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View Full Version : हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचनाएं


anjaan
14-06-2012, 08:24 PM
अपनी अपनी बीमारी


हम उनके पास चंदा माँगने गए थे। चंदे के पुराने अभ्यासी का चेहरा बोलता है। वे हमें भाँप गए। हम भी उन्हें भाँप गए। चंदा माँगनेवाले और देनेवाले एक-दूसरे के शरीर की गंध बखूबी पहचानते हैं। लेनेवाला गंध से जान लेता है कि यह देगा या नहीं। देनेवाला भी माँगनेवाले के शरीर की गंध से समझ लेता है कि यह बिना लिए टल जाएगा या नहीं। हमें बैठते ही समझ में आ गया कि ये नहीं देंगे। वे भी शायद समझ गए कि ये टल जाएँगे। फिर भी हम दोनों पक्षों को अपना कर्तव्य तो निभाना ही था। हमने प्रार्थना की तो वे बोले - आपको चंदे की पड़ी है, हम तो टैक्सों के मारे मर रहे हैं। सोचा, यह टैक्स की बीमारी कैसी होती है। बीमारियाँ बहुत देखी हैं - निमोनिया, कालरा, कैंसर; जिनसे लोग मरते हैं। मगर यह टैक्स की कैसी बीमारी है जिससे वे मर रहे थे! वे पूरी तरह से स्वस्थ और प्रसन्न थे। तो क्या इस बीमारी में मजा आता है ? यह अच्छी लगती है जिससे बीमार तगड़ा हो जाता है। इस बीमारी से मरने में कैसा लगता होगा ?

अजीब रोग है यह। चिकित्सा-विज्ञान में इसका कोई इलाज नहीं है। बड़े से बड़े डॉक्टर को दिखाइए और कहिए - यह आदमी टैक्स से मर रहा है। इसके प्राण बचा लीजिए। वह कहेगा - इसका हमारे पास कोई इलाज नहीं है। लेकिन इसके भी इलाज करनेवाले होते हैं, मगर वे एलोपैथी या होमियोपैथी पढ़े नहीं होते। इसकी चिकित्सा पद्धति अलग है। इस देश में कुछ लोग टैक्स की बीमारी से मरते हैं और काफी लोग भुखमरी से।

टैक्स की बीमारी की विशेषता यह है कि जिसे लग जाए वह कहता है - हाय, हम टैक्स से मर रहे हैं। और जिसे न लगे वह कहता है - हाय, हमें टैक्स की बीमारी ही नहीं लगती। कितने लोग हैं कि जिनकी महत्त्वाकांक्षा होती है कि टैक्स की बीमारी से मरें, पर मर जाते हैं निमोनिया से। हमें उन पर दया आई। सोचा, कहें कि प्रापर्टी समेत यह बीमारी हमें दे दीजिए। पर वे नहीं देते। यह कमबख्त बीमारी ही ऐसी है कि जिसे लग जाए, उसे प्यारी हो जाती है।

मुझे उनसे ईर्ष्या हुई। मैं उन जैसा ही बीमार होना चाहता हूँ। उनकी तरह ही मरना चाहता हूँ। कितना अच्छा होता अगर शोक-समाचार यों छपता - बड़ी प्रसन्नता की बात है कि हिंदी के व्यंग्य लेखक हरिशंकर परसाई टैक्स की बीमारी से मर गए। वे हिंदी के प्रथम लेखक हैं जो इस बीमारी से मरे। इस घटना से समस्त हिंदी संसार गौरवान्वित है। आशा है आगे भी लेखक इसी बीमारी से मरेंगे ! मगर अपने भाग्य में यह कहाँ ? अपने भाग्य में तो टुच्ची बीमारियों से मरना लिखा है।

उनका दुख देखकर मैं सोचता हूँ, दुख भी कैसे-कैसे होते हैं। अपना-अपना दुख अलग होता है। उनका दुख था कि टैक्स मारे डाल रहे हैं। अपना दुख है कि प्रापर्टी नहीं है जिससे अपने को भी टैक्स से मरने का सौभाग्य प्राप्त हो। हम कुल 50 रु. चंदा न मिलने के दुख में मरे जा रहे थे।

मेरे पास एक आदमी आता था, जो दूसरों की बेईमानी की बीमारी से मरा जाता था। अपनी बेईमानी प्राणघातक नहीं होती, बल्कि संयम से साधी जाए तो स्वास्थ्यवर्द्धक होती है। कई पतिव्रताएँ दूसरी औरतों के कुलटापन की बीमारी से परेशान रहती हैं। वह आदर्श प्रेमी आदमी था। गांधीजी के नाम से चलनेवाले किसी प्रतिष्ठान में काम करता था। मेरे पास घंटो बैठता और बताता कि वहाँ कैसी बेईमानी चल रही है। कहता, युवावस्था में मैंने अपने को समर्पित कर दिया था। किस आशा से इस संस्था में गया और क्या देख रहा हूँ। मैंने कहा - भैया, युवावस्था में जिनने समर्पित कर दिया वे सब रो रहे हैं। फिर तुम आदर्श लेकर गए ही क्यों ? गांधीजी दुकान खोलने का आदेश तो मरते-मरते दे नहीं गए थे। मैं समझ गया, उसके कष्ट को। गांधीजी का नाम प्रतिष्ठान में जुड़ा होने के कारण वह बेईमानी नहीं कर पाता था और दूसरों की बेईमानी से बीमार था। अगर प्रतिष्ठान का नाम कुछ और हो जाता तो वह भी औरों जैसा करता और स्वस्थ रहता। मगर गांधीजी ने उसकी जिंदगी बरबाद की थी। गांधीजी विनोबा जैसों की जिंदगी बरबाद कर गए। बड़े-बड़े दुख हैं ! मैं बैठा हूँ। मेरे साथ 2-3 बंधु बैठे हैं। मैं दुखी हूँ। मेरा दुख यह है कि मुझे बिजली का 40 रु. का बिल जमा करना है और मेरे पास इतने रुपए नहीं हैं।

तभी एक बंधु अपना दुख बताने लगता है। उसने 8 कमरों का मकान बनाने की योजना बनाई थी। 6 कमरे बन चुके हैं। 2 के लिए पैसे की तंगी आ गई है। वह बहुत-बहुत दुखी है। वह अपने दुख का वर्णन करता है। मैं प्रभावित नहीं होता। मगर उसका दुख कितना विकट है कि मकान को 6 कमरों का नहीं रख सकता। मुझे उसके दुख से दुखी होना चाहिए, पर नहीं हो पाता। मेरे मन में बिजली के बिल के 40 रु. का खटका लगा है।

दूसरे बंधु पुस्तक-विक्रेता हैं। पिछले साल 50 हजार की किताबें पुस्तकालयों को बेची थीं। इस साल 40 हजार की बिकीं। कहते हैं - बड़ी मुश्किल है। सिर्फ 40 हजार की किताबें इस साल बिकीं। ऐसे में कैसे चलेगा ? वे चाहते हैं, मैं दुखी हो जाऊँ, पर मैं नहीं होता। इनके पास मैंने अपनी 100 किताबें रख दी थीं। वे बिक गईं। मगर जब मैं पैसे माँगता हूँ, तो वे ऐसे हँसने लगते हैं जैसे मैं हास्यरस पैदा कर रहा हूँ। बड़ी मुसीबत है व्यंग्यकार की। वह अपने पैसे माँगे, तो उसे भी व्यंग्य-विनोद में शामिल कर लिया जाता है। मैं उनके दुख से दुखी नहीं होता।

मेरे मन में बिजली कटने का खटका लगा हुआ है। तीसरे बंधु की रोटरी मशीन आ गई। अब मोनो मशीन आने में कठिनाई आ गई है। वे दुखी हैं। मैं फिर दुखी नहीं होता। अंतत: मुझे लगता है कि अपने बिजली के बिल को भूलकर मुझे इन सबके दुख में दुखी हो जाना चाहिए। मैं दुखी हो जाता हूँ। कहता हूँ - क्या ट्रेजडी है मनुष्य-जीवन की कि मकान कुल 6 कमरों का रह जाता है। और कैसी निर्दय यह दुनिया है कि सिर्फ 40 हजार की किताबें खरीदती है। कैसा बुरा वक्त आ गया है कि मोनो मशीन ही नहीं आ रही है।

वे तीनों प्रसन्न हैं कि मैं उनके दुःखों से आखिर दुखी हो ही गया।
तरह-तरह के संघर्ष में तरह-तरह के दुख हैं। एक जीवित रहने का संघर्ष है और एक संपन्नता का संघर्ष है। एक न्यूनतम जीवन-स्तर न कर पाने का दुख है, एक पर्याप्त संपन्नता न होने का दुख है। ऐसे में कोई अपने टुच्चे दुखों को लेकर कैसे बैठे ?

मेरे मन में फिर वही लालसा उठती है कि वे सज्जन प्रापर्टी समेत अपनी टैक्सों की बीमारी मुझे दे दें और मैं उससे मर जाऊँ। मगर वे मुझे यह चांस नहीं देंगे। न वे प्रापर्टी छोड़ेंगे, न बीमारी, और मुझे अंततः किसी ओछी बीमारी से ही मरना होगा।

anjaan
14-06-2012, 08:25 PM
पुराना खिलाड़ी


सरदारजी जबान से तंदूर को गर्म करते हैं। जबान से बर्तन में गोश्त चलाते हैं। पास बैठे आदमी से भी इतने जोर से बोलते हैं, जैसे किसी सभा में बिना माइक बोल रहे हों। होटल के बोर्ड पर लिखा है - ‘यहाँ चाय हर वक्त तैयार मिलती है।’ नासमझ आदमी चाय माँग बैठता है और सरदारजी कहते हैं - चाय ही बेचना होता, तो उसे बोर्ड पर क्यूँ लिखता बाश्शाओ! इधर नेक बच्चों के लिए कोई चाय नहीं है। समझदार ‘चाय’ का मतलब समझते हैं और बैठते ही कहते हैं - एक चवन्नी !
सरदारजी मुहल्ले के रखवाले हैं। इधर के हर आदमी का चरित्र वे जानते हैं। अजनबी को ताड़ लेते हैं। तंदूर में सलाख मारते हुए चिल्लाते हैं -
- वो दो बार ससुराल में रह आया है जी। जरा बच के।
- उसके घर में दो हैं जी। किसी के गले में डालना चाहता है। जरा बच के बाश्शाओ!
- दो जचकी उसके हो चुकी हैं। तीसरी के लिए बाप के नाम की तलाश जारी है। जरा बच के।
- उसकी खादी पर मत जाणाजी। गांधी को फुटकर बेचता है। जरा बच के।
उस आदमी को मेरे साथ दो-तीन बार देखकर सरदारजी ने आगाह किया था - वह पुराना खिलाड़ी है। जरा बच के।
जिसे पुराना खिलाड़ी कहा था, वह 35-40 के बीच का सीधा आदमी लगता था। हमेशा परेशान। हमेशा तनाव में। कई आधुनिक कवि उससे तनाव उधार माँगने आते होंगे। उसमें बचने लायक कोई बात मुझे नहीं लगती थी।
एक दिन वह अचानक आ गया था। पहले से बिना बताए, बिना घंटी बजाए, बिना पुकारे, वह दरवाजा खोलकर घुसा और कुर्सी पर बैठ गया। बदतमीजी पर मुझे गुस्सा आया था। बाद में समझ गया कि इसने बदतमीजी का अधिकार इसलिए हासिल कर लिया है कि वह अपने काम से मेरे पास नहीं आता। देश के काम से आता है। जो देश का काम करता है, उसे थोड़ी बदतमीजी का हक है। देश-सेवा थोड़ी बदतमीजी के बिना शोभा नहीं देती। थोड़ी बेवकूफी भी मिली हो, तो और चमक जाती है।
वह उत्तेजित था। उसने अपना बस्ता टेबिल पर पटका और सीधे मेरी तरफ घूरकर बोला - तुम कहते हो कि बिना विदेशी मदद के योजना चला लोगे। मगर पैसा कहाँ से लाओगे? है तुम्हारे पास देश में ही साधन जुटाने की कोई योजना?
वह जवाब के लिए मुझे घूर रहा था और मैं इस हमले से उखड़ गया था। योजना की बात मैंने नहीं, अर्थ मंत्री ने कही थी। वह अर्थ मंत्री से नाराज था। डाँट मुझे पड़ रही थी।
उत्तेजना में उसने तीन कुर्सियाँ बदलीं। बस्ते से पुलिंदा निकाला। बोला - जीभ उठाकर तालू से लगा देते हो। लो, आंतरिक साधन जुटाने की यह स्कीम।
घंटा-भर अपनी योजना समझाता रहा। कुछ हल्का हुआ। पुलिंदा बस्ते में रखा और चला गया।
हफ्ते-भर बाद वह फिर आया। वैसे ही तनाव में। भड़ से दरवाजा खोला। बस्ते को टेबिल पर पटका और अपने को कुर्सी पर। बोला - तुम कहते हो रोड ट्रांसपोर्ट के कारण रेलवे की आमदनी कम हो रही है। मगर कभी सोचा है, मोटर-ट्रकवाले माल भेजनेवालों को कितने सभीते देते हैं ?
लो यह स्कीम। इसके मुताबिक काम करो।
उसने रेलवे की आमदनी बढ़ाने के तरीके मुझे समझाए।
वह जब-तब आता। मुझे किसी विभाग का मंत्री समझकर डाँटता और फिर अपनी योजना समझाता। उसने मुझे शिक्षा मंत्री, कृषि मंत्री, विदेश मंत्री सब बनाया। उसे लगता था, वह सब ठीक कर सकता है, लेकिन विवश है। सत्ता उसके हाथ में है नहीं। उससे जो बनता है, करता है। योजना और सुझाव भेजता रहता है।
देश के लिए इतना दुखी आदमी मैंने दूसरा नहीं देखा। सड़क पर चलता, तो दूर से ही दुखी दिखता। पास पहुँचते ही कहता - रिजर्व बैंक के गवर्नर का बयान पढ़ा? सारी इकॉनमी को नष्ट कर रहे हैं ये लोग। आखिर यह किया हो रहा है? जरा प्रधानमंत्री से कहो न!
सरदारजी ने फिर आगाह किया - बहुत चिपकने लगा है। पुराना खिलाड़ी है। जरा बच के।
मैंने कहा - मालूम होता है, उसका दिमाग खराब है।
सरदारजी हँसे। बोले - दमाग? अजी दमाग तो हमारा-आपका खराब है जो दिन-भर काम करते हैं, तब खाते हैं। वह 10 सालों से बिना कुछ किए मजे में दिल्ली में रह रहा है। दिमाग को उसका आला दर्जे का है।
मैंने कहा - मगर वह दुखी है। रात-दिन उसे देश की चिंता सताती रहती है।
सरदारजी ने कहा - अजब मुल्क है ये। भगवान ने इसे सट्टा खेलते-खेलते बनाया होगा। इधर मुल्क की फिक्र में से भी रोटी निकलती है। फिर मैं आपसे पूछता हूँ, पिद्दी का कितना शोरबा बनता है? बताइए, कुछ अंदाज दीजिए। मुल्क की फिक्र करते-करते गांधी और नेहरू जैसे चले गए। अब यह पिद्दी क्या सुधार लेगा ? इस मुल्क को भगवान ने खास तौर से बनाया है। भगवान की बनाई चीज में इंसान सुधार क्यों करे? मुल्क सुधरेगा तो भगवान के हाथ से ही सुधरेगा। मगर इस इंसान से जरा बच के। पुराना खिलाड़ी है।
मैंने कहा - पुराना खिलाड़ी होता तो ऐसी हालत में रहता?
सरदारजी ने कहा - उसका सबब है। वह छोटे खेल खेलता है। छोटे दाँव लगाता है। मैंने उसे समझाया कि एक-दो बड़े दाँव लगा और माल समेटकर चैन की बंसी बजा। मगर उसकी हिम्मत ही नहीं पड़ती।
सरदारजी मुझे उससे बचने के लिए बार-बार आगाह करते, पर खुद उसे कभी नाश्ता करा देते, कभी रोटियाँ दे देते, कभी रुपए दे देते। मैंने पूछा, तो सरदारजी ने कहा - आखिर इंसान है। फिर उसके साथ बीवी भी है। उसने वह कमाल कर दिखाया है, जो दुनिया में किसी से नहीं हुआ - उसने बीवी को यह मनवा लिया कि वह देश की किस्मत पलटने के लिए पैदा हुआ है। वह कोई मामूली काम करके जिंदगी बरबाद नहीं कर सकता। उसका एक मिशन है। बीवी खुद भी भगवान से प्रार्थना करती है कि उसके घरवाले का मिशन पूरा हो जाए।
वह दिन पर दिन ज्यादा परेशान होता गया। जब-तब मुझे मिल जाता और किसी मंत्रालय की शिकायत करता।
अचानक वह गायब हो गया। 8-10 दिन नहीं दिखा, तो मैंने सरदारजी से पूछा। उन्होंने कहा - डिस्टर्ब मत करो। बड़े काम में लगा है।
मैंने पूछा - कौन काम ?
सरदारजी ने कहा - उसकी तफसील में मत जाओ। बम बना रहा है। इन्कलाबी काम कर रहा है। एक दिन वह सरकार के सिर पर बम पटकनेवाला है।
मैंने कहा - सच, वह बम बना रहा है ?
सरदारजी ने कहा - हाँ जी, वह नया कांस्टीट्यूशन बना रहा है। उसे सरकार के सिर पर दे मारेगा। दुनिया पलट देगा, बाश्शाओ।
एक दिन वह संविधान लेकर आ गया। और दुबला हो गया था। मगर चेहरा शांत था। फरिश्ते की तरह बोला - नथिंग विल चेंज अंडर दिस कांस्टीट्यूशन। संविधान बदलना ही पड़ेगा। इस देश को बुनियादी क्रांति चाहिए और बुनियादी क्रांति के लिए क्रांतिकारी संविधान चाहिए। मैंने नया संविधान बना लिया है।
बस्ते से उसने पुलिंदा निकाला और मुझे संविधान समझाने लगा - यह प्रीएंबल है - यह फंडामेंटल राइट्स का खंड है। इस संविधान में एक बुनियादी क्रांति की बात है। देखो, मनुष्य ने अपने को राज्य के हाथों क्यों सौंपा था ? इसलिए कि राज्य उसका पालन करे। राज्य का यह कर्तव्य है। मगर राज्य आदमी से काम करवाना चाहता है। यह गलत है। बिना काम किए आदमी का पालन होना चाहिए। मैं जो पिछले 10 सालों से कुछ नहीं कर रहा हूँ, सो मेरा प्रोटेस्ट है। मैं राज्य पर नैतिक दबाव डालकर उसका कर्तव्य कराना चाहता हूँ। मैं जानता हूँ, लोग मेरे बारे में क्या कहते हैं। आई डोंट माइंड। छोटे लोग हैं। मेरे मिशन को नहीं समझ सकते।
मैंने कहा - कोई काम नहीं करेगा, तो उत्पादन नहीं होगा। तब राज्य पालन कैसे कर सकेगा ?
उसने समझाया - आप आदमी को नहीं जानते। वह मना करने पर भी काम करता है। यह उसकी मजबूरी है। मैन इज डूम्ड टू वर्क। अगर राज्य कह भी दे कि कोई काम मत करो, तुम्हारा पालन हम करेंगे, तब भी लोग काम माँगेंगे। साधारण आदमी ऐसा ही होता। इने-गिने मुझ-आप जैसे लोग होंगे, जो काम नहीं करेंगे। हमारा पालन उन घटिया बहुसंख्यकों के उत्पादन से होगा।
वह अपने संविधान से बहुत संतुष्ट था। एक दिन वह फोटोग्राफ लेकर आया। फोटो में वह संविधान प्रधानमंत्री को दे रहा है। बोला - मैंने संविधान प्रधानमंत्री को दे दिया। उन्होंने आश्वासन दिया कि जल्दी ही इसे लागू किया जाएगा।
सरदारजी ने कहा - आजकल फोटो पर जिंदा है। प्रधानमंत्री से मिल आया है। उसकी बीवी घर भाग रही थी, सो थम गई। इस फोटो को अच्छे धंधे में लगाएँ तो अच्छी कमाई कर सकता है। मगर वह जिंदगी-भर ‘रिटेल’ करता रहेगा।
2-3 महीने उसने इंतजार किया। संविधान लागू नहीं हुआ। वह अब फिर परेशान हो गया। कहता - यह सरकार झूठ पर जिंदा है। मुझे प्रधानमंत्री ने आश्वासन दिया था कि जल्दी ही वे मेरा संविधान लागू करेंगे, पर अभी तक संसद को सूचना नहीं दी। अंधेर है। मगर मैं छोड़ूँगा नहीं।
एक दिन सरदारजी ने बताया - पुराना खिलाड़ी संसद के सामने अनशन पर बैठ गया है। राम-धुन लग रही है। बीवी गा रही है - सबको सन्मति दे भगवान। इसे सबकी क्या पड़ी है? यही क्यों नहीं कहती कि मेरे घरवाले को सन्मति दे भगवान!
तीसरे दिन उसे देखने गया। वह दरी पर बैठा था। उसका चेहरा सौम्य हो गया था। भूख से आदमी सौम्य हो जाता है। तमाशाइयों को वह बड़ी गंभीरता से समझा रहा था - देखो, इंसान आजाद पैदा होता है, मगर वह हर जगह ज़ंजीरों से जकड़ा रहता है। मनुष्य ने अपने को राज्य को क्यों सौंपा? इसलिए न, कि राज्य उसका पालन करेगा। मगर राज्य की गैरजिम्मेदारी देखिए कि मुझ जैसे लोगों को राज्य ने लावारिस की तरह छोड़ रखा है। ‘नथिंग विल चेंज अंडर दिस कान्स्टीट्यूशन’ मेरा संविधान लागू करना ही होगा। लेकिन इसके पहले राज्य को फौरन मेरे पालन की व्यवस्था करनी होगी। यह मेरी माँगें हैं।
सरदारजी ने उस दिन कहा - बिजली मँडरा रही है बाश्शाओ! देखो किसके सिर पर गिरती है। जरा बच के।
सरकार की तरफ से उसे धमकी दी जा रही थी। घर जाने के लिए किराए का लोभ भी दिया जा रहा था। मगर वह अपना संविधान लागू करवाने पर तुला था।
सातवें दिन सुबह जब मैं बैठा अखबार पढ़ रहा था, वह अचानक अपनी बीवी के सहारे मेरे घर में घुस आया। पीछे कुली उसका सामान लिए थे। उसने मुझे मना करने का मौका ही नहीं दिया। वह अपने घर की तरह इत्मीनान से घुस आया था।
मेरे सामने वह बैठ गया। आँखें धँस गई थीं। शरीर में हड्डियाँ रह गई थीं। मैं भौंचक उसे देख रहा था। वह इस तरह मेरे घर में घुस आया था कि मुझसे कुछ कहते नहीं बन रहा था। मगर उसके चेहरे पर सहज भाव था।
धीरे-धीरे बोला - प्रधानमंत्री ने आश्वासन दे दिया है।
मैं कुछ नहीं बोल सका।
वह बोला - कमजोरी बहुत आ गई है।
कुछ ऐसा भाव था उसका जैसे मेरे लिए प्राण दे रहा हो। कमजोरी भी उसे मेरे लिए आई हो।
उसने बीवी से कहा - उस कमरे में कुछ दिन रहने का जमा लो।
मेरी बोलती बंद थी। उसने अचानक हमला कर दिया था। मुझे लगा, जैसे किसी ने पीछे से मेरी कनपटी पर ऐसा चाँटा जड़ दिया है कि मेरी आँखों में तितलियाँ उड़ने लगी हैं। उसने मना करने की हालत भी मेरी नहीं रहने दी। मैं मूढ़ की तरह बैठा था और वह बगल के कमरे में जम गया था।
थोड़ी देर बाद वह आया। बोला - जरा एक-दो सेर अच्छी मुसम्मी मँगा दो।
कहकर वह चला गया। मैं सोचता रहा - इसने मुझे किस कदर अपाहिज बना दिया है। इस तरह मुसम्मी मँगाने के लिए कहता है, जैसे मैं इसका नौकर हूँ और इसने मुझे पैसे दे रखे हैं।
मैंने मुसम्मी मँगा दी।
वह मेरे नौकर को जब-तब पुकारता और हुक्म दे देता - शक्कर ले आओ! चाय ले आओ! उसने मुझे अपने ही घर में अजनबी बना दिया था।
वह दिन में दो बार मुझे दर्शन देने निकलता। कहता - वीकनेस अभी काफी है। 10-15 दिन में निकलेगी। जरा दो-तीन रुपए देना।
मैं रुपए दे देता। बाद में मुझे अपने पर खीझ आती। मैं किस कदर सत्वहीन हो गया हूँ। मैं मना क्यों नहीं कर देता?
चौथे दिन सरदारजी ने कहा - घुस गया घर में बाश्शाओ। मैंने पहले कहा था -पुराना खिलाड़ी है, जरा बच के। 6 महीने से पहले नहीं निकलेगा। यही उसकी तरकीब है। जब वह किसी मकान से निकाला जाता है, तो कोई ‘इशू’ लेकर अनशन पर बैठ जाता और उसी गिरी हालत में किसी के घर में घुस जाता है।
मैंने कहा - उसकी हालत जरा ठीक हो जाए तो मैं उसे निकाल बाहर करूँगा।
सरदारजी ने कहा - नहीं निकाल सकते। वह पूरा वक्त लेगा।
जब वह चलने-फिरने लायक हो गया, तो सुबह-शाम खुले में वायु-सेवन के लिए जाने लगा। लौटकर मेरे पास दो घड़ी बैठ जाता। कहता - प्राइम मिनिस्टर अब जरा सीरियस हुए हैं। एक कमेटी जल्दी ही बैठनेवाली है।
एक दिन मैंने कहा - अब आप दूसरी जगह चले जाइए। मुझे बहुत तकलीफ है।
उसने कहा - हाँ-हाँ, प्रधानमंत्री का पी.ए. मकान का इंतजाम कर रहा है। होते ही चला जाऊँगा। मुझे खुद यहाँ बहुत तकलीफ है।
उसमें न जाने कहाँ का नैतिक बल आ गया था कि मेरे घर में रहकर, मेरा सामान खाकर, वह यह बताता था कि मुझपर एहसान कर रहा है। कहता है - मुझे खुद यहाँ बहुत तकलीफ है।
सरदारजी पूछते हैं - निकला?
मैं कहता हूँ - अभी नहीं।
सरदारजी कहते हैं - नहीं निकलेगा। पुराना खिलाड़ी है।
मैंने कहा - सरदारजी, आपके यहाँ इतनी जगह है। उसे यहीं कुछ दिन रख लीजिए।
सरदारजी ने कहा - उसके साथ औरत है। अकेला होता, तो कहता, पड़ा रह। मगर औरत! औरत के डर से तो पंजाब से भागकर आया और तुम इधर औरत ही यहाँ डालना चाहते हो।
उसके रवैए में कोई फर्क नहीं पड़ा। सुबह स्नान-पूजा के बाद वह नाश्ता करता। फिर पोर्टफोलियो लेकर निकल जाता। जाते-जाते मुझसे कहता - जरा संसदीय मामलों के मंत्री से मिल आऊँ।
आखिर मैंने सख्ती करना शुरू किया। सुबह-शाम उसे डाँटता। उसका अपमान करता। उसके चेहरे पर शिकन नहीं आती। कभी वह कह देता - मैं अपमान का बुरा नहीं मानता। मुझे इसकी आदत पड़ चुकी है। फिर जिस महान ‘मिशन’ में मैं लगा हुआ हूँ, उसे देखते छोटे-छोटे अपमानों की अवहेलना ही करनी चाहिए।
कभी जब वह देखता कि मेरा ‘मूड’ बहुत खराब है, तो वह बात करना टाल जाता। कागज पर लिख देता - आज मेरा मौन व्रत है।
आखिर मैंने पुलिस की मदद लेने का तय किया। उसने कागज पर लिख दिया - आज मेरा मौन व्रत है।
मैंने कहा - तुम मौन व्रत रखे रहो। कल पुलिस तुम्हारा सामान बाहर फेंक देगी।
उसने मौन व्रत फौरन त्याग दिया और मुझे मनाता रहा। कहा - 3-4 दिनों में कहीं रहने का इंतजाम कर लूँगा।
सुबह वह तैयार होकर निकला। मुझसे कहा - एक जगह रहने का इंतजाम कर रहा हूँ। जरा पाँच रुपए दीजिए।
मैंने कहा - पाँच रुपए किसलिए?
उसने कहा - जगह तय करने जाना है न। स्कूटर से जाऊँगा।
मैंने कहा - बस में क्यों नहीं जाते? मैं रुपया नहीं दूँगा।
उसने कहा - तो मैं नहीं जाता। यहीं रहा आऊँगा।
मैंने पस्त होकर उसे पाँच रुपए दे दिए।
शाम को वह लौटा और बोला - मैं दूसरी जगह जा रहा हूँ। आपको एक महीने में ही छोड़ दिया। किसी का घर मैंने 6 महीने से पहले नहीं छोड़ा। एक तरह से आपके ऊपर मेरा अहसान ही है। जरा 25 रुपए दीजिए।
मैंने कहा - पच्चीस रुपए किसलिए।
वह बोला - कुली को पैसे देने पड़ेंगे। फिर नई जगह जा रहा हूँ। 2-4 दिनों का खाने का इंतजाम तो होना चाहिए।
मैंने कहा - यह मेरी जिम्मेदारी नहीं है। मेरे पास रुपए नहीं हैं।
उसने शांति से कहा - तो फिर आज नहीं जाता। जिस दिन आपके पास पच्चीस रुपए हो जाएँगे, उस दिन चला जाऊँगा।
मैंने पच्चीस रुपए उसे फौरन दे दिए। उसने सामान बाहर निकलवाया।
बीवी को बाहर निकाला। फिर मुझसे हाथ मिलाते हुए बोला - कुछ ख्याल मत कीजिए। नो इल विल! मैं जिस मिशन में लगा हूँ उसमें ऐसी स्थितियाँ आती ही रहती हैं। मैं बिलकुल फील नहीं करता।
मैं बाहर निकला, तो सरदारजी चिल्लाए - चला गया?
मैंने कहा - हाँ, चला गया।
वे बोले - कितने में गया?
मैंने कहा - पच्चीस रुपए में।
सरदारजी ने कहा - सस्ते में चला गया। सौ रुपए से कम में नहीं जाता वह।
पुराना खिलाड़ी अब भी कभी-कभी कहीं मिल जाता है। वैसा ही परेशान, वैसा ही तनाव। वह भूल गया कि कभी मैंने उसे जबरदस्ती घर से निकाला था।
कहता है - प्रधानमंत्री की अक्ल पर क्या पाला पड़ गया? कहते हैं, कि हम किसी भी स्थिति में रुपए को ‘डिवैल्यू’ नहीं करेंगे। मैं कहता हूँ, डिवैल्यू नहीं करोगे, तो दुनिया के बाजार से निकाल नहीं दिए जाओगे।
जरा प्रधानमंत्री को समझाइए न!
वह चिंता करता हुआ आगे बढ़ जाता है।

anjaan
14-06-2012, 08:26 PM
अपील का जादू


एक देश है! गणतंत्र है! समस्याओं को इस देश में झाड़-फूँक, टोना-टोटका से हल किया जाता है! गणतंत्र जब कुछ चरमराने लगता है, तो गुनिया बताते हैं कि राष्ट्रपति की बग्घी के कील-काँटे में कुछ गड़बड़ आ गई है। राष्ट्रपति की बग्घी की मरम्मत कर दी जाती है और गणतंत्र ठीक चलने लगता है। सारी समस्याएँ मुहावरों और अपीलों से सुलझ जाती हैं। सांप्रदायिकता की समस्या को इस नारे से हल कर लिया गया - हिंदू-मुस्लिम, भाई-भाई!

एक दिन कुछ लोग प्रधानमंत्री के पास यह शिकायत करने गए कि चीजों की कीमतें बहुत बढ़ गई हैं। प्रधानमंत्री उस समय गाय के गोबर से कुछ प्रयोग कर रहे थे, वे स्वमूत्र और गाय के गोबर से देश की समस्याओं को हल करने में लगे थे। उन्होंने लोगों की बात सुनी, चिढ़कर कहा - आप लोगों को कीमतों की पड़ी है! देख नहीं रहे हो, मैं कितने बड़े काम में लगा हूँ। मैं गोबर में से नैतिक शक्ति पैदा कर रहा हूँ। जैसे गोबर गैस ‘वैसे गोबर नैतिकता’। इस नैतिकता के प्रकट होते ही सब कुछ ठीक हो जाएगा। तीस साल के कांग्रेसी शासन ने देश की नैतिकता खत्म कर दी है। एक मुँहफट आदमी ने कहा - इन तीस में से बाइस साल आप भी कांग्रेस के मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री रहे हैं, तो तीन-चौथाई नैतिकता तो आपने ही खत्म की होगी! प्रधान मंत्री ने गुस्से से कहा - बको मत, तुम कीमतें घटवाने आए हो न! मैं व्यापारियों से अपील कर दूँगा। एक ने कहा - साहब, कुछ प्रशासकीय कदम नहीं उठाएँगे? दूसरे ने कहा - साहब, कुछ अर्थशास्त्र के भी नियम होते हैं।

प्रधानमंत्री ने कहा - मेरा विश्वास न अर्थशास्त्र में है, न प्रशासकीय कार्यवाही में, यह गांधी का देश है, यहाँ हृदय परिवर्तन से काम होता है। मैं अपील से उनके दिलों में लोभ की जगह त्याग फिट कर दूँगा। मैं सर्जरी भी जानता हूँ। रेडियो से प्रधानमंत्री ने व्यापारियों से अपील कर दी - व्यापारियों को नैतिकता का पालन करना चाहिए। उन्हें अपने हृदय में मानवीयता को जगाना चाहिए। इस देश में बहुत गरीब लोग हैं। उन पर दया करनी चाहिए। अपील से जादू हो गया। दूसरे दिन शहर के बड़े बाजार में बड़े-बड़े बैनर लगे थे - व्यापारी नैतिकता का पालन करेंगे। मानवता हमारा सिद्धांत है। कीमतें एकदम घटा दी गई हैं। जगह-जगह व्यापारी नारे लगा रहे थे - नैतिकता! मानवीयता! वे इतने जोर से और आक्रामक ढंग से ये नारे लगा रहे थे कि लगता था, चिल्ला रहे हैं -हरामजादे! सूअर के बच्चे!

गल्ले की दुकान पर तख्ती लगी थी - गेहूँ सौ रुपए क्विंटल! ग्राहक ने आँखें मल, फिर पढ़ा। फिर आँखें मलीं फिर पढ़ा। वह आँखें मलता जाता। उसकी आँखें सूज गईं, तब उसे भरोसा हुआ कि यही लिखा है। उसने दुकानदार से कहा - क्या गेहूँ सौ रुपए क्विंटल कर दिया? परसों तक दो सौ रुपए था। सेठ ने कहा - हाँ, अब सौ रुपए के भाव देंगे। ग्राहक ने कहा - ऐसा गजब मत कीजिए। आपके बच्चे भूखे मर जाएँगे। सेठ ने कहा - चाहे जो हो जाए, मैं अपना और परिवार का बलिदान कर दूँगा, पर कीमत नहीं बढ़ाऊँगा। नैतिकता, मानवीयता का तकाजा है।

ग्राहक गिड़गिड़ाने लगा - सेठजी, मेरी लाज रख लो। दो सौ पर ही दो। मैं पत्नी से दो सौ के हिसाब से लेकर आया हूँ, सौ के भाव से ले जाऊँगा, तो वह समझेगी कि मैंने पैसे उड़ा दिए और गेहूँ चुरा कर लाया हूँ। सेठ ने कहा - मैं किसी भी तरह सौ से ऊपर नहीं बढ़ाऊँगा। लेना हो तो लो, वरना भूखों मरो। दूसरा ग्राहक आया। वह अक्खड़ था। उसने कहा - ऐ सेठ, यह क्या अंधेर मचा रखा है, भाव बढ़ाओ वरना ठीक कर दिए जाओगे। सेठ ने जवाब दिया - मैं धमकी से डरने वाला नहीं हूँ। तुम मुझे काट डालो; पर मैं भाव नहीं बढ़ाऊँगा। नैतिकता, मानवीयता भी कोई चीज है। एक गरीब आदमी झोला लिए दुकान के सामने खड़ा था। दुकानदार आया और उसे गले लगाने लगा। गरीब आदमी डर से चिल्लाया - अरे, मार डाला! बचाओ! बचाओ! सेठ ने कहा - तू इतना डरता क्यों है?

गरीब ने कहा - तुम मुझे दबोच जो रहे हो! मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? सेठ ने कहा - अरे भाई, मैं तो तुझसे प्यार कर रहा हूँ। प्रधान मंत्री ने मानवीयता की अपील की है न! एक दुकान पर ढेर सारे चाय के पैकेट रखे थे। दुकान के सामने लगी भीड़ चिल्ला रही थी - चाय को छिपाओ। हमें इतनी खुली चाय देखने की आदत नहीं है। हमारी आँखें खराब हो जाएँगी। उधर से सेठ चिल्लाया - मैं नैतिकता में विश्वास करता हूँ। चाय खुली बेचूँगा और सस्ती बेचूँगा। कालाबाजार बंद हो गया है।

एक मध्यमवर्गीय आदमी बाजार से निकला। एक दुकानदार ने उसका हाथ पकड़ लिया। उस आदमी ने कहा - सेठजी, इस तरह बाजार से बेइज्जत क्यों करते हो! मैंने कह तो दिया कि दस तारीख को आपकी उधारी चुका दूँगा। सेठ ने कहा - अरे भैया, पैसे कौन माँगता है? जब मर्जी हो, दे देना। चलो, दुकान पर चलो। कुछ शक्कर लेते जाओ। दो रुपए किलो।

anjaan
14-06-2012, 08:27 PM
पुलिस मंत्री का पुतला


एक राज्य में एक शहर के लोगों पर पुलिस-जुल्म हुआ तो लोगों ने तय किया कि पुलिस-मंत्री का पुतला जलाएँगे।

पुतला बड़ा कद्दावर और भयानक चेहरेवाला बनाया गया।

पर दफा 144 लग गई और पुतला पुलिस ने जब्त कर लिया।

अब पुलिस के सामने यह समस्या आ गई कि पुतले का क्या किया जाए। पुलिसवालों ने बड़े अफसरों से पूछा, ‘साहब, यह पुतला जगह रोके कब तक पड़ा रहेगा? इसे जला दें या नष्ट कर दें?’

अफसरों ने कहा, ‘गजब करते हो। मंत्री का पुतला है। उसे हम कैसे जलाएँगे? नौकरी खोना है क्या?’

