View Full Version : ग़ज़लें, नज्में और गीत
jai_bhardwaj
26-01-2013, 04:51 PM
प्रस्तुत सूत्र में अंतरजाल और पत्र-पत्रिकाओं से प्राप्त कुछ ग़ज़लें, नज्मे अथवा गीत प्रसुत करने का प्रयास कर रहा हूँ।
उर्दू भाषा के शब्द प्रयोग में कहीं कहीं भूल-चूक हो सकती है। उसके लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूँ।
jai_bhardwaj
26-01-2013, 04:51 PM
ना ही इब्तेदा पे उदास हूँ, ना ही इन्तेहा पे मलाल है
बिना वस्ल कैसे गुजर गयी, मेरा ज़िन्दगी से सवाल है
तुझे पूजने में गुज़ार दी, मैंने सदियाँ लेल-ओ-नाहर की
तेरे इश्क से बंधी है, जो मेरी चाह ला ज़वाल है
मेरी चाहतों से बेखबर, तू वादियों में खो गया
तेरी याद का एक काफिला, मेरी ज़ात में बदहाल है
कई उलझनों से सूजी हुई, मेरी ज़िन्दगी की लकीर में
कहीं करबे माजी-ओ-हाल है, कहीं मौज-ए-दर्द-ए-विसाल है
कभी ख्वाहिशों की तलब मुझे, कभी बे-यकीनी का डर मुझे
मेरा नफस जिस सिम्त भी चले, वही रास्ता मेरा ज़वाल है
तेरे अक्स में पिन्हाँ हूँ मैं, तेरे दर्द से भी जुड़ा हूँ मैं
तुझे सोचना तो अज़ीम है, तुझे पाना कसब-ए-मुहाल है
कहीं इश्क है कहीं नफरतें, कहीं बेबसी की उदासियाँ
यही ज़िनदगी की हैं राहतें, यही ज़िन्दगी का वबाल है
कैसे दिल से 'शौकत' जुड़ा करें, कैसे दिल में अपने पनाह दें
इसी कशमकश में जिए चलो, यही बंदगी का ज़माल है
jai_bhardwaj
26-01-2013, 04:54 PM
वो जो खुद पैरवी-ए-एहद-ए-वफ़ा करती थी
मुझसे मिलती थी तो तलकीन-ए-वफ़ा करती थी
उस के दामन में कोई फूल नहीं मेरे लिए
जो मेरी तंगी-ए-दामन का गिला करती थी
आज जो उसको बुलाया तो गुमसुम ही रही
दिल धड़कने की जो आवाज सुना करती थी
आज वो मेरी हर एक बात के मायने पूछे
जो मेरी सोच की तफसीर लिखा करती थी
उसकी दहलीज पे सदियों से खडा हूँ 'ज़ैन"
मुझसे मिलने को लम्हात गिना करती थी
jai_bhardwaj
26-01-2013, 04:55 PM
आवाज जगाती है अहसास
शब्द रच देते हैं
सपनों का नया संसार।
सपने जिंदगी के
सपने अपनों के
सपने सोती आंखों के
सपने जागती आंखों के।
सपनों केमूल में है
शब्दों की अनंत सत्ता।
शब्दों से ही आकार
लेता है ब्रह्म।
शब्दों से ही आकार लेती है जिंदगी
शब्दों संग चलती जिंदगी
शब्द बन जाते हैं अर्थवान
कर देते हैं जिंदगी को सार्थक
शब्द जब हो जाते हैं निरर्थक
जिंदगी में भर देते हैं मायूसी।
शब्द हो जाते हैं मौन
तब भी देते हैं नया अर्थ
जिंदगी के लिए।
rajnish manga
26-01-2013, 05:48 PM
वो जो खुद पैरवी-ए-एहद-ए-वफ़ा करती थी
मुझसे मिलती थी तो तलकीन-ए-वफ़ा करती थी
उस के दामन में कोई फूल नहीं मेरे लिए
जो मेरी तंगी-ए-दामन का गिला करती थी
आज जो उसको बुलाया तो गुमसुम ही रही
दिल धड़कने की जो आवाज सुना करती थी
आज वो मेरी हर एक बात के मायने पूछे
जो मेरी सोच की तफसीर लिखा करती थी
उसकी दहलीज पे सदियों से खडा हूँ 'ज़ैन"
मुझसे मिलने को लम्हात गिना करती थी
:bravo:
नीरज जी की कुछ पंक्तियाँ याद आ गयीं:
मैं वही हूँ जिसे वरदान फरिश्तों का समझ
तुमने औढ़ा था किसी रेशमी आँचल की तरह
और हंस हंस के प्यार को जिसके तुमने
अपनी आँखों में रचा था कभी काजल की तरह.
याद शायद हो तुम्हें गोद में मेरी छुप कर
तुम ज़मीं क्या, फ़लक तक से नहीं डरती थीं
और माथे पे सजा कर मेरे होंठों के कँवल
खुद को तुम मिस्र की शहजादी कहा करती थी.
jai_bhardwaj
26-01-2013, 05:56 PM
:bravo:
नीरज जी की कुछ पंक्तियाँ याद आ गयीं:
मैं वही हूँ जिसे वरदान फरिश्तों का समझ
तुमने औढ़ा था किसी रेशमी आँचल की तरह
और हंस हंस के प्यार को जिसके तुमने
अपनी आँखों में रचा था कभी काजल की तरह.
याद शायद हो तुम्हें गोद में मेरी छुप कर
तुम ज़मीं क्या, फ़लक तक से नहीं डरती थीं
और माथे पे सजा कर मेरे होंठों के कँवल
खुद को तुम मिस्र की शहजादी कहा करती थी.
क्या मनमोहनी दृश्य उकेरा है आपने 'उनका' ... हार्दिक अभिनन्दन है बन्धु रजनीश जी।:bravo::bravo::bravo:
jai_bhardwaj
27-01-2013, 07:55 PM
ख़्वाबों का इक जहां मुझे दे गया कोई
मिट्टी का इक मकां मुझे दे गया कोई
वो दिल में रह गया है कि दिल से उतर गया
कितना अजाब गुमां, मुझे दे गया कोई
सेहरा पे अपने घर का पता लिख गया था वो
मिटता हुआ निशां, मुझे दे गया कोई
माह-ओ-नजूम नोच के, सूरज बुझा दिया
फिर सारा आसमां, मुझे दे गया कोई
किश्ती में छेद उसने किया और उसके बाद
कागज़ का बादबां, मुझे दे गया कोई
उसने गुलाब हाथ में ले कर कहा बतूल
खुशबू का तर्जुमाँ, मुझे दे गया कोई
jai_bhardwaj
27-01-2013, 07:56 PM
आसमानों ने हम को क्या न दिया
दिल मगर हम को बे-वफ़ा न दिया
हम ज़माने को दोष देते रहे
ज़ख्म तुम ने भी कुछ नया न दिया
कू-ब-कू नाचती फिरी खुशबू
फिर भी फूलों ने कुछ गिला ना दिया
ख्वाब में एक दिन मिलेंगे अगर
तुमने यादों को जो मिटा ना दिया
सारी दौलत जहां को दी है मगर
दिल में रखा हुआ खुदा ना दिया
हम ने घर को जला ही लेना था
तुमने अच्छा किया, दिया ना दिया
ज़िन्दगी से यही शिकायत है
हम को जीने का रास्ता ना दिया
सारे मंज़र थे आस पास मगर
तुम ने क्यों ख्वाब से जबा ना दिया
बस इशारों में बात की है 'बतूल'
कोई इलज़ाम बरमला ना दिया
jai_bhardwaj
27-01-2013, 07:57 PM
कुछ इस तरह से इबादत खफ़ा हुयी हम से
नमाज़-ए-इश्क बहुत कम अदा हुयी हम से
गरीब आँखों में आंसू भी अब नहीं आते
इलाही रहम! कि फिर क्या खता हुयी हम से
हम इब्तदा ही कहाँ नेकियों की थे या रब !
तो फिर गुनाहों क्यों इन्तेहा हुयी हम से
ये बद-नसीबी हमारी है कम हुआ ऐसे
कि दुश्मनों के भी हक़ में दुआ हुयी हम से
सलूक मौत का हम से ना जाने कैसा हो
ये ज़िन्दगी तो बहुत में-मज़ा हुयी हम से
कहाँ छुपायेंगे महशर में खुद को आजार
कहाँ अता अत-ए-खैर-उल-वरा हुयी हम से
bindujain
29-01-2013, 08:00 AM
बात कम कीजे ज़ेहानत को छुपाए रहिए
अजनबी शहर है ये, दोस्त बनाए रहिए
दुश्मनी लाख सही, ख़त्म न कीजे रिश्ता
दिल मिले या न मिले हाथ मिलाए रहिए
ये तो चेहरे की शबाहत हुई तक़दीर नहीं
इस पे कुछ रंग अभी और चढ़ाए रहिए
ग़म है आवारा अकेले में भटक जाता है
जिस जगह रहिए वहाँ मिलते मिलाते रहिए
कोई आवाज़ तो जंगल में दिखाए रस्ता
अपने घर के दर-ओ-दीवार सजाए रहिए
2. कच्चे बखिए की तरह रिश्ते उधड़ जाते हैं
हर नए मोड़ पर कुछ लोग बिछड़ जाते हैं
यूँ, हुआ दूरियाँ कम करने लगे थे दोनों
रोज़ चलने से तो रस्ते भी उखड़ जाते हैं
छाँव में रख के ही पूजा करो ये मोम के बुत
धूप में अच्छे भले नक़्श बिगड़ जाते हैं
भीड़ से कट के न बैठा करो तन्हाई में
बेख़्याली में कई शहर उजड़ जाते हैं
निदा फ़ाज़लीhttp://hindi.webdunia.com/articles/0808/23/images/img1080823066_1_1.jpg
jai_bhardwaj
03-02-2013, 07:47 PM
एक किरदारे-बेकसी है मां
ज़िन्दगी भर मगर हंसी है मां
दिल है ख़ुश्बू है रौशनी है मां
अपने बच्चों की ज़िन्दगी है मां
ख़ाक जन्नत है इसके क़दमों की
सोच फिर कितनी क़ीमती है मां
इसकी क़ीमत वही बताएगा
दोस्तो ! जिसकी मर गई है मां
रात आए तो ऐसा लगता है
चांद से जैसे झांकती है मां
सारे बच्चों से मां नहीं पलती
सारे बच्चों को पालती है मां
कौन अहसां तेरा उतारेगा
एक दिन तेरा एक सदी है मां
आओ ‘क़ासिम‘ मेरा क़लम चूमो
इन दिनों मेरी शायरी है मां
- Dr. Ayaz Ahmed 'kasim'
jai_bhardwaj
03-02-2013, 07:51 PM
मेरे दिल के अरमां रहे रात जलते
रहे सब करवट पे करवट बदलते
यूँ हारी है बाज़ी मुहब्बत की हमने
बहुत रोया है दिल दहलते- दहलते
लगी दिल की है जख्म जाता नहीं ये
बहल जाएगा दिल बहलते- बहलते
तड़प बेवफा मत जमाने की खातिर
चलें चल कहीं और टहलते -टहलते
अभी इश्क का ये तो पहला कदम है
अभी जख्म खाने कई चलते-चलते
है कमज़ोर सीढ़ी मुहब्बत की लेकिन
ये चढ़नी पड़ेगी , संभलते -संभलते
ये ज़ीस्त अब उजाले से डरने लगी है
हुई शाम क्यूँ दिन के यूँ ढलते- ढलते
जवाब आया न तो मुहब्बत क्या करते
बुझा दिल का आखिर दिया जलते -जलते
न घबरा तिरी जीत ही 'हीर' होगी
वो पिघलेंगे इक दिन पिघलते-पिघलते
-Harkeerat 'heer'
jai_bhardwaj
03-02-2013, 08:00 PM
बुझ गई तेरे लिए जलती हुई छोड़ के लौ....(दामिनी को समर्पित)...
आज अँगारों के बिस्तर पे बसर करती है
देख हर लड़की ही आज आँख को तर करती है
खुद तो हूँ बुझ गई देकर के मैं हाथों में मशाल
देखना क्या कि चिंगारी ये कहर करती है
एक मज़लूम की चीखें न सुनी रब तूने
मौत के बाद यह फरयाद क़बर करती है
नहीं महफूज़ आबरू किसी लड़की की यहाँ
अब कि डर-डर के यह दिल्ली भी बसर करती है
देह भी लूट दरिन्दों ने ली,सांसें छीनी
बददुआ जा तेरे जीवन को ज़हर करती है
ए खुदा़! आँधियों ने दी उजाड़ ज़ीस्त मेरी
यह हवाएं भी तुझे रो- रो खबर करती है
बुझ गई तेरे लिए जलती हुई छोड़ के लौ
दामिनी आज भी हर बस में सफ़र करती है
कमीनो शर्म करो जाओ , कहीं डूब मरो
आज देखे जो तुम्हें थू-थू नज़र करती है
aspundir
03-02-2013, 08:39 PM
बेहतरीन............................
bindujain
04-02-2013, 05:53 PM
खेत-बाग,नदी- ताल,जंगल-पहाड़ ;
वर्षा वनकन्या -सी कर रही विहार ।
जन्मी आषाढ़-घर, सावन की पाली ;
भादोँ ने पहनाई चूनर हरियाली ;
पवन मानसूनी है करे छेड़-छाड़ ।
गले मिले चिरक्वाँरी रेवा के पाट ;
लगी गली-खोर कीच-काई की हाट ;
घर-घर चौमास छाए पाहुन-त्योहार।
श्रम के हक-भाग कोदो-कुटकी का भात ;
कर्ज़ चढ़ा धान, मका-ज्वारी के माथ ;
पानी ही पानी दृग-देहरी,दिल-द्वार ।
निजहंता मुक्तिपथ चुना विवशताओँ ने ;
रक्तिम उन्नति रोकी नहीँ आकाओँ ने ;
रुका न, रुकेगा यह सियासती बाज़ार ।
मीनारोँ पर बैठी बहरी ख़ुदाई ;
लंगड़ी-गूँगी लगती सारी प्रभुताई ;
बाज़ारोँ-बनियोँ की गिरवी सरकार ।
aspundir
04-02-2013, 06:06 PM
खेत-बाग,नदी- ताल,जंगल-पहाड़ ;
वर्षा वनकन्या -सी कर रही विहार ।
जन्मी आषाढ़-घर, सावन की पाली ;
भादोँ ने पहनाई चूनर हरियाली ;
पवन मानसूनी है करे छेड़-छाड़ ।
गले मिले चिरक्वाँरी रेवा के पाट ;
लगी गली-खोर कीच-काई की हाट ;
घर-घर चौमास छाए पाहुन-त्योहार।
श्रम के हक-भाग कोदो-कुटकी का भात ;
कर्ज़ चढ़ा धान, मका-ज्वारी के माथ ;
पानी ही पानी दृग-देहरी,दिल-द्वार ।
निजहंता मुक्तिपथ चुना विवशताओँ ने ;
रक्तिम उन्नति रोकी नहीँ आकाओँ ने ;
रुका न, रुकेगा यह सियासती बाज़ार ।
मीनारोँ पर बैठी बहरी ख़ुदाई ;
लंगड़ी-गूँगी लगती सारी प्रभुताई ;
बाज़ारोँ-बनियोँ की गिरवी सरकार ।
अति सुन्दर.................................
jai_bhardwaj
05-02-2013, 12:22 PM
सभ्य दुनिया से हमें कुछ पूछना है,
क्या हमें उत्तर मिलेगा?
था नहीं माँगा कभी हमने,
किसी से राजपथ जब,
क्यों हमारी छिन रही पगडंडियाँ हैं?
हरहराते नदी-नालों
और पर्वत, गहन वन के मध्य,
अपने खेत में हम,
मस्त "लेजा" गा रहे थे।
तुम इस क्या गलत समझे,
और "ले जाने" हमारी-
लकड़ियाँ, महुआ, खनिज, अनमोल इमली।
समझ बैठे तुम इसे आह्वान अपना,
जो हमारे रूठ बैठे देवताओं को,
मनाने के लिए हमने
सुनाए थे उसे तुम,
सिर्फ क्या इक गीत,
एक धुन, एक लय समझे हुए थे?
प्रार्थना थी वह नहीं क्या?
पूछना वन की किसी भी
एक तितली से, सुमन से या शशक से
या कि बाँके चौकड़ी भरते-
मृगों के झुंड से,
क्या गीत हमने बेच कर,
अपनी क्षुधा को मेटने को ही रचे थे?
जब हमारे गीत फूटे थे,
नहीं हम जानते थे,
तुम हमारे गीत को, धुन को, लयों को
जंगलों में कैद कर के,
कुछ कँटीले तार से यूँ बाँध लोगे।
हम सदा खुश थे हमारे-
नील नभ से और धरती से, वनों से,
हरहराते नदी-नालों, पर्वतों से,
गहन वन से,
थे हमें जो देवताओं ने दिए।
पर थी नहीं माँगी कभी हमने
तुम्हारी मोटरें, रेलें, सिनेमा, शहर, बिजली
और टीवी।
एक नभ, माटी, हवा, पशु-पक्षि के अतिरिक्त
कुछ पत्ते, वनों के फूल-फल बस!
और कुछ भी था नहीं चाहा, कभी कुछ।
फिर हमारे "घोटुलों" पर,
कैमरों की आँख फाड़े,
क्यों स्वयं की गंदगी,
गंदे विचारों और गंदी सभ्यता ओढ़े
चले आते रहे हो?
झाँकने घर में हमारे-
अतिथि बन कर भी
तुम्हारी दृष्टि,
पशुधन या हमारी
लाज पर पड़ती रही है।
"पेज", "सल्फी" और "लाँदा"
या कि महुए से बने मधु से
हमारी स्नेह-भीगी
अतिथि-सेवा-भावना का
क्या तुम्हारी सभ्यता में-
लूट ही प्रतिदान है?
फिर बताओ, क्यों हमारी
उच्च संस्कृति
नष्ट करने पर तुले हो?
हम तुम्हारे बिन
"नवाखानी", "दियारी" और "गोंचा"-"दसराहा" में
नाच लेंगे।
देखना हमको नहीं दिल्ली,
नहीं भोपाल,
झूठे रंगमंचों की छटाएँ।
सच बताना!
तुम हमारी नृत्य-शैली,
या हमारी नग्न देहों का
प्रदर्शन चाहते हो?
अब हमें कुछ-कुछ समझ
आने लगा है।
हम नहीं बिकते-
तुम्हारे झूठ या आश्वासनों पर।
याद रक्खो, शेर को तुमने
उसी की माँद में जा कर
झिंझोड़ा है, जगाया है।
अगर धोखा किया उससे
भले हम पूर्व पीढ़ी के निरक्षर,
साध कर चुप्पी सदा
बैठे रहे थे,
पर नहीं अब,
सिंह के शावक कभी चुप
रह सकेंगे।
धूप, सर्दी, आँधियों के बीच पलते-
आज के पौधे बड़े मजबूत हैं।
वे झेल जाएँगे,
तपिश, आँधी, थपेड़े,
पर नहीं स्पर्श करने
दे सकेंगे-
लाज अपनी,
गीत अपने,
और उनको गुनगुनाते
राजपथ को चीर डालेंगे,
बढ़ेंगे,
देश के प्रहरी बनेंगे
लाल बस्तर के-
बनेंगे देश के प्रहरी।
और सचमुच देखना तुम
एक दिन जब
इसी बस्तर की यही-
खुशबू भरी माटी कभी
इस देश का गौरव बनेगी।
लेजा : बस्तर का एक हल्बी लोक-गीत,
पेज : चावल के टूटे दानों (कनकी) को उबाल कर बनाया गया पेय, भोजन।
सल्फी : इसी नाम के पेड़ से स्रवित होने वाला सफेद मादक पेय।
लाँदा : चावल को सड़ा कर बनाया गया मादक पेय जो मादक होने के साथ-साथ भूख को भी मिटाता है।
नवाखानी : नवान्न के स्वागत का पर्व।
दियारी : अन्नकूट का पर्व।
गोंचा : रथयात्रा का पर्व।
दसराहा : बस्तर का विश्व प्रसिद्ध दशहरा।
bindujain
05-02-2013, 01:55 PM
घर कहीं किसी का जल गया ।
और दिल, हमारा, पिघल गया ।।
.
बदल दें कुछ, हुई यह आरज़ू
और मन, हमारा, मचल गया ।।
.
बैठे से कहाँ कभी बदला कुछ
बदले हम, ज़माना बदल गया ।।
.
ज़िन्दगी भी वो क्या ज़िन्दगी,
कि बस, काम भर चल गया ।।
.
रोशन हो ऐसे, बुझो तो कहें लोग
सूरज था, जला औ’ ढल गया ।।
.
ज़िन्दगी को क्या ही उसने पिया,
एक ही ठोकर जो संभल गया ।।
.
जी लो जी भर, बीती जाती है
ये आया कल, ये कल गया ।।
.
थक जो गए, थोड़ा हँसे-बोले,
और ये मन बावरा, बहल गया ।।
.
सोचो मत, पल जो है – पानी है
पकड़ा जो मुट्ठी में, फिसल गया ।।
.
सोचा जबतक, करें क्या इसका,
बस उतने में गुज़र ये पल गया ।।
.
सबसे भला तो ’अभि’ यायावर है,
जिधर मिली राह, निकल गया ।।
rajnish manga
13-02-2013, 10:43 PM
ग़ज़ल
(नईम अख्तर)
इधर कई दिनों से कुछ झुकाव तेरे सर में है.
है कौन ऐसा बा-असर के जिसके तू असर में है.
इसी लिए तो हम बहुत जियादा बोलते नहीं,
के बात चीत का मज़ा कलामे मुख़्तसर में है.
ज़रा जो मैं निडर हुआ तो फिर ये भेद भी खुला,
मुझे डराने वाला खुद भी दूसरों के डर में है.
मेरा सफीना गर्क होता देख कर हैरां है जो,
उसे पता नहीं कि उसकी नाव खुद भंवर में है.
मुझे भी उसकी जुस्तजू उसे भी मेरी आरज़ू,
मैं उसकी रहगुज़र में हूँ वो मेरी रहगुज़र में है.
अमीरे शहर को कहीं बता न देना भूल से,
कि मैं हूं खैरियत से और सुकून मेरे घर में है.
jai_bhardwaj
24-02-2013, 07:52 PM
देखा जो एक बार
तुमने मुस्करा कर
न जाने क्यों लगने लगा मुझे
तुम्हीं हो
मेरे जीवनपथ के साथी
बस फिर क्या
सारी दुनिया एक ओर
और तुम्हारा इंतजार एक ओर
इंतजार भी कैसा
जो करता रहा मुझे परेशान
इस इंतजार के चक्कर में
मैं ऐसा डूबा कि
एक पराये को अपनाने के फेर में
अपनों को दूर करता रहा
वक्त ने भी खूब बदला लिया मुझसे
न ही तुम आए
न ही काबिल बना मैं
अपनों ने भी छोड दिया साथ मेरा
जीवन पथ के सुनसान रास्तों पर
भटक रहा हूं अकेला तन्हा
तन्हाई में सोचता हूं कि काश
न देखा होता तुमने मुस्करा कर
न करता मैं तुम्हारा इंतजार
तो शायद आज
होती सारी दुनिया मेरी मुट़ठी में
नजरों के फेर ने बदल दी राहे
अब किसे दूं दोष मैं
यह तो मेरी ही नजरों को फेर था
जो एक मुस्कराहट को
समझ बैठा प्यार.
-- Harish Bhatt
jai_bhardwaj
24-02-2013, 07:56 PM
पहली बार जब मैं जेल गया
मेरे हाथों में
एक खिलौने का डब्बा था
उसमें कुछ कंचे थे
गली में पड़ा मिला
एक जंग खाया चाकू था
कुछ बिजली के फ्यूज हुए तार थे
और तब मैं यह भी नहीं जानता था
कि आतंकवादी होने का मतलब क्या होता है
दूसरी बार जब जेल गया
तो मैं कुछ बड़ा हो गया था
और एक अजीज दोस्त से
बतिया रहा था
एक नक्सली की पुलिसिया हत्या के बाद
अखबार में छपी खबर और तस्वीर के बारे में
तब मैं नहीं जानता था नक्सली होने का मतलब
और यह भी नहीं कि नक्सली शब्द उचारना,
जबान पर लाना कोई जुर्म है
तीसरी बार जब जेल गया
तब मैने बिल्कुल नहीं जाना
कि मैं जेल क्यों गया
इतना मालूम चला था अखबारों से
कि उनका प्रचार कामयाब हुआ
और पूरा देश घृणा करने लगा है मुझसे
हालांकि, जेल में मिलने आती
अपनी नन्ही बच्ची की आंखों में
मैं देख लिया करता था अपना चेहरा
उसकी आंखें बोलती थीं
मैं दोषी नहीं
--krishnakant
jai_bhardwaj
01-03-2013, 06:11 PM
गौरी पनघट से नहीं, भरती नल से नीर।
छरहरी काया न रही, थुलथुल हुआ शरीर।।
थुलथुल हुआ शरीर, नित्य ही वैद्य बुलावे,
दूध परहेज छोड़, पिज्जा ही मंगवावे,
सुनलो कहे अशोक, नहि यह गाँव की छोरी,
आयी दुल्हन गाँव, बन के शहर की गौरी।।
jai_bhardwaj
01-03-2013, 06:11 PM
पगडंडी दिखती कहाँ, चौतरफा अब रोड।
समयचक्र के साथ ही, बदले कितने मोड़।।
बदले कितने मोड़, बनी डामर की सड़कें,
कृषि चोखा व्यापार,कृषक भी बचे न कड़के,
खड़ी गाँव के द्वार, देखो कृषक की मंडी,
भूले अब तो लोग, गाँव की वह पगडंडी।।
jai_bhardwaj
03-03-2013, 08:21 PM
उसके होते हुए वक्त का एहसास नहीं,
कितना तनहा मुझे जाते हुए कर जाता है
उसकी आँखों में बसेरा है मेरी उल्फत का,
ये अलग बात कि वो इस बात से फिर जाता है
तज्करा मुझसे वो करता है मेरा कुछ ऐसे,
जैसे बादल किसी बस्ती पे बिखर जाता है
मेरी चुपचाप तबियत को भी यूँ लगता है
रंग बे-कैफ से लम्हों में वो भर जाता है
कांप उठता है अकेले में वजूद ऐ 'अमर',
जब कभी भूले से भी लफ्ज-ए-हिजर आता है
साजिद नाज़िर 'अमर'
jai_bhardwaj
03-03-2013, 08:21 PM
छुप जाती हैं आइना दिखा कर तेरी यादें,
सोने नहीं देतीं मुझे शब् भर तेरी यादें
तू जैसे मेरे पास है और माहो-ए-सुखन है,
महफ़िल सी जमा देती हैं अक्सर तेरी यादें
मैं क्यों ना फिरूं तपती दोपहरों में अक्सर,
फिरती हैं तसव्वुर में खुले सर तेरी यादें
जब तेज हवा चलती है बस्ती में सरेशाम,
बरसती हैं इतराफ से पत्थर तेरी यादें।
-नासिर काजमी
jai_bhardwaj
03-03-2013, 08:23 PM
मुलाकातें हमारी बे-इरादा क्यों नहीं होतीं,
मुहब्बत की गुजर कहीं कुशादा क्यों नहीं होतीं
हमारे दरमियान ये अजनबियत का धुवां क्यों है,
हमारी चाहतें हद से ज्यादा क्यों नहीं होती
मेरे जज़्बात की खुशबू उतरती क्यों नहीं तुझमे,
तेरे दिल की सभी राहें कुशादा क्यों नहीं होती
खुशी की चंद बूंदे जिस्म को गीला कर तो देती हैं,
मयस्सर रहती लेकिन ज्यादा क्यों नहीं होतीं
तेरे नज़दीक रहके भी ये दूरी का गुमां कैसा,
तेरी बाहें मेरी खातिर कुशादा क्यों नहीं होतीं
बड़े नाज़-ओ-अदा अक्सर ये दिखलाती हैं रास्तों में,
ये सोहनी लडकियां 'इरफ़ान' सादा क्यों नहीं होती
-इरफ़ान सादिक
jai_bhardwaj
10-03-2013, 02:50 PM
दिल की दीवारों पे किसी को ज़ख़्म न दो
एक ज़ख्म जिन्दगी का रुख़ बदल देती है ।
वक़्त भर देता है नासूर भी जिस्म के मगर
एक झोंका ही दिल-ए-ज़ख़्म को सबल देती है ।
हर डाल पर सैयाद है दिल के तीर लेकर
क़ैद पंछी पिंजड़े में लोगो को हज़ल देती है ।
जलाने बैठे है दीवाने दिल में आग लेकर
धुआँ दिल के जलने का हद-ए-नज़र देती है ।
जो अपने रक़्श से रौशन करती है महफिलें
मिटाकर खुद को वो सबके रात संवर देती है ।
पूछिये उन्हीं से हाल-ए-दिल क़फ़स-ए-उलफत का
औरों के लिए तो ये लफ़्ज़ बस ग़ज़ल देती है ।
हज़ल – तमाशा, मनोरंजन ,
रक़्श – नाच ,
क़फ़स – पिंजड़ा ,
उलफत – प्यार
(अंतरजाल के वृहद कोष से कर्षित एक हेम कण ......)
jai_bhardwaj
10-03-2013, 02:52 PM
मुझे नही
मेरे काम को
चाहते है सब,
वरना -
मुट्ठी भर
मुट्ठी भर मिट्टी हूँ
हवाओं में
बिखर जाउँगा ।
वो काम ही है
जिससे -
एक-दूसरे को
पूछते है,
जानते है,
याद करते है,
फिर पूछेगा कौन मुझे यहाँ
अगर
किसी से करके वादे
फिर
मुकर जाउँगा ।
कर्म को पूजा
जानते है हम,
मगर-
भूल जाता हूँ कर्म
पूजा करके,
फिर किस्मत ने कहाँ
किस्मत को दी
धोखा हमने,
अब कर्म के बिना
पूजा में
क्या लेकर जाउँगा ।
(अंतरजाल के वृहद कोष से कर्षित एक अन्य हेम कण ......)
rajnish manga
20-03-2013, 03:14 PM
ग़ज़ल
मेरी तरह किसी से मुहब्बत उसे भी थी.
ग़म को छुपा के हंसने की आदत उसे भी थी.
इस दिल से मुझको दुःख के सिवा और क्या मिला,
और दिल से इस किस्म की शिकायत उसे भी थी.
ऐ काश के कुछ पल तो उसके साथ गुज़रते,
उस पल के न मिलने की मलामत उसे भी थी.
तारीकियों में खुद अपने ही साए को ढूँढना,
खुद को तलाश करने की आदत उसे भी थी.
तन्हाइयों में खामशी को गौर से सुनना,
खामोशियों से ऐसी रफाकत उसे भी थी.
मैंने कभी न चाहा के वादे वफ़ा भी हो,
वादे हज़ार करने की आदत उसे भी थी.
आँखों में लिए आंसू रातों को जागना,
मेरी तरह किसी से मुहब्बत उसे भी थी.
(रचना: आमना रानी/ उर्दू वर्ल्ड .कॉम से साभार)
jai_bhardwaj
23-03-2013, 12:00 AM
जिस दिन से वो आई मेरी जिंदगी में
उजाला बन कर छा गयी
सुबह की चाय में घुला उसका प्यार
मिठास से भर देता मेरे मन को
जब निकलने लगता ऑफिस को
तो दौड़कर आती और
कानों में बुदबुदा जाती
आपसे प्रेम करती हूं
मैं हौले से मुस्कुरा देता
कपकपाती सर्दी में उसके हाथ का स्वेटर
बदन को ही नहीं मन को भी
प्रेम की ऊष्मा से भर देता
हर शाम हलके हाथों से मेरे माथे को सहलाती और
धीरे से बुदबुदाती
मुझे आपसे बहुत प्रेम है
मैं हौले से उसका गाल थपथपा देता
लेकिन हमेशा उसकी आँखों में नज़र आती
अनजानी सी बेचैनी,अनजानी सी प्यास
पचपन साल वो साए की तरह
मेरे साथ चली
कल वो चली गयी इस दुनिया से
मेरे सामने था उसका बेजान शरीर
ठंडे बर्फ से सर्द हाथ और अधखुली आँखें
जिनमे वोही प्यास,वो ही बेचैनी थी
मैं रो पड़ा फूट फूट कर
थाम कर उसके सर्द हाथ
मैं बुदबुदाया उसके कानों में
मुझे तुमसे बेहद मोहब्बत है
अगले ही पल मैंने देखा
बंद हो गयी उसकी अधखुली आँखें
लगता है उसकी बरसों की प्यास बुझी
उसके जाने के बाद........
jai_bhardwaj
23-03-2013, 12:05 AM
कुछ कहना चाहा था तुमसे
पर होंठ काँप कर रह गए
लफ्ज़ जुबां तक आये और
होंठों से फिसल गए....
आज भी वो लफ्ज़
कॉलेज की सीढियों के पास पड़े हैं..
हम बार बार मिले और
हर बार होठों का काँपना,
लफ्जों का जुबां तक आना और
फिसल कर गिर जाना चलता रहा.....
गंगा के तट पर ,घर में सोफे के पीछे,
लाइब्रेरी में ,बरामदे में
और तुम्हे अपनी बाइक पर ले जाते हुए
शहर के सभी रास्तों पर
आज भी वो लफ्ज़ बिखरे पड़े हैं...
पर कल जब तुम्हे देखा
कई बरसों के बाद तो
पहली बार झाँककर देखा
तुम्हारी आँखों की गहराई में
तुम्हारी आँखों ने मेरी आँखों से कहा...
