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View Full Version : अंग्रेजी क्यों रोना-धोना मचाती है ?


ravi sharma
28-11-2012, 05:08 PM
अंग्रेजी क्यों रोना-धोना मचाती है ?:thinking:

ravi sharma
28-11-2012, 05:10 PM
भारत में अंग्रेजी की लोकप्रियता लगातार बढ़ती जा रही है, अंग्रेजी का वर्चस्व और इसकी स्वीकार्यता- दोनों में लगातार तेजी से वृद्धि हो रही है. इस आशय को सिद्ध करने के लिए एक खास वर्ग के लोगों की राय उद्धृत की जाती है और भाषा संबंधी आँकड़ों से मनमाने निष्कर्ष निकाले जाते हैं और यह सिद्ध करने की एकतरफा कोशिश की जाती है कि अंग्रेजी की तुलना में देश की जनता के बीच हिंदी की ठाठ नगण्य है.

ravi sharma
28-11-2012, 05:10 PM
कुल मिलाकर, अंग्रेजी के आगे देश में हिंदी की हैसियत कुछ भी नहीं है! इसके साथ ही, उक्त दैनिक का हिंदी पर आरोप यह भी है कि हिंदी पर सरकार एक भारी-भरकम राशि खर्च करती है, जो निरर्थक और नाजायज है, क्योंकि हिंदी का कोई भविष्य नहीं है. अंग्रेजी की श्रीवृद्धि को साबित करने के लिए यह प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक एक अभियानी नारा भी छापता रहता है- इंगलिश अनस्टॉप्पेबल ! अर्थात अंग्रेजी किसी से दबने वाली नहीं. इसके वर्चस्व को कोई चुनौती नहीं दे सकता!

यहाँ इस लेख को लिखने के पीछे मेरी मंशा अंग्रेजी के ख़िलाफ़ कोई तर्क गढ़ना या अंग्रेजी के विरुद्ध विष-वमन करना हरगिज नहीं है. मेरा बस एकमात्र विनम्र प्रयास, अंग्रेजी को श्रेष्ठ साबित करने के क्रम में हिंदी के विरुद्ध गढ़े जा रहे कुतर्कों को तार्किक ढंग से निरस्त करना मात्र है.

ravi sharma
28-11-2012, 05:10 PM
यहाँ यह कहने की जरूरत नहीं कि कोई भी भाषा-प्रेमी किसी भी देशी या विदेशी भाषा से किसी भी प्रकार का बैर-भाव नहीं रखता. लेकिन किसी भाषा-विशेष को श्रेष्ठ साबित करने की प्रचेष्टा में जब किसी दूसरी भाषा को दोयम दर्जे का बताने की दुष्ट कोशिश की जाती है तो किसी भी संवेदनशील और सचेत नागरिक को चोट अवश्य पहुँचती है.

मैं इस लेख में उक्त प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक में वर्ष 2010 में छपे दो लेखों- व्हाट इट कॉस्ट्स टू कीप हिंदी अलाईव? और अ वेरी इंगलिश अफेयर से चर्चा शुरू करना चाहूँगा और अंत में अभी मार्च, 2012 में छपे एक न्यूज आइटम नाऊ टू करोर इंडियन किड्स स्टडी इन इंगलिश मीडियम स्कूल्स (इंगलिश सीज 274% राईज इन एनरॉलमेंट सिंस 2003-04) के निहितार्थ पर चर्चा करना चाहूँगा.

ravi sharma
28-11-2012, 05:10 PM
03 दिसंबर, 2010 को उक्त प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक में छपे उपर्युक्त लेखों का लब्बोलुबाब यह है कि देश में हिंदी उतनी "पॉपुलर" नहीं है, जितनी इंगलिश है और दूसरी बात यह कि भारतीय संविधान और राजभाषा अधिनियम (ऑफिसियल लैंग्वेज एक्ट) के अंतर्गत बनाई गई राजभाषा नीति बस इसलिए है कि हिंदी-पट्टी (हिंदी-बेल्ट) के हजारों लोगों के लिए नौकरियाँ सुनिश्चित की जा सके! और तो और, उनको काम पर बनाए रखने के लिए उनपर करोड़ों रुपए खर्च किए जाते हैं! इसलिए हिंदी राष्ट्र की संपर्क भाषा बनने के लायक हरगिज नहीं है!