इतने में रामलीला का मौसम आ गया। एक बड़े पुलिस अफसर को ‘ब्रेनवेव’ आ गई। उसने रामलीलावालों को बुलाकर कहा, ‘तुम्हें दशहरे पर जलाने के लिए रावण का पुतला चाहिए न? इसे ले जाओ। इसमें सिर्फ नौ सिर कम हैं, सो लगा लेना।’

anjaan
14-06-2012, 08:28 PM
अश्लील


शहर में ऐसा शोर था कि अश्लील साहित्य का बहुत प्रचार हो रहा है। अखबारों में समाचार और नागरिकों के पत्र छपते कि सड़कों के किनारे खुलेआम अश्लील पुस्तकें बिक रही हैं।
दस-बारह उत्साही समाज-सुधारक युवकों ने टोली बनाई और तय किया कि जहाँ भी मिलेगा हम ऐसे साहित्य को छीन लेंगे और उसकी सार्वजनिक होली जलाएँगे।

उन्होंने एक दुकान पर छापा मारकर बीच-पच्चीस अश्लील पुस्तकें हाथों में कीं। हरके के पास दो या तीन किताबें थीं। मुखिया ने कहा - आज तो देर हो गई। कल शाम को अखबार में सूचना देकर परसों किसी सार्वजनिक स्थान में इन्हें जलाएँगे। प्रचार करने से दूसरे लोगों पर भी असर पड़ेगा। कल शाम को सब मेरे घर पर मिलो। पुस्तकें में इकट्ठी अभी घर नहीं ले जा सकता। बीस-पच्चीस हैं। पिताजी और चाचाजी हैं। देख लेंगे तो आफत हो जाएगी। ये दो-तीन किताबें तुम लोग छिपाकर घर ले जाओ। कल शाम को ले आना।

दूसरे दिन शाम को सब मिले पर किताबें कोई नहीं लाया था। मुखिया ने कहा - किताबें दो तो मैं इस बोरे में छिपाकर रख दूँ। फिर कल जलाने की जगह बोरा ले चलेंगे।

किताब कोई लाया नहीं था।
एक ने कहा - कल नहीं, परसों जलाना। पढ़ तो लें।
दूसरे ने कहा - अभी हम पढ़ रहे हैं। किताबों को दो-तीन बाद जला देना। अब तो किताबें जब्त ही कर लीं।
उस दिन जलाने का कार्यक्रम नहीं बन सका। तीसरे दिन फिर किताबें लेकर मिलने का तय हुआ।
तीसरे दिन भी कोई किताबें नहीं लाया।
एक ने कहा - अरे यार, फादर के हाथ किताबें पड़ गईं। वे पढ़ रहे हैं।
दसरे ने कहा - अंकिल पढ़ लें, तब ले आऊँगा।
तीसरे ने कहा - भाभी उठाकर ले गई। बोली की दो-तीन दिनों में पढ़कर वापस कर दूँगी।
चौथे ने कहा - अरे, पड़ोस की चाची मेरी गैरहाजिर में उठा ले गईं। पढ़ लें तो दो-तीन दिन में जला देंगे।
अश्लील पुस्तकें कभी नहीं जलाई गईं। वे अब अधिक व्यवस्थित ढंग से पढ़ी जा रही हैं।

anjaan
14-06-2012, 08:29 PM
पवित्रता का दौरा


सुबह की डाक से चिट्ठी मिली, उसने मुझे इस अहंकार में दिन-भर उड़ाया कि मैं पवित्र आदमी हूँ क्योंकि साहित्य का काम एक पवित्र काम है। दिन-भर मैंने हर मिलनेवाले को तुच्छ समझा। मैं हर आदमी को अपवित्र मानकर उससे अपने को बचाता रहा। पवित्रता ऐसी कायर चीज है कि सबसे डरती है और सबसे अपनी रक्षा के लिए सचेत रहती है। अपने पवित्र होने का एहसास आदमी को ऐसा मदमाता है कि वह उठे हुए साँड़ की तरह लोगों को सींग मारता है, ठेले उलटाता है, बच्चों को रगेदता है। पवित्रता की भावना से भरा लेखक उस मोर जैसा होता है जिसके पाँव में घुँघरू बाँध दिए गए हों। वह इत्र की ऐसी शीशी है जो गंदी नाली के किनारे की दुकान पर रखी है। यह इत्र गंदगी के डर से शीशी में ही बंद रहता है।
वह चिट्ठी साहित्य की एक मशहूर संस्था के सचिव की तरफ से थी। मैं उस संस्था का, जिसका लाखों का कारोबार है, सदस्य बना लिया गया हूँ। स्थायी समिति का सदस्य हूँ। यह संस्था हम लोगों को बैठकों में शामिल होने का खर्च नहीं देती क्योंकि पैसा साहित्य के पवित्र काम में लगे हुए पवित्र पदाधिकारियों के हड़पने में ही खर्च हो जाता है। सचिव ने कि साहित्य भवन के सामने एक सिनेमा बनाने की मंजूरी मिल रही है। सिनेमा बनने से साहित्य भवन की पवित्रता, सौम्यता और शांति भंग होगी। वातावरण दूषित होगा। हम मुख्यमंत्री को सिनेमा निर्माण न होने देने के लिए ज्ञापन दे रहे हैं। आप भी इस पर दस्तखत कर दीजिए।
इस चिट्ठी से मुझे बोध हुआ कि साहित्य पवित्र है, हम साहित्यकार पवित्र हैं और साहित्य की यह संस्था पवित्र है। मेरे दुष्ट मन ने एक शंका भी उठाई कि हो सकता है किसी ऐसे पैसेवाले ने, जिसे उस जगह दुकान खोलनी है, हमारे पवित्र साहित्य के पवित्र सचिव को पैसा खिला दिया हो कि सिनेमा न बनने दो। पर मैंने इस दुष्ट शंका को दबा दिया। नहीं, नहीं, साहित्य की संस्था पवित्र है, सिनेमा अपवित्र है। हमें अपवित्रता से अपना पल्ला बचा लेना चाहिए।
शाम की डाक से संस्था के विपक्षी गुट के नेता की चिट्ठी आई जिसमें संस्था में किए जा रहे भ्रष्टाचार का ब्यौरा दिया गया था।
इस पत्र ने मुझे झकझोरा। अपनी पवित्रता पर मुझे शंका हुई। साहित्य के काम की पवित्रता पर शंका हुई। साहित्य की संस्था की पवित्रता की मेरी उठान शांत हुई और मैं नार्मल हो गया।
इतने साल साहित्य के क्षेत्र में हो गए। मैं कई बार पवित्र होने की दुर्घटना में फँसा, पर हर बार बच गया। मुझे लिखते जब कुछ ही समय हुआ था, तभी बुजुर्ग साहित्यकार मुझसे कहते थे - आपने साहित्य रचना का कार्य अपने हाथ में लिया है। माता वीण-पाणि के मंदिर की पवित्रता बनाए रखिए। मैं थोड़ा फूलता था। सोचता था, सिगरेट पीना छोड़ दूँ क्योंकि इस धुएँ से देवी के मंदिर के धूप की सुगंध दबती होगी। पर मैं उबर आया। वे बुजुर्ग कहते – माँ भारती ने आपके सामने आँचल फैलाया है। उसे मणियों से भर दीजिए। (वैसे कवि ‘अंचल’ उस दिन कह रहे थे कि हम तो अब ‘रजाई’ हो गए)। जी हाँ, माँ भारती के अंचल में आप कचरा डालते जाएँ और उसी में मैं मणि छोड़ता जाऊँ। ये पवित्र लोग और पवित्र ही लिखने वाले लोग बड़े दिलचस्प होते हैं। एक मुझसे बार-बार कहते - आप अब कुछ शाश्वत साहित्य लिखिए। मैं तो शाश्वत साहित्य ही लिखता हूँ। वे सट्टे का फिगर रोज नया लगाते थे, मगर साहित्य शाश्वत लिखते थे। वे मुझे बाल्मीकि की तरह दीमकों के बमीठे में दबे हुए लगते थे। शाश्वत साहित्य लिखने का संकल्प लेकर बैठनेवाले मैंने तुरंत मरते देखे हैं। एक शाश्वत साहित्य लिखनेवाले ने कई साल पहले मुझसे कहा था - अरे, आप स्कूल मास्टर होकर भी इतना अच्छा लिखते हैं। मैं तो सोचता था, आप प्रोफेसर होंगे। उन्होंने स्कूल-मास्टर लेखक की हमेशा उपेक्षा की। वे खुद प्रोफेसर रहे। पर आगे उनकी यह दुर्गति हुई कि उन्हें कोर्स में लगी मेरी ही रचनाएँ कक्षा में पढ़ानी पड़ीं। उनका शाश्वत साहित्य कोर्स में नहीं लगा।
सोचता हूँ, हम कहाँ के पवित्र हैं। हममें से अधिकांश ने अपनी लेखनी को रंडी बना दिया है, जो पैसे के लिए किसी के भी साथ सो जाती है। सत्ता इस लेखनी से बलात्कार कर लेती है और हम रिपोर्ट तक नहीं करते। कितने नीचों की तारीफ मैंने नहीं लिखी। कितने मिथ्या का प्रचार मैंने नहीं किया। अखबारों के मालिकों का रुख देखकर मेरे सत्य ने रूप बदले हैं। मुझसे सिनेमा के चाहे जैसे डायलाग कोई लिखा ले। मैं इसी कलम से बलात्कार की प्रशंसा में भी फिल्मी गीत लिख सकता हूँ और भगवद् भजन भी लिख सकता हूँ। मुझसे आज पैसे देकर मजदूर विरोधी अखबार का संपादन करा लो और कल मैं उससे ज्यादा पैसे लेकर ट्रेड-यूनियन के अखबार का संपादन कर दूँ। इसी कलम से मैंने पहले ‘इंदिरा गांधी जिंदाबाद’ लिखा था, फिर ‘इंदिरा गांधी मुर्दाबाद’ लिखा था, और अब फिर ‘इंदिरा भारत है’ लिख रहा हूँ।
क्या हमारी पवित्रता है? साहित्य भवन की पवित्रता को सिनेमा भवन क्या नष्ट कर देगा? पर होता तो है पवित्रता, शराफत, चरित्र का एक गुमान। इधर ही एक मुहल्ले में सिनेमा बनने वाला था, तो शरीफों ने बड़ा हल्ला मचाया - यह शरीफों का मोहल्ला है। यहाँ शरीफ स्त्रियाँ रहती हैं और यहाँ सिनेमा बन रहा है। गोया सिनेमा गुंडों के मोहल्ले में बनना चाहिए ताकि इनके घरों की शरीफ औरतें सिनेमा देखने गुंडों के बीच जाएँ। मुहल्ले में एक आदमी रहता है। उससे मिलने एक स्त्री आती है। एक सज्जन कहने लगे - यह शरीफों का मुहल्ला है। यहाँ यह सब नहीं होना चाहिए। देखिए, फलाँ के पास एक स्त्री आती है। मैंने कहा - साहब, शरीफों का मुहल्ला है, तभी तो वह स्त्री अपने पुरुष मित्र से मिलने बेखटके आती है। क्या वह गुंडों के मुहल्ले में उससे मिलने जाती?
पवित्रता का यह हाल है कि जब किसी मंदिर के पास से शराब की दुकान हटाने की माँग लोग करते हैं, तब पुजारी बहुत दुखी होता है। उसे लेने के लिए दूर जाना पड़ेगा। यहाँ तो ठेकेदार भक्ति-भाव में कभी-कभी मुफ्त भी पिला देता था।
मैं शामवाले पत्र से हल्का हो गया। पवित्रता का मेरा नशा उतर गया। मैंने सोचा, साहित्य भवन के सचिव को लिखूँ - मुझे दूसरे पक्ष का पत्र भी मिल गया है जिसमें बताया गया है कि अपनी संस्था में कितना भ्रष्टाचार है। अब तो सिनेमा-मालिक को ही माँग करनी चाहिए कि यह साहित्य की संस्था यहाँ से हटाई जाए, जिससे दर्शकों की नैतिकता पर बुरा असर न पड़े। इसमें बड़ा भ्रष्टाचार है।

anjaan
14-06-2012, 08:30 PM
आध्यात्मिक पागलों का मिशन



भारत के सामने अब एक बड़ा सवाल है - अमेरिका को अब क्या भेजे? कामशास्त्र वे पढ़ चुके, योगी भी देख चुके। संत देख चुके। साधु देख चुके। गाँजा और चरस वहाँ के लड़के पी चुके। भारतीय कोबरा देख लिया। गिर का सिंह देख लिया। जनपथ पर 'प्राचीन' मूर्तियाँ भी खरीद लीं। अध्यात्म का आयात भी अमेरिका काफी कर चुका और बदले में गेहूँ भी दे रहा है। हरे कृष्ण, हरे राम भी बहुत हो गया।
महेश योगी, बाल योगेश्वर, बाल भोगेश्वर आदि के बाद अब क्या हो? मैं देश-भक्त आदमी हूँ। मगर मैं अमेरिकी पीढ़ी को भी जानता हूँ। मैं जानता हूँ, वह 'बोर' समाज का आदमी हैं - याने बड़ा बोर आदमी। शेयर अपने आप डॉलर दे जाते हैं। घर में टेलीविजन है, दारू की बोतलें हैं। शाम को वह दस-पंद्रह आदमियों से 'हाउ डु यू डू' कर लेता है। पर इससे बोरियत नहीं मिटती। हनोई पर कितनी भी बम-वर्षा अमेरिका करे, उत्तेजना नहीं होती। कुछ चाहिए उसे। उसे भारत से ही चाहिए।
मुझे चिंता जितनी बड़ी अमेरिका की है उतनी ही भारतीय भाइयों की। इन्हें भी कुछ चाहिए।
अब हम भारतीय भाई वहाँ डॉलर और यहाँ रुपयों के लिए क्या ले जाएँ? रविशंकर से वे बोर हो चुके। योगी, संत वगैरह भी काफी हो चुके। अब उन्हें कुछ नया चाहिए - बोरियत खत्म करने और उत्तेजना के लिए। डॉलर देने को वे तैयार हैं।
मेरा विनम्र सुझाव है कि इस बार हम भारत से 'डिवाइन ल्यूनेटिक मिशन' ले जाएँ। ऐसा मिशन आज तक नहीं गया। यह नायाब चीज होगी - भारत से 'डिवाइन ल्यूनेटिक मिशन' याने आध्यात्मिक पागलों का मिशन।
मैं जानता हूँ। आम अमेरिकी कहेगा - वी हेव सीन वन। हिज नेम इज कृष्ण मेनन। (हमने एक पागल देखा है। उसका नाम कृष्ण मेनन है।) तब हमारे एजेंट कहेंगे - वह 'डिवाइन' (आध्यात्मिक) नहीं था। और पागल भी नहीं था। इस वक्त सच्चे आध्यात्मिक पागल भारत से आ रहे हैं।
मैं जानता हूँ, आध्यात्मिक मिशनें 'स्मगलिंग' करती रहती हैं। पर भारत सरकार और आम भारतीयों को यह नहीं मालूम कि लोगों को 'स्वर्ग' में भी स्मगल किया जाता है।
यह अध्यात्म के डिपार्टमेंट से होता है। जिस महान देश भारत में गुजरात के एक गाँव में एक आदमी ने पवित्र जल बाँटकर गाँव उजाड़ दिया, वह क्या अमेरिकी को स्वर्ग में 'स्मगल' नहीं कर सकता?
तस्करी सामान की भी होती है - और आध्यात्मिक तस्करी भी होती है। कोई आदमी दाढ़ी बढ़ाकर एक चेले को लेकर अमेरिका जाए और कहे, ‘मेरी उम्र एक हजार साल है। मैं हजार सालों से हिमालय में तपस्या कर रहा था। ईश्वर से मेरी तीन बार बातचीत हो चुकी है।’ विश्वासी पर साथ ही शंकालु अमेरिकी चेले से पूछेगा - क्या तुम्हारे गुरु सच बोलते हैं? क्या इनकी उम्र सचमुच हजार साल है? तब चेला कहेगा, ‘मैं निश्चित नहीं कह सकता, क्योंकि मैं तो इनके साथ सिर्फ पाँच सौ सालों से हूँ।’
याने चेले पाँच सौ साल के वैसे ही हो गए और अपनी अलग कंपनी खोल सकते हैं। तो मैं भी सोचता हूँ कि सब भारतीय माल तो अमेरिका जा चुका - कामशास्त्र, अध्यात्म, योगी, साधु वगैरह।
अब एक ही चीज हम अमेरिका भेज सकते हैं - वह है भारतीय आध्यात्मिक पागल - इंडियन डिवाइन ल्यूनेटिक। इसलिए मेरा सुझाव है कि 'इंडियन डिवाइन ल्यूनेटिक मिशन' की स्थापना जल्दी ही होनी चाहिए। यों मेरे से बड़े-बड़े लोग इस देश में हैं। पर मैं भी भारत की सेवा के लिए और बड़े अमेरिकी भाई की बोरियत कम करने के लिए कुछ सेवा करना चाहता हूँ। यों मैं जानता हूँ कि हजारों सालों से 'हरे राम हरे कृष्ण' का जप करने के बाद भी शक्कर सहकारी दुकान से न मिलकर ब्लैक से मिलती है - तो कुछ दिन इन अमरीकियों को राम-कृष्ण का भजन करने से क्या मिल जाएगा? फिर भी संपन्न और पतनशील समाज के आदमी के अपने शांति और राहत के तरीके होते हैं - और अगर वे भारत से मिलते हैं, तो भारत का गौरव ही बढ़ता है। यों बरट्रेंड रसेल ने कहा है - अमेरिकी समाज वह समाज है जो बर्बरता से एकदम पतन पर पहुँच गया है - वह सभ्यता की स्टेज से गुजरा ही नहीं। एक स्टेप गोल कर गया। मुझे रसेल से भी क्या मतलब? मैं तो नया अंतरराष्ट्रीय धंधा चालू करना चाहता हूँ - 'डिवाइन ल्यूनेटिक मिशन'। दुनिया के पगले शुद्ध पगले होते हैं - भारत के पगले आध्यात्मिक होते हैं।
मैं 'डिवाइन ल्यूनेटिक मिशन' बनाना चाहता हूँ। इसके सदस्य वही लोग हो सकते हैं, जो पागलखाने में न रहे हों। हमें पागलखाने के बाहर के पागल चाहिए याने वे जो सही पागल का अभिनय कर सकें। योगी का अभिनय करना आसान है। ईश्वर का अभिनय करना भी आसान है। मगर पागल का अभिनय करना बड़ा ही कठिन है। मैं योग्य लोगों की तलाश में हूँ। दो-एक प्रोफेसर मित्र मेरी नजर में हैं जिनसे मैं मिशन में शामिल होने की अपील कर रहा हूँ।
मिशन बनेगा और जरूर बनेगा। अमेरिका में हमारी एजेंसी प्रचार करेगी - सी रीयल इंडियन डिवाइन ल्यूनेटिक्स (सच्चे भारतीय आध्यात्मिक पागलों को देखो।) हम लोगों के न्यूयार्क हवाई अड्डे पर उतरने की खबर अखबारों में छपेगी। टेलीविजन तैयार रहेगा।
मिसेज राबर्ट, मिसेज सिंपसन से पूछेगी, ‘तुमने क्या सच्चा आध्यात्मिक भारतीय पागल देखा है?’ मिसेज सिंपसन कहेगी, ‘नो, इज देअर वन इन दिस कंट्री, 'अंडर गाड'?’ मिसेज राबर्ट कहेगी, ‘हाँ, कल ही भारतीय आध्यात्मिक पागलों का एक मिशन न्यूयार्क आ रहा है। चलो हम लोग देखेंगे : इट विल बी ए रीअल स्पिरिचुअल एक्सपीरियंस। (वह एक विरल आध्यात्मिक अनुभव होगा।)’
न्यूयार्क हवाई अड्डे पर हमारे भारतीय पागल आध्यात्मिक मिशन के दर्शन के लिए हजारों स्त्री-पुरुष होंगे - उन्हें जीवन की रोज ही बोरियत से राहत मिलेगी। हमारा स्वागत होगा। मालाएँ पहनाई जाएँगी। हमारे ठहराने का बढ़िया इंतजाम होगा।
और तब हम लोग पागल अध्यात्म का प्रोग्राम देंगे। हर गैरपागल पहले से शिक्षित होगा कि वह सच्चे पागल की तरह कैसे नाटक करे। प्रवेश-फीस 50 डॉलर होगी और हजारों अमेरिकी हजारों डॉलर खर्च करके 'इंडियन डिवाइन ल्यूनेटिक्स' के दर्शन करने आएँगे।
हमारा धंधा खूब चलेगा। मैं मिशन का अध्यक्ष होने के नाते भाषण दूँगा, ‘वी आर रीअल इंडियन डिवाइन ल्यूनेटिक्स। अवर ऋषीज एंड मुनीज थाउज़ेंड ईअर्स एगो सेड दैट दि वे टु रीअल इंटरनल पीस एंड साल्वेजन लाइज थ्रू ल्यूनेसी।’ (हम लोग भारतीय आध्यात्मिक पागल हैं। हमारे ऋषि–मुनियों ने हजारों साल पहले कहा था कि आंतरिक शांति और मुक्ति पागलपन से आती है।)
इसके बाद मेरे साथी तरह-तरह के पागलपन के करतब करेंगे और डॉलर बरसेंगे।
जिन लोगों को इस मिशन में शामिल होना है, वे मुझसे संपर्क करें। शर्त यह है कि वे वास्तविक पागल नहीं होने चाहिए। वास्तविक पागलों को इस मिशन में शामिल नहीं किया जाएगा - जैसे सच्चे साधुओं को साधुओं की जमात में शामिल नहीं किया जाता।
अमेरिका से लौटने पर, दिल्ली में रामलीला ग्राउंड या लाल किले के मैदान में हमारा शानदार स्वागत होगा। मैं कोशिश करूँगा कि प्रधानमंत्री इसका उद्*घाटन करें।
वे समय न निकाल सकीं तो कई राजनैतिक वनवास में तपस्या करते नेता हमें मिल जाएँगे। दिल्ली के 'स्मगलर' हमारा पूरा साथ देंगे। कस्टम और एनफोर्स महकमे से भी हमारी बातचीत चल रही है। आशा है वे भी अध्यात्म में सहयोग देंगे।
स्वागत समारोह में कहा जाएगा, ‘यह भारतीय अध्यात्म की एक और विजय है, जब हमारे आध्यात्मिक पगले विश्व को शांति और मोक्ष का संदेश देकर आ रहे हैं। आशा है आध्यात्मिक पागलपन की यह परंपरा देश में हमेशा विकसित होती रहेगी।’
'डिवाइन ल्यूनेटिक मिशन' को जरूर अमेरिका जाना चाहिए। जब हमारे और उनके राजनैतिक संबंध सुधर रहे हैं तो पागलों का मिशन जाना बहुत जरूरी है।

anjaan
14-06-2012, 08:31 PM
पिटने-पिटने में फर्क

(यह आत्म प्रचार नहीं है। प्रचार का भार मेरे विरोधियों ने ले लिया है। मैं बरी हो गया। यह ललित निबंध है।)


बहुत लोग कहते हैं - तुम पिटे। शुभ ही हुआ। पर तुम्हारे सिर्फ दो अखबारी वक्तव्य छपे। तुम लेखक हो। एकाध कहानी लिखो। रिपोर्ताज लिखो। नहीं तो कोई ललित निबंध लिख डालो। पिट भी जाओ और साहित्य-रचना भी न हो। यह साहित्य के प्रति बड़ा अन्याय है। लोगों को मिरगी आती है और वे मिरगी पर उपन्यास लिख डालते हैं। टी-हाउस में दो लेखकों में सिर्फ माँ-बहन की गाली-गलौज हो गई। दोनों ने दो कहानियाँ लिख डालीं। दोनों बढ़िया। एक ने लिखा कि पहला नीच है। दूसरे ने लिखा - मैं नहीं, वह नीच है। पढ़नेवालों ने निष्कर्ष निकाला कि दोनों ही नीच हैं। देखो, साहित्य का कितना लाभ हुआ कि यह सिद्ध हो गया कि दोनों लेखक नीच हैं। फिर लोगों ने देखा कि दोनों गले मिल रहे हैं। साथ चाय पी रहे हैं। दोनों ने माँ-बहन की गाली अपने मन के कलुष से नहीं दी थी, साहित्य-साधना के लिए दी थी। ऐसे लेखक मुझे पसंद हैं।
पिटाई की सहानुभूति के सिलसिले में जो लोग आए, उनकी संख्या काफी होती थी। मैं उन्हें पान खिलाता था। जब पान का खर्च बहुत बढ़ गया, तो मैंने सोचा पीटने वालों के पास जाऊँ और कहूँ, 'जब तुमने मेरे लिए इतना किया है, मेरा यश फैलाया है, तो कम से कम पान का खर्च दे दो। चाहे तो एक बेंत और मार लो। लोग तो खरोंच लग जाय तो भी पान का खर्च ले लेते हैं।'
मेरे पास कई तरह के दिलचस्प आदमी आते हैं।
आमतौर पर लोग आकर यही कहते हैं, 'सुनकर बड़ा दुख हुआ, बड़ा बुरा हुआ।'
मैं इस 'बुरे लगने' और 'दुख' से बहुत बोर हो गया। पर बेचारे लोग और कहें भी क्या?
मगर एक दिलचस्प आदमी आए। बोले, 'इतने सालों से लिख रहे हो। क्या मिला? कुछ लोगों की तारीफ, बस! लिखने से ज्यादा शोहरत पिटने से मिली। इसलिए हर लेखक को साल में कम से कम एक बार पिटना चाहिए। तुम छ: महीने में एक बार पिटो। फिर देखो कि बिना एक शब्द लिखे अंतरराष्ट्रीय ख्याति के होते हो या नहीं। तुम चाहो तो तुम्हारा यह काम मैं ही कर सकता हूँ।'
मैंने कहा, 'बात सही है। जब जरूरत होगी, आपको तकलीफ दूँगा। पर यार ज्यादा मत मारना।'
पिटा पहले भी हूँ।
मैंट्रिक में था तो एक सहपाठी रामेश्वर से मेरा झगड़ा था। एक दिन उसे मैं ढकेलते-ढकेलते कक्षा की दीवार तक ले गया। वह फँस गया था। मैंने उसे पीटा। फिर दोनों में अच्छे संबंध हो गए। स्कूली लड़ाई स्थायी नहीं होती। पर वह गाँठ बाँधे था। हमारे घर से स्कूल डेढ़ मील दूर था। एक दिन हम दोनों गपशप करते शाम के झुटपुटे में आ रहे थे कि वह एकाएक बोला, 'अरे, यह रामदास कहाँ से आ रहा है? वह देखो।' मैं उस तरफ देखने लगा। उसने बिजली की तेजी से मेरी टाँगों में हाथ डाला और वह पटखनी दी कि मैं नाले के पुल से नीचे गिर पड़ा। उठा। शरीर से ताकत से मैं डेवढ़ा पड़ता था। सोचा, इसे दमचूँ। पर उसने बड़े मजे की बात कही। कहने लगा, 'देखो, अदा-बदा हो गए। अपन अब पक्के दोस्त। मैंने तुम्हें कैसी बढ़िया तरकीब सिखाई है।' मैंने भी कहा, 'हाँ यार, तरकीब बढ़िया है। मैं काफी दुश्मनों को ठीक करूँगा।' फिर मैंने चार विरोधियों को वहीं आम के झुरमुट में पछाड़ा। तरकीब वही - साथ जा रहे हैं। एकाएक कहता - अरे, वह उधर से श्याम सुंदर आ रहा है। वह उधर देखने लगता और मैं उसकी टाँगों में हाथ डालकर सड़क के नीचे गढ़े में फेंक देता।
यह तो स्कूल की पिटाई हुई।
लिखने लगा, तो फिर एक बार पिटाई हुई। आज से पंद्रह-बीस साल पहले। मैं कहानियाँ लिखता और उसमें 'कमला' नाम की पात्री आ जाती। कुछ नाम कमला, विमला, आशा, सरस्वती ऐसे हैं कि कलम पर यों ही आ जाते हैं।
मुझे दो चिट्ठियाँ मिलीं - 'खबरदार, कभी कमला कहानी में आई तो ठीक कर दिए जाओगे। वह मेरी प्रेमिका है और तुम उससे कहानी में हर कुछ करवाते हो। वह ऐसी नहीं है।'
मैं बात टाल गया।
एक दिन सँकरी गली से घर आ रहा था। आगे गली का मोड़ था। वहीं मकान के पीछे की दीवार थी। एक आदमी चुपचाप पीछे से आया और ऐसे जोर से धक्का दिया कि मैं दीवार तक पहुँच गया। हाथ आगे बढ़ाकर मैंने दीवार पर रख दिए और सिर बचा लिया, वरना सिर फूट जाता। बाद में मालूम हुआ कि वह शहर का नंबर एक का पहलवान है। मैंने कमला को विमला कर दिया। लेखक को नाम से क्या फर्क पड़ता है।
पर यह जूनवाली ताजा पिटाई बड़ी मजेदार रही। मारने वाले आए। पाँच-छ: बेंत मारे। मैंने हथेलियों से आँखें बचा लीं। पाँच-सात सेकंड में काम खत्म। वे दो वाक्य राजनीति के बोलकर हवा में विलीन हो गए।
मैंने डिटाल लगाया और एक-डेढ़ घंटे सोया। ताजा हो गया।
तीन दिन बाद अखबारों में खबर छपी तो मजे की बातें मेरे कानों में शहर और बाहर से आने लगीं। स्नेह, दुख की आती ही थीं। पर - अच्छा पिटा - पिटने लायक ही था - घोर अहंकारी आदमी - ऐसा लिखेगा तो पिटेगा ही - जो लिखता है, वह साहित्य है क्या? अरे, प्रेम कहानी लिख। उसमें कोई नहीं पिटता।
कुछ लेखकों की प्रसन्नता मेरे पास तक आई। उनका कहना था - अब यह क्या लिखेगा? सब खत्म। हो गया इसका काम-तमाम। बहुत आग मूतता था। पर मैंने ठीक वैसा ही लिखना जारी रखा और इस बीच पाँच कहानियाँ तथा चार निबंध लिख डाले और एक डायरी उपन्यास तिहाई लिख लिया है।
सहानुभूति वाले बड़े दिलचस्प होते हैं। तरह-तरह की बातें करते हैं। बुजुर्ग-बीमार-वरिष्ठ साहित्यकार बाबू रामानुजलाल श्रीवास्तव ने अपनी मोटी छड़ी भेजी और लिखा - 'अब यह मेरे काम की नहीं रही। मेरी दुनिया अब बिस्तर हो गई है। इस छड़ी को साथ रखो।'
लाठी में गुन बहुत हैं, सदा राखिए संग...
एक अपरिचित आए और एक छड़ी दे गए। वह गुप्ती थी, पर भीतर फलक नहीं था। मूठ पर पैने लोहे का ढक्कन लगा था, जिसके कनपटी पर एक वार से आदमी पछाड़ खा जाए।
मेरे चाचा नंबर एक के लठैत थे। वे लट्ठ को तेल पिलाते थे और उसे दुखभंजन कहते थे। मुहल्ले के रंगदार को, जो सबको तंग करता था, उन्होंने पकड़ा। सामने एक पतले झाड़ से बाँधा और वह पिटाई की कि वह हमेशा के लिए ठीक हो गया। मैंने ही कहा, 'दादा इसे अब छोड़ दो।' उन्होंने छोड़ दिया, मगर कहा, 'देख मैंने दुखभंजन से काम नहीं लिया। गड़बड़ की तो दुखभंजन अपना काम करेगा।'
वह दुखभंजन पता नहीं कहाँ चला गया। उनकी मृत्यु हो गई। पर वे शीशम की अपनी छड़ी छोड़ गए हैं।
एक साहब एक दिन आए। एक-दो बार दुआ-सलाम हुई होगी। पर उन्होंने प्रेमी मित्रों से ज्यादा दुख जताया। मुझे आशंका हुई कि कहीं वे रो न पड़ें।
वे मुझे उस जगह ले गए, जहाँ मैं पिटा था। जगह का मुलाहजा किया।
- कहाँ खड़े थे?
- किस तरफ देख रहे थे?
- क्या वे पीछे से चुपचाप आए?
- तुम सावधान नहीं थे?
- कुल पाँच-सात सेकंड में हो गया?
- बिना चुनौती दिए हमला करना कायरता है। सतयुग से चुनौती देकर हमला किया जाता रहा है, पर यह कलियुग है।
मैं परेशान। जिस बात को ढाई महीने हो गए, जिसे मैं भूल जाना चाहता हूँ, उसी की पूरी तफ्शीश कर रहा है। कहीं यह खुफिया विभाग का आदमी तो नहीं है? पर जिसका सब खुला है, उसे खुफिया से क्या डर।
वे आकर बैठ गए।
कहने लगे, 'नाम बहुत फैल गया है। मंत्रियों ने दिलचस्पी ली होगी?'
मैंने कहा, 'हाँ, ली।'
वे बोले, 'मुख्यमंत्री ने भी ली होगी। मुख्यमंत्री से आपके संबंध बहुत अच्छे होंगे?'
मैंने कहा, 'अच्छे संबंध हैं।'
वे बोले, 'मुख्यमंत्री आपकी बात मानते हैं?'
मैंने कहा, 'हाँ, मान भी लेते हैं।'
मैं परेशान कि आखिर ये बातें क्यों करते हैं। क्या मकसद है?
आखिर वे खुले।
कहने लगे, 'मुख्यमंत्री आपकी बात मानते हैं। लड़के का तबादला अभी काँकरे हो गया है। जरा मुख्यमंत्री से कहकर उसका तबादला यहीं करवा दीजिए।'
पिटे तो तबादला करवाने, नियुक्ति कराने की ताकत आ गई - ऐसा लोग मानने लगे हैं। मानें। मानने से कौन किसे रोक सकता है। यह क्या कम साहित्य की उपलब्धि है कि पिटकर लेखक तबादला कराने लायक हो जाए। सन 1973 की यह सबसे बड़ी साहित्यिक उपलब्धि है। पर अकादमी माने तो।

anjaan
14-06-2012, 08:32 PM
आवारा भीड़ के खतरे


एक अंतरंग गोष्ठी सी हो रही थी युवा असंतोष पर। इलाहाबाद के लक्ष्मीकांत वर्मा ने बताया - पिछली दीपावली पर एक साड़ी की दुकान पर काँच के केस में सुंदर साड़ी से सजी एक सुंदर मॉडल खड़ी थी। एक युवक ने एकाएक पत्थर उठाकर उस पर दे मारा। काँच टूट गया। आसपास के लोगों ने पूछा कि तुमने ऐसा क्यों किया? उसने तमतमाए चेहरे से जवाब दिया - हरामजादी बहुत खूबसूरत है।
हम 4-5 लेखक चर्चा करते रहे कि लड़के के इस कृत्य का क्या कारण है? क्या अर्थ है? यह कैसी मानसिकता है? यह मानसिकता क्यों बनी? बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में ये सवाल दुनिया भर में युवाओं के बारे में उठ रहे हैं - पश्चिम से संपन्न देशों में भी और तीसरी दुनिया के गरीब देशों में भी। अमेरिका से आवारा हिप्पी और ‘हरे राम और हरे कृष्ण’ गाते अपनी व्यवस्था से असंतुष्ट युवा भारत आते हैं और भारत का युवा लालायित रहता है कि चाहे चपरासी का नाम मिले, अमेरिका में रहूँ। ‘स्टेट्स’ जाना यानि चौबीस घंटे गंगा नहाना है। ये अपवाद हैं। भीड़-की-भीड़ उन युवकों की है जो हताश, बेकार और क्रुद्ध हैं। संपन्न पश्चिम के युवकों के व्यवहार के कारण भिन्न हैं। सवाल है -उस युवक ने सुंदर मॉडल पर पत्थर क्यों फेंका? हरामजादी बहुत खूबसूरत है - यह उस गुस्से का कारण क्यों? वाह, कितनी सुंदर है - ऐसा इस तरह के युवक क्यों नहीं कहते?
युवक साधारण कुरता पाजामा पहिने था। चेहरा बुझा था जिसकी राख में चिंगारी निकली थी पत्थर फेंकते वक्त। शिक्षित था। बेकार था। नौकरी के लिए भटकता रहा था। धंधा कोई नहीं। घर की हालत खराब। घर में अपमान, बाहर अवहेलना। वह आत्म ग्लानि से क्षुब्ध। घुटन और गुस्सा एक नकारात्क भावना। सबसे शिकायत। ऐसी मानसिकता में सुंदरता देखकर चिढ़ होती है। खिले फूल बुरे लगते हैं। किसी के अच्छे घर से घृणा होती है। सुंदर कार पर थूकने का मन होता है। मीठा गाना सुनकर तकलीफ होती है। अच्छे कपड़े पहिने खुशहाल साथियों से विरक्ति होती है। जिस भी चीज से, खुशी, सुंदरता, संपन्नता, सफलता, प्रतिष्ठा का बोध होता है, उस पर गुस्सा आता है।
बूढ़े-सयाने स्कूल का लड़का अब मिडिल स्कूल में होता है तभी से शिकायत होने लगती है। वे कहते हैं - ये लड़के कैसे हो गए? हमारे जमाने में ऐसा नहीं था। हम पिता, गुरु, समाज के आदरणीयों की बात सिर झुकाकर मानते थे। अब ये लड़के बहस करते हैं। किसी को नहीं मानते। मैं याद करता हूँ कि जब मैं छात्र था, तब मुझे पिता की बात गलत तो लगती थी, पर मैं प्रतिवाद नहीं करता था। गुरु का भी प्रतिवाद नहीं करता था। समाज के नेताओं का भी नहीं। मगर तब हम छात्रों को जो किशोरावस्था में थे, जानकारी ही क्या थी? हमारे कस्बे में कुल दस-बारह अखबार आते थे। रेडियो नहीं। स्वतंत्रता संग्राम का जमाना था। सब नेता हमारे हीरो थे - स्थानीय भी और जवाहर लाल नेहरू भी। हम पिता, गुरु, समाज के नेता आदि की कमजोरियाँ नहीं जानते थे। मुझे बाद में समझ में आया कि मेरे पिता कोयले के भट्टों पर काम करने वाले गोंडों का शोषण करते थे। पर अब मेरा ग्यारह साल का नाती पाँचवी कक्षा का छात्र है। वह सवेरे अखबार पढ़ता है, टेलीवीजन देखता है, रेडियो सुनता है। वह तमाम नेताओं की पोलें जानता है। देवीलाल और ओमप्रकाश चौटाला की आलोचना करता है। घर में उससे कुछ ऐसा करने को कहो तो वह प्रतिरोध करता है। मेरी बात भी तो सुनो। दिन भर पढ़कर आया हूँ। अब फिर कहते ही कि पढ़ने बैठ जाऊँ।
थोड़ी देर खेलूँगा तो पढ़ाई भी नहीं होगी। हमारी पुस्तक में लिखा है। वह जानता है घर में बड़े कब-कब झूठ बोलते हैं।
ऊँची पढ़ाईवाले विश्वविद्यालय के छात्र सवेरे अखबार पढ़ते हैं, तो तमाम राजनीति और समाज के नेताओं के भ्रष्टाचार, पतनशीलता के किस्से पढ़ते हैं। अखबार देश को चलानेवालों और समाज के नियामकों के छल, कपट, प्रपंच, दुराचार की खबरों से भरे रहते हैं। धर्माचार्यों की चरित्रहीनता उजागर होती है। यही नेता अपने हर भाषण हर उपदेश में छात्रों से कहते हैं - युवकों, तुम्हें देश का निर्माण करना है (क्योंकि हमने नाश कर दिया है) तुम्हें चरित्रवान बनना है (क्योंकि हम तो चरित्रहीन हैं) शिक्षा का उद्देश्य पैसा कमाना नहीं है, नैतिक चरित्र को ग्रहण करना है - (हमने शिक्षा और अशिक्षा से पैसा कमाना और अनैतिक होना सीखा) इन नेताओं पर छात्रों-युवकों की आस्था कैसे जमे? छात्र अपने प्रोफेसरों के बारे सब जानते हैं। उनका ऊँचा वेतन लेना और पढ़ाना नहीं। उनकी गुटबंदी, एक-दूसरे की टाँग खींचना, नीच कृत्य, द्वेषवश छात्रों को फेल करना, पक्षपात, छात्रों का गुटबंदी में उपयोग। छात्रों से कुछ नहीं छिपा रहता अब। वे घरेलू मामले जानते हैं। ऐसे गुरुओं पर छात्र कैसे आस्था जमाएँ। ये गुरु कहते हैं छात्रों को क्रांति करना है। वे क्रांति करने लगे, तो पहले अपने गुरुओं को साफ करेंगे। अधिकतर छात्र अपने गुरु से नफरत करते हैं।
बड़े लड़के अपने पिता को भी जानते हैं। वे देखते हैं कि पिता का वेतन तो सात हजार है, पर घर का ठाठ आठ हजार रुपयों का है। मेरा बाप घूस खाता है। मुझे ईमानदारी के उपदेश देता है। हमारे समय के लड़के-लड़कियों के लिए सूचना और जानकारी के इतने माध्यम खुले हैं, कि वे सब क्षेत्रों में अपने बड़ों के बारे में सबकुछ जानते हैं। इसलिए युवाओं से ही नहीं बच्चों तक से पहले की तरह की अंध भक्ति और अंध आज्ञाकारिता की आशा नहीं की जा सकती। हमारे यहाँ ज्ञानी ने बहुत पहले कहा था - प्राप्तेषु षोडसे वर्षे पुत्र मित्र समाचरेत। उनसे बात की जा सकती है, उन्हें समझाया जा सकता है। कल परसों मेरा बारह साल का नाती बाहर खेल रहा था। उसकी परीक्षा हो चुकी है और एक लंबी छुट्टी है। उससे घर आने के लिए उसके चाचा ने दो-तीन बार कहा। डाँटा। वह आ गया और रोते हुए चिल्लाया हम क्या करें? ऐसी तैसी सरकार की जिसने छुट्टी कर दी। छुट्टी काटना उसकी समस्या है। वह कुछ तो करेगा ही। दबाओगे तो विद्रोह कर देगा। जब बच्चे का यह हाल है तो किशोरों और तरुणों की प्रतिक्रियाएँ क्या होंगी।
युवक-युवतियों के सामने आस्था का संकट है। सब बड़े उनके सामने नंगे हैं। आदर्शों, सिद्धांतों, नैतिकताओं की धज्जियाँ उड़ते वे देखते हैं। वे धूर्तता, अनैतिकता, बेईमानी, नीचता को अपने सामने सफल एवं सार्थक होते देखते हैं। मूल्यों का संकट भी उनके सामने है। सब तरफ मूल्यहीनता उन्हें दिखती है। बाजार से लेकर धर्मस्थल तक। वे किस पर आस्था जमाएँ और किस के पदचिह्नों पर चलें? किन मूल्यों को मानें?
यूरोप में दूसरे महायुद्ध के दौरान जो पीढ़ी पैदा हुई उसे ‘लास्ट जनरेशन’ (खोई हुई पीढ़ी) का कहा जाता है। युद्ध के दौरान अभाव, भुखमरी, शिक्षा चिकित्सा की ठीक व्यवस्था नहीं। युद्ध में सब बड़े लगे हैं, तो बच्चों की परवाह करनेवाले नहीं। बच्चों के बाप और बड़े भाई युद्ध में मारे गए। घर का, संपत्ति का, रोजगार का नाश हुआ। जीवन मूल्यों का नाश हुआ। ऐसे में बिना उचित शिक्षा, संस्कार, भोजन कपड़े के विनाश और मूल्यहीनता के बीज जो पीढ़ी बनकर जवान हुई, तो खोई हुई पीढ़ी इसके पास निराशा, अंधकार, असुरक्षा, अभाव, मूल्यहीनता के सिवाय कुछ नहीं था। विश्वास टूट गए थे। यह पीढ़ी निराश, विध्वंसवादी, अराजक, उपद्रवी, नकारवादी हुई। अंग्रेज लेखक जार्ज ओसबर्न ने इस क्रुद्ध पीढ़ी पर नाटक लिखा था जो बहुत पढ़ा गया और उस पर फिल्म भी बनी। नाटक का नाम ‘लुक बैक इन एंगर’। मगर यह सिलसिला यूरोप के फिर से व्यवस्थित और संपन्न होने पर भी चलता रहा। कुछ युवक समाज के ‘ड्राप आउट’ हुए। ‘वीट जनरेशन’ हुई। औद्योगीकरण के बाद यूरोप में काफी प्रतिशत बेकारी है। ब्रिटेन में अठारह प्रतिशत बेकारी है। अमेरिका ने युद्ध नहीं भोगा। मगर व्यवस्था से असंतोष वहाँ पैदा हो हुआ। अमेरिका में भी लगभग बीस प्रतिशत बेकारी है। वहाँ एक ओर बेकारी से पीड़ित युवक है, तो दूसरी ओर अतिशय संपन्नता से पीड़ित युवक भी। जैसे यूरोप में वैसे ही अमेरिकी युवकों, युवतियों का असंतोष, विद्रोह, नशेबाजी, यौन स्वच्छंदता और विध्वंसवादिता में प्रगट हुआ। जहाँ तक नशीली वस्तुओं के सेवन के सवाल है, यह पश्चिम में तो है ही, भारत में भी खूब है। दिल्ली विश्वविद्यालय के पर्यवेक्षण के अनुसार दो साल पहले सत्तावन फीसदी छात्र नशे के आदी बन गए थे। दिल्ली तो महानगर है। छोटे शहरों में, कस्बों में नशे आ गए हैं। किसी-किसी पान की दुकान में नशा हर जगह मिल जाता है। ‘स्मैक’ और ‘पॉट’ टॉफी की तरह उपलब्ध हैं।
छात्रों-युवकों को क्रांति की, सामाजिक परिवर्तन की शक्ति मानते हैं। सही मानते हैं। अगर छात्रों युवकों में विचार हो, दिशा हो संगठन हो और सकारात्मक उत्साह हो। वे अपने से ऊपर की पीढ़ी की बुराइयों को समझें तो उन्हीं बुराइयों के उत्तराधिकारी न बने, उनमें अपनी ओर से दूसरी बुराइयाँ मिलाकर पतन की परंपरा को आगे न बढ़ाएँ। सिर्फ आक्रोश तो आत्मक्षय करता है। एक हर्बर्ट मार्क्यूस चिंतक हो गए हैं, जो सदी के छठवें दशक में बहुत लोकप्रिय हो गए थे। वे ‘स्टूडेंट पावर’ में विश्वास करते थे। मानते हैं कि छात्र क्रांति कर सकते हैं। वैसे सही बात यह है कि अकेले छात्र क्रांति नहीं कर सकते। उन्हें समाज के दूसरे वर्गों को शिक्षित करके चेतनाशील बनाकर संघर्ष में साथ लाना होगा। लक्ष्य निर्धारित करना होगा। आखिर क्या बदलना है यह तो तय हो। अमेरिका में हर्बर्ट मार्क्यूस से प्रेरणा पाकर छात्रों ने नाटक ही किए। हो ची मिन्ह और चे गुएवारा के बड़े-बड़े चित्र लेकर जुलूस निकालना और भद्दी ,भौंड़ी, अश्लील हरकतें करना। अमेरिकी विश्विद्यालय की पत्रिकाओं में बेहद फूहड़ अश्लील चित्र और लेख कहानी। फ्रांस के छात्र अधिक गंभीर शिक्षित थे। राष्ट्रपति द गाल के समय छात्रों ने सोरोबोन विश्वविद्यायल में आंदोलन किया। लेखक ज्याँ पाल सार्त्र ने उनका समर्थन किया। उनका नेता कोहने बेंडी प्रबुद्ध और गंभीर युवक था। उनके लिए राजनैतिक क्रांति करना संभव नहीं था। फ्रांस के श्रमिक संगठनों ने उनका साथ नहीं दिया। पर उनकी माँगें ठोस थी जैसे शिक्षा पद्धति में आमूल परिवर्तन। अपने यहाँ जैसी नकल करने की छूट की क्रांतिकारी माँग उनकी नहीं थी। पाकिस्तान में भी एक छात्र नेता तारिक अली ने क्रांति की धूम मचाई। फिर वह लंदन चला गया।
युवकों का यह तर्क सही नहीं है कि जब सभी पतित हैं, तो हम क्यों नहीं हों। सब दलदल में फँसे हैं, तो जो नए लोग हैं, उन्हें उन लोगों को वहाँ से निकालना चाहिए। यह नहीं कि वे भी उसी दलदल में फँस जाएँ। दुनिया में जो क्रांतियाँ हुई हैं, सामाजिक परिवर्तन हुए हैं, उनमें युवकों की बड़ी भूमिका रही है। मगर जो पीढ़ी ऊपर की पीढ़ी की पतनशीलता अपना ले क्योंकि वह सुविधा की है और उसमें सुख है तो वह पीढ़ी कोई परिवर्तन नहीं कर सकती। ऐसे युवक हैं, जो क्रांतिकारिता का नाटक बहुत करते हैं, पर दहेज भरपूर ले लेते हैं। कारण बताते हैं - मैं तो दहेज को ठोकर मारता हूँ। पर पिताजी के सामने झुकना पड़ा। यदि युवकों के पास दिशा हो, संकल्पशीलता हो, संगठित संघर्ष हो तो वह परिवर्तन ला सकते हैं। पर मैं देख रहा हूँ एक नई पीढ़ी अपने से ऊपर की पीढ़ी से अधिक जड़ और दकियानूसी हो गई है। यह शायद हताशा से उत्पन्न भाग्यवाद के कारण हुआ है। अपने पिता से तत्ववादी, बुनियादपरस्त (फंडामेंटलिस्ट) लड़का है।
दिशाहीन, बेकार, हताश, नकारवादी, विध्वंसवादी बेकार युवकों की यह भीड़ खतरनाक होती है। इसका प्रयोग महत्वाकांक्षी खतरनाक विचारधारावाले व्यक्ति और समूह कर सकते हैं। इस भीड़ का उपयोग नेपोलियन, हिटलर और मुसोलिनी ने किया था। यह भीड़ धार्मिक उन्मादियों के पीछे चलने लगती है। यह भीड़ किसी भी ऐसे संगठन के साथ हो सकती है जो उनमें उन्माद और तनाव पैदा कर दे। फिर इस भीड़ से विध्वंसक काम कराए जा सकते हैं। यह भीड़ फासिस्टों का हथियार बन सकती है। हमारे देश में यह भीड़ बढ़ रही है। इसका उपयोग भी हो रहा है। आगे इस भीड़ का उपयोग सारे राष्ट्रीय और मानव मूल्यों के विनाश के लिए, लोकतंत्र के नाश के लिए करवाया जा सकता है।

