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View Full Version : इधर-उधर से


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rajnish manga
25-03-2013, 03:39 PM
इधर-उधर से
प्रिय मित्रो, इस नए सूत्र के माध्यम से मैं अपनी डायरी में दर्ज कुछ प्रसंग, कुछ शेरो शायरी, कुछ श्लोक व सूक्तियाँ, कुछ नए-पुराने शब्द और उनके अर्थ, कुछ तकनीकी शब्दावली तथा अन्य विविध रोचक सामग्री आपके साथ बांटना चाहता हूँ. बहुत से विषयों की मिली जुली प्रस्तुति होने के कारण सूत्र का शीर्षक ‘इधर-उधर से’ रखा गया है जिसके लिए हिंदी में एक संज्ञा मिलेगी ‘खिचड़ी’ या अंग्रेजी/ फ्रेंच में ‘pot pourri- पॉओ पोरी’. मूल रूप से इस सब का उद्देश्य यहाँ पर मनोरंजन करना है. कुछ अच्छा लगे तो उसे ग्रहण कर लें, जो अच्छा न लगे छोड़ दे. लेकिन समय समय पर अपनी टिप्पणियाँ दे कर मेरा मार्गदर्शन अवश्य करते रहें. तो शुभारंभ करते है.

rajnish manga
25-03-2013, 03:42 PM
हर चीज़ नहीं है मरकज़ में
इक ज़र्रा इधर इक ज़र्रा उधर
दुश्मन को न देखो नफ़रत से
शायद वो मुहब्बत कर बैठे

-- रविवार दिनांक 29/06/1997 को ज़ी टी.वी. के लोकप्रिय कार्यक्रम ‘आपकी अदालत’ में डॉ. कर्ण सिंह ने यह पंक्तियाँ सुनायीं.
*****
दो गीत याद आ रहे है. ये दोनों मेरे दिल के बहुत करीब हैं:

1. हाँ दीवाना हूँ मैं/ हाँ दीवाना हूँ मैं/ ग़म का मारा हुआ इक बेगाना हूँ मैं /
हाँ दीवाना हूँ मैं.

उक्त गीत अभिनेता सुदेश कुमार पर फ़िल्माया गया था. फिल्म की नायिका जयश्री गडकर थीं.
(फिल्म: सारंगा / स्वर: मुकेश / संगीत: सरदार मलिक)

हो सकता है आप में से कई सदस्यों को मालूम न हो कि इस फिल्म के संगीतकार सरदार मलिक हमारे आज के जाने माने संगीतकार और ‘इंडियन आइडल’ कार्यक्रम के जज अन्नू मलिक के पिता हैं.

2. शोख़ नज़र की बिजलियाँ / दिल पर मेरे गिराये जा /
मेरा न कुछ ख़याल कर / तू यूं ही मुस्कुराये जा /
शोख़ नज़र की बिजलियाँ /
(यह गीत साधना और मनोज कुमार पर फ़िल्माया गया था)
(फिल्म : वोह कौन थी / स्वर: आशा भोंसले / संगीत: मदन मोहन )

rajnish manga
25-03-2013, 04:33 PM
जिन्हें अक्सर मिसाल के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है उनमे से निम्नलिखित शे’र विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं:

1. खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले
ख़ुदा बन्दे से खुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है

2. हज़ारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा

(शायर: अल्लामा मौ. इक़बाल)

निम्नलिखित संस्कृत सूक्तियों पर भी कृपया दृष्टिपात करें:

1. उत्तापकत्वं हि सर्वकार्येषु सिद्धिनां प्रथमोsन्तराय:
(नीति वाक्यामृतम = 10/134)
भावार्थ: उत्तेजित होना सभी कार्यों की सिद्धि में प्रथम विघ्न है.

2. पापोनृषद्वरो जनः
(ऐतरेय ब्राह्मण = 33/3)
भावार्थ : अकर्मण्य मनुष्य श्रेष्ठ होते हुए भी पापी है.

rajnish manga
25-03-2013, 04:56 PM
शब्द-सामर्थ्य
क्या आप इन शब्दों से परिचित है? = दुर्धर्ष / दुरभिसंधि /कालक्रमानुगत
आइये इनके अर्थ का परिचय भी ले लें:
दुर्धर्ष = जिसे हराया न जा सके
दुरभिसंधि = कुचक्र
कालक्रमानुगत = बाप-दादा के समय से चला आता हुआ
*****
अब कुछ अंग्रेजी शब्दों के बारे में अपनी जानकारी प्राप्त करते हैं?
Medium/ Bearer / Authorized

आइये अब इन अंग्रेजी शब्दों के अर्थ पर विचार करें:
Medium = माध्यम
Bearer = धारक
Authorized = अधिकृत / प्राधिकृत

rajnish manga
25-03-2013, 05:48 PM
मित्रो, हम में से बहुतों को रागों की कोई जानकारी नहीं होगी लेकिन उसके बावजूद कई गीत हमारे मन-मस्तिष्क पर छा जाते हैं और बरसों बाद भी उन गीतों का आकर्षण ज्यों का त्यों बना रहता है. इन गीतों की लय, ताल, गायकी, ओर्केस्ट्रा, शब्द (और परदे पर अदाकारी) हमें मन्त्र-मुग्ध कर देते हैं. टी.वी. पर बहुत से कार्यक्रम इस बारे में जानकारी प्रदान करते रहे हैं. रागों की जानकारी न होते हुए भी यह जान कर अच्छा लगता है कि कौन सा गीत कौन से राग पर आधारित रचना है. कुछ फ़िल्मी गीत और उनके राग इस प्रकार हैं:

1. वक़्त करता जो वफ़ा आप हमारे होते–
(राग = अहीर भैरव)
2. ज़िन्दगी भर ग़म जुदाई का हमें तड़पायेगा-
(राग = मालकौंस)
3. जियरा काहे तरसाये-
(राग = कलावती)
4. इतनी शक्ति हमें देना दाता-
(राग = भैरवी)
5. ज़रा सी आहट होती है तो दिल सोचता है-
(राग =यमन कल्याण)
6. एहसान तेरा होगा मुझ पर-
(राग = यमन)
7. झनक झनक तोरी बाजे पायलिया-
(राग = दरबारी)
(18, 25/11/1996)

rajnish manga
25-03-2013, 06:14 PM
दो शे'र प्रस्तुत हैं:

फ़लक देता है जिनको ऐश उनको ग़म भी देता है
जहाँ बजते हैं नक्कारे वहां मातम भी होता है

(शायर: दाग़ दहलवी)

कांटों से गुज़रना तो बड़ी बात है लेकिन
फूलों पे भी चलना कोई आसान नहीं है

(शायर: आसी दानापुरी)

*****
नीचे हम कुछ शब्द दे रहे हैं और देखते हैं कि हम उनके अर्थ से कितना परिचित हैं:

अरण्यरोदन / परिप्रेक्ष्य /प्रतिफल /विदीर्ण /मायावी / वितृष्णा

आइये अब अपने सोचे हुए अर्थ का निम्नलिखित से मिलान कर लेते हैं:

अरण्यरोदन = ऐसा रोना जिसे कोई सुनने वाला न हो

परिप्रेक्ष्य = किसी भी दृश्य को ठीक ठीक अनुपात में प्रस्तुत करना

प्रतिफल = परिणाम / नतीजा

विदीर्ण = फाड़ा हुआ (वाक्य: इस दुखद समाचार ने लोगों के हृदय विदीर्ण कर दिए)

मायावी = छलने वाला

वितृष्णा = इच्छा से मुक्ति

(29/11/1996)

Dark Saint Alaick
25-03-2013, 10:16 PM
आपके इस सूत्र का अवलोकन कर मेरे मन में सबसे पहले जो भाव उत्पन्न हुए, वह यह हैं कि आपने यह बहुरंगी सूत्र शुरू करने के लिए होली के बेहद अनुकूल अवसर का चयन किया, इसके लिए आप बधाई के पात्र हैं। मुझे उम्मीद है, होली की तरह ही आपका यह विविध रंगयुक्त सूत्र बेहद मकबूल होगा और अनेक लोगों को मनोरंजन के साथ प्रेरणा भी देगा ! :cheers:

rajnish manga
25-03-2013, 11:53 PM
आपके इस सूत्र का अवलोकन कर मेरे मन में सबसे पहले जो भाव उत्पन्न हुए, वह यह हैं कि आपने यह बहुरंगी सूत्र शुरू करने के लिए होली के बेहद अनुकूल अवसर का चयन किया, इसके लिए आप बधाई के पात्र हैं। मुझे उम्मीद है, होली की तरह ही आपका यह विविध रंगयुक्त सूत्र बेहद मकबूल होगा और अनेक लोगों को मनोरंजन के साथ प्रेरणा भी देगा ! :cheers:

अलैक जी, सूत्र के विषय में आपकी अमूल्य टिप्पणी हेतु हार्दिक धन्यवाद व्यक्त करता हूँ और आशा करता हूँ कि यह आपके कथनानुसार 'सबरंग' प्रस्तुत करने में कामयाब होगा. देखे होली की तरंग इसे कहाँ लेके जायेगी.

jai_bhardwaj
26-03-2013, 12:48 AM
इस गागर में सागर जैसे सूत्र के माध्यम से मनोरंजक एवं ज्ञानवर्धक सामग्री के सुरुचिपूर्ण ढंग से प्रस्तुतीकरण के लिए आपका भावसिक्त अभिनन्दन है ..रजनीश जी।

rajnish manga
26-03-2013, 11:36 AM
इस गागर में सागर जैसे सूत्र के माध्यम से मनोरंजक एवं ज्ञानवर्धक सामग्री के सुरुचिपूर्ण ढंग से प्रस्तुतीकरण के लिए आपका भावसिक्त अभिनन्दन है ..रजनीश जी।

:hello:आपकी प्रशंसात्मक टिप्पणी के लिए मेरा आभार और धन्यवाद स्वीकार करें, जय जी. आपकी 'गागर में सागर' वाली सूक्ति मेरी प्रेरणा का स्रोत बनी रहे, यही कामना करता हूँ.

rajnish manga
26-03-2013, 11:54 PM
लघु प्रसंग

1.
एक लोमड़ी ने सुबह के समय अपनी छाया पर दृष्टि डाली और कहा,
"मुझे आज कलेवे के लिए ऊँट मिलना चाहिए."

उसने सुबह का सारा समय ऊंट को ढूँढने में व्यतीत कर दिया, लेकिन जब दोपहर को उसने दूसरी बार अपनी छाया देखी तो कहा,

"मेरे लिए एक चूहा ही काफी होगा."

2.
एक बार जब मैं एक मृतक दास को दफ़न कर रहा था, तो कब्र खोदने वाला मेरे पास आया और बोला,

"जितने भी लोग यहाँ दफ़न करने के लिए आते हैं, उनमे से मैं तुम्हें पसंद करता हूँ."

मैंने कहा,

"यह सुन कर मुझे ख़ुशी हुयी.; लेकिन आखिर तुम मुझे क्यों पसंद करते हो?"

उसने जवाब दिया,

"बात यह है कि और लोग तो यहाँ रोते हुए आते हैं और रोते हुए जाते हैं, मगर तुम हँसते हुए आते हो और हँसते हुए जा रहे हो."

लेखक: खलील जिब्रान

rajnish manga
28-03-2013, 11:40 PM
दो शे’र और दो सुभाषित प्रस्तुत कर रहा हूँ:

इक और उम्र दे कि तुझे याद कर सकें
यह ज़िंदगी तो नज़रे - खराबात हो गई.
(खराबात = शराबखाना)
(शायर: कुंवर महेंदर सिंह बेदी ‘सहर’)

मुहब्बत को समझना है तो नासेह खुद मुहब्बत कर
किनारे से कभी अन्दाज़ – ए – तूफ़ां नहीं होता.
(नासेह = उपदेशक)
(शायर: शकील बदायूंनी)

विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते.

(भावार्थ: विद्वान् एवं राजा की तुलना कभी नहीं करनी चाहिए. राजा को तो अपने देश में ही सम्मान दिया जाता है जबकि विद्वान् को हर जगह सम्मान प्राप्त होता है- देश हो या विदेश)
मुश्किलें नेस्त कि आसां नशबद
मर्द बायद कि हरासां नशबद.

(भावार्थ: दुनिया में ऐसी कोई बाधा नहीं है जो प्रयत्न के सामने आसां न हो जाए. मर्द को मर्दानगी दिखानी चाहिए, मायूस नहीं होना चाहिए)

rajnish manga
29-03-2013, 10:33 PM
मित्रो, अंग्रेजी में कुछेक शब्द इस प्रकार के होते हैं जिन्हें हम किसी भी ओर से पढ़ें उनके स्पेलिंग और उच्चारण एक ही होता है. ऐसे शब्द को “palindrome” कहते हैं. उदाहरण के लिए कुछ शब्द इस प्रकार हैं:
rotator
dad
redivider
इस परिभाषा के अनुसार “malayalam” भी एक palindrome है.

हिंदी में भी इसी प्रकार के कुछ शब्द होते हैं. मुझे छुटपन की बात याद आती है. हम बच्चे आपस में हिंदी शब्दों का एक खेल खेलते थे जिसमे एक बच्चा दूसरे बच्चे से वह शब्द बताने का अनुरोध करता था जो शुरू से अंत तक और अंत से शुरू तक एक जैसे अक्षरों और एक से उच्चारण वाला होता था. प्रश्न करने वाला बच्चा पूछता था,
“तीन अक्षर का मेरा नाम,
उल्टा सीधा एक समान,
आता हू खाने के काम.

बोलो क्या?”
उत्तर मिलता था - “डालडा”

इस प्रकार के और भी शब्द हम ढूंढ सकते हैं जो तीन या तीन से अधिक अक्षरों के हैं और जो उलटे-सीधे एक समान पढ़े और उच्चारित किये जाते हैं.

rajnish manga
29-03-2013, 11:16 PM
मित्रो, अंग्रेजी के महान कवि पी.बी.शैली की जानी मानी दो कविताओं से निम्नलिखित पंक्तियाँ ली गई हैं. इनकी विशेषता यह है कि इन्हें अक्सर मिसाल के तौर पर प्रयुक्त किया जाता है जैसे कई शे’र और दोहों को हम ‘मिसाली’ कहते हैं यानि मिसाल देने योग्य और उन्हें उपयुक्त समय पर इस्तेमाल करते हैं.

We look before and after and pine for what is not,
Our sweetest songs are those that tell of saddest thought.
(From To A skylark by P.B.Shelley)

हम समय की रेत पर चल, उसे ढूंढते जो है नहीं,
पीड़ा से जो गीत उगा वो सबसे मादक और हसीं.

The trumpet of prophecy, O Wind,
If winter comes, can spring be far behind.
(From Ode to the West Wind by P.B.Shelley)

पछुआ पवन उद्घोषणा करती है सुन, क्या सार है,
शिशिर के आगमन के साथ ही मधुमास भी तैयार है.

rajnish manga
30-03-2013, 10:31 PM
सबसे पहले दो शेर मुलाहिज़ा कीजिये:-

तुमने किया न याद भी भूल कर हमें
हमने तुम्हारी याद में सब कुछ भुला दिया.
(शायर: ज्ञात नहीं)

खुदा की कसम उसने खायी जो आज
कसम है खुदा कि मज़ा आ गया.
(शायर: ज्ञात नहीं)

अब संस्कृत की एक सूक्ति पर विचार करें:-

उद्यमेन हि सिध्यन्ति, कर्माणि न मनोरथ:
न हि सुप्तस्य सिंघस्य, प्रविशन्ति मुखे मृग:

(भावार्थ: उद्यम करने से और कर्म करने से ही मनोरथ सिद्ध होते हैं, जिस प्रकार सोये हुए सिंह के मुंह में मृग स्वयं चल कर नहीं आ जाते बल्कि उसके लिए सिंह को भी कर्म करना पड़ता है)

rajnish manga
30-03-2013, 10:40 PM
शनिवार / 30 नवम्बर 1996 की डायरी का एक अंश:

* आज दूरदर्शन (i) पर हिंदी फीचर फिल्म ‘उमराव जान’ टेलीकास्ट की गई. हम फिल्म का बाद वाला भाग ही देख सके. यह कहा जा सकता है कि फिल्म हर लिहाज़ से अद्वितीय है. इसमें अभिनेत्री रेखा की अदाकारी लाजवाब है – वही भावप्रवण अभिनय, वही कमनीयता और शिष्टता जो पुराने ज़माने की अभिनेत्रियों यथा- मीना कुमारी, नर्गिस और वहीदा रहमान आदि की विशेषता हुआ करती थी.
^^^
* संस्कृत की एक सूक्ति पर नज़र डालते है. क्या आपको यह पढ़ने के बाद कुछ और कहावते नहीं याद आ रहीं?

दूरतः पर्वताः रम्याः
(पर्वत दूर से बड़े रमणीक दिखाई देते हैं)
^^^
* अब कुछ हिंदी शब्दावली पर विचार करते है:

कालातीत = जिसका समय बीत गया हो
हतभाग्य = भाग्यहीन
साक्षादृश्य = अपनी आँखों से देखा हुआ
मोहभंग = भ्रान्ति निवारण

rajnish manga
30-03-2013, 11:08 PM
राजा भोज और चार चोर
एक बार रात के समय चार चोर धारा नगरी में चोरी करने निकले. उन दिनों राजा भोज भी कभी कभी भेष बदल कर अपनी प्रजा का हाल जानने के लिए महल से बाहर निकलते थे. उस रात राजा भोज जब घूम रहा था तो उसकी मुलाक़ात इन चारों चोरों से हो गई. चोरों ने भेष बदले राजा से पूछा कि तू कौन है ? राजा ने कहा जो तुम हो वही मैं भी हूँ. राजा समझ गया कि ये चोर हैं. सो उसने उन चोरों से कहा,”यह भी खूब रही. भगवान् संयोग मिलाता है तो यूं मिलाता है.मैं भी चोर हूँ. आज रात को हम पाँचों मिल कर चोरी करते हैं और जो माल मिलेगा उसे पांच जगह बराबर बराबर बाँट लेंगे. चोरों ने कहा,
”तुममे क्या गुण है ? हम तुम्हें साथ क्यों ले जाएँ और तुम्हें क्यों हिस्सा दें?”

राजा ने कहा, ”पहले तुम बताओ कि तुममे क्या क्या गुण हैं, फिर मैं अपना गुण बताऊंगा?”

उनमें से एक चोर ने कहा,”मैं आँख बंद करके बता सकता हूँ कि धन कहां पड़ा है.”

दूसरे ने कहा, ”मुझे देखते ही सब पहरेदारों को नींद आ जाती है.”

तीसरे ने कहा, ”मैं जिस ताले को देख लेता हूँ वह खुद-ब-खुद खुल जाता है.”

चौथे ने कहा, ”मैं जिस व्यक्ति को एक बार देख लूँ, उसे मैं अँधेरे में भी पहचान सकता हूँ.”

इस पर राजा ने कहा, ”फिर तो हमें धन मिलने मैं कोई अड़चन नहीं होगी.”

चोरों ने कहा, “सो तो ठीक है, लेकिन तुम भी तो अपना गुण बताओ,जिसके बल पर तुम हमसे अपना हिस्सा मांग रहे हो.”

राजा बोला, ”न्यायाधीश के सामने मैं जा कर अगर खड़ा हो जाऊं तो उसकी मति फिर जाती है और वह अपनी सुनाई हुयी फांसी की सजा भी रद्द कर देगा.”

चोरों ने कहा, “तब तो ठीक है, अब पकडे जाने पर सजा का भय भी नहीं रहेगा.”

पाँचों निकले चोरी करने के लिए. पहले चोर ने आँखें बंद कर के बताया कि राजा के तहखाने में फलां जगह माल रखा है.
पहले वहीँ चला जाए.

पाँचों चले राजा के तहखाने में चोरी करने. वहां संगीनों का पहरा था. दूसरा चोर आगे बढ़ा तो पहरेदार अपने आप गहरी निद्रा में चले गए. अब तीसरा चोर आगे बढ़ा, तो जितनी भी तिजोरियां वहाँ रखी थीं, उन सबके ताले अपने आप खुल गए.
चोरों ने खूब धन बटोरा और गठरियों में बाँध कर बाहर निकल आये. दूर जंगल में लाकर सारा धन एक गहरा गड्ढा खोद कर गाड़ दिया और तय किया कि कल इसे आपस में बाँट लेंगे.

चारों चोर अपने अपने घर चले गए. राजा भी अपने महल में आकर सो गया.

प्रातः होते ही हल्ला मच गया कि तहख़ाना टूट गया है और बहुत सा धन चोरी चला गया है.पहरेदारों को बुलाया गया. पूछने पर उन्होंने कहा,
“महाराज, हमें तो कुछ पता नहीं कि यह चोरी कब और कैसे हुई? दोषी हम जरूर हैं और इसके लिए उचट सजा पाने के लिए हम इंकार नहीं करते, लेकिन सही बात तो यह है कि हम सारे लोगों को एक साथ ही ऐसी गहरी निद्रा आ गयी जैसे किसी ने जादू कर दिया हो.”

विशेषज्ञों ने बताया कि ताले इतने मजबूत हैं और इतनी कारीगरी से बनाए गए हैं कि न तो ये सहज ही तोड़े जा सकते हैं, न इन्हें खोलने के लिए दूसरी चाबी ही बनाई जा सकती है. तब सवाल उठता है कि यह काण्ड हो कैसे गया.

राजा ने कहा, “जो हुआ सो हुआ, किन्तु ऐसा लगता है कि कोई दैवी चमत्कार या देवी घटना हुयी है, लेकिन फिर भी इन चोरों का पता लगाने के लिए कोशिश तो होनी ही चाहिए. चारो तरफ आदमी दौड़ाए गए. संयोग की बात कि चारों चोर एक ही जगह पकड़ में आ गए. वे न्यायाधीश के सामने पेश किये गए और न्यायाधीश ने उन्हें सूली पर चढाने का हुक्म दिया.
चोरों को सूली पर लटकाने के लिए जब ले जाया जाने वाला था, तो राजा भोज भी न्यायाधीश के बगल में आ कर बैठ गया. राजा को देखते ही चौथा चोर जोर से चिल्लाया,

“अरे तुम हो! अच्छी बात है – हम चारों आदमीयों ने तो अपने करतब, अपनी कला तुम्हें दिखा दी, अब तुम इस तरह पत्थर की मूरत बने क्या देख रहे हो? तुम भी अपना करतब दिखाओ – फिर किस दिन काम आयेगी दोस्ती तेरी.”

सुन कर राजा हंसा और न्यायाधीश से कह कर उनकी सूली की सजा रद्द करवा दी. चोरों को अपने पास बैठाया और उनसे कहा कि तुम जैसे गुणी आदमियों को चोरी जैसा नीच धंधा कभी नहीं करना चाहिए. बल्कि सुसंस्कृत नागरिक की तरह जीवन बिताना चाहिए. तुम लोग आज से मेरे पास रहो.”

चोरों ने उस दिन से चोरी करना छोड़ दिया और वे राजा के पास सम्मानपूर्वक रहने लगे.
*****

jai_bhardwaj
31-03-2013, 12:35 AM
* संस्कृत की एक सूक्ति पर नज़र डालते है. क्या आपको यह पढ़ने के बाद कुछ और कहावते नहीं याद आ रहीं?

दूरतः पर्वताः रम्याः
(पर्वत दूर से बड़े रमणीक दिखाई देते हैं)
^^^

दूर के ढोल सुहावने होते हैं .
ढोल के भीतर पोल
हर चमकती हुयी वस्तु हीरा नहीं होती है .

rajnish manga
31-03-2013, 10:12 PM
दूरतः पर्वताः रम्याः
(पर्वत दूर से बड़े रमणीक दिखाई देते हैं)




दूर के ढोल सुहावने होते हैं .
ढोल के भीतर पोल
हर चमकती हुयी वस्तु हीरा नहीं होती है .

:bravo:

जय जी, सूत्र भ्रमण करने और मूल्य-सामग्री-संवर्धन करने के लिए आपका आभारी हूँ. निश्चय ही, आपके द्वारा सुझाए गए तीनों मुहावरे उपरोक्त सूक्ति के बहुत नज़दीक हैं.

rajnish manga
31-03-2013, 11:08 PM
देहली दरबार का जल्वा
(शायर / अकबर इलाहाबादी )
-- सन 1911 में दिल्ली दरबार के आयोजन का आँखों देखा हाल --

सर में शौक का सौदा देखा, देहली को हमने भी जा देखा
जो कुछ देखा अच्छा देखा, क्या बतलाएँ क्या क्या देखा

जमना जी के पाट को देखा, अच्छे सुथरे घाट को देखा
सबसे ऊंचे लाट को देखा, हज़रत ड्यूक कनाट को देखा

पलटन और रसाले देखे, गोरे देखे काले देखे
संगीनें और भाले देखे , बैंड बजाने वाले देखे

खेमों का इक जंगल देखा , इस जंगल में मंगल देखा
बढ़िया और दरंगल देखा, इज्ज़त ख्वाहों का दंगल देखा

सड़कें थी हर केम्प से जारी, पानी था हर पम्प से जारी
नूर की मौजें लैम्प से जारी, तेज़ी थी हर जम्प से जारी

डाली में नारंगी देखी, महफ़िल में सारंगी देखी
बेरंगी बारंगी देखी , दहर की रंगा रंगी देखी

अच्छे अच्छों को भटका देखा, भीड़ में खाते झटका देखा
मुंह को अगरचे लटका देखा, दिल दरबार से अटका देखा

हाथी देखे भारी भरकम, उनका चलना कम कम थम थम
ज़र्रीं झूले नूर का आलम,मीलों तक वह छम छम छम छम

पुर था पहलु ए मस्जिदे जा’मा, रोशनियाँ थीं हरसू ला’मा
कोई नहीं था किसी का सा’मा, सब के सब थे दैर के ता’मा

सुर्खी सड़क पर कुटती देखी, सांस भी भीड़ में घुटती देखी
आतिशबाजी छुटती देखी, लुत्फ़ की दौलत लुटती देखी

चौकी इक चौलिक्खी देखी, खूब ही चक्खी पक्खी देखी
हर सू न’आमत रखी देखी, शहद और दूध की मक्खी देखी

एक का हिस्सा मन ओ’ सलवा, एक का हिस्सा थोड़ा हलवा
एक का हिस्सा भीड़ और बलवा, मेरा हिस्सा दूर का जलवा.

ओज ब्रिटिश राज का देखा, परतो तख़्त औ’ ताज का देखा
रंगे - ज़माना आज का देखा. रूख कर्ज़न महाराज का देखा

पहुंचे फांद के सात समंदर, तहत में उनके बीसों बंदर(गाह)
हिकमतो दानिश उनके अन्दर, अपनी जगह हर एक सिकंदर

हम तो उनके सैर तलब हैं, हम क्या ऐसे सब के सब हैं
उनके राज के उम्दा ढब हैं, सब सामाने ऐशो तरब हैं

एग्ज़ीबिशन की शान अनोखी, हर शय उम्दा हर शय चौखी
अक्लीदस की नापी जोखी, मन भर सोने की लागत सोखी

जश्ने अज़ीम इस साल हुआ है, शाही फोर्ट में बाल हुआ है
रौशन हर इक हॅाल हुआ है, किस्सा ए माजी हा’ल हुआ है

है मशहूर कूचा ए बरज़न , बाल में नाचें लेडी कर्ज़न
तायरे होश थे सब के परज़न, रश्क से देख रही थी हर ज़न

हॅाल में चमकीं आ के यकायक, ज़र्रीं थीं पौशाक झका झक
महव था उनका ओजे समा तक, चर्ख पे ज़हरा उनकी थी गाहक

गौर कास-ए-ओज फ़लक थी, इसमें कहाँ ये नोक पलक थी
इन्दर की महफ़िल की झलक थी, बज़्मे इशरत सुब्ह तलक थी

की है ये बंदिश ज़हने रसा ने, कोई माने ख्वाह न माने
सुनते हैं हम तो ये फ़साने, जिसने देखा हो वह जाने

rajnish manga
02-04-2013, 10:56 PM
प्रसंग: निदा फ़ाज़ली

निदा फ़ाज़ली साहब की एक किताब है “तमाशा मेरे आगे”. इसमें उन्होंने बहुत से शो’अरा और अदबी शख्सियात से जुड़े हुए संस्मरण इस प्रकार बयाँ किये हैं कि उनकी बिना पर एक तस्वीर उभारना शुरू हो जाती है. यहाँ कडवाहट भी मिलेगी, पानी की रवानी भी है, कांच की किरचें भी है और फूलों की रूह-अफ्ज़ा खुशबू भी. इसी किताब के कुछ मजेदार प्रसंग पेश हैं:

डॉ. राही मासूम रज़ा के बारे में प्रसंग (सारांश)
* राही मासूम रज़ा अलीगढ़ से प्रोफ़ेसरी छोड़ कर जब बम्बई आये थे, उस समय हिंदी उर्दू साहित्य के जाने पहचाने नाम थे. उनके साथ दोनों भाषाओं में एक दर्जन से जियादा किताबें, एक नयी पत्नि और उनके साथ उनके पहले पति के चार लड़के, एक चांदी की पान की डिबिया, डोरों वाला एक लखनवी बटुआ, दस्तकार हाथों से सिले हुए कुछ मुग़लई अंगरखे, अलीगढ़ कट पाजामे, कुड़ते और शेरवानियाँ थीं.

* गुदाज़ इश्क़ नहीं कम, जो मैं जवान न रहा
वही है आग मगर आग में धुआं न रहा.

जिगर का ये शेर उनके उस दौर का था, जब वो शराब से दूर हो चुके थे. शराब की वजह से पत्नि ने उनसे तलाक ले लिया था. शराब छोड़ने के बाद उसी तलाकशुदा पत्नि नसीम (?) से फिर शादी की- !

(साभार: शेष/ जन.- मार्च 2007 में जनाब मरगूब अली की समीक्षात्मक टिप्पणी पर आधारित)

rajnish manga
02-04-2013, 11:01 PM
प्रसंग: निदा फ़ाज़ली

* मेरे एक दोस्त सागर भगत ने एक फिल्म बनायी थी. फिल्म का नाम था “बेपनाह” उस मल्टी-स्टार फिल्म में संगीत खैयाम का था और गीत मैंने लिखे थे. निर्देशन जगदीश सिंघानिया का था, जिन्होंने फिल्म के बॉक्स ऑफिस पर नाकाम होने के बाद फिल्म अभिनेत्री पद्मा खन्ना से शादी कर ली. दोनों एक दुसरे की ज़रुरत बन गए थे. जगदीश से फिल्म असफल होने के बाद फिल्म इंडस्ट्री मुंह मोड़ रही थी और पद्मा जी का साथ उम्र छोड़ रही थी.
* एक शाम वे (एक शायर), कैफ़ी आज़मी, गुलाम रब्बानी ताबां और राजेंदर सिंह बेदी के साथ एक लेडी इनकम टैक्स कमिश्नर के यहां आमंत्रित थे. साथ में मैं भी गया था. ये सारे सीनियर लोग गटागट जाम चढ़ा रहे थे और हर जाम के साथ अपनी उम्रे घटा रहे थे. थोड़ी देर में मैनें देखा, सरदार जाफरी 75 से 25 के हो गए, बेदी 22 के पायदान पर खड़े हो गए और कैफ़ी 18 से आगे बढ़ने को तैयार नहीं थे. मैं क्योंकि जूनियर था, इसलिए उनकी घटाई हुयी उम्रें मेरे ऊपर सवार हो गयीं. रात जब जियादा हो गई, तो महिला ने उन्हें रुखसत किया और अपने कुत्ते को अन्दर करके दरवाजा बंद कर लिया. ये चारों बुज़ुर्ग बीच चौराहे पर खड़े होकर अपनी नयी जवानियों का प्रदर्शन कर रहे थे और मैं उन्हें 300 साल के बूढ़े की तरह सम्हाल रहा था. इतने में अचानक जाफरी को याद आया, उनकी बत्तीसी उस महिला के घर छूट गई है. मैं भागता हुआ वापस गया. मैनें बेल बजाई. जब वो बाहर आई तो मैंने आने का मक़सद बताया. उन्होंने लाईट जलाई तो देखा, उनका कुत्ता उस बत्तीसी में फंसे गोश्त के रेशों से खेल रहा था. बड़ी मुश्किल से डेंचर छीन कर मुझे दिया. उसका एक दांत टूट गया था. जाफरी ने बताया कि वो डेंचर उन्होंने स्विस में बनवाया था.
(साभार: शेष/ जन.- मार्च 2007 में जनाब मरगूब अली की समीक्षात्मक टिप्पणी पर आधारित)

abhisays
03-04-2013, 03:43 AM
बहुत ही रोचक और मूड फ्रेश कर देने वाला सूत्र है यह, रजनीश जी। आपका बहुत बहुत धन्यवाद। :bravo:

rajnish manga
03-04-2013, 11:50 AM
बहुत ही रोचक और मूड फ्रेश कर देने वाला सूत्र है यह, रजनीश जी। आपका बहुत बहुत धन्यवाद। :bravo:

:gm:

सूत्र विज़िट करने और इसमें दर्ज सामग्री पसंद करने के लिए अतिशय धन्यवाद, अभिषेक जी. आपकी टिप्पणियाँ दिशानिर्देश का काम करती हैं.

rajnish manga
04-04-2013, 02:07 PM
साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता साहित्यकार सरदार करतार सिंह दुग्गल की नाट्य कृति “पुरानी बोतलें” में एक नाटक है “कोहकन“ जिसमे एक माली बागीचे में काम करता हुआ अपनी दिलकश आवाज में निम्नलिखित पंक्तियाँ बार बार गाता है. यह गीत फिजाओं में गूंजता प्रतीत होता है. जब 1996 में मैंने यह नाटक और ये पंक्तियाँ पढ़ी तो मुझे इनका अर्थ भी मालूम नहीं था और न ही इसके रचयिता के नाम का पता था. इसके पन्द्रह बरस के बाद यानि रविवार, दिनांक 20 मार्च 2011 को Hindustan Times में सरदार खुशवंत सिंह का कॉलम “With malice towards one and all” पढ़ा तो मैं यह देख कर मैं हैरान रह गया कि यही चार पंक्तियाँ मय अंग्रेजी अनुवाद के वहाँ उद्धृत की गयी थीं. यह कॉलम हज़रत अमीर खुसरो और उनके गुरु महान सूफ़ी संत हज़रत निजामुद्दीन औलिया के बारे में लिखा गया था.

तू मन शुदी, मन तू शुदम
तू जान शुदी मन तन शुदम
ता कस न गोयद बाद अजीं
तू दीगरी मन दीगरम
(हज़रत अमीर खुसरो)

भावार्थ:
मैं तुममें ढल गया हूँ और तुम मुझमे
मेरे तन के अन्दर तुम्हारी रूह बसी है
आज के बाद कोई ये न कह पाएगा कि
तू और मैं दो अलग अलग इन्सान हैं.

I have become you and you have become me,
In my body is your soul.
May none say hereafter, that you and
I are different beings.
(Translation by Sardar khushwant Singh)

rajnish manga
04-04-2013, 11:19 PM
सदा नहीं रहते
(लेखक: यशपाल जैन)

किसी नगर में एक सेठ रहता था. वह बड़ा ही उदार और परोपकारी था.उसके दरवाजे पर जो भी आता, उसकी वह दिल खोल कर मदद करता.

एक दिन उसके यहाँ एक आदमी आया. उसके हाथ में एक परचा था, जिसे वह बेचना चाहता था.उसके पर्चे पर लिखा था – ‘सदा न रहे’! इस पर्चे को कौन खरीदता. लेकिन सेठ ने उसे तत्काल ले लिया और उसे अपनी पगड़ी के छोर में बाँध लिया.

नगर के कुछ लोग सेठ से ईर्ष्या करते थे. उन्होंने एक दिन राजा के पास जाकर उसकी शिकायत की और राजा ने सेठ को पकड़वा कर जेल में डलवा दिया.

जेल में काफी दिन निकल गए. सेठ बहुत दुखी था. क्या करे, उसकी समझ में कुछ नहीं आता था.

एक दिन सेठ का हाथपगड़ी की गांठ पर पड़ गया. उसने गाँठ को खोल कर परचा निकाला और पढ़ा. पढ़ते ही उसकी आँखें खुल गयीं. उसने मन ही मन कहा, अरे, “तो दुःख किस बात का! जब सुख के दिन सदा न रहे तो दुःख के दिन भी सदा न रहेंगे.”

इस विचार के आते ही वह जोर से हंस पड़ा और देर तक हँसता रहा. चौकीदार ने उसकी हंसी सुनी तो उसे लगा, सेठ मारे दुःख के पागल हो गया है. उसने राजा को खबर दी. राजा आया. सेठ से पूछा, “क्या बात है?” सेठ ने सारी बात बता दी. उसने राजा से कहा, “राजन, आदमी दुखी क्यों हो? सुख-दुःख के दिन तो सदा बदलते रहते हैं.”

सुन कर राजा को बोध हो गया. उसने सेठ को जेल से निकलवा कर उसके घर भिजवा दिया. सेठ आनंद से रहने लगा.

(साभार: जीवन साहित्य / जून 1980)

rajnish manga
04-04-2013, 11:28 PM
मेहदी अली के कुछ चुनिन्दा शे'र

मीठी लगी जुबां को मगर ज़हर बन गई
ये ज़िन्दगी खुदा की कसम कहर बन गई.

यह शफ़क़ बन के खिले या कफ़े क़ातिल पे जमे
खूने-मेहदी की तो फितरत है नुमायाँ होना.

है कोई इस हयात का जो मर्सिया पढ़े
मुद्दत से हम तलाश में इक नौहख्वां के हैं.

अभी है आखरी हिचकी का मरहला बाकी
खुदा के वास्ते दस्ते दुआ उठाये रखो.

नौहख्वां = स्यापा करने वाला
(शायर: मेहदी अली)

rajnish manga
06-04-2013, 08:03 PM
गीतांजली से—

चित्त जेथा भयशून्य, उच्च जेथा शिर,
ज्ञान जेथा मुक्त, जेथा गृहेर प्राचीर
आपन प्रांगणतले दिवसशर्वरी
बसुधारे राखे नाइ खण्ड क्षुद्रकरि
जेथा वाक्य हृदयेर उत समुख हते
उच्छवसिया उठे, तेता निर्वारित स्त्रोते
देशे देशे दिशे दिशे कर्मधारा धाय
अजस्र सहसबिध चरितार्थताय –
जेथा तुच्छ आचारेर मरुवालुराशि
विचारेर स्त्रोत पथ फेले नाई ग्रासि,
पौरुषेरे करे नि शतधा-नित्य जेथा
तुम सर्व कर्म चिन्ता आनन्देर नेता—
निज हस्ते निर्दय आघात करि पितः,
भारतेर सेइ स्वर्गे करो जागरित.
(नैवेद्य)

rajnish manga
06-04-2013, 08:04 PM
Where the mind is without fear and the head is held high;
Where knowledge is free;
Where the world has not been broken up into fragments by narrow domestic walls;
Where the words come out from the depth of truth;
Where tireless striving stretches its arms towards perfection;
Where the clear stream of reason has not lost its way
Into the dreary desert of dead habit;
Where the mind is led forward by thee into ever-
Widening in thought and action –
Into that heaven of freedom, my Father, let my country awake.

