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View Full Version : मोती और माणिक्य


rajnish manga
25-02-2013, 09:32 PM
मोती और माणिक्य नामक इस सूत्र के माध्यम से मैं लोक जीवन, लोक कथाओं / लोक गाथाओं तथा इतिहास में धड़कने वाले और कहीं न कहीं हमारी समृद्ध संस्कृति एवं परम्पराओं की झलक देने वाले महापुरुषों को श्रद्धा पूर्वक याद करते हुए उन्हें पुष्पांजलि अर्पित करना चाहता हूँ. इसी कड़ी में सबसे पहले अकबर के नौरत्नों में से एक कविवर अब्दुर रहीम खान-ए-खाना (ई. सन् 1556- 1627) की पावन स्मृति को प्रणाम करते हुये अपनी बात का आरम्भ उन्ही के चंद दोहों से से कर रहा हूँ.

rajnish manga
25-02-2013, 09:34 PM
कविवर रहीम
बड़े बड़ाई न करै बड़े न बोलें बोल i
रहिमन हीरा कब कहे लाख टका मेरा मोल ii

रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून i
पानी गए न ऊबरे मोती मानुष चून न ii

रहिमन बिपदा हूँ भली जो थोरे दिन होय i
हित अनहित या जगत में जानि परत सब कोय ii

रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय i
टूटे से फिर ना मिले मिले गाँठ पड़ जाय ii

छिमा बड़ेन को चाहिए छोटिन को उतपात i
का रहीम हरि को घट्यो जो भृगु मारी लात ii

तरुवर फल नहीं खात हैं सरवर पियहिं न पान i
कहि रहीम पर काज हित संपति सँचहि सुजान ii

रहिमन गली है सांकरी दूजो ना ठहराहि i
आपु अहे तो हरि नहीं हरि तो आपुन नाहीं ii

rajnish manga
25-02-2013, 09:37 PM
हिन्दी साहित्य के इतिहास में जिनका नाम स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है उन्हीं प्रख्यात भक्तिकालीन कवि रहीम के रचे कुछ अमर दोहे आपने ऊपर पढ़े. इन्होने प्रकृति, अध्यात्म, भक्ति एवं श्रृंगार विषयक रचनाओं में अपने विचारों की मधुर अभिव्यक्ति करते हुये हिंदी साहित्य को समृद्ध और गौरवान्वित किया है. इनकी रचनाओं में ब्रिजभाषा का भी सुन्दर स्वरुप देखने को मिलता है. दो पंक्ति के दोहों में इन्होने जैसे गागर में सागर भरने वाला काम किया है.

रहीम के बारे में प्रसिद्ध था कि वे ज़रूरतमंदों की खूब मदद किया करते थे और दान पुण्य भी किया करते थे. प्रतिदिन इनके घर के बाहर जो लोग जमा होते थे उन्हें दान दक्षिणा दे कर विदा किया जाता था. यह सत्य है कि बड़ी बड़ी बख्शीशें देने से या बड़ी बड़ी रकमें दान में देने से कोई बड़ा नहीं बन जाता. उदारता तो वह है जो सहज स्वाभाविक हो.सच्चे उदार व्यक्ति को यह गुमान भी नहीं होता कि वह उदार है.

इन्हीं कविवर रहीम के बारे में एक प्रसंग लोक विख्यात है. एक बार इनकी बेगम ने इनसे यह प्रश्न किया:-

सीखी कहाँ नवाब जू ऐसी दैनी देन ?
ज्यों ज्यों कर ऊपर उठे त्यों त्यों नीचे नैन ii

कविवर ने बड़ी विनम्रतापूर्वक यह उत्तर दिया:-

देनहार कोऊ और है भेजत सो दिन रैन i
लोग भरम हम पे धरें या ते नीचे नैन ii

(कहीं कहीं इस प्रसंग के साथ कवि गंग का नाम भी जोड़ा जाता है)
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bindujain
26-02-2013, 07:35 AM
:bravo::bravo::bravo:

rajnish manga
28-02-2013, 02:34 PM
अब्दुर रहीम खान खाने-खाना अकबर के संरक्षक बैराम खां के बेटे थे और उन्होंने अकबर और जहांगीर दोनों की सेवायें की थीं. उन्हें अनेक भाषाओं का अच्छा ज्ञान था जैसे अरबी, फारसी, तुर्की, संस्कृत और हिन्दी. उन्होंने रहीम या रहिमन नाम से हिंदी में दोहों की रचना की.

रहीम के जीवन के कुछ प्रसंग

1. गोस्वामी तुलसीदास से भी रहीम का परिचय था. एक दिन तुलसीदास ने किसी गरीब ब्राह्मण को रहीम के पास भेजा. ब्राह्मण को अपनी कन्या के विवाह के लिए कुछ धन चाहिए था. तुलसीदास ने निम्न लिखित आधा दोहा लिख कर उस ब्राहण के हाथ बिहारी को भिजवाया:

“सुरतिय, नरतिय, नागतिय, अस चाहती सब कोय”

रहीम ने इस दोहे को यूं पूरा किया और उस ब्राहमण को बहुत सा धन दे कर तुलसीदास के पास भिजवा दिया:

“गोद लिए हुलसी फिरे, तुलसी सो सुत होय.”

rajnish manga
28-02-2013, 02:36 PM
2. एक बार रहीम का एक नौकर छुट्टी ले कर अपने घर गया. छुट्टी के दिन समाप्त होने पर जब वह आने लगा तो उसकी नई नवेली दुल्हन ने उसे कुछ दिन और रुकने को कहा. लेकिन नौकरी छूट जाने के डर से नौकर ने उसकी बात न मानी. तब उसकी पत्नि ने एक बरवै लिख कर लिफ़ाफ़े में बंद कर के पति को दिया और कहा कि इसे अपने मालिक को दे देना. नौकर ने ऐसा ही किया. रहीम ने लिफाफा खोला तो उसमें लिखा था:

प्रेम प्रीत का बिरवा, चल्यो लगाय.
सींचन की सुध लीज्यो, मुरझि न जाय.

रहीम उसे पढ़ कर सारी बात समझ गए.उन्होंने उसी समय नौकर को बुलवाया. उसे घर जाने के लिए लम्बी छुट्टी दे कर और उसकी दुल्हन के लिए नए कपड़े और उपहार दे कर उसे बिदा किया. बाद में रहीम ने इसी छंद में कई रचनाएं लिखीं.

rajnish manga
28-02-2013, 02:38 PM
3. रहीम कृष्ण के बड़े भक्त थे. अपनी कविताओं में उन्होंने कृष्ण के प्रति भक्ति का बहुत सुन्दर वर्णन किया है :

जिहि रहीम चित आपनो कीन्हो चतुर चकोर.
निशि वासर लागे रहें, कृष्ण चन्द्र की ओर.

4. रहीम महाराणा प्रताप की देश भक्ति और उनके स्वाभिमान की बड़ी प्रशंसा किया करते थे. एक बार इनके घर की बेगमें राजपूतों के हाथ पद गईं. राणाजी ने बड़े ही आदर के साथ उनके रहीम के पास भेज दिया. तब से तो रहीम राणा जी का और भी आदर करने लगे.इसका बदला चुकाने के लिए उन्होंने एक बार अकबर को मेवाड़ पर एक बड़ी चढ़ाई करने से रोका भी था. राना जी के विषय में इन्होने राजस्थानी बोली में बहुत से दोहे रचे, उनमे से एक नीचे दिया जा रहा है :

भ्रम रहसी, रहसी धरा, खिसजासे खुरसाण.
अमर बिंसम्भर ऊपरै, रखियो न हाचो राण.

अकबर के बाद जहांगीर के राज्य में रहीम को बहुत तकलीफें उठानी पडीं. दरबारियों ने बादशाह को इतना भड़काया कि वह उसकी जान का दुश्मन हो गया. उसने रहीम के छोटे बेटे को मरवा दिया रहीम को सभी सुविधाओं से महरूम कर दिया गया. बाद में जहांगीर को अपनी भूल का अनुभव हुआ तो उसने रहीम को आदर सहित दरबार में बुलवाया और वह एक बार फिर से शाही ठाट बाट से रहने लगे.

rajnish manga
28-02-2013, 02:40 PM
खाने खाना का मकबरा
शहंशाह अकबर ने बैराम खां के बाद उनके बेटे अब्दुर रहीम खान को खाने-खाना की उपाधि प्रदान की थी जिनका मकबरा निजामुद्दीन इलाके के सामने मथुरा रोड के पूर्व में है. यह एक विशाल चौकौर इमारत है जो मेहराबी कोठरियों वाले एक ऊंचे चबूतरे पर स्थित है. इसमें हुमायूं के मकबरे के नमूने को अपनाया गया है. सन 1626 में मुग़ल सम्राट जहांगीर ने रहीम के मरने के बाद उसकी याद में दिल्ली में यह शानदार मकबरा बनवाया था.

सन 1956-57 में रहीम का 400 वाँ ज़ोमें-पैदाइश (चौथी जन्म-शती) मनाया जा रहा था तो भारत के तत्कालीन प्रधान मंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू खाने-खाना के मकबरे को देखने गए. वह यह देख कर दंग रह गए कि इस इमारत की देखभाल करने वाला कोई नहीं था. खाने-खाना के मकबरे के चारों ओर लोगों ने कब्जे कर रखे थे. उन के दिल को चोट पहुंची. उन्होंने हुक्म दिया कि मकबरे की हालत ठीक करवाई जाए और चारों ओर सफ़ाई राखी जाये. इसके बाद इमारत की मरम्मत भी कर दी गई और चारों ओर बाग़ भी लगा दिया गया. रहीम के मकबरे की दास्तान भी बहुत कुछ उनके जीवन की कहानी से मिलती जुलती है. खाने-खाना ने भी अपने जीवन में कई उतार चढ़ाव देखे.
*****

rajnish manga
09-04-2013, 11:47 PM
कविवर सियाराम शरण गुप्त

कवि परिचय :- सियारामशरण गुप्त का जन्म झाँसी के निकट चिरगाँव में सन् 1895 में हुआ था। खड़ी बोली के महान कवि मैथिलीशरण गुप्त इनके बड़े भाई थे. उनकी रचनाओं से और राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन से ये बहुत प्रभावित थे. गुप्त जी की रचनाओं का प्रमुख गुण है कथात्मकता। इन्होंने अपनी रचनाओं द्वारा सामाजिक कुरुतियों पर करारी चोट की है। इनके काव्य की पृष्ठभूमि अतीत हो या वर्तमान, उनमे मानवता के प्रति करुणा, यातना और द्वंद्व समन्वित रूप में उभरा है।

सियाराम गुप्त की प्रमुख कृतियाँ:– मौर्य विजय , आर्द्रा , पाथेय , मृण्मयी , उन्मुक्त , आत्मोत्सर्ग , दूर्वादलऔर नकुल तथा नारी (उपन्यास)।

नोट: मुझे यह बताते हुए बड़ा गर्व होता है कि उनकी काव्य-कृति “मौर्य विजय” पढ़ने का सौभाग्य दसवीं कक्षा में पढ़ते हुए मिला. यह पुस्तिका हमारे पाठ्यक्रम का भाग थी. संदर्भित कविता “एक फूल की चाह” हमें आठवीं कक्षा में पढाई गई थी.

