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View Full Version : गहरे पानी पैठ


bindujain
01-01-2013, 05:35 PM
जिन खोजा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ |
मैं बौरी ढूडन गयी ,रही किनारे बैठ ||

अर्थात जिसने खोजा , उसने गहरे पानी में उतरकर ही पाया |मैं ऐसी पागल की ढूंडने गयी तो किनारे बैठ कर ही रह गई ||

जितना सोचते जाईये , गहरे उतरते जाईये , उतना ही अर्थ और मर्म उजागर होता जाएगा | धर्म , कर्म, अध्ययन , भोग और योग सबकी सफलता की कुंजी एक ही है --गहरे पानी पैठ

bindujain
01-01-2013, 05:39 PM
सबका खुशी से फासला एक कदम है |
हर घर में बस एक ही कमरा कम है ||
--जाबेद अख्तर

bindujain
02-01-2013, 04:47 AM
कई मूर्ख एक साथ टोली में रहते थे। वे परस्पर एक-दूसरे की बात का विश्वास करते तथा साथ-साथ ही बाहर भ्रमण करने जाते थे। एक बार वे अपने स्थान से दूर किसी गांव को जा रहे थे कि रास्ते में एक नदी थी। उन्हें नदी पार करके दूसरी और जाना था, किन्तु उनमें से किसी को भी तैरना नहीं आता था। वे नदी के किनारे खडे हो गए और सोचने लगे कि अब क्या किया जाए? आश्चर्य! सबको एक ही साथ एक ही विचार आया।
उन्होंने सोचा कि यहां नदी के किनारे पानी बडा उथला है। जैसे-जैसे नदी में आगे बढेंगे, पानी घुटनों तक आएगा और बीच में पानी अवश्य ही गहरा होना चाहिए। यानी कि बीच में पानी हमारे सिर के ऊपर से बह रहा होगा। फिर आगे कम होता जाएगा। घुटनों तक हो जायेगा। दूसरे किनारे पर जल पुनः उथला होगा। विचार करने पर वे सभी इस परिणाम पर पहुंचे कि जल का औसत स्तर केवल घुटनों तक होगा।
प्रसन्नता से उन्होंने एक-दूसरे के हाथ पकडे और नदी में आगे बढे। और वे सब डूब गये।
नदी पार करते समय औसत किसी को भी नही निकालना चाहिए। कहने का तात्पय। यही है कि पतन की ओर ले जाने वाली समस्त बुराइयों का हमें विवके होना चाहिए और उनसे प्रतिक्षण बचते रहना

bindujain
02-01-2013, 04:48 AM
आडंबर

कसाई के पीछे घिसटती जा रही बकरी ने सामने से आ रहे संन्यासी को देखा तो उसकी उम्मीद बढ़ी. मौत आंखों में लिए वह फरियाद करने लगी—
‘महाराज! मेरे छोटे-छोटे मेमने हैं. आप इस कसाई से मेरी प्राण-रक्षा करें. मैं जब तक जियूंगी, अपने बच्चों के हिस्से का दूध आपको पिलाती रहूंगी.’
बकरी की करुण पुकार का संन्यासी पर कोई असर न पड़ा. वह निर्लिप्त भाव से बोला—
‘मूर्ख, बकरी क्या तू नहीं जानती कि मैं एक संन्यासी हूं. जीवन-मृत्यु, हर्ष-शोक, मोह-माया से परे. हर प्राणी को एक न एक दिन तो मरना ही है. समझ ले कि तेरी मौत इस कसाई के हाथों लिखी है. यदि यह पाप करेगा तो ईश्वर इसे भी दंडित करेगा…’
‘मेरे बिना मेरे मेमने जीते-जी मर जाएंगे…’ बकरी रोने लगी. ‘नादान, रोने से अच्छा है कि तू परमात्मा का नाम ले. याद रख, मृत्यु नए जीवन का द्वार है. सांसारिक रिश्ते-नाते प्राणी के मोह का परिणाम हैं, मोह माया से उपजता है. माया विकारों की जननी है. विकार आत्मा को भरमाए रखते हैं…’
बकरी निराश हो गई. संन्यासी के पीछे आ रहे कुत्ते से रहा न गया, उसने पूछा—‘महाराज, क्या आप मोह-माया से पूरी तरह मुक्त हो चुके हैं?’
‘बिलकुल, भरा-पूरा परिवार था मेरा. सुंदर पत्नी, भाई-बहन, माता-पिता, चाचा-ताऊ, बेटा-बेटी. बेशुमार जमीन-जायदाद…मैं एक ही झटके में सब कुछ छोड़कर परमात्मा की शरण में चला आ आया. सांसारिक प्रलोभनों से बहुत ऊपर…जैसे कीचड़ में कमल…’ संन्यासी डींग मारने लगा.
‘आप चाहें तो बकरी की प्राणरक्षा कर सकते हैं. कसाई आपकी बात नहीं टालेगा.’
‘मौत तो निश्चित ही है, आज नहीं तो कल, हर प्राणी को मरना है.’ तभी सामने एक काला भुजंग नाग फन फैलाए दिखाई पड़ा. संन्यासी के पसीने छूटने लगे. उसने कुत्ते की ओर मदद के लिए देखा. कुत्ते की हंसी छूट गई.
‘मृत्यु नए जीवन का द्वार है…उसको एक न एक दिन तो आना ही है…’ कुत्ते ने संन्यासी के वचन दोहरा दिए.
‘मुझे बचाओ.’ अपना ही उपदेश भूलकर संन्यासी गिड़गिड़ाने लगा. मगर कुत्ते ने उसकी ओर ध्यान न दिया.
‘आप अभी यमराज से बातें करें. जीना तो बकरी चाहती है. इससे पहले कि कसाई उसको लेकर दूर निकल जाए, मुझे अपना कर्तव्य पूरा करना है…’ कहते हुए वह छलांग लगाकर नाग के दूसरी ओर पहुंच गया. फिर दौड़ते हुए कसाई के पास पहुंचा और उसपर टूट पड़ा. आकस्मिक हमले से कसाई के औसान बिगड़ गए. वह इधर-उधर भागने लगा. बकरी की पकड़ ढीली हुई तो वह जंगल में गायब हो गई.
कसाई से निपटने के बाद कुत्ते ने संन्यासी की ओर देखा. वह अभी भी ‘मौत’ के आगे कांप रहा था. कुत्ते का मन हुआ कि संन्यासी को उसके हाल पर छोड़कर आगे बढ़ जाए. लेकिन मन नहीं माना. वह दौड़कर विषधर के पीछे पहुंचा और पूंछ पकड़कर झाड़ियों की ओर उछाल दिया, बोला—
‘महाराज, जहां तक मैं समझता हूं, मौत से वही ज्यादा डरते हैं, जो केवल अपने लिए जीते हैं. धार्मिक प्रवचन उन्हें उनके पापबोध से कुछ पल के लिए बचा ले जाते हैं…जीने के लिए संघर्ष अपरिहार्य है, संघर्ष के लिए विवेक, लेकिन मन में यदि करुणा-ममता न हों तो ये दोनों भी आडंबर बन जाते हैं.’

bindujain
02-01-2013, 06:58 PM
मेरे नर्सिंग स्कूल के दूसरे माह हमारे प्रोफेसर ने एक सामान्य ज्ञान प्रतियोगिता आयोजित की। मैं एक मेहनती विद्यार्थी था अतः मैंने एक ही बार में पूरा प्रश्नपत्र पढ़ लिया।

"रोज सुबह विद्यालय की सफाई करने वाली महिला का क्या नाम है?"

निश्चित रूप से मुझे यह प्रश्न एक तरह का मजाक लगा। मैंने विद्यालय साफ करने वाली उस महिला को कई बार देखा था। वह लंबी, काले बालों वाली एक अधेड़वय महिला थी। लेकिन मुझे उसका नाम कैसे पता होगा? उस प्रश्न को छोड़ मैंने पूरा प्रश्नपत्र हल कर दिया। कक्षा समाप्त होने के पहले एक सहपाठी ने पूछा कि क्या अंतिम प्रश्न को सामान्यज्ञान की श्रेणी में रखना उचित है?

प्रोफेसर ने उत्तर दिया - "निश्चित रूप से! अपने जीवन में तुम्हारी कई लोगों से मुलाकात होगी। वे सभी महत्त्वपूर्ण हैं। वे सभी तुमसे ध्यानाकर्षण और देखभाल चाहते हैं। उन्हें देख मुस्कराना और अभिवादन करना ही पर्याप्त होगा।"

और मैं यह सबक आज तक नहीं भूला हूं.....

bindujain
02-01-2013, 07:02 PM
सिकंदर महान और डायोजिनीस

भारत आने से पूर्व सिकंदर डायोजिनीस नामक एक फकीर से मिलने गया। उसने डायोजिनीस के बारे में बहुत सी बातें सुनी हुयी थीं। प्रायः राजा-महाराजा भी फकीरों के प्रति ईर्ष्याभाव रखते हैं।

डायोजिनीस इसी तरह के फकीर थे। वह भगवान महावीर की ही तरह पूर्ण नग्न रहते थे। वे अद्वितीय फकीर थे। यहां तक कि वे अपने साथ भिक्षा मांगने वाला कटोरा भी नहीं रखते थे। शुरूआत में जब वे फकीर बने थे, तब अपने साथ एक कटोरा रखा करते थे लेकिन एक दिन उन्होंने एक कुत्ते को नदी से पानी पीते हुए देखा। उन्होंने सोचा - "जब एक कुत्ता बगैर कटोरे के पानी पी सकता है तो मैं अपने साथ कटोरा लिए क्यों घूमता हूं? इसका तात्पर्य यही हुआ कि यह कुत्ता मुझसे ज्यादा समझदार है। जब यह कुता बगैर कटोरे के गुजारा कर सकता है तो मैं क्यों नहीं?" और यह सोचते ही उन्होंने कटोरा फेंक दिया।

सिकंदर ने यह सुना हुआ था कि डायोजिनीस हमेशा परमानंद की अवस्था में रहते हैं, इसलिए वह उनसे मिलना चाहता था। सिकंदर को देखते ही डायोजिनीस ने पूछा -"तुम कहां जा रहे हो?"

सिकंदर ने उत्तर दिया - "मुझे पूरा एशिया महाद्वीप जीतना है।"

डायोजिनीस ने पूछा - "उसके बाद क्या करोगे? डायोजिनीस उस समय नदी के किनारे रेत पर लेटे हुए थे और धूप स्नान कर रहे थे। सिकंदर को देखकर भी वे उठकर नहीं बैठे। डायोजिनीस ने फिर पूछा - "उसके बाद क्या करोगे?

सिकंदर ने उत्तर दिया - "उसके बाद मुझे भारत जीतना है।"

डायोजिनीस ने पूछा - "उसके बाद?" सिकंदर ने कहा कि उसके बाद वह शेष दुनिया को जीतेगा।

डायोजिनीस ने पूछा - "और उसके बाद?"

सिकंदर ने खिसियाते हुए उत्तर दिया - "उसके बाद क्या? उसके बाद मैं आराम करूंगा।"

डायोजिनीस हँसने लगे और बोले - "जो आराम तुम इतने दिनों बाद करोगे, वह तो मैं अभी ही कर रहा हूं। यदि तुम आखिरकार आराम ही करना चाहते हो तो इतना कष्ट उठाने की क्या आवश्यकता है? मैं इस समय नदी के तट पर आराम कर रहा हूं। तुम भी यहाँ आराम कर सकते हो। यहाँ बहुत जगह खाली है। तुम्हें कहीं और जाने की क्या आवश्यकता है। तुम इसी वक्त आराम कर सकते हो।"

सिकंदर उनकी बात सुनकर बहुत प्रभावित हुआ। एक पल के लिए वह डायोजिनीस की सच्ची बात को सुनकर शर्मिंदा भी हुआ। यदि उसे अंततः आराम ही करना है तो अभी क्यों नहीं। वह आराम तो डायोजिनीस इसी समय कर रहे हैं और सिकंदर से ज्यादा संतुष्ट हैं। उनका चेहरा भी कमल के फूल की तरह खिला हुआ है।

सिकंदर के पास सबकुछ है पर मन में चैन नहीं। डायोजिनीस के पास कुछ नहीं है पर मन शांत है। यह सोचकर सिकंदर ने डायोजिनीस से कहा - "तुम्हें देखकर मुझे ईर्ष्या हो रही है। मैं ईश्वर से यही मांगूगा कि अगले जन्म में मुझे सिकंदर के बजाए डायोजिनीस बनाए।"

डायोजिनीस ने उत्तर दिया - " तुम फिर अपने आप को धोखा दे रहे हो। इस बात में तुम ईश्वर को क्यों बीच में ला रहे हो? यदि तुम डायोजिनीस ही बनना चाहते हो तो इसमें कौन सी कठिन बात है? मेरे लिए सिकंदर बनना कठिन है क्योंकि मैं शायद पूरा विश्व न जीत पाऊं। मैं शायद इतनी बड़ी सेना भी एकत्रित न कर पाऊं। लेकिन तुम्हारे लिए डायोजिनीस बनना सरल है। अपने कपड़ों को शरीर से अलग करो और आराम करो।"

सिकंदर ने कहा - "आप जो बात कह रहे हैं वह मुझे तो अपील कर रही है परंतु मेरी आशा को नहीं। आशा उसे प्राप्त करने का भ्रम है, जो आज मेरे पास नहीं। मैं जरूर वापस आऊंगा। लेकिन मुझे अभी जाना होगा क्योंकि मेरी यात्रा अभी पूरी नहीं हुयी है। लेकिन आप जो कह रहे हैं वह सौ फीसदी सच है।"

bindujain
03-01-2013, 04:50 AM
एक बेकार आदमी साक्षात्कार देने के लिये जा रहा था। रास्ते में उसका एक बेकार घूम रहा मित्र मिल गया। उसने उससे पूछा-‘कहां जा रहा है?
उसने जवाब दिया कि -‘साक्षात्कार के लिये जा रहा हूं। इतने सारे आवेदन भेजता हूं मुश्किल से ही बुलावा आया है।’
मित्र ने कहा-‘अरे, तू मेरी बात सुन!’
उसने जवाब दिया-‘यार, तुम फिर कभी बात करना। अभी मैं जल्दी में हूं!’
मित्र ने कहा-‘पर यह तो बता! किस पद के लिये साक्षात्कार देने जा रहा है।’
उसने कहा-‘‘पहरेदार की नौकरी है। कोई एक सेठ है जो पहरेदारों को नौकरी पर लगाता है।’
उसकी बात सुनकर मित्र ठठाकर हंस पड़ा। उसे अपने मित्र पर गुस्सा आया और पूछा-‘क्या बात है। हंस तो ऐसे रहे हो जैसे कि तुम कहीं के सेठ हो। अरे, तुम भी तो बेकार घूम रहे हो।’
मित्र ने कहा-‘मैं इस बात पर दिखाने के लिये नहीं हंस रहा कि तुम्हें नौकरी मिल जायेगी और मुझे नहीं! बल्कि तुम्हारी हालत पर हंसी आ रही है। अच्छा एक बात बताओ? क्या तम्हें कोई लूट करने का अभ्यास है?’
उसने कहा-‘नहीं!’
मित्र ने पूछा-‘कहीं लूट करवाने का अनुभव है?’
उसने कहा-‘नहीं!
मित्र ने कहा-‘इसलिये ही हंस रहा हूं। आजकल पहरेदार में यह गुण होना जरूरी है कि वह खुद लूटने का अपराध न कर अपने मालिक को लुटवा दे। लुटेरों के साथ अपनी सैटिंग इस तरह रखे कि किसी को आभास भी नहीं हो कि वह उनके साथ शामिल है।’
उसने कहा-‘अगर वह ऐसा न करे तो?’
मित्र ने कहा-‘तो शहीद हो जायेगा पर उसके परिवार के हाथ कुछ नहीं आयेगा। अलबत्ता मालिक उसे उसके मरने पर एक दिन के लिये याद कर लेगा!’
उसने कहा-‘यह क्या बकवास है?’
मित्र ने कहा’-‘शहीद हो जाओगे तब पता लगेगा। अरे, आजकल लूटने वाले गिरोह बहुत हैं। सबसे पहले पहरेदार के साथ सैटिंग करते हैं और वह न माने तो सबसे पहले उसे ही उड़ाते हैं। इसलिये ही कह रहा हूं कि जहां तुम्हारी पहरेदार की नौकरी लगेगी वहां ऐसा खतरा होगा। तुम जाओ! मुझे क्या परवाह? हां, जब शहीद हो जाओगे तब तुम्हारे नाम को मैं भी याद कर दो शब्द बोल दिया करूंगा।’
मित्र चला गया और वह भी अपने घर वापस लौट पड़ा।

bindujain
03-01-2013, 05:30 AM
मन में इच्छा रखना वैसा ही है जैसे मरे हुए चूहे को पकड़ना

एक चील अपनी चोंच में मरे हुए चूहे को पकड़कर उड़ गयी। जैसे ही अन्य चीलों ने उस चील को चूहा ले जाते हुए देखा, वे उसके आसपास मडराने लगीं और उस पर हमला शुरू कर दिया। चीलों ने उसे चोंच मारना शुरू कर दिया जिससे वह लहुलुहान हो गयी। हालाकि वह इस हमले से अचंभित थी परंतु उसने चूहे को नहीं छोड़ा। लेकिन अन्य चीलों के लगातार हमले के कारण चूहा उसकी पकड़ से छूट गया। जैसे ही वह चूहा उसकी पकड़ से छूटा, उन सभी चीलों ने, जो उसके आसपास मडरा रही थीं, सारा ध्यान उस चूहे पर लगा दिया। वह चील एक पेड़ पर बैठ गयी और सोचने लगी।

उसने सोचा - पहले मैंने सोचा कि बाकी सभी चीलें मेरी दुश्मन थीं लेकिन जैसे ही मैंने चूहे को छोड़ा वे सभी मुझसे दूर चली गयीं। इसका मतलब यह है कि उनकी मुझसे कोई व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं थी। वह चूहा ही उनके हमले का कारण था। गलती मेरी थी कि मैं चूहे को अपनी चोंच में दबाये रही। मुझे उस चूहे को पहले ही छोड़ देना चाहिए था लेकिन मैं बेवकूफ यह सोच रही थी कि वे सभी मुझसे जाराज़ हैं।

स्वामी रामकृष्ण यह कहानी प्रायः सुनाते थे और कहा करते थे कि मन में इच्छा रखना वैसा ही है जैसे मरे हुए चूहे को पकड़ना।

bindujain
03-01-2013, 07:36 PM
एकता और फुट

एक जंगल में बटेर पक्षियो का बहुत बड़ा झुंड था | वे निर्भय होकर जंगल में रहते थे | इसी करण उनकी संख्या भी बढती जा रही है |

एक दिन एक शिकारी ने उन बटेरो को देख लिया | उसने सोचा की अगर थोड़े – थोड़े बटेर में रोज पकडकर ले जाऊ तो मुझे शिकार के लिए भटकने की जरूरत नहीं पड़ेगी |

अगले दिन शिकारी एक बड़ा सा जाल लेकर आया | उसने जाल तो लगा दिया, किन्तु बहुत से चतुर बटेर खतरा समझकर भाग गए | कुछ नासमझ और छोटे बटेर थे, वे फंस गए |

शिकारी बटेरो के इतने बड़े खजाने को हाथ से नहीं जाने देना चाहता था | वह उन्हें पकड़ने की नई – नई तरकीबे सोचने लगा | फिर भी बटेर पकड़ में न आते |

अब शिकारी बटेर की बोली बोलने लगा | उस आवाज को सुनकर बटेर जैसे ही इकटठे होते कि शिकारी जाल फेककर उन्हें पकड़ लेता | इस तरकीब में शिकारी सफल हो गया | बटेर धोखा खा जाते और शिकारी के हाथो पकड़े जाते | धीरे – धीरे उनकी संख्या कम होने लगी |

तब एक रात एक बूढ़े बटेर ने सबकी सभा बुलाई | उसने कहा – “इस मुसीबत से बचने का एक उपाय में जनता हु | जब तुम लोग जाल में फंसे ही जाओ तो इस उपाय का प्रयोग करना | तुम सब एक होकर वह जाल उठाना और किसी झाड़ी पर गिरा देना | जाल झाड़ी के ऊपर उलझ जाएगा और तुम लोग निचे से निकलकर भाग जाना | लेकिन वह कम तभी हो सकता है जब तुममे एकता होगी |”


अगले दिन से बटेरो ने एकता दिखाई और वे शिकारी कि चकमा देने लगे | शिकारी अब जंगल से खाली हाथ लोटने लगा | उसकी पत्नी ने करण पूछा तो वह बोला – “बटेरो ने एकता का मंत्र जान लिया है | इसलिए अब पकड़ में नहीं आते है | तू चिंता मत कर | जिस दिन उनमे फुट पड़ेगी, वे फिर पकड़े जाएगे |”

कुछ दिन बाद ऐसा ही हुआ | बटेरो का एक समूह जाल में फंस गया | उसे लेकर उड़ने कि बात हुई | बटेरो ने बहस छिड गई | कोई कहता –“में क्यों जाल उठाऊ? क्या यह सिर्फ मेरा ही कम है?” दूसरा कहता –“जब तुझे चिंता नहीं है तो में क्यों जाल उठाऊ |” तीसरा कड़ता –“ऐसा लगता है जैसे उठाने का ठेका तुम्ही लोगो ने ले रखा है |”

वे आपस की फुट में पड़कर बहस कर ही रहे थे कि शिकारी आ गया और उसने सब बटेरो को पकड़ लिया | अगले दिन बूढ़े बटेर ने बचे हुए बटेरो को समझाया –“एकता बड़े-से-बड़े संकट का मुकाबला कर सकती है | कलह पर फुट से सिर्फ विनाश होता है | अगर इस बात को भूल जाओगे तो तुम सब अपना विनाश कर लोगे |” और फिर वह शिकारी कभी भी बटेर नहीं पकड़ सका |

bindujain
03-01-2013, 07:38 PM
लालची तोता

एक जंगल में तोतो का समूह था | वे तोते हर रोज सुबह हजारो मील कि यात्रा पर जाते | और शाम को अपने घोसलों में लोट आते |

तोतो के समूह में सभी के अपने अपने परिवार थे | तोते कि अपनी तेज गति कि उडान के लिए सदा से प्रसिद रहे है | इसलिय बुडापे में सबसे पहले उनकी आंखे कमजोर हो जाती है |

तोतो के एक परिवार में माता – पिता बूढे हो चले थे | उनका बेटा उनके लिए फल आदि ले आता था | बूढे माता पिता घोसले में बैठे बैठे ही खा लेते और सूख से रहते | वह तोता अपना माता पिता कि सेवा में कोई कमी नहीं रखता था | किंतु स्भाव का मनमोजी था | माता – पिता का कहना न मानना और मनचाहे सेर सपाटे करना उसकी आदत बन गई थी |

एक दिन उस तोते ने समुंद्र के बिच में एक सुंदर द्वीप देखा और वहा पहुचना चाहा | उसके साथियों ने समझाया – “सुमंदर बहुत विशाल है | उस द्वीप से समुंदर का किनारा पकड़ना सरल काम नहीं है | तुम वहा मत जाओ |”लेकिन उस तोते ने किसीकी बात न सुनी |

वह द्वीप कि और उड़ चला | द्वीप पर पहुचकर उसने आम के पेड़ो को देखा | उनमे बड़े – बड़े रसीले और मीठे आम लगे हुए थे | ऐसे आम तो उसने देखे ही नहीं थे | उसने ज़ल्दी ज़ल्दी कुछ आम खाए और एक आम लेकर वापस चल दिया |

अपने घोसले में आकर उसने वह आम बूढे माता – पिता को खिलाया | उसके माता पिता अंधे अवश्य थे, किंतु उन्होंने आम खाते ही कहा – “क्या हम समुंदर पार हजारो मील दूर स्थित उस द्वीप पर गए थे?”

