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View Full Version : ब्लॉग वाणी


Dark Saint Alaick
16-07-2012, 10:20 AM
मित्रो ! मैं अक्सर अनेक ब्लॉग्स की यात्रा करता हूं और वहां बहुत कुछ ऐसा पाता हूं, जिसे पढ़ कर कोई भी भलामानस आनंदित तो हो ही सकता है, कुछ प्रेरणा भी ग्रहण कर सकता है ! ऎसी ही सामग्री को समर्पित है मेरा यह सूत्र ! यह प्रतिदिन आपको ऎसी पाठ्य सामग्री मुहैया कराएगा, जो मेरी दृष्टि से ब्लॉग जगत की श्रेष्ठ - पठनीय सामग्री होगी ! आइए, शुरू करते हैं ब्लॉग जगत की यात्रा !

Dark Saint Alaick
16-07-2012, 10:22 AM
रो रहा है रायपुरम

-पा.ना. सुब्रमणियम

पिछले कई दिनों से चेन्नई के अखबारों में रायपुरम रेलवे स्टेशन के बारे में काफी कुछ पढ़ने को मिल रहा है। उसकी गौरवमय ऐतिहासिकता का बखान भी हो रहा है। उसके अंग्रेजी वर्तनी का प्रयोग करने पर रोयापुरम प्रकट हुआ और उस इलाके के लोगों का रोना देखकर सहानुभूति हो ही आई। रेलवे के बारे में हिसाब किताब रखने वालों को शायद इस बात का गुमान हो कि रायपुरम स्टेशन वर्त्तमान में भी जीवित प्राचीनतम भवन है। एक और महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि भारत ही नहीं दक्षिण एशिया में यह दूसरी रेलवे लाइन थी जिसका उद्गम रायपुरम रहा है। 16 अप्रेल 1853 में भारत में पहली रेलगाड़ी बोरीबंदर (बम्बई) से ठाणे तक चलाई गई थी तो मद्रास में 28 जून 1856 को रायपुरम से वालाजाबाद 102 किलोमीटर लम्बी रेल लाइन पर रेलगाड़ी चल पड़ी थी। एक जुलाई 1856 से जनता के लिए रेलसेवा उपलब्ध हुई। दक्षिण का पहला स्टेशन यही था और लम्बे समय तक मद्रास आने वाली सभी रेलगाड़ियां यहीं आकर रूकती थीं। उन दिनों मद्र्रास सेंट्रल नाम का कोई स्टेशन भी नहीं था जो सन 1873 में ही अस्तित्व में आया। रायपुरम के ही बगल में मद्रास (अब चेन्नई) का बंदरगाह है और जहाजों से माल उतारने के बाद उन्हें आगे ले जाने के लिए रेलवे की आवश्यकता महसूस की गई थी और इसीलिए वहां टर्मिनस बनाया गया था। व्यावसायिक गतिविधियां रायपुरम के इर्दगिर्द ही विकसित भी हुईं। अपवादों को छोड़ दें तो नगरों का विकास दक्षिण की तरफ अधिक हुआ प्रतीत होता है। यही बात यहां चेन्नई पर भी लागू होती है। दक्षिण की तरफ ही नए आवास क्षेत्र बनते गए और नगर बढ़ता गया। उत्तरी चेन्नई (रायपुरम) कुछ हद तक उपेक्षा का शिकार रहा है और इसलिए लोग तिलमिला रहे हैं। वे चाहते हैं कि रायपुरम को भी टर्मिनस बनाया जाए क्योंकि वहां रेलवे के पास 72 एकड़ की भूमि उपलब्ध है और कम से कम 16 प्लेटफॉर्म बनाए जा सकते हैं। चूंकि चेन्नई में कुछ समय रहने का अवसर मिल गया तो सोचा क्यों न उस प्राचीनतम स्टेशन के दर्शन कर लूं। रायपुरम स्टेशन में प्रवेश के लिए कोई व्यवस्थित मार्ग नहीं है। ऐसा लगा व्यस्ततम इलाके से एक गली में घुस पड़े हैं। एक दो रेल लाईनों को पार कर ही स्टेशन के प्रवेश द्वार का दर्शन कर पाए। उसी तरफ आधुनिक प्लेटफॉर्म भी बना हुआ है उपनगरीय रेल सेवाओं के लिए उसका प्रयोग हो रहा है। बहुत कम गाड़ियां हैं जो यहां तक आती हैं और शायद इसीलिए यात्री भी दो चार ही दिखे। पूरे स्टेशन का अवलोकन किया ऐसे जैसे हम कोई रेलवे के निरीक्षक हों। स्टेशन से लगा एक प्लेटफॉर्म भी है जिसका शायद उपयोग नहीं हो रहा है क्योंकि रेलों का अब आवागमन भवन के दूसरी तरफ दूर हटकर है। पुराने चित्रों में तो प्लेटफॉर्म ही नहीं दिखता। शायद उन दिनों उसकी आवश्यकता नहीं रही होगी। खंडहर बनी ऊंची लम्बी दीवार भी थी जिन पर कई मेहराबदार प्रवेश द्वार दिखे। वे शायद स्टेशन की दीवारें थीं। संभव है अगली बार वह धरोहर एक बड़े से नए स्टेशन के लिए अपनी कुर्बानी दे चुका हो। हम देखने से वंचित रहें यही सोचकर वहां जाना सार्थक ही लगा।

Dark Saint Alaick
16-07-2012, 10:25 AM
अकेले हैं तो क्या गम है

-डॉ. आराधना चतुर्वेदी

अकेली औरत के साथ समस्या ये होती है कि उसे सब सार्वजनिक समझ लेते हैं बिना जाने कि वह किन परिस्थितियों में अकेले रहने को मजबूर है। अकेले रहना ना मेरी मजबूरी है और ना ही मेरी इच्छा। मैंने बचपन से ही और लड़कियों की तरह दुल्हन बनने के सपने नहीं संजोए। हमेशा सोचा कि मुझे अलग करना है। सोच लिया था कि शादी नहीं करूंगी। बचपन में मां के देहांत के बाद तो ये इरादा और पक्का हो गया था लेकिन अकेले रहने के बारे में कभी नहीं सोचा था। चाहती थी किअपने पैरों पर खड़ी हो जाऊं और पिताजी के साथ रहूं, लेकिन 2006 में पिताजी के देहांत के बाद ये सपना टूट गया। अकेले रहना मेरी मजबूरी हो गई। मैं इलाहाबाद से दिल्ली आ चुकी थी । यहां कम से कम आपको हर वक्त लोगों की प्रश्नवाचक दृष्टि का सामना नहीं करना पड़ता। हां, कुछ महिलाओं ने जानने की कोशिश की कि मेरी मैरिटल स्टेटस क्या है पर मैंने कोई सफाई नहीं दी। मुस्कुराकर इतना कहा कि इससे क्या फर्क पड़ता है। जब आप अकेले होते हैं और आपपर कोई बंधन नहीं होता तो खुद ही कुछ सीमाएं खींचनी पड़ती हैं। मैंने भी सीमाएं तय कर रखी हैं। अकेली हूं और बीमार पड़ने पर कोई देखभाल करने वाला नहीं है तो खाने-पीने का ध्यान रखती हूं। व्यायाम करती हूं। बाहर नहीं खाती। बहुत कम लोगों को फोन नंबर देती हूं। बेहद करीबी रिश्तेदारों को भी नहीं। बेहद करीबी दोस्तों के अलावा किसी को अपने कमरे पर मिलने को नहीं बुलाती। मेरा बहुत मन करता है रात में सड़कों पर टहलने का पर कभी अपनी ये इच्छा पूरी करने की हिम्मत नहीं की। कोशिश करती हूं कि रात आठ-साढ़े आठ बजे तक घर पहुंच जाऊं। नौ बजे बाद मोहल्ले से बाहर नहीं जाती। मेरे साथ दिक्कत है कि अमूमन तो किसी से बात करती नहीं लेकिन जब दोस्ती हो जाती है तो खुल जाती हूं। मुझे जो अच्छा लगता है बेहिचक कह देती हूं। किसी पर प्यार आ गया है तो लव यू डियर कहने में कोई संकोच नहीं होता। मैं बहुत भावुक हूं और उदार भी। मेरे दोस्त कई बार मुझे इस बात के लिए टोक चुके हैं लेकिन मैं कम लोगों से घुलती-मिलती हूं इसलिए आज तक मुझे लेकर किसी को कोई गलतफहमी नहीं हुई। लेकिन पिछले कुछ दिनों से सोच रही हूं कि अपनी बोल्डनेस थोड़ा कम करूं। क्या फायदा किसी को नि:स्वार्थ लव यू कह देने का या लोट्स आफ हग्स एंड किसेज दे देने का जब सामने वाला उसे लेकर भ्रमित हो जाए। मेरे ख्याल से हमारे समाज में लोग (विशेषकर पुरुष) अभी इतने परिपक्व नहीं हुए हैं कि इस तरह के प्यार को समझ पाएं । उन्हें लगता है कि स्त्री- पुरुष के बीच केवल आदिम अवस्था वाला विपरीतलिंगी प्रेम होता है जबकि मैं ऐसा मानती हूं कि ऐसा प्रेम एक समय में एक ही के साथ संभव है चाहे वो पति हो, पत्नी हो या प्रेमी। पर जब तक कि हमारा समाज इतना परिपक्व नहीं हो जाता कि सहज स्रेह को समझ सके, मेरा और सम्बन्ध बनाना स्थगित रहेगा। अकेले रहने का इतना तो खमियाजा भुगतना ही पड़ेगा।

Dark Saint Alaick
16-07-2012, 10:30 AM
धनुष की टंकार में भी होता है संगीत

-पूजा उपाध्याय

सोचो मत। सोचो मत। अपने आप को भुलावा देती हुई लड़की ग्लास में आइस क्यूब्स डालती जा रही है। नई विस्की आई है घर में। जॉनी वाकर डबल ब्लैक। ओह, एकदम गहरे सियाह चारकोल के धुएं की खुशबू विस्की के हर सिप में घुली हुई है। डबल ब्लैक। तुम्हारी याद यूं भी कातिलाना होती है। उस पर खतरनाक मौसम। डबल ब्लैक। मतलब अब जान ले ही लो! लाईट चली गई थी। सोचने लगी कि कौन सा कैंडिल जलाऊं कि तुम्हारी याद को एम्पलीफाय ना करे। वनीला जलाने को सोचती हूं। लम्हा भी नहीं गुजरता है कि याद आता है तुम्हारे साथ एक धूप की खुशबू वाले कैफे में बैठी हूं और कपकेक्स हैं सामने। घुलता हुआ वानिला का स्वाद और तुम्हारी मुस्कराहट दोनों क्रोसफेड हो रहे हैं। मैं घबरा के मोमबत्ती बुझाती हूं। ना,वाइल्ड रोज तो हरगिज नहीं जलाऊंगी। आज मौसम भी बारिशों का है। वो याद है तुम्हें जब ट्रेक पर थोड़ा सा आॅफ रूट रास्ता लिया था हमने कि गुलाबों की खुशबू से एकदम मन बहका हुआ जा रहा था। और फिर एकदम घने जंगलों के बीच थोड़ी सी खुली जगह थी जहां अनगिन जंगली गुलाब खिले हुए और एक छोटा सा झरना भी बह रहा था। तुम्हारा पैर फिसला था और तुम पानी में जा गिरे थे। पत्थरों पर लेटे हुए चेहरे पर हलकी बारिश की बूंदों को महसूस करते हुए गुलाबों की उस गंध में बौराना। फिर मेरे दांत बजने लगे थे तो तुमने हथेलियां रगड़ कर मेरे चेहरे को हाथों में भर लिया था। गर्म हथेलियों की गंध कैसी होती है। डबल ब्लैक कॉफी। ओह नो। मैंने सोचा भी कैसे! वो दिन याद है तुम्हें। हवा में बारिश की गंध थी। आसमान में दक्षिण की ओर से गहरे काले बादल छा रहे थे। आधा घंटा लगा था फिल्टर कॉफी को रेडी होने में। मैंने फ्लास्क में कॉफी भरी। कुछ बिस्कुट, चोकलेट, चिप्स बैगपैक में डाले और बस हम निकल पड़े। बारिश का पीछा करने। हाइवे पर गाड़ी उड़ाते हुए चल रहे थे कि जैसे वाकई तूफान से गले लगने जा रहे थे हम। फिर शहर से कोई डेढ़ सौ किलोमीटर दूर वाइनरी थी। दोनों ओर अंगूर की बेल की खेती थी। हवा में एक मादक गंध उतरने लगी थी। फिर आसमान टूट कर बरसा। हमने गाड़ी अलग पार्क की। थोड़ी ही देर में जैसे बाढ़ सी आ गई। सड़क किनारे नदी बहने लगी थी। कॉफी जल्दी जल्दी पीनी पड़ी थी कि डाइल्यूट न हो जाए और तुम। एक हाथ से मेरी कॉफी के ऊपर छाता तानते, एक हथेली मेरे सर के ऊपर रखते। मैं घर में नोर्मल कैंडिल्स क्यूं नहीं रख सकती। परेशान होती हूं। फिर बाहर से रौशनी के कुछ कतरे घर में चले आते हैं और कुछ आंखें भी अभ्यस्त हो जाती हैं अंधेरे की। मोबाइल पर एक इन्स्ट्रूमेन्टल संगीत का टुकड़ा है। वायलिन कमरे में बिखरती है और मैं धीरे धीरे एक कसा हुआ तार होती जाती हूं। कमान पर खिंची हुयी प्रत्यंचा। सोचती हूं धनुष की टंकार में भी तो संगीत होता है। शंखनाद में कैसी आर्त पुकार। घंटी में कैसा सुरीला अनुग्रह। संगीत बाहर से ज्यादा मन के तारों में बजता है। अच्छे वक्त पर हाथ से गिरा ग्लास भी शोर नहीं करता। एकदम सही बीट्स देता है गिने हुए अंतराल पर....।

Dark Saint Alaick
16-07-2012, 10:44 AM
इंसान से बेहतर है जानवर?

-अमिता नीरव

खिड़की से रोशनी आ रही थी और अलसुबह की हल्की ठंडक भी। इस वक्त ना तो किसी तरह की कोई हड़बड़ी थी न आगे की योजना थी। वक्त जैसे हवा में उड़ाने के लिए ही बचा हुआ था। यूं ही विचार तंद्र्रा की तरह थे कि खिड़की की फ्रेम पर गिलहरी उछल-कूद करती नजर आई। अचानक वो कूलर पर नजर आई। उसके मुंह में कपड़े का छोटा टुकड़ा था जिसे वो कूलर के अंदर डालने की कोशिश कर रही थी। उसी दौरान एक और गिलहरी वहां आ गई। फिर दोनों बाहर की तरफ से उस कपड़े को अंदर ठेलने की कोशिश करती रहीं। ये क्रम 10-12 सेकंड तक चलता रहा। जो गिलहरी कपड़ा लेकर आई थी वो अचानक उस कपड़े और दूसरी गिलहरी को छोड़कर चली गई। शायद दोनों इस बात से मुत्तमईन हो गई थीं कि कपड़ा अटक गया है और अब गिरेगा नहीं। कितने कौशल से दोनों ने उस कपड़े को अटका दिया था। बहुत कौतूहल था उन गिलहरियों की गतिविधियों को लेकर। दूसरी गिलहरी और थोड़ी देर तक कपड़े को अंदर डालने की कोशिश करती रही। एकाएक वो कूलर के अंदर घुसी और उस कपड़े को खींच लिया। मैं हतप्रभ। कितनी योजना,सामंजस्य,समझ,प्यार और कितनी बुद्धि। बचपन में ही सुना था कि इंसान और जानवर के बीच का एकमात्र फर्क ये है कि इंसान के पास बुद्धि होती है। कहा किसी बड़े ने था सो मानना ही था। भूल गए कि बारिश से पहले चींटियां अपना खाना जमा करती हैं। क्यों ऐसा होता है जिस रास्ते से घुस कर बिल्ली को खाने-पीने के लिए मिलता है वो बार-बार उसी रास्ते का इस्तेमाल करती है। भूल गए कि हमारे बुजुर्गों ने अपने जीवन के कई अनुभव जीव-जंतुओं के व्यवहार से ही वेरीफाई किए हैं। याद आता है मां का कहा कि काली चींटी काटती नहीं है। इसलिए बचपन में दोनों हाथों की पहली ऊंगलियों और अंगूठों को जोड़कर काली चींटी के इर्दगिर्द पाननुमा घेरा बना लेते। वो लगातार घेरे से निकलने का रास्ता ढूंढती रहती। कई बार हाथ पर चढ़ जाती है। जरा सा रास्ता निकालते तो वो खट से बाहर निकलने की जुगत लगा लेती। तो कैसे कहा जा सकता है कि जीव-जंतुओं के पास बुद्धि नहीं होती?अनुसंधानों ने भी ये सिद्ध किया कि जीव-जंतुओं में भी बुद्धि होती है। प्यार,संवेदना, समझ,अपनापन सब कुछ होता है। भाषा भी होती है। ये हमारे ज्ञान की सीमा है कि हम ना तो उनकी भाषा समझ पाते हैं और न हीं उनके बीच के संबंधों को। तो फिर कैसे कह सकते हैं कि इंसानों के पास कुछ ऐसा है जो अतिरिक्त है। जैसे बुद्धि! लेकिन सही है। कुछ तो है जो इंसानों के पास प्रकृति की हर सजीव देन से ज्यादा है। जाहिर है तभी विकास भी है, विनाश भी और असंतुलन भी। दरअसल इंसान के पास नकारात्मक बुद्धि है। हवस, ईर्ष्या, हिंसा, क्रोध, द्वेष, स्वार्थ और लालच जिसके स्वभाव का हिस्सा है और जो अपनी हवस और अहम की पूर्ति के लिए प्रकृति, जीव-जंतुओं और अपने सहोदरों को बेवजह भी नुकसान पहुंचाता है। तो जो कुछ विकास-विनाश है जो इस लालच और हवस की ही देन है। तो हुआ न इंसान ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति...।

Dark Saint Alaick
17-07-2012, 01:02 AM
रिमझिम गिरे सावन, सुलग जाए मन...

-पल्लवी सक्सेना

लंबी चली गर्मियों के बाद आज फिर मौसम ने ली अंगड़ाई और एक बार फिर आया सावन झूम के। आज सुबह जब उनींदी आंखों से देखा खिड़की की ओर तो जैसे एक पल में सारी नींद हवा हो गई। लगा जैसे यह सुहाना मौसम बाहें फैलाए मेरे जागने का ही इंतजार कर रहा था। आज न जाने क्यूं अलग सा अहसास था इस बारिश में। महसूस हो रहा था जैसे यह बारिश का पानी मुझसे कुछ कहना चाहता है। मुझे कुछ याद दिलाना चाहता है। तभी सहसा याद आया सावन का महीना। इस महीने सावन के सोमवार भी होते हैं। यह याद आते ही मुझे सब से पहले याद आया वो मंदिरों में होती शिव आराधना। वो मंत्रो के उच्चारण से गूंजते मंदिर। वो मंदिर के बाहर बेलपत्र, धतूरे और पूजा के अन्य सामग्री से सजी दुकानों का कोलाहल। सब घूम गया आंखों के सामने । सावन के महीने में हरे रंग का महत्व होता है। धरती सूरज की तपिश से मुक्त होकर अपनी धानी चूनर छोड़ हरियाली से परिपूर्ण ठंडी-ठंडी हरी चुनरी ओढ़ लिया करती है। बड़े बड़े पेड़ों से लेकर नन्हे-नन्हें पौधों पर पड़ी बारिश की बूंदें जैसे बचपन पर आया नव यौवन का निखार। झीलों-तालाबों और नदियों में बढ़ता जलस्तर। बहते पानी का तेज होता बहाव जैसे सब पर एक नयी उमंग छा जाती है। प्रकृति भी नए अंकुरों को जन्म देकर उन्हे नन्हें हरे-हरे पौधों के रूप में बदल कर नव जीवन की शुरूआत का संदेशा देती नजर आती है। वो घर आंगन में पड़े सावन के झूले। वो उन झूलों पर आज भी झूलता बचपन और उस बचपन में मेरे बचपन की झलक जिसे आज भी सिर्फ मैं देख सकती हूं। वो हरी-हरी चूड़ियों की खनक। वो मिट्टी की सौंधी खुशबू में मिली मेहंदी की महक। वो मेहंदी के रंग को देखने का उतावलापन कि रंग आया या नही। वो मिठाइयों की दुकानो पर सजे फेनी और घेवर की खुशबू। वो फुर्सत के पल में घड़ी-घड़ी बनती चाय और पकोड़ों की महक। वो पिकनिक की जगह तलाशता बचपन। वो पानी सी भरी सड़कों पर बिना कीचड़ की परवाह किए बेझिझक भीगना। सब जैसे एक साथ किसी चलचित्र की तरह चल रहा है आंखों में। मेरे लिए तो इतना कुछ छुपा है इस सावन के मौसम में जिसे पूरी तरह व्यक्त कर पाना शायद मेरे बस में नहीं। बस एक यादों का अथाह समंदर है जिसमें यादों की ही लहरें उठ रही है। एक अजीब सा खिंचाव जो हर साल हर सावन में हर बार मुझे यूं हीं खींचता है अपनी ओर। और उन यादों के आवेग में मेरा मन बस यूं हीं बहता चला जाता है। किसी मदहोश इंसान की तरह जिसे मौसम का नशा चढ़ा हो। ना जाने क्यूं कुछ लोग नशे के लिए शराब का सहारा लिया करते है। कभी कुदरत के नशे में भी खोकर देखें । लेकिन इन सब चीजों के बाद भी सावन का महीना एक महवपूर्ण चीज के बिना अधूरा है और वह है संगीत। वो सावन के गीत और उस पर बॉलीवुड का तड़का इसके बिना तो सावन नहीं भड़का। वो चाय का कप और बारिश का पानी और किशोर कुमार की आवाज। भला और क्या चाहिए जिंदगी में इस आनंद के सिवा। आप भी मेरे साथ मजा लीजिए इन सावन की बूंदों और किशोर के इस मधुर गीत के साथ जिसने मेरे मन के सभी अहसासों को जाहिर कर दिया...रिमझिम गिरे सावन, सुलग सुलग जाए मन।

Dark Saint Alaick
17-07-2012, 10:07 PM
दोष तुम्हारा है पागल लड़की !

-अनुसिंह चौधरी

ऐ लड़की, तार-तार हुई अपनी इज्जत और वजूद लेकर कहां जाओगी अब? तुम तो मुंह दिखाने लायक ही नहीं बची कि लोग तुम्हारी पहचान नहीं भूलेंगे। वो चेहरे जरूर भूल जाएंगे जो तुम्हें सरेआम नोचते-खसोटते रहे थे। लड़की, सारा दोष तुम्हारा है। पार्टी में गई थी ना? वो भी गुवाहाटी जैसे शहर में? अपने दायरे में रहना सीखा नहीं था क्या? किसी ने बताया नहीं था कि पार्टियों में जाने और सड़कों पर खुलेआम बेफिक्री से घूमने, अपनी मर्जी से रास्ते चुनने का हक तुम्हें नहीं इज्जतदार घर के शरीफ लड़कों को होता है। पहन क्या रखा था जब घर से पार्टी के लिए निकली थी? जरूर मिनी स्कर्ट और टैंक टॉप पहन कर निकली होगी। या फिर तंग टीशर्ट और जीन्स? हालांकि ठीक ठीक बता नहीं सकती कि साड़ी में लिपटी निकली होती तो बच गई होती। और इतना भी नहीं जानती कि बिना किसी मेल मेम्बर के घर से बाहर स्कूल और ट्यूशन के लिए निकलना भी गुनाह होता है लड़की के लिए? कोई तो होता साथ। कोई पुरुषनुमा परछाई साथ चलती तो इस हादसे से बच जाती तुम शायद। जानती नहीं किस समाज में रहती हो? यहां अंधेरों के तो क्या रौशनी के भी घिनौने हाथ होते हैं जो तुम्हें अपनी गंदी उंगलियों और तीखे नाखूनों से खसोट लेने के लिए बेताब होते हैं। तुम्हारी अरक्षितता, तुम्हारा नाजुकपन,तुम्हारा सबसे बड़ा गुनाह है। उससे भी बड़ा गुनाह चौबीस घंटे लड़की होने की अतिसंवेदनशीलता को याद ना रखना है। सुना कि तुम मां-बहन की गुहार लगा रही थी लड़कों के सामने? अरे पागल, नहीं जानती क्या कि यहां लोग बहनों को भी नहीं छोड़ते? मां ने सिखाया नहीं था कि किसी पर भरोसा नहीं करना? किसी ने बताया नहीं था कि हम ऐसे भीरुओं के बीच रहते हैं जो ऊंची आवाज में चिल्लाना जानते हैं, मौका-ए-वारदात पर कुछ कदम उठाना नहीं जानते? मैं होती वहां तो कुछ कर पाती कहना मुश्किल है। वैसे अब क्या करोगी तुम पागल लड़की? पूरे देश ने ये वीडियो देखा है। तुम्हारे गली-मोहल्ले के लोग तुम्हारा जीना दूभर ना कर दें तो कहना। तुम्हारे स्कूल में बच्चे और टीचर्स तुम्हें अजीब सी निगाहों से ना देखें तो कहना। और ठीक चौबीस घंटे में तुम्हारे साथ चला घिनौना तमाशा पब्लिक मेमरी से ना उतर जाए तो कहना। इस हादसे का बोझ लेकर जीना तुम्हें हैं। नपुंसकों के बीच रहती हो लड़की। यहां किसी तरह के न्याय की उम्मीद मत करना। इस नोचे और खसोटे जाने को भूल जाने की कोशिश करना। याद सिर्फ इतना रखना कि इस दुनिया में सांस लेना मुश्किल है। तुम्हारा जीना मुश्किल है और मर जाने में भी सकून नहीं। ऊपरवाले ने फिर किसी तरह का बदला निकालने के लिए अगले जन्म में लड़की बनाकर भेजा तो? एक बुर्का सिलवा लो लड़की और अकेली मत निकला करो सड़कों पर। वैसे मैं अपनी बेटी को कैसे बचा कर रखूं इस उलझन में हूं फिलहाल। उससे भी बड़ी उलझन है कि बेटे को उन्हीं इज्जतदार लोगों के घरों के शरीफ लड़कों में से एक होने से कैसे बचाया जाए? तुमसे और क्या कहूं सिवाय इसके कि अपना ख्याल रखना और अपने आंसुओं को बचाए रखना। तुम्हें पागल होने से यही आंसू बचाए रखें शायद। अलविदा, पागल लड़की।

Dark Saint Alaick
27-07-2012, 03:51 PM
अब तो खो गया है सब कुछ

-रश्मि

पांच वर्ष की लड़की। पहली बार दिल्ली से गर्मी की छुट्टियां बिताने गांव आती है अपनी मां और बड़े भाई के साथ। आते ही देखा उसने। लकड़ी के चूल्हे में मां गरम-गरम धुसका (चावल से बनने वाला छोटा नागपुरी पकवान) बना रही है। उसने कहा भूख लगी है। मैं भी खाऊंगी और तुरंत मिट्टी की जमीन पर रसोई में बैठ गई व गरमागरम धुसके स्वाद लेकर खाने लगी। उसे ऐसे जमीन पर बैठे देखकर हम सबको शर्म आ रही थी। मेहमान अचानक आए थे। यह लगभग दो दशक पूर्व से भी ज्यादा की बात है। तब गांव में न एसी था न कूलर। पंखे थे मगर बिजली मेहरबान न थी। मेहमान आए थे। कहां बिठाएं,कहां सुलाएं। शाम का वक्त। फटाफट आंगन में पानी का छींटा देकर चारपाई लगाई। उस पर बिस्तर और पास ही कुछ कुर्सियां भी। उन्हें बाहर खुले में बिठाया। वो लड़की गरिमा। अपनी आंखे आश्चर्य से चौड़ी कर पूरा मुआयना कर रही थी। आंगन में तुलसी का चौरा जहां शाम का दीपक जल रहा था। बगल में मीठे पानी का कुआं। उसके ठीक पश्चिम में नीम का पेड़। आंगन के एक किनारे मोगरे के कुछ पौधे जिस पर सफेद फूल खिले थे और खुश्बू से आंगन महक रहा था। बगल में जवा पुष्प के पौधे जिस पर रोज लाल फूल खिलते थे जिन्हें सुबह दादी पूजा के लिए तोड़ती थी। हर शाम पौधों को पानी देने का जिम्मा हम बच्चों का था। घर आए दोनों बच्चों को मिलाकर हम छह बच्चे और मस्ती का आलम। हमारी जीवन शैली बिल्कुल अलग। वो दोनों हमें कौतूहल से देख रहे थे और हम लोग उन्हें। बातचीत का दौर चलता रहा। खाना खाने के बाद सोने की तैयारी। बिजली इतनी नहीं रहती कि कमरे में रात गुजारे। वैसे भी हम लोग गर्मियों में छत पर ही सोते थे। पानी का छींटा देकर छत बुहारा गया और बिस्तर लगा। तब तक हम लोग घुलमिल गए थे। खूब गप्प, कहानियां और तारों का परिचय। इसी तरह रात गुजरी। सुबह पांच बजे पड़ोस के आम के पेड़ से रात भर टपके आमों को चुनने हम लोग टोकरी लेकर भागे और पानी भरी बाल्टी में घंटे भर भिगोया फिर खाया नहीं चूसा । नदी-तालाब की सैर । सारा दिन गांव की खाक छानना। मां के बनाए व्यंजन खाना और रात। वो तो अपनी थी। वे लोग सप्ताह भर रूके। फिर तो लगभग सात वर्ष तक हर गर्मी में वे आते और ग्राम्य जीवन का आनंद उठाते। अचानक ये बीस बरस पहले की यादें क्यों? आप भी सोच में पड़ गए होंगे न। ये यादें उस दर्द की उपज हैं जो हम भूल गए हैं। गर्मियों में गांव जाना हुआ इस बार। कुछ भी तो नहीं अब। जो भी था कुछ कमी, कुछ अभाव मगर बहुत खूबसूरत था। याद रह जाने लायक। उम्र भर यादों में जुगाली करने लायक। अब के बच्चों को यह नसीब कहां। कंप्यूटर के जमाने में चांद-तारों से कौन बात करता है। एसी व कूलर की उपलब्धता ने पेड़ की छांव छीन ली। अब गांव वाले भी शहरी सुख-सुविधा में जीना चाहते हैं। अब गांव वाले भी शहरी बनने की होड़ में उस कच्चेपन का, अपनेपन का सुख भी भूल गए है। अब चाहकर भी संभव नहीं वो जीवन जीना। पूरा देश गर्म हवा के थपेड़ों से झुलस रहा है। अगर हम प्रकृति का ख्याल रखें तो कम से कम खुली व स्वच्छ हवा में तो सांस ले पाएंगे हम। नहीं क्या ?

Dark Saint Alaick
27-07-2012, 03:59 PM
एक नाता जो टूट नहीं सकता...

-पारुल अग्रवाल

मेरा ननिहाल लखनऊ का है। गर्मियों की छुट्टियों में लखनऊ जाना, तपती दोपहर में दशहरी आम की दावत उड़ाना और नानी के साथ अमीनाबाद, हजरतगंज की सैर का सालभर इंतजार रहता था। हम उन दिनों छोटे शहर में रहते थे और लखनऊ हमारे लिए बड़े शहर की वो खिड़की थी जिससे हर पल कुछ नया,कुछ रंगीन दिखता था। गर्मियों की ऐसी ही एक शाम अमीनाबाद की भीड़भाड़ से गुजरते हुए अचानक मेरी नजर चाय की एक दुकान पर पड़ी, जिसके कोने में लटकी तख्ती पर लिखा था - मुस्कुराइए जनाब ये लखनऊ है...। गलियों, दीवारों, जगहों से प्यार हो जाने की मेरी आदत पुरानी है और इस एक पंक्ति ने जैसे लखनऊ शहर के लिए मेरे प्यार को शब्द दे दिए। पिछले सोलह साल से मैं दिल्ली में रह रही हूं लेकिन इसे मेरी बेरुखी कहें या इस शहर में बस आगे बढ़ते रहने की गफलत कि सोलह साल तक दिल्ली से मेरा नाता केवल बस और उसके कंडक्टर सा रहा जो बस में सफर तो हर दिन करता है लेकिन पहुंचता कहीं नहीं। लेकिन नई दिल्ली के सौ साल की कहानी को अपने जानकार लोगों से साझा करने के लिए पिछले कुछ महीनों में इस शहर को मैंने जिस नजरिए से देखा और महसूस किया उसे शब्दों में बयां करना ही इस ब्लॉग को लिखने का मकसद है। सौ साल की इस कड़ी ने पहली बार मुझे उस दिल्ली से रूबरू कराया जो गुमनाम इतिहास की तरह सड़कों के किनारे,गलियों के बीच, घरों के पिछवाड़े हर जगह बसती है। ये वो दिल्ली है जिसके दरवाजे कभी लाहौर, तुर्किस्तान, कश्मीर या अजमेर को जाया करते थे। वो दिल्ली जिसमें सराय थे, किले थे, रौशनारा बाग थ। ये वो दिल्ली है जिससे बुलबुल-ए-खाना की गलियों से गुजरते अचानक मुलाकात हो जाती है जो मुझे ले जाती है मलिका-ए-हिंदुस्तान रजिया सुल्तान की उस गुमशुदा कब्र पर जिसकी आखिरी सल्तनत अब वाकई सिर्फ दो गज जमीन है। इतिहास के ऐसे कितने की पीले पन्ने इस शहर में बिखरे पड़े हैं, लेकिन अफसोस कि उन्होंने सहेजने का टेंडर अभी पास किया जाना बाकी है। रजिया सुल्तान को वहीं सोता छोड़ कर और इतिहास के इन पन्नों के कोने मोड़कर हर बार मैं आगे बढ़ी लेकिन वापस लौटने के कई वादों के साथ। कुल मिलाकर दिल्ली मेरे लिए सिर्फ घर का पता नहीं है। वो शहर है जिसकी कई गलियों, बाजारों ने मुझसे अपने सुख-दुख की कहानी बांटी है। यही वजह है कि इस शहर की हवा अब मेरे लिए और यादा ताजी है। इस शहर के हर बुजुर्ग से अब किस्से-कहानियों की महक आती है और सड़कों से गुजरते अब मुझे लगता है कि हर खंडहर-इमारत से मेरी पुरानी रिश्तेदारी है। दिल्ली के सामने अब मैं भले ही खुद को छोटा और बौना महसूस करती हूं लेकिन यही वो अहसास है जिसके साथ इस शहर में बाकी की उम्र गुजरेगी। शहर की भीड़ में अब मैं जब अकेली पड़ूंगी, इन गलियों, इमारतों से ही गुफ्तगू होगी। सफर अभी लंबा है और दिल्ली की ये कहानी सिर्फ एक पड़ाव था। खबरें और होंगी। श्रृंखलाएं और बनेंगी लेकिन इस शहर में जीते जी सबसे पहले अब मेरी खोज एक ऐसे कोने की है जहां मैं भी हर आने जाने वाले के लिए लिख सकूं- मुस्कुराइए जनाब ये दिल्ली है...।

Dark Saint Alaick
29-07-2012, 12:36 AM
इमारत जो अब चुप हो गई

-राजेश प्रियदर्शी

इमारत जिसे बनाया गया था ट्रेड सेंटर के तौर पर मगर उसकी किस्मत में लिखा था 70 वर्षों तक दुनिया के करोड़ों लोगों से हर रोज पचासों भाषाओं में बात करना। वह इमारत अचानक चुप हो गई है। स्टूडियो के बाहर जलती लाल बत्तियां बुझ गई हैं। घड़ी अब भी चल रही है। याद दिला रही है कि वक्त चलता और बदलता रहता है। बुश हाउस कोई ताजमहल या बकिंघम पैलेस नहीं है जिसकी शान में कसीदे पढ़े जाएं। बुश हाउस एक विचार है, एक संस्कृति है। विश्व बंधुत्व की मिसाल। भाषाओं और देशों की सीमाओं से परे। 1920 के दशक में सफेद पत्थर से बनी एक आठ मंजिला इमारत है बुश हाउस। उस जैसी और उससे भी भव्य इमारतें लंदन में न जाने कितनी हैं मगर किसी की आवाज इतने कानों और दिलों तक नहीं पहुंची। अंतरराष्टñीय रेडियो प्रसारण का पर्याय बन चुके बुश हाउस को छोड़ना बीबीसी वर्ल्ड सर्विस के ज्यादातर पत्रकारों के लिए व्यक्तिगत सदमे जैसा रहा है। वे जिस नई इमारत में गए हैं वह अधिक सुविधा संपन्न और आधुनिक है मगर मेरे ज्यादातर सहकर्मी यही कहते हैं- बुश हाउस की बात ही कुछ और थी। यह बात ही कुछ और क्या है। इसे बुश हाउस में काम किए बगैर समझना जरा कठिन है। 26 अगस्त 1997 को जब मैं लगभग पचास फीट ऊंचे खंभों के नीचे से गुजरकर मुख्य दरवाजे तक पहुंचा तो इमारत ने जैसे धीरे से कान में कहा, मैंने बहुत कुछ सुना और कहा है। बुश हाउस के कोने-कोने में दुनिया की युगांतकारी घटनाओं की स्मृतियां बिखरी थीं। जॉर्ज आॅरवेल, वीएस नॉयपाल से लेकर बलराज साहनी जैसे लोगों ने यहां से प्रसारण किया। दूसरे विश्व युद्ध से लेकर इराक के युद्ध तक हर बड़ी घटना का हाल यहीं से पूरी दुनिया को सुनाया गया। मगर इन सबके ऊपर एक बात थी। वह थी बुश हाउस के संस्कार और उसकी संस्कृति। ईमानदारी और लगन से काम करने वाले पत्रकार हर संस्थान में मौजूद हैं पर बुश हाउस का माहौल ऐसा था कि उसमें पक्षपातपूर्ण या तथ्यों से परे जाकर बात कहने की गुंजाइश ही नहीं थी। यह माहौल यूं ही नहीं बना था। दशकों तक अनेक पत्रकारों ने कड़ी मेहनत, अनुशासन और कई बार तकलीफदेह ईमानदारी की पूंजी लगाकर यह माहौल तैयार किया था। करोड़ों लोगों का विश्वास जीतने के क्रम में दुनिया भर के शक्तिशाली लोगों को नाराज भी किया था जिनमें पूर्व ब्रितानी प्रधानमंत्री मारग्रेट थैचर भी शामिल थीं। बुश हाउस में काम करने वाले लोगों के बारे में मेरा एक अफगान दोस्त कहता था, जिस तरह काबुल में भी गधे होते हैं उसी तरह बुश हाउस में भी हैं मगर यहां गधों को लात चलाने की तमीज सिखा दी जाती है। 24 घंटे जागने वाली इमारत जिसमें हर रंग-रूप, वेश भाषा के लोग न सिर्फ काम करते थे बल्कि एक तरह से अपनी जिंदगी जीते थे। किसी दूर देश से ठंडे लंदन आने वाले एकाकी व्यक्ति के लिए सुखद टापू की तरह था बुश हाउस। बुश हाउस आने से पहले मैंने उनका नाम तक नहीं सुना था। मेरे भीतर, मेरे उन सारे दोस्तों के भीतर जो कभी यहां काम कर चुके हैं एक बुश हाउस है। हमारी सोच में, हमारी समझ में, हमारी रगों में दौड़ता बुश हाउस है जो हमेशा रहेगा।

Dark Saint Alaick
29-07-2012, 12:40 AM
मैं मन मार, हूं इस पार

-अनु सिंह चौधरी

एक दोस्त थी मेरी। थी क्योंकि अब उससे कोई सरोकार नहीं। मस्त-मलंग। दुनिया की फिक्र नहीं। उंगलियां उठाने वालों की परवाह नहीं। उसने किया वो जो दिल ने चाहा। हथेली पर दिल लेकर घूमने वालों को ठोकरें भी बड़ी मिलती हैं। दिल टूट जाने का खतरा भी बना रहता है। जाने कितनी बार टूटी। जाने कितनी बार सहेजा खुद को। हमने भी तोड़ा होगा एक-दूसरे का दिल। जन्म-जन्मांतर की दोस्ती के वायदे करने के बाद भी भरोसे को बचा नहीं पाए होंगे एक-दूसरे के। हम एक ही शहर में हैं लेकिन जुदा हैं एक-दूसरे से। मैंने कई बार फोन बदला है। कई बार गैर-जरूरी नंबरों से फोनबुक खाली किया है। एक उसका नंबर नहीं मिटता। उसको फोन उठाकर नहीं कह पाती कि याद आया करती हो तुम। हम साथ होते हुए भी एक-दूसरे से इतने जुदा कैसे हो जाते हैं? हो ही तो जाते हैं क्योंकि एक ही घर में अजनबी हो जाते हैं दो इंसान। भाई-भाई में जन्मों की दुश्मनी हो जाती है। परिवार विघटित हो जाते हैं। घर टूट जाता है। रिश्ते बिखर जाते हैं। इन सभी की जड़ एक अहं होता है जो टूटता ही नहीं। जाने किस पत्थर का बना होता है हमारा अभिमान। अहं ही आड़े आ रहा है कि फोन नहीं कर पा रही हूं उस दोस्त को। क्या कहूंगी? कैसे कहूंगी कि इतने सालों तक तुम्हें याद भी किया लेकिन तुम्हारे बिना जीने की ऐसी आदत पड़ गई है कि तुम हो ना हो कोई फर्क पड़ता नहीं। फिर भी पड़ता है। पहले प्यार को एक टीस बनाकर जिए जाने का दर्द भी ऐसा ही होता होगा। शायद बचपन की दोस्त को खो देने के जैसा। अहं आड़े आ जाता है और कई बार शुक्रगुजारी के तरीके भूल जाते हैं हम। कई बार साथ होते हुए भी कह नहीं पाते। ना होते तो क्या होता। मैं अपने अहं की वजह से सबसे भाग रही हूं इन दिनों क्योंकि कभी-कभी पलायन इकलौता रास्ता होता है। दर्द के तार में झूठी-सच्ची टीस के मोती गिनकर पिरोना जिन्दगी में रुचि बचाए रखता है क्योंकि उन्हीं के दम पर दिलफरेब कहानियां रची जा सकती हैं। पोस्ट लिखकर वाहवाहियां जमा की जा सकती हैं। ये सारी तकलीफें झूठी हैं। हमारी अपनी पैदा की है। हमारे अपने दिमाग की उपज। इसलिए क्योंकि दर्द में डूबा इंसान किसको दिलकश नहीं लगता? मन मारकर जीने वाली अपनी कहानियां सुनाकर सहानुभूतियां जमा कर सबसे मशहूर हुआ जा सकता है। कई दिलों में डेरा डाला जा सकता है आंसू बहाकर। अपनी दुख-गाथा सुनाकर सबसे ज्यादा दोस्त और हितैषी बना सकते हैं आप। कमजोर, टूटे हुए इंसान पर सबको प्यार आता है। सीधे तौर पर उससे खतरा सबसे कम होता है इसलिए। ट्रैजडी हिट होती है, ट्रैजिक एंडिंग वाली लव स्टोरी सुपरहिट। कह दो कि इतनी तकलीफ में हैं कि आस-पास उड़ते फिरते शब्दों को सलीके से एक क्रम में रख देना नहीं आ रहा तो सबसे ख़ूबसूरत कविता बनती है। इसलिए आओ झूठे-सच्चे दर्द जीते हैं। आंसुओं को बाहर निकालने के एकदम झूठे बहाने ढूंढते हैं। आओ रोना रोते हैं कि फिर बेमुरव्वत निकली जिन्दगी और हौसले ने तोड़ दिया है दम फिर से। आओ, दूर बैठे किसी ना मिल सकने वाले साजन की दुहाई देते हुए फिर से कच्चे-पक्के गीत लिखते हैं। आज की रात मेरे पास मेरी बचपन की दोस्त के ना होने का बहाना है।

Dark Saint Alaick
29-07-2012, 01:01 AM
विचारों से उत्पन्न होता है सृजन

-प्रवीण पांडेय

विचारों का प्रवाह सदा अचम्भित करता है। कुछ लिखने बैठता हूं। विषय भी स्पष्ट होता है। प्रस्तुति का क्रम भी। यह भी समझ आता है कि पाठकों को क्या संप्रेषित करना चाहता हूं। एक आकार रहता है पूरा का पूरा। एक लेखक के रूप में बस उसे शब्दों में ढालना होता है। शब्द तब नियत नहीं होते हैं। उनका भी एक आभास सा ही होता है विचारों में। शब्द निकलना प्रारम्भ करते हैं। जैसे अभी निकल रहे हैं। प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। विचार घुमड़ने लगते हैं। लगता है कि मन में एक प्रतियोगिता सी चल रही है। एक होड़ सी मची हैं। कई शब्द एक साथ प्रस्तुत हो जाते हैं। आपको चुनना होता है। कई विचार प्रस्तुत हो जाते हैं। आपको चुनना होता है। आप उन विचारों को, उन शब्दों को चुन लेते हैं। उन विचारों, उन शब्दों से संबद्ध विचार और शब्द और घुमड़ने लगते हैं। आप निर्णायक हो जाते हैं। कोई आपको थाली में सब प्रस्तुत करता जाता है। आप चुनते जाते हैं। कोई विचार या शब्द यदि आपको उतना अच्छा नहीं लगता है या आपका मन और अच्छा करने के प्रयास में रहता है तो और भी उन्नत विचार संग्रहित होने लगते हैं। प्रक्रिया चलती रहती है। सृजन होता रहता है। पूरा लेख लिखने के बाद जब मैं तुलना करने बैठता हूं कि प्रारम्भ में क्या सोचा था और क्या लिख कर सामने आया है तो अचम्भित होने के अतिरिक्त कोई और भाव नहीं रहता है। बहुधा सृजनशीलता योग्यता से कहीं अच्छा लिखवा लेती है। बहुत से ऐसे विचार जो कभी भी मन के विचरण में सक्रिय नहीं रहे सहसा सामने आ जाते हैं। न जाने कहां से। एक के बाद एक सब बाहर आने लगते हैं। ऐसा लगता है कि सब बाहर आने की बाट जोह रहे थे। उन्हें बस अवसर की प्रतीक्षा थी। आपका लिखना उनकी मुक्ति का द्वार बन जाता है। आप माध्यम बन जाते हैं। आपको थोड़ा अटपटा अवश्य लगेगा कि अपने लेखन का श्रेय स्वयं को न देकर प्रक्रिया को दे रहा हूं। उस प्रक्रिया को दे रहा हूं जिसके ऊपर कभी नियन्त्रण रहा ही नहीं हमारा। कभी कभी तो कोई विचार ऐसा आ जाता है इस प्रक्रिया में जो भूतकाल में कभी चिन्तन में आया ही नहीं और अभी सहसा प्रस्तुत हो गया। जब कोई प्रशंसा कर देता है तो पुन: यही सोचने को विवश हो जाता हूं कि किसे श्रेय दूं। श्रेय लेने के लिए यह जानना तो आवश्यक ही है कि श्रेय किस बात का लिया जा रहा है। मुझे तो समझ नहीं आता है। सृजन के चितेरों से सदा ही यह जानने का प्रयास करता रहता हूं। सृजन के तीन अंग हैं। साहित्य, संगीत और कला। साहित्य सर्वाधिक मूर्त और कला सर्वाधिक अमूर्त होता है। शब्द, स्वर और रंग अभिव्यक्ति गूढ़तम होती जाती है। अभिव्यक्ति के विशेषज्ञ भले ही कुछ और क्रम दें पर मेरे लिए क्रम सदा ही यही रहा है। बहुत कम लोगों में देखा है कि आसक्ति तीनों के प्रति हो। विरले ही होते हैं ऐसे लोग जो तीनों को साध लेते हैं। बहुत होता है तो लोग दो माध्यमों में सृजनशीलता व्यक्त कर पाते हैं। समझने की समर्थ और व्यक्त करने की क्षमता दोनों ही विशेष साधना मांगती है कई वर्षों की। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर को ही देखें। तीनों में सिद्धहस्त। पर सबसे पहले साहित्य लिखा,फिर संगीत साधा और जीवन के अन्तिम वर्षों में रंग उकेरे।

Dark Saint Alaick
31-07-2012, 02:57 PM
दिल से देखना भी सीखें

-अपूर्व कृष्ण

जाड़े में ठंड लगती है, मगर उसका लोगों को इंतजार भी होता है। जब ट्रंक से नेफ्थेलीन की गोलियों की गंध वाले स्वेटर, जैकेट, टोपी, मफलर निकलते हैं। जब शादी के जमाने में सिलवाए सूट-कोट के दिन फिरते हैं। जब सूरज के ठीक सिर के नीचे क्रिकेट खेलने का सुख लिया जाता है। रात को बैडमिंटन कोर्ट सजते हैं। आलू, छिमी, टमाटर की तरकारी और गाजर के हलवे का भोग किया जाता है। जाड़ों की नर्म धूप और...। आंगन में न सही छत या बरामदे पर लेटकर इस गाने वाली अनुभूति तो अपनी जगह है ही। लेकिन इस जाड़े का एक दूसरा चेहरा भी है जो सुहाना नहीं डरावना है। इसने पिछले साल यूरोप में साढ़े छह सौ लोगों की बलि ली। रूस, यूक्रेन, पोलैंड, चेक गणराज्य, बुल्गारिया, एस्टोनिया, लातविया, सर्बिया, क्रोएशिया, मॉन्टेनीग्रो, स्लोवेनिया। इन देशों में जाड़ा मौतें लेकर आया। मगर मरने वाले कौन थे? अधिकतर गरीब और बेघर-बेसहारा लोग। पता नहीं उनकी मौत का बड़ा जिम्मेदार कौन है। जाड़ा या गरीबी। पश्चिमी देश यूरोप, अमरीका। ये अमीर हैं और पुराने अमीर हैं, मगर गरीबी यहां भी बसती है और अक्सर दिखती भी है। बशर्ते देखने वाला देखना चाहे। लंदन में रनिवास बकिंघम पैलेस और प्रधानमंत्री आवास 10 डाउनिंग के निकट चमकते पर्यटक स्थल ट्रैफेल्गर स्क्वायर के पास तमाम रौनक के बीच कहीं दिखाई दे जाएंगे गरीब, होमलेस, बेघर। कहीं चुपचाप ठिठुरते। कोई मैग्जीन बेचते खड़े हुए या कहीं सड़क किनारे किसी दूकान के पास किसी कोने में गत्तों के बिछौने पर कंबल में लिपटे सोते हुए। ऐसे बेघरों की सहायता करने वाले एक चर्च के पास एक बोर्ड पर लिखा है - कई होमलेस लोग सारे दिन एक भी शब्द नहीं बोलते। कोई उनसे बात नहीं करता। बहुतों को डिप्रेशन या दूसरी मानसिक बीमारियां हो जाती हैं। बहुतेरे हार जाते हैं। आत्महत्या की कोशिश करते हैं। वहीं एक बेघर का अनुभव लिखा है - पहला दिन जब मुझे सड़क पर सोना था, मैं बहुत झिझक रहा था। मैं सड़क पर बैठा, गत्ते बिछाए। फिर अपने बैग से पानी, कप, चादर, चप्पल निकालना शुरू किया। डरते-डरते कि कहीं लोग मेरा वो सामान देख न लें। थोड़ी देर बाद मैंने देखा, इसकी चिन्ता की कोई जरूरत ही नहीं। लोग हम जैसों की ओर देखते ही नही। पिछले दिनों एक पत्रिका में एक युवा टीटीई ने एक घटना के बारे में बताया। एक बार मुझे ट्रेन पर एक बूढ़ी महिला मिली बेटिकट। मैंने उसे 360 रूपए का फाइन लगाया। उसने बिना कुछ बोले दे दिया। बाद में देखा वो एक कोने में बैठी रो रही है। मैं उसके पास गया। वो पहले डर गई। फिर बाद में सहज हुई और बताया कि वो दाई का काम करती है। नर्सिंग की पढ़ाई कर रही अपनी बेटी से मिलने जा रही है, जिसने पैसे मांगे हैं। उसके पास केवल 500 रूपए थे। उस पांच सौ रूपए में से 360 तो उसने मुझे दे दिए थे। मैं परेशान हो गया। मैंने उसे पैसे लौटाने चाहे, मगर उसने मना कर दिया। बोली - ठीक है बेटा, तुम्हारे मन में दया है। मुझे तो तुम जैसे लोगों से दो अच्छे बोल की भी उम्मीद नहीं रहती। बेघर-लाचार हर तरफ हैं। हर मौसम में । जाड़ा हो या गर्मी। आंखें धोखा दे देती हैं। उन्हें देखने के लिए दिल चाहिए, जो होता तो सबके पास है, मगर कोई देखना नहीं चाहता।

Dark Saint Alaick
31-07-2012, 04:22 PM
आप भी करो ‘दाग अच्छे हैं’ पार्टी !