(रजनीश मंगा)

कविता का सारांश :- ‘ एक फूल की चाह ’ छुआछूत की समस्या से संबंधित कविता है। महामारी के दौरान एक अछूत बालिका भी उसकी चपेट में आ जाती है। वह अपने जीवन की अंतिम साँसे ले रही है। वह अपने माता- पिता से कहती है कि वे उसे देवी के प्रसाद का एक फूल लाकर दें । पिता असमंजस में है कि वह मंदिर में कैसे जाए। मंदिर के पुजारी उसे अछूत समझते हैं और मंदिर में प्रवेश के योग्य नहीं समझते। फिर भी बच्ची का पिता अपनी बच्ची की अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए मंदिर में जाता है। वह दीप और पुष्प अर्पित करता है और फूल लेकर लौटने लगता है। बच्ची के पास जने की जल्दी में वह पुजारी से प्रसाद लेना भूल जाता है। इससे लोग उसे पहचान जाते हैं। वे उस पर आरोप लगाते हैं कि उसने वर्षों से बनाई हुई मंदिर की पवित्रता नष्ट कर दी। वह कहता है कि उनकी देवी की महिमा के सामने उनका कलुष कुछ भी नहीं है। परंतु मंदिर के पुजारी तथा अन्य लोग उसे थप्पड़-मुक्कों से पीट-पीटकर बाहर कर देते हैं। इसी मार-पीट में देवी का फूल भी उसके हाथों से छूट जाता है। भक्तजन उसे न्यायालय ले जाते हैं। न्यायालय उसे सात दिन की सज़ा सुनाता है। सात दिन के बाद वह बाहर आता है , तब उसे अपनी बेटी की ज़गह उसकी राख मिलती है।
इस प्रकार वह बेचारा अछूत होने के कारण अपनी मरणासन्न बेटी की अंतिम इच्छा पूरी नहीं कर पाता। इस मार्मिक प्रसंग को उठाकर कवि पाठकों को यह कहना चाहता है कि छुआछूत की कुप्रथा मानव-जाति पर कलंक है। यह मानवता के प्रति अपराध है।

rajnish manga
09-04-2013, 11:52 PM
उद्वेलित कर अश्रु-राशिआँ
ह्रदय-चितायें धधका कर ,
महा महामारी प्रचण्ड हो
फ़ैल रही थी इधर उधर..

क्षीण-कंठ मृत्वत्साओं का
करूँ रुदन दुर्दांत नितांत,
भरे हुये था निज क्रश रव में
हाहाकार अपार अशांत ..

बहुत रोकता था सुखिया को,
न जा खेलने को बाहर’ ,
नहीं खेलना रुकता उसका
नहीं ठहरती वह पल – भर.

मेरा ह्रदय कांप उठता था ,
बाहर गई निहार उसे;
यही मनाता था कि बचा लूँ
किस भांति इस बार उसे.

rajnish manga
09-04-2013, 11:54 PM
भीतर जो डर रहा छिपाए,
हाय! वही बाहर आया .
एक दिवस सुखिया के तनु को
ताप-तप्त मैंने पाया.

ज्वर में विव्हल हो बोली वह,
क्या जानूँ किस डर से डर,
मुझको देवी के प्रसाद का
एक फूल ही दो लाकर.

क्रमशः कंठ क्षीण हो आया,
शिथिल हुये अवयव सारे,
बैठा था नव-नव उपाय की
चिंता में मैं मन मारे.

जान सका न प्रभात सजग से
हुई अलस कब दोपहरी,
स्वर्ण-घनों में कब रवि डूबा,
कब आयी संध्या गहरी.

rajnish manga
09-04-2013, 11:56 PM
सभी और दिखलाई दी बस ,
अंधकार की ही छाया,
छोटी सी बच्ची को ग्रसने
कितना बड़ा तिमिर आया!

ऊपर विस्तृत महाकाश में
जलते से अंगारों से ,
झुलसी सी जाती थी आँखें
जगमग जागते तारों से.

देख रहा था – जो सुस्थिर हो
नहीं बैठती थी क्षण – भर,
हाय! वही चुप चाप पड़ी थी
अटल शांति सी धारण कर!

सुनना वही चाहता था मैं
उसे स्वयं ही उकसाकर –
मुझको देवी के प्रसाद का
एक फूल ही दो लाकर !

rajnish manga
09-04-2013, 11:57 PM
ऊंचे शैल - शिखर के ऊपर
मंदिर था विस्तीर्ण विशाल ;
स्वर्ण-कलश सरसिज विहसित थे
पाकर समुदित रवि-कर-जाल.

दीप - धूप से आमोदित था
मंदिर का आंगन सारा ;
गूँज रही थी भीतर – बाहर
मुखरित उत्सव की धारा .

भक्त-वृंद मधु-मधुर कंठ से
गाते थे सभक्ति मुद्-मय, -
‘पतित –तारिणी पाप-हारिणी,
माता, तेरी जय जय जय!’

‘पतित-तारिणी, तेरी जय जय’......
मेरे मुख से भी निकला,
बिना बढ़े ही मैं आगे को
जाने किस बल से ढिकला !

rajnish manga
09-04-2013, 11:58 PM
बेटी बतला तो तू मुझको
किसने तुझे बताया यह
किसके द्वारा कैसे तूने
भाव अचानक पाया यह?


मैं अछूत हूँ मुझे कौन हा!
मन्दिर में जाने देगा
देवी का प्रसाद ही मुझको
कौन यहाँ लाने देगा?

बार बार फिर फिर तेरा हठ!
पूरा इसे करूँ कैसे
किससे कहे कौन बतलावे
धीरज हाय! धरूँ कैसे?


कोमल कुसुम समान देह हा!
हुई तप्त अंगार-मयी
प्रति पल बढ़ती ही जाती है
विपुल वेदना व्यथा नई।

rajnish manga
10-04-2013, 12:00 AM
मैंने कई फूल ला लाकर
रक्खे उसकी खटिया पर
सोचा - शान्त करूँ मैं उसको
किसी तरह तो बहला कर।

तोड़-मोड़ वे फूल फेंक सब
बोल उठी वह चिल्ला कर -
मुझको देवी के प्रसाद का
एक फूल ही दो लाकर!


देख रहा था - जो सुस्थिर हो
नहीं बैठती थी क्षण भर
हाय! बही चुपचाप पड़ी थी
अटल शान्ति-सी धारण कर।

सुनना वही चाहता था मैं
उसे स्वयं ही उकसा कर -
मुझको देवी के प्रसाद का
एक फूल ही दो लाकर!

rajnish manga
10-04-2013, 12:02 AM
हे मात: हे शिवे अम्बिके
तप्त ताप यह शान्त करो
निरपराध छोटी बच्ची यह
हाय! न मुझसे इसे हरो!

काली कान्ति पड़ गई इसकी
हँसी न जाने गई कहाँ
अटक रहे हैं प्राण क्षीण तर
साँसों में ही हाय यहाँ!

अरी निष्ठुरे बढ़ी हुई ही
है यदि तेरी तृषा नितान्त
तो कर ले तू उसे इसी क्षण
मेरे इस जीवन से शान्त!

मैं अछूत हूँ तो क्या मेरी
विनती भी है हाय! अपूत
उससे भी क्या लग जावेगी
तेरे श्री-मन्दिर को छूत?

Dark Saint Alaick
10-04-2013, 10:21 AM
बेहतरीन सूत्र है, रजनीशजी। यह सिद्ध करता है कि क्लासिक्स के पुनर्पाठ का मज़ा अलग ही है। धन्यवाद आपको। :bravo:

rajnish manga
10-04-2013, 11:39 PM
किसे ज्ञात मेरी विनती वह, पहुँची अथवा नहीं वहाँ
उस अपार सागर का दीखा, पार न मुझको कहीं वहाँ।

अरी रात क्या अक्ष्यता का, पट्टा लेकर आई तू
आकर अखिल विश्व के ऊपर, प्रलय-घटा सी छाई तू!

पग भर भी न बढ़ी आगे तू, डट कर बैठ गई ऐसी
क्या न अरुण-आभा जागेगी, सहसा आज विकृति कैसी!

युग के युग-से बीत गये हैं, तू ज्यों की त्यों है लेटी
पड़ी एक करवट कब से तू, बोल बोल कुछ तो बेटी!

वह चुप थी पर गूँज रही थी, उसकी गिरा गगन-भर भर -
'मुझको देवी के प्रसाद का - एक फूल तुम दो लाकर!'

"कुछ हो देवी के प्रसाद का, एक फूल तो लाऊँगा
हो तो प्रात:काल शीघ्र ही, मन्दिर को मैं जाऊँगा।

तुझ पर देवी की छाया है, और इष्ट है यही तुझे
देखूँ देवी के मन्दिर में, रोक सकेगा कौन मुझे।"

मेरे इस निश्चल निश्चय ने, झट-से हृदय किया हलका
ऊपर देखा - अरुण राग से, रंजित भाल नभस्थल का!

rajnish manga
10-04-2013, 11:41 PM
झड़-सी गई तारकावलि थी, म्लान और निष्प्रभ होकर
निकल पड़े थे खग नीड़ों से, मानों सुध-बुध सी खो कर।

रस्सी डोल हाथ में लेकर, निकट कुएँ पर जा जल खींच
मैंने स्नान किया शीतल हो, सलिल-सुधा से तनु को सींच।

उज्वल वस्र पहन घर आकर,अशुचि ग्लानि सब धो डाली।
चन्दन-पुष्प-कपूर-धूप से, सजली पूजा की थाली।

सुकिया के सिरहाने जाकर, मैं धीरे से खड़ा हुआ।
आँखें झँपी हुई थीं मुख भी, मुरझा-सा था पड़ा हुआ।

मैंने चाहा - उसे चूम लें, किन्तु अशुचिता से डर कर
अपने वस्त्र सँभाल सिकुड़कर, खड़ा रहा कुछ दूरी पर।

वह कुछ कुछ मुसकाई सहसा, जाने किन स्वप्नों में लग्न
उसकी वह मुसकाहट भी हा! कर न सकी मुझको मुद-मग्न।

अक्षम मुझे समझकर क्या तू, हँसी कर रही है मेरी?
बेटी जाता हूँ मन्दिर में, आज्ञा यही समझ तेरी।

उसने नहीं कहा कुछ मैं ही, बोल उठा तब धीरज धर -
तुझको देवी के प्रसाद का, एक फूल तो दूँ लाकर!

rajnish manga
11-04-2013, 05:27 PM
ऊँचे शैल-शिखर के ऊपर, मन्दिर था विस्तीर्ण विशाल
स्वर्ण-कलश सरसिज विहसित थे,पाकर समुदित रवि-कर-जाल।

परिक्रमा-सी कर मन्दिर की, ऊपर से आकर झर झर
वहाँ एक झरना झरता था, कल-कल मधुर गान कर-कर।

पुष्प-हार-सा जँचता था वह, मन्दिर के श्री चरणों में
त्रुटि न दिखती थी भीतर भी, पूजा के उपकरणों में।

दीप-दूध से आमोदित था, मन्दिर का आंगन सारा
गूँज रही थी भीतर-बाहर, मुखरित उत्सव की धारा।

भक्त-वृन्द मृदु-मधुर कण्ठ से, गाते थे सभक्ति मुद-मय -
"पतित-तारिणि पाप-हारिणी, माता तेरी जय-जय-जय!"