anjaan
14-06-2012, 08:33 PM
बदचलन


एक बाड़ा था। बाड़े में तेरह किराएदार रहते थे। मकान मालिक चौधरी साहब पास ही एक बँगले में रहते थे।
एक नए किराएदार आए। वे डिप्टी कलेक्टर थे। उनके आते ही उनका इतिहास भी मुहल्ले में आ गया था। वे इसके पहले ग्वालियर में थे। वहाँ दफ्तर की लेडी टाइपिस्ट को लेकर कुछ मामला हुआ था। वे साल भर सस्पैंड रहे थे। यह मामला अखबार में भी छपा था। मामला रफा-दफा हो गया और उनका तबादला इस शहर में हो गया।
डिप्टी साहब के इस मकान में आने के पहले ही उनके विभाग का एक आदमी मुहल्ले में आकर कह गया था कि यह बहुत बदचलन, चरित्रहीन आदमी है। जहाँ रहा, वहीं इसने बदमाशी की। यह बात सारे तेरह किराएदारों में फैल गई।
किरदार आपस में कहते - यह शरीफ आदमियों का मोहल्ला है। यहाँ ऐसा आदमी रहने आ रहा है। चौधरी साहब ने इस आदमी को मकान देकर अच्छा नहीं किया।
कोई कहते - बहू-बेटियाँ सबके घर में हैं। यहाँ ऐसा दुराचारी आदमी रहने आ रहा है। भला शरीफ आदमी यहाँ कैसे रहेंगे।
डिप्टी साहब को मालूम था कि मेरे बारे में खबर इधर पहुँच चुकी है। वे यह भी जानते थे कि यहाँ सब लोग मुझसे नफरत करते हैं। मुझे बदमाश मानते हैं। वे इस माहौल में अड़चन महसूस करते थे। वे हीनता की भावना से ग्रस्त थे। नीचा सिर किए आते-जाते थे। किसी से उनकी दुआ-सलाम नहीं होती थी।
इधर मुहल्ले के लोग आपस में कहते थे - शरीफों के मुहल्ले में यह बदचलन आ बसा है।
डिप्टी साहब का सिर्फ मुझसे बोलचाल का संबंध स्थापित हो गया था। मेरा परिवार नहीं था। मैं अकेला रहता था। डिप्टी साहब कभी-कभी मेरे पास आकर बैठ जाते। वे अकेले रहते थे। परिवार नहीं लाए थे।
एक दिन उन्होंने मुझसे कहा - ये जो मिस्टर दास हैं, ये रेलवे के दूसरे पुल के पास एक औरत के पास जाते हैं। बहुत बदचलन औरत है।
दूसरे दिन मैंने देखा, उनकी गर्दन थोड़ी सी उठी है।
मुहल्ले के लोग आपस में कहते थे - शरीफों के मुहल्ले में यह बदचलन आ गया।
दो-तीन दिन बाद डिप्टी साहब ने मुझसे कहा - ये जो मिसेज चोपड़ा हैं, इनका इतिहास आपको मालूम है? जानते हैं इनकी शादी कैसे हुई? तीन आदमी इनसे फँसे थे। इनका पेट फूल गया। बाकी दो शादीशुदा थे। चोपड़ा को इनसे शादी करनी पड़ी।
दूसरे दिन डिप्टी साहब का सिर थोड़ा और ऊँचा हो गया।
मुहल्ले वाले अभी भी कह रहे थे - शरीफों के मुहल्ले में कैसा बदचलन आदमी आ बसा।
तीन-चार दिन बाद फिर डिप्टी साहब ने कहा - श्रीवास्तव साहब की लड़की बहुत बिगड़ गई है। ग्रीन होटल में पकड़ी गई थी एक आदमी के साथ।
डिप्टी साहब का सिर और ऊँचा हुआ।
मुहल्ले वाले अभी भी कह रहे थे - शरीफों के मुहल्ले में यह कहाँ का बदचलन आ गया।
तीन-चार दिन बाद डिप्टी साहब ने कहा - ये जो पांडे साहब हैं, अपने बड़े भाई की बीवी से फँसे हैं। सिविल लाइंस में रहता है इनका बड़ा भाई।
डिप्टी साहब का सिर और ऊँचा हो गया था।
मुहल्ले के लोग अभी भी कहते थे - शरीफों के मुहल्ले में यह बदचलन कहाँ से आ गया।
डिप्टी साहब ने मुहल्ले में लगभग हर एक के बारे में कुछ पता लगा लिया था। मैं नहीं कह सकता कि यह सब सच था या उनका गढ़ा हुआ। आदमी वे उस्ताद थे। ऊँचे कलाकार। हर बार जब वे किसी की बदचलनी की खबर देते, उनका सिर और ऊँचा हो जाता।
अब डिप्टी साहब का सिर पूरा तन गया था। चाल में अकड़ आ गई थी। लोगों से दुआ सलाम होने लगी थी। कुछ बात भी कर लेते थे।
एक दिन मैंने कहा - बीवी-बच्चों को ले आइए न। अकेले तो तकलीफ होती होगी।
डिप्टी साहब ने कहा - अरे साहब, शरीफों के मुहल्ले में मकान मिले तभी तो लाऊँगा बीवी-बच्चों को।

anjaan
14-06-2012, 08:34 PM
उखड़े खंभे


कुछ साथियों के हवाले से पता चला कि कुछ साइटें बैन हो गयी हैं। पता नहीं यह कितना सच है लेकिन लोगों ने सरकार को कोसना शुरू कर दिया। अरे भाई,सरकार तो जो देश हित में ठीक लगेगा वही करेगी न! पता नहीं मेरी इस बात से आप कितना सहमत हैं लेकिन यह है सही बात कि सरकार हमेशा देश हित के लिये सोचती है। मैं शायद ठीक से अपनी बात न समझा सकूँ लेकिन मेरे पसंदीदा लेखक ,व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई ने इसे अपने एक लेख उखड़े खम्भे में बखूबी बताया है।
यहां जानकारी के लिये बता दिया जाएे कि भारत के प्रथम प्रधान मंत्री स्व.जवाहरलाल नेहरू ने एक बार घोषणा की थी कि मुनाफाखोरों को बिजली के खम्भों पर लटका दिया जाएेगा।]
एक दिन राजा ने खीझकर घोषणा कर दी कि मुनाफाखोरों को बिजली के खम्भे से लटका दिया जाएेगा।
सुबह होते ही लोग बिजली के खम्भों के पास जमा हो गये। उन्होंने खम्भों की पूजा की,आरती उतारी और उन्हें तिलक किया।
शाम तक वे इंतजार करते रहे कि अब मुनाफाखोर टांगे जाएेंगे- और अब। पर कोई नहीं टाँगा गया।
लोग जुलूस बनाकर राजा के पास गये और कहा,"महाराज,आपने तो कहा था कि मुनाफाखोर बिजली के खम्भे से लटकाये जाएेंगे,पर खम्भे तो वैसे ही खड़े हैं और मुनाफाखोर स्वस्थ और सानन्द हैं।"
राजा ने कहा,"कहा है तो उन्हें खम्भों पर टाँगा ही जाएेगा। थोड़ा समय लगेगा। टाँगने के लिये फन्दे चाहिये। मैंने फन्दे बनाने का आर्डर दे दिया है। उनके मिलते ही,सब मुनाफाखोरों को बिजली के खम्भों से टाँग दूँगा।
भीड़ में से एक आदमी बोल उठा,"पर फन्दे बनाने का ठेका भी तो एक मुनाफाखोर ने ही लिया है।"
राजा ने कहा,"तो क्या हुआ? उसे उसके ही फन्दे से टाँगा जाएेगा।"
तभी दूसरा बोल उठा,"पर वह तो कह रहा था कि फाँसी पर लटकाने का ठेका भी मैं ही ले लूँगा।"
राजा ने जवाब दिया,"नहीं,ऐसा नहीं होगा। फाँसी देना निजी क्षेत्र का उद्योग अभी नहीं हुआ है।"
लोगों ने पूछा," तो कितने दिन बाद वे लटकाये जाएेंगे।"
राजा ने कहा,"आज से ठीक सोलहवें दिन वे तुम्हें बिजली के खम्भों से लटके दीखेंगे।"
लोग दिन गिनने लगे।
सोलहवें दिन सुबह उठकर लोगों ने देखा कि बिजली के सारे खम्भे उखड़े पड़े हैं। वे हैरान हो गये कि रात न आँधी आयी न भूकम्प आया,फिर वे खम्भे कैसे उखड़ गये!
उन्हें खम्भे के पास एक मजदूर खड़ा मिला। उसने बतलाया कि मजदूरों से रात को ये खम्भे उखड़वाये गये हैं। लोग उसे पकड़कर राजा के पास ले गये।
उन्होंने शिकायत की ,"महाराज, आप मुनाफाखोरों को बिजली के खम्भों से लटकाने वाले थे ,पर रात में सब खम्भे उखाड़ दिये गये। हम इस मजदूर को पकड़ लाये हैं। यह कहता है कि रात को सब खम्भे उखड़वाये गये हैं।"
राजा ने मजदूर से पूछा,"क्यों रे,किसके हुक्म से तुम लोगोंने खम्भे उखाड़े?"
उसने कहा,"सरकार ,ओवरसियर साहब ने हुक्म दिया था।"
तब ओवरसियर बुलाया गया।
उससे राजा ने कहा," क्यों जी तुम्हें मालूम है ,मैंने आज मुनाफाखोरों को बिजली के खम्भे से लटकाने की घोषणा की थी?"
उसने कहा,"जी सरकार!"
"फिर तुमने रातों-रात खम्भे क्यों उखड़वा दिये?"
"सरकार,इंजीनियर साहब ने कल शाम हुक्म दिया था कि रात में सारे खम्भे उखाड़ दिये जाएें।"
अब इंजीनियर बुलाया गया। उसने कहा उसे बिजली इंजीनियर ने आदेश दिया था कि रात में सारे खम्भे उखाड़ देना चाहिये।
बिजली इंजीनियर से कैफियत तलब की गयी,तो उसने हाथ जोड़कर कहा,"सेक्रेटरी साहब का हुक्म मिला था।"
विभागीय सेक्रेटरी से राजा ने पूछा,खम्भे उखाड़ने का हुक्म तुमने दिया था।"
सेक्रेटरी ने स्वीकार किया,"जी सरकार!"
राजा ने कहा," यह जानते हुये भी कि आज मैं इन खम्भों का उपयोग मुनाफाखोरों को लटकाने के लिये करने वाला हूँ,तुमने ऐसा दुस्साहस क्यों किया।"
सेक्रेटरी ने कहा,"साहब ,पूरे शहर की सुरक्षा का सवाल था। अगर रात को खम्भे न हटा लिये जाते, तो आज पूरा शहर नष्ट हो जाता!"
राजा ने पूछा,"यह तुमने कैसे जाना? किसने बताया तुम्हें?
सेक्रेटरी ने कहा,"मुझे विशेषज्ञ ने सलाह दी थी कि यदि शहर को बचाना चाहते हो तो सुबह होने से पहले खम्भों को उखड़वा दो।"
राजा ने पूछा,"कौन है यह विशेषज्ञ? भरोसे का आदमी है?"
सेक्रेटरी ने कहा,"बिल्कुल भरोसे का आदमी है सरकार।घर का आदमी है। मेरा साला होता है। मैं उसे हुजूर के सामने पेश करता हूँ।"
विशेषज्ञ ने निवेदन किया," सरकार ,मैं विशेषज्ञ हूँ और भूमि तथा वातावरण की हलचल का विशेष अध्ययन करता हूँ। मैंने परीक्षण के द्वारा पता लगाया है कि जमीन के नीचे एक भयंकर प्रवाह घूम रहा है। मुझे यह भी मालूम हुआ कि आज वह बिजली हमारे शहर के नीचे से निकलेगी। आपको मालूम नहीं हो रहा है ,पर मैं जानता हूँ कि इस वक्त हमारे नीचे भयंकर बिजली प्रवाहित हो रही है। यदि हमारे बिजली के खम्भे जमीन में गड़े रहते तो वह बिजली खम्भों के द्वारा ऊपर आती और उसकी टक्कर अपने पावरहाउस की बिजली से होती। तब भयंकर विस्फोट होता। शहर पर हजारों बिजलियाँ एक साथ गिरतीं। तब न एक प्राणी जीवित बचता ,न एक इमारत खड़ी रहती। मैंने तुरन्त सेक्रेटरी साहब को यह बात बतायी और उन्होंने ठीक समय पर उचित कदम उठाकर शहर को बचा लिया।
लोग बड़ी देर तक सकते में खड़े रहे। वे मुनाफाखोरों को बिल्कुल भूल गये। वे सब उस संकट से अविभूत थे ,जिसकी कल्पना उन्हें दी गयी थी। जान बच जाने की अनुभूति से दबे हुये थे। चुपचाप लौट गये।
उसी सप्ताह बैंक में इन नामों से ये रकमें जमा हुईं:-
सेक्रेटरी की पत्नी के नाम- २ लाख रुपये
श्रीमती बिजली इंजीनियर- १ लाख
श्रीमती इंजीनियर -१ लाख
श्रीमती विशेषज्ञ - २५ हजार
श्रीमती ओवरसियर-५ हजार
उसी सप्ताह 'मुनाफाखोर संघ' के हिसाब में नीचे लिखी रकमें 'धर्मादा' खाते में डाली गयीं-
कोढ़ियों की सहायता के लिये दान- २ लाख रुपये
विधवाश्रम को- १ लाख
क्षय रोग अस्पताल को- १ लाख
पागलखाने को-२५ हजार
अनाथालय को- ५ हजार

anjaan
14-06-2012, 08:34 PM
एक अशुद्ध बेवकूफ



बिना जाने बेवकूफ बनाना एक अलग और आसान चीज है। कोई भी इसे निभा देता है।
मगर यह जानते हुए कि मैं बेवकूफ बनाया जा रहा हूं और जो मुझे कहा जा रहा है, वह सब झूठ है- बेवकूफ बनते जाने का एक अपना मजा है। यह तपस्या है। मैं इस तपस्या का मजा लेने का आदी हो गया हूं। पर यह महंगा मजा है- मानसिक रूप से भी और इस तरह से भी। इसलिए जिनकी हैसियत नहीं है उन्हें यह मजा नहीं लेना चाहिए। इसमें मजा ही मजा नहीं है- करुणा है, मनुष्य की मजबूरियों पर सहानुभूति है, आदमी की पीड़ा की दारुण व्यथा है। यह सस्ता मजा नहीं है। जो हैसियत नहीं रखते उनके लिए दो रास्ते हैं- चिढ़ जायें या शुद्ध बेवकूफ बन जायें। शुद्ध बेवकूफ एक दैवी वरदान है, मनुष्य जाति को। दुनिया का आधा सुख खत्म हो जाए, अगर शुद्ध बेवकूफ न हों। मैं शुद्ध नहीं, 'अशुद्ध' बेवकूफ हूं। और शुद्ध बेवकूफ बनने को हमेशा उत्सुक रहता हूं।
अभी जो साहब आये थे, निहायत अच्छे आदमी हैं। अच्छी सरकारी नौकरी में हैं। साहित्यिक भी हैं। कविता भी लिखते हैं। वे एक परिचित के साथ मेरे पास कवि के रूप में आये। बातें काव्य की ही घंटा भर होती रहीं- तुलसीदास, सूरदास, गालिब, अनीस वगैरह। पर मैं 'अशुद्ध' बेवकूफ हूं, इसलिए काव्य-चर्चा का मजा लेते हुए भी जान रहा था कि भेंट के बाद काव्य के सिवाय कोई और बात निकलेगी। वे मेरी तारीफ भी करते रहे और मैं बरदाश्त करता रहा। पर मैं जानता था कि वे साहित्य के कारण मेरे पास नहीं आये।
मैंने उनसे कविता सुनाने को कहा। आमतौर पर कवि कविता सुनाने को उत्सुक रहता है, पर वे कविता सुनाने में संकोच कर रहे थे। कविता उन्होंने सुनायी, पर बड़े बेमन से। वे साहित्य के कारण आये ही नहीं थे- वरना कविता की फरमाइश पर तो मुर्दा भी बोलने लगता है।
मैंने कहा- कुछ सुनाइए।
वे बोले- मैं आपसे कुछ लेने आया हूं।
मैंने समझा ये शायद ज्ञान लेने आये हैं।
मैंने सोचा- यह आदमी ईश्वर से भी बड़ा है। ईश्वर को भी प्रोत्साहित किया जाए तो वह अपनी तुकबंदी सुनाने के लिए सारे विश्व को इकट्ठा कर लेगा।
पर ये सज्जन कविता सुनाने में संकोच कर रहे थे और कह रहे थे- हम तो आपसे कुछ लेने आये हैं।
मैं समझता रहा कि ये समाज और साहित्य के बारे में कुछ ज्ञान लेने आये हैं।
कविताएं उन्होंने बड़े बेमन से सुना दीं। मैंने तारीफ की, पर वे प्रसन्न नहीं हुए। यह अचरज की सी बात थी। घटिया से घटिया साहित्यिक सर्जक भी प्रशंसा से पागल हो जाता है। पर वे जरा भी प्रशंसा से विचलित नहीं हुए।
उठने लगे तो बोले- डिपार्टमेंट में मेरा प्रमोशन होना है। किसी कारण अटक गया है। जरा आप सेक्रेटरी से कह दीजिए, तो मेरा काम हो जाएगा।
मैंने कहा- सेक्रेटरी क्यों? मैं मन्त्री से कह दूंगा। पर आप कविता अच्छी लिखते हैं।
एक घण्टे जानकर भी मैं साहित्य के नाम पर बेवकूफ बना- मैं 'अशुद्ध' बेवकूफ हूं।
एक प्रोफेसर साहब क्लास वन के। वे इधर आये। विभाग के डीन मेरे घनिष्ठ मित्र हैं, यह वे नहीं जानते थे। यों वे मुझसे पच्चीसों बार मिल चुके थे। पर जब वे डीन के साथ मिले तो उन्होंने मुझे पहचाना ही नहीं। डीन ने मेरा परिचय उनसे करवाया। मैंने भी ऐसा बर्ताव किया, जैसे यह मेरा उनसे पहला परिचय है।
डीन मेरे यार हैं। कहने लगे- यार चलो केण्टीन में, अच्छी चाय पी जाय। अच्छा नमकीन भी मिल जाए तो मजा आ जाय।
अब क्लास वन के प्रोफेसर साहब थोड़ा चौंके।
हम लोगों ने चाय और नाश्ता किया। अब वे समझ गये कि मैं 'अशुद्ध' बेवकूफ हूं।
कहने लगे- सालों से मेरी लालसा थी कि आपके दर्शन करूं। आज यह लालसा पूर्ण हुई।(हालांकि वे कई बार मिल चुके थे। पर डीन सामने थे।)
अंग्रेजी में एक बड़ा अच्छा मुहावरा है- 'टेक इट विद ए पिंच ऑफ साल्ट'- याने थोड़े नमक के साथ लीजिए। मैंने अपनी तारीफ थोड़े नमक के साथ ले ली।
शाम को प्रोफेसर साहब मेरे घर आये। कहने लगे- डीन साहब तो आपके बड़े घनिष्ठ हैं। उनसे कहिए न कि मुझे पेपर दे दें, कुछ कांपियां भी- और 'माडरेशन' के लिए बुला लें तो और अच्छा है।
मैंने कहा- मैं ये सब काम डीन से आपके करवा दूंगा। पर आपने मुझे पहचानने में थोड़ी देर कर दी थी।
बेचारे क्या जवाब देते? अशुद्ध बेवकूफ मैं- मजा लेता रहा कि वे क्लास वन के अफसर नहीं, चपरासी की तरह मेरे पास से विदा हुए। बड़ा आदमी भी कितना बेचारा होता है।
एक दिन मई की भरी दोपहर में एक साहब आ गये। भयंकर गर्मी और धूप। मैंने सोचा कि कोई भयंकर बात हो गई है, तभी ये इस वक्त आये हैं। वे पसीना पोंछकर वियतनाम की बात करने लगे। वियतनाम में अमरीकी बर्बरता की बात कर रहे थे। मैं जानता था कि मैं निक्सन नहीं हूं। पर वे जानते थे कि मैं बेवकूफ हूं। मैं भी जानता था कि इनकी चिंता वियतनाम नहीं है।
घण्टे-भर राजनीतिक बातें हुईं।
वे उठे तो कहने लगे- मुझे जरा दस रुपये दे दीजिए।
मैंने दे दिए और वियतनाम की समस्या आखिर कुल दस रुपये में निपट गई।
एक दिन एक नीति वाले भी आ गये। बड़े तैश में थे।
कहने लगे- हद हो गयी! चेकोस्लोवाकिया में रूस का इतना हस्तक्षेप! आपको फौरन वक्तव्य देना चाहिए।
मैंने कहा- मैं न रूस का प्रवक्ता हूं न चेकोस्लोवाकिया का। मेरे बोलने से क्या होगा।
वे कहने लगे- मगर आप भारतीय हैं, लेखक हैं, बुद्धिजीवी हैं। आपको कुछ कहना ही चाहिए।
मैंने कहा- बुद्धिजीवी वक्तव्य दे रहे हैं। यही काफी है। कल वे ठीक उल्टा वक्तव्य भी दे सकते हैं, क्योंकि वे बुद्धिजीवी हैं।
वे बोले- याने बुद्धिजीवी बेईमान भी होता है?
मैंने कहा- आदमी ही तो ईमानदार और बेईमान होता है। बुद्धिजीवी भी आदमी ही है। वह सुअर या गधे की तरह ईमानदार नहीं हो सकता। पर यह बतलाईये कि इस समय क्या आप चेकोस्लोवाकिया के कारण परेशान हैं? आपकी पार्टी तो काफी नारे लगा रही है। एक छोटा सा नारा आप भी लगा दें और परेशानी से बरी हो जाएं।
वे बोले- बात यह है कि मैं एक खास काम से आपके पास आया था। लड़के ने रूस की लुमुम्बा यूनिवर्सिटी के लिए दरख्वास्त दी है। आप दिल्ली में किसी को लिख दें तो उसका सिलेक्शन हो जाएगा।
मैंने कहा- कुल इतनी-सी बात है। आप चेकोस्लोवाकिया के कारण परेशान हैं। रूस से नाराज हैं। पर लड़के को स्कालरशिप पर रूस भेजना भी चाहते हैं।
वे गुमसुम हो गए। मुझ अशुद्ध बेवकूफ की दया जाग गयी।
मैंने कहा- आप जाइए। निश्चिंत रहिए- लड़के के लिए जो मैं कर सकता हूं करूंगा।
वे चले गए। बाद में मैं मजा लेता रहा। जानते हुए बेवकूफ बनने-वाले 'अशुद्ध' बेवकूफ के अलग मजे हैं।
मुझे याद आया गुरु कबीर ने कहा था- 'माया महा ठगनि हम जानी'।

anjaan
14-06-2012, 08:35 PM
भगत की गत


उस दिन जब भगतजी की मौत हुई थी, तब हमने कहा था- भगतजी स्वर्गवासी हो गए।
पर अभी मुझे मालूम हुआ कि भगतजी, स्वर्गवासी नहीं, नरकवासी हुए हैं। मैं कहूं तो किसी को इस पर भरोसा नहीं होगा, पर यह सही है कि उन्हें नरक में डाल दिया गया है और उन पर ऐसे जघन्य पापों के आरोप लगाये गये हैं कि निकट भविष्य में उनके नरक से छूटने की कोई आशा नहीं है। अब हम उनकी आत्मा की शान्ति की प्रार्थना करें तो भी कुछ नहीं होगा। बड़ी से बड़ी शोक-सभा भी उन्हें नरक से नहीं निकाल सकती।
सारा मुहल्ला अभी तक याद करता है कि भगतजी मंदिर में आधीरात तक भजन करते थे। हर दो-तीन दिनों में वे किसी समर्थ श्रद्धालु से मंदिर में लाउड-स्पीकर लगवा देते और उस पर अपनी मंडली समेत भजन करते। पर्व पर तो चौबीसों घंटे लाउड-स्पीकर पर अखण्ड कीर्तन होता। एक-दो बार मुहल्ले वालों ने इस अखण्ड कोलाहल का विरोध किया तो भगतजी ने भक्तों की भीड़ जमा कर ली और दंगा कराने पर उतारू हो गए। वे भगवान के लाउड-स्पीकर पर प्राण देने और प्राण लेने पर तुल गये थे।
ऐसे ईश्वर-भक्त, जिन्होंने अरबों बार भगवान का नाम लिया, नरक में भेजे गए और अजामिल, जिसने एक बार भूल से भगवान का नाम ले लिया था, अभी भी स्वर्ग के मजे लूट रहा है। अंधेर कहां नहीं है!
भगतजी बड़े विश्वास से उस लोक में पहुँचे। बड़ी देर तक यहां-वहां घूमकर देखते रहे। फिर एक फाटक पर पहुंचकर चौकीदार से पूछा- स्वर्ग का प्रवेश-द्वार यही है न?
चौकीदार ने कहा- हां यही है।
वे आगे बढ़ने लगे, तो चौकीदार ने रोका- प्रवेश-पत्र यानी टिकिट दिखाइए पहले।
भगतजी को क्रोध आ गया। बोले- मुझे भी टिकिट लगेगा यहां? मैंने कभी टिकिट नहीं लिया। सिनेमा मैं बिना टिकिट देखता था और रेल में भी बिना टिकिट बैठता था। कोई मुझसे टिकिट नहीं मांगता। अब यहां स्वर्ग में टिकिट मांगते हो? मुझे जानते हो। मैं भगतजी हूं।
चौकीदार ने शान्ति से कहा- होंगे। पर मैं बिना टिकिट के नहीं जाने दूंगा। आप पहले उस दफ्तर में जाइए। वहां आपके पाप-पुण्य का हिसाब होगा और तब आपको टिकिट मिलेगा।
भगतजी उसे ठेलकर आगे बढ़ने लगे। तभी चौकीदार एकदम पहाड़ सरीखा हो गया और उसने उन्हें उठाकर दफ्तर की सीढ़ी पर खड़ा कर दिया।
भगतजी दफ्तर में पहुँचे। वहां कोई बड़ा देवता फाइलें लिए बैठा था। भगतजी ने हाथ जोड़कर कहा- अहा मैं पहचान गया भगवान कार्तिकेय विराजे हैं।
फाइल से सिर उठाकर उसने कहा- मैं कार्तिकेय नहीं हूं। झूठी चापलूसी मत करो। जीवन-भर वहां तो कुकर्म करते रहे हो और यहां आकर 'हें-हें' करते हो। नाम बताओ।
भगतजी ने नाम बताया, धाम बताया।
उस अधिकारी ने कहा- तुम्हारा मामला बड़ा पेचीदा है। हम अभीतक तय नहीं कर पाये कि तुम्हे स्वर्ग दें या नरक। तुम्हारा फैसला खुद भगवान करेंगे।
भगतजी ने कहा- मेरा मामला तो बिल्कुल सीधा है। मैं सोलह आने धार्मिक आदमी हूं। नियम से रोज भगवान का भजन करता रहा हूं। कभी झूठ नहीं बोला और कभी चोरी नहीं की। मंदिर में इनी स्त्रियां आती थीं, पर मैं सबको माता समझता था। मैंने कभी कोई पाप नहीं किया। मुझे तो आंख मूंदकर आप स्वर्ग भेज सकते हैं।
अधिकारी ने कहा- भगतजी आपका मामला उतना सीधा नहीं है, जितना आप समझ रहे हैं। परमात्मा खुद उसमें दिलचस्पी ले रहे हैं। आपको मैं उनके सामने हाजिर किये देता हूं।
एक चपरासी भगतजी को भगवान के दरबार में ले चला। भगतजी ने रास्ते में ही स्तुति शुरू कर दी। जब वे भगवान के सामने पहुँचे तो बड़े जोर-जोर से भजन गाने लगे-
'हम भगतन के भगत हमारे,
सुन अर्जुन परतिज्ञा मेरी, यह व्रत टरै न टारे।'
भजन पूरा करके गदगद वाणी में बोले- अहा, जन्म-जन्मान्तर की मनोकामना आज पूरी हुई है। प्रभु, अपूर्व रूप है आपका। जितनी फोटो आपकी संसार में चल रही हैं, उनमें से किसी से नहीं मिलता।
भगवान स्तुति से 'बोर' हो रहे थे। रुखाई से बोले- अच्छा अच्छा ठीक है। अब क्या चाहते हो, सो बोलो।
भगतजी ने निवेदन किया- भगवन, आपसे क्या छिपा है! आप तो सबकी मनोकामना जानते हैं। कहा है- राम, झरोखा बैठ के सबका मुजरा लेय, जाकी जैसी चाकरी ताको तैसा देय! प्रभु, मुझे स्वर्ग में कोई अच्छी सी जगह दिला दीजिए।
प्रभु ने कहा- तुमने ऐसा क्या किया है, जो तुम्हें स्वर्ग मिले?
भगतजी को इस प्रश्न से चोट लगी। जिसके लिए इतना किया, वही पूछता है कि तुमने ऐसा क्या किया! भगवान पर क्रोध करने से क्या फायदा- यह सोचकर भगतजी गुस्सा पी गये। दीनभव से बोले- मैं रोज आपका भजन करता रहा।
भगवान ने पूछा- लेकिन लाउड-स्पीकर क्यों लगाते थे?
भगतजी सहज भव से बोले- उधर सभी लाउड-स्पीकर लगाते हैं। सिनेमावाले, मिठाईवाले, काजल बेचने वाले- सभी उसका उपयोग करते हैं, तो मैंने भी कर लिया।
भगवान ने कहा- वे तो अपनी चीज का विज्ञापन करते हैं। तुम क्या मेरा विज्ञापन करते थे? मैं क्या कोई बिकाऊ माल हूं।
भगतजी सन्न रह गये। सोचा, भगवान होकर कैसी बातें करते हैं।
भगवान ने पूछा- मुझे तुम अन्तर्यामी मानते हो न?
भगतजी बोले- जी हां!
भगवान ने कहा- फिर अन्तर्यामी को सुनाने के लिए लाउड-स्पीकर क्यों लगाते थे? क्या मैं बहरा हूं? यहां सब देवता मेरी हंसी उड़ाते हैं। मेरी पत्नी मजाक करती है कि यह भगत तुम्हें बहरा समझता है।
भगतजी जवाब नहीं दे सके।
भगवान को और गुस्सा आया। वे कहने लगे- तुमने कई साल तक सारे मुहल्ले के लोगों को तंग किया। तुम्हारे कोलाहल के मारे वे न काम कर सकते थे, न चैन से बैठ सकते थे और न सो सकते थे। उनमें से आधे तो मुझसे घृणा करने लगे हैं। सोचते हैं, अगर भगवान न होता तो यह भगत इतना हल्ला न मचाता। तुमने मुझे कितना बदनाम किया है!
भगत ने साहस बटोरकर कहा- भगवना आपका नाम लोंगों के कानों में जाता था, यह तो उनके लिए अच्छा ही था। उन्हें अनायास पुण्य मिल जाता था।
भगवान को भगत की मूर्खता पर तरस आया। बोले- पता नहीं यह परंपरा कैसे चली कि भक्त का मूर्ख होना जरूरी है। और किसने तुमसे कहा कि मैं चापलूसी पसंद करता हूं? तुम क्या यह समझते हो कि तुम मेरी स्तुति करोगे तो मैं किसी बेवकूफ अफसर की तरह खुश हो जाऊंगा? मैं इतना बेवकूफ नहीं हूं भगतजी कि तुम जैसे मूर्ख मुझे चला लें। मैं चापलूसी से खुश नहीं होता कर्म देखता हूं।
भगतजी ने कहा- भगवन, मैंने कभी कोई कुकर्म नहीं किया।
भगवान हंसे। कहने लगे- भगत, तुमने आदमियों की हत्या की है। उधर की अदालत से बच गये, पर यहां नहीं बच सकते।
भगतजी का धीरज अब छूट गया। वे अपने भगवान की नीयत के बारे में शंकालु हो उठे। सोचने लगे, यह भगवान होकर झूठ बोलता है। जरा तैश में कहा- आपको झूठ बोलना शोभा नहीं देता। मैंने किसी आदमी की जान नहीं ली। अभी तक मैं सहता गया, पर इस झूठे आरोप को मैं सहन नहीं कर सकता। आप सिद्ध करिए कि मैंने हत्या की।
भगवान ने कहा- मैं फिर कहता हूं कि तुम हत्यारे हो, अभी प्रमाण देता हूं।
भगवान ने एक अधेड़ उम्र के आदमी को बुलाया। भगत से पूछा- इसे पहचानते हो?
हां, यह मेरे मुहल्ले का रमानाथ मास्टर है। पिछले साल बीमारी से मरा था।- भगतजी ने विश्वास से कहा।
भगवान बोले- बीमारी से नहीं, तुम्हारे भजन से मरा है। तुम्हारे लाउड-स्पीकर से मरा है। रमानाथ, तुम्हारी मृत्यु क्यों हुई?
रमानाथ ने कहा- प्रभु मैं बीमार था। डॉक्टर ने कहा कि तुम्हें पूरी तरह नींद और आराम मिलना चाहिए। पर भगतजी के लाउडस्पीकर पर अखण्ड कीर्तन के मारे मैं सो न सका, न आराम कर सका। दूसने दिन मेरी हालत बिगड़ गयी और चौथे दिन मैं मर गया।
भगत सुनकर घबरा उठे।
तभी एक बीस-इक्कीस साल का लड़का बुलाया गया। उससे पूछा- सुरेंद्र,तुम कैसे मरे?
मैंने आत्महत्या कर ली थी- उसने जवाब दिया।
आत्महत्या क्यों कर ली थी?- भगवान ने पूछा।
सुरेंद्रनाथ ने कहा- मैं परीक्षा में फेल हो गया था।
परीक्षा में फेल क्यों हो गये थे?
भगतजी के लाउड-स्पीकर के कारण मैं पढ़ नहीं सका। मेरा घर मंदिर के पास ही है न!
भगतजी को याद आया कि इस लड़के ने उनसे प्रार्थना की थी कि कम से कम परीक्षा के दिनों में लाउड-स्पीकर मत लगाइए।
भगवान ने कठोरता से कहा- तुम्हाने पापों को देखते हुए मैं तुम्हें नरक में डाल देने का आदेश देता हूं।
भगतजी ने भागने की कोशिश की, पर नरक के डरावने दूतों ने उन्हें पकड़ लिया।
अपने भगतजी, जिन्हें हम धर्मात्मा समझते थे, नरक भोग रहे हैं।

