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View Full Version : विदिशा :


bindujain
06-03-2013, 02:08 PM
विदिशा

भारत के मध्य प्रदेश प्रान्त में स्थित एक प्रमुख शहर है। यह मालवा के उपजाऊ पठारी क्षेत्र के उत्तर- पूर्व हिस्से में अवस्थित है तथा पश्चिम में मुख्य पठार से जुड़ा हुआ है। ऐतिहासिक व पुरातात्विक दृष्टिकोण से यह क्षेत्र मध्यभारत का सबसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्र माना जा सकता है। नगर से दो मील उत्तर में जहाँ इस समय बेसनगर नामक एक छोटा-सा गाँव है, प्राचीन विदिशा बसी हुई है। यह नगर पहले दो नदियों के संगम पर बसा हुआ था, जो कालांतर में दक्षिण की ओर बढ़ता जा रहा है। इन प्राचीन नदियों में एक छोटी-सी नदी का नाम वैस है। इसे विदिशा नदी के रूप में भी जाना जाता है।

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06-03-2013, 02:10 PM
भौगोलिक स्थिति

इसकी भौगोलिक स्थिति बड़ी ही महत्त्वपूर्ण थी। पाटलिपुत्र से कौशाम्बी होते हुये जो व्यापारिक मार्ग उज्जयिनी (आधुनिक उज्जैन) की ओर जाता था वह विदिशा से होकर गुजरता था। यह वेत्रवती नदी के तट पर बसा था, जिसकी पहचान आधुनिक बेतवा नदी के साथ की जाती है। बेतवा की सहायक नदी धसान नदी के नाम में अवशिष्ट है। कुछ विद्वान इसका नामाकरण दशार्ण नदी (धसान) के कारण मानते हैं, जो दस छोटी- बड़ी नदियों के समवाय- रूप में बहती थी।

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06-03-2013, 02:11 PM
महाभारत, रामायण में विदिशा

इस नगर का सबसे पहला उल्लेख महाभारत में आता है। इस पुर के विषय में रामायण में एक परंपरा का वर्णन मिलता है जिसके अनुसार रामचन्द्र ने इसे शत्रुघ्न को सौंप दिया था। शत्रुघ्न के दो पुत्र उत्पन्न हुये जिनमें छोटा सुबाहु नामक था। उन्होंने इसे विदिशा का शासक नियुक्त किया था। थोड़े ही समय में यह नगर अपनी अनुकूल परिस्थितियों के कारण पनप उठा। भारतीय आख्यान, कथाओं एवं इतिहास में इसका स्थान निराले तरह का है। इस नगर की नैसर्गिक छटा ने कवियों और लेखकों को प्रेरणा प्रदान की। वहाँ पर कुछ विदेशी भी आये और इसकी विशेषताओं से प्रभावित हुये। कतिपय बौद्ध ग्रन्थों के वर्णन से लगता है कि इस नगर का सम्बन्ध संभवत: किसी समय अशोक के जीवन के साथ भी रह चुका था। इनके अनुसार इस नगर में देव नामक एक धनीमानी सेठ रहता था जिसकी देवा नामक सुन्दर पुत्री थी। अपने पिता के जीवनकाल में अशोक उज्जयिनी का राज्यपाल नियुक्त किया गया था। पाटलिपुत्र से इस नगर को जाते समय वह विदिशा में रूक गया थां देवा के रूप एवं गुणों से वह प्रभावित हो उठा और उससे उसने विवाह कर लिया। इस रानी से महेन्द्र नामक आज्ञाकारी पुत्र और संघमित्रा नामक आज्ञाकारिणी पुत्री उत्पन्न हुई। दोनों ही उसके परम भक्त थे और उसे अपने जीवन में बड़े ही सहायक सिद्ध हुये थे। संघमित्रा को बौद्ध ग्रन्थों में विदिशा की महादेवी कहा गया है।

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06-03-2013, 02:15 PM
कालिदास के मेघदूत में


