View Full Version : इन 4 कारणों से उठे अफजल की फांसी पर सवाल!
दिसंबर 2001 में संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरु को शनिवार को तिहाड़ जेल में फांसी देकर वहीं दफना दिया गया। अफजल की फांसी की सभी राजनीतिक दलों ने स्वागत किया लेकिन कश्मीर और दिल्ली समेत देश के कई हिस्सों में इसके विरोध में आवाजें भी उठीं। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर भी मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और कुछ युवाओं ने फांसी पर सवाल उठाए। अफजल को संसद पर हमले के 12 साल बाद फांसी दी गई। अफजल का केस शुरू होने से लेकर उसे फांसी होने तक काफी अड़चनें आईं। फैसले के समय सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी ने इस मामले को अदालत के बाहर भी रेयरेस्ट ऑफ रेयर बना दिया था। ऐसे में हम चार कारण बता रहे हैं जो अफजल की फांसी पर सवाल उठाते हैं।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां
सुप्रीम कोर्ट ने ट्रायल के समय दी गई अपनी टिप्पणी में कहा था कि अगर अफजल के बयान को छोड़ दिया जाय तो यह साबित नहीं होता है कि वह किसी आतंकवादी संगठन का सदस्य है। और खुद उसका बयान भी उसे किसी आतंकी संगठन का सदस्य साबित नहीं करता है। सर्वोच्च अदालत ने यह भी टिप्पणी की थी कि संसद पर हमले ने देश को झकझोर दिया है और समाज का 'सामूहिक विवेक' अपराधी को फांसी देने से ही संतुष्ट हो सकता है। अदालत ने इसके आगे कहा था कि आतंकियों और षड्यंत्रकारियों के इस कारनामे से देश की एकता, अखंडता और संप्रभुता को चुनौती मिली है। इस देशद्रोही षड्यंत्र में शामिल होने वाले के खिलाफ सबूत मिलने पर उसे अधिकतम सजा देकर ही इसका मुआवजा लिया जा सकता है। फांसी के विरोधी कह रहे हैं कि अदालत को सबूतों के आधार पर फैसला लेने के बजाय समाज के सामूहिक विवेक की तुष्टि के लिए फैसला दिया है।
देरी से मिला न्याय
2011 में संसद पर हमले के आरोपी अफजल को फांसी देने में सजा मिलने में 12 साल लगे। जबकि 2008 में मुंबई हमलों के आरोपी अजमल आमिर कसाब को चार साल बाद ही फांसी पर लटका दिया गया था। संसद पर हमले के शहीदों के परिजनों का कहना है कि उन्हें न्याय मिलने में काफी देर हुई। न्याय मिलने में हुई देरी के मामलों में कहा जाता रहा है कि देरी से मिला न्याय अन्याय के बराबर होता है। प्रमुख विपक्षी दल भाजपा ने भी इसे देरी से मिला न्याय कहा है। अफजल को फांसी मिलने में देरी से नाराज होकर संसद हमले में मारे गए शहीदों के परिजनों ने अपने मेडल भी लौटा दिए थे। हालांकि शनिवार को अफजल को फांसी दिए जाने के बाद शहीदों के परिजनों ने टीवी पर आकर मेडल स्वीकार करने की बात कही है। हालांकि बलात्कार की तरह आतंक के मामलों में भी फास्ट्रटैक कोर्ट गठित करने के फैसलों का मानवाधिकारवादी विरोध करते हैं। इनका तर्क होता है कि आतंक के मामलों में सबूत ढूंढने की जरूररत होती है, जिसमें समय लगता है।
मोदी के दबाव में फांसी?
अफजल को दी गई फांसी को राजनीतिक विश्लेषक राजनीति से प्रेरित कदम बता रहे हैं। यही नहीं विश्लेषकों का कहना है कि अजमल कसाब की फांसी भी यूपीए सरकार ने मौजूदा समय और राजनीति में खुद को बनाए रखने के लिए दी है। गुजरात में विधानसभा चुनावों से ठीक 20 दिन पहले कसाब को फांसी दिए जाने पर राजनीतिक विश्लेषकों ने इसे गुजरात चुनावों के मद्देनजर उठाया गया यूपीए सरकार का कदम बताया था। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि इस बार भी एक हफ्ते से गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय मुद्दा बने हुए थे। समाचार माध्यमों में उनका नाम भाजपा के पीएम पद के उम्मीदवार के तौर पर उछाला जा रहा था। 12 फरवरी को महाकुंभ में भाग लेने इलाहाबाद भी जाना था। इससे ठीक पहले अफजल गुरु को फांसी दिए जाने से राष्ट्रीय मीडिया से मोदी, कुंभ और भाजपा पीएम जैसे मुद्दे पूरी तरह से गायब हो गए।
आत्मसमर्पण किए आतंकवादी को फांसी पर सवाल
राजनीतिक विश्लेषक और जानी मानी लेखिका अरुंधति राय कहती हैं अफजल गुरू एक सरेंडर्ड मिलिटेंट था, इसके बावजूद उसे फांसी दी गई। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अफजल जो कि एक सरेंडर्ड मिलिटेंट है देश के खिलाफ राष्ट्रदोह के कार्यों में लिप्त रहा है। वह समाज के लिए खतरनाक है और उसका जीवन खत्म कर देना चाहिए। अरुंधति कहती हैं कि इस पैराग्राफ में यह जाने बिना कि आज की तारीख में कश्मीर में सरेंडर्ड मिलिटेंट का क्या मतलब होता है, गलत तर्कों का इस्तेमाल किया गया है। नई दिल्ली में जंतर-मंतर पर अफजल की फांसी का विरोध करने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा, हरीश सुंदरम और एपवा अध्यक्ष कविता कृष्णन कहते हैं कि अफजल एक सरेंडर्ड मिलिटेंट था और उसे फेयर ट्रायल भी नहीं मिला था।
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