अपनी मान्यताओं को बल देने के लिए इन दोनों लेखों की प्रबुद्ध लेखिका ने सिर्फ़ उन्हीं लोगों को उद्धृत (कोट) किया है, जो हिंदी के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त (बायस्ड) हैं और जानबूझकर हिंदी को संपर्क भाषा के रूप में स्वीकार नहीं करना चाहते हैं. आइए, इन लेखों से कुछ उदाहरणों को लें और उनकी विवेकसम्मत विवेचना करें. यहाँ पहले लेख से बात शुरू करते हैं. पहले लेख के आरंभ में ही यह कहा गया है कि भारत सरकार राजभाषा हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा देने के लिए करोड़ों रुपए खर्च करती है, जबकि राजभाषा संकल्प, 1968 में यह कहा गया है कि आठवीं अनुसूची की सभी भाषाओं के संपूर्ण विकास के लिए ठोस उपाय किये जायें.

ravi sharma
28-11-2012, 05:12 PM
इस संदर्भ में मद्रास विश्वविद्यालय के तमिल विभाग के एक प्रोफेसर को उद्धृत (कोट) किया गया है, जिनका कहना है कि हिंदी के बजट का दसवाँ हिस्सा भी शेष भाषाओं को नहीं मिलता है. लेख में आगे बताया गया है कि राजभाषा हिंदी को वर्ष 2009 में लगभग 36 (छत्तीस) करोड़ रुपए का सालाना बजट आबंटित किया गया. इसके उलट, नैशनल इंस्टीच्यूट ऑफ कम्युनिकेबल डिजिजेज का बजट 25 (पच्चीस) करोड़ रुपए, नैशनल आर्काईव्ज ऑफ इंडिया का बजट 20 (बीस) करोड़ रुपए और सेंट्रल ड्रग स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गेनाईजेशन का बजट 32 (बत्तीस) करोड़ रुपए था.

यहाँ यह देखिए कि भाषाओं के बजटों की तुलना आपस में नहीं करके, हिंदी के बजट की तुलना गैर-भाषायी मदों से करके हिंदी पर हो रहे खर्च को निरर्थक साबित करने की कोशिश की गई है. दूसरी तरफ, यह तथ्य स्पष्ट करना अनिवार्य है कि राजभाषा पर व्यय गृह मंत्रालय, भारत सरकार का राजभाषा विभाग करता है और इसका उद्देश्य भारत सरकार तथा उसके अधीनस्थ मंत्रालयों, विभागों, कार्यालयों, राष्ट्रीयकृत बैंकों, उपक्रमों, उद्यमों, सार्वजनिक कंपनियों आदि में राजभाषा हिंदी का प्रयोग बढ़ाना है और इस प्रकार राजभाषा अधिनियम के प्रावधानों का अनुपालन सुनिश्चत करवाना है.

ravi sharma
28-11-2012, 05:12 PM
यहाँ यह पुन: स्पष्ट कर दें कि राजभाषा विभाग इस बजट का इस्तेमाल न तो हिंदी भाषा के संपूर्ण विकास के लिए करता है और न ही आठवीं अनुसूची में शामिल भाषाओं से इसका कुछ लेना-देना है. वस्तुत: यह भारत सरकार के गृह मंत्रालय (राजभाषा विभाग) का नहीं, बल्कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय का दायित्व है. यह मानव संसाधन विकास मंत्रालय है जो आठवीं अनुसूची में शामिल हिंदी समेत अन्य सभी भाषाओं के संपूर्ण विकास के लिए बजट आबंटित करता है.

अब आइए, दसवीं पंचवर्षीय योजना (टेंथ फाईव-ईयर प्लान) में मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा भाषा-विकास (लैंग्वेज-डेवलपमेंट) पर किए गए कुल व्यय की पड़ताल करें और स्वयं यह निष्कर्ष निकालें कि हिंदी की तुलना में किसी भाषा के साथ कतई कोई अन्याय नहीं किया गया है. केवल हिंदी भाषा और उर्दू भाषा (सिंधी भाषा सहित) के विकास पर दसवीं पंचवर्षीय योजना में किए गए कुल व्यय की तुलना कर लेने से ही हिंदी पर लगाए जा रहे सारे आरोप स्वत: निराधार साबित हो जाएँगे.