न समझ सके तुम मेरी जुबां
जरा ध्यान से देखो
अपने फिसले हुए लफ्जों को
हर लफ्ज़ तुम्हे जोड़ी में मिलेगा
एक तुम्हारा ....एक मेरा
jai_bhardwaj
23-03-2013, 12:08 AM
जाने क्या थी वो मंजिल जिसके लिए
उम्र भर मैं सफर तय करता रहा
जागा सुबह भीगी पलकें लिए
रात भर मेरा माजी बरसता रहा
खता तो अभी तक बताई नहीं
सजा जिसकी हर पल भुगतता रहा
कमी ढूंढ पाया न खुद में कभी
बस हर दिन आइना बदलता रहा
कसम दी थी उसने न लब खोलने की
दबा दर्द दिल में सुलगता रहा
खामोशी से कल फिर हुई गुफ्तगू
वो कहती रही और मैं सुनता रहा
बेईमान तरक्की किये बेहिसाब
मैं ईमान लेकर भटकता रहा
सितारे के जैसी थी किस्मत मेरी
मैं टूटता रहा, जग परखता रहा
खिलौना न मिल पाया शायद उसे
खुदा का दिल मुझसे बहलता रहा
न पाया कोई फूल सूखा हुआ
वक्त के पन्ने मैं पलटता रहा
jai_bhardwaj
23-03-2013, 12:11 AM
सच्चाई और ईमान को परखने लगा है
लगता है खुदा पीकर बहकने लगा है
कल तौबा करके आया था खुदा के सामने
आज मयकदे को देखकर मचलने लगा है
सह न सका हो गयी जब ग़म की इंतिहा
बरसों का रुका बादल बरसने लगा है
ताउम्र भागता रहा लोगों की भीड़ से
अब कब्र में दुश्मन को भी तरसने लगा है
टूटा जो इश्क में तो साकी ने दी पनाह
मयखाने में जाकर वो अब संभलने लगा है
इस कदर तन्हाई से घबराया हुआ है
हर कमरे में आइना वो रखने लगा है
क्या खता हुई जो गुनाहगार बन गया
किताबे माजी के सफ़े पलटने लगा है
हमदर्द बनके आया था वो कत्ल कर गया
अब दोस्तों के नाम से डर लगने लगा है
jai_bhardwaj
25-03-2013, 12:18 AM
घाव गिनते न कभी ज़ख्म शुमारी करते
इश्क में हम भी अगर वक्त गुजारी करते
तुझमे तो खैर मोहब्बत के थे पहलू ही बहुत
दुश्मन ए जां भी अगर होता तो यारी करते
हो गए धूल तेरे रास्ते में बैठे बिठाए
बन गए अक्स तेरी आईनादारी करते
वक्त आया है जुदाई का तो सोचते हैं
तुझे आसाब पे इतना भी ना तारी करते
होते सूरज तो हमें शाह ए फलक होना था
चाँद होते तो सितारों पे सवारी करते
आखिरी दाँव लगाना नहीं आया हमको
जिन्दगी बीत गयी खुद को जुआरी करते
jai_bhardwaj
25-03-2013, 12:35 AM
न बुझा चिराग ए दयार ए दिल, न बिछड़ने का तू मलाल कर
तुझे देगी जीने का हौसला, मेरी याद रख ले संभाल कर
ये भी क्या कि एक ही शख्स को, कभी सोचना कभी भूलना,
जो न बुझ सके वो दिया जला, जो न हो सके वो कमाल कर
गम ए आरजू मेरी जुस्तजू, मैं सिमट के आ गया रू ब रू,
ये सुकूत ए मर्ग है किस लिए? मैं जवाब दूँ तू सवाल कर
तू बिछड़ रहा है तो सोच ले, तेरे हाथ है मेरी ज़िन्दगी,
तुझे रोकना मेरी मौत है, मेरी बेबसी का ख्याल कर
मेरे दर्द का, मेरे ज़ब्त का, मेरी बेबसी, मेरे सब्र का,
जो यकीं न आये तो देख ले, तू हवा में फूल उछाल कर
Hatim Jawed
03-04-2013, 12:03 AM
सभी रचनाएँ अच्छी लगीं, जय भारद्वाज जी ! बधाई हो ।:bravo::bravo::bravo:
jai_bhardwaj
03-04-2013, 07:24 PM
सभी रचनाएँ अच्छी लगीं, जय भारद्वाज जी ! बधाई हो ।:bravo::bravo::bravo:
सूत्र-भ्रमण के लिए हार्दिक आभार बन्धु ..
jai_bhardwaj
04-04-2013, 08:39 PM
बचपन में अच्छी लगे यौवन में नादान।
आती याद उम्र ढ़ले क्या थी माँ कल्यान।।१।।
करना माँ को खुश अगर कहते लोग तमाम।
रौशन अपने काम से करो पिता का नाम।।२।।
विद्या पाई आपने बने महा विद्वान।
माता पहली गुरु है सबकी ही कल्यान।।३।।
कैसे बचपन कट गया बिन चिंता कल्यान।
पर्दे पीछे माँ रही बन मेरा भगवान।।४।।
माता देती सपन है बच्चों को कल्यान।
उनको करता पूर्ण जो बनता वही महान।।५।।
बच्चे से पूछो जरा सबसे अच्छा कौन।
उंगली उठे उधर जिधर माँ बैठी हो मौन।।६।।
माँ कर देती माफ़ है कितने करो गुनाह।
अपने बच्चों के लिए उसका प्रेम अथाह।।७।।
-सरदार कल्याण सिंह
jai_bhardwaj
04-04-2013, 08:40 PM
माँ के हाथों की बनी जब दाल रोटी याद आई
पंचतारा होटलों की शान शौकत कुछ न भाई
बैरा निगोड़ा पूछ जाता किया जो मैंने कहा
सलाम झुक-झुक करके मन में टिप का लालच रहा
खाक छानी होटलों की चाहिए जो ना मिला
क्रोध में हो स्नेह किसका? कल्पना से दिल हिला
प्रेम मे नहला गई जब जम के तेरी डांट खाई
माँ के हाथों की बनी जब दाल रोटी याद आई
तेरी छाया मे पला सपने बहुत देखा किए
समृद्धि सुख की दौड़ मे दुख भरे दिन जी लिए
महल रेती के संजोए शांति मै खोता रहा
नींद मेरी छिन गई बस रात भर रोता रहा
चैन पाया याद करके लोरी जो तूने सुनाई
माँ के हाथों की बनी जब दाल रोटी याद आई
लाभ हानि का गणित ले ज़िंदगी की राह में
जुट गया मित्रों से मिल प्रतियोगिता की दाह में
भटका बहुत चकाचौंध में खोखला जीवन जिया
अर्थ ही जीने का अर्थ, अनर्थ में डुबो दिया
हर भूल पर ममता भरी तेरी हँसी सुकून लाई
माँ के हाथों की बनी जब दाल रोटी याद आई।
- हरिहर झा
jai_bhardwaj
04-04-2013, 08:57 PM
मलाला मलाला
आँखें तेरी चाँद और सूरज
तेरा ख़्वाब हिमाला...
वक़्त की पेशानी पे अपना नाम जड़ा है तूने
झूटे मकतब में सच्चा क़ुरान पढ़ा है तूने
अंधियारों से लड़ने वाली
तेरा नाम उजाला.... मलाला मलाला
स्कूलों को जाते रस्ते ऊंचे नीचे थे
जंगल के खूंख्वार दरिन्दे आगे पीछे थे
मक्के का एक उम्मी* तेरी लफ़्ज़ों का रखवाला....मलाला मलाला
तुझ पे चलने वाली गोली हर धड़कन में है
एक ही चेहरा है तू लेकिन हर दर्पण में है
तेरे रस्ते का हमराही, नीली छतरी वाला, मलाला
-निदा फाजली
jai_bhardwaj
04-04-2013, 09:03 PM
पानी के वास्ते न सुनेंगे उदू मेरी .............. उदू = दुश्मन
प्यासे की जान जाएगी और आबरू मेरी
पोंह्चे करीब-ए-फौज तो घबरा के रह गए
चाहा करें सवाल, पे शर्मा के रह गए
गैरत से रंग फ़क़ हुआ, थर्रा के रह गए
चादर पिसर के चेहरे से सरका के रह गए ...... पिसर = बेटा (औलाद)
आँखें झुका के बोले कि ये हम को लाये हैं
असगर तुम्हारे पास गरज ले के आये हैं
सिन है जो कम, तो प्यास का सदमा ज्यादा है ....... सिन = उम्र (जिन्दगी के दिन )
मजलूम खुद है और ये मज्लूमज़ादा है
लो मान लो, तुम्हें क़सम ज़ुल-जिलाल की
यस्रब के शाहज़ादे का पहला सवाल है
पोता अली का तुम से तलबगार-ए-आब है
दे दो कि इस में नामवरी है, सवाब है
फिर होंट बेज़बान के चूमे झुका के सर
रो कर कहा, जो कहना था वोह कह चुका पिदर ....... पिदर -- पिता (वालिद)
बाक़ी रही न बात कोई ऐ मेरे पिसर
फेरी ज़बाँ लबों पे जो उस नूरे-ऐन ने
थर्रा के आसमान को देखा हुसैन ने
=मिर्ज़ा सलामत अली 'दबीर'
jai_bhardwaj
09-04-2013, 07:21 PM
वो मेरा उनका ताल्लुक़ जो रस्म-ओ-राह का था
बस उसमें सारा सलीक़ा मेरे निबाह का था
तुझे करीब से देखा तो दिल ने सोचा है
कि तेरा हुस्न भी एक ज़ाविया* निगाह का था -------------> जाविया =फ़रिश्ता
मिले थे हज़रात-ए-वाएज़ भी तेरे कूचे में
ज़रा सा उनसे मेरा इख्तिलाफ़* राह का था ------------> इख्तिलाफ = फासला
तेरी जफा का खुदा सिलसिला दराज़ करे
कि उससे अपना ताल्लुक भी गाह गाह का था
नून मीम राशिद
jai_bhardwaj
09-04-2013, 07:26 PM
आज की शाम है किस दर्जा हसीं, कितनी उदास
हो भरी बज़्म में तन्हाई का जैसे एहसास
उठने ही वाला है फिर क्या कोई तूफ़ान नया
फिर तबियत हुई जाती है ज्यादा हस्सास
[हस्सास = ग़मगीन]
आज क्यूं उनमें नहीं जुर्रत-ए-ताज़ीर कि हम
मुन्तजिर कब से खड़े हैं रसन-ओ-दार के पास
[ताज़ीर=दंड][रसन-ओ-दार= फाँसी का फंदा]
उनसे नज़रें जो मिलाईं तो खतावार हैं हम
और अगर बज़्म से उठ जाएँ तो ना-कद्र-शिनास
दिल लरजता है की वोह वक़्त न आये वामिक
गम में होने लगे जब लज्ज़त-ए-गम का अहसास
वामिक जौनपुरी
jai_bhardwaj
09-04-2013, 07:28 PM
हम उन्हें, वोह हमें भुला बैठे
दो गुनहगार ज़हर खा बैठे
आंधियो! जाओ अब करो आराम!
हम खुद अपना दिया बुझा बैठे
जब से बिछड़े वोह मुस्कुराये न हम
सब ने छेड़ा तो लब हिला बैठे
उठ के एक बेवफा ने दे दी जान
रह गए सारे बावफा बैठे
हश्र का दिन अभी है दूर खुमार
आप क्यूं जाहिदों में जा बैठे
खुमार बाराबंकवी
jai_bhardwaj
12-04-2013, 08:33 PM
वो नहीं मेरा मगर उससे मुहब्बत है तो है
ये अगर रस्मों, रिवाज़ों से बग़ावत है तो है
सच को मैंने सच कहा, जब कह दिया तो कह दिया
अब ज़माने की नज़र में ये हिमाकत है तो है
कब कहा मैंने कि वो मिल जाये मुझको, मैं उसे
गर न हो जाये वो बस इतनी हसरत है तो है
जल गया परवाना तो शम्मा की इसमें क्या ख़ता
रात भर जलना-जलाना उसकी किस्मत है तो है
दोस्त बन कर दुश्मनों- सा वो सताता है मुझे
फिर भी उस ज़ालिम पे मरना अपनी फ़ितरत है तो है
jai_bhardwaj
12-04-2013, 08:43 PM
बस एक बार दस्तक तो दो- मैं सुन लूँगा,
सुर्ख होठों को एक हरकत तो दो- मैं सुन लूँगा !
जिन्दगी से एक शिकायत सी है- धुल जायेगी,
मन में एक गाँठ सी है- खुल जायेगी।
अपनी पलकों को एक जुम्बिश तो दो- मैं सुन लूँगा,
सुर्ख होठों को एक हरकत तो दो- मैं सुन लूँगा !
थमा थमा सा एक मंजर है- उतर कर देखो,
जमा सा शोख एक पहर है- संवर कर देखो।
ये दो आँखें तुम्हारा आईना बनने तो दो- मैं सुन लूँगा,
सुर्ख होठों को एक हरकत तो दो- मैं सुन लूँगा !
आपके कदमो की आहट है- यकीं है,
कोई शुबहा, ना भरम है- यकीं है।
आती हुई हवाओं को बस छू तो दो- मैं सुन लूँगा,
सुर्ख होठों को एक हरकत तो दो- मैं सुन लूँगा !
rajnish manga
15-04-2013, 10:38 PM
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ
(कवि: नूर मोहम्मद ‘नूर’)
दूर - दर्शनी सुब्ह है, दूर – दर्शनी शाम
लिखने पढ़ने का हुआ घर घर काम तमाम
इक रिमोट दस हाथ हैं, मचा हुआ कुहराम
घर - घर बच्चे लड़ रहे देवासुर संग्राम
सब विषयों में हो गया मुख्य विषय संगीत
घर घर बच्चे गा रहे विज्ञापन का गीत
बच्चे ज्ञानी हो रहे टी वी का परताप
चिंता में फिर भी दिखें हरदम ही माँ बाप
टी वी के संग नाश्ता टी वी के संग लंच
सब सदस्य इस गाँव के टी वी है सरपंच
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोय
टी वी का दो आखरा पढे सो पंडित होय
रोयें सर पर हाथ रख, भूगोलो इतिहास
टी वी ऐसा रच रहा बच्चों में परिहास
दोहे चकनाचूर क्यों गज़लें लहू लुहान
सोचे टी वी देख कर ग़ालिब का दीवान
दोहे तो दोहे हुए या’नी रस की खान
नीरस दोहे देख कर हैरत में रसखान
क्या ग़ज़लें-दोहे रचें नूर मुहम्मद ‘नूर’
घन घन गरजे हर घड़ी टी वी का तम्बूर.
(साभार: शेष / जनवरी-मार्च 2007)
jai_bhardwaj
17-04-2013, 08:14 PM
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ
(कवि: नूर मोहम्मद ‘नूर’)
दूर - दर्शनी सुब्ह है, दूर – दर्शनी शाम
लिखने पढ़ने का हुआ घर घर काम तमाम
इक रिमोट दस हाथ हैं, मचा हुआ कुहराम
घर - घर बच्चे लड़ रहे देवासुर संग्राम
सब विषयों में हो गया मुख्य विषय संगीत
घर घर बच्चे गा रहे विज्ञापन का गीत
बच्चे ज्ञानी हो रहे टी वी का परताप
चिंता में फिर भी दिखें हरदम ही माँ बाप
टी वी के संग नाश्ता टी वी के संग लंच
सब सदस्य इस गाँव के टी वी है सरपंच
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ पंडित भया न कोय
टी वी का दो आखरा पढे सो पंडित होय
रोयें सर पर हाथ रख, भूगोलो इतिहास
टी वी ऐसा रच रहा बच्चों में परिहास
दोहे चकनाचूर क्यों गज़लें लहू लुहान
सोचे टी वी देख कर ग़ालिब का दीवान
दोहे तो दोहे हुए या’नी रस की खान
नीरस दोहे देख कर हैरत में रसखान
क्या ग़ज़लें-दोहे रचें नूर मुहम्मद ‘नूर’
घन घन गरजे हर घड़ी टी वी का तम्बूर.
(साभार: शेष / जनवरी-मार्च 2007)
आकर्षक प्रस्तुति बन्धु ..........आभार
jai_bhardwaj
17-04-2013, 08:15 PM
सवेरे के बाद शाम हो गई,
यूं ही चलते-चलते,
आराम के बाद थकान हो गई,
यूं ही चलते-चलते,
.......................................
.......................................
शरीर कह रहा अब बस,
बहुत हुआ खेल,
जवानी के सुखों का भाग,
बुढ़ापा रहा झेल,
.....................................
.....................................
बुझा चेहरा मंद मुस्कान हो गई,
यूं ही चलते-चलते,
सुनहरी कभी, जिंदगी वीरान हो गई,
यूं ही चलते-चलते,
....................................
....................................
मैं उदास हूं, सिर चौखट से लगाए,
उजाला खो गया,
चादर ओढ़ जर्जरता की,
इंसान सो गया,
.................................
.................................
कभी बहती थी धारा, आज सूनसान हुई,
यूं ही चलते-चलते,
देख बुढ़ापा, जवानी हैरान हुई,
यूं ही चलते-चलते।
rajnish manga
18-04-2013, 10:47 AM
एक ग़ज़ल
गुलों में रंग न खुशबू, गरूर फिर भी है
नशे में रूप के वो चूर - चूर फिर भी है.
रंगे हैं हाथ गुनाहों से आज तक लेकिन
शहर में नाम तुम्हारा हुज़ूर फिर भी है.
उसे भले ही डकैती का गुर नहीं मालूम
गिरहकटी का उसे कुछ शऊर फिर भी है.
नई बहू तो हज़ारों में एक है लेकिन
नज़र में सास के वो बेशऊर फिर भी है.
कटेगी उम्र हवाओं का रुख बदलने में
बुझे चराग़ तो मेरा कसूर फिर भी है.
वो राम नाम जपेंगे और ये पढेंगे नमाज़
मगर दिमाग में उनके फितूर फिर भी है.
(कवि: राम अवध विश्वकर्मा)
jai_bhardwaj
18-04-2013, 08:23 PM
मानसिक द्वंद्व को प्रतिबिंबित करती हुयी इस ग़ज़ल की प्रस्तुतिकरण के लिए आपका हार्दिक अभिनन्दन है बन्धु रजनीश जी।
jai_bhardwaj
01-05-2013, 09:09 PM
मानवता का दीप जले फिर
ऐसा ही कुछ काम कर चलो
जग मे फैल रहा अन्धियारा
भाईयों मे हो रहा बँटवारा
आओ प्रीत यहाँ फैलाये
जाति धर्म भले मिट जाये
रीत प्रीत की चले यहाँ फिर
ऐसा ही कुछ काम कर चलो
भय, भूख और भ्रष्टाचार
चारो तरफ है अत्याचार
रक्त-पिपासु बनते जा रहे
मानवता को खोते जा रहे
आपस मे युँ प्रेम जगे फिर
ऐसा ही कुछ काम कर चलो
अपनी खातिर जंग कर रहे
आबरू-इज्जत भंग कर रहे
मासूमो को कहाँ छुपाए
अपनी व्यथा को किसे सुनाए
जीने की उम्मीद जगे फिर
ऐसा ही कुछ काम कर चलो
हैवानों के रूह दहल उठे
फूलों पे शमशीर जब उठे
चौराहे पर उसकी सजा हो
शांति की हर ओर ध्वजा हो
चैन की सांसे हर कोई ले फिर
ऐसा ही कुछ काम कर चलो
नाते-रिश्ते टूट जाये सब
अपने-पराये भूल जाये सब
प्रेम यहाँ है और रहेगा
इसके बिना कोई जी न सकेगा
इंसानो को बस याद रखे फिर
ऐसा ही कुछ काम कर चलो
हर ओर सिपाही जाग जाये अब
प्रेम के दुश्मन भाग जाये अब
दरिन्दो की अब खैर नही है
एक है हम सब गैर नही है
दुश्मन के सिर उठे नही फिर
ऐसा ही कुछ काम कर चलो
उस हैवानो से लड़ना होगा
कदम मिलाकर चलना होगा
प्रेम के दीप जलाये फिर से
सत्य धर्म फैलाये फिर से
कोशिश होगी कामयाब फिर
ऐसा ही कुछ काम कर चलो
- भगवान बाबु
jai_bhardwaj
03-05-2013, 08:18 PM
कुछ ख्वाहिशों के पंख मुझे भी दे दो
इस डूबते हुए तिनके को सहरा दे दो
कोई मेरी डूबती को कश्ती किनारा दे दो
मुझे भी कोई पतवार और माझी भी दे दो
कुछ ख्वाहिशो के पंख मुझे भी दे दो
मै नन्हें पैरों से कितनी दूर चल पाऊंगा
गिरते , उठते कब तक संभल पाऊंगा
कोई थामने वाले हाथ मुझे भी दे दो
कोई अपना साया और साथ भी दे दो
कुछ ख्वाहिशो के पंख मुझे भी दे दो ……
आस्मां को देखकर कब तक सो जाउगा
तारो मै कब तक अपनों को देखता जाउगा
कुछ परियो के कहानिया मुझे भी दे दो
टूटा तारो वाली किस्मत मुझे भी दे दो
कुछ ख्वाहिशो के पंख मुझे भी दे दो
(extracted from internet)
jai_bhardwaj
04-05-2013, 07:21 PM
आँखें खोलो गांधारी
भयावह है-
यह ओढ़ा हुआ अँधेरा
दिशाहीन भटक रही
इसमें सन्तति तुम्हारी
आँखें खोलो गांधारी
निहारो अपने
नौनिहालों को
संभालो -
कि डगमगाते हैं
उनके कदम
आँखें खोलो गांधारी
ताकि उनको
बहका न सके
कोई शकुनि
ताकि कोई सुयोधन
न बने दुर्योधन
ताकि कोई सुशासन
बने नहीं दुःशासन
आँखें खोलो गांधारी
तेजस्वी है तुम्हारी दृष्टि
बाँहों में भर लो रोशनी
जगमगा दो अखिल समष्टि
तुम्हारी ही आँखें
दिखा सकती हैं -
अंधे धृतराष्ट्र को राह
खोल सकती हैं
अंध- हृदय की गाठें
कुंठित अंतस में
भर सकती हैं उछाह
आँखें खोलो गांधारी
हर लो
इस अंध- युग
की अन्धता
ताकि हो न सके
कोई चीरहरण
जीती रहे संवेदना
न मूल्यों का
हो क्षरण
आँखें खोलो गांधारी
तुम्हारी यह दीठ
पल भर में
देह को कर
सकती है वज्र
आँखें खोलो गांधारी
जगाओ युग चेतना
समग्र
लाक्षागृह का धुंवा
या अभिमन्यु की कराह हो
मत करो अनदेखा -
जब सुलगती डाह हो
आँखें खोलो गांधारी
रोक लो
संबंधों की महाभारत
ताकि
दांव पर न लगे
किसी द्रौपदी
की अस्मत
आँखें खोलो गांधारी
भयावह है-
यह ओढ़ा हुआ अँधेरा
धुंध में डूबी निशा
मांगे अब नया सवेरा
-vinita shukla
jai_bhardwaj
04-05-2013, 08:14 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=27059&stc=1&d=1367680429
हौसला है गर तुझ में तो उसको इस तरह आजमा लेना
रोता हो गर कोई अंजान भी तो दामन अपना थमा देना
गूंजती है किसीके दिल में अरमानो की शहनाई
वो नहीं उसका जारा ये सच्चाई उसे बता देना
सियासतदाँ ने बेच दी है आबरू मुल्क की
खुदा हर घर में भगत, जैसी औलादें देना
नापाक इरादे है सीमा पे दुश्मनों के
बेटो के सिर पर कफ़न फिर सजा देना
गुमान बहुत है और है बहुत वो मगरूर भी
कोई तो उसको सच का आइना दिखा देना
-DIVYA
jai_bhardwaj
07-05-2013, 07:36 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=27122&stc=1&d=1367937343
बातें तो हजारों हैं मिलूं भी तो कहूँ क्या
ये सोच रहा हूँ कि उसे खत में लिखूँ क्या
आवारगी-ए-शौक़ से सड़कों पे नहीं हूँ
हालात से मजबूर हूँ मैं और करूं क्या
करते थे बोहत साज़ और आवाज़ की बातें
अब इल्म हुआ हमको कि है सोज़-ए-दुरूं क्या
मरना है तो सुकरात की मानिंद पियूं ज़हर
इन रंग बदलते हुए चेहरों पे मरूं क्या
फितरत भी है बेबाक सदाकत का नशा भी
हर बात पे खामोश रहूं, कुछ न कहूँ क्या
जिस घर में न हो ताजा हवाओं का गुज़र भी
उस घर की फसीलों में भला क़ैद रहूं क्या
मुरझा ही गया दिल का कँवल धूप में 'आरिफ'
खुश्बू की तरह इस के ख्यालों में बसूँ क्या
jai_bhardwaj
07-05-2013, 07:38 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=27123&stc=1&d=1367937497
ज़मीन से खला की तरफ जाउंगा
वहां से खुदा की तरफ जाउंगा
बुखारा-ओ-बग़दाद-ओ-बसरा के बाद
किसी कर्बला की तरफ जाउंगा
चमन से बुलावा बोहत है मगर
मैं दश्त-ए-बला की तरफ जाउंगा
चमकता दमकता नगर छोड़ कर
फिर उस बे-वफ़ा की तरफ जाउंगा
रफ़ाक़तों की राहों मैं कुछ भी नहीं
यहाँ से जफा की तरफ जाउंगा
अगर मैं न आगाज़ में मर गया
तो फिर इन्तेहा की तरफ जाउंगा
jai_bhardwaj
07-05-2013, 07:42 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=27124&stc=1&d=1367937708
आलाम-ए-रोज़गार को आसां बना दिया
जो गम हुआ, उसे ग़म-ए-जानाँ बना दिया
मैं कामयाब-ए-दीद भी, महरूम-ए-दीद भी
जलवों के अज्दहाम ने हैराँ बना दिया
यूं मुस्कुराए, जान सी कलियों में पड़ गयी
यूं लब कुशा हुए, कि गुलिस्ताँ बना दिया
ऐ शेख! वोह बसीत हकीकत है कुफ्र की
कुछ क़ैद-ओ-रस्म ने जिसे ईमाँ बना दिया
वोह शोरिशें, निजाम-ए-जहां जिन के दम से है
जब मुख़्तसर किया उन्हें इन्सां बना दिया
हम उस निगाह-ए-नाज़ को समझे थे नेशतर
तुमने तो मुस्कुरा के रग-ए-जाँ बना दिया
jai_bhardwaj
07-05-2013, 07:44 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=27125&stc=1&d=1367937848
अब ये मेयार-ए-शहरयारी है
कौन कितना बड़ा मदारी है
हमने रोशन चिराग़ कर तो दिया
अब हवाओं की जिम्मेदारी है
उम्र भर सर बुलंद रखता है
ये जो अंदाज़-ए-इन्क्सारी है
सिर्फ बाहर नहीं मुहाज़ खुला
मेरे अन्दर भी जंग जारी है
एक मुसलसल सफ़र में रखता है
ये जो अंदाज़-ए-ताज़ाकारी है
मिट रही है यहाँ ज़बान-ओ-ग़ज़ल
और ग़ालिब का जश्न जारी है
jai_bhardwaj
07-05-2013, 07:46 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=27126&stc=1&d=1367937954
जलवा दिखलाये जो वोह खुद अपनी खुद-आराई का
नूर जल जाये अभी चश्म-ए-तमाशाई का
रंग हर फूल में है हुस्न-ए-खुद आराई का
चमन-ए-दहर है महज़र तेरी यकताई का
अपने मरकज़ की तरफ माएल-ए-परवाज़ था हुस्न
भूलता ही नहीं आलम तेरी अंगडाई का
देख कर नज़्म-ए-दो-आलम हमें कहना ही पड़ा
यह सलीका है किसे अंजुमन आराई का
गुल जो गुलज़ार में हैं गोश-बर-आवाज़ अजीज़
मुझसे बुलबुल ने लिया तर्ज़ यह शैवाई का
jai_bhardwaj
07-05-2013, 07:50 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=27127&stc=1&d=1367938182
प्रेम में पगी
हिरनी सी आँखें ,
ठिठक जाती हैं
देख कर ,
उसकी आँखों में
एक हिंसक पशु ,
वासना की देहरी पर ,
दम तोड़ देती है
उसकी चाहत ,
आभास होते ही
हकीकत का,
जुटाती है
भर पूर शक्ति ,
लेकिन काली
बनते बनते भी ,
रह जाती है ,
मात्र एक
ठंडी औरत ।
rajnish manga
07-05-2013, 10:57 PM
ज़मीन से खला की तरफ जाउंगा
वहां से खुदा की तरफ जाउंगा
बुखारा-ओ-बग़दाद-ओ-बसरा के बाद
किसी कर्बला की तरफ जाउंगा
अगर मैं न आगाज़ में मर गया
तो फिर इन्तेहा की तरफ जाउंगा
हमने रोशन चिराग़ कर तो दिया
अब हवाओं की जिम्मेदारी है
सिर्फ बाहर नहीं मुहाज़ खुला
मेरे अन्दर भी जंग जारी है
मिट रही है यहाँ ज़बान-ओ-ग़ज़ल
और ग़ालिब का जश्न जारी है
:hello:बहुत सुन्दर, धन्यवाद जय जी.
jai_bhardwaj
08-05-2013, 07:39 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=27169&stc=1&d=1368023903
छोडो मेहँदी खडक संभालो
खुद ही अपना चीर बचा लो
द्यूत बिछाये बैठे शकुनि,
मस्तक सब बिक जायेंगे
सुनो द्रोपदी शस्त्र उठालो, अब गोविंद ना आयेंगे|
कब तक आस लगाओगी तुम,
बिक़े हुए अखबारों से,
कैसी रक्षा मांग रही हो
दुशासन दरबारों से|
स्वयं जो लज्जा हीन पड़े हैं
वे क्या लाज बचायेंगे
सुनो द्रोपदी शस्त्र उठालो अब गोविंद ना आयंगे|
कल तक केवल अँधा राजा,
अब गूंगा बहरा भी है
होठ सी दिए हैं जनता के,
कानों पर पहरा भी है|
तुम ही कहो ये अश्रु तुम्हारे,
किसको क्या समझायेंगे?
सुनो द्रोपदी शस्त्र उठालो, अब गोविंद ना आयंगे|
-पुष्यमित्र उपाध्याय
jai_bhardwaj
20-05-2013, 08:46 PM
फ़िर उदासी तुम्हें घेर बैठी न हो,
शाम से ही रहा मैं बहुत अनमना।
पूछना हूं स्वयं से कि मैं कौन हूं
किसलिये था मुखर किसलिये मौन हूं
प्रश्न का कोई उत्तर तो आया नहीं,
नीड़ एक आ गया सामने अधबना।
फ़िर उदासी तुम्हें घेर बैठी न हो,
शाम से ही रहा मैं बहुत अनमना।
चित्र उभरे कई किंतु गुम हो गये,
मैं जहां था वहां तुम ही तुम हो गये,
लौट आने की कोशिश बहुत की मगर,
याद से हो गया आमना-सामना।
फ़िर उदासी तुम्हें घेर बैठी न हो,
शाम से ही रहा मैं बहुत अनमना।
पंक्तियां कुछ लिखी पत्र के रूप में,
क्या पता क्या कहा, उसके प्रारूप में,
चाहता तो ये था सिर्फ़ इतना लिखूं
मैं तुम्हें बांच लूं, तुम मुझे बांचना।
फिर उदासी तुम्हें घेर बैठी न हो,
शाम से ही रहा मैं बहुत अनमना।
-अंसार कंबरी
jai_bhardwaj
20-05-2013, 08:59 PM
मरने में मरने वाला ही नहीं मरता
उसके साथ मरते हैं
बहुत सारे लोग
थोड़ा-थोड़ा!
