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View Full Version : तोलस्तॉय की कहानियाँ


amol
11-11-2012, 04:37 PM
तोलस्तॉय की कहानियाँ

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amol
11-11-2012, 04:38 PM
एक चिनगारी घर को जला देती है
लिओ तोलस्तॉय

अनुवाद - प्रेमचंद

amol
11-11-2012, 04:40 PM
एक समय एक गांव में रहीम खां नामक एक मालदार किसान रहता था। उसके तीन पुत्र थे, सब युवक और काम करने में चतुर थे। सबसे बड़ा ब्याहा हुआ था, मंझला ब्याहने को था, छोटा क्वांरा था। रहीम की स्त्री और बहू चतुर और सुशील थीं। घर के सभी पराणी अपना-अपना काम करते थे, केवल रहीम का बूढ़ा बाप दमे के रोग से पीड़ित होने के कारण कुछ कामकाज न करता था। सात बरसों से वह केवल खाट पर पड़ा रहता था। रहीम के पास तीन बैल, एक गाय, एक बछड़ा, पंद्रह भेड़ें थीं। स्त्रियां खेती के काम में सहायता करती थीं। अनाज बहुत पैदा हो जाता था। रहीम और उसके बाल-बच्चे बड़े आराम से रहते; अगर पड़ोसी करीम के लंगड़े पुत्र कादिर के साथ इनका एक ऐसा झगड़ा न छिड़ गया होता जिससे सुखचैन जाता रहा था।

जब तक बूढ़ा करीम जीता रहा और रहीम का पिता घर का प्रबंध करता रहा, कोई झगड़ा नहीं हुआ। वह बड़े प्रेमभाव से, जैसा कि पड़ोसियों में होना चाहिए, एक-दूसरे की सहायता करते रहे। लड़कों का घरों को संभालना था कि सबकुछ बदल गया।

amol
11-11-2012, 04:41 PM
अब सुनिए कि झगड़ा किस बात पर छिड़ा। रहीम की बहू ने कुछ मुर्गियां पाल रखी थीं। एक मुर्गी नित्य पशुशाला में जाकर अंडा दिया करती थी। बहू शाम को वहां जाती और अंडा उठा लाती। एक दिन दैव गति से वह मुर्गी बालकों से डरकर पड़ोसी के आंगन में चली गयी और वहां अंडा दे आई। शाम को बहू ने पशुशाला में जाकर देखा तो अंडा वहां न था। सास से पूछा, उसे क्या मालूम था। देवर बोला कि मुर्गी पड़ोसिन के आंगन में कुड़कुड़ा रही थी, शायद वहां अंडा दे आयी हो।

बहू वहां पहुंचकर अंडा खोजने लगी। भीतर से कादिर की माता निकलकर पूछने लगी - बहू, क्या है?

बहू - मेरी मुर्गी तुम्हारे आंगन में अंडा दे गई है, उसे खोजती हूं। तुमने देखा हो तो बता दो।

कादिर की मां ने कहा - मैंने नहीं देखा। क्या हमारी मुर्गियां अंडे नहीं देतीं कि हम तुम्हारे अंडे बटोरती फिरेंगी। दूसरों के घर जाकर अंडे खोजने की हमारी आदत नहीं।

amol
11-11-2012, 04:41 PM
यह सुनकर बहू आग हो गई, लगी बकने। कादिर की मां कुछ कम न थी, एकएक बात के सौसौ उत्तर दिये। रहीम की स्त्री पानी लाने बाहर निकली थी। गालीगलौच का शोर सुनकर वह भी आ पहुंची। उधर से कादिर की स्त्री भी दौड़ पड़ी। अब सबकी-सब इकट्ठी होकर लगीं गालियां बकने और लड़ने। कादिर खेत से आ रहा था, वह भी आकर मिल गया। इतने में रहीम भी आ पहुंचा। पूरा महाभारत हो गया। अब दोनों गुंथ गए। रहीम ने कादिर की दाढ़ी के बाल उखाड़ डाले। गांव वालों ने आकर बड़ी मुश्किल से उन्हें छुड़ाया। पर कादिर ने अपनी दाढ़ी के बाल उखाड़ लिये और हाकिम परगना के इजलास में जाकर कहा - मैंने दाढ़ी इसलिए नहीं रखी थी जो यों उखाड़ी जाये। रहीम से हरजाना लिया जाए। पर रहीम के बू़ढ़े पिता ने उसे समझाया - बेटा, ऐसी तुच्छ बात पर लड़ाई करना मूर्खता नहीं तो क्या है। जरा विचार तो करो, सारा बखेड़ा सिर्फ एक अंडे से फैला है। कौन जाने शायद किसी बालक ने उठा लिया हो, और फिर अंडा था कितने का? परमात्मा सबका पालनपोषण करता है। पड़ोसी यदि गाली दे भी दे, तो क्या गाली के बदले गाली देकर अपनी आत्मा को मलिन करना उचित है? कभी नहीं, खैर! अब तो जो होना था, वह हो ही गया, उसे मिटाना उचित है, बढ़ाना ठीक नहीं। क्रोध पाप का मूल है। याद रखो, लड़ाई बढ़ाने से तुम्हारी ही हानि होगी।

amol
11-11-2012, 04:41 PM
परन्तु बू़ढ़े की बात पर किसी ने कान न धरा। रहीम कहने लगा कि कादिर को धन का घमंड है, मैं क्या किसी का दिया खाता हूं? बड़े घर न भेज दिया तो कहना। उसने भी नालिश ठोंक दी।

यह मुकदमा चल ही रहा था कि कादिर की गाड़ी की एक कील खो गई। उसके परिवार वालों ने रहीम के बड़े लड़के पर चोरी की नालिश कर दी।

अब कोई दिन ऐसा न जाता था कि लड़ाई न हो। बड़ों को देखकर बालक भी आपस में लड़ने लगे। जब कभी वस्त्र धोने के लिए स्त्रियां नदी पर इकट्ठी होती थीं, तो सिवाय लड़ाई के कुछ काम न करती थीं।

पहलेपहल तो गालीगलौज पर ही बस हो जाती थी, पर अब वे एकदूसरे का माल चुराने लगे। जीना दुर्लभ हो गया। न्याय चुकातेचुकाते वहां के कर्मचारी थक गए। कभी कादिर रहीम को कैद करा देता, कभी वह उसको बंदीखाने भिजवा देता। कुत्तों की भांति जितना ही लड़ते थे, उतना ही क्रोध बढ़ता था। छह वर्ष तक यही हाल रहा। बू़ढ़े ने बहुतेरा सिर पटका कि 'लड़को, क्या करते हो? बदला लेना छोड़ दो, बैर भाव त्यागकर अपना काम करो। दूसरों को कष्ट देने से तुम्हारी ही हानि होगी।' परंतु किसी के कान पर जूं तक न रेंगती थी।

amol
11-11-2012, 04:42 PM
सातवें वर्ष गांव में किसी के घर विवाह था। स्त्रीपुरुष जमा थे। बातें करते-करते रहीम की बहू ने कादिर पर घोड़ा चुराने का दोष लगाया। वह आग हो गया, उठकर बहू को ऐसा मुक्का मारा कि वह सात दिन चारपाई पर पड़ी रही। वह उस समय गर्भवती थी। रहीम बड़ा प्रसन्न हुआ कि अब काम बन गया। गर्भवती स्त्री को मारने के अपराध में इसे बंदीखाने न भिजवाया तो मेरा नाम रहीम ही नहीं। झट जाकर नालिश कर दी। तहकीकात होने पर मालूम हुआ कि बहू को कोई बड़ी चोट नहीं आई, मुकदमा खारिज हो गया। रहीम कब चुप रहने वाला था। ऊपर की कचहरी में गया और मुंशी को घूस देकर कादिर को बीस कोड़े मारने का हुक्म लिखवा दिया।

उस समय कादिर कचहरी से बाहर खड़ा था, हुक्म सुनते ही बोला - कोड़ों से मेरी पीठ तो जलेगी ही, परन्तु रहीम को भी भस्म किए बिना न छोड़ूँगा।

रहीम तुरन्त अदालत में गया और बोला - हुजूर, कादिर मेरा घर जलाने की धमकी देता है। कई आदमी गवाह हैं।

हाकिम ने कादिर को बुलाकर पूछा कि क्या बात है।

amol
11-11-2012, 04:42 PM
कादिर - सब झूठ, मैंने कोई धमकी नहीं दी। आप हाकिम हैं। जो चाहें सो करें, पर क्या न्याय इसी को कहते हैं कि सच्चा मारा जाए और झूठा चैन करे?

कादिर की सूरत देखकर हाकिम को निश्चय हो गया कि वह अवश्य रहीम को कोई न कोई कष्ट देगा। उसने कादिर को समझाते हुए कहा - देखो भाई, बुद्धि से काम लो। भला कादिर, गर्भवती स्त्री को मारना क्या ठीक था? यह तो ईश्वर की बड़ी कृपा हुई कि चोट नहीं आई, नहीं तो क्या जाने, क्या हो जाता। तुम विनय करके रहीम से अपना अपराध क्षमा करा लो, मैं हुक्म बदल डालूंगा।

मुंशी - दफा एक सौ सत्तरह के अनुसार हुक्म नहीं बदला जा सकता।

हाकिम - चुप रहो। परमात्मा को शांति प्रिय है, उसकी आज्ञा पालन करना सबका मुख्य धर्म है।

कादिर बोला - हुजूर, मेरी अवस्था अब पचास वर्ष की है। मेरे एक ब्याहा हुआ पुत्र भी है। आज तक मैंने कभी कोड़े नहीं खाए। मैं और उससे क्षमा? कभी नहीं मांग सकता। वह भी मुझे याद करेगा।

यह कहकर कादिर बाहर चला गया।

amol
11-11-2012, 04:42 PM
कचहरी गांव से सात मील पर थी। रहीम को घर पहुंचते-पहुंचते अंधेरा हो गया। उस समय घर में कोई न था। सब बाहर गए हुए थे। रहीम भीतर जाकर बैठ गया और विचार करने लगा। कोड़े लगने का हुक्म सुनकर कादिर का मुख कैसा उतर गया था! बेचारा दीवार की ओर मुंह करके रोने लगा था। हम और वह कितने दिन तक एक साथ खेले हैं, मुझे उस पर इतना क्रोध न करना चाहिए था। यदि मुझे कोड़े मारने का हुक्म सुनाया जाता, तो मेरी क्या दशा होती।

इस पर उसे कादिर पर दया आई। इतने में बू़ढ़े पिता ने आकर पूछा - कादिर को क्या दंड मिला?

रहीम - बीस कोड़े।

बूढ़ा - बुरा हुआ। बेटा, तुम अच्छा नहीं करते। इन बातों में कादिर की उतनी ही हानि होगी जितनी तुम्हारी। भला, मैं यह पूछता हूं कि कादिर पर कोड़े पड़ने से तुम्हें क्या लाभ होगा?

रहीम - वह फिर ऐसा काम नहीं करेगा।

बूढ़ा - क्या नहीं करेगा, उसने तुमसे बढ़कर कौन-सा बुरा काम किया है?

amol
11-11-2012, 04:43 PM
रहीम - वाह वाह, आप विचार तो करें कि उसने मुझे कितना कष्ट दिया है। स्त्री मरने से बची, अब घर जलाने की धमकी देता है, तो क्या मैं उसका जस गाऊं?

बूढ़ा - (आह भरकर) बेटा, मैं घर में पड़ा रहता हूं और तुम सर्वत्र घूमते हो, इसलिए तुम मुझे मूर्ख समझते हो। लेकिन द्रोह ने तुम्हें अंधा बना रखा है। दूसरों के दोष तुम्हारे नेत्रों के सामने हैं, अपने दोष पीठ पीछे हैं। भला, मैं पूछता हूं कि कादिर ने क्या किया! एक के करने से भी कभी लड़ाई हुआ करती है? कभी नहीं, दो बिना लड़ाई नहीं हो सकती। यदि तुम शान्त स्वभाव के होते, लड़ाई कैसे होती? भला जवाब तो दो, उसकी दाढ़ी के बाल किसने उखाड़े! उसका भूसा किसने चुराया? उसे अदालत में किसने घसीटा? तिस पर सारे दोष कादिर के माथे ही थोप रहे हो! तुम आप बुरे हो, बस यही सारे झगड़े की जड़ है। क्या मैंने तुम्हें यही शिक्षा दी है? क्या तुम नहीं जानते कि मैं और कादिर का पिता किस प्रेमभाव से रहते थे। यदि किसी के घर में अन्न चुक जाता था, तो एक-दूसरे से उधार लेकर काम चलता था; यदि कोई किसी और काम में लगा होता था, तो दूसरा उसके पशु चरा लाता था। एक को किसी वस्तु की जरूरत होती थी, तो दूसरा तुरन्त दे देता था। न कोई लड़ाई थी न झगड़ा, प्रेमप्रीतिपूर्वक जीवन व्यतीत करता था। अब? अब तो तुमने महाभारत बना रखा है, क्या इसी का नाम जीवन है? हाय! हाय! यह तुम क्या पाप कर्म कर रहे हो? तुम घर के स्वामी हो, यमराज के सामने तुम्हें उत्तर देना होगा। बालकों और स्त्रियों को तुम क्या शिक्षा दे रहे हो, गाली बकना और ताने देना! कल तारावती पड़ोसिन धनदेवी को गालियां दे रही थी। उसकी माता पास बैठी सुन रही थी। क्या यही भलमनसी है? क्या गाली का बदला गाली होना चाहिए? नहीं बेटा, नहीं, महापुरुषों का वचन है कि कोई तुम्हें गाली दे तो सह लो, वह स्वयं पछताएगा। यदि कोई तुम्हारे गाल पर एक चपत मारे, तो दूसरा गाल उसके सामने कर दो, वह लज्जित और नम्र होकर तुम्हारा भक्त हो जाएगा। अभिमान ही सब दुःख का कारण है - तुम चुप क्यों हो गए! क्या मैं झूठ कहता हूं?

amol
11-11-2012, 04:43 PM
रहीम चुप रह गया, कुछ नहीं बोला।

बूढ़ा - महात्माओं का वाक्य क्या असत्य है, कभी नहीं। उसका एक-एक अक्षर पत्थर की लकीर है। अच्छा, अब तुम अपने इस जीवन पर विचार करो। जब से यह महाभारत आरम्भ हुआ है, तुम सुखी हो अथवा दुःखी! जरा हिसाब तो लगाओ कि इन मुकदमों, वकीलों और जाने-आने में कितना रुपया खर्च हो चुका है। देखो, तुम्हारे पुत्र कैसे सुन्दर और बलवान हैं, लेकिन तुम्हारी आमदनी घटती जाती है। क्यों? तुम्हारी मूर्खता से। तुम्हें चाहिए कि लड़कों सहित खेती का काम करो। पर तुम पर तो लड़ाई का भूत सवार है, वह चैन लेने नहीं देता। पिछले साल जई क्यों नहीं उगी, इसलिए कि समय पर नहीं बोई गई। मुकदमे चलाओ कि जई बोओ। बेटा, अपना काम करो, खेतीबारी को सम्हालो। यदि कोई कष्ट दे तो उसे क्षमा करो, परमात्मा इसी से प्रसन्न रहता है। ऐसा करने पर तुम्हारा अंतःकरण शुद्ध होकर तुम्हें आनन्द प्राप्त होगा।

रहीम कुछ नहीं बोला।

बूढ़ा - बेटा, अपने बू़ढ़े, मूर्ख पिता का कहना मानो। जाओ, कचहरी में जाकर आपस में राजीनामा कर लो। कल शबेरात है, कादिर के घर जाकर नम्रतापूर्वक उसे नेवता दो और घर वालों को भी यही शिक्षा दो कि बैर छोड़कर आपस में प्रेम बढ़ाएँ।

amol
11-11-2012, 04:43 PM
पिता की बातें सुनकर रहीम के मन में विचार हुआ कि पिताजी सच कहते हैं। इस लड़ाई-झगड़े से हम मिट्टी में मिले जाते हैं। लेकिन इस महाभारत को किस प्रकार समाप्त करूं? बूढ़ा उसके मन की बात जानकर बोला - बेटा, मैं तुम्हारे मन की बात जान गया। लज्जा त्याग जाकर कादिर से मित्रता कर लो। फैलने से पहले ही चिनगारी को बुझा देना उचित है, फैल जाने पर फिर कुछ नहीं बनता।

बूढ़ा कुछ और कहना चाहता था कि स्त्रियां कोलाहल करती हुई भीतर आ गईं, उन्होंने कादिर के दंड का हाल सुन लिया था। हाल में पड़ोसिन से लड़ाई करके आई थीं, आकर कहने लगीं कि कादिर यह भय दिखाता है कि मैंने घूस देकर हाकिम को अपनी ओर फेर लिया है, रहीम का सारा हाल लिखकर महाराज की सेवा में भेजने के लिए विनयपत्र तैयार किया है। देखो, क्या मजा चखाता हूं। आधी जायदाद न छीन ली तो बात ही क्या है? यह सुनना था कि रहीम के चित्त में फिर आग दहक उठी।

आषाढ़ी बोने की ऋतु थी। करने को काम बहुत था। रहीम भुसौल में गया और पशुओं को भूसा डालकर कुछ काम करने लगा। इस समय वह पिता की बातें और कादिर के साथ लड़ाई सब कुछ भूला हुआ था। रात को घर में आकर आराम करना ही चाहता था कि पास से शब्द सुनाई दिया - वह दुष्ट वध करने ही योग्य है, जीकर क्या बनाएगा। इन शब्दों ने रहीम को पागल बना दिया। वह चुपचाप खड़ा कादिर को गालियां सुनाता रहा। जब वह चुप हो गया, तो वह घर में चला गया।

amol
11-11-2012, 04:44 PM
भीतर आकर देखा कि बहू बैठी ताक रही है, स्त्री भोजन बना रही है, बड़ा लड़का दूध गर्म कर रहा है, मंझला झाड़ू लगा रहा है, छोटा भैंस चराने बाहर जाने को तैयार है। सुख की यह सब सामग्री थी, परन्तु पड़ोसी के साथ लड़ाई का दुःख सहा न जाता था।

वह जला-भुना भीतर आया। उसके कान में पड़ोसी के शब्द गूंज रहे थे, उसने सबसे लड़ना आरम्भ किया। इतने में छोटा लड़का भैंस चराने बाहर जाने लगा। रहीम भी उसके साथ बाहर चला आया। लड़का तो चल दिया, वह अकेला रह गया। रहीम मन में सोचने लगा - कादिर बड़ा दुष्ट है, हवा चल रही है, ऐसा न हो पीछे से आकर मकान में आग लगाकर भाग जाए। क्या अच्छा हो कि जब वह आग लगाने आए, तब उसे मैं पकड़ लूं। बस फिर कभी नहीं बच सकता, अवश्य उसे बन्दीखाने जाना पड़े।

यह विचार करके वह गली में पहुंच गया। सामने उसे कोई चीज़ हिलती दिखाई दी। पहले तो वह समझा कि कादिर है, पर वहां कुछ न था - चारों ओर सन्नाटा था।

थोड़ी दूर आगे जाकर देखता क्या है कि पशुशाला के पास एक मनुष्य जलता हुआ फूस का पूला हाथ में लिए खड़ा है। ध्यान से देखने पर मालूम हुआ कि कादिर है। फिर क्या था, जोर से दौड़ा कि उसे जाकर पकड़ ले।

amol
11-11-2012, 04:44 PM
रहीम अभी वहां पहुंचने न पाया था कि छप्पर में आग लगी, उजाला होने पर कादिर प्रत्यक्ष दिखाई देने लगा। रहीम बाज की तरह झपटा, लेकिन कादिर उसकी आहट पाकर चम्पत हो गया।

रहीम उसके पीछे दौड़ा। उसके कुरते का पल्ला हाथ में आया ही था कि वह छुड़ाकर फिर भागा। रहीम धड़ाम से पृथ्वी पर गिर पड़ा, उठकर फिर दौड़ा। इतने में कादिर अपने घर पहुंच गया। रहीम वहां जाकर उसे पकड़ना चाहता था कि उसने ऐसा लट्ठ मारा कि रहीम चक्कर खाकर बेसुध हो धरती पर गिर पड़ा। सुध आने पर उसने देखा कि कादिर वहां नहीं है, फिरकर देखता है तो पशुशाला का छप्पर जल रहा है, ज्वाला प्रचंड हो रही है और लपटें निकल रही हैं।

रहीम सिर पीटकर पुकराने लगा - भाइयो, यह क्या हुआ! हाय, मेरा सत्यानाश हो गया! चिल्लाते-चिल्लाते उसका कंठ बैठ गया। वह दौड़ना चाहता था, परन्तु उसकी टांगें लड़खड़ा गईं। वह धम से धरती पर गिर पड़ा, फिर उठा, घर के पास पहुंचते-पहुंचते आग चारों ओर फैल गई। अब क्या बन सकता है? भय से पड़ोसी भी अपना असबाब बाहर फेंकने लगे। वायु के वेग से कादिर के घर में भी आग जा लगी, यहां तक कि आधा गांव जलकर राख का ढेर हो गया। रहीम और कादिर दोनों का कुछ न बचा। मुर्गियां, हल, गाड़ी, पशु, वस्त्र, अन्न, भूसा आदि सब कुछ स्वाहा हो गया। इतना अच्छा हुआ कि किसी की जान नहीं गई।

आग रात भर जलती रही। वह कुछ असबाब उठाने भीतर गया, परन्तु ज्वाला ऐसी प्रचंड थी कि जा न सका। उसके कपड़े और दाढ़ी के बाल झुलस गए।

amol
11-11-2012, 04:44 PM
प्रातःकाल गांव के चौधरी का बेटा उसके पास आया और बोला - रहीम, तुम्हारे पिता की दशा अच्छी नहीं है। वह तुम्हें बुला रहे हैं। रहीम तो पागल हो रहा था, बोला - कौन पिता जी ?

चौधरी का बेटा - तुम्हारे पिता। इसी आग ने उनका काम तमाम कर दिया है। हम उन्हें यहां से उठाकर अपने घर ले गए थे। अब वह बच नहीं सकते। चलो, अंतिम भेंट कर लो।
रहीम उसके साथ हो लिया। वहां पहुंचने पर चौधरी ने बू़ढ़े को खबर दी कि रहीम आ गया है।
बू़ढ़े ने रहीम को अपने निकट बुलाकर कहा - बेटा, मैंने तुमसे क्या कहा था। गांव किसने जलाया?

रहीम - कादिर ने। मैंने आप उसे छप्पर में आग लगाते देखा था। यदि मैं उसी समय उसे पकड़कर पूले को पैरों तले मल देता, तो आग कभी न लगती।

बूढ़ा - रहीम, मेरा अन्त समय आ गया। तुमको भी एक दिन अवश्य मरना है, पर सच बतलाओ कि दोष किसका है?

रहीम चुप हो गया।

amol
11-11-2012, 04:45 PM
बूढ़ा - बताओ, कुछ बोलो तो, फिर यह सब किसकी करतूत है, किसका दोष है?

रहीम - (आंखों में आंसू भरकर) मेरा! पिताजी, क्षमा कीजिए, मैं खुदा और आप दोनों का अपराधी हूं।

बूढ़ा - रहीम!

रहीम - हां, पिताजी।

बूढ़ा - जानते हो अब क्या करना उचित है?

रहीम - मैं क्या जानूं, मेरा तो अब गांव में रहना कठिन है।

बूढ़ा - यदि तू परमेश्वर की आज्ञा मानेगा तो तुझे कोई कष्ट न होगा। देख, याद रख, अब किसी से न कहना कि आग किसने लगाई थी। जो पुरुष किसी का एक दोष क्षमा करता है, परमात्मा उसके दो दोष क्षमा करता है।

यह कहकर खुदा को याद करते हुए बू़ढ़े ने प्राण त्याग दिए।

रहीम का क्रोध शांत हो गया। उसने किसी को न बतलाया कि आग किसने लगाई थी। पहलेपहल तो कादिर डरता रहा कि रहीम के चुप रह जाने में भी कोई भेद है, फिर कुछ दिनों पीछे उसे विश्वास हो गया कि रहीम के चित्त में अब कोई बैरभाव नहीं रहा।

बस, फिर क्या था - प्रेम में शत्रु भी मित्र हो जाते हैं। वे पासपास घर बनाकर पड़ोसियों की भांति रहने लगे।

रहीम अपने पिता का उपदेश कभी न भूलता था कि फैलने से पहले ही चिनगारी को बुझा देना उचित है। अब यदि कोई कष्ट देता, तो वह बदला लेने की इच्छा नहीं करता। यदि कोई उसे गाली देता, तो सहन करके वह यह उपदेश करता कि कुवचन बोलना अच्छा नहीं। अपने घर के प्राणियों को भी वह यही उपदेश दिया करता। पहले की अपेक्षा अब उसका जीवन बड़े आनन्दपूर्वक कटता है।

amol
11-11-2012, 04:46 PM
क्षमादान
लिओ तोलस्तॉय

अनुवाद - प्रेमचंद

amol
11-11-2012, 04:47 PM
दिल्ली नगर में भागीरथ नाम का युवक सौदागर रहता था। वहाँ उसकी अपनी दो दुकानें और एक रहने का मकान था। वह सुंदर था। उसके बाल कोमल, चमकीले और घुँघराले थे। वह हँसोड़ और गाने का बड़ा प्रेमी था। युवावस्था में उसे मद्य पीने की बान पड़ गई थी। अधिक पी जाने पर कभी कभी हल्ला भी मचाया करता था, परंतु विवाह कर लेने पर मद्य पीना छोड़ दिया था।

गर्मी में एक समय वह कुंभ पर गंगा जाने को तैयार हो, अपने बच्चों और स्त्री से विदा माँगने आया।

स्त्री- प्राणनाथ, आज न जाइए, मैंने बुरा सपना देखा है।

भागीरथ- प्रिये, तुम्हें भय है कि मैं मेले में जाकर तुम्हें भूल जाऊँगा ?

