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View Full Version : धुबड़ी (असम )में स्थित गुरुद्वारा


jai_bhardwaj
03-02-2013, 08:05 PM
सिख (खालसा) धर्म से सम्बंधित पूर्वोत्तर स्थित एक धार्मिक स्थल की संक्षिप्त जानकारी .....

jai_bhardwaj
03-02-2013, 08:05 PM
सिख पंथ के नौवें गुरु श्री गुरु तेग बहादुर, श्री गुरु नानक देव जी महाराज के बाद पहले ऐसे गुरु थे जिन्होंने पंजाब के बाहर धर्म प्रचार के लिए यात्रा की। पूर्व की यात्रा के समय गुरु नानक मिशन का प्रचार करते हुए 1666ई. में वे पटना साहिब आए। इनके साथ गुरु जी की माता नानकीजी, पत्नी माता गुजरी जी, उनके भाई कृपाल चंद जी व दरबारी भी आए। गुरु जी कुछ समय बडी संगत, गायघाटठहरने के बाद परिवार सहित सालिस राय जौहरी की संगत मंजी साहिब में आए। उस समय इस संगत का संचालन अधरकाके परपोते घनश्याम करते थे। गुरु तेग बहादुर जी कुछ दिन रुकने बाद परिवार को यहां छोड कर बंगाल व आसाम (असम) चले गए।गुरु जी का पड़ाव हमेशा किसी नदी या गाँव के किनारे होता। इस प्रकार गुरु किरतपुर , सैफाबाद , कैथल , पाहवा, बरना, करनखेड़ा , कुरुक्षेत्र , दिल्ली इटावा, थानपुर, फतेहपुर , प्रयाग , मिर्जापुर, जौनपुर, पटना होते हुए ढाका पहुंचे। दिसम्बर 1667 में औरंगजेब को असम से खबर मिली कि जिले का राजा बागी हो गया है और मुग़ल फौजों को जबर्दस्त शिकस्त दी है और गुवाहाटी पर कब्जा कर लिया है . असम ही एक ऐसा राज्य था जहां मुग़ल शासकों को अब तक सफलता नहीं मिली थी . जो भी मुग़ल शासक आगे बढ़ता या तो उसे हार मिलती या मौत के घाट उतार दिया जाता। इसकी वजह वे असम में उस समय प्रचलित तांत्रिक शक्तियों के प्रयोग को मानते हैं . औरंगजेब ने गुवाहाटी पर कब्जा करने के लिए राम सिंग को सेना देकर असम भेजने का फैसला किया। राजा राम सिंह उस समय उसकी हिरासत में था . औरंगजेब ने सोचा अगर यह मर गया तो एक काफिर खत्म हो जाएगा और कहीं जीत गया ती लाभ ही लाभ है। राजा राम सिंह अपनी फ़ौज लेकर पटना पहुंचा। पटना उसे पता चला कि गुरु तेग बहादुर जी अपने परिवार को पटना छोड़ कर यात्रा के लिए ढाका गए हैं . इन्हीं दिनों पटना में गुरु तेग बहादुर जी के एक पुत्र गोविन्द सिंह का जन्म हुआ। इधर राजा राम सिंह और उसके शैनिक असम में प्रचलित जादू- टोने और तांत्रिक शक्तियों से अति भयभीत थे और वे गुरु जी के तेज और प्रताप से भी परिचित थे। अत: राम सिंह ने सोचा कि अगर वह गुरु जी को अपने साथ असम ली जाने के लिए मना लेता है तो वह इन तांत्रिक शक्तियों सेबच सकता है . वह पटना से गुरु जी के पास ढाका पहुँच गया और गुरु जी से अपने साथ असम चलने की बिनती की। गुरु जी तो असम यात्रा का पहले ही मन बना चुके थे क्योंकि वे गुरु नानक के उस स्थान को देखना चाहते थे जहां (धुबड़ी) उनहोंने आसन ग्रहण किया था। असम पहुंच कर गुरु जी ने धुबड़ी साहिब मेंब ही डेरा डाला। फौजें 15 मिल दूर रंगमाटी में ठहरी।

