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View Full Version : पागलपन की पाठशाला


ravi sharma
03-02-2013, 05:05 PM
एक ताकतवर जादूगर ने किसी शहर को तबाह कर देने की नीयत से वहां के कुँए में कोई जादुई रसायन डाल दिया. जिसने भी उस कुँए का पानी पिया वह पागल हो गया.

सारा शहर उसी कुँए से पानी लेता था. अगली सुबह उस कुँए का पानी पीनेवाले सारे लोग अपने होशहवास खो बैठे. शहर के राजा और उसके परिजनों ने उस कुँए का पानी नहीं पिया था क्योंकि उनके महल में उनका निजी कुआं था जिसमें जादूगर अपना रसायन नहीं मिला पाया था.

राजा ने अपनी जनता को सुधबुध में लाने के लिए कई फरमान जारी किये लेकिन उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ा क्योंकि सारे कामगारों और पुलिसवालों ने भी जनता कुँए का पानी पिया था और सभी को यह लगा कि राजा बहक गया है और ऊलजलूल फरमान जारी कर रहा है. सभी राजा के महल तक गए और उन्होंने राजा से गद्दी छोड़ देने के लिए कहा.

राजा उन सबको समझाने-बुझाने के लिए महल से बाहर आ रहा था तब रानी ने उससे कहा – “क्यों न हम भी जनता कुँए का पानी पी लें! हम भी फिर उन्हीं जैसे हो जायेंगे.”

राजा और रानी ने भी जनता कुँए का पानी पी लिया और वे भी अपने नागरिकों की तरह बौरा गए और बेसिरपैर की हरकतें करने लगे.

अपने राजा को ‘बुद्धिमानीपूर्ण’ व्यवहार करते देख सभी नागरिकों ने निर्णय किया कि राजा को हटाने का कोई औचित्य नहीं है. उन्होंने तय किया कि राजा को ही राजकाज चलाने दिया जाय.

ravi sharma
03-02-2013, 05:07 PM
भेद से अभेद में छलांग




मैं ईश्वर भीरु नहीं हूँ. भय ईश्वर तक नहीं ले जाता है. उसे पाने की भूमिका अभय है. मैं किसी अर्थ में श्रद्धालु भी नहीं हूँ. श्रद्धा मात्र अंधी होती है. और अंधापन परम सत्य तक कैसे ले जा सकता है?
मैं किसी धर्म का अनुयायी भी नहीं हूँ, क्योंकि धर्म को विशेषणों में बाटना संभव नहीं है. वह एक और अभिव्यक्त है.
कल जब मैंने यह कहा तो किसी ने पूछा, “फिर क्या आप नास्तिक हैं?”
मै न नास्तिक हूँ, न आस्तिक ही. वे भेद सतही और बौद्धिक हैं. सत्ता से उनका कोई संबंध नहीं है. सत्ता ‘है’ और ‘न है’ में विभक्त नहीं है. भेद मन का है, इसलिए नास्तिकता और आस्तिकता दोनों मानसिक हैं. आत्मा को वे नहीं पहुंच पाती हैं. आत्मिक विधेय और नकार दोनों का अतिक्रमण कर जाता है.
‘जो है’ वह विधेय और नकार के अतीत है. या फिर वे दोनों एक हैं और उनमें कोई भेद-रेखा नहीं है. बुद्धि से स्वीकार की गई किसी भी धारण की वहाँ कोई गति नहीं है.
वस्तुत: आस्तिक को आस्तिकता छोड़नी होती है और नास्तिक को नास्तिकता, तब कहीं वे सत्य में प्रवेश कर पाते हैं. वे दोनों ही बुद्धि के आग्रह हैं. आग्रह आरोपण हैं. सत्य कैसा है, यह निर्णय नहीं करना होता है; वरन अपने को खोलते ही वह जैसा है, उसका दर्शन हो जाता है.
यह स्मरण रखें कि सत्य का निर्णय नहीं, दर्शन करना होता है. जो सब बौद्धिक निर्णय छोड़ देता है, जो सब तार्किक धारणाएं छोड़ देता है, जो समस्त मानसिक आग्रह और अनुमान छोड़ देता है, वह उस निर्दोष चित्त-स्थिति में सत्य के प्रति अपने के खोल रहा है, जैसे फूल प्रकाश के प्रति अपने को खोलते हैं.
इस खोलने में दर्शन की घटना संभव होती है.
इसलिए, जो न आस्तिक है न नास्तिक है, उसे मैं धार्मिक कहता हूँ. धार्मिकता भेद से अभेद में छलांग है.
विचार जहाँ नहीं, निर्विचार है; विकल्प जहाँ नहीं, निर्विकल्प है; शब्द जहाँ नहीं, शून्य है- वहाँ धर्म में प्रवेश है.
ओशो के पत्रों के संकलन ‘क्रांतिबीज’ से. प्रस्तुति – ओशो शैलेन्द्र

