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View Full Version : सैल्फ-हेल्प: दिन भर के चौबीस घंटे कैसे बसर क&a


rajnish manga
03-02-2013, 10:54 PM
दिन भर के चौबीस घंटे कैसे बसर करें
(How to live on twenty four hours a day – by Arnold Bennet)
(रूपांतरण व संक्षेपण – रजनीश मंगा)

अर्नोल्ड बेनेट बीसवीं सदी के एक महान नाटककार, आलोचक तथा उपन्यासकार थे. उन्होंने यह पुस्तक 1907 में लिखी थी. पाठकों के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाने की अपनी अद्भुत क्षमता के कारण यह पुस्तक एक छोटा मोटा शास्त्र बन चुकी है और साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान बना चुकी है. इसका उद्देश्य हमारी सबसे मूल्यवान धरोहर यानि समय का सदुपयोग करने में हमारी मदद करना.

rajnish manga
03-02-2013, 10:56 PM
दिन भर के चौबीस घंटे कैसे बसर करें
एक कहावत के अनुसार समय ही सच्चा धन है किन्तु ऐसा कहने मात्र से समय की महत्ता का आभास नहीं हो पाता. दरअसल, समय हर चीज के लिये एक कच्चे माल की तरह है जिसके बिना कुछ भी होना मुमकिन नहीं. समय की निरंतर आपूर्ति हर दिन घटित होने वाला चमत्कार नहीं तो क्या है? आप सुबह सो कर उठते हैं तो क्या देखते हैं? आपका बटुआ जादुई अंदाज़ में २४ घंटे रुपी नायाब मगर अनगढ़ नोटों से भर दिया गया है. यह सब आपका है. दुनिया की सबसे कीमती चीज़ ठीक उतने ही नायाब तरीके से आपको सौंप दी गयी है.

कोई व्यक्ति इसे आपसे छीन कर नहीं ले जा सकता. इसे कभी चुराया नहीं जा सकता. यह सभी को बिल्कुल समान मात्रा में प्राप्त होता है – न कम न ज्यादा. दौलत से या बुद्धि से समय का एक घंटा भी अधिक नहीं पाया जा सकता. न ही इस विषय में किसी को दण्डित किया जा सकता है. आप जितना जी चाहे इस कीमती निधि का दुरूपयोग करें फिर भी इसकी आपूर्ति बन्द नहीं की जायेगी.

आपको इन २४ घंटों को जीने के लिये प्रतिदिन तैयारी करने कि जरुरत है. इनमें से ही आपको अपनी सेहत, मनोरंजन, धनोपार्जन, संतोष, सम्मान तथा आध्यात्मिक उत्थान करने के लिये सोचना है.यदि कोई व्यक्ति अपनी आमदनी से अपना गुजारा नहीं कर पाता तो वह किसी हद तक अपनी आमदनी बढ़ाता है अथवा खींचतान से अपने खर्चों को सीमित कर बजट के अनुसार चलता है. परन्तु कोई व्यक्ति यदि इन २४ घंटों की आमदनी को खर्चों की अलग अलग मदों में समुचित रूप से खर्च नहीं करता तो वह अपने जीवन में कई समस्याओं को दावत देता है.
हममें से ऐसे कितने हैं जो जीवन भर अपने आपसे ऐसा नहीं कहते होंगे: “यदि मेरे पास थोड़ा सा वक्त और होता तो में ये कर देता या वो कर देता?” ऐसा कौन होगा जिसे यह ख्याल न सताते होंगे कि साल दर साल बीतते जा रहे हैं लेकिन हम अभी तक अपने जीवन को पटरी पर नहीं ला पाये हैं, जबकि ऐसा करने के लिये हमारे पास हमेशा समय मौजूद रहता है, और रहा भी है. इस महत्वपूर्ण किन्तु नज़र-अंदाज़ कर दिए गए सत्य की अनुभूति ने ही मुझे प्रतिदिन खर्च किये जाने वाले समय की बारीकी से जाँच करने के लिये प्रेरित किया है.

rajnish manga
03-02-2013, 10:57 PM
समय-सीमा
अपने जीवन को इस आशय से सँवारने के लिये कि कोई व्यक्ति अपने पास सुरक्षित २४ घंटे के समय में पूरी संतुष्टि से तथा आराम से रह सके, इसके लिये सर्वप्रथम यह जरूरी है कि इस काम की दु:रूह प्रकृति की सहज अनुभूति हो और इस बात की भी कि इसके लिये कितने बड़े त्याग की और कितनी कोशिशों की जरूरत पड़ती है. मैं इस बात पर शायद बहुत ज्यादा जोर नहीं दे सका. यदि आप हतोत्साहित न हों और यदि आप सतत किये गए प्रयत्नों के साधारण नतीजों के लिये सहज रूप से खुद को तैयार नहीं कर पाते हों तो शुरू करना ही व्यर्थ होगा.
यह कितनी दु:खद स्थिति है. इसके बावजूद भी में सोचता हूँ कि कदाचित यह अच्छा ही है. वह ऐसे कि करने योग्य काम को पूरा करने के लिये इच्छा शक्ति को बलपूर्वक व यत्नपूर्वक साधने की आवश्यकता होती है. मेरे विचार से यही वो चीज है जो मुझे आग के निकट बैठी हुयी किसी बिल्ली से जुदा करती है.

मिसाल के तौर पर आप कहते हैं,”फ़र्ज़ करें कि मैं युद्ध के मोर्चे पर जाने वाला हूँ, तो मैं कहाँ से शुरूआत करुंगा?” श्रीमान जी, आप सिर्फ तैयारी करें. यदि स्विंमिंग पूल में कूदने को तैयार खड़े हुये व्यक्ति ने आपसे पूछा होता कि ‘मैं कैसे कूद सकता हूँ?’ आपका उत्तर होगा कि हिम्मत करो और कूद जाओ.

rajnish manga
03-02-2013, 10:58 PM
निरंतर प्राप्त होते रहने वाले इस वक्त की सबसे बड़ी खूबसूरती यही है कि आप इसे समय से पहले या अग्रिम रूप से बर्बाद नहीं कर सकते. आगामी दिन, आगामी पहर आपके सामने है, सर्वांगपूर्ण और बेदाग़ ऐसे जैसे आपने अपने जीवन में एक पल भी नष्ट न किया हो. इस प्रकार से अगले हफ्ते या सिर्फ कल तक भी इंतज़ार करने से कोई फल नहीं निकलता. किन्तु इससे पहले कि आप आगे बढ़ें, मैं आपके अत्यधिक उत्साहित होने पर कुछ कहना चाहता हूँ. प्रारंभ में आप इस पर काबू ना पा सकेंगे क्योंकि यह पर्वतों को हिला देना चाहता है और नदियों का रूख मोड़ देना चाहता है. और फिर अचानक यह थक जाता है और खत्म हो जाता है.

शुरुआती दिनों में बहुत ज्यादा कर लेने के विचार से सावधान रहें. दुर्घटनाओं के लिये भी गुंजाईश रखें. मानव स्वभाव, विशेष रूप से आपके अपने स्वभाव, के लिये भी गुंजाईश रखें. याद रखें कि एक बड़ी असफलता से हमें नुक्सान नहीं किन्तु छोटी सी सफलता हमें कामयाबी के उस शिखर तक ले कर जा सकती है जिसे छोटा नहीं कहा जा सकता.

