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View Full Version : शरद जोशी के व्यंग्य


abhisays
10-11-2012, 01:31 PM
शरद जोशी के व्यंग्य

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abhisays
10-11-2012, 01:33 PM
1968-69 के वे दिन

आज से सौ वर्ष पहले अर्थात 1969 के वर्ष में सामान्य व्यक्ति का जीवन इतना कठिन नहीं था जितना आज है। न ऐसी महँगाई थी और न रुपयों की इतनी किल्लत। सौ वर्ष पूर्व यानी लगभग 1968 से 1969 के काल की आर्थिक स्थिति संबंधी जो सामग्री आज उपलब्ध है उसके आधार पर जिन तथ्यों का पता चलता है वे सचमुच रोचक हैं। यह सच है कि आम आदमी का वेतन कम था और आय के साधन सीमित थे पर वह संतोष का जीवन बिताता था और कम रुपयों में उसकी जरूरतें पूरी हो जाती थीं।

abhisays
10-11-2012, 01:33 PM
जैसे एक रुपये में एक किलो गेहूँ या गेहूँ का आटा आ जाता था और पूरे क्विण्टल गेहूँ का दाम सौ रुपये से कुछ ही ज्यादा था। एक सौ बीस रुपये में अच्छा क्वालिटी गेहूँ बाज़ार में मिल जाता है। शरबती, कठिया, पिस्सी के अलावा भी कई तरह का गेहूँ बाज़ार में नज़र आता था। दालें रुपये में किलो भर मिल जाती थीं। घी दस-बारह से पंद्रह तक में किलो भर आ जाता था और तेल इससे भी सस्ता पड़ता था। आम आदमी डालडा खाकर संतोष करता था जिसके तैयार पैकबंद डिब्बे अधिक महँगे नहीं पड़ते थे। सिर्फ़ अनाज और तेल ही नहीं, हरी सब्जि़यों की भी बहुतायत थी। पाँच रुपया हाथ में लेकर गया व्यक्ति अपने परिवार के लिए दो टाइम की सब्ज़ी लेकर आ जाता था। आने-जाने के लिए तब सायकिल नामक वाहन का चलन था जो दो सौ-तीन सौ रुपयों में नयी मिल जाती थी। छह हज़ार में स्कूटर और सोलह से पच्चीस-तीस हज़ार में कारें मिल जाती थीं। पर ज्यादातर लोग बसों से जाते-आते थे, जिस पर बीस-तीस पैसा से अधिक ख़र्च नहीं बैठता था। निश्चित ही आज की तुलना में तब का भारत सचमुच स्वर्ग था।

abhisays
10-11-2012, 01:35 PM
मकानों की बहुतायत नहीं थी पर कोशिश करने पर मध्यमवर्गीय व्यक्ति को मकान मिल जाता था। तब के मकान भी आज की तुलना में बड़े होते थे, यानी उनमें दो-तीन कमरों के अलावा कुछ खुली जमीन मिल जाती थी। छोटे शहरों में दस-पंद्रह रुपयों में चप्पल और पच्चीस-चालीस में चमड़े का जूता मिल जाता था जो कुछ बरसों तक चला जाता था। डेढ़ सौ से लेकर तीन-चार सौ तक एक पहनने लायक सूट बन जाता था-टेरीकॉट के सिले-सिलाये। कमीज़ सिर्फ़ पचास-खुद कपड़ा खरीदकर सिलवाने में बीस-पच्चीस में बन जाती थी। एक सामान्य-व्यक्ति अपने पास तीन-चार कमीज़ या बुश्शर्ट रखता था। लोगों को पतलून के अंदर लँगोट पहनने का शौक था, जो डेढ़-दो रुपये में मिल जाती थी।

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10-11-2012, 01:36 PM
औरतों का भी ख़र्च ज्यादा नहीं था। एक साड़ी तीस-पैंतीस से सौ-सवा सौ में पड़ जाती थी। हर औरत के पास ट्रंक भर साडि़याँ आम तौर पर रहती थीं जो वे बदल-बदलकर पहन लेती थीं। स्नो की डिबिया दो रुपये में, लिपस्टिक ढाई-तीन रुपये में और चूडि़याँ रुपये की छह आ जाती थीं। इसी कारण शादी करके स्त्री घर लाना महँगा नहीं माना जाता था। अक्सर लोग अपने विवाह तीस साल की उम्र में कर डालते थे। स्त्रियों का बहुत कम प्रतिशत नौकरी करता था। अधिकांश स्त्रियों का मुख्य धन्धा पत्नी बनना ही था। कुछ स्त्रियों के कुँवारी रहकर जीवन बिताने के भी प्रमाण मिलते हैं। पर विवाह का फैशन ही सर्वत्र प्रचलित था। यह कार्य अक्सर माता-पिता करवाते थे, जो बच्चों को घरों में रखकर पालते थे।

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10-11-2012, 01:37 PM
1969 का भारत सच्चे अर्थों में सुखी भारत था। लोग दस-साढ़े दस बजे दफ़्तर जाकर पाँच बजे वापस लौटते थे, पर दफ़्तरों में एक कर्मचारी के पास दो घण्टे से अधिक का काम नहीं था। कैंटीन में चाय का कप बीस-तीस पैसों में मिल जाता था। एक ब्लेड बारह-पंद्रह पैसों में कम-से-कम मिल जाती थी। और अख़बार बीस पैसे में आ जाता था। जिन्हें शराब पीने की आदत नहीं थी वे दो रुपया जेब में रख सारा दिन मज़े से गुज़ार देते थे। सिगरेट की डिबिया में दस सिगरेटें होती हैं और पूरी डिबिया पचास-साठ पैसों में मिल जाती थी। पहले की सिगरेट भी आज की सिगरेटों की तुलना में काफ़ी लंबी होती थी। हाथ की बनी बीड़ियाँ आज की तरह नियामत नहीं थीं। दल-पंद्रह पैसे के बंडल में बीस बीड़ियाँ निकलती थीं। माचिस आठ-दस पैसे में आ जाती थी। जिनमें साठ-साठ तक तीलियाँ होती थीं। हालाँकि लायटर का रिवाज़ भी शुरू हो गया था था।

