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View Full Version : अशोक चक्रधर के हास्य व्यंग्य


Awara
09-02-2013, 07:57 AM
अशोक चक्रधर के हास्य व्यंग्य

http://www.tribuneindia.com/2002/20020214/ncr5.jpg

Awara
09-02-2013, 08:00 AM
सपनों का होम-रूम-थिएटर
—अशोक चक्रधर


सपने होते हैं टू टाइप्स के। एक ओपन आईज़ के, दूसरे क्लोज़्ड आईज़ के। ओपन आईज़ के सपने ज़्यादा ओपन किस्म के नहीं होते, क्लोज़्ड आईज़ के ज़्यादा ओपन होते हैं और ज़्यादा गोपन होते हैं। रात को सपने में जो कुछ हुआ, आप उसका पूरा बखान नहीं कर सकते, लेकिन खुली आँखों के सपने आप तत्काल बढ़ा–चढ़ा कर बता सकते हैं।
जो सोवत है सो सपना खोवत है,
जो जागत है सो सपना पावत है।

बंद आँखों के सपने थोड़ी देर याद रहते हैं, खुली आँखों वाले सपने ज़्यादा देर याद रहते हैं। बंद आँखों के सपनों के पीछे हमारे दिमाग़ का अचेतन ज़्यादा एक्टिव रहता है और खुली आँखों के सपनों में अवचेतन। चेतन मस्तिष्क चौंकन्ना रहता है वहाँ सपने आसानी से नहीं घुस पाते।
सवाल सवा रुपए का : चेतन क्या है?
जवाब चवन्नी वाला : ये चेतन कोई क्रिकेट का चेतन शर्मा नहीं है और न चेतन आनंद है सिनेमा वाला और न ही किसी फ़िल्म का छोटा चेतन है। ये चेतन वो बड़ा चेतन है जो हर आदमी के पास उसकी चेतना के साथ होता है।
सवाल एक रुपया तीस पैसे का : अवचेतन क्या है?
जवाब तीस पैसे वाला : अवचेतन है एक दलाल, बाहर की ज़िंदगी और इंसान की तमन्नाओं के बीच। अवचेतन है एक मलाल, कामनाओं और अतृप्ति की झंझाओं के बीच। अवचेतन है एक कमाल, सिकुड़े हुए यथार्थ और फैलती हुई कल्पनाओं के बीच। यही सचाई के भ्रम क्रिएट करता है जिन्हें सपने कहते हैं।. . .ये नहीं पूछोगे कि अचेतन क्या है! पैसे ख़त्म हो गए क्या?
सवाल एक रुपया इकत्तीस पैसे का : चलो बताओ अचेतन क्या है?

जवाब इकत्तीस पैसे वाला : अचेतन एक बिना छोर का जंगल है, अचेतन हमारी बर्बर आदिम इच्छाओं का खुला दंगल है, अचेतन अपनी नंगई में एक भूखा भाखड़ा–नंगल है, इसके फाटक न खुलें इसी में मंगल है।

सवाल महँगे होते हैं जवाब उनसे एक रुपया सस्ते क्योंकि प्रश्नकर्ता उत्तर से प्राय: पूर्ण संतुष्ट नहीं होते। सपने हमारी कामनाओं के प्रश्नों का उत्तर बनकर आते हैं। हम अपने सपनों से पूर्ण संतुष्ट नहीं होते, उन्हें पूरा करना चाहते हैं।

कई बार आदमी इतने सपने देखता है कि उनको पूरा करने के लिए कभी दाएँ भागता है कभी बाएँ, कभी आगे भागता है कभी पीछे। सपने बहुतायत में होते हैं लेकिन एक भी पकड़ में नहीं आता। फिर वे सपने चकनाचूर होने लगते हैं। ऐसी हालत में ज़रूरी ये है कि थोड़ा आराम कर ले भइया! एक साथ सारे के सारे पूरे नहीं हो सकते।
तेरे सपनों में मौसम ने खज़ाने किस कदर खोले,
अभी गर्मी, अभी सर्दी, अभी बारिश, अभी ओले।
खुली आँखों से सपने छलछला कर गिर नहीं जाएँ,
तू सपनों की हिफाज़त के लिए कुछ देर तो सो ले।