जैसे रोशनी के साथ
मरता है थोड़ा अंधेरा।
जैसे बादल के साथ
मरता है थोड़ा आकाश।
जैसे जल के साथ
मरती है थोड़ी सी प्यास।
जैसे आंसुओं के साथ
मरती है थोड़ी से आग भी।
जैसे समुद्र के साथ
मरती है थोड़ी धरती।
जैसे शून्य के साथ
मरती है थोड़ी सी हवा।
उसी तरह
जीवन के साथ
थोड़ा-बहुत मृत्यु भी
मरती है।
इसीलिये मृत्य
जिजीविषा से
बहुत डरती है।
डा.कन्हैयालाल नंदन
jai_bhardwaj
03-06-2013, 08:27 PM
कितना ही बे-किनार समंदर हो, फिर भी दोस्त
रहता है बे-करार नदी के मिलाप को
पहले तो मेरी याद से आई हया उन्हें
फिर आईने में चूम लिया अपने आपको
अश्कों की एक नहर थी जो खुश्क हो गयी
क्यूँ कर मिटाऊँ दिल से तेरे गम की छाप को
तारीफ़ क्या हो कामत-ए-दिलदार की शकेब
तज्सीम कर दिया है किसी ने अलाप को
-शकेब जलाली
jai_bhardwaj
06-06-2013, 06:10 PM
अपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझको
Lyricist: Qateel Shifai
Singer: Jagjeet Singh
अपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझको
मैं हूँ तेरा तो नसीब अपना बना ले मुझको।
मुझसे तू पूछने आया है वफ़ा के माने
ये तेरी सादा-दिली मार ना डाले मुझको।
ख़ुद को मैं बाँट ना डालूँ कहीं दामन-दामन
कर दिया तूने अगर मेरे हवाले मुझको।
बादाह फिर बादाह है मैं ज़हर भी पी जाऊँ ‘क़तील’
शर्त ये है कोई बाहों में सम्भाले मुझको।
–
बादाह = Wine, Spirits
jai_bhardwaj
06-06-2013, 06:11 PM
Lyrics: Ahmed Faraz
Singer: Ghulam Ali
ऐसे चुप है कि ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसे,
तेरा मिलना भी जुदाई की घड़ी हो जैसे।
अपने ही साये से हर गाम लरज़ जाता हूँ,
रास्ते में कोई दीवार खड़ी हो जैसे।
कितने नादाँ हैं तेरे भूलने वाले कि तुझे
याद करने के लिए उम्र पड़ी हो जैसे।
मंज़िलें दूर भी हैं, मंज़िलें नज़दीक भी हैं,
अपने ही पाँवों में ज़ंजीर पड़ी हो जैसे।
आज दिल खोल के रोए हैं तो यों खुश हैं ‘फ़राज़’
चंद लमहों की ये राहत भी बड़ी हो जैसे।
–
गाम = Step
लरज़ = Shake
jai_bhardwaj
06-06-2013, 06:12 PM
Lyrics: Allama Iqbal
Singer: Ghulam Ali
कोई समझाए ये क्या रंग है मैख़ाने का
आँख साकी की उठे नाम हो पैमाने का।
गर्मी-ए-शमा का अफ़साना सुनाने वालों
रक्स देखा नहीं तुमने अभी परवाने का।
चश्म-ए-साकी मुझे हर गाम पे याद आती है,
रास्ता भूल न जाऊँ कहीं मैख़ाने का।
अब तो हर शाम गुज़रती है उसी कूचे में
ये नतीजा हुआ ना से तेरे समझाने का।
मंज़िल-ए-ग़म से गुज़रना तो है आसाँ ‘इक़बाल’
इश्क है नाम ख़ुद अपने से गुज़र जाने का।
-
रक्स = Dance
चश्म = Eye
गाम = Step
jai_bhardwaj
06-06-2013, 06:12 PM
Lyrics: Dagh Dehalvi
Singer: Ghulam Ali
पुकारती है ख़ामोशी मेरी फुगाँ की तरह
निग़ाहें कहती हैं सब राज़-ए-दिल जबाँ की तरह।
जला के दाग़-ए-मोहब्बत ने दिल को ख़ाक किया
बहार आई मेरे बाग़ में खिज़ाँ की तरह।
तलाश-ए-यार में छोड़ी न सरज़मीं कोई,
हमारे पाँवों में चक्कर है आसमाँ की तरह।
छुड़ा दे कैद से ऐ कैद हम असीरों को
लगा दे आग चमन में भी आशियाँ की तरह।
हम अपने ज़ोफ़ के सदके बिठा दिया ऐसा
हिले ना दर से तेरे संग-ए-आसताँ की तरह।
-
फुगाँ = Cry of Distress
असीर = Prisoner
ज़ोफ़ = Weakness
संग = Stone
आसताँ = Threshold
jai_bhardwaj
06-06-2013, 06:13 PM
Lyrics: Adam
Singer: Ghulam Ali
साकी शराब ला कि तबीयत उदास है
मुतरिब रबाब उठा कि तबीयत उदास है।
चुभती है कल वो जाम-ए-सितारों की रोशनी
ऐ चाँद डूब जा कि तबीयत उदास है।
शायद तेरे लबों की चटक से हो जी बहाल
ऐ दोस्त मुसकुरा कि तबीयत उदास है।
है हुस्न का फ़ुसूँ भी इलाज-ए-फ़सुर्दगी।
रुख़ से नक़ाब उठा कि तबीयत उदास है।
मैंने कभी ये ज़िद तो नहीं की पर आज शब
ऐ महजबीं न जा कि तबीयत उदास है।
-
मुतरिब = Singer
फ़ुसूँ = Magic
फ़सुर्दगी = Disappointment
jai_bhardwaj
06-06-2013, 06:18 PM
Singer: Ghulam Ali
गली-गली तेरी याद बिछी है, प्यार रस्ता देख के चल
मुझसे इतनी वहशत है तो मेरी हदों से से दूर निकल।
एक समय तेरा फूल-सा नाज़ुक हाथ था मेरे शानों पर
एक ये वक़्त कि मैं तनहा और दुख के काँटों का जंगल।
याद है अब तक तुझसे बिछड़ने की वो अँधेरी शाम मुझे
तू ख़ामोश खड़ा था लेकिन बातें करता था काजल।
मेरा मुँह क्या देख रहा है, देख उस काली रात तो देख
मैं वही तेरा हमराही हूँ, साथ मेरे चलना है तो चल।
jai_bhardwaj
06-06-2013, 06:18 PM
Singer: Ghulam Ali
हमको किसके ग़म ने मारा, ये कहानी फिर सही
किसने तोड़ा दिल हमारा, ये कहानी फिर सही।
दिल के लुटने का सबब पूछो न सबके सामने
नाम आएगा तुम्हारा, ये कहानी फिर सही।
नफ़रतों के तीर खाकर दोस्तों के शहर में
हमने किस-किस को पुकारा, ये कहानी फिर सही।
क्या बताएँ प्यार की बाज़ी वफ़ा की राह में
कौन जीता कौन हारा, ये कहानी फिर सही।
jai_bhardwaj
06-06-2013, 06:19 PM
Lyrics: Arun Makhmoor
Singer: Raj Kumar Rizvi
वो किसी का हो गया है, उसको क्यों कर ढूँढ़िये?
दिल से आज जो गया है, उसको क्यों कर ढूँढ़िये?
ज़िन्दग़ी सीम आब है कब हाथ आई है भला
मिल के भी जो खो गया है उसको क्यों कर ढूँढ़िये?
प्यार की ख़ातिर जो रोया ज़िन्दग़ी की शाम तक
ले के नफ़रत से गया है उसको क्यों कर ढूँढ़िये?
ढूँढ़कर लाया था दुनिया भर की खुशियाँ जो कभी
ढूँढ़ने ख़ुद को गया है उसको क्यों कर ढूँढ़िये?
ढूँढ़िये ‘मख़मूर’ उसको जो कहीं दुनिया में हो
दिल की तह तक जो गया है उसको क्यों कर ढूँढ़िये?
–
jai_bhardwaj
06-06-2013, 06:19 PM
मिल मिल के बिछड़ने का मज़ा क्यों नहीं देते?
हर बार कोई ज़ख़्म नया क्यों नहीं देते?
ये रात, ये तनहाई, ये सुनसान दरीचे
चुपके से मुझे आके सदा क्यों नहीं देते।
है जान से प्यारा मुझे ये दर्द-ए-मोहब्बत
कब मैंने कहा तुमसे दवा क्यों नहीं देते।
गर अपना समझते हो तो फिर दिल में जगह दो
हूँ ग़ैर तो महफ़िल से उठा क्यों नहीं देते।
–
jai_bhardwaj
06-06-2013, 06:19 PM
हवा का ज़ोर भी काफ़ी बहाना होता है
अगर चिराग किसी को जलाना होता है।
ज़ुबानी दाग़ बहुत लोग करते रहते हैं,
जुनूँ के काम को कर के दिखाना होता है।
हमारे शहर में ये कौन अजनबी आया
कि रोज़ _____ सफ़र पे रवाना होता है।
कि तू भी याद नहीं आता ये तो होना था
गए दिनों को सभी को भुलाना होता है।
jai_bhardwaj
06-06-2013, 06:20 PM
Lyrics: Mirza Ghalib
Singer: 1. Ghulam Ali 2. Jagjit Singh – Chaitra Singh
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है?
तुम ही कहो कि ये अंदाज़-ए-ग़ुफ़्तगू क्या है?
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है? (Jagjit Singh)
जो आँख ही से न टपके तो फिर लहू क्या है? (Ghulam Ali)
चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन
हमारी जेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है?
जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा,
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है?
रही ना ताक़त-ए-गुफ़्तार और हो भी
तो किस उम्मीद पे कहिए कि आरज़ू क्या है?
–
ग़ुफ़्तगू = Conversation
अंदाज़-ए-ग़ुफ़्तगू = Style of Conversation
पैराहन = Shirt, Robe, Clothe
हाजत-ए-रफ़ू = Need of mending
(हाजत = Need)
गुफ़्तार = Conversation
ताक़त-ए-गुफ़्तार = Strength for Conversation
jai_bhardwaj
06-06-2013, 06:21 PM
Lyrics: Mirza Ghalib
Singer: Jagjit Singh
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया है मेरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे।
होता है निहाँ गर्द में सहरा मेरे होते
घिसता है जबीं ख़ाक पे दरिया मेरे आगे।
मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तेरे पीछे
तू देख कि क्या रंग है तेरा मेरे आगे।
ईमान मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ़्र
काबा मेरे पीछे है कलीसा मेरे आगे।
गो हाथ को जुम्बिश नहीं आँखों में तो दम है
रहने दो अभी सागर-ओ-मीना मेरे आगे।
–
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल = Children’s Playground
शब-ओ-रोज़ = Night and Day
निहाँ = निहान = Hidden, Buried, Latent
जबीं = जबीन = Brow, Forehead
कुफ़्र = Infidelity, Profanity, Impiety
कलीसा = Church
जुम्बिश = Movement, Vibration
सागर = Wine Goblet, Ocean, Wine-Glass, Wine-Cup
मीना = Wine Decanter, Container
jai_bhardwaj
06-06-2013, 06:22 PM
Lyrics: Hasrat Jaipuri
Singer : Hussain Brothers
मुसाफ़िर हैं हम तो चले जा रहे हैं बड़ा ही सुहाना ग़ज़ल का सफ़र है।
पता पूछते हो तो इतना पता है हमारा ठिकाना गुलाबी नगर है।
ग़ज़ल ही हमारा अनोखा जहाँ है ग़ज़ल प्यार की वो हसीं दासताँ है।
इसे जो भी सुनता है, वो झूमता है वो जादू है इसमें कुछ ऐसा असर है।
ना कोई थकन है, न कोई ख़लिश है मोहब्बत की जाने ये कैसी कशिश है।
जिसे देखिए वो चला जा रहा है, जहान-ए-ग़ज़ल की सुहानी डगर है।
वली, मीर, मोमिन ने इसको निखारा जिगर, दाग़, ग़ालिब ने इसको सँवारा।
इसे मोसिक़ी ने गले से लगाया ग़ज़ल आज दुनिया के पेश-ए-नज़र है।
यही है हमारा ताल्लुक़ ग़ज़ल से हम इसके लिए ये हमारे लिए है।
ये अपनी कहानी ज़माने में ‘हसरत’ सभी को पता है, सभी को ख़बर है।
jai_bhardwaj
06-06-2013, 06:22 PM
Lyrics: Hasti
Singer: Jagjit Singh
प्यार का पहला ख़त लिखने में वक़्त तो लगता है
नये परिन्दों को उड़ने में वक़्त तो लगता है।
जिस्म की बात नहीं थी उनके दिल तक जाना था,
लम्बी दूरी तय करने में वक़्त तो लगता है।
गाँठ अगर पड़ जाए तो फिर रिश्ते हों या डोरी,
लाख करें कोशिश खुलने में वक़्त तो लगता है।
हमने इलाज-ए-ज़ख़्म-ए-दिल तो ढूँढ़ लिया है,
गहरे ज़ख़्मों को भरने में वक़्त तो लगता है।
jai_bhardwaj
06-06-2013, 06:23 PM
Lyrics: Nida Fazli
Singer: Jagjit Singh
अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं,
रुख हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं।
पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है,
अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं।
वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से
किसको मालूम कहाँ के हैं, किधर के हम हैं।
चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब
सोचते रहते हैं किस राहग़ुज़र के हम हैं।
rajnish manga
07-06-2013, 12:26 AM
जय जी, आपके इस सूत्र की प्रशंसा हेतु मेरे पास यथेष्ट शब्द नहीं हैं. फिर भी चार पंक्तियों में अपने विचार रखना चाहता हूँ:
इस शेरो-सुखन की महफ़िल में कहीं पे कोई कमीं नहीं,
सब की सब हैं अदब की बानी किसे कहें कि जमी नहीं,
अतुलनीय सौन्दर्य यहाँ जो देख चुका वो कह सकता है,
इन ग़ज़लों नज्मों गीतों में जो रंग मिला वो कहीं नहीं.
jai_bhardwaj
07-06-2013, 08:23 PM
जय जी, आपके इस सूत्र की प्रशंसा हेतु मेरे पास यथेष्ट शब्द नहीं हैं. फिर भी चार पंक्तियों में अपने विचार रखना चाहता हूँ:
इस शेरो-सुखन की महफ़िल में कहीं पे कोई कमीं नहीं,
सब की सब हैं अदब की बानी किसे कहें कि जमी नहीं,
अतुलनीय सौन्दर्य यहाँ जो देख चुका वो कह सकता है,
इन ग़ज़लों नज्मों गीतों में जो रंग मिला वो कहीं नहीं.
आपका बहुत बहुत आभार बन्धु ... धन्यवाद। कृपया सूत्र पर दिव्य दृष्टि डालते रहां करें।
jai_bhardwaj
10-06-2013, 07:44 PM
Lyrics: Mirza Ghalib
Singer: Jagjit Singh
उनके देखे से जो आ जाती है मुँह पे रौनक
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है।
देखिए पाते हैं उशशाक़ बुतों से क्या फ़ैज़
इक बराह्मन ने कहा है कि ये साल अच्छा है।
हमको मालूम है जन्नत की हक़ीकत लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़याल अच्छा है।
jai_bhardwaj
03-07-2013, 08:57 PM
Lyrics By: अहमद फ़राज़
Performed By: मेहदी हसन
Taal: दादरा
रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिये आ
अब तक दिल-ए-खुशफ़हम को हैं तुझ से उम्मीदें
ये आखिरी शम्में भी बुझाने के लिये आ
इक उम्र से हूँ लज्ज़त-ए-गिरया से भी महरूम
ऐ राहत-ए-जां मुझको रुलाने के लिये आ
कुछ तो मेरे पिन्दार-ए-मोहब्बत का भरम रख
तू भी तो कभी मुझ को मनाने के लिये आ
माना के मोहब्बत का छुपाना है मोहब्बत
चुपके से किसी रोज़ जताने के लिए आ
जैसे तुम्हें आते हैं ना आने के बहाने
ऐसे ही किसी रोज़ न जाने के लिए आ
पहले से मरासिम ना सही फिर भी कभी तो
रस्म-ओ-रहे दुनिया ही निभाने के लिये आ
किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम
तू मुझ से खफा है तो ज़माने के लिये आ
jai_bhardwaj
03-07-2013, 08:58 PM
Movie/Album : हिमालय की गोद में (1965)
Music By : कल्याणजी आनंदजी
Lyrics By : आनंद बक्षी
Performed By : मुकेश
चाँद सी महबूबा हो मेरी, कब ऐसा मैंने सोचा था
हाँ तुम बिल्कुल वैसी हो, जैसा मैंने सोचा था
ना कसमें हैं ना रस्में हैं, ना शिकवे हैं ना वादे हैं
एक सूरत भोली भाली है, दो नैना सीधे साधे हैं
ऐसा ही रूप ख्यालों में था, ऐसा मैंने सोचा था
मेरी खुशियाँ ही ना बांटे, मेरे गम भी सहना चाहे
देखे ना ख्वाब वो महलों के, मेरे दिल में रहना चाहे
इस दुनिया में कौन था ऐसा, जैसा मैंने सोचा था
jai_bhardwaj
03-07-2013, 08:58 PM
Movie/Album: सिलसिला (1981)
Music By: हरिप्रसाद चौरसिया / शिव कुमार शर्मा
Lyrics By: राजिंदर क्रिशन, जावेद अख्तर, डॉ. हरिवंश राय बच्चन
Performed By: किशोर कुमार / लता मंगेशकर
देखा एक ख्वाब तो ये सिलसिले हुए
दूर तक निगाहों में हैं गुल खिले हुए
ये गिला है आपकी निगाहों से
फूल भी हो दरमियान तो फासले हुए
मेरी साँसों में बसी खुशबू तेरी
ये तेरे प्यार की है जादूगरी
तेरी आवाज़ है हवाओं में
प्यार का रंग है फिजाओं
धडकनों में तेरे गीत हैं मिले हुए
क्या कहूँ की शर्म से हैं लब सिले हुए
देखा एक ख्वाब तो...
मेरा दिल है तेरी पनाहों में
आ छुपा लूँ तुझे मैं बाहों में
तेरी तस्वीर है निगाहों में
दूर तक रौशनी है राहों में
कल अगर ना रौशनी के काफिले हुए
प्यार के हज़ार दीप हैं जले हुए
देखा एक ख्वाब तो
jai_bhardwaj
06-07-2013, 09:07 PM
बीते हुए कल की स्मृतियाँ ....
इश्क सादा भी था बेखुद भी जुनूं पेशा भी
हुस्न को अपनी अदाओं पे हिजाब आता था
फूल खिलते थे तो फूलों में नशा होता था
रात ढलती थी तो शीशों पे शबाब आता था
jai_bhardwaj
07-07-2013, 07:19 PM
गली-गली तेरी याद बिछी है, प्यार रस्ता देख के चल
मुझसे इतनी वहशत है तो मेरी हदों से से दूर निकल।
एक समय तेरा फूल-सा नाज़ुक हाथ था मेरे शानों पर
एक ये वक़्त कि मैं तनहा और दुख के काँटों का जंगल।
याद है अब तक तुझसे बिछड़ने की वो अँधेरी शाम मुझे
तू ख़ामोश खड़ा था लेकिन बातें करता था काजल।
मेरा मुँह क्या देख रहा है, देख उस काली रात तो देख
मैं वही तेरा हमराही हूँ, साथ मेरे चलना है तो चल।
jai_bhardwaj
07-07-2013, 07:35 PM
चाँद सितारों से क्या पूछूँ, कब दिन मेरे फिरते हैं
वो तो बिचारे खुद हैं भिखारी, डेरे डेरे फिरते हैं
जिन गलियों में हमने सुख की सेज पे रातें काटी थीं
उन गलियों में व्याकुल होकर सांझ सवेरे फिरते हैं
रूप-स्वरूप की जोत जगाना इस नगरी में जोखिम है
चारो खूंट बगूले बन कर घोर अँधेरे फिरते हैं
(चारो खूंट = चारो ओर, बगूले = आँधी-अंधड़)
जिनके शाम-बदन साए में मेरा मन सुस्ताया था
अब तक आँखों के आगे वो बाल घनेरे फिरते हैं
(शाम-बदन = घनी काली)
कोइ हमें भी यह समझा तो उन पर दिल क्यों रीझ गया
तीखी चितवन बाँकी छवि वाले बहुतेरे फिरते हैं
इस नगरी में बाग़ और वन की यारो लीला न्यारी है
पंछी अपने सर पे उठाकर अपने बसेरे फिरते हैं
लोग तो दामन सी लेते हैं जैसे भी हो जी लेते हैं
'आबिद' हम तो दीवाने हैं जो बाल बिखेरे फिरते हैं
rajnish manga
11-07-2013, 10:12 AM
चाँद सितारों से क्या पूछूँ, कब दिन मेरे फिरते हैं
वो तो बिचारे खुद हैं भिखारी, डेरे डेरे फिरते हैं
जिन गलियों में हमने सुख की सेज पे रातें काटी थीं
उन गलियों में व्याकुल होकर सांझ सवेरे फिरते हैं
गज़ब की अभिव्यक्ति है इस पूरी ग़ज़ल में. इस उत्कृष्ट ग़ज़ल को फोरम पर प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद.
jai_bhardwaj
11-07-2013, 07:44 PM
चाँद सितारों से क्या पूछूँ, कब दिन मेरे फिरते हैं
वो तो बिचारे खुद हैं भिखारी, डेरे डेरे फिरते हैं
जिन गलियों में हमने सुख की सेज पे रातें काटी थीं
उन गलियों में व्याकुल होकर सांझ सवेरे फिरते हैं
गज़ब की अभिव्यक्ति है इस पूरी ग़ज़ल में. इस उत्कृष्ट ग़ज़ल को फोरम पर प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद.
बहुत बहुत आभार बन्धु ।
jai_bhardwaj
11-07-2013, 07:52 PM
अब दो आलम से सदा-ए-साज़ आती है मुझे
दिल की आहट से तेरी आवाज़ आती है मुझे
या समात का भरम है या किसी नग्मे की गुन
इक पहचानी हुयी आवाज़ आती है मुझे
किसने खोला है हवा में गेसुओं को नाज़ से
नर्म रौ बरसात की आवाज़ आती है मुझे
उसकी नाज़ुक उँगलियों को देख कर अक्सर 'अदम'
एक हल्की सी सदा ए साज़ आती है मुझे
sombirnaamdev
11-07-2013, 07:56 PM
Very very very very very.................good unbetable poem weldone jai bhardwaj ji
jai_bhardwaj
11-07-2013, 08:04 PM
जो लोग जानबूझ कर नादान बन गए
मेरा ख़याल है कि वो इंसान बन गए
हम हशर में गए मगर कुछ ना पूछिए
वो जानबूझ कर वहां अनजान बन गए
हँसते हैं हम को देख कर अर्बाबेआगही१
हम आपकी मज़ाक के पहचान बन गए
मझधार तक पँहुचना तो हिम्मत की बात है
साहिल के आस पास ही तूफ़ान बन गए
इंसानियत की बात तो इतनी है शेख जी
बद-किस्मती से आप भी इंसान बन गए
काँटे बहुत थे दामनेफितरत में ऐ 'अदम'
कुछ फूल और कुछ मेरे अरमान बन गए
(१) - पढ़े-लिखे लोग
jai_bhardwaj
11-07-2013, 08:07 PM
very very very very very.................good unbetable poem weldone jai bhardwaj ji
हृदय से अपार आभार बन्धु।
rajnish manga
12-07-2013, 08:50 AM
जो लोग जानबूझ कर नादान बन गए
मेरा ख़याल है कि वो इंसान बन गए
हम हशर में गए मगर कुछ ना पूछिए
वो जानबूझ कर वहां अनजान बन गए
हँसते हैं हम को देख कर अर्बाबेआगही१
हम आपकी मज़ाक के पहचान बन गए
मझधार तक पँहुचना तो हिम्मत की बात है
साहिल के आस पास ही तूफ़ान बन गए
इंसानियत की बात तो इतनी है शेख जी
बद-किस्मती से आप भी इंसान बन गए
काँटे बहुत थे दामनेफितरत में ऐ 'अदम'
कुछ फूल और कुछ मेरे अरमान बन गए
(१) - पढ़े-लिखे लोग
- जनाब अब्दुल हमीद 'अदम' की इस उम्दा ग़ज़ल को शेयर करने के लिए धन्यवाद, जय जी.
jai_bhardwaj
12-07-2013, 07:33 PM
बहुत बहुत आभार रजनीश जी, इसी कड़ी में एक और प्रस्तुत है ...
क्षमा करें बन्धु! कुछ शाब्दिक त्रुटि संभव है एवं उर्दू के शब्दों के अर्थ भी अप्राप्य हैं।
मयकदा था, चांदनी थी, मैं न था
इक मुजस्सम बेखुदी थी, मैं न था
इश्क जब दम तोड़ता था, तुम न थे
मौत जब सर धुन रही थी, मैं न था
तूर पर छेड़ा था जिसने आप को
वो मेरी दीवानगी थी, मैं न था
मयकदे के मोड़ पर रुकती हुयी
मुद्दतों की तश्नगी थी, मैं न था
मैं और उस गुंचादहां की आरजू
आरजू की सादगी थी,मैं न था
गेसुओं के साए में आरामकश
सर-बरहना ज़िन्दगी थी, मैं न था
दैर-ओ-काबा में "अदम" हैरत-फरोश
दो जहां की बद्जनी थी, मैं न था
rajnish manga
12-07-2013, 09:10 PM
मयकदा था, चांदनी थी, मैं न था
इक मुजस्सम बेखुदी थी, मैं न था
इश्क जब दम तोड़ता था, तुम न थे
मौत जब सर धुन रही थी, मैं न था
तूर पर छेड़ा था जिसने आप को
वो मेरी दीवानगी थी, मैं न था
मयकदे के मोड़ पर रुकती हुयी
मुद्दतों की तश्नगी थी, मैं न था
मैं और उस गुंचादहां की आरजू
आरजू की सादगी थी,मैं न था
गेसुओं के साए में आरामकश
सर-बरहना ज़िन्दगी थी, मैं न था
दैर-ओ-काबा में "अदम" हैरत-फरोश
दो जहां की बद्जनी थी, मैं न था
एक और स्तरीय प्रस्तुति. ग़ज़लों के चयन में आपकी पैनी दृष्टि के दर्शन होते हैं, जिसके लिए हम आपके आभारी हैं, जय जी.
इस ग़ज़ल का एक वीडियो भी कुछ वर्ष पहले देखने का सौभाग्य मिला था जिसमे पंजाब के एक कलाकार ने अपनी पुरसोज़ आवाज़ में प्रभावशाली प्रस्तुति दी थी.
jai_bhardwaj
19-07-2013, 07:56 PM
रजनीश जी, आपके उत्साहवर्धन से ग़ज़ल को उचित सम्मान मिला ... आभार बन्धु। इसी क्रम में इसी शायर का एक और कलाम प्रस्तुत है ...........
अपनी जुल्फों को सितारों के हवाले कर दो
शहर ए गुल बादागुसारों के हवाले कर दो
(बादागुसारों = शराब पीने वालों)
तल्खी ए होश हो या मस्ती ए इदराक ए जुनूं
आज हर चीज बहारों के हवाले कर दो
(तल्खी ए होश = सच्चाई की कडवाहट । मस्ती ए इदराक ए जुनूं = दिमाग के पागलपन की मस्ती)
मुझको यारो ना करो रहनुमाओं के सुपुर्द
मुझको तुम राह-गुजारों के हवाले कर दो
जागने वालों का तूफ़ान से कर दो रिश्ता
सोने वालों को किनारों के हवाले कर दो
मेरी तौबा का बजा है यही एजाज़ 'अदम'
मेरा सागर मेरे यारों के हवाले कर दो
(बजा = उचित । एजाज़=सम्मान । सागर=शराब का प्याला)
jai_bhardwaj
20-07-2013, 08:01 PM
फूलों की टहनियों पे नशेमन बनाईये
बिजली गिरे तो जश्ने चरागां मनाइये
(जश्ने चरागां = प्रकाश-उत्सव/दीवाली)
कलियों के अंग अंग में मीठा सा दर्द है
बीमार निकहतों को ज़रा गुदगुदाइये
(निकहतों = खुशबुओं)
कब से सुलग रही है जवानी की गरम रात
जुल्फें बिखेर कर मेरे पहलू में आइये
बहकी हुयी सियाह घटाओं के साथ साथ
जी चाहता है शामे अबद तक तो जाइये
(शामे अबद = अंतहीन शाम)
सुन कर जिसे हवास में ठंडक सी आ बसे
ऐसी कोई उदास कहानी सुनाइये
(हवास = दिमाग)
रस्ते पे हर कदम पे खराबात " अदम"
ये हाल हो तो किस तरह दामन बचाइये
(खराबात = शराब की दूकाने)
jai_bhardwaj
22-07-2013, 08:18 PM
होंठों पे कभी उनके मेरा नाम ही आये
आये तो सही बर-सरे-इल्जाम ही आये
हैंरान हैं लब-बस्ता हैं दिलगीर हैं गुंचे
खुशबू की ज़ुबानी तेरा पैगाम ही आये
लम्हाते मसर्रत हैं तसव्वुर से गुरेजां
याद आये है जब भी गमो आलाम ही आये
तारों से सजा लेंगे राहे शहरे तमन्ना
मकदूर नहीं सुबह चलो शाम ही आये
यादों के वफाओं के अकीदों के ग़मों के
काम आये तो इस दुनिया में तो इस नाम ही आये
क्या राह बदलने का गिला हमसफरों से
जिस राह से चले तेरे दरोबाम ही आये
थक हार कर बैठे हैं सरे कू ए तमन्ना
काम आये तो फिर ज़ज्बा ए नाकाम ही आये
बाकी न रहे साख 'अदा' दश्ते जुनूं की
दिल में अगर अंदेशा ए अंजाम ही आये
-अदा बदायुनी
jai_bhardwaj
22-07-2013, 08:33 PM
शायद अभी है राख में कोई शरार भी
क्यों वरना इंतज़ार भी है इज्तिरार भी
(शरार = चिंगारी । इज्तिरार = बेचैनी)
ध्यान आ गया है मर्ग ए दिल ए नामुराद का
मिलने को मिल गया है सुकूं भी करार भी
( मर्ग ए दिल ए नामुराद = नाकाम दिल की मौत । सुकूं = आराम । करार = तसल्ली)
अब ढूँढने चले हो मुसाफिर को दोस्तों
हद ए निगाह तक न रहा जब गुबार भी
(हद ए निगाह = जहाँ तक दिखाई पड़ता हो । गुबार = उडती हुयी धूल)
हर आस्तां पे नासिया फरसा हैं आज वो
जो कल न कर सके थे तेरा इन्तिज़ार भी
(आस्तां = श्रद्धा और विश्वास का स्थान (मंदिर/मस्जिद/गुरुद्वारा आदि)। नासिया फरसा = माथा रगड़ना (प्रार्थना/दंडवत प्रणाम करना)
इक राह रुक गयी तो ठिठक क्यों गयी 'अदा'
आबाद बस्तियां हैं पहाड़ों के पार भी
-अदा जाफरी
jai_bhardwaj
22-07-2013, 08:45 PM
न गुबार में न गुलाब में मुझे देखना
मेरे दर्द की आबओताब में मुझे देखना
किसी वक्त शाम मलाल में मुझे सोचना
कभी अपने दिल की किताब में मुझे देखना
किसी धुन में तुम भी जो बस्तियों को त्याग दो
इसे राहे खाना खराब में मुझे देखना
किसी रात माहोनुजूम से मुझे पूछना
कभी अपनी चश्म पुर आब में मुझे देखना
इसी दिल से होकर गुजर गए कई कारवां
की हिज्रतों के जाब में मुझे देखना
मैं न मिल सकूं भी तो क्या हुआ कि फ़साना हूँ
नयी दास्तां नए बाब में मुझे देखना
मेरे खार खार सवाल में मुझे ढूँढना
मेरे गीत में मेरे ख्वाब में मुझे देखना
मेरे आंसुओं ने बुझाई थी मेरी तश्नगी
इसी बर्ग-जीदा सहाब में मुझे देखना
वही एक लम्हा दीद था कि रुका रहा
मेरे रोजो शब् के हिसाब में मुझे देखना
जो तड़प तुझे किसी आईने में न मिल सके
तो फिर आईने के जवाब में मुझे देखना
-अदा जाफरी
rajnish manga
22-07-2013, 10:27 PM
बहुत अच्छा चयन है अदा जाफ़री साहिबा के कलाम से. बतौरे-खास कुछ शेर उल्लेखनीय हैं:
होंठों पे कभी उनके मेरा नाम ही आये
आये तो सही बर-सरे-इल्जाम ही आये
ध्यान आ गया है मर्ग ए दिल ए नामुराद का
मिलने को मिल गया है सुकूं भी करार भी
मेरे आंसुओं ने बुझाई थी मेरी तश्नगी
इसी बर्ग-जीदा सहाब में मुझे देखना
rajnish manga
22-07-2013, 10:55 PM
होंठों पे कभी उनके मेरा नाम ही आये
आये तो सही बर-सरे-इल्जाम ही आये
हैंरान हैं लब-बस्ता हैं दिलगीर हैं गुंचे
खुशबू की ज़ुबानी तेरा पैगाम ही आये
लम्हाते मसर्रत हैं तसव्वुर से गुरेजां
याद आये है जब भी गमो आलाम ही आये
तारों से सजा लेंगे राहे शहरे तमन्ना
मकदूर नहीं सुबह चलो शाम ही आये
यादों के वफाओं के अकीदों के ग़मों के
काम आये तो इस दुनिया में तो इस नाम ही आये
क्या राह बदलने का गिला हमसफरों से
जिस राह से चले तेरे दरोबाम ही आये
थक हार कर बैठे हैं सरे कू ए तमन्ना
काम आये तो फिर ज़ज्बा ए नाकाम ही आये
बाकी न रहे साख 'अदा' दश्ते जुनूं की
दिल में अगर अंदेशा ए अंजाम ही आये
-अदा बदायुनी
Taaron se saja lenge raah-e-sheher-e-tamanna
Maqdoor nahi subha chalo shaam hi aye
Kya raah badalne ka gila humsafaron se
Jis rah se chale tere dar-o-baam hi aye
क्षमा करें, इन दो अश'आर के बीच का शेर कुछ शब्दों की वजह से हटा हुआ लग रहा है.
जय जी, बहुत दिन हुए, मैंने यह ग़ज़ल पाकिस्तान के विख्यात गायक उस्ताद अमानत अली खां साहब की आवाज में सुनी थी, जिसके सुरीले बोल आज तक मेरे कानों में गूँज रहे हैं. आज आपने पुनः उसकी याद दिला दी. आपका आभारी हूँ. आज दोबारा सुन रहा हूँ. सदस्यों की सुविधा के लिए youtube का एड्रेस नीचे दी रहा हूँ:
https://www.youtube.com/watch?v=bexqI6wj5CU
jai_bhardwaj
23-07-2013, 07:53 PM
taaron se saja lenge raah-e-sheher-e-tamanna
maqdoor nahi subha chalo shaam hi aye
kya raah badalne ka gila humsafaron se
jis rah se chale tere dar-o-baam hi aye
क्षमा करें, इन दो अश'आर के बीच का शेर कुछ शब्दों की वजह से हटा हुआ लग रहा है.
