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View Full Version : लोक कथाएं


bindujain
04-03-2013, 01:23 PM
चोर और राजा / लक्ष्मीनिवास बिडला

किसी जमाने में एक चोर था। वह बडा ही चतुर था। लोगों का कहना था कि वह आदमी की आंखों का काजल तक उडा सकता था। एक दिन उस चोर ने सोचा कि जबतक वह राजधानी में नहीं जायगा और अपना करतब नहीं दिखायगी, तबतक चोरों के बीच उसकी धाक नहीं जमेगी। यह सोचकर वह राजधानी की ओर रवाना हुआ और वहां पहुंचकर उसने यह देखने के लिए नगर का चक्कर लगाया कि कहां कया कर सकता है।

उसने तय कि कि राजा के महल से अपना काम शुरू करेगा। राजा ने रातदिन महल की रखवाली के लिए बहुतसे सिपाही तैनात कर रखे थे। बिना पकडे गये परिन्दा भी महल में नहीं घुस सकता था। महल में एक बहुत बडी घडीं लगी थी, जो दिन रात का समय बताने के लिए घंटे बजाती रहती थी।

चोर ने लोहे की कुछ कीलें इकठटी कीं ओर जब रात को घडी ने बारह बजाये तो घंटे की हर आवाज
के साथ वह महल की दीवार में एकएक कील ठोकता गया। इसतरह बिना शोर किये उसने दीवार में बारह कीलें लगा दीं, फिर उन्हें पकड पकडकर वह ऊपर चढ गया और महल में दाखिल हो गया। इसके बाद वह खजाने में गया और वहां से बहुत से हीरे चुरा लाया।

अगले दिन जब चोरी का पता लगा तो मंत्रियों ने राजा को इसकी खबर दी। राजा बडा हैरान और नाराज हुआ। उसने मंत्रियों को आज्ञा दी कि शहर की सडकों पर गश्त करने के लिए सिपाहियों की संख्या दूनी कर दी जाय और अगर रात के समय किसी को भी घूमते हुए पाया जाय तो उसे चोर समझकर गिरफतार कर लिया जाय।

जिस समय दरबार में यह ऐलान हो रहा था, एक नागरिक के भेष में चोर मौजूद था। उसे सारी योजना की एक एक बात का पता चल गया। उसे फौरन यह भी मालूम हो यगा कि कौन से छब्बीस सिपाही शहर में गश्त के लिए चुने गये हैं। वह सफाई से घर गया और साधु का बाना धारण करके उन छब्बीसों सिपाहियों की बीवियों से जाकर मिला। उनमें से हरेक इस बात के लिए उत्सुक थी कि उसकी पति ही चोर को पकडे ओर राजा से इनाम ले।

एक एक करके चोर उन सबके पास गया ओर उनके हाथ देख देखकर बताया कि वह रात उसके लिए बडी शुभ है। उसक पति की पोशाक में चोर उसके घर आयेगा; लेकिन, देखो, चोर की अपने घर के अंदर मत आने देना, नहीं तो वह तुम्हें दबा लेगा। घर के सारे दरवाजे बंद कर लेना और भले ही वह पति की आवाज में बोलता सुनाई दे, उसके ऊपर जलता कोयला फेंकना। इसका नतीजा यह होगा कि चोर पकड में आ जायगा।

सारी स्त्रियां रात को चोर के आगमन के लिए तैयार हो गईं। अपने पतियों को उन्होंने इसकी जानकारी नहीं दी। इस बीच पति अपनी गश्त पर चले गये और सवेरे चार बजे तक पहरा देते रहे। हालांकि अभी अंधेरा था, लेकिन उन्हें उस समय तक इधर उधर कोई भी दिखाई नहीं दिया तो उन्होंने सोचा कि उस रात को चोर नहीं आयगा, यह सोचकर उन्होंने अपने घर चले जाने का फैसला किया। ज्योंही वेघर पहुंचे, स्त्रियों को संदेह हुआ और उन्होंने चोर की बताई कार्रवाई शुरू कर दी।

फल वह हुआ कि सिपाही जल गये ओर बडी मुश्किल से अपनी स्त्रियों को विश्वास दिला पाये कि वे ही उनके असली पति हैं और उनके लिए दरवाजा खोल दिया जाय। सारे पतियों के जल जाने के कारण उन्हें अस्पताल ले जाया गया। दूसरे दिन राजा दरबार में आया तो उसे सारा हाल सुनाया गया। सुनकर राजा बहुत चिंतित हुआ और उसने कोतवाल को आदेश दिया कि वह स्वयं जाकर चोर पकड़े।

उस रात कोतवाल ने तेयार होकर शहर का पहरा देना शुरू किया। जब वह एक गली में जा रहा रहा था, चोर ने जवाब दिया, ‘मैं चोर हूं।″ कोतवाल समझा कि लड़की उसके साथ मजाक कर रही है। उसने कहा, ″मजाक छाड़ो ओर अगर तुम चोर हो तो मेरे साथ आओ। मैं तुम्हें काठ में डाल दूंगा।″ चोर बाला, ″ठीक है। इससे मेरा क्या बिगड़ेगा!″ और वह कोतवाल के साथ काठ डालने की जगह पर पहुंचा।

वहां जाकर चोर ने कहा, ″कोतवाल साहब, इस काठ को आप इस्तेमाल कैसे किया करते हैं, मेहरबानी करके मुझे समझा दीजिए।″ कोतवाल ने कहा, तुम्हारा क्या भरोसा! मैं तुम्हें बताऊं और तुम भाग जाओं तो ?″ चोर बाला, ″आपके बिना कहे मैंने अपने को आपके हवाले कर दिया है। मैं भाग क्यों जाऊंगा?″ कोतवाल उसे यह दिखाने के लिए राजी हो गया कि काठ कैसे डाला जाता है। ज्यों ही उसने अपने हाथ-पैर उसमें डाले कि चोर ने झट चाबी घुमाकर काठ का ताला बंद कर दिया और कोतवाल को राम-राम करके चल दिया।

जाड़े की रात थी। दिन निकलते-निकलते कोतवाल मारे सर्दी के अधमरा हो गया। सवेरे जब सिपाही बाहर आने लगे तो उन्होंने देखा कि कोतवाल काठ में फंसे पड़े हैं। उन्होंने उनको उसमें से निकाला और अस्पताल ले गये।

अगले दिन जब दरबार लगा तो राजा को रात का सारा किस्सा सुनाया गया। राजा इतना हैरान हुआ कि उसने उस रात चोर की निगरानी स्वयं करने का निश्चय किया। चोर उस समय दरबार में मौजूद था और सारी बातों को सुन रहा था। रात होने पर उसने साधु का भेष बनाया और नगर के सिरे पर एक पेड़ के नीचे धूनी जलाकर बैठ गया।

राजा ने गश्त शुरू की और दो बार साधु के सामने से गुजरा। तीसरी बार जब वह उधर आया तो उसने साधु से पूछा कि, ″क्या इधर से किसी अजनबी आदमी को जाते उसने देखा है?″ साधु ने जवाब दिया कि “वह तो अपने ध्यान में लगा था, अगर उसके पास से कोई निकला भी होगा तो उसे पता नहीं। यदि आप चाहें तो मेरे पास बैठ जाइए और देखते रहिए कि कोई आता-जाता है या नहीं।″ यह सुनकर राजा के दिमाग में एक बात आई और उसने फौरन तय किया कि साधु उसकी पोशाक पहनकर शहर का चक्कर लगाये और वह साधु के कपड़े पहनकर वहां चोर की तलाश में बैठे।

आपस में काफ बहस-मुबाहिसे और दो-तीन बार इंकार करने के बाद आखिर चोर राजा की बात मानने को राजी हो गया ओर उन्होंने आपस में कपड़े बदल लिये। चोर तत्काल राजा के घोड़े पर सवार होकर महल में पहुंचा ओर राजा के सोने के कमरे में जाकर आराम से सो गया, बेचारा राजा साधु बना चोर को पकड़ने के लिए इंतजार करता रहा। सवेरे के कोई चार बजने आये। राजा ने देखा कि न तो साधु लौटा और कोई आदमी या चोर उस रास्ते से गुजरा, तो उसने महल में लौट जाने का निश्चय किया; लेकिन जब वह महल के फाटक पर पहुंचा तो संतरियों ने सोचा, राजा तो पहले ही आ चुका है, हो न हो यह चोर है, जो राजा बनकर महल में घुसना चाहता है। उन्होंने राजा को पकड़ लिया और काल कोठरी में डाल दिया। राजा ने शोर मचाया, पर किसी ने भी उसकी बात न सुनी।

दिन का उजाला होने पर काल कोठरी का पहरा देने वाले संतरी ने राजा का चेहरा पहचान लिया ओर मारे डर के थरथर कांपने लगा। वह राजा के पैरों पर गिर पड़ा। राजा ने सारे सिपाहियों को बुलाया और महल में गया। उधर चोर, जो रात भर राजा के रुप में महल में सोया था, सूरज की पहली किरण फूटते ही, राजा की पोशाक में और उसी के घोड़े पर रफूचक्कर हो गया।

अगले दिन जब राजा अपने दरबार में पहुंचा तो बहुत ही हतरश था। उसने ऐलान किया कि अगर चोर उसके सामने उपस्थितित हा जायगा तो उसे माफ कर दिया जायगा और उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कीह जायगी, बल्कि उसकी चतुराई के लिए उसे इनाम भी मिलेगा। चोर वहां मौजूद था ही, फौरन राजा के सामने आ गया ओर बोला, “महाराज, मैं ही वह अपराधीह हूं।″ इसके सबूत में उसने राजा के महल से जो कुछ चुराया था, वह सब सामने रख दिया, साथ ही राजा की पोशाक और उसका घोड़ा भी। राजा ने उसे गांव इनाम में दिये और वादा कराया कि वह आगे चोरी करना छोड़ देगा। इसके बाद से चोर खूब आनन्द से रहने लगा।

bindujain
04-03-2013, 01:27 PM
सेठ घनश्याम दास बहुत बड़ी हवेली में रहता था। उसके तीन लड़के थे। पैसा, नौकर, चाकर, घोड़ा गाड़ी तो थी ही, मगर उसे अपने ख़ज़ाने में सबसे अधिक प्यार अपने 17 हाथियों से था। हाथियों की देखरेख में कोई कसर न रह जाए, इस बात का उसे बहुत ख़्याल था। उसे सदा यही फ़िक्र रहता था कि उसके मरने के बाद उसके हाथियों का क्या होगा। समय ऐसे ही बीतता चला गया और सेठ को महसूस हुआ कि उसका अंतिम समय अब अधिक दूर नहीं है।

उसने अपने तीनों बेटों को अपने पास बुलाया और कहा कि मेरा समय आ गया है। मेरे मरने के बाद मेरी सारी जायदाद को मेरी वसीयत के हिसाब से आपस में बाँट लेना। एक बात का ख़ास ख़्याल रखना कि मेरे हाथियों को किसी भी किस्म की कोई भी हानि न हो।

कुछ दिन बाद सेठ स्वर्ग सिधार गया। तीनों लड़कों ने जायदाद का बंटवारा पिता की इच्छा अनुसार किया, मगर हाथियों को लेकर सब परेशान हो गए। कारण था कि सेठ ने हाथियों के बंटवारे में पहले लड़के को आधा, दूसरे को एक तिहाई और तीसरे को नौवाँ हिस्सा दिया था। 17 हाथियों को इस तरह बाँटना एकदम असम्भव लगा। हताश होकर तीनों लड़के 17 हाथियों को लेकर अपने बाग में चले गए और सोचने लगे कि इस विकट समस्या का कैसे समाधान हो।

तभी तीनों ने देखा कि एक साधू अपने हाथी पर सवार, उनकी ही ओर आ रहा है। साधू के पास आने पर लड़कों ने प्रणाम किया और अपनी सारी कहानी सुनाई। साधू ने कहा कि अरे इस में परेशान होने की क्या बात है। लो मैं तुम्हें अपना हाथी दे देता हूँ। सुनकर तीनों लड़के बहुत खुश हुए। अब सामने 18 हाथी खड़े थे। साधू ने पहले लड़के को बुलाया और कहा कि तुम अपने पिता की इच्छा अनुसार आधे यानि नौ हाथी ले जाओ। दूसरे लड़के को बुलाकर उसने एक तिहाई यानि छ: हाथी दे दिए। छोटे लड़के को उसने बुलाकर कहा कि तुम भी अपना नौंवाँ हिस्सा यानि दो हाथी ले जाओ। नौ जमा छ: जमा दो मिलाकर 17 हाथी हो गए और एक हाथी फिर भी बचा गया। लड़कों की समझ में यह गणित बिलकुल नहीं आया और तीनों साधू महाराज की ओर देखते ही रहे। उन सब को इस हालत में देखकर साधू महाराज मुस्काए और आशीर्वाद देकर तीनों से विदा ले, अपने हाथी पर जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में चले गए। इधर यह तीनों सोच रहे थे कि साधू महाराज ने अपना हाथी देकर कितनी सरलता और भोलेपन से एक जटिल समस्या को सुलझा दिया।

bindujain
04-03-2013, 01:31 PM
बुआजी की आंखें / भागीरथ कानोडिया

प्रद्युम्नसिंह नाम का एक राजा था। उसके पास एक हंस था। राजा उसे मोती चुगाया करता और बहुत लाड़-प्यार से उसका पालन किया करता। वह हंस नित्य प्रति सायंकाल राजा के महल से उड़कर कभी किसी दिशा में और कभी किसी दिशा में थोड़ा चक्कर काट आया करता।

एक दिन वह हंस उड़ता हुआ नीवनजी की छत पर जा बैठा। उकी पुत्रवधु गर्भवती थी। उसने सुन रखा था कि गर्भावस्था में यदि किसी स्त्री को हंस का मांस खाने को मिल जाय तो उसकी होने वाली संतान अत्यंत मेधावी, तेजस्वी और भाग्यशाली होती है। अनायास ही छत पर हंस आया देखकर उसके मुंह में पानी भर आया। उसने हंस को पकड़ लिया ओर रसोईघर में ले जाकर उसे पकाकर खा गई। इस बात का पता न उसने अपनी सास को लगने दिया, न ससुर को और न पति को ही, क्योंकि उसे भय था कि अगर राजा को इस बात का सुराग लग गया तो बड़ा अनिष्ट हो जायगा।

उधर जब रात होने पर हंस राजमहल में नहीं पहुंचा तो राजा-रानी को बहुत चिंता हुई। उनका मन आकुल-व्याकुल होगया। चारों ओर उसकी खोज में आदमी दौड़ाये गए। लेकिन हंस कहीं हो तब मिले न! राजा ने अड़ोस-पड़ोस के शहरों-कस्बों में भी सूचना कराई कि अगर कोई हंस का पता लगा सके तो राज्य की ओर से उसे बहुत बड़ा पुरस्कार दिया जायगा।

दस-बीस दिन निकल गये। कुछ भी पता नहीं लग सका। चूंकि वह हंस राजा ओर रानी को बहुत प्रिय था, अत: वे उदास रहने लगे। एक दिन एक कुटटनी राजा के पास आई और बोली कि वह हंस का पता लगा सकती है, लेकिन उसे थोड़ा-सा समय चाहिए।

राजा ने कहा, “मेरे राज्य के पंडित-जयोतिषी, हाकिम-हुक्काम और मेरे इतने सारे गुप्तचरों में कोई भी पता नहीं लगा सका, तुम कैसे पता लगा सकोगी?”

