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View Full Version : जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन


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ravi sharma
01-12-2012, 08:15 AM
जीवन्मुक्तलक्षण वर्णन

ravi sharma
01-12-2012, 08:15 AM
वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जब इस प्रकार राजा विपश्चित् समुद्र के पार जा पहुँचा तब उसके साथ जो मन्त्री पहुँचे थे उन्होंने राजा को सब स्थान दिखाये जो बड़े गम्भीर थे बड़े गम्भीर समुद्र जो पृथ्वी के चहुँ फेर वेष्टित थे वह भी दिखाये और बड़े-बड़े तमालवृक्ष, बावलियाँ, पर्वतों की कन्दरा, तालाब और नाना प्रकार के स्थान दिखाये | ऐसे स्थान राजा को मन्त्री ने दिखाकर कहा, हे राजन्! तीन पदार्थ बड़े अनर्थ और परम सार के कारण हैं-एक तो लक्ष्मी, दूसरा आरोग्य देह और तीसरा यौवनावस्था | जो पापी जीव हैं वे लक्ष्मी को पाप में लगाते हैं, देह आरोग्यता से विषय सेवते हैं और यौवन अवस्था में भी सुकृत नहीं करते, पाप ही करते हैं और जो पुण्यवान् हैं वे मोक्ष में लगाते हैं अर्थात् लक्ष्मी से यज्ञादिक शुभकर्म और आरोग्य से परमार्थ साधते हैं और यौवन अवस्था में भी शुभकर्म करते हैं-पाप नहीं करते | हे रामजी! जैसे समुद्र और पर्वत के किसी ठौर में रत्न होते हैं और किसी ठौर में दर्दुर होते हैं, तैसे ही संसाररूपी समुद्र में कहीं रत्नों की नाईं ज्ञानवान् होते हैं और कहीं अज्ञाननरूपी दर्दुर होते हैं |

ravi sharma
01-12-2012, 08:16 AM
हे राजन्! यह समुद्र मानो जीवन्मुक्त है क्योंकि जल से भी मर्यादा नहीं छोड़ता और रागद्वेष से रहित है | किसी स्थान में दैत्य रहते हैं, कहीं पंखोंसंयुक्त पर्वत, कहीं बड़वाग्नि और कहीं रत्न हैं परन्तु समुद्र को न किसी स्थान में राग है, न द्वेष हे | जैसे ज्ञानवान् को किसी में रागद्वेष नहीं होता परन्तु सबमें ज्ञानवान् कोई बिरला होता है | जैसे जिस सीपी और बाँस से मोती निकलते हैं सो बिरले ही होते हैं, तैसे ही तत्त्वदर्शी ज्ञानवान् कोई बिरला होता है हे रामजी! सम्पूर्ण रचना यहाँ की देखो कि कैसे पर्वत हैं जिनके किसी स्थान में पक्षी रहते हैं, किसी स्थान में विद्याधर रहते हैं, कहीं देवियाँ विलास करती हैं, कहीं योगी रहते हैं और कहीं ऋषीश्वर, मुनीश्वर, कहीं ब्रह्मचारी, वैरागी आदिक पुरुष रहते हैं |

ravi sharma
01-12-2012, 08:17 AM
यह द्वीप है और सात समुद्र हैं जिनके बड़े तरंग उछलते हैं और पर्वत का कौतुक और आकाश, चन्द्रमा, सूर्य, तारे, ऋषि, मुनि, को देखो और देखो कि सबको आकाश ठौर दे रहा है पर महापुरुष कि नाईं आप सदा असंग रहता है और शुभ-अशुभ दोनों में तुल्य है | स्वर्गादिक शुभस्थान हैं और चाण्डाल पापी नरकस्थान और अपवित्र है परन्तु आकाश दोनों में तुल्य है- असंगता से निर्विकार है | जैसे ज्ञानी का मन सब स्थानों से निर्लेप होता है, तैसे ही आकाश सब पदार्थों से असंग और न्यारा है और महात्मा पुरुष की नाईं सर्वव्यापी है | हे आकाश! तू कैसा है कि प्रकाशरूप तुझमें अन्धकार दृष्टि आता है-यह आश्चर्य है! हे आकाश! तू सबका आधारभूत है और जो तुझको शून्य कहते हैं वे मूर्ख हैं ,दिन को तुझको श्वेतता भासती है, रात्रि को अन्धकार भासता है और संन्ध्याकाल में तेरे में लाली भासती है पर तू तीनों से न्यारा है | ये तीनों राजसी, तामसी और सात्त्विकी गुण हैं पर तू इनके होते भी असंग है | हे आकाश! तू निर्मल है और तम तेरे में दृष्टि आता है परन्तु तू सदा ज्यों का त्यों है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:17 AM
यह अनित्य रूप है | चन्द्रमा तेरे में शीतलता करता है, सूर्य दाहक होते हैं, तीर्थ आदिक पवित्र स्थान हैं और पापमय अपवित्र स्थान हैं परन्तु तू सब में एक समान ज्यों का त्यों रहता है और वृक्ष को बढ़ने और ऊँचे होने की सत्ता तू ही देता है | अपनी महिमा को तू आप ही जाने और कोई तेरी महिमा पा नहीं सकता | तू निष्किञ्चन अद्वैत है, सबको धार रहा है और सबका अर्थ तुझसे ही सिद्ध होता है | जल नीचे को जाता है और तू सबसे ऊँचा है और विभु है | अनेक पदार्थ तेरे में उत्पन्न होते हैं और नष्ट हो जाते हैं पर तू सदा ज्यों का त्यों रहता है | जैसे अग्नि से चिनगारे उपजते और अग्नि ही में लीन हो जाते हैं, तैसे ही तेरे में अनन्त जगत् उपजते और लीन होते हैं और तू सदा ज्यों का त्यों रहता है जो तुझको शून्य कहते हैं वे मूढ़ हैं | हे राजन! ऐसा आकाश कौन है सो भी सुनो | ऐसा आकाश आत्मा है जो चैतन्य आकाश है और जिसमें अनन्त जगत् उत्पन्न और लीन हो जाते हैं |

ravi sharma
01-12-2012, 08:17 AM
उसको जो शून्य कहते हैं वे महामूर्ख हैं-जो सबको अधिष्ठान है, सबको धार रहा है और सदा निःसंग है ऐसे चिदाकाश को नमस्कार है | हे राजन्! यह आश्चर्य है कि वह सदा एक रस है पर उनमें नाना तरंग भासते हैं-यही माया है | हे राजन्! एक विद्या धरी और विद्याधर थे | उनके मन्दिर में एक ऋषि आ निकला पर उस विद्याधर ने उनका आदरभाव न किया इससे ऋषीश्वर ने शाप दिया कि तू द्वादशवर्ष पर्यन्त वृक्ष होगा | निदान वह विद्याधर वृक्ष हो गया | पर अब जो हम आये हैं हमारे देखते ही वह शाप से मुक्त हो वृक्षभाव को त्यागकर फिर विद्याधर हुआ है | यह ईश्वर की माया है कि कभी कुछ हो जाता है और कभी कुछ हो जाता है | हे मेघ! तू धन्य है! तेरी चेष्टा भी सुन्दर है, तीर्थों में सदा तेरी स्थिति है, तू सबसे ऊँचे विराजता है और सब आचार तेरा भला दृष्टि आता है परन्तु एक तुझमें नीचता है कि ओले की वर्षा करता है जिससे खेतियाँ नष्ट हो जाती हैं और फिर नहीं उगतीं |

ravi sharma
01-12-2012, 08:17 AM
तैसे ही अज्ञानी की चेष्टा देखनेमात्र सुन्दर है और हृदय से मूर्ख हैं, उनकी संगति बुरी है और ज्ञानवान् की चेष्टा देखने में भली नहीं तो भी उनकी संगति कल्याण करती है | हे राजन्! सबमें नीच श्वान हैं क्योंकि जो कोई उसके निकट आता है उसको काट लेता है, घर घर में भटकता फिरता और मलीन स्थानों में जाता है, तैसे ही अज्ञानी जीव श्रेष्ठ पुरुषों की निन्दा करता है पर मन में तृष्णा रखता है और विषयरूपी मलीन स्थानों में गिरता है | वह मूर्ख मनुष्य मानो श्वान है और श्वान से भी नीच है | ब्रह्मा ने सम्पूर्ण जगत् को रचा है परन्तु उसमें श्वान सबसे नीच है पर श्वान क्या समझता है सो सुनो | एक पुरुष ने श्वान से प्रश्न किया कि हे श्वान! तुझसे कोई नीच है अथवा नहीं? तब श्वान ने कहा कि मुझमें भी नीच मूर्ख मनुष्य है और उससे मैं श्रेष्ठ हूँ क्योंकि प्रथम तो मैं सूरमा हूँ, दूसरे जिसका भोजन खाता हूँ उसकी रक्षा करता हूँ और उसके द्वारे बैठा रहता हूँ पर मूर्ख से ये तीनों कार्य नहीं होते |इससे मैं उससे श्रेष्ठ हूँ क्योंकि मूर्ख को देहाभिमान है इससे वह श्वान से भी नीच है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:18 AM
हे राजन्! परम अनर्थ का कारण देहाभिमान है | देहाभिमान से जीव परम आपदा को प्राप्त होता है | वह मूर्ख नहीं मानो कौवा है जो सबसे ऊँची टहनी पर बैठकर कां कां करता है | हे राजन्! कमल की खानों के ताल के निकट एक कौवा जा निकला तो क्या देखे कि भँवर बैठे कमल की सुगन्ध लेते हैं, उनको देखकर वह हँसने लगा और कां कां शब्द किया | तब उसको देख भँवरे हँसे कि यह कमल की सुगन्ध क्या जाने, तैसे ही जिज्ञासु भँवरे के समान हैं जो परमार्थरूपी सुगन्ध लेते हैं | जो अज्ञानरूपी कौवे हैं वे परमार्थ रूपी सुगन्ध लेते हैं | जो अज्ञानरूपी कौवे हैं वे परमार्थ रूपी सुगन्ध नहीं जानते इस कारण मूर्ख को देखकर जिज्ञासु हँसते हैं जो आत्मरूपी सुगन्ध को नहीं जानते | अरे कौवे! तू क्यों हंस की रीत करता है? हंस तो हीरे और मोती चुगनेवाले हैं और तू नीच स्थानों को सेवनेवाला है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:18 AM
मन्त्री ने कहा, हे कोयल! तुम कमल को देखकर क्या प्रसन्न होते हो? प्रसन्न तो तब हो जब बसन्तऋतु हो पर यह तो वर्षाकाल का समय है-यह फूल ओलों से नष्ट हो जावेंगे | राजन्! कोयलरूपी जो जिज्ञासु हैं उनको यह उपदेश है हे जिज्ञासु! जो सुन्दर पदार्थ तुमको दृष्ट आते हैं इनको देखकर तुम क्यों प्रसन्न होते हो? प्रसन्न तो तब हो जो यह सत्य हों पर यह तो मिथ्या हैं और अविद्या के रचे हैं | तुम क्यों प्रसन्न होते हो? अपने कुल में जा बैठो और अज्ञानी का संग छोड़ दो | जैसे कौवा हंसों में जा बैठता है तो भी उसका चित्त गन्दगी के भोजन में होता है और हंस का आहार जो मोती है उन मोतियों की ओर देखता भी नहीं, तैसे ही अज्ञानी जीव कदाचित् सन्तों की संगति में जा भी बैठता हे तो भी उसका चित्त विषयों की ओर ही भ्रमता फिरता है और स्थिर नहीं होता |

ravi sharma
01-12-2012, 08:18 AM
जैसे कोयल का बच्चा कौवे को माता-पिता जानकर उनमें जा बैठता है तब उनकी संगति से यह भी गन्दगी के भोजन करनेवाला हो जाता है | इससे कोयल उसको बर्जन करते हैं कि रे बेटा! तू कौवे की संगति मत बैठ, अपने कुल में बैठ, क्योंकि तेरा भी नीच आहार हो जावेगा, तैसे ही जिज्ञासु जो अज्ञानी का संग करता है तो उसके अनुसार भी विषयों की तृष्णा उत्पन्न होती है तब उसको बर्जन करते हैं कि रे जिज्ञासु! तू मूर्ख अज्ञानियों में मत बैठ, अपना कुल जो सन्तजन हैं उनमें बैठ | जैसे कोयल के बच्चे को कौवे सुख देनेवाले नहीं होते, तैसे ही मूर्ख तुझको सुख देनेवाले नहीं होंगे | मन्त्री फिर कहने लगा, अरी चील! तू क्यों हंस की रीत करती है? तू भी बहुत ऊँचे उड़ती है परन्तु हंस का गुण तेरे में कोई नहीं | जब तू माँस को पृथ्वी पर देखती है तब वहाँ गिर पड़ती है और हंस नहीं गिरते, तैसे ही जो मूर्ख हैं वे सन्तों की नाईं ऊँचे कर्म भी करते हैं परन्तु विषयों को देखकर गिरते हैं पर सन्त नहीं गिरते तो मूर्ख सन्तों की रीत कैसे करें |

ravi sharma
01-12-2012, 08:18 AM
फिर मन्त्री ने कहा, हे बगला! तू हंस की रीत क्या करता है? अपने पाखण्ड को छुपाकर तू आपको हंस की नाईं उज्ज्वल दिखाता है पर जब मछली निकलती है तब तू खा लेता है, यही तेरे में अवगुण है | हंस मानसरोवर के मोती चुगनेवाले हैं और तू गढ़े में से तृष्णा करके मछली खानेवाला है, तू क्यों आपको हंस मानता है? तैसे ही जीव विषयों की तृष्णा करते हैं और ज्ञानवान् विवेक से तृप्त हैं, उनकी रीत अज्ञानी क्यों करता है? हे राजन्! जो हंस हैं वे सदा अपनी महिमा में रहते हैं और अपना जो मोती का आहार है उसको भोजन करते हैं, दूसरे किसी पदार्थ का स्पर्श नहीं करते | जैसे चन्द्रमुखी कमल चन्द्रमा को देखकर शोभा पाते हैं-चन्द्रमा बिना शोभा नहीं पाते, तैसे ही बुद्धि भी तब शोभा पाती है जब ज्ञान उदय होता है आत्मज्ञान बिना बुद्धि शोभा नहीं पाती | बड़े बड़े सुगन्धवाले वृक्ष का माहात्म्य भँवरे ही जानते हैं और जीव नहीं जानते | इतना कह वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! समुद्र के किनारे पर राजा विपश्चित् को मन्त्रियों ने ऐसे कहकर फिर कहा, हे राजन्! अब पृथ्वीनगर के मण्डलेश्वर स्थापन करो |

ravi sharma
01-12-2012, 08:19 AM
हे रामजी! जब ऐसे मन्त्री ने कहा, तब सब दिशाओं के मण्डलेश्वर स्थापन किये गये और चारों राजा जो अपनी-अपनी दिशा के समुद्र पर बैठे थे उन्होंने अपने-अपने मन्त्री से कहा, हे साधो! अब हमने समुद्रपर्यन्त दिग्विजय की है और अब हमारी जय हुई है, अब चैत्य जो दृश्य है सो दृश्य विभूति को देखो | समुद्र के पार द्वीप है, फिर उस समुद्र के पार और द्वीप है, फिर समुद्र है और फिर द्वीप है और इसी प्रकार सप्तद्वीप और सात समुद्र हैं पर उनके पार क्या हैं? इस प्रकार सर्व दृश्य देखने की इच्छा करके उन्होंने अग्निदेवता का आवाहन किया तब उनकी दृढ़भावना से अग्निदेवता सम्मुख आन स्थित हुए और बोले, हे राजन्! जो कुछ तुमको वाञ्छा है सो माँगो | तब राजा ने कहा, हे भगवन्! ईश्वर की माया से पाञ्चभौतिक दृश्य में जो भूत हैं उनके देखने की हमारी इच्छा है सो पूर्ण करो |

ravi sharma
01-12-2012, 08:19 AM
हे देव! हम इसी शरीर से दृश्य देखने जावे और जब यह शरीर चलने से रहित हो तब मन्त्र सत्ता से जावें पर जहाँ मन्त्र की भी गम नहीं वहाँ सिद्धि से जावें और जहाँ सिद्धि की भी गम नहीं वहाँ मन के वेग से जावें और मृतक भी न हों | यह वर हमको दो | हे रामजी! जब इस प्रकार राजा ने कहा तब अग्नि ने कहा कि ऐसे ही होगा | इस प्रकार कहकर अग्नि अन्तर्धान हो गये | जैसे समुद्र से तरंग उठकर फिर लय हो जावे तैसे ही अग्नि अन्तर्धान हो गये | जब राजा विपश्चित् वर पाकर चलने को समर्थ हुआ तब जितने मन्त्री और मित्र थे वे रुदन करने लगे और बोले, हे राजन्! तुमने यह क्या निश्चय किया है? ईश्वर की माया का अन्त किसी ने नहीं पाया इससे तुम अपने स्थान को चलो , यह क्या निश्चय तुमने धारा है? हे रामजी! इस प्रकार मन्त्री कहते रहे परन्तु राजा ने उनको आज्ञा देकर एक एक दिशा के समुद्र में प्रवेश किया और चारों दिशाओं में चारों राजाओं ने गमन किया पर जो बड़े बड़े शक्तिमान् मन्त्रीगण थे वे सात ही चले | तब राजा मन्त्रशक्ति से समुद्र को लाँघ गया |

ravi sharma
01-12-2012, 08:19 AM
कहीं पृथ्वी पर चले और कहीं ऊँचे चले इसी प्रकार और द्वीप में जा निकला, तब बड़ा समुद्र आया उसमें प्रवेश कर गया जिसमें बड़े तरंग उछलते थे और जिसका सौ योजनपर्यन्त विस्तार था | कभी अधः को और कभी ऊर्ध्व को जाते थे | हे रामजी 1 ऐसे तरंग उछलें मानो पर्वत उछलते हैं जब वे ऊर्ध्व को उछलें तब स्वर्गपर्यन्त उछलते भासें और जब अधः को जावें तब पातालपर्यन्त चलते भासें | जैसे पानी में तृण फिरता है, तैसे ही राजा फिरे | इस प्रकार कष्ट से रहित समुद्र और दिशा को लाँघ गया परन्तु मध्य में जो वृत्तान्त हुआ सो सुनो | क्षीर समुद्र में एक मच्छ रहता था जिसको सब देवता प्रणाम करते थे और जो विष्णु भगवन् के मच्छ अवतार के परिवार में था | जब राजा ने क्षीसमुद्र में प्रवेश किया तब राजा को उसने मुख में डाल लिया पर राजा मन्त्र के बल से उसके मुख से निकल गया |

ravi sharma
01-12-2012, 08:19 AM
आगे फिर एक मच्छ मिला उसने भी उसे मुख में डाल लिया पर उससे भी वह निकल गया | फिर आगे पिशाचिनी का देश था वहाँ राजा को पिशाच ने काम से मोहित किया | फिर उसने दक्षप्रजापति की कुछ अवज्ञा की जिससे उसने शाप दिया और राजा वृक्ष हो गया | निदान कुछ काल वृक्ष रहकर फिर छूटा तो एक देश में दर्दुर हुआ और सौ वर्षपर्यन्त खाईं में पड़ा रहा | फिर उससे छूटकर मनुष्य हुआ तब किसी सिद्ध के शाप से शिला हो गया और सौ वर्षपर्यन्त शिला ही रहा | उसके उपरान्त अग्निदेवता ने शिला से छुड़ाया तो फिर मनुष्य हुआ, तब वह सिद्ध आश्चर्यवान् हुआ कि मेरे शाप को दूर करके यह मनुष्य क्यों कर हुआ है- यह तो मुझसे भी बड़ा सिद्ध है | ऐसे जानकर उसने उसके साथ मैत्री की | इसी प्रकार दूसरे समुद्रों को भी यह लाँघता गया और क्षीरसमुद्र, खारी समुद्र और इक्षु के रस के समुद्र को लाँघकर द्वीपों को लाँघता गया |

ravi sharma
01-12-2012, 08:20 AM
फिर एक अप्सरा से मोहित हुआ और बहुत काल में वहाँ से छूटा-तो एक देश में पक्षी हुआ और बहुत कालपर्यन्त पक्षी रहकर छूटा तो एक गोपी पिशाचिनी थी उसने बैल बनाके उसे रखा और दूसरे विपश्चित् ने बैल विपश्चित् को उपदेश करके गाया | निदान हे रामजी! चारों दिशाओं में चारों विपश्चित् भ्रमते फिरे | दक्षिण दिशा का तो पिशाचिनी से मोहित हुआ इससे उसने बहुत जन्म पाये और पूर्व का बहता हुआ मच्छ के मुख में चला गया और उसने निकाल डाला, इससे लेकर वह अवस्था देखी | उत्तर दिशा का जो हुआ उसने वही अवस्था देखी और पश्चिम दिशा का हेमचू पक्षी की पीठ पर प्राप्त हुआ और उसने उसे कुशद्वीप में डाल दिया इससे उसने भी अनेक अवस्था पाई | हे रामजी! एक एक विपश्चित् ने भिन्न भिन्न योनि और अवस् था का अनुभव किया | रामजी ने पूछा, हे भगवन्! तुम कहते हो कि `विपश्चित एक ही था और उनकी संवित् भी एक ही थी और आकार भी एक ही था तो भिन्न भिन्न रुचि कैसे हुई जो एक पक्षी हुआ,दूसरा वृक्ष हुआ और इससे लेकर वासना के अनुसार अनेक शरीर पाते फिरे |

ravi sharma
01-12-2012, 08:20 AM
वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इसमें क्या आश्चर्य है? उनकी संवित् एक ही थी परन्तु भ्रम से भिन्नता हो जाती है | जैसे किसी पुरुष को स्वप्ना आता है तो उसमें पशु-पक्षी हो जाते हैं और भिन्न भिन्न रुचि भी हो जाती है, तैसे ही उसकी भिन्न भिन्न रुचि हो गई | जैसे देखो कि शरीर तो एक ही होता है पर उसमें नेत्र, श्रवण, नासिका, जिह्वा और त्वचा की रुचि भिन्न भिन्न होती है और अपने अपने विषयों को ग्रहण करती हैं सो एकही शरीर में अनेकता भासती है, तैसे ही उनकी एक ही संवित् थी परन्तु भिन्न भिन्न हो गया था इससे मन के फुरने से एक में अनेक भासीं | जैसे एक ही योगेश्वर इच्छा करके और और शरीर धर लेता है और एक से अनेक हो जाता है | एक सहस्त्रबाहु अर्जुन था सो एक भुजा से युद्ध करता था, दूसरी भुजा से दान करता था और एक से लेता था, इसी प्रकार सब भुजाओं से चेष्टा करता था वे भी भिन्न भिन्न हुए | एक ही शरीर में भिन्न भिन्न चेष्टा होती है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:20 AM
जैसे विष्णु भगवन् कहीं दैत्यों के साथ युद्ध करते, कहीं कर्म करते हैं, कहीं लीला करते हैं और कहीं शयन करते हैं सो संवित् तो एक ही है परन्तु चेष्टा भिन्न भिन्न होती है, तैसे ही उनकी संवित् में अनेक रुचि हुई तो इसमें क्या आश्चर्य है? हे रामजी! इस प्रकार उन्होंने जन्म से जन्मान्तर को अविद्यक संसार में देखा | रामजी ने पूछा, हे भगवन्! वे तो बोधवान् विपश्चित् थे और बोधवान् जन्म नहीं पाता फिर उनको किस प्रकार जन्म हुआ? वशिष्ठजी बोले हे रामजी! वे विपश्चित् बोधवान् न थे परन्तु बोध के निकट धारणा अभ्यासवाले थे | जो वे ज्ञानवान् होते तो दृश्यभ्रम देखने की इच्छा क्यों करते? इससे वे ज्ञानवान् न थे-धारणा अभ्यासी थे अतः समुद्र को लाँघ गये और मच्छ के उदर से बल करके निकले सो यह योगशक्ति प्रसिद्ध है | ज्ञान का लक्षण सुसंवेद्य है परसंवेद्य नहीं |

ravi sharma
01-12-2012, 08:20 AM
राजा विपश्चित् ज्ञानवान् न थे इस कारण देश-देशान्तर में भ्रमते रहे और ज्ञान बिना अविद्यक संसार में जन्ममरण में भटकते रहे | रामजी ने पूछा, हे भगवन्! योगेश्वरों को भूत, भविष्य, वर्तमान, तीनों कालों का ज्ञान कैसे होता है और एक देश में स्थित हुआ सर्वत्र कर्मों को कैसे करता है सो सब मुझसे कहिये? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! अज्ञानी की वार्त्ता यह मैंने तुमसे कही है और जितना जगत् है सो सब चिदाकाशस्वरूप है | जिसको ऐसी सत्ता का ज्ञान हुआ है वे महापुरुष हैं | जैसे स्वप्ने से कोई पुरुष जागे तो स्वप्ने की सब दृष्टि उसको अपना ही स्वरूप भासती है और उसमें कन्धायमान नहीं होता | यह सब नानात्व भासती है सो नाना नहीं और अपनी भी नहीं केवल आत्मसत्ता ज्यों की त्यों अपने आप में स्थित है | जैसे आकाश अपनी शून्यता में स्थित है, तैसे ही आत्मा अपने आपमें स्थित है | ये तीनों काल भी ज्ञानवान् को ब्रह्मरूप हो जाते हैं और सब जगत् भी ब्रह्मरूप हो जाते हैं और द्वैतभाव उसका मिट जाता है | ऐसे ज्ञानवान् को ज्ञानी ही जानता है और कोई नहीं जान सकता, जैसे अमृत को जो पान करता है सो ही उसके स्वाद को जानता है और कोई जान नहीं सकता |

ravi sharma
01-12-2012, 08:21 AM
हे रामजी! ज्ञानी और अज्ञानी की चेष्टा तो तुल्य भासती है परन्तु ज्ञानी के निश्चय में कुछ और है और अज्ञानी के निश्चय में और है | जिसका हृदय शीतल हुआ है वह ज्ञानवान् है और जिसका हृदय जलता है वह अज्ञानी है | वह बाँधा हुआ है और ज्ञानवान् का शरीर चूर्ण हो अथवा उसे राज्य प्राप्त हो तो भी उसको रागद्वेष नहीं उपजता, वह सदा ज्यों का त्यों एकरस रहता है | वह जीवन्मुक्त है परन्तु यह लक्षण उसका कोई जान नहीं सकता वह आपही जानता है शरीर को दुःख और सुख भी प्राप्त होता है, मरता और रुदन भी करता है और हँसता, लेता और देता भी है और इससे लेकर सब चेष्टा करता दृष्टि आता है पर वह अपने निश्चय में न दुःखी होता है, न सुखी होता है, न देता है और न लेता है-सदा ज्यों का त्यों रहता है | हे रामजी! व्यवहार तो उसका भी अज्ञानी की नाईं ही दृष्टि आता है परन्तु हृदय से उसका निश्चय होता है और अद्भुत पद में स्थित रहता है कदाचित् नहीं गिरता | उसका परम उदित रूप होता है और रागसहित भी दृष्टि आता है परन्तु हृदय से राग किसी में नहीं करता, क्रोध करता भी दृष्टि आता है परन्तु उसको क्रोध कदाचित् नहीं होता |

ravi sharma
01-12-2012, 08:21 AM
जैसे आकाश शुभपदार्थ को धारता है और धूम और बादल से ढापा भी दृष्टि आता है परन्तु किसी से स्पर्श नहीं करता, तैसे ही ज्ञानवान् में सब क्रिया दृष्टि आती हैं परन्तु अपने निश्चय में वह किसी से स्पर्श नहीं करता | जैसे नटवा स्वाँग ले आता है और चेष्टा करता दीखता है पर हृदय से अपने नटत्व भाव में निश्चय होता है, तैसे ही ज्ञानवान् को भी सब क्रिया में अपना आत्म भाव निश्चय होता है | जैसे जिसको स्वप्ना आता है वह यदि स्वप्न में भी अपना पूर्वरूप स्मरण रखता है तो स्वप्न के पदार्थ में बर्तता है तो भी उनके मुख में आपको सुखी नहीं मानता और दुःख में आपको दुःखी नहीं मानता-सब सृष्टि उसको अपना ही स्वरूप भासती है, तैसे ही ज्ञानवान् को अपने स्वरूप के निश्चय से सुख-दुःख का क्षोभ नहीं होता | जो ऐसे पुरुष हैं उनको दुःख से क्या होता है? जैसे उनकी इच्छा होती है तैसे ही सिद्ध होकर भासती है | हे रामजी! यह जितनी सृष्टि है सो सब चित्सत्ता में है और योगीश्वर पुरुष उसी में स्थित होकर जहाँ प्राप्त हुआ चाहते हैं वहाँ अन्तवाहक से जा प्राप्त होते हैं और तीनों काल उनको विद्यमान होते हैं साधन कुछ नहीं परन्तु ज्ञानी अवश्य करके किसी निमित्त यत्न नहीं करते-जैसा प्राप्त होता है उसी में प्रसन्न रहते हैं |

ravi sharma
01-12-2012, 08:21 AM
हे रामजी! एक काल में ब्रह्माजी ऊर्ध्वमुख से सामवेद को गायन करते थे और सदाशिव का मान न किया तब सदाशिव ने अपने नख से ब्रह्मा का पाँचवाँ शीश काट डाला परन्तु ब्रह्माजी के मन में कुछ क्रोध न फुरा | उन्होंने विचारा कि मैं चिदाकाश हूँ सो अब भी चिदाकाश हूँ मेरा तो कुछ गया नहीं, शिर से मेरा क्या प्रयोजन है? न कुछ हानि है और न कुछ लाभ है | हे रामजी! इस प्रकार सर्व विश्व रचनेवाले ब्रह्मा का शिर कटा, जो वे फिर भी शिर लगा लेते तो समर्थ थे परन्तु उनको लगाने का कुछ प्रयोजन न था और न लगाने में कुछ हानि भी न थी | उनका भी निश्चय सदा आत्मपद में हैं इस कारण उन्हें कुछ क्षोभ न हुआ | हे रामजी! काम के सदृश और कोई विकार नहीं है | जो सदाशिव पार्वती को बायें अंग में धारते हैं और कामदेव के पाँच बाण चलने से सर्वविश्व मोहित होता है उस काम को सदाशिव ने भस्म कर डाला तो क्या स्त्री के त्यागने को वे समर्थ नहीं हैं परन्तु उनको रागद्वेष कुछ नहीं इस कारण त्याग नहीं करते | त्यागने से कुछ अर्थ की सिद्धि नहीं होती और रखने से कुछ अनर्थ नहीं होता-जो कुछ प्रवाहपतित कार्य होता है उसको करते हैं खेद नहीं मानते इससे वे जीवन्मुक्त हैं |

ravi sharma
01-12-2012, 08:21 AM
विष्णुजी सदा विक्षेप में रहते हैं, आप भी कर्मकरते हैं और लोगों से भी कराते हैं और लोगों से भी कराते हैं और शरीर धारते हैं और त्याग भी देते हैं इत्यादिक क्षोभ में रहते हैं सो त्यागने को समर्थ भी हैं परन्तु त्यागने में उनका कुछ कार्य सिद्ध नहीं होता और करने में कुछ हानि नहीं होती | उनको लोग कई गुणों से गुणवान् जानते और मुझको तो शुद्ध चिदाकाश रूप भासता है | मूर्ख कहते हैं कि विष्णु श्याम सुन्दर हैं परन्तु वे शुद्ध चिदाकाशरूप हैं और सदा शुद्धस्वरूप में उनको अहंप्रत्यय है | आकाशमार्ग में जो सूर्य स्थित है वे कभी ऊर्ध्व की ओर और कभी नीचे जाते हैं तो क्या उनको स्थित होने की सामर्थ्य नहीं है? है परन्तु चलना और ठहरना दोनों उनको सम है और खेद से रहित होकर प्रवाहपतित कार्य में रहते हैं इससे जीवन्मुक्त हैं |

ravi sharma
01-12-2012, 08:22 AM
जीवन्मुक्त चन्द्रमा भी है सो घटते घटते सूक्ष्म होते दृष्टि आते हैं और कभी बढ़ते जाते, शुक्ल और कृष्ण दोनों पक्ष उनमें होते हैं और रात्रि को प्रकाशते हैं तो क्या वे अपनी क्रिया को त्याग नहीं सकते? नहीं त्याग सकते हैं, परन्तु क्षोभ से रहित होकर प्रवाहपतित कार्य में बिचरते हैं इससे जीवन्मुक्त हैं | अग्नि सदा दौड़ता रहता है और यज्ञ और होम के भोजन करने को सर्व ओर जाता है तो क्या उसको गृह में बैठने की सामर्थ्य नहीं है? है परन्तु जो कुछ अपना आचार है उसको वह नहीं त्यागता, क्योंकि ठहरने में उसका कुछ कार्य सिद्ध नहीं होता और चलने में कुछ हानि नहीं होती-दोनों में वे तुल्य जीवन्मुक्त हैं | हे रामजी! वृहस्पति और शुक्र को बड़ा क्षोभ रहता है, वृहस्पति देवताओं की जय के निमित्त यत्न करते हैं और शुक्र दैत्यों की जय के निमित्त यत्न करते रहते हैं तो क्या इनको त्यागने की सामर्थ्य नहीं है परन्तु दोनों इनको तुल्य हैं इस कारण खेद से रहित होकर अपने कार्य में विचरते है इससे जीवन्मुक्त पुरुष हैं |

ravi sharma
01-12-2012, 08:22 AM
हे रामजी! राज्य में बड़े क्षोभ होते हैं पर राजा जनक आनन्दसहित राज्य करता है और जीवन्मुक्त है- और प्रह्लाद, बलि, वृत्रासुर और मुर आदि दैत्य जीवन्मुक्त हुए हैं और समताभाव को लिये खेद से रहित नाना प्रकार की चेष्टा करते रहे हैं और हृदय से शीतल और जीवन्मुक्त रहे हैं | राजा नल, दिलीप और मान्धाता आदि ने भी समताभाव को ले राज्य किया है सो जीवन्मुक्त हैं | ऐसे ही अनेक राजा हुए हैं और उनमें रागवान् भी दृष्टि आये हैं परन्तु हृदय में रागद्वेष से रहित शीतलचित्त रहे हैं | हे रामजी! ज्ञानी और अज्ञानी की चेष्टा तुल्य होती है परन्तु इतना भेद है कि ज्ञानी का चित्त शान्त है और अज्ञानी का चित्त क्षोभ में है, इष्ट की प्राप्ति में वह हर्षवान् होता है और अनिष्ट की प्राप्ति में द्वेष करता है और ग्रहणत्याग की इच्छा से जलता है, क्योंकि उसको संसार सत्य भासता है और जिसका चित्तशान्त हो गया है उसके भीतर न राग है, न द्वेष है, स्वाभाविक शरीर की जो प्रारब्ध होती है उसमें कुछ अपना अभिमान नहीं होता |

ravi sharma
01-12-2012, 08:22 AM
उसके निश्चय में सब आकाशरूप हैं, जगत् कुछ बना नहीं-भ्रममात्र है जैसे आकाश में नीलता भ्रममात्र है और दूर नहीं होती तैसे ही यह जगत् भ्रम से भासता है परन्तु है नहीं | जैसे आकाश में नाना प्रकार के तरुवरे भासते हैं तैसे ही आत्मा में जगत् भासता है और जैसे काष्ठ की पुतली काष्ठरूप होती है, तैसे ही जगत् भ्रमरूप है | जो कुछ भ्रम से भिन्न भासता है वह सब भविष्यनगर में असत्य है और जो कुछ तुम्हें दृष्टि आता है सो कुछ नहीं केवल सर्व कलना से रहित, शुद्धसंवित जड़ता बिना मुक्त स्वभाव एक अद्वैत आत्मसत्ता स्थित है और केवल आकाशरूप है, उसमें जगत् भी वही रूप है और पाषाण की शिला वत् घन मौन है | तुम भी उसी रूप में स्थित हो रहो |

ravi sharma
01-12-2012, 08:23 AM
रामजी ने पूछा, हे भगवन्! उस राजा विपश्चित् ने फिर क्या किया? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जो उनकी दशा हुई है सो तुम सुनो | पश्चिम दिशा का विपश्चित् वन में बिचरता फिरता था कि एक मत्त हाथी के वश पड़ा और उसने उसे पहाड़ की कन्दरा में मार डाला, दूसरे विपश्चित् को राक्षस ले गया और बड़वाग्नि में डाल दिया वहाँ अग्नि ने उसे भक्षण कर लिया, तीसरे विपश्चित् को एक विद्याधर स्वर्ग में ले गया और उसने वहाँ इन्द्रका मान न किया इसलिये उसको इन्द्र ने शाप दिया और वह भस्म हो गया, इसी प्रकार चौथा भी हुआ उसके एक मच्छ ने आठ टुकड़े कर डाले | जैसे प्रलयकाल में लोक भस्म हो जाते हैं तैसे ही चारों विपश्चित् मर गये | तब उनकी संवित्त आकाशरूप हुई परन्तु उनको जगत् देखने का संस्कार था इससे उनको आकाशरूप संवित् फिर आन फुरी उससे जाग्रत भासने लगा और पृथ्वी, द्वीप, समुद्र, स्थावर जंगमरूप जगत् को देखा और अन्तवाहक शरीर से चेष्टा करने लगे |

ravi sharma
01-12-2012, 08:23 AM
उनमें से एक पश्चिम दिशा का विपश्चित् विष्णु भगवन् के स्थान में मुआ निर्वाण हो गया इससे उसकी संवित् में सर्व अर्थ शून्य हो गये और वह वहाँ मुक्त हुआ | एक मच्छ के उदर में सहस्त्र वर्ष पर्यन्त रहा उससे फिर एक देश का राजा हुआ और वहाँ राज्य करने लगा | एक चन्द्रमा के निकट जा वहाँ मरके चन्द्रमा के लोक को प्राप्त हुआ और एक बहता हुआ समुद्र के पार हुआ और आगे चौरासी हजार योजन पृथ्वी को लाँघता गया | इसी प्रकार चारों फिर जिये और समुद्र बन और पर्वतों को लाँघते गये | सबके आगे दसशहस्त्र योजन सुवर्ण की पृथ्वी आई जहाँ देवताओं के बिचरने के स्थान हैं उनको भी वे लाँघते गये | आगे लोकालोक पर्वत आया जिसने सर्व पृथ्वी को आवरण किया है-जैसे वृक्षों से वन का आवरण होता है, तैसे ही उस पर्वत ने पञ्चाशत्कोटि योजन पृथ्वी को आवरण किया है और पचास हजार योजन ऊँचा है- वे उस लोकालोक पर्वत में पहुँचे जहाँ तारों का नक्षत्र चक्र फिरता है उसको भी वे लाँघ गये |

ravi sharma
01-12-2012, 08:23 AM
उसमें आगे एक शून्य नक्षत्र था सो महाशून्य था जहाँ पृथ्वी, जल आदिक तत्त्व कोई न था, एक शून्य आकाश है जहाँ न कोई स्थावर पदार्थ है, न कोई जंगम पदार्थ है, न कोई उपजे है, न कभी मिटे है उसको भी उन्होंने देखा | इसी प्रकार सम्पूर्ण भूगोल को उन्होंने देखा | रामजी ने पूछा, हे भगवन्! भूगोल क्या है, किसके आश्रय है और उसके ऊपर क्या है? वसिष्ठजी बोले, हे रामजी! जैसे गेंद होता है, तैसे भूगोल है और संकल्प के आश्रय है | सब ओर उसके आकाश है और सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र सहित चक्र फिरता है | हे राम जी! यह कोई वस्तु बुद्धि से नहीं बनी संकल्प से बनी है जो वस्तु बुद्धि से बनी होती है सो क्रम से स्थित होती है और यह तो विपर्ययरूप से स्थित है | पृथ्वी के चहुँफेर दशगुण जल है उससे परे दशगुणी अग्नि है, उसके उपरान्त दशगुणा वायु है और फिर ब्रह्माण्ड खप्पर है | वह खप्पर एक अधः को और एक ऊर्ध्व को गया है और उसके मध्य में जो पोल है वह आकाश है जो वज्रसार की नाईं है और अनन्तकोटि योजन का उसका विस्तार है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:23 AM
उस ब्रह्माण्ड का उसमें भूगोल है, उसके उत्तर दिशा में सुमेरु पर्वत है, पश्चिम दिशा में लोकालोक पर्वत है और ऊपर नक्षत्रचक्र फिरता है | जहाँ वह जाता है वहाँ प्रकाश होता है और जहाँ वह नहीं होता वहाँ तमरूप भासता है सो सब संकल्परचना है | जैसे बालक संकल्प से पत्थर का बट्टा रचे, तैसे ही चैतन्यरूपी बालक ने यह संकल्परूपी भूगोल रचा है | हे रामजी! जैसे-जैसे उस समय उसमें निश्चय हुआ है तैसे ही स्थित हुआ है | जहाँ पृथ्वी स्थित रची है वहाँ ही स्थित है और जहाँ खात रची है वहाँ खात ही है परन्तु जैसे स्वप्ने में अविद्यमान प्रतिभा होती है तैसे ही भूगोल है | हे रामजी! जिनको ऐसा ज्ञान है कि सुमेरु में देवता और पूर्वादि दिशाओं में मनुष्य आदि जीव रहते हैं व पण्डित हैं तो भी मूर्ख हैं, क्योंकि ये तो भ्रममात्र हैं कुछ बने नहीं | जो हमसे आदि लेकर तत्त्ववेत्ता हैं उनको ज्ञाननेत्र से आत्म सत्ता ज्यों की त्यों भासती है और जो मन सहित षट्इन्द्रियों से अज्ञानी देखते हैं उनको जगत् भासता है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:23 AM
ज्ञानवानों को परब्रह्म सूक्ष्म ज्यों का त्यों भासता है और जगत् को वे असत् जानते हैं | जैसे आकाश में अनहोती नीलता भासती है, तैसे ही आत्मा में अनहोता जगत् भासता है | जैसे नेत्रदूषण से आकाश में तरुवरे भासते हैं, तैसे ही अज्ञान से आत्मा में जगत् भासता है सो केवल आभासमात्र है | हे रामजी! जगत् उपजा भी दृष्टि आता है और नष्ट होता भी दृष्टि आता है परन्तु बना कुछ नहीं | जैसे संकल्प का रचा नगर अपने मन में भासता है, तैसे ही यह जगत् मन में फुरता है | यह सम्पूर्ण भूगोल संकल्प में स्थित है | जैसे बालक संकल्प करके पत्थर का बट्टा रचे तैसे ही भूगोल है | यह ब्रह्माण्ड सौ कोटि योजन पर्यन्त है | उसका एक भाग अधः को गया है और एक ऊर्ध्व को गया है, उसमें चैतन्यरूपी बालक ने यह भूगोल रचा है सो संकल्प के आश्रय खड़ा है

