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View Full Version : साहिर लुधियानवी की कवितायें


Awara
18-12-2012, 10:28 AM
कविताएँ
साहिर लुधियानवी

Awara
18-12-2012, 10:29 AM
दुनिया ने तजुरबातो-हवादिस की शक्ल में
जो कुछ मुझे दिया है लौटा रहा हूँ मैं

आओ कि कोई ख़्वाब बुनें

आओ कि कोई ख़्वाब बुनें कल के वास्ते
वरना ये रात आज के संगीन दौर की
डस लेगी जान-ओ-दिल को कुछ ऐसे कि जान-ओ-दिल
ता-उम्र फिर न कोई हसीं ख़्वाब बुन सकें

गो हम से भागती रही ये तेज़-गाम उम्र
ख़्वाबों के आसरे पे कटी है तमाम उम्र

ज़ुल्फ़ों के ख़्वाब, होंठों के ख़्वाब, और बदन के ख़्वाब
मैराज-ए-फ़न के ख़्वाब, कमाल-ए-सुख़न के ख़्वाब
तहज़ीब-ए-ज़िन्दगी के, फुरोग़-ए-वतन के ख़्वाब
ज़िन्दाँ के ख़्वाब, कूचा-ए-दार-ओ-रसन के ख़्वाब

ये ख़्वाब ही तो अपनी जवानी के पास थे
ये ख़्वाब ही तो अपने अमल की असास थे
ये ख़्वाब मर गये हैं तो बेरंग है हयात
यूँ है कि जैसे दस्त-ए-तह-ए-संग है हयात

आओ कि कोई ख़्वाब बुनें कल के वास्ते
वरना ये रात आज के संगीन दौर की
डस लेगी जान-ओ-दिल को कुछ ऐसे कि जान-ओ-दिल
ता-उम्र फिर न कोई हसीं ख़्वाब बुन सकें

Awara
18-12-2012, 10:31 AM
ताजमहल

ताज तेरे लिए इक मज़हर-ए-उल्फ़त ही सही
तुमको इस वादी-ए-रंगीं से अक़ीदत ही सही
मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझसे

बज़्म-ए-शाही में ग़रीबों का गुज़र, क्या मानी ?
सब्त जिस राह पे हों सतवत-ए-शाही के निशाँ
उस पे उल्फ़त भरी रूहों का सफ़र क्या मानी ?

मेरी महबूब पस-ए-पर्दा-ए-तशहीर-ए-वफ़ा
तूने सतवत के निशानों को तो देखा होता
मुर्दा शाहों के मक़ाबिर से बहलने वाली,
अपने तारीक़ मकानों को तो देखा होता

अनगिनत लोगों ने दुनिया में मुहब्बत की है
कौन कहता है कि सादिक़ न थे जज़्बे उनके
लेकिन उनके लिये तशहीर का सामान नहीं
क्यूँकि वो लोग भी अपनी ही तरह मुफ़लिस थे

ये इमारात-ओ-मक़ाबिर, ये फसीलें, ये हिसार
मुतल क़ुल्हुक्म शहंशाहों की अज़्मत के सुतून
दामन-ए-दहर पे उस रंग की गुलकारी है
जिसमें शामिल है तेरे और मेरे अज़दाद का ख़ून

मेरी महबूब! उन्हें भी तो मुहब्बत होगी
जिनकी सन्नाई ने बख्शी है इसे शक़्ल-ए-जमील
उनके प्यारों के मक़ाबिर रहे बेनाम-ओ-नमूद
आज तक उन पे जलाई न किसी ने क़ंदील

ये चमनज़ार ये जमुना का किनारा, ये महल
ये मुनक़्क़श दर-ओ-दीवार, ये महराब ये ताक़
इक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर
हम ग़रीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़
मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझसे

Awara
18-12-2012, 10:32 AM
ख़ून फिर ख़ून है

जुल्म फिर ज़ुल्म है, बढ़ता है तो मिट जाता है
ख़ून फिर ख़ून है टपकेगा तो जम जाएगा
तुमने जिस ख़ून को मक़्तल में दबाना चाहा
आज वह कूचा-ओ-बाज़ार में आ निकला है