कुटटनी ने कहा, “मुझे अपनी योग्यता पर विश्वास है। अगर अन्नदाता का हुक्म हो तो एक बार आकश के तारे भी तोड़कर ले आऊं। आप मुझे थोड़ा-सा समय दीजिए और आवश्यक धन दे दीजिय। उसे वापस ला सकूं या नहीं, लेकिन मैं आपको विश्वास दिलाती हूं कि उसका अता-पता आवश्य ले आऊंगी।”

राजा ने स्वीकार कर लिया और कुटअनी अपने उद्देश्य की सिद्वि के लिए चल पड़ी।

सबसे पहले कुटटुनी ने यह पता लगाया कि शहर के धनिक घरों में कौन-कौन स्त्री गर्भवती हैं। उसे पता था कि गर्भावस्था में किसी स्त्री को यदि हंस का मांस मिल जाय तो वह बिना खाये नहीं रहेगी। साथ ही यह भी जनती थी कि साधारण घर की कोई स्त्री राजा का हंस पकड़ने का साहस नहीं कर सकती।

खोजते-खोजते उसे पता लगा कि दीवान की पुत्रवधू गर्भवती है। अत: उसके मन में संदेह हो गया कि हो सकता है, राजा का हंस उड़ते-उड़ते किसी दिन इनके घर की छत पर आ गया हो और गर्भावस्था में होने के कारण लोभवश यह स्त्री उसे खा गई हो।

कुटटनी ने सोचा, किसी भी स्त्री के साथ निकटस्थ मैत्री करने के लिए उसके पीहर के हालचाल जानना आवश्यक है। इसलिए कुटटनी उसके पीहर के गांव पहुंची। वहां जाकर उसने पहरवाले सारे लोगों के नाम-धाम तथा उनके घर में बीती हुई खास-खास पुरानी घटनाओं की जानकारी ली। उसे पता लगा कि दीवानजी की पुत्रवधू की बूआ छोटी उम्र में ही किसी साधु के साथ चली गई थी और आज तक लौटकर नहीं आई है। उसने सोचा, अब दीवानजी के घर जाकर उनकी पुत्रवधू की बुआ बनकर भेद लेने का अच्छा अस्त्र अपने हाथ आ गया।

वह दीवनजी के घर गई। उनकी पुत्रवधू के साथ बहुत स्नेह-ममत्व की बात करने लगी और बोली; “बेटी, मैं तेरी बुआ हूं। हम दोनों आज पहली बार मिली हैं। तुम जानती ही हो कि मैं तो बहुत पहले घर छोड़कर एक साधु के साथ चली गई थी। हल ही में घर लौटकर आयी और भाई से मिली तो उसने बताया कि तुम यहां ब्याही गई हो और तुम्हारे ससुर राज्य के दीवान हैं। यह जानकर मन में तुमसे मिलने की बहुत उत्कंठा हुई तो यहां चली आई। तुम्हें देखकर मेरे मन में बहुत ही हर्ष हुआ। भगवान तुम्हें सुखी रखें और तुम्हारी कोख से एक कांतिवान तेजस्वी पुत्र पैदा हो। मैं परसों वापस जा रही हूं और तुम्हारे लड़का होने के बाद भाई-भाभी को साथ लेकर बच्चे को देखने और उसका लाड़-चाव करने यहां आऊंगी।”

दीवान की पुत्रवधू ने अपने भोलपन के कारण उसकी बातों का विश्वास करलिया और बोली, “बुआजी, आप आई हैं तो दस-बीस दिन तो यहां रहिए। जाने की इतनी जल्दी भी क्या पड़ी है!”

बुआ बनी हुई कुटअनी को और क्या चाहिए था ! उसने वहां रहना स्वीकार कर लिया। थोड़े ही दिनों में बुआ-भतीजी खूब हिल-मिल गईं। एक दिन बातों-ही बातों में बुआजी ने कहा, “बेटी, गर्भावस्था में किसी स्त्री को अगर हंस का मांस खाने को मिल जाय तो बहुत अच्छा परिणाम निकलता है। उसके प्रभाव से होनेवाली संतानबहुत ही तेजस्वी और कांतिवान होती है; किंतु हंस तो मानसरोवर छोड़कर और कहीं होते नहीं, इसलिए यह काम पार पड़े तो कैसे पड़े !”

यह सुनकर उसने अपने हंस खाने की बात बुआजी को सहजभाव से बता दी। सुनकर बुआ ने कहा, “बेटी, यह अचरज की बात है कि तुम्हारे यहां राजा के पास हंस था ! तुमने जो कुछ किया, वह बहुत अच्छा किया; किन्तु तुम्हें किसी के सामने इस घटना का जिक्र नहीं करना चाहिए। मेरे सामने भी नहीं करना था। लेकिन खैर, मुझसे कही हुई बात तो कहीं जाने वाली नहीं है, इसलिए जिक्र कर दिया तो भी कोई बात नहीं!˝

कुछ दिन और बती गये, तब कुटटनी ने कहा, “बेटी, अगर भगवान के सामने तुम हंस खाने की बात स्वीकार कर लो तो हंस की हत्या का पाप तो सिर से उतर ही जायगा, सुपरिणाम भी द्विगुणित होगा। मंदिर के पुजारी से कहकर मैं ऐसी व्सवस्था कर दूंगी कि जिस वक्त वहां तुम सारी घटना बताकर अपराध स्वीकार करो, उस वक्त पुजारी भी वहां नहीं रहे तथा और भी कोई न रहे, हम दो ही रहेंगी।˝

उसने ऐसा करना स्वीकार कर लिया।

कुटटनी लुक-छिपकर राजा के पास पहुंची और बोली, “आपसे वायदा किया था, उसके अनुसार हंस का अता-पता लगा लाई हूं।˝ ऐसा कहकर उसने सारी घटना राजा को बताई।

राजा ने कहा, “इसका प्रमाण क्या है?˝

वह बोली, “फलां दिन आप मंदिन में आ जायं और हंस खाने वाली स्त्री की स्वीकारोक्ति स्वयं अपने कानों सुन लें।˝

राजा ने ऐसा करने की ‘हां’ भर ली।

नियत दिनसमय से कुछ पहले पूर्व-योजना के अनुसार कुटटनी ने राजा को एक जरा ऊंचे स्थान पर रखे हुए एक बड़े-से ढोल में छिपा दिया और बुआ-भतीजी मंदिर पहुंचीं।

मंदिर का पट खुला था। पुजारी या और दूसरा कोई भी व्यक्ति वहां नहीं था। अब बुआजी ने शुरू किया, “हां, तो बेटी क्या बात हुई थी उस दिन?˝

दीवानकी पुत्रवधू ने घटना आरम्भ की। वह थोड़ी-सी घटना ही कह पाई थी कि कुटटनी ने सोचा, राजा ध्यानपूर्वक सुन तो रहा है न, इसलिए वह ढोल की तरफ इशारा करके बोली, “ढोल रे ढोल, सुन रे बहू का बोल।˝

उसका इतना कहना था कि भतीजी का माथा ठनका। उसे वहम हो गया कि हो न हो, दाल में कुछ काला है। मालूम होता है, मैं तो ठगी गई हूं। वह चुप हो गई।

बुआ बोली; “हां तो बेटी, आगे क्या हुआ ?˝

इस पर भतीजी बोली, “उसके बाद तो बुआजी मेरी आंख खुल गयी, सपना टूट गया।”

ज्योंही भतीजी की आंख खुली, त्योंही बुआजी की आंखें भी खुली-की-खुली रह गईं। उसके पांव तो भतीजी से भी भारी हो गये और उसके लिए उठकर खड़े होना भी मुश्किल हो गया।

bindujain
04-03-2013, 01:36 PM
शेखचिल्ली और कुएं की परियां

एक गांव में एक सुस्त और कामचोर आदमी रहता था। काम - धाम तो वह कोई करता न था , हां बातें बनाने में बड़ा माहिर था। इसलिए लोग उसे शेखचिल्ली कहकर पुकारते थे। शेखचिल्ली के घर की हालत इतनी खराब थी कि महीने में बीस दिन चूल्हा नहीं जल पाता था। शेखचिल्ली की बेवकूफी और सुस्ती की सजा उसकी बीवी को भी भुगतनी पड़ती और भूखे रहना पड़ता। एक दिन शेखचिल्ली की बीवी को बड़ा गुस्सा आया। वह बहुत बिगड़ी और कहा , " अब मैं तुम्हारी कोई भी बात नहीं सुनना चाहती। चाहे जो कुछ करो , लेकिन मुझे तो पैसा चाहिए। जब तक तुम कोई कमाई करके नहीं लाओगे , मैं घर में नहीं , घुसने दूंगी। " यह कहकर बीवी ने शेखचिल्ली को नौकरी की खोज में जाने को मजबूर कर दिया। साथ में , रास्ते के लिए चार रूखी - सूखी रोटियां भी बांध दीं। साग - सालन कोई था ही नहीं , देती कहाँ से? इस प्रकार शेखचिल्ली को न चाहते हुए भी नौकरी की खोज में निकलना पड़ा।

शेखचिल्ली सबसे पहले अपने गांव के साहूकार के यहाँ गए। सोचा कि शायद साहूकार कोई छोटी - मोटी नौकरी दे दे। लेकिन निराश होना पड़ा। साहूकार के कारिन्दों ने ड्योढ़ी पर से ही डांट - डपटकर भगा दिया। अब शेखचिल्ली के सामने कोई रास्ता नहीं था। फिर भी एक गांव से दूसरे गांव तक दिन भर भटकते रहे। घर लौट नहीं सकते थे , क्योंकि बीवी ने सख्त हिदायत दे रखी थी कि जब तक नौकरी न मिल जाए , घर में पैर न रखना। दिन भर चलते - चलते जब शेखचिल्ली थककर चूर हो गए तो सोचा कि कुछ देर सुस्ता लिया जाए। भूख भी जोरों की लगी थी , इसलिए खाना खाने की बात भी उनके मन में थी। तभी कुछ दूर पर एक कुआं दिखाई दिया। शेखचिल्ली को हिम्मत बंधी और उसी की ओर बढ़ चले। कुएं के चबूतरे पर बैठकर शेखचिल्ली ने बीवी की दी हुई रोटियों की पोटली खोली। उसमें चार रूखी - सूखी रोटियां थीं। भूख तो इतनी जोर की लगी थी कि उन चारों से भी पूरी तरह न बुझ पाती। लेकिन समस्या यह भी थी कि अगर चारों रोटियों आज ही खा डालीं तो कल - परसों या उससे अगले दिन क्या करूंगा , क्योंकि नौकरी खोजे बिना घर घुसना नामुमकिन था। इसी सोच - विचार में शेखचिल्ली बार - बार रोटियां गिनते और बारबार रख देते। समझ में नहीं आता कि क्या किया जाए। जब शेखचिल्ली से अपने आप कोई फैसला न हो पाया तो कुएं के देव की मदद लेनी चाही। वह हाथ जोड़कर खड़े हो गए और बोले , " हे बाबा , अब तुम्हीं हमें आगे रास्ता दिखाओ। दिन भर कुछ भी नहीं खाया है। भूख तो इतनी लगी है कि चारों को खा जाने के बाद भी शायद ही मिट पाए। लेकिन अगर चारों को खा लेता हूँ तो आगे क्या करूंगा? मुझे अभी कई दिनों यहीं आसपास भटकना है। इसलिए हे कुआं बाबा , अब तुम्हीं बताओ कि मैं क्या करूं! एक खाऊं , दो खाऊं , तीन खाऊं चारों खा जाऊं? " लेकिन कुएं की ओर से कोई जवाब नहीं मिला। वह बोल तो सकता नहीं था , इसलिए कैसे जवाब देता!

उस कुएं के अन्दर चार परियां रहती थीं। उन्होंने जब शेखचिल्ली की बात सुनी तो सोचा कि कोई दानव आया है जो उन्हीं चारों को खाने की बात सोच रहा है। इसलिए तय किया कि चारों को कुएं से बाहर निकालकर उस दानव की विनती करनी चाहिए , ताकि वह उन्हें न खाए। यह सोचकर चारों परियां कुएं से बाहर निकल आई। हाथ जोड़कर वे शेखचिल्ली से बोलीं , " हे दानवराज , आप तो बड़े बलशाली हैं! आप व्यर्थ ही हम चारों को खाने की बात सोच रहे हैं। अगर आप हमें छोड़ दें तो हम कुछ ऐसी चीजें आपको दे सकती हैं जो आपके बड़े काम आएंगी। " परियों को देखकर व उनकी बातें सुनकर शेखचिल्ली हक्के - बक्के रह गए। समझ में न आया कि क्या जवाब दे। लेकिन परियों ने इस चुप्पी का यह मतलब निकाला कि उनकी बात मान ली गई। इसलिए उन्होंने एक कठपुतला व एक कटोरा शेखचिल्ली को देते हुए कहा , " हे दानवराज , आप ने हमारी बात मान ली , इसलिए हम सब आपका बहुत - बहुत उपकार मानती हैं। साथ ही अपनी यह दो तुच्छ भेंटें आपको दे रही हैं। यह कठपुतला हर समय आपकी नौकरी बजाएगा। आप जो कुछ कहेंगे , करेगा। और यह कटोरा वह हर एक खाने की चीज आपके सामने पेश करेगा , जो आप इससे मांगेंगे। " इसके बाद परियां फिर कुएं के अन्दर चली गई।

इस सबसे शेखचिल्ली की खुशी की सीमा न रही। उसने सोचा कि अब घर लौट चलना चाहिए। क्योंकि बीवी जब इन दोनों चीजों के करतब देखेगी तो फूली न समाएगी। लेकिन सूरज डूब चुका था और रात घिर आई थी , इसलिए शेखचिल्ली पास के एक गांव में चले गए और एक आदमी से रात भर के लिए अपने यहाँ ठहरा लेने को कहा। यह भी वादा किया कि इसके बदले में वह घर के सारे लोगों को अच्छे - अच्छे पकवान व मिठाइयां खिलाएंगे। वह आदमी तैयार हो गया और शेखचिल्ली को अपनी बैठक में ठहरा लिया। शेखचिल्ली ने भी अपने कटोरे को निकाला और उसने अपने करतब दिखाने को कहा। बात की बात में खाने की अच्छी - अच्छी चीजों के ढेर लग गए। जब सारे लोग खा - पी चुके तो उस आदमी की घरवाली जूठे बरतनों को लेकर नाली की ओर चली। यह देखकर शेखचिल्ली ने उसे रोक दिया और कहा कि मेरा कठपुतला बर्तन साफ कर देगा। शेखचिल्ली के कहने भर की देर थी कि कठपुतले ने सारे के सारे बर्तन पल भर में निपटा डाले। शेखचिल्ली के कठपुतले और कटोरे के यह अजीबोगरीब करतब देखकर गांव के उस आदमी और उसकी बीवी के मन में लालच आ गया शेखचिल्ली जब सो गए तो वह दोनों चुपके से उठे और शेखचिल्ली के कटोरे व कठपुतले को चुराकर उनकी जगह एक नकली कठपुतला और नकली ही कटोरा रख दिया। शेखचिल्ली को यह बात पता न चली। सबेरे उठकर उन्होंने हाथ - मुंह धोया और दोनों नकली चीजें लेकर घर की ओर चल दिए।

घर पहुंचकर उन्होंने बड़ी डींगें हांकी और बीवी से कहा , " भागवान , अब तुझे कभी किसी बात के लिए झींकना नहीं पड़ेगा। न घर में खाने को किसी चीज की कमी रहेगी और न ही कोई काम हमें - तुम्हें करना पड़ेगा। तुम जो चीज खाना चाहोगी , मेरा यह कटोरा तुम्हें खिलाएगा और जो काम करवाना चाहोगी मेरा यह कठपुतला कर डालेगा। " लेकिन शेखचिल्ली की बीवी को इन बातों पर विश्वास न हुआ। उसने कहा , " तुम तो ऐसी डींगे रोज ही मारा करते हो। कुछ करके दिखाओ तो जानूं। " हां , क्यों नहीं? " शेखचिल्ली ने तपाक से जबाव दिया और कटोरा व कठपुतलें में अपने - अपने करतब दिखाने को कहा। लेकिन वह दोनों चीजें तो नकली थीं , अत: शेखचिल्ली की बात झूठी निकली। नतीजा यह हुआ कि उनकी बीवी पहले से ज्यादा नाराज हो उठी। कहा , " तुम मुझे इस तरह धोखा देने की कोशिश करते हो। जब से तुम घर से गए हो , घर में चूल्हा नहीं जला है। कहीं जाकर मन लगाकर काम करो तो कुछ तनखा मिले और हम दोनों को दो जून खाना नसीब हो। इन जादुई चीजों से कुछ नहीं होने का। "