इस नगर का वर्णन कालिदास ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ मेघदूत में किया है। अनके अनुसार यहाँ पर दशार्ण देश की राजधानी थी। प्रवासी यक्ष अपने संदेशवाहक मेघ से कहता है- अरे मित्र! सुन। जब तू दशार्ण देश पहुँचेगा, तो तुझे ऐसी फुलवारियाँ मिलेंगी, जो फूले हुये केवड़ों के कारण उजली दिखायी देंगी। गाँव के मन्दिर कौओं आदि पक्षियों के घोंसलों से भरे मिलेंगे। वहाँ के जंगल पकी हुई काली जामुनों से लदे मिलेंगे और हंस भी वहाँ कुछ दिनों के लिये आ बसे होगें।

हे मित्र! जब तू इस दशार्ण देश की राजधानी विदिशा में पहुँचेगा, तो तुझे वहाँ विलास की सब सामग्री मिल जायेगी। जब तू वहाँ सुहावनी और मनभावनी नाचती हुई लहरों वाली वेत्रवती (बेतवा) के तट पर गर्जन करके उसका मीठा जल पीयेगा, तब तुझे ऐसा लगेगा कि मानो तू किसी कटीली भौहों वाली कामिनी के ओठों का रस पी रहा है।

वहाँ तू पहुँच कर थकावट मिटाने के लिये 'नीच' नाम की पहाड़ी पर उतर जाना। वहाँ पर फूले हुय कदम्ब के वृक्षों को देखकर ऐसा जान पड़ेगा कि मानों तुझसे भेंट करने के कारण उसके रोम-रोम फरफरा उठे हों। उस पहाड़ी की गुफ़ाओं से उन सुगन्धित पदार्थों की गन्ध निकल रही होगी, जिन्हें वहाँ के रसिक वेश्याओं के साथ रति करते समय काम में लाते हैं। इससे तुझे यह भी पता चल जायेगा कि वहाँ के नागरिक कितनी स्वतंत्रता से जवानी का आनन्द लेते हैं। कालिदास के इस वर्णन से लगता है कि वे इस नगर में रह चुके थे और इस कारण वहाँ के प्रधान स्थानों तथा पुरवासियों के सामाजिक जीवन से परिचित थे।

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06-03-2013, 02:20 PM
मालविकाग्निमित्रम् में

शुंगों के समय में इस नगर का राजनीतिक महत्त्व बढ़ गया। साम्राज्य के पश्चिमी हिस्सों की देख-रेख के लिये वहाँ एक दूसरी राजधानी भी स्थापित की गई। वहाँ शुंग-राजकुमार अग्निमित्र सम्राट के प्रतिनिधि (वाइसराय) के रूप में रहने लगा। यह वही अग्निमित्र है, जो कालिदास के 'मालविकाग्निमित्रम्' नामक नाटक का नायक है। इस ग्रन्थ में उसे वैदिश अर्थात् विदिशा का निवासी कहा गया है। उसका पुत्र वसुमित्र यवनों से लड़ने के लिये सिन्धु नदी के तट पर भेजा गया था। देवी धारिणी, जो अग्निमित्र की प्रधान महिषी थीं उस समय विदिशा में ही थीं। 'मालविकाग्निमित्रम्' में अपने पुत्र की सुरक्षा के लिये उन्हें अत्यन्त व्याकुल दिखाया गया है।

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06-03-2013, 02:23 PM
शुंगों के बाद विदिशा में नाग राजा राज्य करने लगे। इस नाग-शाखा का उल्लेख पुराणों में हुआ है। इसी वंश में गणपतिनाग हुआ था, जिसके नाम का उल्लेख समुद्रगुप्त की प्रयाग-प्रशस्ति में हुआ है। वह बड़ा पराक्रमी लगता है। उसके राज्य में मथुरा का भी नगर सम्मिलित था। वहाँ से उसके सिक्के मिले हैं। कुछ लोगों का अनुमान है कि जब समुद्रगुप्त उत्तरी भारत में दिग्विजय कर रहा था उस समय वहाँ के नव राजाओं ने उसके विरुद्ध एक गुटबन्दी की, जिसका नायक गणपतिनाग था। ऐसा गुट सचमुच बना या नहीं, इस विषय में हम बहुत निश्चित तो नहीं हो सकते। पर इतना स्पष्ट है कि उस समय के राजमंडल में गणपतिनाग का नाम बड़े ही आदर के साथ लिया जाता था।