-निर्मला भुराड़िया

भतीजी मौलश्री ने अपनी बिटिया दो वर्षीय अन्वी का बर्थ डे अनूठे अंदाज में मनाया। पार्टी का शीर्षक दिया-दाग अच्छे हैं। वैसे आमतौर पर इन दिनों बच्चों की बर्थडे पार्टी में यह होता है कि बच्चे आते है ऐसे कपड़े पहनकर जिस पर कुछ गिर न जाए यह डर मां-बाप को रहता है। कुल मिलाकर औपचारिकता और दिखावा ज्यादा मौज मस्ती कम। मगर दाग अच्छे हैं पार्टी में ऐसा कुछ नहीं था। बच्चों को खुलकर खेलने, ढोलने, बिखेरने का मौका था। पार्टी में बच्चों के खेलने के लिए ऐसी ही चीजें उपलब्ध करवाई गई थीं जो आजकल शहरी बच्चों को नसीब नहीं होती। इन्हें अलग-अलग गतिविधियों के रूप में बांटा गया था ताकि बच्चे अपनी मर्जी की एक्टिविटी चुन कर उसका मजा ले सकें। जैसे पॉट ए प्लांट। इस गतिविधि के लिए मिट्टी,पौधे और छोटे गमले रखे थे। जिस बच्चे की इच्छा हो वह पौधा रोपे। या यूं कहें पौधा रोपने के खेल में लग जाएं। एक और एक्टिविटी थी पॉट योर पॉट। इसमें कुम्हार की मिट्टी थी। बच्चे चाहें तो आड़े-तिरछे, आंके-बांके मिट्टी के बरतन बनाएं और कुछ नहीं तो मिट्टी थेप कर मजे से हाथ गंदे करें। आमंत्रितों की मम्मियों को पहले ही कह दिया गया था कि चाहें तो बच्चों को एप्रेन पहना कर भेजें। भई यह तो दाग अच्छे हैं पार्टी है। एक कोने में इनफ्लेटेड पूल भी रखा गया था जिसमें पानी और झाग थे। बच्चे इसमें चाहें तो खेलें, झाग उड़ाएं, संतरंगी बुलबुले बनाएं और फोड़ें। उनकी मर्जी। यहां कौन कहेगा गीले मत होओ, सर्दी लग जाएगी। और भी गतिविधियां थीं। मतलब यही कि मिट्टी,पानी,पौधे जैसी नैसर्गिक चीजों का साथ और इनसे मनचाहे ढंग से खेलने की उन्मुक्तता। बच्चों को इससे ज्यादा मजेदार और क्या लग सकता है? एक-दो दशक पहले तक का बचपन आज जितना बंधा हुआ नहीं था। धूल-धमासा, मिट्टी-पानी उपलब्ध भी थे और इन्हें छूना मना भी नहीं था। आज बच्चों के लिए शिक्षा आदि के अवसर जरूर बढ़ रहे हैं मगर खुलकर खेलने के अवसर कम हो रहे हैं। ऐसे में कभी-कभी दाग अच्छे हैं वाली छूट बड़ी प्यारी होती है। बच्चों का लालन-पालन करने के लिए बच्चों का मनोविज्ञान समझना जरुरी होता है। यही नहीं आपको अपने बचपन में जाकर बच्चा बन कर सोचना होता है कि एक बालक क्या चाहता है। किन स्थितियों में वह खुश होता है, किन स्थितियों में अपमानित होता है, किन स्थितियों में कसमसाता है पर प्रतिवाद नहीं कर पाता क्योंकि वह बच्चा है पर निर्भर और कमजोर है। परिवार के स्तर पर ही नहीं देश के स्तर पर भी हमारे यहां बच्चे की एक नागरिक और भावी कर्णधार की तरह चिंता नहीं की जाती। रोज बच्चे बोरवेल में गिर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के बावजूद सुरक्षा संबंधी गाइड लाईंस का पालन नहीं हो रहा। बंगाल में एक वॉर्डन ने रात में बिस्तर गीला करने वाली बच्ची को स्वमूत्र पान की घिनौनी सजा दे डाली! बच्ची की बीमारी और मनोविज्ञान समझ कर उचित चिकित्सा करवाने के बजाए। लाख कानूनों के बावजूद न देश से बाल मजदूरी विदा हुई है न बाल विवाह। आखिर हम कब बच्चों को भी एक संपूर्ण मनुष्य समझ कर उनसे आदर और प्यार भरा व्यवहार करना सीखेंगे।

Dark Saint Alaick
01-08-2012, 01:55 AM
फिर बोझ नहीं रहेंगी लड़कियां?

-सुनील अमर

लड़की को बोझ समझने की प्रवृत्ति में कमी क्यों नहीं आ रही है? मेडिकल पत्रिका लॉंसेट का अनुमान है कि भारत में प्रतिवर्ष 5 लाख से अधिक कन्या-भ्रूण हत्याऐं होती हैं। हालिया जनगणना से यह भी साफ हो चुका है कि इसके पीछे गरीबी नहीं बल्कि दूषित मानसिकता मुख्य कारण है। सच्चाई तो यह है कि गरीबों के लिए बेटियां बोझ हैं ही नहीं क्योंकि वहां पेट भरने की दैनिक जुगत के आगे खर्चीली शादी का कोई अस्तित्व ही नहीं है। जिन दक्षिणी राज्यों में लड़कियों की सामाजिक स्थिति शुरु से दमदार थी वहां भी अब दहेज की कुप्रवृत्ति तेजी से पांव पसार रही है। बेवजह की शान के लिए लड़कियां पहले भी मारी जाती रही और आज भी ‘आॅनर किलिंग’ सार्वजनिक रुप से हो ही रही है। जब तक नहीं मारी जा रही हैं तब तक उनके उठने-बैठने,चलने-फिरने, कपड़े पहनने और मोबाइल-कम्प्यूटर इस्तेमाल करने तक पर मर्दों द्वारा अंकुश लगाया जा रहा है। यह मान लिया गया है कि मर्द अगर भ्रष्ट हैं तो उसकी जिम्मेदार सिर्फ औरत है। ऐसे में इसका हल क्या हो? जवाहरलाल नेहरु विवि में समाजशास्त्र की फेलो और महिलावादी लेखिका सुश्री शीबा असलम फहमी इसका सीधा और सपाट त्रिसूत्री उपाय बताती हैं- लड़कों की तरह उच्च शिक्षा, लड़कों जितनी आजादी और पारिवारिक सम्पत्ति में बराबर हिस्सा। ये तीन उपाय कर दीजिए तो फिर आपकी लड़की आपपर बोझ नहीं रह जाएगी और जैसे आपका लड़का पढ़-लिखकर अपना जीवन जीने का रास्ता खोज लेता है, आपकी लड़की उससे भी अच्छी तरह अपना रास्ता बना लेगी। अब यही एक विकल्प बचता है कि पुराने कानूनों की समीक्षा कर ऐसे नए और कठोर कानून बनाए जाएं जो बेटियों को पैतृक सम्पत्ति में न सिर्फ बराबर हिस्सा दिलाएं बल्कि उनकी सारी शिक्षा और शैक्षणिक व्यय को सरकार द्वारा वहन किए जाने की गारण्टी भी दे। राज्य सरकारें लड़कियों के जन्म पर धनराशि, स्कूलों में सायकिल, माध्यमिक शिक्षा पूरी करने पर कुछ हजार रुपये तथा गरीब परिवार की लड़कियों की शादी पर भी मदद दे रही हैं लेकिन नतीजे बता रहे हैं कि यह वोट लेने का नाटक होकर रह गया है। 1994 में देश में भ्रूण परीक्षण कानून बना तथा 1996 में इसमें संशोधन कर और सख्त बनाया गया लेकिन क्रियान्वयन में ढिलाई के चलते नौबत आज यहां तक आ पहुंची है कि न सिर्फ पोर्टेबुल अल्ट्रासाउन्ड मशीन को सायकिल पर लादकर गांव-गांव,गली-गली मात्र 400-500 रुपयों में भ्रूण परीक्षण किए जा रहे हैं बल्कि अब इन्टरनेट पर भी चंद रुपयों में ऐसी सामाग्री उपलब्ध है जिसे खरीद कर कोई भी अपने घर पर ही ऐसा परीक्षण कर सकता है। जाहिर है कि सिर्फ रोक लगाने के कानून इस समस्या को हल नहीं कर सकते। समस्या तभी हल हो सकती है जब इसे समस्या ही न रहने दिया जाय। लड़कियों से धार्मिक कर्म कांड और मां-बाप का अंतिम संस्कार कराने जैसे कार्यो को राजकीय संरक्षण मिलना ही चाहिए। लड़कियों की कमी का कहर भी हमेशा की तरह गरीब और निम्न जाति के युवकों पर ही टूटना तय है क्योंकि हमारे समाज की मानसिकता लड़की को अमीर घर में ब्याहने की है और अमीरों की शादियां तो कई रास्तों से हो जाती हैं। इसलिए सरकार को अब इस समस्या के निदान के लिए पूरी तरह से कमर कस लेने का वक्त आ गया है। भावनात्मक नारों और नैतिकता का पाठ पढ़ाने के प्रयोग असफल हो चुके हैं, यह ताजा जनगणना के आंकड़ों ने बता दिया है।

Dark Saint Alaick
03-08-2012, 12:11 AM
अंगीठी पर भुट्टे और स्टीम इंजन के दिन

-आराधना चतुर्वेदी

बचपन अलग-अलग मौसमों में अलग खुशबुओं और रंगों के साथ याद आता है। बरसात का मौसम है तो भुट्टे याद आए। भुट्टे याद आए तो अंगीठी याद आई। कोयला याद आया। फिर स्टीम इंजन और दिल बचपन की यादों में डुबकियां लगाने लगा। तब की बातें सोचती हूं और आज को देखती हूं तो लगता ही नहीं है कि ये वही दुनिया है। वो दुनिया सपने सी लगती है। छोटे शहरों में खाना मिट्टी के तेल के स्टोव या अंगीठी पर बनता था। तब तक वहां गैस सिलेंडर नहीं पहुँचा था। रेलवे कालोनी के सारे घरों में कोयले की अंगीठी पर खाना बनता था क्योंकि स्टीम इंजन की वजह से कोयला आराम से मिल जाता था। कच्चा और पक्का कोयला। पक्का कोयला आता कहां से थाए ये शायद नए जमाने के लोग नहीं जानते होंगे। स्टीम इंजन में इस्तेमाल हुआ कोयला भी आधा जलने पर उसी तरह खाली किया जाता था जैसे अंगीठी को खोदनी से खोदकर नीचे से खाली करते थे जिससे राख और अधजला कोयला झड़ जाय और आक्सीजन ऊपर के कोयले तक पहुंच उसे ठीक से जला सके। इंजन के झड़े कोयले को बेचने के लिए रेल विभाग ठेके देता था। पक्के कोयले का इस्तेमाल अंगीठी को तेज करने में होता था और हम लोग भी किलो के भाव से इसे खरीदते थे। बाऊ प्लास्टिक के बोरे में साइकिल के पीछे लादकर घर लाते थे। आजकल की पीढ़ी ने पापा को साइकिल चलाते देखा है क्या? बरसात में ये कोयला बड़े काम आता था क्योंकि कच्चा कोयला मुश्किल से जलता था। अंगीठी सुलगाने के लिए उसके अन्दर पहले लकड़ी जला ली जाती थी उसके बाद कोयला डाला जाता था। रेल ट्रैक के बीच में पहले पहाड़ की लकड़ी के स्लीपर बिछाए जाते थे वही खराब होने पर जब निकलते थे तो रेलवे कर्मचारी सस्ते दामों पर खरीद लेते थे। ये लकड़ी अच्छी जलती थी। अम्मा या दीदी कुल्हाड़ी से काटकर उसके छोटे टुकड़े करती थीं। मैं छोटी इसलिए केवल देखती थी। कोयला और लकड़ी बरसात में भीग जाते थे इसलिए बरसात में अंगीठी सुलगाने में मुश्किल होती थी। अंगीठी सुलग जाती थी तो उसे उठाकर बरामदे में रखा जाता था और उस पर अम्मा भुट्टे भूनती थीं। आंगन में झमाझम बारिश और हम बरामदे में अम्मा के चारों ओर बैठकर अपने भुट्टे के भुनने का इंतजार करते थे। अभी तो न जाने कितने सालों से आंगन नहीं देखा और ना ही अम्मा के हाथ से ज्यादा अच्छा भुना भुट्टा खाया है! मेरे बाऊ रेलवे क्वार्टर के सामने की जगह को तार से घेरकर क्यारी बना देते थे और उसमें हर साल भुट्टा बोते थे। कभी-कभी तो इतना भुट्टा हो जाता था कि उसे सुखाकर बांधकर छत पर लगी रॉड में बांधकर लटका दिया जाता था। फिर हमलोग कभी-कभी उसके दाने छीलकर अम्मा को देते थे और वो लोहे की कड़ाही में बालू डालकर लावा भूनती थीं। एक भी दाना बिना फूटे नहीं रहता था। आज की पीढ़ी ने स्टीम इंजन चलते नहीं देखा। उसके शोर को नहीं सुना। उसके धुएं से काले हो जाते आसमान को नहीं देखा। बहुत सी और यादें हैं। और भूले हुए शब्द। लोहे के औजार बाऊ हाथों से बनाते थे। संडसी, बंसुली, खुरपी, कुदाल, फावड़ा, नन्ही पेंचकस, कतरनी, गंड़ासी, आरी, रेती...। इनके नाम सुने हैं क्या? या सुने भी हैं तो देखे हैं क्या?

Dark Saint Alaick
03-08-2012, 08:29 PM
वो कल भी पास थे, वो आज भी करीब हैं

-निखिल आनंद गिरि

मेरी मां ने आज तक कोई फिल्म पूरी नहीं देखी। सती अनुसुइया, गंगा किनारे मोरा गांव जैसी अमर भोजपुरी फिल्में पूरी देखने के दौरान भी दो-तीन बार झपकी जरूर मार ली होगी। आप उसके सामने किसी भी दौर की अच्छी फिल्म लाकर रख दीजिए, फिल्म का बखान कीजिए कि ये सिनेमा के फलां तीसमारखां की फिल्म है वगैरह-वगैरह। वो फिल्म देखने के साथ कभी दाएं, कभी बाएं जरूर डोलती नजर आएगी। मां की सिनेमाई नींद के आगे किसी भी सुपर स्टार या महानायक की ऐसी की तैसी न हो जाए तो फिर कहिए। हिंदी फिल्मों के नाम पर उनकी देखी गई हाथी मेरे साथी व स्वर्ग ही बार-बार याद की गई हिंदी फिल्म है। हाथी मेरे साथी देखने और याद रखने का एक कारण अगर फिल्म में हाथी की मौजूदगी को मान लें तो भी स्वर्ग में सिर्फ राजेश खन्ना ही वो किरदार थे जिन्होंने मेरी मां को भी प्रभावित किया। मां की पहली पसंद राजेश खन्ना रहे हैं। हमने वीसीआर पर घर में पहली बार स्वर्ग फिल्म देखी थी। मैं तब स्कूल में पढ़ता था। मुझे याद है घर में ये फिल्म कई बार देखी जा चुकी है। वो भी सिर्फ मां की वजह से। मां को न वीसीआर चलाना आता है और न ही फिल्में देखने का शौक है। उसे तो ये भी नहीं पता कि सुपर स्टार जैसी कोई चीज भी होती है। ये राजेश खन्ना का कोई जादू ही था कि मां उनका नाम जानती है चेहरे से पहचानती है। जैसे बाद में मेरे टीवी या क्रिकेट देखने के शौक की वजह से वो अमिताभ को अमितभवा और सचिन को सचिनवा के नाम से पहचान चुकी है। और कई बड़े लोगों का नाम पूछकर कई बार देख चुका हूं मगर उन्हें पहचानने में वो आत्मविश्वास नहीं दिखता। बात स्वर्ग की। तब समस्तीपुर में पापा ने पहली बार जमीन खरीदी थी और हमारा घर बन रहा था। हम पापा की नौकरी की वजह से बिहार के जिस कोने में भी होते अपने घर को लेकर कुछ न कुछ बात जरूर होती। मां अपने घर को स्वर्ग ही कहकर बुलाती। ये बहुत बाद में समझ आया कि सिनेमा और एक दर्शक का रिश्ता क्या हो सकता है। जिस महिला ने शायद ही कभी सिंगल स्क्रीन थियेटर में (ऊपर लिखी दो-चार फिल्मों को छोड़कर) कदम रखा हो, शायद ही कभी मॉल या मल्टीप्लेक्स के दर्शन की सोच पाए उसके लिए राजेश खन्ना घर का हिस्सा थे। इसके बाद शायद ही कुछ कहने को बचता है कि राजेश खन्ना क्यों हिंदी सिनेमा के पहले सुपर स्टार कहे जाते हैं। वो भी तब जब राजेश खन्ना के गुजरने पर हाथी मेरे साथी या स्वर्ग का जिक्र एक भी चैनल या वेबसाइट पर उनकी चुनिंदा फिल्मों में देखने को नहीं मिल रहा है। यानी एक सुपरस्टार की कामयाबी इसी में है कि उसकी दूसरे दर्जे की सफल फिल्म भी एक विशुद्ध हाउसवाइफ को उसका ऐसा फैन बना सकती है कि वो ताउम्र अपने घर का नाम उसकी एक फिल्म के नाम पर रखना चाहे। अपने आखिरी दिनों में किया गया राजेश खन्ना का वो पंखे का विज्ञापन भी याद आ रहा है जिसमें राजेश खन्ना की एक्टिंग का सबसे बुरा इस्तेमाल ये कहलवाने में हुआ कि मेरे फैन्स मुझसे कोई नहीं छीन सकता। हालांकि ये बात बिल्कुल सच है कि राजेश खन्ना के फैन्स हमेशा बचे रहेंगे। जब तक धरती पर प्यार बचा है। जब तक भारतीय सिनेमा बचा है। जब तक गीत लिखने वालों और संगीत रचने वालों की कद्र बची है।

Dark Saint Alaick
13-08-2012, 11:41 PM
पुरानी स्लेट, बाल कविता और चवन्नी भर चकबक

-गिरीजेश राव

आयु बढ़ने के साथ मस्तिष्क पुरानी स्लेट हो जाता है। बचपन की स्लेट नई होती थी तो नया लिखा जाता था,पुराना मिटा दिया जाता था लेकिन धीरे-धीरे खड़ियों के अक्षर स्लेट पर प्रभाव छोड़ने लगते थे। कुछ तो इतने हठी हो जाते कि हाथ से,थूक से,पानी से चाहे जिससे रगड़ लो स्लेट सूखने पर आभास देने लगते। वे उन चिढ़ाने वाले सहपाठियों से लगते जिनकी शिकायत आचार्य से करनी होती थी और जिन्हें दंडित होता देख अच्छा लगता। स्लेट की शिकायत होती और पिताजी नई ले आते। एक बार एक दारोगा की कन्या की स्लेट मेरे हाथ से टूट गई तो उसने पुलिसिया डंडे का इतना आतंक जमाया कि मुझे प्रधानाचार्र्य तक सिफारिश लगानी पड़ी। उसकी नजर मेरी उस स्लेट पर थी जिस पर लिखाई बड़ी सुन्दर होती थी। अब लिखाई का स्लेट से क्या सम्बन्ध लेकिन उसकी समझ जो थी वो थी। मैंने भी अपनी स्लेट नहीं दी बल्कि चवन्नी दंड देकर पीछा छुड़ाया। उसके बाद उसने मिल्ली करने की कोशिशें कीं लेकिन सब बेकार। सोचता हूं कि मस्तिष्क भी स्लेट जैसा होता जिसे पुराना होने पर बदला जा सकता। फिलहाल तो यह असम्भव है। वैसे भी मैं मस्तिष्क ही तो हूं। जब वही बदल जाय तो मैं रहूंगा ही नहीं लेकिन फिर भी सोचो तो मस्तिष्क अलग सा लगता है। मनुष्य सोचता कहां है? मस्तिष्क में न? तो फिर मस्तिष्क इतना चालाक है कि स्वयं से भी अलगाव का भाव रख लेता है। ऐसे मस्तिष्क से कैसे पार पाए? पुरानी स्लेट सरीखे मस्तिष्क का क्या करूं जिस पर अक्षरों के धुंधलके मुंह चिढ़ाते हैं और नए लिखे नहीं जाते। स्लेट युग से आगे की एक चित्रमयी पुस्तक की एक कविता टुकड़ा टुकड़ा याद आई है। जाने किसने रचा था पता नहीं यह पूरी है भी या नहीं ...सब मिल कर के चिल्लाए,उमड़ घुमड़ मेघा आए,ओले गिरे लप लप लप,हमने खाए गप गप गप..! जिन्दगी इस कविता सरीखी आसान होती तो क्या बात होती! बरेली,कोकराझार, मानेसर और दंडकारण्य जैसे मामले आसानी से सुलझ जाते! छेड़खानी के बाद चलती ट्रेन से फैंकी गई लड़की को कोई हवाई राजकुमार बाहों में संभाल लेता और उन सबकी आंखों में सुराख कर देता जिन्हों ने चुप तमाशा देखा। लेकिन ऐसा कहां होता है? अव्वल तो ओले पड़ते नहीं। मुंह में लेने की कौन सोचे जब हजार बैक्टीरिया, वायरस हवा में फैले हुए हैं। दांत सेंसिटिव हो गए हैं। ठंड-गर्म सहा नहीं जाता और टीवी पर सेंसोडाइन का प्रचार करती नकली डाक्टर की नकली मुस्कान देख लगता है कि दारोगा की वह बेटी अब सयानी हो गई है। इतनी भोली नहीं रही कि अच्छी लिखाई का गुर हाथ में न देख स्लेट में देखे, चवन्नी से मान जाए और बाद में मिल्ली की कोशिशें करें।बड़प्पन भोलापन छीन लेता है। सम्वेदनाएं आइसक्रीम सी हो गई हैं। आइसिंग के नीचे घुल जाने वाली ठंड है। न जीभ पर रोड़ा और न दांतों को कुछ खास कष्ट। चुभलाते हुए मन तृप्त होता है और भूल जाता है। इस भुलक्कड़ी में शब्द तक याद नहीं रह जाते। वे शब्द जो सृष्टि की नींव समूल हिलाने की सामर्थ्य रखते थे मन प्रांतर में कहीं खो गए हैं। पुकार भी ठीक से नहीं हो पाती। उमड़ घुमड़ मेघ कैसे आएं? ओले कैसे पड़ें?

Dark Saint Alaick
14-08-2012, 03:46 PM
समोसे के आगे कचौरियों की क्या औकात

-वुसतुल्लाह ख़ान

किस्सा ये है कि लाहौर के लोकल एडमिनिस्ट्रेशन ने एक पुराने कानून के तहत तीन बरस पहले समोसा बनाने वालों को हुक्म दिया कि अगर किसी ने आज के बाद एक समोसा छह रूपए से ज्यादा का बेचा तो उस पर कड़ा जुर्माना किया जाएगा। समोसा बनाने वाले इस हुक्म से डरने के बजाए हाईकोर्ट चले गए मगर हाईकोर्ट ने सरकार और समोसा बनाने वालों की दलील सुनने के बाद फैसला दिया कि चुंकि ख़ुद समोसा इस मुकदमे में अपना बचाव करने के काबिल नहीं लिहाजा ये मुकदमा खारिज किया जाता है लेकिन समोसा साजों ने हार नहीं मानी और इस फैसले के खिलाफ जस्टिस इफ्तिख़ार चौधरी की सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा दिया। अदालत ने फैसला सुनाया कि समोसे पर पंजाब फूड स्टफ कंट्रोल एक्ट 1958 लागू नहीं होता लिहाजा पंजाब हुकुमत समोसे की फिक्स कीमत मुकर्रर नहीं कर सकती। समोसा किस कीमत पर बिकता है ये समोसे और उसे बेचने वाले का मसला है लिहाजा हुकुमत पंजाब आइंदा इस तरह के मामले में अपनी टांग न अड़ाए तो बेहतर है। ये फैसला आने की देर थी कि समोसा मारे ख़ुशी के छह रूपए की सीढ़ी से बारह रूपए की छत पर कूद गया और अब वो पकौड़ों, कचौरियों और जलेबियों को हिकारत से देख रहा है जिनकी कीमत और औकात कोई पूछने वाला नहीं। सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला इस लिहाज से अहम है कि दो-ढ़ाई साल पहले वो चीनी और पेट्रोल की कीमत तय करने के बावजूद अपने फैसले पर अमल नहीं कर सकी। न ही किसी प्रधानमंत्री से राष्ट्रपति आसिफ जरदारी के खिलाफ स्विस कोर्ट को खत लिखवा सकी इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने यकीनन समोसे के हक में फैसला करते हुए सोचा होगा कि चूंकि समोसे को किसी प्रधानमंत्री की तरह पद से नहीं हटाया जा सकता है इसलिए इज्जत इसी तरह बचाई जा सकती है कि समोसे को बरी कर दिया जाए। मेरे एक वकील दोस्त का कहना है कि अदालत के इस फैसले के पीछे जबरदस्त बुद्धिमत्ता है। समोसे के हक में फैसले से साबित हो गया है कि इंसान और समोसा बराबर हैं। ये बात यकीनन अदालत के सामने रही होगी कि समोसा सिर्फ लाहौर या पंजाब का मसला नहीं है बल्कि गालिब, बॉलीवुड, मेंहदी हसन, बासमती चावल और आम की तरह पूरे दक्षिणी एशिया की धरोहर है। ये काबुल से कन्याकुमारी तक, मुल्ला उमर से नरेंद्र्र मोदी तक सबको पसंद है। इसे जितने शौक से मुस्लिम लीग और जमाएते इस्लामी वाले खाते हैं उतने ही शौक से अन्य दलों वाले भी ख़रीदते हैं। सोवियत यूनियन टूट गया, बर्लिन की दीवार गिर गई, इस्लामाबाद में परवेज मुशर्रफ, दिल्ली में अटल बिहारी वाजपेयी और बिहार में लालू यादव सत्ता में नहीं रहे मगर समोसे में आज भी आलू है और कल भी रहेगा। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने समोसे को कीमत के बंधन से आजाद करके जो ऐतिहासिक फैसला किया है उसकी जबरदस्त सराहना होनी चाहिए। अलबत्ता इंसाफ से जलने वाले कुछ लोग ये जरूर कहते हैं कि इस वक्त पाकिस्तान की अदालतों में ऊपर से नीचे तक तकरीबन दस लाख मुकदमे कई बरस से सुनवाई का इंतजार कर रहे हैं। काश ये मुकदमा करने और लड़ने वाले भी समोसा होते तो कितना अच्छा होता....।

Dark Saint Alaick
15-08-2012, 01:25 AM
खजाना बंद गुल्लक का कभी तुम फोड़ मत देना

-समीर लाल समीर

मैं उससे कहता कि यह सड़क मेरे घर जाती है। फिर सोचता कि भला सड़क भी कहीं जाती है? जाते तो हम आप हैं। एक जोरदार ठहाका लगाता और अपनी ही बेवकूफी को उस ठहाके की आवाज से बुनी चादर के नीचे छिपा देता। फिर तो हर बेवकूफियां यूं ही ठहाकों में छुपाने की मानो आदत सी हो गई। आदत भी ऐसी कि जैसे सांस लेते हों। बिना किसी प्रयास के बस यूं ही सहज भाव से। इधर बेवकूफी की नहीं कि उधर ठहाके लगा उठे और सोचते रहे कि इसकी आवाज में सब दब छुप गया। अब भला कौन जान पायेगा? यूं गर कोई समझ भी जाए तो हंस तो चुके ही हैं कह लेंगे मजाक किया था। उम्र का बहाव रुकता नहीं और तब जब आप बहते बहते दूर चले आए हों इस बहाव में तो एकाएक ख्याल आता है कि वाकई एक मजाक ही तो किया था। अब ठहाका उठाने का मन नहीं करता। एक उदासी घेर लेती है ऐसी सोच पर। और उस उदासी की वजह सोचो तो फिर वहीं ठहाका। बिना किसी प्रयास के। सहज ही। कहां चलता है रास्ता? कहां जाती है सड़क? वो तो जहां है वहीं ठहरी होती है। हम जब चलते हैं तब भी ठहरे से। सुबह जहां से शुरु हों, शाम बीतते फिर उसी बिन्दु पर। हासिल एक दिन गुजरा हुआ। हां, दिन चलता है। चलते चलते गुजर जाता है। जैसे की हमारी सोच। हमारे अरमान। हमारी चाहतें। सब चलती हैं। गुजर जाती हैं। ठहर जाता हूं मैं। जाने किस ख्याल में डूबा। उस रुके हुए रास्ते पर। सड़क कह रहा था न उसे, जो जाती थी मेरी घर तक। वो कहता कि सड़क जाती है वहां जो जगह वो जानती है। अनजान मंजिलों पर तो हम उड़ कर जाते हैं सड़क के सहारे। एक अरमान थामें। मगर सड़क जाएगी घर तक। तो मेरी सड़क क्यूं नहीं जाती मेरे उस घर तक। जहां खेला था बचपन, जहां संजोये थे सपने, अपने खून वाले रिश्तों के साथ। कहते हैं फिर कि वो जाती है उन जगहों पर जिसे वो जानती है। बताते हैं कि सड़क के उस मुहाने पर जहां मेरा घर होता था, अब एक मकान रहता है। मकान नहीं पहचानती सड़क। घर रहा नहीं। कई बरस हुए उसे गुजरे। तो खो गया फिर उस रुकी सड़क के उस मोड़ पर। जहां से सुबह चलता हूं और शाम फिर वहीं नजर आता हूं इस अजब शहर में। जो खोया रहता है बारहों महिन। छुपा हुआ कोहरे की चादर में। किसी बेवकूफी को ढांपने का उसका यह तरीका तो नहीं? एक ठहाका लगाता हूं। ये मेरा तरीका पीछा नहीं छोड़ता और रास्ता है कि चलता नहीं। तो कुछ कदमों पर समुन्दर है और पलटता हूं तो पहाड़ी की ऊंचाई जिसे छिल छिल कर बनाए छितराए चौखटे मकान। अलग-अलग बेढब रंगों के। कहते हैं यह सुन्दरता है सेन फ्रान्सिसको की। हा हा!! मेरा ठहाका फिर उठता है और यह शहर। छिपा देता है उसे भी अपनी कोहरे की चादर की परत में। और मैं गुनगुनाता हूं अपनी ताजी गजल-
भले हों दूरियां कितनी कभी घर छोड़ मत देना
हैं जो ये खून के रिश्ते उन्हें तुम तोड़ मत देना
उसी घर के ही आंगन में बसी है याद बचपन की
खजाना बंद गुल्लक का कभी तुम फोड़ मत देना!

Dark Saint Alaick
18-08-2012, 02:39 PM
मैं सब समझती हूं फिजा

-वर्तिका नंदा

धुले बालों को हाथ से झटकती, चांद के साथ चांदनी की तरह सिमटी और शाल ओढ़े मुस्कुराती उस बेहद सुंदर फिजा के बारे में मैं चंडीगढ़ के दोस्तों से अक्सर पूछा करती थी। चंडीगढ़ जाकर उससे मिलने का इरादा भी था। एक महीने पहले तहलका के एक पत्रकार ने फेसबुक पर बताया कि फिजा अकेलेपन की जिंदगी बसर कर रही हैं। मैं कुछ लिख रही थी और मेरा मन था कि मैं जाकर फिजा से कहूं फिजा, मैं सब समझ सकती हूं । फिजा की हत्या ज्यादा और आत्महत्या कम के बारे में जिस समय पता चला मुझे हैरानी से ज्यादा दुख हुआ लेकिन दुख का भाव रात होते होते कई गुना बढ़ गया। फेसबुक और ट्विटर पर कमेंट पढ़े वे फिजा को दोषी ठहराते हुए थे। टीवी की चिल्लाती वार्ताएं भी गीतिका और फिजा पर अंगुली उठाती हुई थीं। पूरी तरह से चरित्र हनन करतीं,तस्वीरों को कई कोणों से दिखाती हुई, उनके अति महत्वाकांक्षी होने की छवि गढ़तीं और अनकहा अट्टाहास करतीं। एक युवा और सुंदर लड़की की हत्या कई दृष्टियों से चीजों को खोलकर और उधेड़ कर रख देती है। फिजा का चांद से शादी करना मीडिया ने कुछ इस अंदाज में बयान किया कि जैसे फिजा ही चांद को गोद में लेकर भगा ले गई थी। उसका धर्म बदलना, सफल होना, नामी होना, कथित बड़े लोगों को जानना, खबर तो बस उसके चरित्र के पन्नों को उधेड़ने पर आकर रुक गई। खबर वहां पहुंची नहीं जहां उसे पहुंचना चाहिए था। खबर को उसका एकाकीपन,उदासी, बेबसी, दुख, मातृत्व का अभाव और प्रेमी बनाम पति का विछोह नहीं दिखा। मीडिया को कहां दिखा कि अगर उनके जिगर में प्रेम का भाव न होता तो वे एकाकी रहती ही क्यों। मीडिया को समझ ही नहीं आया कि दूसरी पत्नी होना आसान नहीं होता। किसी और के बच्चों की अनकही, अस्वीकृत मां बनना तो और भी नहीं। मीडिया अंदाजा नहीं लगा सका कि औरत होने की कीमत एक बार नहीं हर बार अदा की जाती है और ‘दूसरी’ होने पर इसकी कीमत और सजा भी कुछ और होती है। मीडिया जब उनकी जिंदगी के गीले पन्ने उधेड़ रहा था मैं उस शोर के बीच चांद के लिए उसकी चुप्पी को अपनी हथेली पर तोल रही थी। चांद को लेकर जिस संजीदगी से आरोपों की फेहरिस्त खुलनी और छीली जानी चाहिए थी मीडिया ने उस उफान को उठने ही नहीं दिया बल्कि वह तो फिजा के मरने को तार्किक मनवाने में जुट गया और इस शोर में उसका साथ देने के लिए उसे कई बंसी बजाने वाले बड़ी आसानी से मिल गए। ठीक ही हुआ एक तरह से। औरत को थकाते इस समाज में पीड़िता के लिए कोई जगह है भी नहीं। वह भोग्या हो सकती है, परित्यक्ता, बिखरी हुई और पराजित पर उसकी जुबान नहीं होनी चाहिए। वह या तो हाथ में कलम थामे, बोले, कानून के पास जाए या फिर मर जाए या मारी जाए। सबसे आसान है आखिरी रास्ता ही। फिजा के जाने के बाद लगा कि चुप्पी तोड़ने का समय आ गया है। हर औरत को अपनी रक्षा के हथियार खुद बनाने होंगे। उनकी धार तेज करनी होगी। सबसे बड़ी बात उसे दूसरी औरत का साथ देना होगा और न देना हो तो चुप्पी साधनी होगी। अपराध की शिकार हर औरत एक दिन अपनी तकदीर नए सिरे से लिखेगी जरूर और कहेगी- मैं थी, हूं और रहूंगी।

Dark Saint Alaick
18-08-2012, 03:42 PM
ममफोर्डगंज के अफसर और सपेरे

-गिरीजेश राव

एक हाथ में मोबाइल, दूसरे हाथ में बेटन। जींस की पेंट। ऊपर कुरता। अधपके बाल। यह आदमी मैं था जो पत्नी के साथ गंगा किनारे जा रहा था। श्रावण शुक्ल अष्टमी का दिन। इस दिन शिवकुटी में मेला लगता है। मेलहरू सवेरे से आने लगते हैं पर मेला गरमाता संझा को है। मैं तो सवेरे स्नान करने वालों की रहचह लेने गंगा किनारे जा रहा था। सामान्य से ज्यादा भीड़ थी की। पहले सांप लेकर सपेरे शिवकुटी घाट की सीढ़ियों या कोटेश्वर महादेव मंदिर के पास बैठते थे। अब नए चलन के अनुसार स्नान की जगह पर गंगा किनारे आने-जाने के रास्ते में बैठे थे। कुल तीन थे वे। उनमें से एक प्रगल्भ था। हमें देख बोलने लगा- जय भोलेनाथ। नाग देवता आपका भला करेंगे। दूसरा उतनी ही ऊंची आवाज में बोला-अरे हम जानते हैं ये ममफोर्डगंज के अफसर हैं। दुहाई हो साहब। मैं अफसर जैसा कत्तई नहीं लग रहा था। मुझे यह ममफोर्डगंज के अफसर की थ्योरी समझ नहीं आई। हम आगे बढ़ गए। स्नान करते लोगों के भिन्न कोण से मैने दो-चार चित्र लिए। गंगाजी धीमे-धीमे बढ़ रही हैं अपनी चौड़ाई में इसलिए स्नान करने वालों को पानी में पचास कदम चल कर जाना होता है जहां उन्हे डुबकी लगाने लायक गहराई मिलती है। लोगों की एक कतार पानी में चलती भी दिख रही थी और उस पंक्ति के अन्त पर लोग स्नान करते नजर आ रहे थे। साल दर साल इस तरह के दृश्य देख रहा हूं। लौटते समय पत्नी ने कहा कि दस-पांच रुपए हों तो इन सपेरों को दे दिए जाएं। मैने पैसे निकाले तो सपेरे सतर्क हो गए। ममफोर्डगंज का अफसर बोलने वाले ने अपने पिटारे खोल दिए। एक में छोटा और दूसरे में बड़ा सांप था। बड़े वाले को उसने छेड़ा तो फन निकाल लिया उसने। पत्नी ने उस सपेरे से प्रश्न जरूर पूछा -क्या खिलाते हो इस सांप को? बेसन की गोली बना कर खिलाते हैं। बेसन और चावल की मिली गोलियां। दूध भी पिलाते हो? यह पूछने पर आनाकानी तो की उसने पर स्वीकार किया कि सांप दूध नहीं पीता। या फिर सांप को वह दूध नहीं पिलाता। वह फिर पैसा मिलने की आशा से प्रशस्ति गायन की ओर लौटा। अरे मेम साहब, (मुझे दिखा कर) आपको खूब पहचान रहे हैं। जंगल के अफसर हैं। ममफोर्डगंज के। मुझे अहसास हो गया कि कोई डीएफओ साहब का दफ्तर या घर देखा होगा इसने ममफोर्डगंज में। उसी से मुझको कॉ-रिलेट कर रहा है। पत्नी ने उसे दस रुपए दे दिए। दूसरी ओर एक छोटे बच्चे के साथ दूसरा सपेरा था। वह भी अपनी सांप की पिटारियां खोलने और सांपों को कोंचने लगा। जय हो! जय भोलेनाथ। यह बन्दा ज्यादा प्रगल्भ था पर मेरी अफसरी को चम्पी करने की बजाय भोलेनाथ को इनवोक (पदअवाम) कर रहा था। उसमें भी कोई खराबी नजर नहीं आयी मुझे। उसे भी दस रुपए दिए पत्नी ने। तीसरा अपेक्षाकृत कमजोर मार्केटिंग तकनीक युक्त सपेरा भी था। उसको देने के लिए पैसे नहीं बचे तो भोलेनाथ वाले को आधा पैसा तीसरे को देने की हिदायत दी। मुझे पूरा यकीन है कि उसमें से एक पाई वह नहीं देगा। हमारे सपेरा अध्याय की यहीं इति हो गयी। लौट पड़े। लोगों की एक कतार पानी में चलती भी दिख रही थी और उस पंक्ति के अन्त पर लोग स्नान करते नजर आ रहे थे।

Dark Saint Alaick
22-08-2012, 12:40 AM
ऐसी दुआ कीजिए जिनमें दम हो

अनु सिंह चौधरी

पारूल नाम है उसका। वैसे प्यार से सब सीपू बुलाते हैं उसके। शहद सी बोली, उतनी ही मीठी शक्ल और उतने ही ख़ूबसूरत दिल की नेमत किसी एक को मिलती है तो कैसे मिलती है ये सीपू को पहली बार देखा था तो समझा था। उससे मेरा खून का रिश्ता नहीं। उसके भाई से मेरा एक धागे का रिश्ता है पिछले कई सालों से। इतने ही सालों से कि याद भी नहीं आता कि उसने क्यों मुझे दीदी कहना शुरू कर दिया था जबकि उम्र के इतने से फासले पर हम एक-दूसरे को नाम से ही बुलाया करते हैं। ख़ैर, उसी एक धागे और इसी एक धड़कते दिल का रिश्ता रहा कि हम महीनों ना मिलते लेकिन फिर भी एक-दूसरे की खबर ले रहे होते। उन्हीं खबरों में एक-दूसरों के परिवारों की,दोस्त-यारों की खबर शामिल होती। उन्हीं खबरों में ब्रेक-अप्स, हैंगअप्स, करियर ब्रेक्स, बदलते हुए पते, बदलती हुई पहचान और बदलती हुई जिþन्दगियों की निशानियां भी बंटती रहीं। उन्हीं खबरों में सीपू की शादी होने की खबर भी थी जिसका जश्न मैंने फेसबुक पर उसकी सगाई और फिर शादी की तस्वीर देखकर मनाया। उन्हीं खबरों में सीपू के गोद में एक नए मेहमान के आने की खबर भी शामिल थी। और उन्हीं खबरों में सीपू की डिलीवरी से कुछ ही हफ्ते पहले उसके ब्रेस्ट कैंसर की ख़बर भी शामिल थी। बीबीएमए फेसबुक और फोन पर उन्हीं खबरों में सीपू की जीवटता और कैंसर से जूझने के किस्से भी शामिल होते रहे हैं। कल एक और खबर मिली। छह महीने के आरव की मां सीपू की हड्डियों में भी कैंसर फैलने लगा है। ना-ना। कोई मातमपुर्सी के लिए नहीं बैठे हम। हम बात सीपू की कर रहे हैं जिसके अदम्य साहस और जीजिविषा की बात करते हुए मुझे अपनी शब्दावली के अतिसंकुचित होने का अहसास होता है। दस दिनों के रेडिएशन और हॉर्मोनल इंजेक्शन के बाद सीपू ठीक हो जाएगी लेकिन उसकी हिम्मत मुझे हैरान करती है। लिखने तो बैठी हूं और सोचा तो है कि सीपू की तकलीफ और तकलीफ पर हर बार मिलती उसकी जीत के बारे में बताऊं आपको लेकिन शब्द कम पड़ रहे हैं। जिन्दगी वाकई सबसे बड़ी और कठोर अध्यापिका होती है। जिन पाठों को हम सीखना नहीं चाहते जिस सच को स्वीकार नहीं करना चाहते उसे सामने ला पटकने के कई हुनर मालूम हैं उसे। कहां तो हम छोटी-छोटी परेशानियों का हजार रोना रोते हैं और कहां संघर्ष ऐसा होता है कि हर पल भारी पड़े। अब अपनी तन्हाई का रोना रोना चाहती हूं तो सीपू याद आती है। मन को तो फिर भी बहला लें लेकिन उसके शरीर का दर्द लाख चाहकर भी कौन कहां बांट पाता होगा? हमें अपने-अपने हिस्से का दुख ख़ुद झेलना होता है और उस दुख को झेलकर जो निकलता है वही सच्चा सुपरस्टार होता है। सीपू, कैंसर से एक लड़ाई तुम लड़ रही हो और तुम्हारे साथ-साथ सीख हम रहे हैं। जिन्दगी के इम्तिहान में सीढ़ी दर सीढ़ी ऊपर तुम चढ़ रही हो, हिम्मत हमें मिल रही है। तुमसे सीखा है कि तकलीफों को हंसकर झेल जाने पर कविता-कहानियां लिखना बहुत आसान है, उन्हें महीनों लम्हा-लम्हा जीए जाना बहुत मुश्किल। तुमसे सीखा है कि जब तकलीफ मुसीबत और परेशानियां हर ओर से घेरती हैं तभी हमारी सही औकात सामने आती है। दुआ है कि मेरी एक दुआ में कई दुआएं शामिल हों और सबमें इतना असर तो हो कि तुम्हारी तकलीफ कम हो सके। दुआ ये भी है कि तुम्हारी हिम्मत का एक कतरा ही सही, हमें भी मिल सके।

