View Full Version : माँ से बढ़कर कुछ नहीं
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'माँ' जिसकी कोई परिभाषा नहीं,जिसकी कोई सीमा नहीं,
जो मेरे लिए भगवान से भी बढ़कर है जो मेरे दुख से दुखी हो जाती है
और मेरी खुशी को अपना सबसे बड़ा सुख समझती है
जिसकी छाया में मैं अपने आप को महफूज़ समझतI हूँ, जो मेरा आदर्श है जिसकी ममता और प्यार भरा आँचल मुझे दुनिया से सामना करने की *शक्ति देता है जो साया बनकर हर कदम पर मेरा साथ देती है
चोट मुझे लगती है तो दर्द उसे होता है मेरी हर परीक्षा जैसे उसकी अपनी परीक्षा होती है
माँ एक पल के लिए भी दूर होती है तो जैसे कहीं कोई अधूरापन सा लगता है
हर पल एक सदी जैसा महसूस होता है वाकई माँ का कोई विस्तार नहीं
मेरे लिए माँ से बढ़कर कुछ नहीं
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~~~~~~माँ का प्यार ~~~~~~
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माँ : बेटा तुम क्यों रो रहे हो ?
बेटा : कुछ नहीं बस ऐसे ही।
माँ : नहीं कोई बात तो है बेटा ?
बेटा : कहा न कुछ नही बस यूँ ही दिल भर आया।
कुछ देर बाद माँ ने टेबल पर पड़ी बेटे की मेडिकल रिपोर्ट्स पढी, जिस पर लिखा था की
उसके बेटे को कैंसर है और वो कुछ ही दिन का मेहमान है इस दुनिया मे।
थोड़ी देर बाद बेटे ने उसी टेबल पर एक लैटर देखा जो उसकी माँ ने लिखा था की
बेटे मै तुम्हें मरता नहीं देख सकती। मै हमेशा के लिए तेरी सलामती की भीख माँगने के लिए भगवान के पास जा रही हूँ।
"भगवान तुम्हे खुश रखे।"
तुम्हारी माँ।
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बहुत खूब..दीपु जी.:bravo::bravo:
aspundir
20-01-2013, 03:42 PM
भगवान तुम्हे खुश रखे।
भगवान तुम्हे खुश रखे।
right brother :banalama:
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जिन्दगी में दो लोगों का बहुत खयाल रखना :
पिता : वो जिसने तुम्हारी जीत के लिए बहुत कुछ हारा हो और
माँ : वो जिसको तुमने हर दुःख में पुकारा हो.
jai_bhardwaj
28-01-2013, 04:00 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=24219&stc=1&d=1359374410
हमारी देखभाल के लिए खुदा ने
बड़े ही प्यार से एक प्यारी सी शै बनायी है
जब भी आँसू आये आँखों में मेरी
उन्हें पोंछने सबसे पहले माँ ही आयी है
धूप में चलता तो आँचल से छाँव करती
मुझे छाँव देकर वह खुद धूप में जलती
प्यार करती है हमें वो बे-पनाह
सूरत उसकी कितनी भोली भाली होती है न
हमारे गम में वो आज भी रोती है न
क्योंकि माँ तो माँ होती है न
हर पल हमें उसने खुशी और सुख दिया
बदले में हमसे आँसुओं के सिवा कुछ न लिया
दुःख दिए हों हमने उन्हें कितने ही
वो उन्हें भी तो चुपचाप सहती है न
हमारे गम में वो आज भी रोती है न
क्योंकि माँ तो माँ होती है न
आज उसे क्या हो गया है ऐ खुदा!
क्यों उसे दिली तकलीफें हुयी हैं ऐ खुदा!
दे दे तू उसके सारे गम मुझको
माँ का क़र्ज़ तो संतान ही भरती है न
हमारे गम में वो आज भी रोती है न
क्योंकि माँ तो माँ होती है न
दर पे तेरे हज़ार दिए जलाऊँगा
मैं माँ को कभी फिर ना सताऊँगा
अभी मन नहीं भरा है उसके प्यार से मेरा
माँ की ज़रुरत तो ऐ खुदा! सभी को होती है न
हमारे गम में वो आज भी रोती है न
क्योंकि माँ तो माँ होती है न
क्यों आज चुपचाप लेटी है वो मुझसे बिना बात कर के
आज क्यों नहीं बोलती वो मुझसे मुझे याद कर के
उसकी हर मुश्किलों को उससे पहले मैं मिलूँ हर बार
माँ के बिना किसी की ज़िन्दगी नहीं कटती है न
हमारे गम में वो आज भी रोती है न
क्योंकि माँ तो माँ होती है न
मेरी हर खुशी आज मुझ से ले ले तू
पर बदले में मेरी माँ मुझे दे दे तू
मेरी तकलीफों का और कोई सहारा नहीं
माँ किसी को बार बार नहीं मिलती है न
हमारे गम में वो आज भी रोती है न
क्योंकि माँ तो माँ होती है न
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jai_bhardwaj
04-02-2013, 07:11 PM
हम जी न सकेंगे दुनियां में
माँ जन्मे कोख तुम्हारी से
जो दूध पिलाया बचपन में ,
यह शक्ति उसी से पायी है
जबसे तेरा आँचल छूटा,हम हँसना अम्मा भूल गए,
हम अब भी आंसू भरे,तुझे टकटकी लगाए बैठे हैं !