कहीं शोला, कहीं नारा, कहीं पत्थर बनकर
ख़ून चलता है तो रूकता नहीं संगीनों से
सर उठाता है तो दबता नहीं आईनों से
जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती है

जिस्म मिट जाने से इन्सान नहीं मर जाते
धड़कनें रूकने से अरमान नहीं मर जाते
सॉंस थम जाने से ऐलान नहीं मर जाते
होंठ जम जाने से फ़रमान नहीं मर जाते

जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती
ख़ून अपना हो या पराया हो
नस्ले आदम का ख़ून है आख़िर
जंग मशरिक में हो कि मग़रिब में

अमने आलम का ख़ून है आख़िर
बम घरों पर गिरें कि सरहद पर
रूहे- तामीर ज़ख़्म खाती है
खेत अपने जलें या औरों के

ज़ीस्त फ़ाक़ों से तिलमिलाती है
टैंक आगे बढें कि पीछे हटें
कोख धरती की बाँझ होती है
फ़तह का जश्न हो कि हार का सोग
जिंदगी मय्यतों पे रोती है

इसलिए ऐ शरीफ इंसानों
जंग टलती रहे तो बेहतर है
आप और हम सभी के आँगन में
शमा जलती रहे तो बेहतर है।

Awara
18-12-2012, 10:34 AM
मेरे सरकश तराने सुन के दुनिया ये समझती है

मेरे सरकश तराने सुन के दुनिया ये समझती है
कि शायद मेरे दिल को इश्क़ के नग़्मों से नफ़रत है

मुझे हंगामा-ए-जंग-ओ-जदल में कैफ़ मिलता है
मेरी फ़ितरत को ख़ूँरेज़ी के अफ़सानों से रग़्बत है

मेरी दुनिया में कुछ वक़'अत नहीं है रक़्स-ओ-नग़्मे की
मेरा महबूब नग़्मा शोर-ए-आहंग-ए-बग़ावत है

मगर ऐ काश! देखें वो मेरी पुरसोज़ रातों को
मैं जब तारों पे नज़रें गाड़कर आसूँ बहाता हूँ

तसव्वुर बनके भूली वारदातें याद आती हैं
तो सोज़-ओ-दर्द की शिद्दत से पहरों तिलमिलाता हूँ

कोई ख़्वाबों में ख़्वाबीदा उमंगों को जगाती है
तो अपनी ज़िन्दगी को मौत के पहलू में पाता हूँ

मैं शायर हूँ मुझे फ़ितरत के नज़्ज़ारों से उल्फ़त है
मेरा दिल दुश्मन-ए-नग़्मा-सराई हो नहीं सकता

मुझे इन्सानियत का दर्द भी बख़्शा है क़ुदरत ने
मेरा मक़सद फ़क़त शोला नवाई हो नहीं सकता

जवाँ हूँ मैं जवानी लग़्ज़िशों का एक तूफ़ाँ है
मेरी बातों में रंग-ए-पारसाई हो नहीं सकता

मेरे सरकश तरानों की हक़ीक़त है तो इतनी है
कि जब मैं देखता हूँ भूक के मारे किसानों को

ग़रीबों, मुफ़्लिसों को, बेकसों को, बेसहारों को
सिसकती नाज़नीनों को, तड़पते नौजवानों को
हुकूमत के तशद्दुद को, अमारत के तकब्बुर को
किसी के चीथड़ों को और शहनशाही ख़ज़ानों को

तो दिल ताबे-निशाते-बज़्में-इशरत ला नहीं सकता
मैं चाहूं भी तो ख़्वाब-आवर तराने गा नहीं सकता

Awara
18-12-2012, 10:35 AM
परछाइयाँ

जवान रात के सीने पे दूधिया आँचल
मचल रहा है किसी ख्वाबे-मरमरी की तरह
हसीन फूल, हसीं पत्तियाँ, हसीं शाखें
लचक रही हैं किसी जिस्मे-नाज़नीं की तरह
फ़िज़ा में घुल से गए हैं उफ़क के नर्म ख़तूत
ज़मीं हसीन है, ख्वाबों की सरज़मीं की तरह
तसव्वुरात की परछाइयां उभरती हैं।