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10-11-2012, 01:38 PM
1968-69 की स्थिति का अध्ययन करने पर पता लगता है कि रेडियो सुनने और सिनेमा देख लेने के अलावा कला-संस्कृति पर लोग अधिक खर्च नहीं करते थे। हालाँकि अख़बार निकलते थे, पत्रिकाएँ छपती थीं पर उनकी बिक्री कम थी। माँगकर पढ़ने और सांस्कृतिक कार्यक्रमों और नाटकों के फ्री पास प्राप्त करने का प्रयत्न चलता रहता था। उसमें सफलता भी मिलती थी। विद्वानों के भाषण फोकट में सुनने को मिल जाते थे। मुफ्त निमंत्रण बाँट निवेदन किये बग़ैर भीड़ जुटना कठिन होता था। लेखक सस्ते पड़ते थे। आठ-दस रोज़ मेहनत कर लिखी रचना पर तीस-पैंतीस से सौ-डेढ़ सौ तक मिल जाता था पर कविताएँ पच्चीस से ज्यादा में उठ नहीं पाती थीं। बहुत-सी पत्रिकाएँ बिना लेखकों-कवियों को कुछ दिये ही काम चला लेती थीं। एक पत्रिका आठ-दस रुपये साल में एक बार देने पर बराबर आ जाती थी। अधिकांश पत्रिकाएँ लेखकों-कवियों को मुफ़्त प्रति दे रचनाएँ प्राप्त कर लेती थीं। सस्ते दिन थे। चार रुपये रीम काग़ज़ मिलता था और साठ पैसों में स्याही की बोतल मिल जाती थी। वक्त काफ़ी था, लेखक लोग रचना माँगने पर दे देते थे।

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10-11-2012, 01:39 PM
निश्चित ही 2068-69 की तुलना में सौ वर्ष पूर्व के वे दिन बहुत अच्छे थे। देश में इफ़रात थी और चीज़ें सस्ती थीं। आज उस तुलना में भाव आसमान पर पहुँच गये हैं कि जीना मुश्किल है। कमाई में पूरा नहीं पड़ता बल्कि बहुत से लोगों के लिए दोनों टाइम का भोजन जुटाना भी कठिन है। मकान और फर्नीचर सभी महँगा है कि लोग कठिनाई से ख़रीद पाते हैं। उन दिनों में एक सोफ़ासेट ढाई सौ से सात सौ रुपयों में आ जाता था और साधारण निवाड़ का पलँग (तब निवाड़ के पलँग प्रचलित थे) तीस-चालीस से ज्यादा नहीं पड़ता था। तीस रुपये में रज़ाई और साठ-सत्तर में बढ़िया कम्बल मिल जाते थे। कोई आश्चर्य नहीं अगर आज 2069 की तुलना में 1969 का आदमी काफ़ी सोता था और घण्टों रज़ाई में घुसे रहना सबसे बड़ी ऐयाशी थी। आज वे दिन नहीं रहे, न वैसे लोग। हमारे उन पुरखों ने जैसा शुद्ध वनस्पति घी खाया है, वैसा हमें देखने को भी नहीं मिलता। तब की बात ही और थी। एक रुपये में आठ जलेबियाँ चढ़ती थीं, लोग छककर खाते थे। केला रुपये दर्जन तक आ जाता था। फिर क्यों नहीं बनेगा अच्छा स्वास्थ्य? पुराने लोगों को देखो-साठ-सत्तर से कम में कोई कूच नहीं करता था। लंबी उमर जीते थे और ठाठ से जीते थे। आज की तरह श्मशान में अर्थियों का क्यू नहीं लगता था। पाँच रुपये में पूरा शरीर ढँकने का कफ़न आ जाता था। सुख और समृद्धि के वे दिन आज कहानी लगते हैं जिन पर सहसा विश्वास नहीं आता। पर यह सच है कि आज से सिर्फ़ सौ वर्ष पूर्व हमारे देश के लोग सुख की जिंदगी बिता रहे थे। तब का भारत आज की तुलना में निश्चित ही स्वर्ग था।

abhisays
10-11-2012, 01:41 PM
लोकायुक्त


सरकारी नेता अक्सर किसी ऐसे शब्द की तलाश में रहते हैं जो लोगों को छल सके, भरमा सके और वक्त को टाल देने में मददगार हो। आजकल मध्य प्रदेश में एक शब्द हवा में है - लोकायुक्त। पता नहीं यह नाम कहाँ से इनके हाथ लग गया कि पूरी गवर्नमेंट बार-बार इस नाम को लेकर अपनी सतत बढ़ती गंदगी ढंक रही है। इसमें पता नहीं, लोक कितना है और आयुक्त कितना है, पर मुख्य मंत्री काफी हैं। इस शब्द को विधान सभा के आकाश में उछालते हुए मुख्य मंत्री अर्जुन सिंह ने कहा था कि लोकायुक्त यदि जरूरी हो, तो मुख्य मंत्री के विरुद्ध शिकायत की भी जांच कर सकता है। अपने लोकायुक्त पर पूरा भरोसा हुए बिना कोई मुख्य मंत्री ऐसा बयान नहीं देगा। तभी यह शुभहा हो गया कि लोकायुक्त कितना मुख्य मंत्री के पाकिट में है और कितना बाहर। जाहिर है, यह शब्द सत्ता के लिए परम उपयोगी है। वह इसके जरिए किसी भी घोटाले को एक साल के लिए आसानी से टाल सकते हैं। इसके सहारे अपने वालों को ईमानदार प्रमाणित करवा सकते हैं और अपने विरोधियों को नीचा दिखा सकते हैं।

abhisays
10-11-2012, 01:41 PM
विधान सभा के सदस्य जब मामला उठाएँ, उनसे कहा जा सकता है कि मामले को लोकायुक्त को भेजा जाएगा।

दूसरे सत्र में जब सवाल करें तब कहें - मामला लोकायुक्त को भेजा जा रहा है।

तीसरे सत्र में उत्तर यह कि मामला लोकायुक्त को भेज दिया गया है।

चौथे सत्र में उत्तर यह कि मामला लोकायुक्त के विचाराधीन है।

पाँचवें में यह कि अभी हमें लोकायुक्त से रिपोर्ट प्राप्त हो गई है, शासन उस पर विचार कर रहा है।...

abhisays
10-11-2012, 01:42 PM
इस तरह हर उत्तेजना को समय में लपेटा जा सकता है। धीरे-धीरे बात ठंडी पड़ने लगती है। लोग संदर्भ भूलने लगते हैं। तब आसानी से कहा जा सकता है कि वह अफसर, जिस पर आरोप था, निर्दोष है।