ravi sharma
28-11-2012, 05:12 PM
दसवीं पंचवर्षीय योजना में हिंदी भाषा के विकास पर जहाँ कुल 61.07 (इकसठ) करोड़ रुपए व्यय किए गए, वहीं सिंधी भाषा सहित उर्दू भाषा के विकास पर कुल 61.45 (लगभग साढ़े इकसठ) करोड़ रुपए व्यय किए गए जो हिंदी की तुलना में लगभग आधा करोड़ रुपए ज्यादा था. प्रसंगवश यहाँ यह भी बता दें कि इसी दौरान अंग्रेजी एवं अन्य विदेशी भाषाओं के विकास के लिए कुल 15.39 करोड़ रुपए और तमिल भाषा के विकास के लिए 03.30 करोड़ रुपए खर्च किए गए. वहीं संस्कृत भाषा के विकास और संस्कृत की पढ़ाई पर कुल 154.77 करोड़ रुपए खर्च किए गए.

ravi sharma
28-11-2012, 05:13 PM
इस तरह, दसवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने हिंदी समेत अन्य सभी भाषाओं के लिए कुल 577.62 (लगभग पौने छह सौ) करोड़ रुपए खर्च किए. यहाँ स्पष्ट कर दें कि ये राशियाँ विभिन्न भाषाओं के विकास, संरक्षण, शिक्षण एवं प्रोत्साहन के लिए गठित उन सभी संस्थाओं पर खर्च की जाती हैं, जो इस मंत्रालय के अधीन आती हैं. उदाहरणार्थ; केंद्रीय हिंदी निदेशालय, केंद्रीय हिंदी संस्थान, वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग, केंद्रीय भारतीय भाषा संस्थान (सीआईआईएल, मैसूर), केंद्रीय अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा संस्थान (सीआईईएफएल, हैदराबाद), नैशनल काउंसिल फॉर प्रोमोशन ऑफ उर्दू लैंग्वेज, नैशनल काउंसिल फॉर प्रोमोशन ऑफ सिंधी लैंग्वेज, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान आदि. मद-वार विस्तृत ब्योरे के लिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार की सरकारी वेबसाइट देखें.

ravi sharma
28-11-2012, 05:14 PM
इस तरह, ऊपर किए गए बजट-वार विश्लेषण से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि सभी भाषाओं के साथ विवेकपूर्ण और यथोचित न्याय किया गया है. फिर राजभाषा हिंदी पर किए जा रहे खर्च पर उँगली उठाना न केवल अनुचित है, बल्कि द्वेषपूर्ण भी है. अब आइए, उस आरोप का विश्लेषण करें जिसमें कहा गया है कि यह राजभाषा नीति हिंदी-पट्टी के हजारों लोगों को बस नौकरी मुहैया कराने के लिए ही है. कहने की आवश्यकता नहीं कि कोई भी प्रतियोगिता अखिल भारतीय स्तर पर आयोजित की जाती है और अनुवादक या राजभाषा अधिकारी/हिंदी अधिकारी के पद के लिए वांछित योग्यता रखने वाला किसी भी प्रांत का उम्मीदवार आवेदन कर सकता है.

सुखद आश्चर्य अब यह है कि दक्षिण भारत, महाराष्ट्र, गुजरात आदि प्रांतों के अनेक उम्मीदवार इन पदों पर चयनित हो रहे हैं. हिंदी के राजनीतिक बहिष्कार को ठेंगा दिखाकर अनेक दक्षिण-भारतीय छात्र-छात्राएँ हिंदी में बी.ए., एम.ए., एम.फिल., पीएच.डी. करने में गर्व महसूस कर रहे हैं. इससे यह बात भी साबित होती है कि हिंदी विश्व की सर्वाधिक सहज एवं वैज्ञानिक भाषाओं में से एक है. गौर करने वाली बात यह भी है कि आज हिंदी विश्व में 160 से भी अधिक विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जा रही है और हिंदी का लगातार विस्तार होता जा रहा है. जिस विश्व-बाज़ार (ग्लोबल मार्केट) ने अंग्रेजी को अंतर्राष्ट्रीय भाषा (इंटरनैशनल लैंग्वेज) का दर्जा दिया, आज वही विश्व-बाजार हिंदी को अपने विस्तार का माध्यम बनाकर हिंदी की अनिवार्यता स्वयं सिद्ध कर रहा है. फिर हिंदी-पट्टी को कोसना कहाँ तक उचित है?