ravi sharma
01-12-2012, 08:24 AM
जैसे आदि नीति हुई है, तैसे ही भासता है | इस पृथ्वी के उत्तर दिशा में सुमेरु पर्वत है, पश्चिम दिशा की ओर लोकालोक पर्वत है और ऊपर तारों और नक्षत्रों का चक्र फिरता है, लोकालोक के जिस ओर वह जाता है उस ओर प्रकाश होता है | भूगोल ऐसे है, जैसे गेंद होता है और इसके एक ओर पाताल है, एक ओर स्वर्ग है, एक ओर मध्यमण्डल है और आकाश सर्व ओर है | आकाशवासी जानते हैं कि हम ऊर्ध्व हैं और मध्यवासी जानते हैं कि हम ऊर्ध्व है | इस प्रकार भूगोल है और उसके ऊपर महातमरूप एक शून्य खात है | जहाँ न पृथ्वी है, न कोई पहाड़ है, स्थावर है न जंगम है और न कुछ उपजा है | उसके ऊपर एक सुवर्ण की दीवार है जिसका दश सहस्त्र योजन विस्तार है और उसके ऊपर दशगुणा जल है सो पृथ्वी को चहुँ फेर से घेरे हैं, उससे परे दशगुण अग्नि है, फिर दशगुण वायु है और उसके आगे आकाश है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:24 AM
फिर ब्रह्माकाश महाकाश है जिसमें अनन्त ब्रह्माण्ड स्थित हैं परन्तु ये तत्त्व जैसे तृण के आश्रय कपूर ठहरता है तैसे ही पृथ्वीभाग के आश्रय ठहरे हैं | वास्तव में शुद्ध चैतन्य ब्रह्म का चमत्कार है जो आकाशवत् निर्मल है और उसमें कोई क्षोभ नहीं है, परमशान्त, अन्त और सर्व का अपना आप है | हे रामजी! अब फिर विपश्चित् की वार्ता सुनो | जब वे लोकालोक पर्वत पर जा स्थित हुए तब एक शून्य खात (खाई) उनको दृष्ट आया और पर्वत से उतरकर खात में वे जा पड़े | वह खात भी पर्वत के शिखर पर था और वहाँ शिखर की नाईं बड़े बड़े पक्षी भी रहते थे इस कारण उन पक्षियों ने चोंचों से इनके शरीर चूर्ण किये, तब उन्होंने अपने स्थूल शरीर को त्यागकर अपना सूक्ष्म अन्त वाहक शरीर जाना |

ravi sharma
01-12-2012, 08:24 AM
रामजी ने पूछा, हे भगवन्! आधिभौतिक कैसे होती है और अन्तवाहक क्या है? फिर उन्होंने क्या किया? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! तैसे कोई संकल्प से दूर से दूर चला जावे तो जिस शरीर से जावे वह अन्तवाहक है और जो पाञ्चभौतिक शरीर प्रत्यक्ष भासता है सो आधिभौतिक है | जब मार्ग से कहीं जाने को चित्त का संकल्प उठता है तब स्थूल शरीर से गए बिना नहीं पहुँच सकता और जब मार्ग में चले तब पहुँचता है सो ही आधिभौतिक है और यह प्रमाद से होता है | जैसे रस्सी के झूलने से सर्प भासता है, तैसे ही आत्मा के अज्ञान से आधिभौतिक शरीर भासता है और जैसे कोई मनोराज का पुर बना के उसमें आप भी एक शरीर बनकर चेष्टा करता फिरे तो उसे जब तक पूर्व का शरीर विस्मरण नहीं हुआ तब तक वह संकल्प शरीर से चेष्टा करता है सो अन्तवाहक है

ravi sharma
01-12-2012, 08:25 AM
उस शरीर को संकल्पमात्र जानना-विशेष बुद्धि कहाती है | आत्मबोध हुए बिना जो उस संकल्पशरीर में दृढ़ भावना होती है तो उसका नाम आधि भौतिक होता है-सो घट बढ़ कहाता है | इससे जब तक शरीर का स्मरण है तब तक आधि- भौतिकता निवृत्त नहीं होती और जब शरीर का विस्मरण होता है तब आधिभौतिकता मिट जाती है | विपश्चित् आत्मबोध से रहित थे और जहाँ चाहते थे वहाँ चले जाते थे पर स्वरूप से न कुछ अन्तवाहक है और न कुछ आधिभौतिक है, प्रमाद से ये सब आकार भासते हैं | वास्तव में सब चिदाकाशरूप है, दूसरी वस्तु कुछ नहीं बनी सब वही है और उसी के प्रमाद से विपश्चित् अविद्यक जगत् को देखने चले थे | वह अविद्या भी कुछ दूसरी वस्तु नहीं- ब्रह्म ही है तो ब्रह्म का अन्त कहाँ आवे | वहाँ से वे चले परन्तु जानें कि हमारा अन्तवाहक शरीर है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:25 AM
निदान वे सब पृथ्वी को लाँघ गये | फिर जल को भी लाँघ गये और उसके परे जो सूर्य व दाहक अग्नि का आवरण प्रकाशवान् है तिसको भी लाँघकर मेघ और वायु के आवरण को भी लाँघे | फिर आकाश को भी लाँघ गये तो उसके परे ब्रह्माकाश था जहाँ उनको संकल्प के अनुसार फिर जगत् भासने लगा पर उसको भी लाँघे | फिर आगे ब्रह्माकाश मिला और फिर उनको पञ्चभूत भासि आये, उसके आवरण को भी लाँघ गये | फिर उस ब्रह्माण्डकपाट के परे तत्त्वों को लाँघकर ब्रह्माकाश आया, उसमें एक और पाञ्चभौतिक ब्रह्माण्ड था | उसको भी लाँघ गये पर अन्त न पाया | स्वरूप के प्रमाद से दृश्य के अन्त लेने को वे भटकते फिरे पर अविद्यारूप संसार का अन्त कैसे आवे? यह जीव तब तक अन्त लेने को भटकता फिरता है जब तक अविद्या नष्ट नहीं होती, जब अविद्या नष्ट होगी तभी अविद्यारूप संसार का अन्त होगा | हे रामजी! जगत् कुछ बना नहीं वही ब्रह्माकाश ज्यों का त्यों स्थित है और उसका न जानना ही संसार है | जब तक उसका प्रमाद है तब तक जगत् का अन्त न आवेगा और जब स्वरूप का ज्ञान होगा तब अन्त आवेगा | सो वह जानना क्या है? चित्त को निर्वाण करना ही जानना है | जब चित्त निर्वाण होगा तब जगत् का अन्त आवेगा | जब तक चित्त भटकता फिरता है तब संसार का अन्त नहीं आता | इससे चित्त का नाम ही संसार है | जब चित्त आत्मपद में स्थित होगा तब जगत् का अन्त होगा इस उपाय बिना शान्ति नहीं प्राप्त होती |

ravi sharma
01-12-2012, 08:25 AM
रामजी ने पूछा,हे भगवन्! वे जो दो विपश्चित् थे उनकी क्या दशा हुई, यह भी कहो | वे तो दोनों एक ही थे | वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! एक तो निर्वाण हुआ था और दूसरा ब्रह्माण्डों को लाँघता लाँघता और एक ब्रह्माण्ड में गया तब वहाँ उसको सन्तों का संग प्राप्त हुआ और उनकी संगति से उसको ज्ञान प्राप्त हुआ | ज्ञान को पाकर वह भी निर्वाण हो गया | एक अब तक दूर फिरता है और यहाँ एक पहाड़ की कन्दरा में मृग होकर बिचरता हे | हे रामजी! यह जगत् आत्मा का आभास है | जैसे सूर्य की किरणों में जल भासता है और जब तक किरणें हैं तबतक जलाभास निवृत्त नहीं होता, तैसे ही जब तक आत्मसत्ता है तब तक जगत् का चमत्कार निवृत्त नहीं होता और आत्मा के जाने से जगत् सत्ता नहीं रहती | जैसे किरणों के जाने से जलाभास नहीं रहता और जो जल भासता है तो भी किरणों ही की सत्ता भासती है, तैसे ही आत्मा के जाने से आत्मा की सत्ता ही भासती है-भिन्न जगत् की सत्ता नहीं भासती |

ravi sharma
01-12-2012, 08:25 AM
रामजी ने पूछा, हे भगवन्! विपश्चित् एक ही था तो एक ही संवित् में भिन्न भिन्न वासना कैसे हुई? एक मुक्त हो गया, एक मृग होकर फिरता रहा और एक आगे निर्वाण हो गया-यह भिन्नता कैसे हुई? संवित् तो एक ही थी उसमें कम और अधिक फल कैसे हुए सो कहिये? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! वासना जो होती है सो देशकाल और पदार्थों से होती है | उसमें जिसकी दृढ़ भावना होती है उसकी जय होती है | जैसे एक पुरुष ने मनोराज से अपनी चार मूर्त्तियाँ कल्पीं और उनमें भिन्न भिन्न वासना स्थापित की पर संवित् तो एक है, यदि पूर्व का शरीर भूलकर उसमें दृढ़ हो गये तो जैसी जैसी भावना उनके शरीर में दृढ़ होती है वही प्राप्त है, तैसे ही संवित् में नाना प्रकार की वासना फुरती हैं | जैसे एक ही संवित् स्वप्ने में नाना प्रकार धारती है और भिन्न भिन्न वासना होती है, तैसे ही आकाशरूप संवित् में भिन्न भिन्न वासना होती है | हे रामजी! संवित् उनकी एक थी परन्तु देश, काल और क्रिया से वासना भिन्न भिन्न हो गई और पूर्व की संवित् स्मृति भूल गई उससे उन्होंने न्यून और अधिक फल पाये |

ravi sharma
01-12-2012, 08:25 AM
वह संवित् क्या रूप है? हे रामजी! देश से देशान्तर को जो संवेदन जाती है उसके मध्य जो संवित्तसत्ता है सो ब्रह्मसत्ता है | जैसे जाग्रत के आकार को छोड़ा और स्वप्ना नहीं आया उसके मध्य जो ब्रह्मसत्ता है वह किञ्चनरूप जगत् होकर भासती है परन्तु किञ्चन भी कुछ भिन्न वस्तु नहीं! वह एक है न दो है, एक कहना भी नहीं होता तो दो कहाँ हो और जगत् कहाँ हो? यही अविद्या है कि है नहीं और भासती है | जैसी जैसी वासना फुरती है उसमें जो दृढ़ होती है उसकी जय होती है | इस कारण एक विपश्चित् जनार्दन (विष्णु) के स्थान में निर्वाण हो गया और दूसरा दूर से दूर ब्रह्माण्ड को लाँघता गया और उसको सन्तों का संग प्राप्त हुआ जिससे ज्ञान उदय होकर वासना मिट गई और उसका अज्ञान नष्ट हो गया | जैसे सूर्य के उदय हुए अन्धकार नष्ट हो जाता है, तैसे ही जब उसका अज्ञान नष्ट हो गया तब वह उस पद को प्राप्त भया जिसके अज्ञान से दूर से दूर भटकता है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:26 AM
तीसरा दूर से दूर भटकता फिरता है और चौथा पहाड़ की कन्दरा में मृग होकर बिचरता है | हे राम जी! जगत् कुछ वस्तु नहीं, अज्ञान के वश से भटकता है इसलिये अज्ञान ही जगत् है जबतक अज्ञान है तबतक जगत् है | जब ज्ञान उदय होता है तब वह अज्ञान को नाश करता है और तभी जगत् का अभाव हो जाता है | रामजी ने पूछा, हे भगवन्! यह जो मृग हुआ है सो कहाँ कहाँ फिरा है और कहाँ कहाँ स्थित हुआ है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! दो ब्रह्माण्ड को लाँघते दूर से दूर चले गये थे, उनमें से एक अब तक चला जाता है और पृथ्वी, समुद्र, वायु आकाश उसकी संवित् में फुरते हैं | यह तो दूर से चला गया है और हमारी आधिभौतिक दृष्टि का विषय नहीं और एक ब्रह्माण्ड को लाँघता गया था पर अब इस जगत् में पहाड़ की कन्दरा का मृग हुआ है सो हमारी इस दृष्टि का विषय है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:26 AM
रामजी ने पूछा, हे भगवन्! ये तो दूर गये थे और उनमें से एक इस जगत् में अब मृग हुआ है, तुमने कैसे जाना कि आगे वह ब्रह्माण्ड में था और अब इस जगत् में है? वशिष्ठजी बोले हे रामजी!मैं ब्रह्म हूँ और सर्व ब्रह्माण्ड मेरे अंग हैं | मुझको सबका ज्ञान है | जैसे अवयवी पुरुष अपने अंगों को जानता है कि यह अंग फुरता है और यह नहीं फुरता, तैसे ही मैं सबको जानता हूँ | जहाँ जहाँ यह लाँघता गया है उसे बुद्धि के नेत्रों से मैं जानता हूँ परन्तु तुम नहीं जान सकते | जैसे समुद्र में अनेक तरंग फुरते हैं और समुद्र सबको जानता है, तैसे ही मैं समुद्ररूप हूँ और मेरे में ब्रह्माण्डरूपी तरंगें हैं इससे मैं सबको जानता हूँ | हे रामजी! वह जो मृग है सो दूर ब्रह्माण्ड में फिरता है | वह विपश्चित् यह सामान्य मृग नहीं है परन्तु जैसा है सो सुनो! हे रामजी! एक ब्रह्माण्ड इस हमारे ब्रह्माण्ड सा है जिसका ऐसा ही आकार है, ऐसी ही चेष्टा है, एक ही सा जगत् है और स्थावर-जंगम सब एक ही से हैं |

ravi sharma
01-12-2012, 08:26 AM
वहाँ जो देश, काल और क्रिया का बिचरना होता है सो इसके ही समान होता है | जैसे नामरूप आकार यहाँ होते हैं, जैसे बिम्ब का प्रतिबिम्ब तुल्य ही होता है और जैसे एक ही आकार का एक प्रतिबिम्ब जल में होता है और द्वितीय दर्पण में होता है सो दोनों तुल्य हैं, तैसे ही दोनों ब्रह्माण्ड एक समान हैं और ब्रह्मरूपी आदर्श में प्रतिबिम्बित होते हैं | इस कारण यह मृग विपश्चित् है इसी निश्चय को धारे हुए है यह और वह दोनों तुल्य हैं सो पहाड़ की कन्दरा में हैं | रामजी ने पूछा, हे भगवन्! वह विपश्चित् अब कहाँ है और उसका क्या आचार है? अब मैं जानता हूँ कि उसका कार्य हुआ है | अब चलकर मुझको दिखाओ और उसको दर्शन देकर अज्ञानफाँस से मुक्त करो | इतना कहकर वाल्मीकिजी बोले, हे अंग! जब रामजी ने इस प्रकार कहा तब मुनिशार्दूल वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जहाँ तुम्हारा लीला का स्थान है और तुम क्रीड़ा करते हो उस ठौर में वह मृग बाँधा हुआ है | यह तुमको तिरगदेश के राजा ने दिया है सो बहुत सुन्दर है इस कारण तुमने उसे रखा है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:27 AM
उसको मँगाओ | तब रामजी ने अपने सखाओं से, जो निकटवर्ती थे, कहा कि उस मृग को सभा में ले आओ | हे राजन्! जब इस प्रकार रामजी ने कहा तब वे सभा में उस मृग को ले आये और जितने श्रोता सभा में बैठे थे वे बड़े आश्चर्य को प्राप्त हुए | वह मृग बड़ी ग्रीवा किये महासुन्दर और कमल की नाईं नेत्रवाला था, कभी वह घास खाने लगे, कभीं सभा में खेले और कभी ठहर जावे | तब रामजी ने कहा, हे भगवन्! आप इसको कृपा करके मनुष्ययोनि को प्राप्त कीजिये और उपदेश करके जगाइये कि हमारे साथ प्रश्न-उत्तर करे, अभी तो यह प्रश्न-उत्तर नहीं करता? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार उसको उपदेश न लगेगा, क्योंकि जिसका कोई इष्ट होता है उसी से उसको सिद्धि होती है, इससे मैं इसके इष्ट को ध्यान करके बुलाता हूँ- उससे इसका कार्य सिद्ध होगा | बाल्मीकिजी बोले, हे राजन्? इस प्रकार कहकर वशिष्ठजी ने कमण्डलु हाथ में लेकर तीन आचमन किया और पद्मासन बाँध, नेत्र मूँद और ध्यान में स्थित होकर अग्नि का आवाहन किया |

ravi sharma
01-12-2012, 08:27 AM
हे वह्ने! यह तेरा भक्त है इसकी सहायता करो इस पर दया करो | तुम सन्तों का दयालु स्वभाव है | जब ऐसे वशिष्ठजी ने कहा तब सभा में बड़े प्रकाश धारे अग्नि की ज्वाला काष्ठ अंगार से रहित प्रकट हुई और जलने लगी | जब ऐसे अग्नि जागी तब वह मृग उसे देखकर बहुत प्रसन्न हुआ और उसके चित्त में बड़ी भक्ति उत्पन्न हुई | तब वशिष्ठजी ने नेत्र खोलकर अनुग्रह सहित मृग की ओर देखा |उससे उसके सम्पूर्ण पाप दग्ध हो गये | वशिष्ठजी ने अग्नि से कहा, हे भगवन्, वह्ने! यह तेरा भक्त है | अपनी पूर्व की भक्ति स्मरण करके इस पर दया करो और उसके मृगशरीर को दूर करके इसको विपश्चित् शरीर दो कि यह अविद्याभ्रम से मुक्त हो | हे राजन्! इस प्रकार वशिष्ठजी अग्नि से कहकर रामजी से बोले, हे रामजी! अब यही मृग अग्नि में प्रवेश करेगा तब इसका मनुष्यशरीर हो जावेगा | ऐसे वशिष्ठजी कहते ही थे कि अग्नि को वह मृग देखकर एक चरण पीछे को हटा और उछलकर अग्नि में प्रवेश कर गया |

ravi sharma
01-12-2012, 08:27 AM
जैसे बाण निशान में आ प्रवेश करते हैं, तैसे ही उसने प्रवेश किया | हे राजन्! उस मृग को कुछ खेद न हुआ बल्कि उसको अग्नि आनन्दरूप दृष्टि आया | तब उसका मृगशरीर अन्तर्धान हो गया और महाप्रकाशरूप मनुष्यशरीर को धारे अग्नि से निकला | जैसे कपड़े के ओढ़े से स्वाँगी स्वाँग धारण कर निकल आता है, तैसे ही वह निकल आया और अति सुन्दर वस्त्र पहिरे हुए, शशि पहिरे हुए, शीश पर मुकुट, कण्ठ, में रुद्राक्ष की माला और यज्ञोपवीत धारण किये था | अग्निवत् वह तेजवान् था किन्तु सभा में जो बैठे थे उनसे भी अधिक उसका तेज था मानो अग्नि को भी लज्जित किया है | जैसे सूर्य के उदय हुए चन्द्रमा का प्रकाश लज्जित हो जाता है, तैसे ही वह सर्व से प्रकाशवान् हो गया |

ravi sharma
01-12-2012, 08:27 AM
फिर जैसे समुद्र से तरंग निकलकर लीन हो जाता है, तैसे ही वह अग्नि अन्तर्धान हो गये | उसको देखकर रामजी आश्चर्य को प्राप्त हुए और सर्वसभा विस्मय को प्राप्त हुई | तब बड़े प्रकाश को धारनेवाला विपश्चित् निकलकर ध्यान में लग गया और विपश्चित् से आदि लेकर इस शरीरपर्यन्त सर्व शरीर स्मरण करके नेत्र खोल वशिष्ठजी के निकट आ साष्टांग प्रणाम कर बोला, हे ब्राह्मण! ज्ञान के सूर्य और प्राण के दाता! तुमको मेरा नमस्कार है | जब इस प्रकार उसने कहा तब वशिष्ठजी ने उसके शिर पर हाथ रखा और कहा, हे राजन्! तू उठ खड़ा हो | अब मैं तेरी अविद्या दूर करूँगा और तू अपने स्वरूप को प्राप्त होगा | तब राजा विपश्चित् ने उठकर राजा दशरथ को प्रणाम किया और बोला, हे राजन्! तेरी जय हो |

ravi sharma
01-12-2012, 08:27 AM
तब राजा दशरथ ने अपने आसन से उठकर कहा, हे राजन्! तुम बहुत दूर फिरते रहे हो अब यहाँ मेरे पास बैठो | तब राजा विपश्चित् विश्वा मित्र आदिक जो ऋषि बैठे थे उनको यथायोग्य प्रणाम करके बैठ गया और राजा दशरथ ने विपश्चित् को, जो बड़े प्रकाश को धारे हुए था, भास कहके बुलाया और कहा, हे भास! तुम संसारभ्रम के लिये चिरकाल फिरते रहे हो, थके होगे अब विश्राम करो जो देश काल क्रिया की हैं और देखा है सो कहो! यह आश्चर्य है कि अपने मन्दिर में सोये हो और निद्रादोष से गढ़े में गिरते फिरे और देश देशान्तरों को भटकते फिरे | यही अविद्या है |हे भास! जैसे वन का विचरनेवाला हाथी जंजीर से बन्धायमान हुआ दुःख पाता है, तैसे ही तुम विपश्चित् भी थे और अविद्या से जगत् के देखने के निमित्त भटकते रहे | हे राजन्! जगत् कुछ वस्तु नहीं है पर भासता है यही माया है | जैसे भ्रम से आकाश में नाना प्रकार के रंग भासते हैं तैसे ही अविद्या से यह जगत् भासते हैं और सत्य प्रतीत होते हैं पर सब आकाशरूप ही आकाश में स्थित हैं | उस आकाश में जो कुछ तुमने आत्मरूपी चिन्तामणि के चमत्कार से देखा है सो कहो |

ravi sharma
01-12-2012, 08:28 AM
दशरथजी बोले, हे भास! बड़ा आश्चर्य है कि तुम विपश्चित् बुद्धिमान थे और चेष्टा से तुमने अविपश्चित् बुद्धि की है जो अविद्या के देखने को समर्थ हुए थे | यह जगत्् प्रतिभा तो मिथ्या उठी है, असत्य के ग्रहण की इच्छा तुमने क्यों की? बाल्मीकिजी बोले, हे राजन! जब इस प्रकार राजा दशरथ ने कहा तब प्रसंग पाकर विश्वामित्र बोले, हे राजन्, दशरथ! यह चेष्टा वही करता है जिसको परम बोध नहीं होता और केवल मूर्ख और अज्ञानी भी नहीं होता, क्योंकि जिसको परमबोध और आत्मा का अनुभव होता है वह जगत् को अविद्यक जानता है और उस अविद्यक जगत् के अन्त लेने को इतना यत्न नहीं करता, क्योंकि वह तो असत्य जानता है और जो देहअभिमान मूर्ख अज्ञ है वह भी यह यत्न नहीं करता, क्योंकि उसको देखने की सामर्थ्य भी नहीं होती |

ravi sharma
01-12-2012, 08:28 AM
इससे मध्य भावी है | जो आत्मबोध से रहित है और जिसने आधिभौतिक शरीर त्याग किया है वही संसार देखने का यत्न करता है और जिनको उत्तम बोध नहीं हुआ वे इस प्रकार बहुत भटकते फिरते हैं | हे राजन्! इसी प्रकार बट धाना भी इसी ब्रह्माण्ड में फिरते हैं | सत्तर लक्ष वर्ष उनके व्यतीत हुए हैं कि इसी ब्रह्माण्ड में फिरते हैं | उनने भी यही निश्चय धारा है कि पृथ्वी कहाँ तक चली जाती है | इस निश्चय से वह निवृत्त नहीं होते और इसी ब्रह्माण्ड में भ्रमते हैं और उनको अपनी वासना के अनुसार विपरीत और ही औरस्थान भासते हैं | हे राजन्! जैसे किसी बालक का रचा संकल्प का वृक्ष आकाश में हो, तैसे ही यह भूगोल ब्रह्मा के संकल्प में स्थित है और संकल्प से गेंद के समान आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी इन पाँचों तत्त्वों का ब्रह्माण्ड रचा है और उसके चौफेर चींटियाँ फिरती हैं, जिस ओर से वे जाती हैं सो ऊर्ध्व भासता है सो और ही और निश्चय होता है, तैसे ही यह संकल्प के रचे भूगोल के किसी कोण में बटधाना जीव हुआ है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:28 AM
हे राजन्! उसके तीन पुत्र थे, उनको यह संकल्प उदय हुआ कि हम जगत् का अन्त देखें | इसी संकल्प से फिरते फिरते पृथ्वी लाँघते है फिर पृथ्वी और जल आता है जल लाँघते हैं फिर आकाश आता है फिर पृथ्वी, जल वायु फिर उसी भूगोल के चहुफेर फिरते रहे | जैसे आकाश में गेंद हो तैसे ही यह पृथ्वी आकाश में है और इसका अध-ऊर्ध्व कोई नहीं | चरण अध शिर ऊर्ध्व उसी के चौफेर घूमते रहे परन्तु अपने निश्चय से और का और जानते रहे | जबतक स्वरूप का प्रमाद है तबतक जगत् का अभाव नहीं होता और जब आत्मा का साक्षात्कार होता है तब जगत् ब्रह्मरूप हो जाता है | जगत् कुछ वन नहीं, फुरने में भासता है जैसे स्वप्ने में अज्ञान से अनन्त जगत् दीखते हैं कि यह फुरना परब्रह्म में हुआ है और जो फुरने में है सो भी परब्रह्म है और कुछ बना नहीं-आत्मसता ही अपने आपमें स्थित है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:28 AM
जैसे पत्थर की शिला घनरूप होती है, तैसे ही आत्मतत्त्व चैतन्यघन है | जैसे आकाश और शून्यता में कुछ भेद नहीं, तैसे ही ब्रह्म और जगत् में कुछ भेद नहीं | सब कल्पना परब्रह्मरूप है और ब्रह्म ही कल्पना रूप है | इस जड़ और चैतन्य में कुछ भेद नहीं | हे राजन्! जिसको जगत् शब्द से कहते हो वह ब्रह्मसत्ता ही है | न कुछ उत्पन्न हुआ है और न प्रलय होता है-सर्व ब्रह्म ही है | जैसे पहाड़ में पत्थर से इतर कुछ नहीं होता, तैसे ही यह जगत् ब्रह्मसत्ता से इतर कुछ नहीं | जैसे पाषाण की पुतली पाषाणरूप ही है, तैसे ही जगत् ब्रह्मरूप ही है एक सूक्ष्म अनुभव अणु से अनेक अणु होते हैं, जैसे एक पहाड़ से अनेक शिला होती है | हे राजन्! जो ज्ञानवान् पुरुष हैं उनको जगत् भासता है और जो अज्ञानी हैं उनको नाना प्रकार हो भासता है | जगत् कुछ वस्तु नहीं है परन्तु जबतक संकल्प है तब तक जगत् फुरता है | जैसे रत्नों का चमत्कार होता है, तैसे ही जगत् आत्मा का चमत्कार है और चैतन्य आत्मा के आश्रय अनन्त सृष्टियाँ फुरती हैं सो सृष्टि सब आत्मरूप हैं आत्मा से भिन्न कुछ वस्तु नहीं | जो जाग्रत पुरुष ज्ञानवान् हैं उनको ब्रह्मरूप ही भासता है और जो अज्ञानी हैं उनको नाना प्रकार का जगत् भासता है | हे राजन्! कई एक इसको शून्य कहते हैं कि शून्य ही है और कुछ नहीं, कई इसको जगत् कहते हैं और कई ब्रह्म कहते हैं |

ravi sharma
01-12-2012, 08:28 AM
जैसा किसी को निश्चय होता है उसको वही रूप भासता है | आत्मरूपी चिन्ता मणि है जैसा जैसा संकल्प उसमें फुरता है तैसा तैसा ही भासता है | सबका अधिष्ठान ब्रह्मसत्ता है जैसा जैसा उसमें निश्चय होता है तैसा ही तैसा होकर भासता है और दृष्टा, दर्शन, दृश्य-त्रिपुटी जो भासती है सो भी ब्रह्म होकर भासती है द्वितीय कुछ वस्तु नहीं और जो कुछ जगत् भासता है वही अज्ञान है | हे राजन्! जबतक वासना नष्ट नहीं होती तबतक दुःख भी नहीं मिटते और जब वासना मिट जावे- तब सर्व जगत् ब्रह्मरूप अपना आप ही भासे और रागद्वेष किसी में नहीं रहे | जैसे स्वप्न में नाना प्रकार की सृष्टि भासती हैं जब पूर्व का स्वरूप स्मरण आता है तो सर्वरूप आप हो जाता है और रागद्वेष मिट जाता है, तैसे ही ज्ञानवान् को यह जगत् ब्रह्मरूप अपना आप भासता है और विकार से रहित होता है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:29 AM
पूर्व, अपूर्व और अपर को विचारना कि यह शुभ है और यह अशुभ है, अशुभ को त्याग करना यह गौण विचार है | जबतक पूर्वापर मन में रहता है तबतक जगत् में भटकता है और बाँधा रहता है, क्योंकि शुभ-अशुभ दोनों जगत् में है जब इनका विस्मरण हो जावे और सम्पूर्ण जगत् को भ्रममात्र जानकर आत्मपद में सावधान हो तब मुक्त होता है | इस जीव को अपनी वासना ही बन्धन का कारण है | जब तक जगत् में वासना होती है तबतक रागद्वेष उपजता है और उससे बँधा रहता है | जिनको जगत् के सुख दुःख में रागद्वेष की भावना नहीं उपजती और जिनकी वासना भी नष्ट होती है उनको यह जगत् ब्रह्मरूप अपना आप ही भासता है और जगत् में दुःखदायक कुछ नहीं भासता | उनको सब ब्रह्म ही भासता है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:29 AM
दशरथजी ने विपश्चित् से पूछा, हे भास, तुम चिरकाल पर्यन्त जगत् में फिरते रहे हो जिस प्रकार तुमने चेष्टा की है और जो देश, काल, पदार्थ देखे हैं सो सब ही कहो | भास बोले, हे राजन्! मैं जगत् को देखता फिरा हूँ और फिरता थक गया हूँ परन्तु देखने की जो इच्छा थी इस कारण मुझको दुःख नहीं हुआ है | जो कुछ मैंने चेष्टा की है और जो देखा है सो कहता हूँ | हे राजन्! मैंने बहुत जन्म धारे हैं , और बहुत बार मृतक हुआ हूँ; बहुत बेर शाप पाया है, ऊँच नीच जन्म धारे हैं और मर मर गया हूँ और बहुत ब्रह्माण्ड देखे हैं परन्तु यह सब अग्नि देवता के वर से देखे हैं | एक बार मैं वृक्ष हुआ और सहस्त्र वर्ष पर्यन्त फूल, फल, टास, संयुक्त रहा | जब कोई काटे तब मैं दुःखी होऊँ और मेरे हृदय में पीड़ा होवे |

ravi sharma
01-12-2012, 08:29 AM
फिर वहाँ से शरीर छूटा तब मैं सुमेरु पर्वत पर सुवर्ण का कमल हुआ और वहाँ का जलपान किया | फिर एक देश में पक्षी हुआ और सौ वर्ष पक्षी रहकर फिर सियार हुआ और मुझे हस्ती ने चूर्ण किया इससे मृतक होकर फिर सुमेरु पर्वत पर सुन्दर मृग हुआ और देवता और विद्याधर मेरे साथ प्रीति करने लगे | कुछ काल में मरकर फिर देवताओं के वन में मञ्जरी हुआ और वहाँ देवियाँ और विद्याधरियाँ मुझको स्पर्श करें और सुगन्ध लें तब मैं देवताओं की स्त्री हुआ, फिर सिद्ध हुआ और मेरा वचन फुरने लगा, फिर मैंने और शरीर धारा और एक ब्रह्माण्ड लाँघ गया | इसी प्रकार कई ब्रह्माण्ड मैं लाँघ गया तब एक ब्रह्माण्ड में जो आश्चर्य देखा है सो सुनो | वहाँ मैंने एक स्त्री देखी जिसके शरीर में कई ब्रह्माण्ड थे | इससे मैं आश्चर्यवान् हुआ और देश काल क्रिया से पूर्ण कई त्रिलोकी देखीं |

ravi sharma
01-12-2012, 08:30 AM
जैसे दर्पण में प्रतिबिम्ब दृष्टि आता है, तैसे ही मुझको उसमें जगत् भासे | तब मैंने उससे कहा, हे देवि! तुम कौन हो और यह तेरे शरीर में क्या है? देवी बोली, हे साधो! मैं शुद्ध चित््शक्ति हूँ और यह सब मेरे अंग मेरे में स्थित है | मेरी क्या बात पूछनी है-यह सब जगत् जो तू देखता है चिद्रूप है, चैतन्य से भिन्न और कुछ नहीं और सबमें ब्रह्माण्ड (त्रिलोकी) स्थित है जो अपना आप ही है | जो अपने स्वभाव में स्थित हैं उनको अपने ही में ये भासते हैं और जो स्वरूप में स्थित नहीं हैं उनको जगत् बाहर और आपसे भिन्न भासते हैं | हे राजन्! यह जगत् कुछ बना नहीं | जैसे स्वप्न की सृष्टि और गन्धर्वनगर भासता है, तैसे ही आत्मा में जगत् भासता है और जैसे जल में तरंग भासता है सो जलरूप है-तरंग कुछ भिन्न वस्तु नहीं होते, तैसे ही सब जगत् चिद्रूप में भासता है सो चैतन्य से भिन्न कुछ नहीं परन्तु जब स्वभाव में स्थित होकर देखोगे तब ऐसे ही भासेगा और जो अज्ञानदृष्टि से देखोगे तो नाना प्रकार का जगत् दृष्टि आवेगा |

ravi sharma
01-12-2012, 08:30 AM
हे राजन्, दशरथ! जब इस प्रकार उस देवी ने मुझसे कहा तब मैं वहाँ से चला और आगे दूसरी सृष्टि में गया तो देखा कि वहाँ सब पुरुष ही रहते हैं, स्त्री कोई नहीं और पुरुष से पुरुष उत्पन्न होते हैं | उससे भी आगे और सृष्टि में गया तो वहाँ न सूर्य था, न चन्द्रमा था, न तारे थे, न अग्नि थी, न दिन था और न रात्रि थी | जैसे चन्द्रमा, सूर्य और तारों का प्रकाश होता है, तैसे ही सब अपने प्रकाश से प्रकाशते थे | उनको देखकर मैं आगे और सृष्टि में गया तो वहाँ क्या देखा कि आकाश ही से जीव उत्पन्न होकर आकाश ही में लीन होते हैं और इकट्ठे ही सब उपजते और इकट्ठे ही सब लीन हो जाते हैं, न वहाँ मनुष्य हैं, न देवता हैं, न वेद हैं, न शास्त्र हैं, न जगत् है-इनसे विलक्षण ही प्रकार है | हे राजन्! इस प्रकार मैंने कई सृष्टियाँ देखी हैं जो मुझको स्मरण आती हैं |

ravi sharma
01-12-2012, 08:30 AM
आगे और सृष्टि में गया तो वहाँ क्या देखा कि सब जीव एक ही समान हैं न किसी को रोग है और न किसी को दुःख है-सब एक से गंगा के तीर पर बैठे हैं | हे राजन्! एक और आश्चर्य मैंने देखा है सो भी सुनो | एक सृष्टि में मैं गया तो वहाँ क्षीरसमुद्र मन्दराचल से मथा जाता था | एक ओर विष्णु भगवान् और देवता थे और मन्दराचल पर्वत रत्नों से जड़ा हुआ शेषनाग से रस्सी की नाईं लिपटा हुआ था, मथने के निमित्त दूसरी ओर दैत्य लगे थे बड़ा सुन्दर शब्द होता था | वहाँ वह कौतुक देखकर मैं आगे गया तो एक और सृष्टि देखी जहाँ मनुष्य आकाश में उड़ते फिरते थे और देवता की नाईं पृथ्वी पर बिचरते और वेदशास्त्र जानते थे | हे राजन्! एक और आश्चर्य मैंने देखा सो भी सुनो एक सृष्टि में मैं जा निकला तो वहाँ मन्दराचल पर्वत पर कल्पतरु का बन था और उसमें मदनका नाम एक अप्सरा रहती थी |

ravi sharma
01-12-2012, 08:30 AM
वहाँ जाकर मैं सो रहा तो ज्यों ही रात्रि का समय आया कि वह अप्सरा मेरे कण्ठ में आ लगी तब मैंने जागकर उसको देखा और कहा कि हे सुन्दरी! तूने मुझको किस निमित्त जगाया? मैं तो सुख से सो रहा था | तब उस अप्सरा ने कहा कि हे राजन्! मैंने इस निमित्त तुझको जगाया है कि चन्द्रमा उदय हुआ है और चन्द्रकान्तमणि चन्द्रमा को देखकर स्रवेगी और नदी की नाईं प्रवाह चलेगा, ऐसा न हो कि उसमें तू बह जावे | हे राजन्, दशरथ! इस प्रकार उसने कहा ही था कि नदी का प्रवाह चलने लगा | तब वह अप्सरा उस प्रवाह को देखकर मुझे आकाश को ले उड़ी- और पर्वत के ऊपर जहाँ गंगा का प्रवाह चलता था उसके तट पर मुझको स्थित किया | सात वर्ष पर्यन्त मैं वहाँ रहकर फिर एक और ब्रह्माण्ड में गया तो देखा कि वहाँ तारा नक्षत्र, चन्द्र, सूर्य कुछ भी न थे | उसको देखकर मैं और आगे गया | इसी प्रकार अनन्त ब्रह्माण्ड मैंने देखे! हे राजन्! ऐसा देश व ऐसी पृथ्वी, नदी और पहाड़ कोई न होगा जिसको मैंने न देखा हो और ऐसी चेष्टा कोई न होगी जो मैंने न की हो

ravi sharma
01-12-2012, 08:30 AM
कई शरीरों के मैंने सुख भोगे हैं, कितनों के दुःख भोगे हैं और बन, कन्दरा और गुप्त स्थानों में फिरकर सब देखा परन्तु अग्नि देवता के वर को पाकर फिरता-फिरता मैं थक गया तो भी आगे ही चला गया और अनेक अविद्यक ब्रह्माण्ड भी देखे परन्तु अब उनका अन्त आया है कि यह जगत् भ्रममात्र है | मैंने शास्त्रों में सुना है कि यह जगत् है नहीं तो भी दुःख देता है | जैसे बालक को अपनी परछाहीं में वैताल भासता है, तैसे ही यह जगत् अविचार से भासता है और विचार किये से निवृत्त हो जाता है | एक आश्चर्य और सुनो कि एक ब्रह्माण्ड में मैं गया तो वहाँ महाआकाश था | उस महाआकाश से गिरकर मैं पृथ्वी पर आन पड़ा और वहा सो गया तब मैं महागाढ़ सुषुप्तिरूप हो गया और सब जगत् का मुझे विस्मरण हो गया जब वह गाढ़ सुषुप्ति क्षीण हुई तब एक स्वप्ना आया और उसमें तुम्हारा यह जगत् मुझको भासि आया | उसमें मुझको पहाड़, कन्दरा, देश और बहुत से गुप्त, प्रकट स्थान भासि आये | जहाँ केवल सिद्धों की गम थी वहाँ भी मैं गया और जहाँ सिद्धों की भी गम न थी वहाँ भी मैं गया | इस प्रकार अनेक जगत् मैंने देखे परन्तु आश्चर्य है कि स्वप्ने की सृष्टि प्रत्यक्ष जाग्रत की तरह दृष्टि आती थी और स्वप्ने के शरीर में पड़े भासते थे | इससे सब जगत् भ्रममात्र है और असत्य ही सत्य होकर दिखाई देता है | इस प्रकार देख कर मैं बड़े आश्चर्य में पड़ा हूँ |

ravi sharma
01-12-2012, 08:31 AM
विपश्चित् बोले, हे राजन्! एक सृष्टि और भी मैंने देखी है जो इसी महाआकाश में है- अर्थात् इस महाआकाश से भिन्न नहीं और जहाँ तुम्हारा भी गम नहीं | जैसे स्वप्ने की सृष्टि कोई जाग्रत में देखा चाहे तो दृष्टि नहीं आती तैसे ही वह सृष्टि है | हे राजन्! पृथ्वी का एक स्थान मेरे देखते ही देखते परछाहीं की नाईं फिरने लगा और फिर उस आकाश में वही पहाड़ की नाईं भासने लगा, यहाँ तक कि मनुष्यों के शरीर और दशों दिशाओं को रोक लिया और आकाश से भी बड़ा भासने लगा इससे आकाश में भी न समाता था | उसने सूर्य और चन्द्रमा को भी मेरे देखतेही देखते ढ़ाँप लिया और फिर भूकम्प सा आया मानो प्रलयकाल ही आ गया | तब मैंने अपने इष्ट अग्निदेवता की ओर देखकर प्रार्थना की कि हे भगवन्! तुम मेरी जन्म-जन्म रक्षा करते आये हो इससे अब भी रक्षा करो, मैं नष्ट होता हूँ |

