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View Full Version : गजलें और नज्में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़


omkumar
11-11-2012, 09:39 AM
गजलें और नज्में -- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

http://i1.tribune.com.pk/wp-content/uploads/2011/02/Faiz-Ahmed-Photo-File1111-640x480.jpg

omkumar
11-11-2012, 09:40 AM
मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न माँग


मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरी महबूब न माँग

मैंने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात
तेरा ग़म है तो ग़मे-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है?

तू जो मिल जाए तो तक़दीर निगूँ हो जाए
यूँ न था, मैंने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाए
और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं, वस्ल की राहत के सिवा

अनगिनत सदियों के तारीक बहीमाना तिलिस्म
रेशम-ओ-अतलस-ओ-कमख़्वाब में बुनवाए हुए
जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
ख़ाक में लिथड़े हुए, ख़ून में नहलाए हुए
जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों से
पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से

लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे!
और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरी महबूब न माँग

omkumar
11-11-2012, 09:40 AM
रंग है दिल का मेरे

तुम न आए थे तो हर चीज़ वही थी कि जो है
आसमाँ हद्दे-नज़र, राहगुज़र राहगुज़र, शीशा-ए-मय शीशा-ए-मय
और अब शीशा-ए-मय, राहगुज़र, रंगे-फ़लक
रंग है दिल का मेरे "ख़ून-ए-जिगर होने तक"
चंपई रंग कभी, राहते-दीदार का रंग
सुरमई रंग की है सा'अते-बेज़ार का रंग
ज़र्द पत्तों का, खस-ओ-ख़ार का रंग
सुर्ख़ फूलों का, दहकते हुए गुलज़ार का रंग
ज़हर का रंग, लहू-रंग, शबे-तार का रंग
आसमाँ, राहगुज़र, शीशा-ए-मय
कोई भीगा हुआ दामन, कोई दुखती हुई रग
कोई हर लहज़ा बदलता हुआ आईना है
अब जो आए हो तो ठहरो कि कोई रंग, कोई रुत, कोई शै
एक जगह पर ठहरे
फिर से इक बार हर इक चीज़ वही हो कि जो है
आसमाँ हद्दे-नज़र, राहगुज़र राहगुज़र, शीशा-ए-मय शीशा-ए-मय

omkumar
11-11-2012, 09:41 AM
अब कहाँ रस्म घर लुटाने की


अब कहाँ रस्म घर लुटाने की
बरकतें थीं शराबख़ाने की
कौन है जिससे गुफ़्तगू कीजे
जान देने की दिल लगाने की
बात छेड़ी तो उठ गई महफ़िल
उनसे जो बात थी बताने की

साज़ उठाया तो थम गया ग़म-ए-दिल
रह गई आरज़ू सुनाने की
चाँद फिर आज भी नहीं निकला
कितनी हसरत थी उनके आने की

omkumar
11-11-2012, 09:41 AM
अब वही हर्फ़-ए-जुनूँ सबकी ज़ुबाँ ठहरी है


अब वही हर्फ़-ए-जुनूँ सबकी ज़ुबाँ ठहरी है
जो भी चल निकली है, वो बात कहाँ ठहरी है
आज तक शैख़ के इकराम में जो शै थी हराम
अब वही दुश्मने-दीं राहते-जाँ ठहरी है
है ख़बर गर्म के फिरता है गुरेज़ाँ नासेह
गुफ़्तगू आज सरे-कू-ए-बुताँ ठहरी है
है वही आरिज़े-लैला, वही शीरीं का दहन
निगाहे-शौक़ घड़ी भर को जहाँ ठहरी है
वस्ल की शब थी तो किस दर्जा सुबुक गुज़री थी
हिज्र की शब है तो क्या सख़्त गराँ ठहरी है
बिखरी एक बार तो हाथ आई है कब मौजे-शमीम
दिल से निकली है तो कब लब पे फ़ुग़ाँ ठहरी है
दस्ते-सय्याद भी आजिज़ है कफ़-ए-गुलचीं भी
बू-ए-गुल ठहरी न बुलबुल की ज़बाँ ठहरी है
आते आते यूँ ही दम भर को रुकी होगी बहार
जाते जाते यूँ ही पल भर को ख़िज़ाँ ठहरी है
हमने जो तर्ज़-ए-फ़ुग़ाँ की है क़फ़स में ईजाद
'फ़ैज़' गुलशन में वो तर्ज़-ए-बयाँ ठहरी है

omkumar
11-11-2012, 09:41 AM
तेरी सूरत जो दिलनशीं की है


तेरी सूरत जो दिलनशीं की है
आशना शक्ल हर हसीं की है
हुस्न से दिल लगा के हस्ती की
हर घड़ी हमने आतशीं की है
सुबहे-गुल हो कि शामे-मैख़ाना
मदह उस रू-ए-नाज़नीं की है
शैख़ से बे-हिरास मिलते हैं
हमने तौबा अभी नहीं की है
ज़िक्रे-दोज़ख़, बयाने-हूर-ओ-कुसूर
बात गोया यहीं कहीं की है
अश्क़ तो कुछ भी रंग ला न सके
ख़ूँ से तर आज आस्तीं की है
कैसे मानें हरम के सहल-पसंद
रस्म जो आशिक़ों के दीं की है
'फ़ैज़' औजे-ख़याल से हमने
आसमाँ सिंध की ज़मीं की है

omkumar
11-11-2012, 09:42 AM
खुर्शीदे-महशर की लौ

आज के दिन न पूछो मेरे दोस्तो
दूर कितने हैं ख़ुशियाँ मनाने के दिन
खुल के हँसने के दिन, गीत गाने के दिन
प्यार करने के दिन, दिल लगाने के दिन
आज के दिन न पूछो मेरे दोस्तो
ज़ख़्म कितने अभी बख़्ते-बिस्मिल में हैं
दश्त कितने अभी राहे-मंज़िल में हैं
तीर कितने अभी दस्ते-क़ातिल में हैं
आज का दिन जबूँ है मेरे दोस्तो
आज का दिन तो यूँ है मेरे दोस्तो
जैसे दर्द-ओ-अलम के पुराने निशाँ
सब चले सूए-दिल कारवाँ कारवाँ
हाथ सीने पे रक्खो तो हर उस्तख़्वाँ
से उठे नाला-ए-अलअमाँ अलअमाँ
आज के दिन न पूछो मेरे दोस्तो
कब तुम्हारे लहू के दरीदा अलम
फ़र्क़-ए-ख़ुर्शीदे-महशर पे होंगे रक़म
अज़ कराँ ता कराँ कब तुम्हारे क़दम
लेके उट्ठेगा वो बहरे-ख़ूँ यम-ब-यम
जिसमें धुल जाएगा आज के दिन का ग़म
सारे दर्द-ओ-अलम सारे ज़ोर-ओ-सितम
दूर कितनी है ख़ुर्शीदे-महशर की लौ
आज के दिन न पूछो मेरे दोस्तो

omkumar
11-11-2012, 09:42 AM
ढाका से वापसी पर


हम के ठहरे अजनबी इतनी मदारातों के बाद
फिर बनेंगे आशना कितनी मुलाक़ातों के बाद
कब नज़र में आएगी बे-दाग़ सब्ज़े की बहार
ख़ून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद
थे बहुत बे-दर्द लम्हे ख़त्मे-दर्दे-इश्क़ के
थीं बहुत बे-मेह्*र सुब्हें मेहरबाँ रातों के बाद
दिल तो चाहा पर शिकस्ते-दिल ने मोहलत ही न दी
कुछ गिले-शिकवे भी कर लेते, मुनाजातों के बाद

उनसे जो कहने गए थे 'फ़ैज़' जाँ सदक़ा किए
अनकही ही रह गई वो बात सब बातों के बाद

omkumar
11-11-2012, 09:42 AM
तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं


तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं
किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं
हदीसे-यार के उनवाँ निखरने लगते हैं
तो हर हरीम में गेसू सँवरने लगते हैं
हर अजनबी हमें महरम दिखाई देता है
जो अब भी तेरी गली से गुज़रने लगते हैं
सबा से करते हैं ग़ुर्बत-नसीब ज़िक्रे-वतन
तो चश्मे-सुबह में आँसू उभरने लगते हैं
वो जब भी करते हैं इस नुत्क़ो-लब की बख़ियागरी
फ़ज़ा में और भी नग़्में बिखरने लगते हैं
दरे-क़फ़स पे अँधेरे की मुहर लगती है
तो 'फ़ैज़' दिल में सितारे उतरने लगते हैं

omkumar
11-11-2012, 09:43 AM
निसार मैं तेरी गलियों के अए वतन, कि जहाँ



निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन कि जहाँ
चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले
जो कोई चाहनेवाला तवाफ़ को निकले
नज़र चुरा के चले, जिस्म-ओ-जाँ बचा के चले

है अहले-दिल के लिए अब ये नज़्मे-बस्त-ओ-कुशाद
कि संगो-ख़िश्त मुक़य्यद हैं और सग आज़ाद

बहुत हैं ज़ुल्म के दस्त-ए-बहाना-जू के लिए
जो चंद अहले-जुनूँ तेरे नामलेवा हैं
बने हैं अहले-हवस मुद्दई भी, मुंसिफ़ भी
किसे वकील करें, किससे मुंसिफ़ी चाहें


मगर गुज़ारनेवालों के दिन गुज़रते हैं
तेरे फ़िराक़ में यूँ सुबह-ओ-शाम करते हैं

बुझा जो रौज़ने-ज़िंदाँ तो दिल ये समझा है
कि तेरी माँग सितारों से भर गई होगी
चमक उठे हैं सलासिल तो हमने जाना है
कि अब सहर तेरे रुख़ पर बिखर गई होगी

ग़रज़ तसव्वुर-ए-शाम-ओ-सहर में जीते हैं
गिरफ़्त-ए-साया-ए-दीवार-ओ-दर में जीते हैं

यूँ ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क़
न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत नई
यूँ ही हमेशा खिलाए हैं हमने आग में फूल
न उनकी हार नई है न अपनी जीत नई


इसी सबब से फ़लक का गिला नहीं करते
तेरे फ़िराक़ में हम दिल बुरा नहीं करते


गर आज तुझसे जुदा हैं तो कल ब-हम होंगे
ये रात भर की जुदाई तो कोई बात नहीं
गर आज औज पे है ताला-ए-रक़ीब तो क्या
ये चार दिन की ख़ुदाई तो कोई बात नहीं


जो तुझसे अह्द-ए-वफ़ा उस्तवार रखते हैं
इलाजे-गर्दिशे-लैल-ओ-निहार रखते हैं

omkumar
11-11-2012, 09:43 AM
आज बाज़ार में पा-ब-जौलाँ चलो


चश्मे-नम जाने-शोरीदा काफ़ी नहीं
तोहमते-इश्क़ पोशीदा काफ़ी नहीं
आज बाज़ार में पा-ब-जौलाँ चलो
दस्त-अफ्शाँ चलो, मस्तो-रक़्साँ चलो
ख़ाक़-बर-सर चलो, ख़ूँ-ब-दामाँ चलो
राह तकता है सब शहरे-जानाँ चलो
हाकिमे-शहर भी, मजम'ए-आम भी
तीरे-इल्ज़ाम भी, संगे-दुश्नाम भी
सुबहे-नाशाद भी, रोज़े-नाकाम भी
इनका दमसाज़ अपने सिवा कौन है
शहरे-जानाँ में अब बा-सफ़ा कौन है
दस्त-ए-क़ातिल के शायाँ रहा कौन है
रख़्ते-दिल बाँध लो दिलफ़िगारो चलो
फिर हमीं क़त्ल हो आएँ यारो चलो
आज बाज़ार में पा-ब-जौलाँ चलो

omkumar
11-11-2012, 09:44 AM
रक़ीब से

आ कि वाबस्ता हैं उस हुस्न की यादें तुझसे
जिसने इस दिल को परीख़ाना बना रक्खा था
जिसकी उल्फ़त में भुला रक्खी थी दुनिया हमने
दह्*र को दह्*र का अफ़साना बना रक्खा था
आशना हैं तेरे क़दमों से वो राहें जिन पर
उसकी मदहोश जवानी ने इनायत की है
कारवाँ गुज़रे हैं जिनसे उसी रा'नाई के
जिसकी इन आँखों ने बेसूद इबादत की है
तुझसे खेली हैं वो महबूब हवाएँ जिनमें
उसके मलबूस की अफ़सुर्दा महक बाक़ी है
तुझ पे भी बरसा है उस बाम से महताब का नूर
जिसमें बीती हुई रातों की कसक बाक़ी है
तूने देखी है वो पेशानी वो रुख़सार वो होंठ
ज़िंदगी जिनके तसव्वुर में लुटा दी हमने
तुझ पे उट्ठी हैं वो खोई हुई साहिर आँखें
तुझको मालूम है क्यों उम्र गँवा दी हमने
हम पे मुश्तरिका हैं एहसान ग़मे-उल्फ़त के
इतने एहसान कि गिनवाऊँ तो गिनवा न सकूँ
हमने इस इश्क़ में क्या खोया है क्या सीखा है
जुज़ तेरे और को समझाऊँ तो समझा न सकूँ
आजिज़ी सीखी ग़रीबों की हिमायत सीखी
यास-ओ-हिरमान के दुख-दर्द के मा'नी सीखे
ज़ेरदस्तों के मसाइब को समझना सीखा
सर्द आहों के रुख़-ए-ज़र्द के मानी सीखे
जब कहीं बैठ के रोते हैं वो बेकस जिनके
अश्क आँखों में बिलकते हुए सो जाते हैं
नातवानों के निवालों पे झपटते हैं उक़ाब
बाज़ू तोले हुए मँडराते हुए आते हैं
जब कभी बिकता है बाज़ार में मज़दूर का गोश्त
शाहराहों पे ग़रीबों का लहू बहता है
या कोई तोंद का बढ़ता हुआ सैलाब लिए
फ़ाकामस्तों को डुबोने के लिए कहता है
आग-सी सीने में रह रह के उबलती है न पूछ
अपने दिल पर मुझे क़ाबू ही नहीं रहता है