बेबस शेखचिल्ली खिसियाए हुए - से फिर चल दिए। वह फिर उसी कुएं के चबूतरे पर जाकर बैठ गए। समझ में नहीं आ रहा था कि अब क्या किया जाए। जब सोचते - सोचते वह हार गए और कुछ भी समझ में न आया तो उनकी आंखें छलछला आई और रोने लगे। यह देखकर कुएं की चारों परियां फिर बाहर आयी और शेखचिल्ली से उनके रोने का कारण पूछा। शेखचिल्ली ने सारी आपबीती कह सुनाई। परियों को हंसी आ गई। वे बोलीं , " हमने तो तुमको कोई भयानक दानव समझा था। और इसलिए खुश करने के लिए वे चीजें दी थीं। लेकिन तुम तो बड़े ही भोले - भाले और सीधे आदमी निकले। खैर , घबराने की जरूरत नहीं। हम तुम्हारी मदद करेंगी। तुम्हारा कठपुतला और कटोरा उन्हीं लोगों ने चुराया है , जिनके यहाँ रात को तुम रुके थे। इस बार तुम्हें एक रस्सी व डंडा दे रही हैं। इनकी मदद से तुम उन दोनों को बांध व मारकर अपनी दोनों चीजें वापस पा सकते हो। " इसके बाद परियां फिर कुएं में चली गयीं।

जादुई रस्सी - डंडा लेकर शेखचिल्ली फिर उसी आदमी के यहाँ पहुंचे और कहा , " इस बार मैं तुम्हें कुछ और नये करतब दिखाऊंगा। " वह आदमी भी लालच का मारा था। उसने समझा कि इस बार कुछ और जादुई चीजें हाथ लगेंगी। इसलिए उसमें खुशीखुशी शेखचिल्ली को अपने यहाँ टिका लिया। लेकिन इस बार उल्टा ही हुआ। शेखचिल्ली ने जैसे ही हुक्म दिया वैसे ही उस घरवाले व उसकी बीवी को जादुई रस्सी ने कस कर बांध लिया और जादुई डंडा दनादन पिटाई करने लगा। अब तो वे दोनों चीखने - चिल्लाने और माफी मांगने लगे। शेखचिल्ली ने कहा , " तुम दोनों ने मुझे धोखा दिया है। मैंने तो यह सोचा था कि तुमने मुझे रहने को जगह दी है , इसलिए मैं भी तुम्हारे साथ कोई भलाई कर दूं। लेकिन तुमने मेरे साथ उल्टा बर्ताव किया! मेरे कठपुतले और कटोरे को ही चुरा लिया। अब जब वे दोनों चीजें तुम मुझे वापस कर दोगे , तभी मैं अपनी रस्सी व डंडे को रुकने का हुक्म दूंगा। " उन दोनों ने झटपट दोनों चुराई हुई चीजें शेखचिल्ली को वापस कर दीं। यह देखकर शेखचिल्ली ने भी अपनी रस्सी व डंडे को रुक जाने का हुक्म दे दिया।

अब अपनी चारों जादुई चीजें लेकर शेखचिल्ली प्रसन् न मन से घर को वापस लौट पड़े। जब बीवी ने फिर देखा कि शेखचिल्ली वापस आ गए हैं तो उसे बड़ा गुस्सा आया। उसे तो कई दिनों से खाने को कुछ मिला नहीं था , इसलिए वह भी झुंझलाई हुई थी। दूर से ही देखकर वह चीखी , " कामचोर तुम फिर लौट आए! खबरदार , घर के अंदर पैर न रखना! वरना तुम्हारे लिए बेलन रखा है। " यह सुनकर शेखचिल्ली दरवाजे पर ही रुक गए! मन ही मन उन्होंने रस्सी व डंडे को हुक्म दिया कि वे उसे काबू में करें। रस्सी और डंडे ने अपना काम शुरू कर दिया। रस्सी ने कसकर बांध लिया और डंडे ने पिटाई शुरू कर दी। यह जादुई करतब देखकर बीवी ने भी अपने सारे हथियार डाल दिए और कभी वैसा बुरा बर्ताव न करने का वादा किया। तभी उसे भी रस्सी व डंडे से छुटकारा मिला। अब शेखचिल्ली ने अपने कठपुतले व कटोरे को हुक्म देना शुरू किया। बस , फिर क्या था! कठपुतला बर्तन - भाड़े व जिन - जिन चीजों की कमी थी झटपट ले आया और कटोरे ने बात की बात में नाना प्रकार के व्यंजन तैयार कर दिए।

bindujain
04-03-2013, 01:43 PM
सब समान / विक्रम कुमार जैन एकबार की बात है। सूरज, जवा, पानी और किसान के बीच अचानक तनातनी हो गई। बात बड़ी नहीं थी, छोटी-सी थी कि उनमें बड़ा कौन् है ? सूरज ने अपने को बड़ा बताया तो हवा ने अपने को, पानी और किसान भी पीछे न रहे। उन्होंने अपने बड़े होने का दावा किया। आखिर तिल का ताड़ बन गया। खूब बहस करने पर भी जब वे किसी नतीजे पर न पहुंचे तो चारों ने तय किया कि वक कल से कोई काम नहीं करेंगे। देखें, किसके बिना दुनिया का काम रुकता है। पशु-पक्षियों को जब यह मालूम हुआ तो वे दौड़े आये। उनहेंने उनके मेल का रास्ता खोजने का प्रयत्न किया, पर उन्हें सफलता नहीं मिली। दूसरे दिन सूरज नहीं निकला, हवा ने चलना बंद कर दिया, पानी सूख गया और किसान हाथ-पर-हाथ रखकर बैठ गया। चारों ओर हाहकार मच गया। लोग प्रार्थना करने लगे किवे अपना-अपना काम करें; लेकिन वे टस-से-मस न हुए। अपनी आप पर डटे रहे। लोग हैरान होकर चुप हो गये। पर दुनिया का काम रुका नहीं। जहां मुर्गा नहीं बोलता, वहां क्या सवेरा नहीं होता ? चारों बड़े ही कमेरे थे खाली बैठे तो उन्हें थोड़ी ही देर में घबराहट होने लगी। समय काटना भारी हो गया। उनका अभिमान गलने लगा। अखिर बड़ा कौन है ? छोटा कौन है? सबके अपने-अपने काम हैं। बड़ा कोई आन से नहीं, काम से होता है। सबसे ज्यादा छटपटाहट हुई सूरज को। अपने ताप से स्वयं जलने लगा। उसने अपनी किरणें बिखेरनी शुरू कर दीं। निकम्मे बैठे होने से हवा कर दम घुटने लगा तो वह भी चल पड़ी। इसी तरह पानी और किसान भी अपने-अपने काम में लग गये। वे अच्छी तरह समझ गये कि संसार में न कोई छोटा है, न कोई बड़ा है। सब समान हैं। छोटे-बड़े का भेद तो ऊपरी है।

bindujain
04-03-2013, 03:07 PM
लोक कथा : मूर्ख कौन?


किसी गांव में एक सेठ रहता था. उसका एक ही बेटा था, जो व्यापार के काम से परदेस गया हुआ था. सेठ की बहू एक दिन कुएँ पर पानी भरने गई. घड़ा जब भर गया तो उसे उठाकर कुएँ के मुंडेर पर रख दिया और अपना हाथ-मुँह धोने लगी. तभी कहीं से चार राहगीर वहाँ आ पहुँचे. एक राहगीर बोला, “बहन, मैं बहुत प्यासा हूँ. क्या मुझे पानी पिला दोगी?”

सेठ की बहू को पानी पिलाने में थोड़ी झिझक महसूस हुई, क्योंकि वह उस समय कम कपड़े पहने हुए थी. उसके पास लोटा या गिलास भी नहीं था जिससे वह पानी पिला देती. इसी कारण वहाँ उन राहगीरों को पानी पिलाना उसे ठीक नहीं लगा.

बहू ने उससे पूछा, “आप कौन हैं?”

राहगीर ने कहा, “मैं एक यात्री हूँ”

बहू बोली, “यात्री तो संसार में केवल दो ही होते हैं, आप उन दोनों में से कौन हैं? अगर आपने मेरे इस सवाल का सही जवाब दे दिया तो मैं आपको पानी पिला दूंगी. नहीं तो मैं पानी नहीं पिलाऊंगी.”

बेचारा राहगीर उसकी बात का कोई जवाब नहीं दे पाया.

तभी दूसरे राहगीर ने पानी पिलाने की विनती की.

बहू ने दूसरे राहगीर से पूछा, “अच्छा तो आप बताइए कि आप कौन हैं?”

दूसरा राहगीर तुरंत बोल उठा, “मैं तो एक गरीब आदमी हूँ.”

सेठ की बहू बोली, “भइया, गरीब तो केवल दो ही होते हैं. आप उनमें से कौन हैं?”

प्रश्न सुनकर दूसरा राहगीर चकरा गया. उसको कोई जवाब नहीं सूझा तो वह चुपचाप हट गया.

तीसरा राहगीर बोला, “बहन, मुझे बहुत प्यास लगी है. ईश्वर के लिए तुम मुझे पानी पिला दो”

बहू ने पूछा, “अब आप कौन हैं?”

तीसरा राहगीर बोला, “बहन, मैं तो एक अनपढ़ गंवार हूँ.”

यह सुनकर बहू बोली, “अरे भई, अनपढ़ गंवार तो इस संसार में बस दो ही होते हैं. आप उनमें से कौन हैं?”

बेचारा तीसरा राहगीर भी कुछ बोल नहीं पाया.

अंत में चौथा राहगीह आगे आया और बोला, “बहन, मेहरबानी करके मुझे पानी पिला दें. प्यासे को पानी पिलाना तो बड़े पुण्य का काम होता है.”

सेठ की बहू बड़ी ही चतुर और होशियार थी, उसने चौथे राहगीर से पूछा, “आप कौन हैं?”

वह राहगीर अपनी खीज छिपाते हुए बोला, “मैं तो..बहन बड़ा ही मूर्ख हूँ.”

बहू ने कहा, “मूर्ख तो संसार में केवल दो ही होते हैं. आप उनमें से कौन हैं?”

वह बेचारा भी उसके प्रश्न का उत्तर नहीं दे सका. चारों पानी पिए बगैर ही वहाँ से जाने लगे तो बहू बोली, “यहाँ से थोड़ी ही दूर पर मेरा घर है. आप लोग कृपया वहीं चलिए. मैं आप लोगों को पानी पिला दूंगी”

चारों राहगीर उसके घर की तरफ चल पड़े. बहू ने इसी बीच पानी का घड़ा उठाया और छोटे रास्ते से अपने घर पहुँच गई. उसने घड़ा रख दिया और अपने कपड़े ठीक तरह से पहन लिए.

इतने में वे चारों राहगीर उसके घर पहुँच गए. बहू ने उन सभी को गुड़ दिया और पानी पिलाया. पानी पीने के बाद वे राहगीर अपनी राह पर चल पड़े.

सेठ उस समय घर में एक तरफ बैठा यह सब देख रहा था. उसे बड़ा दुःख हुआ. वह सोचने लगा, इसका पति तो व्यापार करने के लिए परदेस गया है, और यह उसकी गैर हाजिरी में पराए मर्दों को घर बुलाती है. उनके साध हँसती बोलती है. इसे तो मेरा भी लिहाज नहीं है. यह सब देख अगर मैं चुप रह गया तो आगे से इसकी हिम्मत और बढ़ जाएगी. मेरे सामने इसे किसी से बोलते बतियाते शर्म नहीं आती तो मेरे पीछे न जाने क्या-क्या करती होगी. फिर एक बात यह भी है कि बीमारी कोई अपने आप ठीक नहीं होती. उसके लिए वैद्य के पास जाना पड़ता है. क्यों न इसका फैसला राजा पर ही छोड़ दूं. यही सोचता वह सीधा राजा के पास जा पहुँचा और अपनी परेशानी बताई. सेठ की सारी बातें सुनकर राजा ने उसी वक्त बहू को बुलाने के लिए सिपाही बुलवा भेजे और उनसे कहा, “तुरंत सेठ की बहू को राज सभा में उपस्थित किया जाए.”

राजा के सिपाहियों को अपने घर पर आया देख उस सेठ की पत्नी ने अपनी बहू से पूछा, “क्या बात है बहू रानी? क्या तुम्हारी किसी से कहा-सुनी हो गई थी जो उसकी शिकायत पर राजा ने तुम्हें बुलाने के लिए सिपाही भेज दिए?”

बहू ने सास की चिंता को दूर करते हुए कहा, “नहीं सासू मां, मेरी किसी से कोई कहा-सुनी नहीं हुई है. आप जरा भी फिक्र न करें.”

सास को आश्वस्त कर वह सिपाहियों से बोली, “तुम पहले अपने राजा से यह पूछकर आओ कि उन्होंने मुझे किस रूप में बुलाया है. बहन, बेटी या फिर बहू के रुप में? किस रूप में में उनकी राजसभा में मैं आऊँ?”

बहू की बात सुन सिपाही वापस चले गए. उन्होंने राजा को सारी बातें बताई. राजा ने तुरंत आदेश दिया कि पालकी लेकर जाओ और कहना कि उसे बहू के रूप में बुलाया गया है.

सिपाहियों ने राजा की आज्ञा के अनुसार जाकर सेठ की बहू से कहा, “राजा ने आपको बहू के रूप में आने के ले पालकी भेजी है.”

बहू उसी समय पालकी में बैठकर राज सभा में जा पहुँची.

राजा ने बहू से पूछा, “तुम दूसरे पुरूषों को घर क्यों बुला लाईं, जबकि तुम्हारा पति घर पर नहीं है?”

बहू बोली, “महाराज, मैंने तो केवल कर्तव्य का पालन किया. प्यासे पथिकों को पानी पिलाना कोई अपराध नहीं है. यह हर गृहिणी का कर्तव्य है. जब मैं कुएँ पर पानी भरने गई थी, तब तन पर मेरे कपड़े अजनबियों के सम्मुख उपस्थित होने के अनुरूप नहीं थे. इसी कारण उन राहगीरों को कुएँ पर पानी नहीं पिलाया. उन्हें बड़ी प्यास लगी थी और मैं उन्हें पानी पिलाना चाहती थी. इसीलिए उनसे मैंने मुश्किल प्रश्न पूछे और जब वे उनका उत्तर नहीं दे पाए तो उन्हें घर बुला लाई. घर पहुँचकर ही उन्हें पानी पिलाना उचित था.”

राजा को बहू की बात ठीक लगी. राजा को उन प्रश्नों के बारे में जानने की बड़ी उत्सुकता हुई जो बहू ने चारों राहगीरों से पूछे थे.

राजा ने सेठ की बहू से कहा, “भला मैं भी तो सुनूं कि वे कौन से प्रश्न थे जिनका उत्तर वे लोग नहीं दे पाए?”

बहू ने तब वे सभी प्रश्न दुहरा दिए. बहू के प्रश्न सुन राजा और सभासद चकित रह गए. फिर राजा ने उससे कहा, “तुम खुद ही इन प्रश्नों के उत्तर दो. हम अब तुमसे यह जानना चाहते हैं.”

