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View Full Version : राजनीति केवल खलनायक नहीं


Dark Saint Alaick
26-11-2012, 12:50 AM
राजनीति केवल खलनायक नहीं
गांधी-नेहरू, विनोबा भी हैं इसमें

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=20054&stc=1&d=1353876586

मित्रो, कांग्रेस के महासचिव और राज्यसभा सदस्य जनार्दन द्विवेदी ने रविवार, 25-11-2012 को जयपुर में राजस्थान हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा अकादमी परिसर में आयोजित 'पुस्तक पर्व' के दूसरे दिन एक सारगर्भित एवं पठनीय व्याख्यान दिया। मैं यहां उसके महत्वपूर्ण अंश प्रस्तुत कर रहा हूं। उम्मीद है सुधि सदस्यों को यह रुचिकर लगेगा। धन्यवाद।

Dark Saint Alaick
26-11-2012, 12:51 AM
मुझे संस्कृति, सद्भाव एवं राजनीति का विषय दिया गया है। अगर यह विषय संस्कृत-इतिहास और राजनीति होता तो भी मेरा काम आसान हो जाता, बीच में सद्भाव भी ले आए। कौनसी संस्कृति है जो सद्भाव से विमुख होगी? फिर भी मैं विषय से जोड़ने का प्रयास करूंगा। यह अशोक जी की गांधी वाली जो बात है, वैसी एक दुर्घटना मेरे साथ भी हुई है। लेकिन वह दुर्घटना मानसिक अधिक है, भौतिक कम है। मैंने किसी सार्वजनिक जीवन के प्रसंग में अपने संगठन को मैं व्यावहारिक राजनीति को अपनी बात से दूर रखूंगा। अपने संगठन को दो पंक्तियां दी थीं। मुझे ऐसा लगता है कि यह दोनों पंक्तियां अपने-अपने ढंग से जब तक वह संदर्भ जीवित है, तब तक हमेशा जीवित रहेंगी और उसके पीछे एक वैचारिक पृष्ठभूमि भी है, क्योंकि इसके बाद ही इस विषय पर आ सकता हूं। अतीत की नींव और भविष्य का निर्माण। यह पंक्ति बहुत प्रसिद्ध हुई है लेकिन उसका आरम्भ कहां से हुआ है, कोई नहीं जानता। कोई भविष्य निराधार रूप से तैयार नहीं हो सकता। उसका कोई आधार होना चाहिये। बहुत सारी विचारधाराएं जो संसार में फैलीं, वे अतीत से कटकर पनप नहीं सकीं। इसलिये अतीत की नींव पर ही भविष्य का निर्माण हो सकता है और यहीं से इतिहास और संस्कृति से सूत्र लिखे हैं। दूसरा वाक्य है मेरा गांधी अतीत नहीं भविष्य भी है। जब तक गांधी का नाम जीवित रहेगा, तब तक शायद यह बात भी किसी न किसी रूप से लोग याद करते रहेंगे। मेरे नाम से नहीं, मुझे गलतफहमी नहीं है। मैं कह रहा हूं यह भावना, यह विचार जैसे-जैसे समय बीत रहा है, वैसे-वैसे गांधी सारी दुनिया में और प्रांसगिक हो रहा है।

Dark Saint Alaick
26-11-2012, 12:52 AM
सिर चढ़कर बोल रहा है गांधी का जादू

आज से 15-20 साल पहले एक अभियान चला था देश में गांधी को भुलाने का और गांधी को मिटाने का। लेकिन जादू तो वह जो सिर पर चढ़कर बोले और गांधी वह जादू है जो सिर पर चढ़कर बोल रहा है। आज दुनिया में गांधी की जितनी मूर्तियां लग रही हैं, हर प्रयास के साथ जिस तरह से गांधी का नाम जुड़ रहा है, वह गांधी की शक्ति है और उसको अगर मैं एक वाक्य में समेटकर कहूं तो जब तक इस संसार में अन्याय और अत्याचार रहेगा, तब तक उसके विरुद्ध प्रतिकार भी होगा और जब तक अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध प्रतिकार चलेगा, तब तक गांधी बना रहेगा। गांधी का संबंध कहीं मानव जीवन से जुड़ रहा है। इसलिए मैं इतिहास व संस्कृति के प्रवाह में गांधी का महत्व समझता हूं।

