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View Full Version : जानिए जैन धर्म को


bindujain
01-01-2013, 05:15 PM
जैन प्रतीक चिह्न

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bindujain
01-01-2013, 05:41 PM
जैन प्रतीक चिह्न

मूल भावनाएँ



जैन प्रतीक चिह्न कई मूल भावनाओं को अपने में समाहित करता है। इस प्रतीक चिह्न का रूप जैन शास्त्रों में वर्णित तीन लोक के आकार जैसा है। इसका निचला भाग अधोलोक, बीच का भाग- मध्य लोक

एवं ऊपर का भाग- उर्ध्वलोक का प्रतीक है। इसके सबसे ऊपर भाग में चंद्राकार सिद्ध शिला है। अनन्तान्त सिद्ध परमेष्ठी भगवान इस सिद्ध शिला पर अनन्त काल से अनन्त काल तक के लिए विराजमान हैं। चिह्न के निचले भाग में प्रदर्शित हाथ अभय का प्रतीक है और लोक के सभी जीवों के प्रति अहिंसा का भाव रखने का प्रतीक है। हाथ के बीच में २४ आरों वाला चक्र चौबीस तीर्थंकरों द्वारा प्रणीत जिन धर्म को दर्शाता है, जिसका मूल भाव अहिंसा है, ऊपरी भाग में प्रदर्शित स्वस्तिक की चार भुजाएँ चार गतियों- नरक, त्रियंच, मनुष्य एवं देव गति की द्योतक हैं। प्रत्येक संसारी प्राणी जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त होना चाहता है। स्वस्तिक के ऊपर प्रदर्शित तीन बिंदु सम्यक रत्नत्रय-सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान एवं सम्यक चरित्र को दर्शाते हैं और संदेश देते हैं कि सम्यक रत्नत्रय के बिना प्राणी मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता है। सम्यक रत्नत्रय की उपलब्धता जैनागम के अनुसार मोक्ष प्राप्ति के लिए परम आवश्यक है। सबसे नीचे लिखे गए सूत्र ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्*’ का अर्थ प्रत्येक जीवन परस्पर एक दूसरे का उपकार करें, यही जीवन का लक्षण है। संक्षेप में जैन प्रतीक चिह्न संसारी प्राणी मात्र की वर्तमान दशा एवं इससे मुक्त होकर सिद्ध शिला तक पहुँचने का मार्ग दर्शाता है।

bindujain
02-01-2013, 04:56 AM
‘जैन’ कहते हैं उन्हें, जो ‘जिन’ के अनुयायी हों। ‘जिन’ शब्द बना है ‘जि’ धातु से। ‘जि’ माने-जीतना। ‘जिन’ माने जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया, वे हैं ‘जिन’। जैन धर्म अर्थात ‘जिन’ भगवान्* का धर्म।

जैन धर्म का परम पवित्र और अनादि मूलमंत्र है-

णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं॥

अर्थात अरिहंतों को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, आचार्यों को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार, सर्व साधुओं को नमस्कार। ये पाँच परमेष्ठी हैं।

bindujain
02-01-2013, 04:57 AM
जैन कौन?

जो स्वयं को अनर्थ हिंसा से बचाता है।
जो सदा सत्य का समर्थन करता है।
जो न्याय के मूल्य को समझता है।
जो संस्कृति और संस्कारों को जीता है।
जो भाग्य को पुरुषार्थ में बदल देता है।
जो अनाग्रही और अल्प परिग्रही होता है।
जो पर्यावरण सुरक्षा में जागरुक रहता है।
जो त्याग-प्रत्याख्यान में विश्वास रखता है।
जो खुद को ही सुख-दःख का कर्ता मानता है।

aspundir
02-01-2013, 06:26 PM
a beautiful thread.

bindujain
03-01-2013, 08:33 AM
जैन धर्म - इतिहास की नजर में

दुनिया के सबसे प्राचीन धर्म जैन धर्म को श्रमणों का धर्म कहा जाता है। वेदों में प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ का उल्लेख मिलता है। माना जाता है कि वैदिक साहित्य में जिन यतियों और व्रात्यों का उल्लेख मिलता है वे ब्राह्मण परंपरा के न होकर श्रमण परंपरा के ही थे। मनुस्मृति में लिच्छवि, नाथ, मल्ल आदि क्षत्रियों को व्रात्यों में गिना है।

जैन धर्म का मूल भारत की प्राचीन परंपराओं में रहा है। आर्यों के काल में ऋषभदेव और अरिष्टनेमि को लेकर जैन धर्म की परंपरा का वर्णन भी मिलता है। महाभारतकाल में इस धर्म के प्रमुख नेमिनाथ थे।

जैन धर्म के 22वें तीर्थंकर अरिष्ट नेमिनाथ भगवान कृष्ण के चचेरे भाई थे। जैन धर्म ने कृष्ण को उनके त्रैसष्ठ शलाका पुरुषों में शामिल किया है, जो बारह नारायणों में से एक है। ऐसी मान्यता है कि अगली चौबीसी में कृष्ण जैनियों के प्रथम तीर्थंकर होंगे।

ईपू आठवीं सदी में 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ हुए, जिनका जन्म काशी में हुआ था। काशी के पास ही 11वें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ का जन्म भी हुआ था। इन्हीं के नाम पर सारनाथ का नाम प्रचलित है।

भगवान पार्श्वनाथ तक यह परंपरा कभी संगठित रूप में अस्तित्व में नहीं आई। पार्श्वनाथ से पार्श्वनाथ संप्रदाय की शुरुआत हुई और इस परंपरा को एक संगठित रूप मिला। भगवान महावीर पार्श्वनाथ संप्रदाय से ही थे।


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जैन धर्म में श्रमण संप्रदाय का पहला संप्रदाय पार्श्वनाथ ने ही खड़ा किया था। ये श्रमण वैदिक परंपरा के विरुद्ध थे। यही से जैन धर्म ने अपना अगल अस्तित्व गढ़ना शुरू कर दिया था। महावीर तथा बुद्ध के काल में ये श्रमण कुछ बौद्ध तथा कुछ जैन हो गए। इन दोनों ने अलग-अलग अपनी शाखाएं बना ली।

ईपू 599 में अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर ने तीर्थंकरों के धर्म और परंपरा को सुव्यवस्थित रूप दिया। कैवल्य का राजपथ निर्मित किया। संघ-व्यवस्था का निर्माण किया:- मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका। यही उनका चतुर्विघ संघ कहलाया। भगवान महावीर ने 72 वर्ष की आयु में देह त्याग किया।

भगवान महावीर के काल में ही विदेहियों और श्रमणों की इस परंपरा का नाम जिन (जैन) पड़ा, अर्थात जो अपनी इंद्रियों को जीत लें।

धर्म पर मतभेद : अशोक के अभिलेखों से यह पता चलता है कि उनके समय में मगध में जैन धर्म का प्रचार था। लगभग इसी समय, मठों में बसने वाले जैन मुनियों में यह मतभेद शुरू हुआ कि तीर्थंकरों की मूर्तियां कपड़े पहनाकर रखी जाए या नग्न अवस्था में। इस बात पर भी मतभेद था कि जैन मुनियों को वस्त्र पहनना चाहिए या नहीं।

आगे चलकर यह मतभेद और भी बढ़ गया। ईसा की पहली सदी में आकर जैन धर्म को मानने वाले मुनि दो दलों में बंट गए। एक दल श्वेतांबर कहलाया, जिनके साधु सफेद वस्त्र (कपड़े) पहनते थे, और दूसरा दल दिगंबर कहलाया जिसके साधु नग्न (बिना कपड़े के) ही रहते थे।

श्वेतांबर और दिगंबर का परिचय : भगवान महावीर ने जैन धर्म की धारा को व्यवस्थित करने का कार्य किया, लेकिन उनके बाद जैन धर्म मूलत: दो संप्रदायों में विभक्त हो गया: श्वेतांबर और दिगंबर।

दोनों संप्रदायों में मतभेद दार्शनिक सिद्धांतों से ज्यादा चरित्र को लेकर है। दिगंबर आचरण पालन में अधिक कठोर हैं जबकि श्वेतांबर कुछ उदार हैं। श्वेतांबर संप्रदाय के मुनि श्वेत वस्त्र पहनते हैं जबकि दिगंबर मुनि निर्वस्त्र रहकर साधना करते हैं। यह नियम केवल मुनियों पर लागू होता है।

दिगंबर संप्रदाय मानता है कि मूल आगम ग्रंथ लुप्त हो चुके हैं, कैवल्य ज्ञान प्राप्त होने पर सिद्ध को भोजन की आवश्यकता नहीं रहती और स्त्री शरीर से कैवल्य ज्ञान संभव नहीं; किंतु श्वेतांबर संप्रदाय ऐसा नहीं मानते हैं।

दिगंबरों की तीन शाखा हैं मंदिरमार्गी, मूर्तिपूजक और तेरापंथी, और श्वेतांबरों की मंदिरमार्गी तथा स्थानकवासी दो शाखाएं हैं।

दिगंबर संप्रदाय के मुनि वस्त्र नहीं पहनते। 'दिग्*' माने दिशा। दिशा ही अंबर है, जिसका वह 'दिगंबर'। वेदों में भी इन्हें 'वातरशना' कहा है। जबकि श्वेतांबर संप्रदाय के मुनि सफेद वस्त्र धारण करते हैं। कोई 300 साल पहले श्वेतांबरों में ही एक शाखा और निकली 'स्थानकवासी'। ये लोग मूर्तियों को नहीं पूजते।

जैनियों की तेरहपंथी, बीसपंथी, तारणपंथी, यापनीय आदि कुछ और भी उपशाखाएं हैं। जैन धर्म की सभी शाखाओं में थोड़ा-बहुत मतभेद होने के बावजूद भगवान महावीर तथा अहिंसा, संयम और अनेकांतवाद में सबका समान विश्वास है।

गुप्त काल : ईसा की पहली शताब्दी में कलिंग के राजा खारावेल ने जैन धर्म स्वीकार किया। ईसा के प्रारंभिक काल में उत्तर भारत में मथुरा और दक्षिण भारत में मैसूर जैन धर्म के बहुत बड़े केंद्र थे।

पांचवीं से बारहवीं शताब्दी तक दक्षिण के गंग, कदम्बु, चालुक्य और राष्ट्रकूट राजवंशों ने जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इन राजाओं के यहां अनेक जैन मुनियों, कवियों को आश्रय एवं सहायता प्राप्त होती थी।

ग्याहरवीं सदी के आसपास चालुक्य वंश के राजा सिद्धराज और उनके पुत्र कुमारपाल ने जैन धर्म को राजधर्म घोषित कर दिया तथा गुजरात में उसका व्यापक प्रचार-प्रसार किया गया।

मुगल काल : मुगल शासन काल में हिन्दू, जैन और बौद्ध मंदिरों को आक्रमणकारी मुस्लिमों ने निशाना बनाकर लगभग 70 फीसदी मंदिरों का नामोनिशान मिटा दिया। दहशत के माहौल में धीरे-धीरे जैनियों के मठ टूटने एवं बिखरने लगे लेकिन फिर भी जै*न धर्म को समाज के लोगों ने संगठित होकर बचाए रखा। जैन धर्म के लोगों का भारतीय संस्कृति, सभ्यता और समाज को विकसित करने में बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

bindujain
03-01-2013, 08:38 AM
जैन धर्म के 24 तीर्थंकर
क्र.सं. तीर्थकर का नाम
1. ॠषभनाथ तीर्थंकर
2. अजितनाथ
3. सम्भवनाथ
4. अभिनन्दननाथ
5. सुमतिनाथ
6. पद्मप्रभ
7. सुपार्श्वनाथ
8. चन्द्रप्रभ
9. पुष्पदन्त
10. शीतलनाथ
11. श्रेयांसनाथ
12. वासुपूज्य
13. विमलनाथ
14. अनन्तनाथ
15. धर्मनाथ
16. शान्तिनाथ
17. कुन्थुनाथ
18. अरनाथ
19. मल्लिनाथ
20. मुनिसुब्रनाथ
21. नमिनाथ
22. नेमिनाथ तीर्थंकर
23. पार्श्वनाथ तीर्थंकर
24. वर्धमान महावीर

Awara
03-01-2013, 08:49 AM
जैन धर्म की ऊपर यह एक शानदार सूत्र है। :bravo::bravo::bravo::bravo:

bindujain
03-01-2013, 03:58 PM
जैन धर्म की ऊपर यह एक शानदार सूत्र है। :bravo::bravo::bravo::bravo:


Awara ji dhanyavaad

bindujain
03-01-2013, 04:00 PM
a beautiful thread.



