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View Full Version : कलियां और कांटे


jai_bhardwaj
18-01-2013, 06:12 PM
इस सूत्र में मेरे द्वारा अभी तक कुछ पढी, कुछ सुनी और कुछ अंतरजाल में देखी गयी खट्टी-मिट्ठी कहानियों को मैं प्रस्तुत करने का प्रयत्न करूँगा। आप सभी का सहयोग अपेक्षित है।

jai_bhardwaj
18-01-2013, 06:13 PM
गरीबी

गंगा के सपाट मैदानी इलाके में बसा एक छोटा सा गांव कीरतपुर था. जिसमे कुल मिलाकर यही कोई पचास साठ घर होंगे. गाँव के पास से गुजरने वाली एक छोटी सी नहर के कारण गाँव पूरी तरह से आबाद था. गाँव में बड़े बूढ़े सब मिलाकर दो तीन सौ से ज्यादा आबादी न थी .गाँव में सब जाति के लोग थे लेकिन छोटी जाति के लोगों की संख्या ज्यादा थी .इसी गाँव के एक किनारे पर घास फूस से बना टूटा फूटा घर बदलू का था.

इधर बदलू कई दिन से बहुत परेशान था .उसकी बीवी बहुत बीमार थी .उसके पेट में बहुत दर्द था जिसके कारण वह दर्द से कराह रही थी .रात काफी गुजर चुकी थी .उसने किसी तरह अपनी बेटी को तो सुला दिया लेकिन बदलू को अब भी नींद नहीं आ रही थी .वो अंदर गया और काफी देर तक अपनी बीवी के पास बैठा रहा फिर आकर सोने का प्रयास करने लगा .उसने जरा सा झपकी ली ही थी कि बीवी के कराहने की आवाज से फिर उसकी नींद खुल गई .वह धीरे से दबे पाँव अपनी बेटी के पास गया .बेटी को आराम से सोया देखकर उसे कुछ राहत मिली .

इस साल बारिश बहुत कम हुई थी. पास की नहर का पानी भी पूरी तरह से सूख चूका था. भाँदो का महीना आ चुका था लेकिन बादलों का कहीं नामो निशान नहीं था. दूर दूर तक कहीं भी हरियाली नहीं दिखाई दे रही थी . बदलू ने जो फसल बोई थी वह पूरी तरह से सूख गई थी . बदलू के हाथ में अब एक भी पैसा न बचा था. जो दो चार रुपये बचे भी थे वह भी औरत की बीमारी में खर्च हो चुके थे .वह सोच रहा था कि अगर इस साल फसल अच्छी हो जाती तो वह साहूकार का सारा कर्ज चुका देता लेकिन अब वह क्या करे ?जब बहुत कोशिश करने पर भी नींद न आयी तो उसने बाहर आकर देखा, बाहर अभी बहुत अँधेरा था. वह सोंचने लगा कि इससे ज्यादा अँधेरा तो उसकी खुद की जिंदगी में फैला हुआ था .उसने आसमान की और देखा आसमान साफ़ और तारों से भरा हुआ था .वह फिर वापस आकर उस टूटी हुई चारपाई पर लेट गया .सुबह जब उसकी आँख खुली तो उसने देखा कि सूर्य की किरणे अंदर तक आ रही थी .उसने अपनी बेटी को जगाया और लोटे में पानी लेकर उसका चेहरा धुलने लगा. बर्तनों के नाम पर उसके पास अब यही एक लोटा और एक थाली बचे थे. बाकी बर्तन वह पहले ही साहूकार को गिरवी रख चुका था. अंदर जाकर उसने देखा, उसकी बीवी आराम से सो रही थी बदलू ने उसे जगाना ठीक नहीं समझा .

बाहर आकर उसने देखा दोनों बैल भूखे थे फिर भी चारे के इंतजार में शाँति से खड़े थे. बदलू अंदर गया और एक टोकरी भूसा लाकर उनके सामने डाल दिया .बदलू जानता था कि वह इससे ज्यादा भूसा बैलों को नहीं खिला सकता क्यों कि थोडा सा ही भूसा अब और बचा हुआ था .दिन धीरे धीरे चढ़ने लगा .उसने रोटियां बनाने के लिए आटा निकाला पर देखा कि आटा तो बस आज के लिए ही था .उसने उस आटे से चार रोटियां बनाई जिसमे से दो रोटियां बेटी को खिला दी, एक रोटी खुद खाई और एक रोटी बीवी के लिए रख दी .

बीवी के कराहने की आवाज फिर आने लगी थी. वह बहुत परेशान हो गया .उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह उसका इलाज कैसे कराये? घर में एक रूपया भी नहीं था .वह पहले ही साहूकार से पैंतीस रुपये कर्ज ले चुका था .अब तो साहूकार ने भी उसे और कर्ज देने से मना कर दिया था .वह अंदर गया और एक नजर अपनी बीवी को देखा .यह साहूकार के आने का समय हो गया था. वह उससे कर्ज के पैसे वापस मांगेगा, हो सका तो दो चार गालियां भी सुनाएगा .उसने मन ही मन सोंचा कि गालियां तो वह सुन लेगा पर पैसे कहाँ से लौटाएगा? उसने वहाँ पर रुकना ठीक नहीं समझा. इसलिए अपना गमछा उठाकर वह जल्दी से घर से बाहर चला गया .

जब वह वापस आया तो काफी रात हो चुकी थी .उसके आते ही उसकी बेटी दौडकर उससे लिपट गई. बदलू जानता था कि उसे भूख लगी है .उसने जितना भी आटा बचा था उसे गूंथकर तीन रोटियां बनाई .दो रोटियां फिर उसने बेटी को खिला दी .एक रोटी बीवी के लिए रख दी और खुद पानी पीकर लेट गया. बदलू लेट तो गया पर उसे भूख के मारे नींद नहीं आ रही थी .रह रह कर उसे साहूकार के कर्ज की चिंता सता रही थी .वह न तो बीवी का इलाज करवा पा रहा था और न ही साहूकार का कर्ज चुकता कर पा रहा था. बैलों का भूसा भी खत्म होने वाला था और उसके पास उन्हें खिलाने के लिए कुछ भी नहीं बचा था .उसने बैलों को बेचने का फैसला कर लिया .उसने सोंचा कि बैलों को बेचकर साहूकार का कर्ज भी निपटा देगा और बीवी का इलाज भी करा देगा .इस बात से उसे कुछ राहत महसूस हुई और वह निश्चिंत होकर सो गया .

अगले दिन जल्दी ही वह बैलों को लेकर साहूकार के पास पहुँच गया .इससे पहले कि साहूकार कुछ कहता बदलू ने उसके आगे अपना गमछा रख दिया “सरकार मेरी बीवी बहुत ज्यादा बीमार है और तो कुछ मेरे पास है नहीं, मेरे बैल आप रख लीजिए ,कर्ज से जो रुपये बढे वो मुझे दे दीजिए.”

साहूकार ने हिसाब लगाया उसका कर्ज अब ब्याज लगाकर पछ्ह्त्तर रुपये हो चुका था जबकि उसके बैल बहुत ज्यादा करने पर भी साठ रुपये से ज्यादा के न ठहरते थे .इस तरह बदलू पर अब भी पन्द्रह रुपये का कर्ज बनता था. बदलू को उसने और पन्द्रह रुपये लाने को कहकर भगा दिया. बदलू उदास मन से घर की ओर चल दिया. उसकी आखिरी उम्मीद भी टूट चुकी थी. उसके कदम यहाँ वहाँ पड़ रहे थे .घर पहुँचने पर उसने देखा कि उसके घर के बाहर भीड़ जमा थी . बदलू का दिल तेजी से धड़कने लगा. वह वहीँ पर सिर पकड़ कर बैठ गया. उसकी बीवी उसे छोड़कर जा चकी थी. उसकी आँखों से टप टप आंसू बहने लगे .अपनी गरीबी के कारण न तो वह अपनी बीवी का इलाज करा पाया ,न अपने बैलों को बचा पाया और न ही उस साहूकार का कर्ज चुका पाया|

jai_bhardwaj
18-01-2013, 06:20 PM
अचम्भा



” मम्मी!…गुलाब मौसी को हम गुलाब बुआ क्यों नहीं कहते?”…मैं जब छोटीसी बच्ची थी तब एक दिन मैंने अपनी मम्मी से प्रश्न किया!

” क्यों कि वह मौसी है…मौसी मतलब कि माँ की बहन; समझी? गुलाब मेरी बहन है और मैं …आप की मम्मी हूँ मिनी!…तो मेरी बहन आपकी मौसी ही तो हुई ना?” मम्मी ने मुझे समझाते हुए उत्तर दिया!

” ….और कल्पना बुआ जो हमारे घर में रहती है…..वह मेरे पापा की बहन है, इसलिए उसे बुआ कहते है?” मैंने और एक प्रश्न पूछा!

“…हाँ!..मिनी बिटिया! वह आपके पापा की बहन है,इसलिए उसे आप बुआ कहती है!”

“‘मम्मी!..गुलाब मौसी नानाजी के घर में क्यों रहती है”? आप की बहन है तो हमारे घर में क्यों नहीं रहती? मेरी बहन होगी, तो वह कहाँ रहेगी? ” मेरा बाल-मन सोच में पड गया था कि बुआ हमारे घर में रहती है तो मौसी नानाजी के घर में क्यों रहती है!

” अब चुप भी करो मिनी!…क्या मैं सारे काम छोड़ कर तुम्हारे साथ ही बतियाती रहूँ?…तुम बड़ी हो जाओगी तो यह सब समझ जाओगी…अब जाओ बाहर आँगन में जा कर खेलो और मुझे काम करने दो!” मैं आँगन में खेलने चली तो गई लेकिन मेरा बुआ और मौसी के बारे में सोचना जारी ही था!

…जब कुछ बड़ी हो गई तब मेरी समझ में आ गया कि नाना-नानी, मामाजी , मौसी ये सब मम्मी के मायके की तरफ के रिश्तेदार है; और दादा-दादी, ताउजी,चाचाजी और बुआ ये सब मम्मी के ससुराल की तरफ से है!…मम्मी ससुराल में रहती है और अब ससुराल में ही रहेगी! मेरा ध्यान अब सभी के चेहरे की तरफ जाता था!…गुलाब मौसी मुझे बहुत सुन्दर लगती थी! उसका गोरा रंग, काले लंबे बाल, बड़ी-बड़ी काली आँखें देख कर मुझे लगता था…मेरी शकल मौसी जैसी क्यों नहीं है? मौसी जब हँसती है तो उसके दांत कितने सुन्दर दिखते है और मेरे टेढ़े-मेढे क्यों है?…मैं अपनी बुआ जैसी क्यों दिखती हूँ?…मौसी जैसी क्यों नहीं?…कई तरह के सवाल मन में उठते थे!..कुछ का जबाब मम्मी दे भी देती थी और कुछ का जवाब जब उसके पास होता ही नहीं था तो मुझे डांट-डपट कर चुप करा देती थी!

…मैं बड़ी हो गई!..गुलाब मौसी ने बी.एस.सी.नर्सिंग का कोर्स किया था और वह नर्स बन गई थी!…अहमदाबाद के वाडीसारा अस्पताल में वह नर्स थी!..नर्स की यूनिफार्म में तो अब वह बहुत ही सुन्दर लगती थी!…मेरी बुआ स्कूल में टीचर थी…जल्दी ही बुआ की शादी भी हो गई और वह ससुराल चली गई!…अब सभी को गुलाब मौसी की शादी का इंतज़ार था!… ‘इतनी सुन्दर मौसी का दूल्हा भी तो उतना ही हैंडसम होगा!’ मैं मन में सोचती थी! एक दिन पता चला कि गुलाब मौसी ने अपने लिए जीवन-साथी चुन लिया है!

…गुलाब मौसी और डॉक्टर विकास की प्रेम कहानी जल्दी ही घर वालों के कानों तक पहुँच गई! एक दिन डॉक्टर विकास का परिचय गुलाब मौसी ने अपने परिजनों से करवाया! डॉक्टर विकास भी बहुत हैंडसम थे! नाना-नानी को इस शादी से कोई आपत्ति नहीं थी….लेकिन जल्दी ही पता चला कि डॉक्टर विकास के घरवालों की मोटे दहेज की डिमांड थी!.. लगभग दस से -पन्द्रह लाख रूपये का खर्चा था; जो वहन करना नाना-नानी के बस में नहीं था!…और क्या होना था!…शादी होते होते रह गई!..डॉक्टर विकास ने भी अपने पैरेंट्स के खिलाफ जाने से मना कर दिया और किसी और लड़की से शादी कर ली!…लेकिन गुलाब मौसी का दिल टूट गया! उसका शादी की संस्था पर से ही विश्वास उठ गया! वह जीवन भर कुंवारी रही!

jai_bhardwaj
18-01-2013, 06:21 PM
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…समय आगे खिसकता गया! .मेरी शादी हो गई,,मेरी छोटी बहन की भी हो गई और मेरे भाई की भी हो गई!…अब सभी के घर अलग अलग हो गए!..मामाजी. चाचाजी, ताउजी…कोई कहाँ रहता था तो कोई कहाँ रहता था! गुलाब मौसी अब अस्पताल में मैट्रन के पद पर कार्यरत थी! वह बहुत ही सख्त स्वभाव की थी! सभी से कट कर रह गई थी! न किसी के घर जाती थी और न किसी को अपने घर बुलाती थी! होली हो या दिवाली…उसके लिए सब दिन एक जैसे होते थे! किसीसे कोई सारोकार नहीं था! …लेकिन मैं हंमेशा उसकी खोज-खबर लेती रहती थी!..जब भी समय मिले उससे मिलने अस्पताल पहुँच जाया करती थी!..कई बार तो वह मिलने से इनकार भी कर देती थी, लेकिन मैं बुरा नहीं मानती थी…मैं उससे बहुत प्यार करती थी!…वह कंजूस भी बहुत थी! घर पर फोन तक लगवाया नहीं था!..शायद प्रेम में असफलता हाथ आने से उसके अंदर असुरक्षा की भावना पनप उठी थी! एक बार अस्पताल मैं उसे मिलने पहुँच गई तो मुझे पता चला कि गुलाब मौसी रिटायर हो चुकी है और अहमदाबाद के ही पाश इलाके में एक फ्लोर ले कर रह रही है…मैंने उसका एड्रेस हासिल किया और उसके घर पहुँच गई!

…मुझे देख कर मौसी ज्यादा खुश हुई नहीं!…चाय के लिए मुझसे पूछा लेकिन मेरे मना करने पर बनाई भी नहीं!..कुछ इधर उधर की बातें हुई और मैंने उससे विदा लेना ही ठीक समझा!..लेकिन मैंने गुलाब मौसी पीछा नहीं छोड़ा!…कभी कभार उसके घर पर जाती ही रही!

” तुमने आज बहुत सुन्दर साड़ी पहनी है!..” मैं एक दिन गुलाब मौसी घर गई! वह आज खुश लग रही थी…जीवन में पहली बार उसने मेरी तारीफ़ की और मै खुश हो गई!…आश्चर्य भी हुआ!

” थैंक यू मौसी!…क्या बात है? आज मेरी साड़ी की तरफ आप का ध्यान कैसे गया?”…मैंने भी चुटकी ली!

“‘ मिनी!…मैंने सोच लिया!..अब मैं किसी से कट कर नहीं रहना चाहती!…अब तो बुढापा आ गया!..अपने सभी रिश्तेंदारों के साथ मेल-मिलाप बढ़ाना चाहती हूँ!…मुझे बहुत दु;ख हो रहा है कि इतने साल मैं सब से कट कर रही!…हट कर रही…दूर रही! मैं एक पार्टी देना चाहती हूँ! अपने घर पर सभी को आमंत्रित करना चाहती हूँ!…मिनी!..क्या इस काम में मेरी मदद करोगी?”

…मै हैरान थी!…खुश भी हो रही थी कि मौसी में कितना अच्छा बदलाव आ गया!…मौसी ने मेरे से सभी रिश्तेदारों के एड्रेस ले लिए और कहा कि वह निमंत्रण-पत्र छपवाकर, एक निश्चित दिन तय करके सभी को आमंत्रित करेगी!…निमंत्रण-पत्र सभी को पोस्ट द्वारा भेजेगी!…मौसी ने ये भी कहा कि वह सब को सरप्राइज देना चाहती है!

” मिनी..किसी को कुछ मत बताना!…जब निमंत्रण पत्र सभी के हाथ में पडेंगे, तभी सभी को पता चलना चाहिए!…मैं सरप्राइज देना चाहती हूँ!” इस पर मैंने भी खुशी खुशी हामी भर दी और गुलाब मौसी से वादा किया कि किसी को नहीं बताउंगी!…यहाँ तक कि मैं भी निमंत्रण-पत्र मिलने के बाद ही यहाँ पार्टी में आउंगी!..पहले नहीं आउंगी!”

….निमंत्रण-पत्र की राह देख रही थी मैं…. कि अचानक सुबह दस बजे मेरे मोबाइल पर एक कॉल आ गई!

” आप मिनी बोल रही है?” कोई पुरुष बोल रहा था!

” जी…आप कौन”‘

” मैं इन्स्पेक्टर चौहान बोल रहा हूँ….क्या मैट्रन गुलाब देसाई को आप जानती है?…उन्होंने आत्महत्या कर ली है!””

….मैं अंदर तक काँप उठी! सभी रिश्तेदारों को फोन कर दिए और गुलाब मौसी के घर जा पहुँची!…वहाँ पता चला कि पार्टी की पूरी तैयारी थी!…पचीस-तीस लोगों के लिए अच्छे रेस्तोरां से बढिया सा खाना भी मंगवाके रखा हुआ था!..बडासा केक भी टेबल पर सजा हुआ था!…घर में भी बढिया सजावट की हुई थी!….लेकिन बेडरूम से गुलाब मौसी का मृत देह ही मिला!..एक स्यूसाइड नोट भी मिला!…सुबह मेहरी ने बार बार घंटी बजाने बाद भी दरवाजा न खुलने पर पड़ोसियों को सूचित किया…और पडोसियो ने पुलिस को बुला कर दरवाजा खुलवाया था!

….छान-बिन करने पर पुलिस को मौसी की कपड़ों की अलमारी में, कपड़ों की तह के नीचे रखे हुए निमंत्रण पत्र मिले!..उस पर सभी रिश्तेदारों के नाम-पते लिखे हुए थे…पोस्टल स्टैम्प्स भी लगी हुई थी!…पुलिस को एक पर्ची मिली थी जिस पर मेरा नाम और मोबाइल नंबर लिखा हुआ था…सो पुलिस ने मुझे फोन किया था!

…अब सारा भेद खुल गया!…दरअसल मौसी निमंत्रण-पत्रों को पोस्ट करना ही भूल गई थी!..वह सोच रही थी कि सभी रिश्तेदारों को निमंत्रण-पत्र वह भेज चुकी है लेकिन सभी उससे बहुत नाराज है इसलिए कोई नहीं आया! मौसी के स्यूसाइड नोट में उसने यही लिखा था!

” मैं बहुत बुरी हूँ…जीवन भर सब से कट कर रही, सभी को बहुत दु;ख पहुंचाया! …अपनी भूल सुधारना चाहती थी!…सभी को मेरे घर आने के लिए निमंत्रण-पत्र भी भेजें…लेकिन कोई नहीं आया!…मुझे किसीने माफ नहीं किया!..मैं शायद इस लायक नहीं हूँ!….मुझे चाहिए कि अपने आप को सजा दूं…इसलिए नींद कि गोलियाँ खा कर आत्महत्या कर रही हूँ!

-गुलाब, जो किसी की न हो सकी!”

…सभी रिश्तेदार मौजूद थे और सभी की आँखों से आंसू छलक रहे थे!…सब कुछ खत्म हो गया था!…मुझे रह रह कर लग रहा था कि ‘काश! मौसी का कहा न माना होता और सभी रिश्तेदारों को पहले ही बता दिया होता कि मौसी क्या अचम्भा देने वाली है!’

jai_bhardwaj
18-01-2013, 06:24 PM
----------अंतर-------------

सुजाता की शादी उसके माता-पिता ने बीस साल की छोटी उम्र में ही कर दी! वह अपना ग्रैज्युएशन भी पूरा नहीं कर पाई थी कि सौरभ से उसकी शादी की बात चल पडी! सौरभ एक सरकारी कर्मचारी था और किसी सरकारी दफ्तर में हेड-क्लर्क था! सुजाता से दस साल बड़ा था फिर भी रिश्ता तय हो गया और दो महीनों के भीतर शादी भी हो गई! बेचारी सुजाता मन मार कर रह गई!

सुजाता से छोटी दो बहनें और एक भाई भी था सो सुजाता के माता-पिता ने सुजाता को ससुराल भेज कर एक बच्चे की जिम्मेदारी से मुक्ति पा ली! सुजाता के पिता कपडे की एक दुकान पर मुनीम थे. उनकी कम तनख्वाह में ही यह परिवार अपना गुजारा कर रहा था! अब माता-पिता का सारा ध्यान सुजाता से छोटे लड़के वसंत पर था! वसंत पढ़ाई में सामान्य ही था,बारहवी क्लास में पढता था. उसे मोटी फीस वाले इंग्लिश मीडियम के स्कूल में उन्होंने दाखिल करवाया था!डॉक्टर जो बनाना चाहते थे! उसकी पढ़ाई पर वे खुल कर खर्चा करते थे. महंगे टयूशंस भी उसके लिए उपलब्ध कराए गए थे! सोच रहे थे वह डॉक्टर बनेगा तो बहुत कुछ कमा लेगा. उनकी सारी परेशानियां दूर हो जाएगी. जीवन में सुख ही सुख होगा. बेटियाँ क्या ख़ाक देती है!

सुजाता की दोनों छोटी बहनों की पढ़ाई पर या उनके लालन-पालन पर माता-पिता खास ध्यान देते ही नहीं थे. वे कहते थे ’लड़किया है. सरकारी स्कूल में जितनी पढ़ाई कर लेगी ठीक है. उम्र में आने पर उनकी भी शादियाँ कही ना कही कर ही देंगे. आखिर बेटियाँ बोझ ही तो होती है. और भगवान ने हमें तीन तीन बेटियाँ दे दी. पता नही कौन से जन्म के पाप की सजा है ये!

बेटा वसंत बारहवी भी, दो बार परीक्षा दे कर पास हुआ! डॉक्टर कहाँ से बनना था? कोलेज में भी पढ़ने में फिसड्डी ही साबित हुआ. बी.ए. भी पास नहीं कर पाया. अब पिताजी ने अपनी सारी जमा-पूंजी खर्च कर के और अपना मकान तक गिरवी रख कर कर वसंत के लिए रेडिमेड कपड़ों की दुकान ले ली और काम शुरू करवा दिया! आखिर उनका बेटा ही तो था! बेटियों की तरह सिर पर बोझ थोड़े ही था?

सुजाता की एक बहन नताशा. बारहवी पास कर के किसी दुकान पर सेल्स गर्ल का काम करने लगी. अब माता पिता को उसकी शादी की चिंता सताने लगी. शादी पर आने वाले खर्च की चिंता भी सताने लगी. लेकिन नताशा ने अपने लिए खुद ही लड़का ढूंढ लिया और आर्य समाज मंदिर में शादी भी कर ली! उसकी शादी की चिंता अब दूर हो गई थी!

वसंत की रेडिमेड कपड़ों की दुकान अच्छी चल पडी लेकिन अब वह माँ-बाप की बिलकुल ही इज्जत करता नहीं था. रोजाना घर में झगडे होते थे. वह कहता था कि माँ-बाप ने मुझ पर एहसान थोड़े ही किए है. जो कुछ किया वह करना तो उनका फर्ज था! यह परिवार अब किराए के मकान में रह रहा था! बड़ी बेटी सुजाता अब दो बेटियों की माँ बन चुकी थी. उसका कभी-कभार आना भी माँ-बाप को अखरता था! दूसरी बेटी नताशा कभी माँ-बाप से मिलने आती ही नहीं थी! तीसरी बेटी नम्रता पढ़ाई में बहुत ही अच्छी साबित हुई. वह स्कॉलर-शिप ले कर पढ़ती रही और सी.ए. बन गई! उसे अच्छी नौकरी भी मिल गई और बाद में उसने एम्.बी.ए. भी कर ली!

वसंत ने एक अमीर बाप की बेटी से लव्ह-मैरिज कर ली और अलग से फ़्लैट ले कर रहने लगा! अपने सास-ससुर से उसकी पत्नी की बनती नहीं थी! अब माता-पिता के साथ छोटी बेटी नम्रता ही रह गई! वही घर चला रही थी. उसकी तनख्वाह से घर अच्छी तरह चल रहा था! किसी चीज की कमी नहीं थी लेकिन उसके माँ-बाप को अब नई चिंता सताने लगी कि अगर नम्रता शादी कर लेती है तो उनका क्या होगा? उनका खर्चा कैसे चलेगा? वे कहाँ रहेंगे?

अब माता-पिता पछतावे की आग में जल रहे है कि बेटे और बेटियों में उन्होंने फर्क क्यों किया? बेटियों को प्यार क्यों नहीं दिया? बेटियों को कुछ दिया ही नहीं है तो उनसे अपेक्षा भी क्या कर सकतें है? क्या नम्रता को शादी कर के ससुराल जाने से रोक सकतें है? इस कहानी का कोई अंत नहीं है. हां! इस कहानी से बेटे और बेटियों में फर्क करने वाले माता-पिता शिक्षा जरुर ले सकतें है कि बेटियों को भी मान, सम्मान, प्यार और इज्जत देना उनका फर्ज है. बेटियाँ भी बेटों की तरह, उन्ही की संतान है। संतान में अंतर रखना उचित नहीं है।

jai_bhardwaj
18-01-2013, 06:26 PM
---------------समाधान---------------



पांच बजे घडी के अलार्म से आँख खुली और रोज़ की तरह अपनी चाय का कप लेकर मैं बाहर बालकनी मैं जा पंहुंची सुबह सुबह बाहर की ताज़ी हवा ,शांत वातावरण एवं हरियाली के बीच मन को बहुत सुकून का एहसास होता है | लेकिन आज रोज़ की तरह बाहर शान्ति नहीं थी | कॉलोनी के काफी सारे लोग हमारी गली में रहने वाली मिसेज शुक्ला के घर पर इकठ्ठा थे | किसी अनहोनी की आशंका से मन भयभीत होने लगा | चाय का कप वैसे ही छोड़ कर मैं भी जल्दी से मिसेज़ शुक्ला के घर पहुँच गयी तो पता चला की मिसेज़ शुक्ला की पंद्रह दिन से लापता इकलौती बेटी श्रद्धा घर वापस आ गयी है तो मन को को शांति मिली | लेकिन अगले ही पल पता चला की उसकी मानसिक स्तिथि ठीक नहीं है , वह अजीब सी हरकतें कर रही थी , अपने आप से ही बातें कर रही थी | कोई शुक्ला जी को झाड फूक के लिए तांत्रिक बाबा के पास जाने की सलाह दे रहा था तो कोई डॉक्टर के पास ले जाने के लिए बोल रहा था | थोड़ी देर बाद सभी लोग शुक्ला जी को दिलासा और अपनी-अपनी सलाह दे कर अपने-अपने घर को चले गये |

घर आ कर मैं भी सोफे पर बैठ गयी | कुछ काम करने का मन नहीं कर रहा था | आँखों के सामने आज से लगभग चार साल पहले के घटनाक्रम घूम रहे थे , जब श्रद्धा अपनी दसवीं कक्षा में ८०% अंकों से उत्तीर्ण होने की मिठाई ले कर आई थी | उसके दो साल बाद उसने इण्टर भी ८२% अंकों के साथ उत्तीर्ण किया था और इंजीनियरिंग की तैयारी करने लगी | पहले ही प्रयास में वह उसमें सफल हुई | अभी उसे इंजीनियरिंग में गए हुए लगभग एक साल ही बीता था कि अचानक एक दिन वह कॉलेज जाते समय लापता हो गई | शुक्ला जी ने पुलिस में रिपोर्ट की और सब जगह ढूंढा लेकिन कुछ पता नहीं चल पाया | अचानक आज श्रद्धा मिली भी तो इस हालत में………..|

आख़िरकार शुक्ला जी ने श्रद्धा को एक साइकेट्रिस्ट को दिखाया और लगभग चार माह के इलाज के बाद श्रद्धा कुछ बताने की हालत में आ पाई | उसने बताया की वह अपनी इच्छा से एक लड़के के साथ गयी थी उस लडके से उसकी जान पहचान एक सोशल नेटवर्किंग साइट के द्वारा हुई थी | दोनों में दोस्ती हुई , मेल जोल हुआ और दोनों ने शादी करने का फैसला किया | माता पिता को इस डर से नहीं बताया की वह अनुमति नहीं देंगे | उस लड़के के साथ वह दिल्ली चली गयी | वहां जाकर एक छोटे से मंदिर में उन्होंने शादी की | उसके बाद वह लड़का उसे एक सुनसान सी जगह पर बने मकान में ले गया, जो मकान उसने अपने एक दोस्त का बताया | उस लड़के का व्यवहार अब उसके प्रति एकदम बदल गया था | वह उसे बात-बात पर पीटता था और शायद नींद की दवाई भी देता था, क्योंकि वह सारा दिन सोती रहती थी | एक दिन उसने फ़ोन पर उस लड़के को किसी से बात करते हुए सुना की वह उसे २५००० रु. के लिए किसी को बेचने जा रहा है, तो उसे वास्तवकिता का ज्ञान हुआ और एक दिन मौका देख कर वह वहां से भाग निकली और किसी तरह घर वापस आ पायी |

यह केवल एक श्रद्धा की ही कहानी नहीं है , आज हम अगर अख़बार उठा कर देखें, तो रोज इस तरह की खबरें हमें पढने को मिल जाएँगी i हमें इस प्रकार की समस्याओं का समाधान खोजना ही होगा, जिससे हमारी युवा पीढी इस प्रकार की गलती करके अपना जीवन नष्ट न करे i श्रद्धा का भाग्य अच्छा था की वह घर वापस आ सकी और उसके माता पिता ने उसे अपना भी लिया | श्रद्धा जैसी कितनी ही लड़कियां तो घर वापस ही नहीं आ पाती और अगर आ जाती हैं तो उनके माता पिता समाज के डर से उनको अपना नहीं पाते|

मुझे समझ नहीं आता, की ये छोटे-छोटे बच्चे कैसे इतने बड़े हो जाते हैं की अपने जीवन के इतने बड़े-बड़े निर्णय माता-पिता को बताये बिना अपने आप लेने लगते हैं | शायद यह टी. वी. और इन्टरनेट द्वारा दी जाने वाली सूचनाओं का ही परिणाम है | इनका उपयोग करते-करते बच्चे यथार्थ से दूर अपनी एक अलग सपनों की दुनिया बना लेते हैं जहाँ सब कुछ उनकी इच्छा के अनुरूप ही होता है | हमें युवाओं को वास्तविकता और स्वपनलोक में ,अच्छे और बुरे में अंतर करना बताना चाहिए और साथ ही युवाओं को भी अपनी परिपक्वता का परिचय देना चाहिए और समझना चाहिए की जिन माता पिता को वह आज अपना शत्रु समझ रहे हैं, उन्होंने ही उन्हें इतने प्यार से पाल कर इतना बड़ा किया है और उनके प्रति भी उनके कुछ कर्तव्य हैं | शायद तभी इस समस्या और इस प्रकार की अन्य समस्याओं का समाधान संभव हो सकेगा |

jai_bhardwaj
18-01-2013, 06:32 PM
------------------आपकी------------------


रोज रोज की खटपट और ब्यर्थ बहस से तंग आकर एक दिन मैंने अपनी पत्नी से आग्रह किया कि उसको मुझसे जो भी शिकायत है तथा मेरी और अपनी कमियां , गुण , अवगुण सबकुछ वो लिख कर दे !. क्योकि उसका मानना है कि मै उसको बोलने का मौका नहीं देता हूँ तथा उसकी बातों को सही से नहीं समझ पाता हूँ . मै यहाँ उनसे प्राप्त पत्र प्रस्तुत कर रहा हूँ………

मेरे प्रिय,

आपके आदेश को सिर-माथे रखते हुए मैं आज आपके सामने कुछ लिखित प्रस्तुत कर रही हूँ।

अतीत …

जब मेरी शादी हुई तब मैंने हमेशा इस रिश्ते को बहुत ख़ास समझा , बहुत महत्व दिया लेकिन मुझे आपकी तरफ से कभी ऐसा महसूस नहीं हुआ ! मुझे कभी लगा ही नहीं कि आपको ………. ! मैंने कभी भी अपने और आपके बीच अपने माता पिता और रिश्तेदारों को आने नहीं दिया , ( इसका ये मतलब नहीं कि मैं उनसे प्यार नहीं करती हूँ ) लेकिन आप अपने रिश्तों को लेकर उलझे, लड़ते रहे ! इतना हमारे रिश्ते को महत्व नहीं दिया , हमेशा हमारे बीच कोई न कोई आता रहा !