सपने मौसम के मुताबिक नहीं चलते। गर्मी में सर्दी के आते हैं, सर्दी में गर्मी के। बुढ़ापे में जवानी के आते हैं और जवानी में बुढ़ापे के। जवान फ़ौरन बूढ़ा हो जाना चाहता है ताकि लोग उनकी बात मानें। बूढ़े चाहते हैं कि किसी तरह से जवानी वापस हासिल हो जाए। च्यवनप्राश खाते हैं, टहलने जाते हैं, टहलते–टहलते सपने देखते हैं और सपने उनसे टहल जाते हैं।
कहते हैं कि सपने अतृप्त इच्छाओं से आते हैं। कोई चीज़ इच्छाओं में चुभ जाए तो कसकती है। फिर वह चीज़ आपके दिमाग़ के होमरूम थिएटर में कभी कलर्ड कभी ब्लैक एंड व्हाइट, कभी मोनो कभी मल्टिपल साउंड में, कभी एकायामी कभी थ्री डाइमेंनशल रूपों में आती है। दिल के ज़रिए दिमाग़ तीन सौ साठ डिग्री की स्क्रीन पर सपने दिखाता है। सपने ब्रह्मांड के पार जाने की क्षमता रखते हैं लेकिन ये नहीं मानना चाहिए कि सपनों के सिर–पैर नहीं होते। वे जड़–मूल विहीन नहीं होते। हाँ, ये मुमकिन है कि सपने के बीज से जो पेड़ निकले उसकी एक शाखा पर कुछ और लगा हो और दूसरी शाखा पर कुछ और—
दिल दिमाग़ में पड़ गया, इक सपने का बीज,
पेड़ उगा तो वहाँ थीं, तरह–तरह की चीज़।
एक शाख भिंडी लगी, दूजी पर अमरूद,
मोबाइल बंदर बने, वहाँ रहे थे कूद।
रिंग टोन हर फ़ोन की अलग सुनाई देय,
एक डाल डंडा पकड़, मुर्गा अंडा सेय।
मुर्गा गांधी बन गया, अंडा बन गया साँप,
फन को फैला देख कर, गांधी जी गए काँप।
एक शाख चौड़ी हुई, फैल गई अतिकाय,
सड़क बनी वह डाल फिर, बढ़त जाय बल खाय,
फ्रिज सोफा पहिये लगे, हुई भयंकर रेस,
चलते एक मकान से निकला सुंदर फेस।
तभी सामने से दिखे, बुलडोज़र के दाँत,
खून मकानों से बहा, बाहर निकलीं आँत।
दाँतों के आतंक ने, ऐसी मारी रेड़,
सपने के उस बीज में, लुप्त हो गया पेड़।

कवि सपने ही तो देखता है। अपने सपनों को शब्दों में रूपांतरित कर देता है तो कविता बन जाती है। फिर अपनी कविता से वह समाज को भी सपने दिखाता है। कोई कवि बिना सपनों के जीवित नहीं रह सकता। पाश ने कहा भी था कि सबसे बुरा होता है सपनों का मर जाना। साकार होने का इंतज़ार करने वाले सपने सदैव भविष्य के लिए होते हैं लेकिन अतीत से सबक लेकर अस्तित्व में आते हैं। यथार्थ नसीहत देता है कि आइंदा ऐसा मत करना वैसा मत करना, सपने राहत देते हैं –
ये मत करना वो मत करना,
आहत हुआ नसीहत से
भूतकाल के आईने में,
खड़ा हुआ आइंदा हूँ।
क्या बतलाऊँ सुविधाओं में
कैसे–कैसे ज़िंदा हूँ।
गुलदस्ते में फूल सजा कर
फूलों से शर्मिंदा हूँ।

कई बार हम अपने किए हुए कामों पर पाए हुए पुरस्कारों का या मिली दुत्कारों का विश्लेषण करते हुए आत्मालोचन करते हैं। हमने क्या किया, क्या लिया और क्या दिया। मुक्तिबोध कहते हैं – 'लिया बहुत ज़्यादा, दिया बहुत कम, मर गया देश अरे जीवित रह गए तुम।' ऐसी हालत में सिर्फ़ अपने लिए देखे हुए सुनहरी सपनों का ख़ास महत्व नहीं है। आप अपने सपनों को सहेज–सँवार कर रखें और उनमें दूसरों को भी शरीक करें मुहब्बत के साथ। अकेले का सपना कोई सपना नहीं होता, वो एक ढेले का सपना है। सपना वो अच्छा जो मेले का सपना हो, जिसमें सब इन्वॉल्व हों, जिसमें चरक चक्की चलें, गुब्बारे फूटें और खाने को कैंडी मिले। सपनों का पाट ज़्यादा चौड़ा हो।
इस माथे पर शिकनें लाखों, कुछ अपनी कुछ दुनिया की,
जिसके दोनों ओर नदी हों, उस तट का बाशिंदा हूँ।

बड़ा मुश्किल होता है कि दो नदियाँ दूर तक समानांतर बहें। आगे चलकर देर–सवेर संगम हो ही जाता है। लेकिन कोई ऐसा व्यक्ति हो जो दो निरंतर नदियों के बीच तट पर खड़ा हो। अंदर और बाहर की दो नदियों के बीच, व्याकुल। उसके सामने प्रतीक्षा की चुनौती होती है कि संगम कहाँ होगा, कैसे होगा, कब होगा। संगम के लिए व्याकुल एक सपना और एक सपनी, बातें कर रहे थे अपनी–अपनी -
एक सपना एक सपनी,
बातें करें अपनी–अपनी।
सपना अपनी सपनी को
यहाँ–वहाँ चूमे,
सपनी भी मदमाती सपने में झूमे।
अंग–प्रत्यंग उसका
सुबह की धूप के धान–सा
कभी आलाप कभी तान–सा
सा रे गा मा पा धा नी तक
निखर गया,
लेकिन अत्यधिक आकुल–व्याकुल सपना
स्वरों के आरोह–अवरोह की
रस–निष्पत्ति में
पहले ही बिखर गया।

सपनी अपने सपने को संजोए, सपना अपनी सपनी को न खोए। प्यार की डोर बनी रहे और प्रेम की पतंग तनी रहे। लेकिन, लेकिन, लेकिन, प्रेम तो जी अंधा होता है। होता है, फिर भी सपने सबसे ज़्यादा देखता है। जागृति में भी नींद की अवस्था रहती है। दिवास्वप्न रात्रि के सपने का–सा मज़ा देते हैं।