:bravo:आपका धन्यवाद :bravo:

bindujain
04-01-2013, 08:11 PM
http://delilama.net/realm/imag/jain3.gif

bindujain
04-01-2013, 08:12 PM
http://sphotos-b.xx.fbcdn.net/hphotos-ash3/c0.0.403.403/p403x403/598381_482458721796086_262487946_n.jpg

bindujain
04-01-2013, 08:18 PM
जैन धर्म में अहिंसा को परमधर्म माना गया है।

सब जीव जीना चाहते हैं,मरना कोई नहीं चाहता, अतएव इस धर्म में प्राणिवध के त्याग का सर्वप्रथम उपदेशहै।

केवल प्राणों काही वधनहीं, बल्कि दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाले असत्य भाषण को भी हिंसा काएक अंग बताया है।

महावीर ने अपने भिक्षुओं कोउपदेश देते हुए कहा है कि उन्हें बोलते-चालते, उठते-बैठते, सोते औरखाते-पीते सदा यत्नशील रहना चाहिए। अयत्नाचार पूर्वक कामभोगों में आसक्तिही हिंसा है, इसलिये विकारों पर विजय पाना, इंद्रियों का दमन करना और अपनी समस्त वृत्तियों को संकुचित करने को जैनधर्म में सच्ची अहिंसा बताया है।

पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु औरवनस्पति में भी जीवन है,अतएव पृथ्वी आदिएकेंद्रिय जीवों की हिंसाका भी इस धर्म में निषेध है।

bindujain
04-01-2013, 08:21 PM
जैनधर्म का दूसरा महत्वपूर्ण सिद्धांत है कर्म।

महावीर ने बार बार कहा है कि जो जैसा अच्छा, बुरा कर्म करता है उसका फलअवश्य ही भोगना पड़ता है

तथा मनुष्य चाहे जो प्राप्त कर सकता है, चाहे जो बन सकता है, इसलिये अपने भाग्य का विधाता वह स्वयं है।

जैनधर्म में ईश्वर को जगत्* का कर्ता नहीं माना गया, तप आदि सत्कर्मों द्वारा आत्मविकास की सर्वोच्च अवस्था को ही ईश्वर बताया है।

यहाँ नित्य, एक अथवा मुक्त ईश्वर को अथवा अवतारवाद को स्वीकार नहीं किया गया।

ज्ञानावरण,दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, अंतराय, आयु, नाम और गोत्र इन आठ कर्मों का नाश होने से जीव जब कर्म के बंधन से मुक्त हो जाता है तो वह ईश्वर बन जाता है तथा राग-द्वेष से मुक्त हो जाने के कारण वह सृष्टि के प्रपंच में नहीं पड़ता।

bindujain
05-01-2013, 04:40 AM
जैन धर्म की प्राचीनता

सृष्टि अनादि-निधन है। सभी प्रकार के ज्ञान, विचारधाराएँ भी अनादि निधन है। समय-समय पर उन्हें प्रकट करने वाले अक्षर, पद, भाषा और पुरुष भिन्न हो सकते हैं।

इस युग में सदियों पहले श्री ऋषभदेव द्वारा जैन धर्म का प्रादुर्भाव हुआ। जैन धर्म की प्राचीनता प्रामाणिक करने वाले अनेक उल्लेख अजैन साहित्य और खासकर वैदिक साहित्य में प्रचुर मात्रा में हैं। अर्हंतं, जिन, ऋषभदेव, अरिष्टनेमि आदि तीर्थंकरों का उल्लेख ऋग्वेदादि में बहुलता से मिलता है, जिससे यह स्वतः सिद्ध होता है कि वेदों की रचना के पहले जैन-धर्म का अस्तित्व भारत में था। श्रीमद्* भागवत में श्री ऋषभदेव को विष्णु का आठवाँ अवतार और परमहंस दिगंबर धर्म का प्रतिपादक कहा है। विष्णु पुराण में श्री ऋषभदेव, मनुस्मृति में प्रथम जिन (यानी ऋषभदेव) स्कंदपुराण, लिंगपुराण आदि में बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि का उल्लेख आया है। दीक्षा मूर्ति-सहस्रनाम, वैशम्पायन सहस्रनाम महिम्न स्तोत्र में भगवान जिनेश्वर व अरहंत कह के स्तुति की गई है। योग वाशिष्ठ में श्रीराम ‘जिन’ भगवान की तरह शांति की कामना करते हैं। इसी तरह रुद्रयामलतंत्र में भवानी को जिनेश्वरी, जिनमाता, जिनेन्द्रा कहकर संबोधन किया है। नगर पुराण में कलयुग में एक जैन मुनि को भोजन कराने का फल कृतयुग में दस ब्राह्मणों को भोजन कराने के बराबर कहा गया है। इस तरह के कुछ उद्धरण इसी पुस्तक के अन्य पाठों में दिए गए हैं। प्रस्तुत पाठ में कुछ विद्वानों, इतिहासज्ञों, पुरातत्वज्ञों की मान्यताओं का उल्लेख किया गया है।

‘जैन परम्परा ऋषभदेव से जैन धर्म की उत्पत्ति होना बताती है जो सदियों पहले हो चुके हैं। इस बात के प्रमाण हैं कि ईस्वी सन्* से एक शताब्दी पूर्व में ऐसे लोग थे जो कि प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की पूजा करते थे। इसमें कोई संदेह नहीं है कि जैन धर्म महावीर और पार्श्वनाथ से भी पूर्व प्रचलित था। यजुर्वेद में तीन तीर्थंकर ऋषभ, अजितनाथ, अरिष्टनेमि के नामों का उल्लेख है। भागवत पुराण भी इस बात का समर्थन करता है कि ऋषभदेव जैन धर्म के संस्थापक थे।’
Indian Philosophy P.287 डॉ. राधाकृष्णन्*

bindujain
05-01-2013, 04:42 AM
जैन धर्म की प्राचीनता

“If this is not history and Historical Confirmation I do not know what else would be covered by these terms”
Barrister Champatrai

“It should be borne in mind, however, while prehistory is a period of the history of mankind for which there are no written sources, archaeology is a method of remained leftby the people of past.”

(Introduction, History of humanity, Vol. 1 Pre-History and begnnings of Civilization Ed. S.J. Laser, Unesco, 1994)

bindujain
05-01-2013, 04:44 AM
जैन धर्म की प्राचीनता

‘जैन-विचार निःसंशय प्राचीनकाल से हैं। क्योंकि ‘अर्हन इदं दय से विश्वमभ्वम्*’ इत्यादि वेद वचनों में वह पाया जाता है।’ - संत विनोबा भावे

‘मुझे प्रतीत होता है कि प्राचीनकाल में चार बुद्धया मेधावी महापुरुष हुए हैं। इनमें पहले आदिनाथ या ऋषभदेव थे। दूसरे नेमिनाथ थे। ये नेमिनाथ ही स्केंडिनेविया निवासियों के प्रथम ओडिन तथा चीनियों के प्रथम फो नामक देवता थे।’- राजस्थान – कर्नल टाड

‘दिगम्बर सम्प्रदाय प्राचीन समय से आज तक पाया जाता है। हम एक ही निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि ग्रीक लोग पश्चिमी भारत में जहाँ आज भी दिगम्बर सम्प्रदाय प्रचलित है, जिन ‘जिमनोसोफिस्ट’ के संपर्क में आए थे, वे जैन थे ब्राह्मण या बौद्ध नहीं थे। और सिकन्दर भी तक्षशिला के पास इसी दिगम्बर संप्रदाय के संपर्क में आया था और कलानस (कल्यान) साधु परसिया तक उसके साथ गया था। इस युग में इस धर्म का उपदेश चौबीस तीर्थंकरों ने दिया है जिसमें भगवान महावीर अंतिम थे।’- रेवेरेण्ड जे. स्टेवेनसन्* चेयरमैन रायल एशियार्टिक सोसायटी

‘इन खोजों (मथुरा के स्तूप आदि से) से लिखित जैन परम्परा का बहुत सीमा तक समर्थन हुआ है और वे जैन धर्म की प्राचीनता के और प्राचीनकाल में भी बहुत ज्यादा वर्तमान स्वरूप में ही होने के स्पष्ट व अकाट्य प्रमाण हैं। ईस्वी सन्* के प्रारंभ में भी चौबीस तीर्थंकर अपने भिन्न-भिन्न चिह्नों सहित निश्चित तौर पर माने जाते थे।’
- इतिहास विसेन्ट स्मिथ

bindujain
05-01-2013, 04:45 AM
जैन धर्म की प्राचीनता

‘जैन परम्परा इस बात में एक मत है कि ऋषभदेव, प्रथम तीर्थंकर जैन धर्म के संस्थापक थे। इस मान्यता में कुछ ऐतिहासिक सत्यता संभव है।’ (Indian Antiquary Vol. 19 p. 163) Dr. jacobi

‘हम दृढ़ता से कह सकते हैं कि अहिंसा-धर्म (जैन धर्म) वैदिक धर्म से अधिक प्राचीन नहीं तो वैदिक धर्म के समान तो प्राचीन है।’Cultural Heritage of india page 185-8

‘यह भी निर्विवाद सिद्ध हो चुका है कि बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध के पहले भी जैनियों के 23 तीर्थंकर हो चुके हैं।’ – इम्पीरियल गजेटियर ऑफ इंडिया, पृष्ठ-51

‘बौद्धों के निर्ग्रन्थों (जैनों) का नवीन सम्प्रदाय के रूप में उल्लेख नहीं किया है और न उसके विख्यात संस्थापक नातपुत्र (भगवान महावीर स्वामी) का संस्थापक के रूप में ही किया है। इससे जैकोबी इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि जैन धर्म के संस्थापक महावीर की अपेक्षा प्राचीन है। यह सम्प्रदाय बौद्ध सम्प्रदाय के पूर्ववर्ती है।’- Religion of India By Prof. E.W. Hopkins S.P.P. 283.

‘दान-पत्र पर उक्त पश्चिमी एशिया सम्राट की मूर्ति अंकित है जिसका करीब 3200 वर्ष पूर्व का अनुमान किया जाता है।’ (19 मार्च, 1895 साप्ताहिक टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित ताम्र-पत्र के आधार पर) डॉ. प्राणनाथ विद्यालंकार

‘ईस्वी सन्* से लगभग 1500 से 800 वर्ष पूर्व और वास्तव में अनिश्चितकाल से… संपूर्ण उत्तर भारत में एक प्राचीन, व्यवस्थित, दार्शनिक, सदाचार युक्त एवं तप-प्रधान धर्म अर्थात जैन-धर्म प्रचलित था जिससे ही बाद में ब्राह्मण व बौद्ध-धर्म के प्रारंभ में संन्यास मार्ग विकसित हुए। आर्यों के गंगा, सरस्वती तट पर पहुँचने के पहले ही जो कि ईस्वी सन्* से 8वीं या 9वीं शताब्दी पूर्व के ऐतिहासिक तेईसवें पार्श्व के पूर्व बाईस तीर्थंकर जैनों को उपदेश दे चुके थे।’
Short studies in the Science of Comparative Religion p. 243-244 by Major General Fulong F.R.A.S.

‘पाँच हजार वर्ष पूर्व के सभ्यता-सम्पन्न नगर मोहन जोदड़ो व हड़प्पा की खुदाई से प्राप्त सील, नं. 449 में जिनेश्वर शब्द मिलता है।’
- डॉ. प्राणनाथ विद्यालंकार

bindujain
05-01-2013, 04:47 AM
जैन धर्म की प्राचीनता

‘जैन धर्म संसार का मूल अध्यात्म धर्म है, इस देश में वैदिक धर्म के आने से बहुत पहले से ही यहाँ जैन धर्म प्रचलित था।’ – उड़ीसा में जैन धर्म’ – श्री नीलकंठ शास्त्री

‘मथुरा के कंकाली टीला में महत्वपूर्ण जैन पुरातत्व के 110 शिलालेख मिले हैं, उनमें सबसे प्राचीन देव निर्मित स्तूप विशेष उल्लेखनीय हैं, पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार ईसा पूर्व 800 के आसपास उसका पुनर्निर्माण हुआ। कुछ विद्वान इस स्तूप को तीन हजार वर्ष प्राचीन मानते हैं।’
-मथुरा के जैन साक्ष्य ऋषभ सौरभ- 3, डॉ. रमेशचंद शर्मा

‘वाचस्पति गैरोला का भारतीय दर्शन प्र. 93 पर कथन है कि ‘भारतीय इतिहास, संस्कृति और साहित्य ने इस तथ्य को पुष्ट किया है कि सिन्धु घाटी की सभ्यता जैन सभ्यता थी।’- भारतीय दर्शन पृ. – 93 – डॉ. गेरोला

‘जैन धर्म हड़प्पा सभ्यता जितना पुराना है और प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव कम से कम ईसा से लगभग 2700 वर्ष पूर्व सिन्धु-घाटी सभ्यता में समृद्धि या प्रसिद्धि को प्राप्त हुए हैं। ऋग्वेद के अनुसार जिसने परम सत्य को उद्घोषित किया और पशुबलि और पशुओं के प्रति अत्याचार का विरोध किया।

(हड़प्पा की खुदाई से प्राप्त कुछ मूर्तियों के संदर्भ में) बहुत प्राचीन काल से भारतीय शिल्पकला की दृष्टि से ऐसी नग्न मूर्तियाँ जैन तीर्थंकरों की तपस्या और ध्यान-मुद्रा की हैं। इन मूर्तियों की तपस्या और ध्यान करती हुई शांत मुद्रा श्रवणबेलगोला, कारकल, यनूर की प्राचीन जैन मूर्तियों से मिलती हैं। (अँग्रेजी से अनुवाद)’ – हड़प्पा और जैन-धर्म, टी.एन. रामचंद्रन

‘सिन्धु घाटी की अनेक सीलों में उत्कीर्ण देवमूर्तियाँ न केवल बैठी हुई योगमुद्रा में हैं और सुदूर अतीत में सिन्धु घाटी में योग के प्रचलन की साक्षी है अपितु खड़ी हुई देवमूर्तियाँ भी हैं जो कायोत्सर्ग मुद्रा को प्रदर्शित करती है…।

कायोत्सर्ग मुद्रा विशेषतया जैनमुद्रा है? यह बैठी हुई नहीं खड़ी हुई है। आदिपुराण के अठारहवें अध्याय में जिनों में प्रथम जिन ऋषभ या वृषभ की तपश्चर्या के सिलसिले में कायोत्सर्ग मुद्रा का वर्णन हुआ है।’

कर्जन म्यूजियम ऑफ आर्कियोलॉजी मथुरा में सुरक्षित एक प्रस्तर-पट्ट पर उत्कीर्णित चार मूर्तियों में से एक वृषभ जिन की खड़ी हुई मूर्ति कायोत्सर्ग मुद्रा में है। यह ईसा की द्वितीय शताब्दी की है। मिश्र के आरंभिक राजवंशों के समय की शिल्प-कृतियों में भी दोनों ओर हाथ लटकाए खड़ी कुछ मूर्तियाँ प्राप्त हैं। यद्यपि इन प्राचीन मिश्री मूर्तियाँ और यूनान की कुराई मूर्तियों की मुद्राएँ भी वैसी ही हैं, तथापि वह देहोत्सर्गजनित निःसंगता जो सिन्धु घाटी की सीलों पर अंकित मूर्तियाँ तथा कायोत्सर्ग ध्यानमुद्रा में लीन जिन-बिम्बों में पाई जाती हैं, इनमें अनुपस्थित है। वृषभ का अर्थ है बैल और बैल वृषभ या ऋषभ जिन की मूर्ति का पहचान चिह्न है।’

‘ – (अंग्रेजी से अनुवाद) सिंध फाइव थाऊजेंड इअर्स अगो, पेज-158-159 (मॉडर्न रिव्यू कलकत्ता – अगस्त, 1932 – पुरातत्वज्ञ रामप्रसाद चंदा)

bindujain
05-01-2013, 08:58 AM
धर्म और विज्ञान
-महावीर सांगलीकर



कई लोग ऐसा सोचते है कि जैन धर्म मोस्ट सायंटिफिक धर्म है. उससे भी आगे जाकर वे कहते है की, विज्ञान को जो बातें पता नहीं वह जैन शास्त्रों में लिखी हुई हैं. आगे चलकर विज्ञान को जैन धर्म के आगे बौना साबीत कराने के लिए कहते है कि जैन धर्म अंतिम सत्य जानता है, लेकिन विज्ञान अधूरा है और वह बार बार अपने निष्कर्ष बदलता है.