स्त्री- यह तो मैं नहीं जानती कि मैं क्यों डरती हूँ, केवल इतना जानती हूँ कि मैंने बुरा स्वप्न देखा है। मैंने देखा है कि जब तुम घर लौटे हो तो तुम्हारे बाल श्वेत हो गए हैं।

amol
11-11-2012, 04:48 PM
भागीरथ- यह तो सगुन है। देख लेना मैं सारा माल बेच, मेले से तुम्हारे लिए अच्छी-अच्छी चीजें लाऊँगा।

यह कह गाड़ी पर बैठ, वह चल दिया। आधी दूर जाकर उसे एक सौदागर मिला, जिससे उसकी जान पहचान थी। वे दोनों रात को एक ही सराय में ठहरे। संध्या समय भोजन कर पास की कोठरियों में सो गए।

भागीरथ को सबेरे जाग उठने का अभ्यास था। उसने यह विचार करके कि ठंडे ठंडे राह चलना सुगम होगा, मुँह अँधेरे उठ, गाड़ी तैयार कराई और भटियारे के दाम चुका कर चलता बना। पच्चीस कोस जाने पर घोड़ों को आराम देने के लिए एक सराय में ठहरा और आँगन में बैठकर सितार बजाने लगा।

अचानक एक गाड़ी आई- पुलिस का एक कर्मचारी और दो सिपाही उतरे। कर्मचारी उसके समीप आ कर पूछने लगा कि तुम कौन हो और कहाँ से आए हो? वह सब कुछ बतला कर बोला कि आइए, भोजन कीजिए। परंतु कर्मचारी बारबार यही पूछता था कि तुम रात को कहाँ ठहरे थे? अकेले थे या कोई साथ था? तुमने साथी को आज सवेरे देखा या नहीं। तुम मुँह अँधेरे क्यों चले आए?

भागीरथ को अचंभा हुआ कि बात क्या है? यह प्रश्न क्यों पूछे जा रहे हैं? बोला- आप तो मुझसे इस भाँति पूछते हैं, जैसे मैं कोई चोर या डाकू हूँ। मैं तो गंगास्नान करने जा रहा हूँ। आपको मुझसे क्या मतलब है?

कर्मचारी- मैं इस प्रांत का पुलिस अफसर हूँ, और यह प्रश्न इसलिए करता हूँ कि जिस सौदागर के साथ तुम कल रात सराय में सोए थे, वह मार डाला गया। हम तुम्हारी तलाशी लेने आए हैं।

amol
11-11-2012, 04:48 PM
यह कह वह उसके असबाब की तलाशी लेने लगा। एकाएक थैले में से एक छुरा निकला, वह खून से भरा हुआ था। यह देखकर भागीरथ डर गया।

कर्मचारी- यह छुरा किसका है ? इस पर खून कहाँ से लगा ?

भागीरथ चुप रह गया, उसका कंठ रुक गया। हिचकता हुआ कहने लगा- मेरा नहीं है। मैं नहीं जानता।

कर्मचारी- आज सवेरे हमने देखा कि वह सौदागर गला कटे चारपाई पर पड़ा है। कोठरी अंदर से बंद थी, सिवाय तुम्हारे भीतर कोई न था। अब यह खून से भरा हुआ छुरा इस थैले में से निकला है। तुम्हारा मुख ही गवाही दे रहा है। बस, तुमने ही उसे मारा है। बतलाओ, किस तरह मारा और कितने रुपये चुराए हैं ?

भागीरथ ने सौगंध खाकर कहा- मैंने सौदागर को नहीं मारा। भोजन करने के पीछे फिर मैंने उसे नहीं देखा। मेरे पास अपने आठ हजार रुपये हैं। यह छुरा मेरा नहीं।

परंतु उसकी बातें उखड़ी हुई थीं, मुख पीला पड़ गया था और वह पापी की भाँति भय से काँप रहा था।

पुलिस अफसर ने सिपाहियों को हुक्म दिया कि इसकी मुस्कें कसकर गाड़ी में डाल दो। जब सिपाहियों ने उसकी मुस्कें कसीं, तो वह रोने लगा। अफसर ने पास के थाने पर ले जाकर उसका रुपया पैसा छीन, उसे हवालात में दे दिया।

amol
11-11-2012, 04:49 PM
इसके बाद दिल्ली में उसके चाल-चलन की जाँच की गई। सब लोगों ने यही कहा कि पहले वह मद्य पीकर बकझक किया करता था, पर अब उसका आचार बहुत अच्छा है। अदालत में तहकीकात होने पर उसे रामपुर निवासी सौदागर का वध करने और बीस हजार रुपये चुरा लेने का अपराधी ठहराया गया।

भागीरथ की स्त्री को इस बात पर विश्वास न होता था। उसके बालक छोटे-छोटे थे। एक अभी दूध पीता था। वह सबको साथ लेकर पति के पास पहुँची। पहले तो कर्मचारियों ने उसे उससे मिलने की आज्ञा न दी, परंतु बहुत विनय करने पर आज्ञा मिल गई। और पहरे वाले उसे कैद घर में ले गए। ज्यों ही उसने अपने पति को बेड़ी पहने हुए चोरों और डाकुओं के बीच में बैठा देखा, वह बेसुध होकर धरती पर गिर पड़ी। बहुत देर में सुध आई। वह बच्चों सहित पति के निकट बैठ गई और घर का हाल कह कर पूछने लगी कि यह क्या बात है ? भागीरथ ने सारा वृतांत कह सुनाया।

स्त्री- तो अब क्या हो सकता है ?

भागीरथ- हमें महाराज से विनय करनी चाहिए कि वह निरपराधी को जान से न मारें।

स्त्री- मैंने महाराज से विनय की थी, परंतु वह स्वीकार नहीं हुई।

भागीरथ ने निराश होकर सिर झुका लिया।

amol
11-11-2012, 04:49 PM
स्त्री- देखा, मेरा सपना कैसा सच निकला! तुम्हें याद है न, मैंने तुमको उस दिन मेले जाने से रोका था। तुम्हें उस दिन न चलना चाहिए था, लेकिन मेरी बात न मानी। सच सच बताओ, तुमने तो उस सौदागर को नहीं मारा न?

भागीरथ- क्या तुम्हें भी मेरे ऊपर संदेह है?

यह कह कर वह मुँह ढाँप रोने लगा। इतने में सिपाही ने आकर स्त्री को वहाँ से हटा दिया और भागीरथ सदैव के लिए अपने परिवार से विदा हो गया।

घर वालों के चले जाने पर जब भागीरथ ने यह विचारा कि मेरी स्त्री भी मुझे अपराधी समझती है तो मन में कहा- बस, मालूम हो गया, परमात्मा के बिना और कोई नहीं जान सकता कि मैं पापी हूँ या नहीं। उसी से दया की आशा रखनी चाहिए। फिर उसने छूटने का कोई यत्न नहीं किया। चारों ओर से निराश हो कर ईश्वर के ही भरोसे बैठा रहा।

भागीरथ को पहले तो कोड़े मारे गए। जब घाव भर गए तो उसे लोहग बंदीखाने में भेज दिया गया।

वह छब्बीस वर्ष बंदीखाने में पड़ा रहा। उसके बाल पककर सन के से हो गए, कमर मोटी हो गई, देह घुल गई, सदैव उदास रहता। न कभी हँसता, न बोलता, परंतु भगवान का भजन नित्य किया करता था।

amol
11-11-2012, 04:49 PM
वहाँ उसने दरी बुनने का काम सीखकर कुछ रुपया जमा किया और भक्तमाल मोल ले ली। दिन भर काम करने के बाद साँझ को जब तक सूरज का प्रकाश रहता, वह पुस्तक का पाठ करता और इतवार के दिन बंदीखाने के निकट वाले मंदिर में जाकर पूजापाठ भी कर लेता था। जेल के कर्मचारी उसे सुशील जानकर उसका मान करते थे। कैदी लोग उसे बू़्ढ़े बाबा अथवा महात्मा कहकर पुकारा करते थे। कैदियों को जब कभी कोई अर्जी भेजनी होती, तो वे उसे अपना मुखिया बनाते और अपने झगड़े भी उसी से चुकाया करते।

उसे घर का कोई समाचार न मिलता था। उसे यह भी न मालूम था कि स्त्री-बालक जीते हैं या मर गए।

एक दिन कुछ नए कैदी आए। संध्या समय पुराने कैदी उनके पास आकर पूछने लगे कि भाई, तुम कहाँ से आए हो और तुमने क्या क्या अपराध किए हैं ? भागीरथ उदास बैठा सुनता रहा। नए कैदियों में एक साठ वर्ष का हट्टा-कट्टा आदमी, जिसके दाढ़ी-बाल खूब छंटे हुए थे, अपनी रामकहानी यों सुना रहा था !

'भाइयो, मेरे मित्र का घोड़ा एक पेड़ से बंधा हुआ था। मुझे घर जाने की जल्दी पड़ी हुई थी। मैं उस घोड़े पर सवार होकर चला गया। वहाँ जाकर मैंने घोड़ा छोड़ दिया। मित्र कहीं चला गया था। पुलिस वालों ने चोर ठहराकर मुझे पकड़ लिया। यद्यपि कोई यह नहीं बतला सका कि मैंने किसका घोड़ा चुराया और कहाँ से, फिर भी चोरी के अपराध में मुझे यहाँ भेज दिया है। इससे पहले एक बार मैंने ऐसा अपराध किया था कि मैं लोहग में भेजे जाने लायक था, परंतु मुझे उस समय कोई नहीं पकड़ सका। अब बिना अपराध ही यहाँ भेज दिया गया हूँ।
एक कैदी- तुम कहाँ से आए हो?

amol
11-11-2012, 04:50 PM
नया कैदी- दिल्ली से। मेरा नाम बलदेव सिंह है।

भागीरथ- भला बलदेव सिंह, तुम्हें भागीरथ के घर वालों का कुछ हाल मालूम है, जीते हैं कि मर गए?

बलदेव- जानना क्या? मैं उन्हें भलीभाँति जानता हूँ। अच्छे मालदार हैं। हाँ उनका पिता यहीं कहीं कैद है। मेरे ही जैसा अपराध उनका भी था। बू़ढ़े बाबा, तुम यहाँ कैसे आए?

भगीरथ अपनी विपत्ति-कथा न कही। केवल हाय कहकर बोला- मैं अपने पापों के कारण छब्बीस वर्ष से यहाँ पड़ा सड़ रहा हूँ।

बलदेव- क्या पाप, मैं भी सुनूं?

भागीरथ- भाई, जाने दो, पापों का फल अवश्य भोगना पड़ता है।

वह और कुछ न कहना चाहता था, परंतु दूसरे कैदियों ने बलदेव को सारा हाल कह सुनाया कि वह एक सौदागर का वध करने के अपराध में यहाँ कैद है। बलदेव ने यह हाल सुना तो भागीरथ को ध्यान से देखने लगा। घुटने पर हाथ मारकर बोला- वाह वाह, बड़ा अचरज है! लेकिन दादा, तुम तो बिल्कुल बूढ़े हो गए।

दूसरे कैदी बलदेव से पूछने लगे कि तुम भागीरथ को देखकर चकित क्यों हुए, तुमने क्या पहले कहीं उसे देखा है? परंतु बलदेव ने उत्तर नहीं दिया।

भागीरथ के चित्त में यह संशय उत्पन्न हुआ कि शायद बलदेव रामपुरी सौदागर के असली मारने वाले को जानता है। बोला- बलदेव सिंह, क्या तुमने यह बात सुनी है और मुझे भी पहले कहीं देखा है।

बलदेव- वह बातें तो सारे संसार में फैल रही हैं। मैं किस तरह न सुनता; बहुत दिन बीत गए, मुझे कुछ याद नहीं रहा।

भागीरथ- तुम्हें मालूम है कि उस सौदागर को किसने मारा था?

बलदेव- (हँसकर) जिसके थैले में छुरा निकला, वही उसका मारने वाला। यदि किसी ने थैले में छुरा छिपा भी दिया हो, तो जब तक कोई पकड़ा न जाए, उसे चोर कौन कह सकता है? थैला तुम्हारे सिरहाने धरा था। यदि कोई दूसरा पास आकर छुरा थैले में छिपाता तो तुम अवश्य जाग उठते।

amol
11-11-2012, 04:50 PM
यह बातें सुनकर भागीरथ को निश्चय हो गया कि सौदागर को इसी ने मारा है। वह उठकर वहाँ से चल दिया, पर सारी रात जागता रहा। दुःख से उसका चित्त व्याकुल हो रहा था। उसे अनेक प्रकार की बातें याद आने लगीं। पहले स्त्री की उस समय की सूरत दिखाई दी जब वह उसे मेले जाने को मना कर रही थी। सामने ऐसा जान पड़ा कि वह खड़ी है। उसकी बोली और हँसी तक सुनाई दी। फिर बालक दिखाई पड़े, फिर युवावस्था की याद आई, कितना प्रसन्नचित्त था, कैसा आनंद से द्वार पर बैठा सितार बजाया करता था। फिर वह सराय दिखाई दी, जहाँ वह पकड़ा गया था। तब वह जगह सामने आई, जहाँ उस पर कोड़े लगे थे। फिर बेड़ी और बंदीखाना, फिर बु़ढ़ापा और छब्बीस वर्ष का दुःख। यह सब बातें उसकी आँखों में फिरने लगीं। वह इतना दुःखी हुआ कि जी में आया कि अभी प्राण दे दूँ।

amol
11-11-2012, 04:50 PM
'हाय, इस बलदेव चंडाल ने यह क्या किया! मैं तो अपना सर्वनाश करके भी इससे बदला अवश्य लूँगा।'

सारी रात भजन करने पर भी उसे शांति नहीं हुई। दिन में उसने बलदेव को देखा तक नहीं। पंद्रह दिन बीत गए, भागीरथ की यह दशा थी कि न रात को नींद, न दिन को चैन। क्रोधाग्नि में जल रहा था।

एक रात वह जेलखाने में टहल रहा था कि उसने कैदियों के सोने के चबूतरे के नीचे से मिट्टी गिरते देखी। वह वहीं ठहर गया कि देखूँ मिट्टी कहाँ से आ रही है। सहसा बलदेव चबूतरे के नीचे से निकल आया और भय से काँपने लगा। भागीरथ आँखें मूँदकर आगे जाना चाहता था कि बलदेव ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोला- देखो, मैंने जूतों में मिट्टी भर के बाहर फेंककर यह सुरंग लगाई है, चुप रहना। मैं तुमको यहाँ से भगा देता हूँ। यदि शोर करोगे तो जेल के अफसर मुझे जान से मार डालेंगे, परंतु याद रखो कि तुम्हें मारकर मरुँगा, यों नहीं मरता।

भागीरथ अपने शत्रु को देखकर क्रोध से काँप उठा और हाथ छुड़ाकर बोला- मुझे भागने की इच्छा नहीं, और मुझे मारे तो तुम्हें छब्बीस वर्ष हो चुके। रही यह हाल प्रकट करने की बात, जैसी परमात्मा की आज्ञा होगी, वैसा होगा।

amol
11-11-2012, 04:51 PM
अगले दिन जब कैदी बाहर काम करने गए तो पहरे वालों ने सुरंग की मिट्टी बाहर पड़ी देख ली। खोज लगाने पर सुरंग का पता चल गया। हाकिम सब कैदियों से पूछने लगे। किसी ने न बतलाया, क्योंकि वे जानते थे कि यदि बतला दिया तो बलदेव मारा जाएगा। अफसर भागीरथ को सत्यवादी जानते थे, उससे पूछने लगे- बूढ़े बाबा, तुम सच्चे आदमी हो; सच बताओ कि यह सुरंग किसने लगाई है?

बलदेव पास ही ऐसे खड़ा था कि कुछ जानता ही नहीं। भागीरथ के होंठ और हाथ काँप रहे थे। चुपचाप विचार करने लगा कि जिसने मेरा सारा जीवन नाश कर दिया, उसे क्यों छिपाऊँ? दुःख का बदला दुःख उसे अवश्य भोगना चाहिए, परंतु बतला देने पर फिर वह बच नहीं सकता। शायद यह सब मेरा भरम मात्र हो, सौदागर को किसी और ने ही मारा हो। यदि इसने ही मारा तो इसे मरवा देने से मुझे क्या लाभ होगा?

अफसर- बाबा, चुप क्यों हो गए? बतलाते क्यों नहीं?

भागीरथ- मैं कुछ नहीं बतला सकता, आप जो चाहें सो करें।

हाकिम ने बार-बार पूछा, परंतु भागीरथ ने कुछ भी नहीं बतलाया। बात टल गई।

उसी रात भागीरथ जब अपनी कोठरी में लेटा हुआ था, बलदेव चुपके से भीतर आकर बैठ गया। भागीरथ ने देखा और कहा- बलदेव सिंह, अब और क्या चाहते हो? यहाँ तुम क्यों आए?
बलदेव चुप रहा।

भागीरथ- तुम क्या चाहते हो? यहाँ से चले जाओ, नहीं तो मैं पहरे वाले को बुला लूँगा।

amol
11-11-2012, 04:51 PM
बलदेव- (पाँव पर पड़कर) भागीरथ, मुझे क्षमा करो, क्षमा करो।

भागीरथ- क्यों?

बलदेव- मैंने ही उस सौदागर को मारकर छुरा तुम्हारे थैले में छिपाया था। मैं तुम्हें भी मारना चाहता था। परंतु बाहर से आहट हो गई, मैं छुरा थैले में रखकर भाग निकला।

भागीरथ चुप हो गया, कुछ नहीं बोला।

बलदेव- भाई भागीरथ, भगवान के वास्ते मुझ पर दया करो, मुझे क्षमा करो। मैं कल अपना अपराध अंगीकार कर लूँगा। तुम छूटकर अपने घर चले जाओगे।

भागीरथ- बातें बनाना सहज है। छब्बीस वर्ष के इस दुःख को देखो, अब मैं कहाँ जा सकता हूँ? स्त्री मर गई, लड़के भूल गए, अब तो मेरा कहीं ठिकाना नहीं है।

बलदेव धरती से माथा फोड़, रो-रो कर कहने लगा- मुझे कोड़े लगने पर भी इतना कष्ट नहीं हुआ था, जो अब तुम्हें देखकर हो रहा है। तुमने दया करके सुरंग की बात नहीं बतलाई। क्षमा करो, क्षमा करो, मैं अत्यंत दुःखी हो रहा हूँ!

यह कह बलदेव धाड़ मारकर रोने लगा। भागीरथ के नेत्रों से भी जल की धारा बह निकली। बोला- पूर्ण परमात्मा, तुम पर दया करें, कौन जाने कि मैं अच्छा हूँ अथवा तुम अच्छे हो। मैंने तुम्हें क्षमा किया।

अगले दिन बलदेव सिंह ने स्वयं कर्मचारियों के पास जाकर सारा हाल सुनाकर अपना अपराध मान लिया, परंतु भागीरथ को छोड़ देने का जब परवाना आया, तो उसका देहांत हो चुका था।

amol
11-11-2012, 04:52 PM
दो वृद्ध पुरुष
लिओ तोलस्तॉय
अनुवाद - प्रेमचंद

amol
11-11-2012, 04:53 PM
एक गांव में अजुर्न और मोहन नाम के दो किसान रहते थे। अजुर्न धनी था, मोहन साधारण पुरुष था। उन्होंने चिरकाल से बद्रीनारायण की यात्रा का इरादा कर रखा था।
अजुर्न बड़ा सुशील, सहासी और दृ़ था। दो बार गांव का चौधरी रहकर उसने बड़ा अच्छा काम किया था। उसके दो लड़के तथा एक पोता था। उसकी साठ वर्ष की अवस्था थी, परन्तु दा़ी अभी तक नहीं पकी थी।
मोहन परसन्न बदन, दयालु और मिलनसार था। उसके दो पुत्र थे, एक घर में था, दूसरा बाहर नौकरी पर गया हुआ था। वह खुद घर में बैठाबैठा ब़ई का काम करता था।
बद्रीनारायण की यात्रा का संकल्प किए उन्हें बहुत दिन हो चुके थे। अजुर्न को छुट्टी ही नहीं मिलती थी। एक काम समाप्त होता था कि दूसरा आकर घेर लेता था। पहले पोते का ब्याह करना था, फिर छोटे लड़के का गौना आ गया, इसके पीछे मकान बनना परारम्भ हो गया। एक दिन बाहर लकड़ी पर बैठकर दोनों बू़ों में बातें होने लगी।
मोहन-क्यों भाई, अब यात्रा करने का विचार कब है?

amol
11-11-2012, 04:53 PM
अजुर्न-जरा ठहरो। अब की वर्ष अच्छा नहीं लगा। मैंने यह समझा था कि सौ रुपये में मकान तैयार हो जाएगा। तीन सौ रुपये लगा चुके हैं अभी दिल्ली दूर है। अगले वर्ष चलेंगे।
मोहन-शुभ कार्य में देरी करना अच्छा नहीं होता। मेरे विचार में तो तुरंत चल देना ही उचित है, दिन बहुत अच्छे हैं।
अजुर्न-दिन तो अच्छे हैं, पर मकान को क्या करुं! इसे किस पर छोडूं?
मोहन-क्या कोई संभालने वाला ही नहीं, बड़े लड़के को सौंप दो।
अजुर्न-उसका क्या भरोसा है।
मोहन-वाहवाह, भला बताओ तो कि मरने पर कौन संभालेगा? इससे तो यह अच्छा है कि जीतेजी संभाल लें। और तुम सुख से जीवन व्यतीत करो।
अजुर्न-यह सत्य है, पर किसी काम में हाथ लगाकर उसे पूरा करने की इच्छा सभी की होती है।

amol
11-11-2012, 04:53 PM
मोहन-तो काम कभी पूरा नहीं होता, कुछ न कुछ कसर रह ही जाती है। कल ही की बात है कि रामनवमी के लिए स्त्रियां कई दिन से तैयारी कर रही थीं-कहीं लिपाई होती थी, कहीं आटा पीसा जाता था। इतने में रामनवमी आ पहुंची। बहू बोली, परमेश्वर की बड़ी कृपा है कि त्योहार बिना बुलाए ही आ जाते हैं, नहीं तो हम अपनी तैयारी ही करती रहें।
अजुर्न-एक बात और है, इस मकान पर मेरा बहुत रुपया खर्च हो गया है। इस समय रुपये का भी तोड़ा है। कमसे-कम सौ रुपये तो हों, नहीं तो यात्रा कैसे होगी।
मोहन-(हंसकर) अहा हा! जो जितना धनवान होता है, वह उतना ही कंगाल होता है तुम और रुपये की चिंता! जाने दो। मैं सच कहता हूं, इस समय मेरे पास एक सौ रुपये भी नहीं, परन्तु जब चलने का निश्चय हो जायेगा, तो रुपया भी कहीं न कहीं से अवश्य आ ही जाएगा। बस, यह बतलाओ कि चलना कब है?
अजुर्न-तुमने रुपये जोड़ रखे होंगे, नहीं तो कहां से आ जाएगा, बताओ तो सही।
मोहन-कुछ घर में से, कुछ माल बेचकर। पड़ोसी कुछ चौखट आदि मोल लेना चाहता है, उसे सस्ती दे दूंगा।
अजुर्न-सस्ती बेचने पर पछतावा होगा।
मोहन-मैं सिवाय पाप के और किसी बात पर नहीं पछताता। आत्मा से कौन चीज़ प्यारी है!
अजुर्न-यह सब ठीक है, परन्तु घर के कामकाज बिसराना भी उचित नहीं।
मोहन-और आत्मा को बिसारना तो और भी बुरा है। जब कोई बात मन में ठान ली तो उसे बिना पूरा किए न छोड़ना चाहिए।

amol
11-11-2012, 04:53 PM
अन्त में चलना निश्चय हो गया। चार दिन पीछे जब विदा होने का समय आया, तो अजुर्न बड़े लड़के को समझाने लगा कि मकान पर छत इस परकार डालना, भूसी बखार में इस भांति जमा कर देना, मंडी में जाकर अनाज इस भाव से बेचना, रुपये संभालकर रखना, ऐसा न हो खो जावें, घर का परबन्ध ऐसा रखना कि किसी परकार की हानि न होने पावे। उसका समझाना समाप्त ही न होता था।
इसके परतिकूल मोहन ने अपनी स्त्री से केवल इतना ही कहा कि तुम चतुर हो, सावधानी से काम करती रहना।
मोहन तो घर से परसन्न मुख बाहर निकला और गांव छोड़ते ही घर के सारे बखेड़े भूल गया। साथी को परसन्न रखना, सुखपूर्वक यात्रा कर घर लौट आना उसका मन्तव्य था। राह चलता था तो ईश्वरसम्बन्धी कोई भजन गाता था या किसी महापुरुष की कथा कहता। सड़क पर अथवा सराय में जिस किसी से भेंट हो जाती, उससे बड़ी नमरता से बोलता।
अजुर्न भी चुपकेचुपके चल तो रहा था, परन्तु उसका चित्त व्याकुल था। सदैव घर की चिंता लगी रहती थी। लड़का अनजान है, कौन जाने क्या कर बैठे। अमुक बात कहना भूल आया। ओहो, देखू, मकान की छत पड़ती है या नहीं। यही विचार उसे हरदम घेरे रहते थे यहां तक कि कभीकभी लौट जाने को तैयार हो जाता था।

amol
11-11-2012, 04:54 PM
चलतेचलते एक महीना पीछे वे पहाड़ पर पहुंच गए। पहाड़ी बड़े अतिथिसेवक होते हैं अब तक यह मोल का अन्न खाते रहे थे। अब उनकी खातिरदारी होने लगी।
आगे चलकर वे ऐसे देश में पहुंचे, जहां दुर्घट अकाल पड़ा हुआ था। खेतियां सब सूख गई थीं, अनाज का एक दाना भी नहीं उगा था। धनवान कंगाल हो गए थे धनहीन देश को छोड़कर भीख मांगने बाहर भाग गए थे।
यहां उन्हें कुछ कष्ट हुआ, अन्न कम मिलता था और वह भी बड़ा महंगा। रात को उन्होंने एक जगह विश्राम किया। अगले दिन चलतेचलते एक गांव मिला। गांव के बाहर एक झोंपड़ा था। मोहन थक गया था, बोला-मुझे प्यास लगी है। तुम चलो, मैं इस झोंपड़े से पानी पीकर अभी तुम्हें आ मिलता हूं। अजुर्न बोला-अच्छा, पी आओ। मैं धीरेधीरे चलता हूं।
झोंपड़े के पास जाकर मोहन ने देखा कि उसके आगे धूप में एक मनुष्य पड़ा है। मोहन ने उससे पानी मांगा, उसने कोई उत्तर नहीं दिया। मोहन ने समझा कि कोई रोगी है।
समीप जाने पर झोंपड़े के भीतर एक बालक के रोने का शब्द सुनायी दिया। किवाड़ खुले हुए थे। वह भीतर चला गया।