ravi sharma
01-12-2012, 08:31 AM
तब अग्नि ने कहा, तू भय मत कर | फिर मैंने अग्नि में जब प्रवेश किया, तब अग्नि ने कहा कि मेरे वाहन पर सवार होकर मेरे स्थान को चल | फिर अग्निदेव मुझको अपने वाहन तोते पर चढ़ाकर आकाशमार्ग से तुरन्त ले उड़ा | जब हम उड़े तब पीछे से वह शव पृथ्वी पर गिरा और उसके गिरने से सुमेरु जैसे पर्वत भी पाताल को चले गये | वह महाशरीर सैकड़ों सुमेरु के समान गिरा और मन्दराचल, मलयाचल, अस्ताचल से लेकर जो बड़े-बड़े पर्वत थे सो भी नीचे को चले गये | पृथ्वी में गढ़े पड़ गये और उसके शरीर के नीचे जो वृक्ष, मनुष्य, दैत्य, स्थावर, जंगम आये वे सब नष्ट हो गये और बड़ा उपद्रव उदय हुआ | निदान उसके शरीर से सर्व दिशा पूर्ण हो गई और उसके अंग ब्रह्माण्ड से भी पार निकल गये | हे राजन्, दशरथ! इस प्रकार मैं भयानक दशा को देख कर अपने इष्टदेव अग्नि से बोला कि हे देव! यह उपद्रव क्योंकर हुआ, यह सब क्या है और ऐसा शरीर क्यों पड़ा है? आगे तो कोई भी ऐसा शरीर नहीं देखा-सुना? अग्नि ने कहा तू अभी तूष्णी हो रह | यह सब वृत्तान्त मैं तुझसे कहूँगा पर प्रथम इसको शान्त होने दे | इस प्रकार अग्नि कहता ही था कि देवता, विद्याधर, गन्धर्व और सिद्ध जितने स्वर्गवासी थे वे सर्व आकर स्थित हुए- और विचार करने लगे कि यह उपद्रव प्रलयकाल बिना हुआ है इसके नाश करने को देवीजी की आराधना करनी चाहिये | हे राजन्! ऐसे विचार करके वे देवी की स्तुति करने लगे कि हे देवि शववाहिनि, चण्डिके! हम तेरी शरण आये हैं, इस उपद्रव से हमारी रक्षा करो | ऐसे कहकर वे स्तुति करने लगे |

ravi sharma
01-12-2012, 08:31 AM
विपश्चित् बोले, हे राजन्, दशरथ! उन देवताओं ने स्तुति करके शव की ओर जो देखा तो क्या देखते हैं कि सातों द्वीप उसके उदर में समा गये हैं, भुजाओं से सुमेर आदिक पर्वत ढप गये हैं और उसके दूसरे अंग ब्रह्माण्ड को भी ले हैं और साथ ही पाताल को भी गये | निदान उनकी मर्यादा कहीं पाई नहीं जाती थी | एक ही अंग से पृथ्वी छिप गई | ऐसे देखकर विद्याधर, गन्धर्व और सिद्धों से लेकर सम्पूर्ण नभचर स्तुति करने लगे | हे अम्बे, चण्डिके! अपने गण को साथ लेकर इस उपद्रव से हमारी रक्षा करो- हम तेरी शरण आये हैं | हे राजन्! जब इस प्रकार स्तुति करके देवता आराधन करने लगे तब चण्डिका आकाशमार्ग से यक्ष, वैताल भैरव आदिक गण अपने साथ लेकर आई और जैसे मेघ सर्व दिशाओं को ढाँप लेता है, तैसे ही सर्व ओर से उसके गणों ने आकार आकाश को ढाँप लिया और चण्डिका ऐसे तेजरूप को धारे हुए चली आती थी मानो अग्नि की नदी चली आती थी |

ravi sharma
01-12-2012, 08:31 AM
उसके रक्त नेत्र शिर पर पक्के केश और श्वेत दाँत थे और वह बड़े शस्त्र धारे हुए कई कोटि योजन पर्यन्त उसका विस्तार था | वह सब दिशा और आकाश अपने शरीर से आच्छादित किये, कण्ठ में मुण्डों की माला पहिने , मुरदे वाहन पर आरूढ़ और परमात्मपद में उसकी स्थित थी | वह ऐसे महाप्रकाशवान् थी मानों सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि आदिक के प्रकाश को भी लज्जित कर रही है और हाथों में खड्ग, मूसल, ध्वजा, ऊखल आदिक नाना प्रकार के शस्त्र धारे आकाश में तारागण की नाईं गर्जती हुई गणों सहित इस प्रकार चली आती थी मानो समुद्र से निकली साक्षात् बड़वाग्नि चली आती है | जब वह निकट आई तब देवता फिर प्रार्थना करने लगे कि हे अम्बे! इसका नाश करो व अपने गणों को आज्ञा दीजिये कि इसका भोजन करें, हम इसको देखकर बड़े शोक को प्राप्त हुए हैं और तेरी शरण हैं, इस उपद्रव से हमारी रक्षा करो |

ravi sharma
01-12-2012, 08:32 AM
हे राजन् , दशरथ जब इस प्रकार देवताओं ने कहा तब चण्डिका ने प्राणवायु को खींचा और जितना शव में रक्त था वह सब पान कर गई | जैसे समुद्र को अगस्त्य ने पान किया था, तैसे ही उसने रक्त पान किया | जब उससे देवी का उदर और अंग सब पूर्ण हो गये और नेत्र लाल हो आये तब देवी नृत्य करने लगी और उसके गण सब उस शव का भोजन करने लगे | कई मुख को खाने लगे, कई भुजा को कई उदर को, कई वक्षस्थल को, कई टाँगों को और कई चरणों को, इसी प्रकार उसके सब अंगों को गण भोजन करने लगे | कई गण आँतें लेकर आकाश में सूर्य के मण्डल को गये, कई गण उस शव के अन्त पाने को उड़े सो मार्ग ही में मर गये परन्तु कहीं अन्त न पाया और देवी जो उस शव की ओर देखती थी इससे उसके नेत्रों से अग्नि निकलती थी-और उससे माँस परिपक्व होता था और गण भोजन करते थे |

ravi sharma
01-12-2012, 08:32 AM
माँस पकने के समय जो शरीर से रक्त निकलता था उससे मन्दराचल और हिमाचल पर्वत लाल हो गये-मानो पर्वतों ने भी लाल वस्त्र पहिरे हैं | रक्त की नदियाँ बहने लगीं और जो बड़े सुन्दर स्थान और दिशा थीं वे सब भयानक हो गईं और पृथ्वी के जीव सब नष्ट हो गये पर जो पहाड़ की कन्दरा में जाकर दब रहे थे सो बच गये शेष सब नष्ट हो गये | रामजी ने पूछा हे भगवन्! तुम कहते हो कि उसके नीचे प्राणी आकर सब नष्ट हो गये और अंग उसके ऐसे कहते हो कि ब्रह्माण्ड को भी लाँघ गये एवम् फिर कहते हो कि देवता बच रहे सो क्या कारण है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जो उसके शरीर और अंग के नीचे आये वे तो नष्ट हो गये पर मुख और ग्रीवा में कुछ भेद है तिसमें जो पोल है और गोदी और टाँग के नीचे के पोल में और सुमेरु, मन्दराचल, उदयाचल और अस्ताचल पर्वतों में कुछ पोल है उनकी कन्दरा में बैठे हुए देवता बच गये- और जो अंग के छिद्रों में रहे वे भी बच रहे और कहने लगे कि बड़ा कष्ट है जो हमारे बैठने के कई स्थान नष्ट हो गये |

ravi sharma
01-12-2012, 08:32 AM
हाय! वे वृक्ष कहाँ गये, बरफ का पर्वत हमारा कहाँ गया, उनकी सुन्दरता कहाँ गई, वन और बगीचे कहाँ गये, चन्दन के वृक्ष कहाँ गये और वे जनों के समूह कहाँ गये जो हमको यज्ञ करके पूजते थे? वे ऊँचे वृक्ष कहाँ गये जिन के ब्रह्मलोक पर्यन्त फूल और टहनी जाती थीं और वह क्षीरसमुद्र कहाँ गया जिसके मथने से बड़ा शब्द हुआ था? उसके पुत्र जो रत्न, कल्पतरु और चन्द्रमा थे वे कहाँ गये और जम्बूद्वीप कहाँ गया जिसमें जम्बू के रस की नदी चलाई थी और सुवर्णवत् जल के चक्र उठते थे? ईख के रस का समुद्र कहाँ गया? हा कष्ट! शक्कर के और मिश्री के पर्वत और अप्सराओं के बिचरने के स्थान कहाँ गये और पृथ्वी कहाँ गई? वे नन्दनवन के स्थान कहाँ गये जहाँ हम अप्सराओं के साथ विलास करते थे? उन विषयों का अभाव नहीं हुआ मानो हमको शूल चुभते हैं |

ravi sharma
01-12-2012, 08:32 AM
जैसे फल को कण्टक चुभते हैं, तैसे ही विषय के आभासरूपी हमको कण्टक चुभते हैं | इसी प्रकार वे अति शोकवान् हुए और कहने लगे हा कष्ट! हा कष्ट! इधर विषयों का स्मरण करके देवता शोक करते थे और उधर उस शव के जितने अंग थे उनको गणों ने भोजन कर लिया और उससे अघा गये | कुछ मेदा का पिण्ड शेष रह गया था उससे बहुत दुर्गन्ध हुई और उस पिण्ड की पृथ्वी हो गई इससे उसका नाम मेदिनी हो गया और मोटे हाड़ों के सुमेरु आदिक पर्वत हुए | तब ब्रह्माजी ने देखा कि सब विश्व शून्यसा हो गया है इससे उन्होंने संकल्प किया कि अब फिर मैं सृष्टि रचूँ | निदान पूर्व की नाईं उसने सृष्टि रची और जगत् का सब व्यवहार उसी प्रकार चलने लगा |

ravi sharma
01-12-2012, 08:32 AM
विपश्चित् बोले, हे राजन्, दशरथ! जब यह कर्म हो रहा था तब मैंने अपने इष्ट देवता से, जो तोतेवाहन पर आरूढ़ था, प्रश्न किया कि हे महादेव! सर्वजगत् के ईश्वर और सर्वजगत् के भोक्ता! यह शव कौन था, कहाँ स्थित था और किस प्रकार गिरा? अग्नि बोले, हे राजन्! जिसका अनन्त त्रिलोकी आभास है उससे इस शव का वृत्तान्त वर्णन हो सकता है, एक त्रिलोकी से इसका वृत्तान्त नहीं हो सकता | इससे सुनो, हे राजन्! एक परम आकाश है जो जो चिन्मात्र पुरुष सर्वज्ञ, अनामय और अनन्त है | वह आत्मतत्त्व केवल अपने शरीर में स्थित है पर उसका जो आभास संवेदन फुरना है, वही किञ्चन होता है वह जब किसी स्थान में फुरता है तब ऐसी भावना होती हे कि मैं तेज अणु हूँ | उस भावना के वश से अणु सी हो जाती है | जैसे कोई पुरुष सोया है और स्वप्ने में आपको मार्ग में चलता देखता है, अथवा जैसे तुम स्वप्ने में आपको पौढ़े देखो ऐसे ही चित्तसंवेदन ने आपको अणु जाना है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:33 AM
जैसे फुरना ब्रह्मा को हुआ है, तैसे ही धूर के कणके का भी अधिष्ठान में फुरना तुल्य हुआ है | जब उस अणु को शरीर की भावना होती है तब अपने साथ शरीर देखता है और शरीर के होने से नेत्र आदिक इन्द्रियाँ घन होती हैं तब शरीर और इन्द्रियों से आपको मिला हुआ जानता है | जब अपना आप जानकर उनको ग्रहण करके इन्द्रियों से विषय को ग्रहण करता है तब वही चिद्रूप जीव प्रमाद से आधाराधेयभाव को मानता है पर अधिष्ठान सत्ता में कुछ हुआ नहीं, वह अद्वैतसत्ता ज्यों की त्यों अपने आप में स्थित है | जैसे स्वप्ने में प्रमाद से अपने आपको किसी गृह में बैठे देखता है, तैसे ही वहाँ प्रमाद से आधाराधेयभाव को देखता है और प्राण और मन अहंकार को धारता है और जानता है कि मेरे माता-पिता हैं और मैं अनादि जीव हूँ |

ravi sharma
01-12-2012, 08:33 AM
अपना शरीर जानकर आगे पाञ्चभौतिक जगत् शरीर को देखता है और अपने फुरने के अनुसार अंग होते हैं इसी प्रकार जो आदि शुद्ध चिन्मात्र तत्त्व में फुरना हुआ तो चित्तकला फुरी और उसने आपको तेज अणु जाना तब उसमें अहंवृत्ति तो अहंकार हुआ, निश्चयात्मक बुद्धि हुई चेतनारूप चित्त और संकल्पविकल्परूप मन हुआ | यह उत्पन्न होकर फिर तन्मात्रा उपजी फिर उसके इच्छा द्वारा शरीर और इन्द्रियाँ उत्पन्न हुई और देखने की इच्छा हुई | उस संवित् में दृश्य भासि आई तब संवित् शक्ति ने आपको प्रमाददोष से द्वैतरूप जाना और साथ ही उसके अपने माता पिता और कुल फुर आये कि यह मेरी माता है, यह मेरा पिता है और यह मेरा कुल है सो चिरकाल से चला आता है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:33 AM
इसी प्रकार एक दैत्य अहंकार सहित विचरने लगा और एक कुटी में एक ऋषि बैठा था, उस कुटी की ओर गया और उसकी कुटी चूर्ण करके जब ऋषि के निकट आया तब ऋषि ने कहा, हे दुष्ट! तूने यह क्या चेष्टा ग्रहण की है | अब तू मरकर मच्छर होगा | हे विपश्चित्! उस ऋषि के शापरूपी अग्नि से उसका शरीर भस्म हो गया और उसकी निराकार चेतनसंवित् भूताकाशरूप हो गई | फिर आकाश में उसका वायु से संयोग हुआ और उस ऋषि मौनी के शाप की वासना आन उदय हुई | जैसे पृथ्वी में समय पाकर बीज से अंकुर उत्पन्न होता है तैसे ही पञ्च तन्मात्रा उदय हुईं और अपना मच्छर का शरीर जिसकी आयु दो अथवा तीन दिन की होती है, अज्ञान से भासि आया | रामजी ने पूछा, हे भगवन्! जीव जो जन्म पाते हैं सो जन्म से जन्मान्तर को चले आते हैं अथवा ब्रह्मा से उपजे होते हैं-यह कहो? वशिष्ठजी बोले , हे रामजी! कई जन्म से जन्मान्तर चले आते हैं और कई ब्रह्मा से उपजे होते हैं |

ravi sharma
01-12-2012, 08:33 AM
जिनको पूर्ववासना का संसरना होता है वे वासना के अनु सार शरीर धारते हैं और जन्म से जन्मान्तर पाते चले आते हैं और जिनको संस्कार बिना भूत भासि आते हैं वे ब्रह्मा से उत्पन्न होते हैं | हे रामजी! आदि में सब जीव संस्काररूपी कारण बिना उत्पन्न हुए हैं और पीछे से जन्मान्तर होता है | जो संस्कार बिना भूत भासे, उसे जानिये कि ब्रह्मा से उपजा है और जिसको संस्कार से सृष्टि भासे उसे जानिये कि इसका जन्मान्तर है | यह दो प्रकार से भूतों की उत्त्पत्ति मैंने तुमसे कही है | अब फिर उस मच्छर का क्रम सुनो | हे रामजी! जब उसने मच्छर का जन्म पाया तब कमलिनियाँ और हरी घास, तृण और पत्तों में मच्छरों को साथ लिये रहने लगा | निदान वहाँ एक मृग आया और उसका चरण उस मच्छर पर इस प्रकार आ पड़ा जैसे किसी पर सुमेरु पर्वत आ पड़े | तब वह मच्छर चूर्ण होकर मृतक हो गया- और मृतक होने के समय मृग की ओर देखने लगा इससे मरके तत्काल ही मृग हुआ और वन में विचरने लगा फिर एक काल में उसको बधिक ने देखकर बाण चलाया और उस बाण से वह मृग बेधा गया |

ravi sharma
01-12-2012, 08:34 AM
बेधे हुए मृग ने बधिक की ओर देखा इसलिये वह मरके बधिक हुआ और धनुष बाण लेकर मृग और पक्षियों को मारने लगा |एक समय में वह वन को गया और वहाँ एक मुनीश्वर को देख उसके निकट जा बैठा, तब मुनीश्वर ने कहा, हे भाई! तूने यह क्या पापचेष्टा का आरम्भ किया है? इस चेष्टा से तो तू नरक को प्राप्त होवेगा इससे किसी जीव को दुःख न दे | जिन भोगों के निमित्त तू यह चेष्टा करता है सो बिजली के चमत्कारवत् हैं | जैसे मेघ में बिजली का चमत्कार होता है और फिर मिट जाता है, तैसे ही ये भोग भी होकर मिट जाते हैं और जैसे कमल के पत्र पर जल की बूंद ठहरती है पर उसकी आयु कुछ नहीं होती क्षणपल में गिर पड़ती है, तैसे ही इस शरीर की आयु कुछ नहीं है | जैसे अञ्जली में जल डाला नहीं ठहरता, तैसे ही यौवन अवस्था चली जाती है | क्षणभंगुर है और यौवन असार है उसमें भोगना क्या है? इनसे कदाचित््शान्ति नहीं होता | जो तुझको शान्ति की इच्छा हो तो निर्वाण होने का प्रयत्न कर, तब तू दुःख से मुक्त होगा | अपने हिंसाकर्म को त्याग दे | इसके करनेसे नरक में जावेगा और कदाचित् शान्ति तुझको न प्राप्त होगी | तू अपने हाथ से अपने चरण पर क्यों कुल्हाड़ा मारता है और अपने नाश के निमित्त तू क्यों विष का बीज बोता है? इस कर्म से तू दुःखरूप संसार में भटकता फिरेगा और शान्तिमान् कदा चित् न होगा | इससे अब तू वही उपाय कर जिससे संसारसमुद्र से पार हो |

ravi sharma
01-12-2012, 08:34 AM
अग्नि बोले, हे राजन्! जब इस प्रकार ऋषीश्वर ने उस वधिक से कहा तब उसने धनुषबाण को डाल दिया और बोला हे भगवन्! जिस प्रकार मैं संसारसमुद्र से पार हो जाऊँ वह उपाय कृपा करके मुझसे कहिये परन्तु वह कैसा उपाय हो जो न दुःसाध्य हो और न मृदु हो अर्थात् जो अल्प भी न हो और कठिन भी न हो | ऋषीश्वर बोले, हे बधिक! मन को एकाग्र करने का नाम शम है और इन्द्रियों के रोकने को हम दम कहते है--वही मौन है | मन को एकाग्रकरने से अन्तःकरण शुद्ध होता है और अन्तःकरण की शुद्धता से आत्मज्ञान उपजता है इससे संसारभ्रम निवृत्त होकर परमानन्द की प्राप्ति होती है | अग्नि बोले, हे राजन्! इस प्रकार जब ऋषिश्वर ने कहा तब वह बधिक उठ खड़ा हुआ और प्रणाम करके तप करने लगा | इन्द्रियों को उसने संयम में रक्खा और जो अनिच्छित यथाशास्त्र प्राप्त हो उसका भोजन करने लगा और हृदय से सब क्रियाओं की मौनवृत्ति धारण की |

ravi sharma
01-12-2012, 08:34 AM
जब उसको कुछ काल तप करते व्यतीत हुआ तब उसका अन्तःकरण शुद्ध हुआ और ऋषीश्वर के निकट आ प्रणाम करके बैठ गया और बोला, हे भगवन् बाहर जो दृश्य है सो हृदय में किस प्रकार करती है और स्वप्ने की सृष्टि अन्तर की वाह्य रूप हो कैसे भासती है? यह कृपा करके कहो | ऋषीश्वर बोले, हे वधिक! यह बड़ा गूढ़ प्रश्न तूने किया है | यही प्रश्न मैंन भी गणपति से किया और उनके कहने से मैंनें जो ग्रहण किया है सो सुन | एक समय यही सन्देह दूर करने का उपाय मैंने भी किया था और पद्मासन बाँध, बाहर की इन्द्रियों को रोक मन में लगा मन, बुद्धि आदिक को पुर्यष्टक में स्थित किया | फिर पुर्यष्टक को भी शरीर से विरक्त किया और उसको आकाश में निराधार ठहराया | निदान जब विलक्षण हुआ चाहूँ तब विलक्षण हो जाऊँ और जब शरीर में व्यापा चाहूँ तब व्याप जाऊँ |

ravi sharma
01-12-2012, 08:35 AM
हे वधिक! इस प्रकार जब मैं योगधारणा से पूर्ण हुआ, तो एक काल में एक पुरुष हमारी कुटी के पास सो रहा था और उसके श्वास भीतर-बाहर जाते थे | उसको देखकर मैंने यह इच्छा की कि इसके भीतर जाकर कौतुक देखूँ कि क्या अवस्था होती है | ऐसे विचार करके मैंने पद्मासन बाँधा और योग की धारण करके उसके श्वासमार्ग से भीतर प्रवेश किया | जैसे उष्ट्र उँघता हो और उसके श्वासमार्ग से सर्प प्रवेश करे | तैसे ही मैंने प्रवेश किया तो उसके भीतर अपने-अपने रस को ग्रहण करनेवाली नाड़ियाँ मुझे दृष्टि आईं | कई वीर्य को ग्रहण करनेवाली हैं, कई रक्त और कफ को ग्रहण करती हैं, कई मलमूत्रवाली हैं और अनेक विकार जो उसके भीतर थे सो सब देखे | इससे मैं अप्रसन्न भया कि महा अपवित्र स्थान है और रक्तमज्जासंयुक्त महानरक के तुल्य अन्धकार है | फिर और आगे गया तो वहाँ एक कमल देखा कि उसमें उसका संवेदन फुरता है और संवित्तशक्ति जो महातेजवान हृदयाकाश है सो भी वहाँ स्थित है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:35 AM
वही त्रिलोकी का आदर्श है और त्रिलोकी में जो पदार्थ हैं, उसका दीपक है और सर्व पदार्थों की सत्ता रूप है | ऐसी संवित््रूपी जीवसत्ता वहाँ स्थित थी उसमें मैं तद्रूपता को प्राप्त हुआ फिर मैंने सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी, जल,तेज वायु, आकाश पर्वत, समुद्र, देवता, गन्धर्व आदि नाना प्रकार के स्थावर-जंगम विश्व को देखा | ब्रह्मा और रुद्र सहित सम्पूर्ण सृष्टि को उसके भीतर देखकर मैं आश्चर्यवान् हुआ कि उसके भीतर सृष्टि क्यों कर भासी | हे बधिक! उसने जाग्रत् में उस सृष्टि का अनुभव इन्द्रियों से किया था और भीतर चित्तत्व में उसका संस्कार हुआ था वही भीतर भासने लगा और भीतर जो भूत सत्ता थी सो उसके स्वप्ने में सृष्टिरूप बाहर बनी और मुझको प्रत्यक्ष भासने लगी | जैसे जाग्रत प्रत्यक्ष अर्थाकार भासती है, तैसे ही मुझको यह सृष्टि भासने लगी | हे वधिक! इस जाग्रत् सृष्टि और उस सृष्टि में मैंने कुछ भेद न देखा-दोनों तुल्य हैं |

ravi sharma
01-12-2012, 08:35 AM
चिरपर्यन्त प्रतीति का नाम जाग्रत् हैं और अल्पकाल की प्रतीति का नाम स्वप्ना है पर स्वरूप से दोनों तुल्य हैं | जो उसके स्वप्ने के अनुभव में था सो मुझको जाग्रत् भासा और जो मुझको जाग्रत भासा सो उसको स्वप्ना भासा | निद्रादोष से उसको स्वप्ना हुआ सो उसको भी उस काल में जाग्रत््रूप भासने लगा, क्योंकि स्वप्ना जो स्वप्नरूप है सो जाग्रत् में स्वप्ना है और स्वप्न में तो जाग्रत् है, तैसे जाग्रत् भी अपने काल में जाग्रत् है, नहीं तो, स्वप्नरूप है, सो जाग्रत् में भी जो सत्य प्रतीति है वही प्रमाद है | इन दोनों में कुछ भेद नहीं, क्योंकि जाग्रत् और स्वप्न दोनों का अधिष्ठान चैतन्यसत्ता परब्रह्म ही है- और उसी के प्रमाद से प्राण के साथ सम्बन्ध हुआ है | जब प्राण से चित्तसंवेदन मिलती है तब उस फुरनरूप के इतने नाम होते हैं-जीवमन, चित्त, बुद्धि, अहंकार आदिक |

ravi sharma
01-12-2012, 08:35 AM
यही संवेदन जो बाह्यरूप हो फुरती है तब जाग्रतरूप जगत् हो भासता है और पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ, पाँच कर्मइन्द्रियाँ और चतुष्टय अन्तःकरण ये चौदह अपने-अपने विषय को ग्रहण करते हैं-इसका नाम जाग्रत् है | जब चित्तस्पन्द निद्रादोष से अन्तर्मुख फुरता है तब नाना प्रकार की स्वप्ने की सृष्टि देखता है और उस काल में वही जाग्रत््रूप हो भासता है | अधिष्ठान जो आत्मसत्ता है जब संवेदन उसकी ओर फुरती है और बाह्य विषय के फुरने से रहित अफुरन होती है तब न जाग्रत् भासती है और न स्वप्ना भासता है केवल निर्विकल्प आत्मसत्ता शेष रहती है | हे बधिक! मैंने विचार देखा है कि जगत् और कुछ वस्तु नहीं फुरने ही का नाम जगत् है | जब चित्त संवेदन फुरनरूप होती है तब जगत् भासता है और जब चित्तसंवेदन फुरने से रहित होती है तब जगत् कल्पना मिट जाती है, इसलिये मैंने निश्चय किया है कि वास्तव में केवल चिन्मात्र है | जगत् कुछ वस्तु नहीं मिथ्या कल्पनामात्र है | हे बधिक! जगत्भावना त्यागकर अपने स्वरूप में स्थित हो रहो | अब वही वृत्तान्त फिर सुनो |

ravi sharma
01-12-2012, 08:36 AM
जब उसके भीतर मैंने स्वप्न और जाग्रत् अवस्था देखीं तब मैंने यह इच्छा की कि सुषुप्ति अवस्था भी देखूँ और बिचार किया कि सुषुप्ति प्रलय का नाम है जहाँ दृष्टा, दर्शन और दृश्य तीनों का अभाव हो जाता है परन्तु जहाँ मैं देखनेवाला हुआ वहाँ महाप्रलय कैसे होगी और जो मैं जाननेवाला न होऊँ तब सुषुप्ति को कौन जानेगा | हे बधिक! तब मैंने विचार के देखा कि और सुषुप्ति कोई नहीं जहाँ चित्त की वृत्ति नहीं फुरती उसी का नाम सुषुप्ति है | ऐसे विचार करके मैंने चित्त को फुरने से रहित किया तब उसकी सुषुप्ति देखी तो क्या देखा कि न कोई वहाँ अहं और त्वं शब्द है, न शुभ है, न अशुभ है, न जाग्रत् है, न स्वप्ना है और न सुषुप्ति की कल्पना है, सर्व कल्पना से रहित केवल चित्तसत्ता मैंने देखी | जो तुम कहो कि सुषुप्ति निर्विकल्प तुमने कैसे देखी तो उसका उत्तर यह है- कि अनुभव ज्ञानरूप आत्मसत्ता सर्वदा काल में ज्यों का त्यों है और उसमें जैसा आभास फुरता है तैसा ही ज्ञान होता है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:36 AM
यह जो तुम भी दिन प्रतिदिन देखते हो और सुषुप्ति से उठकर जानते हो कि मैं सुख से सोया था सो अनुभव से ही देखते हो, तैसे ही मैंने भी वह देखा जहाँ चित्तसंकल्प कोई नहीं फुरता केवल निर्विकल्प है परन्तु सम्यकबोध से रहित है उस अभाव वृत्ति का नाम सुषुप्ति है | फिर मुझको तुरीया देखने की इच्छा हुई पर तुरीया देखनी महा कठिन है | तुरीया साक्षीभूत वृत्ति का नाम है, वह सम्यकज्ञान से उत्पन्न होती है और जाग्रत् स्वप्न और सुषुप्ति अवस्था की साक्षीभूत है और सुषुप्ति की नाईं है | जैसे सुषुप्ति में अहं, त्वं आदिक कल्पना कोई नहीं होती तैसे ही तुरीया में भी नहीं | उसमें ब्रह्म का सम्यकबोध होता है और सुषुप्ति जड़ीभूत तम रूप अविद्या होती है | तुरीया में जड़ता नहीं होती, सुषुप्ति और तुरीया में इतना ही भेद होता है |सच्चिदानन्द साक्षी वृत्ति होती है सम्यकबोध का नाम तुरीयापद है और तुरीया इससे भिन्न नहीं | ऐसे निश्चय से मैंने उसको देखा | हे

ravi sharma
01-12-2012, 08:36 AM
वधिक! चारों अवस्था मैंने माया अर्थात् फुरने सहित भिन्न भिन्न देखी पर आत्मसत्ता अपमे आप में स्थित है उसमें कोई जाग्रत है, न स्वप्ना है, न सुषुप्ति है और न तुरीया है-इनका भेद वहाँ नहीं | आत्मसत्ता सदा अद्वैत है और ये चारों चित्त संवेदन में होती हैं | हे वधिक! ऐसा अनुभव करके मैं बाहर आया और बाहर भी मुझको वैसे ही भासने लगा, तब मैंने कहा कि यही जगत् मुझको उसके भीतर भासा था बाहर कैसे आया? तब मैंने फिर उसके भीतर प्रवेश किया | प्रथम जो उसके भीतर मैंने प्रवेश किया था और उसके भीतर सृष्टि देखी थी तब उसकी और मेरी संवेदन मिल गई थी पर जब मैंने अपनी संवेदन उसको भिन्न की तब दो ब्रह्माण्ड हो गये और एक उसका संवेदन फुरने में और एक मेरी संवेदन में भासने लगा, क्योंकि मैंने प्रथम उसकी सृष्टि को देख और अर्थरूप जानकर ग्रहण किया था उसका संस्कार दृढ़ हो गया |

ravi sharma
01-12-2012, 08:36 AM
आत्मसत्ता के आश्रय जैसे संवेदन फुरती गई तैसे होकर भासने लगा | उसका स्वप्न मुझको भासने लगा-जैसे एक दर्पण में दो प्रतिबिम्ब भासें, तैसे ही एक अनुभव में मुझे दो सृष्टि भासने लगीं | तब मैंने विचार किया कि सृष्टि संकल्परूप है संकल्प जीव-जीव का अपना-अपना है और अपने-अपने संकल्प की भिन्न भिन्न सृष्टि है इससे अनुभव के आश्रय जैसा-जैसा संकल्प फुरता है तैसी-तैसी सृष्टि भासती | सृष्टि का कारण और कोई नहीं | हे बधिक! अष्टनिमेष पर्यन्त मुझको दो सृष्टि भासती रही फिर मैंने उसके और अपने चित्त की वृत्ति इकट्ठी करके मिलाई तो दोनों तद्रूप हो गईं-जैसे जल और दूध मिलकर एक रूप हो जाते हैं और दूसरी सृष्टि का अभाव हो गया | जैसे भ्रम दृष्टि से आकाश में दो चन्द्रमा भासते हैं और भ्रम के गये से दूसरे चन्द्रमा का अभाव हो जाता है, तैसे ही द्वितीय वृत्ति के अभाव हुए से दूसरी सृष्टि का अभाव हो गया |

ravi sharma
01-12-2012, 08:37 AM
निदान एक सृष्टि भासने लगी और नाना प्रकार के व्यवहार होते दृष्टि आवें और चन्द्रमा, सूर्य, पृथ्वी, द्वीप, समुद्र स्पष्ट भासने लगे | कुछ काल के उपरान्त चित्त की वृत्ति सुषुप्ति की ओर आई और स्वप्ने की सृष्टि का विस्तार लीन होने लगा- जैसे सन्ध्या के समय सूर्य की किरणें सूर्य में लय हो जाती हैं | जब वह सृष्टि चित्त में लय होने लगी तब स्वप्ने की सृष्टि मिट गई, सुषुप्ति अवस्था हुई और सर्व इन्द्रियाँ स्थिर हो गईं | हे बधिक! सुषुप्ति तब होती है जब जीव अन्न भोजन करता है और वह समवाही नाड़ी पर आन स्थित होता है, तब जाग्रतवाली नाड़ी ठहर जाती है, उससे प्राण भी ठहर जाते हैं और तब मन भी हर जाता है-उसका नाम सुषुप्ति है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:37 AM
जब मन फिर फुरता है तब जाग्रत् होती है | इतना सुन रामजी ने पूछा, हे मुनीश्वर! जब मन प्राणों से ही चलता है तब मन का अपना रूप तो कहीं न हुआ? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी परमार्थ से कहिये तो देह ही नहीं तो मन क्या हो | जैसे स्वप्न में पहाड़ भासते हैं तैसे ही यह शरीर भासता है क्योंकि सबका आदि कारण कोई नहीं इससे जगत् मिथ्याभ्रम है- केवल ब्रह्मसत्ता अपने आप में स्थित है | जो तत्त्ववेत्ता हैं उनको तो ऐसे ही भासता है और अज्ञानी के निश्चय को हम नहीं जानते- जैसे सूर्य उलूक के अनुभव को नहीं जानता और उलूक सूर्य के निश्चय को नहीं जानता, तैसे ही ज्ञानी और अज्ञानी का निश्चय भिन्न भिन्न होता है | शुद्ध चिन्मात्र आकाश में जगत् भ्रम कोई नहीं पर फुरनभाव से अपने चेतन वपु को भूल ज्ञान बिना ही मननभाव को प्राप्त होता है और तब मन आत्मसत्ता के आश्रय होकर प्राणवायु को अपना आश्रयभूत कल्पता है कि मेरा प्राण है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:37 AM
हे रामजी! फिर जैसे-जैसे मन कल्पना करता है, तैसे- तैसे देह इन्द्रियों और जगत् भासते हैं | परब्रह्म सर्वशक्तिसम्पन्न है उसमें जैसी जैसी भावना से मन फुरता है तैसा ही तैसा रूप हो भासता है-वास्तव और कुछ नहीं केवल ब्रह्मसत्ता ही अपने आप में स्थित है | मन का फुरना जैसे-जैसे दृढ़ हुआ है तैसे ही तैसे देह, इन्द्रियों और जगत् भासने लगा है | जैसे स्वप्ने में कल्पनामात्र जगत् भासता है तैसे ही इसे जानो | हे रामजी! जितने विकल्प उठते हैं वे सब मन के रचे हुए हैं | जब मन उदय होता है तब यह फुरना होता है कि यह पदार्थ सत्य है और यह असत्य है जब चित्तशक्ति का मन से सम्बन्ध होता है तब प्रथम प्राण उदय होते हैं और प्राण को ग्रहण करके मन कहता है कि मैं जीव हूँ, प्राण ही मेरी गति है और प्राण बिना मैं कहाँ था | फिर

ravi sharma
01-12-2012, 08:37 AM
कहता है कि जब प्राण का वियोग होगा तब मैं मर जाऊँगा-फिर न रहूँगा | फिर ऐसे कहता है कि मुआ हुआ भी मैं जीऊँगा | हे रामजी! संशयवाले को न इस लोक में सुख है और न परलोक में सुख है जब तक आत्मबोध का साक्षात्कार नहीं होता तब तक चित्त भी निर्वाण नहीं होता और विकल्प भी नहीं मिटते | हे रामजी! मन के विस्मरण का उपाय आत्मज्ञान से इतर कोई नहीं और मन के शान्ति हुए बिना कल्याण भी नहीं होता | दो उपायों से मन शान्त होता है मन की वृत्ति स्थित करने और प्राण स्पन्द के रोकने से मन स्थित होता है तब प्राण रुक जाते हैं और प्राण के स्पन्द को रोकने से मन स्थित होता है तब प्राण रुक जाते हैं और प्राण के स्पन्द को रोकने से मन स्थित होता है जब प्राण क्षोभते हैं तब चित्त भी क्षोभता है और तभी आध्यात्मिक और आधिभौतिक तापों की अग्नि से जलता है | मन के स्थित करने से परमसुख प्राप्त होता है सो मन की स्थित दो प्रकार की है-एक ज्ञान की स्थिति है और दूसरी अज्ञान् की स्थिति है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:37 AM
जब प्राणी बहुत अन्न भोजनकरता है तब नाड़ी पर जा स्थित होता है और प्राण ठहर जाता है और जब प्राण ठहरे तब मन भी जड़ीभूत हो जाता है-उसी का नाम सुषुप्ति है | वे नाड़ी कौन हैं जिन पर अन्न जाय स्थित होता है? वे नाड़ी वे ही हैं जिनके मार्ग से जाग्रत में प्राण निकलते हैं | जब वासना सहित वे ही नाड़ी रोकी जाती हैं तब मन सुषुप्त हो जाता है | यह अज्ञानी के मन की स्थिति है क्योंकि जड़ता है सो संसार को लिये शीघ्र ही फिर उठ आता है | जैसे पृथ्वी में बीज समय पाकर अंकुर ले आता है तैसे ही वह संस्कार से फिर सुषुप्ति से उठता है | जो ज्ञानवान् सम्यकदर्शी है उसका चित्त चैतन्यता के लिये स्थित होता है वह चैतन्यता दो प्रकार की है-एक तो योगी को होती है जिससे वह समाधि में मन को स्थित करता है | वह समाधिनिष्ठ चित्त है, जड़ता नहीं | जैसे सुषुप्ति में जड़ता होती है तैसी जड़ता वह नहीं है | दूसरे ज्ञानवान् जीवन्मुक्त के चित्त की वृत्ति सम्यक्ज्ञान से स्थित होती है, क्योंकि उसका चित्त वासना से रहित है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:38 AM
यही स्थिति है | जिसका चित्त उस प्रकार स्थित है उसी पुरुष को शान्ति है और जिसका चित्त वासना सहित है उसको कदाचित् शान्ति नहीं प्राप्त होती और उसके दुःख भी नहीं मिटते | उसे निर्वासनिक चित्त करने को सम्यक्ज्ञान का कारण यह मेरा शास्त्र ही है इसके समान और कोई उपाय नहीं | हे रामजी! यह जो मोक्ष-उपाय शास्त्र मैंने कहा है उसके विचार से शीघ्र ही स्वरूप की प्राप्ति होवेगी इससे सर्वदा इसी का विचार कर्तव्य है जब इसको भली प्रकार विचारोगे तब चित्त निर्वासनिक हो जावेगा अब वही बधिक का प्रसंग सुनो | मुनीश्वर बोले, हे बधिक! जब मैंने उस पुरुष के चित्त में प्राण के मार्ग से प्रवेश किया तब क्या देखा कि उसके प्राण रोके गये हैं और अन्न करके जाग्रत नाड़ी जो फुरती थी सो रोकी गई है, क्योंकि अन्न पचा न था इस कारण वह सुषुप्ति में था उसकी सुषुप्ति में मुझको भी अपना आप विस्मरण हो गया | जब कुछ अन्न पचा तब उसके प्राण फुरने लगे और जब प्राण फुरे तब चित्त की वृत्ति भी कुछ जड़ता को त्यागती भई पर सम्पूर्ण जड़ता को त्याग नहीं किया |

ravi sharma
01-12-2012, 08:38 AM
प्राण के फुरने से चन्द्रमा, सूर्य आदिक जो कुछ विश्व है सो भी फुरा तब मैंने नाना प्रकार के जगत् को देखा और मुझे अपना पूर्वसंस्कार भूल गया | निदान वहाँ मैं भी अपने कुटुम्ब में रहने लगा, साथ ही उसके मुझे अपनी कुटी भासी और स्त्री, पुत्र, भाई जन बान्धव सब भासि आये | फिर मेरे में देखते-देखते प्रलयकाल के पुष्कर मेघ गर्जने लगे, मूशल-धार जल बरसने लगा और सातों समुद्र उछलने लगे | निदान जो कुछ प्रलयकाल के उपद्रव होते हैं सो भी उदय हुए | प्रथम अग्नि लगी, जब अग्नि लग चुकी और सब स्थान जल गये तब जल का उपद्रव उदय हुआ तब मैंने क्या देखा कि नगर, ग्राम, पुर, मनुष्य, पशु, पक्षी सब बहते जाते हैं और हाहाकार शब्द करते निदान बड़ा क्षोभ हुआ और मैंने एक आश्चर्य देखा कि मेरी कुटी भी बही जाती है और स्त्री, पुत्र, भाई, जन इत्यादिक सब जल के प्रवाह में बहे जाते हैं |

ravi sharma
01-12-2012, 08:38 AM
जिस स्थान में हम थे वह स्थान भी बहा जाता था और मैं भी लुढ़कता जाता था निदान बहते बहते मुझको ऐसा कष्ट प्राप्त हुआ कि कहने में नहीं आता | एक तरंग से तो मैं ऊर्ध्व को चला जाऊँ और एक तरंग के साथ नीचे चला जाऊँ तब मुझे अपना पूर्व शरीर स्मरण आ गया और जितना कुछ जगत् है वह मुझको सब भासने लगा, मिथ्या राग द्वेष सब मिट गया और शरीर की सब चेष्टा उसी प्रकार होने लगी कि तरंग के साथ कभी ऊर्ध्व और कभी नीचे आ पड़ा परन्तु मेरा हृदय शान्त हो गया | उस काल में नगर, देश और मण्डल बहते जाते थे और त्रिनेत्र सदाशिव और विद्याधर,गन्धर्व,यक्ष,किन्नर सिद्ध आदि सब बहते जाते थे|अष्टदल कमल की पंखड़ी पर बैठे ब्रह्माजी और इन्द्र कुबेर और विष्णु जी अपनी अपनी पुरियों सहित बहते जाते थे और पहाड़, द्वीप, लोकपाल भी बहते जाते थे |

ravi sharma
01-12-2012, 08:38 AM
पातालवासी सब प्रलय के जल में बहते जाते थे और यम भी अपने वाहन सहित बहते जाते थे, ऐसी सामर्थ्य किसी को न थी कि किसी को कोई निकाले, क्योंकि आप ही सब बहते जाते थे और डूबते और गोते खाते थे | बड़े ऐश्वर्य सहित देव भी बहे जाते थे | जो संसार सुख के निमित्त यत्न करते हैं वे महामूर्ख हैं और जिनके निमित्त यत्न करते हैं वे सुख और सुख के देनेवाले सब बहते जाते थे तैसे ही सब ऋषीश्वर भी बहते जाते थे | हे बधिक! मैंने इस प्रकार उसके स्वप्ने में महाप्रलय होती देखी |

