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View Full Version : आस्तिकता के कुछ दुष्परिणाम


abhisays
12-11-2012, 07:16 PM
आस्तिकता के कुछ दुष्परिणाम

रणजीत

abhisays
12-11-2012, 07:17 PM
हिंदी का एक मुहावरा है - बुरे काम का बुरा नतीजा। यहाँ 'काम' की जगह अगर 'सोच' शब्द रख दिया जाए, तब भी वाक्य की सच्चाई में कोई अन्तर नहीं आएगा। बुरे काम की तरह ही बुरा चिन्तन या बुरा सोच भी अन्ततः बुरा परिणाम ही देता है। ईश्वर की अवधारणा भी ऐसा ही एक बुरा सोच है, जिसका दुष्परिणाम मानव जाति आज तक भुगत रही है।

जो हमारे एकदम प्रत्यक्ष सामने है - यह प्रकृति, यह पृथ्वी, उसका पर्यावरण, यह मानव समाज, ये अपने सहजन-प्रियजन-परिजन, इनके सुख-दुख, रोग-शोक - इस सारे धड़कते हुए जीवन्त संसार से आँखें मूँदकर, विभिन्न उपासनास्थलों - मन्दिरों-मस्जिदों-गिरजाघरों-गुरुद्वारों आदि - में उस ईश्वर, अल्लाह या गॉड - जो कहीं नहीं है - की पूजा-अर्चना-प्रार्थना में लोगों को लगे देखता हूँ, शोर-शराबे, धूम-धड़ाके भरे गणेशोत्सव, दुर्गा पूजा आदि के धर्मिक जुलूसों के जुनून में झूमते-गाते पाता हूँ, तो मेरे हृदय में उनके प्रति तरस और करुणा की लहरें उठने लगती हैं - काश धर्म की धंधेबाजी करनेवाले कुछ धूर्त व्यवसायियों के बहकावे में आए हुए इन भोले-भाले और बेववूफ बननेवाले लोगों का यह सैलाब इस निरर्थक काम को छोड़कर अपने देश और समाज को उसकी मूलभूत समस्याओं - अशिक्षा, कूपमण्डूकता, रोग-शोक और सामाजिक-आर्थिक विषमताओं - से मुक्त करने के सार्थक काम में लग सकता, तो वैसी स्थिति में इस संसार को अपनी कल्पना का स्वर्ग बनाने में हमें कितनी देर लगती!

abhisays
12-11-2012, 07:17 PM
आस्तिकता ने मानव समाज को जो बड़े-बड़े नुकसान पहुँचाए हैं, उनमें से एक है मानवीय श्रम दिवसों की बेहिसाब बरबादी। धर्मग्रन्थों के अध्ययन-मनन, अनुसंधान और विभिन्न मतों के बीच शास्त्रार्थ में लगे रहे और आज भी लगे हुए धर्माचार्यों के निरुत्पादक और निरर्थक श्रम को भी इसी बरबादी में जोड़ना चाहिए। शायद ही मानव जाति ने युद्ध को छोड़कर और किसी काम में अपने समय, श्रम और संसाधनों की ऐसी भयंकर बर्बादी की हो।

आस्तिकता से मानव जाति को दूसरा बड़ा नुकसान यह हुआ है कि उसने मनुष्य का आत्मविश्वास छीनकर उसे डरपोक और कायर बना दिया है। रास्ते में किसी लाल कपड़े में लिपटी हुई कोई चीज दिख जाए, तो उसकी रूह काँप उठती है - जरूर किसी ने कोई टोना किया है, आज मेरा कोई न कोई अनिष्ट होकर रहेगा। आस्तिकता ने उससे अपनी क्षमता पर, अपने कर्म पर से आत्मविश्वास छीन लिया है, वह अपने आप को दैवी शक्तियों का गुलाम समझने लगा है।

abhisays
12-11-2012, 07:17 PM
भय अतिरिक्त क्रूरता को जन्म देता है। डरा हुआ आदमी दूसरों के प्रति ज्यादा क्रूर हो जाता है। अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाली स्त्रियों को सभी देशों में 'डायन' या 'चुड़ैल' घोषित कर बड़ी क्रूरता से मारा गया। स्वतंत्र विचारकों, नए अप्रत्याशित तथ्य खोजने वाले वैज्ञानिकों और नास्तिकों को जहर पिलाने या जिन्दा जलाने के काम भी तत्कालीन भयभीत सत्ताधारी आस्तिकों की क्रूरता के ही कारनामे थे।