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06-03-2013, 02:24 PM
भरहुत के लेखों से लगता है कि विदिशा के निवासी बड़े ही दानी थे। वहाँ के एक अभिलेख के अनुसार वहाँ का रेवतिमित्र नामक एक नागरिक भरहुत आया हुआ था। उसकी भार्या चंदा देवी ने वहाँ पर एक स्तम्भ का निर्माण किया था। भरहुत के अन्य लेखों में विदिशा के कतिपय उन नागरिकों के नाम मिलते हैं, जिन्होंने या तो किसी स्मारक का निर्माण किया था या वहाँ के मठों के भिक्षुसंघ को किसी तरह का दान दिया था। इनमें भूतरक्षित, आर्यमा नामक महिला तथा वेणिमित्र की भार्या वाशिकी आदि प्रमुख थे।

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06-03-2013, 02:25 PM
कला के क्षेत्र में इस नगर का महत्त्व कुछ कम नहीं थां पेरिप्लस नामक विदेशी महानाविक के अनुसार वहाँ हाथी-दाँत की वस्तुएँ उत्तर कोटि की बनती थीं। बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार वहाँ की बनी हुई तेज़ धार की तलवारों की बड़ी माँग थी। इस स्थान सें शुंग-काल का बना हुआ एक गरुड़-स्तम्भ मिला है, जिससे ज्ञात होता है कि वहाँ पर वैष्णव धर्म का विशेष प्रचार था। इस स्तम्भ पर एक लेख मिलता है जिसके अनुसार तक्षशिला से हेलिओडोरस नामक यूनानी विदिशा आया था। वह वैष्णव मतावलम्बी था और इस स्तम्भ का निर्माण उसी ने कराया था

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06-03-2013, 02:26 PM
सांस्कृतिक दृष्टि से यह लेख बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है। यह इस बात का परिचायक है कि विदेशियों ने भी भारतीय धर्म और संस्कृति को अपना लिया था। विदिशा में इसी तरह और भी भागों से लोग आये होंगे। इस धर्मकेन्द्र में अपने आध्यात्मिक लाभ के लिये लोगों ने स्मारकों का निर्माण किया होगा। विदिशा को स्कन्द पुराण में तीर्थस्थान कहा गया है।

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06-03-2013, 02:27 PM
हेलिओडोरस द्वारा निर्मित विदिशा का उपर्युक्त गरुड़-स्तम्भ कला का एक अच्छा नमूना है। वह मूलत: अशोक के ही स्तम्भों के आदर्श पर बना था। पर साथ ही उसमें कुछ मौलिक विशेषतायें भी हैं। इसका सबसे निचला भाग आठ कोनों का है। इसी तरह मध्य भाग सोलह कोने का और ऊपरी भाग बत्तीस कोने का है। यह विशेषता हमें अशोक के स्तम्भों में नहीं दिखाई देती। इससे लगता है कि विदिशा के कलाकार निपुण थे और उनकी प्रतिभा मौलिक कोटि की थी।

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06-03-2013, 02:28 PM
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मशरूम गुफ़ाएँ, उदयगिरि

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06-03-2013, 02:31 PM
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उदयगिरि गुफ़ाएँ विवरण

चन्द्रगुप्त द्वितीय के उदयगिरि गुहालेख में इस सुप्रसिद्ध पहाड़ी का वर्णन है।

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06-03-2013, 02:33 PM
उदयगिरि गुफ़ाएँ

यह प्राचीन स्थल भिलसा से चार मील दूर बेतवा तथा बेश नदियों के बीच स्थित है। चन्द्रगुप्त द्वितीय के उदयगिरि गुहालेख में इस सुप्रसिद्ध पहाड़ी का वर्णन है। यहाँ पर बीस गुफ़ाएँ है। जो हिन्दू और जैन मूर्तिकारी के लिए प्रसिद्ध हैं। मूर्तियाँ विभिन्न पौराणिक कथाओं से सम्बद्ध हैं और अधिकांश गुप्तकालीन हैं। मूर्तिकला की दृष्टि से पाँचवीं गुफ़ा सबसे महत्त्वपूर्ण है। इसमें वराह अवतार का दृश्य अंकित वराह भगवान का बाँया पाँव नाग राजा के सिर पर दिखलाया गया है।