आज से 15-20 वर्ष पूर्व मध्य प्रदेश में ऐसे ही एक सतर्कता आयोग था। विजिलेंस कमीशन की स्थापना की गयी थी। उसके भी बड़े हल्ले थे। तब कहा जाता था कि बस इस आयोग के बनते ही राज्य से भ्रष्टाचार इस तरह दुम दबाकर भागेगा कि लौटने का नाम ही नहीं लेगा। बड़ी ठोस तस्वीर पेश की गई शासन की। अब उस बात को कई बरस बीत गये। बदलते समय में लोगों को भ्रमित करने के लिए नया शब्द चाहिए ना। अब लोकायुक्त का डंका बजाया जा रहा है।

abhisays
10-11-2012, 01:43 PM
बहुत पहले मैंने एक चीनी कथा पढ़ी थी। गुफा में एक अजगर रहता था, जो रोज बाहर आकर चिड़ियों के अंडे, बच्चे और छोटे-मोटे प्राणियों को खा जाता। जंगल के सभी प्राणी अजगर से परेशान थे। एक दिन वे सब जमा होकर अजगर के पास आये और अपनी व्यथा सुनायी कि आपके कारण हमारा जीना मुहाल है। अजगर ने पूरी बात सुनी। विचार करने का पोज लिया और लंबी गर्भवती चुप्पी के बाद बोला - हो सकता है, मुझसे कभी गलती हो जाती है। जब भी मेरे विरुद्ध कोई शिकायत हो, आप गुफा में आ जाइए। मैं चौबीसों घंटे उपलब्ध हूं। यदि कोई बात हो तो मैं अवश्य विचार करूँगा।

abhisays
10-11-2012, 01:43 PM
जाहिर है, किसी पशु की हिम्मत नहीं थी कि वह गुफा में जाता और अजगर का ग्रास बनता।
तंत्र जब अपने चेहरों को छुपाने के लिए एक और चेहरा उत्पन्न करता है, उस पर वे सब कैसे आस्था रख सकते हैं, जो तंत्र के चरित्र और स्वभाव से परिचित हैं।
मान लीजिए, एक अफसर ने खरीद में घोटाला किया। कमीशन खाया, रिश्तेदारों, दोस्तों को टेंडर-मंजूरी में तरजीह दी, खराब माल खरीदा। रिंद के रिंद रहे, हाथ से जन्नत न गई। विधान सभा के सदस्य इस प्रकरण पर शोर मचाते हैं, सवाल पूछते हैं, बहस खड़ी करते हैं। आपका चक्कर जो भी हो, मुख्य मंत्री उस अफसर को बचाना चाहते हैं, तो इसके पूर्व कि विधान सभा की कोई कमेटी जाँच करे, वे उछलकर घोषणा कर देंगे कि मामला लोकायुक्त को सौंपा जाएगा। चलिए करतल ध्वनि हो गई। अखबारों में छप गया। लगा कि सरकार बड़ी न्यायप्रिय है।

abhisays
10-11-2012, 01:43 PM
अब दिलचस्प स्थिति यह होगी कि वह अफसर, जिसके विरुद्ध सारा मामला है, उसी कुर्सी पर बैठा है, जिस पर बैठ उसने घोटाला किया था। उसी को अपने खिलाफ मामला तैयार कर लोकायुक्त को भेजना है और यदि जाँच हो तो अपनी सफाई भी पेश करनी है। वह मामला बनाता ही नहीं, क्योंकि स्वंय के विरुद्ध उसे कोई शिकायत ही नहीं है। वह कह देगा कि विधायकों के भाषणों में शिकायतें स्पष्ट नहीं हैं।

abhisays
10-11-2012, 01:43 PM
लोकायुक्त एक सील है, प्रमाणपत्र देने का दफ्तर है । यहाँ से उन अपनेवालों को, जो भ्रष्टाचार कर चुके और आगे भी करने का इरादा रखते हैं, ईमानदारी के प्रमाणपत्र बाँटे जायेंगे। लोकायुक्त एक खाली जगह है जो भ्रष्टाचार और उसकी आलोचना के बीच सदा बनी रहेगी। यह सरकार का शॉक एब्जॉर्बर है, जो कुरसियों की रक्षा करेगा। एक कवच है, ढक्कन है, रैपर है, जो सरकारी खरीद, टेंडरी भ्रष्टाचार, निर्माण कार्यों में कमीशनबाजी, टेक्निकल हेराफेरी से ली गई रिश्वतें आदि लपेटने, छिपाने और सुरक्षित रखने के काम आएगा। यह विरोधियों के विरोध का मुँहतोड़ सरकारी जवाब है। एक स्थायी ठेंगा है, जो मंत्री जब चाहे तब किसी को दिखा सकता है। विजिलेंस कमीशन ने 15 साल भुलावे में रखा। अब 15 वर्ष लोकायुक्त काम आएगा। सरकारी बाग की एक कँटीली बाड़ है, जिसमें भ्रष्टाचार के पौधे सुरक्षित हैं।

abhisays
10-11-2012, 01:43 PM
जब विजिलेंस कमीशन उर्फ सतर्कता आयोग बना था तो एक व्यापारी से मैंने कहा था - जब सतर्कता आयोग बन गया है, अब क्या करोगे ? वह लंबी सांस लेकर बोला - क्या करेंगे। टेंडर में पाँच परसेंट उसका भी रखेंगे। लोकायुक्त के लिए भी वह शायद ऐसा ही कुछ कहेगा।

abhisays
10-11-2012, 01:44 PM
अथ श्री गणेशाय नम:

अथ श्री गणेशाय नम:, बात गणेश जी से शुरू की जाए, वह धीरे-धीरे चूहे तक पहुँच जाएगी। या चूहे से आरंभ करें और वह श्री गणेश तक पहुँचे। या पढ़ने-लिखने की चर्चा की जाए। श्री गणेश ज्ञान और बुद्धि के देवता हैं। इस कारण सदैव अल्पमत में रहते होंगे, पर हैं तो देवता। सबसे पहले वे ही पूजे जाते हैं। आख़िर में वे ही पानी में उतारे जाते हैं। पढ़ने-लिखने की चर्चा को छोड़ आप श्री गणेश की कथा पर आ सकते हैं।

abhisays
10-11-2012, 01:45 PM
विषय क्या है, चूहा या श्री गणेश? भई, इस देश में कुल मिलाकर विषय एक ही होता है - ग़रीबी। सारे विषय उसी से जन्म लेते हैं। कविता कर लो या उपन्यास, बात वही होगी। ग़रीबी हटाने की बात करने वाले बातें कहते रहे, पर यह न सोचा कि ग़रीबी हट गई, तो लेखक लिखेंगे किस विषय पर? उन्हें लगा, ये साहित्य वाले लोग 'ग़रीबी हटाओ' के ख़िलाफ़ हैं। तो इस पर उतर आए कि चलो साहित्य हटाओ।

abhisays
10-11-2012, 01:45 PM
वह नहीं हट सकता। श्री गणेश से चालू हुआ है। वे ही उसके आदि देवता हैं। 'ऋद्धि-सिद्धि' आसपास रहती हैं, बीच में लेखन का काम चलता है। चूहा पैरों के पास बैठा रहता है। रचना ख़राब हुई कि गणेश जी महाराज उसे चूहे को दे देते हैं। ले भई, कुतर खा। पर ऐसा प्राय: नहीं होता। 'निज कवित्त' के फीका न लगने का नियम गणेश जी पर भी उतना ही लागू होता है। चूहा परेशान रहता है। महाराज, कुछ खाने को दीजिए। गणेश जी सूँड पर हाथ फेर गंभीरता से कहते हैं, लेखक के परिवार के सदस्य हो, खाने-पीने की बात मत किया करो। भूखे रहना सीखो। बड़ा ऊँचा मज़ाक-बोध है श्री गणेश जी का (अच्छे लेखकों में रहता है) चूहा सुन मुस्कुराता है। जानता है, गणेश जी डायटिंग पर भरोसा नहीं करते, तबीयत से खाते हैं, लिखते हैं, अब निरंतर बैठे लिखते रहने से शरीर में भरीपन तो आ ही जाता है।