ravi sharma
03-02-2013, 05:09 PM
एक बड़ा मोती


एक रात हीरे-जवाहरात के दो सौदागर किसी दूरदराज़ रेगिस्तान की सराय पर लगभग एक ही वक़्त पर पहुंचे. उन दोनों को एक-दूसरे की मौजूदगी का अहसास था. जब वे अपने ऊंटों से माल-असबाब उतार रहे थे तब उनमें से एक सौदागर ने जानबूझकर एक बड़ा मोती थैले से गिरा दिया.
मोती लुढ़कता हुआ दुसरे सौदागर के करीब पहुँच गया, जिसने बारीकी से मुआयना करते हुए उसे उठाया और पहले सौदागर को सौंपते हुए कहा, “यह तो बहुत ही बड़ा और नायाब मोती है. इसकी रंगत और चमक बेमिसाल है.”
पहले सौदागर ने बेपरवाही से कहा, “इतनी तारीफ करने के लिए आपका शुक्रिया लेकिन यह तो मेरे माल का बहुत मामूली और छोटा मोती है”.
दोनों सौदागरों के पासे ही एक खानाबदोश बद्दू बैठा आग ताप रहा था. उसने यह माजरा देखा और उठकर दोनों सौदागरों को अपने साथ खाने का न्यौता दिया. खाने के दौरान बद्दू ने उन्हें अपने साथ बीता एक पुराना वाकया सुनाया.
“दोस्तों, बहुत साल बीते मैं भी आप दोनों की मानिंद हीरे-जवाहरातों का बड़ा मशहूर सौदागर था. एक दिन मेरा कारवां रेगिस्तान के भयानक अंधड़ में फंस गया. मेरे साथ के लोग तितर-बितर हो गए और मैं अपने साथियों से बिछड़कर राह खो बैठा.”
“कई दिनों तक मैं अपने ऊँट के साथ भूखा-प्यासा रेगिस्तान में भटकता रहा लेकिन मुझे कहीं कुछ नहीं मिला. खाने की किसी चीज़ की तलाश में मैंने अपने ऊँट पर लदे हर थैले को दसियों बार खोलकर देखा.”
“आप मेरी हैरत का अंदाजा नहीं लगा सकते जब मुझे माल में एक ऐसा छोटा थैला मिला जो मेरी नज़रों से तब तक बचा रह गया था. कांपती हुई उँगलियों से मैंने उस थैले को खोला.”
“और आप जानते हैं उस थैले में क्या था?”
“वह बेशकीमती मोतियों से भरा हुआ था.”

ravi sharma
03-02-2013, 05:09 PM
सहनशीलता

सहनशीलता जिसमें नहीं है, वह शीघ्र टूट जाता है. और, जिसने सहनशीलता के कवच को ओढ़ लिया है, जीवन में प्रतिक्षण पड़ती चोटें उसे और मजबूत कर जाती हैं. मैंने सुना है, एक व्यक्ति किसी लुहार के द्वार से गुजरता था. उसने निहाई पर पड़ते हथौड़े की चोटों को सुना और भीतर झांककर देखा. उसने देखा कि एक कोने में बहुत से हथौड़े टूटकर और विकृत होकर पड़े हुए हैं. समय और उपयोग ने ही उनकी ऐसी गति की होगी. उस व्यक्ति ने लुहार से पूछा, ”इतने हथौड़ों को इस दशा तक पहुंचाने के लिए आपको कितनी निहाइयों की जरूरत पड़ी?” लुहार हंसने लगा और बोला, ”केवल एक ही मित्र. एक ही निहाई सैकड़ों हथौड़ों को तोड़ डालती है, क्योंकि हथौड़े चोट करते हैं और निहाई चोट सहती है.”
यह सत्य है कि अंत में वही जीतता है, जो सभी चोटों को धैर्य से स्वीकार करता है. निहाई पर पड़ती हथौड़ों की चोटों की भांति ही उसके जीवन में भी चोटों की आवाज तो बहुत सुनी जाती है, लेकिन हथौड़े अंतत: टूट जाते हैं और निहाई सुरक्षित बनी रहती है.

