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View Full Version : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक


anjaan
09-02-2013, 09:28 AM
भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक
राजा रवि वर्मा


प्रभु जोशी

anjaan
09-02-2013, 09:29 AM
चित्रकार राजा रवि वर्मा पर लिखते हुए मुझे लगभग आधी शताब्दी के पहले के वक्त का वह हिस्सा याद आ रहा है, जिसमें ईश्वर से मेरे तअल्लुकात आज की तरह खराब नहीं हुए थे। अलबत्ता इसके उलट यह था कि मेरे संकटों के 'महाघोर' समय में, वह खुद पहल करता और इमदाद के लिए आगे आ जाता था। मसलन, जब कभी मेरे बस्ते में पेंसिल गुम जाती, पानी-पोते की शीशी फूट जाती या फिर कंचों के खेल में तकरीबन हारने की नौबत आ जाती, तब मैं क्षण भर ठिठक के आँख मूँद कर, बुदबुदाते हुए ईश्वर को बेकरारी के साथ याद करता और वह घर की अल्मारी में रखे, गीता प्रेस, गोरखपुर के 'कल्याणों' के चित्रों में से कमोबेश भाग कर आता और मेरी बंद पलकों के नीचे 'तथास्तु' की मुद्रा में मुस्करा कर गायब हो जाता। मैं आँखें खोल कर फिर से खेल में स्वयं को एकाग्र करता और धीरे-धीरे हारने के 'कगार' से ऊपर उठ कर जीत के शिखर पर चढ़ जाता।

anjaan
09-02-2013, 09:29 AM
दोस्त 'जै-जैकार' कर उठते, जो मुझे अपनी जीत से ज्यादा ईश्वर की जय-जयकार लगती। कभी-कभार, कंचों और कबड्डियों से बचे वक्त में फटी-पुरानी निकरों और थेगलेदार कमीजों में रहनेवाले मेरे दोस्तों की जिज्ञासा बलवती हो जाती और वे पूछते कि 'आँख मूँदने पर क्या मुझे भगवान दिख जाते हैं? और दिखते हैं, तो वे कैसे हैं?' मैं उन्हें फटाफट भगवान की आबादी, उनके कुनबे और शक्ल-सूरत के बारे में ऐसे रोचक और प्रामाणिक ब्यौरे देता कि वे सब के सब हतप्रभ रह जाते, क्योंकि मेरे तमाम दोस्तों के पास ईश्वर की शिनाख्त के रूप में, गाँव में सिंदूर के पुते पत्थर और पेड़ों के तनों के पास गड़े, अनगढ़ आकार भर थे, जबकि मेरे द्वारा दिए गए विवरण एकदम अलौकिक थे, क्योंकि उनमें भगवान के पँखुरियों-से होंठ थे, कमलनाल-सी कोमल कलाइयाँ और गुलाबी तलवोंवाले पैर। कुल मिला कर, 'नख से शिख' तक दिव्यता का सृजन करनेवाली कमनीय काया। मुझे आज भी याद है कि मैंने जब 'कल्याण' में देखे गए चित्र के आधार पर राधाजी के रूप का बखान किया था तो मेरा सहपाठी प्रहलाद रोमांचित हो कर बेसाख्ता बोला था, 'प्रभु, म्हारे राधाजी दिखी जाए तो हूँ तो उनके छू लूँ और बस मरी जाऊँ।' अर्थात राधा का सौंदर्य इतना अनिंद्य, अलौकिक और अलभ्य लगा था, अपने उस सहपाठी के बाल मन को कि स्पर्श की कामना के पूरी होने के बाद शेष जीवन को जीने की निरर्थता का बोध पैदा करनेवाला था।

anjaan
09-02-2013, 09:30 AM
दरअसल, भगवानों के हुलियों के बखान की कूवत मुझमें पिता द्वारा गीता प्रेस, गोरखपुर से मँगवाई गई कोई आधा दर्जन उन चित्रावलियों से आई थी, जिनमें भारतीय मिथकीय अवतारों के तमाम ढेरों चित्र थे। मैंने धीरे-धीरे करके अपने सभी दोस्तों को वे चित्रावलियाँ दिखाई थीं। बाद इसके हम सारे के सारे दोस्त उन अलौकिक भगवानों को निकट से जाननेवालों में से हो गए।

हमारे लिए वे चित्र ही ईश्वर के चेहरे-मोहरे और कद-काठी के सर्वथा प्रामाणिक और अंतिम दस्तावेज थे। हम अपनी नींदों में भी उनके साथ रहने लगे थे, लेकिन तभी एक दिन अचानक हम सबको गहरी ठेस लगी। उस ठेस से मेरे भीतर एक अजीब-सी बेकाबू रुलाई उठी, जो आज तक मेरे भीतर जीवित है। मेरे ही नहीं, कदाचित मुझसे पहले पैदा हुए कई-कई लोगों के भीतर भी बचपन की कुछेक रुलाइयाँ जीवित होंगी। उस ठेस में जितना मर्मभेदी और दारुण दुःख था, साथ ही साथ उतना ही विस्मय भी था।