जय जी, बहुत दिन हुए, मैंने यह ग़ज़ल पाकिस्तान के विख्यात गायक उस्ताद अमानत अली खां साहब की आवाज में सुनी थी, जिसके सुरीले बोल आज तक मेरे कानों में गूँज रहे हैं. आज आपने पुनः उसकी याद दिला दी. आपका आभारी हूँ. आज दोबारा सुन रहा हूँ. सदस्यों की सुविधा के लिए youtube का एड्रेस नीचे दी रहा हूँ:
https://www.youtube.com/watch?v=bexqi6wj5cu
बन्धु, आपकी इस प्रविष्टि ने सूत्र को न केवल नवीन पंख दिए हैं बल्कि सूत्रधार को ऊर्जा से लबालब भर दिया है। बारम्बार आभार।
jai_bhardwaj
23-07-2013, 08:17 PM
आख़िरी टीस आजमाने को
जी तो चाहा था मुस्कुराने को
याद इतनी भी सख्त जान तो नहीं
इक घरौंदा रहा है ढहाने को
संग-रेजों में ढल गए आँसू
लोग हँसते रहे दिखाने को
ज़ख्मे नगमा भी लौ तो देता है
एक दिया रह गया जलाने को
जलने वाले तो जल बुझे आखिर
कौन देता खबर ज़माने को
कितने मजबूर हो गए होंगे
अनकही बात मुँह पे लाने को
खुल के हँसना तो सबको आता है
लोग तरसते रहे इक बहाने को
रेज़ा रेज़ा बिखर गया इंसा
दिल की वीरानियाँ जताने को
हसरतों की पनाहगाहों में
क्या ठिकाने हैं सर छुपाने को
हाथ काँटों से कर लिए ज़ख़्मी
फूल बालों में एक सजाने को
आस की बात हो कि साँस 'अदा'
ये खिलौने हैं टूट जाने को
-अदा जाफरी
jai_bhardwaj
23-07-2013, 08:26 PM
हर एक हर्फ़ ए आरज़ू को दास्ताँ किये हुए
ज़माना हो गया है उनको मेहमां किये हुए
सुरुरे ऐश तल्खी ए हयात ने भुला दिया
दिले हाजीं है बेकसी को हिजरे जां किये हुए
कली कली को गुलिस्तां किये हुए वो आयेंगे
वो आयेंगे कली कली को गुलिस्तां किये हुए
सुकूने दिल की राहतों को उन से मांग लूँ
सुकूने दिल की राहतों को बेकरां किये हुए
वो आयेंगे तो आयेंगे जुनूने शौक उभारने
वो जायेंगे तो जायेंगे तबाहियाँ किये हुए
मैं उनकी भी निगाह से छुपा के उन को देख लूं
कि उनसे भी है आज रश्क बदगुमां किये हुए
-अदा जाफरी
jai_bhardwaj
23-07-2013, 08:38 PM
इक खलिश को हासिल ए उम्र ए रवां रहने दिया
जान कर हमने उन्हें ना मेहरबां रहने दिया
कितनी दीवारों के साए हाथ फैलाते हैं
इश्क ने लेकिन हमें बेख्वानमां रहने दिया
अपने अपने हौसले अपनी तलब की बात है
चुन लिया हमने उन्हें सारा जहां रहने दिया
ये भी क्या जीने में जीना है बगैर उनके "अदीब"
शमा गुल कर दी गयी बाकी धुआं रहने दिया
-अदीब सहारनपुरी
bindujain
23-07-2013, 09:55 PM
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीं तो कहीं आस्माँ नहीं मिलता
बुझा सका ह भला कौन वक़्त के शोले
ये ऐसी आग है जिसमें धुआँ नहीं मिलता
तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो
जहाँ उमीद हो सकी वहाँ नहीं मिलता
कहाँ चिराग़ जलायें कहाँ गुलाब रखें
छतें तो मिलती हैं लेकिन मकाँ नहीं मिलता
ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं
ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलता
चिराग़ जलते ही बीनाई बुझने लगती है
खुद अपने घर में ही घर का निशाँ नहीं मिलता
rajnish manga
23-07-2013, 10:57 PM
अदा जाफ़री साहिबा और ‘अदीब’ सहारनपुरी के कलाम ने बहुत मुतास्सिर किया. नीचे उनके कुछ शे’र उद्धृत कर रहा हूँ, वैसे तो सारी ग़ज़लें ही दिल पर असर करती हैं:
कितने मजबूर हो गए होंगे
अनकही बात मुँह पे लाने को
रेज़ा रेज़ा बिखर गया इंसा
दिल की वीरानियाँ जताने को
हसरतों की पनाहगाहों में
क्या ठिकाने हैं सर छुपाने को
**
कली कली को गुलिस्तां किये हुए वो आयेंगे
वो आयेंगे कली कली को गुलिस्तां किये हुए
मैं उनकी भी निगाह से छुपा के उन को देख लूं
कि उनसे भी है आज रश्क बदगुमां किये हुए
**
इक खलिश को हासिल ए उम्र ए रवां रहने दिया
जान कर हमने उन्हें ना मेहरबां रहने दिया
अपने अपने हौसले अपनी तलब की बात है
चुन लिया हमने उन्हें सारा जहां रहने दिया
ये भी क्या जीने में जीना है बगैर उनके "अदीब"
शमा गुल कर दी गयी बाकी धुआं रहने दिया
bindujain
24-07-2013, 06:46 AM
हस्तीमल ’हस्ती’
तुम क्या आना जाना भूले
हम तो हँसना- हँसाना भूले
एक तार क्या तोडा़ तुमने
सारा ताना-बाना भूले
तुमने ही ये बाग़ लगाया
तुम ही फूल खिलाना भूले
हमसे भूल हुई क्या बोलो
क्या तुमको लौटाना भूले
एक तुम्हें ही भूल ना पाये
वरना हम क्या-क्या ना भूले
jai_bhardwaj
25-07-2013, 07:41 PM
मुझे विश्वास है कि शब्दों की परख रखने एवं गजलों को पसंद करने वाले लोगों को नीचे प्रस्तुत की जा रही तीन गजलों के हर एक अशआर पर शायर के लिए दिल से वाह वाह अवश्य निकलेगी ...
(1)
कट ही गयी जुदाई भी, कब यूं हुआ कि मर गए
तेरे भी दिन गुज़र गए, मेरे भी दिन गुज़र गए
तू भी कुछ और और है, हम भी कुछ और और हैं
जाने वो तू किधर गया, जाने वो हम किधर गए
राहो में ही मिले थे हम, राहें नसीब बन गयीं
तू भी न अपने घर गया, हम भी न अपने घर गए
वो भी गुबारे ख़ाक था, हम भी गुबारे ख़ाक थे
वो भी कहीं बिखर गया, हम भी कही बिखर गए
कोई किनारे आब जू, बैठा हुआ है सर निगूं
कश्ती किधर चली गयी,जाने किधर भंवर गए
तेरे लिए चले थे हम, तेरे लिए ठहर गए
तूने कहा तो जी उठे, तूने कहा तो मर गए
वक्त ही कुछ जुदाई का इतना तवील हो गया
दिल में तेरे फिराक के, जितने थे ज़ख्म भर गए
बारिशे वस्ल वो हुयी, सारा गुबार धुल गया
वो भी निखर निखर गया, हम भी निखर निखर गए
इतने करीब हो गए, इतने रकीब हो गए
वो भी अदीम डर गया, हम भी 'अदीम' डर गए
-अदीम हाशमी
jai_bhardwaj
25-07-2013, 07:43 PM
(2)
फासले ऐसे भी होंगे, ये कभी सोचा न था
सामने बैठा था मेरे, और वह मेरा न था
वो कि खुशबू की तरह, फैला था मेरे चार सू
मैं उसे महसूस कर सकता था, छू सकता न था
रात भर उसकी ही आहट, कान में आती रही
झाँक कर देखा गली में, कोई भी आया न था
अक्स तो मौजूद थे, पर अक्स तन्हाई के थे
आइना तो था मगर, उसमे तेरा चेहरा न था
आज उसने दर्द भी, अपने अलहदा कर दिए
आज मैं रोया तो मेरे, साथ वो रोया नहीं
ये सभी वीरानियाँ, उसके जुदा होने से थीं
आँख धुंधलाई हुयी थी, शहर धुन्धलाया न था
याद करके और भी, तकलीफ होती थी 'अदीम'
भूल जाने के सिवा अब, कोई भी चारा न था
-अदीम हाशमी
jai_bhardwaj
25-07-2013, 07:44 PM
(3)
दिल अजब गुम्बद कि जिसमे, इक कबूतर भी नहीं
इतना वीरां तो मुर्दारों का मुकद्दर भी नहीं
(मुर्दार = मरे हुए लोग)
डूबती जाती हैं मिट्टी में बदन की कश्तियाँ
देखने में ये जमीं कोई समंदर भी नहीं
जितने हंगामे थे, सूखी टहनियों से झड गए
पेड़ पर फल भी नहीं, आँगन में पत्थर भी नहीं
खुश्क टहनी पर परिंदा है कि है पत्ता कोई
आशियाना भी नहीं, जिसका कोई पर भी नहीं
जितनी प्यारी हैं मेरी धरती जो जंजीरे 'अदीम'
इतना प्यारा तो किसी दुल्हन को जेवर भी नहीं
-अदीम हाशमी
rajnish manga
25-07-2013, 11:27 PM
'अदीम' हाशमी साहब के कलाम से रू-ब-रू होने का यह मेरा पहला ही अवसर है, जिसके लिए मैं आपको धन्यवाद देता हूँ, जय जी. तीनों ही ग़ज़लें नये मिज़ाज और भाषाई प्रयोग एवं तेवर प्रस्तुत करती हैं. इसके बावजूद भाषा की सादगी अभिव्यक्ति की गहराई दिल को छू लेने वाली है. यूं तो तीनों ग़ज़लें ही शुरू से अंत तक प्रभावशाली हैं, फिर भी निम्नलिखित शे'र विशेष रूप से उद्धृत करने से स्वयं को नहीं रोक पाऊंगा:
राहो में ही मिले थे हम, राहें नसीब बन गयीं
तू भी न अपने घर गया, हम भी न अपने घर गए
वो भी गुबारे ख़ाक था, हम भी गुबारे ख़ाक थे
वो भी कहीं बिखर गया, हम भी कही बिखर गए
**
फासले ऐसे भी होंगे, ये कभी सोचा न था
सामने बैठा था मेरे, और वह मेरा न था
वो कि खुशबू की तरह, फैला था मेरे चार सू
मैं उसे महसूस कर सकता था, छू सकता न था
रात भर उसकी ही आहट, कान में आती रही
झाँक कर देखा गली में, कोई भी आया न था
दिल अजब गुम्बद कि जिसमे, इक कबूतर भी नहीं
इतना वीरां तो मुर्दारों का मुकद्दर भी नहीं
खुश्क टहनी पर परिंदा है कि है पत्ता कोई
आशियाना भी नहीं, जिसका कोई पर भी नहीं
एक शे'र याद आ रहा है, सो प्रस्तुत है:
तुम राह में चुप चाप खड़े हो तो गये हो
किस किस को बताओगे कि घर क्यों नहीं जाते.
(माफ़ कीजिये आज गूगल क्रोम पर काम कर रहा हूँ जिसने परेशान किया हुआ है- शे'र भी ठीक कलर स्कीम में नहीं आ रहे)
jai_bhardwaj
26-07-2013, 07:56 PM
नीचे कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं किन्तु मैं यह नहीं पा रहा हूँ कि ये काव्य की किस विधा की परिचायक हैं। यदि किसी साहित्यप्रेमी को इस विषय में जानकारी हो तो कृपया यहाँ अवश्य बांटे। आभार।
गजरा बना के ले आ मालनिया
वो आये हैं घर में हमारे
देर ना अब तू लगा
सारा चमन हो जिनका दीवाना
ऐसी कलियाँ चुन के ला
लाली हो जिन में उनके लबों की
उनको पिरो के ले आ
जो भी देखे उनकी सूरत
झुकी झुकी आँखों से प्यार करे
चन्दा जैसा रूप है उन का
आँखों में है रस भरा
-अफशां राणा
jai_bhardwaj
26-07-2013, 08:04 PM
======== ग़ज़ल =========
इस तरह सताया है, परेशान किया है
गोया कि मुहब्बत नहीं अहसान किया है
सोचा था कि तुम दूसरों जैसे नहीं होगे
तुमने भी वही काम, मेरी जान किया है
मुश्किल था बहुत मेरे लिए तर्क ए तअल्लुक
ये काम भी तुमने मेरा आसान किया है
[तर्क ए तअल्लुक=सम्बन्ध विच्छेद]
हर रोज़ सजाते हैं तेरी हिज्र में गुंचे
आँखों को तेरी याद में गुलदान किये हैं
(हिज्र=अलगाव/विछोह। गुंचे=कलियाँ। गुलदान=फूलदान)
-अफजल फिरदौस
jai_bhardwaj
26-07-2013, 08:29 PM
कर्ब के शहर से निकला, तो ये मंज़र देखा
हमको लोगों ने बुलाया, हमें छू कर देखा
[कर्ब=संताप/दुःख/परेशानी]
जब भी चाहा है कि मलबूस ए वफ़ा को छू लें
मिस्ल खुशबू कोई उड़ता हुआ पैकर देखा
[मलबूस=वस्त्र/गहना; मिस्ल=मिसाल/उदाहरण/उपमा; पैकर=रचना/रूप/आकार]
वो बरसात में भीगा तो निगाहें उट्ठी
यूं लगा है कोई तराशा हुआ पत्थर देखा
ज़िन्दगी कितनी परेशां है ये सोचा भी न था
इसके एतराफ में शोलों का समंदर देखा
[एतराफ=चारो तरफ]
आ गयी गम की हवा फिर तेरे गेसू छू कर
हमने वीराना ए दिल फिर से मु'अत्तर देखा
[मु'अत्तर=सुगंध से भरी हुयी]
वो जो उडती है सदा दश्त ए वफ़ा में 'अफज़ल'
उसी मिट्टी में निहां दर्द का गौहर देखा
[दश्त=मरुस्थल; निहां=छुपे हुए/दबे हुए; गौहर=मोती]
-अफजल मिन्हास
jai_bhardwaj
27-07-2013, 06:25 PM
अजनबी खौफ फिजाओं में बसा हो जैसे
सहर का शहर ही आसेबजदा हो जैसे
(आसेबजदा=भयभीत)
रात के पिछले पहर आती हैं आवाजें सी
दूर सहरा में कोई चीख रहा हो जैसे
दर ओ दीवार पे छाई है उदासी ऐसी
आज हर घर से जनाज़ा सा उठा हो जैसे
मुस्कुराता हूँ प ए खातिर ए अहबाद मगर
दुःख तो चेहरे की लकीरों पे बसा हो जैसे
(प ए खातिर ए अहबाद=दोस्त के स्वागत के लिए)
अब अगर डूब गया भी तो न मरूंगा "कमाल"
बहते पानी में मेरा नाम लिखा हो जैसे
-अहमद कमाल
jai_bhardwaj
27-07-2013, 06:36 PM
कोई चेहरा न हुआ रोशन न उजागर आँखें
आइना देख रही थीं मेरी पत्थर आँखें
ले उडी वक्त की आँधी जिन्हें अपने हमराह
आज फिर ढूँढ रही हैं वही मंज़र आँखें
फूट निकली तो कई शहर ए तमन्ना डूबे
एक कतरे को तरसती हुयी बंज़र आँखें
उसको देखा है तो अब शक का वो आलम है
अपने हलकों से निकल आयीं हैं बाहर आँखें
तू निगाहों की जुबां खूब समझता होगा
तेरी जानिब तो उठा करती हैं अक्सर आँखें
लोग मरते न दर ओ बाम से टकरा के कभी
देख लेते जो "कमाल" उसकी समंदर आँखें
-अहमद कमाल
jai_bhardwaj
27-07-2013, 06:45 PM
न जाने आज ये किसका ख़याल आया है
खुशी का रंग लिए हर मलाल आया है
(मलाल = दुःख/पश्चाताप)
वो एक शख्स की हासिल न था जो खुद को भी
मिटा किसी पे तो कैसा बहाल आया है
जुबां पे हर्फ़ ए तलब भी नहीं कोई फिर भी
निगाह ए दोस्त में रंग ए जमाल आया है
(हर्फ़ ए तलब=कामना/इच्छा के शब्द। रंग ए जमाल=क्रोध का रंग)
किया न जिक्र भी जिसका तमाम उम्र कभी
हमारे काम बहुत वो मलाल आया है
नहीं है तुमसे कोई दोस्ती भी अब तो मगर
कदम कदम पे ये कैसा वबाल आया है
(वबाल = परेशानी/तकलीफ)
-अहमद हमदनी
jai_bhardwaj
27-07-2013, 06:59 PM
अब ये होगा शायद अपनी आग में खुद जल जायेंगे
तुम से दूर बहुत रह कर भी क्या पाया क्या पायेंगे
दुःख भी सच्चे सुख भी सच्चे फिर भी तेरी चाहत में
हम ने कितने धोखे खाए कितने धोखे खायेंगे
अक्ल पे हमको नाज़ बहुत था लेकिन ये कब सोचा था
इश्क के हाथों ये भी होगा, लोग हमें समझायेंगे
कल के दुःख भी कौन से बाकी आज के दुःख भी कई दिनों के
जैसे दिन पहले कटते थे, ये दिन भी कट जायेंगे
हम से आबला-पा जब तनहा, घबराएंगे सहरा में
रास्ते सब तेरे ही घर की जानिब को मुड़ जायेंगे
[आबला-पा = छाले पड़े हुए पैर]
आँखों से ओझल होना क्या, दिल से ओझल होना है
मुझसे छुट कर भी अहले गम, क्या तुझ से छुट जायेंगे
-अहमद हमदनी
jai_bhardwaj
27-07-2013, 07:32 PM
कहाँ की गूँज दिल ए नातवाँ में रहती है
कि थरथरी सी अजब जिस्म ओ जां में रहती हैं
[दिल ए नातवां = कमजोर दिल]
मज़ा तो ये है कि वो खुद तो है नए घर में
और उसकी याद पुराने मकां में रहती हैं
अगरचे उससे मेरी बेतकल्लुफी है बहुत
झिझक सी एक मगर दरमियां में रहती है
पता तो फ़स्ले गुलो लाला का नहीं मालूम
सुना है करबो वारे खिजां में रहती है
(फ़स्ले गुलो लाला = वसंत ऋतु। कर्बो वारे खिजां = पतझड़)
मैं कितना भी वहम करूँ लेकिन इक शुआ ए यकीं है
कहीं नवाह ए दिल ए बदगुमां में रहती है
[शुआ ए यकीं = विश्वास की किरण।
नवाह ए दिल ए बदगुमां = एक शक्की दिल के आसपास]
हज़ार जान खपाता रहूँ मगर फिर भी
कमी सी कुछ मेरे तर्ज़ ए बयां में लगती है
(तर्ज़ ए बयां = कहने के ढंग)
-अहमद मुश्ताक
आकाश महेशपुरी
28-07-2013, 07:26 AM
बहुत ही सुन्दर। बधाई।
jai_bhardwaj
01-08-2013, 08:45 PM
अब तक तो नूरो-निकहतो-रंगो-सदा कहूँ
मैं तुझको छू सकूँ तो खुदा जाने क्या कहूँ
लफ़्ज़ों से उनको प्यार है,मज़मून से मुझे
वो गुल कहें जिसे, मैं तेरा नक्शे-पा कहूँ
अब जुस्तजू है तेरी, जफा के जवाज़ की
जी चाहता है तुझ को वफ़ा आशना कहूँ
सिर्फ इसके लिए कि इश्क इसी का ज़हूर है
मैं तेरे हुस्न को भी सबूते-वफ़ा कहूँ
तू चल दिया तो कितने हकाइक बदल गए
नज्मे-सहर को मरकदे-शब् का दिया कहूँ
क्या जब्र है कि बुत को भी कहना पड़े खुदा
वो है खुदा तो मेरे खुदा तुझको क्या कहूँ
जब मेरे मुँह में मेरी जुबां है तो क्यूं न मैं
जो कुछ कहूँ यकीं से कहूँ बरमला कहूँ
क्या जाने किस सफ़र पे रवां हूँ अज़ल से मैं
हर इन्तिहाँ को इक नयी इब्तिदा कहूँ
हो क्यों न मुझको अपने मजाके-सुखन पे नाज़
ग़ालिब को कायनाते-सुखन का खुदा कहूँ
-अहमद नदीम कासमी
jai_bhardwaj
01-08-2013, 08:56 PM
जेहनों में ख़याल उबल रहे हैं
सोचों के अलाव भी जल रहे हैं
दुनिया की गिरफ्त में हैं साए
हम अपना वजूद ढूंढ रहे हैं
अब भूख से कोई क्या मरेगा
मण्डी में ज़मीर बिक रहे हैं
माजी में तो सिर्फ दिल दुखते थे
इस दौर में ज़ेहन भी दुख रहे हैं
सर काटते थे कभी शहंशाह
अब लोग जुबां काट रहे हैं
हम कैसे छुडाएं शब् से दामन
दिन निकला तो साए चल पड़े हैं
लाशों के हुजूम में भी हँस दें
अब ऐसे हौसले भी दिख रहे हैं
-अहमद नदीम कासमी
jai_bhardwaj
01-08-2013, 09:10 PM
गुल तेरा रंग चुरा लाये हैं गुलज़ारों में
जल रहा हूँ भरी बरसात की बौछारों में
मुझसे कतरा के निकल जा मगर ऐ जाने हया
दिल की लौ देख रहा हूँ तेरे रुखसारों में
(रुखसार=गाल)
हुस्ने बेगाना ए एहसासे जमाल अच्छा है
गुंचे खिलते हैं तो बिक जाते हैं बाज़ारों में
ज़िक्र करते हैं तेरा मुझ से बा-उन्वाने जफ़ा
चारागर फूल पिरो लाये हैं तलवारों में
ज़ख्म छुप सकते हैं लेकिन मुझे फन की सौगंध
गम की दौलत भी है शामिल मेरे शाह्कारों में
मुझको नफ़रत से नहीं प्यार से मस्लूब करो
मैं तो शामिल हूँ मोहब्बत के गुनहगारों में
[मस्लूब = त्याग/दूर]
-अहमद नदीम कासमी
jai_bhardwaj
02-08-2013, 06:59 PM
मरुँ तो मैं किसी चेहरे में रंग भर जाऊँ
"नदीम" काश! यही एक काम कर जाऊँ
ये दश्त-ए-तर्क-ए-मोहब्बत ये तेरे कुर्ब की प्यास
जो इजां हो तो तेरी याद से गुज़र जाऊँ
(इजां = इजाजत)
मेरा वजूद मेरी रूह को पुकारता है
तेरी तरफ भी चलूँ तो ठहर ठहर जाऊँ
तेरे जमाल का साया है सभी हसीनों पर
कहाँ कहाँ तुझे ढूढूं किधर किधर जाऊँ
मैं ज़िंदा था कि तेरा इन्तिज़ार ख़त्म न हो
जो तू मिला है तो अब सोचता हूँ मर जाऊँ
ये सोचता हूँ कि मैं बुतपरस्त क्यों न हुआ
तुझे करीब जो पाऊँ तो खुद से डर जाऊँ
किसी चमन में बस इस खौफ से गुज़रना हुआ
किसी कली पे ना भूले से पाँव धर जाऊँ
ये जी में आती है तखलीक-ए-फन के लम्हों में
कि खून बन के रग-ए-संग में उतर जाऊँ
[तखलीक-ए-फन=पत्थर तरासना; रग-ए-संग = संगमरमर के अन्दर]
-अहमद नदीम कासमी
jai_bhardwaj
03-08-2013, 08:47 PM
इक ज़िद्दी-सा ठिठका लम्हा यादों के चौबारे में
अक्सर शोर मचाता है मन के सूने गलियारे में
आता-जाता हर कोई अब देखे मुझको मुड़-मुड़ कर
सूरत तेरी दिखने लगी क्या, तेरे इस बेचारे में ?
बारिश की इक बूँद गिरी जो टप से आकर माथे पर
ऐसा लगा तुम सोच रही हो शायद मेरे बारे में
हौले-हौले लहराता था, उड़ता था दीवाना मैं
रूठ गई हो जब से तो इक सुई चुभी ग़ुब्बारे में
यूँ तो लौट गई थी उस दिन तुम घर के चौखट से ही
ख़ुश्बू एक अभी तक बिखरी है आँगन-ओसारे में
ज़िक्र करे या फ़िक्र करे ये, या फिर तुमको याद करे
कितना मुश्किल हो जाता है दिल को इस बँटवारे में
सुर तो छेड़ा हर धुन पर, हर साज पे गाकर देख लिया
राग मगर अपना पाया बस तेरे ही इकतारे में
{वर्तमान साहित्य के जुलाई 2013 अंक में प्रकाशित }
rajnish manga
04-08-2013, 09:49 PM
बारिश की इक बूँद गिरी जो टप से आकर माथे पर
ऐसा लगा तुम सोच रही हो शायद मेरे बारे में
यूँ तो लौट गई थी उस दिन तुम घर के चौखट से ही
ख़ुश्बू एक अभी तक बिखरी है आँगन-ओसारे में
ज़िक्र करे या फ़िक्र करे ये, या फिर तुमको याद करे
कितना मुश्किल हो जाता है दिल को इस बँटवारे में
बहुत सुन्दर ग़ज़ल है, जय जी. इसे फोरम के सभी सदस्यों के साथ साझा करने के लिये हम आपके आभारी हैं. उपरोक्त पंक्तियाँ विशेष रूप से अपने नयेपन के कारण बहुत प्रभावित करती हैं.
jai_bhardwaj
05-08-2013, 06:19 PM
मैं इसे अवसाद क्यों कहूँ ... इसमें रहने कि लत लग गयी है अब और बेशर्मी से कबूलता हूँ कि अच्छा भी लग रहा है. चौथा दिन है आज, कहने को कुछ भी नहीं बच रहा है. इन सारे पलों में सिर में एक दर्द तारी रहा. जितनी पी सकता था उस हद तक पी पर नशा हावी नहीं हो सका.
मैं कहाँ गया, जा रहा हूँ या जाऊंगा अब यह सब कुछ मायने नहीं रखता. दिमाग में गुंथी हुई मेरी सारी नसें झनझनाती हुई कुछ भी तो नहीं कह रही है.
वो जो मेरे अंदर शायर था इन्हीं गलियों में खो गया है. हाथ में अब बस एक खाली गिलास बची है और देर से सरकती हुई आखिरी बूँद अपनी जीभ पर लेने को आतुर हूँ.
हाथ की लकीरें अब यहाँ से आगे नहीं दिखती. साथ निकली सारी रेखाएं मुख्तलिफ हिस्सों में अकेले-अकेले बढ़ कर तनहा खत्म हो गए.
जिन सवालों को लिए आज मैं मरने वाला हूँ वो परसों भी जिंदा रहेंगी और कल तलक तुम या तो उनका जवाब खोजते रहोगे या फिर तगाफुल ही बेहतर रास्ता होगा.
ओ री दुनिया ! तुम्हें मैं कोई रास्ता बताते नहीं जा रहा हूँ.
अपने मुताल्लिक मैंने तुम्हारा मुस्तकबिल जान लिया है. लोगों ने तो एक शब्द खोज लिया था पलायनवाद पर इसके सिवा रास्ता भी क्या था. मैं कोई बहस नहीं पैदा करना चाहता.
(फिल्मकार गुरुदत्त की स्मृति में )
जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला
हमने तो जब कलियाँ माँगी काँटों का हार मिला
खुशियों की मंज़िल ढूँढी तो ग़म की गर्द मिली
चाहत के नग़मे चाहे तो आहें सर्द मिली
दिल के बोझ को दूना कर गया जो ग़मखार मिला
हमने तो जब...
बिछड़ गया हर साथी देकर पल दो पल का साथ
किसको फ़ुरसत है जो थामे दीवानों का हाथ
हमको अपना साया तक अक्सर बेज़ार मिला
हमने तो जब...
इसको ही जीना कहते हैं तो यूँ ही जी लेंगे
उफ़ न करेंगे लब सी लेंगे आँसू पी लेंगे
ग़म से अब घबराना कैसा, ग़म सौ बार मिला
हमने तो जब...
jai_bhardwaj
05-08-2013, 06:19 PM
(फिल्मकार गुरुदत्त की स्मृति में )
ये कूचे, ये नीलामघर दिलकशी के
ये लुटते हुए कारवाँ ज़िन्दगी के
कहाँ हैं, कहाँ है, मुहाफ़िज़ ख़ुदी के
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं
ये पुरपेच गलियाँ, ये बदनाम बाज़ार
ये ग़ुमनाम राही, ये सिक्कों की झन्कार
ये इस्मत के सौदे, ये सौदों पे तकरार
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं
ये सदियों से बेख्वाब, सहमी सी गलियाँ
ये मसली हुई अधखिली ज़र्द कलियाँ
ये बिकती हुई खोखली रंग-रलियाँ
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं
वो उजले दरीचों में पायल की छन-छन
थकी-हारी साँसों पे तबले की धन-धन
ये बेरूह कमरों में खाँसी की ठन-ठन
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं
ये फूलों के गजरे, ये पीकों के छींटे
ये बेबाक नज़रें, ये गुस्ताख फ़िकरे
ये ढलके बदन और ये बीमार चेहरे
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं
यहाँ पीर भी आ चुके हैं, जवाँ भी
तनोमंद बेटे भी, अब्बा, मियाँ भी
ये बीवी भी है और बहन भी है, माँ भी
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं
मदद चाहती है ये हौवा की बेटी
यशोदा की हमजिंस, राधा की बेटी
पयम्बर की उम्मत, ज़ुलयखां की बेटी
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं
ज़रा मुल्क के रहबरों को बुलाओ
ये कुचे, ये गलियाँ, ये मंजर दिखाओ
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर उनको लाओ
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं
jai_bhardwaj
05-08-2013, 07:10 PM
अशआर मेरे यूँ तो ज़माने के लिए हैं
कुछ शेर फकत उनको सुनाने के लिए हैं
अब ये भी नहीं ठीक के हर दर्द मिटा दे
कुछ दर्द कलेजें से लगाने के लिए हैं
आँखों में जो भर लोगे तो काँटों से चुभेंगे
ये ख्वाब तो पलकों पे सजाने के लिए हैं
देखूँ तेरे हाथों को तो लगता हैं तेरे हाथ
मंदिर फकत दिप जलाने के लिए हैं
सोचो तो बड़ी चीज़ हैं तहज़ीब बदन की
वरना तो बदन आग बुझाने के लिए हैं
ये इल्म का सौदा ये रिसालें ये किताबें
इक शख्स की यादों को भुलाने के लिए हैं
[ जां निसार अख्तर ]
rajnish manga
07-08-2013, 05:42 PM
मैं इसे अवसाद क्यों कहूँ ... इसमें रहने कि लत लग गयी है अब और बेशर्मी से कबूलता हूँ कि अच्छा भी लग रहा है. चौथा दिन है आज, कहने को कुछ भी नहीं बच रहा है. इन सारे पलों में सिर में एक दर्द तारी रहा. जितनी पी सकता था उस हद तक पी पर नशा हावी नहीं हो सका.
मैं कहाँ गया, जा रहा हूँ या जाऊंगा अब यह सब कुछ मायने नहीं रखता. दिमाग में गुंथी हुई मेरी सारी नसें झनझनाती हुई कुछ भी तो नहीं कह रही है.
वो जो मेरे अंदर शायर था इन्हीं गलियों में खो गया है. हाथ में अब बस एक खाली गिलास बची है और देर से सरकती हुई आखिरी बूँद अपनी जीभ पर लेने को आतुर हूँ.
हाथ की लकीरें अब यहाँ से आगे नहीं दिखती. साथ निकली सारी रेखाएं मुख्तलिफ हिस्सों में अकेले-अकेले बढ़ कर तनहा खत्म हो गए.
जिन सवालों को लिए आज मैं मरने वाला हूँ वो परसों भी जिंदा रहेंगी और कल तलक तुम या तो उनका जवाब खोजते रहोगे या फिर तगाफुल ही बेहतर रास्ता होगा.
ओ री दुनिया ! तुम्हें मैं कोई रास्ता बताते नहीं जा रहा हूँ.
अपने मुताल्लिक मैंने तुम्हारा मुस्तकबिल जान लिया है. लोगों ने तो एक शब्द खोज लिया था पलायनवाद पर इसके सिवा रास्ता भी क्या था. मैं कोई बहस नहीं पैदा करना चाहता.
(फिल्मकार गुरुदत्त की स्मृति में )
...
ग़म इस कदर बढ़े के मैं घबरा के पी गया
इस दिल की बेबसी पे तरस खा के पी गया
ठुकरा रहा था मुझको बड़ी देर से जहां
मैं आज इस जहान को ठुकरा के पी गया.
तंग आ चुके हैं कशमकश-ए-जिंदगी से हम
ठुकरा न दी जहां को कहीं बेदिली से हम
(ये उनके शब्द ही नहीं, मेरी श्रद्धांजलि के फूल भी हैं)
jai_bhardwaj
09-08-2013, 06:26 PM
मीना कुमारी के कुछ शे'र
सच
यह तुलसी* कैसी शांत है
और काश्मीर की झीलें
किस किस तरह
उथल पुथल हो जाती हैं
और अल्लाह !
मैं !