एक लड़की जब अपना घर छोड़ कर दूसरे घर आती है तो ये उनका फ़र्ज़ होता है कि उसकी क्या इच्छाएं है, क्या भावनाएं है, पूछें समझें और बहु का भी फ़र्ज़ होता है कि वो भी ऐसा करे और सामंजस्य स्थापित करे ! आप हमेशा कहते रहे ” वो ये चाहते है, वो वो चाहते है, तुम्हे ऐसा नहीं करना चाहिए” ! कभी ये जानने की कोशिश नहीं की कि क्या मै उन इच्छाओं को पूरा करने में खुश हूँ या नहीं ? मै क्या चाहती हूँ ? आप हमेशा कहते है कि जो आपके जितना करीब होता है वो उतना ही दुखी रहता है लेकिन मैंने ऐसा देखा नहीं कि जिन लोगो को आप अपने दिल के टुकड़े मानते है वो कभी भी दुखी रहते हो, तो इस बात पर यकीन करना मुश्किल था !

खैर ये बातें पुरानी हो गयी, आपने इस विषय में ज्यादा परिवर्तन किया क्योंकि समस्या भी आपने ही ज्यादा उत्पन्न की , ऐसा मुझे लगता है! लेकिन मेरे बार बार कहने पर आपके परिवर्तन से ये समस्या ख़त्म हो गयी इसके लिए बहुत धन्यवाद व आभार! (ये पुरानी बात है इसका अब कोई औचित्य नहीं है! )

वर्तमान ….
मैंने अपने ऊपर कभी भी बहुत रूपया खर्च नहीं किया ! जब आपको देखती थी खर्च करते हुए तो बड़ा अजीब लगता था हमेशा आपको टोकती रहती थी, हूँ ! लेकिन मेरा ऐसा सोचना गलत है , मै खर्च नहीं करती तो वो भी खर्च न करे ये सोचना मेरी गलती है , इसे मै मानती हूँ ! ये अब समझ आ रहा है , सबका अपना अपना स्वभाव होता है ! मै फिजूलखर्च नहीं कर सकती (आप रोकते नहीं है) तो आपसे क्यों उम्मीद करती हूँ कि आप कंजूसी करे ! शायद इसलिए कि मै आप पर अपना सम्पूर्ण अधिकार समझती हूँ, यहाँ पे मै गलत हूँ ! … सॉरी … सॉरी… सॉरी ! ये मै दिल से मान रही हूँ , कोशिश करूंगी कि शतप्रतिशत इसमें सफल होऊं !

आपका मानना है कि अभी भी लड़ाई माता पिता को लेकर होती है, लेकिन ऐसा नहीं है! ये गलत धारणा है ! पिछले ४ – ६ महीनो में हमारे बीच जो भी लड़ाई हुई वो अक्सर रात में हुई ! कभी खाने को लेकर, कभी सोने के समय को लेकर, कभी कभी उनको (माता – पिता) लेकर, ऐसा मेरा मानना है! कई बार (हमेशा नहीं) मेरी बातों को आप तिल का ताड़ बना देते है जिससे खटपट हुई ! मै फोन पे आधा घंटे से ज्यादा बात करती हूँ शायद दिन में एक दो बार! आप दिन में ज्यादा देर तक बात करते हैं आठ दस बार ! लेकिन यहाँ पर भी मै अपनी गलती मानती हूँ और कोशिश करूंगी कि ऐसा न हो!

आपसे एक परिवर्तन अगर हो सके तो मेरी बातों को क्यों क्या कैसे इस नज़रिए से न देखे ( तिल का ताड़ ना बनाये ) ! अगर मै थक गयी हूँ तो रात का खाना आप ९ – ९.३० बजे तक खा लें !

आपने मुझे हमेशा खुश रहने के लिए कहा क्योंकि आपके अनुसार मेरी ख़ुशी में ही आपकी ख़ुशी है , घर का वातावरण मेरी तुलना में आप ज्यादा स्वस्थ व खुशनुमा रखते है ! इस सम्बन्ध में मै पचास प्रतिशत अपने आप को सफल मानती हूँ , पचास प्रतिशत बाकी है! इसका पूरा श्रेय आपको जाता है क्योंकि जैसा मैंने चाहा आपने वैसा माहौल को बनाया !

मै अपने तरफ से कोशिश करूंगी कि ज्यादा टोकाटाकी ना करूँ , स्वतंत्रता दूँ आपको ! सुबह से शाम तक मै खुश ही रहती हूँ ऐसा मुझे लगता है , देर शाम या रात को थकने कि वज़ह से थोड़ी मै भी चिडचिडी हो जाती हूँ पर अब हर समय ये कोशिश करूंगी कि खुश रहूँ ! अबतक हुई गलतियों के लिए सॉरी…..

ईश्वर से यही प्रार्थना है कि वो आपको सदा खुश रखे !

आपकी
……….

jai_bhardwaj
24-01-2013, 07:44 PM
बदलती हवा

बदनाम बस्ती की सबसे जिद्दी लडक़ी इन दिनों बेहद चिंतित और गुस्से में है। उसे बेचैन कर दिया है इस खबर ने कि उस बस्ती की लड़कियां अब देश के गांवों, कस्बों में होने वाले रात्रिकालीन क्रिकेट मैचों में चीयर्स लीडर बनकर जा रही हैं। बात सिर्फ चीयर्स लीडर की नहीं है, इसकी आड़ में देह के धंधे का एक नया रूप शुरू हो गया है। लोगो की जरुरत के हिसाब से बस्ती की चीजें बदल गई हैं। मंडी के हिसाब से चीजें नहीं बदलीं। खुद को कलाकार कहने वाली लड़कियां अपनी कला अब अपने कोठो पर नहीं, लोगो की मांग के अनुसार कहीं भी दिखाने पर आमादा है। इनमें से कोई भी खुद को सेक्सवर्कर नहीं कहती। इन्हें अपना फन पेश करने का लाइसेंस मिला है।

इन गलियों में कभी सूरज उगने का नहीं ढलने का इंतजार रहता था। दरवाजे तभी खुलते थे जब कोई दस्तक देता था। वहां एक परदा था जो हर किसी की जिंदगी से लिपटा हुआ था। उन गलियों से गुजरकर अक्सर हवा अलसाई हुई सी बहने लगती थी। अब हवा में शोखी है। रौनक गली अब किसी पुरानी रंग उड़ी पेंटिंग की तरह दिखती है। नई पीढी ने बहुत कुछ बदल दिया है यहां। उनके पुकारे कोई आए या ना आए, लोगो की पुकार, मांग उन्हें खेतो, खलिहानो से लेकर क्रिकेट के मैदानो तक ले जा रही हैं।

इन दिनों देशभर में आईपीएल का खुमार सिर चढक़र बोल रहा है, वहीं छोटे छोटे नगरों में भी आईपीएल की तर्ज पर क्रिकेट नाइट टूर्नामेंट का चलन शुरू हो गया है। वहां भी दर्शकों के मनोरंजन के लिए सेक्सवर्कर मौजूद हैं। हर चौक्के-छक्के पर उनके ठुमके दर्शकों को सिसकारियों से भर देते हैं। ज्यादा दिन नहीं बीते एक जिले के अधारपुर जगदेव मध्य विद्यालय परिसर में टी-20 नाइट क्रिकेट का आयोजन हुए । मैच के दौरान फूहड़ गानों का शोर उत्तेजना जगाता है। स्थानीय जनप्रतिनिधियों की उपस्थिति और भी चौंकाने वाली है। पूरा ग्राउंड दर्शकों से खचाखच भरा हुआ है। ग्राउंड पर मैच चल रहा है और मंच पर डांस।

jai_bhardwaj
24-01-2013, 07:45 PM
मैदान में मौजूद ग्रामीण क्रिकेट टीम के कई सदस्य नाबालिग भी हैं। न पुलिस का ध्यान इस तरफ गया और सरकारी स्कूल परिसर में इसके आयोजन पर प्रशासन से अब तक कोई आपत्ति जताई है। हैलोजन लाइट के सुरमई अंधेरे में जलवाफरोश बालाएं चंद पैसों की खातिर भरे मैदान में ठुमक रही हैं। इन सबसे बेचैन लडक़ी नसीमा कहती हैं, धंधे का यह नया रूप ‘लॉन्च’ हुआ है, कहां पहले मुजरा और कव्वाली के दौर चलते थे। फिर आया आर्केस्ट्रा और अब ये चीयर्स लीडर का नया चलन। जिले के चतुर्भुज स्थान में परचम संस्था से जुड़ी नसीमा हंसती हैं, ‘आईपीएल में विदेशी लड़कियां हैं, हमारे यहां लोग ‘हाई प्रोफाइल’ चीजों को तुरंत अपना लेते हैं। देखिए, कैसे इस प्रवृत्ति ने एक मुजरे वाली को चीयर्स लीडर में बदल दिया।’ नसीमा बताती हैं कि इस तरह के क्रिकेट मैच ज्यादातर ग्रामीण अंचलों से सम्बद्ध नगरीय इलाको में खूब हो रहे हैं, जहां हर टीम का अपना चीयर्स लीडर होती है।’

यहां सवाल उठ रहा है कि आखिर क्या सिर्फ आईपीएल की लोकप्रियता या उसकी नकल करने की प्रवृत्ति की वजह से बदनाम बस्ती की लड़कियां मैदान में चीयर्स लीडर बनकर पहुंच गई। इस सवाल का उत्तर देते हैं, बदनाम बस्ती पर किताब लिख रहे युवा कहानीकार। वह बताते हैं, ‘अब तो मेलों और मैचो में रंग जमाने के लिए इनका इस्तेमाल होता है। दुख की बात है कि वहां अच्छी गानेवालिया रह गई हैं, न अच्छी नर्तकी। तवायफों ने इलाका छोड़ दिया। बस उनकी कहानियां बच गई हैं। करीब 100 सालों के इतिहास वाली यह बस्ती अब सिर्फ जिस्म की मंडी में तब्दील हो गई है।’ नसीमा तो सारा दोष प्रशासन को देती है, जिसे यह सब दिखाई नहीं देता। वह कहती हैं, ‘क्यों नहीं सरकार देह व्यापार का लाइसेंस दे देती है। कम से कम ये सब अलग-अलग रूप तो चलन में नहीं आते। क्या विडंबना है कि जो लोग इस व्यापार के खिलाफ है, वही लोग देह व्यापार के नए-नए रूप निकाल रहे हैं। चीयर्स लीडर के लिए क्या है? चौक्को-छक्को पर ठुमके? उनके जीवन का क्या?’ इस बस्ती की नई उम्र की लड़कियों में परंपरागत हुनर (मुजरा-कव्वाली) से कटकर हाई प्रोफाइल महफिलों में जाने का आकर्षण ज्यादा है। पहले कद्रदान इनकी दहलीज तक आते थे। अब नई लड़कियां उनके बुलावे पर कहीं भी उपलब्ध हैं-हर रूप में। चाहे वह आर्केस्ट्रा गल्र्स हो या चीयर्स लीडर। कभी महफिल की शान रही जीनत बेगम कहती हैं, क्या करे? कुछ तो करना होगा ना। महफिलें उजड़ गई हैं। राते बेमजा। समाज बदल गया है। पहले रतजगा हुआ करता था। रात रात भर संगीत की महफिल। जमींदार गए, कौन सजाएगा महफिल। पढी लिखी, मुंहफट नसीमा भी दार्शनिक हो उठती हैं, ‘पहले घर में बैठकर रोटी मिलती थी। अब रोटी का टुकड़ा खिसकता जा रहा है। हम उसके पीछे-पीछे जाते जा रहे हैं...।’ वह दुष्यंत का शेर सुनाती है..दुकानदार तो मेले में लुट गए यारो, तमाशबीन दूकानें सजा कर बैठ गए।

jai_bhardwaj
25-01-2013, 06:38 PM
साभार : अंतरजाल

मातापिता और बच्चे

मौजूदा दौर में देश के अलग-अलग हिस्सों में ऐसी बहुत सी घटनाएं हो रही हैं जिनमें पति-पत्नी के झगड़ों में बच्चों को मौत मिल रही है। गृहकलह के चलते पहले बच्चों को मौत की नींद सुलाकर खुद भी आत्महत्या करने की घटनाएं किसी भी संवेदनशील मनुष्य को झकझोर जाती हैं। सहज ही मन में यह सवाल उठता है कि इन निर्दोष मासूम बच्चों का क्या कुसूर था? इन्हें क्यों जिंदगी शुरू होने से पहले ही मौत दे दी गई? चिंता की सबसे बड़ी बात यह है कि ऐसी घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं? संभवतया बच्चों की परवरिश कौन करेगा, जैसे सवालके चलते ही खुदकुशी से पहले बच्चों को मार डालने की घटनाएं हो रही हैं। पिछले एक हफ्ते में अगर यूपी में ही ऐसी चार घटनाएं हुई हैं तो संख्या निश्चित रूप से पूरे देश के लिए चौंकाने वाली है जिसकी ओर सभी का ध्यान जाना चाहिए। जरा इन घटनाओं पर गौर करें।

हालिया दो घटनाएं जो हुई हैं उनमे पहली गाजीपुर जिले के सैदपुर इलाके में दहेज के लिए प्रताडि़त किए जाने से तंग आकर एक विवाहिता ने अपने दो मासूम बच्चों के साथ ट्रेन के आगे कूदकर जान दे दी। मामला खानपुर थाना क्षेत्र के रामपुर गांव का है। यहां के निवासी युवक की शादी वर्ष २००६ में वाराणसी के चोलापुर थाना क्षेत्र स्थित नियार गांव की २४ वर्षीया रजनी के साथ हुई थी। एक सुबह रजनी अपने पुत्री खुशी (०३) और पुत्र युवराज (०१) के साथ सिंधौना आई और वाराणसी से औडि़हार जा रही एक यात्री ट्रेन के आगे कूद गई। तीनों की घटनास्थल पर ही मौत हो गई। हालांकि ससुराल वाले घटना की वजह मामूली पारिवारिक खटपट बता रहे थे, जबकि मृतका के मायके वालों का कहना था कि दहेज में मोटरसाइकिल लाने की मांग को लेकर रजनी को प्रताडि़त किया जा रहा था। इसी कारण वह दोनों बच्चों संग खुुदकुशी करने को मजबूर हुई। मृतका के पिता रामदुलार की ओर से दी गई तहरीर केआधार पर मृतका के पति तथा सास के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर लिया गया है।

दूसरी घटना बहराइच जिले के तुलसीपुर इलाके की है। यहां शादी के 22 साल बाद एक व्यक्ति ने पहली पत्नी के रहते दूसरी शादी रचा ली। पहली पत्नी से छुटकारा पाने के लिए वह अक्सर उसे मारता पीटता। चार बच्चों की मां शकुंतला अपने पति की बेवफाई तो सहन कर गई लेकिन प्रताडऩा बर्दाश्त नहीं कर सकी। उसने पहले अपने बच्चों को जहर मिला कर भोजन खिलाया फिर बाद में वही भोजन खुद भी खा लिया। इलाज के दौरान शकुंतला व उसकी पुत्री उमा देवी (१२) की मौत हो गई। जबकि जबकि तीन बच्चों की हालत नाजुक बनी हुई है। रुपईडीहा पुलिस ने आरोपी पति रामचंदर मिश्रा और उसकी पत्नी ऊषा देवी को गिरफ्तार कर लिया है।

ऐसी ही दो घटनाएं और हुईं। मेरठ जिले के परीक्षितगढ़ कसबे में एक महिला ने अपने दो मासूमों को फांसी पर लटका कर खुद भी फांसी लगा ली। गंधार गेट पर रहने वाले प्रवीण की बीवी कविता ने तीन साल के बेटे आदित्य और एक साल की बेटी भावना को छत के कुंडे पर लटका दिया। बाद में खुद भी पंखे से लटककर जान दे दी। पड़ोसियों ने कमरे का दरवाजा तोडक़र शवों को निकाला।

सीतापुर के तालगांव थाना क्षेत्र में पत्नी से विवाद के बाद एक युवक ने अपनी दो बेटियों के साथ शारदा सहायक नहर में छलांग लगा दी। तीनों नहर में बह गए। बहादुरापुर मजरा कल्याणपुर निवासी शमशाद (२५) पुत्र अख्तर अपनी पत्नी रोजनी, दो साल की बेटी सोनी व छह माह की बेटी मोनी के साथ बस से बिसवां जा रहा था। वह तालगांव क्षेत्र के जीतामऊ चौराहे पर बस से उतर गया। इस बीच शमशाद व उसकी पत्नी में किसी बात को लेकर विवाद हो गया। विवाद के बाद शमशाद की पत्नी वापस घर चली गई। इससे नाराज शमशाद ने अपनी दोनों बेटियों के साथ मोहम्मदीपुर गांव के पास नहर में छलांग लगा दी। बिसवां क्षेत्र में बड़ी बेटी सोनी की लाश बरामद हो गई है।
ये घटनाएं इस बात की ओर संकेत कर रही हैं कि पति-पत्नी की कलह के चलते न केवल परिवार बिखर रहे हैं बल्कि बहुत बड़ी संख्या में बच्चों को जिंदगी से मुंह मोडऩे को मजबूर कर दिया जाता है? यह और कोई नहीं करता बल्कि उनके माता-पिता ही कर रहे हैं।

सवाल पैदा होता है कि क्या जन्म देने वाले को यह हक है कि वह मौत भी दे दे? यह भी एक बड़ा सवाल है कि कैसे ऐसी दर्दनाक घटनाओं को रोका जाए। इस गंभीर मुद्दे पर समाजशास्त्रियों को भी विचार करने की जरूरत है। किसी भी तरह से बढ़ती हुई ऐसी घटनाओं पर तुरंत रोक लगाना जरूरी है।

jai_bhardwaj
03-02-2013, 06:06 PM
गए दिनों, एक के बाद एक, तीन शव यात्राओं (अन्तिम यात्राओं) में शामिल हुआ। चूँकि तीनों अवसर, एक के बाद एक, लगातार आए शायद इसीलिए दो-एक बातें अधिक प्रभाव से अनुभव हुईं। इस अनुभूति के साथ ही साथ याद आया कि ये सारी बातें पहले भी, शव यात्रा में शामिल होते हुए हर बार ही अनुभव तो हुईं थी किन्तु जिस सहजता से अनुभव हुई थीं, उसी सहजता से विस्मृत भी हो गईं। इस बार याद रहीं तो केवल इसीलिए कि एक के बाद एक लगातार तीन प्रसंग ऐसे आ गए।

पहली बात तो यह अनुभव हुई कि अब समयबद्धता पर अधिक चिन्ता, सजगता और गम्भीरता से ध्यान दिया जाने लगा है। याद आ रहा है कि अधिकांश मामलों में, मृतक के परिजनों ने ही समयबद्धता को लेकर स्वतः चिन्ता जताई। कभी-कभार जब ऐसा हुआ कि बाहर से आनेवाले की प्रतीक्षा में, घोषित समय से विलम्ब होने लगा तो शोक संतप्त परिजनों के चेहरे पर क्षमा-याचना के भाव उभरने लगे।

एक बड़ा अन्तर जो मैंने अनुभव किया वह यह कि पहले शव को ‘तैयार’ करने में परिजन सामान्यतः दूर ही रहते थे। ‘मुर्दा तो पंचों का’ वाला मुहावरा मैंने बचपन में खूब सुना था और उस पर उतना ही प्रभावी अमल भी देखा था। किन्तु अब यह मुहावरा अपना अर्थ और प्रभाव खोता हुआ नजर आ रहा है। ‘अन्तिम यात्रा’ के लिए शव को ‘तैयार’ करने में परिजनों की भागीदारी लगातार बढ़ती नजर आ रही है। शुरु-शुरु में तो मुझे यह अटपटा लगा था किन्तु अब लग रहा है कि स्थितिजन्य विवशता के अधीन ऐसा करना पड़ रहा होगा। हमारी आर्थिक नीतियों ने हमारे सामाजिक व्यवहार को किस तरह से प्रभावित और परिवर्तित किया है, यह उसी का नमूना लगता है मुझे। हमारी ‘सामाजिकता’ अब प्रसंगों तक सिमटती जा रही है और हम सब भीड़ में अकेले होते जा रहे हैं। गोया, अब हम ‘अकेलों की भीड़’ में बदलते जा रहे हैं। पूँजीवादी विचार आदमी को ‘आत्म केन्द्रित’ होने के नाम ‘स्वार्थी’ (और मुझे कहने दें कि ‘स्वार्थी’ से आगे बढ़कर ‘लालची’) बनाता है। यह सोच हमारे व्यवहार को कब और कैसे प्रभावित करता है, यह हमें पता ही नहीं हो पाता। यह इतना चुपचाप और इतना धीमे होता है कि हम इसे ‘कुदरती बदलाव’ मान बैठते हैं। शायद इसीलिए, ‘मुर्दा तो पंचों का’ वाली भावना तिरोहित होती जा रही है। गाँवों की स्थिति तो मुझे पता नहीं किन्तु शहरों में तो मुझे ऐसा ही लग रहा है।

इन तीनों ही शव यात्राओं की जिस बात ने सबसे पहले और सबसे ज्यादा ध्यानाकर्षित किया वह है - अर्थी को श्मशान तक पहुँचानेवालों की संख्या में कमी। तीनों मामलों में मैंने देखा कि घर पर जितने लोग एकत्र थे, उसके एक चौथाई लोग ही अर्थी के साथ श्मशान पहुँचे। शेष तीन चौथाई लोग वाहनों से पहुँचे। इनमें से अभी अधिकांश लोग शव के श्मशान पहुँचने से पहले पहुँचे। तीनों ही मामलों में मैं भी इन्हीं ‘अधिकांश लोगों’ में शामिल था। एक समय था जब मैं, नंगे पाँवों, अर्थी को लगातार कन्धा देते हुए, श्मशान तक जाया करता था। किन्तु गए कुछ बरसों से अब केवल अर्थी के उठने के तत्काल बाद, जल्दी से जल्दी, कुछ देर के लिए कन्धा देते हुए, सौ-दो सौ कदम चलता हूँ। तब तक कोई न कोई मेरी जगह लेने के लिए आ ही जाता है और मैं अर्थी छोड़ कर, अपनी चाल धीमी कर, जल्दी ही शव यात्रा के अन्तिम छोर पर आ जाता हूँ और थोड़ी देर रुक कर, अपना स्कूटर लेकर श्मशान के लिए चल देता हूँ। ऐसा करते समय मैंने हर बार पाया कि मुझ जैसा आचरण करनेवाले लोग बड़ी संख्या में हैं और जो कुछ मैंने किया वही सब, वे लोग जल्दी से जल्दी (यथा सम्भव, सबसे पहले) करके, अपने-अपने वाहन पर सवार हो चुके हैं।

लगातार तीन मामलों में यह देखने के बाद अब याद आ रहा है कि ऐसे में अर्थी ढोने का जिम्मा गिनती के कुछ लोगों पर आ जाता है। अच्छी बात यह है कि गिनती के ऐसे लोगों में अधिकांश वे ही होते हैं जो भावनाओं के अधीन यह काम करते हैं। किन्तु कुछ लोग अनुभव करते हैं (यह अनुभव ऐसे लोगों के सुनाने के बाद ही कह पा रहा हूँ) कि वे ‘फँस’ गए थे और चूँकि कोई ‘रीलीवर’ नहीं आया, इसलिए मजबूरी में कन्धा दिए रहे। ऐसे में ‘दुबले पर दो आषाढ़’ वाली उक्ति तब लागू हो जाती है जब, शव यात्रा का मार्ग विभिन्न कारणों से, अतिरिक्त रूप से लम्बा निर्धारित कर दिया जाता है। कहना न होगा कि भावनाओं के अधीन स्वैच्छिक रूप से करनेवाले हों या ‘फँस’ कर, विवशता में करनेवाले हों, दोनों ही प्रकार के लोग सचमुच में थक कर चूर हो जाते हैं। वे मुँह से तो कुछ नहीं बोलते किन्तु श्मशान पहुँचने के बाद उनकी आँखें सबको काफी-कुछ कहती नजर आती हैं।

ऐसे में मुझे हर बार लगा कि अब शव यात्रा के लिए वाहन का उपयोग अनिवार्यतः किए जाने पर विचार किया जाना चाहिए। हमने अपनी अनेक परम्पराओं में बदलाव किया है। कुछ बदलाव अपनी हैसियत दिखाने के लिए तो कुछ बदलाव स्थितियों के दबाव में स्वीकार किए हैं। शव यात्रा के मामले में हमने यह बदलाव फौरन ही स्वीकार कर लेना चाहिए। मेरा निजी अनुभव है कि जिन-जिन परिवारों ने, शव यात्रा के लिए वाहन प्रयुक्त किया, उन्हें सबने न केवल मुक्त कण्ठ से सराहा अपितु उन्हें धन्यवाद भी दिया - अधिसंख्य लोगों ने मन ही मन, कुछ लोगों ने आपस में बोलकर और कुछ लोगों ने ऐसे परिवारों के लोगों से आमने-सामने। अनेक नगरों में तो एकाधिक लोग ऐसे सामने आए हैं जो शव यात्रा के लिए अपनी ओर से निःशुल्क वाहन व्यवस्था किए बैठे हैं। मुझे याद नहीं आ रहा किन्तु हमारे नगर के एक सज्जन यह काम खुद करते हैं। वाहन भी उनका, ईंधन भी उनका और वाहन चालक भी वे खुद। अधिक महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय बात यह कि यह सब करके वे ईश्वर को धन्यवाद देते हैं कि इस काम के लिए उन्हें माध्यम बनाया।

ऐसी बातें करने से लोग प्रायः ही बचते हैं। कन्नी काटते हैं। ऐसी बातें करना ‘अच्छा’ नहीं माना जाता। यह अलग बात है कि अधिसंख्य लोग (ताज्जुब नहीं कि ‘सब के सब’) मेरी इन बातों से सहमत हों।

jai_bhardwaj
05-02-2013, 12:24 PM
वन्दे मातरम्!
सुजलां सुफलां मलयजशीतलां
शस्यश्यामलां मातरम्!

शुभ-ज्योत्सना-पुलकित-यामिनीम्
फुल्ल-कुसुमित-द्रमुदल शोभिनीम्
सुहासिनी सुमधुर भाषिणीम्
सुखदां वरदां मातरम्!

सन्तकोटिकंठ-कलकल-निनादकराले
द्विसप्तकोटि भुजैर्धृतखरकरबाले
अबला केनो माँ एतो बले।
बहुबलधारिणीं नमामि तारिणीं
रिपुदल वारिणीं मातरम्!

तुमि विद्या तुमि धर्म
तुमि हरि तुमि कर्म
त्वम् हि प्राणाः शरीरे।
बाहुते तुमि मा शक्ति
हृदये तुमि मा भक्ति
तोमारइ प्रतिमा गड़ि मंदिरें-मंदिरे।

त्वं हि दूर्गा दशप्रहरणधारिणी
कमला कमल-दल विहारिणी
वाणी विद्यादायिनी नवामि त्वां
नवामि कमलाम् अमलां अतुलाम्
सुजलां सुफलां मातरम्!
वन्दे मातरम्!

श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषिताम्
धरणीं भरणीम् मातरम्।
(साभारः आनन्द मठ् पृ0 60, राजकमल प्रकाशन,संस्करण तृतीय, 1997)

अनुवाद
1.
हे माँ मैं तेरी वन्दना करता हूँ
तेरे अच्छे पानी, अच्छे फलों,
सुगन्धित, शुष्क, उत्तरी समीर (हवा)
हरे-भरे खेतों वाली मेरी माँ।
2.
सुन्दर चाँदनी से प्रकाशित रात वाली,
खिले हुए फूलों और घने वृ़क्षों वाली,
सुमधुर भाषा वाली,
सुख देने वाली वरदायिनी मेरी माँ।
3.
तीस करोड़ कण्ठों की जोशीली आवाज़ें,
साठ करोड़ भुजाओं में तलवारों को
धारण किये हुए
क्या इतनी शक्ति के बाद भी,
हे माँ तू निर्बल है,
तू ही हमारी भुजाओं की शक्ति है,
मैं तेरी पद-वन्दना करता हूँ मेरी माँ।
4.
तू ही मेरा ज्ञान, तू ही मेरा धर्म है,
तू ही मेरा अन्तर्मन, तू ही मेरा लक्ष्य,
तू ही मेरे शरीर का प्राण,
तू ही भुजाओं की शक्ति है,
मन के भीतर तेरा ही सत्य है,
तेरी ही मन मोहिनी मूर्ति
एक-एक मन्दिर में,
5.
तू ही दुर्गा दश सशस्त्र भुजाओं वाली,
तू ही कमला है, कमल के फूलों की बहार,
तू ही ज्ञान गंगा है, परिपूर्ण करने वाली,
मैं तेरा दास हूँ, दासों का भी दास,
दासों के दास का भी दास,
अच्छे पानी अच्छे फलों वाली मेरी माँ,
मैं तेरी वन्दना करता हूँ।
6.
लहलहाते खेतों वाली, पवित्र, मोहिनी,
सुशोभित, शक्तिशालिनी, अजर-अमर
मैं तेरी वन्दना करता हूँ।

bindujain
05-02-2013, 01:08 PM
उड़ता उड़ता मैं फिरूं दीवाना,
ख़ुद से, जग से, सब से बेगाना,
ये हवा ये फिजा, ये हवा ये फिजा,
है ये साथी मेरे, हमसफ़र-
है ये साथी मेरे, हमसफ़र-
आवारा दिल .... आवारा दिल....
आवारा दिल....आवारा दिल....

