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View Full Version : महान व्यक्तित्व {Great personality}


bindujain
27-12-2012, 12:12 PM
महान व्यक्तित्व
_ विज्ञानं
_ गणित
_खेल
_राजनीति
_धर्म
_समाजसेवा
_व्यापार
_सिनेमा
_शिक्षा
_स्वास्थ
_साहित्य
_
_
_
_
_आदि क्षेत्रो से महान व्यक्तित्वों को समर्पित .........

bindujain
27-12-2012, 12:19 PM
http://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/b/bb/Mahavir.jpg/250px-Mahavir.jpg

महावीर स्वामी जी जैन धर्म के चौंबीसवें तीर्थंकर है। करीब ढाई हजार साल पुरानी बात है। ईसा से 599 वर्ष पहले वैशाली गणतंत्र के क्षत्रिय कुण्डलपुर में पिता सिद्धार्थ और माता त्रिशला के यहाँ तीसरी संतान के रूप में चैत्र शुक्ल तेरस को वर्द्धमान का जन्म हुआ। यही वर्द्धमान बाद में स्वामी महावीर बना। महावीर को 'वीर', 'अतिवीर' और 'सन्मति' भी कहा जाता है।

जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी अहिंसा के मूर्तिमान प्रतीक थे। उनका जीवन त्याग और तपस्या से ओतप्रोत था। उन्होंने एक लँगोटी तक का परिग्रह नहीं रखा। हिंसा, पशुबलि, जाति-पाँति के भेदभाव जिस युग में बढ़ गए, उसी युग में ही भगवान महावीर ने जन्म लिया। उन्होंने दुनिया को सत्य, अहिंसा का पाठ पढ़ाया। पूरी दुनिया को उपदेश दिए।

उन्होंने दुनिया को पंचशील के सिद्धांत बताए। इसके अनुसार- सत्य, अपरिग्रह, अस्तेय, अहिंसा और क्षमा। उन्होंने अपने कुछ खास उपदेशों के माध्यम से दुनिया को सही राह दिखाने की *कोशिश की। अपने अनेक प्रवचनों से दुनिया का सही मार्गदर्शन किया।

वर्तमान में

वर्तमान अशांत, आतंकी, भ्रष्ट और हिंसक वातावरण में महावीर की अहिंसा ही शांति प्रदान कर सकती है। महावीर की अहिंसा केवल सीधे वध को ही हिंसा नहीं मानती है, अपितु मन में किसी के प्रति बुरा विचार भी हिंसा है। जब मानव का मन ही साफ नहीं होगा तो अहिंसा को स्थानही कहाँ?

वर्तमान युग में प्रचलित नारा 'समाजवाद' तब तक सार्थक नहीं होगा जब तक आर्थिक विषमता रहेगी। एक ओर अथाह पैसा, दूसरी ओर अभाव। इस असमानता की खाई को केवल भगवान महावीर का 'अपरिग्रह' का सिद्धांत ही भर सकता है। अपरिग्रह का सिद्धांत कम साधनों में अधिक संतुष्टिपर बल देता है। यह आवश्यकता से ज्यादा रखने की सहमति नहीं देता है। इसलिए सबको मिलेगा और भरपूर मिलेगा।

जब अचौर्य की भावना का प्रचार-प्रसार और पालन होगा तो चोरी, लूटमार का भय ही नहीं होगा। सारे जगत में मानसिक और आर्थिक शांति स्थापित होगी। चरित्र और संस्कार के अभाव में सरल, सादगीपूर्ण एवं गरिमामय जीवन जीना दूभर होगा। भगवान महावीर ने हमें अमृत कलश ही नहीं, उसके रसपान का मार्ग भी बताया है।

bindujain
27-12-2012, 12:31 PM
स्वामी विवेकानंद : प्रेरक प्रसंग
http://sphotos-b.xx.fbcdn.net/hphotos-snc7/c0.0.480.229.46619217082/p843x403/481478_451829801543347_750956689_n.jpg

स्वामी विवेकानंद अमेरिका में भ्रमण कर रहे थे . एक जगह से गुजरते हुए उन्होंने पुल पर खड़े कुछ लड़कों को नदी में तैर रहे अंडे के छिलकों पर बन्दूक से निशाना लगाते देखा . किसी भी लड़के का एक भी निशाना सही नहीं लग रहा था . तब उन्होंने ने एक लड़के से बन्दूक ली और खुद निशाना लगाने लगे . उन्होंने पहला निशाना लगाया और वो बिलकुल सही लगा ….. फिर एक के बाद एक उन्होंने कुल 12 निशाने लगाये और सभी बिलकुल सटीक लगे . ये देख लड़के दंग रह गए और उनसे पुछा , ” भला आप ये कैसे कर लेते हैं ?”

स्वामी जी बोले , “तुम जो भी कर रहे हो अपना पूरा दिमाग उसी एक काम में लगाओ. अगर तुम निशाना लगा रहे हो तो तम्हारा पूरा ध्यान सिर्फ अपने लक्ष्य पर होना चाहिए. तब तुम कभी चूकोगे नहीं . अगर तुम अपना पाठ पढ़ रहे हो तो सिर्फ पाठ के बारे में सोचो . मेरे देश में बच्चों को ये करना सिखाया जाता है. ”

bindujain
27-12-2012, 12:35 PM
स्वामी विवेकानंद :प्रेरक प्रसंग
http://acchibaatein.in/wp-content/uploads/2012/10/swamivivekanand1-300x254.jpg

एक बार बनारस में स्वामी जी दुर्गा जी के मंदिर से निकल रहे थे की तभी वहां मौजूद बहुत सारे बंदरों ने उन्हें घेर लिया. वे उनके नज़दीक आने लगे और डराने लगे . स्वामी जी भयभीत हो गए और खुद को बचाने के लिए दौड़ कर भागने लगे, पर बन्दर तो मानो पीछे ही पड़ गए, और वे उन्हें दौडाने लगे. पास खड़ा एक वृद्ध सन्यासी ये सब देख रहा था , उसने स्वामी जी को रोका और बोला , ” रुको ! उनका सामना करो !”

स्वामी जी तुरन्त पलटे और बंदरों के तरफ बढ़ने लगे , ऐसा करते ही सभी बन्दर भाग गए . इस घटना से स्वामी जी को एक गंभीर सीख मिली और कई सालों बाद उन्होंने एक संबोधन में कहा भी – ” यदि तुम कभी किसी चीज से भयभीत हो तो उससे भागो मत , पलटो और सामना करो.”

bindujain
27-12-2012, 12:37 PM
विचार की चोरी

आप अपने विचारों की चोरी की फिक्र न करें। अगर आपका आईडिया वास्तव में काम का है तो विश्वास रखें – उसे लोगों के गले से नीचे उतारने में आपको वास्तव में बहुत मशक्कत करनी होगी।

~ हॉवर्ड आईकेन।

bindujain
28-12-2012, 05:24 AM
A.P.J. Abdul Kalam

http://www.biography.com/imported/images/Biography/Images/Profiles/K/APJ-Abdul-Kalam-39325-1-402.jpg

A.P.J. Abdul Kalam was born in India on October 15, 1931. A lifelong scientist, Kalam's prominent role in India's 1998 nuclear weapons tests established him as a national hero. In 2002, India's ruling National Democratic Alliance helped him win election against the country's former president, Kocheril Raman Narayanan; Kalam became India's 11th president, a largely ceremonial post, in July 2002.

bindujain
28-12-2012, 05:31 AM
Albert Einstein

http://www.biography.com/imported/images/Biography/Images/Profiles/E/Albert-Einstein-9285408-1-402.jpg

"The world is a dangerous place to live; not because of the people who are evil, but because of the people who don't do anything about it."

– Albert Einstein

bindujain
28-12-2012, 05:36 AM
Benazir Bhutto

NAME: Benazir Bhutto
OCCUPATION: Prime Minister
BIRTH DATE: June 21, 1953
DEATH DATE: December 27, 2007
EDUCATION: Radcliffe College, Harvard University, Oxford

http://www.biography.com/imported/images/Biography/Images/Profiles/B/Benazir-Bhutto-9211744-1-402.jpg

Benazir Bhutto was born on June 21, 1953, in Karachi, SE Pakistan, the child of former premier Zulfikar Ali Bhutto. She inherited leadership of the PPP after a military coup overthrew her father's government and won election in 1988, becoming the first female prime minister of a Muslim nation. In 2007 she returned to Pakistan after an extended exile, but was killed in a suicide attack.

bindujain
29-12-2012, 05:31 AM
http://www.achhikhabar.com/wp-content/uploads/2012/04/Osho.jpg

Name Osho (Bhagwan Shree Rajneesh) /ओशो (भगवान श्री रजनीश)
Born 11 December 1931
Kuchwada, Bhopal State, British India (modern day Madhya Pradesh, India)Died19 January 1990 (aged 58)Poona, Maharashtra, IndiaNationalityIndianFieldSpirituality

Achievement

He was an Indian mystic, guru, and spiritual teacher who garnered an international following.

आप जितने लोगों को चाहें उतने लोगों को प्रेम कर सकते हैं- इसका ये मतलब नहीं है कि आप एक दिन दिवालिया हो जायेंगे, और कहेंगे,” अब मेरे पास प्रेम नहीं है”. जहाँ तक प्रेम का सवाल है आप दिवालिया नहीं हो सकते.

Osho ओशो

bindujain
29-12-2012, 08:24 AM
Galileo

Galileo was an Italian scientist who led the Scientific Revolution, proposing the then controversial idea of Copernicanism, the idea that earth orbits the sun.

http://www.biography.com/imported/images/Biography/Images/Profiles/G/Galileo-9305220-1-402.jpg

400 years ago
Galileo is the first person to observe the planet Neptune, though he mistakes it for a star.

bindujain
29-12-2012, 09:02 PM
http://media2.intoday.in/indiatoday/images/stories/gandhi-350_100212082704.jpg

http://thequotes.net/wp-content/themes/updated_simplista1/img_quotes/hate%20the%20sin1322143358.jpg

bindujain
29-12-2012, 09:25 PM
http://www.livehindustan.com/uploadimage/photos//year_2012/month_12/day_28/28Dec1356682976fri55.jpg

ragratipajput
29-12-2012, 09:59 PM
स्वामी विवेकानंद : प्रेरक प्रसंग
http://sphotos-b.xx.fbcdn.net/hphotos-snc7/c0.0.480.229.46619217082/p843x403/481478_451829801543347_750956689_n.jpg

स्वामी विवेकानंद अमेरिका में भ्रमण कर रहे थे . एक जगह से गुजरते हुए उन्होंने पुल पर खड़े कुछ लड़कों को नदी में तैर रहे अंडे के छिलकों पर बन्दूक से निशाना लगाते देखा . किसी भी लड़के का एक भी निशाना सही नहीं लग रहा था . तब उन्होंने ने एक लड़के से बन्दूक ली और खुद निशाना लगाने लगे . उन्होंने पहला निशाना लगाया और वो बिलकुल सही लगा ….. फिर एक के बाद एक उन्होंने कुल 12 निशाने लगाये और सभी बिलकुल सटीक लगे . ये देख लड़के दंग रह गए और उनसे पुछा , ” भला आप ये कैसे कर लेते हैं ?”

स्वामी जी बोले , “तुम जो भी कर रहे हो अपना पूरा दिमाग उसी एक काम में लगाओ. अगर तुम निशाना लगा रहे हो तो तम्हारा पूरा ध्यान सिर्फ अपने लक्ष्य पर होना चाहिए. तब तुम कभी चूकोगे नहीं . अगर तुम अपना पाठ पढ़ रहे हो तो सिर्फ पाठ के बारे में सोचो . मेरे देश में बच्चों को ये करना सिखाया जाता है. ”
bahut achchhe

ragratipajput
29-12-2012, 10:01 PM
A.P.J. Abdul Kalam

http://www.biography.com/imported/images/Biography/Images/Profiles/K/APJ-Abdul-Kalam-39325-1-402.jpg

A.P.J. Abdul Kalam was born in India on October 15, 1931. A lifelong scientist, Kalam's prominent role in India's 1998 nuclear weapons tests established him as a national hero. In 2002, India's ruling National Democratic Alliance helped him win election against the country's former president, Kocheril Raman Narayanan; Kalam became India's 11th president, a largely ceremonial post, in July 2002.

mahan vaigyanik rashtrapati ke bare men batane ka shukriya

ragratipajput
29-12-2012, 10:02 PM
http://www.achhikhabar.com/wp-content/uploads/2012/04/Osho.jpg

Name Osho (Bhagwan Shree Rajneesh) /ओशो (भगवान श्री रजनीश)
Born 11 December 1931
Kuchwada, Bhopal State, British India (modern day Madhya Pradesh, India)Died19 January 1990 (aged 58)Poona, Maharashtra, IndiaNationalityIndianFieldSpirituality

Achievement

He was an Indian mystic, guru, and spiritual teacher who garnered an international following.

आप जितने लोगों को चाहें उतने लोगों को प्रेम कर सकते हैं- इसका ये मतलब नहीं है कि आप एक दिन दिवालिया हो जायेंगे, और कहेंगे,” अब मेरे पास प्रेम नहीं है”. जहाँ तक प्रेम का सवाल है आप दिवालिया नहीं हो सकते.

