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View Full Version : छुआछूत (अस्पृश्यता) .. सिद्धांत या कलंक


jai_bhardwaj
27-01-2013, 08:21 PM
बन्धुओं, पिछले दिनों मुझे इस ज्वलंत विषय पर एक ब्लॉग में विस्तृत लेख मिला। इस लेख में हिन्दू धर्म के कई सिद्धांतों, विचारों अथवा वैदिक सामाजिक व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह खड़े किये गए हैं। लेखक ने जितनी भी बातें लिखी हैं वे सभी श्री भीमराव अम्बेडकर जी द्वारा रचित किताब पर आधारित हैं।

संभव है कि ब्लॉग लेखक अथवा श्री अम्बेडकर जी के तथ्य तर्क की कसौटी पर खरे उतर रहे हों किन्तु कहीं न कहीं इन तथ्यों से हिन्दू धर्मावलम्बियों को संताप पहुँच सकता है।

तर्क और तथ्य क्या हैं? ये इस सूत्र में आगे की प्रविष्टियों में पढ़े जा सकते हैं। यह तभी संभव है जब प्रबंधन इस विषय पर सूत्र आगे बढाने की अनुमति प्रदान करे।

सहमति के बाद ही अगली प्रविष्टि संभव है।

धन्यवाद।

abhisays
27-01-2013, 09:54 PM
जय भाई, कृपया सूत्र को गति प्रदान करिए। :iagree:

jai_bhardwaj
27-01-2013, 09:58 PM
सूत्र संचालन की सहमति के लिए प्रबंधन का हार्दिक अभिनन्दन।

jai_bhardwaj
27-01-2013, 10:00 PM
बन्धुओं, संदर्भित विषय की सम्पूर्ण प्रस्तुति के बाद मैं सम्बंधित सामग्री के मूल स्रोत का लिंक भी दूँगा।

ब्लॉग लेखक का मंतव्य

डॉ. बी आर अम्बेडकर की १९४८ की यह रचना काफ़ी चर्चा में रही मगर कम पढ़ी गई है.. सच देखें तो अम्बेडकर के समकालीन गाँधी और नेहरू बड़े लेखकों के रूप में प्रतिष्ठित हैं.. पर चन्द दलित विद्वान और दलित विषयों पर शोध करने वाले विद्यार्थियों के अलावा अम्बेडकर को पढ़ने वाले मिलने मुश्किल हैं..

एक समाज सुधारक, दलित समाज के नेता के तौर पर तो सवर्ण समाज उन्हे गुटक लेता है.. लेकिन विद्वान के रूप में अम्बेडकर की प्रतिष्ठा अभी सीमित है.. उसका सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही कारण है कि वे दलित हैं.. और हमारी जातिवादी, नस्लवादी, साम्प्रदायिक सोच, जिसके बारे में हम स्वयं सचेत नहीं होते, उनके प्रति हमें विमुख रखती है.. मैं खुद ऐसी ही सोच से ग्रस्त रहा हूँ.. हूँ.. पर उस से लड़ने की कोशिश करता हूँ.. इसी कोशिश के तहत मैंने अम्बेडकर साहित्य का अध्ययन करने की सोची..

बजाय इस किताब के बारे में अपनी राय आप के सामने रखने के मैं इस किताब का सार संक्षेप यहाँ छापना चाहूँगा.. ताकि आप को मोटे तौर पर न सिर्फ़ किताब का सार समझ आ जाये.. और साथ में अम्बेडकर कितने गहरे और सधे तौर पर अपने तर्कों को रखते हैं यह भी समझा जा सके..

jai_bhardwaj
27-01-2013, 10:03 PM
प्रस्तावना

यह मेरी पुस्तक जिसका प्रकाशन १९४६ में हुआ था, का अंतः परिणाम है। शूद्रों के अतिरिक्त हिंदू सभ्यता ने तीन और वर्णो को जन्म दिया। इसके अतिरिक्त किसी और वर्ग के अस्तित्व की ओर वांछित ध्यान नहीं दिया गया है। ये वर्ग हैं:

१. जरायम पेशेवर कबीले, जिनकी संख्या लगभग दो करोड़ है।
२. आदिम जातियां, जिनकी संख्या लगभग डेढ़ करोड़ है।
३. अछूत जिनकी संख्या लगभग पाँच करोड़ है।

इन वर्गों की उत्पत्ति के विषय में अनुसंधान अभी हुआ ही नहीं है। इस पुस्तकमें एक सबसे अभागे वर्ग अछूतों की दशा पर प्रकाश डाला गया है। अछूतों की संख्या तीनों में सर्वाधिक है, उनका अस्तित्व भी सर्वाधिक अस्वाभाविक है। फिर भी उनकी उत्पत्ति के विषय में कोई जानकारी इकट्ठी नहीं की गई। यह बात पूरी तरह से समझी जा सकती है कि हिंदुओं ने यह कष्ट क्यों नहीं उठाया। पुराने रूढि़वादी हिन्दू तो इसकी कल्पना भी नहीं करते कि छुआछूत बरतने में कोई दोष भी है। वे इसे सामान्य और स्वाभाविक कहते हैं और न ही इसका उन्हे कोई पछतावा है और न ही उनके पास इसका कोई स्पष्टी करण है। नए ज़माने का हिंदू ग़लती का एहसास करता है परंतु वह सार्वजनिक रूप से इस पर चर्चा करने से कतराता है कि कहीं विदेशियो के सामने हिन्दू सभ्यता की पोल न खुल जाय कि यह ऐसी निन्दनीय तथा विषैली सामाजिक व्यवस्था है

.. यह पुस्तक मुख्य प्रश्न के सभी पहलुओं पर ही प्रकाश नहीं डालती वरन अस्पृश्यता की उत्पत्ति से सम्बन्धित सभी प्रश्नों पर भी विचार करती है.. जैसे अछूत गाँवो के सिरों पर ही क्यों रहते है? गाय का मांस खाने से कोई अछूत कैसे बन गया? क्या हिन्दुओं ने कभी गोमांस नहीं खाया? गैर-ब्राह्मणों ने गोमांस भक्षण क्यों त्याग दिया? ब्राह्मण शाकाहारी क्यों बने? हो सकता है इस पुस्तक में उन प्रश्नों के उत्तर पढ़ कर सब के मुँह लटक जायं। फिर भी यह पता चलेगा कि यह पुस्तक पुरानी बातों पर नई दृष्टि से विचार करने का प्रयास अवश्य है..

.. अछूतों की उत्पत्ति की खोज करने और तत्सम्बंधी समस्याओ के बारे में मुझे कुछ सूत्र नहीं मिले हैं। यह सत्य है कि मैं ऐसा अकेला ही व्यक्ति नहीं हूँ जिसे इस समस्या से जूझना पड़ा है। प्राचीन भारत के सभी अध्येताओं के सामने यह कठिनाई आती है..

.. यह एक दुःखद बात है किंतु कोई चारा भी नहीं है। प्रश्न यह है कि इतिहास का विद्यार्थी क्या करे। क्या वह झक मार कर अपने हाथ खड़े कर दे और तब तक बैठा रहे जब तक खोए सूत्र नहीं मिल जाते? मेरे विचार में नहीं। मैं सोचता हूँ ऐसे मामलों में उसे अपनी कल्पनाशक्ति और अंतःदृष्टिसे काम लेना चाहिये ताकि टूटे हुए सूत्र जुड़ सकें और कोई स्थानापन्न प्राकलन मान लेना चाहिये ताकि ज्ञात तथ्यों और टूटी हुई कडि़यों को जोड़ा जा सके। मैं स्वीकार करता हूँ कि हाथ पर हाथ रख कर बैठ जाने के बजाय मैंने टूटे सूत्रों को जोड़ने के लिए यही मार्ग अपनाया है..

.. मेरे आलोचक इस बात पर ध्यान दें कि मैं अपनी कृति को अंतिम मानने का दावा नहीं करता। मैं उनसे नहीं कहूँगा कि वे इसे अंतिम निर्णय माने लें। मैं उनके निर्णय को प्रभावित नहीं करना चाहता।वे अपना स्वतंत्र निर्णय लें.. मेरी अपने आलोचकों से यही आकांक्षा है कि वे इस पर निष्पक्ष दृष्टिपात करेंगे।

jai_bhardwaj
27-01-2013, 10:06 PM
अध्याय १: गैर हिन्दुओं में छुआछूत

आदि मानव अशुद्धि के निम्नलिखित कारण समझता था;

१. कुछ विशेष घटनाओं का घटना

२. कुछ वस्तुओं से सम्पर्क

३. कुछ व्यक्तियों से सम्पर्क

जीवन की जिन घटनाओं को प्राचीन मनुष्य अपवित्रता का कारण मानता था, उनमें निम्नलिखित मुख्य थीं;१. जन्म २. दीक्षा संस्कार ३. वयसंधि ४. विवाह ५.सहवास ६.मृत्यु

गर्भवती माताओं को अशुद्ध माना जाता था और उन्हे दूसरों में अशुद्धि फैलाने वाला माना जाता था। माता की अपवित्रता बच्चो तक मैं फैलती थी।

प्रारम्भिक मनुष्य ने यह सीख लिया था कि कुछ वस्तुए पवित्र हैं और कुछ अन्य अपवित्र। यदि कोई व्यक्ति किसी पवित्र वस्तु को छू दे तो यही माना जाता था कि उसने उसे अपवित्र कर दिया..

इस पवित्रता की भावना का सम्बंध केवल वस्तुओं से नहीं था। लोगों के कुछ ऐसे विशिष्ट वर्ग भी थे जो अपवित्र समझे जाते थे। कोई व्यक्ति उन्हे छू देता तो वह विशिष्ट व्यक्ति छूत लगा हुआ माना जाता था।अजनबी लोगों से मिलना, आदिम पुरुष द्वारा छुआछूत का स्रोत माना जाता था ।

यदि शुद्ध व्यक्ति को किसी सामान्य लौकिक व्यक्ति से दूषित कर दिया गया हो अथवा स्वजाति से ही अपवित्रता हुई हो तो एकांतवास होता ही है। सामान्य दूषित व्यक्ति को शुचि से दूर रहना ही चाहिये। सजातीय को विजातीय से दूर रहना चाहिये। इस से यह स्पष्ट है कि आदिम काल के समाज में अशुद्धि के कारण पृथक कर दिया जाता था।

अशुद्धि को दूर करने के साधन पानी और रक्त हैं। जो आदमी अशुद्ध हो गया हो उस पर यदि पानी और रक्त के छींटे दे दिये जायं तो वह पवित्र हो जाता है। पवित्र बनाने वालों अनुष्ठानों में वस्त्रों को बदलना, बालों तथा नाखूनों को काटन पसीना निकालना, आग तापना, धूनी देना, सुगंधित पदार्थों के जलाना, और वृक्ष की किसी डाली से झाड़फूंक कराना शामिल है।

ये अशुद्धि मिटाने के साधन थे। किंतु आदिम काल में अशुद्धि से बचने का एक और उपाय भी था। वह था एक की अशुद्धि दूसरे पर डाल देना। वह किसी दूसरे ऐसे व्यक्ति पर जो पहले से ही वर्जित अथवा बहिष्कृत होता था, डाल दी जाती थी।

इसी तरह प्राचीन समाज की अशुद्धि की कल्पना आदिम समाज की अशुद्धि की कल्पना से कुछ भिन्न नहीं थी।

प्राचीन रोम में घर की पवित्रता की तरह सारे प्रदेश की प्रदक्षिणा करके बलि देकर प्रादेशिक शुद्धि का संस्कार पूरा होता था। वहीं की न्याय पद्धति में यदि शाब्दिक उच्चारण में कोई अशुद्धि रह जाती तो वादी अपना मुकदमा स्वयं ही हार जाता।

jai_bhardwaj
27-01-2013, 10:10 PM
अध्याय एक के सन्दर्भ में ब्लॉग में कुछ टिप्पणियाँ भी प्राप्त हुयी हैं ...

3 टिप्पणियां:

1. बहूत सुन्दर

आपके ब्लॉग पर आकर अच्छा लगा

2. प्राचीन अपवित्रता के बारे में मेरे विचार कुछ भिन्न हैं। चूंकि प्राचीन काल में "अन-हायजेनिक"ता व "संक्रमण" की संभावना अधिक थी अतः गर्भवती माताओं को इनसे दूर रखने के लिये उनसे अधिक कार्य व्यवहार पर पाबंदी लगाई गई। इससे वे माताएं एवं उनके नवजात बीमारियों से बचे रहते। कालांतर में ये पाबंदियां दूसरों के सिर से हट कर गर्भवती एवं नवप्रसूताओं के सिर आ गई तथा अपवित्रता कहलाई।

इसी प्रकार प्राचीन समय में मृत्यु होने पर मृत्यु के साधारणतयः कारण संक्रमण से बचाव के लिये संबंधित परिवार का सार्वजनिक कार्यें व स्थानों से सूतक की अवधि के लिये निषेध किया जाता था।
संक्रमण के इन्क्यूबेशन पीरियेड का बाद, जो कि 10-12 दिनों का अधिकतम हो सकता है, सूतक का समापन किया जाता था जिसका सार्वजनिक प्रदर्शन सामुहिक भोज, पगड़ी आदि के रूप में किया जाता था। यदि परिवार संक्रमण से प्रभावित होता तो इसी सूतक की अवधि में कोई अन्य सदस्य भी प्रभावित हो जाता। अन्यथा परिवार संक्रमण रहित मान लिया जाता।


3. एक नया जोश एक नया वक़्त एक नया सवेरा लाना है
कुछ नए लोग जो साथ रहे कुछ यार पुराने छूट गए
अब नया दौर है नए मोड़ है नई खलिश है मंजिल की
जाने इस जीवन दरिया के अब कितने साहिल फिसल गए

अत्यंत खूबसूरत प्रस्तुति

jai_bhardwaj
27-01-2013, 10:13 PM
अध्याय २ : हिन्दुओं में छुआछूत
अशुद्धि के बारे में हिन्दुओं और आदिम तथा प्राचीन समाज के लोगों में कोई भेद नहीं है।

मनु ने जन्म, मृत्यु तथा मासिक धर्म को अशुद्धि का जनक स्वीकार किया है। मृत्यु से होने वाली अशुचिता व्यापक और दूर दूर तक फैलती थी। यह रक्त सम्बंध का अनुसरण करती थी और वे सभी लोग जो सपिण्डक और समानोदक कहते हैं, अपवित्र होते थे। जन्म और मृत्यु के अतिरिक्त ब्राह्मण पर तो अपवित्रता के और भी अनेक कारण लागू थे जो अब्राह्मणों पर नहीं। शुद्धि के उद्देश्य से मनु ने इस विषय को तीन तरह से लिया है;

१. शारीरिक अशुद्धि
२. मानसिक अथवा मनोवैज्ञानिक
३. नैतिक अशुद्धि

नैतिक अशुद्धि मन में बुरे संकल्पों को स्थान देने से पैदा होती है। उसकी शुद्धि के नियम तो केवल उपदेश और आदेश ही हैं। किंतु मानसिक और शारीरिक अशुद्धि दूर करने के लिये जो अनुष्ठान है वे एक ही हैं, उनमें पानी, मिट्टी, गो मूत्र कुशा और भस्म का उपयोग शारीरिक अशुद्धि को दूर करने में होता है। मानसिक अशुद्धि दूर करने में पानी सबसे अधिक उपयोगी है।

उसका उपयोग तीन तरह से है। आचमन, स्नान तथा सिंचन। आगे चलकर मानसिक अशुद्धि दूर करने के लिये पंच गव्य का सबसे अधिक महत्वपूर्ण स्थान हो गया। गौ से प्राप्त पाँच पदार्थों गोमूत्र, गोबर, दूध दही और घी से इसका निर्माण होता है।

व्यक्तिगत अशुचिता के अलावा हिन्दुओं का प्रदेशगत और जातिगत अशुद्धि और उसके शुद्धि करण में भी विश्वास रहा है, ठीक वैसी ही जैसी प्राचीन रोम के निवासियों में प्रथा प्रचलित थी।

लेकिन यहीं इतिश्री नहीं हो जाती क्योंकि हिन्दू एक और तरह की छुआछूत मानते हैं.. कुछ जातियां पुश्तैनी छुआछूत की शिकार हैं.. इन जातियों की संख्या इतनी है कि बिना किसी की विशेष सहायता के एक सामान्य व्यक्ति के लिये उनकी एक पूरी सूची बना लेना आसान नहीं.. भाग्यवश १९३५ के गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट के अधीन निकाले गये ऑर्डर इन कॉउन्सिल के साथ एक ऐसी सूची संलग्न है..

