View Full Version : भारतीय इतिहास का सबसे 'काला दिन'! 14 Feb
14 फरवरी...महज एक तारीख या कोई दिन नहीं बल्कि एक विशेष अहसास है जो हर युवा के दिलों में स्पंदन की गति को बढ़ा देता है। 14 फरवरी आज-कल प्रेम दिवस के रूप में न केवल भारत बल्कि दुनिया भर में मनाया जाता है। भारतीय युवाओं में भी इस दिन का विशेष क्रेज देखा-जाता है। मगर इस दिन को केवल स्त्री-पुरुष प्रेम के लिए ही नहीं जाना जाना चाहिए बल्कि इस दिन कुछ ऐसा हुआ था कि अगर इस तारीख को भारतीय इतिहास की सबसे काले दिनों में शुमार किया जाए तो गलत न होगा। आखिर क्या हुआ इस दिन जो इसे बनाता है बेहद काला दिन?..
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इस दिन का भारतीय इतिहास में काफी महत्व है जो हमारे आपसी प्रेम संबंधों से कहीं उठकर है और वो है देश प्रेम। जी हां 14 तारीख यानी आज के ही दिन हमारे आपके जैसे एक युवा ने देश-प्रेम की मिसाल रचते हुए फांसी के तख्ते को चूमने का मन बना लिया और यहीं से एक आम युवा बन गया इंकलाब की तस्वीर.....
आप सोच रहे होंगे कि आखिर यहां किस शख्स की बात हो रही है। दिमाग पर ज्यादा बल डालने की जरूरत नहीं है। हम बात कर रहे हैं शहीद-ए-आजम भगत सिंह की। जी हां वही 23 साल का बांका जवान जिसके आगे तत्कालीन अंग्रेज हुक्मरानों तक ने घुटने टेक दिए थे। उनके हौसलों की आग में इतने शोले थे कि वे अकेले ही सारी फिरंगी हुक्मरानों को देश से निकाल फेंकने की ताकत रखती थी। भगत सिंह ने देशप्रेम की अमर मिसाल रचते हुए महज 23 साल की उम्र में फांसी को गले लगा लिया और देश में क्रांति की एक नई इबारत लिख गए जिसके बाद अंग्रेजों का देश में टिकना असंभव हो गया। भगत सिंह को फांसी पर क्रूर अंग्रेजी हुकूमत ने 23 मार्च 1931 में चढ़ा दिया था। फिर भला आज यानि कि 14 फरवरी से इस संदर्भ का क्या रिश्ता हो सकता है..... आपका सोचना एकदम वाजिब है।
rajnish manga
15-02-2013, 01:45 PM
शहीदे आज़म भगत सिंह की बात हो रही हो तो उनके जीवन से जुड़ी हर तारीख़ महत्वपूर्ण हो जाती है. सो, 14 फरवरी की उनकी ज़िंदगी में क्या अहमियत रही या क्या रोल था यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है. कृपया आप ही खुलासा करें, दीपू जी.
शहीदे आज़म भगत सिंह की बात हो रही हो तो उनके जीवन से जुड़ी हर तारीख़ महत्वपूर्ण हो जाती है. सो, 14 फरवरी की उनकी ज़िंदगी में क्या अहमियत रही या क्या रोल था यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है. कृपया आप ही खुलासा करें, दीपू जी.
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rajnish manga
15-02-2013, 05:29 PM
दीपू जी, यहाँ लगता है कुछ गलत फहमी हो गयी है. भगत सिंह और अन्य दो शहीदों को लाहौर सैंट्रल जेल में 23 मार्च 1931 को फांसी दी गयी थी न कि 14 फरवरी 1931 को. मैंने कई जगह चैक किया है - २३ मार्च ही सही तारीख़ है (e.g. wiki/question/answer). हाँ, rediff.com के प्रश्नोत्तर में किसी ने अवश्य इस बात का ज़िक्र किया है और पूछा है कि इस दिन (यानी 14 फरवरी) को वैलेंटाइन डे की बजाय शहीद दिवस के रूप में क्यों न मनाया जाये? इसी के नीचे कई लोगों ने इस त्रुटि की ओर ध्यान भी दिलाया है और 23 मार्च 1931 को ही शहीदों को फांसी दिए जाने की ओर इशारा किया है. मेरे पास प्रकाशन विभाग, भारत सरकार द्वारा प्रकाशित पुस्तक 'शहीदों के ख़त' के पृष्ठ 14 पर बताया गया है कि 12 जून 1929 को उन्हें तथा बटुकेश्वर दत्त को 'असेम्बली बम केस' में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी और पृष्ठ २६ पर बताया गया है कि 17 अक्टूबर 1930 को भगत सिंह व अन्य दो शहीदों पर चल रहे 'लाहौर कांस्पीरेसी केस' में निर्णय सुनाया गया और उन्हें फांसी की सजा हुयी. आगे पृष्ठ 27 पर यह विवरण है "भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को 23 मार्च 1931 की शाम फांसी पर चढ़ा दिया गया. लाहौर सेन्ट्रल जेल में जब उन्हें फांसी स्थल की और ले जाया जा रहा था, बीच में थे भगत सिंह और उनके अगल-बगल सुखदेव और राजगुरू चल रहे थे. तीनों ने अपनी बाहें एक-दूसरे की बाहों में डाल रखी थीं. अंग्रेजों ने उसी रात सतलुज नदी के तट पर हुसैनी वाला पुल के निकट तीनों शहीदों के शव को फूंक डाला. यह कार्य छिप कर रात के अँधेरे में किया गया ताकि जनता को कुछ मालूम न हो.
उपरोक्त विवरण से ज्ञात होता है कि शहीद भगत सिंह के जीवन से 14 फरवरी का कोई सम्बन्ध नहीं है.
rajnish manga
15-02-2013, 05:40 PM
दीपू जी, कृपया इसे अन्यथा न लें. देखने में आया है कि अलग अलग स्रोत से ग्रहण की गयी सामग्री में कई बार विरोधाभास आ जाता है. यही संभवतः इस मामले में भी हुआ है.
rajnish manga
17-02-2013, 09:17 PM
उपरोक्त सूत्र में 14 फरवरी का जो ज़िक्र किया गया है उसके बारे में ऊपर लिखे गए विवरण के बाद अब एक और तथ्य मेरी जानकारी में आया है. 'आज़ादी के मुकदमें' नामक पुस्तक में सरदार भगत सिंह के मुकदमे के बारे में पढ़ते हुए निम्नलिखित पाठ दिया गया है:-
इस मृत्युदंड की सजा सुनाये जाने के बाद भी यह न्यायिक युद्ध समाप्त नहीं हुआ. कुछ विशिष्ट व्यक्तियों से निर्मित बचाव परिषद् ने प्रिवी कौंसिल में एक अर्जी देने का निर्णय किया ..... प्रिवी कौंसिल द्वारा यह अर्जी नामंजूर कर दी गयी.
14 फरवरी 1931 को पंडित मदन मोहन मालवीय ने इससे हार मानने की बजाय वायसराय के समक्ष अपील की और उनसे दया के अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल कर मानवीय आधार पर मृत्यु-दंड को आजीवन निर्वासन में बदलने का अनुरोध किया .....
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