Osho ओशो

csho ke baare men aur jankari den

bindujain
30-12-2012, 09:42 AM
पंडित रविशंकर

http://hindi.oneindia.in/img/2012/12/12-pandit-ravi-shankar1.jpg

He was possibly one of the greatest legends of Indian music. He was an expert in Sitar and popularized it throughout the world. If Indian classical music is being heard today by the great music lovers of the world, it is definitely due to the untiring efforts of this great man.

bindujain
30-12-2012, 09:55 AM
श्री श्री रवि शंकर

http://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/5/5d/Sri_Sri_Ravi_Shankar.jpg/800px-Sri_Sri_Ravi_Shankar.jpg

श्री श्री रवि शंकर (जन्म: १३ मई, १९५६) एक आध्यामिक नेता एवं मानवतावादी धर्मगुरु हैं। उनके भक्त उन्हें आदर से प्राय: "श्री श्री" के नाम से पुकारते हैं। वे अन्तरराष्ट्रीय जीवन जीने की कला फाउन्डेशन (international Art of Living Foundation) के संस्थापक हैं।

श्री श्री रविशंकर का जन्म भारत के तमिलनाडु राज्य में 13 मई 1956 को हुआ। उनके पिता का नाम व वेंकेट रतनम था जो भाषाविद् थे। उनकी माता श्रीमती विषलक्षी सुशील महिला थीं। आदि शंकराचार्य से प्रेरणा लेते हुए उनके पिता ने उनका नाम रखा शंकर।
शंकर शुरू से ही आध्यात्मिक प्रवृत्ति के थे। मात्र चार साल की उम्र में वे भगवदगीता के श्लोकों का पाठ कर लेते थे। बचपन में ही उन्होंने ध्यान करना शुरू कर दिया था। उनके शिष्य बताते हैं कि फीजिक्स में अग्रिम डिग्री उन्होंने 17 वर्ष की आयु में ही ले ली थी।
शंकर पहले महर्षि महेश योगी के शिष्य थे। उनके पिता ने उन्हें महेश योगी को सौंप दिया था। अपनी विद्वता के कारण शंकर महेश योगी के प्रिय शिष्य बन गये। उन्होंने अपने नाम रवि शंकर के आगे ‘श्री श्री’ जोड़ लिया जब प्रख्यात सितार वादक रवि शंकर ने उन पर आरोप लगाया कि वे उनके नाम की कीर्ति का इस्तेमाल कर रहे हैं।
रवि शंकर लोगों को सुदर्शन क्रिया सिखाते हैं। इसके बारे में वो कहते हैं कि 1982 में दस दिवसीय मौन के दौरान कर्नाटक के भद्रा नदी के तीरे लयबद्ध सांस लेने की क्रिया एक कविता या एक प्रेरणा की तरह उनके जेहन में उत्तपन्न हुई। उन्होंने इसे सीखा और दूसरों को सिखाना शुरू किया।
1982 में में श्री श्री रवि शंकर ने आर्ट आफ लिविंग की स्थापना की। यह शिक्षा और मानवता के प्रचार प्रसार के लिए कार्य करती है। 1997 में ‘इंटरनेशनल एसोसियेशन फार ह्यूमन वैल्यू’ की स्थापना की जिसका उद्देश्य वैश्विक स्तर पर उन मूल्यों को फैलाना है जो लोगों को आपस में जोड़ती है।

bindujain
30-12-2012, 06:00 PM
Laxmi Bai – झांसी की रानी लक्ष्मीबाई

http://politics.jagranjunction.com/files/2011/12/jhansi-ki-rani.jpg

Rani Laxmibai was born in November 19, 1835. Her father was a Brahmin. Her mother was a brave God fearing lady. The Rani lost her mother at the age of four. She learned horseback riding, sword fighting, and shooting on a target with a gun. She was married to the maharaja of Jhansi, his name was Raja Ghangadhar Rao. In 1842 she was called the Rani of Jhansi. After the marriage, the Rani was called Lakshmi Bai. She was married in the temple of Ganesh. In 1851, the Rani had a son; he unfortunately died when he was barely four months old. So the Rani adopted a son, his name was Damodar Rao. The British weren't satisfied with the idea that Damodar was the legal heir to the throne. The governor of India said that Jhansi would be broken down since Gangadhar had left no heir to the throne. Because of that, a war broke out between the citizens of Jhansi and the British. Rani was not ready to give up Jhansi, she was a symbol of patriotism and self respect. On March 1858, the British decided to attack Jhansi. The Rani did not surrender, the battle continued for two weeks. Rani Laxmibai was very active. She herself was looking over the city. However, Jhansi was given to the British. That day the British army entered the city of Jhansi. Rani dressed as a man, had her baby strapped to her back, she held the horse reins in her mouth, and held two swords in her hands. When the time was ripe, the army and the Rani escaped. At the age of 22, the Rani lost her life. That day was June 18, 1858.

bindujain
31-12-2012, 07:39 PM
http://hindi.webdunia.com/articles/1209/21/images/img1120921011_1_1.jpg

bindujain
31-12-2012, 07:55 PM
http://hindi.webdunia.com/articles/1209/20/images/img1120920046_1_2.jpgक्या हैं तीर्थंकर का अर्थ :-
जो देवों और मनुष्य द्वारा पूज्य होते हैं, जो स्वयं तरते हैं तथा औरों को तरने का मार्ग बताते हैं, उन्हें तीर्थंकर कहते हैं। तीर्थंकर जन्म और मृत्यु के बंधन से मुक्त होते हैं।

bindujain
01-01-2013, 04:49 AM
तुलसीदास

http://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/d/d3/Gosvami_Tulsidas_II.jpg/434px-Gosvami_Tulsidas_II.jpg

गोस्वामी तुलसीदास [१४९७ - १६२३] एक महान कवि थे। उनका जन्म राजापुर गाँव (वर्तमान बाँदा जिला) उत्तर प्रदेश में हुआ था। अपने जीवनकाल में तुलसीदास जी ने १२ ग्रन्थ लिखे और उन्हें संस्कृत विद्वान होने के साथ ही हिन्दी भाषा के प्रसिद्ध और सर्वश्रेष्ठ कवियों में एक माना जाता है। तुलसीदास जी को महर्षि वाल्मीकि का अवतार भी माना जाता है जो मूल आदि काव्य रामायण के रचयिता थे। श्रीराम जी को समर्पित ग्रन्थ श्रीरामचरितमानस वाल्मीकि रामायण का प्रकारान्तर से ऐसा अवधी भाषान्तर है जिसमें अन्य भी कई कृतियों से महत्वपूर्ण सामग्री समाहित की गयी थी। श्रीरामचरितमानस को समस्त उत्तर भारत में बड़े भक्तिभाव से पढ़ा जाता है। इसके बाद विनय पत्रिका तुलसीदासकृत एक अन्य महत्वपूर्ण काव्य है।

bindujain
01-01-2013, 04:54 AM
मुनिश्री तरुण सागरजी

http://hindi.webdunia.com/articles/1204/28/images/img1120428015_1_1.jpg

* जीवन में अपने संकल्प, साधना व लक्ष्य से कभी भी मत गिरो। गिरना ही है, तो प्रभु के चरणों में गिरो। जहां उठाने वाला हो, वहां गिरना चाहिए। जो स्वयं गिरे हुए हो, वहां गिरना अंधों की बस्ती में ऐनक बेचने के समान है। उठने के लिए गिरना आवश्यक है। उसी तरह सोने के लिए बिछौना व पाने के लिए खोना जरूरी है।

bindujain
01-01-2013, 08:13 AM
श्रमण संस्कृति उन्नायक आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज

http://www.vidyasagar.net/images/vid.jpg

संत कमल के पुष्प के समान लोकजीवनरूपी वारिधि में रहता है, संचरण करता है, डुबकियाँ लगाता है, किंतु डूबता नहीं। यही भारत भूमि के प्रखर तपस्वी, चिंतक, कठोर साधक, लेखक, राष्ट्रसंत आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज के जीवन का मंत्र घोष है।

पूर्व नाम : श्री विद्याधरजी
पिता श्री : श्री मल्लप्पाजी अष्टगे (मुनिश्री मल्लिसागरजी)
माता श्री : श्रीमती श्रीमंतीजी (आर्यिकाश्री समयमतिजी)
भाई/बहन : चार भाई, दो बहन
जन्म स्थान : चिक्कोड़ी (ग्राम-सदलगा के पास), बेलगाँव (कर्नाटक)
जन्म तिथि : आश्विन शुक्ल पूर्णिमा (शरद पूर्णिमा) वि.सं. २००३, १०-१०-१९४६, गुरुवार, रात्रि में १२:३० बजे
जन्म नक्षत्र : उत्तरा भाद्र
शिक्षा : ९वीं मैट्रिक (कन्नड़ भाषा में)
ब्रह्मचर्य व्रत : श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, चूलगिरि (खानियाजी), जयपुर (राजस्थान)
प्रतिमा : सात (आचार्यश्री देशभूषणजी महाराज से)
स्थल : १९६६ में श्रवण बेलगोला, हासन (कर्नाटक)
मुनि दीक्षा स्थल : अजमेर (राजस्थान)
मुनि दीक्षा तिथि : आषाढ़, शुक्ल पंचमी वि.सं., २०२५, ३०-०६-१९६८, रविवार
आचार्य पद तिथि : मार्गशीर्ष कृष्ण द्वितीया-वि.सं. २०२९, दिनांक २२-११-१९७२, बुधवार
आचार्य पद स्थल : नसीराबाद (राजस्थान) में, आचार्यश्री ज्ञानसागरजी ने अपना आचार्य पद प्रदान किया।
मातृभाषा : कन्नड़

bindujain
01-01-2013, 04:05 PM
चरक

http://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/9/9a/Charak.jpg/800px-Charak.jpg

चरक एक महर्षि एवं आयुर्वेद विशारद के रूप में विख्यात हैं। वे कुषाण राज्य के राजवैद्य थे। इनके द्वारा रचित चरक संहिता एक प्रसिद्ध आयुर्वेद ग्रन्थ है। इसमें रोगनाशक एवं रोगनिरोधक दवाओं का उल्लेख है तथा सोना, चाँदी, लोहा, पारा आदि धातुओं के भस्म एवं उनके उपयोग का वर्णन मिलता है। आचार्य चरक ने आचार्य अग्निवेश के अग्निवेशतन्त्र मे कुछ स्थान तथा अध्याय जोड्कर उसे नया रूप दिया जिसे आज हम चरक संहिता के नाम से जानते है।

bindujain
02-01-2013, 05:15 AM
http://shriprannathgyanpeeth.org/mahatma_gandhi.jpg

मोहनदास करमचन्द गांधी, जिन्हें सत्य व अहिंसा का पालन करने के लिए महात्मा की उपाधि से अलंकरित किया गया, आधुनिक विश्व के विख्यात नेता रहे हैं । अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए उन्होंने २०वीं सदी के प्रथम भाग में दक्षिण अफ्रीका व भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतन्त्रता आंदोलन चलाया । गरीबों व दलितों के उत्थान, स्वदेश स्वाभिमान तथा सर्वधर्म एकता के पुरजोर समर्थक रहे गांधी जी ने सामाजिक क्षेत्र में भी एक क्रांति को जन्म दिया ।

महात्मा गांधी को द्वितीय विश्व युद्ध के उपरांत तीन बार नोबेल शान्ति पुरस्कार के लिए नामित किया गया, परन्तु विश्व राजनीति के कारण वह उससे वंचित रह गये । इंग्लैंड से स्वतन्त्रता के पश्चात् , आधुनिक भारत में उन्हें मरणोपरांत 'राष्ट्रपिता' की उपाधि से सम्मानित किया गया । भारतीय मुद्रा पर आज भी उनकी ही छाप चलती है ।

महात्मा गांधी के बचपन में पड़ी दृढ़ नींव से ही वे सत्यवादी, समदृष्टा, परपीड़ा आभासक व स्वाभिमानप्रिय व्यक्तित्व के धनी बन सके थे । नवजीवन पब्लिशिंग हाउस, अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित पुस्तक 'महात्मा गांधी- भाग १' जिसके लेखक श्री प्यारे लाल हैं तथा जिस��ी भूमिका भारतीय राष्ट्रपति डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने लिखी है, में महात्मा गांधी के बचपन पर लिखा गया है कि-

"गांधी जी की माताजी दंत्राणा गांव के निजानन्द सम्प्रदाय (प्रणामी) परिवार से थीं । यदि हमें गांधी जी को समझना है, तो आवश्यक रूप से गांधी जी की माताजी के धार्मिक विचारों को समझना होगा । (प्रोफेसर स्टीफन, हार्वर्ड विश्वविद्यालय के पत्र से उद्धृत)

(कैम्ब्रिज, यू.एस.ए. दिसम्बर ३१, १९६५) मोहनदास के बचपनकाल के समय पोरबन्दर में उनके घर के पास श्री प्राणनाथ जी (प्रणामी) मंदिर था और वह आज भी विद्यमान है । यद्यपि उसका स्वरूप काफी कुछ बदला हुआ प्रतीत होता है । मेरी शादी के पश्चात् मेरी माताजी मुझे उस मंदिर में भी ले गयीं । यह अपने प्रकार का अकेला ही मंदिर पोरबन्दर में था ।"