ravi sharma
01-12-2012, 08:39 AM
बधिक ने पूछा, हे मुनीश्वर! यह जो महाप्रलय तुमने कही कि जिसमें ब्रह्मादिक भी बहते जाते थे सो ब्रह्मा, विष्णु रुद्रादिक तो स्वतन्त्र ईश्वर हैं परन्तु परतन्त्र हुए बहते जाते तुमने कैसे देखे? वे अन्तर्धान क्यों न हुए? मुनीश्वर बोले, हे बधिक! यह जो प्रलय हुई सो क्रम से नहीं हुई | जब क्रम से प्रलय होती है तब यह ईश्वर समाधि से शरीर को अन्तर्धान कर लेते हैं परन्तु अन्तर्धान होने से पहिले जल चढ़ गया |इसका कुछ नियम नहीं, क्योंकि यह जगत् भ्रमरूप है, इसमें क्या आस्था करनी है स्वप्ने में क्या नहीं बनता और स्वप्नभ्रान्ति करके विपर्यय भी होते हैं इस लिये उनको बहते देखा है | व्याध ने पूछा, हे मुनीश्वर! जब वह स्वप्न भ्रम था तो उसका वर्णन क्यों करना? मुनीश्वर बोले, हे वधिक! तुझसे इसकी समानता का अर्थ कहता हूँ इससे कि स्थावर जंगम जगत् बहता देखा और साथ ही मैं भी बहता जाता था और जल की लहरें उछलती थीं और उन तरंगों में मैं भी उछलता था परन्तु मुझको कुछ कष्ट न होता था | निदान मैं बहता-बहता एक किनारे पर जा लगा और उसके पास एक पर्वत था उसकी कन्दरा में जा स्थित हुआ |

ravi sharma
01-12-2012, 08:39 AM
जहाँ मैंने देखा कि जीव बहते हैं और जल भी सूखता जाता है | जल के सूखने से कीचड़ हो गई, किसी ठौर में जल रहा उसमें कई डूबते दृष्टि आते थे, कहीं ब्रह्मा के हंस, कहीं यम के वाहन और कहीं विष्णु के वाहन कीचड़ में पहाड़ की नाईं डूबते दृष्टि आते थे | कहीं इन्द्र के हाथी और विद्याधर आदिक वाहन कीचड़ में दृष्टि आये और देवता, सिद्ध, गन्धर्व, लोकपाल दृष्टि आये इससे मैं आश्चर्यवान् हुआ | हे बधिक! इस प्रकार देखता हुआ जब मैं पहाड़ की कन्दरा में सो गया तब मुझको अपनी संवित् में स्वप्ना आया और चन्द्रमा, सूर्य आदिक नाना प्रकार के भूत जलते देखे, नगर और पर्वत जलते देखे और जगत् बड़े खेद को प्राप्त हुआ देखा | जब रात्रि हुई तो मैं वहाँ सोया हुआ स्वप्ने को देखता रहा और दूसरे दिन उसमें मैंने फिर जगत् देखा और सूर्य, चन्द्रमा, देश, नदियाँ, समुद्र, मनुष्य, देवता, पशु, पक्षी, नाना प्रकार की क्रिया संयुक्त दृष्टि आने लगे |

ravi sharma
01-12-2012, 08:39 AM
मैंने अपना षोडश वर्ष का शरीर देखा और मुझे अपने पिता और माता दृष्टि आये | उनको देख मैं पिता और माता जानूँ और वे मुझको अपना पुत्र जानें | निदान स्त्री, कुटुम्ब, बान्धव समस्त मुझको दृष्टि आये और मैं बोध से रहित और तूष्णीं सहित था इससे मुझे अहं मम का अभिमान आन फुरा और मैंने एक ग्राम में जहाँ मेरा गृह था ईंट और काष्ठ संग्रह करके एक कुटीं बनाई और उसके चौफेर बूटे लगाकर एक आसन बनाया जहाँ कमण्डलु और माला पड़ी रहे | मैं ब्राह्मण था, मुझको धन उपजाने की इच्छा हुई और जो कुछ ब्राह्मण की आचार चेष्टा थी सो भी मैं करता था | बाहर जाके ईंट और काष्ठ ले आऊँ और आनकर कुटी बनाऊँ | यह चेष्टा हमारी होने लगी और शिष्य और सेवक हमारी पूजा करने लगे और मैं यथायोग्य उनको आशीर्वाद दूँ | इस प्रकार गृहस्थाश्रम में चेष्टा करूँ और मुझको यह विचार उपजे कि यह कर्तव्य है इसके करने से भला होता है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:39 AM
नदियाँ और तालों में मैं स्नान करूँ, गौ की टहल करूँ और अतिथि की पूजा करूँ | हे बधिक! इस प्रकार चेष्टा करता मैं सौ वर्षपर्यन्त वहाँ रहा तब एक काल मेरे गृह में एक मुनीश्वर आया तो प्रथम मैंने उसको स्नान कराया, फिर भोजन से तृप्त किया और रात्रि के समय उसको शय्या पर शयन कराया | इस प्रकार उसकी टहलकर रात्रि को हम वार्ता चर्चा करने लगे उसमें उसने मुझको बड़े पर्वत,कन्दरा और चित्त के मोहनेवाले सुन्दर देश स्थान और नाना प्रकार के संवाद सुनाये और कहने लगा कि हे ब्राह्मण! जितने सुन्दर स्थान और संवाद तुझको सुनाये हैं उन सबों में सार एक चिन्मात्ररूप है इससे सब चिन्मात्ररूप है | सब जगत् उसका चमत्कार और आभास (किञ्चन) है उससे कोई वस्तु भिन्न नहीं | इससे हे ब्राह्मण! उसी सत्ता को ग्रहण करो जो सबका अनुभव और परमानन्द स्वरूप है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:40 AM
उसी में स्थित हो रहो | हे वधिक! जब इस प्रकार उस मुनीश्वर ने मुझसे कहा तब आगे जो मेरा मन योग से निर्मल था इससे उसके वचन मेरे चित्त में चुभ गये और अपने स्वभाव सत्ता में मैं जाग उठा | तब मैंने क्या देखा कि सब मेरा ही संकल्प है, मुझसे भिन्न कोई नहीं, मैं तो मुनीश्वर हूँ और यह स्वप्ना आया था | मैंने जागकर देखा कि उसी पुरुष का स्वप्ना था, तब मेरे चित्त में आया कि किसी प्रकार इसके चित्त से बाहर निकलूँ और अपने शरीर में प्रवेश करूँ | तब मैंने फिर विचारा कि यह जगत् तो उस पुरुष का वपु है वही पुरुष विराट् है जिसके स्वप्ने में यह जगत् है परन्तु उस पुरुष को अपने विराट्स्वरूप का प्रमाद है इससे जैसा वपु हमारा बना है उसके स्वप्ने में वह भी तैसा एक विराट् इतर बन पड़ा है तो फिर उस विराट् को कैसे जानिये कि उसके चित्त से निकल जावे |

ravi sharma
01-12-2012, 08:40 AM
हे वधिक! इस प्रकार विचार करके मैंने पद्मासन बाँधा और योग की धारणा कर उस विराट्स्वरूप के शरीर को देखा | फिर जहाँ चित्त की फुरती थी उसके साथ मिलकर और प्राण के मार्ग से निकलकर अपनी कुटी को देखा और उसमें अपने शरीर को पद्मासन बाँधे देखा | तब उसमें मैंने प्रवेश करके नेत्र खोले तो अपने सम्मुख शिष्य बैठे देखे और वह पुरुष सोया था उसको देखा | एक मुहूर्त बीता तब मैं आश्चर्यवान् हुआ कि भ्रम में क्या-क्या चेष्टा देख पड़ती है कि यहाँ एक मुहूर्त बीता है और वहाँ मैंने सौ वर्ष का अनुभव किया | बड़ा आश्चर्य है कि भ्रम से क्या नहीं होता | फिर मेरे मन में उपजी कि उसके चित्त में प्रवेश करके कुछ और कौतुक भी देखूँ | तब फिर प्राण के मार्ग से उसके चित्त में मैंने प्रवेश किया तो क्या देखा कि अगली कल्पना व्यतीत हो गई है, बान्धव, पुत्र, स्त्री, माता, पिता आदिक सब नष्ट हो गये हैं और दूसरा कल्प हुआ है उसकी भी प्रलय होती है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:40 AM
बारह सूर्य उदय होकर विश्व जलाने लगे हैं, बड़वाग्नि जलाने लगी है, मन्दराचल और अस्ताचल पर्वत जल-कर टूक-टूक हो गये हैं, पृथ्वी जर्जरीभाव को प्राप्त हुई है, स्थावर-जंगम जीव हाहाकार शब्द करते हैं, बिजली चमत्कार करती है और बड़ा क्षोभ उदय हुआ | हे वधिक! मैं अग्नि में जा पड़ा और मेरा शरीर भी जलने लगा परन्तु मुझको कष्ट न हुआ | जैसे किसी पुरुष को अपने स्वप्ने में कष्ट प्राप्त हो और जाग उठे तो कुछ कष्ट नहीं होता तैसे ही अग्नि का कष्ट मुझको कुछ न हुआ | मैं आपको वही रूप जाग्रत्वाला जानता था और जगत् प्रलय को भ्रममात्र जानता था इस कारण मुझको कष्ट न होता था और चेष्टा तो मैं भी उसी प्रकार देखता और करता था | परन्तु हृदय से ज्यों का त्यों शीतल चित्त था और लोग जो थे सो अग्नि के क्षोभ से कष्ट पाते थे |

ravi sharma
01-12-2012, 08:40 AM
मुनीश्वर बोले, हे बधिक! प्रलय के क्षोभ में भी भटकता था और जल में बहता था परन्तु पूर्व का शरीर मुझको विस्मरण न हुआ इस कारण शरीर का दुःख मुझको स्पर्श न करता था | मैंने विचारा कि यह जगत् तो मिथ्या है इसमें बिचरने से मेरा क्या प्रयोजन सिद्ध होता है? यह तो स्वप्नमात्र है इसमें मैं किस निमित्त खेद पाऊँ-इससे जगत् से बाहर निकलूँ | वधिक ने पूछा, हे मुनीश्वर! तुमने जो इस स्वप्ने में जगत् को देखा वह जगत् क्या वस्तु था और स्वप्ना क्या था? उसकी संवित् में जगत् था और उस जगत् का उसको ज्ञान था व वह प्रमादी था? तुमने तो जाग्रत् होकर के उसका स्वप्ना देखा था, उसके हृदय में पहाड़ कहाँ से आया और नदियाँ, वृक्ष आदि नाना प्रकार के भूतजात और पृथ्वी, आकाश, वायु, जल, अग्नि आदिक विश्व की रचना कहाँ से आई? वह सब क्या था यह संशय मेरा दूर करो |

ravi sharma
01-12-2012, 08:42 AM
जो तुम कहो कि अपने स्वप्ने में भी अपनी सृष्टि देखते हो तो हे भगवन्! हमको जो स्वप्ना आता है उसको हम अपने स्वप्न के प्रमाद से देखते हैं और तुमने जाग्रत् होकर देखा तो कैसे देखा? मुनीश्वर बोले, हे बधिक! प्रथम जो मैंने देखा था सो आपको विस्मरण करके उसके हृदय में जगत् देखा था- और दूसरी बार जो देखा था सो आपको जानकर जगत् देखा था सो क्या वस्तु है सुनो | हे बधिक! जो वस्तु कारण से होती है सो सत्य होती है और जो कारण बिना भासती है सो मिथ्या होती है | मुझको जो सृष्टि उसके स्वप्न में भासी थी सो कारण बिना थी, क्योंकि कारण दो प्रकार का होता है-एक निमित्त कारण, जैसे घट का कारण कुलाल होता है और दूसरा समवायकारण, जैसे घट मृत्तिका का होता है | जो दोनों कारणों से उत्पन्न हो वह कारण कहाता है पर आत्मा तो दोनों प्रकार से जगत् का कारण नहीं, वह अद्वैत है इससे निमित्त कारण नहीं और समवायकारण भी इससे नहीं कि अपने स्वरूप से अन्यथा भाव नहीं हुआ |

ravi sharma
01-12-2012, 08:42 AM
जैसे मृत्तिका के परिणाम से घट होता है तैसे ही आत्मा का परिणाम जगत् नहीं | आत्मा अच्युत है | वह जगत् कारण बिना भासि आया था इससे भ्रममात्र ही था | हे वधिक! वस्तु वही होती है तो जगत् की भ्रान्ति आत्मा में भासी सो जगत् आत्म रूप हुआ | जब सृष्टि फुरी न थी तब अद्वैत आत्मसत्ता थी उसमें संवेदन फुरने से जगत् हुए की नाईं उदय हुआ सो क्या हुआ- जैसे सूर्य की किरणों में जल भासता है सो किरण ही जलरूप भासती है, तैसे ही यह जगत् आत्मा का आभास है सो आत्मा ही जगद््रूप हो भासता है | वहाँ न कोई शरीर था, न कोई हृदय था, न पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश था और न उत्पत्ति और प्रलय थी न और कोई था, केवल चिन्मात्ररूप ही था | हे वधिक! ज्ञानदृष्टि से हमको तो सच्चिदानन्द ही भासता है जो शुद्ध और सर्वदुःखों से रहित परमानन्द है, और जगत् भी वही रूप है | तुम

ravi sharma
01-12-2012, 08:42 AM
सरीखे को जो जगत् शब्द अर्थरूप भासता है सो आत्मा में कुछ हुआ नहीं केवल चिन्मात्र सत्ता है | सर्वदा हमको आत्मरूप ही भासता है | जो तू चाहे कि मुझको भी चिन्मात्र ही भासे तो सर्वकल्पना मन से त्यागकर उसके पीछे जो शेष रहेगा वह आत्मसत्ता है और सबका अनुभवरूप वही है और प्रत्यक्ष शुद्ध, सर्वदा स्वभावसत्ता में स्थित है और अमर है | तुम भी उस स्वभाव में स्थित हो रहो | हे वधिक! आत्मसत्ता परमसूक्ष्म है जिसमें आकाश भी स्थूल है- जैसे सूक्ष्म अणु से पर्वत स्थूल होता है, तैसे ही आत्मा से आकाश भी स्थूल है | आत्मा में यही सूक्ष्मता है कि आत्मत्वमात्र है जिसमें कोई उत्थान नहीं केवल निर्मल स्वभावसत्ता और निराभास है उसी में यह जगत् भासता है इससे वही रूप है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:43 AM
जैसे काल में क्षण, पल, घड़ी, पहर, दिन, मास वर्ष और युगसंज्ञा होती है सो काल ही है, तैसे ही एक ही आत्मा में अनेक नामरूप जगत् होता है | जैसे एक बीज में पत्र, टहनी, फूल फल नाम होते हैं तैसे ही एक आत्मा में अनेक नामरूप जगत् होता है सो आत्मा से कुछ भिन्न वस्तु नहीं सब आत्मास्वरूप है और जो आत्मा से भिन्न भासे उसे भ्रममात्र जानो जैसे संकल्पपुर होता है तैसे ही यह जगत् है | हे वधिक! आत्मा में जगत् कुछ बना नहीं | वही आत्मा तेरा अपना आप अनुभवरूप है और परमशुद्ध है | उसमे न जन्म है न मृत्यु है और चिदाकाश अपना आप है जो तेरा आप अनुभवरूप शुद्ध सत्ता है-उसको नमस्कार है | हे वधिक! तू उसमें स्थित हो रह तब तेरे दुःख नष्ट हो जावेंगे | यह जगत् अज्ञानी को सत्य भासता है और ज्ञानवान् को सदा आकाशरूप भासता है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:43 AM
जैसे एक पुरुष सोया है और एक जागता है तो जो सोया है उसको स्वप्ने में महल आदिक जगत् भासता है और जो जाग्रत् है उसको आकाशरूप है, तैसे ही अज्ञानी को जगत् भासता है और ज्ञानवान् को आत्मरूप है | वधिक बोला, हे मुनीश्वर कितने कहते हैं कि यह जीव कर्म से होता है और कितने कहते हैं कि कर्मबिना उत्पन्न होता है तो इन दोनों में सत्य क्या है? मुनीश्वर बोले, हे वधिक! आदि जो परमात्मा से ब्रह्मादिक फुरे हैं सो कर्म से नहीं हुए वे कर्म बिना ही उत्पन्न हुए हैं और उन्हें न कहीं जन्म है और न कर्म है | वे ब्रह्मस्वरूप ही हैं और उनका शरीर भी ज्ञानरूप है | वे और अवस्था को नहीं प्राप्त होते सर्वदा उनको अधिष्ठान आत्मा में अहंप्रतीति है | हे वधिक! सृष्टि आदि जो ब्रह्मादिक फुरे हैं वे ब्रह्म से भिन्न नहीं और जो अनन्त जीव फुरे हैं और जिसका आदि ही आत्मपद से प्रकट होना हुआ है वे भी ब्रह्मरूप हैं ब्रह्मसे कुछ भिन्न नहीं- आदि सबका ब्रह्मचेतन स्वयंभू हैं परन्तु ब्रह्मा विष्णु रुद्रादिक को अविद्या ने स्पर्श नहीं किया वे विद्यारूप हैं और दूसरे जीव अविद्या के वश से प्रमाद करके परतन्त्र हुए हैं और कर्म करके कर्म के वश हुए हैं और संसार में शरीर धारते हैं |

ravi sharma
01-12-2012, 08:43 AM
जब उनको आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है तब वे कर्म के बन्धन से मुक्त होकर आत्मपद को पाते हैं | हे वधिक! आदि जो सृष्टि हुई है सो कर्म बिना उपजती है और पीछे अज्ञान के वश से कर्म के अनुसार जन्म-मरण देखते हैं | जैसे स्वप्ने की सृष्टि आदि कर्म बिना उत्पन्न होती है और पीछे कर्म से उत्पन्न होती भासती है, तैसे ही यह जगत् है | आदि जीव कर्म बिना उपजे हैं और पीछे कर्म के अनुसार जन्म पाते हैं |ब्रह्मादिक के शरीर शुद्ध ज्ञानरूप हैं | ईश्वर में जीवभाव दृष्टि आता है पर उस काल में भी ब्रह्म ही स्वरूप है, क्योंकि उनके कर्म कोई नहीं केवल आत्मा ही उनको भासता है- आत्मा से भिन्न कुछ नहीं | जैसे स्वप्ने में दृष्टा ही दृश्यरूप होता है और नाना प्रकार के कर्म दृष्टि आते हैं परन्तु और कुछ हुआ नहीं तैसे ही जो कुछ जगत् भासता है सो सब चिन्मात्ररूप है और कुछ नहीं |

ravi sharma
01-12-2012, 08:43 AM
सुख दुःख भी वही भासता है परन्तु अज्ञानी को जबतक जगत् प्रतीति होती है तबतक कर्मरूपी फाँसी से बँधा हुआ दुःख पाता है और जब स्वरूप में स्थित होगा तब कर्म के बन्धन से मुक्त होगा वास्तव में न कोई कर्म है और न किसी को बन्धन है | यह मिथ्या भ्रम है केवल आत्मसत्ता अपने आपमें स्थित है दूसरा कुछ हो तो कहूँ कि इस कर्म ने इसको बन्धन किया है | यह जगत् आत्मा में ऐसा है जैसे जल में तरंग होता है सो भिन्न कुछ नहीं | जल से तरंग उत्पन्न होता है सो किस कर्म से होता है और क्या उसका रूप है? जैसे वह जल ही रूप है, तैसे ही यह जगत् भी आत्मस्वरूप है-आत्मा से इतर कुछ नहीं जो कुछ कल्पना कीजिये सो अविद्यामात्र है | हे वधिक! जबतक यह संवित् बहिर्मुख फुरती है तबतक जगत् भासता है और कर्म होते दृष्टि आते हैं और जब संवित् अन्तर्मुख होगी तब न कोई जगत् रहेगा और न कोई कर्म दृष्टि आवेगा, तब सब आत्मसत्ता ही भासेगी |

ravi sharma
01-12-2012, 08:44 AM
जैसे हमको सदा आत्मसत्ता भासती है, तैसे ही तुमको भी भासेगी | हे वधिक! जो ज्ञानवान् पुरुष है उनको जगत् आत्मत्व दिखाई देता है और जो अज्ञानी हैं उनको प्रमाद से द्वैतरूप भासता है इससे वह पदार्थों को सुखरूप जानकर पाने का यत्न करता है और सुख से सुखी और दुःख से द्वेष करता है पर परमानन्द जो आत्मपद है उसके पाने का यत्न नहीं करता | ज्ञानवान् सदा परमानन्द में स्थित है और सब जगत् उसको ब्रह्मस्वरूप भासता है | हे वधिक! सर्वजगत् जो तुझको दृष्टि आता है चिन्मात्रास्वरूप ब्रह्म है, न कोई स्वप्ना है, न कोई जाग्रत् है, न कोई कर्म है और न कोई अविद्या है सर्व ब्रह्मस्वरूप सदा अपने आपमें स्थित है-उसमें और कुछ नहीं जैसे जल में आवर्त स्थित होता है परन्तु जल से भिन्न कुछ नहीं होता, तैसे ही ब्रह्म में जगत् हुए की नाईं भासता है परन्तु ब्रह्म से भिन्न कुछ नहीं | सब जगत् ब्रह्मस्वरूप है तू विचार करके देख तब तेरे दुःख मिट जावेंगे | जबतक

ravi sharma
01-12-2012, 08:44 AM
विचार करके स्वरूप को न पावेगा तबतक दुःख न मिटेगा | जब स्वरूप को पावेगा तब सब कर्म नष्ट हो जावेंगे | जितना विचार होता है उतना ही उतना सुख है जहाँ विचार उत्पन् होता है वहाँ अविद्या नष्ट हो जाती है | जैसे जहाँ प्रकाश होता है वहाँ अन्धकार नहीं रहता, तैसे ही जहाँ सत्य-असत्य का विचार उत्पन्न होता है वहाँ अविद्या का अभाव हो जाता है और फिर वह संसारचक्र में नहीं गिरता बल्कि परमपद को प्राप्त होता है | जिस ज्ञानवान् को यह पद प्राप्त हुआ है वह दुःखी नहीं होता |

ravi sharma
01-12-2012, 08:45 AM
मुनीश्वर बोले, हे वधिक! जो ज्ञानवान् पुरुष है वह अवश्य उस परमानन्द को प्राप्त होता है जिसके पाये से इन्द्रियों का आनन्द सुख तृणवत् तुच्छ प्रतीत होता है और वैसा सुख पृथ्वी, आकाश और पाताल में भी कहीं नहीं मिलता जैसा सुख ज्ञानवान् को प्राप्त होता है | जिसको ऐसा आनन्द प्राप्त हुआ है वह किसको इच्छा करे? आत्मानन्द तब प्राप्त होता है जब आत्म अभ्यास होता है | आत्मा शुद्ध और सर्वदा अपने आपमें स्थित है और जो आगे दृष्टि आता है सो अविद्या का विलास है | जब तू अपने स्वरूप में स्थित होगा तब तुमको सब ब्रह्म ही भासेगा | हे वधिक! पृथ्वी आदिक तत्त्व जो दृष्टि आते हैं सो हैं नहीं, ये जो कुछ होते तो इनका कारण भी कोई होता पर जो ये ही नहीं हैं तो इनका कारण किसको कहिये और जो इनका कारण नहीं तो कार्य किसका कहिये इसलिये ये भ्रममात्र हैं |

ravi sharma
01-12-2012, 08:46 AM
विचार किये से जगत् का अभाव हो जाता है और आत्मसत्ता ही ज्यों की त्यों भासती है | जैसे किसी को रस्सी में सर्प भासता है पर जब वह भली प्रकार देखता है तब सर्पभ्रम मिट जाता है और ज्यों की त्यों रस्सी ही भासती है, तैसे ही विचार किये से आत्मसत्ता ही भासती है | जैसे आकाश में संकल्प का कल्पवृक्ष अथवा देवता की प्रतिमा रच कर उससे प्रार्थना की तो अनुभव से कार्य सिद्ध होता है तैसे ही जितना जगत् तू देखता है सो संकल्पमात्र और अनुभवरूप है | जैसे स्वप्नों में नाना प्रकार की सृष्टि स्वप्नमात्र है तैसे ही यह सर्वविश्व ब्रह्म के संकल्प में स्थित है | आदि परमात्मा से कर्म बिना जो सृष्टि उपजी है वह किञ्चन आभासरूप है, फिर आगे जो ब्रह्मा ने रचा है सो संकल्प है और फिर आगे अज्ञान से कर्म करने लगे तब उन कर्मों से उत्पत्ति होती दृष्टि आई है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:46 AM
जैसे स्वप्न में स्वप्ने की सृष्टि भ्रममात्र ही दृढ़ हो भासती है, जब तक स्वप्ने की अवस्था है तबतक जैसा वहाँ कर्म करेगा तैसा ही भासेगा और जो जाग उठे तो न कहीं कर्म है न जगत् है, तैसे ही यह सब संकल्पमात्र है ज्ञान से इसका अभाव हो जाता है | हे वधिक! ये जो तुझको मनुष्य भासते हैं सो मनुष्य नहीं तो उनके कर्म मैं तुझसे कैसे कहूँ? जैसे स्वप्ने के निवृत्त हुए स्वप्ने कि सृष्टि का अभाव होता है तैसे ही अविद्या के निवृत्त हुए अविद्या की सृष्टि का भी अभाव हो जाता है | आत्म सत्ता अद्वैत है उसमें जगत् कुछ बना नहीं- वही रूप है | जैसे आकाश और शून्यता, अथवा वायु और स्पन्द में भेद नहीं होता, तैसे ही ब्रह्म और जगत् में भेद नहीं | जब चित्तसंवित् फुरती है तब जगत् होकर भासती है और जब नहीं फुरती तब अद्वैत होकर स्थित होती है- पर आत्मसत्ता फुरने और न फुरने में ज्यों की त्यों है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:46 AM
जन्म, मरण और बढ़ना, घटना, मिथ्या है, क्योंकि दूसरी वस्तु कुछ नहीं | जैसे किसी ने जल और किसी ने पानी कहा तो दोनों एक ही वस्तु के नाम होते हैं , तैसे ही आत्मा और जगत् एक ही के नाम हैं परन्तु अज्ञान से भिन्न भिन्न भासते हैं | जैसे स्वप्ने में कार्य भासते हैं परन्तु हैं नहीं, तैसे ही जाग्रत में कारण-कार्य भासते हैं परन्तु हैं नहीं-वास्तव में आत्मतत्त्व है | उस आत्मा में जो अहं मम चित्त फुरता है और उस उत्थान से आगे जो कुछ फुरना होता है वही जगत् है, उस जगत् में जैसा-जैसा निश्चय होता है वैसा ही वैसा भासने लगता है-इसका नाम नेति है | उसमें देश, काल और पदार्थ की संज्ञा होने लगती है और कारण-कार्य दृष्टि आते हैं सो क्या है, केवल आत्मसत्ता अपने आप में स्थित है और कुछ हुआ नहीं , परन्तु हुए की नाईं भासता है, तैसे ही स्वप्ने में नाना प्रकार का जगत् भासता है और कारण-कार्य भी दृष्टि आता है परन्तु जागने पर कुछ दृष्टि नहीं आता, क्योंकि है ही नहीं, तैसे ही यह जगत् कारण कार्यरूप दृष्टि आता है परन्तु है नहीं आत्मा से दृष्टि आता है इससे आत्मा ही है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:46 AM
जैसे संकल्प नगर दृष्टि आता है, तैसे ही आत्मा में घन चैतन्यता से जगत् भासता है सो वही रूप है-आत्मा से भिन्न कुछ नहीं | जैसा आत्मा में निश्चय होता है तैसा ही प्रत्यक्ष अनुभव होता है | यह सब जगत् संकल्पमात्र है, संकल्प ही जहाँ तहाँ उड़ते फिरते हैं और अनुभवसत्ता ज्यों की त्यों है-संकल्प से ही मर के परलोक देखता है | वधिक बोला, हे भगवन्! परलोक में जो यह मर के जाता है तो उस शरीर का कारण कौन होता है और वह हत होता और हन्ता कौन है? यह शरीर तो यहीं रहता है वहाँ भोगता शरीर कौन होता है जिससे सुख दुःख भोगता है? जो तुम कहो कि उस शरीर का कारण धर्म अधर्म होता है तो धर्म अधर्म तो अमूर्ति है उससे समूर्ति और साकाररूप क्योंकर उत्पन्न हुआ? मुनीश्वर बोले, हे वधिक! शुद्ध अधिष्ठान जो आत्मसत्ता है उसके फुरने की इतनी संज्ञा होती हैं-कर्म, आत्मा, जीव, फुरना, धर्म, अधर्म आदि नाना प्रकार के नाम होते हैं | जब शुद्ध चिन्मात्र में अहं का उत्थान होता है तब देह की भावना होती है और देह ही भासने लगती है, आगे जगत् भासता है और स्वरूप के प्रमाद से संकल्परूप जगत् दृढ़ हो जाता है, फिर उसमें जैसा-जैसा फुरता है तैसा तैसा हो भसता है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:47 AM
हे वधिक! यह जगत् संकल्पमात्र है परन्तु स्वरूप के प्रमाद से सत्य हो भासता है | प्रमाद से शरीर में अभिमान हो गया है उससे कर्तव्य-भोक्तव्य अपने में मानता है और वासना दृढ़ हो जाती है उसके अनुसार परलोक देखता है | हे वधिक! वहाँ न कोई परलोक है और न यह लोक है, जैसे मनुष्य एक स्वप्ने को छोड़कर और स्वप्ने को प्राप्त हो, तैसे ही अविदित वासना से इस लोक को त्यागकर जीव परलोक को देखता है | जैसे स्वप्ने में निराकार ही साकार शरीर उत्पन्न होता है, तैसे ही परलोक है पर वास्तव में संकल्प ही पिण्डाकर होकर भासता है जैसी-जैसी वासना होती है तैसा ही उसके अनुसार होकर भासता है वास्तव में शरीर और पदार्थ सब ही आकाशरूप हैं | हे वधिक! असत्य ही सत्य होकर जन्म मरण भासता है और जैसा-जैसा फुरना होता है तैसा ही तैसा भासता है-जगत् आभासमात्र है | जो ज्ञानवान् पुरुष हैं उनको आत्मभाव ही सत्य है और उसमें जैसा निश्चय होता है तैसा होकर भासता है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:47 AM
ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञातारूप जगत् जो भासता है वह अनुभव से भिन्न नहीं | जैसे स्वप्ने में अनेक पदार्थ भासते हैं सो अनुभव ही अनेकरूप हो भासता है और प्रलय में एक हो जाते हैं तैसे ही ज्ञानरूपी प्रलय में सब एकरूप हो जाते हैं | जब संवित् फुरती है तब नाना प्रकार का जगत् भासता है और जब संवित् अफुर होती है तब प्रलय हो जाती है और एकरूप हो जाता है | एक चिन्मात्रसत्ता अपने आपमें स्थित और पृथ्वी आदिक पदार्थ उसका चमत्कार है, भिन्न वस्तु कुछ नहीं, आत्मसत्ता निर्विकार है और उसमें निराकार और साकार भी कल्पित है | जो पुरुष दृश्य से मिले चेतन हैं वे जड़धर्मी हैं और उसको नाना प्रकार के पदार्थ भासते हैं, ज्ञानवान् को सत्यरूप चिन्मात्र ही भासता है | हे वधिक! यह जगत् सब चिन्मात्र है, जब चित्त संवित् फुरती है तब स्वप्नरूप जगत् भासता है और जब चित्तसंवित् फुरने से रहित होती है तब सुषुप्ति होती है | ऐसे ही चित्त संवित्त के फुरने से सृष्टि होती है और चित्त के स्थित होने से प्रलय हो जाती है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:47 AM
जैसे स्वप्न और सुषुप्ति आत्मा में कल्पित है, तैसे ही आत्मा में कल्पित सृष्टि और प्रलय आभासमात्र है और जगत् कुछ बना नहीं फुरने से जगत् भासता है इससे जगत् भी आत्मरूप है और पञ्चतत्त्व भी आत्मा का नाम है सदा अद्वैतरूप जगत् आभासमात्र है | जैसे आत्मा में साकार कल्पित है तैसे ही निराकार भी कल्पित है जैसे स्वप्ने में किसी को साकार जानता है और किसी को निराकार जानता है पर दोनों फुरनमात्र है | जो फुरने से रहित है सो आत्मसत्ता है साकार और निराकार भी वही है | आत्मसत्ता ही इस प्रकार हो भासती है और निराकार ही साकार हो भासता है | हे वधिक! सर्व जगत् जो तुझको दृष्टि आता है सो चिन्मात्रस्वरूप है, भिन्न कुछ नहीं, परन्तु अज्ञान से नाना प्रकार के कार्य-कारण और जन्म-मरण आदि विकार भासते हैं वास्तव में न कोई जन्म है और न मरण है, न कोई कार्य है और न कारण है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:48 AM
यदि जीव मरण होता तो परलोक भी न देखता और अपने मरने को भी न जानता जो मर के परलोक देखता है सो मरता नहीं | यदि मनुष्य मृतक हो तो पूर्व के संस्कार को न पावे और पूर्वस्मृति इसको न हो पर तू तो पूर्वसंस्कार से क्रिया में प्रवर्तता है और प्रतियोग से तुझे पदार्थों की स्मृति भी हो आती है फिर कर्म भोगता है | लोकमें तो पुरुष मृतक नहीं होता केवल भ्रम से मरण भासता है और कारण कार्यरूप पदार्थ भासते हैं जब मरके परलोक देखता है सुख दुःख भोगता है तो वह शरीर किसी कारण से नहीं बना | जैसे वह शरीर अकारण है तैसे ही और जो आकार दृष्टि आते हैं वे भी अकारण हैं-इसी से आभासमात्र हैं, जैसे स्वप्ने के शरीर से नाना प्रकार की क्रिया होती है और देश देशान्तर देखता है सो सब मिथ्या है, तैसे ही यह जगत् मिथ्या है और मरण भी मिथ्या है | जो तू कहे कि इसके आकार का अभाव देखता है सो मृतक है तो हे वधिक! जो यह पुरुष परदेश जाता है तो भी इसका आकार दृष्टि नहीं आता |

ravi sharma
01-12-2012, 08:48 AM
जैसे दृष्टि के अभाव में असत्य होता है, तैसे ही देह के त्याग में भी इसका असत्यभाव होता है पर इस पुरुष का अभाव कदाचित् नहीं होता | जो तू कहे कि परदेश गया फिर आ मिलता है शरीर के त्याग से फिर मिलता तो परदेश गया फिर मिलकर वार्त्ता चर्चा करता है और मुआ तो कदाचित् चर्चा नहीं करता पर जिसके पितर प्रीति बँधे हुए मरते हैं और जिनकी यथाशास्त्र क्रिया नहीं होती तोवे स्वप्ने में आ मिलते हैं और यथार्थ कहते हैं कि हमारी क्रिया तुमने नहीं की, हम अमुक स्थान में पड़े हैं और अमुक द्रव्य अमुक स्थान में पड़ा है तुम निकाल लो, तो जैसे परदेशीगण मिलते हैं और वार्ता चर्चा करते हैं तैसे ही मुये भी करते हैं | हे वधिक! वास्तव में न कोई जगत् है और न कोई मरता है केवल आत्मसत्ता अपने आपमें स्थित है और जैसा-जैसा उसमें फुरना फुरता है तैसा हो भासता है | हे वधिक! अनुभवरूप कल्पवृक्ष है, जैसा-जैसा उसमें फुरना फुरता है तैसा ही तैसा हो भासता है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:48 AM
एक संकल्पसिद्ध और एक दृष्टिसिद्ध वस्तु है, जब इनकी दृढ़ भावना होती है तब ये दोनों सिद्ध होती हैं | जो इन्द्रियों में द्रव पदार्थ हैं सो दृष्टसिद्ध वस्तु कहाती है, जो इसी की भावना होती है तो भी प्राप्त होती है और जो अपने मन में आपही मान लीजिये कि मैं ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र वर्ण हूँ अथवा गृहस्थ, वानप्रस्थ, ब्रह्मचारी वा सन्यासी आश्रम हूँ तो यह संकल्प सिद्ध है | जबतक इनमें अभ्यास होता है तबतक आत्मसत्ता की प्राप्ति नहीं होती और जब आत्मसत्ता का अभ्यास होता है तब दोनों का अभाव हो जाता है और आत्मा ही प्रत्यक्ष अनुभव से भासता है | हे बधिक! जिस वस्तु का अभ्यास होता है उसकी यदि भावना करे और थककर फिरे नहीं तो वह अवश्य प्राप्त होती है पर अभ्यास बिना कुछ सिद्ध नहीं होता |

ravi sharma
01-12-2012, 08:48 AM
जैसे कोई पुरुष कहे कि मैं अमुक देश जाता हूँ तो तबतक उसकी ओर वह चले नहीं तबतक अनेक उपाय करे भी नहीं प्राप्त होता और जब उसकी ओर चलेगा तब पहुँच रहेगा, तैसे ही जब आत्मा का अभ्यास बहुत एकाग्र होकर करेगा तब उसको प्राप्त होगा अन्यथा आत्मपद को न प्राप्त होगा | हे बधिक! जिस पुरुष को जगत् के पदार्थों की इच्छा है उसको आत्मपद नहीं प्राप्त होता और जिसको आत्मपद की इच्छा है उसको वही प्राप्त होवेगा, जगत् के पदार्थ न ` भासेंगे | यदि ऐसी भावना हो कि मेरी देवता की सी मूर्ति हो और उससे मैं स्वर्ग में विचरूँ और एक रूप से भूलोक में मृग होके भ्रमण करूँ तो दृढ़ अभ्यास से वही हो जाता है, क्योंकि जगत् संकल्पमात्र है जैसा जैसा निश्चय होता है तैसा ही भासि आता है | हे वधिक! दो रूप की वार्त्ता है जो जो सहस्त्रमूर्ति की भावना करे तो वही तद्रूप हो जावेगा | यह मनुष्य जैसी भावना करता है तैसा ही रूप हो जाता है | यह अविद्यक भ्रममात्र जगत् है इसकी भावना त्यागकर आत्मपद का अभ्यास कर तब तेरे दुःख मिट जावेंगे |

ravi sharma
01-12-2012, 08:49 AM
मुनीश्वर बोले, हे वधिक! जैसे अगाध समुद्र में अनेक तरंग फुरते हैं तैसे ही आत्मा में अनेक सृष्टि फुरती है और जीव-जीव प्रति अपनी-अपनी सृष्टि है परन्तु परस्पर अज्ञात हैं और एक की सृष्टि को दूसरा नहीं जानता और दूसरे की सृष्टि को वह नहीं जानता | जैसे एक ही स्थान में दो पुरुष सोये हों तो उनको अपने-अपने फुरने की सृष्टि भासि आती है पर एक की सृष्टि को दूसरा नहीं जानता परस्पर दोनों अज्ञात होते हैं, तैसे ही सब जो धारणाभ्यासी योगी है उसको अन्तवाहक शरीर प्रत्यक्ष होता है और वह दूसरे की सृष्टि को भी जानता है | जैसे एक तालाब का दर्दुर होता है, एक कूप का दर्दुर होता है और एक समुद्र का दर्दुर होता है सो स्थान तो भिन्न भिन्न होते हैं परन्तु जल एक ही है इससे चाहे जैसा दर्दुर हो पर उसको जल जानता है कि मेरे में हैं तैसे जगत् भिन्न-भिन्न अन्तःकरणों में है परन्तु आत्मसत्ता के आश्रय है और आदि जो संवेदन उसमें फुरी है सो अन्तवाहक है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:49 AM
जब अन्तवाहक में योगी स्थित होता है तब और के अन्तवाहक को भी जानता है- इस प्रकार अनन्त सृष्टि आत्मा के आश्रय अन्तवाहक में फुरती हैं सो आत्मा का किञ्चन है, फुरती भी है और मिट जाती है | संवेदन के फुरने से सृष्टि उत्पन्न होती है और संवेदन के ठहरने से मिट जाती है, क्योंकि आकाशरूप होती है | जैसे वायु के ठहरने से जल एक रूप हो जाता है और जल से इतर कुछ नहीं भासता, तैसे ही संवेदन के फुरने से आत्मा में अनन्त सृष्टि भासती है और संवेदन के ठहरने से सब आत्मरूप हो जाती है तब आत्मा से इतर कुछ नहीं भासती, क्योंकि इससे इतर प्रमाद से भासता है फिर कारण कार्य भ्रम भासता है | प्रथम जो सृष्टि फुरी है सो कारण-कार्य के क्रम और संस्कार से रहित है, पीछे कारण-कार्य क्रम भासित हुआ और फिर उसका संस्कार हृदय में हुआ तब संस्कार के वश से भासने लगी |

ravi sharma
01-12-2012, 08:49 AM
जिनको स्वरूप का प्रमाद नहीं हुआ उनको सदा पर ब्रह्म का निश्चय रहता है और जगत् अपना संकल्पमात्र भासता है और जिनको स्वरूप का प्रमाद होता है उनको संस्कारपूर्वक जगत् भासता है-संस्कार भी कुछ वस्तु नहीं | हे वधिक! जो जगत् ही मिथ्या है तो उसका संस्कार कैसे सत्य हो? परन्तु ज्ञानवान् को इस भासता है और जो अज्ञानी हैं उनको स्पष्ट भासता है | हे वधिक! जैसे तुम संकल्प के रचे पदार्थ, स्मृति और स्वप्नसृष्टि को असत् जानते हो, तैसे ही हम इस जाग्रत्् सृष्टि को असत् जानते हैं और जैसे मृगतृष्णा का जल असत् भासता है तैसे ही हमको यह जगत् असत्य है तो फिर कारण, कार्य, कर्म-संस्कार हमको कैसे भासे? अज्ञानी को तीनों भासते हैं | हे वधिक! जब चित्तसंवित बहिर्मुख होता है तब जगत् भासता है और जब अन्त र्मुख होती है तब अपने स्वरूप को देखती है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:50 AM
जब आत्मतत्त्व का किञ्चन संवेदन फुरती है तब स्वप्न जगत् हो भासता है और जब ठहर जाती है तब सुषुप्ति प्रलय हो जाती है| फुरने का नाम सृष्टि की उत्पत्ति है और ठहरने का नाम प्रलय है | जिसके आश्रय फुरना फुरता है सो शुद्धसता अव्यक्त और निराकार है--वही आकाररूप हो भासती है और जो अकारण निराकार है उसमें अकारण आकार भासता है इससे जानता है कि वही रूप है और कुछ नहीं | आकार भी निराकार है, दृष्टि ही सृष्टिरूप हो भासती है और जगत् आभासमात्र है | जैसे समुद्र का आभास तरंग होते हैं तैसे ही आत्मा का अभास जगत् है सो आत्मानन्द चिदाकाश है और सर्व जगत् का अपना आप है | बधिक बोला, हे मुनीश्वर! तुम जगत् को अकार कहते हो तो कारण बिना कैसे उत्पन्न होता है क्योंकि प्रत्यक्ष भासता है और जो कारण से उत्पत्ति कहो तो स्वप्नवत् क्यों कहते हो? स्वप्नसृष्टि तो कारण बिना होती है इससे यह कहो कि यह सृष्टि कारणसहित है अथवा कारण से रहित अकारण है? मुनीश्वर बोले, हे बधिक! यह जगत् आदि अकारण है और आत्मा का अभासमात्र है, इसका आत्मा में अत्यंताभाव है और कुछ पदार्थ बने नहीं आत्मसत्ता ही अपने आप में स्थित है सो चिदाकाश चिन्मात्र है और उसका किञ्चन चैतन्यता है|