जो सम्भवतः गुप्तकाल में सम्राटों द्वारा की गये नाग शक्ति के परिहास का प्रतीक है। छठी गुफ़ा में दो द्वारपालों, विष्णु, महिष-मर्दिनी एवं गणेश की मूर्तियाँ हैं। गुफ़ा छः से प्राप्त लेख से ज्ञात होता है कि उस क्षेत्र पर सनकानियों का अधिकार था। उदयगिरि के द्वितीय गुफ़ा लेख में चन्द्रगुप्त के सचिव पाटलिपुत्र निवासी वीरसेन उर्फ शाव द्वारा शिव मन्दिर के रूप में गुफ़ा निर्माण कराने का उल्लेख है। वह वहाँ चन्द्रगुप्त के साथ किसी अभियान में आया था। तृतीय उदयगिरि गुफ़ा लेख में कुमार गुप्त के शासन काल में शंकर नामक व्यक्ति द्वारा गुफ़ा संख्या दस के द्वार पर जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ की मूर्ति को प्रतिष्ठित कराये जाने का उल्लेख है।

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06-03-2013, 02:34 PM
उदयगिरि गुफ़ाएँ

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06-03-2013, 02:35 PM
वास्तुशिल्प

गुप्त काल में उदयगिरि में 20 पत्थर जनिक प्रकोष्ठों का उत्खनन किया गया था, जिनमें दो में चंद्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल से जुड़ी हुई चीज़ें थीं। ये गुफाएं अत्यंत महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं, क्योंकि वे भारत में हिंदू कला के प्रारंभिक स्वरूप की परिचायक हैं और यह दिखाती हैं कि पांचवी शताब्दी के प्रारंभ में ही हिंदू मूर्ति शिल्प कला स्थापित हो चुकी थी। उदयगिरि में मिली महत्वपूर्ण गुफाओं में एक है गुफा-5, वाराह गुफा। इसकी प्रमुख विशेषता इसका वृहत् शैल जनिक आकार है जो भगवान विष्णु के अवतार वाराह द्वारा पृथ्वी माता को विप्लव से बचाने का परिचायक है। भारतीय कलाकारों की क्षमता और उनकी शक्ति इस काल में विध्वंस और विनाश के ख़िलाफ़ एक आध्यात्मिक, ब्रह्मशक्ति के रूप में परम ऊंचाइयों पर पहुंची

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06-03-2013, 02:38 PM
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हेलिओडोरस स्तंभ, विदिशा

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06-03-2013, 02:43 PM
गुफ़ाएँ

पहाड़ियों से अन्दर बीस गुफ़ाएँ हैं जो हिंदू और जैन-मूर्तिकारी के लिए प्रख्यात हैं। मूर्तियाँ विभिन्न पौराणिक कथाओं से सम्बद्ध हैं और अधिकांश गुप्तकालीन हैं। यहाँ पाये जाने वाले स्थानीय पत्थर के कारण इन गुफ़ाओं में से अधिकांश गुफ़ाएँ मूर्ति- विहीन गुफ़ाएँ रह गई हैं। खुदाई का काम आसान था क्योंकि यह पत्थर नरम थे, लेकिन साथ-ही-साथ यह मौसमी प्रभावों को झेलने के लिए उपयुक्त नहीं हैं।

गुफ़ा सं. 1
इस गुफ़ा का नाम सूरज गुफ़ा है। इस गुफ़ा में अठखेलियाँ करती वेत्रवती, साँची स्तूप तथा रायसेन के क़िले की शिलाएँ स्पष्ट दिखाई पड़ती है। इस गुफ़ा में 7 फ़ीट लंबे और 6 फ़ीट चौड़े कक्ष हैं।

गुफ़ा सं. 2
यह गुफ़ा 7 फ़ीट 11 इंच लंबी और 6 फ़ीट 1.5 इंच चौड़ी एक कक्ष की भाँति है, जिसका अब केवल निशान रह गया है।

गुफ़ा सं. 3
यह गुफ़ा भीतर से 86 फ़ीट चौड़ी और 6 फ़ीट 3 इंच गहरी है। इसमें बची 5 मूर्तियों में से कुछ मूर्तियाँ चर्तुमुखी है व वनमाला धारण किये हुए हैं।