Dark Saint Alaick
23-08-2012, 12:29 PM
आले तक नहीं पहुंच सका लायक आदमी

प्रतिभा कटियार

इश्क को उसने उठाकर जिन्दगी के सबसे ऊंचे वाले आले में रख दिया था। उस आले तक पहुंचने के लिए पहले उसने खुद को पंजों पर उठाया। अपने हाथों को खींचकर लम्बा करना चाहा। इतनी मशक्कत मानो अचानक उसके पैरों की लम्बाई बढ़ जाएगी। हाथों की लम्बाई भी इतनी ज्यादा कि उसके बराबर दुनिया में कोई लम्बा ना हो सके और जिन्दगी के सबसे ऊंचे आले तक कोई कभी ना पहुंच सके। अचानक उसने महसूस किया कि वाकई उसका कद बढ़ने लगा है। उसने अपने इश्क को अपने दिल के रैपर में लपेटकर उस आले में रख दिया। ऊपर से कुछ पुआल भर दिया ताकि उसकी सबसे कीमती चीज पर किसी को कोई नजर ही ना पड़े। काम हो जाने के बाद वो वापस अपने कद में लौट आया यही कोई पांच फीट ग्यारह इंच। वो हमेशा कहती थी कि एक इंच कम क्यों? पूरे छह क्यों नहीं। ऐसा कहकर वो अक्सर हंस देती? लड़का उसकी बात सुनते हुए अपने कद की एक इंच कम लम्बाई के बारे में सोचने लगता। लड़की कहती,तुम पांच फीट के होते तब भी मुझे तुमसे इतना ही प्यार होता पगले। लड़का खुश हो जाता। उनका प्रेम किशोर वय का प्रेम था। वे खेतों में दिन भर घूमते। उसे लड़की के लिए सबसे ऊंची डाल पर लगे फूल तोड़ने में सबसे ज्यादा सुख मिलता था। पापा का उसे आईएएस बनाने का ख्वाब उसे खासा बोरिंग लगता। गांव के तालाब में कंकड़िया फेंकते हुए उसे इतना सुख मिलता कि उसे लगता जिन्दगी में इससे बड़ा कोई सुख ही नहीं। लड़की उसे हर बार नया निशाना बताती और उसकी कंकड़ी ठीक उसी जगह जा पहुंचती। लड़की खुश होकर नाचने लगती फिर अगले ही पल उसकी आंखें भर आतीं। लड़का पूछता, क्या हुआ? लड़की कहती, कुछ नहीं। वो फिर पूछता। लड़की का रोना बढ़ता जाता। वो उसे चुप करता रहता। और लड़की रोती जाती। सूरज डूबने को होता और लड़की आंसूं पोंछती घर की और भाग जाती। वो अकेले ही तालाब के किनारे बैठ जाता और सूरज का डूबना फिर चांद का उगना देखता रहता। वो यह कभी नहीं समझ पाया कि लड़की आखिर क्यों रो पड़ती है। हर प्रेम कहानी की तरह ये भी एक सामान्य प्रेम कहानी थी जिसमे लड़के को जाना पड़ा। पापा को और टालना मुश्किल था। उसे शहर जाकर लायक आदमी बनना था। इश्क काफी नहीं जिन्दगी के लिए। सोचते हुए उसने भीगी पलकों की गठरी में सारे ख्वाब बांधे और निकाल पड़ा। उसने लड़की को वादा किया वो जल्दी लौटेगा और उसे हमेशा के लिए ले जाएगा। तीन बरस लड़का लायक आदमी बनने में लगा रहा। लौटा तो उसने जिन्दगी के उसी आले को ढूंढा जिसमे उसने अपना इश्क रखा था। वो अपने पंजो से उचक-उचक कर जिन्दगी के सारे खानों को तलाशता फिरता लेकिन उसका ही इश्क अब उसकी पहुंच से बहुत दूर हो गया। बहुत दूर। अब वो अकेले ही तालाबों के किनारों घूमता, खेतों में वही दिन, वही खुशबू ढूंढता। ना जाने कितने बरस बीत गए। वो लायक आदमी अब किसी का पति है किसी का पिता और किसी का बेटा। उसकी आंखें अक्सर नाम रहती हैं। जिन्दगी ने उसके साथ बेईमानी की। अपने ही इश्क तक उसके हाथ क्यों नहीं पहुंचने दिए। वो धरती के ना जाने किस कोने में अब सांस लेती होगी। लड़के की आंखें भीग जाती तो उसकी पत्नी पूछती क्या हुआ? लड़का कहता आंख में तिनका चला गया शायद। जिन्दगी का तिनका। वो नहीं कह पाता।

Dark Saint Alaick
27-08-2012, 05:22 AM
बेगाने की शादी और अब्दुल्ला की दीवानगी

पंकज मिश्रा

पता नहीं अब्दुल्ला कौन था और वह बेगाना कौन था जिसकी शादी पर वह दीवाना सा घूम रहा था। यह किस युग की बात है यह भी मैं नहीं जानता। लेकिन पिछले तीन चार दिन से अब्दुल्ला टाइप कुछ शख्स मेरे मोहल्ले में दिख रहे हैं। दरअसल हुआ कुछ यूं है कि मेरे घर से कुछ दूरी पर रहने वाले एक शक्तिशाली युवक की भैंस पिछली गली में रहने वाले एक युवक ने खोल ली थी। मोहल्ला दंग और हतप्रभ रह गया। किसी ने कल्पना नहीं की थी कि ऐसी कोई घटना हो जाएगी। लेकिन हो गई। खास बात यह रही कि जिसने भैंस खोली थी दूर-दूर तक उसकी ख्याति थी। कई लोगों से उसके अच्छे संबंध थे। बड़ी बात यह कि भैंस खोल लो और किसी को पता भी न चले यह विद्या उसे उसी ने सिखाई थी जिसकी भैंस इस बार खोली गई है। अब चेला ही गुरु को मात दे यह कोई भला कैसे बर्दाश्त करेगा। तो साहब इनको भी नहीं हुआ। उसी दिन कसम खाई कि बदला लेकर रहूंगा चाहे जितना वक्त लग जाए। भैंस का मालिक बदल गया लेकिन बदला लेने की भावना बाकी रही। भैंस खोलने वाला तो भैंस खोलने के बाद भाग छूटा लेकिन पीड़ित उसकी तलाश करता रहा। कई बेकसूरों को भी उसने अपनी शक्ति का शिकार बना डाला लेकिन आरोपी नहीं मिला। इस बीच कई लोगों को शक हुआ कि अब्दुल्ला का पड़ोसी कहीं आरोपी को शरण तो नहीं दे रहा है। उसका घर भी पीड़ित से काफी दूर है इसलिए शक और गहरा गया। लेकिन पड़ोसी डंके की चोट पर कह रहा था कि उन्होंने किसी आरोपी को शरण नहीं दी है। हालांकि अब्दुल्ला कई बार यह कह चुका था कि हमारे पास सबूत तो नहीं हैं लेकिन लगता यह है कि इसी अपराध का आरोपी नहीं बल्कि उसके यहां जो बकरियां चोरी हुईं थी उसके आरोपी भी यहीं रह रहे हैं। अब्दुल्ला के घर की खूबसूरत बगिया के एक पेड़ पर भी पड़ोसी ने कब्जा कर लिया था लेकिन अब्दुल्ला ने कुछ नहीं कहा और न ही किया। अब्दुल्ला अक्सर उस भैंस चोरी के पीड़ित से जरूर कहता था कि वह उसके पड़ोसी पर नकेल कसे। उसके इरादे ठीक नहीं लग रहे। अब भला उसे क्या पड़ी कि वह तुम्हारी बकरियां और मेमनों के लिए किस से पंगा ले। घटना में उस समय बड़ा परिवर्तन आया जब पीड़ित को पता चला कि भैंस चोरी का आरोपी अब्दुल्ला के पड़ोस में ही रह रहा है। फिर क्या था आव देखा न ताव। खबर पक्की कर उसने नौकरों से कह दिया कि चढ़ाई कर दो अब्दुल्ला के पड़ोसी पर। लेकिन पड़ोसी को न तो खबर हो और न ही कोई नुकसान। बस हो गया काम। भैंस चोरी के आरोपी वहीं मिल गए और पकड़ लिया। जब अब्दुल्ला को पता चला कि पीड़िþत ने उसके पड़ोस में छापा मार कर अपनी भैंस चुराने वालों से बदला ले लिया तब से वह नाच रहा है। वह कहता फिर रहा है कि हम कहते थे न कि भैंस चोरी के आरोपी यहीं रहते हैं। वह पटाखे छुड़ा रहा है, जश्न मना रहा है। उसकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं है। जबकि हकीकत यह है कि भैंस चोरी के आरोपी ने कभी अब्दुल्ला को किसी प्रकार का नुकसान नहीं पहुंचाया। अब अब्दुल्ला कह रहा है कि हमारे यहां चोरी करने के आरोपी भी यहीं रहते हैं उन्हें भी पकड़ो लेकिन किसी को क्या पड़ी। अब बताइए भला। इस पूरे घटनाक्रम से अब्दुल्ला को क्या मिला। क्यों खुशी से पगलाया जा रहा है वह। मुझे तो समझ नहीं आ रहा। पता नहीं अब्दुल्ला कब अपने बकरियों और मेमनों को चोरी करने के आरोपी पड़ोसी पर हमला करता है। करता भी है या नहीं।

Dark Saint Alaick
30-08-2012, 02:06 PM
पुरानी पीढ़ी से ज्यादा योग्य आज की पीढ़ी

मनोज कुमार

आमतौर पर हर पीढ़ी अपनी बाद वाली पीढ़ी से लगभग नाखुश रहती है। उसे लगता है कि उन्होंने जो किया वह श्रेष्ठ है। बाद की पीढ़ी का भविष्य न केवल चौपट है बल्कि इस पीढ़ी ने अपने से बड़ों का सम्मान करना भी भूल गयी है। यह शिकायत और चिंता बेमानी सी है। गुजर चुकी पीढ़ी के बारे में कुछ कहना ठीक नहीं होगा क्योंकि उनके साथ जीवन का अनुभव जुड़ा हुआ है किन्तु आज की युवा पीढ़ी के बारे में मैं यह कह सकता हूं कि उनके बारे में की जा रही चिंता और शिकायत दोनों गैरवाजिब हैं। इस बात का अहसास मुझे किसी क्लास रूम में पढ़ाते वक्त नहीं हुआ और न किसी सेमीनार में बोलते समय। इस बात का अहसास मुझे भोपाल की सड़कों पर चलने वाली खूबसूरत बसों में सफर करते समय हुआ। दूसरे मुसाफिर की तरह मैं बस में चढ़ा। भीड़ बेकाबू थी। बैठना तो दूर,खड़े होने के लिए भी जगह पाना मुहाल हो रहा था। सोचा थोड़ी देर में मंजिल तक पहुंच जाएंगे। इतने में एक नौजवान खड़ा होकर पूरी विनम्रता के साथ अपनी सीट पर मुझे बैठने का आमंत्रण देने लगा। मेरे ना कहने के बाद भी वह मुझे अपनी जगह पर बिठाकर ही माना। सोचा कि उसे आसपास उतरना होगा लेकिन उसकी मंजिल बहुत दूर थी। यह मेरा पहला अनुभव था किन्तु आखिरी नहीं। थोड़े दिनों बाद एक बार फिर ऐसा ही वाकया मेरे साथ हुआ। मैं हैरान था कि जिस युवा पीढ़ी से हमारी पीढ़ी शिकायत और चिंता से परे देख नहीं पा रही थी वह युवा पीढ़ी कितनी विनम्र है। न केवल उसे सम्मान देना आता है बल्कि वह स्वयं तकलीफ झेलकर भी सम्मान देने के भाव से भरा हुआ है। इस वाकये ने मुझे कई तरह से सोचने के लिये विवश कर दिया। मुझे लगने लगा कि मेरी पीढ़ी की शिकायत वाजिब नहीं है। यह ठीक है कि युवाओं का कुछ प्रतिशत उदंड है और अनुशासनहीन। ऐसे मुठ्ठी भर युवाओं के लिए समूचे युवावर्ग को शिकायतों के कटघरे में खड़ा करना उचित तो कतई नहीं है। मैं जो अनुभव आप से साझा कर रहा हूं उसके पीछे मंशा यही है कि युवाओं की विन्रमता, सहजता और उनके भीतर के आदरभाव को समाज के समक्ष रखा जाए। जो युवा दिग्भ्रिमित हैं, शायद उनसे कुछ सीख लें और इससे भी आगे यह कि हम केवल शिकायतों का पिटारा नहीं खोलें बल्कि उनकी पीठ थपथपाकर उनका हौसला भी बढ़ायें। ऐसा करके हम सकारात्मक माहौल बना सकेंगे ताकि युवाओं में बदलाव देख सकें। सकारात्मक बदलाव। हमारी पीढ़ी अपनी बाद की पीढ़ी के लिये चिंतित भी है। मुझे ऐसा लगता है कि यह चिंता भी फिजूल की है। हम अपने समय में साठ प्रतिशत पा लेने पर गर्व करते थे। आज का युवा 98 प्रतिशत पा जाने के बाद भी संतुष्ट नहीं है। हमारी पीढ़ी अपनी नाकामयाबी को छिपाने के लिए रास्ता ढूंढ़ सकती है कि उन दिनों हमारे पास विकल्प नहीं था आज तो अनेक किस्म के आप्शन हैं। बात कुछ हद तक ठीक हो सकती है पूरी तरह से नहीं। हमारी पीढ़ी अपनी पूर्व की पीढ़ी से होशियार थी। वे स्कूली शिक्षा के बाद रूक जाते थे और हम ग्रेज्युट होते थे और आज की पीढ़ी हमसे कहीं आगे है। जो बेअदबी की शिकायत है वह कहीं न कहीं युवा पीढ़ी से नहीं है बल्कि स्वयं से है क्योंकि बदलते समय के साथ हम स्वयं को बदलने में पिछड़ गऐ हैं। लब्बोलुआब यह कि हर पीढ़ी अपनी पुरानी पीढ़ी से ज्यादा योग्य हुई है। शिक्षा में भी और सभ्यता में। उनके पास दृष्टि है और आत्मविश्वास भी। जरूरत है युवा वर्ग को हौसला देने की।

Dark Saint Alaick
01-09-2012, 04:28 PM
हमें भी इंसानों की पंक्ति में जगह दो

नीलिमा

पिछले साल जिम जाकर हुलिया और सेहत सुधारने का भूत सर पर सवार हुआ। वजन में इजाफा मुझे नाकाबिले बर्दाश्त था। मैं सोचती उम्र बढ़ रही है शरीर ढल रहा है। स्टेमिना कम हो रहा है। शायद जिम कोई लाभ पहुंचाए। मुझे लगता था एक लंबी उम्र परिवार के लिए दौड़-दौड़कर खपा दी। सीढ़ियां चढ़ने में हांफना,वर्क लोड से सांसों का तेज हो जाना,शरीर में भारीपन महसूस होना। अब कुछ समय खुद को और अपने स्वास्थ्य को भी दूं। जिम जाकर पता चला मैं बहुत पतली और स्वस्थ थी। वहां पतली होने आई कई महिलाएं अपने 80,100 और 120 किलो के शरीर से युद्ध कर रही थीं। मोनिका, मोना, अनीता। कोई विवाहित, कोई अविवाहित। ट्रेडमिल पर,साइकिल पर पसीने से लथपथ। बिना नाश्ता किए घर का काम निपटाकर, पति और बच्चों को भेज कर दो से ढाई घंटे शरीर से कड़ी मेहनत करवाने वाली उन स्त्रियों से जब बातचीत होती स्त्री समाज की नियति पर क्रोध आता। अनीता की उम्र 22 साल है और वजन 80 किलो। गालों पर फुंसिया और वह कमाती नहीं। उसके पापा बेटी की बदसूरती और नाकाबिलियत से परेशान होकर रात को सोते तक नहीं। एक दिन बोली कि मैंने नर्सरी टीचर का एग्जाम दिया है अगर उसमें मेरा नाम नहीं आया तो मैं सुसाइड कर लूंगी। वह बोली पापा कहते रहते हैं कि तू पतली तो हो सकती है। इतना तो मेरे पर उपकार कर ही दे। मैं कहां से हो जाऊं पतली। सब करके देख लिया। जब वह मुझे अपनी बिखरी कहानियां सुना रही होती मैं सोच रही होती ये कोई उपन्यास या कहानी से उड़कर आई घटनाएं हैं। इनकी जिंदगियों में कोई रोशनी नहीं। कोई लड़ाई का भाव भी नहीं। मोनिका से साइकिल चलाते हुए अक्सर बात होती। वह पढ़ी लिखी पिता की लाडली बेटी है। उसके पिता और उसने 34 लड़के रिजेक्ट किए। उसके पिता को अपनी बेटी के मेंटल प्रोफाइल से मैच करता लड़का नहीं मिला। आखिर में पड़ोस के बचपन के साथी से शादी की। हाईली क्वालिफाइड बारीक समझ वाली मोनिका अपनी आधी अधूरी आपबीती सुनाते हुए कभी रो पड़ती तो कभी गुस्से से आंख लाल करके फदकते होंठों से कहती कि आज तो मन किया कि अपने हस्बेंड के पेट में चक्कू मार दूं। पति को बच्चे की पैदाइश के बाद मोटी हो गई पत्नी नहीं चाहिए। नौबत तलाक तक आई हुई है। पति इगोइस्टिक,मैनेजमेंट गुरू है जिसे पत्नी बच्चा जनते ही मोटी,भद्दी,गंवार लगने लगी है। उसने अपनी पत्नी को हर साल तोहफों में पतले होने की मशीनें लाकर दी हैं । 45 हजार वाला ट्रेडमिल, स्टेशनरी साइकिल, टमी ट्रेनर। वह कहता है बाकी सब तो तू छोड़ पांच साल से तू पतली तक तो हो नहीं सकी। सोनिया रोज बिना खाए 3 घंटे की कड़ी एक्सरसाइज करती है। उसने तीन महीने की पेमेंट जिम में की है। उतना समय खुद को पतला होने के लिए रखा है और साथ साथ स्कूलों में नौकरी के लिए इंटरव्यू भी दे रही है। शायद उसके बाद वह पति को छोड़ने या न छोड़ने के बारे में कोई फैसला ले पाएगी। ऐसी और भी कहानियां हैं जो दुख देती हैं । सोनिया की तरह चक्कू मार देने जितना गुस्सा पैदा करती हैं पर कहीं कुछ नहीं बदलता। न प्यार से न ही क्रोध से। अंत में मेरे हाथ प्रार्थना में खुद -ब-खुद उठ जाते हैं । हे भगवान, हमें खुद को समझने और खुद के लिए जीने का मौका दो। हमें हमारे हिस्से की खाद दो, हवा दो,पानी दो। हमें भी इंसानों की पंक्ति में जगह दो। आमीन..।

Dark Saint Alaick
01-09-2012, 04:30 PM
हॉस्टल यानी एलिस इन वंडरलैंड

सुजाता

अच्छी लड़की। सीधा कॉलेज। कॉलेज से सीधा घर। आंखे हमेशा नीची। लम्बी बांह के कुर्ते और करीने से ढंकता दुपट्टा। पढ़ने में होशियार। शाम को कभी घर से बाहर नही निकली। यहां कैम्पस में सारी शिक्षा,सारी संरचनाएं ढह गई। छत, आंगन और सड़कें एकाकार हो गयीं। आजादी का पहला अहसास। हॉस्टल के कमरे में पहली बार वोदका को लिम्का में मिलाकर पिया और घंटों मदहोश रही। कैम्पस में ढलती शाम को सड़क के दोनो किनारे फुटपाथ के किनारे बनी मुंडेरी पर दो-दो छायाएं दिखाई पड़ जातीं। मुख पर एक स्मित रेखा खिंच आती। हॉस्टल की जिन्दगी। परम्परावादी घरों से निकली हुई लड़की के लिए एक एडवेंचर एलिस इन वंडलैंड जैसा। कोई देख नही रहा। देखता भी हो तो मेरी बला से। बहुत चाहा था कि हमें भी हॉस्टल भेज दिया जाए। मां-पिताजी ने इनकार कर दिया। हॉस्टल में लड़कियां बिगड़ जाती हैं। जरूरत भी क्या है हॉस्टल में रहने की घर से कॉलेज एक घण्टा ही तो दूर है। और कैसे कह देते कि बिगड़ना ही तो चाहते हैं हम भी। या हिम्मत नही हुई पूछ लें कि बिगड़ना क्या होता है? तीखी प्रतिक्रिया के बाद खुद पर से ही विश्वास डगमगा गया और माता पिता का तो जरूर डगमगाया ही होगा। यह सोच कर कि जाने क्यों अच्छी भली लड़की ऐसा कह रही है। किसने सिखा-पढ़ा दिया। बहुत सालों तक युनिवर्सिटी आते जाते देखती रही इठलाती लड़कियों को जो पीजी विमेंस में आकर ठहरती थीं । वे अपने कपड़े खुद खरीदने जातीं। तमाम प्रलोभन सामने होने पर भी वे परीक्षाओं के दिनों में जम कर पढ़ाई करती थीं। शहर के किसी कोने मे अकेले आना-जाना जानती थीं। इधर हम फूहड़ता ही हद थे। मां के साथ ही हमेशा कपड़े जूते खरीदे । उन्हीं के साथ फिल्में देखीं। कॉलेज हमेशा एल.स्पेशल से गये । कॉलेज भी एल.स्पेशल ही था। कोने मे पड़ा एक ऊंची ठुड्डी वाला कॉलेज जिसमें पढ़कर हमने टॉप किया पर दुनियादारी में सबसे नीचे रह गए। उस वक्त हम यह भी सुना करते थे कि हॉस्टल मेें पढ़ी लड़की की शादी में अड़चन आती है। भावी ससुराल वाले समझते हैं कि जरूर तेज होगी वर्ना इतनी दूर आकर हॉस्टल में ंकैसे रह पाती? शादी के बाद सबको नाच नचा देगी। वह यही चाहते हैं कि लड़कियां दबें,झुकें,मिट जाएं। मै सोचती हूं कि बिगड़ना लड़की के लिए कितना जरूरी है और तेज तर्रार होना भी। आत्मनिर्भरता की जो शिक्षा हॉस्टल में रहते मिल जाती है वह झुकने और मिटने-दबने नही देती। माहौल थोड़ा बदला है शायद घर की घुटन और हॉस्टल की आजादी में अंतर कम हो गया है । पर अब भी बाहर से आयी लड़कियां यहां जिन्दगी के कड़े पाठ सीख रही हैं । उनसी आत्मनिर्भरता हममें अब है यह देख ईर्ष्या होती है। घर से दूर अनजान शहर में अकेले रहना और आना-जाना जो विवेक पैदा करता है वह सीधे कॉलेज और कॉलेज से सीधे घर वाली लड़कियां शायद ही वक्त रहते सीख पाती हैं । दस साल पहले के मुकाबले आज दिल्ली जैसे शहर का वातावरण कहीं अधिक उन्मुक्त है लेकिन इस उन्मुक्ति के आकाश में क्या वह आत्मनिर्भरता और स्वाभिमान सच में दमक पाया है जिसकी मुझे हरदम उम्मीद है? साथ ही इस स्वतंत्रता में समझ और सोच भी शामिल है इसका मुझे कुछ सन्देह है। जो बन्धी थीं वे अब भी बन्धी हैं। रोज के समाचार उन्हें और डराते हैं। जो सचेत हुई हैं वे अब भी बहुत कम हैं। लड़की न जाने इस वंडरलैंड में कब तक भटकती रहेगी और अपनी पहचान खोज पाएगी।

Dark Saint Alaick
03-09-2012, 04:31 AM
ये दिल्ली और वो दिल्ली

शालू यादव

जब दिल्ली के बारे में अपने विचार कागज पर उतारने का मौका मिला तो यमुना किनारे जाने से खुुद को रोक नहीं पाई क्योंकि शायद यमुना नदी ही सबसे बड़ी गवाह है दिल्ली में तेजी से हुए बदलाव की। कहने को तो मैं असली दिल्लीवाली हूं क्योंकि मेरा जन्म और परवरिश यहीं हुई लेकिन जिस दिल्ली में मैंने बचपन गुजारा वो आज की दिल्ली से बहुत अलग है। मुझे याद है जब मैं पांच साल की थी तब इसी दिल्ली में मेरे दादा-दादी के पास खेत और गाय-भैंसें हुआ करती थीं। शहर का जो इलाका आज रोहिणी नाम से जाना जाता है वो एक समय जंगल हुआ करता था। वहीं हमारे खेत थे जो बाद में सरकार ने जबरन खरीद लिए थे। याद है मुझे। मेरी मां खेत से लौटते हुए सिर पर गाय-भैंसों के लिए चारा लेकर आती थी। हमारे घेर(तबेले) में चार भैंसे और एक गाय थी। अब न तो वो घेर अपनी जगह है न वो हमारा वो देहातनुमा जीवन। हम अब रोहिणी वाले जो हो गए हैं। अजीब विडंबना है कि जिस जमीन पर कभी हमारे खेत होते थे उसी जमीन की एक टुकड़ी हमें सरकार से खरीद कर अपना आशियाना बनाना पड़ा।यहां आकर हमें दिल्ली की शहरी हवा लगी और उसके अनुरूप हमने जिंदगी को ढाल लिया। ये ब्लॉग लिखते समय मैं ये दावे से कह सकती हूं कि दिल्ली में ऐसे सैंकड़ों नौजवान होंगें जिनके जीवन ने भी मेरे जीवन जैसा ही मोड़ लिया होगा। आखिर ऐसे कितने जंगलों और खेतों में इस शहर का विस्तार हुआ है पिछले कुछ दशकों में। मेरी नजर में दिल्ली उस विशाल वृक्ष का नाम है जिसकी शाखाएं तेजी से फैल रहीं हैं लेकिन फिर भी इसकी छाया सभी पर समान नहीं पड़ती। इस पेड़ पर सपने नामक करोड़ों रंग-बिरंगे फल लटकते हैं। किसी की छलांग उन फलों को लपक लाती है तो किसी को सिर्फ उन फलों को दूर से देखकर ललचाने का ही मौका मिल पाता है। बड़ा ही विचित्र शहर है दिल्ली। यहां की सड़कें और चौड़े फ्लाईओवर दिन के उजाले में इसकी समृद्धि बयान करते हैं। तो रात को वही सड़कें और फ्लाईओवर चीख-चीख कर यहां की गरीबी का मजाक उड़ाते हैं। आज तक ये दिल्लीवाली भी इस शहर के विरोधाभासी स्वरूप को समझ नहीं पाई है। आखिर है क्या दिल्ली? ये सवाल ख़ुद से करते ही मेरे दिमाग में विभिन्न तस्वीरें उभर आती हैं। दिल्ली उस गुफ्तगू में बसती है जो डीटीसी की बसों में बैठे सरकारी बाबुओं के बीच होती है। दिल्ली उस मेट्रो ट्रेन में बसती है जिसमें अमीर और गरीब एक दूसरे से चिपक कर सफर करते हैं। दिल्ली उस नन्हे से बच्चे में बसती है जो चंद रुपए कमाने के लिए सड़क के बीच कलाबाजियां दिखाता है। दिल्ली उस मध्यम-वर्गीय इंसान में बसती है जो नोएडा, गुड़गांव या गाजियाबाद में एक घर खरीदने का सपना रखता है। दिल्ली उस बूढ़ी अम्मा में बसती है जो निजामुद्दीन दरगाह आने वालों के जूते-चप्पल संभालने के लिए तीन रुपए चार्ज करती है लेकिन आशीर्वाद मुफ्त देती है। दिल्ली उस रिक्शेवाले में बसती है जो यहां रहते-रहत यहां के तेजी से भागते संघर्ष का आदी हो गया है। वैसे दिल्ली उस मिजाज में भी बसती है जिसमें हर नियम का तोड़ किसी न किसी तरीके से निकाल ही लिया जाता है। मेरे दिमागþ में घूम रही इन सभी तस्वीरों के बीच का आपस में एक नायाब कनेक्शन है जो कई खामियों के बावजूद भी इस शहर को सही मायनों में सपनों का शहर बनाता है।

Dark Saint Alaick
13-09-2012, 03:17 AM
मिस्ड कॉल से ही सब हो जाएगा

विनोद वर्मा

आचार्य ने चहककर कहा - सुना तुमने, सरकार अब हर गरीब को मुफ्त मोबाइल देगी। पलटकर कृपाचार्य ने पूछा - हां, सुना लेकिन इससे क्या होगा? आचार्य ने तमककर कहा - अरे दिन फिर जाएंगे उनके। तुम तो निराशावादी हो गए हो। दोनों की बातचीत आगे चली। निराशावादी तो नहीं हुआ हूं लेकिन मतलब समझ में नहीं आया। सोचो, फोन होगा तो गरीब क्या-क्या नहीं कर सकेंगे। कृपाचार्य थोड़ी देर चुप रहे फिर कहा - बात तो सही है। वह मौसम विभाग से फोन करके पूछ सकेगा कि साहब आपने तो कहा था समय पर बारिश होगी लेकिन ये बादल कहां गए। फिर कृषि मंत्री को फोन करके पूछ सकेगा कि साहब, सूखा कब घोषित कर रहे हो? वो मनरेगा अफसर से पूछेगा कि साहब, पिछले काम का पैसा आठ महीनों से मिला नहीं कोई उम्मीद है या नहीं? फिर वो सरपंच से पूछेगा कि पिछली बार हमारी बीबी और बेटे के नाम से पता नहीं किसे काम दिया था। इस बार जो लेना देना हो पहले कर लो लेकिन दोनो को काम दे देना। राशन वाले को फोन कर कह सकेगा कि भैया दो रुपए किलो वाला चावल तीन महीनों से आया नहीं। बीडीओ दफ्तर कहता है कि हर महीने का कोटा जा रहा है। तो हम तक कब पहुंच सकेगा ये अनाज? आचार्य - कृपाचार्य की बात चल ही रही थी कि एक रुदन व्याप गया। दोनों ने देखा कि भंग हो गई टीम अन्ना के कुछ सदस्य समर्थकों से गले मिलकर रो रहे हैं। एक सदस्य ने दूसरे से कहा, सरकार कितनी षडयंत्रकारी है। पहले गरीबों को मोबाइल दिया होता तो हम उन्हें भी एसएमएस करके आंदोलन में बुलाते। किसान आते, गरीब आते तो दृश्य ही बदल जाता। अन्ना अकेले बेचारे से नहीं दिखते। ढेर सारे बेचारे हो जाते और फिर जब हम पूछते कि राजनीति करें या न करें तो करोड़ों गरीब हमें एसएमएस करके बताते कि भैया और कोई चारा तो दिख नहीं रहा है। अब ये भी आजमा लो। एक दूसरे सदस्य ने कहा-अगर ज्यादा भीड़ आती तो अन्ना कुछ दिन और अनशन कर लेते या ज्यादा मैसेज आते तो अन्ना शायद टीम को भंग भी न करते। आचार्य और कृपाचार्य एक दूसरे का मुंह ताकने लगे थे कि रामलीला मैदान की ओर से शोर शराबा सुनाई पड़ने लगा। सुना कि फर्जीवाड़ा करने के आरोप में जेल चले गए अपने सखा बालकृष्ण को शहीदों के साथ खड़ा करके बाबा रुपी रामदेव हुंकार रहे हैं। आचार्य और कृपाचार्य ने देखा कि वे इस बार भगवा ही पहने थे किसी महिला का सफेद सूट नहीं। पिछली बार चार दिन में अस्पताल पहुंचने से सबक लेकर उन्होंने तीन ही दिन का अनशन रखा था। दस सीढ़ियां चढ़कर मंच पर हांफ रहे योग गुरू गरीबों को मोबाइल देने की सरकार की घोषणा से ही हकबकाए हुए हैं। वे कह रहे थे अगर आप सरकार से काला धन वापस मंगवाना चाहते हो तो हमें मिस्ड कॉल लगाओ। कृपाचार्य ने कहा - पिछले साल जून में इसकी एक कॉल सरकार के मोबाइल पर मिस्ड कॉल रह गई थी। इस साल टीम अन्ना की कॉल मिस्ड कॉल रह गई तो इन्होंने ख़ुद मिस्ड कॉल को फॉर्मूला बना लिया है। हमारे एक मित्र ने आचार्य और कृपाचार्य के संवाद के बीच में कहा-यह देश मिस्ड कॉल के ही काल में रह रहा है। अर्थव्यवस्था से लेकर राजनीति तक सब मिस्ड कॉल से चल रही है। अब बाबा मिस्ड कॉल की अपेक्षा कर रहे हैं तो आपत्ति क्यों? एक बार गरीबों को फोन मिल जाने दीजिए फिर देखिएगा, हर पांच साल बाद चुनाव आयोग भी कहेगा-अपना मत डालने के लिए फलां-फलां नंबर पर मिस्ड कॉल डालिए। चुनाव परिणाम आपके मोबाइल पर मिस्ड कॉल से बताए जाएंगे।

Dark Saint Alaick
15-09-2012, 08:55 PM
अब समझा देर-अंधेर की बात

-अविनाश दत्त

बचपन से ही सुनते आए हैं और अब भी लोग कहते तो ऐसा ही है कि भगवान के घर देर है अंधेर नहीं है। यह बात काफी समय तक तो मेरे पल्ले ही नहीं पड़ी कि आखिर इसके मायने क्या होते हैं और इस कहावत का इस्तेमाल होता कब है। यह बात तो मुझे आज समझ में आई जब मैने सुबह उठते ही घर के दरवाजे पर पड़ा अखबार उठाकर पढ़ा। अखबारों को यूं ही कोई ज्ञान का पुलिंदा, दुनिया की कुंडली और भविष्य का द्वार नहीं कहते। धन्य है उस दिन को जिस दिन मैंने अखबार पढ़ना सीखा। दरअसल आज का अखबार पढ़ा तो खबर मिली की बीसीसीआई ने एक निजी कंपनी को चमकाया है क्योंकि उसने भारतीय क्रिकेट के धुरन्धर खिलाड़ियों का इस्तेमाल बुरे ढंग से अपने एक विज्ञापन में किया था। मामला यह था कि राशन बेचने की एक नई कंपनी आई है उसने अपना गल्ला बेचने के लिए भारतीय खिलाड़ियों से बड़ी नौटंकी कराई थी। क्रिकेट के भगवान मरघट की मटकी लिए चक्कर काट रहे थे। क्रिकेट के हनुमान व्हीलचेयर को लोगों की झोलियों से बदल रहे थे। क्रिकेट के राजकुमार स्ट्रेचर के साथ लोगों को डरा रहे थे की हमें पैसे देने वाली दुकान से सामान नहीं लिया तो बेटेराम यही होगा तुम्हारे साथ। बुरी बात थी लेकिन कहते हैं बुराई की कोख से ही अच्छाई निकलती है। सो कई भले मानुसों की तरह बीसीसीआई को भी यह नागवार गुजरा और उसने तय किया कि अब वो और बर्दाश्त नहीं करेंगे। आखिर नाक का सवाल है, छवि का सवाल है क्रिकेट की-बीसीसीआई की। जी हां,वही नाक जिसके बारे में टी-20 वर्ल्ड कप और वीवीएस लक्ष्मण के संन्यास के समय कुछ लोग कहते थे कि बीसीसीआई ने अपनी नाक दफन कर दी है। उनके मुंहों पर बीसीसीआई ने मिट्टी मल दी। बीसीसीआई ने कंपनी को झाड़ा है और कहा है अपना इश्तेहार सुधारो। वाह,वाह, वाह...। बीसीसीआई को अपनी खोई हुई नाक ठीक उसी तरह मिल गई जैसे रामानंद सागर के राम को सीता, हिंदी फिल्मों की सीता को गीता और बीआर चोपड़ा की गीता को कृष्ण मिल गए थे। अब बीसीसीआई यहां नहीं रुकेगी। वो झूठे- झूठे लांछन लगाने वाले लोगों का मुंह बंद करने के लिए अपने एक लाड़ले खिलाड़ी को कहेगी कि ऐसी किसी कंपनी का मकान ना बेचो जो ग्राहकों को समय और सही गुणवत्ता वाले आशियाने नहीं देती। वो अपने एक दूसरे नटखट खिलाड़ी को कहेगी की शराब का विज्ञापन बंद करो और जाओ पद्मश्री लेने। वो अपने तीसरे देवता को कहेगी कि ओए चिरकुट भगवान जी,अब जमीन पर उतरो और अपनी विदेशी कार पर टेक्स की चोरी करने के 50 बहानों वाली किताब लिखना बंद करो। वो जल्द ही खेल मंत्री को कहेगी कि ज्यादा मत बोलो। मैं आरटीआई के तहत केवल अब जानकारी ही नहीं दूंगी बल्कि अपना सारा हिसाब किताब इंटरनेट पर सार्वजनिक कर दूंगी। अब से मेरे सारे काम महात्मा गांधी के जीवन की तरह खुली किताब में दर्ज किए जाएंगें। ऐसी किताब जिसे कोई अनपढ़ भी पढ़ सके और जिन पर गूंगे भी टिप्पणी कर सकें। अब मैं किसी भी स्टेडियम का नाम किसी आदमी के नाम पर महज इसलिए नहीं रख दूंगी जिसने बहुत खर्चा किया हो मेरे लिए। बस इंतजार करो ऐसा ही होने वाला है। कोई यह कहने की जुर्रत ना करना कि बीसीसीआई और राशन की दुकान वाले में खटपट हो गई थी बस इसलिए यह सब हो रहा है और आगे जब सब ठीक हो जाएगा तो तो खिलाड़ी आईपीएल की चीयर लीडर्स की तरह झूम-झूम के पैसे की ताल पर लटके झटके दिखा सकेंगे।

Dark Saint Alaick
16-09-2012, 03:39 PM
भगवान भी नहीं बताएंगे यह सीक्रेट

-अनूप शुक्ल

आजकल कालेधन की वापसी का हल्ला मचा हुआ है। हर पार्टी कालाधन वापस लाना चाहती है। लगता है अब कालाधन आकर ही रहेगा। कल्पना करें कि कालाधन आएगा तो कैसे सीन बनेंगे। उसके लिए रेडकारपेट वेलकम हो शायद। बाजे-गाजे के साथ हवाई अड्डे पर देश के गणमान्य लोग लेने जाएं उसे। माला-पहनायें। फोटो शेसन हो। पत्रकार पूछें,आपको वापस आने पर कैसा लग रहा है। कालाधन शायद मुस्कराते हुए कहे, आता तो रहता ही था लेकिन इस बार आना बहुत अच्छा लग रहा है। फील लाइक कमिंग होम। छुटभैये और माफिया कालेधन को उसी तरह निहारें जैसे फिल्मों में मां अपने अवैध बच्चों को निहारती हैं। देखो कैसा गबरू हो गया है विदेश जाकर। एकदम गोरा-चिट्टा। पता नहीं कभी इसको अपनी मां-बाप की याद आती होगी कि नहीं। सुना है कालाधन लाखों करोड़ में है। जब वापस आएगा तो कालाधन वापसी मंत्रालय बनेगा। मंत्रियों में उस मंत्रालय को पाने के लिये हल्ला मचेगा। गठबंधन सरकार में समर्थन के बदले पार्टियां कालाधन मंत्रालय मांगेगी। सबसे ताकतवर आईएएस को मंत्रालय का सचिव बनाया जायेगा। वह अपने सबसे चहेते अधिकारी को स्विटरलैंड से धन वापसी वाले विभाग में तैनात करेगा। जिससे खुंदक खाएगा उसको युगांडा,घाना से धन वापसी मंत्रालय में पटक देगा। बच्चों को लोग आशीर्वाद देते हए कहेंगे,जा बेटा कालाधन मंत्री बन। राज्यों में विभिन्न मंत्रालयों के कर्मचारी काला धन मंत्रालय में डेपुटेशन के लिए जुगाड़ लगाएंगे। पत्नियां व्रत,उपवास रखेंगी। सत्यनारायण कथा में अध्याय जुड़ेगा। कथा सुनते ही उसका ब्लैकमनी मंत्रालय में पोस्टिंग का आदेश आ गया। जैसे उनके दिन बहुरे वैसे सबके बहुरैं। बड़ी-बड़ी बिल्डिंगे बनेंगी आया हुआ पैसा धरने के लिए। क्या पता बिल्डिंगे बन न पाएं और कालाधन वापस आ जाए। वह यहां आकर भुनभुनाने लगे-जब धरने का बूता नहीं तो बुलाया काहे हमें। कोई जागरूक कालाधन अपने साथ बुरे सुलूक की शिकायत काला धन अधिकार आयोग में करे। कालाधन वापसी मंत्रालय के खिलाफ जिंदाबाद-मुर्दाबाद करे। बदले में मंत्रालय उसको सफेद धन के साथ बंद कर दे। दोनों का दम घुटने लगे। अधिकारी अपने उच्चाधिकारियों से लिखकर पूछेंगे कालेधन के पचास हजार करोड़ रुपए तीन माह से खुले में पड़े हुऐ हैं। उनके धरने की व्यवस्था नहीं है। सड़ने की आशंका है। कृपया निर्देश दें क्या सलूक करें उनके साथ? निर्देश आने तक शायद कोई दयालू अधिकारी उसको बोरों में भर कर रख दे। कोई समझदार अधिकारी कहे चल तुझे अपने यहां तिजोरी में धर लेते हैं। जब यहां व्यवस्था बन जायेगी तो वापस छोड़ जाएंगे। वहां भी जगह की कमी देख कर उसको बाजार में छोड़ आएगा। बाजार से फरार होकर वह जहां से आया था वहीं वापस लौट जाए। कालेधन के रख रखाव पर बहसें होंगी कि उसके साथ कैसा सुलूक किया जाए। कोई कहेगा वैसा ही सुलूक किया जाना चाहिए जैसा गद्दारों के साथ होता है। कोई कहेगा अपने देश का है उसे बांग्लादेशियों की तरह अपना लो। कुछ समझ में नहीं आ रहा कैसे सुलूक किया जाए कालेधन के साथ। मन करता है एक बार ईश्वर से पूछकर देखा जाए कि उनके यहां भी अस्सी से भी ज्यादा प्रतिशत ब्लैक मैटर है। वे उसका हिसाब किताब कैसे करते हैं? उसको कैसे वापस लाते हैं अपने कब्जे में। लेकिन वो भला काहे बताएंगे अपना सीक्रेट। आप ही कुछ बताइए क्या विचार है आपका।

Dark Saint Alaick
28-09-2012, 11:54 PM
दर्द से भी बड़ा होता है एक विश्वास

-चंद्रभूषण

सत्य के लिए,प्रेम के लिए या किसी और बड़े मकसद के लिए बिना शिकायत चुपचाप तकलीफ झेलते रहना ऐसी प्रवृत्ति है जिसका कोई मेल आज के समाज के आम मिजाज से नहीं बनता। इंसान का छोटा दुख भी अब पूरी तरह त्याज्य समझा जाता है। ऊपरी तौर पर इसके समाधान के लिए पूरी दुनिया तत्पर नजर आती है बशर्ते खुद को दुखी बताने वाले व्यक्ति की कोई स्क्रीन प्रेजेंस हो या फिर उसके पास बदले में देने के लिए पर्याप्त पैसे हों। ऐसे में किसी का बिना किसी मजबूरी के कष्ट उठाना समाज के लिए एक ऐसी गुत्थी बन जाता है जिसे अतार्किक कल्ट घोषित करने के अलावा और कोई चारा समाज के प्रवक्ताओं के पास नहीं बचता। अज्ञेय के उपन्यास शेखर एक जीवनी में जेल में बंद नायक की मुलाकात बाबा मदन सिंह से होती है। वे 22 सालों से तनहाई की सजा काट रहे हैं अपने जीवन और चिंतन से कुछ सूत्र निकालने का प्रयास करते रहते हैं। मदन सिंह से नायक को एक सूत्र प्राप्त होता है। अभिमान से भी बड़ा एक दर्द होता है लेकिन दर्द से बड़ा एक विश्वास होता है। इस अटपटे सूत्र का कोई अर्थ एकबारगी शेखर की समझ में नहीं आता लेकिन इसके आधे भाग का मतलब एक दिन वह खुद से सच्चा स्रेह रखने वाली मौसेरी बहन शशि के पत्र से समझ जाता है। पत्र में शशि ने अपने विवाह में रुचि न होने के बावजूद इसके लिए राजी होने की बात लिखी है क्योंकि अपनी मान्यताओं का बोझ वह विधवा मां के सिर नहीं डालना चाहती। बाद में शशि को ससुराल वाले मार-पीट कर निकाल देते हैं चरित्रहीनता के लांछन के साथ। इस अपराध में कि वह आत्मघात के लिए निकले अपने मौसेरे भाई शेखर के कमरे में एक बरसाती रात बिता कर आई है। घर से निकाली गई शशि वापस शेखर के यहां आती है और अपनी यातना के बारे में उसे कुछ नहीं बताती। बाद में डॉक्टर के जरिए शेखर को शशि की स्थिति का पता चलता है तो फिर उसके सामने धीरे-धीरे बाबा मदन सिंह के सूत्र के दूसरा हिस्से का अर्थ भी खुलता है। बिना किसी बाध्यता के यातना सहना,ईसाइयत के लिए एक मूलभूत धार्मिक तत्व है। ईसाई धर्म अगर इंतकाम तक सिमट कर रह जाता किसी बड़े उद्देश्य के लिए कष्ट सहने की बात इसमें शामिल नहीं होती तो सेंट पॉल और सेंट आॅगस्टिन से लेकर मदर टेरेसा जैसी उज्ज्वल परंपरा उसके पास नहीं होती। दुनिया के इतिहास में न कोई ऐसा समय था न ऐसा समाज था जिसमें निजी स्वार्थ ने समाज की मुख्य संचालक शक्ति की भूमिका न निभाई हो। हर बार लोगों को अपनी खाल से बाहर निकल कर सोचने की प्रेरणा उन्हीं व्यक्तियों से मिली जिन्होंने किसी मजबूरी में नहीं अपनी इच्छा से कष्ट झेलने का फैसला किया। जीते जी अपनी हड्डियां देने वाले महर्षि दधीचि, शरणागत कबूतर को बचाने के लिए खुद को अर्पित करने वाले राजा शिवि और समुद्र्र मंथन से निकला हलाहल पी जाने वाले भगवान शिव की परिकल्पनाएं सफरिंग को कहीं आगे तक ले जाती हैं। लेकिन हमारे भाव जगत में ऐसी चीजों के लिए अब कोई जगह नहीं रह गई है। हम सत्य,प्रेम या किसी सामाजिक उद्देश्य के लिए यातना सहने की क्षमता से वंचित हो सकते हैं लेकिन इसे महज एक किस्म का कल्ट बताकर इसका निरादर हमें नहीं करना चाहिए।

Dark Saint Alaick
01-10-2012, 02:06 PM
जवाब ढूंढने की असफल कोशिश

-पवन नारा

जब मैं दिल्ली में पढ़ रहा था तो सोचता था कि एक दिन बिहार जरूर जाऊंगा। पिछले दिनों वहां जाने का मौका आखिरकार मिल ही गया। पटना में पहले दिन सड़कों पर निकलते ही स्कॉर्पियो जैसी बड़ी गाड़ियां इतनी दिखाई दीं कि आश्चर्य हुआ। मैंने रिक्शे वाले से पूछा पटना में इतनी स्कॉर्पियो क्यों हैं? रिक्शा वाले ने कहा-दबंग गाड़ी है न, इसलिए। मेरे मन ने कहा-पैसा ज्यादा है इसलिए। मन में सवाल आया मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कहते हैं बिहार गरीब है,खास राज्य का दर्जा मिले लेकिन पटना की सड़कों पर देखकर नहीं लगता कि बिहार गरीब है। तो गरीबी कहां है? अब बिहार की मेरी यात्रा इन्हीं सवालों के इद-गिर्द पूरी होने वाली थी। हम समस्तीपुर की ओर चल पड़े। सड़क किनारे खेत लहलहा रहे थे। हरियाली देखकर मन कह रहा था कि बिहार गरीब नहीं हो सकता लेकिन जैसे-जैसे हम पटना से दूर होते गए रौनक भी दूर होती गइ। समस्तीपुर पहुंचते-पहुंचते तस्वीर साफ होने लगी थी। यहां सत्ता का तेज नहीं था और सामने था हकीकत का धरातल। राहत की बात ये थी कि मुख्य सड़कें अच्छी थीं। सड़क के दोनों ओर दवाइयों की दुकानें और एक के बाद एक नर्सिंग होम ऐसे कि खुली दुकान में एक किनारे डॉक्टर बैठा है,सामने एक ओर बिस्तर पर मरीज और दूसरी ओर कतार में लगे मरीज। बिहार गरीब क्यों है के बाद अब मेरे मन में सवाल ये भी था कि इतने लोग बीमार कैसे हो सकते हैं? जिन महिलाओं की बच्चेदानी गलत तरीके से निकाली गई है उनसे मिलने हम कुछ गांवों में पहुंचे और मेरे सामने बिहार की असल तस्वीर आने लगी। एक झोंपड़ी, संदूक,चूल्हा,तीन डिब्बी नमक मिर्च मसाले की,कुछ बर्तन और छोटा सा आंगन। परिवार का मुखिया दिहाड़ी मजदूर और और सात बच्चे। परिवार की महिला ने बताया कि जब से बच्चेदानी निकलवाई है तब से चक्कर आते हैं और अब वो मजदूरी भी नहीं कर पाती। आॅपरेशन तो बीपीएल कार्ड पर हो गया लेकिन उसके बाद जो दवाइयां खानी पड़ीं उनका खर्च लगभग हजार रुपये हर महीने था। हम एक डॉक्टर के क्लीनिक पहुंचे। वे एक कमरे में ले गए। इसी एक कमरे में एयरकंडीशन था। समझ में आया कि ये आॅपरेशन थिएटर है। छत से लाइट लटक रही थी। नीचे टूटा लोहे का पलंग। औजार जमीन पर लकड़ी की एक नीची बेंच पर रखे थे। एक चूहा मेरे कदमों के पास से दौड़ लगाता निकला मानो वो भी अपनी हाजरी दर्ज करवा रहा हो। दीवार पर लगभग हर भगवान की तस्वीर थी। तस्वीर देख मुझे देर तक याद आता रहा ये जुमला कि सब कुछ भगवान भरोसे है। डॉक्टर दलील दे रहे थे कि कैसे उन्होंने सिर्फ जरुरी आॅपरेशन ही किए हैं। मेरे मन ने कहा कि जब इतने बुरे हालात में किसी स्वस्थ आदमी का भी पेट खोल के रख दिया जाए तो उसका इलाज जरुरी होना तय है। इसी तरह पांच दिन अलग-अलग स्थितियों से मैं गुजþरता रहा। जब पटना से वापस लौट रहा था तो मेरे मन में एक बात स्पष्ट थी कि गरीबों को यहां लूटा जा रहा है और नीतीश कुमार का सुशासन अभी पटना से आगे नहीं बढ़ पाया है। मन में तरह-तरह के सवाल आते रहे और मैं जवाब ढूंढ़ने की असफल कोशिश करता रहा। अगर आपके पास इसका जवाब हो तो जरूर बताइएगा।