मनुष्य और अन्य पशुओं में मुख्य अन्तर यह माना जाता है कि मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है। पर ईश्वर पर आस्था ने हमेशा उसके विवेक को बाध्ति किया है, उसे भूतों-प्रेतों से डरना सिखाया है, शुभ-अशुभ दिन, घड़ी, संख्या और शकुन-अपशकुन के तर्कहीन अंधविश्वासों में डाला है, उसे इन्सान से काठ का उल्लू बना दिया है। ईश्वर के विश्वास ने उसे अप्राकृतिक शक्तियों और घटनाओं में विश्वास करना सिखाया है, अज्ञानियों और बुद्धिहीनों की तरह व्यवहार करना सिखाया है!

abhisays
12-11-2012, 07:17 PM
आस्तिकता बच्चों का खेल है। यह सबसे सरल काम है। यह एक परिवारप्रदत्त संस्कार है, जिसे लगभग सभी बच्चे सहज ही सीख लेते हैं। ईश्वर के अस्तित्व को मानने के लिए किसी विद्या-बुद्धि, किसी चिन्तन-मनन, किसी कर्म-कुशलता की आवश्यकता नहीं है। मन्दिरों-मस्जिदों में प्रार्थना करते-नमाज अता करते अपने-अपने माँ-बाप को देखते हुए बच्चे सहज ही आस्तिक हो जाते हैं। पर नास्तिक बनने के लिए अच्छी खासी तर्क-बुद्धि, अच्छे-खासे जाग्रत विवेक और अच्छे-खासे साहस की जरूरत होती है। परम्परा और संकोच के बोझ को हटाकर सत्य को सत्य कहने में गजब का साहस चाहिए। यह साहस गम्भीर अध्ययन-मनन और आत्मचिन्तन से ही आ सकता है।

abhisays
12-11-2012, 07:18 PM
ईश्वर में विश्वास का एक नुकसान यह भी है कि मनुष्य ईश्वर के बहाने अपने उत्तरदायित्व से मुक्ति पा लेता है। गलत काम करेगा खुद और उसके अनिच्छित परिणाम सामने आने पर कहेगा - क्या कर सकते हैं, जैसी प्रभु की इच्छा! एक ही वाक्य में वह अपने कार्य-व्यवहार या निर्णय की जिम्मेदारी से भी मुक्त हो गया और ईश्वर के आदेश को नम्रतापूर्वक स्वीकार करनेवाले भक्त होने की भूमिका भी उसने अदा कर ली। पर वह यह नहीं सोचता कि इस प्रक्रिया में उसकी मनुष्यता कितनी क्षरित हुई? एक मनुष्य के रूप में उसका कितना अवमूल्यन हुआ? एक जिम्मेदार इन्सान के रूप में वह कितना दयनीय, कितना नाचीज साबित हुआ? एक आदमकद इन्सान की जगह एक बौना अवमानव !

abhisays
12-11-2012, 07:18 PM
ईश्वर की अवधारणा के साथ ही जुड़ी हुई है स्वर्ग-नरक या परलोक की धारणा, और देहान्त के बाद आत्मा के इन लोकों में जाने की कल्पना! हिन्दुओं में परलोक की यह कल्पना वैदिक काल के वांग्मय में नहीं मिलती। इसका कारण सम्भवतः यह है कि वैदिक सभ्यता विजेता आर्यों की सभ्यता थी। जमीनों की इफरात थी। नए-नए क्षेत्र जीते जा रहे थे। इहलोक धन-धन्य से परिपूर्ण था। इस लोक के दुख-दर्दों की क्षतिपूर्ति के लिए परलोक के लम्बे-चौड़े दर्शनशास्त्र की आवश्यकता नहीं थी। वैदिक ऋषियों ने जिन देवताओं की कल्पना की - इन्द्र, वरुण, यम आदि - वे भी उनके अपने पूर्वज ही थे या प्रकृति की ऐसी शक्तियों के प्रतीक, जिनका रहस्य समझ में नहीं आता था, जैसे अग्नि, वायु, वर्षा आदि।

abhisays
12-11-2012, 07:18 PM
पर आगे चलकर इस सरल धर्म में भी ओझाओं और पुरोहितों तथा उनके जटिल अनुष्ठानों के कारण संश्लिष्टता और जटिलता आई, और धर्म शासक वर्ग के स्वार्थों का साधन बन गया। उपनिषदों में हमें अनेक स्थलों पर धर्म के इस शासक-समर्थक रूप के प्रति विरोध के स्वर सुनाई पड़ते हैं। आगे चलकर इसी विरोध की प्रक्रिया में से चार्वाक, बौद्ध और जैन जैसे नास्तिक दर्शनों का विकास हुआ।