jai_bhardwaj
03-02-2013, 08:06 PM
ऐसा माना जाता है कि उस समय असम में तांत्रिक शक्तियों का उपयोग बहुत ज्यादा होता था। खुद मुसलमान लेखकों ने भी अपनी लेखनी में इन शक्तियों का आँखों देखा वर्णन प्रस्तुत किया है। गुवाहाटी का कामख्या मंदिर तो इस तांत्रिक विद्या का केंद्र था। दुश्मन को हराने के लिए तथा और शक्तियां प्राप्त करने के लिए यहाँ मनुष्यों की बलि दी जाती।
कहते हैं मुग़ल फ़ौज जब रंगामाटी पहुंची तब तांत्रिक शक्तियों में निर्लिप्त स्त्रियाँ कामाख्या में पुजा अर्चना करने के बाद धुबड़ी के सम्मुख ब्रम्हपुत्र नदी नदी के पार अपने तम्बू गाड़ बैठ गई। उन्हें ज्ञात हुआ कि मुग़ल सेना के साथ सिखों के गुरु तेग बहादुर भी हैं जो तेज प्रताप वाले महापुरुष हैं। उन्होंने नदी के पार से अपनी तांत्रिक शक्तियों का प्रयोग करना शुरू कर दिया। मन्त्र चलाये , शक्तियाँ दिखीं पर गुरु जी विचलित न हुए और सबको आदेश दिया कि इस्वर का नाम स्मरण करें और भजन बंदगी में लीन रहे क्योंकि हमें करामत या बल नहीं दिखाना है। जब इस जादूगरनियों के तन्त्र-मन्त्र काम न आये तब इन्होंने अपनी तंत्र शक्ति द्वारा एक भरी पत्थर गुरु जी की ओर चलाया। जो गुरु जी के इशारे पर कुछ दूरी पर ही गिर गया . यह पत्थर 13 फुट धरती के अन्दर और 13 फुट धरती के ऊपर है।

jai_bhardwaj
03-02-2013, 08:06 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=24696&stc=1&d=1360417792

jai_bhardwaj
03-02-2013, 08:07 PM
यह पत्थर 26 फुट लम्बा और इसका घेरा 26 x 28 फुट तथा 33 फुट करीबन चुकास है . यह पत्थर धुबड़ी साहिब गुरुद्वारे में आज भी अवस्थित है। इसके बाद उन क्रोधित जादूगरनियों ने एक पेड़ भी उठा कर गुरु जी की ओर मरा पर गुरु जी ने उसे भी रोक दिया। उसके बाद उनहोंने तीर चलाये , जौहर दिखये पर गुरु जी पर कोई असर न हुआ . गुरु जी के तेज प्रताप के आगे उनकी समस्त शक्तियाँ नष्ट हो गईं।

तांत्रिक मत के अनुसार जिनकी शक्तियों के ऊपर कोई दुसरा हावी हो जाता है उनकी समस्त शक्तियाँ नष्ट हो जाती हैं और उसकी मौत हो जाती है . अब जादूगरनियाँ घबरा गईं उन्हें ज्ञात हो गया कि गुरु तेग बहादुर एक पहुंचे हुए संत हैं जो साक्षात् इश्वर का प्त्रिरूप हैं। वे गुरु जी के चरणों पर गिर पड़ीं और क्षमा याचना करने लगीं गुरु जी ने उन्हें मुस्कुराते हुए क्षमा कर दिया और तंत्र -मन्त्र का कुमार्ग त्याग देने का वचन लिया।

jai_bhardwaj
03-02-2013, 08:07 PM
इधर असम के राजा चक्रध्वज ने जब सारा वृत्तांत सुना तो उसने गुरु जी को अपने निवास पर दर्शन देने का किया। गुरु जी स्वयं चल कर राजा चक्रध्वज के निवास पर गए और उनके आग्रह पर गुरु जी ने राजा राम सिंह को गुवाहाटी पर आक्रमण न करने के लिए मना लिया और दोनों की संधि करवा दी।

इस अमन शान्ति के लिए गुरु जी की दोनों शासको ने शुक्र गुजारी की और दोनों के सैनिकों ने रंगमाटी से लाल मिटटी लाकर गुरु जी के स्थान पर एक ऊँचा टीला बनवाया। आज भी यह टीला धुबड़ी साहिब में मौजूद है जिसे घेर कर रखा गया है और जिसकी मिटटी लोग श्रद्धावश लाकर अपने घर के पवित्र स्थानों पर रखते हैं।