From a translation of Gitanjali
By Rabindranath Tagore

rajnish manga
06-04-2013, 08:08 PM
जहाँ चित्त भय से विमुक्त हो


जहाँ चित्त भय से विमुक्त हो
और जहाँ शिर ऊँचा;
ज्ञान न हो जकड़ा बंधन में;
जहाँ घरों की दीवारें
बना रात-दिन अपने प्रांगण
करें विभाजित नहीं धरा को
खंड खंड में;
जहाँ शब्द आते हों उठकर
अंतरतम की गहराई से;
जहाँ कर्म – धारा अजस्र, अक्लांत प्रवाहित
देश देश में, दिशा दिशा में
प्राप्त पूर्णता को करने को;
जहाँ न होता पथ विवेक का
लुप्त रूढ़ियों के मरु-थल में;
जहाँ रहे पुरुषार्थ निरंतर
प्रकटित नाना-विध रूपों में;
जहाँ चित्त को, परम पिता,
तुम ले जाते हो
मुक्त विचारों और कर्म में,
जगे प्रभो, यह देश हमारा
स्वतंत्रता की स्वर्ग-भूमि में.

(अनुवाद: यशपाल जैन)

rajnish manga
06-04-2013, 08:16 PM
Fisherman's Prayer
मछेरे की प्रार्थना

Protegez moi, mon seigneur,
Ma barque est si petit,
Et votre me rest si grande.
--- Anonymous: Old Breton

Protect me, O Lord;
My boat is so small,
And your sea is so big.

मुझे सुरक्षित रखना भगवन,
मेरी नाव बहुत छोटी है,
तेरा समुन्दर इतना विस्तृत.

rajnish manga
06-04-2013, 08:20 PM
घड़ी
(रचना: बालकृष्ण गर्ग)

टिक टिक टिक टिक बोल रही :
मेरी पहली सीख यही-
“समय न बीते व्यर्थ कहीं!”

टिक टिक टिक टिक बोल रही,
मेरी अगली सीख यही-
“काम समय पर करो सही!”

टिक टिक टिक टिक बोल रही,
मेरी अंतिम सीख यही-
“बुरे काम तुम करो नहीं!”

rajnish manga
06-04-2013, 08:22 PM
आज़ादी क्या आज़ादी
(रचना: यदुकुलनंदन खरे)

यह आज़ादी क्या आज़ादी,
जिसमे श्रद्धा विश्वास नहीं हो;
कर्मो का अहसास नहीं हो!
निरपराध को राह नहीं हो.
न्याय जहाँ पर लाज बचाने, कहीं दूर जा छिप जाता है,
अन्यायी अपनी ताकत से, विजय पताका फहराता है.
यह आज़ादी क्या आज़ादी,
जिसमे सच्चा न्याय नहीं हो!
मानवता की चाह नहीं हो !
निर्धन हर दम पिस्ता रहता, अपने पथ से हटता रहता,
मात्र पेट की खातिर बंदा, दर दर ठोकर खाता फिरता.
यह आज़ादी क्या आज़ादी,
जिसमे मानव को प्यार नहीं हो!
श्रम की भी प्रवाह नहीं हो!
जन सेवा के बल पर ऊंचे महल जहाँ बनवाये जाते,
बापू नेहरु के सपनो पर, मात्र प्लान बनवाये जाते.
यह आज़ादी क्या आज़ादी,
जहाँ स्वजन का स्नेह नहीं हो!
राष्ट्र-प्रेम का भाव नहीं हो!
थोथे आदर्शों से हम सब, प्रगतिशील क्या बन सकते हैं?
नंगे-भूखे-भिखमंगों का पेट कभी क्या भर सकते हैं?
यह आज़ादी क्या आज़ादी,
जहाँ हाथ को काम नहीं हो!
जन जन का कल्याण नहीं हो!

rajnish manga
07-04-2013, 01:10 PM
गुरुदेव रवींद्र नाथ ठाकुर कृत

गीतांजली से—
(मूल बंगला गीत देवनागरी लिपि में)


चित्त जेथा भयशून्य, उच्च जेथा शिर,
ज्ञान जेथा मुक्त, जेथा गृहेर प्राचीर
आपन प्रांगणतले दिवसशर्वरी
बसुधारे राखे नाइ खण्ड क्षुद्रकरि
जेथा वाक्य हृदयेर उत समुख हते
उच्छवसिया उठे, तेता निर्वारित स्त्रोते
देशे देशे दिशे दिशे कर्मधारा धाय
अजस्र सहसबिध चरितार्थताय –
जेथा तुच्छ आचारेर मरुवालुराशि
विचारेर स्त्रोत पथ फेले नाई ग्रासि,
पौरुषेरे करे नि शतधा-नित्य जेथा
तुम सर्व कर्म चिन्ता आनन्देर नेता—
निज हस्ते निर्दय आघात करि पितः,
भारतेर सेइ स्वर्गे करो जागरित.
(नैवेद्य)
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=26385&stc=1&d=1365322812

rajnish manga
09-04-2013, 11:26 PM
चलता फिरता फ़रिश्ता
(लेखक: यशपाल जैन)

यह उन दिनों की बात है जब चंपारण में किसानों का आन्दोलन चल रहा था. गांधी जी की उस सेना में सभी प्रकार के सैनिक थे. जिनमे आत्मिक बल ता वे उस लड़ाई में शामिल हो सकते थे, सत्याग्रहियों में कुष्ठ रोग से पीड़ित एक खेतिहर मजदूर भी था. उसके शरीर में घाव थे. वह उन पर कपड़ा लपेट कर चलता था.

एक दिन शाम को सत्याग्रही अपनी छावनी को लौट रहे थे. पर बिचारे कुष्ठी से चला नहीं जाता था.उसके पैरों पर बंधे कपड़े कहीं गिर गए थे. घावों से खून बह रहा था. सब लोग आश्रम में पहूँच गए. बस, एक वही व्यक्ति रह गया.

प्रार्थना का समय हुआ. गाँधी जी ने निगाह उठा कर अपने चारों ओर बैठे सत्याग्रहियों को देखा, पर उन्हें वह महारोगी दिखाई नहीं दिया. उन्होंने पूछताछ की तो पता चला कि लौटते में वह पिछड़ गया था.

यह सुन कर गाँधी जी तत्काल उठ खड़े हुए और हाथ में बत्ती लेकर उसकी तलाश में निकल पड़े. चलते चलते उन्होंने देखा कि रास्ते में एक पेड़ के नीचे एक आदमी बैठा है. दूर से ही गाँधी जी को पहचान कर वह चिल्लाया, “बापू!”

उसके पास जा कर गाँधी जी ने बड़ी व्यथा से कहा, “अरे भाई, तुमसे चला नहीं जाता था तो मुझसे क्यों नहीं कहा?”

तभी उनका ध्यान उसके पैरों की ओर गया. वे खून से लथ-पथ थे. गाँधी जी ने झट अपनी चादर को फाड़ कर उसके पेरों पर कपड़ा लपेट दिया और उसे सहारा दे कर धीरे-धीरे आश्रम में ले आये, उसके पैर धोये और फिर प्यार से अपने पास बिठा कर उन्होंने प्रार्थना की.

अपने धर्म ग्रंथों में हम फरिश्तों की काहानियाँ पढ़ते हैं, जो संकट में फंसे लोगों की सहायता के लिए दोड़े चले आते थे. इससे बढ़ कर हमारा सौभाग्य और क्या हो सकता है कि एक चलता फिरता फ़रिश्ता वर्षों तक हमारे बीच रहा.
*****

rajnish manga
09-04-2013, 11:30 PM
शहर में किस किस से लेते इन्तक़ाम
घर में आके सबसे पहले सो गए.
(निदा फ़ाज़ली)

पराई आग़ पे हाथों को तापते रहिये
नहीं तो सुब्ह तलक यूं ही कांपते रहिये.
(निदा फ़ाज़ली)

मंजिल मिले न मिले इसका ग़म नहीं
मंजिल की जुस्तजू में मेरा कारवां तो है
(संगीतकार नौशाद का एक शे’र)

rajnish manga
09-04-2013, 11:34 PM
सुभाषितम

शैले शैले न माणिक्यं, मौक्तिकं न गजे गजे i
साधवो न हि सर्वत्रं, चन्दनं न वने वने ii

(भावार्थ: हर पर्वत पर मणियाँ नहीं मिलतीं, हर हाथी के भाल पर मोतियों की सजावट नहीं होती, हर
स्थान पर सच्चे साधू नहीं पाये जाते, और हर जंगल में चन्दन के वृक्ष भी प्राप्त नहीं होते)

गीतों में राग

1. आयो कहाँ से घनश्याम = खमाज
2. लागा चुनरी मैं दाग = भैरवी
3. नदिया किनारे हेराये = पीलू
4. बोले रे पपीहरा = मल्हार

rajnish manga
09-04-2013, 11:39 PM
कुछ अंग्रेजी शब्द और उनके हिंदी समानार्थक शब्द:
Anomaly = असंगति
Entrust... = सौंपना
Guiltless = निरपराध
Commentators = टीकाकार

अब कुछ हिंदी शब्दावली पर विचार करते है:

मनोदाह = मन की पीड़ा
परिचर्या = सेवा
लोकापवाद = लोकनिंदा
उद्दंड = अक्खड़

rajnish manga
10-04-2013, 11:52 PM
*सबसे पहले दो शेर आपकी सेवा में प्रस्तुत हैं:

ऐ तायिरे लाहूती उस रिज़्क से मौत अच्छी
जिस रिज़्क से आती हो परवाज़ में कोताही.
(शायर: इक़बाल)

अच्छा है दिल के पास रहे पासबाने अक्ल
लेकिन कभी कभी इसे तन्हा भी छोड़ दे
(शायर: इक़बाल)

*
आज़ादी से पहले की बात है, शराब की दुकानों के बाहर महिलाओं द्वारा धरना दिया जाता था. उन्हीं दिनों पंजाब के एक आर्य समाजी कार्यकर्ता लाला चिरंजी लाल ने एक गीत शराब-बंदी के बारे में लिखा था:

“छड शराब भन प्याले नूं,
लाख लानत पीने वाले नूं.”

दूसरी ओर शराबी गाते थे:

“पी शराब फड़ प्याले नूं,
की पता चिरंजी लाले नूं.”

और आखिर शराबियों ने पंडित चिरंजी लाल को शहीद बना कर ही छोड़ा.

rajnish manga
10-04-2013, 11:57 PM
गीतांजलि से
(गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर)

एवार भासिये दित हबे आमार ....
..... ऐ पारेर ऐ बांशिर सुरे
उठे शिहरि ii

हिंदी भावानुवाद

अब ऐसा प्रतीत होता है कि मेरी यह नौका किनारे लग जायेगी, जो समय बीत रहा है, वही बीत रहा है. बसंत अपने फूल खिलाने का सब कार्य करके चला गया है. बोलो; मैं इन मुरझाये पुष्पों की डलिया को ले कर क्या करूं? जल में छलछल करती लहरें उठ रही हैं तथा वन में वृक्षों के पत्ते झर रहे हैं.

है शून्य हृदय ! तू किसे देख रहा है? यह सम्पूर्ण विश्व तथा सम्पूर्ण आकाश इस वंशी ध्वनि के कारण ही सिहर रहा है.

rajnish manga
11-04-2013, 12:09 AM
अब कुछ पत्राचार आपके साथ बांटना चाहता हूँ. यह पत्राचार मेरे और मेरे मित्रों के मध्य समय समय पर हुआ. अति व्यक्तिगत प्रसंग इनमे से संपादित किये गए हैं:

नकोट
19.04.1976

चिरंतन मित्र,

आपका पत्र लम्बे अरसे के उपरान्त पा कर जी को तसल्ली हुयी. भाई मैं एक ऐसे स्थान पर सेवारत हूँ जहाँ फैमिली साथ रखना असंभव सी बात है. इसलिए बिटिया अपनी माँ के साथ नजीबाबाद में है. साथ में एक कविता, या जो कुछ भी हो, मुझे बहुत पसंद है, लिख कर भेज रहा हूँ जो कि बाजार से मंगवाई हुयी वस्तु के लिफ़ाफ़े पर छपी है....

स्नेहाधीन,
महावीर

संलग्न कविता:-

प्रगाढ़ संबंधों का रस
तब रिसने लगता है
जब “मैं और तुम” को
जोड़ने वाला सेतु टूटने लगता है.
फिर हम लाख प्रयत्न करें
सम्बन्धों का धागा नहीं बुन पाते.
क्योंकि उसे तो वह प्रेम रुपी
मकड़ी ही बुन सकती है
जो मर चुकी होती है –
संबंधों के बिखराव के साथ ही.
अपने तर्क में यह मुहावरा
क्यों लायें कि सूर्य से
उसकी किरण अलग नहीं हो सकती
जब कि हम जानते हैं
कि हम सूर्य नहीं हैं
तब इस बात की सावधानी
रखनी चाहिए कि
चन्द्रमा से चांदनी अलग न होने पाये.
एकाकीपन का एहसास अति कठिन होता है,
वैसे समय रिक्तता को भर देता है
यह अलग बात है.
*****

rajnish manga
11-04-2013, 11:03 PM
लीजिये कुछ शे’र आपकी सेवा में प्रस्तुत हैं:

उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम हो जाए.
(शायर: बशीर बद्र)

कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फासले से मिला को.
(शायर: बशीर बद्र)

चलो अच्छा हुआ काम आ गई दीवानगी अपनी
वगरना हम ज़माने भर को समझाने कहां जाते.
(शायर: ज्ञात नहीं)

ग़मे दुनिया को ग़मे यार में शामिल कर लो
नशा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें
(शायर: ज्ञात नहीं)

jai_bhardwaj
12-04-2013, 07:22 PM
आकर्षक प्रस्तुतियां हम बन्धु ....आभार .

rajnish manga
13-04-2013, 06:57 PM
महावीर सिंह का पत्र

नकोट
24.7.1976

तरल प्राकृतिक सौन्दर्य और
सुष्ठु मानव बोध के मित्र,
रजनीश,

कहाँ?
मेरा अधिवास कहाँ?
क्या कहा? --- ‘रूकती है गति जहाँ?
भला इस गति का शेष संभव है क्या –
करूण स्वर का जब तक मुझमे रहता है आवेश?
मैंने “मैं” शैली अपनाई
देखा दुखी एक निज भाई,
दुःख की छाया पड़ी हृदय में मेरे
झट उमड़ वेदना आई.

आज पल्लवित हुयी है डाल,
झुकेगा कल गुंजित मधुमास.
मुग्ध होंगे मधु से मधु बोल,
सुरभि से अस्थिर मरुताकाश,

कनक छाया में मलय समीर
खोलती कलिका उर के द्वार,
सुरभि प्रमुदित मधुपों के बोल
तड़प, बन जाते हैं गुंजार;
न जाने ढुलक ओस में कौन
खींच लेता मेरे दृग मौन!
“पल्लव”

शुभमस्तु
महावीर

rajnish manga
13-04-2013, 07:18 PM
रजनीश मंगा का पत्र

चूरू (राजस्थान)
27/09/1976

प्रिय मित्र महावीर,
मन हो रहा था अधीर,

काफी अरसा बीत गया, न पत्र तुम्हारा आया है,
जीवन की नूतन घड़ियों में बीता युग बिसराया है?

क्या याद हमारी बीते कल की फीकी फीकी बात हुई?
पिछली शाम दफ़न कर दे जो ऐसी भी क्या प्रात हुई.

सोच रहा हूँ या तो तुमने स्थान पुराना छोड़ दिया,
या फिर तुमने अपने जीवन का धारा मोड़ दिया.

पत्र प्राप्त हो जाए यदि तो अपनी राम कथा लिखना,
जीवन की गाड़ी कैसे कैसे दौड़ रही सूचित करना.

बिटिया और भाभी का भी सब हाल बराबर दे देना,
यह सब बातें शामिल करके अगला पत्र मुझे देना.

तुम अध्यापक चित्रकला के उसमें ही डूबे रहते होगे,
जग सारा ही ऐसा होगा मन ही मन में कहते होगे.

रेगिस्तानी लोक हमारा, चित्रलिखित सा जीवन है,
न कोई नूतनता इसमें और न कोई परिवर्तन है.

तुम्हारा ही सदैव,
एकमेव,
रजनीश

rajnish manga
13-04-2013, 07:26 PM
महावीर सिंह का पत्र

नकोट
1.11.1976

परम स्नेही रजनीश,
लगभग 4-5 दिन मैं घर से लम्बे अवकाश के बाद आया – दशहरा और दिवाली मन कर, तभी तुम्हारा पत्र मिला. मुझे इतनी प्रसन्नता हुयी कि वह पत्र पूरे स्टाफ व प्रधानाचार्य को भी पढ़ने से वंचित नहीं रखा. निस्संदेह आपने पत्र ह्रदय से लिखा है. परिवार में सब प्रसन्न हैं. माता जी का स्वास्थ्य प्रतिकूल चल रहा है .... स्थानान्तरण के लिए प्रयास कर रहा हूँ .... मेरी पत्नि इस वर्ष एम.ए. (संस्कृत) पूर्वार्ध रूहेलखंड विश्वविद्यालय से कर रही है. .... (हमारी बेटी) अब एक वर्ष दो माह की है. बाल सुलभ सभी चेष्टाएँ उसमे हैं. मैं आपसे प्रेमाग्रह करूँगा कि आप मुझे थोडा समय दे कर कभी गाँव पधारें. पारिवारिक जिम्मेदारियां मेरी हैं, मैं उनको निबाहूंगा. माता जी की ओर से मैं बहुत चिंतित रहता हूँ. अपना मित्र, अपना भाई जान कर मुझे कुछ सुझाव अवश्य ही लिखें.
चिरंतन मित्र,
महावीर

rajnish manga
13-04-2013, 07:31 PM
महावीर सिंह का पत्र

प्रिय मित्र रजनीश,
याद तुम्हारी आ जाती है

सच कहता हूँ अब भी जब तब
याद तुम्हारी आ जाती है.

मेरे इस बीहड़ पथ से तुम,
अपनी सुरभि लुटा जाते हो,
मेरे मानस नभ में आकर
बिजली सी चमका हो.

अपनी परवशता पर मैं जब
आंसू चार बहा लेता हूँ,
जग को जीवन मिल जाता है,
मैं मन को बहला लेता हूँ.

यों मेरी जीवन अभिलाषा
दुःख में भी सुख पा जाती है
सच कहता हूँ अब भी जब तब
याद तुम्हारी आ जाति है.

तुम कहते मैं निर्मम हूँ
मैं कहता जग निर्मम है,
किन्तु हमारा दोनों का ही
निर्मम कहना भ्रम ही भ्रम है.

एक नियति के इंगित पर ही,
हम तुम क्या सब दुनिया चलती,
छलना नाना रूप बना कर
हमको तुमको सबको छलती.

छलना के नाना रूपों में
अपनी बुद्धि हिरा जाती है,
सच कहता हूँ अब भी जब तब
याद तुम्हारी आ जाती है.

अब तो जाने जैसे तैसे
कैसे जीवन बीत रहा है,
अपने में ही पल पल जल जल
जीवन का रस रीत रहा है.

एक यंत्रवत चलती रहती
मेरे इस मानव की काया,
जिसके संचालन में दिन भर
भूला रहता मम्मता माया,

अर्ध-रात्रि के सपनों में, पर
तेरी मुख छवि छ जाती है.
सच कहता हूँ अब भी जब तब
याद तुम्हारी आ जाती है.

जीवन में विश्वास नहीं है
फिर भी तो जीता जाता हूँ,
जीवन मदिरा में मादकता
नहीं, किन्तु पीता जाता हूँ.

यहाँ कर्म पथ अब पहले है
पीछे है भावुकता रानी,
पथ दुर्गम है, मैं एकाकी,
फिर भी चलता हूँ कल्याणी.

पर इस पथ में मधु अतीत के
तव सुधि चित्र बना जाती है,
सच कहता हूँ अब भी जब तब
याद तुम्हारी आ जाती है.

मार्ग भिन्न है किन्तु एक है
लक्ष्य, हमारा यह प्रिय जानो,
अपने अपने पथ पर चलने
में ही, प्राण ! प्रेम पहचानो,

दूर क्षितिज के पार वहाँ फिर
हम तुम दोनों मिल ही लेंगे,
सब अभिशाप यहाँ से लेकर
हम वरदान विश्व को देंगे,

श्रापों पर वरदान-रश्मि सी
सदा साधना मुस्काती है,
सच कहता हूँ अब भी जब तब
याद तुम्हारी आ जाती है.

महावीर (4.2.1977)

jai_bhardwaj
13-04-2013, 08:19 PM
एक बार फिर से उत्कृष्ट प्रस्तुतियों के लिए हार्दिक अभिनन्दन बन्धु….

rajnish manga
14-04-2013, 11:08 PM
कवि त्रिलोचन के दो सॉनेट
1. प्रगतिशील कवियों की लिस्ट

प्रगतिशील कवियों की नयी लिस्ट निकली है
उसमे कहीं त्रिलोचन का तो नाम नहीं था.
आँखें फाड़ फाड़ कर देखा, दोष नहीं था
पर आंखों का. सब कहते हैं कि प्रेस छली है,
शुद्धि-पत्र देखा, उसमे नामों की माला
छोटी न थी. यहाँ भी देखा, कहीं त्रिलोचन
नहीं. तुम्हारा सुन सुन कर सपक्ष आलोचन
कान पक गए थे. मैं ऐसा बैठा ठाला

नहीं, तुम्हारी बकझक सुना करूं पहले से
देख रहा हूँ, किसी जगह उल्लेख नहीं है,
तुम्हीं एक हो, क्या अन्यत्र विवेक नहीं है,
तुम सागर लांघोगे ? – डरते हो चहले से.
बड़े बड़े जो बात कहेंगे – सुनी जायेगी
व्याख्याओं में उनकी व्याख्या चुनी जायेगी.

rajnish manga
14-04-2013, 11:10 PM
2. बढ़ो मृत्यु की ओर

बढ़ो मृत्यु की ओर नज़र से नज़र मिलाओ,
डर क्या है, जीवन में जो कुछ कल होना है
आज अभी हो जाए. तुम्हें यदि कुछ खोना है
तो अपने मन का भय. जड़ मूल से हिलाओ
इस दुर्बल तरु को, धक्के अनवरत खिलाओ
इस उस क्षण में उखड़ जाएगा, जो कोना है
इसका अपना, जहाँ तुम्हें साहस बोना है,
फिर इस बिरवे को विवेल जल सदा पिलाओ.

कितनी सार सम्हाल रखो पर जीवन की लौ
बुझती ही है, फिर क्यों आंसू व्यर्थ बहाए
क्यों आँखों के खारे जल में व्यर्थ नहाए.
घंटा बजता है, कारवाँ चल पड़ा है, सौ-
दो सौ की क्या गिनती, आगे फटती है पौ,
कौन कहेगा तुमने सागर व्यर्थ थहाए ?

rajnish manga
17-04-2013, 09:44 PM
महावीर सिंह का पत्र

प्रिय मित्र रजनीश,

आज एक कविता से पत्र को शुरू कर रहा हूँ:

पूर्व चलने के बटोही राह की पहचान कर ले

पुस्तकों में है नहीं छापी गई इसकी कहानी,
हाल इसका ज्ञात होता है न औरों की जुबानी.
अनगिनत राही गए इस राह से उनका पता क्या?
पर गए कुछ लोग इस पर छोड़ पैरों की निशानी.

यह निशानी मूक हो कर भी बहुत कुछ बोलती है,
खोल इसका अर्थ पंथी, पंथ का अनुमान कर ले.

कौन कहता है कि सपनों को न आने दे हृदय में,
देखते सब हैं इन्हें अपनी उमर, अपने समय में.
और तू कर यत्न भी तो, मिल नहीं सकती सफलता,
ये उदय होते लिए कुछ, ध्येय नयनो के निलय में.

किन्तु जग के पंथ पर यदि स्वप्न दो तो सत्य दो सौ,
स्वप्न पर ही मुग्ध मत हो, सत्य का भी ज्ञान कर ले.

पूर्व चलने के बटोही, राह की पहचान कर ले.


केवल आपका ही चिरंतन,


महावीर


16.08.1977

rajnish manga
17-04-2013, 09:47 PM
महावीर का पत्र

रजनीश को,

होली के सहज रंगों से
स्फुरित हो कर मेरी शुभकामनाएं
तुम्हारे जीवन लक्ष्य को
इंद्रधनुष की भांति जगमगायेंगी.
.........................................
फिर झमका रंग गुलाल सुमुखी
फिर गमका फागुन राग,
फिर चमका मनसिज के नयनों में
रति का नव अनुराग.

फिर फिर आई है होली
सौरभ से, श्लथमद से अलसित
फिर मलय समीरन होली.

लो लहरा यहाँ अबीर
वह देखो मनसिज मार रहा
तक तक फूलों के तीर.
...............................
महावीर
23.2.1977

rajnish manga
17-04-2013, 09:49 PM
रजनीश मंगा का पत्र

चूरू (राजस्थान)
28.2.1977

राग फाग का , उमंग रंग में रची.
धूम मेल जोल के मृदंग की मची.

नृत्य-रत पगों में उत्साही थिरकन,
खींचता दृगों को अलसाया सम्मोहन.
आ जाओ तुमको पुकारे प्रिय! मन
बीती घड़ियों का करें फिर आलिंगन.

पिचकारी कर रही आनंद का सृजन,
सबको मिला प्रसाद एक बिरहन बची.
राग फाग का , उमंग रंग में रची.
धूम मेल जोल के मृदंग की मची.

संबंधों के शून्य, स्मृतियों के दीपक,
सतरंगे चित्रों पर बदरंगे क्षेपक.
मन सीमित पर है अनुराग व्यापक,
समय से कटा और लुटा तारसप्तक.

होली में तुम न आये, ऐसा क्या?
कोई बात न व्याकुल मन को जची.
राग फाग का , उमंग रंग में रची.
धूम मेल जोल के मृदंग की मची.

रजनीश

rajnish manga
17-04-2013, 09:53 PM
महावीर का पत्र

नकोट
24.5.1977

परम स्नेही,
पत्र तुम्हारा 17.5.77 को ही प्राप्त हो गया था किन्तु .... उत्तर न दे पाया. तुम्हारे पत्र द्वारा तुम्हारे विवाह की सूचना मिली, प्रसन्नता के कारण उस दिन क्रिकेट भी ठीक से न खेल पाया, फलस्वरूप, दाहिनी आँख पर मामूली चोट मिली. खैर, अब में बिलकुल स्वस्थ हूँ और पुनः क्रिकेट खेल रहा हूँ. सैशन तो 20 मई को ही समाप्त हो गया था, परन्तु चुनाव के कारण स्टेशन लीव नहीं मिली. इसलिए घर चुनावों के बाद जाना होगा.

एक कविता

बाग़ था या कि किसी झील में धीरे धीरे
स्वर्ण हंसों का कोई तैर रहा जोड़ा हो,
या किसी शोख़ नवोढ़ा ने कुसुरभी आँचल
पहले केसर में भिगोया हो फिर निचोड़ा हो.

वो रूप वो छवि, और वह मुस्कान अनाम,
देखें तो करे झुक के हर इक फूल सलाम.
बिखरे हुए कांधों पे वो श्यामल कुंतल,
उतारी हो कहीं जैसे हिमालय पे शाम.
(नीरज)

चिरंतन मित्र,
महावीर

rajnish manga
17-04-2013, 09:55 PM
महावीर का पत्र

नकोट
30.10.79

परम स्नेही
रजनीश,

अत्र कुशलं तत्रास्तु. आपका दीपावली और आगामी नव-वर्ष का शुभकामनाओं का कार्ड पा कर बहुत प्रसन्नता हुयी....

हमने माना कि सहर होगी
मगर कब होगी?
अपनी आँखों के सितारों को
डुबायें कब तक?
एक मुद्दत से है खाली ये
मकां तेरे बिना,
देंगी दरवाजे पे दस्तक
ये हवायें कब तक?

.....
नमस्कार,
अनन्य मित्र,
महावीर

sombirnaamdev
17-04-2013, 11:39 PM
दो शे'र प्रस्तुत हैं:

फ़लक देता है जिनको ऐश उनको ग़म भी देता है
जहाँ बजते हैं नक्कारे वहां मातम भी होता है

(शायर: दाग़ दहलवी)



(शायर: आसी दानापुरी)

*****
नीचे हम कुछ शब्द दे रहे हैं और देखते हैं कि हम उनके अर्थ से कितना परिचित हैं:

अरण्यरोदन / परिप्रेक्ष्य /प्रतिफल /विदीर्ण /मायावी / वितृष्णा

आइये अब अपने सोचे हुए अर्थ का निम्नलिखित से मिलान कर लेते हैं:

अरण्यरोदन = ऐसा रोना जिसे कोई सुनने वाला न हो

परिप्रेक्ष्य = किसी भी दृश्य को ठीक ठीक अनुपात में प्रस्तुत करना

प्रतिफल = परिणाम / नतीजा

विदीर्ण = फाड़ा हुआ (वाक्य: इस दुखद समाचार ने लोगों के हृदय विदीर्ण कर दिए)

मायावी = छलने वाला

वितृष्णा = इच्छा से मुक्ति

(29/11/1996)
कांटों से गुज़रना तो बड़ी बात है लेकिन
फूलों पे भी चलना कोई आसान नहीं है
:bravo: nice work manga ji weldone

rajnish manga
18-04-2013, 10:57 AM
कांटों से गुज़रना तो बड़ी बात है लेकिन
फूलों पे भी चलना कोई आसान नहीं है
:bravo: nice work manga ji weldone

:hello:सूत्र पर विहंगम दृष्टि डालने और प्रशंसात्मक टिप्पणी के लिए आपका आभारी हूँ, सोमबीर जी.

rajnish manga
18-04-2013, 11:21 AM
आकर्षक प्रस्तुतियां हम बन्धु ....आभार .

एक बार फिर से उत्कृष्ट प्रस्तुतियों के लिए हार्दिक अभिनन्दन बन्धु….

:hello:

हार्दिक धन्यवाद, जय जी. सूत्र पर निगाहें करम डालने और इंसके बारे में सुन्दर व उत्साहवर्धक टिप्पणियों के लिए आभारी हूँ. चार पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं:

जो मेरी चार बोलों की जागीर है
आप ही की निगाहों की तासीर है
दुनिया हो गिरफ्तार-ए-नूर-ए-जहां,
मगर वो गिरफ्तार-ए-जहांगीर है.

rajnish manga
19-04-2013, 12:21 AM
मानव – प्रेम
(यशपाल जैन)

अमरीका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन बड़े सरल और निश्च्छल व्यक्ति थे. सादगी के साथ रहते थे और और दूसरों के साथ बहुत ही प्रेम का व्यवहार करते थे.

शासक कितना ही अच्छा क्यों न हो, उसके कुछ न कुछ आलोचक या विरोधी हो ही जाते हैं. जिसका काम न हो वह शत्रु बन जाता है. अब्राहम लिंकन के भी कुछ शत्रु थे जो उन्हें हानि पहुंचाने के लिए निरंतर प्रयत्न करते रहते थे. कभी कभी लिंकन बड़े दुखी हो जाते थे, पर वह अपने सद्व्यवहार को नहीं छोड़ते थे.

एक दिन लिंकन के कुछ हितैषी उनके पास आये. उन्होंने गंभीर हो कर पूछा, “आपके दुश्मन आपको लगातार नुक्सान पहुंचा रहे हैं, फिर भी आप उनके साथ अच्छा सलूक किये जा रहे हैं. उनका सफाया क्यों नहीं कर देते? आपके हाथ में सत्ता है.”

लिंकन ने मुस्कुरा कर कहा, “मैं अपने दुश्मनों का सफाया करने के लिए ही तो कोशिश कर रहा हूँ.”

“कोशिश कर रहे हैं!” लोगों ने विस्मय से पूछा, “ऐसा देखने में तो नहीं आ रहा है. आपने तो कभी किसी की ओर उंगली तक नहीं उठाई!”

लिंकन चुप चाप उनकी बात सुनते रहे. फिर धीरे से बोले, “आप अचम्भा क्यों कर रहे हैं? मैं जो कह रहा हूँ, वह ठीक ही कह रहा हूँ. मैं दुश्मनों को दोस्त बना कर दुश्मनी का सफाया ही तो कर रहा हूँ.”

लोगों ने अब समझा कि राष्ट्रपति का आशय क्या था! उनका सिर उनके मानव प्रेम के सामने अपने आप झुक गया.
*****
एक बार अब्राहम लिंकन से उनके मिलने वालों ने पूछा, “आप अपने विरोधियों से किस प्रकार निबटते हैं?”
लिंकन ने जवाब दिया, “मैं उनको पत्र लिखता हूँ और अपने दिल का गुबार पत्रों में भर देता हूँ.”
“तो फिर यह पत्र आप विरोधियों को भेजते हैं?”
“नहीं, मैं वह पत्र लिख कर नष्ट कर देता हूँ.” लिंकन ने जवाब दिया.

rajnish manga
19-04-2013, 12:26 AM
22.4.1973 की मेरी डायरी के अंश

आज दिन भर अध्ययन नहीं हो सका. अमृत (मेरा मित्र और कॉलेज का सहपाठी) लगभग 11 बजे से ही साथ था. बड़ा दुखी लग रहा था. अपनी समस्याएं उसने सामने रखीं; कुछ विचार मन में उभरे. उसकी एक कमी की ओर मेरा ध्यान गया – वह अपने दो पाँव चार नावों में रखना चाहता है. इस प्रकार किसी के कार्य सिद्ध हुए हैं? मेरे विचार से तो नहीं. योजना, गणना और परिस्थिति को सामने रख कर उठाये हुए कदम ही कार्य-सिद्धि में सहायक हो सकते हैं. कोरी भावना और संवेगों का लावा जीवन को स्थिरता देने के बजाय एक झंझा के साथ बाँधने का काम करते हैं. कुल मिला कर ऐसी परिस्थियियों में मन उद्विग्न एवं मस्तिष्क निष्पंद होने लगता है.

दूसरी बात जो मैंने उससे जो कही वह यह थी कि मन और मस्तिष्क को दो स्वतंत्र इकाइयों के रूप में मत राणे दो. यह देखना भी जरूरी है कि दोनों की शक्तियां एक दूसरे पर हावी न होने पायें. इन दोनों में जब तक हमाहंगी और परस्पर आदर का भाव नहीं होगा तब तक समायोजन न हो सकेगा. ऐसी स्थिति में चिंता, तनाव, हताशा, दुविधा, कसक आदि वृत्तियाँ एकजुट हो कर जीवन में कटुता भरने में कोई कसर नहीं छोड़तीं.

rajnish manga
19-04-2013, 11:15 PM
एच.जी.वेल्स कृत “द टाइम मशीन” से एक अंश :
(विलियम हायिनमन लि. लंदन का प्रकाशन / 1952 / पृष्ठ सं. 121 से अनूदित)

“I grieved to think how brief the dream of human intellect had been …. …. a huge variety od needs and dangers”

“आदमी की प्रज्ञा ने जो स्वप्न देखा था वह कितनी जल्दी ध्वस्त हो गया, यह देख कर मुझे बड़ा कष्ट हुआ. इसने वस्तुतः आत्म-हत्या कर ली थी. इसने खुद को आराम और सुविधाओं से इस कदर लैस कर लिया था जिसमे समाज पूर्णतः संतुलित था जिसमे दीर्घकालीन सुरक्षा एक सचेतक शब्द बन चुका था, इसने अपनी सारी आकांक्षाएं हासिल कर ली थी – किस मकसद के लिए? एक बार जीवन और सम्पदा को तकरीबन परम सुरक्षा मिल गई ... ऐसी परम दुनिया में जहाँ कोई शंका बाकी नहीं रही, रोजगार की समस्या नहीं, समाज में कोई अन-सुलझा प्रश्न नहीं बचा. और एक व्यापक शांति की स्थापना हो गई थी.

यह प्रकृति का एक नियम है जिसे हम अक्सर अनदेखा कर देते हैं, कि बहुमुखी बौद्धिक प्रतिभा एक मुआवजा है – बदलाव का, खतरों का, कठिनाई का. एक पशु जो अपने वातावरण के साथ एकाकार हो चुका है, मशीनता का सर्वोत्तम उदाहरण है. प्रकृति तब तक बुद्धि को आवाज़ नहीं देती जब तक कि आदत तथा सहज-प्रवृत्ति नाकाम न हो जायें. जहाँ किसी प्रकार का कोई बदलाव नहीं है, वहां बुद्धि का काम भी नहीं है. केवल वे प्राणी ही बौद्धिक उपायों का लाभ उठा पाते हैं जिन्हें जीवन में अनेक प्रकार की जरूरतों और खतरों का सामना करना पड़ता है.”

rajnish manga
21-04-2013, 11:24 PM
नज़्म / मेरे हक़ में दुआ करना / परवीन शाकिर

दुआ करना
मिरे हक़ में दुआ करना
बिछड़ते वक्त उसने एक ही फिकरा कहा था
उसे क्या इल्म
मेरे हर्फों से तासीर कब की उठ चुकी है !
दुआ का फूल
मेरे लब पे खिलते ही
अचानक टूट जाता है
मैं किस खुशबु को उसके हाथ पर बांधूं
मुझे खुशबू से डर लगने लगा है !

rajnish manga
21-04-2013, 11:26 PM
नज़्म / ख्वाहिश / सीमा स्वधा

ख्वाहिश
क्या होती है
जाना ही नहीं
ज़िन्दगी में.
गर लिखी थी
नसीब में
पत्थर की ठोकरें,
फूलों की ख्वाहिश
की भी होती
तो क्या पाते !!

jai_bhardwaj
22-04-2013, 07:04 PM
धीरे से सरकती है रात, उसके आँचल की तरह
उसका चेहरा नज़र आता है झील में कँवल की तरह

बाद मुद्दत उसको देखा तो जिस्मोजान को यूँ लगा
प्यासी ज़मीं पे जैसे कोई बरस गया बादल की तरह

रोज कहता है सीने पे सर रख के रात भर जगाऊँगा
सरेशाम ही मुझे आज फिर सुला गया वो कल की तरह

मेरे ही दिल का निवासी निकला वो शख्स "वासी"
और मैं शहर भर में ढूँढता रहा उसे किसी पागल की तरह

--वासी शाह

rajnish manga
22-04-2013, 11:44 PM
धीरे से सरकती है रात, उसके आँचल की तरह
उसका चेहरा नज़र आता है झील में कँवल की तरह

बाद मुद्दत उसको देखा तो जिस्मोजान को यूँ लगा
प्यासी ज़मीं पे जैसे कोई बरस गया बादल की तरह

रोज कहता है सीने पे सर रख के रात भर जगाऊँगा
सरेशाम ही मुझे आज फिर सुला गया वो कल की तरह

मेरे ही दिल का निवासी निकला वो शख्स "वासी"
और मैं शहर भर में ढूँढता रहा उसे किसी पागल की तरह

--वासी शाह

बहुत सुन्दर, जय जी. एक कोमल भाव भूमि पर आशाओं - उम्मीदों के भरोसे बनायी गई दुनिया की मायावी हकीक़त का बयान करती कवि की वाणी.

rajnish manga
25-04-2013, 12:12 AM
कॉलेज का अंतिम दिन
(16/5/1973 की डायरी का एक अंश)

कल फाईनल एग्जाम के बाद प्रेक्टिकल भी समाप्त हो गए. लगा कि सिर से एक बोझ उतर गया है. शाम को जब त्यागी के कमरे में ब्रिज, सलाहुद्दीन, और मैं बैठे हुए थे तो मन कुछ ऐसी घाटियों में भटक गया पीछे छूटती जाने वाली राहों की याद से ही मैं आद्र हो उठा. प्रेक्टिकल्स की समाप्ति पर ऐसा न महसूस न हुआ था. आज यह सोच कर कि अब उन सभी साथियों से बिछड़ना होगा जिनके साथ मैंने विगत दो वर्ष गुज़ारे. आज लगा कि ये दो वर्ष जैसे दो दिनों में ही व्यतीत हो गए हों. कहने को कह सकता हूँ कि क्या पाया है मैंने उनसे? लेकिन सच्चाई यह है कि जो कुछ मैंने उनसे पाया है उसे सहेज पाने तक की ताकत मुझ में नहीं है. इन दो वर्षों में स्नेह, मिलन-बिछुडन, घुटन, कटूक्तियां, मुक्त-हास्य, मज़ाक आदि के इतने विविध रूप देखे हैं और इन सब का मुझ पर इतना भारी प्रभाव पड़ा है कि इन सब से अलग होकर स्वयं को देख पाना लगभग असंभव सा लगता है.