"पतित-तारिणी तेरी जय-जय" - मेरे मुख से भी निकला
बिना बढ़े ही मैं आगे को, जानें किस बल से ढिकला!

माता तू इतनी सुन्दर है, नहीं जानता था मैं यह
माँ के पास रोक बच्चों की, कैसी विधी यह तू ही कह?

आज स्वयं अपने निदेश से, तूने मुझे बुलाया है
तभी आज पापी अछूत यह, श्री-चरणों तक आया है।

rajnish manga
11-04-2013, 05:30 PM
मेरे दीप-फूल लेकर वे, अम्बा को अर्पित करके
दिया पुजारी ने प्रसाद जब, आगे को अंजलि भरके

भूल गया उसका लेना झट, परम लाभ-सा पाकर मैं।
सोचा - बेटी को माँ के ये, पुण्य-पुष्प दूँ जाकर मैं।

सिंह पौर तक भी आंगन से, नहीं पहुँचने मैं पाया
सहसा यह सुन पड़ा कि-"कैसे यह अछूत भीतर आया?

पकड़ो देखो भाग न जावे, बना धूर्त यह है कैसा
साफ-स्वच्छ परिधान किए है, भले मानुषों जैसा!

पापी ने मन्दिर में घुसकर, किया अनर्थ बड़ा भारी
कुलषित कर दी है मन्दिर की, चिरकालिक शुचिता सारी।"

ए क्या मेरा कलुष बड़ा है, देवी की गरिमा से भी
किसी बात में हूँ मैं आगे, माता की महिमा से भी?

माँ के भक्त हुए तुम कैसे, करके यह विचार खोटा
माँ से सम्मुख ही माँ का तुम, गौरव करते हो छोटा!

कुछ न सुना भक्तों ने झट से, मुझे घेर कर पकड़ लिया
मार-मार कर मुक्के-घूँसे, धम-से नीचे गिरा दिया!

rajnish manga
11-04-2013, 05:33 PM
मेरे हाथों से प्रसाद भी, बिखर गया हा! सब का सब
हाय! अभागी बेटी तुझ तक, कैसे पहुँच सके यह अब।

मैंने उनसे कहा - दण्ड दो, मुझे मार कर ठुकरा कर
बस यह एक फूल कोई भी, दो बच्ची को ले जाकर।

न्यायालय ले गए मुझे वे, सात दिवस का दण्ड-विधान
मुझको हुआ हुआ था मुझसे, देवी का महान अपमान!

मैंने स्वीकृत किया दण्ड वह, शीश झुकाकर चुप ही रह
उस असीम अभियोग दोष का, क्या उत्तर देता क्या कह?

सात रोज ही रहा जेल में, या कि वहाँ सदियाँ बीतीं
अविस्श्रान्त बरसा करके भी, आँखें तनिक नहीं रीतीं।

कैदी कहते - "अरे मूर्ख क्यों, ममता थी मन्दिर पर ही?
पास वहाँ मसजिद भी तो थी, दूर न था गिरजाघर भी।"

कैसे उनको समझाता मैं, वहाँ गया था क्या सुख से
देवी का प्रसाद चाहा था, बेटी ने अपने मुख से।

दण्ड भोग कर जब मैं छूटा, पैर न उठते थे घर को
पीछे ठेल रहा था कोई, भय-जर्जर तनु पंजर को।

rajnish manga
11-04-2013, 05:38 PM
पहले की-सी लेने मुझको, नहीं दौड़ कर आई वह
उलझी हुई खेल में ही हा! अबकी दी न दिखाई वह।

उसे देखने मरघट को ही, गया दौड़ता हुआ वहाँ -
मेरे परिचित बन्धु प्रथम ही, फूँक चुके थे उसे जहाँ।

बुझी पड़ी थी चिता वहाँ पर, छाती धधक उठी मेरी
हाय! फूल-सी कोमल बच्ची, हुई राख की थी ढेरी!

अन्तिम बार गोद में बेटी, तुझको ले न सका मैं हाय!
एक फूल माँ का प्रसाद भी, तुझको दे न सका मैं हा!

वह प्रसाद देकर ही तुझको, जेल न जा सकता था क्या?
तनिक ठहर ही सब जन्मों के, दण्ड न पा सकता था क्या?

बेटी की छोटी इच्छा वह, कहीं पूर्ण मैं कर देता
तो क्या अरे दैव त्रिभुवन का, सभी विभव मैं हर लेता?

यहीं चिता पर धर दूँगा मैं, - कोई अरे सुनो वर दो -
मुझको देवी के प्रसाद का, एक फूल ही लाकर दो!
** इति **

rajnish manga
11-04-2013, 06:02 PM
कवि परिचय:
नज़ीर अकबराबादी का जन्म आगरा शहर में 1735 में हुआ था. इनका वास्तविक नाम वली मोहम्मद था. इन्होने आगरा के उर्दू फ़ारसी के नामचीन विद्वानों से तालीम हासिल की. वे राह चलते नज्मे सुनाने के लिए भी मशहूर थे. कहा आता है कि टट्टू पर जाते नज़ीर को कोई दुकानदार रोक लेता और अपने रोजगार के बारे में कविता सुनाने की फरमाइश कर बैठता. इस प्रकार लोग अपना माल बेचने के लिए नज़ीर की कविताओं का सहारा लिया करते थे. भिश्ती, ककड़ी बेचने वाला, बिसाती और यहाँ तक कि वहां की गाने वालियां तक नज़ीर के दीवाने थे. वे हिन्दू-मुस्लिम त्यौहारों में बहुत रूचि लेते और उनमे बढ़ चढ़ कर भाग लेते थे. उनका होली वर्णन पढ़ने लायक है.

नज़ीर दुनिया के रंग में रंगे हुए शायर थे. इनकी शायरी में दुनियावालों का हंसना बोलना, चलना फिरना, दुःख दर्द, दिखावा आदि रूप सहज भाषा में अभिव्यक्त होते हैं. नज़ीर की कविताएं हमारी राष्ट्रीय एकता और गंगा जमुनी तहजीब की जिंदा मिसाल हैं. नज़ीर अपनी कविताओं में हंसी-विनोद-ठिठोली करते हैं, मित्रवत सलाह देते हैं और जीवन की समालोचना करते हैं.

“सब ठाठ पड़ा रह जाएगा” नामक कविता में कवि ने जीवन की कटु सच्चाइयों को बयान किया है. ”आदमी नामा” नामक कविता में नज़ीर ने सृष्टि की सबसे नायाब कृति यानि आदमी की अच्छाइयों, बुराइयों और संभावनाओं से परिचित कराया है. संसार को और भी सुन्दर कैसे बनाया जाए, इस पर भी विचार प्रकट किये गए हैं. सन 1830 में उनकी मृत्यु हो गई. उनका ज़िक्र आता है तो निम्नलिखित शब्द बे-साख्ता मुंह से निकल जाते है:

कहने को था नज़ीर, मगर बेनजीर था.
***

rajnish manga
11-04-2013, 06:04 PM
“बरसात कि बहारें” नामक कविता से –

कोयल की कूक में भी तेरा ही नाम हैगा
और मोर की रटल में तेरा पयाम हैगा
ये रंग सौ मजे का जो सुबहो शाम हेगा
क्या क्या मची है यारो बरसात की बहारें.
(शायर: नज़ीर अकबराबादी)
*****
क्या क्या कहूं मैं किश्न कन्हैय्या का बालपन.


क्या क्या कहूं मैं किश्न कन्हैय्या का बालपन.
ऐसा था बांसुरी के बजैय्या का बालपन.
हर मन की होक मोहिनी और चित लुभावनी
निकली जहाँ धुन उसकी, वो मीठी सुहावनी.
सब सुनाने वाले कह उठे जय जय हरी-हरी,
ऐसी बजाई किश्न कन्हैय्या ने बांसुरी.
(शायर: नज़ीर अकबराबादी)
*****
काम आई न कुछ फकीरी न कुछ तख़्त न छत्तर.
यह ख़ाक पे मुआ वो मुआ तख़्त के ऊपर.
थी जिसकी जैसी कद्र वह बतला के मर गया.
जीता रहा न कोई हर एक एक आ के मर गया.
(शायर: नज़ीर अकबराबादी)

rajnish manga
11-04-2013, 06:07 PM
हुशियार यारे जाना यह गाँव है ठगों का.
याँ टुक निगाह चूकी और माल दोस्तों का.
इसकी बगल में गुप्ती, तेग उसके हाथ में है.
वह इसकी फ़िक्र में है, यह उसकी घात में है.
(शायर: नज़ीर अकबराबादी)

***
क्या गेहूं, चावल, मोठ, मटर, क्या आग धुआं और अंगारा.
सब ठाट पड़ा रह जाएगा, जब लाद चलेगा बंजारा.
क्या शक्कर-मिश्री, कंद, गरी, क्या साम्भर मीठा खारी है.
क्या दाख, मुनक्के, सोंठ, मिर्च क्या केसर, लोंग, सुपारी है.
सब ठाट पड़ा रह जाएगा, जब लाद चलेगा बंजारा.
ये खेप जो तूने लादी है सब हिस्सों में बट जायेगी.
धी, पूत, जवांई, पोता क्या बंजारिन पास न आवेगी.
सब ठाट पड़ा रह जाएगा, जब लाद चलेगा बंजारा.
(शायर: नज़ीर अकबराबादी)

rajnish manga
11-04-2013, 06:09 PM
ज़र की जो मुहब्बत तुझे पड़ जायेगी बाबा.

