैदल चल पड़ा। चलते-चलते थक गया और एक विशाल पेड़ के नीचे बैठ गया। राजा धनुष-बाण बगल में रखकर, चद्दर ओढ़कर सो गया। थोड़ी ही देर में उसे गहरी नींद लग गई। पेड़ की खाली डाली पर एक कौआ बैठा था। उसने राजा पर बीट कर दी। बीट से राजा की चादर गंदी हो गई थी। राजा खर्राटे ले रहा था। उसे पता नहीं चला कि उसकी चादर खराब हो गई है। कुछ समय के पश्चात कौआ वहां से उड़कर चला गया और थोड़ी ही देर में एक हंस उड़ता हुआ आया। हंस उसी डाली पर और उसी जगह पर बैठा जहां पहले वह कौआ बैठा हुआ था अब अचानक राजा की नींद खुली। उठते ही जब उसने अपनी चादर देखी तो वह बीट से गंदी हो चुकी थी। राजा स्वभाव से बड़ा क्रोधी था। उसकी नजर ऊपर वाली डाली पर गई, जहां हंस बैठा हुआ था। राजा ने समझा कि यह सब इसी हंस की ओछी हरकत है। इसी ने मेरी चादर गंदी की है। क्रोधी राजा ने आव देखा न ताव, ऊपर बैठे हंस को अपना तीखा बाण चलाकर घायल कर दिया। हंस बेचारा घायल होकर नीचे गिर पड़ा और तड़पने लगा। वह तड़पते हुए राजा से कहने लगा-अहं काको हतो राजन! हंसा,निर्मला जलरू। दुष्ट स्थान प्रभावेन,जातो जन्म निरर्थक। अर्थात हे राजन। मैंने ऐसा कौन सा अपराध किया कि तुमने मुझे अपने तीखे बाणों का निशाना बनाया है? मैं तो निर्मल जल में रहने वाला प्राणी हूं। ईश्वर की कैसी लीला है। सिर्फ एक बार कौए जैसे दुष्ट प्राणी की जगह पर बैठने मात्र से ही व्यर्थ में मेरे प्राण चले जा रहे हैं। फिर दुष्टों के साथ सदा रहने वालों का क्या हाल होता होगा? हंस ने प्राण छोड़ने से पूर्व कहा ,हे राजन, दुष्टों की संगति नहीं करना क्योंकि उनकी संगति का फल भी ऐसा ही होता है। राजा को अपने किए अपराध का बोध हो गया। वह अब पश्चाताप करने लगा।

Dark Saint Alaick
16-04-2013, 08:19 AM
मूल्यों की रक्षा ही सही सफलता

बैडमिंटन के जाने माने खिलाड़ी पुलेला गोपीचंद अपने बचपन की एक बात कभी नहीं भूलते। तब वे कक्षा आठ में थे तो उनके मन में एक सपना था। वे नेशनल चौंपियन बनना चाहते थे। बैडमिंटन में उनकी गहरी रुचि थी। उस समय एक टीचर उनकी खेल प्रतिभा से काफी प्रभावित थीं। एक दिन उन्होंने उनसे पूछा कि गोपी तुम नेशनल चैंपियन क्यों बनना चाहते हो। नेशनल चैंपियन तो देश में एक ही होता है और जरूरी नहीं कि वह एक तुम ही हो। क्यों बेकार में समय बर्बाद कर रहे हो। इंजीनियरिंग या फिर किसी और क्षेत्र में कोशिश क्यों नहीं करते? गोपी जानते थे कि उन्होंने ऐसा इसलिए कहा था क्योंकि उन्हें उनकी फिक्र थी। उनके मन में आशंका थी कि खेल के चक्कर में कहीं गोपी का भविष्य बर्बाद न हो जाए। लेकिन वे मन बना चुके थे। उन्हें बैडमिंटन ही खेलना था। उन्हें पता था कि इस राह में बहुत दिक्कतें आएंगी लेकिन वे एक कोशिश करना चाहते थे। दरअसल हर इंसान को कोशिश जरुर करनी चाहिए। अगर आप सफल नहीं भी हुए, तो आपको तसल्ली रहेगी कि आपने अपने सपने को पूरा करने के लिए एक कोशिश की। दूसरों की परवाह किये बगैर हमें यह जानना चाहिए कि हम क्या चाहते हैं। अपने मन की जरूर सुननी चाहिए। हमारे देश के युवाओं के सामने दिक्कत यह है कि उनके सामने अच्छे रोल मॉडल नहीं है। किसी भी समाज के विकास के लिए जरुरी है कि उनके सामने सच्चे और प्रेरक रोल मॉडल हों। ऐसे हीरो जो युवा पीढ़ी को सही राह दिखा सकें। रोल मॉडल काआशय ऐसे हीरो से है जो असल जिंदगी में ईमानदार हों। रोल मॉडल का मतलब उन लोगों से कतई नहीं है जिन्होंने सिर्फ भौतिक सफलता पाई हो या ढेर पैसा कमाया हो। सफलता का मतलब सिर्फ तरक्की करना या फिर खूब सारा पैसा कमाना नहीं है। सफलता का मतलब है मूल्यों की रक्षा। हमें ऐसे रोल मॉडल चाहिए जिन्होंने मूल्यों से समझौता किये बगैर समाज के लिए बड़ा कार्य किया हो।

Dark Saint Alaick
16-04-2013, 08:21 AM
शिष्य को मिल गया जवाब

एक गुरु के आश्रम में कुछ शिष्य शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। एक बार एक शिष्य ने पूछा गुरुजी, क्या ईश्वर सचमुच है? गुरुजी ने कहा,ईश्वर अगर कहीं है तो वह हम सभी में है। शिष्य ने पूछा,तो क्या मुझमें और आपमें भी ईश्वर है? गुरु बोले, बेटा, मुझमें, तुममें, तुम्हारे सारे सहपाठियों में और हर जीव-जंतु में ईश्वर है। जिसमें जीवन है उसमें ईश्वर है। शिष्य ने गुरु की बात याद कर ली। कुछ दिनों बाद शिष्य जंगल में लकड़ी लेने गया। तभी सामने से एक हाथी बेकाबू होकर दौड़ता हुआ आता दिखाई दिया। हाथी के पीछे-पीछे महावत भी दौड़ता आ रहा था और दूर से ही चिल्ला रहा था,दूर हट जाना, हाथी बेकाबू हो गया है, दूर हट जाना रे भैया, हाथी बेकाबू हो गया है। उस जिज्ञासु शिष्य को छोड़ बाकी सभी शिष्य तुरंत इधर-उधर भागने लगे। वह शिष्य अपनी जगह से नहीं हिला बल्कि उसने अपने दूसरे साथियों से कहा कि हाथी में भी भगवान है फिर तुम भाग क्यों रहे हो? महावत चिल्लाता रहा पर वह शिष्य नहीं हटा और हाथी ने उसे धक्का देकर गिरा दिया और निकल गया। गिरने से शिष्य होश खो बैठा। कुछ देर बाद उसे होश आया तो उसने देखा कि आश्रम में गुरु और शिष्य उसे घेर कर खड़े हैं। साथियों ने शिष्य से पूछा कि जब तुम देख रहे थे कि हाथी तुम्हारी आ रहा है तो तुम रस्ते से हटे क्यों नहीं? शिष्य ने कहा, जब गुरु ने कहा है कि हर चीज में ईश्वर है तो इसका मतलब है कि हाथी में भी है। मैंने सोचा कि सामने से हाथी नहीं ईश्वर चले आ रहे हैं और यही सोचकर मैं खड़ा रहा पर ईश्वर ने मेरी मदद नहीं की। गुरु ने सुना तो मुस्कुराए और बोले, मैंने कहा था कि हर चीज में भगवान है। जब तुमने माना कि हाथी में भगवान है तो यह भी ध्यान रखना चाहिए था कि महावत में भी भगवान है और जब महावत चिल्लाकर सावधान कर रहा था, तो तुमने उसकी बात पर ध्यान क्यों नहीं दिया? शिष्य को उसकी बात का जवाब मिल गया था।

