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View Full Version : चचा साम के नाम मंटो के खत


Dark Saint Alaick
26-01-2013, 04:20 PM
चचा साम के नाम मंटो के खत

-सआदत हसन मंटो

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=23936&stc=1&d=1359202764

Dark Saint Alaick
26-01-2013, 04:22 PM
पहला खत


चचाजान, अस्सलामुअलैकुम!

यह खत आपके पाकिस्तानी भतीजे की तरफ से है, जिसे आप नहीं जानते - जिसे आपकी सात आजादियों की सल्तनत में शायद कोई भी नहीं जानता। मेरा देश हिंदुस्तान से कटकर क्यों बना? कैसे आजाद हुआ? यह तो आपको अच्छी तरह मालूम है। यही वजह है कि मैं खत लिखने की हिम्मत कर रहा हूँ, क्योंकि जिस तरह मेरा देश कट कर आजाद हुआ उसी तरह मैं कट कर आजाद हुआ और चचाजान, यह बात तो आप जैसे सब कुछ जानने वाले से छुपी हुई नहीं होनी चाहिए कि जिस पक्षी को पर काटकर आजाद किया जाएगा, उसकी आजादी कैसी होगी! खैर इस किस्से को छोड़िए।

मेरा नाम सआदत हसन मंटो है और मैं एक ऐसी जगह पैदा हुआ था, जो अब हिंदुस्तान में है - मेरी माँ वहाँ दफन है, मेरा बाप वहाँ दफन है, और मेरा पहला बच्चा उस जमीन में सो रहा है लेकिन वह अब मेरा वतन नहीं - मेरा वतन अब पाकिस्तान है, जो मैंने अंग्रेजों के गुलाम होने की हैसियत में पाँच-छ: बार देखा था।

मैं पहले सारे हिंदुस्तान का एक बड़ा कहानीकार था, अब पाकिस्तान का एक बड़ा कहानीकार हूँ। मेरी कहानियों के कई संकलन छप चुके हैं। लोग मुझे इज्जत की निगाहों से देखते हैं। साबुत हिंदुस्तान में मुझ पर तीन मुकदमे चले थे और यहाँ पाकिस्तान में एक, लेकिन इसे बने अभी बरस ही कितने हुए हैं। अंग्रेजों की हुकूमत भी मुझे अश्लील लेखक समझती थी, मेरी अपनी हुकूमत का भी मेरे बारे में यही खयाल है। अंग्रेजों की हुकूमत ने मुझे छोड़ दिया था, लेकिन मेरी अपनी हुकूमत मुझे छोड़ती नजर नहीं आती - निचली अदालतों ने मुझे तीन माह कैद बामशक्कत और तीन सौ रुपए जुर्माने की सजा दी थी। सेशन में अपील करने पर मैं बरी हो गया, मगर मेरी हुकूमत समझती है कि उसके साथ नाइंसाफी हुई है। इसलिए अब उसने हाईकोर्ट में अपील की है कि वह सेशन के फैसले पर दुबारा गौर करे और मुझे सही और माकूल सजा दे - देखिए, हाईकोर्ट क्या फैसला देती है।

Dark Saint Alaick
26-01-2013, 04:24 PM
मेरा देश आपका देश नहीं। इसका मुझे अफसोस है - अगर हाईकोर्ट मुझे सजा दे दे तो मेरे देश में ऐसा कोई अखबार नहीं जो मेरी तसवीर छाप सके, मेरे तमाम मुकदमों की कार्रवाई की तफसील छाप सके।

मेरा देश बहुत गरीब है। उसके पास आर्ट पेपर नहीं है, उसके पास अच्छे छापेखाने नहीं हैं - उसकी गरीबी का सबसे बड़ा सुबूत मैं हूँ। आपको यकीन नहीं आएगा चचाजान कि बाईस किताबों का लेखक होने के बाद भी मेरे पास रहने के लिए मकान नहीं। और यह सुनकर तो आप हैरत में डूब जाएँगे कि मेरे पास सवारी के लिए कोई पैकार्ड है न डॉज सैकिंडहैंड मोटर-कार भी नहीं।

मुझे कहीं जाना हो तो साइकिल किराए पर लेता हूँ। अखबार में अगर मेरा कोई लेख छप जाए और सात रुपए प्रति कॉलम के हिसाब से मुझे बीस-पच्चीस रुपए मिल जाएँ तो मैं ताँगे में बैठता हूँ और अपने यहाँ की बनाई हुई शराब भी पीता हूँ। यह ऐसी शराब है कि अगर आपके देश में बनाई जाए तो आप उस डिस्टलरी को एटम बम से उड़ा दें, क्योंकि एक बरस के अंदर-अंदर ही यह खानाखराब इंसान को बिल्कुल ही बर्बाद कर देती है।