ज़र की जो मुहब्बत तुझे पड़ जायेगी बाबा.
दुःख इसमें तेरी रूह बहुत पाएगी बाबा.
गर नेक कहाता है, कर जाये कुछ अहसान.
हिन्दू को खिला पूरी, मुसलमां को खिला नान.
उससे यही बेहतर है, तू ही इसे खा जा,
बेटों को रफीकों को, अजीजों को खिला जा.
सब रूबरू अपने, मये-इशरत में उड़ा जा,
फिर शौक से हँसता हुआ जन्नत को चला जा.
वरना तुझे हर दुःख में ये फंसवाएगी बाबा.
दुःख इसमें तेरी रूह बहुत पाएगी बाबा.

तू लाख अगर माल के संदूक भरेगा,
है ये तो यकीं, आखिरश इक दिन तू मरेगा,
फिर बाद तेरे इसपे जो कोई हाथ धरेगा,
और नाच, मज़ा देखेगा और ऐश करेगा,
और रूह तेरी कब्र में चिल्लाएगी बाबा.
दुःख इसमें तेरी रूह बहुत पाएगी बाबा.
(शायर: नज़ीर अकबराबादी)

rajnish manga
11-04-2013, 06:13 PM
जिस पे आती है मुफ़लिसी

जब आदमी के हाल पे आती है मुफ़लिसी.
किस किस तरह से उसको सताती है मुफ़लिसी.
प्यासा तमाम रोज़ बिठाती है मुफ़लिसी,
भूका तमाम रात सुलाती है मुफ़लिसी,
ये दुःख वो जाने जिस पे आती है मुफ़लिसी.

बीबी की नथ न लड़कों के हाथों कड़े रहे,
कपड़े मियाँ के बनिए के घर में पड़े रहे,
जब कड़ियाँ बिक गई तो खंडर में पड़े रहे,
जंजीर न किवाड़ न पत्थर गड़े रहे,
आखिर को ईंट ईंट खुदाती है मुफ़लिसी.

जब आदमी के हाल पे आती है मुफ़लिसी.
किस किस तरह से उसको सताती है मुफ़लिसी.
(शायर: नज़ीर अकबराबादी)

***
है वो भी आदमी

दुनिया में पादशाह है सो वह भी आदमी
और मुफलिसों-गदा है सो वह भी आदमी
(शायर: नज़ीर अकबराबादी)

rajnish manga
25-04-2013, 11:44 PM
मैथिलिशरण गुप्त
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=26767&stc=1&d=1366915577

जन्म: 3 अगस्त 1886
मृत्यु: 12 दिसंबर 1964

महाकवि ने 12 वर्ष की वय में कविता लिखना शुरू कर दिया था. आपके पिता भी कविता करते थे. उनकी शिक्षा दीक्षा घर पर ही हुई. उन्होंने मराठी, बंगला और संस्कृत भाषाओं का भी अच्छा ज्ञान प्राप्त किया था. वे गाँधी जी, राजेंद्र प्रसाद, नेहरु व बिनोबा भावे के निकट संपर्क में रहे तथा उनके विचारों का उनके जीवन तथा साहित्य पर बहुत प्रभाव रहा. 1936 में जब कवि की 50वीं वर्षगाँठ मनाई गई तो गाँधी जी ने ही उनके सम्मान में संकलित “काव्यमान ग्रन्थ” का विमोचन किया. यही अवसर था जब गाँधी जी ने उन्हें सर्वप्रथम “राष्ट्र-कवि” का संबोधन दिया. वे राजनीति में भी सक्रिय रहे. 1952 में वे राज्य सभा के लिए मनोनीत किये गए. 1954 में उन्हें राष्ट्रपति ने पद्म-भूषण उपाधि से अलंकृत किया. ऐसा माना जाता है कि अपने राज्य सभा कार्यकाल के दौरान उन्होंने एकाधिक बार अपना वक्तव्य कविता में ही दिया था.

“साकेत” नामक महाकाव्य उनकी प्रमुख व कालजयी रचना है जिसे मंगलाप्रसाद पारितोषिक से सम्मानित किया गया. उन्हें साहित्य वाचस्पति की उपाधि भी प्रदान की गई. काशी विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें डी. लिट उपाधि से अलंकृत किया गया. साकेत के अलावा उन्होंने अन्य अनेक काव्य ग्रंथों की भी रचना की थी जैसे – जयद्रथ वध, यशोधरा, पंचवटी, सिद्धराज आदि. हम यहाँ राष्ट्रकवि को अपनी श्रद्धांजलि देते हुए उनके महान कृतित्व से कुछ चुने हुए मोती प्रस्तुत करेंगे.

rajnish manga
25-04-2013, 11:50 PM
खंड काव्य “सिद्धराज” का मंगलाचरण:

iiश्रीगणेशायनम:ii
सिद्धराज
मंगलाचरण

आप अवतीर्ण हुए दुःख देख जन के,
भ्रातृ–हेतु राज्य छोड़, वासी बने वन के,
राक्षसों को मार भार मेटा धरा-धाम का,
बढ़े धर्म, दया-दान युद्ध-वीर राम का i

rajnish manga
25-04-2013, 11:51 PM
“सिद्धराज” से एक अंश:

बोली फिर पुत्र को निहार वह नारी यों –
“सोमनाथ जाना क्यों न होगा लाल, विभु तो
विश्व भर में हैं व्याप्त, किन्तु किसी क्षेत्र का
उनके प्रभाव से प्रताप बढ़ जाता है ;
जाते हैं उसे ही हम मस्तक झुकाने को i
सबमे रमे हैं राम, तदपि अयोध्या में,
चित्रकूट, पंचवटी और रामेश्वरम में,
उनके चरित्र हमें करते पवित्र हैं i
ऐसे शुभ स्थानों का मिला है भर जिनको,
वे भी पूजनीय हैं हमारे धन्य सुकृति i
कर कहो, शुल्क कहो, भेंट कहो उनको
यदि हम दे सकें, तो देंगे नम्र भाव से i
शिव के लिए ही सोमनाथ नहीं जाती में,
वे तो विराजे मेरे ही शिवाले में i
उनके उपासकों के भावों की विभूति को
भेंटने मैं जा रही हूँ, मेटने को लालसा ;
आते खाजुराहे यथा आर्य, बौद्ध, जैन हैं i
तर्क-बुद्धि से ही सब काम किये जाते हैं,

किन्तु भगवान में तो श्रद्धाभक्ति ही भली i
नास्तिकों के हेतु लोष्ट मात्र जो है, उसमे
पाती भगवान को है भावुकों की भावना ;
मानिए तो शंकर हैं, कंकर हैं अन्यथा i”
*****

rajnish manga
25-04-2013, 11:54 PM
भारत भारती का एक अंश:

मंगलाचरण

मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरतीं
भगवान् ! भारतवर्ष में गूँजे हमारी भारती।
हो भद्रभावोद्भाविनी वह भारती हे भवगते।
सीतापते। सीतापते !! गीतामते! गीतामते !!
***

आर्य
हम कौन थे, क्या हो गये हैं, और क्या होंगे अभी
आओ विचारें आज मिल कर, यह समस्याएं सभी

भू लोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहां
फैला मनोहर गिरि हिमालय, और गंगाजल कहां

संपूर्ण देशों से अधिक, किस देश का उत्कर्ष है
उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है

यह पुण्य भूमि प्रसिद्घ है, इसके निवासी आर्य हैं
विद्या कला कौशल्य सबके, जो प्रथम आचार्य हैं

संतान उनकी आज यद्यपि, हम अधोगति में पड़े
पर चिन्ह उनकी उच्चता के, आज भी कुछ हैं खड़े

वे आर्य ही थे जो कभी, अपने लिये जीते न थे
वे स्वार्थ रत हो मोह की, मदिरा कभी पीते न थे

वे मंदिनी तल में, सुकृति के बीज बोते थे सदा
परदुःख देख दयालुता से, द्रवित होते थे सदा

संसार के उपकार हित, जब जन्म लेते थे सभी
निश्चेष्ट हो कर किस तरह से, बैठ सकते थे कभी

फैला यहीं से ज्ञान का, आलोक सब संसार में
जागी यहीं थी, जग रही जो ज्योति अब संसार में

वे मोह बंधन मुक्त थे, स्वच्छंद थे स्वाधीन थे
सम्पूर्ण सुख संयुक्त थे, वे शांति शिखरासीन थे

मन से, वचन से, कर्म से, वे प्रभु भजन में लीन थे
विख्यात ब्रह्मानंद नद के, वे मनोहर मीन थे.
******

rajnish manga
26-04-2013, 12:00 AM
नर हो न निराश करो मन को

नर हो न निराश करो मन को
कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रहके निज नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को ।
संभलो कि सुयोग न जाए चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलम्बन को
नर हो न निराश करो मन को ।
जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को ।
निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
मरणोत्तर गुंजित गान रहे
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो न निराश करो मन को ।
**

rajnish manga
26-04-2013, 12:01 AM
नहुष का पतन

मत्त-सा नहुष चला बैठ ऋषियान में
व्याकुल से देव चले साथ में, विमान में...


दिखता है मुझे तो कठिन मार्ग कटना
अगर ये बढ़ना है तो कहूँ मैं किसे हटना?...


कठिन कठोर सत्य तो भी शिरोधार्य है
शांत हो महर्षि मुझे, सांप अंगीकार्य है"...


फिर भी ऊठूँगा और बढ़के रहुँगा मैं
नर हूँ, पुरुष हूँ, चढ़ के रहुँगा मैं
चाहे जहाँ मेरे उठने के लिये ठौर है
किन्तु लिया भार आज मैंने कुछ और है
उठना मुझे ही नहीं बस एक मात्र रीते हाथ
मेरा देवता भी और ऊंचा उठे मेरे साथ
**

rajnish manga
26-04-2013, 12:03 AM
‘पंचवटी’ से -

चारु चन्द्र की चंचल किरणें
खेल रही हैं जल थल में
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुयी है
अवनि और अम्बर-तल में
पुलक प्रकट करती है धरती
हरित तृणों की नोकों से,
मानो झीम रहे हैं तरु भी
मंद पवन के झोंकों से ii

rajnish manga
26-04-2013, 12:05 AM
“साकेत” से –

राम तुम्हारा वृत्त आप ही काव्य है.
कोई कवि बन जाये सहज संभाव्य है.
-- वाल्मीकि के मुख से उद्गार


हाँ जन कर भी मैंने भरत को न जाना,
सब सुन लें, तुमने स्वयं अभी यह माना
यह सच है तो फिर लौट चलो घर भैया,
अपराधिनी मैं हूँ तात, तुम्हारी मैया.
-- कैकई राम से


सौ बार धन्य वह एक लाल की माई.
जिस जननी ने है जना भरत सा भाई.
-- राम कैकई से
******

rajnish manga
20-06-2013, 01:12 PM
हिंदी के मूर्धन्य साहित्यकार
पं. बाल कृष्ण शर्मा “नवीन”

पं. बाल कृष्ण शर्मा “नवीन” का जन्म 8 दिसंबर 1897 को गाँव भयाना, जिला शाजापुर, मध्य प्रदेश में हुआ था. उनके पिता का नाम पं. जमनादास और माता का नाम राधा बाई था.