इस सूची में भारत के भिन्न भिन्न भागों मे रहने वाली ४२९ जातियां सम्मिलित हैं.. जिसका मतलब है कि देश में आज ५-६ करोड़ लोग ऐसे हैं जिनके स्पर्श मात्र से हिन्दू अशुद्ध हो जाते हैं..हिन्दुओं की यह छुआछूत विचित्र है संसार के इतिहास में इसकी तुलना नहीं है..अहिन्दू आदिम या प्राचीन कालिक समाज से अलग इसकी विशेषताए हैं:

१. अहिन्दू समाज में यह शुचिता के यह नियम जन्म विवाह मृत्यु आदि के विशेष अवसरोंपर लागू होते थे किंतु हिन्दू समाज में यह अस्पृश्यता स्पष्टतः निराधार ही है।

२. अहिन्दू समाज जिस अपवित्रता को मानता था वह थोड़े समय रहती थी और खाने पीने आदि के शारीरि्क कार्यों तक सीमित थी। अशुद्धता क समय बीतने पर शुद्धि संस्कार होने पर व्यक्ति पुनः शुद्ध हो जाता था। परन्तु हिन्दू समाज में यह अशुद्धता आजीवन की है..जो हिन्दू उन अछूतों का स्पर्श करते हैं वे स्नानादि से पवित्र हो सकते हैं पर ऐसी कोई चीज़ नहीं जो अछूत को पवित्र बना सके। ये अपवित्र ही पैदा होते हैं, जन्म भर अपवित्र ही बने रहते हैं और अपवित्र ही मर जाते हैं।

३.अहिन्दू समाज अशुद्धता से पैदा होने वाले पार्थक्य को मानते थे वे उन व्यक्तियों तथा उनसे निकट सम्पर्क रखने वालों को ही पृथक करते थे। लेकिन हिन्दुओ के इअ छुआछूत ने एक समूचे वर्ग को अस्पृश्य बना रखा है।

४.अहिन्दू उन व्यक्तियों को जो अपवित्रता से प्रभावित हो गये हों, कुछ समय के लिए पृथक कर देते थे मगर हिन्दू समाज का आदेश है कि अछूत पृथक बसें। हर हिन्दू गाँव में अछूतों के टोले हैं। हिन्दू गाँव में रहते हैं, अछूत गाँव के बाहर टोले में बसते हैं।

jai_bhardwaj
27-01-2013, 10:18 PM
अध्याय दो के सन्दर्भ में ब्लॉग में प्राप्त टिप्पणियाँ


2 टिप्पणियां:


1. hi **** apko achoot ki yaad kaise aa gayi ...rahul sanskrityayan ke bad ek do hi mile hai tumhare tarah.....vaisa ..aacha kam hai...mai ek....chamar hon ok ....ple mail meeeeeeeeeeeeeeeeid is shanky****@gmail.com



2. this is a true fact of history we accept and do the development in our thinking. But I oberved so many people give the explanation tradition thiks are how good? this is not a correct way to think how old thinks r good?

jai_bhardwaj
27-01-2013, 10:20 PM
अध्याय ३: अछूत गाँव के बाहर क्यों रहते हैं?


स्वाभाविक तौर पर इस बारे में किसी का कुछ सिद्धान्त नहीं है कि अछूत गाँव से बाहर क्यों रहने लगे। यह तो हिन्दू शास्त्रों का मत है और यदि कोई इसे सिद्धान्त मान कर उचित कहे तो वह कह सकता है। शास्त्रों का मत है कि अंत्यजो को गाँव के बाहर रहना चाहिये;

मनु का कथन है;
चाण्डालों और खपचों का निवास गाँव से बाहर हो। उन्हे अपपात्र बनाया जाय । उनका धन कुत्ते और गधे हों।(१०.५१.)

मुर्दों के उतरन उनके वस्त्र हों, वे टूटे बरतनों में भोजन करें। उनके गहने काले लोहे के हों और वे सदैव जगह जगह घूमते रहें।(१०.५२.)

इस कथन के दो अर्थ लिये जा सकते हैं..
१. अछूत हमेशा से गाँव के बाहर रहते आये और अस्पृश्यता के कलंक के बाद उनका गाँव में आना निषिद्ध हो गया।
२. वे मूलतः गाँव के अन्दर रहते थे पर अस्पृश्यता का कलंक लगने के बाद उन्हे गाँव से बाहर किया गया।

दूसरी सम्भावना बेसिर पैर की कल्पना ही है क्योंकि पूरे भारत वर्ष में गाँव के भीतर बस रहे अछूतों को निकालकर गाँव के बाहर बसाना लगभग असंभव कार्य लगता है। यदि संभव होता भी तो इसके लिये किसी चक्रवर्ती राजा की ज़रूरत होती, और भारत में ऐसा कोई चक्रवर्ती राजा नहीं हुआ। तो इस दूसरी सम्भावना को छोड़ देने पर इस बात पर विचार किया जाय कि अछूत शुरु से ही गाँव के बाहर क्यों रहते थे।

आदिम समाज रक्त सम्बन्ध पर आधारित कबायली समूह था मगर वर्तमान समाज नस्लों के समूह में बदल चुका है। साथ ही साथ आदिम समाज खानाबदोश जातियों का बना था और वर्तमान समाज एक जगह बनी बस्तियों का समूह है। इस यात्रा में ही हमारे प्रश्न का उत्तर है।

आदिम लोग पशुपालन करते और अपने पशुओ को लेकर कहीं भी चले जाते। ये बात भी याद रहे कि ये कबीले और जातियां पशुओं की चोरी और स्त्रियों के हरण के लिये आपस में अक्सर युद्ध करते रहते। इन युद्धों दौरान जो दल परास्त होता वह टुकड़े टुकड़े हो जाता और इस तरह परास्त हुए लोग छितरे बिखरे हो कर इधर उधर घूमते रहते। आदिम समाज में हर व्यक्ति का अस्तित्त्व अपने कबीले से हो कर ही होता था, कोई भी व्यक्ति जो एक कबीले में पैदा हुआ हो वह दूसरे कबीले में शामिल नहीं हो सकता था। तो इस तरह से छितरे व्यक्ति (broken man) एक गहरी समस्या के शिकार थे।

आदिम मानव को जब एक नई संपदा- भूमि का पता चला तो उनका जीवन धीरे धीरे स्थिर हो गया। पर सभी घुमन्तु कबीले और जातियां एक ही समय पर स्थिर नहीं हुए। कुछ स्थिर हो गये और कुछ घुमन्तु बने रहे। तब घुमन्तु लोगों को बसे हुए लोगों की सम्पत्ति देख कर लालच होता और वे उन पर हमला करते। जबकि बसे हुए लोग, अपना घर बार छोड़कर इन घुमन्तुओ का पीछा करना और मारकाट करना नहीं चाहते थे, और वे अपनी रक्षा में कमज़ोर हो गए थे। उन्हे कोई ऐसे लोग चाहिये थे जो घुमन्तुओं के आक्रमण में उनकी पहरेदारी करें। दूसरी तरफ़ छितरे लोगों की समस्या थी कि उन्हे ऐसे लोग चाहिये थे जो उन्हे शरण और संरक्षण दे।

इन दोनों समूहों ने अपनी समस्या को कैसे सुलझाया इसका हमारे पास कोई दस्तावेज़ कोई प्रमाण नहीं है। जो भी समझौता हुआ होगा उसमें दो बाते ज़रूर विचारणीय होगीं- एक तो रक्त सम्बन्ध और दूसरी युद्ध नीति। आदिम मान्यता के अनुसार रक्त सम्बन्धी ही एक साथ रह सकते हैं और युद्ध नीति के अनुसार पहरेदार को चाहिये कि वह सीमाओं पर रहें।

पर इस बात का क्या कोई ठोस प्रमाण है कि अछूत छितरे हुए व्यक्ति ही हैं?

jai_bhardwaj
27-01-2013, 10:23 PM
अध्याय तीन के सन्दर्भ में प्राप्त हुई टिप्पणियाँ

2 टिप्पणियाँ:


1. Manu koun hota hai jiske baton per ham educated log aaj tak aankh band kar chal rahe hein? ham insan ki sabse badi pahchan insaniyat hai jo khota ja raha hai. Agar yeh vedon mein bhi likha hota to bhi sweekar karne yogya nahi hai.

rgds.



2. "Achhut" people used to clean the town, n "Maila" as well. They used to clean dead animals also. By handling all this dirt some different kind of smell used to spread around them n their clothes. Their immunity was strong as they had habit of all this from birth, but it was supposed to spread diseases in other people, which was the reason they stayed out of the town according to me.

jai_bhardwaj
27-01-2013, 10:26 PM
अध्याय ४: क्या अछूत छितरे व्यक्ति हैं?

मेरा उत्तर है "हाँ"। गाँव में बसने वाली जाति और अछूतों की गण देवों की भिन्न्ता ही इसका सर्वश्रेष्ठ प्रमाण होगी पर इस तरह का अध्ययन अनुपलब्ध है।

भाषा का सहारा लेकर देखें तो अछूतों को दिए गये नाम, अन्त्य, अन्त्यज अन्त्यवासिन, अंत धातु से निकले हैं। हिन्दू पण्डितों का कहना है इन शब्दों का अर्थ अंत में पदा हुआ है मगर यह तर्क बेहूदा है क्योंकि अंत में तो शूद्र पैदा हुए हैं। जबकि अछूत तो ब्रह्मा की सृष्टि रचना से बाहर का प्राणी है। शूद्र सवर्ण है जबकि अछूत अवर्ण है। मेरी समझ में अन्त्यज का अर्थ सृष्टि क्रम का अंत नहीं, गाँव का अंत है। यह एक नाम है जो गाँव की सीमा पर रहने वाले लोगों को दिया गया।

दूसरा तथ्य महाराष्ट्र की सबसे बड़ी अछूत जाति महारो से सम्बन्धित है। इनके बारे में ध्यान देने योग्य है कि..
१. महाराष्ट्र के हर गाँव के गिर्द एक दीवार रहती है और महार उस दीवार के बाहर रहते हैं।
२. महार बारी बारी से गाँव की पहरेदारी करते हैं
३. महार हिन्दू गाँव वासियों के विरुद्ध अपने ५२ अधिकारों का दावा करते हैं जिनमें मुख्य हैं;
अ. गाँव के लोगों से खाना इकट्ठा करने का अधिकार
ब. फ़सल के समय हर गाँव से अनाज इकट्ठा करने का अधिकार
स. गाँव के मरे हुए पशुओ पर अधिकार

अनुश्रुति है कि ये अधिकार महारों को बरार के मुस्लिम राजाओं से प्राप्त हुए । इसका मतलब इतना ही हो सकता है कि इन प्राचीन अधिकारों को बरार के राजा ने नए सिरे से मान्यता दी।

ये तथ्य बहुत मामूली हैं फिर भी इतना तो प्रमाणित करते हैं कि अछूत आरंभ से ही गाँव से बाहर रहते आए हैं।



अध्याय चार के लिए ब्लॉगर महोदय को कोई भी टिप्पणी नहीं प्राप्त हुई।

jai_bhardwaj
27-01-2013, 10:28 PM
अध्याय ५ : क्या ऐसे समानान्तर मामले हैं?

जी हाँ, आयरलैंड और वेल्स में भी इस तरह की घटनाएं घटी हैं। आयरलैंड के गाँवो के संगठन के बारे में जानकारी सर हेनरी मेन की किताब अर्ली हिस्ट्री ऑफ़ इन्स्टीट्यूशन्स में से मिलती है;

ब्रेहन का कानून एक कबायली समाज को चित्रित करता है, ऐसे समाज में कबीले की ज़्यादातर ज़मीन पर या तो मुखिया का या फिर अन्य कुलीन परिवारों का कब्ज़ा होता है। बाकी बची हुई बेकार या परती ज़मीन कबीले की सामूहिक सम्पत्ति होती है, जिस पर मूल रूप से मुखिया का नियंत्रण होता है। इस ज़मीन पर कबीले वाले पशु चराते है या इस ज़मीन मुखिया उन लोगो को बसाता है जो फ़्यूदहिर कहलाते हैं। ये अजनबी, छितरे हुए, बहिष्कृत लोग उसके पास संरक्षण के लिये आते हैं, इसके अलावा कबीले से उनका और कोई सम्बन्ध नहीं होता।

हेनरी मेन इन फ़्यूदहिर के बारे में आगे लिखते हैं; फ़्यूदहिर दूसरे कबीलों से भागे हुए अजनबी लोग थे जिनका सम्बन्ध अपने मूल कबीले से टूट चुका था.. एक हिंसक दौर से गुजरते हुए समाज में एक छितरे हुए आदमी के पास आश्रय और सुरक्षा पाने का एक मात्र उपाय था फ़्यूदहिर किसान बन जाना।

श्री सीमोम ने अपनी किताब ट्राइबल सिस्ट्म इन वेल्स में बताया है कि वेल्स के गाँव दो हिस्सो में बँटे होते, स्वतंत्र किसानों के घर और पराधीन किसानों के घर। इस विभाजन का कारण के बारे में वे लिखते हैं- आदिम कबायली समाज में दो स्वतंत्र व्यक्तियों के बीच सम्बन्ध का आधार रक्त सम्बन्ध ही था, जो रक्त सम्बन्धी न हो वह कबीले का हिस्सा नहीं हो सकता था। इस तरह आदिम वेल्स समाज में दो वर्ग थे; वेल्स रक्त वाले और अजनबी रक्त वाले। और इन दोनों के बीच चौड़ी खाई थी।

इस तरह से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत के अछूत ही अकेले ऐसे नहीं है जो गाँव से बाहर रहते हों। यह एक सर्वव्यापी परम्परा थी, जिसकी विशेषताएं थीं;
१. आदिम युग के गाँव दो हिस्से में बँटे रहते। एक हिस्से में कबीले के लोग रहते और दूसरे में अलग अलग कबीलों के छितरे लोग।
२. बस्ती का वह भाग जहाँ मूल कबीले के लोग रहते वह गाँव कहलाता। छितरे लोग गाँव के बाहर रहते।
३. छितरे लोगों को गाँव के बाहर करने का कारण था कि वह पराये थे और उनका मूल कबीले से कोई सम्बन्ध न था।

अध्याय पाँच के लिए ब्लॉगर महोदय को कोई भी टिप्पणी नहीं प्राप्त हुई।

jai_bhardwaj
27-01-2013, 10:30 PM
अध्याय ६: छितरे लोगों की अलग बस्तियां अन्यत्र कैसे विलुप्त हो गईं?


