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View Full Version : बालकृष्ण भट्ट के निबंध


raju
23-11-2012, 07:23 AM
बालकृष्ण भट्ट के निबंध


http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=19964&stc=1&d=1353641016

raju
23-11-2012, 07:25 AM
ग्रामीण भाषा


हम समझते हैं कि सर्वसाधारण का कुछ ऐसा मत है कि हिंदी के बारे में जो कोई कुछ लिखा चाहे उनका यह मुख्य कर्तव्य है कि उस पुराने खुर्राट झगड़े को जो हिंदी, हिंदुस्तानी या बी उर्दू के बीच उठ रहा है। स्पष्ट होता है कि हिंदी और उर्दू का कोरा लक्षण दे कोई कृतकार्य और सत्य संकल्प न हो सका इसलिए भाषाओं का भेद दर्शन लक्षण लिखना छोड़ हम उनके बोलने वाले कौन और किस रंग के लोग हैं इस पर ध्यान देते हैं।

आप जो भाषा बोलेंगे वह किसी न किसी साँचे में ढली होगी। तो यह कैसी हो और किस साँचे में ढलै इसका तै करना अत्यंत आवश्यक है। लोग कहैंगे इसका ढलना अधिकतर कुल और जाति से संबंध रखता है अर्थात एक ब्राह्मण का लड़का कभी संभव नहीं कि नित्य के बोल चाल में 'खाकसार को क्या हुक्म होता है' इत्यादि के ढंग की फारसी मिली हुई बोलै। यह भी संभव नहीं कि कोई मुसलमान चाहे वह संस्कृत का बड़ा विद्वान क्यों न हो काशी के पंडि़तों के ढंग की भाषा बोलै। पर थोड़ा ही सोचने से यह बात खुल जायगी कि कुल, जाति या मजहब का बहुत कम असर भाषा पर पहुँच सकता है। इस देश के मुसलमानों की ही भाषा को लीजिए। हम समझते हैं वह आदमी निस्संदेह मुसलमान है जो मोहम्मद को खोदा का रसूल मानता हो नित्य नमाज पढ़ता हो अर्थात धर्म संबंधी सबूत जहाँ तक काम दे सकता है वहाँ तक वह अवश्य मुसलमान है। अच्छा तो अब लखनऊ के एक मुसलमान को लीजिये और उसकी भाषा पर ध्यान दीजिये देखिये कैसे लच्छेदार शीन काफ से जुड़ी हुई फसीह उर्दू बोलता है।

raju
23-11-2012, 07:25 AM
तब ढाका और मुर्शिदाबाद के प्रांत के एक बंगाली मुसलमान को लीजिये और उसकी भाषा को भी कान खोल कर सुनिये सुनते ही चट आप कह उठैंगे यह तो न फारसी है न उर्दू बल्कि शुद्ध बँगला है। कलकत्ते की चीना बाजार में हिंदुस्तानियों के घर के तोतों को भी कभी-कभी चीनियों की बोलियों का अनुकरण 'च्यं-च्यं, म्यं-म्यं' करते सुना है तब आदमियों की कौन कहै इसलिये यही बात ध्यान में आती है कि कुल जाति या धर्म नहीं वरन जैसे लोगों में कोई रहेगा वैसी ही उसकी भाषा अदल-बदल कर हो जायेगी या कभी-कभी अंगरेजी संस्कृत या फारसी आदि भाषाओं का प्रबल अभ्यास भी भाषा पर असर करता है। जिस भाषा का जो अधिक प्रबल अनुशीलन किए रहेगा वही भाषा अपने मामूली बोल चाल में बोलैगा। अर्थात पहले समाज का असर भाषा पर होता है फिर शिक्षा का। पर भाषा का पूरा-पूरा जोर देखने के लिये उन लोगों पर ध्यान दीजिये जो एक ढंग के 'शून्य भीति' हैं अर्थात् जिन पर किसी तरह की शिक्षा मात्र ने अपना रंग नहीं जमाया है और जो घर में तथा घर के बाहर छोटे बड़े सब से एक तार की अपनी सहज भाषा बोलते हैं। सच पूछिये तो ऐसी भाषा से बढ़ कर संसार में कोई दूसरी मीठी भाषा नहीं हो सकती। इस कारण अगर ठेठ हिंदी शब्दों की आप को खोज है तो गत काल के या वर्तमान समय की नपी जोखी प्राय: एक ही ढर्रे पर चलने वाली कवियों की वाणी से लेकर सहस्रों धारा से चलती हुई सजीव ग्रामीण भाषा को देखिये - यदि आप यह कहैं कि शिक्षा के अभाव से ऐसे लोग असभ्य या अश्लील शब्द अपनी बोल चाल में बहुत भरते हैं तो साथ ही इसके यह भी सोचना चाहिए कि कितने हजारों लाखों शब्द ऐसे भी मिलते हैं जिन के पुष्ट भाव या अर्थ गौरव को देख चकित ही हो जाना पड़ता है। कदाचित् आपको यह संदेह हो कि ग्रामीण भाषा से हमारा अभिप्राय निरे अपढ़ और नीच लोगों की बोल चाल से है तो इस प्रश्न की मीमांसा के उत्तर में हम यही कह सकते हैं कि यदि पाठकजन टुक ध्यान दे सोचैंगे तो यह बात उनके मन में सहज ही आ सकती है कि जिसको वे मातृभाषा कहते हैं वह उससे भिन्न है जिसे वह घर के बाहर बोलते हैं अर्थात आपस के बोल चाल की भाषा यद्यपि प्रिय मित्र के साथ प्रेमालाप में काम आती हो फिर भी वह भाषा एक तरह की और बनावट से भरी हुई जँचती है। तात्पर्य यह कि जैसा कुछ सरल भाव मिठास मातृ भाषा में भरा है वह बाहर की सभ्य साधु भाषा में आ ही नहीं सकता। इस सभ्य भाषा से हमारा प्रयोजन कोरी उर्दू ही से नहीं है किंतु उससे है जिसका नाम (Provincial dialects) भिन्न-भिन्न स्थानों की भाषा है जो लोगों के घर के भीतर बोली जाती है और जिस भाषा का बर्ताव नौकर चाकर के साथ किया जाता है। जिसकी सहज गति या प्रवाह होने के कारण जिसमें एक विचित्र लालित्य माधुर्य या कोमलता आ जाती है जिसमें अब तक हजारों लाखों अति पुष्ट अर्थ के द्योतक हिंदी शब्द भरे हैं और जो दुर्भाग्य से मनुष्यों की सभ्य मंडली से निकाल कर अलग फेंक दिये गये हैं। इस अन्याय का क्या कारण है? कारण केवल यही जान पड़ता है कि हम लोगों के बीच बिना बोलाये ही एक पाहुना आ घुसा है और उसी का नाम उर्दू है। माना कि स्त्रियों तथा दासी इत्यादिकों की भाषा सदा से सहज और प्राकृतिक, होती चली आई है पर समाज के दो भाग होते हैं एक पढ़े हुओं की भाषा दूसरे कम पढ़े या अपढ़ लोगों की भाषा इन दोनों में आज कल विचित्र भेद दिखलाई देता है। पूर्व काल में भेद था पर इस तरह का नहीं था अगर बेपढ़े लोग प्राकृत बोलते थे तो इसको भी संस्कृत का बच्चा ही कहना चाहिए।