कभी गुमान की सूरत कभी यकीं की तरह
वे पेड़ जिनके तले हम पनाह लेते थे
खड़े हैं आज भी साकित किसी अमीं की तरह
इन्हीं के साये में फिर आज दो धड़कते दिल
खामोश होठों से कुछ कहने-सुनने आए हैं
न जाने कितनी कशाकश से कितनी काविश से
ये सोते-जागते लम्हे चुराके लाए हैं

यही फ़िज़ा थी, यही रुत, यही ज़माना था
यहीं से हमने मुहब्बत की इब्तिदा की थी
धड़कते दिल से लरज़ती हुई निगाहों से
हुजूरे-ग़ैब में नन्हीं सी इल्तिजा की थी
कि आरज़ू के कंवल खिल के फूल हो जायें
दिलो-नज़र की दुआयें कबूल हो जायें
तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

तुम आ रही हो ज़माने की आँख से बचकर
नज़र झुकाये हुए और बदन चुराए हुए
ख़ुद अपने कदमों की आहट से झेंपती, डरती,
ख़ुद अपने साये की ज़ुंबिश से ख़ौफ खाए हुए
तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

रवाँ है छोटी-सी कश्ती हवाओं के रुख पर
नदी के साज़ पे मल्लाह गीत गाता है
तुम्हारा जिस्म हर इक लहर के झकोले से
मेरी खुली हुई बाहों में झूल जाता है
तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

मैं फूल टाँक रहा हूँ तुम्हारे जूड़े में
तुम्हारी आँख मसर्रत से झुकती जाती है
न जाने आज मैं क्या बात कहने वाला हूँ
ज़बान खुश्क है आवाज़ रुकती जाती है
तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

मेरे गले में तुम्हारी गुदाज़ बाहें हैं
तुम्हारे होठों पे मेरे लबों के साये हैं
मुझे यकीं है कि हम अब कभी न बिछड़ेंगे
तुम्हें गुमां है कि हम मिलके भी पराये हैं।
तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

मेरे पलंग पे बिखरी हुई किताबों को,
अदाए-अज्ज़ो-करम से उठा रही हो तुम
सुहाग रात जो ढोलक पे गाये जाते हैं,
दबे सुरों में वही गीत गा रही हो तुम
तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

वो लम्हे कितने दिलकश थे वो घड़ियाँ कितनी प्यारी थीं,
वो सेहरे कितने नाज़ुक थे वो लड़ियाँ कितनी प्यारी थीं
बस्ती की हर-एक शादाब गली, ख्वाबों का जज़ीरा थी गोया
हर मौजे-नफ़स, हर मौजे सबा, नग़्मों का ज़खीरा थी गोया

नागाह लहकते खेतों से टापों की सदायें आने लगीं
बारूद की बोझल बू लेकर पच्छम से हवायें आने लगीं
तामीर के रौशन चेहरे पर तख्रीब रीब का बादल फैल गया
हर गाँव में वहशत नाच उठी, हर शहर में जंगल फैल गया

मग़रिब के मुहज़्ज़ब मुल्कों से कुछ खाकी वर्दी-पोश आये
इठलाते हुए मग़रूर आये, लहराते हुए मदहोश आये
खामोश ज़मीं के सीने में, खैमों की तनावें गड़ने लगीं
मक्खन-सी मुलायम राहों पर बूटों की खराशें पड़ने लगीं

फौजों के भयानक बैंड तले चर्खों की सदायें डूब गईं
जीपों की सुलगती धूल तले फूलों की क़बायें डूब गईं
इनसान की कीमत गिरने लगी, अजनास के भाओ चढ़ने लगे
चौपाल की रौनक घटने लगी, भरती के दफ़ातर बढ़ने लगे
बस्ती के सजीले शोख जवाँ, बन-बन के सिपाही जाने लगे
जिस राह से कम ही लौट सके उस राह पे राही जाने लगे

इन जाने वाले दस्तों में ग़ैरत भी गई, बरनाई भी
माओं के जवां बेटे भी गये बहनों के चहेते भाई भी
बस्ती पे उदासी छाने लगी, मेलों की बहारें ख़त्म हुईं
आमों की लचकती शाखों से झूलों की कतारें ख़त्म हुईं