omkumar
11-11-2012, 09:44 AM
तेरे ग़म को जाँ की तलाश थी तेरे जाँ-निसार चले गये


तेरे ग़म को जाँ की तलाश थी तेरे जाँ-निसार चले गए
तेरी रह में करते थे सर तलब सरे-रहगुज़ार चले गए
तेरी कज़-अदाई से हार के शबे-इंतज़ार चली गई
मेरे ज़ब्ते-हाल से रूठ कर मेरे ग़मगुसार चले गए
न सवाले-वस्ल न अर्ज़े-ग़म न हिकायतें न शिकायतें
तेरे अहद में दिले-ज़ार के सभी इख़्तियार चले गए
ये हमीं थे जिनके लिबास पर सर-ए-रू सियाही लिखी गई
यही दाग़ थे जो सजा के हम सरे-बज़्मे-यार चले गए
न रहा जुनूने-रुख़े-वफ़ा ये रसन ये दार करोगे क्या
जिन्हें जुर्मे-इश्क़ पे नाज़ था वो गुनाहगार चले गए

omkumar
11-11-2012, 09:44 AM
बहार आई

बहार आई तो जैसे एक बार
लौट आए हैं फिर अदम से
वो ख़्वाब सारे, शबाब सारे
जो तेरे होंठों पे मर मिटे थे
जो मिट के हर बार फिर जिए थे
निखर गए हैं गुलाब सारे
जो तेरी यादों से मुश्कबू हैं
जो तेरे उश्शाक़ का लहू हैं
उबल पड़े हैं अज़ाब सारे
मलाले-अहवाले-दोस्ताँ भी
ख़ुमारे-आग़ोशे-महवशाँ भी
ग़ुबारे-ख़ातिर के बाब सारे
तेरे हमारे सवाल सारे, जवाब सारे
बहार आई तो खुल गए हैं
नए सिरे से हिसाब सारे

omkumar
11-11-2012, 09:44 AM
नौहा

मुझको शिकवा है मेरे भाई कि तुम जाते हुए
ले गए साथ मेरी उम्रे-गुज़िश्ता की किताब
उसमें तो मेरी बहुत क़ीमती तस्वीरें थीं
उसमें बचपन था मेरा, और मेरा अहदे-शबाब
उसके बदले मुझे तुम दे गए जाते-जाते
अपने ग़म का यह् दमकता हुआ ख़ूँ-रंग गुलाब
क्या करूँ भाई, ये एज़ाज़ मैं क्यूँ कर पहनूँ
मुझसे ले लो मेरी सब चाक क़मीज़ों का हिसाब
आख़िरी बार है लो मान लो इक ये भी सवाल
आज तक तुमसे मैं लौटा नहीं मायूसे-जवाब
आके ले जाओ तुम अपना ये दहकता हुआ फूल
मुझको लौटा दो मेरी उम्रे-गुज़िश्ता की किताब

omkumar
11-11-2012, 09:45 AM
तेरी उम्मीद तेरा इंतज़ार जब से है


तेरी उम्मीद तेरा इंतज़ार जब से है
न शब को दिन से शिकायत न दिन को शब से है
किसी का दर्द हो करते हैं तेरे नाम रक़म
गिला है जो भी किसी से तेरे सबब से है
हुआ है जब से दिल-ए-नासुबूर बेक़ाबू
कलाम तुझसे नज़र को बड़े अदब से है
अगर शरर है तो भड़के, जो फूल है तो खिले
तरह तरह की तलब तेरे रंगे-लब से है
कहाँ गए शबे-फ़ुरक़त के जागनेवाले
सितारा-ए-सहरी हमक़लाम कब से है

omkumar
11-11-2012, 09:45 AM
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे


बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़बाँ अब तक तेरी है
तेरा सुतवाँ जिस्म है तेरा
बोल कि जाँ अब तक तेरी है
देख के आहंगर की दुकाँ में
तुंद हैं शोले, सुर्ख़ है आहन
खुलने लगे क़ुफ़्फ़लों के दहाने
फैला हर एक ज़ंजीर का दामन
बोल ये थोड़ा वक़्त बहोत है
जिस्म-ओ-ज़बाँ की मौत से पहले
बोल कि सच ज़िंदा है अब तक
बोल जो कुछ कहना है कह ले

omkumar
11-11-2012, 09:45 AM
जब तेरी समन्दर आँखों में


ये धूप किनारा, शाम ढले
मिलते हैं दोंनो वक़्त जहाँ
जो रात न दिन, जो आज न कल
पल भर में अमर, पल भर में धुआँ
इस धूप किनारे, पल दो पल
होठों की लपक, बाँहों की खनक
ये मेल हमारा झूठ न सच
क्यों रार करो, क्यों दोष धरो
किस कारन झूठी बात करो
जब तेरी समंदर आँखों में
इस शाम का सूरज डूबेगा
सुख सोएँगे घर-दर वाले
और राही अपनी रह लेगा

omkumar
11-11-2012, 09:46 AM
आप की याद आती रही रात भर
(मख़दूम की याद में)

आप की याद आती रही रात भर
चाँदनी दिल दुखाती रही रात भर''
गाह जलती हुई, गाह बुझती हुई
शम्म'ए-ग़म झिलमिलाती रही रात भर
कोई ख़ुशबू बदलती रही पैरहन
कोई तस्वीर गाती रही रात भर
फिर सबा साया-ए-शाख़े-गुल के तले
कोई क़िस्सा सुनाती रही रात भर
जो न आया उसे कोई ज़ंजीरे-दर
हर सदा पर बुलाती रही रात भर
एक उम्मीद से दिल बहलता रहा
इक तमन्ना सताती रही रात भर

omkumar
11-11-2012, 09:46 AM
चश्मे-मयगूँ ज़रा इधर कर दे

चश्मे-मयगूँ ज़रा इधर कर दे
दस्ते-कुदरत को बे-असर कर दे
तेज़ है आज दर्द-ए-दिल साक़ी
तल्ख़ी-ए-मय को तेज़तर कर दे
जोशे-वोशत है तिश्नाकाम अभी
चाक-दामन को ताज़िगार कर दे
मेरी क़िस्मत से खेलने वाले
मुझको क़िस्मत से बेख़बर कर दे
लुट रही है मेरी मता-ए-नियाज़
काश वो इस तरफ़ नज़र कर दे
''फ़ैज़'' तक्मीले-आरज़ू मालूम
हो सके तो यूँ ही बसर कर दे

omkumar
11-11-2012, 09:46 AM
गीत


चलो फिर से मुस्कुराएँ
चलो फिर से दिल जलाएँ


जो गुज़र गयी हैं रातें
उन्हें फिर जगा के लाएँ
जो बिसर गयी हैं बातें
उन्हें याद में बुलाएँ


चलो फिर से दिल लगाएँ
चलो फिर से मुस्कुराएँ


किसी शह-नशीं पे झलकी
वो धनक किसी क़बा की
किसी रग में कसमसाई
वो कसक किसी अदा की
कोई हर्फ़े-बे-मुरव्वत
किसी कुंजे-लब से फूटा
वो छनक के शीशा-ए-दिल
तहे-बाम फिर से टूटा
ये मिलन की, ना-मिलन की
ये लगन की और जलन की
जो सही हैं वारदातें
जो गुज़र गई हैं रातें
जो बिसर गई हैं बातें
कोई इनकी धुन बनाएँ
कोई इनका गीत गाएँ


चलो फिर से मुस्कुराएँ
चलो फिर से दिल लगाएँ

omkumar
11-11-2012, 09:47 AM
चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़



चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़
और कुछ देर सितम सह लें, तड़प लें, रो लें
अपने अजदाद की मीरास है माज़ूर हैं हम
जिस्म पर क़ैद है जज़्बात पे ज़ंजीरें है
फ़िक्र महबूस है गुफ़्तार पे ताज़ीरें हैं
अपनी हिम्मत है कि हम फिर भी जिए जाते हैं
ज़िंदगी क्या किसी मुफ़लिस की क़बा है जिसमें
हर घड़ी दर्द के पैबंद लगे जाते हैं
लेकिन अब ज़ुल्म की मीयाद के दिन थोड़े हैं
इक ज़रा सब्र कि फ़रियाद के दिन थोड़े हैं
अर्सा-ए-दहर की झुलसी हुई वीरानी में
हमको रहना है पर यूँ ही तो नहीं रहना है
अजनबी हाथों के बेनाम गराँबार सितम
आज सहना है हमेशा तो नहीं सहना है
ये तेरे हुस्न से लिपटी हुई आलाम की गर्द
अपनी दो रोज़ा जवानी की शिकस्तों का शुमार
चाँदनी रातों का बेकार दहकता हुआ दर्द
दिल की बेसूद तड़प जिस्म की मायूस पुकार
चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़

omkumar
11-11-2012, 09:47 AM
ये शहर उदास इतना ज़ियादा तो नहीं था

गो सबको बहम साग़र-ओ-वादा तो नहीं था
ये शहर उदास इतना ज़ियादा तो नहीं था
गलियों में फिरा करते थे दो-चार दिवाने
हर शख़्स का सद चाक लबादा तो नहीं था
वाइज़ से रह-ओ-रस्म रही रिंद से सोहबत
फ़र्क़ इनमें कोई इतना ज़ियादा तो नहीं था
थक कर यूँ ही पल भर के लिए आँख लगी थी
सो कर ही न उट्ठें ये इरादा तो नहीं था

omkumar
11-11-2012, 09:47 AM
गुलों में रंग भरे, बादे-नौबहार चले

गुलों में रंग भरे, बादे-नौबहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले
क़फ़स उदास है यारो, सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहरे-ख़ुदा आज ज़िक्रे-यार चले
कभी तो सुब्ह तेरे कुंजे-लब से हो आग़ाज़
कभी तो शब सरे-काकुल से मुश्के-बार चले
बड़ा है दर्द का रिश्ता, ये दिल ग़रीब सही
तुम्हारे नाम पे आएँगे ग़मगुसार चले
जो हम पे गुज़री सो गुज़री मगर शबे-हिज्राँ
हमारे अश्क तेरी आक़बत सँवार चले
हुज़ूरे-यार हुई दफ़्तरे-जुनूँ की तलब
गिरह में लेके गरेबाँ का तार तार चले
मक़ाम 'फैज़' कोई राह में जचा ही नहीं
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले

omkumar
11-11-2012, 09:48 AM
गर्मी-ए-शौक़-ए-नज़्ज़ारा का असर तो देखो


गर्मी-ए-शौक़-ए-नज़्ज़ारा का असर तो देखो
गुल खिले जाते हैं वो साया-ए-दर तो देखो
ऐसे नादाँ तो न थे जाँ से गुज़रने वाले
नासिहो, रहबर-ओ-राहगुज़र तो देखो
वो तो वो हैं तुम्हें हो जाएगी उल्फ़त मुझसे
एक नज़र तुम मेरा महबूबे-नज़र तो देखो
वो जो अब चाक गरेबाँ भी नहीं करते हैं
देखने वालो कभी उनका जिगर तो देखो
दामने-दर्द को गुलज़ार बना रखा है
आओ एक दिन दिले-पुरख़ूँ का हुनर तो देखो
सुबह की तरह झमकता है शबे-ग़म का उफ़क़
फ़ैज ताबिंदगी-ए-दीदा-ए-तर तो देखो

omkumar
11-11-2012, 09:50 AM
गरानी-ए-शबे-हिज़्रां दुचंद क्या करते

गरानी-ए-शबे-हिज्राँ दुचंद क्या करते
इलाजे-दर्द तेरे दर्दमंद क्या करते
वहीं लगी है जो नाज़ुक मकाम थे दिल के
ये फ़र्क़ दस्ते-अदू के गज़ंद क्या करते
जगह-जगह पे थे नासेह तो कू-ब-कू दिलबर
इन्हें पसंद, उन्हें नापसंद क्या करते
हमीं ने रोक लिया पंजा-ए-जुनूँ को वरना
हमें असीर ये कोताहकमंद क्या करते
जिन्हें ख़बर थी कि शर्ते-नवागरी क्या है
वो ख़ुशनवा गिला-ए-क़ैदो-बंद क्या करते
गुलू-ए-इश्क़ को दारो-रसन पहुँच न सके
तो लौट आए तेरे सरबलंद, क्या करते

omkumar
11-11-2012, 09:50 AM
मेरे दिल ये तो फ़क़त एक घड़ी है


इस वक़्त तो यूँ लगता है अब कुछ भी नहीं है
महताब न सूरज न अँधेरा न सवेरा

आँखों के दरीचे में किसी हुस्न की झलकन
और दिल की पनाहों में किसी दर्द का डेरा

मुमकिन है कोई वोम हो मुमकिन है सुना हो
गलियों में किसी चाप का एक आख़िरी फेरा

शाख़ों में ख़यालों के घने पेड़ की शायद
अब आके करेगा न कोई ख़्वाब बसेरा

इक बैर न इक महर न इक रब्त न रिश्ता
तेरा कोई अपना न पराया कोई मेरा

माना कि ये सुनसान घड़ी सख़्त बड़ी है
लेकिन मेरे दिल ये तो फ़क़त एक घड़ी है

हिम्मत करो जीने को अभी उम्र पड़ी है

omkumar
11-11-2012, 09:50 AM
ख़ुदा वो वक़्त न लाये कि सोगवार हो तू


ख़ुदा वो वक़्त न लाए कि सोगवार हो तू
सुकूँ की नींद तुझे भी हराम हो जाए
तेरी मसर्रते-पैहम तमाम हो जाए
तेरी हयात तुझे तल्ख़ जाम हो जाए