raju
23-11-2012, 07:47 AM
इन दिनों कोई-कोई कायस्थ महाशय कुछ लोगों से तो अपने जन्म भूमि की भाषा बोलते हैं पर बाहर दूसरे लोगों से कुछ और भी चीज बोलते हैं और एक विचित्र भद्दे फारसी शब्द मिली उर्दू बोलते हैं जिस पर उन लोगों से जिनकी निज की भाषा उर्दू है बिना हँसे नहीं रहा जाता। ऐसों के संबंध में यह पुरानी कहावत सुघटित होती है। 'कौवा चला हंस की चाल अपनी भी भूल गया', 'आप जो पूजैं द्योहरा भूत पूजनी जोय। एकै घर में दो मता कुशल कहाँ से होय।' जो बात हमारे कोई-कोई कायस्थ महाशयों के संबंध में ठीक है वह थोड़ा-थोड़ा सब पर घटती है। फिर इस बात पर भी तो ध्यान देना चाहिए कि समाज का समाज एक विचित्र रास्ते पर चलै इसका कोई बड़ा भारी ही कारण होना चाहिये। इस बड़े कारण को खोजने के लिए आप को दूर न जाना होगा। बहुत दिन की बात नहीं है कि पढ़े-लिखे लोगों के समाज में जो ठेठ हिंदी शब्द बोलता था वह गँवार और देहाती का खिताब पाता था। अधिक नहीं 25 वर्ष पहले के हिंदी के इतिहास पर ध्यान दीजिये हरिश्चंद्र आदि के पूर्व हिंदी की क्या दशा थी और जब उन्होंने बहुत सा वित्त और मानसिक शक्ति को धूर में मिलाय बड़े यत्न के उपरांत मार-मार कर लोगों को हिंदी के पढ़ने का शौक दिलाया तब क्या दशा थी और अब क्या है। सच पूछिये तो इस थोड़े से समय में हिंदी की कुछ कम विजय नहीं हुई। वे ही सब शब्द जो किसी समय गँवारी भाषा समझे गये थे सो अब काल के हेर फेर से अधिकारशाली पढ़े लिखे लोगों के बर्ताव में आने लगे वरन ठेठ हिंदी शब्दों की खोज लोगों को है और वह ठेठ हिंदी हमारे ग्रामीण जनों ही के कंठ का आभरण है। सच है जिन पत्थर को म्यायारों ने बेकाम जान फेंक दिया वहीं कोने का मिरा हुआ। और भी हम शब्दों को ठीक सिक्के की तरह मानते हैं जैसा बाजार के रुपये आदि का कुछ मोल होता है वैसे ही मानसिक वाणिज्य अर्थात एक मनुष्य के ह्रद्गत भाव दूसरे के मन में पैठाना शब्दों ही के द्वारा हो सकता है यदि ऐसा है तो सिक्के घिस भी तो जाते हैं मुसलमानों के समय के सिक्के अनोखी वस्तु को जोगै कर रखने वाले ही के संदूक में मिलैंगे बाजार में नहीं चलते प्रयोजन यह कि ठेठ हिंदी के शब्द जो हम लोगों के काम में लाये जाते हैं सो इसके बदले की गँवार पने की बू उन से आवैं एक विचित्र लहलहापन और पुष्टता उनमें भरी हुई पाई जाती है और आप निश्चय जानिये, बहुत जल्द ही शब्दों की पूरी विजय होगी।

(1 जुलाई, 1885)

raju
23-11-2012, 05:22 PM
कौतुक

जिस बात को देख या सुन चित्त चमत्कृत हो सब ओर से खिंच सहसा उस देखी या सुनी बात की ओर झुक पड़े, वह कौतुक है। यह अद्भुत नाम का नौ रसों में एक रस है। गंभीराशय बुद्धिमानों को कभी किसी बात का कौतुक होता ही नहीं या उनके लेखे यह संपूर्ण संसार केवल कौतुक रूप है जिसमें मनुष्य का जीवन तो महा कौतुक है -