कैसे अपनों ने घात किया ?
किसने ये जख्म,लगाये हैं !
कैसें टूटे , रिश्ते नाते ,
कैसे ये दर्द छिपाए हैं !
कैसे तेरे बिन दिन बीते , यह तुम्हें बताने का दिल है !
ममता मिलने की याद लिए,बस आस लगाये बैठे हैं !
बचपन में जब मंदिर जाता
कितना शिवजी से लड़ता था?
छीने क्यों तुमने ? माँ, पापा
भोले से नफरत करता था !
क्यों मेरा मस्तक झुके वहां, जिसने माँ की ऊँगली छीनी !
मंदिर के द्वारे बचपन से, हम गुस्सा होकर बैठे हैं !
एक दिन सपने में तुम जैसी,
कुछ देर बैठकर चली गयी ,
हम पूरी रात जाग कर माँ ,
बस तुझे याद कर रोये थे !
इस दुनिया से लड़ते लड़ते , तेरा बेटा थक कर चूर हुआ !
तेरी गोद में सर रख सो जाएँ, इस चाह को लेकर बैठे हैं !
एक दिन ईश्वर से छुट्टी ले
कुछ साथ बिताने आ जाओ
एक दिन बेटे की चोटों को
खुद अपने आप देख जाओ
कैसे लोगों संग दिन बीते ? कुछ दर्द बताने बैठे हैं !
हम आँख में आंसू भरे, तुझे कुछ याद दिलाने बैठे हैं !
jai_bhardwaj
04-02-2013, 07:12 PM
रमिया माँ है
वह अटरिया में
अकेले बैठे-बैठे
बुन रही है
अपना भविष्य
यादों के अनमोल
और उलझे धागों से,
उसके सामने
बिखरे हैं
सवाल ही सवाल
वो सालों से खोज रही है
उन अनसुलझे
प्रश्नों के उत्तर
लेकिन आज तक भी
नहीं मिल पाया है उसे
कोई भी उत्तर ।
आज भी वे प्रश्न
प्रश्न ही बने हुए हैं
वह जी रही है आज भी
और जीती रहेगी
युगों-युगों तक
अपने सवालों के
उत्तर पाने के लिए।
वह एक माँ है
जिसने झेले हैं
अनेक झंझावात।
वह अपने ही मन से
पूछ रही है पहेली -
क्यों नहीं है उसको
बोलने का अधिकार
या फिर अपनी बात को
कहने का अधिकार,
क्यों नहीं है उसे
अपनी पीड़ा को
बाँटने का अधिकार,
क्यों नहीं है?
ग़लत को ग़लत
कहने का अधिकार ।
क्यों उसके चारों ओर
लगा दी जाती है
कैक्टस की बाड़
क्यों कर दिया जाता है
उसे हमेशा खामोश
क्यों नहीं
बोलने दिया जाता उसे ?
यह प्रश्न अनवरत
उठता रहता है
उसके भोले मन में,
बिजली-सी कौंधती रहती है
उसके मस्तिष्क में,
बचपन से अब तक
कभी भी अपनी बात को
निर्द्वंद्व होकर कहने की हिम्मत
नहीं जुटा पाई है वह ।
जब भी कुछ कहने का
करती है प्रयास
मुँह खोलने का
करती है साहस
वहीं लगा दिया जाता है
चुप रहने का विराम ।
आठ की अवस्था हो
या फिर साठ की
वही स्थिति,वही मानसिकता
आखिर किससे कहे
अपनी करुण-कथा
और किसको सुनाए
अपनी गहन व्यथा ।
जन्म लेते ही
समाज द्वारा तिरस्कार
पिता से दुत्कार
फिर भाइयों के गुस्से की मार
ससुराल में पति के अत्याचार
सास-ननद के कटाक्षों के वार
वृद्धावस्था में
बेटे की फटकार
बहू का विषैला व्यवहार
सब कुछ सहते-सहते
टूट जाती है वह,
क्योंकि उसे तो मिले हैं
विरासत में
सब कुछ सहने और
कुछ न कहने के संस्कार ।
यदि ऐसा ही रहा
समाज का बर्ताव
मिलते रहे
उसे घाव पर घाव,
ऐसी ही रही चुप्पी
चारों ओर
तो शायद मन की घुटन
तोड़ देगी अंतर्मन को
अंदर-ही-अंदर,
फैलता रहेगा विष
घुटती रहेंगी साँसें,
टूटती रहेंगी आसें
तो जिस बात को
वह करना चाहती है अभिव्यक्त
वह उसके साथ ही चली जाएगी,
फिर इसी तरह
घुटती रहेंगी बेटियाँ,
ऐसे ही टूटता रहेगा
उनका तन और मन,
होते रहेंगे अत्याचार;
होती रहेंगी वे
समाज की घिनौनी
मानसिकता का शिकार |
कब बदलेगा समय
कब बदलेगी मानसिकता
कब समाज के कथित ठेकेदार
समाज की चरमराई व्यवस्था को
मजबूती देने के लिए
आगे आएँगे
क़दम बढ़ाएँगे,
जब माँ के मन की बात
उसकी पीड़ा,उसकी चुभन,
उसके मन का संत्रास
समझेगी आज की पीढ़ी,
विश्वास है उसे
कि वह दिन आएगा
जरूर आएगा ।
jai_bhardwaj
04-02-2013, 07:12 PM
कई बार, रातों में उठकर ,
दूध गरम कर लाती होंगी
मुझे खिलाने की चिंता में
खुद भूखी रह जाती होंगी
मेरी तकलीफों में अम्मा, सारी रात जागती होगी !