मैं कहाँ-से-कहाँ पहुँच गया - असल में मुझे भाईजान अर्सकाइन काल्डवैल (Erskine coldwell) को आपके जरिए से सलाम भेजना था। उनको तो खैर आप जानते ही होंगे। उनके एक उपन्यास 'गाड्ज लिटिल एकर' (God's Little Acre) पर आप मुकदमा चला चुके हैं - जुर्म वही था जो अक्सर यहाँ मेरा होता है, यानी 'अश्लीलता'।

Dark Saint Alaick
26-01-2013, 04:26 PM
यकीन जानिए, चचाजान, मुझे बड़ी हैरत हुई थी, जब मैंने सुना था कि उनके उपन्यास पर सात आजादियों के मुल्क में अश्लीलता के इल्जाम में मुकदमा चला है - आपके यहाँ तो हर चीज नंगी है। आप तो हर चीज का छिलका उतारकर अल्मारियों में सजाकर रखते हैं, वह फल हो या औरत, मशीन हो या जानवर, किताब हो या कैलेंडर। आप तो नंगेपन के बादशाह हैं - मेरा खयाल था, आपके देश में पवित्रता का नाम अश्लीलता होगा मगर चचाजान, आपने यह क्या गजब किया कि भाईजान अर्सकाइन काल्डवैल पर मुकदमा चला दिया।

मैं इस गम से असरअंदाज होकर अपने देश की देसी शराब अधिक मात्रा में पीकर मर गया होता, अगर मैंने फौरन ही मुकदमे का फैसला न पढ़ लिया होता। यह मेरे देश की बदकिस्मती तो हुई कि एक इंसान खस-कम-जहाँ-पाक होने से रह गया, लेकिन फिर मैं आपको यह खत कैसे लिखता। वैसे मैं बड़ा आज्ञाकारी हूँ। मुझे अपने देश से प्यार है। मैं, इन्शाअल्लाह थोड़े ही दिनों में मर जाऊँगा। अगर खुद नहीं मरूँगा तो खु़द-ब-खुद मर जाऊँगा, क्योंकि जहाँ आटा रुपए का पौने तीन सेर मिलता हो, वहाँ बड़ा ही निर्लज्ज इंसान होगा जो जिंदगी के पारंपरिक चार दिन गुजार सके।

हाँ तो मैंने मुकदमे का फैसला पढ़ा और मैंने देसी शराब अधिक मात्रा में पीकर खुदकुशी का इरादा तर्क कर दिया - भाई, चचाजान, कुछ भी हो, आपके यहाँ हर चीज पर कलई चढ़ी है लेकिन वह जज, जिसने भाईजान अर्सकाइन काल्डवैल को अश्लीलता के जुर्म से बरी किया, उसके दिमाग पर यकीनन कलई का झोल नहीं था। अगर यह जज - (अफसोस है कि मैं उनका नाम नहीं जानता) - जि़ंदा हैं तो उनको मेरा अकीदत भरा सलाम जरूर पहुँचा दीजिए।

उनके फैसले की यह आखिरी पंक्तियाँ उनके दिमाग की ताकत और गहराई का पता देती हैं। मैं व्यक्तिगत तौर पर महसूस करता हूँ कि ऐसी किताबों को सख्ती से दबा देने से पढ़नेवालों में खामखाह जिज्ञासा और हैरत पैदा होती है जो उन्हें कामुकता की टोह लगाने की तरफ प्रोत्साहित कर देती है, हालाँकि असल किताब की यह मंशा नहीं है। मुझे पूरा विश्वास है कि इस किताब में रचानाकार ने सिर्फ वही चीज चुन कर ली है जिसे वह अमरीकी जि़ंदगी के किसी विशेष वर्ग के संबंध में सच्चा समझता है। मेरी राय में सच्चाई को अदब के लिए हमेशा उचित और स्थिर रहना चाहिए।

Dark Saint Alaick
26-01-2013, 04:28 PM
मैंने निचली अदालतों को यही कहा था लेकिन उसने मुझे तीन माह कैदे-बामशक्कत और तीन सौ रुपए की सजा दी - उसकी राय यह थी कि सच्चाई को अदब से हमेशा दूर रखना चाहिए - अपनी-अपनी राय है।