amol
11-11-2012, 04:54 PM
उसने देखा कि नंगे सिर केवल एक चादर ओ़े एक बुयि धरती पर बैठी है, पास में भूख का मारा हुआ एक बालक बैठा रोटी, रोटी, पुकार रहा है। चूल्हे के पास एक स्त्री तड़प रही है, उसकी आंखें बन्द हैं, कंठ रुका हुआ है।
मोहन को देखकर बुयि ने पूछा-तुम कौन हो? क्या मांगते हो? हमारे पास कुछ नहीं हैं।
मोहन-मुझे प्यास लगी है, पानी मांगता हूं।
बुयि-यहां न बर्तन है, न कोई लाने वाला। यहां कुछ नहीं। जाओ, अपनी राह लो।
मोहन-क्या तुममें से कोई उस स्त्री की सेवा नहीं कर सकता?
बुयि-कोई नहीं। बाहर मेरा लड़का भूख से मर रहा है, यहां हम भूख से मर रहे हैं।
यह बातें हो ही रही थीं कि बाहर से वह मनुष्य भी गिरतापड़ता भीतर आया और बोला-काल और रोग दोनों ने हमें मार डाला। यह बालक कई दिन से भूखा है क्या करुं-यह कहकर रोने लगा और उसकी हिचकी बंध गई।
मोहन ने तुरन्त अपने थैले में से रोटी निकालकर उनके आगे रख दी।

amol
11-11-2012, 04:54 PM
बुयि बोली-इनके कंठ सूख गए हैं, बाहर से पानी ले आओ। मोहन बुयि से कुएं का पता पूछकर बाहर गया और पानी ले आया। सबने रोटी खाकर पानी पिया, परन्तु चूल्ळें के पास वाली स्त्री पड़ी तड़पती रही। मोहन गांव में जाकर कुछ दाल, चावल मोल ले आया और खिचड़ी पाकर सबको खिलायी।
तब बुयि बोली-भाई, क्या सुनाऊं, निर्धन तो हम पहले ही थे, उस पर पड़ा अकाल। हमारी और भी दुर्गति हो गई। पहलेपहल तो पड़ोसी अन्न उधार देते रहे, परन्तु वे क्या करते। वे आप भूखों मरने लगे, हमें कहां से देते।
मनुष्य ने कहा-मैं मजूरी करने निकला, दोतीन दिन तो कुछ मिला, फिर किसी ने नौकर न रखा बुयि और लड़की भीख मांगने लगीं। अन्न का अकाल था, कोई भीख भी न देता था। बहुतेरे यत्न किए, कुछ न बन सका। भूख के मारे घास खाने लगे, इसी कारण यह मेरी स्त्री चूल्हे के पास पड़ी तड़प रही है।
बुयि-पहले कई दिनों तक तो मैं चलफिरकर कुछ धंधा करती रही, परन्तु कहां तक? भूख और रोग ने जान ले ली। जो हाल है, तुम अपने नेत्रों से देख रहे हो।
उनकी बिथा सुनकर मोहन ने विचारा कि आज रात यहीं रहना उचित हैं साथी से कल मिल लेंगे।

amol
11-11-2012, 04:54 PM
परातःकाल उठकर वह गांव में गया और खानेपीने की जिन्स ले आया। घर में कुछ न था। वह वहां ठहरकर इस तरह काम करने लगा कि मानो अपना ही घर है। दोतीन दिन पीछे सब चलनेफिरने लगे और वह स्त्री उठ बैठी।
चौथे दिन एकादशी थी। मोहन ने विचारा कि आज सन्ध्या को इन सबके साथ बैठकर फलाहार करके कल परातःकाल चल दूंगा।
वह गांव में जाकर दूध, फल सब सामगरी लाकर बुयि को दे, आप पूजापाठ करने मन्दिर में चला गया। इन लोगों ने अपनी जमीन एक जमींदार के यहां गिरवी रखकर अकाल के समय अपना निवार्ह किया था। मोहन जब मन्दिर गया, तब किसान युवक जमींदार के पास पहुंचा और विनयपूर्वक बोला-चौधरी जी, इस समय रुपये देकर खेत छुड़ाना मेरे काबू के बाहर है। यदि आप इस चौमासे में मुझे खेत बोने की आज्ञा दे दें, तो मेहनतमजदूरी करके आपका ऋण चुका दे सकता हूं।
परन्तु चौधरी कब मानता था? वह बोला-बिना रुपये दिए खेत नहीं बो सकते जाओ, अपना काम करो। वह निराश होकर घर लौट आया। इतने में मोहन भी पहुंच गया। जमींदार की बात सुनकर वह मन में विचार करने लगा कि जब यह जमींदार खेत नहीं बोने देता, तो इन किसानों की पराणरक्षा क्या करेगा! यदि मैं इन्हें इसी दशा में छोड़कर चल दिया, तो यह सब काल के कौर बन जायेंगे कल नहीं परसों जाऊंगा।

amol
11-11-2012, 04:55 PM
मोहन अब बड़ी दुविधा में पड़ा था। न रहते ही बनता था, न जाते ही बनता था। रात को पड़ापड़ा सोचने लगा, यह तो अच्छा बखेड़ा फैला। पहले अन्नपानी, अब खेत छुड़ाना, फिर गाय और बैलों की जोड़ी मोल लेना। मोहन तुम किस जंजाल में फंस गए?
जी चाहता था कि वह उन्हें ऐसे ही छोड़कर चल दे, परन्तु दया जाने न देती थी। सोचतेसोचते आंख लग गई। स्वप्न में देखता क्या है कि वह जाना चाहता है, किसी ने उसे पकड़ लिया है। लौटकर देखा तो बालक रोटी मांग रहा है। वह तुरन्त उठ बैठा और मन में कहने लगा-नहीं, अब मैं नहीं जाता। यह स्वप्न शिक्षा देता है कि मुझे इनका खेत छुड़ाना, गायबैल मोल लेना और सारा परबन्ध करके जाना उचित है।
परातःकाल उठकर जमींदार के पास गया और रुपया देकर उनका खेत छुड़ा दिया। जब एक किसान से एक गाय और दो बैल मोल लेकर लौट रहा था कि राह में स्त्रियों को बातें करते सुना।
'बहन, पहले तो हम उसे साधारण मनुष्य जानते थे। वह केवल पानी पीने आया था, पर अब सुना है कि खेत छुड़ाने और गायबैल मोल लेने गया है। ऐसे महात्मा के दर्शन करने चाहिए।' मोहन अपनी स्तुति सुनकर वहां से टल गया। गायबैल लेकर जब झोंपड़े पर पहुंचा तो किसान ने पूछा-पिताजी, यह कहां से लाये?
मोहन-अमुक किसान से यह बड़े सस्ते मिल गए हैं। जाओ, पशुशाला में बांधकर इनके आगे कुछ भूसा डाल दो।
उसी रात जब सब सो गए, तो मोहन चुपके से उठकर घर से बाहर निकल बद्रीनारायण की राह ली।

amol
11-11-2012, 04:55 PM
तीन मील चलकर मोहन एक वृक्ष के नीचे बैठकर बटुआ निकाल, रुपये गिनने लगा तो थोड़े ही रुपये बाकी थे। उसने सोचा-
इतने रुपयों में बद्रीनाराण पहुंचना असम्भव है, भीख मांगना पाप है। अजुर्न वहां अवश्य पहुंचेगा और आशा है कि मेरे नाम पर कुछ च़ावा भी च़ा ही देगा। मैं तो अब इस जीवन में यह यात्रा करने का संकल्प पूरा नहीं कर सकता। अच्छा, परमात्मा की इच्छा, वह बड़ा दयालु है। मुझजैसे पापियों को निस्संदेह क्षमा कर देगा।
यह विचार करके गांव का चक्कर काटकर कि कोई देख न ले, वह घर की ओर लौट पड़ा।
गांव में पहुंचा जाने पर घर वाले उसे देखकर अति परसन्न हुए और पूछने लगे कि लौट क्यों आये? मोहन ने यही उत्तर दिया कि अजुर्न से साथ छूट गया और रुपये चोरी हो गए, इस कारण लौट आना पड़ा। घर में कुशलक्षेम थी। कोई कष्ट न था।
मोहन का आना सुनकर अजुर्न के घर वाले उससे पूछने लगे कि अजुर्न को कहां छोड़ा उनसे भी उसने यही कहा कि बद्रीनारायण पहुंचने से तीन दिन पहले मैं अजुर्न से पिछड़ गया, रुपया किसी ने चुरा लिया, बद्रीनारायण जाना असम्भव था, मुझे लौटना ही पड़ा।
सब लोग मोहन की बुद्धि पर हंसने लगे कि बद्रीनारायण पहुंचा ही नहीं, रास्ते में रुपये खो दिए। मोहन घर के धंधे में लग गया, बात बीत गई।

amol
11-11-2012, 04:55 PM
अब उधर का हाल सुनिए-
मोहन जब पानी पीने चला गया तब थोड़ी दूर जाकर अजुर्न बैठ गया और साथी की बाट देखने लगा। सन्ध्या हो गई, पर मोहन न आया।
अजुर्न सोचने लगा-क्या हुआ, साथी क्यों नहीं आया? मेरी आंखें लग गई थीं। कहीं आगे न निकल गया हो। पर यहां से जाता तो क्या दिखायी नहीं देता? पीछे लौटकर देखूं, कहीं आगे न चला गया हो, फिर तो मिलना ही असम्भव है। आगे ही चलो, रात को चट्टी पर अवश्य भेंट हो जाएगी।
रास्ते में अजुर्न ने कई मनुष्यों से पूछा कि तुमने कोई नाटा, सांवले रंग का आदमी देखा है? परन्तु कुछ पता न चला। रात चट्टी पर भी मोहन से भेंट न हुई। अगले दिन यह विचार कर कि वह देवपरयाग पर अवश्य मिल जाएगा, वह आगे चल दिया।
रास्ते में अजुर्न को एक साधु मिल गया। वह जगन्नाथ की यात्रा करके आया था। अब दूसरी बार बद्रीनारायण के दर्शन को जा रहा था। रात को चट्टी में वे दोनों इकट्ठे ही रहे और फिर एक साथ यात्रा करने लगे।
देवपरयाग में पहुंचकर अजुर्न ने मोहन के विषय में पंडे से बहुत पूछताछ की, कुछ पता न चला। यहां सब यात्री एकत्र हो गए। देवपरयाग से आगे चलकर सब लोग रात को एक चट्टी में ठहरे। वहां मूसलाधार मेंह बरसने लगा। बिजली की कड़क, बादल की गरज से सब कांप गए। सारी रात जागते कटी। त्राहित्राहि करते दिन निकला।
अन्त को दोपहर के समय सब लोग बद्रीनारायण पहुंच गए। पंडे देवपरयाग से ही साथ हो लिये थे। बद्रीनारायण में यही रीति है कि पहले दिन यात्रियों को मन्दिर की ओर से भोजन कराया जाता है और उसी दिन यात्रियों को अटका अथवा च़ावा बतला देना पड़ता है कि कौन कितना च़ाएगा, कम से कम सवा रुपया नियत है। उस समय तो सबने पंडों के घरों में जाकर विश्राम किया। दूसरे दिन परातःकाल उठकर दर्शनपरसन में लग गए। अजुर्न और साधु एक ही स्थान में टिके थे। सांझ की आरती के दर्शन करके लौटकर जब घर आये, तब साधु बोला कि मेरा तो किसी ने रुपये का बटुआ निकाल लिया।

amol
11-11-2012, 04:55 PM
अजुर्न के मन में यह पाप उत्पन्न हुआ कि यह साधु झूठा है। किसी ने इसका रुपया नहीं चुराया। इसके पास रुपया था ही नहीं।
लेकिन तुरन्त ही उसको पश्चाताप हुआ कि किसी पुरुष के विषय में ऐसी कल्पना करना महापाप है। उसने मन को बहुतेरा समझाया, परंतु उसका ध्यान साधु में ही लगा रहा। पवित्र स्थान में रहने पर भी चित्त की मलिनता दूर नहीं हुई। इतने में शयन की आरती का घंटा बजा। दोनों दर्शनार्थ मन्दिर में चले गए। भीड़ बहुत थी, अजुर्न नेत्र मूंदकर भगवान की स्तुति करने लगा, परंतु हाथ बटुए पर था, क्योंकि साधु के रुपये खो जाने से संस्कार चित्त में पड़े हुए थे। अन्तःकरण का शुद्ध हो जाना क्या कोई सहज बात है!

amol
11-11-2012, 04:56 PM
स्तुति समाप्त करके नेत्र खोलकर अजुर्न जब भगवान के दर्शन करने लगा, तब देखता क्या है कि मूर्ति के अति समीप मोहन खड़ा है। ऐ-मोहन! नहींनहीं, मोहन यहां कैसे पहुंच सकता है? सारे रास्ते तो ढूँढता आया हूं।
मोहन को साष्टांग दण्डवत करते देखकर अजुर्न को निश्चय हो गया कि मोहन ही है। स्यात किसी दूसरी राह से यहां आ पहुंचा है। चलो, अच्छा हुआ, साथी तो मिल गया।
आरती हो गई। यात्री बाहर निकलने लगे। अजुर्न का हाथ बटुए पर था कि कोई रुपये न चुरा ले। वह मोहन को खोजने लगा, पर उसका कहीं पता नहीं चला।
दूसरे दिन परातःकाल मन्दिर में जाने पर अजुर्न ने फिर देखा कि मोहन हाथ जोड़े भगवान के सम्मुख खड़ा है। वह चाहता था कि आगे ब़कर मोहन को पकड़ ले, परन्तु ज्योंही वह आगे ब़ा, मोहन लोप हो गया।
तीसरे दिन भी अजुर्न को वही दृश्य दिखाई दिया। उसने विचारा कि चलकर द्वार पर खड़े हो जाओ। सब यात्री वहीं से निकलेंगे, वहीं मोहन को पकड़ लूंगा। अतएव उसने ऐसा ही किया, लेकिन सब यात्री निकल गए, मोहन का कहीं पता ही नहीं।
एक सप्ताह बद्रीनारायण में निवास करके अजुर्न घर लौट पड़ा।

amol
11-11-2012, 04:56 PM
राह चलते अजुर्न के चित्त में वही पुराने घर के झमेले बारबार आने लगे। सालभर बहुत होता है। इतने दिनों में घर की दशा न जाने क्या हुई हो। कहावत है-छाते लगे छः मास और छिन में होय उजाड़। कौन जाने लड़के ने क्या कर छोड़ा हो? फसल कैसी हो? पशुओं का पालनपोषण हुआ है कि नहीं?
चलतेचलते अजुर्न जब उस झोपड़े के पास पहुंचा, जहां मोहन पानी पीने गया था, तो भीतर से एक लड़की ने आकर उसका कुरता पकड़ लिया और बोली-बाबा, बाबा भीतर चलो।
अजुर्न कुरता छुड़ाकर जाना चाहता था कि भीतर से एक स्त्री बोली-महाशय! भोजन करके रात्रि को यहीं विश्राम कीजिए। कल चले जाना। वह अंदर चला गया और सोचने लगा कि मोहन यहीं पानी पीने आया था। स्यात इन लोगों से उसका कुछ पता चल जाए।
स्त्री ने अजुर्न के हाथपैर धुलाकर भोजन परस दिया। अजुर्न उसको आशीष देने लगा।
स्त्री बोली-दादा, हम अतिथिसेवा करना क्या जानें? यह सब कुछ हमें एक यात्री ने सिखाया है। हम परमात्मा को भूल गए थे। हमारी यह दशा हो गई थी कि यदि वह बू़ा यात्री न आता तो हम सबके-सब मर जाते। वह यहां पानी पीने आया था। हमारी दुर्दशा देखकर यहीं ठहर गया। हमारा खेत रेहन पड़ा था, वह छुड़ा दिया। गायबैल मोल ले दिए और सामगरी जुटाकर एक दिन न जाने कहां चला गया।
इतने में एक बुयि आ गई और यह बात सुनकर बोल उठी-वह मनुष्य नहीं था, साक्षात देवता था। उसने हमारे ऊपर दया की, हमारा उद्घार कर दिया, नहीं तो हम मर गए होते वह पानी मांगने आया। मैंने कहा, जाओ, यहां पानी नहीं। जब मैं वह बात स्मरण करती हूं, तो मेरा शरीर कांप उठता है।
छोटी लड़की बोल उठी-उसने अपनी कांवर खोली और उसमें से लोटा निकाला कुएं की ओर चला।
इस तरह सबके-सब मोहन की चचार करने लगे। रात को किसान भी आ पहुंचा और वही चचार करने लगा-निस्संदेह उस यात्री ने हमें जीवनदान दिया। हम जान गए कि परमेश्वर क्या है और परोपकार क्या। वह हमें पशुओं से मनुष्य बना गया।

amol
11-11-2012, 04:56 PM
अजुर्न ने अब समझा कि बद्रीनारायण के मंदिर में मोहन के दिखायी देने का कारण क्या था। उसे निश्चय हो गया कि मोहन की यात्रा सफल हुई।
कुछ दिनों पीछे अजुर्न घर पहुंच गया। लड़का शराब पीकर मस्त पड़ा था। घर का हाल सब गड़बड़ था। अजुर्न लड़के को डांटने लगा। लड़के ने कहा-तो यात्रा पर जाने को किसने कहा था? न जाते। इस पर अजुर्न ने उसके मुंह पर तमाचा मारा।
दूसरे दिन अजुर्न जब चौधरी से मिलने जा रहा था, तो राह में मोहन की स्त्री मिल गई।
स्त्री-भाई जी, कुशल से तो हो? बद्रीनारायण हो आये?
अजुर्न-हां, हो आया। मोहन मुझसे रास्ते में बिछुड़ गए थे। कहो, वह कुशल से घर तो पहुंच गए?
स्त्री-उन्हें आये तो कई महीने हो गए। उनके बिना हम सब उदास रहा करते थे। लड़के को तो घर काटे खाता था। स्वामी बिना घर सूना होता है।
अजुर्न-घर में हैं कि कहीं बाहर गये हैं?
स्त्री-नहीं, घर में हैं।
अजुर्न भीतर चला गया और मोहन से बोला-रामराम, भैया मोहन, रामराम!
मोहन-राम-राम! आओ भाई! कहो, दर्शन कर आये!
अजुर्न-हां, कर तो आया, पर मैं यह नहीं कह सकता कि यात्रा सफल हुई अथवा नहीं। लौटते समय मैं उस झोंपड़े में ठहरा था, जहां तुम पानी पीने गये थे।
मोहन ने बात टाल दी और अजुर्न भी चुप हो गया, परंतु उसे दृ़ विश्वास हो गया कि उत्तम तीर्थयात्रा यही है कि पुरुष जीवन पर्यन्त परत्येक पराणी के साथ परेमभाव रखकर सदैव उपकार में तत्पर रहे।

amol
11-11-2012, 04:57 PM
ध्रुवनिवासी रीछ का शिकार
लिओ तोलस्तॉय

अनुवाद - प्रेमचंद

amol
11-11-2012, 04:57 PM
हम एक दिन रीछ के शिकार को निकले। मेरे साथी ने एक रीछ पर गोली चलाई। वह गहरी नहीं लगी। रीछ भाग गया। बर्फ पर लहू के चिह्न बाकी रह गए।
हम एकत्र होकर यह विचार करने लगे कि तुरंत पीछा करना चाहिए या दो-तीन दिन ठहर कर उसके पीछे जाना चाहिए। किसानों से पूछने पर एक बूढ़ा बोला- तुरंत पीछा करना ठीक नहीं, रीछ को टिक जाने दो। पाँच दिन पीछे शायद वह मिल जाए। अभी पीछा करने पर तो वह डरकर भाग जाएगा।
इस पर एक दूसरा जवान बोला- नहीं-नहीं, हम आज ही रीछ को मार सकते हैं। वह बहुत मोटा है, दूर नहीं जा सकता। सूर्य अस्त होने से पहले कहीं न कहीं टिक जाएगा, नहीं तो मैं बर्फ पर चलने वाले जूते पहनकर ढूँढ़ निकालूँगा।
मेरा साथी तुरंत रीछ का पीछा करना नहीं चाहता था, पर मैंने कहा- झगड़ा करने से क्या मतलब। आप सब गाँव को जाइए। मैं और दुगार (मेरे सेवक का नाम) रीछ का पीछा करते हैं। मिल गया तो वाह वाह! दिन भर और करना ही क्या है?
और सब तो गाँव को चले गए, मैं और दुगार जंगल में रह गए। अब हम बंदूकें संभाल कर, कमर कस, रीछ के पीछे हो लिए।

amol
11-11-2012, 04:57 PM
रीछ का निशान दूर से दिखाई पड़ता था। प्रतीत होता था कि भागते समय कभी तो वह पेट तक बर्फ में धंस गया है, कभी बर्फ चीर कर निकला है। पहले-पहले तो हम उसकी खोज के पीछे बड़े-बड़े वृक्षों के नीचे चलते रहे, परंतु घना जंगल आ जाने पर दुगार बोला- अब यह राह छोड़ देनी चाहिए, वह यहीं कहीं बैठ गया है। धीरे-धीरे चलो, ऐसा न हो कि डर कर भाग जाए।
हम राह छोड़कर बाईं ओर लौट पड़े। पाँच सौ कदम जाने पर सामने वही चिह्न फिर दिखाई दिए। उसके पीछे चलते-चलते एक सड़क पर जा निकले। चिह्नों से जान पड़ता था कि रीछ गाँव की ओर गया है।
दुगार- महाराज, सड़क पर खोज लगाने से अब कोई लाभ नहीं। वह गाँव की ओर नहीं गया। आगे चलकर चिह्नों से पता लग जाएगा कि वह किस ओर गया है।
एक मील आगे जाने पर चिह्नों से ऐसा प्रकट होता था कि रीछ सड़क से जंगल की ओर नहीं, जंगल से सड़क की ओर आया है। उसकी उंगलियाँ सड़क की तरफ थीं। मैंने पूछा कि दुगार, क्या यह कोई दूसरा रीछ है?
दुगार- नहीं, यह वही रीछ है, उसने धोखा दिया है। आगे चलकर दुगार का कहना सत्य निकला, क्योंकि रीछ दस कदम सड़क की ओर आकर फिर जंगल की ओर लौट गया था।
दुगार- अब हम उसे अवश्य मार लेंगे। आगे दलदल है, वह वहीं जाकर बैठ गया है, चलिए।

amol
11-11-2012, 04:58 PM
हम दोनों आगे बढ़े। कभी तो मैं किसी झाड़ी में फँस जाता था, बर्फ पर चलने का अभ्यास न होने के कारण कभी जूता पैर से निकल जाता था। पसीने से भीग कर मैंने कोट कंधे पर डाल लिया, लेकिन दुगार बड़ी फुर्ती से चला जा रहा था। दो मील चलकर हम झील के उस पार पहुँच गए।
दुगार- देखो, सुनसान झाड़ी पर चिड़ियाँ बोल रही हैं, रीछ वहीं है। चिड़ियाँ रीछ की महक पा गई हैं।
हम वहाँ से हटकर आधा मील चले होंगे कि फिर रीछ का खुर दिखाई दिया। मुझे इतना पसीना आ गया कि मैंने साफा भी उतार दिया। दुगार को पसीना आ गया था।
दुगार- स्वामी, बहुत दौड़-धूप की, अब जरा विश्राम कर लीजिए।
संध्या हो चली थी। हम जूते उतार कर धरती पर बैठ गए और भोजन करने लगे। भूख के मारे रोटी ऐसी अच्छी लगी कि मैं कुछ कह नहीं सकता। मैंने दुगार से पूछा कि गाँव कितनी दूर है?
दुगार- कोई आठ मील होगा, हम आज ही वहाँ पहुँच जाएँगे। आप कोट पहन लें, ऐसा न हो सर्दी लग जाए।

amol
11-11-2012, 04:58 PM
दुगार ने बर्फ ठीक करके उस पर कुछ झाड़ियाँ बिछाकर मेरे लिए बिछौना तैयार कर दिया। मैं ऐसा बेसुध सोया कि इसका ध्यान ही न रहा कि कहाँ हूँ। जागकर देखता हूँ कि एक बड़ा भारी दीवानखाना बना हुआ है, उसमें बहुत से उजले चमकते हुए खंभा लगे हुए है, उसकी छत तवे की तरह काली है, उसमें रंगदार अनंत दीपक जगमगा रहे हैं। मैं चकित हो गया। परंतु तुरंत मुझे याद आई कि यह तो जंगल है, यहाँ दीवानखाना कहाँ? असल में श्वेत खंभे तो बर्फ से ढँके हुए वृक्ष थे, रंगदार दीपक उनकी पत्तियों में से चमकते हुए तारे थे।
बर्फ गिर रही थी, जंगल में सन्नाटा था। अचानक हमें किसी जानवर के दौड़ने की आहट मिली। हम समझे कि रीछ है, परंतु पास जाने पर मालूम हुआ कि जंगली खरहा है। हम गाँव की ओर चल दिए। बर्फ ने सारा जंगल श्वेत बना रखा था। वृक्षों की शाखाओं में से तारे चमकते और हमारा पीछा करते ऐसे दिखाई देते थे कि मानो सारा आकाश चलायमान हो रहा है।
जब हम गाँव पहुँचे तो मेरा साथी सो गया था। मैंने उसे जगाकर सारा वृत्तांत कह सुनाया और जमींदार से अगले दिन के लिए शिकारी एकत्र करने को कहा। भोजन करके सो रहे। मैं इतना थक गया था कि यदि मेरा साथी मुझे न जगाता, तो मैं दोपहर तक सोया पड़ा रहता। जागकर मैंने देखा कि साथी वस्त्र पहने तैयार है और अपनी बंदूक ठीक कर रहा है।
मैं- दुगार कहाँ है?