बचपन से ही बालकृष्ण बड़े प्रतिभा-संपन्न थे किन्तु 11 वर्ष की वय तक विद्यालय नहीं जा पाए. उनकी माता उन्हें शाजापुर लेकर आ गईं जहाँ से उन्होंने मिडिल का इम्तिहान पास किया. 1917 में उन्होंने उज्जैन से दसवीं पास की. इस बीच उनकी मुलाक़ात पं. माखनलाल चतुर्वेदी से हुयी जिन्होंने उन्हें पं. गणेश शंकर विद्यार्थी के पास कानपुर भेज दिया. इस प्रकार कानपुर ही उनकी कर्मभूमि बन गई थी. अभी वे कानपुर के क्राइस्ट चर्च कॉलेज में बी.ए. फाइनल वर्ष में ही थे कि उन्होंने अपने राजनैतिक जीवन की शुरुआत की. 1921 में महात्मा गाँधी के आह्वान और कांग्रेस के एक प्रस्ताव का अनुपालन करते हुये उन्होंने समान विचारधारा वाले अपने कई साथियों के साथ कॉलेज की पढ़ाई छोड़ दी और स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय रूप से शामिल हो गये. 1921 से 1944 तक उन्हें छह बार जेल की सजा हुयी. उन्हें अत्यंत खतरनाक कैदियों में शुमार किया जाता था. आज़ादी के बाद नवीन जी ने राजनैतिक और साहित्यिक योगदान जारी रखा. उन्हें संविधान सभा के सदस्य के तौर पर भी मनोनीत किया गया. देश के पहले आम चुनावों में वह कानपुर लोक सभा निर्वाचन-क्षेत्र से चुनाव जीतकर संसद में पहुंचे थे. 1957 से मृत्यु-पर्यंत वे राज्य सभा के सदस्य के रूप में राजनीति से जुड़े रहे. उनकी श्रेष्ठ वक्तृता शक्ति के कारण उन्हें ‘कानपुर का शेर कहा जाता था. वह राजभाषा आयोग और सांस्कृतिक शिष्टमंडल के सदस्य रहे और कई योरोपीय देशों के दौरे पर गए जिनमे इंगलैंड भी शामिल था. पं. गणेश शंकर विद्यार्थी के स्वर्गवास हो जाने पर, नवीन जी ने ही ‘प्रताप’ का सम्पादन कार्य सम्हाला इसे जिसमे उन्होंने पूरी निष्ठा और लगन का परिचय दिया.

एक देशभक्त होने के साथ साथ उन्होंने हिंदी काव्य साहित्य में भी अपूर्व योगदान दिया. उनकी प्रमुख काव्य कृतियों में ‘कुमकुम’, ‘रश्मिरेखा’, ‘अपलक’, ‘क्वासी’, ‘विनोबा स्तवन’, ‘उर्मिला’ आदि शामिल हैं. भारतीय ज्ञानपीठ ने उनकी मृत्यु उपरान्त “हम विषपायी जनम के” नामक ग्रन्थ प्रकाशित किया. उनकी साहित्यिक सेवाओं के लिए उनको राष्ट्रपति द्वारा ‘पद्म भूषण’ पुरस्कार से अलंकृत किया गया. 29 अप्रेल 1960 को भारत माता के इस सपूत का स्वर्गवास हो गया.

rajnish manga
20-06-2013, 01:15 PM
‘हम विषपायी जनम के’ संग्रह से एक कविता
जूठे पत्ते

अरे चाटते जूठे पत्ते जिस दिन मैंने देखा नर को
उस दिन सोचा: क्यों न लगा दूँ आज आग इस दुनिया भर को?
यह भी सोचा: टेंटुआ घोंटा जाये स्वयं जगपति का ?
जिसने अपने ही स्वरुप को रूप दिया इया घृणित विकृति का.

जगपति कहाँ? अरे! सदियों से वह तो हुआ राख की ढेरी;
वरना समता - संस्थापन में लग जाती क्या इतनी देरी?
छोड़ आसरा अलख शक्ति का; रे नर, स्वयं जगतपति तू है,
तू यदि जूठे पत्ते चाटे, तो मुझ पर लानत है, थू है.

कैसा बना रूप यह तेरा, घृणित, पतित, वीभत्स, भयंकर!
नहीं याद क्या तुझको तू है, चिर सुन्दर, नवीन, प्रलयंकर?
भिक्षा-पात्र फेंक हाथों से, तेरे स्नायु बड़े बलशाली,
अभी उठेगा प्रलय नींद से, तनिक बजा तू अपनी ताली.

(रचना काल: 31/07/1937)

rajnish manga
20-06-2013, 01:18 PM
अब यह रोना धोना क्या?

नंग नहाये ताल तलैया, धोना और निचोना क्या?
जब यूं बेघरबार हुए, तब बाती, दीप संजोना क्या?
जब आकाश बन चुका चंदुवा, तब छप्पर में सोना क्या?
जब संग्रह का विग्रह छूटा, तब अब स्वर्ग खिलौना क्या?

rajnish manga
20-06-2013, 01:20 PM
विप्लव गायन / बालकृष्ण शर्मा 'नवीन'

कवि, कुछ ऐसी तान सुनाओ, जिससे उथल-पुथल मच जाए,
एक हिलोर इधर से आए, एक हिलोर उधर से आए,

प्राणों के लाले पड़ जाएँ, त्राहि-त्राहि रव नभ में छाए,
नाश और सत्यानाशों का -धुँआधार जग में छा जाए,

बरसे आग, जलद जल जाएँ, भस्मसात भूधर हो जाएँ,
पाप-पुण्य सद्सद भावों की, धूल उड़ उठे दायें-बायें,

नभ का वक्षस्थल फट जाए-तारे टूक-टूक हो जाएँ
कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ, जिससे उथल-पुथल मच जाए।

माता की छाती का अमृत-मय पय काल-कूट हो जाए,
आँखों का पानी सूखे, वे शोणित की घूँटें हो जाएँ,

एक ओर कायरता काँपे, गतानुगति विगलित हो जाए,
अंधे मूढ़ विचारों की वहअचल शिला विचलित हो जाए,

और दूसरी ओर कंपा देनेवाला गर्जन उठ धाए,
अंतरिक्ष में एक उसी नाशकतर्जन की ध्वनि मंडराए,

कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ, जिससे उथल-पुथल मच जाए,
नियम और उपनियमों के येबंधक टूक-टूक हो जाएँ,

विश्वंभर की पोषक वीणाके सब तार मूक हो जाएँ
शांति-दंड टूटे उस महा-रुद्र का सिंहासन थर्राए

उसकी श्वासोच्छ्वास-दाहिका, विश्व के प्रांगण में घहराए,
नाश! नाश!! हा महानाश!!! कीप्रलयंकारी आँख खुल जाए,

कवि, कुछ ऐसी तान सुनाओजिससे उथल-पुथल मच जाए।

सावधान! मेरी वीणा में, चिनगारियाँ आन बैठी हैं,
टूटी हैं मिजराबें, अंगुलियाँदोनों मेरी ऐंठी हैं।

कंठ रुका है महानाश का मारक गीत रुद्ध होता है,
आग लगेगी क्षण में, हृत्तलमें अब क्षुब्ध युद्ध होता है,

झाड़ और झंखाड़ दग्ध हैं -इस ज्वलंत गायन के स्वर से
रुद्ध गीत की क्रुद्ध तान हैनिकली मेरे अंतरतर से!

कण-कण में है व्याप्त वही स्वररोम-रोम गाता है वह ध्वनि,
वही तान गाती रहती है, कालकूट फणि की चिंतामणि,

जीवन-ज्योति लुप्त है - अहा!सुप्त है संरक्षण की घड़ियाँ,
लटक रही हैं प्रतिपल में इसनाशक संभक्षण की लड़ियाँ।

चकनाचूर करो जग को, गूँजेब्रह्मांड नाश के स्वर से,
रुद्ध गीत की क्रुद्ध तान हैनिकली मेरे अंतरतर से!

दिल को मसल-मसल मैं मेंहदीरचता आया हूँ यह देखो,
एक-एक अंगुल परिचालनमें नाशक तांडव को देखो!

विश्वमूर्ति! हट जाओ!! मेराभीम प्रहार सहे न सहेगा,
टुकड़े-टुकड़े हो जाओगी, नाशमात्र अवशेष रहेगा,

आज देख आया हूँ – जीवनके सब राज़ समझ आया हूँ,
भ्रू-विलास में महानाश केपोषक सूत्र परख आया हूँ,

जीवन गीत भूला दो - कंठ, मिला दो मृत्यु गीत के स्वर से
रुद्ध गीत की क्रुद्ध तान है, निकली मेरे अंतरतर से!

rajnish manga
20-06-2013, 01:27 PM
नवीन जी की नज़र में दिनकर और दद्दा

सन 1942 से ही दिनकर जी मधुमेह के रोगी थे. उनको मिठाई पूरी वाला खाना वर्जित था. अपने घर पर वह परहेज वाला खाना ही खाते थे. लेकिन मैथिलिशरण गुप्त जी को बेसन के लड्डू और बासी पूरी खाने-खिलाने का शौक था. बाहर दिनकर जी भी इन्हें खाने का लोभ न छोड़ पाते. गुप्त जी उनकी इस कमजोरी से भली भाँती परिचित थे. ज्योही दिनकर जी गुप्त जी के यहाँ पहुंचते उनके सामने बेसन के लड्डू और पूरियां परोस दी जाती थीं.