हुआ यों कि गाँव में सतनारायण महाराज के यहाँ काँच में मढ़ा हुए कोई बड़ा-सा चित्र उज्जैन से लाया गया था। चित्र ऐसा अनोखा था कि तुरंत खबर फैल गई थी, क्योंकि यह छोटे-से गाँव की ऐतिहासिक घटना थी। तब तक हमारे आसपास के गाँवों में कैलेंडर जैसी चीज ने प्रवेश तक नहीं किया था।

anjaan
09-02-2013, 09:30 AM
मैंने भी अपने दोस्तों की मंडली को लाय की तरह पूरे गाँव में फैल चुकी इस घटना की सूचना तुरत-फुरत पहुँचाई और सबको एकत्र कर लगभग उस छोटे-से जत्थे के नेतृत्व का दायित्व अपने कंधे पर ले कर उस चित्र को देखने गया। हमने देखा और यक-ब-यक हुआ यह कि चित्र को देखते ही हम सबों के भीतर के अलौकिक संसार में अफरा-तफरी मच गई। हमने एक-दूसरे की तरफ कुछ इस तरह हक्का-बक्का हो कर देखा, गालिबन पूछना चाहते हों कि यह क्या हो गया? दरअसल सामने टँगे चित्र में दिखाई दे रहीं 'राधाजी' तो कोई दूसरी ही 'राधाजी' थी। अभी तक हमारे द्वारा देखी और लगभग निकट से बखूबी जान ली गई राधाजी से बिलकुल अलग। न तो पंखुरी जैसे होंठ। न चिंतामणि-सी अलौकिक देह। न दिव्य और दीप्त त्वचा। बल्कि उनकी त्वचा, उलटे हमारे घर की बंइराओं स्त्रियों जैसी थी, जिनकी त्वचा से पसीना भी टपकता है। और इससे भी ज्यादा तो विस्मय करनेवाली बात यह थी कि जैसे कृष्ण के बगल में 'राधाजी' की जगह पड़ोसवाली 'मनोरमा भाभी' ही साड़ी लपेट कर बैठ गई है। और येल्लो ! उन्होंने भी हड़बड़ी में पल्ला भी उलटा ही ले लिया है। उलटे पल्लेवाली साड़ी पहनी स्त्री तो हमने अभी तक गाँव में देखी तक नहीं थी। कृष्ण भी मेरे पास की चित्रावलियों जैसे 'प्रकट हो सकनेवाले' कृष्ण नहीं थे - देवत्व से बिलकुल रहित। वे 'राधाजी' की तरफ कुछ ऐसी दृष्टि से देख रहे थे कि यदि हम लोगों ने उनकी तरफ से तनिक भी आँखें फेरीं कि वे मौके का लाभ उठा कर राधाजी के गाल को चूम लेंगे। ऐसी दृष्टि से देखनेवाले बिना लिहाज के उन कृष्ण को देख कर शर्म हमें आने लगी थी।

anjaan
09-02-2013, 09:30 AM
और अब हम चुपचाप मुँह लटका कर लौट रहे थे। हम सबों को एक नए और अपरिचित-से दुःख ने घेर लिया था। हमारी मनोदशा इस तरह की हो गई थी कि हम दोस्तों में एक-दूसरे से आँख मिलाने लायक ताकत भी छिन चुकी थी। उस चित्र ने हमारी अभी तक की अवधारणा को संदिग्ध कर दिया था। वास्तव में वह चित्र कोई सामान्य चित्र नहीं था, बल्कि यथार्थवादी शैली में बनाई गई राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक की चित्र कृति थी, जिसके सामने हम सब हतप्रभ रह गए थे। ठेस चित्र ने नहीं, 'यथार्थ' ने पहुँचाई थी। क्योंकि, गोकुल का लीलाधारी कृष्ण, अपना 'दिव्यत्व' खो कर पाँच फुट छह इंच के निहायत ही सामान्य मनुष्य की तरह सामने चित्र में खड़ा था। यह कला में ईश्वर से उसकी अलौकिकता का अपहरण था। राधा में भी 'पावनता' के स्थान पर एक किस्म की 'ऐंद्रिकता' थी। पवित्रता की 'आभा' और 'आलोक' के बजाय देह केंद्र में आ गई थी। कृष्ण की आँखों में प्रेम का दैहिक चरितार्थ प्रकट हो रहा था। भगवान हमारे देखे भगवान से छोटा और सामान्य (लिटिल-लेस-देन गॉड) हो गया था।

anjaan
09-02-2013, 09:30 AM
बहरहाल, इस चित्र ने मेरे कल्पनालोक को तो छठे दशक के उत्तरार्द्ध में संकटग्रस्त किया था, लेकिन वास्तव में तो ऐसा संकट उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में समूचे भारतीय कला जगत ने अनुभव किया था, क्योंकि राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक भारतीय कलाजगत में एक ऐसे समय में अवतरित हुए थे, जब कला के सिर्फ दो छोर थे - एक तो था, 'शास्त्र' जो सामंतयुगीन उच्च वर्ग के अधीन था और दूसरा था 'लोक'. जो ग्रामीण जनसमुदाय के बीच ही अपना सर्वस्व जोड़े हुए था।