लेकिन मेरे पास क्या प्रमाण है? प्रमाण है वह टीस, वह पीड़ा जो कल रात अकस्मात् मेरे नेत्रों को भिगो गई. और मैं इस मंज़र पर खड़ा खड़ा फिर से न जुड़ने वाले, पीछे छूट जाने वाले कारवाँ के बारे में सोचने लगा और अपने हमराहियों की परछइयां पकड़ने की नाकाम कोशिश करता रहा. मैं नहीं जानता कि वे सब भी उसी उद्वेलित मन:स्थिति से गुज़र रहे होंगे अथवा नहीं. देर रात तक जागता रहा. एक गीत की पंक्तियाँ बार बार याद आती रहीं –

खुश रहो साथियो, तुम्हें छोड़ कर हम चले
तुम्हें छोड़ कर हम चले, हमें छोड़ कर तुम चले,
खुश रहो साथियो, तुम्हें छोड़ कर हम चले

आज मुझे वह दिन भी याद आया जब मैं डी.ए.वी.कॉलेज देहरादून में पढ़ने के लिए आया था. उस दिन मुझे घर की और आत्मीयों की बहुत याद आई थी. उस दिन नए माहौल की घबराहट निम्नलिखित गीत के माध्यम से स्वतः व्यक्त हो उठी थी –

घर से चले थे हम तो ख़ुशी की तलाश मैं,
खुशी की तलाश में,
ग़म राह में खड़े थे वही साथ हो लिए ...
******

rajnish manga
10-05-2013, 01:33 PM
निम्नलिखित शे’र आपकी सेवा में प्रस्तुत हैं:

भूला नहीं मैं आज भी आदाबे जवानी
मैं आज भी औरों को नसीहत नहीं करता.
(शायर: क़तील शिफ़ाई)

या तो दीवाना हँसे या तू जिसे तौफीक़ दे
वरना इस दुनिया में आके मुस्कुराता कौन है.
(शायर: ज्ञात नहीं)

कल वो कश्ती भी था, पतवार भी था माझी भी
आज एक एक से कहता है बचा लो मुझको .
(शायर: ज्ञात नहीं)

rajnish manga
10-05-2013, 01:36 PM
निम्नलिखित शे’र आपकी सेवा में प्रस्तुत हैं:

सरे महशर हमारा खून ‘बिस्मिल’ रंग लाएगा
अगर दो चार धब्बे रह गए कातिल के दामन पर
(शायर: बिस्मिल)

आज अगर रास भी आ जाये तो होता क्या है
कल बदल जायेगी दुनिया का भरोसा क्या है.
(शायर: मुज़तर इंदौरी)

मैं उनकी महफिले इशरत से कांप जाता हूँ
जो घर को फूंक के दुनिया में नाम करते हैं.
(शायर: इक़बाल)

rajnish manga
10-05-2013, 01:39 PM
राजस्थानी लोक कथा
ईमानदार डकैत

यह उस ज़माने की बात है जब बलजी-भुर्जी के नाम से राजस्थान का ज़र्रा ज़र्रा खौफ खाता था. बलजी-भुर्जी का गिरोह डकैती के लिए जितना कुख्यात था, उससे कहीं ज्यादा अपने नियमों के लिए जाना जाता था. बलजी भुर्जी की इस धाक को देख कर एक अन्य डकैत नानिया के मन में उससे फ़ायदा उठाने की इच्छा पैदा हुयी. वह जब तब किसी असहाय को लूट लेता और खुद को बलजी बताता. भय से लोग चुप रह जाते ... पर चौंकते अवश्य कि आखिर बलजी भुर्जी की मति को क्या हो गया है !

सेठ खेतसीदास पौद्दार बेहद सज्जन और दयालु प्रवृत्ति के इंसान थे. इधर एक बढ़िया नस्ल का ऊंट सेठ जी खरीद कर लाये थे. एक दिन सेठ जी अकेले ही ऊँट की सवारी कर रहे थे. सर्दी के सिहरन भरे दिनों में एक गरीब बूढ़े को देख कर जो उनसे रुकने की प्रार्थना कर रहा था सेठ जी रूक गए.

सेठ जी ने ऊँट को बैठने का संकेत किया. उन्होंने उस व्यक्ति को भी ऊँट पर बिठा लिया. कुछ दूर ही आगे चले होंगे कि सेठ जी को जोर का धक्का लगा और वे जमीन पर आ गिरे. क्षण भर को सेठ जी चौंके लेकिन यह देख कर उन्हें हैरानी और डर भी लगा कि जिसे उन्होंने दया कर के अपने साथ बिठाया था वह एक डाकू था. अब वे क्या करते. उन्होंने स्वर का नाम पूछा तो उसने कहा कि वह बालजी-भुर्जी का आदमी है. सेठ जी ने उस व्यक्ति से प्रार्थना की कि वह इस घटना का ज़िक्र किसी से न करे वरना लोग किसी पर भरोसा नहीं करेंगे और गरीबों की मदद के लिए आगे नहीं आयेंगे.

बात को दबाये रकने की कोशिश सेठ जी ने तो बहुत की लेकिन किसी प्रकार इस घटना की जानकारी बालजी-भुर्जी को लग गई कि सेठ जी का ऊँट नानिया रूंगा के पास है.

धीरे धीरे सेठ जी के दिमाग़ से यह घटना निकल गई. पर एक रोज वह चौंक गए. घर के दालान में ऊँट बंधा दिखाई दिया, वही ऊँट जिसे डाकू ले गया था. पास जा कर देखा तो उसके गले में एक तख्ती बढ़ी थी और लिखा हुआ था,
“सेठ खेतसी दास को बलजी-भूरजी की भेंट .. हम डाकू हैं पर धोखेबाज कतई नहीं!”

चौंकाने वाली बात तो यह थी कि जो आदमी ऊँट ले गया था वह बालजी भूरजी का आदमी नहीं था. सेठ जी इसी सोच में डूबे थे कि किसी ने बताया,
“झूंझनू के के पास की पहाड़ी की तलहटी में नानिया रूंगा की लाश पड़ी है!”

सभी समझ गए कि असली डकैत कौन था.
**

rajnish manga
10-05-2013, 01:41 PM
मिसिज़ चार्ल्स डिकन्स का पहला खत
(अमृता प्रीतम की कहानी ‘मैं कैथरीन’ से)

चार्ल्स ! तुम्हारी मौत की खबर सुन कर आज मलिका विक्टोरिया ने मुझे अफ़सोस का तार भेजा है – मुझे मिसिज़ चार्ल्स डिकिन्स को – अगर मलिका विक्टोरिया तुम्हारे जीवित रहते ‘बेरोनेट’ की पद्वी दे देती, जैसी कि हवा में यह खबर थी, तो मैं लेडी डिकिन्स भी कहला सकती थी ... पर कुछ भी कहने से या कहलवाने से क्या होता है ... मैं जानती हूँ चार्ल्स ! मेरा विवाह कभी तुमसे नहीं हुआ था. मैं गिरजे के उस पादरी को झुठलाती नहीं जिसने विवाह की रस्म निबाही थी, मैं केवल यह कहना चाहती हूँ कि मेरा विवाह तुम्हारे एक हाथ की तीसरी ऊँगली से हुआ था ...
तुम्हारे हाथ की तीसरी ऊँगली ... जिस पर सारी उमर वह अंगूठी पड़ी रही, जो मेरी बहन ‘मेरी’ ने मरते समय तुम्हें दी थी. मर चुकी बहन के जिंदा इश्क को मैंने अपना लिया था और तुम्हारी तीसरी ऊँगली को, समेत उस अंगूठी के, अपनी ज़िन्दगी का साथी माँ, मैंने अपनी कोख में से दस बच्चों को जन्म दिया ... छोटे छोटे डिकन्स ... छोटे छोटे ब्याज ...
हर ब्याज का कोई मूलधन होता है, यह मूलधन अगर मर्द और औरत के आपसी प्रेम का हो, तो वर्षों इस्तेमाल करने के बाद भी ख़त्म नहीं होता. पर यह धन अगर किसी के एक पक्षीय प्रेम का हो ? ...
**

rajnish manga
10-05-2013, 01:44 PM
राजेन्द्र सिंह बेदी प्रसंग
बेदी : औरत के लिए ...

पता नहीं ये मेरी पिछले जनम की माँ है (अपनी बहु वीना के लिए) मेरी इतनी सेवा करती है. मेरी बेटियाँ, मेरी बहन, मेरी बहू, ये सब कितनी अच्छी हैं. ये औरत बड़ी अच्छी चीज है. ये भूल चुकी हैं कि मैंने ज़िन्दगी में क्या क्या गलतियां की हैं. पद्मा जी, अगर मैं बच गया तो औरत पर बड़ा कुछ लिख सकता हूँ. औरत की दया, उसकी ममता, उसकी अच्छाई से मैं इतना भर गया हूँ. मेरी बहन एक ही है. मुझसे काफी छोटी. उसके लिए जो कुछ मैंने किया था वो उसने मुझी पर कुर्बान कर दिया. ये औरत सिर्फ देना जानती है, लेती कुछ नहीं.
(सन्दर्भ: दीवानखाना)
**

rajnish manga
10-05-2013, 01:47 PM
लघु कथा / राजा
(लेखक: राम स्वरुप दीक्षित)

राजमाता सत्यवती के समक्ष गंगापुत्र भीष्म ने प्रस्ताव रखा कि राजा की सभी योग्यताओं को देखते हुए पांडू को हस्तिनापुर नरेश बनाया जाये. भीष्म के इस प्रस्ताव का समर्थन करने के बजाय नीतिज्ञ विदुर ने कहा, “गंगापुत्र का प्रस्ताव ठीक है, पर नीति के अनुसार पांडू राजा नहीं बन सकते. क्योंकि ये खुली आँखों वाले हैं. ये देख सकते हैं और आप लोग तो जानते हैं कि हस्तिनापुर को आज आँख वाले राजा की आवश्यकता नहीं है.”

माता सत्यवती सहित सब ने विदुर की बात का समर्थन करते हुये धृतराष्ट्र को हस्तिनापुर नरेश बना दिया.
**

rajnish manga
11-05-2013, 11:48 PM
बनिया और प्रोफ़ेसर
(लेखक: कन्हैया लाल ‘सरस’)

कलकत्ते में एक बार खादी प्रदर्शनी लगाई गई जिसका उदघाटन गाँधी जी ने किया था. इस अवसर पर उन्होंने वहां उपस्थित लोगों से कहा,
“आज जो भी खादी खरीदेगा उसका कैश मीमो मैं स्वयं बनाऊंगा.” गाँधी जी का इतना कहना था कि खरीदारों की बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गई. थोड़ी ही देर में ढाई हजार रूपए की खादी बिक गई.
उस वक़्त वहां आचार्य कृपलानी भी उपस्थित थे. वे मुस्कुराते हुए बोले,
“लेना-देना कुछ नहीं, बनिए ने ढाई हजार मार लिए.”
“भला गाँधी जी कब चूकने वाले थे. तुरन्त चुटकी लेते हुए बोले,
“यह काम मेरे जैसे बनिए ही कर सकते हैं. आप जैसे प्रोफ़ेसर नहीं.”

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11-05-2013, 11:49 PM
दो पीढियां
(लेखक: इबादुर रहमान)

जब मैं प्राइमरी स्कूल में पढ़ा करता था, तभी की याद है. बरसात में कभी स्कूल जाते या लौटते समय वर्षा होने लगती थी, तब हम अपने अपने बस्तों को अपनी कमीज में छिपा लेते थे, जिससे कि हमारी कापियां या किताबें भीग कर नष्ट न होने पायें. इस प्रयास में हम स्वयं भीग जाया करते थे.
और ऐसी ही बरसात में एक दिन मेरा बेटा स्कूल से वापस आया. उसका बस्ता बुरी तरह भीगा हुआ था, लेकिन उसके कपड़े और सर सुरक्षित थे. उसने पास आ कर बड़े ही गर्व से कहा, “पापा .. पापा .. मैंने वर्षा से बचने के लिए अपना स्कूल बैग सिर पर रख लिया था. देखो, मैं बिलकुल नहीं भीगा हूँ. अब मुझे सर्दी नहीं लगेगी न?”
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11-05-2013, 11:51 PM
लघुकथा / अपनी अपनी भूख
(लेखक : सुबोध कुमार श्रीवास्तव)

बच्चे ने माँ से कहा,
“माँ, अब मैं बड़ा हो रहा हूँ. मुझे भूख अधिक लगने लगी है. चार रोटियों से अब मेरा पेट नहीं भरता. मैं एक रोटी और भी खा सकता हूं.”
दूसरे दिन मां ने बेटे की थाली में एक रोटी और परोस दी. बेटे ने भरपेट खाना खाया. लेकिन जब मां खाना खाने बैठी तो उसकी थाली में दो की जगह एक रोटी देख कर बेटे ने पूछा,
“मां, तुम आज एक रोटी कम क्यों खा रही हो?”
मां ने बेटे को समझाते हुए कहा,
“अब मैं बूढी हो रही हूँ, मेरी भूख भी कम हो गई है. अब एक रोटी खाने पर ही मेरा पेट भर जाता है.”
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13-05-2013, 01:29 PM
लघु-कथा
शहीद
(लेखक: रमाकांत)

सरकार और विद्रोहियों के बीच लड़ाई चल रही थी.

विद्रोही आलाकमान की ओर से संदेशवाहक कूटभाषा में लिखा गुप्त सन्देश ले कर विद्रोहियों के दूसरे ठिकाने के लिए रवाना हुआ.
भेदियों से खबर मिलने पर उसे सरकार की पुलिस ने घेर लिया. सन्देश को पुलिस के हाथ में पड़ने से बचाने के लिए संदेशवाहक ने जान की बाजी लगा दी. लेकिन वह अकेला इतनी फ़ोर्स के आगे कब तक टिकता.

पुलिस की गोलियों से छलनी हो कर वह गिर पड़ा. बहादुर हरकारे की लाश से बरामद कागज़ पढ़ा गया
लिखा था –

“सन्देश ले जाने वाला गद्दार है. उसे देखते ही ख़त्म कर दो.’

लेकिन यह सन्देश अब पुलिस के कब्जे में था –

अपने गद्दार साथी को विद्रोहियों ने शहीद घोषित किया.
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13-05-2013, 01:31 PM
लघुकथा / तलाश
(लेखक: राकेश रंजन)

चौराहे पर एक व्यक्ति का खून हो गया था. सहमी भीड़ से पुलिस इंस्पेक्टर ने पूछा,
“आप में से किसी ने कातिल को देखा है?”
एक दुबले पतले नौजवान ने भीड़ से निकल कर कहा,
“मैंने देखा है. उसने इसका पेट फाड़ दिया और मोटर साइकिल पर स्वर हो कर भाग गया.”
“क्या तुम उसे पहचानते हो?”
“नहीं, लेकिन अगर वह फिर दिख जाए तो पहचान लूँगा.” नौजवान ने बताया.
दूसरे दिन शाम को, उसी चौराहे पर उस नौजवान के पेट में किसी ने छुरा भोंक दिया. पुलिस-इंस्पेक्टर फिर किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश में था, जिसने इस हादसे को अपनी आँखों से देखा हो.
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15-05-2013, 10:03 PM
एक आदिम ईश्वर की हत्या
(कवि: कुमार विकल)

मैंने सोचा था एक छोटे से घर में
साधारण आकांक्षाओं के बीच
ज़िन्दगी गुज़ार दूंगा,
और उस आदमी की हत्या के बारे में भूल जाऊंगा
जो मैंने की तो नहीं
किन्तु एक अपराध-भावना से पीड़ित हूँ
कि शायद उस हत्या में मेरा भी कहीं हाथ था.
वह आदमी कौन था, नहीं जानता
किन्तु उसकी प्रेतात्मा ने
मेरे विरुद्ध एक षडयंत्र रचा हुआ है
मेरे घर को भूतेला खंडहर बना दिया
मेरी आकांक्षाओं पर
प्रेतों के चेहरे लगा दिए
और जब कभी सोते में
खुरदरी हथेली के दबाव से जाग उठता हूँ
तो एक क्षण के लिए महसूस होता है,
कि एक वेगवती काली नदी के बहाव में
मेरा शरीर डूबता जा रहा है.
मैं – जैसे कोई अशरीरी अस्तित्व
अंधे जल की गहराई से गुदगुदाता है
और अपनी समूची जिजीविषा को
साक्षी मान कर कहता है
कि अपनी चेतन अवस्था में
मैंने कोई हत्या नहीं की
हाँ, कभी मेरे किसी पूर्वज ने
एक आदिम ईश्वर की हत्या जरूर की थी.
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15-05-2013, 10:05 PM
मिस्र की एक कथा / पूर्व सूचना
(पुनर्कथन: शिव रैना)

मिस्र का एक शासक एक रात स्वप्न में तैरता हुआ नील नदी पार कर गया. सुबह नींद टूटते ही उसने स्वयं को विश्व का सर्वश्रेष्ठ तैराक घोषित करवा दिया और इस सिलसिले में एक भव्य समारोह का आयोजन कर डाला. मंत्री, प्रजा और दूसरे लोग चकित थे. उन्हें शासक की बुद्धि पर तरस आ रहा था. एक लोकप्रिय जादूगर को इस अनोखे समारोह का पता चला तो वह तुरन्त शासक की सेवा में उपस्थित होकर नम्र स्वर में बोला,
“प्रजापति, आपने कौन सी नील नदी तैर कर पार की थी.
“तू पागल हो गया है क्या,” शासक दहाड़ा,”नील नदी मिस्र में एक ही है.”
लेकिन महाराज, यह नील नदी तो पिछले तीन दिन से सूखी पड़ी है!” उसने हाथ मलते हुए कहा. उसने दृष्टि-भ्रम जादू का सहारा लिया था. सिंचाई मंत्री ने उसका समर्थन किया.
शासक ने तुरन्त नील नदी का निरीक्षण किया. नदी सचमुच सूखी पड़ी थी. कीचड़ ही कीचड़ नज़र आ रहा था.
शासक ने दरबार में लौटते ही घोषणा की,
“सिंचाई मंत्री का सर कलम कर दिया जाए! अगर मंत्री हमें नदी के सूखने की पूर्व-सूचना दे देता तो हम तैर कर हरगिज़ पार करने न जाते.”
फांसी के समय जादूगर ने शासक से विनम्र निवेदन किया,
“प्रजापति, अब नील नदी पानी से लबालब भर गई है. कृपया सिंचाई मंत्री को क्षमा कर दीजिये और बेशक नदी को तैर कर पार कीजिये.”
उस दिन लोगों ने सांस रोक कर एक लोमहर्षक दृश्य देखा.
जादूगर और सिंचाई-मंत्री को एक साथ नदी में डुबाया जा रहा था.
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19-05-2013, 12:06 AM
3 अक्टूबर 1977 की डायरी का एक अंश

आख़िरी झोंपड़ी

“समकालीन भारतीय साहित्य” के अंक 70 (मार्च-अप्रेल 1997) में केशव रेड्डी का सम्पूर्ण उपन्यास “आख़िरी झोंपड़ी” छपा है. बहुत दिनों बाद इस उपन्यास के रूप में अच्छा कथा साहित्य पढ़ा. पढ़ा इसलिए कि रचना बहुत ही सशक्त बन पड़ी है. इसमें वर्णन किया गया है आन्ध्र प्रदेश में रहने वाली यानादी जाति का. इसमें वहां रहने वाले एक व्यक्ति मानव या मनुवा की कहानी बतायी गई है जिसकी जमीन को नंबरदार ने झूठा इलज़ाम लगा कर हड़प कर लिया है. इसी तरह उसने अन्य यानादियों की जमीन पर भी धोखे से कब्ज़ा कर लिया था. सब लोग धीरे धीरे वहां से चले गए लेकिन मनुवा वहीँ रह गया.

कहानी में पात्रों के रूप में नम्बरदार और मनुवा के अलावा एक बाबा, मनुआ का छोटा लड़का छोटू (वह डरपोक है लेकिन शरीर से हट्टा-कट्टा है) तथा एक कुत्ता राजी है. कहानी के अंत में नम्बरदार मनुवा को यानादी टीले के खेतों से चूहे निकालने के लिए (जो खेती खा जाते हैं) कहता है. मनुवा और उसका बेटा रातभर चूहे निकालने का काम करते हैं और फिर वापिस आ जाते हैं और आमदनी होने की खुशी में उत्सव मनाते हैं. उसी रात नम्बरदार के खेत में तीन एकड़ धान की तैयार फसल काट ली जाती है. नम्बरदार का शक मनुवा पर है और वह उसकी डंडे से बहुत पिटाई करता है. वह मरणासन्न है (चोटों के कारण अन्ततः मारा जाता है). बाबा कुत्ते को नम्बरदार पर हमला करने के लिए उकसाता है. नम्बरदार का गला कट जाता है और वह मर जाता है. यह देख कर छोटू वहां से भाग जाता है और पेड़ से लटक कर आत्महत्या कर लेता है. इधर 15 दिन तक कुत्ता भी रोता रहता है, कुछ खाता नहीं. किसी को काट लेता है. इस पर लोगों ने उस मरियल प्रायः कुत्ते को पत्थरों की चोटों से मार दिया. बाबा भी वहां से चला जाता है. झोंपड़ी भी आंधी, बारिश और धूप से अपना बचाव न कर पाने के कारण गिर जाती है. अंत में एक खौफनाक मौन सारे वातावरण को अपने आगोश में ले लेता है.
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30-05-2013, 12:27 PM
ग़ज़ल
(शायर: फैयाज़ हाशमी)

न तुम मेरे, न दिल मेरा, न जाने-नातवां मेरी
तसव्वुर में भी आ सकती नहीं मजबूरियाँ मेरी

न तुम आये न चैन आया न मौत आयी शबे-वादा
दिले-मुज़्तर था, मैं था और थी बेताबियाँ मेरी

अबस नादानियों पर आप अपनी नाज़ करते हैं
अभी देखी कहाँ हैं आप ने नादानियां मेरी

ये मंजिल ये हसीं मंजिल जवानी नाम है जिसका
जहां से आगे-आगे बढ़ना है उम्रे - रवां मेरी

(इस ग़ज़ल की रिकॉर्डिंग सन 1940 के आसपास गायिका कमला झरिया के स्वर में की गयी थी. यह ग़ज़ल ‘यू ट्यूब’ पर सुनी जा सकती है)

rajnish manga
30-05-2013, 12:51 PM
मेरी डायरी का एक पन्ना (26/09/1995)

टी.वी. कार्यक्रमों का आज यह हाल है कि देखने वाला टी.वी. के सामने बैठा हुआ लगातार चैनल बदलता रहता है. कारण है - मल्टी-चैनल प्रोग्रामिंग की सुविधा और रिमोट-कंट्रोल का साथ. मेरा ख्याल है कि यदि आप आधा घंटे से अधिक, बिना चैनल को बदले, किसी प्रोग्राम को देखते हैं तो उसमें अवश्य ही कोई ख़ास बात होनी चाहिए. एक ऐसे समय जबकि कोई चैनल लगातार 5 मिनट से अधिक नहीं देखा जा रहा, वहां यह एक उपलब्धि से कम नहीं. ऐसे कार्यक्रम के निर्माता – निर्देशक – पात्र – संयोजक अवश्य ही बधाई के पात्र हैं.

कल शाम को दिखाई गयी फिल्म “रावण” इसी श्रेणी में गिनी जायेगी. पी.टी.वी. के कार्यक्रम “या मोहिउद्दीन”, बेनजीर भुट्टो से करन थापर द्वारा लिया गया इंटरव्यू, “तारिक़ अज़ीज़ शो”, “लोलीवुड टॉप 10” अच्छे कार्यक्रम बन पड़े हैं. हमारे अपने टी.वी. कार्यक्रमों में “चन्द्रकान्ता”, “नमस्ते इंडिया”, “बॉर्नवीटा क्विज़ कॉन्टेस्ट” विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं. इसके अतिरिक्त समाचारों से जुड़े सभी कार्यक्रम यथा – “आजतक”, “tonight”, “newstrack”, “घूमता आईना”, “eye-witness”, “insight”, और विनोद दुआ द्वारा एंकर किया हुआ प्रोग्राम “परख”.

लेकिन अच्छे कार्यक्रमों में भी कुछ नाम सबसे ऊपर तैर कर आ जाते है जैसे “सुरभि” (जिसके 190 के करीब एपिसोड हो चुके हैं), ज़ी टी.वी. का कायक्रम “आप की अदालत”, एल.टी.वी. का कार्यक्रम “रु-ब-रु” आदि.
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rajnish manga
15-06-2013, 10:32 PM
लघुकथा / संवेदना
(लेखक: विष्णु प्रभाकर)

सदा की तरह गाड़ी स्टेशन पर रुकी ही थी कि नाना रूप भिखारी न जाने कहाँ से आ कर खिडकियों के सामने खड़े हो गये.एक अर्धनग्न लड़की वैसे ही अर्धनग्न और बदरूप लड़के को लिए ठीक मेरी खिड़की के नीचे गिड़गिड़ा रही थी. बार बार डांटने पर भी जाने का नाम नहीं ले रही थी. हाय राम, कब पीछा छूटेगा इन बदबख्तों से! कैसी ढीठ है! चुम्बक की तरह चिपकी है खिड़की से.

तभी एक पुलिस का सिपाही वहां आया और उस लड़की की चोटी खींचता हुआ उसे दूर घसीट ले गया. वह चीख उठी. गोद के बच्चे के क्रंदन से तो जैसे आकाश भर उठा हो.

सहसा मेरे अंतर को इक हूक सी चीर गयी. मेरी आँखें भर आयीं और मैं उस सिपाही को गालियाँ देने लगा.
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rajnish manga
15-06-2013, 10:35 PM
संस्मरण-कथा अंश / अधमरा कलकत्ता
(लेखक प्रभाकर माचवे)

नोट: यह कथांश सन 1983 के आसपास के कलकत्ता का चित्रण करता है, वैसे आज भी शहर के नाम के अलावा कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया है.

मैं साढ़े छः साल कलकत्ता रह कर छोड़ने से पहले बेंक गया तो बंगाली बाबु ने पूछ ही लिया,
“कलकत्ता मरता हुआ शहर है, इसके बारे में आपका क्या ख्याल है?”

......मैं भी एक चुटकुला सुना कर चलने लगा. पर यंग बंगाली कहाँ मानने वाला था. बोला,
“आपको नहीं लगता कि हम बंगाली भारत के सबसे अधिक कल्चर्ड (सुसंस्कृत) लोग हैं? वह मुझसे प्रमाणपत्र चाहता था...

.... घर तक आते आते मेरे सामने कलकत्ता के कई दृश्य उभर आये – भयानक, अच्छे, खराब, अत्यंत उदात्त, अत्यंत घृणित और मैं इस ‘मरता क्या न करता’ वाली गुत्थी में उलझ गया. कूड़े के ढेर से अन्न बटोरने, जूठे दोने चाटने वाले भिखारी और सवा लाख फूटपाथ पर ही जन्म ले कर, बच्चे जन कर मर जाने वाले लोगों के साथ साथ ‘सातूखोर (सत्तू खाने वाले) बिहारी रिक्शे वाले याद आये, जिनके लिए निराला ने लिखा था – आदमी जहां बैल घोड़ा है. इसी सुसंस्कृत (?) नगर में साठ हजार से ऊपर आदमी को ढोने वाले ऐसे आदमी खींचने वाले रिक्शे हैं, जिनके बारे में अशोक चक्रधर की छोटी सी कविता प्रसिद्ध है –

रिक्शेवाले के पैरों में पट्टी बंधी थी,
मैंने पूछा तू रिक्शा कैसे चलाएगा?
वह बोला “बाबु जी, रिक्शा पैर से नहीं पेट से चलता है.”

rajnish manga
15-06-2013, 10:36 PM
.... सौभाग्य या दुर्भाग्य, मैं कलकत्ता में सभी भाषा समूहों, जातियों, प्रजातियों के ऊंचे से ऊंचे (यानि पढ़े लिखे, पाश्ताटी शिक्षा प्राप्त धनवान, यशवान) तबको से ले कर गलीज़ गन्दी बस्तियों, वेश्याओं के मोहल्लों, शराबियों के अड्डों, चंदुखानो, भैराविओं और कापालिकों के मठों और बहुत मजबूर निम्न-मध्यमवर्ग के मास्टर-कलाकार किस्म के लोगों के बीच गया हूँ. यह मेरी जिज्ञासा रही है. अज्ञेय की ‘जीवनी शक्ति’ कहानी ‘विशाल भारत’ में 1938 में छपी थी – तब से अब तक आंकड़े उलट गये हैं, 38 की जगह 83, पर हालात बेहतर नहीं हुये. नेता आये, नेता गये. लेक्चर झाड़ गये, लेक्चर बिछाए गये, लेक्चर समेत लिए गये. पार्टियां बनी, टूटीं, फिर बनी. वह मनुह्य की आदिम जिजीविषा बराबर उसे नचाये चली जा रही है: दुर्गा मां – रक्षा करो ! – कराल, दुष्टु, महिषासुरमर्दिनी सिंह वाहिनी त्रिनेत्र धारिणी शक्ति – अद्भुत है तेरी लीला ! तू कहाँ नहीं प्रकट हो जाती है !
.... नहीं, कलकत्ता मरा नहीं है, अभी भी वह गणेश पाहन के चित्रों में जिन्दा है. अभी वह सत्यजित राय के कैमरे में जिन्दा है. अभी वह मदर टेरेसा के वत्सल करुणांचल में जीवित है. कितने अज्ञात नाम, अज्ञात-परिभाषित साधारण अच्छे लोग यहाँ हैं, जो लाभ-लोभ से परे एक-दूसरे के सुख-दुःख में, आड़े वक्त में काम आते हैं. मैं ऐसे कानों को इकठ्ठा करता रहा. सारा समुद्र खारा नहीं है. कई सोते हां जो ताजे पानी के हैं. कई पोखरों में ऊपर से ही सिवार, फांदो-काई है, वहां कमल भी विहंस रहे हैं.

अधमरा कलकत्ता, उनके लिए है जिनका बैंक एकाउंट चढ़ता-उतरता है ! वह हम जैसे प्रवासियों, सैलानियों को लगता हो, पर जिन्हें वहीँ जन्म लेना, जीना, जूझना, मरना है, उनके लिए निजात कहां है ? बकौल ग़ालिब – “मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाए क्यों ?”

मटियाबुर्ज में वाजिद अलीशाह के वंशज मुशायरे करते हैं. कलकतिया शायर कहते हैं:-

मस्जिदें जलती रही, मंदिरों से बुत बिके,
इसी पसोपेश में हम मार्क्सवादी हो चले !
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rajnish manga
15-06-2013, 11:11 PM
रिवाज (http://kpsaxenaji.blogspot.in/2006/12/blog-post_7752.html)
(लेखक: जयप्रकाश मानस) (http://www.blogger.com/post-edit.g?blogID=5930323570949238435&postID=6953252455547687255&from=pencil)


बात सन् 1970 के आसपास की है। कार्यालय में मेरे सहकर्मी रमेश के विवाह की प्रथम वर्षगांठ के चंद रोज पहले उसके यहाँ बेटी पैदा हुई तो उसने दोनों अवसरों को मिलाकर एक शानदार पार्टी दी। चूँकि रमेश कर्मचारियों का नेता भी था, विभाग में अच्छा प्रभाव था। कार्यालय के सभी ब अधिकारी कार्यक्रम में शामिल हुए तथा उसकी कार्य क्षमता एवं सद्व्यवहार की काफी सराहना की गई । उत्सव हुए मुश्किल से एक सप्ताह ही हुआ होगा कि एक दिन कार्यालय पहुँचा तो पता चला कि रात को रमेश की पत्नी का देहांत हो गया । हम लोग तुरन्त उसके घर रवाना हुए ।

लोग दाह-संस्कार के बाद लौटते समय मासूम छोटी-सी बच्ची के बारे में ज्यादा सोचते रहे । लेकिन एक बात और, जो शायद हम सभी को खटक रही थी वह यह कि दाह संस्कार के दौरान रमेश अनुपस्थित था । बात आई गई हो गई । तीन-चार दिन बाद अचानक जब रमेश का जिक्र आया और फिर वही बात उठी । तब उसके एक अंतरंग साथी ने बताया कि उनके यहाँ रिवाज है कि पति अगर दाह में शामिल होगा तो वह एक वर्ष तक दूसरा विवाह नहीं कर सकता ।

कहना न होगा कि रमेश का दूसरा विवाह एक वर्ष के भीतर हो गया ।
(अंतरजाल से)

rajnish manga
15-06-2013, 11:17 PM
मांग का सिन्दूर
(लेखक: जयप्रकाश मानस)

‘माँ’! तुम क्यों, माथे पर बिंदी और माँग में सिंदूर लगाती हो ? प्रश्न अप्रत्याशित तो न था किंतु आज ही उठ जाएगा उसे बिल्कुल गुमान न था। यद्यपि काफी समय से वह जवान हो रहे बेटे की निगाहों की तीखी-चुभन महसूस कर रही थी लेकिन आज तो उसने दाग ही दिया वह प्रश्न जिससे अक्सर वह आशंकित रहा करती थी।

यह प्रश्न सिर्फ उसके बेटे का नहीं वरन् सारे रिश्तेदार एवं हर उस व्यक्ति की ओर से किसी न किसी बहाने उठता रहा है जिन्हें पता है कि उसके पति की मृत्यु हो चुकी है। इस नेक काम में मोहल्ले के कुछ लोगों का तो यह प्रथम कर्तव्य हो गया था कि प्रत्येक आने जाने को इस रोचक तथ्य से अवगत कराएं कि वह विधवा होकर भी सधवा की तरह रहती । यह कार्य केवल सूचना के स्तर तक ही नहीं रहता था, इसके पीछे उनका मूल उद्देश्य यह छुपा रहता था कि कहीं यह परिवार किसी नये व्यक्ति की सहानुभूति ने पा ले ।

बेटे, अब तुझे मैं क्या बताऊँ कि जिस दिन तेरे बाप को खाट से उतारा गया था तू केवल पाँच वर्ष का था । तेरी बहन उन्हें बस टुकर-टुकर निहारे जा रही थी और तू बाप को सोता समझ कर उन्हें जगाने के लिए ज़िद कर रहा था। लोग न तो तुझे वहाँ तक जाने दे रहे थे और न ही तू मेरे पास आ पा रहा था। उस दिन हमदर्दी दिखाने वाले तो बहुत इकट्ठे हुए थे लेकिन अधकतर लोगों की निगाहों में विधवा की जवानी ही खटकी थी।

उसे याद है कि लाश को कंधा देने वाले पहले व्यक्ति गोपाल बाबू थे,उसके बाद सब कुछ धुँधला गया था । होश आने पर उसने देखा था कि गोपाल बाबू दोनों बच्चों को बहला रहे हैं।

rajnish manga
15-06-2013, 11:21 PM
तब उसे ध्यान आया था कि अभी तक उसके माथे का सिंदूर और चूड़ियाँ ज्यों की त्यों सलामत हैं। शायद बेहोशी की वजह से किसी ने इस ओर ध्यान न दिया हो । पिछला द्दश्य याद आते ही उसे फिर रुलाई फूट पड़ी थी और ज्यों ही उसने हाथ चौखट पर पटकने को उठाया अचानक गोपाल बाबू ने उसे हवा में रोक कर कहा था-

“रहने दो यह सब । चूड़ियाँ टूटने, न टूटने से मरने वाले को कोई फर्क नहीं पड़ता और न सिंदूर पोंछने से उसकी आत्मा को शांति ही मिल जाती है।”

“कैसी बाते करते हैं आप ? यह तो ज़माने की रीति है, यह सब श्रृंगार सुहागिन के लिए ही है और जब सुहाग ही न रहा तो श्रृंगार कैसा ?” वह फिर सिसक उठी थी।

“मैं नहीं मानता कि ये चूड़ियाँ, बिंदी और सिंदूर सिर्फ सुहागिन का ही अधिकार है....”