अहन्यहनि भूतानि गच्छन्ति यममंदिरम्।

शेषाजीवितुमिच्छन्ति किमाश्चर्यमत: परम्।।

raju
23-11-2012, 05:24 PM
नित्य-नित्य लोग काल से कवलित हो प्रतिक्षण यम मंदिर की यात्रा का प्रस्थान रखे हुए भी जीने की सभी इच्छा करते हैं इससे बढ़ कर कौतुक और क्या होगा! सच है आधि-व्याधि-जरा-जीर्ण कलेवर का क्या ठिकाना? कच्चे धागे के समान दम एकदम में उखड़ जा सकता है मानो सूत का बँधा हाथी चल रहा है। तब हमको अपने जीने का जो इतना अभिमान या फक्र और नाज है सो तअज्जुब तो हई ही। तत्वविद् इस बड़े तमाशे को देख कर भी कुछ क्षुभित नहीं होते और सदा एक-से-स्थिर चित्त रहते हैं तब छोटे-छोटे हादसे उनके लिये कौन बड़ी बात है? अथवा जब कभी ऐसे लोगों का चित्त कौतुक-आविष्ट हुआ तो साधारण लोगों के समान उनका कौतुकी होना व्यर्थ नहीं होता। हम लोग दिन में सैकड़ों बातें कौतुक की देख करते हैं पर उससे कभी कोई बड़ा फायदा नहीं उठाते। गेलिलियो का एक कौतुकी होना बड़े-बड़े साइन्स की बुनियाद डालने वाला आकर्षण शक्ति (अट्रेक्शन ऑफ ग्रेवीटेशन) के ईजाद का बायस हुआ। ऊपर से नीचे को पदार्थ गिरते ही रहते हैं जिसे देख कभी किसी को कुछ अचरज नहीं होता किंतु बाग में बैठे हुए गेलिलियो को सेब का पक्का फल पेड़ से नीचे गिरते देख खटक पैदा हो गई और उसी क्षण से इनके मन में तर्क-वितर्क होने लगा कि क्यों यह फल नीचे गिरा ऊपर को क्यों न चला गया या कोई दूसरी बात इस फल के संबंध में क्यों न पैदा हो गई? बहुत सा ऊहापोह के उपरांत यही निश्चय उनके मन में जम गया कि बड़ी चीज छोटी चीज को सदा अपनी ओर खींचा करती है और यही ऐसी ईश्वरीय-अद्भुत शक्ति है कि जिसके द्वारा यह उपग्रह तारागण इत्यादि संपूर्ण खगोल अपनी-अपनी कक्षा में कायम हैं। यदि यह शक्ति न होती तो ये बड़े-बड़े ग्रह एक दूसरे से टकरा कर चूर-चूर हो जाते। इसी तरह भाप की ताकत प्रकट करने वाले जेम्स वाट को आग पर रखे हुए डेग के ढकने को खटखटाते हुए देख आश्चर्य हुआ था जिसका फल यह हुआ कि इसको अद्भुत शक्ति जान कर उन्होंने उसे काम में लाय अनेक तरह की ऐसी-ऐसी इंजिनें ईजाद की कि आज दिन उसके द्वारा संसार का कितना उपकार साधन किया जाता है। भाँति-भाँति की कलों के द्वारा जो काम होते हैं रेल और जहाज चलाना सब उसी भाप के गुण प्रकट करने का परिणाम है। ऐसा ही और कितने बड़े-बड़े विद्वान विज्ञानविद् लोगों ने साधारण-सी कौतुक की बातों पर कौतुकी ही बड़े-बड़े काम लिये हैं। अस्तु अब हम कौतुक की एक छोटी सी लिस्ट आपको सुनाते हैं उसे भी सुनते चलिये, सरकारी मुहकमों में पुलिस का मुहकमा कौतुक है। हम लोग भद्दी अकिल हिंदुस्तानियों के लिये अंग्रेजी राज्य की कतर-व्योंत कौतुक है। ऐसी ही बुरी तबियत वाले ऐंग्लोइंडियन के लिये हमारा कांग्रेस का करना कौतुक है। गवर्नमेंट की कृपा पात्र बीबी उर्दू के मुकाबिले सर्वथा सहाय-शून्य हिंदी का दिन-प्रतिदिन बढ़ते जाना भी कौतुक है। हमीं लोगों के बीच से पैदा हो हमारे ही छाती का बार उखाड़ने वाली गवर्नमेंट की छोटी बहन म्यूनिसिपैलिटी एक कौतुक है, इत्यादि। जहाँ तक सोचते जाइये एक से एक बढ़ कर कौतुक आपके मन में जगह करता जायेगा।

(अक्टूबर, 1889)

raju
23-11-2012, 05:27 PM
बातचीत


इसे तो सभी स्वीकार करेंगे कि अनेक प्रकार की शक्तियाँ जो वरदान की भाँति ईश्वर ने मनुष्यों को दी हैं, उनमें वाक्शक्ति भी एक है। यदि मनुष्य की और-और इंद्रियाँ अपनी-अपनी शक्तियों से अविकल रहतीं और वाक्शक्ति उनमें न होती तो हम नहीं जानते इस गूँगी सृष्टि का क्या हाल होता। सब लोग लुंज-पुंज से हो मानो एक कोने में बैठा दिये गये होते और जो कुछ सुख-दु:ख का अनुभव हम अपनी दूसरी-दूसरी इंद्रियों के द्वारा करते उसे अवाक् होने के कारण आपस में एक दूसरों से कुछ न कह सुन सकते। अब इस वाक्शक्ति से अनेक फायदों में 'स्पीच' वक्तृता और बातचीत दोनों हैं किंतु स्पीच से बातचीत का कुछ ढंग ही निराला है। बातचीत में वक्ता को नाज-नखरा जाहिर करने का मौका नहीं दिया जाता कि वह एक बड़े अंदाज से गिन-गिनकर पाँव रखता हुआ पुलपिट पर जा खड़ा हो और पुण्याहवाचन या नांदीपाठ की भाँति घड़ियों तक साहबान मजलिस, चेयरमैन, लेडीज एंड जेंटिलमेन की बहुत सी स्तुति कर कराय तब किसी तरह वक्तृता का आरंभ किया गया जहाँ कोई मर्म या नोंक की कोई नुकीली चुटीली बात बड़ा वक्ता महाशय के मुख से निकली कि करतल-ध्वनि से कमरा गूँज उठा। इसलिए वक्ता को खामखाह ढूँढ़ कर कोई ऐसा मौका अपनी वक्तृता में लाना ही पड़ता है जिसमें करतल-ध्वनि अवश्य हो। वह हमारी साधारण बातचीत का कुछ ऐसा घरेलू ढंग है कि उसमें न करतलध्वनि को कोई मौका है न लोगों को कहकहे उड़ाने की कोई बात उसमें रहती है। हम तुम दो आदमी प्रेम पूर्वक संलाप कर रहे हैं कोई चुटीली बात आ गई हँस पड़े तो मुस्कराहट से होंठों का केवल फरक उठना ही इस हँसी की अंतिम सीमा है। स्पीच का उद्देश्य अपने सुनने वालों के मन में जोश और उत्साह पैदा कर देना है। घरेलू बातचीत मन रमाने का एक ढंग है इसमें स्पीच की वह सब संजीदगी बेकदर हो धक्के खाती फिरती है।