शास्त्र के नाम पर दो-तीन स्पष्ट वर्गीकरण थे। मसलन, चित्रांकन की राजपूत शैली तथा मुगल कलमकारी। लेकिन, दोनों शैलियाँ ही अपने शानदार अतीत का वैभव खोना शुरू कर चुकी थीं। वे एक ध्वंस का सामना कर रही थीं। ईस्ट इंडिया कंपनी के बढ़ते वर्चस्व ने सामंतयुगीन सत्ता को इतना युद्धरत बना दिया था कि कलाओं के परंपरागत संरक्षण का काम उनके लिए अब दूसरे क्रम पर था। कहना चाहिए कि कलाएँ उनकी प्राथमिकता के काफी निचले दर्जे पर थीं। इसके साथ ही जो भारतीय कलम और कूँचीकार चितेरों से काम ले रहे थे, उसमें बादशाह द्वारा शिकार किए जाने या राधाकृष्ण और शिवपार्वती के बहाने इरोटिक चित्रकारी की जा रही थी। कदाचित यही वह कालखंड था जब भारतीय चित्रकला बंगाल स्कूल के जरिए अपनी अस्मिता की तलाश में जापान की जलरंग-पद्धति (वाश तकनीक) को अपना कर एक नई सौंदर्य दृष्टि रचने के लिए संघर्षरत थी। प्रकारांतर से यह एक किस्म का नया उदयकाल था।

anjaan
09-02-2013, 09:31 AM
संयोग से 'कल्याण' के अंकों में छपने वाले अधिकांश चित्र इसी चित्रशैली के थे और उनमें शारदा उकील जैसे महान चित्रकारों द्वारा रची गई जलरंग कृतियाँ हुआ करती थीं। उस कलादृष्टि में भारतीय मूर्तिशास्त्र को सामने रख कर एक नई आकृतिमूलकता को आहूत किया जा रहा था, जिसमें देवाकृति का आदर्शीकरण था। शारदा उकील जैसे महान चित्रकार उसी गौरवमयी परम्परा की उपज थे।

ठीक इसी काल संधि पर त्रिवेंद्रम से पच्चीस किलोमीटर दूर किल्लीमनूर से निकल कर त्रावणकोर पहुँच कर एक पच्चीस वर्षीय युवक वियना की चित्र प्रदर्शनी में स्वर्ण पदक हासिल करता है। उन्नीसवीं सदी के यूरोपीय यथार्थवादी शैली में वह ऐसी दक्षता के साथ काम करता है कि समूचे कला जगत को हतप्रभ कर देता है। इसमें भी उल्लेखनीय बात यह थी कि उसने कला के किसी भी संस्थान से अकादमिक शिक्षा ग्रहण नहीं की थी। वह पूरी तरह आत्म-दीक्षित कलाकार ही था, जबकि वह निष्णात जलरंगों में था और तैलरंगों को वहीं भारत में पहली बार इस्तेमाल कर रहा था। उसने वीणा बजाती हुई एक भारतीय स्त्री का चित्रांकन किया था। रंग की 'स्पेस क्रिएटिंग प्रापर्टी' का जो दोहन उसने किया था, वह किसी भी यूरोपीय महत्वाकांक्षी चितेरे के लिए ईर्ष्या का कारण बन सकता था और हुआ भी यही कि भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के 'कमीशंड आर्टिस्टों' ने इस चित्रकार को ताउम्र अहमियत नहीं दी - और, कहने की जरूरत नहीं कि यह चित्रकार था, राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक।

anjaan
09-02-2013, 09:31 AM
राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक जन्म से राजा नहीं थे, लेकिन उन्हें उनकी अद्भुत प्रतिभा ने अंततः राजा बना दिया। हालाँकि वे एक बेहद सुरुचि-संपन्न परिवार में ही जन्मे थे, जहाँ साहित्य और कला की अत्यंत परिष्कृत समझ और अभिजात दृष्टि थी। माँ उमा अंबा तथा पिता इजुमाविल नीलकांतन भट्टत्रिपाद की संतान, राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक की प्रतिभा की पहचान पहली बार उनके चाचा ने की थी।

एक दफा 'राजा-राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक' राजभवन की दीवार पर तंजोर शैली में चित्रांकन कर रहे थे और बीच में थोड़ी देर के लिए काम छोड़ कर उन्हें अन्यत्र जाना पड़ा। जब बाहर से लौट कर आए तो उन्होंने आश्चर्य से देखा कि उनके मात्र चौदह वर्षीय भतीजे ने न केवल उसमें रंग भर दिए हैं, बल्कि चित्र का शेष रेखांकन भी पूरा कर दिया है। उन्होंने बालक को भावातिरेक में गले लगा लिया। बस यही वह क्षण था, जिसमें चाचा ने तय किया कि वे बालक को एक मशहूर चितेरा बनाकर रहेंगे।

anjaan
09-02-2013, 09:31 AM
वे बालक राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक को किल्लीमनूर से त्रावणकोर के महाराजा अयिल्लम तिरुनल के पास ले गए, जहाँ उसने राजप्रासाद के दरबारी चित्रकार रामास्वामी नायकर से जलरंग चित्रकारी सीखी। राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक के लिए यह समय कठिन तपस्या का समय था। एक ओर जहाँ उन्हें जलरंग जैसे माध्यम में दक्षता हासिल करना थी, वहीं दूसरी ओर रेखांकन के शास्त्रीय पक्ष का पर्याप्त अध्ययन करना भी था। परिणामस्वरूप उन्होंने राजप्रासाद में एक बहुत संपन्न पुस्तकालय भी मिल गया, जिसमें मलयालम और संस्कृत के साहित्य और कला पर एकाग्र सैकड़ों ग्रंथ थे, जिन्हें उन्होंने खँगाल डाला। विष्णुधर्मोत्तर पुराण के चित्रसूत्र, मूर्तिशास्त्र तथा संस्कृत नाटकों के गहन अध्ययन ने उनमें मिथकीय इमेजरी की विराट और विशिष्ट समझ, संवेदना और सौंदर्य दृष्टि के विकास में एक ठोस आधारभूमि का काम किया। यहाँ तक कि बाद में राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक ने संस्कृत के छंदों में कविताएँ भी लिखीं।