बरसों मन्नत मांग गरीबों को, भोजन करवाती होंगी !
सुबह सबेरे बड़े जतन से
वे मुझको नहलाती होंगी
नज़र न लग जाए, बेटे को
काला तिलक,लगाती होंगी
चूड़ी ,कंगन और सहेली, उनको कहाँ लुभाती होंगी ?
बड़ी बड़ी आँखों की पलके,मुझको ही सहलाती होंगी !
सबसे सुंदर चेहरे वाली,
घर में रौनक लाती होगी
अन्नपूर्णा अपने घर की !
सबको भोग लगाती होंगी
दूध मलीदा खिला के मुझको,स्वयं तृप्त हो जाती होंगी !
गोरे चेहरे वाली अम्मा ! रोज न्योछावर होती होंगी !
रात रात भर सो गीले में ,
मुझको गले लगाती होंगी
अपनी अंतिम बीमारी में ,
मुझको लेकर चिंतित होंगीं
बच्चा कैसे जी पायेगा , वे निश्चित ही रोई होंगी !
सबको प्यार बांटने वाली,अपना कष्ट छिपाती होंगी !
अपनी बीमारी में, चिंता
सिर्फ लाडले ,की ही होगी !
गहन कष्ट में भी, वे ऑंखें ,
मेरे कारण चिंतित होंगी !
अपने अंत समय में अम्मा ,मुझको गले लगाये होंगी !
मेरे नन्हें हाथ पकड़ कर ,फफक फफक कर रोई होंगी !
jai_bhardwaj
04-02-2013, 07:15 PM
" माँ और पिता "
ईश्वर की बनाई ममता की मूरत है 'माँ' ,
ईश्वर ने गढ़ी वो अनमोल कृति है 'पिता' !
जीवन की तपती धूप में शीतल छाँव है 'माँ' ,
जीवन के अंधेरों में प्रदीप्त लौ है 'पिता' !
ज़िन्दगी के आशियाने का स्तंभ है 'माँ' ,
उस स्तंभ का आधार-नींव है 'पिता' !
मेरे जीवन का अस्तित्व है जिनसे ,
ईश्वर की वो अनमोल सौगात है - 'माँ और पिता' !
jai_bhardwaj
04-02-2013, 07:15 PM
सपने में आई
ठुमकती-ठुमकती
रुनझुन करती
शरमाई, सकुचाई
नन्ही-सी परी
धीरे से बोली
माँ के कान में
माँ!तू मुझे जनम तो देती।
मैं धरती पर आती
मुझे देख तू मुस्कुराती,
तेरी पीड़ा हरती,
दादी की गोद में
खेलती-मचलती,
घुटवन चलती,
ख़ुशियों से बाबुल की
मैं झोली भरती,
पर जनम तो देती माँ!
तू मुझे जनम तो देती।
मैयाँ-मैयाँ चलती मैं
बाबुल के अँगना में
डगमग डग धरती,
घर के हर कोने में
फूलों-सी महकती,
घर की अँगनाइयों में
रिमझिम बरसती,
माँ-बापू की
बनती मैं दुलारी,
पर जनम तो देती माँ!
तू मुझे जनम तो देती।
तोतली बोली में
चिड़ियों को बुलाती,
दाना चुगाती
उनके संग-संग
मैं भी चहकती,
दादी का भी
मन बहलाती,
बाबा की मैं
कहलाती लाड़ली,
पर जनम तो देती माँ!
तू मुझे जनम तो देती।
आँगन बुहारती
गुड़ियों का ब्याह रचाती
बाबुल के खेत पर
रोटी पहुँचाती,
सबकी आँखों का
बनती मैं सितारा,
पर जनम तो लेती माँ!
जनम तो लेती मैं।
ऊँचाइयों पर चढ़ती,
धारा के साथ-साथ
आगे ही आगे बढ़ती,
तेरे कष्टों को
मैं दूर करती,
तेरे तन-मन में
दूर तक उतरती,
जीवन के अभावों को
नन्हे भावों से भरती,
तेरे जीवन की
बनती मैं आशा,
पर जनम तो देती माँ!
तू मुझे जनम तो देती।
ओढ़ चुनरिया
बनती दुल्हनियाँ
अपने भैया की
नटखट बहनियाँ,
ससुराल जाती तो
दोनों कुलों की
लाज मैं रखती,
देहरी दीपक बन
दोनों घरों को
भीतर और बाहर से
जगमग मैं करती,
सावन में मेहा बन
मन-आँगन भिगोती,
भैया की कलाई की
राखी मैं बनती,
बाबुल के
तपते तन-मन को
छाया मैं देती,
पर जनम तो देती माँ!