गुफ़ा सं. 4
इस गुफ़ा में शिवलिंग की प्रतिमा है। इसके प्रवेश द्वार पर एक मनुष्य वीणा वादन में व्यस्त दिखाया गंया है जिसके करण इस गुफ़ा को बीन की गुफ़ा कहते हैं। यह गुफ़ा 13 फ़ीट 11 इंच लंबी और 11 फ़ीट 8 इंच चौड़ी है।

गुफ़ा सं. 5
इस गुफ़ा को वराह गुफ़ा कहते है क्योंकि इसमे वराहवतार की सुन्दर झाँकी है। इसमें वराह भगवान को नर और वराह रूप में अंकित किया है। उनका बायाँ पाँव नागराजा के सिर पर दिखलाया गया है जो संभवतः गुप्तकाल में गुप्त-सम्राटों द्वारा किए गए नामशक्ति के परिह्रास का प्रतीक है। यह गुफ़ा 22 फ़ीट लंबी और 12 फ़ीट 8 इंच ऊँची है।

गुफ़ा सं. 6
इस गुफ़ा के दरवाज़े के बाहर दो द्वारपाल, दो विष्णु, एक गणेश और एक महिषासुर-मर्दिनी की मूर्ति बनाई हुई है। ये भव्य मूर्तियाँ भारतीय मूर्तिकला के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है।

गुफ़ा सं. 7
इस गुफ़ा में अब सिर्फ़ दो द्वारपालों के चिह्न अवशिष्ट हैं, जो गुफ़ा स. 6 की तरह ही बनायी गयी है। प्राप्त शिलालेखों से पता चलता है कि यह एक शैव गुफ़ा है।

गुफ़ा सं. 8
इस गुफ़ा का कुछ भी नाम और निशान नहीं बचा है।

गुफ़ा सं. 9, 10 और 11
ह तीनों वैष्णव गुफ़ाएँ हैं, जिनमें सिर्फ़ विष्णु के अवशेष रह गये हैं।


गुफ़ा सं. 12
यह गुफ़ा भी वैष्णव गुफ़ा है, इसमें भी विष्णु की मूर्ति बनाई गई थी और बाहर दो द्वारपाल भी बनाये गये थे। जिनका अब कोई नाम और निशान नहीं बचा है।

गुफ़ा सं. 13
इस दालाननुमा गुफ़ा का मुख उत्तर की ओर है। इसके सामने से उदयगिरि पहाड़ी के ऊपर जाने का प्रमुख़ मार्ग है। यह गुफ़ा शेषशायी विष्णु की मूर्ति के लिए प्रसिद्ध है। मूर्ति की लंबाई 12 फ़ीट है। मूर्ति के सिर पर फ़ारसी मुकुट, गले में हार, भुजबंध व हाथों में कंगन हैं। वैजयंतीमाला घुटनों तक लंबी है। गुफ़ा के आस-पास व सामने वाली चट्टान पर शंख लिपि खुदी हुई है, जो संसार की प्राचीनतम लिपियों में से एक मानी जाती है।

गुफ़ा सं. 14
इस गुफ़ा का भी कोई नाम और निशान नहीं बचा है।

गुफ़ा सं. 15 और 16
इन गुफ़ाओं की मूर्तियाँ नष्ट कर दी गई हैं इसलिए यह गुफ़ाएँ ख़ाली हैं।

गुफ़ा सं. 17
इसमें भी गुफ़ा सं. 6 की तरहा दोनों तरफ द्वारपाल हैं, परंतु गणेश की मूर्ति पर निखार आ गया है। मूर्ति के सिर पर मुकुट बना हुआ है। इसके अलावा इसमें महिषासुरमर्दिनी की भी एक मूर्ति स्थापित की गई है।

गुफ़ा सं. 18
यह गुफ़ा अब ख़ाली रह गई है क्योंकि इसकी सारी मूर्तियाँ तोड़ दी गई हैं।