anjaan
09-02-2013, 09:31 AM
इस तरह रंग और शब्द दोनों के मर्म को जानने के साथ ही उन्होंने संगीत के स्वरों को भी समझा। कथकली की कई मुद्राओं को उन्होंने एक कलाकार की दृष्टि से आत्मसात किया। इसी बीच एक दिन मद्रास के एक अखबार में तैलरंगों का एक विज्ञापन छपा। यह माध्यम उनके लिए नितांत अपरिचित और चुनौतीपूर्ण था। चाचा राजा-राजा रवि वर्मा ने युवा भतीजे के लिए तैलरंगों को उपलब्ध कराया, लेकिन दिक्कत यह थी कि वे उसके इस्तेमाल की तकनीक से नितांत अनभिज्ञ थे। उन्होंने त्रावणकोर के दरबार में पोर्टेट (व्यक्ति चित्र) बनाने के लिए आए एक ब्रिटिश चित्रकार थियोडोर जेनेसन से आग्रह किया कि वे उन्हें तैल रंगों में काम करने की तकनीक का प्रशिक्षण देने की अनुकंपा करें, लेकिन जलरंग में राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक द्वारा किए गए काम को देख कर वह यह जान चुका था कि इस ऐसी अदम्य इच्छा से भरे प्रतिभाशाली युवक को तैलरंग का उपयोग सिखाना स्वयं के लिए एक खतरा मोल लेना होगा।

anjaan
09-02-2013, 09:31 AM
बहरहाल, ईर्ष्यावश उसने स्पष्ट इनकार कर दिया। उसने कहा कि वह उसके द्वारा बनाए चित्रों को तो देख सकता है, लेकिन रंग संयोजन और रंग मिश्रण के समय वह किसी को भी अंदर आने की अनुमति नहीं देगा। उनकी आगामी संभावनाओं का आकलन करते हुए रामास्वामी नायकर ने भी तैलरंग के वापरने की तकनीक बताने से इनकार कर दिया। नतीजतन, युवा राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक ने गहरे मनोयोग के साथ भिड़ कर स्वयं ही सबकुछ सीख लिया और कुछ दिनों में महाराज तथा महारानी का सुंदर कंपोजीशन उसी यथार्थवादी शैली में तैलरंग से बना दिया।

भारतीय परंपरागत चित्रशैली में मूलतः चित्रांकन में कागज की सतह पर एक आयामी ही काम होता था। वे चित्रकृतियाँ 'चित्रलेख' की-सी थीं, क्योंकि उन चित्रकृतियों को देख कर यह नहीं बताया जा सकता था कि चित्रकार ने उस चित्र को किस जगह से देख कर बनाया है। वे 'सीन फ्रॉम नोव्हेयर' थे, जबकि चित्रांकन की यूरोपीय यथार्थवाद शैली में एक स्पष्ट पर्सपेक्टिव उभरता था, उसमें छाया और प्रकाश के बीच चीजों को देखने की अनिवार्यता थी। इसके अध्ययन के लिए उन्होंने पद्मानाभनपुर के मलाबार स्कूल ऑफ पेंटिंग में दाखिला भी लेना चाहा, लेकिन उनको निराशा ही हाथ लगी। इस घटना ने राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक को गहरा आघात दिया, लेकिन धीरे-धीरे उन्हें उनकी काम करते रहने की निरंतरता ने इससे उबार लिया। बाद में उन्होंने स्वयं ही संस्था में प्रवेश पाने के विचार को त्याग दिया था तथा महाराजा की मदद से लंदन की रॉयल अकादमी द्वारा पश्चिम की चित्रकला पर प्रकाशित होनेवाली पत्रिकाओं और बहुमूल्य पुस्तकों को मँगवाया और अत्यंत सूक्ष्मता के साथ स्वयं यूरोपीय कलाकारों की तकनीक और चित्रभाषा को समझ कर काम करना शुरू किया।

anjaan
09-02-2013, 09:32 AM
संयोगवश लॉर्ड हर्वर्ड राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक के काम से इतना अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने उनकी चित्रकृतियों को अंतरराष्ट्रीय कला प्रदर्शनियों में स्पर्धा के लिए भेजा और जब वहाँ उन्हें स्वर्णपदक मिला तो सारा दृश्य ही बदल गया। यह उनकी कला की ख्याति का ही सुफल रहा कि ड्यूक ऑफ बकिंघम ने राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक द्वारा महाकवि कालिदास के चर्चित महाकाव्य शाकुन्तलम् की नायिका को ध्यान में रख कर बनाई गई चित्रकृति 'शकुंतला' खरीदी। तब के समय में उन्होंने उसका मूल्य पचास हजार रुपए अदा किया था। यहाँ तक आते-आते उनके सामने एक मार्ग स्पष्ट हो चुका था कि अब उन्हें अपनी प्रतिभा को नाथ कर अपनी कला को किस रास्ते पर ले जाना है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना प्रासंगिक होगा कि उनके लिए जो कला दिशा चुनी जा रही थी, उसकी वाजिब वजह यह थी कि ईस्ट इंडिया कंपनी के कमीशंड आर्टिस्ट भारत आ कर जो चित्रांकन कर रहे थे, उसमें जहाँ एक ओर भारत को साँपों, जादू-टोनों और भूख से बिलबिलाते नंगों-भूखों का देश बताया जा रहा था, वहीं दूसरी ओर पंडों-पुजारियों और नदियों में करोड़ों की संख्या में एक साथ नहानेवालों का देश था। उस समय के ब्रिटिश चित्रकारों ने जो रेखांकन और चित्रांकन किए हैं, उनसे इस तथ्य का सत्यापन किया जा सकता है।

