View Full Version : ~~जयशंकर प्रसाद की कहानियाँ!!!
गुंडा........
वह पचास वर्ष सेऊपर था। तब भी युवकों से अधिक बलिष्ठ और दृढ़ था। चमड़े पर झुर्रियाँ नहीं पड़ी थीं। वर्षा की झड़ी में, पूस की रातों की छाया में, कड़कती हुई जेठ की धूप में, नंगे शरीर घूमने में वह सुख मानता था। उसकी चढ़ी मूँछें बिच्छू के डंक की तरह, देखनेवालों की आँखों में चुभती थीं। उसका साँवला रंग, साँप की तरह चिकना और चमकीला था। उसकी नागपुरी धोती का लाल रेशमीकिनारा दूर से ही ध्यान आकर्षित करता। कमर में बनारसी सेल्हे का फेंटा, जिसमें सीपकी मूठ का बिछुआ खुँसा रहता था। उसके घुँघराले बालों पर सुनहले पल्ले के साफे का छोर उसकी चौड़ी पीठ पर फैला रहता।ऊँचे कन्धे पर टिका हुआ चौड़ी धार का गँड़ासा, यह भी उसकी धज! पंजों के बल जब वह चलता, तो उसकी नसें चटाचट बोलती थीं। वह गुंडा था।
ईसा की अठारहवीं शताब्दी के अन्तिम भाग में वही काशी नहीं रह गयी थी, जिसमें उपनिषद् के अजातशत्रु की परिषद् में ब्रह्मविद्या सीखने के लिए विद्वान ब्रह्मचारी आते थे। गौतम बुद्ध औरशंकराचार्य के धर्म-दर्शन के वाद-विवाद, कई शताब्दियों से लगातार मंदिरों और मठों के ध्वंस और तपस्वियों के वध के कारण, प्राय: बन्द-से हो गये थे। यहाँ तक कि पवित्रता और छुआछूत में कट्टर वैष्णव-धर्म भी उसविशृंखलता में, नवागन्तुक धर्मोन्माद में अपनी असफलता देखकर काशी में अघोर रूप धारण कर रहा था। उसी समय समस्त न्याय और बुद्धिवाद को शस्त्र-बल के सामने झुकते देखकर, काशी के विच्छिन्न और निराश नागरिक जीवन ने, एक नवीन सम्प्रदाय की सृष्टि की। वीरता जिसका धर्म था। अपनी बात पर मिटना, सिंह-वृत्ति से जीविका ग्रहण करना, प्राण-भिक्षा माँगनेवाले कायरों तथा चोट खाकर गिरे हुए प्रतिद्वन्द्वी पर शस्त्र न उठाना, सताये निर्बलों को सहायता देना और प्रत्येक क्षण प्राणों को हथेली पर लिये घूमना, उसका बाना था। उन्हें लोग काशी में गुंडा कहते थे।
जीवन की किसी अलभ्य अभिलाषा से वञ्चित होकर जैसे प्राय: लोग विरक्तहो जाते हैं, ठीक उसी तरह किसी मानसिक चोट से घायल होकर, एक प्रतिष्ठित जमींदार का पुत्र होने पर भी, नन्हकूसिंह गुंडा हो गया था। दोनों हाथों से उसने अपनी सम्पत्ति लुटायी। नन्हकूसिंह ने बहुत-सा रुपया खर्च करके जैसा स्वाँग खेला था, उसे काशी वाले बहुत दिनों तक नहीं भूल सके। वसन्त ऋतु में यह प्रहसनपूर्ण अभिनय खेलने के लिए उन दिनों प्रचुर धन, बल, निर्भीकता और उच्छृंखलता की आवश्यकता होती थी। एक बार नन्हकूसिंह ने भी एक पैर में नूपुर, एक हाथ में तोड़ा, एक आँख में काजल, एक कान में हजारोंके मोती तथा दूसरेकान में फटे हुए जूते का तल्ला लटकाकर, एक जड़ाऊ मूठ की तलवार, दूसरा हाथ आभूषणों से लदी हुई अभिनय करनेवाली प्रेमिका के कन्धे पर रखकर गाया था-
‘‘कहीं बैगनवालीमिले तो बुला देना।’’
प्राय: बनारस केबाहर की हरियालियों में, अच्छे पानीवाले कुओं पर, गंगा की धारा में मचलती हुई डोंगी पर वह दिखलाई पड़ता था। कभी-कभी जूआखाने से निकलकर जब वह चौक में आ जाता, तो काशी की रँगीली वेश्याएँ मुस्कराकर उसका स्वागत करतीं और उसके दृढ़ शरीर कोसस्पृह देखतीं। वह तमोली की ही दूकान पर बैठकर उनके गीत सुनता, ऊपर कभी नहीं जाताथा। जूए की जीत का रुपया मुठ्ठियों में भर-भरकर, उनकी खिडक़ी में वह इस तरह उछालता कि कभी-कभी समाजी लोगअपना सिर सहलाने लगते, तब वह ठठाकर हँस देता। जब कभी लोग कोठे के ऊपर चलने के लिए कहते, तो वह उदासी की साँस खींचकर चुप हो जाता।
वह अभी वंशी के जूआखाने से निकला था। आज उसकी कौड़ीने साथ न दिया। सोलह परियों के नृत्य में उसका मनन लगा। मन्नू तमोली की दूकान परबैठते हुए उसने कहा-‘‘आज सायत अच्छी नहीं रही, मन्नू!’’
‘‘क्यों मालिक! चिन्ता किस बात कीहै। हम लोग किस दिन के लिए हैं। सब आप ही का तो है।’’
‘‘अरे, बुद्धू ही रहे तुम! नन्हकूसिंह जिस दिन किसी से लेकर जूआ खेलने लगे उसीदिन समझना वह मर गये। तुम जानते नहीं कि मैं जूआ खेलने कब जाता हूँ। जब मेरे पास एक पैसा नहीं रहता; उसी दिन नाल पर पहुँचते ही जिधर बड़ी ढेरी रहती है, उसी को बदता हूँ और फिर वही दाँव आता भी है। बाबा कीनाराम का यह बरदान है!’’
‘‘तब आज क्यों, मालिक?’’
‘‘पहला दाँव तो आया ही, फिर दो-चार हाथ बदने पर सब निकल गया। तब भी लो, यह पाँच रुपये बचे हैं। एक रुपयातो पान के लिए रख लो और चार दे दो मलूकी कथक को, कह दो कि दुलारी से गाने के लिए कह दे। हाँ, वही एक गीत-
‘‘विलमि विदेश रहे।’’
नन्हकूसिंह की बात सुनते ही मलूकी, जो अभी गाँजे की चिलम पर रखने के लिए अँगारा चूर कर रहाथा, घबराकर उठ खड़ा हुआ। वह सीढिय़ों पर दौड़ता हुआ चढ़ गया। चिलम को देखता ही ऊपर चढ़ा, इसलिए उसे चोट भी लगी; पर नन्हकूसिंह की भृकुटी देखने की शक्ति उसमें कहाँ। उसे नन्हकूसिंह की वह मूर्ति न भूली थी, जब इसी पान की दूकान पर जूएखाने से जीता हुआ, रुपये से भरा तोड़ा लिये वह बैठा था। दूर से बोधीसिंह की बारात का बाजा बजता हुआ आ रहा था। नन्हकू ने पूछा-‘‘यह किसकी बारात है?’’
rajnish manga
22-11-2012, 08:15 PM
अलेक्स जी, सर्वप्रथम आपको इस बात के लिये तहे दिल धन्यवाद और बधाई देता हूँ कि आपने देवनागरी लिपि में अपने पोस्ट भेजने के लिये मेरे निवेदन को स्वीकार कर लिया. इस कहानी में कोशिश अच्छी की है. कहीं कहीं पर दो शब्दों के बीच स्पेस नहीं दिया गया जैसे ‘मन न’ लिखने की बजाय ‘मनन’ लिखा गया. कोई बात नहीं. अभ्यास से यह भी ठीक हो जाएगा. कहानी बहुत उम्दा है. लगता है अगली किश्त बकाया है. कृपया जल्द प्रेषित करें.
अलेक्स जी, सर्वप्रथम आपको इस बात के लिये तहे दिल धन्यवाद और बधाई देता हूँ कि आपने देवनागरी लिपि में अपने पोस्ट भेजने के लिये मेरे निवेदन को स्वीकार कर लिया. इस कहानी में कोशिश अच्छी की है. कहीं कहीं पर दो शब्दों के बीच स्पेस नहीं दिया गया जैसे ‘मन न’ लिखने की बजाय ‘मनन’ लिखा गया. कोई बात नहीं. अभ्यास से यह भी ठीक हो जाएगा. कहानी बहुत उम्दा है. लगता है अगली किश्त बकाया है. कृपया जल्द प्रेषित करें. rajnish bhai...dhanybaad yaha aane ke liye:hug: is thread ke jariye main logo ko jaishankar prasad ji ke kuch amulya kriti se mutakif karana chahta hoon....
गुंडा...........
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नन्हकू ने पूछा-‘‘यह किसकी बारात है?’’
‘‘ठाकुर बोधीसिंह के लड़के की।’’-मन्नू के इतना कहते ही नन्हकू के ओठ फड़कने लगे। उसने कहा-‘‘मन्नू! यह नहीं हो सकता। आज इधर से बारात न जायगी। बोधीसिंह हमसे निपटकर तब बारात इधर से ले जा सकेंगे।’’
मन्नू ने कहा-‘‘तब मालिक, मैंक्या करूँ?’’
नन्हकू गँड़ासा कन्धे पर से और ऊँचा करके मलूकी से बोला-‘‘मलुकिया देखता है, अभी जा ठाकुर से कह दे, कि बाबू नन्हकूसिंह आज यहीं लगाने के लिए खड़े हैं। समझकर आवें, लड़के की बारात है।’’ मलुकिया काँपता हुआ ठाकुर बोधीसिंह के पास गया। बोधीसिंह और नन्हकू से पाँच वर्ष से सामना नहीं हुआ है। किसीदिन नाल पर कुछ बातों में ही कहा-सुनी होकर, बीच-बचाव हो गया था। फिर सामना नहीं हो सका। आज नन्हकू जान पर खेलकर अकेला खड़ा है। बोधीसिंह भी उस आन को समझते थे। उन्होंने मलूकी से कहा-‘‘जा बे, कह दे कि हमको क्या मालूम कि बाबू साहब वहाँ खड़े हैं। जब वह हैं ही, तो दो समधी जाने का क्या काम है।’’ बोधीसिंह लौट गये और मलूकी के कन्धे पर तोड़ालादकर बाजे के आगेनन्हकूसिंह बारात लेकर गये। ब्याह में जो कुछ लगा, खर्च किया। ब्याह कराकर तब, दूसरे दिन इसी दूकान तक आकर रुक गये। लड़के को और उसकी बारात को उसके घर भेज दिया।
मलूकी को भी दस रुपया मिला था उस दिन। फिर नन्हकूसिंह की बात सुनकर बैठे रहना और यम को न्योता देना एक हीबात थी। उसने जाकरदुलारी से कहा-‘‘हम ठेका लगा रहे हैं, तुम गाओ, तब तक बल्लू सारंगीवाला पानी पीकर आता है।’’
‘‘बाप रे, कोई आफतआयी है क्या बाबू साहब? सलाम!’’-कहकर दुलारी ने खिडक़ी से मुस्कराकर झाँका था कि नन्हकूसिंह उसके सलाम का जवाब देकर, दूसरे एक आनेवाले को देखने लगे।
हाथ में हरौती की पतली-सी छड़ी, आँखों में सुरमा, मुँह में पान, मेंहदी लगी हुई लाल दाढ़ी, जिसकी सफेद जड़ दिखलाई पड़ रही थी, कुव्वेदार टोपी; छकलिया अँगरखा और साथ में लैसदार परतवाले दो सिपाही! कोई मौलवीसाहब हैं। नन्हकू हँस पड़ा। नन्हकू की ओर बिना देखे ही मौलवी ने एक सिपाही से कहा-‘‘जाओ, दुलारी से कह दो कि आज रेजिडेण्ट साहब की कोठी पर मुजरा करना होगा, अभी चले, देखो तब तक हम जानअली से कुछ इत्र ले रहे हैं।’’ सिपाही ऊपर चढ़ रहा था और मौलवी दूसरी ओर चले थे कि नन्हकू ने ललकारकर कहा-‘‘दुलारी! हम कबतक यहाँ बैठे रहें! क्या अभी सरंगिया नहीं आया?’’
दुलारी ने कहा-‘‘वाह बाबू साहब! आपही के लिए तो मैं यहाँ आ बैठी हूँ, सुनिए न! आप तो कभी ऊपर...’’ मौलवी जल उठा। उसने कड़ककर कहा-‘‘चोबदार! अभी वह सुअर की बच्ची उतरी नहीं। जाओ, कोतवाल के पास मेरा नाम लेकर कहोकि मौलवी अलाउद्दीन कुबरा ने बुलाया है। आकरउसकी मरम्मत करें। देखता हूँ तो जब से नवाबी गयी, इन काफिरों की मस्ती बढ़ गयी है।’’
कुबरा मौलवी! बाप रे-तमोली अपनीदूकान सम्हालने लगा। पास ही एक दूकान पर बैठकर ऊँघता हुआ बजाज चौंककर सिर में चोट खा गया! इसी मौलवी ने तो महाराज चेतसिंह से साढ़े तीन सेर चींटी के सिर का तेल माँगा था। मौलवी अलाउद्दीन कुबरा! बाजार में हलचल मच गयी। नन्हकूसिंह ने मन्नू से कहा-‘‘क्यों, चुपचाप बैठोगे नहीं!’’ दुलारी से कहा-‘‘वहीं से बाईजी! इधर-उधर हिलने का काम नहीं। तुम गाओ। हमने ऐसे घसियारे बहुत-से देखे हैं।अभी कल रमल के पासे फेंककर अधेला-अधेला माँगता था, आज चला है रोब गाँठने।’’
अब कुबरा ने घूमकर उसकी ओर देखकर कहा-‘‘कौन है यह पाजी!’’
‘‘तुम्हारे चाचाबाबू नन्हकूसिंह!’’-के साथ ही पूरा बनारसी झापड़ पड़ा। कुबरा का सिर घूम गया। लैस के परतले वाले सिपाही दूसरी ओर भाग चले और मौलवी साहब चौंधिया कर जानअली की दूकान पर लडख़ड़ाते, गिरते-पड़ते किसी तरह पहुँच गये।
जानअली ने मौलवी से कहा-‘‘मौलवी साहब! भला आप भी उस गुण्डे के मुँह लगने गये। यह तो कहिए कि उसने गँड़ासा नहीं तौल दिया।’’ कुबरा के मुँह से बोली नहींनिकल रही थी। उधर दुलारी गा रही थी’’.... विलमि विदेस रहे ....’’ गाना पूरा हुआ, कोई आया-गया नही। तब नन्हकूसिंह धीरे-धीरे टहलता हुआ, दूसरी ओर चला गया। थोड़ी देर में एक डोली रेशमीपरदे से ढँकी हुई आयी। साथ में एक चोबदार था। उसने दुलारी को राजमाता पन्ना की आज्ञा सुनायी।
दुलारी चुपचाप डोली पर जा बैठी। डोली धूल और सन्ध्याकाल के धुएँ से भरी हुई बनारस की तंग गलियों से होकर शिवालय घाट की ओर चली।
श्रावण का अन्तिम सोमवार था। राजमाता पन्ना शिवालय में बैठकर पूजन कर रहीथी। दुलारी बाहर बैठी कुछ अन्य गानेवालियों के साथ भजन गा रही थी। आरती हो जाने पर, फूलों की अञ्जलि बिखेरकर पन्ना ने भक्तिभाव से देवता के चरणों में प्रणाम किया। फिर प्रसाद लेकर बाहर आते ही उन्होंने दुलारी को देखा। उसने खड़ी होकर हाथ जोड़ते हुए कहा-‘‘मैं पहले ही पहुँच जाती। क्या करूँ, वह कुबरा मौलवी निगोड़ा आकर रेजिडेण्ट की कोठी पर ले जाने लगा। घण्टों इसी झंझट में बीत गया, सरकार!’’
‘‘कुबरा मौलवी! जहाँ सुनती हूँ, उसी का नाम। सुना है कि उसने यहाँ भी आकर कुछ....’’-फिर न जाने क्या सोचकरबात बदलते हुए पन्ना ने कहा-‘‘हाँ,तब फिर क्या हुआ? तुम कैसे यहाँ आ सकीं?’’
‘‘बाबू नन्हकूसिंह उधर से आ गये।’’ मैंने कहा-‘‘सरकार की पूजा पर मुझे भजन गाने को जाना है। और यह जाने नहीं दे रहा है। उन्होंने मौलवी को ऐसा झापड़ लगाया कि उसकी हेकड़ी भूल गयी। और तब जाकर मुझे किसी तरह यहाँ आनेकी छुट्टी मिली।’’
‘‘कौन बाबू नन्हकूसिंह!’’
दुलारी ने सिर नीचा करके कहा-‘‘अरे, क्या सरकार को नहीं मालूम? बाबू निरंजनसिंह के लड़के! उस दिन, जब मैं बहुत छोटी थी, आपकी बारी में झूला झूल रही थी, जब नवाब का हाथी बिगड़कर आ गया था, बाबू निरंजनसिंह के कुँवर ने ही तो उस दिन हम लोगों की रक्षा की थी।’’
राजमाता का मुख उस प्राचीन घटना को स्मरण करके न जाने क्यों विवर्ण हो गया। फिर अपने को सँभालकर उन्होंने पूछा-‘‘तो बाबू नन्हकूसिंह उधर कैसे आ गये?’’
दुलारी ने मुस्कराकर सिर नीचा कर लिया! दुलारी राजमाता पन्ना के पिता की जमींदारी में रहने वाली वेश्या की लडक़ी थी। उसके साथ ही कितनी बार झूले-हिण्डोले अपने बचपन में पन्ना झूल चुकी थी। वह बचपन से ही गाने में सुरीली थी। सुन्दरी होने पर चञ्चल भी थी। पन्ना जब काशीराज की माता थी, तब दुलारी काशी की प्रसिद्ध गानेवाली थी। राजमहल में उसका गाना-बजाना हुआ हीकरता। महाराज बलवन्तसिंह के समय से ही संगीत पन्ना के जीवन का आवश्यक अंश था। हाँ, अब प्रेम-दु:ख और दर्द-भरी विरह-कल्पना के गीत की ओर अधिक रुचि न थी। अब सात्विक भावपूर्ण भजन होता था। राजमाता पन्ना का वैधव्य से दीप्त शान्त मुखमण्डल कुछ मलिन हो गया।
बड़ी रानी की सापत्न्य ज्वाला बलवन्तसिंह के मर जाने पर भी नहीं बुझी। अन्त:पुर कलह का रंगमंच बनारहता, इसी से प्राय: पन्ना काशीके राजमंदिर में आकर पूजा-पाठ में अपना मन लगाती। रामनगर में उसको चैन नहीं मिलता। नयी रानी होने के कारण बलवन्तसिंह की प्रेयसी होने का गौरव तो उसे था ही, साथ में पुत्र उत्पन्न करने का सौभाग्य भी मिला, फिर भी असवर्णता का सामाजिक दोष उसके हृदय को व्यथित किया करता। उसे अपने ब्याह की आरम्भिक चर्चा का स्मरण होआया।
छोटे-से मञ्च पर बैठी, गंगा की उमड़ती हुई धारा को पन्ना अन्य-मनस्क होकर देखने लगी। उस बातको, जो अतीत में एक बार, हाथ से अनजाने में खिसक जानेवाली वस्तु की तरह गुप्त हो गयी हो; सोचने का कोई कारण नहीं। उससे कुछ बनता-बिगड़ता भी नहीं; परन्तु मानव-स्वभाव हिसाब रखने की प्रथानुसार कभी-कभी कही बैठताहै, ‘‘कि यदि वह बात हो गयी होती तो?’’ ठीक उसी तरह पन्नाभी राजा बलवन्तसिंह द्वारा बलपूर्वक रानी बनायी जाने के पहले की एक सम्भावना को सोचने लगी थी। सो भी बाबू नन्हकूसिंह का नाम सुन लेने पर। गेंदा मुँहलगी दासी थी। वह पन्नाके साथ उसी दिन से है, जिस दिन से पन्ना बलवन्तसिंह की प्रेयसी हुई। राज्य-भर का अनुसन्धान उसी के द्वारा मिला करता। और उसे न जाने कितनी जानकारी भी थी। उसने दुलारी का रंग उखाड़ने के लिएकुछ कहना आवश्यक समझा।
‘‘महारानी! नन्हकूसिंह अपनी सब जमींदारी स्वाँग, भैंसों कीलड़ाई, घुड़दौड़ और गाने-बजाने मेंउड़ाकर अब डाकू होगया है। जितने खूनहोते हैं, सब में उसी का हाथ रहता है। जितनी ....’’ उसे रोककर दुलारी ने कहा-‘‘यह झूठ है। बाबू साहब के ऐसा धर्मात्मा तो कोई है ही नहीं। कितनीविधवाएँ उनकी दी हुई धोती से अपना तन ढँकती है। कितनी लड़कियों की ब्याह-शादी होती है। कितने सताये हुए लोगों की उनके द्वारा रक्षा होती है।’’
रानी पन्ना के हृदय में एक तरलताउद्वेलित हुई। उन्होंने हँसकर कहा-‘‘दुलारी, वे तेरे यहाँ आते हैंन? इसी से तू उनकी बड़ाई....।’’
‘‘नहीं सरकार! शपथ खाकर कह सकती हूँ कि बाबू नन्हकूसिंह ने आज तक कभी मेरे कोठे पर पैर भी नहीं रखा।’’
राजमाता न जाने क्यों इस अद्*भुत व्यक्ति को समझने के लिए चञ्चल हो उठी थीं। तब भी उन्होंने दुलारी को आगे कुछ न कहने के लिए तीखी दृष्टि से देखा। वह चुप हो गयी। पहले पहर की शहनाईबजने लगी। दुलारी छुट्टी माँगकर डोली पर बैठ गयी। तब गेंदा ने कहा-‘‘सरकार! आजकल नगर की दशा बड़ी बुरी है। दिन दहाड़े लोग लूट लिए जाते हैं। सैकड़ों जगह नाला पर जुए में लोग अपना सर्वस्व गँवाते हैं। बच्चे फुसलाये जाते हैं। गलियों में लाठियाँ और छुरा चलने के लिए टेढ़ी भौंहे कारण बन जाती हैं। उधर रेजीडेण्ट साहब से महाराजा की अनबन चल रही है।’’ राजमाता चुप रहीं।
दूसरे दिन राजा चेतसिंह के पास रेजिडेण्ट मार्कहेम की चिठ्ठी आयी, जिसमें नगर की दुव्र्यवस्था की कड़ी आलोचना थी। डाकुओं और गुण्डों को पकड़ने के लिए, उन पर कड़ा नियन्त्रण रखने की सम्मति भी थी। कुबरा मौलवी वाली घटना का भी उल्लेखथा। उधर हेंस्टिग्स के आने की भी सूचना थी। शिवालयघाट और रामनगर में हलचल मच गयी! कोतवाल हिम्मतसिंह, पागल की तरह, जिसके हाथ में लाठी, लोहाँगी, गड़ाँसा,बिछुआ और करौली देखते, उसी को पकड़ने लगे।
एक दिन नन्हकूसिंह सुम्भा के नाले केसंगम पर, ऊँचे-से टीले की घनी हरियाली में अपने चुने हुए साथियों के साथ दूधिया छानरहे थे। गंगा में, उनकी पतली डोंगी बड़ की जटा से बँधी थी। कथकों कागाना हो रहा था। चार उलाँकी इक्के कसे-कसाये खड़े थे।
नन्हकूसिंह ने अकस्मात् कहा-‘‘मलूकी!’’ गाना जमता नहीं है। उलाँकी पर बैठकर जाओ, दुलारी को बुला लाओ।’’ मलूकी वहाँ मजीरा बजा रहा था। दौड़कर इक्के पर जा बैठा।आज नन्हकूसिंह का मन उखड़ा था। बूटीकई बार छानने पर भी नशा नहीं। एक घण्टे में दुलारी सामने आ गयी। उसनेमुस्कराकर कहा-‘‘क्या हुक्म है बाबू साहब?’’
‘‘दुलारी! आज गाना सुनने का मन कर रहा है।’’
‘‘इस जंगल में क्यों?-उसने सशंक हँसकर कुछ अभिप्राय से पूछा।
‘‘तुम किसी तरह का खटका न करो।’’-नन्हकूसिंहने हँसकर कहा।
‘‘यह तो मैं उस दिन महारानी से भीकह आयी हूँ।’’
‘‘क्या, किससे?’’
‘‘राजमाता पन्नादेवी से’’-फिर उस दिन गाना नहीं जमा। दुलारी ने आश्चर्य से देखा कि तानों मेंनन्हकू की आँखे तरहो जाती हैं। गाना-बजाना समाप्त हो गया था।वर्षा की रात में झिल्लियों का स्वर उस झुरमुट में गूँज रहा था। मंदिर के समीप ही छोटे-से कमरे में नन्हकूसिंह चिन्ता में निमग्न बैठा था। आँखों में नीद नहीं। और सब लोग तो सोने लगे थे, दुलारी जाग रही थी। वह भी कुछ सोच रही थी। आज उसे, अपने को रोकने के लिए कठिन प्रयत्न करना पड़ रहा था; किन्तु असफल होकर वह उठी और नन्हकू के समीप धीरे-धीरेचली आयी। कुछ आहट पाते ही चौंककर नन्हकूसिंह ने पास ही पड़ी हुई तलवार उठा ली। तब तक हँसकर दुलारी ने कहा-‘‘बाबू साहब,यह क्या? स्त्रियों पर भी तलवार चलायी जाती है!’’
छोटे-से दीपक के प्रकाश में वासना-भरी रमणी कामुख देखकर नन्हकू हँस पड़ा। उसने कहा-‘‘क्यों बाईजी! क्या इसी समय जानेकी पड़ी है। मौलवीने फिर बुलाया है क्या?’’ दुलारी नन्हकू के पास बैठगयी। नन्हकू ने कहा-‘‘क्या तुमको डर लग रहा है?’’
‘‘नहीं, मैं कुछ पूछने आयी हूँ।’’
‘‘क्या?’’
‘‘क्या,......यही कि......कभी तुम्हारे हृदय में....’’