Read more: http://shriprannathgyanpeeth.org/mahatma_gandhi_hi.htm#.RDDX_uRLXqE#ixzz1TlGmpmxV

bindujain
02-01-2013, 05:16 AM
कालिदास

http://upload.wikimedia.org/wikipedia/hi/thumb/1/13/Shakuntala.jpg/220px-Shakuntala.jpg

कालिदास संस्कृत भाषा के सबसे महान कवि और नाटककार थे। कालिदास शिव के भक्त थे। उन्होंने भारत की पौराणिक कथाओं और दर्शन को आधार बनाकर रचनाएं की। कलिदास अपनी अलंकार युक्त सुंदर सरल और मधुर भाषा के लिये विशेष रूप से जाने जाते हैं। उनके ऋतु वर्णन अद्वितीय हैं और उनकी उपमाएं बेमिसाल। संगीत उनके साहित्य का प्रमुख अंग है और रस का सृजन करने में उनकी कोई उपमा नहीं। उन्होंने अपने शृंगार रस प्रधान साहित्य में भी साहित्यिक सौन्दर्य के साथ-साथ आदर्शवादी परंपरा और नैतिक मूल्यों का समुचित ध्यान रखा है। उनका नाम अमर है और उनका स्थान वाल्मीकि और व्यास की परम्परा में है।

bindujain
02-01-2013, 05:54 PM
http://www.khaama.com/wp-content/uploads/2012/06/Rajesh-Khanna.jpg

Date of Birth
29 December 1942, Amritsar, Punjab, British India (now India)

Date of Death
18 July 2012, Mumbai, Maharashtra, India (cancer)

Birth Name
Jatin Chunnilal Khanna

Nickname
Kaka
RK
Shehzada
The Original King of Romance

bindujain
03-01-2013, 08:24 AM
Ahmad Faraz
(1931-2008)

http://3.bp.blogspot.com/_jVgHE75aHrs/SLRNoMxY_rI/AAAAAAAABQw/Gt6IBstSTDU/s400/Faraz-1.JPG

बरसों के बाद देखा इक शख्स दिलरुबा सा
अब जहाँ में नहीं है पर नाम था भला सा

अल्फाज थे के जुगनू आवाज के सफ़र में
बन जाये जंगलों में जिस तरह रास्ता सा

ख्वाबों में ख्वाब उस के यादों में यद् उस की
नींदों में घुल गया हो जैसे के रतजगा सा

तेवर थे बेरुखी के अंदाज दोस्ती के
वो अजनबी था लेकिन लगता था आशना सा

bindujain
03-01-2013, 08:42 AM
Jesus Christ

http://www.biography.com/imported/images/Biography/Images/Profiles/C/Jesus-Chirst-9354382-1-402.jpg

OCCUPATION: Biblical Figure
BIRTH DATE: c. 6
DEATH DATE: c. 30
PLACE OF BIRTH: Bethlehem, Israel
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Jesus founded Christianity, one of the world’s most influential religions. His teachings and life are recorded in the Bible’s New Testament and emulated by Christians all over the world.

bindujain
03-01-2013, 04:26 PM
गुरु घासीदास : महान संत

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बाबा गुरु घासीदास का जन्म छत्तीसगढ़ के रायपुर जिले में गिरौद नामक ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम मंहगू दास तथा माता का नाम अमरौतिन था और उनकी धर्मपत्नी का सफुरा था।

गुरु घासीदास का जन्म ऐसे समय हुआ जब समाज में छुआछूत, ऊंचनीच, झूठ-कपट का बोलबाला था, बाबा ने ऐसे समय में समाज में समाज को एकता, भाईचारे तथा समरसता का संदेश दिया।

घासीदास की सत्य के प्रति अटूट आस्था की वजह से ही इन्होंने बचपन में कई चमत्कार दिखाए, जिसका लोगों पर काफी प्रभाव पड़ा। गुरु घासीदास ने समाज के लोगों को सात्विक जीवन जीने की प्रेरणा दी। उन्होंने न सिर्फ सत्य की आराधना की, बल्कि समाज में नई जागृति पैदा की और अपनी तपस्या से प्राप्त ज्ञान और शक्ति का उपयोग मानवता की सेवा के कार्य में किया।

इसी प्रभाव के चलते लाखों लोग बाबा के अनुयायी हो गए। फिर इसी तरह छत्तीसगढ़ में 'सतनाम पंथ' की स्थापना हुई। इस संप्रदाय के लोग उन्हें अवतारी पुरुष के रूप में मानते हैं। गुरु घासीदास के मुख्य रचनाओं में उनके सात वचन सतनाम पंथ के 'सप्त सिद्धांत' के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इसलिए सतनाम पंथ का संस्थापक भी गुरु घासीदास को ही माना जाता है।

बाबा ने तपस्या से अर्जित शक्ति के द्वारा कई चमत्कारिक कार्यों कर दिखाएं। बाबा गुरु घासीदास ने समाज के लोगों को प्रेम और मानवता का संदेश दिया। संत गुरु घासीदास की शिक्षा आज भी प्रासंगिक है।

बाबा गुरु घासीदास की जयंती से हमें पूजा करने की प्रेरणा मिलती है और पूजा से सद्विचार तथा एकाग्रता बढ़ती है। इससे समाज में सद्कार्य करने की प्रेरणा मिलती हे।

बाबा के बताए मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति ही अपने जीवन में अपना तथा अपने परिवार की उन्नति कर सकता है। पूरे छत्तीसगढ़ राज्य में गुरु घासीदास की जयंती 18 दिसंबर से एक माह तक बड़े पैमाने पर उत्सव के रूप में पूरे श्रद्धा और उत्साह के साथ मनाई जाती है।

bindujain
05-01-2013, 04:56 AM
कबीर

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संसारभर में भारत की भूमि ही तपोभूमि (तपोवन) के नाम से विख्यात है। यहाँ अनेक संत, महात्मा और पीर-पैगम्बरों ने जन्म लिया। सभी ने भाईचारे, प्रेम और सद्भावना का संदेश दिया है। इन्हीं संतों में से एक संत कबीरदासजी भी हुए हैं। इनका जन्म संवत्* 1455 की ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा को हुआ था। इसीलिए ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा के दिन देश भर में कबीर जयंती मनाई जाती है।

महात्मा कबीर समाज में फैले आडम्बरों के सख्त विरोधी थे। उन्होंने लोगों को एकता के सूत्र का पाठ पढ़ाया। वे लेखक और कवि थे। उनके दोहे इंसान को जीवन की नई प्रेरणा देते थे। कबीर ने जिस भाषा में लिखा, वह लोक प्रचलित तथा सरल थी। उन्होंने विधिवत शिक्षा नहीं ग्रहण की थी, इसके बावजूद वे दिव्य प्रभाव के धनी थे।

कबीरदासजी को हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही संप्रदायों में बराबर का सम्मान प्राप्त था। दोनों संप्रदाय के लोग उनके अनुयायी थे। यही कारण था कि उनकी मृत्यु के बाद उनके शव को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया। हिन्दू कहते थे कि उनका अंतिम संस्कार हिन्दू रीति से होना चाहिए और मुस्लिम कहते थे कि मुस्लिम रीति से।

किंतु इसी छीना-झपटी में जब उनके शव पर से चादर हट गई, तब लोगों ने वहाँ फूलों का ढेर पड़ा देखा। यह कबीरजी की ओर से दिया गया बड़ा ही सशक्त संदेश था कि इंसान को फूलों की तरह होना चाहिए- सभी धर्मों के लिए एक जैसा भाव रखने वाले, सभी को स्वीकार्य।

बाद में वहाँ से आधे फूल हिन्दुओं ने ले लिए और आधे मुसलमानों ने तथा अपनी-अपनी रीति से उनका अंतिम संस्कार किया। ऐसे थे कबीर।

bindujain
05-01-2013, 05:01 AM
संगीत सम्राट बैजु बावरा


वेत्रवती और ऊर्वशी युगल सरिताओं के मध्य विंध्याचल पर्वत की गगनचुंबी श्रेणियों के बीच बसा चंदेरी नगर महाभारत काल से आज तक किसी न किसी कारण विख्यात रहा है। महाभारत काल में भगवान श्रीकृष्ण और राजा शिशुपाल के कारण और मध्यकाल में महान संगीतज्ञ बैजू बावरा, मुगल सम्राट बाबर, बुंदेला सम्राट मैदिनीराय तथा मणिमाला के कारण यह इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान बनाए हुए है।

१६वीं शताब्दी के महान गायक संगीतज्ञ तानसेन के गुरुभाई पंडित बैजनाथ का जन्म १५४२ में शरद पूर्णिमा की रात एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। चंदेरी बैजनाथ की क्रीड़ा-कर्मस्थली रही है। इस बात का उल्लेख प्रसिद्ध साहित्यकार श्री वृंदावनलाल वर्मा के 'मृगनयनी' व 'दुर्गावती' जैसे ऐतिहासिक उपन्यासों में भी मिलता है।

पंडित बैजनाथ की बाल्यकाल से ही गायन एवं संगीत में काफी रुचि थी। उनके गले की मधुरता और गायन की चतुराई प्रभावशाली थी। पंडित बैजनाथ को बचपन में लोग प्यार से 'बैजू' कहकर पुकारते थे। बैजू की उम्र के साथ-साथ उनके गायन और संगीत में भी बढ़ोतरी होती गई। जब बैजू युवा हुए तो नगर की कलावती नामक युवती से उनका प्रेम प्रसंग हुआ। कलावती बैजू की प्रेयसी के साथ-साथ प्रेरणास्रोत भी रही। संगीत और गायन के साथ-साथ बैजू अपनी प्रेयसी के प्यार में पागल हो गए। इसी से लोग उन्हें बैजू बावरा कहने लगे।

कला और बैजू का प्रेम प्रसंग जितना निश्छल, अद्वितीय एवं सुखद था, उसका अंत उतनी ही दुखद घटना से हुआ। कहा जाता है कि बैजू को अपने पिता के साथ तीर्थों के दर्शन के लिए चंदेरी से बाहर जाना पड़ा और उनका विछोह हो गया। वे बाद में भी नहीं मिले। इस घटना का 'बैजू' के जीवन पर काफी प्रभाव पड़ा और इसी घटना का बैजू को महान संगीतकार बनाने में काफी योगदान रहा।

चंदेरी में जब अपने संगीत और स्वयं का भविष्य अंधकार में नजर आया तो बैजू ने चंदेरी छोड़ने का दृढ़ निश्चय किया। ग्वालियर के महाराजा मानसिंह को कला एवं संगीत से अत्यधिक प्रेम था। उन्होंने बैजू बावरा को अपने दरबार में रख लिया तथा अपनी रानी मृगनयनी की संगीत शिक्षा की जिम्मेदारी बैजू को सौंपी। बैजू ने ध्रुपद, मूजरीटोड़ी, मंगल गुजरी आदि नए-नए रागों का आविष्कार किया। उन्होंने मृगनयनी को संगीत में निपुण कर संगीताचार्य बनाया तथा बाद में दरबार छोड़कर अपने गुरु हरिदास के पास चल दिए।

मध्यकाल में साहित्य और भक्ति का उत्थान हुआ और एक आंदोलन के रूप में इसका फैलाव हुआ। इस काल को भक्तिकाल के स्वर्णयुग के नाम से जाना जाता है। इस काल में संगीत और साहित्य को राजकीय संरक्षण भी प्राप्त हुआ। भक्तिकाल के प्रतिपादकों में महासंत रामानुज, रामानंद, नानक, कबीर, सूरदास, मीराबाई, तुलसीदास, रैदास अनेकानेक संत रहे हैं।

bindujain
05-01-2013, 11:08 AM
भक्त कवि सूरदास

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भक्त कवि सूरदास जन्मांध होने की वजह से अपने माता−पिता का स्नेह प्राप्त नहीं कर सके थे। उन्होंने बहुत थोड़ी ही आयु में अपना घर छोड़ दिया था और एक तालाब के किनारे रहने लगे थे। मात्र छह वर्ष की आयु में वे सगुन बताने में माहिर हो गये थे जिससे कई श्रद्धालु उनके सेवक बन गए। सूरदास जी के कंठ में रस था और उनकी रूचि संगीत में होने की वजह से वह श्रोताओं को पल भर में मंत्रमुग्ध कर देने की क्षमता रखते थे। गोस्वामी हरिराय ने लिखा है कि सूरदास अंधे तो थे लेकिन जन्मांध थे, यह प्रामाणिक नहीं है। इस बारे में कहा जाता है कि ब्रज प्रदेश के यमुना तट पर गोवर्धन गिरि पर जब से उनका निवास हुआ तब से नित्य स्नान करना और उसके प्रति आस्था भरी आत्मीयता रखना ही उनके भक्त जीवन का अंग था। वहीं मंदिर में भजन कीर्तन करना उनकी दैनिक दिनचर्या बन गई थी। कवि और गायक होने के नाते भगवान का गुणगान करना उनका कर्म बन गया था। प्रारम्भ में सूरदास जी श्रीकृष्ण के बाल रूप के उपासक थे किन्तु महाप्रभु श्री विट्ठलदास से दीक्षित होने के पश्चात वे राधाकृष्ण की युगल मूर्ति एवं राधा के उपासक बन गए।