बहू बोली, “महाराज, मेरी दृष्टि में पहले प्रश्न का उत्तर है कि संसार में सिर्फ दो ही यात्री हैं – सूर्य और चंद्रमा. मेरे दूसरे प्रश्न का उत्तर है कि बहू और गाय इस पृथ्वी पर ऐसे दो प्राणी हैं जो गरीब हैं. अब मैं तीसरे प्रश्न का उत्तर सुनाती हूं. महाराज, हर इंसान के साथ हमेशा अनपढ़ गंवारों की तरह जो हमेशा चलते रहते हैं वे हैं – भोजन और पानी. चौथे आदमी ने कहा था कि वह मूर्ख है, और जब मैंने उससे पूछा कि मूर्ख तो दो ही होते हैं, तुम उनमें से कौन से मूर्ख हो तो वह उत्तर नहीं दे पाया.” इतना कहकर वह चुप हो गई.

राजा ने बड़े आश्चर्य से पूछा, “क्या तुम्हारी नजर में इस संसार में सिर्फ दो ही मूर्ख हैं?”

“हाँ, महाराज, इस घड़ी, इस समय मेरी नजर में सिर्फ दो ही मूर्ख हैं.”

राजा ने कहा, “तुरंत बतलाओ कि वे दो मूर्ख कौन हैं.”

इस पर बहू बोली, “महाराज, मेरी जान बख्श दी जाए तो मैं इसका उत्तर दूं.”

राजा को बड़ी उत्सुकता थी यह जानने की कि वे दो मूर्ख कौन हैं. सो, उसने तुरंत बहू से कह दिया, “तुम निःसंकोच होकर कहो. हम वचन देते हैं तुम्हें कोई सज़ा नहीं दी जाएगी.”

बहू बोली, “महाराज, मेरे सामने इस वक्त बस दो ही मूर्ख हैं.” फिर अपने ससुर की ओर हाथ जोड़कर कहने लगी, “पहले मूर्ख तो मेरे ससुर जी हैं जो पूरी बात जाने बिना ही अपनी बहू की शिकायत राजदरबार में की. अगर इन्हें शक हुआ ही था तो यह पहले मुझसे पूछ तो लेते, मैं खुद ही इन्हें सारी बातें बता देती. इस तरह घर-परिवार की बेइज्जती तो नहीं होती.”

ससुर को अपनी गलती का अहसास हुआ. उसने बहू से माफ़ी मांगी. बहू चुप रही.

राजा ने तब पूछा, “और दूसरा मूर्ख कौन है?”

बहू ने कहा, “दूसरा मूर्ख खुद इस राज्य का राजा है जिसने अपनी बहू की मान-मर्यादा का जरा भी खयाल नहीं किया और सोचे-समझे बिना ही बहू को भरी राजसभा में बुलवा लिया.”

बहू की बात सुनकर राजा पहले तो क्रोध से आग बबूला हो गया, परंतु तभी सारी बातें उसकी समझ में आ गईं. समझ में आने पर राजा ने बहू को उसकी समझदारी और चतुराई की सराहना करते हुए उसे ढेर सारे पुरस्कार देकर सम्मान सहित विदा किया.
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bindujain
04-03-2013, 03:07 PM
एक भिखारी को बाज़ार में चमड़े का एक बटुआ पड़ा मिला. उसने बटुए को खोलकर देखा. बटुए में सोने की सौ अशर्फियाँ थीं. तभी भिखारी ने एक सौदागर को चिल्लाते हुए सुना – “मेरा चमड़े का बटुआ खो गया है! जो कोई उसे खोजकर मुझे सौंप देगा, मैं उसे ईनाम दूंगा!”

भिखारी बहुत ईमानदार आदमी था. उसने बटुआ सौदागर को सौंपकर कहा – “ये रहा आपका बटुआ. क्या आप ईनाम देंगे?”

“ईनाम!” – सौदागर ने अपने सिक्के गिनते हुए हिकारत से कहा – “इस बटुए में तो दो सौ अशर्फियाँ थीं! तुमने आधी रकम चुरा ली और अब ईनाम मांगते हो! दफा हो जाओ वर्ना मैं सिपाहियों को बुला लूँगा!”

इतनी ईमानदारी दिखाने के बाद भी व्यर्थ का दोषारोपण भिखारी से सहन नहीं हुआ. वह बोला – “मैंने कुछ नहीं चुराया है! मैं अदालत जाने के लिए तैयार हूँ!”

अदालत में काजी ने इत्मीनान से दोनों की बात सुनी और कहा – “मुझे तुम दोनों पर यकीन है. मैं इंसाफ करूँगा. सौदागर, तुम कहते हो कि तुम्हारे बटुए में दो सौ अशर्फियाँ थीं. लेकिन भिखारी को मिले बटुए में सिर्फ सौ अशर्फियाँ ही हैं. इसका मतलब यह है कि यह बटुआ तुम्हारा नहीं है. चूंकि भिखारी को मिले बटुए का कोई दावेदार नहीं है इसलिए मैं आधी रकम शहर के खजाने में जमा करने और बाकी भिखारी को ईनाम में देने का हुक्म देता हूँ”.

बेईमान सौदागर हाथ मलता रह गया. अब वह चाहकर भी अपने बटुए को अपना नहीं कह सकता था क्योंकि ऐसा करने पर उसे कड़ी सजा हो जाती. इंसाफ-पसंद काजी की वज़ह से भिखारी को अपनी ईमानदारी का अच्छा ईनाम मिल गया.

khalid
04-03-2013, 05:13 PM
बिंदु जी बहुत मस्त सुत्र हैँ रेप

jai_bhardwaj
04-03-2013, 07:52 PM
बकरी और बाघिन

बहुत पुरानी बात है। एक गाँव में एक बुढ़ा और बुढिया रहते थे। वे दोनो बड़े दुखी थे क्योंकि उनके बच्चे नहीं थे। दोनों कभी-कभी बहुत उदास हो जाते थे और सोचते थे हम ही हैं जो अकेले जिन्दगी गुजार रहे हैं। एक बार बुढे से बुढिया से कहा - "मुझे अकेले रहना अच्छा नहीं लगता है। क्यों न हम एक बकरी को घर ले आये? उसी दिन दोनो हाट में गये और एक बकरी खरीदकर घर ले आये। चार कौरी में वह बकरी खरीद कर आये थे इसीलिये वे बकरी को चारकौरी नाम से पुकारते थे।

बुढिया माई बहुत खुस थी बकरी के साथ। उसे अपने हाथों से खिलाती, पिलाती। जहाँ भी जाती चारकौटि को साथ ले जाती।

पर थोड़े ही दिन में बकरी बहुत ही मनमानी करने लगी। किसी के भी घर में घुस जाती थी, और जो भी मिलता खाने लगती। आस-पास रहनेवाले बहुत तंग हो गये और घर आकर बकरी के बारे में बोलने लगे। बुढ़े बाबा को बहुत गुस्सा आने लगा। बुढ़ी माई को कहने लगे इस बकरी को जंगल में छोड़कर आए। बुढिया ने कहा "ये क्या कह रहे हो। ऐसा करते हैं राउत के साथ उसे जंगल में चरने के लिए भेज देते हैं।"

बकरी चराने वाले राउत के साथ बकरी जंगल जाने लगी। लेकिन थोड़े ही दिन में राउत भी बहुत तंग हो गया - चारकोरि उसका कहा जो नहीं मानती थी। उसने बकरी को चराने ले जाने से इन्कार कर दिया।

बकरी फिर से घर में रहने लगी और अब उसे बच्चे हो गये और बच्चे भी सबको तंग करने लग गये। अब बुढिया भी परेशान हो गई। उसने कहा "मैं और इनकी देखभाल नहीं कर सकती" -

बुढ़े बाबा ने बकरी और उसके बच्चों को जंगल में छोड़ दिया।

बकरी और उसके बच्चे खिरमिट और हिरमिट जंगल में घूमने लगे, फूल, पत्ते सब खाने लगे।

एक दिन अचानक एक बाघिन से मुलाकात हो गई। बाघिन खिरमिट और हिरमिट को देख रही थी और सोच रही थी कब इन दोनो को खाऊँगी।

बाघिन को देखकर बकरी को समझ में आ गया कि बाघिन क्या सोच रही है। बकरी को बहुत डर लगा पर हिम्मत करके वह बाघिन के पास गई और अपना सर झुकाकर उसने कहा - "दीदी प्रणाम।"

अब बाघिन तो बहुत अचम्भे में पड़ गई। ये बकरी तो मुझे दीदी कहकर पुकार रही है। उसके बच्चों को कैसे खाऊँ? बाघिन ने कहा - "तू कहाँ रहती है?" बकरी ने कहा - "क्या कहुँ दीदी। रहने के लिये कोई जगह ही नहीं है हमारे पास"।

बाघिन ने कहा - "तो तेरे पास रहने के लिये कोई जगह ही नहीं है? ऐसा कर - मेरे साथ चल - मेरे पास दो माँ है। एक में तू अपने बच्चों के साथ रह जा"

बकरी बड़ी खुशी से बाघिन के पीछे-पीछे चल दी। उसे पता था बाघिन दीदी सम्बोधन से बड़ी खुश हुई थी और अब वह उसके बच्चों को नहीं खायेगी।

बाघिन के माँद के पास दूसरे माँद में अपने बच्चों के साथ बकरी खुसी से रहने लगी। बाघिन भी उसे तंग नहीं करती थी।

लेकिन कुछ दिनों के बाद बाघिन को जब बच्चे हुए, बाघिन फिर से बकरी के बच्चों को खाने के लिए बेचैन हो गई। बच्चे पैदा होने के बाद वह शिकार करने के लिए नहीं जा पा रही थी। भूख भी उसे और ज्यादा लगने लगी थी।

बकरी बाघिन के आँखों की ओर देखती और मन ही मन चिन्तित हो उठती - वह बाघिन के पास जाकर "दीदी दीदी" कहती और बातें करती रहती ताकि उसकी आँखों के भाव बदल जाये। बाघिन उससे कहती - "मेरे बच्चों का कोई नाम रख दो" - बकरी ने ही कहा - "एक का नाम एक काँरा, दूसरे का नाम दू-काँरा"।

बाघिन के बच्चे एक काँटा और दू काँटा और बकरी के बच्चे खिरमिट और हिरमिट।

शाम होते ही बाघिन ने बकरी से कहा - "तुम तीनों अगर हमारे संग सोते तो बड़ा अच्छा होता। या किसी एक को अगर भेज दो ..." अब बकरी बहुत परेशान हो गई। क्या कहूँ बाघिन से? खिरमिट ने अपनी माँ को चिन्तित देखकर कहा - "माँ, तू चिन्ता मत कर। मैं जाऊँगा वहाँ सोने"

बाघिन के माँद में जाकर खिरमिट ने कहा - "मौसी मौसी, मैं आ गया"। बाघिन बड़ी खुश हुई। उसने खिरमिट से कहा - "तू उस किनारे सो जा..."। खिरमिट लेट गया लेकिन डर के कारण उसे नींद नहीं आ रही थी। थोड़ी देर के बाद वह उठकर बाघिन के पास जाकर उसे देखने ला - हाँ, बाघिन गाढ़ी नींद में सो रही थी। खिरमिट ने धीरे से एक काँरा को उठाया और अपनी जगह उसे लिटाकर खुद उसकी जगह में लेट गया। जैसे ही आधी रात हुई, बाधिन की नींद खुल गई - वह माँद के किनारे धीरे-धीरे पहुँची और आँखों तब भी नींद रहने के कारण ठीक से नहीं देख पा रही थी, पर उसने तुरन्त उसे खाकर सो गई।

जैसे ही सुबह हुई, खिरमिट ने कहा - "मौसी, मै अब जा रहा हूँ।"

बाघनि चौंक गई - खिरमिट ज़िन्दा है - तो मैनें किसको खाया? वह तुरन्त अपने बच्चों की ओर देखने लगी - कहाँ गया मेरा एक काँटा? बाघिन गुस्से से छटपटा रही थी। उसने कहा - "आज रात को आ जाना सोने के लिए"।

उस रात को जब खिरमिट पहुँचा सोने के लिए, उसने देखा बाघिन अपनी पूँछ से दू काँटा को अच्छे से लपेटकर लेटी थी। अब खिरमिट सोच में पड़ गया।

बाघिन ने कहा, "जा, उस किनारे जाकर सो जा" -

खिरमिट उस किनारे जाकर लेट गया लेकिन उसे नींद नहीं आ रही थी। वह धीरे से माँद से बाहर आ गया और चारों ओर देखने लगा। उसे एक बड़ा सा खीरा दिख गया, उसने उस खीरे को उठाकर माँद के किनारे पर रख दिया और खुद अपनी माँ के पास चला आया।

सुबह होते ही खिरमिट ने बाघिन के पास जाकर कहा - "मौसी, अब मैं जा रहा हूँ।"

बाघिन उसकी ओर देखती रह गयी, और फिर उसे डकार आया - यह तो खीरे का डकार आया, तो इस बार मैं खीरा खा गई। बाघिन बहुत गुस्से से खिरमिट की ओर देखने लगी। खिरमिट धीरे-धीरे माँद से बाहर निकल आया और फिर तेज़ी से अपनी माँ के पास पहुँचा -

"दाई, दाई अब बाघिन हमें नहीं छोड़ेगी - चलो, जल्दी चोल, यहाँ से निकल पड़ते हैं।" बकरी खिरमिट और हिरमिट को लेकर भागने लगी। भागते-भागते बहुत दूर पहुँच गई। बकरी खिरमिट और हिरमिट को देखती और बहुत दुखी होती। ये नन्हें बच्चे कितने थक गये हैं। उसने बच्चो से कहा - "थोड़ी देर हम तीनों पेड़े के नीचे आराम कर लेते हैं" - पर खिरमिट ने कहा - "माँ बाघिन तो बहुत तेज दौड़ती है, वह तो अभी पहुँच जायेगी।"

contd.........

jai_bhardwaj
04-03-2013, 07:52 PM
हिरमिट ने कहा - "क्यों न हम इस पेड़ पर चढ़ जायें?"

बकरी ने कहा - "हाँ, ये ठीक है - चल हम तीनों इस पेड़ पर चढ़ जाते हैं"।

बकरी और खिरमिट, हिरमिट पेड़ पर चढ़ गये और आराम करने लगे।

उधर बाघिन बकरियों के माँद में पहुँची। उसने इधर देखा, उधर देखा, कहाँ गयी बकरियाँ? बाहर आई और उसके बाद बकरियों के पैरों के निशान देखकर समझ गई कि वे तीनों किस दिशा में गये। उसीको देखते हुए बाघिन चलती रही, फिर दौड़ती रही। उसे ज्यादा समय नहीं लगा उस पेड़ के पास पहुँचने में। पैरों के निशान पेड़ तक ही थे और बकरियों की गंध भी तेज हो गयी थी।

बाघिन ने ऊपर की ओर देखा। अच्छा, तो यहाँ बैठे हो सब।

बाघिन ने कहा - "अभी तुम तीनों को मैं खा जाऊँगी - अभी ऊपर आती हूँ"।

खिरमिट और हिरमिट तो डर गये। डरके माँ से लिपट गये। बकरी ने कहा - "अरे डरते क्यों हो? जब तक हम पेड़ के ऊपर बैठे हैं वह बाघिन हमें खा नहीं सकती"- अब खिरमिट के मन में हिम्मत हुआ उसने कहा -

" दे तो दाई सोने का डंडा" । बाधिन ने सोचा पेड़ के ऊपर बकरी के पास सोने का डंडा कहाँ से आयेगा? बाघिन ने कहा - "सोने का डंडा तुझे कहाँ से मिला?"