तू मुझे जनम तो देती।
माँ बनती तो
तेरे आँगन को मैं
खुशियों से भरती,
बापू की आँखों की
रोशनी बनकर
जीवन में आशा का
संचार करती
तेरे आँगन का
बिरवा बनकर
तेरी बिटिया बनकर
माटी को मैं
चन्दन बनाती,
दुख दूर करती सारे
सुख के गीत गाती,
पर जनम तो देती माँ!
तू मुझे जनम तो देती।
तेरे और बापू के
बुढ़ापे की लकड़ी बनकर
डगमग जीवन का
सहारा मैं बनती,
संघर्षों की धूप में
तपते तन को
देती मैं छाया
उदास मन को
देती मैं दिलासा,
पर जनम तो लेती
मैं जनम तो लेती
माँ!जनम तो देती
तू मुझे जनम तो देती।
jai_bhardwaj
04-02-2013, 07:16 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=24604&stc=1&d=1359990984
jai_bhardwaj
04-02-2013, 07:17 PM
स्मृतियाँ,
कभी रुलाती हैं
तो कभी गुदगुदाती हैं
कभी मासूम बच्चा बन,
छोटा-सा बालक बन
अपनी तोतली बोली में
मन की बातें कह जाती हैं !
स्मृतियाँ,
दिलाती हैं याद
कभी माँ का दुलार,
तो कभी पिता का प्यार,
कभी दादी माँ की
और कभी नानी माँ की
कहानी बनकर
ले जाती हैं
परियों के लोक,
जहाँ दिखाई देते हैं
चाँद और सितारे,
जो लगते हैं मन को
मोहक और प्यारे,
दिखाई देते हैं वहाँ
रंग-बिरंगे फूल
जहाँ नहीं होती,
उदासी की धूल
फूल अपनी सुगंध
बिखेरते हैं चारों ओर,
औरों को भी सिखाते हैं
सुगंध फैलाना,
मनभर खुशबू लुटाना
सबको हँसाना
और गुदगुदाना
तन के साथ-साथ
मन को भी सुंदर बनाना !
स्मृतियाँ,
कभी ले जाती हैं
उस नन्हे संसार में
जहाँ प्यारी-सी
दुलारी-सी गुड़िया है
उसका छोटा-सा घर है !
और है
भरा-पूरा परिवार
नहीं है दुख की कहीं छाया,
पीड़ा की कोई भी लहर
यहाँ-वहाँ कहीं पर भी
कभी दिखाई नहीं देती !
स्मृतियाँ,
जब ले जाती हैं
भाई-बहिनों के बीच
जहाँ खेल है,तालमेल है
तो कभी-कभी
बड़ा ही घालमेल है !
स्मृतियाँ,
ले जाती हैं
दोस्तों के बीच
जहाँ पहुँचकर
देती हैं अनायास
ऊँची उड़ान मन-पतंग को,
देती हैं अछोर ऊँचाइयाँ,
तो कभी कटी पतंग-सी
देती हैं निराशा मन को,
कभी उड़नखटोले में
सैर करातीं हैं,
कभी ले जाती हैं
अलौकिक दुनिया में
जगाती हैं मन में आशा
रखती हैं सदैव दूर दुराशा !
स्मृतियाँ ,
खो जाती हैं
भीड़ में बच्चे की तरह
जब मिलती हैं
तो माँ की तरह
सहलाती हैं,दुलारती हैं
और रात को
नींद के झूले में
मीठे स्वर में
लोरी सुनाती हैं
ले जाती हैं
कल्पना के लोक
जहाँ मन रहता है
कटुता से दूर,बहुत दूर,
मन बजाता है
खुशी का संतूर !
दुःख की अनुभूतियाँ
मन में नहीं समाती हैं;
सुख की कोयल
कभी गीत गाती है
तो कभी
मधुर-मधुर स्वर में
गुनगुनाती हैं,
और कभी
पंचम स्वर में
जीवन का
मधुर राग सुनाती हैं
jai_bhardwaj
04-02-2013, 07:18 PM
माँ शब्द की गहराई को अल्फ़ाज़ों में बांधना किसी के लिए भी आसान नहीं है शायद यही वजह है कि मेरे पास भी माँ से जुड़ी कोई भावुक कविता नहीं है। बस एक अपील है उन सब बहनों के लिए जो माँ हैं या माँ बनने जा रहीं हैं प्लीज़..... कुछ समय के लिए बस माँ बनिये सिर्फ माँ ! अपने बच्चों को पूरा समय दीजिये उनके साथ खेलिए............गाइये...... गुनगुनाइए...... बरसात कि बूंदों में भीगिए...... सुबह जब वो आँख खोले उसके सामने रहिये और रात को उसे अपने सीने में छुपाकर इस बात का अहसास करवाइए कि आप हमेशा उसके पास हैं.......उसके साथ हैं । कभी कभी उसे लेकर यूँ ही टहलने निकल जाइये वो जिधर इशारा करे चलते रहिये । कुछ समय के लिए समय की पाबन्दी को भूलकर बस ! माँ बन जाइये।
हाल ही में एक खबर सुनने में आई कि एक कामकाजी जोड़े की बच्ची ने आया कि देखरेख में अपनी सुनने की ताकत हमेशा के लिए खो दी। कारण यह था कि परेशानी से बचने के लिए आया बच्ची को कमरे में बंद कर टीवी काफी तेज आवाज़ में चला देती थी।