एक बार की बात है, एक दिन तानसेन ने सूरदास का एक पद जब सम्राट अकबर को दरबार में सुनाया तो उन्होंने उनसे मिलने की इच्छा प्रकट की। अकबर स्वयं सूरदास जी के दर्शन करने मथुरा में गोवर्धन पर श्रीनाथ जी के मंदिर में पहुंचे। उन्होंने सूरदास जी से कुछ गाने की प्रार्थना की तो वे एक पद गाने लगे− मना रे कर माधव सों प्रीति। गायन के समय मंत्रमुग्ध हो अकबर एक क्षण के लिए खो−सा गया। फिर प्रसन्न मुद्रा में तानसेन के माध्यम से अपने यश ज्ञान की प्रार्थना करने पर सूरदास ने दूसरा पद सुनाया− नाहिंन रह्यो मन में ठौर। पद की अंतिम पंक्ति जब उन्होंने पढ़ी− सूर ऐसे दर्श को ए मरन लोचन प्यास। तो गीत की समाप्ति पर बादशाह ने नम्रतापूर्वक प्रश्न किया− सूरदास जी, तुम्हारे लोचन तो दिखाई नहीं देते, वे प्यासे कैसे मरते हैं? सूरदास निरुत्तर हो मौन रहे किन्तु अकबर को स्वयं इसका समाधान सूझ गया। बादशाह को मंदिर के द्वार तक छोड़ वे वापिस लौट आये।

सूरदास जी ने कलियुग में भक्ति को ही कल्याण का एकमात्र साधन बताया और कहा कि भजन के बिना मनुष्य का जीवित रहना प्रेत के समान है। भगवद्पूजन के बिना यमदूत द्वार पर खड़े ही रहते हैं। जिस व्यक्ति का मलिन मन उदर भरने के लिए घर−घर डोलता है वह कुटुम्ब सहित डूबता है। भगवान की कृपा की शक्ति तो असीम है ही उसका क्षेत्र भी असीम है। हरि नाम ही भक्त की अतुल संपत्ति है जिसे कोई छीन नहीं सकता। यही मेरा ध्यान है, यही मेरा ज्ञान, यही सुमिरन। सूर प्रभु यही वर दो, मैं यही पाउं।

श्रीनाथ जी की अधिक दिन सेवा में रहने के पश्चात भगवदिच्दा से सूरदास जी एक दिन 1583 में रासलीला की भूमि पारसौली आये और श्रीनाथ जी की ध्वजा के सामने दण्डवत लेट श्री गोसाईं जी एवं श्री आचार्य जी का स्मरण करते रहे। तब उनकी उम्र 100 वर्ष से ज्यादा थी। सूरदास जी ने अपना अंतिम पद गाया− खंजन नैन रूप रस माते। और इसके बाद अपना शरीर त्याग दिया।

bindujain
05-01-2013, 07:41 PM
रानी लक्ष्मी बाई

झांसी की रानी लक्ष्मी बाई का जन्म वाराणसी में 19 नवम्बर 1835 में हुआ था। बचपन में उनका नाम मणिकर्णिका था। सब उनको प्यार से मनु कह कर पुकारा करते थे। उनके पिता का नाम मोरपंत व माता का नाम भागीरथी बाई था जो धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थी। उनके पिता ब्राह्*मण थे। सिर्फ़ 4 साल की उम्र में ही उनकी माता की मृत्यु हो गई थी इसलिये मनु के पालन पोषण की जिम्मेदारी उनके पिता पर आ गई थी। मनु ने बचपन से ही पढ़ाई के साथ-साथ शिकार करना, तलवार-बाजी, घुड़सवारी आदि विद्याएँ सीखी। उनके विषय में एक रचनाकार ने लिखा है :

चमक उठी सन सत्तावन में वह तलवार पुरानी थी।
बुन्देले हर बोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी ।
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी ।

1842 में मनु की शादी झांसी के राजा गंगाधर राव से हुई। शादी के बाद मनु को लक्ष्मी बाई नाम दिया ग़या। 1851 में इनको एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई लेकिन मात्र 4 महीने बाद ही उनके पुत्र की मृत्यु हो गई। उधर उनके पति का स्वास्थ्य बिगड़ गया तो सबने उत्तराधिकारी के रू प में एक पुत्र गोद लेने की सलाह दी। इसके बाद दामोदर राव को गोद लिया गया। 21 नवम्बर 1853 को महाराजा गंगाधर राव की भी मृत्यु हो गई। इस समय लक्ष्मी बाई 18 साल की थी और अब वो अकेली रह गई लेकिन रानी ने हिम्मत नहीं हारी व अपने फ़र्ज को समझा।

जब दामोदर को गोद लिया गया उस समय वहा ब्रितानियों का राज था। ब्रिटिश सरकार ने बालक दामोदर को झांसी का उत्तराधिकारी मानने से इन्कार कर दिया व झांसी को ब्रितानी राज्य में मिलाने का षड़यंत्र रचा। जब रानी को पता लगा तो उन्होंने एक वकील की मदद से लंदन की अदालत में मुकदमा दायर किया। लेकिन ब्रितानियों ने रानी की याचिका खारिज कर दी व डलहौजी ने बालक दामोदर को उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया क्योंकि वे झांसी को अपने अधिकार में लेना चाहते थे।

मार्च 1854 में ब्रिटिश सरकार ने रानी को महल छोड़ने का आदेश दिया साथ ही उनकी सालाना राशि में से 60,000 रू पये हर्जाने के रू प में हड़प लिये। लेकिन रानी ने निश्चय किया की वह झांसी को नहीं छोडेगी। रानी देशभक्त व आत्मगौरव शील महिला थी। उन्होंने प्रण लिया की वह झांसी को आजाद करा कर के ही दम लेंगी। लेकिन ब्रिटिश सरकार ने उनके हर प्रयास को विफ़ल करने का प्रयास किया।

रानी ने एक सेना सगं़ठित की। इसमें सामान्य जनता को भी शामिल किया गया। इस सेना में महिलाओं को भी भर्ती किया गया। उनको भी घुड़सवारी, तलवार- बाजी, शिकार, आदि का प्रशिक्षण दिया गया।

झांसी के पड़ौसी राज्य ओरछा व दत्तिया ने 1857 में झांसी पर हमला किया। लेकिन रानी ने उनके इरादों को नाकामयाब कर दिया। 1858 में ब्रिटिश सरकार ने
झांसी पर हमला कर उसको घेर लिया व उस पर कब्जा कर लिया। लेकिन रानी ने साहस नहीं छोड़ा। उन्होंने पुरुषों की पोशाक धारण की, अपने पुत्र को पीठ पर बांधा। दोनों हाथों में तलवारें ली व घोडे़ पर सवार हो गई व घोड़े की लग़ाम अपने मँुह में रखी व युद्ध करते हुए दुश्मनों के दांत खट्टे किये। झंासी से निकलने के लिये उन्हें बहुत संघर्षर् करना पड़ा, अन्त में रानी अपने दत्तक पुत्र व कुछ सहयोगियों के साथ वहां से भाग निकली और तांत्या टोपे से मिलने कालपी जा पंहुची। वहां रानी के साथस्वतंत्रता आंदोलन के अन्य संगठन जुड़ गये। तांत्या टोपे भी इन संगठनों के सदस्य थे। अब रानी ने ग्वालियर की और रुख किया तो रानी को फ़िर से शत्रुओं का सामना करना पड़ा। रानी में साहस व देशभक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी थी इसलिये उन्होंने उनका सामना किया व युद्ध किया। युद्ध के दूसरे ही दिन (18जून 1858) भारत की आजादी के लिये चलने वाले प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की 22 साल की महानायिका लक्ष्मीबाई लड़ते-लड़ते वीर गति को प्राप्त हो गई।

लक्ष्मी थी या दुर्गा थी ,स्वयं वीरता की अवतार।
देख मराठे पुलकित होते, उनकी तलवारों के वार।

bindujain
05-01-2013, 07:44 PM
बेगम ह्जरत महल

बेगम हजरत महल 1857 की क्रांति की एक महान क्रांतिकारी महिला थी। एक ब्रितानी इतिहासकार ने उन्हें नर्तकी बताया है। यह अवध के नवाब वाजिद अली शाह की बेगम बन गई। उनमें अनेक गुण विद्यमान थे। 1857 की क्रांति का व्यापक प्रभाव कानपुर,
झांसी, अवध, लखनऊ, दिल्ली, बिहार आदि में था।

1857 में डलहौजी भारत का वायसराय था। उसी साल वाजिद अली शाह भी लखनऊ के नवाब बने। अवध के नवाब वाजिद अली शाह पर विलासी होने के आरोप में उन्हें हटाने की योजना बना ली गई थी। डलहौजी नवाब के विलासिता पूर्ण जीवन से परिचित था। उन्होंने तुरंत अवध की रियासत को हड़पने की योजना बनाई। पत्र लेकर कंपनी का दूत नवाब के पास पहुँचा और उस पर हस्ताक्षर के लिये कहा। शर्त के अनुसार कंपनी का पूरा अधिकार अवध पर स्थापित हो जाना था। वाजिद अली ने समझौता-पत्र पर हस्ताक्षर नहीं किया, फ़लस्वरू प उन्हें नजरबंद करके कलकत्ता भेज दिया गया। अब क्रांति का बीज बोया जा चुका था। लोग सरकार को उखाड़ फ़ेंकने की योजनाएं बना रहे थे। 1857 में मंगल पांडे के विद्रोह के बाद क्रांति मेरठ तक फ़ैली। मेरठ के सैनिक दिल्ली के बादशाह बहादुर शाह से मिले। बहादुर शाह और ज़ीनत महल ने उनका साथ दिया और आजादी की घोषणा की।

इधर क्रांति की लहर अवध, लखनऊ, रुहेलखंड आदि में फ़ैली। वाजिद अली शाह के पुत्र को 11 साल की आयु में अवध के तख्त पर बैठाया गया। राज्य का कार्यभार उनकी माँ बेगम हजरत महल देखती थी क्योंकि वे नाबालिग थे। 7 जुलाई 1857 से अवध का शासन हजरत महल के हाथ में आया।

बेगम हजरत महल ने हिन्दू, मुसलमान सभी को समान भाव से देखा। अपने सिपाहियों का हौसला बढ़ाने के लिये युद्ध के मैदान में भी चली जाती थी। बेगम ने सेना को जौनपुर और आजमगढ़ पर धावा बोल देने का आदेश जारी किया लेकिन ये सैनिक आपस में ही टकरा ग़ये। ब्रितानियों ने सिखों व राजाओं को खरीद लिया व यातायात के सम्बंध टूट गए। नाना की भी पराजय हो गई। 21 मार्च को लखनऊ ब्रितानियों के अधीन हो गया। अन्त में बेगम की कोठी पर भी ब्रितानियों ने कब्जा कर लिया। 21 मार्च को ब्रितानियों ने लखनऊ पर पूरा अधिकार जमा लिया। बेगम हजरत महल पहले ही महल छोड़ चुकी थी पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। बेगम हजरत महल ने कई स्थानों पर मौलवी अहमदशाह की बड़ी मदद की। उन्होंने नाना साहब के साथ सम्पर्क कायम रखा।

लखनऊ के पतन के बाद भी बेगम के पास कुछ वफ़ादार सैनिक और उनके पुत्र विरजिस कादिर थे। 1 नवम्बर 1858 को महारानी विक्टोरिया ने अपनी घोषणा द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन भारत में समाप्त कर उसे अपने हाथ में ले लिया। घोषणा में कहा गया की रानी सब को उचित सम्मान देगी। परन्तु बेगम ने विक्टोरिया रानी की घोषणा का विरोध किया व उन्होंने जनता को उसकी खामियों से परिचित करवाया।

बेगम लड़ते-लड़ते थक चुकी थी और वह चाहती थी कि किसी तरह भारत छोड़ दे। नेपाल के राजा जंग बहादुर ने उन्हें शरण दी जो ब्रितानियों के मित्र बने थे। बेगम अपने लड़के के साथ नेपाल चली गई और वहीं उनका प्राणांत हो गया। आज भी उनकी कब्र उनके त्याग व बलिदान की याद दिलाती है।

bindujain
05-01-2013, 07:45 PM
रानी द्रोपदी बाई

रानी द्रोपदी बाई निःसंदेह भारत की एक प्रसिद्ध वीरांगना हो गई है जिनके बारे में बहुत कम लोगों को जानकारी है लेकिन इतिहास में रानी द्रोपदी बाई का भी महत्वपूर्ण स्थान है। इन्होंने कभी भी सरकार की ख़ुशामद नहीं की। एक छोटी सी रियासत धार की रानी द्रौपदी बाई ने अपने कर्म से यह सिद्ध कर दिया कि भारतीय ललनाओं की धमनियों में भी रणचंडी और दुर्गा का रक्त ही प्रवाहित होता है। रानी द्रौपदी बाई धार क्षेत्र की क्रांति की सूत्रधार थी। ब्रितानी उनसे भयभीत थे। धार मध्य भारत का एक छोटा-सा राज्य था। 22 मई 1857 को धार के राजा का देहावसान हो गया। आनन्दराव बाल साहब को उन्होंने मरने के एक दिन पहले गोद लिया। वे उनके छोटे भाई थे। राजा की बड़ी रानी द्रौपदी बाई ने ही राज्य भार सँभाला, कारण आनन्दराव बाला साहब, नाबालिग़ थे।