धूप में छाँव में ,
चलूँ सदा झूमता,
और बरसातों में,
फिरता हूँ भीगता,
साहिल की रेत पे बैठ कभी.
आती जाती लहरों को ताकता रहूँ,
मस्त बहारों में लेट कभी,
भंवरों के गीतों की शोखी सुनूँ,
आवारा दिल.....

रास्तों पे बेवजह,
ढूंडू मैं उसका पता,
जाने किस मोड़ पर,
मिले वो सुबह,
पलकों पे सपनों की झालर लिए,
आशा के रंगों में ढलता रहूँ,
जन्मों की चाहत को मन में लिए,
पथिरीली राहों पे चलता चलूँ,
आवारा दिल....

jai_bhardwaj
09-02-2013, 07:27 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=24739&stc=1&d=1360423620


फैजाबाद के रामभवन में दो वर्ष तक रहे दिवंगत गुमनामी बाबा उर्फ भगवनजी ही नेताजी सुभाष चंद्र बोस थे। यह दावा सुभाष चंद्र बोस राष्ट्रीय विचार केंद्र के सचिव शक्ति सिंह, विधायक अखिलेश सिंह व उनके सहयोगी अनुज धर का है। शुक्रवार को प्रेस क्लब में पत्रकार वार्ता के दौरान इस मामले को लेकर मीडिया के समक्ष कई साक्ष्य प्रस्तुत किए गए और प्रदेश सरकार से अपील की गई कि वह अदालत के आदेश का अनुपालन करते हुए जांच कमेटी गठित करे और तीन माह के भीतर अपनी रिपोर्ट अदालत को सौंपे।

फैजाबाद के रामभवन निवासी शक्ति सिंह की याचिका पर इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने यूपी सरकार को गुमनामी बाबा की पहचान पुष्ट करने के लिए जांच आयोग का गठन करने के लिए विचार करने के निर्देश दिए हैं। शुक्रवार को प्रेस क्लब में मीडिया से मुखातिब होने के दौरान शक्ति सिंह ने बताया कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस उनके घर में भगवनजी के नाम से दो वर्ष तक रहे हैं। नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जीवन पर आधारित पुस्तक इंडियाज बिगेस्ट कवर अप के लेखक व भूतपूर्व पत्रकार अनुज धर ने कई ऐसे साक्ष्य प्रस्तुत किए जिससे साबित होता है कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मौत किसी दुर्घटना में नहीं हुई थी, बल्कि वह पूर्व योजना के तहत रूस चले गए थे। वहां से वह अलग-अलग देशों में आते-जाते रहे। 1955 में वह लखनऊ भी आए थे। यहां वह सिंगार नगर में रुके थे। उसके बाद वह गुमनामी बाबा उर्फ भगवन जी के रूप नीमसार, अयोध्या, बस्ती व फैजाबाद में रहे। सितंबर 1985 को फैजाबाद में वह दिवंगत हुए थे। हाई कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति एमके मुखर्जी आयोग को जांच के दौरान कई महत्वपूर्ण साक्ष्य मिले थे, लेकिन रामभवन से मिले दांतों के डीएनए टेस्ट से सामने आया कि दांत सुभाष चंद्र बोस के नहीं थे।

अनुज धर ने दावा किया कि डीएनए जांच की सरकारी रिपोर्ट मनगढ़ंत है। आयोग व सरकार के पास ऐसे तमाम सुबूत हैं, जिससे साबित हो सकता है कि सुभाष चंद्र बोस ही भगवनजी थे।

भय से गुमनामी में रहे भगवन :

नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बारे में गहन अध्ययन करने वाले अनुज धर ने बताया कि साक्ष्यों से साबित होता है कि भगवनजी को भय था कि उनके सामने आते ही कई देश उनके पीछे पड़ जाएंगे। उन्होंने एक पत्र में लिखा है कि मेरा जनता के सामने आना उचित नहीं है। उन्हें विश्वास था कि उन्हें भारत सरकार की सहमति से ही युद्ध अपराधी घोषित किया गया है। उनका यह भी दावा था कि 1947 के सत्ता हस्तांतरण के अभिलेख सार्वजनिक किए जाएंगे तो भारत के लोग जान जाएंगे कि वह अज्ञातवास में जाने पर क्यों विवश हुए थे?

पर्दे के पीछे से बात करते थे भगवन:

फैजाबाद के सुभाष चंद्र बोस राष्ट्रीय विचार केंद्र के सचिव शक्ति सिंह ने बताया कि उनके एक दोस्त ने उनसे कहा था कि उसके बाबा बीमार हैं। इसी कारण गुमनामी बाबा को रामभवन में रखा गया था। व्हील चेयर से बाबा को रात में डेढ़ बजे उनके घर लाया गया था। वहां उनसे मिलने सीमित लोग आते थे। कुछ लोग कार से भी देर रात आते थे और सुबह होने से पहले ही चले जाते थे। चिट्ठियां भी आती थीं। गुमनामी बाबा ज्यादातर लोगों से पर्दे के पीछे रहकर बात करते थे। वह किसी के सामने नहीं आते थे। उनकी अंग्रेजी बहुत अच्छी थी। वह कई भाषाएं जानते थे।

कमेटी गठित कर जांच की मांग :

- यूपी सरकार हाई कोर्ट के किसी सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में जांच समिति गठित करे। समिति में जांच एजेंसियों के विशेषज्ञ हों और एक वरिष्ठ पत्रकार को भी शामिल किया जाए।

- निजी विशेषज्ञ से डीएनए जांच कराई जाए और जांच में नेताजी सुभाष चंद्र बोस के उन पत्रों को शामिल कर लेखन की भी जांच कराई जाए, जिन्हें उन्होंने गुमनामी से पहले और बाद में लिखे थे।

- भगवनजी के हस्तलेख का परीक्षण अमेरिका या ब्रिटेन की किसी प्रतिष्ठित प्रयोगशाला में कराया जाए।

jai_bhardwaj
09-02-2013, 07:32 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=24740&stc=1&d=1360423955


लोकायुक्त पुलिस की चपेट में आए मुख्य वन संरक्षक बसंत कुमार सिंह के यहां मिले दस्तावेजों से नए-नए खुलासे हो रहे हैं। उनकी काली कमाई का आंकड़ा 75 करोड़ से ज्यादा पहुंच गया है। छानबीन अभी जारी है, जिससे यह आंकड़ा सौ करोड़ तक पहुंचने की संभावना जताई जा रही है।

सीहोर-होशंगाबाद में पोस्टिंग के दौरान वन अधिकारी ने करीब डेढ़ करोड़ रुपये मूल्य की सागौन की लकड़ी भी बेची। बैंक लॉकर से चार लाख का सोना और 17 लाख रुपये की फिक्स डिपाजिट रसीदें बरामद हुई हैं।

भोपाल, वाराणसी, जौनपुर के अलावा उत्तर प्रदेश के अन्य शहरों में भी संपत्ति होने की जानकारी मिली है। जांच के लिए लोकायुक्त पुलिस की एक टीम लखनऊ और वाराणसी भी भेजी जा रही है। गुरुवार को पुलिस उन्हें लेकर उज्जैन से भोपाल के बैंक में लेकर पहुंची। बैंक लॉकर से सोने की गिन्नियां, एक बिस्कुट और हार-चूड़ी आदि निकले। 13 तोला सोने के इन जेवरों की कीमत करीब चार लाख रुपये आंकी गई है। इनके अलावा लॉकर में 17 लाख रुपये की फिक्स डिपाजिट रसीदें भी बरामद हुई। वाराणसी के एचडीएफसी बैंक में उनकी पत्**नी के नाम एक और एकाउंट मिला है, जिसमें करीब तीन लाख जमा हैं। इस बीच सरकार ने वन अधिकारी का तबादला उज्जैन से भोपाल कर दिया।

jai_bhardwaj
22-02-2013, 07:16 PM
पगली .... डा. संजीव मिश्र


आज की सुबह कुछ अजीब सी थी। यूं इस खुशनुमा कालोनी में कोयलों की कूक कई बार मोबाइल रिंग टोन का सा एहसास कराती है किन्तु आज ऐसा नहीं हुआ। आज तो बस अलग-अलग तरह की आवाजों ने झकझोर कर जगाया था। उठ कर छज्जे तक पहुंचा तो देखा मोहल्ले की औरतें पार्क के कोने में इकट्ठा थीं। कहने को यह पॉश कालोनी थी, अगल-बगल के लोग भी एक दूसरे को जान जाएं तो बहुत था, किन्तु यह क्या… आज तो कभी कार से न उतरने वाली, मॉल से सब्जी खरीद कर लाने वाली मिसेज बंसल भी वहाँ दिख गयीं। कुछ रोने जैसी आवाजों के बीच हल्की सी चीख और फिर बेटी… बेटी… जैसी आवाजें फिजां में गूंजने लगी थीं। मैं कुछ समझने की कोशिश करता, तब तक अम्मा दिखायी पड़ गयीं। मैं एक बार फिर अचम्भे में पड़ गया!!

अम्मा और सुबह-सुबह इस तरह मोहल्ले की महिलाओं की भीड़ में। खैर मुझे ज्यादा देर दिमाग नहीं खपाना पड़ा। अम्मा आयीं तो शायद पहली दफा, मैंने दौड़कर दरवाजा खोला था। मेरे मुंह से क्या हुआ अम्मा? क्यों भीड़ लगी थी वहाँ? आप वहाँ क्यों गयी थीं? जैसे सवालों की बौछार सी छूट गयी। अम्मा बोलीं, रुको बताती हूं, क्यों परेशान हुए जा रहे हो। फिर उन्होंने जो बताया उसके बाद मेरे स्मृति पटल में मानो रिवर्स गेयर लग गया था। आज को छोड़ मैं पहुंच गया था, दस साल पहले।

सच्ची, दस साल पहले की ही तो बात है, जब हम इस कॉलोनी में नये-नये रहने आये थे। मोहल्ले में परिचय का सिलसिला बस शुरू ही हुआ था। भले ही शुरुआत में मेरा कोई दोस्त नहीं था किन्तु यह स्थिति बहुत दिन नहीं रही। घर के सामने का वह पार्क दोस्त बनाने में खासा मददगार साबित हुआ। रोज शाम अम्मा मुझे पार्क जाने से नहीं रोकतीं और वहां इक्का-दुक्का लड़कों से दोस्ती की जो शुरुआत हुई, वह कुछ महीनों में पूरी क्रिकेट टीम में तब्दील हो गयी। उसी पार्क में वह भी आती थी। हम अपनी क्रिकेट किट के साथ पहुंचते और वह अपने पालतू कुत्ते के साथ। उसके पहुंचने के साथ ही पार्क की हमारी खुशनुमा क्रिकेट टीम का रंग-ढंग भी मानो बदल जाता था। हर किसी की नजर उसकी ओर होती और वह थी कि किसी से बात ही नहीं करती। कुछ देर अपने कुत्ते को टहलाने के बाद वह तो लौट जाती, किन्तु हम सब मानो उसके पीछे ही टहलते रहते।

उसके बारे में पता करने की होड़ सी लगी थी। हमें पता भी चल गया था कि वह अपने माता-पिता की एकलौती संतान है। वह लाडली बेटी है और उसकी हर बात माता-पिता जरूर मानते हैं। कुल मिलाकर हमारी बातों में बस वह होती और उसकी चाल-ढाल। मैं भी तो मानो उसका मुरीद ही था। उसकी सिर से लपेट कर चुन्नी ओढ़ने की अदा, हमेशा लंबे सलवार सूट पहनने की आदत जैसी तमाम कितनी ही चीजें मानो मैंने गांठ बांध रखी थी। कोई उसके लिए कुछ उल्टा सीधा कहता तो मैं लड़ बैठता। पता नहीं क्यों, बर्दाश्त नहीं होता था, उसके लिए कोई कमेंट। अब तो मेरी टीम के साथी उस पर कोई चर्चा करने के साथ मेरी ओर इशारा कर कहते, भइया इनके सामने ज्यादा कुछ मत कहना, मुंह फुला लेंगे। कोई उसे मेरी वाली कहता तो कोई कुछ और, पर इतना तय था कि हमारी शामें उसके कसीदे काढ़ते कटती थीं।

इन्हीं कसीदों के साथ एक दिन घर लौटा तो अम्मा एक शादी का कार्ड पढ़ रही थीं। मैंने पूछा, किसकी शादी का कार्ड है और उसके बाद तो मानो मेरे कानों में लावा सा घुल गया था। उसी की शादी थी…. जी हां, वही पार्क वाली, मेरी वाली… शादी करने जा रही थी। कई दिन लगे मुझे संभलने में। फिर अम्मा को साथ लेकर उसकी शादी में भी गया। सच… क्या लग रही थी। बहुतों की खुशी के बीच मैं खासा दुखी सा थी। ऊपर से मेरी टीम के लोग। कोई मुझे चिढ़ाने का मौका नहीं छोड़ रहा था। गयी तेरी वाली… जैसे कटाक्ष मुझे सुनने पड़ रहे थे। अगले दिन वह विदा हो गयी और तमाम स्मृतियों के साथ जिंदगी भी चलने ही लगी थी।

jai_bhardwaj
22-02-2013, 07:18 PM
….धीरे धीरे पांच साल बीत गये। खुशनुमा कालोनी का खुशनुमा स्वरूप बदस्तूर कायम रहा। तमाम नये लोग आ गये। पार्क अब भी था, पर मेरा वहां जाना थम चुका था। उसके जाने के बाद पार्क की शाम सूनी सी जो हो गयी थी। अचानक एक शाम छज्जे पर खड़ा था, तभी आंखों के आगे कुछ अलग सा उजाला चमका। वह एक बैग के साथ घर से कुछ दूर पर रिक्शे से उतर रही थी। यूं, वह इन पांच वर्षों में बीच-बीच में आती-जाती रही किन्तु उसका पति हमेशा उसके साथ होता था। इसके विपरीत इस बार वह अकेली आयी थी। उसका चेहरा उतरा हुआ था और उदासी साफ नजर आ रही थी। वह सिर झुकाए हुए ही आगे बढ़ी और घर में घुस गयी। इसके बाद रोज शाम मैं तो छज्जे पर होता किन्तु वह दिखाई नहीं देती। इन पांच वर्षों में उसका मायका भी बदल चुका था। पिता की मौत हो चुकी थी और मां अकेले जीवनयापन को मजबूर थी। वह मां-बेटी घर से बाहर कम ही निकलते और मेरे सवाल थे कि बढ़ते ही जा रहे थे। वह इस तरह अकेले क्यों आयी और फिर रुक क्यों गयी जैसे सवालों के बीच एक बार फिर वह मेरे इर्द-गिर्द सी रहने लगी थी। अचानक वह शाम भी आ गयी, जब मुझे सभी सवालों के जवाब मिलने थे। अम्मा ही इस बार भी मेरी जानकारी का माध्यम बनीं। उन्होंने बताया कि ससुराल पहुंचने पर तो उसे सबने सिर माथे पर बिठाया। बड़ी-बड़ी बातें हुईं। खूब आशीष दिये गये।

पर, यह सब कुछ बहुत दिन नहीं चला। पांच-छह महीने होते ही सास को अपने वंश की चिंता सताने लगी। हर कोई उसे मां बनते देखना चाहता था। विवाह के दो वर्ष बीतते-बीतते तो उसके गर्भवती न होने के लिए उसे ही जिम्मेदार मान लिया गया। अब तो कभी कभी पति उसकी पिटाई भी करने लगा था। यह सिलसिला बढ़ने लगा। बीच-बीच में सास भी हमलावर होने लगी। वह भी स्वयं मां न बन पाने के लिए खुद को ही जिम्मेदार मान कर सब सह रही थी। ….लेकिन उस दिन तो हद ही हो गयी। शाम को अचानक उसका पति घर आया और उसका सामान निकालकर एक बैग में पैक कर दिया। उसके पति व सास ने उसे पीटा और धक्के देकर घर से बाहर निकाल दिया। वह तड़प रही थी, तभी उसका पति बाहर निकला, एक रिक्शा लेकर आया और उसे उस पर बिठा दिया। वह भी सुबकते हुए अपने मायके चली आयी।


…लेकिन उसकी जिंदगी में तो मानो अभी दर्द ही दर्द बाकी था। अचानक एक दिन खबर आयी कि उसका पति दूसरी शादी कर रहा है। वह भाग कर पहुंची लेकिन उसकी नहीं सुनी गयी। वह पुलिस के पास गयी किन्तु वहां से भी निराश लौटना पड़ा। इस घटना के बाद वह टूट गयी। वह लौटी और बस रोती रही। उसे अब दुनिया में कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। नियति शायद उसके साथ लगातार खिलवाड़ सा करना चाहती थी। आंसुओं के सैलाब के बीच एक सुनामी सा आया और उसकी मां को अपने साथ ले गया। मां की मौत के बाद तो उसने सुध-बुध सी खो दी थी। वह घर से निकलती तो कई बार कई-कई दिन तक नहीं आती। इस हालात में कुछ महीने बीतते-बीतते लोग उसे पगली कहने लगे थे। कभी पार्क की बेंच पर तो कभी मंदिर के चबूतरे पर उसकी रात बीत जाती। वह अपने आपको भूल सी चुकी थी। कोई उसे खाने को दे देता, तो वह खा लेती वरना भूखी ही बनी रहती। उसकी खुराक के साथ भी मानो सौदे से होने लगे थे और आज यह साबित भी हो चुका था।

और आज जिन चीखों के बीच मैं छज्जे पर पहुंचा था, वह उसके प्रसव की चीखें थीं। उसके पागलपन का फायदा उठाकर किसी ने उसकी इज्जत के साथ खिलवाड़ किया था और इस बार वह गर्भवती हो गयी थी। गर्भवती न होने के जिस दंश के कारण उसकी यह दशा हुई थी और उसे खुद ही मातृत्व का एहसास नहीं था। वह तो बस चीख रही थी। मेरे दिमाग में भी पता नहीं क्या क्या चल रहा था। मैं उसके पति को कोस रहा था। उसके इस हाल का जिम्मेदार तो पति ही था। वह खुद ही पिता बनने के काबिल नहीं था और दोष उस पर मढ़ दिया गया। समाज की यह विसंगति आज मुझे परेशान कर रही थी।

jai_bhardwaj
22-02-2013, 07:18 PM
तमाम बातें हो रही थीं। कोई उस पर तरस खा रहा था तो कोई चटखारों के साथ उसकी कहानियां बना रहा था। इन सबके बीच मुझे गुस्सा आ रहा था, उस पति पर जिसने अपनी कमियों की सजा उसे दी थी। मेरा वश चलता तो शायद आज मैं उसके प्रति अपने प्रेम का सर्वस्व समर्पण कर देता। इस विचार मंथन के बीच उसकी नवजात बेटी का क्रंदन भी कानों तक पहुंच रहा था। मैंने एक बड़ा फैसला लिया। तय किया कि वह बेटी अब मेरे घर पढ़ेगी। मैंने मां को साथ लिया, सीढ़ियों से उतरा, और पुराने कपड़ों में लिपटी उस बच्ची को संभाल लिया। मुझे नहीं पता कि ऐसा क्यों था किन्तु आज मुझे अलग सा एहसास हो रहा था। कई वर्षों में जिससे बात करने का साहस न जुटा सका, उसे अस्पताल ले जा रहा था और बेटी मेरी गोद में आकर चुप भी हो गयी थी।

jai_bhardwaj
23-02-2013, 07:58 PM
किसी लड़की को अगर अपना काम निकलवाना है तो कहा जाता है कि बस वह एक बार मुस्कुरा कर देख दे तो एक क्या हजारों लड़के वह काम करने के लिए तैयार हो जाएंगे. उसके चेहरे की एक मुस्कुराहट लड़कों के दिल को छलनी करने के लिए काफी है. लेकिन हम यहां जो बात कहने जा रहे हैं वह इसके बिल्कुल विपरीत है क्योंकि ना सिर्फ लड़के बल्कि लड़कियां भी लड़कों की एक स्माइल पर फिदा होकर उनके सारे काम करने के लिए तैयार हो जाती हैं. अन्य शब्दों में कहा जाए तो वे पुरुष जिनकी मुस्कान लड़कियों का मन मोह ले वह दूसरे पुरुषों की तुलना में महिलाओं से मनचाहा काम करवाने में सक्षम हैं.

ग्रेनाडा विश्वविद्यालय (स्पेन) के शोधकर्ताओं ने अपने एक सर्वेक्षण में यह प्रमाणित किया है कि अगर कोई पुरुष महिला को देखकर मुस्कुरा दे तो महिलाएं उनके साथ बहुत नम्र तरीके से व्यवहार करती हैं.

डेली मेल में प्रकाशित इस रिपोर्ट के अनुसार शोधकर्ताओं का कहना है कि अगर कोई पुरुष मुस्कुराने के बाद महिला को कोई कामुक कमेंट भी देता है तो भी महिलाएं उस पर नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं देतीं. इस शोध में जितने भी महिलाओं और पुरुषों को शामिल किया गया उनके व्यवहार पर अध्ययन करने के बाद यह बात प्रमाणित हुई कि भले ही महिलाएं प्रभावी भूमिका में क्यों ना रहें लेकिन अगर उनका पुरुष साथी या फिर कोई अजनबी पुरुष ही उनसे मुस्कुराकर कुछ कहता है तो वह फटाफट उनकी बात मानने के लिए तैयार हो जाती हैं.


लेकिन शारीरिक व्यवहार विज्ञान की जानकार पैटी वुड के अनुसार यह अध्ययन और इसके निष्कर्ष थोड़े परेशान करने वाले हैं क्योंकि अगर महिलाएं अपने स्वभाव और अपने व्यवहार को पुरुषों की भाव-भंगिमाओं को देखकर परिवर्तित करेंगी तो निश्चित ही यह उनकी अपनी पहचान के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकता है. पैटी वुड की सलाह भारतीय परिदृश्य के अनुसार भी इसीलिए सही कही जा सकती है क्योंकि एक तो पहले ही भारतीय समाज में महिलाओं की भूमिका और उनके स्थान को ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता और इसके साथ ही किसी पुरुष से जरूरत से ज्यादा घुलना-मिलना भी महिलाओं के लिए सही नहीं कहा जा सकता. इसके विपरीत महिलाओं को चाहिए कि वह सही और गलत का निर्णय पुरुषों की भाव-भंगिमाओं और उनके व्यवहार को देखकर नहीं बल्कि अपनी अपेक्षा और जरूरत के आधार पर पुरुषों के साथ संबंध रखें. उदाहरण के तौर पर ही ले लीजिए कि अगर कोई पुरुष आपसे कामुक बात करता है और आप इस पर सामान्य भाव देती हैं तो उसका अर्थ वह यही लेगा कि वह आगे भी आपसे ऐसी बातें कर सकता है और, निश्चित ही यह आपकी अपनी छवि को धूमिल करता है.

jai_bhardwaj
24-02-2013, 07:29 PM
एक औरत ही औरत की सबसे बड़ी दुश्मन है, यह बात तो आपने कई बार सुना होगा लेकिन एक मां अपनी ही बेटी की खुशियां छीनकर बहुत खुश है, यह शायद आप पहली बार सुन रहे होंगे. जिस घटना का जिक्र हम यहां करने जा रहे हैं वह आपके होश उड़ाने के लिए काफी है कि कैसे एक बुजुर्ग मां ने अपने बेटी के सुहाग को हथिया कर उसे अपना बना लिया.

मां-बेटी के भावनात्मक रिश्ते और सास-दामाद के मर्यादित संबंध की अहमियत को तार-तार करते हुए आठ बच्चों की मां ने घर से भागकर अपनी बड़ी बेटी के पति से विवाह कर लिया और जब सामाजिक दबाव और लोकलाज के कारण उसे अपनी गलती का एहसास हुआ तो उस महिला ने जहर खाकर आत्महत्या करने की नाकाम कोशिश भी की.

घटना बिहार के जिले समस्तीपुर की है जहां करीब दो साल पहले मल्हीपुर निवासी अशोक कुमार यादव की शादी गंगो देवी की बड़ी बेटी से हुई और विवाह के बाद दामाद, सास और बेटी शहर के ही एक होटल में खाना बनाने का काम करने लगे और वहीं एक कमरा लेकर रहने लगे. एक ही कमरे में रहने के कारण दामाद और सास के बीच नजदीकियां बढ़ने लगीं और अंतत: उन्होंने विवाह करने का निश्चय कर लिया. पहले उन्होंने बेटी को घर से भगाया और फिर चोरी-छिपे विवाह कर लिया.

बेटी ने अपने साथ हुए इस अन्याय के खिलाफ गांव में ही मोर्चा खोल दिया और ग्रामीण लोगों ने उन पर अपने संबंध को तोड़ने का दबाव बनाया. ना तो महिला इस बात के लिए राजी हुई और ना ही दामाद को कोई इस बात के लिए राजी कर पाया कि वह अपनी सास को छोड़कर पत्नी के साथ रहे. जब बात नहीं बनी तो महिला के बेटे को बुलाया गया और इस बीच महिला ने जहर खाकर आत्महत्या करने का प्रयास किया.

एक ओर जहां हम महिला सशक्तिकरण की बात करते हैं वहां जब महिलाएं ही एक दूसरे के अधिकार छीनकर अपने जीवन में खुशियां भरने की कोशिश कर रही हैं तो हम कैसे महिला उत्थान और उनके अधिकारों की उम्मीद कर सकते हैं.

शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा ग्रामीण इलाकों में रिश्तों को अहमियत दी जाती है, यह हमने कई बार सुना है लेकिन ऐसी अहमियत का क्या फायदा जो किसी के जीवन, उसकी खुशियों के लिए विनाशक बन जाए.

शहरों के विषय में तो यह आसानी से कहा जाता है कि वहां आधुनिकता हावी हो चुकी है और इंटरनेट संस्कृति ने शहरी नागरिकों की मानसिकता को बदल कर रख दिया है. लेकिन बिहार का एक पिछड़ा हुआ ग्राम जो शायद आधुनिकता की बयार से कोसों दूर है, वहां यह सब होने का क्या कारण है?

आज सामाजिक मानसिकता ने रिश्तों की मर्यादा को नकारात्मक ढंग से प्रभावित किया है जिसके लिए एक नहीं बल्कि कई कारण जिम्मेदार हैं.

सास और दामाद के बीच बढ़ी यह नजदीकी एक पूरे परिवार के लिए घातक सिद्ध हुई लेकिन यह ऐसा अकेला मामला नहीं है. पहले भी बाप-बेटी, मां-बेटे और ससुर-बहू के बीच रिश्तों की ऐसी अनैतिक कहानियां सुनाई देती रही हैं.

क्या हम कभी इस सवाल का जवाब ढूंढ़ने की कोशिश करेंगे कि आखिर ऐसा क्यों होता है या फिर हर बार की तरह इसे भी बस एक पारिवारिक मसला मानकर नजरअंदाज कर दिया जाएगा.

jai_bhardwaj
24-02-2013, 07:39 PM
टी.वी. और इंटरनेट के बढ़ते प्रचलन के कारण आज लगभग सभी वर्गों के लिए इन तक अपनी पहुंच बनाना बहुत आसान हो गया है. विभिन्न जानकारियां हासिल करने के लिए या फिर मनोरंजन के ही उद्देश्य से बच्चों से लेकर बड़े यहां तक कि बुजुर्ग भी अब इन तकनीकों का फायदा उठा रहे हैं. लेकिन वो कहते हैं जहां फायदे हैं वहां कई नुकसान भी होते हैं. ऐसा ही कुछ यहां भी है.

टी.वी और इंटरनेट की दुनिया बहुत विस्तृत है. दुनिया में कब, क्या होने वाला है और आगे भी क्या हो सकता है आदि जैसी सभी जरूरी और गैर जरूरी सूचनाएं बस पल भर में ही हासिल हो सकती हैं. इन सभी सुविधाओं ने हमारे युवाओं की उत्सुकता और जिज्ञासा को अत्याधिक प्रभावित किया है और परिणाम यह हुआ कि एक उपयुक्त आयु में पहुंचने से पहले ही आज युवाओं की दिलचस्पी शारीरिक संबंधों के प्रति बढ़ने लगी है.

पहले ऐसा माना जाता था कि महिलाओं की अपेक्षा पुरुष शारीरिक संबंधों में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं लेकिन अब इसे आधुनिकता का परिणाम कह लें या फिर कुछ और लेकिन स्वभाव से शालीन और संकोची समझे जाने वाली भारतीय महिलाएं भी अब सेक्स से जुड़ी हर छोटी-बड़ी जानकारियों से अवगत होने की कोशिश कर रही हैं.


पोर्न वेबसाइट्स देखना हो या अश्लील फिल्में, इतना ही नहीं अश्लील जोक्स में भी महिलाएं बढ़ चढ़कर हिस्सा ले रही हैं. यह लक्षण उन युवतियों में ज्यादा देखने को मिल रहे हैं जो घर से दूर हॉस्टल में रहती हैं. हाल ही में हुए एक अध्ययन में यह बात सामने आई है कि हॉस्टल में रहने वाली लड़कियों में पोर्न मूवीज देखने का चस्का बहुत बढ़ता जा रहा है. राजधानी दिल्ली के अलग-अलग क्षेत्रों में हुए इस सर्वे में यह प्रमाणित हुआ कि अगर 60 प्रतिशत लड़के पोर्न वेबसाइट्स देखते हैं तो वहीं 40 प्रतिशत लड़कियों में भी पोर्न वेबसाइट्स देखने की आदत बढ़ती जा रही है.


छोटे-छोटे शहरों और गांव से बड़े-बड़े सपने लेकर राजधानी का रुख करने वाली लड़कियों में अश्लील फिल्में देखने का नशा बढ़ता जा रहा है. यह बात सर्वे में शामिल उन लड़कियों ने स्वीकारी है जो हर रोज पोर्न वेबसाइट्स विजिट करती हैं. उनका कहना है कि गर्ल्स हॉस्टल या फ्लैट में पूरी प्राइवेसी मिलती है इसीलिए ग्रुप बनाकर सभी की मर्जी के साथ पोर्न फिल्में देखी जाती हैं.