“हा वहा बड़े असिले फल है |”

“लेकिन वह स्थल हमारी सीमा से बहार है | लालच में पड़कर सीमा तोड़ने से हानि उठानी पडती है|”

किंतु वह तोता भला माननेवाला था | वह रोज ही वहा जाने लगा | उसके मन में हर दिन उन फलो के लिए लालच बढता गया |

एक दिन उसने आवश्कता से अधिक फल खा लिये | उस दिन उसने अपने माता – पिता के लिए भी रोज से जयादा बड़ा फल तोडा |

यात्रा लम्बी थी और बोझ अधिल था | जयादा फल खाने के कारण वह ज़ल्दी ही थकने लगा | बड़े फल का बोझ भी उड़ने में बाघा उत्पन कर रहा था | वह जितना जोर लगाता उतना ही थक रहा था | समुंद्र पार से उसके साथियों ने उसे इस तरह उड़ते देखा तो परेशान होने लगे | पर करते भी क्या ? आखिर वह तोता चक्कर खाकर समुंद्र में गिरा और डूब गया |

अब अन्य तोतो ने उसके माँ-बाप को यह खबर दी तब वे बोले – “हम जानते थे कि एक दिन लालच में पड़कर वह अपनी जान खो देगा | लालची आदमी का यही हाल होता है |”

aspundir
03-01-2013, 09:28 PM
बेहतरीन सूत्र । जीवन की छोटी-छोटी घटनाएं भी ज्ञान का सार्थक आधार है ।

bindujain
04-01-2013, 05:36 AM
समय की कीमत

एक शहर में एक परिवार रहता था | पति-पत्नी और उनकी एक प्यारी सी बेटी | पति हर रोज़ की तरह अपने दफ्तर जाता और रात में घर आता | एक दिन वो देर रात से घर आया और दरवाज़ा खटखाया और तभी उसकी ६ वर्षीय बेटी ने दरवाज़ा खोला और या देख कर उसको आश्रय हुआ की उसकी बेटी अभी तक सोई नहीं |

जैसे बचो की आदत होती है घर आते ही अपने माँ पाप से लिपट जाते है और बाते करना शुरु कर देते है उसी तरह उसकी बेटी ने भी वही किया | अन्दर घुसते ही बेटी ने पूछा —“ पापा पापा क्या मैं आपसे एक प्रशन पूछ सकती हू |

पिता ने कहा: हा बिलकुल बेटी | तो बेटी ने पूछा की आप एक दिन में कितना कमा लेते हो |

पिता का उसका ये सवाल अच्छा नहीं लगा पर फिर भी पिता ने उसको बता दिया और फिर बेटी ने दुबारा पूछा की पापा पापा आप एक धंटे में कितना कमा लेता हो | बस यह सुन कर पिता आग बबूला हो गया और अपनी बेटी तो डानट दिया और यह कह कर वो अपने कमरे में चला गया |


थोरी देर बाद जब पिता का दुस्सा थोडा शांत हो गया तो उसको लगा की मैंने बिना बात के उसको गुस्सा कर दिया, वो अपनी बेटी के पास गया | उसको अपनी गोदी में बैठाया और कहा: “बेटा में एक घंटे में २०० रुपये कमा लेता हू |”

तभी बेटी ने बड़ी मासूमियत से सर झुकाते हुए कहा अच्छा -, “ पापा क्या आप मुझे १०० रूपये दे सकते हो ?”

पिता ने कहा बिलकुल बेटी दे सकता हू पर तुम इसका क्या करोगे, तुम्हे क्या चाइये, तुम मुझे बता दो कल में ले आउगा | बेटी ने कहा नहीं पापा मुझे कुछ नहीं चाइये बस आप मुझे १०० रूपये दो | पर वो सोचने लगा कि क्या हो सकता है क्यों चाइये रुपये इसको क्या करेगी १०० रुपये का |

तभी पिता ने अपने पर्स में से १०० रुपये निकाल कर अपनी बेटी को दे दिए | “Thank You पापा ” बेटी ख़ुशी से पैसे लेते हुए कहा , और फिर वह तेजी से उठकर अपनी आलमारी की तरफ गई , वहां से उसने ढेर सारे सिक्के निकाले और धीरे -धीरे उन्हें गिनने लगी |

यह देख कर उसको समझ नहीं आ रहा था की हो क्या रहा है | जब मेरी बेटी के पास इतने पैसे है तो और क्यों मांग रही है |

पिता ने पूछ ही लिया, जब तुम्हारे पास पहले से ही पैसे थे तो तुमने मुझसे और पैसे क्यों मांगे ?”

बेटी ने कहा क्योंकि मेरे पास पैसे कम थे , पर अब पूरे हो गए है |

बेटी ने बहुत ही प्यार से अपने पिता को कहा, “पापा अब मेरे पास २०० रूपये हैं . क्या मैं आपका एक घंटा खरीद सकती हूँ ? Please आप ये पैसे ले लोजिये और कल घर जल्दी आ जाइये , हम सभी साथ मिल कर खाना खाएगे | यह सुन कर पिता की आँखों में आंसू आ गए और अपनी बेटी को गले लगा लिया |”

दोस्तों , इस तेज रफ़्तार ज़िन्दगी हम सभी लोग इतना व्यस्थ हो गए है की अपने परिवार वालो को वक़्त ही नहीं दे पाते | हम उन लोगो के लिए ही समय नहीं निकाल पाते जो हमारे जीवन में सबसे ज्यादा importance रखते हैं | दोस्तों हमे ये ख्याल रखना होगा की इस व्यस्त ज़िन्दगी में हम अपने परिवार वालो के साथ भी कुछ समय बिता सके |

bindujain
04-01-2013, 04:21 PM
सर्वोत्तम गाउन

राजकुमारी अलीना को सुंदर वस्त्र पहनने का बहुत शौक था। उसके पास बहुत सारी सुंदर गाउन थीं। कुछ गाउन सिल्क की बना हुयीं थी और कुछ सैटिन की। ज्यादातर गाउनों में फीते, मनके और झालरें लगी हुयी थीं। उसके पास लगभग सभी रंगों की गाउन थीं। प्रत्येक गाउन विशेष रूप से उसके नाप की बनायी गयी थी। परिधान सिलने के लिए उसके पास दरजिनों की अपनी अलग टीम थी।

एक दिन राजकुमारी ने अपनी मुख्य सेविका से यूं ही कहा - "मेरी ज्यादातर गाउन दाहिने हाथ की कलाई पर गंदी हो गयी हैं। केवल कुछ गाउन ही गंदी नहीं हुयीं हैं। ऐसा कैसे संभव है?" मुख्य सेविका ने बिना दाग वाली सभी गाउन को अलग किया। उसने सभी दरजिनों को बुलाकर इसके बारे में पूछा। उसे ज्ञात हुआ कि ये सभी गाउन एक ही दरजिन द्वारा सिली गयीं हैं। उसने तत्काल उस दरजिन को बुलाया। अपने बुलावे से अचंभित वह दरजिन भागी-भागी आयी। मुख्य सेविका ने उससे कहा - "राजकुमारी जी का कहना है कि तुम्हारे द्वारा सिली गयी गाउनों की दाहिनी कलाई भोजन करते समय गंदी नहीं होती जबकि अन्य सभी गाउन दाहिनी कलाई पर गंदी हो जाती हैं। इसका क्या कारण है?"

दरजिन ने उत्तर दिया - "राजकुमारी की दाहिनी भुजा बांयी भुजा से एक इंच छोटी है। इसलिए मैंने गाउनों की दाहिनी भुजा एक इंच छोटी बनायी है ताकि यह सही जगह रहे, न कि नीचे लटकती रहे।"

सेविका की आँखें आश्चर्य से फटी रह गयीं। वह उस दरजिन को राजकुमारी के पास ले गयी। उस लड़की ने राजकुमारी के हाथों की फिर से नाप ली। वास्तव में दाहिनी भुजा छोटी पायी गयी। केवल इसी लड़की ने यह अंतर देख पाया था।

विस्तार से दे ध्यान देना! विस्तार से दे ध्यान देना! विस्तार से दे ध्यान देना! विस्तार में ही ईश्वर का वास है।

bindujain
04-01-2013, 04:23 PM
सुअर और गाय

एक बार की बात है किसी गांव में एक बहुत धनी और कंजूस व्यक्ति रहता था। सभी गांव वाले उससे बहुत नफरत करते थे। एक दिन उस व्यक्ति ने गांव वालों से कहा - "या तो तुम लोग मुझसे ईर्ष्या करते हो या तुम लोग धन के प्रति मेरे दीवानेपन को ठीक से नहीं समझते, केवल मेरा ईश्वर ही जानता है। मुझे पता है कि आप लोग मुझसे नफरत करते हैं। लेकिन जब मैं मरूंगा तो अपने साथ यह धन नहीं ले जाऊंगा। मैं यह धन अन्य लोगों के कल्याण के लिए छोड़ जाऊंगा। तब आप सभी लोग मुझसे खुश हो जायेंगे।"

उसकी ये बात सुनने के बाद भी लोग उसके ऊपर हँसते रहे।

गांव वाले उसके ऊपर जरा भी विश्वास नहीं रखते थे। वह फिर बोला - "मैं क्या अमर हूं? मैं भी दूसरे लोगों की ही तरह मरूंगा। तब यह धन सभी के काम आएगा।" उस व्यक्ति को यह समझ में नहीं आ रहा था कि लोग उसकी बातों पर भरोसा क्यों नहीं कर रहे हैं।

एक दिन वह व्यक्ति टहलने गया हुआ था कि अचानक जोरदार बारिश शरू हो गयी। उसने एक पेड़ के नीचे शरण ली। पेड़ के नीचे उसने एक सुअर और गाय को खड़ा पाया। सुअर और गाय के मध्य बातचीत चल रही थी। वह व्यक्ति चुपचाप उनकी बातें सुनने लगा।

सुअर, गाय से बोला - "ऐसा क्यों है कि सभी लोग तुमसे प्रेम करते हैं और मुझसे नफरत? जब मैं मरूंगा तो मेरे बाल, चमड़ी और मांस लोगों के काम में आयेंगे। मेरी तीन-चार चीजें काम की हैं जबकि तुम सिर्फ एक चीज ही देती हो - दूध। तब भी सब लोग हर वक्त तुम्हारी ही सराहना करते रहते हैं, मेरी नहीं।"

गाय ने उत्तर दिया - "तो सुनो, मैं लोगों को जिंदा रहते दूध देती हूं। इस कारण सभी लोग मुझे उदार समझते हैं। और तुम सिर्फ मरने के बाद ही काम आते हो। लोग भविष्य में नहीं वर्तमान में यकीन रखते हैं। सीधी सी बात है, यदि तुम जिंदा रहने के दौरान ही लोग के काम आओ तो लोग तुम्हारी भी तारीफ करेंगे।"

bindujain
04-01-2013, 04:25 PM
सबसे अच्छी दवा

एक नौजवान लड़का प्रायः निराश और दुःखी रहा करता था। वह हमेशा चुप और अकेला रहता। वह अपने दोस्तों के साथ खेलना और रहना भी नहीं चाहता था। वह तो सिर्फ अकेले बैठकर सुबकना चाहता था।
उसकी माँ उसे यह डॉक्टर के पास ले गयीं। उन्होंने डॉक्टर को सारी समस्यायें विस्तार से बतायीं। उन्हें यह चिंता थी कि उनका पुत्र अवसाद का शिकार हो रहा है। डॉक्टर ने भलीभांति उस नौजवान का परीक्षण किया और सब कुछ सामान्य पाया। माँ को संतुष्ट करने के लिए डॉक्टर ने कुछ दवायें लेने का परामर्श दिया। लेकिन वास्तव में डॉक्टर ने उसे बीमारी की नहीं बल्कि ताकत की दवायें ही लिखी थीं। इसके बाद वह डॉक्टर उस महिला को एक किनारे ले गया और बोला - हालाकि मैंने बच्चे के लिए दवायें लिखीं हैं परंतु उसे दवाओं से ज्यादा प्यार की जरूरत है। आप उसे अधिक से अधिक प्यार दें। यही उसके लिए सबसे अच्छी दवा होगी। मुझे विश्वास है कि इससे वह जल्द ठीक हो जाएगा।

चिंतित महिला ने प्रश्न किया - और यदि इसका भी असर नहीं हुआ तो?

डॉक्टर ने उत्तर दिया - तब खुराक बढ़ाकर दोगुनी कर देना।

bindujain
04-01-2013, 04:27 PM
प्रेम का व्यवहार

एक रात मेरे घर एक व्यक्ति आया और बोला - ॑एक परिवार है जिसमें आठ बच्चे हैं और वे कई दिन से भूखे हैं। मैंने अपने साथ खाने का कुछ सामान लिया और वहाँ पहुंचा। जब मैं उस घर पर पहुंचा तो मैंने बच्चों के भूख से मुरझाये हुए चेहरों को देखा। उनके चेहरे पर दुःख या उदासी नहीं बल्कि भूख से पैदा हुआ गहरा दर्द दिखायी दे रहा था। मैंने उन बच्चों की माँ को थोड़ा सा चावल दिया। उसने आधा चावल बच्चों को खाने के लिए दिया और आधा चावल अपने साथ लेकर चली गयी। जब वह वापस आयी तो मैंने उससे पूछा कि वह कहाँ गयी थी?

उसने सीधा सा उत्तर दिया - अपने पड़ोस में गयी थी, वे भी भूखे हैं?

मुझे यह सुनकर जरा भी आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि गरीब लोग उदार होते ही हैं। लेकिन मुझे आश्चर्य इस बात का था कि उसे यह कैसे पता चला कि उसके पड़ोसी भी भूखे हैं। सामान्यतः जब हम कष्ट में होते हैं तो हमें सिर्फ अपने ही कष्ट दिखायी देते हैं, दूसरों के नहीं।

मेरे मित्र तारिक भाई ने एकबार मुझसे कहा था - वह कभी सच्चा मुसलमान नहीं हो सकता जो अपने पड़ोसियों के भूखा रहते हुए भी भरपेट भोजन करे। जरूरतमंद की तलाश करना तुम्हारा काम है। कोई स्वयं तुम्हारे आगे हाथ फैलाने नहीं आएगा।

bindujain
05-01-2013, 07:05 PM
उस पुल पर से गुजरते हुए कुछ आदत–सी हो गई। छुट्टे पैसों में से हाथ में जो भी सबसे छोटा सिक्का आता, उस अपंग बौने भिखारी के बिछे हुए चीकट अंगोछे पर उछाल देती। आठ बीस की बी0टी0 लोकल मुझे पकड़नी होती और अक्सर मैं ट्रेन पकड़ने की हड़बड़ाहट में ही रहती, मगर हाथ यंत्रवत् अपना काम कर जाता। दुआएँ उसके मुँह से रिरियायी–सी झरतीं...आठ–दस डग पीछा करतीं।
उस रोज इत्तिफाक से पर्स टटोलने के बाद भी कोई सिक्का हाथ न लगा। मैं ट्रेन पकड़ने की जल्दबाजी में बिना भीख दिए गुजर गई ।
दूसरे दिन छुट्टे थे, मगर एक लापरवाही का भाव उभरा, रोज ही तो देती हूँ। फिर कोई जबरदस्ती तो है नहीं!...और बगैर दिए ही निकल गई।
तीसरे दिन भी वही हुआ। उसके बिछे हुए अंगोछे के करीब से गुजर रही थी कि पीछे उसकी गिड़गिड़ाती पुकार ने ठिठका दिया–‘‘माँ..मेरी माँ...पैसा नई दिया ना? दस पैसा फकत....’’
ट्रेन छूट जाने के अंदेशे ने ठहरने नहीं दिया, किंतु उस दिन शायद उसने भी तय कर लिया था कि वह बगैर पैसे लिए मुझे जाने नहीं देगा। उसने दुबारा ऊँची आवाज में मुझे संबोधित कर पुकार लगाई। एकाएक मैं खीज उठी। भला यह क्या बदतमीजी है? लगातार पुकारे जा रहा है, ‘‘माँ..मेरी माँ....’’ मैं पलटी और बिफरती हुई बरसी, ‘‘क्यों चिल्ला रहे हो? तुम्हारी देनदार हूँ क्या?’’
‘‘नई, मेरी माँ !’’ वह दयनीय हो रिरियाया, ‘‘तुम देता तो सब देता....तुम नई देता तो कोई नई देता....तुम्हारे हाथ से बोनी होता तो पेट भरने भर को मिल जाता....तीन दिन से तुम नई दिया माँ...भुक्का है, मेरी माँ!’’
भीख में भी बोहनी। सहसा गुस्सा भरभरा गया। करुण दृष्टि से उसे देखा, फिर एक रुपए का एक सिक्का आहिस्ता से उसके अंगोछे पर उछालकर दुआओं से नख–शिख भीगती जैसी ही मैं प्लेटफॉर्म पर पहुँची मेरी आठ बीस की गाड़ी प्लेटफॉर्म छोड़ चुकी थी। आँखों के सामने मस्टर घूम गया अब...?

bindujain
05-01-2013, 07:07 PM
नपुंसक
सुकेश साहनी

पूरे हॉस्टल में हलचल मची हुई थी, नवाब किसी रेजा (मजदूरिन) को पकड़ लाया था,उसे कमरा नम्बर चार में रक्खा था, पाँच लड़के तो ‘हो’ भी गए थे। शोर,कहकहों और भद्दे इशारों के बीच कुछ लड़कों ने शेखर को उस कमरे में धकेल कर दरवाजा बाहर से बंद कर लिया था। भीतर ‘वह’ बिल्कुल नग्नावस्था में दरवाजे के पास दीवार से सटी खड़ी थी। वह बेहद डरी हुई थी। भयभीत आँखें शेखर को ही घूर रही थीं। शेखर को अपने आप से नफरत हुई। दिमाग में विचारों के चक्रवात घूमने लगे। बेबस नारी के साथ कैसा क्रूर, घिनौना मजाक! वह बाहर निकलकर सबको धिक्कारेगा। जगाएगा उनके सोए हुए जमीर को । अश्लील चुटकलों पर अट्टाहस हो रहे थे। फिर भी, थोड़ा समय गुजर जाने के बाद ही वह कमरे का दरवाजा खुलवाने के लिए दस्तक दे सका।
कई जोड़ी सवालिया आँखें ‘कैसा रहा’ के अंदाज में उस पर टिकी थीं। अब तक विचित्र–सी शिथिलता उसके शरीर पर छा गई थी। न जाने उसे क्या हुआ कि वह बेशर्मी से मुस्कराया और हाथ के इशारे के साथ अपनी बायीं आंख दबाकर बोला–‘‘धाँसू!’’ प्रत्युत्तर में सीटियाँ बजीं, ठहाके लगे, उसके कन्धे थपथपाए गए। इतनी ही देर में सातवाँ लड़का भीतर जा चुका था।
शेखर वहाँ से चलने को हुआ।
‘‘कहाँ यार?’’ कई स्वर एक साथ उभरे।
वह अपने होंठों को जबरदस्ती खींचकर मुस्कराया और हाथ के इशारे से उन्हें बताने लगा कि वह अपनी सफाई करके अभी लौटता है। अपने कमरे की ओर बढ़ते हुए अपने ही पदचापों से उसके दिमाग में धमाके से हो रहे थे–नपुसंक....नंपुसक....! मुक्तिदाता !....नंपुसक !

bindujain
05-01-2013, 07:08 PM
एक लघु कहानी / अफ़लातून
हालात ने उसे पेशेवर भिखारी बना दिया होगा । उमर करीब पाँच- छ: साल। पेशे को अपनाने में दु:ख या संकोच होने की गुंजाइश ही नहीं छोड़ी थी उसकी कच्ची उमर ने । माँगने के कष्ट की शायद कल्पना ही न रही हो उसे और माँग कर न पाना भी उसके लिए उतना ही सामान्य था जितना माँग कर पाना ।
उस दिन सरदारजी की जलेबी की दुकान के करीब वह पहुँचा । सरदारजी पुण्य पाने की प्रेरणा से किसी माँगने वाले को अक्सर खाली नहीं जाने देते थे । उसे कपड़े न पहनने का कष्ट नहीं था परन्तु खुद के नंगे होने का आभास अवश्य ही था क्योंकि उसकी खड़ी झण्डी ग्राहकों की मुसकान का कारण बनी हुई थी । ’सिर्फ़ आकार के कारण ही आ-कार हटा कर ’झण्डी’ कहा जा रहा है । वरना पुरुष दर्प तो हमेशा एक साम्राज्यवादी तेवर के साथ सोचता है , ’ विजयी विश्व तिरंगा प्यारा , झण्डा ऊँचा रहे हमारा’ ! बहरहाल , सरदारजी ने गल्ले से सिक्का निकाला। उनकी नजर उठी परन्तु लड़के की ’झण्डी” पर जा टिकी। उनके चेहरे पर गुस्से की शिकन खिंच गयी । उसने एक बार सरदारजी के गुस्से को देखा , फिर ग्राहकों की मुस्कान को और फिर खुद को – जितना आईने के बगैर देखा जा सकता है। और वह भी मुस्कुरा दिया । इस पर उसे कुछ और जोर से डाँट पड़ी और उसकी झण्डी लटक गई । ग्राहक अब हँस पड़े और लड़का भी हँस कर आगे बढ़ चला।
भीख देने से सरदारजी खुद को इज्जतदार समझते थे मगर उस दिन मानो उनकी तौहीन हो रही थी । लड़का अभी भी हँस रहा था और मेरा दोस्त भी । दोस्त ने मेरे हाथ से दोना ले लिया जिसमें दो जलेबियाँ बची थी और उसे दे दिया। सरदारजी से उस दिन भीख न पाने में भी उसे मजा आया ।

bindujain
05-01-2013, 07:13 PM
Corruption
पांडेयजी जो सीबीआई में भर्ती हुवे थे हमारी शहर मैं ट्रेनिंग पर आये हुए थे. मेरा पहेला पोस्टिंग था इसलिए शुरुवात की तनख्वाह पर घर ही चलता था. पांडेयजी प्रक्टिकल किस्म के ऑफिसर थे. उन्हों ने ट्रेनिंग के समय अपना लेना देना शुरू कर लिया था. मेरी मुलाकात उनसे तब हुई जब वह किसी घडी की दुकानदर से कुछ मांग रहे थे. उस १९७१ के जमाने में भारत में smuggled घड़ियों का आलम था. घडी के दुकानदार से मेरा परिचय था और उन्हों ने मेरा पांडेयजी से आगे परिचय करते हुए कहा "साहब पाण्डेय साब से कहें कि थोडा कम करें मैं इतना पैसा नहीं दे सकता. " पांडेयजी मान गए और मेरा उनसे परिचय और गहरा हो गया. वह अकेले थे इसलिए जब भी समय होता था वह घर आ जाते और हम भोजन साथ करते. महीने के अंत में पांडेयजी वापस जाने लगे. रात को हम,मतलब कि मैं,मेरी पत्नी और छोटी बेटी उन्हे बस स्टॉप पर बाय बाय करने के लिए गए. महीने का आखरी दिन था,सोचा पाण्डेय जी ने चाय आदि कि फरमाइश कर ली तो formality मैं हमे ही पैसे देने पड़ेंगे.जेब मैं दो रूपए के अलावा कुछ नहीं था. पर पांडेयजी जल्दी से बस मैं बैठने लगे पर जाते जाते उन्हों ने मेरी बेटी के हाथ १० रूपए का नोट रखा. हम ने कुछ आना कानी नहीं की. बस की पूँछ बत्ती अभी दिख ही रही थी कि हम ने बिटिया के हाथ से १० का नोट छीन लिया और ताबड़ तोड़ पान की दूकान पहुँच गए. दो coke ली और गट गट्टा गए. हमारी बेटी देखते रही. पता नहीं वह पांडेयजी का पैसा था या किसी smuggled घड़ियाँ बेचनेवाले का?

bindujain
05-01-2013, 07:17 PM
मरुस्थल के वासी

गरीबों की एक बस्ती में लोगों को संबोधित करते हुए मंत्रीजी ने कहा, “इस साल देश में भयानक सूखा पड़ा है। देशवासियों को भूख से बचाने के लिए जरूरी है कि हम सप्ताह में कम से कम एक बार उपवास रखें।”
मंत्री के सुझाव से लोगों ने तालियों से स्वागत किया।
“हम सब तो हफते में दो दिन भी भूखे रहने के लिए तैयार हैं। भीड़ में सबसे आगे खड़े व्यक्ति ने कहा।
मंत्रीजी उसकी बात सुनकर बहुत प्रभावित हुए और बोले, “जिस देश में आप जैसे भक्त लोग हों, वह देश कभी भी भूखा नहीं मर सकता।
मंत्रीजी चलने लगे जैसे बस्ती के लोगों के चेहरे प्रश्नचिह्न बन गए हों।
उन्होंने बड़ी उत्सुकता के साथ कहा, ‘अगर आपको कोई शंका हो तो दूर कर लो।’
थोड़ी झिझक के i'pkr एक बुजुर्ग बोला, ‘साब! हमें बाकी पाँच दिन का राशन कहाँ से मिलेगा ?’