अन्य राजवंशों के विपरीत ब्रितानियों ने धार के अल्पव्यस्क राजा आनन्दराव को मान्यता प्रदान कर दी। उन्हें आशा थी कि ऐसा करने से धार राज्य उनका विरोध नहीं कर सकता, लेकिन रानी द्रौपदी के ह्रदय में तो क्रांति की ज्वाला धधक रही थी। रानी ने कार्य-भार सँभालते ही समस्त धार क्षेत्र में क्रांति की लपटें प्रचंड रू प से फैलने लगीं।

रानी द्रौपदी बाई ने रामचंद्र बापूजी को अपना दीवान नियुक्त किया। बापूजी ने सदा उनका समर्थन किया इन दोनों ने 1857 की क्रांति में ब्रितानियों का विरोध किया। क्रांतिकारियों की हर संभव सहायता रानी ने की। सेना में अरब, अफ़ग़ान आदि सभी वर्ग के लोगों को नियुक्त किया। अँग्रेज़ नहीं चाहते कि रानी देशी वेतन भोगी सैनिकों की नियुक्ति करें। रानी ने उनकी इच्छा की कोई चिंता न की। रानी के भाई भीम राव भोंसले भी देशभक्त थे। धार के सैनिकों ने अमझेरा राज्य के सैनिकों के साथ मिलकर सरदार पुर पर आक्रमण कर दिया रानी के भाई भीम राव ने क्रांतिकारियों का स्वागत किया। रानी ने लूट में लाए गए तीन तोपों को भी अपने राजमहल में रख लिया। 31 अगस्त को धार के कीलें पर क्रांतिकारियों का अधिकार हो गया। क्रांतिकारियों को रानी की ओर से पूर्ण समर्थन दिया गया था। अँग्रेज़ कर्नल डयूरेड ने रानी के कार्यों का विरोध करते हुए लिखा कि आगे की समस्त कार्य वाई का उत्तरदायित्व उन पर होगा।

धार की राजमाता द्रौपदी बाई एवं राज दरबार द्वारा विद्रोह को प्रेरणा दिए जाने के कारण कर्नल डयूरेंड बहुत चिंतित हो गए। उन्हें भय था कि समस्त माल्वान् क्षेत्र में शीघ्र क्रांति फैल सकती है। नाना साहब भी उसके आस-पास ही जमे हुए थे। जुलाई 1857 से अक्टूबर 1857 तक धार के क़िले पर क्रांतिकातियों के बीच एक समझौता हो गया। क्रांतिकारियों के नेता गुलखान, बादशाह खान, सआदत खान स्वयं रानी द्रौपदी बाई के दरबार में आए। क्रांतिकारी अँग्रेज़ों को बहुत परेशान किया करते थे। वे उनके डाक लूट लेते। उनके घरों में आग लगा दी।

ब्रिटिश सैनिकों ने 22 अक्टूबर 1857 को धार का क़िला घेर लिया। यह क़िला मैदान से 30 फ़िट ऊँचाई पर लाल पत्थर से बना था। क़िले के चारों ओर 14 ग़ोल तथा दो चौकोर बुर्ज बने हुए थे। क्रांतिकारियों ने उनका डटकर मुक़ाबला किया। ब्रितनियों को आशा थी कि वे शीघ्र आत्म सर्मपण कर देंगे पर ऐसा न हुआ। 24 से 30 अक्टूबर तक संघर्ष चलता रहा। क़िले की दीवार में दरार पड़ने के कारण ब्रितानी सैनिक क़िले में घुस गए। क्रांतिकारी सैनिक गुप्त रास्ते से निकल भागे।

कर्नल ड़्यूरेन्ड़ तो पहले से ही रानी का विरोधी था। उसने क़िले को ध्वस्त कर दिया। धार राज्य को ज़ब्त कर लिया गया। दीवान रामचंद्र बापू को बना दिया गया। 1860 में धार का राज्य पुनः अल्पव्यस्क राजा को व्यस्कता प्राप्त करने पर सौंप दिया गया।

रानी द्रौपदी बाई धार क्षेत्र के क्रांतिकारियों को प्रेरणा देती रही। उन्होंने बहादुरी के साथ शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार का विरोध किया। यह अपने आप में कम नहीं थी निःसंदेह रानी द्रौपदी बाई एक प्रमुख क्रांति की अग्रदूत रही है।

dipu
05-01-2013, 08:07 PM
बालक सिद्धार्थ अपने चचेरे भाई के साथ जंगल की ओर निकले। भाई देवदत्त के हाथ में धनुष बाण था। ऊपर उडते एक पक्षी को देख देवदत्त ने बाण साधा और उस पक्षी को घायल कर दिया। पक्षी जैसे ही नीचे गिरा, दोनों भाई उसकी ओर दौडे। सिद्धार्थ पहले पहुंचे और उसे अपनी हथेली में रखकर बाण को बडे प्*यार से निकाला। किसी जडी-बूटी का रस उसके घाव पर लगाकर पानी आदि पिला उसे मृत्*यु से बचा लिया। देवदत्त पक्षी पर अपना अधिकार जमाना चाहता था। उसका कहना था कि मैंने इसे नीचे गिराया है अत: इस पर मेरा अधिकार है। सिद्धार्थ का कथन था कि यह केवल घायल हुआ है, यदि मर जाता तो तुम्*हारा होता। पर, क्*योंकि मैं इसकी सेवा सुश्रुषा कर रहा हूं अत: यह मेरा हुआ। दोनों में जब विवाद बढा तो मामला न्*यायालय तक जा पहुंचा। न्*यायालय ने दोनों के तर्कों को ध्*यान से सुनकर निर्णय दिया कि जीवन उसका होता है जो उसको बचाने का प्रयत्*न करता है। अत: पक्षी सिद्धार्थ का हुआ। बस, यहीं से हुआ बालक सिद्धार्थ का महात्*मा बुद्ध बनने का कार्य प्रारम्*भ।

राजसी ठाट-बाट, नौकर-चाकर, घोड़ा-बग्गी, गर्मी, जाडे व वर्षात के लिए अलग-अलग प्रकार के महल, बडे-बडे उद्यान व सरोवरों में सुन्दर मछलियां पाली गयीं, कमल खिलाये गये। सभी अनुचर व अनुचरी भी युवा व सुन्दर रखे गये। किसी भी बूढ़े, बीमार, सन्यासी व मृतक से उन्हें कोषों दूर रखा गया। यशोधरा नामक एक सुन्दर व आकर्षक युवती से उनका विवाह हुआ। चारों ओर आनन्द ही आनन्द। किन्तु, सारी सुविधाओं से युक्त सिद्धार्थ के मन में तो कुछ और ही पल रहा था।

एक दिन वे अपने रथ वाहक के साथ बाहर निकल पड़े। बाहर आने पर उन्होंने पहली बार एक बूढ़े व्यक्ति को देखा जिसके बाल सफेद थे, त्वचा मुरझायी और शुष्क थी, दांत टूटे हुए थे, कमर मुड़ी हुई थी और पसलियां साफ दिखाई दे रहीं थी, आंखे अन्दर धंसी हुई थीं और लाठी के सहारे चल रहा था। शरीर की जीर्ण-शीर्ण अवस्था देख सिद्धार्थ कुछ विचलित हुए। उनके मस्तिष्क में हलचल मची और महल की तरफ वापस चल दिये। दूसरे दिन एक बीमार आदमी तथा तीसरे दिन शव यात्रा तथा चौथे दिन एक सन्यासी को देख सिद्धार्थ के मन का दबा हुआ गूढ़ ज्ञान जाग उठा। वे सोचने लगे ”..तो बुढ़ापे का दुख, बीमारी का कष्ट, फिर मृत्यु का दुख, यही मनुष्य का प्राप्य हैं और यही उसकी नित्य गति है। जीवन दु:ख ही दु:ख है। क्या इस दुख से बचने का कोई उपाय नहीं है? क्या मुझे और उन सबको, जिन्हें मैं प्यार करता हूं, बुढ़ापे, बीमारी और मृत्यु का कष्ट भोगना ही पड़ेगा?”

इस सबका उत्तार सोचते-सोचते उन्हें लगा कि ‘एक सन्यासी का जीवन ही शांत व निर्द्वंन्द है। लगता है इस संसार के दु:ख व सुख उसे छू नहीं सकते !’ उसी क्षण उन्होंने नि”चय किया कि मैं भी सन्यास ग्रहण करूंगा तथा संसार त्याग कर दुख से मुक्ति पाने का मार्ग ढूढ़ूंगा। यह तय करने के तुरन्त बाद ही महल से उनके पिता राजाशूद्धोधन ने संदेश भिजवाया कि उन्हें (सिद्धार्थ) को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है। पुत्र प्राप्ति का मोह भी उन्हें उनके मार्ग से डिगा न सका।

वे सब कुछ छोड़कर कपिलवस्तु से विदा हो लिए। उन्होंने सत्य, अहिंसा, त्याग, बलिदान, करूणा और देश सेवा का जो पाठ पढ़ाया वह जग जाहिर है। पूरे विश्*व की रग-रग में महात्मा बुद्ध की शिक्षाएं समायी हुई हैं। ऐसे महान संत महात्मा बुद्ध को उनकी जयन्ती पर शत-शत नमन्।

bindujain
06-01-2013, 09:49 AM
बालक सिद्धार्थ अपने चचेरे भाई के साथ जंगल की ओर निकले। भाई देवदत्त के हाथ में धनुष बाण था। ऊपर उडते एक पक्षी को देख देवदत्त ने बाण साधा और उस पक्षी को घायल कर दिया। पक्षी जैसे ही नीचे गिरा, दोनों भाई उसकी ओर दौडे। सिद्धार्थ पहले पहुंचे और उसे अपनी हथेली में रखकर बाण को बडे प्*यार से निकाला। किसी जडी-बूटी का रस उसके घाव पर लगाकर पानी आदि पिला उसे मृत्*यु से बचा लिया। देवदत्त पक्षी पर अपना अधिकार जमाना चाहता था। उसका कहना था कि मैंने इसे नीचे गिराया है अत: इस पर मेरा अधिकार है। सिद्धार्थ का कथन था कि यह केवल घायल हुआ है, यदि मर जाता तो तुम्*हारा होता। पर, क्*योंकि मैं इसकी सेवा सुश्रुषा कर रहा हूं अत: यह मेरा हुआ। दोनों में जब विवाद बढा तो मामला न्*यायालय तक जा पहुंचा। न्*यायालय ने दोनों के तर्कों को ध्*यान से सुनकर निर्णय दिया कि जीवन उसका होता है जो उसको बचाने का प्रयत्*न करता है। अत: पक्षी सिद्धार्थ का हुआ। बस, यहीं से हुआ बालक सिद्धार्थ का महात्*मा बुद्ध बनने का कार्य प्रारम्*भ।

राजसी ठाट-बाट, नौकर-चाकर, घोड़ा-बग्गी, गर्मी, जाडे व वर्षात के लिए अलग-अलग प्रकार के महल, बडे-बडे उद्यान व सरोवरों में सुन्दर मछलियां पाली गयीं, कमल खिलाये गये। सभी अनुचर व अनुचरी भी युवा व सुन्दर रखे गये। किसी भी बूढ़े, बीमार, सन्यासी व मृतक से उन्हें कोषों दूर रखा गया। यशोधरा नामक एक सुन्दर व आकर्षक युवती से उनका विवाह हुआ। चारों ओर आनन्द ही आनन्द। किन्तु, सारी सुविधाओं से युक्त सिद्धार्थ के मन में तो कुछ और ही पल रहा था।

एक दिन वे अपने रथ वाहक के साथ बाहर निकल पड़े। बाहर आने पर उन्होंने पहली बार एक बूढ़े व्यक्ति को देखा जिसके बाल सफेद थे, त्वचा मुरझायी और शुष्क थी, दांत टूटे हुए थे, कमर मुड़ी हुई थी और पसलियां साफ दिखाई दे रहीं थी, आंखे अन्दर धंसी हुई थीं और लाठी के सहारे चल रहा था। शरीर की जीर्ण-शीर्ण अवस्था देख सिद्धार्थ कुछ विचलित हुए। उनके मस्तिष्क में हलचल मची और महल की तरफ वापस चल दिये। दूसरे दिन एक बीमार आदमी तथा तीसरे दिन शव यात्रा तथा चौथे दिन एक सन्यासी को देख सिद्धार्थ के मन का दबा हुआ गूढ़ ज्ञान जाग उठा। वे सोचने लगे ”..तो बुढ़ापे का दुख, बीमारी का कष्ट, फिर मृत्यु का दुख, यही मनुष्य का प्राप्य हैं और यही उसकी नित्य गति है। जीवन दु:ख ही दु:ख है। क्या इस दुख से बचने का कोई उपाय नहीं है? क्या मुझे और उन सबको, जिन्हें मैं प्यार करता हूं, बुढ़ापे, बीमारी और मृत्यु का कष्ट भोगना ही पड़ेगा?”