raju
23-11-2012, 05:29 PM
जहाँ आदमी को अपनी जिंदगी मजेदार बनाने के लिए खाने-पीने चलने-फिरने आदि की जरूरत है वहाँ बातचीत की भी हमको अत्यंत आवश्यकता है। जो कुछ मवाद या धुआँ जमा रहता है वह सब बात-चीत के जरिये भाप बन बाहर निकल पड़ता है चित्त हल्का और स्वच्छ हो परम आनंद में मग्न हो जाता है। बातचीत का भी एक खास तरह का मजा होता है। जिनको बात करने की लत पड़ जाती है वे इसके पीछे खाना-पीना तक छोड़ देते हैं अपना बड़ा हर्ज कर देना उन्हें पसंद आता है पर बातचीत का मजा नहीं खोया चाहते। राबिनसन क्रूसो का किस्सा बहुधा लोगों ने पढ़ा होगा जिसे सोलह वर्ष तक मनुष्य का मुख देखने को भी नहीं मिला। कुत्ता, बिल्ली आदि जानवरों के बीच रहा किया; सोलह वर्ष के उपरांत जब उसने फ्राइडे के मुख से एक बात सुनी, यद्यपि इसने अपनी जंगली बोली में कहा था, उस समय राबिनसन को ऐसा आनंद हुआ मानो उसने नये सिरे से फिर से आदमी का चोला पाया। इससे सिद्ध होता है कि मनुष्य की वाक्शक्ति में कहाँ तक लुभा लेने की ताकत है। जिनसे केवल पत्र-व्यवहार है कभी एक बार भी साक्षात्कार नहीं हुआ उन्हें अपने प्रेमी से कितनी लालसा बात करने की रहती है। अपना आभ्यंतरिक भाव दूसरे को प्रकट करना और उसका आशय आप ग्रहण कर लेना केवल शब्दों ही के द्वारा हो सकता है। सच है -

''तामर्द सखुन गुफ्ता बाशद।
ऐबो हुनरश निहफ्ता बाशद''

''तावच्च शोभते मूर्खो यावत्किंचिन्न भाषते''

raju
23-11-2012, 05:30 PM
बेन जानसन का यह कहना कि - ''बोलने से ही मनुष्य के रूप का साक्षात्कार होता है'' बहुत ही उचित बोध होता है।

इस बातचीत की सीमा दो से लेकर वहाँ तक रखी जा सकती है जितनों की जमात मीटिंग या सभा न समझ ली जाय। एडिसन का मत है असल बातचीत सिर्फ दो में हो सकती है जिसका तात्पर्य यह हुआ कि जब दो आदमी होते हैं तभी अपना दिल दूसरे के सामने खोलते हैं जब तीन हुए तब वह दो की बात कोसों दूर गई। कहा है -

''षट्करणो भिद्यते मंत्र:''

दूसरे यह कि किसी तीसरे आदमी के आ जाते ही या तो दोनों हिजाब में आय अपनी बातचीत से निरस्त हो बैठेंगे या उसे निपट मूर्ख और अज्ञानी समझ बनाने लगेंगे। इसी से -

''द्वाभ्यां तृतीयो न मवामि राजन्''

raju
23-11-2012, 05:31 PM
लिखा है जैसा गरम दूध और ठंडे पानी के दो बर्तन पास-पास साट के रखे जायें तो एक का असर दूसरे पहुँचता है अर्थात् दूध ठंडा हो जाता है और पानी गरम। वैसा, ही दो आदमी आस-पास बैठे तो एक का गुप्त असर दूसरे पर पहुँच जाता है। चाहे एक दूसरे को देखे भी नहीं तब बोलने की कौन कहे पर एक का दूसरे पर असर होना शुरू हो जाता है एक के शरीर की विद्युत दूसरे में प्रवेश करने लगती हैं। अब पास बैठने का इतना असर होता है तब बातचीत में कितना अधिक असर होगा इसे कौन न स्वीकार करेगा। अस्तु, अब इस बात को तीन आदमियों के संगम में देखना चाहिए मानो एक त्रिकोण सा बन जाता है तीनों का चित्त मानो तीन कोण हैं और तीनों की मनोवृत्ति के प्रसरण की धारा मानो उस त्रिकोण की तीन रेखायें हैं। गुपचुप असर तो उन तीनों में परस्पर होता ही है जो बातचीत तीनों में की गई वह मानो अँगूठी में नग-सा जड़ जाती है। उपरांत जब चार आदमी हुए तब बेतकल्लुफी को बिलकुल स्थान नहीं रहता खुल के बातें न होंगी जो कुछ बातचीत की जायगी वह 'फार्मेलिटी' गौरव और संजीदगी के लच्छे में सनी हुई। चार से अधिका की बात-चीत तो केवल राम रमौवल कहलायेगी। उसे हम संलाप नहीं कह सकते।

raju
23-11-2012, 05:33 PM
इसी बातचीत के अनेक भेद हैं। दो बुड्ढों की बातचीत प्राय: जमाने की शिकायत पर हुआ करती है, बाबा आदम के समय का ऐसा दास्तान शुरू करते हैं जिसमें चार सच तो दस झूठ। एक बार उनकी बातचीत का घोड़ा छूट जाना चाहिये पहरों बीत जाने पर भी अंत न होगा। प्राय: अंग्रेजी राज्य पर देश और पुराने समय की बुरी से बुरी रीति नीति का अनुमोदन और इस समय के सब भाँति लायक नौजवान की निंदा उनकी बातचीत का मुख्य प्रकरण होगा। अब इसके विपरीत नौजवानों की बातचीत का कुछ तर्ज ही निराला है। जोश-उत्साह, नई उमंग, नया हौसिला आदि मुख्य प्रकरण उनकी बातचीत का होगा। पढ़े लिखे हुए तो शेक्सपीयर, मिलटन, मिल और स्पेन्सर उनके जीभ के आगे नाचा करेंगे। अपनी लियाकत के नशे में चूरंचूर हमचुनी दीगरे नेस्त। अक्खड़ कुश्तीबाज हुए तो अपनी पहलवानी और अक्खड़पन की चर्चा छेड़ेंगे। आशिकतकन हुए तो अपने-अपने प्रेमपात्री की प्रशंसा तथा आशिकतन बनने की हिमाकत की डींग मारेंगे। दो ज्ञात-यौवन हम उमर सहेलियों की बातचीत का कुछ जायका ही निराला है रस का समुद्र मानो उमड़ चला आ रहा है इसका पूरा स्वाद उन्हीं से पूछना चाहिए जिन्हें ऐसों की रस-सनी बातें सुनने को कभी भाग्य खड़ा है।