abhisays
10-11-2012, 01:45 PM
चूहे को साहित्य से क्या करना। उसे चाहिए अनाज के दाने। कुतरे, खुश रहे। सामान्य जन की आवश्यकता उसकी आवश्यकता है। खाने, पेट भरने को हर गणेश-भक्त को चाहिए। भूखे भजन न होई गणेशा। या जो भी हो। साहित्य से पैसा कमाने का घनघोर विरोध वे ही करते हैं, जिनकी लेक्चररशिप पक्की हो गई और वेतन नए बढ़े हुए ग्रेड़ में मिल रहा है। जो अफ़सर हैं, जिन्हें पेंशन की सुविधा है, वे साहित्य में क्रांति-क्रांति की उछाल भरते रहते हैं। चूहा असल गणेश-भक्त है।

abhisays
10-11-2012, 01:45 PM
राष्ट्रीय दृष्टिकोण से सोचिए। पता है आपको, चूहों के कारण देश का कितना अनाज बरबाद होता है। चूहा शत्रु है। देश के गोदामों में घुसा चोर है। हमारे उत्पादन का एक बड़ा प्रतिशत चूहों के पेट में चला जाता है। चूहे से अनाज की रक्षा हमारी राष्ट्रीय समस्या है। कभी विचार किया अपने इस पर? बड़े गणेश-भक्त बनते हैं।

abhisays
10-11-2012, 01:46 PM
विचार किया। यों ही गणेश-भक्त नहीं बन गए। समस्या पर विचार करना हमारा पुराना मर्ज़ है। हा-हा-हा, ज़रा सुनिए।
आपको पता है, दाने-दाने पर खाने वाले का नाम लिखा रहता है। यह बात सिर्फ़ अनार और पपीते को लेकर ही सही नहीं है, अनाज के छोटे-छोटे दाने को लेकर भी सही है। हर दाने पर नाम लिखा रहता है खाने वाले का। कुछ देर पहले जो परांठा मैंने अचार से लगाकर खाया था, उस पर जगह-जगह शरद जोशी लिखा हुआ था। छोटा-मोटा काम नहीं है, इतने दानों पर नाम लिखना। यह काम कौन कर सकता है? गणेश जी, और कौन? वे ही लिख सकते हैं। और किसी के बस का नहीं है यह काम। परिश्रम, लगन और न्याय की ज़रूरत होती है। साहित्य वालों को यह काम सौंप दो, दाने-दाने पर नाम लिखने का। बस, अपने यार-दोस्तों के नाम लिखेंगे, बाकी को छोड़ देंगे भूखा मरने को। उनके नाम ही नहीं लिखेंगे दानों पर। जैसे दानों पर नाम नहीं, साहित्य का इतिहास लिखना हो, या पिछले दशक के लेखन का आकलन करना हो कि जिससे असहमत थे, उसका नाम भूल गए।

abhisays
10-11-2012, 01:46 PM
दृश्य यों होता है। गणेश जी बैठे हैं ऊपर। तेज़ी से दानों पर नाम लिखने में लगे हैं। अधिष्ठाता होने के कारण उन्हें पता है, कहाँ क्या उत्पन्न होगा। उनका काम है, दानों पर नाम लिखना ताकि जिसका जो दाना हो, वह उस शख़्स को मिल जाए। काम जारी है। चूहा नीचे बैठा है। बीच-बीच में गुहार लगाता है, हमारा भी ध्यान रखना प्रभु, ऐसा न हो कि चूहों को भूल जाओ। इस पर गणेश जी मन ही मन मुस्कराते हैं। उनके दाँत दिखाने के और हैं, मुस्कराने के और। फिर कुछ दानों पर नाम लिखना छोड़ देते हैं, भूल जाते हैं। वे दाने जिन पर किसी का नाम नहीं लिखा, सब चूहे के। चूहा गोदामों में घुसता है। जिन दानों पर नाम नहीं होते, उन्हें कुतर कर खाता रहता है। गणेश-महिमा।

abhisays
10-11-2012, 01:46 PM
एक दिन चूहा कहने लगा, गणेश जी महाराज! दाने-दाने पर मानव का नाम लिखने का कष्ट तो आप कर ही रहे हैं। थोड़ी कृपा और करो। नेक घर का पता और डाल दो नाम के साथ, तो बेचारों को इतनी परेशानी नहीं उठानी पड़ेगी। मारे-मारे फिरते हैं, अपना नाम लिखा दाना तलाशते। भोपाल से बंबई और दिल्ली तलक। घर का पता लिखा होगा, तो दाना घर पहुँच जाएगा, ऐसे जगह-जगह तो नहीं भटकेंगे।

abhisays
10-11-2012, 01:46 PM
अपने जाने चूहा बड़ी समाजवादी बात कह रहा था, पर घुड़क दिया गणेशजी ने। चुप रहो, ज़्यादा चूं-चूं मत करो।
नाम लिख-लिख श्री गणेश यों ही थके रहते हैं, ऊपर से पता भी लिखने बैठो। चूहे का क्या, लगाई जुबान ताल से और कह दिया। न्याय स्थापित कीजिए, दोनों का ठीक-ठाक पेट भर बँटवारा कीजिए। नाम लिखने की भी ज़रूरत नहीं। गणेश जी कब तक बैठे-बैठे लिखते रहेंगे?

abhisays
10-11-2012, 01:46 PM
प्रश्न यह है, तब चूहों का क्या होगा? वे जो हर व्यवसाय में अपने प्रतिशत कुतरते रहते हैं, उनका क्या होगा?
वही हुआ ना! बात श्री गणेश से शुरू कीजिए तो धीरे-धीरे चूहे तक पहुँच जाती है। क्या कीजिएगा?