anjaan
09-02-2013, 09:32 AM
दरअसल, यह वह कालखंड था, जब औपनिवेशक सत्ता के विरुद्ध एक धीमी लपट लगभग सारे देश में उठ रही थी, क्योंकि भारतीयों को लग रहा था कि वे ब्रिटिश साम्राज्यवाद के शिकंजे में फँस कर अपनी अस्मिता खो रहे हैं। भारत की भव्य और विराट परंपरा पर वक्त की धूल जमती जा रही है। निश्चय ही उसकी तलाश में सिर्फ गर्दन मोड़ कर पीछे देखा जा सकता था। निकट अतीत गड़बड़ था और भविष्य अस्पष्ट और एक गहरी धुंध के पार था। इसलिए निकट अतीत के उत्खनन को उन्होंने इरादतन रद्द करते हुए सुदूर अतीत या कहें कि पवित्र की तरफ अग्रसर होना तय किया, क्योंकि विराट और वैविध्य वहीं भर ही शेष था - जो ऊर्जा देने के विकल्प की तरह सामने था। शायद यही वह द्वंद्व था, जिसने राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक को अपने चित्रों के विषयों को निर्धारित करने में एक बड़ी और निर्णायक भूमिका अदा की। उन्होंने संस्कृत नाटकों, गीतगोविन्दम् और 'रसमंजरी' से मदद ली और यूरोपीय 'न्यू क्लासिकल रियलिज्म' की संभावनाओं का दोहन करते हुए, भारतीय पुराकथाओं और देवी-देवताओं का चित्रण आरंभ किया। किंचित इसी कारण चित्रित देव-स्त्रियों की काया कुछ-कुछ पृथुल बनने लगी। दरअसल, रवि वर्मा ने सौम्य भाव की निर्दोष सात्विकता को अपनी कला की गहरी ऐंद्रिकता के जरिए अतिक्रमित किया। नतीजतन वे एक खास किस्म की सेंसुअसनेस से भरी स्त्रियाँ थी, जो पूज्या से अधिक रूपाविष्टता का भाव लिए हुए थीं। बहरहाल निर्बाध रूप से यह कहा जा सकता है कि राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक की चित्रकृतियाँ रंग व्यवहार में राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक की क्षमताएँ रेम्ब्राँ, गोया और टिशियन से रत्ती भर कम नहीं थी। अभी भी गोया की नेकेड माजा, रेम्ब्राँ की 'सास्किया' या टिशियन की वीनस ऑफ अर्बिनो से राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक की किसी भी निवर्सना की तुलना बाआसानी की जा सकती है। बल्कि, यह कहा जा सकता है कि वे चित्रभाषा में भी यूरोप के उपर्युक्त महान चित्रकारों के स्तर पर ठहरती हैं। कहना न होगा कि उनकी चित्रकृतियों में देह की कामाश्रयी अभिव्यक्ति रंग-अभिव्यक्ति में काव्यात्मक लगती है। सेक्स को लिरिकल बनाने का यह अद्भुत उपक्रम था, जो हमारे रस-सिद्धांत की समझ से पैदा हुआ था।

anjaan
09-02-2013, 09:32 AM
कहना न होगा कि निश्चय ही पुराकथाओं और देवी-देवताओं का चित्रण आसान नहीं था, क्योंकि उनके आभूषण और वस्त्रविन्यास के साथ ही साथ उस परिवेश और काल को भी समाहित करना था, जिसका कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं था। राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक ने महाराष्ट्रीय नौ गज की साड़ी को देवियों का परिधान बनाया तो तत्कालीन कला आलोचकों ने राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक की बहुत आक्रामकता के साथ आलोचना की। उनका तर्क था कि क्या तब ऐसे वस्त्र और परिधान संभव नहीं थे, फिर साड़ी के साथ चित्रण में एक ऐसी स्थानीयता भी आ रही थी, जिससे मिथकीय पात्रों और दरित्रों की भौगोलिकता ही संदिग्ध और संकटग्रस्त होने लगी थी। राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक ने वसंतसेना नामक चित्र में नौ गजवाली साड़ी को पहली बार ऐसा रूप दिया था कि धीरे-धीरे वह भारतीय स्त्री की सार्वदेशीय पोशाक बन गई। बाद में इसी उलटे पल्लेवाली साड़ी को प्रभु जोशी की भाभी ज्ञानदानंदिनी ने पहन कर सर्वस्वीकृत बना दिया। बहरहाल साड़ी लपेटने की इस शैली ने परंपरा को समकालीनता प्रदान की और आज भी वह भारतीय स्त्री के अभिजात्य परिधान की एक बड़ी जगह घेरती है।

anjaan
09-02-2013, 09:32 AM
राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक सुबह चार बजे उठ कर अपने चित्र बनाते थे। प्रकाश और छाया के सूक्ष्म अध्ययन और आकलन के लिए यह समय सर्वाधिक उपयुक्त लगता है - अँधेरे की विदाई और उजाले की दबे पाँव आमद। एक नीम अँधेरे और नीम उजाले के बीच बैठ कर वे घंटों अपने बनाए चित्र को देखा करते थे।