ग़मों से आईना-ए-दिल गुदाज़ हो तेरा
हुजूमे-यास से बेताब होके रह जाए
वफ़ूरे-दर्द से सीमाब होके रह जाए
तेरा शबाब फ़क़त ख़्वाब होके रह जाए

ग़ुरूरे-हुस्न सरापा नियाज़ हो तेरा
तवील रातों में तू भी क़रार को तरसे
तेरी निगाह किसी ग़मगुसार को तरसे
ख़िज़ाँरसीदा तमन्ना बहार को तरसे

कोई जबीं न तेरे संग-ए-आस्ताँ पे झुके
कि जिंसे-इज़्ज़ो-अक़ीदत से तुझको शाद करे
फ़रेबे-वादा-ए-फ़र्दा पे ए'तमाद करे
ख़ुदा वो वक़्त न लाए कि तुझको याद आए

वो दिल जो तेरे लिए बे-क़रार अब भी है
वो आँख जिसको तेरा इंतज़ार अब भी है

omkumar
11-11-2012, 10:18 AM
मेरी तेरी निगाह में जो लाख इंतज़ार हैं

मेरी-तेरी निगाह में जो लाख इंतज़ार हैं
जो मेरे-तेरे तन-बदन में लाख दिल फ़िग़ार हैं
जो मेरी-तेरी उँगलियों की बेहिसी से सब क़लम नज़ार हैं

जो मेरे-तेरे शहर की हर इक गली में
मेरे-तेरे नक़्श-ए-पा के बे-निशाँ मज़ार हैं
जो मेरी-तेरी रात के सितारे ज़ख़्म ज़ख़्म हैं
जो मेरी-तेरी सुबह के गुलाब चाक चाक हैं

ये ज़ख़्म सारे बे-दवा ये चाक सारे बे-रफ़ू
किसी पे राख चाँद की किसी पे ओस का लहू

ये हैं भी या नहीं बता
ये है कि महज़ जाल है
मेरे-तुम्हारे अंकबूते-वोम का बुना हुआ

जो है तो इसका क्या करें
नहीं है तो भी क्या करें
बता, बता, बता, बता

omkumar
11-11-2012, 10:18 AM
कोई आशिक़ किसी महबूब से


याद की राहगुज़र जिसपे इसी सूरत से
मुद्दतें बीत गईं हैं तुम्हें चलते-चलते
ख़त्म हो जाए जो दो-चार क़दम और चलो
मोड़ पड़ता है जहाँ दश्ते-फ़रामोशी का

जिससे आगे न कोई मैं हूँ, न कोई तुम हो
साँस थामें हैं निग़ाहें, कि न जाने किस दम
तुम पलट आओ, गुज़र जाओ, या मुड़ कर देखो
गरचे वाकिफ़ हैं निगाहें, के ये सब धोखा है

गर कहीं तुमसे हम-आग़ोश हुई फिर से नज़र
फूट निकलेगी वहाँ और कोई राहगुज़र
फिर इसी तरह जहाँ होगा मुकाबिल पैहम
साया-ए-ज़ुल्फ़ का और ज़ुंबिश-ए-बाजू का सफ़र

दूसरी बात भी झूठी है कि दिल जानता है
याँ कोई मोड़, कोई दश्त, कोई घात नहीं
जिसके परदे में मेरा माहे-रवाँ डूब सके

तुमसे चलती रहे ये राह, यूँ ही अच्छा है
तुमने मुड़ कर भी न देखा तो कोई बात नहीं!

तुम आए हो न शबे-इंतज़ार गुज़री है

तुम आए हो न शबे-इंतज़ार गुज़री है
तलाश में है सहर बार-बार गुज़री है

जुनूँ में जितनी भी गुज़री बकार गुज़री है
अगर्चे दिल पे ख़राबी हज़ार गुज़री है

हुई है हज़रते-नासेह से गुफ़्तगू जिस शब
वो शब ज़रूर सरे-कू-ए-यार गुज़री है

वो बात सारे फ़साने में जिसका ज़िक्र न था
वो बात उनको बहुत नागवार गुज़री है

न गुल खिले हैं, न उनसे मिले, न मय पी है
अजीब रंग में अब के बहार गुज़री है

चमन पे ग़ारते-गुलचीं से जाने क्या गुज़री
क़फ़स से आज सबा बेक़रार गुज़री है

omkumar
11-11-2012, 10:18 AM
तुम मेरे पास रहो


तुम मेरे पास रहो
मेरे क़ातिल, मेरे दिलदार, मेरे पास रहो

जिस घड़ी रात चले
आसमानों का लहू पी के सियह रात चले
मर्हमे-मुश्क लिए नश्तरे-अल्मास लिए
बैन करती हुई, हँसती हुई, गाती निकले
दर्द की कासनी पाज़ेब बजाती निकले

जिस घड़ी सीनों में डूबते हुए दिल
आस्तीनों में निहाँ हाथों की रह तकने लगें आस लिए
और बच्चों के बिलखने की तरह क़ुलक़ुले-मय
बहर-ए-नासूदगी मचले तो मनाए न मने
जब कोई बात बनाए न बने

जब न कोई बात चले
जिस घड़ी रात चले
जिस घड़ी मातमी, सुनसान, सियह रात चले
पास रहो
मेरे क़ातिल, मेरे दिलदार, मेरे पास रहो

omkumar
11-11-2012, 10:18 AM
चाँद निकले किसी जानिब तेरी ज़ेबाई का


चाँद निकले किसी जानिब तेरी ज़ेबाई का
रंग बदले किसी सूरत शबे-तनहाई का
दौलते-लब से फिर ऐ ख़ुसरवे-शीरींदहनाँ
आज अरज़ा हो कोई हर्फ़ शनासाई का
दीदा-ओ-दिल को सँभालो कि सरे-शामे-फ़िराक़
साज़-ओ-सामान बहम पहुँचा है रुसवाई का

omkumar
11-11-2012, 10:19 AM
दश्ते-तन्हाई में ऐ जाने-जहाँ लरज़ा हैं


दश्ते-तनहाई में ऐ जाने-जहाँ लरज़ाँ हैं
तेरी आवाज़ के साए तेरे होंठों के सराब
दश्ते-तनहाई में दूरी के ख़सो-ख़ाक़ तले
खिल रहे हैं तेरे पहलू के समन और गुलाब

उठ रही है कहीं क़ुरबत से तेरी साँस की आँच
अपनी ख़ुशबू में सुलगती हुई मद्धम मद्धम
दूर उफ़क़ पार चमकती हुई क़तरा-क़तरा
गिर रही है तेरी दिलदार नज़र की शबनम

इस क़दर प्यार से, ऐ जाने जहाँ रक्खा है
दिल के रुख़सार पे इस वक़्त तेरी याद ने हाथ
यूँ गुमाँ होता है गर्चे है अभी सुबहे-फ़िराक़
ढल गया हिज्र का दिन आ भी गई वस्ल की रात

omkumar
11-11-2012, 10:19 AM
दिल में अब यूँ तेरे भूले हुए ग़म आते हैं


दिल में अब यूँ तेरे भूले हुए ग़म आते हैं
जैसे बिछड़े हुए काबे में सनम आते हैं
एक-एक कर के हुए जाते हैं तारे रौशन
मेरी मंज़िल की तरफ़ तेरे क़दम आते हैं

रक्से-मय तेज़ करो, साज़ की लय तेज़ करो
सू-ए-मैख़ाना सफ़ीराने-हरम आते हैं
कुछ हमीं को नहीं एहसान उठाने का दिमाग
वो तो जब आते हैं माइल-ब-करम आते हैं

और कुछ देर न गुज़रे शबे-फ़ुरक़त से कहो
दिल भी कम दुखता है वो याद भी कम आते हैं

omkumar
11-11-2012, 10:19 AM
मेरे दिल मेरे मुसाफ़िर


मेरे दिल मेरे मुसाफ़िर
हुआ फिर से हुक्म सादिर

के वतन बदर हों हम तुम
दें गली-गली सदाएँ
करें रुख़ नगर-नगर का
के सुराग़ कोई पाएँ

किसी यारे-नामाबर का
हर एक अजनबी से पूछें
जो पता था अपने घर का

सरे-कू-ए-नाशनायाँ
हमें दिन से रात करना
कभी इससे बात करना
कभी उससे बात करना

तुम्हें क्या कहूँ के क्या है
शबे-ग़म बुरी बला है

हमें ये भी था ग़नीमत
जो कोई शुमार होता
हमें क्या बुरा था मरना
अगर एक बार होता

omkumar
11-11-2012, 10:20 AM
आइए हाथ उठाएँ हम भी


आइए हाथ उठाएँ हम भी
हम जिन्हें रस्मे-दुआ याद नहीं
हम जिन्हें सोज़े-मुहब्बत के सिवा
कोई बुत, कोई ख़ुदा याद नहीं

आइए अर्ज़ गुज़ारें कि निगारे-हस्ती
ज़हरे-इमरोज़ में शीरीनी-ए-फ़र्दां भर दे
वो जिन्हें ताबे गराँबारी-ए-अय्याम नहीं
उनकी पलकों पे शबो-रोज़ को हल्का कर दे

जिनकी आँखों को रुख़े-सुब्हे का यारा भी नहीं
उनकी रातों में कोई शम्म'अ मुनव्वर कर दे
जिनके क़दमों को किसी रह का सहारा भी नहीं
उनकी नज़रों पे कोई राह उजागर कर दे

जिनका दीं पैरवी-ए-कज़्बो-रिया है उनको
हिम्मते-कुफ़्र मिले, ज़ुर्रते-तहक़ीक़ मिले
जिनके सर मुंतज़िरे-तेग़े-जफ़ा हैं उनको
दस्ते-क़ातिल को झटक देने की तौफ़ीक़ मिले

इश्क़ का सर्रे-निहाँ जान-तपाँ है जिससे
आज इक़रार करें और तपिश मिट जाए
हर्फ़े-हक़ दिल में खटकता है जो काँटे की तरह
आज इज़हार करें और ख़लिश मिट जाए

omkumar
11-11-2012, 10:20 AM
दोनों जहान तेरी मुहब्बत में हार के

दोनों जहान तेरी मुहब्बत में हार के
वो जा रहा है कोई शबे-ग़म गुज़ार के
वीराँ है मैकदा ख़ुमो-सागर उदास है
तुम क्या गए कि रूठ गए दिन बहार के
इक फ़ुर्सते-गुनाह मिली वो भी चार दिन
देखें हैं हमने हौसले परवरदिगार के
दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया
तुम से भी दिलफरेब हैं ग़म रोज़गार के

भूले से मुस्कुरा तो दिए थे वो आज 'फ़ैज़'
मत पूछ वलवले दिले-नाकर्दाकार के

omkumar
11-11-2012, 10:20 AM
नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तजू ही सही

नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तजू ही सही
नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही

न तन में ख़ून फ़राहम न अश्क आँखों में
नमाज़े-शौक़ तो वाजिब है बे-वज़ू ही सही

किसी तरह तो जमे बज़्म मैकदे वालो
नहीं जो बादा-ओ-साग़र तो हा-ओ-हू ही सही

गर इंतज़ार कठिन है तो जब तलक ऐ दिल
किसी के वादा-ए-फ़र्दा की गुफ़्तगू ही सही

दयारे-ग़ैर में महरम अगर नहीं कोई
तो 'फ़ैज़' ज़िक्रे-वतन अपने रू-ब-रू ही सही

omkumar
11-11-2012, 10:20 AM
न गँवाओ नावके-नीमकश, दिले-रेज़ा रेज़ा गँवा दिया


न गँवाओ नावके-नीमकश, दिल-ए-रेज़ा रेज़ा गँवा दिया
जो बचे हैं संग समेट लो, तने-दाग़ दाग़ लुटा दिया

मेरे चारागर को नवेद हो, सफ़े-दुश्मनाँ को ख़बर करो
जो वो क़र्ज़ रखते थे जान पर, वो हिसाब आज चुका दिया

करो कज ज़बीं पे सरे-कफ़न, मेरे क़ातिलों को गुमाँ न हो
कि ग़ुरूरे-इश्क़ का बाँकपन, पसे-मर्ग हमने भुला दिया

उधर एक हर्फ़ कि कुश्तनी, यहाँ लाख उज़्र था गुफ़्तनी
जो कहा तो सुन के उड़ा दिया, जो लिखा तो पढ़ के मिटा दिया

जो रुके तो कोहे-गराँ थे हम, जो चले तो जाँ से गुज़र गए
रहे-यार हमने क़दम क़दम, तुझे यादगार बना दिया

omkumar
11-11-2012, 10:21 AM
फ़िक्रे-दिलदारी-ए-गुलज़ार करूँ या न करूँ

फ़िक्रे-दिलदारी-ए-गुलज़ार करूँ या न करूँ
ज़िक्रे-मुर्गाने-गिरफ़्तार करूँ या न करूँ
क़िस्सा-ए-साज़िशे-अग़यार कहूँ या न कहूँ
शिकवा-ए-यारे-तरहदार करूँ या न करूँ
जाने क्या वज़ा है अब रस्मे-वफ़ा की ऐ दिल
वज़ा-ए-दैरीना पे इसरार करूँ या न करूँ
जाने किस रंग में तफ़सीर करें अहले-हवस
मदहे-ज़ुल्फो-लबो-रुख़सार करूँ या न करूँ
यूँ बहार आई है इमसाल कि गुलशन में सबा
पूछती है गुज़र इस बार करूँ या न करूँ
गोया इस सोच में है दिल में लहू भर के गुलाब
दामनो-जेब को गुलनार करूँ या न करूँ
है फ़क़त मुर्ग़े-ग़ज़लख़्वाँ कि जिसे फ़िक्र नहीं
मोतदिल गर्मी-ए-गुफ़्तार करूँ या न करूँ

omkumar
11-11-2012, 10:21 AM
नज़्रे ग़ालिब


किसी गुमाँ पे तवक़्क़ो ज़ियादा रखते हैं
फिर आज कू-ए-बुताँ का इरादा रखते हैं
बहार आएगी जब आएगी, यह शर्त नहीं
कि तश्नागकम रहें गर्चा बादा रखते हैं
तेरी नज़र का गिला क्या जो है गिला दिल को
तो हमसे है कि तमन्ना ज़ियादा रखते हैं

नहीं शराब से रंगी तो ग़र्क़े-ख़ूँ हैं के हम
ख़याले-वजहे-क़मीसो-लबादा रखते हैं
ग़मे-जहाँ हो, ग़मे-यार हो कि तीरे-सितम
जो आए, आए कि हम दिल कुशादा रखते हैं
जवाबे-वाइज़े-चाबुक-ज़बाँ में 'फ़ैज़' हमें
यही बहुत है जो दो हर्फ़े-सादा रखते हैं

omkumar
11-11-2012, 10:21 AM
नसीब आज़माने के दिन आ रहे हैं

नसीब आज़माने के दिन आ रहे हैं
क़रीब उनके आने के दिन आ रहे हैं

जो दिल से कहा है जो दिल से सुना है
सब उनको सुनाने के दिन आ रहे हैं

अभी से दिल-ओ-जाँ सरे-राह रख दो
के लुटने लुटाने के दिन आ रहे हैं

टपकने लगी उन निगाहों से मस्ती
निगाहें चुराने के दिन आ रहे हैं

सबा फिर हमें पूछती फिर रही है
चमन को सजाने के दिन आ रहे हैं

चलो 'फ़ैज़' फिर से कहीं दिल लगाएँ
सुना है ठिकाने के दिन आ रहे हैं

omkumar
11-11-2012, 10:21 AM
तनहाई


फिर कोई आया दिले-ज़ार, नहीं कोई नहीं
राहरौ होगा, कहीं और चला जाएगा

ढल चुकी रात, बिखरने लगा तारों का गुबार;
लड़खड़ाने लगे एवानों में ख़्वाबीदा चिराग़;
सो गई रास्ता तक तक के हर इक राहगुज़र
अजनबी ख़ाक ने धुँधला दिए क़दमों के सुराग़

गुल करो शम्*एँ', बढ़ाओ मय-ओ-मीना-ओ-अयाग़
अपने बेख़्वाब किवाड़ों को मुकफ़्फ़ल कर लो

अब यहाँ कोई नहीं, कोई नहीं आएगा

omkumar
11-11-2012, 10:22 AM
फिर लौटा है ख़ुरशीदे-जहांताब सफ़र से

फिर लौटा है ख़ुरशीदे-जहाँ-ताब सफ़र से
फिर नूरे-सहर दस्तो-गरेबाँ है सहर से
फिर आग भड़कने लगी हर साज़े-तरब में
फिर शोले लपकने लगे हर दीदा-ए-तर से
फिर निकला है दीवाना कोई फूँक के घर को
कुछ कहती है हर राह हर इक राहगुज़र से
वो रंग है इमसाल गुलिस्ताँ की फ़ज़ा का
ओझल हुई दीवारे-क़फ़स हद्दे-नज़र से
साग़र तो खनकते हैं शराब आए न आए
बादल तो गरजते हैं घटा बरसे न बरसे
पापोश की क्या फ़िक्र है, दस्तार सँभालो
पायाब है जो मौज गुज़र जाएगी सर से

omkumar
11-11-2012, 10:22 AM
फिर हरीफ़े-बहार हो बैठे


फिर हरीफ़े-बहार हो बैठे
जाने किस-किस को आज रो बैठे
थी मगर इतनी रायगाँ भी न थी
आज कुछ ज़िंदगी से खो बैठे
तेरे दर तक पहुँच के लौट आए
इश्क़ की आबरू डुबो बैठे
सारी दुनिया से दूर हो आए
जो ज़रा तेरे पास हो बैठे
न गयी तेरी बेरुखी न गई
हम तेरी आरज़ू भी खो बैठे
'फ़ैज़' होता रहे जो होना है
शे'र लिखते रहा करो बैठे

omkumar
11-11-2012, 10:23 AM
बहुत मिला न मिला ज़िंदगी से ग़म क्या है

बहुत मिला न मिला ज़िंदगी से ग़म क्या है
मता-ए-दर्द बहम है तो बेश-ओ-कम क्या है

हम एक उम्र से वाक़िफ़ हैं अब न समझाओ
के लुत्फ़ क्या है मेरे मेहरबाँ सितम क्या है

करे न जग में अलाव तो शे'र किस मक़सद
करे न शहर में जल-थल तो चश्म-ए-नम क्या है

अजल के हाथ कोई आ रहा है परवाना
न जाने आज की फ़ेहरिस्त में रक़म क्या है

सजाओ बज़्म ग़ज़ल गाओ जाम ताज़ा करो
बहुत सही ग़म-ए-गेती शराब कम क्या है

लिहाज़ में कोई कुछ दूर साथ चलता है
वरना दहर में अब ख़िज़्र का भरम क्या है

omkumar
11-11-2012, 10:23 AM
बात बस से निकल चली है

बात बस से निकल चली है
दिल की हालत सँभल चली है

अब जुनूँ हद से बढ़ चला है
अब तबीयत बहल चली है

अश्क़ ख़ूनाब हो चले हैं
ग़म की रंगत बदल चली है

या यूँ ही बुझ रही है शम्एँ
या शबे-हिज़्र टल चली है

लाख पैग़ाम हो गए हैं
जब सबा एक पल चली है
जाओ अब सो रहो सितारो
दर्द की रात ढल चली है

omkumar
11-11-2012, 10:23 AM
बेदम हुए बीमार दवा क्यों नही देते

बेदम हुए बीमार दवा क्यों नही देते
तुम अच्छे मसीहा हो शफ़ा क्यों नहीं देते
दर्दे-शबे-हिज्राँ की जज़ा क्यों नहीं देते
खूने-दिले-वोशी का सिला क्यों नहीं देते
मिट जाएगी मखलूक़ तो इंसाफ़ करोगे
मुंसिफ़ हो तो अब हश्र उठा क्यों नहीं देते
हाँ नुक्तावरो लाओ लबो-दिल की गवाही
हाँ नग़मागरो साज़े-सदा क्यों नही देते
पैमाने-जुनूँ हाथों को शरमाएगा कब तक
दिलवालो गरेबाँ का पता क्यों नहीं देते
बरबादी-ए-दिल जब्र नहीं 'फ़ैज़' किसी का
वो दुश्मने-जाँ है तो भुला क्यों नहीं देते

omkumar
11-11-2012, 10:24 AM
इंतिसाब

आज के नाम
और
आज के ग़म के नाम
आज का ग़म कि है ज़िंदगी के भरे गुलिस्ताँ से ख़फ़ा
ज़र्द पत्तों का बन जो मेरा देस है
दर्द की अंजुमन जो मेरा देस है
क्लर्कों की अफ़्सुर्दा जानों के नाम
किर्मख़ुर्दा दिलों और ज़बानों के नाम
पोस्टमैनों के नाम
ताँगेवालों के नाम
रेलवानों के नाम
कारख़ानों के भोले जियालों के नाम
बादशाहे-जहाँ, वालिये-मासेवा नायबुल्लाह फ़िल्अर्ज़ दहक़ाँ के नाम
जिसके ढोरों को ज़ालिम हँका ले गए
जिसकी बेटी को डाकू उठा ले गए
हाथ भर खेत से एक अंगुश्त पटवार ने काट ली
दूसरी मालिए के बहाने से सरकार ने काट ली
जिसकी पग ज़ोर वालों के पाँवों तले
धज्जियाँ हो गई
उन दुखी माँओं के नाम
रात में जिनके बच्चे बिलखते हैं और
नींद की मार खाए हुए बाज़ुओं से सँभलते नहीं
दुख बताते नहीं
मिन्नतों, ज़ारियों से बहलते नहीं
उन हसीनाओं के नाम
जिनकी आँखों के गुल
चिलमनों और दरीचों की बेलों पे बेकार खिलखिल के
मुरझा गए हैं
उन ब्याहताओं के नाम
जिनके बदन
बेमुहब्बत रियाकार सेजों पे सज-सज के उक्ता गए हैं
बेवाओं के नाम
कटड़ियों और गलियों, मोहल्लों के नाम
जिनके नापाक ख़ाशाक से चाँद रातों
को आ आ के करता है अक्सर वज़ू
जिन के सायों में करती है आह-ओ-बुका
आँचलों की हिना
चूड़ियों की खनक
काकुलों की महक
आरज़ूमंद सीनों की अपने पसीने में जलने की बू
तालिब इल्मों के नाम
वो जो अस्हाबे-तब्ल-ओ-अलम
के दरों पर किताब और क़लम
का तक़ाज़ा लिए, हाथ फैलाए
पहुँचे, मगर लौट कर घर न आए
वो मासूम जो भोलपन में
वहाँ अपने नन्हे चराग़ों में लौ की लगन
ले के पहुँचे जहाँ
बट रहे थे, घटा टोप, बे अंत रातों के साए
उन असीरों के नाम
जिनके सीनों में फ़र्दा के शबताब गौहर
जेलख़ानों की शोरीदा रातों की सर सर में
जल-जल के अंजुमनुमा हो गए हैं
आने वाले दिनों के सफ़ीरों के नाम
वो जो ख़ुशबू-ए-गुल की तरह
अपने पैग़ाम पर ख़ुद फ़िदा हो गए हैं

omkumar
11-11-2012, 10:24 AM
सोचने दो

इक ज़रा सोचने दो
इस ख़याबाँ में
जो इस लहज़ा बयाबाँ भी नहीं
कौन-सी शाख़ में फूल आए थे सब से पहले
कौन बेरंग हुई रंज-ओ-ता'ब से पहले
और अब से पहले
किस घड़ी कौन-से मौसम में यहाँ
ख़ून का क़हत पड़ा
गुल की शहरग पे कड़ा
वक़्त पड़ा
सोचने दो
इक ज़रा सोचने दो
यह भरा शहर जो अब वादिए वीराँ भी नहीं
इस में किस वक़्त कहाँ
आग लगी थी पहले
इस के सफ़बस्ता दरीचों में से किस में अव्वल
ज़ह हुई सुर्ख़ शुआओं की कमाँ
किस जगह जोत जगी थी पहले
सोचने दो
हम से इस देस का, तुम नाम-ओ-निशां पूछते हो
जिसकी तारीख़ न जुग़राफ़िया अब याद आए
और याद आए तो महबूबे-गुज़िश्ता की तरह
रू-ब-रू आने से जी घबराए
हाँ मगर जैसे कोई
ऐसे महबूब या महबूबा का दिल रखने को
आ निकलता है कभी रात बिताने के लिए
हम अब इस उम्र को आ पहुँचे हैं जब हम भी यूँ ही
दिल से मिल आते हैं बस रस्म निभाने के लिए
दिल की क्या पूछते हो
सोचने दो

omkumar
11-11-2012, 10:24 AM
मुलाक़ात

1

यह रात उस दर्द का शजर है
जो मुझसे तुझसे अज़ीमतर है
अज़ीमतर है कि उसकी शाख़ों में

लाख मशा'ल-बकफ़ सितारों
के कारवाँ, घिर के खो गए हैं
हज़ार महताब उसके साए
में अपना सब नूर, रो गए हैं
यह रात उस दर्द का शजर है
जो मुझसे तुझसे अज़ीमतर है
मगर इसी रात के शजर से
यह चंद लमहों के ज़र्द पत्ते
गिरे हैं और तेरे गेसुओं में
उलझ के गुलनार हो गए हैं
इसी की शबनम से, ख़ामुशी के
यह चंद क़तरे, तेरी ज़बीं पर
बरस के, हीरे पिरो गए हैं