मैं तीन माह कैदे-बामशक्कत काटने के लिए हमेशा तैयार हूँ लेकिन यह तीन सौ रुपए का जुर्माना मुझसे अदा न हो सकेगा - चचाजान, आप नहीं जानते, मैं बहुत गरीब हूँ। मेहनत का तो मैं आदी हूँ, लेकिन रुपयों का आदी नहीं। मेरी उम्र उंतालीस बरस के करीब है और यह सारा दौर मेहनतकशी में ही गुजरा है। आप जरा गौर तो फरमाइए कि इतना बड़ा लेखक होने पर भी मेरे पास कोई पैकार्ड नहीं।

मैं गरीब हूँ, इसलिए कि मेरा देश गरीब है। मुझे तो फिर दो वक्त की रोटी किसी-न-किसी हीले मिल जाती है, मगर मेरे कुछ भाई ऐसे भी हैं जिन्हें यह भी नसीब नहीं होती।

मेरा देश गरीब है, जाहिल है - क्यों, यह तो आपको पूरी तरह से पता है - यह आपके और आपके भाईजान बुल के साझे साज का ऐसा तार है जिसे मैं छेड़ना नहीं चाहता, इसलिए कि आपकी सुनने की शक्ति पर भारी पड़ेगा - मैं यह खत एक खुशनसीब बेटे की हैसियत से लिख रहा हूँ, इसलिए मुझे पहले और आखिर तक खुशनसीब बेटा ही रहना चाहिए।

आप जरूर पूछेंगे : "तुम्हारा देश गरीब क्योंकर है, जबकि हमारे मुल्क से इतनी पैकार्डें, इतनी ब्युकें, मैक्स फैक्टर का इतना सामान वहाँ जाता है…"

Dark Saint Alaick
26-01-2013, 04:30 PM
यह सब ठीक है चचाजान, मगर मैं आपके इस सवाल का जवाब नहीं दूँगा। आप अपने सवाल का जवाब खुद अपने दिल से पूछ सकते हैं, अगर आपने अपने काबिल सर्जनों से कहकर उसे अपने पहलू से निकलवा न दिया हो।

मेरे मुल्क की वह आबादी, जौ पैकार्डों और ब्यूकों पर सवार होती है, मेरा मुल्क नहीं - मेरा मुल्क वह है, जिसमें मुझ ऐसे और मुझसे बदतर गरीब बसते हैं।

यह बड़ी कड़वी बातें हैं हमारे यहाँ शक्कर कम है, वर्ना मैं इन पर चढ़ाकर आपकी सेवा में पेश करता - इसको भी छोड़िए।

बात दरअसल यह है कि मैंने हाल ही में आपके मुल्क के एक साहित्यकार ऐवलिन वॉग (Evelyn Waugh) की एक रचना (The Loved Once) पढ़ी है। मैं इससे इतना प्रभावित हुआ कि आपको यह खत लिखने बैठ गया - आपके मुल्क की अनुपमता का मैं यूँ भी प्रशंसक था, मगर यह किताब पढ़कर तो मेरे मुँह से तुरंत निकला :

जो बात की, खुदा की कसम, लाजवाब की
वाहवा, वाहवा, वाहवा, वाहवा
चचाजान वल्लाह मजा आ गया। कैसे दिलवाले लोग आपके देश में बसते हैं!

Dark Saint Alaick
26-01-2013, 04:31 PM
एवलिन वॉग (Evelyn Waugh) हमें बताता है कि आपके कैलिफोर्निया में मुर्दों, यानी बिछड़े हुए अजीजों पर भी कॉस्मेटिक कलई की जा सकती है और उसके लिए बड़ी-बड़ी कंपनियाँ मौजूद हैं - मरनेवाले अजीज की शक्ल भद्दी हो तो इनमें से किसी में भेज दीजिए - फार्म मौजूद है। उसमें अपनी इच्छाएँ दर्ज कर दीजिए। काम मनपसन्द होगा। यानी मुर्दे को आप जितना खूबसूरत बनवाना चाहें, दाम देकर बनवा सकते हैं। अच्छे-से-अच्छा माहिर मौजूद है जो मुर्दे के जबड़े का ऑपरेशन करके उस पर मीठी-से-मीठी मुस्कराहट बिठा सकता है। आँखों में रोशनी पैदा की जा सकती है, माथे पर जरूरत के हिसाब से नूर पैदा किया जा सकता है। और यह सब काम ऐसी कुशलता से होता है कि कब्र में यमदूत भी धोखा खा जाएँ।