amol
11-11-2012, 04:58 PM
साथी- उसे गए देर हुई। वह कल के निशान पर शिकारियों को इकट्ठा करने गया है।
हम गाँव के बाहर निकले। धुंध के मारे सूर्य दिखाई न पड़ता था! दो मील चलकर धुआं दिखाई पड़ा। समीप जाकर देखा कि शिकारी आलू भून रहे हैं और आपस में बातें करते जाते हैं। दुगार भी वहीं था। हमारे पहुंचने पर वे सब उठ खड़े हुए। रीछ को घेरने के लिए दुगार उन सबको लेकर जंगल की ओर चल दिया। हम भी उसके पीछे हो लिए। आधा मील चलने पर दुगार ने कहा कि अब कहीं बैठ जाना उचित है। मेरे बाईं ओर ऊँचे-ऊँचे वृक्ष थे। सामने मनुष्य के बराबर ऊँची बर्फ से ढँकी हुई घनी झाड़ियाँ थीं, इनके बीच से होकर एक पगडंडी सीधी वहाँ पहुँचती थी, जहाँ मैं खड़ा हुआ था। दाईं ओर साफ मैदान था। वहाँ मेरा साथी बैठ गया।
मैंने अपनी दोनों बंदूकों को भली भाँति देखकर विचारा कि कहाँ खड़ा होना चाहिए। तीन कदम पीछे हटकर एक ऊँचा वृक्ष था। मैंने एक बंदूक भरकर तो उसके सहारे खड़ी कर दी, दूसरी घोड़ा चाकर हाथ में ले ली। म्यान से तलवार निकाल कर देख ही रहा था कि अचानक जंगल में से दुगार का शब्द सुनाई दिया- "वह उठा, वह उठा!" इस पर सब शिकारी बोल उठे, सारा जंगल गूँज पड़ा। मैं घात में था कि रीछ दिखाई पड़ा और मैंने तुरंत गोली छोड़ी।
अकस्मात बाईं ओर बर्फ पर कोई काली चीज दिखाई दी। मैंने गोली छोड़ी, परंतु खाली गई और रीछ भाग गया।

amol
11-11-2012, 04:58 PM
मुझे बड़ा शोक हुआ कि अब रीछ इधर नहीं आएगा। शायद साथी के हाथ लग जाए। मैंने फिर बंदूक भर ली, इतने में एक शिकारी ने शोर मचाया- "यह है, यह है यहाँ आओ!"
मैंने देखा कि दुगार भाग कर मेरे साथी के पास आया और रीछ को उंगली से दिखाने लगा। साथी ने निशाना लगाया। मैंने समझा, उसने मारा, परंतु वह गोली भी खाली गई, क्योंकि यदि रीछ गिर जाता तो साथी अवश्य उसके पीछे दौड़ता। वह दौड़ा नहीं, इससे मैंने जाना कि रीछ मरा नहीं।
हैं! क्या आपत्ति आई, देखता हूँ कि रीछ डरा हुआ अंधाधुंध भागा मेरी ओर आ रहा है। मैंने गोली मारी, परंतु खाली गई। दूसरी छोड़ी, वह लगी तो सही, परंतु रीछ गिरा नहीं। मैं दूसरी बंदूक उठाना ही चाहता था कि उसने झपट कर मुझे दबा लिया और लगा मेरा मुँह नोंचने। जो कष्ट मुझे उस समय हो रहा था, मैं उसे वर्णन नहीं कर सकता। ऐसा प्रतीत होता था मानो कोई छुरियों से मेरा मुँह छील रहा है।
इतने में दुगार और साथी रीछ को मेरे ऊपर बैठा देख कर मेरी सहायता को दौड़े। रीछ उन्हें देख, डरकर भाग गया। सारांश यह कि मैं घायल हो गया, पर रीछ हाथ न आया और हमें खाली हाथ गाँव लौटना पड़ा।
एक मास पीछे हम फिर उस रीछ को मारने के लिए गए, मैं फिर भी उसे न मार सका उसे दुगार ने मारा, वह बड़ा भारी रीछ था। उसकी खाल अब तक मेरे कमरे में बिछी हुई है।

amol
11-11-2012, 04:59 PM
प्रेम में परमेश्वर
लिओ तोलस्तॉय

अनुवाद - प्रेमचंद

amol
11-11-2012, 04:59 PM
किसी गांव में मूरत नाम का एक बनिया रहता था। सड़क पर उसकी छोटीसी दुकान थी। वहां रहते उसे बहुत काल हो चुका था, इसलिए वहां के सब निवासियों को भलीभांति जानता था। वह बड़ा सदाचारी, सत्यवक्ता, व्यावहारिक और सुशील था। जो बात कहता, उसे जरूर पूरा करता। कभी धेले भर भी कम न तोलता और न घीतेल मिलाकर बेचता। चीज़ अच्छी न होती, तो गराहक से साफसाफ कह देता, धोखा न देता था।
चौथेपन में वह भगवत्भजन का परेमी हो गया था। उसके और बालक तो पहले ही मर चुके थे, अंत में तीन साल का बालक छोड़कर उसकी स्त्री भी जाती रही। पहले तो मूरत ने सोचा, इसे ननिहाल भेज दूं, पर फिर उसे बालक से परेम हो गया। वह स्वयं उसका पालन करने लगा। उसके जीवन का आधार अब यही बालक था। इसी के लिए वह रातदिन काम किया करता था। लेकिन शायद संतान का सुख उसके भाग्य में लिखा ही न था।
पलपलाकर बीस वर्ष की अवस्था में यह बालक भी यमलोक को सिधार गया। अब मूरत के शोक की कोई सीमा न थी। उसका विश्वास हिल गया। सदैव परमात्मा की निन्दा कर वह कहा करता था कि परमेश्वर बड़ा निर्दयी और अन्यायी है; मारना बू़े को चाहिए था, मार डाला युवक को। यहां तक कि उसने ठाकुर के मंदिर में जाना भी छोड़ दिया।

amol
11-11-2012, 04:59 PM
एक दिन उसका पुराना मित्र, जो आठ वर्ष से तीर्थयात्रा को गया हुआ था, उससे मिलने आया। मूरत बोला-मित्र देखो, सर्वनाश हो गया। अब मेरा जीना अकारथ है। मैं नित्य परमात्मा से यही विनती करता हूं कि वह मुझे जल्दी इस मृत्युलोक से उठा ले, मैं अब किस आशा पर जीऊं।
मित्र-मूरत, ऐसा मत कहो। परमेश्वर की इच्छा को हम नहीं जान सकते। वह जो करता है, ठीक करता है। पुत्र का मर जाना और तुम्हारा जीते रहना विधाता के वश है, और कोई इसमें क्या कर सकता है! तुम्हारे शोक का मूल कारण यह है कि तुम अपने सुख में सुख मानते हो। पराए सुख से सुखी नहीं होते।
मूरत-तो मैं क्या करुं?
मित्र-परमात्मा की निष्काम भक्ति करने से अन्तःकरण शुद्ध होता है। जब सब काम परमेश्वर को अर्पण करके जीवन व्यतीत करोगे तो तुम्हें परमानंद पराप्त होगा।
मूरत-चित्त स्थिर करने का कोई उपाय तो बतलाइए।
मित्र-गीता, भक्तमालादि गरन्थों का श्रवण, पाठन, मनन किया करो। ये गरन्थ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों फलों को देने वाले हैं। इनका पॄना आरम्भ कर दो, चित्त को बड़ी शांति पराप्ति होगी।
मूरत ने इन गरन्थों को पॄना आरम्भ किया। थोड़े ही दिनों में इन पुस्तकों से उसे इतना परेम हो गया कि रात को बारहबारह बजे तक गीता आदि पॄता और उसके उपदेशों पर विचार करता रहता था। पहले तो वह सोते समय छोटे पुत्र को स्मरण करके रोया करता था, अब सब भूल गया। सदा परमात्मा में लवलीन रहकर आनंदपूर्वक अपना जीवन बिताने लगा। पहले इधरउधर बैठकर हंसीठट्ठा भी कर लिया करता था, पर अब वह समय व्यर्थ न खोता था। या तो दुकान का काम करता था या रामायण पॄता था। तात्पर्य यह कि उसका जीवन सुधर गया।

amol
11-11-2012, 05:00 PM
एक रात रामायण पॄतेपढ़ते उसे ये चौपाइयां मिलीं-
एक पिता के विपुल कुमारा। होइ पृथक गुण शील अचारा॥
कोई पंडित कोइ तापस ज्ञाता। कोई धनवंत शूर कोइ दाता॥
कोइ सर्वज्ञ धर्मरत कोई। सब पर पितहिं परीति सम होई॥
अखिल विश्व यह मम उपजाया। सब पर मोहि बराबर दाया॥
मूरत पुस्तक रखकर मन में विचारने लगा कि जब ईश्वर सब पराणियों पर दया करते हैं, तो क्या मुझे सभी पर दया न करनी चाहिए? तत्पश्चात सुदामा और शबरी की कथा पॄकर उसके मन में यह भाव उत्पन्न हुआ कि क्या मुझे भी भगवान के दर्शन हो सकते हैं!
यह विचारतेविचारते उसकी आंख लग गई। बाहर से किसी ने पुकारा-मूरत! बोला-मूरत! देख, याद रख, मैं कल तुझे दर्शन दूंगा।
यह सुनकर वह दुकान से बाहर निकल आया। वह कौन था? वह चकित होकर कहने लगा, यह स्वप्न है अथवा जागृति। कुछ पता न चला। वह दुकान के भीतर जाकर सो गया।
दूसरे दिन परातःकाल उठ, पूजापाठ कर, दुकान में आ, भोजन बना मूरत अपने कामधंधे में लग गया; परंतु उसे रात वाली बात नहीं भूलती थी।
रात्रि को पाला पड़ने के कारण सड़क पर बर्फ के ेर लग गए थे। मूरत अपनी धुन में बैठा था। इतने में बर्फ हटाने को कोई कुली आया। मूरत ने समझा कृष्णचन्द्र आते हैं, आंखें खोलकर देखा कि बू़ा लालू बर्फ हटाने आया है, हंसकर कहने लगा-आवे बू़ा लालू और मैं समझूं कृष्ण भगवान्, वाह री बुद्धि!
लालू बर्फ हटाने लगा। बू़ा आदमी था। शीत के कारण बर्फ न हटा सका। थककर बैठ गया और शीत के मारे कांपने लगा। मूरत ने सोचा कि लालू को ठंड लग रही है, इसे आग तपा दूं।
मूरत-लालू भैया, यहां आओ, तुम्हें ठंड सता रही है। हाथ सेंक लो।

amol
11-11-2012, 05:00 PM
लालू दुकान पर आकर धन्यवाद करके हाथ सेंकने लगा।
मूरत-भाई, कोई चिंता मत करो। बर्फ मैं हटा देता हूं। तुम बू़े हो, ऐसा न हो कि ठंड खा जाओ।
लालू-तुम क्या किसी की बाट देख रहे थे?
मूरत-क्या कहूं, कहते हुए लज्जा आती है। रात मैंने एक ऐसा स्वप्न देखा है कि उसे भूल नहीं सकता। भक्तमाल पॄतेपढ़ते मेरी आंख लग गई। बाहर से किसी ने पुकारा-'मूरत!' मैं उठकर बैठ गया। फिर शब्द हुआ, 'मूरत! मैं तुम्हें दर्शन दूंगा!' बाहर जाकर देखता हूं तो वहां कोई नहीं। मैं भक्तमाल में सुदामा और शबरी के चरित पॄकर यह जान चुका हूं कि भगवान ने परमेवश होकर किस परकार साधारण जीवों को दर्शन दिए हैं। वही अभ्यास बना हुआ है। बैठा कृष्णचन्द्र की राह देख रहा था कि तुम आ गए।
लालू-जब तुम्हें भगवान से परेम है तो अवश्य दर्शन होंगे। तुमने आग न दी होती, तो मैं मर ही गया था।
मूरत-वाह भाई लालू, यह बात ही क्या है! इस दुकान को अपना घर समझो। मैं सदैव तुम्हारी सेवा करने को तैयार हूं।
लालू धन्यवाद करके चल दिया। उसके पीछे दो सिपाही आये। उनके पीछे एक किसान आया। फिर एक रोटी वाला आया। सब अपनी राह चले गए। फिर एक स्त्री आयी। वह फटेपुराने वस्त्र पहने हुए थी। उसकी गोद में एक बालक था। दोनों शीत के मारे कांप रहे थे।
मूरत-माई, बाहर ठंड में क्यों खड़ी हो? बालक को जाड़ा लग रहा है, भीतर आकर कपड़ा ओ़ लो।

amol
11-11-2012, 05:00 PM
स्त्री भीतर आई। मूरत ने उसे चूल्हे के पास बिठाया और बालक को मिठाई दी।
मूरत-माई, तुम कौन हो?
स्त्री-मैं एक सिपाही की स्त्री हूं। आठ महीने से न जाने कर्मचारियों ने मेरे पति को कहां भेज दिया है, कुछ पता नहीं लगता। गर्भवती होने पर मैं एक जगह रसोई का काम करने पर नौकर थी। ज्योंही यह बालक उत्पन्न हुआ, उन्होंने इस भय से कि दो जीवों को अन्न देना पड़ेगा, मुझे निकाल दिया। तीन महीने से मारीमारी फिरती हूं। कोई टहलनी नहीं रखता। जो कुछ पास था, सब बेचकर खा गई। इधर साहूकारिन के पास जाती हूं। स्यात नौकर रख ले।
मूरत-तुम्हारे पास कोई ऊनी वस्त्र नहीं है?
स्त्री-वस्त्र कहां से हो, छदाम भी तो पास नहीं।
मूरत-यह लो लोई, इसे ओ़ लो।
स्त्री-भगवान तुम्हारा भला करे। तुमने बड़ी दया की। बालक शीत के मारे मरा जाता था।
मूरत-मैंने दया कुछ नहीं की। श्री कृष्णचन्द्र की इच्छा ही ऐसी है।
फिर मूरत ने स्त्री को रात वाला स्वप्न सुनाया।
स्त्री-क्या अचरज है, दर्शन होने कोई असम्भव तो नहीं।

amol
11-11-2012, 05:00 PM
स्त्री के चले जाने पर सेव बेचने वाली आयी। उसके सिर पर सेवों की टोकरी थी और पीठ पर अनाज की गठरी। टोकरी धरती पर रखकर खम्भे का सहारा ले वह विश्राम करने लगी कि एक बालक टोकरी में से सेव उठाकर भागा। सेव वाली ने दौड़कर उसे पकड़ लिया और सिर के बाल खींचकर मारने लगी। बालक बोला-मैंने सेव नहीं उठाया।
मूरत ने उठकर बालक को छुड़ा दिया।
मूरत-माई, क्षमा कर, बालक है।
सेव वाली-यह बालक बड़ा उत्पाती है। मैं इसे दंड दिये बिना कभी न छोडूंगी।
मूरत-माई, जाने दे, दया कर। मैं इसे समझा दूंगा। वह ऐसा काम फिर नहीं करेगा।
बुयि ने बालक को छोड़ दिया। वह भागना चाहता था कि सूरत ने उसे रोका और कहा-बुयि से अपना अपराध क्षमा कराओ और परतिज्ञा करो कि चोरी नहीं करोगे। मैंने आप तुम्हें सेव उठाते देखा है। तुमने यह झूठ क्यों कहा?
बालक ने रोकर बुयि से अपना अपराध क्षमा कराया और परतिज्ञा की कि फिर झूठ नहीं बोलूंगा। इस पर मूरत ने उसे एक सेव मोल ले दिया।
बुयि-वाहवाह, क्या कहना है! इस परकार तो तुम गांव के समस्त बालकों का सत्यानाश कर डालोगे। यह अच्छी शिक्षा है! इस तरह तो सब लड़के शेर हो जायेंगे।

amol
11-11-2012, 05:01 PM
मूरत-माई, यह क्या कहती हो! बदला और दंड देना तो मनुष्यों का स्वभाव है, परमात्मा का नहीं, वह दयालु है। यदि इस बालक को एक सेव चुराने का कठिन दंड मिलना उचित है, तो हमको हमारे अनन्त पापों का क्या दंड मिलना चाहिए? माई, सुनो, मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूं। एक कर्मचारी पर राजा के दस हजार रुपये आते थे। उसके बहुत विनय करने पर राजा ने वह ऋ़ण छोड़ दिया। उस कर्मचारी की भी अपने सेवकों से सौसौ रुपये पावने थे, वह उन्हें बड़ा कष्ट देने लगा। उन्होंने बहुतेरा कहा कि हमारे पास पैसा नहीं, ऋण कहां से चुकावें? कर्मचारी ने एक न सुनी। वे सब राजा के पास जाकर फरियादी हुए। राजा ने उसी दम कर्मचारी को कठिन दंड दिया। तात्पर्य यह कि हम जीवों पर दया नहीं करेंगे, तो परमात्मा भी हम पर दया नहीं करेगा।
बुयि-यह सत्य है, परंतु ऐसे बर्ताव से बालक बिगड़ जाते हैं।
मूरत-कदापि नहीं। बिगड़ते नहीं, वरंच सुधरते हैं।
बुयि टोकरा उठाकर चलने लगी कि उसी बालक ने आकर विनय की कि माई, यह टोकरा तुम्हारे घर तक मैं पहुंचा आता हूं।
रात्रि होने पर मूरत भोजन करने के बाद गीतापाठ कर रहा था कि उसकी आंख झपकी और उसने यह दृश्य देखा-
'मूरत! मूरत!'
मूरत-कौन हो?
'मैं-लालू।' इतना कहकर लालू हंसता हुआ चला गया।
फिर आवाज आयी-'मैं हूं।' मूरत देखता है कि दिन वाली स्त्री लोई ओ़े, बालक को गोद में लिये, सम्मुख आकर खड़ी हुई, हंसी और लोप हो गई। फिर शब्द सुनाई दिया-'मैं हूं।' देखा कि सेव बेचने वाली और बालक हंसतेहंसते सामने आये और अन्तर्धान हो गए!
मूरत उठकर बैठ गया। उसे विश्वास हो गया कि कृष्णचन्द्र के दर्शन हो गए, क्योंकि पराणिमात्र पर दया करना ही परमात्मा का दर्शन करना है।

amol
11-11-2012, 05:01 PM
मनुष्य का जीवन आधार क्या है
लिओ तोलस्तॉय

अनुवाद - प्रेमचंद

amol
11-11-2012, 05:02 PM
माधो नामी एक चमार जिसके न घर था, न धरती, अपनी स्त्री और बच्चों सहित एक झोंपड़े में रहकर मेहनत मजदूरी द्वारा पेट पालता था। मजूरी कम थी, अन्न महंगा था। जो कमाता था, खा जाता था। सारा घर एक ही कम्बल ओ़कर जाड़ों के दिन काटता था और वह कम्बल भी फटकर तारतार रह गया था। पूरे एक वर्ष से वह इस विचार में लगा हुआ था कि दूसरा वस्त्र मोल ले। पेट मारमारकर उसने तीन रुपये जमा किए थे, और पांच रुपये पास के गांव वालों पर आते थे।
एक दिन उसने यह विचारा कि पांच रुपये गांव वालों से उगाहकर वस्त्र ले आऊं। वह घर से चला, गांव में पहुंचकर वह पहले एक किसान के घर गया। किसान तो घर में नहीं था, उसकी स्त्री ने कहा कि इस समय रुपया मौजूद नहीं, फिर दे दूंगी। फिर वह दूसरे के घर पहुंचा, वहां से भी रुपया न मिला। फिर वह बनिये की दुकान पर जाकर वस्त्र उधार मांगने लगा। बनिया बोला-हम ऐसे कंगालों को उधार नहीं देते। कौन पीछेपीछे फिरे? जाओ, अपनी राह लो।
वह निराश होकर घर को लौट पड़ा। राह में सोचने लगा-कितने अचरज की बात है कि मैं सारे दिन काम करता हूं, उस पर भी पेट नहीं भरता। चलते समय स्त्री ने कहा था कि वस्त्र अवश्य लाना। अब क्या करुं, कोई उधार भी तो नहीं देता। किसानों ने कह दिया, अभी हाथ खाली है, फिर ले लेना। तुम्हारा तो हाथ खाली है, पर मेरा काम कैसे चले? तुम्हारे पास घर, पशु, सबकुछ है, मेरे पास तो यह शरीर ही शरीर है। तुम्हारे पास अनाज के कोठे भरे पड़े हैं, मुझे एकएक दाना मोल लेना पड़ता है। सात दिन में तीन रुपये तो केवल रोटी में खर्च हो जाते हैं। क्या करुं, कहां जाऊं? हे भगवान्! सोचता हुआ मन्दिर के पास पहुंचकर देखता क्या है कि धरती पर कोई श्वेत वस्तु पड़ी है। अंधेरा हो गया, साफ न दिखाई देता है। माधो ने समझा कि किसी ने इसके वस्त्र छीन लिये हैं, मुझसे क्या मतलब? ऐसा न हो, इस झगड़े में पड़ने से मुझ पर कोई आपत्ति खड़ी हो जाए, चल दो।

amol
11-11-2012, 05:02 PM
थोड़ी दूर गया था कि उसके मन में पछतावा हुआ। मैं कितना निर्दयी हूं। कहीं यह बेचारा भूखों न मर रहा हो। कितने शर्म की बात है कि मैं उसे इस दशा में छोड़, चला जाता हूं। वह लौट पड़ा और उस आदमी के पास जाकर खड़ा हो गया।


पास पहुंचकर माधो ने देखा कि वह मनुष्य भलाचंगा जवान है। केवल शीत से दुःखी हो रहा है। उस मनुष्य को आंख भरकर देखना था कि माधो को उस पर दया आ गई। अपना कोट उतारकर बोला-यह समय बातें करने का नहीं, यह कोट पहन लो और मेरे संग चलो।


मनुष्य का शरीर स्वच्छ, मुख दयालु, हाथपांव सुडौल थे। वह परसन्न बदन था। माधो ने उसे कोट पहना दिया और बोला-मित्र, अब चलो, बातें पीछे होती रहेंगी।


मनुष्य ने परेमभाव से माधो को देखा और कुछ न बोला।


माधो-तुम बोलते क्यों नहीं? यहां ठंड है, घर चलो। यदि तुम चल नहीं सकते, तो यह लो लकड़ी, इसके सहारे चलो।


मनुष्य माधो के पीछेपीछे हो लिया।


माधो-तुम कहां रहते हो?


मनुष्य-मैं यहां का रहने वाला नहीं।


माधो-मैंने भी यही समझा था, क्योंकि यहां तो मैं सबको जानता हूं। तुम मन्दिर के पास कैसे आ गए?


मनुष्य-यह मैं नहीं बतला सकता।


माधो-क्या तुमको किसी ने दुःख दिया है?


मनुष्य-मुझे किसी ने दुःख नहीं दिया, अपने कर्मों का भोग है। परमात्मा ने मुझे दंड दिया है।


माधो-निस्संदेह परमेश्वर सबका स्वामी है, परन्तु खाने को अन्न और रहने को घर तो चाहिए। तुम अब कहां जाना चाहते हो?


मनुष्य-जहां ईश्वर ले जाए।

amol
11-11-2012, 05:02 PM
माधो चकित हो गया। मनुष्य की बातचीत बड़ी पिरय थी। वह ठग परतीत न होता था, पर अपना पता कुछ नहीं बताता था। माधो ने सोचा, अवश्य इस पर कोई बड़ी विपत्ति पड़ी है। बोलो-भाई, घर चलकर जरा आराम करो, फिर देखा जायेगा।

दोनों वहां से चल दिए। राह में माधो विचार करने लगा, मैं तो वस्त्र लेने आया था, यहां अपना भी दे बैठा। एक नंगा मनुष्य साथ है, क्या यह सब बातें देखकर मालती परसन्न होगी! कदापि नहीं, मगर चिन्ता ही क्या है? दया करना मनुष्य का परम धर्म है।

amol
11-11-2012, 05:03 PM
उधर माधो की स्त्री मालती उस दिन जल्दीजल्दी लकड़ी काटकर पानी लायी, फिर भोजन बनाया, बच्चों को खिलाया, आप खाया, पति के लिए भोजन अलग रखकर कुरते में टांका लगाती हुई यह विचार करने लगी-ऐसा न हो, बनिया मेरे पति को ठग ले, वह बड़ा सीधा है, किसी से छल नहीं करता, बालक भी उसे फंसा सकता है। आठ रुपये बहुत होते हैं, इतने रुपये में तो अच्छे वस्त्र मिल सकते हैं। पिछली सर्दी किस कष्ट से कटी। जाते समय उसे देर हो गई थी, परन्तु क्या हुआ, अब तक उसे आ जाना चाहिए था।


इतने में आहट हुई। मालती बाहर आयी, देखा कि माधो है। उसके साथ नंगे सिर एक मनुष्य है। माधो का कोट उसके गले में पड़ा है। पति के हाथों में कोई गठरी नहीं है, वह शर्म से सिर झुकाए खड़ा है। यह देखकर मालती का मन निराशा से व्याकुल हो गया। उसने समझा, कोई ठग है, त्योरी च़ाकर खड़ी हो देखने लगी कि वह क्या करता है।


माधो बोला-यदि भोजन तैयार हो तो ले आओ।


मालती जलकर राख हो गई, कुछ न बोली। चुपचाप वहीं खड़ी रही। माधो ताड़ गया कि स्त्री क्रोधग्नि में जल रही है।


माधो-क्या भोजन नहीं बनाया?


मालती-(क्रोध से) हां, बनाया है, परन्तु तुम्हारे वास्ते नहीं, तुम तो वस्त्र मोल लेने गए थे? यह क्या किया, अपना कोट भी दूसरे को दे दिया? इस ठग को कहां से लाए? यहां कोई सदाबरत थोड़े ही चलता है।


माधो-मालती, बसबस! बिना सोचेसमझे किसी को बुरा कहना उचित नहीं है। पहले पूछ तो लो कि यह कैसा....


मालती-पहले यह बताओ कि रुपये कहां फेंके?


माधो-यह लो अपने तीनों रुपये, गांव वालों ने कुछ नहीं दिया।


मालती-(रुपये लेकर) मेरे पास संसार भर के नंगेलुच्चों के लिए भोजन नहीं है।

amol
11-11-2012, 05:03 PM
माधो-फिर वही बात! पहले इससे पूछ तो लो, क्या कहता है।

मालती-बसबस! पूछ चुकी। मैं तो विवाह ही करना नहीं चाहती थी, तुम तो घरखोऊ हो।

माधो ने बहुतेरा समझाया वह एक न मानी। दस वर्ष के पुराने झगड़े याद करके बकवाद करने लगी, यहां तक कि क्रोध में आकर माधो की जाकेट फाड़ डाली और घर से बाहर जाने लगी। पर रास्ते में रुक गई और पति से बोली-अगर यह भलामानस होता तो नंगा न होता। भला तुम्हारी भेंट इससे कहां हुई?

माधो-बस, यही तो मैं तुमको बतलाना चाहता हूं। यह गांव के बाहर मन्दिर के पास नंगा बैठा था। भला विचार तो कर, यह ऋतु बाहर नंगा बैठने की है? दैवगति से मैं वहां जा पहुंचा, नहीं तो क्या जाने यह मरता या जीता। हम क्या जानते हैं कि इस पर क्या विपत्ति पड़ी है। मैं अपना कोट पहनाकर इसे यहां ले आया हूं। देख, क्रोध मत कर, क्रोध पाप का मूल है। एक दिन हम सबको यह संसार छोड़ना है।

मालती कुछ कहना चाहती थी, पर मनुष्य को देखकर चुप हो गई। वह आंखें मूंदे, घुटनों पर हाथ रखे, मौन धारण किए स्थिर बैठा था।

माधो-प्यारी! क्या तुममें ईश्वर का परेम नहीं?