ये लोग ऐसा सोचते है क्यों की उन्होंने मुनियों के मुख से यह बात बार बार सुनी है. मुनि के मुंह से निकला हुआ हर एक शब्द उनके लिए अंतिम सत्य होता है. चाहे वह मुनि अनपढ़ क्यों न हो. इस प्रकार के लोग खुद कभी किसी बात पर विचार नहीं करते, चिंतन नहीं करते.

मजे की बात यह है की दुसरे धर्म वाले भी अपने अपने धर्म को मोस्ट सायंटिफिक धर्म मानते है. वैदिक धर्म के लोग तो ऐस मानते है कि आज दुनिया मे जितने भी आविष्कार किये गये है, वे सब वेदों में पहले ही लिखे हुये थे. युरोपिअन लोगो ने वेदों को पढकर विमान, रेडियो, टी.वी. कंप्युटर, बिजली जैसी चीजे बनायी. ये मत पुछिये की यह वेद आपके पास पिछले हजारों सालों से थे, फिर आपने खुद यह चीजे क्यों नही बनवायी?

खैर, ये लोग विज्ञान या सायन्स क्या है इस बात को बिलकुल नहीं जानते. सायन्स और टेक्नोलोजी में फर्क है इस बात को भी नहीं जानते और टेक्नोलोजी को ही सायन्स मानते है. वास्तव में सायन्स या विज्ञान जिनिअस लोगो का विषय है, जबकि टेक्नोलोजी अप्लायड सायन्स है.

यह सच है कि जैन धर्म में विश्व और उसकी उत्पत्ती, फिजिक्स, काल, प्रगत गणित, मनोविज्ञान, आरोग्यविज्ञान, जीवविज्ञान जैसी बातों पर गहराई से चिंतन किया है. प्राचीन काल के जैन आचार्यो ने प्रगत गणित को बड़ा योगदान दिया है. लेकिन प्रगत गणित आज कल के जैन मुनियो को मालुम ही कहां है? ऐसी बातें आज कल के जैन मुनियों की समझ से परे है इसलिये वे केवल पानी छानकर पीने में ही विज्ञान देखते है. जैन धर्म ने इश्वर की सत्ता को नकारा है, लेकिन इस बारे में ये सायंटिफिक धर्म की बाते करनेवाले कुछ नही बोलते, उलटे समाज में इश्वरवाद, दैववाद फैलाते रहते हैं. महान, ज्ञानी समझे जानेवाले कई जैन मुनियों के मुंह से मैंने 'इश्वर की इच्छा के बिना दुनिया का पत्ता भी नहीं हिलता' ’ इश्वर उनकी आत्मा को शांती दे’ जैसे वाक्य सुने है.

बहरहाल, जैन धर्म में जो विज्ञान है वह प्राथमिक अवस्था का है और परिपूर्ण नहीं है. कई बातें गलत भी लिखी गयी है. आधुनिक विज्ञान उनको झूठा साबीत करता है. जैसे कि जैन धर्म ने धरती चपटी होने की बात की हैं जब कि विज्ञान ने पूरी तरह साबीत कर दिखाया है की वह गोल है. लेकिन शास्त्रों के अंध विश्वासी लोग आज भी यह कहते है की धरती चपटी है. ये मुर्ख लोग धरती की चक्कर लगाकर दुनिया भर में घूमेंगे, अपनी आखों से देखेंगे की धरती गोल है, फिर भी शास्त्रों की बात ही मानेंगे.

सायन्स के सभी लाभ लेकर ये धर्मवादी लोग सायन्स के खिलाफ बोलते हैं. यह तो कृतघ्नता हो गयी. उनका एक आरोप रहता है कि सायन्स दुनिया को तबाह कर देगा. उनको यह मालुम होना चाहिये की दुनिया के इतिहास में सब से ज्यादा तबाही, सबसे ज्यादा खून खराबा धर्मों के कारण हुआ है. धर्मवादी लोग कहते है कि सायन्स को अंतिम सत्य मालूम नही है, लेकिन धर्म को वह मालूम है. बात यह है कि सायन्स यानी कोई धर्म नहीं है कि जिसे अंतिम सत्य मालूम होने का झूठा दावा करने की जरुरत पड़े. सायन्स कभी दावा नहीं करता की उसे अंतिम सत्य मालूम हो गया है, लेकिन वह हमेशा सत्य के नजदीक ही होता है.

धर्मवादियों को यह भी याद रखना चाहिए विज्ञान अंधश्रद्धाए दूर करने का काम करता है, जब कि धर्म का मुख्य काम अंधश्रद्धाओ को बढ़ावा देना यही है. अब तो यह धर्मवादी लोग विज्ञान ने इजाद किये हुए टी. वी., इंटरनेट आदी का उपयोग अंधश्रद्धाए फैलाने के लिए कर रहे है.

दुनिया के लगभग सभी धर्म किसी विशेष जाती, वंश, देश, प्रदेश, भाषीय समूह आदि की बपौती बन गए है, सायन्स के साथ ऐसा कभी नहीं होगा. सायन्स सबके लिए खुला है, खुला रहेगा.

सायन्स बहोत आगे निकल चुका है. यह रेस जीतना धर्म के बस की बात नहीं है. धर्मवादियो की भलाई इसी में है की वे विज्ञान की महत्ता को बिना झिजक स्वीकार करे.

bindujain
05-01-2013, 09:01 AM
जैन धर्म का परम पवित्र और अनादि मूलमंत्र है-

णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं॥

अर्थात अरिहंतों को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, आचार्यों को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार, सर्व साधुओं को नमस्कार। ये पाँच परमेष्ठी हैं।

bindujain
05-01-2013, 09:02 AM
जैन धर्म : विविध विचार (Jain Religion : Different Thoughts)


जैन धर्म में मन-शुद्धि और विचार-शुद्धि पर सर्वाधिक जोर दिया गया है|

जैन धर्म मनुष्य को विकृति से प्रकृति और प्रकृति से संस्कृति की ओर ले जाता है|

हम दूसरों की रोटी छीनकर खाए यह विकृति है|

भूख लगने पर अपनी रोटी खाय यह प्रकृति है|

किन्तु स्वयं भूखे रह कर दूसरों को अपनी रोटी दे देना, यह संस्कृति है|

जहा तरलता थी – मै डूबता चला गया|

जहा सरलता थी – मै झुकता चला गया|

संबंधो ने मुझे जहा से छुआ – मै वही से पिघलता चला गया|

सोचने को कोई काहे जो सोचे – पर यहाँ तो एक एहसास था – जो कभी हुआ, कभी न हुआ |

bindujain
05-01-2013, 08:36 PM
आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज
तपस्या जिनकी जीवन पद्धति और विश्व मंगल पुनीत कामना है
- निर्मलकुमार पाटोदी

संत कमल के पुष्प के समान लोकजीवन की वारिधि में रहता है, संवरण करता है, डुबकियाँ लगाता है, किंतु डूबता नहीं। यही भारत भूमि के प्रखर तपस्वी, चिंतक, कठोर साधक, लेखक, राष्ट्र संत आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के जीवन का मंत्र घोष है।

विद्यासागरजी का जन्म कर्नाटक के बेलगाँव जिले के गाँव चिक्कोड़ी में आश्विन शुक्ल 15 संवत्* 2003 को हुआ था। श्री मल्लपाजी अष्टगे तथा श्रीमती अष्टगे के आँगन में जन्मे विद्याधर (घर का नाम पीलू) को आचार्य श्रेष्ठ ज्ञानसागरजी महाराज का शिष्यत्व पाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।

राजस्थान की ऐतिहासिक नगरी अजमेर में आषाढ़ सुदी पंचमी विक्रम संवत्* 2025 को लगभग 22 वर्ष की आयु में संयम धर्म के परिपालन हेतु उन्होंने पिच्छी कमंडल धारण करके मुनि दीक्षा धारण की थी। नसीराबाद (अजमेर) में गुरुवर ज्ञानसागरजी ने शिष्य विद्यासागर को अपने कर कमलों से मृगसर कृष्णा द्वितीय संवत्* 2029 को संस्कारित करके अपने आचार्य पद से विभूषित कर दिया और फिर आचार्य विद्यासागरजी के निर्देशन में समाधिमरण सल्लेखना ग्रहण कर ली।

विद्यासागरजी में अपने शिष्यों का संवर्धन करने का अभूतपूर्व सामर्थ्य है। उनका बाह्य व्यक्तित्व सरल, सहज, मनोरम है किंतु अंतरंग तपस्या में वे वज्र से कठोर साधक हैं। कन्नड़ भाषी होते हुए भी विद्यासागरजी ने हिन्दी, संस्कृत, मराठी और अँग्रेजी में लेखन किया है। उन्होंने 'निरंजन शतकं', 'भावना शतकं', 'परीष हजय शतकं', 'सुनीति शतकं' व 'श्रमण शतकं' नाम से पाँच शतकों की रचना संस्कृत में की है तथा स्वयं ही इनका पद्यानुवाद किया है।

उनके द्वारा रचित संसार में सर्वाधिक चर्चित, काव्य प्रतिभा की चरम प्रस्तुति है- 'मूकमाटी' महाकाव्य। यह रूपक कथा काव्य, अध्यात्म, दर्शन व युग चेतना का संगम है। संस्कृति, जन और भूमि की महत्ता को स्थापित करते हुए आचार्यश्री ने इस महाकाव्य के माध्यम से राष्ट्रीय अस्मिता को पुनर्जीवित किया है। उनकी रचनाएँ मात्र कृतियाँ ही नहीं हैं, वे तो अकृत्रिम चैत्यालय हैं।

उनके उपदेश, प्रवचन, प्रेरणा और आशीर्वाद से चैत्यालय, जिनालय, स्वाध्याय शाला, औषधालय, यात्री निवास, त्रिकाल चौवीसी आदि की स्थापना कई स्थानों पर हुई है और अनेक जगहों पर निर्माण जारी है। कितने ही विकलांग शिविरों में कृत्रिम अंग, श्रवण यंत्र, बैसाखियाँ, तीन पहिए की साइकलें वितरित की गई हैं। शिविरों के माध्यम से आँख के ऑपरेशन, दवाइयों, चश्मों का निःशुल्क वितरण हुआ है।

'सर्वोदय तीर्थ' अमरकंटक में विकलांग निःशुल्क सहायता केंद्र चल रहा है। जीव व पशु दया की भावना से देश के विभिन्न राज्यों में दयोदय गौशालाएँ स्थापित हुई हैं, जहाँ कत्लखाने जा रहे हजारों पशुओं को लाकर संरक्षण दिया जा रहा है। आचार्यजी की भावना है कि पशु मांस निर्यात निरोध का जनजागरण अभियान किसी दल, मजहब या समाज तक सीमित न रहे अपितु इसमें सभी राजनीतिक दल, समाज, धर्माचार्य और व्यक्तियों की सामूहिक भागीदारी रहे।

'जिन' उपासना की ओर उन्मुख विद्यासागरजी महाराज तो सांसारिक आडंबरों से विरक्त हैं। जहाँ वे विराजते हैं, वहाँ तथा जहाँ उनके शिष्य होते हैं, वहाँ भी उनका जन्म दिवस नहीं मनाया जाता। तपस्या उनकी जीवन पद्धति, अध्यात्म उनका साध्य, विश्व मंगल उनकी पुनीत कामना तथा सम्यक दृष्टि एवं संयम उनका संदेश है।

aspundir
05-01-2013, 08:49 PM
णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं॥...................

bindujain
08-01-2013, 08:03 AM
अहिंसा
१.अहिंसा सब धर्मों में सबसे अच्छा हैं। हिंसा के पीछे सब प्रकार के पाप लगे रहते हैं।
२.सन्मार्ग कौन सा है ? यह वही मार्ग है,जिसमें छोटे से छोटे जीव की रक्षा का भी पूरा ध्यान रखा जावे।
३.भले ही तुम्हारे प्राण संकट में पड़ जावें,तब भी किसी की प्यारी जान मत लो।
४.जिन लोगों का जीवन हत्या पर निर्भर है,समझदार लोगों की दृष्टि में वे चांडालके समान है।
५.जो लोग कहते है कि बलि देने से बहुत सारे वरदान मिलते है :परन्तु पवित्र हृदयवालों की दृष्टि में वे वरदान,जो हिंसा करने से मिलते हैं,जघन्य और घृणास्पद हैं।
६.वह आदमी जिसका सडा हुआ शरीर पीवदार घावों से भरा हुआ है,वह पिछले भवों में रक्तपात बहाने वाला रहा होगा ;-ऐसा बुद्धिमान लोग कहते हैं।

bindujain
08-01-2013, 08:07 AM
Vishok Sagar Ji Maharaj

http://2.bp.blogspot.com/_qEEw5wFShO8/SndMi275b3I/AAAAAAAAAfQ/kYsMCo-CVT4/s400/DSCN1319.JPG

bindujain
08-01-2013, 08:08 AM
http://1.bp.blogspot.com/_qEEw5wFShO8/SndLo0HwPYI/AAAAAAAAAeQ/-jaOF9WTUxs/s400/DSCN1317.JPG

bindujain
08-01-2013, 08:10 AM
ईश्वर स्तुति
1.जो मनुष्य प्रभु के गुणों का उत्साहपूर्वक गान करते हैं,उन्हें अपने भले -बुरे कर्मों का दुखद फल नहीं भोगना पड़ता।
2.धन्य है वह मनुष्य,जो आदिपुरुष के पादारविन्द में रत रहता है। जो न किसी से राग करता है और न नफरत,उसे कभी कोई दुःख नहीं होता।
3.जन्म -मरण के समुद्र को वे ही पार कर सकते हैं,जो प्रभु के चरणों की शरण में आ जाते हैं। दूसरे लोग उसे पार नहीं कर सकते।
4.धन -वैभव और इन्द्रिय -सुख के तूफानी समुद्र को वे ही पार कर सकते हैं ,जो उस धर्म सिन्धु मुनीश्वर के चरणों में लीन रहते हैं।

bindujain
08-01-2013, 08:11 AM
क्रो़ध त्याग

1.जिसमें चोट पहुँचाने की शक्ति है,उसी में सहनशीलता का होना समझा जा सकता है। जिसमें शक्ति ही नहीं,वह क्षमा करे या न करे उससे किसी का क्या बनता -बिगड़ता है?