बकरी ने कहा " खिरमिट हिरमिट, ये ले डंडा" । ये कहकर बकरी ने ऊपर से एक डंडा फेका - बाघिन के पीठ पर वह लकड़ी गिरी। बाघिन ने सोचा डंडा तो डंडाही है - चोट तो लगती है - वह वहाँ से हट गई। लेकिन पेड़ के आस पास ही रही।

अब बकरी कैसे अपने बच्चों को लेकर नीचे उतरे? बकरी मन ही मन बहुत परेशान हो रही थी।

उधर बाघिन परेशान थी ये सोचकर की कब तक उसे बकरियों के इंतजार में पेड़ के नीचे रहना पड़ेगा?

तभी बाघिन ने देखा वहाँ से तीन चार बाघ जा रहे हैं। सबसे जो बड़ा बाघ था उसका नाम था बंडवा। बाघिन बंडवा के पास गई और उस पेड़ कि ओर संकेत किया जिस पर बैठी थी बकरियाँ। बंडवा तो बहुत खुश हो गया, वह अपने साथियों को साथ लेकर पेड़ के नीचे आकर खड़ा हो गया।

बकरी अपने बच्चों से कह रही थी - "डर किस बात का? ये सब नीचे खड़े होकर ही हमें देखते रहेंगे"। लेकिन तभी उसने देखा कि बडंवा पेड़ के नीचे खड़ा हो गया, उसके ऊपर बाघिन, बाघिन के ऊपर और एक बाघ, उसके ऊपर......अब तो चौथा बाघ पेड़ के ऊपर तक आ जायेगा - बकरी अब डर गई थी, कैसे बचाये बच्चों को - तभी खिरमिट ने कहा -

दे तो दाई सोना के डंडा
तेमा मारौ तरी के बंडा
ये सुनकर बडंवा, जो सबसे नीचे था, भागने लगा, और जैसे ही वह भागने लगा, बाकी सब बाघ धड़ाम धड़ाम ज़मीन पर गिरने लगे। गिरते ही सभी बाघ भागने लगे। सबको भागते देख बाघिन भी भागने लगी - बकरी ने कहा - "चल खिरमिट चल हिरमिट, हम भी यहाँ से भाग जाए। नहीं तो बाघिन फिर से आ जायेगी।"

बकरी अपने बच्चों को साथ लिए दौड़ने लगी। दौड़ते दौड़ते जंगल से बाहर आ गये। तीनों सीधे बुढ़ी माई के घर आ गये। और बुढ़ी माई को चारों ओर से घेर लिया। बुढ़ी माई और बुढ़ा बाबा उन तीनोंको देखकर बड़े खुश हुये। अब सब एक साथ खुशी-खुशी रहने लगे।

jai_bhardwaj
04-03-2013, 07:53 PM
देही तो कपाल, का करही गोपाल

बहुत पहले की बात है। एक ब्राह्मण और एक भाट में गहरी दोस्ती थी। रोज़ शाम को दोनों मिलते थे और सुख-दुख की बाते कहते थे। दोनों के पास पैसे न होने के कारण दोनों सोचा करते थे कि कैसे थोड़े बहुत पैसा का जोगाड़ करे।

एक दिन भाट ने कहा - "चलो, हम दोनों राजा गोपाल के दरबार में चलते हैं। राजा गोपाल अगर खुश हो जाये, तो हमारी हालत ठीक हो जाये।"

ब्राह्मण ने कहा -

"देगा तो कपाल
क्या करेगा गोपाल"
भाट ने कहा - "नहीं, ऐसा नहीं।

देगा तो गोपाल,
क्या करेगा कपाल"
दोनों में बहस हो गई। ब्राह्मण बार-बार यही कहता रहा

देही तो कपाल
का करही गोपाल।
भाट बार-बार कहता रहा - "राजा गोपाल बड़ा ही दानी राजा है। वे अवश्य ही हमें देगा, चलो, एक बार तो चलते है उनके पास, कपाल क्या कर सकता है - कुछ भी नहीं -

दोनों में बहस होने के बाद दोनों ने निश्चय किया कि राजा गोपाल के दरबार में जाकर अपनी-अपनी बात कही जाए।

इस तरह भाट और ब्राह्मण एक दिन राजा गोपाल के दरबार में पहुँचे और अपनी-अपनी बात कहकर राजा को निश्चित करने के लिए कहने लगे।

राजा गोपाल मन ही मन भाट पर खुश हो उठे और ब्राह्मण के प्रति नाराज़ हो उठे। दोनों को उन्होंने दूसरे दिन दरबार में आने को लिये कहा।

दूसरे दिन दोनों जैसे ही राजा गोपाल के दरबार में फिर से पहुँचे, राजा गोपाल ने अपने देह रक्षक को इशारा किया। राजा के देह रक्षक ब्राह्मण को चावल, दाल और कुछ पैसे दिये। और उसके बाद भाट को चावल, घी और एक कद्दुू दिया।

उस कद्दुू के भीतर सोना भर दिया गया था।

राजा ने कहा - "अब दोनों जाकर खाना बनाकर खा लो। शाम होने के बाद फिर से दरबार में हाजिर होना।"

भाट और ब्राह्मण साथ-साथ चल दिए। नदी किनारे पहुँचकर दोनों खाना बनाने लग गये।

भाट ब्राह्मण की ओर देख रहा था और सोच रहा था - "राजा ने इसे दाल भी दी। मुझे ये कद्दुू पकड़ा दिया। इसे छीलना पड़ेगा, काटना पड़ेगा और फिर इसकी सब्जी बनेगी। ब्राह्मण के तो बड़े मजे हैं। दाल झट से बन जायेगी। ऊपर से ये कद्दुू अगर मैं खा लूँ, मेरा कमर का दर्द फिर से उभर आयेगी।"

भाट ने ब्राह्मण से कहा - "दोस्त, ये कद्दुू तुम लेकर अगर दाल मुझे दे दोगे, तो बड़ा अच्छा होगा। कद्दुू खाने से मेरे कमर में दर्द हो जायेगा।"

ब्राह्मण ने भाट की बात मान ली। दोनों अपना-अपना खाना बनाने में लग गये।

ब्राह्मण ने जब कद्दुू काटा, तो ढेर सारे सोना उसमें से नीचे गीर गया। ब्राह्मण बहुत खुश हो गया। उसने सोचा -

देही तो कपाल,
का करही गोपाल
उसने सोना एक कपड़े में बाँध लिया और कद्दुू की तरकारी बनाकर खा लिया। लेकिन कद्दुू का आधा भाग राजा को देने के लिये रख दिया।

शाम के समय दोनों जब राजा गोपाल के दरबार में पहुँचे, तो राजा गोपाल भाट की ओर देख रहे थे, पर भाट के चेहरे पर कोई रौनक नहीं थी। इसीलिये राजा गोपाल बड़े आश्चर्य में पड़े। फिर भी राजा ने कहा - "देही तो गोपाल का करही कपाल" - क्या ये ठीक बात नहीं?

तब ब्राह्मण ने कद्दुू का आधा हिस्सा राजा गोपाल के सामने में रख दिया।

राजा गोपाल ने एक बार भाट की ओर देखा, एक बार ब्राह्मण की ओर देखने लगे। फिर उन्होंने भाट से कहा - "कद्दुू तो मैनें तुम्हें दिया था?" भाट ने कहा - "हाँ, मैनें दाल उससे ली। कद्दुू उसे दे दिया" -

राजा गोपाल ने ब्राह्मण की ओर देखा -

ब्राह्मण ने मुस्कुराकर कहा -

देही तो कपाल,
का करही गोपाल।

jai_bhardwaj
04-03-2013, 07:54 PM
महुआ का पेड़

बहुत पुरानी कहानी है। एक गांव में एक मुखिया रहता था जो अपने अतिथियों से बड़े आदर से बड़े प्रेम से पेश आता था। वह मुखिया हमेशा इन्तजार करता था कि उसके घर कोई आये, और वह उसकी देखभाल बहुत अच्छी तरह करे, और रोज़ सुबह मुखिया यही सोचता था कि आज अतिथियों को खिलाया जाये, क्या पिलाया जाये ताकि अतिथि खुशी से झूम उठे। अतिथि बड़ी खुशी से झूम उठे। अतिथि बड़ी खुशी से वहाँ से विदा लेते और जाने से पहले मुखिया को हमेशा कहते कि उन्हें इतने अच्छे से किसी ने नहीं रखा। लेकिन मुखिया के मन में यही बात खटकती कि अतिथि खुशी से झूम नहीं रहे हैं।

रोज सुबह होते ही मुखिया जंगल में घुमता रहता, फूल कंदमूल इकट्ठे करते रहता था ताकि कोई अतिथि अगर आये, तो उन्हें अच्छी तरह से भोजन करा सके।

मुखिया का बेटा भी अपने पिता की तरह अतिथि सत्कार में बड़ा माहिर था। एक दिन जब उनके घर में मेहमान आए जो पहले भी आ चुके थे, मुखिया और मुखिया का बेटा दोनो कंद-मूल और फलों से अच्छी तरह से उनका सत्कार किया। मेहमान भी बड़े प्यार से, खुशी से खा रहे थे। खाते-खाते मेहमान ने कहा - "इस जंगल में सिर्फ यही फल मिलता है - हमारे उधर के जंगल में बहुत कि के फल होते हैं। पर मुझे तो ये फल बहुत ही अच्छा लगता है।"

मुखिया का बेटा अपने पिता की ओर देख रहा था। मुखिया ने कहा - "हम जंगल में घुमते रहते हैं ताकि हमें कुछ और किस्म का फल मिल जाए। लेकिन इस जंगल में सिर्फ ये ही पाई जाती है" -

अतिथि ने कहा - "मुझे तो सबसे बेहतर आप का अतिथि सत्कार लगता है। इतने आदर से तो हमें कोई भी नहीं खिलाता।"

उस रात को मुखिया का बेटा मुखिया से कहा - "मैं कुछ दिन के लिए जंगल के भीतर और अच्छी तरह से छानबीन करने के लिए जा रहा हूँ। देखु-अगर मुझै कुछ और मिल जाये" -

मुखिया को बड़ा अच्छी लगी ये बात। उसने बेटे से कहा - "हाँ बेटा, तू जा" -

कई दिन तक मुखिया का बेटा जंगल में घूमता रहा पर उसे कोई नई चीज़ दिखाई नहीं दी। घूमते-घूमते वह बहुत ही थक गया था, एक पेड़ के नीचे बैठ वह आराम करने लगा। अचानक उसके सर पर एक चिड़िया आकर बैठी। और फिर फुदकती हुई चली गई।

अरे! ये चिड़िया तो बड़ी मस्ती से झूम रही है। उसने चारों ओर देखा - यहाँ की सारी चिड़िया तो बड़ी खुश नज़र आ रही है। क्या बात है? वह गौर से देखता रहा चिड़ियों की ओर। उस पेड़ के नीचे एक गड्ढ़ा था जिसमें पानी था। चिड़िया उड़ती हुई उस गड्ढ़े के पास गई, उन्होंने पानी पिया और झुमते हुये चहकनी लगी और जिस चिड़िया ने अभी तक पानी नहीं पिया था, वह उतने उत्साह से झूम नहीं रही थी। इसका मतलब है कि उस पानी में खुच है।

मुखिया का बेटा गड्ढ़े के पास बैठ गया और उसने गड्ढ़े का पानी पी लिया। अरे - ये पानी तो बड़ा अजीब है। पीने से झूमने को मन करता है। क्या है इस पानी में? अच्छा यह तो महुए का पेड़ है।

इसके फल झड़-झड़ के उसी पानी में गिर रहे थे। तो इसका मतलब है कि महुए के फल में वह झूमने वाली चीज़ है।

मुखिया का बेटा मन ही मन झूम उठा। ये ही तो वह कितने दिनों से तलाश कर रहा था। इतने दिनों के बाद उसे वह चीज़ मिल गई।

उसने महुए का फल इकट्ठा करना शुरु कर दिया। ढ़ेर सार फलों को लेकर वह घर की ओर चल दिया।

उधर मुखिया बहुत ही चिन्तित हो उठा था। कहाँ गया उसका बेटा? उस दिन तीन अतिथि आए हुए थे। अतिथीयों को मुखिया की पत्नी प्यार से खिला रही थी पर साथ ही साथ उदास भी थी। अपने पति की ओर बार-बार देख रही थी।

अचानक मुखिया के चेहरे पर रौनक आ गई। उसकी पत्नी समझ गई कि बेटा वापस आ गया है।

अतिथी अब जाने ही वाले थे। पर मुखिया के बेटे ने उनसे अनुरोध किया कि वह थोड़ी देर के लिए रुक जाये।

अपनी माँ को उसने सारी बात बताई। माँ ने कहा - "पर बेटा, पानी में कुछ समय वह फल रहने के बाद ही असर होगा - तुम्हारी कहानी से मुझे तो यही समझ आ रहा है।"

मुखिया का बेटा मान गया। इसके बाद पानी में वह फल डालकर कुछ दिन तक वे सब इन्तज़ार करने लगे। अगली बार जब अतिथि आए उन्हें वह पानी दिया गया पीने के लिए।

उस दिन मुखिया, मुखिया की पत्नी और मुखिया का बेटा, तीनों खुशी से झूम उठे। क्योंकि पहली बार अतिथि जाते वक्त झूमते हुए चले जा रहे थे।

jai_bhardwaj
04-03-2013, 07:55 PM
बकरी और सियार

एक बकरी थी। रोज़ सुबर जंगल चली जाती थी - सारा दिन जंगल में चरती और जैसे ही सूर्य विदा लेते इस धरती से, बकरी जंगल से निकल आती। रात के वक्त उस जंगल में रहना पसन्द नहीं था। रात को वह चैन की नींद सो जाना चाहती थी। जंगल में जंगली जानवर क्या उसे सोने देगें?