यह वचन सुन, मनुष्य को देखकर मालती का चित्त तुरन्त पिघल गया, झट से उठी और भोजन लाकर उसके सामने रख दिया और बोली-खाइए।

मालती की यह दशा देखकर मनुष्य का मुखारविंद खिल गया और वह हंसा। भोजन कर लेने पर मालती बोली-तुम कहां से आये हो?

मनुष्य-मैं यहां का रहने वाला नहीं।

मालती-तुम मन्दिर के पास किस परकार पहुंचे?

मनुष्य-मैं कुछ नहीं बता सकता।

मालती-क्या किसी ने तुम्हारा माल चुरा लिया?

मनुष्य-किसी ने नहीं। परमेश्वर ने यह दंड दिया है!

amol
11-11-2012, 05:03 PM
मालती-क्या तुम वहां नंगे बैठे थे?

मनुष्य-हां, शीत के मारे ठिठुर रहा था। माधो ने देखकर दया की, कोट पहनाकर मुझे यहां ले आया, तुमने तरस खाकर मुझे भोजन खिला दिया। भगवान तुम दोनों का भला करे।

मालती ने एक कुरता और दे दिया। रात को जब वह अपने पति के पास जाकर लेटी तो यह बातें करने लगी-

मालती-सुनते हो?

माधो-हां।

मालती-अन्न तो चुक गया। कल भोजन कहां से करेंगे? शायद पड़ोसिन से मांगना पड़े।

माधो-जिएंगे तो अन्न भी कहीं से मिल ही जाएगा।

मालती-वह मनुष्य अच्छा आदमी मालूम होता है। अपना पता क्यों नहीं बतलाता?

माधो-क्या जानूं। कोई कारण होगा।

मालती-हम औरों को देते हैं, पर हमको कोई नहीं देता?

माधे ने इसका कुछ उत्तर नहीं दिया, मुंह फेरकर सो गया।

amol
11-11-2012, 05:03 PM
परातःकाल हो गया। माधो जागा, बच्चे अभी सोये पड़े थे। मालती पड़ोसिन से अन्न मांगने गयी थी। अजनबी मनुष्य भूमि पर बैठा आकाश की ओर देख रहा था, परन्तु उसका मुख अब परसन्न था।

माधो-मित्र, पेट रोटी मांगता है, शरीर वस्त्र; अतएव काम करना आवश्यक है। तुम कोई काम जानते हो?

मनुष्य-मैं कोई काम नहीं जानता।

माधो-अभ्यास बड़ी वस्तु है, मनुष्य यदि चाहे तो सबकुछ सीख सकता है।

मनुष्य-मैं सीखने को तैयार हूं, आप सिखा दीजिए।

माधो-तुम्हारा नाम क्या है?

मनुष्य-मैकू।

माधो-भाई मैकू, यदि तुम अपना हाल सुनाना नहीं चाहते तो न सुनाओ, परन्तु कुछ काम अवश्य करो। जूते बनाना सीख लो और यहीं रहो।

मैकू-बहुत अच्छा।

अब माधो ने मैकू को सूत बांटना, उस पर मोम च़ाना, जूते सीना आदि काम सिखाना शुरू कर दिया। मैकू तीन दिन में ही ऐसे जूते बनाने लगा, मानो सदा से चमार का ही काम करता रहा हो। वह घर से बाहर नहीं निकलता था, बोलता भी बहुत कम था। अब तक वह केवल एक बार उस समय हंसा था जब मालती ने उसे भोजन कराया था, फिर वह कभी नहीं हंसा।

amol
11-11-2012, 05:06 PM
धीरेधीरे एक वर्ष बीत गया। चारों ओर धूम मच गई कि माधो का नौकर मैकू जैसे पक्के मजबूत जूते बनाता है, दूसरा कोई नहीं बना सकता। माधो के पास बहुत काम आने लगा और उसकी आमदनी बहुत ब़ गई।

एक दिन माधो और मैकू बैठे काम कर रहे थे कि एक गाड़ी आयी, उसमें से एक धनी पुरुष उतरकर झोंपड़े के पास आया। मालती ने झट से किवाड़ खोल दिए; वह भीतर आ गया।

माधो ने उठकर परणाम किया। उसने ऐसा सुन्दर पुरुष पहले कभी नहीं देखा था। वह स्वयं दुबला था, मैकू और भी दुबला और मालती तो हिड्डयों का पिंजरा थी। यह पुरुष तो किसी दूसरे ही लोक का वासी जान पड़ता था-लाल मुंह, चौड़ी छाती, तनी हुई गर्दन; मानो सारा शरीर लोहे में ला हुआ है।

पुरुष-तुममें उस्ताद कौन है?

माधो-हुजूर, मैं।

पुरुष-(चमड़ा दिखाकर) तुम यह चमड़ा देखते हो?

माधो-हां, हुजूर।

पुरुष-तुम जानते हो कि यह किस जात का चमड़ा है?

माधो-महाराज, यह चमड़ा बहुत अच्छा है।

पुरुष-अच्छा, मूर्ख कहीं का! तुमने शायद ऐसा चमड़ा कभी नहीं देखा होगा। यह जर्मन देश का चमड़ा है, इसका मोल बीस रुपये है।

माधो-(भय से) भला महाराज, ऐसा चमड़ा मैं कहां से देख सकता था?

पुरुष-अच्छा, तुम इसका बूट बना सकते हो।

माधो-हां, हुजूर, बना सकता हूं।

पुरुष-हां, हुजूर की बात नहीं, समझ लो कि चमड़ा कैसा है और बनवाने वाला कौन है। यदि साल भर के अन्दर कोई टांका उखड़ गया अथवा जूते का रूप बिगड़ गया तो तुझे बंदीखाने जाना पड़ेगा, नहीं तो दस रुपये मजूरी मिलेगी।

amol
11-11-2012, 05:06 PM
माधो ने मैकू की ओर कनखियों से देखकर धीरे से पूछा कि काम ले लूं? उसने कहा-हां, ले लो। माधो नाप लेने लगा।


पुरुष-देखो, नाप ठीक लेना, बूट छोटा न पड़ जाए। (मैकू की तरफ देखकर) यह कौन है?


माधो-मेरा कारीगर।


पुरुष-(मैकू से) होहो, देखो बूट एक वर्ष चलना चाहिए। पूरा एक वर्ष, कम नहीं।


मैकू का उस पुरुष की ओर ध्यान ही नहीं था। वह किसी और ही धुन में मस्त बैठा हंस रहा था।


पुरुष-(क्रोध से) मूर्ख! बात सुनता है कि हंसता है। देखो, बूट बहुत जल्दी तैयार करना, देर न होने पाए।


बाहर निकलते समय पुरुष का मस्तक द्वार से टकरा गया। माधो बोला सिर है कि लोहा, किवाड़ ही तोड़ डाला था।


मालती बोली-धनवान ही बलवान होते हैं। इस पुरुष को यमराज भी हाथ नहीं लगा सकता, और की तो बात ही क्या है?


उस आदमी के जाने के बाद माधो ने मैकू से कहा-भाई, काम तो ले लिया है, कोई झगड़ा न खड़ा हो जाए। चमड़ा बहुमूल्य है और यह आदमी बड़ा क्रोधी है, भूल न होनी चाहिए। तुम्हारा हाथ साफ हो गया है, बूट काट तुम दो, सी मैं दूंगा।


मैकू बूट काटने लगा। मालती नित्य अपने पति को बूट काटते देखा करती थी। मैकू की काट देखकर चकरायी कि वह यह कर क्या रहा है। शायद बड़े आदमियों के बूट इसी परकार काटे जाते हों, यह विचार कर चुप रह गई।


मैकू ने चमड़ा काटकर दोपहर तक स्लीपर तैयार कर लिये। माधो जब भोजन करके उठा तो देखता क्या है कि बूट की जगह स्पीलर बने रखे हैं। वह घबरा गया और मन में कहने लगा-इस मैकू को मेरे साथ रहते एक वर्ष हो गया, ऐसी भूल तो उसने कभी नहीं की। आज इसे क्या हो गया! उस पुरुष ने तो बूट बनाने को कहा था, इसने तो स्लीपर बना डाले। अब उसे क्या उत्तर दूंगा, ऐसा चमड़ा और कहां से मिल सकता है! (मैकू से)-मित्र, यह तुमने क्या किया? उसने तो बूट बनाने को कहा था न! अब मेरे सिर के बाल न बचेंगे।

amol
11-11-2012, 05:06 PM
यह बातें हो ही रही थी कि द्वार पर एक आदमी ने आकर पुकारा। मालती ने किवाड़ खोल दिए। यह उस धनी आदमी का वही नौकर था, जो उसके साथ यहां आया था। उसने आते ही कहा-रामराम, तुमने बूट बना तो नहीं डाले?

माधो-हां, बना रहा हूं।

नौकर-मेरे स्वामी का देहान्त हो गया, अब बूट बनाना व्यर्थ है।

माधो-अरे!

नौकर-वह तो घर तक भी पहुंचने नहीं पाये, गाड़ी में ही पराण त्याग दिए। स्वामिनी ने कहा है कि उस चमड़े के स्लीपर बना दो।

माधो-(परसन्न होकर) यह लो स्लीपर।

आदमी स्लीपर लेकर चलता बना।

amol
11-11-2012, 05:07 PM
मैकू को माधो के साथ रहतेरहते छः वर्ष बीत गए। अब तक वह केवल दो बार हंसा था, नहीं तो चुपचाप बैठा अपना काम किए जाता था। माधो उस पर अति परसन्न था और डरता रहता था कि कहीं भाग न जाए। इस भय से फिर माधो ने उससे पताबता कुछ नहीं पूछा।

एक दिन मालती चूल्हे में आग जल रही थी, बालक आंगन में खेल रहे थे, माधो और मैकू बैठे जूते बना रहे थे कि एक बालक ने आकर कहा-चाचा मैकू, देखो, वह स्त्री दो लड़कियां संग लिये आ रही हैं।

मैकू ने देखा कि एक स्त्री चादर ओ़े, छोटीछोटी कन्याएं संग लिए चली आ रही है। कन्याओं का एकसा रंगरूप है, भेद केवल यह है कि उनमें एक लंगड़ी है। बुयि भीतर आयी तो माधो ने पूछा-माई, क्या काम है?

उसने कहा-इन लड़कियों के जूते बना दो।

माधो बोला-बहुत अच्छा।

वह नाप लेने लगा तो देखा कि मैकू इन लड़कियों को इस परकार ताक रहा है, मानो पहले कहीं देखा है।

बुयि-इस लड़की का एक पांव लुंजा है, एक नाप इसका ले लो। बाकी तीन पैर एक जैसे हैं। ये लड़कियां जुड़वां है।

माधो-(नाप लेकर) यह लंगड़ी कैसे हो गई, क्या जन्म से ही ऐसी है?

बुयि-नहीं, इसकी माता ने ही इसकी टांग कुचल दी थी।

मालती-तो क्या तुम इनकी माता नहीं हो?

बुयि-नहीं, बहन, न इनकी माता हूं, न सम्बन्धी। ये मेरी कन्याएं नहीं। मैंने इन्हें पाला है।

मालती-तिस पर भी तुम इन्हें बड़ा प्यार करती हो?

बुयि-प्यार क्यों न करुं, मैंने अपना दूध पिलापिलाकर इन्हें बड़ा किया है। मेरा अपना भी बालक था, परन्तु उसे परमात्मा ने ले लिया। मुझे इनके साथ उससे भी अधिक परेम है।

amol
11-11-2012, 05:07 PM
मालती-तो ये किसकी कन्याएं हैं?

बुयि-छह वर्ष हुए कि एक सप्ताह के अंदर इनके मातापिता का देहांत हो गया। पिता की मंगल के दिन मृत्यु हुई, माता की शुक्रवार को। पिता के मरने के तीन दिन पीछे ये पैदा हुईं। इनके मांबाप मेरे पड़ोसी थे। इनका पिता लकड़हारा था। जंगल में लकड़ियां काटतेकाटते वृक्ष के नीचे दबकर मर गया। उसी सप्ताह में इनका जन्म हुआ। जन्म होते ही माता भी चल बसी। दूसरे दिन जब मैं उससे मिलने गयी तो देखा कि बेचारी मरी पड़ी है। मरते समय करवट लेते हुए इस कन्या की टांग उसके नीचे दब गई। गांव वालों ने उसका दाहकर्म किया। इनके मातापिता रंक थे, कौड़ी पास न थी। सब लोग सोचने लगे कि कन्याओं का कौन पाले। उस समय वहां मेरी गोद में दो महीने का बालक था। सबने यही कहा कि जब तक कोई परबन्ध न हो, तुम्हीं इनको पालो। मैंने इन्हें संभाल लिया। पहलेपहल मैं इस लंगड़ी को दूध नहीं पिलाया करती थी, कयोंकि मैं समझती थी कि यह मर जायेगी, पर फिर मुझे इस पर दया आ गई और इसे भी दूध पिलाने लगी। उस समय परमात्मा की कृपा से मेरी छाती में इतना दूध था कि तीनों बालकों को पिलाकर भी बह निकलता था। मेरा बालक मर गया, ये दोनों पल गईं। हमारी दशा पहले से अब बहुत अच्छी है। मेरा पति एक बड़े कारखाने में नौकर है। मैं इन्हें प्यार कैसे न करुं, ये तो मेरा जीवनआधार हैं।

यह कहकर बुयि ने दोनों लड़कियों को छाती से लगा लिया।

मालती-सत्य है, मनुष्य मातापिता के बिना जी सकता है, परन्तु ईश्वर के बिना जीता नहीं रह सकता।

ये बातें हो रही थीं कि सारा झोंपड़ा परकाशित हो गया। सबने देखा कि मैकू कोने में बैठा हंस रहा है।

amol
11-11-2012, 05:07 PM
बुयि लड़कियों को लेकर बाहर चली गयी, तो मैकू ने उठकर माधो और मालती को परणाम किया और बोला-स्वामी, अब मैं विदा होता हूं। परमात्मा ने मुझ पर दया की। यदि कोई भूलचूक हुई हो तो क्षमा करना।

माधो और मालती ने देखा कि मैकू का शरीर तेजोमय हो रहा है।

माधो दंडवत करके बोला-मैं जान गया कि तुम साधारण मनुष्य नहीं। अब मैं तुम्हें नहीं रख सकता, न कुछ पूछ सकता हूं। केवल यह बता दो कि जब मैं तुम्हें अपने घर लाया था तो तुम बहुत उदास थे। जब मेरी स्त्री ने तुम्हें भोजन दिया तो तुम हंसे। जब वह धनी आदमी बूट बनवाने आया था तब तुम हंसे। आज लड़कियों के संग बुयि आयी, तब तुम हंसे। यह क्या भेद है? तुम्हारे मुख पर इतना तेज क्यों है?

मैकू-तेज का कारण तो यह है कि परमात्मा ने मुझ पर दया की, मैं अपने कर्मों का फल भोग चुका। ईश्वर ने तीन बातों को समझाने के लिए मुझे इस मृतलोक में भेजा था, तीनों बातें समझ गया। इसलिए मैं तीन बार हंसा। पहली बार जब तुम्हारी स्त्री ने मुझे भोजन दिया, दूसरी बार धनी पुरुष के आने पर, तीसरी बार आज बुयि की बात सुनकर।

माधो-परमेश्वर ने यह दंड तुम्हें क्यों दिया था? वे तीन बातें कौनसी हैं, मुझे भी बतलाओ?

मैकू-मैंने भगवान की आज्ञा न मानी थी, इसलिए यह दंड मिला था। मैं देवता हूं, एक समय भगवान ने मुझे एक स्त्री की जान लेने के लिए मृत्युलोक में भेजा। जाकर देखता हूं कि स्त्री अति दुर्बल है और भूमि पर पड़ी है। पास तुरन्त की जन्मी दो जुड़वां लड़कियां रो रही हैं। मुझे यमराज का दूत जानकर वह बोली-मेरा पति वृक्ष के नीचे दबकर मर गया है। मेरे न बहन है, न माता, इन लड़कियों का कौन पालन करेगा? मेरी जान न निकाल, मुझे इन्हें पाल लेने दे। बालक मातापिता बिना पल नहीं सकता। मुझे उसकी बातों पर दया आ गई। यमराज के पास लौट आकर मैंने निवेदन किया कि महाराज, मुझे स्त्री की बातें सुनकर दया आ गई। उसकी जुड़वां लड़कियों को पालनेवाला कोई नहीं था, इसलिए मैंने उसकी जान नहीं निकाली, क्योंकि बालक मातापिता के बिना पल नहीं सकता। यमराज बोले-जाओ, अभी उसकी जान निकाल लो, और जब तक ये तीन बातें न जान लोगे कि (1) मनुष्य में क्या रहता है, (2) मनुष्य को क्या नहीं मिलता, (3) मनुष्य का जीवनआधार क्या है, तब तक तुम स्वर्ग में न आने पाओगे। मैंने मृत्युलोक में आकर स्त्री की जान निकाल ली। मरते समय करवट लेते हुए उसे एक लड़की की टांग कुचल दी। मैं स्वर्ग को उड़ा, परन्तु आंधी आयी मेरे पंख उखड़ गए और मैं मन्दिर के पास आ गिरा।

amol
11-11-2012, 05:07 PM
अब माधो और मालती समझ गए कि मैकू कौन है। दोनों बड़े परसन्न हुए कि अहोभाग्य, हमने देवता के दर्शन किए।

मैकू ने फिर कहा-जब तक मनुष्य मनुष्यशरीर धारण नहीं किया था, मैं शीतगमीर्, भूखप्यास का कष्ट न जानता था, परन्तु मृत्युलोक में आने पर परकट हो गया कि दुःख क्या वस्तु है। मैं भूख और जाड़े का मारा मन्दिर में घुसना चाहता था, लेकिन मंन्दिर बंद था। मैं हवा की आड़ में सड़क पर बैठ गया। संध्यासमय एक मनुष्य आता दिखाई दिया। मृत्युलोक में जन्म लेने पर यह पहला मनुष्य था, जो मैंने देख था, उसका मुख ऐसा भयंकर था कि मैंने नेत्र मूंद लिये। उसकी ओर देख न सका। वह मनुष्य यह कह रहा था कि स्त्रीपुत्रों का पालनपोषण किस भांति करें, वस्त्र कहां से लाये इत्यादि। मैंने विचारा, देखो, मैं तो भूख और शीत से मर रहा हूं, यह अपना ही रोना रो रहा है, मेरी कुछ सहायता नहीं करता। वह पास से निकल गया। मैं निराश हो गया। इतने में मेरे पास लौट आया, अब दया के कारण उसका मुख सुंदर दिखने लगा। माधो, वह मनुष्य तुम थे। जब तुम मुझे घर लाये, मालती का मुख तुमसे भयंकर था, क्योंकि उसमें दया का लेशमात्र न था, परन्तु जब वह दयालु होकर भोजन लायी तो उसके मुख की कठोरता जाती रही! तब मैंने समझा कि मनुष्य में तत्त्ववस्तु परेम है। इसीलिए पहली बार हंसा।

एक वर्ष पीछे वह धनी मनुष्य बूट बनवाने आया। उसे देखकर मैं इस कारण हंसा कि बूट तो एक वर्ष के लिए बनवाता है और यह नहीं जानता कि संध्या होने से पहले मर जाएगा। तब दूसरी बात का ज्ञान हुआ कि मनुष्य जो चाहता है सो नहीं मिलता, और मैं दूसरी बार हंसा।

छह वर्ष पीछे आज यह बुयि आयी तो मुझे निश्चय हो गया कि सबका जीवन आधार परमात्मा है, दूसरा कोई नहीं, इसलिए तीसरी बार हंसा।

amol
11-11-2012, 05:08 PM
मैकू परकाशस्वरूप हो रहा था, उस पर आंख नहीं जमती थी। वह फिर कहने लगा-देखो, पराणि मात्र परेम द्वारा जीते हैं, केवल पोषण से कोई नहीं जी सकता। वह स्त्री क्या जानती थी कि उसकी लड़कियों को कौन पालेगा, वह धनी पुरुष क्या जानता था कि गाड़ी में ही मर जाऊंगा, घर पहुंचना कहां! कौन जानता था कि कल क्या होगा, कपड़े की जरूरत होगी कि कफन की।

मनुष्य शरीर में मैं केवल इस कारण जीता बचा कि तुमने और तुम्हारी स्त्री ने मुझसे परेम किया। वे अनाथ लड़कियां इस कारण पलीं कि एक बुयि ने परेमवश होकर उन्हें दूध पिलाया। मतलब यह है कि पराणी केवल अपने जतन से नहीं जी सकते। परेम ही उन्हें जिलाता है। पहले मैं समझता था कि जीवों का धर्म केवल जीना है, परन्तु अब निश्चय हुआ कि धर्म केवल जीना नहीं, किन्तु परेमभाव से जीना है। इसी कारण परमात्मा किसी को यह नहीं बतलाता कि तुम्हें क्या चाहिए, बल्कि हर एक को यही बतलाता है कि सबके लिए क्या चाहिए। वह चाहता है कि पराणि मात्र परेम से मिले रहें। मुझे विश्वास हो गया कि पराणों का आधार परेम है, परेमी पुरुष परमात्मा में, और परमात्मा परेमी पुरुष में सदैव निवास करता है। सारांश यह है कि परेम और पमेश्वर में कोई भेद नहीं।

यह कहकर देवता स्वर्गलोक को चला गया।

amol
11-11-2012, 05:11 PM
मूर्ख सुमंत
लिओ तोलस्तॉय

अनुवाद - प्रेमचंद

amol
11-11-2012, 05:11 PM
एक समय एक गांव में एक धनी किसान रहता था। उसके तीन पुत्र थे-विजय सिपाही, तारा वणिक, सुमंत मूर्ख। गूंगीबहरी मनोरमा नाम की एक कुंवारी कन्या भी थी। विजय तो जाकर किसी राजा की सेना में भर्ती हो गया। तारा ने किसी परसिद्ध नगर में सौदागरी की कोठी खोल ली। मूर्ख समुन्त और मनोरमा मातापिता के पास रहकर खेती का काम करने लगे।
विजय ने सेना में ऊंची पदवी पराप्त करके एक इलाका मोल ले लिया और एक मालदार पुरुष की कन्या से विवाह कर लिया। उसकी आमदनी का कुछ ठिकाना न था, परन्तु फिर भी कुछ न बचता था।
विजय एक समय इलाके पर पहुंचकर किसानों से बटाई मांगने लगा। किसान बोले कि महाराज हमारे पास न बैल हैं, न हल, न बीज। बटाई कहां से दें? पहले यह सामगरी जमा कर दो, फिर आपको इलाके से बहुत अच्छी आमदनी होने लगेगी। यह सुनकर विजय अपने पिता के पास पहुंचा और बोला-पिताजी, इतना धनी होने पर भी आपने मेरी कुछ सहायता नहीं की। मैंने सेना में काम किया और राजा को परसन्न कर एक इलाका मोल लिया। उसके बन्धन के लिए धन की जरूरत है। मैं तीसरे भाग का हिस्सेदार हूं, इसलिए मेरा भाग मुझे दे दीजिए कि अपना इलाका ठीक करुं।

amol
11-11-2012, 05:11 PM
पिता-भला मैं पूछता हूं कि तुमने नौकरी पर रहते हुए कभी कुछ घन भी भेजा? सब काम सुमंत करता है। मेरी समझ में तुम्हें तीसरा भाग देना सुमंत और मनोरमा के साथ अन्याय करना है।
विजय-सुमंत तो मूर्ख है। मनोरमा गूंगी और बहरी है। उन्हें धन का क्या काम है। वे धन से क्या लाभ उठा सकते हैं?
पिता-अच्छा, सुमंत से पूछ लूं।
पिता के पूछने पर सुमंत ने परसन्नतापूर्वक यही कहा कि विजय को उसका तीसरा भाग दे देना चाहिए।
विजय तीसरा भाग लेकर राजा के पास चला गया।
तारा ने भी व्यापार में बहुत धन संचय करके एक धनी पुरुष की पुत्री से विवाह किया। परन्तु धन की लालसा फिर भी बनी रही। वह भी पिता के पास आकर तीसरा भाग मांगने लगा।
पिता-मैं तुम्हें एक कौड़ी भी देना नहीं चाहता। विचारो तो, तुमने सौदागरी की कोठी खोलकर इतना धन इकट्ठा किया, कभी पिता को भी पूछा? यहां जो कुछ है, सब सुमंत की कमाई का फल है। उसका पेट काटकर तुम्हें दे देना अनुचित है।
तारा-मूर्ख सुमंत को धन लेकर करना ही क्या है? आपके विचार में सुमंत जैसे मूर्ख से कोई भी पुरुष अपनी कन्या ब्याह देगा? कदापि नहीं! रही मनोरमा, वह गूंगी और बहरी है। मैं सुमंत से पूछ लेता हूं कि वह क्या कहता है!