एक नौजवान सपने की हालत में खंभे से टकरा गया। हड़बड़ी में खंभे से बोला– सॉरी–सॉरी सर! माफ़ करना! चोट तो नहीं आई?. . .और खंभा मुस्करा दिया। बोला– जा बेटा जा! तेरा सपना मुझसे ज़्यादा मज़बूत है ज़्यादा लंबा है ज़्यादा ऊँचा है। तू अपनी पर अड़ा है और मैं धरती में गड़ा हूँ। चलता जा और भी खंभे मिलेंगे, कमज़ोर हैं बेचारे। उनकी सेहत का ध्यान रखकर टकराना, लेकिन मसालेदार सपनों के चक्कर में मेहनत के कसाले को मत भूल जाना। असली कसाले सच–सच!
नौजवान खंभे से बोला– थैंक्यू वैरी मच!
कहा सपने ने सपनी से– तू मेरी है, तू अपनी है,
मुझे ताउम्र तेरे नाम की ही माला जपनी है।
कहा सपनी ने– ओ! सपने, मुझे मत नाप माला से,
देख मिलजुल के अपनी ज़िंदगी कर्मों से– नपनी है।
सपन में गर तपन है ही नहीं, साकार क्या होगा,
सपन की उष्मा से ये तेरी सपनी भी तपनी है। सच!
नौजवान सपना अपनी सपनी से बोला– थैंक्यू वैरी मच!

Awara
09-02-2013, 08:05 AM
जय हो की जयजयकार
—अशोक चक्रधर


''चौं रे चम्पू!! 'जय हो' की जयजयकार कैसे भई रे?
'''जय हो' की जयजयकार हमेशा हुई है चचा! कोई नई बात नहीं है। 'जय हो' भारत की पुरानी भावना है। ऐसा आशीर्वाद है, जो बड़ों ने छोटों को दिया और छोटों ने बड़ों को। 'महाराज की जय हो' से लेकर जनतंत्र की 'जय हो' तक जनता अपनी शुभेच्छाएँ सदियों से व्यक्त करती आ रही है।''

''हम तौ कांग्रेस की 'जय हो' की बात कर रए ऐं!''
''वही तो बता रहा हूँ। मैंने कांग्रेस के प्रचार के लिए अतीत में बनाए गए आठ गाने सुने। भला हो सुमन चौरसिया का, जिन्होंने अपने 'ग्रामोफोन रिकार्ड संग्रहालय' से मुझे ये गीत उपलब्ध कराए। सब गानों में किसी न किसी रूप में 'जय हो' या 'जयजयकार' शब्दों का या भाव का प्रयोग किया गया था। आशा भोंसले और महेन्द्र कपूर की आवाज़ में एक गीत था, 'नेहरू की सरकार रहेगी, हिंद की जयजयकार रहेगी।' इस गाने में एक पंक्ति आती है, 'अपने दिल की बात सुनेंगे, जिसे चुना था उसे चुनेंगे।' आप देखिए, पंद्रहवीं लोकसभा के चुनावों में भी अधिकांश मतदाताओं ने दिल की बात सुनी। क्षेत्रीयता के बिल में रहने वाले जीवधारियों को जनता ने कमोवेश नकार दिया। शंकर जयकिशन के संगीत और रफी के स्वर में, क़ाज़ी सलीम के एक गाने का मुखड़ा था, 'कभी न टूट पाएगा ये उन्नति का सिलसिला, ये वक्त की पुकार है कि कांग्रेस की जय हो।' आशा, मन्ना डे, महेन्द्र कपूर और मुकेश जैसे महान गायकों ने ये गीत गाए थे।

शंकर जयकिशन के ही संगीत में हसरत जयपुरी का लिखा हुआ और मुकेश द्वारा गाया हुआ एक गीत है, 'भेद है, न भाव है, ये प्यार का चुनाव है, कांग्रेस की जय हो, कांग्रेस की जय हो।' इस गाने में आगे कहा गया है, 'जीतनी हैं मंज़िलें, दूर की हैं मुश्किलें, हर जगह सजाई हैं, तरक्कियों की महफ़िलें।' चचा, गाने में यह नहीं कहा गया कि 'जीत ली हैं मंज़िलें'। ऐसा नहीं कि इंडिया शाइनिंग हो गया, अब फील्गुड करो भैया। प्रचार में बड़बोलापन और अहंकार हमारी जनता को कभी नहीं पचा। न तो अहंकार चाहिए और न सोच में नकार। कांग्रेस के 'जय हो' गीतों में न तो कोई बड़बोलापन था और न कोई नकारात्मकता। प्रचार की कमान सँभाले हुए आनंद शर्मा और दिग्विजय सिंह ने श्रेय आम आदमी को दिया और उसके हर बढ़ते कदम से भारत की बुलंदी की उम्मीद जगाई।''