इस प्रकार धुबड़ी साहिब असम का एक ऐतिहासिक धर्म-स्थल बन गया। प्रतिवर्ष गुरु तेग बहादुर के शहीदी दिवस पर यहाँ तीन दिनों तक भारी मेला लगता है। तीनों दिन यहाँ कडाह प्रसाद , लंगर व दूध की सेवा मुफ्त होती है। रहने और नहाने की विशाल व्यवस्था की जाती है। यहाँ देश भर से संगत एकत्रित है। गुवाहाटी गुरुद्वारे से भी स्पेशल बसें चलायी जातीं हैं . इस ऐतिहासिक गुरुद्वारे में इन तीन दिनों तक शब्द कीर्तन , कथा-वाचन , और नगर कीर्तन होता है। देश केअन्य धार्मिक गुरुद्वारों से महापुरुषों को शब्द-कीर्तन व प्रवचन के लिए बुलाया जाता है

jai_bhardwaj
03-02-2013, 08:08 PM
धुबड़ी साहिब गुरुद्वारे में लगी एतिहासिक पट्टी जिस गुरु आगमन का सारी घटना की जानकारी लिखी हुई है

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=24695&stc=1&d=1360417752

jai_bhardwaj
03-02-2013, 08:08 PM
गुरु जी के प्रताप को देख तभी बहुत से असमिया सिख बन गए थे , वे आज भी पगड़ी बांधते हैं और सिख धर्म की पालना करते हैं . एक बार असम सिख एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष एस.के. सिंह ने अपने कथन में कहा था कि हमें यहाँ 'डुप्लिकेट सिख' या 'पंजाब में अपने समकक्षों से द्वितीय श्रेणी के सिखों में रखा जाता है," आज मैं यहाँ कहना चाहूंगी ऐसा बिलकुल नहीं है .कहीं न कहीं उनके भीतर ही ऐसी भावना पनप रही है क्योंकि आज भी उनकी मातृ -भाषा असमिया ही है . गुरुद्वारों में भी उनकी उपस्थिति न के बराबर रहती है जबकि सिखों के गुरुद्वारों में सभी धर्मों के लोगों को आदर दिया जाता है।

jai_bhardwaj
03-02-2013, 08:08 PM
विश्व इतिहास में धर्म एवं मानवीय मूल्यों, आदर्शों एवं सिद्धांत की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति देने वालों में गुरु तेग बहादुर साहब का स्थान अद्वितीय है।
"धरम हेत साका जिनि कीआ
सीस दीआ पर सिरड न दीआ।"
इस महावाक्य अनुसार गुरुजी का बलिदान न केवल धर्म पालन के लिए नहीं अपितु समस्त मानवीय सांस्कृतिक विरासत की खातिर बलिदान था। धर्म उनके लिए सांस्कृतिक मूल्यों और जीवन विधान का नाम था। इसलिए धर्म के सत्य शाश्वत मूल्यों के लिए उनका बलि चढ़ जाना वस्तुतः सांस्कृतिक विरासत और इच्छित जीवन विधान के पक्ष में एक परम साहसिक अभियान था।
धर्म स्वतंत्रता की नींव श्री गुरुनानकदेवजी ने रखी और शहीदी की रस्म शहीदों के सरताज श्री गुरु अरजनदेवजी द्वारा शुरू की गई। परंतु श्री गुरु तेगबहादुरजी की शहादत के समान कोई मिसाल नहीं मिलती, क्योंकि कातिल तो मकतूल के पास आता है, परंतु मकतूल कातिल के पास नहीं जाता।गुरु साहिबजी की शहादत संसार के इतिहास में एक विलक्षण शहादत है, जो उन मान्यताओं के लिए दी गई कुर्बानी है जिनके ऊपर गुरु साहिब का अपना विश्वास नहीं था।पंजाबी के कवि सोहन सिंह मीसा ने गुरु जी के बारे सही कहा है -
गुरु ने दसिया सानुं ,है बन के हिन्द दी चादर
धरम सारे पवित्र ने ,करो हर धरम डा आदर
बनी हुन्दी अजेही भीड़ जे सुन्नत नमाज उत्ते
जां लगदी रोक किदरे वी अजानां दी आवाज़ उत्ते
गुरु ने तद वी एदां ही दुखी दी पीड़ हरनी सी
सी देना शीश एदां ही , ना मुख तों सी उचारनी सी

jai_bhardwaj
03-02-2013, 08:09 PM
गुरु तेगबहादुर सिंह में ईश्वरीय निष्ठा के साथ समता, करुणा, प्रेम, सहानुभूति, त्याग और बलिदान जैसे मानवीय गुण विद्यमान थे। शस्त्र और शास्त्र, संघर्ष और वैराग्य, लौकिक और अलौकिक, रणनीति और आचार-नीति, राजनीति और कूटनीति, संग्रह और त्याग आदि का ऐसा संयोग मध्ययुगीन साहित्य व इतिहास में बिरला है।
गुरु तेगबहादरसिंह ने धर्म की रक्षा और धार्मिक स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया और सही अर्थों में 'हिन्द की चादर' कहलाए।