abhisays
10-11-2012, 01:49 PM
एक भूतपूर्व मंत्री से मुलाकात

मंत्री थे तब उनके दरवाज़े कार बँधी रहती थी। आजकल क्वार्टर में रहते हैं और दरवाज़े भैंस बँधी रहती है। मैं जब उनके यहाँ पहुँचा वे अपने लड़के को दूध दुहना सिखा रहे थे और अफ़सोस कर रहे थे कि कैसी नई पीढ़ी आ गई है जिसे भैंसें दुहना भी नहीं आता।
मुझे देखा तो बोले – 'जले पर नमक छिड़कने आए हो!'
'नमक इतना सस्ता नहीं है कि नष्ट किया जाए। कांग्रेस राज में नमक भी सस्ता नहीं रहा।'
'कांग्रेस को क्यों दोष देते हो! हमने तो नमक–आंदोलन चलाया।' – फिर बड़बड़ाने लगे, 'जो आता है कांग्रेस को दोष देता है। आप भी क्या विरोधी दल के हैं?'
'आजकल तो कांग्रेस ही विरोधी दल है।'

abhisays
10-11-2012, 01:49 PM
वे चुप रहे। फिर बोले, 'कांग्रेस विरोधी दल हो ही नहीं सकती। वह तो राज करेगी। अंग्रेज़ हमें राज सौंप गए हैं। बीस साल से चला रहे हैं और सारे गुर जानते हैं। विरोधियों को क्या आता है, फ़ाइलें भी तो नहीं जमा सकते ठीक से। हम थे तो अफ़सरों को डाँट लगाते थे, जैसा चाहते थे करवा लेते थे। हिम्मत से काम लेते थे। रिश्तेदारों को नौकरियाँ दिलवाईं और अपनेवालों को ठेके दिलवाए। अफ़सरों की एक नहीं चलने दी। करके दिखाए विरोधी दल! एक ज़माना था अफ़सर खुद रिश्वत लेते थे और खा जाते थे। हमने सवाल खड़ा किया कि हमारा क्या होगा, पार्टी का क्या होगा?'
'हमने अफ़सरों को रिश्वत लेने से रोका और खुद ली। कांग्रेस को चंदा दिलवाया, हमारी बराबरी ये क्या करेंगे?'
'पर आपकी नीतियाँ ग़लत थीं और इसलिए जनता आपके ख़िलाफ़ हो गई!'
'कांग्रेस से यह शिकायत कर ही नहीं सकते आप। हमने जो भी नीतियाँ बनाईं उनके ख़िलाफ़ काम किया है। फिर किस बात की शिकायत? जो उस नीति को पसंद करते थे, वे हमारे समर्थक थे, और जो उस नीति के ख़िलाफ़ थे वे भी हमारे समर्थक थे, क्यों कि हम उस नीति पर चलते ही नहीं थे।'
मैं निरुत्तर हो गया।
'आपको उम्मीद है कि कांग्रेस फिर इस राज्य में विजयी होगी?'
'क्यों नहीं? उम्मीद पर तो हर पार्टी कायम है। जब विरोधी दल असफल होंगे और बेकार साबित होंगे, जब दो ग़लत और असफल दलों में से ही चुनाव करना होगा, तो कांग्रेस क्या बुरी? बस तब हम फिर 'पावर' में आ जाएँगे। ये विरोधी दल उसी रास्ते पर जा रहे हैं जिस पर हम चले थे और इनका निश्चित पतन होगा।'
'जैसे आपका हुआ।'
'बिल्कुल।'
'जब से मंत्री पद छोड़ा आपके क्या हाल हैं?'
'उसी तरह मस्त हैं, जैसे पहले थे। हम पर कोई फ़र्क नहीं पड़ा। हमने पहले से ही सिलसिला जमा लिया था। मकान, ज़मीन, बंगला सब कर लिया। किराया आता है। लड़के को भैस दुहना आ जाए, तो डेरी खोलेंगे और दूध बेचेंगे, राजनीति में भी रहेंगे और बिज़नेस भी करेंगे। हम तो नेहरू–गांधी के चेले हैं।'
'नेहरू जी की तरह ठाठ से भी रह सकते हैं और गांधी जी की तरह झोंपड़ी में भी रह सकते हैं। ख़ैर, झोंपड़ी का तो सवाल ही नहीं उठता। देश के भविष्य की सोचते थे, तो क्या अपने भविष्य की नहीं सोचते! छोटे भाई को ट्रक दिलवा दिया था। ट्रक का नाम रखा है देश–सेवक। परिवहन की समस्या हल करेगा।'
'कृषि–मंत्री था, तब जो खुद का फ़ार्म बनाया था, अब अच्छी फसल देता है। जब तक मंत्री रहा, एक मिनट खाली नहीं बैठा, परिश्रम किया, इसी कारण आज सुखी और संतुष्ट हूँ। हम तो कर्म में विश्वास करते हैं। धंधा कभी नहीं छोड़ा, मंत्री थे तब भी किया।'
'आप अगला चुनाव लड़ेंगे?'
'क्यों नहीं लड़ेंगे। हमेशा लड़ते हैं, अब भी लड़ेंगे। कांग्रेस टिकट नहीं देगी तो स्वतंत्र लड़ेंगे।'
'पर यह तो कांग्रेस के ख़िलाफ़ होगा।'
'हम कांग्रेस के हैं और कांग्रेस हमारी है। कांग्रेस ने हमें मंत्री बनने को कहा तो बने। सेवा की है। हमें टिकट देना पड़ेगा। नहीं देंगे तो इसका मतलब है कांग्रेस हमें अपना नहीं मानती। न माने। पहले प्रेम, अहिंसा से काम लेंगे, नहीं चला तो असहयोग आंदोलन चलाएँगे। दूसरी पार्टी से खड़े हो जाएँगे।'
'जब आप मंत्री थे, जाति–रिश्तेवालों को बड़ा फ़ायदा पहुँचाया आपने।'
'उसका भी भैया इतिहास है। जब हम कांग्रेस में आए और हमारे बारे में उड़ गई कि हम हरिजनों के साथ उठते–बैठते और थाली में खाना खाते हैं, जातिवालों ने हमें अलग कर दिया और हमसे संबंध नहीं रखे। हम भी जातिवाद के ख़िलाफ़ रहे और जब मंत्री बने, तो शुरू–शुरू में हमने जातिवाद को कसकर गालियाँ दीं।'
'दरअसल हमने अपने पहलेवाले मंत्रिमंडल को जातिवाद के नाम से उखाड़ा था। सो शुरू में तो हम जातिवाद के ख़िलाफ़ रहे। पर बाद में जब जातिवालों को अपनी ग़लती पता लगी तो वे हमारे बंगले के चक्कर काटने लगे। जाति की सभा हुई और हमको मानपत्र दिया गया और हमको जाति – कुलभूषण की उपाधि दी। हमने सोचा कि चलो सुबह का भूला शाम को घर आया। जब जाति के लोग हमसे प्रेम करते हैं, तो कुछ हमारा भी फर्ज़ हो जाता है। हम भी जाति के लड़कों को नौकरियाँ दिलवाने, तबादले रुकवाने, लोन दिलवाने में मदद करते और इस तरह जाति की उन्नति और विकास में योग देते। आज हमारी जाति के लोग बड़े–बड़े पदों पर बैठे हैं और हमारे आभारी हैं कि हमने उन्हें देश की सेवा का अवसर दिया। मैंने लड़कों से कह दिया कि एम.ए. करके आओ चाहे थर्ड डिवीजन में सही, सबको लैक्चरर बना दूँगा। अपनी जाति बुद्धिमान व्यक्तियों की जाति होनी चाहिए। और भैया अपने चुनाव–क्षेत्र में जाति के घर सबसे ज़्यादा हैं। सब सॉलिड वोट हैं। सो उसका ध्यान रखना पड़ता है। यों दुनिया जानती है, हम जातिवाद के ख़िलाफ़ हैं। जब तक हम रहे हमेशा मंत्रिमंडल में राजपूत और हरिजनों की संख्या नहीं बढ़ने दी। हम जातिवाद से संघर्ष करते रहे और इसी कारण अपनी जाति की हमेशा मेजॉरिटी रही।'