bindujain
05-01-2013, 07:19 PM
संतू

प्रौढ़ उम्र का सीधा-सा संतू बेनाप बूट डाले पानी की बाल्टी उठा जब सीढ़ियाँ चढ़ने लगा तो मैंने उसे सचेत किया, "घ्यान से चढ़ना। सीढ़ियों में कई जगह से ईटें निकली हुई हैं। गिर न पड़ना।"
"चिंता न करो, जी! मैं तो पचास किलो आटे की बोरी उठाकर सीढ़ियाँ चढ़ते हुए भी नहीं गिरता।"
और सचमुच बड़ी-बड़ी दस बाल्टियाँ पानी ढोते हुए संतू का पैर एक बार भी नहीं फिसला।
दो रूपए का नोट और चाय का कप संतू को थमाते हुए पत्नी ने कहा, "तू रोज आकर पानी भर दिया कर।"
चाय की चुस्कियाँ लेते हुए संतू ने खुश होकर सोचा-"रोज बीस रुपए बन जाते हैं पानी के। कहते हैं अभी नहर में महीना और पानी नहीं आनेवाला। मौज हो गई अपनी तो !"
उसी दिन नहर में पानी आ गया और नल में भी।
अगले दिन सीढ़ियाँ चढ़कर जब संतू ने बाल्टी माँगी तो पत्नी ने कहा, "अब तो जरूरत नहीं। रात को ऊपर की टूँटी में भी पानी आ गया था।"
"नहर में पानी आ गया! " संतू ने आह भरी और लौटने के लिए सीढ़ियों पर कदम घसीटते लगा। कुछ क्षण बाद ही किसी के सीढ़ियों में गिरने की आवाज हुई। मैंने दौड़कर देखा, संतू आँगन में औधे मुँह पड़ा था। मैंने उसे उठाया। उसके माथे पर चोट लगी थी।
अपना माथा पकड़ते हुए संतू बोला, "कल बाल्टी उठाए तो गिरा नहीं, आज खाली हाथ गिर पड़ा।"

bindujain
05-01-2013, 07:21 PM
मकान

मकान को देखकर किराएदार बहुत खुश हो रहा था। उसने कभी सोचा भी न था कि इतना बढ़िया मकान किराए के लिए खाली मिल जाएगा। सब कुछ बढ़िया था-बेडरूम,ड्राइंगरूम,किचन। कहीं भी कोई कमी नहीं थी।
"हाँ जी, बिल्कुल पक्की। ऊपर पानी की टंकी भी है। आप जाकर देख आओ! "
किराएदार सीढ़ियाँ चढ़कर छत पर गया और कुछ देर बाद वापस आ गया। अब वह निराश था।
"अच्छा जी, आपको तकलीफ दी। मकान तो बहुत बढ़िया है, पर मैं यहाँ रह नहीं सकता।"
मकान-मालिक ने कहा, "आपको कोई वहम हो गया है। मकान में भूत नहीं है और न ही पुलिस-चौकी इसके आसपास है।"
किराएदार ने जब पीछे पलटकर नहीं देखा तो मकान-मालिक ने आगे बढ़कर उसका हाथ पकड़ लिया, "मकान तो चाहे आप किराए पर न लो, लेकिन यह तो बताओ कि इसमें कमी क्या है? लोग तो कहते हैं कि शहरों में मकानों का अकाल-सा पड़ गया है, पर यहाँ इतना बढ़िया मकान खाली पड़ा है।"
मकान-मालिक पूरे का पूरा प्रश्नचिह्न बनकर किराएदार के सामने खड़ा था।
किराएदार ने मकान-मालिक से अपना हाथ छुड़ाते हुए कहा, "आपको पता नहीं कि आपका मकान घर के योग्य नहीं है। इसके एक तरफ गुरूद्वारा है और दूसरी तरफ मंदिर !"

bindujain
05-01-2013, 07:22 PM
अपना-अपना दर्द

मिस्टर खन्ना अपनी पत्नी के साथ बैठे जनवरी की गुनगुनी धूप का आनंद ले रहे थे। छत पर पति-पत्नी दोनों अकेले थे, इसलिए मिसेज खन्ना ने अपनी टाँगों को धूप लगाने के लिए साड़ी को घुटनों तक ऊपर उठा लिया।
मिस्टर खन्ना की निगाह पत्नी की गोरी-गोरी पिंडलियों पर पड़ी तो वह बोले, "तुम्हारी पिंडलियों का मांस काफी नर्म हो गया है। कितनी सुंदर हुआ करती थीं ये! "
"अब तो घुटनों में भी दर्द रहने लगा है, कुछ इलाज करवाओ न! " मिसेज खन्ना ने अपने घुटनों को हाथ से दबाते हुए कहा।
"धूप में बैठकर तेल की मालिश किया करो, इससे तुम्हारी टाँगें और सुंदर हो जाएँगी।" पति ने निगाह कुछ और ऊपर उठाते हुए कहा, "तुम्हारे पेट की चमड़ी कितनी ढलक गई है! "
"अब तो पेट में गैस बनने लगी है। कई बार तो सीने में बहुत जलन होती है।" पत्नी ने डकार लेते हुए कहा।
"खाने-पीने में कुछ परहेज रखा करो और थोड़ी-बहुत कसरत किया करो। देखो न, तुम्हारा सीना कितना लटक गया है! "
पति की निगाह ऊपर उठती हुई पत्नी के चेहरे पर पहुँची, "तुम्हारे चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गई हैं, आँखों के नीचे काले धब्बे पड़ गए हैं।"
"हां जी, अब तो मेरी नज़र भी बहुत कमजोर हो गई है, पर तुम्हें मेरी कोई फिक्र नहीं है! " पत्नी ने शिकायत-भरे लहज़े में कहा।
"अजी फिक्र क्यों नहीं, मेरी जान ! मैं जल्दी ही किसी बड़े अस्पताल में ले जाऊँगा और तुम्हारी प्लास्टिक सर्जरी करवाऊँगा। फिर देखना तुम कितनी सुन्दर और जवान लगोगी।" कहकर मिस्टर खन्ना ने पत्नी को बाँहों में भर लिया।

bindujain
06-01-2013, 07:57 AM
स्वागत
-श्याम सुन्दर दीप्ति (डॉ.)
वह खाना खा, नाइट-सूट पहन, बैड पर जा बैठी। आदत के अनुसार, सोने से पहले पढ़ने के लिए किताब उठाई ही थी कि उसके मोबाइल-फोन पर एस.एम.एस की ट्यून बजी।
‘जिस तरह हम दिन भर इकट्ठे घूमे-फिरे, एक टेबल पर बैठ कर खाया। कितना मज़ा आया। इसी तरह एक ही बैड पर सोने में भी खुशी मिलती है। इंतज़ार कर रहा हूँ।’
उसने कुछ दिन पहले ही एक नई कंपनी में नौकरी शुरू की थी। एक सीनियर अफसर के साथ कंपनी के काम से दूसरे शहर में आई थी। दिन का काम निपटाकर वे एक होटल में ठहरे हुए थे।
‘ऐसा बेहूदा मैसेज! सीनियर की तरफ से। उसने पल भर सोचा– नहीं, नहीं, इसे हल्के में नहीं लेना चाहिए। बात अभी ही सँभालनी चाहिए। मैं एम.डी. से बात करती हूँ।’ उसे गुस्सा आ रहा था। इसी दौरान फिर मैसेज आया।
‘तुम शिकायत करने के बारे में सोच रही हो। तुम जिससे भी शिकायत करोगी, उसे भी यही इच्छा ज़ाहिर करनी है। तुम्हारे संपर्क में जो भी आएगा, वह ऐसा कहे बिना नहीं रह सकेगा। तुम चीज ही ऐसी हो।’
‘मैं चीज हूँ, एक वस्तु। मुझे लगता है, इसका किसी लड़की के साथ पाला नहीं पड़ा।’ उसका गुस्सा बढ़ता जा रहा था। एक बार फिर एस.एम.एस. आया।
‘देखो! जिन हाथों को छूने से खुशी मिलती है, उन हाथों से थप्पड़ भी पड़ जाए तो कोई बात नहीं। इंतज़ार कर रहा हूँ।’
इसकी हिम्मत देखो…‘इंतज़ार कर रहा हूँ’। फिर उसके मन में एक ख़्याल आया, अगर वह आ गया तो?…डरने की क्या बात है। उसने अपने आप को सहज करने की कोशिश की। यह एक अच्छा होटल है। ऐसे ही थोड़ा कुछ घट जाएगा।
वह ख़्यालों में डूबी थी कि बैल बजी। उसने सोचा, वेटर होगा। उसने चाय का आर्डर दे रखा था। दरवाजा खोला तो अफसर सामने था। वह अंदर आ गया। कल्पना ने भी कुछ न कहा।
वह बैड के आगे से घूमता हुआ, दूसरी तरफ बैड पर सिरहाने के सहारे बैठ गया।
“सर! आप कुर्सी पर बैठो, आराम से।” कल्पना ने सुझाया।
“यहाँ से टी.वी. ठीक दिखता है।” अफसर ने अपनी दलील दी।
“सर! अभी वेटर आएगा। अजीब सा लगता है।” कल्पना ने मन की बात रखी।
“नहीं, नहीं, कोई बात नहीं। ये सब मेरे जानकार हैं। बी कम्फर्टेबल।”
वेटर ने दरवाजा खटखटाया और ‘यैस’ कहने पर भीतर आ गया। वेटर ने चाय की ट्रे रखी और पूछा, “मैम! चाय बना दूँ?” और ‘हाँ’ सुनकर चाय बनाने लगा।
कल्पना ने फिर कहा, “सर ! आप इधर आ जाओ, चाय पीने के लिए। कुर्सी पर आराम से पी जाएगी।”
वह कुर्सी पर आने के लिए उठा। कल्पना भी उठी। वेटर ने चाय का कप ‘सर’ को पकड़ाने के लिए आगे किया ही था कि कल्पना ने खींच कर एक तमाचा अफसर के गाल पर मारते हुए कहा, “गैट आउट फ्राम माई रूम।”
और फिर एक पल रुककर बोली, “आपका ऐसा स्वागत मैं दरवाजे पर भी कर सकती थी। पर सोचा, इस होटल के सारे वेटर आपके जानकार हैं, उन्हें तो भी पता चलना चाहिए।”
इतना कहकर वह सहज होकर बैठ गई।

bindujain
06-01-2013, 07:58 AM
माँ का कमरा
- श्याम सुन्दर अग्रवाल
छोटे-से पुश्तैनी मकान में रह रही बुज़ुर्ग बसंती को दूर शहर में रहते बेटे का पत्र मिला- ‘माँ, मेरी तरक्की हो गई है। कंपनी की ओर से मुझे बहुत बड़ी कोठी मिली है, रहने को। अब तो तुम्हें मेरे पास शहर में आकर रहना ही होगा। यहाँ तुम्हें कोई तकलीफ नहीं होगी।
पड़ोसन रेशमा को पता चला तो वह बोली, “अरी रहने दे शहर जाने को। शहर में बहू-बेटे के पास रहकर बहुत दुर्गति होती है। वह बचनी गई थी न, अब पछता रही है, रोती है। नौकरों वाला कमरा दिया है, रहने को और नौकरानी की तरह ही रखते हैं। न वक्त से रोटी, न चाय। कुत्ते से भी बुरी जून है।”
अगले ही दिन बेटा कार लेकर आ गया। बेटे की ज़िद के आगे बसंती की एक न चली। ‘जो होगा देखा जावेगा’ की सोच के साथ बसंती अपने थोड़े-से सामान के साथ कार में बैठ गई।
लंबे सफर के बाद कार एक बड़ी कोठी के सामने जाकर रुकी।
“एक ज़रूरी काम है माँ, मुझे अभी जाना होगा।” कह, बेटा माँ को नौकर के हवाले कर गया। बहू पहले ही काम पर जा चुकी थी और बच्चे स्कूल।
बसंती कोठी देखने लगी। तीन कमरों में डबल-बैड लगे थे। एक कमरे में बहुत बढ़िया सोफा-सैट था। एक कमरा बहू-बेटे का होगा, दूसरा बच्चों का और तीसरा मेहमानों के लिए, उसने सोचा। पिछवाड़े में नौकरों के लिए बने कमरे भी वह देख आई। कमरे छोटे थे, पर ठीक थे। उसने सोचा, उसकी गुज़र हो जाएगी। बस बहू-बेटा और बच्चे प्यार से बोल लें और दो वक्त की रोटी मिल जाए। उसे और क्या चाहिए।
नौकर ने एक बार उसका सामान बरामदे के साथ वाले कमरे में टिका दिया। कमरा क्या था, स्वर्ग लगता था- डबल-बैड बिछा था, गुस्लखाना भी साथ था। टी.वी. भी पड़ा था और टेपरिकार्डर भी। दो कुर्सियां भी पड़ी थीं। बसंती सोचने लगी- काश! उसे भी कभी ऐसे कमरे में रहने का मौका मिलता। वह डरती-डरती बैड पर लेट गई। बहुत नर्म गद्दे थे। उसे एक लोककथा की नौकरानी की तरह नींद ही न आ जाए और बहू आकर उसे डांटे, सोचकर वह उठ खड़ी हुई।
शाम को जब बेटा घर आया तो बसंती बोली, “बेटा, मेरा सामान मेरे कमरे में रखवा देता.”
बेटा हैरान हुआ, “माँ, तेरा सामान तेरे कमरे में ही तो रखा है नौकर ने।”
बसंती आश्चर्यचकित रह गई, “मेरा कमरा! यह मेरा कमरा!! डबल-बैड वाला…!”
“हां माँ, जब दीदी आती है तो तेरे पास सोना ही पसंद करती है। और तेरे पोता-पोती भी सो जाया करेंगे तेरे साथ। तू टी.वी. देख, भजन सुन। कुछ और चाहिए तो बेझिझक बता देना।” उसे आलिंगन में ले बेटे ने कहा तो बसंती की आँखों में आँसू आ गए।

bindujain
06-01-2013, 08:04 AM
बीमार
सुभाष नीरव

“चलो, पढ़ो।”
तीन वर्षीय बच्ची किताब खोलकर पढ़ने लगी, “अ से अनाल... आ से आम...” एकाएक उसने पूछा, “पापा, ये अनाल क्या होता है ?”
“यह एक फल होता है, बेटे।” मैंने उसे समझाते हुए कहा, “इसमें लाल-लाल दाने होते हैं, मीठे-मीठे !”
“पापा, हम भी अनाल खायेंगे...” बच्ची पढ़ना छोड़कर जिद्द-सी करने लगी। मैंने उसे डपट दिया, “बैठकर पढ़ो। अनार बीमार लोग खाते हैं। तुम कोई बीमार हो ! चलो, अंग्रेजी की किताब पढ़ो। ए फॉर ऐप्पिल... ऐप्पिल माने...।”

सहसा, मुझे याद आया, दवा देने के बाद डॉक्टर ने सलाह दी थी– पत्नी को सेब दीजिए, सेब।
सेब !
और मैं मन ही मन पैसों का हिसाब लगाने लगा था। सब्जी भी खरीदनी थी। दवा लेने के बाद जो पैसे बचे थे, उसमें एक वक्त की सब्जी ही आ सकती थी। बहुत देर सोच-विचार के बाद, मैंने एक सेब तुलवा ही लिया था– पत्नी के लिए।
“बच्ची पढ़ रही थी, ए फॉर ऐप्पिल... ऐप्पिल माने सेब...”
“पापा, सेब भी बीमाल लोग खाते हैं ?... जैसे मम्मी ?...”
बच्ची के इस प्रश्न का जवाब मुझसे नहीं बन पड़ा। बस, बच्ची के चेहरे की ओर अपलक देखता रह गया था।
बच्ची ने किताब में बने सेब के लाल रंग के चित्र को हसरत-भरी नज़रों से देखते हुए पूछा, “मैं कब बीमाल होऊँगी, पापा ?”

bindujain
06-01-2013, 08:04 AM
आँगन की धूप
श्याम सुन्दर अग्रवाल

बारह बजे के लगभग घर के छोटे से आँगन में सूर्य की किरणों ने प्रवेश किया। धूप का दो फुट चौड़ा टुकड़ा जब चार फुट लंबा हो गया तो साठ वर्षीय मुन्नी देवी ने उसे अपनी खटिया पर बिछा लिया।
“अपनी खटिया थोड़ी परे सरका न, इन पौधों को भी थोड़ी धूप लगवा दूँ।” हाथों में गमला उठाए सम्पत लाल जी ने पत्नी से कहा।
धूप का टुकड़ा खटिया और गमलों में बँट गया।
दो-ढ़ाई घंटों तक खटिया और गमले धूप के टुकड़े के साथ-साथ सरकते रहे।
छुट्टियों में ननिहाल आए दस वर्षीय राहुल की समझ में नहीं आ रहा था कि उसके नानू गमलों को बार-बार उठाकर इधर-उधर क्यों कर रहे हैं। आखिर उसने इस बारे नानू से पूछ ही लिया।
सम्पत लाल जी बोले, “ बेटा, पौधों के फलने-फूलने के लिए धूप बहुत जरूरी है। धूप के बिना तो ये धीरे-धीरे सूख जाएँगे।”
कुछ देर सोचने के बाद राहुल बोला, “नानू! जब हमारे आँगन में ठीक-से धूप आती ही नहीं ,तो आपने ये पौधे लगाए ही क्यों?”
“जब पौधे लगाए थे तब तो बहुत धूप आती थी। वैसे भी हर घर में पौधे तो होने ही चाहिए।”
“पहले बहुत धूप कैसे आती थी?” राहुल हैरान था।
“बेटा, पहले हमारे घर के सभी ओर हमारे घर जैसे एक मंजिला मकान ही थे। फिर शहर से लोग आने लगे। उन्होंने एक-एक कर गरीब लोगों के कई घर खरीद लिए तथा हमारे एक ओर चार मंजिला इमारत बना ली। फिर ऐसे ही हमारे दूसरी ओर भी ऊँची इमारत बन गई।”
“और फिर पीछे की तरफ भी ऊँची बिल्डिंग बन गई, है ना?” राहुल ने अपनी बुद्धि का प्रयोग करते हुए कहा।
“हाँ… हमने अपना पुश्तैनी मकान उन्हें नहीं बेचा तो उन्होंने हमारे आँगन की धूप पर कब्जा कर लिया।” सम्पत लाल जी ने गहरी साँस लेते हुए कहा।
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bindujain
07-01-2013, 08:03 AM
जैसा अन्न वैसा मन
भोजन के परिवर्तन से भी स्वभाव बदल जाता है। एक कहानी है—एक साधु किसी एक घर में ठहरा हुआ था। वहां भोजन किया। कुछ ही समय पश्चात उसकी दृष्टि आलमारी में रखे हार पर पड़ी। उसके मन में हार को चुराने की भावना जाग उठी। उसने हार को चुराकर अपने पास रख लिया। और-इसके बाद ही विकृत विचार उसके मन में आने शुरू हो गए।
अचानक ही साधु को वमन हुआ।

जो भोजन उसने खाया था, वह सारा का सारा निकल गया। ज्यों ही साधु को भोजन का वमन हुआ, उसे भान हुआ कि उसने चोरी कर कितना बड़ा पाप कर डाला। तत्काल उसने हार को मूल स्थान पर रख दिया। अनुताप किया, पश्चाताप किया। भोजन उस चोरी का कारण बना। भोजन निकला और भाव बदल गया।


कहने का अर्थ यह कि भाव ही स्वभाव बनता है। मन में एक विचार उत्पन्न होता है। यही विचार जब रूढ़ होता जाता है, तब स्वभाव बन जाता है। इसीलिए प्रायश्चित की प्रक्रिया होती है कि जब कोई बुरा विचार आए तो तत्काल प्रायश्चित कर उसका शोधन कर डालो।

उसे मन से निकाल दो। यदि प्रायश्चित के द्वारा उसका शोधन नहीं किया, तो वह ग्रंथि बन जाएगी। जब तक वह ग्रंथि मन में बनी रहेगी, तब तक वह सताती रहेगी। बुरे भाव का शोधन करते रहें, ताकि वह स्वभाव न बन जाए। जब वह सघन हो जाता है, जम जाता है, तब प्रतिक्रिया शुरू कर देता है। इसलिए भाव को बदलने का बहुत अच्छा साधन है—प्रायश्चित्त। तत्काल उस भाव को मन से निकाल देना, जिससे कि वह ग्रंथि न बने।

bindujain
07-01-2013, 08:05 AM
बुद्धि की क्षमता
अकबर का दूत ईरान गया। शाह को अभिवादन कर बोला, "शाहनवाज! आप पूनम के चांद हैं और मेरे बादशाह दूज के चांद हैं।" ईरान का शाह बहुत प्रसन्न हुआ। अकबर का दूत अकेला नहीं था, साथ में और भी व्यक्ति थे। उन्हें चुगली करने का सूत्र मिल गया। सब पुन: हिन्दुस्तान आए। चुगलखोरों ने अकबर से कहा, "शहंशाह! आपके दूत ने ईरान के शाह को पूनम का चांद कहा और आपको दूज का चांद बतलाया। कितनी बड़ी तौहीन है!"

अकबर गुस्से में आ गया। अकबर का आवेश बढ़ा और उसने दूत को मृत्युदंड की सजा दे दी। दूत सामने आया। उसने पूछा, जहांपनाह! मुझ बेकसूर को मौत की सजा क्यों दी गई? अकबर ने कहा, "तूने मुझे नीचा दिखाया है। ईरान के शाह के समक्ष तूने मेरी इज्जत को मिट्टी में मिला दिया।" दूत में बुद्धि की क्षमता थी। उसने शांतभाव से कहा, "जहांपनाह! मैं समझता हूं कि आपको ठीक बताया नहीं गया।

जहांपनाह! मेरे कहने में बहुत बड़ा रहस्य था। मैंने शाह को पूनम का चांद बताया। आप जानते हैं, पूनम का चांद वहीं रूक जाता है, वह आगे बढ़ नहीं सकता। दूज का चांद सदा बढ़ता रहता है। ईरान का शाह पूनम का चांद बन गया। अब उसके और बढ़ने की गुंजाइश नहीं है।"अकबर दूत की युक्ति पर प्रसन्न हो उठा। उसका मृत्युदंड माफ कर उसे प्रचुर पुरस्कार से सम्मानित किया।

अर्थ यह कि जिस व्यक्ति में समता रहती है, वह कभी विषमता में नहीं जाता। समताशून्य व्यक्ति विषमताओं को पालता है।

bindujain
08-01-2013, 05:39 PM
छोटी कथा

एक बार किसी छोटे शहर में एक आगंतुक ने अनेक लोगों से वहां के नगर-प्रमुख के संबंध में पूछताछ की: ‘आपके महापौर कैसे आदमी है?’

पुरोहित ने कहा: ‘वह किसी काम का नहीं’

पेट्रोल-डिपो के मिस्*त्री ने कहा: ‘वह बिलकुल निकम्*मा है।’

नाई ने कहा: ‘मैंने अपने जीवन में उस दुष्*ट को कभी वोट नहीं दिया।’

तब वह आगंतुक खुद महापौर से मिला। जो की बहुत बदनाम व्*यक्*ति था।

उसने पूछा: ‘आपको अपने काम के लिए क्*या तनख्*खाह मिलती है?’