आदिम समाज रक्त सम्बन्ध पर आधारित कबायली समूह था मगर वर्तमान समाज नस्लों के समूह में बदल चुका है। साथ ही साथ आदिम समाज खानाबदोश जातियों का बना था और वर्तमान समाज एक जगह बनी बस्तियों का समूह है। रक्त की समानता के स्थान पर क्षेत्र की समानता को एकता का सूत्र मान लेने से ही छितरे लोगों की अलग बस्तियां बाकी जगहों पर नष्ट हो गईं।

एक खास अवस्था पर पहुँचने पर आदिम समाज में नियम बना जिसे कुलीनता का नियम कहा गया, जिसके अनुसार बाहरी आदमी दल का हिस्सा बन सकता था।

श्री सीमोम के अनुसार वेल्स की ग्राम पद्धति में..१. सिमरू (दक्षिण वेल्स) में ९ पीढ़ियों तक लगातार रहने पर किसी अजनबी की सन्तति स्वयमेव कबीले का हिस्सा हो जाते।२. या फिर किसी अजनबी की सन्तति बार बार सिमरुओं में ही विवाह होने पर चौथी पीढ़ी में सिमरू हो जाते।

सवाल है भारत में ऐसा क्यों नहीं हुआ? जबकि मनु ने इसका उल्लेख (१०.६४-१०.६७) भी किया है कि यदि कोई शूद्र सात पीढ़ियों तक ब्राह्मण जाति में विवाह करे तो ब्राह्मण हो सकता है। मगर प्राचीन विधान के चातुर्वर्ण्य का नियम था कि एक शूद्र कभी भी ब्राह्मण नहीं बन सकता। और मनु इस से डिग नहीं सके। नहीं तो भारत में भी छितरा समुदाय गाँव की मुख्य धारा में घुल मिल जाता और उनकी अलग बस्तियों का अस्तित्व खत्म हो जाता।

ऐसा क्यों नहीं हुआ? इसका उत्तर यही है कि छुआछूत नाम के एक नए तत्व के आ जाने का परिणाम हुआ कि आज भारत के हर गाँव में अछूतों की अलग बस्ती है।


अध्याय छः के लिए ब्लॉगर महोदय को कोई भी टिप्पणी नहीं प्राप्त हुई।

jai_bhardwaj
27-01-2013, 10:34 PM
अध्याय ७: छुआछूत की उत्पत्ति का आधार - नस्ल का अन्तर


समाज शास्त्री स्टैनली राइस के मतानुसार अस्पृश्यता दो बातों से उत्पन्न हुई; नस्ल और पेशा। दोनों बातों पर अलग अलग विचार करना होगा, इस अध्याय में हम नस्ल के अंतर से छुआछूत की उत्पत्ति के सिद्धान्त के सम्बन्ध में विचार करेंगे।

श्री राइस के नस्ल के सिद्धान्त के दो पहलू हैं;१. अछूत अनार्य हैं, अद्रविड़ हैं, मूल वासी हैं, और२. वे द्रविड़ो द्वारा पराजित हुए और अधीन बनाए गए।

श्री राइस के मतानुसार भारत पर दो आक्रमण हुए हैं। पहला आक्रमण द्रविड़ों का, जिन्होने वर्तमान अछूतों के पूर्वज भारत के अद्रविड़ मूल निवासियों पर विजय प्राप्त की और फिर उन्हे अछूत बनाया। दूसरा आक्रमण आर्यों का हुआ, जिन्होने द्रविड़ों को जीता। यह पूरी कथा बेहद अपरिपक्व है तथा इस से तमाम प्रश्न उलझ कर रह जाते हैं और कोई समाधान नहीं मिलता।

प्राचीन इतिहास का अध्ययन करते हुए बार बार चार नाम मिलते हैं, आर्य, द्रविड़, दास और नाग। क्या ये चार अलग अलग प्रजातियां हैं या एक ही प्रजाति के चार नाम हैं? श्री राइस की मान्यता है कि ये चार अलग नस्लें हैं।

इस मत को स्वीकार करने के पहले हमें इसकी परीक्षा करनी चाहिये।

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अब ये निर्विवाद है कि आर्य दो भिन्न संस्कृतियों वाले हिस्सों में विभक्त थे। ऋगवेदी जो यज्ञो में विश्वास रखते और अथर्ववेदी जो जादू टोनों में विश्वास रखते। ऋगवेदियों ने ब्राह्मणो व आरण्यकों की रचना की और अथर्ववेदियों ने उपनिषदों की रचना की। यह वैचारिक संघर्ष इतना गहरा और बड़ा था कि बहुत बाद तक अथर्ववेद को पवित्र वाङ्मय नहीं माना गया और न ही उपनिषदों को। हम नहीं जानते कि आर्यों के ये दो विभाग दो नस्लें थी या नहीं, हम ये भी नहीं जानते कि आर्य शब्द किसी नस्ल का नाम ही है। इसलिये यह मानना कि आर्य कोई अलग नस्ल है गलत होगा।

इससे भी बड़ी गलती दासों को नागों से अलग करना है। दास भारतीय ईरानी शब्द दाहक का तत्सम रूप है। नागों के राजा का नाम दाहक था इसलिये सभी नागों को आम तौर पर दास कहना आरंभ हुआ।

तो नाग कौन थे? निस्संदेह वे अनार्य थे। ऋगवेद में वृत्र का ज़िक्र है। आर्य उसकी पूजा नहीं करते। वे उसे आसुरी वृत्ति का शक्तिशाली देवता मानते हैं और उसे परास्त करना अपना इष्ट। ऋगवेद में नागों का नाम आने से यह स्पष्ट है कि नाग बहुत प्राचीन लोग थे। और ये भी याद रखा जाय कि न तो वे आदिवासी थे और न असभ्य। राजपरिवारों और नागों के बीच विवाह सम्बन्धों का अनगिनत उदाहरण हैं। प्राचीन काल से नौवीं दसवीं शताब्दी तक के शिलालेख नागों से विवाह सम्बन्ध की चर्चा करते हैं।

नाग सांस्कृतिक विकास की ऊँची अवस्था को प्राप्त थे, साथ ही वे देश के एक बड़े भूभाग पर राज्य भी करते थे। महाराष्ट्र नागों का ही क्ष्रेत्र है, यहाँ के लोग और शासक नाग थे। ईसा की आरम्भिक शताब्दियों में आंध्र और उसके पड़ोसी राज्य नागों के अधीन थे। सातवाहन और उनके छुतकुल शातकर्मी उत्तराधिकारियों का रक्त नाग रक्त ही था। बौद्ध अनुश्रुति है कि कराची के पास मजेरिक नाम का एक नाग प्रदेश था। तीसरी और चौथी शताब्दियों में उत्तरी भारत में भी अनेक नाग नरेशों का शासन रहा है, यह बात पुराणों, प्राचीन लेखों और सिक्कों से सिद्ध होती है। इस तरह के तमाम साक्ष्य हैं जो इतिहास में नागों के लगातार प्रभुत्व को सिद्ध करते हैं।

अब आइये द्रविड़ पर, वे कौन थे? क्या वे और नाग अलग अलग लोग हैं या एक ही प्रजाति के दो नाम हैं? इस विषय पर दक्षिण के प्रसिद्ध विद्वान दीक्षितय्यर ने अपने रामायण में दक्षिन भारत नामक लेख में कहते हैं..


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jai_bhardwaj
27-01-2013, 10:36 PM
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उत्तर पश्चिम में तक्षशिला, उत्तर पूर्व में आसाम और दक्षिण में श्री लंका तक, सर्प चिह्न वाले देवतुल्य नाग फैले हुए थे। एक समय वे अत्यन्त शक्तिशाली थे और श्रीलंका और मलाबार उनके कब्ज़े में रहे। मलाबार में आज भी नाग पूजा की परम्परा है। ऐसा लगता है कि ईसवी दौर आते आते नाग चेरों के साथ घुलमिल गये थे..

इसी विषय को सी एफ़ ओल्ढम आगे बढ़ाते हुए बताते हैं.. प्राचीन काल से द्रविड़ तीन भागों में बँटे हैं, चेर चोल और पान्ड्य.. तमिल भाषा में चेर नाग का पर्यायवाची है। इसके अतिरिक्त गंगा घाटी में चेरु या सिओरी कहलाने वाले एक प्राचीन प्रजाति रहती है, ऐसा माना जाता है कि उनका एक समय में गंगा घाटी के एक बड़े हिस्से पर उनका, यानी कि नागों का, आधिपत्य रहा है। ये कहा जा सकता है कि ये चेरु अपने द्रविड़ बंधु चेरों के सम्बन्धी हैं।

इसके अलावा दूसरी कडि़यां हैं जो दक्षिण के नागों को उत्तर भारत के नागों से मिलाती हैं। चम्बल में रहने वाले सरय, शिवालिक में सर या स्योरज और ऊपरी चिनाब में स्योरज। इसके अलावा हिमाचल की कुछ बोलियों में कीरा या कीरी का अर्थ साँप है हो सकता है किरात इसी से बना हो, जो एक हिमालय में रहने वाली एक प्रजाति है। नामों की समानता सदैव विश्वसनीय नहीं होती मगर ये सब लोग जिनके नाम मिलते जुलते हैं, सभी सूर्यवंशी है, सभी मनियर नाग को मानते हैं और ये सभी नाग देवता को अपना पूर्वज मानकर पूजते हैं।

तो यह स्पष्ट है कि नाग और द्रविड़ एक ही लोग हैं। मगर इस मत को स्वीकार करने में कठिनाई यह है कि यदि दक्षिण के लोग नाग ही हैं तो द्रविड़ क्यों कहलाते हैं? इस सम्बन्ध में तीन बातें ध्यान देने योग्य हैं। पहली भाषा सम्बन्धी बात पर सी एफ़ ओल्ढम साहब फ़रमाते हैं;

संस्कृत के वैयाकरण मानते हैं कि द्रविड़ भाषा को उत्तर भारत की लोक भाषाओं से सम्बन्धित मानते हैं, खासकर उन लोगों की बोलियों से जो असुरों के वंशज है। सभी बोलियों में पैशाची में संस्कृत का सबसे कम अंश है।

ऋगवेद के साक्ष्यों के अनुसार असुरों की भाषा आर्यों को समझ में नहीं आती थी। और अन्य साक्ष्यों से साफ़ होता है कि मनु के समय आर्य भाषा के साथ साथ म्लेच्छ या असुरों की भाषा भी बोली जाती थी, और जो महाभारत काल तक आते आते आर्य जातियों के लिये अगम्य हो गई। बाद के कालों में वैयाकरणों ने नाग भाषाएं बोलने वालों का ज़िक्र किया है। इस से पता चलता है कि कुछ लोगों द्वारा अपने पूर्वजों की भाषा त्याग दिये जाने के बावजूद कुछ लोग उस भाषा तथा संस्कृति का व्यवहार करते रहे, और ये कुछ लोग में पान्ड्य व द्रविड़ थे।

दूसरी ध्यान देने योग्य बात यह है कि द्रविड़ संस्कृत का मूल शब्द नहीं है। यह तमिल से दमित हुआ और फिर दमिल्ल से द्रविड़। तमिल का अर्थ कोई प्रजाति नहीं बल्कि एक सिर्फ़ एक भाषाई समुदाय है।

तीसरी ध्यान देने योग्य बात कि तमिल आर्यों के आने से पूर्व पूरे भारत में बोले जाने वाली भाषा थी। उत्तर के नागों ने अपनी भाषा द्रविड़ को छोड़ दिया और संस्कृत को अपना लिया जबकि दक्षिण के पकड़े रहे। चूंकि उत्तर के नाग अपनी भाषा को भूल चुके थे और द्रविड़ बोलने वाले लोग सिर्फ़ दक्षिण में सिमट कर रह गये थे इसीलिये उन्हे द्रविड़ पुकारना संभव हुआ।

तो यह समझा जाय कि नाग और द्रविड़ एक ही प्रजाति के दो भिन्न नाम हैं, नाग उनका संस्कृतिगत नाम है और द्रविड़ भाषागत। इस प्रकार दास वे ही हैं, जो नाग हैं, जो द्रविड़ हैं। और भारत में अधिक से अधिक दो ही नस्लें रही है, आर्य और द्रविड़। साफ़ है कि श्री स्टैनली राइस का मत गलत है, जो तीन नस्ल का अस्तित्व मानते हैं।

II

अगर यह मान भी लिया जाय कि कोई तीसरी नस्ल भी भारत में थी, तो यह साबित करने के लिये कि आज के अछूत प्राचीन काल के मूल निवासी ही हैं, दो प्रकार के अध्ययन का सहारा लिया जा सकता है; एक मानव शरीर शास्त्र (anthropometry) और दूसरा मानव वंश विज्ञान (ethonography)।

मानव शरीर शास्त्र के विद्वान डॉ धुरे ने अपने ग्रंथ 'भारत में जाति और नस्ल' में इन मसलों का अध्ययन किया । तमाम बातों के बीच ये बात भी सामने आई कि पंजाब के अछूत चूहड़े और यू पी के ब्राह्मण का नासिका माप एक ही है। बिहार के चमार और बिहार के ब्राह्मण का नासिका माप कुछ ज़्यादा भिन्न नहीं। कर्नाटक के अछूत होलेय का नासिका माप कर्नाटक के ब्राह्मण से कहीं ऊँचा है। यदि मानव शरीर शास्त्र विश्वसनीय है तो प्रमाणित होता है कि ब्राहमण और अछूत एक ही नस्ल के है। यदि ब्राह्मण आर्य है तो अछूत भी आर्य है, यदि ब्राह्मण द्रविड़ है तो अछूत भी द्रविड़ है, और यदि ब्राह्मण नाग है तो अछूत भी नाग है। इस स्थिति में राइस का सिद्धान्त निराधार सिद्ध होता है।

III

आइये अब देखें कि मानव वंश विज्ञान का अध्ययन क्या कहता है। सब जानते हैं कि एक समय पर भारत आदिवासी कबीलों के रूप में संगठित था। अब कबीलों ने जातियों का रूप ले लिया है मगर कबीलाई स्वरूप विद्यमान है। जिसे टोटेम या गोत्र के स्वरूप से समझा जा सकता है। एक टोटेम या गोत्र वाले लोग आपस में विवाह समबन्ध नहीं कर सकते। क्योंकि वे एक ही पूर्वज के वंशज यानी एक ही रक्त वाले समझे जाते। इस तरह का अध्ययन जातियों को समझने की एक अच्छी कसौटी बन सकता था मगर समाज शास्त्रियों ने इसे अनदेखा किया है और जनगणना आयोगों ने भी। इस लापरवाही का आधार यह गलत समझ है कि हिन्दू समाज का मूलाधार उपजाति है।

सच्चाई यह है कि विवाह के अवसर पर कुल और गोत्र के विचार को ही प्रधान महत्व दिया जाता है, जाति और उपजाति का विचार गौण है। और हिन्दू समाज अपने संगठन की दृष्टि से अभी भी कबीला ही है। और परिवार उसका आधार है।

महाराष्ट्र में श्री रिसले द्वारा एक अध्ययन से सामने आया कि मराठों और महारों में पाए जाने वाले कुल एक ही से हैं। मराठों में शायद ही कोई कुल हो जो महारों में ना हो। इसी तरह पंजाब में जाटों और चमारों के गोत्र समान हैं।

यदि ये बाते सही हैं तो आर्य भिन्न नस्ल के कैसे हो सकते हैं? जिनका कुल और गोत्र एक हो, वे सम्बन्धी होंगे। तो फिर भिन्न नस्ल के कैसे हो सकते हैं? अतः छुआछूत की उत्पत्ति का नस्लवादी सिद्धान्त त्याज्य है।


अध्याय सात के सन्दर्भ में प्राप्त हुई टिप्पणी

1 टिप्पणी:

1. ***** ji aap agar ye jaan lenga ki Beahmin kaun thea too Achoot kaun thea ka bhi pata lag jayaga.

jai_bhardwaj
27-01-2013, 10:39 PM
अध्याय ८: छुआछूत की व्यवसायजन्य उत्पत्ति

श्री स्टैनली राइस के इस सिद्धान्त के अनुसार छुआछूत का कारण अछूतों के गंदे और अपवित्र पेशों से उपजता है। ये सिद्धान्त तार्किक लगता है। मगर इस तरह के पेशे दुनिया के हर समाज में पाये जाते हैं तो दूसरी जगहों पर उन्हे अछूत क्यों न समझा गया?