Dark Saint Alaick
05-10-2012, 08:42 AM
शायद ये स्थान ही खाली रह जाता

-घुघुती बासुती

दो सप्ताह पहले अचानक स्कूल की सहेली मिल गई। हमने घंटों बातें कीं। सड़क पर नहीं नेट पर मिलीं थीं सो नेट पर ही की। अचानक उसने एक फोटो भेजी और बोली-पहचान कौन हैं। सड़क पर सफेद कुर्ता पजामा पहने, कंधे पर झोला लटका एक वृद्ध थे। साथ में ही एक स्त्री व एक नवयुवक थे। सब साथ थे और अलग भी। मैं पहचान न पाई। यह समझ गई कि चंडीगढ़ की कोई सड़क थी। सहेली ने बताया-हमारे एक सहपाठी की बहन व उसका बेटा है। और साथ में? सच में नहीं पहचानी? अरे,मिस्टर प्यारेलाल हैं! उसका यह कहना था कि मुझे उन वृद्ध में अपने प्रिय सर नजर आने लगे। गला अवरुद्ध होने लगा। 43 साल पहले मैं उनकी छात्रा बनी थी। उन जैसा अध्यापक न मैंने पहले कभी देखा न बाद में। वे तो इतने प्यारे थे कि हम सबके चहेते थे। सदा सोचती कि सर का नाम प्यारेलाल के अतिरिक्त कुछ हो ही नहीं सकता था। वे अंग्रेजी पढ़ाते। हम मंत्रमुग्ध हो उनको सुनते। उनकी कक्षा में न कभी शोर होता न कभी कोई बोर होता। हां, दो-एक महीने में एक बार अचानक सारी क्लास को पढ़ने का मन न होता और सब सर से अनुरोध करते-सर प्लीज कुछ सुनाइए। आखिर सर मान जाते और लाइब्रेरी से लाई जाती मार्क ट्वेन की एक पुस्तक। द एडवेन्चर्स आफ टॉम सॉयर। पुस्तक तो शायद सबने पढ़ी थी किन्तु सर के मुंह से सुनने का आनन्द ही कुछ और था। सर को देख तब भी सोचती थी कि अध्यापक किसी कॉलेज में गढ़े नहीं जाते वे जन्मजात होते हैं क्योंकि यदि गढ़े जाते तो फिर वे बीसियों अध्यापक जिनसे मैं पढ़ चुकी थी उनके जैसे ही प्यारे क्यों न थे? उस दिन फोटो देखकर एक बार फिर से समझ आ गया कि उनका स्थान क्या व कहां था। वे फिर से मेरे हृदय के उस खाली से स्थान, जहां कभी वे बसते थे,में आकर वैसे ही विराजमान हो गए जैसे नगर भ्रमण कर वापिस मंदिर में लौटी कोई प्रतिमा या साल भर हॉस्टल में रहकर लौटकर आया बच्चा घर में पुन: बस जाता है। उस दिन से ही मन था कि किसी तरह सर से पूछ सकूं कि सर क्या मैं आपकी फोटो अपने ब्लॉग पर लगा सकती हूं। किन्तु न तो उनका फोन नम्बर मेरे पास है न मेरी सहेली के पास। कोशिश करने पर मिल भी सकता है किन्तु सर के जीवन में न जाने कितनी घुघुतियां छात्राएं बनकर आईं होंगी। अब अस्सी से भी अधिक की उम्र वाले सर को फोन कर कैसे परेशान करूं? जब जब घर में द एडवेन्चर्स आफ टॉम सॉयर पर नजर पड़ी तो आपकी ही याद आई। जब भी अपने बच्चों के लिए सबसे अच्छे अध्यापकों की कल्पना की तो भी सर आप ही की याद आई। जब भी कक्षा में पढ़ाने गई तो सर आप सा बनने की कोशिश की। आज के दिन सर को कैसे याद न करूं? फोटो न लगाने से भी कोई अन्तर नहीं पड़ता। संसार के सबसे प्यारे वृद्धों में से एक, सबसे प्यारे, सबसे न्यारे, देखते से ही आंखें नम करवाने वाले, गले लगने का न्योता सा देने वाले, मेरे सर, अवरुद्ध गले से...। सर प्रणाम, नमस्ते, हैलो, हग्स और सर बहुत बहुत आभार कि आप अध्यापक ही बने कुछ और नहीं अन्यथा मेरा व कितने ही अन्य छात्रों का जीवन कितना बंजर सा रह जाता और हमारे दिलों में आपके लिए जो स्थान है वह भी खाली रह जाता।

Dark Saint Alaick
17-10-2012, 09:58 PM
एकांत ही होता है लेखक की पूंजी

-प्रतिभा कटियार

कलम पकड़ती तो न जाने कितनी देर तक उसे ताकती ही जाती। आंखों में जो दृश्य थे वो अहसास बनकर रगों में दौड़ते फिरते थे। एक दृश्य कई-कई रंगों में, कई-कई अहसासों में मंडराता। लिखने को शब्द नहीं। कागज कोरा का कोरा। क्या लिखें, कैसे लिखें और उससे भी बड़ा प्रश्न कि क्यों लिखें? रात की सियाही जैसे-जैसे आसमान पर छलकती जाती न लिखने की पीड़ा गहराती जाती न लिखने की , न लिख पाने की। कागज पर कुछ अगड़म-बगड़म से शब्द गिर पड़ते तो चैन आता। सवेरे उस कागज को चिंदी-चिंदी करके हवा में उछाल देना और शुक्रिया अदा करना अक्षरों का जिनसे खुद को खाली किया। इसी बीच रिल्के के कुछ खत हाथ लगे। उन्होंने काप्पुस को लिखा। अगर तुम लिखे बगैर जी नहीं सकते तो लिखो। तब ही लिखो। लिखने को लेकर कभी कोई महत्वाकांक्षा नहीं रही। बस कि यह एक मजबूरी सा शामिल रहा जीवन में जिसके न होने से होने तक का सफर एक तकलीफ का सफर ही रहा। लिखना कोई लग्जरी नहीं, युद्ध है अपने भीतर का। इस युद्ध में लेखक की बस हार ही होती है। हां,उसके पाठकों को जरूर कुछ हासिल होता है। पाठकों का हासिल कभी-कभार लेखक के जख्मों पर मरहम लगाता है। इसी बीच प्रोफेशनल राइटिंग की राह मिली। पेशा चुन लिया पत्रकारिता का। यहां दिल-विल की सुननी ही नहीं थी। बस आंखों देखी लिखनी थी। सच देखना,उसकी पड़ताल करना और वही लिखना। लेकिन कोई बताये कि बिना संवेदना के कुछ भी लिखना संभव है क्या? हर घटना पहले दिल पर नक्श होती है फिर लफ्जों में उतरती है। इसी के चलते पत्रकारिता भी दुश्वार ही रही। हर लेखक अपने मौन में रहता है। उसका एकान्त उसकी पूंजी होता है। पत्रकारिता आपको न मौन रहने की गुंजाइश देती है न एकान्त। कभी लेखक पत्रकार से कहता मैं भी हूं। कभी पत्रकार लेखक को डपट देता। तुम्हारी जरूरत ही नहीं। इसी युद्ध में बारह बरस गुजर गए। अनुभवों के न जाने कितने गांव देखे। अहसासों की न जाने कितनी रणभूमि पर अक्षरों के युद्ध लड़े। इस युद्ध में कभी लेखक जीतता, कभी पत्रकार। कभी-कभी दोनों एक साथ हो लेते और संभाल लेते एक-दूसरे को लेकिन यकीन मानिए इस खेल में मैं हमेशा ही हारी। मुझे कविताओं ने पनाह दी। वो कविताएं जिन्हें कविता कह पाने का साहस कभी हुआ ही नहीं। एक संकोच घेरे रहा कि क्या ये कविता है? वो संकोच अब भी अपने हर लिखे को लेकर कायम है। ये लिखते वक्त एक मित्र की बात याद आती है कि विनम्रता भी एक किस्म का अहंकार है फिर भी इस संकोच से नहीं निकल पाती। तो लिखना एक किस्म की तकलीफ है जिससे उम्मीद का जन्म होता है। लेखक चाहे तो अपने पाठकों का आसमान बड़ा कर सकता है लेकिन ये जिम्मेदारी बहुत बड़ी है। लेखक होना बहुत बड़ी बात है। अगर कोई आपके लिखे को मान दे तो उसे पलकों पर उठाना चाहिए। यह पलकों पर उठाना ही था कि जब मुझे अपने साथियों के साथ लेखन कार्यशाला हेतु उधमसिंह नगर जाना था तो संकोच को पीछे धकेल ही दिया और अपने गुरुओं का देय चुकाने चल पड़ी। सिखाने नहीं, सीखने। और वहां जाकर मैने कुछ ना कुछ तो जरूर ही सीखा है।

rajnish manga
23-11-2012, 07:12 PM
एक नाता जो टूट नहीं सकता... -पारुल अग्रवाल
.....अमीनाबाद की भीड़भाड़ से गुजरते हुए अचानक मेरी नजर चाय की एक दुकान पर पड़ी, जिसके कोने में लटकी तख्ती पर लिखा था - मुस्कुराइए जनाब ये लखनऊ है......और इस एकपंक्ति ने जैसे लखनऊ शहर के लिए मेरे प्यार को शब्द दे दिए। ......दिल्ली से मेरानाता केवल बस और उसके कंडक्टर सा रहा जो बस में सफर तो हर दिन करता है लेकिनपहुंचता कहीं नहीं।......इस शहर में जीते जी सबसे पहले अब मेरी खोज एक ऐसे कोने कीहै जहां मैं भी हर आने जाने वाले के लिए लिख सकूं- मुस्कुराइए जनाब ये दिल्लीहै...।

:gm:
यह आपबीती पढ़ते हुये मैं भी दिल्ली की गलियों में पहुँच गया. दिल्ली की पोस्टिंग के दौरान मेरा ऑफिस करोल बाग के निकट स्थित था. मुझे ज्ञात हुआ कि ‘किताबघर प्रकाशन' ने शेरजंग गर्ग के सम्पादन में 'हिन्दी गज़ल शतक’ नाम से प्रकाशित पुस्तक का दूसरा खंड निकाला है. सो, एक दिन अपने दफ्तर से तीन बजे निकल कर अंसारी रोड, दरिया गंज पहुंचा और पुस्तक खरीद कर जल्द फारिग हो गया. कई दिनों से इच्छा थी कि रज़िया सुलतान, जो अपने पिता इल्तुतमिश की मौत और कई संघर्षों के बाद दिल्ली की गद्दी पर बैठी थी, की मज़ार को देख कर आऊँ. मुझे एक अंग्रेजी पत्रिका में लिखे रख्शंदा जलील के एक लेख से इस जगह के बारे में मालूम हुआ था. आसफ अली रोड पर स्थित तुर्कमान गेट से अंदर दाखिल हो कर कई गलियों और संकरे बाज़ारों के सिलसिले के बाद चितली कबर और काली मस्जिद के नज़दीक एक प्रांगण में रज़िया सुलतान की कब्र कुछ अन्य कब्रों के बीच दीखती है. कब्र के प्रांगण में स्थानीय नागरिकों द्वारा बना ली गयी मस्जिद के द्वार पर एक पट्टिका पर रज़िया सुलतान के बारे में कुछ जानकारी दी गयी है. यहाँ आ कर मुझे सदमा लगा. क्या यह बेनाम सी उजाड़ कब्र, जिस पर कोई दिया जलाने वाला भी बाकी नहीं, कोई नामलेवा भी नहीं, बिल्कुल गुमनाम अंधेरों में पड़ी कब्र, वाकई उस वीरबाला रज़िया सुलतान की है जो दिल्ली की एकमात्र महिला सुलतान थी और जिसके पार्थिव अवशेष कई शताब्दी पूर्व सिवान /कलायत, कैथल (वर्तमान में हरियाणा राज्य का एक नगर व जिला) से ला कर दिल्ली में दफनाए गए थे. मैंने कुछ क्षण वहाँ रुक कर दुआ मांगी. और उदास मन ले कर वहाँ से चला आया.
जिस प्रकार लेखिका ‘मुस्कुराईये जनाब ये दिल्ली है ---- ‘ कहना चाहती हैं उसी प्रकार मैं मानता हूँ कि हर शहर का अपना अतीत, अपना परिचय, अपना व्यक्तित्व, अपनी खुशबू होती है जिसे आत्मसात करने पर हर व्यक्ति उस शहर विशेष के बारे में कह उठेगा ‘मुस्कुराईये जनाब ये ........ शहर है’

Dark Saint Alaick
26-11-2012, 07:45 PM
अच्छा हुआ किस्से सुनने से बच गए

-अनूप शुक्ला

ओबामा चुनाव जीत गए। अच्छा हुआ। बवाल कटा । इधर हमारी बहुत दिन बातचीत नहीं हुई ओबामा से। होती तो भी क्या कहते वो? यही तो कि भाई साहब आपके आशीर्वाद से फिर से जीत गए। कोई काम हो तो बताइएगा। सुना है कि अमेरिका के चुनाव में बहुत पैसा, भाषण, लटके-झटके चलते हैं। पैसे वाली बिरादरी का इत्ता दखल है वहां राष्ट्रपति के चुनाव में कि किसी अमेरिकन लेखक के हवाले से ही हरिशंकर परसाई ने कुछ इस तरह का लिखा था - अमेरिका में उद्योगपति किसी आदमी को पकड़कर राष्ट्रपति बना देते हैं। ओबामा के फिर चुनाव जीतने की हमें खुशी है। अगर रोमनी जीतते तो उसके बारे में जानना पड़ता। उसके परिवार के बारे में भी। उसकी खूबियों के बारे में पढ़ना पड़ता। उनके बारे में किताबें छपतीं। तमाम कागज बच गया। हजारों पेड़ बचे। ओबामा की जीत से पर्यावरण की रक्षा हुई। ओबामा की जगह अगर रोमनी जीतते तो रोमनी के बहाने कई तरह की बहसें होती। अमेरिका बदल रहा है। दुनिया बदल रही है। रोमनी कैसे जीते। कौन उनका सलाहकार था। उनके भाषण किसने लिखे। उनका बचपन कैसा बीता। जवानी के क्या जलवे रहे। उन्होंने कैसे प्रपोज किया था। स्कूल में कैसे थे। उनका हस्तलेख कैसा है। उनकी तरह कौन लिखता है। किस कलाकार के प्रसंशक हैं वे। न जाने कितनी तरह के हेन-तेन किस्से सुनने पड़ते। साल निकल जाता यही सुनते-सुनते। ओबामा हार जाते तो बुद्धिजीवी फिर बहसियाते कि अमेरिकी जनमानस मूलत: अल्पसंख्यक विरोधी, अश्वेत विरोधी, ये विरोधी वो विरोधी है। न जाने क्या-क्या तुलना सुननी पड़ती। तमाम लोग अमेरिका और भारत की तुलना करते हैं। यह एकदम असमान तुलना है। अमेरिका में चुनाव में दो उम्मीदवारों में से कोई एक चुना जाता है। भारत में चुनाव होने के तक तय नहीं हो पाता कि प्रधानमंत्री कौन बनेगा। देश के किसी भी व्यक्ति को यह काम संभालने को कहा जा सकता है। ये भाई? चलो, कसम खाओ पद और गोपनीयता की। ओबामा का जीतना अच्छा ही है। वे अभी भी जवान दिखते हैं। झटका देकर बोल लेते हैं। मुट्ठी भींच लेते हैं। इसके बाद हाथ लहरा लेते हैं। भाषण के बाद अंगूठा दिखाकर मुस्करा लेते हैं। पत्नी और बच्चों का हाथ पकड़कर चल देते हैं। छुट्टी पर जा लेते हैं। मतलब सब तो है जो एक राष्ट्रपति बनने के लिए होना चाहिए। क्रिकेट की भाषा में अगर कहा जाए तो ओबामा का राष्ट्रपति बनना इसलिए जायज है क्योंकि उनमें अभी बहुत राष्ट्रपतिता बची है। इस बार तो जीतने के बाद ओबामा ने यह भी कह दिया -हम एक परिवार हैं। साथ जिएंगे, साथ मरेंगे। इस बयान को सुनने के बाद लगा शायद ओबामा ने हिंदी सिनेमा देखा और दिल दिया है जान भी देंगे ऐ सनम तेरे लिए गाने से बहुत प्रभावित हैं। यह भी लगा कि जिसने भी ओबामा का भाषण लिखा है उसको जीने की उमंग के साथ मरने की आशंका भी सताने लगी है। ओबामा का ये साथ जिएंगे, साथ मरेंगे वाला भाषण देखिएगा बहुत चलेगा। हम ओबामा को शुभकामनाएं देते हैं। इससे ज्यादा और एक आम भारतीय उनको दे ही क्या सकता है। वे भी हमारे देश के लोगों का ख्याल रखें। ज्यादा डराने वाले बयान जारी करके उनका रक्तचाप न बढ़ाएं। ठीक है न।

Dark Saint Alaick
07-12-2012, 11:59 PM
इन्ही की बदौलत बन रही नई पीढ़ी

-रश्मी

ठीक से याद नहीं। वो शायद भूगोल पढ़ाती थीं। बरसात के दिन थे। हल्की-हल्की बारिश। स्कूल का आंगन जिसे हम प्रांगण कहते थे, भीगा था। कीचड़ भी। अचानक वो मिस जिन्हें स्कूल में पढ़ने वाली लड़कियां दीदीमनी कहती थीं, उन्हें ही क्यों सारी शिक्षिकाओं को दीदीमनी ही कहा जाता था, ने चुपके से बुलाया और पूछा। तुम्हारे घर के चूल्हे में आग तो होगी? मैंने जवाब दिया। कहां दीदीमनी। खाना तो कब का बन गया होगा। अब सिर्फ राख बची होगी। उन्होंने कहा। अरे गरम तो होगी ही। और अपने बैग से निकालकर एक मकई हाथ में थमाया। कहा, दौड़ के जाओ। राख में अच्छी तरह से ढांपकर आना। एक घंटे में पक जाएगा तब ले आना। बड़ा स्वाद लगता है राख में पके मकई का। शिक्षिका की बात और छात्रा न माने। दौड़ गई अपने घर। पास ही तो था। बरसात जोर से आने के आसार हो तो समय से घंटों पहले बज जाती थी घंटी। टन..न..न...। हो गई छुट्टी। अरे बरसात होने वाली है दीदीमनी। लोगों को घर जाने में देर हो जाएगी न इसलिए छुट्टी। आज शनिवार है। बंद करो पढ़ाई-लिखाई। ठंड के दिनो में और मजे। धूप में खेलो कबड्डी। सारी दीदीमनी तो गप्पें मारते हुए बुनाई में व्यस्त हैं। सबके हाथ में सलाइयां। घरवालों के गर्म स्वेटर जो बन रहे हैं। बच्चों का क्या है। अभी नहीं खेलेंगे तो क्लास में बैठकर अपनी कुल्फी जमाएंगे। हम बच्चों की मस्ती। सारा दिन खेल, खेल और खेल। बस। ऐसी ही बहुत सी यादे हैं अपने माध्यमिक विद्यालय की। छठी कक्षा तक ऐसी ही पढ़ाई की। बैठने के लिए अपना बोरा और साथ में बस्ता लिया। पहुंच गए स्कूल। सरकारी स्कूल में पढ़ने और इस तरीके से पढ़ने के बाद आज फख्र से किस शिक्षक का नाम लूं। हां, टयूशन पढ़ाने करमचंद सर आते थे। जो भी हूं। इसका श्रेय उन्हें ही दूंगी। स्कूल से वापस घर आई। बस्ता पटककर बाहर तितलियां पकड़ने भाग जाती। वक्त का पता नहीं चलता। शाम होने से पहले सर साईकिल की घंटी टनटनाते पीछे नजर आते। समझिए धमकाकर, पकड़कर घर लाए जाते और हम पढ़कर उन पर अहसान करते। पाठ याद नहीं होने पर छड़ी से मारते थे, तो कहते - गुरूजी मारे धम-धम, विद्या आए छम-छम। नहीं भूलती बचपन की याद। सातवीं कक्षा में हाईस्कूल गई। वहां की प्रिंसिपल आएशा कुजूर ने अपनी जिद व मेहनत के बल पर हाईस्कूल शुरू किया था लड़कियों के लिए। हालांकि लड़कियों की उपस्थिति जितनी थी उस मुकाबले न शिक्षक थे, न सुविधा। केवल दो कमरे और बरामदे में बैठाकर कक्षा सात से दस तक की पढ़ाई होती। मगर यूनिफॉर्म, अनुशासन, पढ़ाई का महत्व, नाटक आदि सब वहीं सीखा। बहुत कम सुविधाओं के बावजूद। दो किलोमीटर पैदल चल कर जाना पड़ता था। शिक्षक कम, बरसात में छत चूता। फिर भी आएशा मैडम की जलाई ज्योत हमारे मन में जलने लगी। पढ़ाई का महत्व समझा। दसवीं के बाद इन्टरमीडिएट। फिर मास्टर डिग्री। समझदार हो गई थी तब तक। आएशा मैडम, विभा मैडम, अमोल मैडम, बसंती मैडम। पूरा स्कूल इन्हीं के कंधों पर था। आएशा मैडम आज तक इसी स्कूल से जुड़ी हैं। रिटायरमेंट के बाद भी जाती हैं कक्षा लेने। ऐसे ही शिक्षकों के बदौलत आज की पीढ़ी इंसान बन रही है।

Dark Saint Alaick
13-12-2012, 11:54 PM
क्रिकेट की लत में कुछ नहीं सूझता
-अनूप शुक्ल

इंग्लैंड-भारत के बीच टेस्ट क्रिकेट का चौथा मैच चल रहा है। मीडिया की मांग पर भारत की टीम अंग्रेजों की टीम की पुंगी बजा रही थी। इस बीच अंग्रेजों ने खेल शुरु कर दिया। धोखे में खूब रन बना डाले। एक मैच हारने के बाद भारत को दो मैंचों में हरा दिया। बताओ कहीं ऐसा करना चाहिए उनको खेल में। ये अंग्रेज लोग पता नहीं काहे जीतने के लिए खेलते रहते है। भारत की क्रिकेट टीम तो सिर्फ खेलने के लिए खेलती है। देश के लोग न जाने क्यों उसके हार जाने पर इतना परेशान होते हैं। आखिर खेलभावना भी तो कोई चीज होती है। भारत के खिलाड़ी दुनिया के सबसे अच्छे खिलाड़ी हैं। एक-एक खिलाड़ी के पास इतनी क्रिकेट बची है कि दुनिया भर की टीमों के पास क्या होगी। लेकिन भारतीय खिलाड़ी दिखावे में विश्वास नहीं करते कि हर मैच में अपनी क्रिकेट दिखाते रहें। अपनी क्रिकेट गाढ़े समय के लिए बचा के रखते हैं। वे इंग्लैंड के कप्तान कुक की तरह फिजूल खर्चा नहीं करते हैं कि लगातार खर्चते रहें। जब मौका आएगा तो दिखा देंगे निकालकर। उसके बाद फिर धर लेंगे साल भर के लिए। भारतीय खिलाड़ी अपनी क्रिकेट उसी तरह दिखाते हैं जिस तरह लोग शादी ब्याह में फायरिंग करते हैं। जिस तरह अमेरिका दुनिया के किसी देश पर बहाना बनाकर हथियारों की आतिशबाजी करता है ताकि सबको पता चल जाए कि अगले के पास और कुछ हो न हो,हथियार बहुत हैं। जीत-हार से दाएं-बाएं होकर जब कभी इस खेल के बारे में सोचते हैं तो लगता है क्रिकेट जैसा वाहियात खेल इस दुनिया में नहीं। दुनिया का कोई समझदार देश क्रिकेट के पीछे इतना पगलाया नहीं दिखता जितना भारतीय उपमहाद्वीप के देश। इतना टाइम बरबाद होता है कि पूछो मत। जितना टाइम हम क्रिकेट में बरबाद करते हैं उतना किसी काम में लगाएं तो जाने कितने आगे हो जाएं लेकिन आगे होने में वो मजा कहां जो क्रिकेट में डूबे हुए फिसड्डी बने रहने में है। हम दुनिया भर से तमाम बातों में फिसड्डी हैं उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। क्रिकेट में तो सबसे ज्यादा रिकार्ड अपने पास हैं। हमें तो लगता है कि अंग्रेजों को 1930-35 साल के आसपास ही पता चल गया होगा कि भारत को आजाद तो करना ही पड़ेगा। उनको यह भी डर होगा कि आजाद होते ही अगर ये काम-धाम में जुट गए तो दुनिया भर में सबसे आगे हो जाएंगे। उसका इलाज उन्होंने ये सोचा कि भारतीयों को क्रिकेट सिखा दी जाए। उनको पता रहा होगा कि अगर ये कौम क्रिकेट खेलने लगी तो इसी में मस्त रहेगी। इसके अलावा कुछ नहीं सूझेगा। वही हुआ। अंग्रेज हमें क्रिकेट सिखाकर चले गए। हमें अब क्रिकेट के सिवा कुछ नहीं सूझता। क्रिकेट हमारे लिए गिरधर गोपाल हो गया है। हम मीरा हो गए हैं। हमें क्रिकेट के सिवा कुछ नहीं सूझता। शहरों में माफिया लोग छोटे-छोटे बच्चों को चरस की लत लगाकर जिन्दगी भर के लिए नशे का गुलाम बना देते हैं। अपना धंधा चलाते रहते हैं। वही हाल अंग्रेजों ने हमारे साथ किया। हमको क्रिकेट की लत लगा गए। हमें क्रिकेट के सिवा अगर कुछ सूझता है तो सिर्फ क्रिकेट। हम समस्याओं से परेशान हैं। इस सबको देखकर बहुत दुख होता है। इस दुख से उबरने के लिए क्रिकेट रामबाण दवा है। क्रिकेट के भवसागर में गोते से हमारे सारे दर्द हवा हो जाते हैं।

Dark Saint Alaick
14-12-2012, 12:43 AM
और मैं भी चला जाऊंगा एक दिन

-गिरिजेश राव

वृद्ध युगल एक कमरे में लेटे हैं। वृद्ध कहता है कि अकेले कमरे में उसे कउवावन लगने लगा है। जाने इस शब्द का अर्थ क्या है लेकिन इतना पता है कि यह निश्चित रूप से एकान्त के भय और ऊब से आगे की बात है। वृद्धा जन्मजात खर्राटेबाज है शायद और इस आयु में नींद वैसे ही कच्ची हो जाती है। चुनांचे वृद्ध ठीक उस समय पलंग पर आ विराजता है जब चटकते हाड़ लिए उसकी संगिनी सोने आती है ताकि जब तक नासिका गर्जन प्रारम्भ हो वह भी सो जाय। दोनो जागते हुए सोते हैं लेकिन पहली नींद बिन विघ्न सम्पन्न हो जाय तो अच्छा रहता है। जिस दिन ऐसा होना शुरू हुआ उस दिन सूर्य और चन्द्र्र विशाखा में, शुक्र मूल में और बृहस्पति स्वाती नक्षत्र में थे। बाकी ग्रहों की याद नहीं। अपने पोते के जन्म समय को वृद्ध ने इसके लिए उचित समझा। उसे विश्वास था कि डांट नहीं पड़ेगी और नमक मिर्च मसाले में पुत कर यह बात पतोहुओं तक नहीं पहुंचेगी। दिन-दिनांक वृद्ध को याद नहीं। उसका बेटा एक दिन पहले पोते के जन्मदिन की याद दिलाता है कि पहला हैप्पी बड्डे सन्देश आप का होना चाहिए। वृद्ध यह सोच हैरान होता है कि बगल में सोती पत्नी में एक खास छांव भी है जिससे इतने दिन वह वंचित रहा। वह पानी पीता है और जग का ढक्कन बन्द करते अन्धेरे में लाल चमकती टीवी स्विच की स्टैन्डबाई एलईडी को देख सोचता है, वे दोनों भी अब उसी मोड में हैं। बाल बच्चे आते हैं तो आॅन कर देते हैं। एक ही सीरियल में जाने कितने चैनल खुल जाते हैं। बताने और बात करने की उमंग में दोनों अक्सर उलझ जाते हैं और सुनने वाली बहुएं और बेटे भी असमंजस में पड़े रहते हैं कि सुनें तो किसकी सुनें। बाद में वृद्ध उनके घबराए और भ्रमित सी मुख भंगिमाओं की सोच मुस्कुराता रहता है । छोटकी एचआर अधिकारी है, वृद्धा के आगे उसकी सारी पॉलिश उतर जाती है और बड़की? दोनों के लिए सुशील बहू बनने के चक्कर में गड़बड़ा जाती है। सबसे अच्छा बड़का है। स्टैंड पर टेबल फैन की तरह घूमता दोनों की बारी बारी सुनता है। छोटका अभी बच्चा है। हूं-हां करता रहता है। वे लोग उनकी बातों में अपने हिस्से का सच झूठ ढूंढ़ते रहते हैं। वृद्ध सोचता है कि वे दोनों वाकई इतिहास के सच जैसे हैं जिसमें सब अपने अपने झूठ ढूंढ़ते हैं। यही बात उसे कचोटती है। वह जानता है कि हज़ारों वर्ष पहले से ऐसा होता चला आ रहा है और कचोट भी उतनी ही पुरानी है फिर भी हैरानी की बात यह है कि इस पर हैरानी हुए बिना नहीं रहती। वृद्ध फिर से जीने लगा है और यह सोच थोड़ा सहम भी जाता है कि मृत्यु के समय बिताया गया जीवन क्रमश: सामने दिखने लगता है। उसे हैरानी भी होती है कि वृद्धा को ऐसा कुछ नहीं होता-वोता। टिकठी बांधते उसकी आंखें सूखी हैं। वह सोच रहा है कि क्या अब वह अकेले सो पाएगा? खर्राटे, छांव, उस पर विराजते कउवे और इतिहास सब समाप्त नहीं हो जाएंगे? कफन की आखिरी गांठ बांधते वह बुदबुदाया है-प्रिया को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता और मुस्कुराने लगा है। उसने बड़के से कहा है, जीवन ही सत्य है। तुम्हारी मां मरी नहीं, दूसरे कमरे में अलग सोने चली गयी है। अगले महीने जब छोटकी की संतान होगी तो मैं भी उस कमरे में चला जाऊंगा। उठाओ अब। रोते नहीं।

Dark Saint Alaick
02-01-2013, 11:50 PM
शायद हम भर सकते हैं ये दरार

-पल्लवी सक्सेना

पाकिस्तान को लेकर आज हर हिन्दुस्तानी के दिलो दिमाग में एक अलग तरह की छवि बनी हुई है जिसे शायद हर कोई बुरी नजर से ही देखता है और अब तो दुनिया के सबसे बड़े देश की नजर में भी पाकिस्तान ही सबसे बुरा है क्यूंकि वहां आतंकवादियों को पनाह दी जाती है। जमाने भर के आंतकवादियों की मूल जड़ पाकिस्तान में ही पाई जाती है लेकिन इन सब बातों के बावजूद भी क्या वाकई हर पाकिस्तानी बुरा होता है? कम से कम यहां आने के बाद तो मैं इस बात को नहीं मानती। हां, यूं तो हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच आई दूरियां कभी मिट नहीं सकती। यह एक ऐसी दरार है जो कभी भर नहीं सकती। मगर तब भी हिंदुस्तान से बाहर रहने पर पता चलता है कि यह दरार शायद उतनी बड़ी या गहरी भी नहीं कि भरी ना जा सके। एक पाकिस्तानी महिला से मिलने के बाद मुझे जो अनुभव हुआ है उसे आप सबके साथ साझा करने की कोशिश कर रही हूं। जब मैं भोपाल में रहती थी तो केवल उस देश के बारे में किताबों और फिल्मों में ही देखा सुना और पढ़ा था। कभी किसी से मुलाकात नहीं हुई थी इसलिए एक अलग ही छवि थी मेरे मन में उन्हें लेकर। लेकिन जब यहां रहकर उनसे मुलाकात हुई तो मुझे बड़ा सुखद अनुभव हुआ और लगा कितना गलत सोचती थी मैं। मुझे क्लीनिक जाना था अपना रजिस्ट्रेशन करवाने ताकि जब जरूरत पड़े तो आसानी से एपोइंटमेंट मिल सके। उसी सिलसिले में मेरी मुलाकात हुई डॉ.फातिमा से जिनकी उम्र महज 21-22 साल की होगी। वैसे एक डॉ. का तो पेशा ही ऐसा होता है कि उसे हर किसी व्यक्ति से बड़े ही नर्म दिली से पेश आना होता है मगर फिर भी उन मोहतरमा का स्वभाव मुझे बहुत अच्छा लगा। मुझे महसूस हो रहा था जैसे मैं बरसों बाद अपने कॉलेज की किसी दोस्त से मिल रही हूं। मुझे ऐसा नहीं लगा कि वह एक डॉ.हैं और मैं उसके पास साधारण जांच के लिए आई हूं या वह किसी ऐसे देश से ताल्लुुक रखती है जिस देश से मेरे देश के लगभग ज्यादातर लोग केवल नाम से ही नफरत किया करते हैं। लेकिन उसका अपनापन देखकर मुझे लगा कि यहां भी तो हम-आप जैसे इंसान ही रहते हैं। इनकी रगों में भी तो कहीं न कहीं हिंदुस्तान का ही खून बहता है फिर क्यूं हम लोग बेवजह वहां की आम जनता से भी इतनी नफरत करते हैं। जिन्होंने हमारा कभी कुछ नहीं बिगाड़ा लेकिन उनका कुसूर केवल इतना है कि वह पाकिस्तान में रहते हैं और वहां की आवाम का हिस्सा है। यह तो भला कोई कारण ना हुआ किसी इंसान से नफरत करने का तब यह अहसास होता है कि वाकई गेहूं के साथ घुन पिसना किसे कहते हैं या एक मछली सारे तालाब को कैसे गंदा साबित करवा देती है। इस सबके चलते कम से कम एक बात मुझे बहुत अच्छी लगती है कि अलग-अलग देशों से आए लोग यहां एक परिवार की तरह काम करते हैं। यहां हिंदुस्तान-पाकिस्तान का भेद-भाव देखने को नहीं मिलेगा आपको। खैर,अंत में तो मैं बस इतना ही कहना चाहूंगी कि एक मछली के गंदा होने की वजह से से सारे तालाब को गंदा ना समझें। हालांकि यहां एक और कहावत भी लागू होती है कि हर चमकती चीज सोना नहीं होती। बस वो अंग्रेजी की कहावत के अनुसार ‘आइस ब्रेक’ करने की जरूरत है। कुल मिलाकर उस डॉ. से मिलकर तो मुझे यही अनुभव हुआ। इस विषय में आपका क्या ख्याल है ?

Dark Saint Alaick
04-01-2013, 09:27 PM
कहां चले जाते हैं खोए हुए लोग

-पूजा उपाध्याय

बहुत साल पहले दूरदर्शन पर एक प्रोग्राम आता था। मैं उसे देख कर हमेशा बहुत उदास हो जाती थी। सोचती थी कि ये दुनिया कितनी बड़ी है कि इतने सारे लोग खो जाते हैं और किसी का पता भी नहीं मिलता। मर जाने से ज्यादा बुरा है खो जाना। मर जाने में एक स्थायित्व है। लोग रो-पीट कर समझा लेते हैं। कैसी भी परिस्थिति में जी लेते हैं लेकिन खोए हुए लोग अपने पीछे एक इंतजार छोड़ जाते हैं। फिर कोई उस मोड़ से आगे नहीं बढ़ता जहां उसका हाथ छूटा था। सब कुछ लौट-लौट कर वहीं आता है। मुझे एक जमाने में खो जाने का मन करता था। लुका-छिपी खेलते हुए मैं अक्सर सोचती थी कि अगर ऐसा हुआ कि मैं खो जाऊं और कभी न मिलूं तो? मैं टीवी में खोए हुए लोगों को बहुत गौर से देखती थी और सोचती थी अगर कोई मिलेगा तो मैं पक्का उसे इस एड्रेस पर पहुंचा दूंगी। जब से पोलैंड से लौटी हूं एक अजीब चीज होती है। अखबार में अक्सर मरे लोगों की तस्वीरें छपती हैं। मुझे आज तक समझ नहीं आया कि ऐसा क्यूं करते हैं। मैं उन तस्वीरों को देखती हूं तो अजीब सा महसूस होता है जैसे कि मैं उनको दूर से जानती हूं। जैसे मरने के बाद वो मेरी दुनिया का हिस्सा बन गए हैं। उनकी कोई कहानी होती है जो उन्हें कहनी होती है। वो मुझसे कहना चाहते हैं। मैं पेपर पलट कर रख देती हूं और कैल्विन और होब्स में खो जाती हूं। एक शैतान बच्चा और एक स्टफ टाइगर। इससे ज्यादा कॉम्प्लिकेशन हैंडल नहीं कर सकती हूं। एक अखबार में बैंगलोर फिल्म फेस्टिवल के बारे में छपा है। बुकिंग कराई। आफिस के और भी लोगों की बुकिंग कराई। पांच सौ रुपए का डेलिगेट पास है। इसमें कोई डेढ़ सौ फिल्में दिखा रहे हैं। मन कर रहा था कि हफ्ते भर की छुट्टी लेकर सारी फिल्में देख आऊं लेकिन गड़बड़ है कि जोर्ज भी जा रहा है। हमने कहा तो बोला, छुट्टी मैं लेकर जाऊंगा। तुम लोग यहां काम सम्हालो। असल में होगा ये कि वीकेंड पर जो फिल्में हैं वो तो देख लेंगे,एक छुट्टी वाले दिन भी तीन-चार फिल्में देखी जा सकती हैं। रात के शायद कोई शो देख पाऊं। डिपेंड करता है कि जिस हॉल में लगी होगी वो घर से कितनी दूर है। एक दोस्त है निशांत वो भी जा रहा है। अभी कुणाल की बुकिंग नहीं कराई है। उसके घर आने पर करेंगे। टोटल में बहुत से लोग हैं तो अकेले देखने का टेंशन नहीं है। नेहा आज दिन भर आफिस से बाहर रही है तो उसकी टिकट भी नहीं हुई है। लौट के आती है तो उसको पकड़ते हैं। मिस करती हूं उसको। बड़े दिन बाद किसी से थोड़ी दोस्ती हुई है। मुझसे छह साल छोटी। पर हां,अच्छा लगता है कि कोई लड़की दोस्त है। गॉसिप करने के लिए, शोपिंग के लिए। सिंपल होने का मन करता है। लगता है कि मन इतने सारे पैरलल ट्रैक्स पर एक साथ सोच नहीं पाता तो अच्छा होता न। इतनी उलझन नहीं होती। मुझे समझ नहीं आता कि खुद के साथ तालमेल बिठाने के लिए कितनी जिंदगी चाहिए। अब भी मैं खुद को समझ क्यूं नहीं पाती जबकि बहुत सी चीजें बार-बार घटती हैं। मैं फिर वहीं कैसे चोट खाती हूं। दो कमरों का घर है, साढ़े चाल साल होने को आए मुझे। अब तक दीवारें कहां है पता क्यूं नहीं है। अब भी टकरा जाती हूं। कितने नीले निशान होते हैं। अचानक मन बहुत उदास हो आया है। सोचती हूं तो पाती हूं कि अचानक नहीं है। एक जिंदगी किसी और जिंदगी की रिपीट तो नहीं हो सकती।

Dark Saint Alaick
04-01-2013, 09:48 PM
तभी जानेंगे बच्चे अपनी विरासत को

-विष्णु बैरागी

निजी स्कूलों की कुछ बातें बहुत ही बुरी लगती है। एक बात तो मुझे बहुत ही बुरी लगती है कि प्रोजेक्ट के नाम पर पालकों पर भारी आर्थिक बोझ डालना। ये प्रोजेक्ट ऐसे उलझे और खर्चीले होते हैं कि उससे कुछ सीखने के बजाय उस प्रोजेक्ट को कैसे भी पूरा करके उससे मुक्ति पाना बच्चे और उसके माता-पिता का लक्ष्य बन जाता है। इस सन्दर्भ में मैं एक अच्छे व सुखद अनुभव से गुजरा। मैं कवि चांदनीवाला के यहां बैठा था। उनका फोन घनघनाया। उनकी बातों से लगा कि कोई मिलना चाहता है। उसे बोले ,अभी एक मेहमान बैठे हैं। आधे घण्टे बाद फोन करके आ जाना। सामने वाले को दिया गया उनका यह उत्तर मेरे लिए साफ सन्देश था किन्तु हमारी बात में आधा घण्टा कब निकल गया, मालूम ही नहीं हुआ। फोन फिर घनानाया। बोले,हां आ जाओ। सुनकर मैं उठने को हुआ तो मुझे रोकते हुए बोल, रुकिए। आप एक अच्छे प्रसंग का आनन्द लेकर जाइए। पांच मिनिट भी नहीं हुए कि सात बच्चियों के साथ एक सज्जन प्रकट हुए। मालूम हुआ कि वे सातों बच्चियां निजी स्कूल की आठवीं कक्षा की छात्रा हैं और चांदनीवाला का साक्षात्कार लेने आई हैं। इतनी छोटी बच्चियां और सबको एक साथ चांदनीवाला का साक्षात्कार लेना है। खुद चांदनीवाला को बात समझ नहीं आई। बच्चियों ने बताया कि उनकी कक्षा के बच्चों को नगर के कवियों से साक्षात्कार का प्रोजेक्ट दिया गया है। इस क्रम में वे प्रो.रतन चौहान और मालवी लोक कवि पीरुलाल बादल के साक्षात्कार ले चुकी हैं। प्रो.चौहान ने ही चांदनीवाला का पता, फोन नम्बर बच्चियों को दिया था। जानकर हम दोनों को ताज्जुब भी हुआ और अच्छा भी लगा। बच्चियां प्रश्न लिख कर लाई थीं किन्तु दो बच्चियों ने प्रश्नों में से प्रश्न निकाल लिए। यह देखकर हम दोनों को और अच्छा लगा। लिख कर लाए सवालों के बीच ही विधा का अर्थ क्या होता है, तुकान्त-अतुकान्त कविता क्या होती है, दोनों में क्या अन्तर है, गेय-अगेय का अर्थ और अन्तर क्या होता है जैसी कुछ महत्वपूर्ण बातें भी सामने आईं। चांदनीवाला ने अपनी एक सस्ंकृत कविता का पाठ किया। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को लेकर बच्चियों द्वारा पूछे गए सवालों से मुझे भी कई जानकारियां पहली बार मिलीं। बच्चियों ने जब उनसे उनकी मां का नाम पूछा तो चांदनीवाला भावुक हो गए। विचलित स्वरों में बोले - किसी ने पहली बार मुझसे मेरी मां का नाम पूछा। जाने से पहले चांदनीवाला ने बच्चियों से आग्रह कर उनके साथ फोटो खिंचवाया। बच्चियों ने उनके आटोग्राफ लिए। बच्चियों के जाने के बाद हम दोनों निजी स्कूलों के चाल-चलन में आए इस अनपेक्षित किन्तु सुखद बदलाव पर चर्चा करते रहे। यह सचमुच में शिक्षा तो थी ही अपने नगर के साहित्यकारों से मिलने का, उनसे बात करने का एक सुन्दर और दूरगामी प्रभाव वाला अवसर भी इन बच्चियों को उपलब्ध कराया गया था। ऐसे उपक्रम बच्चों को अपनी साहित्यिक-सांस्कृतिक विरासत और परम्पराओं से परिचित कराने का श्रेष्ठ माध्यम होते हैं। यह ऐसा प्रोजेक्ट था जिसमें बच्चों के माता-पिता पर एक पाई का आर्थिक वजन नहीं पड़ा। इसके विपरीत बच्चे सचमुच में सम्पन्न और समृद्ध हुए। चांदनीवाला और मैंने ईश्वर से प्रार्थना की। निजी स्कूल वालों को ऐसी ही बुद्धि देना ताकि बच्चे अपनी विरासत को जान सकें, समझ सकें।

Dark Saint Alaick
08-01-2013, 12:01 AM
नारी अस्मिता की पहचान बन गई वो

-खुशदीप सहगल

बुंदेले हर बोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी...। कवियत्री सुभद्रा कुमारी चौहान की ये पंक्तियां आज के हालात में फिर याद आ रही हैं। नारी शक्ति की पहचान वीरांगना रानी झांसी लक्ष्मीबाई ने अपनी महिला सेनापति झलकारी बाई के साथ फिरंगी सेना का मुकाबला करते हुए युद्ध के मैदान में शहीद होना पसंद किया था लेकिन अंग्रेजों की दासता नहीं मंजूर की थी। ये सब आजादी से 90 साल पहले हुआ था। आजादी के 65 साल बाद एक और वीरांगना शहीद हुई है। 23 साल की इस बिटिया ने अपनी अस्मिता बचाने के लिए छह नर-पिशाचो से तब तक संघर्ष किया जब तक उसमें होश रहा। इस बिटिया की शहादत से पूरी दुनिया में आज लोग उद्वेलित हैं। ये बिटिया नारी अस्मिता की सबसे बड़ी पहचान बन गई है । जिस बिटिया को हम जीते-जी सुरक्षा नहीं दे सके उसे मरने के बाद भी क्यों हमेशा के लिए गुमनामी के साये में रखना चाहते हैं? उसे क्यों आज के युग की रानी लक्ष्मीबाई नहीं माना जा सकता? क्यों नहीं उस माता-पिता को सैल्यूट किया जा सकता जिन्होंने ऐसी बहादुर बेटी को जन्म दिया? लड़की की पहचान छुपाने का तर्क तब तक तो समझ आता है जब तक वो जीवित थी। अब वो अमर हो चुकी है। जो नुकसान होना था, हो चुका। दुनिया का बड़े से बड़ा सुरक्षा का तामझाम भी उसको दोबारा जीवित नहीं कर सकता। ये भरपाई अगर हो सकती है तो सिर्फ इसी बात से कि अब और किसी बिटिया को ऐसे हालात से न गुजरना पड़े। ये जिम्मेदारी जितनी सरकार और पुलिस की है, उतनी ही पूरे समाज की है। वो समाज जो मेरे और आप से बना है। एक केंद्रीय मंत्री ने ट्विटर पर एक सवाल रखा कि इस बिटिया की पहचान छुपाए रखने से कौन से हित की रक्षा होगी? मंत्री ने ये भी कहा कि अगर बिटिया के माता-पिता को ऐतराज ना हो तो नए कानून का नाम भी उसी के ऊपर रखा जाए। मंत्री के इस बयान पर हर तरह की प्रतिक्रिया सामने आई। जहां तक देश के कानून की बात है तो वह यही कहता है कि दुष्कर्म पीड़ित की पहचान नहीं खोली जा सकती। कहीं भी उसके नाम का उल्लेख नहीं किया जा सकता। ऐसा करना आईपीसी की 228-ए के तहत अपराध है लेकिन कानून की दुहाई देकर हमेशा एक ही लकीर को पीटते रहना क्या उचित है? इस बिटिया की शहादत के बाद जो हालात हैं वो रेयरेस्ट आफ रेयर हैं। इसलिए अब फैसले भी रेयरेस्ट आॅफ रेयर ही लेने चाहिए। इस बिटिया के चेहरे की इतनी सशक्त पहचान बन जानी चाहिए कि फिर कोई दुराचारी ऐसा कुछ करने की जुर्रत ना कर सके। उस दुराचारी को फौरन याद आ जाना चाहिए कि देश ने एकजुट होकर कैसा गुस्सा व्यक्त किया था और उसका क्या हश्र होगा। वैसे भी हम समाज की सोच को बदलने की बात करते हैं। पीड़ित या उसके परिवार के लिए हम फिर क्यों इस नजरिये को नहीं बदल सकते। पहचान छुपाने के तर्क के पीछे क्या यही सोच तो नहीं है कि पीड़ित या उसका परिवार हमेशा नजरें नीचे रखकर जीने को मजबूर रहे? नजरें तो उस समाज की नीचे होनी चाहिए जो एक बिटिया को हवस के भेड़ियों से बचा नहीं सका। क्यों नहीं इस परिवार को ऐसा अभूतपूर्व सम्मान दिया जाता कि हमेशा के लिए मिसाल बन जाए। मेरे लिए तो ये बिटिया आज के दौर की रानी लक्ष्मीबाई ही है।

rajnish manga
08-01-2013, 09:11 PM
और मैं भी चला जाऊंगा एक दिन -गिरिजेश राव
तुम्हारी मां मरी नहीं, दूसरे कमरे में अलग सोने चली गयी है। अगले महीने जब छोटकी की संतान होगी तो मैं भी उस कमरे में चला जाऊंगा। उठाओ अब। रोते नहीं।
शायद हम भर सकते हैं ये दरार -पल्लवी सक्सेना
.... अब तो दुनिया के सबसे बड़े देश की नजर में भी पाकिस्तान ही सबसे बुरा है क्यूंकि वहां आतंकवादियों को पनाह दी जाती है। ..... लेकिन इन सब बातों के बावजूद भी क्या वाकई हर पाकिस्तानी बुरा होता है? यहां हिंदुस्तान-पाकिस्तान .... बस वो अंग्रेजी की कहावत के अनुसार ‘आइस ब्रेक’ करने की जरूरत है।
कहां चले जाते हैं खोए हुए लोग -पूजा उपाध्याय
बहुत साल पहले दूरदर्शन पर एक प्रोग्राम आता था। मैं उसे देख कर हमेशा बहुत उदास हो जाती थी। सोचती थी कि ये दुनिया कितनी बड़ी है कि इतने सारे लोग खो जाते हैं और किसी का पता भी नहीं मिलता। मर जाने से ज्यादा बुरा है खो जाना। मर जाने में एक स्थायित्व है। लोग रो-पीट कर समझा लेते हैं। ..... बड़े दिन बाद किसी से थोड़ी दोस्ती हुई है। मुझसे छह साल छोटी। पर हां,अच्छा लगता है कि कोई लड़की दोस्त है। ..... अचानक मन बहुत उदास हो आया है। सोचती हूं तो पाती हूं कि अचानक नहीं है। एक जिंदगी किसी और जिंदगी की रिपीट तो नहीं हो सकती।
तभी जानेंगे बच्चे अपनी विरासत को -विष्णु बैरागी
..... फोन फिर घनानाया। बोले, हां आ जाओ। सुनकर मैं उठने को हुआ तो मुझे रोकते हुए बोल, रुकिए। आप एक अच्छे प्रसंग का आनन्द लेकर जाइए। ..... मालूम हुआ कि वे सातों बच्चियां निजी स्कूल की आठवीं कक्षा की छात्रा हैं और चांदनीवाला का साक्षात्कार लेने आई हैं। ..... खुद चांदनीवाला को बात समझ नहीं आई। बच्चियों ने बताया कि उनकी कक्षा के बच्चों को नगर के कवियों से साक्षात्कार का प्रोजेक्ट दिया गया है। ..... किसी ने पहली बार मुझसे मेरी मां का नाम पूछा। जाने से पहले चांदनीवाला ने बच्चियों से आग्रह कर उनके साथ फोटो खिंचवाया। बच्चियों ने उनके आटोग्राफ लिए। यह ऐसा प्रोजेक्ट था जिसमें बच्चों के माता-पिता पर एक पाई का आर्थिक वजन नहीं पड़ा।... निजी स्कूल का प्रोजेक्ट ...
नारी अस्मिता की पहचान बन गई वो - खुशदीप सहगल
.... रानी झांसी लक्ष्मीबाई ने शहीद होना पसंद किया था लेकिन अंग्रेजों की दासता नहीं मंजूर की थी।.....आजादी के 65 साल बाद एक और वीरांगना शहीद हुई है। 23 साल की इस बिटिया ने अपनी अस्मिता बचाने के लिए छह नर-पिशाचो से तब तक संघर्ष किया जब तक उसमें होश रहा।..... नजरें तो उस समाज की नीचे होनी चाहिए जो एक बिटिया को हवस के भेड़ियों से बचा नहीं सका। क्यों नहीं इस परिवार को ऐसा अभूतपूर्व सम्मान दिया जाता कि हमेशा के लिए मिसाल बन जाए। मेरे लिए तो ये बिटिया आज के दौर की रानी लक्ष्मीबाई ही है।
:bravo:
अलैक जी, ऊपर लिखी गई एक एक कहानी, संस्मरण, खबर अथवा समीक्षा या इसे जो भी नाम दें सभी प्रसंग व घटनाएं रोंगटे खड़े करने वाले शब्द हैं. यह सभी अपने अपने तरीके से हमें आत्म निरीक्षण के लिए प्रेरित करते हैं. इन सशक्त ब्लोग्स के लिए मैं आपका ह्रदय से आभारी हूँ. धन्यवाद.