धूल उड़ने लगी बाज़ारों में, भूख उगने लगी खलियानों में
हर चीज़ दुकानों से उठकर, रूपोश हुई तहखानों में
बदहाल घरों की बदहाली, बढ़ते-बढ़ते जंजाल बनी
महँगाई बढ़कर काल बनी, सारी बस्ती कंगाल बनी

चरवाहियाँ रस्ता भूल गईं, पनहारियाँ पनघट छोड़ गईं
कितनी ही कंवारी अबलायें, माँ-बाप की चौखट छोड़ गईं
इफ़्लास-ज़दा दहकानों के हल-बैल बिके, खलियान बिके
जीने की तमन्ना के हाथों, जीने ही के सब सामान बिके
कुछ भी न रहा जब बिकने को जिस्मों की तिजारत होने लगी

ख़ल्वत में भी जो ममनूअ थी वो जल्वत में जसारत होने लगी
तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

तुम आ रही हो सरे-आम बाल बिखराये हुए
हज़ार गोना मलामत का बार उठाये हुए
हवस-परस्त निगाहों की चीरा-दस्ती से
बदन की झेंपती उरियानियाँ छिपाए हुए
तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

मैं शहर जाके हर इक दर को झाँक आया हूँ
किसी जगह मेरी मेहनत का मोल मिल न सका
सितमगरों के सियासी किमारखाने में
अलम-नसीब फ़रासत का मोल मिल न सका
तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

तुम्हारे घर में क़यामत का शोर बरपा है
महाज़े-जंग से हरकारा तार लाया है
कि जिसका ज़िक्र तुम्हें ज़िन्दगी से प्यारा था
वह भाई नर्ग़ा-ए-दुश्मन में काम आया है
तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

हर एक गाम पे बदनामियों का जमघट है
हर एक मोड़ पे रुसवाइयों के मेले हैं
न दोस्ती, न तकल्लुफ, न दिलबरी, न ख़ुलूस
किसी का कोई नहीं आज सब अकेले हैं
तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

वो रहगुज़र जो मेरे दिल की तरह सूनी है
न जाने तुमको कहाँ ले के जाने वाली है
तुम्हें खरीद रहे हैं ज़मीर के कातिल
उफ़क पे खूने-तमन्नाए-दिल की लाली है
तसव्वुरात की परछाइयाँ उभरती हैं

सूरज के लहू में लिथड़ी हुई वो शाम है अब तक याद मुझे
चाहत के सुनहरे ख़्वाबों का अंजाम है अब तक याद मुझे

उस शाम मुझे मालूम हुआ खेतों की तरह इस दुनिया में
सहमी हुई दोशीज़ाओं की मुसकान भी बेची जाती है

उस शाम मुझे मालूम हुआ, इस कारगहे-ज़रदारी में
दो भोली-भाली रूहों की पहचान भी बेची जाती है

उस शाम मुझे मालूम हुआ जब बाप की खेती छिन जाये
ममता के सुनहरे ख्वाबों की अनमोल निशानी बिकती है

उस शाम मुझे मालूम हुआ, जब भाई जंग में काम आये
सरमाए के कहवाख़ाने में बहनों की जवानी बिकती है

सूरज के लहू में लिथड़ी हुई वह शाम है अब तक याद मुझे
चाहत के सुनहरे ख्वाबों का अंजाम है अब तक याद मुझे

तुम आज ह्ज़ारों मील यहाँ से दूर कहीं तनहाई में
या बज़्मे-तरब आराई में
मेरे सपने बुनती होगी बैठी आग़ोश पराई में।
और मैं सीने में ग़म लेकर दिन-रात मशक्कत करता हूँ,
जीने की खातिर मरता हूँ,
अपने फ़न को रुसवा करके अग़ियार का दामन भरता हूँ
मजबूर हूँ मैं, मजबूर हो तुम, मजबूर ये दुनिया सारी है,
तन का दुख मन पर भारी है,
इस दौर में जीने की कीमत या दारो-रसन या ख्वारी है
मैं दारो-रसन तक जा न सका, तुम जहद की हद तक आ न सकीं
चाहा तो मगर अपना न सकीं
हम तुम दो ऐसी रूहें हैं जो मंज़िले-तस्कीं पा न सकीं।
जीने को जिये जाते हैं मगर, साँसों में चितायें जलती हैं,
खामोश वफ़ायें जलती हैं,
संगीन हक़ायक़-ज़ारों में, ख्वाबों की रिदाएँ जलती हैं