Dark Saint Alaick
19-04-2013, 01:21 AM
खुद तय करें कामयाबी का पैमाना

हम में से ज्यादातर लोग दूसरों की अपेक्षाओं के मुताबिक अपना जीवन तय करते हैं। मसलन, जब हम स्कूल में होते हैं, तो हमारा फोकस अच्छे अंक पर होता है। इसके बाद अच्छी नौकरी, फिर शादी और बच्चे। इसके बाद बच्चों की पढ़ाई, कैरियर, उनकी शादी व फिर उनके बच्चों की चिंता करने लगते हैं। यह चक्र यूं ही चलता रहता है। यह सोचने का मौका ही नहीं मिलता कि हम क्या चाहते हैं, हमें क्या अच्छा लगता है। बच्चों पर माता-पिता का दबाव होता है कि अच्छे अंक लाओ। कई बार हम ऐसे विषय पर अपनी पूरी ऊर्जा और जीवन लगा देते हैं, जिनमें हमारी जरा भी दिलचस्पी नहीं होती। यही नहीं, हमारी जिंदगी में हमारे पड़ोसी, रिश्तेदारों व सहकर्मियों का भी भारी दखल होता है। हम दूसरों की अपेक्षाओं के मुताबिक, अपनी वरीयताएं तय करते हैं। मसलन, हमने बेहतरीन पढ़ाई की है तो हम समझते हैं कि हमें ऊंचे पद और मोटे वेतन वाली नौकरी ही करनी चाहिए। हम डरते हैं कि अगर हमने यह सब हासिल नहीं किया, तो लोग हमें असफल कहेंगे। हम क्यों नहीं अपनी सफलता का पैमाना खुद तय करते हैं? जिस काम में हमें दिलचस्पी नहीं है, वह हम क्यों करें? जानी मानी नृत्यांगना व सामाजिक कार्यकर्ता मल्लिका साराभाई जब आईआईएम अहमदाबाद में पढ़ाई कर रही थी, तब उन्होंने तय किया कि वे सिर्फ पैसा कमाने के लिए नौकरी नहीं करेंगी। उनकी शिक्षा का मकसद ऐसा काम करना था, जिससे समाज को लाभ हो। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि सहपाठी या दोस्त क्या कहेंगे। वही किया, जो उन्हें अच्छा लगा। जाहिर है, यह आसान नहीं था। दरअसल, हमारी सामाजिक व्यवस्था ऐसी है कि हमें स्वतंत्र होकर सोचने और फैसले करने का मौका ही नहीं मिलता। हममें से कितने लोग आत्ममंथन करते हैं कि वे क्या चाहते हैं। कितने लोग इस बात का साहस दिखाते हैं कि वे वही कार्य करेंगे, जो उन्हें अच्छा लगता है। ऐसा नहीं होना चाहिए। हमें अपना रास्ता खुद चुनना चाहिए।

Dark Saint Alaick
19-04-2013, 01:23 AM
सपने को भूल ही जाओ

जंगल में एक बरगद पर चिल्लू उल्लू का घर था। पेड़ के नीचे झनकू हाथी रहता था। दोनों के बीच अच्छी दोस्ती थी। एक शाम झनकू को एक जगह कुछ भूत गपशप करते हुए दिखाई दिए। वे लोगों को डराने के लिए योजना बना रहे थे। भूतों के सरदार की नजर झनकू पर पड़ी। वह चिल्लाया, वह रहा, वह रहा। पकड़ो उसे। कुछ भूत झनकू को पकड़ने दौड़े और कुछ ने पूछा, यह कौन है सरदार? सरदार बोला, गई रात मैंने एक सपना देखा कि मैंने एक हाथी को पूरा खा लिया। यह हाथी बिलकुल मेरे सपने के हाथी से मिलता-जुलता है। आज मुझे यकीन हो गया कि सपने सच्चे होते हैं और आज मैं अपने सपने की बात को पूरा करूंगा। भूतों ने हाथी को पकड़ लिया। हाथी ने देखा कि भूतों का सरदार और उसकी पत्नी उसे खाने के लिए उसकी तरफ आ रहे हैं, तो वह घबरा गया। तभी चिल्लू चिल्लाता हुआ आ पहुंचा। यही है, यही है। अरे, बिलकुल यही है और अपने मित्र हाथी के सिर पर बैठ गया। चिल्लू की चेतावनी सुन भूतों का सरदार ठिठका और पूछा, तुम किसके बारे में कह रहे हो और क्या कहना चाहते हो? उल्लू बोला, कल रात मैंने सपने में देखा कि भूतों की रानी से मेरी शादी हो गई। आपकी यह रानी मेरे सपनों की रानी से मिलती-जुलती है, इसलिए अब मैं इससे विवाह करके अपने सपने को पूरा करूंगा। भूतों की रानी जोर से चिल्लाई। मैं किसी उल्लू से शादी नहीं करूंगी। सरदार बोला रानी यह तो उल्लू है और उल्लूओं जैसी बात करता है। सपने भी कहीं सच होते हैं। देखो, मैंने सपने में देखा था कि मैंने एक हाथी को खा लिया था, पर अब मैं इसे जाने दे रहा हूं। इतना सुनना था कि झनकू भाग निकला और फिर चिल्लू ने भूतों के सरदार से कहा, लो, तुम्हारा सपना सच नहीं है, इसका मतलब कि मेरा भी सपना सच नहीं है। ऐसे सपने को भूल जाना ही अच्छा है। हाथी ने जान बचाने के लिए अपने मित्र का शुक्रिया किया।