abhisays
10-11-2012, 01:49 PM
लड़का भैंस दुह चुका था और अंदर जा रहा था। भूतपूर्व मंत्री महोदय ने उसके हाथ से दूध की बाल्टी ले ली।
'अभी दो किलो दूध और होगा जनाब। पूरी दुही नहीं है तुमने। लाओ हम दुहें।' – फिर मेरी ओर देखकर बोले, एक तरफ़ तो देश के बच्चों को दूध नहीं मिल रहा, दूसरी ओर भैंसें पूरी दुही नहीं जा रहीं। और जब तक आप अपने स्रोतों का पूरी तरह दोहन नहीं करते, देश का विकास असंभव हैं।'
वे अपने स्रोत का दोहन करने लगे। लड़का अंदर जाकर रिकार्ड बजाने लगा और 'चा चा चा' का संगीत इस आदर्शवादी वातावरण में गूँजने लगा। मैंने नमस्कार किया और चला आया।

abhisays
10-11-2012, 01:50 PM
नेतृत्व की ताकत

नेता शब्द दो अक्षरों से बना है- 'ने' और 'ता'। इनमें एक भी अक्षर कम हो तो कोई नेता नहीं बन सकता । मगर हमारे शहर के एक नेता के साथ एक अजीब ट्रेजेडी हुई। वे बड़ी भागदौड़ में रहते थे। दिन गेस्ट हाउस में गुजारते रातें डाक बंगलों में। लंच अफसरों के सात लेते डिनर सेठों के साथ। इस बीच तो वक्त मिलता उसमें भाषण देते। कार्यकर्ताओं को संबोधित करते। कभी कभी खुद संबोधित हो जाते। मतलब यह कि बड़े व्यस्त। 'ने' और 'ता' दो अक्षरों से मिलकर तो बने थे एक दिन यह हुआ कि उनका 'ता' खो गया सिर्फ 'ने' रह गया।

abhisays
10-11-2012, 01:50 PM
इतने बड़े नेता और 'ता' गायब। शुरू में तो उन्हें पता ही नहीं चला बाद में सेक्रेट्री ने बताया कि आपका 'ता' नहीं मिल रहा है। आप सिर्फ 'ने' से काम चला रहे हैं।

नेता बड़े परेशान। नेता का मतलब होता है नेतृत्व करने की ताकत। ताकत चली गई सिर्फ नेतृत्व रह गया। 'ता' के साथ ताकत गई। तालियाँ खत्म हो गईं जो 'ता' के कारण बजती थीं। ताजगी नहीं रही। नेता बहुत चीखे। मेरे खिलाफ यह हरकत विरोधी दलों ने की है। इसमें विदेशी शक्तियों का हाथ है। यह मेरी छवि धूमिल करने का प्रयत्न है। पर जिसका 'ता' चला जाए उस नेता की सुनता कौन है। सी आई डी लगाई गई। सी बी आई ने जाँच की। रौ की मदद ली गई। 'ता' नहीं मिला।

abhisays
10-11-2012, 01:51 PM
नेता ने एक सेठ जी से कहा- यार हमारा 'ता' गायब है। अपने ताले में से 'ता' हमें दे दो।
सेठ कुछ देर सोचता रहा फिर बोला- यह सच है कि ले की मुझे जरूरत रहती है क्यों कि दे का तो काम नहीं पड़ता मगर ताले का 'ता' चला जाए तो लेकर रखेंगे कहाँ। सब इनकमटैक्स वाले ले जाएँगे। तू नेता रहे कि न रहे मैं ताले का 'ता' तो तुझे नहीं दूँगा। 'ता' मेरे लिये बहुत जरूरी है। कभी तालाबंदी करनी पड़े तो ऐसे वक्त तू तो मजदूरों का साथ देगा मुझे 'ता' थोड़े देगा।

सेठ जी को नेता ने बहुत समझाया। जब तक नेता रहूँगा मेरा 'ता' आपके ताले का समर्थन और रक्षा करेगा। आप 'ता' मुझे दे दें। और फिर ले आपका। लेते रहिये मैं कुछ नहीं कहूँगा। सेठ जी नहीं माने। नेता क्रोध से उठकर चले आए।

विरोधी मजाक बनाने लगे। अखबारों में खबर उछली कि कई दिनों से नेता का 'ता' नहीं रहा। अगर ने भी चला गया तो यह कहीं का नहीं रहेगा। खुद नेता के दल के लोगों ने दिल्ली जाकर शिकायत की। आपने एक ऐसा नेता हमारे सिर पर थोप रखा है जिसके पास 'ता' नहीं है।

abhisays
10-11-2012, 01:51 PM
नेता दुखी था पर उसमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह जनता में जाए और कबूल करे कि उसमें 'ता' नहीं है। यदि वह ऐसा करता तो जनता शायद अपना 'ता' उसे दे देती। पर उसे डर था कि जनता के सामने उसकी पोल खुल गई तो क्या होगा।

एक दिन उसने अजीब काम किया। कमरा बंद कर जूते में से 'ता' निकाला और 'ने' से चिपकाकर फिर नेता बन गया। यद्यपि उसके व्यक्तित्व से दुर्गंध आ रही थी मगर वह खुश था कि चलो नेता तो हूँ। केन्द्र ने भी उसका समर्थन किया। पार्टी ने भी कहा- जो भी नेता है ठीक है। हम फिलहाल परिवर्तन के पक्ष में नहीं हैं।

समस्या सिर्फ यह रह गई कि लोगों को इस बात का पता चल गया। आज स्थिति यह है कि लोग नेता को देखते हैं और अपना जूता हाथ में उठा लेते हैं। उन्हें डर है कि कहीं वो इनके जूतों में से 'ता' न चुरा ले।

abhisays
10-11-2012, 01:51 PM
पत्रकार अक्सर प्रश्न पूछते हैं- सुना आपका 'ता' गायब हो गया था पिछले दिनों। वे धीरे से कहते हैं। गायब नहीं हो गया था वो बात यह थी कि माता जी को चाहिये था तो मैंने उन्हें दे दिया था। आप तो जानते हैं मैं उन्हें कितना मानता हूँ। आज मैं जो भी कुछ हूँ उनके ही कारण हूँ। वे 'ता' क्या मेरा 'ने' भी ले लें तो मैं इन्कार नहीं करूँगा।