Dark Saint Alaick
26-11-2012, 12:53 AM
नेहरू से आधुनिक कोई नहीं

तीसरी बात मुझे कहनी है और मैं जो नाम लेने जा रहा हूं वह राजनीतिक दृष्टि से नहीं है। मैं नहीं जानता कि आधुनिक भारत के इतिहास में महात्मा गांधी के बाद जवाहर लाल नेहरू से ज्यादा अधिक व्यापक और सही इतिहास दृष्टि का कोई व्यक्ति पैदा हुआ, जो एक साथ चिंतन, राजनेता और स्वप्नदर्शी वह रहा है। सपने जरूरी होते हैं, पर बेतुके नहीं होने चाहिये। जो सपना नहीं देखेगा वह नया निर्माण नहीं करेगा। नया निर्माण पहले सपने से पैदा होता है। इस अर्थ में नेहरू स्वप्नदर्शी भी थे। मैं नहीं जानता कि आधुनिक इतिहास में, आधुनिक भारत के इतिहास में नेहरू से अधिक आधुनिक कोई था। उनके जमाने में उनसे ज्यादा मॉडर्न कोई नहीं था और दुनिया में भी कम लोग थे। नेहरू से अधिक राजनीति में मौलिक भी कोई नहीं था और नेहरू से अधिक साहसी भी कोई नहीं था। समग्र नेहरू को आप पढ़िए, देखिए लोगों के सामने, जनता के सामने आजादी से पहले और आजादी के बाद भी इतनी खरी-खरी बात कहने वाला कोई नहीं था। जब वह आजादी की लड़ाई के लिए जाते थे, तो सामंती व्यवस्था के विरुद्ध जिस भाषा में वह बोलते थे, उसकी आप कल्पना नहीं कर सकते। कहते थे यह राजे-महाराजे, यह उनके शब्द हैं। यह राजे-महाराजे आज भी समझे बैठे हैं कि इनका राज चल रहा है, गया। अरे भाई तुम गुलाम हो, दूसरो को गुलाम बनाना चाहते हो, गुलाम का गुलाम कौन बनना चाहेगा? हम सबसे आजादी चाहते हैं। उनसे भी चाहते हैं जो हमारे देश पर कब्जा किए बैठे हैं और तुमसे भी आजादी चाहते हैं।

Dark Saint Alaick
26-11-2012, 12:53 AM
इतने साहस के साथ में उस समय बोलना और आजादी के बाद का तो पता ही नहीं। वह नेहरू भी कैसे संस्कृति से इतिहास प्रभावित होता है, मैं एक दृष्टि के लिए उनको कोट करना चाहता हूं, जो उनकी हिन्दी में अनुदित पुस्तक है भारत आज और कल, उससे लिया है-मैं अक्सर यह सोचकर हैरान रह जाता हूं कि हमारी जाति कहीं गुप्त महाभारत, रामायण, गीता और उपनिषदों को भूल जाए तो इसका क्या हश्र होगा? हमारी जड़ें उखड़ जाएंगी। हम अपनी उन सारी बुनियादी खूबियों को खो देंगे, जो युगों से हमारे साथ चली आ रही हैं और जिनके कारण हमारी दुनिया में हेसियत बनी हुई है। तब भारत, भारत न रह सकेगा। मैं उन परंपरावादियों से कहना चाहता हूं जो आज की तारीख में 17वीं और 18वीं शताब्दी का समाज बनाना चाहते हैं। बताओ नेहरू से अधिक परंपरा का समर्थक कौन है और नेहरू से अधिक आधुनिक कौन है?
इसका कोई जवाब दे दे। अगर यह सही है तो वे सारे सिद्धान्त भी सही हैं, जो इस देश और समाज के लिए गांधी और नेहरू ने दिए थे। और इस भूमिका के साथ अगर मैं कहूं तो संस्कृति के प्रति मेरी एक दृष्टि दूसरी बनती है। मैं मानता हूं कि संस्कृति भी एक मूल्य है। संस्कृति कोई गाथा नहीं है, न महापुरुष की गाथा है, न राजनीतिक इतिहास की गाथा है, न किसी की यशोगाथा है, और यह परंपरा हमारे यहां है। तुलसीदास जैसा व्यक्ति कहता है ‘येने प्राकृत जन गुन गाना, सिर धरि गिरा लगत पछताना।

Dark Saint Alaick
26-11-2012, 12:54 AM
निंदित होने के बावजूद राजनीति अनिवार्य

अब आएं राजनीति पर, आपने राजनीति को भी जोड़ दिया है। देखने में थोड़ा तुक नहीं बनता, लेकिन सही जोड़ दिया है, क्योंकि मैं आज राजनीति पर भी कुछ कह देना चाहता हूं। आज राजनीति सबसे अधिक निन्दित है। सबसे अधिक टीका-टिप्पणी उसको लेकर होती है और होनी भी चाहिए क्योंकि राजनीति में राजनीति करने वालों की परीक्षा होती है ना, नन्दकिशोर आचार्यजी से कहना चाहता हूं साहित्यकार की परीक्षा अब नहीं होती। आप कुछ भी लिखकर बरी हो जाते हैं। सार्वजनिक जीवन वाला बरी नहीं होता है। वह जिम्मेदारी निभाता है तो आप टिप्पणी करते हैं और आपको जिम्मेदारी देते ही आप रणछोड़ दास हो जाते हैं, तो ऐसा नहीं चलता है। दोनों चीजें साथ नहीं चलेंगी। हम पानी में कूदें और गीले नहीं हों, ऐसा नहीं हो सकता। लेकिन इतना निन्दित होने के बावजूद राजनीति अनिवार्य है।