2.यदि तुम में प्रहार करने की शक्ति न भी हो,तब भी क्रोध करना बुरा है और यदि तुम्हें शक्ति हो,तब भी क्रोध से बढकर बुरा काम और कोई नहीं हैं।

3.तुम्हारा अपराधी कोई भी हो,पर उसके उपर कोप न करो,क्योंकि क्रोध से सैकड़ों अनर्थ पैदा होते है।

4.जो क्रोध के माने आपे से बाहर है,वह मरे हुए के समानहै,तथा जिसने कोप करना त्याग दिया है ,वह संतों के समान है।

5. यदि तुम भला चाहते हो , तो क्रोध से दूर रहो ;क्योंकि दूर न रहोगे ,तो वह तुम्हें आ दबोचेगा और तुम्हारा सर्वनाश कर डालेगा।

6. अग्नि उसी को जलाती है जो उसके पास जाता है ;परन्तु क्रोधाग्नि सारे कुटुम्ब को जला डालती है।

bindujain
08-01-2013, 08:11 AM
क्षमा

1.धरती उन लोगों को भी आश्रय देती है,जो उसे खोदते हैं। इसी तरह तुम भी उन लोगों की बातें सहन करो,जो तुम्हें सताते हैं क्योंकि बड़प्पन इसी मैं है।

2.दूसरे लोग तुम्हें हानि पहुंचाएं,उसके लिए तुम क्षमा कर दो और यदि तुम उसे भुला सको तो और भी अच्छा हैं।

3.जो पीड़ा देने वालों को बदले में पीड़ा देते हैं,बुद्धिमान लोग उनको सम्मान नहीं देते,किंतु जो अपने शत्रुओं को क्षमा कर देते हैं,वे स्वर्ण के समान बहुमूल्य समझे जाते हैं।

4.संसार -त्यागी पुरुषों से भी बढकर संत वह है,जो अपनी निंदा करने वालों की कटु वाणी को सहन कर लेता है।

bindujain
08-01-2013, 08:13 AM
संयम

1.आत्म संयम से स्वर्ग प्राप्त होता है,किंतु असंयत,इन्द्रिय -लिप्सा अपार अंधकार पूर्ण नर्क के लिए खुला हुआ राजपथ है।

2.जो पुरूष समझ -बूझकर अपनी इच्छाओं का दमन करता है,उसे सभी सुखद वरदान प्राप्त होंगे।

3.यदि तुम्हारे एक शब्द से भी किसी को कष्ट पहुँचता है,तो तुम अपनी भलाई नष्ट समझो।

4.आग का जला हुआ तो समय पाकर अच्छा हो जाता है,परन्तु वचन का घाव सदा हरा बना रहता है।

5.और किसी को चाहे तुम मत रोको,पर जिव्हा को अवश्य लगाम लगाओ क्योंकि बेलगाम की जिव्हा बहुत दुःख देती हैं।

bindujain
08-01-2013, 08:14 AM
सत्यता
1.सच्चाई क्या है? जिससे दूसरों को कुछ भी हानि न पहुँचे, उस बात का बोलना ही सच्चाई है।

2.उस झूठ में भी सत्यता कि विशेषता है ,जिसके परिणाम में नियम से भलाई ही होती है।

3.जिस बात को तुम्हारा मन मानता है कि वह झूठ है,उसे कभी मत बोलो,क्योंकि झूठ बोलने से स्वयं तुम्हारी अंतरात्मा ही तुम्हें जलाएगी।

4.जिस मनुष्य का मन असत्य से अपवित्र नहीं है,वह सबके हृदय पर शासन करेगा।

bindujain
09-01-2013, 09:40 PM
जैन धर्म भारत की श्रमण परम्परा से निकला धर्म और दर्शन है ।
प्रोफ़ेसर महावीर सरन जैन का अभिमत है कि जैन धर्म की भगवान
महावीर के पूर्व जो परम्परा प्राप्त है, उसके वाचक निगंठ धम्म (निर्ग्रन्थ धर्म), आर्हत्* धर्म एवं श्रमण परम्परा रहे हैं।
पार्र्श्वनाथ के
समय तक 'चातुर्याम धर्म' था। भगवान महावीर ने छेदोपस्थानीय चारित्र (पाँच महाव्रत, पाँच समितियाँ, तीन गुप्तियाँ) की व्यवस्था की'जैन' कहते हैं उन्हें, जो 'जिन' के अनुयायी हों। 'जिन' शब्द बना है 'जि' धातु से। 'जि' माने-जीतना। 'जिन' माने जीतने वाला। जिन्होंने
अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया, वे हैं 'जिन'। जैन धर्म अर्थात 'जिन' भगवान्* का धर्म।
जैन धर्म का परम पवित्र और अनादि मूलमंत्र है- णमो अरिहंताणं। णमो सिद्धाणं। णमो आइरियाणं। णमो उवज्झायाणं। णमो लोए सव्वसाहूणं॥
अर्थात अरिहंतो को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, आचार्यों को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार, सर्व साधुओं को नमस्कार। ये पाँच परमेष्ठी हैं।।

bindujain
09-01-2013, 09:44 PM
Ranakpur-Jain-Temple

http://bharatdiscovery.org/w/images/thumb/5/52/Ranakpur-Jain-Temple-4.jpg/800px-Ranakpur-Jain-Temple-4.jpg

bindujain
09-01-2013, 09:46 PM
http://4.bp.blogspot.com/-_EjlWys_glE/UK48BcrG0hI/AAAAAAAAAgA/ujCvMFb_yW0/s320/mahavir.jpg

महावीर स्वामी
महावीर स्वामी का जन्म वैशाली के निकट कुण्डग्राम में एक क्षत्रिय राजपरिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम सिद्धार्थ और माता का नाम त्रिशला था। 30 वर्ष की आयु में महावीर स्वामी सत्य की खोज में घर-परिवार छोड़ निकल पड़े। 12 वर्ष की कठिन तपस्या के बाद जम्भिय ग्राम के निकट ऋजुपालि की सरिता के तट पर इन्हें कैवल्य की प्राप्ति हुई। इन्द्रियों को जीतने के कारण ये जिन तथा महान पराक्रमी होने के कारण महावीर कहलाए। 30 वर्षों तक इन्होंने अपने धर्म का प्रचार किया और अंत में 72 वर्ष की आयु में राजगृह के समीप पावापुरी में इन्हें निर्वाण की प्राप्ति हुई। इनके जन्म व मृत्यु के समय में मतैक्य नहीं है। कुछ विद्वान इनका जन्म 540 ईसा पूर्व और कुछ 599 ईसा पूर्व मानते हैं। कुछ विद्वान इनकी मृत्यु 468 ईसा पूर्व और कुछ 527 ईसा पूर्व मानते हैं।
शिक्षाएं: जैन धर्म के अनुसार ईश्वर सृष्टिकर्ता नहीं है। सृष्टि अनादि काल से विद्यमान है। संसार के सभी प्राणी अपने-अपने संचित कर्मों के अनुसार फल भोगते हैं। कर्म फल ही जन्म-मृत्यु का कारण है। कर्म फल से छुटकारा पाकर ही व्यक्ति निर्वाण की ओर अग्रसर हो सकता है। जैन धर्म में संसार दु:खमूलक माना गया है। दु:ख से छुटकारा पाने के लिए संसार का त्याग आवश्यक है। कर्म फल से छुटकारा पाने के लिए त्रिरत्न का अनुशीलन आवश्यक बताया गया है।

bindujain
09-01-2013, 09:46 PM
त्रिरत्न:
सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन व सम्यक आचरण जैन धर्म के त्रिरत्न हैं। सम्यक ज्ञान का अर्थ है शंका विहीन सच्चा व पूर्ण ज्ञान। सम्यक दर्शन का अर्थ है सत् तथा तीर्थंकरों में विश्वास। सांसारिक विषयों से उत्पन्न सुख-दु:ख के प्रति समभाव सम्यक आचरण है। जैन धर्म के अनुसार त्रिरत्नों का पालन करके व्यक्ति जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो सकता है और मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। त्रिरत्नों के पालनार्थ आचरण की पवित्रता पर विशेष बल दिया गया है। इसके लिए पांच महाव्रतों का पालन जरूरी बताया गया है।

bindujain
09-01-2013, 09:47 PM
पंचमहाव्रत
1: अहिंसा: जैन धर्म में अहिंसा संबंधी सिद्धान्त प्रमुख है। मन, वचन तथा कर्म से किसी के प्रति असंयत व्यवहार हिंसा है। पृथ्वी के समस्त जीवों के प्रति दया का व्यवहार अहिंसा है।
2: सत्य: जीवन में कभी भी असत्य नहीं बोलना चाहिए। क्रोध व मोह जागृत होने पर मौन रहना चाहिए। जैन धर्म के अनुसार भय अथवा हास्य-विनोद में भी असत्य नहीं बोलना चाहिए।
3: अस्तेय: चोरी नहीं करनी चाहिए और न ही बिना अनुमति के किसी की कोई वस्तु ग्रहण करनी चाहिए।
4: अपरिग्रह: किसी प्रकार के संग्रह की प्रवृत्ति वर्जित है। संग्रह करने से आसक्ति की भावना बढ़ती है। इसलिए मनुष्य को संग्रह का मोह छोड़ देना चाहिए।
5: ब्रह्मचर्य: इसका अर्थ है इन्द्रियों को वश में रखना। ब्रह्मचर्य का पालन भिक्षुओं के लिए अनिवार्य माना गया है।

bindujain
09-01-2013, 09:48 PM
प्रमुख संप्रदाय
महावीर स्वामी के निर्वाण के पश्चात उनकी शिक्षा को लेकर जैन धर्म दो संप्रदायों में वि•ाक्त हो गया। एक मत ‘श्वेताम्बर’ कहलाया जिसके जिसके समर्थक स्थूलभद्र हुए और दूसरा मत ‘दिगम्बर’ कहलाया जिसके समर्थक भद्रबाहु हुए। इनमें कुछ भेद हैं। श्वेताम्बर श्वेत वस्त्र धारण करते थे जबकि दिगम्बर महावीर स्वामी की तरह वस्त्रहीन रहते थे। श्वेताम्बर स्त्री के लिए मोक्ष संभव मानते थे जबकि दिगम्बर इसके विरुद्ध थे। श्वेताम्बर ज्ञान प्राप्ति के बाद भोजन ग्रहण करने में विश्वास रखते थे, जबकि दिगम्बर के अनुसार आदर्श साधु को भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए। श्वेताम्बर जैन अगमों- अंग, उपांग, प्रकीर्णक, वेदसूत्र, मूलसूत्र तथा अन्य में विश्वास करते थे जबकि दिगम्बर केवल 14 पूर्वों में विश्वास करते थे। श्वेताम्बर के अनुसार महावीर ने यशोदा से विवाह किया जबकि दिगम्बर के अनुसार विवाह नहीं किया। श्वेताम्बर 19वें तीर्थंकर मल्लिनाथ को स्त्री मानते हैं जबकि दिगम्बर पुरुष। श्वेताम्बर पार्श्वनाथ के अनुयायी थे जबकि दिगम्बर महावीर स्वामी के।
इन मतभेदों के बाद भी दोनों संप्रदायों का दार्शनिक आधार एक ही है। श्वेताम्बर संप्रदाय के प्रमुख आचार्य सिद्धसेन, दिवाकर, हरिभद्र, स्थूलभद्र आदि थे। दिगम्बर संप्रदाय के प्रमुख आचार्य भद्रबाहु, नेमिचंद, ज्ञानचंद, विद्यानंद आदि थे।