एक दिन दिनकर जी लड्डू-पूरी पर हाथ साफ कर रहे थे कि वहां नवीन जी आ पहुंचे. नवीन जी अत्यंत भावुक व्यक्ति थे और दिनकर जी को बहुत प्यार करते थे. नवीन जी को लगता था कि दिनकर जी के प्रति गुप्त जी का स्नेह निश्छल नहीं है.वैसे तो नवीन जी आरंभ से ही निर्भीक और मुंहफट होने की सीमा तक स्पष्टवादी थे, किन्तु उन दिनों वे अधिक ही मुंहफट हो गए थे. बाद में चल कर तो नवीन जी का मानसिक संतुलन ही बिगड़ गया था.बहरहाल, उस दिन दिनकर जी को लड्डू-पूरी खाते देख कर नवीन जी अनायास मैथिलीशरण गुप्त पर बरस पड़े, “दद्दा, तुम इतने बड़े दुष्ट हो, यह मुझे मालूम नहीं था. मधुमेह के रोगी को लड्डू खिला रहे हो ताकि यह मर जाए और तुम्हारा रास्ता साफ हो जाए!”
उन दिनों दद्दा को राष्ट्रकवि के नाम से संबोधित किया जाता था. बहुत से लोग दिनकर जी को भी राष्टकवि कह कर ही बुलाते थे. नवीन जी का क्रोध देख कर गुप्त जी अवाक रह गए. दिनकर जी को भी नवीन जी का उग्र व्यवहार उस समय अच्छा नहीं लगा था. लेकिन नवीन जी के देहावसान के बाद उनकी चर्चा करते हुए दिनकर जी अक्सर भावुक हो जाते थे. उन्होंने नवीन जी के देहावसान के बाद कहा था,

“नवीन जी का निश्छल प्यार मुझे मिला था, किन्तु इसे मैं उनके जीवन काल में समझ नहीं पाया. अंतिम समय वे अपना मानसिक संतुलन पूरी तरह खो चुके थे और खादी का पतला जांघिया पहने ही विनसर प्लेस से साउथ एवन्यू, मेरे फ्लेट में चले आते थे. तब मुझे उनका इस रूप में आना अच्छा नहीं लगता था. आज चारों तरफ देखता हूँ तो वैसा सहज मनुष्य कहीं नज़र नहीं आता. साहित्यकार और राजनीतिज्ञ सहज हो ही नहीं सकता. कितना बड़ा आश्चर्य है कि नवीन जी साहित्यकार थे और राजनीतिज्ञ भी.”

(पं. शिवसागर मिश्र के संस्मरण)

*****

rajnish manga
17-09-2013, 11:54 PM
मास्टर पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी जी

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=30578&stc=1&d=1379444410


जन्म = 27 मई, 1894
(जन्म स्थान: राजनांद गांव, छत्तीसगढ़)
मृत्यु = 18 दिसम्बर 1971

वे “सरस्वती” के कुशल संपादक, साहित्य वाचस्पति, और मास्टर जी के नाम से प्रसिद्ध हुये. 1911 में जबलपुर से निकलने वाली पत्रिका “हितकारिणी” में उनकी पहली कहानी ‘तारिणी’ 1911 में प्रकाशित हुई. यह एक विद्वान् निबंधकार के रूप में भी जाने जाते हैं. उपन्यासकार और कवि के रूप में भी इनका कृतित्व उल्लेखनीय है. 1920 से 1925 तक वे “सरस्वती” के सम्पादक (एक वर्ष) और प्रधान सम्पादक रहे. द्विवेदी युग के प्रमुख साहित्यकारों में उनकी गिनती की जाती है. उन्होंने कई वर्ष तक अध्यापन कार्य भी किया.

उनकी कुछ कवितायें नीचे दी जा रही हैं.

rajnish manga
17-09-2013, 11:55 PM
“शतदल” की कविता ‘ग्राम गौरव’ से

प्रेम की मंदाकिनी अलक्ष्य,
कर चुकी यहाँ तीर्थ की सृष्टि.
विश्व भी हो जाता कृतकृत्य,
यदि कभी उस पर पड़ती दृष्टि.
हो चुके कितने ही कुल रत्न,
किन्तु उनकी सुधि किसको आज?
शौर्य की लुप्त यहाँ है मूर्ति,
धैर्य का गुप्त यही गिरिराज.

सुना करता हूँ कथा विचित्र,
हुए कैसे कैसे भूपाल.
स्वल्प था उनका भू-विस्तार,
किन्तु था उनका ह्रदय विशाल.
यहीं ले जन्म यहीं पा म्रृत्यु,
यही कर सुख दुःख का उपभोग,
यहीं वे छोड़ गए निज कीर्ति,
भले ही भूल जायें अब लोग.

rajnish manga
17-09-2013, 11:57 PM
गाँव का जीवन
हुआ करता था पुलकित ग्राम, उमड़ जाता था हर्ष प्रवाह.
किसी भी गृह का पावन कृत्य, सभी को देता था उत्साह.
नहीं था उच्च नीच का भेद, सभी के लिए खुला था द्वार,
सभी रहते उत्सव में लीन, कौन किसका करता सत्कार.



एक के दुःख में सभी विषण्ण, एक के सुख में सुखी समस्त.
एक के संकट में सब त्रस्त, एक के कार्यों में सब व्यस्त.
न था वैभव का मिथ्या दम्भ, शक्ति का न था यहाँ संत्रास.
प्रेम का था सचमुच साम्राज्य, सभी का था सब पर विश्वास.

rajnish manga
18-09-2013, 10:10 AM
शायर: अली सरदार जाफ़री

नाम : अली सरदार जाफ़री

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=30606&stc=1&d=1379529128

जन्म : 29 नवम्बर 1913
गाँवबलरामपुर (गोंडा ज़िला, उ.प्र.) में
मृत्यु : 1 अगस्त 2000

शिक्षा :
एम.ए. लखनऊ विश्वविद्यालय


प्रकाशित कृतियाँ :
‘परवाज़’ (1944), ‘जम्हूर’ (1946), ‘नई दुनिया को सलाम’ (1947), ‘ख़ूबकी लकीर’ (1949), ‘अम्मन का सितारा’ (1950), ‘एशिया जाग उठा’ (1950), ‘पत्थर की दीवार’ (1953), ‘एक ख़्वाब और (1965) पैराहने शरर (1966), ‘लहु पुकारता है’ (1978)

सम्मान :
ज्ञानपीठ पुरस्कार, उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी पुरस्कार, कुमारन आशान पुरस्कार तथा इक़बाल सम्मान जैसे विशिष्ठ साहित्यिक सम्मानों से अलंकृत किया गया। भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री और रूसी सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार

rajnish manga
18-09-2013, 10:17 AM
भूखी मां, भूखा बच्चा

.....
सोजा मेरी मोहब्बत की कली
मेरी जवानी के गुलाब
मेरे इफ़लास के हीरे सोजा
(इफ़्लास = निर्धनता)
नींद में आयेंगी हंसती हुयी परियां तेरे पास
बोतले दूध की, शरबत के कटोरे ले कर

जाने आवाज़ की लोरी थी कि परियों का तिलिस्म
नींद सी आने लगी बच्चे को
खिंच गई नीलगूं होंठों पे ख़मोशी की लकीर
मुट्ठियाँ खोल दी और मूँद ली आँखें अपनी
यूं ढलकने लगा मन कि जैसे
शाम के ग़ार में सूरज गिर जाये

झुक गई माँ की ज़बीं बेटे की पेशानी पर
अब न आंसू थे, न सिसकी थी, न लोरी, न कलाम
एक सन्नाटा था ..
एक सन्नाटा था .. तारीक-ओ-तवील.

शब्दार्थ:
(तारीक-ओ-तवील = अन्धकारपूर्ण व लम्बा)

rajnish manga
18-09-2013, 10:59 AM
सिर्फ़ लहरा के रह गया आँचल
रंग बन कर बिखर गया कोई


गर्दिश-ए-ख़ूँ रगों में तेज़ हुई
दिल को छूकर गुज़र गया कोई


फूल से खिल गये तसव्वुर में
दामन-ए-शौक़ भर गया कोई

rajnish manga
18-09-2013, 11:02 AM
मेरा सफ़र

फिर एक दिन ऐसा आयेगा
आँखों के दिये बुझ जायेंगे
हाथों के कँवल कुम्हलायेंगे
और बर्ग-ए-ज़बाँ से नतक़-व-सदा
की हर तितली उड़ जायेगी

इक काले समन्दर की तह में
कलियों की तरह से खिलती हुई
फूलों की तरह से हँसती हुई
सारी शक्लें खो जायेंगी
ख़ून की गर्दिश दिल की धड़कन
सब रंगीनियाँ सो जायेंगी

और नीली फ़ज़ा की मख़्मल पर
हँसती हुई हीरे की ये कनी
ये मेरी जन्नत मेरी ज़मीं
इस की सुबहें इस की शामें
बेजाने हुए बेसमझे हुए
इक मुश्त ग़ुबार-ए-इन्साँ पर
शबनम की रो जायेंगी

हर चीज़ भुला दी जायेगा
यादों के हसीं बुतख़ाने से
हर चीज़ उठा दी जायेगी
फिर कोई नहीं ये पूछेगा
सद्र कहाँ है महफ़िल में
लेकिन मैं यहाँ फिर आऊँगा
बच्चों के दहन से बोलूँगा
चिड़ियों की ज़बाँ से गाऊँगा
जब बीज हँसेंगे धरती में
और कोंपलें अपनी उँगली से
मिट्टी की तहों को छेड़ेंगी
मैं पत्ती पत्ती कली कली
अपनी आँखें फिर खोलूँगा
सर सब्ज़ हथेली पर लेकर
शबनम के क़तरे तौलूँगा
(आगे है ...)

rajnish manga
18-09-2013, 11:03 AM
मैं रंग-ए-हेना आहंग-ए-ग़ज़ल
अन्दाज़-ए-सुख़न बन जाऊँगा
रुख़्सार-ए-उरूस-ए-नौ की तरह
हर आँचल से छन जाऊँगा

जाड़ों की हवायें दामन में
जब फ़सल-ए-ख़ज़ाँ को लायेंगी
रह्रू के जवाँ क़दमों के तले
सूखे हुए पत्तों से मेरे
हँसने की सदायें आयेंगी

धरती की सुनहरी सब नदियाँ
आकाश की नीली सब झीलें
हस्ती से मेरी भर जायेंगी
और सारा ज़माना देखेगा
हर क़िस्सा मेरा अफ़्साना है
हर आशिक़ है सरदार यहाँ
हर माशूक़ा सुल्ताना है
मैं एक गुरेज़ाँ लम्हा हूँ
अय्याम के अफ़्सूँखाने में
मैं एक तड़पता क़तरा हूँ
मसरूफ़-ए-सफ़र जो रहता है
माज़ी की सुराही के दिल से
मुस्तक़्बिल के पैमाने में
मैं सोता हूँ और जागता हूँ
और जाग के फिर सो जाता हूँ
सदियों का पुराना खेल हूँ मैं
मैं मर के अमर हो जाता हूँ

rajnish manga
18-09-2013, 11:13 AM
नज़्म

मां है रेशम के कारखाने में
बाप मसरूफ सूती मिल में है
कोख से मांकी जब से निकला है
बच्चा खोली के काले दिल में है

जब यहाँ से निकल के जाएगा
कारखानों के काम आयेगा
अपने मजबूर पेट की खातिर
भूक सर्माये की बढ़ाएगा

हाथ सोने के फूल उगलेंगे
जिस्म चांदी का धन लुटाएगा
खिड़कियाँ होंगी बैंक की रोशन
खून इसका दिए जलायेगा

यह जो नन्हा है भोला भाला है
खूनीं सर्माये का निवाला है
पूछती है यह इसकी खामोशी
कोई मुझको बचाने वाला है!