गुफ़ा सं. 19
यह गुफ़ा उदयगिरि की गुफ़ाओं में सबसे बड़ी है। इसके अन्दर एक शिवलिंग है, जिसकी पूजा स्थानीय लोग आज भी करते हैं। ऊपर भीतरी छत पर कमल की आकृति बनी हुई है। बाहर दोनों ओर द्वारपालों की दो बड़ी-बड़ी क्षरणयुक्त मूर्तियाँ हैं। ऊपर की तरफ एक सुंदर समुद्र मंथन का भी दृश्य है। बीच में मंदराचल को वासुकी नाग के साथ बाँधकर एक ओर देवगण व दूसरी ओर असुरगण मंथन कर रहे हैं। द्वार के चारों तरफ अनेक प्रकार की लताएँ, बेलें, कीर्तिमुख व आकृतियाँ खुदी हुई हैं।

गुफ़ा सं. 20
इस गुफ़ा में चार मूर्तियाँ हैं, जो कमलासनों पर विराजमान हैं। इसके चारों ओर आभामण्डल व ऊपर छत्र हैं। इसमें तीन मूर्तियों में नीचे की तरफ, जो चक्र है उनके दोनों ओर दो सिंह आमने-सामने मुँह करे हुए बैठे हैं।

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06-03-2013, 02:45 PM
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वराह अवतार भित्ति मू्र्तिकला, उदयगिरी, विदिशा

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06-03-2013, 02:46 PM
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बलुआ पत्थर की गुफ़ाएँ, उदयगिरि

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06-03-2013, 02:49 PM
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बीजामंडल, विदिशा

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06-03-2013, 02:58 PM
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06-03-2013, 03:00 PM
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Madhya Pradesh district location map Vidisha

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06-03-2013, 03:03 PM
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Samrat Ashok Technological Institute - Vidisha

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GOVERNMENT GIRLS COLLEGE, VIDISHA

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SATI

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06-03-2013, 03:13 PM
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Charan Tirth Shiv Mandir, Vidisha (M.P.) India.

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06-03-2013, 03:13 PM
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06-03-2013, 03:41 PM
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prachin hanuman mandir,Masudpur VIDISHA

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Neel kantheshvar mahadev.Udaiypur

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Udayagiri Caves, Vidisha

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06-03-2013, 03:55 PM
http://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/5/5d/Mangla_Devi_Temple_Vidisha_Distt.JPG/800px-Mangla_Devi_Temple_Vidisha_Distt.JPG

Mangla Devi Temple Vidisha Distt

bindujain
06-03-2013, 03:56 PM
http://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/4/4d/Mangla_Devi_Temple_Vidisha.JPG/800px-Mangla_Devi_Temple_Vidisha.JPG
Mangala Devi Temple, Kagpur,

bindujain
06-03-2013, 03:59 PM
http://4.bp.blogspot.com/-Wkz7Ymay9r4/TzltjsekkXI/AAAAAAAAEyw/FXuZc1o9pK8/s1600/Ruins+at+Gyaraspur+(Vidisha),+Madhya+Pradesh43323. jpg
Ruins at Gyaraspur (Vidisha)

bindujain
06-03-2013, 04:01 PM
http://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/2/2a/Udaygiri_Caves_at_Vidisha.JPG

Udaygiri Caves at Vidisha

bindujain
06-03-2013, 04:04 PM
http://t0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcTd-J69kVbQSJ2rpmmIRzKSowm5S8s-yaT3_Cli8mqyImMd2lsB
Bijamandal

bindujain
06-03-2013, 04:05 PM
http://www.remarkableindia.com/images/vidisha/vidisha05.jpg
Udaypur

bindujain
06-03-2013, 04:05 PM
http://t3.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcSj0JkYl8f3VKCFbdP_QX1JnsmUSmsM3 DI_CB4lMzdM775rYZs7

rajnish manga
06-03-2013, 10:11 PM
बहुत बहुत धन्यवाद्, बिन्दु जी. विदिशा नामक ऐतिहासिक नगरी का सचित्र और प्राचीन संस्कृत काव्य एवम् नाट्य कृतियों से सहज सन्दर्भ देते हुए सुन्दर विवरण पढ़ कर मन आनंदित हुआ. एक छोटा सा निवेदन करना चाहता हूँ. सारे चित्र प्रागैतिहासिक अथवा ऐतिहासिक महत्व के स्मारकों व मंदिरों आदि के अवशेष हैं, अतः बेहतर होता कि हर चित्र के साथ उस जगह का दो-चार शब्दों का परिचय भी आ जाता.