2
बहुत सियह है यह रात लेकिन
इसी सियाही में रूनुमा है
वो नहरे-ख़ूँ जो मेरी सदा है
इसी के साए में नूर गर है
वो मौजे-ज़र जो तेरी नज़र है
वो ग़म जो इस वक़्त तेरी बाँहों
के गुलसिताँ में सुलग रहा है
(वो ग़म जो इस रात का समर है)
कुछ और तप जाए अपनी आहों
की आँच में तो यही शरर है
हर इक सियह शाख़ की कमाँ से
जिगर में टूटे हैं तीर जितने
जिगर से नीचे हैं, और हर इक
का हमने तीशा बना लिया है

3
अलम नसीबों, जिगर फ़िगारों
की सुबह अफ़्लाक पर नहीं है
जहाँ पे हम-तुम खड़े हैं दोनों
सहर का रौशन उफ़क़ यहीं है
यहीं पे ग़म के शरार खिल कर
शफ़क का गुलज़ार बन गए हैं
यहीं पे क़ातिल दुखों के तीशे
क़तार अंदर क़तार किरनों
के आतशीं हार बन गए हैं

यह ग़म जो इस रात ने दिया है
यह ग़म सहर का यक़ीं बना है
यक़ीं जो ग़म से करीमतर है
सहर जो शब से अज़ीमतर है

omkumar
11-11-2012, 10:25 AM
मौज़ू-ए-सुख़न

गुल हुई जाती है अफ़्सुर्दा सुलगती हुई शाम
धुल के निकलेगी अभी चश्मा-ए महताब से रात
और मुश्ताक़ निगाहों से सुनी जाएगी
और उन हाथों से मस होंगे यह तरसे हुए हाथ
उनका आँचल है कि रूख़सार कि पैराहन है
कुछ तो है जिससे हुई जाती है चिलमन रंगीं
जाने उस ज़ुल्फ़ की मौहूम घनी छाओं में
टिमटिमाता है वो आवेज़ा अभी तक कि नहीं

आज फिर हुस्नेदिल आरा की वही धज होगी
वही ख़्वाबीदा सी आँखें, वही काजल की लकीर
रंगे रुख़सार पे हल्का सा वो ग़ाज़े का गु़बार
संदली हाथ पे धुँदली-सी हिना की तहरीर

अपने अफ़्कार की, अशआर की दुनिया है यही
जाने-मज़मूं है यही, शाहिदे-माना है यही
आज तक सुर्ख़-ओ-सियह सदियों के साए के तले
आदम-ओ-हव्वा की औलाद पे क्या गुज़री है
मौत और ज़ीस्त की रोज़ाना सफ़ आराई में
हम पे क्या गुज़रेगी, अजदाद पे क्या गुज़री है?
इन दमकते हुए शहरों की फ़रावाँ मख़लूक़
क्यूँ फ़क़त मरने की हसरत में जिया करती है
यह हसीं खेत फटा पड़ता है जोबन जिनका
किस लिए इनमें फ़क़त भूख उगा करती है?
यह हर इक सम्त, पुर-असरार कड़ी दीवारें
जल बुझे जिनमें हज़ारों की जवानी के चराग़
यह हर इक गाम पे उन ख़्वाबों की मक़्तल गाहें
जिनेके पर-तव से चराग़ाँ हैं हज़ारों के दिमाग़

यह भी हैं, ऐसे कई और भी मज़मूँ होंगे।
लेकिन उस शोख़ के आहिस्ता से ख़ुलते हुए होंठ !
हाय उस जिस्म के कमबख़्त, दिलावेज़ ख़ुतूत !
आप ही कहिए, कहीं ऐसे भी अफ़्सूँ होंगे

अपना मौजू-ए-सुख़न इनके सिवा और नहीं
तब'अ-ए-शायर का वतन इन के सिवा और नहीं

omkumar
11-11-2012, 10:25 AM
हम लोग

दिल के ऐवाँ में लिए गुमशुदा शम्मा'ओं की क़तार
नूरे-ख़ुर्शीद से सहमे हुए, उकताए हुए
हुस्ने-महबूब के सइयाल तसव्वुर की तरह
अपनी तारीकी को भींचे हुए, लिपटाए हुए
ग़ायते सूद-ओ-ज़ियाँ , सूरते आग़ाज़-ओ-मआल
वही बेसूद तजस्सुस, वही बेक़ार सवाल
मुज़महिल, सा'अते-इमरोज़ की बेरंगी से
यादे माज़ी से ग़मीं , दहशते-फर्दा से निढाल
तिश्ना अफ़्कार, जो तस्कीन नहीं पाते हैं
सोख़्ता अश्क जो आँखों में नहीं आते हैं
इक कड़ा दर्द कि जो गीत में ढलता ही नहीं
दिल के तारीक शिगाफ़ों से निकलता ही नहीं
और इक उलझी हुई मोहूम-सी दरमाँ की तलाश
दश्त-ओ-ज़िंदाँ की हवस, चाक-गिरेबाँ की तलाश

omkumar
11-11-2012, 10:25 AM
क्या करें

मेरी-तेरी निगाह में
जो लाख इंतज़ार हैं
जो मेरे-तेरे तन-बदन में
लाख दिलफ़िगार हैं
जो मेरी-तेरी उँगलियों की बेहिसी से
सब क़लम नज़ार हैं
जो मेरे-तेरे शहर में
हर इक गली में
मेरे-तेरे नक़्शेपा के बेनिशाँ मज़ार हैं
जो मेरी-तेरी रात के
सितारे ज़ख़्म-जख़्म हैं
जो मेरी-तेरी सुबह के
गुलाब चाक-चाक हैं
यह ज़ख़्म सारे बेदवा
यह चाक सारे बेरफ़ू
किसी पे राख चाँद की
किसी पे ओस की लहू
यह है भी या नहीं बता
यह है कि महज़ जाल है
मेरे-तुम्हारे अन्कबूते-वोम का बुना हुआ
जो है तो इसका क्या करें
नहीं है तो भी क्या करें
बता, बता
बता, बता

omkumar
11-11-2012, 10:26 AM
यह फ़स्ल उमीदों की हमदम


सब काट दो
बिस्मिल पौधों को
बे-आब सिसकते मत छोड़ो
सब नोच लो
बेकल फूलों को
शाख़ों पे बिलकते मत छोड़ो
यह फ़स्ल उमीदों की हमदम
इस बार भी ग़ारत जाएगी
सब मेहनत सुबहों-शामों की
अब के भी अकारत जाएगी
खेती के कोनों खदरों में
फिर अपने लहू की खाद भरो
फिर मिट्टी सींचो अश्कों से
फिर अगली रुत की फ़िक्र करो
जब फिर इक बार उजड़ना है
इक फ़स्ल पकी तो भर पाया
जब तक तो यही कुछ करना है

omkumar
11-11-2012, 10:26 AM
शीशों का मसीहा कोई नहीं


मोती हो कि शीशा, जाम कि दुर
जो टूट गया, सो टूट गया
कब अश्कों से जुड़ सकता है
जो टूट गया, सो छूट गया
तुम नाहक़ टुकड़े चुन-चुन कर
दामन में छुपाए बैठे हो
शीशों का मसीहा कोई नहीं
क्या आस लगाए बैठे हो
शायद कि इन्हीं टुकड़ों में कहीं
वो साग़रे दिल है जिसमें कभी
सद नाज़ से उतरा करती थी
सहबा-ए-ग़मे-जानाँ की परी
फिर दुनिया वालों ने तुमसे
यह साग़र लेकर फोड़ दिया
जो मय थी बहा दी मिट्टी में
मेहमान का शहपर तोड़ दिया
यह रंगीं रेज़े हैं शायद
उन शोख़ बिलोरी सपनों के
तुम मस्त जवानी में जिनसे
ख़िलवत को सजाया करते थे
नादारी, दफ़्तर भूख़ और ग़म
इन सपनों से टकराते रहे
बेरहम था चौमुख पथराओ
यह काँच के ढाँचे क्या करते

या शायद इन ज़र्रों में कहीं
मोती है तुम्हारी इज़्ज़त का
वो जिससे तुम्हारे इज़्ज़ पे भी
शमशाद क़दों ने रश्क किया
इस माल की धुन में फिरते थे
ताजिर भी बहुत, रहज़न भी कई
है चोर नगर, या मुफ़लिस की
गर जान बची तो आन गई
यह साग़र, शीशे, लाल-ओ-गुहर
सालिम हों तो क़ीमत पाते हैं
और टुकड़े-टुकड़े हों तो फ़कत
चुभते हैं, लहू रुलवाते हैं
तुम नाहक़ शीशे चुन-चुन कर
दामन में छुपाए बैठे हो
शीशों का मसीहा कोई नहीं
क्या आस लगाए बैठे हो
यादों के गिरेबानों के रफ़ू
पर दिल की गुज़र कब होती है
इक बख़िया उधेड़ा, एक सिया
यूँ उम्र बसर कब होती है
इस कारगहे हस्ती में जहाँ
यह साग़र, शीशे ढलते हैं
हर शय का बदल मिल सकता है
सब दामन पुर हो सकते हैं
जो हाथ बढ़े, यावर है यहाँ
जो आँख उठे, वो बख़्तावर
याँ धन-दौलत का अंत नहीं
हों घात में डाकू लाख मगर

कब लूट-झपट से हस्ती की
दूकानें ख़ाली होती हैं
याँ परबत-परबत हीरे हैं
याँ सागर-सागर मोती हैं

कुछ लोग हैं जो इस दौलत पर
परदे लटकाए फिरते हैं
हर परबत को, हर सागर को
नीलाम चढ़ाए फिरते हैं
कुछ वो भी है जो लड़-भिड़ कर
यह पर्दे नोच गिराते हैं
हस्ती के उठाईगीरों की
चालें उलझाए जाते हैं

इन दोनों में रन पड़ता है
नित बस्ती-बस्ती, नगर-नगर
हर बस्ते घर के सीने में
हर चलती राह के माथे पर

यह कालिक भरते फिरते हैं
वो जोत जगाते रहते हैं
यह आग लगाते फिरते हैं
वो आग बुझाते फिरते हैं

सब साग़र,शीशे, लाल-ओ-गुहर
इस बाज़ी में बह जाते हैं
उट्ठो, सब ख़ाली हाथों को
उस रन से बुलावे आते हैं

omkumar
11-11-2012, 10:26 AM
सुब्हे-आज़ादी

यह दाग़-दाग़ उजाला, यह शब गज़ीदा सहर
वो इंतज़ार था जिसका यह वो सहर तो नहीं
यह वो सहर तो नहीं जिसकी आरज़ू लेकर
चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं न कहीं
फ़लक के दश्त में तारों की आख़िरी मंज़िल
कहीं तो होगा शबे-सुस्त मौज का साहिल
कहीं तो जाके रुकेगा सफ़ीनःए-ग़मे-दिल

जवाँ लहू की पुरअसरार शाहराहों से
चले जो यार तो दामन पे कितने हाथ पड़े
पुकारती रहीं बाँहें, बदन बुलाते रहे
बहुत अज़ीज़ थी लेकिन रुख़े-सहर की लगन

बहुत क़रीं था हसीनाने-नूर का दामन
सुबुक-सुबुक थी तमन्ना, दबी-दबी थी थकन
सुना है, हो भी चुका है फ़िराक़े जु़लमत-ओ-नूर
सुना है हो भी चुका है विसाले-मंज़िल-ओ-गाम

बदल चुका है बहुत अहले-दर्द का दस्तूर
निशाते-वस्ल हलाल-ओ-अज़ाबे- हिज्र हराम
जिगर की आग, नज़र की उमंग, दिल की जलन
किसी पे चारा-ए-हिजराँ का कुछ असर ही नहीं