anjaan
14-06-2012, 08:36 PM
एक मध्यमवर्गीय कुत्ता



मेरे मित्र की कार बँगले में घुसी तो उतरते हुए मैंने पूछा, 'इनके यहाँ कुत्ता तो नहीं है?' मित्र ने कहा, 'तुम कुत्ते से बहुत डरते हो!' मैंने कहा, 'आदमी की शक्ल में कुत्ते से नहीं डरता। उनसे निपट लेता हूँ। पर सच्चे कुत्ते से बहुत डरता हूँ।'
कुत्तेवाले घर मुझे अच्छे नहीं लगते। वहाँ जाओ तो मेजबान के पहले कुत्ता भौंककर स्वागत करता है। अपने स्नेही से 'नमस्ते' हुई ही नहीं कि कुत्ते ने गाली दे दी - 'क्यों यहाँ आया बे? तेरे बाप का घर है? भाग यहाँ से!'
फिर कुत्ते का काटने का डर नहीं लगता - चार बार काट ले। डर लगता है उन चौदह बड़े इंजेक्शनों का जो डॉक्टर पेट में घुसेड़ता है। यूँ कुछ आदमी कुत्ते से अधिक जहरीले होते हैं। एक परिचित को कुत्ते ने काट लिया था। मैंने कहा, 'इन्हें कुछ नहीं होगा। हालचाल उस कुत्ते का पूछो और इंजेक्शन उसे लगाओ।'
एक नए परिचित ने मुझे घर पर चाय के लिए बुलाया। मैं उनके बँगले पर पहुँचा तो फाटक पर तख्ती टँगी दीखी - 'कुत्ते से सावधान!' मैं फौरन लौट गया।
कुछ दिनों बाद वे मिले तो शिकायत की, 'आप उस दिन चाय पीने नहीं आए।' मैंने कहा, 'माफ करें। मैं बँगले तक गया था। वहाँ तख्ती लटकी थी - 'कुत्ते से सावधान। 'मेरा ख्याल था, उस बँगले में आदमी रहते हैं। पर नेमप्लेट कुत्ते की टँगी हुई दीखी।' यूँ कोई-कोई आदमी कुत्ते से बदतर होता है। मार्क ट्वेन ने लिखा है - 'यदि आप भूखे मरते कुत्ते को रोटी खिला दें, तो वह आपको नहीं काटेगा।' कुत्ते में और आदमी में यही मूल अंतर है।
बँगले में हमारे स्नेही थे। हमें वहाँ तीन दिन ठहरना था। मेरे मित्र ने घंटी बजाई तो जाली के अंदर से वही 'भौं-भौं' की आवाज आई। मैं दो कदम पीछे हट गया। हमारे मेजबान आए। कुत्ते को डाँटा - 'टाइगर, टाइगर!' उनका मतलब था - 'शेर, ये लोग कोई चोर-डाकू नहीं हैं। तू इतना वफादार मत बन।'
कुत्ता ज़ंजीर से बँधा था। उसने देख भी लिया था कि हमें उसके मालिक खुद भीतर ले जा रहे हैं पर वह भौंके जा रहा था। मैं उससे काफी दूर से लगभग दौड़ता हुआ भीतर गया। मैं समझा, यह उच्चवर्गीय कुत्ता है। लगता ऐसा ही है। मैं उच्चवर्गीय का बड़ा अदब करता हूँ। चाहे वह कुत्ता ही क्यों न हो। उस बँगले में मेरी अजब स्थिति थी। मैं हीनभावना से ग्रस्त था - इसी अहाते में एक उच्चवर्गीय कुत्ता और इसी में मैं! वह मुझे हिकारत की नजर से देखता।
शाम को हम लोग लॉन में बैठे थे। नौकर कुत्ते को अहाते में घुमा रहा था। मैंने देखा, फाटक पर आकर दो 'सड़किया' आवारा कुत्ते खड़े हो गए। वे सर्वहारा कुत्ते थे। वे इस कुत्ते को बड़े गौर से देखते। फिर यहाँ-वहाँ घूमकर लौट आते और इस कुत्ते को देखते रहते। पर यह बँगलेवाला उन पर भौंकता था। वे सहम जाते और यहाँ-वहाँ हो जाते। पर फिर आकर इस कु्ते को देखने लगते। मेजबान ने कहा, 'यह हमेशा का सिलसिला है। जब भी यह अपना कुत्ता बाहर आता है, वे दोनों कुत्ते इसे देखते रहते हैं।'
मैंने कहा, 'पर इसे उन पर भौंकना नहीं चाहिए। यह पट्टे और जंजीरवाला है। सुविधाभोगी है। वे कुत्ते भुखमरे और आवारा हैं। इसकी और उनकी बराबरी नहीं है। फिर यह क्यों चुनौती देता है!'
रात को हम बाहर ही सोए। जंजीर से बँधा कुत्ता भी पास ही अपने तखत पर सो रहा था। अब हुआ यह कि आसपास जब भी वे कुत्ते भौंकते, यह कुत्ता भी भौंकता। आखिर यह उनके साथ क्यों भौंकता है? यह तो उन पर भौंकता है। जब वे मोहल्ले में भौंकते हैं तो यह भी उनकी आवाज में आवाज मिलाने लगता है, जैसे उन्हें आश्वासन देता हो कि मैं यहाँ हूँ, तुम्हारे साथ हूँ।
मुझे इसके वर्ग पर शक होने लगा है। यह उच्चवर्गीय कुत्ता नहीं है। मेरे पड़ोस में ही एक साहब के पास थे दो कुत्ते। उनका रोब ही निराला! मैंने उन्हें कभी भौंकते नहीं सुना। आसपास के कुत्ते भौंकते रहते, पर वे ध्यान नहीं देते थे। लोग निकलते, पर वे झपटते भी नहीं थे। कभी मैंने उनकी एक धीमी गुर्राहट ही सुनी होगी। वे बैठे रहते या घूमते रहते। फाटक खुला होता, तो भी वे बाहर नहीं निकलते थे. बड़े रोबीले, अहंकारी और आत्मतुष्ट।
यह कुत्ता उन सर्वहारा कुत्तों पर भौंकता भी है और उनकी आवाज में आवाज भी मिलाता है। कहता है - 'मैं तुममें शामिल हूँ। 'उच्चवर्गीय झूठा रोब भी और संकट के आभास पर सर्वहारा के साथ भी - यह चरित्र है इस कुत्ते का। यह मध्यवर्गीय चरित्र है। यह मध्यवर्गीय कुत्ता है। उच्चवर्गीय होने का ढोंग भी करता है और सर्वहारा के साथ मिलकर भौंकता भी है। तीसरे दिन रात को हम लौटे तो देखा, कुत्ता त्रस्त पड़ा है। हमारी आहट पर वह भौंका नहीं,
थोड़ा-सा मरी आवाज में गुर्राया। आसपास वे आवारा कुत्ते भौंक रहे थे, पर यह उनके साथ भौंका नहीं। थोड़ा गुर्राया और फिर निढाल पड़ गया। मैंने मेजबान से कहा, 'आज तुम्हारा कुत्ता बहुत शांत है।'
मेजबान ने बताया, 'आज यह बुरी हालत में है. हुआ यह कि नौकर की गफलत के कारण यह फाटक से बाहर निकल गया। वे दोनों कुत्ते तो घात में थे ही। दोनों ने इसे घेर लिया। इसे रगेदा। दोनों इस पर चढ़ बैठे। इसे काटा। हालत खराब हो गई। नौकर इसे बचाकर लाया। तभी से यह सुस्त पड़ा है और घाव सहला रहा है। डॉक्टर श्रीवास्तव से कल इसे इंजेक्शन दिलाउँगा।'
मैंने कुत्ते की तरफ देखा। दीन भाव से पड़ा था। मैंने अंदाज लगाया। हुआ यों होगा -
यह अकड़ से फाटक के बाहर निकला होगा। उन कुत्तों पर भौंका होगा। उन कुत्तों ने कहा होगा - 'अबे, अपना वर्ग नहीं पहचानता। ढोंग रचता है। ये पट्टा और जंजीर लगाए है। मुफ्त का खाता है। लॉन पर टहलता है। हमें ठसक दिखाता है। पर रात को जब किसी आसन्न संकट पर हम भौंकते हैं, तो तू भी हमारे साथ हो जाता है। संकट में हमारे साथ है, मगर यों हम पर भौंकेगा। हममें से है तो निकल बाहर। छोड़ यह पट्टा और जंजीर। छोड़ यह आराम। घूरे पर पड़ा अन्न खा या चुराकर रोटी खा। धूल में लोट।' यह फिर भौंका होगा। इस पर वे कुत्ते झपटे होंगे। यह कहकर - 'अच्छा ढोंगी। दगाबाज, अभी तेरे झूठे दर्प का अहंकार नष्ट किए देते हैं।'
इसे रगेदा, पटका, काटा और धूल खिला।
कुत्ता चुपचाप पड़ा अपने सही वर्ग के बारे में चिंतन कर रहा है।

anjaan
14-06-2012, 08:36 PM
भारत को चाहिए जादूगर और साधु


हर 15 अगस्त और 26 जनवरी को मैं सोचता हूँ कि साल-भर में कितने बढ़े। न सोचूँ तो भी काम चलेगा - बल्कि ज्यादा आराम से चलेगा। सोचना एक रोग है, जो इस रोग से मुक्त हैं और स्वस्थ हैं, वे धन्य हैं।
यह 26 जनवरी 1972 फिर आ गया। यह गणतंत्र दिवस है, मगर 'गण' टूट रहे हैं। हर गणतंत्र दिवस 'गण' के टूटने या नए 'गण' बनने के आंदोलन के साथ आता है। इस बार आंध्र और तेलंगाना हैं। अगले साल इसी पावन दिवस पर कोई और 'गण' संकट आएगा।
इस पूरे साल में मैंने दो चीजें देखीं। दो तरह के लोग बढ़े - जादूगर और साधु बढ़े। मेरा अंदाज था, सामान्य आदमी के जीवन के सुभीते बढ़ेंगे - मगर नहीं। बढ़े तो जादूगर और साधु-योगी। कभी-कभी सोचता हूँ कि क्या ये जादूगर और साधु 'गरीबी हटाओ' प्रोग्राम के अंतर्गत ही आ रहे हैं! क्या इसमें कोई योजना है?
रोज अखबार उठाकर देखता हूँ। दो खबरें सामने आती हैं - कोई नया जादूगर और कोई नया साधु पैदा हो गया है। उसका विज्ञापन छपता है। जादूगर आँखों पर पट्टी बाँधकर स्कूटर चलाता है और 'गरीबी हटाओ' वाली जनता कामधाम छोड़कर, तीन-चार घंटे आँखों पर पट्टी बाँधे जादू्गर को देखती हजारों की संख्या में सड़क के दोनों तरफ खड़ी रहती है। ये छोटे जादूगर हैं। इस देश में बड़े बड़े जादूगर हैं, जो छब्बीस सालों से आँखों पर पट्टी बाँधे हैं। जब वे देखते हैं कि जनता अकुला रही है और कुछ करने पर उतारू है, तो वे फौरन जादू का खेल दिखाने लगते हैं। जनता देखती है, ताली पीटती है। मैं पूछता हूँ - जादूगर साहब, आँखों पर पट्टी बाँधे राजनैतिक स्कूटर पर किधर जा रहे हो? किस दिशा को जा रहे हो - समाजवाद? खुशहाली? गरीबी हटाओ? कौन सा गंतव्य है? वे कहते हैं - गंतव्य से क्या मतलब? जनता आँखों पर पट्टी बाँधे जादूगर का खेल देखना चाहती है। हम दिखा रहे हैं। जनता को और क्या चाहिए?
जनता को सचमुच कुछ नहीं चाहिए। उसे जादू के खेल चाहिए। मुझे लगता है, ये दो छोटे-छोटे जादूगर रोज खेल दिखा रहे हैं, इन्होंने प्रेरणा इस देश के राजनेताओं से ग्रहण की होगी। जो छब्बीस सालों से जनता को जादू के खेल दिखाकर खुश रखे हैं, उन्हें तीन-चार घंटे खुश रखना क्या कठिन है। इसलिए अखबार में रोज फोटो देखता हूँ, किसी शहर में नए विकसित किसी जादूगर की।
सोचता हूँ, जिस देश में एकदम से इतने जादूगर पैदा हो जाएँ, उस जनता की अंदरूनी हालत क्या है? वह क्यों जादू से इतनी प्रभावित है? वह क्यों चमत्कार पर इतनी मुग्ध है? वह जो राशन की दुकान पर लाइन लगाती है और राशन नहीं मिलता, वह लाइन छोड़कर जादू के खेल देखने क्यों खड़ी रहती है?
मुझे लगता है, छब्बीस सालों में देश की जनता की मानसिकता ऐसी बना दी गई है कि जादू देखो और ताली पीटो। चमत्कार देखो और खुश रहो।
बाकी काम हम पर छोड़ो।
भारत-पाक युद्ध ऐसा ही एक जादू था। जरा बड़े स्केल का जादू था, पर था जादू ही। जनता अभी तक ताली पीट रही है।
उधर राशन की दुकान पर लाइन बढ़ती जा रही है।
देशभक्त मुझे माफ करें। पर मेरा अंदाज है, जल्दी ही एक शिमला शिखर-वार्ता और होगी। भुट्टो कहेंगे - पाकिस्तान में मेरी हालत खस्ता। अलग-अलग राज्य बनना चाह रहे हैं। गरीबी बढ़ रही है। लोग भूखे मर रहे हैं।
हमारी प्रधानमंत्री कहेंगी - इधर भी गरीबी हट नहीं रही। कीमतें बढ़ती जा रही हैं। जनता में बड़ी बेचैनी है। बेकारी बढ़ती जा रही है।
तब दोनों तय करेंगे - क्यों न पंद्रह दिनों का एक और जादू हो जाए। चार-पाँच साल दोनों देशों की जनता इस जादू के असर में रहेगी। (देशभक्त माफ करें - मगर जरा सोंचें)
जब मैं इन शहरों के इन छोटे जादूगरों के करतब देखता हूँ तो कहता हूँ - बच्चों, तुमने बड़े जादू नहीं देखे। छोटे देखे हैं तो छोटे जादू ही सीखे हो।
दूसरा कमाल इस देश में साधु है। अगर जादू से नहीं मानते और राशन की दुकान पर लाइन लगातार बढ़ रही है, तो लो, साधु लो।
जैसे जादूगरों की बाढ़ आई है, वैसे ही साधुओं की बाढ़ आई है। इन दोनों में कोई संबंध जरूर है।
साधु कहता है - शरीर मिथ्या है। आत्मा को जगाओ। उसे विश्वात्मा से मिलाओ। अपने को भूलो। अपने सच्चे स्वरूप को पहचानो। तुम सत्-चित्-आनंद हो।
आनंद ही ब्रह्म है। राशन ब्रह्म नहीं। जिसने 'अन्नं ब्रह्म' कहा था, वह झूठा था। नौसिखिया था। अंत में वह इस निर्णय पर पहुँचा कि अन्न नहीं 'आनंद' ही ब्रह्म है।
पर भरे पेट और खाली पेट का आनंद क्या एक सा है? नहीं है तो ब्रह्म एक नहीं अनेक हुए। यह शास्त्रोक्त भी है - 'एको ब्रह्म बहुस्याम।' ब्रह्म एक है पर वह कई हो जाता है। एक ब्रह्म ठाठ से रहता है, दूसरा राशन की दुकान में लाइन से खड़ा रहता है, तीसरा रेलवे के पुल के नीचे सोता है।
सब ब्रह्म ही ब्रह्म है।
शक्कर में पानी डालकर जो उसे वजनदार बनाकर बेचता है, वह भी ब्रह्म है और जो उसे मजबूरी में खरीदता है, वह भी ब्रह्म है।
ब्रह्म, ब्रह्म को धोखा दे रहा है।
साधु का यही कर्म है कि मनुष्य को ब्रह्म की तरफ ले जाय और पैसे इकट्ठे करे; क्योंकि 'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या।'
26 जनवरी आते आते मैं यही सोच रहा हूँ कि 'हटाओ गरीबी' के नारे को, हटाओ महँगाई को, हटाओ बेकारी को, हटाओ भुखमरी को, क्या हुआ?
बस, दो तरह के लोग बहुतायत से पैदा करें - जादूगर और साधु।
ये इस देश की जनता को कई शताब्दी तक प्रसन्न रखेंगे और ईश्वर के पास पहुँचा देंगे।
भारत-भाग्य विधाता। हममें वह क्षमता दे कि हम तरह-तरह के जादूगर और साधु इस देश में लगातार बढ़ाते जाएँ।
हमें इससे क्या मतलब कि 'तर्क की धारा सूखे मरूस्थल की रेत में न छिपे'(रवींद्रनाथ) वह तो छिप गई। इसलिए जन-गण-मन अधिनायक! बस हमें जादूगर और पेशेवर साधु चाहिए। तभी तुम्हारा यह सपना सच होगा कि हे परमपिता, उस स्वर्ग में मेरा यह देश जाग्रत हो। (जिसमें जादू्गर और साधु जनता को खुश रखें)।
यह हो रहा है, परमपिता की कृपा से!

anjaan
14-06-2012, 08:37 PM
कंधे श्रवणकुमार के



एक सज्जन छोटे बेटे की शिकायत करते हैं - कहना नहीं मानता और कभी मुँहजोरी भी करता है। और बड़ा लड़का? वह तो बड़ा अच्छा है। पढ़-लिखकर अब कहीं नौकरी करता है। सज्जन के मत में दोनों बेटों में बड़ा फर्क है और यह फर्क कई प्रसंगों में उन्हें दिख जाता है। एक शाम का प्रसंग है। वे नियमित संध्यावंदन करते हैं (यानी शराब पीते हैं), कोई बुरा नहीं करते। बहुत लोग पीते हैं। गंगाजल खुलेआम पीते हैं, शराब छिपकर - गो शराब ज्यादा मजा देती है। आदमी बेमजा खुलकर बात करता है। और बामजा को छिपाकर, यानी सुख शर्म की बात मानी जाती है। लेकिन बात उन सज्जन की उठी थी। उन्हें सोडा की जरूरत पड़ती है। बड़ा लड़का कहते ही फौरन किताब के पन्नों में पेन्सिल रखकर सोडा लेने दौड़ जाता था। लाता छोटा भी है, पर फौरन नहीं उठता। पैराग्रफ पूरा करके उठता है। भारतीय पिता को यह अवज्ञा बरदाश्त नहीं। वह सीमांतों पर संबंध रखता है। या तो बेटे को पीटेगा या उसके हाथ से पिटेगा। बीच की स्थिति उसे पसंद नहीं। छोटा बेटा भी हरकत करता है। पिता जल्दी मचाते हैं, तो कह भी देता है ‘जाता तो हूँ’ ! उसके मन में सवाल और शंका भी उठती है। सोचता है - यह पिता फीस रोकर देता है, कपड़े बनवाना टालता जाता है, फिर यह नहीं सोचता कि इसे पढ़ाई के बीच से नहीं उठना चाहिए।
बड़े लड़के के मन में कभी सवाल और शंका नहीं उठे। वह मेरी ही उम्र का होगा। उसने वही किताब पढ़ी होंगी, जो मैंने पढ़ी थीं। हम सब गलत किताबों की पैदावार हैं। ये सवालों को मारने की किताबें थीं। स्कूल प्रार्थना से शुरू होता था -‘शरण में आए हैं हम तुम्हारी, दया करो हे दयालु भगवन!’ - क्यों शरण में आए हैं, किसके डर से आए हैं - कुछ नहीं मालूम। शरण में आने की ट्रेनिंग अक्षर-ज्ञान से पहले हो जाती थी। हमने गलत किताबें पढ़ीं हैं और आँखों को उनमें जड़ दिया। छोटा लड़का दूसरी किताबें पढ़ता है और आँखें उनमें गड़ाता नहीं है, आसपास भी देख लेता है। वह अपनी आँखों को फूटने से बचाने की कोशिश कर रहा है। इससे सारे पिता-स्वरूप लोग परेशान हैं - भौतिक पिता, गुरु, बड़े-बूढ़े शासक और नेता। हमारी किताबों में पिता-स्वरूप लोग सवाल और शंका से ऊपर होते थे। शिष्य पक्षपाती गुरु को अँगूठा काटकर दे देता था और दोनों ‘धन्य’ कहलाते थे। अब शिष्य उपकुलपति से रिपोर्ट कर देता है कि अमुक अध्यापक शिष्यों के अँगूठे कटवाते हैं। यदि उपकुलपति ध्यान नहीं देते, तो वह विद्यार्थियों का जुलूस लेकर विश्वविद्यालय पर धावा बोल देता है। हमें तो तीसरी कक्षा में ही उस भक्त की कथा पढ़ा दी गई थी, जो अपने पुत्र को आरे से चीरता है। कुछ लोगों के लिए आदमी और कद्दू में कोई फर्क नहीं। दोनों ही चीरे जा सकते हैं। उस भक्त का नाम मोरध्वज था। ऐसी सारी कथाओं का अंत ऐसा होता है जिससे चिरनेवालों को प्रोत्साहन मिले। भगवान प्रकट होते हैं और जिस पार्टी का जो नुकसान हुआ है, पूरा कर देते हैं - मृत को जिला देते हैं, जायदाद चली गई है, तो वापस दिला देते हैं, किसी को मुआवजे के रूप में स्वर्ग भेज देते हैं। कथा के इस अंत ने कितनी पीढ़ियों को आरे से चिरवा दिया होगा।
इस कथा पर न मैंने शंका की थी, न सज्जन के बड़े बेटे ने। मगर छोटा लड़का पूछेगा - पिताजी, चीरने से पहले यह बताइए कि भगवान इससे खुश होते हैं इसका सबूत क्या है? फिर इसकी क्या गारंटी कि वे आ ही जाएँगे? उन्हें हजार काम लगे रहते हैं। फिर इसका क्या भरोसा कि वे कटे को जोड़ देते हैं? अगर यह सब हो भी, तो भी आपके सत्यकल्पित विश्वास आपके अपने हैं। उनके लिए आप अपने को कटवाइए और अपनी हठ निभाइए। पहले जन्मे लोग अपनी सही-गलत मान्यता के लिए पीछे जन्मों को क्यों काटें? एक पीढ़ी के लिए दूसरी पीढ़ी क्यों चीरी जाए?
लड़के मुँहजोरी करने लगे हैं। कंबख्तों की किताबें बदल गई हैं। कोर्स इतनी जल्दी क्यों बदलने लगे हैं? बड़े लड़के से कह दिया था कि अपनी किताबें सँभालकर रखना छोटे के काम आएँगी! पर किताबें बदल गईं। पुरानी किताबें किसी के काम नहीं आ रही हैं। एक ही किताब पीढ़ियों क्यों नहीं चलती? पिताओं को यह चिंता है। बड़ा लड़का फौरन किताब में पेन्सिल रखकर सोडा लेने भाग जाता था। छोटा पैराग्राफ पूरा करके उठता है। भीष्म की कथा भी हमें तभी पढ़ा दी गई थी। हमने भीष्म को ‘धन्य’ कहा था। छोटा लड़का शांतनु को ‘धिक्कार’ कहेगा। ‘धन्य’ और ‘धिक्कार’ की जगहें बदल गई हैं। लोगों को पता नहीं है। छोटा लड़का भीष्म से कहेगा - क्या तुमने भी वही किताबें पढ़ी थीं, जो हमारे बड़े भाई ने? तुम पिता से क्यों नहीं कह सके कि जीवन भर के भोग के बाद भी आप की लिप्सा बनी हुई है, तो मैं क्या करूँ? अपना संयम दे सकता, तो थोड़ा दे देता, जीवन कैसे दे दूँ? राज्य से आप मुझे वंचित कर सकते हैं, पर मनुष्य का स्वाभाविक अधिकार मैं हरगिज नहीं छोड़ूँगा।
छोटा टिप्पणी करेगा - भीष्म ऐसा नहीं कह सके। उन्हें पिता ने आदमी से तीर चलानेवाली मशीन बना दिया। ऑटोमेटिक धनुष ! महाभारत का यह सबसे भला, तेजस्वी, आदरणीय, ज्ञानी व्यक्ति सबसे दयनीय भी है। मगर देख रहा हूँ कि श्रवणकुमार के कंधे दुखने लगे हैं। यह काँवड़ हिलाने लगा है। काँवड़ में अंधे परेशान हैं। विचित्र दृश्य है यह। दो अंधे एक आँख वाले पर लदे हैं और उसे चला रहे हैं। जीवन से कट जाने के कारण एक पीढ़ी दृष्टिहीन हो जाती है, तब वह आगामी पीढ़ी के ऊपर लद जाती है। अंधी होते ही उसे तीर्थ सूझने लगते हैं। वह कहती है - हमें तीर्थ ले चलो। इस क्रियाशील जन्म का भोग हो चुका है। हमें आगामी जन्म के भोग के लिए पुण्य का एडवांस देना है। आँखवाले की जवानी अंधों को ढोने में गुजर जाती है। वह अंधों के बताए रास्ते पर चलता है। उसका निर्णय और निर्वाचन का अधिकार चला जाता है। उसकी आँखें रास्ता नहीं खोजतीं, सिर्फ राह के काँटे बचाने के काम आती हैं।
कितनी काँवड़े हैं - राजनीति में, साहित्य में, कला में, धर्म में, शिक्षा में। अंधे बैठे हैं और आँखवाले उन्हें ढो रहे हैं। अंधे में अजब काँइयाँपन आ जाता है। वह खरे और खोटे सिक्के को पहचान लेता है। पैसे सही गिन लेता है। उसमें टटोलने की क्षमता आ जाती है। वह पद टटोल लेता है, पुरस्कार टटोल लेता है, सम्मान के रास्ते टटोल लेता है। बैंक का चेक टटोल लेता है। आँखवाले जिन्हें नहीं देख पाते, उन्हें वह टटोल लेता है। नए अंधों के तीर्थ भी नए हैं। वे काशी, हरिद्वार, पुरी नहीं जाते। इस काँवड़वाले अंधे से पूछो - कहाँ ले चलें? वह कहेगा - तीर्थ! कौन सा तीर्थ? जवाब देगा केबिनट! मंत्रिमंडल! उस काँवड़वाले से पूछो, तो वह भी तीर्थ जाने को प्रस्तुत है। कौन-सा तीर्थ चलेंगे आप? जवाब मिलेगा अकादमी, विश्वविद्यालय! मगर काँवड़े हिलने लगी हैं। ढोनेवालों के मन में शंका पैदा होने लगी है। वे झटका देते हैं, तो अंधे चिल्लाते हैं - अरे पापी! यह क्या करते हो? क्या हमें गिरा दोगे? और ढोनेवाला कहता है - अपनी शक्ति और जीवन हम अंधों को ढोने में नहीं गुजारेंगे। तुम एक जगह बैठो। माला जपो। आदर लो, रक्षण लो। हमें अपनी इच्छा से चलने दो। अनुभव दे दो, दृष्टि मत दो! वह हम कमा लेंगे।
राजनीति, साहित्य आदि तो बड़े प्रगट क्षेत्र हैं। अप्रगट रूप से भी, विभिन्न क्षेत्रों में श्रवणकुमार काँवड़ उतारने के लिए हिला रहे हैं। वे किन्हीं विश्वासों की आरी से चिरने को तैयार नहीं हैं। मैं कॉफी हाउस के कोने में बैठे उस युवक की बात नहीं कर रहा हूँ, जिसने गुस्से में दाढ़ी बड़ा ली है, जैसे उसकी दाढ़ी एक खास साइज और आकार की होते ही क्रांति हो जाएगी। बढ़ी दाढ़ी, ड्रेन पाइप और ‘सो ह्वाट’ वालों से यह नहीं हो रहा है। चुस्त कपड़े, हेयर स्टाइल और ‘ओ वंडरफुल’ वालियों से भी यह नहीं हो रहा है। ये तो न विश्वास में सच्चे, न शंका में। यह बिना प्रदर्शन और शोर शराबे के घरों और परिवारों में हो रहा है। सुशील, विनम्र और आज्ञाकारी युवक-युवती काँवड़े उतारने लगे हैं किसी के विश्वास के ओर से कटने से इनकार करने लगे हैं। एक परिचित है, जिसका ज्योतिष में विश्वास है। उनकी शिक्षिता जवान लड़की है। जिससे वह शादी करना चाहती थी, उससे ग्रह नहीं मिले। एक-दो और योग्य वरों से मिलान किया पर ग्रह यहाँ भी नहीं मिले। उसके ग्रहों ने किसी नालायक से मिलने के लिए स्थिति सँभाली होगी। लड़की एक दो साल घुटती रही। एक दिन उसने नम्रता से परिवार से कह दिया - ‘आप लोगों का इस ज्योतिष में विश्वास है, पर मेरा नहीं है। जो मेरा विश्वास ही नहीं है, उस पर मेरा बलिदान नहीं होना चाहिए।’ परिवार कुछ देर तो चमत्कृत रहा, फिर उसकी इच्छा से शादी कर दी। देख रहा हूँ कि मोरध्वज का आरा छीनकर फेंका जा रहा है। श्रवणकुमार के कंधे दुखने लगे हैं। वह काँवड़ को उतार कर रखने लगा है। वे सज्जन परेशान हैं। छोटा लड़का पैराग्राफ पूरा करके उठता है। बड़ा तो फौरन पेन्सिल रखकर दौड़ जाता था।

anjaan
14-06-2012, 08:38 PM
भोलाराम का जीव


ऐसा कभी नहीं हुआ था. धर्मराज लाखों वर्षों से असंख्य आदमियों को कर्म और सिफ़ारिश के आधार पर स्वर्ग या नरक में निवास-स्थान 'अलॉट' करते आ रहे थे. पर ऐसा कभी नहीं हुआ था.
सामने बैठे चित्रगुप्त बार-बार चश्मा पोंछ, बार-बार थूक से पन्ने पलट, रजिस्टर पर रजिस्टर देख रहे थे. गलती पकड़ में ही नहीं आ रही थी. आखिर उन्होंने खीझ कर रजिस्टर इतने जोर से बन्द किया कि मक्खी चपेट में आ गई. उसे निकालते हुए वे बोले - "महाराज, रिकार्ड सब ठीक है. भोलाराम के जीव ने पाँच दिन पहले देह त्यागी और यमदूत के साथ इस लोक के लिए रवाना भी हुआ, पर यहाँ अभी तक नहीं पहुँचा."
धर्मराज ने पूछा - "और वह दूत कहाँ है?"
"महाराज, वह भी लापता है."
इसी समय द्वार खुले और एक यमदूत बदहवास वहाँ आया. उसका मौलिक कुरूप चेहरा परिश्रम, परेशानी और भय के कारण और भी विकृत हो गया था. उसे देखते ही चित्रगुप्त चिल्ला उठे - "अरे, तू कहाँ रहा इतने दिन? भोलाराम का जीव कहाँ है?"
यमदूत हाथ जोड़ कर बोला - "दयानिधान, मैं कैसे बतलाऊं कि क्या हो गया. आज तक मैंने धोखा नहीं खाया था, पर भोलाराम का जीव मुझे चकमा दे गया. पाँच दिन पहले जब जीव ने भोलाराम का देह त्यागा, तब मैंने उसे पकड़ा और इस लोक की यात्रा आरम्भ की. नगर के बाहर ज्यों ही मैं उसे लेकर एक तीव्र वायु-तरंग पर सवार हुआ त्यों ही वह मेरी चंगुल से छूट कर न जाने कहाँ गायब हो गया. इन पाँच दिनों में मैंने सारा ब्रह्माण्ड छान डाला, पर उसका कहीं पता नहीं चला."
धर्मराज क्रोध से बोला - "मूर्ख ! जीवों को लाते-लाते बूढ़ा हो गया फिर भी एक मामूली बूढ़े आदमी के जीव ने तुझे चकमा दे दिया."
दूत ने सिर झुका कर कहा - "महाराज, मेरी सावधानी में बिलकुल कसर नहीं थी. मेरे इन अभ्यस्त हाथों से अच्छे-अच्छे वकील भी नहीं छूट सके. पर इस बार तो कोई इन्द्रजाल ही हो गया."
चित्रगुप्त ने कहा- "महाराज, आजकल पृथ्वी पर इस प्रकार का व्यापार बहुत चला है. लोग दोस्तों को कुछ चीज़ भेजते हैं और उसे रास्ते में ही रेलवे वाले उड़ा लेते हैं. होजरी के पार्सलों के मोजे रेलवे अफसर पहनते हैं. मालगाड़ी के डब्बे के डब्बे रास्ते में कट जाते हैं. एक बात और हो रही है. राजनैतिक दलों के नेता विरोधी नेता को उड़ाकर बन्द कर देते हैं. कहीं भोलाराम के जीव को भी तो किसी विरोधी ने मरने के बाद खराबी करने के लिए तो नहीं उड़ा दिया?"
धर्मराज ने व्यंग्य से चित्रगुप्त की ओर देखते हुए कहा - "तुम्हारी भी रिटायर होने की उमर आ गई. भला भोलाराम जैसे नगण्य, दीन आदमी से किसी को क्या लेना-देना?"
इसी समय कहीं से घूमते-घामते नारद मुनि यहाँ आ गए. धर्मराज को गुमसुम बैठे देख बोले - "क्यों धर्मराज, कैसे चिन्तित बैठे हैं? क्या नरक में निवास-स्थान की समस्या अभी हल नहीं हुई?"
धर्मराज ने कहा - "वह समस्या तो कब की हल हो गई. नरक में पिछले सालों में बड़े गुणी कारीगर आ गए हैं. कई इमारतों के ठेकेदार हैं जिन्होंने पूरे पैसे लेकर रद्दी इमारतें बनाईं. बड़े बड़े इंजीनियर भी आ गए हैं जिन्होंने ठेकेदारों से मिलकर पंचवर्षीय योजनाओं का पैसा खाया. ओवरसीयर हैं, जिन्होंने उन मजदूरों की हाजिरी भर कर पैसा हड़पा जो कभी काम पर गए ही नहीं. इन्होंने बहुत जल्दी नरक में कई इमारतें तान दी हैं. वह समस्या तो हल हो गई, पर एक बड़ी विकट उलझन आ गई है. भोलाराम नाम के एक आदमी की पाँच दिन पहले मृत्यु हुई. उसके जीव को यह दूत यहाँ ला रहा था, कि जीव इसे रास्ते में चकमा देकर भाग गया. इस ने सारा ब्रह्माण्ड छान डाला, पर वह कहीं नहीं मिला. अगर ऐसा होने लगा, तो पाप पुण्य का भेद ही मिट जाएगा."
नारद ने पूछा - "उस पर इनकमटैक्स तो बकाया नहीं था? हो सकता है, उन लोगों ने रोक लिया हो."
चित्रगुप्त ने कहा - "इनकम होती तो टैक्स होता. भुखमरा था."
नारद बोले - "मामला बड़ा दिलचस्प है. अच्छा मुझे उसका नाम पता तो बताओ. मैं पृथ्वी पर जाता हूँ."
चित्रगुप्त ने रजिस्टर देख कर बताया - "भोलाराम नाम था उसका. जबलपुर शहर में धमापुर मुहल्ले में नाले के किनारे एक डेढ़ कमरे टूटे-फूटे मकान में वह परिवार समेत रहता था. उसकी एक स्त्री थी, दो लड़के और एक लड़की. उम्र लगभग साठ साल. सरकारी नौकर था. पाँच साल पहले रिटायर हो गया था. मकान का किराया उसने एक साल से नहीं दिया, इस लिए मकान मालिक उसे निकालना चाहता था. इतने में भोलाराम ने संसार ही छोड़ दिया. आज पाँचवाँ दिन है. बहुत सम्भव है कि अगर मकान-मालिक वास्तविक मकान-मालिक है तो उसने भोलाराम के मरते ही उसके परिवार को निकाल दिया होगा. इस लिए आप को परिवार की तलाश में काफी घूमना पड़ेगा."
मां-बेटी के सम्मिलित क्रन्दन से ही नारद भोलाराम का मकान पहचान गए.
द्वार पर जाकर उन्होंने आवाज लगाई - "नारायण! नारायण!" लड़की ने देखकर कहा- "आगे जाओ महाराज."
नारद ने कहा - "मुझे भिक्षा नहीं चाहिए, मुझे भोलाराम के बारे में कुछ पूछ-ताछ करनी है. अपनी मां को जरा बाहर भेजो, बेटी!"
भोलाराम की पत्नी बाहर आई. नारद ने कहा - "माता, भोलाराम को क्या बीमारी थी?"
"क्या बताऊँ? गरीबी की बीमारी थी. पाँच साल हो गए, पेंशन पर बैठे. पर पेंशन अभी तक नहीं मिली. हर दस-पन्द्रह दिन में एक दरख्वास्त देते थे, पर वहाँ से या तो जवाब आता ही नहीं था और आता तो यही कि तुम्हारी पेंशन के मामले में विचार हो रहा है. इन पाँच सालों में सब गहने बेच कर हम लोग खा गए. फिर बरतन बिके. अब कुछ नहीं बचा था. चिन्ता में घुलते-घुलते और भूखे मरते-मरते उन्होंने दम तोड़ दी."
नारद ने कहा - "क्या करोगी मां? उनकी इतनी ही उम्र थी."
"ऐसा तो मत कहो, महाराज ! उम्र तो बहुत थी. पचास साठ रुपया महीना पेंशन मिलती तो कुछ और काम कहीं कर के गुजारा हो जाता. पर क्या करें? पाँच साल नौकरी से बैठे हो गये और अभी तक एक कौड़ी नहीं मिली."
दुःख की कथा सुनने की फुरसत नारद को थी नहीं. वे अपने मुद्दे पर आए, "मां, यह तो बताओ कि यहाँ किसी से उन का विशेष प्रेम था, जिस में उन का जी लगा हो?"
पत्नी बोली - "लगाव तो महाराज, बाल बच्चों से ही होता है."
"नहीं, परिवार के बाहर भी हो सकता है. मेरा मतलब है, किसी स्त्री..."
स्त्री ने गुर्रा कर नारद की ओर देखा. बोली - "अब कुछ मत बको महाराज ! तुम साधु हो, उचक्के नहीं हो. जिंदगी भर उन्होंने किसी दूसरी स्त्री की ओर आँख उठाकर नहीं देखा."
नारद हँस कर बोले - "हाँ, तुम्हारा यह सोचना ठीक ही है. यही हर अच्छी गृहस्थी का आधार है. अच्छा, माता मैं चला."
स्त्री ने कहा - "महाराज, आप तो साधु हैं, सिद्ध पुरूष हैं. कुछ ऐसा नहीं कर सकते कि उन की रुकी हुई पेंशन मिल जाए. इन बच्चों का पेट कुछ दिन भर जाए."
नारद को दया आ गई थी. वे कहने लगे - "साधुओं की बात कौन मानता है? मेरा यहाँ कोई मठ तो है नहीं. फिर भी मैं सरकारी दफ्तर जाऊँगा और कोशिश करूंगा."
वहाँ से चल कर नारद सरकारी दफ़्तर पहुँचे. वहाँ पहले ही से कमरे में बैठे बाबू से उन्होंने भोलाराम के केस के बारे में बातें कीं. उस बाबू ने उन्हें ध्यानपूर्वक देखा और बोला - "भोलाराम ने दरख्वास्तें तो भेजी थीं, पर उन पर वज़न नहीं रखा था, इसलिए कहीं उड़ गई होंगी."
नारद ने कहा - "भई, ये बहुत से 'पेपर-वेट' तो रखे हैं. इन्हें क्यों नहीं रख दिया?"
बाबू हँसा - "आप साधु हैं, आपको दुनियादारी समझ में नहीं आती. दरख्वास्तें 'पेपरवेट' से नहीं दबतीं. खैर, आप उस कमरे में बैठे बाबू से मिलिए."
नारद उस बाबू के पास गए. उस ने तीसरे के पास भेजा, तीसरे ने चौथे के पास चौथे ने पांचवे के पास. जब नारद पच्चीस-तीस बाबुओं और अफ़सरों के पास घूम आए तब एक चपरासी ने कहा - "महाराज, आप क्यों इस झंझट में पड़ गए. अगर आप साल भर भी यहाँ चक्कर लगाते रहे, तो भी काम नहीं होगा. आप तो सीधे बड़े साहब से मिलिए. उन्हें खुश कर दिया तो अभी काम हो जाएगा."
नारद बड़े साहब के कमरे में पहुँचे. बाहर चपरासी ऊँघ रहा था. इसलिए उन्हें किसी ने छेड़ा नहीं. बिना 'विजिटिंग कार्ड' के आया देख साहब बड़े नाराज हुए. बोले - "इसे कोई मन्दिर वन्दिर समझ लिया है क्या? धड़धड़ाते चले आए! चिट क्यों नहीं भेजी?"
नारद ने कहा - "कैसे भेजता? चपरासी सो रहा है."
"क्या काम है?" साहब ने रौब से पूछा.
नारद ने भोलाराम का पेंशन केस बतलाया.
साहब बोले- "आप हैं बैरागी. दफ़्तरों के रीति-रिवाज नहीं जानते. असल में भोलाराम ने गलती की. भई, यह भी एक मन्दिर है. यहाँ भी दान पुण्य करना पड़ता है. आप भोलाराम के आत्मीय मालूम होते हैं. भोलाराम की दरख्वास्तें उड़ रही हैं. उन पर वज़न रखिए."
नारद ने सोचा कि फिर यहाँ वज़न की समस्या खड़ी हो गई. साहब बोले - "भई, सरकारी पैसे का मामला है. पेंशन का केस बीसों दफ्तरों में जाता है. देर लग ही जाती है. बीसों बार एक ही बात को बीस जगह लिखना पड़ता है, तब पक्की होती है. जितनी पेंशन मिलती है उतने की स्टेशनरी लग जाती है. हाँ, जल्दी भी हो सकती है मगर..." साहब रुके.
नारद ने कहा - "मगर क्या?"
साहब ने कुटिल मुसकान के साथ कहा, "मगर वज़न चाहिए. आप समझे नहीं. जैसे आपकी यह सुन्दर वीणा है, इसका भी वज़न भोलाराम की दरख्वास्त पर रखा जा सकता है. मेरी लड़की गाना बजाना सीखती है. यह मैं उसे दे दूंगा. साधु-सन्तों की वीणा से तो और अच्छे स्वर निकलते हैं."
नारद अपनी वीणा छिनते देख जरा घबराए. पर फिर संभल कर उन्होंने वीणा टेबिल पर रख कर कहा - "यह लीजिए. अब जरा जल्दी उसकी पेंशन ऑर्डर निकाल दीजिए."
साहब ने प्रसन्न्ता से उन्हें कुर्सी दी, वीणा को एक कोने में रखा और घण्टी बजाई. चपरासी हाजिर हुआ.
साहब ने हुक्म दिया - बड़े बाबू से भोलाराम के केस की फ़ाइल लाओ.
थोड़ी देर बाद चपरासी भोलाराम की सौ-डेढ़-सौ दरख्वास्तों से भरी फ़ाइल ले कर आया. उसमें पेंशन के कागजात भी थे. साहब ने फ़ाइल पर नाम देखा और निश्चित करने के लिए पूछा - "क्या नाम बताया साधु जी आपने?"
नारद समझे कि साहब कुछ ऊँचा सुनता है. इसलिए जोर से बोले - "भोलाराम!"
सहसा फ़ाइल में से आवाज आई - "कौन पुकार रहा है मुझे. पोस्टमैन है? क्या पेंशन का ऑर्डर आ गया?"
नारद चौंके. पर दूसरे ही क्षण बात समझ गए. बोले - "भोलाराम ! तुम क्या भोलाराम के जीव हो?"
"हाँ ! आवाज आई."
नारद ने कहा - "मैं नारद हूँ. तुम्हें लेने आया हूँ. चलो स्वर्ग में तुम्हारा इंतजार हो रहा है."
आवाज आई - "मुझे नहीं जाना. मैं तो पेंशन की दरख्वास्तों पर अटका हूँ. यहीं मेरा मन लगा है. मैं अपनी दरख्वास्तें छोड़कर नहीं जा सकता."