और आज इन पेड़ों के नीचे फिर दो साये लहराये हैं,
फिर दो दिल मिलने आए हैं,
फिर मौत की आंधी उट्ठी है, फिर जंग के बादल छाये हैं,

मैं सोच रहा हूँ इनका भी अपनी ही तरह अंजाम न हो,
इनका भी जुनूं बदनाम न हो,
इनके भी मुकद्दर में लिक्खी इक खून में लिथड़ी शाम न हो

सूरज के लहू में लिथड़ी हुई वो शाम है अब तक याद मुझे
चाहत के सुनहरे ख्वाबों का अंजाम है अब तक याद मुझे
हमारा प्यार हवादिस की ताब ला न सका,
मगर इन्हें तो मुरादों की रात मिल जाये।
हमें तो कश्मकशे-मर्गे-बेअमा ही मिली,
इन्हें तो झूमती गाती हयात मिल जाये
बहुत दिनों से है यह मश्ग़ला सियासत का,
कि जब जवान हों बच्चे तो क़त्ल हो जायें
बहुत दिनों से है यह ख़ब्त हुक्मरानों का
कि दूर-दूर के मुल्कों में क़हत बो जायें
बहुत दिनों से जवानी के ख्वाब वीराँ हैं,
बहुत दिनों से मुहब्बत पनाह ढूँढती है
बहुत दिनों में सितम-दीद शाहराहों में,
निगारे-ज़ीस्त की इस्मत पनाह ढूँढ़ती है
चलो कि आज सभी पायमाल रूहों से,
कहें कि अपने हर-इक ज़ख्म को ज़बॉं कर लें
हमारा राज़, हमारा नहीं सभी का है
चलो कि सारे ज़माने को राज़दाँ कर लें
चलो कि चल के सियासी मुक़ामिरों से कहें
कि हमको जंगो-जदल के चलन से नफ़रत है
जिसे लहू के सिवा कोई रंग न रास आये
हमें हयात के उस पैरहन से नफ़रत है
कहो कि अब कोई कातिल अगर इधर आया
तो हर कदम पे ज़मीं तंग होती जायेगी
हर एक मौजे हवा रुख बदल के झपटेगी,
हर एक शाख रगे-संग होती जायेगी
उठो कि आज हर इक जंगजू से ये कह दें,
कि हमको काम की खातिर कलों की हाजत है
हमें किसी की ज़मीं छीनने का शौक नहीं,
हमें तो अपनी ज़मीं पर हलों की हाजत है
कहो कि अब कोई ताजिर इधर का रुख़ न करे,
अब इस जा कोई कंवारी न बेची जाएगी
ये खेत जाग पड़े, उठ खड़ी हुई फ़सलें,
अब इस जगह कोई क्यारी न बेची जायेगी
ये सरज़मीन है गौतम की और नानक की
इस अर्ज़े-पाक पे वहशी न चल सकेंगे कभी
हमारा ख़ून अमानत है नस्ले-नौ के लिए
हमारे खून पे लश्कर न पल सकेंगे कभी
कहो कि आज भी हम सब अगर ख़मोश रहे,
तो इस दमकते हुए ख़ाकदाँ की ख़ैर नहीं
जुनूँ की ढाली हुई ऐटमी बलाओं से,
ज़मीं की खैर नहीं आसमाँ की खैर नहीं
गुजिश्ता जंग में घर ही जले मगर इस बार
अजब नहीं कि ये तनहाइयाँ भी जल जायें
गुजिश्ता जंग में पैकर जले मगर इस बार,
अजब नहीं कि ये परछाइयाँ भी जल जायें
तसव्वुरात की परछाइयां उभरती हैं।

rajnish manga
19-12-2012, 11:24 PM
ताजमहल
मेरी महबूब! उन्हें भी तो मुहब्बत होगी
जिनकी सन्नाई ने बख्शी है इसे शक़्ल-ए-जमील
उनके प्यारों के मक़ाबिर रहे बेनाम-ओ-नमूद
आज तक उन पे जलाई न किसी ने क़ंदील