bindujain
11-01-2013, 05:35 PM
जैन आगम

जैन-साहित्य का प्राचीनतम भाग ‘आगम’ के नाम से कहा जाता है। ये आगम 46 हैं-
अंग (12) : आयारंग, सूयगडं, ठाणांग, समवायांग, भगवती, नायाधम्मकहा, उवासगदसा, अंतगडदसा, अनुत्तरोववाइयदसा, पण्हवागरण, विवागसुय, दिठ्ठवाय।
उपांग (12) : ओवाइय, रायपसेणिय, जीवाभिगम, पन्नवणा, सूरियपन्नति, जम्बुद्दीवपन्नति, निरयावलि, कप्पवडंसिया, पुप्फिया, पुप्फचूलिया, वण्हिदसा।
पइन्ना (10) : चउसरण, आउरपचक्खाण, भत्तपरिन्ना, संथर, तंदुलवेयालिय, चंदविज्झय, देविंदत्थव, गणिविज्जा, महापंचक्खाण, वोरत्थव।
छेदसूत्र (6) : निसीह, महानिसीह, ववहार, आचारदसा, कप्प (बृहत्कल्प), पंचकप्प।
मूलसूत्र (4) : उत्तरज्झयण, आवस्सय, दसवेयालिय, पिंडनिज्जुति। नंदि और अनुयोग।
आगम ग्रन्थ काफी प्राचीन है, तथा जो स्थान वैदिक साहित्य क्षेत्र में वेद और बौद्ध साहित्य में त्रिपिटक का है, वही स्थान जैन साहित्य में आगमों का है। आगम ग्रन्थों में महावीर के उपदेशों तथा जैन संस्कृति से सम्बन्ध रखने वाली अनेक कथा-कहानियों का संकलन है।

bindujain
13-01-2013, 07:59 AM
ऋषभदेव से जुडी है जैन धर्म की प्राचीनता

भारत के धर्म और इतिहास में दो धाराएँ एक प्रवृत्ति मार्गी और दूसरी निवृत्ति मार्गी हुई हैं। प्रवृत्ति सारिकता एवं भौतिकता का मार्ग दिखाती है तो निवृत्ति सांसारिकता से हटकर मोक्ष मार्ग की ओर ले ती है। निवृत्ति मार्गी इच्छाओं के निरोध पर जोर देते थे। आत्म-शुद्धि ही उनका मुख्य उद्देश्य था। निवृत्ति मार्गियों के आराध्य भगवान महावीर हुए हैं।आत्मशुद्धि ही उनका मुख्य उद्देश्य था। जैन धर्म के अनुसार तीर्थंकर एक युग या एक क्षेत्र में चौबीस ही होते हैं। भगवान महावीर भरत क्षेत्र व इस युग के चौबीसवें अंतिम तीर्थंकर थे। उनके पहले 23 तीर्थंकर और हो चुके हैं, जिनमें प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव हैं। इसके पहले नाभिनन्दन, यदुनन्दन, नेमिनाथ और काशीराजपुत्र पार्श्वनाथ आदि हो चुके हैं।

भगवान महावीर के बाद तक भी उनके अनुयायी साधु या गृहस्थों को जैन नाम से नहीं जाना जाता था अपितु निर्ग्रंध नाम से पुकारा जाता था। ऐसा शायद ‘जिन’ अर्थात जितेन्द्रिय पुरुषों से सम्बन्ध के कारण कहा गया हो। भगवान महावीर से पहले यजुर्वेद में ऋषभदेव, अजितनाथ और अदिष्ट नेमि इन तीन तीर्थंकरों के नाम का उल्लेख है। भागवत पुराण में ऋषभदेव को जैन धर्म की परम्परा का संस्थापक बताया गया है। जैन परम्परा के प्रथम प्रणेता भगवान ऋषभदेव की स्मृति भागवत पुराण में उल्लेखित नहीं होती तो हमें ज्ञात ही नहीं हो पाता कि भारत के प्रारम्भिक इतिहास में, मतलब मनु की पाँचवी पीढी में एक राजा ने अपना राज्य कुशलता पूर्वक चलाया था और उसने कर्मण्यता व ज्ञान का प्रसार भी किया था। वह स्वयं में एक महान दार्शनिक था। उसने अपने जीवन के आचरण से सिद्ध किया था कि दुनिया में रहते हुए भी दुनिया से हटकर जीवन जिया जा सकता है। ऐसे महामानव को जैन परम्परा में प्रथम तीर्थंकर माना गया है।

भागवत परम्परा में उसे विष्णु का अवतार मानकर भगवान ऋषभदेव कहा गया है। महाभारत में विष्णु के सहस्त्र नामों में श्रेयांस, अनंत, धर्म, शांति और सम्भवनाथ आये हैं और शिव नामों में ऋषभ, अजित, अनंत और धर्म नाम का उल्लेख है। विष्णु और शिव दोनो का सुव्रत दिया गया है। ये सभी नाम भगवान महावीर से पहले हुए 23 तीर्थंकरों में से हैं। इससे सिद्ध होता है कि जैन धर्म में तीर्थंकरों की परम्परा रही है, जो प्राचीन तो है ही।

देश में दार्शनिक राजाओ की लंबी परम्परा रही है परंतु ऐसा विराट व्यक्तित्व दुर्लभ रहा है जो एक से अधिक परम्पराओं में समान रूप से मान्य व पूज्य रहा हो। भगवान ऋषभदेव उन दुर्लभ महापुरुषों में से एक हुए हैं। भागवत पुराण में उन्हें विष्णु के चौबीस अवतारों में से एक माना गया है। वे आग्नीघ्र राजा नाभि के पुत्र थे। माता का नाम मरुदेवी था। दोनो परम्पराएँ उन्हें इक्ष्वाकुवंशी और कोसलराज मानती हैं। ऋषभदेव को जन्म से ही विलक्षण सामुद्रिक चिह्न थे। शैशवकाल से ही वे योग विद्या में प्रवीण होने लगे थे। जैन परम्पराओं की पुष्टि अनेक पुराणों से सिद्ध हो चुकी है। इन पुराणों के अनुसार ऋषभदेव के पुत्र भरत के नाम पर देश का नाम भारत पडा। उल्लेखनीय तथ्य यह भी है के जैन परम्परा में भगवान ऋषभदेव की दार्शनिक, सांसारिक कर्मण्यशीलता पर अधिक जोर है जबकि भागवत परम्परा में उनकी दिगम्बरता पर अधिक बल दिया गया है। भगवान ऋषभदेव का समग्र परिचय पाने के लिये दोनो परम्पराओं का समुचित अध्ययन करना आवश्यक है।

जैन परम्परा में कुलवरों की एक नामावली है, जिनमें ऋषभदेव 15वें और उनके पुत्र 16वें कुलकर हैं। कुलकर वे विशिष्ट पुरुष होते हैं, जिन्होंने सभ्यता के विकास में विशेष योगदान दिया हो। जैसे तीसरे कुलकर क्षेमंकर ने पशुओं का पालन करना सिखाया तो पाँचवें सीमन्धर ने सम्पत्ति की अवधारणा दी और उसकी व्यवस्था करना सिखाया। ग्यारहवें चन्द्राभ ने कुटुम्ब की परम्परा डाली और 15वें कुलकर ऋषभदेव ने अनेक प्रकार का योगदान समाज को दिया। युद्धकला, लेखनकला, कृषि, शिल्प, वाणिज्य और विद्या आदि के माध्यम से समाज के जीवन विकास में महत्वपूर्ण सहयोग प्रदान किया। जो लोग हमारे भारत में लेखन कला का प्रारम्भ बहुत बाद में होना मानते हैं उन्हें ऋषभदेव की पुत्री ब्राह्मी के बारे में जानकारी प्राप्त करना चाहिए। ब्राह्मी के नाम पर ही भारत की प्राचीनतम लिपि कहलाई है।

भागवत परम्परानुसार ऋषभदेव को परम वीतरागी, दिगम्बर, परमहंस और अवधूत राजा के रूप में गुणगान शैली में लिखने वाला सश्रद्ध अर्थात सिर झुकाए हुए बताया गया है। आध्यात्मिक चिंतन की उच्चतम सीमा को छू लेने के पश्चात ऋषभदेव ने अजगर वृत्ति धारण कर ली थी तदनुसार वे अजगर के सदृश पडे रहते और खान पान लेटे-लेटे मिल जाता तो ग्रहण कर लेते अन्यथा नहीं मिलता तो भी इस अवस्था में तृप्त रहते थे।

ऋग्वेद में शब्द वृषभ है। विशेषण के रूप में इसका अर्थ दार्शनिक होने का उल्लेख एकाधिक बार हुआ है। एक जगह ऋषभदेव का सम्बन्ध कृषि और गौपालन के संदर्भ में भी हुआ है, जो परम्परा की पुष्टि का द्योतक है। जैन परम्परा में सभी तेर्थंकरों में से सिर्फ ऋषभदेव को ही सिर के बाल लंबे होने के कारण केशी कहा गया है। इनकी कन्धों से नीचे तक केश वाली दो हजार वर्ष प्राचीन कुशाणकालीन दिगम्बर प्रतिमा भी मिली है।

bindujain
13-01-2013, 08:03 AM
छः कर्म-2

वेदनीय कर्म:

इसके दो भेद हैं-

असातावेदनीय कर्म के आस्त्रव के कारण के निम्न भेद हैं-
दुःख करना, शोक करना, संसार में अपनी निन्दा आदि होने पर पश्चाताप करना, पश्चाताप से अश्रुपान करके रोना अर्थात क्रन्दन करना, वध करना, और संक्लेश (अशुभ) परिणामों के कारण से ऐसा रुदन करना कि जिससे सुनने वाले के हृदय में दवा उत्पन्न हो जाये। स्वयं को या पर को या दोनो को एक साथ दुःख शोक आदि उत्पन्न करना सो असातावेदनीय कर्म के आस्त्रव का कारण है।
सातावेदनीय कर्म के आस्त्रव के कारण निम्न हैं-
जिन्होंने सम्यग्दर्शन पूर्वक अणुव्रत या महाव्रत धारण किये हों ऐसा जीव, तथा चारों गतियों के प्राणी, इन पर भक्ति, दया करना, दुःखित, भूखे आदि जीवों के उपकार के लिये धन, औषधि, आहारादि देना, व्रती सम्यग्दृष्टि सुपात्र जीवों को भक्तिपूर्वक दान देना, सम्यग्दर्शनपूर्वक चारित्र के धारक मुनि के जो महाव्रत रूप शुभभाव हैं, संयम के साथ वह राग होने से सराग संयम कहा जाता है। शुभ परिणाम की भावना से क्रोधादि कषाय में होने वाली तीव्रता के आभाव को करने से सातावेदनीय कर्म का आस्त्रव होता है।

bindujain
13-01-2013, 08:04 AM
छः कर्म-3

मोहनीय कर्म: इसके दो भेद है-

दर्शन मोहनीय कर्म के आस्त्रव के कारण निम्न हैं-
केवली भगवान में दोष निकालना, आगम में, शास्त्रों में दोष निकालना, रत्नत्रय के धारक मुनिसंघों में दोष निकालना, धर्म में दोष निकालना, देवों में दोष निकालना आदि दर्शनमोहनीय कर्म के आस्त्रव के कारण हैं।
चरित्रमोहनीय कर्म के आस्त्रव के कारण निम्न हैं-
क्रोध-मान-माया-लोभ रूप कषाय के उदय से तीव्र परिणाम होना सो चरित्रमोहनीय के आस्त्रव का कारण है।

bindujain
13-01-2013, 08:06 AM
छः कर्म-4

आयुकर्म: इसके निम्न चार भेद हैं-

नरकायु के आस्त्रव के कारण निम्न हैं-
बहुत आरम्भ करना, बहुत परिग्रह का भाव नरकायु का आस्त्रव है।
तिर्यंच आयु के आस्त्रव के निम्न कारण हैं-
मायाचारी करना, धर्मोपदेश में मिथ्या बातों को मिलाकर उसका प्रचार करना, शील रहित जीवन बिताना, मरण के समय नील व कापोत लेश्या और आर्तध्यान का होना आदि तिर्यंच आयु के आस्त्रव हैं।
मनुष्य आयु के आस्त्रव के कारण निम्न हैं-
नरकायु के आस्त्रव के कारणों से विपरीत कार्य करना अर्थात अल्प आरम्भ, अल्प परिग्रह का भाव करना इसके अतिरिक्त, स्वभाव का विनम्र होना, भद्र प्रकृति का होना, सरल व्यवहार करना, अल्पकषाय का होना और मरण के समय संक्लेश रूप परिणति का नहीं होना, स्वभाव की कोमलता भी मनुष्यायु का आस्त्रव है।
देवआयु के अस्त्राव के निम्न कारण हैं-
सम्यग्दर्शन पूर्वक मुनिव्रत पालना, अन्यथा प्रवृत्ति करना, मिथ्यादर्शन, चुगलखोरी, चित्त का स्थिर न रहना, मापने और बाँट घट-बढ रखना, दूसरों की निन्दा करना अपनी प्रशंसा करना आअदि से अशुभ नामकर्म का आस्त्रव होता है।
शुभ-नामकर्म के आस्त्रव के निम्न कारण हैं-
मन-वचन-काय की सरलता, धार्मिक पुरुषों व स्थानों का दर्शन करना, आदर-सत्कार करना, सद्भाव रखना, संसार से डरना, प्रमाद का त्याग करना आदि ये सब शुभ नाम कार्य के आस्त्रव के कारण हैं।

bindujain
13-01-2013, 08:12 AM
छः कर्म-1

ज्ञानावरण-दर्शनावरण कर्म

ज्ञान और दर्शन के विषय में प्रदोष, निहव, मात्सर्य, अंतराय, असादन और उपघात- ये ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मों के आस्त्रव हैं।