महापौर ने कहां: ‘भगवान का नाम लो। मैं इसके लिए कोई तनख्*खाह लूंगा। मैं तो बस सेवा भाव से यह पद सम्*हाल रखा है। इसे लोगे के प्रेम की खातिर स्*वीकार किया हुआ है।’

bindujain
08-01-2013, 05:46 PM
सृजनात्मकता ही प्रेम है, धर्म है[/size


[SIZE=3]एक महान सम्राट अपने घोड़े पर बैठ कर हर दिन सुबह शहर में घूमता था। यह सुंदर अनुभव था कि कैसे शहर विकसित हो रहा है, कैसे उसकी राजधानी अधिक से अधिक सुंदर हो रही है।

उसका सपना था कि उसे पृथ्वी की सबसे सुंदर जगह बनाया जाए। वह हमेशा अपने घोड़े को रोकता और एक बूढ़े व्यक्ति को देखता, वह एक सौ बीस साल का बूढ़ा रहा होगा जो बग़ीचे में काम करता रहता, बीज बोता, वृक्षों को पानी देता—ऐसे वृक्ष जिनको बड़ा होने में सैंकड़ो साल लगेंगे। ऐसे वृक्ष जो चार हजार साल जीते है।

उसे बड़ी हैरानी होती: यह आदमी आधा कब्र में जा चुका है; किनके लिए यह बीज बो रहा है? वह कभी भी इन पर आये फूल और फलों को नहीं देख पायेगा। इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। कि वह अपनी मेहनत का फल देख पायेगा।

एक दिन वह अपने आपको रोक नहीं पाया। वह घोड़े से उतरा और उस बूढ़े व्यक्ति के पास जाकर उससे पूछने लगा: मैं हर दिन यहां से गुजरता हूं, और एक प्रश्न मेरे दिमाग में रोज आता है, अब यह लगभग असंभव हो गया कि मैं आपके कार्य को क्षण भर के लिए बाधा पहूंचाऊंगा। मैं जानना चाहता हूं कि आप किनके लिए ये बीज बो रहे है, ये वृक्ष तब तैयार होंगे, युवा होंगे, जब आप यहां नहीं होंगे।

बूढे व्यक्ति ने सम्राट की तरफ देखा और हंसा। फिर बोला; ‘’यदि यही तर्क मेरे बापदादाओं का होता तो मैं फल और फूलों से भरे इस सुंदर बग़ीचे से महरूम रह गया होता। हम पीढ़ी दर पीढ़ी माली है—मेरे पिता और बापदादाओं ने बीज बोए, मैं फल खा रहा हूं, मेरे बच्*चों का क्*या होगा? मेरे बच्*चों के बच्*चों का क्*या होगा। यदि उनका भी विचार आप जैसा ही होता तो यहां कोई बग़ीचा नहीं होता। लोग दूर-दूर से इस बग़ीचे को देखने आते है क्*योंकि मेरे पास ऐसे वृक्ष है जो हजारों साल पुराने है। मैं बस वही कर रहा हूं जो मैं कृतज्ञता से कर सकता हूं।

‘’और जहां तक बात बीज बोने की है……जब बसंत आता है, हर पत्*ते को उगते देख कर मुझे इतना आनंद आता है कि मैं भूल ही जाता हूं कि मैं कितना बूढ़ा हूं। मैं उतना ही युवा हूं जितना कभी था। मैं युवा बना रहा क्*योंकि मैं सतत सृजनात्*मक बना रहा हूं। मैं उतना ही युवा हूं जितना कभी था। शायद इस लिए मैं इतना लंबा जीया, और मैं अब भी युवा हूं, ऐसा लगता है कि मृत्यु मेरे प्रति करणावान है क्योंकि मैं अस्तित्व के साथ चल रहा हूं। असतीत्व को मेरी कमी खुलेगी; अस्तित्व किसी दूसरे को मेरे स्थान पर नहीं ला पाएगा। शायद इसीलिए मैं अब भी जिंदा हूं। लेकिन आप युवा है और आप ऐसे प्रश्न पूछ रहे है जैसे कि कोई मर रहा हो। कारण यह है कि आप सृजनात्मक है।‘’

जीवन को प्रेम का एकमात्र ढंग है कि और अधिक जीवन का सृजन का सृजन करो, जीवन को और सुंदर बनाओ अधिक फलदार अधिक रसपूर्ण1 इसके पहले इस पृथ्वी को मत छोड़ो जब तक कि तुम इसे थोड़ा अधिक सुंदर न बना दो, जैसा इसे तुमने अपने जन्म के समय देखा था—यही एकमात्र धर्म है जो मैं जानता हूं। बाकी सारे धर्म नकली है।

मैं तुम्हें सृजनात्मकता का धर्म सिखाता हूं। और अधिक जीवन के सृजन करने से तुम रूपांतरित होओगे क्योंकि जो जीवन का निर्माण कर सकता है वह पहले ही परमात्मा का, भगवान का हिस्सा हो गया।

ओशो

bindujain
10-01-2013, 09:07 PM
न देने वाला मन

एक भिखारी सुबह-सुबह भीख मांगने निकला। चलते समय उसने अपनी झोली में जौ के मुट्ठी भर दाने डाल लिए। टोटके या अंधविश्वास के कारण भिक्षाटन के लिए निकलते समय भिखारी अपनी झोली खाली नहीं रखते। थैली देख कर दूसरों को लगता है कि इसे पहले से किसी ने दे रखा है। पूर्णिमा का दिन था, भिखारी सोच रहा था कि आज ईश्वर की कृपा होगी तो मेरी यह झोली शाम से पहले ही भर जाएगी।

अचानक सामने से राजपथ पर उसी देश के राजा की सवारी आती दिखाई दी। भिखारी खुश हो गया। उसने सोचा, राजा के दर्शन और उनसे मिलने वाले दान से सारे दरिद्र दूर हो जाएंगे, जीवन संवर जाएगा। जैसे-जैसे राजा की सवारी निकट आती गई, भिखारी की कल्पना और उत्तेजना भी बढ़ती गई। जैसे ही राजा का रथ भिखारी के निकट आया, राजा ने अपना रथ रुकवाया, उतर कर उसके निकट पहुंचे। भिखारी की तो मानो सांसें ही रुकने लगीं। लेकिन राजा ने उसे कुछ देने के बदले उलटे अपनी बहुमूल्य चादर उसके सामने फैला दी और भीख की याचना करने लगे। भिखारी को समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे। अभी वह सोच ही रहा था कि राजा ने पुन: याचना की। भिखारी ने अपनी झोली में हाथ डाला, मगर हमेशा दूसरों से लेने वाला मन देने को राजी नहीं हो रहा था। जैसे-तैसे कर उसने दो दाने जौ के निकाले और उन्हें राजा की चादर पर डाल दिया। उस दिन भिखारी को रोज से अधिक भीख मिली, मगर वे दो दाने देने का मलाल उसे सारे दिन रहा। शाम को जब उसने झोली पलटी तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही। जो जौ वह ले गया था, उसके दो दाने सोने के हो गए थे। उसे समझ में आया कि यह दान की ही महिमा के कारण हुआ है। वह पछताया कि काश! उस समय राजा को और अधिक जौ दी होती, लेकिन नहीं दे सका, क्योंकि देने की आदत जो नहीं थी।

bindujain
10-01-2013, 09:09 PM
दुनियां के सबसे सुन्दर बच्*चे
एक बार एक मादा उल्लू के अहसान का बदला चुकाने के लिए एक गरुड ने उससे वायदा किया कि वह उस उल्लू के बच्*चों को कभी नुकसान नही पहुँचाएगा । पर तुम मेरे बच्*चों को कैसे पहचानोगे? मादा उल्लू ने बडी उत्सुकता से पूछा, यह कैसे पता चले कि तुम उन्हे किसी अन्य चिडिया के बच्*चे नही समझ लोगे?

ऐसा करो कि तुम खुद ही बता दो वे कैसे दिखते हैं, गरुड ने पूछा?

वास्तव मे वे किसी अन्य चिडिया के बच्*चे जैसे नही है, मादा उल्लू ने गर्व से सीना फुला कर कहा। वे नरम है, गुदगुदे हैं और दुनियां के सब से सुन्दर बच्*चे हैं। इतने सुन्दर बच्*चे तुम ने कभी नही देखे होगे।

एक शाम गरुड को एक ऐसा घोंसला मिला जिसमे चिडिया के कुछ बच्*चे चिल्ला रहे थे। उन के लाल मुँह खुले हुए थे। वह रुका और थोडी देर विचार करने के बाद वह खुद से बोला " ज़ाहिर है यह तो उस उल्लू के बच्*चे नही हो सकते क्योकि मादा उल्लू ने तो कहा था कि उस के बच्*चे बेहद खुबसुरत हैं और यह बच्*चे तो बहुत बद्सूरत है" उस के बाद बिना कुछ सोचे वह उन बच्*चों पर टूट पडा और सब को खा गया। वहां सबकुछ खून सने पंख पडे थे।

गरुड अपना वादा कैसे भूल गया? वह रोते-रोते बोली। मैने तो उसे बता दिया था कि मेरे बच्*चे सब से सुन्दर है।

सबक; हर माँ यही समझती है कि उस के बच्*चे सब से सुन्दर व अच्छे हैं ।

bindujain
10-01-2013, 09:09 PM
रीछ फिर धोखा खा गया
भारी कर्ज़ के बोज के नीचे दबा एक दरिद्र आदमे, लेनदेन के रोज़ रोज़ के गालियों और धक्*के मुक्कों से तंग आ कर जंगल मे भाग गया। वह जंगल मे एक पेड के नीचे लेटा हुआ, अपनी इस नरकीय ज़िंदगी के बारे मे सोचते हुए अपने आप मे इतना खोया हुआ था कि उसे ध्यान ही नही रहा कि कब एक रीछ उसके सिर पर पहुँच गया। अचानक सिर पर आए खतरे को भांप कर उस ने तुरन्त अपनी सांस रोक ली। जब रीछ ने देखा कि वह आदमी सांस नही ली रहा है, तो उसने अपने नाखूनो व दातों से उसके शरीर को बुरी तरह नोचना शुरु कर दिया किया क्योकि उस रीछ ने सुन रखा था कि किसी जमाने मे एक आदमी ने सांस रोक लेने से कोई रीछ धोखा खा गया था। बुरी तरह चमडी उतर जाने के बाद भी वह ट्स से मस नही हुआ तो रीछ, उसे वास्तव मे मरा हुआ समझ कर वहां से चला गया । कुछ दुर जाने के बाद न जाने रीछ के मन मे क्या आया, उस ने पिछे मुड कर देखा तो वह हैरान रह गया। वह आदमी उठ कर पेड पर चढ रहा था ।
रीछ तुरन्त पेड के पास लौट आया और पेड पर चढे उस आदमी से वोला, हे मानव! जरा सा कांटा लगने पर, हाड मांस का बना हर प्राणी तिलमिला उठता है। मैने तो तेरी सारी चमडी उधेड दी पर तुझे दर्द क्यों नही हुआ?
हे जंगल मे निवास करने वाले रीछ, तू क्या जाने? मैने इस सभ्य समाज मे, गरीबी व भुखमरी का जो दर्द सहन किया है, साहूकारो की जो प्रताडना सहन की है, उसके मुकाबले तो यह दर्द कुछ भी नही । वह अपने धावो की ओर इशारा करते हुए बोला। जिसमे से उस समय टप टप लहू बह रहा था ।

bindujain
10-01-2013, 09:10 PM
प्रेम दो-प्रेम लो

एक अध्यापक के कौतुहल वश एक परिक्षण किया। उन्होने विधार्थियो से कहा: "आप सब उन सहपाठियों के नाम लिख दें जिन्हे आप नापसंद करते हैं, जो आप को अच्छे नही लगते। फिर पेपर बंद कर मुझे दे दें। मै यह पेपर किसी को नही दिखाऊंगा। सिर्फ मै ही उन नामों को देखूंगा।"

सारे कागज़ अध्यापक के पास आ गए। उन्होने उनका निरिक्षण किया। सभी छात्र छात्राओ ने अपने नापसंद के कई नाम लिखे हुए थे अपने हस्तक्षर सहित । सिर्फ एक ही छात्र था जिस ने लिखा थ कि:-

" मुझे कोई भी नापसंद नही है। सभी मुझे अच्छे लगते है, सभी मेरे मित्र हैं"

अध्यापक को यह जानकर आश्*चर्य-मिश्रित प्रसन्नता हुई कि सभी छात्र छात्राओं के नाम एक दुसरे की पसंद नापसंद की सूची मे आ गये थे, परन्तु उस छात्र का नाम किसी ने भी नही लिखा था, जिसने सब के प्रति प्रेम व मित्रता का भाव रखा था।

rajnish manga
10-01-2013, 09:31 PM
प्रेम दो-प्रेम लो

" मुझे कोई भी नापसंद नही है। सभी मुझे अच्छे लगते है, सभी मेरे मित्र हैं" अध्यापक को यह जानकर आश्*चर्य-मिश्रित प्रसन्नता हुई कि सभी छात्र छात्राओं के नाम एक दुसरे की पसंद नापसंद की सूची मे आ गये थे, परन्तु उस छात्र का नाम किसी ने भी नही लिखा था, जिसने सब के प्रति प्रेम व मित्रता का भाव रखा था।

:bravo:

आपने एक बहुत सुन्दर और कल्याणकारी सूत्र का सृजन किया है, बिन्दु जी. वैसे तो सभी प्रसंग / कथाएं अच्छी हैं किन्तु मुझे 'प्रेम दो प्रेम लो' अब तक की सर्वोत्तम कथा लगी. धन्यवाद.

bindujain
13-01-2013, 05:05 AM
जीवन की सार्थकता

एक अत्तारकी दूकानमें गुलाबके फूल घोटे जा रहे थे। किसी सहृदयने पूछा-‘‘आप लोग उद्यान में फले-फूले, फिर आपने ऐसा कौन-सा अपराध किया, जिसके कारण आपको ऐसी असह्य वेदना उठानी पड़ रही है ?’’
कुछ फूलों ने उत्तर दिया-‘‘शुभेच्छु, हमारा सबसे बड़ा अपराध यही है कि हम एकदम हँस पड़े, दुनिया से हमारा यह हँसना न देखा गया। वह दुखियों को देखकर समवेदना प्रकट करती है, दया का भाव रखती है, परन्तु सुखियोंको देख ईर्ष्या करती है, उन्हें मिटाने को तत्पर रहती है। यही दुनिया का स्वभाव है।’’
बाकी फूलोंने उत्तर दिया-‘‘किसी के लिए मर मिटना, यही तो जीवनकी सार्थकता है।’’
फूल पिस रहे थे, पर परोपकारकी महक उनमें-से जीवित हो रही थी। सहृदय मनुष्य चुपचाप ईर्ष्यालु और स्वार्थी संसार की ओर देख रहा था।

bindujain
13-01-2013, 05:07 AM
दिलमें खोट

एक मार्ग चलती हुई बुढ़िया जब काफ़ी थक चुकी तो पाससे जाते हुए एक घुड़सवारसे दीनतापूर्वक बोली-
‘‘भैया, मेरी यह गठरी अपने घोड़ेपर रख ले और जो उस चौराहे पर प्याऊ मिले, वहाँ दे देना। तेरा बेटा जीता रहे, मैं बहुत थक गई हूँ। मुझसे अब यह उठाई नहीं जाती।’’
घुड़सवार ऐंठकर बोला-‘‘हम क्या तेरे बाबा के नौकर हैं, जो तेरा सामान लादते फिरें ?’’ और यह कहकर वह घोड़ेको ले आगे बढ़ गया। बुढ़िया बेचारी धीरे-धीरे चलने लगी। आगे बढ़कर घुड़सवार को ध्यान आया कि गठरी छोड़कर बड़ी ग़लती की। गठरी उस बुढ़िया से लेकर प्याऊवाले को न दे यदि मैं आगे चलता बनता, तो कौन क्या कर सकता था ? यह ध्यान आते ही वह घोड़ा दौड़ाकर फिर बुढ़ियाके पास आया और बड़े मधुर वचनोंमें बोला-
‘‘ला बुढ़िया माई, तेरी यह गठरी ले चलूँ, मेरा इसमें क्या बिगड़ता है, प्याऊपर देता जाऊँगा।’’
बुढ़िया बोली-‘‘नहीं बेटा, वह बात तो हो गई, जो तेरे दिल में कह गया है वही मेरे कानमें कह गया है। जा अपना रास्ता नाप ! मैं तो धीरे-धीरे पहुँच ही जाऊँगी।’’
घुड़सवार मनोरथ पूरा न होता देख अपना-सा मुँह लेकर चलता बना।

bindujain
13-01-2013, 05:07 AM
क्या सोचें ?

एक ध्यानाभ्यासी शिष्य ध्यान-मग्न थे कि सीकारेकी-सी आवाज़ करते हुए ध्यानसे विचलित हो गये। पास ही गुरुदेव बैठे थे, पूछा-‘‘वत्स ! क्या हुआ ?’’
शिष्य ने कहा-‘‘गुरुदेव ! आज ध्यानमें दाल-बाटी बनाने का उपक्रम किया था। आपके चरणकमलों के प्रतापसे ध्यान ऐसा अच्छा जमा कि यह ध्यान ही न रहा कि यह सब मन की कल्पनामात्र है। मैं अपने ध्यान में मानो सचमुच ही दाल-बाटी बना रहा था कि मिर्चें कुछ तेज़ हो गई और खाते ही सीकारा जो भरा तो ध्यान भंग हो गया। ऐसा उत्तम ध्यान आज-तक कभी न जमा था, गुरुदेव ! मुझे वरदान दें कि मैं इससे भी कहीं अधिक ध्यान-मग्न हो सकूँ।’’
गुरुदेव मुसकराकर बोले-‘‘वत्स ! प्रथम तो ध्यान में-परमात्मा, मोक्ष, सम्यक्त्व, आत्म-हितका चिन्तन करना चाहिए था, जिससे अपना वास्तव में कल्याण होता, ध्यान का मुख्य उद्देश्य प्राप्त होता और यदि पूर्व-संचित संस्कारों के कारण सांसारिक मोह-मायाका लोभ संवरण नहीं हो पाया है तो ध्यान में खीर, हलुवा, लड्डू, पेड़ा आदि बनाये होते, जिससे इस वेदना के बजाय कुछ तो स्वाद प्राप्त हुआ होता। वस्त ! स्मरण रक्खो, हमारा जीवन, हमारा मस्तिष्क सब सीमित हैं। जीवन में और मस्तिष्क में ऐसे उत्तम पदार्थोंका संचय करो जो अपने लिए ज्ञान-वर्द्धक एवं लाभप्रद हों। व्यर्थ की वस्तुओं का संग्रह न करो, ताकि फिर हितकारी चीज़ों के लिए स्थान ही न रहें।’’

bindujain
13-01-2013, 05:08 AM
राणा प्रताप का भाट

जब वीर-केसरी राणा प्रताप जंगलों और पर्वत-कन्दराओं में भटकते फिरते थे, तब उनका एक भाट पेट की ज्वाला से तंग आकर शहंशाह अकबर के दरबार में पहुँचा और सिर की पगड़ी बगल में छिपाकर फ़र्शी सलाम झुका लाया। अकबर ने भाट की यह उद्दण्डता देखी तो तमतमा उठा और रोष भरे स्वर में बोला-
‘‘पगड़ी उतारकर मुजरा देना, जानता है कितना बड़ा अपराध है ?’’
भाट अत्यन्त दीनता-पूर्वक बोला-‘‘अन्नदाता ! जानता तो सब कुछ हूँ; मगर क्या करूँ, मजबूर हूँ। यह पगड़ी हिन्दूकुल-भूषण राणा प्रतापकी दी हुई है। जब वे आपके सामने न झुके, तब उनकी दी हुई यह पगड़ी कैसे झुका सकता था ? मेरा क्या है, मैं ठहरा पेट का कुत्ता, जहाँ भी पेट भरने की आशा देखी, वहीं मान-अपमान की चिन्ता न करके पहुँच गया। मगर जहाँ-पनाह....’’
अकबर ने सोचा-‘‘वह प्रताप कितना महान है, जिसके भाट तक शत्रुके शरणागत होने पर भी उसके स्वाभिमान और मर्यादा को अक्षुण्ण रखते हैं।’’

bindujain
13-01-2013, 05:09 AM
शत्रुपर विजय

किसी पुस्तक में पढ़ा था, कि अमुक देश की जेल में एक क़ैदी, जेलर के प्रति विद्रोह की भावना रखने लगा। वह जेलर के नाक-कान काटने की तजवीज़ सोच रहा था कि जेलर ने उसे बुलाया और कमरा बन्द करके उससे अपनी हजामत बनवानी शुरू करदी। हजामत बनवा चुकने पर जेलर ने कहा-
‘‘कमरा बन्द है, ऐसे मौक़ेपर तुम मेरे नाक-कान काटनेवाली अभिलाषा भी पूरी कर लो। मैं क़सम खाता हूँ कि यह बात किसी से न कहूँगा।’’
जेलर और भी कुछ शायद कहता मगर उसकी गर्दन पर टप-टप गिरने-वाले आँसुओं ने उसे चौंका दिया। वह क़ैदी का हाथ अपने हाथों में लेकर अत्यन्त स्नेहभरे स्वर में बोला-
‘‘क्यों भाई ! क्या मेरी बात से तुम्हारे कोमल हृदय को आघात पहुँचा ? मुझे माफ़ करो, मैंने ग़लती से तु्म्हें तकलीफ पहुँचाई।’’
अभागा क़ैदी सुबक-सुबक कर जेलर के पाँवों में पड़ा रो रहा था, जेलर के प्रेम, विश्वास और क्षमाभाव के आगे उसकी विद्रोहाग्नि बुझ चुकी थी। वह आँखों की राह अपने हृदय की वेदना व्यक्त कर रहा था।

bindujain
13-01-2013, 05:10 AM
त्यागी

साहूकार की माता ने कहा-‘‘बेटा ! तुम लाखों रुपये का लेन-देन करते हो, पर मैंने आजतक एक लाख रुपया एक स्थान पर रक्खा हुआ नहीं देखा। एक लाख रुपया चुनकर रखने से कितना लम्बा-चौड़ा, ऊँचा चबूतरा बनता है यह मैं उस चबूतरे पर बैठकर देखना चाहती हूँ।’’
एक लाख रुपये का चबूतरा बना और उस पर वे बैंठी। माता जिस रुपये पर बैठी है वह तो दान करना ही चाहिए यही सोचकर एक ब्राह्मण को बुलाया गया। दान देते हुए सेठ को तनिक अभिमान छू गया। बोला-
‘‘पण्डित जी, दातार तो बहुत मिले होंगे, लेकिन ऐसा दातार न मिला होगा।’’
पण्डितजी दान लेने अवश्य गये थे, परन्तु भिक्षुक-मनोवृत्ति के नहीं थे। उनका स्वाभिमान जाग उठा और जेब से एक रुपया निकालकर लाख रुपये के चबूतरे पर डालकर बोले-
‘‘तुम्हारे जैसे दातार तो बहुत मिल जाएँगे, पर मेरे जैसे त्यागी बिरले ही होंगे, जो एक लाख को ठोकर मारकर कुछ अपनी ओर से मिलाकर चल देते हैं।’’

bindujain
13-01-2013, 05:10 AM
पर्दे में पाप

एक प्रेमी-प्रेमीका आजीवन ब्रह्मचर्य्यपूर्वक जीवन व्यतीत करने की अभिलाषा रखते थे। रोज़ाना एक साथ रहते, खाते-पीते, सोते-बैठते, हँसते-खेलते, पर क्या मजाल जो मन में विकार आता। इसी तरह सानन्द निर्विकार प्रेममय जीवन व्यतीत हो रहा था कि एक रोज़ कामदेव के अन्धड़ ने प्रेमी का चित्त चलायमान कर दिया। मन के किसी कोने में छिपा हुआ पाप मुँह पर आ गया। प्रेमिका ने प्रेमी को भूल सुझाई, पर वह न माना। रतिगृह में जाने से पूर्व मकान के नीचे बहती हुई नदी पर स्नान करने गया तो देखा एक मनुष्य ढोल लिये दीवार के सहारे खड़ा है। पूछने पर ढोल वाले ने बतलाया-
‘‘आज प्रसिद्ध शीलवान प्रेमियों के सत डिगेंगे, इसलिए डोंडी पीटने को खड़ा हुआ हूँ।’’
प्रेमी ने स्नान किया और मकान में आकर सदैव की भाँति चुपचाप सो गया। सुबह उठकर देखा तो ढोलवाला चला जा रहा था। दर्याफ्त करने पर कहा-
‘‘अब सत नहीं डिगेगा इसीलिए जा रहा हूँ।’’
तब प्रेमिका ने मुसराकर कहा-‘‘देखा ! सात पर्दों में सोचा हुआ पाप भी तालाब की काई के समान जनता के समझ आ जाता है।’’

bindujain
13-01-2013, 05:11 AM
फ़िक्र बुरी, फ़ाक़ा भला

सुनते हैं एक मस्त फ़क़ीर ने किसी बादशाह के हाथी की पूँछ इतने ज़ोर से पकड़ ली कि वह एक क़दम भी आगे न रख सका। इस घटना की सूचना बादशाह को दी गई तो उसे भी ऐसा दिलेर आदमी देखने की अभिलाषा हुई। फ़क़ीर को देखने पर बादशाह उसकी ताक़त का सबब समझ गया। उसने किसी तरह अपनी मस्जिद में बिना नाग़ा रोजाना चिराग़ जलाने के लिए उस अलमस्त फ़क़ीर को राज़ी कर लिया। चिराग़ जलाने के उपलक्ष में शाही भोजनालय से तर-ब-तर सुस्वादु भोजन फ़क़ीर को मिलने लगा।
एक माह के बाद हाथी रोकने का अवसर दिया गया तो वह पूँछ के साथ घिसटता चला गया। बादशाह ने फ़क़ीर का यह हाल देखा तो मुसकरा कर पूछा-‘‘साईं ! जब रूखा-सूखा खाते थे और फ़ाक़े करते थे, तब तो हाथी रोक सके और अब शाही बावर्ची खाने से बेशक़ीमती ताक़तवर ग़िज़ा खाने पर भी न रोक सके, बड़े ताज्जुब की बात है !’’
‘‘शाहे आलम ! इसमें ताज्जुब की क्या बात है ? जब अक्सर फ़ाक़े होते थे, लेकिन फ़िक्र पास भी न भटकती थी। अब तर निवाले मिलते हैं, मगर रोज़ाना चिराग़ जलाने की पाबन्दी की चिन्ता ने मेरे शरीर में घुन लगा दिया है।’’

bindujain
13-01-2013, 05:12 AM
सेवा-धर्म

एक बार एक परोपकारी बन्धु के पास रात्रि के समय एक देव आया और नोटबुक दिखाकर बोला- ‘‘मैं इसमें उन महानुभावों के नाम लिख रहा हूँ जो शुद्ध हृदय से ईश्वर की सेवा करते हैं। कहिये इसमें आपका नाम लिखूँ या नहीं।’’ परोपकारी बन्धु ने नम्रतापूर्वक कहा- क्षमा कीजिये महाशय, मेरा नाम इस डायरी में न लिखें। मैं तो ईश्वर के बन्दों की सेवा करता हूँ, यदि मनुष्य-सेवकों की कोई डायरी आपके पास हो, तब सहर्ष उसमें मेरा नाम लिख सकते हैं, क्योंकि-
खुदाके बन्दे तो हैं हजारों बनों में फिरते हैं मारे-मारे।
मैं उनका बन्दा बनूँगा जिनको खुदा के बन्दों से प्यार होगा।।