संघ लोक सेवा आयोग में हिंदी में परीक्षा और साक्षात्कार का विकल्प जब तक नहीं खुला था, तब तक हिंदी-पट्टी के उम्मीदवार भी बड़ी तादाद में आई.ए.एस., आई.पी.एस. आदि नहीं बन पाते थे. तब इन पदों पर अधिकांश दक्षिण-भारतीय और बंगाली-उड़िया उम्मीदवारों का दबदबा होता था क्योंकि उनको अंग्रेजी बेहतर आती थी. लेकिन हिंदी-पट्टी के लोगों ने तो इस बात की कभी शिकायत नहीं की! फिर आज हिंदी की हैसियत पर हंगामा है क्यों बरपा?

ravi sharma
28-11-2012, 05:15 PM
अब आइए, एक तीसरे आरोप का विश्लेषण करें, जिसमें एक हताश सिविल सर्वेंट को उद्धृत (कोट) करते हुए कहा गया है कि हिंदी डिवीजन के अधिकारी बस कार्यालयों के अधिकारियों और स्टाफ को हिंदी में पत्राचार करने, हिंदी में हस्ताक्षर करने और अहिंदी राज्यों में भी हिंदी में नाम-पट्ट (नेम-प्लेट) और साईनबोर्ड आदि लगाने जैसे कार्यों के लिए "परेशान" करते रहते हैं, जिसका कोई "मतलब (सेंस)" नहीं है! तो यहाँ स्पष्ट कर दूँ कि राजभाषा विभाग से जुड़े पदाधिकारी एवं कर्मचारी केवल वही कर रहे हैं, जो राजभाषा अधिनियम और राजभाषा नीति को जमीनी स्तर पर लागू करने के लिए उनसे अपेक्षित है. और जिन लोगों को उनके ऐसा करने में कोई मतलब (सेंस) नहीं दिखता, वे सीधे-सीधे संविधान द्वारा बनाए गए प्रावधानों की अवमानना कर रहे हैं. हाँ, यह नियमत: बाध्यकारी है कि सभी नाम-पट्ट, सूचना-पट्ट, साईनबोर्ड, मुहर इत्यादि हिंदी और अंग्रेजी के साथ-साथ स्थानीय भाषा में हों, जिसका क्रम अनिवार्यत: सबसे ऊपर/पहले स्थानीय भाषा, फिर/मध्य में हिंदी और सबसे नीचे/अंत में अंग्रेजी हो और सभी/तीनों भाषाओं के अक्षरों के आकार भी अनिवार्यत: एक समान हों.

ravi sharma
28-11-2012, 05:15 PM
यहाँ यह फिर बता दें कि राजभाषा नीति और नियमों में कहीं भी किसी भी प्रांत या प्रांतीय भाषा के महत्व और गरिमा को कमतर नहीं आंका गया है. कहने की आवश्यकता नहीं कि भारत की विशाल आबादी आज भी अंग्रेजी से खौफ़ खाती है. आज रेलवे टिकट, रिजर्वेशन फॉर्म; बैंकों/कार्यालयों के विभिन्न फॉर्म; मंत्रालयों, विभागों, बैंकों, कार्यालयों, संस्थानों, संगठनों, संस्थाओं, कंपनियों आदि के नाम इत्यादि सिर्फ़ अंग्रेजी में नहीं, बल्कि हिंदी और स्थानीय भाषाओं में दिखते हैं तो यह इन्हीं राजभाषा नीति और नियमों के बूते संभव हो पाया है. अंग्रेजी के साथ-साथ, हिंदी में भी प्रश्नपत्र पाने और हिंदी में उत्तर लिखने और हिंदी में साक्षात्कार देने का अवसर और संवैधानिक अधिकार भी इसी राजभाषा नीति के कारण संभव हो पाया है.

राजभाषा हिंदी के ख़िलाफ़ हायतौबा मचाने वाले लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारा देश पहले भारत है, बाद में इंडिया. और उन्हें सिर्फ़ अंग्रेजी जानने वाले लोगों के इकहरे दृष्टिकोण से हिंदी की हैसियत नहीं आंकनी चाहिए. इस देश में आज भी अंग्रेजी बोलने वाले लोगों की तादाद सिर्फ़ तीन-चार प्रतिशत के आस-पास है. शेष आबादी के पक्ष को भी देखना अनिवार्य है, जिनके लिए अंग्रेजी अनजानी है और हिंदी और स्थानीय भाषाएँ ही सरकारी दफ्तरों आदि में उनकी तारणहार बनती हैं!