दूसरे शब्दों में ज्ञानावरण-दर्शनावरण कर्म के आस्त्रव के निम्न छः कारण हैं-

प्रदोष- मोक्ष का कारण तत्त्वज्ञान है, उसका कथन करने वाले पुरुष की प्रशंसा न करते हुए, अंतरंग में जो दुष्ट परिणाम होता है, उसे प्रदोष कहते हैं।
निहव- वस्तु स्वरूप के ज्ञानादि का छुपाना, जानते हुए भी ऐसा कहना कि “मैं नहीं जानता” यह निहव है।
मात्सर्य- ज्ञान का अभ्यास किया है, वह देने योग्य भी है, तो जिस कारण से वह नहीं दिया जाता, मात्सर्य है।
अंतराय- ज्ञान का विच्छेद करना, यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति में विघ्न डालना, अंतराय है।
आसादन- दूसरा कोई ज्ञान का प्रकाश कर रहा हो, तब शरीर, वचन से उसका निषेध करना, रोकना आसादन है।
उपघात- यथार्थ प्रशस्त ज्ञान में दोष लगाना अथवा प्रशंसा योग्य ज्ञान को दूषण लगाना सो उपघात है।

bindujain
13-01-2013, 08:13 AM
छः कर्म-5

गोत्रकर्म: यह निम्न दो प्रकार का होता है-

नीचगोत्र कर्म के आस्त्रव के कारण निम्न हैं-
दूसरे की निन्दा करना और अपनी प्रशंसा करना, दूसरे के विद्यमान गुणों को छिपाना और अपने अप्रगट गुणों को प्रकट करने से नीचगोत्र का आस्त्रव होता है।
उच्चगोत्र कर्म के आस्त्रव के कारण निम्न हैं-
एक दूसरे की प्रशंसा करना, अपनी स्वयं निन्दा करना, नम्रवृत्ति का होना, मद का आभाव होना, इससे उच्चगोत्र का आस्त्रव होता है।

bindujain
13-01-2013, 08:14 AM
छः कर्म-6


अन्तराय कर्म-

आचार्य उमास्वामी कहते हैं कि ॥विघ्नकरणमतंरायस्य॥ (तत्त्वार्थसूत्र, अ.6)

किसी के दान, लाभ, भोग, उपभोग तथा वीर्य में विघ्न डालना, अंतरायकर्म के आस्त्रव का कारण है। इस प्रकार योग संसार में प्रवृत्ति रूप है, बन्ध का कारण है, संसार में रुलाने वाला है।

bindujain
13-01-2013, 08:17 AM
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bindujain
25-01-2013, 06:12 PM
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25-01-2013, 06:13 PM
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25-01-2013, 06:13 PM
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aspundir
25-01-2013, 06:48 PM
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bindujain
25-01-2013, 07:10 PM
जैन धर्म की मौलिक विशेषताएँ

जैन धर्म शाश्वत है। (हरिवंश पुराण १/२७-२८) तीर्थंकर ऋषभदेव तथा महावीर जैन धर्म के संस्थापक नहीं, अपितु प्रचारक थे।

सिंधु सभ्यता में जैन धर्म के अस्तित्व के प्रमाण हैं।

सिंधु घाटी सभ्यता की योगी की कायोत्सर्ग मुद्रा अब भी जैनों में प्रचलित है।

जैन धर्म प्रत्येक उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल में भरत क्षेत्र में २४ तीर्थंकरों के अस्तित्व को मानता है। (हरिवंश पुराण १/४-२४, पदमचरित ५/१९१-१९५)

जैन पंचपरमेष्ठियों की पूजा करते हैं।

जैन धर्म के अनुसार मनुष्य सर्वत्र हो सकता है। प्रमाण मीमांसा (पृ. २७-३)

जैन धर्म के अनुसार ईश्वर सृष्टिकर्ता नहीं है।

जैनों के मूल ग्रंथों की भाषा प्राकृत है।

जैन वेदों को प्रमाण नहीं मानते हैं।

जैन पूजा में सभी प्रकार की हिंसा वर्जित है।

जैनों के मूल ग्रंथ आचारांग-सूत्र-कृतांग आदि हैं। तत्वार्थसूत्र १/२०, सर्वार्धसिद्धि १/२०)

जैन धर्म वर्ण-व्यवस्था को जन्मना नहीं मानता है।

शूद्र भी धर्मपालन का अधिकारी है। (सागर धर्मामृत २/२२)

मोक्ष हेतु पुत्र आवश्यक नहीं है। (ज्ञानार्ठाव २/८/११)

जैन साधु नवधाभक्ति पूर्वक आहार लेते हैं।

जैन धर्म में मांसाहार पर पूर्णतः प्रतिबंध है। (पुरुषार्थ सिद्धयुपाय ६७-६८)

जैन धर्म में मद्यपान पर पूर्णतः प्रतिबंध है।

आटा, घी, शक्कर आदि की पशुमूर्ति बनाकर उसे खाना जैन धर्म में पूर्णतः वर्जित है। (जसहर चरित्र – २७)

जैनों में श्राद्ध प्रथा नहीं है।

bindujain
25-01-2013, 07:13 PM
जैन धर्म में स्वर्ग और नरक की अवधारणा -अनेकान्त कुमार जैन

विश्व के लगभग सभी धर्म , लोक तथा परलोक पर विश्वास रखते हैं। चार्वाक दर्शन ही एक ऐसा दर्शन है , जो परलोक को नहीं मानता। विभिन्न धर्मों तथा दर्शनों की स्वर्ग और नरक की अवधारणा में भी अंतर है। जैन धर्म भी लोक एवं परलोक दोनों को मान्यता देता है। इस धर्म के मुताबिक भी पुण्य एवं पाप का फल स्वर्ग एवं नरक के रूप में प्राप्त होता है।
विषय की दृष्टि से संपूर्ण जैन साहित्य को चार अनुयोगों में विभाजित किया गया है - प्रथमानुयोग , करणानुयोग , चरणानुयोग और दव्यानुयोग। प्रथमानुयोग में महापुरुषों का चरित्र निबद्ध होता है। जैसे सभी पुराण , काव्य आदि। करणानुयोग में लोक-अलोक , चारों गतियों आदि का स्वरूप प्रतिपादित होता है। चरणानुयोग में श्राद्धकों(गृहस्थों) तथा श्रवणों(जैन मुनियों) के आचार-विचार और व्यवहार आदि का प्रतिपादन होता है तथा दव्यानुयोग के अंतर्गत तत्व , दव्य , पुण्य , पाप , आध्यात्म , दर्शन आदि से संबंधित विषयों का प्रतिपादन करने वाला साहित्य आता है।
इनमें से स्वर्ग-नरक विषय का प्रतिपादन करणानुयोग का विषय है। प्राय: सभी धर्मों में ' कर्म सिद्धांत ' का प्रतिपादन किया गया है। कर्म सिद्धांत की स्वीकृति का अर्थ है , कर्मों के अनुसार प्रत्येक जीव को उसके फलभोग के लिए लोक- परलोक , गतियों , पुनर्जन्म तथा स्वर्ग- नरक आदि की प्राप्ति का विधान। जैन आगमों और उसके परवर्ती साहित्य में उर्ध्वलोक , मध्यलोक और अधोलोक - तीन लोकों का तथा इनमें रहने वाले जीवों के संबंध में अत्यंत विस्तार से विचार किया गया है।
ईसा की प्रथम शती में हुए जैन धर्म के प्रथम सूत्रकार आचार्य उमा स्वामी ने अपने ' तत्वार्थसूत्र ' ( मोक्षशास्त्र) नामक सूत्रग्रंथ में बहुत ही स्पष्ट और क्रमबद्ब अध्ययन प्रस्तुत किया है , जो तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से सभी के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। यहां यह बतला देना आवश्यक है कि जैन धर्म एक निवृत्ति प्रधान धर्म है , अत: यहां जीवन का अंतिम और प्रधान लक्ष्य सभी कर्मों से मुक्त होकर शाश्वत सुख रूपी मुक्ति प्राप्त करना है। इसे ही निर्वाण या मोक्ष कहते हैं। जहां अन्य धर्मों में नरक से प्रत्येक जीव बचना चाहता है और स्वर्ग प्राप्ति की कामना करता है , वही जैन धर्म में नरक , स्वर्ग और इस मध्य लोक में परिभ्रमण करते रहना ' दुख ' माना गया है। इसे ' भव भ्रमण ' या संसार भ्रमण भी कहते हैं। यह भव भ्रमण कर्मबद्ध अवस्था का द्योतक है और संपूर्ण कर्मों से मुक्त होने पर ही जीव का भय भ्रमण छूटता है तथा उसे मोक्ष प्राप्त होता है। इस तरह नरक स्वर्ग और मध्यलोक- इन सबको ' संसार ' की संज्ञा प्राप्त है। अत: जैन धर्म जहां अधम गतियों से बचने की बात कहता है , वहां मोक्ष जैसे शाश्वत सुख प्राप्ति के लक्ष्य ' स्वर्ग ' की कामना से भी रहित है और वह अपने लक्ष्य ' मोक्ष ' के लिए प्रयत्नशील बने रहने को भी कहता है। जैनाचार्यों ने पाप को लोहे की बेड़ी तथा पुण्य को सोने की बेड़ी कहा है। बेड़ी चाहे सोने की हो या लोहे की , आखिर है तो बेड़ी ही। अत: दोनों का कार्य भी बांधने (संसार परिभ्रमण) का ही होगा। सामान्य जन पुण्य को ही सब कुछ मान बैठते हैं , वे यह भूल जाते हैं कि पुण्य भी आखिर बेड़ी ही है। ज्ञानीजन ऐसी भूल नहीं करते। इसलिए व्यावहारिक दृष्टि से पाप की अपेक्षा पुण्य के मार्ग पर चलें अवश्य , पर अंतिम लक्ष्य मोक्ष की ओर ही उन्मुख रहे।
धर्म (गति में सहायक दव्य) , अधर्म(स्थित में सहायक दव्य) , काल , पुद्गल और जीव- ये पांचों दव्य जितने आकाश में हैं , वह लोकाकाश है। कहा भी है कि जहां जीव आदि पदार्थ देखने में आते हैं , वह लोक है। उस लोकाकाश से बाहर जो अनंत आकाश है , वह ' अलोकाकाश ' है। वह लोक आदि-अंत से रहित है , न किसी का बनाया हुआ है और न किसी से कभी नष्ट होता है , न किसी के द्वारा धारण किया हुआ है और न कोई उसकी रक्षा करता है।
' लोक ' के परिप्रेक्ष्य में सर्वप्रथम अधोलोक है , जिसे सामान्यतया लोग ' नरक ' कह देते हैं। जैन धर्म के अनुसार मध्यलोक में , जिस पृथ्वी पर हम सब रहते हैं , उसका नाम ' चित्रा ' पृथ्वी है। इसकी मोटाई एक हजार योजन है। सुमेरू पर्वत की जड़ एक हजार योजन तक इस पृथ्वी से भीतर है। सुमेरू के इस जड़ से नीचे सात अधोलोक हैं और उनकी क्रमश: एक के नीचे एक करके नरक की सात पृथ्वियां स्थित हैं।

bindujain
03-02-2013, 03:20 PM
धर्मग्रंथ

श्वेताम्बर आगम
दिगम्बर आगम
समस्त आगम ग्रंथो को चार भागो मैं बांटा गया है १ प्रथमानुयोग् २ करनानुयोग ३ चरर्नानुयोग ४ द्रव्यानुयोग अन्य ग्रन्थ षट्खण्डागम, धवला टीका, महाधवला टीका, कसायपाहुड, जयधवला टीका, समयसार, योगसार् प्रवचनसार, पञ्चास्तिकायसार, बारसाणुवेक्खा, आप्तमीमांसा, अष्टशती टीका, अष्टसहस्री टीका, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, तत्त्वार्थसूत्र, तत्त्वार्थराजवार्तिक टीका, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक टीका, समाधितन्त्र, इष्टोपदेश, भगवती आराधना, मूलाचार, गोम्मटसार, द्रव्यसङ्ग्रह, अकलङ्कग्रन्थत्रयी, लघीयस्त्रयी, न्यायकुमुदचन्द्र टीका, प्रमाणसङ्ग्रह, न्यायविनिश्चयविवरण, सिद्धिविनिश्चयविवरण, परीक्षामुख, प्रमेयकमलमार्तण्ड टीका, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय भद्रबाहु सन्हिता

bindujain
06-02-2013, 04:29 AM
त्यौहार

जैन धर्म के प्रमुख त्यौहार इस प्रकार हैं ।
पंचकल्याणक
महावीर जयंती
ओली
पज्जुशण
पर्जुषण
ऋषिपंचमी
दीवाली, जैन धर्म
ज्ञान पंचमी
देव दिवाली

bindujain
06-02-2013, 04:41 AM
क्षमावाणी – विविध विचार

रखना नही दिल में कभी जो दर्द हमसे है मिला
जीवन वही है मित्र जिसमें होता दुःख का सिलसिला

आओ यह दुःख हम आज मेटें मांग कर तुमसे क्षमा
करते क्षमा हैं आपको और आपसे चाहें क्षमा

यह धर्म है उत्तम क्षमा का आया आज महान है
इस धर्म का पालन करो तो होता मित्र जहान है

jai_bhardwaj
05-03-2013, 07:50 PM
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jai_bhardwaj
05-03-2013, 07:50 PM
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05-03-2013, 07:51 PM
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jai_bhardwaj
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jai_bhardwaj
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jai_bhardwaj
05-03-2013, 08:11 PM
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05-03-2013, 08:11 PM
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05-03-2013, 08:11 PM
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06-03-2013, 07:22 PM
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06-03-2013, 07:46 PM
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06-03-2013, 07:50 PM
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06-03-2013, 07:51 PM
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06-03-2013, 07:55 PM
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06-03-2013, 07:55 PM
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15-03-2013, 07:20 PM
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15-03-2013, 07:27 PM
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15-03-2013, 07:28 PM
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15-03-2013, 07:32 PM
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15-03-2013, 07:37 PM
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15-03-2013, 07:37 PM
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15-03-2013, 07:38 PM
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15-03-2013, 07:38 PM
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15-03-2013, 07:40 PM
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jai_bhardwaj
15-03-2013, 07:40 PM
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jai_bhardwaj
15-03-2013, 07:41 PM
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15-03-2013, 07:41 PM
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15-03-2013, 07:41 PM
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15-03-2013, 07:43 PM
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15-03-2013, 07:43 PM
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15-03-2013, 07:43 PM
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jai_bhardwaj
15-03-2013, 07:44 PM
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jai_bhardwaj
15-03-2013, 07:44 PM
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jai_bhardwaj
15-03-2013, 07:46 PM
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jai_bhardwaj
15-03-2013, 07:47 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=25733&stc=1&d=1363358725

jai_bhardwaj
15-03-2013, 07:47 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=25734&stc=1&d=1363358725

jai_bhardwaj
15-03-2013, 07:47 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=25735&stc=1&d=1363358725

jai_bhardwaj
15-03-2013, 07:47 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=25736&stc=1&d=1363358725

bindujain
12-05-2013, 07:02 AM
क्या है हिंसा


http://1.bp.blogspot.com/-75cdsFOnKE0/UGpHKyclksI/AAAAAAAABnI/KoHa-XfqrVM/s1600/8.jpg



1. किसी जीव को सताना, हिंसा है.