amol
11-11-2012, 05:11 PM
तारा के पूछने पर सुमंत ने तीसरा भाग देना तुरन्त स्वीकार कर लिया और तारा भी अपना भाग लेकर चम्पत हुआ। सुमंत के पास जो कुछ सामान बच रहा, उसी से खेती का काम करके मातापिता की सेवा करने लगा।
यह कौतुक देखकर अधर्म बड़ा दुःखी हुआ कि भाइयों ने परीतिसहित धन बांट लिया। जूतीपैजार कुछ भी न हुई। तीन भूतों को बुलाकर कहने लगा-देखो विजय, तारा, सुमंत तीन भाई हैं। धन बांटते समय उन्हें आपस में झगड़ा करना उचित था, परन्तु मूर्ख सुमंत ने सब काम बिगाड़ डाला। उसी की मू़ता से तीनों भाई आनन्द से जीवन व्यतीत कर रहे हैं। तुम जाओ और एकएक के पीछे पड़कर ऐसा उत्पात मचाओ कि सबके-सब आपस में लड़ मरें। देखना, बड़ी चतुराई से काम करना।
तीनों भूत-धमार्वतार! जो तीनों को आपस में लड़ालड़ाकर मार न डाला, तो हमारा नाम अधर्मराज के भूत ही नहीं।
अधर्म-वाहवाह, शाबास! जाओ, मगर जो बिना काम पूरा किए लौटे तो खाल खींच लूंगा। इतना समझ लो।
तीनों भूत चलकर एक झील के किनारे बैठ गए और यह निश्चय किया कि कौन कौन किसकिस भाई के पीछे लगे और साथ ही नियम बांध दिया कि जिस भूत का कार्य पहले समाप्त हो जाए, वह तुरन्त दूसरे भूतों की सहायता करे।
कुछ दिन पीछे वे तीनों फिर उसी झील पर जमा हुए और अपनीअपनी कथा कहने लगे।

amol
11-11-2012, 05:12 PM
पहला-भाई साहब, मेरा काम तो बन गया। विजय भागकर पिता की शरण लेने के सिवाय अब और कुछ नहीं कर सकता।
दूसरा-बताओ तो उसे कैसे फांसा?
पहला-मैंने विजय को इतना घमंडी बना दिया कि वह एक दिन राजा से कहने लगा कि महाराज, यदि आप मुझे सेनापति की पदवी पर नियत कर दें तो मैं आपको सारे जगत का चक्रवर्ती राजा बना दूं। राजा ने उसे तुरन्त सेनापति बनाकर आज्ञा दी कि लंका के राजा को पराजित कर दो। बस फिर क्या था, लगी युद्ध की तैयारियां होने। लड़ाई छिड़ने से एक रात पहले मैंने विजय का सारा बारूद गीला कर दिया। उधर लंका के राजा के लिए घास के अनगिनत सिपाही बना दिये। दोनों सेनाओं के सम्मुख होने पर विजय के सिपाहियों ने घास के बने हुए अनन्त योद्घाओं को देखा तो उनके छक्के छूट गए। विजय ने गोले फेंकने का हुक्म दिया। बारूद गीली हो ही चुकी थी, तोपें आग कहां से देतीं? फल यह हुआ कि विजय की सेना को भागना ही पड़ा। राजा ने क्रोध करके उसका बड़ा अपमान किया। उसका इलाका छिन गया। इस समय वह बन्दीखाने में कैद है। बस, केवल यह काम शेष रह गया, कि उसे बन्दीखाने से निकालकर उसको पिता के घर पहुंचा दूं। फिर छुट्टी है, जो चाहे उसकी सहायता के लिए तैयार हूं।
दूसरा-मेरा कार्य भी सिद्ध हो गया है। तुम्हारी सहायता की कोई आवश्यकता नहीं। तारा को पहले तो मोटा करके आलसी बनाया। फिर इतना लोभी बना दिया कि वह संसारभर का माल लेलेकर कोठरी भरने लगा। उसकी खरीद अभी तक जारी है। उसका सब धन खर्च हो गया और अब उधार रुपया लेकर माल ले रहा है। एक सप्ताह में उसका सब माल सत्यानाश कर दूंगा और तब उसे सिवाय पिता की शरण जाने के और कोई उपाय न रहेगा।

amol
11-11-2012, 05:12 PM
तीसरा-भाई, हमारा हाल तो बड़ा पतला है। पहले मैंने सुमंत के पीने के पानी में पेट में दर्द उत्पन्न करने वाली बूटी मिलायी, फिर खेत में जाकर धरती को ऐसा कड़ा कर दिया कि उस पर हल न चल सके। मैं समझता था कि पीड़ा के कारण वह खेत बाहने न आएगा। परन्तु वह तो बड़ा ही मू़ है। आया और हल चलाने लगा। हायहाय करता जाता था, परन्तु हल हाथ से न छोड़ता था। मैंने हल तोड़ दिया, वह घर जाकर दूसरा ले आया। मैंने धरती में घुसकर हल की आनी पकड़ ली, उसने ऐसा धक्का मारा कि मेरे हाथ कटतेकटते बचे। उसने केवल एक टुकड़े के सिवाय बाकी सारा खेत बाह लिया है। यदि तुम मेरी सहायता न करोगे तो सारा खेल बिगड़ जाएगा; क्योंकि यदि वह इस परकार खेतों को बाहता और बोता रहा, तो उसके भाई भूखे नहीं मर सकते। फिर बैरभाव किस भांति उत्पन्न हो सकता है? सुखपूर्वक उनका पालनपोषण करता रहेगा।
पहला-कुछ चिंता नहीं। देखा जाएगा। घबराओ नहीं। कल अवश्य तुम्हारे पास आऊंगा।

amol
11-11-2012, 05:12 PM
सुमंत हल चला रहा था, अचानक पैर एक झाड़ी में फंस गया। उसे अचम्भा हुआ कि खेत में तो कोई झाड़ी न थी, यह कहां से आयी। बात यह थी कि भूत ने झाड़ी बनाकर सुमंत की टांग पकड़ ली थी।
सुमंत ने हाथ डालकर झाड़ी को जड़ से उखाड़ डाला, देखा तो उसमें काले रंग का एक भूत बैठा हुआ है।
सुमंत-(गला दबाकर) बोला, दबाऊं गला?
भूत-मुझे छोड़ दो। मुझसे जो कहोगे, वही करुंगा।
सुमंत-तुम क्या कर सकते हो?
भूत-सब कुछ।
सुमंत-मेरे पेट में दर्द हो रहा है, उसे अच्छा कर दो।
भूत-बहुत अच्छा।
भूत ने धरती में से तीन बूटियां लाकर एक बूटी सुमंत को खिला दी, दर्द बंद हो गया और दूसरी दो बूटियां सुमंत को देकर बोला-जिसको एक बूटी खिला दोगे, उसके सब रोग तत्काल दूर हो जायेंगे। अब मुझे जाने की आज्ञा दो। मैं फिर कभी न आऊंगा।
सुमंत-हां, जाओ, परमात्मा तुम्हारा भला करे।
परमात्मा का नाम सुनते ही भूत रसातल चला गया। केवल वहां एक छेद रह गया।
सुमंत ने दूसरी दो बूटियां पगड़ी में बांध लीं और घर चला आया, देखा कि विजय और उसकी स्त्री आये हुए हैं। बड़ा परसन्न हुआ।
विजय बोला-भाई सुमंत, जब तक मुझे नौकरी न मिले, तुम हम दोनों को यहां रख सकते हो?
सुमंत-क्यों नहीं, आपका घर है। आप आनन्द से रहिए।
भोजन करते समय विजय की सभ्य स्त्री पति से बोली कि सुमंत के शरीर से मुझे दुर्गन्ध आती है, इसे बाहर भेज दो।

amol
11-11-2012, 05:12 PM
विजय-सुमंत, मेरी स्त्री कहती है कि तुम्हारे शरीर से दुगरंध आती है। पास बैठा नहीं जाता। तुम बाहर जाकर भोजन कर लो।
सुमंत-बहुत अच्छा, तुम्हें कष्ट न हो।
दूसरे दिन विजय वाला भूत खेत में आकर सुमंत वाले भूत को खोजने लगा। कहीं पता नहीं मिला, खेत के एक कोने पर छेद दिखाई दिया।
भूत जान गया कि साथी काम आया और खेत जुत चुका। क्या हुआ, चरावर में चलकर इस मूर्ख को देखता हूं। सुमंत के चरावर में पहुंचकर उसने इतना पानी छोड़ा कि सारी घास उसमें डूब गई।
इतने में सुमंत वहां आकर हंसुवे से घास काटने लगा। हंसुवे का मुंह मुड़ गया, घास किसी तरह न कटती थी। सुमंत ने सोचा कि यहां वृथा समय गंवाने से क्या लाभ होगा, पहले हंसुवा तेज करना चाहिए। रहा काम, यह तो मेरा धर्म है। एक सप्ताह क्यों न लग जाए, मैं घास काटे बिना यहां से चला जाऊं मेरा नाम सुमंत नहीं।
सुमंत घर जाकर हंसुवा ठीक कर लाया। भूत ने हंसुवा को पकड़ने का साहस किया, परंतु पकड़ न सका, क्योंकि सुमंत लगातार घास काटे जाता था। जब केवल घास का एक छोटासा टुकड़ा शेष रह गया तो भूत भागकर उसमें जा छिपा।
सुमंत कब रुकने वाला था! वह वहां पहुंचकर घास काटने लगा। भूत वहां से भागा भागते समय उसकी पूंछ कट गई।

amol
11-11-2012, 05:13 PM
भूत ने विचारा कि चलो, जयी के खेतों में चलें, देखें जयी कैसे काटता है। वहां जाकर देखा तो जयी कटी पड़ी है।
भूत ने विचार किया कि यह मूर्ख बड़ा चांडाल है। दिन निकलने नहीं दिया। रातरात में सारी जयी काट डाली। यह दुष्ट तो रात को भी काम में लगा रहता है। अच्छा, खलिहान में चलकर इसका भूसा सड़ाता हूं।

भूत भागकर चरी में छिप गया। सुमंत गाड़ी लेकर चरी लादने के लिए खलिहान में पहुंचा। एकएक पूली उठाकर गाड़ी में रखने लगा कि एक पूला में से भूत निकल पड़ा।
सुमंत-अरे दुष्ट, तू फिर आया?

भूत-मैं दूसरा हूं, पहला मेरा भाई था।
सुमंत-कोई हो, अब जाने न पाओगे।
भूत-कृपा करके मुझे छोड़ दीजिए। आप जो आज्ञा दें, वही करने को तैयार हूं।
सुमंत-तुम क्या कर सकते हो?

भूत-मैं भूसे के सिपाही बना सकता हूं।
सुमंत-सिपाही क्या काम देते हैं?

भूत-तुम उनसे जो चाहो, सो काम करा सकते हो।
सुमंत-वे गाना गा सकते हैं?

भूत-क्यों नहीं!
सुमंत-अच्छा, बनाओ।

भूत-तुम चरी के पूले लेकर यह मंत्र पॄो-'हे पूले, मेरी आज्ञा से सिपाही बन जा' और फिर पूले को धरती पर मारो, सिपाही बन जाएगा।

amol
11-11-2012, 05:13 PM
सुमंत ने वैसा ही किया, पूले सिपाही बनने लगे। यहां तक कि पूरी पलटन बन गई और मरू बाजा बजने लगा।
सुमंत-(हंसकर) वाह भाई, वाह! यह तो खूब तमाशा है, इसे देखकर बालक बहुत परसन्न होंगे।
भूत-आज्ञा है, अब जाऊं?
सुमंत-नहीं, अभी मुझे फिर पूले बना देने का मंत्र भी सिखा दो, नहीं तो ये हमारा सारा अनाज ही चट कर जायेंगे।
भूत बस, यह मंत्र पॄो-'हे सिपाही, मेरे सेवक, मेरी आज्ञा से फिर पूले बन जाओ।' तब यह सब फिर पूले बन जायेंगे।
सुमंत ने मंत्र पॄा, सबके-सब पूले बन गए।
भूत-अब जाऊं? आज्ञा है।
सुमंत-हां जाओ, भगवान तुम पर दया करे।
भगवान का नाम सुनते ही भूत धरती में समा गया। पहले की भांति एक छेद शेष रह गया।
सुमंत जब घर लौटा तो देखा कि स्त्री सहित मंझला भाई तारा आया हुआ है। वह सुमंत से बोला-भाई सुमंत, लेहनेदारों के डर से भागकर तुम्हारे पास आये हैं। जब तक कोई रोजगार न करें, यहां ठहर सकते हैं कि नहीं?
सुमंत-क्यों नहीं, घर किसका और मैं किसका? आप आनंद से रहिए।
भोजन परसे जाने पर तारा की स्त्री ने तारा से कहा कि मैं गंवार के पास बैठकर भोजन नहीं कर सकती।
तारा-भाई सुमंत, मेरी स्त्री तुमसे घिन करती है। बाहर जाकर भोजन कर लो।
सुमंत-अच्छी बात है। आपका चित्त परसन्न चाहिए।

amol
11-11-2012, 05:13 PM
दूसरे दिन तारा वाला भूत सुमंत को दुःख देने के वास्ते खेत में पहुंचकर साथियों का ढूंढने लगा, पर किसी का पता न चला। खोजतेखोजते एक छेद तो खेत के कोने में मिला, दूसरा खलिहान में। उसे मालूम हो गया कि दोनों के दोनों यमलोक जा पहुंचे। अब मुझी से इस मूर्ख की बनेगी। देखूं कहां बचकर जाता है।
अतएव वह सुमंत की खोज लगाने लगा। सुमंत उस समय मकान बनाने के वास्ते जंगल में वृक्ष काट रहा था। दोनों भाइयों के आ जाने से घर में आदमियों के लिए जगह न थी। भाई यह चाहते थे कि अलगअलग मकान में रहें, इसलिए मकान बनाना आवश्यक हो गया था।
भूत वृक्ष पर च़कर शाखाओं में बैठ, सुमंत के काम में विघ्न डालने लगा। सुमंतकब टलने वाला था, संध्या होतेहोते उसने कई वृक्ष काट डाले। अंत में उसने उस वृक्ष को भी काट दिया, जिस पर भूत च़ा बैठा था। टहनियां काटते समय भूत उसके हाथ में आ गया।
सुमंत-हैं! तुम फिर आ गए?
भूत-नहींनहीं, मैं तीसरा हूं। पहले दोनों मेरे भाई थे।
सुमंत-कुछ भी हो, अब मैं नहीं छोड़ने का।
भूत-तुम जो कुछ कहोगे, वही करुंगा। कृपा करके मुझे जान से न मारिए।
सुमंत-तुम क्या कर सकते हो?
भूत-मैं वृक्ष के पत्तों से सोना बना सकता हूं।
सुमंत-अच्छा, बनाओ।
भूत ने वृक्ष के सूखे पत्ते लेकर हाथ से मले और मंत्र पॄकर सोना बना दिया। सुमंत ने मंत्र सीख लिया और सोना देखकर परसन्न हुआ।
सुमंत-भाई भूत, इसका रंग तो बड़ा सुन्दर है, बालकों के खिलौने इसके अच्छे बन सकते हैं।
भूत-अब आज्ञा है, जाऊं?
सुमंत-जाओ, परमेश्वर तुम पर अनुगरह करें।
परमेश्वर का नाम सुनते ही यह भूत भी भूमि में समा गया, केवल छेद ही छेद बाकी रह गया।

amol
11-11-2012, 05:14 PM
घर बनाकर तीनों भाई सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगे। जन्माष्टमी के त्योहार पर सुमंत ने भाइयों को भोजन करने को नेवता भेजा। उन्होंने उत्तर दिया कि हम गवारों के साथ परीतिभोजन नहीं कर सकते।
सुमंत ने इस पर कुछ बुरा नहीं माना। गांव के स्त्रीपुरुष, बालक और बालिकाओं को एकत्र करके भोजन करने लगा।
भोजन करने के उपरांत सुमंत बोला-क्यों भाई मित्रो, एक तमाशा दिखलाऊं?
सब-हां, दिखालाइए।
सुमंत ने सूखे पत्ते लेकर सोने का एक टोकरा भर दिया और लोगों की ओर फेंकने लगा। किसान लोग सोने के टुकड़े लूटने लगे। आपस में इतना धक्कमधक्का हुआ कि एक बेचारी बुयि कुचल गई।
समंत ने सबको धिक्कार कर कहा-तुम लोगों ने बू़ी माता को क्यों कुचल दिया शांत हो जाओ तो और सोना दूं। यह कहकर टोकरी का सब सोना लुटा दिया। फिर सुमंत ने स्त्रियों से कहा कि कुछ गाओ। स्त्रियां गाने लगीं।
सुमंत-हूं, तुम्हें गाना नहीं आता।
स्त्रियां-हमें तो ऐसा ही आता है, और अच्छा सुनना हो तो किसी और को बुला लो।
सुमंत ने तुरंत ही भूसे के सिपाही बनाकर पलटन खड़ी कर दी, बैंड बजने लगा। गंवार लोगों को बड़ा ही अचम्भा हुआ। सिपाही बड़ी देर तक गाते रहे, तब सुमंत ने उनको फिर भूसा बना दिया और सब लोग अपनेअपने घर चले गए।

amol
11-11-2012, 05:14 PM
परातःकाल विजय ने यह चचार सुनी तो हांफताहांफता सुमंत के पास आया, बोला-भाई सुमंत, यह सिपाही तुमने किस रीति से बनाए थे?
सुमंत-क्यों? आपको क्या काम है?
विजय-काम की एक ही कही। सिपाहियों की सहायता से तो हम राज्य जीत सकते हैं।
सुमंत-यह बात है! तुमने पहले क्यों नहीं कहा? खलिहान में चलिए, वहां चलकर जितने कहो, उतने सिपाही बना देता हूं, परंतु शर्त यह है कि उन्हें तुरंत ही यहां से बाहर ले जाना, नहीं तो वे गांव का गांव चट कर जायेंगे।
अतएव खलिहान में जाकर उसने कई पलटनें बना दीं और पूछा-बस कि और?
विजय-(परसन्न होकर) बस बहुत है, तुमने बड़ा एहसान किया।
सुमंत-एसान की कौनसी बात है। अब के वर्ष भूसा बहुत हुआ है यदि कभी टोटा पड़ जाय तो फिर आ जाना, फिर सिपाही बना दूंगा।
अब विजय धरती पर पांव नहीं रखता था। सेना लेकर उसने तुरंत युद्ध करने के वास्ते परस्थान कर दिया।
विजय के जाते ही तारा भी आ पहुंचा और सुमंत से बोला-भाई साहब, मैंने सुना है कि तुम सोना बना लेते हो। हायहाय! यदि थोड़ासा सोना मुझे मिल जाए तो मैं सारे संसार का धन खींच लूं।
सुमंत-अच्छा, सोने में यह गुण है! तुमने पहले क्यों नहीं कहा? बतलाओ, कितना सोना बना दूं?
तारा-तीन टोकरे बना दो।
सुमंत ने तीन टोकरे सोना बना दिया।
तारा-आपने बड़ी दया की।
सुमंत-दया की कौन बात है, जंगल में पत्ते बहुत हैं। यदि कमी हो जाय तो फिर आ जाना, जितना सोना मांगोगे, उतना ही बना दूंगा।
सोना लेकर तारा व्यापार करने चल दिया।
विजय ने सेना की सहायता से एक बड़ा भारी राज्य विजय कर लिया। उधर तारा के धन का भी पारावार न रहा। एक दिन दोनों में मुलाकात हुई। बातें होने लगीं।
विजय-भाई तारा, मैंने तो अपना राज्य अलग बना लिया और अब चैन करता हूं, परंतु इन सिपाहियों का पेट कहां से भरुं? रुपये की कमी है, सदैव यही चिंता बनी रही है।

amol
11-11-2012, 05:14 PM
तारा-तो क्या आप समझते हैं कि मुझे चिन्ता नहीं है, मेरे धन की गिनती नहीं, पर उसकी रख वाली करने को सिपाही नहीं मिलते। बड़ी विपत्ति में पड़ा हूं।
विजय-चलिए, सुमंत मूर्ख के पास चलें। मैं तुम्हारे वास्ते थोड़े से सिपाही बनवा दूं और तुम मेरे लिए थोड़ासा सोना बनवा दो।
तारा-हां, ठीक है, चलिए।
दोनों भाई सुमंत के पास पहुंचे।
विजय-भाई सुमंत, मेरी सेना में कुछ कमी है, कुछ सिपाही और बना दो।
सुमंत-नहीं, अब मैं और सिपाही नहीं बनाता।
विजय-पर तुमने वचन जो दिया था, नहीं तो मैं आता ही क्यों? कारण क्या है? क्यों नहीं बनाते?
सुमंत-कारण यह कि तुम्हारे सिपाहियों ने एक मनुष्य को मार डाला। कल जब मैं अपना खेत जोत रहा था, तो पास से एक अरथी देखी। मैंने पूछा, कौन मर गया? एक स्त्री ने कहा कि विजय के सिपाहियों ने युद्ध में मेरे पति को मार डाला। मैं तो आज तक केवल यह समझता था कि सिपाही बैंड बजाया करते हैं, परन्तु वे तो मनुष्य की जान मारने लगे। ऐसे सिपाही बनाने से तो संसार का नाश हो जाएगा।
तारा-अच्छा, यदि सिपाही नहीं बनाते, तो मेरे लिए सोना तो थोड़ासा और बना दो। तुमने वचन दिया था कि कमी हो जाने पर फिर बना दूंगा।
सुमंत-हां, वचन तो दिया था, पर मैं अब सोना भी न बनाऊंगा।
तारा-क्यों?
सुमंत-इसलिए कि तुम्हारे सोने ने बसंत की लड़की से उसकी गाय छीन ली।
तारा-यह कैसे?
सुमंत-बसंत की पुत्री के पास एक गाय थी। बालक उसका दूध पीते थे। कल वे बालक मेरे पास दूध मांगने आए। मैंने पूछा कि तुम्हारी गाय कहां गई, तो कहने लगे कि तारा का एक सेवक आकर तीन टुकड़े सोने के देकर हमारी गाय ले गया। मैं तो यह जानता था कि सोना, बनवाबनवाकर तुम बालकों को बहलाया करोगे, परंतु तुमने तो उनकी गाय ही छीन ली। बस, सोना अब नहीं बन सकता।
दोनों भाई निराश होकर लौट पड़े। राह में यह समझौता हुआ कि विजय तारा को कुछ सिपाही दे दे और तारा विजय को कुछ सोना। कुछ दिन बाद धन के बल से तारा ने भी एक राज्य मोल ले लिया और दोनों भाई राजा बनकर आनंद करने लगे।

amol
11-11-2012, 05:15 PM
सुमंत गूंगी बहन के सहित खेती का काम करते हुए अपने मातापिता की सेवा करने लगा। एक दिन उसकी कुतिया बीमार हो गई, उसने तत्काल पहले भूत की दी हुई बूटी उसे खिला दी। वह निरोग होकर खेलनेकूदने लगी। यह हाल देखकर मातापिता ने इसका ब्यौरा पूछा। सुमंत ने कहा कि मुझे एक भूत ने दो बूटियां दी थीं। वह सब परकार के रोगों को दूर कर सकती हैं। उनमें से एक बूटी मैंने कुतिया को खिला दी।
उसी समय दैवगति से वहां के राजा की कन्या बीमार हो गई। राजा ने यह डोंडी पिटवायी थी कि जो पुरुष मेरी कन्या को अच्छा कर देगा, उसके साथ उसका विवाह कर दिया जाएगा। मातापिता ने सुमंत से कहा कि यह तो बड़ा अच्छा अवसर है। तुम्हारे पास एक बूटी बची है। जाकर राजा की कन्या को अच्छा कर दो और उमर भर चैन करो।
सुमंत जाने पर राजी हो गया। बाहर आने पर देखा कि द्वार पर कंगाल बुयि खड़ी है।
बुयि-सुमंत, मैंने सुना है कि तुम रोगियों का रोग दूर कर सकते हो। मैं रोग के हाथों बहुत दिनों से कष्ट भोग रही हूं। पेट को रोटियां मिलती ही नहीं, दवा कहां से करुं? तुम मुझे कोई दवा दे दो तो बड़ा यश होगा।
सुमंत तो दया का भंडार था, बूटी निकालकर तुरंत बुयि को खिला दी। वह चंगी होकर उसे आशीष देती हुई घर को चली गई।
मातापिता यह हाल सुनकर बड़े दुःखी हुए और कहने लगे कि सुमंत, तुम बड़े मूर्ख हो। कहां राजकन्या और कहां यह कंगाल बुयि! भला इस बुयि को चंगा करने से तुम्हें क्या मिला?
सुमंत-मुझे राजकन्या के रोग दूर करने की भी चिन्ता है। वहां भी जाता हूं।
माता-बूटी तो है ही नहीं, जाकर क्या करोगे?
सुमंत-कुछ चिन्ता नहीं, देखो तो सही क्या होता है।
समदर्शी पुरुष देवरूप होता है। सुमंत के राजमहल पर पहुंचते ही राजकन्या निरोग हो गईं। राजा ने अति परसन्न होकर उसका विवाह सुमंत के साथ कर दिया।
इसके कुछ काल पीछे राजा का देहान्त हो गया। पुत्र न होने के कारण वहां का राज सुमंत को मिल गया।
अब तीनों भाई राजपदवी पर पहुंच गए।

amol
11-11-2012, 05:15 PM
विजय का परभाव सूर्य की भांति चमकने लगा। उसने भूसे के सिपाहियों से सचमुच के सिपाही बना दिए। राज्य भर में यह हुक्म जारी कर दिया कि दस घर पीछे एक मनुष्य सेना में भरती किया जाए और कवायदपरेड कराकर सेना को अस्त्रशस्त्र विद्या में ऐसा चतुर कर दिया, कि जब कोई शत्रु सामना करता, तो वह तुरंत उसका विध्वंस कर देता। सारे राजा उसके भय से कांपने लगे, वह अखंड राज करने लगा।
तारा बड़ा बुद्धिमान था। उसने धन संचय करने के निमित्त मनुष्यों, घोड़ों, गाड़ियों, जूतों, जुराबों, वस्त्रों तात्पर्य यह कि जहां तक हो सका, सब व्यावहारिक वस्तुओं पर कर बैठा दिया। धन रखने को लोहे की सलाखों वाले पक्के खजाने बना दिये और चौरीचकारी, लूटमार, धन सम्बन्धी झगड़े बन्द करने के निमित्त अनगिनत कानून जारी कर दिए। संसार में रुपया ही सबकुछ है। रुपये की भूख से सब लोग आकर उसकी सेवा करने लगे।
अब सुमंत मूर्ख की करतूत सुनिए। ससुर का क्रियाकर्म करके उसने राजसी रत्नजटित वस्त्रों को उतारकर, सन्दूक में बन्द कर अलग धर दिए। मोटेझोटे कपड़े पहन लिये और किसानों की भांति खेती का काम करने का विचार किया। बैठेबैठे उसका जी ऊबता था।
भोजन न पचता, बदन में चबीर ब़ने लगी, नींद और भूख दोनों जाती रही। उसने अपनी गूंगी बहन और मातापिता को अपने पास बुला लिया और ठीक पहले की भांति खेती का काम करना आरंभ कर दिया।
मंत्री-आप तो राजा हैं, आप यह क्या काम करते हैं!
सुमंत-तो क्या मैं भूखा मर जाऊं? मुझे तो काम के बिना भूख ही नहीं लगती। करुं तो क्या करुं?
दूसरा मंत्री-(सामने आकर) महाराज, राज्य का परबंध किस परकार किया जाए? नौकरों को तलब कहां से दें? रुपया तो एक नहीं।
सुमंत-यदि रुपया नहीं तो तलब मत दो।
मंत्री-तलब लिये बिना काम कौन करेगा?
सुमंत-काम कैसा, न करने दो। करने को खेतों में क्या काम थोड़ा है। खाद संभालना, समय पर खेती करना, यह सब काम ही हैं कि और कुछ?
इतने में एक मुकदमे वाले सामने आये।
किसान-महाराज, उसने मेरे रुपये चुरा लिये।
सुमंत-कोई बात नहीं, उसको रुपये की जरूरत होगी।
सब लोग जान गये कि सुमंत महामूर्ख है। एक दिन रानी बोली-'पराणनाथ, सब लोग यही कहते हैं कि आप मूर्ख हैं।
सुमंत-तो इसमें हानि ही क्या है?