''उल्टी बात, बोलिबे वारे पै उल्टी पड़ौ करै भैया!''
''हाँ चचा, आज़ाद भारत में अब तक के चुनाव प्रचारों का ये इतिहास है कि जिस भी दल ने नकारात्मक अभियान चलाया, वह जीत नहीं पाया। कांग्रेस ने भी एक बार ऐसा किया और उन्हें हार का सामना करना पड़ा था। गाना था, 'हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई से ना जिनको प्यार है, वोट माँगने का ऐसे ही लोगों को अधिकार है।' गाने में दूसरी पार्टियों पर व्यंग्य था कि विरोधी झूठ बोलते हैं, उन्हें कुर्सी का रोग है और उन्हीं के कारण देश बीमार है। बात भले ही सही रही हो पर जनता को नहीं पची। इधर भाजपा के प्रचार को देख लीजिए, 'जय हो' का 'भय हो' करके क्या संदेश दिया? न तो हास्य था, न व्यंग्य और न भय। 'कहं काका कविराय' के अंतर्गत काका हाथरसी की शैली में जो रेडियो जिंगल चलाए उनमें निषेधी स्वर था और छंदों में भयंकर मात्रा-दोष। दूसरी तरफ़ ए.आर. रहमान की धुन पर सुखविंदर और साथियों द्वारा गाए हुए, परसैप्ट कंपनी द्वारा बनाए हुए 'जय हो' गीतों ने मन मोह लिया। चचा, पुराने ग्रामोफोन रिकॉर्डों में एक स्वागत गीत भी था, 'राजीव का स्वागत करने को आतुर है ये सारा देश, प्रथम अमेठी करेगा स्वागत, बाद करेगा प्यारा देश।' इस गाने में 'राजीव' को 'राजिव' गाया गया था क्योंकि छंद में एक मात्रा बढ़ रही थी। अब राजीव के स्थान पर राहुल रख देंगे तो गायकी में बिलकुल ठीक आएगा, सनम गोरखपुरी अपने गीत में संशोधन कर लें।''
''और 'जय हो' कौन्नै लिखौ?''
''तुम्हारे इस चंपू की कलम भी काम में आई चचा।''
''चल, अब 'जय हो' कौ नयौ अंतरा लिख, गुलज़ार के भतीजे।''

Awara
09-02-2013, 08:08 AM
काव्य कामना कामदेव की कोमल कंचन कामिनी
—अशोक चक्रधर

इधर क्या हुआ कि बहुत सारी छोकरियों और बहुत सारे छोकरों के अक्कल दाढ़ आ गई। उनमें से कुछ मेरे पास आए तो लगा जैसे कविता की बाढ़ आ गई। मैं टेलिविजन पर पिछले तीन-चार दशक से हास्य-व्यंग्य कवि के रूप में लगातार दिखता आ रहा हूँ, पत्र-पत्रिकाओं में भी लिखता आ रहा हूँ, सो, कवियाए हुए नौजवान मेरा अता-पता अच्छी तरह जानते हैं। बिना सिर पैर की कविताएँ लिख लाते हैं और बिना समय लिए चले आते हैं।
एक बोला, ''गुरु जी! सिर-पैर समझ में आ गए तो कविता कहाँ रही? ऐसी इसलिए लिखी है कि कन्या तो समझ जाए लेकिन उसके पिता की समझ में न आए।''

उन सैकड़ों युवा कवियों और कवयित्रियों की अलग-अलग समस्याएँ थीं। अधिकांश की प्राथमिक समस्या थी कि रोज़गार नहीं है। रोज़गार होता तो कवि ही क्यों होते। अपवाद स्वरूप कुछ के पास रोज़गार था तो जीवनसाथी नहीं। कुछ का मानना था कि जीवनसाथी मिले तो रोज़गार मिले। कुछ सोचते थे कि रोज़गार मिले तो जीवनसाथी मिले। मैंने अपने इन युवा मित्रों को कविता कितनी सिखाई मैं नहीं जानता, पर मैं उन्हें प्रसन्नतापूर्वक जीने के लिए विवाह की महत्ता ज़रूर समझा पाया।

कवि की शादी एक कठिन सामाजिक कार्य है। कविसम्मेलनों में कितना भी लोकप्रिय हो, कितना भी पैसा पीटता हो, लोग पूछते हैं, ''करते क्या हो?'' कवि की शादी मुश्किल से होती है, उसकी मइया पोते-पोतियों का मुख देखने के लिए रोती है। वह स्वयं उसे नाकारा मानती है।
बहरहाल, मैंने युवाओं को विवाह-जीवन-ज्ञान दिया। जिन मसलों में पंडित सोम से ले कर शनि तक की अमंगल दशाओं का शमन न कर पाते हों, लड़की वाले लड़के वालों को अगले साल के लिए टरकाते हों, जो खर्चा-पानी का जुगाड़ न लगा पाते हों उनके विवाह के लिए बनी है- 'बसंत पंचमी'। किसी से मुहूर्त निकलवाने की आवश्यकता नहीं। इस दिन सामूहिक विवाह संपन्न होते हैं। हिंदू पद्धति है कि अग्नि के सात फेरे लगाओ, विवाह संपन्न। मान्य पद्धति से ब्याह रचाइए, पंडित और समारोह का खर्चा बचाइए।

तो साहब यों तो अनेक कुँवारी और कुँवारे थे, पर उनमें से कुछ थे जो बेकरारे थे। मैंने वर कवियों और कन्या कवयित्रियों को आमने-सामने बिठा दिया। कन्याओं से कहा, ''हे स्वनाम-धन्याओ! इन कवि-कुल-योद्धाओं में से अपने योग्य योद्धा को छाँट लो। और हे काव्य-क्षेत्र के महारथी अकबरो! इन कवयित्रियों में से अपने लिए जोधा बाई चुन लो। जोधा को योद्धा मिले और योद्धा को जोधा। खुश होगा प्रकृति का अदृश्य पौधा।''

पाँच कवि थे (यहाँ नाम बदल कर दिए जा रहे हैं) प्रथमक, द्वितीयक, तृतीयक, चतुर्थक और पंचक। मैंने प्रथमक का मेल पृथा से, द्वितीयक का द्विजा से, तृतीयक का तीजन से, चतुर्थक का चातुरी से और पंचक का पंचमी से कराया।