इस तरह २४ घंटों वाले एक सामान्य दिवस की सीमाओं में अपने जीवन को भरपूर जीने के महान उद्योग की ओर बढते हुये हमें यह कोशिश करनी होगी. किसी भी कीमत पर हम शुरुआत में ही फेल न हो जाएँ. अब एक नज़र हम पूरे दिन भर के समय के बजट पर डालेंगे. आप कहेंगे कि आप पहले ही काम के बोझ तले दबे हुये हैं. कैसे? पैसा कमाने में आप कितना खर्च करते हैं? कितना ज्यादा? ~~ सात घंटे औसतन. और सोने के सात? इसमें आप चाहें तो दो घंटे और जोड़ लें. ये कुल १६ घंटे हुये. बाकी के आठ घंटे आप कैसे बिताते हैं? इस बारे में आप बिना सोचे बताने में दिक्कत महसूस करते हैं.

rajnish manga
03-02-2013, 10:59 PM
स्थिति को सही परिप्रेक्ष्य में समझने के लिये हम एक केस पर गौर करते हैं – एक व्यवसायी का केस - जो दफ्तर में काम करता है. अब यह व्यवसायी या व्यापारी दिन भर में समय के प्रति सबसे बड़ी गलती यह करता है कि वह इसे सही महत्व नहीं दे पाता जिसकी वजह से उसकी दो तिहाई उर्जा नष्ट हो जाती है और साथ ही उसके शौक भी. इस प्रकार कि परिस्थितियों में होता यह है कि वह अपने व्यापार के प्रति लगाव या खिंचाव का अनुभव ही नहीं करता. वह अपने व्यवसाय से जुड़े कामकाज को निहायत बेदिली से करता है, देर से शुरू करता है और उसे अत्यंत खुशी तब मिलती है जब वह यथासंभव जल्द से जल्द अपने काम को समाप्त करता है.

इस सबके बावजूद भी वह नौ बजे से पांच बजे तक के समय को ही दिन की संज्ञा देना चाहता है. और उसके लिये नौ घंटे पहले के और सात घंटे बाद के कोई मानी नहीं रखते. इस प्रकार का नकारात्मक दृष्टिकोण इन सोलह अतिरिक्त घंटों के प्रति उसकी दिलचस्पी को ही मार डालता है. जिसका परिणाम यह होता है कि चाहे वह इस समय को नष्ट न भी करे, वह उसे किसी गिनती में नहीं लेता; वह तो उसे दिन के कागज़ पर एक हाशिया मात्र ही समझता है. यदि कोई व्यक्ति अपने अस्तित्व के दो तिहाई भाग को बाकी के एक तिहायी भाग का गुलाम बना कर रख दे (विशेष रूप से तब जबकि एक तिहायी भाग के प्रति भी उसमें ज्यादा उत्साह न हो) तो वह एक भरपूर तथा परिपूर्ण ज़िंदगी जीने की उम्मीद कैसे कर सकता है. कभी कर ही नहीं सकता.

rajnish manga
03-02-2013, 11:00 PM
भरपूर और परिपूर्ण ज़िंदगी जीने के लिये उसे दिन के अंतर्गत ही दिन की व्यवस्था करनी होगी. और यह आंतरिक दिन, डिब्बे के अंदर डिब्बे के समान, शाम पांच बजे शुरू होता है और सुबह नौ बजे समाप्त होगा. इन सोलह घंटों में उसके पास करने के लिये खास कुछ भी नहीं है सिवाय अपने शरीर,आत्मा तथा परिचितों के बारे में ध्यान देने के. इन सोलह घंटों में वह बिल्कुल स्वतंत्र है; वह किसी की नौकरी पर नहीं है; वह एक ऐसे व्यक्ति की तरह है जिसकी कोई निजी आमदनी हो. ऐसी उसकी सोच होनी चाहिए. और यही सोच सब से ज्यादा महत्वपूर्ण है. जीवन में उसकी सफलता इसी दृष्टिकोण पर निर्भर करती है.

एक आम आदमी द्वारा इन सोलह घंटों को बिताने के लिये, जो कि पूर्णतया उसके अपने हैं, जो भी तरीके उपयोग में लाये जाते हैं, उनकी जाँच करने पर मैं उन चीजों की तरफ इशारा करूँगा जो वह करता है लेकिन जो शायद उसे नहीं करनी चाहियें. इस जगह मैं अपने सुझावों को आस्थगित कर रहा हूँ जो समय की योजना बनाने में मैंने अपने लिये स्वीकार कर लिये हैं. यह ऐसा ही है जैसे जंगल में बस्तियां बनाने से पहले खानाबदोश लोग उबड़खाबड़ जमीन को साफ़-समतल करते हैं.

मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि वह सुबह घर छोड़ने से पहले बहुत कम समय नष्ट करता है. बहुत से घरों में व्यक्ति उठते हैं, नाश्ता करते हैं और दरवाजा बन्द कर काम पर चले जाते हैं. लेकिन साथ-साथ वह अपनी मानसिक शक्तियों (मेंटल फेकल्टीज़), जो कि अनथक काम करने की क्षमता रखती हैं, को भी निष्क्रिय कर देते हैं. एक आम आदमी काम पर नीम बेहोशी की अवस्था में पहुँचता है. इस प्रकार सैंकडों,हजारों घंटे प्रतिदिन नष्ट कर दिए जाते हैं क्योकि हमारा आम आदमी वक़्त के बारे में इतना कम सोचता है कि बस! उसे कभी यह सूझता ही नहीं कि वह वक्त की बर्बादी के खतरों से बचने के लिये कुछ सरल उपाय करे.
उसके पास खर्च करने के लिये प्रतिदिन समय का एक कीमती सिक्का होता है. जब उसे इसकी रेजगारी की जरूरत पड़ती है तो वह बदले में काफी बड़ी कीमत अदा कर देता है. अब क्या आप कृपा कर के अपना पेपर खरीदेंगे तथा ट्रेन में चढेंगे?

Dark Saint Alaick
03-02-2013, 11:48 PM
अद्भुत प्रेरक सूत्र शुरू किया है रजनीशजी। यह अनुपम कृति फोरम पर प्रस्तुत करने का अनुकरणीय श्रम करने के लिए आभार। आपका यह सूत्र अनेकानेक सदस्यों का भला करेगा, और उन सभी की दुआएं आपके साथ हैं, ऐसा मेरा मानना है। धन्यवाद। :bravo:

rajnish manga
04-02-2013, 10:51 PM
अद्भुत प्रेरक सूत्र शुरू किया है रजनीशजी। यह अनुपम कृति फोरम पर प्रस्तुत करने का अनुकरणीय श्रम करने के लिए आभार। आपका यह सूत्र अनेकानेक सदस्यों का भला करेगा, और उन सभी की दुआएं आपके साथ हैं, ऐसा मेरा मानना है। धन्यवाद। :bravo:

:hello:

अलैक जी, उत्साहवर्धन करने के लिए आभारी हूँ. यह कृति भी विश्व साहित्य की ऐसी धरोहर है जो कालातीत हैं और भोगोलिक तथा भाषाई सीमाओं से ऊपर है. आगे भी आपका सहयोग व मार्गदर्शन मेरे साथ रह्र्गा ऐसी आशा करता हूँ. धन्यवाद.