‘‘उसे न पूछो दुलारी! हृदय को बेकार ही समझ कर तो उसे हाथ में लिये फिर रहा हूँ।कोई कुछ कर देता-कुचलता-चीरता-उछालता! मर जाने के लिए सब कुछ तो करता हूँ, पर मरने नहीं पाता।’’
‘‘मरने के लिए भी कहीं खोजने जाना पड़ता है। आपको काशी का हाल क्या मालूम! न जाने घड़ी भर में क्या हो जाय। उलट-पलट होने वाला है क्या, बनारस की गलियाँ जैसे काटने को दौड़ती हैं।’’
‘‘कोई नयी बात इधर हुई है क्या?’’
‘‘कोई हेस्ंिटग्ज आया है। सुना है उसने शिवालयघाट पर तिलंगों की कम्पनी का पहरा बैठा दिया है। राजा चेतसिंह और राजमाता पन्ना वहीं हैं। कोई-कोईकहता है कि उनको पकड़कर कलकत्ता भेजने....’’
‘‘क्या पन्ना भी....रनिवास भी वहीं है’’-नन्हकू अधीर हो उठा था।
‘‘क्यों बाबू साहब, आज रानी पन्ना का नाम सुनकर आपकी आँखों में आँसू क्यो आ गये?’’
सहसा नन्हकू का मुख भयानक हो उठा! उसने कहा-‘‘चुप रहो,तुम उसको जानकर क्या करोगी?’’ वह उठ खड़ा हुआ। उद्विग्न की तरह नजाने क्या खोजने लगा। फिर स्थिर होकर उसने कहा-‘‘दुलारी! जीवन में आज यह पहला ही दिन है कि एकान्त रात में एक स्त्रीमेरे पलँग पर आकर बैठ गयी है, मैं चिरकुमार! अपनी एकप्रतिज्ञा का निर्वाह करने के लिए सैकड़ों असत्य, अपराध करताफिर रहा हूँ। क्यों? तुम जानती हो? मैं स्त्रियों का घोर विद्रोही हूँ और पन्ना! .... किन्तु उसका क्या अपराध! अत्याचारी बलवन्तसिंह के कलेजे में बिछुआ मैं न उतार सका। किन्तु पन्ना! उसेपकड़कर गोरे कलकत्ते भेज देंगे! वही ...।’’
नन्हकूसिंह उन्मत्त हो उठा था। दुलारी ने देखा, नन्हकू अन्धकार में ही वटवृक्ष के नीचे पहुँचा और गंगा कीउमड़ती हुई धारा में डोंगी खोल दी-उसी घने अन्धकार में। दुलारी का हृदय काँप उठा।
16 अगस्त सन् 1781 को काशी डाँवाडोल हो रही थी। शिवालयघाट में राजा चेतसिंह लेफ्टिनेण्ट इस्टाकर के पहरे में थे। नगर में आतंक था। दूकानें बन्द थीं। घरों में बच्चे अपनी माँ से पूछते थे-‘माँ, आज हलुए वाला नहीं आया।’ वह कहती-‘चुप बेटे!’सडक़ें सूनी पड़ी थीं। तिलंगों की कम्पनी के आगे-आगेकुबरा मौलवी कभी-कभी, आता-जाता दिखाई पड़ता था। उस समय खुली हुई खिड़कियाँ बन्द हो जाती थीं। भय और सन्नाटे का राज्य था। चौक मेंचिथरूसिंह की हवेली अपने भीतर काशी की वीरता को बन्द किये कोतवाल का अभिनय कर रही थी। इसी समय किसी ने पुकारा-‘‘हिम्मतसिंह!’’
खिडक़ी में से सिर निकाल कर हिम्मतसिंह ने पूछा-‘‘कौन?’’
‘‘बाबू नन्हकूसिंह!’’
‘‘अच्छा, तुम अब तक बाहर ही हो?’’
‘‘पागल! राजा कैद हो गये हैं। छोड़ दो इन सब बहादुरोंको! हम एक बार इनको लेकर शिवालयघाट पर जायँ।’’
‘‘ठहरो’’-कहकर हिम्मतसिंह ने कुछ आज्ञा दी, सिपाही बाहर निकले। नन्हकू की तलवार चमक उठी। सिपाही भीतर भागे। नन्हकू ने कहा-‘‘नमकहरामों! चूडिय़ाँ पहन लो।’’ लोगों के देखते-देखते नन्हकूसिंह चला गया। कोतवाली के सामने फिर सन्नाटा हो गया।
नन्हकू उन्मत्त था। उसके थोड़े-से साथी उसकी आज्ञा पर जानदेने के लिए तुले थे। वह नहीं जानताथा कि राजा चेतसिंह का क्या राजनैतिक अपराध है? उसने कुछ सोचकर अपने थोड़े-से साथियों को फाटक पर गड़बड़ मचाने के लिए भेज दिया। इधर अपनी डोंगी लेकर शिवालय की खिडक़ी के नीचे धारा काटता हुआ पहुँचा। किसी तरह निकले हुए पत्थर में रस्सी अटकाकर,उस चञ्चल डोंगी कोउसने स्थिर किया और बन्दर की तरह उछलकर खिडक़ी के भीतर हो रहा। उस समय वहाँ राजमाता पन्ना और राजा चेतसिंह से बाबू मनिहारसिंह कह रहे थे-‘‘आपके यहाँ रहने से, हम लोग क्या करें, यह समझ में नहीं आता। पूजा-पाठ समाप्त करके आप रामनगर चली गयी होतीं, तो यह ....’’
तेजस्विनी पन्ना ने कहा-‘‘अब मैं रामनगर कैसे चली जाऊँ?’’
मनिहारसिंह दुखी होकर बोले-‘‘कैसे बताऊँ?मेरे सिपाही तो बन्दी हैं।’’ इतने में फाटक पर कोलाहल मचा। राज-परिवार अपनी मन्त्रणा में डूबा था कि नन्हकूसिंह का आना उन्हें मालूम हुआ। सामने का द्वार बन्द था। नन्हकूसिंह ने एक बार गंगा की धारा को देखा-उसमें एक नाव घाट पर लगने के लिए लहरों से लड़ रही थी। वह प्रसन्न हो उठा। इसी की प्रतीक्षा में वह रुका था।
उसने जैसे सबको सचेत करते हुए कहा-‘‘महारानी कहाँ है?’’
सबने घूम कर देखा-एक अपरिचित वीर-मूर्ति! शस्त्रों से लदा हुआ पूरा देव!
चेतसिंह ने पूछा-‘‘तुम कौन हो?’’
‘‘राज-परिवार का एक बिना दाम का सेवक!’’
पन्ना के मुँह से हलकी-सी एक साँस निकल रह गयी।उसने पहचान लिया। इतने वर्षों के बाद! वही नन्हकूसिंह।
मनिहारसिंह ने पूछा-‘‘तुम क्या कर सकते हो?’’
‘‘मै मर सकता हूँ!पहले महारानी को डोंगी पर बिठाइए। नीचे दूसरी डोंगी पर अच्छे मल्लाह हैं। फिर बात कीजिए।’’-मनिहारसिंह ने देखा, जनानी ड्योढ़ी का दरोगा राज की एक डोंगी पर चार मल्लाहों के साथ खिडक़ी से नाव सटाकर प्रतीक्षा में है। उन्होंने पन्ना से कहा-‘‘चलिए, मैं साथचलता हूँ।’’
‘‘और...’’-चेतसिंह को देखकर, पुत्रवत्सला ने संकेत से एक प्रश्न किया, उसकाउत्तर किसी के पासन था। मनिहारसिंह ने कहा-‘‘तब मैं यहीं?’’ नन्हकू ने हँसकर कहा-‘‘मेरे मालिक, आप नाव पर बैठें। जब तक राजाभी नाव पर न बैठ जायँगे, तब तक सत्रह गोली खाकर भी नन्हकूसिंह जीवित रहने की प्रतिज्ञा करता है।’’
पन्ना ने नन्हकू को देखा। एक क्षण के लिए चारों आँखे मिली, जिनमें जन्म-जन्म का विश्वास ज्योति की तरह जल रहा था। फाटक बलपूर्वक खोला जा रहा था। नन्हकू नेउन्मत्त होकर कहा-‘‘मालिक! जल्दी कीजिए।’’
दूसरे क्षण पन्ना डोंगी पर थीऔर नन्हकूसिंह फाटक पर इस्टाकर के साथ। चेतराम नेआकर एक चिठ्ठी मनिहारसिंह को हाथ में दी। लेफ्टिनेण्ट ने कहा-‘‘आप के आदमी गड़बड़ मचा रहे हैं। अब मै अपने सिपाहियों को गोली चलाने से नहीं रोक सकता।’’
‘‘मेरे सिपाही यहाँ कहाँ हैं, साहब?’’-मनिहारसिंह ने हँसकर कहा। बाहर कोलाहल बढऩे लगा।
चेतराम ने कहा-‘‘पहले चेतसिंह को कैद कीजिए।’’
‘‘कौन ऐसी हिम्मत करता है?’’ कड़ककर कहते हुए बाबू मनिहारसिंह ने तलवार खींच ली।अभी बात पूरी न हो सकी थी कि कुबरा मौलवी वहाँ पहुँचा! यहाँ मौलवी साहब की कलमनहीं चल सकती थी, और न ये बाहर ही जा सकते थे। उन्होंने कहा-‘‘देखते क्या हो चेतराम!’’
चेतराम ने राजा के ऊपर हाथ रखा ही थी कि नन्हकू के सधे हुए हाथ ने उसकी भुजा उड़ा दी। इस्टाकर आगे बढ़े, मौलवी साहब चिल्लाने लगे। नन्हकूसिंह ने देखते-देखते इस्टाकर और उसके कई साथियों को धराशायी किया। फिर मौलवी साहब कैसे बचते!
नन्हकूसिंह ने कहा-‘‘क्यों, उस दिनके झापड़ ने तुमकोसमझाया नहीं? पाजी!’’-कहकर ऐसा साफ जनेवा मारा किकुबरा ढेर हो गया।कुछ ही क्षणों मेंयह भीषण घटना हो गयी, जिसके लिए अभी कोई प्रस्तुत न था।
नन्हकूसिंह ने ललकार कर चेतसिंह से कहा-‘‘आप क्या देखते हैं? उतरिये डोंगी पर!’’-उसके घावों सेरक्त के फुहारे छूट रहे थे। उधर फाटक से तिलंगे भीतर आने लगे थे। चेतसिंह ने खिडक़ी से उतरते हुए देखाकि बीसों तिलंगों की संगीनों में वहअविचल खड़ा होकर तलवार चला रहा है।नन्हकू के चट्टान-सदृश शरीर से गैरिक की तरह रक्तकी धारा बह रही है। गुण्डे का एक-एक अंग कटकर वहीं गिरने लगा। वह काशी का गुंडा था!
1.गुंडा(समाप्त)
2. सिकंदर की शपथ......(जल्द ही )
सिकंदर की शपथ......
भाग-1
सूर्य की चमकीली किरणों के साथ, यूनानियों केबरछे की चमक से ‘मिंगलौर’-दुर्ग घिरा हुआ है। यूनानियों के दुर्ग तोड़नेवाले यन्त्र दुर्ग की दीवालों से लगा दिये गये हैं, और वे अपना कार्य बड़ी शीघ्रता के साथ कर रहे हैं। दुर्ग की दीवाल काएक हिस्सा टूटा औरयूनानियों की सेना उसी भग्न मार्ग से जयनाद करती हुई घुसने लगी। पर वह उसी समय पहाड़ से टकराये हुए समुद्र की तरह फिरा दी गयी, और भारतीय युवक वीरों की सेना उनका पीछा करती हुई दिखाई पड़ने लगी। सिकंदर उनके प्रचण्ड अस्त्राघात को रोकता पीछे हटने लगा।
अफगानिस्तान में ‘अश्वक’ वीरों के साथ भारतीय वीरकहाँ से आ गये? यह शंका हो सकती है, किन्तु पाठकगण! वेनिमन्त्रित होकर उनकी रक्षा के लिये सुदूर से आयेहैं, जो कि संख्या में केवल सात हजारहोने पर भी ग्रीकों की असंख्य सेना को बराबर पराजित कर रहे हैं।
सिकंदर को उस सामान्य दुर्ग के अवरोध में तीन दिनव्यतीत हो गये। विजय की सम्भावना नहीं है, सिकंदर उदास होकर कैम्प में लौट गया, और सोचने लगा। सोचने की बात ही है। ग़ाजा और परसिपोलिस आदि के विजेता को अफगानिस्तान के एक छोटे-से दुर्ग के जीतने में इतनापरिश्रम उठाकर भी सफलता मिलती नहीं दिखाई देती, उलटे कई बार उसे अपमानित होना पड़ा।
बैठे-बैठे सिकंदर को बहुत देर हो गयी। अन्धकार फैलकर संसार को छिपाने लगा, जैसे कोई कपटाचारी अपनी मन्त्रणा को छिपाता हो। केवल कभी-कभी दो-एक उल्लू उस भीषण रणभूमि में अपने भयावह शब्द को सुना देते हैं। सिकंदर ने सीटी देकर कुछ इंगित किया, एक वीर पुरुष सामने दिखाई पड़ा। सिकंदर ने उससे कुछ गुप्त बातें कीं, और वह चला गया। अन्धकार घनीभूत हो जाने परसिंकदर भी उसी ओर उठकर चला, जिधर वह पहला सैनिक जा चुका था।
अंश-2
दुर्ग के उस भागमें, जो टूट चुका था, बहुत शीघ्रता से काम लगा हुआ था, जो बहुत शीघ्र कल की लड़ाई के लिये प्रस्तुत कर दिया गया और सब लोग विश्राम करने के लिये चले गये। केवल एक मनुष्य उसी स्थान पर प्रकाश डालकर कुछ देख रहा है। वह मनुष्य कभी तो खड़ा रहता है और कभी अपनी प्रकाश फैलानेवाली मशाल को लिये हुए दूसरीओर चला जाता है। उस समय उस घोर अन्धकार में उस भयावह दुर्ग की प्रकाण्ड छाया और भी स्पष्ट हो जातीहै। उसी छाया में छिपा हुआ सिकंदर खड़ा है। उसके हाथमें धनुष और बाण है, उसके सब अस्त्र उसके पास हैं। उसका मुख यदिकोई इस समय प्रकाशमें देखता, तो अवश्य कहता कि यह कोई बड़ी भयानक बात सोच रहा है, क्योंकि उसका सुन्दर मुखमण्डल इस समय विचित्र भावों से भरा है। अकस्मात् उसके मुख से एक प्रसन्नता का चीत्कार निकल पड़ा, जिसे उसने बहुत व्यग्र होकर छिपाया।
समीप की झाड़ी से एक दूसरा मनुष्य निकल पड़ा,जिसने आकर सिकंदर से कहा-देर न कीजिये, क्योंकि यह वही है।
सिकंदर ने धनुष को ठीक करके एक विषमय बाण उस पर छोड़ा और उसे उसी दुर्ग पर टहलते हुए मनुष्य की ओर लक्ष्य करके छोड़ा। लक्ष्य ठीक था, वह मनुष्य लुढक़कर नीचे आ रहा। सिकंदर और उसके साथी ने झट जाकर उसे उठा लिया, किन्तु उसकेचीत्कार से दुर्ग पर का एक प्रहरी झुककर देखने लगा। उसने प्रकाश डालकर पूछा-कौन है?
उत्तर मिला-मैंदुर्ग से नीचे गिरपड़ा हूँ।
प्रहरी ने कहा-घबड़ाइये मत, मैं डोरी लटकाता हूँ।
डोरी बहुत जल्द लटका दी गयी, अफगान वेशधारी सिकंदर उसके सहारे ऊपर चढ़ गया। ऊपर जाकर सिकंदर ने उस प्रहरी को भी नीचेगिरा दिया, जिसे उसके साथी ने मार डाला और उसका वेश आप लेकर उस सीढ़ी से ऊपर चढ़ गया। जाने के पहले उसनेअपनी छोटी-सी सेनाको भी उसी जगह बुला लिया और धीरे-धीरे उसी रस्सी की सीढ़ी सेवे सब ऊपर पहुँचा दिये गये।
दुर्ग के प्रकोष्ठ में सरदार की सुन्दर पत्नी बैठी हुई है। मदिरा-विलोल दृष्टि से कभी दर्पण में अपना सुन्दर मुख और कभीअपने नवीन नील वसनको देख रही है। उसका मुख लालसा कीमदिरा से चमक-चमक कर उसकी ही आँखों में चकाचौंध पैदा कर रहा है। अकस्मात् ‘प्यारे सरदार’, कहकर वह चौंक पड़ी, पर उसकी प्रसन्नता उसी क्षण बदल गयी, जब उसने सरदार के वेश में दूसरे को देखा। सिकंदर का मानुषिक सौन्दर्य कुछ कम नहीं था, अबला-हृदय को और भी दुर्बल बना देने के लिये वह पर्याप्त था। वे एक-दूसरे को निर्निमेष दृष्टि से देखने लगे। पर अफगान-रमणी की शिथिलता देर तक न रही, उसने हृदय के सारे बल को एकत्र करके पूछा-तुम कौन हो?
उत्तर मिला-शाहंशाह सिकंदर।
रमणी ने पूछा-यह वस्त्र किस तरह मिला?
सिकंदर ने कहा-सरदार को मार डालने से।
रमणी के मुख से चीत्कार के साथ हीनिकल पड़ा-क्या सरदार मारा गया?
सिकंदर-हाँ, अब वह इस लोक में नहीं है।
रमणी ने अपना मुख दोनों हाथों से ढक लिया, पर उसी क्षण उसके हाथ मेंएक चमकता हुआ छुरादिखाई देने लगा।
सिकंदर घुटने के बल बैठ गया और बोला-सुन्दरी! एक जीव के लिये तुम्हारी दो तलवारें बहुत थीं,फिर तीसरी की क्याआवश्यकता है?
रमणी की दृढ़ता हट गयी, और न जाने क्यों उसके हाथ काछुरा छटककर गिर पड़ा, वह भी घुटनों के बल बैठ गयी।
सिकंदर ने उसका हाथ पकड़कर उठाया। अब उसने देखा कि सिकंदर अकेला नहीं है, उसके बहुत से सैनिक दुर्ग पर दिखाई देरहे हैं। रमणी ने अपना हृदय दृढ़ किया और संदूक खोलकर एक जवाहिरात का डिब्बा ले आकर सिकंदर के आगे रक्खा। सिकंदर ने उसे देखकर कहा-मुझे इसकी आवश्यकता नहीं है,दुर्ग पर मेरा अधिकार हो गया, इतना ही बहुत है।
दुर्ग के सिपाही यह देखकर कि शत्रु भीतर आ गया है, अस्त्र लेकर मारपीट करने पर तैयार हो गये। पर सरदार-पत्नी नेउन्हें मना किया, क्योंकि उसे बतला दिया गया था कि सिकंदर की विजयवाहिनी दुर्ग के द्वार परखड़ी है।
सिकंदर ने कहा-तुम घबड़ाओ मत, जिस तरह से तुम्हारी इच्छा होगी, उसी प्रकार सन्धि के नियम बनाये जायँगे। अच्छा, मैं जाता हूँ।
अब सिकंदर को थोड़ी दूर तक सरदार-पत्नी पहुँचा गयी। सिकंदर थोड़ी सेना छोड़कर आप अपने शिविर में चला गया।
सन्धि हो गयी। सरदार-पत्नी ने स्वीकार कर लिया कि दुर्ग सिकंदर के अधीन होगा। सिकंदर ने भी उसी को यहाँ की रानी बनाया और कहा-भारतीय योद्धा जो तुम्हारे यहाँ आये हैं, वे अपने देश को लौटकर चले जायँ। मैं उनके जाने में किसी प्रकार की बाधा न डालूँगा। सब बातें शपथपूर्वक स्वीकार कर ली गयीं।
राजपूत वीर अपने परिवार के साथ उस दुर्ग से निकल पड़े, स्वदेशकी ओर चलने के लिए तैयार हुए। दुर्ग के समीप ही एक पहाड़ी पर उन्होंने अपना डेरा जमाया और भोजन करने का प्रबन्ध करने लगे।
भारतीय रमणियाँ जब अपने प्यारे पुत्रों और पतियों के लियेभोजन प्रस्तुत कर रहीं थीं, तो उनमें उस अफगान-रमणी के बारे में बहुत बातें हो रहीथीं, और वे सब उसे बड़ी घृणा की दृष्टि से देखने लगीं, क्योंकि उसने एक पति-हत्याकारी को आत्म-समर्पण कर दिया था। भोजन के उपरान्त जब सब सैनिक विराम करने लगे तब युद्ध की बातें कहकर अपने चित्त को प्रसन्न करने लगे। थोड़ी देर नहीं बीती थी कि एक ग्रीक अश्वारोही उनके समीप आता दिखाई पड़ा, जिसे देखकर एक राजपूत युवक उठखड़ा हुआ और उसकी प्रतीक्षा करने लगा।
ग्रीक सैनिक उसके समीप आकर बोला-शाहंशाह सिकंदर ने तुम लोगों को दया करकेअपनी सेना में भरती करने का विचार किया है। आशा है कि इस सम्वाद से तुम लोगबहुत प्रसन्न होगे।
युवक बोल उठा-इस दया के लिये हम लोग कृतज्ञ हैं, पर अपने भाइयों पर अत्याचार करने में ग्रीकों का साथ देने के लिए हम लोग कभी प्रस्तुत नहीं हैं।
ग्रीक-तुम्हें प्रस्तुत होना चाहिये, क्योंकि शाहंशाह सिकंदर की आज्ञा है।
युवक-नहीं महाशय, क्षमा कीजिये। हम लोग आशा करते हैं कि सन्धि के अनुसार हम लोग अपने देश को शान्तिपूर्वक लौट जायेंगे, इसमें बाधा न डालीजायगी।
ग्रीक-क्या तुमलोग इस बात पर दृढ़ हो? एक बार औरविचार कर उत्तर दो, क्योंकि उसी उत्तर पर तुम लोगों का जीवन-मरणनिर्भर होगा।
इस पर कुछ राजपूतों ने समवेत स्वर से कहा-हाँ-हाँ, हम अपनी बात पर दृढ़ हैं, किन्तु सिकंदर, जिसने देवताओं के नाम सेशपथ ली है, अपनी शपथ को न भूलेगा।
ग्रीक-सिकंदर ऐसा मूर्ख नहीं हैकि आये हुए शत्रुओं को और दृढ़ होने का अवकाश दे। अस्तु, अब तुम लोग मरने के लिए तैयार हो।
इतना कहकर वह ग्रीक अपने घोड़े को घुमाकर सीटी बजाने लगा, जिसे सुनकर अगणित ग्रीक-सेना उन थोड़े से हिन्दुओं पर टूट पड़ी।
इतिहास इस बात का साक्षी है कि उन्होंने प्राण-प्रण से युद्ध किया और जब तक कि उनमें एक भी बचा, बराबर लड़ता गया। क्यों न हो, जब उनकी प्यारी स्त्रियाँ उन्हें अस्त्रहीन देखकर तलवार देती थीं औरहँसती हुई अपने प्यारे पतियों की युद्ध क्रिया देखती थीं। रणचण्डियाँ भी अकर्मण्य न रहीं, जीवन देकर अपना धर्म रखा। ग्रीकों की तलवारों ने उनके बच्चों को भी रोनेन दिया, क्योंकि पिशाच सैनिकों के हाथ सभी मारे गये।
अज्ञात स्थान में निराश्रय होकर उन सब वीरों ने प्राण दिये। भारतीय लोग उनका नाम भी नहीं जानते!
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1.गुंडा(समाप्त)
2. सिकंदर की शपथ(समाप्त)
3.अशोक(जल्द ही )
bhavna singh
26-11-2012, 06:03 PM
अशोक
पूत-सलिला भागीरथी के तट पर चन्द्रालोक में महाराज चक्रवर्ती अशोक टहल रहे हैं। थोड़ी दूर पर एक युवक खड़ा है। सुधाकर की किरणों के साथ नेत्र-ताराओं को मिलाकर स्थिर दृष्टि से महाराज ने कहा-विजयकेतु, क्या यह बात सच है कि जैन लोगों ने हमारे बौद्ध-धर्माचार्य होने का जनसाधारण में प्रवाद फैलाकर उन्हें हमारे विरुद्ध उत्तेजित किया है और पौण्ड्रवर्धन में एक बुद्धमूर्ति तोड़ी गयी है?
विजयकेतु-महाराज, क्या आपसे भी कोई झूठ बोलने का साहस कर सकता है?
अशोक-मनुष्य के कल्याण के लिये हमने जितना उद्योग किया, क्या वह सब व्यर्थ हुआ? बौद्धधर्म को हमने क्यों प्रधानता दी? इसीलिये कि शान्ति फैलेगी, देश में द्वेष का नाम भी न रहेगा, और उसी शान्ति की छाया में समाज अपने वाणिज्य, शिल्प और विद्या की उन्नति करेगा। पर नहीं, हम देख रहे हैं कि हमारी कामना पूर्ण होने में अभी अनेक बाधाएँ हैं। हमें पहले उन्हें हटाकर मार्ग प्रशस्त करना चाहिये।
विजयकेतु-देव ! आपकी क्या आज्ञा है?
अशोक-विजयकेतु, भारत में एक समय वह था, जब कि इसी अशोक के नाम से लोग काँप उठते थे। क्यों? इसीलिये कि वह बड़ा कठोर शासक था। पर वही अशोक जब से बौद्ध कहकर सर्वत्र प्रसिद्ध हुआ है, उसके शासन को लोग कोमल कहकर भूलने लग गये हैं। अस्तु, तुमको चाहिये कि अशोक का आतंक एक बार फिर फैला दो; और यह आज्ञा प्रचारित कर दो कि जो मनुष्य जैनों का साथी होगा, वह अपराधी होगा; और जो एक जैन का सिर काट लावेगा, वह पुरस्कृत किया जावेगा।
विजयकेतु-(काँपकर) जो महाराज की आज्ञा!
अशोक-जाओ, शीघ्र जाओ।
विजयकेतु चला गया। महाराज अभी वहीं खड़े हैं। नूपुर का कलनाद सुनाई पड़ा। अशोक ने चौंककर देखा, तो बीस-पचीस दासियों के साथ महारानी तिष्यरक्षिता चली आ रही हैं।
अशोक-प्रिये! तुम यहाँ कैसे?