जंगल के पास उसने एक छोटा सा घर बनाया हुआ था। घर आकर वह आराम से सो जाती थी।

कुछ महीने बाद उसके चार बच्चे हुए। बच्चों का नाम उसने रखा आले, बाले, छुन्नु और मुन्नु। नन्हें-नन्हें बच्चे बकरी की ओर प्यार भरी निगाहों से देखते और माँ से लिपट कर सो जाते।

बकरी कुछ दिनों तक जंगल नहीं गई। आस-पास उसे जो पौधे दिखते, उसी से भूख मिटाकर घर चली जाती और बच्चों को प्यार करती।

एक दिन उसने देखा कि आसपास और कुछ भी नहीं है। अब तो फिर से जंगल में ही जाना पड़ेगा - क्या करे? एक सियार आस-पास घूमता रहता है। वह तो आले, बाले, छुन्नु और मुन्नु को नहीं छोड़ेगा। कैसे बच्चों की रक्षा करे? बकरी बहुत चिन्तित थी। बहुत सोचकर उसने एक टटिया बनाया और बच्चों से कहा - "आले, बाले, छुन्नु और मुन्नु, ये टटिया न खोलना, जब मैं आऊँ, आवाज़ दूँ, तभी ये टटिया खोलना" - सबने सर हिलाया और कहा - "हम टटिया न खोले, जब तक आप हमसे न बोले"।

बकरी अब निश्चिन्त होकर जंगल चरने के लिए जाने लगी। शाम को वापस आकर आवाज़ देती -

"आले टटिया खोल
बाले टटिया खोल
छुन्नु टटिया खोल
मुन्नु टटिया खोल"
आले, बाले, छुन्नु, मुन्नु दौड़कर दरवाज़ा खोल देते और माँ से लिपट जाते।

वह सियार तो आस-पास घुमता रहता था। उसने एक दिन एक पेड़ के पीछे खड़े होकर सब कुछ सुन लिया। तो ये बात है। बकरी जब बुलाती, तब ही बच्चे टटिया खोलते।

एक दिन बकरी जब जंगल चली गई, सियार ने इधर देखा और उधर देखा, और फिर पहुँच गया बकरी के घर के सामने। और फिर आवाज लगाई -

आले टटिया खोल
बाले टटिया खोल
छुन्नु टटिया खोल
मुन्नु टटिया खोल
आले, बाले, छुन्नु और मुन्नु ने एक दूसरे की ओर देखा -

"इतनी जल्दी आज माँ लौट आई" - चारों बड़ी खुशी-खुसी टटिया के पास आये और टटिया खोल दिये।

सियार को देखकर बच्चों की खुशी गायब हो गई। चारों उछल-उछल कर घर के और भीतर जाने

लगे। सियार कूद कर उनके बीच आ गया और एक-एक करके पकड़ने लगा।

आले, बाले, छुन्नु, मुन्नु रोते रहे, मिमियाते रहे पर सियार ने चारों को खा लिया।

शाम होते ही बकरी भागी-भागी अपने घर पहुँची - उसने दूर से ही देखा कि टटिया खुली है। डर के मारे उसके पैर नहीं चल रहे थे। वह बच्चों को बुलाती हुई आगे बढ़ी - आले, बाले, छुन्नु, मुन्नु। पर ना आले आया ना बाले, न छुन्नु न मुन्नु।

बकरी घर के भीतर जाकर कुछ देर खूब रोई। उसके बाद वह उछलकर खड़ी हो गई। ध्यान से दखने लगी ज़मीन की ओर। ये तो सियार के पैरों के निशान हैं। तो सियार आया था। उसके पेट में मेरे आले, बाले, छुन्नु, मुन्नु हैं।

बकरी उसी वक्त बढ़ई के पास गई और बढ़ई से कहा - "मेरे सींग को पैना कर दो" -

"क्या बात है? किसको मारने के लिए सींग को पैने कर रहे हो" -

बकरी ने जब पूरी बात बताई, बढ़ई ने कहा - "तुम सियार से कैसे लड़ाई करोगी? सियार तुम्हें मार डालेगा। वह बहुत बलवान है" -

बकरी ने कहा, "तुम मेरे सींग को अच्छी तरह अगर पैने कर दोगे, मैं सियार को हरा दूँगी" -

बढ़ई ने बहुत अच्छे से बकरी के सींग पैने कर दिए।

बकरी अब एक तेली के पास पहुँची। तेली से बकरी ने कहा - "मेरे सीगों पर तेल लगा दो और उसे चिकना कर दो" -

तेली ने बकरी के सीगों को चिकना करते करते पूछा - "अपने सीगों को आज इतना चिकना क्यों कर रहे हो?"

बकरी ने जब पूरी कहानी सुनाई, तेली ने और तेल लगाकर उसके सीगों को और भी चिकना कर दिया।

अब बकरी तैयार थी। वह उसी वक्त चल पड़ी जंगल की ओर। जंगल में जाकर सियार को ढ़ूढ़ने लगी। कहाँ गया है सियार? जल्दी उसे ढ़ूड निकालना है। आले, बाले, छुन्नु, मुन्नु उसके पेट में बंद हैं। अंधेरे में न जाने नन्हें बच्चों को कितनी तकलीफ हो रही होगी।

बकरी दौड़ने लगी - पूरे जंगल में छान-बीन करने लगी।

बहुत ढूँढ़ने के बाद बकरी पहुँच गई सियार के पास। सियार का पेट इतना मोटा हो गया था, आले, बाले, छुन्नु, मुन्नु जो उसके भीतर थे।

बकरी ने कहा - "मेरे बच्चों को लौटा दो", सियार ने कहा - "तेरे बच्चों को मैनें खा लिया है अब मैं तुझे खाऊँगा"।

बकरी ने कहा - मेरे सींगो को देखो। कितना चिकना है "तुम्हारा पेट फट जायेगा - जल्दी से बच्चे वापस करो"।

सियार ने कहा - "तू यहाँ मरने के लिये आई है"।

बकरी को बहुत गुस्सा आया। वह आगे बहुत तेजी से बढ़ी और सियार के पेट में अपने सींग घोंप दिए।

जैसे ही सियार का पेट फट गया, आले, बाले, छुन्नु, मुन्नु पेट से निकल आये। बकरी खुशी से अब चारों को लेकर घर लौट कर आई।

तब से आले, बाले, छुन्नु, मुन्नु टटिया तब तक नहीं खोलते जब तक बकरी दो बार तो कभी तीन बार दरवाजा खोलने के लिए न कहती।

रोज सुबह जाने से पहले बकरी उन चारों से फुसफुसाकर कहकर जाती कि वह कितने बार टटिया खोलने के लिए कहेगी।

jai_bhardwaj
04-03-2013, 07:55 PM
चम्पा और बाँस

बहुत दिनों पहले एक राजा रहता था। उनकी दो रानियाँ थीं। दोनों रानियाँ नि:सन्तान थी। राजा सभी मन्दिरों में जा - जाकर पूजा-पाठ करते, घर में पूजा-पाठ करवाते। दो रानियाँ भगवान से विनती करते रहने पर फिर भी दोनों रानियाँ माँ नहीं बन पाई।

एक बार एक सन्यासी उस राज्य से गु रहे थे। राजा के दरबार में सभी लोग कहने लगे कि वे सन्यासी बहुत ही महात्मा है। क्यों न उन्हें राज दरबार में बुलाकर इस सम्स्या को हल करने के लिये विन्ती किया जाये? राजा ने कहा कि सन्यासी को आदर से महल में बुलाया जाये।

वे महात्मा जब महल में पहुँचे, राजा ने दोनों रानियों को बुलाकर कहा "महात्मा का सत्कार बड़े आदर के साथ होना चाहिये।" बड़ी रानी उसी वक्त तैयार हो गई और महात्मा को बड़े आदर के साथ खिलाने लगी। छोटी रानी महात्मा के फटे कपड़ो की ओर देखती और उनकी सेवा करने से इन्कार कर देती है। छोटी रानी को अपने रुप और धन का बड़ा घमंड था।

कुछ दिनो बाद महात्मा जाने के लिए तैयार हो गये। जाने से पहले बड़ी रानी को उन्होंने खूब आशीर्वाद दिया और कहा "बहुत जल्द ही इस महल में बच्चों की आवाज़ सुनाई देगी" - बड़ी रानी तो बहुत खुश थी। और सचमुच कुछ ही दिनों के भीतर वह गर्भवती हो गई।

यह खबर राजा के पास पहुँचते ही राजा बहुत ही खुश हो गये। प्रजा तक उसी वक्त खबर पहुँच गई कि राजा अब पिता बनने वाले हैं। पूरे राज्य में लोक खुशियाँ मनाने लगे। बड़ी रानी का सम्मान बहुत बढ़ गया, और उनकी देखभाल करने के लिए और भी लोग रखे गये।

उधर छोटी रानी के मन में बहुत ज्यादा ईर्ष्या हो रही थी। रात दिन वह ईर्ष्या से जलने लगी थी। सोच रही थी कि अभी से जलने लगी थी। सोच रही थी कि अभी से बड़ी रानी का इतना आदर - न जाने बच्चे पैदा होने के बाद कितना ज्यादा आदर होगा, छटपटा रही थी छोटी रानी। उसने राजमहल की दाई को बुला भेजा और उसे ढेर सारा धन देकर अपने साथ शामिल कर लिया। और दोनों मिलकर इन्तज़ार करने लगे।

समय पर रानी ने दो बच्चों को जन्म दिया - एक बेटी, एक बेटा। दाई ने तुरन्त बच्चों को एक झाँपी में रखकर छोटी रानी के पास ले गई। और उसके बाद बड़ी रानी के पास दो पत्थर रख दिए।

बड़ी रानी ने जब पत्थरों को देखा उसे बहुत हैरानी हुई। ये कैसे हो सकता है। उधर राजा खुशी से झूमते हुये बड़ी रानी के पास पहुँचे और जब उन्होंने देखा बड़ी रानी दो पत्थरों को आश्चर्य से ताक रही है, राजा वहीं रुक गये और दाई से पूछने लगे क्या बात है। दाई ने कहा - "बच्चे नहीं, पत्थर निकले - राजा को बहुत गुस्सा आया। बड़ी रानी को उसी वक्त बंदी गृह में कैद कर दिया, पूरे राजमहल में ये बात फैल गई कि बड़ी रानी ने ईट पत्थर को जन्म दिया है।

उधर छोटी रानी अपने दो चौकिदारों को बुलाकर वह झाँपी दे दी और उनसे कहने लगी - "इस झाँपी में दो बच्चे हैं, दोनों को ले जाओ और मार डालो" - दोनों चौकिदार झाँपी लेकर जंगल में गये। झाँपी खोलकर बच्चों को जब देखा, तब दोनों ने निश्चय किया कि बच्चों को वही छोड़ देगें। भगवान बच्चों की रक्षा करेंगे। ये सोचकर वही झाँपी रखकर दोनों महल वापस आ गये। छोटी रानी ने जब पूछा - "हो गया काम"- उन्होंने कहा - "हाँ हो गया काम"।

इधर बड़ी रानी दिन रात पूजा पाठ में लग गई। राजा ने बड़ी रानी को फिर से महल में रहने दिया। बड़ी रानी सुबह से शाम तक पूजा करती रहती। पूजा करने के लिए फूल लाने सिपाही को भेजती। एक दिन आसपास कोई फूल नहीं मिले। सिपाही जंगल से फूल लाने गया। जंगल में सिपाही ने देखा बड़े सुन्दर चम्पा फूल लगे हुए थे। चम्पा और बाँस का झाड़ पास-पास उगे हुए थे। सिपाही फूल तोड़ने के लिए जैसे ही नज़दीक आया, चम्पा के झाड़ ने कहा "ए भैया बाँस" -

बाँस झाड़ ने कहा "काय बहिनी चंपा?"

चंपा ने कहा - "राजा के सिपाही फूलवा तोड़े बर आए दे",

बाँस ने कहा - "लग जा बहिनी आकाश" - जैसे ही बाँस ने कहा, वैसे ही चम्पा का झाड़ उपर की ओर बढ़ने लगा, बढ़ते बढ़ते वह इतना बढ़ गया की सैनिक फूल तक नहीं पहुँच पाए। सैनिक आश्चर्यचकित होकर ताकते ही रहे।

सैनिक दौड़ते हुए सेनापति के पास पहुँचे और उन्हें सारी बात बताई। सेनापति ने विश्वास ही नहीं किया - "ये सब क्या कह रहे हो?"

सैनिकों ने कहा - "आप एक बार हमारे साथ जंगल चलिये, एक बार खुद देख लीजिए" -

सेनापति चल पड़े सैनिको के संग - जैसे ही सेनापति चम्पा और बाँस के पास पहुँचे, चम्पा ने कहा - "ए भैया बाँस" - बाँस ने कहा - "काय बहिनी चंपा?" चम्पा ने कहा - "राजा के सेनापति फूल तोड़े बर आए हे"- बाँस ने कहा, "लग जा बहिनी आकाश"- चम्पा का झाड़ बढ़ते बढ़ते और भी ऊँचे तक पहुँच गया।

सेनापति बहुत ही डर गए। दौड़ते दौड़ते पहुँचे मन्त्री के पास - अब मन्त्री चल पड़े देखने के लिए। चम्पा को ऊपर से दूर तक दिखाई दे रहा था, उसने दूर से ही देख लिया कि मन्त्री जी आ रहे हैं।

"ए भैया बाँस" - बाँस ने कहा - "काय बहिनी चम्पा", चम्पा ने कहा - "राजा के मन्त्री फूल तोड़े बर आए हे" - "लग जा बहिनी आकाश"- मन्त्री जी जैसे ही पेड़ तक पहुँचे, पेड़ और ऊपर और भी ऊपर तक

पहुँच गया।

मन्त्री जी सीधे पहुँचे राजा के दरबार में। राजा ने कहा - "इतना घबरा क्यों गये हो?"

मन्त्री ने कहा - "आप इसी वक्त मेरे साथ चलिए राजा जी" -

सारी बात सुनकर राजा ने कहा - "मेरी छोटी रानी भी मेरे साथ चलेगी। ये तो उन्हें भी देखना चाहिए।"

छोटी रानी को खबर देने वही दो सिपाही पहुँचे, जिन्होंने उन बच्चों को वहाँ फेंका था। दोनों खूब डर गये थे। छोटी रानी भी डर गई थी। वे जल्दी से तैयार होकर राजा के साथ चल पड़ी।

उधर बड़ी रानी फूल के लिए व्याकुल हो रही थी और सैनिकों को बुला भेजी थी ये जानने के लिए कि वे अब तक फूल क्यों नही लाये। बड़ी रानी, छोटी रानी के महल के पास से गुज़र रही थी, उन्हे छोटी रानी और दो सिपाहियों की बात सुनाई दी। राजा और छोटी रानी जब जाने लगे, उनकी सवारी के पीछे-पीछे बड़ी रानी पैदल ही चलने लगी - बहुत व्याकुल होकर वह चली जा रही थी।

चम्पा के झाड़ को ऊपर से सब कुछ दिखाई दे रहा था - जैसे ही वे सब पास पहुँचे

"ए भैया बाँस" - बाँस ने कहा - "काय बहिनी चम्पा", चम्पा ने कहा - "छोटी रानी संग राजा फूल तोड़े बर आए हे" - "लग जा बहिनी आकाश"- चम्पा का झाड़ और भी ऊँचा हो गया।

राजा दोनों पेड़ो के पास पहुँचकर पूछने लगे - "क्या बात है - तुम दोनों भाई बहिन हो - कैसे चम्पा और बाँस बन गए?" उसी वक्त बड़ी रानी वहाँ तक पहुँची। चम्पा ने जोर से कहा - "ए भैया बाँस" - बाँस ने कहा - "काय बहिनी चम्पा", चम्पा ने कहा - "हमर महतारी, दुखियारी बड़े रानी ह फुलवा तोड़े बर आवथे"- "परो बहिनी पाँव" - चम्पा ज़मीन में झुक गई और बड़ी रानी के पैरों के पास झूमने लगी।

साथ-साथ बाँस का झाड़ भी झुककर बड़ी रानी के पैरों को छूने लगा।

इसके बाद चम्पा और बाँस ने राजा को सारी बात बताई। राजा ने उसी वक्त छोटी रानी को बन्द करने को कह दिया अंधेरी कोठरी में और बड़ी रानी से माफी मांगने लगे।

बड़ी रानी बड़े दुख से चम्पा और बाँस को देख रहे थे। ये दोनों मनुष्य कैसे बनेंगे?

बड़ी रानी दोनों के करीब पहुँचकर दोनों से लिपटकर रोने लगी। जैसे ही उनके आँसूओं ने चम्पा और बाँस को छुआ, चम्पा और बाँस मनुष्य बन गये। बेटा, बेटी को बड़ी रानी ने गले से लगा लिया और जाकर रथा में बैठ गई।

राजा रानी दोनों बच्चों के साथ राजमहल की ओर चल पड़े, साथ में बाजा, गाजा बजने लगे। पूरे देश में खुशियाँ फैल गई।

jai_bhardwaj
04-03-2013, 07:56 PM
कौआ - अनोखा दोस्त

एक कौआ था। वह एक किसान के घर के आँगन के पेड़ पर रहता था। किसान रोज़ सुबह उसे खाने के लिए पहले कुछ देकर बाद में खुद खाता था। किसान खेत में चले जाने के बाद कौआ रोज़ उड़ते-उड़ते ब्रह्माजी के दरबार तक पहुँचता था और दरबार के बाहर जो नीम का पेड़ था, उस पर बैठकर ब्रह्माजी की सारी बातें सुना करता था। शाम होते ही कौआ उड़ता हुआ किसान के पास पहुँचता और ब्रह्माजी के दरबार की सारी बातें उसे सुनाया करता था।

एक दिन कौए ने सुना कि ब्रह्माजी कह रहे हैं कि इस साल बारिश नहीं होगी। अकाल पड़ जायेगा। उसके बाद ब्रह्माजी ने कहा - "पर पहाड़ो में खूब बारिश होगी।"

शाम होते ही कौआ किसान के पास आया और उससे कहा - "बारिश नहीं होगी, अभी से सोचो क्या किया जाये"।

किसान ने खूब चिन्तित होकर कहा - "तुम ही बताओ दोस्त क्या किया जाये"।

कौए ने कहा - "ब्रह्माजी ने कहा था पहाड़ों में जरुर बारिश होगी। क्यों न तुम पहाड़ पर खेती की तैयरी करना शुरु करो?"