''पंचकों में तो शादी होती ही नहीं है गुरु देव! आपने तो मेरा नाम ही 'पंचक' रख दिया।''
''बेटा! बसंत-पंचमी पर पंचक की भी शादी हो जाती है। तू पंचक है तो चल तेरी पंचमी को हम अब पंचमी नहीं पनचक्की कहेंगे, क्यों कि वह तुझसे पानी भी भरवाएगी, तुझसे चक्की भी चलवाएगी। हे पंचक! तू तो बस अपनी पनचक्की से प्यार करना। विवाह की चिंता छोड़ दे, हम करा देंगे।''

चतुर्थक को आपत्ति थी कि उसकी चातुरी उसे चतुर्थक नहीं चौथा कहती है। मैंने कहा, ''कहती है तो कहने दे! ज़्यादा चूं-चपड़ करेगा तो चौथे के साथ तेरा उठाला भी हो जाएगा। नेम में क्या रखा है, बस प्रेम करो।''

द्विजा दूज के चाँद के समान कमनीय काया वाली थी जबकि द्वितीयक दो व्यक्तियों के बराबर काया रखता था। इससे क्या? चक्रधर मिलाई जोड़ी, तो गुण-मिलान में कोई कसर ना छोड़ी। पंचमी से एक दिन पहले हमने पाँचों की शादी रजिस्टर कराई।
वसंत पंचमी पर पांडित्य कर्म भी हमने कर दिया। अपने दसों आधुनिक शिष्य-शिष्याओं को हवन-कुंड वाले मंडप में बिठाया और पंडिताऊ अंदाज़ में कहा,

''माघ रचित शिशुपालवधम्, श्लोक संख्या छः बटा दो! विवाहार्थियो! ध्यान वेदी की तरफ़ रखो और हर तरफ़ से हटा दो। हम तुम्हारा विवाह करवाने जा रहे हैं। देखो, कृष्ण जी झूले में बैठे राधारानी के साथ हिचकोले खा रहे हैं। उन्होंने कैसे महसूस किया वसंत का आना, ये है तुमको बताना। यही विवाह का मंत्र है। ऋतु स्वतंत्र है।''

नव पलाश पलाश वनं पुरः स्फुट पराग परागत पंकजम्*,
मृदु लतांत लतांत मलोकयत्* स सुरभिं-सुरभिं सुमनो भरैः।

Awara
09-02-2013, 08:09 AM
अर्थात, वृक्षों पर आ रहे हैं नए-नए पात। पूरा पलाश का जंगल सुरभिं-सुरभिं. . .सुगंधित है, तालाब कमल पुष्पों से आच्छादित है। रंगत बदल गई है दिग्दिगंत की, अर्थात ऋतु आ गई है बसंत की।

प्यारे विवाहार्थियो! जब बसंत ऋतु आती है, तो युवा हृदयों में मादकता छाती है। दिल झूमने लगते हैं, टेसू फूलने लगते हैं। कलियाँ बन जाती हैं फूल, वातावरण में महकती है केवड़े की धूल। कोयल की खंजरी निकल आती है, आमों की मंजरी निकल आती है। दूर तक दीखती है पीली-पीली सरसों, मन करता है बनी रहे बरसों।

विवाहार्थियो! जब बसंत आता है, तो मन धड़कनों का उत्सव मनाता है। जब बसंत आता है, तो हिया कसमसाता है। जब बसंत आता है, तो भावनाओं को उँगली पर नचाता है। जब बसंत आता है, तो कवि कविता बनाता है। जब बसंत आता है, तो कनपटी में सन्नाता है। जब बसंत आता है, तो तितली अपने तितले को प्रेम-पत्र लिखती है, भँवरा अपनी भँवरी को मुग़ल गार्डन ले जाता है। जब बसंत आता है तो कल्पनाएँ ईलू-ईलू करती हैं मन गार्डन-गार्डन हो जाता है। व्हैन स्प्रिंग कम्स, अंदर बजते हैं ड्रम्स। जब बसंत आता है, तो बहुत सताता है। जब बसंत आता है, तो बस अंत आता है।

बसंत की अनुभूति तुम्हारी रग-रग में रमी है, और फिर आज तो बसंत पंचमी है। जो है प्रकृति के यौवन की मुनादी, आज के दिन हो सकती है हर किसी की शादी। हमारी शुभकामनाएँ हैं कि तुम्हारे विरह का अंत हो और अब विवाह का प्रारंभ करते हुए तुम्हारे जीवन में हसंत-बसंत हो।

हमने पाँचों युगल मूर्तियों को सत्तू-चिवड़ा बाँध कर हनीमून के लिए विदा किया और पाँचों से वादा लिया कि पंच प्यारे अपनी पंच प्यारियों के साथ चालीस दिन से पहले नहीं लौटेंगे। हनीमून लंबा चलेगा, तब तक होली आ जाएगी। इस बीच में काव्य सृजन आवश्यक है। छोटी होली को तुम्हारी गुरुआनी का जन्म दिन है, इस अवसर पर एक काव्य-गोष्ठी रखी जाएगी। जाओ सद्य:विवाहितो। होली तक आ जाना। ऐसा न हो कि हम दीपावली तक प्रतीक्षा करते रहें और तुम दो के तीन होकर लौटो।