इस सबका उत्तार सोचते-सोचते उन्हें लगा कि ‘एक सन्यासी का जीवन ही शांत व निर्द्वंन्द है। लगता है इस संसार के दु:ख व सुख उसे छू नहीं सकते !’ उसी क्षण उन्होंने नि”चय किया कि मैं भी सन्यास ग्रहण करूंगा तथा संसार त्याग कर दुख से मुक्ति पाने का मार्ग ढूढ़ूंगा। यह तय करने के तुरन्त बाद ही महल से उनके पिता राजाशूद्धोधन ने संदेश भिजवाया कि उन्हें (सिद्धार्थ) को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है। पुत्र प्राप्ति का मोह भी उन्हें उनके मार्ग से डिगा न सका।

वे सब कुछ छोड़कर कपिलवस्तु से विदा हो लिए। उन्होंने सत्य, अहिंसा, त्याग, बलिदान, करूणा और देश सेवा का जो पाठ पढ़ाया वह जग जाहिर है। पूरे विश्*व की रग-रग में महात्मा बुद्ध की शिक्षाएं समायी हुई हैं। ऐसे महान संत महात्मा बुद्ध को उनकी जयन्ती पर शत-शत नमन्।

:think::iagree::iagree::think::bravo::bravo:

bindujain
06-01-2013, 09:51 AM
श्रीनिवास रामानुजन्

http://www.rajexpress.in/rajexpress_cms/newsimg/large94059.jpg

श्रीनिवास रामानुजन् इयंगर (तमिल ஸ்ரீனிவாஸ ராமானுஜன் ஐயங்கார்) (22 दिसम्बर, 1887 – 26 अप्रैल, 1920) एक महान भारतीय गणितज्ञ थे। इन्हें आधुनिक काल के महानतम गणित विचारकों में गिना जाता है। इन्हें गणित में कोई विशेष प्रशिक्षण नहीं मिला, फिर भी इन्होंने विश्लेषण एवं संख्या सिद्धांत के क्षेत्रों में गहन योगदान दिए। इन्होंने अपने प्रतिभा और लगन से न केवल गणित के क्षेत्र में अद्भुत अविष्कार किए वरन भारत को अतुलनीय गौरव भी प्रदान किया।
ये बचपन से ही विलक्षण प्रतिभावान थे। इन्होंने खुद से गणित सीखा और अपने जीवनभर में गणित के 3,884 प्रमेयों का संकलन किया। इनमें से अधिकांश प्रमेय सही सिद्ध किये जा चुके हैं। इन्होंने गणित के सहज ज्ञान और बीजगणित प्रकलन की अद्वितीय प्रतिभा के बल पर बहुत से मौलिक और अपारम्परिक परिणाम निकाले जिनसे प्रेरित शोध आज तक हो रहा है, यद्यपि इनकी कुछ खोजों को गणित मुख्यधारा में अब तक नहीं अपनाया गया है। हाल में इनके सूत्रों को क्रिस्टल-विज्ञान में प्रयुक्त किया गया है। इनके कार्य से प्रभावित गणित के क्षेत्रों में हो रहे काम के लिये रामानुजन जर्नल की स्थापना की गई है।

bindujain
06-01-2013, 09:54 AM
http://bharatdiscovery.org/w/images/1/1c/RN_F1.jpghttp://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/c/c1/Srinivasa_Ramanujan_-_OPC_-_1.jpg/250px-Srinivasa_Ramanujan_-_OPC_-_1.jpghttp://bharatdiscovery.org/w/images/thumb/1/10/RAMANUJAN_STAMP.jpg/300px-RAMANUJAN_STAMP.jpg

bindujain
06-01-2013, 09:56 AM
रामानुजन और प्रोफेसर हार्डी
http://bharatdiscovery.org/w/images/thumb/5/5c/Ramanujan.jpg/200px-Ramanujan.jpg
http://bharatdiscovery.org/w/images/9/90/Hardy203.jpg

उस समय भारतीय और पश्चिमी रहन सहन में एक बड़ी दूरी थी और इस वजह से सामान्यतः भारतीयों को अंग्रेज़ वैज्ञानिकों के सामने अपने बातों को प्रस्तुत करने में काफ़ी संकोच होता था। इधर स्थिति कुछ ऐसी थी कि बिना किसी अंग्रेज़ गणितज्ञ की सहायता लिए शोध कार्य को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता था। उस समय रामानुजन के पुराने शुभचिंतक इनके काम आए और इन लोगों ने रामानुजन द्वारा किए गए कार्यों को लंदन के प्रसिद्ध गणितज्ञों के पास भेजा। पर यहां इन्हें कुछ विशेष सहायता नहीं मिली लेकिन एक लाभ यह हुआ कि लोग रामानुजन को थोड़ा बहुत जानने लगे थे। इसी समय रामानुजन ने अपने संख्या सिद्धांत के कुछ सूत्र प्रोफेसर शेषू अय्यर को दिखाए तो उनका ध्यान लंदन के ही प्रोफेसर हार्डी की तरफ गया। प्रोफेसर हार्डी उस समय के विश्व के प्रसिद्ध गणितज्ञों में से एक थे। और अपने सख्त स्वभाव और अनुशासन प्रियता के कारण जाने जाते थे। प्रोफेसर हार्डी के शोधकार्य को पढ़ने के बाद रामानुजन ने बताया कि उन्होंने प्रोफेसर हार्डी के अनुत्तरित प्रश्न का उत्तर खोज निकाला है। अब रामानुजन का प्रोफेसर हार्डी से पत्रव्यवहार आरंभ हुआ। अब यहां से रामानुजन के जीवन में एक नए युग का सूत्रपात हुआ जिसमें प्रोफेसर हार्डी की बहुत बड़ी भूमिका थी। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो जिस तरह से एक जौहरी हीरे की पहचान करता है और उसे तराश कर चमका देता है, रामानुजन के जीवन में वैसा ही कुछ स्थान प्रोफेसर हार्डी का है। प्रोफेसर हार्डी आजीवन रामानुजन की प्रतिभा और जीवन दर्शन के प्रशंसक रहे। रामानुजन और प्रोफेसर हार्डी की यह मित्रता दोनो ही के लिए लाभप्रद सिद्ध हुई। एक तरह से देखा जाए तो दोनो ने एक दूसरे के लिए पूरक का काम किया।

आरंभ में रामनाजुन ने 1912-13 के दौरान खुद विकसित किए अपनी 120 प्रमेयों की एक लम्बी सूची को अच्छे कागजों पर लिखकर एक पत्र के साथ कैंब्रिज विश्वविद्यालय के तीन प्रतिष्ठित प्रोफेसरों को भेजे, जिनमें से जी. एच. हार्डी (G.H.HARDY) ने रामानुजन के काम की तारीफ की और अपने अधीन अध्ययन के लिए उन्हें कैंब्रिज बुलाया। ये पत्र हार्डी को सुबह नाश्ते के टेबल पर मिले। इस पत्र में किसी अनजान भारतीय द्वारा बहुत सारे बिना उत्पत्ति के प्रमेय लिखे थे, जिनमें से कई प्रमेय हार्डी देख चुके थे। पहली बार देखने पर हार्डी को लगा कि रामानुजन की 10 पन्नों वाली गणित के 10 सूत्रों से भरी चिठ्ठी सब बकवास है। उन्होंने इस पत्र को एक तरफ रख दिया और अपने कार्यों में लग गए परंतु इस पत्र की वजह से उनका मन अशांत था। इस पत्र में बहुत सारे ऐसे प्रमेय थे जो उन्होंने न कभी देखे और न सोचे थे। उन्हें बार-बार यह लग रहा था कि यह व्यक्ति (रामानुजन) या तो धोखेबाज है या फिर गणित का बहुत बड़ा विद्वान। रात को 9 बजे हार्डी ने अपने एक शिष्य लिटिलवुड के साथ एक बार फिर इन प्रमेयों को देखा और आधी रात तक वे लोग समझ गये कि रामानुजन कोई धोखेबाज नहीं बल्कि गणित के बहुत बड़े विद्वान हैं, जिनकी प्रतिभा को दुनिया के सामने लाना आवश्यक है। वे अपने साथी लिटिलवुड और पत्नी एलिस के साथ मद्रास जा रहे एक युवा प्राध्यापक नेविल की मदद लेकर रामानुजन के बारे में और जानकारी जुटाने तथा अगर सम्भव हो, उन्हें कैम्ब्रिज बुलाने के लिए तत्पर हो उठते हैं। हार्डी का यह निर्णय एक ऐसा निर्णय था जिसने न केवल उनकी और उनके दोस्तों की बल्कि पूरे गणित-इतिहास की ही धारा बदल डाली।

bindujain
06-01-2013, 10:01 AM
Mahatma Gandhi

http://www.iloveindia.com/indian-heroes/pics/mahatma-gandhi.jpg

Born: October 2, 1869
Martyrdom: January 30, 1948.
Achievements: Known as Father of Nation; played a key role in winning freedom for India; introduced the concept of Ahimsa and Satyagraha.

bindujain
07-01-2013, 07:52 AM
आदमी वो महान है यारो,
उसकी बातों में जान है यारो।

मेघ से हमने दुश्मनी कर ली,
जबकि कच्चा मकान है यारो।

देश जंगल, शिकार जनमन है,
राजनीति मचान है यारो।

बेघरों को बंटेंगे घर कैसे,
बंद फाइल में प्लान है यारो।

रोज बोता है वो पैसों की फसल
वो गजब का किसान है यारो।

तीर तरकश में कम नहीं शाहिद,
किंतु टूटी कमान है यारो।


--शाहिद ‘समर’

bindujain
07-01-2013, 08:12 AM
अहिंसा के महान आत्मा का एक दुर्लभ चित्र ब्रिटिश सैनिक के रूप में.

http://sphotos-h.ak.fbcdn.net/hphotos-ak-ash4/425956_538424972840077_1734796917_n.jpg

मो.क.गाँधी एक वीर इंग्लिश सैनिक! बोअर युद्ध १८९९ दक्षिण अफ्रिका
क्या आप इस सैनिक को जानते है! क्या? आपने नही पहचाना?
अरे ये तो वो है जिनका जन्म दिवस आप आज मना रहे है! आप जानते है इनकी महानता इन्होने भारत वासीयो के मनमे अंग्रेजो के प्रती अहिंसा की भावना निर्माण की! क्या आप जानते है इनको?
ये बड़े महान अहिसवादी थे! इन्होने जिस बोअर युद्ध में (१८९९) एक अहिंसक (?) सैनिक का कार्य किया था वो अद्वितीय है!

bindujain
07-01-2013, 08:14 AM
अहिंसा के महान आत्मा का एक दुर्लभ चित्र ब्रिटिश सैनिक के रूप में.

http://sphotos-g.ak.fbcdn.net/hphotos-ak-ash3/580425_538425002840074_1627441188_n.jpg



Mahatma Gandhi in the uniform of a sergeant as the leader of Indian Ambulance Corps. During the Boer War of 1899 and the Zulu Rebellion of 1906.

bindujain
08-01-2013, 04:45 AM
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस

http://2.bp.blogspot.com/-xC3qC_ERl5E/TrTMnqsQlsI/AAAAAAAABe8/GkpgwQbaQdc/s1600/%25E0%25A4%25B8%25E0%25A5%2581%25E0%25A4%25AD%25E0 %25A4%25BE%25E0%25A4%25B7+%25E0%25A4%259A%25E0%25A 4%25A8%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25A6%25E0%25A5%258 D%25E0%25A4%25B0+%25E0%25A4%25AC%25E0%25A5%258B%25 E0%25A4%25B8.jpg