भई खुदा की कसम चचाजान, आपके मुल्क का कोई जवाब पैदा नहीं हो सकता।

जिंदों पर ऑपरेशन सुना था - प्लास्टिक सर्जरी से जिंदा आदमियों की शक्ल सँवारी जा सकती है, इसके बारे में भी यहाँ कुछ चर्चे हुए थे, मगर यह नहीं सुना था कि आप मुर्दों तक की शक्ल सँवार देते हैं।

यहाँ आपके मुल्क का एक हब्शी आया था। कुछ दोस्तों ने मुझसे उनका परिचय कराया। उस वक्त मैं भाई ऐवलिन वॉग (Evelyn Waugh) की किताब पढ़ चुका था - मैंने उनसे उनके मुल्क की तारीफ की और ये शेर पढ़ा :

एक हम हैं कि लिया अपनी ही सूरत को बिगाड़
एक वह हैं, जिन्हें तसवीर बना आती है

Dark Saint Alaick
26-01-2013, 04:33 PM
काले साहब मेरा मतलब न समझे, मगर हकीकत यह है चचाजान कि हमने अपनी सूरत को बिगाड़ रखा है। इतना बिगाड़ रखा है कि अब वह पहचानी भी नहीं जाती, अपने आपसे भी नहीं - और एक आप हैं कि भद्दी सूरत मुर्दों तक की शक्ल सँवार देते हैं। सच तो यह है कि इस दुनिया के तख्ते पर एक सिर्फ आपकी कौम को ही जिंदा रहने का हक हासिल है बाखुदा बाकी सब झक मार रहे हैं।

हमारी जबान उर्दू का एक शाइर गालिब हुआ है। उसने आज से करीब-करीब एक सदी पहले कहा था :
हुए मर के हम जो रुसवा, हुए क्यों न गर्के़-दरिया
न कभी जनाजा उठता, न कहीं मजार होता

गरीब को जिंदगी में अपनी बदनामी का डर नहीं था, क्योंकि वह शुरू से आखिर तक दुनिया से उपेक्षित रहा उसको इस बात का डर था कि मरने के बाद भी बदनामी होगी। आदमी जिद्दी था। उसे डर नहीं, विश्वास था, इसलिए उसने अपने शव को दरिया में बहा देने की इच्छा जाहिर की कि न जनाजा उठे न मजार बने।

काश! वह आपके देश में पैदा हुआ होता। आप उसका बड़ी शानो-शैकत से जनाजा उठाते और उसका मजार स्काई स्क्रैपर की सूरत बनाते, और अगर उसकी इच्छा पर अमल करते तो शीशे का हौज तैयार करते, जिसमें दुनिया गर्क होने तक उसकी लाश रहती और चिड़ियाघर में लोग उसे जा-जाकर देखते।

Dark Saint Alaick
26-01-2013, 04:34 PM
भाई ऐवलिन वॉग (Evelyn Waugh) बताता है कि वहाँ मुर्दा इंसानों ही के लिए नहीं, मुर्दा हैवानों के नयन-नक्श सँवारने वाली संस्थाएँ भी मौजूद हैं। हादिसे में अगर किसी कुत्ते की दुम कट जाती है तो दूसरी लगा दी जाती है। स्वर्ग सिधार जाने वाले की शक्लो-सूरत में उसकी जिंदगी में जितने ऐब थे, उसकी मौत के बाद कुशलता से ठीक कर देते हैं और उसे शानो-शौकत के साथ दफना दिया जाता है। उसकी कब्र पर फूल चढ़ाने का इंतजाम भी कर दिया जाता है - और हर साल, जिस रोज किसी का पालतू मरा हो, उस संस्था की तरफ से एक कार्ड भेज दिया जाता है जिस पर कुछ इस प्रकार से लेख होता है : जन्नत में आपका टौमी या जिम्मी आपकी याद में अपनी दुम या कान हिला रहा है।

हमसे तो आपके देश के कुत्ते ही अच्छे - यहाँ आज मरे, कल दूसरा दिन-यहाँ किसी का कोई अजीज मरता है तो उस गरीब पर एक आफत टूट पड़ती है और वह दिल-ही-दिल में चिल्ला उठता है : 'कमबख्त यह क्यों मरा… मुझे ही मौत आ गई होती…'

सच तो यह है चचाजान, हमें मरने का सलीका आता है न जीने का।

आपके देश में एक साहब ने तो कमाल ही कर दिया - उनको यकीन नहीं था कि उनकी मौत के बाद उनका जनाजा सलीके और करीने से उठेगा, इसलिए उन्होंने अपनी जिंदगी ही में अपने कफन-दफन की बहार देख ली। यह उनका हक था। वह बड़ी शालीनता, नफासत और ऐशोराम, की जिंदगी बसर करते थे। हर चीज उनकी इच्छा के मुताबिक होती थी। हो सकता है, उनका जनाजा उठाने में किसी से कोई जाने-अंजाने में गलती हो जाती। बहुत अच्छा किया जो उन्होंने जिंदगी ही में अपनी मौत की सजावट और बनाव-सिंगार देख लिया - मरने के बाद होता रहे जो होता है।