ravi sharma
01-12-2012, 08:50 AM
जैसे सूर्य की किरणों का आभास जल भासता है परन्तु मिथ्या है, तैसे ही आत्मा का किञ्चन चेतन है | वह किञ्चन संवेदन अहंभाव को लेकर फुरती गई हैं और जैसे जैसे फुरती है तैसा जगत् हो भासता है | जो उसमें निश्चय किया है कि यह कर्तव्य है, इसके करने से पाप है, यह करना है, यह नहीं करना है और देश, काल, क्रिया क्रम है, यह इसी प्रकार है | यह ऋषि है, यह देवता है, यह मनुष्य है, यह द्वैत है, यह धर्म है, यह कर्म है, इससे इनका बन्धन है, इससे इनका मोक्ष है | हे बधिक! जो आदि नेति रची है तैसे ही अब तक स्थित है अन्यथा नहीं होती-उसी में कारण कार्य क्रम है | प्रथम जो सृष्टि फुरी है सो बुद्धिपूर्वक नहीं बनी-आकाशमात्र फुरी है और जैसे फुरी है तैसे ही स्थित है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:50 AM
फिर पदार्थ जो एकभाव को त्यागकर और भाव को अंगीकार करते हैं सो कारण से करते हैं, कारण बिना नहीं होते, क्योंकि प्रथम सृष्टि अकारण हुई है और पीछे सृष्टिकाल में कारण कार्य हुए हैं, परन्तु हे बधिक! जिन पुरुषों को आत्मा का साक्षात्कार हुआ है उनको यह जगत् कारण बिना ब्रह्मस्वरूप भासता है और जिनको आत्मसत्ता का प्रमाद है उनको कार्य कारण सत्य भासता है, परन्तु आत्मा ब्रह्म निराकार अकारण है उसमें संवेदन के फुरने से अब्रह्मता भासती है, निराकार में आकार भासता है और अकारण में कारण भासता है | जब संवेदन जो मन का फुरना है सो स्थित हो जाता है तब सर्व जगत् कारण-कार्य सहित भासता है पर प्रथम अकारण फुरा है पीछे से देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी, पृथ्वी , जल, तेज, वायु, आकाश पदार्थों की मर्यादा भई है और बन्धमोक्ष की नेति हुई है सो ज्यों की त्यों है कि जल शीतल ही है और अग्नि उष्ण ही है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:50 AM
जब जीव आत्मसत्तामें जागता है तब कारण-कार्य सहित जगत् नहीं भासता | जैसे स्वप्नसृष्टि प्रथम अकारण भासि आती है और जब दृढ़ हो जाती है तब कारण से कार्य होता है सो दृढ़ हो आता है, जैसे मृत्तिका बिना घट नहीं बनता पर जाग उठे से सर्व जगत् आत्मरूप हो जाता है | हे बधिक! यह जगत् संवेदन में स्थित है, जबतक अहंभाव का फुरना है तबतक जगत है और जब अहंभाव मिटता है तब सर्व जगत् शून्य आकाशवत् होता है | जबतक अहं फुरती है तब तक नाना प्रकार का जगत् भासता है और जैसी भावना होती है तैसा भासता है | सर्व पदार्थ सर्वदा काल अपनी अपनी शक्ति में और जैसे आदि नेति हुई है तैसे ही स्थित हैं | जो जीव जैसी क्रिया का अभ्यास करेगा उसका फल पावेगा , जो बन्धन के निमित्त अभ्यास करेगा सो बन्धन पावेगा और मोक्ष के निमित्त करेगा सो मोक्ष पावेगा-ऐसे ही आदि नेति हुई है | हे बधिक इस प्रकार किञ्चन होकर मिट जाती है और आत्मसत्ता ज्यों की त्यों है | जगत् की उत्पत्ति और प्रलय ऐसे हैं जैसे हाथी अपनी सूँड को पसारे और खैंचे और ऐसे ही चित्तसंवेदन के पसरने से जगत््उत्पत्ति होती है और निस्पन्द में प्रलय हो जाती है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:51 AM
मुनीश्वर बोले, हे बधिक! यह सम्पूर्ण जगत् चिद्अणु के ओज में है और उस सम्बन्ध के अभ्यास से आत्मा चिद्अणु की संज्ञा पाता है | ओज, अन्तःकरण और हृदय तीनों अभेद हैं और चैतन्यसत्ता उसमें स्थित है जो वाह्यदृष्टि से मृतकवत् है और उनमें जीवितरूप है और वहाँ बड़े प्रकाश से प्रकाशती है | उस सत्ता का आगे चित्त से संयोग हुआ है- और चित्त और प्राणकला का संयोग हुआ है | हे वधिक! जब प्राण क्षोभते हैं तब चित्त खेद को प्राप्त होता है और जब चित्त खेद को पाता है तब प्राण भी खेद पाते हैं | जब प्राण स्थित होते हैं तब जीव शान्ति पाता है और जो प्राण स्थिर नहीं होते तो जीव जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं में भटकता है | जाग्रत् स्वप्न और सुषुप्ति अवस्था भिन्न भिन्न होती है सो सुनो, हे वधिक! जब यह पुरुष अन्न भोजन करता है तब वह अन्न जाग्रत्वाली नाड़ी पर स्थिर होता है और वह नाड़ी रुक जाती है उससे सुषुप्ति आती है | जिन नाड़ियों में गई हुई चित्त की वृत्ति जाग्रत् को देखती है सो जाग्रत् नाड़ी कहाती है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:51 AM
उन पर अन्न जाय स्थित होता है और चित्तसत्ता जो चित्त में प्रतिबिम्बित है वह चित्तनाड़ी उसके तले आ जाती है तब प्राणवायु भी उस नाड़ी में ठहर जाता है और चित्त स्पन्द भी ठहर जाता है तब सुषुप्ति होती है | जो चित्त बहुत होता है तो सूर्य, अग्नि आदिक उष्ण पदार्थ स्वप्ने में दिखते हैं और जब वह अन्न पचता है और उन नाड़ियों में प्राण जाते हैं तब स्वप्न अवस्था आती है | जब जल के शोषने को वायु बहता है तब जीव स्वप्ने में उड़ता है और जो कफ बहुत होता है तब जल को देखता है और नदियाँ, ताल आदि देखता है और जाकर डूबता है | जब उष्ण नाड़ी में अन्न-जल पहुँचता है तब जाग्रत् अवस्था होती है | इसी प्रकार जीव तीनों अवस्थाओं में भटकता है | जगत् न कुछ भीतर है और न बाहर है केवल अद्वैतसत्ता ज्यों की त्यों है | उसके प्रमाद से चित्त की वृत्ति जब बहिर्मुख फुरती है तब जगत् को जाग्रत् देखता है, जब बाहर की इन्द्रियों को त्याग के भीतर आती है तब अन्तर स्वप्न जगत् देखता है और जब अपने स्वभाव में स्थित होती है तब और कल्पना मिट जाती है सर्वब्रह्म ही भासता है इससे सर्वकल्पना को त्यागकर अपने स्वरूप में स्थित रहो |

ravi sharma
01-12-2012, 08:51 AM
मुनीश्वर बोले, हे बधिक! यह तीनों अवस्था आती और जाती हैं इनके अनुभव करनेवाली जो सत्ता है सो आत्मसत्ता है और वह सदा एक रस है | जिस पुरुष को अपने स्वरूप का अनुभव हुआ है उसको अपना किञ्चन भासता है और जिसको प्रमाद है उसको जगत् भासता है यह जगत् चित्त का कल्पा हुआ है और स्वरूप का जिसको प्रमाद है उसको जगत् भासता है | जब इन्द्रियाँ विषयों के सम्मुख होती हैं तब जगत् देखती हैं और उस संकल्पजगत् को देखकर राग-द्वेषवान् होती हैं | फिर इन्द्रियों के अर्थ पाकर जीव हर्ष शोकवान् होता है | हे वधिक! जिस चिद्अणु का इन्द्रियों से सम्बन्ध है उसको संसार का अभाव नहीं होता | नेत्र, त्वचा, जिह्वा, नासिका और श्रोत्र से देखता,स्पर्श करता, रस लेता, सूँघता, सुनता और मानता है तब संसारी होकर दुःख पाता है और जब इनके अर्थ को त्याग के अपने स्वभाव की ओर आता है तब सर्व जगत् को आत्मरूप जानकर सुखी होता है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:51 AM
हे बधिक! चित्त के फुरने का नाम जगत् है और चित्त के स्थित होने का नाम ब्रह्म है-जगत् और कुछ वस्तु नहीं इसी का अभास है चित्त के आश्रय सब नाड़ी हैं उनमें स्थित होकर जीव तीनों अवस्था देखता है पर वास्तव में जीव चिदाकाश आत्मा है-अज्ञान से जीवसंज्ञा पाई है | हे वधिक! ओज धातु जो हृदय है उसमें चिद्अणु स्थित होकर-दीपक की ज्योतिवत् प्रकाशता है और उसी के ओज के आश्रय सब नाड़ी हैं सो अपने-अपने रस को ग्रहण करती हैं | जब प्राणी भोजन करता है और अन्न जाग्रत नाड़ी में पूर्ण होता है तब जाग्रत् का अभाव हो जाता है और चित्त की वृत्ति और प्राण आने-जाने से रहित हो जाते हैं-वह नाड़ी मुँद जाती है | फिर जब कफनाड़ी में प्राण फुरते हैं तब स्वप्ना भासता है | हे बधिक! जब इन्द्रियों को ग्रहण करके चित्त की वृत्ति बाहर निकलती है तब जाग्रत् जगत् हो भासता है | जब तन्मात्रा को लेकर चित्त की वृत्ति ओज धातु में फुरती है तब स्वप्ना भासता है और जब ओज धातु पर अन्न आदिक द्रव्य का बोझ पड़ता है तब सुषुप्ति होती है

ravi sharma
01-12-2012, 08:51 AM
जब निद्रा और जाग्रत का बल होता है तब दोनों भासते हैं और जब दोनों में से एक का बल अधिक होता है तब वही जाग्रत् अथवा सुषुप्ति भासती है | जब निद्रा से रहित मन्द संकल्प होता है- तब उसको मनोराज कहते हैं और जब बाह्य विषयों को त्याग कर चित्त की वृत्ति अन्तर्मुख होती हैं तब स्वप्ना होता है | वहाँ जिस सिद्धान्त में जाता है उसके अनुसार भीतर जगत् भासता है | कफ के बल से चन्द्रमा, क्षीरसमुद्र, नदियाँ, जल से पूर्ण ताल और ताल और वृक्ष, फूल, फल, बगीचे, सुन्दरवन, हिमालय, कल्पवृक्ष, तमाल, सुन्दर स्त्रियाँ, बेलें, बावलियाँ, इत्यादि सुन्दर और शीतल स्थान देखता है | जब पित्त का बल अधिक होता है तब सूर्य, अग्नि और सूखे वृक्ष, फल और टास देखता है, सन्ध्याकाल के मेघ की लाली देखता है, वन और दूसरे स्थानों में अग्निलगी देखता है और पृथ्वी और रेत तपी हुई और मरुस्थल की नदी दृष्टि आती हैं, जल उष्ण लगता है, हिमालय का शिखर भी उष्ण लगता है और नाना उष्ण पदार्थ दृष्टि आते हैं |

ravi sharma
01-12-2012, 08:53 AM
जब वायु का बल अधिक होता है तब स्वप्ने में अधिक वायु देखता है और पाषाण की वर्षा होती दृष्टि आती है, अन्धे कूप में गिरता देखता है और हाथी घोड़े दृष्टि आते हैं, आपको उड़ता फिरता देखता है, अप्सरा के पीछे दौड़ता है, पहाड़ों की वर्षा होती, वायु तीक्ष्णवेग से चलती और अन्न से आदि लेकर पदार्थ चलते दृष्टि आते हैं और विपरीत होकर भासते हैं | इस प्रकार वात, पित्त और कफ से स्वप्ने में जगत् देखता है और जिसका बल विशेष होता है वह उस धर्म में दृष्टि आता है | वासना के अनुसार जीव न्यूनाधिक राजसी, तामसी और सात्त्विकी पदार्थ देखता है और जब तीनों इकट्ठे होकर कुपित होते हैं तब प्रलयकाल दृष्टि आता है हे बधिक! जबतक वात, पित्त और कफ के अंश के साथ मिला हुआ पुर्यष्टक कफ के स्थान में प्रवेश करता है तबतक समान जल के क्षोभ भासते हैं |

ravi sharma
01-12-2012, 08:54 AM
इसी प्रकार वात्, पित्त और कफ जिसके स्थान में जाता है और अन्य के स्वभाव को लेता है तबतक समान क्षोभ भासता है, जब केवल वात का क्षोभ होता है तब महाप्रलय काल के पवन चलते और पहाड़ पर पहाड़ गिरते और भूकम्प आदि क्षोभ होते हैं, जब कफ का क्षोभ होता है तब समुद्र उछलते हैं और पित्त से अग्नि लगती है और महाप्रलय की नाईं तत्त्व क्षोभवान् होते हैं | जब प्राण जाग्रत् नाड़ी में जाते हैं और वह अन्न से पूर्ण होती है तब संवित् उसके नीचे आ जाती है | जैसे भीत के नीचे दर्दुर आवे, पाषाण की शिला में कीट आ जावे और काष्ठ की पुतली काष्ठ में हो | जैसे इनमें अवकाश नहीं रहता तैसे ही और नाड़ी में फुरने का अवकाश नहीं रहता रुक जाती है तब इसको सुषुप्ति होती है | जब कुछ अन्न पचता है तब चित्त संवित् अपने भीतर स्वप्ना देखती है जिसको जिसका विकार विशेष होता है उसी का कार्य देखता है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:55 AM
जब अन्न और जल पचता है तब फिर जाग्रत् जगत् देखता है और जब जाग्रत् और स्वप्न दोनों का बल सम होता है तब दोनों को देखता और अनुभव करता है | हे वधिक! इसी प्रकार तीनों अवस्था होती और मिट जाती है सो तीनों गुणों से होती है | इनका द्रष्टा इनको अनुभव करनेवाला है सो गुणों से अतीत है और सर्व का आत्मा है | यह जगत् और स्वप्न-जगत् संकल्पमात्र है, कुछ बना नहीं ब्रह्मसत्ता ही किञ्चन करके जगत््रूप हो भासता है परन्तु अज्ञानी उसको जगत् जानते हैं और जगत् को सत्य जानकर इष्ट-अनिष्ट में राग द्वेष करते हैं जब बाहर की इन्द्रियाँ सुषुप्ति हो जाती हैं तब भीतर स्वप्ने में भटकता है और उसमें सूर्य, चन्द्रमा, वन,फूल, फल, वृक्ष आदिक जगत् देखता है और जब स्वरूप का अनुभव होता है तब सर्व भटकना मिट जाती है तब शान्ति पाता है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:55 AM
बधिकबोला, हे मुनीश्वर! उस पुरुष के हृदय में जो तुमने जगत् और प्रलय देखी थी उसके अनन्तर क्या किया और क्या अवस्था देखी? मुनीश्वर बोले, हे बधिक! उसके चित्तस्पन्द में मैंने देखा कि बड़े बड़े पहाड़ प्रलय की वायु से सूखे तृण की नाईं उड़ते हैं और पाषाण की वर्षा होती है | इस प्रकार मैंने प्रलय के क्षोभ को देखा और मेरे देखते देखते जाग्रतवाली नाड़ी में अन्न स्थित हुआ तो वहाँ जो अन्न के दाने गिरे सो पर्वत वत् भासे और चित्तस्पन्द जो संवित् थी सो रोकी गई एवं उसमें मैं था सो तामस नरक में जा पड़ा-मानो वहाँ मैं भी जड़ हो गया- और मुझको कुछ ज्ञान न रहा | जब कुछ अन्न पचा और कुछ अवकाश हुआ तब प्राण का स्पन्द फुरा और जैसे वायु निस्पन्द हुई स्पन्द होकर चले तैसे ही वहाँ संवित् फुरी तब सुषुप्ति होकर भासने लगी-मानो आत्मा दृष्टा ही दृश्यरूप होकर भासने लगा परन्तु और कुछ नहीं बना |

ravi sharma
01-12-2012, 08:55 AM
जैसे अग्नि और उष्णता, जल और द्रवता और मिरच और तीक्ष्णता में भेद नहीं तैसे ही आत्मा और दृश्य में कुछ भेद नहीं | हे बधिक! इस प्रकार मैंने जगत् को देखा और सुषुप्ति से जाग्रत् दृश्य उपजी भासी और मुझको दृष्टि आई-जैसे कुमारी कन्या से सन्तान उपजे | वधिक बोला, हे मुनीश्वर! जो सुषुप्ति आत्मा में दृश्य उपजी सो सुषुप्ति क्या है जिसमें तुम दब गये थे वही सुषुप्ति है जिससे जगत् उपजता है? मुनीश्वर बोले, हे बधिक! जहाँ सर्वसम्बन्ध का अभाव है केवल आत्मसत्ता से भिन्न कुछ कहना नहीं बनता उसका नाम सुषुप्ति है और उसमें जो फुरना हुआ उसके तीन पर्याय हैं सो सब सन्मात्र में हैं | जो वस्तु देश, काल और वस्तु के परिच्छेद से रहित है वह सन्मात्र है, उस सन्मात्र में और कुछ बना नहीं उसके जो पर्याय हैं वे ही रूप हैं | वही सत्य वस्तु अपने आपमें विराजता है और कदाचित् अन्यथाभाव को नहीं प्राप्त होता, किञ्चन में भी वही रूप है और अकिञ्चन में भी वही रूप है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:56 AM
आत्मा ही का नाम सुषुप्ति है और उसी से सब जगत् होता है | जिस सत्ता का नाम सुषुप्ति है वही स्वप्नदृश्य होकर भासता है-उससे भिन्न कुछ नहीं | जैसे वायु निस्स्पन्द स्पन्द में वही रूप है, तैसे ही आत्मा दोनों अवस्थाओं में एक ही है | हे वधिक! हम सरीखों की बुद्धि में और कुछ नहीं बना आत्मा ही सदा ज्यों का त्यों स्थित है और शरीर के आदि भी और अन्त भी वही रूप है | उसमें जो किञ्चन द्वारा भासित हुआ है वह भी वही रूप है | जैसे सुषुप्ति अवस्था में मुझको अद्वैत का अनुभव होता है और कहीं फुरना नहीं होता और उसमें जो स्वप्न और जाग्रत् भासि आता है सो भी वही रूप है और जिसमें फुरती और जिसमें भासती है उससे भिन्न कुछ नहीं इससे यह जगत् आत्मा का किञ्चन आत्मरूप है | जब तू जागकर देखेगा तब तुझको आत्मरूप ही भासेगा | जैसे स्वप्नपुर और संकल्पनगर का अनुभव होता है वह आकाशरूप है तैसे ही यह जगत् आकाश रूप है और शक्ति भी वही है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:56 AM
सर्वशक्ति आत्मा निष्किञ्चन भी और किञ्चन भी और शून्य भी वही है जो वाणी से कहा नहीं जाता | उस अवस्था में ज्ञानी स्थित है | हे बधिक! ज्ञानवान् को प्रत्यक्ष करके अनुभवरूप ही भासता है जैसे स्वप्ने में जीव और ईश्वर भिन्न-भिन्न भासते हैं और उपाधि करके अनुभवभेद भासता है-वास्तव में कुछ भेद नहीं, तैसे ही जाग्रत् में अज्ञान उपाधि से भेद भासता है पर स्वरूप से आत्मा एकरूप है और जब अज्ञान निवृत्त होता है तब सर्व आत्मरूप ही भासता है | हे वधिक! सर्व जगत् अपना स्वरूप है परन्तु अज्ञान से भेद होता है, जब आपको जाने तब द्वैतभेद भी मिट जावे | जैसे किसी पुरुष ने अपनी भुजा पर सिंह की मूर्ति लिखी हो और उसके भय से दौड़ता फिरे और कष्ट पावे तो वह प्रमाद से भयवान् होता है, क्योंकि वह तो अपना ही अंग है और अपने अंग के जाने से भय मिट जाता है, तैसे ही स्वरूप के ज्ञान से जगत्-भय मिट जाता है | जैसे स्वप्ने में अज्ञान से नानात्व भासता है पर बना कुछ नहीं, तैसे ही जाग्रत् में नानात्व भासता है परन्तु बना कुछ नहीं | जब मनुष्य अन्तर्मुख होता है तब बोध की दृढ़ता हो आती है | जैसे प्रातःकाल को ज्यों-ज्यों सूर्य की किरणें प्रकट होती हैं त्यों-त्यों सूर्यमुखी कमल खिलते हैं, तैसे ही ज्यों ज्यों मनुष्य अन्त र्मुख होता है त्यों-त्यों बोध खिलता है | विषयों से वैराग्य और आत्मा के अभ्यास से बुद्धि अन्तर्मुख होकर आत्मपद की प्राप्ति होती है तब आत्मा सर्व एकरस भासता है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:58 AM
मुनीश्वर बोले, हे वधिक! तब मैंने उसकी सुषुप्ति से जागकर जगत् को देखा-जैसे कोई पुरुष समुद्र से निकल आवे जैसे संकल्प सृष्टि फुर आवें, जैसे आकाश में बादल फुरते हैं और वृक्ष से फल निकल आते हैं, तैसे ही उसकी सुषुप्ति से सृष्टि निकल आई-मानो आकाश से उड़ आई वा मानो कल्पवृक्ष से चिन्तामणि निकल आई है | जैसे शरीर के रोम खड़े हो आते हैं, जैसे गम्धर्वनगर फुरि आता है, अथवा जैसे पृथ्वी अंकुर निकल आता है, तैसे ही सृष्टि फुरि आई | जैसे भीत पर पुतलियाँ लिखी हों और जैसे थम्भ में पुतलियाँ हों, तैसे ही मैंने सृष्टि को देखा | जैसे थम्भे में पुतलियाँ निकली नहीं परन्तु शिल्पी कल्पता है कि इतनी पुतलियाँ निकलेंगी, तैसे ही अनहोनी सृष्टि आत्मरूपी थम्भ से निकल आती है | आत्मरूपी माटी से पदार्थरूपी बासन निकलते हैं परन्तु यह आश्चर्य है कि आकाश में चित्र होते हैं और निराकार चैतन्य आकाश में पुतलियाँ मनुष्य कल्पता है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:58 AM
हे वधिक! जैसे आकाश में मकड़ी के समूह निकल आते हैं, तैसे ही शून्याकाश से सृष्टि निकल उस पुरुष के हृदय में मुझको स्पष्ट भासने लगी | देश काल क्रिया और द्रव्य से अकस्मात् सत्यासत्य पदार्थ भासने लगते हैं और असत्य पदार्थ सत्य हो भासते हैं | जैसे मणि मन्त्र औषधद्रव के बल से असत्य पदार्थ सत्य हो भासने लगते हैं और सत्य पदार्थ असत्य भासते हैं, तैसे ही अभ्यास के बल से मुझको उस पुरुष के हृदय में सृष्टि भासने लगी | हे वधिक! जैसे निश्चय संवित् में दृढ़ होता है तैसा ही रूप होकर भासता है, वास्तव में न कोई पदार्थ है, न भीतर है, न बाहर है, न जाग्रत है, न स्वप्न है और न सुषुप्ति है, यह सब सृष्टि इसके भीतर ही स्थित है और प्रमाददोष से बाहर से उत्पन्न होते देखता है | जैसे स्वप्न में सब पदार्थ अपने भीतर-बाहर होते भासते हैं तैसे ही ये पदार्थ अपने भीतर से बाहर फुरते भासते हैं

ravi sharma
01-12-2012, 08:58 AM
हे वधिक! यह जगत् जो आकारसंयुक्त दृष्टि आता है सो सब निराकार है और कुछ बना नहीं ब्रह्मसत्ता ही अज्ञान से जगत्-रूप हो भासती है, जो ज्ञानवान् पुरुष हैं उनको जगत् सत्य-असत्य कुछ नहीं भासता केवल ब्रह्मसत्ता ही अपने आपमें स्थित भासती है और जो अज्ञानी हैं उनको भिन्न-भिन्न नाम रूप भासता है | जब चित्त की वृत्ति वाह्य फुरती है उसको जाग्रत् कहते हैं, जब अन्तर फुरती है तब उसको स्वप्न कहते हैं और जब स्थिर होती है तब उसको सुषुप्ति कहते हैं, तो एक ही चित्तवृत्ति के तीन पर्याय हुए कुछ वास्तव से नहीं | जगत् के आदि शुद्ध केवल आत्मसत्ता थी और उसमें जब चित्तसंवित् फुरी तब जगत् रूप भासने लगी और किसी कारण जगत् उपजा नहीं | जिसका कारण कोई नहीं उसको असत्य जानिये-वास्तव में कुछ बना नहीं सर्वजगत् शान्तरूप ब्रह्म ही है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:59 AM
वधिक बोला, हे मुनीश्वर! प्रलय के अन्तर तुमको क्या अनुभव हुआ था? मुनीश्वर बोले, हे वधिक! तब मुझको उसके भीतर सृष्टि फुर आई और अपने पुत्र, कलत्र, स्त्री आदि सम्पूर्ण कुटुम्ब भासि आये | उनको देखकर मुझको मनत्व फुर आया और पूर्व की स्मृति भूल गई | अपनी षोडशवर्ष की आयु भासी और गृहस्थाश्रम में स्थित हुआ तब राग-द्वेषसहित मुझको जीव के धर्म फुर आये, क्योंकि दृढ़ बोध मुझको न हुआ था | हे वधिक! जब दृढ़ बोध होता है तब राग-द्वेषादिक जीव धर्म चला नहीं सकते और संसार को सत्य जानकर कोई वासना नहीं होती उसी कारण चलायमान नहीं होता | जिसको बोध की दृढ़ता नहीं हुई उसको जगत् की वासना खैंच ले जाती है | हे बधिक! अब मुझको दृढ़बोध हुआ है | इस वासना को तरना महाकठिन है, यह पिशाचिनी महाबली है, क्योंकि चिरकाल से दृश्य का अभ्यास हुआ इस कारण चला ले जाती है |

ravi sharma
01-12-2012, 08:59 AM
जब सत्शास्त्र का विचार और सन्तों का संग जीव को प्राप्त होता है और अभ्यास दृढ़ होता है तब दृश्य का सद्भाव निवृत्त हो जाता है | जबतक यह मोक्ष का उपाय नहीं प्राप्त होता तब तक वह भ्रम दृढ़ रहता है और जब सन्तों के संग और सत््शास्त्रों के विचार से यह विचार उपजते हैं कि `मैं कौन हूँ' और यह जगत् क्या है' और इसको विचारकर आत्मपद का दृढ़ अभ्यास होता है तब दृश्यभ्रम मिट जाता है, क्योंकर असम्यक््ज्ञान से जगत् सत् भासित हुआ है, जब सम्यक्ज्ञान हुआ तब जगत् का सद्भाव कैसे रहे | जैसे आकाश में नीलता, बाजीगर की बाजी और रस्सी में सर्प भ्रम से भासते हैं तैसे ही आत्मा में जगत् भ्रम से भासता है | जब प्राणी अपने स्वरूप में जागता है तब जगत््भ्रम मिट जाता है- पर जबतक स्वरूप में नहीं जागता तबतक जगत््भ्रम नहीं मिटता | बधिक बोला, हे मुनीश्वर जगत्भ्रम यह तुम सत्य कहते हो कि जगत््भ्रम मिटना कठिन है | मैं तुम्हारे मुख से बारम्बार सुनता हूँ और बिचारता हूँ और पदपदार्थ का ज्ञान भी मुझको दृढ़ हो गया है परन्तु संसारभ्रम नष्ट नहीं होता |

ravi sharma
01-12-2012, 08:59 AM
यह मैं जानता और सुनता हूँ कि सन्तों के संग और सत्शास्त्रो के विचार बिना शान्ति नहीं होती पर यह संशय मुझको होता है कि तुम जाग्रत् को स्वप्नवत् कैसे कहते हो? कई पदार्थ सत्य भासते हैं और कई असत्य भासते हैं | मुनीश्वर बोले, हे बधिक! यह सर्वजगत् पृथ्वी आदिक पदार्थ सत्य भासते हैं और शशे के सींग आदिक असत्य भासते हैं सो सब मिथ्या हैं जैसे स्वप्ने में सत्य-असत्य पदार्थ भासते हैं सो सर्व असत्य हैं, तैसे ही यह जगत् असत्य है पर उसमें अल्प और चिरकाल की प्रतीति का भेद है | जाग्रत चिरकाल की प्रतीति है उसमें पदार्थ सत्य भासते हैं और स्वप्ना अल्पकाल की प्रतीति है इससे स्वप्ने के पदार्थ असत्य भासते हैं परन्तु दोनों भ्रमरूप और असत्य हैं इस कारण मैं तुल्य- कहता हूँ | असत्य ही पदार्थ भ्रम से सत्य की नाईं भासते हैं और यह सर्व जगत् स्वप्नमात्र है उसमें सत्य और असत्य क्या कहूँ | जैसे स्वप्न में कई पदार्थ सत्य और कई असत्य भासते हैं पर सब ही असत्य हैं, तैसे ही जाग्रत् में कई पदार्थ सत्य भासते और कई असत्य भासते हैं परन्तु दोनों भ्रममात्र हैं इसी से असत्य हैं | हे वधिक! प्रतीति का भेद है, पदार्थोंमें भेद कुछ नहीं |

ravi sharma
01-12-2012, 08:59 AM
जिसमें प्रतीति दृढ़ हो रही है उसको सत्य कहते हैं और जिसमें प्रतीति दृढ़ नहीं उसको असत्य कहते हैं | एक ऐसे पदार्थ हैं कि स्वप्ने में उनकी भावना दृड़ हो गई है सो जाग्रत् में भी प्रत्यक्ष भासते हैं और मनोराज की दृढ़ता जाग्रत््रूप हो जाती है सो भावना ही की दृढ़ता है और भेद नहीं | जिसमें भावना दृढ़ हो गई है वह सत्य भासने लगा है जो ज्ञानवान् पुरुष हैं उनको जगत् संकल्पमात्र ही भासता है संकल्प से भिन्न जगत् का कुछ रूप नहीं तो उनमें मैं सत्य और असत्य क्या कहूँ? सब जगत् भ्रममात्र है, जो ज्ञानवान् हैं उनको सत्य-असत्य कुछ नहीं सब ज्ञानरूप ही भासता है | जैसे जिसको स्वप्ने में जाग्रत् की स्मृति आई है उसको फिर स्वप्ना नहीं भासता है, तैसे ही जिसको स्वप्न में भी स्वरूपका बोध हुआ है वह फिर जन्म को नहीं प्राप्त होता | इससे न कोई जाग्रत् है, न कोई स्वप्ना है और न कोई नेति है, क्योंकि नेति भी कुछ और वस्तु नहीं | जैसे स्वप्ने में नाना प्रकार के पदार्थ भासते हैं और उनकी मर्यादा नेति भी भासती है तो वह नेति किससे है? सब ज्ञानरूप होती है, तैसे ही जाग्रत् में भी सब ज्ञानरूप है और संवित् के फुरने से नाना प्रकार के पदार्थ भासते हैं और उसमें नेति भी भासती है, इससे न कोई जगत् और न कोई नेति है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:00 AM
इसका कारण कोई नहीं, कारण बिना ही जगत् अकस्मात् फुर आता है और मिट भी जाता है | संवेदन के फुरने से जगत् फुर आता है और संवेदन के मिटे से मिट जाता है-इससे जगत् संवेदनरूप है | जैसे वायु स्पन्दरूप होती है, तैसे ही संवेदन ही जगत््रूप हो भासता है | जैसे वायु स्पन्दरूप होती है तब फुरनरूप हो भासती है और निस्स्पन्द को कोई नहीं जानता परन्तु वायु को दोनों तुल्य हैं, तैसे ही चित्तसंवेदन के फुरने में जगत् भासता है और ठहरने में जगत् किञ्चन मिट जाता है-फुरना और ठहरना दोनों उसके किञ्चन हैं और आप दोनों में तुल्य है | हे वधिक! नेति भी अज्ञानी के समझाने के निमित्त कही है | स्वप्ना भी असत्य है सब कोई जानता है पर स्वप्ने का वृत्तान्त जाग्रत् में सिद्ध होता दृष्टि आता है, कोई कहता है कि रात्रि में मुझको स्वप्ना आया है कि अमुक कार्य इसी प्रकार होगा और जाग्रत् में वैसा ही होता दृष्टि आता है, पिता पुत्र से कहजाता है कि मेरी गति करना और अमुक स्थान में द्रव्य गड़ा है तुम निकाल लो सो उसी प्रकार होता दृष्टि आया है | जो नेति होती तो कोई कार्य सिद्ध न होता पर सो तो होता है इससे नेति भी कुछ वस्तु नहीं | आत्मा से भिन्न कुछ वस्तु नहीं |

ravi sharma
01-12-2012, 09:00 AM
जाग्रत् उसका नाम है जिसको आत्मशब्द कहते हैं और जिसको तुम जाग्रत् कहते हो सो कुछ वस्तु नहीं | और जिसको तुम जाग्रत् कहते हो सो कुछ वस्तु नहीं | जाग्रत् मन सहित षटइन्द्रियों की संवेदन होती है सो स्वप्न में भी मानसहित षटइन्द्रियों की संवेदन होती हैं और उनमें ग्रहण होता है इससे जाग्रत कुछ वस्तु नहीं | जो जाग्रत् में अर्थ सिद्ध होता है और स्वप्ने में भी होवे तो जाग्रत् कुछ वस्तु न हुई और जो तू कहे कि स्वप्ना कुछ वस्तु है तो स्वप्ना भी कुछ वस्तु नहीं, क्योंकि स्वप्ना तहाँ होता है जहाँ निद्राभ्रम होता है | केवल शुद्ध चिन्मात्र सत्ता का जगत् किञ्चन है जैसे रत्नों का चमत्कार स्थित होता है सो रत्नों से भिन्न कुछ वस्तु नहीं रत्न ही व्यापा है, तैसे ही जाग्रत् स्वप्न जगत् आत्मा का चमत्कार है | बोध सत्ता केवल अपने आपमें स्थित है सो अनन्त है उसमें जगत् कुछ बना नहीं |

ravi sharma
01-12-2012, 09:00 AM
जो आत्मा से भिन्न जगत् भासता है सो नाशरूप है और आत्मा सदा अविनाशी है | हे वधिक! जब यह पुरुष शरीर को छोड़ता है तब परलोक में सुख-दुःख ऐसे भोगता है जैसे कि जल में तरंग उठकर मिट जाता है और दूसरी ठौर और प्रकार से उठता है सो जल ही जल है, आगे भी जल था, पीछे भी जल है, तरंग भी जल है और जल ही का विलास इस प्रकार फुरता है, तैसे ही यह शरीर भी अनुभवरूप है-अनुभव से भिन्न कुछ नहीं | जैसे मनुष्य एक स्वप्न को छोड़कर दूसरा स्वप्ना देखता है तो क्या है, अपना ही आप है, तैसे ही यह जगत् भी आत्मरूप है | हे वधिक! जाग्रत् स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीया ये ही चारों वपु हैं | जाग्रत् जो सृष्टि की समष्टिता है उसका नाम विराट् है, स्वप्न जो लिंग शरीर की समष्टिता है उसका नाम हिरण्यगर्भ है, सुषुप्ति शरीर की समष्टिता अव्याकृत माया है और तुरीया सर्वशरीरों की समष्टिता है सो चैतन्यरूप आत्मा है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:00 AM
तुरीया साक्षीभूत के जानने को कहते हैं, उसकी समष्टितारूप चैतन्यवपु है, चारों शरीर उसके हैं और वह सदा निराकार अचेत चिन्मात्र है | हे वधिक! ये चारों परमात्मा के शरीर हैं वह परमात्मा निराकार है और आकार जो उसमें दृष्टि आता है सो भी वही रूप है | आकार कल्पनामात्र है और आत्मा सर्वकल्पना से रहित है-इससे सब जगत् चिदाकाश रूप है | जैसे पत्थर की शिला में कमल के फूल नहीं लगते-उनका होना असंभव है, तैसे ही आत्मा में जगत् का होना असंभव है | हे वधिक! आत्मसत्ता अपने आपमें स्थित है, तू जागकर देख कि सर्वपदार्थ संकल्पमात्र हैं और जिसमें कल्पित हैं वह नामरूप से रहित है | जब तू उसको देखेगा तब सब जगत् आत्मरूप भासेगा |

ravi sharma
01-12-2012, 09:01 AM
बधिक बोला, हे मुनीश्वर! उस पुरुष के हृदय में जो तुमने सृष्टि देखी थी उसमें तुम किस प्रकार विचरते थे और क्या देखा था सो कहो? मुनीश्वर बोले, हे वधिक! जो कुछ वृत्तान्त है सो तू सुन | जब मैंने उसके हृदय में नाना प्रकार का जगत् देखा तब मैं अपने कुटुम्ब में रहने लगा और पूर्व की स्मृति विस्मरणकर षोडशवर्ष पर्यन्त उसी को सत्य जानकर चेष्टा करता रहा | तब मेरे गृह में मान करने योग्य उग्रतपा नाम एक ऋषीश्वर आया और उसका मैंने बहुत आदर किया | उसके चरण धोकर मैंने सिंहासन पर बैठाया और नाना प्रकार के भोजनों से उसको तृप्त किया | जब उस ऋषि ने भोजन करके विश्राम किया तब मैंने कहा, हे ऋषिश्वर! यह मैं जानता हूँ | तुम परम बोधवान् हो, क्योंकि आपको आपही जानते हो | जब तुम आये थे तब थके हुए थे परन्तु तुम में क्रोध न दृष्टि आया और जब तुमने नाना प्रकार के भोजन किये तब तुम हर्षवान् भी न हुए, इस कारण मैंने जाना कि तुम परम बोधवान हो और तुम्हारे में रागद्वेष कुछ नहीं है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:01 AM
इससे मैं संशययुक्त होकर एक प्रश्न करता हूँ कृपा करके उसका उत्तर देकर मेरे संशय को दूर कीजिये | हे भगवन्! इस जगत् में जो दुर्भिक्ष पड़ता है और सब इकट्ठे मर जाते हैं और कष्ट पाते हैं इसका क्या कारण है? यह तो मैं जानता हूँ कि जैसे शुभ अथवा अशुभ कर्म जीव करता है उसका फल पाता है | जैसे धान को बोता है तो समय पाकर फल भी अवश्य आता है, तैसे ही कर्म का फल भी अवश्य प्राप्त होता है और जिसने किया है वही भोगता है पर दुर्भिक्ष में इकट्ठा कष्ट क्योंकर प्राप्त होता है? उग्रतपा बोले, हे साधो | प्रथम यह सुनो कि जगत् क्या वस्तु है | यह जगत् कारणबिना उत्पन्न हुआ है और जो कारण बिना दृश्टि आवे उसे भ्रममात्र जानिये इससे तू विचारकर देख कि `यह जगत् क्या है' `तू कौन है', `इसमें क्या है' और इसका अन्त कहाँ तक है? हे वधिक! यह जगत् स्वप्नमात्र है और यह शरीर भी स्वप्नमात्र है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:01 AM
तू मेरा स्वप्ननर है मैं तेरा स्वप्ननर हूँ और सब जगत् स्वप्नरूप है | कारण कार्य कोई नहीं,सब आभासमात्र है, आभास में कुछ और वस्तु नहीं होती इससे सब जगत् आत्मस्वरूप है | जैसे रस्सी में सर्प भ्रममात्र होता है, सर्प नहीं रस्सी ही है, तैसे ही सब जगत् चिन्मात्ररूप है | उसमें जगत् कुछ बना नहीं केवल आत्मसत्ता अपने आपमें स्थित है और उसमें अहं होकर इस प्रकार चैतन्यता संवेदन फुरती है तब जगत् आकार का स्मरण होता है और जैसे जैसे संकल्प फुरता है तैसा ही तैसा जगत् भासता है | जैसे स्वप्ने की सृष्टि और संकल्पनगर नाना प्रकार के भासते हैं पर अनुभव से भिन्न नहीं, तैसे ही यह जगत् भासता है | जिस संवित् में अपना स्वरूप विस्मरण होता है उसको जगत् कारण कार्यरूप भासता है-वही जीव है और जिस संवित् को कर्म की कल्पना स्पर्श करती है उसको उन कर्मों का फल लगता है ज्ञानवान् कर्तव्य करता भी दृष्टि आता है परन्तु उसके हृदयमें कर्तव्य का अभिमान नहीं स्पर्श करता |

ravi sharma
01-12-2012, 09:02 AM
जिसके हृदय में कर्तव्य का अभिमान होता है उसको फल भी होता है | हे साधो! यह जो सृष्टि है उसका एक विराट् पुरुष है उसी का यह शरीर है और यह विराट् भी और विराट् के संकल्प में है | यह विराट् उस विराट् का रोमाञ्च है | जब विराट्पुरुष के अंग में क्षोभ होता है | और जीव की पापवासना उदय होती है तब वासना और अंग का क्षोभ इकट्ठा होकर उस स्थान में उपद्रव और कष्ट होता है | जैसे वन में बहुत वृक्ष होते हैं और उन पर वज्र आन पड़ता है तो उससे सब चूर्ण हो जाते हैं तैसे ही इकट्ठे ही मर जाते हैं और इकट्ठे दुर्भिक्ष से कष्ट पाते हैं | जैसे किसी पुरुष के अंग पर मक्खी काटे तो उससे वह अंग काँपता है और उस अंग के काँपने से रोम भी काँपने लग जाते हैं और जो सर्पादिक जीव कहीं डसता है तो सारा शरीर कष्ट पाता है और सब रोम कष्ट पाते हैं, तैसे ही यह जगत् विराट पुरुष का शरीर है जब किसी नगर में पाप उदय होता हे तब एक रोमरूपी नगर जीव कष्ट पाते हैं और जो सारे अंगरूपी देश में पाप उदय होता है तब सर्प के काटने के समान विराट् का सारा शरीर क्षोभवान् होता है- और उसके शरीर पर रोमरूपी सब जीव कष्ट पाते हैं

ravi sharma
01-12-2012, 09:02 AM
आत्मसत्ता केवल अनुभवरूप है उसके प्रमाद से यह आपदा दृष्टि आती है | यह जगत् कारण से उपजा होता तो सत्य होता सो तो कारण से उपजा नहीं सत्य कैसे हो? इस जगत् में सत्य प्रतीति करनी ही अज्ञानता है | हे साधो! इस आकाश का कारण कोई नहीं, पृथ्वी का कारण कोई नहीं और अविद्या का कारण भी कोई नहीं | स्वयंभू अकारण है | स्वयंभू उसका नाम है कि जो अपने आपसे प्रकट है तो उसका कारण कौन हो? अग्नि, जल, वायु का कारण भी कहीं नहीं | जो तुम कहो कि सबका कारण आत्मा है तो आत्मा को निमित्तकारण कहोगे अथवा समवायकारण कहोगे? यदि प्रथम पक्ष निमित्तकारण कहिये तो नहीं बनता क्योंकि आत्मा अद्वैत है और दूसरी वस्तु कोई नहीं तो निमित्तकारण कैसे हो? यदि समवायकारण कहिये तो भी नहीं बनता, क्योंकि समवायकारण आप परिणाम करके कार्य होता है पर आत्मा अच्युत है और अपने स्वरूप को नहीं त्यागता सो समवायकारण कैसे हो? इससे यदि आत्मा में कारण-कार्यभाव नहीं तो फिर जगत् किसका कार्य हो? हे अंग! जो कारण से रहित दृष्टि आवे उसको जानिये कि भ्रम मात्र भासता है और जो तू कहे कि कारण बिना पिण्डाकार नहीं होते कहीं कारण भी होगा, तो हे अंग! जैसे मनुष्य देह को त्यागता है और परलोक जा देखता है तो कर्म के अनुसार सुख दुःख भोगता है पर उस शरीर का कारण किसे कहिये?