[सरमायेदार = पूंजीपति / capitalists]

rajnish manga
18-09-2013, 11:19 AM
जब नहीं आये थे तुम

तब भी तो तुम आये थे…
आंख में नूर की और
दिल में लहू की सूरत
याद की तरह धड़कते हुये
दिल की सूरत
तुम नहीं आये अभी
फिर भी तो तुम आये हो
रात के सीने में
महताब के खंजर की तरह
सुबह के हाथ में
खुर्शीद के सागर की तरह .
तुम नहीं आओगे जब
फिर भी तो तुम आओगे
ज़ुल्फ़ दर ज़ुल्फ़ बिखर जायेगा
फिर रात का रंग
शबे -तनहाई में भी
लुत्फ-ए-मुलाकात का रंग।
आओ, आने की करें बात
कि तुम आये हो…
अब तुम आए हो तो
मैं कौन सी शय नज्र करूं
कि मेरे पास
सिवा मेहरो वफा कुछ भी नहीं
एक दिल एक तमन्ना के सिवा
कुछ भी नहीं
एक दिल एक तमन्ना के सिवा
कुछ भी नहीं…
- अली सरदार जाफरी

rajnish manga
18-09-2013, 11:26 AM
कौन आज़ाद हुआ ?

किसके माथे से सियाही छुटी ?
मेरे सीने मे दर्द है महकुमी का
मादरे हिंद के चेहरे पे उदासी है वही


कौन आज़ाद हुआ ?


खंजर आज़ाद है सीने मे उतरने के लिए
वर्दी आज़ाद है वेगुनाहो पर जुल्मो सितम के लिए
मौत आज़ाद है लाशो पर गुजरने के लिए


कौन आज़ाद हुआ ?


काले बाज़ार मे बदशक्ल चुदैलों की तरह
कीमते काली दुकानों पर खड़ी रहती है
हर खरीदार की जेबो को कतरने के लिए


कौन आज़ाद हुआ ?


कारखानों मे लगा रहता है
साँस लेती हुयी लाशो का हुजूम
बीच मे उनके फिरा करती है बेकारी भी
अपने खूंखार दहन खोले हुए


कौन आज़ाद हुआ ?


रोटियाँ चकलो की कहवाये है
जिनको सरमाये के द्ल्लालो ने
नफाखोरी के झरोखों मे सजा रखा है
बालियाँ धान की गेंहूँ के सुनहरे गोशे
मिस्रो यूनान के मजबूर गुलामो की तरह
अजबनी देश के बाजारों मे बिक जाते है
और बदबख्त किसानो की तडपती हुयी रूह
अपने अल्फाज मे मुंह ढांप के सो जाती है


कौन आजाद हुआ ?

rajnish manga
18-09-2013, 11:34 AM
अली सरदार जाफरी की एक ग़ज़ल


काम अब कोई ना आएगा बस इक दिल के सिवा
रास्ते बंद हैं सब कूचा-ए-कातिल के सिवा

बाईस-ए-रश्क है तन्हारवी-ए-रहरौ-ए-शौक़
हमसफ़र कोई नहीं दूरी-ए-मंजिल के सिवा

हम ने दुनिया कि हर इक शै से उठाया दिल को
लेकिन इक शोख के हंगामा-ए-महफ़िल के सिवा

तेग मुंसिफ हो जहाँ, दार-ओ-रसन हों शाहिद
बेगुनाह कौन है उस शहर में कातिल के सिवा

जाने किस रंग से आई है गुलशन में बहार
कोई नगमा ही नहीं शोर-ए-सिलासिल के सिवा

rajnish manga
20-09-2013, 09:58 PM
अयोध्या प्रसाद सिंह “हरिऔध”

महाकाव्य “प्रियप्रवास” की अंतिम पंक्तियाँ

सच्चे स्नेही अवनिजन के देश के श्याम जैसे.
राधा जैसी सदय-हृदया विश्व प्रेमानुरक्ता.
हे विश्वात्मा! भारत-भुव के अंक में और आवें.
ऐसी व्यापी विरह-घटना किन्तु कोई न होवे.

कुछ अन्य पंक्तियाँ:

दिवस का अवसान समीप था,
गगन था कुछ लोहित हो चला,
तरु शिखा पर थी अवराजती,
कमलिनी कुल वल्लभ की प्रभा.

rajnish manga
20-09-2013, 10:00 PM
गुरुभक्त सिंह ‘भक्त’

महाकाव्य “नूरजहाँ” से –

तुम केवल प्यारे अधरों का आसव मुझे पिला देना.
रतनारी मदभरी आँख, आँखों से विहँस मिला देना.

-- जहांगीर - मेहर (नूरजहाँ) संवाद

rajnish manga
20-09-2013, 10:07 PM
जय शंकर प्रसाद

जन्म: 30 जनवरी 1889
मृत्यु: 14 जनवरी 1937

जयशंकर प्रसाद हिंदी साहित्य के छायावादी युग के प्रमुख स्तम्भ थे. उनका महाकाव्य “कामायनी” खड़ी बोली का एक गौरव ग्रन्थ है. पौराणिक पृष्ठभूमि में मनु तथा अन्य चरित्रों का जिस प्रकार विकास दिखाया गया है और जिस प्रकार उनके परस्पर द्वंद्व चित्रित किएगए हैं उनकी मिसाल अन्यत्र नहीं मिलती. पात्रो का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण इस काव्य की विशेषता है.

“कामायनी” महाकाव्य के आठ सर्ग है – 1. चिंता 2. आशा 3. श्रद्धा 4. काम 5. वासना 6. लज्जा 7. कर्म 8. ईर्ष्या 9. इड़ा 10. स्वप्न 11. संघर्ष 12. निर्वेद 13. दर्शन और 14. रहस्य.


इन्ही सर्गों में से चुने हुए अंश नीचे दिए जा रहे हैं –

rajnish manga
20-09-2013, 10:10 PM
चिंता –

नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन i
एक तत्व की ही प्रधानता - कहो उसे जड़ या चेतन ii

आशा –

तो फिर क्या मैं जियूँ और भी – जीकर क्या करना होगा?
देव, बता दो, अमर वेदना लेकर कब मरना होगा ii

कर्म –

औरों को हँसते देखो मनु, हंसो और सुख पाओ i
अपने सुख को विस्तृत कर लो सब को सुखी बनाओii

स्वप्न –

अरे मधुर हैं कष्टपूर्ण भी जीवन की बीती घड़ियाँ
जब निस्संबल हो कर कोई जोड़ रहा बिखरी कड़ियाँ
वही एक जो सत्य बना था चिर सुन्दरता में अपनी,
छिपा कहीं, कैसे सुलझें उलझी सुख दुःख की लड़ियाँii

rajnish manga
20-09-2013, 10:18 PM
कैफ़ी आज़मी
Kaifi Azmi (Sayyid Akhtar Hussein Rizvi)

कैफी आजमी : आखिरी सांस तक इन्क़लाबी
(कैफी आजमी : 19 जनवरी 1919-10 मई 2002)

- जयप्रकाश धूमकेतु

शादी से पहले जब 1947 में औरंगाबाद हमारे घर पर आए हुए थे, तो मैंने एक पेपर पर यह लिखकर उनके सामने बढ़ा दिया कि ‘काश जिंदगी में तुम मेरे हमसफर होते तो जिंदगी इस गुजर जाती जैसे फूलों पर से नीमसहर का झौंका’ और फिर 23 मई 1947 को कैफी आजमी की शादी शौकत आजमी के साथ संपन्न हुई। एक बेटी मुन्नी और एक बेटा बाबा आजमी के पिता बने कैफी आजमी। ग्यारह वर्ष तक बेटी मुन्नी बनी रही और फिर अली सरदार जाफरी ने मुन्नी को शबाना आजमी नाम दिया। कैफी के बेटे को ‘आया’ बाबा कहकर पुकारती थी, जिन्हें बाद में अहमर आजमी नाम दिया गया। परंतु आज भी व्यवहार में अहमर आजमी की अपेक्षा बाबा आजमी नाम ज्यादा प्रचलित है। कैफी आजमी की बेटी शबाना आजमी की शादी ख्यात शायर एवं गीतकार जावेद अख्तर के साथ तथा बेटे बाबा आजमी की शादी तन्वी के साथ संपन्न हुई।

rajnish manga
20-09-2013, 10:21 PM
पूर्वी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले की फूलपुर तहसील से 5-6 किमी की दूरी पर स्थित एक छोटा गांव मिजवां। मिजवां गांव के एक प्रतिष्ठित जमींदार परिवार में 19 जनवरी 1919 को सैयद फतह हुसैन रिज्वी और कनिज फातमा के चौथे बेटे के रूप में अतहर हुसैन रिज्वी का जन्म हुआ। अतहर हुसैन रिज्वी ने आगे चल कर अदब की दुनिया में कैफी आजमी नाम से बेमिसाल शोहरत हासिल की। कैफी के तीन बड़े भाइयों की तालीम लखनऊ और अलीगढ़ में आधुनिक ढंग से हुई। कैफी की चार बहनों की असासमयिक मृत्यु टीबी रोग से हुई, जिसका असर कैफी के दिल व दिमाग पर पड़ा। कैफी बहुत दुखी हुए। कैफी साहब के पिता को आने वाले समय का अहसास हो चुका था। उन्होंने अपनी जमींदारी की देखभाल करने के बजाय गांव से बाहर निकल कर नौकरी करने का मन बना लिया। उन दिनों किसी जमींदार परिवार के किसी आदमी का नौकरी-पेशे में जाना सम्मान के खिलाफ माना जाता था। कैफी के पिता का निर्णय घर के सदस्यों को भी अच्छा नहीं लगा।