सर्वे में यह सामने आया है कि पोर्न फिल्में देखने जैसे अपने शौक को पूरा करने के लिए हॉस्टल में रहने वाली लड़कियां किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हैं. वे अपने परिवार से ज्यादा पैसे मंगवाती हैं ताकि इंटरनेट लगवा सकें और कभी अगर पैसे ना भी हों तो भी वे अपने दोस्तों से उधार लेने में कोई परेशानी महसूस नहीं करतीं. टीवी, इंटरनेट, लैपटॉप, 3-जी वाले मोबाइल जैसी आधुनिक तकनीकों का फायदा उठाने वाला युवा आज इन्हीं सब सुविधाओं का आदि भी बन कर रह गया है. आज हालात ऐसे बन पड़े है कि खुद युवा इन सब के बिना खुद को अधूरा समझने लगा है. बस एक क्लिक से हम किसी भी जानकारी, किसी भी साइट तक अपनी पहुंच आसानी से बना सकते हैं. सर्वे में शामिल लड़कियों का कहना है कि पोर्न वेबसाइट्स देखना सेक्स एजुकेशन ग्रहण करने जैसा है और इसमें कोई बुराई नहीं है बल्कि जानकारी होना बहुत जरूरी है.


अब लड़कियों की बदलती मानसिकता को देखते हुए हम तो बस यही कहेंगे कि भले ही उनकी नजर में पोर्न फिल्में देखना गलत ना हो लेकिन इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि पोर्न फिल्में देखने से जगी जिज्ञासा को शांत करने के लिए ही लोग शारीरिक संबंधों का अनुसरण करते हैं और युवाओं में विकसित हुई यह जिज्ञासा कैसे परिणाम का कारण बनती है यह तो हम सभी जानते हैं.

jai_bhardwaj
24-02-2013, 07:41 PM
बच्चों को समाज और देश का भविष्य समझा जाता है. उन्हें जिम्मेदार और परिपक्व बनाने में उनके अपने परिवार की भूमिका बेहद अहम होती है. बच्चे के मानसिक और चारित्रिक विकास के लिए यह बहुत जरूरी है कि उसे अपने व्यक्तित्व को निखारने के लिए एक स्वस्थ वातावरण मिले और साथ ही परिवार भी हर कदम पर उसकी सहायता करने के लिए तैयार रहे. संतान के जीवन में परिवार की इसी महत्ता को ध्यान में रखते हुए ही बच्चे के लिए परिवार को ही आरंभिक विद्यालय का दर्जा दिया जाता है.

आमतौर पर यह माना जाता है कि अगर अभिभावक बच्चे का सही और परिपक्व ढंग से पालन-पोषण करें तभी बच्चे के भविष्य को एक सकारात्मक मोड़ दिया जा सकता है, अन्यथा उन्हें सही मार्ग पर स्थिर रखना बहुत मुश्किल हो सकता है. इसीलिए आपने देखा होगा कि कई माता-पिता अपने बच्चों के साथ बहुत सख्त व्यवहार करते हैं. इसके पीछे उनका मानना है कि अगर बच्चों के साथ बहुत ज्यादा ढील बरती जाएगी तो वे एक आदर्श व्यक्तित्व ग्रहण नहीं कर पाएंगे.
एक समय पहले तक वैज्ञानिकों का भी कुछ ऐसा ही कहना था. अपने सर्वेक्षणों में वे पहले ही यह बात साबित कर चुके हैं कि अभिभावकों का बच्चों पर नियंत्रण रखना बहुत जरूरी है. बच्चों की हर बात मान लेना या उन्हें हमेशा प्यार से समझाना सही नहीं है. कभी कभार बच्चों के साथ कठोरता बरतना भी बहुत जरूरी है.

लेकिन एक नए शोध में यह बात सामने आई है कि माता-पिता का सख्त व्यवहार बच्चों को कुंठित और तनावग्रस्त बना देता है. विशेषकर वे माताएं जो अपने बच्चों के साथ सख्त व्यवहार करती हैं और उन्हें हर बात पर टोकती हैं, उनके बच्चों में आत्मविश्वास कम होने लगता है और वे मानसिक रूप से भी परेशान होने लगते हैं.

एक ओर जहां चीनी लेखक एमी चुआ ने अपनी किताब में यह लिखा है कि एशियाई देशों में अभिभावको द्वारा बच्चे के साथ किया जाने वाला सख्त व्यवहार उन्हें काबिल और अच्छा प्रतियोगी बनाता है, माता-पिता जब बच्चे के ऊपर दबाव डालते हैं तो बच्चे पढ़ाई के साथ-साथ खेलकूद में भी अच्छा प्रदर्शन करते हैं. वहीं दूसरी तरफ मिशिगन स्टेट यूनिवर्सिटी के शोधकर्ता डेसिरी क्वीन का कहना है कि वे बच्चे जो माता-पिता के दबाव में आकर उपलब्धियां पा लेते हैं, वे भले ही सफल हो जाएं लेकिन मानसिक तौर पर वे परेशान और कुंठित हो जाते हैं. अन्य छात्रों की तुलना में वे ज्यादा तनाव में रहते हैं.

डेसिरी क्वीन ने चीन और अमेरिका के प्रतिष्ठित स्कूलों के बच्चों को अपने इस शोध का केन्द्र बनाया जिसके बाद उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि बच्चों पर अधिक सख्ती करना उन्हें मानसिक रूप से कमजोर बनाता है.

डेली न्यूज में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार क्वीन का कहना है कि एमी ने भले ही यह लिखा हो कि पश्चिम में बच्चे चीनी या एशियाई बच्चों से ज्यादा खुश हैं लेकिन वे बच्चे वास्तविक रूप से खुश नहीं रहते.

अगर इस शोध और उसकी स्थापनाओं को भारतीय परिवेश के अनुसार देखें तो अभिभावकों का बच्चों के साथ सख्ती या कठोरता करना उन्हें सही मार्ग पर अग्रसर रखने के लिए काफी हद तक सहायक होता है. लेकिन यह कितना और किस हद तक होना चाहिए इस पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए.

कई बार देखा जाता है कि अगर अभिभावक बच्चों को हर बात पर डांटते या उन पर दबाव बनाते हैं तो उनके बच्चे परेशान रहने लगते हैं और वे अवसाद ग्रसित हो जाते हैं. वहीं अगर माता-पिता सख्ती ना बरतें तो बच्चों को सही मार्ग पर चलाना दूभर हो जाता है. अभिभावकों की अनदेखी बच्चों के चारित्रिक विकास को बाधित करती हैं. वे अपनी पढ़ाई को तो नजर अंदाज करने ही लगते हैं इसके अलावा नैतिक और सामाजिक मूल्यों से दूर हो जाते हैं.

प्राय: देखा जाता है कि जिन बच्चों की गलतियां परिवार और समाज हमेशा माफ करता हैं, वे कभी भी सही और गलत में अंतर नहीं कर पाते. वह बहुत ज्यादा जिद्दी हो जाते हैं. उन्हें अपने हितों और इच्छाओं के आगे कुछ भी नजर नहीं आता. सहनुभूति या सहयोग जैसे शब्द उनके लिए कुछ खास महत्व नहीं रखते. समाज और परिवार की जरूरत और आपसी भावनाओं से उनका कोई सरोकार नहीं रहता. वह जानते हैं कि उनकी हर भूल माफ कर दी जाएगी इसीलिए उन्हें अपनी बड़ी से बड़ी गलती भी बहुत छोटी लगती है. वह कभी भी जिम्मेदार और परिपक्व व्यक्ति नहीं बन पाते.

इसीलिए जरूरी है कि कठोरता और प्रेम में सामंजस्य बैठा कर ही बच्चों के साथ व्यवहार किया जाए. दोनों की ही अति संतान और परिवार के भविष्य पर प्रश्नचिंह लगा सकती है.

jai_bhardwaj
24-02-2013, 07:45 PM
किसी भी व्यक्ति के जीवन में उसकी संतान सबसे ज्यादा अहमियत रखती है. दांपत्य जीवन में संतान का आगमन जहां नई जिम्मेदारियों और कर्तव्यों को लेकर आता है वहीं भावनात्मक और आत्मिक संतुष्टि को भी एक नया आयाम देता है. माता-पिता बनने के बाद विवाहित दंपत्ति एक-दूसरे के साथ उतना समय नहीं बिता पाते जितना वो पहले बिताते थे. इतना ही नहीं उनके काम के घंटों में भी कहीं अधिक वृद्धि हो जाती है लेकिन फिर भी उन्हें अपने बच्चे की देख-रेख करने से ज्यादा और कोई काम नहीं सुहाता.

बहुत से लोगों का यह मानना है कि माता-पिता बनने के बाद व्यक्ति बड़े दयनीय हालातों से गुजरता है. उसे ना तो पूरा आराम मिल पाता है और ना ही वह अपने लिए थोड़ा समय निकाल पाता है. लेकिन हाल ही में कैलिफोर्निया, रिवरसाइड और स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय द्वारा हुए एक साझा अध्ययन में यह बात प्रमाणित की गई है कि माता-पिता के लिए सबसे अनमोल क्षण उनके जीवन में बच्चे का आगमन होता है. काम और जिम्मेदारियों की अधिकता होने के बावजूद अभिभावक के रूप में वह सबसे ज्यादा संतुष्टि महसूस करते हैं.

इस स्टडी की सह-लेखिका एलिजाबेथ डन का कहना है कि अगर आप किसी पार्टी में गए हैं तो वहां आप खुद यह महसूस कर सकते हैं कि जिन मेहमानों की संतान नहीं है उनसे कहीं ज्यादा प्रसन्न वे लोग हैं जिन्हें संतान सुख की प्राप्ति हो चुकी है. इस पूरे अध्ययन के दौरान शोधकर्ता बस यही देखते रहे कि क्या अभिभावक अपने उन साथियों की अपेक्षा ज्यादा परेशान हैं? लेकिन अध्ययन के किसी भी मोड़ पर सर्वेक्षण करने वाले दल को यह नहीं लगा कि संतान का आगमन विवाहित दंपत्ति को मानसिक या शारीरिक थकान या किसी भी प्रकार की परेशानी में डालता है.

अमेरिका और कनाडा के अभिभावकों पर हुए इस सर्वेक्षण द्वारा यह बात पूरी तरह गलत साबित कर दी गई है कि संतान का आगमन माता-पिता के लिए किसी परेशानी से कम नहीं है. अन्य सह-लेखक सोंजा ल्यूबॉरमिस्की का मानना है कि अगर आप अपने बच्चों के साथ रहते हैं और उम्र के एक परिपक्व पड़ाव पर हैं तो आप अपने उन साथियों से कहीं ज्यादा खुशहाल रहेंगे जिनके बच्चे नहीं हैं. सिंगल पैरेंट या युवावस्था में माता-पिता बन जाना एक अपवाद हो सकता है.

शोधकर्ताओं का तो यह भी कहना है कि महिलाओं से ज्यादा पुरुष अपने बच्चे के आगमन को लेकर उत्साहित रहते हैं और उसके आने के बाद वह अपने उन दोस्तों से ज्यादा खुशहाल रहते हैं जिनके बच्चे नहीं हैं.

इस अध्ययन को अगर हम भारतीय परिदृश्य के अनुसार देखें तो पाश्चात्य देशों की तुलना में भारतीय परिवारों में रिश्तों का महत्व कहीं अधिक है. यही कारण है कि भारतीय परिवार में संतान की उत्पत्ति के साथ ही खुशहाली का आगमन भी होता है. माता-पिता बनना किसी भी विवाहित जोड़े के लिए एक बेहद अनमोल क्षण होता है और उसे किसी परेशानी का नाम नहीं दिया जा सकता. संबंधों की मजबूत नींव पर खड़े भारतीय समाज में संतान ही परिवार का भविष्य निर्धारित करती है. माता-पिता अपने बच्चे की खुशियों के लिए अपनी सभी जरूरतों तक को न्यौछावर कर देते हैं और उन्हें इसका जरा भी संकोच नहीं होता. बच्चे की देखभाल करते हुए अगर वह एक-दूसरे के साथ समय व्यतीत नहीं कर पाते तो भी वह भावनात्मक तौर पर बेहद संतुष्ट महसूस करते हैं. वैसे भी बच्चे के साथ उनके कई सपने और अरमान जुड़े होते हैं इसीलिए वह अपने बच्चे के पालन-पोषण में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते.

उपरोक्त चर्चा और सर्वेक्षण के मद्देनजर एक बात तो प्रमाणित हो ही जाती है कि अभिभावक चाहे किसी भी समाज या देश के क्यों ना हों अपने बच्चों के प्रति उनकी जिम्मेदारियां और भावनाएं समान रहती हैं.

jai_bhardwaj
01-03-2013, 06:34 PM
अनजान उग्रवादी अंकल, स्वीकार करो तुम नमस्कार !
लिख रहे आंसुओ से चिट्ठी, मत करना इसका तिरस्कार !
ख़बरें पढ़ते हैं रोज आज, हत-आहत इतने प्राण हुए !
इतनी माताओ के आँचल, किस कारन से वीरान हुए !
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झर रहे नयन निर्झर जैसे, माँ को देखा छिपकर रोते !
क्यों खेल मरण का खेल रहे, क्यों बीज पाप का तुम बोते !
पापा अपने हमको प्यारे, भोली मम्मी भी प्यारी है !
प्यारे सब मित्र-पडोसी हैं, गुडिया भी अपनी प्यारी है !
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सलमा, नीलम, सोनी, पिंकी, छोटू, अप्पू, गप्पू, सोनू !
हम साथ खेलते थे मिलकर, हँसता था नन्हा सा मोनू !
कुछ दिन पहले सब साथ बैठ, खाते थे मौज मानते थे !
पापा की उंगली पकड़ साथ, बाज़ार घूमने जाते थे !
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jai_bhardwaj
01-03-2013, 06:38 PM
सुख-चैन छीन हम बच्चो का, क्या तुम्हे मिलेगा बतलाओ !
सूनी आँखों में नीर देख, क्या पाओगे तुम दिखलाओ !
क्यों त्रास दे रहे हो हमको, हम कहाँ गलत हैं समझाओ !
हम को अनाथ कर देने से, जो स्वर्ग मिले तो बतलाओ !
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हम ख़ुशी-ख़ुशी अपनी गर्दन, स्वेच्छा से अर्पित कर देंगे !
इससे ही हो कल्याण अगर, हम प्राण समर्पित कर देंगे !
धोती वाले, टोपी वाले, अंकल जब पहले आते थे !
टाफी बिस्कुट मीठे-मीठे, भरपूर खिलौने लाते थे !
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हँसते थे खूब हंसाते थे, गाते थे और बजाते थे !
चुटकुले सुनाते जब हमको, हम लोटपोट हो जाते थे !
मम्मी जब डांट पिलाती थी, फ़रियाद सुनाते थे उनको !
आते-जाते जो मिल जाएँ, घर तक पहुँचाते थे हमको !
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jai_bhardwaj
01-03-2013, 06:39 PM
लेकिन अब जब भी आते हैं, जाने की जल्दी रहती है !
सहमी उनकी आँखें जाने क्या मौन भाव से कहती हैं !
रह-रह होंठों पर जीभ फेर, चुप-चुप उदास से रहते हैं !
पापा संग घर में बैठ अलग, जाने क्या बातें करते हैं !
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अब राहों में जब मिलते हैं, मुंह लेते फेर देख हमको !
रोने-रोने को मन करता, पर हम पी जाते हैं गम को !
लम्बी-पतली गोरी-चिट्टी, दीदी की एक सहेली थी !
जब भी वह घर पर आती थी, बुझवाती एक पहेली थी !
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उसकी मम्मी भी कभी-कभी, उसके संग आती थी घर पर !
चूड़ी-टिकुली-नथिया पहने, पल्लू डाले रहती सर पर !
जब भी आती थी हमें उठा, बांहों में खूब झूलाती थी !
सर को, गालों को, होठों को, वह चूम-चूम दुलराती थी !
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jai_bhardwaj
01-03-2013, 06:41 PM
कितने ही दिन जब बीत गए, पूछा तब दीदी से हमने !
अब किस कारण वह कम आती, कुछ कहा-सुना है क्या तुमने ?
इतना सुनते ही दीदी की, आँखों से अश्रु लगे झरने !
चुपचाप फेर मुंह पड़ी रही, दांतों से भींच अधर अपने !
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कुछ अच्छा-अच्छा लगता था, पहले जब संध्या होती थी !
रातों में नीलपरी आकर, आँखों में सपने बोती थी !
जब सुबह नींद खुल जाती थी, सूरज के गोले का बढ़ना !
छत पर से देखा करते थे, धीरे-धीरे ऊपर चढ़ना !
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खोंते से बाहर निकल उच्च स्वर में गौरैया गाती थी !
अपने वह बच्चों की खातिर, दाने चुन-चुन कर लाती थी !
सब लोग विहंसते थे पहले, उल्लसित भाव से भरे-भरे !
अब अजब मुर्दनी छाई है, चेहरे लगते हैं मरे-मरे !
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jai_bhardwaj
01-03-2013, 06:41 PM
खिड़की-दरवाजे बंद पड़े, गलियां दिखती हैं सूनसान !
निर्जन सड़कें लगती ऐसी, जैसे हो कोई बियाबान !
गुमसुम उदास सब बैठे हैं, अपनी आँखों में भर पानी !
हर कोई लगता अपराधी, मुख पर छाई है वीरानी !
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संध्या होते ही माँ हमको, घर के भीतर कर देती है !
मुखड़े पर रूखे भाव लिए, सूखी रोटी धर देती है !
जिद करते बहार जाने की, जड़ देती चांटा गालो पर !
सौ बार फेकती है लानत, सुख-चैन लूटने वालों पर !
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ऊंचे स्वर में जब रोते हैं चौके से मम्मी आती है !
चुप की मुद्रा में होठों पर, ऊंगली रख हमें डराती है !
अब तुम्ही उग्रवादी अंकल, देना जवाब इन बातों का !
आँखों-आँखों में काटी जो, काली अंधियारी रातों का !
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jai_bhardwaj
01-03-2013, 06:42 PM
कुछ पुत्र तुम्हारे भी होंगें, हम जैसे ही भोले-भाले !
क्या उन बच्चों के मुख पर भी, तुम बंद किया करते ताले !
हम साथ बैठ कर खेलेंगे, घर उन्हें हमारे ले आओ !
या चलो वही पर चलते हैं, घर अपना हमको दिखलाओ !
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किस कारन खून बहते हो, वह लिख कर हमको बतलाना !
जब बड़े बनेंगे हम आकर, वह चीज हमीं से ले जाना !
हीरा-मोती, सोना-चांदी, जो भी चाहोगे दे देंगे !
पर आज खेलने-पढ़ने दो, उस दिन जो चाहो ले देंगे !
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इतनी सी विनती है अंकल, आशा है इसे मान लोगे !
वह हंसी हमारे अधरों की, लौटेगी अगर ध्यान दोगे !
हम तुमसे कुट्टी कर लेंगे, जो बात नहीं मानी सुन लो !
अथवा जीने दो ख़ुशी-ख़ुशी, दो में से एक तुम्ही चुन लो !
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jai_bhardwaj
01-03-2013, 06:44 PM
यह भी स्वीकार नहीं हो तो, थोड़े दिन और ठहर जाओ !
कुछ और बड़े हो जाएँ हम, फिर खेल मृत्यु का दिखलाओ !
हम आज अनल के कण छोटे, कल ध्वजा हमारी फहरेगी !
तुम लहू बहाने वालों पर, विकराल काल बन घहरेगी !
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जो खींच रहे तम का परदा, रख देंगे उसे चीर कर हम !
मत समझो बिलकुल भोले हैं, मन से निकल दो तुम यह भ्रम !
देना जवाब चिट्ठी का तुम, अब पत्र बंद हम करते हैं !
बिन पढ़े फ़ेंक मत दो इससे, ज्यादा लिखने से डरते हैं !
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फिर समय मिला तो और पत्र, हम लिखकर तुमको भेजेंगे !
इसको इतना ही रहने दो, उत्तर आया तो देखेंगे !


(अंतर्जाल के पिटारे से)

jai_bhardwaj
02-03-2013, 06:23 PM
फिर घाव दे गया भारत को, कर गया कलंकित लोकतंत्र !
कायर सा छिपकर परदे में, देकर बयान बहलाते हो !
हो गई छिन्न कितनी काया, कितने घायल लाचार हुए !
पुंसत्वहीन कापुरुष ! व्यर्थ तुम जन-नायक कहलाते हो !!
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था ज्ञात कि होगी अनहोनी, फिर भी प्रतिकार न कर पाये !
कर सके नहीं कोई उपाय, जिससे यह संकट टल जाये !
भारत की जनता की आँखें, कर रही प्रश्न यह बार-बार !
” आतंकी खूनी पंजे ” का, कबतक झेलेंगे हम प्रहार !!
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फिर से तुमको दे गया चोट, गालों पर चाँटा मार गया !
फिर एक नया खूनी मंजर, दे कर तुमको उपहार गया !
सोने-चाँदी से भरा पेट, अब लाशें गिन, दिल बहलाओ !
“हम कड़ी सजा देंगे” ऐसा कह फिर जनता को समझाओ !!

jai_bhardwaj
02-03-2013, 06:24 PM
जाकर पूछो उन बच्चों से, होकर अनाथ जो रोते हैं !
आँखों में उनके अश्रु नहीं, लोहू से गाल भिगोते हैं !
जाकर पूछो उन माँओं से, विधवावों से, अबलाओं से !
उस घर से, गली मोहल्ले से, जाकर पूछो उन गाँवों से !!
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हो गए काल-कवलित कितने, कितने घायल लाचार हुए !
जाने कितने जीवन भर को, बेबस-अपंग बेकार हुए !!
पर तुमको क्या, तुम तो मुआवजा देकर छुट्टी पा लोगे !
तुम तो ऐसे नर-राक्षस हो, जो सड़ी-गली भी खा लोगे !!
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पर रहे ध्यान अब जाग रहा है, भारत का बच्चा-बच्चा !
तुम लाख छिपाओ अपने को, नंगा हो रहा घृणित चेहरा !
“तुम हो विशिष्ट” यह बारूदी विस्फोट नहीं पहचानेगा !
श्रीमन्त आज कहलाते हो, पल में “स्वर्गीय” बना देगा !!


(अंतरजाल के पिटारे से )

jai_bhardwaj
11-03-2013, 07:27 PM
पुनर्जन्म : सत्य और कल्पना के मध्य झूलता एक विषय


पिछले जन्म के किस्से और अतीत की यादों से जुड़ी कहानियां तो आपने कई बार सुनी होंगी, जिनमें से कुछ को आपने मनगढ़ंत कहा होगा तो कुछ इतनी मजेदार होंगी जिन्हें सुनकर जिज्ञासा भले ही ना हो लेकिन अच्छा टाइम पास तो आपके लिए जरूर होंगी. लेकिन यहां हम आपको जिस घटना के बारे में बताने जा रहे हैं उस पर विश्वास करना आपके लिए मजबूरी बन जाएगी क्योंकि वह ना तो मनगढ़ंत है और ना ही फिजूल.


आप क्या राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी एक बार सकते में आ गए थे कि क्या वाकई शांति देवी और उनके पिछले जन्म का आज भी कुछ नाता है. इस केस को सुलझाने के लिए महात्मा गांधी ने जांच एजेंसी भी गठित करवाई और इससे संबंधित रिपोर्ट जब 1936 में प्रकाशित हुई तब लोगों ने जाना शांति देवी और उनके अतीत की कहानी को.

जब शांति देवी महज चार साल की थी तभी उन्हें उनके पिछले जन्म की यादें परेशान करने लगी थीं. दिल्ली में रहने वाली शांति देवी का कहना था कि उनका घर मथुरा में है जहां उनका पति उनकी राह देख रहा है. जब परिवारवालों ने उसकी यह बातें नजरअंदाज कर दी तो मथुरा पहुंचने के लिए वह छ: साल की उम्र में घर से भाग गई. जब उसे स्कूल में दाखिल करवाया गया तो वो वहां सभी को यही कहती कि वह शादीशुदा है और बच्चे के जन्म देने के 10 दिन बाद उसकी मृत्यु हो गई थी.

जब उनके अध्यापकों और स्कूल में पढ़ने वाले अन्य बच्चों से इस मसले पर बात की गई तो सभी का यह कहना था कि वह मथुरा की क्षेत्रीय भाषा में बात करती थी और बार-बार अपने पति केदारनाथ का नाम लेती थी.


स्कूल के हेडमास्टर का कहना था कि इस घटना के बाद उन्होंने मथुरा में रहने वाले केदारनाथ को भी ढूंढ़ निकाला था जिनकी पत्नी लुग्दी देवी की मौत बच्चे के जन्म के दस दिन बाद ही हो गई थी. केदारनाथ और उनके बेटे को दिल्ली बुलाया गया, शांति देवी के सामने उन्हें अलग नाम देकर पेश किया गया लेकिन शांति देवी ने उन्हें देखते ही पहचान लिया कि वह लुग्दी देवी का परिवार है.


शांति देवी ने केदारनाथ को कई ऐसी घटनाओं के बारे में बताया जिसे जानने के बाद केदारनाथ को यह विश्वास हो गया कि वह उसी की पत्नी है.

यह मसला महात्मा गांधी के पास आया तो उन्होंने एक एजेंसी का गठन करवाया जिसे इस केस की जांच करने की जिम्मेदारी सौंपी गई. इसके बाद जांच अधिकारी शांति देवी के साथ मथुरा गए और वहां जाकर उन्हें कई हैरतंगेज घटनाओं से दो-चार होना पड़ा.

शांति देवी वहां सभी को पहचानती थीं. केदारनाथ और लुग्दी देवी के सभी रिश्तेदार, घर आदि सब कुछ शांति को पता था. जब शांति देवी का कहना था कि लुग्दी देवी जब अपना देह त्यागने वाली थी तब उनके पति ने कई वायदे किए थे जिन्हें वह अब तक पूरा नहीं कर पाया है.

जांच में घटित समिति ने यह निष्कर्ष निकाला था कि शांति देवी के रूप में लुग्दी देवी ने ही दूसरा जन्म लिया है.

शांटि देवी उम्रभर अविवाहित रहीं, खुद को सही साबित करने के लिए उन्हें अपने जीवन में कई साक्षात्कारों से गुजरना पड़ा. उन्होंने अंतिम साक्षात्कार अपनी मौत से महज 4 दिन पहले दिया था जिसमें उन्होंने लुग्दी देवी के दर्द को बयां किया जब वह अपने जीवन के अंतिम क्षणों में थी.

jai_bhardwaj
11-03-2013, 07:31 PM
शांत नदी

पांच हजार साल पुरानी एक ऐसी कहानी जिसे सुनकर आपके होश उड़ जाएंगे. कहते हैं चेनाब नदी का बहाव अन्य किसी भी नदी से बहुत तेज है. तो फिर क्या कारण है कि वह चलती तो लहराती है लेकिन उसका शोर किसी को सुनाई देता? चेनाब नदी को लोग तेज रफ्तार से बहने वाली नदी के तौर पर जानते हैं लेकिन अचानक ऐसा क्या हुआ कि वो बहती तो है लेकिन इतने शांत तरीके से कि किसी को भी उसकी आवाज सुनाई नहीं देती?

इस सवाल का जवाब हमारे इतिहास के पन्नों में दर्ज है. महाभारत काल में हुए कौरव-पांडव युद्ध के बारे में तो आपने सुना ही होगा. इस दौरान पांडवों को मिले अज्ञातवास के विषय में भी आप सभी जानते होंगे. लेकिन शायद आप यह नहीं जानते कि इस अज्ञातवास के दौरान कुछ ऐसा घटित हुआ था जिसने चेनाब से उसका शोर, उसकी आवाज सब कुछ छीन लिया था.


कई दिनों तक भटकने के बाद पांडव एक गुफा में आए. जब उन्हें पता चला कि यह इलाका राजा विराट का है तो उनके पास वेष बदलकर रहने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा. वेष बदलकर वह राजा विराट के पास नौकरी मांगने पहुंचे. जब पांडव राजा के दरबार में पहुंचे तो राजा विराट ने उन्हें देखते ही पहचान लिया कि यह अति बलशाली पांडवों की सेना है जो कौरवों से मिली शिकस्त के बाद अज्ञातवास में रहने के लिए विवश है. सब कुछ जानने और समझने के बावजूद राजा विराट कुछ नहीं बोले.

विराट पांडवों को अपने यहां नौकरी पर रखने के लिए राजी हो गए और सौ हाथियों की ताकत लिए भीम को रसोई में खाना पकाने का काम सौंपा गया.


दिनभर खाना बनाने, सब्जी काटने जैसे काम करने के बाद भीम चेनाब के किनारे तपस्या करने चले जाते. उनकी इस तपस्या के बारे में राज्य का कोई अन्य व्यक्ति क्या खुद उनके अपने भाई ही नहीं जानते थे. यहां तक कि नगर के राजा विराट भी यह नहीं समझ पा रहे थे कि आखिर शाम ढलते ही भीम कहां चले जाते हैं, जाहिर है उनसे पूछने की हिम्मत तो किसी की थी नहीं इसीलिए राजा भी अपनी जिज्ञासा का समाधान नहीं ढूंढ़ पा रहे थे.

भीम की तपस्या के साथ ही शुरू हुई चेनाब नदी की शांत दास्तां जिसे सुनकर आपको यह एहसास हो जाएगा कि महाबली भीम का गुस्सा कितना खतरनाक था.

अखनूर (जम्मू) में चेनाब नदी के किनारे स्थित किले में एक गुफा है जिसमें एक गाय और छोटे बच्चों के पैरों के निशान दिखाई देते हैं, जिनका संबंध कौरवों के उसी अज्ञात वास से है जिसका जिक्र हम पहले भी कर चुके हैं. इन गुफाओं के अंदर जो दस्तावेज मिले हैं वह ऐतिहासिक दृष्टि से आज भी बेहद महत्वपूर्ण हैं.

पुराने और कटे-फटे दस्तावेजों में भीम की तपस्या और चेनाब की शांति से जुड़ी एक कहानी दर्ज है और वह यह कि जब अज्ञातवास के दौरान पांडव नौकरी करने लगे तब उन्हें नौकरी में तो दिक्कत नहीं आई लेकिन भीम जब तपस्या करने जाते तो उन्हें बहुत दिक्कत आती थी और वह भी सिर्फ चेनाब के शोर की वजह से.

भीम चाहते तो एक ही बार में अपनी इस परेशानी को भी हल कर सकते थे लेकिन वह डरते थे कि अगर उनका राज खुल गय तो अज्ञातवास की सीमा और ज्यादा बढ़ जाएगी इसीलिए भीम को अपना गुस्सा शांत रखना पड़ता था.


समय ऐसा ही गुजरता रहा और भीम का क्रोध भी दिनोंदिन बढ़ने लगा. लेकिन एक दिन जब भीम अपनी तपस्या में लीन थे तो उसी समय चेनाब तेज आवाज के साथ बहने लगी. भीम की तपस्या बाधित हुई. भीम ने शांतिपूर्वक पहले चेनाब को बोला कि वह बहते हुए इतना शोर ना करे क्योंकि इससे उनकी तपस्या में खलल पड़ता है.