नारद स्मृति से पता चलता है कि आर्य स्वयं इस प्रकार के गंदे कार्य करते थे। नारद स्मृति के अध्याय ५ में कहा है कि पवित्र काम करने के लिये अन्य सेवकों का इस्तेमाल किया जाय जबकि अपवित्र काम जैसे झाड़ू लगाना, कूड़ा व जूठन उठाना, और शरीर के अंगो की मालिश करना दासों के विभाग में आता है। शेष काम पवित्र है जो अन्य सेवकों द्वारा किये जा सकते हैं।

सवाल उठता है कि ये दास कौन थे? क्या वे आर्य थे या अनार्य थे? आर्यों मे दास प्रथा थी और किसी भी वर्ण का आर्य दास हो सकता था। दास होने के पंद्रह तरीके नारद स्मृति में अलग से बताये हैं। और दास प्रथा के बारे में याज्ञवल्क्य ने कहा है कि यह प्रतिलोम क्रम से नहीं अनुलोम क्रम से लागू होती है। इसी पर विज्ञानेश्वर ने मिताक्षरी में व्याख्या करते हुए बताया है कि शूद्र का दास सिर्फ़ शूद्र हो सकता है जबकि एक ब्राह्मण, शूद्र वैश्य क्षत्रिय और ब्राह्मण सभी को दास बना सकता है। लेकिन एक ब्राह्मण सिर्फ़ ब्राह्मण का ही दास हो सकता है।

एक बार दास बन जाने के बाद दास के लिये नियत कर्तव्यों में जाति की कोई भूमिका न होती। दास चाहे ब्राह्मण हो या शूद्र उसे झाडू़ लगानी ही होगी। एक ब्राह्मण दास एक शूद्र के घर भले ही भंगी का काम न करे पर उस ब्राह्मण के घर तो करेगा ही जिसका वह दास है। अतः यह साफ़ है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, जो कि आर्य हैं, गंदे से गंदा, भंगी का काम करते हैं। जब यह काम एक आर्य के लिये घृणित नहीं था तो कैसे कहा जा सकता है कि गंदे और अपवित्र पेशे छुआछूत का आधार बन गये? इसलिये छुआछूत का व्यवसायजन्य उतपत्ति का सिद्धान्त भी खारिज करने योग्य है।


अध्याय आठ के लिए ब्लॉगर महोदय को कोई भी टिप्पणी नहीं प्राप्त हुई।

jai_bhardwaj
27-01-2013, 10:42 PM
अध्याय ९: बौद्धों का अपमान - छुआछूत का मूलाधार

१८७० से चार जनगणनाओं मे धार्मिक आधारों पर ही लोगों को वर्गीकृत किया जाता था। मगर १९१० में पहली बार नया तरीका अपनाया गया और हिन्दुओ को तीन वर्गों में बाँटा गया; १. हिन्दू, २. जनजाति या आदिवासी, ३. अछूत। हिन्दुओ के भीतर वर्गीकरण करने के लिये दस कसौटियां तय की गईं।

१. ब्राह्मणों का प्रभुत्व नहीं मानते।

२. किसी ब्राह्मण या हिन्दू गुरु से गुरु मंत्र नहीं लेते।

३. देवों को प्रमाण नहीं मानते।

४. हिन्दू देवी देवताओं को नहीं पूजते।

५. अच्छे ब्राह्मण उनका संस्कार नहीं करते।

६. उनका कोई ब्राह्मण पुरोहित नहीं होता।

७. मंदिरों के गर्भ गृह में प्रवेश नहीं पा सकते।

८. स्पर्श या पास आकर अपवित्र कर देते है।

९. अपने मुर्दों को दफ़नाते हैं।

१०. गोमांस खाते हैं।

इन में से क्रम संख्या २, ५, ६, ७, और १० अछूतों से सम्बन्धित हैं और २, ५, व ६ पर इस अध्याय में चर्चा होगी।

सभी प्रांतो के जनगणना आयुक्तों ने पाया कि अछूतों के अपने पुजारी होते हैं। चूंकि ब्राह्मण अछूतों से स्वयं को ऊँचा मानते हैं और घृणा करते हैं इसलिये ये तथ्य मिले हैं ऐसा आम तौर पर समझा गया। किंतु यदि यह कहा जाय कि अछूत भी ब्राह्मणो को अपवित्र मानते हैं तो लोगों को आश्चर्य होगा। मगर एबे दुबोय को ऐसे तथ्य मिले हैं;"

आज भी गाँव में एक पैरिया (अछूत) ब्राह्मणों की गली से नहीं गुज़र सकता। दूसरी ओर एक पैरिया एक ब्राह्मण को अपनी झोपड़ियों के बीच से नहीं गुज़रने देगा क्यों कि उनके विश्वास के अनुसार यह अपशगुन उन्हे बरबाद कर देगा।"

मैसूर के हसन ज़िले के होलेय के बारे में लिखते हैं श्री मैकेन्ज़ी, गाँव की सीमा के बाहर उन होलियरो की बस्ती है, जिनके स्पर्श मात्र से लोग अपवित्र हो जाते हैं' बावजूद इसके सत्य यह भी है कि अगर एक ब्राह्मण होलियरों की बस्ती से बिना बेइज्जत हुए गुज़र पाए तो इसे अपना सौभाग्य समझता है। क्योंकि कोई ब्राह्मण उनकी बस्ती में आए इससे होलियरों को बड़ी आपत्ति है, और इस प्रकार आने वाले ब्राह्मण को वे सब मिल कर जूतों से मारते हैं।

इस अजीबोगरीब व्यवहार की क्या व्याख्या हो सकती है? याद रखा जाय कि अछूत हमेशा अछूत नहीं थे, वे उजड़े हुए कबीलों के लोग या छितरे लोग थे। तो वो क्या वजह थी कि ब्राह्मणों ने इनके धार्मिक रीति रिवाज़ को सम्पन्न कराने से क्यों इंकार कर दिया? या कहीं ऐसा तो नहीं कि इन छितरे लोगों ने ही ब्राह्मणों को मान्यता से देने इंकार कर दिया? इस परस्पर अपवित्रता की धारणा और परस्पर घृणा का कारण क्या है?


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jai_bhardwaj
27-01-2013, 10:44 PM
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इसका एक स्पष्टीकरण यह हो सकता है कि ये छितरे लोग बौद्ध थे और इसी लिये वे ब्राह्मणों का न तो आदर करते थे और न उन्हे अपना पुरोहित बनाते थे। दूसरी ओर ब्राह्मण भी उन्हे पसन्द नहीं करते थे क्योंकि वे बौद्ध थे। अब इसका कोई प्रमाण नहीं कि वे बौद्ध थे मगर चूंकि उस वक्त अधिकाधिक लोग बौद्ध ही थे इसलिये ये माना जा सकता है कि वे बौद्ध थे। और बौद्धों के प्रति घृणा के प्रमाण मिलते हैं;नीलकंठ की पुस्तक प्रायश्चित मयूख में मनु का एक श्लोक आता है, जिसका अर्थ है-

'यदि कोई आदमी किसी बौद्ध, पाशुपत पुष्प, लोकायत, नास्तिक या किसी महापातकी का स्पर्श करेगा तो वह स्नान करके ही शुद्ध हो सकेगा'।

वृद्ध हारीत ने एक कदम आगे जाकर बौद्ध विहार में जाने को पाप घोषित किया है, जिससे मुक्त होने के लिये आदमी को स्नान करना होगा।

इस दुर्भावना का सबसे अच्छा प्रमाण मृच्छकटिक में है। नाटक का नायक चारुदत्त बौद्ध श्रमण के दर्शन मात्र को अपशगुन मानता है। और खलनायक शकार बौद्ध श्रमण को देखकर मारने की धमकी देता है और पीटता भी है। आम हिन्दू जनों की भीड़ बौद्ध श्रमण से बच बच कर चलती है। घृणा का भाव इतना प्रबल है कि जिस सड़क पर श्रमण चलता है हिन्दू उस पर चलना ही छोड़ देता है। देखें तो बौद्ध श्रमण और ब्राह्मण एक तरह से बराबर हैं। लेकिन ब्राह्मण मृत्युदण्ड और शारीरिक दण्ड से मुक्त है और बौद्ध श्रमण मारा जाता है बिना किसी प्रायश्चित या आत्मग्लानि के मानो इस में कोई बुराई ही न हो।

यह स्वीकार कर लेने में कि छितरे लोग बौद्ध थे, तमाम प्रश्नों के उत्तर हमारे लिये साफ़ हो जाते हैं। लेकिन क्या सिर्फ़ बौद्ध होना ही उनके अछूत होने के लिये पर्याप्त था? इस सवाल का सामना करेंगे हम अगले अध्याय में।


अध्याय नौ के सन्दर्भ में प्राप्त हुई टिप्पणी
1 टिप्पणी :


1. ye श्लोक मनु का nahi hai.. "यदि कोई आदमी किसी बौद्ध, पाशुपत पुष्प, लोकायत, नास्तिक या किसी महापातकी का स्पर्श करेगा तो वह स्नान करके ही शुद्ध हो सकेगा" Ye sab Manu aur Hindu Dharma ko Badnaam sabit karne ki koshish hai.

jai_bhardwaj
27-01-2013, 10:47 PM
अध्याय १०: गोमांस भक्षण - छुआछूत का मूलाधार

अब बात की जाय जनसंख्या आयुक्त के प्रपत्र की संख्या १० की, जो गोमांस खाने से सम्बन्धित है। जनसंख्या के परिणामों से पता चलता है कि अछूत जातियों का मुख्य भोजन मरी गाय का मांस है। नीच से नीच हिन्दू भी गोमांस नहीं खाता। और दूसरी तरफ़ जितनी भी अछूत जातियां हैं, सब का सम्बन्ध किसी न किसी तरह से मरी हुई गाय से है, कुछ खाते हैं, कुछ चमड़ा उतारते हैं, और कुछ गाय के चमड़े से बनी चीज़ें बनाते हैं।

तो क्या गोमांस भक्षण का अस्पृश्यता से कुछ गहरा सम्बन्ध है? मेरा विचार से यह कहना तथ्यसंगत होगा कि वे छितरे लोग जो गोमांस खाते थे, अछूत बन गए।

वेदव्यास स्मृति का श्लोक कहता है; 'मोची, सैनिक, भील धोबी, पुष्कर, व्रात्य, मेड, चांडाल, दास, स्वपाक, कौलिक तथा दूसरे वे सभी जो गोमांस खाते हैं, अंत्यज कहलाते हैं।' वेदव्यास स्मृति के इस श्लोक के बाद तर्क वितर्क की कोई गुंजाइश नहीं रहनी चाहिये।

पूछा जा सकता है कि ब्राह्मणों ने बौद्धों के प्रति जो घृणा का भाव फैलाया था वह तो सामान्य रूप से सभी बौद्धों के विरुद्ध था तो फिर केवल छितरे लोग ही अछूत क्यों बने? तो अब हम निष्कर्ष निकाल सकते है कि छितरे लोग बौद्ध होने के कारण घृणा का शिकार हुए और गोमांस भक्षण के कारण अछूत बन गए।

गोमांसाहार को अस्पृश्यता की उत्पत्ति का कारण मान लेने से कई तरह के प्रश्न खड़े हो जाते हैं। मैं इन प्रश्नों का उत्तर निम्न शीर्षकों में देना चाहूँगा -

१. क्या हिन्दू कभी गोमांस नहीं खाते थे?

२. हिन्दुओं ने गोमांस खाना क्यों छोड़ा?

३. ब्राह्मण शाकाहारी क्यों बने?

४. गोमांसाहार से छुआछूत की उत्पत्ति क्यों हुई? और

५. छुआछूत का चलन कब से हुआ?


अध्याय दस के लिए ब्लॉगर महोदय को कोई भी टिप्पणी नहीं प्राप्त हुई।

jai_bhardwaj
27-01-2013, 10:50 PM
अध्याय ११: क्या हिन्दू कभी गोमांस नहीं खाते थे?


प्रत्येक हिन्दू इस प्रश्न का उत्तर में कहेगा नहीं, कभी नहीं। मान्यता है कि वे सदैव गौ को पवित्र मानते रहे और गोह्त्या के विरोधी रहे।

उनके इस मत के पक्ष में क्या प्रमाण हैं कि वे गोवध के विरोधी थे? ऋग्वेद में दो प्रकार के प्रमाण है; एक जिनमें गो को अवध्य कहा गया है और दूसरा जिसमें गो को पवित्र कहा गया है। चूँकि धर्म के मामले में वेद अन्तिम प्रमाण हैं इसलिये कहा जा सकता है कि गोमांस खाना तो दूर आर्य गोहत्या भी नहीं कर सकते। और उसे रुद्रों की माता, वसुओं की पुत्री, आदित्यों की बहन, अमृत का केन्द्र और यहाँ तक कि देवी भी कहा गया है।

शतपथ ब्राह्मण (३.१-२.२१) में कहा है; "..उसे गो या बैल का मांस नहीं खाना चाहिये, क्यों कि पृथ्वी पर जितनी चीज़ें हैं, गो और बैल उन सब का आधार है,..आओ हम दूसरों (पशु योनियों) की जो शक्ति है वह गो और बैल को ही दे दें.."। इसी प्रकार आपस्तम्ब धर्मसूत्र के श्लोक १, ५, १७, १९ में भी गोमांसाहार पर एक प्रतिबंध लगाया है। हिन्दुओं ने कभी गोमांस नहीं खाया, इस पक्ष में इतने ही साक्ष्य उपलब्ध हैं।

मगर यह निष्कर्ष इन साक्ष्यों के गलत अर्थ पर आधारित है। ऋग्वेद में अघन्य (अवध्य) उस गो के सन्दर्भ में आया है जो दूध देती है अतः नहीं मारी जानी चाहिये। फिर भी यह सत्य है कि वैदिक काल में गो आदरणीय थी, पवित्र थी और इसीलिये उसकी हत्या होती थी। श्री काणे अपने ग्रंथ धर्मशास्त्र विचार में लिखते हैं;"

ऐसा नहीं था कि वैदिक काल में गो पवित्र नहीं थी। उसकी पवित्रता के कारण ही वजसनेयी संहिता में यह व्यवस्था दी गई है कि गोमांस खाना चाहिये। "

ऋग्वेद में इन्द्र का कथन आता है (१०.८६.१४), "वे पकाते हैं मेरे लिये पन्द्र्ह बैल, मैं खाता हूँ उनका वसा और वे भर देते हैं मेरा पेट खाने से" । ऋग्वेद में ही अग्नि के सन्दर्भ में आता है (१०. ९१. १४)कि "उन्हे घोड़ों, साँड़ों, बैलों, और बाँझ गायों, तथा भेड़ों की बलि दी जाती थी.."