Dark Saint Alaick
26-11-2012, 12:54 AM
राजनीति कॅरियर नहीं मानव जीवन की व्यवस्था

मुझे कोई बता दे कि जब से मनुष्य पैदा हुआ है तब से कब राजनीति नहीं की? क्योंकि राजनीति वह नहीं है, राजनीति कॅरियर नहीं है। राजनीति मानव जीवन की व्यवस्था है। अगर इस मानव जीवन को व्यवस्था देनी है तो उसका कोई आधार होगा और उसके लिए कुछ लोग आगे आएंगे ही आएंगे। राजनीति खाली खलनायक नहीं है, राजनीति में गांधीजी हैं, नेहरू जी हैं, विनोबा भी हैं और लोग भी हैं। मैं समझता हूं इसलिए इस सार्वजनिक जीवन को, इस सार्वजनिक कर्म को, जिसका उद्देश्य पवित्र है, उसे सही पटरी पर बनाए रखने का सामाजिक दबाव भर बना रहना चाहिए, और वह दबाव बढ़ रहा है। वह दबाव इस संस्कृति की परम्परा में है, क्योंकि राजनीति सत्ता नहीं है। सत्ता एक माध्यम है। इसलिए चेतना जिस दिन जगाई जाएगी, उतनी राजनीति फलवती होगी। यह अनिवार्य कर्म ऐसा है जिसका सदुपयोग उसे सत्कर्म बनाता है और जिसका दुरुपयोग उसे दुष्कर्म बनाता है। इस अन्तर को बनाए रखने की जरूरत है। अब इस शब्द के बीच में एक शब्द और मुझे बीच-बीच में आता है। क्योंकि संस्कृति किसी एक चीज से तो नहीं बनती, संस्कृति में साहित्य भी है, संस्कृति में पत्रकारिता भी है, संस्कृति में धर्म भी है, संस्कृति में राजनीति भी है। इस देश की संस्कृति में सबका एक समन्वित रूप है और इसमें मुझे एक राजनीतिक चिन्तक फिर कहूंगा मैं, राम मनोहर लोहिया का एक वाक्य याद आता है। उन्होंने लिखा है धर्म दीर्घकालीन राजनीति है, और राजनीति अल्पकालिक धर्म है। ध्यान से इसको समझइगा। कौनसा धर्म ऐसा है जो यह न कहता हो कि धर्म को अगर जीवन में नहीं उतार पाए तो काहे के धार्मिक हो तुम? धारेति धर्म:। जिसे धारण किया जा सके, वह धर्म है। तो जो आचरण संहिता स्थाई हो गयी, वह धर्म बन गया। और राजनीति क्या है? कौन से हमारे जीवन का पक्ष है जो आज उस राजनीति से नियन्त्रित नहीं है, क्योंकि हमको किसी व्यवस्था में जीवन है और कौनसा ऐसा समाज होगा या समय होगा, जब कोई व्यवस्था नहीं होगी। बिना व्यवस्था के समाज नहीं होता है।

Dark Saint Alaick
26-11-2012, 12:55 AM
गांधी को पढ़ना बहुत कठिन

इसलिए मैं समझता हूं कि लोहियाजी ने सही कहा था कि यह अल्पकालिक धर्म है और उसी पवित्रता के भाव से करना चाहिए, यहां संस्कृति और आपकी राजनीति का संबंध जुड़ जाता है और यहीं पर गांधी बीच में आता है। मैं गांधी को कोट करना चाहता हूं। गांधी ने जब वह पहली बार राजनीति में आए तो उन्होंने क्या लिखा? असल में गांधी को पढ़ना बहुत ही कठिन बात है, बहुत ज्यादा है। गांधी को टुकड़ों में पढ़ना। 60 हजार से ऊपर छपे हुए पन्ने हैं गांधी के बड़ी साइज के, छोटी किताब के नहीं, और इसके अलावा अब भी कुछ बचा हुआ है। टुकड़ों में पढ़कर और गांधी का जीवन एक क्षण भी उनके जीवन का ऐसा नहीं था जिस समय वह कभी अवकाश में रहते हों। लोगों से मिलना है, तब कुछ भी आॅटोमेटिक नहीं था, हर आदमी का जवाब हाथ से लिखकर देना है। गांधीजी की टाइप चिट्ठियां आपको नहीं मिलेंगी। इसके साथ साथ हम समझते हैं कोई सम्पादक हो गया, कोई लेखक हो गया, कोई कुछ हो गया, कोई कुछ हो गया और समझता है कि मैं बहुत बड़ा आदमी बन गया हूं। गांधी एक साथ जन नेता थे, पत्र लेखक थे, संवाददाता थे, सम्पादक थे, सिद्धान्त निर्माता थे, क्या नहीं थे गांधी? आश्रमवासी थे, आश्रम की व्यवस्था भी थे, हर काम खुद करना पड़ता था। अपना सब कुछ काम करते थे। दूसरे के भरोसे नहीं थे। तब ना ऐसी रेलगाड़ियां थीं, ना ऐसे वायुयान थे, न कारें थीं और देष में कोई जगह चले जाइए, आपको सुनने को मिलेगा गांधीजी आज ही आए थे, यह साधारण बात है। ऐसे नहीं आइंस्टीन ने कहा था कि कोई जमाना आएगा कि आने वाली पीढ़ियां यह विश्वास नहीं करेंगी कि गांधी जैसा हाड़-मांस का पुतला कभी इस धरती पर था और ऐसे नहीं कहा था। आइंस्टीन भी कोई साधारण दिमाग का व्यक्ति नहीं था।