वह हर संभव प्रयत्न करते रहे कि उन्हें क्रोध ना आए क्योंकि क्रोध आ जाने पर उनका राज खुल जाता. वह चेनाब से मिन्नतें करते रहे और चेनाब उनकी एक मानने को तैयार नहीं हुई. इसके विपरीत भीम जितना चेनाब से शांत रहने को कहते वह उतना ज्यादा ही शोर करती.


जब भीम से सहन नहीं हुआ तो वह अपनी जगह पर खड़े होकर इतना तेज गरजे कि चेनाब की लहरें शांत हो गईं और कहते हैं तब से लेकर अब तक चेनाब बहती तो है लेकिन शांत गति से

jai_bhardwaj
11-03-2013, 08:01 PM
राम-रावण युद्ध और उसमें हुई रावण की हार के बारे में तो आप सभी जानते हैं. यह युद्ध क्यों हुआ था इस तथ्य से भी आप भली-भांति परिचित हैं. शिव भक्त और एक महान विद्वान होने के बाद भी रावण ने सीता हरण जैसा अक्षम्य अपराध कर स्वयं अपनी मौत को आमंत्रित किया था. अभिमानी और अतिरेक आत्मविश्वासी होने के कारण रावण सही–गलत जैसी बातों से दूर होता चला गया जिसके परिणामस्वरूप भगवान श्रीराम के हाथों उसका वध हुआ. रावण के विषय में यह सभी बातें तो हम जानते ही हैं लेकिन असुर राज रावण के संबंध में कुछ ऐसी बातें भी हैं जिनसे कभी आपका परिचय नहीं हुआ. इस लेख में हम आपको विद्वानों में श्रेष्ठ रहे रावण से जुड़ी कुछ विशेष जानकारियों से अवगत करवा रहे हैं.

1. महिलाओं को भोग की वस्तु समझता था रावण: रावण के चरित्र की सबसे बड़ी खामी थी उसका महिलाओं के साथ एक वस्तु जैसा व्यवहार करना. और वो भी ऐसी वस्तु जिसका कभी भी उपभोग किया जा सकता है. उसके इसी स्वभाव के कारण रंभा और सीता द्वारा दिए गए श्राप के कारण ही उसका विनाश हुआ. कहते हैं दुनिया में सबसे पहले जो पांच संतानें पैदा हुई उनमें से पहली तीन लड़कियां थी. भगवान ने महिलाओं को आगे रखा और जो उनके प्रति दुर्भावना रखना है ईश्वर उन्हें कभी माफ नहीं करता. बस यही रावण के लिए सबसे अधिक विनाशकारी साबित हुआ.

2. विरोधियों को क्षमा ना कर पाना: रावण को अपनी तारीफ सुनने की बहुत बुरी आदत थी. वह उन लोगों को कभी माफ नहीं कर पाता था जो उसकी निंदा करते थे. वह भले ही अपनी जगह कितना ही गलत क्यों ना हो लेकिन अगर कोई उसे उसकी गलती का अहसास करवाने की कोशिश भी करता था तो भी उसे बहुत क्रोध आता है. वह अपने शुभचिंतकों को अपने से दूर कर बैठा जैसे उसका भाई विभीषण, नाना माल्यवंत आदि.

3. शराब को प्रचारित करना: रावण चाहता था कि शराब से दुर्गंध समाप्त कर दी जाए ताकि अधिक से अधिक लोग इसे पीना शुरू कर दें. रावण का मानना था कि शराब पीने से लोगों का विवेक शून्य हो जाएगा और वे अधर्म के रास्ते पर चल पड़ेंगे.

4. ईश सत्ता को चुनौती: रावण स्वर्ग तक पहुंचने के लिए सीढ़ियों का निर्माण करना चाहता था. वह इतनी लंबी सीढ़ियां बनाना चाहता था जो सीधे स्वर्ग तक पहुंचती हों. रावण का उद्देश्य था कि लोग ईश्वर को मानना बंद कर दें और उसे ही भगवान समझकर पूजें.

5. अपनी शक्ति पर अत्याधिक भरोसा: रावण अपनी शक्ति पर बहुत ज्यादा भरोसा करता था. उसे अपनी ताकत पर गुरूर था इसीलिए वह कई बार बिना सोचे-समझे युद्ध के लिए चला जाता था. रावण भगवान शिव, सहस्त्रबाहु, बाली आदि से युद्ध में पराजित हुआ था. अपनी शक्ति पर भरोसा कर वह किसी को भी युद्ध के लिए ललकार देता था.


6. रक्त का रंग सफेद: रावण ने युद्ध में बहुत से लोगों का खून बहाया. इतना की नदियां तक लाल रंग से रंगीन हो गईं. प्रकृति का संतुलन बिगड़ता देख देवता और अन्य लोग रावण से नाराज हो गए इसीलिए रावण यह चाहता था कि खून का लाल ना होकर सफेद हो जाए ताकि युद्ध में कितने लोग मारे गए या कितने लोगों का खून बहा किसी को पता ही ना चल पाए.

7. काला रंग: रावण का रंग बेहद काला था. कई बार उसे अपने रंग की वजह से शर्मिंदा भी होना पड़ा. उसके गुप्त इच्छा थी कि धरती पर जितने भी लोग हैं उन सभी का रंग काला हो जाए ताकि कभी कोई उसका अपमान ना कर सके.

8. संगीत का जादूगर: रावण संगीत का एक महान ज्ञानी था. विद्या और संगीत की देवी सरस्वती के हाथ में जो वीणा है उसका आविष्कार भी रावण ने ही किया था. रावण ज्योतिष, तंत्र-मंत्र और आर्युवेद का भी अच्छा ज्ञाता था.

9. सोने की सुगंध: रावण दुनियाभर के जितने भी सोने की खदाने हैं या फिर स्वर्ण मुद्राएं हैं सभी पर अपना अधिकार स्थापित करना चाहता था. वह चाहता कि सोने में एक विशेष प्रकार की सुगंध डाल दी जाए ताकि यह आसानी से पता चल सके कि सोना कहां छिपा है.

10. रावण की हार: राजा बालि ने रावण को अपनी बाजू में दबा कर चार समुद्रों की परिक्रमा की थी. आपको विश्वास नहीं होगा लेकिन यह सत्य है कि बालि इतना ताकतवर था कि वो रोज सुबह चार समुद्रों की परिक्रमा कर सूर्य को अर्घ्य देता था. अत्याधिक ताकतवर होने के बावजूद जब रावण पाताल के राजा बलि के साथ युद्ध करने गया तो राजा बलि के भवन में खेल रहे बच्चों ने ही उसे पकड़कर अस्तबल में घोड़ों के साथ बांध दिया था. इसके अलावा सहस्त्रबाहु अर्जुन ने अपने हजार हाथों से नर्मदा के बहाव को रोक कर पानी इकट्ठा किया और उस पानी में रावण को सेना सहित बहा दिया था. बाद में जब रावण युद्ध करने पहुंचा तो सहस्त्रबाहु ने उसे बंदी बनाकर जेल में डाल दिया. रावण भगवान शिव से भी युद्ध में हारा था. इस हार के बाद रावण ने शिव को अपना गुरू बना लिया था.

jai_bhardwaj
11-03-2013, 08:02 PM
जहां एक तरफ पारंपरिक भारतीय समाज में विवाह पूर्व शारीरिक संबंधों को पूरी तरह निंदनीय और निषेध माना जाता है वहीं भारत में रहने वाली एक जनजाति ऐसी भी है जहां किसी भी जोड़े को विवाह योग्य तभी माना जाता है जब विवाह से पहले ही उनकी संतान जन्म ले ले. हो सकता है यह सुनकर आपको थोड़ा अटपटा लगे लेकिन सच यही है कि जलपाईगुड़ी (पश्चिम बंगाल) के टोटोपाड़ा में रहने वाली जनजाति ‘टोटो’ ऐसा ही एक समुदाय है जहां विवाह वैध ही तब माना जाता है जब महिला-पुरुष विवाह से पहले एक-वर्ष तक साथ रहे हों और उनकी एक संतान हो.

टोटोपाड़ा, भारत और भूटान सीमा से लगा हुआ ऐसा क्षेत्र है जहां की परंपरा और संस्कृति अलग है. यहां के लोगों का रहन-सहन अनोखा और हैरान कर देने वाला है. अन्य समाजों और समुदायों की तरह इस जनजाति की भी विवाह से संबंधित कुछ शर्ते होती हैं जिसमें विवाह से पहले लड़की का मां बनना सबसे महत्वपूर्ण है.

टोटो जनजाति से संबंधित लड़के को जो भी लड़की पसंद आती है वह रात के समय उसे लेकर भाग जाता है. लड़की को भगाने के पश्चात वह एक वर्ष तक उसे अपने घर में रखता है. साथ रहने के दौरान अगर वह लड़की मां बन चुकी या बनने वाली होती है तभी उनके जोड़े को विवाह करने की स्वीकृति दी जाती है. लड़का और लड़की के परिवार वाले मिलकर बड़ी धूमधाम के साथ उन दोनों की शादी करवा देते हैं.



अगर आपको यह लग रहा है कि टोटो जनजाति के लोग विवाह की महत्ता को नहीं समझते तो आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि वैवाहिक संबंधों की मर्यादा को बनाए रखने के लिए ही कठोर नियम बनाए हैं जिनके अनुसार अगर कोई जोड़ा अलग होना चाहता है तो इसके लिए उसे बहुत अधिक खर्च करना पड़ता है. उन्हें एक विशेष प्रकार की पूजा का आयोजन करना पड़ता है जो बहुत महंगी साबित होती है. इसका खर्च विवाह से भी ज्यादा हो जाता है.

ऐसा माना जाता है कि टोटो जनजाति दुनिया की लुप्त हो चुकी या सबसे कम जनसंख्या वाली जनजातियों में से एक है. उल्लेखनीय है कि इस जनजाति पर परिवार नियोजन या नसबंदी कार्यक्रम चलाया जाना प्रतिबंधित है. उनकी कुल संख्या केवल 1265 है. 1991 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक़ उनकी आबादी 936 थी.

rajnish manga
12-03-2013, 09:13 PM
जाकर पूछो उन बच्चों से, होकर अनाथ जो रोते हैं !
आँखों में उनके अश्रु नहीं, लोहू से गाल भिगोते हैं !
जाकर पूछो उन माँओं से, विधवावों से, अबलाओं से !
उस घर से, गली मोहल्ले से, जाकर पूछो उन गाँवों से !!
.
हो गए काल-कवलित कितने, कितने घायल लाचार हुए !
जाने कितने जीवन भर को, बेबस-अपंग बेकार हुए !!
पर तुमको क्या, तुम तो मुआवजा देकर छुट्टी पा लोगे !
तुम तो ऐसे नर-राक्षस हो, जो सड़ी-गली भी खा लोगे !!
.
पर रहे ध्यान अब जाग रहा है, भारत का बच्चा-बच्चा !
तुम लाख छिपाओ अपने को, नंगा हो रहा घृणित चेहरा !
“तुम हो विशिष्ट” यह बारूदी विस्फोट नहीं पहचानेगा !
श्रीमन्त आज कहलाते हो, पल में “स्वर्गीय” बना देगा !!


(अंतरजाल के पिटारे से )

:bravo:

उक्त पूरी रचना में भावों की सशक्त अभिव्यक्ति हुयी है. इसमें एक निरीह व निर्दोष व्यक्ति का आतंक के प्रति दुःख, क्रोध, नफ़रत, प्रतिशोध अपने पूरी तीव्रता से हमारे आमने आते हैं. इस रचना के ज्ञात या अज्ञात कवि को हमारा नमन.

jai_bhardwaj
15-03-2013, 09:00 PM
चीनी महिलायें पैर की उंगलियाँ तुड़वाकर करती हैं सौन्दर्य विधान

विश्व पटल पर भारत की छवि एक ऐसे देश की है जो हमेशा से अपनी परंपराओं और मान्यताओं के विषय में गंभीर रहा है. आमतौर पर यही समझा जाता है कि भारतीय प्रथाएं चाहे कितनी ही क्रूर या जटिल क्यों ना हों फिर भी पूरी तन्मयता के साथ उनका पालन किया जाता है.

लेकिन अगर आप भी ऐसा ही कुछ सोचते हैं तो आपको अपनी जानकारी के क्षेत्र को थोड़ा विस्तारित करने की आवश्यकता है. क्योंकि भले ही भारत में अनेक जटिल परंपराएं विद्यमान हैं या रही हों लेकिन भारत के पड़ोसी देश चीन में व्याप्त सदियों पुरानी परंपराएं किसी को भी हैरान करने के लिए काफी हैं.

आपको यह जानकर बेहद आश्चर्य होगा कि एक लंबे समय तक चीन में फुटबाइंडिंग नाम से एक ऐसी अमानवीय प्रथा विद्यमान थी जिसके अंतर्गत बचपन में ही महिलाओं के पैर को इस तरह बांध दिया जाता था ताकि वह ज्यादा ना बढ़ सके. उल्लेखनीय है कि पौराणिक चीनी मान्यताओं में महिलाओं के छोटे पैरों को ही सुंदरता की पहचान समझा जाता था. इसीलिए महिलाओं की सुंदरता बनाए रखने के लिए उनकी फुटबाइंडिंग की जाती थी.

फुटबाइंडिंग नामक यह प्रथा 10वीं से 20वीं शताब्दी तक प्रचलित रही. इसके अंतर्गत 6 वर्ष या उससे भी छोटी आयु में लड़कियों की फुटबाइंडिंग की जाती थी. फुटबाइंडिंग के कारण महिलाओं के पैर 4-5 इंच से ज्यादा नहीं बढ़ पाते थे. लंबे समय तक प्रचलित इस प्रथा के कारण कई महिलाएं अपंगता की शिकार हो गईं क्योंकि उनके पैरों का सही विकास नहीं हो पाया था.

कैसे की जाती थी फुटबाइंडिंग
फुटबाइंडिंग की शुरूआत में सबसे पहले दोनों पैरों को जानवरों के रक्त और विभिन्न जड़ी बूटियों के गर्म मिश्रण में भिगोया जाता था. इसके बाद बच्चियों के पैर के नाखूनों को जितना हो सकता था काटा जाता था. मिश्रण में भीगे पैरों की कुछ देर तक मालिश की जाती थी उसके बाद पैर की सभी अंगुलियों को अमानवीय तरीके से तोड़ दिया जाता था. अंगुलियां तोड़ने के बाद उस मिश्रण में भिगोई एक इंच चौड़ी और दस फीट लंबी रस्सी से उनके पैरों को बांध दिया जाता था. बांधने के दौरान यह बात ध्यान रखी जाती थी कि टूटी अंगुलियों की दिशा एड़ी की तरफ हो ताकि पैर का विकास ना हो पाए.

jai_bhardwaj
15-03-2013, 09:07 PM
बर्मा और थाइलैंड की पर्वत चोटियों के बीच रहने वाली कायन जनजाति हमेशा से ही वहां जाने वाले पर्यटकों को आकर्षित करती रही है. कायन या पाडाउंग जनजाति का संबंध बर्मा और तिब्बत में रहने वाले जनजातियों के साथ माना जाता है. 80 के दशक के अंत और 90 के दशक के शुरूआती समय में जब बर्मा पर सेना ने शासन स्थापित कर लिया था उस समय बर्मा में रहने वाली यह जनजातियां अपना निवास स्थान छोड़कर थाइलैंड के बॉर्डर क्षेत्रों में रहने आ गई थीं. लेकिन आज भी इन्हें कुछ खास कानूनी अधिकार नहीं दिए गए हैं. कायन जनाजाति की जनसंख्या 40,000 के आसपास है

कायन जनजाति के प्रति बढ़ती दिलचस्पी का प्रमुख और एकमात्र कारण इस जनजाति की महिलाओं का विचित्र पहनावा और इनकी सदियों पुरानी मान्यताएं हैं. आमतौर पर महिलाओं को नाजुक और कोमल समझा जाता है, लेकिन कायन महिलाएं इस धारणा की अपवाद हैं. आपको यह जानकर बेहद अश्चर्य होगा कि यह कायन महिलाएं अपनी नाजुक गर्दन में भारी-भारी कांस्य के छल्ले पहनती हैं जिनकी संख्या उम्र के साथ-साथ बढ़ती जाती है. जब बच्ची पांच वर्ष की होती है तब से यह सिलसिला प्रारंभ होता है और जैसे जैसे उसकी आयु बढ़ती है छल्लों का भार और उनका आकार भी बढ़ता जाता है.
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=25744&stc=1&d=1363363638


सदियों से यह परंपरा कायन जाति की महिलाओं की पहचान रही है. इस प्रथा को अपनाने का मुख्य कारण गर्दन की लंबाई को बढ़ाना है जिससे कायन महिलाएं और अधिक सुंदर और आकर्षक लगें. हालांकि कुछ लोगों का यह भी मानना है कि इस प्रथा का उद्देश्य कभी भी महिलाओं को सुंदर दर्शाना नहीं था बल्कि महिलाओं को दास-प्रथा से बचाने के लिए उन्हें भद्दा और बदसूरत प्रदर्शित किया जाता था.

आज कायन महिलाएं इस प्रथा को अपनी पहचान समझने लगी हैं जो उनकी सुंदरता से संबंध रखती है. गले में पहने गए यह छल्ले इस बात को निश्चित करते हैं कि कायन महिलाएं केवल अपने समुदाय के पुरुषों के साथ ही विवाह करने के लिए बाध्य हैं. एक बार कांस्य के यह छल्ले पहनने के बाद इन्हें उतारना लगभग असंभव है. हालंकि अगर उन्हें कभी चिकित्सीय जांच की जरूरत पड़े तो वह इन छल्लों को उतार सकती हैं लेकिन अब यह भारी छ्ल्ले जिनका वजन पांच किलो तक होता है, उनके शरीर का एक आवश्यक हिस्सा बन गए हैं.

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=25745&stc=1&d=1363363638

वैसे तो यह कायन महिलाएं अपनी कलाई और जोड़ों पर भी यह छल्ले पहनती हैं पर यह कभी भी पर्यटकों को उतना आकर्षित नहीं कर पाया जितना गले में पड़े यह छ्ल्ले करते हैं. कायन समुदाय को देखने के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं जो राजस्व का एक बहुत महत्वपूर्ण जरिया बन गया है.

jai_bhardwaj
15-03-2013, 09:09 PM
कहीं नोट जलें .... कही दिल ....


दुनियां में जहां एक ओर धनवान व्यक्तियों का बैंक-बैलेंस और अधिक बढ़ता जा रहा है, वहीं निर्धनता का स्तर भी कम होने का नाम नहीं ले रहा. यद्यपि भारत जैसे प्रगतिशील देश अभी अपने नागरिकों के आर्थिक स्तर को सुधारने का प्रयत्न कर रहे हैं लेकिन फिर भी बहुत से ऐसे लोग हैं जो अपनी न्यूनतम जरूरतों को पूरा कर पाने में भी असमर्थ हैं. हां, यह बात और है कि इन लोगों की सहायता के लिए सरकार या फिर निजी स्तर पर कई कार्यक्रमों का संचालन किया जाता रहा है, जिसके चलते वंचित वर्ग को थोड़ी ही सही राहत अवश्य मिल जाती है.

लेकिन अगर आप ऐसा सोच रहे हैं कि गरीबी का दंश केवल प्रगतिशील देशों को ही अपनी चपेट में ले रहा है तो हो सकता है आपको यह जानकर हैरानी हो लेकिन हंगरी (यूरोप) में गरीबी का स्तर काफी अधिक है. यहां पर भी बड़ी संख्या में लोग जीवन के लिए आवश्यक सुविधाओं से पूरी तरह वंचित हैं.

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि यूरोपियन देशों में बहुत अधिक ठंड पड़ती है. इतनी कि ठंड के कारण कितने ही लोग हर वर्ष अपनी जान गंवा देते हैं.

ठंड में दूसरों की सहायता करने के उद्देश्य से कंबल और चादरों का दान करने जैसी बात तो आपने अवश्य सुनी होगी लेकिन बढ़ती सर्दी में निर्धनों की सहायता करने के लिए बुडापेस्ट का एक बैंक अपने नोट जला रहा है ताकि उनकी सेंक से निर्धन लोग सर्दी से बचाव कर सकें.

बुडापेस्ट स्थित हंगरी का सैंट्रल बैंक हर वर्ष लगभग 40-50 टन पुराने नोटों को जलाता है. इस बार उन्होंने निर्णय किया कि इन नोटों को चैरेटी में दान कर गरीबों की सहायता की जानी चाहिए. अपने इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए बैंक इन पुराने नोटों की गड्डियों को एक विशेष प्रकार के ईंधन (भूरे कोयले की तरह) में तब्दील कर रहा है ताकि इस ईंधन से गरीब लोगों को सर्दी से राहत प्रदान की जा सके

jai_bhardwaj
29-03-2013, 07:22 PM
उसका बेटा 18 महीने का हो चुका है. वह खुश है. अपने परिवार के साथ हंसी खुशी रहती भी है लेकिन जब कोई उससे ये पूछता है कि उसके बच्चे का बाप कौन है तो उसके पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है. वह नहीं जानती उन पांच भाइयों में से उसके बच्चे का असली बाप कौन है.

महाभारत की द्रौपदी के बारे में तो सब जानते हैं जिसे परिस्थितिवश पांच भाइयों के साथ रहने के लिए मजबूर होना पड़ा था. लेकिन हम आपको कलयुग की द्रौपदी के बारे में बताने जा रहे हैं, जिसे पांच भाइयों से विवाह करना पड़ा और वो भी किसी परिस्थिति या हालातों से मजबूर होकर नहीं बल्कि कुछ ऐसी परंपराओं के बंधन में उसे जकड़ दिया गया जिसकी वजह से वह आज अपने जिस्म का बंटवारा करने के लिए मजबूर हो गई है.

देहरादून के पास एक छोटा सा पहाड़ी गांव है जहां आज भी यह परंपरा विद्यमान है जिसमें महिला को अपने पहले पति के सभी सगे भाइयों से विवाह करना पड़ता है.

चार साल पहले राजो नामक इस महिला का विवाह उसी ग्राम के गुड्डू से हुआ लेकिन इस विवाह के बाद उसे उसके अन्य चारों भाइयों से भी विवाह करना पड़ा. सबसे छोटा भाई 18 का नहीं था इसीलिए उसके 18 का होते ही उसे भी राजो का पति बना दिया गया. राजो की जब पहली शादी हुई थी तो उसके लिए उसके पति के भाइयों से विवाह करने जैसी बात बहुत कष्टप्रद थी, वह नहीं चाहती थी कि उसके साथ जो हुआ वह अन्य लड़कियों के साथ भी हो.

राजो के आधिकारिक पति गुड्डू का कहना है कि वे पांचों भाई राजो के साथ सेक्स करते हैं, इसके लिए उन्होंने दिन भी निश्चित किए हुए हैं. इतना ही नहीं पांचों में से कोई भी एक-दूसरे से इर्ष्या नहीं करता और ना ही उनके बीच किसी भी प्रकार का मनमुटाव है.

अब इसे हैरानी कह लीजिए या दुर्भाग्य लेकिन 21 वर्षीय राजो 18 महीने बेटे की मां भी है पर वह यह नहीं जानती कि उसके बेटे का जैविक पिता कौन है.

उल्लेखनीय है कि एक दौर था जब ऐसी कुप्रथाएं विद्यमान थीं. लेकिन आज एक छोटी सी जनजनाति के बीच ही यह परंपरा मौजूद है जिसका परिपालन वह पूरी तन्मयता से करते हैं. राजो की मानें तो उसे विवाह से पहले ही यह बात पता थी कि उसे अपने पति के अन्य 4 भाइयों से भी विवाह करना होगा. उसकी मां ने भी तीन भाइयों से विवाह किया था. स्थानीय लोगों की मानें तो यह प्रथा इसीलिए अपनाई जा रही है क्योंकि इससे भाइयों के बीच बंटवारे जैसी बात नहीं उठती और ना ही परिवार में अंदरूनी कलह होती है.

दुखद लेकिन सत्य है कि राजो को बारी-बारी से पांचों भाइयों के साथ सेक्स करना होता है. उसके लिए यह बहुत कष्टप्रद है लेकिन वो कहती है कि उसके पांचों पति उसका बहुत ध्यान रखते हैं और उससे प्यार भी करते हैं इसीलिए उसे कोई आपत्ति नहीं है.

jai_bhardwaj
29-03-2013, 07:36 PM
पाकिस्तान से मुक्ति के लिए बांग्लादेश की लड़ाई में अहम योगदान देने वाले पूर्व आईएएस अधिकारी हिमांशु मोहन चौधरी को बांग्लादेश ने मुक्ति युद्ध मित्र सम्मान से 24 मार्च 2013 को सम्मानित किया. बांग्लादेश की राजधानी ढाका में आयोजित एक समारोह में बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजिद ने उन्हें प्रशस्ति पत्र और प्रतीक चिन्ह प्रदान किया.
हिमांशु मोहन वर्ष 1971 में पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से सटे त्रिपुरा के सोनामूरा इलाके में बतौर सब डिविजनल ऑफिसर तैनात थे. हिमांशु मोहन चौधरी ने त्रिपुरा के सोनामूरा इलाके में वर्ष 1971 में बांग्लादेश से आने वाले शरणार्थियों को रहने-खाने से लेकर उनके बच्चों को शिक्षा मुहैया कराने तक का काम किया था.
विदित हो कि युद्ध से प्रभावित सीमावर्ती इलाके में काम करने के लिए भारत सरकार ने वर्ष 1972 में हिमांशु मोहन चौधरी को पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया था. तत्कालीन राष्ट्रपति वीवी गिरी ने उन्हें पद्श्री पुरस्कार दिया था.

jai_bhardwaj
01-04-2013, 07:24 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=26281&stc=1&d=1364826248

टीवी एक्ट्रेस मोना सिंह का एमएमएस इंटरनेट पर जंगल की आग की तरह फैल चुका है। 23सेकेंड के इस क्लिप पर कई तरह के सवाल खड़े हो रहे हैं।

हालांकि जस्सी यानी मोना ने मुंबई पुलिस से इस एमएमएस के बारे में शिकायत की है, लेकिन अफवाहों के बाजार में इस तरह की चर्चा जोरों पर है कि उन्होंने पब्लिसिटी पाने के लिए खुद यह एमएमएस डलवाया है। वैसे सच्चाई क्या है यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा लेकिन इंटरनेट पर लाखों लोग अभी तक इस वीडियो को देख चुके हैं।

पुलिस का कहना है कि उस कंप्यूटर का पता लगाया जा रहा है, जिसके जरिए अश्लील वीडियो क्लिप अपलोड किया गया था। पुलिस इस बात को जाने में लगी है कि कहीं इस हरकत के पीछे मोना सिंह के किसी जानने वाले का हाथ तो नहीं है।

कुछ लोगों का तो यह भी कहना है कि एमएमएस लीक करना मोना सिंह का पब्लिसिटी स्टंट है। इसका कारण यह सामने आया है कि जल्द ही मोना के ब्वॉयफ्रेंड विद्युत की फिल्म 'कमांडो' रिलीज होने वाली है। फिल्म रिलीज से पहले एमएमएस के जरिए असल में फिल्म को प्रचार दिलाने की कोशिश हो रही है। लेकिन इन अफवाहों पर मोना कहती हैं, प्रचार के लिए इस तरह की हरकत कोई नहीं करेगा। हांलाकि मोना ने एमएमएस के पीछे किसी परिचित का हाथ होने से भी इनकार किया।

jai_bhardwaj
01-04-2013, 07:30 PM
प्राकृतिक सौंदर्य से लबरेज चकराता क्षेत्र के रामताल गार्डन चौली डांडा की प्राचीन झील सरकारी उपेक्षा के चलते अस्तित्व खो रही है। एक समय अपनी सुंदरता से आकर्षित करने वाली झील सूखने की कगार पर है। यहां पर केंद्र व प्रदेश सरकार की ओर से पर्यटन क्षेत्रों को विकसित करने के दावे खोखले नजर आते हैं।

देहरादून जनपद के चकराता मसूरी मार्ग पर चौडी डांडा नामक स्थल पर प्राचीनकालीन रामताल झील है, जो अस्तित्व खो रही है। एक समय था जब आठ हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित इस प्राकृतिक झील की अलग पहचान थी, लेकिन प्रकृति के बदले मिजाज व सरकार के उपेक्षित रवैये के चलते इस झील की साख आज समाप्ति की कगार पर है।

क्षेत्र के बुर्जुगों की सही माने तो भगवान श्रीराम ने अपने वनवास काल में सीता मईया की प्यास बुझाने के धरती से जो पानी उत्पन्न किया था, उसी दौरान यह झील विकसित हुई। बुजुर्ग नैन सिंह, जगत सिंह, अमर सिंह आदि के अनुसार चौली डांडा नामक यह स्थल कई तरह से ऐतिहासिक व धार्मिक मान्यताओं से जुड़ा है। यहां शहीद वीर केसरीचंद की प्रतिमा स्थापित है। हर वर्ष तीन मई को शहीद मेला लगता है। साथ ही हर वर्ष जौनसार बावर का प्रमुख पर्व बिस्सू मेला भी चौली डांडा नामक इस चोटी पर लगता है।

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प्यास बुझाने वाली खुद प्यासी

कभी पूरे वर्ष भर रामताल झील में पानी भरा रहता था, लेकिन कुछ वर्षो से ग्रीष्म काल में झील सूख जाती है।

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'रामताल गार्डन नामक स्थल को पर्यटन की दृष्टि से विकसित किया जा रहा है। इस स्थल के विकास के लिए चार वर्षों से योजना चल रही है। शहीद स्मारक स्थल बनाने के साथ ही यहां गेस्ट हाऊस भी बनाया गया। झील का सौंदर्यकरण किया जाएगा।

-वाईके गंगवार, जिला पर्यटन अधिकारी

jai_bhardwaj
05-04-2013, 08:40 PM
मुंबई बम ब्लास्ट मामले में पांच साल की सजा सुनाए जाने के बाद मुश्किल दौर से गुजर रहे संजय दत्त चमत्कार की आस लगाए माता के दरबार में पहुंचे हैं। आज वह अपने जीजा और बॉलीवुड अभिनेता कुमार गौरव के साथ मध्यप्रदेश में दतिया की प्रसिद्ध पीताम्बरा देवी पीठ में दर्शन करने आए। वह प्राइवेट प्लेन से मुंबई से गुना पहुंचे।

हालांकि संजय की इस विजिट को प्राइवेट रखा गया था, पर फिर भी कुछ फैन्स को यह खबर लगने के कारण गुना हवाई स्ट्रिप पर उनके बहुत से फैन्स इकट्ठा हो गए।

संजय दत्त ने धोती कुर्ता पहना हुआ था। ऐसा बताया जा रहा है कि दतिया में मां पीताम्बरा पीठ के दर्शन कर वहां पूजा पाठ करेंगे, देर शाम गुना लौटकर संजय दत्त प्राइवेट प्लेन से ही मुंबई रवाना हो जाएंगे।

सूत्रों ने बताया कि ग्वालियर या झांसी में वायु सेना की ट्रेनिंग चलने के कारण वहां की एयर स्ट्रीप पर नहीं उतर सके। साथ ही शिवपुरी की एयर स्ट्रीप भी पूरी तौर पर सुरक्षित नहीं होने के कारण उन्हें गुना हवाई पट्टी पर उतरना पड़ा।

jai_bhardwaj
05-04-2013, 09:03 PM
वह अपनी आंखों में नए अरमान और ढेरों सपने सजाकर अपने पिता के घर से विदा होकर ससुराल आई. लेकिन ससुराल में कुछ समय बिताते ही उसे यह डर सताने लगा कि आखिर कब तक वह अपने जख्मों को अपने माता-पिता से छुपाती रहेगी, वे जख्म जो उसे उसके पति और ससुरालवालों द्वारा दिए गए हैं. जिसका कारण था बेटे को जन्म ना देकर दो बार बेटी पैदा करना. शायद वह यह नहीं समझ पाई कि आज भी समाज में बेटी को जन्म देने वाली महिला को अपराधिन समझा जाता है और यह अपराध किसी भी हाल में क्षम्य नहीं है. पहली बेटी के जन्म के बाद उस पर जो अत्याचार हुए वह उन्हें फिर भी सह गई लेकिन दूसरी बेटी के बाद तो जैसे उस पर कहर ही बरपाया जाने लगा. परेशान होकर वह अपने माता-पिता के घर आ गई. लेकिन यहां भी उसे चैन से जीने नहीं दिया गया. उसके ससुराल वाले उसके पति की दूसरी शादी करवाने की जिद करते या उसे अपने मायके से पैसे लाने के लिए कहते ताकि उसकी बेटियों का खर्चा उठाया जा सके. यह मामला पुलिस के पास से होता हुआ अदालत तो पहुंचा लेकिन इससे पहले कि अदालत अपना निर्णय सुना पाता उसके पति ने उसे गोली मार दी.