Dark Saint Alaick
23-04-2013, 10:16 PM
खुद को बुलन्द करना सीखें

कई कम्पनियां अपने मौजूदा उत्पाद पास-पड़ोस की बाजारों में ज्यादा से ज्यादा बेचने के प्रयास करती हैं। यानी कि इन उत्पादों या सेवाओं को अन्य शहर या राज्य के ग्राहकों को बेचा जाता है। इसलिए हम देख रहे हैं कि तेजी से वृध्दि करने वाली कम्पनियों में ज्यादातर ने पिछले दशकों में अपनी प्रमुख रणनीति के रूप में बाजार विकास पर भरोसा किया है। इससे कहा जा सकता है कि खुद को इतना बुलंद करो कि ईश्वर को भी पूछना पड़ जाए कि बताओ इरादा क्या है। इरादें हों अटल तो सारे काम यूं ही आसान होते चले जाते हैं। ये सारी बातें हमें सुनने में आती रहती हैं। इनका व्यापक औचित्य भी है। बिजनेस के संदर्भ में तो अटल इरादों की मांग सबसे ज्यादा होती है। इसीलिए माना जाता है कि छोटे बिजनेस को बड़ा रूप देना कतई सरल नहीं है। अगर आंकड़ों पर गौर करें तो एक फीसदी कम्पनियां सिर्फ एक दहाई ही अच्छे सालाना राजस्व को प्राप्त कर पाती हैं जबकि एक अत्यंत छोटा समूह काफी अच्छी कमाई के आंकड़े को छू लेता है। यानी ज्यादातर बिजनेस छोटे स्तर पर शुरू होते हैं और छोटे रहते हैं पर इसके अपवाद भी हैं। इसे देखते हुए सवाल उठता है कि व्यापार वृध्दि की जरूरी रणनीति का विकास कैसे हो? इसके लिए कुछ जरूरी प्रयास कर अच्छी बढ़त प्राप्त की जा सकती है। रणनीति इस तरह की हो कि कम जोखिम व प्रयास से बढ़िया परिणाम आएं। छोटे बिजनेस अपनी शुरुआत में जरूरत के अनुसार धीरे-धीरे आगे बढ़ें। ध्यान रहे कि इंटेंसिव ग्रोथ रणनीति के लिए नए सिरे से प्रयास करना ज्यादा उचित होता है। ऐसा अगर किया जाए तो हरेक नया सिरा तेज वृध्दि के लिए ज्यादा अवसर लेकर आएगा। बिजनेस के लिए सबसे कम जोखिम वाली विकास रणनीति यह है कि मौजूदा उत्पाद अपने मौजूदा ग्राहकों को ज्यादा से ज्यादा बेचती रहे। इससे बाजार में कारोबार पहुंच में बढ़ोतरी संभावित है। आजकल बड़ी उपभोग वस्तुएं बनाने वाली कम्पनियां यही रणनीति अपनाती हैं।

Dark Saint Alaick
23-04-2013, 10:17 PM
हर जीव का है मोल

एक राजा था। वह अक्सर अपने दरबार में बैठने वाले दरबारियों से सवाल-जवाब किया करता था। उसे इस काम में मजा तो आता ही था, उसे अपने दरबारियों की अक्ल का भी पता लगता रहता था कि वे कितने समझदार हैं और कितने नहीं ताकि वक्त बेवक्त उनकी अक्ल का इस्तेमाल कर सके। याने वह दरबार में बैठकर एक पंथ दो काज कर लिया करता था। एक बार राजा ने आज्ञा दी कि इस बात की खोज की जाए कि संसार में कौन से जीव-जंतुओं का उपयोग नहीं है। बहुत खोजबीन करने के बाद उन्हें जानकारी मिली कि संसार में दो जीव जंगली मक्खी और मकड़ी बिल्कुल बेकार जीव हैं। राजा ने सोचा,क्यों न जंगली मक्खियों और मकड़ियों को खत्म कर दिया जाए। इसी बीच राजा पर एक अन्य शक्तिशाली राजा ने आक्रमण कर दिया। युद्ध में राजा की हार हुई और जान बचाने के लिए उसे राजपाट छोड़कर जंगल में जाना पड़ा। शत्रु के सैनिक उनका पीछा करने लगे। काफी दौड़भाग के बाद राजा ने अपनी जान बचाई और थक कर एक पेड़ के नीचे सो गया। तभी एक जंगली मक्खी ने उनकी नाक पर डंक मारा जिससे राजा की नींद खुल गई। उसे ख्याल आया कि खुले में ऐसे सोना सुरक्षित नहीं है और वह एक गुफा में जा छिपा। राजा के गुफा में जाने के बाद मकड़ियों ने गुफा के द्वार पर जाला बुन दिया। शत्रु के सैनिक उसे यहां-वहां ढूंढते हुए गुफा के नजदीक पहुंचे। द्वार पर घना जाला देख आपस में कहने लगे - अरे, चलो आगे। इस गुफा में राजा आया होता तो द्वार पर बना जाला क्या नष्ट न हो जाता? भगवान की बनाई दुनिया में हर जीव का मोल है। कब कहां किसकी जरूरत पड़ जाए। गुफा में बैठा राजा ये बातें सुन रहा था। शत्रु के सैनिक निकल गए। राजा की समझ में यह बात आई कि संसार में कोई भी प्राणी या चीज बेकार नहीं। अगर जंगली मक्खी और मकड़ी न होती तो उसकी जान न बच पाती।

Dark Saint Alaick
02-05-2013, 12:32 PM
बेहतर परिणाम की कोशिश करें

आफिस में हमेशा ही यह प्रयास हो कि हरेक व्यक्ति अपने काम को बखूबी अंजाम देने के लिए उत्सुक रहता हो लेकिन साथ ही वह हमेशा एक-दूसरे का सहयोग भी करने को तैयार रहता हो। इसके लिए आपको अपने वर्तमान कर्मचारियों से बेहतर से बेहतर परिणाम निकालने की कला आनी चाहिए। यह सही है कि आप जिस पद के लिए कर्मचारी की नियुक्ति की इच्छा रखते हैं उसके लिए उनकी न्यूनतम योग्यता यानी शिक्षा, अनुभव आदि की मांग तो जरूर करेंगे लेकिन साथ ही आपको उसके व्यवहार की भी जांच करनी चाहिए। आपको उसके सहयोग करने वाली मानसिकता का ख्याल रखना होगा। कर्मचारी की नियुक्ति की प्रक्रिया में साक्षात्कार की विशेष भूमिका होती है। आप इसे नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं। आप नौकरी के लिए आए ढेर सारे आवेदनों में से कुछ को छांट कर रखते हैं और आपको लगता है कि उनमें से कोई उम्मीदवार आपके काम का मिल ही जाएगा। लेकिन कई बार ऐसा नहीं होता है। परंतु इसके अलावा आपके पास कोई दूसरा चारा भी तो नहीं है। यही वजह है कि आप नौकरी के लिए आए आवेदनों की छंटाई ढंग से करें। उससे कहीं महत्वपूर्ण तो यह है कि आप साक्षात्कार को यूं ही जाया नहीं करें। आप उसका पूरा फायदा उठाएं और सभी उम्मीदवारों को अच्छी तरह से जांचें और परखें। आप इस काम में अपना पूरा समय लगाएं। इसको पूरी तन्मयता के साथ संपन्न कराएं और अपने से यह सवाल करते रहें कि क्या इस व्यक्ति की नियुक्ति मुफीद है। क्या ऐसा तो नहीं हो रहा है कि किसी काम के लिए मुफीद व्यक्ति नहीं रखा जा सका है। आपको इंटरव्यू के दौरान उम्मीदवार से मुख्य तौर पर यह निकालने की कोशिश करनी चाहिए कि क्या यह व्यक्ति काम के लिए मुफीद है? यह बुनियादी बात है। आपको यह भी जानने की कोशिश करनी होगी कि कहीं उम्मीदवार साक्षात्कार के दौरान आपकी उम्मीदों पर खरा उतरने के लिए तो ऐसा नहीं कर रहा है।