ईश्वर और परलोक की अवधारणाओं ने कैसे अब तक के मानव जाति के एक क्रूरतम यथार्थ - वर्ग विभाजन या मनुष्य और मनुष्य के बीच भयंकर सामाजार्थिक विषमता - को सहज बनाकर शासक-शोषक वर्ग के हितों की रक्षा की, और उनके विरुद्ध शासित-शोषित वर्गों के विद्रोह की सम्भावनाओं को टाला। इसकी सहज स्वीकृति आधुनिक युग के एक नामी तानाशाह नेपोलियन बोनापार्ट के (मन्मथनाथ गुप्त द्वारा उद्धृत) इस कथन में दिखाई देती है - ''बिना धर्म के भला किसी राष्ट्र में सुव्यवस्था कैसे कायम रह सकती है? समाज व्यक्तियों के भाग्यों की विषमता के बिना चल नहीं सकता और धर्म के बिना ये विषमताएँ टिक नहीं सकतीं। जिस समय एक व्यक्ति भूख से मरा जा रहा हो और दूसरा जरूरत से ज्यादा खा-खाकर बीमार हो रहा हो, उस समय पहला व्यक्ति तब तक अपनी स्थिति को सहने के लिए तैयार नहीं होगा, जब तक कि कोई धर्माधिकारी व्यक्ति उसे यह न कहे कि यही प्रभु की इच्छा है। संसार में अमीर और गरीब ईश्वर के ही बनाए हुए हैं। पर परलोक में यह बँटवारा पूरी तरह बदल जाएगा!''

abhisays
12-11-2012, 07:18 PM
इसी संदर्भ में गरीबों को झूठा दिलासा देने वाला ईसा का यह प्रसिद्ध वाक्य बरबस याद आ जाता है कि 'सूई के छेद में से ऊँट निकल सकता है, पर धनी व्यक्ति स्वर्ग में नहीं जा सकता।' यानी मेरी प्यारी भेड़ों, शान्ति से इस लोक में भेड़ियों के अत्याचार सहो, क्योंकि परलोक में तो स्वर्ग तुम्हारे ही लिए सुरक्षित है!

ईश्वर और उसके विभिन्न अवतारों और देवी-देवताओं को प्रसन्न करने और उनकी कृपा प्राप्त करने के नाम पर धर्म के सारे कर्मकाण्ड, और उन्हें सम्पन्न करवाने वाले पण्डों-पुजारियों, ओझाओं और सयानों का अर्थात एक पूरा पुरोहित वर्ग विकसित हुआ, जिसकी जीविका ही इन कर्मकाण्डों, टोने-टोटकों से मिलनेवाली दक्षिणा थी। धर्म का सारा तामझाम, पूरा व्यापार ईश्वर आदि की अवधारणा पर ही आधरित है। इस तरह आस्तिकता ने ही भारतीय संदर्भ में केवल पुरोहितों या ब्राह्मणों के एक परजीवी वर्ग को जन्म दिया। उसके माध्यम से वर्ण व्यवस्था स्थापित करके पूरे समाज को वर्णों में विभाजित कर शूद्रों के साथ अमानवीय अत्याचार किए। यह वर्ण व्यवस्था ही कालक्रम में जाति व्यवस्था में परिवर्तित हुई। पूरा हिन्दू समाज सैकड़ों श्रेणियों, ऊँची-नीची जातियों में बँट गया। इस जातिवादी कोढ़ से हमारा देश आजादी के साठ साल बाद भी मुक्त नहीं हो सका है।

abhisays
12-11-2012, 07:19 PM
अभिप्राय यह है कि ईश्वर मनुष्य की एक बचकानी कपोलकल्पना मात्रा नहीं है। वह उसका आदिम, अबोध अन्धविश्वास मात्र नहीं है। वह मानव समाज के लिए एक हानिकारक अवधारणा है, जो न केवल मनुष्य और मनुष्य के बीच की विषमताओं को स्वीकार्य बनाती है, मनुष्य द्वारा अन्य मनुष्यों को गुलाम बनाए जाने की अमानुषिकता को भी उचित ठहराने में मदद करती है। अपने समय के क्रूर से क्रूर और स्वेच्छाचारी से स्वेच्छाचारी शासकों ने अपने आपको ईश्वर का अवतार घोषित करवाकर ही अपनी भोली-भाली प्रजा को अपने अत्याचार निर्विरोध सहने की प्रेरणा दी।

abhisays
12-11-2012, 07:19 PM
'ईश्वर' मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को जायज ठहराने वाली एजेंसी है, विषमता का प्रहरी है, मानवीय स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे का दुश्मन है। वह मनुष्य के अज्ञान और अंधविश्वास की सन्तान तो है ही, एक बार अवधारणात्मक पुष्टि पा लेने के बाद वह मनुष्यों के अज्ञान और अन्धविश्वासों का रखवाला भी बन गया है। उसकी धरणा से छुटकारा पाए बिना मानव समाज स्वस्थ, सुखी और मानवीय हो नहीं सकता।