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View Full Version : पश्चाताप


Dr. Rakesh Srivastava
13-06-2012, 10:41 AM
कुछेक रोज़ अंधेरों का शौक क्या पाला ;
तमाम उम्र उजालों से हाथ धो डाला .

गुरूर चार दिन का ओढ़ लिया था मैंने ;
सुकून ज़िन्दगी भर का तभी से खो डाला .

चाह मुझमें भी नगीनों की थी मगर मैंने ;
खान में घुस के कभी ख़ाक को नहीं चाला .

धूप से बच के निकलने को हुनर क्या माना ;
फिर कभी छाँव से हरगिज़ नहीं पड़ा पाला .

खिड़कियाँ मैंने अपने घर में बनाईं ही नहीं ;
बेवजह रौशनी के सिर पे दोष मढ़ डाला .

वक्त जब हाथ में था मैंने तवज्जो न करी ;
वक्त ने रूठ के मेरा मज़ाक कर डाला .

रचयिता ~~ डॉ . राकेश श्रीवास्तव
विनय खण्ड - 2 , गोमती नगर , लखनऊ .

anjaan
13-06-2012, 01:16 PM
गुरूर चार दिन का ओढ़ लिया था मैंने ;
सुकून ज़िन्दगी भर का तभी से खो डाला .

बेहतरीन पंक्तियाँ हैं.

एक और उत्कृष्ट रचना के लिए आभार.

sombirnaamdev
13-06-2012, 02:53 PM
sabse pahle dr saahab forum par vaapsi ke liye aapka aabhar vyakt karunga !
hamesha ki tarah hi ek naayab kavita di hai aapne jiske hum aadi ho chuke hai !
कुछेक रोज़ अंधेरों का शौक क्या पाला ;
तमाम उम्र उजालों से हाथ धो डाला .

Dr. Rakesh Srivastava
20-06-2012, 12:34 PM
सर्वश्री anjaan जी , Amol जी , Sombirnaamdev जी एवं Abhisays जी ; पढ़ने हेतु आप सभी का धन्यवाद .