तैत्तिरीय ब्राह्मण में जिन काम्येष्टि यज्ञों का वर्णन है उनमें न केवल गो और बैल को बलि देने की आज्ञा है किन्तु यह भी स्पष्ट किया गया है कि विष्णु को नदिया बैल चढ़ाया जाय, इन्द्र को बलि देने के लिये कृश बैल चुनें, और रुद्र के लाल गो आदि आदि।

आपस्तम्ब धर्मसूत्र के १४,१५, और १७वें श्लोक में ध्यान देने योग्य है, "गाय और बैल पवित्र है इसलिये खाये जाने चाहिये"।

आर्यों में विशेष अतिथियों के स्वागत की एक खास प्रथा थी, जो सर्वश्रेष्ठ चीज़ परोसी जाती थी, उसे मधुपर्क कहते थे। भिन्न भिन्न ग्रंथ इस मधुपर्क की पाक सामग्री के बारे में भिन्न भिन्न राय रखते हैं। किन्तु माधव गृह सूत्र (१.९.२२) के अनुसार, वेद की आज्ञा है कि मधुपर्क बिना मांस का नहीं होना चाहिये और यदि गाय को छोड़ दिया गया हो तो बकरे की बलि दें। बौधायन गृह सूत्र के अनुसार यदि गाय को छोड़ दिया गया हो तो बकरे, मेढ़ा, या किसी अन्य जंगली जानवर की बलि दें। और किसी मांस की बलि नहीं दे सकते तो पायस (खीर) बना लें।

तो अतिथि सम्मान के लिये गो हत्या उस समय इतनी सामान्य बात थी कि अतिथि का नाम ही गोघ्न पड़ गया। वैसे इस अनावश्यक हत्या से बचने के लिये आश्वालायन गृह सूत्र का सुझाव है कि अतिथि के आगमन पर गाय को छोड़ दिया जाय ( इसी लिये दूसरे सूत्रों में बार बार गाय के छोड़े जाने की बात है)। ताकि बिना आतिथ्य का नियम भंग किए गोहत्या से बचा जा सके।

प्राचीन आर्यों में जब कोई आदमी मरता था तो पशु की बलि दी जाती थी और उस पशु का अंग प्रत्यंग मृत मनुष्य के उसी अंग प्रत्यंग पर रखकर दाह कर्म किया जाता था। और यह पशु गो होता था। इस विधि का विस्तृत वर्णन आश्वालायन गृह सूत्र में है।


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jai_bhardwaj
27-01-2013, 10:59 PM
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गो हत्या पर इन दो विपरीत प्रमाणों में से किस पक्ष को सत्य समझा जाय? असल में गलत दोनों नहीं हैं शतपथ ब्राह्मण की गोवध से निषेध की आज्ञा असल में अत्यधिक गोहत्या से विरत करने का अभियान है। और बावजूद इन निषेधाज्ञाओं के ये अभियान असफल हो जाते थे। शतपथ ब्राह्मण का पूर्व उल्लिखित उद्धरण (३.१-२.२१) प्रसिद्ध ऋषि याज्ञवल्क्य को उपदेश स्वरूप आया है। और इस उपदेश के पूरा हो जाने पर याज्ञ्वल्क्य का जवाब सुनने योग्य है; "मगर मैं खा लेता हूँ अगर वह (मांस) मुलायम हो तो।"

वेदों और ब्राह्मण ग्रंथों के बहुत बाद रचे गये बौद्ध सूत्रों में भी इसके उल्लेख हैं। कूट्दंत सूत्र में बुद्ध, ब्राह्मण कूटदंत को पशुहत्या न करने का उपदेश देते हुए वैदिक संस्कृति पर व्यंग्य करते हैं, " .. हे ब्राह्मण उस यज्ञ में न बैल मारे गये, न अजा, न कुक्कुट, न मांसल सूअर न अन्य प्राणी.." और जवाब में कूटदंत बुद्ध के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता है और कहता है, ".. मैं स्वेच्छा से सात सौ साँड़, सात सौ तरुण बैल, सात सौ बछड़े, सात सौ बकरे, और सात सौ भेड़ों को मुक्त करता हूँ जीने के लिये.. "

अब इतने सारे साक्ष्यों के बाद भी क्या किसी को सन्देह है कि ब्राह्मण और अब्राह्मण सभी हिन्दू एक समय पर न केवल मांसाहारी थे बल्कि गोमांस भी खाते थे।


अध्याय ग्यारह के सन्दर्भ में प्राप्त हुई टिप्पणियाँ

9 टिप्पणियाँ :


1. ........unfortunate yahi hai ki aap jaise hindu hi apne aap ko jyada gyani aur neeti ka jaankaar sabit karne ke liye dharma aur ved ki galat vyakkhaya karte aaye hain jisase ek jahni kism ka bhram failta hai jo gair majhabiyon ko bal deta hai.....problem ye nahi hai ki tum jaise logon ki knowledge es baare me adhkachari hai balki problm ye bhi hai ki aap jaise log GAU-MAASS khana chhod hi nahi sakte aur tark dete hain...........afsos hai afsos hai


2. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

3, Dr. Shashank ne sahi kaha hai. Aapko hindu dharma aur vedik sanskriti ke bare knowledge nahi hai.So please firstly change your mind and study the vedik sanskriti.


4, dr. sahab ki comments sahi hai aap jaise logo k karan hindu dharma itna jirna shirna awastha me pahuch gaya hai aur dusre dharma age bad rhae hai kyuki wo apne dharmo ki bhalai ka kaam karte hai uska is tarah majak nai udate


5, ऊपर विचार लिख्र वाले सभी हिंदू प्रेमी महानुभवों से एक साधारण सा प्रश्न है जो कि लेखक (जो कि इस ब्लॉग के लेखक **** जी नहीं अपितु अम्बेडकर हैं )के वेदों के ज्ञान पर प्रश्न उठा रहे हैं ,क्या आप सभी ने स्वयं सारे वेद,उपनिषद,पुराण,पतिकाएं और मनु स्मृति पढ़ी है ???????????


6. मै अम्बेडकर जी के मत से सहमत हूँ, मेरा भी आप से अनुरोध है की पहले इन किताबो का अध्यन करे. मनु स्मृति में कई जगहों पर ये कहा गया है की ब्रह्मण मांस का व्यापार करते है , तो प्रश्न ये उठता है की जो मांस बेच सकता है वो खा नहीं सकता?
और इस तरह के चर्चा से धर्म की हानी नहीं होती बल्कि धर्म और मजबूत होगा, जो बूराइयाँ है वो शायद दूर हो. रही बात वैसे लोगो की जो हमारे धर्म पर ऊँगली उठाते है तो उसके लिए आप अपने आप को तैयार कीजिये.


7. aap sabhi se anurodh hai ki pahle vedik adayan kijiye uske badh hi kuch kahna .arya kabhi mans nahi khate . chahe vo kesa bhi mans ho. ye subh chotemansikta vale logo ki soch hai ki arya mans khte hai.


8. arya to mans khane or khilane valo ke virothi hai. vedh ke ander ak slok aata hai ki jesa aadmi ka aahar hoga vese hi uake vichar hoge or jese vishar hoge vesa hi uska parchar hoga.esliye pahle apna aahar badlo. simple bhogan karo or deshbadlo.

danyawad

9. dr ambedkar sahab ne jo baten kahin hai wo tark ki kashoti par kahin hai.agar koi ese galat kahta hai to jo slok ,uhahran dr sahab ne diye hai usko tark ki kashoti par kaskar dekho .
madhyapradesh ke grameed chhetron me brahmmano ke yanhan par shadi hoti hai to wo aate ki gay out bel banakar usaka wadh karte hai .ye pratha kya esh bat ko sabit nahi karti .........

jai_bhardwaj
27-01-2013, 11:03 PM
अध्याय १२ : गैर ब्राह्मणों ने गोमांस खाना कब छोड़ा?


साम्प्रदायिक दृष्टि से हिन्दू या तो शूद्र होते हैं या वैष्णव, उसी तरह शाकाहारी होते हैं या मांसाहारी। मांसाहारी में भी दो वर्ग हैं, १) जो मांस खाते हैं पर गोमांस नहीं खाते, और २) जो गोमांस भी खाते हैं। तो इस तरह से तीन वर्ग हो गये;

१) शाकाहारी, यानी ब्राह्मण (हालाँकि कुछ ब्राह्मण भी मांसाहार करते हैं)
२)मांसाहारी किंतु गोमांस न खाने वाले यानी अब्राह्मण
३)गोमांस खाने वाले यानी अछूत

यह वर्गीकरण चातुर्वर्ण के अनुरूप नहीं है फिर भी तथ्यों के अनुरूप है। शाकाहारी होना समझ आता है, गोमांस खाने वाले की स्थिति भी समझ आती है, मगर अब्राह्मण की सिर्फ़ गोमांस से परहेज़ की स्थिति समझ नहीं आती। इस गुत्थी को सुलझाने के लिये पुराने समय के क़ानून को समझने की ज़रूरत होगी। तो ऐसा नियम या तो मनु के विधान में होगा या अशोक के।

अशोक का स्तम्भ लेख -५ कहता है, "..राज्याभिषेक के २६ वर्ष बाद मैंने इन प्राणियों का वध बंद करा दिया है, जैसे सुगा, मैना, अरुण, चकोर, हंस पानान्दीमुख, गोलाट, चमगादड़, कछुआ, रामानन्दी कछुआ, वेदवेयक, गंगापुपुतक, रानी चींटी, स्केट मछली, बिन काँटों की मछली, साही, गिलहरी, बारासिंगा, साँड़, बंदर, गैंडा, मृग, सलेटी कबूतर, और सब तरह के चौपाये जो न तो किसी उपयोग में आते हैं और न खाए जाते हैं.."

अशोक के निर्देशों पर टिप्पणी करते हुए श्री विंसेट स्मिथ कहते हैं कि "अशोक के निर्देशों में गोहत्या का निषेध नहीं है, ऐसा लगता है कि गोहत्या वैध बनी रही" मगर प्रोफ़ेसर राधाकुमुद मुखर्जी का कहना है कि "चूंकि अशोक ने सभी चौपायों की हत्या पर रोक लगाई तो गो हत्या पर स्वतः रोक मानी जाय"। उनके कहने का अर्थ यह है कि अशोक के समय गोमांस नहीं खाया जाता था इसलिये उसका अलग से उल्लेख करने की ज़रूरत न हुई।

मगर शायद सच यह है कि अशोक की गो में कोई विशेष दिलचस्पी होने की कोई वजह न थी। और इसे वह अपना कर्तव्य नहीं समझता था कि गो को हत्या से बचाये। अशोक प्राणी मात्र, मनुष्य या पशु, पर दया चाहता था। उसने यज्ञों के लिए पशु बलि का निषेध किया मगर उन पशुओं की हत्या से निषेध नहीं किया जो किसी काम में आते हैं या खाए जाते हैं। अशोक ने निरर्थक वध को अनुचित ठहराया।

अब मनु को देख लिया जाय। मनु ने पक्षियों, जलचरों, मत्स्यों, सर्पादि और चौपायों की एक लम्बी सूची दी है जो कुछ इस प्रकार समाप्त होती है, " पंचनखियों में सेह, साही, शल्यक, गोह, गैंडा, कछुआ, खरहा, तथा एक ऒर दाँत वाले पशुओं में ऊँट को छोड़कर बकरे आदि पशु भक्ष्य हैं, ऐसा कहा गया है.."

तो मनु ने भी गोह्त्या के विरुद्ध कोई विधान नहीं बनाया। उन्होने तो विशेष अवसरों पर गोमांस खाना अनिवार्य ठहराया है।

तो फिर अब्राह्मण ने गोमांस खाना क्यों छोड़ दिया? मेरा विचार है कि अब्राह्मण ने सिर्फ़ ब्राह्मण की नकल में गोमांस खाना छोड़ दिया। यह नया विचार लग सकता है पर नामुमकिन नहीं है यह। फ़्रांसीसी लेखक गैब्रियल तार्दे लिखते हे कहते हैं कि "समाज में संस्कृति, निम्न वर्ग के द्वारा उच्च वर्ग का, अनुसरण करने से फैलती है"। यह नकल बहुत मजे से के मशीनी गति से एक प्राकृतिक नियम की तरह होता चलता है। उनका मानना है कि निम्न वर्ग हमेशा उच्च वर्ग की नकल करता है और ये इतनी आम बात समझी जाती है कि कभी कोई इस पर सवाल भी नहीं करता।

तो कहा जा सकता है कि अब्राह्मणो ने गोमांस खाना ब्राह्मणों की नकल के फलस्वरूप छोड़ा। मगर बड़ा सवाल है कि ब्राहमणों ने गोमांस खाना क्यों छोड़ा?

अध्याय बारह के लिए ब्लॉगर महोदय को कोई भी टिप्पणी नहीं प्राप्त हुई।

jai_bhardwaj
27-01-2013, 11:05 PM
अध्याय १३ : ब्राह्मण शाकाहारी क्यों बने?

एक समय था जब ब्राह्मण सब से अधिक गोमांसाहारी थे। कर्मकाण्ड के उस युग में शायद ही कोई दिन ऐसा होता हो जब किसी यज्ञ के निमित्त गो वध न होता हो, और जिसमें कोई अब्राह्मण किसी ब्राह्मण को न बुलाता हो। ब्राह्मण के लिए हर दिन गोमांसाहार का दिन था। अपनी गोमांसा लालसा को छिपाने के लिए उसे गूढ़ बनाने का प्रयतन किया जाता था। इस रहस्यमय ठाठ बाट की कुछ जानकारी ऐतरेय ब्राह्मण में देखी जा सकती है। इस प्रकार के यज्ञ में भाग लेने वाले पुरोहितों की संख्या कुल सत्रह होती, और वे स्वाभाविक तौर पर मृत पशु की पूरी की पूरी लाश अपने लिए ही ले लेना चाहते। तो यजमान के घर के सभी सदस्यों से अपेक्षित होता कि वे यज्ञ की एक विधि के अन्तर्गत पशु के मांस पर से अपना अधिकार छोड़ दें।

ऐतरेय ब्राह्मण में जो कुछ कहा गया है उस से दो बातें असंदिग्ध तौर पर स्पष्ट होती हैं। एक तो यह कि बलि के पशु के सारा मांस ब्राह्मण ही ले लेते थे। और दूसरी यह कि पशुओं का वध करने के लिये ब्राह्मण स्वयं कसाई का काम करते थे।

तब फिर इस प्रकार के कसाई, गोमांसाहारियों ने पैंतरा क्यों बदला?