Dark Saint Alaick
26-11-2012, 12:55 AM
बहरहाल मैंने जो राजनीति की बात कही, वह राजनीति की बात में सिर्फ गांधी को फोकस करना चाहता हूं और आज का नहीं, गांधी 1915 में भारत आए थे राजनीति में प्रवेश के लिए, 1920 में उन्होंने लिखा जो उनको रियलाइजेशन हुआ। 12 मई 1920 को यंग इंडिया में लिखा था। वे दो अखबारों का नियमित सम्पादन करते थे यंग इंडिया और एलीजंट। उसमें वह पाठकों के पत्रों का जवाब भी देते थे। मेरे भीतर बैठे राजनीतिज्ञ ने मेरे एक भी निर्णय को मुख्य रूप से प्रभावित नहीं किया है और यदि मैं राजनीति में भाग लेता दिखाई देता हूं तो वह केवल इस कारण कि आज राजनीति में सर्प की कुंडली की भांति हमें जकड़ लिया है। वह राजनीति ही थी जो मुट्ठीभर अंग्रेजों का इतना विस्तार किया कि एक तिहाई दुनिया उनकी गुलाम हो गई। तो वह केवल इस कारण कि आज राजनीति ने सर्प की कुंडली की भांति हमें जकड़ लिया है और व्यक्ति कितनी भी कोशिश करे, इससे मुक्त नहीं हो सकता है। इसलिए मैं इस सर्प के साथ संघर्ष करना चाहता हूं। जैसा कि मैं कमोबेश सफलता के साथ जान-बूझकर 1894 से और अनजाने जैसा कि मैंने अब समझा है, होश संभालने की उम्र से करता आ रहा हूं। राजनीति में वह आए जो इस स्वप्न के साथ संघर्ष करना चाहता हो वरना राजनीति में रहने की जरूरत नहीं है। मेरी बिल्कुल स्पष्ट सीधी-सी राय यह है। उसके बाद देखिए, राजनीति कैसे बिगड़ सकती है?

Dark Saint Alaick
26-11-2012, 12:56 AM
राजनीति में रहने वाले को गांधी जैसा निरपेक्ष होना चाहिए

और एक बात राजनीति में रहने वाले को गांधी जैसा निरपेक्ष भी होना चाहिए। जब उनको लगा कि भारत आजाद हो जाएगा। अब अपने देशवासियों को यह शिक्षा अभी से देनी शुरू कर देनी चाहिए कि सत्ता पाकर पागल मत हो जाना। गांधीजी ने 1 अप्रेल 1940 को कहा था और यह हिन्दुस्तान स्टेण्डर्ड में छपा था। यदि भारत केवल राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करके संतुष्ट हो जाता है और मेरे करने योग्य कोई बेहतर काम शेष नहीं रहता तो मैं हिमालय की ओर प्रस्थान कर जाऊंगा और मेरी वाणी सुनने के इच्छुक व्यक्तियों को मुझे वहां ही खोजना पड़ेगा।

Dark Saint Alaick
26-11-2012, 12:56 AM
गठबंधन हमारी च्वाइस नहीं, बल्कि व्यवस्था है

मैं इसको पलायन के रूप में नहीं लेता। मैं इसको इस रूप में लेता हूं कि आजादी के बाद अगर गांधी जैसा चाहते थे, वैसी व्यवस्था नहीं बनी तो वह उस व्यवस्था से संघर्ष करने का भी मन बना रहे थे। गांधी कोई बात निरर्थक नहीं कहा करते थे और उसका एक और प्रमाण मैं आपको देना चाहता हूं कि आज जिस तरह की राजनीति चल रही है, आज माने 10-20-30-40-50 वर्षों में जो देखा और खासतौर से जब से यह गठबंधन का सिलसिला शुरू हुआ। गठबंधन कुछ नहीं है, समझौता है और समझौता सत्ता का गठबंधन है। इसलिए मैं यह कहा करता हूं कि गठबंधन हमारी च्वाइस नहीं है। ऐसा नहीं है कि हम गठबंधन चाहते हैं, गठबंधन हमारी व्यवस्था है। या तो जाने यह देश किधर जा रहा है, या मजबूरी में जिसको अंग्रेजी में कहते हैं द चूज लेसन ...., तो किसी तरह का समान विचार, कहने को जितने समान विचार हो सकते हैं, तो समझौता कर लो। लेकिन एक चीज और भी होती है गठबंधन न भी हो, अकेले भी कोई सरकार बनाए तो निहित स्वार्थ तो सब जगह आ जाते हैं। अशोक गहलोत जी भी झेल रहे हैं यहां, सरकार तो चलानी ही है।

Dark Saint Alaick
26-11-2012, 12:57 AM
गांधीजी ने लिखा आजादी से 10 साल पहले हरिजन में 7 अगस्त 1937 को और लगता है जैसे आज लिख रहे हैं, बात 1937 की है। 72-73 साल पहले की है और लग रहा है, आजकल लिख रहे हैं। थोड़ी देर के लिए आप तारीख भूल जाएं तो मैं पढ़कर सुनाता हूं-विभिन्न हितों की संतुष्टि के लिए मंत्रियों के पद बढ़ाना निश्चित रूप से गलत होगा। यदि मैं प्रधानमंत्री होऊं और मुझे इस तरह के दावों से परेशान किया जाए तो मैं अपने निर्वाचनों से कह दूं कि वे मेरे स्थान पर दूसरा नेता चुन लें। इस तरह के पद तटस्थ भाव से धारण किए जाने चाहिए। ऐसा न हो कि आप उनसे चिपक जाएं। यह गांधी लिख रहे हैं और 1937 में लिख रहे हैं। यह बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण होगा यदि स्वार्थी और पद भ्रष्ट कट्टर समर्थकों को इस बात की छूट मिल जाए कि वे प्रधानमंत्री के ऊपर स्वयं को थोपकर राष्टñ की प्रगति को अवरुद्ध कर सकें। कोई प्रधानमंत्री एक क्षण के लिए भी अपनी पसंद की स्त्री या पुरुष को पार्टी के ऊपर नहीं थोप सकता।