“आपके मानने न मानने से क्या होता है ? यह तो सदियों पुराना रिवाज़ है। फिर जिनकी बदौलत इनका अस्तित्व था जब वे ही नहीं रहे तो इन चीजों से कैसा मोह ?” वह किसी तरह बोली थी।

“उनकी बदौलत तो और भी कई चीज हैं, यह घर ! ये बच्चे ! क्या तुम इन्हें भी त्याग दोगी ? गोपाल बाबू चुप नहीं हुए थे वे कहते गए, “मैं कहता हूँ छोड़ो इन ढकोसलों को ! तुम सदा की भांति माँग में सिंदूर भरो, बिंदी लगाओ और चूड़ियाँ पहनो । ऐसा करके तुम किसी को आहत नहीं कर होओगी बल्कि इससे तुम्हारा आत्मबल बढ़ेगा इस एहसास के साथ जीने के लिए कि तुम्हारा पति अब भी तुम्हारे साथ है । तुम अकेली नहीं हो जमाने से जूझने के लिए, अपने बच्चों को संवारने के लिए ।”

वह वक्त न तो प्रतिवाद करने का था और न ही उसमें ऐसा करने की शक्ति थी ।

इसके बाद गोपाल बाबू अक्सर हमारे घर आने लगे थे । बच्चों का हाल-चाल पूछते, कोई समस्या होती हो राय देते और चले जाते । पति की पेंशन से काम नहीं चल पा रहा था अतः मोहल्ले वालों के कपड़े सीने लगी, पहले तो लोग झिझके फिर सस्ता और ठीक ठाक सिलने की वजह से धीरे-धीरे आने लगे । बेटी भी काम में हाथ बटाने लगी अतः गृहस्थी किसी तरह चल निकली ।

लेकिन उस दिन तो वह काफी परेशान हो गई थी जब स्कूल से आकर बस्ता पटकते हुए सूजी आँखों से तूने पूछा थे, “माँ गोपाल बाबू यहाँ क्यों आते हैं ? उन्हें मना कर दो, लड़के मुझे चिढ़ाते हैं।” तब तू ज्यादा बड़ा नहीं हुआ था, अतः थोड़ी देर बाद में बहल गया था। लेकिन जानती हूँ कि आज यह संभव नहीं है।

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15-06-2013, 11:24 PM
जब से गोपाल बाबू इस घर में आने लगे पड़ोसियों के ताने पीठ पीछे सुनाई देने लगे थे । मैं सदा ही इसे अनसुना किये रही क्योंकि ताने मेरे परिवार का कवच भी बन गए थे। लोग गोपाल बाबू के रसूख से सही इस घर की ओर आँख उठाने में हिचकते रहे वर्ना तुझे क्या मालूम कि इस शहर वाले हमारी बोटी-बोटी नोंच डालते । मैं तुम सबकी सलामती के लिए जाने किस गर्त में पहुँच जाती और तेरी बहन जो आज सुख से अपने पति के घर में है, कहीं घुँघरू बाँध रही होती ।

अब तुझे क्या समझाऊँ कि पति क्या होता है ? समाज के द्वारा थोपित एक अधिकृत बलात्कारी, जो बस बच्चे पैदा कर सदा बाप होने का दम भरता रहता है ? मेरी नज़र में वह पति कहलाने का कदापि हकदार नहीं है। अरे पति तो वह है जो स्त्री को अपना नाम, इज्जत, एक छत, दो रोटी और बच्चों को जीने की निश्चिंतता दे ।

आज इस समाज में तुम्हें अपने पैरों पर खड़े रहने लायक बनाने वाला, तुम्हारा बाप नहीं है । तुम्हें जानने वाला हर व्यक्ति यही जानता है कि तुम गोपाल बाबू के विशेष कृपा पात्र हो; भले ही तुमने उन्हें कभी पसंद नहीं किया ।

तुमने शायद ही कभी सोचा हो कि कैसे पल-पल धुल कर मैंने तुम लोगों को पढ़ाया, लिखाया, बेटी की शादी की । और तेरी नौकरी ! जिसका तुझे इतना गुमान है, जानता है किसकी बदौलत तेरे पास है ! अगर उस दिन तेरी नौकरी के लिए गोपाल बाबू सेक्योरिटी न भरते तो तू आज भी चप्पलें चटकाता फिरता । मैं सारे रिश्तेदारों के सामने झोली फैला चुकी थी लेकिन हाथ आई थी केवल कोरी सहानुभूति या बहाने । और आज जब तू चार पैसे कमाने लगा हैतो अपनी ही माँ को कटघरे में खड़ा कर रहा है !

तुझे तो शायद यह भी नहीं मालुम कि जिस दिन तेरी बहन का कन्यादान गोपाल बाबू ने लिया उसी दिन से उनकी पत्नी ने अपना कमरा अलग कर लिया था। बीबी की जली कटी से बच कर जरा सकून पाने जब कभी वह यहाँ आते तो तेरी निगाहें उन्हें चैन न लेने देतीं। उन्होंने अपनी सारी खुशियाँ होम कर दी इस घर को उजड़ने से बचाने के लिए किन्तु इस घर ने उन्हें कभी अपना न समझा। वे इधर के रहे न उधर के ।

लेकिन आज जब तूने मूँह खोलकर प्रश्न का नश्तर चला ही दिया है तो जवाब देने में मैं भी हिचकूँगी नहीं । मैं इस प्रश्न के पीछे छुपी तेरी भावनाओं तथा शंकाओं को अच्छी तरह महसूस कर रही हूँ - सुन; “जब पत्नी की मृत्यु के बाद पुरुष को अपने ढंग से जीने देने में समाज को कोई आपत्ति नहीं होती तो औरत के लिए तरह तरह के बंधन क्यों हैं ? उसे अपने ढंग से जीने देने में समाज की भृकुटी क्यों तन जाती है ? यह दोहरा मापदंड क्यों ? नारी को ही क्यों उसके किसी पुरुष के संबंधों को लेकर संदेह की निगाह से देखा जाता है ? क्या इसलिए कि यह पुरुष प्रधान समाज जिसमें सारे नियमों का निर्धारण वह स्वयं करता है, सारी स्वतंत्रता अपने नाम कर स्त्री के पैर दासता की जंजीर से जकड़ कर, अपना स्वामित्व दिखाना चाहता है ?” वह बोलती गई, “मेरे माथे की यह बिंदी, ये चूड़ियाँ और माँग का सिंदूर समाज के नियमों को चुनौती देने की एक अलख है जिसे मैं आजीवन जलाए रखूँगी । और जहाँ तक मेरे और गोपाल बाबू के संबंधों की बात है तो सुन, कुछ ऐसे संबंध भी होते हैं जिन्हें किसी रिश्ते का नाम देना जरूरी नहीं, क्योंकि हर रिश्ते को दकियानूसी समाज ने एक सीमित परिभाषा में बांध रखा है । यह बात तुम चाह कर भी न मानोगे क्योंकि तुम भी पक्षाघात से ग्रसित समाज की वह उंगली हो जो एक बार किसी औरत पर उठ गई तो फिर मुड़ नहीं पाती अन्यथा तुम अपनी माँ से शायद यह प्रश्न न उठाते ।”
(अंतरजाल से)
**

rajnish manga
27-06-2013, 10:30 PM
अपनी करनी पार उतरनी

कहावत का अर्थ यही है कि मनुष्य अपने कर्मो से ही सफलता प्राप्त करता है !जीवन में सफलता के लिए यह जरूरी है कि हम निरंतर परिश्रम करे , लक्ष्य पाने के लिए तत्पर रहे ! व्यक्ति हो अथवा राष्ट्र उसे अपनी मुक्ति के लिए आप ही संघर्ष करना पड़ता है ! कहावत है कि 'आप मरे बिना स्वर्ग नहीं जाया जा सकता' इसी प्रकार स्वयं कर्म किये बिना जीवन में सफल नहीं हुआ जा सकता ! दूसरो के सहारे, परायी बेसाखिओं पर अधिक दूर तक नहीं चला जा सकता ! यदि आप छात्र है तो स्वयं महेनत करनी पड़ेगी ! दूसरोके नोट्स लेकर आप प्रथम नहीं आ सकते ! आप कर्मचारी है तो सफल तभी होंगे जब आप अपना काम कुशलतापूर्वक करना सीख लेंगे दूसरो के सहारे आप कि नौकरी अधिक दिन तक नहीं चल सकती! दूसरे आप की सहायता कर सकते है वह भी कभी कभी, परन्तु जीवन का रास्ता तो स्वयं ही चलकर पार करना पड़ेगा !! मनुष्य अपने कर्मो से देवता भी बन सकता हो और दानव भी !
(संजीव)

rajnish manga
27-06-2013, 10:47 PM
तुम अपनी करनी कर गुज़रो
शायर: फैज़ अहमद फैज़

अब क्यों उस दिन का ज़िक्र करो
जब दिल टुकड़े हो जाएगा
और सारे ग़म मिट जाएंगे
जो पाया है खो जाएगा
जो मिल न सका वो पाएंगे

यह दिन तो वही पहला दिन है
जो पहला दिन था चाहत का
हम जिसकी तमन्ना करते रहे
और जिससे हर दम डरते रहे
यह दिन तो कितनी बार आया
सौ बार बसे और उजड़ गए
सौ बार लुटे और भर पाया
अब क्यों उस दिन की फ़िक्र करो
जब दिल टुकड़े हो जाएगा
और सारे ग़म मिट जाएंगे

तुम खौफ़-खतर से दर गुज़रो
जो होना है सो होना है
गर हंसना है तो हंसना है
गर रोना है तो रोना है
तुम अपनी करनी कर गुज़रो
जो होगा देखा जाएगा.
**

rajnish manga
27-06-2013, 10:49 PM
सच्ची तपस्या
संकलन: रेनू सैनी

मृत्यु के बाद साधु और डाकू साथ-साथ यमराज के दरबार में पहुंचे। यमराज ने कहा, 'मैं आप दोनों के मुंह से ही सुनना चाहता हूं कि आपने अपने जीवन में क्या-क्या किया। पर झूठ न बोलना। यहां असत्य बोलने पर तुम्हारे बचाव की कोई गुंजाइश नहीं है।' यमराज की बात सुनकर डाकू डर गया और बोला, 'महाराज, मैंने जीवन-भर पाप किए हैं। हां, मुझे याद आता है कि एक बार मैंने एक निर्धन को खाना खिलाया था और एक बार एक वृद्धा जख्मी हालत में बुरी तरह तड़प रही थी, तब मैंने उसकी मरहम-पट्टी करवाई थी।'

डाकू की बात सुनकर साधु प्रसन्न होकर बोला, 'महाराज, मैंने तो जीवन भर तपस्या और भक्ति की। अपार कष्ट सहे तब कहीं जाकर मुझे ज्ञान की प्राप्ति हुई। इसलिए मेरे लिए यहां सभी सुख-साधनों का प्रबंध किया जाए।' यमराज डाकू से बोले, 'देखो, तुम्हारा जीवन पापमय रहा है। हालांकि तुमने कुछ पुण्य भी किए ही हैं, इसलिए दंड के रूप में तुम साधु की पूर्ण समर्पण भाव से सेवा करो।' डाकू ने सिर झुकाकर आज्ञा स्वीकार कर ली। यमराज का आदेश सुनकर साधु नाक-भौं सिकोड़ते हुए बोला, 'महाराज, इस दुष्ट के स्पर्श से तो मैं अपवित्र हो जाऊंगा। क्या मेरी भक्ति का पुण्य निरर्थक नहीं हो जाएगा?'

यह सुनकर यमराज क्रोधित होकर बोले, 'यह डाकू अपनी गलती का अहसास कर इतना विनम्र हो गया है कि तुम्हारी सेवा करने को तैयार है और एक तुम हो कि जीवन भर की तपस्या व भक्ति के बाद भी अहंकारग्रस्त ही रहे और यह न जान सके कि सभी व्यक्ति में एक ही आत्म-तत्व समाया हुआ है। यदि व्यक्ति गलती का अहसास कर नेक रास्ते पर चलने लगे तो उसका मार्गदर्शन करना एक साधु का कर्त्तव्य है । किंतु तुम तो मृत्यु के बाद भी गर्व से भरे हुए हो, इसलिए तुम्हारी तपस्या और भक्ति निरर्थक है। तपस्या और भक्ति तभी सार्थक होती है जब वह नि:स्वार्थ और बिना किसी उद्देश्य के की जाती है।'

rajnish manga
27-06-2013, 10:50 PM
परोपकार की भावना
लेखक: रेनू सैनी

गंगा के तट पर एक आश्रम था, जिसमें दूर-दूर से छात्र शिक्षा ग्रहण करने आते थे। गुरु प्रत्येक शिष्य को स्नेह के साथ ज्ञान का पाठ पढ़ाते थे।

उन्होंने प्रत्येक शिष्य से व्यक्तिगत स्तर पर एक रिश्ता बना रखा था। वह उनके सुख-दुख के हर प्रसंग में गहरी रुचि लेते थे। शिष्य भी अपने गुरु से बहुत प्यार करते थे। वे उनकी प्रत्येक आज्ञा का पालन करते थे। एक दिन कुछ शिष्यों को शरारत सूझी। वे गुरु के पास आए और बोले, 'गुरुदेव! हम गांव में एक चिकित्सालय खोलना चाहते है। हम सभी उसके लिए चंदा इकट्ठा कर रहे है। कृपया आप भी कुछ योगदान करें।'

गुरु ने शिष्यों की बात ध्यान से सुनी। फिर शिष्यों की ओर देखा। थोड़ा मुस्कराए और भीतर कुटिया में गए। कुछ ही पलों में लौटकर आए और शिष्यों से बोले, 'मैं तुम्हारी अधिक सहायता तो नहीं कर सकता, हां दक्षिणा में एक बार सोने के कुछ सिक्के मिले थे, जिन्हें आज तक किसी नेक काम के लिए संभालकर रखा था। ये तुम लोग ले लो।' शिष्य वे सिक्के लेकर चले गए। दूसरे दिन सभी शिष्य आश्रम में एकत्रित हुए।

जिन शिष्यों ने गुरु से सिक्के लिए थे, वे भी आए। बातों ही बातों में गुरु से सिक्के लेने की बात सामने आई और यह राज खुला कि कुछ शिष्यों ने मजाक में ऐसा किया है। कुछ वरिष्ठ शिष्यों को यह बहुत बुरा लगा। उन्होंने गुरु को बता दिया कि कुछ शरारती शिष्यों ने उनसे झूठ बोलकर सिक्के लिए हैं। इस पर गुरु ने पहले तो ठहाका लगाया फिर बोले, 'मुझे कल ही पता चल गया था कि वे झूठ बोल रहे है। परंतु उनकी परोपकार की भावना का सम्मान तो करना ही था। उनकी इस भावना का सम्मान करने के लिए ही मैंने उन्हें सिक्के दिए थे। विचार झूठा ही सही, उनमें परोपकार की भावना तो थी ही।' गुरु की बात सुनकर शरारती शिष्यों ने गुरु के चरणों में गिरकर क्षमा मांगी।

rajnish manga
27-06-2013, 10:53 PM
एक चित्र के बहाने
लेखक: निर्मल जैन

यह उन दिनों की बात है, जब प्रख्यात कलाकार माइकल एंजेलो की पूरे यूरोप में चर्चा हो रही थी। उसकी लोकप्रियता देख कर एक चित्रकार उससे ईर्ष्या करता था। सोचता था, लोग मेरा गुणगान क्यों नहीं करते? क्या मैं खराब चित्रकार हूं? क्यों न मैं एक ऐसा चित्र बनाऊं, जिसे देख कर लोग माइकल एंजेलो को भूल जाएं और मैं ही उनकी जुबान पर चढ़ जाऊं।

उसने एक स्त्री का चित्र बनाना शुरू किया। जब चित्र पूरा हो गया तो उसकी सुंदरता का परीक्षण करने चित्र को दूर से देखने लगा। उसमें उसे कुछ कमी लगी। लेकिन कमी क्या थी, समझ में नहीं आई। संयोग से उसी समय माइकल एंजेलो उस तरफ से जा रहा था। उसकी नजर चित्र पर पड़ी। उसे चित्र बहुत सुंदर लगा। पर उसे उसकी कमी समझ में आ गई। उसने उस चित्रकार से कहा, 'भाई, तुम्हारा चित्र तो बहुत सुंदर है। पर इसमें जो कमी रह गई है वो आंखों में खटक रही है।'

चित्रकार ने माइकल एंजेलो को कभी देखा नहीं था। उसने सोचा, यह कोई कला कला प्रेमी होगा। चित्रकार ने एंजेलो से कहा, 'कमी तो मुझे भी लग रही है।' एंजेलो ने कहा, 'क्या आप अपनी कूची देंगे? मैं कोशिश करता हूं।' कूची मिलते ही एंजेलो ने चित्र में बनी दोनों आंखों में काली बिंदियां बना दीं। बिंदियों का लगना था कि चित्र सजीव हो बोलता नजर आने लगा। चित्रकार ने एंजेलो से कहा, 'धन्य है! तुमने सोने में सुगंध का काम कर दिया। मेरे चित्र की शोभा बढ़ाने वाले तुम हो कौन? क्या नाम है ?' एंजेलो ने कहा, 'मेरा नाम माइकल एंजेलो है।'
चित्रकार के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। वह बोला, 'भाई, क्षमा करें। आपकी उन्नति देख मैं जलता था। आपको हराने के लिए ही मैंने यह चित्र बनाया था। लेकिन आज आपकी कला-प्रवीणता और सज्जनता देख कर मैं शर्मिंदा अनुभव कर रहा हूं।' माइकल एंजेलो ने उसे अपना दोस्त बना लिया।

rajnish manga
02-07-2013, 01:21 PM
बापू का गुस्सा
लेखक: मुकेश शर्मा

उन दिनों गांधीजी चंपारण में थे। एक सुबह वह अपनी कुटिया के बाहर बैठकर चरखा कात रहे थे। उनके सामने दो बच्चे खेलते-खेलते एकाएक लड़ने लगे। वे दोनों इतने उत्तेजित हो गए कि एक-दूसरे को भद्दी-भद्दी गालियां देने लगे।

उन छोटे बच्चों के मुंह से गालियां सुनकर गांधीजी को बेहद अफसोस हुआ। उन्होंने आसपास के लोगों से उन दोनों के मां-बाप के बारे में पता किया। फिर उन्होंने एक दिन उनके मां-पिता को बुला भेजा। वे लोग यह जानकर आश्चर्यचकित भी हुए और खुश भी कि उन्हें बापू ने बुलाया है। वे गांधीजी के पास पहुंचे। उन्होंने उन्हें प्रणाम किया। गांधीजी ने उन्हें डांटना शुरू कर दिया।

बच्चों के मां-बाप घबराए। वे सिर झुकाए, खामोशी से सब कुछ सुनते रहे। लेकिन एक बच्चे के पिता से रहा नहीं गया। उसने पूछा- बापू क्षमा करें। हम समझ नहीं पा रहे कि हमसे क्या गलती हो गई है? गांधीजी ने स्थिति स्पष्ट की- सुनो। तुम लोगों के बच्चे यहां खेल रहे थे। अचानक उनमें झगड़ा हो गया और वे एक-दूसरे को गाली देने लगे। इस पर उस व्यक्ति ने कहा- लेकिन इसके लिए आपने हमें क्यों बुलाया? आप उन्हें बुलाकर डांट देते। आपको उन्हें डांटने का पूरा अधिकार है।

गांधीजी बोले- देखो। मैं उन्हें डांट सकता था। पर तब न जब वे दोषी होते। ये गालियां उन्होंने तुम लोगों से ही सीखी होंगी। या कहीं और किसी से भी सीखी हो तो तुम लोगों ने उन्हें सुधारने की कोशिश नहीं की। इसलिए दोषी तुम लोग हुए। डांट तुम्हें पड़नी चाहिए। यह सुनकर बच्चों के अभिभावकों ने सिर झुका लिया।

rajnish manga
02-07-2013, 01:22 PM
सच्ची निष्ठा

विश्वबंधु शवर आखेट की खोज में भटकता हुआ नीलपर्वत की एक गुफा में जा पहुंचा। वहां भगवान नीलमाधव की मूर्ति के दर्शन पाते ही शवर के हृदय में भक्ति भावना का स्रोत उमड़ पड़ा। वह हिंसा छोड़ करभगवान नील माधव की रात दिन पूजा करने लगा।

उन्हीं दिनों मालवराज इंद्र प्रद्युम्न किसी अपरिचित तीर्थमें मंदिर बनवाना चाहते थे। उन्होंने स्थान की खोज केलिए अपने मंत्री विद्यापति को भेजा। विद्यापति ने वापसजाकर राजा के नील पर्वत पर विश्वबंधु शवर द्वारा पूजितभगवान नील माधव की मूर्ति की सूचना दी। राजा तुरंतमंदिर बनवाने के लिए चल दिया। विद्यापति राजा इंदप्रद्युम्न को उस गुफा के पास लाया , किंतु आश्चर्य। मूर्तिवहां नहीं थी।

राजा ने क्रोधित होकर कहा, 'विद्यापति ! तुमने व्यर्थ ही कष्ट दिया है। यहां तो मूर्ति नहीं है। ' विद्यापति ने कहा ,'महाराज मैंने अपनी आंखों से इसी गुफा में भगवान नीलमाधव की मूर्ति देखी है। अवश्य ही कोई ऐसी बात हुई है, जिस से भगवान की मूर्ति अंतर्धान हो गई है। राजन ! आते समय आप क्या सोचते आए हैं ?'राजा इंद प्रद्युम्न ने बताया, 'मैं केवल इतना ही सोचता आया हूं कि अपने स्पर्श से भगवान की मूर्ति को अपवित्र करने वाले शवरको भगा दूंगा और कोई अच्छा पुजारी नियुक्त कर दूंगा। फिर मंदिर बनवाने का आयोजन करूंगा। '

विद्यापति ने बड़ी नम्रता से कहा, 'आपकी इसी मंद भावना के कारण भगवान रुष्ट हो कर चले गए हैं। समदर्शी भगवान जात पात नहीं हृदय की सच्ची निष्ठा ही देखते हैं। ' राजा ने अपनी भूल सुधारी। भगवान से क्षमा मांगी, उनकी स्तुति की और उसी स्थान पर जाकर जगन्नाथ जी के प्रसिद्ध मंदिर की स्थापना कराई।
**

rajnish manga
02-07-2013, 02:41 PM
मैं ने चाहा तो बस इतना
रचनाकार: शिवराम

मैं ने चाहा तो बस इतना
कि बिछ सकूँ तो बिछ जाउँ
सड़क की तरह
दो बस्तियों के बीच

दुर्गम पर्वतों के आर-पार
बन जाऊँ कोई सुरंग

फैल जाऊँ
किसी पुल की तरह
नदियों-समंदरों की छाती पर

मैं ने चाहा
बन जाऊँ पगडंडी
भयानक जंगलों के बीच

एक प्याऊ बनूँ
उस रास्ते पर
जिस से लौटते हैं
थके हारे कामगार

बहता रहूँ पुरवैया की तरह
जहाँ सुस्ता रहे हों
पसीने से तर बतर किसान

सितारा आसमान का
चाँद या सूरज
कब बनना चाहा मैं ने

मैं ने चाहा बस इतना
कि, एक जुगनू
एक चकमक
एक मशाल
एक लाठी बन जाऊँ मैं
बेसहारों का सहारा।

donviz
02-07-2013, 04:03 PM
deleted as spam

rajnish manga
02-07-2013, 10:37 PM
deleted as spam

What is this .... ???

rajnish manga
03-07-2013, 12:01 PM
भाग्य और पुरुषार्थ

भाग्य और पुरुषार्थ एक ही सिक्के के दो पहलू है. कुछ व्यक्ति भाग्य के भरोसे रहते है अर्थात वह अपने पुरुषार्थ पर विश्वास नहीं करते. कुछ लोग पुरुषार्थ पर ही विश्वास करते हैं, भाग्य के भरोसे नहीं रहते. भाग्यवादी दर्शन के कारण कितने भविष्यवक्ता अपना भाग्य बना रहे है. भविष्यवक्ताओं से भ्रमित होकर कई भाग्यवादी अपना वर्तमान और भविष्य खराब कर रहे है. कई लोग जीवन में प्राप्त हो रही असफलताओं के पीछे अपना दुर्भाग्य होना बता रहे है. वास्तव में भाग्य और पुरुषार्थ के सिद्धांतो में से कौनसा सिद्धांत सही है. किस मार्ग का अनुसरण हमारे लिए श्रेयस्कर होगा? इस विषय पर यह हमें यह विचार करना चाहिए कि आखिर भाग्य क्या है ?

भाग्य भगवान् शब्द से बना है, अर्थात जो व्यक्ति भाग्य पर भरोसा करता है उसे भगवान् पर भरोसा करना चाहिए. यदि कोई व्यक्ति भगवान पर भरोसा करता है तो उसे यह बात समझनी चाहिए कि भगवान् कभी अकर्मण्य व्यक्तियों का सहयोगी नहीं हो सकता है. यद्यपि कुछ व्यक्तियों को जीवन में कुछ उपलब्धियां भाग्य के कारण हासिल हुई दिखाई देती है, परन्तु सूक्ष्मता से देखने पर ज्ञात होगा की वह उस व्यक्ति के पूर्व कर्मो का परिणाम है. भौतिक जगत में हमारी दृष्टि व्यक्ति के मात्र वर्तमान जन्म से जुड़े कर्मो को ही देख पाती है जबकि व्यक्ति तो आत्मा और देह का सम्मिश्रण है आत्मा प्रत्येक जन्म में भिन्न भिन्न देह धारण करती है देह की आयु पूर्ण होने पर व्यक्ति का भौतिक स्वरूप देह नष्ट हो जाती है. आत्मा के साथ व्यक्ति के संस्कार और कर्म रह जाते है जो व्यक्ति के भावी जन्मो में उसका भाग्य निर्धारित करते है. इसलिए पुरुषार्थ को भाग्य से भिन्न नहीं माना जा सकता है. क्षमतावान और पुरुषार्थी व्यक्ति सदा आस्तिक रहता है. अर्थात वह एक हाथ में भाग्य और दूसरे हाथ में पुरुषार्थ रख कर कर्मरत रहता है. गीता में इस सिध्दांत को कर्मयोग के रूप में संबोधित किया है. ऐसा व्यक्ति अपना कर्म पूर्ण समर्पण परिश्रम से करता है परन्तु अहंकार की भावना को परे रख कर. स्वयम की कार्य क्षमता को ईश्वरीय कृपा ही मानता है. परिणाम स्वरूप ऐसा व्यक्ति कभी भी दुर्भाग्य को दोष नहीं देता. ऐसे व्यक्ति को ही भगवान् अर्थात भाग्य की कृपा प्राप्त होने लगती है.

rajnish manga
03-07-2013, 12:18 PM
(1) ग़ज़ल
श्री राम नाथ सिंह 'अदम गोंडवी'

मुक्ति का़मी चेतना अभ्यसर्थना इतिहास की
यह समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की।

यक्ष प्रश्नों में उलझकर रह गयी बूढी सदी
क्या प्रतीक्षा की घडी है या हमारे प्यास की।

इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी की आखिर क्या दिया
सेक्स की रंगिनिया या गोलियां सल्फास की।

rajnish manga
03-07-2013, 12:19 PM
(2) ग़ज़ल
श्री राम नाथ सिंह 'अदम गोंडवी'



तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर यह आंकडें झूठे हैं यह दावा किताबी है ।

लगी है होड़ सी देखो अमीरी व गरीबी में
यह पूँजीवाद के ढांचे की बुनियादी खराबी है ।

तुम्हारी मेज चांदी की तुम्हारे जाम सोने के
यहाँ जुम्मन के घर आज भी फूटी रकाबी है ।
(अदम गोंडवी)

dipu
03-07-2013, 02:47 PM
:thinking::thinking::thinking::thinking:


सर अब चेक करे :cheers:

rajnish manga
04-07-2013, 10:13 PM
नारी (आलेख)
(यह आलेख वर्ष 1991 में सर्वप्रथम किरोड़ीमल कालेज की पत्रिका में छपी और उसके बाद कई अन्य पत्र-पत्रिकाओं में इसने प्रवेश पाया था । यह नारी के प्रति मेरे विचारों कि पुष्टि करता है और मुझे उनके उत्थान की ओर कार्य करने को प्रेरित करता है। मैं अपनी पूजनीया माँ को जी-जान से प्रेम करता हूँ और उनके सम्मान में यह आलेख समर्पित करता हूँ।)
जय हिंद । जय भारत।
नारी

न जाने कितने विचारक नारी के विषय में अपने-अपने विचार प्रामाणिकता अथवा बिना प्रमाण के ही समाज के सामने रख चुके हैं। वस्तुतः विचारकों के विचार प्रामाणिकता के बिना भी तर्क की कसौटी पर खरे उतरते हैं।

इस बारे में शास्त्रों में कहा गया है, ”तर्क्यतेऽनेनेति तर्कः प्रमाणम्“ अर्थात् जिसके द्वारा प्रमेय आदि के बारे में बताना उद्देश्य नहीं है। परन्तु इससे यह सिद्ध तो हो ही जाता है कि जहाँ प्रमाण की अपेक्षा है, वहाँ तर्क निराधार हो जाते हैं। किन्तु प्रमाण केवल प्रत्यक्ष हो, यह अनिवार्य नहीं है। अतः सब प्रकार के अनुमान आदि पर भी विचार करना पड़ता है।

एक बार महाकवि भर्तृहरि ने नारी के विषय में अपनी जिज्ञासा शांत करने के उद्देश्य से एक संन्यासी से पूछा, "महात्मन्, नारी क्या है ?"

संन्यासी ने हँसकर कहा - "राजन्, नारी में सब कुछ है और कुछ भी नहीं है। श्रृंगार है उसमें, वैराग्य है, नीति भी ... वह गणिका है, पतिव्रता है, पत्नी है, माँ है, बहिन है, साथी है, आदिशक्ति है और म्लेच्छ भी ... क्या नहीं है।"

पुनः एक बार अत्यंत ज्ञानी राजा भोज ने माघ पंडित से अन्य प्रश्नों के क्रम में एक यह प्रश्न भी पूछा कि संसार में क्षमतावान् कौन है। तब महाज्ञानी पंडित माघ ने बताया कि इस चराचर जगत् में दो ही क्षमतावान् हैं - एक पृथ्वी और दूसरी नारी।

rajnish manga
04-07-2013, 10:14 PM
परन्तु अनादिकाल से ही नारी एक अनबूझ पहेली रही है। एक ओर यह भर्तृहरि की पहली पत्नी अनंगसेना की तरह विश्वासघातिनी है तो दूसरी ओर दूसरी पत्नी पिंगला की तरह पति की मृत्यु का समाचारमात्र पाकर शरीर त्यागने वाली पतिव्रता स्त्री। एक तरफ प्रचण्ड काली विनाश का प्रतीक है तो दूसरी तरफ सौम्य सरस्वती शान्ति का। वस्तुतः देखा जाए तो अत्यन्त प्राचीन काल से ही नारी के विभिन्न रूपों की चर्चा होती रही है। वैदिक काल में नारी का परिवार में बड़ा ही महत्त्वपूर्ण स्थान था। उस समय सृष्टि की रचना में नारी का प्रकृति के रूप में उल्लेख किया गया है। शतपथ ब्राह्मण आदि में स्त्री को अर्द्धांगिनी के रूप में स्वीकारा गया है। महाभारत के आदि पर्व में कहा गया है - "जिनके पत्नियाँ हैं, वे ही धार्मिक संस्कार सम्पन्न कर सकते हैं। जो गृहस्थ हैं और जिनके पत्नियाँ हैं, वे ही सुखी रह सकते हैं।" अर्थात् कोई भी धार्मिक कार्य व अनुष्ठान ‘दम्पति’ के बिना पूर्ण नहीं होते थे। इसलिए तब नारी को हमेशा यथोचित आदर व सम्मान मिलता था, बल्कि उन्हें पूजनीय माना जाता था - "यत्र नार्यास्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः"। अर्थात् जहाँ नारियों की पूजा होती है, वहीं देवताओं का वास होता है। यहाँ तक कि वैशाली की नगरवधू आम्रपाली को भी उतनी ही श्रद्धा मिलती थी, जितनी अन्य नारियों को। परन्तु, तत्कालीन समय में नारी की क्या गति है, यह सर्वविदित है। वस्तुतः यह स्थिति भी कुछ हद तक हमारे पूर्वजों की ही देन है। ब्राह्मण काल में ही या यों कहें कि जब शासन-तंत्र पर ब्राह्मणों का बोलबाला था, नारी की इस स्थिति की नींव रखी जा चुकी थी। वह नींव इतनी गहरी और मजबूत रखी गई थी कि आज तक उसमें दरार नहीं आ सकी।

सर्वप्रथम हमें इस बात को मानकर चलना होगा कि नारी एवं पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं। मंगलकारी शिव की परिकल्पना अर्द्धनारीश्वर के रूप में की गई है। अर्थात् पुरुष एवं नारी एक ही सृष्टि के दो उपादान हैं, जिनके सृजन-तत्त्व प्रमाणतः एक ही हैं। परन्तु, प्रकृति के नियम सर्वथा शाश्वत एवं कठोर हैं। उसकी व्यवस्था के अनुसार नारी एवं पुरुष के कार्य भिन्न-भिन्न एवं शारीरिक संरचना के अनुरूप हैं। यहीं पर पुरुष को अपने पुरुषत्व को उजागर करने का अवसर मिल गया और नारी बंधनयुक्त हो गई। यह बहुत बड़ा प्रश्न है कि इसका कारक कौन है ? इस पर भी विवाद होता रहा है कि नारी का पुरुष से प्रतियोगितात्मक भाव और पुरुष का नारी के प्रति दासत्व का भाव सर्वथा अनुचित एवं अप्राकृतिक है। लेकिन सच यही है कि आज नारी को अपने ही उत्थान के लिए इस पुरुष-प्रधान समाज से लोहा लेना पड़ रहा है। जबकि इतिहास इसका गवाह है कि वह न केवल पूजनीय थी, बल्कि किसी भी मायने में समाज के आधे से कम नहीं थी। यह एक प्राकृतिक सत्य है कि जीव अपनी कमजोरी छिपाता है और उस पर विजय पाने की कोशिश करता है। आज का यह पुरुष समाज भी यही कर रहा है। जहाँ पूरकता का अनुभव होना चाहिए था वहीं प्रतियोगिता का अंदेशा एक कठिन सत्य बनकर उभर रहा है। दहेज-प्रथा, बाल-विवाह, विधवा-प्रथा जैसी अनेक जलती समस्याओं ने नारी को उद्वेलित करने का काम किया है। उसमें समर्थ बनने की ललक ने उसमें आत्मविश्वास को उत्पन्नकिया है। ऐसे में उसे रोकना कठिन होगा। इस पुरुष समाज को उसे अर्द्धांगिनी के रूप में स्वीकार करना ही पड़ेगा। कदम से कदम मिलाकर चलना ही पड़ेगा क्योंकि प्रकृति के वरदान को झुठलाया नहीं जा सकता।

rajnish manga
04-07-2013, 10:16 PM
परन्तु, क्या नारी की वर्तमान दशा सिर्फ पुरुषों की ही देन है ? जुल्म करने वाले और जुल्म सहने वाले दोनों ही जुल्म करने वालों के ही हाथ मजबूत करते हैं। और इस तरह दोनों ही दोषी ठहरते हैं। किसी भी समस्या का हल उसके मूल को जानकर उसके उन्मूलन में होता है। नारी को आज पुनरुत्थान की आवश्यकता है। उसकी पंगुता को बैशाखी की जरूरत है, जो है उसका अपना आत्म-सम्मान, आत्मसंबल और जीवन को सही तरीके से जीने की ललक। सामाजिक बंधनरूपी गुलामी की जंजीर नारी का जेवर बन चुका है। उन्हें समझना होगा कि जेवर से शारीरिक सौन्दर्य अवश्य चमक उठे, किन्तु आन्तरिक सौन्दर्य कभी नहीं चमकता। इनसे पृथकता ही उनकी समस्या का हल है।

सर्वेक्षण किया जाए तो पता चलता है कि जितनी भी निकृष्ट परम्परायें हैं जो नारियों को बंधनयुक्त बनाती हैं, उनकी संरक्षक परिवार की महिलायें ही हैं। एक बारगी पिता विधवा बेटी के मनोभावों को समझकर उसकी शादी की बात सोच भी सकता है, किन्तु बुज़ुर्गमहिलायें इसका विरोध हर प्रकार से करती नजर आती हैं।

"तूने बेटा नहीं जना, तू कलंकिनी है" ऐसा कहने और ऐसे ही वुएक प्रकार के लाँछनों का ठेका सासों ने ले रखा है, जैसे बहू की इच्छा के अनुसार ही पुत्र अथवा पुत्री का जन्म संभव है। जब गड्ढा खोदने वाली स्त्रियाँ ही हैं तो पुरुषों का काम आसान हो जाता है। उन्हें धकेल कर उस गड्ढे में गिरा देना। अन्यथा नारी और पुरुष तो एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। उनकी पूर्णता दोनों के योग में है। सीताराम शब्द भले ही दो शब्दों का युग्म हो, किन्तु उनका पृथकीकरण दोनों की महत्ता कम कर देता है। यदि गुलाब को डाली से अलग कर दिया जाय तो गुलाब और डाली की अलग-अलग कल्पना शायद ही की जा सकती है। नारी तो गुलाब है, जिसे देख-देखकर डाली अपनी मंजिल पर पहुँचती है। और पुरुष डाली है, उस प्रेरणा का पूजक और रक्षक। दोनों को एक दूसरे पर गर्व होता है। दोनों में अनन्योन्याश्रय संबंध होता है।अत: विलग होकर कोई सुखी नहीं रह सकता। यथार्थ में डाली और गुलाब एक दूसरे के पूरक हैं, अन्यथा अर्द्धनारीश्वर की परिकल्पना ही झूठी हो जाएगी।

rajnish manga
04-07-2013, 10:22 PM
किन्तु क्या नारी की कल्पना केवल युग्म के रूप में ही संभव है ? उसकी स्वतंत्र छवि की कल्पना क्यों नहीं ? दम्पति के रूप में, पत्नी के रूप में, बहिन और माँ के रूप में ही क्यों ? केवल एक नारी के रूप में क्यों नहीं ! यह सबसे बड़ा विषय है, जिस पर तर्क की कमी रही है। आज इस विषय पर चर्चा की आवश्यकता है।

नगरीय व्यवस्था में नारी का यह रूप भी दर्शनीय है। अब उसे किसी पुरुष की आवश्यकता संरक्षक के रूप में कदापि नहीं रही है। लेकिन ग्रामीण समाज अब भी वहीं है, जहाँ वह सदियों पहले था। सत्तर प्रतिशत ग्रामीण समाज आज भी नारी को यथोचित सम्मान देने से मुकरता है। आज हमें उन नारियों को सम्मान देने की आवश्यकता है, जो ये भी नहीं जानतीं कि पुरुष से विलग होने पर भी नारीत्व को कोई क्षति नहीं होती है। शिक्षा एवं संस्कृति कुण्ठा को समाप्त करने के उपाय सुझाते हैं न कि उसमें बँधने के। समाज को, परिवार को, सरकार को, हम सबको और सबसे अधिक पुरुषों यह प्रयास करना होगा कि हम आगे आने वाली पीढ़ी को किस प्रकार की संस्कृति देने को तैयार हैं। क्या हम सचमुच आधुनिक हैं अथवा केवल ढोंग कर रहे हैं ?