Dark Saint Alaick
02-05-2013, 12:34 PM
राजकुमारी और राक्षस

एक राजा की तीन बेटियां थीं। तीनों बेहद खूबसूरत थीं। सबसे बडी बेटी का नाम आहना, उससे छोटी याना और सबसे छोटी का नाम सारा था। एक बार तीनों जंगल में घूमने निकलीं। अचानक तूफान आ गया। तीनो जंगल में भटक गई थीं। थोड़ी दूर उन्हें एक महल दिखा। वहां कोई नहीं था। उन्होंने विश्राम किया और वहां रखा भोजन खा लिया। सुबह सारा महल के बगीचे में घूमने निकली और बिना कुछ सोचे गुलाब का फूल तोड़ लिया। फूल तोड़ते ही पौधे में से एक राक्षस बाहर आया। उसने कहा कि मैंने तुम्हें घर और भोजन दिया और तुमने मेरा ही पसंदीदा फूल तोड़ दिया। अब मैं तुम तीनों बहनों को मार डालूंगा। सारा डर गई उसने विनती की लेकिन राक्षस नहीं माना। राक्षस ने एक शर्त रखी कि तुम्हारी बहनों को जाने दूंगा पर तुम्हें रुकना होगा। सारा ने शर्त मान ली और राक्षस के साथ रहने लगी। धीरे-धीरे उनके बीच दोस्ती हो गई। एक दिन राक्षस ने सारा को उसके साथ शादी के लिए कहा। सारा न हां कर पाई और न ना। राक्षस ने उस पर कोई दबाव नहीं डाला। एक बार एक जादुई आईने में सारा ने देखा कि उसके पिता की तबीयत ठीक नहीं है। वह रोने लगी। राक्षस ने उसे सात दिन के लिए घर जाने की इजाजत दी। अपने परिवार के साथ वह खुश रहने लगी। पिता की तबीयत भी ठीक हो गई। एक रात सारा ने सपने में देखा कि राक्षस बीमार है और उसे बुला रहा है। वहां जाकर उसने देखा कि राक्षस जमीन पर पड़ा है। यह देख सारा रोते हुए उसे गले लगाकर बोली उठो मैं तुमसे प्यार करती हूं। यह सुनते ही राक्षस एक सुंदर राजकुमार में बदल गया। वह बोला कि मैं यही शब्द सुनने का इंतजार कर रहा था। उसने बताया कि किसी ने उसे श्राप दिया था और कहा था कि जब तक उसे उसका प्यार नहीं मिल जाता वह इसी हाल में तड़पता रहेगा। इसके बाद दोनों ने शादी कर ली और खुशी-खुशी रहने लगे।

Dark Saint Alaick
24-05-2013, 12:44 AM
अफवाहों से बचकर रहें

आफिसों में अफवाह अमूमन चलती रहती हैं। कर्मचारी अपने मुंह तो अक्सर बंद रखते हैं लेकिन कान हमेशा ओडे रखना एक आदत सी बन जाती है। कहां से कौन सी बात आ रही है, उसे दबे कान सुनने की इच्छा रखते हैं। आॅफिस में जब-तब तमाम तरह की बातें चर्चा का विषय बन जाती हैं। लेकिन लोग अफवाहों को विराम न देकर उसे और फैलाने का प्रयास करते हैं। बात फैलते-फैलते काफी दूर तक चली जाती है। इसका असर यह होता है कि आपस में तू-तू, मैं-मैं की नौबत आ जाती है। इसका समग्र असर आफिस की उत्पादकता पर पडता है। अक्सर देखा जाता है कि आफिस के मैनेजमेंट की तरह-तरह की चर्चाएं जब-तब चलती रहती हैं। इनमें से कुछ अच्छी होती हैं, तो कुछ बुरी भी। हालांकि चर्चाओं के मुताबिक ही सब कुछ नहीं होता। ज्यादातर बातें ऐसी होती हैं जिनका सच से वास्ता कम ही होता है। लोग चुटकी लेने के लिए भी कई तरह की बातें फैलाने में विश्वास रखते हैं। ऐसे में जरूरी यह होता है कि सही और अफवाह वाली बातों से बचें। बातों में अंतर करना सीखें। आफिस में काम करने वाले हरेक कर्मचारी का दायित्व बनता है कि वह अफवाह और सच में अंतर करे। अफवाहों पर भरोसा करने से असुरक्षा का डर पैदा होता है। इससे काम की उत्पादकता घटती है। अमूमन देखा जाता है कि अफवाहों से नकारात्मक माहौल बनता है। अविश्वास और धोखेबाजी जैसी चीजों को बढ़ावा मिलता है। इनसे बचने का सबसे अच्छा तरीका है कि खुद को ऊर्जावान और क्रिएटिव रखा जाए। किसी भी अफवाह पर विश्वास करने से पहले अपनी सोच-समझ का इस्तेमाल करें। अफवाहों से बचने का सबसे सही तरीका तो यही है कि अगर आफिस में अफवाहों का बाजार गर्म हो तो इन पर ध्यान न देना ही इनसे निबटने का सबसे अच्छा तरीका है। फिजूल की बातों में अपनी ऊर्जा जाया करने का सबसे बड़ा घाटा यह होता है कि कर्मचारियों का आत्मविश्वास घटता जाता है।