Dark Saint Alaick
26-11-2012, 12:57 AM
पत्रकारिता आज भ्रम-विभ्रम की गंगोत्री

राजनीति से जुड़ा हुआ एक काम पत्रकारिता का भी है। आज मैं अगर कोई बात कहूं तो मैं जिस पार्टी से जुड़ा हूं उस नाते मुझे गलत समझा जायेगा कि मैं पत्रकारिता की आलोचना कर रहा हूं। लेकिन पत्रकारिता की एक भूमिका है और आज तो सबसे ज्यादा है। आज तो पत्रकारिता भ्रम-विभ्रम की गंगोत्री है। अभी खबर आएगी कुछ ऐसी, जिसका कुछ सिर-पैर नहीं होगा और इलेक्ट्रोनिक मीडिया को बड़ी सुविधा है। प्रिन्ट मीडिया तो लिखकर फंस जाता है क्योंकि उसका लिखा हुआ मौजूद रहता है। इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने तो अभी कहा और दो घंटे बाद कहा अभी-अभी यह समाचार मिला है कि ऐसा हो गया, तो फिर तो उनकी सफाई आ गई, लेकिन प्रिन्ट वाले फंस जाते हैं।

Dark Saint Alaick
26-11-2012, 12:57 AM
बहरहाल पत्रकारिता का जहां तक प्रश्न है, मुझे लगता है कि अब समय आ गया है जब इसके बारे में भी ठीक से सोचा जाए और जो बात कही जाए, वह बात इस तरह की जो सिर्फ तथ्य और सत्य से संबन्धित हो। पत्रकारिता का एक सामाजिक दायित्व भी है समाज को सुधारना या समाज को बदलना जहां और लोग करते हैं वहां यह चौथा स्तंभ भी करता है और इसलिए उस दायित्व का निर्वाह भी करना चाहिए। आपका एक-एक शब्द, आपका एक-एक समाचार बहुत सारी अच्छी और बुरी घटनाओं को जन्म देता है। लेकिन अब एक दिक्कत दूसरी है, मैं इसके लिए पत्रकारों को ही दोष देता हूं जैसे राजनीति और शासन में व्यवस्था का दोष है, अब पत्रकारिता में भी यह दोष है। अब मालिक संपादक होता है। अब उसे योग्य संपादक नहीं चाहिए। मालिक का नाम जाएगा प्रधान संपादक में, जिसके संपादकीय ज्ञान में पूरा-पूरा संदेह है। दूसरा, सभी जो माध्यम हैं, वह कारपोरेट के कब्जे में जा रहा है। अब संघर्ष दोहरा है। क्या करेंगे आप? पर राजनीति भी पूंजी से प्रभावित हो रही है, पत्रकारिता भी पूंजी से प्रभावित हो रही है, प्रकाशन भी पूंजी से प्रभावित हो रहा है, लेखक और पत्रकार क्या करेगा? मैं समझता हूं ऐसी गोष्ठियों के सामने सबसे बड़ा सवाल और चर्चा का सबसे बड़ा विषय यह होना चाहिए। खैर, अभी कुछ न कहकर फिर से मैं गांधीजी पर आता हूं, क्योंकि गांधी को मैं एक मानदंड मानता हूं। हर देश के कुछ मानदंड होते हैं और भारत के लिए, भारतीय जीवन के लिए मैं नहीं समझता कि गांधी से बड़ा मानदंड कुछ हो सकता है, क्योंकि गांधी की जो परम्परा है, उस परंपरा को मैं पीछे की विचार श्रेणियों से जोड़ता हूं और उसमें मैं अपनी बात कहकर समाहार करूंगा, वरना यह विषय फिर बढ़ता ही जाएगा।

Dark Saint Alaick
26-11-2012, 12:58 AM
गांधीजी अपने को स्वयं पत्रकार मानते थे। उन्होंने एक जगह लिखा, यह लिखा हरिजन में 27 अप्रेल 1947 को आजादी से थोड़ा पहले-प्रेस को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जा सकता है, उसके शक्तिशाली होने में कोई संदेह नहीं है। उस समय भी और आज भी पत्रकारिता के हाथ में बहुत कुछ है। तभी मैंने कहा कि आप गलत दिशा में भी ले जा सकते हो, सही दिशा में भी ले जा सकते हो। यह मार्ग तो पत्रकारिता का है। उन्होंने कहा, प्रेस को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जा सकता है, उसके शक्तिशाली होने में कोई संदेह नहीं है, लेकिन उस शक्ति का दुरुपयोग करना एक अपराध है। मैं स्वयं एक पत्रकार हूं और अपने साथी पत्रकारों से अपील करता हूं कि वे अपने उत्तरदायित्व को समझें और अपना काम करते समय केवल इस विचार को प्रश्रय दें कि सच्चाई को सामने लाना है और उसी का पक्ष लें। मैं नहीं समझता हूं कि पत्रकारिता के लिये इससे बड़ा संदेश कुछ हो सकता है और जो अखबारों के मालिक हैं, या इलेक्ट्रोनिक मीडिया के स्वामी हैं, उनको भी एक विनम्र सलाह है और वह भी मैं गांधीजी के शब्दों में देना चाहता हूं और यह अभी नहीं, 1930 की आत्मकथा में, जिसका जिक्र अशोक जी आप कर रहे थे, और आत्मकथा के 352 पेज पर एक कोट लिखा हुआ है-समाचार पत्र सेवा भाव से चलाए जाने चाहिए। समाचार पत्र में बड़ी शक्ति है और यह कितने व्यापक ढंग से लिखा है इसको देखिये आप-समाचार पत्र सेवा भाव से चलाए जाने चाहिए।