rajnish manga
04-02-2013, 10:55 PM
ये बेशकीमती पल
आप सुबह की गाड़ी में सवार हो जाते हैं और शांतिपूर्वक अपने समाचारपत्र में खो जाते हैं. आपका व्यवहार फुर्सत वाला दिखायी देता है, जैसे आपके पास समय का खजाना हो या जैसे आप किसी दूसरे ग्रह से उतरे हों और आपके पास दिन में १२४ घंटे का समय है न कि सिर्फ २४ घंटे का. मैं समाचारपत्रों को पढ़ता अवश्य हूँ लेकिन सरसरी तौर पर. इस लिये यदि मैं कहूँ कि अखबार जितनी तेजी से छापे जाते हैं उतनी तेजी से ही उन्हें पढ़ा जाना चाहिए तो इसे मेरा पूर्वाग्रह न समझा जाय. मेरे प्रतिदिन के प्रोग्राम में इनके लिये कोई जगह नहीं है. मैं अखबार किन्ही विशेष क्षणों में ही पढ़ता हूँ. अपने अनुपम एकांत के ३०-४० मिनट अखबार पढ़ने पर खर्च करने की इजाज़त शायद मैं आपको भी नहीं दे पाऊँगा.यह तो ऐसा है जैसे पूरब के राजा-महाराजा हीरे जवाहरात लुटाते हैं. आप वक्त के शाह तो हैं नहीं. कृपया मुझे यह याद दिलाने की अनुमति दें कि आपके पास मुझ से एक पल भी अधिक समय नहीं है. सो, रेलगाड़ियों (या बसों) में अखबार पढ़ना बन्द. इस प्रकार मैंने लगभग ३० मिनट का समय अलग कर लिया है.
अब आप ऑफिस पहुँचते हैं. और वहाँ पर बिताने के लिये मैं आपको पाँच बजे तक का समय दे देता हूँ. मुझे मालूम है कि मध्यांतर में आपके पास एक घंटा फुर्सत का रहता है जिसके आधे से कम भाग में आप खाना पीना करते हैं. लेकिन इस अतिरिक्त समय को अपनी मर्जी से बिताने से मैं आपको नहीं रोकूंगा. आप बेशक इस समय अपना अखबार निकाल कर पढ़ सकते हैं.

rajnish manga
04-02-2013, 10:56 PM
जैसे ही आप अपने ऑफिस से बाहर आयेंगे, मैं आपको फिर मिलूँगा. आपका चेहरा पीला है और आप थके हुये भी लगते हैं. कुछ भी हो आपकी पत्नी कहती है कि आपका चेहरा पीला पड़ गया है और आप उसे समझाने की कोशिश करते हैं कि आप सिर्फ थके हुये हैं. आप घर पहुँचते ही शायद कुछ खाना पसंद नहीं करेंगे. लेकिन लगभग एक घंटे बाद आपको लगता है कि बैठ कर कुछ बढ़िया, स्फूर्तिदायक चीज़ खानी चाहिए. रात को खाने के बाद आप मित्रों से मिलने निकल जाते हैं, या ताश खेलते हैं या किसी पुस्तक के पन्ने पलटते हैं, सैर करते हैं या प्यानो पर कोई धुन निकालते हैं. हे भगवान! यह क्या? सवा दस इतनी जल्दी बज गए? इस समय आपको नींद सताने लगती है. इसी तरह सोचते सोचते करीब ४०-४५ मिनट और गुज़ार देते हैं तब कहीं जा कर आप बिस्तर पर लेटते हैं, दिन भर के कामकाज से चूर हो कर. दफ्तर से निकलने के बाद अब तक छ: घंटे नष्ट हो चुके हैं. जैसे कोई ख्वाब हो या जादू हो गया हो वक्त यूँ सरक गया और अपना कोई हिसाब-किताब भी नहीं छोड़ गया.

समय कैसे खिसक जाता है, ऊपर इसकी छोटी सी मिसाल दी गयी है. लेकिन आप कहते हैं कि इस प्रकार की बातें करना बहुत आसान है. एक आदमी थका मांदा आया है, उसे अपने मित्रों से भी मेल-मुलाक़ात, दुआ-सलाम रखनी पड़ती है. वह हमेशा तो वक्त की कमी का बहाना नहीं बना सकता. आपने ठीक ही कहा. लेकिन जब आप थियेटर जाने का प्रोग्राम बना रहे होते हैं (विशेष रूप से तब जब ऐसा कार्यक्रम किसी सुन्दर महिला के साथ बनाते हैं) तो क्या होता है? आप अच्छे अच्छे कपड़े तैयार करते हैं और अपने आपको आकर्षक बनाने के लिये कितना परिश्रम करते हैं. आप दौड़ कर वापिस शहर की तरफ जाते हैं. चार-पांच घंटे इसी तैयारी में बीत जाते हैं, बाद में आप उसे उसके घर भी छोड़ कर आते हैं. तत्पश्चात आप अपने घर आते हैं. इस दौरान आपको चंद मिनटों के लिए भी नींद का खयाल नहीं सताता. आप जाते हैं. दोस्तों का और थकावट का आपको विचार तक नहीं आता, और यह शाम आपको असामान्य रूप से मजेदार, दिलकश तथा लंबी (या बहुत ही छोटी) प्रतीत होती है.

rajnish manga
04-02-2013, 10:57 PM
और अब मुझे यह बताईये कि क्या आपने कभी ओपेरा मंडली के लिये कोरस गान में भाग लिया है? यदि हाँ तो क्या आपको यह याद पड़ता है कि इस गायन के लिये आपको कैसे कैसे राजी किया गया था और यह भी कि आप प्रतिदिन शाम को दो घंटे इस गायन की तैयारी पर खर्च किया करते थे और यह क्रम पूरे तीन माह तक चलता रहा था? क्या आप इस बात से इंकार करेंगे कि जब आपके सामने कोई निश्चित चीज होती है – कुछ ऐसा जिसमे आपका पूरा ध्यान और ऊर्जा संकेंद्रित हो जाती है – तो ऐसी प्रत्येक वस्तु के विचार मात्र से आप का दिन जगमगा उठता है और आपको प्रचण्ड जीवन शक्ति का अनुभव होता है?

मेरा यह सुझाव है कि ठीक पांच बजे आप परिस्थितियों पर सोचते हुये पूरे आश्वस्त होते हैं और आप मानते हैं कि आप थके हुये भी नजर नहीं आते (क्योंकि आप जानते हैं कि आप थके हुये हैं भी नहीं), और आप अपनी शाम का कार्यक्रम ऐसा बनाते हैं कि उसके बीच में खाने का व्यवधान न आ पाए. ऐसा करते हुये आप कम से कम तीन घंटे का लंबा समय आराम से निकाल लेते हैं. मेरा यह मानना है कि यह अच्छा रहेगा कि आप एक नवीन शुरुआत करें, इसके लिये आप हर शाम कम से कम डेढ़ घंटा किसी ऐसे महत्वपूर्ण कार्य मैं अवश्य लगाएं जिससे आपके मनो-मस्तिष्क का निरंतर विकास होता रहे.

यदि आप धैर्यपूर्वक ऐसा करेंगे तो आप निश्चित रूप से चार या शायद पांच या उससे भी अधिक शामें किसी अच्छे कार्य में लगाना चाहेंगे ताकि आप जीवन को और सार्थक बना सकें. और जल्द ही आप उस आदत से छुटकारा पा सकेंगे जब सवा दस बजते न बजते आप अपने आप से कहने लगते थे कि “अब सोने का समय हो गया है.” जो व्यक्ति अपने बेड रूम का दरवाजा खोलने से चालीस मिनट पहले ही सोने की तैयारी शुरू कर देता है वह वास्तव में बोर हो चुका होता है; अर्थात वह उस समय जी नहीं रहा होता.

पर ध्यान रहे कि आरम्भ में सप्ताह के कुल १००८० मिनटों में से ये रात्रिकालीन ९० मिनट (सप्ताह में केवल तीन दिन के लिये कुल साढ़े चार घंटे) सब से महत्वपूर्ण समझे जाने चाहियें. ये पवित्र समझे जाएँ, ठीक उतने ही पवित्र जितने नाटक की रिहर्सल या टेनिस मैच में व्यतीत समय. यह कहने के बजाय कि “मुआफ कीजिये, मुझे दूसरी जगह ब्रिज खेलने जाना है” आपको यह कहना होगा कि “मुझे यह काम करना ही है.” ऐसा करना, मैं मानता हूँ कि अत्यंत कठिन है, दुष्कर है. ब्रिज का खेल अविनाशी आत्माको समर्पित काम की तुलना में कितना अधिक जरूरी हो सकता है?

rajnish manga
04-02-2013, 11:02 PM
दिनचर्या में बदलाव
सामान्य स्थिति में मैं यह कहता कि अपना शाम का कार्यक्रम सप्ताह के छ: दिन चलायें. यदि आप सोचते हों कि आप समय को और बढ़ा सकते हैं तो अवश्य बढ़ाएं; किन्तु इस बढ़ाये हुये समय को आप लाटरी में प्राप्त धन की तरह ही समझें, अपनी नियमित आमदनी नहीं, ताकि आप जब भी अपने सप्ताह में छ: दिन वाले कार्यक्रम पर लौटना चाहें तो बिना कुछ खो देने की अनुभूति के या अपने साथ किये वायदे को तोड़ कर लौट सकें.

अब ज़रा यह देखा जाए कि हम कहाँ पर हैं. अभी तक हमने सप्ताह भर में प्रतिदिन आधा घंटा के हिसाब से सुबह का वक्त बचाना तय किया है तथा हफ्ते में तीन दिन डेढ़ घंटे प्रतिदिन के हिसाब से शाम का समय अलग रख लिया है. यानी कुल साढ़े सात घंटे एक सप्ताह में.
“क्या?” आप चिल्ला कर पूछ बैठते हैं,”आप हमें जीने की कला सिखाने की बात करते हैं, और आप कुल १६८ घंटों में से ७१/ २ घंटों में यह सब करेंगे?” जी हाँ, मैं फिर कहता हूँ कि यह सच है. कृपया मुझे अपनी बात कह लेने दें. मैं यह मानता हूँ कि उन घंटों का ठोस उपयोग सप्ताह भर के जीवन की गति को बढ़ाएगा, इसमे उत्साह भर देगा और घटिया से घटिया व्यवसाय में भी आपकी दिलचस्पी को बढ़ाने में सहायक होगा.

सच तो यह है कि इस साढ़े सात घंटे के समय को निकाल पाना इतना ही कठिन है जितना एक कमरे में भरी भुस में से एक पिन को ढूँढ निकालना. कोई व्यक्ति चाहे कितना ही मुश्किल समय व्यतीत करे, उसे खर्च करता तो है न. कुछ और करने का मतलब होगा अपनी आदतों में बदलाव लाना. गलत आदतें ही परिवर्तन के रास्ते में प्रमुख रूकावट हैं. इन्हें बदलने में बड़े त्याग की जरूरत है और बड़ी भारी इच्छा शक्ति की जरूरत है. अत: शांत भाव से शुरू करें, इसमें दिखावा करने की बिल्कुल भी जरूरत नहीं. इससे पहले कि हम बचे हुये समय को प्रयोग करने के तरीके पर गौर करें, मैं एक सुझाव रखना चाहूँगा. वह यह कि आप डेढ़ घंटे में होने वाले कार्य को चाहें तो कुछ अधिक समय में भी पूरा कर सकते हैं. आकस्मिक रूप से होने वाली घटनाओं का ध्यान रखना भी जरूरी है. मानव स्वभाव को याद रखें. अत: आपके लिये यह छूट होगी कि आप ९० मि़नट के कार्य को रात ९.०० बजे से ११.३० बजे के मध्य अपनी मर्जी के अनुसार सम्पन्न करें.

abhisays
05-02-2013, 09:23 AM
क्या बात है रजनीश जी, आपने इस शानदार लेख का अनुवाद करके हिंदी पढने वालो के लिए बहुत ही काबिले तारीफ़ कार्य किया है। :hello::hello::hello:ऐसे ही सूत्र फोरम की जान हैं। रजनीश जी, आपका आभार।

rajnish manga
05-02-2013, 10:00 PM
मन का नियंत्रण
अक्सर लोग कहते हुये सुनायी देंगे कि अपने विचारों पर किसका नियन्त्रण होता है. लेकिन यह संभव है. मस्तिष्क रुपी मशीन का नियन्त्रण पूरी तरह मुमकिन है. और क्योंकि हमारी सोच के बाहर कहीं कुछ भी नहीं होता अत: इस रहस्यमय वस्तु में जो कुछ भी घटित होता है उस पर नियंत्रण रखने में सफल होना अत्यन्त महत्वपूर्ण है और यह एक सच्चाई है. इस लिये ध्यान को केंद्रित किये बिना अर्थात मस्तिष्क को उसे कार्यों के बारे में निर्देश देने की असमर्थता और उसके द्वारा आज्ञापालन को सुनिश्चित किये बिना – सच्चा जीवन असंभव होगा. अत: मुझको ऐसा लगता है कि दिन की शुरुआत में पहला कार्य दिमाग को अपनी अपनी सामान्य गति बनाये रखने दी जानी चाहिए.सो इसी वास्ते मैंने घर छोड़ने से लेकर दफ्तर पहुँचने तक का समय रिजर्व कर लिया है.

“क्या? मुझे अपने दिमाग का विकास करने की जरुरत है और वह भी गलियों में चलते हुये, प्लेटफार्म पर खड़े खड़े और यहाँ तक कि ट्रेन में भी? जी हाँ, बिल्कुल यही. इससे आसान क्या होगा! किसी वस्तु की जरूरत नहीं! किताब तक की नहीं. इसके बावजूद, काम इतना सरल नहीं है.

जब आप अपने घर से चलें तो किसी विषय पर (आरम्भ में कोई भी विषय हो सकता है) अपने ध्यान को केंद्रित करें. अभी आप १५ कदम ही चले होंगे कि आपका मन आपके देखते देखते भटक कर किसी दूसरे विषय में उलझ चुका होगा उसको यत्नपूर्वक आपको वापिस लाना होगा. अरे, आप स्टेशन पहुँच चुके हैं और इस बीच लगभग चालीस बार आपको ऐसा करना पड़ा. लेकिन आप निराश न हों. यदि आप धैर्य रखेंगे और बार बार कोशिश करेंगे तो कोई कारण नहीं कि आप सफल न हों.यह कहना ठीक नहीं होगा कि आपका मन इस प्रकार ध्यान केंद्रित करने के योग्य नहीं है. क्या आपको वो सुबह याद नहीं जब आपको एक ऐसा पत्र मिला था जिसका उत्तर बड़ी सोच समझ कर चुनिन्दा शब्दों में सावधानीपूर्वक दिया जाना जरूरी था. और आपने किस तरह अपना ध्यान उस विषय में बनाए रखा था. आप एकाग्रचित्त हो कर बैठ गए थे और पूरा उत्तर तैयार कर दिया था. यह सब काम आप दफ्तर जाने से पहले निबटा चुके थे. यह एक उदाहरण मात्र है जिसमे आपको परिस्थितिओं ने इस हद तक सक्रिय किया व प्रेरित किया कि आप अपने मन पर एक निरंकुश शासक की तरह हावी हो गए. आपने देखा कि आप काम पर डटे रहे कि यह काम खत्म हो जाना चाहिए और काम सम्पन्न हो गया.

rajnish manga
05-02-2013, 10:03 PM
ध्यान को केंद्रित करने के अभ्यास द्वारा (जिसके लिये कोई मंत्र या रहस्य नहीं है सिवाय परिश्रम के) आप अपने मन को आतंकित कर सकते हैं – दिन के किसी भी भाग में और किसी भी स्थान पर.

आप सभी अपने आपसे यह कह रहे हैं कि इस व्यक्ति की बातें बड़ी दिलचस्प हैं, किन्तु उसने ये जो रेलगाड़ी की यात्रा के दौरान सोचते रहने की बात कही है और ध्यान केंद्रित करने के बारे में या ऐसी ही अन्य दूसरी बातें, वह शायद मेरे लिये न हो. वो बातें दूसरे लोगों के लिये कही गयी होंगी, लेकिन यह मेरे बस की बात नहीं.

“यह तो आप ही के लिये हे जनाब,” मैं इसे जोर दे कर दोहराता हूँ. वास्तव में आप ही तो वह व्यक्ति हैं जिसे मैं यह सब कुछ बताना चाहता हूँ. इस सुझाव को न मान कर आप खुद को मिलने वाले सबसे मूल्यवान सुझाव को ठुकरा रहे हैं. इसे आजमाइए. अपने मन को अपनी मुट्ठी में बन्द करना सीखें. और देखें कि इस विधि से आपके जीवन की आधी बुराईयां अपने आप ठीक हो जायेंगी. खास तौर पर चिंता अर्थात वो बुरी, नामुराद, शर्मनाक बीमारी – चिंता.

rajnish manga
05-02-2013, 10:04 PM
अपने आपको जानिये
मन को नियंत्रित करने के बाद ध्यान केंद्रित करने का अभ्यास तो प्रारंभिक अवस्था है, जैसे प्यानों के सुरों का बेसिक ज्ञान प्राप्त करना. अपने सबसे उश्रंखल भाग को वश में करने की शक्ति प्राप्त होते ही व्यक्ति इसे नकेल डालना चाहता है. ऐसा करने के लिये आपको प्रारंभिक अध्ययन कोर्स बताया जा रहा है.

अब यह पढाई का यह कोर्स कैसा होना चाहिए इस बारे में कोई सवाल ही नहीं हो सकता. यह तो अपने आपका ज्ञान प्राप्त करने जैसा होगा. ये शब्द इतने घिसे-पिटे हैं कि मैं उनका प्रयोग करने में संकोच कर रहा हूँ, किन्तु अत्यन्त बुद्धिमान व्यक्ति ही इन्हें व्यवहार में ला पाते हैं. मैं नहीं जानता क्यों? मैं मुतमईन हूँ कि आज के औसत नेक इरादों वाले व्यक्ति के जीवन में (अन्य बातों की अपेक्षा) जिस चीज की कमी अधिक होती है वह है – चिंतनशील मूड.
हम चिंतन नहीं करते, मेरा मतलब है उन विषयों का चिंतन जो असल मायनों में महत्वपूर्ण हैं; जैसे अपनी खुशिओं की समस्या के बारे में, अपने जीवन की वर्तमान दिशा और दशा के बारे में, जीवन की हमें क्या देन है इस बारे में, जीवन में कर्मों का निर्धारण करने वाले विवेक (अथवा अविवेक) की भूमिका के बारे में, एवं हमारे उसूलों और आचरण के बीच उपस्थित संबंधों के बारे में. क्योंकि सच्ची खुशी भौतिक और मानसिक सुखों से नहीं बल्कि विवेक को विकसित करने से तथा आचरण को अपने उसूलों के अनुसार ढालने से मिलती है.

घबराएं नहीं, मैं आपके ऊपर किन्हीं सिद्धांतों या उसूलों को थोपने की बात नहीं कर रहा. मैं केवल इतना निवेदन करना चाहता हूँ कि वह जीवन जिसमे कोई उसूल न हो अथवा जिसमे व्यक्ति का आचरण उसके उसूलों से मेल न खाता हो, निरर्थक है, बेकार है; और आचरण को उसूलों के अनुसार ढालने के लिये हमें प्रतिदिन जाँच करते रहने, चिंतन करने तथा दृढ़ संकल्प व पक्के इरादे की जरूरत होती है. जितना हमारा चिंतन कमज़ोर होगा, उतना ही हम कम विवेकपूर्ण होंगे. अगली बार खाना ठीक न बना होने की सूरत में यदि वेटर को बुलाएं तो पहले अपने विवेक से कहें कि आप के मन की रसोई में प्रवेश करे और उससे विचार विमर्श करे. वह शायद यह बतलाएगी कि वेटर ने खाना नहीं बनाया और पकाने पर उसका कोई ध्यान नहीं था; और अगर वही दोषी था, तो भी उसको बुरा-भला कहने से कोई फायदा नहीं होगा, बल्कि आपकी प्रतिष्ठा पर ही आंच आएगी, आप बेवकूफ लगेंगे और वेटर को भी दुखी करेंगे. इन सब बातों का खाने के ऊपर तो कोई प्रभाव पड़ने से रहा.

rajnish manga
05-02-2013, 10:05 PM
अपनी बुद्धि से विचार-विमर्श करने का परिणाम (जिसके लिये कोई फीस नहीं देनी पड़ती) यह होगा कि जब खाना एक बार फिर अच्छा नहीं बनेगा तो आप वेटर को अपने एक साथी के रूप में व्यवहार करेंगे, शांत रहेंगे और विनम्र रहते हुये कुछ और खाने का विकल्प सोचेंगे. इसका लाभ सहज रूप से लेकिन ठोस दिखायी देगा.

उसूलों के निर्माण में तथा आचरण का अभ्यास करने में काफी सहायता पुस्तकों से ली जा सकती हैं. मैं मारकस ओरिलिअस और एपिकटेटस का नाम लूँगा. मैं पास्कल, ला ब्रुयेरे और इमर्सन का नाम भी इसमें जोड़ सकता हूँ. लेकिन किसी पुस्तक के पढ़ने से इतना लाभ नहीं मिलता जितना प्रतिदिन उन घटनाओं की सीधी-साधी और निष्कपट जाँच या परीक्षा से मिल सकता है. और इसकी भी कि वह क्या करने की सोच रहा है. ऐसा अपनी आँखों से ऑंखें मिलाने से ही संभव हो सकता है.

यह महत्वपूर्ण काम कब तक सम्पन्न हो जायेगा? मैं मानता हूँ कि इन सब बातों पर विचार करने के लिये शाम की यात्रा का एकांत भरा समय सर्वथा उपयुक्त है. एक चिंतनशील मूड दिन भर की मेहनत के बाद दफ्तर से निकलने का स्वाभाविक परिणाम है. यह सही है कि यदि आप अपनी मूल ड्यूटी, जो कि कारोबार के विकास के लिये बेहद महत्वपूर्ण है, की तरफ ध्यान न दे कर सिर्फ अखबार पढ़ते रहते (जो कि आप अपने डिनर से कुछ पहले भी पढ़ सकते हैं) तो मुझे कुछ नहीं कहना. लेकिन इस ओर भी आप दिन भर में किसी समय ध्यान दें, मुझे यही कहना है. अब मैं शाम के वक्त आपसे मिल कर बात करूँगा.

sauravpaul12
07-02-2013, 10:27 AM
बेहतरीन सूत्र है, धन्यवाद :bravo:

rajnish manga
07-02-2013, 10:32 AM
काम का चुनाव
ऐसे बहुत से लोग होंगे जो शाम के वक्त कोई काम नहीं करते क्योंकि वो सोचते हैं कि खाली बैठने का एक मात्र विकल्प मात्र साहित्य पढ़ना है; लेकिन उन्हें साहित्य में भी खास रूचि नहीं होती. यह उनकी एक बड़ी भूल है. साहित्य के क्षेत्र से अलग भी ज्ञान के अनेक ऐसे क्षेत्र हैं जो उनका अनुशीलन करने वालों के समक्ष शानदार परिणाम लाने वाले हैं. मिसाल के तौर पर जब आप किसी संगीत सम्मलेन में जाते हैं तो आप संगीत का भरपूर मजा लेते हैं. लेकिन जब आप कहते हैं कि प्यानो या अन्य वाद्य नहीं बजा सकते तो इसका क्या अर्थ लिया जाए. इससे क्या फर्क पड़ता है.

यह ठीक है कि प्यानो के ऊपर आपकी “दी मेडेन्स प्रेयर” न गा सकने की असमर्थता निश्चित रूप से आपको इस बात से नहीं रोक सकती कि आप सुने गए ऑर्केस्ट्रा के विभिन्न पक्षों से अपने आपको परिचित कराएँ. वर्तमान स्थिति में संभवत: आप किसी ऑर्केस्ट्रा को वाद्य यंत्रों के एक ऐसे समूह के रूप में देखते हों जो प्राय: बेमेल ध्वनियाँ उत्पन्न करते हैं.आप सूक्ष्म ध्वनियों पर कोई ध्यान नहीं देते क्योंकि आपके कान सूक्ष्म ध्वनियों को समझ पाने के लिये प्रशिक्षित नहीं हैं.

यदि आपसे उन वाद्य यंत्रों का नाम पूछा जाए जिनका प्रयोग प्रख्यात संगीतज्ञ बीथोवन की ‘सी. माईनर सिम्फ़नी’ के प्रारंभ में किया गया है तो आप इनका नाम शायद कभी न बता पायें बावजूद इस बात के कि इस संगीत-रचना ने आपको अभिभूत कर दिया था. ‘सी. माईनर सिम्फ़नी’ के बारे में आप अधिक से अधिक यही कहेंगे कि यह बहुत बढ़िया संगीत-रचना थी. अब यदि आपने “संगीत कैसे सुनें” पुस्तक श्रंखला की कोई पुस्तक पढ़ी है तो आप अगले संगीत कार्यक्रम के बारे में आश्चर्यजनक रूप से और अधिक रूचि ले कर जायेंगे. सम्पूर्ण ऑर्केस्ट्रा आपको अब उलझन भरा नहीं लगता बल्कि वह अपने शुद्ध रूप में सुनाई देता है – अद्भुत रूप से व्यवस्थित एक ऐसी कृति जिसके विभिन्न अवयवों में से हर एक का अपना पृथक और अनिवार्य काम होता है.

rajnish manga
07-02-2013, 10:35 AM
आप वाद्य यंत्रों के बारे में और अधिक छानबीन करेंगे और उनको सुनना चाहेंगे. आपको इंगलिश हॉर्न और फ्रेंच हॉर्न के बीच अंतर का ज्ञान होने लगेगा. अब आप संगीत सम्मलेनों में रूचि ले कर और पूरी समझ के साथ भाग ले सकते हैं. जबकि पहले आप वहाँ इस प्रकार उपस्थित रहते थे जैसे बेहोशी में हों ठीक ऐसे जैसे कोई बच्चा किसी चमकने वाली वस्तु को देखने लगता है.

“पर मुझे संगीत में कोई दिलचस्पी नहीं” आपका कहना है. प्रिय महोदय, मैं आपका बड़ा आदर करता हूँ. जैसा संगीत के साथ होता है वैसा ही अन्य कलाओं के ऊपर भी लागू होता है. मैं आपको ‘तस्वीरें कैसे देखनी चाहियें’ विषयक कई पुस्तकों के बारे में बता सकता हूँ या ‘वास्तुकला का आकलन कैसे करें’ के बारे में जिससे आप अन्य कलाओं के बारे में क्रमबद्ध शाश्वत ज्ञान की शुरुआत (जी हाँ, सिर्फ शुरुआत) कर सकते हैं.

“मुझे इन कलाओं–वलाओं से कुछ लेना देना नहीं है,” आप कहते हैं. प्रिय महोदय, मैं आपका पहले से भी अधिक आदर करता हूँ. मैं आपके ही बारे में बात की शुरुआत करता हूँ. साहित्य के बारे में अपनी बात बाद में करूँगा.

rajnish manga
07-02-2013, 10:38 AM
चिरन्तन परिवर्तन
कला ईश्वर का महान वरदान है. किन्तु सब से बड़ा वरदान नहीं. हर प्रकार के प्रत्यक्षीकरण में सार्वाधिक महत्वपूर्ण है – कार्य-कारण संबंधों का निरन्तर प्रत्यक्षीकरण – जिसमे हमें ब्रह्माण्ड के निरन्तर विकास की छवि दिखायी पड़ती है.

अपनी घड़ी को चोरी करवाना बहुत मुश्किल है, व्यक्ति सोचता है तो उसे जानकारी मिलती है कि एक चोर को चोर बनने के लिये उसके आनुवंशिक तथा पर्यावरण सम्बन्धी कारण जिम्मेदार होते हैं; यह सोचना मजेदार भी है और वैज्ञानिक रूप से तर्कसंगत भी. और एक व्यक्ति घड़ी क्यों खरीदता है, चाहे वह खुशी से ऐसा न करे, परन्तु इसके पीछे जो विचार काम करता है, उससे सारी कड़वाहट मिट जाती है. आपका नुक्सान हुआ लेकिन इन कार्य-कारण संबंधों के अध्ययन से व्यक्ति के अंदर की अटपटी आदतें स्वत: मिट जाती हैं जो उन्हें जीवन कि रहस्यमयता से बहुधा पहुँचने वाले आघातों का परिणाम होती हैं. ऐसे व्यक्ति मानवीय प्रकृति को ऐसा मानते हैं जैसे यह कोई दूसरा लोक हो. परन्तु बुद्धि के परिपक्व होने पर उसे यह सोच कर शर्म आने लगती है कि वह अजीबोगरीब लोक का एक रहस्यमय जीव है.

कार्य-कारण संबधों के अध्ययन से जीवन की तकलीफें तो घटती ही हैं, इससे जीवन और सुन्दर तथा जीने योग्य बन जाता है. एक आम व्यक्ति जिसके लिये जीवन का विकास एक शब्द भर है जब समुद्र की और देखता है तो उसे असीम विस्तार की अनुभूति होती है लेकिन साथ ही वह एकरसता तथा बोरियत का भी अनुभव करता है. लेकिन वह व्यक्ति जो कार्य-कारण संबंधों की निरन्तरता के विचार से अभिभूत है, समुद्र को देखता है तो उसे उन तत्वों का भान होता है जो कुछ दिन पूर्व वाष्प के रूप में मौजूद था, कल जल के रूप में उसे उबाला जा रहा था और जो कल बर्फ का रूप लेने वाला है. इस जीवन के बदलते हुये रंगों के विशाल फलक वाली इस अप्रतिभ तस्वीर से बढ़कर संसार में चिरस्थायी संतोष प्रदान करने वाली कोई अन्य वस्तु हो ही नहीं सकती.

rajnish manga
07-02-2013, 10:56 AM
जरा कल्पना करें कि आप एक बैंक में काम करते हैं जहाँ सुबह से शाम तक आपका कई तरह के ग्राहकों से पाला पड़ता है. हर ग्राहक एक अलग समस्या ले कर आता है और कई बार आप इनसे निबटते हुयी परेशान भी हो जाते हैं. मैं मानता हूँ कि आपने वाल्टर बेजहॉट की ज़बरदस्त रोमांटिक पुस्तक “लोम्बार्ड स्ट्रीट” (जिसे वैज्ञानिक अध्ययन के रूप में पेश किया गया है) नहीं पढ़ी है. आह, मेरे मित्र, यदि आपने वह शुरू की होती और हर शाम ९० मिनट इसको पढ़ने पर लगाये होते तो आज आपका रोजगार कितना आनंददायक हो उठता? और आप मानवीय स्वभाव को कितनी स्पष्टता से समझ रहे होते?

आप काफी समय से अपने शहर से निकल नहीं पाए हैं जबकि आपको अच्छे पर्यटक स्थलों पर जाने और वहाँ घूमने का शौक है और वन्य जीवन को नज़दीक से देखना भी आपको अच्छा लगता है. यह सब वाकई ह्रदय को प्रफुल्लित करने वाले पल होते हैं. आप अपने घर से निकल कर नज़दीक की किसी गली के लेम्प-पोस्ट के पास रात को एक तितली पकड़ने वाली नेट के साथ क्यों नहीं जाते. इससे आपको सामान्य तथा खास प्रजातियों के पतिंगों वाला वन्य-जीवन देखने का अनोखा मौका मिलेगा. इस प्रकार प्राप्त ज्ञान को आप समन्वित करें और इसके बारे में अपनी जानकारी को विस्तृत करें और अंतत: किसी नयी वस्तु के बारे में नयी जानकारी प्राप्त करें.
यह आवश्यक नहीं की जीवन को सम्पूर्ण बनने के लिये आप कला के प्रशंसक हों ही, या साहित्य से प्रेम करने वाले हों. हमारे जीवन में प्रतिदिन घटने वाली घटनायें और दृश्य भी आपकी उत्कंठा को शांत करते हैं और जीवन को संतोष प्रदान करते हैं. यह सब एक अच्छे हृदय में ही संभव है.
अब में उस व्यक्ति की तरफ मुखातिब हो रहा हूँ, जिसकी बिरादरी इत्तफाक से काफी बड़ी है, और जो कुछ पढ़ने-लिखने पर ध्यान देने वाला है.

rajnish manga
07-02-2013, 11:02 AM
बौद्धिक सक्रियता बढाने वाला साहित्य
गंभीर पठन पाठन के क्षेत्र से उपन्यासों को बाहर रखा गया है और सप्ताह में तीन दिन ९० मिनट का समय आप नॉवल पढ़ने पर खर्च नहीं करेंगे. ऐसा इस लिये तय किया गया है क्योंकि यह मानना पडेगा कि खराब उपन्यास तो पढ़ने के योग्य ही नहीं होते, और अच्छे नॉवल पाठक के दिमाग पर कोई जोर नहीं डालते अर्थात उसे बौद्धिक मंथन की दिशा में ले कर नहीं जाते. एक अच्छा उपन्यास तो ऐसा है जैसे नदी की धारा की दिशा में कश्ती चलाना और आप अपनी यात्रा के अंत तक बड़ी आसानी से पहुँच जाते हैं. इस दौरान चाहे आपने अपनी साँस रोक रखी हो लेकिन आप बिल्कुल थकावट नहीं महसूस करते. सबसे अच्छे नॉवेल सब से कम तनाव देने या बौद्धिक अभ्यास करवाने वाले होते हैं. जबकि बुद्धि के विकास तथा परिमार्जन के लिये सब से महत्वपूर्ण तत्वों में से एक है तनाव की अनुभूति (फीलिंग ऑफ स्ट्रेस एण्ड स्ट्रेन) अथवा किसी कार्य की कठिनाई जिसे आपके व्यक्तित्व एक अंश तो स्वीकार करता है (और उस पर विजय पाना चाहता है) किन्तु दूसरा अंश उससे दूर भागना चाहता है. इस प्रकार की अनुभूति एक उपन्यास के जरिये कभी हासिल नहीं की जा सकती.

कल्पनाशील काव्य संभवत: साहित्य की किसी भी विधा की तुलना में सबसे अधिक दर्द अथवा तनाव का सृजन करता है. यह साहित्य का सर्वोत्तम रूप है. यह कहते हुये मुझे इस दुखद सच्चाई का ध्यान आता है कि अधिकांश लोग काव्य साहित्य पढ़ने में कोई रूचि नहीं रखते.
यदि काव्य आपके लिये एक सीलबंद पुस्तक की तरह है तो आप विलियम हेज़लिट का विख्यात निबंध” “सामान्य रूप वाला काव्य” अवश्य पढ़ें. इस निबंध को पढ़ने के उपरान्त एक आम पाठक की मानसिक अवस्था का अंदाज़ा इस कथन से बखूबी लगाया जा सकता है कि ‘अगले भोजन से पहले ही यह नामुमकिन होगा कि वह कविता या शायरी की किसी अच्छी पुस्तक की तलाश न शुरू करे और उसे पढ़ना न चाहे.’

rajnish manga
07-02-2013, 11:31 AM
यदि आप काव्य साहित्य में कोई रूचि रखते ही नहीं तो आप इतिहास या दर्शन शास्त्र पढ़ सकते हैं. हरबर्ट स्पेंसर की पुस्तक “प्रथम सिद्धांत”, उदाहरण के लिये, काव्य साहित्य द्वारा प्रस्तुत किय गए दावों की हंसी उड़ाती है और इसे मानव मस्तष्क की सबसे शानदार देन के रूप में कोई मान्यता देने से इंकार करती है. मैं इस बारे में आपसे इस लिये नहीं कह रहा हूँ कि इससे मानसिक तनाव कम करने में मदद मिलती ही है. मैं ऐसा कोई कारण नहीं देखता कि एक औसत बुद्धिमत्ता वाला व्यक्ति एक वर्ष तक लगातार चलने वाली पुस्तकों की पढाई के उपरान्त इतिहास और दर्शन शास्त्र की कृतियों को पढ़ने के लिये सर्वथा योग्य न हो सके. इन उत्कृष्ट पुस्तकों की बड़ी खासियत यह है कि ये अद्भुत रूप से पठनीय एवं बोधगम्य होती हैं.
पठन पाठन के जरिये आत्मोत्थान के हेतु से मैं दो सामान्य सुझाव देना चाहता हूँ. प्रथम तो यह कि आप अपने प्रयत्नों के क्षेत्र एवं दिशा को रेखांकित करें. एक छोटे से काल खंड का चयन कर लें, अथवा एक सीमित विषय या एक लेखक तक महदूद रहें. इस दिए गए समय में आप अपने आपको अपने द्वारा चुने गए लेखक तथा विषय तक ही सीमित रखें. एक विशेषज्ञ होने में भी अपना अलग ही आनंद या रसानुभूति होती है.

मेरा दूसरा सुझाव यह है कि पठन-पाठन के साथ-साथ चिंतन भी किया करें. मैं ऐसे बहुत से व्यक्तियों के बारे में जानता हूँ जो पढ़ते हैं और खूब पढ़ते हैं, परन्तु इससे उन्हें जो फायदा पहुँचता है वह टिकाऊ न हो कर जल्द ही हवा में विलीन हो जाता है. वे साहित्य के अनमोल रत्नों को मोटर कार में बैठ कर पढ़ते हुये जैसे उड़ते रहते हैं; उनका मूल उद्देष्य तो गतिवान बने रहना है बाकी सब कुछ गौण है. वे इस बात पर फूले नहीं समाते कि उन्होंने कितनी पुस्तकें पढ़ रक्खी हैं. जब तक आप पढ़े गए विषयों पर कम से कम ४५ मिनट के लिये ध्यानपूर्वक, श्रमसाध्य चिंतन मनन नहीं करेंगे (शुरू में यह उबाऊ लगेगा) तब तक आपके ९० मिनट का रात का समय बेकार ही समझना चाहिए. अर्थात आपकी रफ़्तार कम होगी. किन्तु चिंता न करें. अपने लक्ष्य को भूल जाएँ. सिर्फ अपने आसपास के दृश्य के बारे में सोचें; और कुछ समय पश्चात जब आपको इसकी बिल्कुल भी आशा नहीं होगी, आप अकस्मात अपने आप को एक सुन्दर हिल स्टेशन के माहौल में पायेंगे.

rajnish manga
07-02-2013, 11:35 AM
रास्ते के खड्डों से सावधान रहें
मैं जीवन को एक महान लक्ष्य तक पहुँचाने के लिये समय के भरपूर इस्तेमाल के नाम पर दिए गए सुझावों पर ही बात खत्म नहीं करना चाहता. मैं उन खतरों से भी आपको आगाह कराना चाहूँगा जो इस दिशा के सच्चे अन्वेषकों को रास्ते में मिलते हैं. पहला खतरा दम्भी हो जाने का है. दम्भी व्यक्ति एक प्रकार से मूर्ख ही तो हैं. आपको उस राजा की कहानी याद है न जो एक अनुष्ठान के अवसर पर नगर भ्रमण पर निकलते हुये चाटुकारों की बातों में आ कर निर्वस्त्र ही चल पड़ता है. देखने वाले दर के मारे अपनी हँसी दबाये रहते हैंलेकिन एक छोटा बच्चा सच बोल देता है कि राजा ने कोई कपड़ा नहीं पहना है.राजा को सच्चाई का आभास तो हो जाता है किन्तु वह अपने विनोदी स्वभाव से महरूम हो जाता है. दम्भी वह व्यक्ति है जो किसी वस्तु की खोज करता है और आनंदातिरेक में झूम जाता है किन्तु यदि अन्य व्यक्ति भी उसी सीमा तक प्रभावित नहीं होते तो वह बेहद नाखुश भी हो जाता है. इसलिये जब कोई व्यक्ति अपने समय को भरपूर इस्तेमाल करने के मकसद से आगे बढ़ता है तो उसे यह बात अच्छी तरह सोच लेनी चाहिए कि यह समय उसका अपना है न कि अन्य किसी और का अर्थात उसकी जवाबदेही नहीं बनती. यह कि धरती हमारे समय के बजट को बनाने से पहले आराम से चल रही थी.

दूसरा खतरा इस बात का है कि आप अपने कार्यक्रम से ऐसे बंध जाएँ जैसे कि रथ में किसी गुलाम को बाँध दिया जाए. मैं ऐसे बहुत से व्यक्तियों को करीब से जानता हूँ जिनका जीवन खुद अपने लिये भी भार समान होता है और उनके परिजनों और मित्रों के लिये भी कष्टदायी रहता है. ऐसा इस लिये है कि वे इस सहज तथ्य को स्वीकार नहीं कर पाते कि कोई प्रोग्राम निर्विवाद रूप से आदर करने योग्य हो सकता है किन्तु इसकी अंध भक्ति उचित नहीं. दूसरी ओर यह भी सच है कि कोई प्रोग्राम उस वक्त तक मज़ाक से अधिक कुछ नहीं होता जब तक उसे समुचित सम्मान न दिया जाये.

rajnish manga
07-02-2013, 11:36 AM
इसके अतिरिक्त एक खतरा यह भी है कि आप हर कार्य जल्दबाजी में शुरू कर दें. आगे क्या करना है इसी बात पर आपका ध्यान केंद्रित रहता है. इसका उपाय है कि व्यक्ति अपने प्रोग्राम को दोबारा तैयार करें. और सबसे अच्छा तो यही रहेगा कि व्यक्ति विस्तृत होते विचार-विमर्श के ज़रिये एक कार्यक्रम से दूसरे पर पहुंचे.

अंत में, मैं कहना चाहूंगा कि प्रमुख खतरा वही है जिसकी तरफ मैंने पहले भी इशारा किया है. यानि आरम्भ में ही असफल होने का डर. इस प्रकार के डर से तो जीवन में आमूलचूल परिवर्तन तथा नयी जान डालने के नित नवीन इरादों को भरी धक्का लग सकता है. अत: इसको रोकने के लिये हर संभव सावधानी बरतने की ज़रूरत है. इस नवोन्मेष को अधिक तनाव से बचाना चाहिए चाहे इसके लिये आपको शुरू शुरू में अपनी गति सामान्य से कम ही क्यों न रखनी पड़े. लेकिन ध्यान रहे कि यह यथासंभव नियमित रूप से किया जाय. और किसी काम को करने का निश्चय कर लेने पर उसे किसी भी कीमत पर पूरा करें फिर भले ही ऐसा करना आपको कितना ही बेमज़ा व उबाऊ क्यों न लगे. किसी कठिन कार्य को निष्ठापूर्वक सम्पन्न कर लेने से जो आत्म विश्वास की प्राप्ति होती है उसका कोई मुकाबला नहीं.

अंत में, शाम के उन मूल्यवान क्षणों में करने लायक काम का चुनाव करते समय अन्य किसी बात की अपेक्षा अपनी रूचि और स्वाभाविक रुझान का ध्यान अवश्य रखें. दर्शनशास्त्र का चलता फिरता विश्वकोष बनना अच्छा हो सकता है किन्तु यदि दर्शनशास्त्र में आपकी जरा भी रूचि नहीं है तो आप इसे छोड़ दीजिए. इसकी जगह यदि आपकी रूचि गली कूचों में सुनाई देने वाले चीख-पुकार और अजीबो गरीब आवाजों के रहस्य व उसके प्राकृतिक इतिहास में हैं तो आपके लिये दर्शनशास्त्र से कहीं बेहतर होगा गली-कूचों के चीख पुकार और अजीबो गरीब आवाजों का अध्ययन करना और इसका ज्ञान प्राप्त करना.
--समाप्त--