ravi sharma
28-11-2012, 05:15 PM
हिंदी के विश्व के भाषायी-पटल पर एक अत्यंत वैज्ञानिक, अत्यंत सुग्राह्य और सुग्राही भाषा होने के भाषा-वैज्ञानिक दावों पर बहस नहीं करते हुए, मैं यहाँ यह भी कहना चाहूँगा कि हिंदी को राजभाषा के रूप में स्थापित नहीं कर पाने और स्थापित नहीं होने देने के पीछे हिंदी की कोई भाषागत विफलता कतई नहीं है, बल्कि तंत्र के एक खास वर्ग की हिंदी-विरोधी मानसिकता, उनकी अनिच्छा और उनका अहं है, जो राजभाषा हिंदी को जन-जन तक नहीं पहुँचने दे रहा है. यह तो स्वीकारने में किसी को ऐतराज नहीं होना चाहिए कि हिंदी में ही सारा सरकारी कामकाज होने से प्रशासन और शासन की पारदर्शिता बढ़ेगी और जनता एवं प्रशासन के बीच की अवंछित दूरी घटेगी.

ravi sharma
28-11-2012, 05:16 PM
जो लोग हिंदी को सरकारी कामकाज के लिए कठिन और जटिल बताते नहीं थकते, उनसे यह पूछा जाना चाहिए कि क्या अंग्रेजी वाकई एकदम सरल-सहज और सुग्राह्य भाषा है? और क्या वे माँ के पेट से ही अंग्रेजी सीखकर इस धरती पर अवतरित हुए थे? या फिर वे भी अंग्रेजी सीखने में एड़ी-चोटी एक करने में पीछे नहीं थे? और यदि वे नौकरी पाने के लिए एड़ी-चोटी एक करके अंग्रेजी सीख सकते हैं, तो जनता की सेवा के लिए भी थोड़ी मेहनत कर ही सकते हैं!

अंग्रेजी तो विदेशी भाषा है. हिंदी अपनी भाषा है. इसे सीखना तो और भी आसान होगा! भाषा-वैज्ञानिकों का तो यह कहना है कि जिन्हें अपनी भाषा की समझ नहीं होती, वे विदेशी भाषाओं को भी ठीक से सीख-समझ नहीं सकते. और जो लोग विदेशी भाषा को खूब भली-भाँति सीखने-समझने का दावा करते हैं, उन्हें अपनी भाषा सीखने, समझने और प्रयोग में लाने में कतई कोई कठिनाई नहीं हो सकती!

ravi sharma
28-11-2012, 05:16 PM
दरअसल, सरकारी कामकाज में हिंदी को कठिन और जटिल बताने वाले लोगों की समस्या यह है कि वे फाईलों/नोटिंगों में हरदम नकल करके काम चला लेना चाहते हैं. और इसलिए हिंदी में मूल कार्य सृजित नहीं करना चाहते. अब तो कंप्यूटर-युग में कट-कॉपी-पेस्ट का कल्चर इतनी तेजी से चल पड़ा है कि लोगों को कुछेक पृष्ठों की मूल टिप्पणी या पत्र तैयार करने में भी दिक्कत महसूस होती है!

लेकिन इस कट-कॉपी-पेस्ट कल्चर के कारण, हिंदी की बात ही छोड़िए, अंग्रेजी जैसी एलिट भाषा की शुद्धता, सौष्ठव और सौंदर्य का बुरा हाल हो गया है! दस पंक्तियों के नोट या पत्र या फिर ई-मेल में भी पाँच-दस गलतियाँ मिल जाए तो अब आश्चर्य नहीं होता. फिर अंग्रेजी का रौब झाड़ने की मानसिकता और कट-कॉपी-पेस्ट कल्चर के कारण अंग्रेजी भाषा लंबे-लंबे लच्छेदार वाक्यों, लैटिन मुहावरों, दुहरावग्रस्त वाक्य-विन्यासों, कॉमन एररों और एक बार में बिना शब्दकोश के समझ में नहीं आने वाली दुर्बोध शब्दावलियों (जारगनों) से स्वयं को मुक्त नहीं कर पा रही है. इस कारण वह हिंदी की तुलना में आम आदमी के करीब नहीं आ पा रही है. और इसी कारण हिंदी आम आदमी की पहली पसंद बनी रहेगी.

ravi sharma
28-11-2012, 05:17 PM
अपने दफ्तरों के वातानुकूलित कमरों में बैठकर जनता की सेवा करने वाले लोग भले ही अंग्रेजी को जबरन आसान कहते रहें, हिंदी के बिना उनका भी गुजारा नहीं होने वाला! जो लोग बात-बात पर फैशन के तौर पर यह कहते नहीं थकते कि आई डोंट नो हिंदी, यार!, वे भी अंग्रेजी में हिंदी की मिलावट किए बिना अपनी बात पूरी नहीं करते. यानी वे भी इंगलिश नहीं, हिंदी की तासीर वाली हिंगलिश ही बोलते हैं! इसके उलट, जो लोग हिंदी के साथ इंगलिश की मिलावट करके बोलने की विवशता ढोते हैं, वे सीधे-सीधे तौर पर, किसी भी भाषा के साथ इंसाफ नहीं कर पा रहे हैं और स्वयं ही भाषा-च्युत हो रहे हैं.