कहाँ से आई निगारे-सबा किधर को गई
अभी चिराग़े-सरे-रह को कुछ ख़बर ही नहीं

अभी गरानिए-शब में कमी नहीं आई
निजाते-दीदा-वो-दिल की घड़ी नहीं आई
चले चलो कि वो मंज़िल अभी नहीं आई

omkumar
11-11-2012, 10:27 AM
ईरानी तुलबा के नाम
(जो अम्न और आज़ादी की जद्द-ओ-जेहद में काम आए)

यह कौन सख़ी हैं
जिनके लहू की
अशर्फियाँ, छन-छन, छन-छन
धरती की पैहम प्यासी
कश्कोल में ढलती जाती हैं
कश्कोल को भरती जाती हैं
यह कौन जवाँ हैं अरज़े-अजम!
यह लख लुट
जिनके जिस्मों की
भरपूर जवानी का कुंदन
यूँ ख़ाक़ में रेज़ा-रेज़ा है
यूँ कूचा-कूचा बिखरा है
ऐ अरज़े अजम! ऐ अरज़े अजम
क्यूँ नोच के हँस-हँस फेंक दिए
इन आँखों ने अपने नीलम
इन होंटों ने अपने मरजाँ
इन हाथों की बेकल चाँदी
किस काम आई, किस हाथ लगी?
ऐ पूछने वाले परदेसी!
यह तिफ़्ल-ओ-जवाँ
उस नूर के नौरस मोती हैं
उस आग की कच्ची कलियाँ हैं
जिस मीठे नूर और कड़वी आग
से ज़ुल्म की अंधी रात में फूटा
सुबहे-बग़ावत का गुलशन
और सुबह हुई मन-मन, तन-तन
उस जिस्मों का सोना-चाँदी
उन चेहरों के नीलम, मरजाँ
जगमग-जगमग, रख़्शां-रख़्शां
जो देखना चाहे परदेसी
पास आए देखे जी भर कर
यह ज़ीस्त की रानी का झूमर
यह अमन की देवी का कंगन

omkumar
11-11-2012, 10:27 AM
सरे-वादि'ए-सीना


फिर बर्क़े फ़रोज़ाँ है सरे वादि'ए सीना
फिर रंग पे है शोल'अ-ए-रूख़सारे हक़ीक़त
पैग़ामे-अजल दावते-दीदारे-हक़ीक़त
ऐ दीदःए-बीना
अब वक़्त है दीदार का दम है कि नहीं है
अब क़ातिले जाँ चारागरे कुल्फ़ते ग़म है
गुलज़ारे-इरम परतवे-सहराये-अदम है
पिंदारे-जुनूँ
हौसलए राहे-अदम है कि नहीं है
फिर बर्क़ फ़रोज़ाँ है सरे वादि'ए सीना, ऐ दीदाए बीना
फिर दिल को मुसफ़्फ़ा करो, इस लौह पे शायद
माबैने-मन-ओ-तू नया पैमाँ कोई उतरे
अब रस्मे-सितम हिकमते-ख़ासाने-ज़मीं है
ताईदे-सितम मसलहते-मुफ़्तिए-दीं है
अब सदियों के इक़रारे-इतायत को बदलने
लाज़िम है कि इनकार का फ़रमाँ कोई उतरे

सुनो कि शायद यह नूर सैक़ल
है इस सहीफ़े का हरफ़े-अव्वल
जो हर कस-ओ-नाकसे-ज़मीं पर
दिले गदायाने अजमईं पर
उतर रहा है फ़लक से अब तक
सुनो कि इस हर्फ़े-लमयज़ल के
हमीं तुम्हीं बंदगाने-बेबस
अलीम भी हैं ख़बीर भी हैं
सुनो कि हम बेज़बान-ओ-बेकस
बशीर भी हैं नज़ीर भी हैं
हर इक उलुल अम्र को सदा दो
कि अपनी फ़र्दे-अमल सँभाले
उठेगा जब जम्मे सर फ़रोशाँ
पड़ेंगे दार-ओ-रसन के लाले, कोई न होगा कि जो बचा ले
जज़ा सज़ा सब यहीं पे होगी, यहीं अज़ाब-ओ-सवाब होगा
यहीं से उट्ठेगा शोरे-महशर, यहीं पे रोज़े-हिसाब होगा

omkumar
11-11-2012, 10:28 AM
फ़िलिस्तीनी बच्चे के लिए लोरी

मत रो बच्चे
रो-रो के अभी
तेरी अम्मी की आँख लगी है
मत रो बच्चे
कुछ ही पहले
तेरे अब्बा ने
अपने ग़म से रुख़सत ली है
मत रो बच्चे
तेरा भाई
अपने ख़्वाब की तितली के पीछे
दूर कहीं परदेस गया है
मत रो बच्चे
तेरी बाजी का
डोला पराए देस गया है
मत रो बच्चे
तेरे आँगन में
मुर्दा सूरज नहला के गए हैं
चंद्रमा दफ़्ना के गए हैं
मत रो बच्चे
अम्मी, अब्बा, बाजी, भाई
चाँद और सूरज
रोएगा तो और भी तुझ को रुलवाएँगे
तू मुस्काएगा तो शायद
सारे इक दिन भेस बदल कर
तुझसे खेलने लौट आएँगे

omkumar
11-11-2012, 10:31 AM
मंज़र


रहगुज़र, साये, शजर, मंज़िल-ओ-दर, हल्क़ःए-बाम
बाम पर सीना-ए-महताब खुला आहिस्ता
जिस तरह खोले कोई बंदे-क़बा आहिस्ता
हल्क़ा-ए-बाम तले, सायों का ठहरा हुआ नील
नील की झील
झील में चुपके से तैरा किसी पत्ते का हुबाब
एक पल तैरा, चला, फूट गया आहिस्ता
बहुत आहिस्ता, बहुत हल्का, ख़ुनक रंगे-शराब
मेरे शीशे में ढला आहिस्ता
शीशा-ओ-जाम, सुराही, तेरे हाथों के गुलाब
जिस तरह दूर किसी ख़्वाब का नक़्श
आप ही आप बना और मिटा आहिस्ता

दिल ने दोहराया कोई हर्फ़े-वफ़ा आहिस्ता
तुमने कहा - 'आहिस्ता'
चाँद ने झुक के कहा
'और ज़रा आहिस्ता'

omkumar
11-11-2012, 10:31 AM
एक शहरे-आशोब का आग़ाज़

अब बज़्मे-सुख़न, सोहबते-लब-सोख़्तगाँ है
अब हल्क़-ए-मय तायफ़ए-बे तलबाँ है

घर रहिए तो वीरानिए-दिल खाने को आवे
रह चलिए तो हर गाम पे गोग़ा-ए-सगाँ है

पैबंद-ए-रहे-कूचए-ज़र चश्मे-ग़ज़ालाँ
पाबोसे-हवस अफ़्सरे-शमशाद-कदाँ है

याँ अहले-जुनूँ यक ब दिगर दस्त-ओ-गिरेबाँ
वाँ जैशे हवस तेग़ बकफ़ दर पयेजाँ है

अब साहिबे इंसाफ़ है ख़ुद तालिबे-इंसाफ़
मुहर उसकी है मीज़ान बदस्ते-दिगराँ है

हम सहल तलब कौन से फ़र्हाद थे लेकिन
अब शहर में तेरे कोई हम सा भी कहाँ है

omkumar
11-11-2012, 10:31 AM
बेज़ार फ़ज़ा दर पे आज़ार सबा है


बेज़ार फ़जा दर पे आज़ार-सबा है
यूँ है कि हर इक हमदमे देरीना ख़फ़ा है

हाँ बादाकशो आया है अब रंग पे मौसम
अब सैर के क़ाबिल रविशे-आबो-हवा है

उमड़ी है हर इक सम्त से इल्ज़ाम की बरसात
छाई हुई हर दांग मलामत की घटा है

वो चीज़ भरी है कि सुलगती है सुराही
हर कास-ए-मय ज़हरे-हलाहल से सिवा है

फिर जाम उठाओ कि बयादे-लबे-शीरीं
यह ज़हर तो यारों ने कई बार पिया है

इस जज़्ब-ए दिल की न सज़ा है न जज़ा है
मक़्सूदे रहे-शौक़ वफ़ा है, न जफ़ा है

अहसासे-ग़मे-दिल, जो ग़मे दिल का सिला है
उस हुस्न का अहसास है जो तेरी अता है

हर सुबहे गुलिस्ताँ है, तेरा रू-ए-बहारी
हर फूल तेरी याद का नक़्शे-कफ़े-पा है

हर भीगी हुई रात, तेरी जुल्फ़ की शबनम
ढलता हुआ सूरज, तेरे होंटों की फ़ज़ा है

हर राह पहुँचती है तेरी चाह के दर तक
हर हर्फ़े-तमन्ना तेरे क़दमों की सदा है

लाज़ीरे-सियासत है, न ग़ैरों की ख़ता है
वो ज़ुल्म जो हमने दिले-वोशी पे किया है

ज़िंदाने-रहे-यार में पाबंद हुए हम
ज़ंजीर-बकफ़ है, कोई पाबंद-ब-पा है

'मजबूरी-ओ-दावाये-गिरफ़्तारिये-उल्फ़त
दस्ते तहे संग आमदा पैमाने वफ़ा है'

omkumar
11-11-2012, 10:31 AM
सरोद


मौत अपनी, न अमलअपना, न जीना अपना
खो गया शोरिशे-गेतीमें क़रीना अपना

नाख़ुदा दूर, हवा तेज़, क़रीं कामे-निहंग
वक़्त है, फेंक दे लहरों में सफ़ीना अपना

अर्सा-ए-दह्र के हंगामे तहे ख़्वाब सही
गर्म रख आतिशे-पैकार से सीना अपना

साक़िया, रंज न कर, जाग उठेगी महफ़िल
और कुछ देर उठा रखते हैं पीना अपना

बेशक़ीमत हैं ये ग़महा-ए-मुहब्बत, मत भूल
जुल्मते-यास को मत सौंप ख़ज़ीना अपना

omkumar
11-11-2012, 10:32 AM
वासोख़्त



सच है, हमीं को आपके शिकवे बजा न थे
बेशक, सितम जनाब के सब दोस्ताना थे

हाँ, जो जफ़ा भी आपने की क़ायदे से की
हाँ, हम ही कारबंदे-उसूले-वफ़ा न थे

आए तो यूँ कि जैसे हमेशा थे मेहरबाँ
भूले तो यूँ कि गोया कभी आश्ना न थे

क्यों दादे ग़म हमीं ने तलब की, बुरा किया
हमसे जहाँ में कुश्तये-ग़म और क्या न थे

गर फ़िक्रे-जख़्म की तो ख़तावार हैं कि हम
क्यों मह्वे-मद्हे-ख़ूबी-ए-तेग़े-अदा न थे

हर चारागर को चारागरी से गुरेज़ था
वरना हमें जो दुख थे, बहुत ला-दवा न थे

लब पर है तल्ख़िए-मय-ए-अय्याम, वरना 'फ़ैज़'
हम तल्ख़ि-ए-कलाम पे माइल ज़रा न थे

omkumar
11-11-2012, 10:32 AM
शहर में चाके गिरेबाँ हुए नापैद अबके

शहर में चाके गिरेबाँ हुए नापैद अब के
कोई करता ही नहीं ज़ब्त की ताक़ीद अब के

लुत्फ़ कर ऐ निगह-ए-यार कि ग़म वालों ने
हसरते-दिल की उठाई नहीं तमहीद अब के

चाँद देखा तेरी आँखों में न होंटों पे शफ़क़
मिलती जुलत है शबेग़म से तेरी दीद अबके

दिल दुखा है न वो पहला सा, न जाँ तड़पी है
हम भी ग़ाफ़िल थे कि आई ही नहीं ईद अब के

फिर से बुझ जाएँगी शम'एँ जो हवा तेज़ चली
लाख रक्खो सरे महफ़िल कोई ख़ुर्शीद अब के

omkumar
11-11-2012, 10:33 AM
हर सम्त परीशाँ तेरी आमद के क़रीने


हर सम्त परीशाँ तेरी आमद के क़रीने
धोखे दिए क्या-क्या हमें बादे-सहरी ने

हर मंज़िल-ए-ग़ुरबत पे गुमाँ होता है घर का
बहलाया है हर गाम बहुत दर बदरी ने

थे बज़्म में सब दूदे-सरे बज़्म से शादाँ
बेकार जलाया हमें रौशन नज़री ने

मयख़ाने में आजिज़ हुए आजुर्दा दिली से
मस्जिद का न रक्खा हमें आशुफ़्ता-सरी ने

यह जाम-ए-सद-चाक बदल लेने में क्या था
मोहलत ही न दी '''फ़ैज़''' कभी बख़िया गरी ने

omkumar
11-11-2012, 10:33 AM
रंग पैराहन का , ख़ुशबू जुल्फ़ लहराने का नाम

रेग पैराहन का, ख़ुशबू जुल्फ़ लहराने का नाम
मौसमे गुल है तुम्हारे बाम पर आने का नाम