ये चमनज़ार ये जमुना का किनारा, ये महल
ये मुनक़्क़श दर-ओ-दीवार, ये महराब ये ताक़
इक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर
हम ग़रीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़
मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझसे
:gm:
आपने मेरे सार्वाधिक प्रिय शायर साहिर लुधियानवी की रचनाएं यहाँ प्रस्तुत कर के न सिर्फ मुझ पर बल्कि मेरे जैसे अनगिनत पाठकों पर भी उपकार किया है जो मुतमईन हैं कि साहिर इंसानियत पसंद शायर थे और आदमी पर आदमी का ज़ुल्म देख कर कलम के ज़रिये उसका ज़ोरदार विरोध करते थे. अमीर और गरीब का दिल दहला देने वाला अंतर और गरीबों द्वारा निरंतर सही जाने वाली अमानवीय यातनाएं उनकी शायरी का एक ख़ास अंग था. उनकी फ़िल्मी और ग़ैर फ़िल्मी शायरी इसका जीता जागता प्रमाण है. साहिर वास्तव में एक क्रान्तिकारी शायर थे. धन्यवाद, आवारा जी.

bindujain
20-12-2012, 05:55 AM
ताजमहल

ताज तेरे लिए इक मज़हर-ए-उल्फ़त ही सही
तुमको इस वादी-ए-रंगीं से अक़ीदत ही सही
मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझसे

बज़्म-ए-शाही में ग़रीबों का गुज़र, क्या मानी ?
सब्त जिस राह पे हों सतवत-ए-शाही के निशाँ
उस पे उल्फ़त भरी रूहों का सफ़र क्या मानी ?

मेरी महबूब पस-ए-पर्दा-ए-तशहीर-ए-वफ़ा
तूने सतवत के निशानों को तो देखा होता
मुर्दा शाहों के मक़ाबिर से बहलने वाली,
अपने तारीक़ मकानों को तो देखा होता

अनगिनत लोगों ने दुनिया में मुहब्बत की है
कौन कहता है कि सादिक़ न थे जज़्बे उनके
लेकिन उनके लिये तशहीर का सामान नहीं
क्यूँकि वो लोग भी अपनी ही तरह मुफ़लिस थे

ये इमारात-ओ-मक़ाबिर, ये फसीलें, ये हिसार
मुतल क़ुल्हुक्म शहंशाहों की अज़्मत के सुतून
दामन-ए-दहर पे उस रंग की गुलकारी है
जिसमें शामिल है तेरे और मेरे अज़दाद का ख़ून

मेरी महबूब! उन्हें भी तो मुहब्बत होगी
जिनकी सन्नाई ने बख्शी है इसे शक़्ल-ए-जमील
उनके प्यारों के मक़ाबिर रहे बेनाम-ओ-नमूद
आज तक उन पे जलाई न किसी ने क़ंदील

ये चमनज़ार ये जमुना का किनारा, ये महल
ये मुनक़्क़श दर-ओ-दीवार, ये महराब ये ताक़
इक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर
हम ग़रीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़
मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझसे


इक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर
हम ग़रीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़

jai_bhardwaj
24-12-2012, 10:18 PM
अब्दुल हई "साहिर" लुधियानवी जी की एक ग़ज़ल

तंग आ चुके हैं कशमकश-ज़िन्दगी से हैं
ठुकरा न दें जहां को कहीं बेदिली से हम
मायूसी-ए-मआले-मोहब्बत न पूछिए
अपनों से पेश आये हैं बेगानगी से हम
लो, आज हमने तोड़ दिया रिश्ता-ए-उम्मीद
लो, अब कभी गिला न करेंगे किसी से हम
उभरेंगे एक बार अभी दिल के बलबले
गो दब गए हैं बारे-गमे-ज़िन्दगी से हम
गर ज़िन्दगी में मिल गए फिर इत्तफाक से
पूछेंगे अपना हाल तेरी बेबसी से हम
अल्लाह रे! फरेबे-मशीयत कि आज तक
दुनिया के ज़ुल्म सहते रहे खामोशी से हम

कशमकश-ज़िन्दगी = जीवन का संघर्ष
मायूसी-ए-मआले-मोहब्बत = प्रेम के कारण मिली निराशा
बारे-गमे-ज़िन्दगी = जीवन के दुखों के बोझ
फरेबे-मशीयत = सांसारिक छल कपट