Devotional Thoughts
07-10-2012, 08:59 PM
लेख सार : प्रभु भक्ति के साथ जीवन यापन एंव सैर सपाटा, मौज मस्ती, ऐशो आराम और आने वाली पीढियों के लिए धन-संपति संग्रह में लगे जीवन के बीच तुलना की गई है । मानव जीवन का श्रेष्ठत्तम उपयोग पर लेख प्रकाश डालता है । पूरा लेख नीचे पढ़े -
एक कहानी / लोककथा प्रायः सबने सुन रखी होगी - एक ज्ञानी नाव में बैठकर नदी पार करते वक्त नाविक से अपना ज्ञान बखान कर रहा था । ज्ञानी नाविक से कह रहा था कि तुमनें पढा नही, अनपढ हो इसलिए तुम्हारा चौथाई जीवन बेकार हो गया । तुम्हें अमुक बात का ज्ञान नही इसलिए आधा जीवन बेकार हो गया, तुम्हें अमुक बात का भी भान नही इसलिए पौना जीवन बेकार हो गया । इतने मे भयंकर वर्षा होने लगी, वर्षा का जल नाव में भर गया और नदी में भी भयंकर उफान उठा । अब तक नाविक चुप बैठा था और सुन रहा था । अब नाविक के बोलने की बारी थी, उसने ज्ञानी से पुछा कि आपको तैरने का ज्ञान है क्या ? ज्ञानी ने कहा - नही, तो नाविक बोला - अब तो आपका पूरा जीवन ही बेकार हो गया। यह कह कर नाविक डुबती नाव से तैर कर अपनी जान बचाने के लिए कूद पडा । ज्ञानी को तैरना नही आता था इसलिए नाव के साथ ही डूब गया ।
आध्यात्मिक तौर पर इस कथा को ऐसे समझना चाहिए । एक आधुनिक दौर का मौज मस्ती करने वाला मौजी नामक व्यक्ति एक सरलहृदय प्रभु भक्ति में रमने वाले भक्त से पुछता है कि क्या तुमने विदेश में सैर सपाटा किया । भक्त कहता है - नहीं, तो मैजी कहता है कि चौथाई जीवन व्यर्थ कर दिया । मौजी दुसरा प्रश्न पुछता है भक्त से कि क्या तुमने जीवन में मौज-मस्ती, ऐशो-आराम किया । भक्त कहता है - नहीं, तो मौजी कहता है कि तुमने अपना आधा जीवन ही व्यर्थ कर दिया । मौजी तीसरा प्रश्न पुछता है भक्त से कि क्या तुमने अपनी आने वाली पीढियों के लिए धन-संपति की व्यवस्था की। भक्त कहता है - नही, तो मौजी कहता है कि पौना जीवन व्यर्थ कर लिया ।
मौजी भक्त के लिए अफसोस करता है कि भक्ति में रम के क्या जीवन जिया, न सैर-सपाटा किया, न ऐशो-आराम किया और न ही आने वाली पीढी के लिए धन-संपति की व्यवस्था की । क्योंकि मौजी ने यह सब कुछ भरपूर मात्रा में किया था, इसलिए उसे अपने आप पर गर्व अनुभव होने लगता है।
इतने में मौजी के दरवाजे मृत्यु ने दस्तक दी। वह भयंकर रूप से बिमार हुआ और मृत्यु शय्या पर आ गया। भक्त मौजी के पास खडा था पर उसे कुछ पुछने की जरूरत ही नही पडी। मौजी की अंतरआत्मा ने ही मौजी से पुछ लिया कि क्या तुमने प्रभु भक्ति करके भवसागर पार करने का उपाय किया। मौजी ने काँपते हुये स्वर से कहा - '' नही किया '' । अंतरआत्मा ने धिक्कारते हुये कहा कि तुमने अपना पूरा मानव जीवन ही व्यर्थ कर लिया । जैसे ज्ञानी का नदी पार नहीं कर पाने के कारण अंत भयंकर हुआ, वैसे ही मौजी का भवसागर पार नहीं कर पाने के कारण अंत भयंकर हुआ। दोनों ही डूब गए, एक नदी में, दूसरा भवसागर में ।