दरअसल नारी का दर्जा हमेशा ही सम्मान से युक्त है। इस दुःखद संसार का आस्वाद करने वाला नवजात शिशु भी प्रथम शब्द ‘माँ’ कहकर ही सम्बोधन करता है। माँ के आँचल की ओट में एक नन्हा शिशु संसार के सारे दुःखों को भूलकर अन्य सुखों में रमता है। वस्तुतः यह सारा संसार ही नवजात शिशु के समान है, जिस पर नारी रूपी ममता का आँचल फैला हुआ है। इसके बिना संसार का अस्तित्व ही अकल्पनीय है। अतः यह हम सबका कर्त्तव्य है कि हमें नारी को पुनः उसके उसी पद पर आसीन करवा दें, जिसकी वो अधिकारिणी है। वह समान है, महान् है, क्षमतावान् है, योग्य है। वह सब कुछ है। उससे प्रतियोगिता नहीं, मिलन और सौहार्द्र की आवश्यकता है।


विश्वजीत 'सपन'
(अंतरजाल से)

rajnish manga
04-07-2013, 10:44 PM
चिंतन
जैसा आचरण राजा का वैसा ही प्रजा का
(लेखक: योगेन्द्र जोशी)

मैंने पहले भी महर्षि बाल्मीकिविरचित रामायण में उल्लिखित राम-जाबालि संवाद की चर्चा की थी । उल्लिखित प्रसंग में मुनि जाबालि श्रीराम को समझाते हैं कि उन्हें जनसमुदाय की आकांक्षाओं का सम्मान करते हुए उसकी अयोध्या वापसी की पार्थना मान लेनी चाहिये और तदनुरूप दिवंगत राजा को दिये अपने वचन भुला देना चाहिए । अपनी बात के समर्थन में उन्होंने कतिपय तर्क भी पेश किये थे । श्रीराम प्रतिवाद करते हुए कहते हैं कि वचन तोड़ने से स्वर्गीय राजा को कोई क्लेश नहीं पहुंचेगा इसे मान लें तो भी समाज के व्यापक हित में ऐसा करना सर्वथा हानिकर होगा । उनका तर्क थाः

कामवृत्तोऽन्वयं लोकः कृत्स्नः समुवर्तते ।
यद्वृत्ताः सन्ति राजानस्तद्वृत्ताः सन्ति हि प्रजाः ।।9।।
(रामायण, अयोध्याकाण्ड, सर्ग 109)

(यदि मैं आपकी बात मान लूं तो भी यह कहना ही होगा कि पहले तो मुझे स्वेच्छाचारी मान लिया जायेगा, फिर देखा-देखी) समाज में सभी स्वेच्छाचारी हो जायेंगे । (ऐसा इसलिए कि) राजागण जैसा आचरण प्रस्तुत करते हैं प्रजा वैसा ही स्वयं भी करती है ।

उपरिकथित तथ्य वस्तुतः शाश्वत और सार्वत्रिक मूल्य का है । आज हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में नाम से तो कोई राजा नहीं है, किंतु राजा के स्थान पर हमारे जनप्रतिनिधि हैं, पूरी शासकीय व्यवस्था को चलाने वाले हैं । कही गयी बात उनके संदर्भ में भी मान्य है । वे जैसा आचरण करेंगे वैसा ही शासित सामान्य लोग भी करेंगे । चूंकि अनुकरणीय दृष्टांत प्रस्तुत करने वाले जनप्रतिनिधि अब ढूढ़े नहीं मिलते, इसलिए सदाचारण का समाज में लोप हो रहा है । दुर्भाग्य से उच्च पद पर आसीन व्यक्ति अब इस बात की परवाह प्रायः नहीं करता कि उसके कृत्यों को लेकर सामान्य जनों के बीच उसकी क्या छबि बन रही है । काश, ऐसा हो पाता कि शासकीय व्यवस्था के शीर्षस्थ लोग आम आदमियों के लिए अनुकरणीय उदाहरण पेश करते !

rajnish manga
07-07-2013, 10:42 PM
काश हर मस्ज़िद की खिड़की मंदिर में खुलती
लेखक: सत्यजीत चौधरी

6 दिसंबर, 1992 को जब विवादित ढांचा ढहाया गया, तब मैं जवान हो रहा था। बारहवीं में था। पिताजी उन दिनों बुलंदशहर में बतौर अध्यापक तैनात थे। हम सब उनके साथ ही रह रहे थे। दंगे भडक चुके थे। हमने छत पर चढïकर दूर मकानों से उठती लपटों की आंच महसूस की थी। मौत के खौफ से बिलबिलाते लोगों की चीखें सुनी थीं। हैवानियत का नंगा नाच देखा था। ‘जयश्री राम’ और ‘अल्लाह ओ अकबर’ के नारों में भले ही ईश्वर और अल्लाह का नाम हो, लेकिन तब उन्हें सुनकर रीढ़ों में बर्फ-सी जम जाती थी। पूरा देश जल रहा था। अखबार और रेडियो पर देशभर से आ रही खबरें बेचैन किए रहतीं। हमारे हलक से निवाले नहीं उतरते थे। तभी से ‘छह दिसंबर’ मेरे दिमाग के किसी गोशे में नाग की तरह कुंडली मारकर बैठ गया था। कमबख्त तब से शायद हाईबरनेशन में पड था। इतने सालों बाद जब राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ का फैसला सुनाने का ऐलान हुआ तो नाग कुलबुलाकर जाग गया। पिछले एक महीने से नाग और राज्य सरकार की तैयारियों ने बेचैन किए रखा। अयोध्या फैसले को लेकर उत्तर प्रदेश के एडीजी (लॉ एंड आर्डर) बृजलाल के प्रदेशभर में हुए तूफानी दौरों ने और संशय में डाल दिया। इसके बाद शुरू हुआ ‘संयम की सीख का हमला। प्रदेश सरकारों से लेकर केंद्र सरकार, और संघ-भाजपा से लेकर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, दारुल उलूम तक फैसले का सम्मान करने की घुट्टी पिलाते मिले। फिर मामला सुप्रीम कोर्ट में चला गया तो कुछ सुकून मिला, लेकिन चार दिन बाद ही जब सर्वोच्च अदालत ने मामला फिर हाईकोर्ट को लौटा दिया तो वही बेचैनी हावी हो गई।
मुजफ्फरनगर गर्भनाल की तरह मुझसे जुड़ा है। मम्मी-पापा और बच्चे वहीं रहते हैं। ‘फैसले की घड़ी’ जैसे-जैसे नजदीक आती गई, जान सूखती चली गई। मैं दिल्ली में, बच्चे और मां-पिताजी वहां। मुजफ्फरनगर के कुछ मुस्लिम दोस्तों की टोह ली। वे भी हलकान मिले। हिंदुओं को टटोला, वहां भी बेचैनी का आलम। बस एक सवाल सबको मथे जा रहा था कि ‘तीस सितंबर’ को क्या होगा। कुछ और लोगों से बात हुई तो पता चला कि पुलिस वाले गांव-गांव जाकर उन लोगों के बारे में जानकारियां इकट्ठा कर रहे हैं, जिनकी छह दिसंबर, 1992 के घटनाक्रम के बाद भड़के दंगों में भूमिका थी या जो इस बार भी शरारत कर सकते थे। इस दौरान एक-दो बार मुजफ्फरनगर के चक्कर भी लगा आया। लोग बेहद डरे-सहमे मिले। उन्हें लग रहा था कि तीस तारीख को फैसला आते ही न जाने क्या हो जाएगा। सबको एक ही फिक्र खाए जा रही थी कि ‘छह दिसंबर’ न दोहरा दिया जाए। लोगों को लग रहा था कि शैतान का कुनबा फिर सड़कों पर निकल आएगा। पथराव होगा, आगजनी अंजाम दी जाएगी। अस्मतें लुटेंगी, खून बहेगा। इंसानियत को नंगा कर उसके साथ बलात्कार किया जाएगा।

rajnish manga
07-07-2013, 10:43 PM
खैर ‘तीस सितंबर’ भी आ गई। उस दिन मैं गाजियाबाद स्थित ‘एक कदम आगे’ के कार्यालय में बैठा था। देश के लाखों लोगों की तरह मैं भी टीवी से चिपका था। खंडपीठ के निर्णय सुनाने के कुछ ही देर बाद हिंदू संगठनों के वकील और उनके कथित प्रतिनिधि न्यूज चैनलों पर नमूदार हो गए। उन्होंने फैसले की व्याख्या जिस अंदाज में शुरू की, उसने सभी को डराकर रख दिया। कई चैनल ऐसे भी थे, जिन्होंने समझदारी से काम लिया और फैसले की प्रमुख बातों को समझने के बाद ही मुंह खोला।। बहरकैफ, इस दौरान मैं लगातार मुजफ्फरनगर के लोगों के संपर्क में रहा। इस बीच, खबर आई की मुजफ्फरनगर जिले की हवाई निगरानी भी हो रही है। सुरक्षा प्रबंधों से साफ हो गया था कि शासन ने मुजफ्फरनगर जनपद को संवेदनशील जिलों में शायद सबसे ऊपर रखा था। राज्य सरकार कोई रिस्क नहीं लेना चाह रही थी।

मैं घबराकर इंटरनेट की तरफ लपका। मेरी हैरत की इंतहा नहीं रही, जब मंने पाया कि ट्वीटर, फेसबुक और जीटॉक के अलावा ब्लाग्स पर ‘जेनरेशन नेक्स्ट’ अपना वर्डिक्ट दे रही थी, अमन, एकजुटता और भाईचारे का ‘फैसला’। एक भी ऐसा मैसेज नहीं मिला जो नफरत की बात कर रहा हो। पहले तो यकीन नहीं हुआ, फिर इस एहसास से सीना फूल गया कि देश का भविष्य उन हाथों में है, जो हिंदू या मुसलमान नहीं, बल्कि इंसान हैं। कह सकते हैं कि भविष्य का भारत महफूज हाथों में हैं। कई युवाओं ने फैसले पर ट्वीट किया था- ‘न कोई जीता, न कोई हारा। आपने नफरत फैलाई नहीं कि आप बाहर।’

कहीं पढ़ा था कि पुणे में घोरपड़ी गांव है, जहां मस्जिद की खिड़की हिंदू मंदिर में खुलती है। अहले-सुन्नत जमात मस्जिद और काशी विशेश्वर मंदिर को अगर जुदा करती है, तो बस ईंट-गारे की बनी एक दीवार। एक और रोचक तथ्य इस दोनों पूजास्थलों के बारे में यह है कि जब बाबरी विध्वंस के बाद पूरे देश में दंगे भड़क रहे थे, पुणे में दोनों समुदाय के लोगों ने मिलकर मंदिर का निर्माण कर रहे थे। निर्माण के लिए पानी मस्जिद से लिया जाता था। याद आया कि ऐसी ही शानदार नजीर हम मुजफ्फरनगर वाले काफी पहले पेश कर चुके हैं। कांधला में जामा मस्जिद और लक्ष्मी नारायण मंदिर जमीन के एक ही टुकड़े पर खड़े होकर ‘धर्म के कारोबारियों’ को आईना दिखा रहे हैं। माना जाता है कि मस्जिद 1391 में बनी थी। ब्रिटिश शासनकाल में मस्जिद के बगल में खाली पड़ी जमीन को लेकर विवाद हो गया। हिंदुओं का कहना था कि उस स्थान पर मंदिर था। मामला किसी अदालत में नहीं गया। दोनों फिरकों के लोगों ने बैठकर विवाद का निपटारा कर दिया। तब मस्जिद के इंचार्ज मौलाना महमूद बख्श कंधेलवी ने जमीन का वह टुकडा हिंदुओं को सौंप दिया। वहां आज लक्ष्मी नारारण मंदिर शान से खड़ा है। मंदिर में आरती होती है और मस्जिद से आजान की आवाज बुलंद होती है। सह-अस्तित्व की इससे बेहतर मिसाल और क्या होगी। यह है हिंदुस्तान और हिंदुस्तानियत की मिसाल।
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rajnish manga
08-07-2013, 10:27 PM
अपना-पराया
(लेखक: जयप्रकाश मानस)
उस दिन आफिस के लिए निकला तो देखता हूँ कि पड़ोसन भाभी, अस्त व्यस्त साड़ी लपेटे, बदहवास सी कहीं चली जा रही थी । मैंने स्कूटर उनके पास रोक कर पूछा- ‘क्या बात है भाभी इस तरह .......मेरी बात पूरी भी न होने पाई थी कि वह सुबकने लगीं।’ सुबकते हुए बड़ी मुश्किल से बोल पाईं, “अभी-अभी खबर मिली है कि गुड्डी के दूल्हे ने जहर खा लिया है, इसलिए उसके यहाँ जा हूँ ।” मन बहुत आहत हुआ, किंतु क्या कर सकता था सिवाय इसके कि उन्हें बस स्टेण्ड तक छोड़ दूँ ।

शाम को लौटते समय सोचा चलो उनके घर का हाल तो ले लूँ । मैंने दरवाजा खटखटाया ही था कि अंदर से भाभी की हँसी सुनाई पड़ी । मैं चौंका, तभी भाभी बाहर आ गई । उनके मुस्कुराते चेहरे को देखकर मैंने कहा- ‘अफवाह थी ना ?’

‘नहीं, वो तो मुझे तब राहत मिली जब बस स्टैण्ड में ही पता चला कि ज़हर, गुड्डी के दूल्हे ने नहीं, उसके जेठ ने खाया था।’ भाभी ने कहा ।

rajnish manga
08-07-2013, 10:29 PM
नसीहत
(लेखक: जयप्रकाश मानस)

मुन्ना दौड़ता हुआ कमरे से निकल रहा था, कि उसका पैर फर्श में पड़े गिलास से टकराया गया और गिलास टूट गया। पास खड़े पापा जी ने एक चपत लगा कर ‘देखकर चलने’ की नसीहत पिला दी ।

चंद दिनों बाद एक दिन मुन्ना बरामदे में खेल रहा था । पापाजी कहीं जाने को जल्दी-जल्दी निकले तो उनका पैर कमरे में रखे कप से टकरा गया । मुन्ना की निगाह पापा जी से मिली किंतु अप्रत्याशित रुप से इस बार फिर चपत उसे पड़ गई और साथ ही नसीहत, कि चीजों को ठीक जगह पर क्यों नहीं रखते।

jai_bhardwaj
09-07-2013, 08:36 PM
हृदयग्राही उद्धरण ... आभार बन्धु।

rajnish manga
11-07-2013, 11:29 PM
लघुकथा / इकलौती औलाद
(लेखक: दीपक 'मशाल')

उस छोटे से कस्बे में ले दे कर एक ही तो टॉकीज थी जिसमें सबको मनोरंजन के लिए जाना होता था। लेकिन उसे क्या पता था कि आज उसके स्कूल से भागकर और घर से चुराए गए उन पैसों से वो माधुरी दीक्षित की याराना फिल्म देखने से इतनी बड़ी मुसीबत में फंस जाएगा। फिल्म ख़त्म होने तक तो सब ठीक-ठाक था लेकिन बाहर निकलते ही उसके सामने पड़ोस में रहने वाले वो मिश्रा अंकल पड़ गए। अब एक तो मिश्रा जी इधर-उधर करने में माहिर, ऊपर से पापा के दोस्त भी। उसकी तो ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की नीचे। शाम को पिटाई तो तय ही थी। मारे डर के वो घर ना जाकर कस्बे से सौ किलोमीटर दूर बसे शहर को जाने वाली रेलगाड़ी में बैठ गया। शाम तक जब उसका कुछ पता ना चला तो घर वाले परेशान हो उठे। मोहल्ले में हंगामा मच गया, सारे कस्बे में कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढा गया, मिश्रा जी को भी उसी दिन किसी काम से 15 दिन के लिए बाहर जाना पड़ गया तो अब खबर कौन देता। पुलिस में रिपोर्ट हुई लेकिन नतीजा सिफ़र।

कहते हैं कि भूख वो बला है जो अच्छे-अच्छों को रास्ते पर ले आती है। तो दो दिन बाद जब सारा पैसा ख़त्म हो गया तो लड़का थक हार कर पेट टटोलता हुआ घर लौट आया। अब ना उसे मार का डर था ना पिटाई का, थी तो सिर्फ भूख। रास्ते में बचने का उपाय भी सोच लिया। घर पहुँचने पर माँ-बाप के तो जैसे प्राण ही लौट आये। पूछने पर उसने बताया कि एक झोली वाला बाबा उसके ऊपर जादू करके ले गया था। पहले साथ में फिल्म दिखाई फिर बिस्कुट खिलाकर जाने क्या नशा करा दिया कि उसे पता ही ना चला फिर क्या हुआ। लेकिन जब दूसरे शहर में पहुँचने पर होश में आया तो किसी तरह जान छुड़ा कर घर लौट आया।

लड़के की बहादुरी से सभी बड़े प्रभावित, ऐसे स्वागत हुआ जैसे कोई कुँवर जंग जीत कर लौटा हो। अब बाप को चोरी हुए पैसों का सारा चक्कर समझ में तो आ रहा था, पर बेचारा इकलौती औलाद का और करता भी क्या।

(अंतरजाल से)

rajnish manga
11-07-2013, 11:31 PM
लघुकथा / देनदारी
(लेखक: दीपक 'मशाल')

उम्र के सातवें दशक में कदम रखते अवध किशोर की साइकिल भी उसी कीतरह हो चली थी। बाकी सब तो चलाया भी जा सकता लेकिन उस चेन का क्या करते जो इतनी पुरानी और ढीली पड़ गई थी कि हर दस कदम पर ही उतर जाती। अपना खुद का कोई ख़ास काम ना होने की वजह से उसे घर के सामान लाने के इतने काम दे दिए जाते कि सारा दिन निकल जाता। वो भी साइकिल के बिना तो दिन भर में भी पूरे ना हों। आज उसकी छोटी सी वृद्धावस्था पेंशन हाथ आई तो सोचा कि पहले नई चेन ही डलवा लेते हैं।

पैसे लेकर घर पहुंचा ही था कि उसके हाथ में हरे-हरे नोट देख बेटा बोल पड़ा, ''दद्दा दो महीना पहलें तुमने चश्मा और जूता के लाने जो पैसा हमसे लए ते वे लौटा देओ, हमे जा महीना तनख्वाह देर से मिलहे और मोटरसाइकिल की सर्विस जरूरी कराने है।''

अवध किशोर ने पैसे उसे देते हुए इतना ही कहा, ''हाँ बेटा हम तो भूलई गए ते कि तुम्हाई कछू देनदारी है हमपे, अच्छो रओ तुमने याद दिला दई।''

(अंतरजाल से)

rajnish manga
11-07-2013, 11:36 PM
सुनने की कला
(विलियम स्ट्रिंगफेलो)

सुनने का गुण मानव जीवन को विशिष्टता प्रदान करता है. आप दूसरे व्यक्ति के कहे हए शब्द नहीं सुन पायेंगे यदि आप अपनी वेशभूषा के बारे में ही सोच रहे होंगे या यह सोच रहे होंगे कि आप दूसरे व्यक्ति के चुप होने के बाद क्या बोलेंगे अथवा वह जो बोल रहा है वह ठीक है या नहीं, तर्कपूर्ण या सहमत होने लायक है भी या नहीं. इन सभी मुद्दों का अपना अपना महत्व है, किन्तु तभी जब वक्ता अपनी बात कह चुका हो और सुनने वाला एक एक शब्द को पूरी गंभीरता से सुन चुका हो, उसके बाद.

सुनना भी प्रेम-प्रदर्शन का एक पुरातन तरीका है, जिसमे एक व्यक्ति बोलने वाले के शब्दों को ईमानदारी से सुनता है और उन्हें समर्पित भाव से अपने ह्रदय और मस्तिष्क तक आने देता है.

rajnish manga
11-07-2013, 11:41 PM
वनों के प्यार में
एक व्यक्ति यदि अपना आधा दिन पेड़ों व हरियाली के आकर्षण में बंध कर किसी वन में जा कर बिताता है, तो दुनिया वाले उसे ‘आवारा’ या ‘लोफ़र’ कह कर बुलाने से नहीं चूकते. दूसरी ओर, यदि एक व्यक्ति उसी जंगल के पेड़ काटता है, बेचता है और समय से पहले ही धरती को बंजर बनाने की दिशा में काम करता है तो उसे बड़ा मेहनती और उद्यमशाली नागरिक कह कर इज्ज़त-मान दिया जाता है. क्यों?


हेनरी डेविड थोरो (1817-1862)
अमरीकी लेखक, कवि, दार्शनिक, दास-प्रथा विरोधी

rajnish manga
11-07-2013, 11:44 PM
एक चीनी बोध-कथा

एक जगह पर कुछ पढ़े-लिखे, सभ्य और बुजुर्ग लोग समय समय पर मुलाक़ात किया करते थे, विचार-विनिमय के साथ चायपान करते थे. हर मेज़बान अपनी बारी आने पर अच्छी से अच्छी और महंगी से महंगी चाय का इंतजाम करता था और चाहता था कि मेहमान उसकी चाय पी कर उसकी महक की तारीफ़ करें.

जब उस समूह में परम श्रद्धेय व आदरणीय बुज़ुर्ग की मेहमाननवाजी की बारी आई, उसने बड़े समारोहपूर्वक एक स्वर्ण-मंजूषा से चाय की चुनिन्दा पत्तियाँ निकाल कर चाय तैयार करवाई और उसे मेहमानों को पेश किया. वहां उपस्थित जानकार मेहमानों ने इस बेहद स्वादिष्ट चाय की जमकर तारीफ़ की. इस पर मेज़बान ने मुस्कुरा कर कहा,

“जिस चाय की आप इतनी तारीफ़ कर रहे हैं, यह वास्तव में वही चाय है जो हमारे किसान भाई पीते हैं. मुझे आशा है कि आप सब इस बात को बखूबी समझ गये होंगे कि जीवन में प्राप्त होने वाली सभी बढ़िया वस्तुयें जरूरी नहीं कि नायाब या बेशकीमती हों.

jai_bhardwaj
12-07-2013, 07:41 PM
जीवन में प्राप्त होने वाली सभी बढ़िया वस्तुयें जरूरी नहीं कि नायाब या बेशकीमती हों.

सच को गोद में लिए हुए है यह सुन्दर सूक्ति ...... हृदय से आभार बन्धु .

rajnish manga
14-07-2013, 06:21 PM
कोई काम छोटा नहीं

नेपोलियन कहीं जा रहा था. रास्ते में उसकी नज़र एक दृश्य पर पड़ी. वह रुक गया. बहुत सारे मजदूर मिलकर एक खम्बे को उठाने की कोशिश कर रहे थे. सभी पसीने से तरबतर हो रहे थे. पास में खड़ा आदमी मजदूरों पर गरम हो रहा था और उन्हें उठाने का आदेश दे रहा था.

नेपोलियन उस आदमी के पास गया और कहने लगा, “आप भी इन बेचारों की मदद कीजिये.”

उसे एक दम गुस्सा अ गया. फिर झिड़कते हए कहने लगा, “तुम्हें मालूम है मैं कौन हूँ?”

“नहीं भाई, मैं तो इस स्थान के लिए नया हूँ. मुझे नहीं पाता कि आप कौन हैं.” नेपोलियन ने विनम्रता से कहा.

“मैं ठेकेदार हूँ,” उसने रौब जमाते हए कहा.

नेपोलियन बिना कुछ कहे मजदूरों की ओर गया और उनके साथ काम में हिस्सा बंटाने लगा. जब वह जाने लगा, तो ठेकेदार ने उससे पूछा, “तुम कौन हो?”
“ठेकेदार साहब, लोग मुझे नेपोलियन कहते हैं.” नेपोलियन ने मुस्कुराते हए कहा.

नेपोलियन का नाम सुनते ही वह भयभीत हो गया. उसने नेपोलियन से अपनी असभ्यता के लिए माफ़ी मांगी. नेपोलियन ने उसे समझाया कि किसी काम को अपने पद से नहीं देखना चाहिए और न ही किसी काम को छोटा समझना चाहिए.

rajnish manga
19-07-2013, 08:46 PM
मेरी लघुकथा / खोटा सिक्का

खोटा सिक्का चलाना बड़ी टेढ़ी खीर है विशेषतया तब जबकि आप जानबूझ कर उसे देने की कोशिश करें. कुछ समय पूर्व पच्चीस पैसे के नीबू ले कर मैंने जान बूझ कर बड़ी निर्दोष मुद्रा मैं सब्जी वाले को एक रूपए का खोटा सिक्का थमा दिया. दुकानदार ने बगैर देखे उसे गल्ले में डाल लिया और बाकी पैसे मुझे लौटा दिए. मैंने मुस्कान को दबाते हुए पैसे जेब के हवाले किये. शाम के समय जरूरत पड़ने पर मैंने जेब से पैसे निकाले तो वहां तीन चवन्नियां थीं और चौंकाने वाली बात यह थी कि तीनों चवन्नी खोटी थीं. मैं सकपकाया लेकिन किस मुँह से दुकानदार से शिकायत करता. अंगरेजी में एक कहावत है “to reply in the same coin” यहाँ चरितार्थ हो रही थी.

(मित्रो, यह उन दिनों की बात है जब बाजार में चवन्नियां भी लेन-देन में प्रयुक्त होती थीं)

rajnish manga
26-07-2013, 10:52 PM
गीत: प्यासा का प्यासा आजीवन
(रचना: धनञ्जय अवस्थी)

जैसे नदी प्यास के मारे
कल कल करती व्याकुल अनमन
वैसे ही मैं भटक रहा हूँ
प्यासा का प्यासा आजीवन.
रंग महल के सन्दर्भों से
रह रह प्यास और कुछ जागी
वर्त्तमान दूँ उस अतीत को
आज वही अरमान विरागी –
प्यासे अधर नैनों की
प्यासी पीर विधुर सपनों की
एक एक धड़कन प्यासी है
चातक तृषा मदिर छुवनों की
बढती जाति प्यास दिनों दिन
प्यासा का प्यासा आजीवन.....
मैं ही नहीं अकेले पथ में
सब की कथा व्यथा ही ऐसी
अंतर इतना, मूरत कोई हंसती
कोई रोती और बिलखती जैसी –
गाँव गली गलियारे प्यासे
नगरों के फौव्वारे प्यासे
प्यास नियति है सारे जग की
अम्बर प्यासा मरुथल प्यासे
होता रहता सागर मंथन
प्यासा का प्यासा आजीवन.

(नवनीत हिंदी डाइजेस्ट/ जनवरी २०१२ से साभार)

rajnish manga
01-08-2013, 11:33 AM
ग़ ज़ ल

वीरां हो गयी आँखें रो रो, उफ़ कैसे रंजूर हए
दिल के फफोले फूट गये तो फूट के ये नासूर हए

अपने पाँव कुल्हाड़ी मारी, ये कैसी नादानी की
जितने हम नज़दीक गये वह उतने हम से दूर हए

अहदे-जवानी में कुछ ऐसे सदमे देखे चोटें खायी
रह गये हम बस पत्थर हो कर, ख्वाब तो चकनाचूर हए

रात बिरह की ऐसी आई, आके डेरे डाल दिये
और मिलन के प्यारे प्यारे दिन जो थे काफूर हए

हौज़, कियारी, कच्चा आँगन, ऊँची छत गह्दार मकां
जब से यह मिस्मार हए हैं, घर जैसे तंदूर हुए

कलजुग के नेजे की अनी पर हमने सच्ची बात कही
हमसे आगे इस मसनब पर ईसा और मंसूर हए

दिल्ली के कूचे कूचे में ढूंढें तुम्हें अहबाब ‘ज़मीर’
जिस दिन से तुम यां वालों को जुल देकर मफ़रूर हए

(मसनद = पदवी या ओहदा / जुल = धोखा / मफरूर = भागे हुये)

(शायर: सैयद ‘ज़मीर’ हसन देहलवी)

jai_bhardwaj
01-08-2013, 09:27 PM
गीत: प्यासा का प्यासा आजीवन
(रचना: धनञ्जय अवस्थी)

जैसे नदी प्यास के मारे
कल कल करती व्याकुल अनमन
वैसे ही मैं भटक रहा हूँ
प्यासा का प्यासा आजीवन.
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होता रहता सागर मंथन
प्यासा का प्यासा आजीवन.

(नवनीत हिंदी डाइजेस्ट/ जनवरी २०१२ से साभार)

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हृदय-वीणा को झंकृत कर देने वाली पंक्तियाँ उद्धृत करने के लिए हार्दिक आभार बन्धु।

rajnish manga
14-08-2013, 04:13 PM
पार्टी में ताजगी लाती हैं अनूठी कहानियाँ
(उर्फ़ पहली ग्रामोफोन रिकॉर्डिंग का किस्सा)

इस तरह की असामान्य गाथाएं पार्टियों में न सिर्फ नई ताजगी लाती हैं, बल्कि इवेंट को यादगार और विचारोत्तेजक भी बना देती हैं। याद रखें कि पार्टियां खाने-पीने या नाचने-गाने के अलावा भी कुछ हैं।

पिछले रविवार को एक पार्टी में एक प्रतिस्पर्धा रखी गई। इसमें हरेक व्यक्ति से ऐसा कोई अनूठा किस्सा पेश करने के लिए कहा गया, जो उसके कार्यस्थल से जुड़ा हो या फिर उसने इसके बारे में कहीं सुना या पढ़ा हो। इसमें जिस किस्से को सर्वश्रेष्ठ घोषित किया गया, वह कुछ इस तरह से है। ग्रामोफोन का आविष्कार 19 वीं सदी में थॉमस अल्वा एडिसन ने किया था। इलेक्ट्रिक लाइट और मोशन पिक्चर कैमरा जैसे कई अन्य गैजेट्स का आविष्कार करने वाले एडिसन चाहते थे कि ग्रामोफोन के पहले पीस पर किसी प्रतिष्ठित विद्वान की आवाज रिकॉर्ड की जाए। इसके लिए उन्होंने जर्मनी के प्रोफेसर मैक्स मुलर को चुना, जो १९वीं सदी की एक और महान हस्ती थे। उन्होंने मैक्स मुलर को पत्र लिखते हुए कहा, 'मैं आपसे मिलकर आपकी आवाज रिकॉर्ड करना चाहता हूं। कृपया बताएं कि हम कब मिल सकते हैं?' मैक्स मुलर एडिसन का बहुत सम्मान करते थे। उन्होंने जवाब में लिखा कि एक समारोह में यूरोप के कई विद्वान इकट्ठा हो रहे हैं, उसी दौरान उनका मिलना ठीक रहेगा।

इसके मुताबिक एडिसन इंग्लैंड पहुंच गए। समारोह में उनका ऑडियंस से परिचय कराया गया। सभी लोगों ने एडिसन का करतल ध्वनि से स्वागत किया। बाद में एडिसन की गुजारिश पर मैक्स मुलर स्टेज पर आए और उस उपकरण के समक्ष कुछ शब्द बोले। इसके बाद एडिसन वापस अपनी प्रयोगशाला में पहुंचे और दोपहर तक एक डिस्क के साथ वापस लौट आए। उन्होंने अपने उपकरण में ग्रामोफोन डिस्क को चलाया। उपस्थित लोग उस उपकरण में से निकलती मैक्स मुलर की आवाज को सुनकर रोमांचित हो उठे। कई लोगों ने मंच पर आकर इस अनूठे आविष्कार के लिए एडिसन की जमकर तारीफ की। इसके बाद मुलर दोबारा स्टेज पर आए और उपस्थित प्रबुद्धजनों को संबोधित करते हुए कहा, 'मैंने जो कुछ सुबह कहा या दोपहर को आपने जो सुना, वह आपको समझ में आया?

श्रोताओं में सन्नाटा छा गया, क्योंकि मैक्स मुलर जिस भाषा में बोले थे, वह उन्हें समझ नहीं आई थी। वह उद्बोधन एक ऐसी भाषा में था, जो वहां मौजूद यूरोपीय विद्वानों ने कभी नहीं सुनी थी। मैक्स मुलर ने तब उन्हें बताया कि वह संस्कृत भाषा में बोले थे और यह ऋग्वेद का पहला सूक्त था, जो कहता है, 'अग्नि मीले पुरोहितं'। यह ग्रामोफोन प्लेट पर रिकॉर्डेड पहला लोक-संस्करण था। आखिर मुलर ने इसे क्यों चुना? मुलर ने इसके बारे में कहा, 'वेद इंसानी नस्ल द्वारा रचित सबसे प्राचीन ग्रंथ हैं और 'अग्नि मीले पुरोहितं' ऋग्वेद का पहला सूक्त है। अति प्राचीन समय में जब इंसान अपने तन को ढंकना भी नहीं जानता था, शिकार पर जीवन-यापन करता था व कंदराओं में रहता था, तब हिंदुओं ने उच्च नागरिक सभ्यता प्राप्त कर ली थी और उन्होंने दुनिया को वेदों के रूप में एक सार्वभौमिक दर्शन प्रदान किया।'

हमारे देश की ऐसी वैभवशाली विरासत है। जब 'अग्नि मीले पुरोहितं' को रिप्ले किया गया, तो वहां मौजूद तमाम लोग प्राचीन हिंदू मनीषियों के सम्मान में मौन खड़े हो गए। 'ú अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवं रत्वजीवम। होतारं रत्नधातमम।' ऋग्वेद को आर्यों द्वारा लिखा गया, जो सिंधु घाटी में तब आए, जब हड़प्पा संस्कृति अपने अंत की ओर बढ़ रही थी। उन्होंने इस वेद को 1300 से 1000 ईसापूर्व के दौरान लिखा था।

rajnish manga
17-08-2013, 10:30 PM
कर्तव्य और अधिकार

सी.डी. बर्न्स की उक्ति है, फ्रांस की क्रांति ने कोई दान नहीं माँगा, उसने मनुष्य के अधिकारों की माँग की। अधिकार ऐसी अनिवार्य परिस्थिति है जो मनुष्य के विकास के लिए आवश्यक है। यह व्यक्ति की माँग है जिसे समाज, राज्य तथा कानून नैतिक मान्यता देते हें और उनकी रक्षा करना अपना परम धर्म समझते हैं। अधिकार वे सामाजिक परिस्थितियाँ तथा अवसर हैं जो मनुष्य के व्यक्तित्व के उच्चतम विकास के लिए आवश्यक होते हैं। इन्हें समाज इसी कारण से स्वीकार करता है और राज्य इसी आशय से इनका सरंक्षण करता है। अधिकार उन कार्यों की स्वतंत्रता का बोध कराता है जो व्यक्ति और समाज दोनों के ही लिए उपयोगी सिद्ध हों।

17वीं और 18वीं शताब्दी के यूरोपीय राजनीतिज्ञों का यह अटल विश्वास था कि मनुष्य के अधिकार जन्मसिद्ध तथा उनके स्वभाव के अंतर्गत हैं। वे प्राकृतिक अवस्था में, जब समाज की स्थापना नहीं हुई थी तो तब, मनुष्य को प्राप्त थे। एथेंस के महान्* विचारक अरस्तू का भी यही विचार था। 1789 में फ्रांस की क्रांति के उपरांत फ्रांस की राष्ट्रीय सभा ने मानवीय अधिकारों की उद्घोषणा की। जिन मौलिक तत्वों को लेकर फ्रांस ने क्रांति का कदम उठाया था उन्हीं सब तत्वों का समावेश इस घोषणा में किया गया था। इस घोषणा के परिणामस्वरूप ्फ्रांस के समाजिक, राजनीतिक एवं मनोवैज्ञानिक जीवन में और तज्जनित सिद्धांतों में परिवर्तन हुआ। मानवीय अधिकारों की घोषणा का प्रभाव आधुनिक संविधानों पर स्पष्ट ही है। यूरोपीय जीवन, विचार, इतिहास और दर्शन पर इस घोषणा की अमिट छाप है। इस घोषणा से प्रत्येक मनुष्य के लिए स्वतंत्रता, संपत्तिसुरक्षा एवं अत्याचार का विरोध करने के अधिकार को मौलिक अधिकार की मान्यता प्रदान की गई। मानवीय अधिकारों की उद्घोषणा का बड़ा व्यापक प्रभाव रहा है। सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक अर्थात्* मनुष्य जीवन से संबंधित सभी क्षेत्रों पर इन विचारों का प्रभाव सुस्पष्ट है। समाजवादी दर्शन ने इन अधिकारों का क्षेत्र और भी विस्तृत कर दिया है। सोवियत संघ ने अपने सामाजिक अधिकारों में इन अधिकारों को प्रमुख स्थान दिया है। सन्* 1946 में जब फ्रांस ने अपने संविधान की रचना की तब इन श्रेष्ठतम अधिकारों को स्थान देते हुए उसने और भी नए सामाजिक अधिकारों का समावेश संविधान की धाराओं में किया। आधुनिकतम सभी संविधानों में इन अधिकारों का समावेश है। नागरिक के मूल अधिकारों में इनकी गणना है। यह जाति और नरनारी की समानता का युग है। नागरिक अधिकारों में इन्हें भी स्थान प्राप्त हो गया है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी इन मानवीय अधिकारों की मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर एक विस्तृत सूची बनाई। नागरिक अधिकारों के संबंध में बदलती हुई समाजिक और राजनीतिक प्रक्रिया की छाप उसपर स्पष्ट है। 10 दिसंबर, 1948 को संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपनी साधारण सभा (General Assembly) में सार्वभौम मानवीय अधिकारों (यूनिवर्सल ह्यूमन राइट्स) को घोषित किया। यह सूची 48 सदस्य राज्यों के बहुमत से पारित हुई। मनुष्य जीवन के जितने भी आधुनिक मूल्य हैं उन सारे मूल्यों का समाहार इस सूची में किया गया है।

rajnish manga
17-08-2013, 10:32 PM
सामान्यत: कर्तव्य शब्द का अभिप्राय उन कार्यों से होता है, जिन्हें करने के लिए व्यक्ति नैतिक रूप से प्रतिबद्ध होता है। इस शब्द से वह बोध होता है कि व्यक्ति किसी कार्य को अपनी इच्छा, अनिच्छा या केवल बाह्य दबाव के कारण नहीं करता है अपितु आंतरिक नैतिक प्ररेणा के ही कारण करता है। अत: कर्तव्य के पार्श्व में सिद्धांत या उद्देश्य की प्ररेणा है। उदहरणार्थ, संतान और माता-पिता का परस्पर संबंध, पति-पत्नी का संबध, सत्यभाषण, अस्तेय (चोरी न करना) आदि के पीछे एक सूक्ष्म नैतिक बंधन मात्र है। कर्तव्य शब्द में "कर्म” और "दान” इन दो भावनाओं का सम्मिश्रण है। इस पर नि:स्वार्थता की अस्फुट छाप है। कर्तव्य मानव के किसी कार्य को करने या न करने के उत्तरदायित्व के लिए दूसरा शब्द है। कर्तव्य दो प्रकार के होते हैं-नैतिक तथा कानूनी। नैतिक कर्तव्य वे हैं जिनका संबंध मानवता की नैतिक भावना, अंत:करण की प्रेरणा या उचित कार्य की प्रवृत्ति से होता है। इस श्रेणी के कर्तव्यों का सरंक्षण राज्य द्वारा नहीं होता। यदि मानव इन कर्तव्यों का पालन नहीं करता तो स्वयं उसका अंत:करण उसको धिक्कार सकता है, या समाज उसकी निंदा कर सकता है किंतु राज्य उन्हें इन कर्तव्यों के पालन के लिए बाध्य नहीं कर सकता। सत्यभाषण, संतान संरक्षण, सद्व्यवहार, ये नैतिक कर्तव्य के उदाहरण हैं। कानूनी कर्तव्य वे हैं जिनका पालन न करने पर नागरिक राज्य द्वारा निर्धारित दंड का भागी हो जाता है। इन्हीं कर्तव्यों का अध्ययन राजनीतिक शास्त्र में होता है।

(अभी आगे है)

rajnish manga
17-08-2013, 10:32 PM
हिंदू राजनीति शास्त्र में अधिकारों का वर्णन नहीं है। उसमें कर्तव्यों का ही उल्लेख हुआ है। कर्तव्य ही नीतिशास्त्र के केंद्र हैं।

अधिकार और कर्तव्य का बड़ा घनिष्ठ संबंध है। वस्तुत: अधिकार और कर्तव्य एक ही पदार्थ के दो पार्श्व हैं। जब हम कहते हैं कि अमुक व्यक्ति का अमुक वस्तु पर अधिकार है, तो इसका दूसरा अर्थ यह भी होता है कि अन्य व्यक्तियों का कर्तव्य है कि उस वस्तु पर अपना अधिकार न समझकर उसपर उस व्यक्ति का ही अधिकार समझें। अत: कर्तव्य और अधिकार सहगामी हैं। जब हम यह समझते हैं कि समाज और राज्य में रहकर हमारे कुछ अधिकार बन जाते हैं तो हमें यह भी समझना चाहिए कि समाज और राज्य में रहते हुए हमारे कुछ कर्तव्य भी हैं। अनिवार्य अधिकारों का अनिवार्य कर्तव्यों से नित्यसंबंध है।

फ्रांस के क्रांतिकारियों ने लोकप्रिय संप्रभुता के सिद्धांत को संसार में प्रसारित किया था। समता, स्वतंत्रता, भ्रातृत्व, ये क्रांतिकारियों के नारे थे ही। जनसाधारण को इनका अभाव खटकता था, इनके बिना जनसाधारण अत्याचार का शिकार बन जाता है। आधुनिक संविधानों ने नागरिकों के मूल अधिकारों की घोषणा के द्वारा उपर्युक्त राजनीतिदर्शन को संपुष्ट किया है। मनुष्य की जन्मजात स्वतंत्रता को मान्यता प्रदान की गई है, स्वतंत्र जीवनयापन के अधिकार और मनुष्यों की समानता को स्वीकार किया है। आज ये सब विचार मानव जीवन और दर्शन के अविभाज्य अंग हैं। आधुनिक संविधान निर्माताओं ने नागरिक के इन मूलअधिकारों को संविधान में घोषित किया है। भारतीय गणतंत्र संविधान ने भी इन्हें महत्वपूर्ण स्थान दिया है।
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rajnish manga
17-08-2013, 10:35 PM
कर्तव्य में ही अधिकार निहित है

कर्मयोग तभी होता है, जब मनुष्य अपना कर्तव्य दूसरे के अधिकार की रक्षा के निमित्त करता है | जैसे, माता-पिता की सेवा करना पुत्र का कर्तव्य है और माता-पिता का अधिकार है | जो दुसरे का अधिकार होता है, वही हमारा कर्तव्य होता है| अतः प्रत्येक मनुष्य को अपने कर्तव्य-पालन के द्वारा दूसरे के अधिकार की रक्षा करनी है तथा दुसरे का कर्तव्य नहीं देखना है | दूसरे का कर्तव्य देखने से मनुष्य स्वयं कर्तव्यच्युत हो जाता है; दूसरे का कर्तव्य देखना हमारा कर्तव्य नहीं है | तात्पर्य है कि दूसरे का हित करना है - यह हमारा कर्तव्य है और दूसरे का अधिकार है | यद्यपि अधिकार कर्तव्य के ही अधीन है, तथापि मनुष्य को अपना अधिकार देखना ही नहीं है, प्रत्युत अपने अधिकार का त्याग करना है | केवल दूसरेके अधिकार कि रक्षा के लिए अपने कर्तव्य का पालन करना है | दूसरे का कर्तव्य देखना तथा अपना अधिकार दर्शाना लोक और परलोक में महान पतन करने वाला है | वर्त्तमान समयमें घरों में, समाज में जो अशांति, कलह, संघर्ष देखने में आ रहा है, उसमें मूल मांग तो यही है कि लोग अपने अधिकार कि मांग तो करते हैं, पर अपने कर्तव्य का पालन नहीं करते ! **

rajnish manga
17-08-2013, 10:38 PM
हमारे अधिकार और हमारे कर्तव्य
(लेखक: दीपेन्द्र)

कुछ समय पहले हमारे देश कि सरकार ने शिक्षा को मूल अधिकारों में शामिल कर दिया. सुन कर बहुत दिल खुश हुआ कि अब हमारे देश में अनपढ़ों की संख्या कम होगी और एक दिन ऐसा भी आएगा की हमारे देश में कोई भी अनपढ़ नहीं होगा.

