Dr. Rakesh Srivastava
13-06-2012, 10:41 AM
कुछेक रोज़ अंधेरों का शौक क्या पाला ;
तमाम उम्र उजालों से हाथ धो डाला .
गुरूर चार दिन का ओढ़ लिया था मैंने ;
सुकून ज़िन्दगी भर का तभी से खो डाला .
चाह मुझमें भी नगीनों की थी मगर मैंने ;
खान में घुस के कभी ख़ाक को नहीं चाला .
धूप से बच के निकलने को हुनर क्या माना ;
फिर कभी छाँव से हरगिज़ नहीं पड़ा पाला .
खिड़कियाँ मैंने अपने घर में बनाईं ही नहीं ;
बेवजह रौशनी के सिर पे दोष मढ़ डाला .
वक्त जब हाथ में था मैंने तवज्जो न करी ;
वक्त ने रूठ के मेरा मज़ाक कर डाला .
रचयिता ~~ डॉ . राकेश श्रीवास्तव
विनय खण्ड - 2 , गोमती नगर , लखनऊ .
तमाम उम्र उजालों से हाथ धो डाला .
गुरूर चार दिन का ओढ़ लिया था मैंने ;
सुकून ज़िन्दगी भर का तभी से खो डाला .
चाह मुझमें भी नगीनों की थी मगर मैंने ;
खान में घुस के कभी ख़ाक को नहीं चाला .
धूप से बच के निकलने को हुनर क्या माना ;
फिर कभी छाँव से हरगिज़ नहीं पड़ा पाला .
खिड़कियाँ मैंने अपने घर में बनाईं ही नहीं ;
बेवजह रौशनी के सिर पे दोष मढ़ डाला .
वक्त जब हाथ में था मैंने तवज्जो न करी ;
वक्त ने रूठ के मेरा मज़ाक कर डाला .
रचयिता ~~ डॉ . राकेश श्रीवास्तव
विनय खण्ड - 2 , गोमती नगर , लखनऊ .