किसान ने उसी वक्त पहाड़ पर खेती की तैयारी की। आस-पास के लोग जब उस पर हँसने लगे, उसे बेवकूफ कहने लगे, उसने कहा - "तुम सब भी यही करो। कौआ मेरा दोस्त है, वह मुझे हमेशा सही रास्ता दिखाता है" - पर लोगों ने उसकी बात नहीं मानी। उस पर और ज्यादा हँसने लगे।

उस साल बहुत ही भयंकर सूखा पड़ा। वह किसान ही अकेला किसान था जिसके पास ढेर सारा अनाज इकट्ठा हो गया। देखते ही देखते साल बीत गया इस बार कौए ने कहा - "ब्रह्माजी का कहना था कि इस साल बारिश होगी। खूब फसल होगी। पर फसल के साथ-साथ ढेर सारे कीड़े पैदा होगें। और कीड़े सारी फसल के चौपट कर देंगे।"

इस बार कौए ने किसान से कहा - "इस बार पहले से ही तुम मैना पंछी और छछूंदों को ले आना ताकि वे कीड़ों को खा जाये।"

किसान ने जब ढेर सारा छछूंदों को ले आया, मैना और पंछी को ले आया, आसपास के लोग उसे ध्यान से देखने लगे - पर इस बार वे किसान पर हंसे नहीं।

इस साल भी किसान ने अपने घर में ढेर सारा अनाज इकट्ठा किया।

इसके बाद कौआ फिर से ब्रह्माजी के दरबार के बाहर नीम के पेड़ पर बैठा हुआ था जब ब्रह्माजी कर रहे थे - "फसल खूब होगी पर ढेर सारे चूहे फसल पर टूट पड़ेगे।"

कौए ने किसान से कहा - "इस बार तुम्हें बिल्लियों को न्योता देना पड़ेगा - एक नहीं, दो नहीं, ढेर

सारी बिल्लियाँ"।

इस बार आस-पास के लोग भी बिल्लियों को ले आये।

इसी तरह पूरे गाँव में ढेर सारा अनाज इकट्ठा हो गया।

कौए ने सबकी जान बचाई।

bindujain
08-03-2013, 04:18 PM
चार मित्र

बहुत दिन पहले की बात है। एक छोटा-सा नगर था, पर उसमें रहने वाले लोग बड़े दिलवाले थे। ऐसे न्यारे नगर में चार मित्र रहते थे। वे छोटी उमर के थे, पर चारों में बड़ा मेल था। उनमें एक था। राजकुमार, दूसरा राजा के मंत्री का पुत्र, तीसरा सहूकार का लड़का और चौथा एक किसान का बेटा। चारों साथ-साथ खाते-पीते और खेलते-घूमते थे।

एक दिन किसान ने अपने पुत्र से कहा, “देखो बेटा, तुम्हारे तीनों साथी धनवान हैं और हम गरीब हैं। भला धरती और आसमान का क्या मेल !”

लड़का बोला, “नहीं पिताजी, मैं उनका साथ नहीं छोड़ सकता। बेशक यह घर छोड़ सकता हूं।”

बाप यह सुनकर आग-बबूला हो गया और लड़के को तुरंत घर छोड़ जाने की अज्ञा दी। लड़के ने भी राम की भांति अपने पिता की अज्ञा शिरोधार्य कर ली और सीधा अपने मित्रो के पास पहुंचा। उन्हें सारी बात बताई। सबने तय किया कि हम भी अपना-अपना घर छोड़कर मित्र के साथ जायंगे। इसके बाद सबने अपने घर और गांव से विदा ले ली और वन की ओर चल पड़े।

धीरे-धीरे सूरज पश्चिम के समुन्दर में डूबता गया और धरती पर अंधेरा छाने लगा। चारों वन से गुजर रहे थे। काली रात थी। वन में तरह-तरह की आवाजें सुनकर सब डरने लगे। उनके पेट में भूख के मारे चूहे दौड़ रहे थे। किसान के पुत्र ने देखा, एक पेड़ के नीचे बहुत-से जुगनू चमक रहे हैं।वह अपने साथियों को वहां ले गया और उन्हें पेड़ के नीचे सोने के लिए कहा। तीनों को थका-मांदा देखकर उसका दिल भर गया। बोला, “तुम लोगों ने मेरी खातिर नाहक यह मुसीबत मोल ली।”

सबने उसे धीरज बंधाया और कहा, “नहीं-नहीं, यह कैसे हो सकता है कि हमारा एक साथी भूखा-प्यासा भटकता रहे और हम अपने-अपने घरों में मौज उड़ायें। जीयेंगे तो साथ-साथ, मरेंगे तो साथ-साथ।”

थोड़ी देर बाद वे तीनों सो गये, पर किसान के लड़के की आंख में नींद कहां! उसने भगवान से प्रार्थना की, “हे भगवान ! अगर तू सचमुच कहीं है तो मेरी पुकार सुनकर आ जा और मेरी मदद कर।”

उसकी पुकार सुनकर भगवान एक बूढ़े के रूप में वहां आ गये। लड़के से कहा, “मांग ले, जो कुछ मांगना है। यह देख, इस थैली में हीरे-जवाहरात भरे हैं।”

लड़के ने कहा, “नहीं, मुझे हीरे नहीं चाहिए। मेरे मित्र भूखे हैं। उन्हें कुछ खाने को दे दो।”

भगवान ने कहा, “मैं तुम्हें भेद की एक बात बताता हूं। वह जो सामने पेड़ है न….आम का, उस पर चार आम लगे हैं-एक पूरा पका हुआ, दूसरा उससे कुछ कम पका हुआ, तीसरा उससे कम पका हुआ और चौथा कच्चा।”

“इसमें भेद की कौन-सी बात ?” लड़के ने पूछा।

भगवान ने कहा, “ये चारों आम तुम लोग खाओ। तुममें से जो पहला आम खायगा, वह राजा बन जायगा। दूसरा आम खाने वाला राजा का मंत्री बन जायगा। जो तीसरा आम खायगा, उसके मुंह से हीरे निकलेंगे और चौथा आम खानेवाले को उमर कैद की सजा भोगनी पड़ेगी।” इतना कहकर बूढ़ा आंख से ओझल हो गया।

तड़के सब उठे तो किसान के पुत्र ने कहा, “सब मुंह धो लो।” फिर उसने कच्चा आम अपने लिए रख लिया और बाकी आम उनको खाने के लिए दे दिये।

सबने आम खा लिये। पेट को कुछ आराम पहुंचा तो सब वहां से चल पड़े। रास्ते में एक कुआं दिखाई दिया। काफी देर तक चलते रहने से सबको फिर से भूख-प्यास लग आई। इसिलिए वे पानी पीने लगे। राजकुमार ने मुंह धोने के इरादे से पानी पिया और फिर थूक दिया तो उसके मुंह से तीन हीरे निकल आये। उसे हीरे की परख थी। उसने चुपचाप हीरे अपनी जेब में रख लिए।

दूसरे दिन सुबह एक राजधानी में पहुंचने के बाद उसने एक हीरा निकालकर मंत्री के पुत्र को दिया और खाने के लिए कुछ ले आने को कहा।

वह हीरा लेकर बाजार पहुंचा ता देतखता क्या है कि रास्ते में बहुत-से लोग जमा हो गये हैं। कन्धे-से-कन्धा ठिल रहा है। गाजे-बाजे के साथ एक हाथी आ रहा है। उसने एक आदमी से पूछा, “क्यों भाई, यह शोर कैसा है ?”

“अरे, तुम्हें नहीं मालूम ?” उस आदमी ने विस्मय से कहा।

“नहीं तो।”

“यहां का राजा बिना संतान के मर गया है। राज के लिए राजा चाहिए। इसलिए इस हाथी को रास्ते में छोड़ा गया है। वही राजा चुनेगा।”

“सो कैसे ?”

“हाथी की सूंड में वह फल-माला देख रहे हो न ?”

“हां-हां।”

“हाथी जिसके गले में यह माला डालेगा, वही हमारा राजा बन जायगा। देखो, वह हाथी इसी ओर आ रहा है। एक तरफ हट जाओ।”

लड़का रास्ते के एक ओर हटकर खड़ा हो गया। हाथी ने उसके पास आकर अचानक उसी के गले में माला डाल दी। इसी प्रकार मंत्री का पुत्र राजा बन गया। उसने पूरा पका हुआ आम जो खाया था। वह राजवैभव में अपने सभी मित्रों को भूल गया।

बहुत समय बीतने पर भी वह नहीं लौटा, यह देखकर राजकुमार ने दूसरा हीरा निकाला और साहूकार के पुत्र को देकर कुछ लाने को कहा। वह हीरा लेकर बाजार पहुंचा। राज को राजा मिल गया था, पर मंत्री के अभाव की पूर्ति करनी थी, इसलिए हाथी को माला देकर दुबारा भेजा गया। किस्मत की बात ! अब हाथी नेएक दुकान के पास खड़े साहूकार के पुत्र को ही माला पहनाई। वह मंत्री बन गया और दोस्तों को भूल गया।

इधर राजकुमार और किसान के लड़के का भूख के मारे बुरा हाल हो रहा था। अब क्या करें ? फिर किसान के पुत्र ने कहा, “अब मैं ही खाने की कोई चीज ले आता हूं।”

राजकुमार ने बचा हुआ तीसरा हीरा उसे सौंप दिया। वह एक दुकान में गया। खाने की चीजें लेकर उसने अपने पास वाला हीरा दुकानदार की हथेली पर रख दिया। फटेहाल लड़के केपास कीमती हीरा देखकर दुकानदार को शक हुआ कि, हो न हो, इस लड़के ने जरूर ही यह हीरा राजमहल से चुराया होगा। उसने तुरंत पुलिस के सिपाहियों को बुलाया। सिपाही आये। उन्होंने किसानके लड़के की एक न सुनी और उसे गिरफतार कर लिया। दूसरे दिनउेस उमर कैद की सजा सुनाई गई। यह प्रताप था कच्चे आम का।

बेचारा राजकुमार मारे चिंता के परेशान था। वह सोचने लगा, यह बड़ा विचित्र नगर है। मेरा एक भी मित्र वापस नहीं आया। ऐसे नगर में न रहना ही अच्छा। वह दौड़ता हुआ वहां से निकला और दूसरे गांव के पास पहुंचा। रास्ते में उसे एक किसान किला, जो सिर पर रोटी की पोटली रखे अपने घर लौट रहा था। किसाननेउसे अपने साथ ले लिया और भोजन के लिए अपने घर ले गया।

किसान के घर पहुंचने के बाद राजकुमार ने देखा कि किसान की हालत बड़ी खराब है। किसान ने उसे अच्छी तरह नहलाया और कहा, मैं गांव का मुखिया था। रोज तीन करोड़ लोगों को दान देता था, पर अब कौड़ी-कौड़ी के लिए मोहताज हूं।

राजकुमार बड़ा भूखा था, उसने जो रूखी-सूखी रोटी मिली, वह खा ली। दूसरे दिन सुबह उठने के बाद जब उसने मुंह धोया तो फिर मुंह से तीन हीरे निकले। वे हीरे उसने किसान को दे दिये। किसान फिर धनवान बन गया और उसने तीन करोड़ का दान फिर से आरम्भ कर दिया। राजकुमार वहीं रहने लगा और किसान भी उससे पुत्रवत् प्रेम करने लगा।

किसान के खेत में काम करने वाली एक औरत से यह सुख नहीं देखा गया। उसने एक वेश्या को सारी बात सुनाकर कहा, “उस लड़के को भगाकर ले आओ तो तुम्हें इतना धन मिलेगा कि जिन्दगी भर चैन की बंसी बजाती रहोगी।” अब वेश्या ने एक किसान-औरत का रूप रख लिया और किसान के घर जाकर कहा, “मैं इसकी मां हूं। यह दुलारा मेरी आंखों का तारा है। मैं इसके बिना कैसे ज सकूंगी ? इसे मेरे साथ भेज दो।” किसान को उसकी बात जंच गई। राजकुमार भी भुलावे में आकर उसके पीछे-पीछे चल दिया।

घर आने पर वेश्या ने राजकुमार को खूब शराब पिलाई। उसने सोचा, लड़का उल्टी करेगा तो बहुत-से हीरे एक साथ निकल आयंगे। उसकी इच्छा के अनुसार लड़के को उल्टी हो गई। लेकिन हीरा एक भी नहीं निकला। क्रोधित होकर उसने राजकुमार को बहुत पीटा और उसे किसान के मकान के पीछे एक गडढे में डाल दिया।

राजकुमार बेहोश हो गया था। होश में आने पर उसने सोचा, अब किसानके घर जाना ठीक नहीं होगा, इसलिए उसने बदन पर राख मल ली और संन्यासी बनकर वहां से चल दिया।

रास्ते में उसे सोने की एक रस्सी पड़ी हुई दिखाई दी। जैसे ही उसने रस्सी उठाई, वह अचानक सुनहरे रंग का तोता बनगया। तभी आकाशवाणी हुई, “एक राजकुमारी नेप्रण किया है कि वह सुनहरे तोते के साथ ही ब्याह करेगी।”

अब तोता मुक्त रूप से आसमान में उड़ता हुआ देश-देश की सैर करने लगा। होते-होते एक दिन वहउसी राजमहल के पास पहुंचा, जहां की राजकुमारी दिन-रात सुनहरे तोते की राह देख रही थी और दिन-ब-दिन दुबली होती जा रही थी। उसने राजा से कहा, “मैं इस सुनहरे तोते के साथ ही ब्याह करूंगी।” राजा को बड़ा दु:ख हुआ कि ऐसी सुन्दर राजकुमारी एक तोते के साथ ब्याह करेगी! पर उसकी एक न चली। आखिर सुनहरे तोते के साथ राजकुमारी का ब्याह हो गया। ब्याह होत ही तोता सुन्दरराजकुमार बन गया। यह देखकर राजा खुशी से झूम उठा। उसने अपनी पुत्री को अपार सम्पत्ति, नौकर-चकर, घोड़े और हाथी भेंट-स्वरूप दिये। आधा राज्य भी दे दिया।

नये राजा-रानी अपने घर जाने निकले। राजा पहले गांव के मुखिया किसानसे मिलने गया, जो फिर गरीब बन गया था। राजा ने उसे काफी संपत्ति दी, जिससे उसका तीन करोड़ का दान-कार्य फिर से चालू हो गया।