Dark Saint Alaick
13-01-2013, 12:30 AM
:bravo:
अलैक जी, ऊपर लिखी गई एक एक कहानी, संस्मरण, खबर अथवा समीक्षा या इसे जो भी नाम दें सभी प्रसंग व घटनाएं रोंगटे खड़े करने वाले शब्द हैं. यह सभी अपने अपने तरीके से हमें आत्म निरीक्षण के लिए प्रेरित करते हैं. इन सशक्त ब्लोग्स के लिए मैं आपका ह्रदय से आभारी हूँ. धन्यवाद.

धन्यवाद, मित्र रजनीशजी। इस सूत्र को मैंने शीर्षक दिया है 'ब्लॉग वाणी' यानी सायबर जगत में बिखरे अनेक ब्लॉग्स पर जो कुछ श्रेष्ठ मैं पाता हूं, उसे यहां सुधि पाठकों के लिए समर्पित कर देता हूं। मैं यह दावा नहीं करता कि यही सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि मैं सभी ब्लॉग्स पर नहीं जा पाता और कुछ मित्रों ने अपने ब्लॉग्स पर ताला भी लगा रखा है, फिर भी मुझे जितना समय मिलता है और उसमें जितने मित्रों के ब्लॉग्स की यात्रा कर पाता हूं, उसका श्रेष्ठ ही यहां हाज़िर है। आपको ब्लॉग लेखकों की यह अभिव्यक्ति पसंद आई, मैं आपका तहे-दिल से शुक्रिया अदा करता हूं। समस्त ब्लॉग लेखक बंधुओं और मेरी मेहनत सफल हुई। आभार। :hello:

Dark Saint Alaick
13-01-2013, 12:48 AM
साइकिल से नर्मदा परिक्रमा की तैयारी

-अनूप शुक्ल

नया साल आए डेढ़ हफ्ता हो गया। हम सोच रहे थे कि कुछ हैप्पी न्यू ईयर टाइप लिखकर नये साल का फीता काटें लेकिन सब आइडिया लोग छुट्टी पर निकल गया लगता है। जो दिखे भी वो बोले ,साहब जाड़ा बहुत है। अभी जमें हैं। डिस्टर्ब न करिये। उत्तर भारत में जाड़ा बहुत पड़ रहा है। सैकड़ों जाने जाड़े से जा चुकी हैं। लोग बेचारे कुछ कर नहीं पा रहे हैं। किसी टीवी पर इस बारे में कोई बहस दिखी नहीं। लोग अभी लक्ष्मण रेखा, भारत और इंडिया में बिजी हैं। जबलपुर में मौसम स्विटजरलैंड हो रहा है। खूब सर्दी, खूब धूप। स्वेटर, कोट तो साथ हैं ही। जाड़े का लुत्फ उठाया जा रहा है। रोज गिरते तापमान के रिकार्ड आंकड़े आते हैं अखबार में। हमें वो सब एक गिनती की तरह लगते हैं। यही अगर पहनने को गरम कपड़े, ओढ़ने को कम्बल-रजाई न होते तो बिलबिलाते घूमते। मौसम जो स्विटजरलैंड हो रहा है वो साइबेरिया हो जाता। दुआ करते कि ये जाड़ा टले जल्दी। बवाल है। कल कुछ तूफानी करते हैं सोचते हुए साइकिल चलाने निकल गए। शुरु के पंद्रह-बीस पैडल तो खुशी-खुशी मारे। फिर मामला फंसने लगा। समतल सड़क पर चलाने में लग रहा था कि एवरेस्ट पर साइकिलिंग कर रहे हैं। मन किया कि रुक जाएं। लेकिन फिर सोचा रुकेंगे तो लगेगा कि थक गए। स्टेमिना गड़बड़ है। फिर सोचा कि कोई जरूरी फोन कर लिया जाए रुककर। लेकिन कोई जरूरी काम याद ही नहीं आया। सब मौज ले रहे थे हमसे। हमारे पसीना आ गया। हम सोचे कि अब तो रुकना ही पड़ेगा लगता है। लेकिन तब तक आगे खुशनुमा लम्बी ढलान मिल गयी। हम खुश हो गए। वो ढाल हमें ऐसे लगी जैसी किसी आपदा में फंसे को राहत सामग्री लगती होगी। ढ़ाल में साइकिल चलाते हुए सोचा कोई गाना गुनगुनाया जाए। लेकिन जब तक गाना याद आता तब तक ढ़लान खतम हो गई। हम फिर से पैडल मारने में जुट गए। आगे फिर अपने एक मित्र से मिलने चले गए। साइकिल से आने की बात को ऐसे बताया गया जैसे हम कोई किला फतह करके आए हों। हांफते हुए चार किलोमीटर की साइकिलिंग ने ही हमारे मन में इत्ता आत्मविश्वास भर दिया कि हम प्लान बना लिए कि तीन महीने बाद साइकिल से नर्मदा परिक्रमा करेंगे। करें भले न लेकिन घोषणा करने में क्या जाता है? दोस्त के यहां से निकले तो देखा सड़क पर बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे। बिना गद्दी की बच्चा साइकिल को उल्टाये हुए धरे अपना विकेट बनाए थे। हमने उनका फोटो खींचा तो बच्चा बोला हमको भी साइकिल चलाने दो। हमने दे दी। फिर दूसरा भी बोला हम भी चलाएंगे। हमने उसको भी चलाने को दे दी। एक ने कहा हमारी बॉलिंग करते हुये फोटो खैंचिये। हमने खैंच ली। वे फिर से क्रिकेट खेलने में जुट गए। गिन के देखा तो तीन किलोमीटर बारह मिनट में नापे। मतलब चलते रहे तो पन्द्र्ह किलोमीटर प्रति घंटा। मतलब दिन में सौ किलोमीटर चलने के लिए सात घंटे पैडल मारना होगा। इस स्पीड से अगर चले और हर दिन सौ किलोमीटर चले तो नर्मदा उद्गम से विसर्जन तक पहुंचने में सोलह-सत्रह दिन लग जाएंगे। कुल मिलाकर एक दिन में दस किलोमीटर चलने में हाल-बेहाल हो लिए तो पंद्र्रह-सोलह सौ किलोमीटर में कौन हाल होगा। लेकिन वो हाल तो जब होगा तब होगा अभी तो नया साल शुरू हुआ है इसलिए मुबारक हो आपको।

Dark Saint Alaick
16-01-2013, 03:04 AM
अपराधी मनोवृति को काबू में रखता है डर

-शिखा वार्ष्णेय

हम बचपन से सुनते आए हैं - डर के आगे जीत है, जो डर गया समझो मर गया वगैरह-वगैरह। परन्तु सचाई एक यह भी है कि कुछ भी हो व्यवस्था और सुकून बनाए रखने के लिए डर बेहद जरूरी है। घर हो या समाज जब तक डर नहीं होता कोई भी व्यवस्था सुचारू रूप से नहीं चल सकती। घर में बच्चे को माता-पिता का डर न हो तो वह होश संभालते ही चोर बन जाए। स्कूल में अध्यापकों का डर न हो तो अनपढ़-गंवार रह जाए, धर्म-समाज का डर न हो तो न परिवार बचें न सभ्यता। और अगर कानून का डर न हो तो जो होता है वह आजकल हम देख ही रहे हैं। यानि इतनी अव्यवस्था और अपराध हो जाएं की जीना मुश्किल हो जाए। पता नहीं हमारे समाज में कानून या सजा का कभी डर था या नहीं परन्तु पिछले कुछ समय की घटनाओं को देखकर तो लगने लगा है कि हमारे भारतीय समाज में न तो कानून रह गया है न ही कानून के रखवालों का कोई भय। यही कारण है कि घिनोने से घिनोने अपराध बढ़ते जा रहे हैं और उनका कोई भी समाधान सामने दिखाई नहीं पड़ता। पिछले दिनों बर्बरता की परकाष्ठा पर हुए दामिनी केस ने सबके दिलों को हिला कर रख दिया। अरसे बाद जनता जागी। उसे अहसास हुआ कि अब व्यवस्था पर भरोसा रख बैठे रहने से कुछ नहीं होगा और शुरू हुआ आन्दोलन। परन्तु जैसे समाज दो भागों में बंट चुका है। एक वो जो इंसान हैं, जिनके दिलों में धड़कन है, संवेदना है, जो परेशान हैं व्यवस्था से, उसके कार्यकलापों से और उसे बदलना चाहते हैं पर मजबूर हैं। कुछ नहीं कर पाते। दूसरे वह जो हैं तो व्यवस्था के संरक्षक पर जैसे साथ अपराधियों के हैं। उन पर किसी भी बात का कोई असर नहीं होता। इतने हो-हल्ले के बाद भी लगातार ऐसे ही घिनोने,हैवानियत भरे और गंभीर अपराधों की खबरें आती रहती हैं। जैसे अपराधी एलान कर देना चाहते हैं कि लो कर लो, क्या कर लोगे? समाज से कानून और सजा का डर बिल्कुल खत्म हो चुका है। अपराधी खुले सांडों की तरह घूमते रहते हैं और अपराध चरम पर हैं। आखिर इस अव्यवस्था की वजह क्या है? जबाब बहुत से हो सकते हैं। तर्क-कुतर्क भी अनगिनत किए जा रहे हैं परन्तु मूल में जो बात है वह यही कि हममें से हर कोई सिर्फ अपने काम को छोड़कर बाकि हर एक के काम में टांग अड़ाता नजर आता है। एक केस को लेकर जागृति होती है तो आवाजें आने लगती हैं कि इस पर हल्ला क्यों? उस पर क्यों नहीं किया था। गोया कि अगर पिछले अपराधों पर गलती की गई तो आगे भी नहीं सुधारी जानी चाहिए। उसको छोड़ा तो इसे भी छोड़ो। हम खुद अपने गिरेवान में झांकने की बजाय बाकी सब पर बड़े आराम से उंगली उठा देते हैं। कितना सुगम होता यदि हर कोई सिर्फ अपना काम ईमानदारी से करता और दूसरे को उसका करने देता। हमारे समाज में भी डर तो है पर शायद गलत जगह और सही लोगों के लिए है। हालांकि ऐसा नहीं है कि बाहरी देशों में कोई अपराध ही नहीं होते परन्तु वहां हर नागरिक जानता है कि कानून के खिलाफ कुछ भी किया तो उसे बख्शा नहीं जाएगा। यही डर अपराधी मनोवृति को काबू में रखता है। नागरिकों को कानून पर और उसके रखवालों पर विश्वास रहता है और उसे अपनी सुरक्षा के मूल अधिकार लेने के लिए अपने काम छोड़कर सड़कों पर आन्दोलन के लिए नहीं उतरना पड़ता।

Dark Saint Alaick
24-01-2013, 01:42 PM
सुनसान रास्ते तो नहीं हैं आपके शहर में ?

-नीलिमा

अगर आप स्त्री हैं तो अंधेरे, सुनसान रास्तों पर अकेले न जाएं। आप दुष्कर्म, हत्या, लूटपाट का शिकार हो सकतीं हैं। जाहिर है हममें से कोई भी कामकाजी या घरेलू स्त्री अपनी किसी छोटी सी जिद, जरूरी काम या आपात से आपात स्थिति में भी रात में घर से बाहर अकेले नहीं निकलना चाहेगी। न ही दिन के उजाले में सुनसान सड़कों से गुजरना चाहेंगी। स्त्री के लिए बदलता समाज और बदलते समाज में सशक्त होती स्त्री पुरुष से बराबरी पर दिखाई देती है पर वास्तव में यह ऐसा सामाजिक मिथक हैं जिसका चेहरा यथार्थ से काफी मिलता जुलता है। यदि आज कोई स्त्री या लड़की इस सबसे बड़ी सामाजिक मिथकीय संरचना को जानना चाहे तब भी वह क्या रात के बारह-एक बजे अपने घर की चाहरदीवारी को लांघकर सड़क पर निकल सकती है। समाज में अपनी बराबरी को जानने के लिए कोई भी स्त्री दामिनी या निर्भया का सा हश्र नहीं चाहेगी। दिल्ली की सड़कों पर रात में इंडिया गेट के आगे से अगुवा कर दुष्कर्म का शिकार बनाई गई लड़की, दिल्ली के साउथ कैंपस में रात में भरी रिंग रोड पर चाय की दुकान के आगे से अगुवा कर सामूहिक दुष्कर्म का शिकार हुई छात्रा जैसी अनेक घटनाएं हैं जिनसे बार बार असुरक्षित स्त्री समाज की विडंबना उभर कर आती है। एक बड़े अखबार के मुख्य पन्ने पर स्त्रियों के लिए खतरनाक दिल्ली के दस स्ट्रेचिज की पहचान की गई है। आप अगर स्त्री हैं तो आप इनमें और भी कई ऐसे रास्ते जोड़ सकती हैं जहां आपने खुद को असुरक्षित महसूस किया हो। आप वहां से न गुजþरें क्योंकि इन रास्तों से गुजरती स्त्री एक आसान शिकार हो सकती है यह सब अपराधियों को पता है। वे यह भी जानते हैं कि वहां आपको बचाने वाला कोई मर्द भी नहीं होगा न ही आपकी चीख-पुकार किसी के कानों तक पहुंच पाएगी। यूं तो कई बार अपने घर के आगे टहलती लड़कियों को अगुवा कर दुष्कर्म की घटनाए भी होती रहतीं हैं और अपने घर में भी वे अपराध का शिकार बनाई जा सकती हैं परंतु घर के बाहर कामकाज के लिए रोजाना निकलने वाली स्त्री जिस असुरक्षा और रिस्क के साए तहत काम करती है वह मेरी दृष्टि में स्त्री का प्रतिक्षण का मानसिक शोषण है। कामकाज के लिए बराबरी की स्पर्धा सहती स्त्री के मन में प्रतिक्षण बसा यह डर कि उसे कहां-कहां से कब-कब नहीं गुजरना उसकी कार्य क्षमता को बाधित करता है। किसी सभ्य समाज में पुलिस द्वारा कामकाजी स्त्रियों की अपने आफिस तक की यात्रा के सम्बंध में निकाले गए हिदायत वाले विज्ञापन हों या अखबारों में असुरक्षित जगहों की पहचान की कवायद हो, सबसे यही सिद्ध होता है कि और कुछ तो बदल नहीं सकता इसलिए आप यदि अपराधों का शिकार होने से बचना चाहती हैं तो कई सारी सावधानियों से काम लें। शायद आप बच जाएं। मेरी बड़ी तमन्ना रही है बचपन से कि किसी सड़क किनारे की चाय वाली गुमटी के बाहर अकेले ही ढली शाम तक बैठकर चाय पी जाए पर एक चाय और उस सुकून का रिस्क मैं कभी ले नहीं पाई। और अब तो यही शुक्र मनाती हूं कि मैं किसी ऐसी जगह काम नहीं करती जहां से आधी रात को काम से लौटना होता। आप भी सुकून मनाइए कि आपकी पत्नी, बेटी और बहन दिन में ही अपने काम काज से घर लौट आती हैं और सुनसान रास्तों से उनको गुजरना नहीं होता।

Dark Saint Alaick
03-02-2013, 07:55 PM
एटीएम पर भी लाइन में लगो

-ममता

अरुणाचल प्रदेश में ज्यादातर बैंक के एटीएम में पुरूषों और महिलाओं के लिए अलग लाईन जैसा कुछ सिस्टम है। जब हम पहली बार अरुणाचल गए तो शुरू में ये हमें पता नहीं था। अब वैसे एटीएम में महिला और पुरुष की अलग लाईन का कोई तुक तो नहीं बनता है । और कहीं ऐसा देखा भी नहीं था। यहां एटीएम मे कोई भी गेट के बाहर इंतजार नहीं करता है बल्कि सभी लोग अन्दर लाईन लगा कर खड़े रहते है । बिलकुल एक के पीछे एक इतना पास-पास खड़े रहते है कि एक दूसरे का पिन नंबर भी देख सकते हैं। ये जरुर हमारे पतिदेव ने बताया था। वैसे एटीएम के बाहर लिखा भी रहता है तो भी हर कोई अन्दर आ जाता है । खैर ये जनवरी की बात है जब हम नए-नए थे। एक दिन हम एक बैंक के एटीएम में पैसे निकालने गए और चूंकि वहां तीन-चार लड़के अन्दर खड़े थे इसलिए हम शराफत मेें गेट पर खड़े होकर अपने नंबर का इंतजार करने लगे । एटीएम सेंटर के अन्दर एक महिला भी थी जो कभी एटीएम मशीन के पास जाती और कभी वापिस गेट पर आती । हम समझ नहीं पा रहे थे कि आखिर माजरा क्या है । फिर उसने हमसे पूछा कि क्या हम उसकी पैसे निकालने में मदद करेंगी? तो हमने हां कह दिया । तब समझ में आया कि वो पहली बार पैसे निकालने आई थी। खैर हम वहीं खड़े रहे और इंतजार करने लगे तभी एक सज्जन आए और अन्दर जाकर जहां लड़के लाईन लगाए खड़े थे वहां जाकर खड़े होने लगे तो हमने उन्हें रोकते हुए कहा कि आप लाईन में लगिए तो बोले कि हम अपनी लाईन मेें ही खड़े हो रहे है। और जब हमने कहा कि हम भी पैसे निकालने के लिए इंतजार कर रहे हैं और लाईन में हैं । इसलिए आप बाहर आकर लाईन में लगिए। ये सुनकर वो बिगड़ कर बोले कि हम तो सही लाईन मे है आप ही गलत खड़ी है। तो हमारे ये कहने पर कि एटीएम में एक के बाद एक ही लाईन में आते हैं तो वो बिफर कर बोले कि ये यूपी-बिहार नहीं है ये अरुणाचल है। ये सुनकर हमे भी गुस्सा आ गया। हमने कहा कि आप यूपी और बिहार को क्यूं कह रहे है। एटीएम से पैसे निकालने में यूपी-बिहार कहां से बीच में आ गया। ये तो सारे देश के ही सिस्टम है कि एटीएम में एक के बाद एक ही लोग पैसा निकालते हैं और कहीं भी महिला और पुरुष की लाईन अलग नहीं होती है। ऐसा तो हमने यहां पहली बार देखा है। तो इस पर और चिड़ कर वे सज्जन बोले कि होगा। पर यहां यही चलता है। और यहां यही कायदा है कि महिला और पुरुष की अलग लाईन होती है। और दो पुरुष के पैसे निकालने के बाद ही एक महिला पैसे निकालती है। ये सुनकर बहुत गुस्सा आया और हमने भी कहा कि ऐसा कहीं भी नियम नहीं है। और वहां मौजूद लोग,जो पैसे निकाल चुके थे और हम लोगों की बहस सुन रहे थे,वो लोग हमसे बोलने लगे कि आप शांत रहिए। यहां ऐसा ही होता है। और हमने भी सोचा कि नयी जगह है । फालतू में झगडे में पड़ने से क्या फायदा। हमें गुस्सा तो बहुत आ रहा था इसलिए हमने उससे कहा कि ठीक है आप पहले पैसे निकाल लो हम बाद में पैसे निकालेंगे। तो उनको ये भी मंजूर नहीं था वो बोले कि नहीं आप ही पैसे पहले निकालिए। खैर,हमने भी बात खत्म करके पैसे निकाले और वापिस आ गए। और अब तो नियम बना लिया है कि जब एटीएम खाली हो तभी पैसे निकालते है। ना लाईन मे लगो ना झंझट हो।

Dark Saint Alaick
05-02-2013, 01:51 PM
प्राइम टाइम के नाम पर ये कैसी बहस

-अनूप शुक्ल

देश में कोई घटना-दुर्घटना घटी, किसी ने विवादास्पद बयान दिया, किसी ने कोई नागवार हरकत की, टीवी चैनलों के प्राइम टाइम एंकर चार-पांच लोगों को जमा करके घंटा भर बहस करते रहते हैं। अक्सर लोगों के विवादास्पद बयान बहस के विषय होते हैं। किसी ने कोई बेवकूफी की बात कही,चैनल वाले उसको दोहराते हुए बहस करवाते हैं। बताओ भला ऐसे कहना चाहिए? किसी के कुछ लोगों के सामने दिए बेहूदे बयान को पच्चीस बार दुनिया भर को सुनाते हैं। बेहूदगी का मासूमियत के साथ प्रचार करते हैं। किसी नए नेता ने कुछ बयान दिया वहां घंटे भर सवाल उछलेगा, आप इस बयान का क्या मतलब निकलते हैं। लगता है जैसे अगले ने शुक्र ग्रह में बोले जाने वाली भाषा में बयान जारी किया है। अरे भाई किसी के साथ कुछ नया हुआ है तो वो कुछ तो कहेगा। आप उसको भी घसीट लिए प्राइम टाइम में। टीवी वाले आम तौर पर नकारात्मक बयानों पर ज्यादा बहस करते हैं। जहां कोई बयान किसी के मुंह से निकला ये फौरन उसे शिकार की तरह टांग के अपने चैनल पर ले आते हैं। बहस की आग में भूनते-पकाते,चखते-चबाते हैं। बीच में कामर्शियल ब्रेक लेते रहते हैं। इसके बाद अगले दिन के बयान की खोज में निकल जाते हैं। किसी के बेवकूफी के बयान पर स्यापा करते एंकर बताता है कि बताइए भला इक्कीसवीं सदी में पन्द्र्रहवीं सदी की बातें करते हैं। जबकि देखा जाए तो दुनिया हमेशा एक साथ कई शताब्दियों में जीती है। कोई हिस्सा इक्कीसवीं सदी में जीता है, कोई सत्रहवीं में तो कोई बारहवीं में तम्बू ताने रहता है। सबसे आधुनिक माने जाने वाले देश दुनिया के पिछड़े देशों को उन्नीसवीं सदी के पिंडारियों की तरह लूटते हैं। अमेरिका में कुछ लोग तो रहन-सहन तक में पुरानी सदियों में जीते हैं। आंकड़ा नहीं मेरे पास लेकिन मुझे लगता है दुनिया भर की प्राइम टाइम खबरों पर दुनिया के नकारात्मक पहलुओं पर चर्चा होती है। घपले, घोटाले, दुष्कर्म, हत्या, हमला, हार, हाय-हाय पर बहस। दुनिया हर दिन बुरी होते जाने के बावजूद ये सब अभी भी अल्पमत में हैं। दुनिया में हर दिन बहुत अच्छा भी होता रहता है। जिस दिन दुनिया में सैकड़ों बुरी बातें होती हैं उसी दिन करोड़ो-अरबों ऐसी घटनाएं भी होती हैं जो अच्छी होतीं हैं। टीवी उनकी चर्चा प्राइम टाइम में नहीं कर पाता क्योंकि वे रोजमर्रा की बात है। टीवी छांटकर दुनिया की बुराई प्राइम टाइम पर दिखाता है। कभी-कभी लगता है कि टीवी का एंकर कबाड़ी की तरह होता है। कहीं भी कूड़ा-कबाड़ दिखता है खुश हो जाता है। उसको उठाकर अपने चैनल पर ले आता है। दुनिया भर को दिखाता है। देखो दुनिया में कित्ता कबाड़ इकट्ठा है। टीवी पर अच्छी बातें भी दिखाई जाती हैं लेकिन उनका समय प्राइम टाइम नहीं होता। वह दोपहर के बाद चार बजे होगा या रात के दो बजे। अच्छी खबर टीवी पर आने से डरती है कि कहीं कोई बुरा न मान जाए। वे चुपके से आती है। अपने को दिखाकर चली जाती है। प्राइम टाइम बहस का समय मतलब दुनिया का सबसे डरा हुआ और खराब समय होता है। दुनिया में प्रलय पता नहीं कब होगी लेकिन जब होगी उसको दिखाते हुए ब्रह्मांड का कोई एंकर इसके नियंताओं के मुंह के आगे माइक सटाकर चीखते हुए जरूर पूछता दिखेगा, प्रलय की इस घटना को आप किस तरह से देखते हैं।

Dark Saint Alaick
05-02-2013, 10:58 PM
क्या इतिहास ने खुद को दोहराया है?

- खुशदीप सहगल

इतिहास खुद को दोहराता है। पहले दिलीप कुमार और अब शाहरूख खान। सरहद पार के रहमान मलिक जैसे जोकर और हाफिज सईद जैसे खुराफाती दो जुमले क्या बोल देते हैं हम सब धूल में लठ्ठ चलाने लगते हैं। अपने ही घर के। जी हां, अपने ही घर के शाहरुख खान पर इतना दबाव बना देते हैं कि उसे अपनी सफाई में प्रेस कॉन्फ्रेंस करनी पड़ती है। वही शाहरुख जिसने अपने दम पर बॉलीवुड में मकाम बनाया है। पहली बात तो शाहरुख के जिस कथित बयान को लेकर इतनी हायतौबा हुई उसे किसी ने ठीक से समझने की कोशिश नहीं की। बस हाफिज सईद के शाहरुख को भारत छोड़ पाकिस्तान आने के न्यौते को पकड़ लिया। पाकिस्तान के आंतरिक मामलों के मंत्री रहमान मलिक ने भारत को शाहरुख की सुरक्षा मजबूत करने की बिन मांगी सलाह देकर और पेट्रोल छिड़क दिया। फिर क्या था। हम लग गए ज्ञान झाड़ने। शाहरुख ने भी विवाद को बकवास बताया और कहा कि उनके लिखे आर्टिकल बिइंग ए खान को गलत ढंग से पेश किया गया है। शाहरुख ने आर्टिकल में जो भी लिखा वो शायद शिवसेना-एमएनएस से पूर्व में हुए कटु अनुभव के आधार पर था। याद कीजिए शाहरुख का आईपीएल में पाकिस्तानी क्रिकेटरों को लेकर 2010 में दिया बयान। तब शाहरूख ने कहा था कि आईपीएल में पाकिस्तानी क्रिकेटरों को खिलाया जाना चाहिए था। इस बयान के बाद शिवसेना का पारा चढ़ गया था। उस वक्त भी शाहरुख ने कहा था कि उन्होंने गलत कुछ नहीं कहा था और वो इसके लिए माफी नहीं मांगेंगे। अब याद कीजिए आईपीएल मैच के दौरान वो घटना जिसमें बच्चों को वानखेडे स्टेडियम में जाने से रोकने पर शाहरुख आपा खो बैठे थे और एक गार्ड से दुर्व्यवहार कर बैठे थे। उस मामले में राज ठाकरे की एमएनएस ने मराठी अस्मिता का छौंक लगाते हुए कहा था कि जो गार्ड शाहरुख को रोक रहा था, वह मराठी में बात कह रहा था और शाहरुख मराठी नहीं जानने की वजह से उसकी बात समझ नहीं पाए। एमएनएस ने उन्हें मराठी सीखने की सलाह भी दे डाली थी। जाहिर है, ये सभी बातें शाहरुख के जेहन में थी, जिन्हें 'आउटलुक टर्निंग पाइंट' के आर्टिकल में अभिव्यक्ति मिल गई। अभिनय सम्राट दिलीप कुमार को भी 17 साल पहले ऐसे ही दौर से गुजरना पड़ा था। पाकिस्तान ने उन्हें 1996 में अपने सर्वोच्च नागरिक अलंकरण निशान-ए-इम्तियाज से नवाजा था लेकिन उसकी गूंज तीन साल बाद भारत में सुनी गई।1999 में कारगिल में पाकिस्तान के दुस्साहस के बाद दोनों देशों में तनाव चरम पर था तब शिवसेना ने दिलीप कुमार पर ये सम्मान पाकिस्तान को लौटाने के लिए जबरदस्त दबाव बनाते हुए विरोध प्रदर्शन किए थे। दिलीप कुमार ने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मुलाकात के बाद निशान-ए-इम्तियाज को पाकिस्तान को न लौटाने का फैसला किया था। उस वक्त वाजपेयी ने भी कहा था कि दिलीप कुमार की देशभक्ति और पर कोई सवाल नहीं उठा सकता। तो क्या इतिहास ने फिर खुद को दोहराया है। शाहरुख को भी दिलीप कुमार की तरह लोकप्रियता की कीमत चुकानी पड़ रही है। यहां ये भी सोचना चाहिए कि क्यों कला, संगीत, खेल जैसे क्षेत्रों और इससे जुड़ी हस्तियों को भी हम खास विचारधाराओं का बंधक बना कर रखना चाहते हैं।

Dark Saint Alaick
06-02-2013, 01:40 AM
तकलीफ है तो आटो पकड़ कर जाओ...

-सुजाता

वह जितनी जगह छोड़ रही थी, वो उतनी जगह घेरता जा रहा था। वह सिमट रही थी। वो फैल रहा था। कुछ नया नहीं हो रहा था। हमेशा से ऐसा ही चला आ रहा था। अपनी जगह न छोड़ने का मतलब था अनचाहे, बेढंगे, बेहूदे स्पर्श को झेलना। डटे रहना सही है या सिमटना। खिड़की के पास वाली सीट पर एक हद के बाद सिमटने को जगह ही कहां बची थी। उसने झटके से सीट से उठते हुए मन में कुछ गालियां बकी और खड़ी हो गई। उस आदमी ने और बाकी औरतों-मर्दों ने उसे विचित्र दृष्टि से देखा मानो कहते हों, बड़ी सनकी है, स्टाइल मार रही है, हुंह। ये उसकी बेवकूफी थी। इतनी मुश्किल से तो ब्लूलाइन बस में जगह मिलती है, देखो पगली उसे छोड़ तन कर खड़ी हो गई। अब खाओ आजू-बाजू वालों के धक्के। उसने घूरा। क्या मैडम ! अपन को मत घूरो ,बस में भीड़ ही इतनी ऐ, तिल धरने की जगह नही ऐ, ज्यादा तकलीफ होती है, तो आटो में जाया करो ना। तभी बस में कुछ घट गया था। शायद किसी का बटुआ मारा गया था। आंटी चिल्ला रही थी। अफरा-तफरी मची हुई थी। तीन लड़के बस के ठीक पीछे से भीड़ को कुचलते हुए आगे के दरवाजे तक पहुंच रहे थे। चोर को स्टॉप पर उतरने न देने के लिए। अबे, पकड़ो। और वे उसको दबादब गालियां दे रहे थे। एकाएक जैसे भीड़ पागल हो गयी थी। महिलाएं महिलाओं की सीट पर चुप पड़ी थीं। लड़के और बाकी आदमी सबको धकियाते, किसी का जूता, किसी का पैर, किसी का सर कुचलते हुए आगे जा रहे थे। कुछ पलों की इस धक्कम पेल में दम घुटने लगा। पैर कुचला गया था। दुपट्टा भीड़ में जाने कहां खिंच गया था। आगे से बचने की कोशिश में पीठ पर, कन्धे पर निरंतर थापें पड़ी थीं। बस रोकी गई थी। नीचे वो चोर पिट रहा था। अब सब शांत था। लड़के वापस सवार हुए। बस चल पड़ी। लड़के पीछे खड़े अपनी मर्दानगी का हुल्लास प्रकट कर रहे थे और सगर्व उसकी ओर देख रहे थे। अधेड़ पुरुष धूर्त मुस्कान के साथ उनके समर्थन में थे। भैय्या तैने सई करी, वाकी खाल उधेर दी। अगले स्टॉप पर बस रुकी। उसने निश्चय किया। उतरना आसान नही था। आगे निकलने के लिए जगह आसानी से नही बनाते दोनो ओर की सीटों पर लटकी सवारियां। मन कड़ा किया। आंखें बन्द की तीर सी सीधी बाहर। नीचे उतरी आहत तो थी। दूसरी बस का इंतजार करने लगी। पन्द्र्ह मिनट बीते। एक बस आ पहुंची। दरवाजों से लटकते शोहदे। वो उतरेंगे। फिर तुम्हें चढ़ाएंगे। फिर यथास्थान आ जाएंगे। हंसती-खिलखिलाती वे पांचों लडकियां उसके देखते-देखते समा गयीं। उनके पास कोई समाधान न था। उसकी हिम्मत नही हुई। पहले सीट छोड़ी, फिर बस। अब क्या? एक दिन आटो, दो दिन-तीन दिन। नही, उसे याद आया। उस दिन आटो वाला 50 रुपए में माना था। उसने कहा मीटर से तो 35 ही आते हैं। तो मीटर वाला ढूंढ लो। मजबूरी थी। आसपास कुछ और नही था। देर अलग हो रही थी। 10 मीटर चल कर पान के खोके पर रोक दिया। क्या हुआ भैय्या? वह चला गया। पान मसाला लिया,मुंह में भरा। पानवाड़ी से बतियाने लगा। वह उतरी और चिल्लाई। ये क्या बकवास है। पागल दिखती हूं, जो यहां लाकर खड़ा कर दिया है? चलता क्यों नही है? वह अविचलित बड़बड़ा रहा था। उसे समझ आ गया था कि यहां भी बेकार है गुस्सा करना, क्योंकि कोई सुनने वाला नहीं है।

Dark Saint Alaick
06-02-2013, 01:54 AM
अब हम भी चलेंगी अपनी चाल से

-नीलिमा

स्त्री का परंपरागत संसार बड़ा विचित्र भी है और क्रूर भी है। यहां उसकी सुविधा,अहसासों,सोच के लिए बहुत कम स्पेस है। गहने, कपड़े और यहां तक कि वह पांव में क्या पहनेगी; में वह अपनी सुविधा को कोई अहमियत देने की बात कभी सोच भी नहीं पाई। अपने आसपास की लड़कियों, महिलाओं के पहनावे की तरफ देखते हैं तो उनकी जिंदगी की विडंबना साफ दिखाई देती है । घर, बाजार, आफिस हर जगह दौड़ती स्त्री पर भरपूर नजाकत लाने और पर-ध्यान को केन्द्र्रित करने की पुरजोर आशा में अपने पहनावे को सहूलियत के साथ बहुत बेरहमी से अलग करे दिखती है। परंपरागत माहौल में पली बढ़ी यह स्त्री अपने दर्शन में स्पष्ट होती है कि उसका जीवन सिर्फ पर सेवा और सबकी आंखों को भली लगने के लिए हुआ है। छोटी बच्चियां घर-घर, रसोई-रसोई, पारलर-पारलर खेलकर इसी सूत्र को अपनी जिंदगी का हिस्सा बना लेने की ट्रेनिंग ले रही होती हैं । ठीक उसी समय जब उसकी उम्र के लड़के गन या पिस्तौल से मर्दानगी के पाठ पढ़ रहे होते हैं या कारों की रेस या बेमतलब की कूद-फांद, लडाई-झगड़े खेल रहे होते हैं । एक जगह घर रचा जा रहा है एक जगह बाहर। कोई कह सकता है कि यही है गहरे संतुलित समाज की नींव। वेलडिफाइंड। गाड़ी के दो पहिए अपनी अपनी पटरी से बंधे। हम कहेंगे नहीं। अपनी कॉलेज की बच्चियों को भी कभी कभी समझाते हैं। वे नहीं समझना चाहतीं। ज्यादातर निम्न या मध्य वर्गीय परिवारों से आई हुई ये छात्रा। अपने लिए बेहद असुविधाजनक पहनावे में आती हैं । गर्मी व उमस में सिंथेटिक कपड़े, बेहद ऊंची हील के सैंडल,बार-बार फिसलते दुपट्टे में जड़ी तरह तरह की लटकनें। कभी कभी आसपास नवविवाहित जोड़ों को देखने पर भी अजूबा होता है। रास्तों मे, बाजारों में काम की जगहों में चमकीले तंग कपड़ों में फंसी, पल्ला और उसकी जगह जगह उलझती लटकनें संभालती रंगी-पुती स्त्रियां। अपने आप संभलकर चल पाने में असमर्थ पति की बांह का सहारा लिए लिए कभी कभी लुढ़कने को होती स्त्रियां। अजीब-अजीब प्लेटफार्म वाले सैंडलों की हीक को मेट्रो और उसके प्लेटफार्म की दरार से निकाल कर हडबड़ाती स्त्रियां। अपने फिसलते पल्लू को संभालकर कंधे पर डालते हुए अपने पीछे खड़ी सवारी के मुंह पर मारती स्त्रियां। इनके लिए ये नजाकत है। फिमिनिटी है। मजबूरी है। फैशन है। पता नहीं पर इतना तो साफ है कि ये अब घर में बंद सजी धजी घर संवारती घरहाइन नहीं रहीं है । रीतिकाल भी अब जा चुका। ये तो निकली हैं पढ़ने, लड़ने, जूझने। बराबरी पर आने। पर अपने संघर्ष में अपने ही साथ नहीं हैं। ये पैरों की हील,ये पल्लू,ये लटकन, ये नजाकत। कहां से आ जाएगी बराबरी। कैसे चलेगी मर्द को पीछे छोड़ती ये आगे। क्या यही कहना होगा कि आप जरा धीरे चलें क्योंकि हम आपसे तेज नहीं चल सकतीं या अपनी ही चाल को बनाना होगा दुरुस्त, तेज और दमदार। तो बदलें खुद को और करें शुरुआत पहनावे से ही। और आओ कहें उससे कि तुम चलो अपनी चाल से अपनी गति से और अब हम चलेंगी अपनी चाल और गति से और तुम्हारे साथ चलेंगी। आगे भी बढेंगी। भले ही हमें इसके लिए कुछ छोड़ना क्यों ना पड़े। आखिर हमें भी तो पुरूषों के साथ आगे बढ़ना है। इसके लिए कुछ ऐेसा होगा जो हमें त्यागना होगा तभी बात बन पाएगी।

Dark Saint Alaick
06-02-2013, 10:23 PM
सही कारणों को जानना भी जरूरी

-निर्मला भुराड़िया

दिल्ली में गैंग रैप की घटना ने तो ढक्कन खोल लिया। भीतर ही भीतर तो देश सदियों से उबल रहा था। यह कहना सरासर गलत होगा कि दुष्कर्म की घटनाएं अब बढ़ गई हैं। वे दिख रही हैं क्योंकि वे सामने आ रही हैं। पहले ऐसी हर घटना घर, परिवार, समाज, परिजन द्वारा दबा दी जाती थी। अब भी अधिकांश मामलों में परिजनों को यही करना होता है क्योंकि हमारा असंवेदशील समाज शिकार से ही त्याज्य सा व्यवहार करता है। दुष्कर्म क्यों होते हैं इसके लिए भी सारा दोष महिलाओं पर मढ़ने वाले झूठे, असंवेदनशील और दंभी और तर्क दिए जाते हैं। सही कारणों में जाने का कष्ट कम ही किया जाता है क्योंकि दोष की मटकी फोड़ने के लिए लड़कियों का सिर तो है ही। तुमने फलां कपड़े पहने थे, तुम वहां क्यों गई थी वगैरह। बजाए इसके सही कारणों में जाना जरूरी है, ताकि हम एक सभ्य समाज का निर्माण कर सकें। हिंदुस्तान में लड़कियों की हर हरकत को उनके स्वयं के लिए दैहिक जोखिम व पुरुषों के लिए उकसावे के रूप में देखा जाता है। वह हंस क्यों रही है, चहक क्यों रही है, गा क्यों रही है, सज क्यों रही है? हर बात में पाबंदी,हर बात में आज्ञा लेना जरूरी। गोया लड़कियों का जीना और सांस लेना भी उकसावा हो। औरतों द्वारा उकसाने वाली बात इसलिए भी गलत है कि दुष्कर्म के पीछे हमेशा सिर्फ कामेच्छा ही नहीं होती, इसे एक हिंसक हथियार की तरह भी इस्तेमाल किया जाता है। बदला निकालने, औकात बताने के लिए तथाकथित जेंडर सुपीरियोरिटी के घमंड में भी ऐसा किया जाता है। युद्ध और दंगों में इसीलिए दुष्कर्म होते हैं। जहां अराजकता हो, कानून का डर न हो, वहां भी भीतर का हैवान जागृत हो जाता है। वह जानता है कि उसका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता। पिछले वर्ष कोलकाता के एक परिवार के साथ एक बुजुर्ग महिला आई थी जो दाई का काम करके, तेल मालिश आदि करके अपनी आजीविका कमाती है। उसने बताया कि उसे मछली-भात बहुत पसंद है पर युवावस्था में ही उसके पति की मृत्यु हो गई थी। तबसे ही उसके परिवार ने उसका मछली खाना बंद करवा दिया। लोग कहते हैं मछली खाएगी तो मस्त हो जाएगी। बंगाल में यह सामान्य बात रही है। वहां विधवा की रसोई अलग होती है। एक और समुदाय है जिसमें बच्ची का छह साल की होते ही खतना कर दिया जाता है। उस समुदाय की भारतीय जनसंख्या में भी यह इतना आम है जिसकी आप-हम कल्पना भी नहीं कर सकते। बात उठाई भी नहीं जा सकती क्योंकि पपोलीकरण की व्यवस्था ने इन्हें अति असहिष्णु बना दिया है। कई कुप्रथाएं आपको आंखों देखी मक्खी की तरह निगलना होती है। समाज में व्याभिचार की नदी को बहने से रोकने के नाम पर स्त्री की दैहिक आकांक्षाओं की बलि लेना हमारे दक्षिण एशियाई समाजों में आम है। हालांकि इससे न व्याभिचार रुकता है, न यौन शोषण, न दुष्कर्म । जिन समाजों में वैधव्य आते ही स्त्री के केश मुंडवा दिए जाते थे। ताजीवन श्रंगार करना मना हो जाता था उनका भी यौन शोषण होता था। यानी यह कहना गलत होगा कि रसहीन, श्रंगार रहित जीवन उन्हें बचा लेता था। स्त्रियों के पहनावे को दुष्कर्म से जोड़ना इसलिए भी गलत है। यही दोष है भारतीय समाज में। पर सबसे बड़ा संकट तो विश्वास का है। व्यवस्था पर से विश्वास उठ गया है। यही वजह थी कि युवाओं का गुस्सा फूटा।

Dark Saint Alaick
09-02-2013, 01:02 AM
बच्चों को समझाना सबसे टेढ़ा काम

-पल्लवी सक्सेना

कोई बता सकता है क्या मुझे कि इस दुनिया का सबसे मुश्किल काम क्या है? है कोई जवाब किसी के पास? मैं बताऊं? इस दुनिया में यदि सबसे मुश्किल कोई काम है तो वो है परवरिश जिसमें लगभग रोज नई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। कभी-कभी तो ऐसी चुनौतियां सामने होती हैं जिस पर हंसी भी बहुत आती है और समस्या भी बहुत गंभीर लगती है। ऐसे में पहले खुद को तैयार करना ही मुश्किल हो जाता है कि क्या करें और कैसे करें कि बच्चों को बात भी समझ में आ जाए और उन्हें बुरा भी न लगे। जैसे वो कहते हैं ना सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। जाने क्यूं लोग लड़कियों को लेकर चिंता किया करते हैं। मुझे तो लड़के की ज्यादा चिंता रहती है इसलिए नहीं कि वो मेरा बेटा है। क्यूंकि यह तो एक बात है ही मगर इसलिए भी कि कई ऐसे मामले हैं जिसमें लड़कियां बिना समझाए भी ज्यादा समझदारी दिखा देती हैं और लड़कों को हर बात बिठाकर समझनी पड़ती है। खैर,इन मामलों में मुझे ऐसा लगता है कि आजकल जो हालात है उनमें पहले ही एक अच्छी और सही परवरिश देना दिनों दिन कठिन होता चला जा रहा है। क्यूंकि जमाना शायद तेजी से बदल रहा है और हमारी रफ्तार धीमी है। ऊपर से यह मीडिया और फिल्मों के आइटम गीत रही सही कसर पूरी कर रहे हैं। आप को जानकार शायद हंसी आए कि कुछ बच्चे स्कूल की छुट्टी के बाद फेविकॉल की करीना को देखकर उसी की तरह डांस करने की कोशिश कर रहे थे और उसके मुंह से जो शब्द निकल रहे थे वो गाने के नहीं बल्कि कुछ और ही होते थे। यह देखने में तो बहुत ही हास्यास्पद बात थी मगर थी उतनी ही गंभीर क्यूंकि यदि उन्हें रोका जाता तो बात बिगड़ सकती थी। अभी जो वो सामने कर रहे हैं वही वो छुप-छुप कर करने लगेंगे। ऐसे में भला क्या किया जा सकता है। तो अब एक ही विकल्प नजर आता है। वह है सही और गलत के फर्क को उन्हें समझाना जो देखने और सुनने में बहुत आसान लगता है। मगर है उतना ही कठिन क्यूंकि आपकी एक बात के कहने मात्र की देर होती है कि बच्चों के हजार सवाल तैयार खड़े होते हैं आप पर हमला बोलने के लिए। कई बार तो ऐसे सवाल होते हैं जिनका जवाब खुद आपके पास भी नहीं होता। अब तो सभी लोग ऐसा ही महसूस करते हैं कि आजकल के बच्चों का बचपन बहुत जल्दी खत्म हो रहा है बच्चे वक्त से पहले बड़े हो रहे है। हम तो अपने दोस्तों सहेलियों और खेल खिलौनो में ही मग्न और खुश रहा करते थे। वह भी शायद इसलिए कि तब हमे यह सब यूं खुले आम देखने सुनने को मिलता ही नहीं था जो हमारे दिमाग में ऐसे सवाल आते क्यूंकि शायद उन दिनों हमारी किसी भी तरह की जानकारी प्राप्त करने की दुनिया बहुत सीमित हुआ करती थी। जिसकी आज भरमार है। कुछ लोगों का कहना हैं कि तब हम डर के मारे अपने माता-पिता से अपने मन की बात नहीं कर पाते थे जितना कि आज कल के बच्चे कर लेते हैं जो कि एक बहुत ही अच्छी बात है। सही है मगर क्या ऐसा नहीं है कि ऐसी बातें हमारे दिमाग में भी शायद सोलह-सत्रह साल में ही आना शुरू होती थी। आठ-दस साल की उम्र में नहीं। मुझे नहीं लगता कि इस तरह कि बातें हममें से शायद ही किसी के मन में आई हों। औरों का तो पता नहीं मगर कम से कम मेरा अनुभव तो यही बताता है।

Dark Saint Alaick
09-02-2013, 01:06 AM
हम अलग ही दिखते हैं, भीड़ में नहीं खोते

-पूजा उपाध्याय

अपनी बरसों पुरानी यादों का पहला शहर। यह शहर है साहिबगंज। साहिबगंज में एक पेन्सिल की दूकान हुआ करती थी। स्कूल जाते हुए रास्ते में पड़ती थी बहुत सारी सीढ़ियां। साइकिल की बीच वाली रोड पर लगी एक छोटी सी सीट भी लगी थी और हर सीढ़ी के साथ किलकारी मारती मैं। साइकिल चलाते हुए बबलू दादा भी कभी-कभी दिख जाया करते थे। मेरी आंखें अब भी एकदम ऐसी ही हैं। इतनी ही खुराफात भरी दिखती हैं मेरी आंखें जैसी मेरी बचपन में थीं। उनमें मन वापस ऐसी किसी उम्र में जाने को नहीं करता पर ऐसी किसी तस्वीर में जाने को जरूर करता है जिसमें कैमरे के उस पार मम्मी हो। भरा-पूरा ससुराल है मेरा, बहुत सारा प्यार करने वाले बहुत से लोग भी यहां मौजूद हैं। मैं जैसी हूं वैसे अपनाने वाले सारे लोग भी मुझे यहां मिले हुए हैं। सब बहुत अच्छा है और अनगिन-अनगिन लोग भी अच्छे हैं। यहां मैं सुबह से शाम तक कभी अकेले रहना चाह कर भी नहीं रह पाती क्योंकि बहुत लोग हैं। मगर लोगों के साथ होने से अकेलेपन का कोई सम्बन्ध नहीं। मेरा अपना ओबजर्वेशन है कि लोगों के बीच तन्हाई ज्यादा शिद्दत से महसूस होती है। कभी-कभी लगता है कि ऐसे ही प्यासे मर जाने के लिए पैदा तो नहीं हुए हैं हम? कभी-कभी समझ नहीं आता कि हमें आखिर क्या चाहिए और क्यों चाहिए? सब कुछ होने के बावजूद इतना खाली-खाली सा क्यों लगता रहता है? कब समझ आएंगी हमें ये सारी चीजें ? कैसा अतल कुआं है कि आवाज भी वापस नहीं फेंकता। अपने ही भीतर समेट कर रख लेता है। किस नाम से बुलाऊं खुद को कि तसल्ली हो। ये मैं हर वक्त बेसब्र और परेशान क्यूं रहती हूं? ठंढ बेहद ज्यादा है और आज धूप भी नहीं निकली है। छत पर मुश्किल से थ्री जी कनेक्शन आता है। आफिस का काम करने थोड़ा ऊपर आई थी तो कुछ लिखने को दिल कर गया। छत पर बहुत सारा कबाड़ निकला पड़ा है। बेहद पुराने संदूक जिनमें जंग लगे ताले हैं। पुराने हीटर , कुछ कुदाल और पुराने जमाने के घर बनाने के सामान। एक टूटी बाल्टी। कैसा तो हीटर, कुर्सियों की जंग लगी रिम्स, पलंग के पाए और भी बहुत कुछ जो आपस में घुल मिल कर एक हो गया है। समझ नहीं आता कि कहां एक शुरू होता है और कहां दूसरा ख़त्म। मन के सारे रंग भी आसमान की तरह सलेटी हो गए हैं। आज घर में तिलक है तो बहुत गहमागहमी है। मेरा नीचे रहने का बिलकुल मन नहीं कर रहा। एक बार अपने वाले घर जाने का मन है। जाने कैसे तो लगता है कि वहां जाऊंगी तो मम्मी भी वहीं होगी। दिल एकदम नहीं मानता कि उसको गए हुए पांच साल से ऊपर हो चुके हैं। कभी-कभी लगता है कि वो यहीं है। मैं ही मर चुकी हूं कि वो सारी चीजें जिनसे खुुशी मिलती थी कहीं खोयी हुई हैं और मुझे दिखती नहीं। रॉयल ब्लू रंग की बनारसी साड़ी खरीदी थी। उसी रंग की जैसा मम्मी ने लहंगा बनाया था मेरा। तैयार हुई शाम की पार्टी के लिए। लगता रहा मम्मी कि तुम हो कहीं। पास में ही। हर बार साड़ी पहनती हूं। अनगिनत लोग पूछते हैं कि इतनी अच्छी साड़ी पहननी किससे सीखी। हम हर बार कहते हैं मम्मी से। सब कह रहे थे कि हम एकदम अलग ही दिखते हैं। किसी भीड़ में नहीं खोते। एकदम अलग। सब अच्छा है फिर भी मन उदास है। ऐसे ही। कौन समझाए। फेज है। गुजरेगा।

rajnish manga
13-02-2013, 10:21 PM
टी.वी. पर प्राइम टाइम की बहस, शाहरूख खान बयान पर सरहद पार के चोंचले और फिर शाहरूख का स्पष्टीकरण, नारी अस्मिता पर हमले के सही कारणों को जानना जरूरी, यह तीनों ब्लॉग समस्या की गहराई तक जा कर तथ्यों को बाहर लाते हैं. तीनो ही ब्लॉग विवेकशील लोगों को सोचने के लिए विवश करते हैं. यह सच है कि प्राइम टाइम बहस में कई बार एंकर 'धूल में लट्ठ मारने' का कार्य ही कर रहे होते हैं. इन तत्वदर्शी ब्लॉग्ज़ को फोरम तक पहुंचाने के लिए आपका धन्यवाद,अलैक जी.