हम आगे बढ रहे हैं , प्रगतिशील हो रहे हैं और ऐसी घटना इसी तरक्की की बानगी भर है। बच्चे को दुनिया में लाने से पहले ही आज के पेरेंट्स हर तरह की प्लानिंग कर लेते हैं पर उसे समय देने के मामले पर विचार कम ही होता है। पिछले कुछ सालों में वर्किंग मदर्स की संख्या में जितना इज़ाफा हुआ है मासूम बच्चों की मुश्किलें भी उतनी बढ़ी हैं। क्रेच और बेबी सीटर जैसे शब्द आम हो गए हैं। अगर संयुक्त परिवार है तो दादी-नानी बच्चों की माँ बन रही हैं (आजकल ऐसे परिवार बस गिनती के हैं ) नहीं तो इन नौनिहालों की परवरिश पूरी तरह नौकरों के भरोसे है। बड़े शहरों में ज्यादातर कामकाजी जोड़ों के बच्चे पूरे दिन अकेले आया के साथ गुजार रहे हैं। सोचने की बात यह है की जो बच्चा आपकी गैर-मौजूदगी में उसके साथ होने वाले दुर्व्यवहार के बारे में बोलकर बताने के लायक भी नहीं है उसे यों अकेला छोड़ना कहाँ तक उचित है ? मेरे विचारों को जानकर कृपया यह न सोचें कि मैं कामकाजी महिलाओं को उलाहना दे रही हूँ या उनकी परिस्थिति नहीं समझती । मैं उनके जज़्बे को सलाम करती हूँ जिसके दम पर वे घर और दफ्तर की ज़िन्दगी में तालमेल बनाकर चलती हैं। पर मैं मानती हूँ की माँ होने की जिम्मेदारी से बढ़कर कोई काम नहीं हो सकता। माँ बनना और अपने बच्चे के विकास को हर लम्हा जीना एक विरल अनुभूति है। जिसे महसूस करना हर माँ का हक़ भी है और जिम्मेदारी भी। कई अध्ययन यह साबित कर चुके हैं कि बच्चे का मनोविज्ञान जैसा उसकी माँ के साथ होता है किसी और के साथ नहीं होता.....दादी-नानी के साथ भी नहीं। ऐसे में एक अजनबी (आया) के साथ बचपन बीतना बच्चों के किये कितना तकलीफदेह हो सकता है यह समझना मुश्किल नहीं है। हम लाख दलीलें देकर भी इस बात को नहीं झुठला सकते कि माँ का विकल्प मनी या आया नहीं हो सकता, कभी भी नहीं। माँ बच्चे के जीवन की धुरी होती है । उसकी हर छोटी बड़ी समझाइश बच्चे के जीवन की दिशा बदल सकती है । लेकिन मौजूदा दौर में तो मांओं के पास वक़्त ही नहीं है तो फिर समझाइश कैसी ? ज़ाहिर सी बात है कि नौकरों के सहारे पलने वाले बच्चों की परवरिश में प्यार और संस्कार की कमी तो है ही मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना भी कुछ कम नहीं है। बचपन के इन हालातों का असर बच्चे की पूरी ज़िन्दगी पर पड़ता है और आगे चलकर हमारे इन्हीं बच्चों का व्यव्हार समाज की दिशा व दशा तय करता है। आज हमारे समाज में औरतों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार और भेदभाव से तकरीबन हर महिला को शिकायत है। ऐसे में माँ होने के नाते आप एक जिम्मेदारी उठायें । अपने बच्चे की परवरिश की , वो बच्चा जो इस समाज का भावी नागरिक होगा शुरू से ही उसे सही सीख देकर एक सुनागरिक बनायें। बेटी को हौसले से जीने का पाठ पढ़ायें और बेटे को घर हो या बाहर औरतों की इज्ज़त करना सिखाएं। ज़ाहिर सी बात है की ऐसी परवरिश के लिए उनके साथ समय बिताना, उन्हें समझना और समझाना बहुत ज़रूरी है। तो फिर मातृत्व को जीने और बच्चों के पालन-पोषण को सही मायने देने के लिए चलो........कुछ समय के लिए बस माँ बनकर जीयें ।
jai_bhardwaj
04-02-2013, 07:19 PM
ऊन के उलझे धागे
सुलझाने का
प्रयास कर रही है रमिया
रंग-बिरंगी ऊन के धागे
गुँथे हुए हैं ऐसे
एक-दूसरे से
कि उन्हें अलग करना
नहीं है आसान !
पर रमिया कर रही है प्रयास
एक-एक धागे को
सुलझाने का,
कभी लाल, कभी नीला
तो कभी पीला,
और मन-ही-मन
हो रही है खुश
गुनगुना रही है
सुंदर सलोना गीत !
खोई है वह अतीत में
पर बुन रही है
भविष्य के नए सपने !
इतने में
उसका छोटा पोता
आया और बोला,
’ दादी माँ !
मैं भी सुलझाऊँगा धागे
बनाऊँगा ऊन के गोले ! ‘
दादी माँ ने उसे
समझाया और बोली---
’ मेरे लाल !