अब राजकुमार को अपने मित्रों की याद आई। उसने पड़ोस के राज्य की राजधानी पर हमला करने की घोषणा की, पर लड़ाई आरंभ होने से पहले ही उस राज्य का राजा अपने सरदारों-मुसाहिबों सहित राजकुमार से मिलने आया। उसने अपना राज्य राजकुमार के हवाले करने की तैयारी बताई। राजा की आवाज से राजकुमार ने उसे पहचान लिया और उससे कहा, “क्यों मित्र, तुमने मुझे पहचाना नहीं?” दोनों ने एक-दूसरे को पहचना तो दोनों की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। अब दोनों ने मिलकर अपने साथी, किसान केपुत्र को खोजना आरम्भ किया। राजकुमार को यह बात खलने लगी कि उसकी खातिर मित्र को कारावास भुगतना पड़ा। जब सब कैदियों को रिहा किया गया तो उनमें किसान का लड़का मिलगया। राजकुमार ने उसका आलिंगन किया और अपना परिचय दिया। किसान का लड़का खुशी से उछल पड़ा। सब फिर से इकट्ठे हो गए।

इसके बाद सबने अपनी-अपनी सम्पत्ति एकत्र की और उसके चार बराबर हिस्से किए। सबको एक-एक हिस्सा दे दिया गया। सब अपने गांव वापस आ गये। माता-पिता से मिले। गांव भर में खुशी की लहर दौड़ गई सबके दिन सुख से बीतने लगे।

bindujain
08-03-2013, 04:20 PM
जटा हलकारा

नपुंसक पति की घरवाली-सी वह शोकभरी शाम थी। अगले जन्म की आशा के समान कोई तारा चमक रहा था। अंधेरे पखवाड़े के दिन थे।

ऐसी नीरस शाम को आंबला गांव के चबूतरे पर ठाकुरजी की आरती की सब बाट देख रहे थे। छोटे-छोटे अधनंगे बच्चों की भीड़ लगी थी। किसी के हाथ में चांद-सी चमकती कांसे की झालर झूल रही थी तो कोई बड़े नगाड़े पर चोट लगाने की प्रतीक्षा कर रहा था। छोटे-छोटे बच्चे इस आशा से नाच रहे थे कि प्रसाद में उन्हें मिस्री का एकाध टुकड़ा, नाररियल की एक-दो फांकें तथा तुलसी दल से सुगंधित मीठा चरणमृत मिलेगा। बाबाजी ने अभी तक मंदिर को खोला नहीं था। कुंए के किनारे पर बैठे बाबाजी स्नान कर रहे थे।

बड़ी उम्र के लोग नन्हें बच्चों को उठाये आरती की प्रतीक्षा में चबूतरे पर बैठे थे। सब चुप्पी साधे थे। उनके अंतर अपने आप गहरारई में ब्ैठते जा रहे थे। यह ऐसी शाम थी।

बड़ी उदास थी आज की शाम। अत्यंत धीमी आवाज में किसी ने बड़े दु:ख से कहा, “ऋतुएं मंद पड़ती जा रही है।”

दूसरा इस दु:ख में वृद्वि करते हुए बोला, “यह कलियुग है। अब कलियुग में ऋतुएं खिलती नहीं हैं। खिलें तो कैसे खिलें!”

तीसरे ने कहा, “ठाकुरजी का मुखारबिन्दु कितना म्लान पड़ गया है।”

चौथा बोला, “दस वर्ष पहले उनके मुख पर कितना तेज था।”

बड़-बूढ़े लोग धीमी आवाज में तथा अधमुंदी आंखों से बातों में तल्लीन थे। उसी समय आंबला गांव के बाजार में दो व्यक्ति सीधे चले आ रहे थे। आगे पुरुष और पीछे स्ती्र। पुरुष की कमर में तलवार और हाथ में लकड़ी थी। स्त्री के सिर पर बड़ी गठरी थी। पुरुष को एकदम पहचाना नहीं जा सकता था, परंतु राजपूतनी अपने पैरों कीचाल से ओर घेरदार लहंगे तथा ओढ़नी से पहचानी जाती थी।

राजपूत ने लोगों को ‘राम-राम’ नहीं किया, इससे गांव के लोग समझ गये किये अजनबी हैं। अपनी ओर से ही लोगों ने कहा, ‘राम-राम’।

उत्तर में ‘राम-राम’ कहकर यात्री जल्दी-जल्दी आगे चल पड़ा। उसके पीछे राजपूतनी अपने पैरों की एड़ियों को ढकती हुई बढ़ चली। एक-दूसरे के मुंह की ओर देखकर लोगों ने कहा, “ठाकुर, कितनी दूर जाना है ?”

“यही कोई आधा मील।” जवाब मिला।

“तब तो आत लोग यहां रुक जाइये ? “

“क्यों ? इतना जोर क्यों दे रहे हैं?” यात्री ने कुछ तेजी से कहा।

“इसका कोई खास कारण तो नहीं है, परंतु समय अधिक हो गया और साथ में महिला है। इसी से हम कह रहे हैं। अंधेरे में अकारण जोखिम क्यों लेते हैं? फिर यहां हम सब आपके ही भाई-बंद तो हैं। इसलिए आप रुक जाइये।”

मुसाफिर ने जवाब दिया, “अपनी ताकत का अंदाजा लगा करके ही मैं सफर करता हूं। मार्दों के लिए समय-समय क्या होता है ! अब तक तो अपने से बढ़कर कोई बहादुर देखा नहीं है।”

आग्रह करने वाले लोगों को बड़ा बुरा लगा। किसी ने कहा, “ठीक है, वरना चाहते हैं तो इन्हें मरने दो।”

राजपूत और राजपूतानी आगे बढ़ गये।

दोनों जंगल में चले जा रहे थे। सूर्य अस्त हो गया था। दूर से मंदिर में आरती के घंटे की ध्वनि सुनाई दे रही थी। दूर के गांवों के दीपक टिमटिमा रहे थे और कुत्ते भौंक रहे थे।

मुसाफिर ने अचानक पीछे घुंघरू की आवाज सुी। राजपूतनी ने पीछे मुड़कर देखा तो उसे सणोसरा का जटा हलकारा कंधे पर डाक की थैली लटकाये, हाथ में घुंघरू वाला भाला लिये, जाते हुए दिखाई दिया। उसकी कमर में फटे मयानवाली तलवार लटकी हुई थी। जटा हलकारा दुनिया की आशा-निराशा और शुभ-अशुभ की थैली कंधे पर लेकर जा रहा था। कुछ परदेश गये पुत्रों की वृद्व माताएं ओर प्रवासियों की स्त्रियां साल-छ: महीने में चिटठी मिलने की आस लगाये बैठी राह देखती होगी, यह सोचकर नहीं,बल्कि देरी हो जायेगी तो वेतन कट जरयगा, इस डर से जटा हलकारा दौड़ा जा रहा था। भाले के घुंघरू इस अंधेरे एकांत रात में उसके साथी बने हुए थे।

देखते-ही-देखते हलकारा पीछे चलती राजपूतनी के पास पहुंच गया। दोनों ने एक-दूसरे की कुशल पूछी। राजपूतनी का मायका सणोसरा में था। हलकारा सणोसरा से ही आ रहा था। इसलिए राजपूतनी अपने मां-बाप के समाजचार पूछने लगी। पीहर के गांव से आनेवाले अपरिचित पुरुष को भी स्त्री अपने सगे भाई-सा समझती है। दोनों बातें करते हुए साथ चलने लगे।

राजपूत कुछ कदम आगे था। राजपूतनी को पीछे रह जाते देखकर उसने मुड़कर देखा। दूसरे आदमी के साथ बातें करते देखकर उसने उसको भला-बुरा कहा और धमकाया।

राजपूतनी ने कहा, “मेरे पीहर का हलकारा है। मेरा भाई है।”

“देख लिया तेरा भाई ! चुपचाप चली आ।” राजपूत ने भौंहें चढ़ाकर कहा, फिर हलकारे से बोला, “तुम भी तो आदमी-आदमी को पहचानो।”

ठीक है, बापू !” यों कहकर हलकारे ने अपननी चाल धीमी करदी। एक खेत जितनी दूरी रखकर वह चलने लगा।

जब यह राजपूत जोड़ी नदी पर पहुंची तो एक साथ बाररह आदमियों ने ललकारा, “खबरदार, जो आगे बढ़े ! तलवार नीचे डाल दो।”

राजपूत के मुंह से दो-चार गालियां निकलीं, परंतु म्यान से तलवार नहीं निकल पायी। आंबला गांव के बाहर कोलियों ने आकर उस राजपूत को रस्सी से बांध दिया और दूर पटक दिया।

“बाई, गीहने उतार दो।” एक लुटेरे ने राजपूतनी से कहा।

बेचारी राजपूतनी अपने शरीर पर से एक-एक गहना उतारने लगी। हाथ, पैर, सीना आदि अंग लुटेरों की आंखों के आगे आये। उसकी भरी हुई देह ने लुटेरों की आंखों में काम-वासना उभार दी। जवान कोलियों ने पहले तो उसका मजाक उड़ाना शुरू किया। राजपूतनी शांत रही, लेकिन जब लुटेरे बढ़कर उसके निकट आने लगे तो जहरीली नागिन की तरह फुफकारती हुई राजपूतनी खड़ी हो गई।

कोलियों ने यह देखकर अटटहास करते हुए कहा, “अरे ! उस समी की पूंछ को धरती पर पटक दो !”

अंधेरे में राजपूतनी ने आकश की ओर देखा। जटा हलकारा के घुंघरू की आवाज उसके कानों में पड़ी।

राजपूतनी चीख उठी, “भाई, दौड़ो ! बचाओ !”

हलकारे ने तलवार खींच ली और पलक मारते वहां जा पहुंचा। बोला, “खबरदार, जो उस पर हाथ उठाया !”

बारह कोली लाठियां लेकर उस पर टूट पड़े। हलकारे ने तलवार चलायी और सात कोलियों को मौत के घाट उतार दिया। उसके सिर पर लाठियों की वर्षा हो रही थी, परंतु हलकारे को लाठियों की चोट का पता ही नहीं था। राजपूतनी ने शोर मचा दिया। मारे डर के बचे हुए लुटेरे भाग गये। उनके जाते ही हलकारा चक्कर खाकर गिर पड़ा ओर उसके प्राण-पखेरू उड़ गये।

राजपूतनी ने अपने पति की रस्सियां खोल दीं। उठते ही राजपूत बोला, “अब हम चलें।”

“कहां चलें?” स्त्री ने दु:खी होकर कहा, “तुम्हें शर्म नहीं आती ! दो कदम साथ चलनेवाला वह ब्राह्राण, घड़ी भर की पहचान के कारण, मेरे शील की रक्षा करते मरा पड़ा है। और मेरे जन्म भर के साथी, तुम्हें अपना जीवन प्यारा लगता है ! ठाकुर, चले जाओ अपने रास्ते। अब हमारा काग और हंस का साथ नहीं हो सकता। मैं तो अब अपने बचानेवाले ब्राह्राण की चिता में ही भस्म हो जाऊंगी !”

“ठीक है, तेरी जैसी मुझे और मिल जायगी।” कहता हुआ राजपमत वहां से चला गया।

हलकारे के शव को गोद में लेकर राजपूतनी सवेरे तक उस भयंकर जंगल में बैठी रही। उजाला होने पर उसने इर्द-गिर्द से लकड़ियां इकटठी करके चिता रची। शव को गोद में लेकर स्वयं चिता पर चढ़ गई। अग्नि सुलग उठी। दोनों जलकर खाक हो गये। कायर पति की सती स्त्री जैसी शोकातुर संध्या की उस घड़ी में चिता की क्षीण ज्योति देर तक चमकती रही।

आंबला और रामधारी के बीच के एक नाले में आज भी जटा और सती की स्मृति सुरक्षित है।

bindujain
08-03-2013, 04:21 PM
महाकाल की दृष्टि

देव-समाज के वृहद् महोत्सव का आयोजन हो रहा था। सभी देवता अपने-अपने वाहनों में आ रहे थे। महादेव शंकर सभा में प्रवेश कर रहे थे। उन्होंने सभा-भवन के बाहर स्थित एक वृक्ष की शाखा पर बैठे हुए एक शुक की ओर कुछ गम्भीर दृष्टि से देखा। शंकर तो सभा-भवन में चले गये, किंतु उस शुक के मन में चिंता उत्पन्न हो गयी। समीप बैठे गरुड़ से उसने अपनी आशंका का निवेदन किया। उसके बचने का उपाय सोचकर गरुड़ ने कहा, “शुकराज, मैं तुम्हें द्रुतगति से अनेक समुद्रों को पार करा कर किसी सुरक्षित स्थान पर छोड़ आता हूं। चिंता मत करो।”

गरुड़ ने पूरी शक्ति से उड़कर बहुत कम समय में अनेक समुद्र पार करके उसे दूर कहीं सुरक्षित स्थान पर बैठा दिया। शुक्र आश्वस्त हो गया कि वह प्रलयकर शंकर की कठोर दृष्टि से बच गया। गरुड़ लौटकर पुन: उसी वृक्ष पर जा बैठा और उत्सुकता से शंकर के सभा से बाहर आने की प्रतीक्षा करने लगा।

शंकर निकले। उन्होंने पुन: वृक्ष की उसी शाखा की ओर देखा। गरुड़ ने सहम कर उनकी गम्भीर दृष्टि का कारण पूछा।

शंकर बोले, “शुक्र कहां है ?”

गरुड़ ने कहा, “भगवान् ! शुक आपकी तीक्ष्ण दृष्टि से भयभीता हो गया था और मैंने उसे दूर एक सुक्षित स्थान पर बैठा दिया है।”

शंकर ने कहा, “यही तो मेरा आश्चर्य था कि कुछ ही क्षण के बाद वह शुक उसी स्थान पर एक महासर्प द्वारा कवलित हो जायगा। तुमने उस समस्या का उपाय कर दिया।”

bindujain
08-03-2013, 04:24 PM
नाविक का दायित्व

एक नौका जनल में विहार कर रही थी। अकस्मात् आकाश में मेघ घिर आये और घनघोर वर्षा होने लगी। वायु-प्रकोप ने तूफान को भीषण करदिया। यात्री घबराकर हाहाकार करने लगे और नाविक भी भयभीत हो गया। नाविक ने नौका को तट पर लाने के लिए जी-जान से परिश्रम करना प्रारम्भ कर दिया। वह अपने मजबूत हाथों से नाव को खेता ही रहा, जब तक कि वह बिल्कुल थक ही न गया। किंतु थकने पर भी वह नाव को कैसे छोड़ दे ? वह अपने थके शरीर से भी नौका को पार करने में जुट गया।

धीरे-धीरे नौका में जल भरने लगा और यात्रियों के द्वारा पानी को निकालने का प्रयत्न करने पर भी उसमें लज भरती ही गया। नौका धीरे-धीरे भारी होने लगी, पर नाविक साहसपूर्वक जुटा ही रहा। अंत में उसे निराशा ने घेर लिया। अभी किनारा काफी दूर था और नौका जल में डूबने लगी। नाविक ने हाथ से पतवार फेंक दी, और सिर पकड़कर बैठ गया। कुछ ही क्षणों में मौका डूब गयी। सभी यात्री प्राणों से हाथ धो बैठे। यमराज के पार्षद आये और नाविक को नरक के द्वार पर ले गये। नाविक ने पूछा, “कृपा करके मेरा अपराध तो बताओ कि मुझे नरक की ओर क्यों घसीटा जा रहा है ?”

पार्षदों ने उत्तर दिया, “नाविका, तुम पर मौका के यात्रियों को डुबाने का पाप लगा है।”

नाविक चकित होकर बोला, “यह तो कोई न्याय नहीं है। मैंने तो भरसक प्रयत्न किया कि यात्रियों की रक्षा हो सके।”

पार्षदों ने उत्तर दिया, “यह ठीक है कि तुमने परिश्रम किया, किंतु तुमे अंत में नौका चलाना छोड़ दिया था। तुम्हारा कर्तव्य था कि अंतिम श्यास तक नौका को खेते रहते। नौका के यात्रियों की जिम्मेदारी तुम पर थी। तुम पर उनकी हत्या का दोष लगा है।”