तिष्यरक्षिता-प्राणनाथ! शरीर से कहीं छाया अलग रह सकती है? बहुत देर हुई, मैंने सुना था कि आप आ रहे हैं; पर बैठे-बैठे जी घबड़ा गया कि आने में क्यों देर हो रही है। फिर दासी से ज्ञात हुआ कि आप महल के नीचे बहुत देर से टहल रहे हैं। इसीलिये मैं स्वयं आपके दर्शन के लिये चली आई। अब भीतर चलिये!
अशोक-मैं तो आ ही रहा था। अच्छा चलो।
अशोक और तिष्यरक्षिता समीप के सुन्दर प्रासाद की ओर बढ़े। दासियाँ पीछे थीं।
bhavna singh
26-11-2012, 06:04 PM
राजकीय कानन में अनेक प्रकार के वृक्ष, सुरभित सुमनों से भरे झूम रहे हैं। कोकिला भी कूक-कूक कर आम की डालों को हिलाये देती है। नव-वसंत का समागम है। मलयानिल इठलाता हुआ कुसुम-कलियों को ठुकराता जा रहा है।
इसी समय कानन-निकटस्थ शैल के झरने के पास बैठकर एक युवक जल-लहरियों की तरंग-भंगी देख रहा है। युवक बड़े सरल विलोकन से कृत्रिम जलप्रपात को देख रहा है। उसकी मनोहर लहरियाँ जो बहुत ही जल्दी-जल्दी लीन हो स्रोत में मिलकर सरल पथ का अनुकरण करती हैं, उसे बहुत ही भली मालूम हो रही हैं। पर युवक को यह नहीं मालूम कि उसकी सरल दृष्टि और सुन्दर अवयव से विवश होकर एक रमणी अपने परम पवित्र पद से च्युत होना चाहती है।
देखो, उस लता-कुंज में, पत्तियों की ओट में, दो नीलमणि के समान कृष्णतारा चमककर किसी अदृश्य आश्चर्य का पता बता रहे हैं। नहीं-नहीं, देखो, चन्द्रमा में भी कहीं तारे रहते हैं? वह तो किसी सुन्दरी के मुख-कमल का आभास है।
युवक अपने आनन्द में मग्न है। उसे इसका कुछ भी ध्यान नहीं है कि कोई व्याघ्र उसकी ओर अलक्षित होकर बाण चला रहा है। युवक उठा, और उसी कुंज की ओर चला। किसी प्रच्छन्न शक्ति की प्रेरणा से वह उसी लता-कुञ्ज की ओर बढ़ा। किन्तु उसकी दृष्टि वहाँ जब भीतर पड़ी, तो वह अवाक् हो गया। उसके दोनों हाथ आप जुट गये। उसका सिर स्वयं अवनत हो गया।
रमणी स्थिर होकर खड़ी थी। उसके हृदय में उद्वेग और शरीर में कम्प था। धीरे-धीरे उसके होंठ हिले और कुछ मधुर शब्द निकले। पर वे शब्द स्पष्ट होकर वायुमण्डल में लीन हो गये। युवक का सिर नीचे ही था। फिर युवती ने अपने को सम्भाला, और बोली-कुनाल, तुम यहाँ कैसे? अच्छे तो हो?
माताजी की कृपा से-उत्तर में कुनाल ने कहा।
युवती मन्द मुस्कान के साथ बोली-मैं तुम्हें देर से यहाँ छिप कर देख रही हूँ।
कुनाल-महारानी तिष्यरक्षिता को छिपकर मुझे देखने की क्या आवश्यकता है?
तिष्यरक्षिता-(कुछ कम्पित स्वर से) तुम्हारे सौन्दर्य से विवश होकर।
कुनाल-(विस्मित तथा भयभीत होकर) पुत्र का सौन्दर्य तो माता ही का दिया हुआ है।
तिष्यरक्षिता-नहीं कुनाल, मैं तुम्हारी प्रेम-भिखारिनी हूँ, राजरानी नहीं हूँ; और न तुम्हारी माता हूँ।
कुनाल-(कुंज से बाहर निकलकर) माताजी, मेरा प्रणाम ग्रहण कीजिए, और अपने इस पाप का शीघ्र प्रायश्चित कीजिये। जहाँ तक सम्भव होगा, अब आप इस पाप-मुख को कभी न देखेंगी।
इतना कहकर शीघ्रता से वह युवक राजकुमार कुनाल, अपनी विमाता की बात सोचता हुआ, उपवन के बाहर निकल गया। पर तिष्यरक्षिता किंकर्तव्यविमूढ़ होकर वहीं तब तक खड़ी रहीं, जब तक किसी दासी के भूषण-शब्द ने उसकी मोह-निद्रा को भंग नहीं किया।
bhavna singh
26-11-2012, 06:05 PM
श्रीनगर के समीपवर्ती कानन में एक कुटीर के द्वार पर कुनाल बैठा हुआ ध्यानमग्न है। उसकी सुशील पत्नी उसी कुटीर में कुछ भोजन बना रही है।
कुटीर स्वच्छ तथा उसकी भूमि परिष्कृत है। शान्ति की प्रबलता के कारण पवन भी उसी समय धीरे-धीरे चल रहा है।
किन्तु वह शान्ति देर तक न रही, क्योंकि एक दौड़ता हुआ मृगशावक कुनाल की गोद में आ गिरा, जिससे उसके ध्यान में विघ्न हुआ, और वह खड़ा हो गया। कुनाल ने उस मृगशावक को देखकर समझा कि कोई व्याघ्र भी इसके पीछे आता ही होगा। पर जब कोई उसे न देख पड़ा, तो उसने उस मृगशावक को अपनी स्त्री 'धर्मरक्षिता' को देकर कहा-प्रिये! क्या तुम इसको बच्चे की तरह पालोगी?
धर्मरक्षिता-प्राणनाथ, हमारे ऐसे वनचारियों को ऐसे ही बच्चे चाहिये।
कुनाल-प्रिये! तुमको हमारे साथ बहुत कष्ट है।
धर्मरक्षिता-नाथ, इस स्थान पर यदि सुख न मिला, तो मैं समझूँगी कि संसार में भी कहीं सुख नहीं है।
कुनाल-किन्तु प्रिये, क्या तुम्हें वे सब राज-सुख याद नहीं आते? क्या उनकी स्मृति तुम्हें नहीं सताती? और, क्या तुम अपनी मर्म-वेदना से निकलते हुए आँसुओं को रोक नहीं लेतीं! या वे सचमुच हैं ही नहीं?
धर्मरक्षिता-प्राणधार! कुछ नहीं है। यह सब आपका भ्रम है। मेरा हृदय जितना इस शान्त वन में आनन्दित है, उतना कहीं भी न रहा। भला ऐसे स्वभाववर्धित, सरल-सीधे और सुमनवाले साथी कहाँ मिलते? ऐसी मृदुला लताएँ, जो अनायास ही चरण को चूमती हैं, कहाँ उस जनरव से भरे राजकीय नगर में मिली थीं? नाथ, और सच कहना, (मृग को चूमकर) ऐसा प्यारा शिशु भी तुम्हें आज तक कहीं मिला था? तिस पर भी आपको अपनी विमाता की कृपा से जो दु:ख मिलता था, वह भी यहाँ नहीं है। फिर ऐसा सुखमय जीवन और कौन होगा?
कुनाल के नेत्र आँसुओं से भर आये, और वह उठकर टहलने लगे। धर्मरक्षिता भी अपने कार्य में लगी। मधुर पवन भी उस भूमि में उसी प्रकार चलने लगा। कुनाल का हृदय अशान्त हो उठा, और वह टहलता हुआ कुछ दूर निकल गया। जब नगर का समीपवर्ती प्रान्त उसे दिखाई पड़ा, तब वह रुक गया और उसी ओर देखने लगा।
bhavna singh
26-11-2012, 06:06 PM
पाँच-छ: मनुष्य दौड़ते हुए चले आ रहे हैं। वे कुनाल के पास पहुँचना ही चाहते थे कि उनके पीछे बीस अश्वारोही देख पड़े। वे सब-के-सब कुनाल के समीप पहुँचे। कुनाल चकित दृष्टि से उन सबको देख रहा था।
आगे दौड़कर आनेवालों ने कहा-महाराज, हम लोगों को बचाइये।
कुनाल उन लोगों को पीछे करके आप आगे डटकर खड़ा हो गया। वे अश्वारोही भी उस युवक कुनाल के अपूर्व तेजोमय स्वरूप को देखकर सहमकर, उसी स्थान पर खड़े हो गये। कुनाल ने उन अश्वारोहियों से पूछा-तुम लोग इन्हें क्यों सता रहे हो? क्या इन लोगों ने कोई ऐसा कार्य किया है, जिससे ये लोग न्यायत: दण्डभागी समझे गये हैं?
एक अश्वारोही, जो उन लोगों का नायक था, बोला-हम लोग राजकीय सैनिक हैं, और राजा की आज्ञा से इन विधर्मी जैनियों का बध करने के लिये आये हैं। पर आप कौन हैं, जो महाराज चक्रवत्र्ती देवप्रिय अशोकदेव की आज्ञा का विरोध करने पर उद्यत हैं?
कुनाल-चक्रवर्ती अशोक! वह कितना बड़ा राजा है?
नायक-मूर्ख! क्या तू अभी तक महाराज अशोक का पराक्रम नहीं जानता, जिन्होंने अपने प्रचण्ड भुजदण्ड के बल से कलिंग-विजय किया है? और, जिनकी राज्य-सीमा दक्षिण में केरल और मलयगिरि, उत्तर में सिन्धुकोश-पर्वत, तथा पूर्व और पश्चिम में किरात-देश और पटल हैं! जिनकी मैत्री के लिये यवन-नृपति लोग उद्योग करते रहते हैं, उन महाराज को तू भलीभाँति नहीं जानता?
कुनाल-परन्तु इससे भी बड़ा कोई साम्राज्य है, जिसके लिये किसी राज्य की मैत्री की आवश्यकता नहीं है।
नायक-इस विवाद की आवश्यकता नहीं है, हम अपना काम करेंगे।
कुनाल-तो क्या तुम लोग इन अनाथ जीवों पर कुछ दया न करोगे?
इतना कहते-कहते राजकुमार को कुछ क्रोध आ गया, नेत्र लाल हो गये। नायक उस तेजस्वी मूर्ति को देखकर एक बार फिर सहम गया।
कुनाल ने कहा-अच्छा, यदि तुम न मानोगे, तो यहाँ के शासक से जाकर कहो कि राजकुमार कुनाल तुम्हें बुला रहे हैं।
नायक सिर झुकाकर कुछ सोचने लगा। तब उसने अपने एक साथी की ओर देखकर कहा-जाओ, इन बातों को कहकर, दूसरी आज्ञा लेकर जल्द आओ।
अश्वारोही शीघ्रता से नगर की ओर चला। शेष सब लोग उसी स्थान पर खड़े थे।
थोड़ी देर में उसी ओर से दो अश्वारोही आते हुए दिखाई पड़े। एक तो वही था,जो भेजा गया था, और दूसरा उस प्रदेश का शासक था। समीप आते ही वह घोड़े पर से उतर पड़ा और कुनाल का अभिवादन करने के लिए बढ़ा। पर कुनाल ने रोक कर कहा-बस, हो चुका, मैंने आपको इसलिये कष्ट दिया है कि इन निरीह मनुष्यों की हिंसा की जा रही है।
शासक-राजकुमार! आपके पिता की आज्ञा ही ऐसी है, और आपका यह वेश क्या है?
कुनाल-इसके पूछने की कोई आवश्यकता नहीं, पर क्या तुम इन लोगों को मेरे कहने से छोड़ सकते हो?
शासक-(दु:खित होकर) राजकुमार, आपकी आज्ञा हम कैसे टाल सकते हैं, (ठहरकर) पर एक और बड़े दु:ख की बात है।
कुनाल-वह क्या?
शासक ने एक पत्र अपने पास से निकालकर कुनाल को दिखलाया। कुनाल उसे पढक़र चुप रहा, और थोड़ी देर के बाद बोला-तो तुमको इस आज्ञा का पालन अवश्य करना चाहिये।
शासक-पर, यह कैसे हो सकता है?
कुनाल-जैसे हो, वह तो तुम्हें करना ही होगा।
शासक-किन्तु राजकुमार, आपके इस देव-शरीर के दो नेत्र-रत्न निकालने का बल मेरे हाथों में नहीं है। हाँ, मैं अपने इस पद का त्याग कर सकता हूँ।
कुनाल-अच्छा, तो तुम मुझे इन लोगों के साथ महाराज के समीप भेज दो।
शासक ने कहा-जैसी आज्ञा।
bhavna singh
26-11-2012, 06:07 PM
पौण्ड्रवर्धन नगर में हाहाकार मचा हुआ है। नगर-निवासी प्राय: उद्विग्न हो रहे हैं। पर विशेषकर जैन लोगों ही में खलबली मची हुई है। जैन-रमणियाँ, जिन्होंने कभी घर के बाहर पैर भी नहीं रक्खा था, छोटे शिशुओं को लिये हुए भाग रही हैं। पर जायँ कहाँ? जिधर देखती हैं, उधर ही सशस्त्र उन्मत्त काल बौद्ध लोग उन्मत्तों की तरह दिखाई पड़ते हैं। देखो, वह स्त्री, जिसके केश परिश्रम से खुल गये हैं-गोद का शिशु अलग मचल कर रो रहा है, थककर एक वृक्ष के नीचे बैठ गयी है; अरे देखो! दुष्ट निर्दय वहाँ भी पहुँच गये, और उस स्त्री को सताने लगे।
युवती ने हाथ जोड़कर कहा-आप लोग दु:ख मत दीजिये। फिर उसने एक-एक करके अपने सब आभूषण उतार दिये और वे दुष्ट उन सब अलंकारों को लेकर भाग गये। इधर वह स्त्री निद्रा से क्लान्त होकर उसी वृक्ष के नीचे सो गयी।
उधर देखिये, वह एक रथ चला जा रहा है, और उसके पर्दे हटाकर बता रहे हैं कि उसमें स्त्री और पुरुष तीन-चार बैठे हैं। पर सारथी उस ऊँची-नीची पथरीली भूमि में भी उन लोगों की ओर बिना ध्यान दिये रथ शीघ्रता से लिये जा रहा है। सूर्य की किरणें पश्चिम में पीली हो गयी हैं। चारों ओर उस पथ में शान्ति है। केवल उसी रथ का शब्द सुनाई पड़ता है, जो अभी उत्तर की ओर चला जा रहा है।
थोड़ी ही देर में वह रथ सरोवर के समीप पहुँचा और रथ के घोड़े हाँफते हुए थककर खड़े हो गये। अब सारथी भी कुछ न कर सका और उसको रथ के नीचे उतरना पड़ा।
रथ को रुका जानकर भीतर से एक पुरुष निकला और उसने सारथी से पूछा-क्यों, तुमने रथ क्यों रोक दिया?
सारथी-अब घोड़े नहीं चल सकते।
पुरुष-तब तो फिर बड़ी विपत्ति का सामना करना होगा; क्योंकि पीछा करने वाले उन्मत्त सैनिक आ ही पहुँचेंगे।
सारथी-तब क्या किया जाय? (सोचकर) अच्छा, आप लोग इस समीप की कुटी में चलिये, यहाँ कोई महात्मा हैं, वह अवश्य आप लोगों को आश्रय देंगे।
पुरुष ने कुछ सोचकर सब आरोहियों को रथ पर से उतारा, और वे सब लोग उसी कुटी की ओर अग्रसर हुए।
कुटी के बाहर एक पत्थर पर अधेड़ मनुष्य बैठा हुआ है। उसका परिधेय वस्त्र भिक्षुओं के समान है। रथ पर के लोग उसी के सामने जाकर खड़े हुए। उन्हें देखकर वह महात्मा बोले-आप लोग कौन हैं और क्यों आये हैं?
उसी पुरुष ने आगे बढक़र, हाथ जोड़कर कहा-महात्मन्-हम लोग जैन हैं और महाराज अशोक की आज्ञा से जैन लोगों का सर्वनाश किया जा रहा है। अत: हम लोग प्राण के भय से भाग कर अन्यत्र जा रहे हैं। पर मार्ग में घोड़े थक गये, अब ये इस समय चल नहीं सकते। क्या आप थोड़ी देर तक हम लोगों को आश्रय दीजियेगा?
महात्मा थोड़ी देर सोचकर बोले-अच्छा, आप लोग इसी कुटी में चले जाइये।
स्त्री-पुरुषों ने आश्रय पाया।
अभी उन लोगों को बैठे थोड़ी ही देर हुई है कि अकस्मात् अश्व-पद-शब्द ने सबको चकित और भयभीत कर दिया। देखते-देखते दस अश्वारोही उस कुटी के सामने पहुँच गये। उनमें से एक महात्मा की ओर लक्ष्य करके बोला-ओ भिक्षु, क्या तूने अपने यहाँ भागे हुए जैन विधर्मियों को आश्रय दिया है? समझ रख, तू हम लोगों से बहाना नहीं कर सकता, क्योंकि उनका रथ इस बात का ठीक पता दे रहा है।
महात्मा-सैनिकों, तुम उन्हें लेकर क्या करोगे? मैंने अवश्य उन दुखियों को आश्रय दिया है। क्यों व्यर्थ नर-रक्त से अपने हाथों को रंजित करते हो?
सैनिक अपने साथियों की ओर देखकर बोला-यह दुष्ट भी जैन ही है, ऊपरी बौद्ध बना हुआ है; इसे भी मारो।
'इसे भी मारो' का शब्द गूँज उठा, और देखते-देखते उस महात्मा का सिर भूमि में लोटने लगा।
इस काण्ड को देखते ही कुटी के स्त्री-पुरुष चिल्ला उठे। उन नर-पिशाचों ने एक को भी न छोड़ा! सबकी हत्या की।
अब सब सैनिक धन खोजने लगे। मृत स्त्री-पुरुषों के आभूषण उतारे जाने लगे। एक सैनिक, जो उस महात्मा की ओर झुका था, चिल्ला उठा। सबका ध्यान उसी ओर आकर्षित हुआ। सब सैनिकों ने देखा, उसके हाथ में एक अँगूठी है, जिस पर लिखा है, 'वीताशोक'!
bhavna singh
26-11-2012, 06:09 PM
महाराज अशोक के भाई, जिनका पता नहीं लगता था, वही 'वीताशोक' मारे गये! चारों ओर उपद्रव शान्त है। पौण्ड्रवर्धन नगर प्रशान्त समुद्र की तरह हो गया है।
महाराज अशोक पाटलिपुत्र के साम्राज्य-सिंहासन पर विचारपति होकर बैठे हैं। राजसभा की शोभा तो कहते नहीं बनती। सुवर्ण-रचित बेल-बूटों की कारीगरी से, जिनमें मणि-माणिक्य स्थानानुकूल बिठाये गये हैं। मौर्य-सिंहासन-मडन्दर भारतवर्ष का वैभव दिखा रहा है, जिसे देखकर पारसीक सम्राट 'दारा' के सिंहासन-मन्दिर को ग्रीक लोग तुच्छ दृष्टि से देखते थे।
धर्माधिकारी, प्राड्विवाक, महामात्य, धर्म-महामात्य रज्जुक, और सेनापति, सब अपने-अपने स्थान पर स्थित हैं। राजकीय तेज का सन्नाटा सबको मौन किये है।
देखते-देखते एक स्त्री और एक पुरुष उस सभा में आये। सभास्थित सब लोगों की दृष्टि को पुरुष के अवनत तथा बड़े-बड़े नेत्रों ने आकर्षित कर लिया। किन्तु सब नीरव हैं। युवक और युवती ने मस्तक झुकाकर महाराजा को अभिवादन किया।
स्वयं महाराजा ने पूछा-तुम्हारा नाम?
उत्तर-कुनाल।
प्रश्न-पिता का नाम।
उत्तर-महाराज चक्रवर्ती धर्माशोक।
सब लोग उत्कण्ठा और विस्मय से देखने लगे कि अब क्या होता है, पर महाराज का मुख कुछ भी विकृत न हुआ, प्रत्युत और भी गम्भीर स्वर से प्रश्न करने लगे।
प्रश्न-तुमने कोई अपराध किया है?
उत्तर-अपनी समझ से तो मैंने अपराध से बचने का उद्योग किया था।
प्रश्न-फिर तुम किस तरह अपराधी बनाये गये?
उत्तर-तक्षशिला के महासामन्त से पूछिये।
महाराज की आज्ञा होते ही शासक ने अभिवादन के उपरान्त एक पत्र उपस्थित किया, जो अशोक के कर में पहुँचा।
महाराज ने क्षण-भर में महामात्य से फिरकर पूछा-यह आज्ञा-पत्र कौन ले गया था, उसे बुलाया जाय।
पत्रवाहक भी आया और कम्पित स्वर से अभिवादन करते हुए बोला-धर्मावतार, यह पत्र मुझे महादेवी तिष्यरक्षिता के महल से मिला था, और आज्ञा हुई थी कि इसे शीघ्र तक्षशिला के शासक के पास पहुँचाओ।
महाराज ने शासक की ओर देखा। उसने हाथ जोड़कर कहा-महाराज, यही आज्ञा-पत्र लेकर गया था।
महाराज ने गम्भीर होकर अमात्य से कहा-तिष्यरक्षिता को बुलाओ।
महामात्य ने कुछ बोलने की चेष्टा की, किन्तु महाराज के भृकुटिभंग ने उन्हें बोलने से निरस्त किया; अब वह स्वयं उठे और चले।
bhavna singh
26-11-2012, 06:10 PM
महादेवी तिष्यरक्षिता राजसभा में उपस्थित हुईं। अशोक ने गम्भीर स्वर से पूछा-यह तुम्हारी लेखनी से लिखा गया है? क्या उस दिन तुमने इसी कुकर्म के लिये राजमुद्रा छिपा ली थी? क्या कुनाल के बड़े-बड़े सुन्दर नेत्रों ने ही तुम्हें आँखें निकलवाने की आज्ञा देने के लिये विवश किया था? अवश्य तुम्हारा ही यह कुकर्म है। अस्तु, तुम्हारी-ऐसी स्त्री को पृथ्वी के ऊपर नहीं, किन्तु भीतर रहना चाहिये।
सब लोग काँप उठे। कुनाल ने आगे बढ़ घुटने टेक दिये और कहा-क्षमा।
अशोक ने गम्भीर स्वर से कहा-नहीं।
तिष्यरक्षिता उन्हीं पुरुषों के साथ गयी, जो लोग उसे जीवित समाधि देनेवाले थे। महामात्य ने राजकुमार कुनाल को आसन पर बैठाया और धर्मरक्षिता महल में गयी।
महामात्य ने एक पत्र और अँगूठी महाराज को दी। यह पौण्ड्रवर्धन के शासक का पत्र तथा वीताशोक की अँगूठी थी।
पत्र-पाठ करके और मुद्रा को देखकर वही कठोर अशोक विह्वल हो गये, ओर अवसन्न होकर सिंहासन पर गिर पड़े।
उसी दिन से कठोर अशोक ने हत्या की आज्ञा बन्द कर दी, स्थान-स्थान पर जीवहिंसा न करने की आज्ञा पत्थरों पर खुदवा दी गयी।
कुछ ही काल के बाद महाराज अशोक ने उद्विग्न चित्त को शान्त करने के लिये भगवान बुद्ध के प्रसिद्ध स्थानों को देखने के लिए धर्म-यात्रा की।
समाप्त
Ab agali kahani ka title nahi bataunga...warna wo bhi post ho jayegi:D
bhavna singh
26-11-2012, 08:33 PM
ab agali kahani ka title nahi bataunga...warna wo bhi post ho jayegi:d
अलेक्स जी .......क्या मैंने कुछ गलत कर दिया है ........?
अलेक्स जी .......क्या मैंने कुछ गलत कर दिया है ........? nahi aisi koyi baat nahi hain:hug: thanks :):)
4..पाप की पराजय........