इस प्रकार हे पाठको! पाँचों युगल मीठी-मीठी गल करते हुए हनीमूनार्थ प्रस्थान कर गए। चेहरों पर नैसर्गिक चमक के साथ छोटी होली को लौटे। हमारी श्रीमती जी ने ठंडाई, कांजी, गुजिया, दही-बड़े, वगैरा और अन्य प्रकार के वगैराओं से सबका स्वागत किया। वे लोग अपनी कविताएँ सुनाने को मचल रहे थे। पंचक तो डायनिंग टेबल पर ही शुरू हो गया-- सर! मेरी पनचक्की ने मुझे ऐसा घुमाया जितना गुरुआनी चक्रधरनी जी ने आपको न घुमाया होगा। प्रारंभ में यह प्रेम का अर्थ समझती ही नहीं थी। अब स्थिति ये है कि मैं आपसे पुन: पूछूँगा कि प्रेम क्या होता है।

मैंने कहा- प्यारे पंचक! सब कुछ सिलसिलेवार बताओ। तुमने प्रेम के बारे में इसे क्या समझाया? साथ में दही-बड़े भी खाओ।
पंचक- गुरु देव! आपके घर से निकलते ही मैंने धरती पर एक घुटना टिका कर और बाहों को आकाश तक फैला कर एक कविता सुनाई थी। जो मेरे पास बनी-बनाई थी।
मेरी प्राण-प्रिये, तारिणी तारिका!
स्नेह सजनी सखी सुंदरी सारिका!
कोई जीवन में रस ही न था जब तलक,
तुम न मुझको दिखीं थीं, मगर अब तलक,
सिर्फ़ नयनों की भाषा में बोला गया,
प्रेम भाषा में मुँह तक न खोला गया।
किंतु अब मौन हरगिज़ न रह पाऊँगा,
दिल की धड़कन की हर बात बतलाऊँगा।
प्रेम वह राग है
जिसको गाता गगन इस ज़मीं के लिए।
प्रेम अनुराग है
जिसको गाता हृदय महज़बीं के लिए।
प्रेम वह आग है
जिसको गाता है जल और मछली सुने।
प्रेम वह बाग है
जिसमें गाए सुमन और तितली सुने।
मेरी प्राण-प्रिये,
मेरे दिल में बसी,
प्रेम संदेश सुन ले प्रिये रूपसी!
मेरे तन-मन में फैली हुई चाँदनी,
डोर अपनी तेरे संग ही बाँधनी।
राष्ट्रभाषा भले ही कुँआरी रहे,
पर कुँआरी न तुम जैसी नारी रहे।
मैंने आश्चर्य प्रकट किया- विवाह के पश्चात तुमने ये कविता सुनाई थी?
पंचक- जी गुरुदेव!
पुन: प्रश्न दागा मैंने- तो पनचक्की की क्या प्रतिक्रिया रही?
पंचक- पनचक्की ने अत्यंत द्रुत गति से मेरे कोमल कपोल पर मेहंदी रची हथेली का भरपूर प्रहार किया। सच कहता हूँ गुरुदेव! इसके हाथ की मेहंदी का रंग और गाढ़ा हो गया। सुंदर लगने लगी।
. . .लेकिन इसने कहा क्या?
उत्तर पनचक्की ने दिया- गाल पर मोती जड़ने के बाद मैंने इनको एक मुक्तक सुनाया था।
सत्तू खा के मुझे क्यों सताता है तू
जात अपनी मुझे क्यों जताता है तू, आग के सामने तूने फेरे लिए
फेरे ले के कुँवारा बताता है तू।
मैंने कहा- वेरी गुड सुनाया पनचक्की! ऐसी कविता इसने क्यों सुनाई जो पहले से लिख रक्खी। हाँ भई! द्वितीयक, हनीमून के अनुभवों का सार क्या निकला?
द्वितीयक की कविता
हनीमून!
मधु चंद्र गुरु जी, नहीं-नहीं, मधु यामिनी!
तडित्तरंग अनंग रंग में दम-दम दमके दामिनी।
हनीमून मधु यामिनी!!
पुरुष प्रकृति का स्वामी बनता प्रकृति पुरुष की स्वामिनी।
हनीमून मधु यामिनी!!
महारास यह महामिलन का महायज्ञ - मंदाकिनी,
परम उजाला परम तत्व का पावन पुण्य प्रकाशिनी।
हनीमून मधु यामिनी!!
काव्य कामना कामदेव की कोमल कंचन कामिनी,
हर हद तज कर अनहद गरजै माधुरिया गज गामिनी।
हनीमून मधु यामिनी!!
नींद उड़ावै, अति मन भावै हिया बजावै रागिनी,
सगी पिया की, पगी प्रेम में ठगी-ठगी अनुरागिनी।
हनीमून मधु यामिनी!!
हम अतीत में, कड़क शीत में ग्रीष्म हुए सह गामिनी
हम भी थे स्मार्ट हैंडसम तुम कमनीय मिनी मिनी।
हनीमून मधु यामिनी!!
किचिन में दूजी गुरुआनी का हाथ बँटा रही थी और कविता सुनते हुए रह-रह कर शरमा रही थी। उधर डायनिंग टेबल पर तृतीयक ने 'श्रीराम चंद्र कृपालु भजमन' की तर्ज़ पर अपना हनीमून गान प्रस्तुत किया-
तृतीयक का हनीमून गान
हनीमून है वह मून जिस पर कोटि मून समर्पितम्*
संसार सारं सब तुम्हारम्* किंतु क्वारापन ख़तम्*।
झिलमिलित पुष्पित कलित, हिल स्टेशनार्थ बुकिंग करम्*,
दिल किया धुक-धुक, रेल छुक-छुक, सीट की बुक क्या शरम्*।
हनीमून है वह मून जिस पर कोटि मून समर्पितम्*।
अपन ने भी उसी तर्ज में अर्ज़ किया-