amol
11-11-2012, 05:15 PM
रानी ने विचारा कि धर्मशास्त्र की यही आज्ञा है कि स्त्री का परमेश्वर पति है। जिसमें वह परसन्न रहे, वही काम करना धर्म है। अतएव वह भी राजा सुमंत के साथ खेती का काम करने लगी।
यह दशा देखकर बुद्धिमान पुरुष सबके-सब अन्य देशों में चले गये। केवल मूर्ख ही मूर्ख यहां रह गए। इस राज्य में रुपया परचलित न था। राजा से लेकर रंक तक खेती का काम करते, आप खाते और दूसरों को खिलाकर परसन्न होते।

इधर अधर्मराज बैठे देख रहे हैं कि तीनों भाइयों का सर्वनाश करके भूत अब आते हैं, अब आते हैं; परंतु वहां आता कौन? अधर्म को बड़ा आश्चर्य हुआ कि यह क्या बात है। अंत में सोचविचारकर स्वयं खोज लगाने के लिए चला।
सुमंत के पुराने गांव में जाने पर ूंढ़ने से तीन छेद मिले। अधर्म को मालूम हो गया कि तीनों भूत मारे गए। वह भाइयों की खोज में चला। जाकर देखा तो तीनों भाई राजा बने बैठे हैं। फिर क्या था, जलभुनकर राख ही तो हो गया। दांत पीसकर बोला-देखूं यह सब मेरे हाथ से बचकर कहां जाते हैं? वह एक सेनापति का वेश बदलकर पहले विजय के पास पहुंचा और हाथ जोड़कर विनय की-महाराज, मैंने सुना है कि आप महा शूरवीर हैं। मैं अस्त्रशस्त्र विद्या में अति निपुण हूं। इच्छा है कि आपकी सेवा करके अपना गुण परकट करुं।
विजय उसकी चितवनों से ताड़ गया कि आदमी चतुर और बुद्धिमान है, उसे झट सेनापति की पदवी पर नियुक्त कर दिया।
नवीन सेनापति सेना को ब़ाने का परबन्ध करने लगा। विजय से बोला-महाराज, मेरे ध्यान में राज्य में बहुत लोग ऐसे हैं जो कुछ नहीं करते। राज्य की स्थिरता सेना से ही होती है। इसलिए एक तो सब युवक पुरुषों को रंगरूट भरती करके सेना पहले से पांचगुनी कर देनी चाहिए, दूसरे नये नमूने की बन्दूकें और तोपें बनाने के वास्ते राजधानी में कारखाने खोलने चाहिए। मैं एक फायर में सौ गोली चलाने वाली बन्दूक और घोड़े, मकान, पुल इत्यादि नष्ट कर देने वाली तोपें बना सकता हूं।

amol
11-11-2012, 05:16 PM
विजय ने परसन्नापूर्वक झट सारी राजधानी में एक आज्ञापत्र जारी कर दिया कि सब लोग रंगरूट भरती किए जायं। नये नमूने की तोपें और बंदूकें बनाने के वास्ते जगहजगह कारखाने खोल दिए। युद्ध की समस्त सामगरी जमा होने पर पहले उसने पड़ोसी राजा को जीता, फिर मैसूर के राजा पर च़ाई का डांका बजा दिया।
पर सौभाग्य से मैसूर के राजा ने विजय का सारा वृत्तांत सुन रखा था। विजय ने तो पुरुषों को ही भरती किया था, उसने स्त्रियों को भी सेना में भरती कर लिया। नये से नये नमूने की बन्दूकें और तोपें बना डालीं, सेना विजय से चौगुनी कर दी और नवीन कल्पना यह की कि बम के ऐसे गोले बनाए जाएं जो आकाश से छोड़े जाएं और धरती पर फटकर शत्रु की सेना का नाश कर दें।
विजय ने समझा था कि पड़ोसी राजा की भांति छिन में मैसूर के राजा को जीतकर उसकी राज्य छीन लूंगा, परन्तु यहां रंगत ही कुछ और हुई। सेना अभी गोली की मार में भी नहीं पहुंची थी की शत्रु की सेना की स्त्रियों ने आकाश से बम के गोले बरसाने आरम्भ कर दिए विजय की सारी सेना काई की भांति फट गई। आधी वहीं काम आयी, आधी भयभीत होकर भाग गयी। विजय अकेला क्या कर सकता था? भागते ही बनी। मैसूर के राजा ने उसके राज्य पर अपना अधिकार कर लिया।
विजय का सर्वनाश करके अधर्म तारा के राज्य में पहुंचा और सौदागर का वेश धारण करके वहां एक कोठी खोल दी। जो पुरुष कोई माल बेचने आता, उसे चौगुनेपचगुने दाम पर ले लेता। शीघर ही वहां की परजा मालदार हो गई। तारा यह हाल देखकर बड़ा परसन्न हुआ और कहने लगा कि व्यापार बड़ी वस्तु है। इस सौदागर के आने से मेरा कोष धन से भर गया। किसी बात की कमी नहीं रही।

amol
11-11-2012, 05:16 PM
अब तारा ने एक महल बनाना शुरू किया। उसे विश्वास था कि रुपये के लालच से राज, मजदूर, मसाला सब कुछ सामगरी शीघर ही मिल जायेगी कोई कठिनाई न होगी। परन्तु राजा का महल बनाने के वास्ते कोई न आया। अधर्म सौदागर के पास रुपये की गिनती न थी। उसकी अपेक्षा राजा उससे अधिक मजूरी और दाम नहीं दे सकता। उसका महल न बन सका। तारा को साधारण मकान में ही रहना पड़ा।
इसके पीछे उसने एक बाग लगाना आरम्भ किया। उस सौदागर ने तालाब खुदवाना शुरू कर दिया। सब लोग रुपया अधिक होने के कारण सौदागर के वश में थे। राजा का काम कोई न करता था। बाग भी बीच में ही रह गया। शीतकाल आने पर तारा ने ऊनी वस्त्र आदि खरीदने का विचार किया। सारा संसार छान डाला। जहां पूछा, यही उत्तर मिला कि सौदागर ने कोई वस्त्र नहीं छोड़ा, सारे के सारे खरीदकर ले गया।
यहां तक कि रुपये के परभाव से अधर्म ने राजा के सब नौकर अपने पास खींच लिये। राजा भूखों मरने लगा। क्रुद्ध होकर उसने सौदागर को अपनी राजधानी से निकाल दिया। अधर्म ने सीमा पर जाकर डेरा जमाया। तारा को कुछ करतेधरते नहीं बनता था। उसे उपवास किए तीन दिन बीत चुके थे कि विजय आकर सम्मुख खड़ा हो गया।
विजय-भाई तारा, मैं तो मर चुका। मेरी सेना, राजपाट सब नष्ट हो गया। मैसूर के राजा ने मेरी राजधानी पर अपना अधिकार कर लिया, भागकर तुम्हारे पास आया हूं, मेरी कुछ सहायता कीजिए।
तारा-सहायता की एक ही कही। यहां आप अपनी जान पर आ बनी है। उपवास किए तीन दिन हो चुके हैं, खाने को अन्न तक तो मिलता नहीं, तुम्हारी सहायता किस परकार करुं?

amol
11-11-2012, 05:17 PM
राजपूत कैदी
लिओ तोलस्तॉय

अनुवाद - प्रेमचंद

amol
11-11-2012, 05:18 PM
धर्म सिंह नामी राजपूत राजपूताना की सेना में एक अफसर था। एक दिन माता की पत्री आई कि मैं बूढ़ी होती जाती हूँ, मरने से पहले एक बार तुम्हें देखने की अभिलाषा है, यहाँ आकर मुझे विदा कर आशीर्वाद लो और क्रिया कर्म करके आनंदपूर्वक नौकरी पर लौट जाना। तुम्हारे वास्ते मैंने एक कन्या खोज रखी है, वह बड़ी बुद्धिमती और धनवान है। यदि तुम्हें भाए तो उससे विवाह करके सुखपूर्वक घर ही पर रहना।
उसने सोचा- ठीक है, माता दिनों-दिन दुर्बल होती जा रही है, संभव है कि फिर मैं उसके दर्शन न कर सकूँ। इस कारण चलना ही ठीक है। कन्या यदि सुंदर हुई तो विवाह करने में क्या हानि है। वह सेनापति से छुट्टी लेकर, साथियों से विदा हो, चलने को प्रस्तुत हो गया।
उस समय राजपूतों और मरहठों में युद्ध हो रहा था। रास्ते में सदैव भय रहता था। यदि कोई राजपूत अपना किला छोड़कर कुछ दूर बाहर निकल जाता था, तो मरहठे उसे पकड़कर कैद कर लेते थे। इस कारण यह प्रबंध किया गया था कि सप्ताह में दो बार सिपाहियों की एक कंपनी मुसाफिरों को एक किले से दूसरे किले तक पहुँचा आया करती थी।

amol
11-11-2012, 05:18 PM
गरमी की रात थी। दिन निकलते ही किले के नीचे असबाब की गाड़ियाँ लाद कर तैयार हो गईं। सिपाही बाहर आ गए और सबने सड़क की राह ली। धर्म सिंह घोड़े पर सवार हो, आगे चल रहा था। सोलह मील का सफर था, गाड़ियाँ धीरे-धीरे चलती थीं। कभी सिपाही ठहर जाते थे, कभी गाड़ी का पहिया निकल जाता था तो कभी कोई घोड़ा अड़ जाता था।
दोपहर हो चुकी थी। रास्ता आधा भी नहीं कटा था। गरम रेत उड़ रही थी। धूप आग का काम कर रही थी। छाया कहीं नहीं थी। साफ मैदान था। सड़क पर न कोई वृक्ष, न झाड़ी। धर्म सिंह आगे था और कभी-कभी इस कारण ठहर जाता था कि गाड़ियाँ आकर मिल जाएँ। मन में विचारने लगा कि आगे क्यों न चलूँ। घोड़ा तेज है, यदि मरहठे धावा करेंगे, तो घोड़ा दौड़ा कर निकल जाऊँगा। यह सोच ही रहा था कि चरन सिंह बंदूक हाथ में लिए उसके पास आया और बोला- आओ, आगे चलें। इस समय बड़ी गरमी है। भूख के मारे व्याकुल हो रहा हूँ। सभी कपड़े पसीने में भीग रहे हैं। चरनसिंह भारी भरकम आदमी था। उसका मुँह लाल था।
धर्म सिंह- तुम्हारी बंदूक भरी हुई है?
चरन सिंह- हाँ, भरी हुई है।
धर्म सिंह- अच्छा चलो, पर बिछुड़ न जाना।

amol
11-11-2012, 05:19 PM
यह दोनों चल दिए, बातें करते जाते थे, पर ध्यान दाएं बाएं था। साफ मैदान होने के कारण दृष्टि चारों ओर जा सकती थी। आगे चलकर सड़क दो पहाड़ियों के बीच से होकर निकलती थी।
धर्म सिंह- उस पहाड़ी पर चढ़ कर चारों ओर देख लेना उचित है। ऐसा न हो कि अचानक मरहठे कहीं से आकर हमें पकड़ लें।
चरन सिंह- अजी, चले भी चलो।
धर्म सिंह- नहीं, आप यहाँ ठहरिए, मैं जाकर देख आता हूँ।
धर्म सिंह ने घोड़ा पहाड़ी की ओर फेर दिया। घोड़ा शिकारी था, उसे पक्षी की भाँति ले उड़ा। वह अभी पहाड़ी की चोटी पर नहीं पहुँचा था कि सौ कदम आगे तीस मरहठे दिखाई पड़े। धर्म सिंह लौट पड़ा, परंतु मरहठों ने उसे देख लिया और बंदूकें सँभाल कर घोड़े दौड़ा, उस पर लपके। धर्म सिंह बेतहाशा नीचे उतरा और चरन सिंह को पुकार कर कहने लगा- बंदूकें तैयार रखो और घोड़े से बोला- प्यारे, अब समय है। देखना, ठोकर न खाना नहीं तो झगड़ा समाप्त हो जाएगा, एक बार बंदूक ले लेने दे....फिर मैं किसी के बाँधने का नहीं। उधर चरन सिंह मरहठों को देखकर घोड़े को चाबुक मार, ऐसा भागा कि गरदे में घोड़े की पूँछ ही पूँछ दिखाई दी, और कुछ नहीं।

amol
11-11-2012, 05:19 PM
धर्म सिंह ने देखा कि बचने की आशा नहीं है, खाली तलवार से क्या बनेगा, वह किले की ओर भाग निकला; परंतु छह मरहठे उस पर टूट पड़े। धर्म सिंह का घोड़ा तेज था, पर उनके घोड़े उससे भी तेज थे। तिस पर यह बात हुई कि वे सामने से आ रहे थे। धर्म सिंह चाहता था कि घोड़े की बाग मोड़कर उसे दूसरे रास्ते पर डाल दे, परंतु घोड़ा इतना तेज जा रहा था कि रुक नहीं सका। सीधा मरहठों से जा टकराया। सजे घोड़े पर सवार बंदूक उठाए लाल दाढ़ी वाला एक मरहठा दाँत निकालता हुआ उसकी ओर लपका। धर्म सिंह ने कहा कि मैं इन दुष्टों को भलीभाँति जानता हूँ। यदि वे मुझे जीता पकड़ लेंगे तो किसी कंदरा में फेंककर कोड़े मारा करेंगे, इसलिए या तो आगे निकलो, नहीं तो तलवार से एक-दो को ढेर कर दो। मरना अच्छा है, कैद होना ठीक नहीं। धर्म सिंह और मरहठों में दस हाथ का ही अंतर रह गया था कि पीछे से गोली चली। धर्म सिंह का घोड़ा घायल होकर गिरा और वह भी उसके साथ ही धरती पर आ रहा।

amol
11-11-2012, 05:19 PM
धर्म सिंह उठना चाहता था कि दो मरहठे आकर उसकी मुस्कें कसने लगे। धर्म सिंह ने धक्का देकर उन्हें दूर गिरा दिया, परंतु दूसरों ने आकर बंदूक के कुंदों से उसे मारना शुरू किया और वह घायल होकर फिर पृथ्वी पर गिर पड़ा। मरहठों ने उसकी मुस्कें कस लीं, कपड़े फाड़ दिए, रुपया-पैसा सब छीन लिया। धर्म सिंह ने देखा कि घोड़ा जहाँ गिरा था, वहीं पड़ा है। एक मरहठे ने पास जा कर जीन उतारनी चाही। घोड़े के सिर में एक छेद हो गया था। उसमें से काला रक्त बह रहा था। दो हाथ इधर-उधर की धरती कीचड़ हो गई थी। घोड़ा चित्त पड़ा हवा में पैर पटक रहा था। मरहठे ने गले पर तलवार फेंक दी, घोड़ा मर गया। उसने जीन उतार ली।
लाल दाढ़ी वाला मरहठा घोड़े पर सवार हो गया। दूसरों ने धर्म सिंह को उसके पीछे बिठाकर उसे उसकी कमर से बाँध दिया और जंगल का रास्ता लिया।
धर्म सिंह का बुरा हाल था। मस्तक फटा था, लहू बहकर आँखों पर जम गया था। मुस्कों के मारे कंधा फटा जाता था। वह हिल नहीं सकता था। उसका सिर बार-बार मरहठे की पीठ से टकराता था। मरहठे पहाड़ियों पर ऊपर नीचे होते हुए एक नदी पर पहुँचे, उसे पार करके एक घाटी मिली। धर्म सिंह यह जानना चाहता था कि वे किधर जा रहे हैं। परंतु उसके नेत्र बंद थे, वह कुछ न देख सका।

amol
11-11-2012, 05:19 PM
शाम होने लगी, मरहठे दूसरी नदी पार करके एक पथरीली पहाड़ी पर चढ़ गए। यहाँ धुआं और कुत्तों का भूँकना सुनाई दिया, मानो कोई बस्ती है। थोड़ी देर चलकर गाँव आ गया। मरहठों ने गाँव छोड़ दिया, धर्म सिंह को एक ओर धरती पर बिठा दिया। बालक आकर उस पर पत्थर फेंकने लगे। परंतु एक मरहठे ने उन्हें वहाँ से भगा दिया। लाल दाढ़ी वाले ने एक सेवक को बुलाया, वह दुबला पतला आदमी फटा हुआ कुरता पहने था। मरहठे ने उससे कुछ कहा, वह जाकर बेड़ी उठा लाया। मरहठों ने धर्म सिंह की मुस्कें खोल कर उसके पाँव में बेड़ी डाल दी और उसे कोठरी में कैद करके ताला लगा दिया।

amol
11-11-2012, 05:19 PM
उस रात धर्म सिंह जरा भी नहीं सोया। गरमी की ऋतु में रातें छोटी होती हैं, शीघ्र प्रातःकाल हो गया। दीवार में एक झरोखा था, उसी से अंदर उजाला आ रहा था। झरोखे के द्वारा धर्म सिंह ने देखा कि पहाड़ी के नीचे एक सड़क उतरी है, दाईं ओर एक मरहठे का झोपड़ा है। उसके सामने दो पेड़ हैं। द्वार पर एक काला कुत्ता बैठा हुआ है। पास एक बकरी और उसके बच्चे पूँछ हिलाते फिर रहे हैं। एक स्त्री चमकीले रंग की साड़ी पहने पानी की गागर सिर पर धरे हुए एक बालक की उंगली पकड़े झोपड़े की ओर आ रही है। वह अंदर गयी कि लाल दाढ़ी वाला मरहठा रेशमी कपड़े पहने, चांदी के मुट्ठे की तलवार लटकाए हुए बाहर आया और सेवक से कुछ बात करके चल दिया। फिर दो बालक घोड़ों को पानी पिला कर लौटते हुए दिखाई पड़े। इतने में कुछ बालक कोठरी के निकट आ कर झरोखे में टहनियाँ डालने लगे। प्यास के मारे धर्म सिंह का कंठ सूखा जाता था। उसने उन्हें पुकारा, परंतु वे भाग गए।
इतने में किसी ने कोठरी का ताला खोला। लाल दाढ़ी वाला मरहठा भीतर आया। उसके साथ एक नाटा पुरुष था। उसका साँवला रंग, निर्मल काले नेत्र, गोल कपोल, कतरी हुई महीन दाढ़ी थी। वह प्रसन्नमुख हँसोड़ था। यह पुरुष लाल दाढ़ी वाले मरहठे से बहुत बढ़िया वस्त्र पहने हुए था, सुनहरी गोट लगी हुई नीले रंग की रेशमी अचकन थी। चांदी के म्यान वाली तलवार, कलाबत्तू का जूता था। लाल दाढ़ीवाला मरहठा कुछ बड़बड़ाता धर्म सिंह को कनखियों से देखता द्वार पर खड़ा रहा। साँवला पुरुष आकर धर्म सिंह के पास बैठ गया और आँखें मटका कर जल्दी-जल्दी अपनी मातृभाषा में कहने लगा- बड़ा अच्छा राजपूत है।

amol
11-11-2012, 05:20 PM
धर्म सिंह ने एक अक्षर भी न समझा- हाँ, पानी माँगा। साँवला पुरुष हँसा, तब धर्म ने होंठ और हाथों के संकेत से जताया कि मुझे प्यास लगी है। साँवले पुरुष ने पुकारा- सुशीला!
एक छोटी-सी कन्या दौड़ती हुई भीतर आई। तेरह वर्ष की अवस्था, साँवला रंग, दुबली पतली, नेत्र काले और रसीले, सुंदर बदन, नीली साड़ी, गले में स्वर्णहार पहने हुए। साँवले पुरुष की पुत्री मालूम पड़ती थी। पिता की आज्ञा पाकर वह पानी का एक लोटा ले आई और धर्म सिंह को भौंचक्की होकर देखने लगी कि वह कोई वनचर है।
फिर खाली लोटा लेकर सुशीला ने ऐसी छलांग मारी कि साँवला पुरुष हँस पड़ा। तब पिता के कहने से कुछ रोटी ले आई। इसके पीछे वे सब बाहर चले गए और कोठरी का ताला बंद कर दिया।

amol
11-11-2012, 05:20 PM
कुछ देर पीछे एक सेवक आकर मराठी में कुछ कहने लगा। धर्म ने समझा कि कहीं चलने को कहता है। वह उसके पीछे हो लिया, बेड़ी के कारण लंगड़ा कर चलता था। बाहर आकर धर्म ने देखा कि दस घरों का एक गाँव है। एक घर के सामने तीन लड़के तीन घोड़े पकड़े खड़े हैं। साँवला पुरुष बाहर आया और धर्म को भीतर आने को कहा। धर्म भीतर चला गया, देखा कि मकान स्वच्छ है, गोबरी फिरी हुई है, सामने की दीवार के आगे गद्दा बिछा हुआ है। तकिए लगे हुए हैं। दाईं बाईं दीवारों पर परदे गिरे हुए हैं। उन पर चांदी के काम की बंदूकें, पिस्तौलें और तलवारें लटकी हुई हैं। गद्दे पर पाँच मरहठे बैठे हैं। एक साँवला पुरुष दूसरा लाल दाढ़ी वाला और तीन अतिथि- सब भोजन कर रहे हैं।
धर्म सिंह धरती पर बैठ गया। भोजन से निश्चिंत होकर एक मरहठा बोला- देखो राजपूत, तुम्हें दयाराम ने पकड़ा है, (साँवले पुरुष की ओर उंगली करके) और संपतराव के हाथ बेच डाला है, अतएव अब संपतराव तुम्हारा स्वामी है।
धर्म सिंह कुछ न बोला। संपतराव हँसने लगा।
मरहठा- वह यह कहता है कि तुम घर से रुपए मँगवा लो, दंड दे देने पर तुमको छोड़ दिया जाएगा।
धर्म सिंह- कितने रुपए?
मरहठा- तीन हजार।
धर्म सिंह- मैं तीन हजार नहीं दे सकता।
मरहठा- कितना दे सकते हो?
धर्म सिंह- पाँच सौ।
यह सुनकर मरहठे सिटपिटाए। संपतराव दयाराम से तकरार करने लगा और इतनी जल्दी जल्दी बोलने लगा कि उसके मुँह से झाग निकल आया। दयाराम ने आँखें नीची कर लीं थोड़ी देर में मरहठे शांत हुए और फिर मोलतोल करने लगे। एक मरहठे ने कहा- पाँच सौ रुपए से काम नहीं चल सकता। दयाराम को संपतराव का रुपया देना है। पाँच सौ रुपए में तो संपतराव ने तुम्हें मोल ही लिया है, तीन हजार से कम नहीं हो सकता। यदि रुपया न मँगाओगे तो तुम्हें कोड़े मारे जाएँगे।

amol
11-11-2012, 05:20 PM
धर्म ने सोचा कि जितना डरोगे, यह दुष्ट उतना ही डराएँगे। वह खड़ा होकर बोला- इस भले मानुस से कह दो कि यदि मुझे कोड़ों का भय दिखाएगा तो मैं घर वालों को कुछ नहीं लिखूँगा। मैं तुम चांडालों से नहीं डरता।
संपतराव- अच्छा, एक हजार मँगाओ।
धर्म सिंह- पाँच सौ से एक कौड़ी ज्यादा नहीं। यदि तुम मुझे मार डालोगे तो इस पाँच सौ से भी हाथ धो बैठोगे।
यह सुन कर मरहठे आपस में सलाह करने लगे। इतने में एक सेवक एक मनुष्य को लिए हुए भीतर आया। यह मनुष्य मोटा था, नंगे पैर, बेड़ी पड़ी हुई। धर्म सिंह उसे देख कर चकित हो गया। यह पुरुष चरन सिंह था। सेवक ने चरन सिंह को धर्म के पास बैठा दिया। वे एक दूसरे से अपनी बिथा करने लगे। धर्म सिंह ने अपना वृत्तांत कह सुनाया। चरन सिंह बोला- मेरा घोड़ा अड़ गया, बंदूक रंजक चाट गई और संपतराव ने मुझे पकड़ लिया।
संपतराव- (फिर) अब तुम दोनों एक ही स्वामी के वश में हो। जो पहले रुपया दे देगा, वही छोड़ दिया जाएगा। (धर्म सिंह की ओर देख कर) देखा, तुम कैसे क्रोधी हो और तुम्हारा साथी कैसा सुशील है। उसने पाँच हजार रुपए भेजने को घर लिख दिया है, इस कारण उसका पालन-पोषण भलीभाँति किया जाएगा।
धर्म सिंह- मेरा साथी जो चाहे सो करे, वह धनवान है, और मैं तो पाँच सौ रुपए से अधिक नहीं दे सकता, चाहे मारो, चाहे छोड़ो।

amol
11-11-2012, 05:20 PM
मरहठे चुप हो गए। संपतराव झट से कलमदान उठा लाया। कागज, कमल, दवात निकालकर धर्म की पीठ ठोंक, उसे लिखने को कहा। वह पाँच सौ रुपए लेने पर राजी हो गया था।
धर्म सिंह- जरा ठहरो। देखो, हमारा पालन-पोषण भलीभाँति करना, हमें एक साथ रखना, जिससे हमारा समय अच्छी तरह कट जाए। बेड़ियाँ भी निकाल दो।
संपतराव- जैसा चाहे वैसा भोजन करो। बेड़ियाँ नहीं निकाल सकता। शायद तुम भाग जाओ। हाँ, रात को निकाल दिया करुँगा।
धर्म सिंह ने पत्र लिख दिया। परंतु पता सब झूठ लिखा, क्योंकि मन में निश्चय कर चुका था कि कभी न कभी भाग जाऊँगा।
तब मरहठों ने चरनसिंह और धर्म सिंह को एक कोठरी में पहुँचा कर एक लोटा पानी, कुछ बाजरे की रोटियाँ देकर ऊपर से ताला बंद कर दिया।