anjaan
14-06-2012, 08:38 PM
क्रांतिकारी की कथा


क्रांतिकारी' उसने उपनाम रखा था। खूब पढ़ा-लिखा युवक। स्वस्थ, सुंदर। नौकरी भी अच्छी। विद्रोही। मार्क्स-लेनिन के उद्धरण देता, चे-ग्वेवारा का खास भक्त।
कॉफी हाउस में काफी देर तक बैठता। खूब बातें करता। हमेशा क्रांतिकारिता के तनाव में रहता। सब उलट-पुलट देना है। सब बदल देना है। बाल बड़े, दाढ़ी करीने से बढ़ाई हुई।
विद्रोह की घोषणा करता। कुछ करने का मौका ढूँढ़ता। कहता, "मेरे पिता की पीढ़ी को जल्दी मरना चाहिए। मेरे पिता घोर दकियानूस, जातिवादी, प्रतिक्रियावादी हैं। ठेठ बुर्जुआ। जब वे मरेंगे तब मैं न मुंडन कराऊँगा, न उनका श्राद्ध करूँगा। मैं सब परंपराओं का नाश कर दूँगा। चे-ग्वेवारा जिंदाबाद।"
कोई साथी कहता, "पर तुम्हारे पिता तुम्हें बहुत प्यार करते हैं।"
क्रांतिकारी कहता, "प्यार? हाँ, हर बुर्जुआ क्रांतिकारिता को मारने के लिए प्यार करता है। यह प्यार षड्यंत्र है। तुम लोग नहीं समझते। इस समय मेरा बाप किसी ब्राह्मण की तलाश में है जिससे बीस-पच्चीस हजार रुपए ले कर उसकी लड़की से मेरी शादी कर देगा। पर मैं नहीं होने दूँगा। मैं जाति में शादी करूँगा ही नहीं। मैं दूसरी जाति की, किसी नीच जाति की लड़की से शादी करूँगा। मेरा बाप सिर धुनता बैठा रहेगा।"
साथी ने कहा, "अगर तुम्हारा प्यार किसी लड़की से हो जाए और संयोग से वह ब्राह्मण हो तो तुम शादी करोगे न?"
उसने कहा, "हरगिज नहीं। मैं उसे छोड़ दूँगा। कोई क्रांतिकारी अपनी जाति की लड़की से न प्यार करता है, न शादी। मेरा प्यार है एक कायस्थ लड़की से। मैं उससे शादी करूँगा।"
एक दिन उसने कायस्थ लड़की से कोर्ट में शादी कर ली। उसे ले कर अपने शहर आया और दोस्त के घर पर ठहर गया। बड़े शहीदाना मूड में था। कह रहा था, "आई ब्रोक देअर नेक। मेरा बाप इस समय सिर धुन रहा होगा, माँ रो रही होगी। मुहल्ले-पड़ोस के लोगों को इकट्ठा करके मेरा बाप कह रहा होगा, 'हमारे लिए लड़का मर चुका।' वह मुझे त्याग देगा। मुझे प्रापर्टी से वंचित कर देगा। आई डोंट केअर। मैं कोई भी बलिदान करने को तैयार हूँ। वह घर मेरे लिए दुश्मन का घर हो गया। बट आई विल फाइट टू दी एंड-टू दी एंड।"
वह बरामदे में तना हुआ घूमता। फिर बैठ जाता, कहता, "बस संघर्ष आ ही रहा है।"
उसका एक दोस्त आया। बोला, "तुम्हारे फादर कह रहे थे कि तुम पत्नी को ले कर सीधे घर क्यों नहीं आए। वे तो काफी शांत थे। कह रहे थे, लड़के और बहू को घर ले आओ।"
वह उत्तेजित हो गया, "हूँ, बुर्जुआ हिपोक्रेसी। यह एक षड्यंत्र है। वे मुझे घर बुला कर फिर अपमान करके, हल्ला करके निकालेंगे। उन्होंने मुझे त्याग दिया है तो मैं क्यों समझौता करूँ। मैं दो कमरे किराए पर ले कर रहूँगा।"
दोस्त ने कहा, "पर तुम्हें त्यागा कहाँ है?"
उसने कहा, "मैं सब जानता हूँ - आई विल फाइट।"

दोस्त ने कहा, "जब लड़ाई है ही नहीं तो फाइट क्या करोगे?"
क्रांतिकारी कल्पनाओं में था। हथियार पैने कर रहा था। बारूद सुखा रहा था। क्रांति का निर्णायक क्षण आनेवाला है। मैं वीरता से लड़ूँगा। बलिदान हो जाऊँगा।
तीसरे दिन उसका एक खास दोस्त आया। उसने कहा, "तुम्हारे माता-पिता टैक्सी ले कर तुम्हें लेने आ रहे हैं। इतवार को तुम्हारी शादी के उपलक्ष्य में भोज है। यह निमंत्रण-पत्र बाँटा जा रहा है।"
क्रांतिकारी ने सर ठोंक लिया। पसीना बहने लगा। पीला हो गया। बोला, "हाय, सब खत्म हो गया। जिंदगी भर की संघर्ष-साधना खत्म हो गई। नो स्ट्रगल। नो रेवोल्यूशन। मैं हार गया। वे मुझे लेने आ रहे है। मैं लड़ना चाहता था। मेरी क्रांतिकारिता! मेरी क्रांतिकारिता! देवी, तू मेरे बाप से मेरा तिरस्कार करवा। चे-ग्वेवारा! डियर चे!"
उसकी पत्नी चतुर थी। वह दो-तीन दिनों से क्रांतिकारिता देख रही थी और हँस रही थी। उसने कहा, "डियर एक बात कहूँ। तुम क्रांतिकारी नहीं हो।"
उसने पूछा, "नहीं हूँ। फिर क्या हूँ?"
पत्नी ने कहा, "तुम एक बुर्जुआ बौड़म हो। पर मैं तुम्हें प्यार करती हूँ।"

anjaan
14-06-2012, 08:39 PM
मुंडन


किसी देश की संसद में एक दिन बड़ी हलचल मची। हलचल का कारण कोई राजनीतिक समस्या नहीं थी, बल्कि यह था कि एक मंत्री का अचानक मुंडन हो गया था। कल तक उनके सिर पर लंबे घुँघराले बाल थे, मगर रात में उनका अचानक मुंडन हो गया था।
सदस्यों में कानाफूसी हो रही थी कि इन्हें क्या हो गया है। अटकलें लगने लगीं। किसी ने कहा - शायद सिर में जूँ हो गई हों। दूसरे ने कहा - शायद दिमाग में विचार भरने के लिए बालों का पर्दा अलग कर दिया हो। किसी और ने कहा - शायद इनके परिवार में किसी की मौत हो गई। पर वे पहले की तरह प्रसन्न लग रहे थे।
आखिर एक सदस्य ने पूछा - अध्यक्ष महोदय! क्या मैं जान सकता हूँ कि माननीय मंत्री महोदय के परिवार में क्या किसी की मृत्यु हो गई है?
मंत्री ने जवाब दिया - नहीं।
सदस्यों ने अटकल लगाई कि कहीं उन लोगों ने ही तो मंत्री का मुंडन नहीं कर दिया, जिनके खिलाफ वे बिल पेश करने का इरादा कर रहे थे।
एक सदस्य ने पूछा - अध्यक्ष महोदय! क्या माननीय मंत्री को मालूम है कि उनका मुंडन हो गया है? यदि हाँ, तो क्या वे बताएँगे कि उनका मुंडन किसने कर दिया है?
मंत्री ने संजीदगी से जवाब दिया - मैं नहीं कह सकता कि मेरा मुंडन हुआ है या नहीं!
कई सदस्य चिल्लाए - हुआ है! सबको दिख रहा है।
मंत्री ने कहा - सबको दिखने से कुछ नहीं होता। सरकार को दिखना चाहिए। सरकार इस बात की जाँच करेगी कि मेरा मुंडन हुआ है या नहीं।
एक सदस्य ने कहा - इसकी जाँच अभी हो सकती है। मंत्री महोदय अपना हाथ सिर पर फेरकर देख लें।
मंत्री ने जवाब दिया - मैं अपना हाथ सिर पर फेरकर हर्गिज नहीं देखूँगा। सरकार इस मामले में जल्दबाजी नहीं करती। मगर मैं वायदा करता हूँ कि मेरी सरकार इस बात की विस्तृत जाँच करवाकर सारे तथ्य सदन के सामने पेश करेगी।
सदस्य चिल्लाए - इसकी जाँच की क्या जरूरत है? सिर आपका है और हाथ भी आपके हैं। अपने ही हाथ को सिर पर फेरने में मंत्री महोदय को क्या आपत्ति है?
मंत्री बोले - मैं सदस्यों से सहमत हूँ कि सिर मेरा है और हाथ भी मेरे हैं। मगर हमारे हाथ परंपराओं और नीतियों से बँधे हैं। मैं अपने सिर पर हाथ फेरने के लिए स्वतंत्र नहीं हूँ। सरकार की एक नियमित कार्यप्रणाली होती है। विरोधी सदस्यों के दबाव में आकर मैं उस प्रणाली को भंग नहीं कर सकता। मैं सदन में इस संबंध में एक वक्तव्य दूँगा।
शाम को मंत्री महोदय ने सदन में वक्तव्य दिया - अध्यक्ष महोदय! सदन में ये प्रश्न उठाया गया कि मेरा मुंडन हुआ है या नहीं? यदि हुआ है तो किसने किया है? ये प्रश्न बहुत जटिल हैं। और इस पर सरकार जल्दबाजी में कोई निर्णय नहीं दे सकती। मैं नहीं कह सकता कि मेरा मुंडन हुआ है या नहीं। जब तक जाँच पूरी न हो जाए, सरकार इस संबंध में कुछ नहीं कह सकती। हमारी सरकार तीन व्यक्तियों की एक जाँच समिति नियुक्त करती है, जो इस बात की जाँच करेगी। जाँच समिति की रिपोर्ट मैं सदन में पेश करूँगा।
सदस्यों ने कहा - यह मामला कुतुब मीनार का नहीं जो सदियों जाँच के लिए खड़ी रहेगी। यह आपके बालों का मामला है, जो बढ़ते और कटने रहते हैं। इसका निर्णय तुरंत होना चाहिए।
मंत्री ने जवाब दिया - कुतुब मीनार से हमारे बालों की तुलना करके उनका अपमान करने का अधिकार सदस्यों को नहीं है। जहाँ तक मूल समस्या का संबंध है, सरकार जाँच के पहले कुछ नहीं कह सकती।
जाँच समिति सालों जाँच करती रही। इधर मंत्री के सिर पर बाल बढ़ते रहे।
एक दिन मंत्री ने जाँच समिति की रिपोर्ट सदन के सामने रख दी।
जाँच समिति का निर्णय था कि मंत्री का मुंडन नहीं हुआ था।
सत्ताधारी दल के सदस्यों ने इसका स्वागत हर्ष-ध्वनि से किया।
सदन के दूसरे भाग से 'शर्म-शर्म' की आवाजें उठीं। एतराज उठे - यह एकदम झूठ है। मंत्री का मुंडन हुआ था।
मंत्री मुस्कुराते हुए उठे और बोले - यह आपका ख्याल हो सकता है। मगर प्रमाण तो चाहिए। आज भी अगर आप प्रमाण दे दें तो मैं आपकी बात मान लेता हूँ।
ऐसा कहकर उन्होंने अपने घुँघराले बालों पर हाथ फेरा और सदन दूसरे मसले सुलझाने में व्यस्त हो गया।

anjaan
14-06-2012, 08:39 PM
किस भारत भाग्य विधाता को पुकारें



मेरे एक मुलाकाती हैं। वे कान्यकुब्ज हैं। एक दिन वे चिंता से बोले - अब हम कान्यकुब्जों का क्या होगा? मैंने कहा - आप लोगों को क्या डर है? आप लोग जगह-जगह पर नौकरी कर रहे हैं। राजनीति में ऊँचे पदों पर हैं। द्वारिका प्रसाद मिश्र, श्यामाचरण शुक्ल, विद्याचरण शुक्ल, जगन्नाथ मिश्र, राजेंद्र कुमारी बाजपेयी, नारायणदत्त तिवारी ये सब नेता कान्यकुब्ज हैं। लोग कहते हैं, इस देश में दो विचारधारा प्रबल हैं - कान्यकुब्जवाद और कायस्थवाद। मुझे तब पता चला कि जयप्रकाश नारायण कायस्थ हैं, जब उत्तर प्रदेश कायस्थ सभा ने उनका सम्मान करने की घोषणा की। वे कायस्थ कुल भूषण घोषित होने वाले थे। ऐसे ही कोई कान्यकुब्ज शिरोमणि हो जायगा। आप ही हो जाइए। उन्होंने कहा - आप नहीं समझे। हमारी हालत फिलिस्तीनियों जैसी है। हमारी भूमि उत्तरप्रदेश में कान्यकुब्ज छूट गई है। हम लोग दूसरों के राज्यों में रह रहे हैं। सिख पंजाब चाहते हैं, कश्मीरी कश्मीर चाहते हैं, नेपाली गोरखालैंड चाहते हैं। हमारा कोई राज्य कोई देश नहीं है। हमारे राज्य पर ठाकुर, यादव कब्जा किए हैं। अगर राज्यों में 'कान्यकुब्ज, वापस जाओ' आंदोलन हुआ तो हम कहाँ जाएँगे? यह राज्य हमारा नहीं, देश हमारा नहीं। आगे चलकर पंजाब या असम जाने के लिए पासपोर्ट लेना होगा। हो सकता है, हमारे ही घर उत्तर प्रदेश जाने के लिए पासपोर्ट लेना पड़े। मध्य प्रदेश समुद्र के किनारे भी नहीं है कि कहीं भाग जाएँ। मैंने कहा - पर मध्य प्रदेश से आपको भगा कौन रहा है? वे बोले-कोई भी भगा सकता है। हम नर्मदा के किनारे हैं, तो नार्मदीय लोग भगा देंगे। यहाँ से छत्तीसगढ़ तबादला हो जाय, तो वहाँ छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा अलग राज्य का आंदोलन कर ही रहा है। वहाँ से भगा दिए जाएँगे। मैंने कहा - उन्नाव के आसपास का छोटा-सा इलाका कान्यकुब्ज है। यहीं के राजा जयचंद थे। उन्होंने पृथ्वीराज को खत्म करने के लिए मुहम्मद गोरी को बुलाया था। जब गोरी पृथ्वीराज को ले गया, तब जयचंद ने उत्सव मनाने को कहा। तब मंत्री ने कहा - महाराज, यह दिन उत्सव मनाने का नहीं, दुख का है। पृथ्वीराज के बाद आपकी बारी है। ऐसे बदनाम क्षेत्र में क्यों लौट कर जाते हैं? उनका तर्क था - बदनाम कौन क्षेत्र नहीं है? बंगाल में भी तो मीर जाफर ऐसा ही हो गया है। पर ज्योति बसु को शर्म नहीं आती। वे तो आमार सोनार बांगला - गाते हैं। मैंने कहा - यह जो आपका संप्रभुता-संपन्न कान्यकुब्ज राज्य बनेगा, उसके अस्तित्व के साधन क्या होंगे? मेरा मतलब है, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर कैसे होगा? उन्होंने कहा - हर टूटने वाले को जो मदद करते हैं, वही हमें करेंगे। बाल्टिक देशों को सोवियत संघ से टूटने के बाद कौन मदद करते हैं? क्रोशिया दो जिलों के बराबर है। वह किनके दम पर पृथक होना चाहता है? आप देखेंगे, हमारे राज्य को ये सहायता देंगे - अमेरिका, विश्ववैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोश, एड कान्यकुब्ज क्लब, एड कान्यकुब्ज कन्सोर्टियम! समझे आप? हम अनाथ नहीं हैं। हम तीव्र आंदोलन शुरू करने वाले हैं - मगर गांधी जी के तरीके से। आप अपनी कहिए। आपका कौन राज्य होगा? कहाँ के हैं और कौन जाति के हैं? मैंने कहा - हमारे लोग कड़ा-मानिकपुरी के जिझौतिया ब्राह्मण कहलाते हैं। वे तपाक से बोले - बस तो अपने लिए कड़ा-मानिकपुर इलाके की माँग कीजिए, बुंदेलेवीर दान आ जाएँ। मैंने कहा - पर एक बात है। मेरा एक भानजा बंगाली कायस्थ लड़की से ब्याहा है और भानजी क्षत्रिय से। वे बोले - यानी वर्णसंकर? मैंने कहा - आगे तो सुनिए, हम अंतरराष्ट्रीय ब्राह्मण हैं। हमारी जाति में अंतरजातीय ही नहीं अंतरमहाद्वीपीय शादी हो चुकी है। उन्नीसवीं सदी के अंत में हमारी जाति की गंगाबाई ने एक अंगरेज अफसर से शादी की थी। एक तरह से हम एंग्लो-इंडियन ब्राह्मण हैं। उन्होंने कहा - तब तो आपका केस होपलेस है। अधिक-से-अधिक आपको आरक्षण की सुविधा मिल सकती है। विश्वनाथ प्रताप सिंह से बात कीजिए। वे आपको ओ.वी.सी. की सूची में शामिल करा देंगे। मैंने कहा - नहीं, हम अंतरमहाद्वीपीय जाति के हैं। हमारा दावा भारत में कड़ा-मानिकपुर में और इंग्लैण्ड में एक हिस्से पर बनता है। हम कड़ा-मानिकपुर पर भारत में और केंटरवरी पर इंग्लैंड में दावा करेंगे। अगर आप तैयार हों तो हम लोग अपनी माँग संयुक्त राष्ट्र संघ में उठाएँ। इस समय जार्ज बुश अलग होने वालों पर विशेष कृपालु हैं। वे हमें हमारा 'होमलैंड' दिलाएँगे। उन्होंने कहा-यह तो करना ही चाहिए। साथ ही हमें आतंकवादी कार्यवाही भी करनी चाहिए। ब्राह्मणों को इस समय परशुराम की जरूरत है। परशुराम ने कहा था -
भुजबल भूमि भूप बिन कीन्हीं सहस बार महि देवन्ह दीन्हीं, विप्रदेवता मुझे क्षमा करें। ऊपर की बातचीत बिलकुल काल्पनिक है। देश में पनप रही अलगाव की प्रवृत्ति की परिणति क्या हो सकती है, यह अंदाज कराने के लिए मैंने दो विप्रों की काल्पनिक बातचीत दी है। रवींद्रनाथ ठाकुर ने लिखा है - भारत मानव महासागर है। यहाँ आर्य द्रविड़, शक, डूण, मुसलमान, ईसाई सब समा गए हैं। हम लहरों की तरह एक दूसरे से टकराते भी हैं और फिर मिलकर एकाकार हो जाते हैं। कवि क्षमा करें। हो यह गया है कि महासागर नहीं है, संकीर्ण नदियाँ और नाले हैं। अगर महासागर है भी तो एक लहर दूसरी से टकराकर दोनों अपने को महासागर समझने लगती हैं। हर लहर महासागर से अलग होकर अलग बहना चाहती है, चाहे वह नाली ही क्यों हो जाय। नाला हो, डबरा हो, गंदा हो, गर्मी में सूख जाता हो - पर उसकी अलग पहचान है, वह दूसरों से स्वतंत्र और विशिष्ट है, मटमैला पानी है, पर अपना तो है, अपने केकड़े महासागर के मगर से अच्छे हैं। जंगली घास किनारों पर हो, पर है तो अपनी फसल, अपनी डोंगी जहाज से अच्छी है। अलगाव और लघुता में गर्व देश-भर में दिख रहा है। दूसरे महायुद्ध के बाद साहित्य में 'लघु मानव' आया था। यह हीन भावना से पैदा हुआ था। हाथी अपने को केंचुआ मानने में गर्व करने लगा था कम-से-कम साहित्य में तो महामानव भी अपने को लघु मानव बनाने की कोशिश में लगे थे। अब विराटता में असुरक्षा लगने लगी है, और संकीर्ण हो जाने में सुरक्षा गर्व और संपन्नता का अनुभव होने लगा है। नस्ल, भाषा, धर्म, संस्कृति की भिन्नता समझ में आती है। एक ही नस्ल, भाषा धर्म और संस्कृति के लोगों की निकटता का अनुभव भी स्वाभाविक है। इतनी सदियों में विशिष्टता रखते हुए एक हो जाना था। स्वाधीनता संग्राम के कई वर्षों में विशिष्टों की यह एकता थी। सिर्फ मुस्लिम लीग ने अलगाव की माँग की थी। पर स्वाधीन देश में अलगाव बढ़ता गया। अब यह हाल है कि पंजाब, कश्मीर, असम में पृथकता के आंदोलन। झारखंड और छत्तीसगढ़ की पृथक राज्य की माँग। उत्तराखंड अलग चाहिए तमिलनाडु में लिट्टे का बढ़ता प्रभाव। इनकी सेनाएँ -पंजाब में, कश्मीर में, असम में बाकायदा प्रशिक्षित आतंकवादी सेनाएँ। इन सेनाओं का दायरा अखिल भारतीय हो रहा है। उधर धनी किसानों, पूर्व जमींदारों की बिहार में सेनाएँ - सनलाइट सेना, सवर्णरक्षक सेना। एक बात गौरतलब है कि कुछ पिछड़े इलाके के लोग, जो मुख्यत: एक ही नस्ल के हैं, यह शिकायत है कि हमारी उपेक्षा हुई है, हमारा विकास नहीं किया गया। हम अलग राज्य बनाकर अपना विकास करेंगे। हमारी प्राकृतिक संपदा का दोहन करके बाहरवाले ले जाते हैं, और हमारा शोषण होता है। यह सोच इसलिए आई कि विकास का ठीक बँटवारा नहीं हुआ। पर जिस क्षेत्र में कोई प्राकृतिक संपदा नहीं है, वह क्षेत्र यदि इसी आधार पर पृथक होना चाहे कि हम एक ही नस्ल और जीवन-पद्धति के हैं और सभ्यता के एक ही स्तर पर हैं, तो इसका यही भावात्मक अर्थ है - जिएँगे साथ, मरेंगे साथ! पृथकतावाद तब और खतरनाक होता है, जब शिवसेना-प्रधान बाल ठाकरे नारा देते हैं - मुंबई मराठी भाषियों की। सुंदर मुंबई, मराठी मुबंई। लोकप्रिय भावना है -'भूमिपुत्र' (सन आफ दी सायल) व्यवहार में इसका अर्थ है - इस भूमि के वासी ही इसके मालिक हैं, और वही इसके साधनों का उपयोग करेंगे। असम के भूमिपुत्र असमी। तो असम का तेल असमियों का, नौकरियाँ असमियों को, व्यापार असमियों का। अब अगर बनारस में ऊँचे पद पर के असमी से कहा - जाय - असम के भूमिपुत्र तुम असम जाओ। तब क्या होगा? महाराष्ट्र के बाहर सारे देश में इतने मराठी-भाषी ऊँचे और नीचे पदों पर हैं, व्यापारी हैं, वैज्ञानिक हैं। इन्हें बाल ठाकुर क्या मुंबई में बुलाकर बसा लेंगे? क्या काम लेंगे? समुद्र से पानी उलीचने और फिर उसी में डालने का काम? संघ राज्य की एकता यह है कि असमी बंबई में हो, मराठा असम में हो। तमिल उत्तरप्रदेश में हो, उत्तरप्रदेशी तमिल में हो, सबके हित परस्पर मिले हों, एक-दूसरे पर निर्भर हों। यह कैसी बात है, 'शेरे पंजाब होटल' जो लोग सारे भारत में ही नहीं, ब्रिटेन, कनाडा, अमेरिका में भी खोलते हों, वे इतने संकीर्ण हो जाएँ कि देश के एक भूखंड को सिर्फ अपना मानें ? मेरा मतलब यह नहीं है कि सब ऐसा चाहते हैं। विघटन अलगाववाद बढ़ रहा है। अपने-अपने रक्षित क्षेत्र (सेंक्चुअरी) में रहने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। रवींद्रनाथ ने 'जनगणमन' की एकता की बात की है। जनगण की भावना ही घट रही है। संघ भावना (फेडरल स्पिरिट) कम होती जा रही है। जनगण एक दूसरे से भिड़ रहे हैं। सब टूट रहा है। किस भारत भाग्य विधाता को पुकारें?

anjaan
14-06-2012, 08:40 PM
यस सर


एक काफी अच्छे लेखक थे। वे राजधानी गए। एक समारोह में उनकी मुख्यमंत्री से भेंट हो गई। मुख्यमंत्री से उनका परिचय पहले से था। मुख्यमंत्री ने उनसे कहा - आप मजे में तो हैं। कोई कष्ट तो नहीं है? लेखक ने कह दिया - कष्ट बहुत मामूली है। मकान का कष्ट। अच्छा सा मकान मिल जाए, तो कुछ ढंग से लिखना-पढ़ना हो। मुख्यमंत्री ने कहा - मैं चीफ सेक्रेटरी से कह देता हूँ। मकान आपका 'एलाट' हो जाएगा।
मुख्यमंत्री ने चीफ सेक्रेटरी से कह दिया कि अमुक लेखक को मकान 'एलाट' करा दो।
चीफ सेक्रेटरी ने कहा - यस सर।
चीफ सेक्रेटरी ने कमिश्नर से कह दिया। कमिश्नर ने कहा - यस सर।
कमिश्नर ने कलेक्टर से कहा - अमुक लेखक को मकान 'एलाट' कर दो। कलेक्टर ने कहा - यस सर।
कलेक्टर ने रेंट कंट्रोलर से कह दिया। उसने कहा - यस सर।
रेंट कंट्रोलर ने रेंट इंस्पेक्टर से कह दिया। उसने भी कहा - यस सर।
सब बाजाब्ता हुआ। पूरा प्रशासन मकान देने के काम में लग गया। साल डेढ़ साल बाद फिर मुख्यमंत्री से लेखक की भेंट हो गई। मुख्यमंत्री को याद आया कि इनका कोई काम होना था। मकान 'एलाट' होना था।
उन्होंने पूछा - कहिए, अब तो अच्छा मकान मिल गया होगा?
लेखक ने कहा - नहीं मिला।
मुख्यमंत्री ने कहा - अरे, मैंने तो दूसरे ही दिन कह दिया था।
लेखक ने कहा - जी हाँ, ऊपर से नीचे तक 'यस सर' हो गया।

anjaan
14-06-2012, 08:40 PM
खेती


सरकार ने घोषणा की कि हम अधिक अन्न पैदा करेंगे और एक साल में खाद्य में आत्मनिर्भर हो जाएँगे।
दूसरे दिन कागज के कारखानों को दस लाख एकड़ कागज का आर्डर दे दिया गया। जब कागज आ गया, तो उसकी फाइलें बना दी गईं। प्रधानमंत्री के सचिवालय से फाइल खाद्य विभाग को भेजी गई। खाद्य विभाग ने उस पर लिख दिया कि इस फाइल से कितना अनाज पैदा होना है और अर्थ विभाग को भेज दिया।
अर्थ विभाग में फाइल के साथ नोट नत्थी किए गए और उसे कृषि विभाग भेज दिया गया। कृषि विभाग में उसमें बीज और खाद डाल दिए गए और उसे बिजली विभाग को भेज दिया। बिजली विभाग ने उसमें बिजली लगाई और उसे सिंचाई विभाग को भेज दिया गया।
अब यह फाइल गृह विभाग को भेज दी गई। गृह विभाग विभाग ने उसे एक सिपाही को सौंपा और पुलिस की निगरानी में वह फाइल राजधानी से लेकर तहसील तक के दफ्तरों में ले जाई गई। हर दफ्तर में फाइल की आरती करके उसे दूसरे दफ्तर में भेज दिया जाता।
जब फाइल सब दफ्तर घूम चुकी तब उसे पकी जानकर फूड कार्पोरेशन के दफ्तर में भेज दिया गया और उस पर लिख दिया गया कि इसकी फसल काट ली जाए। इस तरह दस लाख एकड़ कागज की फाइलों की फसल पककर फूड कार्पोरेशन के पास पहुँच गई।
एक दिन एक किसान सरकार से मिला और उसने कहा - 'हुजूर हम किसानों को आप जमीन, पानी और बीज दिला दीजिए और अपने अफसरों से हमारी रक्षा कीजिए, तो हम देश के लिए पूरा अनाज पैदा कर देंगे।'
सरकारी प्रवक्ता ने जवाब दिया - 'अन्न की पैदावार के लिए किसान की अब जरूरत नहीं है। हम दस लाख एकड़ कागज पर अन्न पैदा कर रहे हैं।'
कुछ दिनों बाद सरकार ने बयान दिया - 'इस साल तो संभव नहीं हो सका, पर आगामी साल हम जरूर खाद्य में आत्मनिर्भर हो जाएँगे।' और उसी दिन बीस लाख एकड़ कागज का ऑर्डर और दे दिया गया।

anjaan
14-06-2012, 08:41 PM
वैष्णव की फिसलन


वैष्णव करोड़पति है। भगवान विष्णु का मंदिर। जायदाद लगी है। भगवान सूदखोरी करते हैं। ब्याज से कर्ज देते हैं। वैष्णव दो घंटे भगवान विष्णु की पूजा करते हैं, फिर गादी-तकिएवाली बैठक में आकर धर्म को धंधे से जोड़ते हैं। धर्म धंधे से जुड़ जाए, इसी को ‘योग’ कहते हैं। कर्ज लेने वाले आते हैं। विष्णु भगवान के वे मुनीम हो जाते हैं । कर्ज लेने वाले से दस्तावेज लिखवाते हैं -
‘दस्तावेज लिख दी रामलाल वल्द श्यामलाल ने भगवान विष्णु वल्द नामालूम को ऐसा जो कि...
वैष्णव बहुत दिनों से विष्णु के पिता के नाम की तलाश में है, पर वह मिल नहीं रहा। मिल जाय तो वल्दियत ठीक हो जाय।
वैष्णव के पास नंबर दो का बहुत पैसा हो गया है । कई एजेंसियाँ ले रखी हैं। स्टाकिस्ट हैं। जब चाहे माल दबाकर ‘ब्लैक’ करने लगते हैं। मगर दो घंटे विष्णु-पूजा में कभी नागा नहीं करते। सब प्रभु की कृपा से हो रहा है। उनके प्रभु भी शायद दो नंबरी हैं। एक नंबरी होते, तो ऐसा नहीं करने देते।
वैष्णव सोचता है - अपार नंबर दो का पैसा इकठ्ठा हो गया है। इसका क्या किया जाय? बढ़ता ही जाता है। प्रभु की लीला है। वही आदेश देंगे कि क्या किया जाय।
वैष्णव एक दिन प्रभु की पूजा के बाद हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगा - प्रभु, आपके ही आशीर्वाद से मेरे पास इतना सारा दो नंबर का धन इकठ्ठा हो गया है। अब मैं इसका क्या करूँ? आप ही रास्ता बताइए। मैं इसका क्या करूँ? प्रभु, कष्ट हरो सबका!
तभी वैष्णव की शुद्ध आत्मा से आवाज उठी - अधम, माया जोड़ी है, तो माया का उपयोग भी सीख। तू एक बड़ा होटल खोल। आजकल होटल बहुत चल रहे हैं।
वैष्णव ने प्रभु का आदेश मानकर एक विशाल होटल बनवाई। बहुत अच्छे कमरे। खूबसूरत बाथरूम। नीचे लॉन्ड्री। नाई की दुकान। टैक्सियाँ। बाहर बढ़िया लान। ऊपर टेरेस गार्डेन।
और वैष्णव ने खूब विज्ञापन करवाया।
कमरे का किराया तीस रुपए रखा।
फिर वैष्णव के सामने धर्म-संकट आया। भोजन कैसा होगा? उसने सलाहकारों से कहा - मैं वैष्णव हूँ। शुद्ध शाकाहारी भोजन कराऊँगा। शुद्ध घी की सब्जी, फल, दाल, रायता, पापड़ वगैरह।
बड़े होटल का नाम सुनकर बड़े लोग आने लगे। बड़ी-बड़ी कंपनियों के एक्जीक्यूटिव, बड़े अफसर और बड़े सेठ।
वैष्णव संतुष्ट हुआ।
पर फिर वैष्णव ने देखा कि होटल में ठहरने वाले कुछ असंतुष्ट हैं।
एक दिन कंपनी का एक एक्जीक्यूटिव बड़े तैश में वैष्णव के पास आया। कहने लगा - इतने महँगे होटल में हम क्या यह घास-पत्ती खाने के लिए ठहरते हैं? यहाँ ‘नानवेज’ का इंतजाम क्यों नहीं है?
वैष्णव ने जवाब दिया - मैं तो वैष्णव हूँ। मैं गोश्त का इंतजाम अपने होटल में कैसे कर सकता हूँ ?
उस आदमी ने कहा - वैष्णव हो, तो ढाबा खोलो। आधुनिक होटल क्यों खोलते हो? तुम्हारे यहाँ आगे कोई नहीं ठहरेगा|
वैष्णव ने कहा - यह धर्म-संकट की बात है। मैं प्रभु से पूछूँगा।
उस आदमी ने कहा - हम भी बिजनेस में हैं। हम कोई धर्मात्मा नहीं हैं - न आप, न मैं।
वैष्णव ने कहा - पर मुझे तो यह सब प्रभु विष्णु ने दिया है। मैं वैष्णव धर्म के प्रतिकूल कैसे जा सकता हूँ? मैं प्रभु के सामने नतमस्तक होकर उनका आदेश लूँगा।
दूसरे दिन वैष्णव साष्टांग विष्णु के सामने लेट गया। कहने लगा - प्रभु, यह होटल बैठ जाएगा। ठहरनेवाले कहते हैं कि हमें वहाँ बहुत तकलीफ होती है। मैंने तो प्रभु, वैष्णव भोजन का प्रबंध किया है। पर वे मांस माँगते हैं। अब मैं क्या करूँ?
वैष्णव की शुद्ध आत्मा से आवाज आई - मूर्ख, गांधीजी से बड़ा वैष्णव इस युग में कौन हुआ है? गाँधी का भजन है - ‘वैष्णव जन तो तेणे कहिये, जे पीर पराई जाणे रे।’ तू इन होटलों में रहनेवालों की पीर क्यों नहीं जानता? उन्हें इच्छानुसार खाना नहीं मिलता। इनकी पीर तू समझ और उस पीर को दूर कर।
वैष्णव समझ गया।
उसने जल्दी ही गोश्त, मुर्गा, मछली का इंतजाम करवा दिया।
होटल के ग्राहक बढ़ने लगे।
मगर एक दिन फिर वही एक्जीक्यूटिव आया।
कहने लगा - हाँ, अब ठीक है। मांसाहार अच्छा मिलने लगा। पर एक बात है।
वैष्णव ने पूछा - क्या?
उसने जवाब दिया - गोश्त के पचने की दवाई भी तो चाहिए ।
वैष्णव ने कहा - लवण भास्कर चूर्ण का इंतजाम करवा दूँ?
एक्जीक्यूटिव ने माथा ठोंका।
कहने लगा - आप कुछ नहीं समझते। मेरा मतलब है - शराब। यहाँ बार खोलिए।
वैष्णव सन्न रह गया। शराब यहाँ कैसे पी जाएगी? मैं प्रभु के चरणामृत का प्रबंध तो कर सकता हूँ। पर मदिरा! हे राम!
दूसरे दिन वैष्णव ने फिर प्रभु से कहा - प्रभु, वे लोग मदिरा माँगते हैं| मैं आपका भक्त, मदिरा कैसे पिला सकता हूँ?
वैष्णव की पवित्र आत्मा से आवाज आई - मूर्ख, तू क्या होटल बैठाना चाहता है? देवता सोमरस पीते थे। वही सोमरस यह मदिरा है। इसमें तेरा वैष्णव-धर्म कहाँ भंग होता है। सामवेद में तिरसठ श्लोक सोमरस अर्थात मदिरा की स्तुति में हैं। तुझे धर्म की समझ है या नहीं?
वैष्णव समझ गया।
उसने होटल में ‘बार’ खोल दिया।
अब होटल ठाठ से चलने लगा। वैष्णव खुश था।
फिर एक दिन एक आदमी आया। कहने लगा - अब होटल ठीक है। शराब भी है। गोश्त भी है। मगर मारा हुआ गोश्त है। हमें जिंदा गोश्त भी चाहिए।
वैष्णव ने पूछा - यह जिंदा गोश्त कैसा होता है?
उसने कहा - कैबरे, जिसमें औरतें नंगी होकर नाचती हैं।
वैष्णव ने कहा - अरे बाप रे!
उस आदमी ने कहा - इसमें ‘अरे बाप रे’ की कोई बात नहीं। सब बड़े होटलों में चलता है। यह शुरू कर दो तो कमरों का किराया बढ़ा सकते हो।
वैष्णव ने कहा - मैं कट्टर वैष्णव हूँ। मैं प्रभु से पूछूँगा।
दूसरे दिन फिर वैष्णव प्रभु के चरणों में था। कहने लगा - प्रभु, वे लोग कहते हैं कि होटल में नाच भी होना चाहिए। आधा नंगा या पूरा नंगा।
वैष्णव की शुद्ध आत्मा से आवाज आई - मूर्ख, कृष्णावतार में मैंने गोपियों को नचाया था। चीर-हरण तक किया था। तुझे क्या संकोच है?
प्रभु की आज्ञा से वैष्णव ने ‘कैबरे’ भी चालू कर दिया।
अब कमरे भरे रहते थे - शराब, गोश्त और कैबरे।
वैष्णव बहुत खुश था। प्रभु की कृपा से होटल भरा रहता था।
कुछ दिनों बाद एक ग्राहक ने बेयरे से कहा - इधर कुछ और भी मिलता है?
बेयरे ने पूछा - और क्या साब?
ग्राहक ने कहा - अरे यही मन बहलाने को कुछ? कोई ऊँचे किस्म का माल मिले तो लाओ।
बेयरा ने कहा - नहीं साब, इस होटल में यह नहीं चलता।
ग्राहक वैष्णव के पास गया। बोला - इस होटल में कौन ठहरेगा? इधर रात को मन बहलाने का कोई इंतजाम नहीं है।
वैष्णव ने कहा - कैबरे तो है, साहब।
ग्राहक ने कहा - कैबरे तो दूर का होता है। बिलकुल पास का चाहिए, गर्म माल, कमरे में।
वैष्णव फिर धर्म-संकट में पड़ गया।
दूसरे दिन वैष्णव फिर प्रभु की सेवा में गया। प्रार्थना की - कृपानिधान! ग्राहक लोग नारी माँगते हैं - पाप की खान। मैं तो इस पाप की खान से जहाँ तक बनता है, दूर रहता हूँ। अब मैं क्या करूँ?
वैष्णव की शुद्ध आत्मा से आवाज आई - मूर्ख, यह तो प्रकृति और पुरुष का संयोग है। इसमें क्या पाप और क्या पुण्य? चलने दे।
वैष्णव ने बेयरों से कहा - चुपचाप इंतजाम कर दिया करो। जरा पुलिस से बचकर, पच्चीस फीसदी भगवान की भेंट ले लिया करो।
अब वैष्णव का होटल खूब चलने लगा।
शराब, गोश्त, कैबरे और औरत।
वैष्णव धर्म बराबर निभ रहा है।
इधर यह भी चल रहा है।
वैष्णव ने धर्म को धंधे से खूब जोड़ा है।