आशीष देते चक्रधर गुरु, हनीमूनित शुभ करम्*,
यह पंच युगल प्रसून, बच्चे सून आएँ मनोहरम्*।
बहू दूल्हाय नमः!
बेलन चूल्हाय नमः!!
श्री हनीमूनाय नमः!!!
आगे क्या बताएँ? रात भर चलीं कविताएँ। रस की, रंग की, उमंग की, तरंग की, मलंगों के उचंग की। यहाँ इसलिए नहीं बता रहे हैं क्यों कि सबकी सब नहीं थी ढंग की।

Awara
09-02-2013, 08:10 AM
सारा डेटा पा जाएगा बेटा
—अशोक चक्रधर


अधिक नहीं कुछ चाहिए, अधिक न मन ललचाय,
साईं इतना दीजिए, साइबर में न समाय।

भक्त की ये अरदास सुनकर भगवान घबरा गए। क्या! भक्त इतना चाहता है जो साइबर में न समाए! अरे भइया! इतना तो अपने पास भी नहीं है। अपन को मृत्युलोक का डेटा लेना होता है तो साइबर स्पेस में सर्च मारनी पड़ती है। यमराज का सारा काम आजकल इंटरनेट पर चल रहा है। पूरे ब्रह्मांड के इतने ग्रह-नक्षत्र, उनमें इतने सारे जीवधारी! किसकी जन्म की किसकी मृत्यु की बारी? सब नेट से ही तो ज्ञात होता है। डब्ल्यू-डब्ल्यू-डब्ल्यू यानी वर्ल्ड वाइड वेब अब बी-बी-बी हो गया है। बी-बी-बी अर्थात बियोंड ब्रह्मांड बेस। धरती पर हिंदी का एक सिरफिरा कवि इसको 'जगत जोड़ता जाला' बोलता है। कहता है--
'साइबर नेट बने हुए, इस जी के जंजाल,
अपने ऊपर बिछा है, जगत जोड़ता जाल॥'

बहरहाल, भगवान बड़बड़ा रहे हैं— 'बताइए! भक्त ब्रह्मांड से अधिक चाहता है। धरती पर 'साइबर स्पेस' कहते हैं, पर हम भगवानों के बीच इसे 'स्पेस साइबर' कहा जाता है। पता नहीं किस साइबर की बात कर रहा है भक्त'। भगवान व्यथित हैं।

जिस भक्त ने भगवान को कष्ट दिया वह इस समय एक अस्पताल में लगभग मृत्यु शैया पर है। उसकी आयु एक सौ छ: वर्ष हो चुकी है फिर भी जीने की इच्छा कम नहीं हुई। कहने को ही भक्त है वह। दरअसल, वह स्वयं ही भगवान बनने की फिराक में है। उसका नाम है-- श्री श्री श्री एक हज़ार आठ स्वामी सत्यानंद सरस्वती, आई.डी.- वी.आई.पी. ९८७६५४३२१ कैटेगरी- स्प्रीचू ओरिएंटल साइबर एजीरियल योगा।

स्वामी इंवैंटीलेटर पर हैं। उनकी इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना नाड़ियों से विद्युतीय माइक्रो चाक्षुष नौन तार कंडक्टर्स जुड़े हैं। केवल नर्सें और डॉक्टर वर्चुअल स्क्रीन पर मरीज़ का जीवन-ग्राफ देख सकते हैं। ये है सन 2057, फ़रवरी का महीना, स्वामी सत्यानंद सरस्वती इंवैंटीलेटर पर हो रहे हैं पसीना-पसीना।

अस्पताल के बाहर उनके शिष्यों की फौज थी। सब दुःखी थे, केवल एक की ही मौज थी। वह था उनका शिष्य नकारू। नकारू यह सोच-सोच कर मगन था कि वी.आई.पी. स्वामी मरने वाले हैं। वही उनके साइबर डेटा और साइबर पीठ का उत्तराधिकारी होगा। पिछले लगभग एक महीने से वह स्वामी की मृत्यु की कामना कर रहा था। दस दिन से तो उसने उन्हें उम्रवर्धिनी औषधि व्यग्रआग्रा देना भी बंद कर दिया था। स्वामी को इस तथ्य की भनक नहीं लग पाई। किंतु सिस्टम के साथ ज़्यादा छेड़छाड़ करने के कारण नकारू की स्नायु-दिमाग़ी ड्राइव में कोई वायरस लग गया, जो 'स' ध्वनि को 'ह' में बदल देता था। अगर वह दूसरों के सामने स्वामी का नाम लेने का प्रयास करता था तो मुँह से निकलता था- 'ह्वामी हत्यानंद हहह्वती'। सकारू जो कि स्वामी का दूसरा शिष्य था बिगड़ गया- 'लज्जा नहीं आती, श्री श्री श्री का नाम ऐसे लिया जाता है?'