उनकी कृतियाँ धीरे-धीरे पूरे देश में लोकप्रिय होने लगी, जबकि भारतीय कलाजगत उन्हें निरंतर निरस्त कर रहा था। उनकी कलादृष्टि राजपूत तथा मुगल कला के मिश्रण से निथर कर बनी चित्रदृष्टि को ठेस पहुँचा रही थी। उन्होंने शांतनु और मत्स्यगंधा, नल-दमयंती, श्रीकृष्ण-देवकी, अर्जुन-सुभद्रा, विश्वामित्र-मेनका जैसे जो चित्र बनाए, उनमें उन्होंने स्त्री देह का भारतीय कलादृष्टि के परम्परागत ढाँचे में बहुत शाइस्तगी से एक नया ही सौंदर्यशास्त्र रचा, लेकिन उन्हें भीतर कहीं यह बात सालती थी कि कलाकार और कला समीक्षक उनके काम को लगातार और निर्ममता के साथ निरस्त कर रहे हैं।

अतः उन्होंने अपने छोटे भाई के साथ उत्तर भारत की सांस्कृतिक यात्रा की ताकि वे उसकी सांस्कृतिक और भौगोलिक समग्रता को पूरी तरह आत्मसात कर सकें। बाद इसके ही उन्होंने अपनी चित्रकृतियों में भूदृश्य भी चित्रित करना शुरू किया। चित्र में पृष्ठभूमि के रूप में जो लैंडस्केप होते, वह उनके अनुज किया करते थे। इस बीच दीवान शेषशय्या ने टी. माधवराव के जरिए राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक को बड़ौदा के सयाजीराव महाराज से मिलवाया। बड़ौदा में रह कर उन्होंने पोर्टेट तो किए ही, देवी-देवताओं को विषय बना कर कई अद्भुत ऐतिहासिक चित्रकृतियाँ तैयार कीं। उनकी कृतियों से प्रभावित हो कर स्वामी विवेकानंद ने 'वर्ल्ड रिलीजन कांग्रेस ऑफ शिकागो' में उनकी चित्र कृतियाँ प्रदर्शनार्थ मँगवाईं, जहाँ उन्हें पदक भी प्रदान किए गए।

anjaan
09-02-2013, 09:33 AM
जहाँ एक ओर भारत में उनके द्वारा चित्रित स्त्री की देह को कामना की सृष्टि करनेवाली कह के निरादृत किया जा रहा था, वहीं दूसरी ओर विदेशों में इस विशिष्टता की सराहना की जा रही थी। हालाँकि आज भी कुछ कला समीक्षक उनकी सौंदर्यमूलक ऐंद्रिकता की वजह से उनके द्वारा चित्रित स्त्री के बारे में कहते हैं कि राजा रवि वर्मा ने तो एक तरह से 'फेंसीफुल रिप्रजेंटेशन ऑफ वूमन्स' बॉडी को ही पेंट किया है। यह सर्वविदित है कि स्त्री-चित्रण में जिस मॉडल की वे सहायता लेते थे, धीरे-धीरे वह उनके जीवन में इस कदर दाखिल हो गई कि अपने सरस्वती और लक्ष्मी के चित्रों में प्रकारांतर से उन्होंने उसी सुगंधी नाम की स्त्री की मुखाकृति और छवियों का आश्रय लिया। कुछ वर्षों पहले सुगंधी या सुगनीबाई से उनका जो रागात्मक संबंध बना, उसे ले कर केतन मेहता और शाजी एन करुण ने हिंदी फिल्म बनाने की घोषणा की थी, जिसमें सुगंधी की भूमिका के लिए माधुरी दीक्षित को प्रस्तावित किया गया था। दुर्भाग्यवश उस योजना पर काम शुरू ही नहीं हो पाया।

anjaan
09-02-2013, 09:33 AM
दरअसल, इसे समय की विसंगति या कहा जाए कि यह राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक का दुर्भाग्य रहा कि वे अपने जीवन के आखिरी वर्षों में मुंबई आए, जब उनकी सर्जनात्मक ऊर्जा का चमत्कृत कर देनेवाला कालखंड बीत चुका था। मुंबई आ कर उन्होंने 1894 में अपनी चित्रकृतियों के छापे बना कर अधिकतम लोगों के पास अधिकतम पहुँचने का संकल्प किया। मुंबई के लोनावाला में उन्होंने अपना प्रेस स्थापित किया। कहते हैं कि उन्होंने जर्मनी से ही छपाई मशीन मँगवाई थी और तकनीशियन भी बुलाए थे। उनके लिए इंग्रेविंग का काम धुंडीराज गोविंद किया करते थे। लेकिन हुआ यह कि धीरे-धीरे घाटा बढ़ता ही चला गया, क्योंकि वे इंग्रेविंग के लिए किए जा रहे निवेश पर स्वभावगत कारणों से यथोचित निगाह नहीं रख पाए और उन्हें छापाखाना बंद कर देना पड़ा। वे भारी कर्ज से घिर गए थे। धुंडीराज गोविंद बाद में दादा फालके के नाम से जाने गए। राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक के छापों ने उनके स्वप्न को आधा-अधूरा ही सही, लेकिन काफी कुछ अर्थों में कण-कणवाले भगवान को घर-घर के भगवान के रूप में साकार कर दिया। यह एक किस्म का नया 'डोमेस्टिकेशन ऑफ गॉड' था। कहना न होगा कि मंदिर से उठा कर भगवान को राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक ने सामान्य आदमी के घर की बैठक का स्थायी नागरिक बना दिया। सारे देवी-देवता घर के सदस्य की तरह भारतीय घरों में दाखिल हो गए। उनके द्वारा बनाए गए चित्रों में ईश्वर अपने ईश्वरत्व से कुछ कम और मनुष्यत्व से कुछ ऊपर था।