anjaan
14-06-2012, 08:42 PM
वह जो आदमी है न



निंदा में विटामिन और प्रोटीन होते हैं। निंदा खून साफ करती है, पाचन-क्रिया ठीक करती है, बल और स्फूर्ति देती है। निंदा से मांसपेशियाँ पुष्ट होती हैं। निंदा पायरिया का तो शर्तिया इलाज है। संतों को परनिंदा की मनाही होती है, इसलिए वे स्वनिंदा करके स्वास्थ्य अच्छा रखते हैं। ‘मौसम कौन कुटिल खल कामी’- यह संत की विनय और आत्मग्लानि नहीं है, टॉनिक है। संत बड़ा कांइयाँ होता है। हम समझते हैं, वह आत्मस्वीकृति कर रहा है, पर वास्तव में वह विटामिन और प्रोटीन खा रहा है।
स्वास्थ्य विज्ञान की एक मूल स्थापना तो मैंने कर दी। अब डॉक्टरों का कुल इतना काम बचा कि वे शोध करें कि किस तरह की निंदा में कौन से और कितने विटामिन होते हैं, कितना प्रोटीन होता है। मेरा अंदाज है, स्त्री संबंधी निंदा में प्रोटीन बड़ी मात्रा में होता है और शराब संबंधी निंदा में विटामिन बहुत होते हैं।
मेरे सामने जो स्वस्थ सज्जन बैठे थे, वे कह रहे थे - आपको मालूम है, वह आदमी शराब पीता है?
मैंने ध्यान नहीं दिया। उन्होंने फिर कहा - वह शराब पीता है।
निंदा में अगर उत्साह न दिखाओ तो करने वालों को जूता-सा लगता है। वे तीन बार बात कह चुके और मैं चुप रहा, तीन जूते उन्हें लग गए। अब मुझे दया आ गई। उनका चेहरा उतर गया था।
मैंने कहा - पीने दो।
वे चकित हुए। बोले - पीने दो, आप कहते हैं पीने दो?
मैंने कहा - हाँ, हम लोग न उसके बाप हैं, न शुभचिंतक। उसके पीने से अपना कोई नुकसान भी नहीं है।
उन्हें संतोष नहीं हुआ। वे उस बात को फिर-फिर रेतते रहे।
तब मैंने लगातार उनसे कुछ सवाल कर डाले - आप चावल ज्यादा खाते हैं या रोटी? किस करवट सोते हैं? जूते में पहले दाहिना पाँव डालते हैं या बायाँ? स्त्री के साथ रोज संभोग करते हैं या कुछ अंतर देकर?
अब वे ‘हीं-हीं’ पर उतर आए। कहने लगे - ये तो प्राइवेट बातें हैं, इनसे क्या मतलब।
मैंने कहा - वह क्या खाता-पीता है, यह उसकी प्राइवेट बात है। मगर इससे आपको जरूर मतलब है। किसी दिन आप उसके रसोईघर में घुसकर पता लगा लेंगे कि कौन-सी दाल बनी है और सड़क पर खड़े होकर चिल्लाएँगे - वह बड़ा दुराचारी है। वह उड़द की दाल खाता है।
तनाव आ गया। मैं पोलाइट हो गया - छोड़ो यार, इस बात को। वेद में सोमरस की स्तुति में 60-62 मंत्र हैं। सोमरस को पिता और ईश्वर तक कहा गया है। कहते हैं - तुमने मुझे अमर बना दिया। यहाँ तक कहा है कि अब मैं पृथ्वी को अपनी हथेलियों में लेकर मसल सकता हूँ। (ऋषि को ज्यादा चढ़ गई होगी) चेतन को दबाकर राहत पाने या चेतना का विस्तार करने के लिए सब जातियों के ऋषि किसी मादक द्रव्य का उपयोग करते थे।
चेतना का विस्तार। हाँ, कई की चेतना का विस्तार देख चुका हूँ। एक संपन्न सज्जन की चेतना का इतना विस्तार हो जाता है कि वे रिक्शेवाले को रास्ते में पान खिलाते हैं, सिगरेट पिलाते हैं, और फिर दुगने पैसे देते हैं। पीने के बाद वे ‘प्रोलेतारियत’ हो जाते हैं। कभी-कभी रिक्शेवाले को बिठाकर खुद रिक्शा चलाने लगते हैं। वे यों भी भले आदमी हैं। पर कुछ मैंने ऐसे देखे हैं, जो होश में मानवीय हो ही नहीं सकते। मानवीयता उन पर रम के ‘किक’ की तरह चढ़ती-उतरती है। इन्हें मानवीयता के ‘फिट’ आते हैं - मिरगी की तरह। सुना है मिरगी जूता सुँघाने से उतर जाती है। इसका उल्टा भी होता है। किसी-किसी को जूता सुँघाने से मानवीयता का फिट भी आ जाता है। यह नुस्खा भी आजमाया हुआ है।
एक और चेतना का विस्तार मैंने देखा था। एक शाम रामविलास शर्मा के घर हम लोग बैठे थे (आगरा वाले रामविलास शर्मा नहीं। वे तो दुग्धपान करते हैं और प्रात: समय की वायु को ‘सेवन करता सुजान’ होते हैं)। यह रोडवेज के अपने कवि रामविलास शर्मा हैं। उनके एक सहयोगी की चेतना का विस्तार कुल डेढ़ पेग में हो गया और वे अंग्रेजी बोलने लगे। कबीर ने कहा है - ‘मन मस्त हुआ तब क्यों बोले’। यह क्यों नहीं कहा कि मन मस्त हुआ तब अंग्रेजी बोले। नीचे होटल से खाना उन्हीं को खाना था। हमने कहा - अब इन्हें मत भेजो। ये अंग्रेजी बोलने लगे। पर उनकी चेतना का विस्तार जरा ज्यादा ही हो गया था। कहने कहने लगे - नो सर, नो सर, आई शैल ब्रिंग ब्यूटीफुल मुर्गा। ‘अंग्रेजी’ भाषा का कमाल देखिए। थोड़ी ही पढ़ी है, मगर खाने की चीज को खूबसूरत कह रहे हैं। जो भी खूबसूरत दिखा, उसे खा गए। यह भाषा रूप में भी स्वाद देखती है। रूप देखकर उल्लास नहीं होता, जीभ में पानी आने लगता है। ऐसी भाषा साम्राज्यवाद के बड़े काम की होती है। कहा - इंडिया इज ए ब्यूटीफुल कंट्री। और छुरी-काँटे से इंडिया को खाने लगे। जब आधा खा चुके, तब देशी खानेवालों ने कहा, अगर इंडिया इतना खूबसूरत है, तो बाकी हमें खा लेने दो। तुमने ‘इंडिया’ खा लिया। बाकी बचा ‘भारत’ हमें खाने दो। अंग्रेज ने कहा - अच्छा, हमें दस्त लगने लगे हैं। हम तो जाते हैं। तुम खाते रहना। यह बातचीत 1947 में हुई थी। हम लोगों ने कहा - अहिंसक क्रांति हो गई। बाहरवालों ने कहा - यह ट्रांसफर ऑफ पॉवर है - सत्ता का हस्तांतरण। मगर सच पूछो तो यह ‘ट्रांसफर ऑफ डिश’ हुआ - थाली उनके सामने से इनके सामने आ गई। वे देश को पश्चिमी सभ्यता के सलाद के साथ खाते थे। ये जनतंत्र के अचार के साथ खाते हैं।
फिर राजनीति आ गई। छोड़िए। बात शराब की हो रही थी। इस संबंध में जो शिक्षाप्रद बातें ऊपर कहीं हैं, उन पर कोई अमल करेगा, तो अपनी ‘रिस्क’ पर। नुकसान की जिम्मेदारी कंपनी की नहीं होगी। मगर बात शराब की भी नहीं, उस पवित्र आदमी की हो रही थी, जो मेरे सामने बैठा किसी के दुराचार पर चिंतित था।
मैं चिंतित नहीं था, इसलिए वह नाराज और दुखी था।
मुझे शामिल किए बिना वह मानेगा नहीं। वह शराब से स्त्री पर आ गया - और वह जो है न, अमुक स्त्री से उसके अनैतिक संबंध हैं।
मैंने कहा - हाँ, यह बड़ी खराब बात है।
उसका चेहरा अब खिल गया। बोला - है न?
मैंने कहा - हाँ खराब बात यह है कि उस स्त्री से अपना संबंध नहीं है।
वह मुझसे बिल्कुल निराश हो गया। सोचता होगा, कैसा पत्थर आदमी है यह कि इतने ऊँचे दर्जे के ‘स्कैंडल’ में भी दिलचस्पी नहीं ले रहा। वह उठ गया। और मैं सोचता रहा कि लोग समझते हैं कि हम खिड़की हवा और रोशनी के लिए बनवाते हैं, मगर वास्तव में खिड़की अंदर झाँकने के लिए होती है।
कितने लोग हैं जो ‘चरित्रहीन’ होने की इच्छा मन में पाले रहते हैं, मगर हो नहीं सकते और निरे ‘चरित्रवान’ होकर मर जाते हैं। आत्मा को परलोक में भी चैन नहीं मिलता होगा और वह पृथ्वी पर लोगों के घरों में झाँककर देखती होगी कि किसका संबंध किससे चल रहा है।
किसी स्त्री और पुरुष के संबंध में जो बात अखरती है, वह अनैतिकता नहीं है, बल्कि यह है कि हाय उसकी जगह हम नहीं हुए। ऐसे लोग मुझे चुंगी के दरोगा मालूम होते हैं। हर आते-जाते ठेले को रोककर झाँककर पूछते हैं - तेरे भीतर क्या छिपा है?
एक स्त्री के पिता के पास हितकारी लोग जाकर सलाह देते हैं - उस आदमी को घर में मत आने दिया करिए। वह चरित्रहीन है।
वे बेचारे वास्तव में शिकायत करते हैं कि पिताजी, आपकी बेटी हमें ‘चरित्रहीन’ होने का चांस नहीं दे रही है। उसे डाँटिए न कि हमें भी थोड़ा चरित्रहीन हो लेने दे।
जिस आदमी की स्त्री-संबंधी कलंक कथा वह कह रहा था, वह भला आदमी है - ईमानदार, सच्चा, दयालु, त्यागी। वह धोखा नहीं करता, कालाबाजारी नहीं करता, किसी को ठगता नहीं है, घूस नहीं खाता, किसी का बुरा नहीं करता।
एक स्त्री से उसकी मित्रता है। इससे वह आदमी बुरा और अनैतिक हो गया।
बड़ा सरल हिसाब है अपने यहाँ आदमी के बारे में निर्णय लेने का। कभी सवाल उठा होगा समाज के नीतिवानों के बीच के नैतिक-अनैतिक, अच्छे-बुरे आदमी का निर्णय कैसे किया जाए। वे परेशान होंगे। बहुत सी बातों पर आदमी के बारे में विचार करना पड़ता है, तब निर्णय होता है। तब उन्होंने कहा होगा - ज्यादा झंझट में मत पड़ो। मामला सरल कर लो। सारी नैतिकता को समेटकर टाँगों के बीच में रख लो।

anjaan
14-06-2012, 08:42 PM
ग्रीटिंग कार्ड और राशन कार्ड


मेरी टेबिल पर दो कार्ड पड़े हैं - इसी डाक से आया दिवाली ग्रीटिंग कार्ड और दुकान से लौटा राशन कार्ड। ग्रीटिंग कार्ड में किसी ने शुभेच्छा प्रगट की है कि मैं सुख और समृद्धि प्राप्त करूँ। अभी अपने शुभचिंतक बने हुए हैं जो सुख दिए बिना चैन नहीं लेंगे। दिवाली पर कम से कम उन्हें याद तो आती है कि इस आदमी का सुखी होना अभी बकाया है। वे कार्ड भेज देते हैं कि हम तो सुखी हैं ही, अगर तुम भी हो जाओ, तो हमें फिलहाल कोई एतराज नहीं।
मेरा राशन कार्ड मेरे सुख की कामना कर रहा है। मगर राशन कार्ड बताता है कि इस हफ्ते से गेहूँ की मात्रा आधी हो गई है। राशन कार्ड मे ग्रीटिंग कार्ड को काट दिया। ऐसा तमाचा मारा कि खूबसूरत ग्रीटिंग कार्ड जी के कोमल कपोल रक्तिम हो गए। शुरु से ही राशन कार्ड इस ग्रीटिंग कार्ड की ओर गुर्राकर देख रहा था। जैसे ही मैं ग्रीटिंग कार्ड पढ़कर खुश हुआ, राशन कार्ड ने उसकी गर्दन दबाकर कहा - क्यों बे साले, ग्रीटिंग कार्ड के बच्चे, तू इस आदमी को सुखी करना चाहता है? जा, इसका गेहूँ आधा कर दिया गया। बाकी काला-बाजार से खरीदे या भूखा रहे।
बेचारा ग्रीटिंग कार्ड दीनता से मेरी ओर देख रहा है। मैं क्या करूँ? झूठों की रक्षा का ठेका मुझे थोड़े ही मिला है। जिन्हें मिला है उनके सामने हाथ जोड़ो। मेरे राशन कार्ड को तेरी झूठ बर्दाश्त नहीं हुई। इन हालात में सुख का झूठी आशा लेकर तू क्यों आया? ग्रीटिंग कार्ड राष्ट्रसंघ के शांति प्रस्तावों की तरह सुंदर पर प्रभावहीन है। राशन कार्ड खुरदरा और बदसूरत है, पर इसमें अनाज है। मेरे लिए यही सत्य है। और इस रंगीन चिकनाहट में सत्यहीन औपचारिक शुभेच्छा है। ग्रीटिंग कार्ड सत्य होता अगर इसके साथ एक राशन कार्ड भी भेजा गया होता और लिखा होता - हम चाहते हैं कि तुम सुख प्राप्त करो। इस हेतु हम एक मरे हुए आदमी के नाम से जाली राशन कार्ड बनवाकर भेज रहे हैं। जब तक धाँधली चले सस्ता अनाज लेते जाना और सुखी रहना। पकड़े जाने पर हमारा नाम मत बताना। संकट के वक्त शुभचिंतक का नाम भूल जाना चाहिए।
मित्रों से तो मैं कहना चाहता हूँ कि ये कार्ड न भेजें। शुभकामना इस देश में कारगर नहीं हो रही हैं। यहाँ गोरक्षा का जुलूस सात लाख का होता है और मनुष्य रक्षा का सिर्फ एक लाख का। दुनिया भर में शुभकामना बोझ हो गई है। पोप की शुभकामना से एक बम कम नहीं गिरता। मित्रों की ही इच्छा से कोई सफल, सुखी और समृद्ध कैसे हो जाएगा? सफलता के महल का प्रवेश द्वार बंद है। इसमें पीछे के नाबदान से ही घुसा जा सकता है। जिन्हें घुसना है नाक पर रूमाल रखकर घुस जाते हैं। पास ही इत्र सने रूमालों के ठेले खड़े हैं। रूमाल खरीदो, नाक पर रखो और नाबदान में से घुस जाओ सफलता और सुख के महल में। एक आदमी खड़ा देख रहा है। कोई पूछता है - घुसते क्यों नहीं? वह कहता है - एक नाक होती तो घुस जाते। हमारा तो हर रोम एक नाक है। कहाँ-कहाँ रूमाल लपेटें।
एक डर भी है। सफलता, सुख और समृद्धि प्राप्त भी हो जाए, तो पता नहीं कितने लोग बुरा मान जाएँ। संकट में तो शत्रु भी मदद कर देते हैं। मित्रता की सच्ची परीक्षा संकट में नहीं, उत्कर्ष में होती है। जो मित्र के उत्कर्ष को बर्दाश्त कर सके, वही सच्चा मित्र होता है। संकट में तपी हुई मित्रता उत्कर्ष में खोटी निकलती मैंने देखी है। एक बेचारे की चार कविताएँ छप गईं, तो चार मित्र टूट गए। आठ छपने पर पूरे आठ टूट गए। दो कवि सम्मेलनों में जमने से एक स्थानीय कवि के कवि-मित्र रूठ गए। तीसरे कवि सम्मेलन में जब वह 'हूट' हुआ, तब जाकर मित्रता अपनी जगह लौटी।
ग्रीटिंग कार्डों पर अपना भरोसा नहीं। 20 सालों से इस देश को ग्रीटिंग कार्डों के सहारे चलाया गया है। अंबार लग गए हैं। हर त्योहार पर देशवासियों को ग्रीटिंग कार्ड दिए जाते हैं - 15 अगस्त और 26 जनवरी पर, संसद के अधिवेशन पर, पार्टी के सम्मेलन पर। बढ़िया सुनहले रंगों के मीठे शब्दों के ग्रीटिंग्स - देशवासियों, बस इस साल तुम सुखी और समृद्ध हो जाओ। ग्रीटिंग कार्डों के ढेर लगे हैं, मगर राशन कार्ड छोटा होता जाता है।

anjaan
14-06-2012, 08:43 PM
शर्म की बात पर ताली पीटना



मैं आजकल बड़ी मुसीबत में हूँ।
मुझे भाषण के लिए अक्सर बुलाया जाता है। विषय यही होते हैं - देश का भविष्य, छात्र समस्या, युवा-असंतोष, भारतीय संस्कृति भी (हालांकि निमंत्रण की चिट्ठी में 'संस्कृति' अक्सर गलत लिखा होता है), पर मैं जानता हूँ जिस देश में हिंदी-हिंसा आंदोलन भी जोरदार होता है, वहाँ मैं 'संस्कृति' की सही शब्द रचना अगर देखूँ तो बेवकूफ के साथ ही 'राष्ट्र-द्रोही' भी कहलाऊँगा। इसलिए जहाँ तक बनता है, मैं भाषण ही दे आता हूँ।
मजे की बात यह है कि मुझे धार्मिक समारोहों में भी बुला लिया जाता है। सनातनी, वेदांती, बौद्ध, जैन सभी बुला लेते हैं; क्योंकि इन्हें न धर्म से मतलब है, न संत से, न उसके उपदेश से। ये धर्मोपदेश को भी समझना नहीं चाहते। पर ये साल में एक-दो बार सफल समारोह करना चाहते हैं। और जानते हैं कि मुझे बुलाकर भाषण करा देने से समारोह सफल होगा, जनता खुश होगी और उनका जलसा कामयाब हो जाएगा।
मैं उनसे कह देता हूँ - जितना लाइट और लाउडस्पीकरवालों को दोगे, कम से कम उतना मुझ गरीब शास्ता को दे देना - तो वे दे भी देते हैं। मुझे अगर लगे कि इनका इरादा कुछ गड़बड़ है तो मैं शास्ता विक्रय कर अधिकारी या थानेदार की भी सहायता ले लेता हूँ। ये लोग पता नहीं क्यूँ मेरे प्रति आत्मीयता का अनुभव करते हैं। इनके कारण सारा काम 'धार्मिक' और 'पवित्र' वातावरण में हो जाता है।
पर मेरी एक नई मुसीबत पैदा हो गई है। जब मैं ऐसी बात करता हूँ जिस पर शर्म आनी चाहिए, तब उस पर लोग हँसकर ताली पीटने लगते हैं।
मैं एक संत की जयंती के समारोह में अध्यक्ष था। मैं जानता था कि बुलानेवाले लोग मुझसे भीतर से बहुत नाराज रहते हैं। यह भी जानता हूँ कि ये मुझे गंदी-गंदी गालियाँ देते हैं, क्योंकि राजनीति और समाज के मामले में मैं मुँहफट हो जाता हूँ। तब सुननेवालों का दीन क्रोध बड़ा मजा देता है। पर उस शाम मेरे गले में वही लोग मालाएँ डाल रहे थे - यह अच्छी और उदात्त बात भी हो सकती है। पर मैं जानता था कि ये मेरे व्यंग्य, हास्य और कटु उक्तियों का उपयोग करके उन तीन-चार हजार श्रोताओं को प्रसन्न करना चाहते हैं - याने आयोजन सफल करना चाहते हैं - याने बेवकूफ बनाना चाहते हैं।
जयंती एक क्रांतिकारी संत की थी। ऐसे संत की जिसने कहा - खुद सोचो। सत्य के अनेक कोंण होते हैं। हर बात में 'शायद' का ध्यान जरूर रखना चाहिए। महावीर और बुद्ध ऐसे संत हुए, जिन्होने कहा - सोचो। शंका करो। प्रश्न करो। तब सत्य को पहचानो। जरूरी नहीं कि वही शाश्वत सत्य है, जो कभी किसी ने लिख दिया था।
ये संत वैज्ञानिक दृष्टि संपन्न थे। और जब तक इन संतों के विचारों का प्रभाव रहा तब तक विज्ञान की उन्नति भारत में हुई। भौतिक और रासायनिक विज्ञान की शोध हुई। चिकित्सा विज्ञान की शोध हुई। नागार्जुन हुए, बाणभट्ट हुए। इसके बाद लगभग डेढ़ शताब्दी में भारत के बड़े से बड़े दिमाग ने यही काम किया कि सोचते रहे - ईश्वर एक हैं या दो हैं, या अनेक हैं। हैं तो सूक्ष्म हैं या स्थूल। आत्मा क्या है, परमात्मा क्या है। इसके साथ ही केवल काव्य रचना।
विज्ञान नदारद। गल्ला कम तौलेंगे, मगर द्वैतवाद, अद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद, मुक्ति और पुनर्जन्म के बारे में बड़े परेशान रहेंगे। कपड़ा कम नापेंगे, दाम ज्यादा लेंगे, पर पंच आभूषण के बारे में बड़े जाग्रत रहेंगे।
झूठे आध्यात्म ने इस देश को दुनिया में तारीफ दिलवाई, पर मनुष्य को मारा और हर डाला, उस धार्मिक संत-समारोह में मैं अध्यक्ष के आसन पर था। बाएँ तरफ दो दिगंबर मुनि बैठे थे। दाहिने तरफ दो श्वेतांबर। चार मुनियों से घिरा यह दीन लेखक बैठा था। पर सही बात यह है कि 'होल टाइम' मुनि या तपस्वी बड़ा दयनीय प्रणी होता है। वह सार्थकता का अनुभव नहीं करता, कर्म नहीं खोज पाता। श्रद्धा जरूर लेता है - मगर ज्यादा कर्महीन श्रद्धा ज्ञानी को बहुत 'बोर' करती है।
दिगंबर मुनि और श्वेतांबर मुनि आपस में कैसे देख रहे थे, यह मैं जाँच रहा था। लेखक की दो नहीं सौ आँखें होती हैं। दिगंबर अपने को सर्वहारा का मुनि मानता है और श्वेतांबर मुनि को संपन्न समाज का। यह मैं समझ गया - उनके तेवर से।
मैंने आरंभ में कहा भी - 'सभ्यता के विकास का क्रम होता है। जब हेंडलूम, पावरलूम, कपड़ा मिल नहीं थी तब विश्व के हर समाज का ऋषि और शास्ता कम से कम कपड़े पहनता था; क्योंकि जो भी अच्छे कपड़े बन पाते थे, उन्हें सामंत वर्ग पहनता था। तब लंगोटी लगाना या नंगा रहना दुनिया भर में संत का आचार होता था।'
'पर अब हम फाइन से फाइन कपड़ा बनाते और बेचते हैं, पर अपने मुनियों को नंगा रखते हैं। यह भी क्या पाप नहीं है?'
मुनि मेरी बात सुनकर गंभीर हो गए और सोचने लगे, पर समारोहवाले हँसने और ताली पीटने लगे। और मैंने देखा एक मुनि उनके इस ओछे व्यवहार से खिन्न हैं। मैंने सोचा कि मुनि से कहूँ कि हम दोनों मिलकर सिर पीट लें। शर्म की बात पर जिस समाज के लोगों को हँसी आए - इस बात पर मुनि और 'साधु' दोनों रो लें।
पर इसके बाद जब मुनि बोले तो उन्होंने घोर हिंसा की शैली में अहिंसा समझाई। कुछ शब्द मुझे अभी भी याद हैं, 'पाखंडियों, क्या संत को सर्टिफिकेट देने का समारोह करते हो? तुम्हारे सर्टिफिकेट से संत को कोई परमिट या नौकरी मिल जाएगी? पाप की कमाई खाते हो। झूठ बोलते हो। सत्य की बात करते हो। बेईमानी से परिग्रह करते हो। बताओ ये चार-पाँच मंजिलों की इमारतें क्या सत्य, अहिंसा और अपरिग्रह से बनी हैं?'
मैं दंग रह गया। मुनि का चेहरा लाल था क्रोध से। वे किसी सच्चे क्रांतिकारी की तरह बोल रहे थे; क्योंकि उन्होंने शरीर ढाँकने को कपड़ा लेने का किसी से अहसान नहीं लेना था।
सभा में सन्नाटा।
लगातार सन्नाटा।
और मुनि पूरे क्रोध के साथ सारी बनावट और फरेब को नंगा कर रहे थे।
अंत में मुझे अध्यक्षीय भषण देना लाजिमी था। मैं देख रहा था कि तीस-चालीस साल के गुट में युवक लोग पाँच-छ: ठिकानों पर बैठे इंतजार कर रहे थे कि मैं क्या कहता हूँ।
मैंने बहुत छोटा धन्यवाद जैसा भाषण दिया। मुनियों और विद्वानों का आभार माना और अंत में कहा - 'एक बात मैं आपके सामने स्वीकार करना चाहता हूँ। मैंने और आपने तीन घंटे ऊँचे आदर्शों की, सदाचरण की, प्रेम की, दया की बातें सुनीं। पर मैं आपके सामने साफ कहता हूँ कि तीन घंटे पहले जितना कमीना और बेईमान मैं था, उतना ही अब भी हूँ। मेरी मैंने कह दी। आप लोगों की आप लोग जानें।'
इस पर भी क्या हुआ - हँसी खूब हुई और तालियाँ पिटीं।
उन्हें मजा आ गया।
एक और बड़े लोगों के क्लब में मैं भाषण दे रहा था। मैं देश की गिरती हालत, महँगाई, गरीबी, बेकारी, भ्रष्टाचार पर बोल रहा था और खूब बोल रहा था।
मैं पूरी पीड़ा से, गहरे आक्रोश से बोल रहा था। पर जब मैं ज्यादा मार्मिक हो जाता, वे लोग तालियाँ पीटते थे। मैंने कहा - हम लोग बहुत पतित हैं। तो वे ताली पीटने लगे।
उन्हे मजा आ रहा था और शाम एक अच्छे भाषण से सफल हो रही थी।
और मैं इन समारोहों के बाद रात को घर लौटता हूँ, तो सोचता रहता हूँ कि जिस समाज के लोग शर्म की बात पर हँसें और ताली पीटें, उसमें क्या कभी कोई क्रांतिकारी हो सकता है?
होगा शायद। पर तभी होगा, जब शर्म की बात पर ताली पीटनेवाले हाथ कटेंगे और हँसने वाले जबड़े टूटेंगे।

anjaan
14-06-2012, 08:44 PM
घायल वसंत


कल बसंतोत्सव था। कवि वसंत के आगमन की सूचना पा रहा था -
प्रिय, फिर आया मादक वसंत।
मैंने सोचा, जिसे वसंत के आने का बोध भी अपनी तरफ से कराना पड़े, उस प्रिय से तो शत्रु अच्छा। ऐसे नासमझ को प्रकृति-विज्ञान पढ़ाएँगे या उससे प्यार करेंगे। मगर कवि को न जाने क्यों ऐसा बेवकूफ पसंद आता है ।
कवि मग्न होकर गा रहा था -
'प्रिय, फिर आया मादक वसंत !'
पहली पंक्ति सुनते ही मैं समझ गया कि इस कविता का अंत 'हा हंत' से होगा, और हुआ। अंत, संत, दिगंत आदि के बाद सिवा 'हा हंत' के कौन पद पूरा करता? तुक की यही मजबूरी है। लीक के छोर पर यही गहरा गढ़ा होता है। तुक की गुलामी करोगे तो आरंभ चाहे 'वसंत' से कर लो, अंत जरूर 'हा हंत' से होगा। सिर्फ कवि ऐसा नहीं करता। और लोग भी, सयाने लोग भी, इस चक्कर में होते है। व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में तुक पर तुक बिठाते चलते है। और 'वसंत' से शुरू करके 'हा हंत' पर पहुँचते हैं। तुकें बराबर फिट बैठती हैं, पर जीवन का आवेग निकल भागता है। तुकें हमारा पीछा छोड़ ही नहीं रही हैं। हाल ही में हमारी समाजवादी सरकार के अर्थमंत्री ने दबा सोना निकालने की जो अपील की, उसकी तुक शुद्ध सर्वोदय से मिलाई - 'सोना दबानेवालो, देश के लिए स्वेच्छा से सोना दे दो।' तुक उत्तम प्रकार की थी; साँप तक का दिल नहीं दुखा। पर सोना चार हाथ और नीचे चला गया। आखिर कब हम तुक को तिलांजलि देंगे? कब बेतुका चलने की हिम्मत करेंगे?
कवि ने कविता समाप्त कर दी थी। उसका 'हा हंत' आ गया था। मैंने कहा, 'धत्तेरे की!' 7 तुकों में ही टें बोल गया। राष्ट्रकवि इस पर कम से कम 51 तुकें बाँधते। 9 तुकें तो उन्होंने 'चक्र' पर बाँधी हैं। (देखो 'यशोधरा' पृष्ठ 13) पर तू मुझे क्या बताएगा कि वसंत आ गया। मुझे तो सुबह से ही मालूम है। सबेरे वसंत ने मेरा दरवाजा भी खटखटाया था। मैं रजाई ओढ़े सो रहा था। मैंने पूछा - 'कौन?' जवाब आया - मैं वसंत। मैं घबड़ा उठा। जिस दुकान से सामान उधार लेता हूँ, उसके नौकर का नाम भी वसंतलाल है। वह उधारी वसूल करने आया था। कैसा नाम है, और कैसा काम करना पड़ता है इसे! इसका नाम पतझड़दास या तुषारपात होना था। वसंत अगर उधारी वसूल करता फिरता है, तो किसी दिन आनंदकर थानेदार मुझे गिरफ्तार करके ले जाएगा और अमृतलाल जल्लाद फाँसी पर टाँग देगा!
वसंतलाल ने मेरा मुहूर्त बिगाड़ दिया। इधर से कहीं ऋतुराज वसंत निकलता होगा, तो वह सोचेगा कि ऐसे के पास क्या जाना जिसके दरवाजे पर सबेरे से उधारीवाले खड़े रहते हैं! इस वसंतलाल ने मेरा मौसम ही खराब कर दिया।
मैंने उसे टाला और फिर ओढ़कर सो गया। आँखें झँप गईं। मुझे लगा, दरवाजे पर फिर दस्तक हुई। मैंने पूछा - कौन? जवाब आया - 'मैं वसंत!' मैं खीझ उठा - कह तो दिया कि फिर आना। उधर से जवाब आया - 'मैं। बार-बार कब तक आता रहूँगा? मैं किसी बनिए का नौकर नहीं हूँ; ऋतुराज वसंत हूँ। आज तुम्हारे द्वार पर फिर आया हूँ और तुम फिर सोते मिले हो। अलाल, अभागे, उठकर बाहर तो देख। ठूँठों ने भी नव पल्लव पहिन रखे हैं। तुम्हारे सामने की प्रौढ़ा नीम तक नवोढ़ा से हाव-भाव कर रही है - और बहुत भद्दी लग रही है।'
मैने मुँह उधाड़कर कहा - 'भई, माफ करना, मैंने तुम्हें पहचाना नहीं। अपनी यही विडंबना है कि ऋतुराज वसंत भी आए, तो लगता है, उधारी के तगादेवाला आया। उमंगें तो मेरे मन में भी हैं, पर यार, ठंड बहुत लगती है। वह जाने के लिए मुड़ा। मैंने कहा, जाते-जाते एक छोटा-सा काम मेरा करते जाना। सुना है तुम ऊबड़-खाबड़ चेहरों को चिकना कर देते हो; 'फेसलिफ्टिंग' के अच्छे कारीगर हो तुम। तो जरा यार, मेरी सीढ़ी ठीक करते जाना, उखड़ गई है।
उसे बुरा लगा। बुरा लगने की बात है। जो सुंदरियों के चेहरे सुधारने का कारीगर है, उससे मैंने सीढ़ी सुधारने के लिए कहा। वह चला गया।
मैं उठा और शाल लपेटकर बाहर बरामदे में आया। हजारों सालों के संचित संस्कार मेरे मन पर लदे हैं; टनों कवि-कल्पनाएँ जमी हैं। सोचा, वसंत है तो कोयल होगी ही। पर न कहीं कोयल दिखी न उसकी कूक सुनाई दी। सामने की हवेली के कंगूरे पर बैठा कौआ 'काँव-काँव' कर उठा। काला, कुरूप, कर्कश कौआ - मेरी सौदर्य-भावना को ठेस लगी। मैंने उसे भगाने के लिए कंकड़ उठाया। तभी खयाल आया कि एक परंपरा ने कौए को भी प्रतिष्ठा दे दी है। यह विरहणी को प्रियतम के आगमन का संदेसा देने वाला माना जाता है। सोचा, कहीं यह आसपास की किसी विरहणी को प्रिय के आने का सगुन न बता रहा हो। मै। विरहणियों के रास्ते में कभी नहीं आता; पतिव्रताओं से तो बहुत डरता हूँ। मैंने कंकड़ डाल दिया। कौआ फिर बोला। नायिका ने सोने से उसकी चोंच मढ़ाने का वायदा कर दिया होगा। शाम की गाड़ी से अगर नायक दौरे से वापिस आ गया, तो कल नायिका बाजार से आनेवाले सामान की जो सूची उसके हाथ में देगी, उसमें दो तोले सोना भी लिखा होगा। नायक पूछेगा, प्रिये, सोना तो अब काला बाजार में मिलता है। लेकिन अब तुम सोने का करोगी क्या? नायिका लजाकर कहेगी, उस कौए की चोंच मढ़ाना है, जो कल सबेरे तुम्हारे आने का सगुन बता गया था। तब नायक कहेगा, प्रिय, तुम बहुत भोली हो। मेरे दौरे का कार्यक्रम यह कौआ थोड़े ही बनाता है; वह कौआ बनाता है जिसे हम 'बड़ा साहब' कहते हैं। इस कलूटे की चोंच सोने से क्यों मढ़ाती हो? हमारी दुर्दशा का यही तो कारण है कि तमाम कौए सोने से चोंच मढ़ाते हैं, और इधर हमारे पास हथियार खरीदने को सोना नहीं हैं। हमें तो कौओं की चोंच से सोना खरोंच लेना है। जो आनाकानी करेंगे, उनकी चोंच काटकर सोना निकाल लेंगे। प्रिये, वही बड़ी गलत परंपरा है, जिसमें हंस और मोर की चोंच तो नंगी रहे, पर कौए की चोंच सुंदरी खुद सोना मढ़े। नायिका चुप हो जाएगी। स्वर्ण-नियंत्रण कानून से सबसे ज्यादा नुकसान कौओं और विरहणियों का हुआ है। अगर कौए ने 14 केरेट के सोने से चोंच मढ़ाना स्वीकार नहीं किया, तो विरहणी को प्रिय के आगमन की सूचना कौन देगा? कौआ फिर बोला। मैं इससे युगों से घृणा करता हूँ; तब से, जब इसने सीता के पाँव में चोंच मारी थी। राम ने अपने हाथ से फूल चुनकर, उनके आभूषण बनाकर सीता को पहनाए। इसी समय इंद्र का बिगड़ैल बेटा जयंत आवारागर्दी करता वहाँ आया और कौआ बनकर सीता के पाँव में चोंच मारने लगा। ये बड़े आदमी के बिगड़ैल लड़के हमेशा दूसरों का प्रेम बिगाड़ते हैं। यह कौआ भी मुझसे नाराज हैं, क्योंकि मैंने अपने घर के झरोखों में गौरैयों को घोंसले बना लेने दिए हैं। पर इस मौसम में कोयल कहाँ है? वह अमराई में होगी। कोयल से अमराई छूटती नहीं है, इसलिए इस वसंत में कौए की बन आई है। वह तो मौकापरस्त है; घुसने के लिए पोल ढूँढ़ता है। कोयल ने उसे जगह दे दी है। वह अमराई की छाया में आराम से बैठी है। और इधर हर ऊँचाई पर कौआ बैठा 'काँव-काँव' कर रहा है। मुझे कोयल के पक्ष में उदास पुरातन प्रेमियों की आह भी सुनायी देती है, 'हाय, अब वे अमराइयाँ यहाँ कहाँ है कि कोयलें बोलें। यहाँ तो ये शहर बस गए हैं, और कारखाने बन गए है।' मैं कहता हूँ कि सर्वत्र अमराइयाँ नहीं है, तो ठीक ही नहीं हैं। आखिर हम कब तक जंगली बने रहते? मगर अमराई और कुंज और बगीचे भी हमें प्यारे हैं। हम कारखाने को अमराई से घेर देंगे और हर मुहल्ले में बगीचा लगा देंगे। अभी थोड़ी देर है। पर कोयल को धीरज के साथ हमारा साथ तो देना था। कुछ दिन धूप तो हमारे साथ सहना था। जिसने धूप में साथ नही दिया, वह छाया कैसे बँटाएगी? जब हम अमराई बना लेंगे, तब क्या वह उसमें रह सकेगी? नहीं, तब तक तो कौए अमराई पर कब्जा कर लेंगे। कोयल को अभी आना चाहिए। अभी जब हम मिट्टी खोदें, पानी सींचे और खाद दें, तभी से उसे गाना चाहिए। मैं बाहर निकल पड़ता हूँ। चौराहे पर पहली बसंती साड़ी दिखी। मैं उसे जानता हूँ। यौवन की एड़ी दिख रही है - वह जा रहा है - वह जा रहा है। अभी कुछ महीने पहले ही शादी हुई है। मैं तो कहता आ रहा था कि चाहे कभी ले, 'रूखी री यह डाल वसन वासंती लेगी' - (निराला)। उसने वसन वासंती ले लिया। कुछ हजार में उसे यह बूढ़ा हो रहा पति मिल गया। वह भी उसके साथ है। वसंत का अंतिम चरण और पतझड़ साथ जा रहे हैं। उसने माँग में बहुत-सा सिंदूर चुपड़ रखा है। जिसकी जितनी मुश्किल से शादी होती है, वह बेचारी उतनी ही बड़ी माँग भरती है। उसने बड़े अभिमान से मेरी तरफ देखा। फिर पति को देखा। उसकी नजर में ठसक और ताना है, जैसे अँगूठा दिखा रही है कि ले, मुझे तो यह मिल ही गया। मगर यह क्या? वह ठंड से काँप रही है और 'सीसी' कर रही है। वसंत में वासंती साड़ी को कँपकँपी छूट रही है।
यह कैसा वसंत है जो शीत के डर से काँप रहा है? क्या कहा था विद्यापति ने - ' सरस वसंत समय भल पाओलि दछिन पवन बहु धीरे! नहीं मेरे कवि, दक्षिण से मलय पवन नहीं बह रहा। यह उत्तर से बर्फीली हवा आ रही है। हिमालय के उस पार से आकर इस बर्फीली हवा ने हमारे वसंत का गला दबा दिया है। हिमालय के पार बहुत-सा बर्फ बनाया जा रहा है जिसमें सारी मनुष्य जाति को मछली की तरह जमा कर रखा जाएगा। यह बड़ी भारी साजिश है बर्फ की साजिश! इसी बर्फ की हवा ने हमारे आते वसंत को दबा रखा है। यों हमें विश्वास है कि वसंत आएगा। शेली ने कहा है, 'अगर शीत आ गई है, तो क्या वसंत बहुत पीछे होगा? वसंत तो शीत के पीछे लगा हुआ ही आ रहा है। पर उसके पीछे गरमी भी तो लगी है। अभी उत्तर से शीत-लहर आ रही है तो फिर पश्चिम से लू भी तो चल सकती है। बर्फ और आग के बीच में हमारा वसंत फँसा है। इधर शीत उसे दबा रही है और उधर से गरमी। और वसंत सिकुड़ता जा रहा है।
मौसम की मेहरबानी पर भरोसा करेंगे, तो शीत से निपटते-निपटते लू तंग करने लगेगी। मौसम के इंतजार से कुछ नहीं होगा। वसंत अपने आप नहीं आता; उसे लाया जाता है। सहज आनेवाला तो पतझड़ होता है, वसंत नहीं। अपने आप तो पत्ते झड़ते हैं। नए पत्ते तो वृक्ष का प्राण-रस पीकर पैदा होते हैं। वसंत यों नहीं आता। शीत और गरमी के बीच से जो जितना वसंत निकाल सके, निकाल लें। दो पाटों के बीच में फँसा है, देश का वसंत। पाट और आगे खिसक रहे हैं। वसंत को बचाना है तो जोर लगाकर इन दोनों पाटों को पीछे ढकेलो - इधर शीत को, उधर गरमी को। तब बीच में से निकलेगा हमारा घायल वसंत।