amol
11-11-2012, 05:21 PM
धर्म सिंह और चरन सिंह को इस प्रकार रहते-रहते एक महीना गुजर गया। संपतराव उनको देखकर सदैव हँसता रहता था, पर खाने को बाजरे की अधपकी रोटी के सिवाय और कुछ न देता था। चरन सिंह उदास रहता और कुछ न करता। दिन भर कोठरी में पड़ा सोया रहता और दिन गिनता रहता था कि रुपया कब आए कि छूटकर अपने घर पहुँचूँ। धर्म तो जानता था कि रुपया कहाँ से आना है। जो कुछ घर भेजता था, माता उसी पर निर्वाह करती थी। वह बेचारी पाँच सौ रुपए कैसे भेज सकती है। ईश्वर की दया होगी तो मैं भाग जाऊँगा। वह घात में लगा हुआ था। कभी सीटी बजाता हुआ गाँव का चक्कर लगाता, कभी बैठ कर मिट्टी के खिलौने और टोकरियाँ बनाता। वह हाथों का चतुर था।
एक दिन उसने एक गुड़िया बना कर छत पर रख दी। गाँव की स्त्रियाँ जब पानी भरने आईं, तो सुशीला ने उनको बुला कर गुड़िया दिखलाई। वे सब हँसने लगीं। धर्म सिंह ने गुड़िया सबके आगे कर दी, परंतु किसी ने नहीं ली। वह उसे बाहर रख कर कोठरी में चला गया कि देखें क्या होता है। सुशीला गुड़िया उठाकर भाग गई।
अगले दिन धर्म ने देखा कि सुशीला द्वार पर बैठी गुड़िया के साथ खेल रही है। एक बुढ़िया आई। उसने गुड़िया छीनकर तोड़ डाली, सुशीला भाग गयी। धर्म सिंह ने और गुड़िया बनाकर सुशीला को दे दी। फल यह हुआ कि वह एक दिन छोटा-सा लोटा लाई, भूमि पर रखा और धर्म को दिखा कर भाग गई। धर्म ने देखा तो उसमें दूध था। अब सुशीला नित्य अच्छे-अच्छे भोजन ला कर धर्म को देने लगी।

amol
11-11-2012, 05:21 PM
एक दिन आंधी आई। एक घंटा मूसलाधार मेंह बरसा, नदियाँ-नाले भर गए। बाँध पर सात फुट पानी चढ़ आया। जहाँ तहाँ झरने झरने लगे, धार ऐसी प्रबल थी कि पत्थर लु़ढ़के जाते थे। गाँव की गलियों में नदियाँ बहने लगीं। आंधी थम जाने पर धर्म सिंह ने संपतराव से चाकू माँग कर एक पहिया बना, उसके दोनों ओर दो गुड़िया बाँधकर पहिए को पानी में छोड़ दिया, वह पानी के बल से चलने लगा। सारा गाँव इकट्ठा हो गया और गुड़ियों को नाचते देख कर तालियाँ बजाने लगा। संपतराव के पास एक पुरानी बिगड़ी हुई घड़ी पड़ी थी। धर्म सिंह ने उसे ठीक कर दिया। उसके पीछे और लोग अपने घंटे, पिस्तौल, घड़ियाँ ला-ला कर धर्म से ठीक कराने लगे। इस कारण संपतराव ने प्रसन्न होकर धर्म सिंह को एक चिमटी, एक बरमी और एक रेती दे दी।
एक दिन एक मरहठा रोगी हो गया। सब लोग धर्म सिंह के पास आ कर दवा-दारू माँगने लगे। धर्म कुछ वैद्य तो था ही नहीं, पर उसने पानी में रेता मिला कर कुछ मंत्र-सा पढ़ कर कहा कि जाओ, यह पानी रोगी को पिला दो। पानी पिलाने पर रोगी चंगा हो गया। धर्म के भाग्य अच्छे थे। अब बहुत से मरहठे उसके मित्र बन गए। हाँ, कुछ लोग अब भी उस पर संदेह करते थे।
दयाराम धर्म सिंह से चिढ़ता था। जब उसे देखता, मुँह फेर लेता। पहाड़ी के नीचे एक और बू़ढ़ा रहता था। मंदिर में आने के समय धर्म सिंह उसे देखा करता था। यह बूढ़ा नाटा था। दाढ़ी मूँछ बर्फ की भाँति श्वेत, मुँह पोला, उसमें झुर्रियाँ पड़ी हुईं, नाक नुकीली, नेत्र निर्दयी, दो दाँतों के सिवाय सब दाँत टूटे हुए। वहीं लकड़ी टेकता, चारों ओर भेड़िए की तरह झाँकता हुआ मंदिर में जाने के समय जब कभी धर्म सिंह को देख पाता था तो जल कर राख हो जाता और मुँह फेर लेता था।

amol
11-11-2012, 05:21 PM
एक दिन धर्म सिंह बूढ़े का घर देखने के लिए पहाड़ी के नीचे उतरा। कुछ दूर जाने पर एक बगीचा मिला। चारों ओर पत्थर की दीवार बनी हुई थी। बीच में मेवे के वृक्ष लगे हुए थे। वृक्षों में एक झोपड़ा था। धर्म सिंह आगे बढ़ कर देखना चाहता था कि उसकी बेड़ी खड़की। बूढ़ा चौंका। कमर से पिस्तौल निकाल कर उसने धर्म सिंह पर गोली चलाई, पर वह दीवार की ओट में हो गया। बूढ़े को आ कर संपतराव से कहते सुना कि धर्म सिंह बड़ा दुष्ट है। संपतराव ने धर्म को बुलाकर पूछा- तुम बूढ़े के घर क्यों गए थे?
धर्म सिंह बोला- मैंने उसका कुछ नहीं बिगाड़ा। मैं केवल यह देखने लगा था कि वह बूढ़ा कहाँ रहता है। संपत ने बूढ़े को शांत करने का बहुत यत्न किया, पर वह बड़बड़ाता ही रहा। धर्म सिंह केवल इतना ही समझ सका कि बूढ़ा यह कह रहा है कि राजपूतों का गाँव में रहना अच्छा नहीं, उन्हें मार देना चाहिए। बूढ़ा चल दिया, तो धर्म सिंह ने संपतराव से पूछा कि बूढ़ा कौन है?
संपतराव- यह बड़ा आदमी है, इसने बहुत राजपूत मारे हैं। पहले यह बड़ा धनवान था। इसके तीन स्त्रियाँ और आठ पुत्र थे। सब एक ही गाँव में रहा करते थे। एक दिन राजपूतों ने धावा करके गाँव जला दिया। इसके सात पुत्र तो मर गए, आठवाँ कैद हो गया। यह बू्ढ़ा राजपूतों के पास जा कर और उनके संग रह कर अपने पुत्र की खोज लगाने लगा। अंत में उसे पा कर अपने हाथ से उसका वध करके भाग आया। फिर विरक्त होकर तीर्थयात्रा को चला गया। अब यह पहाड़ी के नीचे रहता है। यह बूढ़ा कहता था कि तुम्हें मार डालना उचित है; परंतु मैं तुमको मार नहीं सकता, फिर रुपया कहाँ से मिलेगा? इसके सिवाय मैं तुम्हें यहाँ से जाने भी न दूँगा।

amol
11-11-2012, 05:21 PM
इस तरह धर्म यहाँ एक महीना रहा। दिन को वह इधर-उधर फिरा करता या कोई चीज बनाता, लेकिन रात को वह दीवार में छेद किया करता। दीवार पत्थर की थी, खोदना सहज नहीं था। लेकिन वह पत्थरों को रेती से काटता था। यहाँ तक कि अंत में उसने अपने निकलने भर को एक छेद बना लिया। बस, अब उसे यह चिंता हुई कि रास्ता मालूम हो जाए।
एक दिन संपतराव शहर गया हुआ था। धर्म सिंह भोजन करके तीसरे पहर रास्ता देखने की इच्छा से सामने वाली पहाड़ी की ओर चल दिया। संपतराव बाहर जाते समय अपने पुत्र से सदैव कह जाया करता था कि धर्म सिंह को आँखों से परे न होने देना। इस कारण बालक उसके पीछे दौड़ा और चिल्ला कर कहने लगा- मत जाओ, मेरे पिता की आज्ञा नहीं है यदि तुम नहीं लौटोगे, तो मैं गाँव वालों को बुला लूँगा।
धर्म सिंह बालक को फुसलाने लगा- मैं दूर नहीं जाता, केवल उस पहाड़ी पर जाने की इच्छा है। रोगियों के वास्ते मुझे एक बूटी की जरूरत है, तुम भी साथ चलो। बेड़ी के होते कैसे भागूँगा? असंभव है। आओ, कल मैं तुमको तीर-कमान बना दूँगा।

amol
11-11-2012, 05:21 PM
बालक मान गया। पहाड़ी की चोटी कुछ दूर न थी। बेड़ी के कारण चलना कठिन था, परंतु ज्यों त्यों करके धर्म सिंह चोटी पर पहुँच कर चारों ओर देखने लगा। दक्षिण दिशा में एक घाटी दिखाई दी। उसमें घोड़े चल रहे थे। घाटी के नीचे एक गाँव था। उससे परे एक ऊँची पहाड़ी थी, फिर एक और पहाड़ी थी। इन पहाड़ियों के बीचों बीच जंगल था, उससे परे पहाड़ थे, एक से एक ऊँचे। पूर्व और पश्चिम दिशा में भी ऐसी ही पहाड़ियां थीं। कंदराओं में से जहाँ-तहाँ गाँवों का धुआं उठ रहा था। वास्तव में यह मरहठों का देश था। उत्तर की ओर देखा, तो पैरों तले एक नदी बह रही है और वही गाँव है, जिसमें वह रहा करता था। गाँव के चारों ओर बगीचे लगे हुए थे और स्त्रियाँ नदी पर बैठी वस्त्र धो रही थीं, और ऐसी जान पड़ती थीं मानो गुड़िया बैठी हैं। गाँव से परे एक पहाड़ी थी, परंतु दक्षिण दिशा वाली पहाड़ी से नीची। उससे परे दो पहाड़ियाँ और थीं, उन पर घना जंगल था। इनके बीच में मैदान था। मैदान के पार बहुत दूर पर कुछ धुआं-सा दिखाई दिया। अब धर्म सिंह को याद आया कि किले में रहते हुए सूर्य कहाँ से उदय होता और कहाँ अस्त हुआ करता था। उसे निश्चय हो गया कि धुएं का बादल हमारा किला है और उसी मैदान में से जाना होगा।

amol
11-11-2012, 05:22 PM
अँधेरा हो गया। मंदिर का घंटा बजने लगा। पशु घर लौट आए। धर्म सिंह भी अपनी कोठरी में आ गया। रात अँधेरी थी। उसने उसी रात भागने का विचार किया पर दुर्भाग्य से संध्या समय मरहठे घर लौट आए। आज उनके साथ एक मुर्दा था। मालूम होता था कि कोई मरहठा युद्ध में मारा गया है।
मरहठे उस शव को स्नान कराकर श्वेत वस्त्र लपेट, अर्थी बना 'राम नाम सत्त' कहते हुए गाँव से बाहर जाकर शमशान भूमि में दाह करके घर लौट आए। तीन दिन उपवास करने के बाद चौथे दिन बाहर चले गए। संपतराव घर ही में रहा। रात अँधेरी थी, शुक्ल पक्ष अभी लगा ही था।
धर्म सिंह ने सोचा कि रात को भागना ठीक है। चरन सिंह से कहा- भाई चरन सुरंग तैयार है। चलो, भाग चलें।
चरन सिंह- (भयभीत होकर) रास्ता तो जानते ही नहीं, भागेंगे कैसे?
धर्म सिंह- रास्ता मैं जानता हूँ।
चरन सिंह- माना कि तुम रास्ता जानते हो, परंतु एक रात में किले तक नहीं पहुँच सकते।

amol
11-11-2012, 05:22 PM
धर्म सिंह- यदि किले तक नहीं पहुँच सकेंगे तो रास्ते में कहीं जंगल में छिप कर दिन काट लेंगे। देखो, मैंने भोजन का प्रबंध भी कर लिया है। यहाँ पड़े-पड़े सड़ने में क्या लाभ है? यदि घर से रुपया न आया तो क्या बनेगा? राजपूतों ने एक मरहठा मार डाला है। इस कारण यह सब बहुत बिगड़े हुए हैं। भागना ही उचित है।
चरन सिंह- अच्छा, चलो।

गाँव में जब सन्नाटा हो गया, तो धर्म सिंह सुरंग से बाहर निकल आया। पर चरन सिंह के पैर से एक पत्थर गिर पड़ा। धमाका हुआ तो संपतराव का कुत्ता भूँका, लेकिन धर्म सिंह ने उसे पहले ही हिला लिया था, उसका शब्द सुन कर वह चुप हो गया।
रात अँधेरी थी। तारे निकले हुए थे। चारों ओर सन्नाटा था। घाटियाँ धुंध से ढँकी हुई थीं। चलते-चलते रास्ते में किसी छत पर से एक बू़ढ़े के राम नाम जपने की आवाज सुनाई दी। दोनों दुबक गए। थोड़ी देर में फिर सन्नाटा छा गया, तब वे आगे बढ़े।

amol
11-11-2012, 05:22 PM
धुंध बहुत छा गई। धर्म सिंह तारों की ओर देख कर राह चलने लगा। ठंड के कारण चलना सहज न था, धर्म सिंह कूदता फाँदता चला जाता था, चरन सिंह पीछे रहने लगा।
चरन सिंह- भाई धर्म, जरा ठहरो, जूतों ने मेरे पैरों में छाले डाल दिए।
धर्म सिंह- जूते निकाल कर फेंक दो, नंगे पैर चलो।
चरन सिंह ने जूते निकाल कर फेंक दिए, पत्थरों ने उसके पाँव घायल कर दिए। वह ठहर-ठहर कर चलने लगा।
धर्म सिंह- देखो चरन, पाँव तो फिर चंगे हो जाएँगे, पर यदि मरहठों ने आ पकड़ा तो फिर समझ लो कि जान गई।
चरन सिंह चुप होकर पीछे चलने लगा। थोड़ी दूर जाने पर धर्म सिंह बोला- हाय, हाय, हम रास्ता भूल गए, हमें तो बाईं ओर की पहाड़ी पर चढ़ना चाहिए था।
चरन सिंह- ठहरो, जरा दम लेने दो। मेरे पैर घायल हो गए हैं। देखो, रक्त बह रहा है।
धर्म सिंह- कुछ चिंता नहीं, ये सब ठीक हो जाएँगे, तुम चले चलो।

amol
11-11-2012, 05:23 PM
वे लौट कर बाईं ओर की पहाड़ी पर चढ़ गए। आगे जंगल मिला। झाड़ियों ने उनके सब वस्त्र फाड़ डाले। इतने में कुछ आहट हुई, वे डर गए। समीप जाने पर मालूम हुआ कि बारहसिंगा भागा जा रहा है।
प्रातःकाल होने लगा। किला यहाँ से अभी सात मील पर था। मैदान में पहुँचकर चरन सिंह बैठ गया और बोला- मेरे पाँव थक गए, मैं अब नहीं चल सकता।
धर्म सिंह- (क्रोध से) अच्छा तो रामराम, मैं अकेला ही चलता हूँ।
चरन सिंह उठकर साथ हो लिया। तीन मील चलने पर अचानक सामने से घोड़े की टाप सुनाई दी। वे भागकर जंगल में घुस गए।
धर्म सिंह ने देखा कि घोड़े पर चढ़ा हुआ एक मरहठा जा रहा है। जब वह निकल गया तो धर्म बोला कि भगवान ने बड़ी दया की कि उसने हमें नहीं देखा। चरन भाई, अब चलो।
चरन सिंह- मैं नहीं चल सकता, मुझमें ताकत नहीं।
चरन सिंह मोटा आदमी था, ठंड के मारे उसके पैर अकड़ गए। धर्म सिंह उसे उठाने लगा, तो चरन सिंह ने चीख मारी।

amol
11-11-2012, 05:23 PM
धर्म सिंह- हैंहैं! यह क्या, मरहठा तो अभी पास ही जा रहा है, कहीं सुन न ले अच्छा, यदि तुम नहीं चल सकते हो, तो मेरी पीठ पर बैठ जाओ।
धर्म सिंह ने चरन सिंह को पीठ पर बिठला कर किले की राह ली।
धर्म सिंह- भाई चरन सिंह, सीधी तरह बैठे रहो, गला क्यों घोंटते हो?

amol
11-11-2012, 05:23 PM
अब उधर की बात सुनिए। मरहठे ने चरन सिंह का शब्द सुन लिया। उसने गोली चलाई, परंतु खाली गई। मरहठा दूसरे साथियों को लेने के लिए घोड़ा दौड़ा कर चल दिया।
धर्म सिंह- चरन, मालूम होता है कि उस दुष्ट ने तुम्हारी आवाज सुन ली। वह अपने साथियों को बुलाने गया है। यदि उसके आने से पहले-पहले हम दूर नहीं निकल जाएँगे, तो समझो कि जान गई। (मन में) यह बोझा मैंने क्यों उठाया, यदि मैं अकेला होता तो अब तक कभी का निकल गया होता।
चरन सिंह- तुम अकेले चले जाओ, मेरे कारण प्राण क्यों खोते हो?
धर्म सिंह- कदापि नहीं, साथी को छोड़ कर चल देना धर्म के विरुद्ध है।
धर्म सिंह फिर चरन सिंह को कंधे पर लाद कर चलने लगा। आधा मील चलने पर एक झरना मिला। धर्म सिंह बहुत थक गया था। चरन सिंह को कंधे से उतार कर विश्राम करने लगा। पानी पीना ही चाहता था कि पीछे से घोड़ों की टापें सुनाई दीं। दोनों भाग कर झाड़ियों में छिप गए।

amol
11-11-2012, 05:23 PM
मरहठे ठीक वहीं आकर ठहरे, जहाँ दोनों छिपे हुए थे। उन्होंने सूंघ लेने को कुत्ता छोड़ा। फिर क्या था, दोनों पकड़े गए। मरहठों ने दोनों को घोड़ों पर लाद लिया। राह में संपतराव मिल गया, अपने कैदियों को पहचाना। तुरंत उन्हें अपने साथ वाले घोड़ों पर बैठाया और दिन निकलते-निकलते वे सब ग्राम में पहुँच गए।
उसी समय बू़्ढ़ा भी वहाँ आ गया। सब मरहठे विचार करने लगे कि क्या किया जाए। बू़्ढ़े ने कहा कि कुछ मत करो, इन दोनों का तुरंत वध कर दो।
संपतराव- मैंने तो उन पर रुपया लगाया है, मार कैसे डालूँ?
बूढ़ा- राजपूतों को पालना पाप है। वे तुम्हें सिवाय दुःख के और कुछ न देंगे, मार कर झगड़ा समाप्त करो।
मरहठे इधर-उधर चले गए। संपतराव धर्म सिंह के पास आया और बोला- देखो धर्म सिंह, पंद्रह दिन के अंदर यदि रुपया न आया, और तुमने फिर भागने का साहस किया, तो मैं तुम्हें अवश्य मार डालूँगा, इसमें संदेह नहीं। अब शीघ्र घर वालों को पत्र लिख डालो कि तुरंत रुपया भेज दें।
दोनों ने पत्र लिख दिए। फिर वे पहले की भाँति कैद कर दिए गए, परंतु कोठरी में नहीं, अब की बार छः हाथ चौड़े गड्ढे में बंद किए गए।

amol
11-11-2012, 05:24 PM
अब उन्हें अत्यंत कष्ट दिया जाने लगा। न बाहर जा पाते थे, न बेड़ियाँ निकाली जाती थीं। कुत्तों के समान अधपकी रोटी, एक लोटे में पानी पहुँचा दिया जाता था, और कुछ नहीं। गड्ढा सीला था, उसमें अँधेरा और अति दुर्गंध थी। चरन सिंह का सारा शरीर सूख गया, धर्म सिंह मनमलीन, तनछीन रहने लगा। करे तो क्या करे?
धर्म एक दिन बहुत उदास बैठा था कि ऊपर से रोटी गिरी, देखा तो सुशीला बैठी हुई है।
धर्म सिंह ने सोचा, क्या सुशीला इस काम में मेरी सहायता कर सकती है। अच्छा, इसके लिए कुछ खिलौने बनाता हूँ। कल जब आएगी, तब इसे देकर फिर बात करुँगा।
दूसरे दिन सुशीला नहीं आई। धर्म सिंह के कान में घोड़ों के टापों की आवाज आई। कई आदमी घोड़ों पर सवार उधर से निकल गए। वे सब बातें करते जाते थे। धर्म सिंह को और तो कुछ न समझ में आया- हाँ, 'राजपूत' शब्द बारबार सुनाई दिया। इससे उसने अनुमान किया कि राजपूतों की सेना कहीं निकट आ पहुँची है।
तीसरे दिन सुशीला फिर आई और दो रोटियाँ गड्ढे में फेंक दीं, तब धर्म सिंह बोला- तू कल क्यों नहीं आई? देख, मैंने तेरे वास्ते ये खिलौने बनाए हैं।
सुशीला- खिलौने लेकर क्या करुँगी; मुझे खिलौने नहीं चाहिए। उन्होंने तुम्हें मार डालने का विचार कल पक्का कर लिया है। सब मरहठे इकट्ठे हुए थे, इसी कारण मैं कल नहीं आ सकी।
धर्म सिंह- कौन मारना चाहता है?

amol
11-11-2012, 05:24 PM
सुशीला- मेरा पिता। बूढ़े ने यह सलाह दी है कि राजपूतों की सेना निकट आ गई है, तुम्हें मार डालना ही ठीक है। मुझे तो यह सुनकर रोना आता है।
धर्म सिंह- यदि तुम्हें दया आती है, तो एक बाँस ला दो।
सुशीला- यह नहीं हो सकता।
धर्म सिंह- सुशीला, दया कर, मैं हाथ जोड़ कर कहता हूँ कि एक बाँस ला दो।
सुशीला-बाँस कैसे लाऊँ, वे सब घर पर बैठे हैं, देखे लेंगे। यह कह कर वह चली गई।
सूर्य अस्त हो गया। तारे चमकने लगे। चाँद अभी नहीं निकला था, मंदिर का घंटा बजा, बस फिर सन्नाटा हो गया। धर्म सिंह इस विचार में बैठा था कि सुशीला बाँस लाएगी अथवा नहीं।
अचानक ऊपर से मिट्टी गिरने लगी। देखा तो सामने की दीवार में बाँस लटक रहा है। धर्म सिंह बहुत प्रसन्न हुआ। उसने बाँस को नीचे खींच लिया।
बाहर आकाश में तारे चमक रहे थे। गड्ढे के किनारे पर मुँह रखकर धीरे से सुशीला ने कहा- धर्म सिंह, सिवाय दो के और सब बाहर चले गए हैं।

amol
11-11-2012, 05:24 PM
धर्म सिंह ने चरन सिंह से कहा- भाई चरन! आओ, एक बार फिर यत्न कर देखें, हिम्मत न हारो। चलो, मैं तुम्हारी सहायता करने को तैयार हूँ।
चरनसिंह- मुझमें तो करवट लेने की शक्ति नहीं, चलना तो एक ओर रहा। मैं नहीं भाग सकता।
धर्म सिंह- अच्छा, रामराम, परंतु मुझे निर्दयी मत समझना।
धर्म सिंह चरन सिंह से गले मिला, बाँस का एक सिरा सुशीला ने पकड़ा, दूसरा सिरा धर्म सिंह ने। इस भाँति वह बाहर निकल आया।
धर्म सिंह- सुशीला, तुम्हें भगवान कुशल से रखें। मैं जन्मभर तुम्हारा जस गाऊँगा। अच्छा, जीती रहो, मुझे भूल मत जाना।
धर्म सिंह ने थोड़ी दूर जाकर पत्थरों से बेड़ी तोड़ने का बहुत ही यत्न किया, पर वह न टूटी। वह उसे हाथ में उठा कर चलने लगा। वह चाहता था कि चंद्रमा उदय होने से पहले जंगल में पहुँच जाय, परंतु पहुँच न सका। चंद्रमा निकल आया, चारों ओर उजाला हो गया, पर सौभाग्य से जंगल में पहुँचने तक राह में कोई न मिला।
धर्म सिंह फिर बेड़ी तोड़ने लगा, पर सारा यत्न निष्फल हुआ। वह थक गया, हाथ-पाँव घायल हो गए। विचारने लगा, अब क्या करुँ? बस, चलो, ठहरने का काम नहीं। यदि एक बार बैठ गया, तो फिर उठना कठिन हो जायेगा। माना कि प्रातःकाल से पहले किले में नहीं पहुँच सकता, न सही, दिन भर जंगल में काट दूँगा, रात आने पर फिर चल दूँगा सहसा पास से दो मरहठे निकले, वह झट झाड़ी में छिप गया।

amol
11-11-2012, 05:25 PM
चाँद फीका पड़ गया, सवेरा होने लगा। जंगल पीछे छूट गया, साफ मैदान आ गया। किला दिखाई देने लगा। बाईं ओर देखने पर मालूम हुआ कि थोड़ी दूर पर कुछ राजपूत सिपाही खड़े हैं। धर्म सिंह मगन हो गया और बोला- अब क्या है, परंतु ऐसा न हो कि मरहठे पीछे से आ पकड़ें, मैं सिपाहियों तक न पहुँच सकूँ, इस कारण जितना भागा जाए भागो।
इतने में बाईं ओर दो सौ कदम की दूरी पर कुछ मरहठे दिखाई दिए। धर्म निराश हो गया, चिल्ला उठा- भाइयों, दौड़ो, दौड़ो! मुझे बचाओ, बचाओ!
राजपूत सिपाहियों ने धर्म सिंह की पुकार सुन ली। मरहठे समीप थे, सिपाही दूर थे। वे दौड़े, धर्म सिंह भी बेड़ी उठा कर 'भाइयों, भाइयों' कहता हुआ ऐसा भागा कि झट सिपाहियों से जा मिला, मरहठे डरकर भाग गए।
राजपूत पूछने लगे कि तुम कौन हो और कहाँ से आए हो, परंतु धर्म सिंह घबराया हुआ 'भाइयों, भाइयों' पुकारता चला जाता था। निकट आने पर सिपाहियों ने उसे पहचान लिया। धर्म सिंह सारा वृत्तांत कह कर बोला- भाइयों, इस तरह मैं घर गया और विवाह किया। विधाता की यही लीला थी।
एक महीना पीछे पाँच हजार मुद्रा देकर चरन सिंह छूटकर किले में आया। वह उस समय अधमुए के समान हो रहा था।