''प्रजल्पन्मत्पदे लग्न: कान्त: किं''? नहि नूपुर:।

''वदन्ती जारवृत्तान्तं पत्यौ धूर्ता सखी धिया।।

पति बुद्ध्वा सखि तत: प्रबुद्धास्मीत्यपूरयत्''।

raju
23-11-2012, 05:35 PM
अर्द्धजरती बुढ़ियाओं की बातचीत का मुख्य प्रकरण बहू-बेटी वाली हुई तो अपनी-अपनी बहुओं या बेटों का गिला-शिकवा होगा या बिरादराने का कोई ऐसा राम-रसरा छेड़ बैठेंगी कि बात करते-करते अंत में खोढ़े दाँत निकाल-निकाल लड़ने लगेंगे। लड़कों की बात-चीत में खेलाड़ी हुए तो अपनी आवारगी की तारीफ करने के बाद कोई ऐसी सलाह गाठेंगे जिसमें उनको अपनी शैतानी जाहिर करने का पूरा मौका मिले। स्कूल के लड़कों की बातचीत का उद्देश्य अपने उस्ताद की शिकायत या तारीफ या अपने सहपाठियों में किसी के गुनऐगुन का कथोपकथन होता है। पढ़ने में तेज हुआ तो कभी अपने मुकाबिले दूसरे को कैफियत न देगा सुस्त और बोदा हुआ तो दबी बिल्ली सी स्कूल भर को अपना गुरु ही मानेगा। अलावे इसके बातचीत की और बहुत सी किसमें हैं। राजकाम की बात, व्यापार संबंधी बातचीत, दो मित्रों में प्रेमालाप इत्यादि। हमारे देश में नीच जाति के लोगों में बात कही होती है लड़की लड़के वाले की ओर से। एक-एक आदमी बिचवई होकर दोनों के विवाह संबंध की कुछ बातचीत करते हैं उस दिन से बिरादरी वालों को जाहिर कर दिया जाता है कि अमुक की लड़की से अमुक के लड़के के साथ विवाह पक्का हो गया है और यह रसम बड़े उत्साह के साथ की जाती। एक चंडूखाने की बातचीत होती है इत्यादि, इस बात करने के अनेक प्रकार और ढंग हैं।

raju
23-11-2012, 05:36 PM
यूरोप के लोगों में बात करने का एक हुनर है 'आर्ट आफ कनवरसेशन' यहाँ तक बढ़ा है कि स्पीच और लेख दोनों इसे नहीं पाते। इसकी पूर्ण शोभा काव्यकला प्रवीन विद्वन्मंडली में है। ऐसे-ऐसे चतुराई के प्रसंग छेड़े जाते हैं कि जिन्हें सुन कान को अद्भुत सुख मिलता है सहृदय गोष्ठी इसे का नाम है कि सहृदय गोष्ठी के बातचीत की यही तारीफ है कि बात करने वालों की लियाकत अथवा पांडित्य का अभियान या कपट कहीं एक बात में न प्रकट हो वरन् जितने क्रम रसाभास पैदा करने वाले सबों की बरकाते हुए चतुर सयाने अपनी बातचीत का उपक्रम रखते हैं जो हमारे आधुनिक शुष्क पंडितों की बातचीत में जिसे शास्त्रार्थ कहते हैं कभी आवे ही गा नहीं। मुर्ग और बटेर की लड़ाइयों की झपटा-झपटी के समान जिनकी काँव-काँव में सरस संलाप का तो चर्चा ही चलाना व्यर्थ है वरन् कपट और एक दूसरे को अपने पांडित्य के प्रकाश से बाद में परास्त करने का संघर्ष आदि रसाभास की सामग्री वहाँ बहुतायत के साथ आपको मिलेगी। घंटेभर तक काँव-काँव करते रहेंगे तय कुछ न होगा। बड़ी-बड़ी कंपनी और कारखाने आदि बड़े से बड़े काम इसी तरह पहले दो चार दिली दोस्तों की बातचीत ही से शुरू किए गये उपरांत बढ़ते-बढ़ते यहाँ तक बढ़े कि हजारों मनुष्यों की उससे जीविका और लाखों की साल में आमदनी उसमें है। पचीस वर्ष के ऊपर वालों की बातचीत अवश्य ही कुछ न कुछ सार गर्भित होगी। अनुभव और दूरंदेशी से खाली न होगी और पच्चीस से नीचे वालों की बातचीत में यद्यपि अनुभव दूरदर्शिता और गौरव नहीं पाया जाता पर इसमें एक प्रकार का ऐसा दिल बहलाव और ताजगी रहती है कि जिसकी मिठास उससे दसगुना अधिक बढ़ी-चढ़ी है।