इन धागों को सुलझाने में
जीवन के अनमोल क्षण
गँवाए हैं मैंने
तू मत उलझ इनके साथ ! ‘
रमिया का अतीत
उतर आया
उसकी बूढ़ी आँखों में
उसके सपने
लेने लगे आकार,
याद आया अचानक :
जब छोटी थी वह
तो अपने भैया के लिए
झाड़ू की सींकों में
डालकर फंदे बुनती थी स्वेटर,
बड़ी हुई तो माँ ने
साइकिल की तानों की
बनवाकर दीं सलाइयाँ
और धीरे-धीरे वह
बुनने लगी स्वेटर,
बनाया उसने
अपनी छोटी-सी,
प्यारी-सी गुड़िया का स्वेटर
फिर बुना भैया के लिए
नन्हा-सा टोपा
और अपने लिए स्कार्फ,
उसे पहनकर भर जाती
स्वाभिमान से,
पर आज उसका बुना
स्वेटर या टोपा
नहीं पहनता कोई,
उलझी है वह
अपने ही विचारों में
जीवन की उलझनें
खोलते-खोलते
पक गए हैं सारे बाल
भर गया है चेहरा झुर्रियों से
लेकिन अभी भी है
आस और दृढ़ विश्वास
उसके मन में,
नहीं थकीं हैं
उसकी बूढ़ी आँखें,
अभी भी युवा है मन,
उसी तरह आज भी
सुलझा रही है
ऊन के धागे और
विचारों की उलझन,
इसी विश्वास के साथ
कि धागे खुलकर
बुनेंगे रंग-बिरंगा भविष्य !
jai_bhardwaj
04-02-2013, 07:20 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=24605&stc=1&d=1359991219
jai_bhardwaj
04-02-2013, 07:21 PM
माँ ,
एक शब्द ,
छिपा है जिसमे ,
एक अनोखा संसार !
माँ ,
एक शब्द ,
आँचल में जिसकी ,
सुकून है सारे जहाँ का !
माँ ,
एक शब्द ,
गहराई है जिसकी ,
अथाह सागर के समान !
माँ ,
एक शब्द ,
सबसे है न्यारा ,
सबसे प्यारा ये शब्द !
jai_bhardwaj
04-02-2013, 07:22 PM
यह पोस्ट माँ पर, पर वो माँ जो हर किसी की है। जो सभी को बहुत कुछ देती है, पर कभी कुछ माँगती नहीं. पर हम इसी का नाजायज फायदा उठाते हैं और उसका ही शोषण करने लगते हैं. जी हाँ, यह हमारी धरती माँ है. हमें हर किसी के बारे में सोचने की फुर्सत है, पर धरती माँ की नहीं. यदि धरती ही ना रहे तो क्या होगा॥कुछ नहीं. ना हम, ना आप और ना ये सृष्टि. पर इसके बावजूद हम नित उसी धरती माँ को अनावृत्त किये जा रहे हैं. जिन वृक्षों को उनका आभूषण माना जाता है, उनका खात्मा किये जा रहे हैं. विकास की इस अंधी दौड़ के पीछे धरती के संसाधनों का जमकर दोहन किये जा रहे हैं. हम जिसकी छाती पर बैठकर इस प्रगति व लम्बे-लम्बे विकास की बातें करते हैं, उसी छाती को रोज घायल किये जा रहे हैं. पृथ्वी, पर्यावरण, पेड़-पौधे हमारे लिए दिनचर्या नहीं अपितु पाठ्यक्रमों का हिस्सा बनकर रह गए हैं. सौभाग्य से आज विश्व पृथ्वी दिवस है. लम्बे-लम्बे भाषण, दफ्ती पर स्लोगन लेकर चलते बच्चे, पौधारोपण के कुछ सरकारी कार्यक्रम....शायद कल के अख़बारों में पृथ्वी दिवस को लेकर यही कुछ दिखेगा और फिर हम भूल जायेंगे. हम कभी साँस लेना नहीं भूलते, पर स्वच्छ वायु के संवाहक वृक्षों को जरुर भूल गए हैं। यही कारण है की नित नई-नई बीमारियाँ जन्म ले रही हैं. इन बीमारियों पर हम लाखों खर्च कर डालते हैं, पर अपने परिवेश को स्वस्थ व स्वच्छ रखने के लिए पाई तक नहीं खर्च करते.
आज आफिस के लिए निकला तो बिटिया बता रही थी कि पापा आपको पता है आज विश्व पृथ्वी दिवस है। आज स्कूल में टीचर ने बताया कि हमें पेड़-पौधों की रक्षा करनी चाहिए। पहले तो पेड़ काटो नहीं और यदि काटना ही पड़े तो एक की जगह दो पेड़ लगाना चाहिए. पेड़-पौधे धरा के आभूषण हैं, उनसे ही पृथ्वी की शोभा बढती है. पहले जंगल होते थे तो खूब हरियाली होती, बारिश होती और सुन्दर लगता पर अब जल्दी बारिश भी नहीं होती, खूब गर्मी भी पड़ती है...लगता है भगवान जी नाराज हो गए हैं. इसलिए आज सभी लोग संकल्प लेंगें कि कभी भी किसी पेड़-पौधे को नुकसान नहीं पहुँचायेंगे, पर्यावरण की रक्षा करेंगे, अपने चारों तरफ खूब सारे पौधे लगायेंगे और उनकी नियमित देख-रेख भी करेंगे.