2. झूठ बोलना, ............... हिंसा है.

3. तंग करना, धोखा देना हिंसा है.

4. किसी की चुगली करना हिंसा है.

5. किसी का बुरा चाहना हिंसा है.

bindujain
12-05-2013, 07:04 AM
http://1.bp.blogspot.com/-5qKZrZGpe74/UGpHWrTSEWI/AAAAAAAABnQ/CH-sDbO4Tk4/s1600/3.jpg



6. दुःख होने पर रोना-पीटना हिंसा है.

7. सुख में अंहकार से अकडना हिंसा है.

8. किसी की निंदा या बुराई करना हिंसा है.

9.गाली देना हिंसा है.

10. अपनी बढ़ाई हाँकना हिंसा है.

bindujain
12-05-2013, 07:05 AM
http://1.bp.blogspot.com/-TDbZLkAx6kU/UGpH1RC5BsI/AAAAAAAABng/JbAivZ4_RKU/s1600/5.jpg


11. किसी पर कलंक लगाना हिंसा है.

12. किसी का भद्दा मजाक करना हिंसा है.

13. बिना किसी वजय किसी पर क्रोध करना हिंसा है.

14. किसी पर अन्याय होते देखकर खुश होना हिंसा है.

15. शक्ति होने पर भी अन्याय को न रोकना हिंसा है.

bindujain
12-05-2013, 07:06 AM
http://3.bp.blogspot.com/-bNbLfroHsIY/UGpIS9NZ18I/AAAAAAAABno/gY4ri05z7oc/s1600/7.jpg


16. आलस्य और प्रमाद में निष्क्रिय पड़े रहना हिंसा है.

17. अवसर आने पर भी सत्कर्म से जी चुराना हिंसा है.

18. बिना बाँटे अकेले खाना हिंसा है.

19. इन्द्रियों का गुलाम रहना हिंसा है.

20. दबे हुए कलह को उखाड़ना हिंसा है.

bindujain
12-05-2013, 07:06 AM
http://2.bp.blogspot.com/-cTLJc5q3zwI/UGpIhJuO8jI/AAAAAAAABnw/68_1sxPHqjs/s1600/6.jpg


21. किसी की गुप्त बात को प्रकट करना हिंसा है.

22. किसी को नीच-अछूत समझना हिंसा है.

23. शक्ति होने हुए भी सेवा न करना हिंसा है.

24. बड़ों की विनय-भक्ति न करना हिंसा है.

25. छोटों से स्नेह, सद्भाव न रखना हिंसा है.

bindujain
12-05-2013, 07:07 AM
http://4.bp.blogspot.com/-9DTrP2PWppA/UGpI8URk13I/AAAAAAAABn4/SQAZe2OvQS0/s1600/4.jpg

26. ठीक समय पर अपना फर्ज अदा न करना हिंसा है.