यहाँ यह स्पष्ट कर दूँ कि मेरा संकेत वैसे लोगों की तरफ है जो जानबूझ कर भाषा को भ्रष्ट करने में खुद को महान समझते हैं! अन्यथा, हिंदी परदेसी भाषाओं के शब्दों को भी अपनाने में कोई परहेज नहीं करती. कोई भी जीवंत और प्रगतिशील भाषा अपनी खिड़कियाँ ताजी हवा के झोंकों के स्वागत के लिए हमेशा खुली रखती है.

ravi sharma
28-11-2012, 05:17 PM
इस आलेख के आखिर में, मैं उस न्यूज आइटम की चर्चा करते हुए अपनी बात आगे बढ़ाऊँगा, जिसमें यह बताने की कोशिश की गई है कि अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में दाखिला लेने वाले बच्चों की संख्या में 274 प्रतिशत तक का इजाफा हुआ है. इसलिए यह निष्कर्ष निकालने में देरी नहीं की गई कि हिंदी की तुलना में अंग्रेजी ज्यादा "पॉपुलर" होती जा रही है.

यहाँ यह तो कहने की जरूरत नहीं कि भारत में सरकारी स्कूलों की स्थिति उतनी अच्छी नहीं है, जितनी होनी चाहिए. इसलिए गरीब से गरीब माँ-बाप भी अपना पेट काटकर अपने बच्चों को तथाकथित इंगलिश मीडियम स्कूलों में इस उम्मीद के साथ भेजते हैं कि वहाँ बहुत पढ़ाई होती है. दूसरी उम्मीद ये रहती है कि इन इंगलिश मीडियम स्कूलों में अगर उनके बच्चे पढ़ेंगे तो वे फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने लगेंगे और उनको आनन-फानन में नौकरी मिल जाएगी. लेकिन उनको जब तक इस कड़वे सच का अहसास होता है कि केवल अंग्रेजी मीडियम के स्कूल में दाखिला करा देने से न तो बच्चों की अंग्रेजी दुरूस्त होती है और न ही केवल पटर-पटर, गलत-सलत या सही-शुद्ध अंग्रेजी बोल लेने से उच्च शिक्षा पाने या नौकरी पाने में आसानी होती है, तब तक देर हो चुकी होती है.

उनको तब और चोट पहुँचती है, जब उनको यह भी अहसास होता है कि अंग्रेजी के चक्कर में उनके बच्चे न तो हिंदी और न ही अपनी मातृभाषा या स्थानीय भाषा ठीक से सीख पाये हैं! इसके अलावा, अधिकांश माँ-बाप इस शोधपूर्ण भाषा-वैज्ञानिक तथ्य को नहीं जानते कि बच्चों के पठन-पाठन का सबसे कारगर माध्यम उसकी मातृभाषा होती है और मातृभाषा में ही किसी विषय की बेहतर समझ और पकड़ बन पाती है.

ravi sharma
28-11-2012, 05:17 PM
यहाँ यह भी बता दें कि विस्तृत और गहन शोधों से यह बात भी साबित हो गई है कि किसी भाषा के अध्ययन में लगाए गए वर्षों की संख्या से कतई जरूरी नहीं कि बच्चा उस भाषा पर उसी अनुपात में दक्षता हासिल कर पाएगा. यानी अंग्रेजी मीडियम स्कूल में कई वर्षों तक पढ़ लेने पर भी, यह कतई जरूरी नहीं कि बच्चा अंग्रेजी पढ़ना-लिखना-बोलना ठीक-ठीक सीख ही जाए!