सुबह उठकर देखा तो सर्वप्रथम स्वर्णाक्षरों में उसी का नाम डायरी में अंकित था।

bindujain
13-01-2013, 05:13 AM
सन्तोषी

नव वर्ष की खुशी में समस्त क्लर्कों को वेतन बढ़ाये जाने की बात कहकर और उनसे बदले में खूब धन्यवाद प्राप्त करके साहब ने यह मंगल-सूचना जब एक साधारण कर्मचारी को दी, तब वह अत्यन्त नम्र और वीतराग भाव से बोला-
‘‘श्रीमान् की मुझ पर अत्यन्त कृपा है, पर वेतन न बढ़ायें तो बड़ी दया होगी। वेतन बढ़ते ही खर्च भी बढ़ जाएगा। जैसे-तैसे निराकुलता-पूर्वक जो जीवन व्यतीत हो रहा है, उसमें एक भूचाल आजाएगा।’’
धन्यवाद का इच्छुक आफ़िसर जो हजारों रुपया पाने पर भी तृष्णा की वैतरणी नदी में बहा जा रहा था, तिनके का सहारा पाकर सजग हो उठा।

bindujain
13-01-2013, 08:26 AM
♣ हुस्न और नसीब ♣
एक हसीन लड़की राजा (जो की बहुत ही बदसूरत था ) के दरबार में नृत्य कर रही थी !
राज की बदसूरती को देखकर राजा से, एक सवाल की इजाजत मांगी, राजा ने कहा पूछो !
लड़की ने डरते हुए कहा की - "जब खुदा हुस्न बाट रहा था तो आप कहा थे ?"
राजा ने गुस्सा नहीं किया, बल्कि मुस्कुराते हुए कहा - "जब तुम हुस्न की लाइन में खड़ीं हुश्न ले रही थी,
तो मैं किस्मत की लाइन में खड़ा किस्मत ले रहा था और आज तुझ जैसी हुस्नवालियाँ मेरी गुलाम हैं !"
इसीलिए किसी शायर ने कहा है की --
"हुस्न" ना मांग "नसीब" मांग ऐ दोस्त
"हुस्न" वाले अक्सर नसीब वालों के गुलाम हुआ करते हैं !

bindujain
13-01-2013, 08:27 AM
♣ स्वतंत्र अस्तित्व ♣
बूंद जब समुंद्र के अथाह जल में घुलने लगी तो उसने समुंद्र से कहा "अपना अस्तित्व समाप्त करना मेरे लिए संभव न होगा . मै अपनी सता खोना नहीं चाहती ." इसपर समुंद्र ने उसे समझाया . " तुम्हारे जैसी असंख्य बूंदों का समन्वय मात्र मै ही तो हूँ .तुम अपने भाई बहनों के साथ ही तो घुलमिल रही हो, उसमें तुम्हारी सत्ता कम कहाँ हुई, वह तो और भी ज्यादा बढ़ गई " बूंद को संतोष न हुआ . वह पृथक सत्ता बनाए रखने का आग्रह करती रही .सूर्य के गर्मी से वह बूंद भाफ बनकर बादलों में पहुंची और बरस कर फिर बूंद बन गई . बहती हुई फिर समुंद्र के पास पहुंची तो समुंद्र ने हँसते हुए कहा "पृथक सत्ता अपना कर भी तुम अपने स्वतंत्र अस्तित्व की रक्षा कहां कर सकी . अपने उद्गम को समझो, तुम समष्टि से उत्पन्न हुई थी और उसी की गोद में तुम्हे चैन मिलेगा "

ठीक इसी तरह पेड से अलग होकर टहनी का कोई अस्तित्व नहीं रह जाता, हाथ और पैर शरीर से अलग होकर अपना वजूद कायम नहीं रख सकते तथा शरीर भी अपंग हो जाता है . सभी एक दुसरे के पूरक है . समाज का कोई भी वर्ग समाज से अलग रहकर अपना अस्तित्व कायम नहीं रख सकता और ये समाज भी उसके विना समाज नहीं रह जाएगा !
हम इसे समझ नहीं पा रहे है और बूंद की तरह ही अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रखने के चक्कर में अपना अस्तित्व, समाज की गरिमा, देश की एकता और अखंडता को नष्ट कर रहे है !

bindujain
14-01-2013, 08:39 AM
त्रिगुणातीत


एक बार जंगल में सफर करते हुए एक धनी सेठ को तीन चोरों ने पिटाई कर के लूट लिया।
पहला चोर बोला ''अरे भाई अब इस सेठ के पास बचा ही क्या है क्यों न इसे भी खतम कर दें ताकि यह पुलिस में खबर ना कर सके।'' बस ऐसा कहते ही उसने छुरा निकाला और सेठ को मारने ही वाला था कि दूसरा चोर बोला ''रूक, हमें अपना धन मिल गया है, अब इसे मारने से और क्या लाभ होगा? ने की बात है तो हम इसे रस्सी से अच्छी तरह बांध देते हैं ताकि यह पुलिस में खबर न कर सके और हम भाग सकें। यह कह कर दूसरे ने सेठ को एक वृक्ष के साथ बांध दिया और तीनो चोर वहां से चल दिये।
कुछ देर पश्चात तीसरे चोर का मन बेचैन हो उठा। वह सोचने लगा ''बेचारा सेठ कोई मदद ना मिली तो भूख-प्यास से मारा जायेगा या फिर हिंसक पशु उसे खा जायेगे। मुझे उसे छोड देना चाहिये।'' यह सोच कर तीसरा चोर वापस लौटा और उसने सेठ की रस्सी खोल दी। चोर सेठ के साथ महामार्ग तक गया और फिर सेठ को रास्ता दर्शाते कहने लगा ''ओ सेठ इस मार्ग से आप आगे प्रस्थान कीजिये। आपका गांव आ जाएगा।''
सेठ को इस व्यवहार से आश्चर्य तो हुआ फ़िरभी उसने इस चोर का धन्यवाद करते हुए उसे अपने घर चलने और खाने का निमंत्रण दिया। लेकिन तीसरे चोर ने प्रस्ताव को नामंजूर करते हुए कहा ''नहीं, मैं वहां नहीं आ सकता। पुलिस मुझे पकड लेगी।मैने रास्ता बता दिया है अब आप खुद ही वहां पहुंच जाइये।'' ऐसा कहकर वह चोर अपने अन्य साथियों से मिलने वापस लौट पडा।
इस कथा का पहला चोर है तमोगुण जो सर्वनाश का कारण होता है। तमोगुण से आलस्य, प्रमाद और निस्तेजता आती है और बुध्दि भ्रष्ट हो जाती है। तमोगुणी मनुष्य का पतन निश्चित है।
दुसरा चोर है रजोगुण। यह बांधता है। कार्य करने की प्रवृत्ति तो यह कराता है लेकिन विवेक का इसमें अभाव होता है जिससे मनुष्य अच्छे और बुरे कार्य में फरक नहीं कर पाता और संसार से बंध जाता है। गीता में श्रीकृष्ण ने रजोगुण के मोहमाया से बचने का उपाय सुझाया है।वे कहते हैं कि मनुष्य कार्य अवश्य करे लेकिन कर्मयोग के अनुसार निस्वार्थ भाव से पूजा समझ कर और फल की आशा न रखकर किया हुआ कार्य ही उत्तम कार्य है। ऐसा कर्म मनुष्य को संसार सागर में डुबोता नहीं बल्कि तारने में मदद करता है।
तीसरा चोर है सत्वगुण। यह तमोगुण और रजोगुण में फंसे मनुष्य को मुक्ति का रास्ता दिखाता है। लेकिन यह भी मनुष्य को गंतव्य तक ले जाने में असमर्थ है। केवल वही मनुष्य मुक्ति पाता है जो तीनो चोरों से अपने आप को छुडा कर खुद ही अपने गांव पहुंचने का प्रयास करता है। इस अवस्था को चतुर्थ या तुरीय अवस्था कहते है। त्रिगुणातीत।

bindujain
15-01-2013, 08:42 PM
हर व्यक्ति अपने तरीके से सोचता


एक दिन सुबह सुबह एक पादरी ,एक डाक्टर व एक इंजीनियर गोल्फ के मैदान में जाते हैं
।उनसे पहले एक ग्रुप वहाँ था, जो थोडी़ धीमी गति से गोल्फ खेल रहा था।इंजीनियर बोला,ये बुद्धु लोग कौन हैं हम यहाँ पन्द्रह मिनट से प्रतिछा कर रहें हैं।डाक्टर बोला मैने ऐसा बेकार गोल्फ कभी नहीं देखा।पादरी बोला वह देखो मैदान का मालिक आ रहा है उससे पुछते हैं।उसने पुछा जार्ज ये ग्रुप इतना धीमें क्यों खेल रहा है।इनकी क्या समस्या है?
जार्ज ने उन्हें बताया कि यह नेत्रहीन ग्रुप है जिनकी आख इस गोल्फ क्लब को आग से बचाते समय चली गई।अत: हम इन्हें जितनी देर चाहे खेलने देते हैं।
सब लोग थोडी देर के लिये चुप हो जाते हैं।पादरी कहता है मै इनके लिये आज रात प्रार्थना करूगा।
डाक्टर बोला मै अपने डाक्टर मित्रों से इनके आँख के बारे में चर्चा करूगा।
इंजीनियर बोला यह लोग रात को क्यों नहीं खेलते।

किसी परिस्थिति पर हर व्यक्ति अपने तरीके से सोचता है।इंजीनियर यहाँ पर समस्या के समाधान के बारे में सोच रहा है।

bindujain
15-01-2013, 08:50 PM
दो भाई





दो भाई अपने खेत में एक साथ काम करते थे।उनमें से एक शादी-शुदा था और उसके बच्चे भी थे।दूसरा कुँआरा था।हर शाम को दोनो भाई फसल और मुनाफे को बराबर-बराबर बाटँ लेते थे।
फिर एक दिन छोटे भाई ने सोचा,"यह ठीक नहीं की फसल और मुनाफे में से बराबर हिस्सा लें।मैं अकेला हूँ और मेरी जरूरतें कम हैं ।इसलिए मेरे भाई को ज्यादा मिलना चाहिए"।हर रात वह अपने खेत से एक बोरा उठाता व अपने भाई के खेत में रख आता।
शादी शुदा भाई ने सोचा,"यह ठीक नहीं की दोनों भाई फसल और मुनाफे में से बराबर हिस्सा लें।मै शादी शुदा हूँ और मेरा देखभाल करने के लिए पत्नी व बच्चे हैं।मेरा छोटा भाई अकेला है उसे अधिक मिलना चाहिए।हर रात वह अपने खेत से एक बोरा उठाता व अपने भाई के खेत में रख आता।
दोनों भाई बरसों तक हैरान होते रहे कि उनके बोरे कम क्यों नहीं होते।एक रात को दोनों भाई आपस में टकरा जाते हैं और अपने बोरे पटककर एक दूसरे को गले लगा लेते हैं।

bindujain
18-01-2013, 03:40 PM
सफलता का रहस्य

एक बार एक नौजवान लड़के ने सुकरात से पूछा कि सफलता का रहस्य क्या है? सुकरात ने उस लड़के से कहा कि तुम कल मुझे नदी के किनारे मिलो !वो मिले, फिर सुकरात ने नौजवान से उनके साथ नदी की तरफ बढ़ने को कहा और जब आगे बढ़ते-बढ़ते पानी गले तक पहुँच गया, तभी अचानक सुकरात ने उस लड़के का सर पकड़ के पानी में डुबो दिया, लड़का बाहर निकलने के लिए संघर्ष करने लगा , लेकिन सुकरात ताकतवर थे और उसे तब तक डुबोये रखे जब तक की वो नीला नहीं पड़ने लगा ! फिर सुकरात ने उसका सर पानी से बाहर निकाल दिया और बाहर निकलते ही जो चीज उस लड़के ने सबसे पहले की वो थी हाँफते-हाँफते तेजी से सांस लेना ! सुकरात ने पूछा , जब तुम वहाँ थे तो तुम सबसे ज्यादा क्या चाहते थे ? लड़के ने उत्तर दिया ,"सांस लेना" सुकरात ने कहा, यही सफलता का रहस्य है ! "जब तुम सफलता को उतनी ही बुरी तरह से चाहोगे जितना की तुम सांस लेना चाहते थे तो वो तुम्हे मिल जाएगी" इसके आलावा और कोई रहस्य नहीं है !

bindujain
18-01-2013, 03:42 PM
♣ ईश्वर का निवास | Residence of God ♣
एक गुरुजी थे। उनके आश्रम में कुछ शिष्य शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। एक बार बातचीत में एक शिष्य ने पूछा
-गुरुजी, क्या ईश्वर सचमुच है?
गुरुजी ने कहा - ईश्वर अगर कहीं है तो वह हम सभी में है। शिष्य ने पूछा - तो क्या मुझमें और आपमें भी ईश्वर है?
गुरुजी बोले - बेटा, मुझमें, तुममें, तुम्हारे सारे सहपाठियों में और हर जीव-जंतु में ईश्वर है। जिसमें जीवन है उसमें ईश्वर है। शिष्य ने गुरुजी की बात याद कर ली।
कुछ दिनों बाद शिष्य जंगल में लकड़ी लेने गया। तभी सामने से एक हाथी बेकाबू होकर दौड़ता हुआ आता दिखाई दिया। हाथी के पीछे-पीछे महावत भी दौड़ता हुआ आ रहा था और दूर से ही चिल्ला रहा था - दूर हट जाना,
हाथी बेकाबू हो गया है, दूर हट जाना रे भैया, हाथी बेकाबू हो गया है।
उस जिज्ञासु शिष्य को छोड़कर बाकी सभी शिष्य तुरंत इधर-उधर भागने लगे। वह शिष्य अपनी जगह से बिल्कुल
भी नहीं हिला, बल्कि उसने अपने दूसरे साथियों से कहा कि हाथी में भी भगवान है फिर तुम भाग क्यों रहे हो?
महावत चिल्लाता रहा, पर वह शिष्य नहीं हटा और हाथी ने उसे धक्का देकर एक तरफ गिरा दिया और आगे निकल गया। गिरने से शिष्य होश खो बैठा।
कुछ देर बाद उसे होश आया तो उसने देखा कि आश्रम में गुरुजी और शिष्य उसे घेरकर खड़े हैं। साथियों ने शिष्य से पूछा कि जब तुम देख रहे थे कि हाथी तुम्हारी तरफ दौड़ा चला आ रहा है तो तुम रस्ते से हटे क्यों नहीं?
शिष्य ने कहा - जब गुरुजी ने कहा है कि हर चीज में ईश्वर है तो इसका मतलब है कि हाथी में भी है।
मैंने सोचा कि सामने से हाथी नहीं ईश्वर चले आ रहे हैं और यही सोचकर मैं अपनी जगह पर खड़ा रहा, पर ईश्वर ने मेरी कोई मदद नहीं की।
गुरुजी ने यह सुना तो वे मुस्कुराए और बोले -बेटा, मैंने कहा था कि हर चीज में भगवान है। जब तुमने यह माना कि हाथी में भगवान है तो तुम्हें यह भी ध्यान रखना चाहिए था कि महावत में भी भगवान है और जब महावत चिल्लाकर तुम्हें सावधान कर रहा था तो तुमने उसकी बात पर ध्यान क्यों नहीं दिया?
शिष्य को उसकी बात का जवाब मिल गया था।

bindujain
18-01-2013, 03:43 PM
♣ समर्पण | Devotion ♣
बहुत पहले की बात है एक गुरु और शिष्य रेगिस्तान से गुज़र रहे थे ! गुरु यात्रा के दौरान हर क्षण शिष्य में आस्था जागृत करने के लिए ज्ञान दे रहे थे! उन्होंने शिष्य को “अपने समस्त कर्मों को ईश्वर को अर्पित कर दो ” का उपदेश दिया ! रात में उन्होंने रेगिस्तान में एक स्थान पर अपना डेरा जमाया !
गुरु ने शिष्य से कहा कि वह घोड़े को निकट ही एक चट्टान से बाँध दे ! शिष्य घोड़े को लेकर चट्टान तक गया !
उसे दिन में गुरु द्वारा दिया गया उपदेश याद आ गया. उसने सोचा – “गुरु संभवतः मेरी परीक्षा ले रहे हैं !
आस्था कहती है कि ईश्वर इस घोड़े का ध्यान रखेंगे”. और उसने घोड़े को चट्टान से नहीं बाँधा ! सुबह उसने देखा कि घोड़ा दूर-दूर तक कहीं नज़र नहीं आ रहा था !
उसने गुरु से जाकर कहा – “आपको ईश्वर के बारे में कुछ नहीं पता !
कल ही आपने बताया था कि हमें सब कुछ ईश्वर के हांथों सौंप देना चाहिए इसीलिए मैंने घोड़े की रक्षा का भार ईश्वर पर डाल दिया लेकिन घोड़ा भाग गया !”
गुरु ने कहा: “ईश्वर तो वाकई चाहता था कि घोड़ा हमारे पास सुरक्षित रहे, लेकिन ईश्वर को घोडे को बांधने के लिए तुम्हारे हाथों की जरूरत थी तब तुमने अपने हांथों को ईश्वर को नहीं सौंपा और घोड़े को खुला छोड़ दिया”

bindujain
18-01-2013, 03:44 PM
♣ अँधा और बहरा ♣
एक सरोवर में बहुत सारे मेंढक रहते थे ! सरोवर के बीचों -बीच एक बहुत पुराना धातु का खम्भा भी लगा हुआ था जिसे उस सरोवर को बनवाने वाले राजा ने लगवाया था ! खम्भा काफी ऊँचा था और उसकी सतह भी बिलकुल चिकनी थी ! एक दिन मेंढकों के दिमाग में आया कि क्यों ना एक प्रतियोगिता (Competition) करवाई जाए ! प्रतियोगिता (Competition) में भाग लेने वाली प्रतियोगीयों को खम्भे पर चढ़ना होगा , और जो सबसे पहले ऊपर पहुच जाएगा वही विजेता माना जाएगा ! प्रतियोगिता (Competition) का दिन आ पंहुचा , चारो तरफ बहुत भीड़ थी ! आस -पास के इलाकों से भी कई मेंढक इस प्रतियोगिता (Competition) में हिस्सा लेने पहुचे !

माहौल में सरगर्मी थी , हर तरफ शोर ही शोर था !
प्रतियोगिता (Competition) प्रारम्भ हुई। लेकिन खम्भे को देखकर भीड़ में एकत्र हुए किसी भी मेंढक को ये यकीन नहीं हुआ कि कोई भी मेंढक ऊपर तक पहुंच पायेगा! हर तरफ यही सुनाई देता ... " अरे ये तो असंभव है "

“ वो कभी भी ये प्रतियोगिता (Competition) पूरी नहीं कर पायेंगे ”

“ सफलता का तो कोई सवाल ही नहीं , इतने चिकने खम्भे पर चढ़ा ही नहीं जा सकता ” और यही हो भी रहा था , जो भी मेंढक कोशिश करता , वो थोडा ऊपर जाकर नीचे गिर जाता , कई मेंढक दो -तीन बार गिरने के बावजूद अपने प्रयास में लगे हुए थे …
पर भीड़ तो अभी भी चिल्लाये जा रही थी , “ ये नहीं हो सकता , असंभव ”, और वो उत्साहित मेंढक भी ये सुन-सुनकर हताश हो गए और अपना प्रयास छोड़ दिया !

लेकिन उन्ही मेंढकों के बीच एक छोटा सा मेंढक था , जो बार -बार गिरने पर भी उसी जोश के साथ ऊपर चढ़ने में लगा हुआ था ….वो लगातार ऊपर की ओर बढ़ता रहा ,और अंततः वह खम्भे के ऊपर पहुच गया और इस प्रतियोगिता (Competition) का विजेता बना !