घने हरे कानन केहृदय में पहाड़ी नदी झिर-झिर करती बह रही है। गाँव से दूर, बन्दूक लिये हुए शिकारी के वेश में, घनश्याम दूर बैठा है। एक निरीह शशक मारकर प्रसन्नता से पतली-पतली लकड़ियों में उसका जलना देखता हुआ प्रकृति की कमनीयता के साथ वहबड़ा अन्याय कर रहा है। किन्तु उसे दायित्व-विहीन विचारपति की तरह बेपरवाही है। जंगली जीवन काआज उसे बड़ा अभिमान है। अपनी सफलता पर आप ही मुग्ध होकर मानव-समाज की शैशवावस्था की पुनरावृत्ति करता हुआ निर्दय घनश्याम उस अधजले जन्तु से उदर भरनेलगा। तृप्त होने पर वन की सुधि आई। चकित होकर देखने लगा कि यह कैसा रमणीय देश है। थोड़ी देर में तन्द्रा ने उसे दबा दिया। वह कोमलवृत्ति विलीन हो गयी। स्वप्न ने उसे फिर उद्वेलित किया। निर्मल जल-धारा से धुले हुए पत्तों का घनाकानन, स्थान-स्थानपर कुसुमित कुञ्ज,आन्तरिक और स्वाभाविक आलोक में उन कुञ्जों कीकोमल छाया, हृदय-स्पर्शकारी शीतल पवन का सञ्चार, अस्फुट आलेख्य के समान उसके सामने स्फुरित होने लगे।
घनश्याम को सुदूर से मधुर झंकार-सी सुनाई पड़ने लगी। उसने अपने को व्याकुल पाया। देखा तो एक अद्*भुत दृश्य! इन्द्रनील की पुतली फूलों से सजी हुई झरने के उस पार पहाड़ी से उतर कर बैठी है। उसके सहज-कुञ्चित केश से वन्य कुरुवक कलियाँ कूद-कूद कर जल-लहरियों से क्रीड़ा कर रही हैं। घनश्याम को वह वनदेवी-सी प्रतीत हुई। यद्यपि उसका रंग कंचन के समान नहीं, फिर भी गठन साँचे में ढला हुआहै। आकर्ण विस्तृत नेत्र नहीं, तो भी उनमें एक स्वाभाविक राग है। यह कवि की कल्पना-सी कोई स्वर्गीया आकृति नहीं, प्रत्युत एकभिल्लिनी है। तब भी इसमें सौन्दर्य नहीं है,यह कोई साहस के साथ नहीं कह सकता।घनश्याम ने तन्द्रा से चौंककर उस सहज सौन्दर्य को देखा और विषम समस्या में पड़कर यह सोचनेलगा-‘‘क्या सौन्दर्य उपासना की ही वस्तु है, उपभोग की नहीं?’’ इस प्रश्न को हल करने के लिए उसने हण्टिंग कोट के पाकेट का सहारा लिया। क्लान्तिहारिणी का पान करने पर उसकी आँखों पर रंगीन चश्मा चढ़ गया। उसकी तन्द्रा का यह काल्पनिक स्वर्ग धीरे-धीरे विलास-मन्दिर में परिणत होने लगा। घनश्याम ने देखा कि अदभुत रूप, यौवन की चरम सीमा और स्वास्थ्य का मनोहर संस्करण, रंग बदलकर पाप ही सामने आया।
पाप का यह रूप, जब वह वासना को फाँस कर अपनी ओर मिला चुकता है, बड़ा कोमल अथच कठोर एवं भयानक होता है और तब पाप का मुख कितना सुन्दर होता है! सुन्दर ही नहीं, आकर्षक भी, वह भी कितना प्रलोभन-पूर्ण और कितना शक्तिशाली, जो अनुभव में नहीं आ सकता। उसमें विजय का दर्प भरा रहता है। वह अपने एक मृदु मुस्कान से सुदृढ़ विवेक की अवहेलना करता है। घनश्याम ने धोखा खाया और क्षण भर में वह सरल सुषमा विलुप्त होकर उद्दीपन का अभिनय करने लगी। यौवन नेभी उस समय काम से मित्रता कर ली। पाप की सेना और उसका आक्रमण प्रबल हो चला। विचलित होते ही घनश्याम को पराजित होना पड़ा। वह आवेश मेंबाँहें फैलाकर झरने को पार करने लगा।
नील की पुतली नेउस ओर देखा भी नहीं। युवक की मांसल पीन भुजायें उसे आलिंगन किया ही चाहती थीं कि ऊपर पहाड़ी पर से शब्दसुनाई पड़ा-‘‘क्यों नीला, कब तक यहीं बैठी रहेगी? मुझे देर हो रही है। चल, घर चलें।’’
घनश्याम ने सिर उठा कर देखा तो ज्योतिर्मयी दिव्य मूर्ति रमणी सुलभ पवित्रता का ज्वलन्त प्रमाण, केवल यौवन से ही नहीं, बल्कि कला की दृष्टि से भी, दृष्टिगत हुई। किन्तु आत्म-गौरव का दुर्ग किसी की सहज पाप-वासना को वहाँ फटकने नहीं देता था। शिकारी घनश्याम लज्जित तो हुआ ही, पर वह भयभीत भी था। पुण्य-प्रतिमा के सामने पाप की पराजय हुई। नीला ने घबराकर कहा-‘‘रानी जी, आती हूँ। जरा मैं थक गयी थी।’’ रानी और नीला दोनों चली गयीं। अबकी बार घनश्याम ने फिर सोचने का प्रयास किया-क्या सौन्दर्य उपभोग के लिये नहीं, केवल उपासना के लिए है?’’ खिन्न होकर वह घर लौटा। किन्तु बार-बार वहघटना याद आती रही।घनश्याम कई बार उसझरने पर क्षमा माँगने गया। किन्तु वहाँ उसे कोई न मिला।
bhavna singh
27-11-2012, 08:52 PM
अलेक्स जी ..... क्या मै आपके सूत्र पर योगदान कर सकती हू .......?
अलेक्स जी ..... क्या मै आपके सूत्र पर योगदान कर सकती हू .......? bilkul bhavna jee:gm:
bhavna singh
28-11-2012, 10:28 AM
bilkul bhavna jee:gm:
समय मिलते ही आपका सूत्र अपडेट करुँगी ........!
जो कठोर सत्य है, जो प्रत्यक्ष है, जिसकी प्रचण्डलपट अभी नदी में प्रतिभाषित हो रही है, जिसकी गर्मी इस शीतल रात्रि में भी अंकमें अनुभूत हो रहीहै, उसे असत्य या उसे कल्पना कह कर उड़ा देने के लिए घनश्याम का मन हठ कर रहा है।
थोड़ी देर पहले जब (नदी पर से मुक्त आकाश में एकटुकड़ा बादल का उठआया था) चिता लग चुकी थी, घनश्याम आग लगाने को उपस्थित था। उसकी स्त्री चिता पर अतीत निद्रा में निमग्न थी,। निठुरहिन्दू-शास्त्र की कठोर आज्ञा से जब वह विद्रोह करने लगा था, उसी समय घनश्याम को सान्त्वना हुई, उसने अचानक मूर्खता से अग्नि लगा दी। उसे ध्यानहुआ कि बादल बरस कर निर्दय चिता कोबुझा देंगे, उसे जलने न देंगे। किन्तु व्यर्थ? चिता ठंडी होकर औरभी ठहर-ठहर कर सुलगने लगी, क्षण भर में जल कर राख न होने पायी।
घनश्याम ने हृदय में सोचा कि यदि हम मुसलमान याईसाई होते तो? आह! फूलों से मिली हुईमुलायम मिट्टी में इसे सुला देते, सुन्दर समाधि बनाते, आजीवन प्रति सन्ध्या को दीप जलाते, फूल चढ़ाते, कविता पढ़ते, रोते, आँसू बहाते, किसी तरह दिन बीत जाते। किन्तु यहाँ कुछ भी नहीं। हत्यारा समाज! कठोर धर्म! कुत्सित व्यवस्था! इनसे क्या आशा? चिता जलने लगी।
श्मशान से लौटते समय घनश्याम ने साथियों को छोड़कर जंगल की ओर पैर बढ़ाया। जहाँ प्राय: शिकार खेलने जाया करता, वहीं जाकर बैठ गया। आज वह बहुत दिनों पर इधर आया है। कुछ ही दूरी पर देखा कि साखू के वृक्ष की छाया में एक सुकुमार शरीर पड़ा है। सिरहाने तकिया का काम हाथ दे रहा है। घनश्याम ने अभी कड़ी चोट खायीहै। करुण-कमल का उसके आद्र्र मानस में विकास हो गया था। उसने समीप जाकर देखा कि वह रमणी और कोई नहीं है, वह रानी है, जिसे उसने बहुत दिन हुए एक अनोखे ढंग में देखा था। घनश्याम की आहट पाते ही रानी उठ बैठी। घनश्याम ने पूछा-‘‘आप कौन हैं? क्यों यहाँ पड़ी हैं?’’
रानी-‘‘मैं केतकी-वन की रानी हूँ।’’
‘‘तब ऐसे क्यों?’’
‘‘समय की प्रतीक्षा में पड़ी हूँ।’’
‘‘कैसा समय?’’
‘‘आप से क्या काम?’’ क्या शिकार खेलने आये हैं?’’
‘‘नहीं देवी! आज स्वयं शिकार हो गया हूँ?’’
‘‘तब तो आप शीघ्र ही शहर की ओर पलटेंगे। क्या किसी भिल्लनी के नयन-बाण लगे हैं? किन्तु नहीं, मैं भूल कर रही हूँ। उन बेचारियों को क्षुधा-ज्वाला ने जला रक्खा है। ओह, वह गढ़े में धँसी हुई आँखें अब किसीको आकर्षित करने का सामथ्र्य नहीं रखतीं। हे भगवान, मैं किसलिए पहाड़ी से उतर कर आयी हूँ।’’
‘‘देवी! आपका अभिप्राय क्या है,मैं समझ न सका। क्या ऊपर अकाल है, दुर्भिक्ष है?’’
‘‘नहीं-नहीं, ईश्वर का प्रकोप है, पवित्रता का अभिशाप है, करुणा की वीभत्स मूर्ति का दर्शन है।’’
‘‘तब आपकी क्या इच्छा है?’’
‘‘मैं वहाँ की रानी हूँ। मेरे वस्त्र-आभूषण-भण्डार में जो कुछथा, सब बेच कर तीन महीने किसी प्रकार उन्हें खिला सकी, अब मेरे पास केवल इस वस्त्र को छोड़कर और कुछ नहीं रहा कि विक्रय करके एकभी क्षुधित पेट कीज्वाला बुझाती, इसलिए ....।’’
‘‘क्या?’’
‘‘शहर चलूँगी। सुना है कि वहाँ रूप का भी दाम मिलता है। यदि कुछमिल सके ..’’
‘‘तब?’’
‘‘तो इसे भी बेच दूँगी। अनाथ बालकों को इससे कुछ तो सहायता पहुँच सकेगी। क्यों, क्या मेरा रूप बिकने योग्य नहीं है?’’
युवक घनश्याम इसका उत्तर देने में असमर्थ था। कुछ दिन पहले वह अपना सर्वस्व देकर भी ऐसा रूप क्रय करने को प्रस्तुत हो जाता। आज वह अपनी स्त्री के वियोग में बड़ा ही सीधा, धार्मिक, निरीह एवं परोपकारी हो गया था। आर्त मुमुक्षु की तरह उसे न जाने किस वस्तु की खोज थी।
घनश्याम ने कहा-‘‘मैं क्या उत्तर दूँ?’’
‘‘क्यों? क्या दाम न लगेगा? हाँ तुम भी आज किस वेश में हो? क्या सोचते हो? बोलते क्यों नहीं?
‘‘मेरी स्त्री का शरीरान्त हो गया।’’
‘‘तब तो अच्छा हुआ, तुम नगर के धनी हो। तुम्हें तो रूप की आवश्यकता होती होगी। क्या इसे क्रय करोगे?’’
घनश्याम ने हाथ जोड़कर सिर नीचा करलिया। तब उस रानी ने कहा-‘‘उस दिन तो एक भिल्लनी के रूपपर मरते थे। क्यों, आज क्या हुआ?’’
‘‘देवी, मेरा साहस नहीं है-वह पाप का वेग था।’’
‘‘छि: पाप के लिए साहस था और पुण्य के लिए नहीं?’’
घनश्याम रो पड़ा और बोला-‘‘क्षमा कीजिएगा। पुण्य किस प्रकार सम्पादित होता है,मुझे नहीं मालूम। किन्तु इसे पुण्य कहने में..।’’
‘‘संकोच होता है। क्यों?’’
इसी समय दो-तीन बालक, चार-पाँच स्त्रियाँ और छ:-सात भील अनाहार-क्लिष्ट शीर्ण कलेवर पवन के बल से हिलते-डुलते रानी के सामने आकरखड़े हो गये।
रानी ने कहा-‘‘क्यों अब पाप की परिभाषा करोगे?’’
घनश्याम ने काँप कर कहा-‘‘नहीं,प्रायश्चित करूँगा, उस दिन के पाप का प्रायश्चित।’’
युवक घनश्याम वेग से उठ खड़ा हुआ, बोला-‘‘बहिन, तुमने मेरे जीवन को अवलम्ब दिया है। मैं निरुद्देश्य हो रहा था, कर्तव्य नहीं सूझ पड़ता था। आपको क्रय-विक्रय न करना पड़ेगा। देवी! मैं सन्ध्यातक आ जाऊँगा।’’
‘‘सन्ध्या तक?’’
‘‘और भी पहले।’’
बालक रोने लगे-‘‘रानी माँ, अब नहीं रह जाता।’’ घनश्याम से भी नहीं रहा गया, वह भागा।
घनश्याम की पापभूमि, देखते-देखते गाड़ी और छकड़ों से भर गयी, बाजार लग गया, रानी के प्रबन्ध में घनश्याम ने वहीं पर अकाल पीड़ितों की सेवा आरम्भ कर दी।
जो घटना उसे बार-बार स्मरण होती थी, उसी का यह प्रायश्चित था। घनश्याम ने उसी भिल्लनी को प्रधान प्रबन्ध करनेवाली देख कर आश्चर्य किया। उसे न जाने क्यों हर्ष और उत्साह दोनों हुए।
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1.गुंडा(समाप्त)
2. सिकंदर की शपथ(समाप्त)
3.अशोक(समाप्त)
4.पाप की पराजय..(समाप्त)
5. पत्थर की पुकार(जल्द ही )
abhisays
28-11-2012, 07:58 PM
1.गुंडा(समाप्त)
2. सिकंदर की शपथ(समाप्त)
3.अशोक(समाप्त)
4.पाप की पराजय..(समाप्त)
5. पत्थर की पुकार(जल्द ही )
अलेक्स जी, आपका यह प्रयास काफी सराहनीय है, आपकी मेहनत के लिए हैट्स ऑफ :hello:
rajnish manga
28-11-2012, 08:51 PM
अलेक्स जी का, और उनके साथ ही भावना जी का भी, प्रयास सराहनीय है. हिंदी से जुड़ा हुआ हर व्यक्ति खड़ी बोली के पुरोधा साहित्यकार जय शंकर प्रसाद जी का अनुशीलन करना चाहता है. प्रसन्नता की बात है कि अलेक्स जी ने इन कहानियों का सिलसिला शुरू किया और भावना जी ने भी सिलसिला आगे बढाने में योगदान दिया. कुछ गलतफहमी हुई. ज़ाहिर है कि यह विचार विनिमय की कमी के चलते हुआ. भविष्य में आशा करते हैं कि दोनों के द्वारा एक के बाद एक इस सूत्र में नया कुछ पढ़ने को मिलता रहेगा. मेरा सुझाव है कि जय शंकर प्रसाद के व्यक्तित्व और जीवन की प्रमुख घटनाओं से भी अवगत कराया जाय.
पत्थर की पुकार........
1....
नवल और विमल दोनों बात करते हुए टहल रहे थे। विमल ने कहा-
‘‘साहित्य-सेवा भी एक व्यसन है।’’
‘‘नहीं मित्र! यह तो विश्व भर की एक मौन सेवा-समिति कासदस्य होना है।’’
‘‘अच्छा तो फिर बताओ, तुमको क्या भला लगता है? कैसा साहित्य रुचता है?’’
‘‘अतीत और करुणा का जो अंश साहित्यमें हो, वह मेरे हृदय को आकर्षित करता है।’’
नवल की गम्भीर हँसी कुछ तरल हो गयी। उन्होंने कहा-‘‘इससे विशेष और हम भारतीयों केपास धरा क्या है! स्तुत्य अतीत की घोषणा और वर्तमान की करुणा, इसी का गान हमें आता है। बस, यह भी एक भाँग-गाँजे की तरहनशा है।’’ विमल का हृदय स्तब्ध हो गया। चिर प्रसन्न-वदन मित्र को अपनीभावना पर इतना कठोर आघात करते हुए कभी भी उसने नहीं देखा था। वह कुछ विरक्त हो गया। मित्र ने कहा-‘‘कहाँ चलोगे?’’ उसने कहा-‘‘चलो, मैंथोड़ा घूम कर गंगा-तट पर मिलूँगा।’’ नवल भी एक ओर चला गया।
2......
चिन्ता में मग्न विमल एक ओर चला। नगर के एक सूने मुहल्ले की ओर जा निकला। एक टूटी चारपाई अपने फूटे झिलँगे में लिपटी पड़ी है। उसी के बगल में दीन कुटी फूस से ढँकी हुई, अपना दरिद्र मुख भिक्षा के लिए खोले हुए बैठी है।दो-एक ढाँकी और हथौड़े, पानी की प्याली, कूची, दो काले शिलाखण्ड परिचारक की तरह उसदीन कुटी को घेरे पड़े हैं। किसी कोन देखकर एक शिलाखण्ड पर न जाने किसके कहने से विमल बैठ गया। यह चुपचाप था। विदित हुआ कि दूसरा पत्थर कुछ धीरे-धीरे कह रहा है। वह सुनने लगा-
‘‘मैं अपने सुखद शैल में संलग्न था। शिल्पी! तूने मुझे क्यों ला पटका? यहाँ तो मानव की हिंसा का गर्जन मेरे कठोर वक्ष:स्थल का भेदनकर रहा है। मैं तेरे प्रलोभन में पड़ कर यहाँ चला आया था, कुछ तेरे बाहुबल से नहीं, क्योंकि मेरी प्रबल कामना थी किमैं एक सुन्दर मूर्ति में परिणत हो जाऊँ। उसके लिएअपने वक्ष:स्थल कोक्षत-विक्षत कराने को प्रस्तुत था। तेरी टाँकी से हृदय चिराने में प्रसन्न था! कि कभी मेरी इस सहनशीलता का पुरस्कार, सराहना के रूप में मिलेगाऔर मेरी मौन मूर्ति अनन्तकाल तक उस सराहना को चुपचाप गर्व से स्वीकार करती रहेगी। किन्तु निष्ठुर! तूने अपने द्वार पर मुझे फूटे हुए ठीकरे की तरह ला पटका। अब मैं यहींपर पड़ा-पड़ा कब तक अपने भविष्य कीगणना करूँगा?’’
पत्थर की करुणामयी पुकार से विमल को क्रोध का सञ्चार हुआ। औरवास्तव में इस पुकार में अतीत औरकरुणा दोनों का मिश्रण था, जो कि उसके चित्त का सरलविनोद था। विमल भावप्रवण होकर रोष से गर्जन करताहुआ पत्थर की ओर से अनुरोध करने कोशिल्पी के दरिद्र कुटीर में घुस पड़ा।
‘‘क्यों जी, तुमने इस पत्थर कोकितने दिनों से यहाँ ला रक्खा है? भला वह भी अपने मन में क्या समझता होगा? सुस्त होकर पड़े हो, उसकी कोई सुन्दर मूर्ति क्यों न बना डाली?’’ विमल ने रुक्ष स्वर में कहा।
पुरानी गुदड़ी में ढँकी हुई जीर्ण-शीर्ण मूर्ति खाँसी से कँप कर बोली-‘‘बाबू जी! आपने तो मुझे कोई आज्ञा नहीं दीथी।’’
‘‘अजी तुम बना लिये होते, फिर कोई-न-कोई तो इसे ले लेता। भला देखोतो यह पत्थर कितनेदिनों से पड़ा तुम्हारे नाम को रो रहा है।’’-विमल ने कहा। शिल्पी नेकफ निकाल कर गला साफ करते हुए कहा-‘‘आप लोग अमीर आदमी है। अपने कोमल श्रवणेन्द्रियोंसे पत्थर का रोना, लहरों का संगीत, पवन की हँसी इत्यादि कितनी सूक्ष्म बातें सुन लेते हैं, और उसकी पुकार में दत्तचित्त हो जाते हैं। करुणा से पुलकित होते हैं, किन्तु क्या कभी दुखी हृदय के नीरव क्रन्दन को भी अन्तरात्मा की श्रवणेन्द्रियोंको सुनने देते हैं, जो करुणा का काल्पनिक नहीं, किन्तु वास्तविक रूप है?’’
विमल के अतीत औरकरुणा-सम्बन्धी समस्त सद्*भाव कठोर कर्मण्यता का आवाहन करने के लिए उसी से विद्रोह करने लगे। वह स्तब्ध होकर उसी मलिन भूमि पर बैठ गया।
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1.गुंडा(समाप्त)
2. सिकंदर की शपथ(समाप्त)
3.अशोक(समाप्त)
4.पाप की पराजय..(समाप्त)
5. पत्थर की पुकार(समाप्त)
6. उस पार का योगी(जल्द ही )
उस पार का योगी......
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सामने सन्ध्या-धूसरति जल की एक चादर बिछी है। उसके बाद बालू की बेला है, उसमें अठखेलियाँ करके लहरों ने सीढ़ी बना दी है। कौतुक यह है कि उस पर भी हरी-हरी दूब जम गयी है। उस बालू की सीढ़ी की ऊपरी तह पर जाने कब से एक शिला पड़ी है। कई वर्षाओं ने उसेअपने पेट में पचाना चाहा, पर वह कठोर शिला गल न सकी, फिर भी निकल ही आती थी। नन्दलाल उसे अपने शैशव से ही देखता था। छोटी-सी नदी, जो उसके गाँव से सटकर बहती थी, उसी के किनारे वह अपनीसितारी लेकर पश्चिम की धूसर आभा में नित्य जाकर बैठ जाता। जिस रात को चाँदनीनिकल आती, उसमें देर तक और अँधेरी रात के प्रदोष मेंजब तक अन्धकार नहीं हो जाता था, बैठकर सितारी बजाता अपनी टपरियों में चला जाता था।
नन्दलाल अँधेरे में डरता नथा। किन्तु चन्द्रिका में देर तक किसी अस्पष्ट छाया को देख सकता था। इसलिए, आज भी उसी शिला पर वह मूर्तिबैठी है। गैरिक वसन की आभा सान्ध्य-सूर्य से रञ्जित नभ से होड़कर रही है। दो-चार लटें इधर-उधर मांसल अंश पर वन के साथ खेल रही हैं। नदी के किनारे प्राय: पवनका बसेरा रहता है, इसी से यह सुविधा है। जब से शैशव-सहचरी नलिनी से नन्दलाल का वियोग हुआ है, वह अपनी सितारी से हीमन बहलाता है, सो भी एकान्त में; क्योंकि नलिनी से भी वह किसी के सामने मिलने पर सुख नहीं पाता था।किन्तु हाय रे सुख! उत्तेजनामय आनन्द को अनुभव करने के लिए एक साक्षी भी चाहिए। बिना किसी दूसरे को अपना सुख दिखाएहदय भली-भाँति से गर्व का अनुभव नहीं कर पाता। चन्द्र-किरण, नदी-तरंग, मलय-हिल्लोल, कुसुम-सुरभि और रसाल-वृक्ष के साथही नन्दलाल को यह भी विश्वास था। किउस पार का योगी भी कभी-कभी उस सितारीकी मीड़ से मरोड़ खाता है। लटें उसके कपोल पर ताल देने लगती हैं।
चाँदनी निखरी थी। आज अपनी सितारी के साथ नन्दलाल भी गाने लगा था। वह प्रणय-संगीत था-भावुकता और काल्पनिक प्रेम का सम्भार बड़े वेग से उच्छ्वसित हुआ। अन्त:करण से दबी हुई तरलवृत्ति, जोविस्मृत स्वप्न के समान हलका प्रकाश देती थी, आज न जाने क्यों गैरिक निर्झर की तरह उबल पड़ी। जो वस्तु आज तक मैत्री का सुख-चिह्न थी-जो सरल ह्रदय का उपहार थी-जो उदारता की कृतज्ञता थी-उसने ज्वाला, लालसापूर्ण प्रेम का रूप धारणकिया। संगीत चलने लगा।
‘‘अरे कौन है.....मुझे बचाओ.....आह.....’’, पवन ने उपयुक्त दूत कीतरह यह सन्देश नन्दलाल के कानों तक पहुँचाया। वह व्याकुल होकर सितारी छोड़ कर दौड़ा। नदी में फाँद पड़ा। उसके कानों में नलिनी का सा स्वर सुनाई पड़ा। नदी छोटी थी-खरस्रोता थी। नन्दलाल हाथ मारता हुआ लहरों को चीर रहा था। उसके बाहु-पाश मेंएक सुकुमार शरीर आगया।
चन्द्रकिरणों और लहरियों को बातचीत करने का एकआधार मिला। लहरी कहने लगी-‘‘अभागे! तू इस दुखिया नलिनी को बचाने क्यों आया, इसने तो आज अपने समस्त दु:खों का अन्त कर दिया था।’’
किरण-‘‘क्यों जी, तुम लोगों ने नन्दलाल को बहुत दिन तक बीच में बहा कर हल्ला-गुल्ला मचाकर, बचाया था।’’
लहरी-‘‘और तुम्हीं तो प्रकाश डालकर उसे सचेत कराती रही हो।’’
किरण-‘‘आज तक उस बेचारे को अँधेरे में रक्खा था। केवल आलोक की कल्पना करके वह अपने आलेख्य पट कोउद्*भासित कर लेता था। उस पार का योगी सुदूरवर्ती परदेशी की रम्य स्मृति को शान्त तपोवन का दृश्य था।’’
लहरी-‘‘पगली! सुख-स्वप्न के सदृश और आशा में आनन्द के समान मैंबीच में पड़ी-पड़ीउसके सरल नेह का बहुत दिनों तक सञ्चय करती रही-आन्तरिक आकर्षणपूर्ण सम्मिलन होने पर भी, वासना-रहित निष्काम सौन्दर्यमय व्यवधान बन कर मैंदोनों के बीच में बहती थी; किन्तु नन्दलाल इतने में सन्तुष्ट न हो सका। उछल-कूद कर हाथ चलाकर मुझे भीगँदला कर दिया। उसे बहने, डूबने और उतराने का आवेशबढ़ गया था।’’
किरण-‘‘हूँ, तब डूबें बहें।’’
पवन चुपचाप इन बातों को सुन कर नदी के बहाव की ओर सर्राटा मार कर सन्देशा कहने को भगा। किन्तु वे दूर निकल गये थे। सितारी मूच्र्छना में पड़ी रही।
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1.गुंडा(समाप्त)
2. सिकंदर की शपथ(समाप्त)
3.अशोक(समाप्त)
4.पाप की पराजय..(समाप्त)
5. पत्थर की पुकार(समाप्त)
6. उस पार का योगी(समाप्त)
7.करुणा की विजय(जल्द ही )
.करुणा की विजय.........