पहले बताया जा चुका है कि अशोक ने कभी गोहत्या के खिलाफ़ कोई का़नून नहीं बनाया। और यदि बनाया भी होता तो ब्राह्मण समुदाय एक बौद्ध सम्राट के का़नून को क्यों मानते? तो क्या मनु ने गोहत्या का निषेध किया था? तो क्या मनु ने कोई का़नून बनाया? मनुस्मृति के अध्याय ५ में खान पान के विषय में श्लोक मिलते हैं;

"बिना जीव को कष्ट पहुँचाये मांस प्राप्त नहीं किया जा सकता और प्राणियों के वध करने से स्वर्ग नहीं मिलता तो मनुष्य को चाहिये कि मांसाहार छोड़ दे।" (५.४८)

तो क्या इसी को मांसाहार के विरुद्ध निषेधाज्ञा माना जाय? मुझे ऐसा मानने में परेशानी है और मैं समझता हूँ कि ये श्लोक ब्राह्मणों के शाकाहारी बन जाने के बाद में जोड़े गये अंश हैं। क्योंकि मनुस्मृति के उसी अध्याय ५ के इस श्लोक के पहले करीब बीस पच्चीस श्लोक में विवरण है कि मांसाहार कैसे किया जाय, उदाहरण स्वरूप;

प्रजापति ने इस जगत को इस प्राण के अन्न रूप में बनाया है, सभी चराचर (जड़ व जीव) इस प्राण का भोजन हैं। (५.२८)

मांस खाने, मद्यपान तथा मैथुन में कोई दोष नहीं। यह प्राणियों का स्वभाव है पर उस से परहेज़ में महाफल है।(५.५६)

ब्राह्मणों द्वारा मंत्रो से पवित्र किया हुआ मांस खाना चाहिये और प्राणों का संकत होने पर अवश्य खाना चाहिये। (५.२७)

ब्रह्मा ने पशुओं को यज्ञो में बलि के लिये रचा है इसलिये यज्ञो में पशु वध को वध नहीं कहा जाता। (५.३९)

एक बार तय हो जाने पर जो मनुष्य (श्राद्ध आदि अवसर पर) मांसाहार नहीं करता वह इक्कीस जन्मो तक पशु योनि में जाता है। (५.३५)

स्पष्ट है कि मनु न मांसाहार का निषेध नहीं किया और गोहत्या का भी कहीं निषेध नहीं किया।मनु के विधान में पाप कर्म दो प्रकार के हैं;१) महापातक: ब्रह्म हत्या, मद्यपान, चोरी, गुरुपत्नीगमन ये चार अपराध महापातक हैं।और २) उपपातक: परस्त्रीगमन, स्वयं को बेचना, गुरु, माँ, बाप की उपेक्षा, पवित्र अग्नि का त्याग, पुत्र के पोषण से इंकार, दूषित मनुष्य से यज्ञ कराना और गोवध।

स्पष्ट है कि मनु की दृष्टि में गोवध मामूली अपराध था। और तभी निन्दनीय था जब गोवध बिना उचित और पर्याप्त कारण के हो। याज्ञवल्क्य ने भी ऐसा ही कहा है।

तो फिर आज के जैसी स्थिति कैसे पैदा हुई? कुछ लोग कहेंगे कि ये गो पूजा उसी अद्वैत दर्शन का परिणाम है जिसकी शिक्षा है कि समस्त विश्व में ब्रह्म व्याप्त है। मगर यह संतोषजनक नहीं है जो वेदांतसूत्र ब्रह्म के एकत्व की बात करते हैं वे यज्ञ के लिये पशु हत्या को वर्जित नहीं करते (२.१.२८)। और अगर ऐसा है भी तो यह आचरण सिर्फ़ गो तक सीमित क्यों सभी पशुओं पर क्यों नहीं लागू होता?

मेरे विचार से ये ब्राह्मणों के चातुर्य का एक अंग है कि वे गोमांसाहारी न रहकर गो पूजक बन गए। इस रहस्य का मूल बौद्ध-ब्राह्मण संघर्ष में छिपा है। उन के बीच तू डाल डाल मैं पात पात की होड़ भारतीय इतिहास की निर्णायक घटना है। दुर्भाग्य से इतिहासकारों ने इसे ज़्यादा महत्व नहीं दिया है। वे आम तौर पर इस तथ्य से अपरिचित होते हैं कि लगभग ४०० साल तक बौद्ध और ब्राह्मण एक दूसरे से बाजी मार ले जाने के लिए संघर्ष करते रहे।

एक समय था जब अधिकांश भारतवासी बौद्ध थे। और बौद्ध धर्म ने ब्राह्मणवाद पर ऐसे आक्रमण किए जो पहले किसी ने नहीं किए। बौद्ध धर्म के विस्तार के कारण ब्राह्मणों का प्रभुत्व न दरबार में रहा न जनता में। वे इस पराजय से पीड़ित थे और अपनी प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त करने के प्रयत्नशील थे।

इसका एक ही उपाय था कि वे बौद्धों के जीवनदर्शन को अपनायें और उनसे भी चार कदम आगे बढ़ जायें। बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद बौद्धों ने बुद्ध की मूर्तियां और स्तूप बनाने शुरु किये। ब्राह्मणों ने उनका अनुकरण किया। उन्होने शिव, विष्णु, राम, कृष्ण आदि की मूर्तियां स्थापित करके उनके मंदिर बनाए। मकसद इतना ही था कि बुद्ध मूर्ति पूजा से प्रभावित जनता को अपनी ओर आकर्षित करें। जिन मंदिरों और मूर्तियों का हिन्दू धर्म में कोई स्थान न था उनके लिए स्थान बना।

गोवध के बारे में बौद्धों की आपत्ति का जनता पर प्रभाव पड़ने के दो कारण थे कि एक तो वे लोग कृषि प्रधान थे और दूसरे गो बहुत उपयोगी थे। और उसी वजह से ब्राह्मण गोघातक समझे जाकर घृणा के पात्र बन गए थे।

गोमांसाहार छोड़ कर ब्राह्मणों का उद्देश्य बौद्ध भिक्षुओं से उनकी श्रेष्ठता छीन लेना ही था। और बिना शाकाहारी बने वह पुनः उस स्थान को प्राप्त नहीं पर सकता था जो बौद्धों के आने के बाद उसके पैर के नीचे से खिसक गया था। इसीलिए ब्राह्मण बौद्ध भिक्षुओं से भी एक कदम आगे जा कर शाकाहारी बन गए। यह एक कुटिल चाल थी क्योंकि बौद्ध शाकाहारी नहीं थे। हो सकता है कि ये जानकर कुछ लोग आश्चर्य करें पर यह सच है। बौद्ध त्रिकोटी परिशुद्ध मांस खा सकते थे।यानी ऐसे पशु को जिसे उनके लिए मारा गया ऐसा देखा न हो, सुना न हो और न ही कोई अन्य संदेह हो। इसके अलावा वे दो अन्य प्रकार का मांस और खा सकते थे- ऐसे पशु का जिसकी स्वाभाविक मृत्यु हुई हो या जिसे किसी अन्य वन्य पशु पक्षी ने मार दिया हो।

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jai_bhardwaj
27-01-2013, 11:18 PM
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तो इस प्रकार के शुद्ध किए हुए मांस खाने वाले बौद्धों से मुकाबले के लिए मांसाहारी ब्राह्मणों को मांस छोड़ने की क्या आवश्यक्ता थी। थी, क्योंकि वे जनता की दृष्टि में बौद्धों के साथ एक समान तल पर खड़े नहीं होना चाहते थे। यह अति को प्रचण्ड से पराजित करने की नीति है। यह वह युद्ध नीति है जिसका उपयोग वामपंथियों को हटाने के लिए सभी दक्षिणपंथी करते हैं।

एक और प्रमाण है कि उन्होने ऐसा बौद्धों को परास्त करने के लिए ही किया। यह वह स्थिति बनी जब गोवध महापातक बन गया। भण्डारकर जी लिखते हैं कि, "हमारे पास एक ताम्र पत्र है जो कि गुप्त राजवंश के स्कंदगुप्त के राज्यकाल का है। यह एक दान पात्र है जिसके अंतिम श्लोक में लिखा है : जो भी इस प्रदत्तदान में हस्तक्षेप करेगा वह गो हत्या, गुरुहत्या, या ब्राह्मण हत्या जैसे पाप का भागी होगा।" हमने ऊपर देखा है कि मनु ने गोवध को उपपातक माना है। मगर स्कन्द गुप्त के काल (४१२ ईसवी) तक आते आते महापातक बन गया।

हमारा विश्लेषण है कि बौद्ध भिक्षुओ पर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए ब्राह्मणों के लिए यह अनिवार्य हो गया था कि वे वैदिक धर्म के एक अंश से अपना पीछा छुड़ा लें। यह एक साधन था जिसे ब्राह्मणों ने अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को पाने के लिए उपयोग किया।


अध्याय तेरह के लिए निम्न टिप्पणियाँ मिली हैं ...

14 टिप्*पणियां:

1, There has been lot of interpolation in the vedic text . Due to rule of buddhist for thousand yrs . many stories , shloka has been inserted inbetween .its a known fact a victor write the hisotry ,same thing happened at the time of buddhist rulers, so dont get blient by what ambedkar has written , he was again a buddhist

2. That was a foolish artical,
i am requisting you to don't miss guide the indian peoples.

3, abay t*****i you are totaly a foolish man . your interuption of the history cast system is as illiterate. you should know hindus are the great philosphers, scientists ,inventers of cultures and in all rigion first in the world. do you can say criticaly about islam , jesus . do you rasdi and tslima . do you think so you have no write to criticise hinduism . i am proud of hinduism . your eassy is sameful . you change you name why you will think . i am 15 year old girl. ***** tripathi .maihar satna mp.

4, me minee se poori tarah se sahmat hun.ye *** ji wo nahi hain jo aap soch rahe hain.
brijmohan


5. bahut badey maadhar**** ho tum bahan k la*****....teri maa ko cho***......bhadve.......Ambe**** kya teri maa ka *******m tha jo bahan***** jo likh de vo hi SATYA maan liya jaaye......

6. foolish article

7. harimiyo ki aulad ****** hi rahti hai ..tum sale kabhi nahi sudharoge .apne sath apni 108 peediyo ko nark me le jaa rahe ho .yahi tumahara dand hai .



8. mansik dwesh ke siway or kuch nahi
ho sakta hai brihamins ya hindutva se aap khfa hai!

9. yeh ek shajish ka hissa hai jo anek roopo me saamne aati rahati hai.......

10.yeh ek shajish ka hissa hai jo anek roopo me saamne aati rahati hai.......

11. yeh ek shajish ka hissa hai jo anek roopo me saamne aati rahati hai.......


12. डॉ. आंबेडकर छुआ-छूत के खिलाफ प्रयास करते रहे. इस कु-रीती कॉ समाप्त कर अछूतोंको हिंदूधर्म में समान दर्जा प्राप्त हो यह आप का प्रयत्न था. महाड के तालाब का पानी पीने का - छूनेका अधिकार सबको मिले, इस हेतु किया गया सत्याग्रह, मंदिर प्रवेश के लिए सत्याग्रह आपने किए. किंतु समाज की कुंठा के कारण यश नही मिला. वे क्रोधित हुए और घोषणा की - हिंदू के रूप में नही मरूंगा - और बौद्ध धर्म को अपनाया. इसके बाद आप ने पूरा जीवन हिंदू धर्म पर प्रहार और बौद्ध धर्म की प्रशस्ती में लगाया. अपनी विद्वत्ता का प्रयोग इस हेतु किया. मुझे इतिहास-विद् श्री. गजानन खरे के एक पुराना स्फुटलेख याद है - श्री खरे डॉ. आंबेडकरको एक समारोहमें भाषण देनेके लिए आमंत्रित करने आप के घर गए थे. तब आप ने श्री खरे को कहा था - आप जो चाहे कहो, मै हिंदू और ब्राह्मणो के खिलाफ किसी न किसी ग्रंथ से सबूत जुटा कर अपनी बात रखूंगा. इस लिए जरूरी है की मनु-स्मृती अथवा ऐतरेय उपनिषद की जो बाते कही गयी है, उनका पूर्वग्रहरहित अभ्यास हो.

13. YE SAB SAHI LIKHA HAI MAI ISASE SAHAMAT HUN AUR YE BRAMHAN KA MATALAB HAI (BRA) AUR (MAN)

14, YE SAB SAHI LIKHA HAI MAI ISASE SAHAMAT HUN AUR YE BRAMHAN KA MATALAB HAI (BRA) AUR (MAN)

jai_bhardwaj
27-01-2013, 11:21 PM
अध्याय १४: गोमांस भक्षण से छितरे व्यक्ति अछूत कैसे बने?

जब ब्राह्मणों तथा अब्राह्मणों ने गोमांस त्याग दिया तो एक नई स्थिति पैदा हो गई। जिसमें सिर्फ़ छितरे लोग ही गोमांस भक्षण कर रहे थे। यदि गोमांसाहार मात्र व्यक्तिगत अरुचि अरुचि का प्रश्न होता तो गोमांस खाने और न खाने वालों के बीच कोई दीवार न खडी होती मगर मांसाहार एक लौकिक बात न रहकर धर्म का प्रश्न बन गया था।

ब्राह्मणों ने जीवित और मृत गो में भेद करने की किसी प्रकार की आवश्यक्ता नहीं समझी। गो पवित्र थी चाहे मृत या जीवित। यदि कोई गो को पवित्र न माने और तो वह पाप का भागी होगा। तो छितरे लोग जिन्होने गोमांसाहार जारी रखा, पाप के भागी हुए और अछूत बन गए।

इस मत पर कुछ आपत्तियां हो सकती हैं। पहली तो यह कि इस बात का क्या प्रमाण है कि छितरे लोग गोमांस खाते थे?

इसका जवाब यह है कि जिस समय बसे हुए लोग और छितरे लोग दोनों गोमांसाहारी थे तो तो एक परिपाटी चल निकली जिसके तहत बसे हुए लोग गो का ताज़ा मांस खाते और छितरे लोग मृत गाय का। मरी हुई गो पर छितरे हुए लोगों का अधिकार होता था। महाराष्ट्र के महारों से सम्बन्धित इस साक्ष्य की चर्चा पहले भी की जा चुकी है। महाराष्ट्र के गाँवों में हिन्दू लोगों को एक समझौते के तहत अपने मृत पशुओं महारों को सौंपना पड़ता है। कहते हैं कि बीदर के मुस्लिम राजा ने ऐसे ५२ अधिकार उन्हे दे दिये। ऐसी कोई और वजह नहीं लगती कि बीदर के राजा अचानक ये अधिकार महारों को दे दे सिवाय इसके कि ये अधिकार उनके पास पहले से चले आ रहे थे जिन्हे उन्हे दुबारा पक्का कर दिया गया।

बसे हुए लोग धनी थे। उनकी जीविका के लिए खेती और पशुपालन थे। मगर छितरे हुए लोग निर्धन थे और उनकी जीविका के साधन भी न थे। इस तरह का प्रबन्ध स्वाभाविक लगता है जिसमें छितरे हुए लोगों ने बसे हुए लोगों की पहरेदारी के बदले मृत जानवरों पर अधिकार की मज़दूरी स्वीकार की। और ऐसा सम्पूर्ण भारत में हुआ होगा।

दूसरी आपत्ति यह कि जब ब्राह्मणों और अब्राह्मणों ने गोमांस छोड़ा तो छितरे लोगों ने भी क्यों न छोड़ दिया?

यह सवाल प्रासंगिक है मगर गुप्त काल में गोवध के खिलाफ़ जो कानून आया वह छितरे लोगों पर इस लिए लागू नहीं हो सकता था क्योंकि वे मृत गो का मांस खाते थे। और उनका आचरण गोवध निषेध के विरुद्ध नहीं पड़ता था। और अहिंसा के विरुद्ध भी नहीं। तो छितरे लोगों का यह व्यवहार न नियम के विरुद्ध हुआ न सिद्धान्त के।

और तीसरी, यह कि इन छितरे लोगों ने ब्राह्मणों का अनुकरण क्यों न किया? उन्हे गोमांस खाने से रोका भी तो जा सकता था, अगर ऐसा हुआ होता तो अस्पृश्यता का जन्म ही न होता?