Dark Saint Alaick
26-01-2013, 04:37 PM
ताजा 'लाइफ' - 5 नवंबर, 1951 : इंटरनेशनल एडिशन - देखा। वल्लाह, आप लोगों की जिंदगी का एक और अनुकरणीय पहलू आँखों के सामने रौशन हुआ। दो पूरे सफहों पर तसवीरों के साथ आपके देश के मशहूरों - मारुफ गैंगस्टर के जनाजे का पूरा वृत्तांत विस्तार से दिया हुआ था। दल्ली मोरीटी, खुदा उसे करवट-करवट जन्नत, नसीब करे, कि छवि देखी। उसका वह आलीशान घर देखा जो उसने हाल ही में पचपन हजार डालर में बेचा था। उसकी वह पाँच एकड़ की एस्टेट भी देखी जहाँ वह दुनिया के हंगामों से अलग होकर आराम और चैन की जिंदगी बसर करना चाहता था। दिवंगत का वह फोटो भी देखा जिसमें वह बिस्तर पर हमेशा के लिए आँखें बंद किए लेटा है। उसका पाँच हजार डालर का ताबूत और उसके जनाजे का जुलूस, जो फूलों से लदी-फँदी ग्यारह बड़ी-बड़ी मलोजीनों और पिचहत्तर कारों पर रखा है, देखकर, आँखों में आँसू आ गए, वह अल्लाह ही गवाह है।

मेरे मुँह में खाक, अगर आपका देहांत हो जाए तो खुदा आपको दल्ली मोरीटी से ज्यादा इज्जत और शान इनायत फरमाए - यह पाकिस्तान के एक गरीब लेखकी की दिली दुआ है, जिसके पास सवारी के लिए एक टूटी-फूटी साइकिल भी नहीं। वह आपसे एक निवेदन भी करता है कि क्यों न आप अपने देश के दूरदर्शी आदमी की तरह अपनी जिंदगी में ही अपना जनाजा उठता देख लें - आदमी आदमी ही है, हो सकता किसी से भूल-चूक हो जाए। हो सकता है, आपके चेहरे का कोई नयन-नक्श सँवरने से रह जाए और आपकी आत्मा को आघात पहुँचे।

संभव है, आप यह खत पहुँचने से पहले ही अपना जनाजा अपनी इच्छानुसार विशाल धूमधाम से उठवा के देख चुके हों, इसलिए कि आप मुझसे कहीं ज्यादा महान विवेकशील हैं और मेरे चचा हैं।

भाईजान अर्सकाइन काल्डवैल को सलाम और जज साहब को भी, जिन्होंने उनको अश्लीलता के जुर्म से बरी किया था।

Dark Saint Alaick
26-01-2013, 04:39 PM
कोई गुस्ताखी हो गई तो माफ फरमाएँ।


दुआ सलाम के साथ।


आपका मुफ्लिस भतीजा


सआदत हसन मंटो

16 दिसंबर, 1951

31, लक्ष्मी मैन्शंज, हॉल रोड, लाहौर

Dark Saint Alaick
29-01-2013, 06:48 AM
दूसरा खत


चचाजान

तस्लीमात !

बहुत पहले, मैंने आपकी खिदमत में एक खत भेजा था - आपकी तरफ से तो उसकी कोई मिलने की इत्लिा न आई मगर, कुछ दिन हुए, आपके दूतावास के एक साहब जिनका नाम मुझे इस वक्त याद नहीं, शाम को मेरे घर पर पधारे थे। उनके साथ एक स्वदेशी नौजवान भी थे। उन साहबान से जो बातचीत हुई उसका खुलासा, लिख देता हूँ।

उन साहब से अंग्रेजी में बातचीत हुई - मुझे हैरत है चचाजान कि वह अंग्रेजी बोलते थे, अमरीकी नहीं जो मैं सारी उम्र नहीं समझ सकता।

बहरहाल उनसे आध-पौन घंटा बातें हुई - वह मुझसे मिलकर बहुत खुश हुए, जिस तरह हर अमरीकी हर पाकिस्तानी या हिंदुस्तानी से मिलकर खुश होता है - मैंने भी यही जाहिर किया कि मुझे बड़ी खुशी हुई, वास्तव में सच्चाई यह है कि मुझे गोरे अमरीकनों से मिलकर कोई राहत या खुशी नहीं होती। आप मेरे बेबाक पन का बुरा न मानिएगा।