जिन लोगों ने देश की स्वतन्त्रता के लिए अपना सर्वस्व यहाँ तक कि प्राण तक न्यौछावर कर दिया, हम लोगों में अधिकतर लोग उनके विषय में, दुर्भाग्य से, बहुत कम जानते हैं। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस भी उन महान सच्चे स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों में से एक हैं जिनके बलिदान का इस देश में सही आकलन नहीं हुआ। देखा जाए तो अपनी महान हस्तियों के विषय में न जानने या बहुत कम जानने के पीछे दोष हमारा नहीं बल्कि हमारी शिक्षा का है जिसने हमारे भीतर ऐसा संस्कार ही उत्पन्न नहीं होने दिया कि हम उनके विषय में जानने का कभी प्रयास करें। होश सम्भालने बाद से ही जो हमें "महात्मा गांधी की जय", "चाचा नेहरू जिन्दाबाद" जैसे नारे लगवाए गए हैं उनसे हमारे भीतर गहरे तक पैठ गया है कि देश को स्वतन्त्रता सिर्फ गांधी जी और नेहरू जी के कारण ही मिली। हमारे भीतर की इस भावना ने अन्य सच्चे स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों को उनकी अपेक्षा गौण बना कर रख दिया। हमारे समय में तो स्कूल की पाठ्य-पुस्तकों में यदा-कदा "खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी...", "अमर शहीद भगत सिंह" जैसे पाठ होते भी थे किन्तु आज वह भी लुप्त हो गया है। ऐसी शिक्षा से कैसे जगेगी भावना अपने महान हस्तियों के बारे में जानने की? अस्तु।
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी, 1897 को उड़ीसा के कटक शहर में हुआ था।
उनके पिता का नाम जानकीनाथ बोस और माता का नाम प्रभावती था।
सुभाष चन्द्र बोस अपनी माता-पिता की 14 सन्तानों में से नौवीं सन्तान थे।
जानकीदास बोस को ब्रिटिश सरकार ने रायबहादुर का खिताब दिया था और वे चाहते थे कि उनका पुत्र आई.सी.एस. (आज का आई.ए.एस.) अधिकारी बने, इसलिए पिता का मन रखने के लिए सुभाष चन्द्र बोस सन् 1920 में आई.सी.एस. अधिकारी बने।
महज एक साल बाद ही अर्थात् सन् 1921 में वे अंग्रेजों की नौकरी छोड़कर राजनीति में उतर आए।
सन् 1938 में सुभाष चन्द्र बोस बोस कांग्रेस के अध्यक्ष हुए। अध्यक्ष पद के लिए गांधी जी ने उन्हें चुना था और कांग्रेस का यह रवैया था कि जिसे गांधी जी चुन लेते थे वह अध्यक्ष बन ही जाता था क्योंकि हमने सुना है कि जो भी अध्यक्ष बनता था वह वास्तव में 'डमी' होता था, असली अध्यक्ष तो स्वयं गांधी जी होते थे और चुने गए अध्यक्ष को उनके ही निर्देशानुसार कार्य करना पड़ता था।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रेजों की कठिनायों को मद्देनजर रखते हुए सुभाष चन्द्र बोस चाहते थे कि स्वतन्त्रता संग्राम को अधिक तीव्र गति से चलाया जाए किन्तु गांधी जी को उनके इस विचार से सहमत नहीं थे। परिणामस्वरूप बोस और गांधी के बीच मतभेद पैदा हो गया और गांधी जी ने उन्हें कांग्रेस के अध्यक्ष पद से हटाने के लिए कमर कस लिया।
गांधी जी के विरोध के बावजूद भी कांग्रेस के सन् 1939 के चुनाव में सुभाष चन्द्र बोस फिर से चुन कर आ गए। चुनाव में गांधी जी समर्थित पट्टाभि सीतारमैया को 1377 मत मिले जबकि सुभाष चन्द्र बोस को 1580। गांधी जी ने इसे पट्टाभि सीतारमैया की हार न मान कर अपनी हार माना।
गांधी जी तथा उनके सहयोगियों के व्यवहार से दुःखी होकर अन्ततः सुभाष चन्द्र बोस ने 29 अप्रैल, 1939 को कांग्रेस अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया।
तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने सुभाषचन्द्र बोस को ग्यारह बार गिरफ्तार किया और अन्त में सन् 1933 में उन्हें देश निकाला दे दिया।
1934 में पिताजी की मृत्यु पर तथा 1936 में काँग्रेस के (लखनऊ) अधिवेशन में भाग लेने के लिए सुभाष चन्द्र बोस दो बार भारत आए, मगर दोनों ही बार ब्रिटिश सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर वापस देश से बाहर भेज दिया।
यूरोप में रहते हुए सुभाषचन्द्र बोस ने सन् 1933 से ’38 तक ऑस्ट्रिया, बुल्गारिया, चेकोस्लोवाकिया, फ्राँस, जर्मनी, हंगरी, आयरलैण्ड, इटली, पोलैण्ड, रूमानिया, स्वीजरलैण्ड, तुर्की और युगोस्लाविया की यात्राएँ कर के यूरोप की राजनीतिक हलचल का गहन अध्ययन किया और उसके बाद भारत को स्वतन्त्र कराने के उद्देश्य से आजाद हिन्द फौज का गठन किया।
नेताजी का नारा था "तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूँगा"।
18 अगस्त 1945 को हवाई जहाज से मांचुरिया की ओर जाते हुए व लापता हो गए तथा उसके बाद वे कभी किसी को दिखाई नहीं दिये।
नेताजी की मृत्यु (?) आज तक इतिहास का एक रहस्य बना हुआ है?

bindujain
09-01-2013, 05:51 PM
विवेकानंद क्या चाहते थे?


शिकागो में हुए पार्लियामेंट ऑफ रिलीजन्स में जब प्रत्येक धर्मावलंबी अपने-अपने धर्म को दूसरे धर्म से ऊपर दिखाने की चेष्टा कर रहा था तब विवेकानंद ने उनके इस शीतयुद्ध का निवारण एक छोटी-सी परंतु महत्वपूर्ण कहानी के द्वारFILE
ा किया।

http://hindi.webdunia.com/articles/1301/09/images/img1130109077_1_1.jpg


बात 1867 की है। एक ट्यूटर उन दिनों कोलकाता के गौर मोहन मुखर्जी लेन स्थित मकान पर एक बालक को रोज पढ़ाने आते थे। तब न तो उन ट्यूटर को तथा न ही किसी अन्य को पता था कि यही बालक एक दिन विश्व-धर्म का प्रचार करेगा और युवा चेतना का एक अंतरराष्ट्रीय प्रतीक बनेगा। वैसे इस बालक की माता भुवनेश्वरी देवी को तब ही आभास हो चुका था, जब यह बालक उनकी कोख में पल रहा था कि यह संतान विश्व कल्याण के लिए ही उत्पन्न होगी। बचपन में इस बालक का नाम था नरेंद्रनाथ दत्त।

नरेंद्र के पिताजी अंगरेजी शिक्षा में दीक्षित, उदार, पश्चिमपरक तथा एक संपन्न वकील थे। धर्म के प्रति उनकी आस्था कम ही थी। इसके विपरीत नरेंद्र की मां सनातन आस्थाओं वाली धर्मपरायण महिला थी। पिता चाहते थे कि नरेंद्र भी उन्हीं का व्यवसाय अपनाकर जीवनयापन करे और इसी तारतम्य में उन्होंने उसे प्रेसीडेंसी कॉलेज तथा स्कॉटिश चर्च कॉलेज से स्नातक (बीए) करवाया। आगे उन्होंने कानून की पढ़ाई भी प्रारंभ कर दी थी, परंतु युवावस्था से ही उन्हें 'ईश्वर की खोज' की भी धुन सवार हो गई थी। यही धुन उन्हें एक प्रतिष्ठित वकील बनने की बजाय स्वामी रामकृष्ण परमहंस तक ले गई।

कालांतर में परमहंस के मुख्य शिष्य के रूप में संन्यास लेकर नरेंद्र ने विवेकानंद नाम ग्रहण किया। इसके पश्चात प्रारंभ हुई एक युवा की क्रांति अलख, जो डेढ़-दो दशक तक खोज, साधना, देशाटन, देशप्रेम आदि के रूप में गुजरते हुए समय से पूर्व अल्पकाल में बुझ गई, परंतु अपने पीछे छोड़ गई एक अनमोल धरोहर, एक परिवर्तन की, विश्व बंधुत्व की। यही क्रांति अलख पिछली एक शताब्दी से प्रत्येक युवा पीढ़ी के मार्गदर्शन व उत्प्रेरक का कार्य करती आ रही है। सबसे अधिक आश्चर्य की बात तो यह है कि जहाँ सौ वर्ष पुरानी अन्य बातें, पहलू व चीजें आज के दौर में लगभग अप्रासंगिक हो चुकी हैं, वहीं विवेकानंद का दर्शन न केवल आज भी उतना ही प्रासंगिक है वरन उस समय से भी आज ज्यादा सार्थक है।

आज हम कितने ही उन्नत होने के बावजूद आंतरिक रूप से खोखले होते जा रहे हैं। जाति, भाषा के आधार पर वैमनस्य, गिरते नैतिक प्रजातांत्रिक मूल्य तथा संस्कृति में हो रहे विराट व अटपटे परिवर्तन से निपटने के लिए अब पुनः युवा शक्ति को जागृत होना होगा। उसकी इस राह में स्वामी विवेकानंद का शाश्वत राष्ट्रवादी व देशप्रेमयुक्त अध्यात्म कारगर सिद्ध हो सकता है।

सन्* 1893 में शिकागो में हुए पार्लियामेंट ऑफ रिलीजन्स (धर्म संसद) में जब प्रत्येक धर्मावलंबी अपने-अपने धर्म को दूसरे धर्म से ऊपर दिखाने की चेष्टा कर रहा था तब विवेकानंद ने उनके इस शीतयुद्ध का निवारण एक छोटी-सी परंतु महत्वपूर्ण कहानी के द्वारा किया : एक कुएं में बहुत समय से एक मेंढक रहता था। एक दिन एक दूसरा मेंढक, जो समुद्र में रहता था, वहां आया और कुएं में गिर पढ़ा। 'तुम कहां से आए हो?' कूपमंडूप ने पूछा। 'मैं समुद्र से आया हूँ।' समुद्र! भला वह कितना बड़ा है? क्या वह मेरे कुएं जितना ही बड़ा है?' यह कहते हुए उसने कुएं में एक किनारे से दूसरे किनारे तक छलांग लगाई।

समुद्र वाले मेंढक ने कहा- 'मेरे मित्र, समुद्र की तुलना भला इस छोटे से कुएँ से किस प्रकार की जा सकती है?' तब उस कुएँ वाले मेंढक ने दूसरी छलाँग लगाई और पूछा, 'तो क्या समुद्र इतना बड़ा है?' समुद्र वाले मेंढक ने कहा- तुम कैसी बेवकूफी की बात कर रहे हो! क्या समुद्र की तुलना इस कुएँ से हो सकती है? अब कुएं वाले मेंढक ने चिढ़कर कहा- 'जा, जा, मेरे कुएं से बढ़कर और कुछ हो ही नहीं सकता। संसार में इससे बड़ा और कुछ नहीं है। झूठा कहीं का! अरे, इसे पकड़कर बाहर निकाल दो।

विवेकानंद की इस कथा का सार न केवल धर्म की संकीर्णता दूर करने वाला है वरन इसके पीछे युवाओं को भी एक संदेश है कि प्रत्येक संभावना का विस्तार ही (बगैर कूपमंडूकता के) जीवन का मूल उद्देश्य होना चाहिए।

विवेकानंद चाहते थे कि हर समाज स्वतंत्र हो, दूसरे समाज से विचारगत, आस्थागत समायोजन हो। भारत के विषय में उनका सोचना था कि एक तरफ तो हम निष्क्रिय रहकर प्राचीन गौरव के गर्व में फंस गए, दूसरी ओर हीनता की भावना में दब गए। तीसरे, सारी दुनिया से कटकर घोंघे में बंद हो गए। वे कहते थे कि जिस प्राचीन आध्यात्मिक शक्ति पर हम गर्व करते हैं, उसे अपने भीतर जगाना होगा। यह अभी हमारे भीतर नहीं है, केवल बाहरी है।

उन्होंने यह आह्वान युवाओं से किया था कि तुम ही यह कार्य कर दिखाओ। ये युवा ही हैं, जो इस समाज को आत्मशक्ति दे सकते हैं, संपूर्ण विश्व से गर्व से संवाद व संबंध स्थापित कर सकते हैं। इसके उपरांत ही हम स्वतंत्र हो पाएंगे व सामाजिक न्याय की अवधारणा समाज में स्थापित कर सकेंगे।

ये विचार आज कहीं अधिक उपयोगी हैं, जिससे हम उस राष्ट्र को फिर जीवित कर सकें जो विवेकानंद की कल्पनाओं का था। आवश्यकता है तो बस इतनी ही कि विवेकानंद के दर्शन का प्रसार युवाओं में एक आंदोलन की भांति हो।

bindujain
09-01-2013, 05:52 PM
स्वामी विवेकानंद : प्रेरक प्रसंग

http://hindi.webdunia.com/articles/1301/09/images/img1130109071_1_1.jpg
भ्रमण एवं भाषणों से थके हुए स्वामी विवेकानंद अपने निवास स्थान पर लौटे। उन दिनों वे अमेरिका में एक महिला के यहां ठहरे हुए थे। वे अपने हाथों से भोजन बनाते थे। एक दिन वे भोजन की तैयारी कर रहे थे कि कुछ बच्चे पास आकर खड़े हो गए।

उनके पास सामान्यतया बच्चों का आना-जाना लगा ही रहता था। बच्चे भूखे थे। स्वामीजी ने अपनी सारी रोटियां एक-एक कर बच्चों में बांट दी। महिला वहीं बैठी सब देख रही थी। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। आखिर उससे रहा नहीं गया और उसने स्वामीजी से पूछ ही लिया- 'आपने सारी रोटियां उन बच्चों को दे डाली, अब आप क्या खाएंगे?'