ऐसे समय में नेता की नम्रता देखते ही बनती थी। लेकिन मेरा विश्वास है मित्रों जब भी संकट आएगा नेता का 'ता' नहीं रहेगा। लोग निश्चित ही जूता हाथ में ले बढ़ेंगे और प्रजातंत्र की प्रगति में अपना योग देंगे।

abhisays
10-11-2012, 01:52 PM
यह बंगला फिल्म

लड़कियाँ और विशेष रूप से सुंदर लड़कियाँ बी.ए. करें, यह पुरानी और घर–घर की समस्या है। इस समस्या पर एक फ़िल्म भी तानकर खड़ी की जा सकती है, इसका हमें अनुमान न था। मगर बंगालियों की बात ही अलग। क्या कहने!

उस सिनेमा हाल में, जाने क्यों, हम अनफिट लग रहे थे। फ़िल्म की विशेषता थी कि वह बंगला में थी और हमारी विशेषता थी कि हम बंगला नहीं जानते। रहा कलाप्रेमी होने का सवाल तो कलाप्रेमी कोई मोर का पंख नहीं, जिसे सिर में खोंस लिया जाए। चारों ओर चटर्जी, मुखर्जी और भट्टाचार्य किस्म के लोग बैठे थे, धोती, कुर्ता पहने। और उनके सामने बैठे मैं और नरेंद्र दोनों गँवार लग रहे थे। हमें बंगला नहीं आती। जब तक हाल में अँधेरा नहीं हुआ यही हालत बनी रही। हम चुपचाप सिर झुकाए बैठे रहे। अँधेरा हुआ, तो हमारा गँवारापन विलीन हो गया और एक बंगला फ़िल्म पूरी गरिमा के साथ दिखाई जाने लगी।

abhisays
10-11-2012, 01:52 PM
वह बंगला लेखक की बंगला कहानी पर बनी बंगाली फ़िल्म थी जिसे बंगाल के एक प्रोड्*यूसर ने बंगाली अभिनेता और अभिनेत्रियों की मदद से बंगाल में ही बनाया था। कहानी बंगाल के एक छोटे से क़स्बे में रहनेवाले बंगाली परिवार की थी। यानी उसमें सबकुछ बंगाली था, नरेंद्र जो थोड़ा–बहुत संगीत समझता है, बता रहा था कि पृष्ठभूमि में जो संगीत बज रहा है, वह भी बंगाली है। इतने सबके बावजूद हमने पूर्ण कोशिश की कि चित्र को समझा जाए।

और हम बड़ी जल्दी समझ गए कि फ़िल्म सामान्य प्रेमकथा नहीं है। हीरोइन (आह, क्या भरी–पूरी हीरोइन थी!) इंटर कर चुकी है और उसके बी.ए. करने की समस्या है। पूरा ताना–बाना इस छोटी–सी समस्या को लेकर बुना गया था। हीरो भी इसी समस्या से ग्रस्त था। हीरोइन से पहली मुलाकात में ही पूछा, तोमार बीए होये गे छे?

हीरोइन ने इस प्रश्न पर कुछ उड़ता–उड़ता–सा जवाब दिया, आमार बीए कोरबार दोरकार नेई।

abhisays
10-11-2012, 01:52 PM
हम समझ गए कि लड़की इंटर कर चुकी है, मगर फिलहाल बी.ए. करने कै मूड में नहीं है, मगर हीरो चाहता था कि हिरोइन बी.ए. कर ले। वह जब मिलता, हीरोइन से एक ही प्रश्न घुमा–फिराकर करता, बीए, कोरबे ना कोरबे?

हीरो शायद उसी वर्ष बी.ए. में बैठ रहा था और चाहता था कि हीरोइन भी साथ ही बी.ए. कर ले, परीक्षा में बैठ जाए। झरने के पासवाले सीन में, जिसमें काफ़ी सारे बादल दिखाए गए थे और बड़ा सुरीला बेकग्राउण्ड म्यूज़िक बज रहा था, उसने उस भरी–पूरी हीरोइन का हाथ अपने हाथ में लेकर कहा था, आमार शोंगे बीए कोरबे?

हीरोइन लजा गई। हमें लगा, वह वास्तव, में पढ़ना चाहती है, मगर चाहकर भी आगे पढ़ नहीं पा रही है।

abhisays
10-11-2012, 01:53 PM
पिक्चर में एक अदद विलेन भी था, जो ज़मींदार किस्म का शख़्स था और हाथ में डंडा रखता था। वह भी चाहता था कि हीरोइन ग्रेज्युएट हो जाए। जब हीरोइन अपने घर पर जल प्रदाय की शाश्वत समस्या का हल खोजने कमर में घड़ा दाब झरने की तरफ़ जाती, विलेन पगडंडी काट खड़ा हो जाता और कहता, शुंदोरी!
आमी तोमार शोंगे बीए कोरबोई कोरबो!

हमें आश्चर्य हुआ कि यह मुछंदर विलेन बी.ए. करने से अभी तक सिर्फ़ इसीलिए रुका हुआ है, क्यों कि यह हीरोइन शुंदोरी के साथ बी.ए. करना चाहता है! इसी नज़ारे के आसपास इंटरवल हो गया और हम समोसों की दिशा में लपके।

हमें समझ नहीं आ रहा था कि कमबख़्त हीरोइन बी.ए. क्यों नहीं कर लेती? इतने समय में तो वह बी.ए. छोड़ एम.ए. कर सकती थी। और अगर वह बी.ए. नहीं करना चाहती तो न करे। इसमें खुद इतना परेशान होने या पब्लिक को बोर करने की क्या बात है? और वह हीरो सिर्फ़ इतनी-सी बात के लिए उस हीरोइन के पीछे क्यों लगा रहता है! दुनिया में और भी ग़म है बी.ए. करने के सिवा।

abhisays
10-11-2012, 01:53 PM
यार मुझे तो इस हीरोइन के इंटरमीडिएट होने में भी शक है। नरेंद्र बोला, जिस तरह यह लड़की दिन–भर पानी भरती रहती है, कपड़े सुखाती रहती है, खाली बैठी रहती है, मैं नहीं समझता इसने कॉलेज की शक्ल भी देखी है।