anjaan
09-02-2013, 09:33 AM
उनके इसी 'प्रोलिफिक प्रॉडक्शन' के प्रयास के कारण उन्हें कैलेंडर आर्टिस्ट कह कर नए तरीके से खारिज किया जाने लगा। लेकिन, एक विचित्र स्थिति यह थी कि जहाँ एक ओर भारतीय कला-जगत में उनकी जितनी अस्वीकृति बढ़ रही थी, ठीक दूसरी ओर सामान्य जनता के बीच वे उतने ही अधिक स्वीकृत होते जा रहे थे। जनता में उनकी कला की इस पहुँच को ईस्ट इंडिया कंपनी भी पसंद नहीं कर रही थी। खासकर, जब उन्होंने शिवाजी और बाल गंगाधर तिलक के व्यक्ति चित्र बनाए तो वे तत्कालीन औपनिवेशक सत्ता के खिलाफ लड़ रहे आंदोलनकारी लोगों के बीच भी सम्मानजनक दृष्टि से देखे जाने लगे। अंग्रेजों को लगने लगा था, यह आदमी पराधीन मुल्क के अतीत के प्रति लोगों में अदम्य रागात्मक उन्माद पैदा कर रहा है, जो एक तरह से प्रेत को साक्षात करना है। प्रकारांतर से यह देश में चल रहे तत्कालीन स्वदेशी आंदोलन का कलाजन्य समर्थन था।

उम्र के आखिरी वर्षों में निश्चय ही वे अपनी ख्याति के चरम पर थे। उन्हें एशिया का रेम्ब्राँ कहा जाने लगा था, लेकिन उन्हें लग रहा था कि कला का मर्म तो वे अब समझने लगे हैं। वे घंटों एक जगह खड़े हो कर दिन-रात काम करते थे। इसी श्रम ने उनकी देह को तोड़ना शुरू कर दिया था। इसी बीच उन्हें उन दिनों राजरोग कहे जानेवाले मधुमेह ने घेर लिया। वे थकने लगे थे। उन्हें विदेशों से आमंत्रण आते थे, लेकिन समुद्र-यात्रा न करनेवाली उस पुरानी अवधारणा के चलते उन्होंने तमाम आमंत्रण ठुकरा दिए। वे देश में रह कर ही दुनिया भर का हो जाना चाहते थे। शायद, वे सोचते थे कि अपनी जड़ों को अपनी ही मिट्टी में धँसे रहना चाहिए।

anjaan
09-02-2013, 09:33 AM
इस उम्र तक वे वास्तव में ही बिना किसी तरह का राजमुकुट धारण किए राजा हो चुके थे। उनकी दो-दो पोतियाँ राजघराने में ब्याह कर राजरानियाँ बन चुकी थीं। वे सेतुलक्ष्मी को बहुत प्यार भी करते थे। रावण द्वारा सीता के हरण के चित्रण में उन्होंने सीता की मुखाकृति अपनी इसी पोती की छवि से ली थी।

बहरहाल, उनकी आत्मा के अतल में सुलगती छुपी थी एक आग, जिसकी लपट में उन्होंने प्रेम के मर्म को पहचाना था। इसी वक्त उनके खिलाफ तब के एक नैतिकतावादी ने एक मुकदमा भी किया था, जो इस मुद्दे को ले कर था कि उन्होंने जिस स्त्री का चेहरा सरस्वती या लक्ष्मी के प्रतिमानीकरण के लिए चित्रित किया था, उसी स्त्री का निवर्सन चित्र बना कर उन्होंने भारतीय मानस के शुचिताबोध का अपमान किया। इस मुकदमे को लड़ने के लिए उन्होंने कोई वकील नहीं किया और स्वयं ही लड़ा और जीत भी गए। उस मुकदमे में की गई तवील जिरहों पर अभी तक कला जगत ने ध्यान नहीं दिया है, जबकि वह एक अद्भुत पाठ हो सकता है, जो बता सकता है कि सामाजिक नैतिकता का कठिन प्रशिक्षण कलानुभव में विघ्न का कारण बन कर किस तरह सामने आ सकता है।