ravi sharma
01-12-2012, 09:02 AM
वह तो कारण से नहीं उपजा भ्रममात्र है, तैसे यह भी भ्रममात्र जानो | जैसे स्वप्ने में नाना प्रकार के आकार भासि आते हैं सो किसी कारण से नहीं उपजते और आकाश में तरुवरे और रंग भासते हैं सो भ्रममात्र हैं, तैसे ही यह जगत् भी भ्रममात्र है | जैसे बालक को अनहोता वैताल भासता है और उससे वह भयवान् होता है तैसे ही यह जगत् भी अनहोता स्वरूप के प्रमाद से भासता है, वास्तव में परमात्मसत्ता ज्यों की त्यों है वही संवेदन से जगत््रूप हो भासती है-उसमें वही रूप है | जैसे वायु चलने और ठहरने में एक ही रूप है परन्तु चलने से भासती है और ठहरने से नहीं भासती, तैसे ही चित्त संवित् फुरने से जगत् आकार हो भासता है- और उसमें नाना प्रकार के शब्द अर्थ दृष्टि आते हैं जब फुरने से रहित होती है तब अपने स्वभाव को देखती है जब संकल्प की दृढ़ता होती है तब कारण कार्य भासने लगते हैं जिसको कारणकार्य भासता है उसको जगत् सत्य भासता है और जिसको कारणकार्य से रहित भासता है उसको जगत् आत्मरूप है | जिसको कारणकार्य बुद्धि है उसको वही सत्य है | वह पुरुष करेगा तो स्वर्ग में सुख पावेगा और पाप करेगा तो नरक में दुःख भोगेगा-इससे उस को पुण्य ही करना भला है | जब जीव के पाप इकट्ठे होते हैं तब दुर्भिक्ष पड़ता और मृत्यु आती है | जैसे पत्थर की वर्षा हो तैसे ही वे कष्ट पाते हैं और जो मेरा निश्चय पूछो तो न पाप है, न पुण्य है, न दुःख है, न सुख और न जगत् है | जब स्वरूप के प्रमाद से अहन्ता उदय होती है तब नाना प्रकार के विकार भासते हैं और जब प्रमाद निवृत्त होता है तब सब आत्मरूप भासता है-इससे तुम सर्व कल्पना को त्यागकर अपने स्वरूप में स्थित हो रहो तब सर्व संशय मिट जावेंगे |

ravi sharma
01-12-2012, 09:02 AM
मुनीश्वर बोले, हे बधिक! इस प्रकार उग्रतपा ऋषीश्वर ने उपदेश किया उससे मैं अपने स्वभाव में स्थित हुआ और अकृत्रिमपद को प्राप्त हुआ | उग्रतपा के साथ मानो विष्णु भगवान् उपदेश करने आन बैठे थे, उन्हीं के उपदेश से मैं जागा | जैसे कोई रज से वेष्टित स्नान से उज्ज्वल हो तैसे ही मैं हुआ | अपनी पूर्वस्मृति और अवस्था को स्मरणकर और समाधिवाले शरीर और आत्मवपु को भी जान, यह उग्रतपा तेरे पास बैठा है | अग्नि बोले, हे राजन्! जब इस प्रकार मुनीश्वर ने कहा तब वधिक विस्मय को प्राप्त हुआ और बोला, हे मुनीश्वर! बड़ा आश्चर्य है जो तुम कहते हो कि स्वप्न में मुझको उग्रतपा ने उपदेश किया था और फिर जाग्रत् में कहते हो कि यह बैठा है | यह वार्त्ता तुम्हारी कैसे मानिये? जैसे बालक अपनी परछाहीं में वैताल कल्पे और कहे यह प्रत्यक्ष बैठा है तो जैसे वह स्पष्ट नहीं भासता, तैसे ही यह तुम्हारा वचन स्पष्ट नहीं भासता | यह अपूर्व वार्ता सुनकर मुझको संशय उपजा है सो तुम दूर करो | मुनीश्वर बोले, हे वधिक! यह बात आश्चर्य के उपजानेवाली है परन्तु जैसे यह वृत्तान्त हुआ है सो संक्षेप से तुम से कहता हूँ सुनो |

ravi sharma
01-12-2012, 09:03 AM
जब ऊग्रतपा ने मुझको उपदेश किया तब मैंने कहा, हे भगवन्! तुम यहाँ विश्राम करो और जिस प्रकार मैं रहता हूँ तैसे ही तुम भी रहो | तब मैं वहाँ रहने लगा और उसका उपदेश पाकर विचारा कि यह जगत् मिथ्या है, मेरा शरीर भी मिथ्या है और इसके सुख के निमित्त मैं क्यों यत्न करता हूँ? इन्द्रियाँ तो ऐसी हैं जैसे सर्प होते हैं, इनके सेवनेवाला संसाररूप बन्धन से कदाचित् मुक्त नहीं होता | मेरे जीने को धिक्कार है | जो इनके सुख की वाञ्छा करते हैं वे मूर्ख हैं और मृग की नाईं मरुस्थल के जलपान करने के निमित्त दौड़ते हैं और थक पड़ते हैं पर तृप्त कदाचित् न होंगे | मैं अविद्या से सुख के निमित्त यत्न करता था पर इनसे तृप्ति कदाचित् नहीं होती | हे वधिक! ममता के रूप जो बान्धव हैं सो ही चरणों में जंजीर है और अन्धकूप में गिरने का कारण हैं इनसे बँधा हुआ मैं इन्द्रियों के विषयरूपी कूप में गिरा था | अब मैंने विचार किया है कि बन्धन का कारण कुटुम्ब है उसको मैं त्याग दूँ |

ravi sharma
01-12-2012, 09:03 AM
फिर विचार किया कि इनके त्याग में भी सुख नहीं प्राप्त होता जबतक अविद्या को नष्ट न करूँ | हे वधिक! ऐसे विचारकर मैं गुरु के पास गया और मन में विचार किया कि जगत् भ्रममात्र है और गुरु भी स्वप्नमात्र है इनसे क्या प्राप्त होगा? फिर विचार किया कि नहीं ये ज्ञानवान् पुरुष हैं और इनको `अहंब्रह्म' का निश्चय है इससे ये ब्रह्मस्वरूप हैं और कल्याणमूर्ति हैं इनसे जाके प्रश्न करूँ | तब मैंने जाकर उनको प्रणाम किया और कहा, हे भगवन्! उस अपने शरीर को देख आऊँ और इसके शरीर को भी देखूँ कि कहाँ है | इस जगत् का विराट्पुरुष है | हे वधिक! जब इस प्रकार मैंने कहा तब ऋषि ने हँसकर मुझसे कहा, हे ब्राह्मण! वह तेरा शरीर कहाँ है? वह शरीर तो दूर गया है अब उसे कहाँ देखेगा? तू आप ही जानेगा | तब मैंने हाथ जोड़कर ऋषि से कहा, हे ऋषे! अब मैं जाता हूँ, मेरे आने तक तुम यहाँ बैठे रहना

ravi sharma
01-12-2012, 09:03 AM
हे वधिक! ऐसे कहकर मैं आधिभौतिक देह के अभिमान को त्यागकर अन्तवाहक शरीर से उड़ा और आकाशमार्ग में उड़ता-उड़ता थक गया परन्तु शरीर कहीं न पाया | तब मैं फिर ऋषि के पास आया और कहा हे पूर्व अपर के वेत्ता और भूत भविष्यत् के जाननेवाले! वे दोनों शरीर कहाँ गये? न इस सृष्टि के विराट् का शरीर भासता है जिसके मार्ग से हम आये थे और न अपना शरीर भासता है? हे संशयरूपी अन्धकार के नाशकर्ता सूर्य! आप इसका कारण बताइये | उग्रतपा बोले, हे कमलनयन और तपरूपी कमल की खानि के सूर्य और ज्ञानरूपी कमल के धारण करनेहारे विष्णु की नाभि और आनन्दरूपी कमल की खानि तू सब कुछ जानता है और आत्मपद में जागा है | तू तो योगीश्वर है, ध्यान करके देख कि सब वृत्तान्त तुझको दृष्टि आये आवे | हे मुनीश्वर! यह जगत् असत्यरूप है इसमें स्थिर कोई वस्तु नहीं | विचारकर देखो कि शरीर की अवस्था तुमको दृष्टि आवे और जो मुझको पूछते हो तो मैं कहता हूँ |

ravi sharma
01-12-2012, 09:03 AM
हे मुनीश्वर! जिस वन में तुम रहते थे और जहाँ तुम्हारे शरीर थे उस वन में एक काल में अग्नि लगी और सब प्रकार के वृक्ष और बेलि जल गईं जल भी अग्नि से क्षोभने लगा और वनचारी पशु-पक्षी सब जल गये और महाकष्ट को प्राप्त हुए उसी के साथ तुम्हारा शरीर भी जल गया और कुटी भी जल गई | मुनीश्वर बोले, हे भगवन्! उस अग्नि से जो सम्पूर्ण वन जल गया तो उसका कारण कौन था? उग्रतपा बोले, हे मुनीश्वर! यह जगत् जिसमें हम और तुम बैठे हैं इसी का विराट् है और जिसके शरीर में तुमने प्रवेश किया था और जिसमें उसका और तेरा समाधिवाला शरीर है उसका विराट् और है-वह सृष्टि उस विराट् का शरीर है | हे मुनीश्वर! उस विराट् के शरीर में जो क्षोभ हुआ इस कारण अग्नि उत्पन्न हुई और शरीर, वृक्ष इत्यादिक सब जल गये | इस सृष्टि के विराट् का नाम ब्रह्मा है, उस ब्रह्मा का विराट् और है और उसका विराट् आत्मा है जो सदा अपने आपमें स्थित है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:03 AM
और उसमें कुछ और नहीं बना | जिस पुरुष को उसका प्रमाद है उसको उपद्रव और कारण कार्यरूप पदार्थ भासते हैं उससे वह कर्मों के अनुसार दुःख सुख भोगता है और जिसको स्वरूप का साक्षात््कार है उसको जगत् आत्मा भासता है अर्थात् सर्वओर से ब्रह्म भासता है | हे मुनीश्वर! जब इस प्रकार वन के पशुपक्षी सब जले तब तुम्हारी कुटी में भी आग लगी इससे वह कुटी और तुम्हारा शरीर अग्नि से जल गया और जिसके शरीर में तुमने प्रवेश किया था वह भी जलगया | तुम्हारे शिष्य और उसका ओज भी जल गया | और तुम दोनों की संवित् आकाशरूप हो गई | वह अग्नि भी वन को जलाकर अन्तर्धान हो गई |जैसे अगस्त्य मुनि समुद्र काआचमन करके अन्तर्धान हो गये थे,तैसे ही वह अग्नि भी वन को जलाकर अन्तर्धान हो गई और अब तुम्हारे शरीर की राख भी नहीं रही |

ravi sharma
01-12-2012, 09:04 AM
जैसे स्वप्नसृष्टि जाग्रत् में नहीं दिखाई देती तैसे ही तुम्हारे शरीर अदृष्ट हो गये | हे मुनीश्वर! यह सर्वजगत् स्वप्नमात्र है | मैं तेरे स्वप्न में हूँ और सब जगत् का अधिष्ठान ब्रह्मसत्ता है सो सबका अपना आप है, जगत् उसी का आभास है | जैसे संकल्पसृष्टि, स्वप्ननगर और गन्धर्वनगर होता है, तैसे ही यह जगत् भी है | हे मुनीश्वर! यह जगत् तेरे स्वप्ने में स्थित है और तुमको चिरकाल की प्रतीति से जाग्रत् रूप कारण कार्य नाना प्रकार का सत्य होकर भासता है | मुनीश्वर बोले, हे भगवन्! जो यह स्वप्ननगर सत्य हो गया है तो सबही स्वप्ननगर सत्य होंगे? उग्रतपा बोले, हे मुनीश्वर! प्रथम तू सत्य को जान कि सत्य क्या वस्तु है, पर जगत् जो तुझको भासता है सो सबही स्वप्ननगर है इसमें कोई पदार्थ सत्य नहीं |

ravi sharma
01-12-2012, 09:04 AM
इस जगत् को तू समाधि वाले शरीर की अपेक्षा से असत्य कहता है और जिसको तू जाग्रत् वपु कहता है सो किसकी अपेक्षा से कहेगा? यह तो अदृष्टिरूप है इससे इसको स्वप्ना जाना | जिस सत्ता में यह समाधिवाला शरीर भी स्वप्ना है उस सत्ता को जान तब तुझको सत्यपद की प्राप्ति होगी | जैसे यह जगत् आत्मसत्ता में आभास फुरा है, तैसे ही वह भी है | तू जागकर देख तो इसमें और उसमें कुछ भेद नहीं और सर्व जगत् जो भासता है सो सब आत्मरूप रत्न का चमत्कार है | जैसे सूर्य की किरणों में अनहोता ही जल भासता है, तैसे ही सब जगत् आत्मा में अनहोता भासता है और आत्मा के प्रमाद से सत्य भासता है | तू अपने स्वभाव में स्थित होकर देख | मुनीश्वर बोले, हे वधिक! उग्रतपा ऋषीश्वर रात्रि के समय इस प्रकार कहते हुए शय्या पर सो गया और जब कुछ काल में जागा तब मैंने कहा कि हे भगवन्! और वृत्तान्त मैं फिर पूछूँगा परन्तु यह संशय प्रथम दूर करो कि व्याध का गुरु तुमने मुझको किस निमित्त कहा, मैं तो व्याध को जानता भी नहीं? उग्र तपा बोले, हे दीर्घतपस्विन्! ध्यान करके देख, तू तो सब कुछ जानता है जिस प्रकार वृत्तान्त है उसको जानेगा |

ravi sharma
01-12-2012, 09:04 AM
जो मुझ से पूछता है तो मैं भी कहता हूँ और यह वृत्तान्त तो बड़ा है पर मैं तुझको संक्षेप से कहता हूँ, हे मुनीश्वर! तुम्हारे देश में राजा के बान्धव और सब लोग अपना धर्म छोड़ देंगे तब दुर्भिक्ष पड़ेगा और वर्षा न होगी इससे लोग दुःख पावेंगे और मर-मर जावेंगे | तेरे कुटुम्बी भी मरेंगे और कुटी भी नष्ट हो जावेगी और वृक्ष, फल, फूल से रहित होवेंगे | केवल तू और मैं दोनों वन में रह जावेंगे क्योंकि हमको सुख-दुःख की वासना नहीं हम विदितवेद हैं- विदितवेद को दुःख कैसे हो? हे मुनीश्वर! कुछ काल तो इस प्रकार चेष्टा होगी, फिर कुटी के चौफैर फूल, फल तमाल वृक्ष, कल्पतरु, कमलताल आदि नाना प्रकार की सामग्री होगी, बड़ी सुगन्ध फैलेगी, मोर और कोकिला विराजेंगे और भँवरे कमल पर गुञ्जार करेंगे निदान ऐसा विलास प्रकट होगा मानो इन्द्र का नन्दनवन आन लगा है और ऐसी दशा फिर होगी |

ravi sharma
01-12-2012, 09:05 AM
मुनीश्वर बोले, हे वधिक! उग्रतपा ऋषीश्वर ने मुझसे फिर कहा कि हे मुनीश्वर! इस प्रकार वह वन होगा तब तू और मैं एक समय तप करने को उठेंगे और वहाँ एक व्याध मृग के पीछे दौड़ता तेरी कुटी के निकट आवेगा, उसको तू सुन्दर और पवित्र कथा उपदेश करेगा और उसमें स्वप्ने का प्रसंग चलेगा | उस प्रसंग को पाकर स्वप्न और जाग्रत् का वृत्तान्त वह पूछेगा, उससे तू स्वप्ने का प्रसंग कहेगा और उस स्वप्ने के प्रसंग में उसको तू परमार्थ उपदेश करेगा, क्योंकि संत का स्वभाव यही है और मेरे समागम का वृत्तान्त उपदेश करेगा | तेरे वचनों को पाकर वह पुरुष विरक्तचित्त होकर तप करेगा, उससे उसका अन्तःकरण निर्मल होगा और सत्यपद को प्राप्त होगा | हे मुनीश्वर! इस प्रकार होगा सो मैंने तुझे संक्षेप से कहा है, तू भी ध्यान करके देख इस कारण मैंने तुझको व्याध का गुरु कहा है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:05 AM
हे व्याध! इस प्रकार जब उग्रतपा ने मुझसे कहा तब मैं सुनकर विस्मित हुआ कि इसने क्या कहा? बड़ा आश्चर्य है, ईश्वर की नीति जानी नहीं जाती कि क्या होना है हे वधिक! इस प्रकार मेरी और उसकी चर्चा हुई तब रात्रि व्यतीत हो गई और मैंने स्नान करके प्रीति बढ़ाने के निमित्त भली प्रकार उसकी टहल की तब वह वहाँ रहने लगा | फिर मैं विचार करने लगा कि यह जगत् क्या है, इसका कारण कौन है और मैं क्या हूँ | तब मैंने विचार किया कि यह जगत् अकारण है, किसी का बनाया नहीं और स्वप्नमात्र है | आत्मरूपी चन्द्रमा की जगत््रूपी चाँदनी है, उसी का चमत्कार है और वही आत्मसत्ता घट, पट आदिक आकार हो भासती है वास्तव में न कोई कर्म है, न क्रिया है, न कर्त्ता है, न मैं हूँ और न जगत् है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:05 AM
जो तू कहे कि क्यों नहीं सर्व अर्थ और ग्रहण त्याग तो सिद्ध होते हैं तो ग्रहण त्याग पिण्ड से होता है और पिण्ड तत्त्वों से होता है, सो तो यह पिण्ड न किसी तत्त्व से बना है और न किसी माता-पिता से है, यह तो स्वप्ने में फुर आया है तो इसका कारण किसे कहिये? और जो कहिये कि भ्रममात्र है तो भ्रम का कारण कौन है और भ्रान्ति का दृष्टा कौन है? जिस शरीर से दृष्टि आता था उसका दृष्टारूप मैं तो भस्म हो गया इससे जगत् और कुछ वस्तु नहीं, केवल आदि अन्त से रहित आत्मसत्ता अपने आप में स्थित है सो ही मेरा स्वरूप है | वहाँ यह जगत््रूप होकर भासता है, पर केवल ब्रह्मसत्ता स्थित है और पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश आदिक पदार्थ सब आत्मरूप हैं | जैसे समुद्र तरंगरूप हो भासता है परन्तु कुछ और नहीं होता, तैसे ही आत्मा नाना प्रकार हो भासता है पर कुछ और नहीं होता ब्रह्मसत्ता ही निराभास है और आभास भी कुछ हुआ नहीं केवल चैतन्यसत्ता ऐसे रूप होकर भासती | हे वधिक! इस प्रकार विचार करके मैं विगत मैं विगतज्वर हुआ और मुनीश्वर के वचनों से पर्वत की नाईं अपने स्वभाव में अचल स्थित हुआ | जो कुछ इष्ट-अनिष्ट पदार्थ प्राप्त हो उसमें सम रहूँ अभिलाषा से रहित सब अपनी चेष्टा को करूँ अपने स्वभाव में स्थित रहूँ | हे बधिक! सुख भोगने के निमित्त न मुझको जीने की इच्छा है और न मरने की इच्छा है, न जीने में हर्ष है और न मरने में शोक है, मैं सदा आत्मपद में स्थित हूँ कुछ संशय मुझको नहीं | संपूर्ण संशय फुरने में है सो फुरना मेरे में नहीं रहा इसलिये संसार भी नहीं है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:06 AM
मुनीश्वर बोले, हे व्याध! इस प्रकार जब मैंने निर्णय किया तब तीनों ताप मेरे नष्ट हो गये और वीतराग होकर निःशंक हुआ | तब किसी पदार्थ की मुझको तृष्णा न रही और निरहंकार हुआ और अनात्मा में जो आत्माभिमान था सो निवृत्त होकर निर्वाण और निराधार और निराधेय हुआ और अपने स्वभाव आत्मत्व में मैं स्थित होकर सर्वात्मा हुआ | हे वधिक! जो कुछ शरीर का प्रारब्ध है उसमें मैं यथाशास्त्र बिचरूँ परन्तु कर्तृत्व का अभिमान न हो जगत् मुझको आत्मरूप भासे और तृष्णा करनेवाली मिथ्याबुद्धि अभाव हुई किन्तु आभास कुछ वस्तु नहीं-चिदाकाश आत्मसत्ता अपने आपमें स्थित है | हे वधिक! मुनीश्वर का कहा वृत्तान्त सत्य होता गया | तुम मेरे पास आये हो इसलिए जो कुछ उपदेश मैंने किया है वह परम पावन और सबका सार है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:06 AM
जिस प्रकार जगत् के पदार्थ तुम और मैं जो वृत्तान्त है सो मैंने तुझसे कहा | व्याध ने पूछा, हे मुनीश्वर! यदि इस प्रकार हैं तो तुम, मैं और ब्रह्मादिक भी सब स्वप्ने के हुए और असत्य ही सत्य की नाईं भासते हैं? मुनीश्वर बोले, हे व्याध! तुम, मैं और ब्रह्मा से आदि तृणपर्यन्त सब स्वप्ने के पदार्थ है, न यह जगत् सत्य है, न असत्य है और न सत्यासत्य के मध्य है, न अनिर्वचनीय है, क्योंकि अनुभवरूप है | हे व्याध! जो अनुभव से देखिये तो वही रूप है और जो अनुभव से भिन्न कहिये तो है ही नहीं | स्वप्ने की सृष्टि अनुभव में फुरती है, जो अधिष्ठान की ओर देखिये तो वही रूप है और उससे भिन्न कहने में नहीं आता | हे बधिक! जैसे कोई नगर देखा है और वह दूर हे तो यदि स्मृति करके देखिये तो भासता है परन्तु कुछ बना नहीं स्मृतिमात्र है, तैसे ही सब पदार्थ संकल्पमात्र हैं कुछ बने नहीं |

ravi sharma
01-12-2012, 09:11 AM
अपने स्वभाव में स्थित होकर देख, तू तो बोधवान् है मिथ्याभ्रम में क्यों पड़ा है? ब्याध! तू मेरे उपदेश से विश्रामवान् हुआ कि नहीं हुआ? मैं जानता हूँ कि परमपद सत्ता में तुमने क्षण भी विश्राम नहीं पाया, क्योंकि दृढ़ भावना नहीं हुई | हे वधिक! परमपद पाने का मार्ग यही है कि सन्तों की संगति और सत्शास्त्रों का विचार करे किन्तु उसमें दृढ़ अभ्यास करे | इस मार्ग बिना शान्ति नहीं होती | जब दृढ़ अभ्यास हो तब शान्ति हो और चित्त निर्वाण हो तब द्वैत अद्वैत कल्पना मिटे | इसी का नाम निर्वाण कहते हैं, जबतक चित्त निर्वाण नहीं होता तबतक राग-द्वेष नहीं मिटता और जब अभ्यास के बल से चित्त निर्वाण हो जाता है तब अविद्या नर्ट हो जअती है और आत्मपद और शान्त शिवपद प्राप्त होता है जो मान और मोह से रहित है | जिसने कुसंग को त्यागा है और किसी के संग से बन्धायमान नहीं होता, जो अध्यात्मविचार नित्य करता है और जिसकी सर्वकामनायें निवृत्त हुई हैं, जो इष्ट के रागद्वेषरूप द्वन्द्वों से मुक्त है और जो सुख दुःख में सम है ऐसा ज्ञान वान् पुरुष अविनाशी आत्मपद को पाता है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:12 AM
अग्नि बोले, हे राजा विपश्चित्! जब इस प्रकार मुनीश्वर ने कहा तब वधिक बड़े आश्चर्य को प्राप्त हुआ और मुनीश्वर के वचन सुनकर मूर्तिवत् हो गया | जैसे कागज पर मूर्ति लिखी होती है तैसे ही वह आश्चर्यवान हुआ और संशय के समुद्र में डूब गया जैसे चक्र पर चढ़ा बासन भ्रमता है तैसे ही वह संशय में भ्रमने लगा, मुनीश्वर का उपदेश उसने सुना परन्तु अभ्यास बिना आत्मपद में विश्रान्ति न पाई | हे राजन् परम वचनों को उसने अंगीकार न किया | जैसे राख में डाली आहुति निर्थक होती है- तैसे ही मूर्ख को उपदेश करना निरर्थक होता है मूर्खता से ही वह संशय में रहा और विचारने लगा कि यह संसार अविद्यक है तो मैं इनका अन्त लेऊँ जो मुझको आत्मपद भासे इससे तप करूँ |

ravi sharma
01-12-2012, 09:12 AM
हे राजा, विपश्चित्! इस प्रकार विचारकर वह उठा और उनके पास फिरने लगा | पवित्र चेष्टा अंगीकार करके उसने व्याध का धर्म त्याग किया और जिस प्रकार वह चेष्टा करे तैसे ही वह भी अधिक चेष्टा करे | निदान सहस्त्र वर्षपर्यन्त बड़ा तप किया परन्तु मन में कामना यही रखी कि मेरा शरीर बड़ा हो और दिन-दिन बहुत भोजन बढ़े, मैं अविद्यक संसार का अन्त लेऊँ कि कहाँ तक चला जाता है, क्योंकि जब अविद्या का अन्त आवेगा तब आत्मा का दर्शन होगा | सहस्त्र वर्ष के उपरान्त जब समाधि से उतरा तो गुरु के निकट जाकर प्रणाम किया और बोला, हे भगवन्! मैंने इतने काल तप किया है परन्तु शान्ति मुझको न हुई | मुनीश्वर बोले, हे वधिक! तुझको जो मैंने उपदेश किया था उसका तूने भली प्रकार अभ्यास न किया इस कारण तुझको शान्ति न हुई |

ravi sharma
01-12-2012, 09:12 AM
हे वधिक! मैंने तेरे हृदय में ज्ञानरूपी अग्नि की चिनगारी डाली थी परन्तु तूने अभ्यासरूपी पवन से उसे प्रज्ज्वलित न किया इससे वह ढँप गई-जैसे बड़े काष्ठ के नीचे रञ्चक चिनगारी ढँप जाती है | हे वधिक! तू न मूर्ख है और पण्डित है, क्योंकि जो तू पण्डित होता तो आत्मपद में स्थित पाता | जब अविद्या नष्ट होगी और अभ्यास की दृढ़ता होगी तब ज्ञान और शान्ति उदय होगी | जो तेरी भविष्यत् है वह मैं तुझको कहता हूँ | हे व्याध! यही तूने भली प्रकार विचारा है कि संसार अविद्यक है और इसका अन्त लेऊँ कि कहाँ तक चला जाता है | अब तेरे चित्त में यही निश्चय है और आगे तू यही करेगा कि सौ युगपर्यन्त उग्र तप करेगा तब तुझपर परमेष्ठी ब्रह्मा प्रसन्न होंगे और देवताओं सहित तेरे गृह में आकर तुझसे कहेंगे कि कुछ वर माँग | तब तू कहेगा, हे देव! अविद्यक जगत् है, वह अविद्या किसी और अणु में है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:13 AM
जैसे दर्पण में किसी ठौर मलीनता होती है और उसके नाश हुए दर्पण शुद्ध होता है, तैसे ही आत्मा के किसी कोण में अविद्यारूपी मलीनता है, उसके नाश हुए चिदात्मा का साक्षात्कार होगा इसलिये जब अविद्यारूपी जगत् का अन्त देखूँगा तब मुझको आत्मा भासेगा | मेरा शरीर घड़ी घड़ी में योजनपर्यन्त बढ़ता जावे | जैसे गरुड़ का वेग होता है तैसे ही मेरा शरीर बढ़ता जावे और मृत्यु भी मेरे वश हो, शरीर भी आरोग्य रहे और ब्रह्माण्ड खप्पर को भी मैं लाँघ जाऊँ | जहाँ मेरी इच्छा हो वहाँ चला जाऊँ और मुझको कोई न रोके, जब मैं संसार का अन्त देखूँगा तब आत्मा को प्राप्त होऊँगा | हे देव! इतने वर दो कि मेरा मनोरथ पूर्ण हो, और कुछ नहीं चाहिये | हे वधिक! जब इस प्रकार तू वर माँगेगा तब ब्रह्माजी कहेंगे कि ऐसे ही हो |

ravi sharma
01-12-2012, 09:13 AM
तब तेरा तप से दुर्बल हुआ शरीर फिर चन्द्रमा और सूर्य की नाईं प्रकाशवान् होगा और घड़ी-घड़ी में योजनपर्यन्त बढ़ता जावेगा | और जैसे गरुड़ का तीक्ष्ण वेग से चलना है, तैसे ही तेरा शरीर वेग से बढ़ता जायेगा | जैसे प्रातःकाल का सूर्य उदय होता है और प्रकाश बढ़ता जाता है, तैसे ही तेरा शरीर बढ़ता जावेगा और चन्द्रमा, सूर्य और अग्नि की नाईं प्रकाशवान् होगा | ब्रह्माजी वर देकर अन्तर्धान हो जावेंगे और अपनी ब्रह्मपुरी में प्राप्त होंगे और तेरा शरीर प्रलयकाल के समुद्र की नाईं बढ़ता जावेगा | जैसे वायु से सूखे तृण उड़ते हैं, तैसे ही तुझको ब्रह्माण्ड उड़ते भासेंगे तब तेरा शरीर बढ़ता-बढ़ता ब्रह्माण्ड खप्पर को भी लाँघ जावेगा और उसके परे आकाश भासेगा फिर ब्रह्माण्ड भासेगा और आगे फिर ब्रह्माण्ड भासेगा, इसी प्रकार तू कई ब्रह्माण्ड लाँघता जावेगा परन्तु तुझको खेद कुछ न होगा | निदान महाआकाश को भी तू ढाँप लेगा और जहाँ किसी तत्त्व का आवरण आवेगा उसको तू वर प्राप्त देह से सूक्ष्मतासहित लाँघता जावेगा |

ravi sharma
01-12-2012, 09:14 AM
हे वधिक! इसी प्रकार तू कई सृष्टि लाँघ जावेगा, जो इन्द्रजाल हैं | जो दीर्घदर्शी हैं वे इनको असत्य जानते हैं और जो प्राकृतजन हैं उनको जगत् सत्य भासता है | ज्ञानवान् को मिथ्या भासता है, उस मिथ्या जगत् को तू लाँघता जावेगा और तहाँ जा स्थित होगा जहाँ अनन्तसृष्टि फुरती भासेंगी | जैसे समुद्र में अनेक तरंग उठते हैं, तैसे ही तुमको सृष्टि फुरती भासेंगी परन्तु जिसमें सृष्टि फुरती है उस अधिष्ठान का तुझको ज्ञान न होगा | वहाँ तू देखेगा कि मैं बड़ा उत्कृष्ट हुआ हूँ और जब तुझको ऐसा अभिमान उदय होगा तब साथ ही तप का फल वैराग्य भी उदय होगा और उसके साथ यह संस्कार तेरे हृदय में फुरेगा कि इससे तू उस शरीर का निरादर करेगा और कहेगा कि हा कष्ट हा कष्ट! हे देव! क्या शरीर तूने मुझको दिया है जगत् के अन्त लेने को जो मैंने शरीर बढ़ाया था सो तो अन्त कहीं न आया, क्योंकि अविद्या नष्ट न हुई |

ravi sharma
01-12-2012, 09:14 AM
अविद्या तब नष्ट होती है जब ज्ञान होता है और आत्मज्ञान तब होता है जब सत्शास्त्रों का विचार और सन्तों का संग होता है जब संग और सत्शास्त्र मुझको प्राप्त होवें तब ज्ञान उपजेगा | यह तो मुझको ऐसा शरीर प्राप्त हुआ है कि बढ़ा भार उठाये फिरता हूँ और अनेक सुमेरु पर्वत भी इसके पास तृणवत् हैं | ऐसा उत्कृष्ट मेरा शरीर है, इस शरीर से मैं किसकी संगति करूँ और किस प्रकार शास्त्र का श्रवण करूँ? यह शरीर मुझको दुःख दायी हैं इससे इस शरीर का त्याग करूँ | हे वधिक! ऐसे विचारकर तू प्राणायाम करेगा और उसकी धारणा से शरीर त्याग देगा |

ravi sharma
01-12-2012, 09:14 AM
जैसे पक्षीफल को खाकर गुठली को त्याग देता है और जैसे इन्द्र के वज्र से खण्डित हुए पर्वत गिरते हैं तैसे ही एकसृष्टि भ्रम में तेरा शरीर गिरेगा और उसके नीचे कई पर्वत, नदियाँ और जीव चूर्ण होंगे और वहाँ बड़ा खेद होगा, तब सब देवता चण्डिका का आराधन करेंगे और वह चण्डिका भगवती तेरे शरीर को भोजन कर जावेगी तब सृष्टि में फिर कल्याण होवेगा | इस वन में जो तमाल वृक्ष हैं उनके नीचे तू तप करेगा | यह मैंने तेरी भविष्य कहीं, अब जैसी तेरी इच्छा हो तैसे कर व्याध बोला, हे भगवन्! बड़ा कष्ट है कि मैं इतने खेद को प्राप्त होऊँगा, इससे कोई ऐसा उपाय करो जिससे यह भावना निवृत्त हो जावे | मुनीश्वर बोले, हे वधिक! जो कुछ वस्तु होनी है सो अन्यथा कदाचित् नहीं होती-जो कुछ शरीर की प्रारब्ध है सो अवश्य होती है जैसे चिल्ले से छूटा बाण तबतक चला जाता है जबतक उसमें वेग होता है और जब वेग पूर्ण हो जाता है तबतक पृथ्वी पर गिर पड़ता है अन्यथा नहीं गिरता, तैसे ही जैसा प्रारब्ध का वेग है तैसे ही होगा |

ravi sharma
01-12-2012, 09:14 AM
भावी फिरने की नहीं अतः जीव उसमें बायाँ चरण दाहिने और दाहिना बायें नहीं कर सकता-जो होना है वही होगा | ज्योतिष शास्त्रवाले जो भविष्यत््दशा आगे कहते हैं तैसे ही होता है,क्योंकि होनी होती है-जो न हो तो क्यों कहें इससे भावी मिटती नहीं | हे वधिक! मैंने तुझको दो मार्ग कहे हैं | जबतक कर्म की कल्पना स्पर्श करती है तबतक कर्मके बन्धन से नहीं छूटता और जो कर्म की कल्पना आत्मा को स्पर्श न करे तो कोई कर्म नहीं बन्धन करता, क्योंकि उसको आत्मा का अनुभव होता है और द्वैतरूप कर्म नहीं दिखाई देते सर्व सुख-दुःख आत्मरूप हो जाते हैं | कर्म तबतक बन्धन हैं जबतक आत्मबोध नहीं हुआ, जब आत्म बोध होता है तब सर्व कर्म दग्ध हो जाते हैं |

ravi sharma
01-12-2012, 09:15 AM
व्याध बोला, हे भगवन्! यह जो तुमने मुझको कहा सो मैं सुन के आश्चर्य को प्राप्त हुआ | शरीर गिरने के उपरांत मेरी क्या अवस्था होगी | मुनीश्वर बोले, हे वधिक! जब तेरा शरीर गिरेगा तब तेरी संवित् प्राणवासना सहित आकाशरूप महासूक्ष्म अणुवत् हो जावेगी और उस संवित् में तुझको फिर नाना प्रकार का जगत् भासेगा और पृथ्वी, देश, काल पदार्थ सब भासि आवेंगे | जैसे सूक्ष्म संवित् में स्वप्न का जगत् भासि आता है तैसे ही तुझको जगत् भासि आवेगा | वहाँ तेरी संवित् में यह फुरेगा कि मैं अष्टवसुओं के समान राजा हूँ और मेरे पिता का नाम इन्द्र है और माता का नाम प्रद्युम्न की पुत्री बधलेखा है, मेरे पिता मुझको राज्य देकर वन को गये हैं और तप करने लगे हैं और चारों ओर समुद्रपर्यन्त हमारा राज्य है | हे वधिक! वहाँ तेरा नाम सिद्ध होगा और कई सौ वर्षपर्यन्त तू राज्य करेगा और नाना प्रकार के विषयों को भोगेगा |

ravi sharma
01-12-2012, 09:15 AM
हे वधिक! विदूरथ नाम एक राजा पृथ्वी में होगा जो तेरे साथ शत्रु भाव करेगा और पृथ्वी और सीमा लेने का यत्न करेगा तब तू मन में विचार करेगा कि मैं बड़ा सिद्ध हूँ और कई सौ वर्ष मैंने निर्विघ्न भोग भोगे हैं- परन्तु एक विदूरथ नाम शत्रु को नाश करूँ | हे वधिक! उसके मारने के निमित्त तू सेना लेके चढ़ेगा और वह चारों प्रकार की सेना नाश को प्राप्त होगी अर्थात् हाथी, घोड़े रथ और प्यादा दोनों ओर की सेना नष्ट होगी और तुम रथ से उतर कर परस्पर युद्ध करोगे | तुम्हारे भी बहुत शस्त्र लगेंगे और शरीर काटा जावेगा, तो भी तुम सम्मुख जो युद्ध करोगे और उसकी टाँग काटकर कुल्हाड़े से उसको मार के अपने गृह में आवोगे | सब दिक्पाल तुमसे भय पावेंगे और तुम बड़े तेजवान् होगे | बड़ा आश्चर्य हे कि विदूरथ को जीतकर तुम यमपुरी पठावोगे तब तुम कहोगे कि हे मन्त्रियों! इसमें क्या आश्वचर्य है?