anjaan
14-06-2012, 08:44 PM
जैसे उनके दिन फिरे



एक था राजा। राजा के चार लड़के थे। रानियाँ? रानियाँ तो अनेक थीं, महल में एक 'पिंजरापोल' ही खुला था। पर बड़ी रानी ने बाकी रानियों के पुत्रों को जहर देकर मार डाला था। और इस बात से राजा साहब बहुत प्रसन्न हुए थे। क्योंकि वे नीतिवान थे और जानते थे कि चाणक्य का आदेश है, राजा अपने पुत्रों को भेड़िया समझे। बड़ी रानी के चारों लड़के जल्दी ही राजगद्दी पर बैठना चाहते थे, इसलिए राजा साहब को बूढ़ा होना पड़ा।
एक दिन राजा साहब ने चारों पुत्रों को बुलाकर कहा, पुत्रों मेरी अब चौथी अवस्था आ गई है। दशरथ ने कान के पास के केश श्वेत होते ही राजगद्दी छोड़ दी थी। मेरे बाल खिचड़ी दिखते हैं, यद्यपि जब खिजाब घुल जाता है तब पूरा सिर श्वेत हो जाता है। मैं संन्यास लूँगा, तपस्या करूँगा। उस लोक को सुधारना है, ताकि तुम जब वहाँ आओ, तो तुम्हारे लिए मैं राजगद्दी तैयार रख सकूँ। आज मैंने तुम्हें यह बतलाने के लिए बुलाया है कि गद्दी पर चार के बैठ सकने लायक जगह नहीं है। अगर किसी प्रकार चारों समा भी गए तो आपस में धक्का-मुक्की होगी और सभी गिरोगे। मगर मैं दशरथ सरीखी गलती नहीं करूँगा कि तुम में से किसी के साथ पक्षपात करूँ। मैं तुम्हारी परीक्षा लूँगा। तुम चारों ही राज्य से बाहर चले जाओ। ठीक एक साल बाद इसी फाल्गुन की पूर्णिमा को चारों दरबार में उपस्थित होना। मैं देखूँगा कि इस साल में किसने कितना धन कमाया और कौन-सी योग्यता प्राप्त की। तब मैं मंत्री की सलाह से, जिसे सर्वोत्तम समझूँगा, राजगद्दी दे दूँगा। जो आज्ञा, कहकर चारों ने राजा साहब को भक्तिहीन प्रणाम किया और राज्य के बाहर चले गए।
पड़ोसी राज्य में पहुँचकर चारों राजकुमारों ने चार रास्ते पकड़े और अपने पुरुषार्थ तथा किस्मत को आजमाने चल पड़े। ठीक एक साल बाद - फाल्गुन की पूर्णिमा को राज-सभा में चारों लड़के हाजिर हुए। राजसिंहासन पर राजा साहब विराजमान थे, उनके पास ही कुछ नीचे आसन पर प्रधानमंत्री बैठे थे। आगे भाट, विदूषक और चाटुकार शोभा पा रहे थे। राजा ने कहा, 'पुत्रों ! आज एक साल पूरा हुआ और तुम सब यहाँ हाजिर भी हो गए। मुझे उम्मीद थी कि इस एक साल में तुममें से तीन या बीमारी के शिकार हो जाओगे या कोई एक शेष तीनों को मार डालेगा और मेरी समस्या हल हो जाएगी। पर तुम चारों यहाँ खड़े हो। खैर अब तुममें से प्रत्येक मुझे बतलाए कि किसने इस एक साल में क्या काम किया कितना धन कमाया' और राजा साहब ने बड़े पुत्र की ओर देखा।
बड़ा पुत्र हाथ जोड़कर बोला, 'पिता जी, मैं जब दूसरे राज्य में पहुँचा, तो मैंने विचार किया कि राजा के लिए ईमानदारी और परिश्रम बहुत आवश्यक गुण है। इसलिए मैं एक व्यापारी के यहाँ गया और उसके यहाँ बोरे ढोने का काम करने लगा। पीठ पर मैंने एक वर्ष बोरे ढोए हैं, परिश्रम किया है। ईमानदारी से धन कमाया है। मजदूरी में से बचाई हुई ये सौ स्वर्णमुद्राएँ ही मेरे पास हैं। मेरा विश्वास है कि ईमानदारी और परिश्रम ही राजा के लिए सबसे आवश्यक है और मुझमें ये हैं, इसलिए राजगद्दी का अधिकारी मैं हूँ।'
वह मौन हो गया। राज-सभा में सन्नाटा छा गया। राजा ने दूसरे पुत्र को संकेत किया। वह बोला, 'पिताजी, मैंने राज्य से निकलने पर सोचा कि मैं राजकुमार हूँ, क्षत्रिय हूँ - क्षत्रिय बाहुबल पर भरोसा करता है। इसलिए मैंने पड़ोसी राज्य में जाकर डाकुओं का एक गिरोह संगठित किया और लूटमार करने लगा। धीरे-धीरे मुझे राज्य कर्मचारियों का सहयोग मिलने लगा और मेरा काम खूब अच्छा चलने लगा। बड़े भाई जिसके यहाँ काम करते थे, उसके यहाँ मैंने दो बार डाका डाला था। इस एक साल की कमाई में पाँच लाख स्वर्णमुद्राएँ मेरे पास हैं। मेरा विश्वास है कि राजा को साहसी और लुटेरा होना चाहिए, तभी वह राज्य का विस्तार कर सकता है। ये दोनों गुण मुझमें हैं, इसलिए मैं ही राजगद्दी का अधिकारी हूँ।' पाँच लाख सुनते ही दरबारियों की आँखें फटी-की फटी रह गईं।
राजा के संकेत पर तीसरा कुमार बोला, 'देव मैंने उस राज्य में जाकर व्यापार किया। राजधानी में मेरी बहुत बड़ी दुकान थी। मैं घी में मूँगफली का तेल और शक्कर में रेत मिलाकर बेचा करता था। मैंने राजा से लेकर मजदूर तक को साल भर घी-शक्कर खिलाया। राज-कर्मचारी मुझे पकड़ते नहीं थे क्योंकि उन सब को मैं मुनाफे में से हिस्सा दिया करता थ।। एक बार स्वयं राजा ने मुझसे पूछा कि शक्कर में यह रेत-सरीखी क्या मिली रहती है? मैंने उत्तर दिया कि करुणानिधान, यह विशेष प्रकार की उच्चकोटि की खदानों से प्राप्त शक्कर है जो केवल राजा-महाराजाओं के लिए मैं विदेश से मँगाता हूँ। राजा यह सुनकर बहुत खुश हुए। बड़े भाई जिस सेठ के यहाँ बोरे ढोते थे, वह मेरा ही मिलावटी माल खाता था। और मँझले लुटेरे भाई को भी मूँगफली का तेल-मिला घी तथा रेत-मिली शक्कर मैंने खिलाई है। मेरा विश्वास है कि राजा को बेईमान और धूर्त होना चाहिए तभी उसका राज टिक सकता है। सीधे राजा को कोई एक दिन भी नहीं रहने देगा। मुझमें राजा के योग्य दोनों गुण हैं, इसलिए गद्दी का अधिकारी मैं हूँ। मेरी एक वर्ष की कमाई दस लाख स्वर्णमुद्राएँ मेरे पास हैं।' 'दस लाख' सुनकर दरबारियों की आँखें और फट गईं।
राजा ने तब सब से छोटे कुमार की ओर देखा। छोटे कुमार की वेश-भूषा और भाव-भंगिमा तीनों से भिन्न थी। वह शरीर पर अत्यंत सादे और मोटे कपड़े पहने था। पाँव और सिर नंगे थे। उसके मुख पर बड़ी प्रसन्नता और आँखों में बड़ी करुणा थी। वह बोला, 'देव, मैं जब दूसरे राज्य में पहुँचा तो मुझे पहले तो यह सूझा ही नहीं कि क्या करूँ। कई दिन मैं भूखा-प्यासा भटकता रहा। चलते-चलते एक दिन मैं एक अट्टालिका के सामने पहुँचा। उस पर लिखा था 'सेवा आश्रम'। मैं भीतर गया तो वहाँ तीन-चार आदमी बैठे ढेर-की-ढेर स्वर्ण-मुद्राएँ गिन रहे थे। मैंने उनसे पूछा, भद्रो तुम्हारा धंधा क्या है?' 'उनमें से एक बोला, त्याग और सेवा।' मैंने कहा, 'भद्रो त्याग और सेवा तो धर्म है। ये धंधे कैसे हुए?' वह आदमी चिढ़कर बोला, 'तेरी समझ में यह बात नहीं आएगी। जा, अपना रास्ता ले।' स्वर्ण पर मेरी ललचाई दृष्टि अटकी थी। मैंने पूछा, 'भद्रो तुमने इतना स्वर्ण कैसे पाया?' वही आदमी बोला, 'धंधे से।' मैंने पूछा, कौन-सा धंधा? वह गुस्से में बोला, 'अभी बताया न! सेवा और त्याग। तू क्या बहरा है?'
'उनमें से एक को मेरी दशा देखकर दया आ गई। उसने कहा, 'तू क्या चाहता है?' 'मैंने कहा, मैं भी आप का धंधा सीखना चाहता हूँ। मैं भी बहुत सा स्वर्ण कमाना चाहता हूँ।' उस दयालु आदमी ने कहा, 'तो तू हमारे विद्यालय में भरती हो जा। हम एक सप्ताह में तुझे सेवा और त्याग के धंधे में पारंगत कर देंगे। शुल्क कुछ नहीं लिया जाएगा, पर जब तेरा धंधा चल पड़े तब श्रद्धानुसार गुरुदक्षिणा दे देना।' पिताजी, मैं सेवा-आश्रम में शिक्षा प्राप्त करने लगा। मैं वहाँ राजसी ठाठ से रहता, सुंदर वस्त्र पहनता, सुस्वादु भोजन करता, सुंदरियाँ पंखा झलतीं, सेवक हाथ जोड़े सामने खड़े रहते। अंतिम दिन मुझे आश्रम के प्रधान ने बुलाया और कहा, 'वत्स, तू सब कलाएँ सीख गया। भगवान का नाम लेकर कार्य आरंभ कर दे।' उन्होंने मुझे ये मोटे सस्ते वस्त्र दिए और कहा, 'बाहर इन्हें पहनना। कर्ण के कवच-कुंडल की तरह ये बदनामी से तेरी रक्षा करेंगे। जब तक तेरी अपनी अट्टालिका नहीं बन जाती, तू इसी भवन में रह सकता है, जा, भगवान तुझे सफलता दें।'
'बस, मैंने उसी दिन 'मानव-सेवा-संघ' खोल दिया। प्रचार कर दिया कि मानव-मात्र की सेवा करने का बीड़ा हमने उठाया है। हमें समाज की उन्नति करना है, देश को आगे बढ़ाना है। गरीबों, भूखों, नंगों, अपाहिजों की हमें सहायता करनी है। हर व्यक्ति हमारे इस पुण्यकार्य में हाथ बँटाये : हमें मानव-सेवा के लिए चंदा दें। पिताजी, उस देश के निवासी बडे भोले हैं। ऐसा कहने से वे चंदा देने लगे। मझले भैया से भी मैंने चंदा लिया था, बड़े भैया के सेठ ने भी दिया और बड़े भैया ने भी पेट काटकर दो मुद्राएँ रख दीं। लुटेरे भाई ने भी मेरे चेलों को एक सहस्र मुद्राएँ दी थीं। क्योंकि एक बार राजा के सैनिक जब उसे पकड़ने आए तो उसे आश्रम में मेरे चेलों ने छिपा लिया था। पिताजी, राज्य का आधार धन है। राजा को प्रजा से धन वसूल करने की विद्या आनी चाहिए। प्रजा से प्रसन्नतापूर्वक धन खींच लेना, राजा का आवश्यक गुण है। उसे बिना नश्तर लगाए खून निकालना आना चाहिए। मुझमें यह गुण है, इसलिए मैं ही राजगद्दी का अधिकारी हूँ। मैंने इस एक साल में चंदे से बीस लाख स्वर्ण-मुद्राएँ कमाई जो मेरे पास हैं।'
'बीस लाख' सुनते ही दरबारियों की आँखें इतनी फटीं कि कोरों से खून टपकने लगा। तब राजा ने मंत्री से पूछा, 'मंत्रिवर, आपकी क्या राय है? चारों में कौन कुमार राजा होने के योग्य है?' मंत्रिवर बोले, 'महाराज इसे सारी राजसभा समझती है कि सब से छोटा कुमार ही सबसे योग्य है। उसने एक साल में बीस लाख मुद्राएँ इकट्ठी कीं। उसमें अपने गुणों के सिवा शेष तीनों कुमारों के गुण भी हैं - बड़े जैसा परिश्रम उसके पास है, दूसरे कुमार के समान वह साहसी और लुटेरा भी है। तीसरे के समान बेईमान और धूर्त भी। अतएव उसे ही राजगद्दी दी जाए। मंत्री की बात सुनकर राजसभा ने ताली बजाई।
दूसरे दिन छोटे राजकुमार का राज्याभिषेक हो गया। तीसरे दिन पड़ोसी राज्य की गुणवती राजकन्या से उसका विवाह भी हो गया। चौथे दिन मुनि की दया से उसे पुत्ररत्न प्राप्त हुआ और वह सुख से राज करने लगा। कहानी थी सो खत्म हुई। जैसे उनके दिन फिरे, वैसे सबके दिन फिरें।

anjaan
14-06-2012, 08:45 PM
सन 1950 ईसवी


बाबू गोपालचंद्र बड़े नेता थे, क्योंकि उन्होंने लोगों को समझाया था और लोग समझ भी गए थे कि अगर वे स्वतंत्रता-संग्राम में दो बार जेल - 'ए क्लास' में - न जाते, तो भारत आजाद होता ही नहीं। तारीख 3 दिसंबर 1950 की रात को बाबू गोपालचंद्र अपने भवन के तीसरे मंजिल के सातवें कमरे में तीन फीट ऊँचे पलँग के एक फीट मोटे गद्दे पर करवटें बदल रहे थे। नहीं, किसी के कोमल कटाक्ष से विद्ध नहीं थे वे। वे योजना से पीड़ित थे। उन्होंने हाल ही में करीब चार लाख रुपया चंदा करके स्वतंत्रता-संग्राम के शहीदों की स्मृति में एक भव्य 'बलि स्मारक' का निर्माण करवाया था। वे उसके प्रवेश द्वार पर देश-प्रेम और बलिदान की कोई कविता अंकित करना चाहते थे। उलझन यही थी कि वे पंक्तियाँ किस कवि की हों। स्वतंत्रता-संग्राम में स्वयं जेल-यात्रा करनेवाले अनेक कवि थे, जिनकी ओजमय कविताएँ थीं और वे नई लिखकर दे भी सकते थे। पर वे बाबू गोपालचंद्र को पसंद नहीं थीं। उनमें शक्ति नहीं है, आत्मा का बल नहीं है उनका मत था।
परेशान होकर उन्होंने रखा ग्रंथ निकाला 'अकबर बीरबल विनोद' और पढ़ने लगे एक किस्सा : '...तब अकबर ने जग्गू ढीमर से कहा, 'देख रे, शहर में जो सब से सुंदर लड़का हो उसे कल दरबार में लाकर हाजिर करना, नहीं तो तेरा सिर काट लिया जाएगा।' बादशाह का हुक्म सुनकर जग्गू ढीमर चिंतित हुआ। आखिर शहर का सबसे सुंदर लड़का कैसे खोजे। वह घर की परछी में खाट पर बड़ा उदास पड़ा था कि इतने में उसकी स्त्री आई। उसने पूछा, 'आज बड़े उदास दीखते हो। कोई बात हो गई है क्या?' जग्गू ने उसे अपनी उलझन बताई। स्त्री ने कहा, 'बस, इतनी-सी बात। अरे अपने कल्लू को ले जाओ। ऐसा सुंदर लड़का शहर-भर में न मिलेगा।' जग्गू को बात पटी। खुश होकर बोला, 'बताओ भला! मेरी अक्ल में इतनी-सी बात नहीं आई। अपने कल्लू की बराबरी कौन कर सकता है।' बस, दूसरे दिन कल्लू को दरबार में हाजिर कर दिया गया। कल्लू खूब काला था। चेहरे पर चेचक के गहरे दाग थे। बड़ा-सा पेट, भिचरी-सी आँखें और चपटी नाक।'
किस्सा पढ़कर बाबू गोपाल ठीक जग्गू ढीमर की तरह प्रसन्न हुए। वे एकदम उठे और पुत्र को पुकारा, 'गोबरधन! सो गया क्या? जरा यहाँ तो आ।' गोबरधन दोस्तों के साथ शराब पीकर अभी लौटा था। लड़खड़ाता हुआ आया। गोपालचंद्र ने पूछा, 'क्यों रे, तू कविता लिखता है न?' गोबरधन अकबका गया। डरा कि अब डाँट पड़ेगी। बोला, 'नहीं बाबूजी, मैंने वह बुरी लत छोड़ दी है।' गोपालचंद्र ने समझाया, 'बेटा, डरो मत। सच बताओ। कविता लिखना तो अच्छी बात है।' गोबरधन की जान तो आधे रास्ते तक निकल गई थी, फिर लौट आई। कहने लगा, 'बाबूजी, पहले दस-पाँच लिखी थीं, पर लोगों ने मेरी प्रतिभा की उपेक्षा की। एक बार कवि-सम्मेलन में सुनाने लगा तो लोगों ने 'हूट' कर दिया। तब से मैंने नहीं लिखी।' गोपालचंद्र ने समझाया, 'बेटा, दुनिया हर 'जीनियस' के साथ ऐसा ही सलूक करती है। तेरी गूढ़ कविता को समझ नहीं पाते होंगे, इसलिए हँसते होंगे। तू मुझे कल चार पंक्तियाँ देशभक्ति और बलिदान के संबंध में लिखकर दे देना।' गोबरधन नीचे देखते हुए बोला, 'बाबूजी, मैंने इन हल्के विषयों पर कभी नहीं लिखा। मैं तो प्रेम की कविता लिखता हूँ। जहूरन बाई के बारे में लिखी है, वह दे दूँ?'
गोपालचंद्र गरम होते-होते बच गए। बड़े संयम से मीठे स्वर में बोले, 'आज कल बलिदान त्याग और देश-प्रेम का फैशन है। इन्हीं पर लिखना चाहिए! गरीबों की दुर्दशा पर भी लिखने का फैशन चल पड़ा है। तू चाहे तो हर विषय पर लिख सकता है। तू कल शाम तक बलिदान और देश-प्रेम के भावोंवाली चार पंक्तियाँ मुझे जोड़कर दे दे। मैं उन्हें राष्ट्र के काम में लानेवाला हूँ।' 'कहीं छपेंगी?' गोबरधन ने उत्सुकता से पूछा। 'छपेंगी नहीं खुदेंगी, बलि-स्मारक के प्रवेश द्वार पर।' गोपालचंद्र ने कहा। गोबरधन दास को प्रेरणा मिल गई। उसने दूसरे दिन शाम तक चार पंक्तियाँ जोड़ दीं। गोपालचंद्र ने उन्हें पढ़ा तो हर्ष से उछल पड़े, 'वाह बेटा, तूने तो एक महाकाव्य का सार तत्व भर दिया है इन चार पक्तियों में। वाह... गागर में सागर!' वे चार पंक्तियाँ तारीख 6 सितंबर को 'बलि-स्मारक' के प्रवेश-द्वार पर खुद गईं। नीचे कवि का नाम अंकित किया गया - गोबरधन दास। सन 2950 ईसवी
विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के शोध कक्ष में डॉ. वीनसनंदन अपने प्रिय छात्र रॉबर्ट मोहन के साथ चर्चा कर रहे थे। इस काल के अंतरराष्ट्रीय नाम होने लगे। रॉबर्ट मोहन डॉ. वीनसनंदन के निर्देश में बीसवीं शताब्दी की कविता पर शोध कर रहा था। मोहन बड़ी उत्तेजना में कह रहा था, 'सर, पुरातत्व विभाग में ऐसा 'क्लू' मिला है कि उस युग के सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रीय कवि का मुझे पता लग गया है। हम लोग बड़े अंधकार में चल रहे थे। परंपरा ने हमें सब गलत जानकारी दी है। निराला, पंत, प्रसाद, माखनलाल चतुर्वेदी, दिनकर आदि कवियों के नाम हम तक आ गए हैं परंतु उस कृतघ्न युग ने अपने सब से महान राष्ट्रीय कवि को विस्मृत कर दिया। मैं विगत युग को प्रकाशित करनेवाला हूँ।'
'तुम दंभी हो।' डॉक्टर ने कहा। 'तो आप मूर्ख हैं।' शिष्य ने उत्तर दिया। गुरु-शिष्य संबंध उस समय इस सीमा तक पहुँच गए थे। गुरु ने बात हँसकर सह ली। फिर बोले, 'रॉबर्ट, मुझे तू पूरी बात तो बता।' राबर्ट ने कहा, 'सर, हाल ही में सन 1950 में निर्मित एक भव्य बलि-स्मारक जमीन के अंदर से खोदा गया है। शिलालेख से मालूम होता है कि वह भारत के स्वतंत्रता-संग्राम में प्राणोत्सर्ग करनेवाले देश-भक्तों की स्मृति में निर्मित किया गया था। उसके प्रवेश-द्वार पर एक कवि की चार पंक्तियाँ अंकित मिली हैं। वह स्मारक देश में सबसे विशाल था। ऐसा मालूम होता है कि समूचे राष्ट्र ने इनके द्वारा शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित की थी। उस पर जिस कवि की कविता अंकित की गई है, वह सबसे महान कवि रहा होगा। 'क्या नाम है उस कवि का?' डॉक्टर साहब ने पूछा। 'गोबरधनदास', मोहन बोला। उसने कागज पर उतारी हुई वे पंक्तियाँ डॉक्टर साहब के सामने रख दीं।
डॉक्टर साहब ने प्रसन्न मुद्रा में कहा, 'वाह, तुमने बड़ा काम किया है।' रॉर्बट बोला, 'पर अब आगे आपकी मदद चाहिए। इस कवि की केवल चार पंक्तियाँ ही मिली हैं, शेष साहित्य के बारे में क्या लिखा जाए?' डॉक्टर साहब ने कहा, 'यह तो बहुत ही सहज है। लिखो, कि उन का शेष साहित्य काल के प्रवाह में बह गया। उस युग में कवियों में गुट-बंदियाँ थीं। गोबरधनदास अत्यंत सरल प्रकृति के, गरीब आदमी थे। वे एकांत साधना किया करते थे। वे किसी गुट में सम्मिलिति नहीं थे। इस लिए उस युग के साहित्यकारों ने उनके साथ बड़ा अन्याय किया। उनकी अवहेलना की गई, उन्हें कोई प्रकाशक नहीं मिला। उनकी कुछ पुस्तकें प्रकाशित हुई थीं। पर अन्य कवियों ने प्रकाशकों से वे पुस्तकें खरीदकर जला दीं।'

anjaan
14-06-2012, 08:45 PM
ठिठुरता हुआ गणतंत्र



चार बार मैं गणतंत्र-दिवस का जलसा दिल्ली में देख चुका हूँ। पाँचवीं बार देखने का साहस नहीं। आखिर यह क्या बात है कि हर बार जब मैं गणतंत्र-समारोह देखता, तब मौसम बड़ा क्रूर रहता। छब्बीस जनवरी के पहले ऊपर बर्फ पड़ जाती है। शीत-लहर आती है, बादल छा जाते हैं, बूँदाबाँदी होती है और सूर्य छिप जाता है। जैसे दिल्ली की अपनी कोई अर्थनीति नहीं है, वैसे ही अपना मौसम भी नहीं है। अर्थनीति जैसे डॉलर, पौंड, रुपया, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा-कोष या भारत सहायता क्लब से तय होती है, वैसे ही दिल्ली का मौसम कश्मीर, सिक्किम, राजस्थान आदि तय करते हैं। इतना बेवकूफ भी नहीं कि मान लूँ, जिस साल मैं समारोह देखता हूँ, उसी साल ऐसा मौसम रहता है। हर साल देखने वाले बताते हैं कि हर गणतंत्र-दिवस पर मौसम ऐसा ही धूपहीन ठिठुरनवाला होता है। आखिर बात क्या है? रहस्य क्या है? जब कांग्रेस टूटी नहीं थी, तब मैंने एक कांग्रेस मंत्री से पूछा था कि यह क्या बात है कि हर गणतंत्र-दिवस को सूर्य छिपा रहता है? सूर्य की किरणों के तले हम उत्सव क्यों नहीं मना सकते? उन्होंने कहा - जरा धीरज रखिए। हम कोशिश में हैं कि सूर्य बाहर आ जाए। पर इतने बड़े सूर्य को बाहर निकालना आसान नहीं हैं। वक्त लगेगा। हमें सत्ता के कम से कम सौ वर्ष तो दीजिए। दिए। सूर्य को बाहर निकालने के लिए सौ वर्ष दिए, मगर हर साल उसका छोटा-मोटा कोना तो निकलता दिखना चाहिए। सूर्य कोई बच्चा तो है नहीं जो अंतरिक्ष की कोख में अटका है, जिसे आप आपरेशन करके एक दिन में निकाल देंगे। इधर जब कांग्रेस के दो हिस्से हो गए तब मैंने एक इंडिकेटी कांग्रेस से पूछा। उसने कहा - ‘हम हर बार सूर्य को बादलों से बाहर निकालने की कोशिश करते थे, पर हर बार सिंडीकेट वाले अड़ंगा डाल देते थे। अब हम वादा करते हैं कि अगले गणतंत्र दिवस पर सूर्य को निकालकर बताएँगे। एक सिंडीकेटी पास खड़ा सुन रहा था। वह बोल पड़ा - ‘यह लेडी (प्रधानमंत्री) कम्युनिस्टों के चक्कर में आ गई है। वही उसे उकसा रहे हैं कि सूर्य को निकालो। उन्हें उम्मीद है कि बादलों के पीछे से उनका प्यारा ‘लाल सूरज’ निकलेगा। हम कहते हैं कि सूर्य को निकालने की क्या जरूरत है? क्या बादलों को हटाने से काम नहीं चल सकता? मैं संसोपाई भाई से पूछ्ता हूँ। वह कहता है - ‘सूर्य गैर-कांग्रेसवाद पर अमल कर रहा है। उसने डाक्टर लोहिया के कहने पर हमारा पार्टी-फार्म दिया था। कांग्रेसी प्रधानमंत्री को सलामी लेते वह कैसे देख सकता है? किसी गैर-काँग्रेसी को प्रधानमंत्री बना दो, तो सूर्य क्या, उसके अच्छे भी निकल पड़ेंगे। जनसंघी भाई से भी पूछा। उसने कहा - ‘सूर्य सेक्युलर होता तो इस सरकार की परेड में निकल आता। इस सरकार से आशा मत करो कि भगवान अंशुमाली को निकाल सकेगी। हमारे राज्य में ही सूर्य निकलेगा। साम्यवादी ने मुझसे साफ कहा - ‘यह सब सी.आई.ए. का षडयंत्र है। सातवें बेड़े से बादल दिल्ली भेजे जाते हैं।’ स्वतंत्र पार्टी के नेता ने कहा - ‘रूस का पिछलग्गू बनने का और क्या नतीजा होगा? प्रसोपा भाई ने अनमने ढंग से कहा - ‘सवाल पेचीदा है। नेशनल कौंसिल की अगली बैठक में इसका फैसला होगा। तब बताऊँगा।’ राजाजी से मैं मिल न सका। मिलता, तो वह इसके सिवा क्या कहते कि इस राज में तारे निकलते हैं, यही गनीमत है।’ मैं इंतजार करूँगा, जब भी सूर्य निकले। स्वतंत्रता-दिवस भी तो भरी बरसात में होता है। अंग्रेज बहुत चालाक हैं। भरी बरसात में स्वतंत्र करके चले गए। उस कपटी प्रेमी की तरह भागे, जो प्रेमिका का छाता भी ले जाए। वह बेचारी भीगती बस-स्टैंड जाती है, तो उसे प्रेमी की नहीं, छाता-चोर की याद सताती है। स्वतंत्रता-दिवस भीगता है और गणतंत्र-दिवस ठिठुरता है। मैं ओवरकोट में हाथ डाले परेड देखता हूँ। प्रधानमंत्री किसी विदेशी मेहमान के साथ खुली गाड़ी में निकलती हैं। रेडियो टिप्पणीकार कहता है - ‘घोर करतल-ध्वनि हो रही है।’ मैं देख रहा हूँ, नहीं हो रही है। हम सब तो कोट में हाथ डाले बैठे हैं। बाहर निकालने का जी नहीं हो रहा है। हाथ अकड़ जाएँगे। लेकिन हम नहीं बजा रहे हैं, फिर भी तालियाँ बज रहीं हैं। मैदान में जमीन पर बैठे वे लोग बजा रहे हैं, जिनके पास हाथ गरमाने के लिए कोट नहीं है। लगता है, गणतंत्र ठिठुरते हुए हाथों की तालियों पर टिका है। गणतंत्र को उन्हीं हाथों की ताली मिलतीं हैं, जिनके मालिक के पास हाथ छिपाने के लिए गर्म कपड़ा नहीं है। पर कुछ लोग कहते हैं - ‘गरीबी मिटनी चाहिए।’ तभी दूसरे कहते हैं - ‘ऐसा कहने वाले प्रजातंत्र के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं।’ गणतंत्र-समारोह में हर राज्य की झाँकी निकलती है। ये अपने राज्य का सही प्रतिनिधित्व नहीं करतीं। ‘सत्यमेव जयते’ हमारा मोटो है मगर झाँकियाँ झूठ बोलती हैं। इनमें विकास-कार्य, जनजीवन इतिहास आदि रहते हैं। असल में हर राज्य को उस विशिष्ट बात को यहाँ प्रदर्शित करना चाहिए जिसके कारण पिछले साल वह राज्य मशहूर हुआ। गुजरात की झाँकी में इस साल दंगे का दृश्य होना चाहिए, जलता हुआ घर और आग में झोंके जाते बच्चे। पिछले साल मैंने उम्मीद की थी कि आंध्र की झाँकी में हरिजन जलते हुए दिखाए जाएँगे। मगर ऐसा नहीं दिखा। यह कितना बड़ा झूठ है कि कोई राज्य दंगे के कारण अंतरराष्ट्रीय ख्याति पाए, लेकिन झाँकी सजाए लघु उद्योगों की। दंगे से अच्छा गृह-उद्योग तो इस देश में दूसरा है नहीं। मेरे मध्यप्रदेश ने दो साल पहले सत्य के नजदीक पहुँचने की कोशिश की थी। झाँकी में अकाल-राहत कार्य बतलाए गए थे। पर सत्य अधूरा रह गया था। मध्यप्रदेश उस साल राहत कार्यों के कारण नहीं, राहत-कार्यों में घपले के कारण मशहूर हुआ था। मेरा सुझाव माना जाता तो मैं झाँकी में झूठे मास्टर रोल भरते दिखाता, चुकारा करनेवाले का अँगूठा हजारों मूर्खों के नाम के आगे लगवाता। नेता, अफसर, ठेकेदारों के बीच लेन-देन का दृश्य दिखाता। उस झाँकी में वह बात नहीं आई। पिछले साल स्कूलों के ‘टाट-पट्टी कांड’ से हमारा राज्य मशहूर हुआ। मैं पिछले साल की झाँकी में यह दृश्य दिखाता - ‘मंत्री, अफसर वगैरह खड़े हैं और टाट-पट्टी खा रहे हैं। जो हाल झाँकियों का, वही घोषणाओं का। हर साल घोषणा की जाती है कि समाजवाद आ रहा है। पर अभी तक नहीं आया। कहाँ अटक गया? लगभग सभी दल समाजवाद लाने का दावा कर रहे हैं, लेकिन वह नहीं आ रहा। मैं एक सपना देखता हूँ। समाजवाद आ गया है और वह बस्ती के बाहर टीले पर खड़ा है। बस्ती के लोग आरती सजाकर उसका स्वागत करने को तैयार खड़े हैं। पर टीले को घेरे खड़े हैं कई समाजवादी। उनमें से हरेक लोगों से कहकर आया है कि समाजवाद को हाथ पकड़कर मैं ही लाऊँगा। समाजवाद टीले से चिल्लाता है - ‘मुझे बस्ती में ले चलो।’ मगर टीले को घेरे समाजवादी कहते हैं - ‘पहले यह तय होगा कि कौन तेरा हाथ पकड़कर ले जाएगा।’ समाजवाद की घेराबंदी है। संसोपा-प्रसोपावाले जनतांत्रिक समाजवादी हैं, पीपुल्स डेमोक्रेसी और नेशनल डेमोक्रेसीवाले समाजवादी हैं। क्रांतिकारी समाजवादी हैं। हरेक समाजवाद का हाथ पकड़कर उसे बस्ती में ले जाकर लोगों से कहना चाहता है - ‘लो, मैं समाजवाद ले आया।’ समाजवाद परेशान है। उधर जनता भी परेशान है। समाजवाद आने को तैयार खड़ा है, मगर समाजवादियों में आपस में धौल-धप्पा हो रहा है। समाजवाद एक तरफ उतरना चाहता है कि उस पर पत्थर पड़ने लगते हैं। ‘खबरदार, उधर से मत जाना!’ एक समाजवादी उसका एक हाथ पकड़ता है, तो दूसरा हाथ पकड़कर खींचता है। तब बाकी समाजवादी छीना-झपटी करके हाथ छुड़ा देते हैं। लहू-लुहान समाजवाद टीले पर खड़ा है। इस देश में जो जिसके लिए प्रतिबद्ध है, वही उसे नष्ट कर रहा है। लेखकीय स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध लोग ही लेखक की स्वतंत्रता छीन रहे हैं। सहकारिता के लिए प्रतिबद्ध इस आंदोलन के लोग ही सहकारिता को नष्ट कर रहे हैं। सहकारिता तो एक स्पिरिट है। सब मिलकर सहकारितापूर्वक खाने लगते हैं और आंदोलन को नष्ट कर देते हैं। समाजवाद को समाजवादी ही रोके हुए हैं। यों प्रधानमंत्री ने घोषणा कर दी है कि अब समाजवाद आ ही रहा है। मैं एक कल्पना कर रहा हूँ। दिल्ली में फरमान जारी हो जाएगा - ‘समाजवाद सारे देश के दौरे पर निकल रहा है। उसे सब जगह पहुँचाया जाए। उसके स्वागत और सुरक्षा का पूरा बंदोबस्त किया जाए। एक सचिव दूसरे सचिव से कहेगा - ‘लो, ये एक और वी.आई.पी. आ रहे हैं। अब इनका इंतजाम करो। नाक में दम है।’ कलेक्टरों को हुक्म चला जाएगा। कलेक्टर एस.डी.ओ. को लिखेगा, एस.डी.ओ. तहसीलदार को। पुलिस-दफ्तरों में फरमान पहुँचेंगे, समाजवाद की सुरक्षा की तैयारी करो। दफ्तरों में बड़े बाबू छोटे बाबू से कहेंगे - ‘काहे हो तिवारी बाबू, एक कोई समाजवाद वाला कागज आया था न! जरा निकालो!’ तिवारी बाबू कागज निकालकर देंगे। बड़े बाबू फिर से कहेंगे - ‘अरे वह समाजवाद तो परसों ही निकल गया। कोई लेने नहीं गया स्टेशन। तिवारी बाबू, तुम कागज दबाकर रख लेते हो। बड़ी खराब आदत है तुम्हारी।’ तमाम अफसर लोग चीफ-सेक्रेटरी से कहेंगे - ‘सर, समाजवाद बाद में नहीं आ सकता? बात यह है कि हम उसकी सुरक्षा का इंतजाम नहीं कर सकेंगे। पूरा फोर्स दंगे से निपटने में लगा है।’ मुख्य सचिव दिल्ली लिख देगा - ‘हम समाजवाद की सुरक्षा का इंतजाम करने में असमर्थ हैं। उसका आना अभी मुल्तवी किया जाए।’ जिस शासन-व्यवस्था में समाजवाद के आगमन के कागज दब जाएँ और जो उसकी सुरक्षा की व्यवस्था न करे, उसके भरोसे समाजवाद लाना है तो ले आओ। मुझे खास ऐतराज भी नहीं है। जनता के द्वारा न आकर अगर समाजवाद दफ्तरों के द्वारा आ गया तो एक ऐतिहासिक घटना हो जाएगी।

anjaan
14-06-2012, 08:46 PM
संस्कृति



भूखा आदमी सड़क किनारे कराह रहा था। एक दयालु आदमी रोटी लेकर उसके पास पहुँचा और उसे दे ही रहा था कि एक-दूसरे आदमी ने उसका हाथ खींच लिया। वह आदमी बड़ा रंगीन था।
पहले आदमी ने पूछा, 'क्यों भाई, भूखे को भोजन क्यों नहीं देने देते?'
रंगीन आदमी बोला, 'ठहरो, तुम इस प्रकार उसका हित नहीं कर सकते। तुम केवल उसके तन की भूख समझ पाते हो, मैं उसकी आत्मा की भूख जानता हूँ। देखते नहीं हो, मनुष्य-शरीर में पेट नीचे है और हृदय ऊपर। हृदय की अधिक महत्ता है।'
पहला आदमी बोला, 'लेकिन उसका हृदय पेट पर ही टिका हुआ है। अगर पेट में भोजन नहीं गया तो हृदय की टिक-टिक बंद नहीं हो जाएगी!'
रंगीन आदमी हँसा, फिर बोला, 'देखो, मैं बतलाता हूँ कि उसकी भूख कैसे बुझेगी!'
यह कहकर वह उस भूखे के सामने बाँसुरी बजाने लगा। दूसरे ने पूछा, 'यह तुम क्या कर रहे हो, इससे क्या होगा?'
रंगीन आदमी बोला, 'मैं उसे संस्कृति का राग सुना रहा हूँ। तुम्हारी रोटी से तो एक दिन के लिए ही उसकी भूख भागेगी, संस्कृति के राग से उसकी जनम-जनम की भूख भागेगी।'
वह फिर बाँसुरी बजाने लगा।
और तब वह भूखा उठा और बाँसुरी झपटकर पास की नाली में फेंक दी।

anjaan
14-06-2012, 08:46 PM
सिद्धांतों की व्यर्थता



अब वे धमकी देने लगे हैं कि हम सिद्धांत और कार्यक्रम की राजनीति करेंगे। वे सभी जिनसे कहा जाता है कि सिद्धांत और कार्यक्रम बताओ। ज्योति बसु पूछते थे, नंबूदरीपाद पूछते थे। मगर वे बताते नहीं थे। हम लोगों को सिद्धांतों के बारे में पिछले चालीस सालों से सुनते-सुनते इतनी एलर्जी हो गई कि हमें उसमें दाल में काला नजर आता है। जब कोई नया मुख्यमंत्री कहता है कि मैं स्वच्छ प्रशासन दूँगा तब हमें घबराहट होती है। भगवान, अब क्या होगा? ये तो स्वच्छ प्रशासन देने पर तुले हैं। स्वच्छ प्रशासन के मारे हम लोगों की किस्मत में कब तक स्वच्छ प्रशासन लिखा रहेगा।
हमारे देश में सबसे आसान काम आदर्शवाद बघारना है और फिर घटिया से घटिया उपयोगितावादी की तरह व्यवहार करना है। कई सदियों से हमारे देश के आदमी की प्रवृत्ति बनाई गई है अपने को आदर्शवादी घोषित करने की, त्यागी घोषित करने की। पैसा जोड़ना त्याग की घोषणा के साथ शुरु होता है। स्वाधीनता संग्राम के सालों में गाँधीजी के प्रभाव से आदर्शवादिता और त्याग राजनीतिकर्ता को शोभा देने लगे थे। वे वर्ष त्याग के थे भी। मगर सत्ता की राजनीति एक ठोस व्यवहारिक चीज है। विश्वनाथ प्रताप सिंह के साथ निकले लोगों और पहले से बाहर लोगों ने ‘जनमोर्चा’ बनाया था। ये लोग आदर्शवाद के मूड के थे। विश्वनाथ प्रताप को आदर्शवाद का नशा आ गया था। मोर्चे के नेता की हैसियत से उन्होंने घोषणा की कि मोर्चे का कोई सदस्य पाँच साल तक कोई पद नहीं लेगा। सब त्यागी हो गए। हमें तब लगा कि आगे चुनाव के बाद अगर ये जीत गए तो पद लेने के लिए इन्हें मनाना पड़ेगा। हाथ जोड़ना पड़ेगा कि आप मुख्यमंत्री बन जाइए और वह कहेगा हटो - मैं पदलोलुप नहीं हूँ। मैं नहीं बनूँगा मुख्यमंत्री। तब मंत्रिमंडल कैसे बनेंगे?
कोई मंत्री बनने को तैयार नहीं होगा। देश शासकविहीन होने की स्थिति में आ जाएगा। तब हमें इन नेताओं के दरवाजों पर सत्याग्रह करना पड़ेगा, आमरण अनशन करना पड़ेगा कि आप मंत्री नहीं होंगे, तो हम प्राण दे देंगे। तब कहीं ये पद ग्रहण को तैयार होंगे।
मगर अभी जो आपसी कशमकश चल रही है वह पदों के लिए है। समाजवादी दल बनना तय है तो उसमें त्यागी लोग अपनी सीट तय कर लेना चाहते है। सबसे बड़ी लड़ाई सबसे ऊँचे पद प्रधानमंत्री के लिए है। देवीलाल ने घोषणा कर दी और एन.टी. रामाराव ने समर्थन कर दिया कि विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री होंगे। इस पर चंद्रशेखर और बहुगुणा को एतराज है। दोनों विश्वनाथ को अपना नेता नहीं मानते। एन.टी. रामाराव का कोई सिद्धांत नहीं है। रूपक सजाना कोई सिद्धांत नहीं। चावल सस्ता तीन रुपए किलो कर देंगे, अगर वोट हमें दिए - यह कोई सिद्धांत नहीं है। इस चावल सिद्धांत, वेश, चैतन्य रथ और नाटकबाजी से बने मुख्यमंत्री एन.टी. रामाराव कोई सिद्धांत मान भी नहीं सकते। देवीलाल का भी कोई सिद्धांत नहीं है। चंद्रशेखर कभी कांग्रेस में युवा तुर्क थे। वे समाजवादी थे। अब क्या हो गए हैं? बहुगुणा की छवि वामपंथी की रही है। पिछले सालों से वे न जाने क्या हैं। पदलिप्सा को त्यागने की घोषणा करनेवालों का हाल यह है कि पदों के लिए पार्टियाँ टूट रही हैं। मगर बहुगुणा और चंद्रशेखर को नेता नहीं मानते, तो विश्वनाथ ने भी इनसे कुछ जवाब माँगे और समाजवादी दल में शामिल होने के लिए शर्ते रखीं। अब सिद्धांत की जरूरत ही क्या? मगर घोषणाएँ हो रही हैं कि गड़बड़ की तो हम सिद्धांत की राजनीति करने लगेंगे।