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सामने सन्ध्या-धूसरति जल की एक चादर बिछी है। उसके बाद बालू की बेला है, उसमें अठखेलियाँ करके लहरों ने सीढ़ी बना दी है। कौतुक यह है कि उस पर भी हरी-हरी दूब जम गयी है। उस बालू की सीढ़ी की ऊपरीतह पर जाने कब से एक शिला पड़ी है। कई वर्षाओं ने उसे अपने पेट में पचाना चाहा, पर वह कठोर शिला गल न सकी, फिर भी निकल ही आती थी। नन्दलाल उसे अपने शैशव से ही देखताथा। छोटी-सी नदी, जो उसके गाँव से सटकर बहती थी, उसी के किनारे वह अपनी सितारी लेकर पश्चिम की धूसर आभा में नित्यजाकर बैठ जाता। जिस रात को चाँदनी निकल आती, उसमें देर तक और अँधेरी रात के प्रदोष में जब तक अन्धकार नहीं हो जाता था, बैठकर सितारी बजाता अपनी टपरियों में चला जाता था।
नन्दलाल अँधेरे में डरता न था। किन्तुचन्द्रिका में देर तक किसी अस्पष्ट छाया को देख सकता था। इसलिए, आज भी उसी शिला पर वह मूर्ति बैठी है। गैरिक वसन की आभा सान्ध्य-सूर्य से रञ्जित नभ से होड़ कर रही है। दो-चार लटें इधर-उधर मांसल अंश पर वन के साथ खेल रही हैं। नदी के किनारे प्राय: पवन का बसेरा रहता है, इसी से यह सुविधा है। जब से शैशव-सहचरी नलिनी से नन्दलाल का वियोग हुआ है, वह अपनी सितारी से ही मन बहलाता है, सो भी एकान्त में; क्योंकि नलिनी से भी वह किसी के सामने मिलने पर सुखनहीं पाता था। किन्तु हाय रे सुख! उत्तेजनामय आनन्द को अनुभव करने के लिए एक साक्षी भी चाहिए। बिना किसी दूसरे को अपना सुख दिखाए हदय भली-भाँति से गर्व का अनुभव नहीं कर पाता। चन्द्र-किरण, नदी-तरंग, मलय-हिल्लोल, कुसुम-सुरभि और रसाल-वृक्ष के साथ ही नन्दलाल को यह भी विश्वास था। कि उस पार का योगी भी कभी-कभी उस सितारी की मीड़ से मरोड़ खाता है। लटें उसके कपोल परताल देने लगती हैं।
चाँदनी निखरी थी। आज अपनी सितारी के साथनन्दलाल भी गाने लगा था। वह प्रणय-संगीत था-भावुकता और काल्पनिक प्रेम का सम्भार बड़े वेग से उच्छ्वसित हुआ। अन्त:करण से दबी हुई तरलवृत्ति, जो विस्मृत स्वप्न के समान हलका प्रकाश देती थी, आज न जाने क्यों गैरिक निर्झर की तरह उबल पड़ी। जो वस्तु आज तक मैत्री कासुख-चिह्न थी-जो सरल ह्रदय का उपहार थी-जो उदारता की कृतज्ञता थी-उसने ज्वाला, लालसापूर्ण प्रेम का रूप धारण किया। संगीत चलने लगा।
''अरे कौन है.....मुझे बचाओ.....आह.....'', पवन ने उपयुक्त दूत की तरह यहसन्देश नन्दलाल के कानों तक पहुँचाया। वह व्याकुल होकर सितारी छोड़ कर दौड़ा। नदी में फाँद पड़ा। उसके कानों में नलिनी का सा स्वर सुनाई पड़ा। नदी छोटी थी-खरस्रोता थी। नन्दलाल हाथ मारता हुआ लहरों को चीर रहा था। उसके बाहु-पाश मेंएक सुकुमार शरीर आ गया।
चन्द्रकिरणों और लहरियों को बातचीत करने का एक आधार मिला।लहरी कहने लगी-''अभागे! तू इस दुखिया नलिनी कोबचाने क्यों आया, इसनेतो आज अपने समस्त दु:खों का अन्त कर दिया था।''
किरण-''क्यों जी, तुम लोगों ने नन्दलाल को बहुत दिन तक बीच में बहा कर हल्ला-गुल्ला मचाकर, बचाया था।''
लहरी-''और तुम्हीं तो प्रकाश डालकर उसे सचेत कराती रही हो।''
किरण-''आज तक उस बेचारे को अँधेरे में रक्खा था। केवल आलोक की कल्पना करके वह अपने आलेख्य पट को उद्*भासित कर लेता था। उस पार का योगी सुदूरवर्ती परदेशी की रम्य स्मृति को शान्त तपोवन का दृश्य था।''
लहरी-''पगली! सुख-स्वप्न के सदृश औरआशा में आनन्द के समानमैं बीच में पड़ी-पड़ीउसके सरल नेह का बहुत दिनों तक सञ्चय करती रही-आन्तरिक आकर्षणपूर्ण सम्मिलनहोने पर भी, वासना-रहित निष्काम सौन्दर्यमय व्यवधान बन कर मैं दोनों के बीच में बहती थी; किन्तु नन्दलाल इतने में सन्तुष्ट न हो सका। उछल-कूद कर हाथ चलाकर मुझे भी गँदला कर दिया। उसे बहने, डूबने और उतराने का आवेश बढ़ गया था।''
किरण-''हूँ, तब डूबें बहें।''
पवन चुपचाप इन बातों को सुन कर नदी के बहाव की ओर सर्राटामार कर सन्देशा कहने को भगा। किन्तु वे दूरनिकल गये थे। सितारी मूच्र्छना में पड़ी रही।
1.गुंडा(समाप्त)
2. सिकंदर की शपथ(समाप्त)
3.अशोक(समाप्त)
4.पाप की पराजय..(समाप्त)
5. पत्थर की पुकार(समाप्त)
6. उस पार का योगी(समाप्त)
7.करुणा की विजय(समाप्त)
8.कलावती की शिक्षा(जल्द ही )
Awara
08-12-2012, 03:28 PM
Alex ji, hindi kahaniya padhne ka apna hi maza. aap jaishankar prasad ki amar kahaniyo ko post karke kaafi accha kaam kar rahe hain. aapki mehnat ko salaam.
rep++ :hello::hello::hello:
Alex ji, hindi kahaniya padhne ka apna hi maza. aap jaishankar prasad ki amar kahaniyo ko post karke kaafi accha kaam kar rahe hain. aapki mehnat ko salaam. rep++ Shukriya bhai:hug:
कलावती की शिक्षा........ . . . श्यामसुन्दर ने विरक्त होकर कहा-''कला! यह मुझे नहीं अच्छा लगता।'' कलावती ने लैम्प की बत्ती कम करते हुए सिर झुकाकर तिरछी चितवन से देखते हुए कहा-''फिर मुझे भी सोने के समय यह रोशनी अच्छी नहीं लगती।'' श्यामसुन्दर ने कहा-''तुम्हारा पलँग तो इस रोशनी से बचा है। तुम जाकर सो रहो।'' और तुम रात भर यों ही जागते रहोगे।'' अब की धीरे से कलावती ने हाथसे पुस्तक भी खींच ली।श्यामसुन्दर को इस स्नेह में भी क्रोध आ गया। तिनक गये-''तुम पढऩे का सुख नहीं जानती, इसलिए तुमको समझाना ही मूर्खता है।'' कलावती ने प्रगल्भ होकर कहा-''मूर्ख बनकर थोड़ा समझा दो।'' श्यामसुन्दर भड़कउठे, उनकी शिक्षिता उपन्यास की नायिका उसी अध्याय में अपने प्रणयी के सामने आयी थी- वह आगे बातचीत करती; उसी समय ऐसा व्याघात। 'स्त्रीणामाद्य प्रणय-वचनं' कालिदास ने भी इसे नहीं छोड़ा था। कैसा अमूल्य पदार्थ! अशिक्षिता कलावती ने वहीं रस भंगकिया। बिगड़कर बोले-''वह तुम इस जन्म में नहीं समझोगी।'' कलावती ने और भी हँसकर कहा-''देखो, उस जन्म में भी ऐसा बहानान करना।'' पुष्पाधार में धरे हुए नरगिस के गुच्छे ने अपनी एकटक देखती हुई आँखों से चुपचाप यह दृश्य देखा और वह कालिदास के तात्पर्य को बिगाड़ते हुए श्यामसुन्दर की धृष्टता न सहन कर सका, और शेष 'विभ्रमोहि प्रियेषु' का पाठ हिलकर करने लगा। -- -- श्यामसुन्दर ने लैम्प की बत्ती चढ़ायी, फिर अध्ययन आरम्भ हुआ। कलावती अब की अपने पलँग पर जा बैठी। डब्बा खोलकर पान लगाया, दो खीली लेकर फिर श्यामसुन्दर के पास आयी। श्याम ने कहा-''रख दो।'' खीलीवाला हाथ मुँह की ओर बढ़ा, कुछ मुख भी बढ़ा, पान उसमें चला गया। कलावती फिर लौटी ओर एकचीनी की पुतली लेकर उसे पढ़ाने बैठी-''देखो, मैं तुम्हें दो-चार बातें सिखाती हूँ, उन्हें अच्छी तरह रट लेना। लज्जा कभी न करना, यह पुरुषों की चालाकी है,जो उन्होंने इसे स्त्रियों के हिस्से कर दिया है। यह दूसरे शब्दों में एक प्रकार का भ्रम है, इसलिए तुम भी ऐसा रूप धारण करना कि पुरुष, जो बाहर से अनुकम्पा करते हुए तुमसे भीतर-भीतर घृणा करते हैं, वह भी तुमसे भयभीत रहें, तुम्हारे पास आने का साहस न करें। और कृतज्ञ होना दासत्व है। चतुरों ने अपना कार्य-साधन करने का अस्त्र इसे बनाया है। इसीलिए इसकी ऐसी प्रशंसा की है कि लोग इसकी ओर आकर्षित हो जाते हैं। किन्तु है यह दासत्व। यह शरीर कानहीं, किन्तु अन्तरात्मा का दासत्व है। इस कारण कभी-कभी लोग बुरी बातों का भी समर्थन करते हैं। प्रगल्भता, जो आजकल बड़ी बाढ़ पर है, बड़ी अच्छी वस्तु है। उसके बल से मूर्ख भी पण्डित समझे जाते हैं। उसका अच्छा अभ्यास करना, जिसमें तुमको कोई मूर्ख न कह सके, कहने का साहस ही न हो। पुतली! तुमने रूप का परिवर्तन भी छोड़ दिया है, यह और भी बुरा है। सोने के कोर की साड़ी तुम्हारे मस्तक को अभी भी ढँके हैं, तनिक इसे खिसका दो। बालों को लहरा दो।लोग लगें पैर चूमने, प्यारी पुतली! समझी न?'' श्यामसुन्दर के उपन्यास की नायिका भी अपने नायक के गले लग गयी थी, प्रसन्नता से उसका मुख-मण्डल चमकने लगा। वह अपना आनन्द छिपा नहीं सकता था। पुतली की शिक्षा उसने सुनी कि नहीं, हम नहीं कह सकते, किन्तु वह हँसने लगा। कलावती को क्या सूझा, लो वह तो सचमुच उसके गले लगी हुई थी। अध्याय समाप्त हुआ। पुतली को अपना पाठ याद रहा कि नहीं, लैम्प के धीमे प्रकाश में कुछ समझ न पड़ा।
1.गुंडा(समाप्त) 2. सिकंदर की शपथ(समाप्त) 3.अशोक(समाप्त) 4.पाप की पराजय..(समाप्त) 5. पत्थर की पुकार(समाप्त) 6. उस पार का योगी(समाप्त) 7.करुणा की विजय(समाप्त) 8.कलावती की शिक्षा(समाप्त) 9.चक्रवर्ती का स्तंभ..(जल्द ही )
चक्रवर्ती का स्तंभ.... . ''बाबा यह कैसे बना?इसको किसने बनाया? इस पर क्या लिखा है?'' सरलाने कई सवाल किये। बूढ़ा धर्मरक्षित, भेड़ों के झुण्ड को चरते हुए देख रहा था। हरी टेकरी झारल के किनारे सन्ध्या के आपत की चादर ओढ़ कर नया रंग बदल रही थी। भेड़ों की मण्डली उस पर धीरे-धीरे चरती हुईउतरने-चढऩे में कई रेखा बना रही थी। अब की ध्यान आकर्षित करने के लिए सरला ने धर्मरक्षित का हाथ खींचकर उस स्तम्भ को दिखलाया। धर्मरक्षित ने निश्वास लेकर कहा-''बेटी, महाराज चक्रवर्ती अशोक ने इसे कब बनाया था। इस पर शील और धर्म की आज्ञा खुदी है। चक्रवर्ती देवप्रिय ने यह नहीं विचार कियाकि ये आज्ञाएँ बक-बक मानी जायँगी। धर्मोन्मत्त लोगों ने इस स्थान को ध्वस्तकर डाला। अब विहार मेंडर से कोई-कोई भिक्षुकभी कभी दिखाई पड़ता है।'' वृद्ध यह कहकर उद्विग्न होकर कृष्ण सन्ध्या का आगमन देखने लगा। सरला उसी के बगल में बैठ गयी। स्तम्भ के ऊपर बैठा हुआ आज्ञा का रक्षक सिंह धीरे-धीरे अन्धकार में विलीन हो गया। थोड़ी देर में एक धर्मशील कुटुम्ब उसी स्थान पर आया। जीर्ण स्तूप पर देखते-देखते दीपावली हो गयी। गन्ध-कुसुम से वह स्तूप अर्चित हुआ। अगुरु की गन्ध, कुसुम-सौरभ तथा दीपमाला से वह जीर्ण स्थान एक बारआलोकपूर्ण हो गया। सरला का मन उस दृश्य से पुलकित हो उठा। वह बार-बार वृद्ध को दिखाने लगी, धार्मिक वृद्ध की आँखों में उसभक्तिमयी अर्चना से जल-बिन्दु दिखाई देने लगे। उपासकों में मिलकर धर्मरक्षित और सरला ने भी भरे हुए हृदय से उस स्तूप को भगवान् के उद्देश्य से नमस्कार किया। -- -- टापों के शब्द वहाँ से सुनाई पड़ रहेहैं। समस्त भक्ति के स्थान पर भय ने अधिकारकर लिया। सब चकित होकरदेखने लगे। उल्काधारी अश्वारोहीऔर हाथों में नंगी तलवार! आकाश के तारों ने भी भय से मुँह छिपा लिया। मेघ-मण्डली रो-रो कर मना करने लगी, किन्तु निष्ठुर सैनिकों ने कुछ न सुना। तोड़-ताड़, लूट-पाट करके सब पुजारियों को, 'बुतपरस्तों' को बाँध कर उनके धर्म-विरोध कादण्ड देने के लिए ले चले। सरला भी उन्हीं में थी। धर्मरक्षित ने कहा-''सैनिकों, तुम्हारा भी कोई धर्म है?'' एक ने कहा-''सर्वोत्तम इस्लाम धर्म।'' धर्मरक्षित-''क्या उसमें दया की आज्ञा नहीं है?'' उत्तर न मिला। धर्मरक्षित-''क्या जिस धर्म में दया नहींहै, उसे भी तुम धर्म कहोगे?'' एक दूसरा-''है क्यों नहीं? दया करना हमारे धर्म में भी है।पैगम्बर का हुक्म है, तुम बूढ़े हो, तुम पर दया की जा सकती है। छोड़ दो जी, उसको।'' बूढ़ा छोड़ दिया गया। धर्मरक्षित-''मुझे चाहे बाँध लो, किन्तु इन सबों को छोड़ दो। वह भी सम्राट् था, जिसने इस स्तम्भ पर समस्त जीवों के प्रति दया करने की आज्ञा खुदवा दी है। क्या तुमभी देश विजय करके सम्राट् हुआ चाहते हो?तब दया क्यों नहीं करते?'' एक बोल उठा-''क्या पागल बूढ़े से बक-बक कर रहे हो? कोई ऐसी फिक्र करो कि यह किसी बुत की परस्तिश का ऊँचा मीनार तोड़ा जाय।'' सरला ने कहा-''बाबा, हमको यह सब लिये जा रहे हैं।'' धर्मरक्षित-''बेटी,असहाय हूँ, वृद्ध बाँहों में बल भी नहींहै, भगवान् की करुणा का स्मरण कर। उन्होंने स्वयं कहा है कि-''संयोग: विप्रयोगन्ता:।'' निष्ठुर लोग हिंसा के लिए परिक्रमण करने लगे। किन्तु पत्थरों में चिल्लाने की शक्ति नहीं है कि उसे सुनकर वे क्रूर आत्माएँ तुष्ट हों। उन्हें नीरव रोने में भी असमर्थ देखकर मेघ बरसने लगे। चपला चमकने लगी। भीषण गर्जन होने लगा। छिपने के लिए वे निष्ठुर भी स्थान खोजने लगे। अकस्मात् एक भीषण गर्जन और तीव्र आलोक, साथ ही धमाका हुआ। चक्रवर्ती का स्तम्भ अपने सामने यह दृश्य न देख सका। अशनिपात से खण्ड-खण्ड होकर गिर पड़ा। कोई किसी का बन्दी न रहा।
1.गुंडा(समाप्त) 2. सिकंदर की शपथ(समाप्त) 3.अशोक(समाप्त) 4.पाप की पराजय..(समाप्त) 5. पत्थर की पुकार(समाप्त) 6. उस पार का योगी(समाप्त) 7.करुणा की विजय(समाप्त) 8.कलावतीकी शिक्षा(समाप्त) 9.चक्रवर्ती का स्तंभ..(समाप्त) 10.दुखिया(जल्द ही )
दुखिया.......
पहाड़ी देहात, जंगल के किनारे के गाँव और बरसात का समय! वह भी ऊषाकाल! बड़ा ही मनोरम दृश्य था। रात की वर्षा से आम के वृक्ष तराबोर थे। अभी पत्तों से पानी ढुलक रहा था। प्रभात के स्पष्ट होने पर भी धुँधले प्रकाश में सड़क के किनारे आम्रवृक्ष के नीचे बालिका कुछ देख रही थी। 'टप' से शब्द हुआ, बालिका उछल पड़ी, गिराहुआ आम उठाकर अञ्चल में रख लिया। (जो पाकेट की तरह खोंस कर बना हुआ था।)
दक्षिण पवन ने अनजान में फल से लदी हुई डालियों से अठखेलियाँ कीं। उसका सञ्चित धन अस्त-व्यस्त हो गया। दो-चार गिर पड़े। बालिका ऊषा की किरणों के समान ही खिल पड़ी। उसका अञ्चल भर उठा। फिर भी आशा में खड़ी रही। व्यर्थ प्रयास जान कर लौटी, और अपनी झोंपड़ी की ओर चल पड़ी। फूस की झोंपड़ी में बैठा हुआ उसका अन्धा बूढ़ा बाप अपनी फूटी हुई चिलम सुलगा रहा था। दुखिया ने आतेही आँचल से सात आमों में से पाँच निकाल कर बाप के हाथ में रख दिये। और स्वयं बरतन माँजने के लिए 'डबरे' की ओर चल पड़ी।
बरतनों का विवरण सुनिए, एक फूटी बटुली, एक लोंहदी और लोटा, यही उस दीन परिवार का उपकरण था। डबरे के किनारे छोटी-सी शिला पर अपने फटे हुए वस्त्र सँभाले हुए बैठकर दुखिया ने बरतन मलना आरम्भ किया।
अपने पीसे हुए बाजरे के आटे की रोटी पकाकर दुखिया ने बूढ़े बाप को खिलाया और स्वयं बचा हुआ खा-पीकर पास ही के महुए के वृक्ष की फैलीजड़ों पर सिर रख कर लेट रही। कुछ गुनगुनाने लगी। दुपहरी ढल गयी। अब दुखिया उठी और खुरपी-जाला लेकर घास छीलने चली। जमींदार के घोड़े के लिए घास वह रोज दे आती थी, कठिन परिश्रम से उसने अपने काम भर घास कर लिया, फिर उसे डबरे में रख कर धोने लगी।
सूर्य की सुनहली किरणें बरसाती आकाश पर नवीन चित्रकार की तरह कई प्रकार के रंग लगाना सीखने लगीं। अमराई और ताड़-वृक्षों की छाया उस शाद्वल जल में पड़कर प्राकृतिक चित्र का सृजन करने लगी। दुखिया को विलम्ब हुआ, किन्तु अभी उसकी घास धो नहीं गयी, उसे जैसे इसकी कुछ परवाह न थी। इसी समय घोड़े की टापों केशब्द ने उसकी एकाग्रता को भंग किया।
जमींदार कुमार सन्ध्या को हवा खाने के लिए निकले थे। वेगवान 'बालोतरा' जातिका कुम्मेद पचकल्यान आज गरम हो गया था। मोहनसिंह से बेकाबू होकर वह बगटूट भाग रहाथा। संयोग! जहाँ पर दुखिया बैठी थी, उसी के समीप ठोकर लेकर घोड़ा गिरा। मोहनसिंह भी बुरी तरह घायल होकर गिरे। दुखिया ने मोहनसिंह की सहायता की। डबरे सेजल लाकर घावों को धोनेलगी। मोहन ने पट्टी बाँधी, घोड़ा भी उठकर शान्त खड़ा हुआ। दुखिया जो उसे टहलाने लगी थी। मोहन ने कृतज्ञता की दृष्टि से दुखिया को देखा, वह एक सुशिक्षित युवक था। उसने दरिद्र दुखिया को उसकी सहायता के बदले ही रुपया देना चाहा। दुखिया ने हाथ जोड़कर कहा-''बाबू जी , हम तो आप ही के गुलाम हैं। इसी घोड़े को घास देने से हमारी रोटी चलती है।''
अब मोहन ने दुखिया को पहिचाना। उसने पूछा-
''क्या तुम रामगुलाम की लडक़ी हो?''
''हाँ, बाबूजी।''
''वह बहुत दिनों से दिखता नहीं!''
''बाबू जी, उनकी आँखों से दिखाई नहीं पड़ता।''
''अहा, हमारे लड़कपन में वह हमारे घोड़े को, जब हम उस पर बैठते थे, पकड़कर टहलाता था। वह कहाँ है?''
''अपनी मड़ई में।''
''चलो, हम वहाँ तक चलेंगे।''
किशोरी दुखिया को कौन जाने क्यों संकोच हुआ, उसने कहा-
''बाबूजी, घास पहुँचाने में देर हुई है। सरकार बिगड़ेंगे।''
''कुछ चिन्ता नहीं; तुम चलो।''
लाचार होकर दुखिया घास का बोझा सिर पर रखे हुए झोंपड़ी की ओर चल पड़ी। घोड़े पर मोहन पीछे-पीछे था।
3
''रामगुलाम, तुम अच्छे तो हो?''
''राज! सरकार! जुग-जुग जीओ बाबू!'' बूढ़े ने बिना देखे अपनी टूटी चारपाई से उठते हुए दोनों हाथ अपने सिर तक ले जाकर कहा।
''रामगुलाम, तुमने पहचान लिया?''
''न कैसे पहचानें, सरकार! यह देह पली है।''उसने कहा।
''तुमको कुछ पेन्शनमिलती है कि नहीं?''
''आप ही का दिया खाते हैं, बाबूजी। अभीलडक़ी हमारी जगह पर घास देती है।''
भावुक नवयुवक ने फिर प्रश्न किया, ''क्यों रामगुलाम, जब इसका विवाह हो जायेगा,तब कौन घास देगा?''
रामगुलाम के आनन्दाश्रु दु:ख की नदी होकर बहने लगे। बड़े कष्ट से उसने कहा-''क्या हम सदा जीते रहेंगे?''
अब मोहन से नहीं रहा गया, वहीं दो रुपये उस बुड्ढे को देकर चलते बने। जाते-जाते कहा-''फिर कभी।''
दुखिया को भी घास लेकर वहीं जाना था। वहपीछे चली।
जमींदार की पशुशाला थी। हाथी, ऊँट, घोड़ा, बुलबुल, भैंसा, गाय, बकरे, बैल, लाल, किसी की कमी नहीं थी। एक दुष्ट नजीब खाँइन सबों का निरीक्षक था। दुखिया को देर से आते देखकर उसे अवसर मिला। बड़ी नीचता से उसने कहा-''मारे जवानी के तेरा मिजाज ही नहींमिलता! कल से तेरी नौकरी बन्द कर दी जायगी। इतनी देर?''
दुखिया कुछ नहीं बोलती, किन्तु उसको अपने बूढ़े बाप की यादआ गयी। उसने सोचा, किसी तरह नौकरी बचानी चाहिए, तुरन्त कह बैठी-
''छोटे सरकार घोड़ेपर से गिर पड़े रहे। उन्हें मड़ई तक पहुँचाने में देर .....।''
''चुप हरामजादी! तभी तो तेरा मिजाज और बिगड़ा है। अभी बड़े सरकार के पास चलते हैं।''
वह उठा और चला। दुखिया ने घास का बोझापटका और रोती हुई झोंपड़ी की ओर चलती हुई। राह चलते-चलते उसे डबरे का सायंकालीन दृश्य स्मरण होने लगा। वह उसी में भूल कर अपने घर पहुँच गई।
1.गुंडा(समाप्त)
2. सिकंदर की शपथ(समाप्त)
3.अशोक(समाप्त)
4.पाप की पराजय..
(समाप्त)
5. पत्थर की पुकार(समाप्त)
6. उस
पार का योगी(समाप्त)
7.करुणा की विजय
(समाप्त)
8.कलावतीकी शिक्षा(समाप्त)
9.चक्रवर्ती का स्तंभ..(समाप्त)
10.दुखिया(समाप्त)
11.प्रलय(जल्द ही )
प्रलय
हिमावृत चोटियों की श्रेणी, अनन्त आकाशके नीचे क्षुब्ध समुद्र! उपत्यका की कन्दरा में, प्राकृतिक उद्यान में खड़े हुए युवक ने युवती से कहा-''प्रिये!''
''प्रियतम! क्या होने वाला है?''
''देखो क्या होता है, कुछ चिन्ता नहीं-आसव तो है न?''
''क्यों प्रिय! इतना बड़ा खेल क्या यों ही नष्ट हो जायेगा?''
''यदि नष्ट न हो, खेलज्यों-का-त्यों बना रहे तब तो वह बेकार हो जायेगा।''
''तब हृदय में अमर होने की कल्पना क्यों थी?''
''सुख-भोग-प्रलोभन के कारण।''
''क्या सृष्टि की चेष्टा मिथ्या थी?''
''मिथ्या थी या सत्य, नहीं कहा जा सकता- पर सर्ग प्रलय के लिए होता है, यह निस्सन्देह कहा जायगा, क्योंकि प्रलय भी एक सृष्टि है।''
''अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए बड़ाउद्योग था''-युवती ने निश्वास लेकर कहा।
''यह तो मैं भी मानूँगा कि अपने अस्तित्व के लिए स्वयं आपको व्यय कर दिया।''-युवक ने व्यंग्य से कहा।
युवती करुणाद्र्रहो गयी। युवक ने मन बदलने के लिए कहा-''प्रिये! आसव ले आओ।''
युवती स्फटिक-पात्र में आसव ले आयी।युवक पीने लगा।
''सदा रक्षा करने पर भी यह उत्पात?'' युवती ने दीन होकर जिज्ञासा की।
''तुम्हारे उपासकों ने भी कम अपव्यय नहीं किया।'' युवक ने सस्मित कहा।
''ओह, प्रियतम! अब कहाँ चलें?'' युवती ने मान करके कहा।
कठोर होकर युवक ने कहा-''अब कहाँ, यहीं से यह लीला देखेंगे।''
सूर्य का अलात-चक्र के समान शून्य में भ्रमण, और उसके विस्तार का अग्नि-स्फुलिंग-वर्षा करते हुए आश्चर्य-संकोच! हिम-टीलों का नवीन महानदों के रूप में पलटना, भयानक ताप से शेष प्राणियों का पलटना! महाकापालिक के चिताग्नि-साधन का वीभत्स दृश्य! प्रचण्ड आलोक का अन्धकार!!!