*तुलसी - मुंबई से कुछ दूर तुलसी नाम की एक झील है
jai_bhardwaj
09-08-2013, 06:26 PM
लम्हे
कई लम्हे
बरसात की बूंदे हैं
नाकाबिले-गिरफ्त*
सीने पे आकार लगते हैं
और हाथ बढ़ा
की इससे पहले
फिसल कर टूट जाते हैं
*नाकाबिले-गिरफ्त-जो पकड़े न जा सकते हों.
jai_bhardwaj
09-08-2013, 06:31 PM
जिस बरगद की छाँव में बचपन , खुद का बढ़ते देखा मैंने ,
उस बरगद के ऊपर अब एक , उम्र को चढ़ते देखा मैंने ,
पके पकाए आम हैं खाए , अब तक जिसकी मेहनत के ,
कल उससे सूखे मुरझाये , पत्ते झड़ते देखा मैंने ,
में जिनसे रोशन हूँ जिनमें , में सपनों सा रहता हूँ ,
चाँद सी उन आँखों के नीचे , धब्बे पढ़ते देखा मैंने ,
जो शाखों पर थाम मुझे , आकाश दिलाया करता था ,
उसको लाठी हाथ में थामे , धरती से लड़ते देखा मैंने ,
सच अब लगती हैं उसकी वो , बचपन वाली सारी बातें ,
कल मेरी झूठी बातों पर , हामी भरते देखा मैंने ,
रात रात भर जाग के मेरी , पहरेदारी करने वाली ,
बोझिल थकती आँखों में अब , नींद को लगते देखा मैंने ,
ताज नहीं कोई राज नहीं पर फिर भी राजा लगता था ,
बचपन के उस राजा को कल , बाप में ढलते देखा मैंने....
जिस बरगद की छाँव में बचपन , खुद का बढ़ते देखा मैंने ,
उस बरगद के ऊपर अब एक , उम्र को चढ़ते देखा मैंने ,
jai_bhardwaj
09-08-2013, 06:33 PM
छाया तम है घोर , है छायी , नभ में परछाई काली ,
नीर दिखे ना, तीर दिखे , ना दिखती भू की हरियाली ,
समय कहाँ है पास हमारे , घडी बड़ी दुविधा वाली ,
हाथ जोड़ कर , फोड़ पटाखे , मना ही लेंगे दीवाली ,
छप्पन हैं पकवान बने और बनी मिठाई रस वाली ,
राम रखे अल्लाह धर देगा , भूखों के आगे थाली ,
रात ठहर जा तुझको कोई , देगा रोटी कल वाली ,
दिया जले ना तेरा मेरी , पाँच -सितारी दीवाली ,
भाड़ में जाएँ देश वेश सब , भौतिकता हमको प्यारी ,
रहे करोड़ों लोग रोड पर , तान वस्त्रों की दीवारी ,
पर हम क्यूँ कर हाथ हिलाएं , खाएं लोगों की गाली ,
साथ झूम कर , नाच रात bhar , मना ही लेंगे दीवाली ,
देख पड़ा है तेल ये तेरा , रंगोली के रंगों पर ,
और हंस रहा चूल्हा उसका , पेट में होते दंगों पर ,
सुबह सुबह हैं कुत्ते चखते , देख तेरे पकवानों को ,
कौन देखता कचरा खाते , कुत्तों से इंसानों को ,
सच सुनने की क्षमता है तो पी ले ये विष की प्याली ,
जितना मैं हूँ अपराधी , है उतना तू भी अपराधी ,
तेरे मेरे अपराधों से , गयी धरा की खुश-हाली ,
जीवन भर के अपराधों की , ग्लानि भरी है दीवाली .
(उपरोक्त दोनों रचनाएं इन्टरनेट से प्राप्त की गयी हैं। मूल रचनाकार का हार्दिक आभार)
aspundir
10-08-2013, 09:46 PM
गम हो कि खुशी दोनों कुछ दूर के साथी हैं।
फिर रस्ता ही रस्ता है, हंसना है न रोना है॥
घर से निकले तो हो, सोचा भी किधर जाओगे?
हर तरफ तेज हवाएं हैं, बिखर जाओगे॥
पहले भी जिया करते थे, मगर जब से मिली है जिन्दगी।
सीधी नहीं है, दूर तक उलझी हुई है, जिन्दगी॥
जब से करीब हो के चले जिन्दगी से हम।
खुद अपने आईने को लगे अजनबी से हम॥
कुछ तबियत ही मिली थी ऐसी, चैन से जीने की सूरत न हुई।
जिसको चाहा उसे अपना न सके, जो मिला उससे मुहब्बत न हुई॥
दु:ख में नीर बहा देते थे, सुख में हंसने लगते थे।
सीधे-सादे लोग थे, लेकिन कितने अच्छे लगते थे?
दीवारो-दर से उतर के परछाईयां बोलती हैं।
कोई नहीं बोलता, जब तन्हाईयां बोलती हैं॥
यूं तो हर एक बीज की फितरत दरख्त है।
खिलते हैं जिसमें फूल वो आबो-हवा भी हो॥
अब वक्त बचा है कितना, जो और लड़ें दुनिया से।
दुनिया की नसीहत पर भी थोड़ा-सा अमल कर देखें॥
स्रोत : निदा फाजली, ‘‘सफर में धूप तो होगी’’
rajnish manga
10-08-2013, 11:39 PM
ग़ ज़ ल
जीवन पुस्तक फट जाती है कागज़ पीला हो जाता है
आंसू कोई लाख छुपाये, दामन गीला हो जाता है
इंसानों तुम पत्थर दिल हो, मोल नमक का क्या जानो
ये वो ग़म है जिसको खा कर बरतन सीला हो जाता है
दुनिया को समझाया हमने लेकिन खुद अनजान रहे
अपने तन पर अपना कुरता अक्सर ढीला हो जाता है
आईने को घर में रख दो, साथ में ले कर मत घूमो
सच की धूप में रहते रहते चेहरा नीला पड़ जाता है
दिन भर तो हम दोनों मिलकर शक्कर में पानी घोलें
रात आते ही सारा शरबत क्यों ज़हरीला हो जाता है
बच्चों के सच्चे ज़हनों में झूठी बातें मत डालो
काँटों की सोहबत में रह कर फूल नुकीला हो जाता है
चाहे आदम की दुनिया हो चाहे मेरा छोटा सा घर
धीरे - धीरे एक आदमी एक कबीला हो जाता है.
(शायर: शकील आज़मी)
jai_bhardwaj
11-08-2013, 07:07 PM
सूत्र निश्चित ही अपने भाग्य पर इतरा रहा है आज. मंच के दो मूर्धन्य सदस्यों की लेखनी के स्पर्श से स्वयं पर बलि बलि जा रहा है. आभार बन्धुओं।
Dr.Shree Vijay
12-08-2013, 07:01 PM
एक से बढकर एक रचनाएँ सभी मित्रों का हार्दिक धन्यवाद......................
jai_bhardwaj
13-08-2013, 06:05 PM
हाथ में हाथ उनका यूं आया
ज़िन्दगी मेरे हाथ लग गयी हो जैसे
jai_bhardwaj
13-08-2013, 06:07 PM
गो हाथ में जुम्बिश नहीं, आँखों में तो दम है
रहने दो अभी सागर - ओ - मीना मेरे आगे
jai_bhardwaj
13-08-2013, 06:15 PM
कुछ लंतरानियां यूं ही ....बस .. यूं ही तो
इन आँखों में देख कर बता सकता हूँ
मुझसे बिछड़ के तुम अबतक न सोये होगे
ये नैन जिसमे अभी हंसी नज़र आती है
वो नैन तुमने आँसुओं में भिगोये होंगे
ये हाथ जिसमे महकती हैं सुर्खियाँ
इन हाथों से तुमने दर्द छुपाये होंगे
ज़िन्दगी का ये सफ़र अब तनहा ही कटेगा यारा
उदास मैं हूँ तो खुश तुम भी नहीं होगे
गम ये नहीं कि मेरे प्यार पे हँस दिए
गम ये है कि बाद में तुम बहुत रोये होगे
jai_bhardwaj
13-08-2013, 06:18 PM
हमने मुहब्बतों के नशे में आ कर उसे खुदा बना डाला
होश तब आया जब उसने कहा कि खुदा किसी एक का नहीं होता
-ग़ालिब
jai_bhardwaj
13-08-2013, 06:20 PM
तू वो ज़ालिम है जो दिल में रह कर भी मेरा न बन सका "ग़ालिब"
और दिल वो काफिर है जो मुझ में रह कर भी तेरा हो गया
Dr.Shree Vijay
13-08-2013, 06:23 PM
सुंदर............................................. .................
jai_bhardwaj
13-08-2013, 06:25 PM
दुःख दे कर सवाल करते हो
तुम भी "ग़ालिब" कमाल करते हो
देख कर पूछ लिया हाल मेरा
चलो कुछ तो ख़याल करते हो
शहर-ए-दिल में ये उदासियाँ कैसी
ये भी मुझसे सवाल करते हो
मरना चाहें तो मर नहीं सकते
तुम भी जीना मुहाल करते हो
अब किस किस की मिसाल दू तुम को
हर सितम बे-मिसाल करते हो
jai_bhardwaj
13-08-2013, 06:29 PM
ये जो हम हिज्र में दीवारो दर को देखते हैं
कभी सबा को कभी नामाबर को देखते हैं
वो आये घर में हमारे, खुदा की कुदरत है
कभी हम उनको कभी अपने घर को देखते हैं
-ग़ालिब
Dr.Shree Vijay
13-08-2013, 06:29 PM
बेहतरीन........................................... ................
jai_bhardwaj
13-08-2013, 06:32 PM
ये न थी हमारी किस्मत कि विसालेयार होता
अगर और जीते रहते, यही इन्तेजार होता
तेरे वादे पर जिए हम तो ऐ जां! झूठ जाना
कि खुशी से मर न जाते अगर ऐतबार होता
-ग़ालिब
jai_bhardwaj
13-08-2013, 06:36 PM
सुंदर............................................. .................
बेहतरीन........................................... ................
आपकी उत्साहवर्धक प्रविष्टियों से हृदय गदगद हो बन्धु। आभार। आज मुझे 'धन्यवाद' बटन नहीं दिख रही है|
jai_bhardwaj
13-08-2013, 06:39 PM
गैर लें महफ़िल में बोसे जाम के
हम रहें यूँ ताश्ना लब पैगाम के
ख़त लिखेंगे गरचे मतलब कुछ न हो
हम तो आशिक हैं तुम्हारे नाम के
इश्क ने "ग़ालिब" निकम्मा कर दिया
वरना हम भी आदमी थे काम के
Dr.Shree Vijay
13-08-2013, 06:42 PM
आपकी उत्साहवर्धक प्रविष्टियों से हृदय गदगद हो बन्धु। आभार। आज मुझे 'धन्यवाद' बटन नहीं दिख रही है|
मित्र जय जी आभार, आपकी मेहनत और जो रचनाएँ तारीफ के काबिल होती हें उसकी तारीफ ना करना बेइंसाफी होती हें ................................................
jai_bhardwaj
13-08-2013, 06:43 PM
फिर कुछ इस दिल को बे-करारी है
सीना जोया-ए-जख्म-ए-कारी है
फिर हुए हैं गवाह-ए-इश्क तलब
अश्क-बारी का हुक्म-जारी है
बे-खुदी बे-हिसाब नहीं "ग़ालिब"
कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है
jai_bhardwaj
13-08-2013, 06:47 PM
मित्र जय जी आभार, आपकी मेहनत और जो रचनाएँ तारीफ के काबिल होती हें उसकी तारीफ ना करना बेइंसाफी होती हें ................................................
पुनः आभार बन्धु। आज धन्यवाद बटन की जगह कुछ फेसबुक लाइक बटन सी दिख रही है।
jai_bhardwaj
13-08-2013, 06:48 PM
हाथों की लकीरों पर मत जा ऐ ग़ालिब!
नसीब उनका भी होता है जिनके हाथ नहीं होते
Hatim Jawed
13-08-2013, 08:37 PM
हाथों की लकीरों पर मत जा ऐ ग़ालिब!
नसीब उनका भी होता है जिनके हाथ नहीं होते
उत्तम!
jai_bhardwaj
14-08-2013, 05:09 PM
दिल के सुनसान ज़जीरों की खबर लाएगा
दर्द पहलू से जुदा हो कर के कहाँ जाएगा
कौन होता है किसी का शब्-ए-तन्हाई में
गम-ए-फुरकत ही गम-ए-इश्क को बहलायेगा
(शब्-ए-तन्हाई=रात का अकेलापन; गम-ए-फुरकत=वियोग की पीड़ा)
चाँद के पहलू में दम साध के रोती है किरण
आज तारों का फुसूं ख़ाक नज़र आयेगा
(फुसूं = नज़ारा)
राख में आग दबी है गम-ए-महरूमी की
राख हो कर भी ये शोला हमें सुलगायेगा
वक्त खामोश है रूठे हुए यारों की तरह
कौन लौ देते हुए जख्मों को सहलाएगा
धूप को देख के उस जिस्म पे पड़ती है चमक
छाँव देखेंगे तो उस जुल्फ का ध्यान आयेगा
ज़िन्दगी चल कि ज़रा मौत का दमखम देखें
वरना ये जज्बा लहद तक हमें ले जाएगा
(लहद = कब्र)
-अहमद राही
jai_bhardwaj
14-08-2013, 05:22 PM
वक्त-ए-सफ़र करीब है बिस्तर समेट लूँ
बिखरा हुआ हयात का दफ्तर समेट लूँ
(हयात = ज़िन्दगी)
फिर जाने हम मिलें न मिलें इक ज़रा रुको
मैं दिल के आईने में ये मंज़र समेट लूँ
गैरों ने जो सुलूक किया, उन का क्या गिला
फेंके हैं दोस्तों ने जो पत्थर समेट लूँ
कल जाने कैसे होंगे, कहाँ होंगे घर के लोग
आँखों में एक बार भरा घर समेट लूँ
सैल-ए-नज़र भी गम की तमाज़त से खुश्क हो
वो प्यास है मिले तो समंदर समेत लूँ
(सैल-ए-नज़र = आंसुओं का सैलाब ; तमाज़त = गर्मी ; खुश्क = सूखा)
'अजमल' धधक रही है ज़माने में जितनी आग
जी चाहता है सीने के अन्दर समेट लूँ
-अजमल अजमली
jai_bhardwaj
14-08-2013, 05:32 PM
आँखें मुझे तलवों से वो मलने नहीं देते
अरमान मेरे दिल का निकलने नहीं देते
खातिर से तेरी याद को टलने नहीं देते
सच है कि हमीं दिल को संभलने नहीं देते
किस नाज़ से कहते हैं वो झुंझला के शबे-वस्ल
तुम हो तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते
परवानों ने फानूस को देखा तो ये बोले
क्यों हम को जलाते हो कि जलने नहीं देते
हैरान हूँ किस तरह करूँ अर्जे तमन्ना
दुश्मन को तो पहलू से वो टलने नहीं देते
दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज है हर वक्त
हम वो हैं कि कुछ मुँह से निकलने नहीं देते
गरमी-ए-मोहब्बत में वो है आह से माने
पंखा नफस-ए-सर्द का झलने नहीं देते
(माने = बंधे हुए)
- अकबर इलाहाबादी
jai_bhardwaj
14-08-2013, 05:41 PM
रविवार की सुबह से एक किताब हाथ लग गयी और उस पर प्रेम विषय कई तरह से परिभाषित था | कई बाते सही लगी ..कई बकवास क्यों कि आज का युग ..बहुत स्वार्थी युग है ,जहाँ प्रेम एक पल में जन्म लेता है और दूसरे पल अंतिम साँसे गिन रहा होता है :)
एक जगह पढ़ा कि प्यार बुनयादी तौर लेना देना ही है --जिस हद तक तुम दे सकते हो और जिस हद तक मैं ले सकता हूँ। .सच ही तो तो है।
प्रेम को परिभाषित करना मिर्जा ग़ालिब के शब्दों में:
इश्क़ - ऐ तबियत ने जीस्त का मजा पाया
दर्द की दवा पायी दर्द -ऐ -बे दवा पाया
भाव -- मैंने प्रेम के माध्यम से जीवन का परमानन्द पा लिया। एक दर्द का इलाज हो गया ,पर एक रोग लाइलाज लगा लिया।
…. प्रेम की अपनी परिभाषा जब आप प्यार मे होते हैं तो कुछ और सोच नहीं पाते सिर्फ इस खेल के कि वह मुझे प्यार करता है या वह मुझे प्यार नहीं करता :)
प्रेम भाषा का संस्कृत काव्य में बहुत हद तक परिष्कृत काव्य के साथ साथ लोकिक प्रेम काव्य पाया जाता है ..रामायण से हमें एक संदर्भ मिलता है कि प्रेमी इस तथ्य से आन्दित है कि वह उसी हवा में सांस ले रहा है जिस में उसकी प्रिया सांस ले रही है ...ऐ पवन ! तू वहां तक बह कर जा.जहाँ मेरी प्रिय है उसको स्पर्श कर और मुझे स्पर्श कर ...मैं तेरे माध्यम से उसके कोमल स्पर्श का अनुभव करूँगा और चन्द्रमा के प्रकाश में उसका सौन्दर्य देखूंगा ..अब आज के युग में यही सब बाते बहुत बचकानी लग सकती है ...खैर जी जो कुछ पढ़ा गया इस पर यह अब शोध का विषय है या नहीं ..नहीं जानता पर अपनी कलम से तो लिख दिया इस पर :)
प्रेम
उस विस्तृत नील गगन सा
जो सिर्फ अपने आभास से ही
खुद के अस्तित्व को सच बना देता है.......
प्रेम
टूट कर बिखरने की
एक वह प्रक्रिया
जो सिर्फ चांदनी की रिमझिम में
मद्दम मद्धम सा
दिल के आँगन में
तारों की तरह टूटता रहता है!
प्रेम
है वह एक जंगली जानवर सा
जो चुपके से दबोच लेता है मन तन को
जलाता है उम्मीदों की रौशनी
न चाहते हुए भी
उस से बचा नहीं जा सकता
प्रेम
यह है उस कमर तोड़ बुखार सा
जो सरसराता हुआ दौड़ता है रगों में
और हर दवा हर वर्जना को तोड़ता हुआ
घर कर लेता है मन तन पर
आखिर कोई कैसे कब तक बचा सकता है प्रेम से.................
आप क्या कहते हैं इस लिखे को पढ़ कर ...जानने का इन्तजार रहेगा ...
rajnish manga
14-08-2013, 05:59 PM
वक्त-ए-सफ़र करीब है बिस्तर समेट लूँ
बिखरा हुआ हयात का दफ्तर समेट लूँ
फिर जाने हम मिलें न मिलें इक ज़रा रुको
मैं दिल के आईने में ये मंज़र समेट लूँ
- अजमल अजमली
हैरान हूँ किस तरह करूँ अर्जे तमन्ना
दुश्मन को तो पहलू से वो टलने नहीं देते
दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज है हर वक्त
हम वो हैं कि कुछ मुँह से निकलने नहीं देते
- अकबर इलाहाबादी
ऊपर प्रस्तुत की गयी तीनो ग़ज़लें श्रेष्ठ शायरों की बेहतरीन गज़लें हैं. उपरोक्त शे'र विशेष रूप से ध्यान खींचते हैं. आभार स्वीकार करें, जय जी.
Dr.Shree Vijay
14-08-2013, 06:21 PM
एक से बढकर एक.........................
aspundir
14-08-2013, 06:41 PM
लाज़वाब....................
jai_bhardwaj
14-08-2013, 06:43 PM
ऊपर प्रस्तुत की गयी तीनो ग़ज़लें श्रेष्ठ शायरों की बेहतरीन गज़लें हैं. उपरोक्त शे'र विशेष रूप से ध्यान खींचते हैं. आभार स्वीकार करें, जय जी.
एक से बढकर एक.........................
लाज़वाब....................
आपकी प्रतिक्रियाओं से सूत्र अपने भाग्य पर इतरा उठा है बन्धुओं। आभार।
Dr.Shree Vijay
14-08-2013, 06:47 PM
धन्यवाद जय जी.......................
rajnish manga
15-08-2013, 11:36 PM
कुछ समय पूर्व आपने प्रेम के विषय में विविध विवरण प्रस्तुत करते हए पाठकों से उनकी राय जानने की इच्छा प्रगट की थी. दरअस्ल, प्रेम के विषय में जो भी लिखा जाय और जितना भी लिखा जाय, कम है. फिर भी, कुछ कहने की कोशिश मैंने की है. नहीं जानता कि यह आपके मयार पर खरा उतरेगा या नहीं:
प्रेम है पूरा समर्पण, मांगता यह कुछ नहीं.
मूक वाणी प्रेम की अब सुना कह कुछ नहीं.
इक चिरंतन प्रेम से संसार सारा बांध ले,
प्रेम ‘ईश्वर-तत्व’ इससे इतर यह कुछ नहीं.
इसमें पशुता है तनिक न प्रेम आदमखोर है,
प्रेम है निर्मल कि जिसमें भयावह कुछ नहीं.
विस्तृत हमारे प्रेम जैसा आवरण आकाश का,
प्रेम-मंदिर के अलावा ईश-अल्लह कुछ नहीं.
jai_bhardwaj
16-08-2013, 06:12 PM
कुछ समय पूर्व आपने प्रेम के विषय में विविध विवरण प्रस्तुत करते हए पाठकों से उनकी राय जानने की इच्छा प्रगट की थी. दरअस्ल, प्रेम के विषय में जो भी लिखा जाय और जितना भी लिखा जाय, कम है. फिर भी, कुछ कहने की कोशिश मैंने की है. नहीं जानता कि यह आपके मयार पर खरा उतरेगा या नहीं:
प्रेम है पूरा समर्पण, मांगता यह कुछ नहीं.
मूक वाणी प्रेम की अब सुना कह कुछ नहीं.
इक चिरंतन प्रेम से संसार सारा बांध ले,
प्रेम ‘ईश्वर-तत्व’ इससे इतर यह कुछ नहीं.
इसमें पशुता है तनिक न प्रेम आदमखोर है,
प्रेम है निर्मल कि जिसमें भयावह कुछ नहीं.
विस्तृत हमारे प्रेम जैसा आवरण आकाश का,
प्रेम-मंदिर के अलावा ईश-अल्लह कुछ नहीं.
सच में ... रजनीश जी यह एक उत्कृष्ट रचना है। क्या प्रेम की इससे से बेहतर भी परिभाषा दी जा सकती है ? कदाचित नहीं। हाँ, निश्चित ही नहीं।
आभार एवं धन्यवाद बन्धु।
Dr.Shree Vijay
16-08-2013, 06:25 PM
बहुत बढियां, लिखते रहें........................
jai_bhardwaj
18-08-2013, 06:33 PM
मुसलमान बन्धुओं के लिए एक सन्देश (अंतरजाल से संकलित)
क्यूँ इतना तिरस्कृत, इतना अलग,
हर बार यह निगाह मेरी तरफ क्यूँ उठती है....
क्यूँ हर जगह मुझसे मेरा नाम पूछा जाता है..
क्यूँ भूल जाते हैं सब कि इंसान हूँ मैं,
इस देश कि मिटटी का अब्दुल कलाम हूँ मैं,
गर्व से कहता हूँ... हाँ, मुसलमान हूँ मैं...
आतंक फैलाना मेरा काम नहीं,
ये श़क भरी दृष्टि मेरा इनाम नहीं,
इस धरती को मैंने भी खून से सीचा है,
मेरे भी घर के आगे एक आम का बगीचा है,
हँसते हँसते जो इस देश पर मर गया,
वो क्रांतिकारी अशफाक अली खान हूँ मैं,
गर्व से कहता हूँ, हाँ मुसलमान हूँ मैं,
क्या हुआ जो चंद अपने बेगाने हो गए,
गलत रास्ता चुनकर, खून की प्यास के दीवाने हो गए,
यह खूबसूरत वादियाँ हमारी भी जान हैं,
यह देश का तिरंगा हमारी भी शान है,
हरी-भरी धरती से सोना उगाता किसान हूँ मैं,
गर्व से कहता हूँ, हाँ मुसलमान हूँ मैं.....
jai_bhardwaj
18-08-2013, 07:09 PM
पाँच उदास दृश्य
(1)
हाथों में झुर्री भरे हाथ लेते
झुरझुरी होती है
और माँ कहती है –
छोड़ो, जाने दो
कितनी देर से रखी है आँच पर तरकारी
जल जायेगी।
मेरी आँखों में भरता है
मणिकर्णिका का धुँआ -
एक दिन
जल जायेगी।
(2)
बहुत शांति रहती है घर में
बेटे के वितान तले
पिता घुटता है
माँ सहमती है
बच्चे बढ़ कर ऊँचे तो होते हैं,
पसरते नहीं!
(3)
बच्चे की ज़िद पर
मोल ले आई है गृहिणी
पिजरे में चिड़ियों का जोड़ा।
गृही उन्हें उड़ा नहीं पाता
उसे रह रह कोंचता है
पिता का उसके घर को
‘गोल्डेन केज’ कहना।
छाँव की चाह स्वार्थी
समय का क्या
रीत जायेगा
पिजरा रह जायेगा
सुगना उड़ जायेगा।
(4)
नहीं जाना चाहते वे
घूमने पोते के साथ,
बूढ़े पाँव
छोटे पाँवों के साथ चल नहीं पाते।
जो साथ दे सकता है
वह तो कुर्सी तोड़ता है।
(5)
कमरे के तेज प्रकाश से अलग
बिरवे का संझा दिया
टिमटिमाता है।
गमले की तुलसी तले
माँ सावन सजायी है
मन्नतें गायी है।
हाड़ हाड़ समाये हैं
गठिया के कजरी बोल
जब चलती है
चटकते हैं।
Hatim Jawed
18-08-2013, 11:48 PM
कुछ समय पूर्व आपने प्रेम के विषय में विविध विवरण प्रस्तुत करते हए पाठकों से उनकी राय जानने की इच्छा प्रगट की थी. दरअस्ल, प्रेम के विषय में जो भी लिखा जाय और जितना भी लिखा जाय, कम है. फिर भी, कुछ कहने की कोशिश मैंने की है. नहीं जानता कि यह आपके मयार पर खरा उतरेगा या नहीं:
प्रेम है पूरा समर्पण, मांगता यह कुछ नहीं.
मूक वाणी प्रेम की अब सुना कह कुछ नहीं.
इक चिरंतन प्रेम से संसार सारा बांध ले,
प्रेम ‘ईश्वर-तत्व’ इससे इतर यह कुछ नहीं.
इसमें पशुता है तनिक न प्रेम आदमखोर है,
प्रेम है निर्मल कि जिसमें भयावह कुछ नहीं.
विस्तृत हमारे प्रेम जैसा आवरण आकाश का,
प्रेम-मंदिर के अलावा ईश-अल्लह कुछ नहीं.
बहुत ही उम्दा रचना ! प्रेम के प्रति आपका यह निश्छल प्रेम, प्रेम करने योग्य है । :bravo::bravo:
rajnish manga
19-08-2013, 11:50 AM
सच में ... रजनीश जी यह एक उत्कृष्ट रचना है। क्या प्रेम की इससे से बेहतर भी परिभाषा दी जा सकती है ? कदाचित नहीं। हाँ, निश्चित ही नहीं।
आभार एवं धन्यवाद बन्धु।
बहुत ही उम्दा रचना ! प्रेम के प्रति आपका यह निश्छल प्रेम, प्रेम करने योग्य है । :bravo::bravo:
मित्र जय जी और हातिम जी, आपने इस नाचीज़ के लिखे की लाज रख ली, इससे बढ़ कर मेरे लिए गर्व की और क्या बात हो सकती है. :hello:
rajnish manga
19-08-2013, 11:36 PM
संत कबीर दास वाणीः
हृदय की बात स्वत: जाने वही है सच्चाप्रेम
यह तत वह तत एक है, एक प्रान दुइ गात
अपने जिय से जानिये, मेरे जिय की बात
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जब प्रेम का भाव हृदय में उत्पन्न होता है तो दोनों प्रेमी आपस में इस तरह मिले हुए लगते हैं जैसे कि वह एक तत्व हों। वह दोनों अपने मुख से कहे बगैर एक दूसरे के हृदय की बात जान लेते हैं।
प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकासय
राजा परजा जो रुचै, शीश देव ले जाये
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि प्रेम की फसल किसी खेत में नहीं होती और न ही वह किसी हाट या बाजार में बिकता है। प्रेम तो वह भाव है कि अगर किसी व्यक्ति के प्रति मन में आ जाये तो भले ही वह सिर काटकर ले जाये। यह भाव राजा और प्रजा दोनों में समान रूप से विद्यमान होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आजकल तो हर जगह प्रेम प्रेम शब्द का उच्चारण होता है। खासतौर से आजकल के बाजार युग में प्रेम को केवल युवक युवतियों के आपसी संपर्क तक ही सीमित हो गया है। इसमें केवल तत्कालिक शारीरिक आकर्षण में बंधना ही प्रेम का पर्याय बन गया है। सच बात तो यह है कि प्रेम तो किसी से भी किया जा सकता है। भारतीय अध्यात्म में प्रेम का तो व्यापक अर्थ है और उसमें केवल निरंकार परमात्मा के प्रति ही किया गया प्रेम सच्चा माना जाता है। संसार में विचरण कर रहे जीवन से प्रेम करना तो एक तरह से अपनी आवश्यकताओं से उपजा भाव है। हां, अगर उनसे भी अगर निष्काम प्रेम किया जाये तो उससे सच्चे प्रेम का पर्याय माना जाता है।
सच्चा प्रेम तो वही है जिसमें कोई प्रेमी दूसरे से किसी प्रकार की आकांक्षा न करे जहां आकांक्षा हो वहां तो वह प्रेम सच्चा नहीं रह जाता। प्रेम का भाव तो स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है और वह बाह्य रूप नहीं बल्कि किसी व्यक्ति के आंतरिक गुणों से ही जाग्रत होता है। अतः जो निच्छल मन, उच्च विचार, और त्यागी भाव के होते हैं उनके प्रति सभी लोगों में मन में प्रेम का भाव उत्पन्न होता है।
(संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप)
jai_bhardwaj
25-08-2013, 06:21 PM
कितनी मासूम थी जिंदगी, जब हम छोटे थे
ना दिल में मैल, न चेहरे पे मुखौटे थे...
कितनी मासूम थी जिंदगी जब हम छोटे थे
सुन ले कोई मेरे दिल की थोड़ी सी दास्तान...
वक़्त किसी के पास इतना भी कहाँ आज,
सीने पे लगा लेते थे दौड़ के लोग सभी,
पहले कभी जब हम छोटी सी बातों पे रोते थे...
कितनी मासूम थी जिंदगी, जब हम छोटे थे
सुन ले कोई मेरे दिल की थोड़ी सी दास्तान...
अब तो प्यार देके भी मोहब्बत नहीं मिलती,
वक़्त तो मिलता है मगर फुरसत नहीं मिलती,
एक रातें हैं ये जो नींदों से नाता ही तोड़ चुके,
एक दिन था वो जब हम बड़े सुकून से सोते थे...
कितनी मासूम थी जिंदगी, जब हम छोटे थे
सुन ले कोई मेरे दिल की थोड़ी सी दास्तान...
jai_bhardwaj
25-08-2013, 06:22 PM
तुम्हारी कब्र पर मैं
फ़ातहा पढ़ने नहीं आया
मुझे मालूम था-तुम मर नहीं सकते
तुम्हारी मौत की सच्ची खबर
जिसने उड़ाई थी, वो झूठा था
वो तुम कब थे ?
कोई सूखा हुआ पत्ता
हवा में गिर के टूटा था
मेरी आंखें तुम्हारे मंजरों में कैद है अब तक
मैं जो भी देखता हूं, सोचता हंू वो वही है
जो तुम्हारी नेकनामी और बदनामी की दुनिया थी
कहीं कुछ भी नहीं बदला
तुम्हारे हाथ मेरी उंगलियों में सांस लेते हैं
मैं लिखने के लिए जब भी
कलम कागज उठाता हूं,
तुम्हे बैठा हुआ मैं अपनी ही कुर्सी पे पाता हूं
बदन में मेरे जितना भी लहू है
वो तुम्हारी लगजिशों नाकामियों साथ बहता है
मेरी आवाज़ में छुपकर तुम्हारा ज़हन रहता है
मेरी बीमारियों में तुम
मेरी लाचारियों में तुम
तुम्हारी कब्र पर जिसने तुम्हारा नाम लिखा है
वो झूठा है
तुम्हारी कब्र में मैं दफ़न हूं
तुम मुझमें जिंदा हो
कभी फुरसत मिले तो फ़ातहा पढ़ने चले आना ।
rajnish manga
25-08-2013, 10:10 PM
..... तुम्हारी कब्र में मैं दफ़न हूं
तुम मुझमें जिंदा हो
कभी फुरसत मिले तो फ़ातहा पढ़ने चले आना ।
प्यार की इन्तिहा में निम्नलिखित पंक्तियाँ ज़ेहन में बरबस उभर आती हैं:
मन तू शुदम तू मन शुदी
मन जां शुदम तू तन शुदी
ता कस न गोयद बाज़ अजीं
मन दीगरम तन दीगरी
(हज़रत अमीर खुसरो)
(भावार्थ: मैं तूझ में ढल गया हूँ और तू मुझमे ढल गया है. मैं जान हो गया हूँ और तू शरीर हो गया है. अब के बाद कोई ये न कहे कि मैं अलग हूँ और तू अलग)
rajnish manga
25-08-2013, 10:20 PM
कितनी मासूम थी जिंदगी, जब हम छोटे थे
ना दिल में मैल, न चेहरे पे मुखौटे थे...
कितनी मासूम थी जिंदगी जब हम छोटे थे
सुन ले कोई मेरे दिल की थोड़ी सी दास्तान...