बिटिया के नन्हें मुँह से कही गई ये बातें मुझे देर तक झकझोरती रहीं. आखिर हम बच्चों में धरती और पर्यावरण की सुरक्षा के संस्कार क्यों नहीं पैदा करते. मात्र स्लोगन लिखी तख्तियाँ पकड़ाने से धरा का उद्धार संभव नहीं है. इस ओर सभी को तन-माँ-धन से जुड़ना होगा. अन्यथा हम रोज उन अफवाहों से डरते रहेंगे कि पृथ्वी पर अब प्रलय आने वाली है. पता नहीं इस प्रलय के क्या मायने हैं, पर कभी ग्लोबल वार्मिंग, कभी सुनामी, कभी कैटरिना चक्रवात तो कभी बाढ़, सूखा, भूकंप, आगजनी और अकाल मौत की घटनाएँ ..क्या ये प्रलय नहीं है. गौर कीजिये इस बार तो चिलचिलाती ठण्ड के तुरंत बाद ही चिलचिलाती गर्मी आ गई, हेमंत, शिशिर, बसंत का कोई लक्षण ही नहीं दिखा..क्या ये प्रलय नहीं है. अभी भी वक़्त है, हम चेतें अन्यथा धरती माँ कब तक अनावृत्त होकर हमारे अनाचार सहती रहेंगीं. जिस प्रलय का इंतजार हम कर रहे हैं, वह इक दिन इतने चुपके से आयेगी कि हमें सोचने का मौका भी नहीं मिलेगा !!
jai_bhardwaj
04-02-2013, 07:25 PM
बचपन से आज तक की यात्रा
आहिस्ता-आहिस्ता की है पूरी,
पर आज भी है मन में
एक आस अधूरी
नहीं ढाल पाई अपने को
उस आकार में
जैसा माँ चाहती थी !
माँ की मीठी यादें,
उनके संग बिताए
क्षणों की स्मृतियाँ
आज हो गईं हैं धुँधली,
छा गया है धुआँ
विस्मृति का !
मन-मस्तिष्क पर छाए
धुएँ को हटाकर
जब झाँकती हूँ अंदर,
और उतरती हूँ
धीरे-धीरे अंतर में,
तो माँ की हँसती,
मुस्कुराती सलोनी सूरत
तैर-तैर जाती है
मेरी आँखों में !
देती है प्रेरणा,
करती है प्रेरित
कि कुछ नया करूँ,
समय की स्लेट पर
भावों के स्वर्णिम अक्षरों से
कुछ नया लिखूँ,
पर माँ ! मन के भाव
न जाने क्यों सोए हैं?
क्यों नहीं होती झंकृति
रोम-रोम में,
क्यों नहीं बजती बाँसुरी
तन-मन में,
क्यों नहीं सितार के तार
बजने को होते हैं व्याकुल,
क्यों नहीं हाथ
बजाने को होते हैं आकुल,
लगता है, माँ!
तुझसे मिले संस्कार
तन्द्रा में हैं अलसाए,
रिसती जा रही हैं स्मृतियाँ
घिसती जा रही है ज़िंदगी
सोते जा रहे हैं भाव,
लेकिन डरना नहीं माँ!
मैं थपथपाऊँगी भावों को
जगाऊँगी उन्हें
और ले जाऊँगी
कल्पना के सागर के उस पार
जहाँ लगाकर डुबकी
लाएँगे ढूँढकर
अनगिन काव्य-मोती,
उन्हीं मोतियों की माला से
सजाऊँगी अपना वैरागी मन
और तब, हाँ तब ही,
होगा नवसृजन,
और बजेगी चैन की बाँसुरी !
पहनकर दर्द के घुँघुरू
नाचेगी जब पीड़ा
ता थेई तत् तत् ,
शब्दों की ढोलक
देगी थाप जब
ता किट धा ,
व्याकुलता की बजेगी
उर में झाँझ
और साथ देगी
कल्पना की सारंगी
तो होगी अनोखी झंकार
तो मिलेगा आकार
मन के भावों को,
माँ ! दो आशीर्वाद मुझे--
कर सकूँ नवसृजन
और जब आऊँ
तुम्हारे पास
तो तुम्हें पा मुस्कुराऊँ,
एक ही संकल्प
बार-बार और क्षण-क्षण
न दोहराऊँ !
jai_bhardwaj
04-02-2013, 07:26 PM
मैं मम्मी की राजदुलारी।
मम्मी प्यार खूब जताती,
अच्छी-अच्छी चीजें लाती।
करती जब मैं खूब धमाल,
तब मम्मी खींचे मेरे कान।
मम्मी से हो जाती गुस्सा,
पहुँच जाती पापा के पास।
पीछे-पीछे तब मम्मी आती,
चाकलेट देकर मुझे मनाती।
थपकी देकर लोरी सुनाती,
मम्मी की गोद में मैं सो जाती।
jai_bhardwaj
04-02-2013, 07:33 PM
क्या आपको याद है आगामी 26 मार्च को होली है ...