तुम समझते नहीं, नरेंद्र, बंगाल की परिस्थितियाँ हमारे मध्यप्रदेश से बिल्कुल भिन्न हैं। वहाँ पिछले वर्षों शिक्षा का तेज़ी से विकास हुआ हैं, गाँव–गाँव में कालेज खुल गए हैं और युवकों तथा युवतियों पर चारों तरफ़ से यह प्रेशर आ रहा है कि वे बी.ए., एम.ए. करें। युवक–युवती यह निर्णय नहीं ले पा रहे हैं कि वे बी.ए. करें या न करें। चारों तरफ़ बेकारी और असंतोष है। बंगाल की आज जो हालत है, हम अच्छी तरह जानते हैं। फ़िल्म इसी पृष्ठभूमि पर तैयार की गई है कि आज किसी युवती के लिए बी.ए. करना ज़रूरी है या नहीं? बंगाल की दृष्टि से यह एक गंभीर समस्या है। मैंने नरेंद्र को समझाया।

इंटरवल समाप्त हो चुका था। हम हाल के अंदर घुस गए और उसी गंभीरता से आगे देखने लगे।

abhisays
10-11-2012, 01:53 PM
समझ नहीं आ रहा था कि हीरोइन यूनिवर्सिटी डिग्री लेने के मामले में गंभीर है, अथवा नहीं। वह हीरो के सामने मान लेती कि वह बी.ए. कर लेगी, जो ज़रूरी भी है, मगर जब विलेन उससे कहता तो वह साफ़ इनकार कर देती। एक बार तो उसने विलेन को कसकर डाँट दिया, जेटा आमी भावी, शेटा आमी कोरबो। अर्थात मुझे जैसा जँचेगा वैसा करूँगी। विलेन बिचक गया और उसने अपने निश्चित 'देख लूँगा, जाती कहाँ है' वाले अंदाज़ में गरदन हिलाता, डंडा घुमाता पगडंडी से चला गया।

एक दृष्य में विलेन ने गाँव के कतिपय स्नेही मित्र टाइप के गुंडों को एकत्र किया और शराब पिलाकर यह शैक्षणिक समस्या सामने रखी थी कि हीरोइन बी.ए. करने को तैयार नहीं, बोलो क्या करें। गुंडों को आश्चर्य हुआ कि विलेन के इतने आग्रह के बावजूद वह लड़की बी.ए. करने से इनकार करती है। उन्होंने शराब पी और प्रश्न की गंभीरता को समझा। बाद में उन्होंने लपलपाते छुरे और फरसे चमकाकर यह कसम खाई कि उनके होते यह संभव नहीं होगा कि हीरोइन बी.ए. न करे। उन्होंने विलेन को वचन दिया और पैर पटकते चले गए।

abhisays
10-11-2012, 01:53 PM
एक और दृश्य में हीरोइन की सहेली ने हीरोइन को इसी विषय में समझाते हुए कहा कि तुम बी.ए. क्यों नहीं कर लेतीं। हीरोइन ने कुछ कहा जिसका अर्थ शायद था कि 'ठीक है, मैं कर लूँगी!'

मेरे ख़याल से इसके बाद फ़िल्म समाप्त हो जानी चाहिए थी। आख़िरी सीन में लड़की को बी.ए. कक्षा में बैठा दिखाकर 'दी एंड' किया जा सकता था, मगर ऐसा नहीं हुआ। विलेन के स्नेही मित्रों ने हीरो को डंडे से पीटा। जवाब में हीरो ने भी हाथ दिखाए। शैक्षणिक प्रश्न का अंतत: इस स्तर पर निपटारा होगा, इसकी उम्मीद नहीं थी। हीरोइन ने हीरो की बाँह पर पट्टी बाँधी और कड़े शब्दों में अपने बाप से बी.ए. करने का ऐलान करते हुए कहा, आमा के बीए कोरते केऊ थामाते पारबे ना।

और सच भी है। इस स्वतंत्र भारत में यदि कोई बी.ए. का अध्ययन करना चाहे तो उसे कौन थाम सकता है? चित्र के अंत में हीरो हीरोइन का हाथ पकड़ पब्लिक और कैमरामैन की तरफ़ पीठ किए एक ओर चला गया। शायद कालेज उसी ओर रहा होगा।

abhisays
10-11-2012, 01:54 PM
बाहर आकर नरेंद्र ने कहा, मेरे ख़याल से मूलत: यह फ़िल्म दो प्राइवेट कालेजों की लड़ाई पर बनी है। एक कालेज से हीरो संबद्ध है और दूसरे से विलेन। प्रतियोगिता इस बात की है कि वह सुंदरी कहाँ से बी.ए. करेगी। वह विलेन के कालेज से बी.ए. करना नहीं चाहती, क्यों कि वहाँ गुंडागर्दी ज़्यादा है, इसलिए वह अस्वीकार कर देती है। हीरो का विद्यापीठ शायद बेहतर है।

'बंगालवाले भी कमाल कर रहे हैं। कितनी नई थीम उठाकर फ़िल्में बना रहे हैं।' मैंने कहा।

abhisays
10-11-2012, 01:54 PM
पान की दुकान पर भट्टाचार्य बाबू मिल गए।
'क्यों जोशी साहब, इधर कैसा आया?'
'फ़िल्म देखने आया था, दादा, बंगाली फ़िल्म।'
'अरे तुमको बंगाली समझता?'
'समझता तो नहीं, दादा, फिर भी हमने सोचा, अच्छा फ़िल्म है, देखना चाहिए।'
'अच्छा है, अच्छा है।'
'एंड समझ नहीं आया, दादा!'
'क्या नहीं समझा?'
'हीरोइन ने ग्रेजुएशन कर लिया कि नहीं, दादा?'
'कैसा ग्रेजुएशन?' भट्टाचार्य आश्चर्य से बोले।
'हीरोइन कहती थी ना कि मैं बी.ए. करूँगी, मुझे कोई रोक नहीं सकता।'

भट्टाचार्य 'हो–हो' कर ज़ोर से हँसे और बोले, खूब समझा तुम लोग। अरे, बीए मतलब बैचलर ऑफ आर्टस्* नहीं। बीए यानी ब्याह, शादी, मैरेज। – और वे फिर ज़ोर–ज़ोर से हँसने लगे।

rajnish manga
16-11-2012, 10:55 PM
शरद जोशी के व्यंग्य लेख पहले भी पढ़े हैं और पढ़ कर खूब हंसा हूँ. किन्तु अभिसेज़ जी द्वारा जारी सूत्र में शरद जी के कुछ मजेदार लेख पा कर और पढ़ कर बहुत दिनों बाद पुनः इतना आनंद आया. बंगाली फिल्म वाला प्रसंग तो मार ही डालता है. अपने नाटकों और हास्य व्यंय के लेखों के माध्यम से शरद जी हिंदी साहित्य के इतिहास में सदैव जीवित रहेंगे. अभिसेज़ जी को धन्यवाद और बधाई.