खैर, वो लखनऊ चले आए और जल्द ही उन्हें अवध के बलहरी प्रान्त में तहसीलदारी की नौकरी मिल गई। कुछ ही दिनों बाद अपने बीवी बच्चों के साथ लखनऊ में एक किराये के मकान में रहने लगे। कैफी के पिता नौकरी करते हुए अपने गांव मिजवां से संपर्क बनाए हुए थे और गांव में एक मकान भी बनाया। जो उन दिनों हवेली कही जाती थी। कैफी की चार बहनों की असामयिक मृत्यु ने न केवल कैफी को विचलित किया, बल्कि उनके पिता का मन भी बहुत भारी हुआ। उन्हें इस बात की आशंका हुई कि लड़कों को आधुनिक तालीम देने के कारण हमारे घर पर विपत्ति आ पड़ी है। कैफी के माता-पिता ने निर्णय लिया कि कैफी को दीनी तालीम (धार्मिक शिक्षा) दिलाई जाए। कैफी का दाखिला लखनऊ के एक शिया मदरसा सुल्तानुल मदारीस में करा दिया गया। आयशा सिद्दीकी ने एक जगह लिखा है कि साहब को उनके बुजुर्गों ने एक दीनी शिक्षा गृह में इसलिए दाखिल किया था कि वहां पर फातिहा पढ़ना सीख जाएंगे। कैफी साहब इस शिक्षा गृह में मजहब का फातिहा पढ़कर निकल गए’।

rajnish manga
20-09-2013, 10:22 PM
सुल्तानुल मदारीस में पढ़ते हुए कैफी साहब 1933 ने प्रकाशित और ब्रिटिश हुकूमत द्वारा प्रतिबंधित कहानी संग्रह ‘अंगारे’ पढ़ लिया था, जिसका संपादन सज्जाद जहीर ने किया था। उन्हीं दिनों मदरसे की अव्यवस्था को लेकर कैफी साहब ने छात्रों की यूनियन बना कर अपनी मांगों के साथ हड़ताल शुरू कर दी। डेढ़ वर्ष तक सुल्तानुल मदारीस बंद कर दिया गया। परंतु गेट पर हड़ताल व धरना चलता रहा। धरना स्थल पर कैफी रोज एक नज्म सुनाते। धरना स्थल से गुजरते हुए अली अब्बास हुसैनी ने कैफी की प्रतिभा को पहचान कर कैफी और उनके साथियों को अपने घर आने की दावत दे डाली। वहीं पर कैफी साहब की मुलाकात एहतिशाम साहब से हुई, जो उन दिनों सरफराज के संपादक थे। एहतिशाम साहब ने कैफी की मुलाकात अली सरदार जाफरी से करायी। सुल्तानुल मदारीस से कैफी साहब और उनके कुछ साथी निकाल दिए गए। 1932 से 1942 तक लखनऊ में रहने के बाद कैफी साहब कानपुर चले गए और वहां मजदूर सभा में काम करने लगे। मजदूर सभा में काम करते हुए कैफी ने कम्यूनिस्ट लिट्रेचर का गंभीरता से अध्ययन किया। 1943 में जब बंबई में कम्यूनिस्ट पार्टी का आफिस खुला तो कैफी साहब बंबई चले गए और वहीं कम्यून में रहते हुए काम करने लगे।

rajnish manga
20-09-2013, 10:23 PM
सुल्तानुल मदारीस से निकाले जाने के बाद कैफी ने पढ़ना बंद नहीं किया। प्राइवेट परीक्षा में बैठते हुए उन्होंने दबीर माहिर (फारसी), दबीर कामिल (फारसी), आलिम (अरबी), आला काबिल (उर्दू), मुंशी (फारसी), मुंशी कामिल (फारसी) की डिग्री हासिल कर ली। कैफी साहब के घर का माहौल बहुत अच्छा था। शायरी का हुनर खानदानी था। उनके तीनों बड़े भाई शायर थे। आठ वर्ष की उम्र से ही कैफी साहब ने लिखना शुरू कर दिया था। 11 वर्ष की उम्र में पहली बार कैफी साहब ने बहराइच के मुशायरे में गजल पढ़ी। उस मुशायरे की अध्यक्षता मानी जयासी साहब कर रहे थे। कैफी साहब की गजल मानी साहब को बहुत पसंद आयी और उन्होंने कैफी को बहुत दाद दी। मंच पर बैठे बुजुर्ग शायरों को कैफी की प्रशंसा अच्छी नहीं लगी और फिर उनकी गजल पर प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिया गया कि क्या यह उन्हीं की गजल है? कैफी साहब को इम्तिहान से गुजरना पड़ा। मिसरा दिया गया- ‘इतना हंसो कि आंख से आंसू निकल पड़े’ फिर क्या कैफी साहब ने इस मिसरे पर जो गजल कही वह सारे हिंदुस्तान और पाकिस्तान में मशहूर हुई। लोगों का शक दूर हुआ। कैफी साहब का पहला कविता संग्रह ‘झनकार’ 1943 में प्रकाशित हुआ। ‘आखिरे शब’ (1947), ‘आवारा सज्दे’ (1963) में प्रकाशित हुआ। 1992 में उनके पूर्व प्रकाशित संग्रहों की चुनी हुई कविताएं ‘सरमाया’ नाम से प्रकाशित हुर्इं। कैफी साहब ने फिल्मों में बहुत से गीत लिखे। उनके फिल्मी गीतों पर उनकी शायरी का रंग बदस्तूर रहा।

1974 में ‘मेरी आवाज सुनो’ का प्रकाशन हुआ, जिसमें कैफी साहब के 240 फिल्मी नग्मे संग्रहीत हैं। ‘इब्लीस की मजलिस-ए-शूरा दूसरा इजलास’ का प्रकाशन 1983 में किया गया। कैफी आजमी बंबई से निकलने वाले अखबार ‘ब्लिट्ज’ में करीब एक दशक तक व्यंग्य कॉलम लिखते रहे। कैफी का यह एक तरह से गद्य लेखन था, जिसका प्रकाशन 2001 में ‘नई गुलिस्तां’ के नाम से दो खंडों में किया गया। शौकत आजमी के चलते कैफी थियेटर से भी जुड़ गए। 1943 में बंबई में इप्टा का गठन हुआ। कैफी बंबई इप्टा के अध्यक्ष बने। बाद में कैफी को पूरे देश में इप्टा के गठन और फैलाव की जिम्मेदारी दी गई। लंबे समय तक इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे। 1985 में वह इप्टा के पुनर्गठन के बाद इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गए और आजीवन इस पद पर रहे। कैफी ने इप्टा के लिए बहुत गीत और नाटक लिखे। बाल इप्टा के लिए भी नाटक व गीत लिखे। कैफी के दो नाटक ‘हीर-रांझा’ और ‘जहर-ए-इश्क’ प्रकाशित हो चुके हैं। ‘आखिरी शमा’ का प्रकाशन किया जाना बाकी है।

rajnish manga
20-09-2013, 10:25 PM
भारत-पाकिस्तान के बंटवारे को लेकर जितनी फिल्में आज तक बनी हैं, उनमें ‘गरम हवा’ को आज भी सर्वोत्कृष्ट फिल्म का दर्जा हासिल है। ‘गरम हवा’ फिल्म की कहानी, पटकथा, संवाद कैफी आजमी ने लिखे। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि ‘गरम हवा’ पर कैफी आजमी को तीन-तीन फिल्म फेयर अवार्ड दिए गए। पटकथा, संवाद पर बेस्ट फिल्म फेयर अवार्ड के साथ ही कैफी को ‘गरम हवा’ पर राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। पद्म श्री के साथ ही कैफी आजमी को ‘आवारा सज्दे’ कविता संग्रह पर उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी और साहित्य अकादमी पुरस्कार, सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार, अफ्रो-एशियाई लेखक संघ का लोटस पुरस्कार, गालिब पुरस्कार, हिंदी अकादमी दिल्ली का शताब्दी सम्मान, महाराष्ट्र उर्दू अकादमी सम्मान मिला। विश्व भारती विश्वविद्यालय ने कैफी साहब को डी लिट. की मानद उपाधि से सम्मानित किया।

जानकी कुटीर, बंबई में रहते हुए कैफी साहब को वह सब कुछ हासिल हुआ, जो अदब की दुनिया में किसी बड़ी से बड़ी हस्ती को हासिल हो सकता है। 1973 में फालिज के शिकार कैफी आजमी ने मिजवां की राह पकड़ ली। शौकत आजमी को तो साथ-साथ चलना ही था। कैफी बंबई महानगर (जानकी कुटीर) से निकल कर अपने पिछड़े साधनहीन गांव मिजवां (फतेह मंजिल) के हो गए। अपनी धरती अपने लोग का भावनात्मक लगाव और मिजवां के विकास का सपना कैफी के मन में बैठ गया।

जब कुछ लोगों ने कैफी पर यह इल्जाम लगाया कि अपने फायदे के लिए सड़क बनवा रहे हैं, तो उन्हें बहुत दुख हुआ। लखनऊ के एक होटल में कैफी गिर पड़े और कूल्हे की हड्डी में तीन जगह फै्रक्चर हो गया। चार महीने तक उन्हें लखनऊ मेडिकल कॉलेज में भरती होना पड़ा।

अजीब आदमी था वो, एक ऐसा आदमी जिसके शरीर का पूरा बायां अंग फालिज से प्रभावित हो चुका हो। कूल्हे की हड्डी में तीन-तीन फ्रैक्चर हो चुके हों, व्हील चेयर के बिना न चल पाने की स्थिति में हो फिर भी जिंदगी की आखिरी सांस तक जूझता रहा हो। अपने गांव को मॉडल विलेज बनाने के लिए, सड़कें, अस्पताल, डाकघर, टेलीफोन, प्रशिक्षण केंद्र, कम्यूनिटी सेंटर, लड़कियों का प्राथमिक, जूनियर, हायर सैकेंड्री स्कूल, जो कुछ भी मिजवां में दिख रहा है, कैफी के संकल्प और सपनों का प्रतिफल नहीं तो और क्या है? इतना ही नहीं मृत्यु के 2-3 वर्ष पूर्व कैफी मिजवां की एक जनसभा में अपनी बेटी शबाना से एक वादा भी करा लेते हैं कि मेरे न होने की स्थिति में मेरी लड़ाई को आगे बढ़ाती रहोगी और अधूरा काम पूरा करोगी। अदब की दुनिया का यह रोशन ख्याल शायर 10 मई 2002 को जसलोक अस्पताल बंबई में सब को अलविदा कर इस दुनिया से चल दिया।

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