ravi sharma
28-11-2012, 05:18 PM
शोध में यह भी पाया गया है कि आप अपनी पहली भाषा यानी अपनी मातृभाषा पर अधिकार कर लेते हैं तो आप कोई दूसरी भाषा यथा अंग्रेजी ज्यादा जल्दी और बेहतर ढंग से सीख सकते हैं. लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण अफसोस की बात है कि अंग्रेजी का ढोल पीटने वाले लोग माँ-बाप को इन अनिवार्य और मूलभूत तथ्यों से जानबूझकर अवगत नहीं कराते हैं. उन्हें तो बच्चों के बेहतर भविष्य से नहीं, बल्कि अपने मुनाफे से मतलब है! लोग अगर सच जान-समझ लेंगे तो उनकी दुकानदारी ही बंद जो हो जाएगी!

ravi sharma
28-11-2012, 05:18 PM
यहाँ इसी क्रम में यह तथ्य और सच्चाई समझ लेना आवश्यक है कि तथाकथित इंगलिश मीडियम स्कूलों में बच्चों के बढ़ते दाखिले से अंग्रेजी की लोकप्रियता का तर्क गढ़ना एकदम असंगत और भ्रामक है. दरअसल, यह अंग्रेजी की लोकप्रियता नहीं, एक तरह की असुरक्षा का झूठा और तात्कालिक भय तथा अड़ोस-पड़ोस के दिखावापूर्ण नकल का मिलाजुला परिणाम है, जिसके कारण लोग अपने बच्चों को इन देशी हिंदी-आईट इंगलिश मीडियम स्कूलों में भेजने को प्रेरित होते हैं. इसका यह हरगिज मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए कि जो माँ-बाप अपने बच्चों को इस तरह के इंगलिश मीडियम स्कूलों में भेजते हैं, उनका हिंदी पर से भरोसा ही उठ गया है.

ravi sharma
28-11-2012, 05:18 PM
वास्तव में हिंदी आज भी इनके दिलों पर राज करती है. अंग्रेजी का तिलिस्म तो अब वैसे भी टूट ही गया है क्योंकि हिंदी माध्यम से पढ़-लिखकर आने वाले लोगों ने भी अपनी काबिलियत हरेक क्षेत्र में साबित कर दी है और लगभग हरेक क्षेत्र में वे कहीं ज्यादा दक्ष, सक्षम और बेहतर साबित हुए हैं. वे न केवल अपने-अपने कार्यक्षेत्रों में, वरन् अपने-अपने सामाजिक दायरों में भी कहीं ज्यादा सामाजिक, मिलनसार, चुनौतियाँ स्वीकारने वाले और विपरीत परिस्थितियों में भी धैर्य से काम लेने वाले साबित हुए हैं.

ravi sharma
28-11-2012, 05:19 PM
अंग्रेजी की जन-स्वीकार्यता हिंदी की तुलना में काफी कम है, यह इस रहस्योद्घाटन से भी साबित हो जाती है कि वर्ष 2011 की अंतिम तिमाही के लिए किए गए इंडियन रीडरशिप सर्वे में अंग्रेजी अब भी बहुत पिछड़ी है और हिंदी का एक दैनिक समाचार-पत्र कई वर्षों से शीर्ष पर बना हुआ है. दूसरे, तीसरे और पाँचवे स्थान पर भी हिंदी के ही दैनिक समाचार-पत्र हैं.

पहले दस (टॉप टेन) सर्वाधिक पढ़े जाने वाले समाचार-पत्रों में पाँच हिंदी के, चार क्षेत्रीय भाषाओं के और अंग्रेजी का सिर्फ़ एक समाचार-पत्र है! यही नहीं, ऑडिट ब्यूरो ऑफ सर्कुलेशन के जनवरी-जून 2010 के आँकड़े भी देखें तो हिंदी 38.18 प्रतिशत दैनिक वितरण के साथ सबसे आगे यानी शीर्ष पर है. 36.04 प्रतिशत दैनिक वितरण के साथ क्षेत्रीय भाषाओं के समाचार-पत्र दूसरे स्थान पर हैं. सिर्फ़ 25.79 प्रतिशत दैनिक वितरण के साथ अंग्रेजी के समाचार-पत्र तीसरे स्थान पर हैं. यह तथ्य इस बात की पुष्टि करता है कि हिंदी की पहुँच सर्वाधिक है (स्रोत: संसदीय राजभाषा समिति की रिपोर्ट का नौंवा खंड).

ravi sharma
28-11-2012, 05:19 PM
इतना ही नहीं, भाषायी आबादी के आधार पर भी देखें तो भारत में इकतालीस प्रतिशत आबादी हिंदी-भाषी है, जबकि सिर्फ़ तीन प्रतिशत के लगभग की आबादी अंग्रेजी बोलने वाली है. इसके अलावा, हिंदी सिनेमा, हिंदी गानों, हिंदी धारावाहिकों आदि की सार्वभौमिक लोकप्रियता देखें तो हिंदी की जन-स्वीकार्यता का सहज अनुमान लगाया जा सकता है. एक खास वर्ग को छोड़ दें तो शेष आबादी में केवल हिंदी को ही इतनी व्यापक जन-स्वीकार्यता हासिल है.