बचपन के मासूमियत भरे समय का बड़ा यथार्थ और दिलकश चित्रण करने वाली रचना के लिए आभार, जय जी. बढती उम्र के साथ ही आने वाले बदलाव बचपन की पारदर्शिता पर मुलम्मा चढ़ाने का काम करते हैं जिनमे बचपन गुम हो कर रह जाता है.
jai_bhardwaj
26-08-2013, 06:07 PM
रामराज्य (1946 में लिखी रचना)
शोषित मानव, पीड़ित मानव, भूखा मानव कैसा स्वराज्य
इस उत्पीडन की बेला में, मैं क्या गाऊँगा रामराज्य
कुसुमित जीवन के मधुर स्वप्न, लहराते हैं मधुरिम बयार
वृक्षाली में गाती श्यामा, डालें झुकतीं लै मृदुल भार
कोमल शिरीष की कोंपल भी, नर्तन में आज हुई उन्मन
नीलम के पंखों में शोभित, नूतन पराग के से जलकण
कुछ मीठी मीठी सी फुहार, सिहरन उफ़ कैसी यह पीड़ा
उन्मद कपोल के मन्मथ के, लेखा ही यह कैसी ब्रीड़ा
पदचाप मौलिश्री के परिमल में मिस, वसुधा पर धर जाते
जाने क्यों से अनजाने में, सीधे पादप भी हिल जाते
शोभा की प्रतिमा सी वन में, यह कौन अरे जाती सीता
पति की वरधर्मक्रिया जिसने, स्थावर जंगम का मन जीता
छोड़ा जिसने निज राम-राज्य, वह जाता युग का सेनानी
उस सेनानी के साथ अरे, जाती जन-जन की कल्याणी
निर्वासित हाँ निर्वासन ही, तो पित्र प्रेम है मूर्तिमान
पित्र-इच्छा के आगे जग का, सारा वैभव रजगण समान
हाँ छोड़ दिया घर का वैभव, जग का वैभव पद तल आया
उस पार ब्रम्ह के पीछे ही, माया ने अपना पथ पाया
युग की समाधि में आज मौन, वह नव्य साधनामय विराग
उस निर्वासित के धनुस्वर से, अब भी कंपते हैं शेषनाग
पर आज लालसामय जीवन, विषयों की सान्धें अनविभाज्य
शोषित मानव, पीड़ित मानव, भूखा मानव कैसा स्वराज्य
इस उत्पीडन की बेला में, मैं क्या गाऊँगा रामराज्य
आशाओं के स्वर्णिम विहंग, कूके सरयू के कूलों पर
कोकिल भी भरती अपना स्वर, सुरमित डालों के झूलों पर
तट पर क्यों आँखें ठिठक रहीं, मृग सिंह साथ पीते पानी
केकी के साथ केलि रत सी, कोकिल क्या करती मनमानी
खाटें अमराई के नीचे, ग्रामीण जहाँ लेते बयार
नवयजन धर्म की रेखा भी, नभ के उर में करती विहार
रति सी ग्रामीण नवोढ़ायें, पनघट पर गगरी ले आईं
कुछ अरहर के खेतों में जा, क्रीडा को करने हुलसाईं
हल लिए कृषक के दल आते, गज की चालें भी शर्मातीं हैं
गर्दन की घंटी के स्वर में, कुछ और शब्द भी लहरातीं हैं
हाँ इन गायन घंटी स्वर में, कुछ और शब्द लहराते हैं
जब अन्तरिक्ष में वेदों के, कुछ महामंत्र टकराते हैं
कुछ दूर खेत में रही दूब, को चरने गायें जाती हैं
अयनों के भार वहन करने, में ही मानो थक जाती हैं
उनके आगे करते किलोल, बछड़े मृग शावक से जाते
माँ के दुलार की धमकी दे, अपने में ही कुछ कह जाते
है धर्म न्याय मानव अपनी, रखता है रे अर्जित सत्ता
मानव के स्वर के बिना नहीं, हिल सकता धरती पर पत्ता
वह राम अरे युग का मानव, मानव का ही तो साम्राज्य
शोषित मानव, पीड़ित मानव, भूखा मानव कैसा स्वराज्य
इस उत्पीडन की बेला में, मैं क्या गाऊँगा रामराज्य
वह राम अरे हाँ स्वप्नलोक, की अब जो विगत कहानी है
क्यों रामराज्य का नाम आज, लेते आंखों में पानी है
वह राम और वह राज्य और, वे मानव सब धुंधली रेखा
अब का मानव क्या जान सका, जिसने शोषण का युग देखा
यदि शोषण ही केवल होता, तब भी संतोष रहा भारी,
पर शोषित भी शोषण करता, उल्टी देखी दुनिया सारी
कहते इतिहास बताते हैं, मानव का गिरना ही गुलाम
पर आज गुलामों का गुलाम, बोलो मानव का कौन नाम
कवि तूने देखा राज्य और, आंखों से जौहर भी देखा
दिल्ली को रोटी ले जाते, राणा को भूखे भी देखा
देखा तूने जो सह न सका, मुग़लों की खर तलवारों से
जब छाती पर रानी चढ़ती, खंजर ले कर मीनारों से
हो याद मुझे आई मीना, उसकी भी एक कहानी है
पर देख आज की मीना को, आंखों में आता पानी है
हे लुटा रही माता बहने, अपनी अस्मत हाटों में
रुपयों से मोल हुआ करता, सुन्दरता बिकती बाटों में
दिल चाक हुआ इन गुनाहगार, आंखों ने है क्या-क्या देखा
पद के हित मानव ने अपनी, माता का सिर कटते देखा
कवि सुनो आज हिमगिरि सुनले, सुनलें विजयों की मीनारें
यह महल सुने ऊंचे - ऊंचे, सुनलें ज़ुल्मी की तलवारें
सुनलें जो न्याय बनाते हैं, सुनलें जो मानव को खाते
जो आज धर्म की आड़ लिए, अपने को ऊंचा बतलाते
जिनने छीने मां-बहनों के, वक्ष-स्थल से जा वसन हैं
कहना उनसे वचन नहीं ये, महाकाल के अनल दशन हैं
अरे बोतलों की छलकारें, नुपुर की झंकारें भी
मेरी निर्वसना माँ के, ज़ंजीरों की ललकारें भी
रूप दिया जिसने मरघट का, शस्य श्यामला को अविकल
जिनने मानव को ठठरी में, भूसाभर कर है किया विकल
जिनने माता के लालों पर, संगीनें भी चलवाई हैं
जिनने बेतों से जेलों में ,चमडियाँ बहुत खिचवायीं है
वे संभल चलें युग की वाणी, करवट लेकर हुंकार उठी
सोई नागिन भी निज संचित, विष से सहसा फुंकार उठी
उठ पडा अरे पीड़ित मानव, छीनेगा तुमसे मनुज राज्य
शोषित मानव, पीड़ित मानव, भूखा मानव कैसा स्वराज्य
इस उत्पीडन की बेला में, मैं क्या गाऊँगा रामराज्य
- स्व. जगदेश जोशी
jai_bhardwaj
26-08-2013, 06:18 PM
आग का दरिया, तेरी अर्थी कैसे कैसे मंज़र देखे
राह के गहरे अंधियारे में चुप्पे, सहमे, रहबर देखे
तेरी आँखें सूखी जबसे जलते हुए बवंडर देखे
तेरी चिट्ठी जो भी लाये घायल वही कबूतर देखे
पूजाघर की सांकल खोली दुश्मन सारे अन्दर देखे
गाँव से जब रिश्ता टूटा तोरामायण के अक्षर देखे
बनी हुयी मूरत ना देखी सब हाथों में पत्थर देखे
बसा हुआ है मंदिर मंदिर खुदा कभी मेरा घर देखे
aspundir
01-09-2013, 11:42 AM
आप हैं क्यों ख़फ़ा, कुछ पता तो चले
है मेरी क्या खता, कुछ पता तो चले
आज चेहरे पे रंग-ए-उदासी क्यूँ
ऐ मेरे दिलरुबा कुछ पता तो चले
आप हैं क्यों खफ़ा...
आपके और मेरे प्यार के दरमियाँ
क्यों है यह फासिला कुछ पता तो चले
आप हैं क्यों ख़फ़ा...
मैं अगर बेवफा हूँ तो यूँ ही सही
कौन है बावफा कुछ पता तो चले
आप हैं क्यों खफ़ा...
aspundir
01-09-2013, 11:42 AM
चमकते चाँद को टूटा हुआ तारा बना डाला
मेरी आवारगी ने मुझको आवारा बना डाला
बड़ा दिलकश, बड़ा रँगीन, है ये शहर कहते हैं
यहाँ पर हैं हज़ारों घर, घरों में लोग रहते हैं
मुझे इस शहर की गलियों का बंजारा बना डाला
चमकते चाँद को टूटा...
मैं इस दुनिया को अक्सर देखकर हैरान होता हूँ
न मुझसे बन सका छोटा सा घर, दिन रात रोता हूँ
खुदाया तूने कैसे ये जहां सारा बना डाला
चमकते चाँद को टूटा...
मेरे मालिक, मेरा दिल क्यूँ तड़पता है, सुलगता है
तेरी मर्ज़ी, तेरी मर्ज़ी पे किसका ज़ोर चलता है
किसी को गुल, किसी को तूने अंगारा बना डाला
चमकते चाँद को टूटा...
यही आग़ाज़ था मेरा, यही अंजाम होना था
मुझे बरबाद होना था, मुझे नाकाम होना था
मेरी तक़दीर ने मुझको, तक़दीर का मारा बना डाला
चमकते चाँद को टूटा...
aspundir
01-09-2013, 11:43 AM
Movie/Album: मेराज-ए-गज़ल (1983)
Music By: गुलाम अली
Lyrics By: नासिर काज़मी
Performed By: गुलाम अली, आशा भोंसले
दयार-ए-दिल की रात में चराग़ सा जला गया
मिला नहीं तो क्या हुआ, वो शक़्ल तो दिखा गया
वो दोस्ती तो ख़ैर अब नसीब-ए-दुश्मनाँ हुई
वो छोटी छोटी रंजिशों का लुत्फ़ भी चला गया
दयार-ए-दिल की...
जुदाइयों के ज़ख़्म, दर्द-ए-ज़िन्दगी ने भर दिये
तुझे भी नींद आ गई मुझे भी सब्र आ गया
दयार-ए-दिल की...
ये सुबहो की सफ़ेदियाँ ये दोपहर की ज़र्दियाँ
अब आईने में देखता हूँ मैं कहाँ चला गया
दयार-ए-दिल की...
ये किस ख़ुशी की रेत पर ग़मों को नींद आ गई
वो लहर किस तरफ़ गई ये मैं कहाँ चला गया
दयार-ए-दिल की...
पुकारती हैं फ़ुर्सतें कहाँ गईं वो सोहबतें
ज़मीं निगल गई उन्हें या आसमान खा गया
दयार-ए-दिल की...
गए दिनों की लाश पर पड़े रहोगे कब तलक
अलम्कशो उठो कि आफ़ताब सर पे आ गया
दयार-ए-दिल की...
aspundir
01-09-2013, 12:01 PM
Lyrics By: नासिर काज़मी
Performed By: गुलाम अली
दिल में इक लहर सी उठी है अभी
कोई ताज़ा हवा चली है अभी
शोर बरपा है ख़ाना-ए-दिल में
कोई दीवार सी गिरी है अभी
दिल में इक लहर सी...
कुछ तो नाज़ुक मिज़ाज हैं हम भी
और ये चोट भी नयी है अभी
दिल में इक लहर सी...
याद के बे-निशाँ जज़ीरों से
तेरी आवाज़ आ रही है अभी
दिल में इक लहर सी...
शहर की बेचिराग़ गलियों में
ज़िन्दगी तुझको ढूँढती है अभी
दिल में इक लहर सी...
आगे (गाने में नहीं है):
भरी दुनिया में जी नहीं लगता
जाने किस चीज़ की कमी है अभी
दिल में इक लहर सी...
तू शरीक-ए-सुख़न नहीं है तो क्या
हम-सुख़न तेरी ख़ामोशी है अभी
दिल में इक लहर सी...
सो गये लोग उस हवेली के
एक खिड़की मगर खुली है अभी
दिल में इक लहर सी...
तुम तो यारो अभी से उठ बैठे
शहर में रात जागती है अभी
दिल में इक लहर सी...
वक़्त अच्छा भी आयेगा 'नासिर'
ग़म न कर ज़िन्दगी पड़ी है अभी
दिल में इक लहर सी...
aspundir
01-09-2013, 12:01 PM
Lyrics By: मसरूर अनवर
Performed By: गुलाम अली
हमको किसके गम ने मारा, ये कहानी फिर सही
किसने तोड़ा दिल हमारा, ये कहानी फिर सही
दिल के लूटने का सबब पूछो न सबके सामने
नाम आएगा तुम्हारा, ये कहानी फिर सही
हमको किसके गम ने...
नफरतों के तीर खा कर, दोस्तों के शहर में
हमने किस किस को पुकारा, ये कहानी फिर सही
हमको किसके गम ने...
क्या बताएं प्यार की बाजी, वफ़ा की राह में
कौन जीता कौन हारा, ये कहानी फिर सही
हमको किसके गम ने...
aspundir
01-09-2013, 12:01 PM
Lyrics By: कैसर उल जाफ़रीPerformed By: गुलाम अली
हम तेरे शहर में आए हैं मुसाफिर की तरह
सिर्फ़ इक बार मुलाक़ात का मौका दे दे
हम तेरे शहर में...
मेरी मंजिल है, कहाँ मेरा ठिकाना है कहाँ
सुबह तक तुझसे बिछड़ कर मुझे जाना है कहाँ
सोचने के लिए इक रात का मौका दे दे
हम तेरे शहर में...
अपनी आंखों में छुपा रक्खे हैं जुगनू मैंने
अपनी पलकों पे सजा रक्खे हैं आंसू मैंने
मेरी आंखों को भी बरसात का मौका दे दे
हम तेरे शहर में...
आज की रात मेरा दर्द-ऐ-मोहब्बत सुन ले
कंप-कंपाते हुए होठों की शिकायत सुन ले
आज इज़हार-ऐ-खयालात का मौका दे दे
हम तेरे शहर में...
भूलना ही था तो ये इकरार किया ही क्यूँ था
बेवफा तुने मुझे प्यार किया ही क्यूँ था
सिर्फ़ दो चार सवालात का मौका दे दे
हम तेरे शहर में.
omprakashyadav
01-09-2013, 12:09 PM
मै उस वक्त के गुजर जाने का इन्तजार करता रहा
और कमबख्त वक्त वहीँ खड़ा मुझ पर हँसता रहा ।
for more: http://poemsonnature.blogspot.in/2013/07/shayri.html
Dr.Shree Vijay
01-09-2013, 12:37 PM
बेहतरीन.........................
aspundir
01-09-2013, 07:06 PM
ओस की बुँद सी होती है बेटीयाँ..
स्पर्श खुरदरा हो तो रोती है बेटीयाँ..
रोशन करेगा बेटा तो एक कुल को..
दो दो कुलो की लाज होती है बेटीयाँ..
कोई नही है एक दुसरे से कम..
हीरा अगर है बेटा ....
तो सुच्चा मोती हैं बेटीयाँ...
काँटो की राह पर ये खुद ही चलती हैं..
औरो के लिए फूल होती है बेटीयाँ...
विधि का विधान है.. यही दुनियाँ की रस्म है..
मुठ्ठी भर नीर-सी होती है बेटीयाँ...
omprakashyadav
02-09-2013, 08:29 PM
तुम ख्वाब देखने से डरते हो ।
मै ख्वाब खोने से डरता हूँ ।
रात आती है और चली जाती है
न तुम सोते हो , न मै सोता हूँ ।
for more visit: http://poemsonnature.blogspot.in/2013/07/shayri.html
aspundir
02-09-2013, 09:22 PM
विधवा का रूदन कलाप लिखु,
या वृद्धाश्रम मेँ बुजुर्गो का अलाप लिखूं?
अजन्मी बेटी मारी जाती,
या जन्मी बेटी ताड़ी जाती,
कुचली जाती, मसली जाती,
घर गाँव मेँ सहमी जाती,
बोलो क्या लिखूँ??
फाँसी पे लटका किसान लिखुँ,
भुख से तड़पता इँसान लिखूँ,
दामिनि के कातिल छः शैतान लिखुँ,
बोलो क्या लिखूँ???
भ्रष्ट मंत्री तानाशाह सरकार लिखुँ,
बत्तिस लाख का टॉयलेट या सात हजार की भोजन की थाल लिखुँ।
सीमा पे कटते भारतीय लिखुँ,
या घर मेँ बँटते भारतीय लिखुँ??
रोटी-नमक पे जिंदगी काटने वाले के बारे मेँ लिखु,
या नमक हरामी करने वाले के बारे मेँ लिखुँ,
बोलो क्या लिखुँ??
एम ए पास बेरोजगार लिखुँ,
या दसवी पास मालामाल लिखुँ,
तम्बू के नीचे ठिठुरती खाल लिखुँ,
या पत्थर का महल विशाल लिखुँ,
बोलो क्या लिखुँ??
rajnish manga
03-09-2013, 12:13 AM
आपकी उपरोक्त दोनों कवितायें देश भर के वर्तमान सामाजिक-राजनैतिक माहौल तथा उसके सामने मुंह बाए खड़ी ज्वलंत समस्याओं का प्रभावशाली रूप से चित्रण करती हैं.
jai_bhardwaj
03-09-2013, 06:56 PM
(किशोर वय की बहुत सी स्मृतियों को झंकृत कर देने में सक्षम यह ग़ज़ल मुझे बहुत पसंद है। आप को भी पसंद आयेगी)
कोई चौदहवी रात का चाँद बन कर, तुम्हारे तसव्वुर में आया तो होगा
किसी से तो की होगी तुमने मुहब्बत, किसी को गले से लगाया तो होगा
तुम्हारे ख़्वाबों की अंगनाइयों में मेरी, याद के फूल महके तो होंगे
कभी अपनी आँखों के काजल से तुमने, मेरा नाम लिख कर मिटाया तो होगा
लबों से मुहब्बत का जादू जगाकर, भरी बज़्म में सब से नज़रें बचा कर
निगाहों की राहों से दिल में समा कर, किसी ने तुम्हे भी चुराया तो होगा
कभी आईने से निगाहें मिला कर जो, ली होगी भरपूर अंगड़ाई तूने
तो घबरा के खुद तेरी अंगड़ाइयों ने, तेरे हुस्न को गुदगुदाया तो होगा
निगाहों में शमा-ए-तमन्ना जला कर तकी होंगी तुमने भी रहें किसी की
किसी ने तो वादा किया होगा तुमसे, किसी ने तुम्हे भी रुलाया तो होगा
- अख्तर आज़ाद
jai_bhardwaj
03-09-2013, 07:08 PM
निकहत-ए-जुल्फ से नींदों को बसा दे आकर
मेरी जागी हुई रातों को सुला दे आकर
(निकहत-ए-जुल्फ=बालों की सुगंध)
किस कदर तीरा-ओ-तारीक है दुनिया मेरी
जलवा-ए-हुस्न की इक शमा जला दे आकर
(तीरा-ओ-तारीक=दर्द भरी)
इश्क की चाँदनी रातें मुझे याद आती हैं
उम्र-ए-रफ्ता को मेरी मुझसे मिला दे आकर
(उम्र-ए-रफ्ता=पिछली ज़िन्दगी)
जौक-ए-नादीद में लज्ज़त है मगर नाज़ नहीं
आ मेरे इश्क को मगरूर बना दे आकर
(जौक-ए-नादीद=ना देखने की इच्छा, नाज़=गर्व, मगरूर=घमंड)
-अख्तर शीरानी
jai_bhardwaj
03-09-2013, 07:15 PM
इस ग़ज़ल को बार बार गुनगुनाने का मन करेगा आपका ........ देखिये सही .. क्या मैं गलत कह रहा हूँ ...
क्या कह गयी किसी की नज़र, कुछ न पूछिए
क्या कुछ हुआ है दिल पे असर, कुछ न पूछिए
वो देखना किसी का कनखियों से बार बार
वो बार बार उसका असर, कुछ न पूछिए
रो रो के इस तरह से कटी रात, क्या कहें
मर मर के कैसे की है सहर, कुछ न पूछिए
"अख्तर" दयार-ए-हुस्न में, पहुँचे हैं मर के हम
क्यूं कर हुआ है तय ये सफर, कुछ न पूछिए
-अख्तर शीरानी
jai_bhardwaj
03-09-2013, 07:31 PM
(ग़ज़ल का एक एक शब्द मदहोशी के उफनते समुद्र के गोते लगाता हुआ प्रतीत हो रहा है। ग़ज़ल पढ़ते हुए यदि आप भी एक बार खुद को शराब के नशे में चूर न समझने लगे तो कहिएगा ... ग़ज़ल का आनंद लें)
मस्ताना पिए जा, यूँ ही मस्ताना पिए जा
पैमाना तो क्या चीज है, मयखाना पिए जा
कर गर्क मय-ओ-जाम गम-ए-गर्दिश-ए-अय्याम
अब ऐ दिल-ए-नाकाम तू मयखाना पिए जा
(गर्क=पतन; गम-ए-गर्दिश-ए-अय्याम=रोजाना ज़िन्दगी के दुःख)
मय-नोशी के आदाब से आगाश नहीं तू
जिस तरह कहे साकी-ए-मयखाना पिए जा
(मय-नोशी=शराब पीने; आदाब=ढंग; आगाश=परिचित; साकी-ए-मयखाना=बारगर्ल)
इस बस्ती में है वहशत-ए-मस्ती ही से हस्ती
दीवाना बन और बादा-ए-दीवाना पिए जा
(बादा-ए-दीवाना=शराब का शौक़ीन)
मयखाने के हंगामे हैं कुछ देर के मेहमां
है सुबह करीब "अख्तर" दीवाना पिए जा
-अख्तर शीरानी
aspundir
04-09-2013, 07:29 PM
दहकन का अहसास कराता, चंदन कितना बदल गया है
मेरा चेहरा मुझे डराता, दरपन कितना बदल गया है ।
आँखों ही आँखों में, सूख गई हरियाली अंतर्मन की;
कौन करे विश्वास कि मेरा, सावन कितना बदल गया है ।
पाँवों के नीचे से खिसक-खिसक जाता सा बात-बात में;
मेरे तुलसी के बिरवे का, आँगन कितना बदल गया है ।
भाग रहे हैं लोग मृत्यु के, पीछे-पीछे बिना बुलाए;
जिजीविषा से अलग-थलग यह, जीवन कितना बदल गया है ।
प्रोत्साहन की नई दिशा में, देख रहा हूँ, सोच रहा हूँ;
दुर्जनता की पीठ ठोंकता, सज्जन कितना बदल गया है ।
लाला जगदलपुरी
rajnish manga
04-09-2013, 07:57 PM
अख्तर शीरानी की ग़ज़लों में ठीक वही असर है जिसका आपने ग़ज़ल पेश करते हुये ज़िक्र किया है. मिठास इतनी कि बार बार गुनगुनाने को जी चाहे और तल्ख़ सच्चाइयां ऐसी कि कलेजा मुंह को आये. प्रस्तुति के लिए आपका आभारी हूँ, मित्र.
पुंडीर जी द्वारा प्रस्तुत ग़ज़ल के लिये भी उनका आभार.
jai_bhardwaj
05-09-2013, 05:56 PM
बन्धुओं, उत्साहवर्धन के धन्यवाद,
महफ़िल से अभी शीरानी साहब गए नहीं हैं .. लीजिये पेश है बहुत ही प्यारे और रसीले शब्दों से भरी एक और ग़ज़ल
मैं आरजू-ए-जां लिखूँ या जान-ए-आरजू
तू ही बता दे नाज़ से ईमान-ए-आरजू
ईमान-ए-आरजू निसार तेरी इक निगाह पर
तू जान-ए-आरजू है तू ईमान-ए-आरजू
इक वो कि आरजुओं पे जीते हैं उम्र भर
इक हम हैं कि अभी से पशेमान-ए-आरजू
आँखों से जू-ए-खून रवां दिल है दाग दाग
देखो कोई बहार-ए-गुलिस्तान-ए-आरजू
-अख्तर शीरानी
jai_bhardwaj
05-09-2013, 06:07 PM
काम आ सकीं न अपनी वफायें तो क्या करें
इक बेवफा को भूल न जाएँ तो क्या करें
मुझको ये एतराफ दुआओं में है असर
जाए ना अर्श पर जो दुआएं तो क्या करें
(एतराफ़=स्वीकार, अर्श = सातवाँ आसमान)
इक दिन की बात हो तो उसे भूल जाएँ हम
नाजिल रोज दिल पे बलाएँ तो क्या करें
(नाजिल=ऊपर से गिरना (दैवीय), बलाएँ=संकट)
शब् भर तो उनकी याद में तारे गिना किये
तारे से दिन में भी नज़र आयें तो क्या करें
अहद-ए-तरब की याद में रोया किया बहुत
अब मुस्कुरा के भूल न जाएँ तो क्या करें
(अहद-ए-तरब = गुजरे हुए अच्छे दिन)
अब जी में है कि उनको भुला कर ही देख लें
वो बार बार याद जो आयें तो क्या करें
तर्क-ए-वफ़ा भी जुर्म-ए-मुहब्बत सही "अख्तर"
मिलने लगें वफ़ा की सजाएं तो क्या करें
(तर्क-ए-वफ़ा = प्यार और विश्वास का अंत)
-अख्तर शीरानी
jai_bhardwaj
05-09-2013, 06:40 PM
जी हाँ ........ यह रहा अख्तर शीरानी साहब की कलम का जादू ..........
ऐ इश्क न छेड़ आ आ के हमें
हम भूले हुओं को याद न कर
पहले ही बहुत नाशाद हैं हम
तू और हमें नाशाद न कर
किस्मत का सितम ही कम नही कुछ
ये ताज़ा सितम ईजाद न कर
यूं ज़ुल्म न कर बेदाद न कर
ऐ इश्क हमें बरबाद न कर
जिस दिन से मिले हैं, दोनों का
सब चैन गया, आराम गया
चेहरे से बहार-ए-सुबह गयी
आँखों से फरोग-ए-शाम गया
हाथों से खुशी का जाम छूटा
होंठों से हँसी का नाम गया
गमगीं न बना नाशाद न कर
ऐ इश्क हमें बरबाद न कर
रातों को उठ उठ रोते हैं
रो रो कर दुआएं करते हैं
आँखों में तसव्वुर दिल में खलिश
सर धुनते हैं आहें भरते हैं
ऐ इश्क ये कैसा रोग लगा
जीते हैं न ज़ालिम मरते हैं
ये ज़ुल्म तो ऐ जल्लाद न कर
ऐ इश्क हमें बरबाद न कर
ये रोग लगा है जब से हमें
रंजीदा हूँ मैं बीमार है वो
हर वक्त तपिश, हर वक्त खलिश
बेख्वाब हूँ मैं, बेदार है वो
जीने से इधर बेजार हूँ मैं
मरने को उधर तय्यार है वो
और ज़ब्त कहे फ़रियाद न कर
ऐ इश्क हमें बरबाद न कर
बेदर्द ज़रा इन्साफ तो कर
इस उम्र में और मगमूम है वो
फूलों की तरह नाज़ुक है अभी
तारों की तरह मासूम है वो
ये हुस्न सितम! ये रंज गज़ब!
मजबूर हूँ मैं, मजलूम है वो
मजलूम पे यूं बेदाद न कर
ऐ इश्क हमें बरबाद न कर
ऐ इश्क खुदारा देख कहीं
वो शोख हंसी बदनाम न हो
वो माह-ए-लका बदनाम न हो
वो जोहरा-जबीं बदनाम न हो
नामूस का उस को पास रहे
वो पर्दानशी बदनाम न हो
उस पर्दानशीं को याद न कर
ऐ इश्क हमें बरबाद न कर
उम्मीद की झूठी जन्नत के
रह रह के न दिखला ख्वाब हमें
आइन्दा कि फर्जी इशरत के
वादे से न कर बेताब हमें
कहता है ज़माना जिसको खुशी
आती है नज़र कामयाब हमें
छोड़! ऐसी खुशी को याद न कर
ऐ इश्क हमें बरबाद न कर
दो दिन ही में अहद-ए-तिफाली एक
मासूम ज़माने भूल गए
आँखों से वो खुशियाँ मिट सी गयीं
लब के वो तराने भूल गए
उन पाक बहिश्ती ख़्वाबों के
दिलचस्प फ़साने भूल गए
उन ख़्वाबों से यूं आज़ाद न कर
ऐ इश्क हमें बरबाद न कर
आँखों को ये क्या आजार हुआ
हर ज़ज्ब-ए-निहां पर रो देना
आहंग-ए-तरब पे झुक जाना
आवाज़-ए-फुगाँ पर रो देना
बर्बत की सदा पर रो देना
मुतरिब के बयां पर रो देना
एहसास को गम बुनियाद न कर
ऐ इश्क हमें बरबाद न कर
जी चाहता है एक दूसरे को
यूं आठ पहर हम याद करें
आँखों में बसायें ख़्वाबों को
और दिल को ख़याल आबाद करें
खिलवत में भी जो जलवत का सामां
वहदत को दुई से शाद करें
ये आरजुएं ईजाद न कर
ऐ इश्क हमें बरबाद न कर
वो राज है ये गम आह जिसे
पा जाए कोई तो खैर नहीं
आँखों से जब आंसू बनते हैं
आ जाएँ कोई तो खैर नहीं
ज़ालिम हैं ये दुनिया दिल को यहाँ
भा जाए कोई तो खैर नहीं
है जुल्म मगर फ़रियाद न कर
ऐ इश्क हमें बरबाद न कर
दुनिया का तमाशा देख लिया
ग़मगीन सी है बेताब सी है
उम्मीद यहाँ एक वहम सी है
तस्कीन यहाँ एक ख्वाब सी है
दुनिया में खुशी का नाम नहीं
दुनिया में खुशी नायाब सी है
दुनिया में खुशी को याद न कर
ऐ इश्क हमें बरबाद न कर
-अख्तर शीरानी
rajnish manga
05-09-2013, 07:40 PM
बन्धुओं, उत्साहवर्धन के धन्यवाद,
महफ़िल से अभी शीरानी साहब गए नहीं हैं .. लीजिये पेश है बहुत ही प्यारे और रसीले शब्दों से भरी एक और ग़ज़ल
मैं आरजू-ए-जां लिखूँ या जान-ए-आरजू
तू ही बता दे नाज़ से ईमान-ए-आरजू
ईमान-ए-आरजू निसार तेरी इक निगाह पर
तू जान-ए-आरजू है तू ईमान-ए-आरजू
इक वो कि आरजुओं पे जीते हैं उम्र भर
इक हम हैं कि अभी से पशेमान-ए-आरजू
आँखों से जू-ए-खून रवां दिल है दाग दाग
देखो कोई बहार-ए-गुलिस्तान-ए-आरजू
-अख्तर शीरानी
इस ग़ज़ल को फोरम पर प्रस्तुत करने के लिये आपका बहुत बहुत धन्यवाद. यह ग़ज़ल हम पति-पत्नि दोनों के दिल के बहुत करीब है और अत्यंत पसंदीदा ग़ज़ल है. इसे हमने मुनव्वर सुल्ताना साहिबा की पुर सुकून आवाज़ में सबसे पहले 20 वर्ष पहले सुना था. आप भी मुलाहिज़ा कीजिये:
https://www.youtube.com/watch?v=TbN1RmctkVo
jai_bhardwaj
06-09-2013, 07:00 PM
एक बेहतरीन शाब्दिक ग़ज़ल की आवाज़ का लिंक देने के लिए आभार बन्धु।
jai_bhardwaj
11-09-2013, 06:27 PM
" मायने बदल जाते हैं.."
जब मासूम ज़िन्दगी अपने हाथों में,
अपनी शक्ल में मुस्कुराती है
तो जीवन के मायने बदल जाते हैं...
बचपन नए सिरे से दौड़ लगाता है!
कहाँ थे कंकड़, पत्थर?
कहाँ थी काई ?
वर्तमान में जीवंत हो जाते हैं॥
नज़रिये का पुनर्आंकलन
मासूम ज़िन्दगी से जुड़ जाते हैं...
जो हिदायतें अभिभावकों ने दी थी
वो अपनी जुबान पर मुखरित हो जाते हैं!
हमने नहीं मान कर क्या खोया
समझने लगते हैं
नज़र, टोने-टोटके पर विश्वास न होकर भी
विश्वास पनपने लगते हैं!
"उस वृक्ष पर डायन रहती है...."
पर ठहाके लगाते हम
अपनी मासूम ज़िन्दगी का हाथ पकड़ लेते हैं
"ज़रूरत क्या है वहाँ जाने की?"
माँ की सीख, पिता का झल्लाना
समय की नाजुकता समय की पाबंदी
सब सही नज़र आने लगते हैं!
पूरी ज़िन्दगी के मायने
पूरी तरह बदल जाते हैं |...
-रश्मि प्रभा
jai_bhardwaj
11-09-2013, 06:27 PM
" शुक्रगुज़ार "
दर्द ने मुझे तराशा है,
दर्द देनेवालों की
मैं शुक्रगुजार हूँ........
यदि दर्द ना मिलता
तो सुकून का अर्थ खो जाता,
खुशियों के मायने बदल जाते,
अपनों की पहचान नहीं होती,
गिरकर उठना नहीं आता,
आनेवाले क़दमों में
अनुभवों की डोर
नहीं बाँध पाती.........
मैं शुक्रगुजार हूँ,
उन क्रूर हृदयों का
जिन्होंने मुझे सहनशील होना सिखाया,
सिखाया शब्दों के अलग मायने
सिखाया अपने को पहचानना ........