लेकिन समाचार पत्रों और समाचार चैनलों पर अपने देश की वास्तविकता को पढ़ और देख-सुन कर ह्रदय विचलित हो गया.
ऐसा क्यूँ है हमारे देश में की कोई सही बात होने को होती है तो दिल में एक बुरी आशंका आ जाती है की क्या ऐसा हो पायेगा? वो शायद इसलिए कि हम लोगो ने कुछ भी पूरी तरह से अच्छा होते हुए नहीं देखा है.

कारण ? हम चाहते तो है कि सब अच्छा हो, और अच्छा करना भी चाहते है, लेकिन करते नहीं है. क्योंकि हमे अपने सारे अधिकार पता है लेकिन कर्तव्य, शायद उनका पता, पता नहीं है.

और सच्चाई ये है कि जो चीज किसी एक का अधिकार है वो किसी दूसरे का कर्तव्य है, और हम अपने अधिकार के प्रति बहुत ही सजग है. लेकिन कर्तव्य के प्रति सजग नहीं है. हमारे सविधान में मूल अधिकारों के साथ मूल कर्तव्यों का उल्लेख है. लेकिन हम कभी भी शायद उनके बारे में बाते करते हो या सोचते हो.

rajnish manga
17-08-2013, 10:39 PM
मूल कर्तव्य ही क्यों हम उन कर्तव्यों को बारे में भी नहीं सोचते है जो हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा है, उदाहरण के लिए बताईये हमारा बाईक चलाते समय हेलमेट पहनना, कार के सीट बेल्ट को बाधना, सड़को को साफ सुथरा रखना, सडको पर कही भी कुछ भी ना करना, ये किसका कर्तव्य है या हमारा ही है ना? और भी कुछ है जैसे समय पर टैक्स देना, बिजली के मीटरों में कोई छेड़ – छाड़ न करना…. इत्यादि इत्यादि.

हाँ, हम इन कर्तव्य का पालन करते है, लेकिन क्या अपने मन से या शायद इसलिए कि नहीं करने पर दंड भरना पड़ेगा. जरा ईमानदारी से सोचे तो…. शायद दंड का डर हमसे इनका पालन करवाता है, जहां इसका डर नहीं वहां इसका पालन नहीं होता है.
मेरे बहुत से साथी जिन्होंने विदेशों का भ्रमण किया है, वो हमेशा कहते है कि फलां देश में हर चीज बहुत अच्छी है, वहाँ सभी लोग बहुत कायदे से रहते है, सभी लोग नियमों का पालन करते है. कोई भी यातायात के नियमों का उल्लघन नहीं करता. सरकारी कार्यालयों में सभी काम समय पर हो जाते है. निजी संस्थानों में भी सारे काम सही से होते है…. इत्यादि इत्यादि. ये बातें सच है लेकिन सोचिये क्या वहाँ के लोग भी हमारी तरह नियम – कायदे हमारी तरह मानते है, या हमारे और उनके बीच कोई फर्क है. ये विचार करने का विषय है.
हमारे मन में हमेशा शायद ये बात रहती ये है कि नियमों का पालन करवाना सरकार का कर्तव्य है. लेकिन क्या ये ही सच है, सोचे और फिर फैसला करें.
किसी का अधिकार उसको तभी मिलेगा जब कोई दूसरा अपने कर्तव्यों को पूरी ईमानदारी से निभाएगा. किसी बच्चे को उसका शिक्षा का अधिकार तभी मिलेगा जब हम माता-पिता के रूप में, शिक्षक के रूप में या अधिकारी के रूप में अपने कर्तव्यों का पालन पूरी ईमानदारी से करेंगे, और ये बात सभी अधिकारों के लिए सच है क्यूंकि बात तो वही कि जो चीज किसी एक का अधिकार है वो किसी दूसरे का कर्तव्य है.

जय भारत, जय भारतीय…!!!
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rajnish manga
19-08-2013, 12:02 AM
ग़ज़ल
मुल्ला,पण्डित,संत,सयाने सब हमको समझाने आये
सीधी, सच्ची राह दिखानेअलबत्ता दीवाने आये

फिरा किया मैं धूप में दिन की बहके बहके कदमों से
शाम हुई, दो घूँट पिए तो पी कर होश ठिकाने आये

जग में सूने सूने पण का अंधियारा जब फ़ैल गया
तुम न जाने किस नगरी में आशा दीप जलाने आये

दश्ते-वहशतनाक से हमदम कल जो घर ले आये थे
आज वही अहबाब हमें फिर जंगल तक पहुंचाने आये

इश्क़ की मीठी आग में जल कर बुलबुल ने दम तोड़ दिया
फूलों की बगिया में लेकिन भौंरे आग लगाने आये

दिल्ली में दिल्ली वालों की बोली का फुद्कान हुआ
जमना तट के मोती चुनने अहले-ज़बां हरयाने आये

बात विकट असलूब निराला, पुरखों का मद्दाह ‘ज़मीर’
किसके कल्ले में है ताकत, तुझसे जीभ लड़ाने आये

(दश्त = जंगल, मैदान / अहबाब = दोस्त / फुद्कान = कमीं / असलूब = ढंग / मद्दाह = प्रशंसक)
(शायर: सैयद ‘ज़मीर’ हसन देहलवी)

rajnish manga
19-08-2013, 12:06 AM
संकट में दूसरों का अनुभव भी कारगर
पहली कहानी:
कुछ समय पूर्व मध्य प्रदेश के सीहोर जिले में रहने वाले दिनेश मालवीय राजकोट से सोमनाथ-जबलपुर एक्सप्रेस में दूसरे दर्जे की बोगी में सवार हुए। राजकोट और वडोदरा की यात्रा लगभग पांच घंटे की है और इस दौरान ट्रेन के स्टॉपेज वाले स्टेशनों पर बोगी में किन्नर चढ़ आते हैं और यात्रियों से जबरन 20 से 50 रुपए तक वसूलते हैं। उस दिन दिनेश एकमात्र यात्री था, जिसके पास किन्नर नहीं पहुंचे। संभवत: किन्नरों को लग रहा था कि वह बजाय पैसे देने के बहस और करने लग जाएगा। यह घटनाक्रम हर स्टेशन पर दोहराया जाता रहा। यात्री दबाव में पैसे तो दे देते, लेकिन उसके बाद किन्नरों समेत गुजरात सरकार को कोसते। यह घटनाक्रम पिछले एक दशक से ट्रेन यात्रियों के साथ दोहराया जा रहा है, लेकिन कोई भी इस 'लूट' पर रोक नहीं लगा सका है। कई लोगों का कहना है कि यही किन्नर चुनाव में नेताओं के लिए वोट मांगते हैं।

दूसरी कहानी:
मुंबई से प्रकाशित एक स्थानीय अखबार के वरिष्ठ पत्रकार किशोर राठौर सपरिवार कार से लोनावला रवाना हुए। प्राकृतिक सौंदर्य से आच्छादित इस हिल स्टेशन पर कार को कुछ उद्दंड लोगों ने घेर लिया। वे पॉल्यूशन टैक्स के नाम पर 5 से लेकर 25 रुपए प्रति व्यक्ति वसूल रहे थे। किशोर अपनी दस लाख रुपए की कार की सोचकर मन मसोसकर उन्हें 100 रुपए देकर वहां से आगे बढ़े। कुछ देर बाद कार पार्किंग के नाम पर फिर कुछ उद्दंड लोगों ने उनसे 100 रुपए वसूले। मामला यहीं खत्म नहीं हुआ, पिकनिक के लिए गया परिवार 5 रुपए के वड़ा पाव 15 रुपए में और 60 रुपए की कोल्ड ड्रिंक पीकर बेहद खराब मन से वापस लौट आया।

rajnish manga
19-08-2013, 12:08 AM
तीसरी कहानी:
अम्मु कृष्णन कुट्टी केरल में 14 से 18 वय के 11 हजार स्कूल-कॉलेज स्टूडेंट्स में से एक है, जिन्हें अपने-अपने शहरों में पेश आने वाले छोटे-मोटे अपराधों पर रोक लगाने के लिए प्रशिक्षित किया गया है। इस दस्ते को 'कुट्टी पुलिस' के नाम से जाना जाता है, जिसका मलयाली भाषा में अर्थ है छोटी पुलिस। कम्युनिटी पुलिस अधिकारी श्याम कुमार के मुताबिक इस दस्ते ने आम लोगों के साथ पेश आने वाले छोटे-मोटे अपराधों पर काफी हद तक रोक लगाने में सफलता हासिल की है। इस दस्ते के रूप में यह प्रयोग कोझीकोड में तत्कालीन पुलिस कमिश्नर पी. विजयन ने 2010 में शुरू किया था। ये 11 हजार स्टूडेंट्स निर्धारित स्थानों पर सुबह और शाम को गश्त करते हैं। छोटी-मोटी घटनाओं को तो ये खुद निपटा लेते हैं, लेकिन अगर मामला बड़ा है, तो स्थानीय पुलिस की मदद लेते हैं। इन्हें स्कूली स्तर पर ही इसके लिए प्रशिक्षित किया गया है।

गौरतलब है कि हमारे देश की आबादी का काफी बड़ा भाग 25 साल से कम उम्र का है। ऐसे में इन लोगों के लिए छोटे-मोटे अपराध वाले स्थानों पर अपना प्रभाव दिखाना आसान होता है। इनके कारण स्थानीय लोगों में सुरक्षा का भाव भी आता है। इसका एक बड़ा फायदा यह भी है कि ये बच्चे वयस्क होने पर कहीं जिम्मेदार नागरिक बनकर उभरते हैं। केरल के इस प्रयोग ने ऑल इंडिया पुलिस साइंस कांग्रेस का ध्यान भी आकर्षित किया है। कांग्रेस ने इस प्रयोग को हर राज्य से लागू करने की अनुशंसा की है। आंध्र प्रदेश और राजस्थान इस बारे में केरल से और जानकारी भी ले रहे हैं।

कुछ समस्याओं का निदान अगर आपको नहीं सूझता, तो उससे दूसरे कैसे निपट रहे हैं, उससे सबक लें। अगर स्थिति नियंत्रण से बाहर जाती है, तो घबराएं नहीं। अपने आसपास देखें, हो सकता है कि वहां ऐसी ही स्थिति से दो-चार हो चुके लोग मौजूद हों। वे आपको सही समाधान सुझा सकेंगे।

rajnish manga
20-08-2013, 01:54 PM
कैसे कैसे शस्त्र आवेदन
(इन्टरनेट से साभार)

पौराणिक युद्वों में सेनानियों को उत्साहित करने के लिये वीर रस के ओजपूर्ण कवियों का कविता पाठ प्रमुख भूमिका निभाता था यह विचार तो तर्क संगत हो सकता है परन्तु शस्त्र लाइसेंस को पाने के लिये कवितामय आवेदन की तर्कसंगता पर अवश्य विचार किया जाना चाहिये।

महात्मा गांधी की भ्रमण स्थली रहे जनपद हरदोई के शस्त्र लाइसेंस आवेदको के प्रार्थना पत्र विभिन्न रूपों में प्राप्त होते रहते हैं जिनपर यथासंभव कार्यवाहियां भी सम्पन्न करायी जाती हैं। अभी हाल ही में एक शस्त्र लाइसेंस का एक कवितामय आवेदन प्राप्त हुआ जिसे आपके साथ साझा करने का मोह संवरण नहीं कर सका:


जनपद का गौरव जिलाधीश / आशीष आपका पाने को।
छोटे भाई की अभिलाषा / छोटा सा शस्त्र दिलाने को।

है अनुज तुम्हारा पत्रकार / जनता की है सेवा करता।
आत्म सुरक्षा हेतु शस्त्र की / अन्तर मन से आशा करता।

विनती स्वीकार करो मेरी, आया हूं अर्ज लगाने को।
छोटे भाई की अभिलाषा /छोटा सा शस्त्र दिलाने को।

क्षत्रिय अधूरा लगता है, कन्धे पर जिसके अस्त्र नहीं।
विजय दशहरा पर्वों पर , पूजन के लिये कोई शस्त्र नहीं।

हूं शस्त्र तमन्नासे प्यासा/आया हूं प्यास बुझाने को।
छोटे भाई की अभिलाषा / छोटा सा शस्त्र दिलाने को।

कवि कल्पना कर करके / इतिहास काव्य रच देते हैं ।
जो कलम आपकी चल जाये / हर किस्से पूरे होते हैं।

जो काम असम्भव , सम्भव हो / आया हूं पूर्ण कराने को।
छोटे भाई की अभिलाषा / छोटा सा शस्त्र दिलाने को।

भगवान राम की सत्ता में/ यह लखन लाल का सपना है।
अधिकार आपके हाथों में/ जीवन का हर क्षण अपना है।

यह सपना पूरा हो जाये/ आया विश्वास जगाने को।
छोटे भाई की अभिलाषा / छोटा सा शस्त्र दिलाने को।

क्षमा याचना त्रुटियों की / हे पिता तुल्य! यह अभिलाषा।
निराश नहीं होने देना / पूरा करना मेरी आशा।

टूटे फूटे इन शब्दों से / आया फरियाद लगाने को।
छोटे भाई की अभिलाषा / छोटा सा शस्त्र दिलाने को।

इस बेहतरीन तुकान्त कविता के लेखक का नाम सार्वजनिक नहीं कर सकते क्योंकि यह एक शस्त्र आवेदक की व्यक्तिगत सुरक्षा से संबंधित है।

बहरहाल, आवेदक को इस सुन्दर तुकान्त कविता के लिये बधाई !

dipu
21-08-2013, 09:58 PM
कैसे कैसे शस्त्र आवेदन
(इन्टरनेट से साभार)

पौराणिक युद्वों में सेनानियों को उत्साहित करने के लिये वीर रस के ओजपूर्ण कवियों का कविता पाठ प्रमुख भूमिका निभाता था यह विचार तो तर्क संगत हो सकता है परन्तु शस्त्र लाइसेंस को पाने के लिये कवितामय आवेदन की तर्कसंगता पर अवश्य विचार किया जाना चाहिये।

महात्मा गांधी की भ्रमण स्थली रहे जनपद हरदोई के शस्त्र लाइसेंस आवेदको के प्रार्थना पत्र विभिन्न रूपों में प्राप्त होते रहते हैं जिनपर यथासंभव कार्यवाहियां भी सम्पन्न करायी जाती हैं। अभी हाल ही में एक शस्त्र लाइसेंस का एक कवितामय आवेदन प्राप्त हुआ जिसे आपके साथ साझा करने का मोह संवरण नहीं कर सका:


जनपद का गौरव जिलाधीश / आशीष आपका पाने को।
छोटे भाई की अभिलाषा / छोटा सा शस्त्र दिलाने को।

है अनुज तुम्हारा पत्रकार / जनता की है सेवा करता।
आत्म सुरक्षा हेतु शस्त्र की / अन्तर मन से आशा करता।

विनती स्वीकार करो मेरी, आया हूं अर्ज लगाने को।
छोटे भाई की अभिलाषा /छोटा सा शस्त्र दिलाने को।

क्षत्रिय अधूरा लगता है, कन्धे पर जिसके अस्त्र नहीं।
विजय दशहरा पर्वों पर , पूजन के लिये कोई शस्त्र नहीं।

हूं शस्त्र तमन्नासे प्यासा/आया हूं प्यास बुझाने को।
छोटे भाई की अभिलाषा / छोटा सा शस्त्र दिलाने को।

कवि कल्पना कर करके / इतिहास काव्य रच देते हैं ।
जो कलम आपकी चल जाये / हर किस्से पूरे होते हैं।

जो काम असम्भव , सम्भव हो / आया हूं पूर्ण कराने को।
छोटे भाई की अभिलाषा / छोटा सा शस्त्र दिलाने को।

भगवान राम की सत्ता में/ यह लखन लाल का सपना है।
अधिकार आपके हाथों में/ जीवन का हर क्षण अपना है।

यह सपना पूरा हो जाये/ आया विश्वास जगाने को।
छोटे भाई की अभिलाषा / छोटा सा शस्त्र दिलाने को।

क्षमा याचना त्रुटियों की / हे पिता तुल्य! यह अभिलाषा।
निराश नहीं होने देना / पूरा करना मेरी आशा।

टूटे फूटे इन शब्दों से / आया फरियाद लगाने को।
छोटे भाई की अभिलाषा / छोटा सा शस्त्र दिलाने को।

इस बेहतरीन तुकान्त कविता के लेखक का नाम सार्वजनिक नहीं कर सकते क्योंकि यह एक शस्त्र आवेदक की व्यक्तिगत सुरक्षा से संबंधित है।

बहरहाल, आवेदक को इस सुन्दर तुकान्त कविता के लिये बधाई !

:hello::hello::hello:

rajnish manga
23-08-2013, 02:19 PM
चतुर व्यापारी और चोर


एक डरपोक लेकिन चतुर व्यापारी के घर में चोर घुसने पर वह अपनी पत्नी के कान में चोरों को चकमा देने की तरकीब बताने के बाद जोर से बोला- सुनती हो। आज मैं जो थैली भर राई लाया था, वह संभालकर तो रख दी है ना। दुनिया में राई की माँग बढ़ने से कल से इसके दाम आसमान छूने लगेंगे।

एक थैली राई लाखों रुपए की होगी। अगर वह थैली किसी के हाथ लग गई तो अपने तो भाग्य ही फूटेसमझो। खैर छोड़ो, वैसे भी रात में कौन आएगा। पत्नी बोली- अरे तुम निश्चिन्त होकर सो जाओ। मैंनेथैली संभालकर टाँड पर रख दी है। उसके बाद दोनों चुप होकर खर्राटे भरने लगे, जैसे कि सो गए हों।

उसकी तरकीब काम कर गई। चोर इधर-उधर हाथ मारने की बजाय राई की थैली लेकर चलते बने। वे अगले दिन थैली लेकर उसे बेचने बाजार पहुँचे, लेकिन राई के दाम तो बढ़े नहीं थे। चोरों को समझ में नहीं आ रहा था कि माजरा क्या है। भाव पूछते हुए वे उसी व्यापारी की दुकान पर पहुँच गए जिसके यहाँ उन्होंने चोरी की थी।

एक चोर ने पूछा- क्यों सेठ, राई का क्या भाव है? व्यापारी अपनी थैली पहचान गया। वह मुस्कुरा कर बोला- भैया, राई के भाव तो रात की रात में ही गए। चोर उसकी बात समझ गए और सिर धुनते हुए चुपचाप वहाँ से खिसक लिए।

दोस्तो, उस व्यापारी ने राई का पर्वत बनाकर घर को लुटने से बचा लिया यानी छोटी-सी चीज को बातों के लब्बोलुबाब से उसने इतना बढ़ा-चढ़ाकर बताया कि अच्छे-अच्छे उसके झाँसे में आ जाएँ, फिर वे तो चोर थे। इसी कारण कहते हैं कि कभी भी किसी की बात पर विश्वास करने से पहले देख लो, सोच-विचारकर लो कि कहीं उन्हें बढ़ा-चढ़ाकर तो नहीं बताया जा रहा।
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rajnish manga
29-08-2013, 02:41 PM
चूसी हुई नारंगी और कौवे

एक बार ईश्वर चंद विद्यासागरके एक मित्र उनसे मिलने आए। उस समय विद्यासागर नारंगी खा रहे थे। कुशल क्षेम पूछने के बाद ईश्वर चंद ने अपने मित्र से भी नारंगी खाने का आग्रह किया। विद्यासागर नारंगी छील कर उसकी फांके चूस-चूस कर अपने पास रख लेते थे मगर उनके मित्र नारंगी की फांकें चूस कर फेंकने लगे। यह देख कर विद्यासागर ने कहा, 'भाई इन्हें फेंको मत। ये किसी के काम आ जाएंगी।' यह सुनकर मित्र हैरत में पड़ गए। उन्होंने पूछा, 'अब ये किसके काम आएंगी? ये तो बेकार हो चुकी हैं।' विद्यासागर ने हंस कर कहा, 'यदि आप यह जानना चाहते हैं कि ये फांके किसके काम आएंगी तो इन्हें आप बाहर चबूतरे में रख दें फिर देखें कि ये बेकार की हैं या काम की।' मित्र ने वैसा ही किया। जैसे ही वे चूसी हुई फांके रख कर वहां से हटे, वैसे ही कौवों का झुंड उन्हें लेने आ गया। देखते ही देखते सारी फांकें लेकर कौवे चले गए।

विद्यासागर ने कहा, 'देख लिया न कि ये बेकार की फांकें कितने काम की हैं। कोई भी वस्तु बेकार नहीं है। हम जिसे बेकार समझकर फेंक देते हैं वह भी किसी न किसी प्राणी के काम आती हैं। अगर हमारे मन में प्राणिमात्र के प्रति थोड़ी भी करुणा है तो हमें उनके लिए सोचना चाहिए। यदि हमारे भीतर इस प्रवृत्ति का विकास हो सका तो हम देश में अनाज या दूसरी वस्तुओं की बर्बादी को आसानी से रोक सकते हैं।' यह सुन कर विद्यासागर के मित्र झेंप गए और बोले, 'छोटी-छोटी बातों के पीछे भी बड़ी बात छिपी होती है। लेकिन प्राय: लोग इसे समझ नहीं पाते। भविष्य में मैं आपकी इस सीख को याद रखूंगा।' विद्यासागर बोले, ' आप इसे अपने तक ही सीमित न रखें। अगर अपने साथियों को भी इसकी प्रेरणा देंगे तो देश का कोई भी प्राणी भूखा नहीं सोएगा।' मित्र ने ऐसा करने का वचन दिया।

Dr.Shree Vijay
29-08-2013, 06:43 PM
छोटी छोटी बाते भी जीवन के बड़े बड़े संकट टाल देती हैं,
जीवनोपयोगी बेहतरीन सूत्र........................................ .....

rajnish manga
29-08-2013, 10:23 PM
छोटी छोटी बाते भी जीवन के बड़े बड़े संकट टाल देती हैं,
जीवनोपयोगी बेहतरीन सूत्र........................................ .....

आपने ठीक कहा, मित्र. ये छोटे छोटे प्रसंग हमें काफी कुछ सिखा सकते हैं. आपके सार्थक शब्दों के लिये धन्यवाद, डॉ. श्री विजय जी.

dipu
30-08-2013, 03:12 PM
बहुत बढ़िया रजनीश जी

omprakashyadav
31-08-2013, 01:54 PM
beautiful sir i like your post..
for more hindi poems ..visit - http://poemsonnature.blogspot.in/2013/07/love-poems.html

rajnish manga
01-09-2013, 11:53 AM
बहुत बढ़िया रजनीश जी





beautiful sir i like your post..
for more hindi poems ..visit - http://poemsonnature.blogspot.in/2013/07/love-poems.html (http://poemsonnature.blogspot.in/2013/07/love-poems.html)



दीपू जी तथा भाई ओम प्रकाश जी का हार्दिक धन्यवाद.

rajnish manga
01-09-2013, 10:22 PM
वह शक्ति हमें दो दयानिधे


वह शक्ति हमें दो दयानिधे,
कर्तव्य मार्ग पर डट जावें |

पर-सेवा पर उपकार में हम,
निज जीवन सफल बना जावें ||

हम दीन दुखी निबलों विकलों
के सेवक बन सन्ताप हरें |

जो हों भूले भटके बिछुड़े
उनको तारें ख़ुद तर जावें ||

छल-द्वेष-दम्भ-पाखण्ड- झूठ,
अन्याय से निशदिन दूर रहें |

जीवन हो शुद्ध सरल अपना
शुचि प्रेम सुधारस बरसावें ||

निज आन मान मर्यादा का
प्रभु ध्यान रहे अभिमान रहे |

जिस देश जाति में जन्म लिया
बलिदान उसी पर हो जावें ||


आदरणीय सदस्यगण,वह शक्ति हमें दो द्यानिधे कर्तव्यमार्ग पर डट जावेंपर सेवा पर उपकार में हम निज जीवन सफल बना जावें.... लम्बी प्रार्थना है । हम इसे अपने स्कूल के दिनों में दैनिक प्रार्थना में गाते थे लेकिन कभी इसके रचयिता की ओर ध्यान नहीं गया। आज इसके बा यह लम्बी प्रार्थना है । हम इसे अपने स्कूल के दिनों में दैनिक प्रार्थना में गाते थे लेकिन कभी इसके रचयिता की ओर ध्यान नहीं गया। आज इसके बारे में कुछ लोगों से चर्चा के क्रम में जिज्ञासा उत्पन्न हुई। एक मित्र ने कहा कि यह पं० राम नरेश त्रिपाठी की रचना है लेकिन मेरे मन में संशय था। ई-कविता के सद्स्य सज्जन जी से पूछा तो उन्होनें श्रीमान गूगल की मदद से बताया कि इसके रचयिता रीवा के पं० परशुराम पाण्डेय जी हैं लेकिन उसी लेख में यह भी लिखा है कि उक्त प्रार्थना के रचयिता कोई मुरारीलाल शर्मा ’बालबन्धु’ जी हैं। पुनः दुविधा की स्थिति उत्पन्न हो गयी है। आप के समक्ष यह समस्या शोधार्थ एवं समाधानार्थ रख रहा हूँ। प्रामाणिक और असन्दिग्ध जानकारी की अपेक्षा है।

(प्रस्तुति: अमिताभ त्रिपाठी)

rajnish manga
14-09-2013, 03:00 PM
घायल सैनिक की सेवा सुश्रुषा

द्वितीय विश्वयुद्ध की बात है। जर्मनी ने बेल्जियम को पराजित कर दिया था। इसके बाद जर्मन सैनिकों ने बेल्जियम के सैनिकों के साथ अत्यंत क्रूरतापूर्ण व्यवहार किया। यह सब देखकर बेल्जियम के लोगों में जर्मनों के प्रति घोर घृणा का भाव आ गया। बेल्जियम की प्रसिद्ध समाजसेविका श्रीमती माग्दा यूरस भी इन लोगों में से एक थीं। वे युद्ध की प्रबल विरोधी और शांति की समर्थक थीं।

अपने देशवासियों पर जर्मनों के अत्याचार देखकर वे बहुत दु:खी होती थीं। घायल सैनिकों के लिए वे यथाशक्ति मदद पहुंचाती थीं। एक दिन उन्होंने एक घायल जर्मन सैनिक को देखा। श्रीमती यूरस को उस पर दया आई, किंतु वे यह सोचते हुए आगे बढ़ गईं- ‘यह नाजी है। इसे ऐसे ही मरना चाहिए।’

श्रीमती यूरस आगे तो बढ़ गईं, किंतु उनका मन उस घायल सिपाही में अटक गया। उन्हें ऐसा लगा मानो उनकी आत्मा उन्हें धिक्कार रही है। उस घायल मनुष्य की मदद इंसानियत की दृष्टि से करनी चाहिए। तभी उस घायल सिपाही का आर्त स्वर फिर उनके कानों से टकराया। अंतत: करुणा ने घृणा पर विजय प्राप्त कर ली।

वे उस सैनिक के पास लौटीं और वहीं बैठकर उसे देखने लगीं कि उसे कैसी मदद की आवश्यकता है? जर्मन सैनिक उनकी सहानुभूति देखकर चकित हो उठा। वह बोला- ‘आप यहां? मेरे पास?’ उन्होंने उसका सिर स्नेह से सहलाते हुए कहा- मैं तुम्हें अभी अस्पताल पहुंचाने की व्यवस्था करती हूं। तब तक आओ, जरा तुम्हें पट्टी बांध दूं।’ यह कहते हुए श्रीमती यूरस उसके उपचार में लग गईं। पीड़ित मानवता की सेवा के लिए मित्र-शत्रु, अपना-पराया, जाति-विजातीय का भेद नहीं करना चाहिए। समदृष्टि रखने वाला ही सच्चा समाजसेवक होता है।

rajnish manga
14-09-2013, 03:08 PM
नाटक ‘पहला राजा’ में पृथु का समाज-बोध

“पहला राजा” जगदीशचंद्र माथुर का अंतिम नाटक है। यह अपनी प्रयोगधर्मिता तथा युगीन समस्याओं के विन्यास के लिए प्रसिद्ध है। पहला राजा में नेहरूयुगीन लोकतंत्र की समस्याओं को लिया गया है, जो आज और अधिक जटिल हो गई हैं। बच्चनसिंह के अनुसार इस नाटक में “जवाहरलाल नेहरू लक्षणावृत्ति से स्वतंत्र भारत के पहले राजा कहे जा सकते हैं। पृथु की अनेक विषेशताएं नेहरू से मिलती-जुलती हैं। अत: पृथु का कथानक नेहरूयुगीन समस्याओं को उठाने के लिए वस्तुनिष्ठ समीकरणबन जाता है। पहला राजा के केन्द्रीय पात्र पृथु की कथा महाभारत के राजधर्मानुशासन पर्व से ली गई है। इसके कथानक का ताना-बाना बुनने के लिए वेद, भागवत पुराण, हड़प्पा मोहन जोदड़ो की सभ्यता से अपेक्षित सूत्रों को भी लिया गया है। पृथु का मिथक, जिसमें पृथ्वी के दुहे जाने की कथा है, से सिद्ध होता है कि वह नियमों में बंधा हुआ प्रथम प्रजा वत्सल राजा था।“ इंद्रनाथ मदान के अनुसार इसके “माध्यम से नेहरू युग की आधुनिकता का पहला दौर उजागर होने लगता है। योजनाओं का प्रारंभ, भारत, चीन-युद्ध, मंत्रियों के षड़यंत्र, घाटे का बजट, पिछड़ी जातियों की समस्याएं, संविधान, पूंजीवाद, जनता का शोषण और अन्य नेहरू युगीन समस्याओं की अनुगूंजें नाटक में आरंभ से अंत तक मिलती है।“यह कहा गया है कि पृथु की कथा पर आधुनिकता का प्रक्षेपण इतना गहरा है कि पृथु अतीत का पृथु नहीं मालूम पड़ता। पहले ही कहा गया है कि पृथु-कथा माथुर के भीतर उमड़ती हुई समस्याओं के लिए वस्तुनिष्ठ समीकरण है। पृथु कुलूत देश से चलकर ब्रह्मावर्त पहुंचता है। उसके साथ अनार्य मित्र कवश भी है। ऋषियों-मुनियों ने बेन के शरीर मंथन का नाटक कर पृथु को भुजा पुत्र ठहराया और कवश को जंघापुत्र अर्थात एक को क्षत्रिय और दूसरे को शूद्र। पृथु के पूर्ववर्ती राजा का वध ऋषियों ने ही किया था। इससे पता चलता है कि ब्राह्मण उस समय अत्यधिक शक्तिशाली थे। ऋषियों ने संविधान बनाया और पृथु उससे प्रतिबद्ध था। वह ऋषि-मुनियों के यज्ञ की रक्षा करता था। माथुर ऋषियों की पवित्रता और सदाचार का मिथक तोड़ते हैं। नाटककार पृथु के महिमामंडित व्यक्तित्व की जगह पृथ्वी को समतल करने तथा उत्पादन बढ़ाने वाले व्यक्तित्व पर अधिक बल देता है। कृषि और सिंचाई व्यवस्था पर नेहरू ने भी जोर दिया था। आरंभ में नाटककार ने लिखा भी है-``लेकिन नाटक में पृथु कुछ और भी है। वह विभिन्न दुविधाओं को खिंचावों का बिंदु है। हिमालय का पुत्र, जो प्रकृति की निष्छल क्रोड़ में खो जाना चाहता है, आर्य युवक जो पुरुशार्थ और शौर्य का पुंज है, निशाद किन्नर एवं अन्य आर्येतर जातियों का बंधु, जो एक समीकृत संस्कृति का स्वप्न देखता है, दारिद्र्य का शत्रु और निर्माण का नियोजक, जिसे चकवर्ती और अवतार बनने के लिए मजबूर किया जाता है--- और संकेत नहीं दूंगा कि वह कौन है?´´ आशय स्पष्ट है कि नेहरू ने एक मिली-जुली संस्कृति के निर्माण का सपना देखा था, गरीबी दूर करने का संकल्प किया था, नदियों से नहरें निकाली थीं, बांध बनवाए थे। लेकिन पृथु का अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व भी है। उसकी महत्वाकांक्षा कवश और उर्वी को अलग कर देती है।

rajnish manga
26-09-2013, 09:48 PM
हिम्मत और चाहत
(साभार: अमिताभ बच्चन का ब्लॉग)

इंसान क्या चाहता है और उसे पाने के लिए जो करना है उसके लिए कितनी हिम्मत रखता है उसी से फैसला होता है कि उसे जो चाहिए वह मिलेगा या नहीं। कितनी बार मन करता है कि बस अब घर पर रहें, काम पर न जाएँ, लेकिन मजबूर हो कर जाना ही पड़ता है। सोचना पड़ता है कि क्या यही चाहते थे हम, या कुछ और? पैसा, शोहरत, या चैन की साँस? उन दिनों तो लगता ही नहीं कि पैसा और शोहरत पाने के लिए चैन की साँस खोनी पड़ेगी। लेकिन खोनी पड़ती है और उसके बाद भी चढ़ाई बस चढ़ते जाओ, चढ़ते जाओ, कभी खतम नहीं होती। कहीं रुक गए तो डर लगता है कि दूसरे आगे निकल जाएँगे। जीत तो सकते ही नहीं।

चाहत खत्म क्यों नहीं होती? साइकिल मिल गई तो कार चाहिए, एक कार मिल गई तो दो, कभी भी खत्म नहीं होती।

rajnish manga
26-09-2013, 09:54 PM
ठोकर नहीं खायी तो क्या किया?


पुराने दोस्तों की जब बात हो रही है, तो पुराने दोस्त मिलने पर जब बात करते हैं, और सवालात पूछते हैं तो ऐसा लगता है जैसे वह पुराने वाले अमिताभ से बात करने की कोशिश कर रहे हैं, साथ ही वह कहते हैं, बाल सफेद हो गए हैं, पतले हो गए हो, वगैरह। इंसान बदल जाता है फिर भी वह, वह ही रहता है, कोई और नहीं होता। क्या इंसान इस तरह अपने आप को धोखा देता है, वह एक जैसा हमेशा क्यों नहीं रहता, बदल क्यों जाता है, छोटा बदलाव ही सही। कभी कभी आप वही होते हैं, पर दोस्त बदल जाते हैं या उनका नजरिया बदल जाता है।

कुछ लोग बड़े हो कर भी बड़े नहीं होते। जिंदगी भर स्क्रिप्ट ही पढ़ते हैं, वही स्क्रिप्ट जो उनकी माँ, उनके बाप और उनके बच्चे या पति या पत्नी उन्हें देते हैं। ऐसी जिंदगी से तो मरना ही अच्छा है। अपने आप से अगर कुछ किया नहीं, लुढ़के नहीं, ठोकर नहीं खाई तो जिंदगी में किया क्या?
(अमित जी का ब्लॉग)

rajnish manga
26-09-2013, 09:57 PM
अजीब दास्तान

मेरी जिंदगी एक अजीब दास्तान है जिसमें खुशी है लेकिन खुश होने से डर भी है। खुल कर हँस नहीं सकता और खुल कर रो नहीं सकता। सबसे मिलने और बात करने का मन करता है पर हिचकिचाहट भी होती है।

एक जमाना था जब ऐसा लगता था कि मैं कुछ भी कर सकता हूँ। अब सीख गया हूँ कि ऐसा नहीं है, इसलिए अपनी औकात में रहता हूँ। पर दुःख होता है कि उस तरह ऊँचाइयों को छूने और बुलंदियों को पाने के लिए ऊँची कुलाची अब कभी नहीं मारूँगा क्योंकि मुझे पता है कि मैं वहाँ तक पहुँच नहीं पाऊँगा।

अब ऐसा नहीं है। कई बार कुलाची मार कर मुँह के बल गिर चुका हूँ।

अपनी जिंदगी के वाकयों को याद कर रहा हूँ और सोच रहा हूँ कि क्या भूलूँ और क्या याद करूँ।

कालेज में एक लड़की की कापी में लिखा देखा था

मैं, मेरा मुझे। स्वयं अपने आप से लिपटे हुए शब्द।

शायद उसने ऐसे ही कुछ सोचते हुए लिखा होगा। लेकिन हिम्मत नहीं हुई उससे इसके बारे में कभी कुछ पूछने की। अगर वह इसे पढ़ रही हो तो शायद उसे पता चल जाएगा कि उसके बारे में बात हो रही है और शायद उसे यह याद भी न होगा कि कभी उसने ऐसा लिखा था। लेकिन उससे क्या है।

शुरू शुरू में जब कुछ भी लिखता था तो लगता था कि मैं कुछ भी लिखूँगा मजेदार होगा लेकिन अब ऐसा नहीं लगता है। अब लगता है जीवन के दुःखों के बारे में लिखना जरूरी है। क्योंकि अक्सर मैं खुद दुःखी होता हूँ।

मैं अपनी जात खुद नहीं जानता था पंद्रह साल की उमर तक। लेकिन फिर दुनिया ने अहसास दिला दिया कि मेरी भी एक जात है। और बहुत गंदी जात है। लेकिन मैं अपने आप को उस गंदी जात का हिस्सा नहीं मानता हूँ। मैं, मैं हूँ।

स्वयं अपने आप से लिपटा हुआ और दुनिया जहान से बेखबर।
यही मेरी खूबी भी है और कमी भी.