युवक मणि-पीठ पर सुखासीन होकर आसव पान कर रहा है। युवती त्रस्त नेत्रों से इस भीषण व्यापार को देखते हुए भी नहीं देखरही है। जवाकुसुम सदृश और जगत् का तत्काल तरल पारद-समान रंग बदलना, भयानक होनेपर भी युवक को स्पृहणीय था। वह सस्मित बोला-''प्रिये! कैसा दृश्य है।''
''इसी का ध्यान करके कुछ लोगों ने आध्यात्मिकता का प्रचार किया था।'' युवती ने कहा।
''बड़ी बुद्धिमत्ता थी!'' हँस कर युवक ने कहा। वह हँसी ग्रहगण की टक्कर के शब्द से भी कुछ ऊँची थी।
''क्यों?''
''मरण के कठोर सत्य से बचने का बहाना या आड़।''
''प्रिय! ऐसा न कहो।''
''मोह के आकस्मिक अवलम्ब ऐसे ही होते हैं।'' युवक ने पात्र भरते हुए कहा।
''इसे मैं नहीं मानूँगी।'' दृढ़ होकर युवती बोली।
सामने की जल-राशि आलोड़ित होने लगी। असंख्य जलस्तम्भ शून्य नापने को ऊँचे चढऩे लगे। कण-जाल से कुहासा फैला। भयानक ताप पर शीतलता हाथ फेरने लगी। युवती ने और भी साहस से कहा-''क्या आध्यात्मिकता मोह है?''
''चैतनिक पदार्थों का ज्वार-भाटा है। परमाणुओं से ग्रथित प्राकृत नियन्त्रण-शैली का एक बिन्दु! अपना अस्तित्व बचाये रखने की आशा में मनोहरकल्पना कर लेता है। विदेह होकर विश्वात्मभाव की प्रत्याशा, इसी क्षुद्र अवयव में अन्तर्निहित अन्त:करण यन्त्र का चमत्कार साहस है, जो स्वयं नश्वर उपादनों को साधन बनाकर अविनाशी होने का स्वप्न देखता है। देखो, इसी सारे जगत् के लय की लीला में तुम्हें इतना मोह हो गया?''
प्रभञ्जन का प्रबल आक्रमण आरम्भ हुआ। महार्णव की आकाशमापक स्तम्भ लहरियाँ भग्न होकर भीषण गर्जन करने लगीं। कन्दरा के उद्यान का अक्षयवट लहरा उठा। प्रकाण्ड शाल-वृक्ष तृण की तरह उस भयंकर फूत्कार से शून्य में उड़ने लगे। दौड़ते हुए वारिद-वृन्द के समान विशाल शैल-शृंग आवर्त में पड़कर चक्र-भ्रमण करने लगे। उद्गीर्ण ज्वालामुखियों के लावे जल-राशि को जलानेलगे। मेघाच्छादित, निस्तेज, स्पृश्य, चन्द्रबिम्ब के समान सूर्यमण्डल महाकापालिक के पिये हुए पान-पात्र की तरह लुढक़ने लगा। भयंकर कम्प और घोर वृष्टि में ज्वालामुखी बिजली के समान विलीन होने लगे।
युवक ने अट्टहास करते हुए कहा-''ऐसी बरसात काहे को मिलेगी!एक पात्र और।''
युवती सहमकर पात्र भरती हुई बोली-''मुझे अपने गले से लगा लो, बड़ा भय लगता है।''
युवक ने कहा-''तुम्हारा त्रस्तकरुण अर्ध कटाक्ष विश्व-भर की मनोहर छोटी-सी आख्यायिका का सुख दे रहा है। हाँ एक.....''
''जाओ, तुम बड़े कठोर हो .....।''
''हमारी प्राचीनता और विश्व की रमणीयता ने तुम्हें सर्ग और प्रलय की अनादि लीला देखने के लिए उत्साहित किया था। अब उसका ताण्डव नृत्य देखो। तुम्हें भी अपनी कोमल कठोरता का बड़ा अभिमान था .....।''
''अभिमान ही होता, तो प्रयास करके तुमसे क्यों मिलती? जाने दो, तुम मेरे सर्वस्व हो। तुमसे अब यह माँगती हूँ कि अब कुछ न माँगूँ, चाहे इसके बदले मेरी समस्त कामना ले लो।'' युवती ने गले में हाथ डालकर कहा।
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भयानक शीत, दूसरे क्षण असह्य ताप, वायु के प्रचण्ड झोंकों में एक के बाद दूसरे की अद्*भुत परम्परा, घोर गर्जन, ऊपर कुहासाऔर वृष्टि, नीचे महार्णव के रूप में अनन्त द्रवराशि, पवन उन्चासों गतियों से समग्र पञ्चमहाभूतों को आलोड़ित कर उन्हें तरल परमाणुओं के रूप में परिवर्तित करने के लिए तुला हुआ है। अनन्त परमाणुमय शून्य में एक वट-वृक्षकेवल एक नुकीले शृंग के सहारे स्थित है। प्रभञ्जन के प्रचण्ड आघातों से सब अदृश्य है। एक डाल पर वही युवक और युवती! युवक के मुख-मण्डल के प्रकाश से ही आलोक है।युवती मूर्च्छितप्राय है। वदन-मण्डल मात्र अस्पष्ट दिखाई दे रहा है। युवती सचेत होकर बोली-
''प्रियतम!''
''क्या प्रिये?''
''नाथ! अब मैं तुमको पाऊँगी।''
''क्या अभी तक नहीं पाया था?''
''मैं अभी तक तुम्हें पहचान भी नहीं सकी थी। तुम क्याहो, आज बता दोगे?''
''क्या अपने को जान लिया था; तुम्हारा क्या उद्देश्य था?''
''अब कुछ-कुछ जान रही हूँ; जैसे मेरा अस्तित्व स्वप्न था; आध्यात्मिकता का मोह था; जो तुमसे भिन्न, स्वतन्त्र स्वरूप की कल्पना कर ली थी, वह अस्तित्व नहीं, विकृति थी। उद्देश्य की तो प्राप्ति हुआ हीचाहती है।''
युवती का मुख-मण्डल अस्पष्ट प्रतिबिम्ब मात्र रह गया था-युवक एक रमणीय तेज-पुंज था।
''तब और जानने की आवश्यकता नहीं, अब मिलना चाहती हो?''
''हूँ'' अस्फुट शब्द का अन्तिम भाग प्रणव के समान गूँजने लगा!
''आओ, यह प्रलय-रूपी तुम्हारा मिलन आनन्दमय हो। आओ।''
अखण्ड शान्ति! आलोक!! आनन्द!!!
***आकाशदीप***
''बन्दी!''
''क्या है? सोने दो।''
''मुक्त होना चाहतेहो?''
''अभी नहीं, निद्रा खुलने पर, चुप रहो।''
''फिर अवसर न मिलेगा।''
''बड़ा शीत है, कहीं से एक कम्बल डालकर कोईशीत से मुक्त करता।''
''आँधी की सम्भावनाहै। यही अवसर है। आज मेरे बन्धन शिथिल हैं।''
''तो क्या तुम भी बन्दी हो?''
''हाँ, धीरे बोलो, इसनाव पर केवल दस नाविक और प्रहरी हैं।''
''शस्त्र मिलेगा?''
''मिल जायगा। पोत से सम्बद्ध रज्जु काट सकोगे?''
''हाँ।''
समुद्र में हिलोरें उठने लगीं। दोनों बन्दी आपस में टकराने लगे। पहले बन्दी ने अपने को स्वतन्त्र कर लिया। दूसरे का बन्धन खोलने का प्रयत्न करने लगा। लहरों के धक्के एक-दूसरे को स्पर्श सेपुलकित कर रहे थे। मुक्ति की आशा-स्नेह का असम्भावित आलिंगन। दोनों ही अन्धकार में मुक्त हो गये। दूसरे बन्दी ने हर्षातिरेक से उसको गले से लगा लिया। सहसाउस बन्दी ने कहा-''यह क्या? तुम स्त्री हो?''
''क्या स्त्री होनाकोई पाप है?''-अपने को अलग करते हुए स्त्री ने कहा।
''शस्त्र कहाँ है-तुम्हारा नाम?''
''चम्पा।''
तारक-खचित नील अम्बर और समुद्र के अवकाश में पवन ऊधम मचारहा था। अन्धकार से मिलकर पवन दुष्ट हो रहा था। समुद्र में आन्दोलन था। नौका लहरों में विकल थी। स्त्री सतर्कता से लुढक़ने लगी। एक मतवाले नाविक के शरीर से टकराती हुई सावधानी से उसका कृपाण निकालकर, फिर लुढक़ते हुए, बन्दी केसमीप पहुँच गई। सहसा पोत से पथ-प्रदर्शक नेचिल्लाकर कहा-''आँधी!''
आपत्ति-सूचक तूर्य बजने लगा। सब सावधान होने लगे। बन्दी युवक उसी तरह पड़ा रहा। किसी ने रस्सी पकड़ी, कोई पाल खोल रहा था। पर युवक बन्दी ढुलक कर उस रज्जु के पास पहुँचा, जो पोत से संलग्न थी। तारे ढँक गये। तरंगें उद्वेलित हुईं, समुद्र गरजने लगा। भीषण आँधी, पिशाचिनी के समान नाव को अपने हाथों में लेकर कन्दुक-क्रीड़ा और अट्टहास करने लगी।
एक झटके के साथ ही नाव स्वतन्त्र थी। उस संकट में भी दोनों बन्दी खिलखिला कर हँस पड़े। आँधी के हाहाकार में उसे कोई नसुन सका।
अनन्त जलनिधि में ऊषा का मधुर आलोक फूट उठा। सुनहली किरणों और लहरों की कोमल सृष्टि मुस्कराने लगी। सागर शान्त था। नाविकों ने देखा, पोत का पता नहीं। बन्दी मुक्त हैं।
नायक ने कहा-''बुधगुप्त! तुमको मुक्त किसने किया?''
कृपाण दिखाकर बुधगुप्त ने कहा-''इसने।''
नायक ने कहा-''तो तुम्हें फिर बन्दी बनाऊँगा।''
''किसके लिये? पोताध्यक्ष मणिभद्र अतल जल में होगा-नायक! अब इस नौका का स्वामी मैं हूँ।''
''तुम? जलदस्यु बुधगुप्त? कदापि नहीं।''-चौंक कर नायक ने कहा और अपना कृपाण टटोलने लगा! चम्पा ने इसके पहले उस पर अधिकार कर लिया था। वहक्रोध से उछल पड़ा।
''तो तुम द्वंद्वयुद्ध के लिये प्रस्तुत हो जाओ;जो विजयी होगा, वह स्वामी होगा।''-इतना कहकर बुधगुप्त ने कृपाण देने का संकेत किया। चम्पा ने कृपाण नायक के हाथ में दे दिया।
भीषण घात-प्रतिघात आरम्भ हुआ। दोनों कुशल, दोनों त्वरित गतिवाले थे। बड़ी निपुणता से बुधगुप्त ने अपना कृपाण दाँतों से पकड़कर अपने दोनों हाथ स्वतन्त्र कर लिये। चम्पा भय और विस्मय से देखने लगी। नाविक प्रसन्न हो गये। परन्तु बुधगुप्त ने लाघव से नायक का कृपाण वाला हाथ पकड़ लिया और विकटहुंकार से दूसरा हाथ कटि में डाल, उसे गिरा दिया। दूसरे ही क्षण प्रभात की किरणों में बुधगुप्त का विजयी कृपाण हाथों में चमक उठा। नायक की कातर आँखें प्राण-भिक्षा माँगने लगीं।
बुधगुप्त ने कहा-''बोलो, अब स्वीकार है कि नहीं?''
''मैं अनुचर हूँ, वरुणदेव की शपथ। मैं विश्वासघात नहीं करूँगा।'' बुधगुप्त नेउसे छोड़ दिया।
चम्पा ने युवक जलदस्यु के समीप आकर उसके क्षतों को अपनी स्निग्ध दृष्टि और कोमल करों से वेदना विहीन कर दिया। बुधगुप्त के सुगठित शरीर पर रक्त-बिन्दु विजय-तिलक कर रहे थे।
विश्राम लेकर बुधगुप्त ने पूछा ''हम लोग कहाँ होंगे?''
''बालीद्वीप से बहुत दूर, सम्भवत: एक नवीन द्वीप के पास, जिसमें अभी हम लोगों का बहुत कम आना-जाना होता है। सिंहल के वणिकों का वहाँ प्राधान्य है।''
''कितने दिनों में हम लोग वहाँ पहुँचेंगे?''
''अनुकूल पवन मिलनेपर दो दिन में। तब तक के लिये खाद्य का अभावन होगा।''
सहसा नायक ने नाविकों को डाँड़ लगाने की आज्ञा दी, और स्वयं पतवार पकड़कर बैठ गया। बुधगुप्त के पूछने पर उसने कहा-''यहाँ एक जलमग्न शैलखण्ड है। सावधान न रहने से नाव टकराने काभय है।'
''तुम्हें इन लोगोंने बन्दी क्यों बनाया?''
''वणिक् मणिभद्र कीपाप-वासना ने।''
''तुम्हारा घर कहाँहै?''
''जाह्नवी के तट पर। चम्पा-नगरी की एक क्षत्रिय बालिका हूँ। पिता इसी मणिभद्र के यहाँ प्रहरी का काम करते थे। माता का देहावसान हो जाने पर मैं भी पिता के साथ नाव पर ही रहने लगी। आठ बरस से समुद्र ही मेरा घर है।तुम्हारे आक्रमण के समय मेरे पिता ने ही सात दस्युओं को मारकर जल-समाधि ली। एक मास हुआ, मैं इस नील नभ के नीचे, नील जलनिधि के ऊपर, एक भयानक अनन्ततामें निस्सहाय हूँ-अनाथ हूँ। मणिभद्र ने मुझसे एक दिन घृणित प्रस्ताव किया। मैंने उसे गालियाँ सुनाईं। उसी दिन से बन्दी बना दी गई।''-चम्पा रोष से जल रही थी।
''मैं भी ताम्रलिप्ति का एक क्षत्रिय हूँ, चम्पा! परन्तु दुर्भाग्य से जलदस्यु बन कर जीवन बिताता हूँ। अब तुम क्या करोगी?''
''मैं अपने अदृष्ट को अनिर्दिष्ट ही रहने दूँगी। वह जहाँ ले जाय।'' -चम्पा की आँखें निस्सीम प्रदेश में निरुद्देश्य थी। किसी आकांक्षा के लाल डोरे न थे। धवल अपांगों में बालकों के सदृश विश्वास था। हत्या-व्यवसायी दस्यु भी उसे देखकर काँप गया। उसके मन मेंएक सम्भ्रमपूर्ण श्रद्धा यौवन की पहली लहरों को जगाने लगी। समुद्र-वक्ष पर विलम्बमयी राग-रञ्जित सन्ध्या थिरकने लगी। चम्पा के असंयत कुन्तल उसकी पीठ पर बिखरे थे। दुर्दान्त दस्यु ने देखा , अपनी महिमा में अलौकिक एक तरुण बालिका! वह विस्मय से अपने हृदय को टटोलने लगा। उसे एक नई वस्तु का पता चला। वह थी-कोमलता!
उसी समय नायक ने कहा-''हम लोग द्वीप के पास पहुँच गये।''
बेला से नाव टकराई। चम्पा निर्भीकता से कूद पड़ी। माँझी भी उतरे। बुधगुप्त ने कहा-''जब इसका कोई नाम नहीं है, तो हम लोग इसे चम्पा-द्वीप कहेंगे।''
चम्पा हँस पड़ी।
अलेक्स जी यह लास्ट वाला पोस्ट दिख नहीं रहा है
अलेक्स जी यह लास्ट वाला पोस्ट दिख नहीं रहा है
ab check kijiye :)
पाँच बरस बाद-
शरद के धवल नक्षत्र नील गगन में झलमला रहे थे। चन्द्र की उज्ज्वल विजय पर अन्तरिक्ष में शरदलक्ष्मी ने आशीर्वाद के फूलों और खीलों को बिखेर दिया।
चम्पा के एक उच्चसौध पर बैठी हुई तरुणी चम्पा दीपक जला रही थी। बड़े यत्न से अभ्रक की मञ्जूषा में दीप धरकर उसने अपनी सुकुमार उँगलियों से डोरी खींची। वह दीपाधार ऊपर चढऩे लगा। भोली-भोली आँखें उसे ऊपर चढ़ते बड़े हर्ष से देख रही थीं। डोरी धीरे-धीरे खींची गई। चम्पा की कामना थीकि उसका आकाश-दीप नक्षत्रों से हिलमिल जाय; किन्तु वैसा होनाअसम्भव था। उसने आशाभरी आँखें फिरा लीं।
सामने जल-राशि का रजत शृंगार था। वरुण बालिकाओं के लिए लहरों से हीरे और नीलमकी क्रीड़ा शैल-मालायें बन रही थीं-और वे मायाविनी छलनायें-अपनी हँसी का कलनाद छोड़कर छिप जाती थीं। दूर-दूर से धीवरों का वंशी-झनकार उनके संगीत-सा मुखरित होता था। चम्पा ने देखा कि तरल संकुल जल-राशि में उसके कण्डील का प्रतिबिम्ब अस्तव्यस्त था! वह अपनी पूर्णता के लिए सैकड़ों चक्कर काटता था। वह अनमनी होकर उठ खड़ी हुई। किसी को पासन देखकर पुकारा-''जया!''
एक श्यामा युवती सामने आकर खड़ी हुई। वह जंगली थी। नील नभोमण्डल-से मुख में शुद्ध नक्षत्रों की पंक्ति के समान उसके दाँत हँसते ही रहते। वह चम्पा को रानी कहती; बुधगुप्त की आज्ञा थी।
''महानाविक कब तक आवेंगे, बाहर पूछो तो।'' चम्पा ने कहा। जया चली गई।
दूरागत पवन चम्पा के अञ्चल में विश्राम लेना चाहता था। उसके हृदय में गुदगुदी हो रही थी। आज न जाने क्यों वह बेसुध थी। वहदीर्घकाल दृढ़ पुरुष ने उसकी पीठ पर हाथ रख चमत्कृत कर दिया। उसने फिरकर कहा-''बुधगुप्त!''
''बावली हो क्या? यहाँ बैठी हुई अभी तक दीप जला रही हो, तुम्हें यह काम करना है?''
''क्षीरनिधिशायी अनन्त की प्रसन्नता के लिए क्या दासियों से आकाश-दीप जलवाऊँ?''
''हँसी आती है। तुम किसको दीप जलाकर पथ दिखलाना चाहती हो? उसको, जिसको तुमने भगवान् मान लिया है?''
''हाँ, वह भी कभी भटकते हैं, भूलते हैं, नहीं तो, बुधगुप्त को इतना ऐश्वर्य क्यों देते?''
''तो बुरा क्या हुआ, इस द्वीप की अधीश्वरी चम्पारानी!''
''मुझे इस बन्दीगृहसे मुक्त करो। अब तो बाली, जावा और सुमात्रा का वाणिज्य केवल तुम्हारे ही अधिकार में है महानाविक! परन्तु मुझे उन दिनों की स्मृति सुहावनी लगती है, जब तुम्हारे पास एक ही नाव थी और चम्पा के उपकूल में पण्य लादकर हम लोग सुखी जीवन बिताते थे-इस जल में अगणित बार हम लोगों कीतरी आलोकमय प्रभात में तारिकाओं की मधुर ज्योति में-थिरकती थी। बुधगुप्त! उस विजनअनन्त में जब माँझी सोजाते थे, दीपक बुझ जाते थे, हम-तुम परिश्रम से थककर पालों में शरीर लपेटकर एक-दूसरे का मुँह क्यों देखते थे? वह नक्षत्रों की मधुर छाया.....''
''तो चम्पा! अब उससे भी अच्छे ढंग से हम लोग विचर सकते हैं। तुम मेरी प्राणदात्री हो, मेरी सर्वस्व हो।''
''नहीं-नहीं, तुमने दस्युवृत्ति छोड़ दी परन्तु हृदय वैसा ही अकरुण, सतृष्ण और ज्वलनशील है। तुम भगवान के नाम पर हँसी उड़ाते हो। मेरे आकाश-दीप पर व्यंग कर रहे हो। नाविक! उस प्रचण्ड आँधी में प्रकाश की एक-एक किरण के लिए हम लोग कितने व्याकुल थे। मुझे स्मरण है, जब मैं छोटी थी, मेरे पिता नौकरी पर समुद्र में जाते थे-मेरी माता, मिट्टी का दीपक बाँस की पिटारी में भागीरथी के तट पर बाँस के साथ ऊँचे टाँग देती थी। उससमय वह प्रार्थना करती-'भगवान! मेरे पथ-भ्रष्ट नाविक को अन्धकार में ठीक पथ परले चलना।' और जब मेरे पिता बरसों पर लौटते तो कहते-'साध्वी! तेरी प्रार्थना से भगवान् ने संकटों में मेरी रक्षा की है।' वह गद्गद हो जाती। मेरी माँ? आह नाविक! यह उसी की पुण्य-स्मृति है। मेरे पिता, वीर पिता की मृत्यु के निष्ठुर कारण, जलदस्यु! हट जाओ।''-सहसा चम्पा का मुख क्रोध से भीषण होकर रंग बदलने लगा। महानाविक ने कभी यह रूप न देखा था। वह ठठाकर हँस पड़ा।
''यह क्या, चम्पा? तुम अस्वस्थ हो जाओगी,सो रहो।''-कहता हुआ चला गया। चम्पा मुठ्ठी बाँधे उन्मादिनी-सी घूमती रही।
निर्जन समुद्र के उपकूल में वेला से टकरा कर लहरें बिखर जाती थीं। पश्चिम का पथिक थक गया था। उसका मुख पीला पड़ गया। अपनी शान्त गम्भीर हलचल में जलनिधि विचार में निमग्न था। वह जैसे प्रकाश की उन्मलिन किरणों से विरक्त था।
चम्पा और जया धीरे-धीरे उस तट पर आकर खड़ी हो गईं। तरंगसे उठते हुए पवन ने उनके वसन को अस्त-व्यस्त कर दिया। जया के संकेत से एक छोटी-सी नौका आई। दोनों के उस पर बैठते ही नाविक उतर गया। जयानाव खेने लगी। चम्पा मुग्ध-सी समुद्र के उदास वातावरण में अपने को मिश्रित कर देना चाहती थी।
''इतना जल! इतनी शीतलता! हृदय की प्यासन बुझी। पी सकूँगी? नहीं! तो जैसे वेला में चोट खाकर सिन्धु चिल्ला उठता है, उसी के समान रोदन करूँ? या जलते हुए स्वर्ण-गोलक सदृश अनन्त जल में डूबकर बुझ जाऊँ?''-चम्पा के देखते-देखते पीड़ा और ज्वलन से आरक्त बिम्ब धीरे-धीरे सिन्धु में चौथाई-आधा,फिर सम्पूर्ण विलीन हो गया। एक दीर्घ निश्वास लेकर चम्पा ने मुँह फेर लिया। देखा, तो महानाविक का बजरा उसके पास है। बुधगुप्त ने झुक कर हाथ बढ़ाया। चम्पा उसके सहारे बजरे पर चढ़ गयी। दोनों पास-पास बैठ गये।
''इतनी छोटी नाव पर इधर घूमना ठीक नहीं। पास ही वह जलमग्न शैल खण्ड है। कहीं नाव टकरा जाती या ऊपर चढ़ जाती, चम्पा तो?''
''अच्छा होता, बुधगुप्त! जल में बन्दी होना कठोर प्राचीरों से तो अच्छा है।''
आह चम्पा, तुम कितनी निर्दय हो! बुधगुप्त को आज्ञा देकर देखो तो, वह क्या नहीं कर सकता। जो तुम्हारे लिये नये द्वीप की सृष्टि कर सकता है, नई प्रजा खोज सकता है, नये राज्य बना सकता है, उसकी परीक्षा लेकर देखो तो....। कहो, चम्पा! वह कृपाण से अपना हृदय-पिण्ड निकाल अपने हाथों अतल जल मेंविसर्जन कर दे।''-महानाविक-जिसके नाम से बाली, जावा और चम्पा का आकाश गूँजता था, पवन थर्राता था-घुटनों के बल चम्पाके सामने छलछलाई आँखों से बैठा था।
सामने शैलमाला की चोटी पर हरियाली में विस्तृत जल-देश में, नील पिंगल सन्ध्या, प्रकृति की सहृदय कल्पना, विश्राम की शीतल छाया, स्वप्नलोक का सृजन करने लगी। उस मोहिनी के रहस्यपूर्ण नीलजाल का कुहक स्फुट हो उठा।जैसे मदिरा से सारा अन्तरिक्ष सिक्त हो गया। सृष्टि नील कमलों में भर उठी। उस सौरभ से पागल चम्पा नेबुधगुप्त के दोनों हाथ पकड़ लिये। वहाँ एक आलिंगन हुआ, जैसे क्षितिज में आकाश और सिन्धु का। किन्तु उस परिरम्भ में सहसा चैतन्य होकर चम्पा ने अपनी कंचुकी से एक कृपाण निकाल लिया।
''बुधगुप्त! आज मैं अपने प्रतिशोध का कृपाण अतल जल में डुबादेती हूँ। हृदय ने छल किया, बार-बार धोखा दिया!''-चमककर वह कृपाण समुद्र का हृदय बेधता हुआ विलीन हो गया।
''तो आज से मैं विश्वास करूँ, क्षमा कर दिया गया?''-आश्चर्यचकित कम्पित कण्ठ से महानाविक ने पूछा।
'विश्वास? कदापि नहीं, बुधगुप्त ! जब मैं अपने हृदय पर विश्वास नहीं कर सकी, उसी ने धोखा दिया, तब मैं कैसे कहूँ? मैं तुम्हें घृणा करती हूँ, फिर भी तुम्हारे लिए मर सकती हूँ। अंधेर है जलदस्यु। तुम्हें प्यार करती हूँ।'' चम्पा रो पड़ी।
वह स्वप्नों की रंगीन सन्ध्या, तम से अपनी आँखें बन्द करने लगी थी। दीर्घ निश्वास लेकर महानाविक ने कहा-''इस जीवन की पुण्यतम घड़ी की स्मृति में एक प्रकाश-गृह बनाऊँगा, चम्पा! चम्पा यहीं उस पहाड़ी पर। सम्भव है कि मेरे जीवन की धुंधली सन्ध्या उससे आलोकपूर्ण हो जाय।''
चम्पा के दूसरे भाग में एक मनोरम शैलमाला थी। वह बहुत दूर तक सिन्धु-जल में निमग्न थी। सागर का चञ्चल जल उस पर उछलता हुआ उसे छिपाये था। आजउसी शैलमाला पर चम्पा के आदि-निवासियों का समारोह था। उन सबों नेचम्पा को वनदेवी-सा सजाया था। ताम्रलिप्ति के बहुत से सैनिक नाविकों की श्रेणी में वन-कुसुम-विभूषिता चम्पा शिविकारूढ़ होकर जा रही थी।
शैल के एक उँचे शिखर पर चम्पा के नाविकों को सावधान करने के लिए सुदृढ़ दीप-स्तम्भ बनवाया गया था। आज उसी का महोत्सव है। बुधगुप्त स्तम्भ के द्वार पर खड़ा था। शिविका से सहायता देकर चम्पा को उसने उतारा। दोनों ने भीतर पदार्पण किया था कि बाँसुरी और ढोल बजने लगे। पंक्तियों में कुसुम-भूषण से सजी वन-बालाएँ फूल उछालती हुई नाचने लगीं।
दीप-स्तम्भ की ऊपरी खिडक़ी से यह देखती हुई चम्पा ने जया से पूछा-''यह क्या है जया? इतनी बालिकाएँकहाँ से बटोर लाईं?''