तहेदिल से मैं शुक्रगुजार हूँ,
दर्द की सुनामियों की
जिसने मुझे डुबोया
और जीवन के सच्चे मोती दिए...........
-रश्मि प्रभा
rajnish manga
11-09-2013, 09:32 PM
रश्मि प्रभा जी की दो अनुपम रचनाएं "मायने बदल जाते हैं" और "शुक्रगुज़ार" की प्रस्तुति के लिए आपका आभार, जय जी. एक में बचपन की छोटी छोटी झलकियाँ व उनसे क्रमशः मिलने वाली व्यवहारिक बाल-शिक्षायें और दूसरी में जीवन में मिले दर्द, क्रूर-हृदयों के उत्पात व सुनामियों का आभार प्रगट किया जाना अपूर्व है जो कवि को मानवीय गुणों से ओतप्रोत कर देते हैं.
Advo. Ravinder Ravi Sagar'
12-09-2013, 12:20 AM
वाह वाह बहुत खूब.
jai_bhardwaj
12-09-2013, 07:06 PM
अख्तर शीरानी साहब की एक और खूबसूरत ग़ज़ल प्रस्तुत है :
जो भी बुरा भला है, अल्लाह जानता है
बन्दे के दिल में क्या है, अल्लाह जानता है
ये फर्श-ओ-अर्श क्या है, अल्लाह जानता है
पर्दों में क्या छुपा है, अल्लाह जानता है
जाकर जहां से कोई वापस नहीं है आता
वो कौन सी जगह है, अल्लाह जानता है
नेकी बदी को अपने कितना ही तू छुपाये
अल्ला को सब पता है, अल्लाह जानता है
ये धूप छाँव देखो ये सुबह शाम देखो
सब क्यों ये हो रहा है, अल्लाह जानता है
किस्मत के नाम को तो सब जानते हैं लेकिन
किस्मत में क्या लिखा है, अल्लाह जानता है
-अख्तर शीरानी
jai_bhardwaj
12-09-2013, 07:20 PM
फिर वही मांगे हुए लम्हे, फिर वही जाम-ए-शराब
फिर वही तारीक रातों में, ख़याल-ए-माहताब
फिर वही तारों की पेशानी पे रंग-ए-लाजवाल
फिर वही भूली हुई बातों का धुंधला सा ख़याल
फिर वही आँखें भीगी भीगी दामन-ए-शब् में उदास
फिर वही उम्मीदों के मदफ़न ज़िन्दगी के आसपास
फिर वही फ़र्दा की बातें, फिर वही मीठे सराब
फिर वही बेदार आँखे, फिर वही बेदार ख्वाब
फिर वही वारफतगी तनहाई अफसानों का खेल
फिर वही रुखसार वो आगोश वो ज़ुल्फ़-ए-सियाह
फिर वही सहर-ए-तमन्ना फिर वही तारीक राह
ज़िन्दगी की बेबसी उफ़! वक्त के तारीक जाल
दर्द भी छीनने लगा उम्मीद भी छीनने लगी
मुझ से मरी आरज़ू-ए-दिल भी छीनने लगी
फिर वही तारीक माजी फिर वही बेकैफ हाल
फिर वही बेसोज़ लम्हे फिर वही जाम-ए-शराब
-अख्तर उल ईमान
मदफन-मीनार,
फ़र्दा-कल/भविष्य
सराब-भ्रम
बेदार-नींदरहित
वारफ्तगी-स्वयं ही नष्ट होना
तारीक-गहरा/घना
बेकैफ-निर्जीव
jai_bhardwaj
12-09-2013, 07:33 PM
आख़िरी मुलाक़ात
आओ कि जश्न-ए-मर्ग-ए-मुहब्बत मनाएं हम
आती नहीं कहीं से दिल-ए-ज़िंदा की सदा
सूने पड़े हैं कूचा-ओ-बाज़ार इश्क के
है शमा-ए-अंजुमन का नया हुस्न-ए-जां गुदाज़
शायद नहीं रहे वो पतंगों के बलबले
ताज़ा ना रख सकेगी रिवायत-ए-दश्त-ओ-दर
वो फितनासर गए जिन्हें कांटे अज़ीज़ थे
अब कुछ नहीं तो नींद से आँखे जलाएं हम
आओ कि जश्न-ए-मर्ग-ए-मुहब्बत मनाएं हम
सोचा न था कि आयेगा ये दिन भी फिर कभी
इक बार हम मिले हैं, ज़रा मुस्कुरा तो लें
क्या जाने अब ना उल्फत-ए-दरीना याद आये
इस हुस्न-ए-इख्तियार पे आँखे झुका तो लें
बरसा लबों से फूल तेरी उम्र हो दराज़
संभलें हुए तो हैं पर ज़रा डगमगा तो लें
आओ कि अपने ख्वाब के दीये जलाएं हम
आओ कि जश्न-ए-मर्ग-ए-मुहब्बत मनाएं हम
-अख्तर उल ईमान
जश्न-ए-मर्ग-ए-मुहब्बत = मरे हुए प्रेम का जलसा
फितनासर = पागल
उलफत-ए-दरीना = बासी प्यार
Hatim Jawed
13-09-2013, 10:23 PM
अच्छी रचनाएँ पढ़वाने का शुक्रिया !
sombirnaamdev
13-09-2013, 11:09 PM
बेहतरीन कविताओ से सुसज्जित एक बेहतरीन सूत्र
लगे रहिए
jai_bhardwaj
16-09-2013, 06:52 PM
अच्छी रचनाएँ पढ़वाने का शुक्रिया !
बेहतरीन कविताओ से सुसज्जित एक बेहतरीन सूत्र
लगे रहिए
स्फूर्तिदायिनी प्रविष्टियों के लिए हार्दिक अभिनन्दन है आपका। आभार।
jai_bhardwaj
16-09-2013, 06:53 PM
वो जो हममे तुममे करार था, तुम्हे याद हो कि ना याद हो
वही यानी वादा निबाह का, तुम्हे याद हो कि न याद हो
वो नए गिले वो शिकायतें, वो मज़े मज़े की हिकायतें
वो हर एक बात पे रूठना, तुम्हे याद हो कि न याद हो
कोई बात ऐसी अगर हुयी, जो तुम्हारे जी को बुरी लगी
तो बयां से पहले ही भुलाना, तुम्हे याद हो कि न याद हो
सुनो ज़िक्र है की साल का, कोइ वादा मुझसे था आपका
वो निबाहने का तो ज़िक्र क्या, तुम्हे याद हो कि न याद हो
कभी हम में तुममे भी चाह थी, कभी हमसे तुमसे भी राह थी
कभी हम भी तुम भी थे आशना, तुम्हे याद हो कि न याद हो
हुए इत्तेफाक से गर वहम, वो वफ़ा जताने का दम-ब-दम
गिला-ए-मलामत-ए-अरकबा, तुम्हे याद हो कि न याद हो
वो जो लुफ्त मुझ पे थे बेशतर, वो करम के हाथ मेरे हाथ पर
मुझे सब हैं याद वो ज़रा ज़रा, तुम्हे याद हो कि न याद हो
कभी बैठे सब हैं जो रूबरू, तो इशारतों से ही गुफ्तगू
वो बयान शौक का बरमला, तुम्हे याद हो कि न याद हो
वो बिगड़ना वस्ल की रात का, वो न मानना किसी बात का
वो नहीं नहीं की हर आन अदा, तुम्हे याद हो कि न याद हो
जिसे आप गिनते थे आशना, जिसे आप कहते थे बावफा
मैं वही हूँ "मोमिन"-ए-मुबतला, तुम्हे याद हो कि न याद हो
- मोमिन खान मोमिन
jai_bhardwaj
16-09-2013, 06:53 PM
ठानी थी दिल में अब ना मिलेंगे किसी से हम
पर क्या करें कि हो गए लाचार जी से हम
हमसे न बोलो तुम, इसे क्या कहते हैं भला
इन्साफ कीजै, पूछते हैं आप ही से हम
क्या गुल खिलेंगे देखिये, है फसल-ए-गुल तो दूर
और सू-ए-दश्त भागते हैं, कुछ अभी से हम
क्या दिल को ले गया कोइ बेगाना आशना
क्यूं अपने जी को लगते हैं कुछ अजनबी से हम
(सू-ए-दश्त = वीरानों की तरफ)
- मोमिन खान मोमिन
jai_bhardwaj
16-09-2013, 06:54 PM
मैं जहां तुम को बुलाता हूँ, वहां तक आओ
मेरी नज़रों से गुजर कर, दिल-ओ-जां तक आओ
फिर ये देखो कि ज़माने की हवा है कैसी
साथ मेरे मेरे फिरदौस-ए-जवां तक आओ
तेग की तरह चलो, छोड़ के आगोश-ए-नियाम
तीर की तरह से आगोश-ए-कमां तक आओ
फूल के गिर्द फिरो बाग़ में मानिंद-ए-नसीम
मिस्ल-ए-परवाना किसी शम-ए-तपां तक आओ
लो वो सदियों के जहन्नुम की हदें ख़त्म हुईं
अब है फिरदौस ही फिरदौस, जहाँ तक आओ
छोड़ कर वहम-ओ-गुमां, हुस्न-ए-यकीं तक पहुंचो
पर यकीं से भी कभी वहम-ओ-गुमां तक आओ
- अली सरदार जाफरी
rajnish manga
16-09-2013, 07:19 PM
उर्दू के महान शायरों की उपरोक्त रचनाएं प्रस्तुत करने के लिए आपका हार्दिक आभार, जय जी.
jai_bhardwaj
17-09-2013, 06:58 PM
कुछ पहले इन आँखों आगे क्या-क्या न नज़ारा गुज़रे था
क्या रौशन हो जाती थी गली जब यार हमारा गुज़रे था
थे कितने अच्छे लोग कि जिनको अपने ग़म से फ़ुर्सत थी
सब पूछते थे अहवाल जो कोई दर्द का मारा गुज़रे था
अब के तो ख़िज़ाँ ऐसी ठहरी वो सारे ज़माने भूल गये
जब मौसम-ए-गुल हर फेरे में आ-आ के दुबारा गुज़रे था
थी यारों की बहुतात तो हम अग़यार से भी बेज़ार न थे
जब मिल बैठे तो दुश्मन का भी साथ गवारा गुज़रे था
अब तो हाथ सुझाई न देवे, "फैज़"अभी से पहले तो
आँख उठते ही एक नज़र में आलम सारा गुज़रे था
jai_bhardwaj
17-09-2013, 06:58 PM
हमने सब शेर में सँवारे थे
हमसे जितने सुख़न तुम्हारे थे
रंग-ओ-ख़ुश्बू के, हुस्न-ओ-ख़ूबी के
तुमसे थे जितने इस्तिआरे थे
तेरे क़ौल-ओ-क़रार से पहले
अपने कुछ और भी सहारे थे
जब वो लाल-ओ-गुहर हिसाब किये
जो तेरे ग़म पे दिल ने वारे थे
मेरे दामन में आ गिरे सारे
जितने तश्त-ए-फ़लक में तारे थे
उम्र-ए-जावेद की दुआ करते
"फ़ैज़" इतने वो कब हमारे थे
jai_bhardwaj
17-09-2013, 07:00 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=30560&stc=1&d=1379426395
------------ फ़ैज़ ------------
तेरे ग़म को जाँ की तलाश थी, तेरे जाँ-निसार चले गये
तेरी रह में करते थे सर तलब, सरे-रहगुज़ार चले गये
तेरी कज-अदाई से हार के शब-ए-इंतज़ार चली गयी
मेरे ज़ब्त-ए-हाल से रूठकर मेरे ग़मगुसार चले गये
न सवाल-ए-वस्ल न अर्ज़-ए-ग़म, न हिकायतें न शिकायतें
तेरे अहद में दिल-ए-ज़ार के सभी इख्तियार चले गये
ये हमीं थे जिनके लिबास पर सर-ए-रू सियाही लिखी गयी
यही दाग़ थे जो सजा के हम सर-ए-बज़्म-ए-यार चले गये
न रहा जुनून-ए-रुख़-ए-वफा, ये रसन ये दार करोगे क्या
जिन्हें ज़ुर्म-ए-इश्क़ पे नाज़ था वो गुनाहगार चले गये
jai_bhardwaj
17-09-2013, 07:02 PM
ना पूछ जब से तेरा इंतज़ार कितना है
कि जिन दिनों से मुझे तेरा इंतज़ार नहीं
तेरा ही अक्स है उन अजनबी बहारों में
जो तेरे लब, तेरे बाज़ू, तेरा कनार नहीं
-- फ़ैज़
एक लम्बे वक्फ़े के बाद आज फिर फ़ैज़ की महफ़िल सजाई तो सोचा आज ऐसा क्या पेश करूँ आप सब के सामने जो अब तक पेश नहीं करा. फिर ख़्याल आया जैसा कि कहा जाता है हर कामयाब शख्स और उसकी बुलंद शख्सियत के पीछे एक महिला का हाथ होता है. फ़ैज़ की कामयाबी और उनके तमाम मुश्किल हालातों में जो एक अडिग स्तम्भ की तरह उनके साथ थीं वो महिला उनकी हमसफ़र उनकी पत्नी एलिस फ़ैज़ थीं. तो आइये आज आपको मिलवाते हैं एलिस फ़ैज़ से...
jai_bhardwaj
17-09-2013, 07:03 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=30561&stc=1&d=1379426601
jai_bhardwaj
17-09-2013, 07:14 PM
बीबी गुल (फ़ैज़ की बहन) बताती हैं - "फ़ैज़ के लिये बहुत से रिश्ते आये थे मगर जहाँ वालिदा (माँ) और बहनें चाहती थीं वहाँ फ़ैज़ ने शादी नहीं की और एलिस का इंतख़ाब किया. वालिदा ने मशरकी (पूर्वी) रवायत के मुताबिक़ उन्हें दुल्हन बनाया, चीनी ब्रोकेड का ग़रारा था, गोटे किनारी वाला दुपट्टा, जोड़ा सुर्ख़."
एलिस के बारे में वो आगे बताती है - "उनकी बहुत सादा तबियत है, बहुत ख़लीक़ और मोहब्बत करने वाली साबित हुईं और उन्होंने ससुराल में क़दम रखते ही सबका दिल जीत लिया और ख़ानदान में इस तरह घुल मिल गईं जैसे इसी घर की लड़की हैं, वही लिबास इख्तियार किया जो हम सब पहनते थे. हाँ सास और बहू का रिश्ता प्रेम और आदर वाला रहा, सास ने बहू को मोहब्बत दी और बहू ने सास की इज्ज़त की."
हाल ही में एक पुराना साक्षात्कार पढ़ा आजकल पत्रिका के फ़ैज़ जन्मशती विशेषांक में जिसमें "फ़ैज़" से जुड़े कुछ ख़ूबसूरत लम्हों को अमृता प्रीतम से बयां कर रही हैं एलिस फ़ैज़. आप भी पढ़िये -
अमृता : एलिस ! क्या फ़ैज़ साहब से तुम्हारी पहली मुलाक़ात तुम्हारे ही देश इंग्लिस्तान (इंग्लैंड) में हुई थी ?
एलिस : नहीं ! मेरी बहन हिन्दुस्तान ब्याही थी डॉक्टर तासीर के साथ. वे दोनों लंदन में मिले थे, 1938 में मैं अपनी बहन से मिलने हिन्दुस्तान आई थी.
तो हिन्दुस्तान को तुमने "फ़ैज़" के रूप में देखा ?
हाँ, अमृतसर में मिली थी. अमृतसर हिन्दुस्तान बन गया और हिन्दुस्तान "फ़ैज़".
तुम उर्दू ज़ुबान नहीं जानती थीं. फिर "फ़ैज़" की शायरी से इश्क़ कैसे हुआ ?
अमृता ! सच्ची बात तो यह है कि मैं आज तक "फ़ैज़" की शायरी की गहराई को नहीं जान सकी. ज़रा सी ज़बान को
समझ लेना और बात है, लेकिन पूरी तहज़ीब को जानना और बात है...
jai_bhardwaj
17-09-2013, 07:16 PM
तब "फ़ैज़" शायर को नहीं, "फ़ैज़" एक शख्सियत से प्यार किया था ?
हाँ, वैसे तो शायरी शख्सियत का एक हिस्सा होती है, क्यूँकि एक शायर के साथ ज़िन्दगी बसर करनी होती है, इसलिए भी उसको बहुत कुछ जानना होता है, और मैंने उसे जाना.
मिलने के कितने अरसे बाद शादी की मंज़िल आई ?
तकरीबन दो साल बाद और यह इंतज़ार इसलिए था कि फ़ैज़ के वालिदैन से मंज़ूरी चाहिये थी, क्यूँकि एक ख़ुशगवार माहौल के बग़ैर हम शादी नहीं कर सकते थे...
शादी की रस्म कहाँ अदा की गईं ?
कश्मीर में. महाराजा कश्मीर ने अपना गर्मियों का महल हमें निकाह की रस्म के लिये दिया था और शेख़ अब्दुल्लाह ने निकाह की रस्म अदा की थी.
क्या बारात लाहौर से आई थी ?
हाँ, तीन आदमियों की बारात थी. एक "फ़ैज़", दूसरे उनके बड़े भाई और तीसरे उनके दोस्त नईम... जब तीनों आ गए, तो मैंने फ़ैज़ साहब से पहली बात पूछी... "ब्याह की अंगूठी ले कर आए हो कि नहीं?" "फ़ैज़" ने कहा - "अंगूठी भी लाया हूँ, साड़ी भी."
मैं हैरान हो गई कि अंगूठी का साइज़ "फ़ैज़" ने कहाँ से लिया है. पूछने पर कहने लगे - "मैं अपने साइज़ का ले आया था."
"फ़ैज़" जान गये होंगे कि दिल मिल जाये तो उँगलियाँ भी ज़रूर मिल जाती है.
अच्छा, एलिस ! यह बताओ, निकाह के वक़्त मुशायरा भी हुआ था ?
हाँ, हुआ था. पहले शेख़ अब्दुल्लाह और उनकी बीवी के साथ खाना खाया. फिर मुशायरा हुआ. मजाज़ और जोश मलीहाबादी भी थे.
jai_bhardwaj
17-09-2013, 07:17 PM
"फ़ैज़" के रिश्तेदारों से कब मुलाक़ात हुई ?
कश्मीर में तीन दिन ठहरकर हम लाहौर आ गये. वहाँ दावत-ए-वलीमा (विवाह-भोज) की गई.
सास की बुज़ुर्गाना दुआएं कैसे लीं ?
सिर झुकाकर, घूँघट निकल कर...
ईमान से ! सच ! घूँघट उठाने की रस्म भी हुई थी ?
हाँ, अमृता ! चाँदी के रुपयों की सलामी मिली थी.
सास साहिबा ने तुम्हारे नाम नहीं तब्दील किया ?
किया था और उन्होंने मेरा नाम कुलसूम रखा था, लेकिन मुझे पसंद नहीं आया.
उर्दू ज़बान कब सीखी ?
घर में "फ़ैज़" के भतीजे से. मैंने उन्हें अंग्रेज़ी सिखाई और उनसे उर्दू सीखी.
उस वक़्त तक फ़ैज़ का पहला मजमुआ (काव्य-संकलन) नक्श-ए-फ़रियादी छप चुका था ?
हाँ ! शायद एक साल पहले ही छपा था.
"फ़ैज़" ने अपने पहले इश्क़ कि दास्ताँ सुनाई थी, जिसके बारे में नक्श-ए-फ़रियादी में नज़्में लिखी थीं ?
हाँ, अमृता, वह भी और उसके बाद की दोस्तियाँ भी, लेकिन मेरी ज़िन्दगी पर कुछ भी असर-अंदाज़ नहीं होता. "फ़ैज़" एक चट्टान हैं अपने-आप में. "फ़ैज़" की वफ़ा अपने साथ है - काग़ज़ और कलम के साथ.
यह सच है. जिसकी वफ़ा अपने साथ हो, अपने किरदार के साथ हो ,अपनी तख्लीक (सृजन) के साथ हो. उस जैसा वफ़ादार कौन हो सकता है ?
तैंतीस बरस गुज़र गये हमारी शादी को.
jai_bhardwaj
17-09-2013, 07:19 PM
पूरब और पश्चिम का यह मिलाप कैसा रहा ?
यह ज़रूर कह सकती हूँ कि दो मुख्तलिफ़, इलहदा-इलहदा सर-ज़मीनों के मर्द और औरत जब शादी करते हैं, तो मेरा ख़्याल है, मर्द के लिये औरत के देश में रहना आसान नहीं, लेकिन औरत अपने मर्द के देश में रह सकती है. नई धरती, नये माहौल को अपनाने की उसमें ताकत होती है. मुख्तलिफ़ तहज़ीब के लोगों की शादी आसान बात नहीं.
तुम्हारे दो बच्चे हैं ?
दो बेटियां सलीमा और मुनीज़ा. सलीमा चित्रकार हैं और मुनीज़ा टी. वी. प्रोड्यूसर ! दोनों ने दो पंजाबी भाइयों के साथ शादी की है. इसलिए इकट्ठी रहती हैं अपनी सास के साथ.
एलिस ! तुमने "फ़ैज़" की नज़्मों का अंग्रेज़ी में तर्जुमा किया होगा ?
नहीं ! और लोगों ने किये हैं. तकरीबन पाँच साल पहले यूनेस्को की तरफ़ से एक तर्जुमा छपा था.
फ़ैज़ साहब को लेनिन पुरस्कार मिला था ?
1962 में. "फ़ैज़" को हार्ट अटैक हुआ था. वह कुछ संभल चुके थे, लेकिन अभी बिस्तर पर थे, जब पाकिस्तान टाइम्स से फ़ोन आया था.
यह ख़बर सुनकर फ़ैज़ साहब के पहले अल्फ़ाज़ (शब्द) क्या थे ?
वह चुप हो गये थे. शायद दिल भर आया था.
लोगों का क्या रवैया था ?
यह कि "फ़ैज़" को यह पुरस्कार नहीं लेना चाहिये, लेकिन अयूब खां का तार आया कि वह प्राइज़ ले सकते हैं. इसी तरह के और तार भी मौसूल (प्राप्त) हुए. फिर दोस्त मुबारकबाद देने आ गये. फिर सवाल आया कि इस हालत में "फ़ैज़" मॉस्को का सफ़र कैसे कर सकते हैं ? डॉक्टर ने हवाई जहाज़ से सफ़र करना मना किया हुआ था. इसलिए बेटी को साथ लेकर "फ़ैज़" ने गाड़ी से लाहौर से कराची तक का सफ़र किया. फिर समुद्री जहाज़ से नेपेल्ज़ तक और फिर नेपेल्ज़ से गाड़ी के ज़रिये मॉस्को तक.
एलिस ! आपने कभी "फ़ैज़" की बायोग्राफी लिखने की सोची है ?
मैं तो नहीं, अलबत्ता कराची में ज़फर-उल-हसन लिख रहे हैं, लेकिन सोचती हूँ, "फ़ैज़" को ख़ुद लिखना चाहिये. एक और काम अधूरा पड़ा है. "फ़ैज़" और सूफ़ी तबस्सुम मिल कर फ़ारसी शायरी का उर्दू तर्जुमा कर रहे थे. सूफ़ी तबस्सुम का इंतक़ाल हो गया, तो "फ़ैज़" बहुत उदास हो गये... यह काम भी करने वाला है और वह काम भी. दोनों काम ज़रूरी हैं.
हाँ, एलिस, और दोनों से बड़ा ज़रूरी काम "फ़ैज़" की ज़िन्दगी को बचाने का है.
हाँ, अल्लाह उनकी हिफाज़त करे.....
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साभार : आजकल हिंदी पत्रिका - फ़ैज़ जन्मशती विशेषांक
उर्दू से अनुवाद : हरपाल कौर
jai_bhardwaj
17-09-2013, 07:19 PM
फ़ैज़ की महफ़िल बिना उनकी ग़ज़लों या नज़्मों के कहाँ पूरी हो सकती है भला, तो आज आप सब के लिये "नक्श-ए-फ़रियादी" से एक बेहद ख़ूबसूरत ग़ज़ल ले कर आये हैं ...............................
राज़-ए-उल्फ़त छुपा के देख लिया
दिल बहुत कुछ जला के देख लिया
और क्या देखने को बाक़ी है
आप से दिल लगा के देख लिया
वो मेरे हो के भी मेरे ना हुए
उनको अपना बना के देख लिया
आज उनकी नज़र में कुछ हमने
सबकी नज़रें बचा के देख लिया
आस उस दर से टूटती ही नहीं
जा के देखा, न जा के देख लिया
'फ़ैज़', तक़मील-ए-ग़म भी हो ना सकी
इश्क़ को आज़मा के देख लिया
rajnish manga
17-09-2013, 10:43 PM
फैज़ अहमद फैज़ के व्यक्तित्व के अनेकों पहलु हैं, कुछ महत्वपूर्ण और कुछ कम महत्वपूर्ण. उनकी शायरी पर फोरम के एक सूत्र में व्यापक सामग्री उपलब्ध है, जो अकस्मात् ही मुझे दिखाई दे गई थी. लेकिन जो जानकारी आपने अमृता प्रीतम द्वारा श्रीमती एलिस के इंटरव्यू के ज़रिये हम तक पहुंचाई है, उसके लिये हम आपके आभारी रहेंगे, जय जी. यह एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ है.
jai_bhardwaj
18-09-2013, 07:08 PM
प्रतिक्रिया के लिए आभार बन्धु।
jai_bhardwaj
18-09-2013, 07:09 PM
आज की रात भी गुजरी है मेरी कल की तरह
हाथ आये ना सितारे, तेरे आँचल की तरह
रात जलती हुई इक ऐसी चिता है जिस पर
तेरी यादें हैं सुलगते हुए संदल की तरह
तू कि दुनिया है मगर मेरी तरह प्यासा है
मैं तेरे पास चला आऊँगा बादल की तरह
मैं हूँ इक ख्वाब मगर जागती आँखों का "अमीर"
आज भी लोग गवां दे न मुझे कल की तरह
-अमीर कज़ल्बश
jai_bhardwaj
18-09-2013, 07:16 PM
जगमगाते शहर की रानाइयों में क्या न था
ढूँढने निकला था जिसको मैं, वही चेहरा न था
रेत पे लिखे हुए नामों को पढ़ कर देख लो
आज तनहा रह गया हूँ, कल मगर ऐसा न था
हम वही तुम भी वही मौसम वही मंज़र वही
फासला बढ़ जाएगा इतना, कभी सोचा न था
फ़िक्र के दर पे कोई आहट कोई दस्तक नहीं
वो फकत बीमार जिसका कोइ हमसाया न था
छोड़ आया जिन सफीनों को तलातुम के करीब
नाखुदा उन में तेरा शायद कोई अपना न था
[सफीना=नाव, तलातुम=भँवर, नाखुदा=नाविक]
- आमिर कज़ल्बश
jai_bhardwaj
19-09-2013, 07:30 PM
फ़ैज़ जन्मशती के अवसर पर प्रसिद्ध शायर शहरयार से प्रेमकुमार द्वारा की गई बातचीत की एक बानगी -
"वो लोग बहुत ख़ुशकिस्मत थे जो इश्क़ को काम समझते थे या जो काम से आशिक़ी करते थे." चेहरे पर एकदम अलग-सी ख़ुशी और तृप्ति. होंठों पर सुनाते जाने की बेचैन, उतावली सी एक चाहत - "हम जीते जी मसरूफ़ रहे कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया." कई बार दोहराया है इन पंक्तियों को. कुछ इस तरह जैसे आगे का हिस्सा याद ना आ रहा हो. पास रखी भारी-भरकम सी एक किताब उठाकर उसके पन्नों को उलटा-पलटा जा रहा है - "काम इश्क़ के आड़े आता रहा और इश्क़ से काम उलझता रहा. फिर आख़िर तंग आकर हमने दोनों को अधूरा छोड़ दिया." आँखों में दाद देती-सी दिपदिपाती एक चमक ! मुझपर हुए असर को देखने-जानने को आतुर-प्रतीक्षित-सी उनकी निगाहें. आज के उनके इस सुनाने के आवेश-उल्लास ने मुझे चौंकाया. इस जोश और जज़्बे के साथ तो शहरयार साहब अपने क़रीबियों से एकांत और फ़ुर्सत में भी अपनी ताज़ी-से-ताज़ी, अच्छी-से-अच्छी रचना को सुनने के लिये प्रायः नहीं कहते. कभी घर पर फ़ोन पर सुनाने का मन भी हुआ तो बेहद शान्त, शीतल, सहज अंदाज़ में.
कुछ भी पसंद आने की कोई ना कोई ख़ास वजह तो होती ही है न ?
- "देखिये - हम जिस ज़माने में जी रहे हैं वो इश्क़ करने को कोई काम नहीं समझता. आप शायरी करते हैं तो हर आदमी पूछता है कि आप काम क्या करते हैं. गोया शायरी करना कोई काम ही नहीं है. हाँ - ऐसे ही कोई बेकार चीज़ है वो जिसका जीने से ताल्लुक नहीं या शायरी जीने का ज़रिया ही नहीं हो सकती. इस सवाल पर हमारी कल्चर्ड सोसाइटी कभी ग़ौर नहीं करती. आप पेंटर से, टेबल या सारंगी वाले से ये नहीं पूछते - पर राइटर से हमेशा ये सवाल किया जाता है कि आप काम क्या करते हैं. पता नहीं हमारे समाज में यह पूछना कब से चला आ रहा है. कोई ग़ौर नहीं करता कि ये कितना एब्सर्ड सवाल है. आप देखिये कि नक्क़ाद से नहीं पूछेंगे कि आप क्या काम करते हैं पर एक क्रिएटिव राइटर से हरेक यही सवाल करता है. जी - हर कोई - चाहे उसका बाप हो या बेटा हो !"
यह तो है - पर मैं इस नज़्म की... ?
मेरा इतना भी बोलना जैसे उन्हें खटका था. झांई-सी मरती पल-दो-पल की एक रुकावट आयी. उनकी निगाह ने मेरी आँखों में झाँकते-से जैसे कुछ जांचा-परखा. और अगले ही पल तक वो एक अध्यापक हो गये थे - "जी मैं इसी नज़्म के हवाले से बात कर रहा हूँ. "फैज़" की ये नज़्म - कि इश्क़ भी एक काम है - और यही नहीं कि इश्क़ अपोज़िट सेक्स से ही हो ! किसी भी चीज़ को हासिल करने या उसके हुस्न, खूबसूरती में आदमी का इतना खो जाना कि उसे सुध-बुध न रहे - दीवानों-पागलों की तरह का आदमी का चाहना- इश्क़ है. यह किसी आइडियल से, औरत, मुल्क़ या राइटर से - किसी से भी हो सकता है. जिसको पाने के लिये आदमी काम को भी फायदे नुक्सान को सोचकर न करे - अपनी पसंद का है इसलिए इसलिए पूरा दिल लगाकर करे उसे. आप किसी के सामने अकाउंटबल हों या न हों - अपने सामने ज़रूर हों. अपने सामने अकाउंटबल तब होता है इन्सान जब अपने कॉन्शस को फेस करता है. फेस करने के दौरान जब वह पूछता है कि मुझे जिस काम पर मुक़र्रर किया गया है - टीचर, सैनिक, सिपाही, मिनिस्टर या और जो भी - तो मैंने जो वह काम किया या कर्त्तव्य किया - वह पूरे मन से किया या नहीं. अगर जवाब 'हाँ' में मिलता है तो वो अपनी नज़र से गिरता नहीं है."
"ख़लीलुर्रहमान आज़मी का एक शेर है - 'अपना मुशाहिदा नहीं करता स्याह रूह. वो देखे आईना कि जो रौशन ज़मीर हो...' इसीलिए तो - ज़मीर जिसका पाक़-साफ़ हो उसे आईना देखने में डर नहीं लगता...."
jai_bhardwaj
19-09-2013, 07:30 PM
जी - दरअसल बात इस नज़्म की ख़ासियत की... ?
"ख़ासियत - यही की यह जो हमारा दौर है, उसमे इश्क़ करना भूल गये हैं हम. फ़ारसी का एक शेर है - बड़ा मशहूर है. पूरा याद नहीं - पर ये है की दमिश्क में जब क़हर पड़ा तो लोग इश्क़ करना भूल गये. हम लोग जिस ज़माने में ज़िन्दा हैं इसमें लोग इश्क़ करना भूल गये हैं. मुहब्बत जो है, वो भी एक कारोबार बन गई है. अपना एक शेर याद आ रहा है - 'पहले था -' शेर से पहले लम्बी-गहरी साँस की उस आवाज़ ने कह दिया कि मैं अन्दर कहीं बहुत गहरे से आ रही हूँ - "पहले था जो भी आज मगर कारोबार-ए-इश्क़ / दुनिया के कारोबार से मिलता हुआ सा है"
लेकिन यह इश्क़ या काम का फ़लसफ़ा - और "फ़ैज़" या उनकी वह विचारधारा ?