उसकी जीत पर सभी को बड़ा आश्चर्य हुआ , सभी मेंढक उसे घेर कर खड़े हो गए और पूछने लगे ,” तुमने ये असंभव कार्य कैसे कर दिखाया , भला तुम्हे अपना लक्ष्य प्राप्त करने की शक्ति कहाँ से मिली, ज़रा हमें भी तो बताओ कि तुमने ये विजय कैसे प्राप्त की ?”
तभी पीछे से एक आवाज़ आई … "अरे उससे क्या पूछते हो , वो तो बहरा है "

हम सपने देखते है और उन्हें पूरा करने की हमारे अन्दर काबिलियत भी होती है परन्तु अपने आस - पास मौजूद नकारात्मकता से हम अपने क्षमता को कम आंक बैठते हैं और अपने सपने को पूरा किये बिना ही अपनी ज़िन्दगी गुजार देते हैं !
हमें चाहिए की हम कमजोर बनाने वाली हर एक आवाज के प्रति बहरे और ऐसे हर एक दृश्य के प्रति अंधे हो जाएं, और तब हमें सफलता के शिखर पर पहुँचने से कोई नहीं रोक पायेगा !

bindujain
18-01-2013, 03:46 PM
♣ Practice | अभ्यास ♣
एक बार भोले शंकर ने दुनिया पर बड़ा भारी कोप किया। पार्वती को साक्षी बनाकर संकल्प किया कि जब तक यह दुष्ट दुनिया सुधरेगी नहीं, तब तक शंख नहीं बजाएंगे। शंकर भगवान शंख बजाएं तो बरसात हो। बरसात रुक गई। अकाल-दर-अकाल पड़े। पानी की बूंद तक नहीं बरसी। न किसी राजा के क्लेश व सन्ताप की सीमा रही और न किसी रंक की। दुनिया में त्राहिमाम-त्राहिमाम मच गया। लोगों ने मुंह में तिनका दबाकर खूब ही प्रायश्चित किया। पर महादेव अपने प्रण से तनिक भी नहीं डिगे। संयोग की बात ऐसी बनी कि एक दफा शंकर-पार्वती आकाश में उड़ते जा रहे थे तो उन्होंने एक अजीब ही दृश्य देखा कि एक किसान भरी दोपहरी जलती धूप में खेत की जुताई कर रहा है। पसीने में सराबोर, मगर अपनी धुन में मगन। जमीन पत्थर की तरह सख्त हो गयी थी। फिर भी वह जी-जोड़ मेहनत कर रहा था, जैसे कल-परसों ही बारिश हुई हो। उसकी आंखों और उसके पसीने की बूंदों से ऐसी ही आशा चू रही थी। भोले शंकर को बड़ा आश्चर्य हुआ कि पानी बरसे तो बरस बीते। तब यह मूर्ख क्या पागलपन कर रहा है। शंकर पार्वती आकाश से नीचे उतरे। उससे पूछा, “अरे बावले! क्यों बेकार कष्ट उठा रहा है? सूखी धरती में केवल पसीने बहाने से ही खेती नहीं होती। बरसात का तो अब सपना भी दूभर है।” किसान ने एक बार आंख उठा कर उनकी ओर देखा और फिर हल चलाते-चलाते ही जवाब दिया, “हां, बिलकुल ठीक कह रहे हैं आप। मगर हल चलने का हुनर भूल न जाऊं, इसलिए मैं हर साल इसी तरह पूरी लगन के साथ जुताई करता हूं। जुताई करना भूल गया तो केवल वर्षा से ही गरज सरेगी क्या! मेरी मेहनत का अपना आनंद भी तो है। फ़कत लोभ की खातिर ही मैं खेती नहीं करता।” किसान के ये बोल कलेजे को पार करते हुए शंकर भगवान के मन में ठेठ गहरे बिंध गए। सोचने लगे,”मुझे भी शंख बजाए बरस बीत गए। कहीं शंख बजाना भूल तो नहीं गया! बस, उससे आगे सोचने की जरूरत ही उन्हें नहीं थी। खेत में खड़े-खड़े ही झोली से शंख निकला और जोर से फूंका। चारो और घटाएं उमड़ पडी। मतवाले हाथिओं के सामान आकाश में गडगडाहट पर गडगडाहट गूंजने लगी और बेशुमार पानी बरसा। बेशुमार जिसके स्वागत में किसान के पसीने की बूंदें पहले ही खेत में मौजूद थीं।

bindujain
18-01-2013, 03:46 PM
♣ छोटा सा प्रयास ♣
एक व्यक्ति नित्य ही समुद्र तट पर जाता और वहां घंटों बैठा रहता। आती-जाती लहरों को निरंतर देखता रहता। बीच-बीच में वह कुछ उठाकर समुद्र में फेंकता, फिर आकर अपने स्थान पर बैठ जाता। तट पर आने वाले लोग उसे मानसिक रूप से विक्षिप्त समझते और प्राय: उसका उपहास उड़ाया करते । कोई उसे ताने कसता तो कोई अपशब्द कहता, किंतु वह मौन रहता और अपना यह प्रतिदिन का क्रम नहीं छोड़ता। एक दिन वह समुद्र तट पर खड़ा तरंगों को देख रहा था। थोड़ी देर बाद उसने समुद्र में कुछ फेंकना शुरू किया। उसकी इस गतिविधि को एक यात्री ने देखा। पहले तो उसने भी यही समझा कि यह मानसिक रूप से बीमार है, फिर उसके मन में आया कि इससे चलकर पूछें ही लेते है । वह व्यक्ति के निकट आकर बोला- भाई ! यह तुम क्या कर रहे हो ? उस व्यक्ति ने उत्तर दिया- देखते नहीं, सागर बार-बार अपनी लहरों को आदेश देता है कि वे इन नन्हे शंखों, घोंघों और मछलियों को जमीन पर पटककर मार दें। मैं इन्हें फिर से पानी में डाल देता हूं। यात्री बोला- यह क्रम तो चलता ही रहता है। लहरें उठती हैं, गिरती हैं, ऐसे में कुछ जीव तो बाहर होंगे ही। तुम्हारी इस चिंता से क्या अंतर पड़ेगा? उस व्यक्ति ने एक मुट्ठी शंख-घोंघों को अपनी अंजुली में उठाया और पानी में फेंकते हुए कहा- देखा कि नहीं, इनके जीवन में तो फर्क पड़ गया? वह यात्री सिर झुकाकर चलता बना और वह व्यक्ति वैसा ही करता रहा।
सार यह है कि अच्छे कार्य का एक छोटा सा प्रयास भी महत्वपूर्ण होता है। आपका एक छोटा सा प्रयत्न किसी की जिन्दगी संवार सकता है ! जैसे बूंद-बूंद से घड़ा भरता है, वैसे ही नन्हे प्रयत्नों की श्रंखला से सत्कार्य को गति मिलती है ।

bindujain
18-01-2013, 03:48 PM
♣ अंधविश्वास (Blind Faith) ♣
इजरायल में एक मशहूर यहूदी फकीर रहता था.वह बीमार हो गया.उसकी एक बंजारे नें खूब सेवा की.खुश होकर फकीर नें उसे एक गधा भेंट किया.गधा पाकर बंजारा बड़ा खुश हुआ.गधा स्वामी भक्त था.वह बंजारे की और बंजारा गधे की सेवा करता था.दोनों को एक दूसरे के प्रति बहुत लगाव हो गया. बंजारा यह मानता था की गधा फकीर की दी गयी भेंट है तो ज़रूर विलक्षण होगा.एक दिन बंजारा गधे पर बैठ कर माल बेंचने दुसरे गाँव गया.दुर्भाग्य से गधा रास्ते में बीमार हो गया.पेट में दर्द उठा और गधा वहीँ तड़प कर मर गया.बंजारे को अत्यधिक शोक हुआ क्योंकि वह उसके लिए कमाऊ पूत था. उसनें गधे की कब्र बनाई और वहीं बैठकर दुःख के आंसू बहाने लगा. इतने में उधर से एक राहगीर गुजरा.उसनें यह दृश्य देखकर सोचा की अवश्य ही यहाँ किसी फकीर का निधन हुआ है.श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए उसने दो फूल तोड़े और कब्र पर चढ़ा दिए.दुसरे नें उसे फूल चढाते देखा तो पास आकर उसने जेब से दो रुपये निकाल कर कब्र पर चड़ा दिए.बंजारा यह सब चाप देखता रहा और मन ही मन हंसा. दोनों राहगीर अगले गाँव गए और लोगों से कब्र का ज़िक्र किया.ग्रामीण लोग आए.उन्होंने भी फूल और पैसे चढ़ाए.अब बंजारे नें आगे जाने का फैसला छोड़ा और कब्र के पास बैठ गया.वह सोचने लगा की गधा जब जिन्दा था तब उतना कमाकर नहीं देता था जितना की मरने के बाद दे रहा है. खूब भीड़ लगती.जितने दर्शनार्थी आते कब्र का उतना ही ज्यादा प्रचार हो रहा था.गधे की कब्र किसी पहुंचे हुए फकीर की कब्र बन गयी. एक दिन वह फकीर भी उसी रस्ते से गुजरा,जिसनें बंजारे को गधा दिया था.उसनें कब्र के बारे में चर्चा सुनी.वह भी कब्र पर झुका.जैसे ही उसने अपने पुराने भक्त बंजारे को बैठे देखा तो पूछा की यह कब्र किसकी है और तू यहाँ क्यों रो रहा है? बंजारे नें कहा की आपके सामने सच छुपाने की ताकत मुझमें नहीं है.उसने सारी आपबीती फकीर को सुना दी.फकीर को बड़ी हंसी आई.बंजारे नें पूछा की आपको हंसी क्यों आई ?फकीर बोला की मैं जहाँ पर रहता हूँ वहां पर भी एक कब्र है जिसे लोग बड़ी श्रद्धा से पूजते हैं.आज में तुम्हें बताता हूँ की वह कब्र भी इस गधे की माँ की है. लोग नहीं जानते इसलिए किसी को भी पूजने लगते हैं.समझदार वही है जो अंधविश्वास में पड़े बिना सच्चाई को समझकर किसी बात को मानता है

bindujain
18-01-2013, 03:50 PM
♣ सुधार क्रम ♣
एक मूर्तिकार पिता ने पुत्र को भी अपनी कला सिखायी , जीवन यापन के लिये दोनों हाट में जाकर अपने द्वारा बनायी मूर्तियां बेचते थे .. पिता को मूर्तियों के बदले 50-60 रुपये मिल जाते थे वहीं पुत्र को मात्र 10-20 रुपये ही । पिता हर हाट के बाद पुत्र को सुधार के लिये प्रेरित करता और क्या त्रुटियां उसे दूर करनी है उनका विश्लेषण करता । यही क्रम चलता रहा अब हाट में पिता की मूर्तिया में 50-60 तक और पुत्र की 100 - 120 तक बिकने लगीं । सुधारने का क्रम पिता ने तब भी बंद नही किया .. पुत्र ने एक दिन झुंझलाकर कहा - पिताजी अब तो दोष निकालना बंद कर दीजिये , अब मेरी मूर्तियां आपसे दुगने दामों पर बिकती हैं । पिता मुस्कुराया और बोला - बेटा सही कह रहे हो ..पर एक बात तुम जानते हो जब मैं तुम्हारी आयु का था तब मुझे भी प्रारंभ में बहुत कम दाम मिलते थे तब मेरे पिता भी मेरे दोषों को सुधारने के लिये बताते थे पर जब मुझ उनसे अधिक दाम मिलने लगा तब मैने उनकी बातें अनसुनी कर दी और मेरी आमदनी 50-60 पर ही रुक गयी .. मैं चाहता हूं कि तुम वह भूल न करो , अपनी त्रुटियों को समझने और सुधारने का क्रम सदैव जारी रखो ताकि बहुमूल्य मूर्तियां बनाने वाले कलाकारों की श्रेणीं मे पहुंच जाओ । ... . " सफलता के चाहे जितने ही ऊंचे शिखर पर पहुंच जाये पर माता , पिता , गुरु , वरिष्ठ जनों की सीखों का निरादर कभी नहीं करना चाहिये क्योंकि उनका उद्देश्य हमें शीर्ष पर पहुंचाना होता है न कि हमारा पतन ।

bindujain
30-01-2013, 08:58 PM
चीन के एक छोटे गाँव में एक बुद्धिमान पिता रहता था।
उसका बहुत सम्मान किया जाता था,उसकी बुद्धि की वजह से नहीं
बल्कि उसके पुत्र व उसके शक्तिशाली घोडे के कारण जो कि उसके पास था।
एक दिन उसका घोडा भाग गया।
उसके सारे पडोसी आये और बोले बडे दुख की बात है किस्मत ही खराब है।
पिता ने जवाब दिया इसे आप खराब किस्मत क्यों कह रहें हैं?
अगले दिन उसका घोडा कई और घोडो के साथ वापस आ गया।
उसके सारे पडोसी आये और बोले कितनी अच्छी किस्मत है।
पिता ने जवाब दिया इसे आप अच्छी किस्मत क्यों कह रहें हैं?
कुछ दिनो बाद उसका बेटा जब नये घोडे पर घुड़सवारी कर रहा था
तो वह गिर गया तथा उसका दाहिना हाथ टूट गया।
उसके सारे पडोसी फिर आये और बोले बडे दुख की बात है कितनी खराब किस्मत है।
इस पर समझदार पिता ने जवाब दिया ,"इसे आप खराब किस्मत क्यों कह रहें हैं?"
कुछ समय बाद दुष्ट सैनिक गाँव में आये और गाँव के सभी तन्दरूस्त नौजवानों को अपने साथ ले गये।
कुछ समय बाद खबर आई कि सभी नौजवान मारे गये।
जो होता है ,अच्छे के लिए होता है।

bindujain
30-01-2013, 09:01 PM
दुनिया कि कोई ताकत सफल होने से नहीं रोक सकती

एक आदमी एक्कीस वर्ष की उम्र में ही मोटर न्यूरोन डिजीज का शिकार हो गया।यह लकवे से भी खतरनाक बिमारी है,इसमें शरीर का कोई अंग काम नहीं करता।वह आदमी तीस से अधिक वर्षों से लकवे से ग्रस्त रहता है।उसकी सिर्फ एक उँगली व दिमाग काम करत है।वह पिछले बीस वर्षों से बोल नहीं सकता।

अब एक दूसरे व्यक्ति की चर्चा करते हैं।वह विश्व का सबसे बडा़ ब्रह्नाण वैज्ञानिक है।उसे आईन्स्टीन के बाद अब तक का सबसे बडा़ वैज्ञानिक माना जाता है।वह कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में गणित का प्रोफेसर है।

आप जान कर हैरान होंगे कि दोनों व्यक्ति एक ही हैं स्टीफन हाकिंग।

अब तीसरे व्यक्ति की चर्चा।वह पृथ्वी पर स्थित छ: खरब लोगों से अलग व खास है।उसकी परिस्थितियाँ हाकिंग से लाख गुना बेहतर है।वह इस दुनिया में सफल होने के लिए आया है।
जब हाकिंग सफल हो सकते हैं,तो उसे दुनिया कि कोई ताकत सफल होने से नहीं रोक सकती।

वह तीसरे व्यक्ति आप हैं।
हम सब का जन्म सफल होने के लिए हुआ है।

bindujain
30-01-2013, 09:11 PM
जब लोग आप की आलोचना कर रहें हों,
आप पर चिल्ला रहे हो,या आप का दिल दुखा रहे हों
परेशान ना हो बस एक बात याद रखें
"हर खेल में दर्शक ऐसा ही करते हैं,
लेकिन
खिलाडी़ अपना काम करते रहते हैं"

bindujain
09-02-2013, 08:04 PM
....तो फिर गरीब कौन कणाद ऋषि या राजा!
एक महर्षि थे। उनका नाम था कणाद। किसान जब अपना खेत काट लेते थे तो उसके बाद जो अन्न-कण पड़े रह जाते थे, उन्हें बीन करके वह अपना जीवन चलाते थे। इसी से उनका यह नाम पड़ गया था।
उन जैसा दरिद्र कौन होगा! देश के राजा को उनके कष्ट का पता चला। उसने बहुत-सी धन-सामग्री लेकर अपने मंत्री को उन्हें भेंट करने भेजा। मंत्री पहुंचा तो महर्षि ने कहा कि मैं सकुशल हूं। इस धन को तुम उन लोगों में बांट दो जिन्हें इसकी जरूरत है।
इस भांति राजा ने तीन बार अपने मंत्री को भेजा और तीनों बार महर्षि ने कुछ भी लेने से इंकार कर दिया।
अंत में राजा स्वयं उनके पास गया। वह अपने साथ बहुत-सा धन ले गया। उसने महर्षि से प्रार्थना की कि वे उसे स्वीकार कर लें लेकिन वे बोले कि उन्हें दे दो जिनके पास कुछ नहीं है। मेरे पास तो सबकुछ है।
राजा को विस्मय हुआ। जिसके तन पर एक लंगोटी मात्र है और वह कह रहा है कि उसके पास सबकुछ है। उसने लौटकर सारी कथा अपनी रानी से कही। वह बोली कि आपने भूल की। ऐसे साधु के पास कुछ देने के लिए नहीं लेने के लिए जाना चाहिए।
राजा उसी रात महर्षि के पास गया और क्षमा मांगी। कणाद ने कहा कि गरीब कौन है, मुझे देखो और अपने को देखो। बाहर नहीं भीतर। मैं कुछ भी नहीं मांगता और कुछ भी नहीं चाहता। इसलिए अनायास ही सम्राट हो गया हूं।
एक सम्पदा बाहर है तो एक भीतर है। जो बाहर है वह आज या कल छिन ही जाती है। इसलिए जो जानते हैं वे उसे सम्पदा नहीं, विपदा मानते हैं। जो भीतर है वह मिलती है तो खोती नहीं। उसे पाने पर फिर कुछ भी पाने को नहीं रह जाता।

bindujain
09-02-2013, 08:05 PM
यह कैसी धर्म-साधना एक व्यक्ति ने किसी साधु से कहा कि मेरी पत्नी धर्म-साधना में श्रद्धा नहीं रखती। यदि आप उसे थोड़ा समझा दें तो बड़ा अच्छा हो।
साधु बोला कि ठीक है। अगले दिन सबेरे ही वह साधु उसके घर गया। पति वहां नहीं था। उसने उसके सम्बंध में पत्नी से पूछा। पत्नी ने कहा कि जहां तक मैं समझती हूं, वह इस समय चमार की दुकान पर झगड़ा कर रहे हैं।
पति पास के पूजाघर में माला फेर रहा था। उसने पत्नी की बात सुनी। उससे यह झूठ सहा नहीं गया। बाहर आकर बोला कि यह बिल्कुल गलत है। मैं पूजाघर में था।
साधु हैरान हो गया। पत्नी ने यह देखा तो पूछा कि सच बताओं कि क्या तुम पूजाघर में थे। क्या तुम्हारा शरीर पूजाघर में, माला हाथ में और कहीं नहीं था।
पति को होश आया। पत्नी ठीक कह रही थी। माला फेरते-फेरते वह सचमुच चमार की दुकान पर ही चला गया था। उसे जूते खरीदने थे और रात को ही उसने अपनी पत्नी से कहा था कि सबेरा होते ही खरीदने जाऊंगा। माला फेरते-फेरते वास्तव में उसका मन चमार की दुकान पर पहुंच गया था और चमार से जूते के मोल-तोल पर कुछ झगड़ा हो रहा था। विचार को छोड़ों और निर्विचार हो जाओ तो तुम जहां हो वहीं प्रभु का आगमन हो जाता है।

bindujain
09-02-2013, 08:08 PM
.....तो इस तरह हुई साप्ताहिक छुट्टी की शुरुआत

"ओ तेजोसि तेजी मे दा स्वाहा, बलमसि बलं मे दा स्वाहा, आचार्य मार्कन्डय के आश्रम के ब्रह्मचारी अपने दैनिक कर्म में लगे हुए थे। संध्या-वंदन के बाद उनमें कुछ घुस-पुस-सी होने लगी।
आचार्य अभी ध्यान में ही थे और ब्रह्मचारी अपने नए उत्साह और कौतूहल को दबाए अपनी उत्तेजना को छिपाए कानाफूसी करते हुए इधर-उधर टहल रहे थे। उनके यहां कुछ अरब देशों के विद्यार्थी आए हुए थे। बाहर के लोगों के साथ पहला संपर्क था। भोले बालकों को उनकी हर बात पर आश्चर्य हो रहा था।
आचार्य मार्कन्डेय जंगल में रहा करते थे और उनका गुरुकुल उन्हीं के चारों ओर रहा करता था। आचार्य कभी-कभी एक वन में से दूसरे में चले जाया करते थे और उनका कुल भी उनके साथ स्थान बदल लेता था। उन लोगों की आवश्यकताएं कम थीं। सभी प्रकृति के बालक थे और उसी की गोद में पल रहे थे। मोटा-झोटा खा लेते थे और एकगाती धोती बांधे अपने काम में लगे रहते थे। उनके लिए भले आंधी आए, मेह आए, सभी एक समान था।
दजला और फिरात के किनारे के रहने वाले नए विद्यार्थियों और अध्यापकों को देखकर उनके अंदर कुतूहल जागा। उनका जीवन, उनकी चाल-ढाल, उनके रंग-ढंग, इनसे बिल्कुल भिन्न थे। इन्हें शिक्षा दी गई थी प्राणिमात्र को मित्र की दृष्टि से देखने की, पर आगान्तुक तो शिकार करते और उसका मांस खाते थे। इन्हें शिक्षा मिली थी दिन-रात नित्य-कर्म, आचार्य-सेवा और भगवद्-भजन में लगे रहने की। वर्षा ऋतु में जब कुछ काम न कर पाते तो अनध्याय हो जाता। इसके विपरीत नवागन्तुक हर सप्ताह छुट्टी मनाया करते थे और उस दिन खूब हो-हल्ला करते मानो सारा आसमान ही सिर पर उठा लेंगे।
नवागन्तुकों के साथ परिचय बढ़ा। ब्रह्मचारी पहले तो उनको कुछ आश्चर्य के साथ देखते रहे जैसे वे कोई अचम्भे की चीज हों। उसके बाद उनकी कई चीजों की सराहना शुरू हुई। मन में विकार जागा। सोचा, हमारा कठोर जीवन भी कभी-कभी बदल जाया करे तो हमें भी कभी अध्याय और नित्य कर्म से अवकाश मिल जाय तो मजा आ जाय।
पर आचार्य से यह बात कौन कहे, उनके सुकोमल हृदय को आघात न लगे कहीं। कुछ दिन इसी प्रकार बीत गए। आपस में बातचीत तो रोज होती लेकिन वह कानाफूसी की हद से बाहर न निकल पाती। आखिर एक दिन हिम्मत करके दो-चार ब्रह्मचारी आचार्य के पास जा पहुंचे।
आचार्य ने बड़े प्रेम से उन्हें बिठाया और उनके असमय आने का कारण पूछा। ब्रह्मचारियों के मन में खटक रहा था कि शायद उनकी बात आचार्य को पसंद न आए। जी कड़ा करके एक ने कहा कि आचार्यपद! दजला और फिरात के किनारे से जो विद्यार्थी आए हैं उनके साथ हमारा काफी मेल-जोल हो गया है। वे भी बहुत सभ्य और सुसंस्कृत देश के नागरिक मालूम होते हैं।
आचार्य बीच में ही बोले हां, ये लोग मुसलमान हैं। उस तरफ के देशों में आजकल आर्य धर्म नहीं चलता। उसकी जगह यहूदी धर्म ने ली थी, फिर ईसा आए और लोग ईसाई बन गए और फिर मोहम्मद के अनुयायियों ने इन सब देशों को मुसलमान बना डाला। पर इन तीनों धर्मो में बहुत समानता है। इन लोगों ने भौतिक विद्याओं में काफी प्रगति कर ली है।
गुरुवर! एक ब्रह्मचारी ने कहा कि उन विद्यार्थियों का कहना है कि हमारी कार्य-प्रणाली ठीक नहीं है। वे लोग सप्ताह में छ: दिन काम करते हैं और एक दिन अनध्याय रखते हैं। उस दिन वे खूब मौज करते हैं। उनका कहना है कि इस तरह ज्यादा अच्छा काम होता है।
ब्रह्मचारी कहते-कहते रुक गए। आचार्य की आंखों से स्नेह बरस रहा था। उन्होंने कहा कि हां, ये सेमेटिक धर्म मानते हैं कि भगवान ने छ: दिनों या छ: युगों में सृष्टि बनाई थी और सातवें दिन या सातवें युग में विश्राम किया। इस दिन को भगवान का दिन कह सकते हैं। इस चीज का अनुसरण करते हुए इन धर्मो के आचार्य इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि मनुष्यों के लिए भी कुछ इसी प्रकार की व्यवस्था होनी चाहिए।
उन्होंने निश्चय किया कि मनुष्य छ: दिन अपना काम-काज करें, अपने व्यक्तिगत कामों में लगा रहे और अहं के द्वारा प्रेरित काम करता रहे, लेकिन सातवें दिन को भगवान के लिए अलग करके रख दिया जाय। उस दिन अपनी इच्छाओं, कामनाओं और अपने अहं को भूलकर मनुष्य अपने अंदर डुबकी लगाए या अपने ऊपर देखे। उस दिन वह अपने आपको पूरी तरह से अपने स्रोत के साथ, अपने बनाने वालों के साथ, एक कर दे, उसकी चेतना प्राप्त करे और उससे नई शक्ति का अर्जन करे।
यह था इन छुट्टियों के आरम्भ का रहस्य। पर इन लोगों ने अपने धर्म की सच्ची सीख को भुला दिया है। इन्होंने यही समझ रखा है कि जीवन का उद्देश्य है खाना-पीना और मौज करना। काम भी करते हैं तो इसी उद्देश्य से और छुट्टी मनाते हैं तो इसी उद्देश्य से। मुझे दीख रहा है कि मानव-जाति इसी गर्त में गिरती जा रही है। वह मौज की, स्वच्छंदता को ही सबकुछ मान बैठी है लेकिन आर्य लोग जीते हैं तो भगवान के लिए और मरते हैं तो भी उसी के लिए। हमारा एक-एक काम चाहे वह पढ़ना हो या लकड़ियां बीनना, वेद-पाठ हो या पानी भरना, भगवान की सेवा के लिए किया जाता है।
क्या हम जगज्जननी की सेवा को भार मान सकते हैं। स्वयं भगवान् ने कहा कि जीवन के रहते काम से छुट्टी पाना असंभव है। काम से छुट्टी पाने का एक ही उपाय है और वह है निर्वाण। उसे प्राप्त करने के लिए भी तो सबसे बढ़कर मेहनत करनी पड़ती है। जरा सोचो, भगवान अगर एक क्षण के लिए छुट्टी ले लें तो हम भी तो उन्हीं का काम कर रहे हैं। सब ब्रह्मचारी चुप थे। एक शांति का वातावरण छा गया था। अब छुट्टियां कौन मांगता।