यह उसी महिला की दर्दभरी कहानी है जिसे सरेआम गोलियों से भून दिया गया और उसे भूनने वाला और कोई नहीं बल्कि उसका अपना पति ही था. वह हर हाल में अपने परिवार को टूटने से बचाना चाहती थी लेकिन हुआ वो जो उसकी किस्मत को मंजूर था.


दिल्ली के कड़कड़डूमा मेट्रो स्टेशन पर अपनी पत्नी और ससुर को गोली मारने वाले आरोपी युवक ने यूं तो खुद को भी गोली मार ली लेकिन क्या इससे उसका अपराध कम हो जाएगा. उसके लिए उसकी बेटियां बोझ थीं, वह उनसे पीछा नहीं छुड़ा पाया तो अपनी पत्नी को ही जान से मार दिया.

हालात वही पुराने और मामला नया. बेटियों को बोझ समझने का सिलसिला आज की बात नहीं है. अगर यह कहें कि भारतीय समाज की जड़ों में ही यह खूबी व्याप्त है तो भी शायद कोई इस बात को नहीं नकार पाएगा.


पहले बेटियों का खून बहाया जाता था लेकिन अब पत्नियों पर जुल्म ढाए जाने का सिलसिला शुरू हो गया है जबकि विज्ञान यह पहले ही स्पष्ट कर चुका है कि बेटी होगी या बेटा ये महिला के हाथ में नहीं होता बल्कि पुरुष का स्पर्म ही निर्धारित करता है कि उसकी पत्नी की कोख से एक बेटी जन्म लेगी या बेटा. अगर बेटी का जन्म लेना पाप है तो जाहिर है इस पाप का असली भागी सिर्फ और सिर्फ वह पुरुष है ना कि महिला. मां अपने बच्चे को 9 माह तक कोख में रखती है बस इसीलिए उसे दोषी ठहराया जाना पूर्णत: गलत है. पहले कहा जाता था कि बेटा-बेटी में भेदभाव वो लोग करते हैं जो अशिक्षित होते हैं. गांव-देहात में रहते हैं, लेकिन इसे हमारे समाज की विडंबना कहिए या कुछ और परंतु बेटियों को अपनाने में आजकल सबसे पीछे वही लोग हैं जो शिक्षित हैं और संपन्न परिवार से ताल्लुक रखते हैं और जिनके पास ना तो धन की कमी है और ना ही सुविधाओं की. अगर कुछ कम है तो वह है बेटियों को अपनाने का जज्बा. उन्हें बोझ समझने की मानसिकता जब तक हमारे दिमाग में रहेगी घर के घर तबाह होते रहेंगे.

jai_bhardwaj
14-04-2013, 09:20 PM
मेरे दादा जी उस उम्र के दौर से गुजर रहे हैं जहां चीजें अक्सर छूटने लगती हैं। छोटी बच्ची ने उनके हाथों को देखकर हैरत से कहा,‘इनके हाथों की नसें किस तरह चमक रही हैं।’ ऐसा उसने गंभीरता से कहा था। उस छोटी बच्ची को भी एक वृद्ध की इस अवस्था को देखकर हैरानी हुई।

दरअसल बुढ़ापा अपने साथ संशय और हैरानी लाता है। इंसान खुद को ऐसे दौर में पाता हैं जहां से रुट बदलना नामुमकिन है। अब तो सिर्फ आगे जाना है। हां, पीछे मुड़कर देखा जा सकता है, लेकिन पुराने दिनों को जिया नहीं जा सकता।

बच्ची की बात ने मुझे भी गंभीर कर दिया था। नसों ने त्वचा का दामन नहीं छोड़ा है। बस किसी तरह चिपकी हैं।

हम जब एक वृद्ध को देखते हैं तो पाते हैं कि जर्जरता किस कदर हावी हो सकती है। शरीर कितना है बाकी।

हम जानते हैं कि हम भी कभी वृद्ध होंगे। हम भी होंगे अपने वृद्धजनों के दौर में। ...............तब एहसास होगा कि बुढ़ापा क्या होता है?

jai_bhardwaj
14-04-2013, 09:24 PM
बुढापा : एक अध्ययन

दूसरों का साथ
एक पीड़ा जो अंतहीन है उसका असर कम होना चाहिए ताकि जीवन उपहास न करे। मैला जीवन किसने बताया। लोगों की हंसी इसे साफ कर देगी और उनका साथ भी। दुख होंगे कम। आंख होगी नम। यह नमी हर्ष की होगी

हम प्यार क्यों करते हैं?
मैं खुद से जूझ रही हूं लेकिन खुद से प्रेम भी कर रही हूं। जीवन से भी तो हम प्रेम कर सकते हैं। बुढ़ापे से भी प्रेम किया जा सकता है। बात सिर्फ नजरिये की है। प्यार का मतलब भाव से है. वह है प्यार का भाव जिसका अदृश्य होना उसकी खासियत है। वैसे भाव दिखते ही नहीं, महसूस किये जाते हैं

खुशी बिखेरता जीवन
खुशी एक एहसास है, एक खूबसूरत अनुभव। हमारा अंग-अंग इससे प्रभावित होता है। हम खुद को ताजा पाते हैं। नयी ऊर्जा का संचार होता और जीवन में बहार आ जाती है। कलियां खिलने लगती हैं, महक से हम पुलकित हो उठते हैं। वातावरण का रंग बदल जाता है। मन का दर्द छिप जाता है

थोड़ा रो लो, मन हल्का हो जाएगा
मेरी मां कहा करती थी कि आंसू अनमोल हैं, इन्हें यूं जाया मत करो। जो बात छिपी हो किसी कोने में, दर्द बढ़ा हो कहीं, उसे बाहर लाना हो अगर, तो थोड़ा रो लो। शायद तसल्ली मिल जाए, मन हल्का हो जाए

कहीं फूटती कोपलें मिल जाएं
खोई हुई चीजें अक्सर ढूंढी जाती हैं। ऐसा हमारे साथ भी होता है। इंसान खुद को खुद में खोजने की कोशिश करता है। लेकिन ऐसा करने वाले कम होते हैं क्योंकि भ्रम में जीने वालों की तादाद का कोई ठिकाना भी तो नहीं

जीवन से इतना प्यार है
जब रिश्ते बने हैं, मोह जरुर उपजा होगा। इंसान के लिए यह जरुरी नहीं कि वह किस स्थिति में लोगों से जुड़ाव रखे, बल्कि वह कई बार मोह के झोंके को अचानक अपने करीब पाता है। उन्हें जीवन से मोह हो जाता है

प्रेम कितना मीठा है
प्रेम कितना अनोखा है। निरंतर बहता है, सिर्फ बहता है। उसकी महक जीवन को आनंदित करती है। ऐसा लगता है जीवन उल्लास से भर गया है। पता नहीं हवा कैसी चलने लगती है। झोंके रंगीन लगते हैं। मिजाज बदल जाता है। फूलों से बातें करने का मन करता है

सूखी भी, गीली हैं आंखें
अनमोल हैं किसी के लिए कोई, और उनसे भी कीमती हैं उसकी आंखें। न कहते हुए भी बहुत कुछ कह जाती हैं। निरालापन-अलबेलापन समझाती हैं। इंसान को इंसान से मिलाती हैं। यह संसार सुन्दर है, हमने इसके रुप को अपनी आंखों से निहारा है

जिंदगी मीठी है
मैं खुद को पीछे नहीं हटने दूंगी क्योंकि जिंदगी मीठी थी, मीठी है और अंतिम सांस तक रहेगी। फर्क सिर्फ इतना है कि पहले की मिठास और अबकी मिठास में जमीन आसमान की दूरी है

उसने कहा था
बातों की नदियां बह जाती हैं। दुख–दर्द मानो सिमट गये हैं– ऐसा अहसास होता है। उस समय संसार निर्जन, सूखा रेगिस्तान नहीं रह जाता। सूखे पत्ते फड़फड़ाहट नहीं करते, बल्कि उनकी शुष्कता तरंगित होती दिखती है। सुख की बीणा बजती है

मकड़ी के जाले सी जिंदगी
उलझनों और परेशानियों का मेल है जिंदगी। मकड़ी के जाले सी उलझी हूई, जीत-हार का मैदान है जिंदगी। यहां पासे फेंके जाते हैं, पासे पलट भी जाते हैं। उदास और खिले चेहरों का समागम, भावनाओं की बिक्री का खुला बाजार, मोल-भाव और कई खरीददार

अब यादों का सहारा है
यादों को समेटने का वक्त आ गया है। बुढ़ापा चाहता है कि जिंदगी थमने से पहले यादों को फिर जीवित कर लो। शायद कुछ पल का सुकून मिल जाए। शायद कुछ पल पुराना जीवन जीकर थोड़ा हैरान खुद को किया जाए

बुढ़ापा भी सुन्दर होता है
मुझे मालूम है कि सबकी सोच एक-सी नहीं होती। इन जर्जर हाथों में कोमलता अब कहां? फिर भी सुन्दर हैं यह हाथ। चेहरे पर रौनक की बात छोड़ो, झुर्रियां चहलकदमी क्या, स्थायी तौर पर निवास करने लगी हैं

बस समय का इंतजार है
उत्पत्ति के समय से जीवन के कष्टों की उल्टी गिनती शुरु हो जाती है। हम एक तरह से अनजान हैं। हमारे आसपास बहुत कुछ ईश्वर तैयारियां कर रहा होता है

उन्मुक्त होने की चाह
पंछियों को देखकर बूढ़ी काकी शायद यही सोच रही थी कि वह भी इक दिन इसी तरह उन्मुक्त होगी। सब तरह के बंधनों से मुक्त होगी. यह कामना जल्द पूरी होने की आस लगाये थी काकी

बंधन मुक्ति मांगते हैं
अब वक्त नहीं कहता कि आगे चलो। कहता है कि बस भी करो, बहुत हुआ, विश्राम करने का समय आ गया। मनुष्य शरीर सारे बंधनों से मुक्त होगा और आजाद होगी आत्मा अपने नये देश जाने के लिए। यह उजाले को छूने की कोशिश होगी

गलतियां सबक याद दिलाती हैं
हमारी गलतियां सबक होती हैं ताकि भविष्य में ऐसा न हो। इतना समझकर भी हम नहीं संभले तो अपने नुक्सान के जिम्मेदार हम खुद हैं। छोटी-छोटी गलतियां अक्सर बड़ी बन जाया करती हैं। मामूली दरारें विशाल भवनों को समय के साथ कमजोर करती रहती हैं

सीखने की भी चाह होती है
सीखना भी एक कला है और जीना भी। जीकर निपुणता पायी जा सकती है तथा कौशल से सुन्दर जीवन। पर यह सब इतना आसान नहीं। प्रायः अच्छे कार्य सरल नहीं होते। हम जानते हैं कि अच्छे विचार उतनी तीव्रता से ग्रहण नहीं किये जाते, जबकि बुराइयों को समाने में वक्त नहीं लगता

jai_bhardwaj
14-04-2013, 09:25 PM
हर पल जीभर जियो
इंसान हर पल को जीभर कर जीना सीखे। चूम ले रोशनी को ताकि सूरज निकलने का इंतजार न करना पड़े। दूसरों से लगाव करना सीखे वह। उनके शब्दों को समझे, मीठा बोले, तो कितना कुछ आसान हो जाए

संबंधों के दायरे में
इंसान इंसान के बिना पूरा नहीं। हम संबंधों के दायरे में जीते हैं। यह किसी ने सिखाया नहीं, स्वत: है। जरुरतें मिलजुलकर पूर्ण होती हैं। इंसानियत सिखाती है कि जुड़कर चलो। रिश्ते यहीं उत्पन्न होते हैं। रिश्ते टूटते जरुर हैं, लेकिन उनका अंत नहीं होता

पूर्व जनम के मिले संजोगी
तुमने एक मजबूत रिश्ता बना लिया जो शायद ही कभी टूटे। एहसास हो गया मुझे कि अनजाने लोग किस तरह अपनों की तरह लगने लगते हैं। कितना प्रेम करने लगते हैं हम उनसे। ये लोग शायद कभी हमसे जुड़े रहे होंगे, तभी फिर से हमारे साथ हैं- यह संयोग नहीं तो क्या है?

क्योंकि सपने हम भी देखते हैं
काकी अपनी सखा को नहीं भूली क्योंकि वह उसके हृदय में बस गयी। कुछ लोग हमसे अलग दुनिया के लगते जरुर हैं, लेकिन होते नहीं। हम उन्हें हमेशा अपने पास रखने की ख्वाहिश करते हैं। उम्मीद सदा रहती है क्योंकि सपने हम भी देखते हैं।

पाया क्या इतना जीकर?
वास्तव में हमने जर्जरता को पाया इतना जीकर। बुढ़ापा हासिल किया इतना जीकर। थकी काया को ढोने का इंतजाम किया इतना जीकर। कुछ नहीं, फिर भी सबकुछ किया हमने। सिर्फ पहचान नहीं की खुद की, क्योंकि हम संसार में खो गए. खोकर खुद को फिर पाया क्या हमने इतना जीकर?

मुसीबतें हौंसला देती हैं
जीवन यह कहता है कि वह असंख्य उतार-चढ़ाव से भरा है। उसमें गोते खाने पड़ते हैं और नाव किनारा मांगती है चाहें वह उसे पहचानती न हो। संघर्ष हर पल मौजूद है। इसके बिना जीवन संभव भी तो नहीं

जीवन अभी हारा नहीं
बुढ़ापा बिल्कुल बोझिल नहीं। सफर कितना भी मुश्किल क्यों न हो, एक मुस्कराहट उसे आसान बना देती है। जिंदगी का यह अंतिम सफर अबतक के सफर का सार है. बुढ़ापा टिका है हौंसले पर, एक वादे पर कि जीवन अभी हारा नहीं, वह पीछे हटेगा नहीं

ठेस जो हृदय तोड़े
हमें सीखना होगा ताकि किसी को यह न लगे कि हम बुरे हैं। हमें सीखना होगा कि किसी का हृदय कभी न टूटे, कभी न दुखे क्योंकि इससे व्यक्ति भी बिखर जाता है। हमें नहीं कहना होगा वह शब्द जो वाण की तरह धंस जाए

कितने अहम हैं कुछ लोग
हम इंसानों में यह खासियत होती है कि जहां हमें किनारा दिखाई पड़ता है, हम उस ओर रुख कर देते हैं। जिनकी जिंदगी में दुख अधिक होता है, उन्हें सुख की तलाश रहती है। वे प्यार की मामूली छींट से खुद को पूरी तरह भिगो देते हैं

जिंदगी हर बार हार जाती है
मरने से पहले यादों की पूरी किताब इतनी तेजी से खुलती है कि हम केवल देखते रह जाते हैं। यह सब इतनी जल्दी हो जाता है कि सोच भी पशोपेश में पड़ जाती है। जिंदगी कितनी भी शानदार क्यों न रही हो, उसके सिमटने की बारी आती है

सच का सामना
बुढ़ापा जीवन का सार होता है। जीवन भर में कष्टों भरी राहें मिलती हैं। हम उनसे दो-चार होते हैं। लेकिन बुढ़ापा उतना सरल नहीं, इसे निभाना पड़ता है। सच कहूं तो बुढ़ापा ढोया जाता है

न सिमटेगा यह प्रेम
इस समय सूखे रेगिस्तान में एक बूंद भी सागर बहा देती है। थकी आंखें जिनकी नमीं कब की सूख चुकी, हरी-भरी दिखाई देती हैं। बुढ़ापे को और चाहिये ही क्या?

अपने ही अपने होते हैं
बचपन से लेकर आजतक हमने किसी न किसी से प्रेम ही तो किया है। शायद इसमें बंधकर ही हमने कठिन रास्तों को चुना, लेकिन सरलता से पार करने में हम कामयाब भी हुए। मां-बाप और औलाद के बीच प्रेम जमकर हंसा और खूब नाचा

युवा हवा का रुख
युवाओं की स्थिति पतंग के समान होती है, इधर-उधर इतराती पतंग। तेज हवा के झोंके पर डोर छूटने का डर भी रहता है। उन्मुक्त गगन से बातें करने की चाह कई बार धरातल पर भी रहने को विवश कर देती है

अनुभव अहम होते हैं
हम खोकर भी बहुत कुछ पा लेते हैं और कभी-कभी बैठे-बिठाये लुट जाते हैं। अपनी तकदीर खुद लिखने की कोशिश करते हैं। अनजाने में अनचाही राहों पर निकल पड़ते हैं। किस लिये, आखिर किस लिये करते हैं हम यह सब। हमारे अनुभव हमें बताते हैं कि हम क्या भूल गये, क्या तैयारी बाकी रह गयी

रसहीनता का आभास
सिलवटें इकट्ठा होने पर अहसास होता है कि इतने स्वाद होते हुए भी जीवन रसहीन है। नीरसता और हताशा का माहौल बहुत कुछ सोचने को विवश करता है। वक्त कई जायके दे जाता है- अनगिनत स्वादों से भरे

जीवन का निष्कर्ष नहीं
कुछ सवाल ऐसे होते हैं जिनका हल नहीं निकलता, लेकिन सवाल असल में वे ही होते हैं। बातों को घुमाया-फिराया जा सकता है, लेकिन जीवन की गुत्थी को हल नहीं किया जा सकता। अगर हल निकल जाता तो इंसान जीवित ही रहता

jai_bhardwaj
14-04-2013, 09:26 PM
मैं अकेला हूं, सूनसान हूं, वीरान हूं। यह मुझे मालूम है कि मेरा जीवन बीत चुका। कुछ सांसें शेष हैं- कब रुक जाएं क्या पता?

मैंने हर रंग को छूकर देखा है, चाहें वह कितना उजला, चाहें वह धुंधला हो। उन्हें सिमेटा, जितना मुटठी में भर सका, उतना किया। रंग छिटके भी और उनका अनुभव जीवन में बदलाव लाता रहा। मैं बदलता रहा, माहौल बदलता रहा, लोग भी।

चश्मे में मामूली खरोंच आयी। दिखता अब भी है, मगर उतना साफ नहीं। सुनाई उतना साफ नहीं देता। लोग कहते हैं,‘‘बूढ़ा ऊंचा सुनता है।’’ लोग पता नहीं क्या-क्या कहते हैं।

जब जवानी में फिक्र नहीं की, फिर बुढ़ापे में शर्म कैसी?

कुछ लोग यह कहते सुने हैं,‘‘बूढ़ा पागल है।’

हां, बुढ़ापा पागल होता है, बाकि सब समझदार हैं।

जवानों की जमात में ‘कमजोर’ कहे जाने वाले इंसानों का क्या काम? सदा जमाने ने हमसे किनारा किया। हमें बेगाना किया। इसमें अपनों की भूमिका ज्यादा रही।

इतना कुछ घट चुका, इतना कुछ बीत चुका। पर लगता नहीं कि इतनी जल्दी इतना घट गया। जीवन वाकई एक सपने की तरह है। थोड़े समय पहले हम नींद में थे, अब जाग गये। शायद आखिरी नींद लेने के लिए। चैन की अंतिम यात्रा हमारे लिए शुभ हो।

मैं बिल्कुल टूटा नहीं। यह लड़ाई खुद से है जिसे मुझे लड़ना है। समर्पण नहीं करुंगा। संघर्ष मैंने जीवन से सीखा है।

विपत्तियों को धूल की तरह उड़ाता हुआ चलना चाहता हूं। हारना नहीं चाहता मैं। बिल्कुल नहीं। वैसे भी हारने के लिए मेरे पास बचा ही क्या है? इतना कुछ गंवा चुका, बस चाह है मोक्ष पाने की। चाह है फिर से न लौट कर आने की।

बुढ़ापा चाहता है छुटकारा, बहुत सह चुका, बस आराम की चाह है।

jai_bhardwaj
17-04-2013, 08:56 PM
गुजरात के एक पूर्व विधायक की माली हालत इतनी खराब है कि उन्हें बीपीएल कार्ड के तहत अपना इलाज कराना पड़ रहा है। उनके तीन बेटे नरेगा के तहत मजदूरी करते हैं। अस्सी वर्ष के भीखाजी पूंजाजी ठाकोर 1972 में कांग्रेस के टिकट पर डीसा विधानसभा क्षेत्र से विधायक बने थे।

दमा के मरीज भीखाजी को उनका बेटा रमेश बुधवार को पालनपुर के डॉ. सुरेंद्र गुप्ता के पास इलाज के लिए लेकर आया। एक पूर्व विधायक का बीपीएल कार्ड के साथ इलाज के लिए आना डॉ. गुप्ता के लिए चौंकाने वाली बात थी। हालांकि उन्होंने भीखाजी का मुफ्त इलाज कर दिया।

भीखाजी को पेंशन भी नहीं मिलती है। गुजरात स्थापना की स्वर्ण जयंती के अवसर पर एक जनवरी को गांधीनगर में हुए एक सम्मेलन में पूर्व मुख्यमंत्रियों व विधायकों को सम्मानित किया गया, लेकिन इसमें भीखाजी को आमंत्रित नहीं किया गया। बनासकांठा जिले के साग्रोसणा गांव में रहने वाले भीखाजी ने अपना पूरा राजनीतिक जीवन ईमानदारी से जिया। उन्होंने अपने तीनों बेटों के लिए कभी भी कोई सिफारिश नहीं की। साग्रोसणा गांव में भीखाजी का एक छोटा सा कच्चा मकान है। घर में गैस तक नहीं है और खाना चूल्हे पर बनता है.

jai_bhardwaj
01-05-2013, 08:27 PM
बांका। इसे कुदरत का करिश्मा कहें या शारीरिक विकृति, समझ में नहीं आता। 96 वर्षीय बुजुर्ग के सिर पर तीन इंच लंबा सींग उग आया है। बकरे या अन्य जानवरों के सींगों की तरह ही यह भी मजबूत और नुकीला है। इस अजूबे ने स्थानीय चिकित्सकों को भी हैरत में डाल रखा है। वे भी इसे अपनी तरह का अद्भुत केस मान रहे हैं।

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=26968&stc=1&d=1367422042

जानकारी के अनुसार अमरपुर प्रखंड के सलेमपुर गांव के जगदीश कापरी के सिर पर यह सींग निकला है। कापरी ने बताया कि छह महीने पहले सर्दियों के दौरान उन्हें सिर के बीच में सींग विकसित होने का एहसास हुआ। जगदीश के रिश्तेदार राजीव कापरी ने बताया कि सर्दियों में जगदीश की ऊनी टोपी फाड़कर सींग बाहर निकल आया। इसके बाद सबका ध्यान इस ओर गया। जगदीश का कहना है कि उन्हें सींग से कोई विशेष तकलीफ नहीं है। मगर, सिर पर असामान्य रूप से सींग निकलने से वे सहमे हुए हैं।

स्थानीय चिकित्सकों से भी समस्या पर बात की गई। सभी पसोपेश में पड़ गए। जगदीश की उम्र के मद्देनजर चिकित्सक शल्यक्रिया कर सींग हटाने से भी परहेज कर रहे हैं।

इस बाबत सिविल सर्जन डॉ. एनके विद्यार्थी ने बताया कि चिकित्सा विज्ञान में हॉर्न यानी सींग निकलने की बात अभी तक सामने नहीं आई है। कभी-कभी शरीर के किसी हिस्से में मांस का अतिरिक्त हिस्सा निकलने के मामले जरूर सामने आते रहे हैं। मगर, ठोस सींग का निकलना बिल्कुल अनोखा मामला है। जल्द ही मेडिकल टीम भेजकर कापरी की जांच कराई जाएगी। तत्पश्चात उनके इलाज पर विचार किया जाएगा।

jai_bhardwaj
01-05-2013, 08:45 PM
खबर लगभग एक वर्ष पुरानी अवश्य हैं किन्तु रोचक एवं अविश्वसनीय अवश्य है .......


बुजुर्ग 96 वर्ष की आयु में दोबारा पिता बना

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=26979&stc=1&d=1367423015

हरियाणा में सोनीपत जिले केखरखोदा में एक बुजुर्ग 96 वर्ष की आयु में दोबारा पिता बना है। इसके साथ ही उन्होंनें अपना ही रिकॉर्ड तोड़ दिया है। 5 अक्टूबर को राघव की 52 वर्षीय पत्**नी शकुंतला देवी ने प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में अपने दूसरे बच्चे को जन्म दिया। वह दुनिया के सबसे बुजुर्ग पिता हैं। रामजीत राघव ने बताया कि उनका पहला बच्चा 94 वर्ष की आयु में हुआ था, जिसका नाम उन्होंने विक्त्रमजीत रखा था। इससे पहले वर्ष 2007 में राजस्थान के चित्तौड़गढ़ में नानू राम 90 वर्ष की आयु में पिता बने थे। इससे पहले 2006 में भी राजस्थान के बाड़मेर जिले में विक्त्रमराम नाम के बुजुर्ग 88 वर्ष की आयु में पिता बने थे।

jai_bhardwaj
06-05-2013, 06:48 PM
आज मेनें एक पागल को देखा ! जो फटे पुराने से गंदे चीथडे से होते जा रहे कपडों में लिपटा था ! लिबास से ही उसको पहचाना जा सकता था कि या तो वह पागल है या भिखारी ! बहुत गंदा सा शायद काफी दिनों से नहाया नहीं था । दाढ़ी बढ़ी हुई और बाल अजीब से बिखरे हुए से थे ! बेचारा अपने रस्ते पे जा रहा था ।

पर दुनिया बडी जालिम है, चैन से किसी को को जीने नहीं देती । अचानक एक बच्चे को वह पागल नजर आ गया और उसने उसको ना जाने कौनसे उटपटांग इशारे या संकेत दिये कि भिखारी चिढ़ने लगा ! अब बच्चे को पागल भिखारी की कमजोर नस पकड में आ गई, ए॓से ही छोडता थोडी । उसने पागल को और भी ज्यादा से ज्यादा परेशान किया ! और थोडी ही देर में उसी बच्चे के हम उम्र आवारा से दोस्त भी आ गए ! पागल व्यक्ती की तो शामत आ गई थी जैसे ।

देखते ही देखते सभ्य लोगो से भरे बाजार में आवारा टाईप के बच्चो की भीड आ गई, बच्चो मे से कोई पागल के कपडे खींचने लगा तो कोई उसे चिढ़ाने लगा । पागल कमजोर भी था और पागल तो था ही । उसने उलजुलुल बकवास करनी शुरु कर दी, हाथ पांव चलाए पर अब तो बच्चों को इस काम में और ज्यादा रस आने लगा । जान पे बन आने पर तो कोई कमजोर सा पागल भी सर्वशक्तीमान जेसा हो उठता है ।

अब बच्चे आगे आगे और पागल हाथ में पथ्थर लिए उनके पीछे पीछे ! दुनिया बडी अजीब है, पुरे घटनाक्रम में कोई बच्चों को शैतानी करने से रोक नहीं पाया और अब जब पागल के हाथ में पथ्थर आ जाता है और अगर वह बच्चों कों डराने के लिए थोडा शक्ती प्रदर्शन करता है तो लोग पागल को मारने पर उतारु हो जाते हैं । बडी अजीब सी स्थिती है आजकल ।

मुझे खुद अपने आप पर भी बडा तरस आया की क्या में उस पागल को बच्चों से बचाने में सक्षम नहीं था । अगर था तो क्यो नही बच्चो पर चिल्लाया ! हर आदमी फोकट के झंझट से बचना चाहता है आजकल, शायद में भी उन लोगों जैसा ही हो गया हूं !

jai_bhardwaj
07-05-2013, 08:02 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=27128&stc=1&d=1367938844

चर्च ने भाजपा सरकार से ईसाइयों और मुस्लिमों के लिए गौमांस की मांग की

पणजी। बांबे हाई कोर्ट के अंतरिम आदेश से नाराज गोवा की कैथोलिक चर्च ने भाजपा सरकार से ईसाइयों और मुस्लिमों के लिए गौमांस की पर्याप्त व्यवस्था करने की मांग की है। चर्च ने गौमांस को लेकर अदालत की कठोर पाबंदियों को अल्पसंख्यकों के धार्मिक अधिकारों का उल्लंघन बताया है और इस पर राज्य सरकार की चुप्पी को लेकर उसकी धर्मनिरपेक्ष छवि पर भी सवाल उठा दिए हैं।

रोमन कैथोलिक चर्च की सामाजिक शाखा सोशल जस्टिस एंड पीस काउंसिल के कार्यकारी सचिव फादर सेवियो फर्नाडीज ने कहा कि अदालती आदेश से गोवा में मांस के लिए बाहर से सांड़ मंगाए जाने पर रोक लग गई है। साथ ही 12 साल के कम उम्र की गाय या बैलों को मारने पर भी पाबंदी लग गई है। दरअसल, एनजीओ गोवंश रक्षा अभियान ने शिकायत की थी कि राज्य की एकमात्र बधशाला गोवा मीट कांप्लेक्स में कम उम्र के जानवरों को भी मारा जा रहा है।

फर्नाडीज ने सरकार से तुरंत हस्तक्षेप कर कोई सर्वमान्य हल खोजने की मांग की है, ताकि मांस व्यापारियों और गौमांस खाने वालों के साथ इंसाफ हो सके। चर्च की मांग है कि मुख्यमंत्री मनोहर पार्रिकर प्रभावित समूहों से मिलें और समस्या का तुरंत समाधान खोजकर साबित करें कि सभी धार्मिक संगठनों के प्रति उनका बर्ताव समान है। चौदह लाख आबादी वाले गोवा में करीब 26 फीसद आबादी ईसाइयों की है और जहां चर्च एक प्रभावशाली संगठन है।

neeraj2207
30-05-2013, 04:45 PM
bahut hi achha likha hai aapne dhanyadab............
:bravo:

jai_bhardwaj
03-08-2013, 08:06 PM
मानो जिंदगी एक पज्ज़ल हो, बहुत तनहा हो, और जिम्मेवारी से भार से लदी फदी भी। ऐसे में वह अपने अपने अंतरतम से कनेक्ट हो गया हो। दुनिया के अंदरूनी सतह पर एक दुनिया और चलती है जिससे वह जुड़ गया हो। जहां खामोशी ही प्रश्न हो, चुप्पी ही उत्तर, मौन की बेचैनी हो। खामोशी ही वाक्य विन्यास हो, यही व्याकरण हो। मास्टर ने नंगी पीठ पर कच्चे बांस की लिजलिजाती करची से सटाक दे मारा हो और शर्त यह हो कि उस जगह जहां तिलमिलाते हुए हाथ न पहुंचे वहां नहीं सहलाना हो।

वह लगातार फोन कर रहा है। मजाज़ का शेर चरितार्थ हो बहुत मुश्किल है उस दुनिया को संवरना, तेरी जुल्फों का पेंचो खम नहीं है। रिवालविंग चेयर पर एक कान से फोन का रिसीवर चिपका हो और दूसरा हाथ हवा में जाने क्या सुलझा रही हो। जीने के कितने पेचीदा गुत्थी हो, मसले रक्तबीज हैं। अपने मसाइल सुझल नहीं रहे, ग्राहकों की वित्तीय समस्या सुलझाई जा रही है।

कि अचानक एक अधिकारी आवाज़ देकर बास के चेंबर में बुलाता है। बास का केबिन? प्राइवेट नौकरी यानि चैबीस घंटे गर्दन पर लटकती सलीब। दिखावे से शरीर से आफिस में उपस्थिति के बारह घंटे। प्राईवेट नौकरी की जैसी अपनी एक सरहद है, और आप मानो फौजी। बाकी के बारह घंटे भी मन से ड्यूटी पर। बास अपने केबिन में क्यों बुला सकते हैं। आलम यह है कि नौकरी के लिए सर भी कटा दो तो बास संवेदनहीन होकर बोले - यार इतने सालों के बात बात पर सर कटाई है लेकिन देखो इसे ठीक से सिर कटाना भी नहीं आया। मर गया लेकिन काश हमारे कंपनी के लिए खून भी देता जाता। फिर वो अगले वित्तीय वर्ष में इस बिंदु पर विचार करने के लिए भी कोई कोड आफ कंडक्ट लागू करेगा। खैर....