Dark Saint Alaick
24-05-2013, 12:46 AM
शतरंज की एक बाजी

एक युवक ने एक मठ के महंत से मिला और कहा, मैं साधु बनना चाहता हूं लेकिन मुझे कुछ नहीं आता। मेरे पिता ने मुझे शतरंज खेलना सिखाया था लेकिन शतरंज से मुक्ति तो नहीं मिलती। और जो दूसरी बात मैं जानता हूं, वह यह है कि सभी प्रकार के आमोद-प्रमोद के साधन पाप हैं। इस पर महन्त ने टोकते हुए युवक से कहा - हां, आमोद-प्रमोद के साधन पाप हैं लेकिन क्या तुम यह जानते हो कि उनसे मन भी बहलता है। और क्या पता इस मठ को तुम्हारे आमोद-प्रमोद के साधन से भी कुछ लाभ पहुंचे। यह कह कर महंत ने शतरंज बोर्ड मंगाया और युवक को बाजी खेलने के लिए कहा। इससे पहले कि खेल शुरू होता, महंत ने युवक से कहा, हम दोनों शतरंज की एक बाजी खेलेंगे। यदि मैं हार गया तो मैं इस मठ को हमेशा के लिए छोड़ दूंगा और तुम मेरा स्थान ले लोगे। महंत ने वास्तव में गंभीर होकर यह बात युवक से कही थी। इस पर युवक को यह प्रतीत हुआ कि यह बाजी उसके लिए जिंदगी और मौत का खेल बन गई है। उसके माथे पर पसीना छलकने लगा। वहां उपस्थित सभी व्यक्तियों के लिए शतरंज का बोर्ड पृथ्वी की धुरी बन गया था। महंत ने खराब शुरुआत की। युवक ने कठोर चालें चलीं, लेकिन उसने क्षण भर के लिए महंत के चेहरे को देखा। फिर जान बूझकर खराब खेलने लगा। अचानक ही महंत ने बोर्ड को ठोकर मारकर जमीन पर गिरा दिया और कहा, तुम्हें तुम्हारे पिता ने जितना सिखाया गया था, तुम तो उससे कहीं ज्यादा जानते हो। महंत ने युवक से कहा, तुमने अपना पूरा ध्यान जीतने पर लगाया और तुम अपने सपनों के लिए लड़ सकते हो। फिर तुम्हारे भीतर करुणा जाग उठी और तुमने एक भले कार्य के लिए त्याग करने का निश्चय कर लिया। तुम इस मठ में रहने लायक हो। इस मठ में तुम्हारा स्वागत है, क्योंकि तुम यह जानते हो कि तुम अनुशासन और करुणा में सामंजस्य स्थापित कर सकते हो।

Dark Saint Alaick
24-05-2013, 12:46 AM
श्रेष्ठता का घमन्ड

एक युवा धनुर्धर ने गुरु से धनुर्विद्या सीखी और जल्दी ही वह बहुत अच्छा निशाना लगाने लगा। वह इतना निपुण हो गया था कि अपने साथी से पूछता था कि बोलो कहां निशाना लगाना है। साथी बताते कि फलां पेड़ या फलां फल को गिराकर बताओ और वह धनुर्धर तुरंत ही वैसा करके दिखा देता। अपनी इस विधा पर धनुर्धर फूला नहीं समा रहा था। वह कहने लगा कि वह गुरुजी से बढ़िया धनुर्धर हो गया है। गुरुजी को जब यह बात पता चली तो उन्होंने कुछ नहीं कहा। एक बार गुरुजी को किसी काम से दूसरे गांव जाना था। उन्होंने अपने इसी शिष्य को बुलाया और साथ चलने को कहा। गुरु-शिष्य जब चले तो बीच में एक जगह खाई दिखी। गुरु ने देखा, खाई में एक तरफ से दूसरी तरफ जाने के लिए एक पेड़ के तने का पुल बना हुआ है। गुरु पेड़ के तने पर पैर रखते हुए आगे बढ़े और पुल के बीच पहुंच गए। वहां पहुंचकर उन्होंने शिष्य की तरफ देखा और पूछा बताओ कहां निशाना लगाना है। शिष्य ने कहा कि वो सामने पतला पेड़ दिख रहा है उसके तने पर निशाना साधिए। गुरु ने तत्काल निशाना लगाकर बता दिया। गुरु पुल से इस तरफ आ गए। इसके बाद उन्होंने शिष्य से भी ऐसा ही करने को कहा। शिष्य ने जैसे ही पुल पर पैर रखा वह घबरा गया। पुल पर अपना वजन संभालकर आगे बढ़ना उसके लिए मुश्किल काम था। शिष्य जैसे-तैसे पुल के बीच में पहुंचा। गुरु ने कहा, तुम भी उसी पेड़ के तने पर निशाना साधकर बताओ। शिष्य ने जैसे ही धनुष उठाया संतुलन बिगड़ने लगा और वह तीर ही नहीं चला पाया। वह चिल्लाने लगा,गुरुजी बचाइए। गुरुजी पुल पर गए और शिष्य को पकड़कर इस तरफ उतार लाए। दोनों ने यहां से चुपचाप गांव तक का सफर तय किया। शिष्य के समझ में यह बात आ गई थी कि उसे अभी भी बहुत कुछ सीखना बाकी है। इसलिए कभी अपनी श्रेष्ठता का घमंड नहीं करना चाहिए।

Dark Saint Alaick
24-05-2013, 12:51 AM
पूर्वाग्रह से प्रभावित न हों

आज शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र है जहां गु्रप डिस्कशन (जीडी) नहीं होता हो। बोलचाल में कौन कितना निपुण है यह जानकारी गु्रप डिस्कशन से ही पता चलती है। खासतौर पर मैनेजमेंट क्षेत्र में उम्मीदवार के बिजनेस एप्टीटयूड, कम्युनिकेशन स्किल, विश्लेषण क्षमता, नेतृत्व, प्रबंधकीय कौशल और टीम भावना परखने के लिए जीडी का आयोजन किया जाता है। लिखित परीक्षा में जहां इस बात की जांच की जाती है कि उम्मीदवार की जानकारी का स्तर कितना है वहीं गु्रप डिस्कशन और पर्सनेलिटी टेस्ट के जरिए उम्मीदवार की समझ और उस समझ को इस्तेमाल करने की क्षमता का आकलन किया जाता है। ज्यादातर उम्मीदवार मानते हैं कि अधिक बोलने पर वे ज्यादा स्कोर कर सकेंगे। यह एक तरह से भ्रांति है जिसका लाभ नहीं मिलता। बहुत अधिक या बहुत कम बोलना दोनों ही उचित नहीं है। विषय का अच्छी तरह विश्लेषण कर लें। तथ्यों को सोच-समझकर बोलें और उनके दोहराव से बचें। यह सोचना गलत है कि कठिन और आलंकारिक अंग्रेजी भाषा का प्रयोग कर आप इंटरव्यू पैनल को प्रभावित कर सकते हैं। महत्वपूर्ण यह है कि आप व्याकरण की दृष्टि से शुध्द और सरल भाषा का इस्तेमाल करें ताकि आप बिना किसी उलझन के पैनल व समूह के अन्य सदस्यों तक अपनी बात पहुंचा सकें। जीडी का प्रमुख उद्देश्य ऐसे योग्य उम्मीदवार चुनना होता है जो भावी मैनेजर बनने की योग्यता रखते हैं। जरूरी है कि करेंट घटनाओ, बिजनेस मूल्य और सिध्दांत, नवीन आर्थिक नीतियां और वुमन मैनेजर जैसे सम-सामयिक विषयों पर अपनी स्पष्ट सोच विकसित करें। अपनी बातों को अधिक से अधिक जानकारी, आंकड़ों व सर्वे से पुष्ट करें। वर्ष की बड़ी घटनाओं की विस्तृत जानकारी रखें। आपका मत किसी तरह के पूर्वाग्रह से प्रभावित नहीं होना चाहिए। अपनी सोच को उदाहरण व तथ्यों के साथ ही रखें। अगर ऐसा कर पाते हैं तो पैनल अवश्य आपसे प्रभावित होगी।