नकारू लज्जित तो नहीं हुआ, परेशान-सा होकर कहने लगा- 'हकारू! हायद कोई वायरह लग गया है, ह्री ह्री ह्री का जैहे ही नाम लेता हूँ हत्यानंद हहह्वती ही निकलता है’। सकारू समझ गया। उसे अपना नाम 'हकारू' भी अच्छा लग रहा था, क्यों कि अंदर ही अंदर वह जानता था कि स्वामी की मृत्यु के बाद सारे हक तो उसी को मिलने हैं। जिसे हक मिले वो हकारू। वह नकारू की तरह नकारात्मक नहीं था। उसने कभी स्वामी की मृत्यु की कामना नहीं की। वह हृदय से साइबर-योगा-पीठ के हित की कामना करता था। माना कि चिकित्सा विज्ञान ने मनुष्य की आयु बढ़ा दी है पर अमर तो नहीं किया। वह सचमुच चाहता था कि श्री श्री श्री अभी धरती से विदा न लें। एजीरियल साइबर योगा विज्ञान के क्षेत्र में उनका भारी योगदान था। उन्होंने ब्रिटेन, अमरीका, यूरोप, जापान और अफ्रीका के बेरोज़गार नौजवानों को आउटसोर्सिंग में जॉब देकर मनुष्य की उम्र पाँच सौ साल करने वाले प्रोजैक्ट पर काफ़ी श्रम किया था। भारत के नौजवानों को ज़्यादा धन देना पड़ता था। विकास-अवरुद्ध पश्चिमी देशों के नौजवान सस्ते पड़ते थे। उम्र-वर्धन तकनीक पर शोध करते-करते वे स्वयं पर ही कोई ग़लत प्रयोग कर बैठे। सुषुम्नोत्तर तरंग-प्रवाह में विकारी बाधा आ गई। श्वास लगभग चली गई, मूर्छित हो गए। नकारू और सकारू ने उन्हें साइबरोलो अस्पताल के इंवेंटीलेटर के हवाले कर दिया। अब अंतिम साँसें गिन रहे हैं।

श्री श्री श्री एक हज़ार आठ स्वामी सत्यानंद सरस्वती, आई.डी.- वी.आई.पी. ९८७६५४३२१ कैटेगरी-- स्प्रीचू ओरिएंटल साइबर एजीरियल योगा इंवैंटीलेटर पर अर्धमूर्छित अवस्था में लेटे-लेटे अंतिम साँसें नहीं गिन रहे थे, वे गिन रहे थे उन महिलाओं की संख्या जो उनके संसर्ग में आईं। वे चाहते थे उनके दिमाग़ का स्त्री-डाटा करप्ट हो जाए। वे नहीं चाहते थे कि मरने के बाद उनके दिमाग़ की हार्ड-ड्राइव उनके मठ में जाए और शिष्य हतप्रभ रह जाएँ। जीवन भर भारतीय संस्कृति की दुहाई देने वाले अविवाहित सत्यानंद ने सत्य में किस-किस प्रकार के आनंद लिए थे, सब पता चल जाएगा उनके चेलों और चपाटों को।

तपस्विनी मेधा से उनके क्या रिश्ते थे। अमरीका से आई साध्वी जैनेथ, कज़ाकिस्तान की क्युदीला, जापान की फुईकुई...और...। अब उनके चेलों को यह भी पता लग जाएगा कि मठ के एक अरब हज़ार रुपए उन्होंने किस प्रकार होनोलुलू के हिडन-बैंक में जमा कराए। अरे! वे कोड नंबर अब कैसे मिटाएँ। और ये जो व्यर्थ का उत्तराधिकारी बना हुआ है नकारू, इसको सब कोड पता चल जाएँगे। किसी तरह मेरे दिमाग़ की हार्ड ड्राइव ख़राब होनी चाहिए, करप्ट होनी चाहिए। हाय! इंवैंटीलेटर से कब हटाया जाएगा मुझे। कंबख़्त इन्फार्मेशन टेक्नोलॉजी। साइबर स्पेस की डैमोक्रेसी मेरी ऐसी की तैसी करा देगी।

कमरे में डॉक्टर आया। उसके हाथ में साइबर मोबाइल था। स्क्रीन के उपर हाथ फिरा कर वो उँगलियाँ उपर नीचे करता था, विंडो बदल जाती थी। कहने लगा— 'स्वामी! आई थिंक आप मुझे सुन सकते हैं। आई कैन रीड यॉर माइंड, माइक्रो फैमिनन रेज़ बता रही हैं कि आप महिलाओं के बारे में सोच रहे हैं। ये सन दो हज़ार सत्तावन है, भारतीय मुक्ति संग्राम को दो सौ साल हो चुके हैं। इस साल भी साइबर स्पेस में भारतीय वैज्ञानिकों ने एक क्रांतिकारी काम किया है। धरती के सारे मनुष्यों का जन्म-मरण का डेटा बेस और डेटा विश्लेषण तो पिछले साल ही पूरा हो गया था, आज डी.एन.ए. एंट्रीज़ भी पूरी हो गई हैं। क्या आपको मालूम है कि इस धरती पर आपकी चार संतानें हैं...'।

इस से पहले कि डॉक्टर आगे कुछ कहता, स्वामी के शरीर में ज़ोर का कंपन हुआ। इंवैटीलेटर की सुषुम्ना पाइप से धुआँ निकलने लगा। स्वामी के दाँत बजने लगे। डॉक्टर खुश हो गया। ये शॉक ट्रीटमैंट नहीं अशोक ट्रीटमैंट था—'पता नहीं आपको खुशी हुई या ग़म। मे बी कभी खुशी कभी ग़म। बट यू कांट इरेज़ दा फैक्ट। साइबर स्पेस में अब सब को पता चल जाएगा कि अनमैरिड स्वामी के उत्तराधिकार का मामला सुलझ गया है। स्वामी आपका सारा डेटा, पा जाएगा आपका बेटा और तीनों बेटियाँ। नकारू और सकारू बेकार लड़ रहे हैं।
इस आलेख में एक हज़ार एक सौ आठ शब्द पूरे हो चुके हैं। बोलो- ह्वामी हत्यानंद हहह्वती की जय!