(अमित जी का ब्लॉग – 24 अगस्त 2006)

rajnish manga
26-09-2013, 09:59 PM
ग़ ज़ ल
शायर: कैसर-उल-जाफ़री

फिर मेरे सिर पे कड़ी धूप की बौछार गिरी
मैं जहां जा के छुपा था वहीँ दीवार गिरी

लोग किश्तों में मुझे क़त्ल करेंगे शायद
सबसे पहले मेरी आवाज पे तलवार गिरी

और कुछ देर मेरी आस न टूटी होती
आख़िरी मौज थी जब हाथ से पतवार गिरी

अगले वक्तों में सुनेंगे दरो-दीवार मुझे
मेरी हर चीख मेरे अहद के उस पार गिरी

खुद को अब गर्द के तूफां से बचाओ ‘कैसर’
तुम बहुत खुश थे कि हमसाये की दीवार गिरी

(अहद = समय / हमसाये = पड़ौसी)

rajnish manga
28-09-2013, 09:45 PM
ओ ! जीवन के थके पखेरू, बढ़े चलो हिम्मत मत हारो,
पंखों में भविष्य बंदी है मत अतीत की ओर निहारो,
क्या चिंता धरती यदि छूटी उड़ने को आकाश बहुत है
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है ।



बलवीर सिंह "रंग"

rajnish manga
28-09-2013, 09:53 PM
पतंग, चरखड़ी और मेरी कवितायें
आलेख: मुकेश मानस


ख्वाब आंखों में गर नहीं होते
इतने आसां सफर नहीं होते

आज जब मैं इन कविताओं को देखता हूं तो मुझे बहुत हैरत होती है। सोचता हूं कि मैंने इतनी कविताएं कैसे लिख लीं। जिन हालातों में मैंने आज तक ये जीवन जीया है, जिन निराशाओं, तनावों और कुंठाओं से लड़ते हुए मैं आज जहां तक पहुंचा हूं उनमें कविता लिखना शायद मेरे लिए सबसे मुश्किल काम था।

मुझे नहीं मालूम कि मेरे शायर दोस्त प्रदीप साहिल ने ये शेर क्या सोचकर लिखा है। पर मेरे लिये यह एकदम सच है। कविता लिखना मेरे लिये किसी सपने से कम नहीं है। सपना यानी पतंग जिसे ऊंचा और ऊंचा उड़ाने की इच्छा मेरे मन में हमेशा ही रही है। मगर चरखड़ी नहीं थी मेरे पास। धीरे-धीरे मैंने कुछ धागा जुटाया और अपनी मुसीबतों को चरखड़ी बनाकर मैने कविताएं लिखी और उन्हें को पतंग बनाकर उड़ाने की कोशिश की। और आज भी कर रहा हूं।

इन कविताओं ने मेरे साथ एक लंबा सफर तय किया है। लगातार मुश्किलों के घुप्प अन्धेरों में फंसना, उन मुश्किलों से टकराते हुए खुद को परखना, आत्म-विश्वास में भरना और नए आकाश तय करने के लिए लगातार जी-तोड़ मेहनत करना। ये सब ही इस सफर के मोड़ हैं। इन्हीं मोड़ों पर ये कविताएं मेरे पास आ गई है। मुझे लाचार निराशा और परास्त मानसिकता से उबारती हुई, अकेलेपन और बेसहारापन में सहारा देकर हौसला अफ़्जाई करती हुई और सफर के नए मुकामों को छूने की कूवत भरती हुई।

rajnish manga
28-09-2013, 10:11 PM
आज मैं आपके समक्ष संस्कृत साहित्य का एक ऐसा श्लोक प्रस्तुत कर रहा हूँ जो इस मायने में अनोखा है कि इसमें मात्राओं के अतिरिक्त केवल एक ही अक्षर का प्रयोग किया गया है. जो भी इसे पढता है, दांतों तले उंगली दबाने पर विवश हो जाता है.

भारवि रचित महाकाव्य “किरातार्जुनीयम” में निम्नलिखित श्लोक आता है, जिसमे महाकवि ने एक ही अक्षर का प्रयोग किया है:

ननोनन्नुनो नुन्नोनो नाना नानाननाननु ।
नुन्नोऽनुन्नोननुन्नेन्नो नाने नानुन्ननुन्ननुन ।।

(15/14)

बहुत तलाश करने के बाद भी इसका अर्थ नहीं खोज पाया. अंत में हमारे अपने परम आदरणीय “डार्क सेंट अलैक” की कृपा से इस श्लोक का भावार्थ मिल सका.


भावार्थ:
हे नाना मुख वाले (नानानन)! वह निश्चित ही (ननु) मनुष्य नहीं है जो अपने से कमजोर से भी पराजित हो जाय। और वह भी मनुष्य नहीं है (ना-अना) जो अपने से कमजोर को मारे (नुन्नोनो)। जिसका नेता पराजित न हुआ हो वह हार जाने के बाद भी अपराजित है (नुन्नोऽनुन्नो)। जो पूर्णनतः पराजित को भी मार देता है (नुन्ननुन्ननुत्) वह पापरहित नहीं है (नानेना)।

rajnish manga
07-10-2013, 10:02 PM
ग़ज़ल

क्यों हमसे बात करता है लहजा सम्हाल कर
कुछ तो रिफाकतों का हमारी ख़याल कर

पहले तो दोस्त यारों से करता था मशविरा
अब फैंसला वह करता है सिक्का उछाल कर

अब तक तो वो लगा न सका आंसुओं की थाह
क्या जाने क्या करेगा समुन्दर खंगाल कर

भंवरा है वो तो फूल बिना रह न पायेगा
तू उसके रूठने का न इतना मलाल कर

अब चूर कर दे थोड़ा सा उसके गुरूर को
इक चांद दूसरा मेरे मौला निकाल कर

अशआर क्या कहे हैं ‘कज़लबाश’ ने ‘अतीक़’
कागज़ पे रख दिया है कलेजा निकाल कर

(अतीक़ इलाहाबादी)

dipu
08-10-2013, 07:53 AM
बहुत बदिया

rajnish manga
02-11-2013, 10:21 PM
सुर साधक मन्ना डे

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=31438&stc=1&d=1383412748


समय की भीत पर लिखा हुआ अभिलेख मन्ना डे.
संगीत प्रेमियों के दिल में उतरा है देख मन्ना डे.
पक्के सुर में पगी गायकी उसकी हरदम कहती है,
पैदा हज़ारों वर्ष में होता है केवल एक मन्ना डे.



http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=31439&stc=1&d=1383412748

rajnish manga
02-11-2013, 10:24 PM
‘सावन के अँधे’ या ‘अंधों का सावन’

सुना है ‘अंधों का हाथी’ लिखने से पहले शरद जोशी जी ‘अंधों का सावन’ लिखने की सोचरहे थे। नहीं लिख पाए क्यूंकि ये मेरे भाग्य में बदा था। यदि अंधे या नेत्रहीनआंखों में काजल लगा भी लें तो इसमें दोष नहीं होता। सम्राट धृतराष्ट्र तो जन्मांधथे। बगैर आँखों की मदद के वे सौ बच्चों के बाप बने। संजय के मार्फत उन्होंने न जानेकितने सावन-भादों देखे-सुने।

दृष्टिहीनों की आँखें सुना है मन में होती हैं।हमारे पास मन के नयन नहीं हैं। इसलिए हम कवि सूरदास की तरह कृष्ण की बाललीला नहींदेख सकते। श्रीकृष्ण तत्कालीन 10-20 जुलाई की रात को पैदा हुए थे। राशि सेकेन्सेरियन, तब लगभग सावन-भादों ही था इसी कारण मथुरा जेल के अधिकारी रात को अंधेहो गए थे ताकि वसुदेव श्रीकृष्ण को सुरक्षित ले जा सकें। इसे प्रभु की अंधी कृपाकहते हैं।

सावन में जल भराव होता है। पुराने कवि इसे जलप्लावन कहते थे। आज केयुवा कवि यदि निठल्ले हों तो किसी हिमगिरी के लगभग उत्तुंग शिखर पर किसी सुरक्षितशिला की शीतल छांह खोज कर शहरों की सड़कों पर जल भराव का प्रलय प्रवाह देखने लगतेहैं। पानीदार प्रणय की नई कविता का जन्म होता है और हरी-हरी कल्पना भरी-भरी लगनेलगती है।

सावन में बाढ़ आते ही राहत अधिकारी अंधे होकर माल काटने लगते हैं। बाढ़तो स्वयं अंधी होती है। राजभवनों और विधायक निवासों को छोड़कर झोपड़ियां निगलनेलगती है। इन दिनों यदि कोई प्रेम में अंधा हो जाए तो प्रेमिका की ठोकरें भी घुंघरूलगने लगती हैं। सावन के अंधे और अंधों के सावन में फर्क है। इसी से तीसरा तत्वनिकलता है कि अगर अंधे को अंधेरे में बड़ी दूर की सूझी तो समझो वो व्यंग्यकार है। मूर्ख बना रहा है।


(साभार: उर्मिल कुमार थपलियाल, हिन्दुस्तान)

Dr.Shree Vijay
03-11-2013, 01:06 PM
सुर साधक मन्ना डे

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=31438&stc=1&d=1383412748


समय की भीत पर लिखा हुआ अभिलेख मन्ना डे.
संगीत प्रेमियों के दिल में उतरा है देख मन्ना डे.
पक्के सुर में पगी गायकी उसकी हरदम कहती है,
पैदा हज़ारों वर्ष में होता है केवल एक मन्ना डे.



http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=31439&stc=1&d=1383412748



सच हें हज़ारों वर्ष में पैदा होता है केवल एक मन्ना डे.....

rajnish manga
19-11-2013, 10:12 PM
साँस लेने की आजादी
अलेक्सांद्र सोल्शेनित्सिन
अनुवाद: सुकेश साहनी


रात में बारिश हुई थी और अब काले-काले बादल आसमान में इधर से उधर घूम रहे हैं; कभी-कभी छिटपुट बारिश की खूबसूरत छटा बिखेरते हुए।

मैं बौर आए सेब के पेड़ के नीचे खड़ा हूँ और साँसें ले रहा हूँ। सिर्फ सेब का यह पेड़ ही नहीं, बल्कि इसके चारों ओर की घास भी आर्द्रता के कारण जगमगा रही है; हवा में व्याप्त इस सुगंध का वर्णन शब्द नहीं कर सकते। मैं बहुत गहरे साँस खींच रहा हूँ और सुवास मेरे भीतर तक उतर आती है। मैं आँखें खोलकर साँस लेता हूँ, मैंआँखें मूँदकर साँस लेता हूँ, मैं यह नहीं बता सकता कि इनमें से कौन-सा तरीका मुझे अधिक आनंद दे रहा है।

मेरा विश्वास है कि यह एकमात्र सर्वाधिक मूल्यवान स्वतंत्रता है, जिसे कैद ने हमसे दूर कर दिया है; यह साँस लेने की आजादी है, जैसे मैं अब ले रहा हूँ। इस संसारमेरे लिए यह फूलों की सुगंध भरी मुग्ध कर देने वाली वायु है, जिसमें आर्द्रता के साथ-साथ ताजगी भी है।

यह कोई विशेष बात नहीं है कि यह छोटी-सी बगीची है, जो कि चिड़ियाघर में लटके पिंजरों-सी पाँच मंजिले मकानों के किनारे पर है। मैंने मोटर साइकिलों के इंजन कीआवाज, रेडियो की चिल्ल-पों, लाउडस्पीकरों की बुदबुदाहट सुनना बंद कर दिया है। जब तक बारिश के बाद किसी सेब के नीचे साँस लेने के लिए स्वच्छ वायु है, तब तक हमखुद को शायद कुछ और ज्यादा जिंदा बचा सकते हैं।

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rajnish manga
19-11-2013, 10:14 PM
बाल कविता / हमने क्या सीखा
(रचना / डॉ. प्रभाकर माचवे)

अम्मा बोली बनो श्याम से,
हमने सीखा सिर्फ चुराना मक्खन!

अम्मा बोली बनो राम से,
हमने सीखे धनुष भंग के लक्षण!

अम्मा बोली बनो पवन सुत,
हमने सीखा सिर्फ जलाना लंका!

अम्मा बोली बनो सिपाही,
हमने सीखा सिर्फ बजाना डंका!

Dr.Shree Vijay
19-11-2013, 10:43 PM
साँस लेने की आजादी
अलेक्सांद्र सोल्शेनित्सिन
अनुवाद: सुकेश साहनी


रात में बारिश हुई थी और अब काले-काले बादल आसमान में इधर से उधर घूम रहे हैं; कभी-कभी छिटपुट बारिश की खूबसूरत छटा बिखेरते हुए।
**

बाल कविता / हमने क्या सीखा
(रचना / डॉ. प्रभाकर माचवे)

अम्मा बोली बनो श्याम से,
हमने सीखा सिर्फ चुराना मक्खन!


बेहतरीन..............

rajnish manga
19-11-2013, 10:50 PM
True Love
(Sonnet by William Shakespeare)

Let me not to the marriage of true minds
Admit impediments. Love is not love
Which alters when it alteration finds.
Or bends with the remover to remove:-

O no! it is an ever-fixed mark
That looks on tempests, and is never shaken;
It is the star to every wandering bark,
Whose worth’s unknown, although his height be taken.
Love’s not time’s fool, though rosy lips and cheeks
Within his bending sickle compass come;
Love alters not with his brief hours and weeks,
But bears it out ev’n to the edge of doom:-

If this be error, and upon me proved,
I never writ, nor no man never loved.

rajnish manga
19-11-2013, 10:54 PM
उपरोक्त सॅानेट का स्वतंत्र अनुवाद मैंने निम्नलिखित प्रकार से किया है:


प्यार दिलों का सच्चा हो तो कभी न घटता बढ़ता है
वो प्यार भला क्या प्यार, मुड़े जो अवरोधों के डर से
या जब भी देखे मोड़ कोई उसी ओर चल पड़ता है
अथवा किसी भयंकर क्षण में चिर जाये वह अन्दर से.

नहीं नहीं! किसी शैल-शिखर जैसा ही यह अविचलित है
झंझाओं के सम्मुख भी जो नहीं कांपता रत्ती भर;
प्यार चिरन्तन जलपोतों में ध्रुव तारे सा परिचित है,
कथा अपरिचित जिसकी पर हैं परिचित अक्ष-दिशांतर.

यह प्यार है और प्यार हुआ कब वक़्त के आधीन है,
हाँ, गुलाबी गाल और ये रसीले होंठ पपड़ा जायेंगे;
न काल-खण्डों में कभी टूटे, प्यार वह शालीन है,
और प्रेमी प्रलय का आघात सहते, मंजिलें पा जायेंगे.

यह गलत हो तो मुझे इसका नहीं अधिकार था,
औ’ समझ लें न तो मुझमें न किसी में प्यार था.

rajnish manga
20-11-2013, 10:19 AM
The Lord’s Prayer
Matthew 6: 9-13
Revised Standard Versions

Our Father who art in the heaven,
Hallowed be thy name,
Thy kingdom come,
Thy will be done,
On earth as it is in heaven.
Give us this day our daily bread;
And forgive us our debts,
as we also have forgiven our debtors;
And lead us not into temptation,
But deliver us from evil.

परमात्मा के सम्मुख प्रार्थना
मेथ्यु 6: 9-13
संशोधित मानक पाठ

हमारा पिता जो स्वर्ग में रहता है,
आपका नाम समादृत हो,
आपका राज्य आये,
आपकी इच्छानुसार चले सब,
धरती पर भी ऐसे, स्वर्ग में जैसे चलते. .
दे हमें रोटी हमारी आज की;
और हमारा कर्ज़ सारा माफ़ कर,
हमने जैसे माफ़ कर दिये
ऋण सभी कर्जाइयों के;
प्रलोभनों से दूर रखना तू हमें,
और रखना बुराइयों से मुक्त.

rajnish manga
26-11-2013, 07:25 PM
ग़ज़ल
नाकाम दिल में ख्वाब जगाने लगी हवा
इस घर में फिर चराग़ जलाने लगी हवा

अब दिल के आईने का खुदा ही भला करे
दीवार दूरियों की गिराने लगी हवा

पत्ता जब उसके साथ पहाड़ी पे आ गया
गहराई में धकेल के जाने लगी हवा

सूखा दरख्त धूप की ज़हरीली बर्छियां
सीने पे खा चुका तो सताने लगी हवा

आवाज़ थी तुम्हारी कि कदमों की चाप थी
कानों में जल तरंग बजाने लगी हवा

अपना बदन जब ठिठुरने लग गया ‘फिराक़’
उसके बदन की धूप चुराने लगी हवा

(शायर: फिराक़ जलालपुरी)

rajnish manga
02-12-2013, 11:28 AM
अन्ना कैरेनिना : एक असाधारण किताब
ओशो का नजरिया

[अपने अनेक विरोधाभासों के बीच विभिन्न विषयों पर ओशो की मूल्यवान टिप्पणियाँ उनके विचारक रूप की छवि प्रस्तुत करती है. टॉलस्टॉय के विश्व-प्रसिद्ध उपन्यास “अन्ना कैरेनिना” को लेकर की गयी उनकी टिप्पणी को नीचे प्रस्तुत किया जा रहा है]

लियो टॉलस्टॉय की अन्ना कैरेनिना बहुत खुबसूरत उपन्यास है। तुम हैरान होओगे कि मनपसंद किताबों में मैं उपन्यास को क्यों सम्मिलित कर रहा हूं। क्योंकि मैं दीवाना हूं। मुझे अजीबोगरीब चीजें अच्छी लगती है। अन्ना कैरेनिना मेरी प्रिय किताबों में एक है। मुझे याद है मैंने उसे कितनी बार पढ़ा है।

यदि मैं सागर में डूब रहा होऊंगा और विश्व के लाखों उपन्यासों में से मुझे एक चुनना होगा तो मैं अन्ना कैरेनिना चुनूंगा। इस खूबसूरत किताब के साथ रहना सुंदर होगा। उसे बार-बार पढ़ना होगा, तो ही आप उसे महसूस कर सकते है। सूंघ सकते है। और स्वाद ले सकते है। असाधारण किताब है यह।

लियो टॉलस्टॉय एक असफल संत रहा, जैसे महात्मा गांधी असफल संत रहे। लेकिन टॉलस्टॉय महान उपन्यासकार था। महात्मा गांधी ईमानदारी का शिखर बनने में सफल रहे और आखिर तक बने रहे। इस सदी में मैं किसी और आदमी को नहीं जानता जो इतना ईमानदार हो। जब वे लोगों को पत्र लिखते थे: योर्स सिंसयरली, तब वे सचमुच ईमानदार थे। जब तुम लिखते हो, ‘’सिंसयरली योर्स’’ तब तुम जानते हो, और हर कोई जानता है कि सब बकवास है। बहुत कठिन है। लगभग असंभव—वस्तुतः ईमानदार होना।

लियो टॉलस्टॉय ईमानदार होना चाहता था। लेकिन हो न सका। उसने भरसक कोशिश की। मुझे उसकी कोशिशों से पूरी सहानुभूति है। लेकिन यह धार्मिक आदमी नहीं था। उसे कुछ और जन्म रूकना होगा। एक तरह से अच्छा है कि वह मुक्तानंद जैसा धार्मिक आदमी नहीं था। नहीं तो हम ‘’रिसरेक्शन, वॉर एंड पीस, अन्ना कैरेनिना, जैसी अत्यंत सुंदर एक दर्जन रचनाओं से वंचित रह जाते।

rajnish manga
02-12-2013, 05:48 PM
अन्ना कैरेनिना : एक असाधारण किताब
(जीवन के शाश्वत , अबूझ रहस्यों और विरोधाभासों को सुलझाने का एक ललित प्रयास)

अन्ना कैरेनिना रशियन समाज की एक संभ्रांत महिला की कहानी है। जो अनैतिक प्रेम संबंध जोड़कर अपने आपको बरबाद कर लेती है। इस उपन्यास में टॉलस्टॉय कदम-कदम पर यह दिखाता है कि समाज कैसे स्त्री और पुरूष के विषय में दोहरे मापदंड रखता है। अन्ना के सगे भाई ओब्लान्सकी के अनैतिक प्रेम संबंध होते है, और न केवल वह अपितु उसके स्तर के कितने ही पुरूष खुद तो पत्नि से धोखा करते है, लेकिन अपनी पत्नियों से वफादारी की मांग करते है। समाज चाहता है कि पत्नि अपने पति की बेवफाई को भूल जाये और उसे माफ कर दे।

अन्ना कैरेनिना एक आकर्षक, करुणापूर्ण और गरिमामंडित महिला है। उसके संपर्क में आने वाले सभी लोग उसका समादर करते है। उससे अभिभूत है। अन्ना का करिश्मा सभी पुरूषों पर असर करता है। सिवाय उसके पति के। उनका विवाह प्रेम-विहीन है। उनका पति संगदिल पुरूष है जिसे सामाजिक दिखावे और अपनी पद-प्रतिष्ठा की फिक्र अधिक है। और अन्ना की भावनाओं और सुख दुःख की कम।

अन्ना एक दहकती हुई आग है। उसमे साहस है, और वांछित सुख को पा लेने की हिम्मत भी। वह उच्च वर्ग की स्त्रियों की रीति और रिवाज को ताक पर रखकर एक सेना अधिकारी ब्रान्सकी के साथ प्रेम करने लगती है। दोनों एक बॉल डांस में मिलते है, और एक दूसरे के प्रेम में पड़ जाते है। इस अवैध प्रेम की राह पर निडरता से आगे बढ़कर अन्ना अपने प्रेम को अपने पति के आगे कबूल करती है।

जब वह पति को छोड़कर ब्रान्सकी के साथ विदेश जाती है तब अपने बेटे से बिछुड़ जाती है। पति बेटे से कहता है कि उसकी मां मर गई। बेटे के जन्म दिन पर वह किसी तरह चोरी छुपे पहुँचती है लेकिन उसकी खुशी कुछ पल जी पाती है क्योंकि उसका पति फौरन उसे पकड़ लेता है और वहां से निकाल बाहर कर देता है। बड़े चाव से लाये हुए खिलौने भी वह अपने बच्चे को नहीं दे पाती है। पति अपने बेटे से कहता है, ‘’इस औरत ने इतना कुकर्म किया है कि वह उसे दुबारा नहीं देख पायेगा। वह बहुत बुरी औरत है।‘’

rajnish manga
02-12-2013, 05:51 PM
अन्ना पति से तलाक लेने के लिए तरसती है। जब उसे प्यार का इतना बड़ा सरोवर मिला है तो वह निर्दयी पति के साथ रूखी-सूखी जिंदगी क्यों बिताये? लेकिन उसका पति उसे तलाक देने से इन्कार कर देता है। अन्ना अपने प्रेमी ब्रान्सकी के साथ विवाह कर प्रतिष्ठित जीवन नहीं जी सकती। उसके पूर्व परिचित मित्र प्रियजन और समाज का प्रतिष्ठित वर्ग उसे व्यभिचारिणी कह उससे बचना चाहता है। यहां तक कि वह थियटर भी नहीं जा सकती। अन्ना को चारदीवारी में बंद रहकर, घुट-घुट कर अपना समय काटना पड़ता है। जब कि ब्रान्सकी मजे से समाज में घूमता फिरता है।

अन्ना अपने प्यार पर सब कुछ क़ुर्बान कर देती है—घर, बेटा, प्रतिष्ठा। इन हालातों का असर उसके दिमाग पर होता है और वह मानसिक रोग की शिकार हो जाती है। वह सदा भयभीत रहती है, चिड़चिड़ी और तनाव-ग्रस्त हो जाती है। रिश्ता तनावपूर्ण हो जाता है, और ब्रान्सकी के प्यार का झरना सूख जाता है। सब तरफ से असफल, हताश अन्ना स्वयं को बदनसीब समझने लगती है। और निराशा के गहन क्षण में अपने आपको ट्राम के नीचे झोंक देती है।

मृत्यु के उपरांत भी समाज उसकी भर्त्सना ही करता है। ब्रान्सकी की मां उसके बारे में कहती है : ‘’वह बदज़ात औरत थी। इतनी विवश वासना। सिर्फ कुछ असाधारण करने के चक्कर में उसने अपना और दो शानदार पुरूषों का विनाश कर दिया।‘’

उसकी नन्हीं, ब्रान्सकी से पैदा हुई बेटी भी बाद में उसके पति के पास ही चली जाती है।

अन्ना का अपराध इतना था कि उसने एक ऐसे पुरूष से प्रगाढ़ प्रेम किया जो उसका पति नहीं था। लेकिन रशिया के सुसंस्कृत, प्रतिष्टिथ समाज ने उसे ऐसा नारकीय जीवन जीने को मजबूर कर दिया कि उससे उसे मृत्यु अधिक सार्थक मालूम हुई।

टॉलस्टॉय ने यह उपन्यास उस समय लिखा जब वह रशियन समाज से वितृष्ण हो चुका था। उच्चवर्गीय समाज के नकली मूल्य, उनका पाखंड, उनका छिछोलापन, संस्कृति की गिरावट, उनका सबका सशक्त पारदर्शी चित्रण करने के साथ-साथ वह समाजिक समस्याओं का भी वर्णन करता है। जैसे किसान और जमींदार, स्त्री और पुरूष का भेदभाव, अन्ना कैरेनिना की मृत्यु
की घटना के सहारे वह जीवन और मृत्यु की मूलभूत पहेली की दार्शनिकता भी दिखाना चाहता था।

अन्ना कैरेनिना रशियन साहित्य की सर्वाधिक लोकप्रिय नायिकाओं में से एक है। उसका अभिभूत कर देनेवाला सौंदर्य इस गहरे और समृद्ध उपन्यास के वातास को धेरे रहता है। टॉलस्टॉय के अनुसार यह जीवन के शाश्वत, अबूझ और विरोधाभासों को सुलझाने का एक ललित प्रयास है। उपन्यास का प्रारंभ जिस वक्तव्य से होता है। वह वक्तव्य ही टॉलस्टॉय की गहरी अनंतदृष्टि का प्रतीक है।

‘’सारे सुखी परिवार एक जैसे होते है; लेकिन हर दुःखी परिवार अपने ही ढंग से दुखी होता है।‘’

यह उपन्यास जिस काल में लिखा गया —1875—77, उसमे समय की गति बहुत धीमी थी। लोगों के पास बहुत वक़्त था। इसलिए 804 पृष्ठों की प्रदीर्घ किताब पढ़ना उनके लिए बड़ा मुश्किल मामला नहीं था। आज की आपाधापी में जो इतना लंबा कागजी सफर करने को तैयार हो, वही इस उपन्यास के संपन्न ताने बाने का आनंद ले सकता है।

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rajnish manga
06-12-2013, 09:10 PM
ग़ज़ल

दोष पे अपने बार उठाये फिरते हैं
हम कितने आज़ार उठाये फिरते हैं

प्रेम नगर के वासी काँटों के बन में
फूलों का अम्बार उठाये फिरते हैं


तन के उजले मन के काले हैं जो लोग
नफरत की दीवार उठाये फिरते हैं

दीन धरम के नाम पे कौमों के दुश्मन
दोधारी तलवार उठाये फिरते हैं

‘नूर’ मिले आँगन में वो तो रात गये
पायल की झंकार उठाये फिरते हैं

(नूर मुनीरी)

rajnish manga
11-12-2013, 06:56 PM
ग़ज़ल

जा इजाज़त है दूरियां रख जा
अपने होठों पे सिसकियाँ रख जा

चुभ गयी तो न अश्क ठहरेंगे
टूटे ख्वाबों की किरचियाँ रख जा

तू अगर साथ रह नहीं सकता
मेरे हिस्से की हिचकियाँ रख जा

ज़िन्दगी तो मुझे भी जीनी है
कुछ तो अपनी निशानियाँ रख जा

चांद निकले तो मुंह छुपाने को
अपनी जुल्फों की बदलियाँ रख जा.

ज़र्द फूलों का है बदन उन पर
अपने होठों की सुर्खिया रख जा

(अतीक़ इलाहाबादी)

rajnish manga
12-12-2013, 10:36 AM
माता पिता का मूल्य

एक 80 साल का बूढा आदमी अपने घर में सोफे पर बैठा हुआ था, अपने 45 साल के उच्च शिक्षित बेटे के साथ. अचानक एक कौवा उनकी खिड़की पर आ बैठा.पिता ने अपने पुत्र से पूछा, "यह क्या है?"

बेटे ने कहा "यह एक कौवा है".

कुछ ही मिनटों के बाद, पिता ने अपने बेटे से दूसरी बार पूछा,"यह क्या है?"

बेटे ने कहा,"पिताजी, मैंने अभी आप से कहा है " यह एक कौवा है ".


थोड़ी देर के बाद, बूढ़े पिताजी ने फिर बेटे से तीसरी बार पूछा, यह क्या है? "


इस समय कुछ क्रोध के भाव उत्पन्न हुवे और उसने डांटने के अंदाज में अपने पिता से कहा. "यह एक कौवा है,
"कौवा. एक छोटे से अन्तराल के बाद पुनः चौथी बार पिताजी ने फिर से अपने बेटे से पूछा कि "यह क्या है ?"


इस बार बेटा अपने पिता पर चिल्लाया, " पिताजी तुम क्या चाहते हो जो बार बार एक ही सवाल दोहरा रहे हो? लगता है तुम्हारा दिमाग ख़राब हो गया है?’’ हालांकि मैंने तुमसे कितनी बार कहा था 'यह एक कौवा है. आप कुछ करने में सक्षम नहीं, यह समझ में आया? "


थोड़ी देर बाद पिताजी अपने कमरे में चले गये और वापसी में अपने हाथ में एक जीर्ण शीर्ण डायरी लेके आये जिसको वह उस समय लिखते थे जब उनका यह बेटा पैदा हुआ था और उन्होंने उस डायरी का एक पृष्ट खोल कर अपने बेटे को पढने को दिया और जब बेटे ने इसे पढ़ा,

डायरी: -
" आज मैं मेरे तीन साल के छोटे बेटे के साथ आँगन में बैठा हुआ था और सामने पेड़ पर एक कौवा आकर बैठ गया मेरे बेटे ने उसको देख कर मुझ से पूछा पिताजी यह क्या है तो मैंने कहा बेटे यह कौवा है l उसने यह प्रश्न मेरे से कोई 23 बार किया और हर बार मुझे उसको जवाब देने में स्नेह का अनुभव होता था और मैं उसके मस्तक को चूम लेता था उसके बार बार एक ही प्रश्न करने से मुझे खीज उत्पन्न नहीं हुई बल्कि ख़ुशी हुई.”

rajnish manga
12-12-2013, 10:37 AM
और आज जब पिता ने अपने बेटे से एक ही प्रश्न सिर्फ 4 बार पूछा तो बेटा चिढ़ गया और नाराज होने लगा.

इसलिए:

मेरे भाई बहनों यदि आपके माता पिता वृद्ध हो गए है तो उनको बोझ समझ कर घर से बाहर मत निकालो, उनको पूरा मान सम्मान दो जिसके वह हक़दार हैं ऐसा करके आप उन पर कोई एहसान नहीं कर रहे क्योंकि उन्होंने आपके जन्म से लेके आज तक आप पर अपने निस्वार्थ प्रेम की बारिश की है उन्होंने आपको समाज में सम्मानित व्यक्ति बनाने और आपको अपने पैरों पे खड़ा करने के लिए अपना पूरा जीवन होम कर दिया, किसी भी मुसीबत से टकरा गए, कभी किसी दुःख दर्द की परवाह नहीं की, खुद भूखे रह कर आपको खिलाया, तभी आज इस रूप में हैं अतः मेरे भाई बहनों हकीकत को पहचानो और यह मत सोचो कि हमारे माँ बाप का व्यव्हार कैसा है, यह सोचो कि हमारा क्या फ़र्ज़ है?

अपने फ़र्ज़ को पहचानो और भगवान् के लिए ऐसा कोई कार्य मत करो जिस से माता-पिता का दिल दुखे क्योंकि माँ बाप की सेवा से बढ़ कर संसार में कोई पूजा नहीं है, शायद इसी लिए किसी शायर ने कहा है : "चाहे लाख करो तुम पूजा तीरथ करो हज़ार, माँ बाप का दिल जो दुखाया तो सब है बेकार" माँ बाप के आशीर्वाद से बढ़ कर दुनिया में और कोई आशीर्वाद नहीं है माँ बाप के आशीर्वाद को काटने कि हिम्मत तो भगवान् में भी नहीं है हर धर्म, हर मज़हब में माँ बाप का स्थान सबसे ऊँचा है अतः भगवान् से प्रार्थना कीजिये कि आज से आप ऐसा कोई कार्य नहीं करेंगे जिस से आपके घर में विराजमान मात पिता स्वरुप साक्षात् भगवान् भोले नाथ और माँ पार्वती का दिल दुखे ॐ नमः शिवाय
इसको पढने के लिए समय निकालने के लिए धन्यवाद.

(साभार: दिलीप भार्गव)

ndhebar
17-12-2013, 06:43 PM
नि:संदेह उत्तम सुत्र.......
मंगा जी को सह्रीदय धन्यवाद

rajnish manga
17-12-2013, 10:39 PM
नि:संदेह उत्तम सुत्र.......

मंगा जी को सह्रीदय धन्यवाद

आपकी सद्भावना के लिए मैं हृदय से आपका आभार व्यक्त करता हूँ, निशांत जी. कृपया स्नेह बनाये रखें.

rajnish manga
18-12-2013, 09:20 PM
इस बार दिल्ली विधान सभा चुनावों में एक नई बात मतदाताओं के लिए लागू की गई. वह थी चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों के नाम और उनके चुनाव चिन्हों के सामने दिये गये बटनों के अतिरिक्त एक और बटन रखा गया है- NOTA (None Of The Above) अर्थात् यदि मतदाता को कोई भी प्रत्याशी नहीं जंच रहा तो वह उक्त बटन को दबा कर अपने मत का उपयोग कर सकता है जो वस्तुतः किसी भी प्रत्याशी के पक्ष में नहीं जाएगा. इस नये दिशा-निर्देश की पृष्ठभूमि में मुझे अपने कॉलेज के दिनों की मजेदार घटना याद आ गयी.

घटना 1970 की है. उन दिनों हमारे कॉलेज की यूनियन के चुनाव हो चुके थे. मुख्य चुनाव हो जाने के पश्चात अन्य विभागों की तरह ही मनोविज्ञान विभाग के लिये भी 'क्लास रिप्रेज़ेन्टेटिव' चुनने के लिए वोटिंग हो रही थी. इस पद के लिए मेरे दो मित्र खड़े हए थे. मैं दोनों को बराबर चाहता था, अतः किसी एक के पक्ष में वोट नहीं देना चाहता था और न ही वोटिंग से बाहर रहना चाहता था. इस धर्मसंकट की स्थिति से निपटने के लिए मैंने एक रास्ता निकाल ही लिया. अपना वोट डालने से पहले मैंने अपनी वोट-पर्ची में लिखा "To Both With Love" यानि "दोनों (प्रत्याशियों) को सस्नेह". इस प्रकार मेरा वोट अमान्य हो गया लेकिन वोटिंग के इस अंदाज़ की कई दिनों तक कॉलेज में चर्चा होती रही.

आज मैं सोचता हूँ कि क्या कॉलेज में मेरा वोट देने का अंदाज़ हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये गये आदेशानुसार (NOTA) का ही एक रूप नहीं था?

Dr.Shree Vijay
19-12-2013, 06:09 PM
उत्तम प्रस्तुतिया.............

rajnish manga
28-12-2013, 08:33 PM
उत्तम प्रस्तुतिया.............







प्रशंसात्मक टिप्पणी के लिये धन्यवाद, मित्र.

rajnish manga
28-12-2013, 08:39 PM
ग़ज़ल
(कलाम: राशिद हुसैन ‘राही’)

प्यार की राह में दीवार उठाते क्यों हो
खुद को दुनिया की निगाहों से गिराते क्यों हो

जब मिरे नाम, मिरे ज़िक्र से नफरत है तुम्हें
मेरी तस्वीर को फिर घर में सजाते क्यों हो

जो भी दीवार उठाते हो वो गिर जाती है
घर बरसते हए पानी में बनाते क्यों हो

एक दिन तुमको ये बदनाम भी कर सकता है
अपनी हर बात ज़माने को बताते क्यों हो

तुमको मालूम नहीं लोग उड़ाते हैं मज़ाक
मेरे लिक्खे हुए ख़त सबको दिखाते क्यों हो

फूल जिनके नहीं देते कोई खुशबू ‘राही’
ऐसे पौधों को तुम आँगन में लगाते क्यों हो.

rajnish manga
06-01-2014, 10:30 AM
कथाकार उदय प्रकाश का साक्षात्कार
(एक अंश)

दिनेश श्रीनेत-
जिस दौर में आप अपने कहानी संग्रह दरियाई घोड़ा की कहानियां लिख रहे थे- तब से लेकर हाल में प्रकाशित मैंगोसिल तक समय के फैलाव में आप क्या बदलाव देखते हैं? क्या आपको लगता है कि बतौर रचनाकार आपके लिए चुनौती उत्तरोत्तर कठिन हुई है? क्या बदलते परिवेश ने आपकी रचनात्मकता पर भी कोई दबाव डाला है?