पिछले महायुद्ध के दौरान मैं बंबई में रहता था - एक रोज मुझे बंबे सेंट्रल जाने का इत्तिफाक हुआ - उन दिनों वहाँ आप ही के देश का दौरदौरा था। बेचारे टामियों को कोई पूछता ही नहीं था। बंबई में जितनी एँग्लों इंडियन, यहूदी और पारसी लड़कियाँ थीं, अमरीकी फौजियों की बगल में चली गईं थीं।

Dark Saint Alaick
29-01-2013, 06:50 AM
चचाजान मैं आपसे सच अर्ज करता हूँ, कि जब आपके अमरीका का कोई फौजी किसी यहूदी, पारसी या एँगलो इंडियन लड़की को अपने साथ चिपटाए गुजरता था तो टामियों के सीने पर साँप लोट जाते थे।

असल में आपकी हर अदा निराली है - हमारे फौजी को तो यहाँ इतनी तनख्वाह मिलती है कि वह उसका आधा पेट भी नहीं भर सकती, मगर आप एक मामूली चपड़ासी को इतनी तनख्वाह देते हैं कि अगर उसके दो पेट भी हों तो वह उनको नाक तक भर दे।

चचाजान, गुस्ताखी माफ - क्या यह फ्रॉड तो नहीं - आप इतना रुपया कहाँ से लाते हैं -छोटा मुँह और बड़ी बात है, लेकिन आप जो काम करते हैं, उसमें, ऐसा मालूम होता है, नुमाइश-ही-नुमाइश है - हो सकता है कि मैं गलती पर हूँ, मगर गलतियाँ इंसान ही करता है और मेरा खयाल है कि आप भी इंसान हैं। अगर नहीं है तो मै इसके बारे में कुछ नहीं कह सकता।

मैं कहाँ-से-कहाँ चला गया-बात बंबे सेंट्रल रेलवे स्टेशन की थी।

मैंने वहाँ आपके कई फौजी देखे। उनमें ज्यादातर गोरे थे। कुछ काले भी थे-आपसे सच अर्ज करता हूँ कि वह काले उन गोरे फौजियों के मुकाबले में कहीं ज्यादा मोटे-मोटे और सेहतमंद थे।

मेरी समझ में नहीं आता कि आपके मुल्क के लोग ज्यादातर चश्मा क्यों इस्तेमाल करते हैं-गोरों ने तो खैर चश्मे लगाए ही हुए थे, कालों ने भी लगाए हुए थे, जिन्हें आप 'हब्शी' कहते हैं और आवश्यक हो तो लिंच भी कह देते हैं-यह काले क्यों चश्मे की जरूरत महसूस करते हैं?

Dark Saint Alaick
29-01-2013, 06:52 AM
मेरा ख़याल है कि यह सब आपकी कूटनीति है-आप चूँकि सात आजादियों के दावेदार हैं, इसलिए आप चाहते हैं कि इन कालों को, जिन्हें आप बड़ी आसानी से हमेशा के लिए आराम की नींद सुला सकते हैं और सुलाते रहें हैं, एक मौका दिया जाए कि वह आपकी दुनिया को, आपके चश्मे से देख सकें।

मैंने वहाँ बंबे सेंट्रल के स्टेशन पर एक हब्शी फौजी देखा। उसके डेंटर यह मोटे-मोटे थे-वह इतना सेहतमंद था कि मैं डर के मारे सुकड़ के आधा हो गया, लेकिन फिर भी मैंने हिम्मत से काम लिया।

वह अपने सामान के साथ टेक लगाए सुस्ता रहा था-उसकी आँखें मुँदी हुई थीं। मैं उसके पास गया-मैंने बूट के जरिए से आवाज पैदा की। उसने आँखें खोलीं तो मैंने उससे अंग्रेजी में कहा, जिसका सारांश यह था : "मैं यहाँ से गुजर रहा था कि आपकी शख्सीअत को देखकर ठहर गया…" इसके बाद मैंने हाथ मिलाने के लिए हाथ बढ़ाया।

उस काले-कलूटे फौजी ने, जो चश्मा लगाए हुए था, अपना फौलादी पंजा मेरे हाथ में दे मारा इससे पहले कि मेरी सारी हड्डियाँ चूर-चूर हो जातीं, मैंने उससे निवेदन किया : "खुदा के लिए…बस इतना ही काफी है!"