anjaan
09-02-2013, 09:34 AM
राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक को कहाँ पता था कि यह उनके जीवन का आखिरी दिन है। उनका सहायक विली नायर तमाम रंगों और तूलिकाओं को करीने से जमा चुका था। सामने खाली चित्रफलक था। यह वही घड़ी थी, जब अँधेरे को विदा होना था और रोशनी को दाखिल होना था। वे चित्र के विषय पर विचार करते हुए बैठे थे। बाहर, उनके साठ पूरे हो जाने पर मनाए जानेवाले उत्सव की साल भर से तैयारियाँ चल रही थीं। देह उनके लिए उत्सव ही रहा था। खास तौर पर स्त्री देह। पर, भीतर ही नहीं, बाहर भी एक हतप्रभ-सा अँधेरा था, जो तय नहीं कर पा रहा था कि उसे किसे निगलना है और किसे छोड़ना है। विली ने देखा, विदा हुई नींद से छूट कर गिर गया था कोई कच्चा स्वप्न। एक अजीब-सी पीड़ा में उन्होंने चित्रफलक को देखा और आँखें खाली चित्रफलक को देखती हुई स्थिर हो गईं। मृत्यु से कोई संधि नहीं, -- जिसे देखा नहीं, जिसका पता ही नहीं हो, उससे कैसी और कौन-सी संधि? फिर मृत्यु की यह खसलत है कि वह कलाहीन लोगों की तरफ से मुँह फेर लेती है, लेकिन, कलाकारों की तरफ बेसब्री से लपकती है। रात के विदा और दिन के आगमन की घड़ी में अचानक आ गई मृत्यु ने उनसे कहा होगा - लो चलो, अब चलो! बहुत कर लिया अब तुमने। एक जीवन में किए जानेवाले काम से ज्यादा।

anjaan
09-02-2013, 09:34 AM
उन्होंने हजारों ईश्वर बनाये थे, लेकिन उस वक्त उनकी इमदाद के लिए एक भी अवतार नहीं आया और मृत्यु उन्हें चुपचाप अपने साथ ले कर चली गई। उनके सहायक विली नायर ने देखा, उनके जूते बाहर उतरे हुए हैं और वे जूते पहने बगैर ही इतनी दूर की यात्रा पर निकल गए हैं।

निश्चय ही राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक ने अपनी गहन बौद्धिक कला चेतना से एक अर्द्ध-विस्मृत संपदा को खंगालने का ही ईमानदार उपक्रम किया था, जिसके चलते उन्होंने हमारे पौराणिक अतीत को न केवल पुनराविष्कृत किया, बल्कि उसे समकालीनता की एक नई दीप्ति भी प्रदान की। लेकिन विडंबना यह है कि उनका वही काम उनकी निंदा और भर्त्सना बन कर उन्हीं से बदला लेने लगा।

अब जबकि डेढ़ सदी गुज़र चुकी है, फिर भी वे भारतीय कलाजगत के लिए अभी भी एक बिरादरी-बाहर चित्रकार हैं। लोग उन्हें पहले से कहीं ज्यादा नकारने के लिए उद्यत हैं। यहाँ तक कि कला की दुनिया में महान करने के दावे के साथ आनेवाला युवक भी, जिसे अभी न तो ठीक से रेखा खींचना आया है और न ही रंग का वाजिब उपयोग, वह भी राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक को कूड़ेदान में फेंकने के बाद अपना काम शुरू करता है।

anjaan
09-02-2013, 09:34 AM
कला के बाजारमुखी (मार्केट-ड्राइवन) समय में जबकि भारत में जलरंग का परंपरागत माध्यम लगभग हाशिए पर है और अधिकांश चित्रकार तेलरंग में ही काम करते हैं, भारत में तेलरंग में काम करने की शुरुआत करनेवाले इस चित्रकार को तब अपने तेलरंग माध्यम के कारण ही निंदा का पात्र बनना पड़ा था। उन्हें स्वदेशी भावना के विरुद्ध काम करनेवाला चित्रकार बताया गया था, क्योंकि तब तेलरंग एक अभारतीय माध्यम था।

आज निश्चय ही एक नए और अनौपचारिक साम्राज्यवाद की चतुर्दिक वापसी हो रही है, ऐसे में राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक को फिर से आविष्कृत कहने की जरूरत है, क्योंकि उन्होंने कला में हमारे उस पापुलर का सृजन किया, जिसके चलते हमने अपने पौराणिक अतीत को समकालीन बनाया। वे लोक और शास्त्र के मध्य एक अखंड सेतु थे। उनकी कला का डीएनए हमारी परंपरा से मिलता है। उन्हें पश्चिम की बाजारोन्मुख समकालीन कलाकार बिरादरी चाहे अपने गोत्र का न मान कर भूल जाए, लेकिन उनकी कृतियाँ ही उनका कीर्ति स्तंभ हैं। उन्हें हम भारतीय चाहे याद न करें, लेकिन ईश्वर जरूर याद रखेगा, क्योंकि उन्होंने उसके कुनबे और अवतारों को मनुष्यों से परिचित कराया था। ईश्वर जब तक जिंदा रहेगा, आकाश से राजा रवि वर्मा : भारतीय कला जगत के अनश्वर नागरिक के प्रति आभार प्रकट करता रहेगा। कला मर्मज्ञों की रेवड़ उन्हें चाहे दफ्न कर दे, लेकिन वे उस अमर को गढ़ते हुए स्वयं कलाजगत के अनश्वर नागरिक हो चुके हैं। वे अपनी तमाम आलोचनाओं और निंदाओं से ऊपर हमेशा याद आते रहेंगे।