''आज रानी का ब्याह है न?''-कह कर जया ने हँस दिया।
बुधगुप्त विस्तृतजलनिधि की ओर देख रहा था। उसे झकझोर कर चम्पा ने पूछा-''क्या यह सच है?''
''यदि तुम्हारी इच्छा हो, तो यह सच भी हो सकता है, चम्पा! ''कितने वर्षों से मैं ज्वालामुखी को अपनी छाती में दबाये हूँ।
''चुप रहो, महानाविक ! क्या मुझे निस्सहाय और कंगाल जानकर तुमने आज सब प्रतिशोध लेना चाहा?''
''मैं तुम्हारे पिता का घातक नहीं हूँ, चम्पा! वह एक दूसरे दस्यु के शस्त्र से मरे।''
''यदि मैं इसका विश्वास कर सकती। बुधगुप्त, वह दिन कितना सुन्दर होता, वहक्षण कितना स्पृहणीय! आह! तुम इस निष्ठुरता में भी कितने महान होते।''
जया नीचे चली गई थी। स्तम्भ के संकीर्ण प्रकोष्ठ में बुधगुप्त और चम्पा एकान्त में एक दूसरे के सामने बैठे थे।
बुधगुप्त ने चम्पा के पैर पकड़ लिये। उच्छ्वसित शब्दों में वह कहने लगा-चम्पा, हम लोग जन्मभूमि-भारतवर्ष से कितनी दूर इन निरीहप्राणियों में इन्द्र और शची के समानपूजित हैं। पर न जाने कौन अभिशाप हम लोगों को अभी तक अलग किये है। स्मरण होता है वह दार्शनिकों का देश! वहमहिमा की प्रतिमा! मुझे वह स्मृति नित्य आकर्षित करती है; परन्तु मैं क्यों नहीं जाता? जानती हो, इतना महत्त्व प्राप्त करने पर भी मैं कंगाल हूँ! मेरा पत्थर-सा हृदय एक दिन सहसा तुम्हारे स्पर्श से चन्द्रकान्तमणि की तरह द्रवित हुआ।
''चम्पा! मैं ईश्वर को नहीं मानता, मैं पाप को नहीं मानता, मैं दया को नहीं समझ सकता, मैं उस लोक में विश्वास नहीं करता। पर मुझे अपने हृदय के एक दुर्बल अंश पर श्रद्धा हो चली है। तुम न जाने कैसे एक बहकी हुई तारिका के समान मेरे शून्य में उदित हो गई हो। आलोक की एक कोमल रेखा इस निविड़तम में मुस्कराने लगी। पशु-बल और धन के उपासक के मन में किसी शान्त और एकान्त कामना की हँसी खिलखिलाने लगी; पर मैं न हँस सका!
''चलोगी चम्पा? पोतवाहिनी पर असंख्य धनराशि लाद कर राजरानी-सी जन्मभूमि के अंक में? आज हमारा परिणय हो, कल ही हम लोग भारत के लिए प्रस्थान करें। महानाविक बुधगुप्त की आज्ञा सिन्धु की लहरें मानती हैं। वे स्वयं उस पोत-पुञ्ज को दक्षिण पवन के समान भारत में पहुँचा देंगी। आह चम्पा! चलो।''
चम्पा ने उसके हाथ पकड़ लिये। किसी आकस्मिक झटके ने एक पलभर के लिऐ दोनों के अधरों को मिला दिया। सहसा चैतन्य होकर चम्पा ने कहा-''बुधगुप्त! मेरे लिए सब भूमि मिट्टी है; सब जल तरल है; सब पवन शीतल है। कोई विशेष आकांक्षा हृदय में अग्नि के समान प्रज्वलित नहीं। सब मिलाकर मेरे लिए एक शून्य है। प्रिय नाविक! तुम स्वदेश लौटजाओ, विभवों का सुख भोगने के लिए, और मुझे, छोड़ दो इन निरीह भोले-भाले प्राणियों के दु:ख की सहानुभूति और सेवा के लिए।''
''तब मैं अवश्य चला जाऊँगा, चम्पा! यहाँ रहकर मैं अपने हृदय परअधिकार रख सकूँ-इसमें सन्देह है। आह! उन लहरों में मेरा विनाश हो जाय।''- महानाविक के उच्छ्वास में विकलता थी। फिर उसने पूछा-''तुम अकेली यहाँ क्या करोगी?''
''पहले विचार था कि कभी-कभी इस दीप-स्तम्भपर से आलोक जला कर अपने पिता की समाधि काइस जल से अन्वेषण करूँगी। किन्तु देखती हूँ, मुझे भी इसी में जलना होगा, जैसे आकाश-दीप।''
एक दिन स्वर्ण-रहस्य के प्रभात में चम्पा ने अपने दीप-स्तम्भ पर से देखा-सामुद्रिक नावों की एक श्रेणी चम्पा का उपकूल छोड़कर पश्चिम-उत्तर की ओर महा जल-व्याल के समान सन्तरण कर रही है। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे।
यह कितनी ही शताब्दियों पहले की कथा है। चम्पा आजीवन उस दीप-स्तम्भ में आलोक जलाती रही। किन्तु उसके बाद भी बहुत दिन, दीपनिवासी, उस माया-ममता और स्नेह-सेवा की देवी कीसमाधि-सदृश पूजा करते थे।
एक दिन काल के कठोरहाथों ने उसे भी अपनी चञ्चलता से गिरा दिया।
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जी अब सही है धन्यवाद :bravo:
***ममता***
रोहतास-दुर्ग के प्रकोष्ठ में बैठी हुई युवती ममता, शोण के तीक्ष्ण गम्भीर प्रवाह को देख रही है।ममता विधवा थी। उसका यौवन शोण के समान ही उमड़ रहा था। मन में वेदना, मस्तक में आँधी, आँखों में पानी की बरसात लिये, वह सुख के कण्टक-शयन में विकलथी। वह रोहतास-दुर्गपति के मन्त्री चूड़ामणि की अकेली दुहिता थी, फिर उसके लिए कुछ अभाव होना असम्भव था, परन्तु वह विधवा थी-हिन्दू-विधवा संसार में सबसे तुच्छ निराश्रय प्राणी है-तब उसकी विडम्बना का कहाँ अन्त था?
चूड़ामणि ने चुपचाप उसके प्रकोष्ठ में प्रवेश किया। शोण के प्रवाह में, उसके कल-नाद में अपना जीवन मिलाने में वह बेसुध थी। पिता का आना न जान सकी। चूड़ामणि व्यथित हो उठे। स्नेह-पालिता पुत्री के लिए क्या करें, यह स्थिर न कर सकते थे। लौटकर बाहर चले गये। ऐसा प्राय: होता, पर आज मन्त्री के मन में बड़ी दुश्चिन्ता थी। पैर सीधे न पड़ते थे।
एक पहर बीत जाने परवे फिर ममता के पास आये। उस समय उनके पीछेदस सेवक चाँदी के बड़ेथालों में कुछ लिये हुए खड़े थे; कितने ही मनुष्यों के पद-शब्द सुन ममता ने घूम कर देखा। मन्त्री ने सब थालों को रखने का संकेत किया। अनुचर थाल रखकर चले गये।
ममता ने पूछा-''यह क्या है, पिताजी?''
''तेरे लिये बेटी! उपहार है।''-कहकर चूड़ामणि ने उसका आवरण उलट दिया। स्वर्ण का पीलापन उस सुनहली सन्ध्या में विकीर्ण होने लगा। ममता चौंक उठी-
''इतना स्वर्ण! यहा कहाँ से आया?''
''चुप रहो ममता, यह तुम्हारे लिये है!''
''तो क्या आपने म्लेच्छ का उत्कोच स्वीकार कर लिया? पिताजी यह अनर्थ है, अर्थ नहीं। लौटा दीजिये। पिताजी! हम लोग ब्राह्मण हैं, इतना सोना लेकर क्या करेंगे?''
''इस पतनोन्मुख प्राचीन सामन्त-वंश का अन्त समीप है, बेटी! किसी भी दिन शेरशाह रोहिताश्व पर अधिकार कर सकता है; उस दिन मन्त्रित्व न रहेगा, तब के लिए बेटी!''
''हे भगवान! तब के लिए! विपद के लिए! इतना आयोजन! परम पिता की इच्छा के विरुद्ध इतना साहस! पिताजी, क्या भीख न मिलेगी? क्या कोई हिन्दू भू-पृष्ठ पर न बचा रह जायेगा, जो ब्राह्मण को दो मुठ्ठी अन्न दे सके? यह असम्भव है। फेर दीजिए पिताजी, मैंकाँप रही हूँ-इसकी चमकआँखों को अन्धा बना रही है।''
''मूर्ख है''-कहकर चूड़ामणि चले गये।
दूसरे दिन जब डोलियों का ताँता भीतर आ रहा था, ब्राह्मण-मन्त्री चूड़ामणि का हृदय धक्-धक करने लगा। वह अपने को रोक न सका। उसने जाकर रोहिताश्व दुर्ग के तोरण पर डोलियों का आवरण खुलवाना चाहा। पठानों ने कहा-
''यह महिलाओं का अपमान करना है।''
बात बढ़ गई। तलवारें खिंचीं, ब्राह्मण वहीं मारा गया और राजा-रानी और कोष सब छली शेरशाह के हाथ पड़े; निकल गई ममता। डोली में भरे हुए पठान-सैनिक दुर्ग भर में फैल गये, पर ममता न मिली।
2
काशी के उत्तर धर्मचक्र विहार, मौर्य और गुप्त सम्राटों की कीर्ति का खंडहर था। भग्न चूड़ा, तृण-गुल्मों सेढके हुए प्राचीर, ईंटों की ढेर में बिखरी हुई भारतीय शिल्प की विभूति, ग्रीष्म की चन्द्रिका में अपने को शीतल कर रही थी।
जहाँ पञ्चवर्गीय भिक्षु गौतम का उपदेश ग्रहण करने के लिए पहले मिले थे, उसी स्तूप के भग्नावशेष की मलिन छाया में एक झोपड़ी के दीपालोक में एक स्त्री पाठ कर रही थी-
''अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते .....''
पाठ रुक गया। एक भीषण और हताश आकृति दीप के मन्द प्रकाश में सामने खड़ी थी। स्त्री उठी, उसने कपाटबन्द करना चाहा। परन्तु उस व्यक्ति ने कहा-''माता! मुझे आश्रय चाहिये।''
''तुम कौन हो?''-स्त्री ने पूछा।
''मैं मुगल हूँ। चौसा-युद्ध में शेरशाह से विपन्न होकर रक्षा चाहता हूँ। इस रात अब आगे चलने में असमर्थ हूँ।''
''क्या शेरशाह से?''-स्त्री ने अपने ओठ काटलिये।
''हाँ, माता!''
''परन्तु तुम भी वैसे ही क्रूर हो, वही भीषण रक्त की प्यास, वही निष्ठुर प्रतिबिम्ब, तुम्हारे मुख पर भी है! सैनिक! मेरी कुटी में स्थान नहीं। जाओ, कहीं दूसरा आश्रय खोज लो।''
''गला सूख रहा है, साथी छूट गये हैं, अश्व गिर पड़ा है-इतनाथका हुआ हूँ-इतना!''-कहते-कहते वह व्यक्ति धम-से बैठ गया और उसके सामने ब्रह्माण्ड घूमने लगा। स्त्री ने सोचा, यह विपत्ति कहाँसे आई! उसने जल दिया, मुगल के प्राणों की रक्षा हुई। वह सोचने लगी-''ये सब विधर्मी दया के पात्र नहीं-मेरे पिता का वध करने वाले आततायी!'' घृणा से उसका मन विरक्त हो गया।
स्वस्थ होकर मुगल ने कहा-''माता! तो फिर मैं चला जाऊँ?''
स्त्री विचार कर रही थी-'मैं ब्राह्मणीहूँ, मुझे तो अपने धर्म-अतिथिदेव की उपासना-का पालन करना चाहिए। परन्तु यहाँ...नहीं-नहीं ये सब विधर्मी दया के पात्र नहीं। परन्तु यह दया तो नहीं .... कर्तव्य करना है। तब?''
मुगल अपनी तलवार टेककर खड़ा हुआ। ममता ने कहा-''क्या आश्चर्य है कि तुम भी छल करो; ठहरो।''
''छल! नहीं, तब नहीं-स्त्री! जाता हूँ, तैमूर का वंशधर स्त्री से छल करेगा? जाता हूँ। भाग्य का खेल है।''
ममता ने मन में कहा-''यहाँ कौन दुर्ग है! यही झोपड़ी न; जो चाहे ले-ले, मुझे तो अपना कर्तव्य करना पड़ेगा।'' वह बाहर चली आई और मुगल से बोली-''जाओ भीतर, थके हुए भयभीत पथिक! तुम चाहे कोई हो, मैं तुम्हें आश्रय देती हूँ। मैं ब्राह्मण-कुमारी हूँ; सब अपना धर्म छोड़ दें,तो मैं भी क्यों छोड़ दूँ?'' मुगल ने चन्द्रमा के मन्द प्रकाश में वह महिमामय मुखमण्डल देखा, उसने मन-ही-मन नमस्कार किया। ममता पास की टूटी हुई दीवारों में चली गई। भीतर, थके पथिक ने झोपड़ी में विश्राम किया।
प्रभात में खंडहर की सन्धि से ममता ने देखा, सैकड़ों अश्वारोही उस प्रान्त में घूम रहे हैं। वह अपनी मूर्खता पर अपने को कोसने लगी।
अब उस झोपड़ी से निकलकर उस पथिक ने कहा-''मिरजा! मैं यहाँ हूँ।''
शब्द सुनते ही प्रसन्नता की चीत्कार-ध्वनि से वह प्रान्त गूँज उठा। ममता अधिक भयभीत हुई। पथिक ने कहा-''वह स्त्री कहाँ है? उसे खोज निकालो।'' ममता छिपने के लिए अधिक सचेष्ट हुई। वह मृग-दाव में चली गई। दिन-भर उसमें से न निकली। सन्ध्या में जब उन लोगों के जाने का उपक्रम हुआ, तो ममता ने सुना, पथिक घोड़े पर सवार होते हुए कह रहा है-''मिरजा! उस स्त्री को मैं कुछ दे न सका। उसका घर बनवा देना, क्योंकि मैंने विपत्ति में यहाँ विश्राम पाया था। यह स्थान भूलना मत।''-इसके बाद वे चले गये।
चौसा के मुगल-पठान-युद्ध को बहुत दिन बीत गये। ममता अब सत्तर वर्ष कीवृद्धा है। वह अपनी झोपड़ी में एक दिन पड़ी थी। शीतकाल का प्रभात था। उसका जीर्ण-कंकाल खाँसी से गूँज रहा था। ममता की सेवा के लिये गाँव की दो-तीन स्त्रियाँ उसे घेर कर बैठी थीं; क्योंकि वह आजीवन सबके सुख-दु:ख की समभागिनी रही।
ममता ने जल पीना चाहा, एक स्त्री ने सीपी से जल पिलाया। सहसा एक अश्वारोही उसी झोपड़ी के द्वार पर दिखाई पड़ा। वह अपनी धुन में कहने लगा-''मिरजा ने जो चित्र बनाकर दिया है, वह तो इसी जगह का होना चाहिये। वह बुढिय़ा मर गई होगी, अब किससे पूछूँ कि एक दिन शाहंशाह हुमायूँ किस छप्पर के नीचे बैठे थे? यह घटना भी तो सैंतालीस वर्ष से ऊपर की हुई!''
ममता ने अपने विकल कानों से सुना। उसने पास की स्त्री से कहा-''उसे बुलाओ।''
अश्वारोही पास आया। ममता ने रुक-रुककर कहा-''मैं नहीं जानती कि वह शाहंशाह था, या साधारणमुगल पर एक दिन इसी झोपड़ी के नीचे वह रहा। मैंने सुना था किवह मेरा घर बनवाने की आज्ञा दे चुका था! भगवान् ने सुन लिया, मैं आज इसे छोड़े जातीहूँ। अब तुम इसका मकानबनाओ या महल, मैं अपने चिर-विश्राम-गृह में जाती हूँ!''
वह अश्वारोही अवाक् खड़ा था। बुढिय़ा के प्राण-पक्षी अनन्त में उड़ गये।
वहाँ एक अष्टकोण मन्दिर बना; और उस पर शिलालेख लगाया गया-
''सातों देश के नरेश हुमायूँ ने एक दिन यहाँ विश्राम किया था। उनके पुत्र अकबर ने उनकी स्मृति में यह गगनचुम्बी मन्दिर बनाया।''
पर उसमें ममता का कहीं नाम नहीं।
1.गुंडा(समाप्त)
2. सिकंदर की शपथ(समाप्त)
3.अशोक(समाप्त)
4.पाप की पराजय..
(समाप्त)
5. पत्थर की पुकार(समाप्त)
6. उस
पार का योगी(समाप्त)
7.करुणा की विजय
(समाप्त)
8.कलावतीकी शिक्षा(समाप्त)
9.चक्रवर्ती का स्तंभ..(समाप्त)
10.दुखिया(समाप्त)
11.प्रलय(समाप्त )
12.आकाशदीप(समाप्त)
13.ममता(समाप्त)
14.स्वर्ग के खंडहर में(जल्द ही ..)
****स्वर्ग के खंडहर में****
झरने के तट पर बैठेहुए एक बालक ने बालिकासे कहा-''मैं भूल-भूल जाता हूँ मीना, हाँ मीना, मैं तुम्हें मीना नाम से कब तक पुकारूँ?''
''और मैं तुमको गुल कहकर क्यों बुलाऊँ?''
''क्यों मीना, यहाँ भी तो हम लोगों को सुख ही है। है न? अहा, क्या ही सुन्दर स्थान है! हम लोग जैसे एक स्वप्नदेख रहे हैं! कहीं दूसरी जगह न भेजे जायँ, तो क्या ही अच्छा हो!''
''नहीं गुल, मुझे पूर्व-स्मृति विकल कर देती है। कई बरस बीत गये-वह माता के समान दुलार, उस उपासिका की स्नेहमयी करुणा-भरी दृष्टि आँखों में कभी-कभी चुटकी काट लेती है। मुझे तो अच्छा नहीं लगता; बन्दी होकर रहना तो स्वर्ग में भी.....अच्छा,तुम्हें यहाँ रहना नहीं खलता?''
''नहीं मीना, सबके बाद जब मैं तुम्हें अपने पास ही पाता हूँ, तब और किसी आकांक्षा का स्मरण ही नहीं रह जाता। मैं समझता हूँ कि.....''
''तुम गलत समझते हो......''
मीना अभी पूरा कहने न पाई थी कि तितलियों के झुण्ड के पीछे, उन्हीं के रंग के कौषेय वसन पहने हुए, बालक और बालिकाओंकी दौड़ती हुई टोली नेआकर मीना और गुल को घेर लिया।
''जल-विहार के लिए रंगीली मछलियों का खेल खेला जाय।''
एक साथ ही तालियाँ बज उठीं। मीना और गुल को ढकेलते हुए सब उसी कलनादी स्रोत में कूद पड़े। पुलिन की हरी झाड़ियों में से वंशी बजने लगी। मीना और गुलकी जोड़ी आगे-आगे और पीछे-पीछे सब बालक-बालिकाओं की टोली तैरने लगी। तीर पर की झुकी डालों के अन्तराल में लुक-छिपकर निकलना, उन कोमल पाणि-पल्लवों से क्षुद्र वीचियों का कटना, सचमुच उसी स्वर्ग में प्राप्त था।
तैरते-तैरते मीना ने कहा-''गुल, यदि मैं बह जाऊँ और डूबने लगूँ?''
''मैं नाव बन जाऊँगा, मीना!''
''और जो मैं यहाँ से सचमुच चली जाऊँ?''
''ऐसा न कहो; फिर मैंक्या करूँगा?
''क्यों, क्या तुम मेरे साथ न चलोगे?''
इतने में एक दूसरी सुन्दरी, जो कुछ पास थी, बोली-''कहाँ चलोगे गुल? मैं भी चलूँगी, उसी कुञ्ज में। अरे देखो, वह कैसा हरा-भरा अन्धकार है!'' गुल उसी ओर लक्ष्य करके सन्तरण करने लगा। बहार उसके साथ तैरने लगी। वे दोनों त्वरित गति से तैर रहे थे, मीना उनका साथ न दे सकी, वह हताश होकर और भी पिछड़ने के लिए धीरे-धीरे तैरने लगी।
बहार और गुल जल से टकराती हुई डालों को पकड़कर विश्राम करने लगे। किसी को समीप मेंन देखकर बहार ने गुल से कहा-''चलो, हम लोग इसी कुञ्ज में छिप जायँ।''
वे दोनों उसी झुरमुट में विलीन हो गये।
मीना से एक दूसरी सुन्दरी ने पूछा-''गुल किधर गया, तुमने देखा?''
मीना जानकर भी अनजान बन गई। वह दूसरेकिनारे की ओर लौटती हुई बोली-''मैं नहीं जानती।''
इतने में एक विशेष संकेत से बजती हुई सीटी सुनाई पड़ी। सब तैरना छोड़ कर बाहर निकले। हरा वस्त्र पहने हुए, एक गम्भीर मनुष्य के साथ, एक युवक दिखाई पड़ा। युवक की आँखें नशे मेंरंगीली हो रही थीं; पैर लडख़ड़ा रहे थे। सबने उस प्रौढ़ को देखते ही सिर झुका लिया। वे बोल उठे-''महापुरुष, क्या कोई हमारा अतिथि आया है?''
''हाँ, यह युवक स्वर्ग देखने की इच्छा रखता है''-हरे वस्त्र वाले प्रौढ़ ने कहा।
सबने सिर झुका लिया। फिर एक बार निर्निमेष दृष्टि से मीना की ओर देखा। वह पहाड़ी दुर्ग का भयानक शेख था। सचमुच उसे एक आत्म-विस्मृति हो चली। उसने देखा, उसकी कल्पना सत्य में परिणत हो रही है।
''मीना-आह! कितना सरल और निर्दोष सौन्दर्य है। मेरे स्वर्ग की सारी माधुरी उसकी भीगी हुई एक लट के बल खाने में बँधी हुई छटपटा रही है।''-उसने पुकारा-''मीना!''
मीना पास आकर खड़ी हो गई, और सब उस युवक को घेरकर एक ओर चल पड़े। केवल मीना शेख के पास रह गई।
शेख ने कहा-''मीना, तुम मेरे स्वर्ग की रत्न हो।''
मीना काँप रही थी। शेख ने उसका ललाट चूम लिया, और कहा-''देखो, तुम किसी भी अतिथि की सेवा करने न जाना। तुमकेवल उस द्राक्षा-मण्डप में बैठकर कभी-कभी गा लिया करो। बैठो, मुझे भी वह अपना गीत सुना दो।''
मीना गाने लगी। उस गीत का तात्पर्य था-''मैं एक भटकी हुई बुलबुल हूँ। हे मेरे अपरिचित कुञ्ज! क्षण-भर मुझे विश्राम करने दोगे? यह मेरा क्रन्दन है-मैं सच कहती हूँ, यह मेरा रोना है, गाना नहीं। मुझे दम तो लेने दो। आने दो बसन्त का वह प्रभात-जब संसार गुलाबी रंग में नहाकर अपने यौवन में थिरकने लगेगा और तब मैं तुम्हें अपनी एक तान सुनाकर केवल एक तान इसरजनी विश्राम का मूल्य चुकाकर चली जाऊँगी। तब तक अपनी किसी सूखी हुई टूटी डाल पर ही अन्धकार बिता लेने दो। मैं एक पथ भूली हुई बुलबुल हूँ।''
शेख भूल गया कि मैंईश्वरीय संदेह-वाहक हूँ, आचार्य हूँ, और महापुरुष हूँ। वह एक क्षण के लिए अपने को भी भूल गया। उसे विश्वास हो गया कि बुलबुल तो नहीं हूँ, पर कोई भूली हुई वस्तुहूँ। क्या हूँ, यह सोचते-सोचते पागल होकर एक ओर चला गया।
हरियाली से लदा हुआ ढालुवाँ तट था, बीच में बहता हुआ वही कलनादी स्रोत यहाँ कुछ गम्भीर हो गया था।उस रमणीय प्रदेश के छोटे-से आकाश में मदिरा से भरी हुई घटा छा रही थी। लडख़ड़ाते,हाथ-से-हाथ मिलाये, बहार और गुल ऊपर चढ़ रहे थे। गुल अपने आपे में नहीं है, बहार फिर भी सावधान है; वह सहारा देकर उसे ऊपर लेआ रही है।
एक शिला-खण्ड पर बैठे हुए गुल ने कहा-प्यास लगी है।
बहार पास के विश्राम-गृह में गई, पान-पात्र भर लाई। गुलपीकर मस्त हो रहा था। बोला-''बहार, तुम बड़े वेग से मुझे खींच रही हो; सम्भाल सकोगी? देखो, मैं गिरा?''