bindujain
15-02-2013, 04:30 AM
बात उस समय की है जब जवाहरलाल नेहरू किशोर अवस्था के थे। पिता मोतीलाल नेहरू उन दिनों अंग्रेजों से भारत को आज़ाद कराने की मुहिम में शामिल थे। इसका असर बालक जवाहर पर भी पड़ा। मोतीलाल ने पिंजरे में तोता पाल रखा था। एक दिन जवाहर ने तोते को पिंजरे से आज़ाद कर दिया। मोतीलाल को तोता बहुत प्रिय था। उसकी देखभाल एक नौकर करता था। नौकर ने यह बात मोतीलाल को बता दी। मोतीलाल ने जवाहर से पूछा, 'तुमने तोता क्यों उड़ा दिया। जवाहर ने कहा, 'पिताजी पूरे देश की जनता आज़ादी चाह रही है। तोता भी आज़ादी चाह रहा था, सो मैंने उसे आज़ाद कर दिया।' मोतीलाल जवाहर का मुंह देखते रह गये।

bindujain
15-02-2013, 04:32 AM
जवाहरलाल नेहरू अपने कुछ ख़ास सहयोगियों के साथ एक दिन ग्रामीण क्षेत्रों का भ्रमण कर रहे थे। एक खेत में उन्होंने चने की फ़सल देखी। अधपके चने देखकर सबके मुंह में पानी आ गया और कच्चे चने खाने के लिये कार रुकवाई। सब लोग खेत में घुस गये। नेहरू जी ने चने की केवल फलियां ही फलियां तोड़ी। कुछ लोगों ने पौधे ही उखाड़ लिए। इस पर नेहरू जी ने उन्हें डांटा, 'पौधों में कुछ फलियां अभी लगी ही हैं जिनमें दाना नहीं है। तुम केवल दाने वाली फलियां ही तोड़ो जिनकी तुम्हें जरुरत हैं। पौधे उखाड़ लेने से नुक़सान हो रहा है। ऐसा तो जानवर करते हैं।

bindujain
15-02-2013, 04:33 AM
भाखड़ा बांध से सिंचाई योजना का उद्घाटन होना था।
नेहरूजी को योजना के व्यवस्थापकों ने चांदी का फावड़ा उदघाटन करने के लिए पकड़ाया।
इस पर नेहरू झुंझला गये।
उन्होंने पास में पड़ा लोहे का फावड़ा उठाया और उसे ज़मीन पर चलाते हुए कहा, 'भारत का किसान क्या चांदी के फावड़े से काम करता है।

bindujain
15-02-2013, 04:34 AM
एक मेले से नेहरूजी की कार गुज़र रही थी और सुरक्षाबल लोगों को हटाकर कार के लिए रास्ता बना रहे थे।
भीड़ में से एक बुढ़िया ने चिल्लाकर कहा, 'ओ नेहरू तू इत्ता बड़ा हो गया कि लोग तुझसे मिल नहीं सकते।'
नेहरूजी कार से उतर पड़े, बुढ़िया के पास हाथ जोड़ते हुए गये और बोले, 'कहां बड़ा हो गया मां, बड़ा हो जाता तो तू मुझसे ऐसे बोल पाती।
फिर उन्होंने उसकी परेशानी पूछी।
उसने अपनी फटेहाली बताई तो नेहरूजी ने अफ़सरों को सख्त हिदायत दी कि उसके लिए आर्थिक सहायता का इंतज़ाम तुरंत किया जाए।

bindujain
15-02-2013, 04:37 AM
शिकागो प्रवास के दौरान स्वामी विवेकानंद का भाषण नगर के कई भागों में चल रहा था। जहां भी उनकी सभा होती भीड़ का अथाह सागर उमड़ पड़ता। एक बार स्वामी जी अपने चिरपरिचित पहनावे, गेरुआ पगड़ी और केसरिया चोगा पहने अपने विचार अमेरिका की जनता के सामने रख रहे थे- 'मनुष्य को फूलों सा समदर्शी होना चाहिए। फूल शादी में वर-वधू के गले में भी डाले जाते हैं और श्रद्धा भाव से शव पर भी चढ़ाए जाते हैं। उन्हें मंदिर में भगवान को भी अर्पित किया जाता है और वे वेश्यालय में भी इस्तेमाल किए जाते हैं। बावजूद इसके फूलों को इस सबसे कोई फर्क नहीं पड़ता। ऐसे ही हमें भी भेदभाव भूल कर सभी मनुष्यों को एक समान समझना चाहिए।'

स्वामी विवेकानंद ने अपना भाषण समाप्त किया तो वहां मौजूद कुछ मनचले उनकी वेषभूषा को देखकर उसका उपहास करने लगे। लेकिन स्वामी जी विचलित नहीं हुए। उन्होंने अपनी परिचित मुस्कान के साथ धैर्य से काम लेते हुए उन्हें समझाया- भाइयो, आपके देश में दर्जी ही इंसान को बनाते हैं। इसीलिए आप सिर्फ सूटेड बूटेड आदमी को आदर देते हैं। हमारे देश में तो व्यक्ति की पहचान उसके चरित्र से होती है। हम चरित्र का निर्माण करते हैं।

bindujain
15-02-2013, 04:38 AM
एक ताकतवर जादूगर ने किसी शहर को तबाह कर देने की नीयत से वहां के कुँए में कोई जादुई रसायन डाल दिया. जिसने भी उस कुँए का पानी पिया वह पागल हो गया.

सारा शहर उसी कुँए से पानी लेता था. अगली सुबह उस कुँए का पानी पीनेवाले सारे लोग अपने होशहवास खो बैठे. शहर के राजा और उसके परिजनों ने उस कुँए का पानी नहीं पिया था क्योंकि उनके महल में उनका निजी कुआं था जिसमें जादूगर अपना रसायन नहीं मिला पाया था.

राजा ने अपनी जनता को सुधबुध में लाने के लिए कई फरमान जारी किये लेकिन उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ा क्योंकि सारे कामगारों और पुलिसवालों ने भी जनता कुँए का पानी पिया था और सभी को यह लगा कि राजा बहक गया है और ऊलजलूल फरमान जारी कर रहा है. सभी राजा के महल तक गए और उन्होंने राजा से गद्दी छोड़ देने के लिए कहा.

राजा उन सबको समझाने-बुझाने के लिए महल से बाहर आ रहा था तब रानी ने उससे कहा – “क्यों न हम भी जनता कुँए का पानी पी लें! हम भी फिर उन्हीं जैसे हो जायेंगे.”

राजा और रानी ने भी जनता कुँए का पानी पी लिया और वे भी अपने नागरिकों की तरह बौरा गए और बेसिरपैर की हरकतें करने लगे.

अपने राजा को ‘बुद्धिमानीपूर्ण’ व्यवहार करते देख सभी नागरिकों ने निर्णय किया कि राजा को हटाने का कोई औचित्य नहीं है. उन्होंने तय किया कि राजा को ही राजकाज चलाने दिया जाय.

bindujain
15-02-2013, 04:40 AM
मैं ईश्वर भीरु नहीं हूँ. भय ईश्वर तक नहीं ले जाता है. उसे पाने की भूमिका अभय है.

मैं किसी अर्थ में श्रद्धालु भी नहीं हूँ. श्रद्धा मात्र अंधी होती है. और अंधापन परम सत्य तक कैसे ले जा सकता है?

मैं किसी धर्म का अनुयायी भी नहीं हूँ, क्योंकि धर्म को विशेषणों में बाटना संभव नहीं है. वह एक और अभिव्यक्त है.

कल जब मैंने यह कहा तो किसी ने पूछा, “फिर क्या आप नास्तिक हैं?”

मै न नास्तिक हूँ, न आस्तिक ही. वे भेद सतही और बौद्धिक हैं. सत्ता से उनका कोई संबंध नहीं है. सत्ता ‘है’ और ‘न है’ में विभक्त नहीं है. भेद मन का है, इसलिए नास्तिकता और आस्तिकता दोनों मानसिक हैं. आत्मा को वे नहीं पहुंच पाती हैं. आत्मिक विधेय और नकार दोनों का अतिक्रमण कर जाता है.

‘जो है’ वह विधेय और नकार के अतीत है. या फिर वे दोनों एक हैं और उनमें कोई भेद-रेखा नहीं है. बुद्धि से स्वीकार की गई किसी भी धारण की वहाँ कोई गति नहीं है.

वस्तुत: आस्तिक को आस्तिकता छोड़नी होती है और नास्तिक को नास्तिकता, तब कहीं वे सत्य में प्रवेश कर पाते हैं. वे दोनों ही बुद्धि के आग्रह हैं. आग्रह आरोपण हैं. सत्य कैसा है, यह निर्णय नहीं करना होता है; वरन अपने को खोलते ही वह जैसा है, उसका दर्शन हो जाता है.

यह स्मरण रखें कि सत्य का निर्णय नहीं, दर्शन करना होता है. जो सब बौद्धिक निर्णय छोड़ देता है, जो सब तार्किक धारणाएं छोड़ देता है, जो समस्त मानसिक आग्रह और अनुमान छोड़ देता है, वह उस निर्दोष चित्त-स्थिति में सत्य के प्रति अपने के खोल रहा है, जैसे फूल प्रकाश के प्रति अपने को खोलते हैं.

इस खोलने में दर्शन की घटना संभव होती है.

इसलिए, जो न आस्तिक है न नास्तिक है, उसे मैं धार्मिक कहता हूँ. धार्मिकता भेद से अभेद में छलांग है.

विचार जहाँ नहीं, निर्विचार है; विकल्प जहाँ नहीं, निर्विकल्प है; शब्द जहाँ नहीं, शून्य है- वहाँ धर्म में प्रवेश है.

bindujain
15-02-2013, 04:43 AM
एक रात हीरे-जवाहरात के दो सौदागर किसी दूरदराज़ रेगिस्तान की सराय पर लगभग एक ही वक़्त पर पहुंचे. उन दोनों को एक-दूसरे की मौजूदगी का अहसास था. जब वे अपने ऊंटों से माल-असबाब उतार रहे थे तब उनमें से एक सौदागर ने जानबूझकर एक बड़ा मोती थैले से गिरा दिया.

मोती लुढ़कता हुआ दुसरे सौदागर के करीब पहुँच गया, जिसने बारीकी से मुआयना करते हुए उसे उठाया और पहले सौदागर को सौंपते हुए कहा, “यह तो बहुत ही बड़ा और नायाब मोती है. इसकी रंगत और चमक बेमिसाल है.”

पहले सौदागर ने बेपरवाही से कहा, “इतनी तारीफ करने के लिए आपका शुक्रिया लेकिन यह तो मेरे माल का बहुत मामूली और छोटा मोती है”.

दोनों सौदागरों के पासे ही एक खानाबदोश बद्दू बैठा आग ताप रहा था. उसने यह माजरा देखा और उठकर दोनों सौदागरों को अपने साथ खाने का न्यौता दिया. खाने के दौरान बद्दू ने उन्हें अपने साथ बीता एक पुराना वाकया सुनाया.

“दोस्तों, बहुत साल बीते मैं भी आप दोनों की मानिंद हीरे-जवाहरातों का बड़ा मशहूर सौदागर था. एक दिन मेरा कारवां रेगिस्तान के भयानक अंधड़ में फंस गया. मेरे साथ के लोग तितर-बितर हो गए और मैं अपने साथियों से बिछड़कर राह खो बैठा.”

“कई दिनों तक मैं अपने ऊँट के साथ भूखा-प्यासा रेगिस्तान में भटकता रहा लेकिन मुझे कहीं कुछ नहीं मिला. खाने की किसी चीज़ की तलाश में मैंने अपने ऊँट पर लदे हर थैले को दसियों बार खोलकर देखा.”

“आप मेरी हैरत का अंदाजा नहीं लगा सकते जब मुझे माल में एक ऐसा छोटा थैला मिला जो मेरी नज़रों से तब तक बचा रह गया था. कांपती हुई उँगलियों से मैंने उस थैले को खोला.”

“और आप जानते हैं उस थैले में क्या था?”

“वह बेशकीमती मोतियों से भरा हुआ था.”

bindujain
15-02-2013, 04:44 AM
एक बार गांधीजी सूत कातने के बाद उसे लपेटने ही वाले थे कि उन्हें एक आवश्यक कार्य के लिए तुरंत बुलाया गया। गांधीजी वहां से जाते समय आश्रम के साथी श्री सुबैया से बोले, 'मैं पता नहीं कब लौटूं, तुम सूत लपेटे पर उतार लेना, तार गिन लेना और प्रार्थना के समय से पहले मुझे बता देना।' सुबैया बोला, 'जी बापू, मैं कर लूंगा।' इसके बाद गांधी जी चले गए।

मध्य प्रार्थना के समय आश्रमवासियों की हाजिरी होती थी। उस समय किस व्यक्ति ने कितने सूत के तार काते हैं, यह पूछा जाता था। उस सूची में सबसे पहला नाम गांधीजी का था। जब उनसे उनके सूत के तारों की संख्या पूछी गई तो वह चुप हो गए। उन्होंने सुबैया की ओर देखा। सुबैया ने सिर झुका लिया। हाजिरी समाप्त हो गई । प्रार्थना समाप्त होने के बाद गांधीजी कुछ देर के लिए आश्रमवासियों से बातें किया करते थे। उस दिन वह काफी गंभीर थे। उन्हें देखकर लग रहा था जैसे कि उनके भीतर कोई गहरी वेदना है।

उन्होंने दुख भरे स्वर में कहना शुरू किया, 'मैंने आज भाई सुबैया से कहा था कि मेरा सूत उतार लेना और मुझे तारों की संख्या बता देना। मैं मोह में फंस गया। सोचा था, सुबैया मेरा काम कर लेंगे, लेकिन यह मेरी भूल थी। मुझे अपना काम स्वयं करना चाहिए था। मैं सूत कात चुका था, तभी एक जरूरी काम के लिए मुझे बुलावा आ गया और मैं सुबैया से सूत उतारने को कहकर बाहर चला गया। जो काम मुझे पहले करना था, वह नहीं किया। भाई सुबैया का इसमें कोई दोष नहीं, दोष मेरा है। मैंने क्यों अपना काम उनके भरोसे छोड़ा? इस भूल से मैंने एक बहुत बड़ा पाठ सीखा है। अब मैं फिर ऐसी भूल कभी नहीं करूंगा।' उनकी बात सुनकर सुबैया को भी स्वयं पर अत्यंत ग्लानि हुई और उन्होंने निश्चय किया कि यदि आगे से वह कोई जिम्मेदारी लेंगे तो उसे अवश्य समय पर पूरा करेंगे।

bindujain
15-02-2013, 04:44 AM
सहनशीलता जिसमें नहीं है, वह शीघ्र टूट जाता है. और, जिसने सहनशीलता के कवच को ओढ़ लिया है, जीवन में प्रतिक्षण पड़ती चोटें उसे और मजबूत कर जाती हैं.

मैंने सुना है, एक व्यक्ति किसी लुहार के द्वार से गुजरता था. उसने निहाई पर पड़ते हथौड़े की चोटों को सुना और भीतर झांककर देखा. उसने देखा कि एक कोने में बहुत से हथौड़े टूटकर और विकृत होकर पड़े हुए हैं. समय और उपयोग ने ही उनकी ऐसी गति की होगी. उस व्यक्ति ने लुहार से पूछा, ”इतने हथौड़ों को इस दशा तक पहुंचाने के लिए आपको कितनी निहाइयों की जरूरत पड़ी?” लुहार हंसने लगा और बोला, ”केवल एक ही मित्र. एक ही निहाई सैकड़ों हथौड़ों को तोड़ डालती है, क्योंकि हथौड़े चोट करते हैं और निहाई चोट सहती है.”

यह सत्य है कि अंत में वही जीतता है, जो सभी चोटों को धैर्य से स्वीकार करता है. निहाई पर पड़ती हथौड़ों की चोटों की भांति ही उसके जीवन में भी चोटों की आवाज तो बहुत सुनी जाती है, लेकिन हथौड़े अंतत: टूट जाते हैं और निहाई सुरक्षित बनी रहती है.

bindujain
15-02-2013, 04:46 AM
रविवार का दिन था। सवेरे-सवेरे एक ईसाई सज्जन दीनबंधु एंड्रयूज से मिलने आए। बातें होने लगीं और इस तरह 9 बज गए। दीनबंधु ने घड़ी देखी और हड़बड़ाकर कहा-माफ कीजिए, मुझे चर्च जाना है। उस सज्जन ने कहा- चर्च तो मुझे भी जाना है। चलिए मैं भी आपके साथ चलता हूं। रास्ते में और बातें होंगी। इस पर दीनबंधु बोले-लेकिन मैं आपके वाले चर्च में नहीं जा रहा। सज्जन ने आश्चर्य से पूछा-तो फिर आप प्रार्थना कहां करेंगे?

दीनबंधु मुस्कराए फिर उन्होंने पूछा- क्या आप भी वहां चलेंगे जहां मैं प्रार्थना करता हूं? सज्जन ने सहमति जताई तो दीनबंधु उन्हें अपने साथ ले चले। वह उन्हें शहर की गलियों से दूर गरीबों की एक बस्ती में ले गए। वहां चारों ओर झोपडि़यां थीं। दीनबंधु भी एक झोपड़ी में घुस गए। वह सज्जन भी थोड़े संकोच के साथ उसमें दाखिल हुए। उसमें एक बूढ़ा खाट पर लेटे 10-12 साल के बच्चे को पंखा झल रहा था। दीनबंधु ने बूढ़े के हाथ से पंखा ले लिया और कहा-बाबा, अब आप जाओ। बूढ़े के जाने के बाद दीनबंधु उस सज्जन से बोले-यह बच्चा अनाथ है। इसे टीबी हो गई है। पड़ोस के ये बुजुर्ग ही इसकी देखभाल करते हैं। लेकिन उन्हें 10 से 2 बजे के बीच काम पर जाना होता है। इस बीच मैं इसके साथ रहता हूं। इसकी सेवा करता हूं। चार घंटे बाद वह बुजुर्ग वापस आ जाते हैं और मैं चला जाता हूं। यही मेरी प्रार्थना है और यह झोपड़ी ही मेरा चर्च है। वह सज्जन अवाक रह गए।

bindujain
15-02-2013, 04:47 AM
एक बार एक भला आदमी नदी किनारे बैठा था। तभी उसने देखा एक बिच्छू पानी में गिर गया है। भले आदमी ने जल्दी से बिच्छू को हाथ में उठा लिया। बिच्छू ने उस भले आदमी को डंक मार दिया। बेचारे भले आदमी का हाथ काँपा और बिच्छू पानी में गिर गया।

भले आदमी ने बिच्छू को डूबने से बचाने के लिए दुबारा उठा लिया। बिच्छू ने दुबारा उस भले आदमी को डंक मार दिया। भले आदमी का हाथ दुबारा काँपा और बिच्छू पानी में गिर गया।

भले आदमी ने बिच्छू को डूबने से बचाने के लिए एक बार फिर उठा लिया। वहाँ एक लड़का उस आदमी का बार-बार बिच्छू को पानी से निकालना और बार-बार बिच्छू का डंक मारना देख रहा था। उसने आदमी से कहा, "आपको यह बिच्छू बार-बार डंक मार रहा है फिर भी आप उसे डूबने से क्यों बचाना चाहते हैं?"
भले आदमी ने कहा, "बात यह है बेटा कि बिच्छू का स्वभाव है डंक मारना और मेरा स्वभाव है बचाना। जब बिच्छू एक कीड़ा होते हुए भी अपना स्वभाव नहीं छोड़ता तो मैं मनुष्य होकर अपना स्वभाव क्यों छोड़ूँ?"

मनुष्य को कभी भी अपना अच्छा स्वभाव नहीं भूलना चाहिए।

bindujain
15-02-2013, 04:47 AM
एक मूर्तिकार उच्चकोटि की ऐसी सजीव मूर्तियाँ बनाता था, जो सजीव लगती थीं। लेकिन उस मूर्तिकार को अपनी कला पर बड़ा घमंड था।

उसे जब लगा कि जल्दी ही उसक मृत्यु होने वाली है तो वह परेशानी में पड़ गया। यमदूतों को भ्रमित करने के लिये उसने एकदम अपने जैसी दस मूर्तियाँ उसने बना डालीं और योजनानुसार उन बनाई गईमूर्तियों के बीच मे वह स्वयं जाकर बैठ गया।

यमदूत जब उसे लेने आए तो एक जैसी ग्यारह आकृतियाँ देखकर स्तम्भित रह गए। इनमें से वास्तविक मनुष्य कौन है- नहीं पहचान पाए। वे सोचने लगे, अब क्या किया जाए। मूर्तिकार के प्राण अगर न ले सके तो सृष्टि का नियम टूट जाएगा और सत्य परखने के लिये मूर्तियाँ तोड़ें तो कला का अपमान होगा।

अचानक एक यमदूत को मानव स्वभाव के सबसे बड़े दुर्गुण अहंकार की स्मृति आई। उसने चाल चलते हुए कहा- "काश इन मूर्तियों को बनाने वाला मिलता तो मैं से बताता कि मूर्तियाँ तो अति सुंदर बनाई हैं, लेकिन इनको बनाने में एक त्रुटि रह गई।"

यह सुनकर मूर्तिकार का अहंकार जाग उठा कि मेरी कला में कमी कैसे रह सकत है, फिर इस कार्य में तो मैंने अपना पूरा जीवन समर्पित किया है। वह बोल उठा-
"कैसी त्रुटि?"
झट से यमदूत ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोला, बस यही त्रुटि कर गए तुम अपने अहंकार में। क्या जनते नहीं कि बेजान मूर्तियाँ बोला नहीं करतीं।

bindujain
15-02-2013, 04:48 AM
घटना है वर्ष १९६० की। स्थान था यूरोप का भव्य ऐतिहासिक नगर तथा इटली की राजधानी रोम। सारे विश्व की निगाहें २५ अगस्त से ११ सितंबर तक होने वाले ओलंपिक खेलों पर टिकी हुई थीं। इन्हीं ओलंपिक खेलों में एक बीस वर्षीय अश्वेत बालिका भी भाग ले रही थी। वह इतनी तेज़ दौड़ी, इतनी तेज़ दौड़ी कि १९६० के ओलंपिक मुक़ाबलों में तीन स्वर्ण पदक जीत कर दुनिया की सबसे तेज़ धाविका बन गई।

रोम ओलंपिक में लोग ८३ देशों के ५३४६ खिलाड़ियों में इस बीस वर्षीय बालिका का असाधारण पराक्रम देखने के लिए इसलिए उत्सुक नहीं थे कि विल्मा रुडोल्फ नामक यह बालिका अश्वेत थी अपितु यह वह बालिका थी जिसे चार वर्ष की आयु में डबल निमोनिया और काला बुखार होने से पोलियो हो गया और फलस्वरूप उसे पैरों में ब्रेस पहननी पड़ी। विल्मा रुडोल्फ़ ग्यारह वर्ष की उम्र तक चल-फिर भी नहीं सकती थी लेकिन उसने एक सपना पाल रखा था कि उसे दुनिया की सबसे तेज़ धाविका बनना है। उस सपने को यथार्थ में परिवर्तित होता देखने वे लिए ही इतने उत्सुक थे पूरी दुनिया वे लोग और खेल-प्रेमी।

डॉक्टर के मना करने के बावजूद विल्मा रुडोल्फ़ ने अपने पैरों की ब्रेस उतार फेंकी और स्वयं को मानसिक रूप से तैयार कर अभ्यास में जुट गई। अपने सपने को मन में प्रगाढ़ किए हुए वह निरंतर अभ्यास करती रही। उसने अपने आत्मविश्वास को इतना ऊँचा कर लिया कि असंभव-सी बात पूरी कर दिखलाई। एक साथ तीन स्वर्ण पदक हासिल कर दिखाए। सच यदि व्यक्ति में पूर्ण आत्मविश्वास है तो शारीरिक विकलांगता भी उसकी राह में बाधा नहीं बन सकती।

bindujain
15-02-2013, 04:49 AM
संत तिरुवल्लुवर अपने आश्रम में बैठे थे। आसपास सारे शिष्य अपने-अपने कार्यों में लगे हुए थे। कहीं कोई फर्श की सफाई में जुटा था तो कोई कपड़े धो रहा था। कोई भोजन बनाने में व्यस्त था तो कोई लड़कियां काट रहा था। तभी संत से मिलने एक गृहस्थ आया और संत के साथ धर्मचर्या में लग गया। लेकिन उसके हाव-भाव और बातों से लग गया कि उसे कोई खास परेशानी है। संत ने उसकी परेशानी का कारण पूछा तो वह बोला- प्रभु, भरा-पूरा परिवार है मेरा। बेटे-बेटियां, बहुएं और पोते-पोतियां सब हैं। मगर दिक्कत यह है कि कोई मेरी बात नहीं सुनता। यहां तक कि पोते-पोतियां भी मेरी बातों पर ध्यान नहीं देते। सबने मुझे उपेक्षित कर दिया है। जमाने को देखते हुए मैं किसी को कुछ कहता नहीं। सब को पूरी स्वतंत्रता मिली हुई है अपनी जिंदगी जीने के लिए।

तभी एक शिष्य वहां आया और संत से लकडि़यां बांधने के लिए रस्सी मांगने लगा। संत ने गृहस्थ से कहा- जरा पीछे से सुतली उठाकर मेरे उस शिष्य को पकड़ा देना। सुतली देखकर गृहस्थ हंसता हुआ बोला- महाराज, अगर कमजोर रस्सी से लकड़ियां बांधी जाएंगी तो गट्ठर बंधेगा नहीं, बिखर जाएगा।

संत ने कहा- बिल्कुल ठीक। एकदम यही बात तुम्हारी गृहस्थी पर भी सटीक बैठती है। घर के मुखिया का नेतृत्व और अनुशासन ही अगर ढुलमुल रहेगा तो परिवार भी बिखरेगा ही। परिवार को एकजुट और अनुशासित रखने के लिए तुम्हारा दृढ़ और मजबूत होना जरूरी है। यह बात गृहस्थ के मन में बैठ गई। उसने संत को प्रणाम किया और वहां से चल पड़ा।

bindujain
10-03-2013, 06:35 PM
साधु की सीख
किसी गाँव मे एक साधु रहा करता था ,वो जब भी नाचता तो बारिस होती थी . अतः गाव के लोगों को जब भी बारिस की जरूरत होती थी ,तो वे लोग साधु के पास जाते और उनसे अनुरोध करते की वे नाचे , और जब वो नाचने लगता तो बारिस ज़रूर होती.