27. सच्ची बात को किसी बुरे संकल्प से छिपाना हिंसा है

bindujain
27-06-2013, 05:25 AM
बारह भावना
~~~~~
भव वन में जी भर घूम चुका, कण, कण को जी भर देखा।

मृग सम मृग तृष्णा के पीछे, मुझको न मिली सुख की रेखा।

अनित्य
~~
झूठे जग के सपने सारे, झूठी मन की सब आशाएँ।

तन-यौवन-जीवन-अस्थिर है, क्षण भंगुर पल में मुरझाए।

अशरण
~~
सम्राट महा-बल सेनानी, उस क्षण को टाल सकेगा क्या।

अशरण मृत काया में हर्षित, निज जीवन डाल सकेगा क्या।

संसार
~~
संसार महा दुःख सागर के, प्रभु दु:ख मय सुख-आभासों में।

मुझको न मिला सुख क्षण भर भी कंचन-कामिनी-प्रासादों में।

एकत्व
~~
मैं एकाकी एकत्व लिए, एकत्व लिए सबहि आते।

तन-धन को साथी समझा था, पर ये भी छोड़ चले जाते।

अन्यत्व
~~
मेरे न हुए ये मैं इनसे, अति भिन्न अखंड निराला हूँ।

निज में पर से अन्यत्व लिए, निज सम रस पीने वाला हूँ।

अशुचि
~~
जिसके श्रंगारों में मेरा, यह महँगा जीवन घुल जाता। अत्यंत अशुचि जड़ काया से, इस चेतन का कैसा नाता।

आव
~~
दिन-रात शुभाशुभ भावों से, मेरा व्यापार चला करता।

मानस वाणी और काया से, आव का द्वार खुला रहता।

सँवर
~~
शुभ और अशुभ की ज्वाला से, झुलसा है मेरा अंतस्तल।

शीतल समकित किरणें फूटें, संवर से आगे अंतर्बल।

निर्जरा
~~
फिर तप की शोधक वह्नि जगे, कर्मों की कड़ियाँ टूट पड़ें।

सर्वांग निजात्म प्रदेशों से, अमृत के निर्झर फूट पड़ें।

लोक
~~
हम छोड़ चलें यह लोक तभी, लोकांत विराजें क्षण में जा।

निज लोग हमारा वासा हो, शोकांत बनें फिर हमको क्या।

बोधि दुर्लभ
~~
जागे मम दुर्लभ बोधि प्रभो! दुर्नयतम सत्वर टल जावे।

बस ज्ञाता-दृष्टा रह जाऊँ, मद-मत्सर मोह विनश जावे।

धर्म
~~
चिर रक्षक धर्म हमारा हो, हो धर्म हमारा चिर साथी।

जग में न हमारा कोई था, हम भी न रहें जग के साथी।
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

bindujain
27-06-2013, 02:26 PM
जानिए महारानी त्रिशला के 16 शुभ स्वप्न

भगवान महावीर के जन्म से पूर्व एक बार महारानी त्रिशला नगर में हो रही अद्*भुत रत्नवर्षा के बारे में सोच रही थीं। यह सोचते-सोचते वे ही गहरी नींद में सो गई। उसी रात्रि को अंतिम प्रहर में महारानी ने सोलह शुभ मंगलकारी स्वप्न देखे। वह आषाढ़ शुक्ल षष्ठी का दिन था। सुबह जागने पर रानी के महाराज सिद्धार्थ से अपने स्वप्नों की चर्चा की और उसका फल जानने की इच्छा प्रकट की।

राजा सिद्धार्थ एक कुशल राजनीतिज्ञ के साथ ही ज्योतिष शास्त्र के भी विद्वान थे। उन्होंने रानी से कहा कि एक-एक कर अपना स्वप्न बताएं। वे उसी प्रकार उसका फल बताते चलेंगे। तब महारा*नी त्रिशला ने अपने सारे स्वप्न उन्हें एक-एक कर विस्तार से सुनाएं।

bindujain
27-06-2013, 02:30 PM
1. रानी ने पहला स्वप्न बताया : स्वप्न में एक अति विशाल श्वेत हाथी दिखाई दिया।

http://us.123rf.com/400wm/400/400/mezzotint123rf/mezzotint123rf1211/mezzotint123rf121100025/16332276-white-elephant-walks-on-road.jpg

- ज्योतिष शास्त्र के विद्वान राजा सिद्धार्थ ने पहले स्वप्न का फल बताया : उनके घर एक अद्भुत पुत्र-रत्न उत्पन्न होगा।

bindujain
27-06-2013, 02:36 PM
2. दूसरा स्वप्न : श्वेत वृषभ।

- फल : वह पुत्र जगत का कल्याण करने वाला होगा।

bindujain
27-06-2013, 02:37 PM
3. तीसरा स्वप्न : श्वेत वर्ण और लाल अयालों वाला सिंह।

- फल : वह पुत्र सिंह के समान बलशाली होगा।

bindujain
27-06-2013, 02:38 PM
4. चौथा स्वप्न : कमलासन लक्ष्मी का अभिषेक करते हुए दो हाथी।

- फल : देवलोक से देवगण आकर उस पुत्र का अभिषेक करेंगे।

bindujain
27-06-2013, 02:38 PM
5. पांचवां स्वप्न : दो सुगंधित पुष्पमालाएं।


- फल : वह धर्म तीर्थ स्थापित करेगा और जन-जन द्वारा पूजित होगा।

bindujain
27-06-2013, 02:39 PM
6. छठा स्वप्न : पूर्ण चंद्रमा।


- फल : उसके जन्म से तीनों लोक आनंदित होंगे।

bindujain
27-06-2013, 02:40 PM
7. सातवां स्वप्न : उदय होता सूर्य।


- फल : वह पुत्र सूर्य के समान तेजयुक्त और पापी प्राणियों का उद्धार करने वाला होगा।

bindujain
27-06-2013, 02:41 PM
8. आठवां स्वप्न : कमल पत्रों से ढंके हुए दो स्वर्ण कलश।


- फल : वह पुत्र अनेक निधियों का स्वामी निधि*पति होगा।

bindujain
27-06-2013, 02:41 PM
9. नौवां स्वप्न : कमल सरोवर में क्रीड़ा करती दो मछलियां।


- फल : वह पुत्र महाआनंद का दाता, दुखहर्ता होगा।

bindujain
27-06-2013, 02:42 PM
10. दसवां स्वप्न : कमलों से भरा जलाशय।


- फल : एक हजार आठ शुभ लक्षणों से युक्त पुत्र प्राप्त होगा।

bindujain
27-06-2013, 02:43 PM
11. ग्यारहवां स्वप्न : लहरें उछालता समुद्र।


- फल : भूत-भविष्य-वर्तमान का ज्ञाता केवली पुत्र।

bindujain
27-06-2013, 02:43 PM
12. बारहवां स्वप्न : हीरे-मोती और रत्नजडि़त स्वर्ण सिंहासन।


- फल : आपका पुत्र राज्य का स्वामी और प्रजा का हितचिंतक रहेगा।

bindujain
27-06-2013, 02:44 PM
13. तेरहवां स्वप्न : स्वर्ग का विमान।


- फल : इस जन्म से पूर्व वह पुत्र स्वर्ग में देवता होगा।

bindujain
27-06-2013, 02:45 PM
14. चौदहवां स्वप्न : पृथ्वी को भेद कर निकलता नागों के राजा नागेन्द्र का विमान।


- फल : वह पुत्र जन्म से ही त्रिकालदर्शी होगा।

bindujain
27-06-2013, 02:46 PM
15. पन्द्रहवां स्वप्न : रत्नों का ढेर।

http://t0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcRgNrp-jTkoQIvsMYc1Iu5GO7JiyDn7YEuA79UqcqEuAQsWUouOVg

- फल : वह पुत्र अनंत गुणों से संपन्न होगा।

bindujain
27-06-2013, 02:52 PM
16. सोलहवां स्वप्न : धुआंरहित अग्नि।

http://shilpamehta3.files.wordpress.com/2012/10/fire4.jpg

- वह पुत्र सांसारिक कर्मों का अंत करके मोक्ष (निर्वाण) को प्राप्त होगा।

dipu
28-06-2013, 02:59 PM
बहुत ही बढ़िया प्रस्तुती

bindujain
30-06-2013, 04:27 PM
जैन ग्रंथ

जैन धर्म ग्रंथ (jain dharma granth) के सबसे पुराने आगम ग्रंथ 46 माने जाते हैं। इनका वर्गीकरण इस प्रकार किया गया है। समस्त आगम ग्रंथो को चार भागो मैं बांटा गया है:-1. प्रथमानुयोग 2. करनानुयोग 3. चरर्नानुयोग 4. द्रव्यानुयोग।

12 अंगग्रंथ:- 1. आचार, 2. सूत्रकृत, 3. स्थान, 4. समवाय 5. भगवती, 6. ज्ञाता धर्मकथा, 7. उपासकदशा, 8. अन्तकृतदशा, 9. अनुत्तर उपपातिकदशा, 10. प्रश्न-व्याकरण, 11. विपाक और 12. दृष्टिवाद। इनमें 11 अंग तो मिलते हैं, बारहवां दृष्टिवाद अंग नहीं मिलता।

12 उपांगग्रंथ :- 1. औपपातिक, 2. राजप्रश्नीय, 3. जीवाभिगम, 4. प्रज्ञापना, 5. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति 6. चंद्र प्रज्ञप्ति, 7. सूर्य प्रज्ञप्ति, 8. निरयावली या कल्पिक, 9. कल्पावतसिका, 10. पुष्पिका, 11. पुष्पचूड़ा और 12. वृष्णिदशा।

10 प्रकीर्णग्रंथ :- 1. चतुःशरण, 2. संस्तार, 3. आतुर प्रत्याख्यान, 4. भक्तपरिज्ञा, 5. तण्डुल वैतालिक, 6. चंदाविथ्यय, 7. देवेन्द्रस्तव, 8. गणितविद्या, 9. महाप्रत्याख्यान 10. वीरस्तव।

6 छेदग्रंथ :- 1. निशीथ, 2. महानिशीथ, 3. व्यवहार, 4. दशशतस्कंध, 5. बृहत्कल्प और 6. पञ्चकल्प।

4 मूलसूत्र :- 1. उत्तराध्ययन, 2. आवश्यक, 3. दशवैकालिक और 4. पिण्डनिर्य्युक्ति।

2 स्वतंत्र ग्रंथ :- 1. अनुयोग द्वार 2. नन्दी द्वार।

bindujain
30-06-2013, 04:27 PM
जैन पुराणों का परिचय : जैन परम्परा में 63 शलाका-महापुरुष माने गए हैं। पुराणों में इनकी कथाएं तथा धर्म का वर्णन आदि है। प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश तथा अन्य देशी भाषाओं में अनेक पुराणों की रचना हुई है। दोनों सम्प्रदायों का पुराण-साहित्य विपुल परिमाण में उपलब्ध है। इनमें भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण सामग्री मिलती है।

मुख्य पुराण हैं:- जिनसेन का 'आदिपुराण' और जिनसेन (द्वि.) का 'अरिष्टनेमि' (हरिवंश) पुराण, रविषेण का 'पद्मपुराण' और गुणभद्र का 'उत्तरपुराण'। प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं में भी ये पुराण उपलब्ध हैं। भारत की संस्कृति, परम्परा, दार्शनिक विचार, भाषा, शैली आदि की दृष्टि से ये पुराण बहुत महत्वपूर्ण हैं।

अन्य ग्रंथ:- षट्खण्डागम, धवला टीका, महाधवला टीका, कसायपाहुड, जयधवला टीका, समयसार, योगसार प्रवचनसार, पञ्चास्तिकायसार, बारसाणुवेक्खा, आप्तमीमांसा, अष्टशती टीका, अष्टसहस्री टीका, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, तत्त्वार्थसूत्र, तत्त्वार्थराजवार्तिक टीका, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक टीका, समाधितन्त्र, इष्टोपदेश, भगवती आराधना, मूलाचार, गोम्मटसार, द्रव्यसङ्ग्रह, अकलङ्कग्रन्थत्रयी, लघीयस्त्रयी, न्यायकुमुदचन्द्र टीका, प्रमाणसङ्ग्रह, न्यायविनिश्चयविवरण, सिद्धिविनिश्चयविवरण, परीक्षामुख, प्रमेयकमलमार्तण्ड टीका, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय भद्रबाहु संहिता आदि।

rajnish manga
09-07-2013, 10:35 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=28460&stc=1&d=1373391230

rajnish manga
10-07-2013, 12:31 AM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=28467&stc=1&d=1373398221

bindujain
10-07-2013, 04:48 AM
अहिंसा

हिन्दू शास्त्रों में अहिंसा

हिंदू शास्त्रों की दृष्टि से "अहिंसा" का अर्थ है सर्वदा तथा सर्वदा (मनसा, वाचा और कर्मणा) सब प्राणियों के साथ द्रोह का अभाव। (अंहिसा सर्वथा सर्वदा सर्वभूतानामनभिद्रोह: - व्यासभाष्य, योगसूत्र 2।30)। अहिंसा के भीतर इस प्रकार सर्वकाल में केवल कर्म या वचन से ही सब जीवों के साथ द्रोह न करने की बात समाविष्ट नहीं होती, प्रत्युत मन के द्वारा भी द्रोह के अभाव का संबंध रहता है। योगशास्त्र में निर्दिष्ट यम तथा नियम अहिंसामूलक ही माने जाते हैं। यदि उनके द्वारा किसी प्रकार की हिंसावृत्ति का उदय होता है तो वे साधना की सिद्धि में उपादेय तथा उपकार नहीं माने जाते। "सत्य" की महिमा तथा श्रेष्ठता सर्वत्र प्रतिपादित की गई है, परंतु यदि कहीं अहिंसा के साथ सत्य का संघर्ष घटित हाता है तो वहाँ सत्य वस्तुत: सत्य न होकर सत्याभास ही माना जाता है। कोई वस्तु जैसी देखी गई हो तथा जैसी अनुमित हो उसका उसी रूप में वचन के द्वारा प्रकट करना तथा मन के द्वारा संकल्प करना "सत्य" कहलाता है, परंतु यह वाणी भी सब भूतों के उपकार के लिए प्रवृत्त होती है, भूतों के उपघात के लिए नहीं। इस प्रकार सत्य की भी कसौटी अहिंसा ही है। इस प्रसंग में वाचस्पति मिश्र ने "सत्यतपा" नामक तपस्वी के सत्यवचन को भी सत्याभास ही माना है, क्योंकि उसने चोरों के द्वारा पूछे जाने पर उस मार्ग से जानेवाले सार्थ (व्यापारियों का समूह) का सच्चा परिचय दिया था। हिंदू शास्त्रों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय (न चुराना), ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह, इन पाँचों यमों को जाति, देश, काल तथा समय से अनवच्छिन्न होने के कारण समभावेन सार्वभौम तथा महाव्रत कहा गया है (योगवूत्र 2।31) और इनमें भी, सबका आधारा होने से, "अहिंसा" ही सबसे अधिक महाव्रत कहलाने की योग्यता रखती है

bindujain
10-07-2013, 04:50 AM
अहिंसा
अहिंसा पर जैन दृष्टि[संपादित करें]
जैन दृष्टि से सब जीवों के प्रति संयमपूर्ण व्यवहार अहिंसा है। अहिंसा का शब्दानुसारी अर्थ है, हिंसा न करना। इसके पारिभाषिक अर्थ विध्यात्मक और निषेधात्मक दोनों हैं। रागद्वेषात्मक प्रवृत्ति न करना, प्राणवध न करना या प्रवृत्ति मात्र का विरोध करना निषेधात्मक अहिंसा है; सत्प्रवृत्ति, स्वाध्याय, अध्यात्मसेव, उपदेश, ज्ञानचर्चा आदि आत्महितकारी व्यवहार विध्यात्मक अहिंसा है। संयमी के द्वारा भी अशक्य कोटि का प्राणवध हो जाता है, वह भी निषेधात्मक अहिंसा हिंसा नहीं है। निषेधात्मक अहिंसा में केवल हिंसा का वर्जन होता है, विध्यात्मक अहिंसा में सत्क्रियात्मक सक्रियता होती है। यह स्थूल दृष्टि का निर्णय है। गहराई में पहुँचने पर तथ्य कुछ और मिलता है। निषेध में प्रवृत्ति और प्रवृत्ति में निषेध होता ही है। निषेधात्मक अहिंसा में सत्प्रवृत्ति और सत्प्रवृत्यात्मक अहिंसा में हिंसा का निषेध होता है। हिंसा न करनेवाला यदि आँतरिक प्रवृत्तियों को शुद्ध न करे तो वह अहिंसा न होगी। इसलिए निषेधात्मक अहिंसा में सत्प्रवृत्ति की अपेक्षा रहती है, वह बाह्य हो चाहे आँतरिक, स्थूल हो चाहे सूक्ष्म। सत्प्रवृत्यात्मक अहिंसा में हिंसा का निषेध होना आवश्यक है। इसके बिना कोई प्रवृत्ति सत् या अहिंसा नहीं हो सकती, यह निश्चय दृष्टि की बात है। व्यवहार में निषेधात्मक अहिंसा को निष्क्रिय अहिंसा और विध्यात्मक अहिंसा को सक्रिय अहिंसा कहा जाता है।
जैन ग्रंथ आचारांगसूत्र में, जिसका समय संभवत: तीसरी चौथी शताब्दी ई. पू. है, अहिंसा का उपदेश इस प्रकार दिया गया है : भूत, भावी और वर्तमान के अर्हत् यही कहते हैं-किसी भी जीवित प्राणी को, किसी भी जंतु को, किसी भी वस्तु को जिसमें आत्मा है, न मारो, न (उससे) अनुचित व्यवहार करो, न अपमानित करो, न कष्ट दो और न सताओ।
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति, ये सब अलग जीव हैं। पृथ्वी आदि हर एक में भिन्न-भिन्न व्यक्तित्व के धारक अलग-अलग जीव हैं। उपर्युक्त स्थावर जीवों के उपरांत न्नस (जंगम) प्राणी हैं, जिनमें चलने फिरने का सामर्थ्य होता है। ये ही जीवों के छह वर्ग हैं। इनके सिवाय दुनिया में और जीव नहीं हैं। जगत् में कोई जीव न्नस (जंगम) है और कोई जीव स्थावर। एक पर्याय में होना या दूसरी में होना कर्मों की विचित्रता है। अपनी-अपनी कमाई है, जिससे जीव अन्न या स्थावर होते हैं। एक ही जीव जो एक जन्म में अन्न होता है, दूसरे जन्म में स्थावर हो सकता है। न्नस हो या स्थावर, सब जीवों को दु:ख अप्रिय होता है। यह समझकर मुमुक्षु सब जीवों के प्रति अहिंसा भाव रखे।
सब जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। इसलिए निर्ग्रंथ प्राणिवध का वर्जन करते हैं। सभी प्राणियों को अपनी आयु प्रिय है, सुख अनुकूल है, दु:ख प्रतिकूल है। जो व्यक्ति हरी वनस्पति का छेदन करता है वह अपनी आत्मा को दंड देनेवाला है। वह दूसरे प्राणियों का हनन करके परमार्थत: अपनी आत्मा का ही हनन करता है।
आत्मा की अशुद्ध परिणति मात्र हिंसा है; इसका समर्थन करते हुए आचार्य अमृतचंद्र ने लिखा है : असत्य आदि सभी विकार आत्मपरिणति को बिगाड़नेवाले हैं, इसलिए वे सब भी हिंसा हैं। असत्य आदि जो दोष बतलाए गए हैं वे केवल "शिष्याबोधाय" हैं। संक्षेप में रागद्वेष का अप्रादुर्भाव अहिंसा और उनका प्रादुर्भाव हिंसा है। रागद्वेषरहित प्रवृत्ति से अशक्य कोटि का प्राणवध हो जाए तो भी नैश्चयिक हिंसा नहीं होती, रागद्वेषरहित प्रवृत्ति से, प्राणवध न होने पर भी, वह होती है। जो रागद्वेष की प्रवृत्ति करता है वह अपनी आत्मा का ही घात करता है, फिर चाहे दूसरे जीवों का घात करे या न करे। हिंसा से विरत न होना भी हिंसा है और हिंसा में परिणत होना भी हिंसा है। इसलिए जहाँ रागद्वेष की प्रवृत्ति है वहाँ निरंतर प्राणवध होता है

Dr.Shree Vijay
06-08-2013, 12:31 AM
जैन प्रतीक चिह्न

मूल भावनाएँ



जैन प्रतीक चिह्न कई मूल भावनाओं को अपने में समाहित करता है। इस प्रतीक चिह्न का रूप जैन शास्त्रों में वर्णित तीन लोक के आकार जैसा है। इसका निचला भाग अधोलोक, बीच का भाग- मध्य लोक

एवं ऊपर का भाग- उर्ध्वलोक का प्रतीक है। इसके सबसे ऊपर भाग में चंद्राकार सिद्ध शिला है। अनन्तान्त सिद्ध परमेष्ठी भगवान इस सिद्ध शिला पर अनन्त काल से अनन्त काल तक के लिए विराजमान हैं। चिह्न के निचले भाग में प्रदर्शित हाथ अभय का प्रतीक है और लोक के सभी जीवों के प्रति अहिंसा का भाव रखने का प्रतीक है। हाथ के बीच में २४ आरों वाला चक्र चौबीस तीर्थंकरों द्वारा प्रणीत जिन धर्म को दर्शाता है, जिसका मूल भाव अहिंसा है, ऊपरी भाग में प्रदर्शित स्वस्तिक की चार भुजाएँ चार गतियों- नरक, त्रियंच, मनुष्य एवं देव गति की द्योतक हैं। प्रत्येक संसारी प्राणी जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त होना चाहता है। स्वस्तिक के ऊपर प्रदर्शित तीन बिंदु सम्यक रत्नत्रय-सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान एवं सम्यक चरित्र को दर्शाते हैं और संदेश देते हैं कि सम्यक रत्नत्रय के बिना प्राणी मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता है। सम्यक रत्नत्रय की उपलब्धता जैनागम के अनुसार मोक्ष प्राप्ति के लिए परम आवश्यक है। सबसे नीचे लिखे गए सूत्र ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्*’ का अर्थ प्रत्येक जीवन परस्पर एक दूसरे का उपकार करें, यही जीवन का लक्षण है। संक्षेप में जैन प्रतीक चिह्न संसारी प्राणी मात्र की वर्तमान दशा एवं इससे मुक्त होकर सिद्ध शिला तक पहुँचने का मार्ग दर्शाता है।

मित्र बिंदु जी यह चिन्ह १४ राज लोक का प्रतीक हें, इस चिन्ह में कई रह्श्य छिपे हुए हें............................................... .....................

Dr.Shree Vijay
06-08-2013, 12:34 AM
अगर आप की अनुमति होंगी तो आगे में ये बाते में यहा सभी मित्रों के साथ बाटूंगा ............................................

bindujain
06-08-2013, 10:33 PM
अगर आप की अनुमति होंगी तो आगे में ये बाते में यहा सभी मित्रों के साथ बाटूंगा ............................................

सुत पसंद करने के लिए धन्यवाद


आप इसकी किसी नही सूचना को कहीं भी उपयोग कर सकते है


मुझे ख़ुशी होगी

Dr.Shree Vijay
10-08-2013, 11:44 AM
सुत पसंद करने के लिए धन्यवाद


आप इसकी किसी नही सूचना को कहीं भी उपयोग कर सकते है


मुझे ख़ुशी होगी





प्रिय बिंदु जी आपका धन्यवाद.....................................[/quote]