Dark Saint Alaick
26-11-2012, 12:58 AM
समाचार पत्र में बड़ी शक्ति है, पर जैसे निरंकुंश पानी का बहाव गांव के गांव बहा देता है, और फसल बरबाद कर देता है, वैसे ही लेखनी का निरंकुश प्रवाह विनाश करता है और यह अंकुश बाहर से आता है तो वह निरंकुशता से ज्यादा जहरीला साबित होता है। जब आप दबाव में लिखते हैं तो अधिक विनाशकारी होता है। उनके कहने का मतलब दबाव किन चीजों का है। दबाव अलग अलग देश की अलग अलग परिस्थितियों के हिसाब से कहीं राज सत्ता का दबाव हो सकता है, कहीं पूंजी का दबाव हो सकता है, कहीं लोभ का दबाव हो सकता है, दबाव जो भी हो। यह अंकुश बाहर से आता है जो वह निरंकुशता से ज्यादा जहरीला होता है, भीतर का अंकुंश ही लाभदायक हो सकता है। इसलिये मुझसे कोई नीति की बात करे कि हमारी क्या पॉलिसी होनी चाहिये राजनीतिक दृष्टि से या सामाजिक दृष्टि से, तो मैं यही कहूंगा कि अब समय आ गया है कि पत्रकार जगत, पत्रकारिता के जगत जिसके मालिक और पत्रकार दोनों शामिल हैं। यह अपने लिए आचरण संहिता बनाएं और उसके अनुसार चलें तो शायद समाज को कोई रास्ता मिलेगा।

Dark Saint Alaick
26-11-2012, 12:59 AM
सद्भाव की बात


अब तीसरी बात आती है जिसको मैं समाप्त करना चाहूंगा सद्भाव की बात है। देखिये अब सद्भाव कुल मिलाकर मानव मूल्यों की एक सतत प्रवाहमान धारा है और उससे ही यह सारी चीजें पैदा होती हैं। लेकिन एक बात आज जरूर देखेंगे कि आप अपना शुरू से इतिहास उठाकर देख लीजिये, वैसे तो दुनिया के इतिहास में भी है, इस समाज में, मानव जीवन के इतिहास में यह दो परम्पराएं समानांतर चली हैं। क्षुद्र परंपरा और महान परंपरा। यह क्षुद्र महान परंपरा का अंतर ठीक उस तरीके से है जो अंतर धर्म और संप्रदाय में है।

Dark Saint Alaick
26-11-2012, 12:59 AM
मैं देखता हूं पुराने वैदिक काल में पहले जो तीन वेद हैं, उनके बाद अथर्ववेद तक आते हैं और अथर्ववेद के किसी भी सूत्र में आते हैं तो आज के हमारे पर्यावरण की सारी नीतियां बासी लगती हैं। अब उस स्थान पर जाऊंगा तो फिर लंबा हो जाएगा। मैंने कहा न यह विषय ऐसे हैं हरि अनंत, हरिकथा अनंता। मैं वहां नहीं जा रहा। मध्यकाल से जहां जिसके आस-पास से, जहां से साहित्य खास तौर से हिन्दी का साहित्य और भारतीय भाषाओं का साहित्य आरंभ होता है, मैं इसमें हजारी प्रसाद जी की बात से पूरी तरह सहमत हूं, जिसमें उन्होंने कहा कि 14वीं और 15वीं शताब्दियां राजनीतिक रूप से फलेंगी, भारत के लिए पराजय की शताब्दियां रही हों, लेकिन आत्मिक रूप से वह पराजय की शताब्दियां नहीं थीं और उसके बाद में सारी भारतीय भाषाओं की तरफ आप देखें तो जितना उत्कृष्ट साहित्य उस समय लिखा गया है, उतना शायद उसके बाद भी नहीं लिखा गया, ऐसा मुझे लगता है। इसलिए मैं मध्य काल से शुरू करता हूं।

Dark Saint Alaick
26-11-2012, 12:59 AM
मध्य काल में अकबर भी पैदा होता है और उसी परिवार में औरंगजेब भी पैदा होता है। कारण क्या है? अकबर को पढ़ाया था शेख अहमद ने और औरंगजेब को पढ़ाया था शेख सेफुद्दीन ने, जो शेख अहमद के पोते थे। दोनों बदले गुरु बदला तो चेला भी बदल गया। आजकल के गुरु समाज को कितना गुमराह कर रहे हैं, आप जानते हैं। यह गांधी के हृदय परिवर्तन की बात है, उस पर भी मैं विश्वास करता हूं। इसका प्रमाण है मेरे पास कि अगर औरंगजेब को शेख सेफुद्दीन ने नहीं पढ़ाया होता तो औरंगजेब, औरंगजेब नहीं बनता, क्योंकि मूल रूप से इतना कट्टर वह नहीं रहा होगा।