वह केबिन में जाता है। मन में एल लाख सवाल है। सिर्फ सवाल ही तो है। उफ सवालों का शोर कितना है? इतना है कि चमड़ी मोटी हो गई है। गलाकाट प्रतिस्पद्र्धा के दौर में इमोशन पर काबू रखना एक खास व्यक्तिगत गुण है जो कम्पटीशन सक्सेस रिव्यू सहित अमरीकी प्रबंधन संस्थाओं में तरक्की के लिए पढ़ाया जाता है। यह व्यक्तित्व विकास की सीढ़ी है। बाॅस नायक के शर्ट की तारीफ करता है। नायक बाॅस की बात को ज़ारी रखता है। बास नायक को बैठने को कहता है। यहां से नायक के जुबान का संपर्क उसके दिमाग से कट जाता है। वह सिर्फ शिष्टाचार के नाते धन्यवाद ज्ञापित करता है। लेकिन उसके मन में सवाल वही है 7 क्या अब इस टुच्ची सी नौकरी से भी (अल्लाह माफ करना यही इस वक्त भी भगवान है) हाथ धोना पड़ेगा?

कि अचानक आने वाला एक एक लम्हा स्लो मोशन में बदल जाता है। अरे ये क्या हुआ ? कैसे हुआ? यह भला हो कैसे सकता है ? क्या कान जो सुन रहा है, दिल उसे समझ भी रहा है? कहीं संघर्ष के नीले सपने उसे दिन दहाड़े सच में नहीं आने लगे? मैं सच्चा हूं या जग झूठा है? यह दृश्य हो भी रहा है या नहीं?

बास उसे कल से पक्की नौकरी पर रखने का प्रस्ताव रखता है। नायक के अंदर एक उत्तेजना सी उठी है। प्रशांत महासागर के गर्त में समाए किसी ज्वालामुखी में कोई वलवला सा उठा है। काश दिल से भी मैग्मा निकलकर पूरी धरती को पिघलाता हुआ वह देख सकता। यह प्रतिक्रिया व्यक्त कैसे हो? शब्दों में तो संभव नहीं। इस वक्त तो मुठ्ठी इतनी कसी कि दीवार को बारीक बुरादों में बदल दे। लोहे की छड़ चकनाचूर कर दे। गैर इरादती तौर पर मा....द....र.....*.......द ही बोल दे। और ऐसा बोलते हुए उसकी वाइस उत्तेजना को व्यक्त करते हुए क्रैक हो।

लेकिन फिर वही बात..... इमोशन पर कंट्रोल, व्यक्तित्व का विकास। लेकिन दिल तो है न संगो खिश्त....... सो प्रस्ताव सुनकर आंखों में आंसू भर आते हैं। पलकों का दरया छलकने को ही होता है। कपोल सहित गाल फड़कने लगते हैं। मन करता है एक मुक्का टेबल पर दे मारे और कहें - यस! या किसी बाॅलर द्वारा मिडिल स्टंप उखाड़ने पर जैसी प्रतिक्रिया दें और कैमरा उसे रिवांइड मोड में दिखाए।

हम मध्यमवर्गों के लिए नौकरी यही चीज़ है। देवता। फरिश्ता। खुदा। इसके आगे सब हारे हैं। नतमस्तक हैं। इसी से सभी संभलते और संभाले जाते हैं। यही हमारे लिए अध्यात्म है। इसी से हमारा दुख भी जश्न मनाता है। इसी से हम राजा हैं। इसी से दुनिया चूतिया है। इसी के कोई मां का लाल हमारा कुछ नहीं उखाड़ सकता। यही हमारा हैप्पीनेस है।

अपने व्यक्तित्व में कितने भी बगावती हों। यहां का बगावत माघ की रात में अंगीठी सेंके जाने बाद उस पर उलटा दिया एक लोटा पानी है।

द परस्यूट आफ हैप्पीनेस का यह अंतिम टुकड़ा देख कर उठा हूं। रात के एक बजकर तीन मिनट हो रहे हैं। बेचैनी सी महसूस हो रही है। बाहर बारिश है। ऊंचे लैम्पपोस्ट की गंदलाई रोशनी में बारिश रूई के फाहों सी झर रही है। हथेली पर कुछ बूदें लेता हूं। ये फाहे ठंडी हैं।

फिल्म के क्रेडिट्स उभर रहे हैं। प्रकृति नहीं बदली है, हमारी प्रकृति बदल गई है।

jai_bhardwaj
03-08-2013, 08:08 PM
जिंदगी क्लोज-अप में ट्रेजेडी है, लेकिन लाँग-शॉट में कॉमेडी।

बहुत सारा प्यार करने के बाद यूं अचानक लगता है कि जैसे अब प्यार नहीं कर रहे हैं। अब अपने अंदर का अकेलापन किसी से सांझा कर रहे हैं। कि जैसे एक समय के बाद ये बड़ी वाहियात शै लगती है। लगता तो ये भी है कि प्यार नहीं होता ये बस आत्मीयता, घनिष्ठता उसके साथ में सहज लगना, अपने मन की बात को बेझिझक उसके सामने रख देने की बेलाग आज़ादी, फलाने की आंखों में अपने इंसान भर बस होने का सम्मान वगैरह वगैरह में बंट जाती है।

कल रात यूटीवी वल्र्ड मूवीज़ पर एक सिनेमा देखा। ए गर्ल कट इन टू। विश्व सिनेमा बस उस बड़े फलक को महसूसने और सिनेमैटोग्राफी के लिए देखता हूं। कम लोग हैं जिनके लेखन के शब्दांकन और उसका फिल्मांकन पर्यायवाची हो सकता है या कागज़ पर है।

कथित फिल्म की नायिका एक टी.वी. कलाकार है और एक 50 साल के लेखक से प्यार कर बैठती है। मुहब्बत भी अजीब शै है साथ ही बौद्धिकता भी। अपनी जवानी निसार कर रहा एक जूनूनी लड़का उसे प्रोपोज कर रहा है लेकिन उस लेखक का भेजा महज एक बुके उसे अंदर से रोमांचित कर देता है। वह सब कुछ छोड़कर भागी भागी उसके पास जाती है। यहां बिस्तर साझां करना कोई शर्त नहीं।

कहानी के बीच में थोड़ा विराम देकर मैं खुद को वही खूबसूरत नायिका मान यह सोचने लगा कि अगर मैं एक उन्मादी और समर्पित संभोग के बाद इस अतिबौद्धिक लेखक के सीने के बालों में उंगलियां फंसाए किस ख्याल से गुज़र सकती (याद रहे मैं नायिका) हूं।

कहानी पर आते हैं। ये प्यार के शुरूआती और जीवन के गुलाबी दिन हैं। मगर अच्छी स्क्रिप्ट भी लाइफ की तरह ही होती है। सच तो ये है कि इसकी स्क्रिप्ट नहीं होती मगर इतना तय होता है कि आदमी थोड़े दिन बाद कभी असुरक्षा का शिकार होकर या कभी समझदारी से क्या खोया- क्या पाया का हिसाब किताब लगाने बैठ जाता है।

बहरहाल, अतिमृदुभाषी लेखक जोकि शादीशुदा है वह नायिका से शादी करने से मना कर देता है। हालांकि वह उस लड़की से प्यार करता है। कुछ इस तरह कि तुम्हें सार्वजनिक रूप से अपना नहीं सकता मगर तुम्हें किसी और का होने भी नहीं देना चाहता है।

नायिका से झूठ बोलकर जाने वाला लेखक बाथटब में रेडियो पर उस टी.वी. कलाकार नायिका की जल्दबाज रईस युवक से शादी की खबर सुनता है। शादी वाले दिन वह लड़की के घर पहुंचता है। और फिर से वही सब कुछ शुरू करने का प्रस्ताव रखता है। लड़की उसे एक आम समझ वाली आदमी के रूप में बुरी तरह ज़लील करती है, और गेट आऊट कहती है, जो दर्शकों के अपने मन की बात है।

इन सब के बीच दृश्यांकन बहुत खूबसूरत है। शहर में ट्रामों का गुज़रना, पालिस्ड वुडेन कलर के बीच किताबों की नीलामी के दृश्य। लड़की और सुलझे हुए लेखक के बीच के दृश्य। अगर हम पागल हैं और देर सवेर हमें इसका एहसास हो ही जाता है। अगर हम अव्यवस्थित हैं तो हम एक सुलझी डोर खोजते हैं। अगर हम मानसिक असुरक्षा या किसी भी तरह के असुरक्षा के शिकार हैं तो साथी में अपना सब कुछ उड़ेलकर उससे भी वैसा ही आऊटपुट चाहते हैं। जिंदगी यहीं कटु, सच्ची और अनस्क्रिप्टेड हो जाती है। फिल्म की तरह असल लाइफ के किरदारों में भी आम और परिपक्व समझ में झगड़ा है। ऐसे में ही कुछ दिन पहले अपनी ही एक महिला दोस्त की बात याद आ रही है जो अपने पति से कई दिनों से मन न मिलने के बायस बिस्तर पर एक रात कह उठी कि - जब शरीर से चिपकते हो तब सोचते हो कि मन और दिल से भी हमें वैसे ही मिलना चाहिए। ये कैसा रिश्ता बनाते हो कि अपना मन और स्वभाव को झगड़ने के लिए बचा कर रख लेते हो और शरीर परोस देते हो?

ज्यादा टी.वी. और सिनेमा नहीं देखता सो मैं पूरी फिल्म नहीं देख पाया।

और तमाम उठापटक के बाद सुबह से इस ख्याल से गुज़र रहा हूं कि प्यार से बड़ा कोई पालिटिक्स नहीं है।

(शीर्षक चार्ली चैपलिन की उक्ति है.)

jai_bhardwaj
05-08-2013, 06:22 PM
ग़ज़ल

जीने के लिए वो उतनी ही जरुरी थी, जितनी असफलता ग़ालिब के जीवन में थी. हम इसे जीवन के प्रति वितृष्णा किसी कीमत पर नहीं कह सकते बल्कि यूँ कहें की यह एक जिजीविषा थी उसे चाहने की. पाने जैसी तो कोई शर्त ही नहीं थी यहाँ... आसमानी मुहब्बत थी मानो ज़ज्बाती नहीं, रूहानी लगाव था.


उसे खूब देखने का मन करता, भूख प्यास तज के देखता रहता... अगर अध्यात्म नाम का कोई रास्ता भरी जवानी में होता था तो वो भी वहीँ से होकर जाता. उसे देखने की कोई शर्त नहीं थी बस देखते रहना शर्त था... एक अलिखित समझौता, पर ट्विस्ट यह की हस्ताक्षर के बाद निब तोड़ने के बजाय संभाल कर रख ली गयी थी.


उसके आने की आहट दिमाग की सीढियों पर उतरती तो लगता किसी झील के तल में कुछ दिए जल उठे हो. वो पाँव डुबाती ना थी बस शांत पानी को छेड दिया करती वो जानती थी- झील इतने से ही असंयत हो उठता है.


वो उस हद तक खूबसूरत थी जहाँ से बस यह कमजोरी निकाली जा सकती थी की वो अद्भुत है... सलीका उसके कंधे में था, अदब पलकों में, पीठ थोड़ी सी अल्हड थी और ऊपर और नीचे के होंठ शोला और शबनम नाम से शब्दों के अर्थ लिए बंटे हुए थे. वह जो चिकनी सतह थी वो बात करने से पहले चेताती कि “यहाँ से कला काला होने लगती है”


यों तो उसे ज़हीन लोगों के देखने के लिए बनाया गया था पर खुदा ने नज़र की पाबंदी नहीं लगायी थी तो आवारे भी देख लिया करते. वह दूर से क़यामत थी, पास से कायनात थी, आँखें बंद करने पर कातिल थी और खोलने पर मयखाना...


उसे देखते रहने पर लगता वो स्त्री में तब्दील हो गया है और मातृत्व सुख का आनंद ले रहा है.


वो कपड़ों में लिपटी थी तो गज़ल थी, खिसकते कपड़ों में बला... जब आखिरी बार निर्वस्त्र देखा तो बदसूरत हो उठी.



अब अदृश्य समझौता-पत्र के चिथड़े हो चुके थे उधर लेखनी की निब भी जाती रही.

jai_bhardwaj
12-08-2013, 07:19 PM
वो मुझे ऐसे गले लगाता है जैसे मैं कांच की बनी हूँ...जरा से जोर से टूट जाउंगी...बिखर जाउंगी किरिच किरिच. जितने से मेरी जान चली जाए, उससे बस एक लम्हा ज्यादा रखता है अपनी बांहों में. ऐसा क्यूँ महसूस होता है कि उसने मेरी रूह को छू लिया है? ठीक उस लम्हे, मैं जानती हूँ...मुझे उसे जाने की इजाज़त दे देनी चाहिए.

पहले मुझे लगता था उसके आने का नियत मौसम है. वो हर साल नवम्बर से दिसंबर के बीच कभी आएगा. मगर वो बैंगलोर की बारिश की तरह मूडी होता चला गया है. अब उसके आने का कोई नियत वक़्त नहीं है. हमेशा बिना किसी नोटिस के आता है. ये नहीं कि आने के पहले कोई हिंट दे दे कि मैं तैयार रहूँ...वैसे में चोट ऐसे तो नहीं लगेगी. ऑफिस में काम कर रही हूँ या किसी मीटिंग में हूँ...बात करते करते देखती हूँ तो जिंदगी का फ्रेम ऑफ़ रेफरेंस गड़बड़ा जाता है, ऐसे उसने आने को प्रोसेस नहीं कर पाती है आँखें. दिल पे हाथ रख कर इतना ही कह पाती हूँ...तुम मेरी जान ले लोगे किसी दिन, कसम से.

कभी किसी बहुत बारिशों वाले डिप्रेशन के दिन इस गुलमोहरों वाले शहर में टहलने निकली होती हूँ...एक मिलीजुली गंध होती है...मिट्टी में गिरे फूलों की पंखुड़ियों की. ऐसे में सिगरेट के लम्बे कश खींचती हूँ...कहीं अपनी साँसों को वैलिडेट करती हुयी. लगता है जैसे सांस ली नहीं जा रही तो उस खालीपन को सिगरेट के धुएं से रंगती हूँ...फिर हर सांस महसूस होती है. मेरी पसंदीदा चीज़ों में बारिश रुक जाने के बाद की सिगरेट है. यूँ भी मुझे सिगरेट पीते हुए किसी की कंपनी पसंद नहीं है. तो जब हवा में बेतरह नमी होती है...मूड कुछ अनसुलझा होता है तो मैं कहीं बाहर होती हूँ...ऐसे में उसकी तलाशती नजरें मिलती हैं...सिगरेट के धुएं के उस पार...और वो मुझे देखते ही बाँहें खोल देता है...मैं चाहती हूँ कि अहतियात से उससे गले मिलूं...कि उँगलियों में सिगरेट फँसी हुयी है...कि सीने में सांस अटकी हुयी है...कि दिल की धड़कन...बारिश के बाद किसी पेड़ की डाली को पकड़ कर हिला दो तो पत्तों पर अटकी सारी बूँदें बौछार की तरह गिरेंगी...वैसे ही भीगती हूँ मैं ... अचानक ... सराबोर.

'माय सनशाइन, खुश हो मेरे मौसमों का रंग बदल कर?'. सिगरेट बुझा दी है मैंने. उसके होते हुए मुझे हमेशा यकीन होता है कि मैं हूँ. उसके साथ चलने से कितनी कैलोरीज बर्न होती होगी सोचती हूँ...दिल इतनी तेज़ तो आधे घंटे की जॉगिंग के बाद धड़कता है. साथ चलते हुए तकलीफ ये है कि मैं उसका चेहरा नहीं देख पाती हूँ...मैं किसी जगह उसके साथ थोड़ा वक़्त बिताना चाहती हूँ जहाँ मैं उसे देख सकूं...वो किसी धूमकेतु की तरह है...इतने कम वक़्त के लिए दिखा है कि उसका चेहरा ठीक से याद नहीं लेकिन हर बार जब वो दिखा है मेरी पूरी दुनिया टॉप्सी टरवी कर गया है. वो चुटकी बजाता है और सितारे घबरा कर उसे जगह दे देते हैं...मेरा हाथ अपने हाथ में लेता है तो लकीरें उसकी मन मुताबिक बदल जाती हैं.

मैं उसको लेकर पजेसिव नहीं हूँ. पूछती हूँ उससे कि अब मेरी उम्र हुयी...उसके लिए तो दुनिया की सारी सोलह साला लड़कियां पलकें बिछा कर इंतज़ार कर रही हैं, वो मेरे लिए फुर्सत कैसे निकालता है...क्यूँ निकालता है...इश्क कुछ कहता नहीं...उसकी मुस्कुराहटों में बहुत से राज़ छुपे हैं...मैं देखती हूँ उसे, एक पूरी नज़र...इस साल्ट-पेपर हेयर पर कितनी लड़कियां फ़िदा होती होंगी...उम्र हो गयी है अब उसकी भी. कहीं न कहीं दर्द की एक बारीक रेखा भी दिखती है उसकी आँखों के इर्द गिर्द. मैं उसका हाथ अपने हाथों में लेती हूँ...मैं जानती हूँ. उसकी कद्र अब पहले जैसी नहीं रही. आजकल कितने तरह का गुबार लोग इश्क पर निकालते हैं. दिल टूटने पर भी मैंने इश्क को कभी बुरा-भला नहीं कहा बल्कि हम पुराने दोस्तों की तरह हर हार्ट ब्रेक के बाद साथ ड्रिंक पर चल देते थे. मैंने जब उसके होने की दुआ मांगी थी तभी उसने वादा किया था कि वो मेरा साथ कभी नहीं छोड़ेगा.

वो बहुत अहतियात से मुझे बरतता है क्यूंकि उसे मालूम है उसके आने से मुझे बेहद तकलीफ होने वाली है...वो बड़े अहतियात से जहर का प्याला मेरी ओर बढ़ाता है. विस्की में घुला धीमा जहर. उसके रहते हुए रगों में घुलना शुरू करता है. मैं इश्क की ओर हाथ बढ़ाती हूँ...

वो मुझे ऐसे गले लगाता है जैसे मैं कांच की बनी हूँ...जरा से जोर से टूट जाउंगी...बिखर जाउंगी किरिच किरिच. जितने से मेरी जान चली जाए, उससे बस एक लम्हा ज्यादा रखता है अपनी बांहों में. ऐसा क्यूँ महसूस होता है कि उसने मेरी रूह को छू लिया है? ठीक उस लम्हे, मैं जानती हूँ...मुझे उसे जाने की इजाज़त दे देनी चाहिए.

rajnish manga
12-08-2013, 11:44 PM
काश वक़्त रुक जाये और कथा नायिका अभिसारिका बनी रहे और नायक हर वर्ष सर्दियों में या जब भी उसे फुरसत हो नायिका से मिलने के लिए आता रहे, उसे ऐसे एहतियात से गले लगाने के लिए जैसे वो कांच की बनी हो. खुदा ऐसे क्षण फ्रीज़ होने के लिए ही बनाया करता है. आमीन.

jai_bhardwaj
13-08-2013, 06:55 PM
काश वक़्त रुक जाये और कथा नायिका अभिसारिका बनी रहे और नायक हर वर्ष सर्दियों में या जब भी उसे फुरसत हो नायिका से मिलने के लिए आता रहे, उसे ऐसे एहतियात से गले लगाने के लिए जैसे वो कांच की बनी हो. खुदा ऐसे क्षण फ्रीज़ होने के लिए ही बनाया करता है. आमीन.

कथानक के लिए इससे बढ़िया उदगार तो इसे अपने मूल स्थान में भी नहीं मिले होंगे रजनीश जी। आपका हृदय से आभार बन्धु।

Hatim Jawed
13-08-2013, 08:27 PM
काश वक़्त रुक जाये और कथा नायिका अभिसारिका बनी रहे और नायक हर वर्ष सर्दियों में या जब भी उसे फुरसत हो नायिका से मिलने के लिए आता रहे, उसे ऐसे एहतियात से गले लगाने के लिए जैसे वो कांच की बनी हो. खुदा ऐसे क्षण फ्रीज़ होने के लिए ही बनाया करता है. आमीन.
तारीफ़ किए बगैर नहीं रहा जा सकता !:bravo::bravo::bravo:

jai_bhardwaj
18-08-2013, 06:57 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=29750&stc=1&d=1376833926


समय से न हारने वाला, अटल, सच्चा, परिश्रमी और कर्तव्यनिष्ठ राजेश ...

आप ही बताएं मैं राजेश को प्रणाम क्यों न करूँ .......

(अंतरजाल से प्राप्त एक नायाब हीरा प्रस्तुत है किन्तु इसके पहले मूल प्रस्तोता को हार्दिक धन्यवाद एवं आभार)


बीरेंदर एक दिन अपने बागान के अमरूद लेकर आया था। मैंने खाते हुए कहा - 'बीरेंदर, अमरूद तो मुझे बहुत पसंद है। इतना कि मैं रेजिस्ट नहीं कर पाता। पर ऐसे नहीं थोड़े कच्चे वाले'। बीरेंदर को ये बात याद रही और अगले दिन हमारे ऑफिस में उसने वैसे अमरूद भिजवाया भी। फिर एक दिन शाम को बोला 'चलिये भईया, आज आपको बर्हीया वाला अमडूद खिला के लाते हैं। टाइम है १०-१५ मिनट?'

मैं कब मना करता! वैसे भी मूड थोड़ा डाउन था। एक स्कीम पर काम करते हुए मैंने उसी दिन लिखा था - "आज मैंने एक रिक्शे वाले से बात की। उसने बताया कि उनका बिजनेस पहले की तरह नहीं रहा। शाम तक उसने सात ट्रिप कर लगभग सौ रुपये कमाए थे। उसमें से चालीस रुपये एक दिन के रिक्शे का किराया । बीवी बच्चो और बाकी के खर्चे छोड़ भी दें तो साठ रुपये में भी क्या वो इतनी कैलोरी खरीद सकता है कि सात ट्रिप कर सके ?" मैंने ये बात बीरेंदर को बताई तो बोला 'भईया, ई सब भारी भरकम बात मत किया कीजिये। आपको लगता है उहे सबसे सबसे बरका गरीब था देस का त... छोरिए ई सब... चलिये'।

हम एसपी वर्मा रोड तक चल कर गए। वहाँ बीरेंदर ने एक नौजवान भुट्टे वाले को दिखाया - 'जानते हैं भईया, ई राजेसवा इंजीनियर के सार है। अइसा काम कर देगा कि बरका बरका ओवरसियर, इंजीनियर नहीं कर पाएगा। मारिए गोली अमडूद के चलिये आज भुट्टे खा लेते हैं। अमडूद हम मांगा देंगे किसी को भेज के'। हम राजेश के ठेले के पास रुक गए।

'का हो इंजीनियर साहेब? कईसा धंधा चल रहा है? दुगो बर्हीया वाला तनी छांट के भूनिए त।'

राजेश शर्मिला सा जवान था। लगभग नहीं बोलने वाला। बैरी ने आगे कहा - 'केतना बोले तुमको की मेरे लिए भी एक ठो पंखा बना दो लेकिन तुम नहीये बना पाये। '

'अरे बीरेंदर भईया समनवे नहीं नू मिल पा रहा है त कइसे बना दे'

'कौंची नहीं मिल पा रहा है तुमको हम सब बुझ रहे हैं।' राजेश बस मुस्कुरा दिया। मेरे ध्यान राजेश के सेटअप पर गया। पूरी तरह से अस्थायी। ठेला नहीं था कुछ लकड़ी लोहे को जोड़कर बनाया गया एक बेस और उस पर

पेंट के डब्बे को काट कर बनाया गया कोयले का चूल्हा। पर इससे कहीं अधिक रोचक था हरे प्लास्टिक के एक स्टूल पर रखा हुआ बैटरी से चल रहा प्लास्टिक की पत्तियों वाला पंखा। मैंने कहा - 'पंखा तो बड़ा शानदार है राजेश का? कहाँ से लिए?"

'अरे एही पंखवा का त बात हम तबसे कर रहे हैं... इंजीनियर साहेब अइसही थोरे न कहलाता है राजेस। अभी भुट्टा का सीजन है... नहीं त इंजीनियर साहेब कंप्यूटर ठीक करने का ही काम करते हैं'

मुझे लगा बीरेंदर उसकी खिंचाई कर रहा है। पर वो आगे बोला.. 'प्लास्टिक के दो डब्बा जोड़कर फिल्टर भी बनाते हैं, हम कहे की भले सौ रुपया ले लो लेकिन एक ठो हमारे लिए भी बना दो। लेकिन अब इंजीनियर साहेब कह दिये हैं त हमरा काम काहे करेगा? सही बोले कि नहीं?

राजेश मुसकुराते हुए बोला - 'बात पईसा के नहीं है। बना देंगे... पहिले डिब्बावा त जुगारिए"

मैंने पूछा - 'कैसे बनाए हो ये पंखा? बहुत शानदार आइटम है। बताओ मुझे भी'

राजेश बोला -- 'सब लपटोपे आ कम्पुटर का समान है इसमें। एक्को पईसा नहीं लगा है इसमें। कुछ इस दोकान से कुछ उस दोकान से पुरान-धुरान बेकार समान सब ज़ोर जार के वैल्डिंग-सोल्डिंग कर के बना लिए... बहुते सिंपल है।'

मैंने पूछा - 'और बैटरी?'

राजेश ने मुसकुराते हुए थोड़े गर्व से कहा - 'चारजर भी बनाए हैं एक ठो'

राजेश ने मुझे समझाते हुए डायोड, यूपीएस और मदर बोर्ड जैसे शब्द बोले तो मुझे भरोसा हो गया कि सच में वो 'इंजीनियर साहेब' है। मैंने कहा "तुम तो सच में इंजीनियर हो !"

राजेश ने भुट्टा सेंकते हुए कहा - 'हम त कामे इहे करते हैं। इंजीनियर सब त बेकार हो जाता है। इंजीनियरे बन गया त उ काम काहे करेगा?' बाद में पता चला राजेश पास की दुकानों में कंप्यूटर रिपेयरिंग का काम करता है।

चलते चलते बीरेंदर ने कहा - 'हमसे भी छौ-छौ (६-६) रुपया के हिसाब से लोगे? लो धरो दस रुपया आ काम कर दो हमारा थोड़ा टाइम निकाल के....'

लौटते हुए बीरेंदर ने कहा 'भईया, हर सीजन में अलग काम करता है ई। जिसमें कमाई दिखेगा कर लेगा। एक नंबर का जुगारु है। देखिये केतना सुंदर सिस्टम बना दिया है। शाम को चूल्हा इहे छोर देगा आ बाकी झाम एगो झोरा में भर के घरे लेले जाएगा। इसका भुट्टा से जादे तो हम इसका अलंजर-पलंजर देखने आते हैं। कुछ अइसा हो तो देखिये के मन हरियारा जाता है। जैसे आपका उ पानी का बोतल नहीं है बटन दबाने से 'पक' से खुलता है। उ टेबल पर रहे त नहियों प्यास लगे त दुई घूंट पी लेने का मन करेगा।'

मैंने बैरी को पानी का बोतल देना चाहा तो उसने नहीं लिया बोला जाते समय दे दीजिएगा.... और जाते आते समय... ध्यान न रहा। अब भी जब 'पक' से खुलता है... हम दुई घूंट पानी पी लेते हैं ।

jai_bhardwaj
23-08-2013, 07:27 PM
रात बरसी है, नहीं पता कि दुख में या सुख में लेकिन काशी धुली है। शैल संग हरी चाय का अरोमा और मानसूनी देश की प्रातकी गातीं सुवहन हवायें, तुम्हारा मनु बकुल छाँव की ओर खिंच चला है। सब धुला धुला मन भीगा सा है। टप टप बूँदें गिर रही हैं, उद्यान का चबूतरा भी भीगा है। बैठने से घुटन्ना पीछे गीला होगा, परवा नहीं। बनारस में वैसे भी किसी को देख कोई हँसने जैसा नहीं हँसता।

ऐसे बगीचे एक जैसे होते हैं – कॉलेज के पीछे महुवों वाला, विश्वविद्यालय के मुख्य भवन के आगे सीढ़ियों से बँधी झुकती धरा को निहारती वाटिका या यहाँ यह उद्यान! कोरे मन पर मसि चढ़ने लगी है – रुड़की वाली आंटी। उर्मी! तुम्हारी वही उँसास है – कैसे कैसे लोग आये तुम्हारे जीवन में, मनु! तुम भी न ... ऐसे क्यों? न और ऐसे के विराम में जो होना चाहिये वह तुम्हारे मन में कभी आ ही नहीं सकता, कहना तो दूर की बात है लेकिन मैं कहता हूँ, वही उपयुक्त है – ‘अभिशप्त हो’...