ravi sharma
03-02-2013, 05:11 PM
नीर-क्षीर विवेक



कुछ लोग कहते है कि हमें किसी की निंदा नहीं करनी चाहिए. किसी को भला, किसी को बुरा कहना राग-द्वेष है. सही भी है, किसी की निंदा करना बुरा है. किन्तु भले और बुरे में सम्यक भेद करना उससे भी कहीं अधिक उत्तम है. भला-बुरा, हित-अहित और सत्यासत्य का विवेक रखकर, बुरा अहितकारी और असत्य का त्याग करना. भला, हितकारी और सत्य का आदर करना तो एक आवश्यक गुण ही है. जो जैसा है, उसे वैसा ही, बिना किसी अतिश्योक्ति के निरूपित करना, कहीं से भी बुरा कर्म नहीं है.
एक व्यापारी को एक अपरिचित व्यक्ति के साथ लेन-देन का व्यवहार करना था. रेफरन्स के लिए उसने, उसके परिचित और अपने एक मित्र को पूछा- “यह व्यक्ति कैसा है? इसके साथ लेन देन व्यवहार करनें में कोई हानि तो न होगी”.
उस व्यापारी का मित्र सोचने लगा – ‘मैं किसी के दोष क्यों बताऊँ? दोष दर्शाना तो निंदा है. मुझे तो उसकी प्रसंशा करनी चाहिए.’ इसप्रकार विचार करते हुए उसने उस धूर्त की प्रशंसा ही कर दी. सच्चाई और ईमानदारी के गुण, जो कि उसमें थे ही नहीं, उस धूर्त के लिए गढ़ दिए. मित्र की बात पर विश्वास करके व्यापारी ने उस धूर्त व्यक्ति के साथ व्यवहार कर दिया और कुछ ही समय में धूर्त सब कुछ समेट कर गायब हो गया. ठगा-सा व्यापारी अपने मित्र के पास जाकर कहने लगा- “मैने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था, तुमने मुझे बर्बाद कर दिया. तुम्हारे द्वारा की गई धूर्त की अनावश्यक प्रसंशा ने मुझे तो डुबो ही दिया. तुमने मुझ निरपराध को धोखा क्यों दिया? तुम तो मेरे मित्र-परिचित थे, तुमने उसकी सत्य हक़ीकत छुपा कर झूठी प्रसंशा क्यों की?”
प्रशंसक कहने लगा- “मैं आपका शत्रु नहीं मित्र ही हूँ, और सज्जन भी हूँ. कोई भी भला व्यक्ति, किसी के दोष नहीं देखता, निंदा करना तो पाप है. मैने तुम्हें हानि पहुंचाने के उद्देश्य से उसकी प्रशंसा नहीं की. बल्कि, यह सोचकर कि ‘सज्जन व्यक्ति सभी में गुण ही देखता है’, -मैने तत्काल प्रशंसा की”.
“तो क्या उसमें ईमानदारी और सच्चाई के गुण थे?”
“हाँ, थे न! वह पहले ईमानदारी प्रदर्शित करके ही तो अपनी प्रतिष्ठा जमाता था. वह सच्चाई व ईमानदारी से साख जमा कर प्रभावशाली व्यवहार से रहा करता था. धोखा तो मात्र उसने अंतिम दिन ही दिया जबकि लंबी अवधि तक वह नैतिक ही बना रहा. अधिकाल गुणों की उपेक्षा करना और थोड़े से दोषों को दिखाकर निंदा करना तो पाप है. भला मैं ऐसा पाप क्यों करूँ?” – उसने सफाई दी.
“वाह! भाई वाह! तुम्हारा चिंतन और गुणग्राहकता कमाल की है. तुम्हारी इस सज्ज्ननता ने, मेरी तो लुटिया ही डुबो दी. तुम्हारी गुणग्राहकता तो उस ठग की सहयोगी ही बन गई. उसकी ईमानदारी और सच्चाई तो प्रदर्शन मात्र थी, केवल धूर्तता के लिए ही थी. भीतर तो बेईमानी ही छुपी थी. मैने आज यह समझा कि तुम्हारे जैसे गुणग्राहक तो धूर्तों से भी अधिक खतरनाक होते है”. – व्यापारी अपने भाग्य को कोसता हुआ चला गया.


यदि कोई वैद्य या डॉक्टर रोगी में रोग के लक्षणों को उजागर न करे, या फिर रोग को उजागर करना बुरा माने, अथवा ऐसा करने को सेहत की श्रेष्ठता का बखान माने, अथवा सेहत और रोग के लक्षणों को समभाव से समान मानकर उनका विश्लेषण ही न करे तो निदान कैसे होगा? और अन्ततः वह रोग कारकों से बचने का परामर्श न दे. कुपथ्य से परहेज का निर्देश न करे. उपचार हेतु कड़वी दवा न दे तो रोगी का रोग से पिंड कैसे छूटेगा? ऐसा करता हुआ डॉक्टर कर्तव्यनिष्ट सज्जन कहलाएगा या मौत का सौदागर? कोई भी समझदार व्यकितु कांटों को फूल नहीं कहता, विष को अमृत समझकर ग्रहण नहीं करता. गोबर और हलवे के प्रति समभाव रखकर कौन समाचरण करेगा? छोटा बालक यदि गोद में गंदगी कर कपड़े खराब कर दे तो कहना ही पड़ता है कि ‘उसने गंदा कर दिया’. न कि यह कहेंगे ‘उसने अच्छा किया’. इस प्रकार बुरा कहना बच्चे के प्रति द्वेष नहीं है. बुरे को बुरा कहना सम्यक् आचरण है.
संसार में अनेक मत-मतान्तर है. उसमें से जो हमें अच्छा, उत्तम और सत्य लगे, उसे मानें, तो यह हमारा अन्य के साथ द्वेष नहीं है बल्कि विवेक है. विवेकपूर्वक हितकारी को अंगीकार करना और अहितकारी को छोड़ना ही चेतन के लिए कल्याणकारी है.
भले बुरे में भेद कर, बुरे का त्याज्य और भले का अनुकरणीय विवेक करना ही, नीर-क्षीर विवेक है.

dipu
03-02-2013, 06:35 PM
Nice ..................

bindujain
03-02-2013, 07:38 PM
अच्छा सूत्र है