इस प्रश्न के जवाब के दो पहलू हैं। पहला तो यह कि नकल करना उनके लिए अत्यन्त मँहगा सौदा था। मृत गो का मांस उनका जीवनाधार था। इसके बिना वे भूखे मर जाते। दूसरा यह कि मृत गायों का ढोना जो पहले एक अधिकार था बाद में एक कर्तव्य में बदल गया(सुधार आन्दोलन के बाद महार मृत गो उठाने से मना करते हैं पर हिन्दू उन्हे मजबूर करते हैं)। तो जब मृत गो को उठाने से कोई मुक्ति नहीं थी इसलिये उस मृत पशु के जानवर को खाने के लिए इस्तेमाल करने से उन्हे ऐतराज़ न था जैसा वे पहले करते ही थे।

तो इन आपत्तियों से हमारे सिद्धान्त पर कोई आँच नहीं आती।



अध्याय चौदह के लिए ब्लॉगर महोदय को कोई भी टिप्पणी नहीं प्राप्त हुई।

jai_bhardwaj
27-01-2013, 11:24 PM
अध्याय १५: अपवित्र और अछूत
कट्टर रूढ़िवादियों का कहना है कि अस्पृश्यता अत्यंत प्राचीन काल से चली आ रही है। क्योंकि अस्पृश्यता के बारे में न सिर्फ़ स्मृतियों में दिया है बल्कि धर्म सूत्रों में भी, जो कि कुछ विद्वानों के अनुसार ईसा के पहले लिखे गए हैं।

ये ठीक बात है। मगर क्या धर्म सूत्र में अस्पृश्यता और अछूतों का उल्लेख उन्ही अर्थों में हुआ है जिन अर्थों में हम आज समझते हैं? धर्म सूत्र अस्पृश्य के साथ कुछ अन्य शब्दों का भी उपयोग करते हैं; अन्त्य, अन्त्यज, अन्त्यवासिन, और वाह्य। इन शब्दों का प्रयोग स्मृतियों में भी हुआ है। तो क्या अन्त्य, अन्त्यज आदि इन शब्दों का भी वही अर्थ है जो अस्पृश्य का?

दुर्भाग्य से इन शब्दों का प्रयोग धर्म सूत्र में बहुत सीमित है और कहीं भी यह नहीं बताया गया है कि इन शब्दों अन्तर्गत कौन कौन सी जातियां आती हैं ? स्मृतियों में बताया है। मगर हर जगह अलग अलग जातियां दी गई हैं, कहीं सात कहीं बारह। उदाहरण के लिये वेदव्यास स्मृति के अनुसार चाण्डाल और श्वपाक अन्त्यज हैं किन्तु अत्रि स्मृति के अनुसार नहीं। अत्रि के अनुसार बुरुद और कैवर्त अन्त्यज हैं मगर वेदव्यास के अनुसार नहीं।


कहने का सार यह है कि न तो धर्म सूत्र और न ही स्मृतियों से कुछ निश्चय हो पा रहा है। फिर ये ग्रंथ यह भी नहीं बताते कि ये अन्त्य, अन्त्यज, अन्त्यवासिन, और वाह्य अस्पृश्य थे या नहीं? इनके बारे में जो अलग से जानकारी है शायद उस से कुछ सहायता मिले।

जैसे मनु ने वाह्य का उल्लेख किया है। मगर उसको समझने के लिए मनु के वर्गीकरण को समझना ज़रूरी है। मनु लोगों केपहले दो वर्ग बनाते हैं, १) वैदिक और २)दस्यु। फिर वैदिक जनों को चार उप वर्ग में बिभाजित करते हैं;
१) जो चातुर्वर्ण के भीतर हैं
२)जो चातुर्वर्ण के बाहर हैं
३)ब्रात्य
४)पतित या जाति बहिष्कृत

चातुर्वर्ण के भीतर वही जन गिने जाते थे जिनके माता पिता का वर्ण एक ही हो। नहीं तो अलग अलग वर्ण के माता पिता की सन्तान को वर्ण संकर कह कर चातुर्वर्ण से बाहर कर दिया जाता था। चातुर्वर्ण से बाहर इन लोगों के फिर दो भेद किये गये।१)अनुलोम, जिनके पिता ऊँचे वर्ण के और माता नीचे वर्ण की२)प्रतिलोम, जिनकी माता ऊँचे वर्ण की और पिता नीचे वर्ण केअनुलोमों को मनु ने वाह्य कहा है और प्रतिलोमों को हीन किन्तु दोनों को ही अछूत नहीं कहा है।

अब अन्त्य शब्द के बारे में। अन्त्य एक वर्ग के रूप में मनु स्मृति(४.७९) में आता है फिर भी मनु उसकी गणना नहीं करते। मेधातिथि ने अपने भाष्य में कहा है कि अन्त्य का अर्थ है म्लेच्छ। बुलहर ने इस का अनुवाद नीच जाति के रूप में किया है। बृहदारण्यक उपनिषद में एक कथा है जिसमें अन्त्य शब्द का अर्थ गाँव की सीमा पर बसे हुए लोगों से लिया गया है।

अब अन्त्यज। महाभारत (शांति पर्व १०९.९) में अन्त्यजों के सैनिक होने का उल्लेख है। सरस्वती विलास के अनुसार रजकों की सात जातियां अन्त्यज में गिनी जाती हैं। वीरमित्रोदय का कहना है रजक आदि अठारह जातियां सामूहिक तौर पर अन्त्यज कहलाती हैं। मगर ये कहीं नहीं कहती कि अन्त्यज अछूत थे।

और अन्त्यवासिन? क्या वे अछूत थे? अमर कोश के अनुसार अन्त्यवासिन का अर्थ है गुरु के घर पर रहने वाला ब्रह्मचारी। ये ब्रह्मचारी जो सिर्फ़ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ही हो सकते थे, अछूत नहीं हो सकते थे। वशिष्ठ धर्म सूत्र के अनुसार अन्त्यवासिन शूद्र पिता और वैश्य माता की संतान हैं। मनु के मत से वे चाण्डाल पिता और निषाद माता की संतान। मिताक्षरा का कहना है कि वे अन्त्यजों का ही एक उपवर्ग हैं।

अभी तक जो जानकारी मिली है उस से इन अन्त्यज आदि को आधुनिक अर्थों में अछूत कहना मुश्किल है। फिर भी अगर कुछ लोग ये मानते हो कि नहीं वे अछूत ही थे तो पूछा जाना चाहिये कि उस काल में अस्पृश्य का अर्थ क्या था?

उदाहरण के लिए एक अस्पृश्य जाति चाण्डाल को लें। चाण्डाल कई तरह के लोगों के लिए एक शब्द है। शास्त्रों में पाँच तरह के चाण्डालों का वर्णन है।
१)शूद्र पिता और ब्राह्मण माता की संतान
२)कुँवारी कन्या की सन्तान
३)सगोत्र स्त्री की संतान
४)सन्यासी हो कर पुन: गृहस्थ होने वाले की संतान
५)नाई पिता और ब्राह्मण माता की संतान

हम मान लेते हैं कि इन पाँचो के सन्दर्भ में शुद्ध होने के आवश्यक्ता बताई गई है। तो शुद्ध होने का शास्त्रोक्त नियम हैं;जब ब्राह्मण किसी चाण्डाल, रजस्वला स्त्री, पतित, प्रसूता, शव या उसे जिसने शव का स्पर्श किया हो, को स्पर्श करता है तो स्नान करने से शुद्ध होता है। (मनु स्मृति ५.८५)

इसी तरह के अन्य नियम दूसरे शास्त्रों में भी मिलते हैं। इन नियमों से दो बातें स्पष्ट होती हैं।
१)चाण्डाल के स्पर्श से केवल ब्राह्मण अशुद्ध होता था।
२)और सम्भवतः आनुष्ठानिक अवसरों पर ही शुद्ध अशुद्ध का विचार किया जाता था।

यदि ये निष्कर्ष ठीक है तो यह अशुद्धि का मामला है जो अस्पृश्यता से बिलकुल अलग है। अछूत सभी को अपवित्र करता है मगर अशुद्ध केवल ब्राह्मण को अपवित्र करता है। अशुद्ध का स्पर्श केवल अनुष्ठान के अवसर पर ही अपवित्रता का कारण बनता है मगर अछूत सदैव अपवित्र बनाता है।

इसके अलावा एक और तर्क है जिससे सिद्ध होता है कि धर्म सूत्र में जिन जातियों के नाम आए वे अछूत थीं। इस तर्क का आधार अध्याय २ में उल्लिखित ऑर्डर इन कौंसिल की ४२९ जातियों की सूची है। स्मृतियों और इस सूची की तुलना करने पर कुछ बातें सामने आती हैं;
१)स्मृतियों में दी गई ऐसी जातियों की अधिकतम संख्या १२ है, जबकि इस सूची में इनकी संख्या ४२९ है।
२)४२९ में ४२७ जातियों का नाम स्मृतियों में नहीं है।
३)स्मृतियों में जिनका नाम है, वे ऑर्डर इन कौंसिल की सूची में नहीं हैं।
४)केवल चमार ही एक ऐसी जाति है जो दोनों जगह है।

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jai_bhardwaj
27-01-2013, 11:26 PM
अगर ये दोनों सूचियां एक ही वर्ग के लोगों की हैं और ये सिर्फ़ अस्पृश्यता के विस्तार का मामला है तो इसका कारण क्या है? ऐसा कैसे सम्भव है कि अकेले चमार को छोड़कर ४२८ का तब अस्तित्व ही नहीं था? और यदि था तो उनका उल्लेख स्मृतियों में क्यों नहीं मिलता? इस प्रश्न को कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिलता।

अब यदि यह मान लिया जाय कि ये दो अलग अलग वर्गों की सूचियां हैं। शास्त्र वाली सूची अपवित्र जनों की है जबकि ऑर्डर इन कौंसिल वाली सूची अछूतों की तो इन सवालों का कोई अर्थ नहीं रह जाता। सिवाय इस पहलू के कि चमार को दोनों सूचियों में कैसे स्थान प्राप्त है? अकेले चमार की दोनों सूचियों में उपस्थिति से यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि दोनों सूचियाँ एक ही लोगों के बारे में हैं बल्कि अगर ये समझा जाय कि ये दो सूचियां दो अलग अलग लोगों के बारे में हैं; एक अपवित्रों की और एक अछूतों की। तो सिर्फ़ इतना सिद्ध होता है कि चमार जो कभी अपवित्र थे बाद में अछूत हो गये।

स्मृतियों में वर्णित बारह अपवित्र जातियों में अकेले चमार को ही क्यों अछूत बनाया गया, ये समझना कठिन नहीं। चमार और अन्य अपवित्र जातियों ने जिस बात ने भेद पैदा किया है वह है गोमांसाहार। जब गो को पवित्रता का दरजा मिला और गोमांसाहार पाप बना, तब अपवित्र लोगों में जो गोमांसाहारी थे केवल वही अछूत बने। स्मृतियों की सूची में अकेले चमार ही गोमांसाहारी है।अस्पृश्यता के मूल कारण गोमांसाहार है और यह अपवित्रता से अलग है। यही बात छुआछूत के जन्म का काल निर्णय करने में निर्णायक सिद्ध होगी।


अध्याय पंद्रह के लिए ब्लॉगर महोदय को कोई भी टिप्पणी नहीं प्राप्त हुई।

jai_bhardwaj
27-01-2013, 11:30 PM
अंतिम अध्याय १६ : छितरे लोग अछूत कब बने?
अभी तक यह बात सिद्ध हो चुकी है कि एक समय था जब भारत के प्रत्येक गाँव के दो हिस्से होते थे। एक गाँव के भीतर बसे हुए लोगों का हिस्सा, और दूसरा गाँव की सीमा पर छितरे लोगों का हिस्सा। दोनों के सामाजिक आचार, व्यवहार में किसी प्रकार की बाधा न थी। गो को पवित्र घोषित करने और गोमांस भक्षण निषिद्ध करने से छितरे लोग अछूत बन गये। मगर ये कब हुआ यह प्रश्न विचारणीय है।

वेदों में चर्मणा(८.८.३८) जैसे अन्त्यज का उल्लेख है मगर ऐसा कोई इशारा नहीं कि उन्हे अछूत समझा जाता था या अपवित्र। तो वैदिक काल में कोई अस्पृश्यता नहीं थी और जहाँ तक धर्म सूत्र काल का प्रश्न है हम देख चुके हैं कि तब अपवित्रता की धारणा थी किन्तु अस्पृश्यता नहीं।

अब प्रश्न उठता है कि क्या मनु के समय में अस्पृश्यता थी? मनु स्मृति में एक श्लोक है(१०.४) जिसमें मनु का कहना है कि केवल चार ही वर्ण है पाँचवा है ही नहीं। स्पष्ट है कि यह श्लोक किसी जाति के चातुर्वर्ण के भीतर रहने या न रहने के विवाद के सम्बन्ध में कहा गया है। मुश्किल यह है कि मनु उस जाति का उल्लेख नहीं करते।

रूढ़िगत हिन्दू की व्याख्या है कि इस पाँचवे वर्ण का अर्थ अछूतों से है। इस मत की लोकप्रियता के कारण ही आज हिन्दू, सवर्ण और अवर्ण में विभाजित हैं। अगर ये व्याख्या सच है तो सिद्ध होता है कि मनु के समय में भी अस्पृश्यता थी। मगर मेरा मत है कि यह व्याख्या गलत है। चाण्डाल के प्रति मनु का भाव अपवित्रता से जुड़ा है और इस श्लोक का सम्बन्ध दासों से है। अध्याय ७ में अस्पृश्यता के व्यवसायजन्य सिद्धान्त के सम्बन्ध में जो नारद स्मृति के उद्धरण दिये गये हैं वे दासों की बात करते हैं। और उन श्लोकों में नारद स्मृति दासों का उल्लेख पाँचवे वर्ण के रूप में करती है। यदि नारद स्मृति दासों में पांचवे वर्ण का अर्थ दास हो सकता है तो कोई कारण नहीं कि मनु स्मृति में पाँचवें वर्ण का अर्थ दास न हो। तो यह कहा जा सकता है कि मनु स्मृति में भी अस्पृश्यता नहीं थी। अब प्रश्न है कि मनु स्मृति का काल क्या है?