...रात है। बाहर घनघोर झड़ी है और मुझे प्रोजेक्ट की पड़ी है। हॉस्टल से मेन फ्रेम सेंटर दूर है। सॉफ्टवेयर रन हो तो कल के लिये डाटा मिले। पुरी सर को कल ही विदेश के लिये निकल जाना है, चूक गया तो पन्द्रह दिन व्यर्थ, एक्सटेंशन कौन दिलायेगा? जाऊँ भी तो कैसे? न छाता, न रेनकोट और न साइकिल – कुछ भी नहीं। इनके लिये जो धन चाहिये था वह बचता ही नहीं! आवारगी महँगी पड़ती है, सबके वश की नहीं।

स्नातक होने के बाद मनु प्रताप सिंह ने पुरुषोत्तम सिंह के सामने हाथ फैलाना छोड़ दिया था। आज भी यही लिख रहा हूँ – पुरुषोत्तम सिंह कह कर जो संतोष मिलता है वह पापा कहने से कहाँ मिलने वाला? प्रतिहिंसा है, अहंकार है, नकार है और सामने तुम्हारे वही प्रस्तर नेत्र हैं जिनमें मुझे यूँ व्यवहार करते देख युगों घना दुख जम जाया करता था। मैं कहता, कहो कि मैं ... और तुम्हारी हथेली में बस उठने की भंगिमा सी होती, शब्द घुट जाते, आँखें छलक उठतीं, सारा कलुष बह जाता लेकिन मेरी मुक्तमना! मैं मुक्त क्यों नहीं हो पाया? खोने से डरता था, इतना डरा कि स्वयं खो गया! एक लड़ी ही बची जो लिखा रही है और वह तुम हो।

... उस रात मैंने बरसाती में शर्ट पैंट, फ्लॉपी और प्रिंट आउट लपेटे और कुर्ता पाजामा पहने भीगते ही मेन फ्रेम सेंटर की ओर बढ़ लिया। सुनसान अन्धेरे में पाँवों में आँखें थीं लेकिन वे तो दूर कल्पित कैम्ब्रिज देखने की अभ्यस्त थीं – पुरी सर! मुझे कुछ नया करना है और यहाँ के लिये करना है। उनकी वत्सल आँखों में कृपायें मचल उठतीं और फिर वही रटा रटाया सा वाक्य – ऊपर वाला बड़ा वाला गोल्फबाज है। उसे पता है कि किस गेंद को कहाँ डालना है, हम तुम होते कौन हैं निर्णय लेने वाले? पहले प्रोजेक्ट तो पूरा करो।

जी करता कि चीख कर कहूँ वह दिल्ली से मेसाचुसेट जाने की राह में है और आप दर्शन बघार रहे हैं! उर्मी! उस समय तुमसे डाह नहीं, पापा चुनौती से होते – देखना, यह लड़की तुम्हारे लाल से बहुत आगे जायेगी। मैं आगे नहीं बस तुम्हारे साथ होना चाहता था। एक छत के नीचे एक से एक ही – इतनी बड़ी चाहना संसार में कोई नहीं कर सकता, न मुझसे पहले किसी ने किया और न मेरे बाद करेगा।

...चढ़ते गिरते लैंडस्केप को बिना छेड़े विकसित किये कैम्पस की जलधारायें किनारे की ओर थीं और मैं बीच सड़क भागता भीगता। सामने लो बीम में आती कार जैसे अन्धाई हो, सेंट्रल लाइब्रेरी के आगे ब्रेक के अनुशासन को नकारते फिसलते टायरों की चीख सुनाई दी और उसके बाद सन्नाटा ... उसे मैं सुन सकता था, मैं सब सुन सकता था – स्त्री स्वर है।

“तिवारी, गाड़ी ऐसे चलाते हैं! स्टूडेंट है। इस बारिश में, हॉस्पिटल...”

मैंने हाथ खींच उन्हें वहीं बिठा लिया है – कुछ नहीं हुआ मुझे, मुझे कुछ नहीं हो सकता... आँख क्यों नहीं खुल रही? मुझे हॉस्पिटल या हॉस्टल नहीं मेन फ्रेम सेंटर ले चलिये। मेन फ्रेम चलो अनजाने तिवारी!

ललाट पर वही स्पर्श – माँ! आँखें खुल गईं। गाड़ी की तेज हेडलाइट में देखा और भीतर आश्वस्ति भरती गई।

“आंटी! मुझे चोट नहीं लगी है। आप चिंता न करें। मेन फ्रेम तक ड्रॉप दे दें... आप कितना भीग गई हैं!”

“Are you sure?”

“हाँ ... जाना जरूरी है वरना इस बारिश में कौन निकलता?”...

सेंटर के बाथरूम में मैंने कपड़े बदले। भीतर जाने तक तो आंटी देखती रहीं लेकिन बफर ज़ोन से भीतर हो ही रहा था कि उन्हों ने आवाज दी – क्या नाम है तुम्हारा?

“मनु, मनु प्रताप सिंह।“

”नाम से तो यहाँ के नहीं लगते ... कहाँ के हो?”
अटेंडेंट की बरजन को नकारती परिचय की गाँठें खुलती चली गयीं – तो बच्चे! तुम तो हमारे रिश्ते में निकले। भीतर की एयरकंडीशनिंग से आती शीतल बयार सी वाणी – कल सी बी आर आई आ जाना। मेरे हसबेंड डिप्टी डायरेक्टर हैं।

...सिगरा उद्यान की टप टप को सुखाती उजास भर गई है। लक्स और उजला हो गया है। सुख इसे कहते हैं उर्मी! उसके लिये कोई समय स्थान नहीं होता, बस हो जाता है। रुड़की में एक माँ मिल गई। ... कल उनसे मिलने जाना है। अंकल गये और आंटी को कर्करोग है। लेकिन उन्हें ले कर दुखी नहीं हुआ जा सकता, वह आज तक कभी दुखी नहीं दिखीं और मैं जानता हूँ कि हुई भी नहीं होंगी।

“कैसे कैसे लोग आये तुम्हारे जीवन में मनु! तुमने सब ...”

“तुम फालतू बहुत सोचती हो!”

मैं गिन रहा हूँ कि जीवन में कितनी बार इस तरह चोटिल हुआ कि आँखें बन्द हुईं और खुलीं तो आशीर्वादों के नील नभ उनमें भर गये!

jai_bhardwaj
23-08-2013, 07:32 PM
.. ध्वंस के बाद मैंने प्रार्थनायें पढ़ीं।

धरती उमगी, लोहा तेज सान हुआ, सीतायें(धार) खिंची, सरकंडे उपजे, कलम बनी।

ध्वंस रेणु(मिट्टी), आँसू घोल सूखे भोजपत्रों पर मैने लोरियाँ लिखीं, ठूँठों पर फुनगियाँ उगीं, फुदकियों(छोटी चिड़िया) ने उन्हें स्वर दिया, मैं पुन: माता हुई।

मैंने आँचल में किलकारियों को जतन से सहेजा कि कल को जब पुन: बादल गड़गड़ायेंगे, तड़ित झंझा मचलेगी, परिवेश का पुरुष मर्यादा भूल ध्वंस करेगा तो मैं प्रार्थनायें पढ़ने को बच सकूँ ...

मेरा तो बस यही है, अपनी कहो! तुम तो पुरुष हो। तुममें कहानियाँ गढ़ने की अनंत क्षमता है।
... मैं सुन रही हूँ। सच में तुम्हें सुनना अच्छा लगता है। कुछ कहो न, इतने दिनों बाद तो मिले हो!

jai_bhardwaj
24-08-2013, 06:49 PM
तुम्हारे प्यार से भेजे हुए पहले फूल जो अब सूख गये हैं, उनकी भीनी भीनी खुश्बू में डूबकर ये सोचती हूँ की क्या करूँ इनका..?

हमारे नये घर की बैठक में सज़ा दूँ..

या अपनी प्याज़ी रंग वाली उस साड़ी की किसी तह में दबा दूँ जो तुम्हे पसंद आई थी

या फिर इनको घोल कर इत्र बना लूँ, अपने दुपट्टे में लगा लूँ!

या पीसकर उबटन बना लूँ और गालों पे लगा लूँ!

या फिर तुम जब अबकी बार आओगे तो तुम्हारे लिए सुबह की पहली, फ्लोरल चाय बना दूँ, थोड़ी कम चीनी और ज़्यादा पत्ती वाली..!!

या इनको ढाल दूँ चन्द महकती मोमबत्तियों में, और करूँ इंतज़ार तुम्हारे ऑफिस से वापस आने का, अपने प्यारे से घर में साथ-साथ कंडिल लाइट डिनर खाने का,

या कि बगीचे की गीली मिट्टी वाले उस किनारे पर जहाँ धूप हल्की-हल्की आती है, इनको दबा दूँ और करूँ इंतज़ार नयी कोपलें फूटने का और उस पौधे में खिलने वाले पहले फूल का भी..जिसे चढ़ाएँगे उस पूजा में, जो हम सुबह उठकर साथ-साथ करेंगे, अपने नये घर में बनाए इक छोटे से मंदिर में..


और फिर सोचती हूँ की रखूं ऐसे ही इसे ज़िंदगी भर अपने पास, तुम्हारे प्यार की सौगात की तरह और महकने दूँ अपने कमरे और इस ज़िंदगी को इसी भीनी-भीनी खुश्बू से…..............................…ताउम्र !

jai_bhardwaj
25-08-2013, 05:36 PM
'एक बात बतलाइए बड़े पापा, दुआ की उम्र कितनी होती है?'

छोटी सी सिम्मी अपने बड़े पापा की ऊँगली पकड़े कच्ची पगडण्डी पर चल रही थी. घर से पार्क जाने का शोर्टकट था जिसमें लंबे लंबे पेड़ थे और बच्चों को ये एक बहुत बड़ा जंगल लगता था. शाम को घर के सब बच्चे पार्क जाते थे हमेशा कोई एक बड़ा सदस्य उनके साथ रहता था. सिम्मी अपनी चाल में फुदकती हुयी रुक गयी थी. कल उसका एक्जाम था और वो थोड़ी परेशान थी...पहला एक्जाम था उसका. बड़े भैय्या ने कहा था भगवान से मांगो पेपर अच्छा जायेगा...वैसे भी तुम कितनी तो तेज हो पढ़ने में. छोटी सी सिम्मी के छोटे से कपार पर चिंता की रेखाएं पड़ रही थीं...कभी कभी वो अपनी उम्र से बड़ा सवाल पूछ जाती थी. अभी उसने नया नया शब्द सीखा था 'दुआ'.

बड़े पापा उसको दोनों हाथों से उठा कर गोल घुमा दिए...और फिर एकदम गंभीरता से गोद में लेकर समझाने लगे जैसे कि उसको सब बात अच्छे से समझ आएगी. 'बेटा दुआ की उम्र उतनी होती है जितनी आप मांगो...कभी कभी एक लम्हा और कभी कभी तो पूरी जिंदगी'. सिम्मी को बड़ा अच्छा लगता था जब बड़े पापा उससे 'आप' करके बात करते थे...उसे लगता था वो एकदम जल्दी जल्दी बड़ी हो गयी है.

'तो बड़े पापा आप हमेशा इस जंगल में मेरे साथ आयेंगे...हमको अकेले आने में डर लगता है. पर आप नहीं आयेंगे तो हम पार्क भी नहीं जा पायेंगे.'

'हाँ बेटा हम हमेशा आपके साथ आयेंगे'
'हर शाम!'
'हाँ, हर शाम'

उसके बाद उनका रोज का वादा था...शाम को सिम्मी के साथ पार्क जाना...उसको कहानियां सुनाना...बाकी बच्चों के साथ फुटबाल खेलने के लिए भेजना. सिम्मी के शब्दों में बड़े पापा उसके बेस्ट फ्रेंड थे.
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उस दुआ की उम्र कितनी थी?

नन्ही सिम्मी को कहाँ पता था कि दुआओं की उम्र सारी जिंदगी थोड़े होती है...वो बस एक लम्हा ही मांग कर आती हैं. प्रदेश के उस छोटे से गाँव में उसकी जिंदगी, उसकी दुनिया बस थोड़े से लोग थे...पर सिम्मी की आँखों से देखा जाता तो उसकी दुनिया बहुत बड़ी थी...और ढेर सारी खुशियों से भरी भी. जैसे पार्क का वो झूला...ससरुआ...कुछ लोहे के ऊँचे खम्बे और सीढियां जिनसे सब कुछ बेहद छोटा दिखता था. घर से सौ मीटर पर का चापाकल...जिसमें सब बच्चे लाइन लगा कर सुबह नहाते थे. घर का बड़ा सा हौज...काली वाली बिल्ली जिसे सिम्मी अपने हिस्से का दूध पिला देती थी. बाहर के दरवाजे का हुड़का- जिसे कोई भी बंद नहीं करता था...बड़े दादा का स्कूटर...गाय सब...पुआल और चारों तरफ बहुत सारे पेड़.

छुटकी सी सिम्मी...खूब गोरी, लाल सेब से गाल और बड़े बड़ी आँखें, काली बरौनियाँ...एकदम गोलमटोल गुड़िया सी लगती थी. उसपर मम्मी उसको जब शाम को तैयार करती थी रिबन और रंग बिरंगी क्लिप लगा कर सब उसे घुमाने के लिए मारा-मारी करते थे. मगर वो शैतान थी एकदम...सिर्फ बड़े पापा के गोदी जाती थी...बाकी सब के साथ बस हाथ पकड़ के चलती थी...अब बच्ची थोड़े है वो...पूरे ३ साल की हो गयी है. अभी बर्थडे पर कितनी सुन्दर परी वाला ड्रेस पहना था उसने. बड़े पापा उसको ले जा के स्टूडियो में फोटो भी खिंचवाए थे.

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छोटे गाँव से शहर से प्रदेश की राजधानी और फिर दिल्ली शहर और फिर शिकागो...एकदम होशियार सिम्मी खूब पढ़ लिख कर डॉक्टर बन गयी...रिसर्च के लिए विदेश आये उसे कुछ डेढ़ साल हुआ है. सोचती है अब डिग्री लेकर घर जायेगी एक बार अपने गाँव का भी जरुर प्रोग्राम बनाएगी. हर बार वक्त इतना कम मिलता है कि बड़े पापा से मिलना बस खास शादी त्यौहार पर भी हो पाया है. घर से पार्क के रास्ते में अब भी जंगल है...उसने पूछा है. बड़े पापा अब रिटायर हो गए हैं और शाम को टहलने जाते हैं अपने पोते के साथ. इस बार अपने गाँव जायेगी तो शाम को पक्का बड़े पापा के साथ पार्क जायेगी और इत्मीनान से बहुत सारी बातें करेगी. कितनी सारी कहानियां इकठ्ठी हो गयी हैं इस बार वो कहानियां सुनाएगी और कुछ और कहानियां सुनेगी भी. इस बार जब इण्डिया आना होगा तो बड़े पापा के लिए एक अच्छा सा सिल्क का कुरता ले जायेगी...मक्खन रंग का. उन्हें हल्का पीला बहुत पसंद है और उनपर कितना अच्छा लगेगा.

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उसने सुना था कि जिंदगी का कोई भरोसा नहीं...पर जिंदगी ऐसे दगा दे जायेगी उसने कहाँ सोचा था...जब भाई का फोन आया तो ऐसा अचानक था कि रो भी नहीं पायी...घर से दूर...एकदम अकेले. एक एक साँस गिनते हुए उसे यकीं नहीं हो रहा था कि बड़े पापा जा सकते हैं...ऐसे अचानक.

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याद के गाँव में एक पुराने घर का सांकल खटखटाती है...बड़े पापा उसे गोद में उठा कर एक चक्कर घुमा देते हैं और कहते हैं...दुआ की उम्र उतनी जितनी तुम मांगो बेटा...है न?

आँखें भर आती हैं तो सवाल भी बदल जाता है...

'याद की उम्र कितनी बड़े पापा?'

jai_bhardwaj
26-08-2013, 06:09 PM
उस लम्हें में,
रात का स्याह रंग बदल रहा था
तुम्हें याद तो होगा न
चांदनी मेरा हाथ थामे
सो रही थी गहरी नींद में,
और रौशन कर रही थी
मेरे दिल का हर एक कोना...

**********

वो दिन भी याद है मुझे,
जब कभी चुपके से
तुम मुझे टुकुर-टुकुर
ताक लिया करती थी,
जैसे मेरे वजूद की चादर हटाकर
ढूंढ रही हो
कोई जाना-पहचाना सा चेहरा,
तुम लाख मना करो
पर तुम्हें था तो इंतज़ार जरूर किसी का
क्यूंकि वो दिन याद है मुझे
जब चुपके से तुम मुझे
टुकुर-टुकुर ताक लिया करती थी...

**********

कभी-कभी
खो जाता हूँ ,
मैं अपने स्वयं से बाहर निकलकर
और देखता रहता हूँ
तुम्हें,
चुपचाप...

rajnish manga
26-08-2013, 10:04 PM
'एक बात बतलाइए बड़े पापा, दुआ की उम्र कितनी होती है?'

सिम्मी के शब्दों में बड़े पापा उसके बेस्ट फ्रेंड थे.
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उस दुआ की उम्र कितनी थी?

नन्ही सिम्मी को कहाँ पता था कि दुआओं की उम्र सारी जिंदगी थोड़े होती है...वो बस एक लम्हा ही मांग कर आती हैं.....

आँखें भर आती हैं तो सवाल भी बदल जाता है...

'याद की उम्र कितनी बड़े पापा?'

छोटी सिम्मी ... बड़ी सिम्मी ... और उसके बड़े पापा. पूछने वाला पूछता है -दुआ की उम्र कितनी? और उत्तर में बड़े पापा का यह समझाना कि दुआ की उम्र क्षणिक भी हो सकती है और लम्बी भी. दो पात्रों पर आधारित मार्मिक प्रसंगों से भरा हुआ यह छोटे कलेवर का आलेख प्रभावशाली भी है और सहज रूप से प्रेरणा देने वाला भी. इसे मंच पर प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद, जय जी.

jai_bhardwaj
27-08-2013, 05:25 PM
ऊर्जा एवं प्रेरणादायी प्रविष्टि के लिए आभार बन्धु।

jai_bhardwaj
04-09-2013, 06:27 PM
बिसरे ज़ख्मों पर नमक जैसे मेरे प्रिय बेटे,

तुम्हारा पिछला खत पढकर यह संबोधन दिया है जिसमें तुमने घर की याद के बाबत बात पूछी है.

नितांत एकाकी क्षणों में घर की याद आ जाती है. जैसे सूप में आपने आँखें फटकते हुए, फटे हुए ढूध का खो़या खाने में नमकीन आंसू का जायका तलाशते हुए या चावल चढाने से पहले उसे चुनते हुए हुए आनाज और कंकड के फर्क पर शंकित होते हुए... फिर अपनी पत्थर होती आँखों को कोसते हुए...

अबकी साल भी आम के पेड़ में मंजर खूब आया है और सांझ ढाले उनसे कच्चे आम की खुशबु घर के याद के तरह आनी शुरू हो गयी है... अब यह कमबख्त रात भर परेशान करेगी.

तुम्हारे घरवालों ने मुझे कहाँ ब्याह दिया, हरामी ने जिंदगी खराब कर दी. ससुराल जेल की चाहरदीवारी लगती है और मैं सजायाफ्ता कैदी सी.

मैंने ना ही कोई विवादास्पद बयान दिया, कोई विद्रोही तेवर वाली किताब ही लिखी है. कोई सियासी मुजरिम हूँ जो मुझे ससुराल में नज़रबंद रखा गया है.

मैं क्यों अपने घर से निर्वासित जीवन जी रही हूँ ? कहीं यह तुम दोनों दोनों पक्षों की मिलीभगत तो नहीं ??? मर्द तो दोनों जगह कोमन ही होते हैं ना ???

टेशन से छूटने वाली गाडी में भी उतना ईंधन नहीं होगा जितना भावुक ज्वलनशील पदार्थ एक ब्याही औरत के पास होता है... फिर भी रेल है कि आगे बढ़ ही जाती है पर मैं ???

भैया अपनी जिंदगी में सो कैसा फंसा है जो बाईस साल में कभी खुशी से मिलने नहीं आया और बाबूजी ने कोई चिठ्ठी नहीं लिखी.

तुम्हारे बाप को मेरे बेटे की फिकर नहीं है; वो यह भी नहीं जानते कि इस जून में उसने इंटर पास कर लिया है पर मुझे तुम्हारी याद आती है. मेरे दुश्मन बेटे, मैं उम्मीद करूँ तुमसे कि तुम इस परम्परा को तोडेगे और बूढी होती अपनी दीदी से मिलने आओगे!

अंत में, सुना है तुम्हारे बहन की भी शादी होने वाली है, और तुम उससे बहुत प्यार करने का दंभ भी भरते हो ? तो क्या मुझे ‘जैसे को तैसा' वाली शाप देने की जरुरत है ???

लिखना

तुम्हारी अभागी दीदी

jai_bhardwaj
07-09-2013, 05:51 PM
With the first light of dawn, came the twittering of birds from the bamboo groves of a nearby village. That filled her with foreboding. She was not sure how she would relate now to the world of the living.

स्क्रिप्ट राइटर ने वर्ड पेज खोला और कुछ लिखने की कोशिश करने लगा.. स्क्रीन पर कर्सर ब्लिंक करता हुआ उसके उँगलियों की प्रतीक्षा करने लगा... कर्सर आधे सेकेण्ड प्रति मिनट की दर से गायब और प्रगट होता यों ऐसी हरकत कर रहा था जैसे उसे उकसा रहा हो कि - लिखो यार !

लेकिन ऊपर जो रवीन्द्रनाथ टैगोर का पैरा दिया है उसको आधार मानकर उसे वह आगे नहीं बढ़ा पा रहा था. घटनाओं से वो खुद को रिलेट नहीं कर पा रहा था. उसने पत्रकारिता कोर्स के दौरान टेड ह्वाईट की किताब में पढ़ रखा था कि कई बार दिमाग में खबर नहीं बनते. ऐसे में दिमाग में आते ही नहीं कि शुरुआत कैसे करें, क्या लिखना है. ऐसे में बिना कुछ सोचे-समझे कुछ लिखें और मिटा दें लय पकड़ में आ जाती है ...

स्क्रिप्ट राइटर ने भी यही किया. वह कुछ लिखता और सात से आठ शब्द टाइप करने के बाद बाद मुंह से चक्क मारकर, बैकस्पेस ले मिटने लगता... जिस की-बोर्ड पर उसकी उँगलियाँ सिध्हस्त पियानो वादक जैसी चलती, जो नुसरत फ़तेह अली खान के कव्वाली सुनकर और दुगनी रफ़्तार से भागने लगता, जिसके खट-खट से पूरा केबिन गूँज उठता और देखने वाले अगर अपने आँखों का लेंस जूम कर लें तो फर्क करना मुश्किल जाएगा कि यह उँगलियाँ स्क्रिप्ट राइटर की हैं या फुर्ती से पियानो पर भागते अदनान सामी की.

कुछ लिखना और उसे मिटा देना ऐसा कई बार होने पर लगा कि उसकी कलम कुंठित हो गयी है या फिर भाषा बड़ी दरिद्र होती है क्योंकि घटनाओं को वह वैसा शब्द नहीं दे पा रहा था जैसा उसने देखा था या लिखने का सोचा था.

स्टोरी -1
एक दब्बू लड़का एक लड़की को फूल दे रहा है और लड़के के चेहरे पर लाज भरी प्रसन्नता उसके रोम - रोम में घनीभूत होकर फैली हैं. लड़की के पैर काँप रहे हैं और वो थरथरा सी गयी है. उसने यह लिखा लेकिन पूरी तरह ऐसा नहीं हुआ था. राइटर वो लिखना चाहता था जो छूट रहा था. अतः उसने लिखा और फिर मिटा दिया.

स्टोरी -2
पार्क में एक अधेड़ उम्र का आदमी बुरी तरह थका हुआ है. वह जोर - जोर से हांफ रहा है. किसी एकांत जगह पा कर वह जोर जोर से साँस लेने लगता है. उसमें सुकून था, ऑक्सीजन तो था ही . उसकी छाती अब भी लगभग चार से पांच सेंटीमीटर तक फूल जाती है. वो पसीने में तरबतर है. - राइटर ने यह लिखा भी लेकिन फिर से एक बार उस लिखे को पढने पर लगा कि नहीं ऐसा नहीं हुआ था, यह पूरी तरह वैसा नहीं था जैसा मैंने देखा और लिखने का सोचा था.

स्टोरी -3
दरवाजे का सांकल लगा कर वो जैसे ही पलती एक और काम याद गया उसे, रात के एक बज आये थे और अब बाहर जाना निहायत बेवकूफी भरा फैसला था. फिर भी मन में काफी देर उधेड़बुन चलता रहा, एक मन कहता थक गयी है आराम कर ले, कल कर लेना. दूसरे ही पल लगता- नहीं, यह बहुत जरुरी है, करना ही होगा. उफ्फ्फ कुछ समझ नहीं आ रह क्या करें.. - राइटर ने यह लिखा लेकिन यह भी पूरी तरह वैसा नहीं था जैसा उसने देखा (कल्पना में) और लिखने का सोचा.

इससे पहले, राइटर को तब बड़ी कोफ़्त होती जब लोग या अच्छे-अच्छे लेखक भी कहते कि "मैं इतना आभारी हूँ कि इसे शब्दों में बयां नहीं कर सकता. मैं इतना भावुक हो गया की बता नहीं सकता, वो इतनी खूबसूरत है की कहा नहीं जा सकता. सोमालिया इतना गरीब देश है की बताया नहीं जा सकता.... इस पर खीझ होती कि बताओ यार, आम आदमी होते तो कोई बात नहीं थी एक लेखक होकर भी अगर शब्द नही दे पा रहे हो तो कैसी समर्थता ? योग्यता पर प्रश्न चिन्ह है यह तो ?

अब उसे लगने लगा कि वाकई हमारी भाषा ही गरीब है. हमारे पास ज्यादा विकल्प नहीं है. एक सीमा तक ही हमारा ज्ञान है. महज़ कुछ शब्द ज्यादा पा कर हम औरों से आगे हो लेते हैं.

इस तरह, किसी घटना, किसी स्क्रिप्ट, किसी स्टोरी से रिलेट ना करते हुए उसने इस कमी से खुद को रिलेट किया. और आज जब इस पर भी वह लिखने बैठा है तो वह यह सब मिटा देना चाहता है क्योंकि यह भी ऐसे नहीं लिखने का सोचा था. सोचा तो था कि पूरी बारीकी से लिखूंगा.. हर एक बात जो हुआ वो भी और जो ना हुआ वो भी. लेकिन असल काम के नाम पर यही शब्दों का पुलिंदा तैयार होता है हर बार.

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इधर, कर्सर अब भी ब्लिंक करता हुआ चिढ़ा रहा है.

jai_bhardwaj
11-09-2013, 06:33 PM
दिन और वक़्त तो याद नहीं लेकिन मैं बहुत छोटा था, एक बार जब पापा दाढ़ी बना रहे थे तो मेरा हाथ ब्लेड से कट गया था, पापा का वो परेशान चेहरा और माँ की वो नम आखें... जब तक मेरे चेहरे पर मुस्कराहट वापस नहीं आई थी तब तक उन्हें भी चैन नहीं आया था......

पापा के कन्धों की वो सवारी, जब मैं अपने आपको सबसे लम्बा समझने लगता था.. जैसे कोई राजसिंहासन मिल गया हो... वो ख़ुशी जो अब शायद दुनिया की सबसे महंगी कार में बैठने पर भी न मिले...

मैं कुछ ७-८ साल का रहा हूँगा, टीवी देख रहा था...मंझले भैया ने कहा टीवी क्या देख रहे हो चलो आज तुम्हें क्रिकेट खेलना सिखाता हूँ... उनका प्रयास मुझे टीवी से दूर करना था, टीवी से तो दूर हो गया लेकिन क्रिकेट का ऐसा चस्का लगा कि बस उन्ही का सिखाया हुआ खेलता आया हूँ...

बचपन में अपने बड़े भैया से काफी करीब था, उनके साथ खेले हुए वो सारे खेल याद हैं, चाहे उनके पैरों पर झूलना हो या उन्हें गुदगुदी लगाकर भाग जाना... उन्हें गुदगुदी भी तो खूब लगती थी, या ये भी हो सकता है कि मुझे खुश करने के लिए ऐसा दिखावा करते होंगे... पर जो भी था ये खेल बहुत मजेदार था....

jai_bhardwaj
13-11-2013, 01:08 PM
दुःख बड़ा ढीठ अतिथि है। यदि यह हमारे घर के लिए निकल पड़ा है तो आयेगा अवश्य। यदि हम इस अतिथि को आता हुआ देख कर घर का मुख्यद्वार बंद कर लेंगे तो यह घर के पिछले दरवाजे से आ जाएगा। यदि हमने पिछ्ला दरवाजा भी बंद कर दिया तो यह खिड़की से आ जाएगा। यदि खिड़की भी बंद कर लिया तो यह छत तोड़ कर या फिर आँगन के धरातल को फोड़ कर आ जाएगा। यह आयेगा अवश्य . . ढीठ है न। उचित यही है कि हम दुःख के स्वागत के लिए जीवन में सदैव तैयार रहें। ऐसे समय में हमें यही सोचना चाहिए कि यह कितना भी ढीठ क्यों न हो एक न एक दिन तो चला ही जाएगा।

jai_bhardwaj
13-11-2013, 01:09 PM
लक्ष्मी की पूजा अर्चना खूब कर लें किन्तु उस पर विश्वास कदापि न करें। ईश्वर (परम शक्ति) की पूजा अर्चना करें अथवा न करें किन्तु उस पर विश्वास अवश्य बनाये रखें। लक्ष्मी स्वभाव से चंचल है अतः आप पर उसकी कृपा अस्थिर ही रहेगी जबकि ईश्वर शांत चित्त और गम्भीर है इस लिए आप पर प्रभु की अछुण्ण कृपा बनी रहेगी।