Dark Saint Alaick
29-05-2013, 08:59 AM
अपनी चेतना को चंडी रूप दें

शास्त्र की कथा कहती है कि दुर्गा और रक्तबीज का युद्ध हुआ तो दुर्गा उस राक्षस का सिर काटती, उसकी गर्दन गिरती, खून की धार बहती तो जितनी बूंदें खून की गिरतीं, उतने ही नए रक्तबीज पैदा हो जाते। लंबा युद्ध चला। फिर दुर्गा ने अपना रूप बदला और काल,चंडी,चामुण्डा जैसे रूप धारण किए। तब उस राक्षस का सिर कटा और खून की एक बूंद भी जमीन पर नहीं गिरी क्योंकि पूरा का पूरा खून चंडिका खुद पी गईं। अब रक्तबीज कहां से पैदा होता? आपका मन रक्तबीज की तरह ही तो है। एक विचार हटाओ, हजार खड़े हो जाते हैं। बस अपने होश को चंडी बनने दो, चंडी को भागवद पुराण में कहा है कि देवी सुप्त है। उसको भाव से जागृत करना पड़ता है। तुम भी अपने बीच सो रही चेतना को चंडी का रूप दो। यही तुम्हारे मन रूपी रक्तबीज राक्षस का नाश करेगी। जिस दिन मन के विचारों से ज्यादा परेशानी लगने लग जाए उस दिन कह देना कि आज हमें यह मन की भीड़ स्वीकार, विचारों की भीड़ भी स्वीकार है। तब तुम पाओगे कि मन तो बहुत कुछ विचार करता है पर आप परेशान न हों। बस स्वीकार कर लीजिए कि यही मन का शोर स्वीकार है। कहिए कि मन तूने खूब खेल दिखाए आज हम तेरा शोर देखेंगे। इस प्रयोग का नतीजा क्या होगा? जब आप करोगे तो तभी आपको पता चलेगा कि नतीजा क्या निकला, क्योंकि सच तो यह है कि अध्यात्म के पथ पर दो दूनी चार ही नहीं होता, दो दूनी छह भी हो सकता है, आठ भी हो सकता है। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो जन्म-जन्म तक ध्यान करते रहते हैं और कोई नतीजा नहीं निकलता। इसके विपरीत कोई एक ही बार आए ध्यान में और यदि वह भाव जागृत हो जाए तो समझ लो कि वह बुद्ध हो गया। मतलब बुद्धू से बुद्ध हो गया। यह बुद्धत्व की घटना बड़ी अदभुत घटना है। यह कब, किस घड़ी,कैसी स्थिति में घट जाए, हम कह नहीं सकते,वर्णन नहीं कर सकते। इसी तरह अपने जीवन को खेल ही समझो और जो करो मन लगाकर करो।

Dark Saint Alaick
29-05-2013, 08:59 AM
मित्र की बात छू गई दिल को

जर्मनी के एक स्कूल की छुट्टी हुई तो दो दोस्त रोज की तरह खेलते-कूदते घर की ओर चले। यह उनका रोज का नियम था। दोनों स्कूल साथ-साथ आते भी थे और साथ-साथ घर भी लौटते थे। शायद ही कोई ऐसा दिन गुजरा हो जब दोनो साथ-साथ नहीं दिखाई देते हों। अगर दोनो में से कोई एक बीमार ही पड़ गया हो तो ही बात अलग है वरना दोनो कभी स्कूल जाने में चूक भी नहीं करते थे। एक दिन रोजाना की तरह दोनो दोस्त घर लौट रहे थे। उस दिन रास्ते में एक अखाड़ा देख वे दोनो भी मस्ती के मूड में आ गए। दोनो ने ही बस्ता एक ओर रखा और कुश्ती लड़ने का फैसला किया। दोनों में जो कमजोर बालक था वह हार गया और बलवान जीत गया। जीतने वाला बालक शेखी बघारने लगा। कमजोर बालक ने कहा,देखो अगर मैं भी तुम्हारी तरह अमीर घर में पैदा हुआ होता तो मुझे भी खाने में पौष्टिक खुराक मिलती। तब शायद तुम्हारी जगह मैं जीतता। यह छोटी सी बात उस विजयी बालक के दिल को छू गई। वह अपने मित्र की बात से बेहद दुखी हुआ लेकिन उसने मन ही मन कुछ निश्चय कर लिया। वह उस दिन से खूब मन लगाकर पढ़ने लगा। उसने खेलना-कूदना कम कर दिया और शरारतें भी छोड़ दीं। पढ़ाई में वह अव्वल आने लगा और फिर एक दिन वह डॉक्टर बन गया। लेकिन अपने बचपन के उस मित्र की छोटी सी बात वह कभी नहीं भूला। उसने और डॉक्टरों से अलग रास्ता चुना। उसने निर्बलों और गरीबों की सहायता करना अपना लक्ष्य बना लिया। इस उद्देश्य से उसने अपना वतन छोड़कर अफ्रीका की राह पकड़ ली। वहां उसने एक सेवाग्राम स्थापित किया और अफ्रीका के पीड़ित और असहाय लोगों की सेवा में जुट गया। उसकी नि:स्वार्थ सेवा की चर्चा पूरी दुनिया में होने लगी। वह बालक था अल्बर्ट श्राइत्जर। श्राइत्जर को उनकी सेवाओं के लिए नोबेल शांति पुरस्कार प्रदान किया गया।