Dark Saint Alaick
26-11-2012, 01:00 AM
भक्ति साहित्य में बाबरी मस्जिद कहीं नहीं

आपको मालूम है उसने तीन नये आम पैदा किये थे, उनकी कलमें बनाई थीं औरंगजेब ने, बहुत कम लोगों को मालूम होगा और उनके नाम रखे थे। एक का नाम रखा था नवरंग बिहारी, एक का नाम था सुधाफल और एक का नाम था रसना विलास। यह नाम औरंगजेब ने रखे थे। मैं कह रहा हूं कि मैं बहुत पहले नहीं जा रहा, मैं बाबरनामा से बहुत सारी चीजें कह सकता हूं, जो बहुत सारा आजकल का दुष्प्रचार है, उससे वह अलग जाता है। लेकिन फिर भी बार-बार पुरानी बात याद आ रही है तो एक बात कह ही देता हूं। मैंने पूरा भक्ति साहित्य पढ़ा, जितना मैं पढ़ सकता था और यहां बहुत सारे विद्वान हैं, मेरा ज्ञान बढ़ा दें अगर किसी को मिला हो। एक-दो साल नहीं पढ़ा, 25-30 साल वह पढ़ने-लिखने वाला काम भी करता रहा हूं। मुझे कहीं उल्लेख नहीं मिला किसी भक्ति साहित्य में बाबरी मस्जिद का। कहीं बाबर वगैरह के खिलाफ भी कुछ नहीं मिला मुझे, एक शब्द भी नहीं मिला।

Dark Saint Alaick
26-11-2012, 01:00 AM
...क्या वे तुलसीदास से बड़े रामभक्त थे

तो क्या मैं मान लूं कि 6 दिसम्बर 1992 को हुआ था, अयोध्या में जिन्होंने किया था वह तुलसीदास वगैरह से बड़े रामभक्त थे। मन नहीं मानता, बहुत बुरा लगता है। 6 दिसम्बर 1992 को यह घटना हुई थी और 12 अक्टूबर 1992 को हमने सरयू के किनारे एक बड़ी रैली की थी। अब उसमें हमने वहां एक अपील की थी संस्कृति की रक्षा का मतलब होता है हमारा अच्छा-बुरा जो भी है, हम उसको सुरक्षित रखें। इतिहास का मतलब भी होता है अगर अच्छा या बुरा जो भी इतिहास हमारी धरती का है उसे हम सुरक्षित रखें, क्योंकि बुरे इतिहास को सुरक्षित रखते हैं तो आने वाली पीढ़ियों को शिक्षा मिलती है, सबक मिलता है कि अगर किसी ने नालायकी की है तो ऐसी नालायकी दूसरा न करे। जब अच्छा इतिहास देखते हैं तो उससे प्रेरणा मिलती है आगे बढ़ने की और कुछ अच्छा करने की।

Dark Saint Alaick
26-11-2012, 01:01 AM
मैं आपको सच बता रहा हूं निर्मल खत्री, जो वहां से ससंद सदस्य रहे कई बार, इस समय भी हैं, वह मेरे साथ थे। वहां छोटी और बड़ी मस्जिद के दोनों इमाम और सारे मंदिरों के साधु-संतों ने आकर हमारा स्वागत किया। यह होता है विवेक की बात का असर, लेकिन उसे साहस जैसा कहना चाहिये, तो बहरहाल यह दोनों परंपराएं साथ-साथ चलती हैं। इसीलिये अब उन परंपराओं को संक्षिप्त करते हुए खाली नाम ले लूंगा, क्योंकि जवाहरलाल नेहरू के प्रसंग से जिन ग्रंथों का मैंने नाम लिया, अब एक परंपरा है, तब नहीं थी। राम थे तो रावण भी थे, कंस भी थे, दुर्योधन भी थे, गजनी, गौरी, बाबर सब थे। बाबर का नाम मैं इसलिये ले रहा हूं कि जो बाहर से हमला करके आया वह हुआ पराया और यहां बस गया हो गया अपना। अगर यह अंतर नहीं करेंगे तो सारे संसार का इतिहास बदलना पड़ेगा। खाली भारत का ही नहीं, संसार का इतिहास बदलना पड़ेगा।

Dark Saint Alaick
26-11-2012, 01:01 AM
वे मुसलमान थे लेकिन नाम हिंदू थे

आज सब भौतिक है, आप सब विश्लेषण करके सही निष्कर्ष करके निकाल सकते हैं, इसलिये मैं कह रहा हूं। नहीं तो सारे इतिहास बदलने पड़ेंगे। फिर दोनों में अंतर करना सीखना होगा तो फिर दूसरी तरफ राम, विष्णु, शिव, बुद्ध, महावीरजी, हजरत मोहम्मद, ईसा, शंकाराचार्य, अकबर, दारा शिकोह, बहादुरशाह जफर, मौलाना आजाद जैसे बाकी सारे लोग भी हैं। क्षुद्र और महान परंपरा के नाम सबके बीच में से मिलते हैं, आप वहां भेदभाव नहीं कर सकते। यह जिस दिन आप समझ लेंगे, उस दिन आपकी सद्भावना बन जाएगी। जिन्होंने भक्ति की, कृष्ण भक्ति की, सारी भारतीय संस्कृति, यहां की लोकगाथाओं और उनकी रचनाएं कीं अमीर खुसरो, कबीर, जय सिंह, रहीम, रसखान और तमाम संत और फकीर, इनमें से एक भी हिंदू नहीं था, सब मुसलमान थे। इनके नाम हिंदू थे। इनके नाम हिंदू हैं, यह भी महत्वपूर्ण है। तो इसीलिए यह जो बहुत सारी बातें कही जाती हैं उनमें कोई अर्थ नहीं है, उस भ्रम को काटकर सत्य को सामने लाने की आवश्यकता है।