इसलिए जो लोग अंग्रेजी के प्रभुत्व और वर्चस्व को साबित करने के लिए हिंदी के ख़िलाफ़ कुतर्क करते रहते हैं, वे खुद अपने गिरेबान में झाँककर देखें और ईमानदारी से बतायें कि क्या वे अंग्रेजी के वर्चस्व के निकट भविष्य में और घटने की आशंका से कहीं घबराये हुए तो नहीं हैं? अंग्रेजी-समर्थक महानगरीय प्रभु-वर्ग और अंग्रेजी के पक्ष और हिंदी के विरोध में मुहिम चलाने वाले अंग्रेजी प्रेस को अगर यह भ्रम है कि अंग्रेजी पहले की तरह ही सत्ता और शासन की भाषा बनकर सदियों तक राज कर लेगी तो यह भ्रम जल्दी ही टूट जाएगा.

ravi sharma
28-11-2012, 05:19 PM
इस वर्ग को तो अब यह सच भी स्वीकार कर लेना चाहिए कि आज के जनवादी और क्षेत्रीय राजनीति से लैस लोकतांत्रिक उभार के माहौल और बाज़ार की माँगों के दबावों के बीच अंग्रेजी केंद्र में ज्यादा दिन टिक नहीं पाएगी और उसे हिंदी समेत अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के लिए हर हाल में जगह खाली करनी पड़ेगी. इस संदर्भ में प्रसिद्ध समाजशास्त्री प्रोफेसर धीरूभाई सेठ का कहना है कि अंग्रेजी समर्थकों को यह मानना चाहिए कि प्रांतो की राजनीति और संस्कृति का क्षेत्रीय भाषाओं ने नीचे से ऊपर तक समरूपीकरण कर दिया है. उन्हीं के माध्यम से देश में जन-शिक्षा आगे बढ़ रही है अर्थात अब पहले की तरह हमारे राष्ट्रीय जीवन पर अंग्रेजी का वर्चस्व और श्रेष्ठता कायम नहीं रह सकती (भाषा-विवाद और लोकतंत्रीकरण, संवेद-18, जुलाई 2009).

इसी क्रम में धीरूभाई सेठ यहाँ तक कहते हैं कि पहला काम राष्ट्रीय जीवन से अंग्रेजी का बोलबाला खत्म करने का होना चाहिए, क्योंकि इसी में छोटे-से वर्ग की ताक़त निहित है, जो हमारी राष्ट्रीय प्राथमिकताओं को विकृत करता है. हिंदी की राष्ट्रीय भूमिका का मुद्दा प्राथमिकता में दूसरे नंबर पर होना चाहिए (वही). इसलिए जो लोग महानगरीय आधुनिक भारत के निर्माण के लिए अंग्रेजी को आवश्यक मानते हैं और अंग्रेजी को अभिजात्य-वर्गीय वर्चस्व के औजार के रूप में इस्तेमाल करते हैं, वे सचेत हो जायें.

ravi sharma
28-11-2012, 05:20 PM
जहाँ तक स्कूलों में शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी की दादागिरी का सवाल है तो यह जान लें कि जापान, चीन, कोरिया जैसे देश अगर अंग्रेजी के बग़ैर जापानी, चीनी, कोरियाई भाषाओं के बूते न केवल उच्च शिक्षा और विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्रों में, बल्कि आर्थिक क्षेत्रों में भी विश्व-पटल पर अपनी धाक जमा सकते हैं, तो भारत जैसे कर्मठ और मेधा-संपन्न राष्ट्र के लिए तो यह कतई असंभव नहीं! इस संदर्भ में पुन: धीरूभाई सेठ के विचार रखते हुए मैं यह लेख समाप्त करना चाहूँगा. धीरूभाई सेठ का मानना है कि अंग्रेजी को सभी राज्यों के स्कूलों में शुरूआती स्तर से ही एक विषय के रूप में ढंग से पढ़ाया जाये लेकिन शिक्षा के माध्यम के रूप में इसका इस्तेमाल हतोत्साहित करते हुए अंतत: खत्म कर दिया जाना चाहिए.