Dark Saint Alaick
17-02-2013, 12:56 PM
एक कथा करती है परिणामों के संकेत

-अली सैयद

पिछले दिनों अमेरिका के एक स्कूल में गोलीबारी हुई। कई निर्दोष जानें अकारथ गईं। उस देश में हिंसा की यह पहली घटना नहीं है। शायद आखिरी भी नहीं होगी। वियतनाम की नन्हीं सी, बदहवास, अपनी जान बचाने की जुगत में भागती हुई बच्ची का अक्स उभरता है, फिर मध्य पूर्व एशिया के वे देश जो कभी इस समाज के प्रिय पात्र रहे। पर प्रिय होने की पात्रता बदलते ही लहुलुहान हुए। दुनिया का कोई ऐसा कोना जो उन्होंने रिक्त छोड़ा हो अपनी सहूलियत के लोकतंत्र, अपने मुनासिब राजतंत्र, सैन्य शासन और खुद के मुफीद धार्मिक पुनुरुत्थानवादी समाजों को बढ़ावा देने की अपनी कवायद से। अक्सर सोचता हूं लोकतंत्र के अलम्बरदार समाज में इतनी हिंसा,इतनी क्रूरता आती कहां से है? क्या है उनकी इस बेचैनी का राज? वे हथियारों की सौदागिरी के वास्ते जो विज्ञापन देते हैं, बच्चे, बूढ़े, जवान, देश के देश तबाह-बर्बाद हो जाएं उनके चेहरों पर शिकन तक नहीं आती। ओसामा उनकी कोख में परवान पाता है और फिर उनके कहर से मौत। उनके जनगण, सिखों और अरेबिक मुसलमानों को एक ही समझते हैं सो उनकी समझ की बलिहारी। क्या उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता खुले बाजार में आलू प्याज की तर्र्ज पर हथियार खरीद पाने की स्वतंत्रता है? खैर, उनके अपने देश के भीतर-बाहर की बेचैनी पर चर्चा फिर कभी। फिलहाल जेहन में एक लोक आख्यान कौंध रहा है जो शायद समाजों और पीढ़ियों के बनने-बिगड़ने के लिए जिम्मेदार सामाजिक स्तृतों की ओर संकेत करता है। किसी स्कूल में एक शिक्षक, जिन्हें भिक्षु अथवा योगी कहा जाए तो ज्यादा बेहतर होगा, कक्षा शुरू होते ही कुछ खाते रहने और झपकियां लेने में अक्सर मशगूल रहा करते। उन्हें इस बात की फिक्र भी नहीं हुआ करती थी कि उनके सो जाने पर विद्यार्थी क्या करते होंगे। उनकी नींद घंटी बजने पर ही खुलती। दूर के किसी गांव से मीलों पैदल चलकर स्कूल आने वाले एक निर्धन विद्यार्थी ने उनसे पूछा कि वे अध्यापन के समय सोते क्यों हैं? शिक्षक को विद्यार्थी के प्रश्न से असहजता तो हुई पर उसने बात संभालते हुए कहा कि मैं भगवान बुद्ध से मिलता हूं और उनके अधिकाधिक संसर्ग में बने रहने, फिर अमृत वचन सुनने के लिए ही ज्यादा समय तक सोने की कोशिश करता हूं । एक दिन अपने बीमार पिता की देखभाल करते हुए वो विद्यार्थी रात भर सो नहीं सका सो जब वह स्कूल गया तो कक्षा में ही उसकी आंख लग गई। नींद के कारण वो बेहद थका हुआ था। यहां तक किए वो अपने शिक्षक की तरह से घंटी की आवाज सुनकर जाग भी नहीं सका। शिक्षक ने जागते ही देखा कि उसका विद्यार्थी सो रहा है तो वो चिल्लाया, अरे दुष्ट, तुम्हारी इतनी हिम्मत जो मेरी कक्षा में सो रहे हो? विद्यार्थी ने कहा, आदरणीय, दरअसल सोते समय मैं भगवान बुद्ध के पास था और उनके अमृत वचन सुन रहा था। इस पर क्रोधित शिक्षक ने विद्यार्थी से पूछा, तो क्या कहा भगवान बुद्ध ने तुमसे? बुद्ध ने मुझसे कहा कि मैंने अपने सम्पूर्ण जीवन काल में तुम्हारे शिक्षक को कभी नहीं देखा। एशियाई महाद्वीप की ये लोककथा यूं तो शिक्षकों और विद्यार्थियों के पारस्परिक सम्बंधों और दैनिन्दिक जीवनचर्या में परस्पर प्रभाविता पर ना केवल गहरा आक्षेप करती है, वरन समाजीकरण की प्रक्रिया-व्यवस्था के उनींदेपन जनित परिणामों के संकेत भी करती है।

Dark Saint Alaick
17-02-2013, 12:59 PM
उलझे रिश्तों को सुलझाने का जज्बा

-अनु सिंह

मैं इस बारे में पब्लिक फोरम पर लिखना चाहती थी, लेकिन हिम्मत नहीं थी। ना यकीन था इस बात का कि कायदे से बिना किसी पर उंगली उठाए अपनी तकलीफ साझा करने का हुनर भी होगा मुझमें। लेकिन बात अगर सिर्फ इतनी ही है कि मेरी जिन्दगी के दस्तावेज ये पन्ने कल को मेरे बच्चों की अमानत होंगे तो उनसे कोई बात छुपाई जाए, ये सही नहीं होगा। इसलिए भरोसा है कि धीर-धीरे हर गलत-सही को बांटने का, उन पर चर्चा करके कोई रास्ता निकालने का तरीका एक ना एक दिन आ ही जाएगा मुझको। ये बात कुछ दस दिन पहले की है। मैं दिल्ली से साढ़े तीन हफ्ते बाहर रहकर आई थी और सफर के गंदे कपड़ों को धोने के बाद उन्हें अलमारियों में सहेजकर रखने का काम कर रही थी। बच्चों की अलमारियां खुली, मेरी अलमारी खुली और आखिर में पतिदेव की अलमारी खुली, जिसमें उनके भी पीछे रह गए दो-चार कपड़े डालने थे। अलमारी खोलते ही मेरी धड़कनों ने तेज हो जाने जैसे कुछ महसूस किया। ये नाटकीय लम्हा अपेक्षित नहीं था। करीब-करीब खाली अलमारी को देखकर मेरी धड़कनों को ऐसे बिल्कुल पेश नहीं आना चाहिए था। सब्र और गरिमा भी कोई शय होती है यार। लेकिन मैं बहुत देर तक अलमारी का कपाट थामे खड़ी रही थी। ये किसी बहुत अजीज को ट्रेन में बिठाकर आने के बाद प्लेटफॉर्म पर खड़े रहकर गुजरे लम्हों की याद के कचोटे जाने के लिए खुद को छोड़ दिए जाने जैसा कोई लम्हा था। ये वो तकलीफ थी जो हॉस्टल के अपने कमरे को खाली करते हुए हुई थी कि जहां लौटकर आना ना था, जहां से जवानी के कहकहों को अलविदा कह दिया जाना था। हो सकता है कि मैं मेलोड्रेमैटिक हो रही होऊं। एक्चुअली मैं मेलोड्रेमैटिक ही हो रही हूं। लेकिन मेरी तकलीफ वो एक बीवी समझ सकती है जो हर छठे महीने एक महीने की छुट्टी के बाद अपने पति को जहाज पर सेल करने के लिए विदा करती है। मेरी तकलीफ वो एक बीवी समझ सकती है जो भारी मन से फील्ड पोस्टिंग के लिए अपने फौजी शौहर को कर्तव्य की राह पर चलने के लिए भेजती है। मेरी तकलीफ हर वो औरत समझ सकती है जो किसी वजह से अकेली अपने दम पर अपना घर-परिवार, बाल-बच्चे, नाते-रिश्तेदारियां निभा रही है। मेरी तकलीफ मेरी मां समझ सकती है जिसने पच्चीस सालों तक पापा के साथ शहर-शहर, गांव-गांव भटकने की बजाए एक जगह रहकर हजार तकलीफें झेलते हुए भी हमें अकेले बड़ा करने का फैसला किया। सबसे बड़ी विडंबना है कि मैं मां की तरह जीना नहीं चाहती थी और मुझे हर मोड़ पर अपनी जिन्दगी में उनके जिए हुए की परछाईयां दिखती हैं। शिकायत का हक हमें इसलिए नहीं होता क्योंकि जिन्दगी की तरह प्यार भी किसी पर थोपा नहीं जा सकता। जैसे हमें अपनी आसानियां चुनने का हक है वैसे ही हम अपनी दुश्वारियां भी चुनते हैं। वजह कुछ भी हो सकती है। जरिया कोई भी हो सकता है। बावजूद इसके लॉगआउट करने का विकल्प किसी के पास नहीं होता क्योंकि मैं नहीं समझती कि कोई भी इंसान किसी परफेक्ट सेट-अप में पूरी तरह खुश होता होगा। इसलिए चाहे मानिए या ना मानिए, जिन्दगी नाम के शहर का रास्ता समझौतों के जंगलों से होकर जाता है। हम हर कदम पर विक्षिप्त हो जाने से बचने के लिए समझौते ही कर रहे होते हैं। आप भी यह मानते ही होंगे।

Dark Saint Alaick
17-02-2013, 01:07 PM
एक गीत पर अटक गया मेरा मन

-प्रवीण चौपड़ा

आज सुबह मैं एक सत्संग में बैठा हुआ था। जब एक भक्त की बारी आई तो उसने प्रार्थना से भरा एक गीत गाना शुरू किया। लगभग एक हजार लोगों का समूह उसे बड़ी तन्मयता से सुन रहा था। अभी उसे बोलते कुछ सैकेंड ही हुए थे कि मेरा ध्यान उस भक्त, भक्तिगीत या भजन की बजाय कहीं अटक गया। जानना चाहेंगे क्या मेरा मन कहां अटक गया? तो मेरा मन अटक गया उस धुन पर जिस की तरज पर वह भजन गाया जा रहा था। गीत का तो मुझे ध्यान न रहा। कुछ समय की मशक्कत के बाद मैंने उस फिल्मी गीत को ढूंढ ही लिया। वहीं बैठे बैठे ध्यान आ गया उस गीत का। समझौता गमों से कर लो, जिंदगी में गम भी मिलते हैं। पतझड़ आते ही रहते हैं, ये मधुबन फिर भी खिलते हैं...। बेहद सुंदर गीत। बचपन में इस गीत को सुनते थे क्योंकि कोई और कोई विकल्प नहीं था। रेडियो पे बज रहा है तो उसे बंद कर देंगे तो आखिर करेंगे क्या? इसलिए बहुत बार यह गीत बजता रहता था। लेकिन जो भी हो इसका संगीत अच्छा लगता था। बाद में धीरे-धीरे जैसे-जैसे जिंदगी के थपेड़े पड़ने शुरू हुए इस गीत के मायने भी समझ में आने लगे। आज यह आलम है कि उस सत्संग में भक्ति गीत को भूल कर मैं इसे से याद करने में लग गया। वहां सत्संग में बैठा मैं सोच रहा था कि यार यह क्या? बैठा यहां हूं और याद उस फिल्मी गीत को कर रहा हूं। लेकिन मुझे कभी भी किसी तरह का काम करने में अपराध-बोध हुआ ही नहीं। इसमें देखा जाए तो है ही क्या। वह बंदा जो सत्संग में इस गीत की तर्ज पर भक्तिगीत गा रहा था वह उस सत्संग भवन में उपस्थित लोगों की रूह खुश कर रहा था, उनका विश्वास,भरोसा इस ईश्वर-प्रभु में पक्का कर रहा था। उनके डोलते हुए मन को थामने जैसा काम ही कर रहा था। चलिए अब देखते हैं कि इस फिल्मी गीत ने क्या काम किया इतने सालों में। इसने भी किसी भी भक्तिगीत से कम तो किसी कीमत पर नहीं, शायद उस से ज्यादा ही काम कर दिया होगा। पिछले 30-40 वर्षों से लाखों-करोड़ों लोग का मन हल्का करके। कौन जाने देश के किस कौने में किस जगह पर टूटी खटिया पर पसरे हुए कितने लोगों को विविध भारती या आल इंडिया रेडियो की उर्दू सर्विस पर अचानक बजने वाले इस सुंदर गीत ने उनके अंधकार में रोशनी की एक किरण दिखाई होगी। यह मैं विचार ही नहीं कर रहा। मैं इस पर शत-प्रतिशत विश्वास करता हूं। और एक बात । कहीं सुना था कि भक्तिगीत फिल्मों के गानों की धुनों पर नहीं होने चाहिए। मैं नहीं मानता। शायद यह फोटो चिपका ले फेवीकोल जैसे आइटम सांग्स के लिए बात ठीक हो ,लेकिन अगर इस सुंदर से फिल्मी गीत (जिसका मैं बार-बार उल्लेख कर रहा हूं) की धुन पर भक्ति गीत कोई गा ही रहा है तो उसमें किसे आपत्ति हो सकती है। यार, वो आपके मन को ही तो ठीक कर रहा है। चाहे कान सीधे पकड़ो या घुमा कर। मतलब तो गिरते हुए को थोड़ा थाम लेने से ही तो है। और यह गीत भी तो वही कर रहा है। भई,अपनी तो रूह हो गई है खुश इस पुराने बिछड़े गीत की धुन को इतने बरसों के बाद सुन कर। भले ही उसके बोल सत्संगी हों। मैं तो इसे कई बार सुनूंगा ही नहीं गुनगुनाता भी रहूंगा तो ही चैन पाऊंगा जब तक कि कोई अन्य संस्मरण या फिर ऐसा ही कोई दूसरा गीत जो मन को झकझोर कर रख दे, यादों के झरोखों से झांकने न लगेगा।

rajnish manga
17-02-2013, 01:58 PM
एक कथा करती है परिणामों के संकेत
अलैक जी, आपके द्वारा वर्णित इस प्रसंग में भी पाठक को एक सीख मिलती है. बहरहाल कक्षा में नींद को ले कर बच्चों की एक मजेदार कविता याद आ रही है जो निम्नलिखित रूप से है:
बाल कविता / झपकी
(रचना / राजा चौरसिया)

नींद की पहचान झपकी.
है बड़ी नादान झपकी.

एक पल में तोड़ देती,
हर किसी का ध्यान झपकी.

जब पढाई का समय हो,
है खिंचाती कान झपकी.

कुम्भकरणों के लिए है
एक प्यारी जान झपकी.

बिन बुलाये रोज आये,
ढीठ-सी मेहमान झपकी

Dark Saint Alaick
17-02-2013, 10:20 PM
दुविधा के बीच एक हकीकत भी जानी

-शालू यादव

जब मेरे संपादक ने मुझसे पूछा कि क्या मैं बदायूं जाकर दिल्ली गैंगरेप के नाबालिग अभियुक्त के परिवार से मिलना चाहूंगी, तो मेरे मन में कई सवाल उठे। मेरे अंदर के पत्रकार ने मुझसे कहा कि ये दौरा काफी रोमांचक होगा लेकिन मेरे अंदर की महिला ने कहा कि मैं कतई उस इंसान के घर नहीं जाना चाहती, जिसने एक लड़की के साथ बर्बर दरिंदे की तरह दुष्कर्म किया और फिर उसके शरीर पर कई आघात किए। मैं दिल्ली में पली-बढ़ी हूं और चाहे कोई कुछ भी कहे, मुझे इस बात पर फख्र है कि दिल्ली वो शहर है, जिसने देश के हर तबके को पनाह दी है। मुझे कभी अपने शहर में असुरक्षित महसूस नहीं हुआ और अगर हुआ भी है, तो मैंने उसका हमेशा डटकर उसका सामना भी किया। ऐसा नहीं है कि ये घटनाएं दिल्ली में ही होती हैं। मुझे लंदन जैसे शहर में भी छेड़-छाड़ का सामना करना पड़ा। फिर भी लंदन में मुझे उन टिप्पणियों से शर्मिंदा होना पड़ा, जिनमें दिल्ली को दुष्कर्म की राजधानी कहा जा रहा था। जो 16 दिसंबर की रात उस लड़की के साथ हुआ उसने हर देशवासी की तरह मेरी भी अंतरात्मा को झिंझोड़ कर रख दिया था। उन छह लोगों के प्रति मेरे मन में बहुत गुस्सा था और मैंने भी सभी देशवासियों की तरह यही दुआ की कि दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा हो। ये तो रही उस आम लड़की की भावनाओं की बात जो हर दुष्कर्मी को बेहद गुस्से से देखती है, लेकिन जहां तक पत्रकारिता की बात है, तो मैं इस बात से दुविधा में पड़ गई थी कि जिस लड़के के प्रति मेरे अंदर इतनी कड़ुवी भावना है उसके परिवार से जुड़ी ऐसी कहानी मैं कैसे कर पाउंगी जो संपादकीय तौर पर संतुलित हो। मुझे लगा कि भले ही पुलिस ने इस नाबालिग को सबसे ज्यादा बर्बर बताया हो, लेकिन मुझे अपने भीतर का पक्षपात निकाल कर उसके परिवार से बातचीत करनी चाहिए। लेकिन जब उस नाबालिग अभियुक्त के गांव पहुंची और उसके परिवार से मिली, तो मन की दुविधा और बढ़ गई। उनकी दयनीय हालत देख कर मेरे अंदर का गुस्सा खुद-ब-खुद काफूर हो गया। नाबालिग अभियुक्त की मां बेसुध हालत में बिस्तर पर पड़ी थी। जब मैंने उनसे पूछा कि अपने बेटे के बारे में सुन कर कैसा लगता है तो बोली, मैं तो मां हूं। क्या एक मां अपने बच्चे को ये सिखा कर बाहर भेजती है कि तू गलत काम कर? हमारी इन सबमें क्या गलती है? हमें मिली तो बस, बदनामी। उनकी ये बात सुन कर मेरे मन में गुस्से के साथ पक्षपात की भावना भी खत्म हो गई। मैं ये नहीं कहूंगी कि उस परिवार की गरीबी देख कर ही मेरा मन बदला। मेरा मन तो बदला उस सच्चाई के बारे में सोच कर जो लाखों भारतीय गरीब बच्चों की कहानी है। रोजगार की तलाश में अकेले ही शहर चले जाते हैं और अपनी जिंदगी के सबसे महत्वपूर्ण साल अकेले रहकर जिंदगी की कठिनाइयों का सामना करने में गुजारते रहते हैं। इस नाबालिग लड़के की भी यही कहानी थी। मां-बाप से दूर, बिना किसी भावनात्मक सहारे के उसने दिल्ली जैसे महानगर में अपने ही तरीके से संघर्ष किया होगा और कर रहा होगा। मैं उस अभियुक्त के घर में बैठ कर ये सब सोच ही रही थी कि मां दूसरे कोने से बोली कि मेरे बेटे ने जरूर बुरी संगत में आकर ऐसा काम किया होगा। खैर, उसकी हैवानियत के पीछे वजह जो भी हो, मेरे अंदर की महिला उसे कभी माफ नहीं कर सकती।

Dark Saint Alaick
18-02-2013, 11:44 PM
हमें अपनी मानसिकता को भी बदलना होगा

-निर्मला भुराड़िया

समाज में अश्लीलता बढ़ाने के संदर्भ में इन दिनों हिन्दी फिल्मों में भरे जाने वाले आइटम सॉन्ग्स की आलोचना हो रही है। मगर आइटम सॉन्ग्स तो वो हैं जो लाउड होने की वजह से बहस के लिए पकड़ में आ रहे हैं। औरत को मात्र एक वस्तु मानने वाली मानसिकता का असल उदाहरण तो और कहीं है। हिन्दी फिल्मों में हीरो-हीरोइन के उम्र के अंतर को इसी रुप में देखा जाना चाहिए। फिल्म देस परदेस में देव आनंद 55 वर्ष के थे, उनकी हीरोइन टीना मुनीम 21 की। मेरा नाम जोकर में राज कपूर की मां बनी अचला सचदेव उनसे सिर्फ चार साल बड़ी थी। हिन्दी फिल्मों में हीरोइन के पिता के बराबर का आदमी भी सोलह -बीस साल की कन्या के साथ रोमांस करता है। हिन्दी फिल्में इस पुराने सामंती सोच पर काम करती हैं जो कहता था कि आदमी कभी बूढ़ा नहीं होता। यही वह सोच है जो मानता था कि लड़की सोलह की पैदा हो और तीस की मर जाए। यहां तो पचास के हीरो के साथ कई बार तीस की हीरोइन भी नहीं होती। तीस पर भी उम्रदराज मान ली जाती है। अक्षय, शाहरुख, सलमान रोमांस से रिटायरमेंट लेने को तैयार नहीं। इनके साथ की जूही चावला, उर्मिला मातोंडकर, रवीना टंडन मुख्य हीरोइनों की भूमिकाओं से न जाने कितने समय पहले ही बाहर हो चुकी हैं। हीरो के साथ रोमांस करने के लिए अनुष्का शर्मा, कैटरीना, सोनाक्षी सिन्हा आ चुकी हैं। फिल्म डर्टी पिक्चर, जो कि फिल्म इंडस्ट्री की अंदर की कहानी पर आधारित है, में इस बात पर व्यंग्य करता हुआ एक बढ़िया सीन है। शूटिंग चल रही है, बूढ़ा एक्टर जो कि युवा रोमांटिक नायक का रोल कर रहा है उसे एक शॉट में अपनी मां बनी स्त्री की गोद में जाकर गिरना है। नायक मां बनी जिस स्त्री की गोद में मां कहकर गिरता है उस पर कैमरा जाता है तो पता चलता है वह सफेद बालों का बिग लगाए एक युवती है जो हीरो की मां का रोल कर रही है। कोई यह कहेगा कि ये फिल्में हिट भी तो हो रही हैं यानी दर्शक भी यही चाहता है। तो दर्शक भी तो उसी सामंती मानसिकता का शिकार है जो फिल्म इंडस्ट्री में पसरी है। बहुत दिन नहीं हुए जब भारतीय समाज में यह आम बात थी कि स्त्री चाहे बाल-विधवा हो या जवानी में विधवा हो जाए उसका पुनर्विवाह सपने में भी संभव नहीं था। मगर पुरुष की एक पत्नी मर जाए तो दूसरी, वह मरे तो तीसरी-चौथी भी संभव थी। अधिकांश पुरुष तो पत्नी मरने के बाद साल भर भी इंतजार नहीं करते थे। चूंकि वे किसी विधवा से तो विवाह करते नहीं थे, कुंवारी लड़की ही चाहिए होती थी अत: कमसिन लड़कियों का चालीस-पचास पार अधेड़ से ब्याह होना सामान्य घटना थी। जो इक्की-दुक्की नहीं बहुतायत में होती थी। अपनी फिल्म दुनिया के पुराने जमाने में ऐसी ही एक युवती का विद्रोह वी.शांताराम ने बहुत साहस के साथ प्रदर्शित किया है। भारत में एक समुदाय में तो व्यक्ति की पत्नी की अंतिम क्रिया के समय ही किसी कन्या का पिता उसके कंधे पर रखा तौलिया निचौड़ दे तो इसका मतलब होता था कि ताज-ताजे विधुर हुए व्यक्ति को उसे अपनी बेटी देना है। फिर चाहे उस युवती के लिए दांपत्य का मतलब जीवन भर का दुष्कर्म हो इससे समाज को मतलब नहीं। जो भी हो क्या यह अश्लील नहीं? सारा दोष फिल्मों और पाश्चात्य संस्कृति को देकर हम बरी नहीं हो सकते। फिल्में समाज का ही आईना हैं।

Dark Saint Alaick
23-02-2013, 01:47 AM
संस्कृति का प्रतीक भी है कुंभ मेला

-सुशील झा

अमूमन इलाहाबाद को मैं दो चीजों के लिए ही जानता हूं। एक कुंभ और दूसरा नेतराम की कचौड़ी। अर्धकुंभ में पहली बार इलाहाबाद आया था और दूसरी बार जब ट्रेन में आया तो नेतराम की कचौड़ियां यादों की पोटली में बंध कर चली आई थीं। एक बार फिर इलाहाबाद में हूं। मौसम साफ है शायद कुंभ के लिए। एक दो दिन पहले तक सर्दी सूरज को आंखें दिखा रही थी लेकिन अब सूरज दिन में आंखें दिखाने लगा है। महाकुंभ अपनी तैयैरियों के बीच धूूमधाम से चल रहा है। कुछ सड़कों की सफाई और पर्याप्त तंबूओं की सुविधाओं को कम माना जा सकता है। आस्था का मेला चल रहा है। इलाहाबाद शहर में प्रवेश करते ही बड़े बड़े विशालकाय बैनर दिखते हैं। नेताओं के,बाबाओं के,स्वयंसेवी संगठनों के और विभागों के। कोई गंगा की सफाई के लिए दौड़ रहा है तो कोई कसम खा रहा है पॉलीथीन नहीं लाएंगे। संगम में कुल्ला नहीं करेंगे। हर तीसरे पोस्टर में मुख्यमंत्री अखिलेश मुस्कुराते दिखते हैं। नीचे छोटे नेताओं की तस्वीरें हैं। लगता है मानो पीआर की होड़ लगी है। सबको अपना पीआर करना है। पीआर से याद आया। मीडिया के लिए बनने वाला पास लेने गए तो फाइल में नाम नहीं था। इससे पहले कि हम जिद करते कोई बड़े अधिकारी आए और बोले किसी से कोई बदतमीजी नहीं होगी। हमारी तरफ देखकर बोले, आॅनलाइन फॉर्म भर दीजिए। पास बन जाएगा। फॉर्म भरे और अधिकारी ने हाथों-हाथ ओके किया। इतने सजग और तेज सरकारी पीआर के लोगों से कम पाला पड़ा है हमारा। दिल्ली में काम शायद ही इतना तेजþ होता हो। आस्था लोगों को तेज कर देती है। इस तेजी से सरकारों में आस्था बन सकती है बशर्ते ये तेजी हमेशा हो। देशी विदेशी सब पहुंच रहे हैं मेला में। इलाहाबाद के बड़े शास्त्री पुल से मेला विहंगम दिखता है। एक छोटा सा कस्बा बसा है मानो। ये न गांव है न शहर। तंबूओं का एक जाल है जहां बीच में पानी है,पीपे का पुल है,बाबा है,सरकार है,पुलिस है,गरीब हैं,अमीर है,और इन सबमें घूमती विचरती आस्था है। मेरी आस्था मेले में है। मॉल के जमाने में मेले कम ही लगते हैं। ऐसे में इस मेले में देश और विदेश की रुचि से रोमांचित होता हूं। तभी बार-बार कुंभ आता हूं। लगता है यहां आकर पूरे भारत की संस्कृति के नजारे एक ही स्थान पर देखने को मिल सकते हैं। देश का शायद ही कोई ऐसा कोना होगा जिसके लोग आस्था के साथ कुंभ मेले में ना आए हों। जिससे भी बात करो, सभी का लगभग यही कहना होता है कि जीवन में ऐसे बिरले अवसर कम ही मिलते हैं। इसलिए जब भी अवसर मिले उसका पूरा-पूरा फायदा उठा लेने में ही समझदारी है। शायद यही सोच कर लोग यहां श्रद्दा से आते हैं। हालांकि मैने सोनपुर,पुष्कर और नौचंदी के मेलों का जिक्र भी खूब सुना है लेकिन वहां कभी जाना नहीं हुआ है। कभी मौका मिलेगा तो एक चक्कर वहां का भी लगा आऊंगा लेकिन फिलहाल कुंभ के मेले का भरपूर आनंन्द उठा रहा हूं। मैने कुंभ का मेला पहले भी देखा है और इस बार भी देख रहा हूं। ऐसा लगता है कि बदलते हुए समय में ये मेले केवल आस्था के ही प्रतीक नहीं रह गए हैं। ये संस्कृति के प्रतीक भी हैं जहां जाति और धर्म से ऊपर उठकर लोग सेवा में लगते हैं। कोई खाना परोस रहा है तो कोई किसी बीमार की तीमारदारी में जुटा है। ये है कुंभ का असली रूप।

Dark Saint Alaick
24-02-2013, 01:31 AM
शुरू हो चुका है परीक्षा का दौर

-पल्लवी सक्सेना

परीक्षा का दौर शुरू हो चुका है जिसके चलते अधिकतर विद्यार्थी परीक्षा के बुखार की चपेट में आ रहे हैं। अनुभवी छात्रों का कहना है कि इस तरह का बुखार अक्सर हर साल ही हमारे देश से होकर गुजरता है। यूं तो यह बुखार अब हर महीने ही आता है लेकिन अपनी चरम सीमा पर आने का इसका सही समय यही फरवरी और मार्च महीना ही होता है जब यह सभी छोट-बड़े विद्यार्थियों के सर चढ़कर बोलता है। यह जरूरी नहीं कि अन्य देशों में भी यह बुखार इन्हीं दो महीनों में आए। लेकिन फिर भी हम इस मौसम के आने से पहले सब कुछ जानते हुए भी कभी हम इस रोग की चपेट में आने से बच नहीं पाते और पलक झपकते ही साल निकल जाता है। किन्तु विद्यार्थी वर्ग उदास एवं हताश ना हों इसका भी इलाज संभव है। इसलिए इस बुखार से पीड़ित सभी छात्रों के लिए कुछ अनुभवी और टॉपर किस्म के विद्यार्र्थियों ने एक दवा इजाद की है और केवल वही दवा आपको इस भयानक रोग से मुक्ति दिलवा सकती है। जानना चाहेंगे उस दवा का नाम? उस दवा का नाम है पूरी ईमानदारी के साथ ध्यान लगाकर पढ़ना। इसे इस दौरान पढ़ाई में मेहनत के नाम से भी जाना जाता है। साथ ही इस दवा की सबसे अहम और अच्छी बात यह है कि बाकी दवा की तरह इसके सेवन का तरीका बिलकुल उल्टा है अर्थात जो इस दवा का जितना ज्यादा सेवन करेगा उस पर इस बुखार का असर उतना ही कम होगा। इसलिए देर न करें। अभी भी काफी वक्त है। जितनी जल्दी हो सके इस दवा का सेवन आरंभ करें। यह दवा लगभग हर घर में उपलब्ध है। बस इसके इस्तेमाल के दौरान कुछ खास चीजों से परहेज बहुत आवश्यक है। याद रहे परहेज जितना तगड़ा होगा, दवा का परिणाम उतना ही अच्छा आएगा। कुछ परहेजों पर एक नजर डालते है। एक,जब तक आप इस परीक्षा नामक बुखार की चपेट में है तब तक टीवी,मोबाइल,इंटरनेट जैसी चीजों से कुछ दूर ही रहिए। यह सब परीक्षा के बुखार से पीड़ित विद्यार्थियों के लिए जानलेवा साबित हो सकती है। दो,जहां तक हो सके इन दिनों हल्का भोजन ग्रहण करें ताकि ज्यादा नींद न आए। चाय-कॉफी की मात्रा थोड़ी बढ़ा दें । दूध भी ले सकते हैं। तीन,जहां तक हो सके पढ़ाई के दौरान कुछ खाते पीते न रहें जैसे कच्चे या भुने बादाम या भुनी मूंगफली इत्यादि। चार,रजाई-कंबल जैसी चीजों से तब तक दूर रहें जब तक आप सोने का अर्थात नींद लेने का प्रोग्राम न बना लें। इसका मतलब यह नहीं कि ठंड का शिकार होते हुए बीमार ही पड़ जाएं। रजाई और कंबल की अपेक्षा शॉल,स्वेटर और मोजों का इस्तेमाल कर सकते हैं। अब आप सोच रहे होंगे सब कुछ तो बंद करवा दिया कोई जीए तो भला जीए कैसे? तो जनाब यदि कुछ पाना है तो कुछ तो खोना ही पड़ेगा ना। फिर भी चलो एक छूट ले सकते हैं आप। लेकिन वो भी सीमित समय के लिए ही होगी। वह यह कि जब आपका मन ऊब जाए और दवा लेने का मन ना करे तो थोड़ी देर के लिए वह कार्य कर लें जो करना आपको सबसे ज्यादा अच्छा लगता है जैसे दोस्तों से फोन पर गप्पे मार लें या फिर थोड़ा सा इंटरनेट पर भी जा सकते हैं। लेकिन परहेज को ध्यान में रखते हुए। चलते-चलते एक बात और। सभी विद्यार्थियों को मेरी तरफ से परीक्षा की ढेर सारी शुभकामनाएं। जिसका परिणाम अच्छा आए,कृपया वह मिठाई खिलाना ना भूलें।

Dark Saint Alaick
26-02-2013, 03:52 PM
हे प्रभु, अब तो मेरी भी अरज सुन लो

-अविनाश दत्त

प्रिय प्रभु जी, मेरी एक प्रार्थना है। अब हो सकता है कि आप बोलोगे प्रभु, की तू लेट हो गया। कई दिन बीत गए हेप्पी न्यू ईयर को। इतने दिन से तू कहां था। क्या तुझे पता नहीं कि मैं तो वैसे भी व्यस्त रहने वाला भगवान हूं। पर हे जगत के स्वामी। यह तो आप भी भलीभांति जानते ही हैं कि साल के पहले के बहुत सारे दिन तो बड़े लोगों, महान लोगों, भले लोगों के लिए होते हैं। केवल वो ही आपके सामने अपनी अरजी रख सकते हैं। मेरे जैसा आम आदमी तो अपनी बारी की ही प्रतीक्षा करता रहता है। अब जाकर जब इनकी बारी खत्म हुई तो मैं गरीब अपनी अरज लेके आपके सामने हाजिर हूं भगवान। तो क्या मैं शुरू हो जाऊं? क्या मैं अपनी बात कहना शुरू करूं? आप जब मुझे पूरी तरह से इजाजत देंगे तो ही अपनी पूरी बात कह पाऊंगा। भगवान, इस साल में अगर मुझ पर या मेरे परिवार वालों कोई आपत्ति भेजने वाले हो तो प्रभु बस इतना करना कि मेरे ऊपर जो घटना-दुर्घटना घटे वो दिल्ली में घटे। ऐसे इलाके में घटे जहां मध्यम वर्गीय, उच्च वर्गीय रहता हो। अगर हम लाइन में भी खड़े हो या बस में चल रहे हों तो कम से कम वो बस डीलक्स तो हो ही। और अगर हम पिच्चर-विच्चर देख कर लौट रहे हों तो वो जय संतोषी मां या सरकाई ल्यो खटिया, धरती की कसम या कोई भोजपुरी टाईप की ना हो। अंग्रेजी ना हो तो कम से कम अंग्रेजी टाइप तो हो ही। हां,प्रभु इस बात का जरूर ध्यान रखना कि जिस दिन मेरे ऊपर विपत्ति का पहाड़ टूटे उस दिन वीकेंड हो। शनिवार या रविवार हो और उसके आस पास भारतीय क्रिकेट टीम कोई बड़ा मैच ना जीते, कोई वर्ल्ड कप ना हो, सलमान की कोई पिच्चर ना रिलीज हो रही हो और देश की जागरूक जनता और सजग टीवी चैनलों के पास करने के लिए कोई और काम ना हो। भगवान,अगर इस बात की गारंटी नहीं दे सकते तो इतना वरदान तो दे ही दें कि जितना मुझे देगें उसका दुगना पड़ोसी को देगें। मुझ पर जो भी विपत्ति दें उसकी दुगनी दिल्ली वालों पर दे डालना। और कुछ नहीं तो कम से कम इतना तो होगा ही कि मुझे राहत नहीं मिली तो न्याय तो मिलेगा और मेरे कारण जो जागरूकता आएगी तो कुछ रिस छीज कर मेरे गांव-घर में तो पहुंचेगी। और नहीं भी पहुंची तो कम से कम उतने दिन तक तो मेरे या मेरे भाई बन्दों के दुख की कोई न कोई अखबार टीवी चैनल खबर लेगा ही जितने दिन खबर गरम है चर्चा में है। मेरे साथ दिल्ली में हुई घटना के बाद जब मेरे बारे में सब छप जाएगा तो मेरे जैसे कुछ और दुखियारे ढूंढे जाएंगे जिनकी खबर मेरे जैसी ही हो या मुझसे भी दर्दनाक हो। भगवान,आप तो जानते ही हैं कि बहुत ही मैं भोला भाल इंसान हूं। मेरे इस भोलेपन की लिहाज रखना।भारत में यहां-वहां अन्याय या अत्याचार के खिलाफ अगरबत्ती-मोमबत्ती जो भी जब भी मुझसे बन पड़ता है जलाता हूं। लेकिन प्रभु मैं बेवकूफ भी तो नहीं हूं नहीं हूं। मुझे पता है मेरे दुख-तकलीफ तब-तक दुख-तकलीफ नहीं है जब तक उन बड़े लोगों को डर ना लगे कि जैसा मेरे साथ हुआ वैसा उनके साथ भी हो सकता है। मेरी लाश अगर बस्तर में सड़ी तो चील कव्वे खा जायेगें लेकिन अगर दिल्ली में गिर पड़ी तो उसकी बदबू सबको आएगी। गंदा दिखेगा और कुछ नहीं तो उसका क्रिया कर्म तो होगा ही बाजे गाजे से वीकेंड पर। ख्वाबों के छीछड़ों के साथ,मैं आपका आम भारतीय ...।

Dark Saint Alaick
28-02-2013, 02:52 AM
स्टार के ओहदे के साथ अवार्ड भी

-कल्पना शर्मा

क्या आपने कभी किसी को मजबूरी में एक्टिंग करते हुए देखा है? जरा याददास्त पर जोर डालें। क्या कोई नाम याद आया? शायद आपको नाम याद नहीं आ रहा होगा या कोई अभिनेता नहीं सूझ रहा होगा। लेकिन मैंने तो मजबूरी में एक्टिंग करते हुए एक शख्स को देखा है। इमरान खान को। हाल ही में मार्केट में आई फिल्म मटरू की बिजली का मंडोला देखने के बाद सबसे पहला ख्याल यही आया कि ये इमरान एक्टिंग करते क्यों हैं? भला ऐसी भी क्या मजबूरी? जब पर्दे पर इमरान को एक्टिंग की कोशिश करते देखती हूं तो लगता है अंदर ही अंदर चिल्ला रहे हों, मुझे बचा लो मुझसे ये नहीं होगा। उनके कॉमेडी सीन में भी एक अजीब सी उदासी नजर आती है। वैसे बॉलीवुड में इमरान खान पहले शख्स नहीं है जो अपने अभिनय से कम,अपनी किस्मत और कनेक्शन के बल पर ज्यादा चल रहे हैं। ये तो बहुत पहले से चला आ रहा है। राजेंद्र कुमार (जुबली कुमार) याद हैं ना? हर फिल्म में राजेंद्र मुझे एक जैसे ही नजर आए हैं। अगर गौर से देखा जाए तो राजेंद्र की फिल्म को जुबली बनाने में उनसे ज्यादा उनकी फिल्मों के गानों का अधिक योगदान रहता था। उस दौर में उनकी फिल्मों को लेकर ऐसी हवाएं भी उड़ी थी कि राजेद्र्र अपनी फिल्म के टिकट खुद ही खरीद लेते हैं। हालांकि ये बातें उतनी ही गलत हो सकती हैं जितनी गलत राजेंद्र साहब की एक्टिंग होती थी। वैसे इसी दौर में और भी कई नामी स्टार आए जो अपनी अदाकारी के लिए कम और स्टाइल के लिए ज्यादा चर्चित रहे जैसे राजेश खन्ना या देव आनंद। मुझे लगता है कि ये कुछ भी हो सकता है लेकिन एक्टिंग नहीं। फिर स्टार का मैडल पहने संजय दत्त याद आते हैं जिनके कई प्रशंसक शायद मुझे माफ नही करेंगे पर सच तो ये है कि संजू बाबा अपनी हर फिल्म में एक ही भाव में नजर आते हैं और शायद आगे भी आते रहेंगे। ठीक है कि बॉलीवुड में उनके मुन्ना भाई की कसम खाई जाती हैं, लेकिन ये बात तो खुद संजू भी जानते हैं कि उन्होने इस फिल्म का कल्याण किया या फिल्म ने उनका। वैसे अभिषक बच्चन को लेकर भी मेरे कुछ ऐसे ही विचार हैं। इस मामले में हीरो से ज्यादा हीरोइनों ने बाजी मारी है। खास तौर से मौजूदा दौर में कैटरीना कैफ तो सबसे ऊपर आती हैं। पिछले 12 सालों में वो हिंदी नहीं सीख पाईं, लेकिन निर्देशकों का तांता लगा हुआ है। कैसे भी करके उन्हें लंदन या अमरीका बेस्ड लड़की का रोल दे दिया जाता है, ताकि उनकी गिरती पड़ती हिंदी को सही ठहराया जा सके। आज कैटरीना के पास गाड़ी हैं, बंगला है, बैंक बैलेंस हैं, अवार्ड्स हैं, सलमान की दोस्ती है, यश राज की फिल्में हैं पर अफसोस की एक्टिंग नहीं है। मजेदार बात ये है कि आज के दौर में जहां मेरे और आपके बॉस हमसे 200 प्रतिशत परफॉर्मेंस की अपेक्षा करते हैं, वहीं एक इंडस्ट्री ऐसी भी है जहां औसत दर्जे और कभी-कभी औसत से भी कम दर्जे का काम करने वालों को स्टार का ओहदा देने के साथ साथ अवॉर्ड भी थमाया जाता है। हालांकि बाहर से ये सितारे कितने भी टिमटिमाएं, अंदर से एक्टिंग न कर पाने की टीस शायद इन्हें भी कचोटती होगी, तभी तो शाहरुख खान ने एक इंटरव्यू में कहा था कि मुझे बुरा लगता है जब समीक्षक मेरी फिल्म की बात करते हैं। मेरी एक्टिंग की नहीं। क्या आप शाहरुख खान की एक्टिंग की बात करना चाहेंगे?