"दरअसल 'फ़ैज़' का जो नज़रिया था - मर्क्सिज़म का - उन्होंने उसको वो दर्जा दे रखा था जो ज़िन्दगी में माशूक को हासिल होता है. बड़ा मशहूर शेर है उनका - आपने ज़रूर सुना होगा - 'गर बाज़ी इश्क़ की बाज़ी है जो चाहे लगा दो डर कैसा. गर जीत गए तो क्या कहना हारे भी तो बाज़ी मात नहीं.' बड़ी ख़ूबसूरत ग़ज़ल है यह 'फ़ैज़' की. गदगद कंठ. पलक बन्द. बिलकुल जैसे कोई गीतकार अपने में खोया हुआ - डूबा-सा अपना कोई बहुत प्रिय गीत अपने किसी अज़ीज़-करीबी को सुना रहा हो - 'कब याद में तेरा साथ नहीं, कब हाथ में तेरा हाथ नहीं. सद शुक्र कि अपनी रातों में अब हिज्र कि कोई रात नहीं.' पलकों के खुलते ही कलाइयों और उँगलियों ने चलना-घूमना शुरू कर दिया है. किसी काव्यांश कि व्याख्या करते अध्यापक की तरह तफ़सील से बताया जा रहा है - "अब दूरी कैसी ! हर वक़्त तेरी याद. जब हर वक़्त तेरा हाथ मेरे हाथ में रहता है तो..."
इन हिस्सों को आज आपसे सुन रहा हूँ तो कई तरह से अलग-सा असर हो रहा है 'फ़ैज़' के अंदाज़ और उनके एक-एक शब्द का...
"यही तो है ! 'फ़ैज़' बड़े शायरों की तरह उन शायरों में हैं जो अपने इस्तेमाल किये हुए लफ़्जों पर ऐसी मोहर लगाते हैं कि वो लफ़्ज़ सिर्फ़ उनसे मख़सूस हो जाते हैं. जैसे पेटेंट करा देते हैं न ! ट्रेडमार्क बन जाते हैं न जैसे. तो ग़ालिब के बाद मुख्तलिफ़ राइटर्स ने बड़ी तादाद में अपनी कहानियों के टाइटिल्स, किताबों के नाम उनके बनाए हुए मुक्केबाज़ - हाँ, जुड़-मिलकर बने शब्दों - जी, शायद यही जिन्हें आप सामासिक शब्द कह रहे हैं - तो मुक्केबाज़ पर रखे हैं. जी, जैसे क़ाज़ी अब्दुल सत्तार का उपन्यास है न - शब गज़ीदा. और हाँ - 'सफ़ीन-ए-ग़म-ए-दिल' है जैसे कुर्तुलुन का. उन्हीं का 'आख़िर शब के हमसफ़र' है. आप जानते हैं कि यह जो लफ़्ज़ है सहर - वैसे तो सुबह के अर्थ में आता है - पर तरक्कीपसंदों - ख़ासतौर से 'फ़ैज़' के इस्तेमाल से यह किसी चीज़ के पॉज़ीटिव रिज़ल्ट के अर्थ में प्रचलित हुआ और वैसे ही रात निगेटिव के. इससे पहले सहर या रात सिर्फ़ टाइम को ज़ाहिर करते थे."
आपकी तो मुलाक़ातें भी हुई हैं 'फ़ैज़' से ?
"हाँ, हाँ, मेरी उनसे बाराहा मुलाक़ात हुई. बहुत ही निजी तरह की महफिलें. उन मुलाक़ातों में कभी हिन्दुस्तान-पाकिस्तान कि समस्याओं या रिश्तों वगैरह पर बातें नहीं हुआ करती थीं. वो यहाँ या वहाँ के मिसायलों के बारे में कभी गुफ़्तगू नहीं किया करते थे. वे कहते थे कि हम तो भाई मुहब्बत के सफ़ीर हैं और इसके अलावा कुछ सोचते नहीं. उनकी पूरी शायरी में भी कोई ऐसी फीलिंग नहीं है जिसमें नफ़रत, जंग कि हिमायत, दूरी फैलाने या फ़ासला पैदा करने वाला कुछ हो. ऐसा कुछ दूर दूर तक वहाँ नहीं है. बांग्लादेश बनने पर उन्होंने जो नज़्म लिखी थी, उसमें भी बहुत उदासी थी. सोचते थे कि जो हुआ बहुत तकलीफ़देह हुआ. वो सब नहीं होना चाहिये था. पर जो हुआ - उनकी नज़र में उसके कॉज़िज़ मौजूद थे. एक आम पाकिस्तानी नेशनलिस्ट कि हैसियत से वो दुखी थे. मसलन वो लाइन है उनकी - 'खून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद.' 'फ़ैज़' यहाँ के कई शायरों को पढ़ते, पसंद करते और मान देते थे. आम पाकिस्तानियों के बरक्स उन्होंने मख़दूम, जज़्बी, जाफ़री और मजाज़ को शुरू की अपनी एक किताब डेडीकेट की थी. डेडीकेट करते समय इन चार शायरों में से दो को दस्त-ओ-बाजू और दो को उन्होंने क़ल्ब-ओ-जिग़र लिखा था."
यह भी तो है कि उनके लेखन में कई बार सन सैंतालीस में मिली उस आज़ादी को लेकर नाख़ुशी और असंतोष का इज़हार हुआ है. जैसा वो जो उनकी नज़्म है - "ये दाग़-दाग़ उजाला...! "
बाएँ हाथ ने बढ़कर 'फ़ैज़' के उस संग्रह को हाथ में थाम लिया है. पृष्ठों के उलटने-पलटने के साथ-साथ जोशीले लहज़े में कहना शुरू हुआ है - "जी - उए पार्टीशन पर लिखी थी, बहुत मशहूर हुई." सुनाना शुरू हो चुका है. साथ ही किताब में उसकी तलाश भी जारी है -
ये दाग़ दाग़ उजाला, ये शब गज़ीदा सहर
वो इन्तज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं
ये वो सहर तो नहीं जिस की आरज़ू लेकर
चले थे यार कि मिल जायेगी कहीं न कहीं
फ़लक के दश्त में तारों की आख़री मंज़िल
कहीं तो होगा शब-ए-सुस्त मौज का साहिल
कहीं तो जा के रुकेगा सफीना-ए-ग़म-ए-दिल
नज़्म तलाश ली गई. गुनगुनाते-से उसे फिर से पढ़ा जा रहा है अपनी एक ख़ास धुन में - आखिरी लाइनें हैं -
अभी गरानि-ए-शब में कमी नहीं आई
निज़ात-ए-दीद-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई
चले चलो कि वो मंज़िल अभी नहीं आई
नज़्म ख़त्म हुई तो उनका जो हाथ किताब को मेज़ से उठाकर लाया था, जल्दी से उसे वहीं वापस पहुँचाने के लिये चल दिया. आख़िरी पंक्ति दो-तीन बार बाआवाज़ पढ़ी गई है. कहीं दूर देखते-सोचते से कह रहे हैं - हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी सब इस बात पर ख़ुश थे कि चलो अंग्रेज़ों से छुटकारा मिला - मगर 'फ़ैज़' दुखी थे कि ये आज़ादी उनके ख़्वाबों की आज़ादी नहीं थी. पार्टीशन में इंसानियत का जैसे खून हुआ - जैसे वो बंटवारा हुआ - उसने बहुत तकलीफ़ पहुँचाई थी उन्हें. वे पाकिस्तान में रहते थे - तो ज़ाहिर है कि उस हक़ीक़त को कुबूल कर लिया था - पर अन्दर से ख़ुश नहीं थे."
jai_bhardwaj
19-09-2013, 07:31 PM
आँखें बन्द कर के याद करने कि कोशिश कि है कुछ देर. याद आने में मुश्किल दिखी तो किताब फिर हाथ में आ गई - "हाँ, ये है वो मुक्तक - 'दीद-ए-दर पे वहाँ कौन नज़र करता है/ कासा-ए-चश्म में खूनाबे जिग़र ले के चलो/ अब अगर आओ पर अर्ज़ो तलब उनके हुज़ूर/ दस्त-ओ-कशकोल नहीं कासा-ए-सर ले के चलो' आज 'फ़ैज़' पर सौ साला जश्न पूरी दुनिया में हो रहा है उसमें हिन्दुस्तान भी पीछे नहीं है. साहित्य अकादमी और बहुत-से इदारे और अन्जुमनें बड़े पैमाने पर उनका प्रोग्राम कर रहे हैं. ख़ुद यहाँ अलीगढ़ में - यूनिवर्सिटी में जनवरी में एक बड़ा जलसा हो रहा है जिसमे हिन्दुस्तान से बाहर के बहुत लोग आने वाले हैं - और 'फ़ैज़' कि बेटी सलीमा भी आ रही हैं उसमें."
उनकी अभिव्यक्ति कि रग-रग में से, रेशे-रेशे में से नया अनोखा सा एक आदर भाव झलक रहा था. आदर का ऐसा भाव जो अपने पूर्वजों-वंशजों की श्रेष्ठताओं-ऊँचाइयों को याद करते समय हमें अनायास-अप्रयास श्रद्धा से भर जाता है - गर्वित - आलोकित कर जाता है. मेरे सामने अभी हाल ही में ही ज्ञानपीठ पुरस्कार से पुरस्कृत हुआ एक शायर था - और 'फ़ैज़' की शायरी के बारे में उसके अनुभव और राय से परिचित कराने वाली वो सहज, बेबाक प्रतिक्रियाएं थीं. तब वह शायर अपनी शायरी की खासियतें बताने-गिनाने कि धुन या ज़िद में नहीं था. लग ही नहीं रहा था कि उस शायर को अपने ख़ुद के शायर होने का कोई बोध उन क्षणों में 'फ़ैज़' कि शायरी के मूल्यांकन में ज़रा-सी बाधा पहुँचा रहा है या कोई मुश्किल खड़ी कर रहा है. जैसे तब शहरयार साहब केवल एक सहृदय भर थे, सुबुद्ध एक पाठक या श्रोता भर थे, बहुज्ञ एक बुद्धिजीवी मात्र थे या फिर साहित्य कि दुनिया में खूब पैरे-तैरे, डूबे-उतराए एक तठस्थ-ईमानदार समीक्षक हो चले थे. शब्द-शब्द बता रहा था कि मैं बहुत अन्दर से आ रहा हूँ और जो कह रहा हूँ मन से - पूरे मन से कह रहा हूँ. जी किया कि 'फ़ैज़' की शायरी की बड़ाई-ऊंचाई-गहराई को शहरयार साहब के दिल और आँखों से भापूँ-देखूँ - "क्या कुछ होता है वह जिसके होते कोई शायर या उसकी शायरी - हाँ, 'फ़ैज़' और उनकी शायरी भी - बड़ी हो जाती है - बड़ी मान ली जाती है ?"
दो-चार पल भी तो नहीं गुज़रे थे कि सुनाई पड़ा - "मेरा एक तसव्वुर है कि वो शायर या राइटर अहम और बड़ा है जिसको बार-बार पढ़ने को जी चाहे. हर बार जब आप पढ़ें तो वो बिलकुल नया मालूम हो और ऐसा लगे कि पहले जब हम इस अदीब के पास आये थे तो हम उसकी बहुत-सी खूबियों, बहुत-से पहलुओं को देख नहीं पाए थे - और एक नई ख़ुशी और हैरत ले कर वापस लौटें. ये सिलसिला बराबर चलता रहे और हर विज़िट में हमें यही अनुभव हो. इस ऐतबार से आप 'फ़ैज़' की शायरी को देखिये. 'फ़ैज़' कि शायरी में मुझे ग़ालिब जैसी बड़ाई नज़र आती है."
ग़ालिब जैसी... ?
"जी - ग़ालिब जैसी. यूँ और भी ऐसे बड़े शायर हैं जिनकी तरफ़ हम बार-बार जाते हैं, लेकिन बाज़ बाहरी चीज़ों कि वजह से हमारे अन्दर उनके सिलसिले में एक ख़ास ज़ेहन बन जाता है. आमतौर से हम उन्हीं चीज़ों को उनके यहाँ ढूंढने जाते हैं और वही चीज़ें हमें मिलती हैं बार-बार. उनका रौब तो हम पर पड़ता है और रिस्पेक्ट में हमारे सर झुक जाते हैं - लेकिन ख़ुशी और हैरत नहीं मिलती हमें. इसकी एक बहुत बड़ी मिसाल उर्दू में इक़बाल हैं - जिनके बड़े होने में कोई शुबह नहीं - लेकिन वो हमें उस तरह ख़ुश और हैरान नहीं करते जिस तरह ग़ालिब और 'फ़ैज़' हमें करते हैं. आपने पूछा है न - तो 'फ़ैज़ और ग़ालिब - दोनों कि एक ख़ूबी ये भी है कि इनके स्टाइल और रंग पर इनकी इतनी गहरी छाप है कि अगर उनके रंग में कोई लिखने की कोशिश करे तो फ़ौरन पकड़ा जाता है - और दूर से मालूम हो जाता है कि ये फ़ैज़ का या ये ग़ालिब का शेर है. इसको यूँ भी कहा जा सकता है कि उन्होंने अपने स्टाइल को बिलकुल इग्ज़ॉस्ट कर दिया है. उससे कोई दूसरा कुछ नहीं ले सकता है. उस ज़मीन में जितनी फसल पैदा हो सकती थी, उन्होंने उगा ली - काट ली. उनके स्टाइल का जादू इतना चला कि उनके कई कन्टेम्परेरीज़ - हम उम्र या साथ के जो लोग थे - उन्होंने उनकी तरह की चीज़ें लिखने की कोशिश कीं. - जी - मसलन सरदार जाफ़री... "
'फ़ैज़' की प्रसिद्धि के पीछे जितनी जैसी भी हो क्या एक वजह उनकी शायरी में उपस्थित राजनीति के हिज्जे-हिस्से भी हैं ?
"जहाँ तक मक़बूलियत का सवाल है - तो वो ख़ास-ओ-आम में जितने मकबूल हैं, उसकी वजह ये भी है कि वो जेल गये और मार्किस्ट रहे. उनका जेल जाना या लम्बे अरसे तक जेल में रहना और मार्किस्ट होना उनके लिये बहुत फायदेमंद रहा. और जहाँ तक सियासी एलिमेंट कि बात है तो वो उनके यहाँ बहुत रूमानी और इश्क़िया अंदाज़ में आया. कई जगह तो उनका इंक़लाब गोश्त और पोस्त का इन्सान मालूम होता है." बोलना रुका तो देखा कि किताब हाथ में आ चुकी है और उलट-पुलट शुरू हो चुकी है - मसलन ये शेर देखिये -
कब ठहरेगा दर्द-ए-दिल, कब रात बसर होगी
सुनते थे वो आयेंगे, सुनते थे सहर होगी
कब जान लहू होगी, कब अश्क गुहर होगा
किस दिन तेरी शुनवाई, ऐ दीद-ए-तर होगी
इस जल्दी और चाहत के साथ निकला यह वाक्य कि जैसे कोई शायर अपनी एकदम ताज़ा लिखी रचनाओं में से अधिकाधिक को अपने पास आये अपने किसी साथी-करीबी को सुना देना चाह रहा हो -
आ गई फ़स्ल-ए-सुकूँ चाक़ गरेबाँ वालों
सिल गये होंठ, कोई ज़ख्म सिले या न सिले
दोस्तों बज़्म सजाओ के बहार आयी है
खिल गये ज़ख्म, कोई फूल या न खिले
या उनका ये शेर देखिये -
तेरे ग़म को जाँ की तलाश थी तेरे जाँ-निसार चले गये
तेरी राह में करते थे सर तलब सर-ए-राह-गुज़ार चले गये
न रहा जुनूँ-ए-रुख़-ए-वफ़ा ये रसन ये दार करोगे क्या
जिन्हेँ जुर्म-ए-इश्क़ पे नाज़ था वो गुनाहगार चले गये
पता नहीं, अब वो सुनाने के लिये पढ़ रहे हैं या पढ़ने के लिये सुना रहे हैं. पर जो भी चल रहा है, वह बदस्तूर जारी है - "इन शेरों से साफ़ पता चलता है कि इंक़लाब उनके लिये एक रूमान था." उंगलियाँ रुकीं तो सफात कि उलट-पुलट थमी. निगाह के उस पन्ने पर टिकते ही आवाज़ में फड़कती-चहकती-सी एक ख़ुशी सुनाई दी - "अच्छा- आख़िर में उनकी एक नज़्म... "मैंने दोबारा ध्यान से देर तक देखा - शहरयार साहब के हाथों में अपनी कोई डायरी या अपना कोई संकलन नहीं था. वही किताब थी जिसे बीच-बीच में कई बार 'फ़ैज़' की बताया गया था. तो दूसरे किसी कवि कि कविता को सुनाने की शहरयार साहब की ऐसी यह आतुरी, उत्सुकता, उमंग और छटपटाती-सी चाहत और जो भी हो पर यह ज़रूर है कि वह नज़्म ऐसी-वैसी कोई साधारण-कमज़ोर नज़्म तो नहीं ही होगी, जिसने शहरयार साहब को इतनी मज़बूती से अपनी गिरफ़्त में लिया हुआ है.... ! जी - नज़्म यूँ शुरू होती है -
तुम्हीं कहो क्या करना है
जब दुःख की नदिया में हमने
जीवन की नाव डाली थी
था कितना कस-बल बाहों में
लोहू में कितनी लाली थी
यूँ लगता था दो हाथ लगे
और नाव पूरम्पार लगी
ऐसा ना हुआ, हर धारे में
कुछ अनदेखी मझधारें थीं
कुछ माँझी थे अनजान बहुत
कुछ बेपरखी पतवारें थीं
अब जो भी चाहो छान करो
अब जितना चाहो दोष धरो
नदिया तो वही है नाव वही
अब तुम ही कहो क्या करना है
अब कैसे पार उतरना है
jai_bhardwaj
19-09-2013, 07:31 PM
जब नज़्म को सुनाना शुरू किया था तो मन एकदम अनमना-सा था. बस, ऐसा-सा कि शहरयार साहब के उस मन को रखना था - उनके उस भाव कि इज्ज़त करनी थी. पर यहाँ तक आते-आते लगा कि कविता के सम्मोहन ने मुझे अपने घेरे-फंदे में खींच-जकड़ लिया है. शहरयार साहब से ऐसा कुछ पूछने का भी मन हुआ कि क्या इस नज़्म को इतनी इस दिलीचाहत, ख़ुशी और हैरानी के साथ आपसे सुनने का सौभाग्य किसी और को भी मिला है - पर नहीं - इस कारण अगर एक भी शब्द अनसुना रह गया तो मिल रहे इस आनंद में ख़लल भी तो पड़ सकता है न ! इस नज़्म से अपने प्रथम परिचय के उन अनमोल क्षणों में मैं ख़ुद को हैरान करती-सी उस ख़ुशी से लेशमात्र भी वंचित नहीं होने देना चाह रहा था. वो थे कि नज़्म में बेजिस्म सर-ओ-पा बहुत गहरे उतरे-रुके से बोले जा रहे थे -
अब अपनी छाती में हमने
इस देश के घाव देखे थे
था वैदों पर विश्वास बहुत
और याद बहुत से नुस्ख़े थे
यूँ लगता था बस कुछ दिन में
सारी बिपता कट जायेगी
और सब घाव भर जायेंगे
ऐसा ना हुआ के रोग अपने
तो सदियों ढेर पुराने थे
वैद इनकी तह को पा न सके
और टोटके सब नाकाम गये
अब जो भी चाहो छान करो
अब जितना चाहो दोष धरो
छाती तो वही है घाव वही
अब तुम ही कहो क्या करना है
ये घाव कैसे भरना है
कुछ तो हुआ ही था कि मैं कुछ ऐसे वाह-वाह कर उठा था जैसे मुझे शहरयार साहब नहीं ख़ुद 'फ़ैज़' ही अपनी नज़्म सुना रहे हों ! इस ख़्याल के आते ही याद आया कि हाँ - बहुत लोग कहते हैं कि शहरयार भी तो 'फ़ैज़' कि तरह ही पढ़ते हैं. शहरयार कई बार बता चुके हैं कि 'फ़ैज़' अपनी ग़ज़लें और अपनी नज़्में अच्छी तरह नहीं पढ़ पाते थे. तो - इसका मतलब - ! मेरी आँखों में से झाँकते चकित-से उस आह्लाद को शहरयार की निगाहों में शायद भांप-जान लिया है - "नहीं - इस तरह की नज़्में उनके पास बहुत कम हैं उनके डिक्शन पर सजावट और आराइश का बहुत असर है. इसलिए फ़ारसी, आमेज़ ज़बान उनकी नज़्मों में बहुत नज़र आती है. अलबत्ता ग़ज़लें निस्बतन सहज ज़बान में हैं और वो सहज इसलिए भी लगने लगी हैं कि बहुत गायी गई हैं. बार-बार सुनने से कान उससे मानूस हो गये हैं. तो वो बहुत आसान लगने लगी हैं..."
यह बिना वजह तो नहीं ही होगा कि इस समय मुझे नज़ीर याद आ रहे हैं ! आपको कुछ ऐसा लगता है कि नज़ीर और 'फ़ैज़'... ?
"नहीं 'फ़ैज़' से नज़ीर कि तुलना तो ठीक नहीं है. जहाँ तक नज़ीर का सवाल है उन्होंने बहुत आवामी ज़बान इस्तेमाल की. इसलिए कि जो उनका कंटेंट था वो भी आम आदमी कि प्रॉब्लम्स से - ज़िन्दगी से लिया गया था. और उर्दू का जो आम स्टाइल था, उससे वो बहुत अलग था. इसलिए बहुत दिनों तक उर्दू वालों ने उन्हें शायरी में वो ख़ास दर्जा नहीं दिया जो उनको बीसवीं सदी में मिला. ख़ासतौर से तब जब प्रोग्रेसिव मूवमेंट का दौर चला. जब आम आदमी को अदब में जगह मिली तो नज़ीर को भी अदब में जगह मिल गई. जबकि बहुत से लोग उनको बड़े शायरों में शुमार नहीं करते. जी - 'फ़ैज़' से कँपेरिज़न इसलिए ठीक नहीं कि 'फ़ैज़' उर्दू की आम ट्रेडिशन से जुड़े हैं. उससे - वो जो आम चलन था - वो जो सॉफ्स्टिकेटेड लैंग्वेज होती है जिसमे तसन्नो-तकल्लुफ और सजावट का एलिमेंट ज़्यादा है.
यहाँ यह एक और बात हमें ध्यान में रखनी चाहिये कि वो शायर और राइटर - जिनकी मादरी ज़बान उर्दू नहीं थी - उनके जो अदबी क्रिएशंस हैं - उनकी ज़बान एक ख़ास तरह की बोलचाल कि ज़बान से थोड़ी दूर ही रहती है. जी - जैसे एक्वायर्ड लैंग्वेज होती है ना ! 'फ़ैज़' की मादरी ज़बान पंजाबी थी. पंजाबी में - ज़्यादा नहीं - मगर उन्होंने शायरी भी की है."
ऐसे और भी तो शायर हैं कई ?
"हाँ - राशिद हैं ! यासिर काज़मी, इब्ने इंशा - बहुत लोग हैं. कृष्ण चंदर, बेदी, मंटो हैं. इनमे किसी की मादरी ज़बान उर्दू नहीं थी. इसलिए इनकी ज़बान थोड़ी अलग होती है. इसका एक फायदा इन लोगों को ये हुआ कि इन लोगों ने उर्दू वाले इलाके के अदीबों के मुकाबले में ज़्यादा मेहनत की और ज़्यादा पढ़ा. इसलिए इनके यहाँ निस्बतन औरों के मुकाबले डेप्थ ज़्यादा है. जी - मजाज़, सरदार जाफ़री, जाँ निसार अख्तर आदि के मुकाबले में आप ये देख सकते हैं."
देशों-भाषाओं की बंदिशों-सीमाओं से परे और पार - 'फ़ैज़' को यह जो महत्त्व, मुक़ाम और मान हासिल है - उसे लेकर कैसे और क्या सोचते हैं आप ?
"साफ़ है कि 'फ़ैज़' बड़े शायर हैं. इसलिए बड़े शायर हैं कि इनका डिक्शन भी अलग है और क्वालिटी व क्वान्टिटी - दोनों के ऐतबार से बड़ाई का एलिमेंट 'फ़ैज़' के यहाँ बहुत ज़्यादा है."
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साभार : आजकल हिंदी पत्रिका - फ़ैज़ जन्मशती विशेषांक
jai_bhardwaj
19-09-2013, 07:37 PM
कैसा चलन है गर्दिश-ए-लैल-ओ-नहार का
शिकवा हर एक को है गम-ए-रोज़गार का
टूटी जो आस जल गए पलकों पे सौ चिराग
निखारा कुछ और रंग शब्-ए-इंतज़ार का
इस ज़िन्दगी की हमसे हकीकत ना पूछिए
इक जब्र जिसको नाम दिया इख्तियार का
ये कौन आ गया मेरी बज़्म-ए-ख़याल में
पूछा मिजाज़ किसने दिल-ए-सोगवार का
देखो फिर आज हो ना जाए कहीं खून-ए-ऐतमाद
देखो न टूट जाए फुसूं ऐतबार का
-मुमताज़ मिर्ज़ा
jai_bhardwaj
19-09-2013, 07:43 PM
तुमको हम दिल में बसा लेंगे तुम आओ तो सही
सारी दुनिया से छुपा लेंगे, तुम आओ तो सही
एक वादा करो अब हम से ना बिछडोगे कभी
नाज़ हम सारे उठा लेंगे, तुम आओ तो सही
बेवफा भी हो, सितमगर भी, जफापेशा भी
हम खुदा तुम को बना लेंगे, तुम आओ तो सही
यूं तो जिस सिम्त नज़र उठती है तारीकी है
प्यार के दीप जला लेंगे, तुम आओ तो सही
इख्तलाफात भी मिट जायेंगे रफ्ता रफ्ता
जिस तरह होगा निबाह लेंगे, तुम आओ तो सही
दिल की वीरानी से घबरा के ना मुँह को मोड़ो
बज़्म ये फिर से सज़ा लेंगे, तुम आओ तो सही
राह तारीक है और दूर है मंजिल लेकिन
दर्द की शमएँ जला लेंगे, तुम आओ तो सही
-मुमताज़ मिर्ज़ा
jai_bhardwaj
19-09-2013, 07:52 PM
जब से बुलबुल तू ने दो तिनके लिए
टूटती है बिजलियाँ इन के लिए
है जवानी खुद जवानी का सिंगार
सादगी गहना है उस सिन के लिए
(सिन = जिन्दगी के कुछ ख़ास पल)
कौन वीराने में देखेगा बहार
फूल जंगल में खिले किन के लिए
सारी दुनिया के हैं वो मेरे सिवा
मैं ने दुनिया छोड़ दी जिनके लिए
बागबां! कलियाँ हों हलके रंग की
भेजनी हैं एक कमसिन के लिये
सब हसीं हैं जाहिदों को नापसंद
अब कोई हूर आयेगी इनके लिए
(जाहिद=धार्मिक व्यक्ति)
वस्ल का दिन और इतना मुख़्तसर
दिन गिने जाते हैं इस दिन के लिए
(वस्ल = मिलन, मुख़्तसर = कम अवधि)
-अमीर मिनाई
rajnish manga
19-09-2013, 10:19 PM
महाकवि फैज़ अहमद फैज़ के सन्दर्भ में जनाब शहरयार साहब से प्रेमकुमार की मुलाक़ात से बहुत सी नई बातें दोनों विख्यात शायरों के बारे में मालूम हुयीं.
"ख़लीलुर्रहमान आज़मी का एक शेर है -
'अपना मुशाहिदा नहीं करता स्याह रूह.
वो देखे आईना कि जो रौशन ज़मीर हो.
इसीलिए तो - ज़मीर जिसका पाक़-साफ़ हो उसे आईना देखने में डर नहीं लगता...."[/QUOTE]
देशों-भाषाओं की बंदिशों-सीमाओं से परे और पार - 'फ़ैज़' को यह जो महत्त्व, मुक़ाम और मान हासिल है - उसे लेकर कैसे और क्या सोचते हैं आप ?
"साफ़ है कि 'फ़ैज़' बड़े शायर हैं. इसलिए बड़े शायर हैं कि इनका डिक्शन भी अलग है और क्वालिटी व क्वान्टिटी - दोनों के ऐतबार से बड़ाई का एलिमेंट 'फ़ैज़' के यहाँ बहुत ज़्यादा है."
मैं यहां पर अपनी ओर से फैज़ की शायरी की विशेषताओं में डिक्शन, क्वालिटी, क्वांटिटी के साथ content भी जोड़ना चाहूँगा. प्रस्तुति हेतु आपका अनेकानेक धन्यवाद, जय जी.
bindujain
20-09-2013, 07:01 AM
ठहरो, गम आबाद करें--गजल / मनोज श्रीवास्तव
गूंगों की इस बस्ती में
आओ, खुद से बात करें
शीशे, शोले, शूल जहां
ठहरो, गम आबाद करें
फफकी, सिसकी, हिचकी का
हंसियों में अनुवाद करें
हकलों की जमघट हैं हम
चल, बैठक कुछ ख़ास करें
jai_bhardwaj
21-09-2013, 06:37 PM
महाकवि फैज़ अहमद फैज़ के सन्दर्भ में जनाब शहरयार साहब से प्रेमकुमार की मुलाक़ात से बहुत सी नई बातें दोनों विख्यात शायरों के बारे में मालूम हुयीं.
"ख़लीलुर्रहमान आज़मी का एक शेर है -
'अपना मुशाहिदा नहीं करता स्याह रूह.
वो देखे आईना कि जो रौशन ज़मीर हो.
इसीलिए तो - ज़मीर जिसका पाक़-साफ़ हो उसे आईना देखने में डर नहीं लगता...."
मैं यहां पर अपनी ओर से फैज़ की शायरी की विशेषताओं में डिक्शन, क्वालिटी, क्वांटिटी के साथ content भी जोड़ना चाहूँगा. प्रस्तुति हेतु आपका अनेकानेक धन्यवाद, जय जी.[/QUOTE]
सूत्र पर लगातार सहृदयता बनाए रखने के लिए हार्दिक आभार बन्धु। आपकी प्रतिक्रियाएं कुछ नवीन खोज कर लाने के लिए प्रेरित करती हैं। आज भी कुछ लाया हूँ। शायद मंच के लिए नवीन ही हो। धन्यवाद बन्धु।
jai_bhardwaj
21-09-2013, 06:37 PM
ठहरो, गम आबाद करें--गजल / मनोज श्रीवास्तव
गूंगों की इस बस्ती में
आओ, खुद से बात करें
शीशे, शोले, शूल जहां
ठहरो, गम आबाद करें
फफकी, सिसकी, हिचकी का
हंसियों में अनुवाद करें
हकलों की जमघट हैं हम
चल, बैठक कुछ ख़ास करें
अच्छी पंक्तियाँ हैं बन्धु। हार्दिक आभार।
jai_bhardwaj
21-09-2013, 06:40 PM
लाल किले पर मुशायरा
(१६ - ०६ - २०१३ को यह नाटक खेला जा चुका है)
इज्जत से काम करने जाओ तो नहीं मिलता और गलत रास्ते अख्तियार करो तो बाइज्जत मिलता है। एसआरसी में कल साढ़े सात बजे खेले जाने वाले नाटक का नाम लाल किले का आखिरी मुशायरा था। अब मेरे जैसा आदमी जो न ठीक से हिन्दी सीख सका, न उर्दू का ही विद्यार्थी बन पाया और इस तरह अधकचरा ज्ञान पाया, सो नाम सुनकर ही उत्साहित हो गया। मज़ा तो तब आया जब टॉम अल्टर का नाम देखा। थियेटर में इनका बड़ा नाम है। अदब से टिकट लेने काउंटर पर गया तो जबाव मिला - सॉरी सर। आल टिकेट्स हैव बीन आलरेडी सोल्ड आऊट सर टाईप जैसा कुछ। हरी घास पर मुंह तिकोना हो आया। फिर वही पटना वाले लाइन पर आना पड़ा। आम बोलचाल की भाषा में इस तरह के संघर्ष को राष्ट्रीय शब्दावली में जुगाड़ कहते हैं। फिर शुरू हो गई मुहिम गार्ड को पटाने की। कोशिश रंग लाई और जो लाई तो कहां हम ऊपरी माले के बाड़े में प्लास्टिक कुर्सी पर बैठने वाले कौम और कहां एकदम फ्रंट पर तीसरी लाइन में गद्देदार सीट पर उजले साफे में लिपटे रिजव्र्ड पर आसीन हुए। कुछ ही लम्हें बाद लाल मखमली पर्दा जो उठा तो मुखमंडल भी प्रकाशमान हो उठा। देखते क्या हैं कि एक शमां जली हुई है और तीन उजले पर्दे लटके हैं जो नीचे आकर सिमटे हुए हैं। तीन दरबान सावधान विश्राम की मुद्रा में खड़े हैं। ये ऐसे ही डेढ़ घंटे तक रहे।
jai_bhardwaj
21-09-2013, 06:42 PM
मंच पर बारी बारी से कई शायर आते हैं। और फिर इंट्री होती है बहादुर शाह जफर की यानि टॉम अल्टर की। सत्तर साल के बूढ़े जफर को देखते ही अपनी कक्षा नौ की धुंधली सी याद आई जब मास्टर ने सुनाया था -
न था शहर देहली, यह था चमन, कहो किस तरह का था यां अमन
जो ख़िताब था वह मिटा दिया, फ़क़त अब तो उजड़ा दयार है
और
न किसी के आंख का नूर हूं न किसी के दिल का करार हूं
जो किसी के काम न आ सके मैं वह एक मुश्तेग़ुबार हूँ
न जफ़र किसी का रक़ीब हूँ न जफ़र किसी का हबीब हूँ
जो बिगड़ गया वह नसीब हूँ जो उजड़ गया वह दयार हूँ
मेरा रंग-रुप बिगड़ गया मेरा हुस्न मुझसे बिछ़ड़ गया
चमन खिजाँ से उजड़ गया मैं उसी की फ़सले-बहार हूँ
(लिखे सारे शेर स्मृति आधारित हैं, सो उनमें गलतियां संभव है।)
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