होली के अवसर पर माँ आपके लिए क्या क्या करती थी , गुझिया बनाने से लेकर रंग और पिचकारी का इंतजाम , नए नए वस्त्र सिलवाना और अंत में घंटो रगड़ रगड़ के नहलाना धुलाना ! सारा त्यौहार उन दिनों माँ के इर्द गिर्द ही घूमता था ! त्यौहार और खुशियों का पर्याय होती थी तब माँ !
इस होली पर आप बच्चों के लिए ही सब कुछ कर रहे हैं या माँ भी उसमें शामिल है ! इस होली पर आपको शुभकामनायें देते हुए मैं , आपको माँ के बारे में थोडा अधिक ध्यान दिलाना चाहता हूँ !
आशा है बुरा न मानेंगे ! उन्हें आपकी अधिक जरूरत है .....
bindujain
04-02-2013, 09:43 PM
http://4.bp.blogspot.com/_2K8UDLclYQE/S-Vqd0rZVbI/AAAAAAAAAi4/0G75JcwRfKc/s1600/bi_mothersday_08_may_09_162508%5B1%5D.jpg
bindujain
04-02-2013, 09:43 PM
http://1.bp.blogspot.com/-cadp-u6nbv0/T6_9G6mhcWI/AAAAAAAAElg/v65XO5-l-Jw/s1600/%E0%A4%AE%E0%A4%A6%E0%A4%B0+%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0% A4%81+n1.jpg
bindujain
04-02-2013, 09:45 PM
मेरी माँ
'माँ' जिसकी कोई परिभाषा नहीं,
जिसकी कोई सीमा नहीं,
जो मेरे लिए भगवान से भी बढ़कर है
जो मेरे दुख से दुखी हो जाती है
और मेरी खुशी को अपना सबसे बड़ा सुख समझती है
जिसकी छाया में मैं अपने आप को महफूज़
समझती हूँ, जो मेरा आदर्श है
जिसकी ममता और प्यार भरा आँचल मुझे
दुनिया से सामना करने की *शक्ति देता है
जो साया बनकर हर कदम पर
मेरा साथ देती है
चोट मुझे लगती है तो दर्द उसे होता है
मेरी हर परीक्षा जैसे
उसकी अपनी परीक्षा होती है
माँ एक पल के लिए भी दूर होती है तो जैसे
कहीं कोई अधूरापन सा लगता है
हर पल एक सदी जैसा महसूस होता है
वाकई माँ का कोई विस्तार नहीं
मेरे लिए माँ से बढ़कर कुछ नहीं।
jai_bhardwaj
05-02-2013, 12:19 PM
थम रही हैं साँसें मेरी
फिर भी चाहती हूँ जीना, माँ
आँखें हो गयी हैं नम
फिर भी चाहती हूँ जीना, माँ
धड़कनें छोड़ रही हैं साथ
फिर भी
ज़िंदगी के इस बेबस मंजर पर
पहुँच कर भी चाहती हूँ जीना, माँ
अभी भी कुछ कर गुजर
चाहती हूँ आगे बढ़ना, माँ
इन हैवानों को अभी मैं
चाहती हूँ सबक सिखाना, माँ
जो मेरी आबरू को नंगा कर
घूम रहे हैं खुले आम
उनके झूठ के नकाब उतार
उनके काले-घिनौने सच को
सामने चाहती हूँ लाना, माँ
अभी तो कुछ कर गुजर कर
आगे चाहती हूँ बढ़ना, माँ
सपने तो अब भी बुन रही हूँ
मंज़िल की राहों पर मैं
अब भी आगे बढ़ रही हूँ
पर साँसें नहीं दे रही हैं मेरा साथ
ज़िंदगी से फिर भी लड़ रही हूँ, माँ
दिन ढल रहा है
फिर भी मेरे मन में
अभी सूरज ऊग रहा है, माँ
फिर भी चाहती हूँ जीना, माँ!
bindujain
05-02-2013, 01:01 PM
माँ' जिसकी कोई परिभाषा नहीं,जिसकी कोई सीमा नहीं,
जो मेरे लिए भगवान से भी बढ़कर है जो मेरे दुख से दुखी हो जाती है
और मेरी खुशी को अपना सबसे बड़ा सुख समझती है
जिसकी छाया में मैं अपने आप को महफूज़ समझतi हूँ,
जो मेरा आदर्श है जिसकी ममता और प्यार भरा आँचल मुझे दुनिया से सामना करने की *शक्ति देता है
जो साया बनकर हर कदम पर मेरा साथ देती है
चोट मुझे लगती है तो दर्द उसे होता है मेरी हर परीक्षा जैसे उसकी अपनी परीक्षा होती है
माँ एक पल के लिए भी दूर होती है तो जैसे कहीं कोई अधूरापन सा लगता है
हर पल एक सदी जैसा महसूस होता है
वाकई माँ का कोई विस्तार नहीं
मेरे लिए माँ से बढ़कर कुछ नहीं
http://4.bp.blogspot.com/_2K8UDLclYQE/S-Vqd0rZVbI/AAAAAAAAAi4/0G75JcwRfKc/s1600/bi_mothersday_08_may_09_162508%5B1%5D.jpg
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