raju
23-11-2012, 05:38 PM
यहाँ तक हमने बाहरी बातचीत का हाल लिखा जिसमें दूसरे फरीक के होने की बहुत ही आवश्यकता है। बिना किसी दूसरे मनुष्य के हुए जो किसी तरह संभव नहीं है और जो दो ही तरह पर हो सकती है या तो कोई हमारे यहाँ कृपा करे या हमीं जाकर दूसरे को सर्फराज करें। पर यह सब तो दुनियादारी है जिसमें कभी-कभी रसाभास होते देर नहीं लगती क्योंकि जो महाशय अपने यहाँ पधारें उसकी पूरी दिलजोई न हो सकी तो शिष्टाचार में त्रुटि हुई। अगर हमीं उनके यहाँ गये तो पहले तो बिना बुलाये जाना ही अनादर का मूल है और जाने पर अपने मन माफिक बर्ताव न किया गया तो मानो एक दूसरे प्रकार का नया घाव हुआ इसलिए सबसे उत्तम प्रकार बातचीत करने का हम यही समझते हैं कि हम यह शक्ति अपने में पैदा कर सकें कि अपने आप बात कर लिया करें। हमारी भीतरी मनोवृत्ति जो प्रतिक्षण नये-नये रंग दिखलाया करती है और जो वाह्य प्रपंचात्मक संसार का एक बड़ा भारी आईना है जिसमें जैसी चाहो वैसी सूरत देख लेना कुछ दुर्घट बात नहीं है और जो एक ऐसा चमनिस्तान है जिसमें हर किस्म के बेल-बूटे खिले हुए हैं इस चमनिस्तान की सैर क्या कम दिल कहलाव है? मित्रों का प्रेमालाप कभी इसकी सोलहवीं कला तक भी पहुँच सकता है? इसी सैर का नाम ध्यान या मनोयोग या चित्त का एकाग्र करना है जिसका साधन एक दो दिन का काम नहीं वरन् साल दो साल के अभ्यास के उपरांत यदि हम थोड़ा सी अपनी मनोवृत्ति स्थिर कर अवाक् हो अपने मन के साथ बातचीत कर सके तो मानो अति भाग्य है। एक वाक्-शक्तिमात्र के दमन से न जानिये कितने प्रकार का दमन हो गया। हमारी जिह्वा जो कतरनी के समान सदा स्वच्छंद चला करती उसे यदि हमने दबा कर अपने काबू में कर लिया तो क्रोधादिक बड़े-बड़े अजेय शत्रुओं को बिन प्रयास जीत अपने वश कर डाला। इसलिये अवाक् रह अपने आप बातचीत करने का यह साधन यावत् साधन का मूल है, शांति का परम पूज्य मंदिर है, परमार्थ का एकमात्र सोपान है।

(अगस्त, 1891)

raju
24-11-2012, 01:08 PM
हृदय


हमारे अनुमान से उस परम नागर की चराचर सृष्टि में हृदय एक अद्भुत पदार्थ है देखने में तो इसमें तीन अक्षर हैं पर तीनों लोक और चौदहों भुवन इस तिहर्फी (अक्षर) शब्द के भीतर एक भुनगे की नाई दबे पड़े हैं। अणु से लेकर पर्वत पर्यंत छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा कोई काम क्यों न हो बिना हृदय लगाये वैसा ही पोच रहता है जैसा युगल-दन्त की शुभ्रोज्ज्वल खूँटियों से शोभित श्याम मस्तक वाले मदश्रावी मातंग को कच्चे सूत के धागे से बाँध रखने का प्रयत्न अथवा चंचल कुरंग को पकड़ने के लिए भोले कछुए के बच्चे को उद्यत करना। आँख न हो मनुष्य हृदय से देख सकता है पर हृदय न होने से आँख बेकार है। कहावत भी तो है 'क्या तुम्हारे हिये की भी फूटी है', हृदय से देखो, हृदय से पूछो, हृदय में रखो, हिए-जिये से काम करो, हृदय में कृपा बनाये रखो। किसी का हृदय मत दुखाओ। अमुक पुरुष का ऐसा नम्र हृदय है कि पराया दुख देख कोमल कमल की दंडी-सा झुक जाता है। अमुक का इतना कठोर है कि कमठ पृष्ठ की कठोरता तक को मात करता है। कितनों का हृदय वज्राघात सहने को भी समर्थ होता है। कोई ऐसे भीरु होते हैं कि समर सन्मुख जाना तो दूर रहा कृपाण की चमक और गोले की धमक के मारे उनका हृदय सिकुड़ कर सोंठ की गिरह हो जाता है। किसी का हृदय रणक्षेत्र में अपूर्व विक्रम और अलौकिक युद्ध कौशल दिखाने को उमगता है। एवं किसी का हृदय विपुल और किसी का संकीर्ण किसी का उदार और किसी का अनुदार होता है। विभव के समय यह समुद्र की लहर से भी चार हाथ अधिक उमड़ता है और विपद-काल में सिमट कर रबड़ की टिकिया रह जाता है। सतोगुण की प्रवृत्ति में राज-पाट तक दान कर संकुचित नहीं होता, रजोगुण की प्रवृत्ति में बाल की खाल निकाल झींगुरों की मुस्कें बाँधता है। फलत: प्रेम, करुणा, प्रीति, भक्ति, माया, मोह आदि गुणों का प्रकृति-दशा में कभी-कभी ऐसा प्रभाव होता है कि उसका वर्णन कवियों की सामर्थ्य से बाहर हो जाता है उसके अनुभव को हृदय ही जानता है, मुँह से कहने को अशक्य होता है। यदि यह बात नहीं हैं तो कृपाकर बताइये चिर-काल के बिछुरे प्रेमपात्रों के परस्पर सम्मिलन और एकटक अवलोकन में हृदय को कितनी ठंडक पहुँचती है या सहज अधीर, स्वभावत: चंचल मृदु बालक जब बड़े आग्रह से मचल कर धूलि में लोटते हैं वा किसी नई सीखी बात को बाल स्वभाव से दुहराते हैं उस काल उनके मुँह मुकुर पर जो मनोहर छवि छाती है वह आपके हृदय पर कितना प्रेम उपजाती है वा जिसको हम चाहते हैं वह गोली भर टप्पे से हमें देख कतराता है तो उसकी रुखाई का हृदय पर कितना गंभीर घाव होता है? अथवा बहु-कुलीन महादुखी जब परस्पर असंकुचित चित्त मिलते और अत्रुटित बातों में अपना दुखड़ा कहते हैं उस समय उनके आश्वासन की सीमा कहाँ तक पहुँचती है। शुद्ध एवं संयमी, नारायण-परायण को प्रभु-कीर्तन और भजन में जो अपूर्व आनंद अलौकिक सुख मिलता है व प्राकृतिक शोभा देख कवि का हृदय जो उल्लास, शांति और निस्तब्ध भाव धारण करता है उसका तारतम्य कितना है पाठक! हमारे लिखने के ये सब सर्वथा बाहर हैं, अपने आप जान सकते हो।