Dark Saint Alaick
06-03-2013, 01:23 AM
'जो दिखता है, वही बिकता है' का फार्मूला

-राहुल सिंह

आपने नहीं देखा बिग बॉस? तब तो हम साथी हुए। मैं भी नहीं देखता था यह शो। मत कहिएगा कि नाम भी नहीं सुना। पता नहीं क्या है ये। यदि आपने ऐसा कहा, तो हम साथी नहीं रहेंगे। मैंने नाम सुना है और थोड़ा अंदाजा भी है कि इसमें एक घर होता है बिग बॉस का जिसमें रहने वालों की हरकत पर कैमरे की निगाह होती है। और बहुत कुछ होता रहता है इसमें। मुझे लगता है कि ताक-झांक पसंद लोग इस शो से आकर्षित होते हैं। फिर धीरे-धीरे पात्रों और उनके आपसी सम्बंधों में रूचि लेने लगते हैं। भारतीय और फ्रांसीसी इस मामले में एक जैसे माने जाते हैं कि वे अपना जरूरी काम छोड़ कर भी सड़क पर हो रहे झगड़े के न सिर्फ दर्शक बन जाते हैं, बल्कि कई बार झगड़े में खुद शामिल हो जाते हैं। यह शायद मूल मानवीय स्वभाव है। मनुष्य सामाजिक प्राणी जो है। बात थोड़ी पुरानी है। इतिहास जितनी महत्वपूर्ण नहीं लेकिन बासी भी नहीं। बस सादा संस्मरण। पुरातत्वीय खुदाई के सिलसिले में कैम्प करना था। बस्तर का धुर अंदरूनी जंगली इलाका। मुख्यालय से बताया गया था कि हिंस्र पशुओं से अधिक वहां इंसानों से खतरा है। मौके पर पहुंच कर पता लगा कि एक सरकारी स्कूल है और इसी स्कूल के गुरू हैं यहां अकेले कर्ता-धर्ता। गांव के हाकिम-हुक्काम, सब कुछ। गुरू निकले बांसडीह बलिया वाले। गुरु ने सीख दी। आप लोग यहां पूरे समय दिखते रहें। किसी न किसी की नजर में रहें। कहीं जाएं तो गांव के एक दो लोगों को, जो आपके साथ टीले पर काम करने वाले हैं, साथ रखें। अनावश्यक किसी से बात न करें। किसी की नजर आप पर हो न हो, आप ओझल न रहें। एक मिनट को भी। रात बसर करनी थी खुले खिड़की दरवाजे वाले कमरे या बरामदे में। नहाना था कुएं पर लेकिन हाजत-फरागत का क्या होगा। कुछ समय के लिए सही, यहां तो ओट चाहिए ही। गुरु को मानो, मन पढ़ना आता था। कहा कि नित्यकर्म के लिए खेतों की ओर जाएं। किसी गांववासी को साथ लेकर और खेत के मेढ़ के पीछे इस तरह बैठें कि आपका सिर दिखता रहे। गुरु प्राइमरी कक्षाओं को पढ़ाते थे। उनके सामने हम भी प्राइमरी के छात्र बन गए। तब कोई सवाल नहीं किया। शब्दश: निर्देश अनुरूप आचरण करते रहे। लेकिन कैम्प से वापस लौटते हुए गुरु को धन्यवाद देने, विदा लेने पहुंचे और कहा कि जाते-जाते एक बात पूछनी है आप से। उन्होंने फिर मन पढ़ लिया और सवाल सुने बिना जवाब दिया, आप लोग यहां आए थे जिस टीले की खुदाई के लिए, माना जाता था कि टीले पर जाते ही लोगों की तबियत बिगड़ने लगती है तो बस्ती में खबर फैल गई कि साहब लोग अपनी जान तो गवाएंगे नहीं। किसी की बलि चढाएंगे, काम शुरू करने में, नहीं तो बाद में। इसलिए ओझल रहना या ऐसी कोई हरकत आप लोगों के प्रति संदेह को बल देता। इस पूरे अहवाल का सार कि गुरू से हमने सीखा दिखना जरूरी वाला फार्मूला। सिर्फ जो दिखता है, वो बिकता है के लिए नहीं, बल्कि दिखना, दिखते रहना पारदर्शिता, विश्वसनीयता बढ़ाती है। नई जगह आपका संदिग्ध होना कम कर सकती है। यों आसान सी लगने वाली बात, लेकिन साधना है। हमने इसे निभाया, हफ्ते के सभी सातों दिन और दिन के पूरे 24 घंटों। फिर बाद में ऐसे प्रवासों के दौरान बार-बार। अवसर बने तो कभी आप भी आजमाएं और इस प्रयोग का रोमांच महसूसें।

rajnish manga
06-03-2013, 12:43 PM
जो दिखता है वही बिकता है का फार्मूला

-राहुल सिंह

.....

:hello:अलैक जी, इस ब्लॉग में कई जगह भाषा उक-चुक हो गई है जिसकी वजह से विवरण पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो पा रहा. आपसे निवेदन है कि इसमें आवश्यक बदलाव कर दें.

Dark Saint Alaick
06-03-2013, 02:12 PM
:hello:अलैक जी, इस ब्लॉग में कई जगह भाषा उक-चुक हो गई है जिसकी वजह से विवरण पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो पा रहा. आपसे निवेदन है कि इसमें आवश्यक बदलाव कर दें.

धन्यवाद, रजनीशजी। एक जगह 'धर्ता' की जगह 'धता' हुआ नज़र आया, ... और कुछ जगह कॉमा का अभाव बात को अस्पष्ट कर रहा था, इन सभी कमियों को मैंने ठीक कर दिया है। दरअसल, मेरा मानना है कि हर ब्लॉग लेखक की अपनी शैली और रचना प्रक्रिया होती है, अतः मैं उसे ज्यों का त्यों पेश करता हूं। उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं करता। हां, कोई शाब्दिक गलती नज़र आ जाए, तो उसे अवश्य दुरुस्त कर देता हूं। उम्मीद है कि अब बात स्पष्ट हो रही होगी। अब भी गड़बड़ नज़र आए, तो अवश्य बताएं, ताकि ब्लॉग लेखक को अवगत कराया जा सके। धन्यवाद।

Dark Saint Alaick
06-03-2013, 02:39 PM
धमकी भी काम कर जाती है कभी-कभी

-ममता

आप ये तो नहीं सोच रहे कि हम आपको धमकाने जा रहे हैं। आप लोगों को कुछ कहें, भला ऐसा कैसे हो सकता है। दरअसल पिछले साल हमारे बेटों ने एक कम्पनी का रूम हीटर खरीदा था, जो कुछ दिन बाद यानी पिछले साल दिसंबर में खराब हो गया था । बेटों ने कई बार कंपनी मे शिकायत दर्ज करवाई, पर वहां से कोई भी नहीं आया। खैर, इस साल चूंकि हम यहां दिल्ली में हैं और रूम हीटर वारंटी पीरियड में है, तो सोचा कि कम्पनी को शिकायत कर दी जाए और बस, 26 दिसंबर को कम्पनी के कस्टमर केयर पर फोन करके शिकायत दर्ज करवाई और अगले दिन ही उनका टेक्नीशियन आया और उसने रूम हीटर देखने के बाद कहा कि वो तो किसी दूसरी कम्पनी का टेक्नीशियन है और ये प्रोडक्ट दूसरी कम्पनी का है, इसलिए हमें दोबारा कस्टमर केयर पर फोन करके नई शिकायत दर्ज करवानी पड़ेगी। यही करना पड़ा। हमने अगले दिन यानी 28 दिसंबर को फिर से कम्पनी के कस्टमर केयर पर फोन किया और बहुत जोर देकर और खास तौर पर ये कहा कि आपकी कम्पनी का ही टेक्नीशियन भेजें । और कमाल की बात उसी दिन शाम को उनका टेक्नीशियन आया और रूम हीटर देखकर बोला कि ये तो यहां पर ठीक नहीं हो सकता है। इसको कम्पनी में ले जाना होगा। हमारे पूछने पर कि कब तक बनाकर लाओगे, वो बोला 2-3 दिन तो लग जाएंगे, तो हमने उसका नाम और मोबाइल नंबर लेकर हीटर उसे दे दिया। शाम को बड़ी शान से हमने अपने बेटे से कहा कि तुम लोग ठीक से शिकायत नहीं करते थे । हमने शिकायत की और देखो आज उनका टेक्नीशियन आकर हीटर ले गया और 2-3 दिन में दे भी जाएगा। 2-3 दिन क्या 4-5 दिन के बाद भी जब वो टेक्नीशियन नहीं आया, तो हमारे पतिदेव बोले कि अब भूल जाओ उस हीटर को। वो अब नहीं मिलने वाला। ये सुन कर हमें खराब लगा और हमने उस टेक्नीशियन को फोन किया, तो वो बोला कि मैडम वो हीटर बन नहीं सकता है और चूंकि ये वारंटी पीरियड में है, इसलिए कंपनी उसे बदलकर नया हीटर देगी, जिसमें 2-3 दिन लग जाएंगे। बस, तब से 2-3 दिन का गाना उन लोगों का चलता रहा। और हम कभी कस्टमर केयर से कंपनी के दिल्ली के रीजनल हेड तो कभी उनके बॉस का फोन नंबर लेकर फोन करते रहे और सभी यही जवाब देते कि मैडम, बस 2-3 दिन में आपके घर नया हीटर पहुंचा दिया जाएगा। हमने भी ठान लिया था कि हम इन लोगों से हीटर लेकर ही रहेंगे। और ऐसे ही अलग-अलग लोगों को फोन करते करते हम तंग आ गए थे, तो 23 जनवरी को हमने उनके बॉस को फोन किया और जैसे ही हमने अपना नाम बताया, तो वो बोला कि मैडम आज का दिन बस, शाम तक रूम हीटर आपके घर पहुंच जाएगा । तो हमने भी उसे एक तरह से धमकाते हुए कहा कि अगर अब आपने रूम हीटर नहीं भेजा तो 28 जनवरी के बाद हम कंजूमर कोर्ट में आपके खिलाफ केस कर देंगे। तो छूटते ही वो तुरंत बोला कि नहीं मैम बस आज का दिन। खैर उस दिन शाम को तो नहीं अगले दिन उनका आदमी हमारा वाला रूम हीटर लेकर आ गया। और हमारे पूछने पर कि भला इतने दिन लगते है एक रूम हीटर को बदल कर देने में? वो बड़ी शराफत से बोला कि मैम कभी-कभी ऐसा हो जाता है। उसकी शराफत के आगे मैं तो नतमस्तक हो गई।

Dark Saint Alaick
18-03-2013, 12:38 PM
उन्माद के खिलाफ एक ही मापदंड हो

-उमर फारूक

भड़काऊ भाषण देने पर मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के विधायक अकबरुद्दीन ओवैसी की गिरफ्तारी, गंभीर आरोपों के अंतर्गत उनके खिलाफ कई नगरों और अनेक पुलिस स्टेशनों में मामले दर्ज होना और अंतत: आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट के एक जज की ओर से उन्हें लताड़ा जाना देखकर लगता है कि देश में कानून, न्यायिक और पुलिस व्यवस्था अब एक बिल्कुल नए दौर में प्रवेश कर गई है। ऐसा लग रहा है कि अब कानून तोड़ने वाले के लिए कोई जगह नहीं है चाहे वो कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो। अकबरुद्दीन और उनकी मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन पार्टी मुस्लिम समुदाय का प्रतिनिधि होने के दावेदार रही है। जब तक वो मुसलमानों की इन शिकायतों को प्रकट कर रहे थे कि उनके साथ अन्याय हो रहा है और पुलिस-प्रशासन उनके साथ भेदभाव करते हैं, वहां तक तो बात ठीक थी, क्योंकि कानून और संविधान भी हर नागरिक को इसका अधिकार देता है लेकिन जब कोई इसी बात को ऐसे अंदाज में कहने लगे जो हिंसा भड़का सकता है और दो समुदायों के बीच नफरत और दूरी पैदा कर सकता है तो फिर वह उसी कानून से टकराने लग जाता है। अकबरुद्दीन के भाषण के जो भाग यू ट्यूब के जरिए प्रसारित हुए हैं उससे लगता है कि अकबरुद्दीन ने कानून का कई तरह से उल्लंघन किया। अकबरुद्दीन की ये शिकायत कानून के दायरे में हो सकती है कि मुसलमानों के साथ भेदभाव किया जा रहा है, लेकिन पुलिस को हटाकर हिंदुओं को ताकत दिखाने की चुनौती देने को कानून बर्दाश्त नहीं कर सकता। ये बात किसी विधायक के मुंह से अच्छी भी नहीं लगती। चारमीनार से सटाकर अवैध रूप से मंदिर बनाया जाना और उसके विस्तार की अनुमति देना कानून और सुप्रीम कोर्ट दोनों के आदेशों का उल्लंघन है। इस पर आपत्ति समझी जा सकती है लेकिन इसके लिए हिंदू देवी देवताओं का अपमान का हक किसी को नहीं दिया जा सकता। राजनीतिक लड़ाई को सांप्रदायिक रंग देना किसी के हित में नहीं हो सकता लेकिन इस मामले ने कई और सवाल खड़े किए हैं जिनका जवाब भी तलाश करना चाहिए। पहला तो ये कि क्या अकबरुद्दीन पहले व्यक्ति या नेता हैं जिन्होंने भड़काऊ भाषण दिया है? या किसी समुदाय की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाई हो? या कानून और देश को चुनौती दी हो? ज़ाहिर है कि ऐसा नहीं है। अगर केवल गत एक-दो दशकों की ही बात करें तो बाल ठाकरे, अशोक सिंघल से लेकर प्रवीण तोगड़िया, साध्वी ऋतंभरा, आचार्य धर्मेन्द्र तक न जाने कितने ही नाम हैं जिन्होंने न केवल भड़काऊ भाषण दिए, बल्कि कई बार उसका परिणाम बड़े पैमाने पर दंगों और ख़ून खराबे की सूरत में निकला।1990 में लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा ने पूरे देश में कैसी आग भड़काई थी, ये देश के राजनीतिक इतिहास के पन्नों में ठीक तरह से दर्ज है। तो क्या इस देश में सबके लिए अलग-अलग कानून है? इसी हैदराबाद नगर में हाल ही में प्रवीण तोगड़िया के खिलाफ भी भड़काऊ भाषण देने का एक मामला दर्ज किया गया है। तो क्या तोगड़िया को भी हैदराबाद पुलिस उसी तरह गिरफ्तार करेगी और जेल भेजेगी? इसमें किसी तरह के दोहरे मापदंड नहीं होने चाहिए। इसी मापदंड ने कई उन्मादी नेताओं को लोगों की नजरों में हीरो बनाया है।

Dark Saint Alaick
18-03-2013, 12:40 PM
अब ब्रेड को डबलरोटी कहना ठीक नहीं लगता

-प्रवीण चौपड़ा

दो दिन पहले एक न्यूज रिपोर्ट देख रहा था जिसमें पढ़ा कि विदेश में किस तरह से लोग अब ब्रेड से भागने लगे हैं। यहां पर भी ब्रेड के बारे में विभिन्न कारणों से सुनने को मिलता ही रहता है। लेकिन मुझे तो इस समय तब की बातें याद आ रही हैं जब हम लोग इसे डबलरोटी के नाम से ही जानते थे। बचपन के दिन। अकसर सुबह सुबह एक सरदारजी लोहे के एक बड़े से ट्रंक को अपने साईकिल पर रख कर हमारी कॉलोनी में ब्रेड-बंद (आज जिन्हें बन कहते हैं), अंडे आदि बेचने आते थे। वह एक जगह खड़े हो जाया करते थे और बच्चों का जमावड़ा उनके इर्द-गिर्द लग जाया करता था। शायद उनका बड़ा सा लोहे का चाकू देखने की उत्सुकता रहती होगी। आप भी सोच रहे होंगे कि वह ब्रेड बेचने आते थे तो उनके पास बड़े से चाकू का क्या काम। उस भले मानुस की वैसे तो अपनी एक बेकरी थी जहां पर वह यह डबल रोटी,बिस्कुट आदि स्वयं बनाया करते थे लेकिन कभी-कभी वह इसे ट्रंक में डाल कर बेचने निकल पड़ते थे। और मुझे अच्छे से याद है उन दिनों एक ब्रेड शायद एक रूपए से भी कम दाम में मिलती थी। शायद दाम से भी कहीं ज्यादा अहम उसकी क्वालिटी की बखान करना होगा। जिसे डबलरोटी आधी चाहिए होती थी उसे आधी मिल जाया करती थी। हमें उनका ब्रेड के पीस काटने वाला अंदाज बड़ा भाता था। वह ट्रंक को बंद कर ब्रेड को काटने के लिए ऊपर टिका लिया करते थे। पूरी लेनी हो तो कोई समस्या नहीं, वरना दो हिस्से साथ-साथ खड़ा करके दिखा देते थे कि दोनों हॉफ एक जैसे ही हैं। हम लोग भी ज्यादा डबल रोटी खाने के भी शौकीन रहे नहीं। बस कभी कभार मलाई-सैंडविच या वैज-सैंडविच, कभी आलू डाल कर स्कूल ले जाना। चलिए थोड़े बड़े हो जाते हैं। दुनिया भी बदलने लगी थी ब्रेड कागज जैसी दिखने वाली थैली में मिलने लगी। और शायद ब्रेड शब्द भी हमारी जुबान पर आने लगा था। क्या है ना बाद में समझ आने लगा कि वैसे भी डबलरोटी शब्द कहना भी गलत सा लगता है। ये उस जमाने की बात है जब फ्रिज हमारे यहां ही नहीं था। फिर 1975 के आस पास की बातें हैं। फ्रिज भी आ गया। ब्रेड भी फ्रिज में रखी जाने लगी जैसे कि आज रखी जा रही हैं। एक रात मैंने अपने बेटे को पूछा कि यार क्या घर में ब्रेड है। उसने कहा, हां है। मैं झट से गया व उठा लाया। मैंने तुरंत फोटू ले ली। पास में पत्नी बैठी थीं, तो मैंने पूछा कि यह कितने दिन पुरानी होगी तो पता चला कि यह दस दिन से फ्रिज में पड़ी हुई है। बात तो शायद दकियानूसी सी ही दिखेगी, लेकिन जो है सो है। पहले चाहे कोई आधी ब्रेड लेता था या पूरी उसे तुरंत खत्म कर लिया जाता था लेकिन इस फ्रिज और ब्रेड-बॉक्स ने यहां भी गड़बड़ कर दी है। आप का क्या ख्याल है? ऐसे तो लिखता ही चला जाऊंगा और इसे पढ़ेगा कौन? संक्षेप में कहूं तो यही है कि ब्रेड खाना सेहत के लिए कुछ ज्यादा बढ़िया बात नहीं है क्योंकि इसमें रिफाईंड फ्लोर (मैदे) का इस्तेमाल होता है। कोई बता रहा था कि यह जो आजकल होल-व्हीट ब्रेड का टशन चल रहा है उसमें भी केवल भूरा रंग आदि ही डाल दिया जाता है । बात वैसे तो सोचने वाली ही है कि क्या होल-व्हीट से बनी रोटी भी कभी इतनी भूरी होती है जितनी भूरी रंग की ब्रेड ये होल-व्हीट ब्रेड के नाम से बेचते हैं।अब निर्णय तो आपको ही करना है कि आप खाते हैं या नहीं।

rajnish manga
20-03-2013, 01:27 PM
अब ब्रेड को डबलरोटी कहना ठीक नहीं लगता

-प्रवीण चौपड़ा ......

:iagree:
प्रवीण जी ने सत्तर के दशक में डबलरोटी या ब्रेड बेचने और खाने में आये बदलाव का बहुत रोचक वर्णन किया है. मैं उससे एक दशक पीछे जाऊं तो मुझे याद आता है कि दिल्ली में वेस्ट पटेल नगर के डबल स्टोरी मकानों में एक 'गुरे की हट्टी' नाम से घर के बाहरी कमरे में किराने (व जनरल स्टोर) की दुकान होती थी जहाँ दस पैसे के दो स्लाइस भी खरीदे जा सकते थे. यानि जितनी किसी कि फौरी जरूरत होती थी उतनी ही ब्रेड खरीदी जाती. अभी फ्रिज बहुत कम घरों में आया था.

मुझे याद है मैं साठ के दशक के उत्तरार्ध में देहरादून में पढाई कर रहा था. वहां के ब्रेड, बंद, रस और पापे (पापे 3" व्यास में गोलाकर बनाए गए रस होते थे) अपनी मिठास और गुणवत्ता के कारण बहुत दूर दूर तक प्रसिद्ध थे. एक मिल्क ब्रेड 25 पैसे में मिलती थी जिसको हम बगैर किसी चीज के आसानी से खा सकते थे. इससे हम उसके स्वाद, मुलायमियत और मिठास का अंदाजा लगा सकते हैं. बंद का एक उपयोग बहुतायत से होता था. बंद को बीच से काट कर दो स्लाइस बना लिए जाते थे और उनके बीच एक गरमा-गरम समोसा रख कर चाय के साथ खाने का मजा भुलाया नहीं जा सकता.

पुराने दिनों में उड़ान करवाने के लिए प्रवीण चोपड़ा जी के साथ आपका भी धन्यवाद, अलैक जी.

Dark Saint Alaick
21-03-2013, 01:53 AM
:iagree:बंद का एक उपयोग बहुतायत से होता था. बंद को बीच से काट कर दो स्लाइस बना लिए जाते थे और उनके बीच एक गरमा-गरम समोसा रख कर चाय के साथ खाने का मजा भुलाया नहीं जा सकता.

पुराने दिनों में उड़ान करवाने के लिए प्रवीण चोपड़ा जी के साथ आपका भी धन्यवाद, अलैक जी.

आपने बहुत सही फरमाया, रजनीशजी। समोसे और कचौरी का उपयोग इस तरह मैंने भी खूब किया है। :cheers:

Dark Saint Alaick
30-03-2013, 04:17 AM
और घेंधू का नाम दो बोरी हो गया

-संजय ओझा

एक दिन मैं कॉलेज से लौट रहा था तो देखा कई लड़के घेंधू के साथ कुछ मसखरी कर रहे थे और वो जवाब में हमेशा की तरह खिसियाते हुए हंस रहा था। अब तमाशा हो रहा हो और मैं चुपचाप वहां से निकल जाऊं ऐसा हो नहीं सकता। मैं रुककर तमाशे की वजह पूछने लगा। कागजों में तो उसका नाम प्रेमपाल था लेकिन जानते उसे सब उसके घरेलु नाम घेंधू से ही थे। मैं उसे हमेशा प्रेम कहकर बुलाता था और बदले में वो उम्र में हमसे बड़ा होता हुए भी मुझे भाई साहब कहकर बुलाता था। बाकी सब उसे घेंधू बुलाते थे। कुछ साल पहले यूपी के एक कस्बे से अपने बड़े भाई के साथ रोजी रोटी की तलाश में दिल्ली आया था। पढ़े-लिखे दोनों ही मामूली थे लेकिन मेहनती पूरे थे। एक दो कमरे का मकान किराये पर लेकर उसी में रहते भी थे। खुद ही हाथ से कुछ खिलौने बनाते और फिर खुद ही सप्लाई कर आते। मेहनत रंग लाई तो चार पैसे बचाये भी। इस सब में बड़े भाई का योगदान ही ज्यादा था। हमारा घेंधू तो एक सहायक की तरह काम करता रहता था। जितना बड़े ने बताया कर देता। जल्दी ही बड़े को दिल्ली का रंग चढ़ने लगा। कई यार दोस्त बन गये थे। शुरू में एक-एक पैसे की सोचने वाला वो अब किसी मौके पर खुले हाथों से पैसा खर्चने लगा लेकिन अपने और अपने दोस्तों के खाने पीने पर ही। कुछ समय बाद उसकी शादी भी हो गई। इधर काम बढ़ रहा था उधर परिवार भी, खर्च भी और साथ साथ ही भाईयों में थोड़ा सा असंतोष भी। पैसा कुछ आ गया था लेकिन रहन सहन पहले जैसा ही था। घेंधू सर्दियों में दिन भर शरीर पर कंबल लपेटकर घूमता और गर्मियों में बनियान और पायजामे में। कई बार देखते थे कि फर्श पर बोरी बिछाकर सोया रहता था। शेट्टी स्टाईल में सिर घुटा हुआ,तेल चमकता हुआ और चेहरे पर वही सदाबहार हंसी। ये जरूर है कि वो हंसी बड़े भाई को देखकर इधर उधर हो जाती थी। घेंधू बड़े भाई से डरता भी था। कई बातों से उससे खार भी खाता था लेकिन ये भी जानता था कि वो जो भी है बड़े भाई के दम से ही है। छोटी मोटी बदमाशी कर लेता था। जैसे बड़ा भाई माल बेचने गया तो वो कच्चे माल की खाली बोरियों में से दो चार बोरियां कबाड़ी को बेच आता था। कहता था कि बीड़ी के पैसे भाई से मांगूंगा तो अच्छा थोड़े ही लगेगा। किस्से की कहानी पूरी। अब किस्सा शुरू। लड़कों के साथ चलती नोक-झोंक से किस्सा कुछ यूं खुला कि गई रात घेंधू का भाई अपने दोस्त से वीसीआर लेकर आया था और फिल्म देखने के घेंधू के अरमानों पर पानी फिर गया था जब गिलास में रंगीन पानी डालते हुए बड़े भाई ने धमकाया,जा बे, सो जा दूसरे कमरे में। आज्ञाकारी घेंधू चला आया कमरे में। फिल्म शुरू हो गई। कुछ देर के बाद बड़े भाई को शक हुआ और उसने चुपके से अंदर से दरवाजा खोल दिया। दरवाजे की झिर्री पर चिपका हुआ घेंधू दरवाजा खुलने पर मुंह के बल आकर फर्श पर गिरा। जब तक उठकर बाहर भागने का जतन करता तब तक जासूसी,ताक झांक,जलन के कई आरोप और कई धौल-लातें बरस गईं और हर लात पर घेंधू चिल्लाता था मोकू तो दो बोरी लेनी थी भाई। वाई को ओढ़ बिछा लेता,ठंड बहुत लग रही थी। मैं तो खैर उसे घेंधू कहकर नहीं बुलाता था। उस दिन के बाद से किसी और ने भी उसे इस नाम से नहीं बुलाया। उसका नया नाम दो बोरी हो गया था।

Dark Saint Alaick
06-04-2013, 09:30 AM
हर मौसम रंगीला ऐसा देस है मेरा

-पल्लवी सक्सेना

आखिर क्या है यह वैल्यू आफ लाइफ? इस विषय को लेकर हर एक इंसान की नजर में उसके अपने मत अनुसार अलग-अलग अर्थ हैं या हो सकते हैं। जैसे किसी की नजर में वैल्यू आफ लाइफ का अर्थ है असमानता में समानता का होना। जैसे लन्दन में हर काम को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। यहां काम के नजरिए से कोई छोटा या बड़ा नहीं है या फिर कुछ लोग इस विषय को निजी जरूरत के आधार पर भी देखते हैं। जैसे यहां बिजली, पानी,सड़क यातायात व्यवस्था इत्यादि की कोई समस्या नहीं है। ऐसे में बहुतों की नजर में यह वैल्यू आफ लाइफ से जुड़े हुए मुद्दे का एक बड़ा कारण हो सकता है। लेकिन यदि मैं अपने नजरिये और अपने अनुभव की बात करूं तो मेरे लिए वैल्यू आॅफ लाइफ है अनुभव के आधार पर जिंदगी को सीखना यानी जिंदगी की जद्दोजहद को खुद अनुभव करते हुए जीना ही वैल्यू आफ लाइफ है। वैसे आज कल के माहौल का तो सिर्फ सुना-सुना है कि अब देश और विदेश में कोई खास फर्क नहीं रह गया है। यह बात कहां तक सही है यह मैं नहीं जानती क्यूंकि मैं काफी समय से बाहर ही हूं और यदि छुट्टियों में भारत आती भी हूं तो केवल एक महीने के लिए और उसमें भी अधिकतर समय नाते रिश्तेदारों से मिलने जुलने में ही निकल जाता है। इसलिए बहुत समय हो गया किसी भी एक शहर को या वहां की जिंदगी को करीब से देखे हुए। अब तो मनस पटल पर केवल गुजरे हुए वक्त की छवि ही उभर कर आती है और ऐसा ही लगता है-नदी सुनहरी अंबर नीला, हर मौसम रंगीला, ऐसा देस है मेरा हो ऐसा देस है मेरा...। हाल ही में होली का त्यौहार गुजरा है तो रंगों का जिक्र होना स्वाभाविक ही है। क्यूंकि यह रंगों भरा त्यौहार अपने आप में बहुत सारे संदेश छिपाये हुए आता है और इन रंगों में हर दिल रंग जाने को चाहता है। हालांकि अब तो त्यौहारों के मनाये जाने में भी बहुत फर्क आ गया है। अब शायद त्यौहारों में भी पहले की भांति वह सादगी और वह अपनापन नहीं बचा है जो किसी जमाने में हुआ करता था। अब तो सब कुछ जैसे महज एक औपचारिकता रह गयी है। हर काम की फिर चाहे वह त्यौहार हों या नाते रिश्ते सभी पर प्यार का रंग कम और औपचारिकता रंग ज्यादा मात्रा में चढ़ा हुआ प्रतीत होता है। यूं भी आए दिन होते अपराधों में इजाफे के चलते अब केवल माता-पिता के अलावा किसी और रिश्ते पर विश्वास करने को दिल नहीं करता। अब तो बस ऐसा लगता है कि हर रिश्ते में राजनीति छिपी हुई है। जिसको देखो बस अपना उल्लू सीधा करना चाहता है। कब कौन कहां गिरगिट की भांति अपना रंग बदल ले कोई भरोसा नहीं। ऐसे हालातों में कभी-कभी यदि वापस आने के विषय में ख्याल भी आता है तो लोगों से एक ही बात सुनने को मिलती है कि अब यहां पहले जैसा कुछ बाकी नहीं है। सब बदल चुका है। यहां तक कि भोपाल के लोग भी यह कहते है कि अब भोपाल भी महानगरों की जिंदगी के ढर्रे पर आ गया है और महानगर उससे भी दो कदम आगे बढ़ गए हैं। इसलिए यदि तुम पहले वाली दुनिया समझकर वापस आने का सोच भी रहे हो तो मत सोचो अर्थात विदेशी आबोहवा के चलते अब यहां के लोग न यहां के रह गए हैं और न ही वहां के। सुनकर अफसोस हुआ। मन भी उदास हुआ क्यूंकि मेरा मानना तो अब भी जिंदगी का असली सुख इंडिया में ही है।

Dark Saint Alaick
10-04-2013, 09:58 AM
एक सवाल ने मुझे उलझा ही दिया

-पी.सी. गोंदियाल

मेरा पुत्तर बहुत होनहार है। और होगा भी क्यों नहीं। आखिर मेरा पुत्तर जो है। जैसे एक फौजी का बेटा अक्सर फौजी ही बनता है, पुलिस वाले का पुलिस वाला और आजकल तो जो लेटेस्ट ट्रेन्ड चल पडा है कि एक एमपी और एमएलए का बेटा भी एमपी और एमएलए ही बन जाता है। साथ में ऊपर से आश्चर्जनक बात यह भी कि आगे चलकर यदि वह भी मंत्री बन जाए तो बाप ही के नक्शे कदमों पर चल कर बाप से बड़ा घोटालेबाज भी बन जाता है। तो नेचुरल सी बात है कि एक होनहार बाप का पुत्तर ही तो होनहार होगा, जैसे मेरा है। कुछ दिन पहले ही की बात है। शाम को दफ्तर से थका-हारा घर पहुंचा ही था कि उसने मुझसे ऐसा धांसू सवाल पूछा कि थोड़ी देर के लिए तो मैं खुद भी चक्कर खा गया। कहने लगा,अच्छा पापा ये बताओ कि जो इन्सान कैरेक्टर का ढीला होता है उसके आगे बे अक्षर इस्तेमाल किया जाता है। मसलन बे-इज्जत,बे-कार, बे-शर्म,बे-गैरत, बे-ईमान....। वह अपनी ब्रेक-फेल जुबान से कुछ और शब्द निकाले इससे पहले ही मैंने कह दिया एकदम सही कहा बेटे...। पल भर को मेरी तरफ देख पलकें झपका कर वह फिर बोलने लगा,तो अच्छा पापा, ये बताओ कि जब यह बे अक्षर इतना ही कैरेक्टरलेस है तो फिर बेटा और बेटी में ये बे क्यों इस्तेमाल किया जाता है? उसका सवाल सुनना था कि बीवी की परोसी गरमा-गरम चाय को मैं नींबू-सरबत समझकर गटक गया। खैर, मैं भी कहां हार मानने वाला था? ऊपर से उसका बाप जो ठहरा। मैंने कहा, दरअसल बेटा, बात ये है कि जहां तक हिन्दी और देवनागरी का सवाल है तो टा अथवा टी अपने आप में कोई पूर्ण शब्द नहीं है। थोड़ा रूककर मैं मन ही मन बड़बड़ाया और संस्कृत मुझे आती नहीं इसलिए बेटा यह कहना अनुचित होगा कि किसी हिन्दी वर्णमाला के शब्द के अर्थ को विकृत करने के मकसद से यहां पर बे अक्षर इस्तेमाल किया गया होगा। किन्तु जहां तक अंगरेजी की बात है तो अंग्रेज लोग खासकर आॅस्ट्रेलिया और ब्रिटेन वासी टा शब्द इनफॉर्मल तरीके से धन्यवाद कहने के लिए इस्तेमाल किया करते हैं। और टी शब्द खेल में, खासकर गोल्फ और फुटबाल के खेल में उस बिंदु को कहते है जहां से पहले-पहल बॉल पर स्टिक (डंडी) अथवा लात से वार किया जाता है। इसलिए बेटा,अगर अंग्रेजों की भाषा के नजरिये से हम देखे ( फिर मन ही मन बड़बड़ाया- और हम देखते भी उसी नजरिये से ही है क्योंकि लम्बी गुलामी का खून जो दौड़ रहा है हमारी रगों में) तो जब टा का अर्थ होता है कृतज्ञता तो जाहिर सी बात है कि मां-बाप के प्रति जो सबसे बड़ा थैंकलेस इंसान होता है उसे बेटा कहते है। अब रही बात बेटी की तो उसमें भी ज्यादा सोचने जैसी कोई बात नहीं है क्योंकि खेल के मैदान में जिस निर्धारित जगह से स्टिक (डंडी) अथवा लात मारने की व्यवस्था होती है उसे टी कहा जाता है। लेकिन शायद पुत्री को बेटी इसलिए कहा गया होगा क्योंकि बाप को यही मालूम नहीं रहता कि घर में मौजूद जवान पुत्री की वजह से कब और किधर से उसकी पीठ पर डंडा या लात पड़ने वाली है। यानी डंडा अथवा लात पड़ने वाली जगह अनिश्चित है। शायद हमारे पुत्तर को हमारा यह समझाना पसंद नहीं आ रहा था। अब इस समझाइश में यह पता नहीं लग पा रहा था कि वह ज्यादा समझदार है या मैं।

Dark Saint Alaick
15-04-2013, 12:49 AM
खुद को तानसेन से कम नहीं समझा
पूजा उपाध्याय

हम अपने आप को बहुत से दराजों में फिक्स डिपाजिट कर देते हैं। वक्त के साथ हमारा जो हिस्सा था वो और समृद्ध होता जाता है और जब डिपाजिट की अवधि पूर्ण होती है, हम कौतुहल और अचरज से भर जाते हैं कि हमने अपने जीवनकाल में कुछ ऐसा सहेज के रख पाए हैं। ऐसा एक फिक्स डिपोजिट मेरे हारमोनियम में है। छह साल के शास्त्रीय संगीत के दौरान उस एक वाद्य यंत्र पर कितने गीतों और कितने झगड़ों का डिपोजिट है। आज सुबह से उस हारमोनियम की आवाज को मिस कर रही हूं। हमारा पहला हारमोनियम चोरी हो गया था। शहर की फितरत। वहां चोर भी रसिक मिजाज होते हैं। दूसरा हारमोनियम जो लाया गया, कलकत्ते से लाया गया था। बहुत महंगा था क्योंकि उसके सारे कलपुर्जे पीतल के थे। उसमें जंग नहीं लगती और बहुत सालों तक चलता। उस वक्त हमें मालूम नहीं था कि बहुत साल तक इसे बजाने वाला कोई नहीं होगा। उस वक्त हम भाई बहन एक रियाज करने के लिए जान देते थे। हम उसे बहुत प्यार से छूते थे। नयी लकड़ी की पोलिश। चमड़े का उसका आगे का हवा भरने वाला हिस्सा। उसके सफेद कीज ऐसे दिखते थे जैसे बारीक संगेमरमर के बने हों। मैं अक्सर कन्फ्यूज होती थी कि वाकई संगेमरमर है क्या? उस वक्त हमारी दुनिया छोटी थी और कोई चीज हो सकती है या नहीं हो सकती है, मालूम नहीं चलता था। हारमोनियम को गर्मी बहुत लगती थी तो गर्मियों में एक तौलिया भिगो कर, निचोड़ कर उसके ऊपर डाल देते थे और बक्सा बंद कर देते थे। कभी कभी ऐसा शाम को भी करते थे। गाना गाने को लेकर हमारी अलग बदमाशियां थीं। राग देश में जो छोटा ख्याल सीखा था उसके बोल थे बादल रे उमड़ घुमड़ बरसन लागे बिजली चमक जिया डरावे। मजेदार बात ये थी कि जून-जुलाई के महीने में अक्सर छुट्टी में रियाज में यही राग गाती थी। बारिश होती थी तो अपने आप को तानसेन से कम नहीं समझती थी कि मेरे गाने के कारण ही बारिश हो रही है। जिमी ने संगीत सीखना मुझसे एक साल बाद शुरू किया था। वो छोटा सा था तो उसके हाथ हारमोनियम पर पूरे नहीं पड़ते थे। सर हम दोनों को अलग अलग ख्याल सिखाते थे। मैं हमेशा हल्ला करती थी कि सर जिमी को ज्यादा अच्छा वाला सिखाते हैं। जिमी हमसे बहुत अच्छा गाता था बचपन में। हारमोनियम हम पटना लेकर आए। वहां कभी-कभी रियाज करते थे। डर लगता था पड़ोसी हल्ला करेंगे। दरअसल रियाज करने का असल मजा भोर में है। जब सब कुछ एकदम शांत हो,हलकी ठंढी हवा बह रही हो। पटना में वही गाते थे पर हारमोनियम नहीं बजा पाते थे। याद नहीं कितने साल पहले आखिरी बार हारमोनियम बजाया था। कल रिकोर्डिंग स्टूडियो में थी। शीशे के उस पार जाते ही दिल की धड़कन बढ़ जाती है। गीत के बोल भूलने लगती हूं जबकि मैंने लिखे हैं और मुझे हर शब्द जबानी याद है। कल आर्टिस्ट को आलाप लेते देखा तो पुराने दिन याद आए। अब तो सपने में भी ऐसा आलाप नहीं ले सकती। शायद हारमोनियम का फिक्स डिपोजिट कम्प्लीट हो गया है। अबकी देवघर जाउंगी तो ले आउंगी अपने साथ। बहुत सालों से टाल रही हूं पर इस बार सर से भी मिलूंगी। अन्दर बहुत सा खालीपन भर गया है। उसे कुछ सुरों से, कुछ लोगों से, कुछ आशीर्वादों से भरूंगी..।

Dark Saint Alaick
16-04-2013, 08:16 AM
कोई बात कहने से पहले सौ बार सोचो

-मोनिका शर्मा

कहते हैं कि अपने मन मस्तिष्क में सब कुछ सोचा तो जा सकता है पर सब कुछ कहा नहीं जा सकता क्योंकि शब्द जिसके मुख से उच्चारित होते हैं उस व्यक्ति विशेष के लिए हमारे मन में गरिमा और विश्वसनीयता के मापदंड तय करते हैं। इस विषय में यह मान्यता होती है कि कही गयी बात बोलने वाले व्यक्ति ने विचार करने के बाद ही कही होगी । चर्चित चेहरों के विषय में बात ज्यादा लागू होती है क्योंकि समाज में उन्हें एक आदर्श व्यक्तित्व के रूप में देखता है। संभवत: इसीलिए कहा गया है कि प्रसिद्धि अपने साथ उत्तरदायित्व भी लाती है जिसे निभाने के लिए सबसे पहला कदम तो यही है कि विचार रखने से पहले सोचा समझा जाय। वो नहीं,ये कहा था। शब्द जब तक अकथित हैं विचारों के रूप में केवल हमारी अपनी थांती हैं । मुखरित होने के बाद शब्द हमारे नहीं रहते । इसीलिए जो कहा जाय वो सधा और सटीक हो,यह आवश्यक है। यूं भी शब्दों के प्रयोग को लेकर विचारशीलता बहुत मायने रखती है। स्वयं को व्यक्त करते समय यह विचार करना आवश्यक है कि आपकी अभिव्यक्ति मर्यादित है या नहीं। जो कह डाला उसे बदलने या अपने कहे की जिम्मेदारी ना लेने से हमारे ही विचारों की विश्वसनीयता संदेह के घेरे में आती है। हमारे यहां तो अपने ही शब्दों में उलटफेर करना एक खेल के समान है। राजनेता,अभिनेता और सामाजिक कार्यकर्ता से लेकर एक आम नागरिक तक, अपने द्वारा कथित वक्तव्यों से पलटने के इस खेल में निपुण हैं। मेरी कही बात का गलत अर्थ निकाला गया है या मेरे कहने का का अभिप्राय वो नहीं है जो आप समझ रहे हैं जैसे वाक्य कहकर अपने द्वारा कहे शब्दों का अर्थ-अनर्थ सब बराबर कर देते हैं। इस मार्ग को तो यहां अनगिनत बुद्धिजीवियों ने भी बड़े गर्व के साथ अपनाया है। प्रश्न ये उठता है कि घर से लेकर स्कूल तक हमारी प्रारंभिक शिक्षा-संस्कारों में ही अपने कहे शब्दों की जिम्मेदारी लेने की सीख क्यों दी जाती? क्यों नहीं यह पाठ पढ़ाया जाता कि जो कहें सोच विचार कर कहें क्योंकि यदि व्यक्तिगत रूप से हम सब अपने वक्तव्यों के लिए जवाबदेह बनते हैं तो कई सारी सामाजिक-पारिवारिक समस्याओं का निपटारा तो यूं ही हो जाएगा। ऐसा इसलिए कि जब सोच विचार कर कहेंगें तो उस जिम्मेदारी को निभाने में भी पीछे नहीं रहेंगें। मानसिकता ही ऐसी विकसित होगी कि कथनी और करनी में कोई अंतर न रह जाएगा। अंतत: यही सोच हमें वास्तविकता से जोड़ने का काम करेगी। जो देश, समाज और परिवार के प्रति जिम्मेदारियों के भाव को जन्म देगी। जो कहा जा चुका है उसका स्पष्टीकरण देने की परस्थितियां ही न बनें। इसके लिए यह आवश्यक है कि अपने विचारों को साझा करने से पहले शब्द और उनका भावी अर्थ हमारे ही मन-मस्तिष्क में स्पष्ट हो। हमें इतना तो याद रखना ही होगा कि मुखरित शब्दों में कभी संशोधन नहीं होता। इसलिए मेरा तो यही मानना है कि जो बी बोला जाए सोच समझ कर और तोल कर बोला जाए । कहीं ऐसा नही हो कि एक बार बोलने के बाद हमे लगे कि आखिर ये शब्द मैने क्यों कहे। दरअसल शब्द एक ऐसा घाव है जो एक बार किसी को लग जाए तो ताउम्र उसका घाव नहीं भरता है। हर बीमारी का इलाज किया या करवाया जा सकता है लेकिन शब्दों से हुए घाव को नहीं भरा जा सकता।

Dark Saint Alaick
19-04-2013, 01:16 AM
रात से भोर तक बनाया कोलाज

-पूजा उपाध्याय

देर रात काम ही काम करना। नींद को देना भुलावे। सपनों को भेजना कल आने के मीटिंग-पोस्टपोनमेंट रिक्वेस्ट। खिड़की के पल्ले से आती हल्की हल्की हवा का विंडचाइम को रह-रह कर चुहल से जगाना और उस विंडचाइम का हल्के-हल्के बज उठना। खामोशी सा कोई निर्वात रचना। लिखना जाने क्या क्या। लिखना वो जो मन में उभर रहा हो। कैसे शब्द ढूंढना। कौनसे शब्द ढूंढना। कहां से लाना साम्य। कैसे तलाशना शब्दों के अर्थ। कैसे दृश्यों में खोना। इतना खोना कि क्या लिखें और क्या सोंचे कुछ समझ ही ना आए। लिखना स्क्रिप्ट। लिखना लिरिक्स। खो जाना किसी और समय में। परीकथाएं बुनना। बुनते बुनते यह भी भान नहीं रहना कि किस परी के बारे में क्या क्या लिखा जा सकता है। दरवाजे की चौखट पकड़े सोचना किसका तो नाम। हां,मर मिटना नीत्जे पर। नेरुदा पर। स्पैनिश, जर्मन। क्या क्या पढ़ना। जो भी भाषा समझ में आ जाए उसी भाषा में कुछ ना कुछ पढ़ना। किन-किन भाषाओं में इंस्ट्रूमेंटल सुनना। तलाश करना कि इस भाषा का इंस्ट्रूमेंट कैसे बोलता है। फिर खोजना शब्द सलीके के। करना आफिस का काम और मेरी जान, भूल जाना उस लड़की को जिसे चिट्ठियां लिखने की आदत थी। जिसे किस्से सुनाने में लुत्फ आता था। जो फोन कर के कहती थी जरा वो कविता सुना दो ना। तुम्हारी आवाज से किसकी तो याद आती है। जिसे वो सारे लोग अच्छे नहीं लगते। जिन्हें कविता कविताएं अच्छी नहीं लगती। उलाहने देना। भोर की किरणों को। नींद भरी आंखों से सर दर्द को देखना। याद करना शामों को। इस वसंत में आई हुयी पतझड़ की शामें। सड़क के दोनों ओर बेतरतीबी से बिछे हुए पत्तों का ढेर। सूखे पत्तों की कसमसाती महक। उंगलियों में मसल देना एक पत्ते की पीली नसों को। जैसे खतों के कागज में लगाना आग। बौरायी हवा में आम के बौर का घुल जाना। ये कैसी गंध है। मिली-जुली। किधर का दरवाजा खोलती है। कोई आदिम कराह है। मेरा नाम पुकारती है। समय के उजाड़ मकानों में मुझे टोहती है। एक मैं हूं। धूल में लिखती हुयी कविता। मिटाती अपनी हस्ती को। देखती हूं अपना नाम उंगलियों के पोरों में। पार्क में खिलते हैं फिरोजी रंग के फूल। पाती हूं उनकी जड़ों में मेरी टूटी हुयी दवात। भूल जाना लिखना। बंद कर देना किसी गहरे हरे दवात में अगली बहार के मौसम के लिए। भूल जाना कि नयी कोपलों का रंग होता है सुर्ख लाल। आँखों को कहना कि न पढ़े कविता। कानों को कहना कि न सुने उसका नाम कि उस नाम से उग आती है कलमें कितने रंग कीं मेरे अन्दर। सियाह रातें जब दर्द में चीखती हैं तब जा कर जनमती है कविता। तरबीब से जीना जिंदगी को लड़की। समेटना सब कुछ अपने अन्दर मगर ब्लैक होल की तरह। मत भेजना प्रकाश की एक किरण भी बाहर कि तुम्हारी तस्वीर भी न खींच पाएं लोग। निर्वात से जानें तुम्हें ऐसा हो तुम्हारा गुरुत्व। सिर्फ सुनने में अच्छा लगता है सुपरनोवा। मरते हुए तारे की आखिरी पुकार होती है। अनगिन गैलेक्सीज पार कर तुम्हारे दिल को छलनी कर जाती। सबसे पास का तारा। तकलीफों के इस बेसमेंट में मुस्कुराहटें बचाए रहना। किचन के डिब्बे में रखना थोड़ा दालचीनी का पाउडर। घड़ी में घुलना जरा जरा सा। थोड़ी स्ट्रोंग बनना। यहाँ की फिल्टर कॉफी की तरह। कैमरा को देख कर कहना,स्माइल प्लीज ...।