anjaan
14-06-2012, 08:47 PM
दो नाक वाले लोग



मैं उन्हें समझा रहा था कि लड़की की शादी में टीमटाम में व्यर्थ खर्च मत करो।
पर वे बुजुर्ग कह रहे थे - आप ठीक कहते हैं, मगर रिश्तेदारों में नाक कट जाएगी।
नाक उनकी काफी लंबी थी। मेरा ख्याल है, नाक की हिफाजत सबसे ज्यादा इसी देश में होती है। और या तो नाक बहुत नर्म होती है या छुरा बहुत तेज, जिससे छोटी-सी बात से भी नाक कट जाती है। छोटे आदमी की नाक बहुत नाजुक होती है। यह छोटा आदमी नाक को छिपाकर क्यों नहीं रखता?
कुछ बड़े आदमी, जिनकी हैसियत है, इस्पात की नाक लगवा लेते हैं और चमड़े का रंग चढ़वा लेते हैं। कालाबाजार में जेल हो आए हैं औरत खुलेआम दूसरे के साथ 'बाक्स' में सिनेमा देखती है, लड़की का सार्वजनिक गर्भपात हो चुका है। लोग उस्तरा लिए नाक काटने को घूम रहे हैं। मगर काटें कैसे? नाक तो स्टील की है। चेहरे पर पहले जैसी ही फिट है और शोभा बढ़ा रही है।
स्मगलिंग में पकड़े गए हैं। हथकड़ी पड़ी है। बाजार में से ले जाए जा रहे हैं। लोग नाक काटने को उत्सुक हैं। पर वे नाक को तिजोड़ी मे रखकर स्मगलिंग करने गए थे। पुलिस को खिला-पिलाकर बरी होकर लौटेंगे और फिर नाक पहन लेंगे।
जो बहुत होशियार हैं, वे नाक को तलवे में रखते हैं। तुम सारे शरीर में ढूँढ़ो, नाक ही नहीं मिलती। नातिन की उम्र की दो लड़कियों से बलात्कार कर चुके हैं। जालसाजी और बैंक को धोखा देने में पकड़े जा चुके हैं। लोग नाक काटने को उतावले हैं, पर नाक मिलती ही नहीं। वह तो तलवे में है। कोई जीवशास्त्री अगर नाक की तलाश भी कर दे तो तलवे की नाक काटने से क्या होता है? नाक तो चेहरे पर की कटे, तो कुछ मतलब होता है।
और जो लोग नाक रखते ही नहीं हैं, उन्हें तो कोई डर ही नहीं है। दो छेद हैं, जिनसे साँस ले लेते हैं।
कुछ नाकें गुलाब के पौधे की तरह होती हैं। कलम कर दो तो और अच्छी शाखा बढ़ती है और फूल भी बढ़िया लगते हैं। मैंने ऐसी फूलवाली खुशबूदार नाकें बहुत देखीं हैं। जब खुशबू कम होने लगती है, ये फिर कलम करा लेते हैं, जैसे किसी औरत को छेड़ दिया और जूते खा गए।
'जूते खा गए' अजब मुहावरा है। जूते तो मारे जाते हैं। वे खाए कैसे जाते हैं? मगर भारतवासी इतना भुखमरा है कि जूते भी खा जाता है।
नाक और तरह से भी बढ़ती है। एक दिन एक सज्जन आए। बड़े दुखी थे। कहने लगे - हमारी तो नाक कट गई। लड़की ने भागकर एक विजातीय से शादी कर ली। हम ब्राह्मण और लड़का कलाल! नाक कट गई।
मैंने उन्हें समझाया कि कटी नहीं है, कलम हुई है। तीन-चार महीनों में और लंबी बढ़ जाएगी।
तीन-चार महीने बाद वे मिले तो खुश थे। नाक भी पहले से लंबी हो गई थी। मैंने कहा - नाक तो पहले से लंबी मालूम होती है।
वे बोले - हाँ, कुछ बढ़ गई है। काफी लोग कहते हैं, आपने बड़ा क्रांतिकारी काम किया। कुछ बिरादरीवाले भी कहते हैं। इसलिए नाक बढ़ गई है।
कुछ लोग मैंने देखे हैं जो कई साल अपने शहर की नाक रहे हैं। उनकी नाक अगर कट जाए तो सारे शहर की नाक कट जाती है। अगर उन्हें संसद का टिकिट न मिले, तो सारा शहर नकटा हो जाता है। पर अभी मैं एक शहर गया तो लोगों ने पूछा - फलाँ साहब के क्या हाल हैं? वे इस शहर की नाक हैं। तभी एक मसखरे ने कहा - हाँ साहब, वे अभी भी शहर की नाक हैं, मगर छिनकी हुई। (यह वीभत्स रस है। रस सिद्धांत प्रेमियों को अच्छा लगेगा।)
मगर बात मैं उन सज्जन की कर रहा था जो मेरे सामने बैठे थे और लड़की की शादी पुराने ठाठ से ही करना चाहते थे। पहले वे रईस थे - याने मध्यम हैसियत के रईस। अब गरीब थे। बिगड़ा रईस और बिगड़ा घोड़ा एक तरह के होते हैं - दोनों बौखला जाते हैं। किससे उधार लेकर खा जाएँ, ठिकाना नहीं। उधर बिगड़ा घोड़ा किसे कुचल दे, ठिकाना नहीं। आदमी को बिगड़े रईस और बिगड़े घोड़े, दोनों से दूर रहना चाहिए। मैं भरसक कोशिश करता हूँ। मैं तो मस्ती से डोलते आते साँड़ को देखकर भी सड़क के किनारे की इमारत के बरामदे में चढ़ जाता हूँ - बड़े भाई साहब आ रहे हैं। इनका आदर करना चाहिए।
तो जो भूतपूर्व संपन्न बुजुर्ग मेरे सामने बैठे थे, वे प्रगतिशील थे। लड़की का अंतरजातीय विवाह कर रहे थे। वे खत्री और लड़का शुद्ध कान्यकुब्ज। वे खुशी से शादी कर रहे थे। पर उसमें विरोधाभास यह था कि शादी ठाठ से करना चाहते थे। बहुत लोग एक परंपरा से छुटकारा पा लेते हैं, पर दूसरी से बँधे रहते हैं। रात को शराब की पार्टी से किसी ईसाई दोस्त के घर आ रहे हैं, मगर रास्ते में हनुमान का मंदिर दिख जाए तो थोड़ा तिलक भी सिंदूर का लगा लेंगे। मेरा एक घोर नास्तिक मित्र था। हम घूमने निकलते तो रास्ते में मंदिर देखकर वे कह उठते - हरे राम! बाद में पछताते भी थे।
तो मैं उन बुजुर्ग को समझा रहा था - आपके पास रुपए हैं नहीं। आप कर्ज लेकर शादी का ठाठ बनाएँगे। पर कर्ज चुकाएँगे कहाँ से? जब आपने इतना नया कदम उठाया है, कि अंतरजातीय विवाह कर रहे हैं, तो विवाह भी नए ढंग से कीजिए। लड़का कान्यकुब्ज का है। बिरादरी में शादी करता तो कई हजार उसे मिलते। लड़के शादी के बाजार में मवेशी की तरह बिकते हैं। अच्छा मालवी बैल और हरयाणा की भैंस ऊँची कीमत पर बिकती हैं। लड़का इतना त्याग तो लड़की के प्रेम के लिए कर चुका। फिर भी वह कहता है - अदालत जाकर शादी कर लेते हैं। बाद में एक पार्टी कर देंगे। आप आर्य-समाजी हैं। घंटे भर में रास्ते में आर्यसमाज मंदिर में वैदिक रीति से शादी कर डालिए। फिर तीन-चार सौ रुपयों की एक पार्टी दे डालिए। लड़के को एक पैसा भी नहीं चाहिए। लड़की के कपड़े वगैरह मिलाकर शादी हजार में हो जाएगी।
वे कहने लगे - बात आप ठीक कहते हैं। मगर रिश्तेदारों को तो बुलाना ही पड़ेगा। फिर जब वे आएँगे तो इज्जत के ख्याल से सजावट, खाना, भेंट वगैरह देनी होगी।
मैंने कहा - आपका यहाँ तो कोई रिश्तेदार है नहीं। वे हैं कहाँ?
उन्होंने जवाब दिया - वे पंजाब में हैं। पटियाला में ही तीन करीबी रिश्तेदार हैं। कुछ दिल्ली में हैं। आगरा में हैं।
मैंने कहा - जब पटियालावाले के पास आपका निमंत्रण-पत्र पहुँचेगा, तो पहले तो वह आपको दस गालियाँ देगा - मई का यह मौसम, इतनी गर्मी। लोग तड़ातड़ लू से मर रहे हैं। ऐसे में इतना खर्च लगाकर जबलपुर जाओ। कोई बीमार हो जाए तो और मुसीबत। पटियाला या दिल्लीवाला आपका निमंत्रण पाकर खुश नहीं दुखी होगा। निमंत्रण-पत्र न मिला तो वह खुश होगा और बाद में बात बनाएगा। कहेगा - आजकल जी, डाक की इतनी गड़बड़ी हो गई है कि निमंत्रण पत्र ही नहीं मिला। वरना ऐसा हो सकता था कि हम ना आते।
मैंने फिर कहा - मैं आपसे कहता हूँ कि दूर से रिश्तेदार का निमंत्रण पत्र मुझे मिलता है, तो मैं घबरा उठता हूँ।
सोचता हूँ - जो ब्राह्मण ग्यारह रुपए में शनि को उतार दे, पच्चीस रुपयों में सगोत्र विवाह करा दे, मंगली लड़की का मंगल पंद्रह रुपयों में उठाकर शुक्र के दायरे में फेंक दे, वह लग्न सितंबर से लेकर मार्च तक सीमित क्यों नहीं कर देता? मई और जून की भयंकर गर्मी की लग्नें गोल क्यों नहीं कर देता? वह कर सकता है। और फिर ईसाई और मुसलमानों में जब बिना लग्न शादी होती है, तो क्या वर-वधू मर जाते हैं। आठ प्रकार के विवाहों में जो 'गंधर्व विवाह' है वह क्या है? वह यही शादी है जो आज होने लगा है, कि लड़का-लड़की भागकर कहीं शादी कर लेते हैं। इधर लड़की का बाप गुस्से में पुलिस में रिपोर्ट करता है कि अमुक लड़का हमारी 'नाबालिग' लड़की को भगा ले गया है। मगर कुछ नहीं होता; क्योंकि लड़की मैट्रिक का सर्टिफिकेट साथ ले जाती है जिसमें जन्म-तारीख होती है।
वे कहने लगे - नहीं जी, रिश्तेदारों में नाक कट जाएगी।
मैंने कहा - पटियाला से इतना किराया लगाकर नाक काटने इधर कोई नहीं आएगा। फिर पटियाला में कटी नाक को कौन इधर देखेगा। काट लें पटियाला में।
वे थोड़ी देर गुमसुम बैठे रहे।
मैंने कहा - देखिए जी, आप चाहें तो मैं पुरोहित हो जाता हूँ और घंटे भर में शादी करा देता हूँ।
वे चौंके। कहने लगे - आपको शादी कराने की विधि आती है?
मैंने कहा - हाँ, ब्राह्मण का बेटा हूँ। बुजुर्गों ने सोचा होगा कि लड़का नालायक निकल जाए और किसी काम-धंधे के लायक न रहे, तो इसे कम से कम सत्यनारायण की कथा और विवाह विधि सिखा दो। ये मैं बचपन में ही सीख गया था।
मैंने आगे कहा - और बात यह है कि आजकल कौन संस्कृत समझता है। और पंडित क्या कह रहा है, इसे भी कौन सुनता है। वे तो 'अम' और 'अह' इतना ही जानते हैं। मैं इस तरह मंगल-श्लोक पढ़ दूँ तो भी कोई ध्यान नहीं देगा -ओम जेक एंड विल वेंट अप दी हिल टु फेच ए पेल ऑफ वाटरम, ओम जेक फेल डाउन एंड ब्रोक हिज क्राउन एंड जिल केम ट्रंबलिंग आफ्टर कुर्यात् सदा मंगलम्... इसे लोग वैदिक मंत्र समझेंगे।
वे हँसने लगे।
मैंने कहा - लड़का उत्तर प्रदेश का कान्यकुब्ज और आप पंजाब के खत्री - एक दूसरे के रिश्तेदारों को कोई नहीं जानता। आप एक सलाह मेरी मानिए। इससे कम में भी निपट जाएगा और नाक भी कटने से बच जाएगी। लड़के के पिता की मृत्यु हो चुकी है। आप घंटे भर में शादी करवा दीजिए। फिर रिश्तेदारों को चिट्ठियाँ लिखिए - 'इधर लड़के के पिता को दिल का तेज दौरा पड़ा। डाक्टरों ने उम्मीद छोड़ दी थी। दो-तीन घंटे वे किसी तरह जी सकते थे। उन्होंने इच्छा प्रकट की कि मृत्यु के पहले ही लड़के की शादी हो जाए तो मेरी आत्मा को शांति मिल जाएगी। लिहाजा उनकी भावना को देखते हुए हमने फौरन शादी कर दी। लड़का-लड़की वर-वधू के रूप में उनके सामने आए। उनसे चरणों पर सिर रखे। उन्होंने इतना ही कहा - सुखी रहो। और उनके प्राण-पखेरू उड़ गए। आप माफ करेंगे कि इसी मजबूरी के कारण हम आपको शादी में नहीं बुला सके। कौन जानता है आपके रिश्तेदारों में कि लड़के के पिता की मृत्यु कब हुई ?
उन्होंने सोचा। फिर बोले - तरकीब ठीक है! पर इस तरह की धोखाधड़ी मुझे पसंद नहीं।
खैर मैं उन्हें काम का आदमी लगा नहीं।
दूसरे दिन मुझे बाहर जाना पड़ा। दो-तीन महीने बाद लौटा तो लोगों ने बताया कि उन्होंने सामान और नकद लेकर शादी कर डाली।
तीन-चार दिन बाद से ही साहूकार सवेरे से तकादा करने आने लगे।
रोज उनकी नाक थोड़ी-थोड़ी कटने लगी।
मैंने पूछा - अब क्या हाल हैं?
लोग बोले - अब साहूकार आते हैं तो यह देखकर निराश लौट जाते हैं कि काटने को नाक ही नहीं बची।
मैंने मजाक में कहा - साहूकारों से कह दो कि इनकी दूसरी नाक पटियाला में पूरी रखी है। वहाँ जाकर काट लो।

anjaan
14-06-2012, 08:48 PM
नया साल


साधो, बीता साल गुजर गया और नया साल शुरू हो गया। नए साल के शुरू में शुभकामना देने की परंपरा है। मैं तुम्हें शुभकामना देने में हिचकता हूँ। बात यह है साधो कि कोई शुभकामना अब कारगर नहीं होती। मान लो कि मैं कहूँ कि ईश्वर नया वर्ष तुम्हारे लिए सुखदायी करें तो तुम्हें दुख देनेवाले ईश्वर से ही लड़ने लगेंगे। ये कहेंगे, देखते हैं, तुम्हें ईश्वर कैसे सुख देता है। साधो, कुछ लोग ईश्वर से भी बड़े हो गए हैं। ईश्वर तुम्हें सुख देने की योजना बनाता है, तो ये लोग उसे काटकर दुख देने की योजना बना लेते हैं।
साधो, मैं कैसे कहूँ कि यह वर्ष तुम्हें सुख दे। सुख देनेवाला न वर्ष है, न मैं हूँ और न ईश्वर है। सुख और दुख देनेवाले दूसरे हैं। मैं कहूँ कि तुम्हें सुख हो। ईश्वर भी मेरी बात मानकर अच्छी फसल दे! मगर फसल आते ही व्यापारी अनाज दबा दें और कीमतें बढ़ा दें तो तुम्हें सुख नहीं होगा। इसलिए तुम्हारे सुख की कामना व्यर्थ है।
साधो, तुम्हें याद होगा कि नए साल के आरंभ में भी मैंने तुम्हें शुभकामना दी थी। मगर पूरा साल तुम्हारे लिए दुख में बीता। हर महीने कीमतें बढ़ती गईं। तुम चीख-पुकार करते थे तो सरकार व्यापारियों को धमकी दे देती थी। ज्यादा शोर मचाओ तो दो-चार व्यापारी गिरफ्तार कर लेते हैं। अब तो तुम्हारा पेट भर गया होगा। साधो, वह पता नहीं कौन-सा आर्थिक नियम है कि ज्यों-ज्यों व्यापारी गिरफ्तार होते गए, त्यों-त्यों कीमतें बढ़ती गईं। मुझे तो ऐसा लगता है, मुनाफाखोर को गिरफ्तार करना एक पाप है। इसी पाप के कारण कीमतें बढ़ीं।
साधो, मेरी कामना अक्सर उल्टी हो जाती है। पिछले साल एक सरकारी कर्मचारी के लिए मैंने सुख की कामना की थी। नतीजा यह हुआ कि वह घूस खाने लगा। उसे मेरी इच्छा पूरी करनी थी और घूस खाए बिना कोई सरकारी कर्मचारी सुखी हो नहीं सकता। साधो, साल-भर तो वह सुखी रहा मगर दिसंबर में गिरफ्तार हो गया। एक विद्यार्थी से मैंने कहा था कि नया वर्ष सुखमय हो, तो उसने फर्स्ट क्लास पाने के लिए परीक्षा में नकल कर ली। एक नेता से मैंने कह दिया था कि इस वर्ष आपका जीवन सुखमय हो, तो वह संस्था का पैसा खा गया।
साधो, एक ईमानदार व्यापारी से मैंने कहा था कि नया वर्ष सुखमय हो तो वह उसी दिन से मुनाफाखोरी करने लगा। एक पत्रकार के लिए मैंने शुभकामना व्यक्त की तो वह 'ब्लैकमेलिंग' करने लगा। एक लेखक से मैंने कह दिया कि नया वर्ष तुम्हारे लिए सुखदायी हो तो वह लिखना छोड़कर रेडियो पर नौकर हो गया। एक पहलवान से मैंने कह दिया कि बहादुर तुम्हारा नया साल सुखमय हो तो वह जुए का फड़ चलाने लगा। एक अध्यापक को मैंने शुभकामना दी तो वह पैसे लेकर लड़कों को पास कराने लगा। एक नवयुवती के लिए सुख कामना की तो वह अपने प्रेमी के साथ भाग गई। एक एम.एल.ए. के लिए मैंने शुभकामना व्यक्त कर दी तो वह पुलिस से मिलकर घूस खाने लगा।
साधो, मुझे तुम्हें नए वर्ष की शुभकामना देने में इसीलिए डर लगता है। एक तो ईमानदार आदमी को सुख देना किसी के वश की बात नहीं हैं। ईश्वर तक के नहीं। मेरे कह देने से कुछ नहीं होगा। अगर मेरी शुभकामना सही होना ही है, तो तुम साधुपन छोड़कर न जाने क्या-क्या करने लगेंगे। तुम गाँजा-शराब का चोर-व्यापार करने लगोगे। आश्रम में गाँजा पिलाओगे और जुआ खिलाओगे। लड़कियाँ भगाकर बेचोगे। तुम चोरी करने लगोगे। तुम कोई संस्था खोलकर चंदा खाने लगोगे। साधो, सीधे रास्ते से इस व्यवस्था में कोई सुखी नहीं होता। तुम टेढ़े रास्ते अपनाकर सुखी होने लगोगे। साधो, इसी डर से मैं तुम्हें नए वर्ष के लिए कोई शुभकामना नहीं देता। कहीं तुम सुखी होने की कोशिश मत करने लगना।

madhuu
22-01-2013, 07:57 PM
दस दिनों का अनशन [ हरिशंकर परसाई ]

madhuu
22-01-2013, 07:57 PM
१० ज़नवरी

आज मैंने बन्नू से कहा, “देख बन्नू, दौर ऐसा आ गया है कि संसद, कानून, संविधान, न्यायालय सब बेकार हो गये हैं। बड़ी-बड़ी मांगें अनशन और आत्मदाह की धमकी से पूरी हो रही हैं। 20 साल का प्रजातंत्र ऐसा पक गया है कि एक आदमी के मर जाने या भूखा रह जाने से पचास करोड़ आदमियों के भाग्य का फैसला हो रहा है। इस वक्त तू भी उस औरत के लिए अनशन कर डाल।”

बन्नू सोचने लगा। वह राधिका बाबू की बीवी सावित्री के पीछे सालों से पड़ा है। भगाने की कोशिश में एक बार पिट भी चुका है। तलाक दिलवाकर उसे घर में डाल नहीं सकता, क्योंकि सावित्री बन्नू से नफरत करती है।
सोचकर बोला, “मगर इसके लिए अनशन हो भी सकता है?”
मैंने कहा, “इस वक्त हर बात के लिए हो सकता है। अभी बाबा सनकीदास ने अनशन करके कानून बनवा दिया है कि हर आदमी जटा रखेगा और उसे कभी धोएगा नहीं। तमाम सिरों से दुर्गंध निकल रही है। तेरी मांग तो बहुत छोटी है – सिर्फ एक औरत के लिए।”

madhuu
22-01-2013, 07:58 PM
सुरेन्द्र वहां बैठा था। बोला, “यार कैसी बात करते हो! किसी की बीवी को हड़पने के लिए अनशन होगा? हमें कुछ शर्म तो आनी चाहिए। लोग हंसेंगे।”
मैंने कहा, “अरे यार, शर्म तो बड़े-बड़े अनशनिया साधु-संतों को नहीं आयी। हम तो मामूली आदमी हैं। जहां तक हंसने का सवाल है, गोरक्षा आंदोलन पर सारी दुनिया के लोग इतना हंस चुके हैं कि उनका पेट दुखने लगा है। अब कम-से-कम दस सालों तक कोई आदमी हंस नहीं सकता। जो हंसेगा वो पेट के दर्द से मर जाएगा।”

madhuu
22-01-2013, 07:59 PM
बन्नू ने कहा, “सफलता मिल जाएगी?”

मैंने कहा, “यह तो ‘इशू’ बनाने पर है। अच्छा बन गया तो औरत मिल जाएगी। चल, हम ‘एक्सपर्ट’ के पास चलकर सलाह लेते हैं। बाबा सनकीदास विशेषज्ञ हैं। उनकी अच्छी ‘प्रैक्टिस’ चल रही है। उनके निर्देशन में इस वक्त चार आदमी अनशन कर रहे हैं।”
हम बाबा सनकीदास के पास गये। पूरा मामला सुनकर उन्होंने कहा, “ठीक है। मैं इस मामले को हाथ में ले सकता हूं। जैसा कहूं वैसा करते जाना। तू आत्मदाह की धमकी दे सकता है?”
बन्नू कांप गया। बोला, “मुझे डर लगता है।”
“जलना नहीं है रे। सिर्फ धमकी देना है।”
“मुझे तो उसके नाम से भी डर लगता है।”
बाबा ने कहा, “अच्छा तो फिर अनशन कर डाल। ‘इशू’ हम बनाएंगे।”
बन्नू फिर डरा। बोला, “मर तो नहीं जाऊंगा।”
बाबा ने कहा, “चतुर खिलाड़ी नहीं मरते। वे एक आंख मेडिकल रिपोर्ट पर और दूसरी मध्यस्थ पर रखते हैं। तुम चिंता मत करो। तुम्हें बचा लेंगे और वह औरत भी दिला देंगे।”

madhuu
22-01-2013, 08:00 PM
11 जनवरी
आज बन्नू आमरण अनशन पर बैठ गया। तंबू में धूप-दीप जल रहे हैं। एक पार्टी भजन गा रही है – ‘सबको सन्मति दे भगवान्!’। पहले ही दिन पवित्र वातावरण बन गया है। बाबा सनकीदास इस कला के बड़े उस्ताद हैं। उन्होंने बन्नू के नाम से जो वक्तव्य छपा कर बंटवाया है, वो बड़ा जोरदार है। उसमें बन्नू ने कहा है कि ‘मेरी आत्मा से पुकार उठ रही है कि मैं अधूरी हूं। मेरा दूसरा खंड सावित्री में है। दोनों आत्म-खंडों को मिलाकर एक करो या मुझे भी शरीर से मुक्त करो। मैं आत्म-खंडों को मिलाने के लिए आमरण अनशन पर बैठा हूं। मेरी मांग है कि सावित्री मुझे मिले। यदि नहीं मिलती तो मैं अनशन से इस आत्म-खंड को अपनी नश्वर देह से मुक्त कर दूंगा। मैं सत्य पर हूं, इसलिए निडर हूं। सत्य की जय हो!’
सावित्री गुस्से से भरी हुई आयी थी। बाबा सनकीदास से कहा, “यह हरामजादा मेरे लिए अनशन पर बैठा है न?”
बाबा बोले, “देवी, उसे अपशब्द मत कहो। वह पवित्र अनशन पर बैठा है। पहले हरामजादा रहा होगा। अब नहीं रहा। वह अनशन कर रहा है।”
सावित्री ने कहा, “मगर मुझे तो पूछा होता। मैं तो इस पर थूकती हूं।”
बाबा ने शांति से कहा, “देवी, तू तो ‘इशू’ है। ‘इशू’ से थोड़े ही पूछा जाता है। गोरक्षा आंदोलन वालों ने गाय से कहां पूछा था कि तेरी रक्षा के लिए आंदोलन करें या नहीं। देवी, तू जा। मेरी सलाह है कि अब तुम या तुम्हारा पति यहां न आएं। एक-दो दिन में जनमत बन जाएगा और तब तुम्हारे अपशब्द जनता बर्दाश्त नहीं करेगी।”
वह बड़बड़ाती हुई चली गयी।
बन्नू उदास हो गया। बाबा ने समझाया, “चिंता मत करो। जीत तुम्हारी होगी। अंत में सत्य की ही जीत होती है।”

madhuu
22-01-2013, 08:00 PM
13 जनवरी

बन्नू भूख का बड़ा कच्चा है। आज तीसरे ही दिन कराहने लगा। बन्नू पूछता है, ” जयप्रकाश नारायण आये?”
मैंने कहा, “वे पांचवें या छठे दिन आते हैं। उनका नियम है। उन्हें सूचना दे दी है।”

वह पूछता है, “विनोबा ने क्या कहा है इस विषय में?”
बाबा बोले, “उन्होंने साधन और साध्य की मीमांसा की है, पर थोड़ा तोड़कर उनकी बात को अपने पक्ष में उपयोग किया जा सकता है।”
बन्नू ने आंखें बंद कर लीं। बोला, “भैया, जयप्रकाश बाबू को जल्दी बुलाओ।”
आज पत्रकार भी आये थे। बड़ी दिमाग-पच्ची करते रहे।
पूछने लगे, “उपवास का हेतु कैसा है? क्या वह सार्वजनिक हित में है?”
बाबा ने कहा, “हेतु अब नहीं देखा जाता। अब तो इसके प्राण बचाने की समस्या है। अनशन पर बैठना इतना बड़ा आत्म-बलिदान है कि हेतु भी पवित्र हो जाता है।”
मैंने कहा, “और सार्वजनिक हित इससे होगा। कितने ही लोग दूसरे की बीवी छीनना चाहते हैं, मगर तरकीब उन्हें नहीं मालूम। अनशन अगर सफल हो गया, तो जनता का मार्गदर्शन करेगा।”

madhuu
22-01-2013, 08:01 PM
14 जनवरी

बन्नू और कमजोर हो गया है। वह अनशन तोड़ने की धमकी हम लोगों को देने लगा है। इससे हम लोगों का मुंह काला हो जाएगा। बाबा सनकीदास ने उसे बहुत समझाया।
आज बाबा ने एक और कमाल कर दिया। किसी स्वामी रसानंद का वक्तव्य अख़बारों में छपवाया है। स्वामीजी ने कहा है कि मुझे तपस्या के कारण भूत और भविष्य दिखता है। मैंने पता लगाया है क बन्नू पूर्वजन्म में ऋषि था और सावित्री ऋषि की धर्मपत्नी। बन्नू का नाम उस जन्म में ऋषि वनमानुस था। उसने तीन हजार वर्षों के बाद अब फिर नरदेह धारण की है। सावित्री का इससे जन्म-जन्मान्तर का संबंध है। यह घोर अधर्म है कि एक ऋषि की पत्नी को राधिका प्रसाद-जैसा साधारण आदमी अपने घर में रखे। समस्त धर्मप्राण जनता से मेरा आग्रह है कि इस अधर्म को न होने दें।
इस वक्तव्य का अच्छा असर हुआ। कुछ लोग ‘धर्म की जय हो!’ नारे लगाते पाये गये। एक भीड़ राधिका बाबू के घर के सामने नारे लगा रही थी…
“राधिका प्रसाद पापी है! पापी का नाश हो! धर्म की जय हो।”
स्वामीजी ने मंदिरों में बन्नू की प्राण-रक्षा के लिए प्रार्थना का आयोजन करा दिया है।

madhuu
22-01-2013, 08:01 PM
15 जनवरी

रात को राधिका बाबू के घर पर पत्थर फेंके गये।
जनमत बन गया है।
स्त्री-पुरुषों के मुख से यह वाक्य हमारे एजेंटों ने सुने… “बेचारे को पांच दिन हो गये। भूखा पड़ा है।”
“धन्य है इस निष्ठा को।”
“मगर उस कठकरेजी का कलेजा नहीं पिघला।”
“उसका मरद भी कैसा बेशरम है।”
“सुना है पिछले जन्म में कोई ऋषि था।”
“स्वामी रसानंद का वक्तव्य नहीं पढ़ा!”
“बड़ा पाप है ऋषि की धर्मपत्नी को घर में डाले रखना।”
आज ग्यारह सौभाग्यवतियों ने बन्नू को तिलक किया और आरती उतारी।
बन्नू बहुत खुश हुआ। सौभाग्यवतियों को देख कर उसका जी उछलने लगता है।

madhuu
22-01-2013, 08:02 PM
अखबार अनशन के समाचारों से भरे हैं।

आज एक भीड़ हमने प्रधानमंत्री के बंगले पर हस्तक्षेप की मांग करने और बन्नू के प्राण बचाने की अपील करने भेजी थी। प्रधानमंत्री ने मिलने से इनकार कर दिया।
देखते हैं कब तक नहीं मिलते।
शाम को जयप्रकाश नारायण आ गये। नाराज थे। कहने लगे, “किस-किस के प्राण बचाऊं मैं? मेरा क्या यही धंधा है? रोज कोई अनशन पर बैठ जाता है और चिल्लाता है प्राण बचाओ। प्राण बचाना है तो खाना क्यों नहीं लेता? प्राण बचाने के लिए मध्यस्थ की कहां जरूरत है? यह भी कोई बात है! दूसरे की बीवी छीनने के लिए अनशन के पवित्र अस्त्र का उपयोग किया जाने लगा है।”
हमने समझाया, “यह ‘इशू’ जरा दूसरे किस्म का है। आत्मा से पुकार उठी थी।”
वे शांत हुए। बोले, “अगर आत्मा की बात है तो मैं इसमें हाथ डालूंगा।”
मैंने कहा, “फिर कोटि-कोटि धर्मप्राण जनता की भावना इसके साथ जुड़ गयी है।”
जयप्रकाश बाबू मध्यस्थता करने को राजी हो गये। वे सावित्री और उसके पति से मिलकर फिर प्रधानमंत्री से मिलेंगे।
बन्नू बड़े दीनभाव जयप्रकाश बाबू की तरफ देख रहा था।
बाद में हमने उससे कहा, “अबे साले, इस तरह दीनता से मत देखा कर। तेरी कमजोरी ताड़ लेगा तो कोई भी नेता तुझे मुसम्मी का रस पिला देगा। देखता नहीं है, कितने ही नेता झोलों में मुसम्मी रखे तंबू के आस-पास घूम रहे हैं।”

madhuu
22-01-2013, 08:02 PM
16 जनवरी

जयप्रकाश बाबू की ‘मिशन’ फेल हो गयी। कोई मानने को तैयार नहीं है। प्रधानमंत्री ने कहा, “हमारी बन्नू के साथ सहानुभूति है, पर हम कुछ नहीं कर सकते। उससे उपवास तुड़वाओ, तब शांति से वार्ता द्वारा समस्या का हल ढूंढा जाएगा।”
हम निराश हुए। बाबा सनकीदास निराश नहीं हुए। उन्होंने कहा, “पहले सब मांग को नामंजूर करते हैं। यही प्रथा है। अब आंदोलन तीव्र करो। अखबारों में छपवाओ कि बन्नू की पेशाब में काफी ‘एसीटोन’ आने लगा है। उसकी हालत चिंताजनक है। वक्तव्य छपवाओ कि हर कीमत पर बन्नू के प्राण बचाए जाएं। सरकार बैठी-बैठी क्या देख रही है? उसे तुरंत कोई कदम उठाना चाहिए जिससे बन्नू के बहुमूल्य प्राण बचाए जा सकें।”
बाबा अद्भुत आदमी हैं। कितनी तरकीबें उनके दिमाग में हैं। कहते हैं, “अब आंदोलन में जातिवाद का पुट देने का मौका आ गया है। बन्नू ब्राम्हण है और राधिकाप्रसाद कायस्थ। ब्राम्हणों को भड़काओ और इधर कायस्थों को। ब्राम्हण-सभा का मंत्री आगामी चुनाव में खड़ा होगा। उससे कहो कि यही मौका है ब्राम्हणों के वोट इकट्ठे ले लेने का।”
आज राधिका बाबू की तरफ से प्रस्ताव आया था कि बन्नू सावित्री से राखी बंधवा ले।
हमने नामंजूर कर दिया।

madhuu
22-01-2013, 08:03 PM
7 जनवरी

आज के अखबारों में ये शीर्षक हैं – “बन्नू के प्राण बचाओ!”
“बन्नू की हालत चिंताजनक!”
“मंदिरों में प्राण-रक्षा के लिए प्रार्थना!”
एक अख़बार में हमने विज्ञापन रेट पर यह भी छपवा लिया – “कोटि-कोटि धर्म-प्राण जनता की मांग! बन्नू की प्राण-रक्षा की जाए!”
“बन्नू की मृत्यु के भयंकर परिणाम होंगे!”
ब्राह्मण-सभा के मंत्री का वक्तव्य छप गया। उन्होंने ब्राह्मण जाति की इज्जत का मामला इसे बना लिया था। सीधी कार्यवाही की धमकी दी थी।
हमने चार गुंडों को कायस्थों के घरों पर पत्थर फेंकने के लिए तय कर किया है।
इससे निपटकर वही लोग ब्राह्मणों के घर पर पत्थर फेंकेंगे।
पैसे बन्नू ने पेशगी दे दिये हैं।
बाबा का कहना है कि कल या परसों तक कर्फ्यू लगवा दिया जाना चाहिए। दफा 144 तो लग ही जाए। इससे ‘केस’ मजबूत होगा।

madhuu
22-01-2013, 08:04 PM
18 जनवरी

रात को ब्राह्मणों और कायस्थों के घरों पर पत्थर फिंक गये।
सुबह ब्राह्मणों और कायस्थों के दो दलों में जमकर पथराव हुआ।
शहर में दफा 144 लग गयी।
सनसनी फैली हुई है।
हमारा प्रतिनिधि मंडल प्रधानमंत्री से मिला था। उन्होंने कहा, “इसमें कानूनी अड़चनें हैं। विवाह-कानून में संशोधन करना पड़ेगा।”
हमने कहा, “तो संशोधन कर दीजिए। अध्यादेश जारी करवा दीजिए। अगर बन्नू मर गया तो सारे देश में आग लग जाएगी।”
वे कहने लगे, “पहले अनशन तुड़वाओ?”
हमने कहा, “सरकार सैद्धांतिक रूप से मांग को स्वीकार कर ले और एक कमिटी बिठा दे, जो रास्ता बताये कि वह औरत इसे कैसे मिल सकती है।”
सरकार अभी स्थिति को देख रही है। बन्नू को और कष्ट भोगना होगा।
मामला जहां का तहां रहा। वार्ता में ‘डेडलॉक’ आ गया है।
छुटपुट झगड़े हो रहे हैं।
रात को हमने पुलिस चौकी पर पत्थर फिंकवा दिये। इसका अच्छा असर हुआ।
‘प्राण बचाओ’ – की मांग आज और बढ़ गयी।

madhuu
22-01-2013, 08:04 PM
19 जनवरी

बन्नू बहुत कमजोर हो गया है। घबराता है। कहीं मर न जाए।
बकने लगा है कि हम लोगों ने उसे फंसा दिया है। कहीं वक्तव्य दे दिया तो हम लोग ‘एक्सपोज’ हो जाएंगे।
कुछ जल्दी ही करना पड़ेगा। हमने उससे कहा कि अब अगर वह यों ही अनशन तोड़ देगा तो जनता उसे मार डालेगी।
प्रतिनिधि मंडल फिर मिलने जाएगा।

madhuu
22-01-2013, 08:05 PM
20 जनवरी

‘डेडलॉक’
सिर्फ एक बस जलायी जा सकी।
बन्नू अब संभल नहीं रहा है।
उसकी तरफ से हम ही कह रहे हैं कि “वह मर जाएगा, पर झुकेगा नहीं!”
सरकार भी घबरायी मालूम होती है।
साधुसंघ ने आज मांग का समर्थन कर दिया।
ब्राह्मण समाज ने अल्टीमेटम दे दिया। 10 ब्राह्मण आत्मदाह करेंगे।
सावित्री ने आत्महत्या की कोशिश की थी, पर बचा ली गयी।
बन्नू के दर्शन के लिए लाइन लग रही है।
राष्ट्रसंघ के महामंत्री को आज तार कर दिया गया।
जगह-जगह प्रार्थना-सभाएं होती रहीं।
डॉ लोहिया ने कहा है क जब तक यह सरकार है, तब तक न्यायोचित मांगें पूरी नहीं होंगी। बन्नू को चाहिए कि वह सावित्री के बदले इस सरकार को ही भगा ले जाए।

madhuu
22-01-2013, 08:05 PM
21 जनवरी

बन्नू की मांग सिद्धांततः स्वीकार कर ली गयी।
व्यावहारिक समस्याओं को सुलझाने के लिए एक कमेटी बना दी गयी है।
भजन और प्रार्थना के बीच बाबा सनकीदास ने बन्नू को रस पिलाया। नेताओं की मुसम्मियां झोलों में ही सूख गयीं। बाबा ने कहा कि जनतंत्र में जनभावना का आदर होना चाहिए। इस प्रश्न के साथ कोटि-कोटि जनों की भावनाएं जुड़ी हुई थीं। अच्छा ही हुआ जो शांति से समस्या सुलझ गयी, वरना हिंसक क्रांति हो जाती।
ब्राह्मणसभा के विधानसभाई उम्*मीदवार ने बन्नू से अपना प्रचार कराने के लिए सौदा कर लिया है। काफी बड़ी रकम दी है। बन्नू की कीमत बढ़ गयी।
चरण छूते हुए नर-नारियों से बन्नू कहता है, “सब ईश्वर की इच्छा से हुआ। मैं तो उसका माध्यम हूं।”
नारे लग रहे हैं – सत्य की जय! धर्म की जय!

Dark Saint Alaick
22-01-2013, 10:39 PM
बहुत बढ़िया अनजानजी और मधुजी, आप दोनों ने तो समा बांध दिया। :bravo: