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View Full Version : मेघदूत


Dark Saint Alaick
04-02-2013, 05:35 AM
संस्कृत क्लासिक

मेघदूत

-कालिदास

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=24602&stc=1&d=1359941692

Dark Saint Alaick
04-02-2013, 05:36 AM
पूर्वमेघ

कश्चित्कान्ताविरहगुरुणा स्वाधिकारात्प्रमत:
शापेनास्तग्ड:मितमहिमा वर्षभोग्येण भर्तु:।
यक्षश्चक्रे जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु
स्निग्धच्छायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु।।

कोई यक्ष था। वह अपने काम में असावधान
हुआ तो यक्षपति ने उसे शाप दिया कि
वर्ष-भर पत्नी का भारी विरह सहो। इससे
उसकी महिमा ढल गई। उसने रामगिरि के
आश्रमों में बस्ती बनाई जहाँ घने छायादार
पेड़ थे और जहाँ सीता जी के स्नानों द्वारा
पवित्र हुए जल-कुंड भरे थे।

Dark Saint Alaick
04-02-2013, 05:38 AM
2


तस्मिन्नद्रो कतिचिदबलाविप्रयुक्त: स कामी
नीत्वा मासान्कनकवलयभ्रंशरिक्त प्रकोष्ठ:
आषाढस्य प्रथमदिवसे मेघमाश्लिष्टसानु
वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयं ददर्श।।

स्त्री के विछोह में कामी यक्ष ने उस पर्वत
पर कई मास बिता दिए। उसकी कलाई
सुनहले कंगन के खिसक जाने से सूनी
दीखने लगी। आषाढ़ मास के पहले दिन पहाड़ की
चोटी पर झुके हुए मेघ को उसने देखा तो
ऐसा जान पड़ा जैसे ढूसा मारने में मगन
कोई हाथी हो।

Dark Saint Alaick
04-02-2013, 05:40 AM
3


तस्य स्थित्वा कथमपि पुर: कौतुकाधानहेतो-
रन्तर्वाष्पश्चिरमनुचरो राजराजस्य दध्यौ।
मेघालोके भवति सुखिनो∙प्यन्यथावृत्ति चेत:
कण्ठाश्लेषप्रणयिनि जने किं पुनर्दूरसंस्थे।।

यक्षपति का वह अनुचर कामोत्कंठा
जगानेवाले मेघ के सामने किसी तरह
ठहरकर, आँसुओं को भीतर ही रोके हुए देर
तक सोचता रहा। मेघ को देखकर प्रिय के पास में सुखी
जन का चित्त भी और तरह का हो जाता
है, कंठालिंगन के लिए भटकते हुए विरही
जन का तो कहना ही क्या?

Dark Saint Alaick
04-02-2013, 05:41 AM
4


प्रत्यासन्ने नभसि दयिताजीवितालम्बनार्थी
जीमूतेन स्वकुशलमयीं हारयिष्यन्प्रवृत्तिम्।
स प्रत्यग्रै: कुटजकुसुमै: कल्पितार्घाय तस्मै
प्रीत: प्रीतिप्रमुखवचनं स्वागतं व्याजहार।।

जब सावन पास आ गया, तब निज प्रिया
के प्राणों को सहारा देने की इच्छा से उसने
मेघ द्वारा अपना कुशल-सन्देश भेजना चाहा।
फिर, टटके खिले कुटज के फूलों का
अर्घ्य देकर उसने गदगद हो प्रीति-भरे
वचनों से उसका स्वागत किया।

Dark Saint Alaick
04-02-2013, 05:43 AM
5


धूमज्योति: सलिलमरुतां संनिपात: क्व मेघ:
संदेशार्था: क्व पटुकरणै: प्राणिभि: प्रापणीया:।
इत्यौत्सुक्यादपरिगणयन्गुह्यकस्तं ययाचे
कामार्ता हि प्रकृतिकृपणाश्चेतनाचेतनुषु।।

धुएँ, पानी, धूप और हवा का जमघट
बादल कहाँ? कहाँ सन्देश की वे बातें जिन्हें
चोखी इन्द्रियोंवाले प्राणी ही पहुँचा पाते हैं?
उत्कंठावश इस पर ध्यान न देते हुए
यक्ष ने मेघ से ही याचना की।
जो काम के सताए हुए हैं, वे जैसे
चेतन के समीप वैसे ही अचेतन के समीप
भी, स्वभाव से दीन हो जाते हैं।

bindujain
04-02-2013, 05:32 PM
Dark Saint Alaick
एक अच्छे सूत्र के लिए आपको साधुवाद

jai_bhardwaj
04-02-2013, 07:43 PM
अलैक जी, इस सौन्दर्यबोधक ग्रन्थ की हिंदी अनुकृति के लिए हार्दिक आभार।

एक उत्कंठा: कई स्थानों पर यह लिखा हुआ मिलता है कि कवि कालिदास ने इस ग्रन्थ के प्रथम श्लोक के पहले शब्द "आषाढस्य प्रथम दिवसे ....." लिखे थे। क्या ये शब्द आप द्वारा प्रस्तुत ग्रन्थ की इस प्रस्तावना के बाद आयेंगे?

Dark Saint Alaick
27-03-2013, 12:17 AM
6


जातं वंशे भुवनविदिते पुष्करावर्तकानां
जानामि त्वां प्रकृतिपुरुषं कामरूपं मघोन:।
तेनार्थित्वं त्वयि विधिवशादूरबन्धुर्गतो हं
याण्चा मोघा वरमधिगुणे नाधमे लब्धकामा।।

पुष्कर और आवर्तक नामवाले मेघों के
लोक-प्रसिद्ध वंश में तुम जनमे हो। तुम्हें मैं
इन्द्र का कामरूपी मुख्य अधिकारी जानता
हूँ। विधिवश, अपनी प्रिय से दूर पड़ा हुआ
मैं इसी कारण तुम्हारे पास याचक बना हूँ।
गुणीजन से याचना करना अच्छा है,
चाहे वह निष्फल ही रहे। अधम से माँगना
अच्छा नहीं, चाहे सफल भी हो।

Dark Saint Alaick
27-03-2013, 12:18 AM
7


संतप्तानां त्वमसि शरणं तत्पयोद! प्रियाया:
संदेशं मे हर धनपतिक्रोधविश्लेषितस्य।
गन्तव्या ते वसतिरलका नाम यक्षेश्वराणां
बाह्योद्यानस्थितहरशिरश्चन्द्रिकाधौतह्मर्म्या ।।

जो सन्तप्त हैं, है मेघ! तुम उनके रक्षक
हो। इसलिए कुबेर के क्रोधवश विरही बने
हुए मेरे सन्देश को प्रिया के पास पहुँचाओ।
यक्षपतियों की अलका नामक प्रसिद्ध
पुरी में तुम्हें जाना है, जहाँ बाहरी उद्यान में
बैठे हुए शिव के मस्तक से छिटकती हुई
चाँदनी उसके भवनों को धवलित करती है।

Dark Saint Alaick
27-03-2013, 12:24 AM
अलैक जी, इस सौन्दर्यबोधक ग्रन्थ की हिंदी अनुकृति के लिए हार्दिक आभार।

एक उत्कंठा: कई स्थानों पर यह लिखा हुआ मिलता है कि कवि कालिदास ने इस ग्रन्थ के प्रथम श्लोक के पहले शब्द "आषाढस्य प्रथम दिवसे ....." लिखे थे। क्या ये शब्द आप द्वारा प्रस्तुत ग्रन्थ की इस प्रस्तावना के बाद आयेंगे?

प्रिय जयजी, मैंने कवि कालिदास के इस सृजन के कई रूप यत्र-तत्र देखे हैं, किन्तु ये पंक्तियां मुझे कहीं नहीं मिलीं। मैं एक बार और प्रयास करने का वादा करता हूं। मूल संस्कृत प्रति देख कर मैं आपको उपयुक्त उत्तर दे सकूंगा। तब तक धैर्य धारण करने के लिए मैं आपका अग्रिम हार्दिक धन्यवाद ज्ञापित करता हूं।

Dark Saint Alaick
27-03-2013, 12:25 AM
8


त्वामारूढं पवनपदवीमुद्गृहीतालकान्ता:
प्रेक्षिष्यन्ते पथिकवनिता: प्रत्ययादाश्वसन्त्य:।
क: संनद्धे विरहविधुरां त्वय्युपेक्षेत जायां
न स्यादन्योsप्यहमिव जनो य: पराधीनवृत्ति:।।

जब तुम आकाश में उमड़ते हुए उठोगे तो
प्रवासी पथिकों की स्त्रियाँ मुँह पर लटकते
हुए घुँघराले बालों को ऊपर फेंककर इस
आशा से तुम्हारी ओर टकटकी लगाएँगी
कि अब प्रियतम अवश्य आते होंगे।
तुम्हारे घुमड़ने पर कौन-सा जन विरह
में व्याकुल अपनी पत्नी के प्रति उदासीन
रह सकता है, यदि उसका जीवन मेरी तरह
पराधीन नहीं है?

Dark Saint Alaick
27-03-2013, 12:26 AM
9


मन्दं मन्दं नुदति पवनश्चानुकूलो यथा त्वां
वामश्चायं नदति मधुरं चाकतस्ते सगन्ध:।
गर्भाधानक्षणपरिचयान्नूनमाबद्धमाला:
सेविष्यन्ते नयनसुभगं खे भवन्तं बलाका:।।

अनुकूल वायु तुम्हें धीमे-धीमे चला रही है।
गर्व-भरा यह पपीहा तुम्हारे बाएँ आकर
मीठी रटन लगा रहा है।
गर्भाधान का उत्सव मनाने की अभ्यासी
बगुलियाँ आकाश में पंक्तियाँ बाँध-बाँधकर
नयनों को सुभग लगनेवाले तुम्हारे समीप
अवश्य पहुँचेंगी।

Dark Saint Alaick
27-03-2013, 12:29 AM
10


तां चावश्यं दिवसगणनातत्परामेकपत्नी-
पव्यापन्नामविहतगतिर्द्रक्ष्यसि भ्रातृजायाम्।
आशाबन्ध: कुसुमसदृशं प्रायशो ह्यङ्गनानां
सद्य:पाति प्रणयि हृदयं विप्रयोगे रुणद्धि।।


विरह के दिन गिनने में संलग्न, और मेरी
बाट देखते हुए जीवित, अपनी उस पतिव्रता
भौजाई को, हे मेघ, रुके बिना पहुँचकर तुम
अवश्य देखना।
नारियों के फूल की तरह सुकुमार प्रेम-
भरे हृदय को आशा का बन्धन विरह में
टूटकर अकस्मात बिखर जाने से प्राय: रोके
रहता है।

rajnish manga
27-03-2013, 04:11 PM
10


तां चावश्यं दिवसगणनातत्परामेकपत्नी-
पव्यापन्नामविहतगतिर्द्रक्ष्यसि भ्रातृजायाम्।
आशाबन्ध: कुसुमसदृशं प्रायशो ह्यङ्गनानां
सद्य:पाति प्रणयि हृदयं विप्रयोगे रुणद्धि।।


विरह के दिन गिनने में संलग्न, और मेरी
बाट देखते हुए जीवित, अपनी उस पतिव्रता
भौजाई को, हे मेघ, रुके बिना पहुँचकर तुम
अवश्य देखना।
नारियों के फूल की तरह सुकुमार प्रेम-
भरे हृदय को आशा का बन्धन विरह में
टूटकर अकस्मात बिखर जाने से प्राय: रोके
रहता है।

:bravo:

अलैक जी, महाकवि कालिदास कृत 'मेघदूतम्' के इस अभिनव प्रस्तुतिकरण के लिए मैं जितनी प्रशंसा करूं वो कम है. मूल संस्कृत पाठ के साथ हिंदी रूपांतर दे कर आपने प्राचीन वांग्मय को जन साधारण के लिए उपलब्ध कराने की ओर एक बड़ा कदम उठाया है. प्रस्तुति के लिए धन्यवाद, अलैक जी.

Dark Saint Alaick
30-03-2013, 07:04 AM
11


कर्तुं यच्च प्रभवति महीमुच्छिलीन्ध्रामवन्ध्यां
तच्छत्वा ते श्रवणसुभगं गर्जितं मानसोत्का:।
आकैलासाद्विसकिसलयच्छेदपाथेयवन्त:
सैपत्स्यन्ते नभसि भवती राजहंसा: सहाया:।।

जिसके प्रभाव से पृथ्वी खुम्भी की टोपियों
का फुटाव लेती और हरी होती है, तुम्हारे
उस सुहावने गर्जन को जब कमलवनों में
राजहंस सुनेंगे, तब मानसरोवर जाने की
उत्कंठा से अपनी चोंच में मृणाल के
अग्रखंड का पथ-भोजन लेकर वे कैलास
तक के लिए आकाश में तुम्हारे साथी बन जाएँगे।

Dark Saint Alaick
30-03-2013, 07:07 AM
12


आपृच्छस्व प्रियसखममुं तुग्ड़मालिग्ड़च शैलं
वन्द्यै: पुंसां रघुपतिपदैरकिड़तं मेखलासु।
काले काले भवति भवतो यस्य संयोगमेत्य
स्नेहव्यक्तिश्चिरविरहजं मुञ्चतो वाष्पमुष्णम्।।

अब अपने प्यारे सखा इस ऊँचे पर्वत से
गले मिलकर विदा लो जिसकी ढालू चट्टानों
पर लोगों से वन्दनीय रघुपति के चरणों की
छाप लगी है, और जो समय-समय पर
तुम्हारा सम्पर्क मिलने के कारण लम्बे विरह
के तप्त आँसू बहाकर अपना स्नेह प्रकट
करता रहता है।

Dark Saint Alaick
30-03-2013, 07:08 AM
13


मार्गं तावच्छृणु कथयतस्त्वत्प्रयाणानुरूपं
संदेशं मे तदनु जलद! श्रोष्यसि श्रोत्रपेयम्।
खिन्न: खिन्न: शिखरिषु पदं न्यस्यन्तासि यत्र
क्षीण:क्षीण: परिलघु पय: स्त्रोतसां चोपभुज्य।।

हे मेघ, पहले तो अपनी यात्रा के लिए
अनुकूल मार्ग मेरे शब्दों में सुनो-थक-थककर
जिन पर्वतों के शिखरों पर पैर टेकते हुए,
और बार-बार तनक्षीण होकर जिन सोतों
का हलका जल पीते हुए तुम जाओगे।
पीछे, मेरा यह सन्देश सुनना जो कानों से
पीने योग्य है।

Dark Saint Alaick
30-03-2013, 07:10 AM
14


अद्रे: श्रृंगं हरति पवन: किंस्विदित्युन्मुखीभि-
र्दृष्टोत्साहश्चकितचकितं मुग्धसिद्धङग्नाभि:।
स्नानादस्मात्सरसनिचुलादुत्पतोदड़्मुख: खं
दिड़्नागानां पथि परिहरन्थूलहस्तावलेपान्।।

क्या वायु कहीं पर्वत की चोटी ही उड़ाये
लिये जाती है, इस आशंका से भोली
बालाएँ ऊपर मुँह करके तुम्हारा पराक्रम
चकि हो-होकर देखेंगेी।
इस स्थान से जहाँ बेंत के हरे पेड़ हैं,
तुम आकाश में उड़ते हुए मार्ग में अड़े
दिग्गजों के स्थूल शुंडों का आघात बचाते
हुए उत्तर की ओर मुँह करके जाना।

Dark Saint Alaick
30-03-2013, 07:11 AM
15


रत्नच्छायाव्यतिकर इव प्रेक्ष्यमेतत्पुरस्ता:
द्वल्मीकाग्रात्प्रभवति धनु: खण्डमाखण्डलस्य।
येन श्यामं वपुरतितरां कान्तिमापत्स्यते ते
बर्हेणेव स्फुरितरूचिना गोपवेषस्य विष्णो:।।


चम-चम करते रत्नों की झिलमिल ज्योति-सा
जो सामने दीखता है, इन्द्र का वह धनुखंड
बाँबी की चोटी से निकल रहा है।
उससे तुम्हारा साँवला शरीर और भी
अधिक खिल उठेगा, जैसे झलकती हुई
मोरशिखा से गोपाल वेशधारी कृष्ण का
शरीर सज गया था।

rajnish manga
01-04-2013, 02:40 PM
15


रत्नच्छायाव्यतिकर इव प्रेक्ष्यमेतत्पुरस्ता:
द्वल्मीकाग्रात्प्रभवति धनु: खण्डमाखण्डलस्य।
येन श्यामं वपुरतितरां कान्तिमापत्स्यते ते
बर्हेणेव स्फुरितरूचिना गोपवेषस्य विष्णो:।।


चम-चम करते रत्नों की झिलमिल ज्योति-सा
जो सामने दीखता है, इन्द्र का वह धनुखंड
बाँबी की चोटी से निकल रहा है।
उससे तुम्हारा साँवला शरीर और भी
अधिक खिल उठेगा, जैसे झलकती हुई
मोरशिखा से गोपाल वेशधारी कृष्ण का
शरीर सज गया था।

अलैक जी, 'मेघदूत' का यह आयोजन बहुत अच्छा बन पड़ा है, जिसमे कालिदास कृत मूल संस्कृत काव्य के साथ सुगम हिंदी भावानुवाद भी दिया गया है. यहाँ मैं एक छंद का अंग्रेजी काव्यात्मक भावानुवाद देने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ और पाठकों को इस त्रिवेणी से रु-ब-रु करना चाहता हूँ:

Bright as a heap of flashing gems,there shines
Before thee on the ant-hill, Indra’s bow;
Matched with that dazzling rainbow’s glittering lines,
Thy somber form shall find its beauties grow,
Like the dark herdsman Vishnu, with peacock-
plumes aglow.
-- Arthur W. Ryder

Dark Saint Alaick
08-04-2013, 10:28 AM
16


त्वय्यायत्त कृषिफलमिति भ्रूविलासानभिज्ञै:
प्रीतिस्निग्धैर्जनपदवधूलोचनै: पीयमान:।
सद्य: सीरोत्कषणमुरभि क्षेत्रमारिह्य मालं
किंचित्पश्चाद्ब्रज लघुगतिर्भूय एवोत्तरेण।।

खेती का फल तुम्हारे अधीन है - इस उमंग
से ग्राम-बधूटियाँ भौंहें चलाने में भोले, पर
प्रेम से गीले अपने नेत्रों में तुम्हें भर लेंगी।
माल क्षेत्र के ऊपर इस प्रकार उमड़-
घुमड़कर बरसना कि हल से तत्काल खुरची
हुई भूमि गन्धवती हो उठे। फिर कुछ देर
बाद चटक-गति से पुन: उत्तर की ओर चल
पड़ना।

Dark Saint Alaick
08-04-2013, 10:30 AM
17


त्वामासारप्रशमितवनोपप्लवं साधु मूर्ध्ना,
वक्ष्यत्यध्वश्रमपरिगतं सानुमानाम्रकूट:।
न क्षुद्रोपि प्रथमसुकृतापेक्षया संश्रयाय
प्राप्ते मित्रे भवति विमुख: किं पुनर्यस्तथोच्चै:।।

वन में लगी हुई अग्नि को अपनी मूसलाधार
वृष्टि से बुझाने वाले, रास्ते की थकान से
चूर, तुम जैसे उपकारी मित्र को आम्रकूट
पर्वत सादर सिर-माथे पर रखेगा
क्षुद्रजन भी मित्र के अपने पास आश्रय
के लिए आने पर पहले उपकार की बात
सोचकर मुँह नहीं मोड़ते। जो उच्च हैं,
उनका तो कहना ही क्या?

Dark Saint Alaick
08-04-2013, 10:32 AM
18


छन्नोपान्त: परिणतफलद्योतिभि: काननाम्रै-
स्त्वय्यरूढे शिखरमचल: स्निग्धवेणीसवर्णे।
नूनं यास्यत्यमरमिथुनप्रेक्षणीयामवस्थां
मध्ये श्याम: स्तन इव भुव: शेषविस्तारपाण्डु:।।

पके फलों से दिपते हुए जंगली आम
जिसके चारों ओर लगे हैं, उस पर्वत की
चोटी पर जब तुम चिकनी वेणी की तरह
काले रंग से घिर आओगे, तो उसकी शोभा
देव-दम्पतियों के देखने योग्य ऐसी होगी
जैसे बीच में साँवला और सब ओर से
पीला पृथिवी का स्तन उठा हुआ हो।

Dark Saint Alaick
08-04-2013, 10:33 AM
19


स्थित्वा तस्मिन्वनचरवधूभुक्तकुण्जे मुहूर्तं
तोयोत्सर्गं द्रुततरगतिस्तत्परं तर्त्म तीर्ण:।
रेवां द्रक्ष्यस्युपलविषमे विन्ध्यपादे विशीर्णां
भक्तिच्छेदैरिव विरचितां भूतिमंगे गजस्य।।

उस पर्वत पर जहाँ कुंजों में वनचरों की
वधुओं ने रमण किया है, घड़ी-भर विश्राम
ले लेना। फिर जल बरसाने से हलके हुए,
और भी चटक चाल से अगला मार्ग तय
करना।
विन्ध्य पर्वत के ढलानों में ऊँचे-नीचे
ढोकों पर बिखरी हुई नर्मदा तुम्हें ऐसी
दिखाई देगी जैसे हाथी के अंगों पर भाँति-
भाँति के कटावों से शोभा-रचना की गई
हो।

Dark Saint Alaick
08-04-2013, 10:35 AM
20


तस्यास्तिक्तैर्वननगजमदैर्वासितं वान्तवृष्टि-
र्जम्बूकुञ्जप्रतिहतरयं तोयमादाय गच्छे:।
अन्त:सारं घन! तुलयितुं नानिल: शक्ष्यति त्वां
रिक्त: सर्वो भवति हि लघु: पूर्णता गौरवाय।।

जब तुम वृष्टि द्वारा अपना जल बाहर उँड़ेल
चुको तो नर्मदा के उस जल का पान कर
आगे बढ़ना जो जंगली हाथियों के तीते
महकते मद से भावित है और जामुनों
के कुंजों में रुक-रुककर बहता है।
हे घन, भीतर से तुम ठोस होगे तो हवा
तुम्हें न उड़ा, सकेगी, क्योंकि जो रीते हैं वे
हलके, और जो भरे-पूरे हैं वे भारी-भरकम
होते हैं।

neerathemall
12-04-2013, 07:15 PM
आषाण मासे मेघः न केवलं जलम् आनयति अपितु कालिदासस्य दूतम् अपि

Dark Saint Alaick
18-04-2013, 03:20 PM
21


नीपं दृष्ट्वां हरितकपिशं केसरैरर्धरूढे-
राविर्भूप्रथममुकुला: कन्दलीश्चानुकच्छम्।
जग्ध्वारण्येष्वधिकसुरभिं गन्धमाघ्राय चोर्व्या:
सारंगास्ते जललवमुच: सूचयिष्यन्ति मार्गम्।।


हे मेघ, जल की बूँदें बरसाते हुए तुम्हारे
जाने का जो मार्ग है, उस पर कहीं तो भौरे
अधखिले केसरोंवाले हरे-पीले कदम्बों को
देखते हुए, कहीं हिरन कछारों में भुँई-केलियों
के पहले फुटाव की कलियों को टूँगते हुए,
और कहीं हाथी जंगलों में धरती की उठती
हुई उग्र गन्ध को सँघते हुए मार्ग की सूचना
देते मिलेंगे।

Dark Saint Alaick
18-04-2013, 03:21 PM
22


उत्पश्चामि द्रुतमपि सखे! मत्प्रियार्थं यियासो:
कालक्षेपं ककुभरसुरभौ पर्वते पर्वते ते।
शुक्लापांगै: सजलनयनै: स्वागतीकृत्य केका:
प्रत्युद्यात: कथमपि भववान्गन्तुमाशु व्यवस्येतु।।


हे मित्र, मेरे प्रिय कार्य के लिए तुम जल्दी
भी जाना चाहो, तो भी कुटज के फूलों से
महकती हुई चोटियों पर मुझे तुम्हारा अटकाव
दिखाई पड़ रहा है।
सफेद डोरे खिंचे हुए नेत्रों में जल
भरकर जब मोर अपनी केकावाणी से
तुम्हारा स्वागत करने लगेंगे, तब जैसे भी
हो, जल्दी जाने का प्रयत्न करना।

Dark Saint Alaick
18-04-2013, 03:22 PM
23


पाण्डुच्छायोपवनवृतय: केतकै: सूचिभिन्नै-
नींडारम्भैर्गृ हबलिभुजामाकुलग्रामचैत्या:।
त्वय्यासन्ने परिणतफलश्यामजम्बूवनान्ता:
संपत्स्यन्ते कतिपयदिनस्थायिहंसा दशार्णा:।।


हे मेघ, तुम निकट आए कि दशार्ण देश में
उपवनों की कटीली रौंसों पर केतकी के
पौधों की नुकीली बालों से हरियाली छा
जाएगी, घरों में आ-आकर रामग्रास खानेवाले
कौवों द्वारा घोंसले रखने से गाँवों के वृक्षों
पर चहल-पहल दिखाई देने लगेगी, और
पके फलों से काले भौंराले जामुन के वन
सुहावने लगने लगेंगे। तब हंस वहाँ कुछ ही
दिनों के मेहमान रह जाएँगे।

Dark Saint Alaick
18-04-2013, 03:24 PM
24


तेषां दिक्षु प्रथितविदिशालक्षणां राजधानीं
गत्वा सद्य: फलमविकलं कामुकत्वस्य लब्धा।
तीरोपान्तस्तनितसुभगं पास्यसि स्वादु यस्मा-
त्सभ्रूभंगं मुखमिव पयो वेत्रवत्याश्चलोर्मि।।


उस देश की दिगन्तों में विख्यात विदिशा
नाम की राजधानी में पहुँचने पर तुम्हें अपने
रसिकपने का फल तुरन्त मिलेगा - वहाँ तट
के पास मठारते हुए तुम वेत्रवती के तरंगित
जल का ऐसे पान करोगे जैसे उसका
भ्रू-चंचल मुख हो।

Dark Saint Alaick
18-04-2013, 03:25 PM
25


नीचैराख्यं गिरिमधिवसेस्तत्र विश्रामहेतो-
स्त्वसंपर्कात्पिुलकितमिव प्रौढपुष्पै: कदम्बै:।
य: पण्यस्त्रीरतिपरिमलोद~गारिभिर्नागराणा-
मुद्दामानि प्रथयति शिलावेश्मभिर्यौ वनानि।।


विश्राम के लिए वहाँ 'निचले' पर्वत पर
बसेरा करना जो तुम्हारा सम्पर्क पाकर खिले
फूलोंवाले कदम्बों से पुलकित-सा लगेगा।
उसकी पथरीली कन्दराओं से उठती हुई
गणिकाओं के भोग की रत-गन्ध पुरवासियों
के उत्कट यौवन की सूचना देती है।