Dark Saint Alaick
05-06-2013, 12:48 AM
प्रजा के खजाने का महत्व

फारस के शासक साइरस अपनी प्रजा की भलाई में जुटे रहते थे। उन्हे अपनी प्रजा के हित के अलावा कुछ और सूझता ही नहीं था। वे हर वक्त बस यही सोचते रहते थे कि किस तरह से लोगों के दुखों को कम किया जाए और किस तरह से उन्हे पूरी तरह खुश रखा जाए। वे यही सोचते रहते थे कि प्रजा को जितना संभव हो उच्च स्तर का जीवन जीने को मिले और वे खुश रहें। लेकिन खुद उनका जीवन सादगी से भरा था। वह रियासत की सारी आमदनी व्यापार,उद्योग और खेतीबाड़ी में लगा देते थे। इस कारण शाही खजाना हल्का रहता था। लेकिन प्रजा खुशहाल थी। एक दिन साइरस के दोस्त पड़ोसी शासक क्रोशियस उनके यहां आए। उनका मिजाज साइरस से अलग था। उन्हें प्रजा से ज्यादा अपनी खुशहाली की चिंता रहती थी। उनका खजाना हमेशा भरा रहता था। बातों-बातों में जब क्रोशियस को साइरस के खजाने का हाल मालूम हुआ तो उन्होंने साइरस से कहा,अगर आप इसी तरह प्रजा के लिए खजाना लुटाते रहोगे तो एक दिन वह एकदम खाली हो जाएगा। आप कंगाल हो जाओगे। अगर आप भी मेरी तरह खजाना भरने लगें तो आपकी गिनती मेरी तरह सबसे धनी शासकों में होने लगेगी। साइरस मुस्कराए फिर बोले,आप दो दिन ठहरिए मैं इस मामले में लोगों का इम्तिहान लेना चाहता हूं। उन्होंने घोषणा करवा दी कि एक बहुत बड़े काम के लिए साइरस को दौलत की निहायत जरूरत है। उन्हें पूरी उम्मीद है कि प्रजा मदद करेगी। दो दिन पूरा होने से पहले ही शाही महल के बाहर मोहरों,सिक्कों व जेवरों का बड़ा ढेर लग गया। यह देख क्रोशियस हैरत में पड़ गए। साइरस ने कहा,मैंने रियासत का खजाना लोगों की खुशहाली पर खर्च करके एक तरह से उन्हीं को सौंप दिया है। लोग उसमें इजाफा करते रहते हैं। मुझे जब जरूरत होगी वे मुझे लौटा देंगे जबकि तुम्हारा खजाना बांझ है। वह कोई बढ़ोतरी नहीं कर रहा है।

Dark Saint Alaick
05-06-2013, 12:49 AM
बच्चों को सकारात्मक बनाएं

जब एक बच्चा आपके पास आकर आपसे शिकायत करता है तो आप क्या करते है? क्या आप उनकी नकारात्मकता को बढ़ावा देते हैं या उसे सकारात्मकता में ढाल देते हैं? यहां पर आपको एक संतुलित भूमिका निभानी होती है। यदि वे किसी के बारे में आकर नकारात्मक बातें करते हैं तो आपको सकारात्मकता दर्पण बनना होगा। प्रकृति के अनुसार बालक में भरोसा रखने की प्रवृति होती है। लेकिन जब वे बड़े होते हैं तो उनका विश्वास कहीं न कहीं टूट या हिल जाता है। एक स्वस्थ बालक में तीन प्रकार का विश्वास होता है। पहला दिव्यता में, दूसरा लोगों में और तीसरा लोगों की अच्छाई में। ये तीन प्रकार के विश्वास ही एक बालक को गुणवान और प्रतिभाशाली बनाने के लिए आवश्यक तत्व हैं। यदि आप उनसे यही कहते रहेंगे कि यहां सभी झूठे या धोखेबाज हैं तो उनका लोगों और समाज से विश्वास उठ जाता है। और इसका असर हर रोज की उनकी बातचीत पर पड़ता है। यदि उनका लोगों से, समाज से और लोगों की अच्छाई से विश्वास हट जाता है तो वे चाहे कितने भी योग्य हों उनकी सारी योग्यता किसी के काम नहीं आती और वे कुछ भी करें असफल ही रहते हैं। जब हम विश्वास का वातावरण बनाते हैं तो बच्चे बुद्धिमान बन बड़े होते हैं। लेकिन यदि हम नकारात्मकता,परेशानी या उदासी और क्रोध का वातावरण बनाते हैं तो वे बड़े होकर यही सब वापस लौटाते हैं। हर रोज जब आप काम से लौटें तो उनके साथ खेलें या हंसे। जहां तक हो सके सभी एकसाथ बैठकर खाना खाएं। एक रविवार उन्हें बाहर ले जाएं और उनको कुछ चॉकलेट देकर उन्हें सबसे गरीब बच्चों में बांटने को कहें या फिर साल में एक दो बार कच्ची बस्तीं में ले जाकर उनसे सेवा कार्य करने के लिए कहें। थोड़ी-बहुत धार्मिकता,नैतिक और आध्यात्मिक मूल्य उन पर गहरा प्रभाव उत्पन्न करते हैं। यह अज्ञात रूप से उनके व्यक्तित्व का विकास करते हैं। कभी लगाम कसनी होती है तो कभी ढीली छोड़नी होती है।

Dark Saint Alaick
14-06-2013, 08:52 AM
प्रकृति का संरक्षण बड़ी जरूरत

आयुधौम ऋषि अपने आश्रम के बच्चों को हमेशा यह बताया करते थे कि इस पृथ्वी पर कोई भी वस्तु, जीव या पौधा निरर्थक नहीं है। सभी हमारे कुछ न कुछ काम आते हैं। उनको बिना किसी कारण के नष्ट नहीं करना चाहिए। एक दिन उन्होंने अपने शिष्यों से कहा कि सामने वाले खेत में जाओ और जो भी पौधा निरर्थक हो उसे उखाड़ कर ले आओ। सभी शिष्य कोई न कोई पौधा ले आए किंतु आरुणि कोई पौधा नहीं लाया। साथी उसकी हंसी उड़ाने लगे। तब आयुधौम ने आरुणि से पूछा कि क्या तुम्हें कोई पौधा नहीं मिला? आरुणि ने कहा,कोई पौधा निरर्थक नहीं दिखाई दिया। किसी में औषधीय गुण थे तो किसी में प्रकृति संरक्षण के। आयुधौम प्रसन्न हो गए। कम से कम आरुणि ने मेरी शिक्षा का मर्म समझा। कहने का भाव यह है कि प्रकृति का संरक्षण केवल प्रवचनों और भाषणों से नहीं होगा। उनको जीवन में अमल में लाने की जरूरत है। हमें प्रकृति का हर संभव संरक्षण करना चाहिए क्योंकि वही हमारा पोषण करती है। प्रकृति का शोषण न हो बल्कि पोषण हो। इसके लिए सबसे पहले हमें संग्रह की वृत्ति का त्याग करना चाहिए। यदि हमारा काम एक लोटे पानी से चल सकता है तो वहां बाल्टी भर पानी नहीं बहाना चाहिए। हमें मधुमक्खियों से प्रेरणा लेनी चाहिए। वे फूलों से इस प्रकार पराग ग्रहण करती हैं कि फूल को उनसे कोई नुकसान नहीं होता। उसके सौंदर्य में भी कमी नहीं आती। मनुष्य को गाय,भैंस, बकरी जैसे पशुओं से भी प्रेरणा लेनी चाहिए। वे प्रकृति से बहुत थोड़ा लेते हैं। लेकिन बदले में मनुष्य और प्रकृति उनसे बहुत कुछ प्राप्त करते हैं। जिस समय पर्यावरण की कोई समस्या नहीं थी उस समय हमारे ऋषियों ने गहरा चिंतन किया और प्रकृति विज्ञान को धर्म के साथ जोड़ने का प्रयास किया। पीपल और वट में जीवनदायिनी शक्ति एवं तुलसी में रोग निरोधक शक्ति के कारण इस प्रकार की वनस्पतियों को पूजनीय माना। नदियों को मां की तरह पूजते थे। हमें उसी राह पर फिर चलना होगा।