कुछ दिनों बाद चार लड़के शहर से गाँव में घूमने आये, जब उन्हें यह बात मालूम हुई की किसी साधू के नाचने से बारिस होती है तो उन्हें यकीन नहीं हुआ .

शहरी पढाई लिखाई के घमंड में उन्होंने गाँव वालों को चुनौती दे दी कि हम भी नाचेंगे तो बारिस होगी और अगर हमारे नाचने से नहीं हुई तो उस साधु के नाचने से भी नहीं होगी.फिर क्या था अगले दिन सुबह-सुबह ही गाँव वाले उन लड़कों को लेकर साधु की कुटिया पर पहुंचे.

साधु को सारी बात बताई गयी , फिर लड़कों ने नाचना शुरू किया , आधे घंटे बीते और पहला लड़का थक कर बैठ गया पर बादल नहीं दिखे , कुछ देर में दूसरे ने भी यही किया और एक घंटा बीतते-बीतते बाकी दोनों लड़के भी थक कर बैठ गए, पर बारिश नहीं हुई.

अब साधु की बारी थी , उसने नाचना शुरू किया, एक घंटा बीता, बारिश नहीं हुई, साधु नाचता रहा …दो घंटा बीता बारिश नहीं हुई….पर साधु तो रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था ,धीरे-धीरे शाम ढलने लगी कि तभी बादलों की गड़गडाहत सुनाई दी और ज़ोरों की बारिश होने लगी . लड़के दंग रह गए
और तुरंत साधु से क्षमा मांगी और पूछा-

” बाबा भला ऐसा क्यों हुआ कि हमारे नाचने से बारिस नहीं हुई और आपके नाचने से हो गयी ?”

साधु ने उत्तर दिया – ” जब मैं नाचता हूँ तो दो बातों का ध्यान रखता हूँ , पहली बात मैं ये सोचता हूँ कि अगर मैं नाचूँगा तो बारिस को होना ही पड़ेगा और दूसरी ये कि मैं तब तक नाचूँगा जब तक कि बारिस न हो जाये .”
Friends सफलता पाने वालों में यही गुण विद्यमान होता है वो जिस चीज को करते हैं उसमे उन्हें सफल होने का पूरा यकीन होता है और वे तब तक उस चीज को करते हैं जब तक कि उसमे सफल ना हो जाएं. इसलिए यदि हमें सफलता हांसिल करनी है तो उस साधु की तरह ही अपने लक्ष्य को प्राप्त करना होगा.

bindujain
26-03-2013, 08:55 PM
"वाह रे प्रभु" रहते कहाँ हो और पता कहाँ का देते हो...
एक बार एक फ़क़ीर भीख मांगने के लिए मस्जिद
के बाहर बैठा हुआ
होता है।
सब नमाज़ी उस से आँख बचा कर चले गए और
उसे कुछ नहीं मिला।
... वो फिर चर्च गया।
फिर मंदिर और फिर गुरुद्वारे।
लेकिन उसको किसी ने कुछ नहीं दिया।
आखिरी में वह हार कर एक शराब की दुकान के
बहार आ कर बैठ
गया।
उस शराब की दुकान से जो भी निकलता उसके
कटोरे में कुछ न कुछ
डाल देता।
कुछ देर बाद उसका कटोरा नोटों से भर
गया तो नोटों से
भरा कटोरा देख कर फ़क़ीर ने आसमान की तरफ
देखा और बोला।
"वाह रे प्रभु" रहते कहाँ हो और
पता कहाँ का देते हो...

bindujain
26-03-2013, 08:57 PM
एक शिक्षिका ने अपने छात्रों को एक निबंध लिखने को कहा....

-निबंध-

प्राथमिक पाठशाला की एक शिक्षिका ने अपने छात्रों को एक निबंध लिखने को कहा. विषय था"भगवान से आप क्या बनने का वरदान मांगेंगे" इस निबंध ने उस क्लास टीचर को इतना भावुक कर दिया कि रोते-रोते उस निबंध को लेकर वह घर आ गयी. पति ने रोने का कारण पूछा तो उसने जवाब दिया इसे पढ़ें, यह मेरे छात्रों में से एक नेयह निबंध लिखा है..
निबंध कुछ इस प्रकार था:-
हे भगवान, मुझे एक टीवी बना दो क्योंकि तब मैं अपने परिवार में ख़ास जगह ले पाऊंगा और बिना रूकावट या सवालों के मुझे ध्यान से सुना व देखा जायेगा. जब मुझे कुछ होगा तब टीवी खराब की खलबली पूरे परिवार में सबको होगी और मुझे जल्द से जल्द सब ठीक हालत में देखने के लिए लालायित रहेंगे. वैसे मम्मी पापा के पास स्कूल और ऑफिस में बिलकुल टाइम नहीं है लेकिन मैं जब अस्वस्थ्य रहूँगा तब मम्मी का चपरासी और पापा के ऑफिस का स्टाफ मुझे सुधरवाने के लिए दौड़ कर आएगा. दादा का पापा के पास कई बार फोन चला जायेगा कि टीवी जल्दी सुधरवा दो दादी का फेवरेट सीरियल आने वाला हे. मेरी दीदी भी मेरे साथ रहने के लिए के लिए हमेशा सबसे लडती रहेगी. पापा जब भी ऑफिस से थक कर आएँगे मेरे साथ ही अपना समय गुजारेंगे. मुझे लगता है कि परिवार का हर सदस्य कुछ न कुछ समय मेरे साथ अवश्य गुजारनाचाहेगा मैं सबकी आँखों में कभी ख़ुशी के तो कभी गम के आंसू देख पाऊंगा. आज मैं "स्कूल काबच्चा" मशीन बन गया हूँ. स्कूल में पढ़ाई घर में होमवर्क और ट्यूशन पे ट्यूशन ना तो मैं खेल पाता हूँ न ही पिकनिक जा पाता हूँ इसलिए भगवान मैं सिर्फ एक टीवी की तरह रहना चाहता हूँ, कम से कम रोज़ मैं अपने परिवार के सभी सदस्यों के साथ अपना बेशकीमती समय तो गुजार पाऊंगा.
पति ने पूरा निबंध ध्यान से पढ़ा और अपनी राय जाहिर की. हे भगवान ! कितने जल्लाद होंगे इस गरीब बच्चे के माता पिता !
पत्नी ने पति को करुण आँखों से देखा और कहा,...... यह निबंध हमारे बेटे ने लिखा है ! 0 Google +0 0 0

bindujain
26-03-2013, 08:59 PM
बिल गेट्स ने एक विशाल साक्षात्कार के जरिए माइक्रोसॉफ़्ट यूरोप के लिए एक नए अध्यक्ष की भर्ती के लिए ...
बिल गेट्स ने एक विशाल साक्षात्कार के जरिए माइक्रोसॉफ़्ट यूरोप के लिए एक नए अध्यक्ष की भर्ती के लिए एक आयोजन किया. एक बड़े कमरे में 5000 से अधिक उम्मीदवार इकट्ठे हुए. इनमें से एक उम्मीदवार अरुण है जो कि एक भारतीय लड़का है.

बिल गेट्स ने सभी उम्मीदवारों को आने के लिए धन्यवाद दिया और कहा कि जो जावा प्रोग्राम नहीं जानते वे कमरे से बाहर चले जाएँ. 2000 लोगों ने कमरा छोड़ दिया. अरुण ने अपने आप से कहा, 'मैं जावा नहीं जानता, लेकिन अगर मैं यहाँ रुका रहा तो भी कोई नुकसान तो नहीं ही है. मैं दौड़ में बने रहने की कोशिश करता हूं'

बिल गेट्स ने उम्मीदवारों से पूछा कि जिन लोगों के पास 100 से अधिक प्रोफ़ेशनल के प्रबंधन का अनुभव नहीं है, वे कमरे से बाहर चले जाएँ, क्योंकि उनके लिए इस चयन प्रक्रिया में कोई संभावना नहीं है.
...
2000 लोग कमरे से बाहर चले गए. अरुण ने अपने आप से कहा, 'मैंने 100 क्या 1 को भी प्रबंधित नहीं किया, अब तक अपने आप को भी नहीं, लेकिन यदि मैं यहाँ रुकता हूं तो क्या नुकसान है? तो वह वहाँ कमरे में बना रहता है.

फिर बिल गेट्स ने उम्मीदवारों से कहा कि जिनके पास बढ़िया, टॉप रैंकिंग इंस्टीट्यूशन का प्रबंधन डिप्लोमा नहीं है, वे कमरे से बाहर चले जाएँ. ऐसे उम्मीदवारों की उम्मीदवारी के अवसर नहीं हैं. 500 लोगों ने कमरा छोड़ दिया. अरुण ने खुद से कहा - 'मैंने तो 15 साल की उम्र में स्कूल छोड़ दिया लेकिन यदि मैं कमरे में बना रहता हूं तो मैं क्या खो दूंगा? तो वह कमरे में बना रहता है.

अंत में, बिल गेट्स उम्मीदवारों से बोलता है कि जो सर्बो भाषा नहीं जानते हैं वे कमरे से बाहर चले जाएँ. इतना सुनते ही भुनभुनाते हुए कोई 498 लोगों ने कमरा छोड़ दिया. अरुण ने अपने आप से कहा, 'मैं सर्बो का एक भी शब्द नहीं जानता, लेकिन यदि मैं यहाँ कमरे में रुका रहूं तो क्या नुकसान है'? तो वह कमरे में टिका रहता है. कमरे में उसके अलावा सिर्फ एक और उम्मीदवार बच रहता है.

तो इस तरह से 2 उम्मीदवारों को छोड़ बाकी सब उम्मीदवार एक एक कर कमरे से बाहर चले गए.

बिल गेट्स बड़ा प्रसन्न हुआ और वह उन दोनों उम्मीदवारों से मुखातिब होकर कहा कि 'चलिए, आप कम से कम दो उम्मीदवार तो इस लायक मिले. तो मैं चाहूंगा कि आप दोनों आपस में सर्बो भाषा में बातचीत करें. मैं आप दोनों को उस भाषा में बातचीत करते देखना सुनना चाहूंगा’

शांति पूर्वक, अरुण उस दूसरे उम्मीदवार की तरफ पलटता है और कहता है, 'का गुरु, का हाल चाल ?'

दूसरा उम्मीदवार जवाब देता है –‘मस्त .. आपन कहा

bindujain
26-03-2013, 09:01 PM
[एक स्त्री एक दिन एक स्त्रीरोग विशेषज्ञ के पास के गई और बोली...

एक स्त्री एक दिन एक स्त्रीरोग विशेषज्ञ के पास के गई और बोली, " डाक्टर मैँ एक गंभीर समस्या मेँ हुँ और मेँ आपकीमदद चाहती हुँ । मैं गर्भवती हूँ, आप किसी को बताइयेगा नही मैने एक जान पहचान के सोनोग्राफी लैब से यह जान लिया है कि मेरे गर्भ में एक बच्ची है । मै पहले से एकबेटी की माँ हूँ और मैं किसी भी दशा मे दो बेटियाँ नहीं चाहती ।"
डाक्टर ने कहा ,"ठीक है, तो मेँ आपकी क्या सहायता कर सकता हु ?" तो वो स्त्री बोली," मैँ यह चाहती हू कि इस गर्भ को गिराने मेँ मेरी मदद करें ।" ... डाक्टर अनुभवी और समझदार था।
थोडा सोचा और फिर बोला,"मुझे लगता है कि मेरे पास एक और सरल रास्ता है जो आपकी मुश्किल को हल कर देगा।"
वो स्त्री बहुत खुश हुई.. डाक्टर आगे बोला, " हम एक काम करते है आप दो बेटियां नही चाहती ना ?? ? तो पहली बेटी को मार देते है जिससे आप इस अजन्मी बच्ची को जन्मदे सके और आपकी समस्या का हल भी हो जाएगा. वैसे भी हमको एक बच्ची को मारना है तो पहले वाली को ही मार देते है ना.?"
तो वो स्त्री तुरंत बोली"ना ना डाक्टर.".!!! हत्या करनागुनाह है पाप है और वैसे भी मैं अपनी बेटी को बहुत चाहती हूँ । उसको खरोंच भी आती है तो दर्द का अहसास मुझे होता है डाक्टर तुरंत बोला, "पहले कि हत्या करो या अभी जो जन्मा नही उसकी हत्या करो दोनो गुनाह है पाप हैं ।" यह बात उस स्त्री को समझ मेँ आयी आ गई ।
वह स्वयं की सोच पर लज्जित हुई और पश्चाताप करते हुए घर चली गई |
क्या आपको समझ मेँ आयी ?

bindujain
27-03-2013, 08:53 PM
जिंदगी की चकाचौंध में आत्मा की न करें उपेक्षा

एक अमीर व्यापारी था. उसके चार बेटे थे. वह अपने चौथे बेटे से सबसे ज्यादा प्यार करता था, क्योंकि वह दिखने में आकर्षक था. वह उसका बहुत ख्याल रखता. वह तीसरे बेटे से भी प्यार करता. उस पर गर्व करता. उसे अपने दोस्तों से मिलाता. वह दूसरे बेटे से भी प्यार करता, क्योंकि वह विचारशील था और विश्वासपात्र भी.
जब भी व्यापारी किसी समस्या से घिर जाता, उसका दूसरा बेटा उसे समस्या से बाहर निकाल लाता. व्यापारी का पहला बेटा बहुत ईमानदार था. व्यापारी की संपत्ति और उसके व्यापार को संभालने में उसका खासा योगदान था.
हालांकि व्यापारी उससे प्यार नहीं करता था, लेकिन वह उन्हें बहुत प्यार करता था. एक दिन व्यापारी बीमार पड़ गया. उसे समझ आ गया कि अब वह मरनेवाला है. उसने चौथे बेटे से कहा, आज तक तुमने मुझसे जो मांगा, मैंने तुम्हें दिया. अब जबकि मैं मर रहा हूं, क्या तुम भी मौत में मेरा साथ दोगे? दूसरा बेटा बोला- ‘कभी नही’. व्यापारी को धक्का लगा. वह टूट गया. उसने तीसरे बेटे से भी यही पूछा. उसने कहा, ‘मैं तो जीना चाहता हूं. मैं अपना नया बिजनेस शुरू करूंगा’.
व्यापारी निढाल हो गया. वह रोने लगा. उसने दूसरे बेटे से पूछा- तुमने हमेशा मुझे मुसीबतों से निकाला है. क्या तुम मरोगे मेरे साथ? दूसरा बेटा बोला- ‘सॉरी, मैं अंतिम संस्कार तक आपके साथ रहूंगा, बस’.
व्यापारी ने दुख से अपनी आंखें बंद कर लीं. तभी उसे सुनायी दिया, मैं आपके साथ मरूंगा पिताजी. यह कहनेवाला उसका पहला बेटा था. व्यापारी ने उसकी तरफ देखा. वह भी व्यापारी की तरह बीमार दिख रहा था. व्यापारी ने पछताते हुए कहा- काश, मैंने तुम्हें सबसे ज्यादा प्यार किया होता, तुम्हारी देखभाल की होती.
दोस्तो, हम सभी की जिंदगी में चार बेटे हैं. चौथा बेटा हमारा शरीर है. हम उसकी कितनी भी देखभाल करें, एक दिन वह हमें छोड़ कर जायेगा ही. तीसरा बेटा है हमारी संपत्ति. जब हम मर जाते है, तो वह दूसरे के पास चला जाता है. दूसरा बेटा हमारा परिवार व दोस्त हैं.
जब हम जिंदा होते है, तब भले ही वे कितने करीब क्यों न हों, मरने के बाद सिर्फ अंतिम संस्कार तक साथ रह सकते हैं. पहला बेटा है हमारी आत्मा, जिसकी हम रुपये, पैसे, शोहरत, खूबसूरती की चकाचौंध में हमेशा उपेक्षा करते हैं. दरअसल वही एकमात्र चीज हैं, जो हमेशा हमारा साथ देती है. बेहतर होगा कि हम उसे मजबूत बनायें, उसका ख्याल रखें.
- बात पते की
* कई लोग अपनी पूरी जिंदगी दिखावटी चीजों को संभालने, बटोरने में लगा देते हैं और बाद में पछताते हैं कि बेवजह इन चीजों पर इतना समय गंवाया.
* आत्मा ही ऐसी चीज है जो हमेशा हमारा साथ देती है, लेकिन जीवन भर हम उसी की * आवाज नहीं सुनते. बेहतर होगा हम शुरुआत से ही उस पर ध्यान दें

bindujain
27-03-2013, 08:58 PM
हर कोई, हर काम में अपना बेस्ट नहीं दे सकता

महात्मा बुद्ध का एक शिष्य उनके पास पहुंचा और बोला, ‘‘आज मैंने एक भिखारी को बुला कर बहुत देर तक उसे धर्म की शिक्षा दी, उपदेश दिये, परंतु उस मूर्ख ने मेरी बातों पर कोई गौर नहीं किया.’’ शिष्य की बात सुन कर बुद्ध ने उसे भिखारी को बुला लाने को कहा. जब भिखारी दीन-हीन अवस्था में आया तो बुद्ध ने उसे भर पेट खाना खिला कर प्रेमपूर्वक विदा कर दिया.
इस पर उनके शिष्य ने आश्चर्य से पूछा, आपने उसे बिना कोई उपदेश दिये भेज दिया. इस पर बुद्ध बोले, आज उसके लिए भोजन ही उपदेश था. उसे प्रवचन से ज्यादा अन्न की जरूरत थी. यही सच्च उपदेश है. यह सुन कर उनका शिष्य निरुत्तर रह गया. उसे अपनी गलती का पता चल चुका था.
प्रोफेशनल लाइफ में भी ऐसे उदाहरण भरे हुए हैं. ज्यादातर लोगों को पता ही नहीं होता कि किससे क्या काम लिया जा सकता है. अगर इस बात की गहराई में जायें, तो मूल सवाल यही है. अगर यह पता चल जाये कि किससे क्या काम लेना है, तो हमारी आधी से अधिक समस्या का हल तो ऐसे ही हो जाता है और ऐसा शायद ही कोई होता है, जिसे कुछ भी नहीं आता हो. कुछ तो आता होगा, उसे वही काम दें, जो वह अच्छी तरह कर सकता है. किसी को भी कोई भी काम दे देना असफलता का सबसे बड़ा कारण है.
उदाहरण के लिए एक सीए फर्म में किसी ऐसे व्यक्ति को आप फील्ड का काम दे दें, जिसे लोगों से इंटरेक्शन रखने में बिल्कुल भी रुचि न हो या किसी ऐसे व्यक्ति को क्लाइंट से बात करने का मौका दें, जिसे बोलने का तरीका न पता हो, तो वह अपने काम में कितना सफल होगा? हां, अगर उसे ही यह काम देना जरूरी है, तो पहले उसे इस बात का प्रशिक्षण दें कि उसे क्लाइंट से कैसे बात करनी चाहिए, उसके बाद ही उसे फील्ड में भेजें. अपनी टीम में यह आकलन करें कि कौन, किस काम में बेस्ट दे सकता है. किसी को भी कोई भी काम केवल इसलिए दे देना कि किसी न किसी को तो यह काम करना ही है, न केवल गलत है, बल्कि आपकी परेशानियों का एक बड़ा कारण भी है. आखिर हर कोई, हर काम में अपना बेस्ट नहीं दे सकता

bindujain
27-03-2013, 09:07 PM
भरोसा रखें, जिंदगी बदलते देर नहीं लगती

आपके साथ कई बार ऐसा हुआ होगा कि आपके हाथ में अगर कोई दो चीजें हों, जिनमें से किसी एक को कूड़े में डालना हो और दूसरे को बैग में रखना हो, तो ध्यान कहीं और रहने के कारण बैग में डाली जानेवाली चीज को आप कूड़े में फेंक देते हैं और कूड़े में डालनेवाली चीजों को बैग में रखने लगते हैं. जब हम निराश होते हैं, तो हमें चारों तरफ सिर्फ नकारात्मकता दी दिखायी देती है. हम यह मान लेते हैं कि जो कुछ भी होगा वह बुरा ही होगा. कुछ अच्छा भी हो रहा हो, तो ढूंढ़ कर हम उसकी बुराई निकालते हैं और उसे ही अपने हिस्से का मान लेते हैं. यह नकारात्मकता की हद है. उम्मीद कभी न छोड़ें. कभी-कभी तो सिर्फ एक फोन कॉल से ही जिंदगी बदल जाती है.
एक मछुआरा था. एक दिन सुबह से शाम तक वह नदी में जाल डाल कर मछलियां पकड़ने की कोशिश करता रहा, लेकिन एक भी मछली जाल में न फंसी. जैसे-जैसे सूरज डूबने लगा, उसकी निराशा गहरी होती गयी. भगवान का नाम लेकर उसने एक बार और जाल डाला. इस बार भी वह असफल रहा, पर एक वजनी पोटली जाल में अटक गयी. मछुआरे ने पोटली निकाला और टटोला तो झुंझला गया और बोला-हाय ये तो पत्थर है! फिर मन मार कर वह नाव में चढ़ा.
बहुत निराशा के साथ कुछ सोचते हुए वह अपनी नाव को आगे बढ़ाता जा रहा था और मन में आगे की योजनाओं के बारे में सोचता चला जा रहा था. मन चंचल था तो फिर हाथ कैसे स्थिर रहता? वह एक हाथ से उस पोटली के पत्थर को एक-एक करके नदी में फेंकता जा रहा था. पोटली खाली हो गयी. जब एक पत्थर बचा था तो अनायास ही उसकी नजर उस पर गयी तो वह स्तब्ध रह गया. उसे अपनी आंखों पर यकीन नही हो रहा था. यह क्या! यह तो ‘नीलम’ था. मछुआरे के पास अब पछताने के अलावा कुछ नही बचा था. नदी के बीचोबीच अपनी नाव में बैठा वह सिर्फ अब अपने को कोस रहा था.
आपकी झोली में भी कई बार ‘नीलम’ आया होगा और आपने उसे पत्थर समझ कर ठुकरा दिया होगा. याद कीजिए ऐसे कितने मौके आपने गंवाये हैं, जब आपको गंवाने के बाद पता चला हो कि आपने कितना कीमती मौका गंवा दिया?