ravi sharma
01-12-2012, 09:15 AM
मेरे भय से तो दिक्पाल भी काँपते है और प्रलयकाल के समुद्र और मेघवत् मेरी सेना है जिसका किसी ओर से आदि और अंत नहीं आता | विदूरथ के जीतने में मुझको क्या आश्चर्य है? तब मंत्री कहेगा, हे राजन्! इतनी सेना तेरे साथ है तो क्या हुआ उस विदूरथ की स्त्री लीला को तुम नहीं जानते, उसने तप करके एक देवी को प्रसन्न किया है जिसके क्रोध करने से सम्पूर्ण विश्व का नाश हो जाता है | वह माता सरस्वती ज्ञानशक्ति और सर्वभूतों के हृदय में स्थित है जैसा उसमें कोई अभ्यास करता है वही सरस्वती सिद्ध करती है | हे राजन् वह राजा और उसकी स्त्री लीला सरस्वती से मोक्ष माँगते थे कि किसी प्रकार हम संसारबन्धन से मुक्त हों, इस कारण वे मुक्त हुए और तुम्हारी जय हुई | राजा ने पूछा, हे अंग! जो सरस्वती मेरे हृदय में स्थित है तो मुझको मुक्त क्यों नहीं करती? मैं भी तो सदा सरस्वती की उपासना करता हूँ | मंत्री बोला, हे राजन्! सरस्वती जो चिद्संवित् है उसमें जैसा निश्चय होता है उसी की सिद्धता होती है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:15 AM
हे राजन्! तुम सदा अपनी जय ही माँगते थे इससे तुम्हारी जय हुई और वह मुक्ति माँगता था इससे उसकी मुक्ति हुई उसका पिछला संस्कार उज्ज्वल था इससे मुक्त हुआ और तुम्हारा पिछले जन्म का संस्कार तामसी था इस कारण तुमको इच्छा न हुई और शान्ति भी प्राप्त न हुई | आदि परमात्मसत्ता से सब पदार्थ प्रकट हुए हैं | केवल आत्मसत्ता जो निष्किञ्चन पद है सो सदा अपने स्वभाव में स्थित है उसी में चेतनता (संवेदन) फुरती है | अहं अस्मि' अर्थात् `मैं हूँ' इस भावना का नाम चित्त है, इसी चेतनता ने देह, इन्द्रियाँ, प्राण, मन, बुद्धि आदिक दृश्य जगत् कल्पा है | उस कल्पना से विश्व चित्त में स्थित है और चित्त ने आत्मा से फुरकर प्रमाद से देहादिक को कल्पा है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:21 AM
राजा ने पूछा, हे साधो! आत्मा तो निष्किञ्चन और केवल निर्विकार है उसमें तामसीदेह कहाँ से उपजी? मन्त्री बोले, हे राजन्! जैसे स्वप्ने में प्रमाद से तामसी वपु दृष्टि आता है परन्तु है नहीं, तैसे ही यह आकार भी दृष्टि आते हैं परन्तु हैं नहीं अज्ञान से भासते हैं | इससे तुझको प्रमाद हुआ है तब वासना के अनुसार जन्म पाता फिरा है, इस प्रकार तेरे बहुत जन्म बीते हैं परन्तु पिछला शरीर जो तू ने भोगा है वह तामस तामसी था इस कारण तुझको मोक्ष की इच्छा न हुई | हे राजन्! तुम्हारे जो जन्म बीते हैं उनको मैं जानता हूँ पर तुम नहीं जानते | राजा ने फूछा, हे निर्मल आत्मन्! तामस-तामसी किसको कहते हैं? मंत्री बोले, हे राजन्! एक सात्त्विक सात्त्विकी है, दूसरा केवल सात्त्विकी हैं, तीसरा राजस-राजसी है, एक तामस तामसी है और केवल तामसी है सो भिन्न-भिन्न सुनो |

ravi sharma
01-12-2012, 09:22 AM
हे राजन्! निर्विकल्प अचेत चिन्मात्र सत्ता से जो संवित् फुरी है और जिसकी अहंप्रतीति अधिष्ठान में रही है और निश्चय को नहीं प्राप्त हुए और अनात्मभाव को भी स्पर्श नहीं किया ऐसे जो ब्रह्मादिक हैं वे सात्त्विक-सात्त्विकी हैं | जिनको सात्त्विकी पदार्थ भासने लगे हैं और स्वरूप का प्रमाद है बुद्धि से स्पर्श हुआ अथवा न हुआ वे केवल सात्त्विकी हैं | जिनकी संवित् का बुद्धि से सम्बन्ध हुआ है और नाना प्रकार के राजसी पदार्थों में सत्यप्रतीति हुई है, जिन्हें राजसकर्मों में दृढ़अभ्यास है और उसके अनुसार शरीर को धारते चले गये पर स्वरूप की ओर नहीं आये और चिर पर्यन्त ऐसे ही रहे वे राजस राजसी हैं | जिनकी बोध में अहंप्रतीति नहीं स्वरूप का प्रमाद है और जगत् सत्य भासता है एवं राजसी पदार्थों में अधिक प्रीति है और राजसीकर्मों का अभ्यास है उसके अनुसार वे जन्म पाते हैं - और फिर शीघ्र ही स्वरूप की ओर आते हैं उनका नाम केवल राजसी है, वे राजस-राजसी से श्रेष्ठ हैं |

ravi sharma
01-12-2012, 09:22 AM
जिनको स्वरूप का प्रमाद है और जगत् में सत्य प्रतीति हुई है एवं उस जगत् के तामस कर्मों में दृढ़ अभ्यास हुआ है वे महामूढ़ उसमें चिरपर्यन्त जन्म पाते चले जाते हैं और यदि दैवसंयोग से कभी मुक्त पुरुष की संगति प्राप्त भी होती है तो उसे त्याग जाते हैं वर तामसतामसी हैं | जिनको स्वरूप का प्रमाद हुआ है और तामसी कर्मों की रुचि है वे उन कर्मों के अनुसार जन्म पाते जाते हैं और जो हट पड़ा और तामसी कर्मों को त्यागकर मोक्षपरायण होते हैं सो केवल तामसी हैं पर तामस-तामसी से श्रेष्ठ हैं | हे राजन्! तुम तामस-तामसी थे इस कारण सरस्वती से तुम अपनी जय ही माँगते रहे और मोक्ष का अभ्यास तुमने नहीं किया | राजा बोला, हे निर्मल चित्त, मन्त्रिन्! मैं तामस-तामसी था इस कारण मोक्ष की इच्छा न की परन्तु अब मुझसे तुम वही उपाय कहो जिससे मेरा अहंभाव निवृत्त हो और आत्मपद की प्राप्ति हो |

ravi sharma
01-12-2012, 09:23 AM
मन्त्री बोला, हे राजन्! निश्चय करके जानो जो कोई कैसे ही पदार्थ की इच्छा करे अभ्यास से वह पदार्थ अवश्य प्राप्त होता है और जिसकी भावना करके वह अभ्यास करता है वह पदार्थ निस्सन्देह प्राप्त होता है, जिसका जो दृढ़ अभ्यास करता है वह वही रूप हो जाता है | ऐसा पदार्थ त्रिलोकी में कोई नहीं जो अभ्यास से न पाइये | जो प्रथम दिन में कोई विकर्म किसी से हुआ और अगले दिन शुभकर्म करे तो वह विकर्म लोप हो जाता है और शुभ कर्म ही मुख्य हो जाता है | जब तुम आत्मपद का अभ्यास करोगे तब तुमको आत्मपद प्राप्त होगा और तुम्हारा जो तामस-तामसी भाव है सो निवृत्त हो जावेगा | हे राजन्! जो पुरुष किसी पदार्थ के पाने की इच्छा करता है और हटकर नहीं फिरता तो वह अवश्य उसको पाता है देह इन्द्रियों का अभ्यास मनुष्य को दृढ़ हो रहा है उससे फिर-फिर देह इन्द्रियाँ ही पाता है, जब उनसे उलटकर आत्मा का अभ्यास करे तब आत्मपद की प्राप्ति होगी और देह इन्द्रियों का वियोग हो जावेगा |

ravi sharma
01-12-2012, 09:23 AM
इसलिये आप भी सदा आत्मपद का अभ्यास करें तो उससे आत्मपद प्राप्त होगा इतना कह फिर मुनीश्वर बोले हे वधिक! इस प्रकार तू सिद्ध राजा होगा और मन्त्री तुझको उपदेश करेगा तब तू राज्य को त्यागकर वन में जावेगा और उपदेश करनेवाला मन्त्री दूसरे मन्त्रियों और सेनासंयुक्त तुझको कहेंगे कि तू राज्य कर परन्तु तेरा चित्त विरक्त होगा और तू राज्य अंगीकार न करेगा उस वन में किसी सन्त के स्थान में जाकर तू स्थित होगा और परम वैरागसंपन्न होगा तब उनकी कथा और प्रसंग तुझको स्पर्श करेगी | यदि सन्तों से कुछ न माँगिये तो भी वे अमृत-रूपी वचनों की वर्षा करते हैं-जैसे पुष्पों से वे माँगे सुगन्ध प्राप्त होती है तैसे ही सन्तजनों से माँगे बिना ही अमृत प्राप्त होता है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:24 AM
जब मनुष्य सन्तों के अमृत वचन सुनता है तब उसको विचार उत्पन्न होता है कि `मैं कौन हूँ' `यह जगत् क्या है'और `जगत् किससे उपजा है' निदान तू उनका उपदेश पाकर इस प्रकार जानेगा कि मैं अचेत चिन्मात्र स्वरूप हूँ और जगत् मेरा आभास है | चित्त का फुरना ही जगत् का कारण है सो चित्त ही मेरे में नहीं है तो जगत् कैसे हो? जगत् तो मेरे में नहीं है मैं अपने ही आप में स्थित हूँ | हे वधिक! इस प्रकार जब तू सब अर्थों से मन को शून्य करके अपने स्वरूप में स्थित होगा तब परमानन्द निर्वाण पद को प्राप्त होगा |

ravi sharma
01-12-2012, 09:24 AM
मुनिश्वर बोले, हे वधिक! इस प्रकार तेरी भावी है सो सब मैंने तुझसे कही आगे जो भला जानता हो सो कर | अग्नि बोले, हे राजन्, विपश्चित्! इस प्रकार जब मुनीश्वर ने वधिक से कहा तब वह आश्चर्यमान् हुआ और वहाँ से उठकर मुनीश्वर सहित स्नान को गया | निदान दोनों तप करने और शास्त्र को विचारने लगे तब कुछ काल के उपरान्त मुनीश्वर निर्वाण हो गया और केवल वधिक ही तप करने को समर्थ हुआ कि किसी प्रकार मेरी अविद्या नष्ट हो | हे राजन्, विपश्चित्! सौ युग पर्यन्त जब वधिक ने तप किया तब ब्रह्माजी देवताओं को साथ लेकर आये और बोले कि कुछ वर माँग, तब उस वधिक ने कहा कि मेरा शरीर बड़ा हो और में अविद्या को देखूँ | हे राजन्! यद्यपि वधिक ने जाना कि इस वर के माँगे से मेरा भला नहीं है परन्तु दृढ़ भावना के बल से जानकर भी यही वर माँगा कि घड़ी-घड़ी में मेरा शरीर योजन पर्यन्त बढ़े |

ravi sharma
01-12-2012, 09:25 AM
ब्रह्माजी ने कहा कि ऐसे ही होगा | इस प्रकार कहकर जब ब्रह्माजी अन्तर्धान हो गये तब उसका शरीर बढ़ने लगा और एक घड़ी में एक योजन बढ़ते बढ़ते कल्पपर्यन्त बढ़ता गया और कई ब्रह्माण्डों पर्यन्त चला गया पर जिस ओर को वह देखे उस ओर अविद्या रूपी अनन्त सृष्टियाँ उसे दीखें | निदान जब वह चलते चलते थका तब उसने विचारा कि अविद्या का तो अन्त नहीं आता इस शरीर को मैं कहाँ तक उठाये फिरूँ अब इसका त्याग करूँ तब आत्मपद को प्राप्त होऊँगा | हे राजन्, विपश्चित्! तब उसने प्राण को ऊर्ध्व खैंचकर शरीर को त्याग दिया वही शरीर यहाँ आन पड़ा है | जिस ब्रह्माण्ड से यह गिरा है वह हमारे स्वप्ने की सृष्टि है अर्थात् यह अन्य सृष्टि का था इसकी इस सृष्टि में स्वप्नवत् प्रतिभा हुई थी और यहाँ जाग्रत् सृष्टि में आन पड़ा है और पृथ्वी, पहाड़ आदि सब नाश कर डाले हैं जहाँ से यह गिरा है वहाँ आकाश में तरुवरे की नाईं भासता था और यहाँ इस प्रकार गिरा है जैसे इन्द्र का वज्र हो |

ravi sharma
01-12-2012, 09:34 AM
हे विपश्चितों में श्रेष्ठ! वही वधिक का महाशव था | जब उसका शरीर गिरा तब भगवती ने उसका रक्तपान किया इसलिये उसका नाम रक्ता भगवती हुआ और जो शरीर की सामग्री रही सो पृथ्वी हुई | जब चिरकाल व्यतीत हुआ तब मृत्तिका पृथ्वी हो गई और उस पृथ्वी का नाम मेदिनी पड़ा | ब्रह्माजी ने जो नवीन सृष्टि रची है उस पृथ्वी पर अब कल्याण हुआ है इससे अब जहाँ तेरी इच्छा हो वहाँ जा और मैं भी अब जाता हूँ | इन्द्र को यज्ञ करना है और उसने मेरा आवाहन किया है वहाँ मैं जाता हूँ | भास बोले, हे राजन्, दशरथ! इस प्रकार मुझको कहकर अग्नि देवता अन्तर्धान हो गये | जैसे महाश्याम मेघ से दामिनी चमत्कार करके अन्तर्धान हो जाती है तैसे ही अग्नि जब अन्तर्धान हो गया तब मैं वहाँ से चला और एक सृष्टि में गया तो वहाँ और प्रकार के शास्त्र और और ही प्रकार के प्राणी थे | फिर आगे और सृष्टि में गया वहाँ ऐसे प्राणी देखे कि जिनकी टाँगे काष्ठ की और आचार मनुष्य का था |

ravi sharma
01-12-2012, 09:35 AM
आगे और सृष्टि में गया तो उसमें लोगों के शरीर तो पाषाण के थे पर दौड़ते और व्यवहार करते थे | उसके उपरान्त और सृष्टि में गया तो वहाँ शास्त्ररूपी उनको मूर्ति थी | उनके आगे गया तो वहाँ क्या देखा कि प्राणी बैठे ही रहते हैं और बल से वार्ता करते हैं परन्तु न कुछ खाते हैं और न पीते हैं | हे राजन् दशरथ! इस प्रकार जब मैं चिरकाल पर्यन्त फिरता रहा परन्तु अविद्या का अन्त कहीं न आया तब मैंने विचार किया कि आत्मज्ञानी हो रहूँ तब अन्त आवेगा और किसी प्रकार अन्त न आवेगा | इस प्रकार विचार करके मैं एक वन में गया और ज्ञान की सिद्धि के लिये तप करने लगा | जब कुछ काल तप किया तब चित्त में यह उपजी कि किसी प्रकार सन्तों के निकट जाऊँ तो उनकी संगति से मुझको शान्तिपद प्राप्त होगा | हे राजन्! ऐसे विचार कर मैं वहाँ से चला और कल्पवृक्ष के वन में आया तो वहाँ एक पुरुष मुझको मिला और उसने कहा, हे साधो! तू कहाँ चला है, मेरे निकट तो आ? तब मैंने उससे पूछा कि तू कौन है? तब उसने कहा कि मैं तेरा तप हूँ जो तूने किया है अब तू कुछ वर माँग सो मैं तुझको दे दूँ |

ravi sharma
01-12-2012, 09:41 AM
तब मैंने कहा कि हे साधो! मेरी इच्छा यही है कि मैं आत्मपद को प्राप्त होऊँ | उसने कहा हे साधो! अब मुझे एक जन्म और मृग का पाना है | जब वह तेरा शरीर अग्नि में जलेगा तब तू मनुष्य शरीर पावेगा और ज्ञानवानों की सभा में जावेगा | उस सभा में जब तू मनुष्य शरीर धरेगा तब तुझे सब जन्मों और क्रियाओं की स्मृति हो आवेगी और स्वरूप की प्राप्ति होगी इसलिये तू अब मृग शरीर धारण कर | हे राजन् दशरथ! इस प्रकार जब उसने कहा तब मैंने चिन्तना की कि मृग होऊँ और मुझे स्वरूपरूप प्रतिमा फुरी कि मैं मृग हो गया | तुम्हारी सृष्टि में एक पहाड़ की कन्दरा में मैं विचरता था कि उसका राजा शिकार खेलने चला और उसने मुझको देख मेरे पीछे घोड़ा उड़ाया | आगे आगे मैं दौड़ता जाता था और पीछे घोड़ा था पर उसका वेग ऐसा तीक्ष्ण था कि उसने मुझको पकड़ लिया और अपने गृह में ले आया |

ravi sharma
01-12-2012, 09:42 AM
तीन दिन उसने मुझे गृह में रखा परन्तु मेरी बहुत सुन्दर चेष्टा देखी इस कारण प्रसन्नता से यहाँ ले आया | हे राजन्, दशरथ! अब मैंने मृग के शरीर को त्यागकर मनुष्य का शरीर पाया है और जो कुछ तुमने पूछा था सो सब तुमसे कहा | वाल्मीकिजी बोले, हे अंग! जब इस प्रकार विपश्चित् कह चुका तब रामजी ने विपश्चित् से प्रश्न किया कि हे विपश्चित्! वह मृग तो और सृष्टि का था यहाँ क्योंकर आया? भास बोले, हे रामजी! जहाँ वहाँ मिला था वह भी और सृष्टि का था | एक काल में दुर्वासा ऋषीश्वर आकाशमार्ग में ध्यान लगाये बैठा था उसी मार्ग से इन्द्र पृथ्वी में यज्ञ के निमित्त चला और दुर्वासा को शव जानकर चरण लगाया तब दुर्वासा ने समाधि से उतरकर इन्द्र की ओर देखा और शाप दिया कि हे शक्र! तूने मुझे जानकर भी गर्व करके चरण लगाया इसलिये तेरे यज्ञ का एक शव नाश करेगा और जिस स्थान पर वह पड़ेगा सो पृथ्वी भी नाश होगी जब ऐसे उस ऋषि ने शाप दिया और इन्द्र यज्ञ करने लगा तब और सृष्टि से वह शव आन पड़ा और पृथ्वी चूर्ण हो गई |

ravi sharma
01-12-2012, 09:42 AM
वह तो उस प्रकार गिरा और मैं तपरूपी मुनीश्वर के वर से मृग होकर तुम्हारी सभा में आया | हे रामजी! जो असत्य होता तो प्रकट न होता और जो सत्य होता तो स्वप्नरूप न होता-जो स्वप्न की सृष्टि का था | हे रामजी! तुम हमारी स्वप्ने की सृष्टि में हो और हम तुम्हारी सृष्टि के स्वप्ने में है | जैसे स्वप्न पदार्थों का होना हुआ है तैसे ही शव का होना भी हुआ है और मृग का भी हुआ है जैसे यह सृष्टि है तैसे ही वह सृष्टि भी है, जो यह सृष्टि सत्य है तो वह भी सत्य है परन्तु वास्तव में न यह सत्य है और न वह सत्य है, यह भी भ्रममात्र है और वह भी भ्रममात्र है | सत्य वस्तु वही है जो मनसहित षट््इन्द्रियों से अगम है और वह आत्म सत्ता है जिससे यह सर्व है और जिसमें सर्व है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:43 AM
ऐसी जो परमात्मसत्ता है सो परमसत्ता है और उसमें सब कुछ बनता है | हे रामजी! जगत् संकल्पमात्र है, संकल्प का मिलना क्या आश्चर्य है? जैसे छाया और धूप एक नहीं होते और सत्य और झूठ और ज्ञान- अज्ञान इकट्ठे नहीं होते परन्तु आत्मा में इकट्ठे दीखते हैं | हे रामजी! जब मनुष्य शयन करता है तब अनुभवरूप होता है, फिर स्वप्ने में स्वप्न नगर भासि आता है, छाया धूप भी भासि आता है और ज्ञान-अज्ञान, सब झूठ भी भासते हैं | जैसे आकाश में विरुद्ध पदार्थ भासि आते हैं, तैसे ही संकल्प से संकल्प मिल जाता है इसमें क्या आश्चर्य है? सब जगत् आकाशवत् शून्य निराकार निर्विकार है, निराकार में आकार और निर्विकार में विकार भासते हैं यही आश्चर्य है | सर्व आकार दृष्टि आते हैं सो वही निराकार रूप हैं, ब्रह्मसत्ता ही इस प्रकार होकर भासती है | जगत् को असत्य कहना भी नहीं बनता, जो असत्य होता तो प्रलय होकर पृथ्वी, अप्, तेज और वायु से आकाश फिर प्रकट न होता पर प्रलय होकर जो फिर उत्पन्न होते हैं इससे असत्य नहीं | चैतन्यरूप आत्मा का ही स्वभाव है, आत्मसत्ता ही इस प्रकार होकर भासती है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:43 AM
हे रामजी! जब प्रलय होती है तब सब भूत पदार्थ नष्ट हो जाते हैं और फिर उत्पन्न होते हैं इसी से यह सृष्टि आत्मा का आभासमात्र है | ब्रह्मसत्ता में अनन्त जगत् फुरते हैं पर अपनी-अपनी सृष्टि ही को जीव जानते हैं | सब जीव ब्रह्मरूपी समुद्र के कणके हैं सो एक सृष्टि को दूसरा नहीं जानता | जैसे सिद्धों की सृष्टि अपने-अपने अनुभव में फुरती है और जैसे स्वप्ने भिन्न-भिन्न होते हैं, तैसे ही यह अपनी अपनी सृष्टि पृथक है और मिल भी जाती है | आत्मा में सब कुछ बनता है जो कि अनादि और आदि, विधि और निषेध और विकार और निर्विकार इकट्ठे नहीं होते सो आकाश में आत्मसत्ता और स्वप्ने में इकट्ठे दृष्टि आते हैं इसमें कुछ आश्चर्य नहीं | जगत् कुछ भिन्न वस्तु नहीं, आत्मसत्ता ही इस प्रकार हो भासती है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:43 AM
हे रामजी! चार सत्ता इस जगत् में फुरी हैं-सारधी, गोपती, समान ब्रह्मसत्ता और अविद्या-उनमें से सारधी और गोपतीसत्ता तो जिज्ञासु की भावना में भासती है, समानसत्ता ज्ञानी को भासती है और अविद्या अज्ञानी को भासती है | ये चारों भी ब्रह्म से भिन्न नहीं, ब्रह्म ही के नाम हैं | ब्रह्मसत्ता स्वभाव चेतनता से ऐसे ही भासती है | जैसे वायु फुरने से चलती भासती है और ठहरने से अचल भासती है- तैसे ही चेतनता (फुरने) से नाना प्रकार के कौतुक उठते हैं और फुरने से रहित निर्वि कल्प हो जाता है! ऐसा पदार्थ कोई नहीं कि उसमें सत्य नहीं और ऐसा भी पदार्थ कोई नहीं कि असत्य नहीं-सब समान हैं | जैसे आकाश के फूल हैं, तैसे ही घट पटादिक हैं और जैसे इनके उत्थान का अनुभव होता है , तैसे ही उनका अनुभव होता है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:44 AM
सर्व पदार्थ सत्ता ही से सत्य भासते हैं सर्व शब्द अर्थ जो फुरे हैं सो सब मिट जाते हैं इससे असत्य हैं और आत्मसत्ता ज्यों की त्यों है कदाचित् अन्यथा नहीं होती | जो मरके न जन्मे तो आनन्द है, क्योंकि मुक्त हुआ और जो मरके जन्म लेता है वह भी अविनाशी हुआ इसलिये शोक करना व्यर्थ है | हे रामजी! जगत् के आदि में भी ब्रह्मसत्ता थी और अन्त में भी वही रहेगी, जो आदि और अन्त में वही है तो मध्य में भी उसे ही जानिये | इससे सब जगत् आत्मरूप है और सर्व शब्द अर्थसंयुक्त है और सर्व शब्द और अधिकार का अधिष्ठान ब्रह्मसत्ता ही है जिसको यथार्थ अनुभव होता है उसको ऐसे भासता है और जिसको यथार्थ अनुभव नहीं होता उसको नाना प्रकार का जगत् भासता है पर आत्मा में जगत् कुछ बना नहीं सब आकाशरूप है और ब्रह्मसत्ता अपने आप में स्थित है | ब्रह्म से भिन्न जो कुछ भासता है सो भ्रममात्र और नाशरूप है | सब दृश्य पदार्थ नाशरूप हैं जिसने उन्हें सत्य जाना है उनसे हमको कुछ प्रयोजन नहीं |

ravi sharma
01-12-2012, 09:44 AM
जो दूसरा कुछ बना नहीं तो मैं क्या कहूँ? जिसमें यह सब पदार्थ आभास फुरते हैं उस अधिष्ठान को देखे तो सब वही रूप भासेंगे | जो पुरुष स्वभाव में स्थित है उसको यह वचन शोभावान् होते हैं | मैंने अनन्त सृष्टियाँ देखी हैं और उनके भिन्न आचार भी देखे हैं | दशो दिशाओं में मैं फिरा हूँ और बहुत भोग भोगे हैं, बड़ी बड़ी विभूति पाई और देखी और अनेक प्रकार की चेष्टा की है, परन्तु मुझको स्वप्ना प्राप्त हुआ, क्योंकि सब भोग पदार्थ और कर्म अविद्या के रचे हुए हैं | उसी अविद्या के अन्त लेने को मैं अनेक युगपर्यन्त फिरा पर अन्त कहीं न पाया वशिष्ठजी की कृपा से अब मुझको स्वरूप का साक्षात्कार हुआ, अविद्या नष्ट हुई और मैं परमानन्द को प्राप्त हुआ हूँ |

ravi sharma
01-12-2012, 09:45 AM
बाल्मीकिजी बोले, हे साधो! जब इस प्रकार विपश्चित् ने कहा तब सायंकाल हुआ और सूर्य अन्तर्धान हो गये-मानों विपश्चित् के वृत्तान्त देखने को अन्यसृष्टि में गये-और नौबत नगारे बजने लगे मानो दशरथ की जय-जय करते हैं | उस समय राजा दशरथ ने धन, जवाहिर और वस्त्राभूषण से राजा विपश्चित् का यथायोग्य पूजन किया, दशरथ से आदि लेकर सब राजाओं ने वशिष्ठजी को प्रणाम किया और परस्पर प्रणाम करके सर्वसभा ने अपने-अपने स्थानों को जा स्नान करके यथाक्रम भोजन किया और नियम करके विचारसहित रात्रि व्यतीत की और जब सूर्य की किरणें उदय हुई तो फिर अपने अपने स्थानों पर परस्पर नमस्कार करके आ बैठे तब वशिष्ठजी पूर्व के प्रसंग को लेकर बोले, हे रामजी! यह अविद्यमान है और है नहीं पर भासती है यही आश्चर्य है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:45 AM
जो वस्तु सदा विद्यमान है सो नहीं भासती और जो अविद्या है ही नहीं सो सदा भासती है इसी से इसका नाम अविद्या है | हे रामजी! आत्मसत्ता अनुभवरूप है, उसका अनुभव होना अनिश्चित हो रहा है और अविद्यक जगत् जो कभी कुछ हुआ नहीं सो स्पष्ट होकर भासता है-यही अविद्या है | हे रामजी! सिद्ध राजा के मन्त्री का उपदेश भी तुमने सुना और विपश्चित् का वृत्तान्त भी विपश्चित् के मुख से ही सुना, अब इस विपश्चित् की अविद्या हमारे आशीर्वाद और यथार्थ वचनों से नष्ट होती है और अब यह जीवन्मुक्त होकर बिचरेगा | मेरे उपदेश से इसकी अविद्या अब नष्ट होती है अतः जीवन्मुक्त होकर जहाँ जहाँ इसकी इच्छा हो बिचरे | जब जीव आत्मा की ओर आता है तब अविद्या नष्ट हो जाती है | आत्मतत्त्व को यथार्थ न जानने ही का नाम अविद्या है जो आत्मज्ञान से नष्ट हो जाता है | जैसे अन्धकार तब तक रहता है, जबतक सूर्य उदय नहीं हुआ पर जब सूर्य उदय होता है तब अन्धकार नष्ट हो जाता है, तैसे ही अविद्या तबतक अन्त है जबतक मनुष्य आत्मा की ओर नहीं आया पर जब आत्मा का साक्षात्कार होता है तब अविद्या का अत्यन्त अभाव हो जाता है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:45 AM
अविद्या अविद्यमान है पर असम्यक्् दर्शी को सत्य भासती है | जैसे मृगतृष्णा का जल अविद्यमान है और विचार किये से उसका अभाव हो जाता है, तैसे ही भली प्रकार विचार किये से अविद्या का अभाव का अभाव हो जाता है | हे रामजी अविद्या रूपी विष की बेलि देखनेमात्र फूल सहित सुन्दर भासती है परन्तु स्पर्श किये से काँटे चुभते हैं और फल भक्षण किये से कष्ट होता है | यह सब शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध इन्द्रियों के विषय देखनेमात्र सुन्दर भासते हैं यही फूल फल हैं पर जब इनका स्पर्श होता है तब तृष्णारूपी कण्टक चुभते हैं और इन्द्रियों के भोग भोगने से राग, द्वेष और कष्ट प्राप्त होता है | हे रामजी! अविद्या भीतर से शून्य है और बाहर से बड़े अर्थसंयुक्त भासती है | जैसे आकाश में इन्द्रधनुष नाना प्रकार के रंग सहित दृष्टि आता है परन्तु अन्तर से शून्य है-अनहोता ही भासता है, तैसे ही अविद्या अनहोती ही भासती है, और जैसे इन्द्रधनुष जलरूप मेघ के आश्रय रहता है, तैसे ही यह अविद्या जड़ मूर्खों के आश्रय रहती है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:46 AM
अविद्यारूपी धूलि जिसको स्पर्श करती है उसको आवरण कर लेती है, जबतक अर्थ नहीं जाना तबतक भासती है और विचार किये से कुछ नहीं निकलता जैसे सीपी में रूपा भासता है पर विचार किये से उसका अभाव हो जाता है तैसे ही विचार किये से अविद्या का भी अभाव हो जाता है | विचार किये से ही अविद्या नष्ट हो जाती है और वह चञ्चल है और भासती है | हे रामजी! अविद्यारूपी नदी में तृष्णारूपी जल है, इन्द्रियों के अर्थरूपी भँवर हैं और रागद्वेषरूपी तेंदुये (ग्राह) हैं जो पुरुष इस नदी के प्रवाह में पड़ता है उसको बड़े कष्ट प्राप्त होते हैं | जो तृष्णारूपी प्रवाह में बहते हैं उनको अविद्यारूपी नदी का अन्त नहीं आता और जो किनारे के सन्मुख होकर वैराग्य और अभ्यासरूपी नाव पर चढ़के पार हुए हैं उनको कोई कष्ट नहीं होता | जो पदार्थ अविद्यारूप हैं उनमें जो भावना करते हैं वे मूर्ख हैं | यह सब अविद्या का विलास है | एक ऐसी सृष्टि है जिसमें सैकड़ों चन्द्रमा और सहस्त्रों सूर्य उदय होते हैं, कई ऐसी सृष्टियाँ हैं जिनमें जीव सदा समताभाव को लिये बिचरते हैं और सदा आनन्दी रहते हैं, कई ऐसी सृष्टि हैं कि जिनमें अन्धकार कभी नहीं होता, कई ऐसी सृष्टि हैं जहाँ प्रकाश और तम जीवों के अधीन है कि जितना प्रकाश चाहें उतना ही करें और कई ऐसी सृष्टि हैं जहाँ जीव न मरते हैं और न बूढ़े होते हैं सदा एकरस रहते हैं और प्रलयकाल में सब इकट्ठे ही मरते हैं |

ravi sharma
01-12-2012, 09:46 AM
कहीं ऐसी सृष्टि है जहाँ स्त्री कोई नहीं, कहीं पहाड़ की नाईं जीवों के शरीर हैं | हे रामजी! इनसे अनन्त ब्रह्माण्ड फुरते हैं सो सब अविद्या का विलास है | जैसे समुद्र में वायु से तरंग फुरते हैं, वायु बिना नहीं फुरते, तैसे ही परमात्मरूपी समुद्र में जगत््रूपी तरंग अविद्यारूपी वायु के संयोग से उठते हैं और मिट भी जाते हैं | हे रामजी! बड़े-बड़े मणि, मोती, सुवर्ण और धातुमय स्थान, भक्ष्य, भोज्य, लेह्य, चारों प्रकार के तृप्ति कर्ता पदार्थ, घृतरूप स्थान, ऊख के रस के समुद्र माखन, दही और दूध के समुद्र, अमृत के तालाब, बड़े-बड़े कल्प और तमाल वृक्ष से आदि लेकर सुन्दर स्थान और सुन्दर अप्सरा और बड़े दिव्य वस्त्रों से आदि लेकर जो पदार्थ हैं वे सब संकल्परूप अविद्या के रचे हुये हैं, जो इनकी तृष्णा करते हैं वे मूर्ख हैं उनके जीने को धिक्कार है | हे रामजी! यह अविद्या का विलास है विचार किये से कुछ नहीं निकलता | जैसे मरु स्थल में अनहोती नदी भासती है और विचार किये से उसका अभाव होजाता है, तैसे ही आत्मविचार किये से अविद्या के विलासरूप जगत् का अभाव हो जाता है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:46 AM
जिसको आत्मा का प्रमाद है उसको देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदिक इष्ट-अनिष्ट अनेक प्रकार के पदार्थ भासते हैं और कारण कार्य भाव से जगत् भी स्पष्ट भासता है पर जिसको आत्मा का अनुभव हुआ है उसको सर्व आत्मा ही भासता है | हे रामजी! एक सदृष्ट सृष्टि है और दूसरी अदृष्ट सृष्टि है | यह जो प्रत्यक्ष भासती है सो सदृष्ट सृष्टि है और जो दृष्टि नहीं आती वह अदृष्ट सृष्टि है पर दोनों तुल्य हैं जैसे सिद्धलोग आकाश में जो सृष्टि रच लेते हैं सो संकल्पमात्र होती है | उनकी सृष्टि परस्पर अदृष्ट है और अनेक प्रकार की रचना है | उनकी सुवर्ण की पृथ्वी है और रत्न और मणियों से जड़ी हुई, अनेक प्रकार के विषय हैं और अमृत के कुण्ड भरे हुए हैं, उनके अधीन तम और प्रकाश हैं- और अनेक प्रकार की रचना बनी हुई है सो सब संकल्पमात्र है | इसी प्रकार यह जगत् संकल्पमात्र है जैसा-जैसा संकल्प होता है तैसी ही तैसी सृष्टि आत्मा में हो भासती है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:46 AM
हे रामजी! आत्मारूपी डब्बे में सृष्टिरूपी अनेक रत्न हैं, जिस पुरुष को आत्म दृष्टि हुई है उसकी सर्वसृष्टि आत्मरूप है और जिसको आत्मदृष्टि नहीं हुई उसको सर्व जगत् भिन्न-भिन्न भासता है | जैसा संकल्प दृढ़ होता है तैसा ही पदार्थ हो भासता है | जो कुछ जगत् भासता है सो सब संकल्पमात्र है, जो तुमको ऐसा तीव्र संवेग हो कि आकाश में नगर स्थित हो तो वहीं भासने लगे | हे रामजी! जिस ओर मनुष्य दृढ़ निश्चय करता है वही सिद्ध होता है | जो आत्मा की ओर एकत्र होता है तो वही सिद्ध होता है और जो दोनों ओर होता है तो भटकता है | जो जगत् की सत्यता को छोड़कर आत्मपरायण हो रहे तो तीव्र भावना से मोक्ष प्राप्त होती है और जो संसार की ओर भावना होती है तो संसार की प्राप्ति होती है निदान जैसा अभ्यास करता है वही सिद्ध होता है | वास्तव में सृष्टि कुछ हुई नहीं वही रूप है जैसी-जैसी भावना होती उसके अनुसार जगत् भासता है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:47 AM
जिसकी भावना धर्म की ओर होती है और सकाम होती है उसको स्वर्गादिक सुख भासते हैं और जिसकी भावना अधर्म में होती है उसको नरकादिक भासते हैं | शुभकर्मों से शान्ति की आशा हो सकती है | शुभ भी दो प्रकार के हैं-एक से स्वर्गसुख भासते हैं और दूसरे को सिद्ध की भावना से सिद्धलोक भासते हैं | जिसको अशुभ भावना होती है उसको नाना प्रकार के नरक भासते हैं | हे रामजी! जब यह संवित्त अनात्म में आत्म अभिमान करती है और उनके कर्मों में आपको कर्ता जानती है वह पाप करके ऐसे अनेक दुखों को प्राप्त होती है जो कहे नहीं जाते-जैसे पहाड़ों में दबे जाने से बड़ा कष्ट होता है अथवा अंगारों की वर्षा और अन्ध कूप में गिरने से कष्ट होता है | पर स्त्री के भोगने से अंगारों के साथ स्पर्श करना होता है और अग्नि तप्त लोहे को कण्ठ लगाना पड़ता है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:48 AM
जिस स्त्री ने परपुरुष को भोगा है अन्धे कूपरूप उखली में खड्गरूपी मूसल से कुटती है और जो देहाभिमानी देवतों, पितरों और अतिथि के दिये बिना भोजन करता है उसको भी यम के दूत बड़ा कष्ट देते हैं और खड्ग और बरछी से उसके माँस को काटते और प्रहार करते हैं और वे परलोक में क्षुधा और तृष्णा से कष्टवान् होते हैं | जिन नेत्रों से व्यभिचारियों ने पर स्त्री देखी है उनपर छुरी का प्रहार होता है | एक वृक्ष है जिसके पत्र खड्ग के प्रहार की नाईं लगते हैं और शूली के ऊपर चढ़ने से आदि लेकर उनको कष्ट होते हैं | जो शुभकर्म करते हैं वे स्वर्ग भोगते हैं | इससे जैसे-जैसे कर्म करते हैं उनके अनुसार जगत् देखते हैं और जिस-जिस भाव को चिन्तना करते शरीर त्यागते हैं वह उनको प्राप्त होते हैं | केवल वासनामात्र संसार है जैसा निश्चय होता है तैसा ही भासता है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:48 AM
रामजी ने पूछा, हे भगवन्! यह जो तुमने मुनीश्वर और वधिक का वृत्तान्त कहा है सो बड़ा आश्चर्यरूप है | यह वृत्तान्त स्वाभाविक हुआ है अथवा किसी कारण कार्य से हुआ है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जैसे समुद्र से तरंग उठते हैं, तैसे ही ब्रह्म में यह प्रतिमा स्वाभाविक उठती है और जैसे पवन में फुरना स्वाभाविक होता है, तैसे ही आत्मा का चमत्कार जगत् रचना स्वाभाविक होती है सो वही रूप है, उससे भिन्न नहीं | चिन्मात्र में जो चेतना फुरी है वह जैसी फुरी है तैसे ही स्थित है जबतक इससे भिन्न और फुरना नहीं होता तबतक वही रहता है | जिस प्रतिभा से कार्य कारण भासता है- जैसे शुद्ध चिदाकाश में स्वप्ने की सृष्टि भासती है-उसमें साररूप वही है | वही चित्त चमत्कार से फुरता है-जैसे समुद्र में तरंग फुरते हैं सो समुद्ररूप हैं उससे भिन्न कुछ वस्तु नहीं तैसे ही सर्व शब्द अर्थ जगत् जो भासता है वही चिन्मात्र है भिन्न वस्तु नहीं |

ravi sharma
01-12-2012, 09:48 AM
जिनको ऐसा यथार्थ अनुभव हुआ है उनको स्वप्नपुर और संकल्पनगर वत् भासता है और पृथ्वी आदि पदार्थ पिण्डाकार नहीं भासते सब ब्रह्मरूप हो भासता है | हे रामजी! जो वस्तु व्यभिचारी और नाशवन्त है वह अविद्या रूप है और जो अव्यभि चारी और अविनाशी है वह ब्रह्मसत्ता है | वह ब्रह्मसत्ता ज्ञानसंवित््रूप है और अपने भाव को कदाचित् नहीं त्यागती | वह अनुभव से सर्वदा काल प्रकाशती है उसमें अविद्या कैसे हो? जैसे समुद्र में धूलि का अभाव है, तैसे ही आत्मा में अविद्या का अभाव है जो सर्व आकार दृष्टि आते हैं तो सब चिदाकाशरूप हैं-जैसे तुम अपने मन में, संकल्प धारकर इन्द्र हो बैठो और चेष्टा भी इन्द्र की सी करने लगो अथवा ध्यान में इन्द्र रचो और ध्यान से प्रतिमा सिद्ध हो आवे तो जबतक वह संकल्प रहे तब तक वही भासता है और जब इन्द्र का संकल्प क्षीण हो जाता है तब इन्द्र की चेष्टा भी निवृत्त हो जाती है सो संकल्प से वही चिन्मात्र इन्द्ररूप हो भासता है, तैसे ही यह सर्वजगत् जो भासता है सो सब चिन्मात्ररूप है पर संवेदन द्वारा पिण्डाकार हो भासता है और जब संवेदन फुरना निवृत्त होता है तब सब जगत् आत्मरूप भासता है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:49 AM
ब्रह्मसत्ता तो सदा अपने आप में स्थित है पर जैसा फुरना होता है, तैसा हो भासता है-सब जगत् उसी का चमत्कार है | जैसे समुद्र में तरंग समुद्ररूप होते हैं | तैसे ही निराकार परमात्मा में जगत् भी आकाशरूप है, भिन्न कुछ नहीं सर्व ब्रह्मस्वरूप है | इसका नाम परमबोध है | जब इस बोध की दृढ़ता होती है तब मोक्ष होता है | जिसको सम्यक््बोध होता है उसको सर्वजगत् ब्रह्मस्वरूप अपना आप भासता है जिसको सम्यक््बोध नहीं हुआ उसको नानाप्रकार का द्वैतरूप जगत् भासता है | हे रामजी! जिसकी बुद्धि शास्त्रों से तीक्ष्ण हुई है और वैराग्य अभ्यास से सम्पन्न और निर्मल है उसको आत्मपद प्राप्त होता है और जिसकी बुद्धि शास्त्र के अर्थ से निर्मल नहीं भई उसको अज्ञानसहित जगत् भासता है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:49 AM
जैसे किसी पुरुष के नेत्र में दूषण होता है तो उसको आकाश में दो चन्द्रमा भासते हैं और भ्रम से तारे भासते हैं, तैसे अज्ञान से जगत् भासता है यह सर्व जाग्रत् जगत् स्वप्नामात्र है | जब जीव स्वप्ने में होता है तब स्वप्ना भी जाग्रत् भासता है और जाग्रत् स्वप्ना हो जाता है और जाग्रत् में स्वप्न का अभाव हो जाता है और जाग्रत सत्य भासती है | अल्पकाल का नाम स्वप्ना है और दीर्घकाल का नाम जाग्रत् है पर आत्मा में दोनों तुल्य हैं | जैसे दो भाई जोड़े जन्मते हैं सो नाममात्र दो हैं वास्तव में एकरूप हैं, तैसे ही जाग्रत् स्वप्न तुल्य ही है | जब पुरुष शरीर को त्यागता है तब परलोक जाग्रत् हो जाता है और यह जगत् स्वप्नवत् हो जाता है जैसे स्वप्ने से जाग कर स्वप्ने के पदार्थों भ्रममात्र जानता है और जाग्रत को सत जानता है, तैसे ही सब जीव परलोक को जाता है तब इस जगत् को स्वप्न जानता है और कहता है कि स्वप्ना सा मैंने देखा था और वह परलोक सत्य हो भासता है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:49 AM
फिर वहाँ से गिरकर इस लोक में आ पड़ता है तब इस लोक को सत्य जानता है और जाग्रत् मानता है और उस परलोक को स्वप्नभ्रम मानता है | हे रामजी! जबतक शरीर से सम्बन्ध है तब तक अनेक बार जाग्रत् देखता है और अनन्त ही स्वप्ने देखता है | हे रामजी! जैसे मृत्युपर्यन्त अनेक स्वप्ने आते हैं, तैसे ही मोक्षपर्यन्त अनेक जाग्रत््रूप जगत् भासते हैं और भ्रमान्तर में इनकी सत्यता और जाग्रत् में स्वप्ने के पदार्थ स्मरण करता है | जैसे सिद्ध प्रबुद्ध होकर अपने जन्म को स्मरण करता है और कहता है कि सब भ्रममात्र थे, तैसे ही यह जब जागेगा तब कहेगा कि सब भ्रममात्र प्रतिमा मुझको भासी थी, न कोई बन्ध है और न कोई मुक्त है, क्योंकि दृश्य अविद्यक बन्ध मोक्ष ऐसा है कि जब चित्त की वृत्ति निर्विकल्प होती है तब मोक्ष भासता है और जबतक वासना विकल्प सत्य है तबतक बन्ध भासता है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:49 AM
हे रामजी! आत्मा में बन्ध मोक्ष दोनों नहीं, क्योंकि बन्ध हो तो मोक्ष भी हो पर बन्ध ही नहीं तो मोक्ष कैसे हो? बन्ध और मोक्ष दोनों चित्तसंवेदन में भासते हैं इससे चित्त को निर्वाण करो तब सब कल्पना मिट जावेगी | जितने पदार्थों के प्रतिपादन करनेवाले शब्द है उनको त्यागकर निर्मल ज्ञानमात्र जो आत्मसत्ता है उसमें स्थित हो रहो और खाना, पीना, बोलना, चलना आदि सब क्रिया करो परन्तु हृदय से परमपद पाने का यत्न करो | हे रामजी! प्रथम नेति नेति करके सर्वशब्दों का अभाव करो, फिर अभाव का भी अभाव करो तब उसके पीछे जो शेष रहेगा वह आत्मसत्ता परमनिर्वाणरूप है उसी में स्थित हो रहो जो कुछ अपना आचार कर्म है उसे यथाशास्त्र करके हृदय से सर्वकल्पना का त्याग करो-इस प्रकार आत्मसत्ता में स्थित हो रहो |