उसके काले-काले और मोटे-मोटे होंठो पर मुसकराहट पैदा हुई और उसने ठेठ अमरीकी लहजे में मुझसे पूछा : "तुम कौन हो?"

मैंने अपना हाथ सहलाते हुए जवाब दिया : "मैं यहाँ का बाशिंदा हूँ… यहाँ स्टेशन पर तुम नजर आ गए तो तुरंत दिल चाहा कि तुमसे दो बातें करता जाऊँ।"

उसने मुझसे अजीबो-गरीब सवाल किया : "यहाँ इतने फौजी मौजूद हैं, तुम्हें मुझ ही से मिलने की इच्छा क्यों पैदा हुई?"

Dark Saint Alaick
29-01-2013, 06:54 AM
चचाजान, सवाल टेढ़ा था लेकिन जवाब खुद-ब-खुद मेरी जबान पर आ गया।

मैंने उससे कहा : "मैं काला हूँ और तुम भी काले हो… मुझे काले आदमियों से प्यार है।"

वह और ज्यादा मुस्कराया।

उसके काले और मोटे होंठ मुझे इतने प्यारे लगे कि मेरा जी चाहा, इन्हें चूम लूँ।

चचाजान, आपके यहाँ बड़ी खूबसूरत औरतें हैं - मैंने आपकी एक फिल्म देखी थी - क्या नाम था उसका - हाँ या आ गया : 'बेदिंग ब्यूटी।' यह फिल्म देखकर मैंने अपने दोस्तों से कहा था: "चचाजान इतनी खूबसूरत टाँगें कहाँ से इकट्ठी कर लाए हैं।" मेरा खयाल है, करीब-करीब दो ढाई सौ के करीब तो जरूर होंगी।"

चचाजान, क्या वास्तव में आपके देश में ऐसी टाँगें आम होती हैं…? अगर आम होती हैं तो खुदा के लिए - अगर आप खुदा को मानते हैं - इनकी नुमाइश कम से कम पाकिस्तान में बंद कर दीजिए।

हो सकता है, यहाँ, आपकी औरतों की टाँगों के मुकाबले में कहीं ज्यादा अच्छी टाँगें हों -मगर चचाजान, यहाँ कोई उनकी नुमाइश नहीं करता। खुदा के लिए यह सोचिए कि हम सिर्फ अपनी बीवी की ही टाँगें देखते हैं। दूसरी औरतों की टाँगें देखना हम पाप समझते हैं - हम बड़े पुराने खयालात के आदमी हैं।

Dark Saint Alaick
29-01-2013, 06:56 AM
बात कहाँ से निकली थी, कहाँ चली गई - मैं मुआफी नहीं माँगना चाहता क्योंकि आप ऐसे ही दस्तावेज पसंद करते हैं।

कहना यह था कि आपके वह साहब, जो यहाँ के दूतावास से संबंधित हैं, मेरे पास पधारे और मुझसे निवेदन किया कि मैं उनके लिए एक कहानी लिखूँ।

मैं स्तब्ध रह गया, इसलिए कि मुझे अंग्रेजी में लिखना आता ही नहीं - मैंने उनसे अर्ज किया की : "जनाब मैं उर्दू जबान का राइटर हूँ… मैं अंग्रेजी लिखना नहीं जानता।"

उन्होंने फरमाया : "कहानी उर्दू ही में चाहिए हमारा एक अखबार है, जो उर्दू में छपता है।" मैंने इसके बाद अधिक खोज बीन की जरूरत न समझी और कहा : "मैं तैयार हूँ।"

और खुदा जानता है कि मुझे मालूम नहीं था, वह आपके कहने पर मेरे घर तशरीफ लाए हैं - क्या आपने उन्हें मेरा वह खत पढ़वा दिया था, जो मैंने आपको लिखा था? खैर, इस हादसे को छोड़िए - जब तक पाकिस्तान को गेहूँ की जरूरत है, मैं आपसे कोई गुस्ताखी नहीं कर सकता - वैसे प्रतिष्ठित पाकिस्तानी होने के नाते - हालाँकि मेरी सरकार मुझे इस काबिल नहीं समझती -मेरी दुआ है कि खुदा करे, कभी आपको भी बाजरे और निकसुक के साग की जरूरत पड़े और मैं जिंदा रहूँ कि आपको भेज सकूँ।

अब सुनिए - उन साहब ने, जिनको आपने भेजा था, मुझसे पूछा : "आप एक कहानी के कितने रुपए लेंगे?"