प्रोफ़ेसर बूहलर के मत से मनुस्मृति ईसा की दूसरी शताब्दी में अस्तित्व में आई। श्री दफ़्तरी का तर्क है कि मनु स्मृति १८५ ईसा पूर्व के बाद लिखी गई। उनका तर्क है कि मौर्य वंश के बौद्ध नरेश बृहद्रथ की हत्या उनके ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र ने की थी और मनुस्मृति का इस घटना से सीधा सम्बन्ध है। यह घटना एक राजनैतिक क्रांति थी, एक खूनी क्रांति। जिसका उद्देश्य था बौद्धों का तख्ता पलटना और इअके सूत्र संचालक थे ब्राह्मण।

मगर बौद्ध नरेशों के खिलाफ़ यह क्रांति लाकर ब्राह्मणवाद ने दो पुराने पवित्र नियमों का उल्लंघन किया था। पहला कि ब्राह्मण द्वारा शस्त्र स्पर्श भी पाप है और दूसरा कि राजा का शरीर पवित्र था और राज हत्या पाप। विजयी ब्राह्मणवाद को अपने पापों के समर्थन में एक पवित्रग्रंथ की आवश्यक्ता थी जो सभी के लिए प्रमाण स्वरूप हो।

अब देखें मनुस्मृति को। मनुस्मृति चातुर्वर्ण को देश का विधान बनाने के अलावा, पशु बलि को उचित ठहराती है, और यह भी तय करती है कि कब ब्राह्मण द्वारा राजा की हत्या अधर्म नहीं होती। इस मामले में मनु स्मृति ने वह काम किया जो पहले किसी स्मृति ने नहीं किया था। पुष्यमित्र की राजनैतिक क्रांति का एक विशुद्ध नवीन सिद्धान्त द्वारा दार्शनिक समर्थन। पुष्यमित्र और मनुस्मृति के इस सम्बन्ध से प्रगट होता है कि मनुस्मृति १८५ ई.पू. के बाद अस्तितव में आई और ये भी कि तब तक अस्पृश्यता नहीं थी। यह अस्पृश्यता के जन्म की ऊपरी सीमा कही जा सकती है।

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jai_bhardwaj
27-01-2013, 11:34 PM
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अस्पृश्यता के जन्म की निचली सीमा निर्धारण करने में हमें मदद करते हैं चीनी यात्रियों के प्रसंग। फ़ाहियान ४०० ई. में भारत आये, उन्होने लिखा; "देश भर में चाण्डालों के अतिरिक्त न तो कोई किसी जीव की हत्या करता है न कोई सुरापान, न लहसुन प्याज़ खाता है। चाण्डालों को कुपुरुष कहा जाता है। वे दूसरों से अलग रहते हैं। यदि वे बस्ती या बाज़ार में प्रवेश करते हैं तो वे अपने आपको पृथक करने के लिए लकड़ी के टुकड़े से विशेष प्रकार की आवाज़ करते हैं। लोगों को उनके आगमन का पता चल जाता है और वे उनसे बच कर चलते हैं।"

ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि फ़ाहियान के काल में छुआछूत अस्तित्व में था। मगर जो कुछ कहा गया है वो सिर्फ़ चाण्डालों के विषय में है। ब्राह्मण चाण्डालों को अपना परम्परागत शत्रु समझते हैं इसलिये स्वाभाविक लगता है कि वे चाण्डालों के लिए नीच शब्दों का प्रयोग करें और उनके प्रति विषवमन या मिथ्याप्रचार करें। मेरी यह बात कोरी कल्पना नहीं है। बाण की कादम्बरी की कथा एक चाण्डाल कन्या द्वारा पाले गये तोते ने राजा शूद्रक को सुनाई है।

बाण ने चाण्डाल बस्ती का जो वर्णन किया है वह भयानक है । वहाँ शराबखोरी, वेश्यावृत्ति, पशुबलि, रक्त चर्बी, कुत्ते, हड्डियां कुल मिलाकर साक्षात नरक। ऐसी बस्ती से चाण्डाल कन्या राजा शूद्रक के दरबार में जाती है। वहाँ राजा उस कन्या के ऐश्वर्यशाली सौन्दर्य से मोहित अभिभूत हो जाता है, यह अफ़्सोस करते हुए भी कि हाय यह चाण्डाल क्यों हुई।

कई सवाल उठते हैं क्यों बाण जैसे वात्स्यायन ब्राह्मण को चाण्डाल बस्ती का ऐसा वीभत्स वर्णन कर चुकने के बाद चाण्डाल कन्या का सौन्दर्य वर्णन करने में संकोच नहीं हुआ? यदि चाण्डाल अछूत थे तो कैसे एक अछूत कन्या राजमहल में इस प्रकार जा सकती थी? फिर बाण उस अछूत कन्या को चाण्डाल राजकुमारी कहता है, क्या चाण्डाल शासक परिवार भी थे? बाण की कादम्बरी ६०० ई. के आसपास लिखी गई। इसका अर्थ है कि ६०० ई. तक चाण्डाल अछूत नहीं समझे जाते थे। इसलिये फ़ाहियान का वर्णन ब्राह्मणों द्वारा अपवित्रता को लेकर की गई अति या अस्पृश्यता की सीमा को स्पर्श करता हुआ कहा जा सकता है मगर पूरी तरह अस्पृश्यता नहीं।

दूसरा चीनी यात्री ह्वेनसांग ६२९ ई. में भारत आया और सोलह वर्ष तक रहा। वह लिखता है; "..कसाई, धोबी, नट, नर्तक, वधिक, और भंगियों के लिये बस्ती एक निश्चित चिह्न द्वारा अलग कर दी गई है। वे शहर से बाहर रहने के लिए मजबूर किए जाते हैं। और जब कभी उन्हे किसी के घर के पास से गुज़रना हो तो बायीं ओर बहुत दब के निकलते हैं।"

फ़ाहियान ने जो वर्णन किया वह केवल चाण्डालों से सम्बन्ध रखता है और ह्वेनसांग का वर्णन दूसरी जातियों के बारे में भी है। इसलिये संभव है कि ह्वेनसांग के काल तक अस्पृश्यता का जन्म हो चुका था। तो ऊपर कहे गये के आधार पर हम कह सकते हैं कि दूसरी शताब्दी में अस्पृश्यता नहीं थी मगर सातवीं शताब्दी तक इसका जन्म हो चुका था। तो ये अस्पृश्यता के जन्म की ऊपरी वा निचली सीमाएं हैं।

हमने देखा है कि अस्पृश्यता का सीधा समबन्ध गोमांसाहार से है। मनु के काल तक न तो गोमांसाहार का निषेध हुआ था और न ही गोवध अपराध बना था। डा. भण्डारकर ने स्पष्ट किया है कि चौथी शताब्दी में गुप्त नरेशों द्वारा गोवध को प्राणदण्डनीय अपराध घोषित किया गया। इसलिए अब ये विश्वास से कहा जा सकता है बौद्ध धर्म और ब्राह्मण धर्म के आपसी संघर्ष के परिणामस्वरूप अस्पृश्यता ४०० ईसवी के आस पास पैदा हुई है।

अध्याय सोलह के लिए ब्लॉगर महोदय को निम्न टिप्पणियाँ प्राप्त हुई।

2 टिप्पणियाँ:

1, ***** ji I am very impress of your work

2. **** जी
बहुत बहुत हार्दिक बधाई कि ब्राह्मणों की वास्तविकता को पूर्ण रूप से ना सही आंशिक रूप से जन मानश के सामने लाने का एक उत्कृष्ट प्रयास किये
आपके प्रयास में कथित अछूत और अश्पृश्य की भ्रामक सत्यता जो उनके धार्मिक ग्रंथो में भरा पड़ा है को आईने कि तरह साफ कर दिया
इस प्रयास के अलावा हम आपसे अपेक्षा येही रखते है कि ये ब्रह्मण वर्ग डेढ़ प्रतिशत होकर पूरे अस्सी प्रतिशत जमीन नब्बे प्रतिशत छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी सरकारी नौकरियों में कैसे कब्ज़ा जमाये उसका भी इतिहास बता दीजिये प्लीज

jai_bhardwaj
27-01-2013, 11:46 PM
http://whowereuntouchables.blogspot.in/2007/07/blog-post_5370.html



बन्धुओं, यह रहा इस सूत्र की सामग्री का मूल स्रोत ............

सूत्र-भ्रमण के लिए आप सभी का अभिनन्दन है। कोटिशः धन्यवाद।

jai_bhardwaj
27-01-2013, 11:54 PM
सूत्र की सामग्री के विषय में यदि कुछ भी गलत प्रतीत हो रहा हो तो कृपया इस विषय में सम्बंधित ब्लॉग में अपना विरोध अवश्य दर्ज कराएं। और यदि सामग्री उचित प्रतीत होरही हो तो भी सम्बंधित ब्लॉग में ही अपनी सहमति अंकित कर दें। :think:
प्रस्तुत सूत्र में मात्र प्रस्तुतीकरण किया गया है।:iagree:
इसमें मेरे व्यक्तिगत विचार निहित नहीं हैं। धन्यवाद।:hello:

punitshukla
02-07-2019, 04:00 PM
बन्धुओं, पिछले दिनों मुझे इस ज्वलंत विषय पर एक ब्लॉग में विस्तृत लेख मिला। इस लेख में हिन्दू धर्म के कई सिद्धांतों, विचारों अथवा वैदिक सामाजिक व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह खड़े किये गए हैं। लेखक ने जितनी भी बातें लिखी हैं वे सभी श्री भीमराव अम्बेडकर जी द्वारा रचित किताब पर आधारित हैं।

संभव है कि ब्लॉग लेखक अथवा श्री अम्बेडकर जी के तथ्य तर्क की कसौटी पर खरे उतर रहे हों किन्तु कहीं न कहीं इन तथ्यों से हिन्दू धर्मावलम्बियों को संताप पहुँच सकता है।

तर्क और तथ्य क्या हैं? ये इस सूत्र में आगे की प्रविष्टियों में पढ़े जा सकते हैं। यह तभी संभव है जब प्रबंधन इस विषय पर सूत्र आगे बढाने की अनुमति प्रदान करे।

सहमति के बाद ही अगली प्रविष्टि संभव है।

धन्यवाद।
विडीओ में इस बात की चर्चा की गयी है की भारत में जातिगत भेदभाव किस हद तक अभी भी क़ायम है। भारत के संविधान की धारा 15 के तहत समानता का अधिकार सभी भारतियों को दिया गया है जो मौलिक अधिकारों का भाग है। Article 15 के तहत भारत के संविधान में समानता का अधिकार दिया गया है। जिसके तहत १) राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध केवल,धर्म,मूलवंश,जाती,लिंग या जन्म्स्थान इनमे से किसी आधार पर कोई विभेद नही करेगा।
२) कोई नागरिक केवल धर्म,मूलवंश,जाती,लिंग,जन्म्स्थान या इनमे से किसी भी आधार पर
क) सार्वजनिक स्थलों,दुकानो,सार्वजनिक भोजनालय,होटल और सार्वजनिक मनोरंजन के स्थानों में प्रवेश या
ख ) साधारण जनता के प्रयोग के लिए सरकार द्वारा या सरकारी भागीदारी से बनाए कुओं तालाबों, स्नान घाटों, सड़कों और सार्वजनिक समागमों के स्थानो के उपयोग के सम्बंध में किसी भी प्रकार का भेदभाव नही बरता जाएगा
भारत में संविधान लागू होने के ७० वर्ष के बाद भी समानता के अधिकार से देश की बड़ी आबादी जिसमें ज़्यादातर दलित और आदिवासी है अब भी वंचित है, इस अधिकार की उन्हें सही माने में प्राप्ति नही हुई है। भारत की जातिव्यवस्था और उस कारण बनी भारतियों की मानसिकता इस के लिए ज़िम्मेदार है । इस विडीओ में दिए गए राष्ट्रीय और आंतरराष्ट्रीय शिक्षा संस्थाओं के सर्वे रिपोर्ट और स्टडी रिपोर्ट इस बात की और स्पष्ट इशारा करते है की भारत में इस क़ानून को किस हद तक दरकीनार किया गया है।और इस क़ानून का कैसे सरे आम उल्लंघन होता है।
आरक्षण के विरोधी इस बात का दावा करते है की भारत में जातिव्यवस्था नही बची या इसकी जड़े कमज़ोर हुई है।इसलिए जाती आधारित आरक्षण नही होना चाहिए। इस विडीओ के दोनो भागों में दिए गए रिपोर्ट स्पष्ट करते है की भारत में जाती पर आधारित भेदभाव केवल सामाजिक क्षेत्र में ही नही होता परंतु आर्थिक क्षेत्र में भी होता है।


इस विडियो में हमने आरक्षण क्या है और भारत में आरक्षण का इतिहास के बारे में वर्णन किया है, और इस विडिओ में आरक्षण की समय सीमा को लेकर जो भ्रांति है तथा आरक्षण से कार्यक्षमता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, ऐसी जो मान्यता है, इन बातों को रीसर्च रिपोर्ट्स के आधार पर समूल ख़ारिज किया गया है।

punitshukla
02-07-2019, 04:17 PM
बन्धुओं, पिछले दिनों मुझे इस ज्वलंत विषय पर एक ब्लॉग में विस्तृत लेख मिला। इस लेख में हिन्दू धर्म के कई सिद्धांतों, विचारों अथवा वैदिक सामाजिक व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह खड़े किये गए हैं। लेखक ने जितनी भी बातें लिखी हैं वे सभी श्री भीमराव अम्बेडकर जी द्वारा रचित किताब पर आधारित हैं।

संभव है कि ब्लॉग लेखक अथवा श्री अम्बेडकर जी के तथ्य तर्क की कसौटी पर खरे उतर रहे हों किन्तु कहीं न कहीं इन तथ्यों से हिन्दू धर्मावलम्बियों को संताप पहुँच सकता है।

तर्क और तथ्य क्या हैं? ये इस सूत्र में आगे की प्रविष्टियों में पढ़े जा सकते हैं। यह तभी संभव है जब प्रबंधन इस विषय पर सूत्र आगे बढाने की अनुमति प्रदान करे।

सहमति के बाद ही अगली प्रविष्टि संभव है।

धन्यवाद।
विडीओ में इस बात की चर्चा की गयी है की भारत में जातिगत भेदभाव किस हद तक अभी भी क़ायम है। भारत के संविधान के आर्टिकल 15 के तहत समानता का अधिकार सभी भारतियों को दिया गया है जो मौलिक अधिकारों का भाग है। Article 15 के तहत भारत के संविधान में समानता का अधिकार दिया गया है। जिसके तहत १) राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध केवल,धर्म,मूलवंश,जाती,लिंग या जन्म्स्थान इनमे से किसी आधार पर कोई विभेद नही करेगा।
२) कोई नागरिक केवल धर्म,मूलवंश,जाती,लिंग,जन्म्स्थान या इनमे से किसी भी आधार पर
क) सार्वजनिक स्थलों,दुकानो,सार्वजनिक भोजनालय,होटल और सार्वजनिक मनोरंजन के स्थानों में प्रवेश या
ख ) साधारण जनता के प्रयोग के लिए सरकार द्वारा या सरकारी भागीदारी से बनाए कुओं तालाबों, स्नान घाटों, सड़कों और सार्वजनिक समागमों के स्थानो के उपयोग के सम्बंध में किसी भी प्रकार का भेदभाव नही बरता जाएगा
भारत में संविधान लागू होने के ७० वर्ष के बाद भी समानता के अधिकार से देश की बड़ी आबादी जिसमें ज़्यादातर दलित और आदिवासी है अब भी वंचित है, इस अधिकार की उन्हें सही माने में प्राप्ति नही हुई है। भारत की जातिव्यवस्था और उस कारण बनी भारतियों की मानसिकता इस के लिए ज़िम्मेदार है । इस विडीओ में दिए गए राष्ट्रीय और आंतरराष्ट्रीय शिक्षा संस्थाओं के सर्वे रिपोर्ट और स्टडी रिपोर्ट इस बात की और स्पष्ट इशारा करते है की भारत में इस क़ानून को किस हद तक दरकीनार किया गया है।और इस क़ानून का कैसे सरे आम उल्लंघन होता है।
आरक्षण के विरोधी इस बात का दावा करते है की भारत में जातिव्यवस्था नही बची या इसकी जड़े कमज़ोर हुई है।इसलिए जाती आधारित आरक्षण नही होना चाहिए। इस विडीओ के दोनो भागों में दिए गए रिपोर्ट स्पष्ट करते है की भारत में जाती पर आधारित भेदभाव केवल सामाजिक क्षेत्र में ही नही होता परंतु आर्थिक क्षेत्र में भी होता है।

इस विडियो में हमने आरक्षण क्या है और भारत में आरक्षण का इतिहास के बारे में वर्णन किया है, और इस विडिओ में आरक्षण की समय सीमा को लेकर जो भ्रांति है तथा आरक्षण से कार्यक्षमता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, ऐसी जो मान्यता है, इन बातों को रीसर्च रिपोर्ट्स के आधार पर समूल ख़ारिज किया गया है।