स्वामीजी के अधरों पर मुस्कान दौड़ गई। उन्होंने प्रसन्न होकर कहा- 'मां, रोटी तो पेट की ज्वाला शांत करने वाली वस्तु है। इस पेट में न सही, उस पेट में ही सही।' देने का आनंद पाने के आनंद से बड़ा होता है।

bindujain
11-01-2013, 05:08 PM
कबीर

http://2.bp.blogspot.com/-D_gpwoscsoo/TljTp4TY3jI/AAAAAAAAAoo/BF5_ijJ8VVg/s1600/Kabeer%2B-%2Bwww.apnihindi.com%2B.jpg

कबीर सन्त कवि और समाज सुधारक थे। ये सिकन्दर लोदी के समकालीन थे। कबीर का अर्थ अरबी भाषा में महान होता है। कबीरदास भारत के भक्ति काव्य परंपरा के महानतम कवियों में से एक थे। भारत में धर्म, भाषा या संस्कृति किसी की भी चर्चा बिना कबीर की चर्चा के अधूरी ही रहेगी।

rajnish manga
11-01-2013, 09:39 PM
बिन्दु जी, हर पृष्ठ पर किसी ऐतिहासिक विभूति का चित्र और साथ में उनका जीवन वृत्त तथा कृतित्व. हर प्रसंग प्रेरणा से भरा हुआ और हर शब्द सागर सा गहरा. यह सूत्र अन्य सभी की तुलना में बहुत विशेष है खास तौर पर आज के ह्रासोन्मुख समाज को देखते हुए. इसके लिए जितने थेंक्स लिखूं कम हैं. बहुत बहुत धन्यवाद.

bindujain
13-01-2013, 08:29 AM
♣ लोकनायक जयप्रकाश नारायण ♣
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एक बड़ी लड़ाई उन्होंने भी लड़ी थी | यह दीगर है कि उनके चेले भी उन्हें धोखा दे गए !! आज से करीब 38 साल पहले देश में करप्शन का वैसा ही बोलबाला था जैसा आज है। उस समय के करप्ट नेताओं ने लोकतंत्र की हत्या की कोशिश की। जब देश और लोकतंत्र संकट में दिखा तो उस वक्त एक ऐसा बूढ़ा जो अशक्त और बीमार रहता था, सामने आया। सम्पूर्ण क्रांति का नारा दिया। पूरे देश को आंदोलित कर दिया। लोकतंत्र विरोधी नेताओंको धूल चटा दी। देश और लोकतंत्र दोनों को बचा लिया। हालांकि, उस शख्स के सम्पूर्ण क्रांति का सपना आज भी अधूरा है। उस शख्स का नाम था लोकनायक जय प्रकाश नारायण । दूर्भाग्य की बात है कि नई पीढ़ी इस असली नायक को भूलती जा रही है। 11 अक्टूबर इनका जन्मदिन है।

उसुलों पर आंच आये तो टकराना जरुरी है
जिन्दा हो तो जिन्दा नजर आना जरुरी है !

bindujain
14-01-2013, 08:34 AM
करूणामय रामकृष्ण

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1871-1872 की बात है। श्री रामकृष्णदेव ने दक्षिणेश्वर के काली मंदिर में ईश्वर प्राप्ति के लिये अति कठिन और विविध साधना में सिध्दि प्राप्त करने के पश्चात अपने भक्त मथुरनाथ बिस्वास के साथ वे वृंदावन वाराणसी और काशी विश्वेश्वर के लिये रेल यात्रा पर निकले।

इस यात्रा के दौरान श्री रामकृष्णदेव और उनके साथी बिहार के एक ग्राम बर्धमान के पास रूके। ब्रिटिश राज की नीतियों और मौसम की लहर के कारण उन दिनों पूरा बिहार अकाल की चपेट में था। अन्न और जल दोनों की खासी कमी थी। गरीब जनता अतिशय दुख और कष्ट से बेहाल थी।
इस माहौल में भूख और त्रासदी से ग्रस्त लोगों के एक समूह को देखकर ये स्वस्थ और सुखी यात्री अपने आप को बेचैन महसूस करने लगे। करूणामय श्री रामकृष्ण इस अस्वस्थता को बरदाश्त नहीं कर सके। वे अपने धनिक साथी माथुरबाबू से बोले ''देखो क्या त्रासदी आई है। देखो इस भारत मां की सन्तान कैसे दीन और हीन भाव से त्रस्त है। भूख से उनका पेट और पीठ एक होते जा रहा है। आंखे निस्तेज और चेहरा मलिन हो गया है।बाल अस्तव्यस्त और सूखे जा रहे हैं। ओ मथुर आप इन सब दरिद्र नारायण को अच्छी तरह नहाने का पानी बालों में डालने तेल और भरपेट भोजन की व्यवस्था करो। तभी मैं यहॉ से आगे बढूंगा। मानव ईश्वर का सर्वश्रेष्ठ आविष्कार है। इन्हे इस तरहा तडपता मैं देख नहीं सकता।
मथुराबाबु बडी भारी उलझन में घिर गये। ना तो उनके पास इतनी रकम थी ना ही अनाज और अन्य सामग्री। इतने सारे गरीबों को खाना खिलाना और अन्य चीजें देना एकदम सहज नहीं था। इससे उनकी आगे की यात्रा पर भी प्रतिकूल असर होनेवाला था। सो उन्होने श्री रामकृष्णदेव से कहा
''बाबा यहां अकाल पडा है। सब तरफ यही हालात है। किसे किसे खाना दोंगे।हमारे पास न तो अनाज है न ही कंबल। हम नियोजन कर के भ्विष्य में यह सत्कार्य करेंगे। फिलहाल हम अपनी आगे की यात्रा पर ध्यान दें।'' लेकिन नहीं। करूणामय श्री रामकृष्ण तो साक्षात नारायण को ही उन नरदेह में देख रहे थे। वे आगे कैसे बढते। बस झटसे उन गरीब लोगो के समूह में शामिल हो गये। उनके साथ जमकर बैठ गये और बोले ''जब तक इन नर नारायणों की सेवा नहीं करोगे तब तक मैं यहां से हिलूंगा नहीं।
श्री रामकृष्णदेव के मुखपर असीम करूणा का तेज उभर आया मानो करूणाने साक्षात नरदेह धारण कर लिया हो। उनकी वाणी मृदु नयन अश्रुपूर्ण
और हृदय विशाल हो गया था। उन गरिबो में और अपने आप में अब उन्हें कोई भेद जान नहीं पडता था। अद्वैत वेदान्त की उच्चतम अवस्था में वे सर्वभूतो से एकरूप हो गये थे।
अब मथुरबाबू के पास उस महापुरूष की आज्ञा का पालन करने सिवाय दूसरा कोई मार्ग नहीं बचा था। वे तत्काल कलकत्ता गये धन और राशन की व्यवस्था की और करूणामय श्री रामकृष्णदेव की इच्छानुसार उन गरीबों की सेवा करने के पश्चात ही उन्होने दम लिया। इस असीम प्रेम से उन गरीबों के चेहरोंपर मुस्कान की एक लहर दौड ग़यी। तब एक नन्हे बालक के भांति खुश होकर श्री रामकृष्णदेव आगे की यात्रा के लिये रवाना हुए।

bindujain
14-01-2013, 07:28 PM
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस


नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के विषय में कुछ जानकारी

http://2.bp.blogspot.com/-xC3qC_ERl5E/TrTMnqsQlsI/AAAAAAAABe8/GkpgwQbaQdc/s1600/%25E0%25A4%25B8%25E0%25A5%2581%25E0%25A4%25AD%25E0 %25A4%25BE%25E0%25A4%25B7+%25E0%25A4%259A%25E0%25A 4%25A8%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25A6%25E0%25A5%258 D%25E0%25A4%25B0+%25E0%25A4%25AC%25E0%25A5%258B%25 E0%25A4%25B8.jpg

जिन लोगों ने देश की स्वतन्त्रता के लिए अपना सर्वस्व यहाँ तक कि प्राण तक न्यौछावर कर दिया, हम लोगों में अधिकतर लोग उनके विषय में, दुर्भाग्य से, बहुत कम जानते हैं। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस भी उन महान सच्चे स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों में से एक हैं जिनके बलिदान का इस देश में सही आकलन नहीं हुआ। देखा जाए तो अपनी महान हस्तियों के विषय में न जानने या बहुत कम जानने के पीछे दोष हमारा नहीं बल्कि हमारी शिक्षा का है जिसने हमारे भीतर ऐसा संस्कार ही उत्पन्न नहीं होने दिया कि हम उनके विषय में जानने का कभी प्रयास करें। होश सम्भालने बाद से ही जो हमें "महात्मा गांधी की जय", "चाचा नेहरू जिन्दाबाद" जैसे नारे लगवाए गए हैं उनसे हमारे भीतर गहरे तक पैठ गया है कि देश को स्वतन्त्रता सिर्फ गांधी जी और नेहरू जी के कारण ही मिली। हमारे भीतर की इस भावना ने अन्य सच्चे स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों को उनकी अपेक्षा गौण बना कर रख दिया। हमारे समय में तो स्कूल की पाठ्य-पुस्तकों में यदा-कदा "खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी...", "अमर शहीद भगत सिंह" जैसे पाठ होते भी थे किन्तु आज वह भी लुप्त हो गया है। ऐसी शिक्षा से कैसे जगेगी भावना अपने महान हस्तियों के बारे में जानने की? अस्तु।
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी, 1897 को उड़ीसा के कटक शहर में हुआ था।
उनके पिता का नाम जानकीनाथ बोस और माता का नाम प्रभावती था।
सुभाष चन्द्र बोस अपनी माता-पिता की 14 सन्तानों में से नौवीं सन्तान थे।
जानकीदास बोस को ब्रिटिश सरकार ने रायबहादुर का खिताब दिया था और वे चाहते थे कि उनका पुत्र आई.सी.एस. (आज का आई.ए.एस.) अधिकारी बने, इसलिए पिता का मन रखने के लिए सुभाष चन्द्र बोस सन् 1920 में आई.सी.एस. अधिकारी बने।
महज एक साल बाद ही अर्थात् सन् 1921 में वे अंग्रेजों की नौकरी छोड़कर राजनीति में उतर आए।
सन् 1938 में सुभाष चन्द्र बोस बोस कांग्रेस के अध्यक्ष हुए। अध्यक्ष पद के लिए गांधी जी ने उन्हें चुना था और कांग्रेस का यह रवैया था कि जिसे गांधी जी चुन लेते थे वह अध्यक्ष बन ही जाता था क्योंकि हमने सुना है कि जो भी अध्यक्ष बनता था वह वास्तव में 'डमी' होता था, असली अध्यक्ष तो स्वयं गांधी जी होते थे और चुने गए अध्यक्ष को उनके ही निर्देशानुसार कार्य करना पड़ता था।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रेजों की कठिनायों को मद्देनजर रखते हुए सुभाष चन्द्र बोस चाहते थे कि स्वतन्त्रता संग्राम को अधिक तीव्र गति से चलाया जाए किन्तु गांधी जी को उनके इस विचार से सहमत नहीं थे। परिणामस्वरूप बोस और गांधी के बीच मतभेद पैदा हो गया और गांधी जी ने उन्हें कांग्रेस के अध्यक्ष पद से हटाने के लिए कमर कस लिया।
गांधी जी के विरोध के बावजूद भी कांग्रेस के सन् 1939 के चुनाव में सुभाष चन्द्र बोस फिर से चुन कर आ गए। चुनाव में गांधी जी समर्थित पट्टाभि सीतारमैया को 1377 मत मिले जबकि सुभाष चन्द्र बोस को 1580। गांधी जी ने इसे पट्टाभि सीतारमैया की हार न मान कर अपनी हार माना।
गांधी जी तथा उनके सहयोगियों के व्यवहार से दुःखी होकर अन्ततः सुभाष चन्द्र बोस ने 29 अप्रैल, 1939 को कांग्रेस अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया।
तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने सुभाषचन्द्र बोस को ग्यारह बार गिरफ्तार किया और अन्त में सन् 1933 में उन्हें देश निकाला दे दिया।
1934 में पिताजी की मृत्यु पर तथा 1936 में काँग्रेस के (लखनऊ) अधिवेशन में भाग लेने के लिए सुभाष चन्द्र बोस दो बार भारत आए, मगर दोनों ही बार ब्रिटिश सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर वापस देश से बाहर भेज दिया।
यूरोप में रहते हुए सुभाषचन्द्र बोस ने सन् 1933 से ’38 तक ऑस्ट्रिया, बुल्गारिया, चेकोस्लोवाकिया, फ्राँस, जर्मनी, हंगरी, आयरलैण्ड, इटली, पोलैण्ड, रूमानिया, स्वीजरलैण्ड, तुर्की और युगोस्लाविया की यात्राएँ कर के यूरोप की राजनीतिक हलचल का गहन अध्ययन किया और उसके बाद भारत को स्वतन्त्र कराने के उद्देश्य से आजाद हिन्द फौज का गठन किया।
नेताजी का नारा था "तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूँगा"।
18 अगस्त 1945 को हवाई जहाज से मांचुरिया की ओर जाते हुए व लापता हो गए तथा उसके बाद वे कभी किसी को दिखाई नहीं दिये।
नेताजी की मृत्यु (?) आज तक इतिहास का एक रहस्य बना हुआ है?

likedevika
28-01-2013, 11:09 AM
These are the really Great Man