गुल बहार की गोद में सिर रखकर आँखें बन्द किये पड़ा रहा। उसने बहार के यौवन की सुगन्ध से घबराकर आँखें खोल दीं। उसके गले में हाथ डालकर बोला-''ले चलो, मुझे कहाँ ले चलती हो?''
बहार उस स्वर्ग की अप्सरा थी। विलासिनी बहार एक तीव्र मदिरा प्याली थी, मकरन्द-भरीवायु का झकोर आकर उसमें लहर उठा देता है। वह रूप का उर्मिल सरोवर गुल उन्मत्त था। बहार ने हँसकर पूछा-''यह स्वर्ग छोड़कर कहाँ चलोगे?''
''कहीं दूसरी जगह, जहाँ हम हों और तुम।''
''क्यों, यहाँ कोई बाधा है?''
सरल गुल ने कहा-''बाधा! यदि कोई हो? कौन जाने!''
''कौन? मीना?''
''जिसे समझ लो।''
''तो तुम सबकी उपेक्षा करके मुझे-केवल मुझे ही-नहीं....''
''ऐसा न कहो''-बहार के मुँह पर हाथ रखते हुए गुल ने कहा।
ठीक इसी समय नवागत युवक ने वहाँ आकर उन्हें सचेत कर दिया। बहार ने उठकर उसका स्वागत किया। गुल ने अपनी लाल-लाल आँखों सेउसको देखा। वह उठ न सका, केवल मद-भरी अँगड़ाई ले रहा था। बहार ने युवक से आज्ञालेकर प्रस्थान किया। युवक गुल के समीप आकर बैठ गया, और उसे गम्भीर दृष्टि से देखने लगा।
गुल ने अभ्यास के अनुसार कहा-''स्वागत, अतिथि!''
''तुम देवकुमार! आह! तुमको कितना खोजा मैंने!''
''देवकुमार? कौन देवकुमार? हाँ, हाँ, स्मरण होता है, पर वह विषैली पृथ्वी की बात क्यों स्मरण दिलाते हो? तुम मत्र्यलोक के प्राणी! भूल जाओ उस निराशा और अभावों की सृष्टि को; देखो आनन्द-निकेतन स्वर्ग का सौन्दर्य!''
''देवकुमार! तुमको भूल गया, तुम भीमपाल के वंशधर हो? तुम यहाँ बन्दी हो! मूर्ख हो तुम; जिसे तुमने स्वर्ग समझ रक्खा है, वह तुम्हारे आत्मविस्तार की सीमा है। मैं केवल तुम्हारे ही लिए आया हूँ।''
''तो तुमने भूल की। मैं यहाँ बड़े सुख से हूँ। बहार को बुलाऊँ, कुछ खाओ-पीओ....कंगाल! स्वर्ग में भी आकर व्यर्थ समय नष्ट करना!संगीत सुनोगे?''
युवक हताश हो गया।
गुल ने मन में कहा-''मैं क्या करूँ? सब मुझसे रूठ जाते हैं। कहीं सहृदयता नहीं, मुझसे सब अपने मन की कराना चाहते हैं, जैसे मेरे मन नहीं है, हृदय नहीं है! प्रेम-आकर्षण! यह स्वर्गीय प्रेम में भी जलन! बहार तिनककर चली गई; मीना? यह पहले ही हट रही थी; तो फिर क्या जलन ही स्वर्ग है?''
गुल को उस युवक के हताश होने पर दया आ गई। यह भी स्मरण हुआ कि वह अतिथि है। उसने कहा-''कहिये, आपकी क्या सेवा करूँ? मीना का गान सुनियेगा? वह स्वर्ग की रानी है!''
युवक ने कहा-''चलो।''
द्राक्षा-मण्डप में दोनों पहुँचे। मीना वहाँ बैठी हुई थी। गुल ने कहा-''अतिथि को अपना गान सुनाओ।''
एक नि:श्वास लेकर वही बुलबुल का संगीत सुनाने लगी। युवक की आँखें सजल हो गईं, उसने कहा-''सचमुच तुम स्वर्ग की देवी हो!''
''नहीं अतिथि, मैं उस पृथ्वी की प्राणी हूँ-जहाँ कष्टों की पाठशाला है, जहाँ का दु:ख इस स्वर्ग-सुख से भी मनोरम था, जिसका अब कोई समाचार नहीं मिलता''-मीना ने कहा।
''तुम उसकी एक करुण-कथा सुनना चाहो, तो मैं तुम्हें सुनाऊँ!''-युवक ने कहा।
''सुनाइये''-मीना ने कहा।
2
युवक कहने लगा-
''वाह्लीक, गान्धार, कपिशा और उद्यान, मुसलमानों के भयानक आतंक में काँप रहे थे। गान्धार के अन्तिम आर्य-नरपति भीमपाल के साथ ही, शाहीवंश का सौभाग्य अस्त हो गया। फिर भी उनके बचे हुए वंशधर उद्यान के मंगली दुर्ग में, सुवास्तु की घाटियों में, पर्वत-माला, हिम और जंगलों के आवरण में अपने दिन काट रहे थे। वे स्वतन्त्र थे।
''देवपाल एक साहसी राजकुमार था। वह कभी-कभी पूर्व गौरव कास्वप्न देखता हुआ, सिन्धु तट तक घूमा करता। एक दिन अभिसार प्रदेश का सिन्धु तट वासना के फूलवाले प्रभात में सौरभ की लहरों में झोंके खा रहा था। कुमारी लज्जा स्नान कर रही थी। उसकाकलसा तीर पर पड़ा था। देवपाल भी कई बार पहलेकी तरह आज फिर साहस भरे नेत्रों से उसे देख रहा था। उसकी चञ्चलता इतने से ही न रुकी, वह बोल उठा-
''ऊषा के इस शान्त आलोक में किसी मधुर कामना से यह भिखारी हृदय हँस रहा था। और मानस-नन्दिनी! तुम इठलाती हुई बह चली हो।वाह रे तुम्हारा इतराना! इसीलिए तो जब कोई स्नान करके तुम्हारी लहर की तरह तरल और आद्र्र वस्त्र ओढक़र, तुम्हारे पथरीले पुलिन में फिसलता हुआ ऊपर चढऩे लगता है, तब तुम्हारी लहरों में आँसुओं की झालरें लटकने लगती हैं। परन्तु मुझ पर दया नहीं; यह भी कोई बात है!
''तो फिर मैं क्या करूँ? उस क्षण की, उस कणकी, सिन्धु से, बादलों से, अन्तरिक्ष और हिमालय से टहलकर लौट आने की प्रतिज्ञा करूँ? और इतना भी न कहोगी कि कब तक? बलिहारी!
''कुमारी लज्जा भीरु थी। वह हृदय के स्पन्दनों से अभिभूत हो रही थी। क्षुद्र बीचियों के सदृश काँपने लगी। वह अपना कलसा भी न भर सकी और चल पड़ी। हृदय में गुदगुदी के धक्के लग रहे थे। उसके भी यौवन-काल के स्वर्गीय दिवस थे-फिसल पड़ी। धृष्ट युवक ने उसे सम्भाल कर अंक में ले लिया।
''कुछ दिन स्वर्गीयस्वप्न चला। जलते हुए प्रभात के समान तारा देवी ने वह स्वप्न भंगकर दिया। तारा अधिक रूप-शालिनी, कश्मीर कीरूप-माधुरी थी। देवपाल को कश्मीर से सहायता की भी आशा थी। हतभागिनी लज्जा ने कुमार सुदान की तपोभूमि में अशोक-निर्मित विहार में शरण ली। वह उपासिका, भिक्षुणी, जोकहो, बन गई।
''गौतम की गम्भीर प्रतिमा के चरण-तल मेंबैठकर उसने निश्चय किया, सब दु:ख है, सब क्षणिक है, सब अनित्य है।''
''सुवास्तु का पुण्य-सलिल उस व्यथित हृदय की मलिनता को धोने लगा। वह एक प्रकार से रोग-मुक्त हो रही थी।''
''एक सुनसान रात्रिथी, स्थविर धर्म-भिक्षु थे नहीं। सहसा कपाट पर आघात होने लगा। और 'खोलो! खोलो!' का शब्द सुनाई पड़ा। विहार में अकेली लज्जा ही थी। साहस करके बोली-
''कौन है?''
''पथिक हूँ, आश्रय चाहिये''-उत्तर मिला।
''तुषारावृत अँधेरा पथ था। हिम गिररहा था। तारों का पता नहीं, भयानक शीत और निर्जन निशीथ। भला ऐसे समय में कौन पथ पर चलेगा? वातायन का परदाहटाने पर भी उपासिका लज्जा झाँककर न देख सकी कि कौन है। उसने अपनी कुभावनाओं से डरकर पूछा-''आप लोग कौन हैं?''
''आहा, तुम उपासिका हो! तुम्हारे हृदय मेंतो अधिक दया होनी चाहिये। भगवान् की प्रतिमा की छाया में दो अनाथों को आश्रय मिलने का पुण्य दें।''
लज्जा ने अर्गला खोल दी। उसने आश्चर्य से देखा, एक पुरुष अपने बड़े लबादे में आठ-नौ बरस के बालक और बालिका को लिये भीतर आकर गिर पड़ा। तीनों मुमूर्ष हो रहे थे। भूख और शीत से तीनों विकल थे। लज्जा ने कपाट बन्द करते हुए अग्नि धधकाकर उसमें कुछ गन्ध-द्रव्य डाल दिया। एक बार द्वार खुलने पर जो शीतल पवन का झोंका घुस आया था, वह निर्बल हो चला।
''अतिथि-सत्कार हो जाने पर लज्जा ने उसकापरिचय पूछा। आगन्तुक ने कहा-'मंगली-दुर्ग के अधिपति देवपाल का मैं भृत्य हूँ। जगद्दाहक चंगेज खाँ ने समस्त गान्धार प्रदेश को जलाकर, लूट-पाटकर उजाड़ दिया और कल ही इस उद्यान के मंगली दुर्ग पर भी उन लोगों का अधिकार हो गया। देवपाल बन्दी हुए, उनकी पत्नी तारादेवी ने आत्महत्या की। दुर्गपति ने पहले ही मुझसे कहा था कि इस बालक को अशोक-विहार में ले जाना, वहाँ की एक उपासिका लज्जा इसके प्राण बचा ले तो कोई आश्चर्य नहीं।
''यह सुनते ही लज्जा की धमनियों में रक्त का तीव्र सञ्चार होने लगा। शीताधिक्य में भी उसे स्वेद आने लगा। उसने बात बदलने के लिए बालिका की ओर देखा। आगन्तुक ने कहा-'यह मेरी बालिका है, इसकी माता नहीं है, लज्जा ने देखा, बालिकाका शुभ्र शरीर मलिन वस्त्र में दमक रहा था। नासिका मूल से कानों के समीप तक भ्रू, युगल की प्रभव-शालिनी रेखा और उसकी छाया में दो उनींदे कमल संसार से अपने को छिपा लेना चाहते थे। उसका विरागी सौन्दर्य, शरद के शुभ्र घन के आवरण में पूर्णिमा के चन्द्र-सा आप ही लज्जित था। चेष्टा करके भी लज्जा अपनी मानसिक स्थिति को चञ्चल होने से न सम्भाल सकी। वह-'अच्छा, आप लोग सो रहिये, थके होंगे'-कहती हुई दूसरे प्रकोष्ठ में चली गई।
''लज्जा ने वातायन खोलकर देखा, आकाश स्वच्छ हो रहा था, पार्वत्य प्रदेश के निस्तब्ध गगन में तारों की झिलमिलाहट थी। उन प्रकाश की लहरों में अशोक निर्मित स्तूप की चूड़ा पर लगा हुआ स्वर्ण का धर्मचक्र जैसे हिल रहा था।
''दूसरे दिन जब धर्म-भिक्षु आये, तो उन्होंने इन आगन्तुकों को आश्चर्य से देखा, और जब पूरे समाचार सुने, तो और भी उबल पड़े। उन्होंने कहा-'राज-कुटुम्ब को यहाँ रखकर क्या इस विहार और स्तूप को भी तुम ध्वस्त कराना चाहती हो? लज्जा, तुमने यह किस प्रलोभन से किया? चंगेज़ खाँ बौद्ध है, संघ उसका विरोध क्यों करे?'
''स्थविर! किसी को आश्रय देना क्या गौतम के धर्म के विरुद्ध है? मैं स्पष्ट कह देना चाहती हँू कि देवपाल ने मेरे साथ बड़ा अन्याय किया, फिरभी मुझ पर उसका विश्वास था, क्यों था, मैं स्वयं नहीं जान सकी। इसे चाहे मेरी दुर्बलता ही समझ लें, परन्तु मैं अपने प्रति विश्वास का किसी को भी दुरुपयोग नहीं करने देना चाहती। देवपाल को मैं अधिक-से-अधिक प्यार करती थी, और भी अब बिल्कुल निश्शेष समझ कर उस प्रणय का तिरस्कार कर सकूँगी, इसमें सन्देह है।''-लज्जा ने कहा।
''तो तुम संघ के सिद्धान्त से च्युत हो रही हो, इसलिये तुम्हें भी विहार का त्याग करना पड़ेगा।''-धर्म-भिक्षु ने कहा।
लज्जा व्यथित हो उठी थी। बालक के मुख पर देवपाल की स्पष्ट छाया उसे बार-बार उत्तेजित करती, और वह बालिका तो उसे छोडऩा ही न चाहती थी।
''उसने साहस करके कहा-'तब यही अच्छा होगा कि मैं भिक्षुणी होने का ढोंग छोड़कर अनाथों के सुख-दु:ख में सम्मिलित होऊँ।'
''उसी रात को वह दोनों बालक-बालिका और विक्रमभृत्य को लेकर, निस्सहाय अवस्था में चल पड़ी। छद्मवेष में यह दल यात्रा कर रहा था। इसे भिक्षा का अवलम्ब था। वाह्लीक के गिरिव्रज नगर के भग्न पांथ-निवास के टूटे कोने में इन लोगों को आश्रय लेना पड़ा। उस दिन आहार नहीं जुट सका, दोनों बालकों के सन्तोष के लिए कुछ बचा था, उसी को खिलाकर वे सुला दिये गये। लज्जा और विक्रम,अनाहार से म्रियमाण, अचेत हो गये।
''दूसरे दिन आँखे खुलते ही उन्होंने देखा, तो वह राजकुमार और बालिका, दोनों ही नहीं! उन दोनों की खोज में ये लोग भी भिन्न-भिन्न दिशा को चल पड़े। एक दिन पता चला कि केकय के पहाड़ी दुर्ग के समीप कहीं स्वर्ग है, वहाँ रूपवान बालकों और बालिकाओं की अत्यन्त आवश्यकता रहती है....
''और भी सुनोगी पृथ्वी की दु:ख-गाथा? क्या करोगी सुनकर, तुमयह जानकर क्या करोगी कि उस उपासिका या विक्रम का फिर क्या हुआ?''
अब मीना से न रहा गया। उसने युवक के गलेसे लिपटकर कहा-''तो....तुम्हीं वह उपासिका हो? आहा, सच कह दो।''
गुल की आँखों में अभी नशे का उतार था। उसने अँगड़ाई लेकर एक जँभाई ली, और कहा-''बड़ेआश्चर्य की बात है। क्यों मीना, अब क्या किया जाय?''
अकस्मात् स्वर्ग के भयानक रक्षियों ने आकर उस युवक को बन्दी कर लिया। मीना रोने लगी, गुल चुपचाप खड़ा था, बहार खड़ी हँस रही थी।
सहसा पीछे से आते हुए प्रहरियों के प्रधान ने ललकारा-''मीना और गुल को भी।''
अब उस युवक ने घूमकर देखा; घनी दाढ़ी-मूछों वाले प्रधान की आँखों से आँखें मिलीं।
युवक चिल्ला उठा-''देवपाल।''
''कौन! लज्जा? अरे!''
''हाँ, तो देवपाल, इसअपने पुत्र गुल को भी बन्दी करो, विधर्मी काकर्तव्य यही आज्ञा देता है।''-लज्जा ने कहा।
''ओह!''-कहता हुआ प्रधान देवपाल सिर पकड़कर बैठ गया। क्षण भर में वह उन्मत्त हो उठा और दौड़कर गुल के गले से लिपट गया।
सावधान होने पर देवपाल ने लज्जा को बन्दी करने वाले प्रहरी से कहा-''उसे छोड़ दो।''
प्रहरी ने बहार की ओर देखा। उसका गूढ़ संकेत समझकर वह बोल उठा-''मुक्त करने का अधिकार केवल शेख को है।''
देवपाल का क्रोध सीमा का अतिक्रम कर चुका था, उसने खड्ग चला दिया। प्रहरी गिरा। उधर बहार 'हत्या! हत्या! चिल्लाती हुई भागी।
3
संसार की विभूति जिस समय चरणों में लोटने लगती है, वही समय पहाड़ी दुर्ग के सिंहासन का था। शेख क्षमता की ऐश्वर्य-मण्डित मूर्ति था। लज्जा, मीना, गुल और देवपाल बन्दी-वेश में खड़े थे। भयानक प्रहरी दूर-दूर खड़े, पवन की भी गति जाँच रहे थे। जितना भीषण प्रभाव सम्भव है, वह शेख के उस सभागृह में था। शेख ने पूछा-''देवपाल तुझे इस धर्म पर विश्वास है किनहीं?''
''नहीं!''- देवपाल ने उत्तर दिया।
''तब तुमने हमको धोखा दिया?''
''नहीं, चंगेज़ के बन्दी-गृह से छुड़ाने में जब समर-खण्ड में तुम्हारे अनुचरों ने मेरी सहायता की और मैंतुम्हारे उत्कोच या मूल्य से क्रीत हुआ, तब मुझे तुम्हारी आज्ञा पूरी करने की स्वभावत: इच्छा हुई। अपने शत्रु चंगेज़ का ईश्वरीय कोप, चंगेज़ का नाश करने की एक विकट लालसा मन में खेलने लगी, और मैंने उसकी हत्या की भी। मैंधर्म मानकर कुछ करने गया था, वह समझना भ्रम है।''
''यहाँ तक तो मेरी आज्ञा के अनुसार ही हुआ, परन्तु उस अलाउद्दीन की हत्या क्यों की?''-दाँत पीसकरशेख ने कहा।
''यह मेरा उससे प्रतिशोध था!'' अविचल भाव से देवपाल ने कहा।
''तुम जानते हो कि इस पहाड़ के शेख केवल स्वर्ग के ही अधिपति नहीं, प्रत्युत हत्या के दूत भी हैं!'' क्रोध से शेख ने कहा।
''इसके जानने की मुझे उत्कण्ठा नहीं है, शेख। प्राणी-धर्म में मेरा अखण्ड विश्वास है। अपनी रक्षा करने के लिए, अपने प्रतिशोध के लिए,जो स्वाभाविक जीवन-तत्व के सिद्धान्त की अवहेलना करके चुप बैठता है, उसे मृतक, कायर, सजीवता विहीन, हड्डी-मांस के टुकड़े के अतिरिक्त मैं कुछ नहीं समझता। मनुष्य परिस्थितियों का अन्ध-भक्त है, इसलिए मुझे जो करना था, वह मैंने किया, अब तुम अपना कर्तव्य कर सकते हो।''-देवपाल का स्वर दृढ़ था।
भयानक शेख अपनी पूर्ण उत्तेजना से चिल्ला उठा। उसने कहा-''और, तू कौन है स्त्री? तेरा इतना साहस! मुझे ठगना!''
लज्जा अपना बाह्य आवरण फेंकती हुई बोली-''हाँ शेख, अब आवश्यकता नहीं कि मैं छिपाऊँ, मैं देवपाल कीप्रणयिनी हूँ?''
''तो तुम इन सबको ले जाने या बहकाने आई थी, क्यों?''
''आवश्यकता से प्रेरित होकर जैसे अत्यन्त कुत्सित मनुष्य धर्माचार्य बनने का ढोंग कर रहा है, ठीक उसी प्रकार मैं स्त्री होकर भी पुरुष बनी। यह दूसरी बात है कि संसार की सबसे पवित्र वस्तु धर्म की आड़ में आकांक्षा खेलती है। तुम्हारे पास साधन हैं, मेरे पास नहीं, अन्यथा मेरी आवश्यकता किसी से कम नथी।''-लज्जा हाँफ रही थी।
शेख ने देखा, वह दृप्त सौन्दर्य! यौवन के ढलने में भी एक तीव्र प्रवाह था-जैसे चाँदनी रात में पहाड़ से झरना गिर रहा हो! एक क्षण के लिए उसकी समस्त उत्तेजना पालतू पशु के समान सौम्य हो गई। उसने कहा-''तुम ठीक मेरे स्वर्ग की रानी होने के योग्य हो। यदि मेरेमत में तुम्हारा विश्वास हो, तो मैं तुम्हें मुक्त कर सकता हूँ। बोलो!''
''स्वर्ग! इस पृथ्वी को स्वर्ग की आवश्यकता क्या है, शेख? ना, ना, इस पृथ्वी को स्वर्ग के ठेकेदारों से बचाना होगा। पृथ्वी का गौरव स्वर्ग बन जाने से नष्ट हो जायेगा। इसकी स्वाभाविकता साधारण स्थिति में ही रह सकतीहै। पृथ्वी को केवल वसुन्धरा होकर मानव जाति के लिए जीने दो, अपनी आकांक्षा के कल्पित स्वर्ग के लिए,क्षुद्र स्वार्थ के लिए इस महती को, इस धरणी को नरक न बनाओ, जिसमें देवता बनने के प्रलोभन में पड़कर मनुष्य राक्षस न बन जाय, शेख।''-लज्जा ने कहा।
शेख पत्थर-भरे बादलों के समान कड़कड़ा उठा। उसने कहा-''ले जाओ, इन दोनों को बन्दी करो। मैं फिरविचार करूँगा, और गुल, तुम लोगों का यह पहला अपराध है, क्षमा करता हूँ, सुनती हो मीना, जाओ अपने कुञ्ज में भागो। इन दोनों को भूलजाओ।''
बहार ने एक दिन गुलसे कहा-''चलो, द्राक्षा-मण्डप में संगीत का आनन्द लिया जाय।'' दोनों स्वर्गीय मदिरा में झूम रहे थे।मीना वहाँ अकेली बैठी उदासी में गा रही थी-
''वही स्वर्ग तो नरक है, जहाँ प्रियजन से विच्छेद है। वही रात प्रलय की है, जिसकी कालिमा में विरह का संयोग है। वह यौवन निष्फल है, जिसकाहृदयवान् उपासक नहीं। वह मदिरा हलाहल है, पाप है, जो उन मधुर अधरों को उच्छिष्ट नहीं। वह प्रणय विषाक्त छुरी है, जिसमें कपट है। इसलिये हे जीवन, तू स्वप्न न देख, विस्मृति की निद्रा में सो जा! सुषुप्ति यदि आनन्द नहीं, तो दु:खों का अभाव तो है। इस जागरण से-इस आकांक्षा और अभाव के जागरण से-वह निद्र्वंद्व सोना कहीं अच्छा है मेरे जीवन!''
बहार का साहस न हुआकि वह मण्डप में पैर धरे, पर गुल, वह तो जैसे मूक था! एक भूल, अपराध और मनोवेदना के निर्जन कानन में भटक रहा था, यद्यपि उसके चरण निश्चल थे। इतने में हलचल मच गई। चारोंओर दौड़-धूप होने लगी।मालूम हुआ, स्वर्ग पर तातार के खान की चढ़ाईहै।
बरसों घिरे रहने से स्वर्ग की विभूति निश्शेष हो गई थी। स्वर्गीय जीव अनाहार से तड़प रहे थे। तब भी मीना को आहार मिलता। आज शेख सामने बैठा था।उसकी प्याली में मदिरा की कुछ अन्तिम बूँदें थीं। जलन की तीव्र पीड़ा से व्याकुल और आहत बहार उधर तड़प रही थी। आज बन्दी भी मुक्त कर दिये गये थे। स्वर्ग के विस्तृत प्रांगण में बन्दियों के दम तोड़ने की कातर ध्वनि गूँज रही थी। शेख ने एक बार उन्हें हँसकर देखा, फिर मीना की ओर देखकर उसने कहा-''मीना! आज अंतिम दिन है! इस प्याली में अन्तिम घूँटें है, मुझे अपने हाथ से पिला दोगी?''
''बन्दी हूँ शेख! चाहे जो कहो।''
शेख एक दीर्घ निश्वास लेकर उठ खड़ा हुआ। उसने अपनी तलवार सँभाली। इतने में द्वार टूट पड़ा, तातारी घुसते हुए दिखलाई पड़े, शेख के पाप-दुर्बल हाथों से तलवार गिर पड़ी।
द्राक्षा के रूखे कुञ्ज में देवपाल, लज्जा और गुल के शव के पास मीना चुपचाप बैठी थी। उसकी आँखों में न आँसू थे, न ओठों पर क्रन्दन। वह सजीव अनुकम्पा, निष्ठुर हो रही थी।
तातारों के सेनापति ने आकर देखा, उस दावाग्नि के अन्धड़ में तृण-कुसुम सुरक्षित है। वह अपनी प्रतिहिंसा से अन्धा हो रहा था। कड़ककर उसने पूछा-''तू शेख की बेटी है?''
मीना ने जैसे मूच्र्छा से आँखें खोलीं। उसने विश्वास-भरी वाणी से कहा-''पिता,मैं तुम्हारी लीला हूँ!''
सेनापति विक्रम को उस प्रान्त का शासनमिला; पर मीना उन्हीं स्वर्ग के खण्डहरों में उन्मुक्त घूमा करती। जब सेनापति बहुत स्मरण दिलाता, तोवह कह देती-मैं एक भटकी हुई बुलबुल हूँ। मुझे किसी टूटी डाल परअन्धकार बिता लेने दो!इस रजनी-विश्राम का मूल्य अन्तिम तान सुनाकर जाऊँगी।''
मालूम नहीं, उसकी अन्तिम तान किसी ने सुनी या नहीं।
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