Dark Saint Alaick
29-01-2013, 06:57 AM
चचाजान, संभव है, आप झूठ बोलते हों और आप निःसंदेह झूठ बोलते हैं, मजाक में ही सही।

यह फन मेरे नसीब में नहीं है।

उस रोज मैंने एक नौसिखिया के तौर पर झूब बोला और उनसे कहा : "मैं एक कहानी के लिए दो सौ रुपए लूँगा।"

अब हककीत यह है कि यहाँ के पब्लिशर मुझे एक कहानी के लिए ज्यादा-से-ज्यादा चालीस-पचास रुपए देते हैं - मैंने 'दो सौ रुपए' कह तो दिए लेकिन मुझे इस एहसास से अंदरूनी तौर पर सख्त शर्मिंदगी हुई कि मैंने इतना झूठ क्यों बोला - अब क्या हो सकता था।

लेकिन चचाजान, मुझे सख्त हैरत हुई, जब आपके भेजे हुए साहब ने बड़ी हैरानी से - मालूम नहीं वह मजाक था या असल - फरमाया : "सिर्फ दो सौ रुपए…! कहानी के लिए कम से कम पाँच सौ रुपए तो होने चाहिए।" मैं चकित हो गया कि एक कहानी के लिए पाँच सौ रुपए - यह तो मेरे ख्वाबो-खयाल में भी नहीं आ सकता था - लेकिन मैं अपनी बात से कैसे हट सकता था।

इसलिए मैंने चचाजान, उनसे कहा : साहब देखिए, दो सौ रुपए ही होंगे… बस अब आप इसके बारे में ज्यादा बातचीत न कीजिए।" वह चले गए, शायद इसलिए कि वह समझ चुके थे, मैंने पी रखी है। वह शराब, जो मैं पीता हूँ, उसका जिक्र मैं अपने पहले खत में कर चुका हूँ।

चचाजान, मुझे आश्चर्य है कि मैं अब तक जिंदा हूँ, हालाँकि मुझे पाँच बरस हो गए हैं यहाँ का कड़वा जहर पीते हुए। अगर आप यहाँ तशरीफ लाएँ तो आपको यह जहर पेश करूँगा। उम्मीद है, आप भी मेरी तरह अजीबोगरीब तौर पर जिंदा रहेंगे और आपकी सात आजादियाँ भी सुरक्षित रहेंगी।

खैर इस किस्से को छोड़िए।

Dark Saint Alaick
29-01-2013, 07:07 AM
दूसरे रोज सुबह-सवेरे जब कि मैं बरामदे में शेव कर रहा था, आपके वही साहब फिर घर पर आ गए - संक्षिप्त-सी बातचीत हुई।

उन्होंने मुझसे कहा : "देखिए, दो सौ की रट छोड़िए, तीन सौ ले लीजिए।" मैंने कहा : "ठीक है…"

और मैंने उनसे तीन सौ रुपए ले लिए - रुपए जेब में रखने के बाद मैंने उनसे कहा : "मैंने आपसे सौ रुपए ज्यादा वसूल किए हैं, लेकिन याद रहे कि जो कुछ मैं लिखूँगा, वह आपकी मर्जी के मुताबिक नहीं होगा। इसके अलावा उसमें किसी किस्म के बदलाव का हक आपको नहीं दूँगा…" वह चले गए - फिर नहीं आए।

चचाजान, अगर आपके पास पहुँचे हों और उन्होंने आपको कोई रिपोर्ट पहुँचाई हो तो कृपया तुरंत अपने पाकिस्तानी भतीजे को जरूर सूचित करें।

मैं वह तीन सौ रुपए खर्च कर चुका हूँ - अगर आप वापिस लेना चाहें तो मैं एक रुपया प्रतिमाह के हिसाब से चुका दूँगा।

उम्मीद है कि आप सात आजादियों समेत बहुत खुश होंगे।

खाकसार

आपका भतीजा

सआदत हसन मंटो, 1954

31, लक्ष्मी मैन्शंज, हॉल रोड, लाहौर

rajnish manga
14-06-2013, 11:18 PM
मुआफी चाहता हूँ अलैक जी, कि मंटो के बेबाक स्टाईल की तर्जुमानी करने वाले ये ख़त मेरी निगाह से जाने कैसे बच कर निकल गये. आज 'ग़ज़ल के साये' ढूंढ रहा था तो ये मेरे हाथ लग गये. सच पूछिए तो मंटो को पढ़ना मंटो से मिलने से कम नहीं होता. बहुत बहुत धन्यवाद.

यहां मुझे मंटो द्वारा जवाहर लाल नेहरु को भेजे एक ख़त की भी याद आती है जो उन्होंने अपनी एक किताब में बतौर भूमिका पेश किया था.