अधिकत्तर मनुष्यों की विडंबना भी यही है कि मानव जीवन जीने की कला तो बहुत अच्छी तरह से सीख ली और उसे प्रभावी अंजाम देने में लगे हुये हैं । पर मानव जीवन के बाद उनका क्या हश्र होगा यह पहलु उनसे अछुता रह गया क्योंकि उसके लिए तैयारी करना शायद वे भुल गये ।
वर्तमान जीवन जीने की कला तो जानवर भी बहुत अच्छी तरह से जानते हैं । पर मृत्यु उपरान्त की व्यवस्था जैसे आवागमन से मुक्ति, श्रीकमलचरणों में सदैव के लिए आश्रय और परमानंद की प्राप्ति तो सिर्फ और सिर्फ मानव जीवन में किये प्रयासो से ही संभव हो सकता है । यह प्रयास भक्ति का है, यह प्रयास प्रभु से जुडने का है, यह प्रयास प्रभु के बनने का है, यह प्रयास प्रभु को अपना बनाने का है ।
वर्तमान जीवन में ऐशो-आराम, सैर-सपाटा, अगली पीढी हेतु संग्रह के प्रयास बहुत तुच्छ और गौण हैं । श्रेष्ठत्तम प्रयास निश्चल भक्ति द्वारा प्रभु प्रिय बनकर मृत्यु उपरान्त सदैव के लिए निश्चिंत होने का है ।
यह स्वर्णिम अवसर प्रभु ने हमें मानव जीवन देकर दिया है , इसे गँवाना नही चाहिए । अगर गँवा दिया तो कितनी योनियों के बाद, इन योनियों के कर्मफल के कारण कितनी यातनाओ को भोगने के बाद, यह मानवजीवनरूपी अवसर दोबारा कब मिलेगा - यह सोचकर अविलम्ब इस वर्तमान मानवजीवनरूपी अवसर का प्रभु भक्ति में डुबकर श्रेष्ठत्तम उपयोग करना चाहिए ।
एक कहानी / लोककथा प्रायः सबने सुन रखी होगी - एक ज्ञानी नाव में बैठकर नदी पार करते वक्त नाविक से अपना ज्ञान बखान कर रहा था । ज्ञानी नाविक से कह रहा था कि तुमनें पढा नही, अनपढ हो इसलिए तुम्हारा चौथाई जीवन बेकार हो गया । तुम्हें अमुक बात का ज्ञान नही इसलिए आधा जीवन बेकार हो गया, तुम्हें अमुक बात का भी भान नही इसलिए पौना जीवन बेकार हो गया । इतने मे भयंकर वर्षा होने लगी, वर्षा का जल नाव में भर गया और नदी में भी भयंकर उफान उठा । अब तक नाविक चुप बैठा था और सुन रहा था । अब नाविक के बोलने की बारी थी, उसने ज्ञानी से पुछा कि आपको तैरने का ज्ञान है क्या ? ज्ञानी ने कहा - नही, तो नाविक बोला - अब तो आपका पूरा जीवन ही बेकार हो गया। यह कह कर नाविक डुबती नाव से तैर कर अपनी जान बचाने के लिए कूद पडा । ज्ञानी को तैरना नही आता था इसलिए नाव के साथ ही डूब गया ।