दोस्तो, उस चश्म-ओ-लब की कुछ कहो जिसके बग़ैर
गुलसिताँ की बात रंगीं है, न मैख़ाने का नाम

फिर नज़र में फूल महके, दिल में फिर शम्म'एँ जलीं
फिर तसव्वुर ने लिया उस बज़्म में जाने का नाम

मोहतसिब की ख़ैर ऊँचा है उसी के 'फ़ैज़' से
रिंद का, साक़ी का, मय का, ख़ुम का, पैमाने का नाम

'फ़ैज़' उनको है तक़ाज़ा-ए-वफ़ा हम से, जिन्हें
आशना के नाम से प्यारा है बेगाने का नाम

omkumar
11-11-2012, 10:33 AM
यह मौसमे-गुल गर चे तरबख़ेज़ बहुत है

यह मौसमे-गुल गर चे तरबख़ेज़ बहुत है
अहवाले गुल-ओ-लाला ग़म-अँगेज़ बहुत है

ख़ुश दावते-याराँ भी है यलग़ारे-अदू भी
क्या कीजिए दिल का जो कम-आमेज़ बहुत है

यूँ पीरे-मुग़ाँ शेख़े-हरम से हुए यक जाँ
मयख़ाने में कमज़र्फ़िए परहेज़ बहुत है

इक गर्दने-मख़लूक़ जो हर हाल में ख़म है
इक बाज़ु-ए-क़ातिल है कि ख़ूंरेज़ बहुत है

क्यों मश'अले दिल 'फ़ैज़' छुपाओ तहे-दामाँ
बुझ जाएगी यूँ भी कि हवा तेज़ बहुत है

omkumar
11-11-2012, 10:33 AM
क़र्ज़े-निगाहे-यार अदा कर चुके हैं हम


क़र्जे-निगाहे-यार अदा कर चुके हैं हम
सब कुछ निसारे-राहे वफ़ा कर चुके हैं हम
कुछ इम्तहाने-दस्ते-जफ़ा कर चुके हैं हम
कुछ उनकी दस्तरस का पता कर चुके हैं हम
अब अहतियात की कोई सूरत नहीं रही
क़ातिल से रस्म-ओ-राह सिवा कर चुके हैं हम
देखें, है कौन-कौन, ज़रूरत नहीं रही
कू-ए-सितम में सब को ख़फ़ा कर चुके हैं हम
अब अपना अख़्तियार है, चाहे जहाँ चलें
रहबर से अपनी राह जुदा कर चुके हैं हम
उनकी नज़र में, क्या करें, फीका है अब भी रंग
जितना लहू था, सर्फ़े-क़बा कर चुके हैं हम
कुछ अपने दिल की ख़ू का भी शुक्राना चाहिए
सौ बार उनकी ख़ू का गिला कर चुके हैं हम

omkumar
11-11-2012, 10:34 AM
वफ़ा-ए-वादा नहीं , वादा-ए-दिगर भी नहीं


वफ़ा-ए-वादा नहीं, वादा-ए-दिगर भी नहीं
वो मुझसे रूठे तो थे, लेकिन इस क़दर भी नहीं

बरस रही है हरीमे-हवस में दौलते-हुस्न
गदा-ए-इश्क़ के कासे में इक नज़र भी नहीं

न जाने किस लिए उम्मीदवार बैठा हूँ
इक ऐसी राह पे जो तेरी रहगुज़र भी नहीं

निगाहे-शौक़ सरे-बज़्म बेहिजाब न हो
वो बेख़बर ही सही, इतने बेख़बर भी नहीं

यह अहदे-तर्के-मुहब्बत है किस लिए आख़िर
सुकूने-क़ल्ब इधर भी नहीं उधर भी नहीं

omkumar
11-11-2012, 10:34 AM
शफ़क़ की राख में जल बुझ गया सितारा-ए-शाम

शफ़क़ की राख में जल बुझ गया सितारा-ए-शाम
शबे-फ़िराक़ के गेसू फ़ज़ा में लहराए
कोई पुकारो कि इक उम्र होने आई है
फ़लक को क़ाफ़ला-ए-रोज़-ओ-शाम ठहराए
यह ज़िद है यादे-हरीफ़ाने-बादा-पैमाँ की
कि शब को चाँद न निकले न दिन को अब्र आए
सबा ने फिर दरे-ज़िंदाँ पे आके दस्तक दी
सहर क़रीब है, दिल से कहो, न घबराए

omkumar
11-11-2012, 10:34 AM
कब याद में तेरा साथ नहीं , कब हाथ में तेरा हाथ नहीं

कब याद में तेरा साथ नहीं, कब हाथ में तेरा हाथ नहीं
सद शुक्र कि अपनी रातों में अब हिज्र की कोई रात नहीं

मुश्किल हैं अगर हालात वहाँ, दिल बेच आएँ, जाँ बेच आएँ
दिल वालो, कूचा-ए-जानाँ में क्या ऐसे भी हालात नहीं

जिस धज से कोई मक़्तल में गया, वो शान सलामत रहती है
यह जान तो आनी-जानी है, इस जाँ की तो कोई बात नहीं

मैदाने-वफ़ा दरबार नहीं याँ नाम-ओ-नसब की पूछ कहाँ
आशिक़ तो किसी का नाम नहीं, कुछ इश्क़ किसी की जात नहीं

गर बाज़ी इश्क़ की बाज़ी है, जो चाहो लगा दो, डर कैसा
गर जीत गए तो क्या कहना, हारे भी तो बाज़ी मात नहीं

omkumar
11-11-2012, 10:34 AM
जमेगी कैसे बिसाते - याराँ कि शीश-ओ-जाम बुझ गए हैं

जमेगी कैसे बिसाते-याराँ कि शीशा-ओ-जाम बुझ गए हैं
सजेगी कैसे शबे-निगाराँ कि दिल सरे-शाम बुझ गए हैं

वो तीरगी है रहे बुताँ में, चिराग़े-रुख़ है न शम्म'ए-वादा
किरन कोई आरज़ू की लाओ कि सब दर-ओ-बाम बुझ गए हैं

बहुत सँभाला वफ़ा का पैमाँ, मगर वो बरसी है अब के बरखा
हर एक इक़रार मिट गया है, तमाम पैग़ाम बुझ गए हैं

क़रीब आ ऐ महे-शबे-ग़म, नज़र पे ख़ुलता नहीं कुछ इस दम
कि दिल पे किस किस का नक़्श बाक़ी है कौन से नाम बुझ गए हैं

बहार अब आके क्या करेगी कि जिनसे था जश्ने-रंग-ओ-नग़मा
वो गुल सरे शाख़ जल गए हैं, वो दिल तहे-दाम बुझ गए हैं

omkumar
11-11-2012, 10:35 AM
हम पर तुम्हारी चाह का इल्ज़ाम ही तो है

हम पर तुम्हारी चाह का इल्ज़ाम ही तो है
दुश्नाम तो नहीं है, यह इकराम ही तो है

करते हैं जिसपे त'अन कोई जुर्म तो नहीं
शौक़े फ़ुज़ूल-ओ-उल्फ़ते नाकाम ही तो है

दिल, मुद्दई के हर्फ़े-मलामत से शाद है
ऐ जाने-जाँ, यह हर्फ़ तेरा नाम ही तो है

दिल नाउमीद तो नहीं, नाकाम ही तो है
लंबी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है

दस्ते-फ़लक में गर्दिशे-तक़दीर तो नहीं
दस्ते-फ़लक में गर्दिशे-अय्याम ही तो है

आख़िर तो एक रोज़ करेगी नज़र वफ़ा
वो यारे-ख़ुशख़िसाल सरेबाम ही तो है

भीगी है रात 'फ़ैज़' ग़ज़ल इब्तेदा करो
वक़्ते-सरोद, दर्द का हंगामा ही तो है

omkumar
11-11-2012, 10:35 AM
जैसे हम-बज़्म हैं फिरयारे-तरहदार से हम

जैसे हम-बज़्म हैं फिर यारे-तरहदार से हम
रात मिलते रहे अपने दर-ओ-दीवार से हम

हम से बेबहरा हुई अब जरसे-गुल की सदा
आश्ना थे, कभी हर रंग की झंकार से हम

अब वहाँ कितनी मुरस्सा है वो सूरज की किरन
कल जहाँ क़त्ल हुए थे, उसी तलवार से हम

omkumar
11-11-2012, 10:35 AM
हम मुसाफ़िर यूँ ही मसरूफ़े सफ़र जाएँगे

हम मुसाफ़िर यूँ ही मसरूफ़े सफ़र जाएँगे
बेनिशाँ हो गए जब शहर तो घर जाएँगे

किस क़दर होगा यहाँ मेहर-ओ-वफ़ा का मातम
हम तेरी याद से जिस रोज़ उतर जाएँगे

जौहरी बंद किए जाते हैं बाज़ारे-सुख़न
हम किसे बेचने अल्मास-ओ-गुहर जाएँगे

शायद अपना ही कोई बैत हुदी-ख़्वाँ बन कर
साथ जाएगा मेरे यार जिधर जाएँगे

'फ़ैज़' आते हैं रहे-इश्क़ में जो सख़्त मक़ाम
आने वालों से कहो हम तो गुज़र जाएँगे

omkumar
11-11-2012, 10:36 AM
मेरे दर्द को जो ज़बाँ मिले

मेरा दर्द नग़मा-ए-बे सदा
मेरी ज़ात ज़र्रा-ए-बे निशाँ

मेरे दर्द को जो ज़बाँ मिले
मुझे अपना नामो-निशाँ मिले

मेरी ज़ात का जो निशाँ मिले
मुझे राज़े-नज़्मे-जहाँ मिले

जो मुझे यह राज़े-निहाँ मिले
मेरी ख़ामुशी को बयाँ मिले
मुझे कायनात की सरवरी
मुझे दौलते-दो जहाँ मिले

omkumar
11-11-2012, 10:36 AM
हज़र करो मेरे तन से

सजे तो कैसे सजे क़त्ले-आम का मेला
किसे लुभाएगा मेरे लहू का वावेला
मेरे नज़ार बदन में लहू ही कितना है

चिराग़ हो कोई रौशन न कोई जाम भरे
न इससे आग ही भड़के, न इससे प्यास बुझे
मेरे फ़िगार बदन में लहू ही कितना है

मगर वो ज़हरे-हलाहल भरा है नस-नस में
जिसे भी छेदों हर इक बूँद क़हरे-अफ़्यी है
हर इक कशीदः है सदियों के दर्द-ओ-हसरत की
हर इक में मोहर बलब ग़ैज-ओ-ग़म की गर्मी है

हज़र करो मेरे तन से सज चौबे-सेहरा है
जिसे जलाओ तो सहने चमन में दहकेंगे
बजाए सर्वोसमन मेरी हड्डियों के बबूल
इसे बिखेरा तो दश्त-ओ-दमन में बिखरेगी

बजा-ए-मुश्के-सबा, मेरी जाने-ज़ार की धूल
हज़र करो कि मेरा दिल लहू का प्यासा है

omkumar
11-11-2012, 10:37 AM
दिल-ए-मन मुसाफ़िर-ए-मन



मेरे दिल मेरे मुसाफ़िर
हुआ फिर से हुक्म सादिर
कि वतन बदर हों हम तुम
दें गली-गली सदाएँ
करें रुख़ नगर-नगर का
कि सुराग़ कोई पाएँ
किसी यारे-नामाबर का
हर इक अजनबी से पूछें
जो पता था अपने घर का
सरे-कू-ए-नाशनासाँ
हमें दिन से रात करना
कभी इससे बात करना
कभी उससे बात करना
तुम्हें क्या कहूँ कि क्या है
शबे-ग़म बुरी बला है
हमें यह भी था ग़नीमत
जो कोई शुमार होता
हमें क्या बुरा था मरना
अगर एक बार होता

omkumar
11-11-2012, 10:37 AM
जिस रोज़ क़ज़ा आएगी



किस तरह आएगी जिस रोज़ क़ज़ा आएगी
शायद इस तरह कि जिस तौर कभी अव्वल शब
बेतलब पहले पहल मर्हमते-बोसा-ए-लब
जिससे खुलने लगें हर सम्त तिलिस्मात के दर
और कहीं दूर से अनजान गुलाबों की बहार
यक-ब-यक सीना-ए-महताब तड़पाने लगे

2

शायद इस तरह कि जिस और कभी आख़िरे-शब
नीम वा कलियों से सर सब्ज़ सहर
यक-ब-यक हुजरे महबूब में लहराने लगे
और ख़ामोश दरीचों से ब-हंगामे-रहील
झनझनाते हुए तारों की सदा आने लगे