भक्ति रस पगे हुए महात्मा तुलसीदास जी राघवेंद्र राघव की प्रशंसा में कहते हैं -

'चितवनि चारु मारु मदहरनी। भावत हृदय जाय नहिं बरनी।।''

raju
24-11-2012, 01:10 PM
इससे जान पड़ता है कि हृदय एक ऐसी गहरी खाड़ी है जिसकी थाह विचारे जीव को उसमें रहने पर भी कभी-कभी उस भाँति नहीं मिलती जैसे ताल की मछलियाँ दिन रात पानी में बिलबिलाया करती हैं पर उसकी थाह पाने की क्षमता नहीं रखती। जब अपने ही हृदय का ज्ञान अपने को नहीं है तो दूसरे के मन की थाह ले लेना तो बहुत ही दुस्तर है। तभी तो असाधारण धीमानों की यह प्रार्थना है 'अनुक्तमप्यूहति पंडितो जन:' दूसर के हृदय की थाह लगाना बड़ा दुरंत है। न जाने इस हृदयागार का कैसा मुँह है, पंडित लोग कुछ ही कहें हमारी जान तो इसका स्वरूप स्वच्छ स्फटिक की नाई हैं। इसी से हर चीज का फोटू इसमें उतर जाता है जिस भाँति सहस्रांश की सहस्त्र-सहस्त्र किरणें निर्मल बिल्लौर पर पड़कर उसके बाहर निकल जाती हैं इसी तरह सैकड़ों बातें, हजारों विषय जो दिन-रात में हमारे गोचर होते हैं हृदय के शीशे के भीतर धँसते चले जाते हैं और समय पर ख्याल के कागज में तस्वीर बन सामने आ जाते हैं। इसमें कोई जल्द फहम होते हैं, कोई सौ-सौ बार बताने पर नहीं समझते। उनका हृदय किसी ऐसी चिंता कीट से चेहटा रहता है कि वह आवरण होकर रोक करता है जिस तरह अक्स लेने के लिये शीशे को पहले खूब धो-धुवाकर साफ कर लेते हैं इसी भाँति सुंदर बात को धारण के लिये हृदय की सफाई की बहुत बड़ी आवश्यकता है।

raju
24-11-2012, 01:11 PM
राजर्षि भर्तृहरि का वाक्य है - हृदिस्वच्छावृत्ति: श्रुतमधिगतैकवृतफलमद्' अर्थात हृदय स्वच्छवृत्ति से और कान शास्त्र-श्रवण से बड़ाई के योग्य होते हैं। सह स्वच्छ थैली जिनके पास है वही सदाशय हैं, वही महाशय हैं और वह गंभीराशय हैं उन्हें चाहे जिन शुभ नामों से पुकार लीजिये। और जिनकी उदरदरी में इसका अभाव है वे ही दुराशय, क्षुद्राशय, नीचाशय, ओछे, छोटे और पेट के खोटे हैं। देखी सहृदय के उदाहरण ये लोग हुए हैं। सूर्यवंश शिरोमणि दशरथात्मज रामचंद्र को कराली कैकेयी ने कितना दु:ख दिया था। बारह वर्ष के वन के असीम आपदों का क्लेश, नयन ओट न रहने वाली सती सीता का विरहजन्य शोक, स्नेह सागर पिता का सदा के लिये वियोग ये सब सहकर उनका शुद्ध हृदय उस सौतेली माँ-बाप की तिरछी आँख की आँच न सहकर कह बैठते हैं कि हमारा तो उनकी तरफ से हिरदै फट गया। प्रिय पाठक, श्री स्वामी दयानंद सरस्वतीजी महाराज भी एक बड़े विशद और विशाल हृदय के मनुष्य थे, जिन्होंने लोगों की गाली गलौज, निंदा-चुगली आदि अनेक असह्य बातों को सह कर उनके प्रति उपकार से मुँह न मोड़ा। आज जिनका विपुल हृदय मानो निकल कर सत्यार्थ प्रकाश बन गया है। एक बार यहाँ के चंद लोगों ने कहा कि वह नास्तिक मुँह देखने योग्य नहीं है। यह सुन कर कुछ भी उनकी मुख श्री मलिन न हुई और किसी भाँति माथे पर सिकुड़न न आई। गंभीरता से उत्तर दिया कि यदि मेरा मुँह देखने में पाप लगता है तो मैं मुँह ढाँप लूँगा पर दो-दो बातें तो मेरी सुन लें। बस इसी से आप उनके वृहत हृदय का परिचय कर सकते हैं। किसी ने सच कहा है -

'सज्जनस्य हृदयनवनीतं यद्वदन्ति कवयस्तदलीकम्।

अन्यतेहबिलसत्परितापात्सज्जनो द्रवतिननवनीतम्।।

एक सहृदय कहता है कि कवियों ने जो सज्जनों के हृदय की उपमा मक्खन से दी है वह बात ठीक नहीं है। क्योंकि सत् पुरुष पराया दु:ख देख विघल जाते हैं और मक्खन वैसा ही बना रहता है। बस प्यारों, यदि तुम सहृदय होना चाहते हो तो ऐसे उदार हृदयों का अनुकरण करो, ऐसे ही हृदय दूसरों के हृदयों में क्षमा, दया, शांति, तितिक्षा, शील, सौजन्यता, सच्ची आस्तिकता और उदारता का वीर्यारोपण करने में योग्य होते हैं और सच्चे सुहृद कहाते हैं।

(अक्टूबर, 1887)