आध्यात्मिक तौर पर इस कथा को ऐसे समझना चाहिए । एक आधुनिक दौर का मौज मस्ती करने वाला मौजी नामक व्यक्ति एक सरलहृदय प्रभु भक्ति में रमने वाले भक्त से पुछता है कि क्या तुमने विदेश में सैर सपाटा किया । भक्त कहता है - नहीं, तो मैजी कहता है कि चौथाई जीवन व्यर्थ कर दिया । मौजी दुसरा प्रश्न पुछता है भक्त से कि क्या तुमने जीवन में मौज-मस्ती, ऐशो-आराम किया । भक्त कहता है - नहीं, तो मौजी कहता है कि तुमने अपना आधा जीवन ही व्यर्थ कर दिया । मौजी तीसरा प्रश्न पुछता है भक्त से कि क्या तुमने अपनी आने वाली पीढियों के लिए धन-संपति की व्यवस्था की। भक्त कहता है - नही, तो मौजी कहता है कि पौना जीवन व्यर्थ कर लिया ।
मौजी भक्त के लिए अफसोस करता है कि भक्ति में रम के क्या जीवन जिया, न सैर-सपाटा किया, न ऐशो-आराम किया और न ही आने वाली पीढी के लिए धन-संपति की व्यवस्था की । क्योंकि मौजी ने यह सब कुछ भरपूर मात्रा में किया था, इसलिए उसे अपने आप पर गर्व अनुभव होने लगता है।
इतने में मौजी के दरवाजे मृत्यु ने दस्तक दी। वह भयंकर रूप से बिमार हुआ और मृत्यु शय्या पर आ गया। भक्त मौजी के पास खडा था पर उसे कुछ पुछने की जरूरत ही नही पडी। मौजी की अंतरआत्मा ने ही मौजी से पुछ लिया कि क्या तुमने प्रभु भक्ति करके भवसागर पार करने का उपाय किया। मौजी ने काँपते हुये स्वर से कहा - '' नही किया '' । अंतरआत्मा ने धिक्कारते हुये कहा कि तुमने अपना पूरा मानव जीवन ही व्यर्थ कर लिया । जैसे ज्ञानी का नदी पार नहीं कर पाने के कारण अंत भयंकर हुआ, वैसे ही मौजी का भवसागर पार नहीं कर पाने के कारण अंत भयंकर हुआ। दोनों ही डूब गए, एक नदी में, दूसरा भवसागर में ।
अधिकत्तर मनुष्यों की विडंबना भी यही है कि मानव जीवन जीने की कला तो बहुत अच्छी तरह से सीख ली और उसे प्रभावी अंजाम देने में लगे हुये हैं । पर मानव जीवन के बाद उनका क्या हश्र होगा यह पहलु उनसे अछुता रह गया क्योंकि उसके लिए तैयारी करना शायद वे भुल गये ।
वर्तमान जीवन जीने की कला तो जानवर भी बहुत अच्छी तरह से जानते हैं । पर मृत्यु उपरान्त की व्यवस्था जैसे आवागमन से मुक्ति, श्रीकमलचरणों में सदैव के लिए आश्रय और परमानंद की प्राप्ति तो सिर्फ और सिर्फ मानव जीवन में किये प्रयासो से ही संभव हो सकता है । यह प्रयास भक्ति का है, यह प्रयास प्रभु से जुडने का है, यह प्रयास प्रभु के बनने का है, यह प्रयास प्रभु को अपना बनाने का है ।
वर्तमान जीवन में ऐशो-आराम, सैर-सपाटा, अगली पीढी हेतु संग्रह के प्रयास बहुत तुच्छ और गौण हैं । श्रेष्ठत्तम प्रयास निश्चल भक्ति द्वारा प्रभु प्रिय बनकर मृत्यु उपरान्त सदैव के लिए निश्चिंत होने का है ।
यह स्वर्णिम अवसर प्रभु ने हमें मानव जीवन देकर दिया है , इसे गँवाना नही चाहिए । अगर गँवा दिया तो कितनी योनियों के बाद, इन योनियों के कर्मफल के कारण कितनी यातनाओ को भोगने के बाद, यह मानवजीवनरूपी अवसर दोबारा कब मिलेगा - यह सोचकर अविलम्ब इस वर्तमान मानवजीवनरूपी अवसर का प्रभु भक्ति में डुबकर श्रेष्ठत्तम उपयोग करना चाहिए ।