Dark Saint Alaick
23-04-2013, 10:14 PM
बस, एक दूजे पर थोड़ा भरोसा कर लें

-अली सैयद

अपना आंगन परिंदों का डेरा। बेफिक्र चहकती, दाने चुगती, डालियों पर फुदकती चिड़िया। बाकी चिड़िया रात कहां गुजारती होगी। कभी गौर नहीं किया। शायद बगीचे के दरख्तों पर या फिर कहीं और। एक गौरैया पिछले साल से लगातार घर के अंदर, सीढ़ियों के ऊपरी हिस्से की सबसे ऊंची खिड़की के पेलमेट की स्टील रॉड पर शब गुजारती है। घर के दरवाजे शाम को बंद होने से एन पहले वो अपने ठिये पर हाजिर हो जाती है और हर सुबह जब मैं दरवाजे खोलता हूं, वो बाहर परवाज कर जाती है। कभी दरवाजे खोलने में देरी हो तो वो हाल में तेज पंख फड़फड़ाती हुई उड़ती और चीख मचाती है और दरवाजा खोलते ही खुले आसमान में ये जा वो जा...। आज सुबह लगा कि चाय पीने के बाद दरवाजे खोलने में कोई हर्ज नहीं सो चाय हलक से नीचे उतार रहा था कि वो बेडरूम में दाखिल हुई। उसने कमरे के अंदर दो उड़ान भरी और बाहर हाल में चली गई। कुछ सेकण्ड बाद शायद उसे लगा कि मैंने उसे तवज्जो नहीं दी है सो फिर कमरे में दाखिल हुई और पंख फड़फड़ाए व फिर कमरे के बाहर चली गई। मुझे अहसास हुआ कि गलती हुई है। मैं उठा और दरवाजा खोलने के लिए चल पड़ा। उसे इसी बात का इंतजार था। दरवाजा खुलते ही उसने आकाश साध लिया और मैं सोच में पड़ गया कि हम बे-जात लोग, एक दूसरे से बिल्कुल अलग, कद काठी, शक्ल-ओ-सूरत,रंग...। एक भरोसे के सहारे कितनी आसानी से साथ जिन्दगी गुजार पा रहे हैं। इधर एक छुटकू इंसान अपने घर मेहमान हुआ है। रिश्ते में मेरी अहलिया उसकी फूफी हुईं और इस नाते मैं उसका फूफा। उम्र कोई डेढ़ बरस। दो तकियों की ऊंचाई पर सिर रख चित लेटे हुए अखबार पढ़ने का हुनर उसने मुझसे सीखा है। फर्क सिर्फ इतना कि जहां मैं खामोश रहकर अखबार बांचता हूं वहीं वो हर्फों पर अपनी नन्ही अंगुलियों के इशारे के साथ यूं बुदबुदाता है कि जैसे अखबार पढ़ना कोई बच्चों का खेल हो। दूसरे बच्चों की तरह से खिलौने तोड़ना, चीजों को बेदर्दी से पटकना,उसकी खास काबिलियत में शुमार किए जाते हैं सो उसे उसकी खास फरमायश पर एक मोबाइल फोन मुहैय्या कराया गया है ताकि वक्त-बेवक्त वो जिससे चाहे बात कर सके। आज सुबह देखा कि उसका फोन मेरे फोन के ठीक बाजू में बिल्कुल मेरे फोन की तरह से एक फोन केस में सुरक्षित रखा है। शायद उसे मेरी अनुकृति होने, मुझसे सामाजिक दीक्षा लेने जैसे प्रभाव दिखलाने में मजा आ रहा हो। वो शक्ल-सूरत और स्वभाव में फिलहाल मुझसा नजर आ रहा है। उस गौरैया की तुलना में वो हम-जात है। मुझ जैसा आदमजाद। पर बड़े होकर वो मेरा हम ख्याल,दोस्त बना रहे ये जरुरी नहीं है। एक परिंदे के मुकाबिले में उस इंसान जात के मुझसे जीवन भर पटरी बैठाए रहने की संभावना शायद हां हो या शायद नहीं भी। कोई एक मुकम्मल तस्वीर नही। बस फिफ्टी फिफ्टी। दोस्ती या दुश्मनी, सहमति या रंजिशों की हद से बाहर जाकर असहमतिया। ख्याल ये कि अगर हम थोड़ा सा भरोसा,जरा सा स्पेस एक दूसरे के हिस्से में डाल पायें तो जात क्या, बे-जात क्या? रंग क्या,बे-रंग क्या? अपनी जिþन्दगी कितनी सहज, कितनी स्मूथ,कितनी आसान कर लें। या तैयार हो जाएं दुश्वारियों, दुश्चिंताओं के दरम्यान कभी भी आपस में मर कट कर खत्म हो जाने के लिए।

Dark Saint Alaick
30-04-2013, 10:22 PM
गुम क्यों हो रही मानवीय संवेदना

-मोनिका शर्मा

यूं तो संवेदनहीनता से हमारा साक्षात्कार प्रतिदिन किसी न किसी समाचार पत्र की सुर्खियां करवा ही देती हैं पर कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं कि पूरे समाज की मानवीय सोच पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाता है। आजकल तो आये दिन कोई न कोई वाकया इस बात की पुष्टि कर जाता है कि हमारी सामाजिक संवेदनाओं का लोप हुआ है और होता ही जा रहा है । कभी कभी तो लगता है हमारी इस अमानवीय उन्नति के विषय में संदेह करना ही बेकार है। हम हर दिन एक नया उदहारण प्रस्तुत कर रहे हैं असंवेदनशील व्यवहार का नया शिखर छू रहे हैं। हाल ही में जयपुर की एक सुरंग मार्ग पर हुयी सड़क दुर्घटना में एक पिता अपने चोटिल मासूम बच्चे को लेकर घंटों बिलखता रहा पर कोई भी वहां नहीं रुका। इस दुर्घटना में अपनी पत्नी और बच्ची को खो चुका यह आदमी वहां से गुजरने वाले लोगों से सहायता मांगता रहा पर किसी ने भी उसकी मदद नहीं की । जयपुर आज भी देश के बहुत बड़े शहरों में नहीं आता। यहां बड़े से मेरा तात्पर्य देश के ऐसे महानगरों से है जहां सामाजिक परिवेश से कोई नाता ही न रहे। यहां महानगरों के सन्दर्भ में बात कर रही हूं यह सोचते हुए कि यदि जयपुर जैसे सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण वाले नगर और उसके नागरिकों की संवेदनशीलता का यह हाल है तो बड़े शहरों के हालातों का तो अनुमान लगाना भी असंभव है। ऐसी घटनाएं दामिनी केस की भी याद दिलाती हैं। जिस दामिनी को न्याय दिलाने पूरा देश सड़कों पर उतर आया था वो घंटों बिना कपड़ों के सड़क पर तड़पती रही और कोई उसकी और उसके साथी की सहायता के लिए नहीं रुका। कभी कभी तो आश्चर्य होता है कि मानवीय संवेदनाओं को यूं ताक पर रखने वाले हम आन्दोलन करने कैसे निकल पड़ते हैं? क्या यह सोचने का विषय नहीं कि विपत्ति में फंसे लोगों की सहायता करने में हमारी सहभागिता कितनी है या कितनी होनी चाहिए? निश्चित रूप से यह चिंतन-मनन का विषय है। देश के प्रत्येक नागरिक के लिए भी और प्रशासनिक व्यवस्था के लिए भी। एक आम नागरिक के लिए यह विचारणीय है क्योंकि हमें यह विचार क्यूं नहीं आता कि ऐसी दुखद घटना किसी के भी साथ हो सकती है। हमारे साथ भी। हमारे अपनों के साथ भी। तो हमें कैसा लगेगा लोगों का ऐसा व्यवहार देखकर। मनुष्यता के मायने तो यही सिखाते हैं कि इन आपातकालीन परिस्थितियों में पीड़ित को हर संभव मदद उपलब्ध करवाई जाए। यह सहायता हर जिम्मेदार नागरिक का कर्तव्य और और संवेदनशील इन्सान का धर्म है। प्रशासनिक व्यवस्था के लिए भी ऐसे वाकये चिंतन करने योग्य हैं। व्यवस्था के लिए यह शोध का विषय होना चाहिए कि क्यों कोई आम नागरिक ऐसे मामलों में चाहकर भी मदद का हाथ आगे नहीं बढाता? हर कोई बस बचकर निकलना चाहता है। यह प्रशासनिक व्यवस्था के प्रति विश्वास की ही कमी है कि आम आदमी अपने बच्चों को भी यही सिखाता है कि ऐसे मामलों में वे किसी झमेले में न उलझें। बस बचकर निकल आयें । आम आदमी की सुरक्षा और सहयोग के लिए बने राज और समाज के इस तानेबाने में आयी यह विश्वनीयता की कमी कितने ही प्रश्न उठाती है। भय का वातावरण तैयार करती है। संकट के समय ही हम साथ नहीं, संगठित नहीं तो हमारी सामाजिक व्यवस्था के क्या अर्थ रह जायेंगें?

Dark Saint Alaick
24-05-2013, 12:41 AM
पल भर में शिशु ने हमें बूढ़ा बना दिया

- विष्णु बैरागी

हमारी मौजूदा गृहस्थी की तीसरी पीढ़ी का पहला सदस्य अदम्य। हमारा पहला पोता। इसका जन्म तो हुआ 22 मार्च की शाम 7 बजकर 4 मिनिट पर किन्तु उस सुबह 5 बजे से ही हमारी सम्पूर्ण चेतना, सारी गतिविधियां, सारी चिन्ताएं,सारे विचार इसी पर केन्द्रित हो गए थे। इसकी मां प्रशा को उसी समय इसने अपने आगमन की पहली सूचना दी थी। 21 मार्च की शाम को प्रशा को डॉक्टर को दिखाया था। डॉक्टर ने कहा था ,15 अप्रेल या उसके बाद प्रसव होगा किन्तु 21 और 22 मार्च की रात्रि में कोई दो बजे से प्रशा असामान्य हो गई। तीन घण्टे तक वह सहन करती रही। अन्तत: सुबह पांच बजे अपनी सास, मेरी उत्तमार्द्ध को उठा कर स्थिति बताई। उन्होंने मुझे उठाया और फौरन डॉक्टर से फोन पर बात की। डॉक्टर ने कहा आठ बजे ले आइए। प्रशा को अस्पताल में भर्ती करा दिया। डॉक्टर ने पहले ही क्षण कहा,डिलीवरी आज ही होगी। शाम चार बजे तक नार्मल की प्रतीक्षा करेंगे। नहीं हुआ तो सीजेरियन करना पड़ेगा। परिवार में हम दो ही सदस्य और दोनों ही अस्पताल में। याने हमारा पूरा परिवार अस्पताल में। सुबह नौ बजे बेटे वल्कल को, मुम्बई सूचित किया। शाम छह बजे वल्कल पहुंच गया। चार बजे तक तो हम सब सामान्य थे किन्तु उसके बाद से सीजेरियन की कल्पना से ही घबराहट होने लगी। प्रशा को चार बजे से ही डाक्टर और नर्सों ने लेबर रूम में ले लिया था। पांच बजे। छह बज। नर्सों की आवाजाही कम हो गई थी। सात बज गए। लेकिन कहीं से कोई खबर नहीं। मैं पस्तहाल आॅपरेशन थिएटर के बाहर बेंच पर बैठ गया। लगभग सात बजकर दस मिनिट पर नर्स बाहर आई और मेरी उत्तमार्द्ध से बोली, लाइए, कपड़े दीजिए। मेरी उत्तमार्द्ध पूरी तैयारी से आई थी। फौरन कपड़े दिए। मैं ही नहीं हम सब सकते में थे। किसी को कुछ नहीं सूझ रहा था। तभी मेरी बांह थपथपाकर ढाढस बंधाते हुए मेरी उत्तमार्द्ध बोलीं ,खुश हो जाइए। डिलीवरी हो गई है। आप दादा बन गए हैं। मुझे विश्वास नहीं हुआ। नर्स ने तो कुछ नहीं कहा। फिर ये कैसे कह रही हैं? मैंने पूछा,आपको कैसे मालूम? नर्स ने तो कुछ भी नहीं कहा। वे सस्मित बोलीं ,ईश्वर ने यह छठवीं इन्द्र्री हम औरतों को ही दी है। कुछ पूछिए मत। किसी को फोन कीजिए। फौरन मिठाई मंगवाइए। मैं नहीं माना। मैं कुछ पूछता उससे पहले नर्स फिर प्रकट हुई। मैं कुछ बोलूं उससे पहले ही वह हवाइयां उड़ती मेरी शकल देख मुस्कुराती हुई मेरी उत्तमार्द्ध से बोली,सर को अभी भी समझ में नहीं आया होगा। डिलीवरी हो गई है। नार्मल हुई है और बाबा हुआ है। हमें अपनी वंश बेल बढ़ने से अधिक प्रसन्नता इस बात की थी कि हमारी प्रशा सीजेरियन का आजीवन कष्ट भोगने से बच गई। ईश्वर की यह अतिरिक्त कृपा हमें अनायास ही हमें सामान्य होने में तनिक देर लगी और जब हम खुद में लौटे तो रोमांचित थे। हम दादा-दादी बन गए। हम दोनों आपस में कुछ भी बोल नहीं पा रहे थे। थोड़े सहज हुए तो हम दोनों ने वल्कल को बधाईयां और आशीष दी। तभी नर्स हमारे परिवार की अगली पीढ़ी के पहले सदस्य को कपड़ों में लिपटाए लाई और मेरी उत्तमार्द्ध को थमा दिया। इसके बाद जो-जो होना थाए वह सब हुआ। हमारी जिन्दगी बदल चुकी थी। क्या अजीब बात है। एक नवजात शिशु ने पल भर में हमें बूढ़ा बना दिया और हम थे कि निहाल हुए जा रहे थे।

Dark Saint Alaick
24-05-2013, 12:42 AM
फिजूल है अपने मन की बात कहना

-अनु सिंह चौधरी

मैं क्या लिखूं? कोई इस बारे में क्या लिख सकता है? इस लिखने का हासिल भी क्या होगा? उस दिन सुबह टीवी पर पहला फ्लैश देखा था। पांच साल की बच्ची इस बार पीड़िता है। बच्ची। पांच साल की। पांच साल की बच्ची जिसके साथ ना सिर्फ दुष्कर्म हुआ बल्कि उसके साथ ऐसी हैवानियत हुई कि सोचकर रोआं-रोआं कांप उठता है। मैं क्या लिखूं इस बारे में? सारे अखबारों की पहली खबर रही ये। आपने भी पढ़ी होगी। नहीं चाहा होगा फिर भी पढ़ी होगी। अपने सिर को दीवार पर मार देने की ख्वाहिश जागी थी क्या भीतर? कुछ खौला था? कुछ दरका था अंदर? या पन्ने पलट दिए थे आपन कि एक दिल्ली का गैंगरेप, एक सीकर रेप केस, एक भंडारा रेप केस भूले नहीं कि एक और। पांच साल की बच्ची है वो, ये कैसे भूलेंगे हम? साढ़े चार साल की एक और बच्ची है जो कहीं दूसरे शहर में अस्पताल में जूझ रही है। शहर का नाम क्या है इससे फर्क नहीं पड़ता। गूगल कीजिए तो चार-पांच साल के बच्चों से जुड़ी ऐसी ढेरों ख़बरें मिल जाएंगी आपको सिर्फ भारत के वेब पन्नों से। नहीं जानती कि ऐसी बच्चियों के लिए मर जाने की दुआ ज्यादा शिद्दत से करूं या उसके बच जाने की। मैं आंकड़ों में बात नहीं करना चाहती फिर भी सुना है कि हमारे देश में हर डेढ़ मिनट में एक दुष्कर्म होता है। मुझे घिन आती है फिर भी मैंने गूगल करके देखा कि हमारे देश के तकरीबन पचास फीसदी बच्चे यौन शोषण का शिकार हुए हैं किसी ना किसी रूप में। बच्चे,यानी बेटे और बेटियां दोनों। कभी कोशिश मत कीजिए जानने की या इस बारे में पढ़ने की। इसलिए क्योंकि हमें अपनी ख़ुशफहमियों की दुनिया में रहना है, हमें रातों की अपनी नींदें गुम करना गवारा नहीं। और ये जो खबर पढ़ी होगी ना आपन। ये ताजा ताजा। इससे अब सूखकर जम चुके ख़ून की भी बदबू नहीं आती। ये दुष्कर्म,यौन शोषण,अत्याचार की पराकाष्ठा है। नर्क की आग की तकलीफ इससे वीभत्स होती होगी,मुझे शक है। मैं क्यों लिख रही हूं इस बारे में? सही है कि फायदा भी क्या है। लेकिन मुझे भी याद रहे और आपको भी कि हमारे आस-पास हो क्या रहा है आखिर। हम उस समाज के बाशिंदे हैं जहां पीड़ित परिवार को दो हजार रुपए का लालच देकर रिपोर्ट ना लिखाने की गुजारिश की जाती है। फिर डराया-धमकाया जाता है। हम उस समाज के बाशिंदे हैं जहां दुष्कर्म की रिपोर्ट लिखाने के लिए जाने वालों को पुलिस थानों में बंद किया जाता है,उन्हें मारा-पीटा जाता है। हम उस कमबख्त समाज के बाशिंदे हैं जो लड़की,औरत, बूढ़ी,बच्ची या फिर बच्चे तक किसी को बख्शने में यकीन नहीं करता। हम उस बदकिस्मत समाज के बाशिंदे हैं जो अपने से कमजोर पर हावी होने में अपनी शान,अपनी मर्दानगी समझता है। हम उस बदनाम समाज के बाशिंदे हैं जो अब ना बदला तो गर्त में जाकर अपनी वजूद के निशान भी ढूंढ पाएगा, मुमकिन नहीं। कौन सा एंटी रेप कानून? इस देश में कानून का खौफ होता तो यही हाल होता? हमें अपने कानून पर उतना ही यकीन है जितना इस बात पर कि कानून-प्रक्रिया कानून के हाथों से भी लंबी होगी। मैं क्रांतिकारी नहीं। मैं सभ्य समाज में सबके समान अधिकारों की पक्षधर हूं। आप भी मेरे जैसा ही सोचते होंगे। फिजूल है हमारी शर्मिंदगी और हमारा डर। उसी तरह जिस तरह फिजूल है मेरा मन की बात आज इस तरह लिख देना।

Dark Saint Alaick
05-06-2013, 12:47 AM
अच्छा लगता है जब बच्चे सिखाते हैं

-प्रवीण पांडेय

बच्चे पता ही नहीं चलता है कब बड़े हो जाते हैं? कल तक लगता था कि इन्हें अभी कितना सीखना है, साथ ही साथ हम यही सोच कर दुबले हुए जा रहे थे कि कैसे ये इतना ज्ञान समझ पाएंगे? अभी तक उनकी गतिविधियों को उत्सुकता में डूबा हुआ स्वस्थ मनोरंजन समझते रहे, सोचते रहे कि गंभीरता आने में समय लगेगा। बच्चों की शिक्षा में हम सहयोगी होते हैं, बहुधा प्रश्न हमसे ही पूछे जाते हैं। उत्सुकता एक वाहक रहती है, हम सहायक बने रहते हैं उसे जीवन्त रखने में। जैसा हमने चीजों को समझा, वैसा हम समझाते भी जाते हैं। बस यही लगता है कि बच्चे आगे आगे बढ़ रहे हैं और हम उनकी सहायता कर रहे हैं। यहां तक तो सब सहमत होंगे, सब यही करते भी होंगे। जो सीखा है, उसे अपने बच्चों को सिखा जाना, सबके लिये आवश्यक भी है और आनन्दमयी भी। यहां तक तो ठीक भी है पर यदि आपको लगता है कि आप उनकी उत्सुकता के घेरे में नहीं हैं तो पुनर्विचार कर लीजिये। यदि आपको लगता उसकी उत्सुकता आपको नहीं भेदती है तो आप पुनर्चिन्तन कर लीजिये। प्रश्न करना तो ठीक है पर आपके बच्चे आपके व्यवहार पर सार्थक टिप्पणी करने लगें तो समझ लीजिये कि घर का वातावरण अपने संक्रमण काल में पहुंच गया है। टिप्पणी का अधिकार बड़ों को ही रहता है, अनुभव से भी और आयु से भी। बच्चों की टिप्पणी यदि आपको प्राप्त होने लगे तो समझ लीजिये कि वे समझदार भी हो गए और आप पर अधिकार भी समझने लगे। उनकी टिप्पणी में क्या रहता है, उदाहरण आप स्वयं देख लीजिये। मेरी बिटिया कहती है कि आप पृथु भैया(मेरे बेटे) को ठीक से डांटते नहीं हैं। जब समझाना होता है तब कुछ नहीं बोलते हो। जब डांटना होता है तब समझाने लगते हो। जब ढंग से डांटना होता है तब हल्के से डांटते हो और जब पिटाई करनी होती है तो डांटते हो। ऐसे करते रहेंगे तो वह और बिगड़ जायेगा। हे भगवान, दस साल की बिटिया और दादी अम्मा सा अवलोकन। क्या करें, कुछ नहीं बोल पाए। सोचने लगे कि सच ही तो बोल रही है बिटिया। अब उसे कैसे बताएं कि हम ऐसा क्यों करते हैं? अभी तो प्रश्न पर ही अचम्भित हैं थोड़ी और बड़ी होगी तो समझाया जायेगा विस्तार से। उसके अवलोकन और सलाह को सर हिला कर स्वीकार कर लेते हैं। पृथु कहता है कि आप इतना लिखते क्यों हो, इतना समय ब्लॉगिंग में क्यों देते हो? आपको लगता नहीं कि आप समय व्यर्थ कर रहे हो। इससे आपको क्या मिलता है? थोड़ा और खेला कीजिये नहीं तो बैठे बैठे मोटे हो जायेंगे। चेहरे पर मुस्कान भी आती है और मन में अभिमान भी। मुस्कान इसलिये कि इतना सपाट प्रश्न तो मैं स्वयं से भी कभी नहीं पूछ पाया और अभिमान इसलिये कि अधिकारपूर्ण अभिव्यक्ति का लक्ष्य आपका स्वास्थ्य ही है और वह आपका पुत्र बोल रहा है। कई बच्चे अपने माता पिता को आदर्श मानते हैं पर जब उनके अन्दर यह भाव आ जाए कि उन्हे थोड़ा और सुधारा जा सकता है, थोड़ा और सिखाया जा सकता है तो वे अपने आदर्शों को परिवर्धित करने की स्थिति में पहुंच गए हैं। उनके अन्दर वह क्षमता व बोध आ गया है जो वातावरण को अपने अनुसार ढालने में सक्षम है। पता नहीं कि हम कितना और सुधरेंगे या संवरेंगे पर जब बच्चे सिखाते हैं तब बहुत अच्छा लगता है।

Dark Saint Alaick
18-06-2013, 11:36 AM
याद आते हैं पुराने हिन्दी फिल्मी गीत

-सागर

सुबह आकाशवाणी की उर्दू सर्विस सुन रहा था। इतने अच्छे फिल्मी गीत आ रहे थे कि काम करते-करते उंगलियां कई बार ठिठक जाती थीं और गीतों के बोलों में खो जाता था। गजलें कई बार दिमाग स्लो कर देती हैं और एक उदास सा नजरिया डेवलप कर देती हैं। कभी कभी इतनी भारी भरकम समझदारी का लबादा उतार कर एकदम सिंपल हो जाने का मन होता है। रेट्रो गाने सुनना, राम लक्ष्मण का संगीत, उनसे कहना जब से गए हैं, मैं तो अधूरी लगती हूं, टिंग निंग निंग निंग। इन होंठों पे प्यास लगी है न रोती न हंसती हूं। लता जब गाती हैं तो लगता है, मीडियम यही है। इन गानों में मास अपील है। सीधा, सरल, अच्छी तुकबंदी, फिल्मी सुर, लय, ताल जो आशिक भी गाएगा और उनको डांटने वाले उनके अम्मी-अब्बू भी। समीर के गीत गुमटी पर पान की दुकान पर खूब बजे। ट्रक ड्राईवरों ने अल्ताफ राजा को स्टार बना दिया। और कई महीनों बाद जब इन गानों पर हमारे कान जाते हैं तो लगता है जैसे दादरा, ठुमरी, ध्रुपद और ख्याल का बोझ हमारा दिल उठा नहीं सकेगा। हम आम ही हैं खास बनना एक किस्म की नामालूम कैसी मजबूरी है। हालांकि यह भी सच है कि देर सवेर अब मुझे इन्हीं चीजों तक लौटना होता है, नींद इसी से आती है और सुकून भी आखिरकार यही देते हैं। शकील बदायूंनी साहब ने वैसे एक से एक कातिल गीत लिखें हैं। याद में तेरी जाग जाग के हम रात भर करवटें बदलते हैं। मोहम्मद रफी के गाए गीत तो सारे क्लासिक लगते हैं। उन्होंने 98 प्रतिशत अपने लिए सटीक गीत चुने और 99 प्रतिशत अच्छे गीत गाए हैं। लचकाई शाखे बदन, छलकाए जाम। वो जब याद आए बहुत याद आए का एक पैरा,कई बार यूं भी धोखा हुआ है, वो आ रहे हैं नजरें उठाए,प्यार के सुकोमल अहसास में से एक है। वहीं लता का गाया,खाई है रे हमने कसम संग रहने की,का एक मिसरा प्रेम को बड़े ही अच्छे शब्दों में अभिव्यक्त करता है। ऐसे तो नहीं उसके रंग में रंगी मैं पिया अंग लग लग के भई सांवली मैं। ये सोच कमाल है जो अंदर तक सिहरा से देते हैं। उदास गीतों में थोड़ी सी बेवफाई के टायटल गीत की वह लाइन,जो रात हमने बिताई मर के वो रात तुमने गुजारी होती या फिर आगे की पंक्तियों में, उन्हें ये जिद के हम पुकारें, हमें ये उम्मीद वो बुलाएं, मुहब्ब्त के कशमकश को शानदार तरीके से व्यक्त करता है। कुमार सानू का सीधी लाइन में गाया, मेरा दिल भी कितना पागल है, एक रेखीय लय में लगता है। इसके अलावा सत्रह साला ईश्क तब फिर से जिगर चाक करता है जब उन्हीं की आवाज में दिल तो ये चाहे पहलू में तेरे बस यूं ही बैठे रहें हम सुनते हैं। ये यादें मेरी जान ले लेगी। पटना के सदाकत आश्रम में लगे सरसों के फूल याद आने लगते हैं। और दिल त्रिकोणमिति बनाते हुए अक्सर किसी सुंदर, मीठे गीत को सुनते हुए सोचता है कि इसे कैसे फिल्माया गया होगा। दरअसल रेडियो यही है, दृश्य को होते हुए कान से देखना। शराबी अमिताभ के जन्मदिन पर किशोर के गाना गा चुकने के बाद नायिका का कहना कि ओ मेरे सजना लो मैं आ गई.. गाते ही म्यूजिक का तेज गति से भागना बंद आंखों से सोचा था तो लगा कि लंबे लंबे पेड़ों के जंगलों में यहां दोनों एक दूसरे को खोजते हुए भाग रहे होंगे। मन के सिनेमा में समानांतर ट्रैक पर हमेशा एक और सिनेमा चल रहा होता है।

Dark Saint Alaick
20-07-2013, 10:14 PM
विवशता को समझ गए हैं अब उद्धव

-गिरिजा कुलश्रेष्ठ

सूरदास की गोपियों ने अपने भावों की पुष्टि के लिए मन न भए दस-बीस कह कर उद्धव के प्रस्ताव को चतुराई से निरस्त कर दिया था। बोलीं, एक हुतो सो गयौ श्याम संग को..। अब हम तुम्हारे ईश्वर की आराधना किस मन से करें। हमारी विवशता समझो उद्धव। उद्धव समझ गए । समझ क्या गए समझना पड़ा। और गोपियों का पीछा छूटा उद्धव के नीरस उपदेशों से। दस-बीस मन न होने की स्थिति गोपियों के लिए भले ही एक नियामत रही हो पर जो कई तरह से बंटे हुए हैं उनके लिये तो पूरी शामत ही है। मन एक, टुकड़े अनेक । टुकड़ों के साथ जीना सहज तो नही होता । महिलाओं के साथ ऐसा कुछ ज्यादा ही होता है। मुझे देखिये । जब ग्वालियर से कहीं जाती हूं तो कुछ मन तो कट कर यहीं छूट जाता है । अब जब ग्वालियर आ गई हूं हमेशा की तरह मन का शेष भाग बैंगलोर छूट गया है वह भी कई टुकडों में बंट कर। एक टुकड़ा प्रशान्त के पास महादेवपुरा (के.आर.पुरम) में, दूूसरा विवेक के पास खगदासपुरा में और अब (विवाह के बाद) तीसरा टुकड़ा खगदासपुरा में ही मयंक के पास (हालांकि बहुत दूर नही हैं पर इतने पास भी नही कि सुबह-शाम साथ बिता सकें। ऐसा अवसर साप्ताहिक मिलता है)। मन अब भी वहां के चिन्तन में डूबा है। प्रशान्त का दिन साढ़े पांच बजे शुरु हो जाता है । अब स्कूल खुल गए हैं । मान्या को तैयार होकर सात तक सड़क पर पहुंचना होता है। बस इन्तजार नही कर सकती। पौने छह बजे से ही उसे जगाने की कवायद शुरु हो जाती है पूरे फौजी कायदों से । उसकी पेंटिंग,म्यूजिक,कन्नड क्लास और स्वीमिंग,कराटे क्लास तो पहले से ही चल रही थीं। अब लगभग आठ घंटे स्कूल के लिये भी । चार बजे स्कूल से लौटने पर साढ़े पांच बजे से दूसरी कक्षाएं शुरु । सोम-मंगल ड्राइंग क्लास और गुरु-शुक्र को कराटे क्लास । शनिवार और रविवार को म्यूजिक और स्वीमिंग । इन सब चीजों की व्यवस्था करने में दोनों सेवारत माता-पिता तो व्यस्त रहते ही हैं । सुलक्षणा को साढे सात बजे सीडॉट (इलेक्टोनिक सिटी) के लिए निकलना होता है और प्रशान्त को इसरो के लिये साढे आठ बजे। नहा कर इधर मान्या कपड़े पहनती है। मां जल्दी उसके गले में नाश्ता उतारती जाती है । पर मान्या व्यस्त के साथ त्रस्त भी होती है क्योंकि उसके लिये इतना सारा बोझ कुछ भारी हो जाता है। मेरे विचार से बहुत कुछ एक साथ सीखने में पूर्णता या अपेक्षित कुशलता नही आ सकती । मैंने देखा है बच्चे होमवर्क को काफी दबाब में यंत्रवत करते हैं । मान्या भी अपने पाठों को सोचने या दोहराने से कतराती है । और फुरसत में टीवी पर उसका एकाधिकार रहता है । इस व्यस्तता के बीच उसके पास अपने आप कुछ सोचने का अवकाश ही नही है जो बच्चे के लिये सबसे ज्यादा जरूरी होता है । हां, जब भी मुझसे बात करती है यह शिकायत करना बिल्कुल नही भूलती। दादी आप चाचा के घर में ही क्यों रह रही हैं । भला इतने दिन भी कोई रहता है क्या? आपको मेरे साथ ही रहना चाहिये न । मैं रहना चाहती हूं। उसे कल्पनाओं के खुले आकाश की सैर कराना चाहती हूं। मैंने उसके साथ कुछ समय बिताया भी पर समय भी टुकड़ा-टुकड़ा। मन कहां भरता है इतने में । मन का एक हिस्सा विवेक के पास छूटा हुआ है, विहान के आसपास मंडराता हुआ । विहान भी आजकल स्कूल जाने लगा हैं ।

sombirnaamdev
20-07-2013, 11:01 PM
याद आते हैं पुराने हिन्दी फिल्मी गीत

-सागर

सुबह आकाशवाणी की उर्दू सर्विस सुन रहा था। इतने अच्छे फिल्मी गीत आ रहे थे कि काम करते-करते उंगलियां कई बार ठिठक जाती थीं और गीतों के बोलों में खो जाता था। गजलें कई बार दिमाग स्लो कर देती हैं और एक उदास सा नजरिया डेवलप कर देती हैं। कभी कभी इतनी भारी भरकम समझदारी का लबादा उतार कर एकदम सिंपल हो जाने का मन होता है। रेट्रो गाने सुनना, राम लक्ष्मण का संगीत, उनसे कहना जब से गए हैं, मैं तो अधूरी लगती हूं, टिंग निंग निंग निंग। इन होंठों पे प्यास लगी है न रोती न हंसती हूं। लता जब गाती हैं तो लगता है, मीडियम यही है। इन गानों में मास अपील है। सीधा, सरल, अच्छी तुकबंदी, फिल्मी सुर, लय, ताल जो आशिक भी गाएगा और उनको डांटने वाले उनके अम्मी-अब्बू भी। समीर के गीत गुमटी पर पान की दुकान पर खूब बजे। ट्रक ड्राईवरों ने अल्ताफ राजा को स्टार बना दिया। और कई महीनों बाद जब इन गानों पर हमारे कान जाते हैं तो लगता है जैसे दादरा, ठुमरी, ध्रुपद और ख्याल का बोझ हमारा दिल उठा नहीं सकेगा। हम आम ही हैं खास बनना एक किस्म की नामालूम कैसी मजबूरी है। हालांकि यह भी सच है कि देर सवेर अब मुझे इन्हीं चीजों तक लौटना होता है, नींद इसी से आती है और सुकून भी आखिरकार यही देते हैं। शकील बदायूंनी साहब ने वैसे एक से एक कातिल गीत लिखें हैं। याद में तेरी जाग जाग के हम रात भर करवटें बदलते हैं। मोहम्मद रफी के गाए गीत तो सारे क्लासिक लगते हैं। उन्होंने 98 प्रतिशत अपने लिए सटीक गीत चुने और 99 प्रतिशत अच्छे गीत गाए हैं। लचकाई शाखे बदन, छलकाए जाम। वो जब याद आए बहुत याद आए का एक पैरा,कई बार यूं भी धोखा हुआ है, वो आ रहे हैं नजरें उठाए,प्यार के सुकोमल अहसास में से एक है। वहीं लता का गाया,खाई है रे हमने कसम संग रहने की,का एक मिसरा प्रेम को बड़े ही अच्छे शब्दों में अभिव्यक्त करता है। ऐसे तो नहीं उसके रंग में रंगी मैं पिया अंग लग लग के भई सांवली मैं। ये सोच कमाल है जो अंदर तक सिहरा से देते हैं। उदास गीतों में थोड़ी सी बेवफाई के टायटल गीत की वह लाइन,जो रात हमने बिताई मर के वो रात तुमने गुजारी होती या फिर आगे की पंक्तियों में, उन्हें ये जिद के हम पुकारें, हमें ये उम्मीद वो बुलाएं, मुहब्ब्त के कशमकश को शानदार तरीके से व्यक्त करता है। कुमार सानू का सीधी लाइन में गाया, मेरा दिल भी कितना पागल है, एक रेखीय लय में लगता है। इसके अलावा सत्रह साला ईश्क तब फिर से जिगर चाक करता है जब उन्हीं की आवाज में दिल तो ये चाहे पहलू में तेरे बस यूं ही बैठे रहें हम सुनते हैं। ये यादें मेरी जान ले लेगी। पटना के सदाकत आश्रम में लगे सरसों के फूल याद आने लगते हैं। और दिल त्रिकोणमिति बनाते हुए अक्सर किसी सुंदर, मीठे गीत को सुनते हुए सोचता है कि इसे कैसे फिल्माया गया होगा। दरअसल रेडियो यही है, दृश्य को होते हुए कान से देखना। शराबी अमिताभ के जन्मदिन पर किशोर के गाना गा चुकने के बाद नायिका का कहना कि ओ मेरे सजना लो मैं आ गई.. गाते ही म्यूजिक का तेज गति से भागना बंद आंखों से सोचा था तो लगा कि लंबे लंबे पेड़ों के जंगलों में यहां दोनों एक दूसरे को खोजते हुए भाग रहे होंगे। मन के सिनेमा में समानांतर ट्रैक पर हमेशा एक और सिनेमा चल रहा होता है। sach mein ab digital ke yug radio or vividh bharti ko log bhul chuke ho sakta hai kuch din mein hamein tarvhibhag ki tarah al vida naa kahnaa pad jaye

Dark Saint Alaick
06-08-2013, 12:20 AM
अब भविष्य में कोई अनाथ न हो मेरे नाथ

-ओम द्विवेदी

देश के तमाम शहरों की तरह मैं भी एक सांस लेता शहर इंदौर हूं। दूर देवभूमि में पहाड़ों पर अटके हुए हैं मेरे लाल, मेरे आंसू पलकों की कंदराओं में फंसे हुए हैं। उन्हें याद करके बादलों की तरह बार-बार फटती है मेरी छाती। कोई फोन बजता है तो पल भर के लिए निचुड़ जाता है शरीर से रक्त। लगता है गर्म पिघले शीशे की तरह कान में गिर न जाए अनहोनी से लथपथ कोई ख़बर। पहली बारिश लेकर अपने आसमान में आए मेघ जो कभी छंद की तरह लगते थे आज नजर आते हैं काल की मानिंद। लगता है ये यहीं बरस जाएं जो बरसना है, हिमालय की तरफ न करें अपना रुख। मेरे जिगर के जो टुकड़े मेरे पास आने की जद्दोजहद कर रहे हैं उन पर फिर बिजली बनकर न गिर पड़ें ये काले-काले काल। जिन लोगों को जिंदगी पाने के लिए मैने बाबा केदारनाथ के चरणों में भेजा था उनकी मौत का हिसाब करना नहीं चाहता। जो जीवन देते हैं उनसे लाशें लेना नहीं चाहता। जिनको भक्ति और आस्था का संस्कार दिया है उनका अंतिम संस्कार करना नहीं चाहता। भूगोल की जंजीरों से अगर जकड़े नहीं होते मेरे पैर तो अब तक मैं पहाड़ों से बिन लेता छूटे और छिटके हुए बेटों को, गोदी में उठाकर भर देता उनके जख्म। गंगा, यमुना और अलकनंदा में जाल डालकर छान लेता सैलाब में बही सांसों को। राजवाड़ा को कांधे पर रख पहुंच जाता नाथ के दरवाजे पर और उसे स्थापित कर देता बही हुई धर्मशालाओं की जगह। छावनी मंडी को पीठ पर लादकर ले जाता और भर देता भूख का पेट। अगर नक्शे से चिपके होने का अभिशाप नहीं मिला होता तो छाती से चिपका लेता दर्द के मारों को, पी लेता उनके आंसू। बाबा! मैं तुम्हारे धाम की तरह भले हजारों साल पुराना नहीं हूं लेकिन मेरे सिरहाने विराजे हैं दो-दो ज्योतिर्लिंग। उनकी परिक्रमा करवाता हूं मैं भी। देश-दुनिया से आए अतिथियों की बलि लेने की अनुमति न मैं बादलों को देता और न हवाओं को। हमारे महाकाल मुर्दे की राख लेते हैं, जिंदा को मुर्दा नहीं करते। ओंकार पर्वत पर बैठे ओंकारेश्वर डांटते रहते हैं नर्मदा को कि वह घाट पर नहाते भक्तों को अपने आगोश में न ले। पिघलने वाले पहाड़ पर बैठकर भी आपका दिल नहीं पिघला। आप बैठे रहे और आपके चाहने वाले बहते रहे। आपके जयकारे लगाते-लगाते वे शून्य में खो गए। मेरे आंगन में देवी अहिल्या ने शिव भक्ति की जो ज्योति जलाई थी वह तूफानों में घिर गई है। बचाओ उसकी लाज। मेरे भी सीने में धड़कता है दिल। मैं भी सुबह सूरज को न्योता देता हूं रोशनी के लिए और शाम को देहरी पर रख देता हूं उम्मीद का दीया। अगर आपको सुनाई देती है आंसुओं की प्रार्थना तो सही सलामत लौटाओ मेरी संतानों को क्योंकि इनके दम पर ही तो मैं जिंदा और सक्रिय रहता हूं। मैं ही क्या पूरे भारत के शहर और गांव भी तो उन्ही लोगों से आबाद हैं जो हर साल आपके दाम पर आते हैं, आपको पूजते हैं और आपके आगे सीस नवाते हैं। बरसों से यह सिलसिला चलता आ रहा है। आगे भी बरसों-बरस यह सिलसिला चलता रहेगा। कहते हैं कि आप तो बहुत ही दयालू हैं। फिर आपको यह क्या सूझी कि आपकी दया को ही लोग तरस गए। अगर चाहते हो कि हमारी आस्थाओं की उम्र लंबी हो तो किसी को अनाथ मत करो मेरे नाथ। सबको सुरक्षित लौटाओ मेरे धाम, जिससे दोबारा भेज सकूं, उन सभी को फिर चारों धाम।

Dark Saint Alaick
06-08-2013, 12:21 AM
जनता की पसंद का पता लगाया जाए

-अनूप शुक्ल

चुनाव आने वाले हैं। पार्टियां चुनाव घोषणापत्र तैयार कर रही हैं। मुफ्त में बांटे जाने वाला सामान अभी तय नहीं हुआ है। मुफ्तिया सामान की घोषणा के बिना चुनाव घोषणा पत्र उसी तरह सूना लगता है जैसे बिना घोटाले की कोई स्कीम। सामान तय करने के लिए पार्टी की शिखर बैठक बुलाई गयी है। गहन चिंतन चल रहा है। पिछली बार लैपटॉप दिया था। इस बार उसके लिए बिजली का वायदा कर सकते हैं। एक ने सुझाव दिया। अरे भाई,लैपटॉप अगले चुनाव तक बचेंगे क्या? जिसको दिया उसने बेच दिया दूसरे को। जो बचे होंगे वे अगले चुनाव तक खराब हो चुके होंगे। लैपटॉप कंपनी बड़ी खच्चर निकली। चंदा भी नहीं दिया पूरा और सामान भी सड़ियल दिया। वो तो कहो जनता को मुफ्त में बांटा गया वर्ना तोड़-फोड़ होती। कोई फायदा नहीं इस घोषणा से। बल्कि लफड़ा है। बिजली फिर सबके लिए लोग मांगेंगे। फिर इस बार बिजली की घोषणा करें क्या? एक ने सुझाव दिया। अरे भैया बिजली होती तो फिर क्या था। बिजली बनायेगा कौन? जित्ती बनती है सब अपने चुनाव क्षेत्र में ही खप जाती है। बिजली का नाम मत लो, जनता दौड़ा लेगी। इनवर्टर कैसा रहेगा? अबे इनवर्टर क्या हवा में चार्ज होगा? उसके लिये भी तो बिजली चाहिये। बिजली से अलग कोई आइटम बताओ। क्या मोटरसाइकिल की घोषणा कर सकते हैं? दूसरे ने सुझाव दिया। करने को तो कर सकते हैं लेकिन लफड़ा ये है कि कोई गारंटी नहीं कि हम चुनाव में हार ही जाएं। अगर ये पक्का होता कि हम हार ही जाएंगे तो मोटर साइकिल क्या कार की घोषणा कर देते। लेकिन जनता का कोई भरोसा नहीं। अगर जिता दिया तो लिए कटोरा घूमते रहेंगे मोटरसाइकिल देने के लिए। साहब आप घोषणा कर दीजिये न। जीत गये तो किश्तों में दे देंगे। पहले साल पहिया देंगे, दूसरे साल इंजन , इसके बाद सीट और फिर चैन। पूरी मोटरसाइकिल योजना चार चुनाव में चलेगी। अगर जनता को मोटरसाइकिल चाहिए होगी तो झक मार के जिताएगी चार बार। युवा नेता मोटरसाइकिल पर अड़ा था। अरे वोटर इत्ता सबर नहीं करता भाई। चार चुनाव तक इंतजार नहीं करेगा। उसको भी हर बार वैरियेशन चाहिये। मोटर साइकिल का झुनझुना बजेगा नहीं। पेट्रोल भी मंहगा है। फिर मोटर साइकिल तो लड़कों के लिए हुई। लड़कियों के लिए स्कूटी चाहिए होगी। अलग-अलग आइटम हो जाएंगे। कोई जरूरी है कोई सामान मुफ्त में देना? जनता को मुफ्त का सामान देने की बजाय और कोई भलाई का काम करें। एक युवा नेता ने,जिसके चेहरे से क्रांति टपक रही थी ,सुझाया। देखने में तो समझदार लगते हो लेकिन जनता के बारे में समझ कमजोर है बरुखुरदार की। चुनाव लड़ना लड़की की शादी करने की तरह है। लड़के वाले कुछ नहीं चाहते फिर भी टीवी, फ्रिज, कार देना पड़ता है लड़की वाले को। दस्तूर है। जनता को भी मुफ्त का सामान देने का दस्तूर बन गया है तो निभाना पड़ेगा चाहे हंस के निभाएं या रो के। नेता के चेहरे पर बेटी के बाप का दर्द पोस्टर की तरह चिपका दिखा। आप लोग बताओ जनता की क्या पसंद है? किस चीज को सबसे ज्यादा जरूरत है उसे। आप लोग जनता के नुमाइंदे हो। उसकी पसंद अच्छे से जानते होंगे,नेता ने सवाल उछाला। तभी सारी बातें सुन रहा एक शख्स बोला, जनता सिर्फ रोटी, कपड़ा, मकान चाहती है। वो देने का वादा कर दो बस...।

Dark Saint Alaick
06-08-2013, 12:23 AM
हमें कई नसीहत दे गई है ये आपदा

-राहुल सिंह

यह पिण्ड धरती कभी आग का धधकता गोला थी। धीरे-धीरे ठंडी हुई। पृथ्वी पर जीवन मानव और आधुनिक मानव के अस्तित्व में आने तक कई हिम युग बीते। दो-ढाई अरब साल पहले। इसके बाद बार-बार, फिर 25 लाख साल पहले आरंभ हुआ यह दौर जिसमें हिम युग आगमन की आहट सुनी जाती रही है। गंगावतरण की कथा में उसके वेग को रोकने के लिए शिव ने अपनी जटाओं में धारण कर नियंत्रित किया। तब गंगा पृथ्वी पर उतरीं। केदारनाथ आपदा 2013, कथा-स्मृति या घटना-पुनरावृत्ति तो नहीं । एक बार फिर बांध के मुद्दे पर बहस है। अब मुख्यमंत्री बहुगुणा और पर्यावरण रक्षक बहुगुणा आमने-सामने हैं। निसंदेह पर्यावरण में पेड़, पहाड़, पानी पर आबादी और विकास का दबाव तेजी से बढ़ा है। आपदा में मरने वालों में 15 मौत की पुष्टि से गिनती शुरू हुई। पखवाड़ा बीतते-बीतते मृतकों का आंकड़ा 1000 पार करने की आशंका व्यक्त की गई। खबरों के अनुसार विधानसभा अध्यक्ष ने मृतकों की संख्या 10 हजार, केन्द्रीय गृहमंत्री ने 900,राष्टñीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने 580 और गंगा सेवा मिशन के संचालक स्वामी ने 20 हजार बताई। मुख्यमंत्री ने यह भी कहा है कि कभी नहीं जान पाएंगे कि इस आपदा में कितने लोग मारे गए हैं। मृतकों का अनुमान कर बताई जाने वाली संख्या और उनकी पहचान-पुष्टि करते हुए संख्या की अधिकृत घोषणा में यह अंतर हमेशा की तरह और स्वाभाविक है। देवदूत बने फौजी और मानवता की मिसाल कायम करते स्थानीय लोगों के बीच लाशों ही नहीं अधमरों के सामान, आभूषण और नगद की लूट मचने के खबर के साथ जिज्ञासा हुई कि मृतकों के शरीर पर उनके साथ के आभूषण-सामग्री आदि के लिए सरकारी व्यवस्था किस तरह होगी? सामान राजसात होगा? यह जानकारी सार्वजनिक होगी?... खबरों से पता लगा कि अधिकृत आंकड़ों के लिए मृतकों के अंतिम संस्कार के पहले उनके उंगलियों के निशान लिए जा रहे हैं। व्यवस्था बनाई गई है कि उत्तराखंड के लापता निवासी 30 दिनों के अंदर वापस नहीं आ जाते तो उन्हें मृत मान लिया जाएगा। इस आपदा में मारे गए लोगों के मृत्यु प्रमाण-पत्र घटना स्थल से जारी किए जाएंगे। मुस्लिम संगठन जमीउतुल उलमा ने सभी शवों का हिंदू रीति से अंतिम संस्कार करने पर आपत्ति जताई है और घाटी में जा कर शवों की पहचान करने के लिए इजाजत दी जाने की बात कही है ताकि मुस्लिम शवों को दफन किया जा सके। खबरें थीं कि आपदा बादल फटने से नहीं भारी बारिश के कारण हुई। आपदा से ले कर मंदिर में पूजा आरंभ किए जाने के मुद्दे पर हो रही बहसों के बीच न जाने कितनी लंबी-उलझी प्रक्रिया और जरूरी तथ्य नजरअंदाज हैं। इस घटना में अपने किसी करीबी-परिचित के प्रभावित होने की खबर नहीं मिली शायद इसीलिए ऐसी बातों पर ध्यान गया। वरना तो त्रासदी तो ऐेसी ही थी कि कोई अपना, भले ही वो दूर का रिस्तेदार हो, वहां फंस सकता था। खैर, अब यह त्रासदी गुजर गई लेकिन एक नहीं कई सीखें दे गई है। हमारी कोशिश तो यही होनी चाहिए कि इस तरह की आपदा हमें फिर न झेलनी पड़े इसके लिए हम सजग रहें। हमारी सजगता ही आने वाले समय में हमें बचा सकती है। अगर हम पहले ही सजग रहते तो शायद इतनी जाने नहीं खोनी पड़ती।

internetpremi
06-08-2013, 09:17 PM
बहुत ही उपयोगी सूत्र है, Dark Saint Alaickजी। आज पहली बार यहाँ आया।
कभी हम भी हिन्दी ब्लॉग जगत में भ्रमण करते थे और अच्छे लेखको की तलाश थी।
आपने हमारा काम आसान कर दिया है।
एक सुझाव:
क्या ब्लोग का reference दे सकते है? इससे, यदि हम उस ब्लॉग पर जाकर कोई टिप्पणी करना चाहें तो सुविधा होगी
कृपया इस काम को जारी रखिए।
धन्यवाद