raju
24-11-2012, 01:14 PM
हम डार-डार तुम पात-पात

यह गँवारू मसला है हम डार-डार तुम पात-पात। हमारी गवर्नमेंट ठीक-ठीक इस मसले के बर्ताव के अनुसार चलती है, पहले तो ईश्वर की कृपा से यह देश ही ऐसा नहीं है कि यहाँ के आलसी, निरुद्यमी मनुष्य आगे बढ़ने का मन करे क्योंकि तनिक अपनी जगह से हटने का मन किया कि जाति, कुल, धर्म सब में बट्टा लगा और खैर हमारे भैयों में से जिस किसी ने इन वाहियात बातों का विचार मन से ढीला कर मुल्क की दौलत बढ़ाने या कोई दूसरी उपाय से अपनी बेहतरी करना भी चाहा तो एक ऐसा पच्चड़ लग जायगा कि वह सब तदवीर व्यर्थ और निष्फल हो जायगी। बंबई पूना आदि कई स्थानों के लोगों ने कपड़े आदि की कल मगाय यहाँ यहाँ पर उनका काम जारी किया। चीन इत्यादि विदेशों में इनका माल खपने लगा और यहाँ भी बहुत कुछ उनकी रेवण चल निकली तो विलायत में बहुत से हौस और कारखानों के दिवाले पिट गए, इसका कारण मैनचेस्ट प्रभृति के सौदागर ने चिल्लाहट मचा दी तब गवर्नमेंट ने नीति-अनीति का कुछ विचार कर उनके माल पर जो इंपोर्ट ड्यूटी अर्थात विलायती कपड़ों पर जो चुंगी लगती है उसे बंद करना चाहा है जिसका परिणाम यह होगा कि यहाँ वालों का करना कराना सब व्यर्थ होता देख पड़ता है क्योंकि इनका कारखाना अभी न इतना जमा है न वैसी जल्दी कलों से ये थान उतार सकते हैं जैसा विलायत वाले तो अब काहे को इनके माल का परता पड़ेगा और विलायती माल एक तो चुंगी उठ जाने से अब उन्हें रुपये का माल चौदह आने का पड़ेगा तो वे अपना माल इनमें सस्ता बेचेंगे तब देसी माल को कौन पूछेगा। दूसरे सरकार को जो चुंगी उठा देने से करोड़ों की घाटी हुई है वह भी किसी न किसी बहाने से हमीं लोगों से भरेंगे तो हम लोग मानों दोहरी घटी में रहे, इन बातों का ध्यान कर कलकत्ते का 'ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन' बंगाले के प्रधान प्रधान जमींदार और रईसों की बड़ी सभा के लोग जो सदा प्रजा और गवर्नमेंट के हित नियुक्त रहते हैं एक डेपुटेशन आवेदन पत्र लेकर इस विषय का कि यह इंपोर्ट ड्यूटी के उठ जाने से हम सबों की बड़ी हानि है हमारी गवर्नमेंट इस प्रस्ताव में अनुमति न दे इस बात के लिए श्रीमान लार्ड लिटन के पास गए, उस वक्त लाट साहब इस आवेदन पत्र को सुनते ही बड़े कुपित हो कहने लगे कि यह उसी का फल है जो गवर्नमेंट ने भारतवर्ष के अन्यान्य प्रांतों के समान बंगाल के जमींदारों के जमींदारी राइट नहीं छीना 'क्योंकि बंबई आदि प्रांतों में जमींदार स्वयं गवर्नमेंट है, जो तुम सरकार के चिरबाधित और उपकृत होने के बदले सदा गवर्नमेंट को दोषी ठहराया करते हो, हम महाराणी के प्रतिनिधि हैं और तुम लोग उसी महाराणी की अनुग्रहीत प्रजा होकर इस आवेदन पत्र की बहुत बातें इस तरह की रखा है जो किसी तरह सच और हमारे मन माफिक नहीं है जिसे सुन हम बहुत ही नाराज हुए हैं। तुम लोग उन सब बातों को गवर्नमेंट के ही सिर पर छोड़ते हो जिसे वह प्रकट रूप से नामंजूर करती है इससे हौस आफ कामन्स सभा में जो इस इंपोर्ट ड्यूटी के बारे में निश्चय हो गया हम ठीक वैसा ही करेंगे, वाह रे न्याय आश्चर्य की बात है कि जिनके हाथ में ऐसे भारी राज्य हिंदुस्तान का बनना बिगड़ना रख दिया जाय वे स्वच्छंद अपनी अनुमति कुछ प्रकाश न कर सकें और सर्वतोभावेन हौस आफ कामन्स की बुद्धि से प्रचालित हो, तथा इन्हीं हौस आफ कामन्स ने लार्ड नार्थब्रुक के समय ऐसा ही दौरा नहीं मचाया था पर उक्त श्रीमान ने उसे किसी तरह नहीं मंजूर किया अब दूसरी बात सुनिए कि रोजे को गए नमाज गले बँधी श्रीमान लार्ड लिटन ने अपनी स्पीच में यह भी कहा जो लोग दुर्भिक्ष निवारणार्थ गवर्नमेंट से संस्थापित लाइसेंस टैक्स नहीं स्वीकार करते वे गवर्नमेंट के बड़े अपवादकारी हैं, और काबुल युद्ध भी हिंदुस्तान के ही उपकार के लिए किया गया है इससे भारतवासी मित्रों को उचित है कि यथाशक्ति उसमें भी सहायता करें हिंदुस्तान ऐसा महाराज जिसकी प्रजा की संख्या 20 करोड़ और सालाना आमदनी 52 करोड़ है ऐसा संपन्न राज्य असभ्य अफगानिस्तानियों से अपमानित हो यदि बदला न ले सका तो बड़ी निंदा और लज्जा की बात है और इस क्षुद्र राज्य के साथ युद्ध करने में जो यत्किंचित खर्च हुआ उसका थोड़ा सा बोझा भी भारतवासियों को क्लेशकारी हुआ तो इससे अधिक और क्या ग्लानि और निंदा की बात होगी, उन लाट साहब से अब हमारी यह सविनय प्रार्थना है कि वे भारत राज्य का सब भार अपने ऊपर लेकर आए हैं तो इनको अवश्य इंग्लैंड और हिंदुस्तान की अवस्था सदा ध्यान रखना चाहिए यह नहीं कि वहाँ की पार्लियामेंट से जो निर्धारित हो गया वही करें। इन दिनों इंग्लैंड के बराबर धनाढ्य देश कोई दूसरा नहीं है उसके साथ दरिद्र दुरवस्थापन भारत की समता करना कौड़ी और मोहर को बराबर करना है तिस पर यह निष्क्रिय हिंदुस्तान प्रतिवर्ष इंग्लैंड को 20 करोड़ रुपये देता है। यदि सब काम हौस आफ कामन्स के द्वारा इंग्लैंड में ही बैठे हो सकता तो यहाँ इतने बड़े उच्च पदाधिकारी गवर्नर जनरल का क्या प्रयोजन है। इससे हम लोग संपूर्ण रूप से आशा करते हैं कि गवर्नर जनरल साहब इस दरिद्र भारतवर्ष पर कृपा दृष्टि रखेंगे यद्यपि होई वही जो राम रचि राखा पर हमें भी अपने फर्ज से अदा होना चाहिए।

(अप्रैल, 1879)