Dark Saint Alaick
14-06-2013, 08:53 AM
जरूरतों को कम रखो

गंगा के किनारे एक संत का आश्रम था। उनके अनेक शिष्य थे जो उनसे शिक्षा प्राप्त करने आते थे। एक बार आम के मौसम में एक शिष्य के खेत में बहुत सारे आम लगे। पूरे गांव में आम बांटे गए। वह शिष्य ढेर सारे आमों की टोकरी लेकर संत के आश्रम पर पहुंचा। वहां मौजूद अन्य शिष्य एक बार तो यह समझ ही नहीं पाए कि इतने सारे आम आश्रम में कैसे पहुंचे लेकिन बाद में उन्हे पता लगा कि एक शिष्य संत के लिए बहुत सारे आम लेकर आया है। शिष्य ने आम कटवाए और संत के सामने परोसे। संत ने आम के एक-दो टुकड़े खाकर उसके स्वाद की प्रशंसा तो खूब की लेकिन बाद में कहा,इसे तुम भी खाकर देखो और अपने अन्य मित्रों को भी दो। शिष्य को आश्चर्य हुआ कि संत ने आम के केवल एक-दो टुकड़े ही खाए। उसने संत से पूछा, गुरुदेव,आपका स्वास्थ्य तो ठीक है न? इतने सारे आम होते हुए भी आपने इतना कम लिया? संत बोले, ये मुझे बहुत स्वादिष्ट लगे इसीलिए मैं अधिक नहीं ले रहा। संत की यह बात शिष्य को अटपटी लगी। संत ने कहा,बचपन में मेरे पड़ोस में एक महिला रहती थी। वह पहले काफी संपन्न थी पर दुर्भाग्य से उसकी सारी संपत्ति चली गई। किसी प्रकार अपना और पुत्र का पालन-पोषण हो सके, इतनी ही आय थी। वह कई बार जब अकेली होती, तब अपने आप से कहती,मेरी जीभ बहुत चटोरी है। इसे बहुत समझाती हूं कि अब चार-छह सब्जियों के साथ रोटी खाने के दिन गए। कई प्रकार की मिठाइयां अब दुर्लभ हैं। पकवानों को याद करने से कोई लाभ नहीं, फिर भी मेरी जीभ नहीं मानती जबकि मेरा बेटा रूखी-सूखी खाकर पेट भर लेता है। उसकी बात सुनकर तभी से मैंने नियम बना लिया कि जीभ जिस वस्तु को पसंद करे, उसे थोड़ा ही खाना है। अपनी आवश्यकताओं को कम रखने से जहां सुख के दिनों में आनंद रहता है, वहीं दुख के दिनों में भी कष्ट नहीं रहता।

rajnish manga
14-06-2013, 11:18 AM
आज निम्नलिखित पाठ पढ़ कर हार्दिक प्रसन्नता मिली एवम् निस्वार्थ जीवन, प्रकृति प्रेम और सीमित जरूरतों के विषय में शाश्वत ज्ञान प्राप्त हुआ:

1. प्रजा के खजाने का महत्व
2. बच्चों को सकारात्मक बनायें
3. प्रकृति का संरक्षण बड़ी जरुरत
4. जरूरतों को कम रखो

पाठशाला मानव कल्याण के क्षेत्र में बहुत अच्छा काम कर रही है. धन्यवाद, अलैक जी.

Dark Saint Alaick
18-06-2013, 11:39 AM
स्वयं पर संयम रखना सीखें

किसी के पीठ पीछे उसकी बुराई करना या चुगली करना इंसान को सात्विकता से दूर ले जाता है। वैसे कमोबेश यह बीमारी हर इंसान में होती है और मौका मिलते ही प्रकट भी हो जाती है। बड़ा आसान होता है किसी की बुराई करना। और उतना ही कठिन होता है स्वयं पर संयम रखना। एक मदरसे (इस्लामी पाठशाला) में कुछ शिष्य मौलाना (गुरु) से शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। किसी कारणवश देर रात तक जागना हुआ और थक कर सभी शिष्य सो गए। फज्र यानी पौ फटने से पहले पढ़ी जाने वाली नमाज के वक्त कुछ शिष्य सोते रह गए और नमाज के लिए नहीं पहुंच पाए। मौलवी साहब के पूछने पर एक शिष्य बोला, वे लोग बडे नामुराद हैं जो नमाज कजा (देर अथवा समय निकल जाने पर पढ़ी जाने वाली नमाज) कर रहे हैं। उन्हें तो मदरसे और उस्ताद, दोनों की ही फिक्र नहीं है। ऐसे लोगों को सजा मिलनी चाहिए। तब उस्ताद ने उसे बीच में ही रोक कर कहा, मैंने तो सिर्फ पूछा भर था, तुमने तो उनकी चुगली का पिटारा ही खोल दिया। इससे तो अच्छा था कि तुम भी सोते ही रहते, कम से कम एक गुनाह से तो बच जाते। रब उन लोगों से खुश नहीं होता जो पीठ पीछे चुगली करते हैं। और जो चीज रब को बुरी लगती हो, वह भला इंसानों को कैसे अच्छी लग सकती है। इसलिए हर इंसान को इस बुरी आदत से छुटकारा पाने की कोशिश करनी चाहिए। चुगली की आदत बहुत लोगों में देखने को मिलती है, परंतु सबका मिजाज अलग-अलग होता है। कुछ तो बहुत ही शालीन होते हैं, बहुत सोच-समझ कर योजना बनाकर अपना काम करते हैं। कुछ लोग सामने तारीफों के पूल बांधते हैं और सामने से हटते ही शिकायत शुरू कर देते हैं। जब आप के सामने कोई व्यक्ति जरूरत से ज्यादा तारीफ करे तो समझ जाना चाहिए कि वह अपने आप को चुगली के लिए तैयार कर रहा है। बस अवसर की तलाश में है। कुछ लोग हर किसी में केवल बुराइयां व कमियां ही ढूंढते हैं। हमें ऐसी आदतों से बचना चाहिए।