Dark Saint Alaick
26-11-2012, 01:02 AM
विचित्र हो गई अखबारों की भाषा

अब जो बात होती है, यह साहित्य का जो मामला है, यह भाषा से जुड़ा हुआ है। आज भाषा के मामले में इसके सामने बड़ी दिक्कत है। आज अखबारों की भाषा विचित्र हो गई। बड़े-बड़े प्रतिष्ठित अखबारों में, हिन्दुस्तान जैसा अखबार जिसको गांधीजी ने शुरू किया था। उसमें होता है आज एसओएल में, एसओएल में यह हो रहा है। पहले दिमाग पर जोर डालिए कि यह एसओएल क्या होता है? हिंदी का अखबार पढ़ रहे हैं। स्कूल आॅफ लर्निंग, विभूति नारायणजी, आपके विश्वविद्यालय में तो ऐसा नहीं होता है न? यह जो एसओएल लिख रहे हैं, वह समझते हैं कि भाषा को बहुत आसान बना रहे हैं। मैंने उस अखबार का नाम इसलिए लिया कि इसका जन्म आजादी की लड़ाई के समय हुआ था और बिड़ला जी को हिंदुस्तान टाइम्स गांधीजी ने खरीदवाकर दिया था कि जिससे आजादी की लड़ाई में समर्थन मिले। अब यह सब जानकारियां भी नई पीढ़ी को देना बहुत जरूरी हो गया है।

Dark Saint Alaick
26-11-2012, 01:02 AM
मैं ऐसे मौकों पर इसलिए कह देता हूं किसी के दिमाग में एक-दो बात रहेगी तो आगे खोजकर कुछ और नया निकाल लेगा। तो अब आजकल यह सारा मामला हो रहा है। अब इस सबसे कैसे निपटा जाए और यह वह देश है जब आजादी वाले दिन यानी 15 अगस्त 1947 को गांधीजी, जो झील के किनारे घूमने गए थे लौटकर आए, 11 बजे सोने चले गए, लेकिन इसी बीच रात को बीबीसी का कोरस्पोंडेंट आया संदेश देने के लिए कि आप अपना संदेश रिकार्ड कराइए। गांधीजी ने कोई संदेश नहीं दिया क्योंकि सवेरे उन्होंने ऐसा कहा था दिन में, कि इस समय मेरे पास कोई संदेश नहीं है। संदेश तो क्योंकि दंगे हो गए थे, बंटवारा हो गया था देश का। गांधीजी आए और कहा भूल जाइए कि कभी मुझे अंग्रेजी आती थी। गांधीजी के यह अंतिम वाक्य थे और उसके बाद फिर वह सोने के लिए चले गए। मैं समझता हूं भाषा के प्रति यह भावना सभी भारतीय भाषाओं के प्रति फिर से पैदा करने की जरूरत है। बड़ी दिक्कत हो गई है। संसद में सभी राजनीतिक पार्टियों में, सारी कमेटियों में, सब जगह आप देखें बड़े-बड़े, मुझे याद है 1967-68 में कभी भारतीय भाषाओं के बारे में दिखाते थे कि हमारे साथ हैं वह, वह सब लोग जोर लगाकर संसद में अंग्रेजी में बोलते हैं, जबकि अनुवाद की व्यवस्था है।

Dark Saint Alaick
26-11-2012, 01:02 AM
गरीबी पर चर्चा सिर्फ अंग्रेजी में होती है। गरीब जानता ही नहीं है उसके लिए क्या चर्चा हो रही है और सारा समय जिस तरह से बीत रहा है, वह सब आप जानते हैं। अगर हिंदुस्तान अपने फर्ज को भूलता है तो एशिया मर जाएगा और आपको-हमको इस बात पर गर्व होना चाहिए कि जहां पर लोकतांत्रिक व्यवस्था और लोकतांत्रिक भावना का प्रश्न है, शायद भारत ही ऐसा देश है जो एशिया में आदर्श कहा जा सकता है। सारी कठिनाइयों के बावजूद और शायद लोकतंत्र अगर इस क्षेत्र में प्रतिष्ठित है और दुनिया के लिए एक प्रेरणा भी है तो वह भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था ही है। अगर हिंदुस्तान अपने फर्ज को भूलता है तो एशिया मर जाएगा। यह ठीक ही कहा गया है हिंदुस्तान कई मिली-जुली सभ्यताओं या तहजीबों का घर है, जहां वे साथ-साथ पनपी हैं। हम सब ऐसे काम करें कि हिंदुस्तान एशिया की या दुनिया के किसी भी हिस्से की कुचली और चूसी हुई जातियों की आशा बना रहे। जहां अन्याय हो, वहां भारत को लोग याद करें। मैं समझता हूं इससे बड़ा दौर और कुछ नहीं हो सकता। आप लोगों ने बुलाया, कुछ कहने का मौका दिया, इसके लिए धन्यवाद।