किस तरह आएगी जिस रोज़ क़ज़ा आएगी
शायद इस तरह कि जिस तौर तहे नोके-सनाँ
कोई रगे वाहमे दर्द से चिल्लाने लगे
और क़ज़ाक़े-सनाँ-दस्त का धुँदला साया
अज़ कराँ ताबा कराँ दहर पे मँडलाने लगे
जिस तरह आएगी जिस रोज़ क़ज़ा आएगी
ख़्वाह क़ातिल की तरह आए कि महबूब सिफ़त
दिल से बस होगी यही हर्फ़े विदा की सूरत
लिल्लाहिल हम्द बा-अँजामे दिले दिल-ज़द्गाँ
क़लमा-ए-शुक्र बनामे लबे शीरीं-दहना

omkumar
11-11-2012, 10:37 AM
ख़्वाब बसेरा


इस वक़्त तो यूँ लगता है अब कुछ भी नहीं है

महताब

न सूरज, न अँधेरा न सवेरा

आँखों के दरीचों में किसी हुस्*न की झलकन

और दिल की पनाहों में किसी दर्द का डेरा

मुमकिन है कोई वोम

हो मुमकिन है सुना हो

गलियों में किसी चाप का इक आख़िरी फेरा

शाख़ों में ख़यालों के घने पेड़ पर शायद

अब आके करेगा न कोई ख़्वाब-बसेरा

इक बैर, न इक मेहर, न इक रब्त

न रिश्ता

तेरा कोई अपना न पराया कोई मेरा

माना कि यह सुनसान घड़ी सख़्त कड़ी है

लेकिन मेरे दिल पे तो फ़क़त एक घड़ी है

हिम्मत करो जीने को अभी उम्र पड़ी है

omkumar
11-11-2012, 10:37 AM
ख़त्म हुई बारिशे संग

नागहाँ

आज मेरे तारे नज़र से कट कर

टुकड़े-टुकड़े हुए आफ़ाक़

पे ख़ुर्शीद-ओ-कमर

अब किसी सम्त अँधेरा न उजाला होगा

बुझ गई दिल की तरह राहे-वफ़ा मेरे बाद

दोस्तो! क़ाफ़ला-ए-दर्द का अब क्या होगा

अब कोई और करे परवरिशे-गुलशने-गम

दोस्तो, खत्म हुई दीदा-ए-तर

की शबनम

थम गया शोरे-जुनूँ, खत्म हुई बारिशे-संग

ख़ाक़े-रह आज लिए है लबे-दिलदार का रंग

कू-ए-जानाँ में खिला मेरे लहू का परचम

देखिए देते हैं किस किसको सदा मेरे बाद

"कौन होता है हरीफ़े-मय-ए-मर्द-अफ़गने-इश्क़

है मुक़र्रर लबे-साक़ी पे सला

मेरे बाद"

Dark Saint Alaick
13-01-2013, 10:44 PM
अद्भुत सूत्र है ओम कुमारजी। देखने में इतना विलम्ब मुझे शर्मिन्दा कर रहा है। एक श्रेष्ठ शायर का यह अनुपम सृजन फोरम पर प्रस्तुत करने के लिए आपका तहे-दिल से शुक्रिया। :hello:

rajnish manga
14-01-2013, 11:27 PM
अद्भुत सूत्र है ओम कुमारजी। देखने में इतना विलम्ब मुझे शर्मिन्दा कर रहा है। एक श्रेष्ठ शायर का यह अनुपम सृजन फोरम पर प्रस्तुत करने के लिए आपका तहे-दिल से शुक्रिया। :hello:

:gm:

सुखद इत्तफ़ाक है कि मैंने भी इस सूत्र को लगभग चौबीस घंटे पहले ही देखा. ओम कुमार जी ने फैज़ अहमद फैज़ की कविताओं का संकलन करने में जो समय और परिश्रम दिया है उसके लिए उनके आभारी हैं. ओम जी, बहुत दिनों से गायब हैं, यह हैरत की बात है. इस सूत्र में मैं अगले पृष्ठ में कुछ सामग्री देना चाहता हूँ.

rajnish manga
14-01-2013, 11:29 PM
फूल (शायर: फैज़)
आज फिर दर्दो-ग़म के धागे में
हम पिरो कर तेरे ख़याल के फूल
तर्के उल्फत के दश्त से चुन कर
आशनाई के माहो साल के फूल
तेरी दहलीज पर सजा आये
फिर तेरी याद पर चढ़ा आये
बाँध कर आरज़ू के पलड़े में
हिज्र की राख और विसाल के फूल.

rajnish manga
14-01-2013, 11:30 PM
फैज़ अहमद फैज़
(बकलम ख्वाजा अहमद अब्बास)

फैज़ अहमद फैज़ की ज़िन्दगी में कितने ही उतार चढ़ाव हैं. पहले वह अमृतसर के कॉलेज में देश विभाजन से पहले अंग्रेजी के प्रोफ़ेसर थे. विभाजन के बाद लाहोर में रहना पसंद किया और गवर्नमेंट कॉलेज में प्रोफ़ेसर हुए.तरक्की पसंद तहरीक से बावस्ता हुए और उनकी शायरी भी तरक्की पसंद तहरीक की तर्जुमान बन गई.
पाकिस्तान के प्रारम्भिक दौर में ‘रावलपिंडी साज़िश केस’में सदिग्ध करार दे कर गिरफ्तार किये गए और कई बरस जेल में रहे, जहाँ उन्होंने वह नज़्म कही, जिसका एक शे’र ही तरक्की पसंद शायरी का इंकलाबी मंशूर (घोषणा पत्र) है:-

मता-ए-लौह-ओ-कलम छिन गई तो क्या ग़म है
कि खूने दिल में डुबो ली हैं उंगलियाँ मैंने

यह शे’र उन्होंने उस वक्त कहा था जब उन पर रावलपिंडी साजिश केस चल रहा था और हर किस्म की पाबंदी उन पर लगा दी गई थी. कागज़ और कलम पर भी पाबंदियां थीं. दूसरे ग़ैर-सियासी कैदी भी फैज़ से प्रभावित थे, इसलिए जब वह दो-तीन साल बाद रिहाई पाते, तो फैज़ अहमद फैज़ के पास आते और एक पैग़ाम उनके बाहर जो भी साथी थे, उनके नाम ले जाते. यह पैग़ाम ज़बानी होता और बाहर जो साथी थे, उनमे खलबली मच जाती.
‘क्या हुआ, जो इतने खुश नज़र आ रहे हो?’
‘मेरे भाई फैज़ अहमद फैज़ का एक अछूता पैग़ाम जेल से आया है.’
कोई शे’र है या पूरी गज़ल?’
‘पूरी गज़ल मालूम होती है. सुनोगे तो फड़क उठोगे!’

‘मता-ए-लौह-ओ-कलम छिन गई तो क्या ग़म है
कि खूने दिल में डुबो ली हैं उंगलियाँ मैंने’

शे’र क्या था, दुनिया-ए-इंकलाब का एक पैग़ाम था. एक चैलेंज था.

Dark Saint Alaick
14-01-2013, 11:37 PM
ओम कुमारजी तो आपको बाद में सराहेंगे, किन्तु मेरी ओर से सूत्र में इस श्रेष्ठ योगदान के लिए धन्यवाद रजनीशजी। :hello:

rajnish manga
20-01-2013, 10:20 PM
निम्नलिखित कविता में भी फैज़ के दबे-कुचले तबकों के प्रति हमदर्दी की भावना व क्रांतिकारी विचारों की ही झलक मिलती है:

कुत्ते
(शायर: फैज़ अहमद फैज़)

ये गलियों के आवारा बेकार कुत्ते
कि बख्शा गया जिनको जौके-गदाई

ज़माने की फटकार सरमाया इनका
जहां-भर की दुत्कार इनकी कमाई

न आराम शब् को न राहत सवेरे
ग़लाज़त में घर नालियों में बसेरे

जो बिगड़ें तो इक-दूसरे से लड़ा दो
ज़रा एक रोटी का टुकड़ा दिखा दो

ये हर एक की ठोकरें खाने वाले
ये फ़ाकों से उकता के मर जाने वाले

ये मजलूम मखलूक गर सर उठाए
तो इन्सान सब सरकशी भूल जाए

ये चाहें तो दुनिया को अपना बना लें
ये आकाओं की हड्डियां तक चबा लें

कोई इनको एहसासे-ज़िल्लत दिला दे
कोई इनकी सोई हुई दुम हिला दे.
*****

rajnish manga
03-02-2013, 10:39 PM
एक मुलाक़ात फैज़ से
(लेखक: कृश्नचंदर)

मैं और फैज़ होटल मस्क्वा में ठहरे हुए थे, मगर एक दूसरे से मिलने की नौबत नहीं आती थी. पहली शाम जब मैं होटल मस्क्वा के लम्बे-चौड़े डाइनिंग हाल में खाने के लिए गया तो हर देश के प्रतिनिधियों के लिए एक मेज अलग से सजी हुयी है और उस मेज पर उस देश का एक छोटा सा झंडा लहरा रहा है.मैंने देखा तो कहीं आसपास पाकिस्तान की मेज नज़र न आयी. बहुत खोजने के बाद मालूम हुआ कि पाकिस्तान की मेज और हिन्दुस्तान की मेज के बीच कम से कम दस और मेजों की दूरी है. मैं मुस्करा कर चुप रहा और अपनी मेज पर बैठ गया. फैज़ अभी अपनी मेज पर न आये थे. पंद्रह-बीस मिनट शराब पीने में गुज़रे.इतने में मैंने देखा कि फैज़ किसी दूसरे बरामदे के दरवाजे से दाखिल हो कर अपनी मेज की तरफ बढ़ रहे थे. कुर्सी पर बैठ कर उन्होंने मेरी तरह चारों और नज़र दौडाई. शायद उन्हें भी किसी दूसरी मेज की तलाश थी. यकायक मेरी और फैज़ की आँखें चार हुयीं. वह फ़ौरन अपनी कुर्सी से उठ खड़े हुए, मैं अपनी कुर्सी से. उस वक़्त सारा हाल हम दोनों की तरफ अजीब निगाहों से देख रहा था.
फिर हुआ यह कि मैं अपनी मेज से हिन्दुस्तान का झंडा लिए हुए उठा और फैज़ अपनी मेज से पाकिस्तान का झंडा लिए उठे और हम दोनों एक दूसरे की तरफ बढ़ते हुए, मेजें पार करते हुए बीच की किसी मेज पर आ कर रुक गए. उस मेज पर दोनों ने हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के झंडे साथ साथ लहरा दिए और एक दुसरे के गले लग गए. सारा हाल तालिया पीटने लगा.
“क्या समझते हैं ये लोग? क्या हम लोग भी अपने वैर-भाव रखने वाले राजनीतिज्ञों की तरह एक दुसरे के दुश्मन हैं? साहित्य में यह दुश्मनी नहीं चलती और काश! कहीं भी न चले.” मैंने कहा,”मगर इस बदकिस्मती को क्या कहिये कि तुम्हारी मेरी मुलाकात अब न तो हिन्दुस्तान में होती है और न पाकिस्तान में और होती है तो सिर्फ ‘मास्को’ में.”
“इन लोगों को चाहिए”, फैज़ ने हंस कर कहा, ”अपने रूसी साहित्यकारों की कांग्रेस हर साल किया करें. इसी बहाने मिल लिया करेंगे.” फिर मेरी और झुकर पूछा,”तुम्हारी दुभाषिया तो बड़ी खूबसूरत है, कहाँ से ऐंठी?” मैंने कहा,”बदल लो, मगर याद रखना, यह यहूदिन है.’ हम सब हंसाने लगे. फिर जाम से जाम टकराने लगे. दो झंडे एक साथ लहराने लगे.
उसके बाद जितने भी दिन हम होटल मस्क्वा में रहे, मेरी और फैज़ की मेज एक ही रही. हिन्दुस्तान और पाकिस्तान एक ही मेज पर खाना खाते रहे.

rajnish manga
03-02-2013, 10:44 PM
फैज़ का आत्मकथ्य

शुरू शुरू में शायरी के दौरान या कॉलेज के ज़माने में हमें कोई ख़याल ही न गुज़रा कि हम कभी शायर बनेंगे. सियासत (राजनीति) वगैरह तो उस वक़्त ज़ेहन में बिल्कुल न थी. अगर्चे जिस वक़्त की तहरीकों (आन्दोलनों) मसलन कांग्रेस तहरीक, खिलाफत तहरीक या भगत सिंह की दहशतपसंद (क्रांतिकारी) तहरीक के असर तो ज़ेहन में थे, मगर हम खुद इनमे से किसी किस्से में शरीक नहीं थे.
शुरू में ख़याल हुआ कि हम कोई क्रिकेटर बन जायें क्योंकि लड़कपन से क्रिकेट का शौक था और बहुत खेल चुके थे. फिर जी चाहा, उस्ताद बनना चाहिए. रिसर्च करने का शौक था. इनमे से कोई भी बात न बनी. हम न क्रिकेटर बने, न आलोचक, न ही रिसर्च किया. अलबत्ता प्राध्यापक बन कर अमृतसर चले आये.