ravi sharma
01-12-2012, 09:49 AM
वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! सर्वपदार्थ जो भासते हैं वे सब चिदाकाश आत्मरूप हैं | ज्ञानवान् को सदा वही भासता है-आत्मा से भिन्न कुछ नहीं भासता | रूप, दृश्य, अवलोक, इन्द्रियाँ और मनस्कार फुरने का नाम संसार है सो यह भी आत्मरूप है-आत्मसत्ता ही इस प्रकार हो भासती है | जैसे अपनी ही संवित स्वप्ने में रूप, अवलोक और मनस्कार हो भासती है | आत्मा से भिन्न कुछ नहीं परन्तु अज्ञान् से भिन्न-भिन्न भासते हैं | जो जागा है उसको अपना आप भासता है | जैसे अपनी चैतन्यता ही स्वप्नपुर होकर भासती है, तैसे ही जगत् के पूर्व जो चैतन्यसत्ता थी वही जगत््रूप होकर भासती है | जगत् आत्मा से कुछ भिन्न वस्तु नहीं वही स्वरूप है | जैसे जल का स्वभाव द्रवीभूत होता है इससे तरंगरूप हो भासता है, तैसे ही आत्मा का स्वभाव चैतन्य है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:50 AM
वही आत्मसत्ता चैतन्यता से जगत् आकार हो भासती है इस प्रकार जानकर जो परमशान्ति निर्वाणपद है उसमें स्थित हो रहो | हे रामजी! जगत् कुछ है नहीं और प्रत्यक्ष भासता है, असत्य ही सत्य होकर भासता है | यही आश्चर्य है कि निष्किञ्चन और किञ्चन की नाईं होकर भासता है | आत्मसत्ता सदा अद्वैत और निर्विकार है परन्तु दृष्टि से नाना प्रकार के विकार भासते हैं | जब सर्व विकारों को निषेध करके असत् रूप जानिये तब सर्व के अभाव हुए आत्म सत्ता शेष रहती है | जैसे शून्य स्थान में अनहोता वैताल भासि आता है, तैसे ही अज्ञानी को अनहोता जगत् आत्मा में भासि आता है, जो पुरुष स्वभाव में स्थित हुए हैं उनको जगत् भी अद्वैतरूप आत्मा भासता है | जब सत््शास्त्रों और सन्तों की संगति होती है और उनके तात्पर्य अर्थ में दृढ़ अभ्यास होता है तब स्वभाव सत्ता में स्थिति होती है | जिन पदार्थों के पाने के निमित्त मनुष्य यत्न करता है वे मायिक पदार्थ बिजली के चमत्कारवत् उदय भी होते हैं और नष्ट भी होते हैं |

ravi sharma
01-12-2012, 09:50 AM
ये पदार्थ विचार बिना सुन्दर भासते हैं और इनकी इच्छा मूर्ख करते हैं, क्योंकि उनका जगत् सत्य भासता है | ज्ञानवान् को जगत् के पदार्थों की तृष्णा नहीं होती, क्योंकि वह जगत् को मृगतृष्णा की नाईं असत्य जानता है और ब्रह्मभावना में दृढ़ है | अज्ञानी को जगत् की भावना है इससे ज्ञानी के निश्चय को अज्ञानी नहीं जानता पर अज्ञानी के निश्चय को ज्ञानी जानता है | जैसे सोये हुए पुरुष को निद्रा दोष से स्वप्ना आता है और उसमें जगत् भासता है पर जाग्रत् पुरुष जो उसके निकट बैठा है उसको वह स्वप्ने का जगत् नहीं भासता | वह असत् है इसलिये उसके निश्चय को स्वप्नवाला नहीं जानता और स्वप्न वाले के निश्चय को वह जाग्रत््वाला नहीं जानता है, तैसे ही ज्ञानी के निश्चय को अज्ञानी नहीं जानता |

ravi sharma
01-12-2012, 09:50 AM
मृत्तिका की सेना को बालक सेना करि मानता है पर जो जाननेवाले बड़े पुरुष हैं उनको वह सब सेना मृत्तिकारूप भासती है और जब वह बालक भी भली प्रकार जानता है तब उसको भी सेना और वैताल का अभाव हो जाता है मृत्तिका ही भासती है, तैसे ही ज्ञानवान् को सब जगत् ब्रह्मरूप ही भासता है | हे रामजी! जब पुरुष को आत्म का अनुभव होता है तब जगत् के पदार्थों की इच्छा नहीं रहती | जैसे स्वप्ने में किसी को मणि प्राप्त होती है तो वह प्रीति करके उसको रखता है पर जब जागता है तब उसे भ्रम जानकर उसकी इच्छा नहीं करता, तैसे ही जब जीव आत्मपद में जागेगा तब जगत् के पदार्थों की इच्छा न करेगा | जैसे जो कोई मरुस्थल की नदी को असत्य जानता है वह उसमें जलपान के निमित्त यत्न नहीं करता तैसे ही जो जगत् को असत् जानता है वह उसके पदार्थों की इच्छा नहीं करता |

ravi sharma
01-12-2012, 09:50 AM
जिस शरीर के निमित्त मनुष्य यत्न करता है वह शरीर भी क्षणभंगुर है | जैसे पत्र पर जल की बूँद स्थित होती है सो क्षणभंगुर और असार है और पवन लगने से क्षण में गिर जाती है, तैसे ही यह शरीर भी नाशवन्त हैं | जैसे धूप से तपा हुआ मृग मरुस्थल की नदी को सत्य जानकर जल पान करने के निमित्त दौड़ता है और मूर्खता के कारण कष्ट पाता है परन्तु तृप्त नहीं होता, तैसे ही मूर्ख मनुष्य विषय पदार्थों को सत्य जानकर उनके निमित्त यत्न करके कष्ट पाता है- कदाचित् तृप्त नहीं होता | हे रामजी! पुरुष अपना आपही मित्र है और अपना आपही शत्रु है | जब सत्यमार्ग में विचरता है और अपना उद्धार करता है तब पुरुष प्रयत्न से अपना आपही मित्र होता है और जो सत्यमार्ग में नहीं विचरता और पुरुष प्रयत्न करके अपना उद्धार नहीं करता तो वह जन्ममरण संसार में आपको डालता है और वह अपना आपही शत्रु है जो अपने आपको यत्न करके उद्धार करता है वह अपने ऊपर दया करता है हे रामजी! जो इन्द्रियों के विषयरूपी कीचड़ में गिरा हुआ है और अपने ऊपर दया नहीं करता वह महा अज्ञान तम को प्राप्त होता है और जो पुरुष इन्द्रियों को जान के आत्मपद में स्थित नहीं होता उसको शान्ति भी नहीं होती |

ravi sharma
01-12-2012, 09:51 AM
जब बालक अवस्था होती है तब शून्य बुद्धि होती है, वृद्धावस्था में अंग क्षीण होते जाते हैं और यौवन अवस्था में इन्द्रियों को नहीं जीत सकता तो कब होगा? जो तिर्यक आदिक योनि हैं वे मृतकवत् हैं यत्न का समय यौवन अवस्था है, क्योंकि बाल अवस्था तो जड़ गुंगरूप है और वृद्धावस्था महानिर्बल सी है उसमें अपने अंग ही उठाने कठिन हो जाते हैं तो विचार का क्या फल हुआ वह तो बालकवत् है | इससे कुछ यत्न यौवन अवस्था में ही होता है जो इस अवस्था में लम्पट रहा वह महाअनिष्ट नरक को प्राप्त होगा | हे रामजी! विषयों से प्रसन्न न होना यह शरीर नाशरूप है तो विषय क्यों भोगे | श्रुति करके भी जानता है और अनुभव करके भी जानता है कि यह शरीर नाशरूप है पर उसी शरीर में सत्य भावना करके जो विषयों के सेवने का यत्न करता है उसके सिवा दूसरा मूर्ख कोई नहीं वही मूर्ख है इससे जो इन्द्रियों को जीतेगा वह जन्मान्तर को न प्राप्त होगा | हे रामजी! तुम जागो और आपको अविनाशी और अच्युत परमानन्दरूप जानो | यह जगत् मिथ्या है-इसको त्याग दो |

ravi sharma
01-12-2012, 09:51 AM
श्रीरामजी बोले, हे भगवन्! तुम सत्य कहते हो कि इन्द्रियों के जीते बिना शान्ति नहीं होती, इससे इन्द्रियों के जीतने का उपाय कहो | वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जिस पुरुष को बड़े भोग प्राप्त हुए हैं और उसने इन्द्रियों को जीता नहीं तो वह शोभा नहीं पाता जो त्रिलोकी का राज्य प्राप्त हो और इन्द्रियाँ न जीती तो उसकी कुछ प्रशंसा नहीं | जो बड़ा शूरवीर है पर उसने इन्द्रियों को नहीं जीता उसकी शोभा भी कुछ नहीं और जिसकी बड़ी आयु है पर उसने इन्द्रियाँ नहीं जीती तो उसका जीना भी व्यर्थ है | जिस प्रकार इन्द्रियाँ जीती जाती हैं और आत्मपद प्राप्त होता है सो प्रकार सुनो | हे रामजी! इस पुरुष का स्वरूप अचिन्त्य चिन्मात्र है, उसमें जो संवित्त फुरी है उस ज्ञानसंवित् को अन्तःकरण और दृश्य जगत् से सम्बन्ध हुआ है-उसी का नाम जीव है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:51 AM
जहाँ से चित्त फुरता है वहीं चित्त को स्थित करो तब इन्द्रियों का अभाव हो जावेगा | इन्द्रियों का नायक मन है, जब मनरूपी मतवाले हाथी को वैराग्य और अभ्यासरूपी जंजीर से वश करो तब तुम्हारी जय होगी और इन्द्रियाँ रोकी जावेंगी | जैसे राजा के वश किये से सब सेना भी वश हो जाती है, तैसे ही मन को स्थित किये से सब इन्द्रियाँ वश हो जावेंगी | हे रामजी! जब इन्द्रियों को वश करोगे तब शुद्ध आत्म सत्ता तुमको भासि आवेगी | जैसे वर्षाकाल के अभाव से शरत्काल में शुद्ध निर्मल आकाश भासता है और कुहिरे और बादल का अभाव हो जाता है, तैसे ही जब मनरूपी वर्षाकाल और वासनारूपी कुहिरे का अभाव हो जावेगा तब पीछे शुद्ध निर्मल आत्मसत्ता ही भासेगी | हे रामजी! ये सर्व पदार्थ जो जगत् में दृष्टि आते हैं वे सब असत्यरूप हैं-जैसे मरु स्थल की नदी असत्यरूप होती है- इनमें तृष्णा करना अज्ञानता है | जो पदार्थ प्रत्यक्ष प्राप्त हो उनको त्यागकर आत्मा की ओर वृत्ति आवे तब जानिये कि मुझको इन्द्र का पद प्राप्त हुआ है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:51 AM
विषयों में आसक्त होना ही बड़ी कृपणता है | इनसे उप राम होना ही बड़ी उदारता है, इससे मन को वश करो कि तुम्हारी जय हो | जैसे ज्येष्ठ आषाढ़ में पृथ्वी तप्त होती है और जो चरणों में जूता है तब तपन नहीं लगती तैसे ही अपना मन वश किये से जगत् आत्मरूप हो जाता है | हे रामजी! जिस प्रकार जनेन्द्र ने मन को वश किया था तैसे ही तुम भी मन को वश करो | जिस जिस ओर मन जावे उस उस ओर से रोको, जब दृश्य जगत् की ओर से मन को रोकोगे तब वृत्तिसंवित् ज्ञान की ओर आवेगी और जब संवित् ज्ञान की ओर आई तब तुमको परम उदारता प्राप्त होगी और शुद्ध आत्मसत्ता का अनुभव होगा | तीर्थ, दान और तप करके संवित् का अनुभव होना कठिन है परन्तु मन के स्थित करने से सुगम ही अनुभव की प्राप्ति होती है | मन स्थित करने का उपाय यही है कि सन्तों की संगति करना और राति -दिन सत्शास्त्रों का विचारना |

ravi sharma
01-12-2012, 09:52 AM
सर्वदा काल यही उपाय करने से शीघ्र ही मन स्थित होता है और जब मन स्थित होता है तब आत्मपद का अनुभव होता है | जिसको आत्मपद प्राप्त हुआ है वह संसारसमुद्र में नहीं डूबता | चित्तरूपी समुद्र में तृष्णारूपी जल है और कामनारूपीलहरें हैं जिस पुरुष ने शम और संतोष से इन्द्रियाँ जीती हैं वह चित्तरूप समुद्र में गोते न खावेगा और जिसने इन्द्रियों को जीतकर आत्मपद पाया है उसको नानात्व जगत् फिर नहीं भासता | जैसे मरुस्थल की निराकार नदी में लहरें भासती हैं पर जब निकट जाकर भली प्रकार देखिये तो वह लहरों संयुक्त बहती दृष्टि नहीं आती, तैसे यह जगत् आत्मा का आभास है और जब भली प्रकार विचार के देखिये नानात्व दृष्टि नहीं आता आत्मसत्ता ही किञ्चन करके जगत््रूप हो भासती है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:52 AM
जैसे जल अपने द्रव स्वभाव से तरंगरूप हो भासता है, तैसे ही आत्मसत्ता चैतन्यता से जगत््रूप हो भासती है | हे रामजी | जब आत्मबोध होता है तब फिर दृश्यभ्रम नहीं भासता जैसे साकाररूप नदी का भाव निवृत्त होता है तो फिर बहती है और जो निराकार नदी का सद्भाव निवृत्त होता है तब फिर नदी का सद्भाव होता है | निराकार मृगतृष्णा की नदी जब ज्यों की त्यों जानों तब फिर सत् नहीं होती | हे रामजी! वास्तव में न कर्म हैं, न इन्द्रियाँ हैं, न कर्त्ता है अर्थात् कुछ उपजा नहीं | जैसे स्वप्ने में नाना प्रकार की क्रिया कर्म दृष्टि आते हैं परन्तु आकाशरूप हैं कुछ बने नहीं तैसे ही यह जानो | आकाशरूप आत्मा में आकाशरूप जगत् स्थित् है | जैसे अवयवी और अवयव में भेद नहीं, तैसे ही आत्मा और जगत् में भेद नहीं और जैसे अवयव अवयवी रूप है, तैसे ही जगत् आत्मा का रूप है | जब आत्मा में स्थिति होगी तब अहं-त्वं आदिक शब्दों का अभाव हो जावेगा और द्वैत अद्वैत शब्द भी न रहेंगे | द्वैत अद्वैत शब्द भी अज्ञानी बालक के समझाने के निमित्त कहे हैं, जो वृद्ध ज्ञानवान् हैं वे इन शब्दों पर हँसी करते हैं कि अद्वैतमात्र में इन शब्दों का प्रवेश कहाँ है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:53 AM
जिनको यह दशा प्राप्त हुई है उनको न बन्ध है और न मोक्ष है | हे रामजी! सुषुप्ति और तुरीया में कुछ थोड़ा ही भेद है कि सुषुप्ति में अज्ञान और जड़ता रहती है और तुरीया में अज्ञान और जड़ता नहीं रहती वह चैतन्य अनुभव सत्तारूप है और स्वप्न और जाग्रत् में भी भेद नहीं परन्तु इतना भेद है कि अल्पकाल की अवस्था को स्वप्ना कहते हैं और चिरकाल की अवस्था को जाग्रत् कहते हैं | हे रामजी! जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्तिरूप हैं | जाग्रत् और स्वप्न ये उभय स्वप्नरूप हैं, सुषुप्ति अज्ञानरूप है, जाग्रत् तुरीयारूप है और जाग्रत् कोई नहीं | जिस जागने से फिर भ्रम प्राप्त हों उसको जाग्रत् कैसे कहिये? उसको तो भ्रममात्र जानिये और जिस जागने से फिर भ्रम को न प्राप्त हो उसका नाम जाग्रत् है | जाग्रत् स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीया चारों अवस्थाओं में चिन्मात्र घनीभूत हो रहा है वह चारों को नहीं देखता | ज्ञानवान् जब प्राण का स्पन्द रोककर आत्मा की ओर चित्त को लगाते हैं, परस्पर ज्ञानमात्र का निर्णय और चर्चा करते हैं और ज्ञान की ही कथा-कीर्तन करते और उससे प्रसन्न होते हैं ऐसे नित्य जाग्रत् पुरुष जो निरन्तर प्रीतिपूर्वक आत्मा को भजते हैं उनको आत्म विषयिणी बुद्धि उदय होती है और उससे वे शान्ति को प्राप्त होते हैं |

ravi sharma
01-12-2012, 09:53 AM
जिनको सदा अध्यात्म अभ्यास है और उस अभ्यास में वे तत्पर हुए हैं उनको आत्मपद प्राप्त होता है जो अज्ञानी हैं वे राग द्वेष से जलते हैं और जिनको आत्मा का दृढ़ अभ्यास हुआ है उनको शान्ति प्राप्त होती है और आत्मस्थिति प्राप्त होती है जिसके आगे-इन्द्र का राज्य भी सूखे तृणवत् भासता है और सर्व जगत् उसको आत्मरूप भासता है | जो अज्ञानी हैं उनको नाना प्रकार के जगत् भासते हैं | जैसे सोये हुए पुरुष को स्वप्ने की सृष्टि सत्य होकर भासती है और जाग्रत् हुए को स्वप्ने की सृष्टि भी अपना आपरूप भासती है | ज्ञानवान् को सर्व आत्मरूप भासता है, आत्मा से भिन्न कुछ नहीं भासता | जब आत्म अभ्यास का बल हो और अनात्मा के अभाव का अभ्यास दृढ़ तब जगत् का अभाव हो जावे और अद्वैत सत्ता का भान हो | हे रामजी! मैंने तुमको बहुत उपदेश किया है, जब इसका अभ्यास होगा तब इसका फल जो ब्रह्म बोध है सो प्राप्त होगा अभ्यास बिना नहीं प्राप्त होता |

ravi sharma
01-12-2012, 09:53 AM
जो एक तृण लोप करना होता है तो भी कुछ यत्न करना होता है यह तो त्रिलोकी लोप करनी है | हे रामजी! जैसे बड़ा भार जिस पर पड़ता है वह बड़े ही बल से उठता है बिना बड़े बल नहीं उठता, तैसे ही जीव पर दृश्यरूपी बड़ा भार पड़ा है, तब आत्मरूपी अभ्यास का बड़ा बल हो तब वह इसको निवृत्त करे नहीं तो निवृत्त नहीं होता | यह जो मैंने तुमको उपदेश किया है इसको बारम्बार विचारो | मैंने तो तुमको बहुत प्रकार और बहुत बार कहा है | हे रामजी अज्ञानी को ऐसे बहुत कहने से भी कुछ नहीं होता | तुमको जो मैंने उपदेश किया है वह सर्वशास्त्रों और वेदों का सिद्धान्त है | जिस प्रकार वेद को पाठ करते हैं उसी प्रकार इसको पाठ कीजिये और विचारिये और इसके रहस्य को हृदय में धारिये तब आत्मपद की प्राप्ति होगी और शास्त्र भी इसके अवलोकन से सुगम हो जावेंगे | यदि नित्य इस शास्त्र को श्रद्धासहित सुने और कहे तो अज्ञानी जीव को भी अवश्य ज्ञान की प्राप्ति होती है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:53 AM
जिसने एक बार सुना है और कहने लगा है कि एक बार तो सुना है फिर क्या सुनना है उसकी भ्रान्ति निवृत्त न होगी और जो बारम्बार सुने, विचारे और कहे तो उसकी भ्रान्ति निवृत्त हो जावेंगी | सब शास्त्रों से उत्तम युक्ति की संहिता मैंने कही है जो शीघ्र ही मन में आती है | जो पुरुष मेरे शास्त्र के सुनने और कहनेवाले हैं उनको बोध उदय होता और दूसरे शास्त्रों का अर्थ भी सुन्दरता से खुल आता है | जैसे लवण का अधिकारी व्यञ्जन पदार्थ है उसमें डाला लवण स्वादी होता है और प्रीति सहित ग्रहण किया जाता है , तैसे ही जो शास्त्र के सुनने और कहनेवाले हैं वे और शास्त्रों का भी सुन्दर अर्थ करेंगे | हे रामजी! किसी और पक्ष को मानकर इसका सुनना त्यागना न चाहिये | जैसे किसी के पिता का खारा कुवाँ था और उसके निकट एक मिष्ट जल का कुवाँ भी था पर वह अपने पिता का कूप मानकर खारा ही जल पीता था और निकट के मिष्ट जल के कुवें का त्याग करता था, तैसे ही अपने पक्ष को मानकर मेरे शास्त्र का त्याग न करना |

ravi sharma
01-12-2012, 09:53 AM
जो ऐसे जानकर मेरे शास्त्र को न सुनेगा उसको ज्ञान न होगा | जो पुरुष इस शास्त्र में दूषण आरोपण करेगा कि यह सिद्धान्त यथार्थ नहीं कहा उसको कदाचित् ज्ञान न प्राप्त होगा-वह आत्महन्ता है उसके वाक्य न सुनना | जो प्रीतिपूर्वक पूजा भाव करके सुने और विचारकर पाठ करे उसको निर्मल ज्ञान होगा और उसकी क्रिया भी निर्मल होगी इससे यह नित्यप्रति विचारने योग्य है | हे रामजी! तुमको मैंने अपने किसी अर्थ के निमित्त उपदेश नहीं किया केवल दया करके किया है और तुम जो किसी को कहना तो अर्थ बिना दया करके ही कहना |

ravi sharma
01-12-2012, 09:54 AM
वसिष्ठजी बोले, हे रामजी! आत्मा में जगत् कुछ हुआ नहीं | जब शुद्ध चिन्मात्र में अहं फुरता है तब वही संवेदन फुरना जगत््रूप हो भासता है और जब वह अधिष्ठान की ओर देखता है तब वही संवेदन अधिष्ठानरूप हो जाता है और अपने रूप को त्यागकर अचेत चिन्मात्र होता है | हे रामजी! फुरने और अफुरने दोनों में वही है परन्तु फुरने से जगत् भासता है सो जगत् भी कुछ और वस्तु नहीं वही रूप है | जब संवित् संवेदन फुरने से रहित होती है तब चिन्मात्त्र रूप हो जाती है इस कारण ज्ञान वान् को जगत् आत्मरूप भासता है ब्रह्म से भिन्न नहीं भासता | जैसे किसी पुरुष का मन ओर ठौर गया होता है तो उसके आगे शब्द होता है तो भी नहीं सुनाई देता और वह कहता है कि मैंने देखा सुना कुछ नहीं, क्योंकि जिस ओर चित्त होता है उसी का अनुभव होता है, तैसे ही जिनका मन आत्मा की ओर लगता है उनको सब आत्मा ही भासता है-आत्मा से भिन्न जगत् कुछ नहीं भासता | जिसको आत्मसत्ता का प्रमाद है और जगत् की ओर चित्त है उसको जगत् ही भासता है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:54 AM
हे रामजी! ज्ञानवान् के निश्चय में ब्रह्म ही भासता है और अज्ञानी के निश्चय में जगत् भासता है तो ज्ञानी और अज्ञानी का निश्चय एक कैसे हो? जो मनुष्य स्वप्ने का जगत् भासता है और जाग्रत् को वह जगत् नहीं भासता तो उनका एक ही कैसे हो? जगत् के आदि और अन्त दोनों में ब्रह्मसत्ता है और मध्य में भी उसे ही जानो-आत्मसत्ता ही चैतन्यता से जगत््रूप हो भासती है | जैसे स्वप्ने की सृष्टि के आदि भी ब्रह्मसत्ता होती है, अन्त भी ब्रह्मसत्ता होती है और मध्य जो भासता है सो भी वही है-आत्मा से भिन्न कुछ नहीं तैसे ही यह जगत् आदि, अन्त और मध्य में भी आत्मा से भिन्न नहीं | ज्ञानवान् को सदा यही निश्चय है कि जगत् कुछ उपजा नहीं और न उपजेगा केवल आत्मसत्ता सदा अपने आपमें स्थित है और सब ब्रह्म ही है अहं त्वं आदिक अज्ञान से भासता है जैसे स्वप्ने में अहं त्वं आदि का अनुभव होता है तो अहं त्वं आदिक भी कुछ नहीं सब अनुभवरूप है, तैसे ही यह जगत् सर्व अनुभवरूप है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:54 AM
हे रामजी! जैसे एक ही रस, फूल, फल, टहनी और वृक्ष होकर भासता है, रस से भिन्न कुछ नहीं होता, तैसे ही नानात्वरूप जगत् भासता है परन्तु आत्मा से भिन्न नहीं | जैसे संकल्पनगर और स्वप्नपुर अपने-अपने अनुभव से भिन्न नहीं परन्तु स्वरूप के विस्मरण से आकाररूप भासते हैं, तैसे ही यह जगत् आकार भासता हे सो ज्ञानरूप से भिन्न नहीं | सब जगत् आत्मरूप है परन्तु अज्ञान से भिन्न-भिन्न भासता है | यह जगत् सब अपना आपरूप और जो आत्मरूप है तो ग्राह्य ग्राहकभाव कैसे हो? यह मिथ्या भ्रम है | पृथ्वी, अप्, तेज, वायु, आकाश, पर्वत, घट, पट आदिक सब जगत् ब्रह्मरूप है, ज्ञानवान् को सदा यही निश्चय रहता है कि अचेत चिन्मात्र अपने आपमें स्थित है | ब्रह्मादिक भी कुछ फुर कर उदय नहीं हुए ज्यों के त्यों हैं | उत्थान कुछ नहीं हुआ पर अज्ञानी के निश्चय में नाना प्रकार का जगत् है और उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय, ब्रह्मादिक सम्पूर्ण हैं | हे रामजी! यह कुछ उपजा नहीं कारणत्व के अभाव से सदा एकरस आत्मसत्ता ही है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:55 AM
वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! अब जाग्रत् और स्वप्न का निर्णय सुनो | जब मनुष्य सो जाता है तब स्वप्ने की सृष्टि देखता है, वह जाग्रत््रूप भासती है और जब स्वप्न निवृत्त होता है तब फिर यह सृष्टि देखता है तो यही जाग्रत् हो भासती है | यहाँ सोकर स्वप्ने में जाग्रत् होती है और वहाँ सोकर यहाँ जाग्रत् होती है तो स्वप्न जाग्रत् हुआ | जाग्रत् जो वस्तु है सो आत्मसत्ता है, उनमें जागना वही जाग्रत् है और सब स्वप्न जाग्रत् है | जब मनुष्य यहाँ शयन करता है तब स्वप्ने का जाग्रत् सत्य होकर भासता है और यह असत्य हो जाता है और स्वप्ने में वहाँ शयन करता है अर्थात् जब स्वप्ने से निवृत्त होता है और जाग्रत् में जगता है तब वह असत्य हो जाता है और वह स्वप्ना जाग्रत् में स्मरण हो जाता है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:55 AM
जब जाग्रत् में सोया और स्वप्ने में जागा तब जाग्रत् स्वप्नभाव को प्राप्त हुई और जब स्वप्ने से उठकर जाग्रत् में आया तब स्वप्नरूप जाग्रत् स्मृतिभाव को प्राप्त हुई तब सब जाग्रत् हुई तो हे रामजी! स्वप्ना तो कोई न हुआ | इसको सर्व ठौर जाग्रत् हुई और जाग्रत् तो कोई न हुई क्योंकि जब जाग्रत् से स्वप्ने में गया तब स्वप्ना जाग्रत््रूप हो गया और जाग्रत् स्वप्ना हो गई और जब स्वप्ने से जाग्रत् में आया तब जाग्रत् जाग्रतरूप हो गई और स्वप्ना जाग्रत् स्वप्नरूप हो गई तो क्या हुआ कि जाग्रत् कोई नहीं सब स्वप्न और असत्यरूप है | अपने काल में यह जाग्रत् है और स्वप्नरूप है और जब यहाँ से मृतक होता है तब यह जाग्रत् स्वप्नरूप होता है और स्वप्नरूप परलोक जाग्रत् होता है और जाग्रत् स्मृति प्रत्यक्ष हो जाता है तो उसमें वह नहीं रहता और उसमें वह नहीं रहता और जाग्रत् स्वप्न दोनों में परलोक नहीं रहता | इस जाग्रत् में देखिये तो स्वप्ना और परलोक दोनों नहीं भासते और स्वप्ने में इस जाग्रत् और परलोक दोनों का अभाव हो जाता है तो सिद्ध हुआ कि स्वप्नमात्र है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:55 AM
हे रामजी! चिरकाल की प्रतीति को जाग्रत् कहते हैं और अल्पकाल की प्रतीति को स्वप्ना कहते हैं | जो आदि स्वप्ना हुआ और उसमें दृढ़ अभ्यास हो गया उससे जाग्रत् हो भासती इसलिये जो आकार तुमको सत्य भासते हैं वे सब निराकार आकाशरूप हैं कुछ बने नहीं | जैसे स्वप्ने में त्रिलोकी जगत््भ्रम उदय होता है परन्तु सब आकाशरूप होता है, तैसे ही ये जगत् के पदार्थ अविद्या से साकार भासते हैं सो सब निराकार और आकाशरूप है | जब अधिष्ठान आत्मतत्त्व में जागोगे तब सब ही आकाशरूप भासेंगे | अद्वैत आत्मतत्त्व में जो ग्राह्य-ग्राहक भाव भासते हैं सो मिथ्या कल्पना है, वास्तव में कुछ नहीं | सब जगत् मृगतृष्णा के जलवत् मिथ्या है उसमें ग्रहण और त्याग क्या कीजिये? इन दोनों को कल्पना को दूर करो | यह हो और यह न हो इस कल्पना को त्यागकर अपने स्वरूप में स्थित हो रहो तब सब शान्ति प्राप्त होगी |

ravi sharma
01-12-2012, 09:55 AM
वशिष्ठजी बोले, हे राजन्! इन अर्थों का जो आश्रयभूत है सो मैं तुमसे कहता हूँ | इस जगत् के आदि अचेत चिन्मात्र था और उसमें किसी शब्द की प्रवृत्ति न थी-अशब्द पद था | फिर उसमें जानना फुरा और उसका आभास जगत् हुआ | उस आभास में जिसको अधिष्ठान की अहंप्रतीति है उसको जगत् आकाशरूप भासता है और वह संसार में नहीं डूबता, क्योंकि उसको अज्ञान का अभाव है | जो डूबता नहीं वह निकलता भी नहीं, उसे अज्ञाननिवृत्ति और ज्ञान का भी अभाव है, क्योंकि वह स्वतः ज्ञानस्वरूप है | जिनको अधिष्ठान का प्रमाद हुआ है उनको दोनों अवस्था होती हैं | जो ज्ञानवान् है उसको जगत् आत्मरूप भासता है और जो ज्ञान से रहित है उसको भिन्न-भिन्न नामरूप जगत् भासता है | हे रामजी! आत्मा निराख्यात है, वह चारों आख्यातों से रहित निराभाससत्ता है और चारों आख्यात उसमें आभास हैं एक आख्यात्, दूसरा विपर्ययाख्यात्, तीसरा असत्याख्यात और चौथा आत्माख्यात है | आख्यात ज्ञान को कहते है | जिसको यह ज्ञान है कि मैं आपको नहीं जानता, इसका नाम आख्यात है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:56 AM
आपको देह इन्द्रियरूप जानने का नाम विपर्ययाख्यात है | जगत् असत्य जानने का नाम असत्याख्यात है और आत्मा को आत्मा जानने का नाम आत्माख्यात है | ये चारों आख्यात चिन्मात्र आत्मतत्त्व के आभास है | आत्मसत्ता निर्विकल्प अचेत चिन्मात्र है उसमें वाणी की गम नहीं है | हे रामजी! जगत् भी वही स्वरूप है और कुछ बना नहीं और घनशिला की नाईं अचिन्त्य स्वरूप है | इस पर एक आख्यात है जो श्रवणों का भूषण है इसलिये तुझसे कहता हूँ | वह द्वैतदृष्टि को नाश करता है और ज्ञानरूपी कमल का विकास करनेवाला सूर्य है और परमपावन है सो सुनो | हे रामजी! एक बड़ी शिला है जिसका कोटि योजनपर्यन्त विस्तार है अनन्त है किसी ओर उसका अन्त नहीं आता शुद्ध निर्मल और निरासाध है अर्थात् यह कि अणु-अणु से पुष्ट नहीं हुई अपनी सत्ता से पूर्ण है और बहुत सुन्दर है |

ravi sharma
01-12-2012, 09:56 AM
जैसे शालग्राम की प्रतिमा सुन्दर होती है, तैसे ही वह सुन्दर है और जैसे शालग्राम पर, शंख , चक्र, गदा और पद्म की रेखा होती हैं तैसे ही उस पर रेखा होती हैं और वही रूप है | वह वज्र से भी क्रूर, शिला की नाईं निर्विकास और निराकार अचेतन परमार्थ है | यह जो कुछ चैतन्यता भासती है सो उस पर रेखा है और अनन्त कल्प बीत गये हैं परन्तु उसका नाश नहीं होता | पृथ्वी, अपू, तेज, वायु और आकाश, ये सब भी उस पर रेखा हैं और आप पृथ्वी आदिक भूतों से रहित और शिलावत् है और इन रेखाओं को जीवित की नाईं चेतती है | रामजी ने पूछा, हे भगवन्! जो वह अचेतन है और शिला की नाईं निर्विकास है तो उसमें चैतन्यता कहाँ से आई जिससे जीवित-धर्मा हुई-वह तो अचैतन्य थी? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! वह तो न चैतन्य है और न जड़ है शिलारूप है और पत्थर से भी उज्ज्वल है यह चैतन्यता जो तुम कहते हो सो चैतन्यता स्वभाव से दृष्टि आती है- जैसे जल का स्वभाव द्ववीभूत है, तैसे ही चैतन्यता भी उसका स्वभाव है- और जैसे जल में तरंग स्वाभाविक भासते हैं, तैसे ही इससे चैतन्यता स्वाभाविक भासती है परन्तु भिन्न कुछ नहीं |

ravi sharma
01-12-2012, 09:56 AM
वह सदा अपने आपमें स्थित है और किसी से जानी नहीं जाती अबतक किसी ने नहीं जाना | रामजी ने पूछा, हे भगवन्!किसी ने उसको देखा भी है अथवा नहीं देखा और किसी से वह भंग हुई है कि नहीं? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! मैंने उस शिला को देखा है और तुम भी जो उस शिला के देखने का अभ्यास करोगे तो देखोगे | वह परमशुद्ध है-उसको मल कदाचित् नहीं लगता | वह चिह्नों, पोलों और आदि, मध्य, अन्त से रहित है | न उसे कोई तोड़ सकता है और न वह तोड़ने योग्य है, उससे कोई अन्य हो तो उसको भेदे | ये जितने पदार्थ पृथ्वी, पर्वत, वृक्ष, अपू, तेज, वायु, आकाश, देवता, दानव, सूर्य और चन्द्रमा हैं वे सब उसी की रेखा हैं और उसके भीतर स्थित हैं |

ravi sharma
01-12-2012, 09:57 AM
वह शिला महासूक्ष्म निराकार आकाशरूप है | रामजी ने पूछा, हे भगवन्! जो वह आदि मध्य और अन्त से रहित है तो तुमने कैसे देखी सो कहो? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! वह और किसी से जानी नहीं जाती अपने आप अनुभव से जानी जाती है | मैंने उसे अपने स्वभाव में स्थित होकर देखा है |जैसे थम्भे को अनथम्भें में स्थित होकर देखे, तैसे हीं मैंने उसमें स्थित होकर देखा | हम भी उस शिला की रेखा हैं, इससे मैंने उसमें स्थित होकर देखा है | रामजी ने पूछा, हे भगवन्! वह कौन शिला है और उस पर रेखा कौन है सो कहो? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! वह परमात्मारूपी शिला है | मैंने शिलारूप इसलिये कहा कि वह घन चैतन्यरूप है उससे इतर कुछ नहीं और अचिन्त्यरूप है उस पर पञ्चतत्त्व रेखा हैं सो वे रेखा भी वही रूप हैं | एक रेखा बड़ी है जिसमें और रेखा रहती हैं वह बड़ी रेखा आकाश है जिसमें और तत्त्व रहते हैं |

ravi sharma
01-12-2012, 09:57 AM
सब पदार्थ आकाश में हैं सो सब वही रूप है, तुम भी वही रूप हो और मैं भी वही रूप हूँ और कुछ हुआ नहीं | पृथ्वी, जल तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आदि सर्व पदार्थ और कर्म जो भासते हैं सो सब ब्रह्मरूपी शिला की रेखा की रेखा हैं और कुछ हुआ नहीं, सर्वकाल में ब्रह्मसत्ता ही स्थित है | नाना प्रकार के व्यवहार भी दृष्टि आते हैं परन्तु वही रूप हैं और कुछ है नहीं तैसे ही वह जानो | घट, पट, पहाड़,कन्दरा, स्थावर, जंगम, जगत् सब आत्मरूप है | आत्मा ही फुरने से ऐसे भासता है | जैसे जल ही तरंग और लहरें होकर भासता है तैसे ही ब्रह्मसत्ता ही जगत््रूप होकर भासती है और सर्व पदार्थ पवित्र, अपवित्र, सत्य, असत्य, विद्या, अविद्या, सब आत्मसत्ता ही के नाम है इतर वस्तु कुछ नहीं | ब्रह्मसत्ता ही अपने आपमें स्थित है | हे रामजी! सर्व ही घन ब्रह्मरूप है और चिन्मात्र घन ही सबमें व्याप रही है वह परमार्थ सत्ता घन शान्तरूप है और यह भी सर्व परमार्थ घनरूप है इसलिये संकल्परूपी कलना को त्याग कर उसमें स्थित हो रहो |

ravi sharma
01-12-2012, 09:57 AM
वशिष्ठजी बोले , हे रामजी! जो पुरुष स्वभावसत्ता में स्थित हुए हैं उनको ये चारों आख्यात कहे हैं और इनसे लेकर जितने शब्दार्थ हैं वे शशे के सींगवत् असत्य भासते हैं जगत् का निश्चय उनमें नहीं रहता और सर्वब्रह्माण्ड उनको आकाशवत् भासता है | आख्यात की कल्पना भी उन्हे कुछ नहीं फुरती और सर्व जगत् जो दीखता है वह निराकार परम चिदा काशरूप है और परमनिर्वाणसत्ता से युक्त भासता है और उसी से निर्वाण हो जाता है इस लिये वही स्वरूप है | हे रामजी! जब इस प्रकार जानकर तुम उस पद में स्थित होगे तब बड़े शब्द को करते भी तुम निश्चय से पाषाण शिलावत् मौन रहोगे और देखोगे, खावोगे, पिवोगे, सूँघोगे परन्तु निश्चय में कुछ न फुरेगा | जैसे पाषाण की शिला में फुरना नहीं फुरता, तैसे ही तुम रहोगे-जो चरणों से दौड़ते जावोगे तो भी निश्चय से चलायमान न होगे | जैसे आकाश, सुमेरु पर्वत अचल है तैसे ही तुम भी स्थित रहोगे और क्रिया तो सब करोगे परन्तु हृदय में क्रिया का अभिमान तुमको कुछ न होगा केवल स्वभावसत्ता में स्थित होगे |

ravi sharma
01-12-2012, 09:57 AM
जैसे मूढ़ बालक अपनी परछाहीं में वैताल कल्पता है सो अविचारसिद्ध है और विचार किये से कुछ नहीं रहता, तैसे ही मूर्ख अज्ञानी आत्मा में मिथ्या आकार कल्पते हैं विचार किये से सब आकाशरूप है कुछ बना नहीं | जैसे मरुस्थल में नदी तबतक भासती है जबतक विचार करके नहीं देखता और विचार किये से नदी नहीं रहती,तैसे ही यह जगत् विचार किये नहीं रहता | जगत् चैतन्यरूपी रत्न का चमत्कार है, चैतन्य आत्मा का किञ्चन फुरने से ही जगत््रूप हो भासता है | रामजी बोले हे भगवन्! इस जगत् का कारण मैं स्मृति मानता हूँ, वह स्मृति अनुभव से होती है और स्मृति से अनुभव होता है | स्मृति और अनुभव परस्पर कारण हैं, जब अनुभव होता है तब उसको स्मृति भी होती है और वह स्मृतिसंस्कार फिर स्वप्ने में जगत््रूप हो क्यों भासती है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! यह जगत् किसी संस्कार से नहीं उपजा और किसी अनुभव का संस्कार नहीं काकतालीयवत् अकस्मात् फुर आया है |

ravi sharma
01-12-2012, 10:06 AM
हे रामजी! इसलिये न जाग्रत् है, न स्वप्ना है, न कोई सुषुप्ति है और न तुरीया है केवल अद्वैतसत्ता सर्व उत्थान से रहित चिन्मात्र स्थित है, इसलिये जगत् भी वही रूप है और जो क्रिया भी दृष्टि आती है तो भी कुछ हुआ नहीं | जैसे स्वप्ने में अंगना कण्ठ से आ मिलती है तो उसकी क्रिया कुछ सच नहीं होती, तैसे ही यह क्रिया भी सच नहीं | जाग्रत,स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीया शब्दों का अर्थ निश्चय ज्ञानवान् पुरुष को है और शशे के सींग और आकाश के फलवत् असत्य भासते हैं | जैसे बन्ध्या का पुत्र और श्याम चन्द्रमा शब्द कहने मात्र हैं और इनका अर्थ असत्य है, तैसे ही ज्ञानी के निश्चय में पाँचों अवस्थाओं का होना असंभव है |