उदय प्रकाश-
कोई भी रचनाकार - कथाकार समय, इतिहास स्मृति के स्तर पर, खासकर टाइम एंड मेमोरी के स्तर पर लिखता है। दरियाई घोड़ा की कहानियां भी उसके प्रकाशन से बहुत पहले लिखी गई थीं। अगर आप इन कहानियों को देखें तो समय इनमें किसी इको की तरह है। लेकिन दरियाई घोड़ा बहुत निजी स्मृति की कहानी है। वह पिता की मृत्यु पर लिखी कहानी है। इंदौर के एक अस्पताल में मेरे पिता की मृत्यु हुई थी-कैंसर से-तो वह उस घटना के आघात से-उसकी स्मृति में लिखी कहानी है। चौरासी में छपा था संग्रह। तब से अब तक दो दशक का समय बड़े टाइम चेंज का समय रहा है। मेरा मानना है कि किसी भी रचनाकार को अपनी संवेदना लगातार बचा कर रखनी चाहिए। अपने आसपास के परिवर्तन के प्रति ग्रहणशीलता लगातार बनी रहनी चाहिए। जिस मोमेंट आप उसे खो देते हैं आपकी संवेदनशीलता खत्म हो जाती है। फिर आपके पास सिर्फ नास्टेल्जिया या स्मृतियां बचती हैं। उनके सहारे आप चिठ्ठी या पर्सनल डायरी तो लिख सकते हैं कोई रचना-कोई कहानी या कविता नहीं लिख सकते।

दिनेश श्रीनेत -
लेकिन क्या ये सच नहीं है कि उस समय के रचनाकार के पास आस्था के कुछ केंद्र तो बचे ही थे। भले ही वे अपनी प्रासंगिकता खोते जा रहे थे। मगर क्या ये सच नहीं है कि आज का लेखक एक अराजक किस्म की अनास्था के बीच सृजन कर रहा है?

उदय प्रकाश-
आपको याद होगा जिस वक्त मैंने तिरिछ लिखी थी - उसी दौरान इंदिरा की हत्या व राजीव का राज्यारोहण हुआ था। राजीव नया के बड़े समर्थक थे। जैसे हिंदी कहानी में नई कहानी, नया लेखन जैसे फैशन आते-जाते रहे। तो राजीव नई शिक्षा नीति, नई अर्थनीति का नया चेहरा के अगुआ थे। विशव बैंक -अंतरराष्टीय मुद्राकोष के प्रभुत्व व हस्तक्षेप की पृष्ठभूमि बनने लगी थी। निजीकरण शुरू हो गया। लोगों के बीच डि-सेंसेटाइजेशन बढ़ने लगा। मैं दिनमान में काम करता था। जो पानवाल पहले बहुत हंसकर बोलता था अब वह कैजुअल हो गया। जो चपरासी पहले अपने पत्नी बच्चों का दुखड़ा रोता था उसकी जगह आया नया चपरासी काम की बातें करता था बस। लोगों ने निजी बातें बंद कर दीं। तब मैंने तिरिछ लिखी। शुरू में बड़ा विरोध हुआ। अफवाह फैलाई गई कि यह मारक्वेज की ए क्रानकिल डेथ फोरटोल्ड की नकल है। एक कथाकार - आलोचक सज्जन ने मुझे लगभग डराते हुए कहा कि हंस अपने अगले अंक में एक पन्ने पर ओरिजिनल कहानी व दूसरे पर तिरिछ छापने जा रहा है। यकीन कीजिए मैं चुप रहा मुझे हंसी भी आई। मुझे हिंदी समाज से कुछ मिला नहीं है उन्होंने मुझे गाली या अपमान के सिवा कुछ नहीं दिया है। मैं ईमानदारी से कहूं तो घृणा करता हूं इस समाज ठीक उतनी ही जितनी वे मुझसे करते हैं। तिरिछ एक मार्मिक कथा बन पड़ी इसलिए नहीं कि उसमें पिता की मौत हो गई। यह दरअसल सिविलाइजेशन टांजेशन था। मैं कहना चाह रहा था कि अब जो अरबनाइजेशन होगा जो एक पूरी दुनिया बनेगी उसमें एक मनुष्य जो बूढ़ा है कमजोर है जिसके सेंसेज काम नहीं कर रहे। उसकी नियति मृत्यु होगी। वह बचेगा नहीं अनजाने ही मार दिया जाएगा।

rajnish manga
09-01-2014, 10:01 PM
हिंदी साहित्य की लोकप्रिय पुस्तकें

अभी पिछले दिनों एक दिलचस्प विवरण पढ़ने को मिला. इस विवरण में हिंदी की उन पुस्तकों के बारे बताया गया था जो लोकप्रियता के मामले में अन्य पुस्तकों से बढ़ चढ़ कर हैं. यहाँ पर लोकप्रियता का आधार उन पुस्तकों के अब तक छप चुके संस्करणों की संख्या को बनाया गया है. आइये पुस्तकों की लोकप्रियता के हिसाब से हिंदी की कुछ पुस्तकों की लिस्ट पर नज़र डालते हैं यद्यपि संस्करणों की संख्या का कोई पुख्ता आधार नहीं बताया गया. लिस्ट इस प्रकार है:-

1. मधुशाला ---- हरिवंशराय बच्चन- 61 संस्करण
1. गुनाहों का देवता- धर्मवीर भारती- 61 संस्करण
2. सूरज का सातवाँ घोड़ा.. वही ......60 संस्करण
3. भारत-भारती –मैथिली शरण गुप्त 47 संस्करण
4. साकेत ------- मैथिली शरण गुप्त-41 संस्करण
4. त्यागपत्र ---- जैनेन्द्र कुमार ------41 संस्करण
4. सारा आकाश- राजेन्द्र यादव ------41 संस्करण
5. नदी के द्वीप – अज्ञेय ------------35 संस्करण
5. कलम का सिपाही --- अमृतराय ..35 संस्करण
6. शेखर एक जीवनी ..... अज्ञेय .....33 संस्करण
7. मैला आँचल ....फनीश्वरनाथ रेणु .25 संस्करण
7. चित्रलेखा ......भगवती चरण वर्मा 25 संस्करण
7. आवारा मसीहा ... विष्णु प्रभाकर .25 संस्करण
8. तमस ............. भीष्म साहनी ...24 संस्करण
8. उर्वशी .......रामधारी सिंह दिनकर 23 संस्करण
9. आपका बंटी ... मन्नू भंडारी .......22 संस्करण
10. राग दरबारी .. श्रीलाल शुक्ल ...18 संस्करण
10. भूले बिसरे चित्र भगवती चरण वर्मा ..18 संस्करण
10. बाणभट्ट की आत्मकथा हजारी प्रसाद द्विवेदी 18 संस्करण

उपरोक्त के अलावा भी कुछ और पुस्तकों को भी लोकप्रियता क्रम में जगह दी गयी है जैसे:- साए में धूप (दुष्यंत कुमार की ग़ज़लें), आधा गाँव (राही मासूम रज़ा का उपन्यास), अँधा युग (धर्मवीर भारती का काव्य-नाटक), आषाढ़ का एक दिन (मोहन राकेश का नाटक), मुझे चाँद चाहिये (सुरेन्द्र वर्मा का उपन्यास), ग़ालिब छुटी शराब (रवींद्र कालिया), बूंद और समुद्र एवम् अमृत और विष (दोनों उपन्यासों के रचयिता अमृत लाल नागर) आदि पुस्तकें और प्रेमचंद का विशाल साहित्य जिसे कई कई प्रकाशकों ने कई कई बार छापा है.

हर व्यक्ति का अपना अपना आकलन हो सकता है. अतः यह विश्लेषण भी विवादों से मुक्त नहीं होगा. इसका एक कारण तो यह है कि किताब पहली बार कब छपी थी, इस पर भी उसके संस्करण या आवृत्ति का फ़रक पड़ना स्वाभाविक होता है. यहाँ यह बात भी ध्यान में रखी जानी चाहिये कि जो पुस्तकें छात्रों के पाठ्यक्रम में शामिल हैं, उनकी आवृत्ति या संस्करण अन्य पुस्तकों की अपेक्षा अधिक निकलते हैं. इस प्रकार हम यह मान कर चल सकते हैं कि लोकप्रियता का यह कोई अंतिम आधार नहीं है.

rajnish manga
25-01-2014, 01:33 PM
हाचिको की वफ़ादारी
https://encrypted-tbn1.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcT4LPfvUe9o8lwPQG90c88vtcjkbRMzG FYlvgMLe4yLvQAYB065
जापानी कुत्ते Hachikō की वफादारी का किस्सा दुनिया भर में मशहूर है। वह रोजाना अपने मालिक के साथ रेलवे स्टेशन जाता था और शाम को मालिक की ट्रेन के आने के समय वह फिर से अपने आप स्टेशन पहुँच जाता था और मालिक के साथ ही घर लौटता था। एक बार सुबह मालिक गया तो पर शाम को वापिस नहीं आया। अपने मालिक से अथाह प्रेम के कारण Hachikō बरसों स्टेशन पर नियत उस वक्त आकर इंतजार करता जब उसके मालिक की ट्रेन के आने का वक्त होता था। मालिक तो मर चुका था सो उसे आना न था पर अपने जीवन रहते Hachikō ने स्टेशन पर आकर इंतजार करना न छोड़ा। इंतजार का यह सिलसिला खत्म हुआ मालिक के मरने के लगभग नौ बरसों के बाद Hachikō की मौत के साथ। किताबें छपी हैं Hachikō की स्वामिभक्ति की प्रशंसा में। जापान से लेकर हॉलीवुड तक फिल्में बनी हैं उसकी विशिष्ट वफादारी के विषय में। उसका जीवन अब दंत कथाओं का हिस्सा बन चुका है।

(हमारी फोरम के प्रबुद्ध सदस्य श्री जय भारद्वाज ने भी अपने एक सूत्र में इस बारे में ज़िक्र किया था)

rajnish manga
25-01-2014, 03:54 PM
गौ-हत्या जुर्म में रेल इंजन को फाँसी

बीरगंज नेपाल का एक प्रमुख औद्योगिक एवम् व्यापारिक नगर है जो भारत-नेपाल सीमा पर स्थित है. इसे “गेट वे ऑफ़ नेपाल” भी कहा जाता है. यह नगर दक्षिणी नेपाल के परसा जिला, नारायणी अंचल में पड़ता है. इधर भारत का सीमान्त नगर रक्सौल है जो जिला चंपारण, उत्तर प्रदेश में स्थित है. सन 1967-68 में मैं पहली बार बीरगंज गया था. मेरे बड़े भाई उन दिनों वहीँ रहते थे और एक कत्था मिल में इंजीनियर थे. वहीँ पर सुनी हुयी एक विचित्र घटना मैं आपको सुनाता हूँ.

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32614&d=1390650811 (http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32614&d=1390650811)


बीरगंज में आजकल ट्रेन नहीं चलती. लेकिन एक समय ऐसा भी था (लगभग 60 वर्ष पहले) जब वहां से करीब 54 कि.मी. उत्तर में स्थित हिटौड़ा नगर तक ट्रेन चला करती थी. कहा जाता है कि इस ट्रेन की चपेट में आ कर एक गाय की मौत हो गयी. हाहाकार मच गया. ट्रेन के नीचे आ कर गाय मर गई. नेपाल एक कट्टर हिन्दू राष्ट्र था (और आज भी माना जाता है), सो गाय के इस प्रकार मारे जाने को बड़ा गंभीर अपराध माना जा रहा था. शहर में गौ-हत्या के विरोध में प्रदर्शन शुरू हो गये. अंत में पुलिस ने केस दर्ज किया, गौ हत्या का मुकद्दमा चला और दोषी को सजा भी दी गयी. मगर दोषी था कौन? दोषी था उस रेलगाड़ी का भाप वाला इंजन जिसके नीचे आ कर गाय कट मरी थी. गौ हत्या एक गंभीर अपराध था अतः इसकी सजा भी गंभीर थी – फाँसी. जी हाँ, फाँसी. रेलगाड़ी के उस इंजन को फाँसी की सजा मिली. तो दोस्तों, गौ हत्या के अपराध में उस रेल इंजन को फाँसी पर लटका दिया गया. इसी के साथ बीरगंज से हिटौड़ा तक चलने वाली ट्रेन बंद हो गयी.

हिटौड़ा का ज़िक्र चला है तो मैं आपको यह बता दूँ कि उन दिनों हिटौड़ा से काठमांडू तक एक रोप-वे बनाया गया था जिसकी सहायता से व्यापारिक सामान भेजा जाता था या मंगवाया जाता था. हाँ, भारी सामान या मशीनरी तो सड़क के रास्ते से ही भेजी जाती थी.

नजीबाबाद से नेपाल यात्रा के दौरान (जो लखनऊ, गोरखपुर, सुगौली और रक्सौल होते हुये संपन्न हुई) एक विशेष बात और थी जो मुझे आज भी अच्छी तरह याद है. उर्दू भाषा का जो कुछ भी ज्ञान मैंने प्राप्त किया स्वयं अपने घर पर व अपने यत्नों से ही प्राप्त किया. लम्बी यात्रा थी. अतः मैंने कुछ पुस्तकें भी साथ रख लीं. इनमें उर्दू की भी एक पुस्तक थी. उन दिनों ‘जासूसी दुनिया’ नाम की एक पत्रिका हिंदी और उर्दू में मासिक आधार पर निकलती थी जिसमे उन दिनों के जासूसी उपन्यासों के प्रसिद्ध लेखक इब्ने सफ़ी बी.ए. हर बार एक नया रहस्य खोलते थे.
https://encrypted-tbn1.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcTTNbcr-_cE51-ee_wsjQQKy88sXEBDOoCXMeYPR0TmlQoDK1mDHQ

प्रसंगवश बता दूँ कि उर्दू संस्करण में मुख्य पात्र थे कर्नल फरीदी और हिंदी में उसकी जगह कर्नल विनोद होते थे. तो इस यात्रा के दौरान मैंने अपने जीवन में पहली (और आखरी) बार उर्दू की एक समूची किताब यानी जासूसी दुनिया में छपा पूरा उपन्यास पढ़ा था. हाँ, उर्दू शायरी तथा उर्दू के अफ़साने बीच बीच में अवश्य पढ़ता रहा.

rajnish manga
10-02-2014, 03:45 PM
बात कैसे कही जाए?

एक अँधा व्यक्ति एक बड़ी सी हवेली के बाहर बैठ कर भीख मांग रहा था. उसने अपने सामने एक तख्ती रखी हुयी थी जिस पर लिखा था “मैं अँधा हूँ, कृपया मेरी मदद करें” दोपहर ख़तम होने वाली थी और उसके कटोरे में कुछ ही सिक्के जमा हुये थे. तभी वहां से एक सज्जन गुजरे. उन्होंने तख्ती पर लिखे हुये शब्द पढ़े. उसने उन शब्दों को मिटा कर उनकी जगह कुछ और लिख दिया और वहां से चला गया. शाम को वह व्यक्ति पुनः वहां से गुजरा. उसने देखा कि अब भिखारी के कटोरे में काफी सिक्के जमा हो गये थे. भिखारी भी उसके क़दमों की आहट से उसे पहचान गया. भिखारी ने उससे पूछा कि तुमने तख्ती पर क्या लिखा था. उस सज्जन ने कहा, “कुछ ख़ास नहीं. तुम्हारी बात को ही मैंने दूसरे शब्दों में व्यक्त किया था. मैंने लिखा था – आज से बसंत शुरू हो गया है, लेकिन मैं इसे देख नहीं सकता.

rajnish manga
12-02-2014, 11:24 PM
https://encrypted-tbn3.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcRB10so_bIf2yeH7sG5NPj6GxMzSAJPD wUNKzj178xwFZxde7PDDw
कड़वे वचन
(जैन मुनि तरुण सागर जी महाराज)
भ्रष्टाचार का अंत

मैंने सुना है कि अमरीका, रूस और भारत के राष्ट्रपति जा कर भगवान से मिले.

सबसे पहले अमरीकी राष्ट्रपति बुश ने भगवान से पूछा: प्रभु मेरे देश से भ्रष्टाचार कब खत्म होगा?

भगवान बोले: पूरे साठ साल बाद.

यह सुन कर बुश की आँखों में आंसू आ गये क्योंकि उन अच्छे दिनों को देखने के लिये वे जीवित नहीं रहेंगे.

फिर पुतिन ने यही प्रश्न भगवान से पूछा.

भगवान ने कहा: पचास साल बाद.

जवाब सुन कर पुतिन की आँखों में भी आंसू भर आये. उसके आंसुओं का कारण भी वही था.

अंत में डॉ. अब्दुल कलाम ने भगवान से पूछा: प्रभो, मेरे देश से भष्टाचार कब खत्म होगा?

उनकी बात सुन कर खुद भगवान की आँखों में आंसू आ गये.

rajnish manga
12-02-2014, 11:26 PM
कड़वे वचन
(जैन मुनि तरुण सागर जी महाराज)



ज्यादा पैसा, जल्दी पैसा और किसी भी तरीके से पैसा आना चाहिये. ये तीनों ही अंततः दुःख का कारण बनते हैं. पैसे को प्यार करो, लेकिन सिर्फ उसी ऐसे को जो आपने ईमानदारी से कमाया हो. जीवन में खूब पैसा कमाओ लेकिन अपनी सेहत को दांव पर लगा कर नहीं. क्योंकि पहला सुख – निरोगी काया. जीवन में यदि सब प्रकार की सुख-सुविधाएं हों मगर अच्छी सेहत न हो तो उन सुख-सुविधाओं का क्या औचित्य है.

मनुष्य के जीवन की सबसे बड़ी विडम्बना यही है कि वह पहले पैसा कमाने के लिये शरीर बिगाड़ता है और फिर शरीर सुधारने के लिये पैसा बिगाड़ता है.

rajnish manga
12-02-2014, 11:28 PM
कड़वे वचन
(जैन मुनि तरुण सागर जी महाराज)



अमीर वह नहीं जिसके पास अथाह धन-संपत्ति है बल्कि वह है जिसके पास अपने मान-बाप की सेवा करने के लिये समय है. अमीर वह नहीं जो रोज हजारों-लाखों में खेलता है बल्कि वह है जो बच्चों में बच्चा हो कर खेल सकता है. अमीर वह नहीं जो आलीशान बंगले में डनलप के गद्दे के ऊपर सोता है, बल्कि वह है जिसे रात में सोने के लिये नींद की गोली न खानी पड़े और सुबह उठने के लिये अलार्म लगाने की जरुरत न पड़े. जो संतुष्ट है, वही अमीर है. जिसकी पत्नी सुशील है और बच्चे आज्ञाकारी हैं, वह अमीर है. जो सेहतमंद है और अक्लमंद है, वह अमीर है.

rajnish manga
12-02-2014, 11:34 PM
ग़ज़ल
(कवि: सर्वेश्वरदयाल सक्सेना)
क्या गजब का देश है

क्या गजब का देश है यह, क्या गजब का देश है।
बिन अदालत और मुवक्किल के मुकदमा पेश है।

आंख में दरिया है सबके दिल में है सबके पहाड़
आदमी भूगोल है, जी चाहा नक्शा पेश है।

हैं सभी माहिर उगाने में हथेली पर फसल
औ हथेली डोलती दरदर बनी दरवेश है।

पेड़ हो या आदमी कोई फर्क पड़ता नहीं
लाख काटे जाइए जंगल हमेशा शेष है।

प्रश्न जितने बढ़ रहे घट रहे उतने जवाब
होश मं भी एक पूरा देश यह बेहोश है।

खूंटियों पर ही टंगा रह जायेगा क्या आदमी?
सोचता, उसका नहीं यह खूंटियों का दोष है।
**

rajnish manga
13-02-2014, 11:41 PM
युग की उदासी
रचना: डॉ. हरिवंशराय बच्चन

अकारण ही मैं नही उदास

अपने में ही सिकुड़ सिमट कर
जी लेने का बीता अवसर
जब अपना सुख दुख था अपना ही उछाह उच्छ्वास।
अकारण ही मैं नहीं उदास।

अब अपनी सीमा में बँधकर
देश काल से बचना दुष्कर
यह सम्भव था कभी नही पर सम्भव था विश्वास।
अकारण ही मैं नही उदास।

एक सुनहले चित्र पटल पर
दाग़ लगाने में है तत्पर
अपने उच्छृंखल हाथों से उत्पाती इतिहास।
अकारण ही मैं नही उदास।

rajnish manga
15-02-2014, 12:45 PM
रेमेदिओस
साभार: कवि महेश वर्मा

एक साफ़ उजली दोपहर
धरती से सदेह स्वर्ग जाने के लिए
उसे बस एक खूबसूरत चादर की दरकार थी .

यहाँ उसने कढ़ाई शुरू की चादर में
आकाश में शुरू हो गया स्वर्ग का विन्यास .
यह स्वर्ग वह धरती से ही गढ़ेगी दूर आकाश में
यह कोई क़र्ज़ था उसपर .

उसने चादर में आखिरी टांका लगाया
और उधर किसी ने टिकुली की तरह आखिरी तारा
साट दिया स्वर्ग के माथे पर – आकाश में .

रुकती भी तो इस चादर पर सोती नहीं
इसमें गठरी बांधकर सारा अन्धकार ले जाती
लेकिन उसको जाना था

पुच्छल तारे की तरह ओझल नहीं हुई
न बादल की तरह उठी आकाश में

उसने फूलों का एक चित्र रचा उजाले पर
और एक उदास तान की तरह लौट गई.


( रेमेदियोस द ब्युटीफुल नामक चरित्र, गैब्रियल गार्सिआ मार्केज़ के उपन्यास ' एकांत के सौ वर्ष' से है जो किस्से के मुताबिक एक दोपहर चादर समेत उड़ जाती है)

Dr.Shree Vijay
15-02-2014, 04:53 PM
ग़ज़ल
(कवि: सर्वेश्वरदयाल सक्सेना)
[size=3]क्या गजब का देश है

क्या गजब का देश है यह, क्या गजब का देश है।
बिन अदालत और मुवक्किल के मुकदमा पेश है।




अतिसुन्दर...........

rajnish manga
19-02-2014, 08:20 PM
साबुन का खाली डिब्बा

यह जापान में प्रबंधन के विद्यार्थियों कोपढ़ाया जाने वाला बहुत पुराना किस्सा है जिसे ‘साबुन के खाली डिब्बे काकिस्सा’ कहते हैं. कई दशक पहले जापान में साबुन बनानेवाली सबसे बड़ी कंपनीको अपने एक ग्राहक से यह शिकायत मिली कि उसने साबुन का व्होल-सैल पैक खरीदाथा पर उनमें से एक डिब्बा खाली निकला. कंपनी के अधिकारियों को जांच करनेपर यह पता चल गया कि असेम्बली लाइन में हो किसी गड़बड़ के कारण साबुन के कईडिब्बे भरे जाने से चूक गए थे.

कंपनी ने एक कुशल इंजीनियर को रोज़ पैक होरहे हज़ारों डिब्बों में से खाली रह गए डिब्बों का पता लगाने के लिए तरीकाढूँढने के लिए निर्देश दिया. कुछ सोचविचार करने के बाद इंजीनियर नेअसेम्बली लाइन पर एक हाई-रिजोल्यूशन एक्स-रे मशीन लगाने के लिए कहा जिसेदो-तीन कारीगर मिलकर चलाते और एक आदमी मॉनीटर की स्क्रीन पर निकलते जा रहेडिब्बों पर नज़र गड़ाए देखता रहता ताकि कोई खाली डिब्बा बड़े-बड़े बक्सोंमें नहीं चला जाए. उन्होंने ऐसी मशीन लगा भी ली पर सब कुछ इतनी तेजी सेहोता था कि वे भरसक प्रयास करने के बाद भी खाली डिब्बों का पता नहीं लगा पारहे थे.

ऐसे में एक अदना कारीगर ने कंपनीअधिकारीयों को असेम्बली लाइन पर एक बड़ा सा इंडस्ट्रियल पंखा लगाने के लिएकहा. जब फरफराते हुए पंखे के सामने से हर मिनट साबुन के सैंकड़ों डिब्बेगुज़रे तो उनमें मौजूद खाली डिब्बा सर्र से उड़कर दूर चला गया।इस तरह सभी की मुश्किलें पल भर में आसान हो गयी।

जीवन में भी हमेशा ऐसे मौके आते हैं जब समस्यायों का समाधान बड़ा ही आसान होता है लेकिन हम कईतरह के कॉम्लेक्स उपायोंका उपयोग करते रहते हैं, जो हमारी मुश्किलों को सुलझाने के बजाये उन्हें और मुश्किल कर देती हैं ।

rajnish manga
25-02-2014, 11:45 AM
सच्चा दोस्त

Everyone must have a friend
To tell his troubles to;
And I found mine, O dearest Lord,
My truest friend is you!
(रचनाकार: ज्ञात नहीं )

हर शख्स के जीवन में कोई मित्र होना चाहिये
दुःख में जिसके काँधे पे आँखें भिगोना चाहिये
मेहरबानी से तेरी अब पा लिया हमने भी आज
एक सच्चा दोस्त, मालिक ! तू ही होना चाहिये.
(अनुवाद: रजनीश मंगा)

Dr.Shree Vijay
25-02-2014, 06:09 PM
साबुन का खाली डिब्बा





छोटे मुहं बड़ी बात यह कहावत कई बार सही साबित होते देखि हें.......

rajnish manga
25-02-2014, 11:05 PM
छोटे मुहं बड़ी बात यह कहावत कई बार सही साबित होते देखि हें.......



जी आपने ठीक फरमाया, मित्र.

rajnish manga
25-02-2014, 11:06 PM
बनारसके किस्सों की बात ही कुछ और है

बनारस के पुराने रईसों के संदर्भमें डा. रायकृष्ण दास से बातचीत चल रही थी। मैंने कहा- एक किस्सा प्रचलित है। फक्कड़ साह के जमाने में नौकर से एक झाड़-फानूस गिर गया। टूटकर गिरने से उसकी अजीबो-गरीब मनमोहक तरंग की आवाज सुन फक्कड़ साह ने नौकर को बुलाया और पूछा यह कैसी आवाज थी? वह डर गया, किंतु कोई जवाब देता इसके पहले उनकी फरमाईश हो गई कि ठीक है - नुकसान के लिये डरों नहीं, उन मोहक तरंगोंको फिर से पैदा करो! नौकर ने एक-एक कर शेष पांच झाड़ फानूसों को झाड़-झाड़ कर गिरा दिया और तरंगित तरंगों को सुन फक्कड़ साह नौकर पर खुश हुए और एक अशरफी इनाम में दी। इस किस्से को सुन रायकृष्ण दास मुस्करा उठे थे। उन्होंने कहा-बनारस के गप्प में जो रस है, वह अकबर बीरबल के किस्सों में नहीं है।

rajnish manga
17-03-2014, 11:58 AM
[दो बाल कहानियां मुंशी प्रेमचंद के नाती और वरिष्*ठ लेखक प्रबोध कुमार के सौजन्य से प्रस्तुत हैं। उनका कहना है कि उनकी मां कमला देवी (प्रेमचंद जी की पहली संतान) ये कहानियां बचपन में हम भाई-बहन को सुनाती थीं. उनमे से दो कहानियाँ यहाँ प्रस्तुत हैं]

चालाक चिडिय़ा

एक पेड़ परएक घोंसला था जिसमें चिड़ा और चिडिय़ा की एक जोड़ी रहती थी। एक दिन चिडिय़ा ने चिड़ा से कहा, ‘‘आज मेरा मन खीर खाने को कर रहा है, जाओ जाकर कहीं से चावल, दूध और चीनी ले आओ।’’ चिड़ा ने चिडिय़ा को समझाया, ‘‘आजकल बहुत महंगाई है। लोग चावल खाते नहीं है या कम खाते हैं। चावल लाने में बड़ी मुसीबत है, लोग झट भगा देते हैं। और दूध ? उसका भी मिलना बड़ा कठिन है और मिला भी तो दूध के नाम सफेद पानी ! कहीं ऐसा भी दूध होता है भला- न गाढ़ापन और न चिकनाई ! और चीनी ? अरे बाप रे ! बिल्कुल नदारद, लोग तरस रहे हैं चीने के लिए ! ऐसे में कैसे बनेगी तुम्हारी खीर ? हाँ, खिचड़ी-विचड़ी बनाना चाहो तो बना लो हालांकि वह भी सरल नहीं है।’’

पर स्त्री की जिद बुरी होती है। चिडिय़ा बोली, ‘‘नहीं, खीर ही बनेगी। जाओ इंतजाम करो और नहीं तो दूसरी चिडिय़ा तलाश लो, मैं बाज आई ऐसे कामचोर चिड़ा से। अरे ये झंझट तो रोज की है और इन्हीं के लिए बैठे रहो तो हो गई जिंदगी। मैं रोज तो किसी बड़ी चीज की फरमाइश करती नहीं हूँ। कभी कुछ अच्छा खाने का मन हुआ भी तो तुम ऐसे निखट्टू हो कि वह साध भी पूरी करने में इधर-उधर करते हो। मैं खीर खाऊँगी और आज ही खाऊँगी। अब जाओ जल्दी से और करो सारा इंतजाम। खीर क्या मैं अकेली खाऊँगी, तुम्हे भी तो मिलेगी।’’ अब चिड़ा करे तो क्या करे ! निकला खीर की सामग्री जुटाने। जैसे-तैसे चावल लाया, दूध लाया और चीनी नहीं मिली तो कहीं से गुड़ ले आया।
>>>

rajnish manga
17-03-2014, 12:01 PM
चिडिय़ा तो बस खुशी से निहाल हो उठी और लगी चिड़ा को प्यार करने। खैर, खीर पकाई गई। दूध के उबाल की सोंधी महक चिडिय़ा की तो नस-नस में नशा छा गई। खीर तैयार हो जाने पर चिड़ा से कहा, ‘‘थोड़ी ठंडी हो जाए तब हम खीर खाएँगे। तब तक मैं थोड़ा सो लेती हूँ और तुम भी नहा-धोकर आ जाओ। चिड़ा नहाने चला गया तो चिडिय़ा ने सारी खीर चट कर डाली। और फिर झूठ-मूठ में सो गई। नहा-धोकर चिड़ा लौटा तो देखा चिडिय़ा सो रही है। उसने चिडिय़ा को जगाया और कहा, ‘‘मुझे बहुत भूख लगी है, चलो खीर खाई जाए। चिडिय़ा बोली, ‘‘तुम खुद निकालकर खा लो और जो बचे उसे मेरे लिए हांडी में ही रहने दो, मैं तो अभी थोड़ा और सोऊँगी। आज इतनी थक गई हूँ खीर बनाते-बनाते कि कुछ मत पूछो !’’

चिड़ा ने छोटी-सी खीर की हाँड़ी में चोंच डाली तो खीर की जगह उसकी चोंच में चिडिय़ा की बीट आ गई। सारी खीर खाकर चिडिय़ा ने छोड़ी हाड़ी में बीट जो कर दी थी। चिड़ा गुस्से से चिल्ला पड़ा, ‘‘सारी खीर खाकर और हांड़ी में बीट कर अब नींद का बहाना कर रही हो !’’ चिडिय़ा ने अचरज दिखाते हुए कहा, ‘‘यह तुम क्या कह रहे हो ? मैं तो थकावट के मारे उठ तक नहीं पा रही हूँ और तुम मुझ पर झूठा इलजाम लगा रहे हो ? मैंने खीर नहीं खाई । मुझे क्या पता कौन खा गया। मैं तो खुद अब भूखी हूँ।’’ चिड़ा फिर चिल्लाया, ‘‘अच्छा, खाओ कसम कि तुमने खीर नहीं खाई।’’ चिडिय़ा बोली, ‘‘मैं तैयार हूँ। बोलो कैसे कसम खाऊँ।’’ चिड़ा ने कहा, ‘‘चलो, मेरे साथ कुएँ पर चलो तो बताता हूँ।’’ दोनों कुएँ पर गए। चिड़ा ने एक कच्चा, सूत का धाग कुएँ के एक किनारे से दूसरे किनारे तक बाँधा और चिडिय़ा से कहा, ‘‘इस धागे को पकड़कर इस ओर से उस ओर तक जाओ। यदि तुमने खीर खाई होगी तो धागा टूट जाएगा और तुम पानी में गिर जाओगी। और जो नहीं खाई होगी तो मजे से इस ओर से उस ओर पहुंच जाओगी।’’ चिडिय़ा धागे पर चली। खीर से उसका पेट भरा था। उसने तो सचमुच खीर खाई थी। चिड़ा से वह झूठ बोली थी सो बीच रास्ते में धागा टूट गया और वह धम्म से पानी में जा गिरी। चिड़ा गुस्से में उसे झूठी, बेईमान कहता वहां से उड़ गया और चिडिय़ा पानी में फडफ़ड़ाने लगी।
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rajnish manga
17-03-2014, 12:03 PM
तभी शिकार की खोज में एक बिल्ली कुएँ पर पहुँची। उसकी नजर चिडिय़ा पर पड़ी वह सावधानी से कुएँ में उतरी और चिडिय़ा को मुँह में दबाकर निकाल लाई। बिल्ली ने अब चिडिय़ा को खाना चाहा। चिडिय़ा तो चालाक थी ही, झट बोली, ‘‘बिल्ली रानी, अभी मुझे खाओगी तो मजा नहीं आएगा। थोड़ा ठहर जाओ। मुझे धूप में सूखने रख दो, मेरे पंख सूख जाएँ तब खा लेना। और हाँ, न हो तो तुम भी मेरे पास बैठ जाना। तुम भी गीली हो गई हो। धूप में सूख भी जाओगी और मेरे ऊपर नजर भी रख सकोगी।’’

बिल्ली को चिडिय़ा की बात जँच गई। उसने चिडिय़ा को धूप में सूखने के लिए रख दिया और खुद भी वहीं पास में बैठ धूप का मजा लेने लगी। चिडिय़ा के पंख धीरे-धीरे सूखने लगे। गीले पंख लेकर वह ठीक से उड़ नहीं सकती थी। इसलिए उसने बिल्ली को यह सलाह दी थी। उसने सोचा था, जैसे ही मेरे पंख सूखें और मुझ में उडऩे की शक्ति आई फिर देखूँगी बिल्ली रानी मेरा क्या बिगाड़ सकती है ! इधर बिल्ली सावधान थी। इसकी पूरी नजर चिडिय़ा पर थी, पर वह धूप की गरमाहाट का मजा भी ले रही थी। चिडिय़ा के पंख जब काफी कुछ सूख गए और उसे लगा कि अब वह ठीक से उड़ सकती है तब उसने बिल्ली की ओर नजर फेरी।
>>>

rajnish manga
17-03-2014, 12:06 PM
बिल्ली उसे पूरी तरह सावधान दिखी। उसने बिल्ली से कहा, ‘‘बिल्ली रानी, मेरे पंख बस सूखने ही वाले हैं। वे सूख जाएँ तो तुम्हें अपनी पसंद का गरम-गरम गोश्त खाने को मिल जाएगा पर हाँ, बिल्ली रानी, उसके पहले आँखे बंद कर तुम थोड़ी देर भगवान का ध्यान कर लो तो कितना अच्छा रहे ! भगवान का स्मरण कर मुझे खाओगी तो मेरा अगला जीवन सुधर जाएगा और मेरा कल्याण करने से भगवान भी तुमसे बहुत प्रसन्न होंगे।’’ चिडिय़ा की सलाह बिल्ली को अच्छी लगी। उसने आँखें बंद कर लीं और भगवान का स्मरण करने लगी। चालाक चिडिय़ा तो इसी मौके का इंतजार कर रही थी। जैसे ही बिल्ली की आँखें बंद हुईं वह फुर्र से उड़ कर एक पेड़ पर जा बैठी और बोली, ‘‘ बिल्ली रानी, आँखें खोलकर देखा तो सही मेरे पंख कैसे सूख गए ! ’’

बिल्ली ने आँखें खोली तो चिडिय़ा को पेड़ पर बैठी देख उसके गुस्से का ठिकाना न रहा। वह चिल्ला पड़ी, ‘‘बेईमान, धोखेबाज चिडिय़ा….।’’ लेकिन बिल्ली की गालियाँ सुनने वाला पेड़ पर अब कौन था। चिडिय़ा तो आसमान में चहचहाती इधर-उधर चक्कर लगा रही थी। बिल्ली अपनी मूर्खता पर खिसिया कर रह गई और चिडिय़ा के गोश्त का स्वाद याद करते-करते अपनी जीभ अपने ही मुँह पर फेरने लगी।
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rajnish manga
17-03-2014, 12:08 PM
दो गप्पी

एक छोटे सेशहर में दो गप्पी रहते थे। दूर की हाँकने वाले। अपने को सबसे बड़ा बताने वाले। एक दिन दोनों में ठन गई। देखें कौन बड़ा गप्पी है। शर्त लग गई। जो जीते दो सौ रुपये पाए और जो हारे वह दो सौ रुपये दे।

बात शुरू हुई। गप्पें लगने लगीं। पहला बोला, ‘‘ मेरे बाप के पास इतना बड़ा, इतना बड़ा मकान था कि कुछ पूछो मत। बरसों घूमों, दिन-रात घूमों पर उसके ओर-छोर का पता न चले।’’ दूसरे ने कहा, ‘‘सच है भाई, वह मकान सचमुच इतना बड़ा रहा होगा।’’ उसे मालूम था कि पहला गप्पी बिल्कुल झूठ बोल रहा है, लेकिन इस होड़ में यह शर्त थी कि कोई किसी को झूठा नहीं कहेगा, नहीं तो शर्त हार जाएगा। इसीलिए उसे, ‘सच है भाई’, कहना पड़ा।

पहला गप्पी फिर बोला, ‘‘उस बड़े मकान में घूमना बहादुरों का काम था, कायरों का नहीं। मेरे बाप ने उस मकान को ऐसे बनवाया था- ऐसा, जैसे चीन की दीवार हो। बाप भी मेरे बस दूसरे भीमसेन ही थे- इतने तगड़े, इतने तगड़े कि बस हाँ।

दूसरा गप्पी बोला, ‘‘भाई, मेरे बाप के पास इतना लम्बा बाँस था कि कुछ पूछो मत- इतना लम्बा कि तुम्हारे बाप के मकान के इस सिरे से डालो तो उस सिरे से निकल जाए और फिर भी बचा रहे। उस बाँस से यदि आसमान को छू दो तो बस छेद हो जाए आसमान में और झर-झर-झर वर्षा होने लगे, पानी की धार लग जाए।’’
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17-03-2014, 12:10 PM
पहले गप्पी ने कहा, ‘‘ठीक है भाई ठीक है, और अब मेरी सुनो- मेरे बाप उस मकान से निकले तो उन्हें मिल गई एक घोड़ी। घोड़ी क्या थी, हिरण बछेड़ा थी। हवा से बातें करती थी- उड़ी सो उड़ी, कहो दुनिया का चक्कर मार आए। हाँ, तो बाप थे मेरे घोड़ी पर सवार और तभी किसी कौए ने बीट कर दी घोड़ी पर और उग आया उस पर एक पीपल का पेड़। मेरे बाप तो आखिर मेरे बाप ही थे न। अकल में भला कोई उनकी बराबरी कर सकता था। उन्होंने झट पीपल के पेड़ पर मिट्टी डाली और खेत तैयार कर उसमें ज्वार बो दी। अब बिना पानी के ज्वार बढ़े तो कैसे बढ़े ! पानी बरस नहीं रहा था। लोग परेशान थे। फसलें बर्बाद हो रही थीं। बस समझो कि अकाल पड़ गया था, अकाल ! तभी मेरे बाप को वह लम्बा बाँस याद आया जिससे तुम्हारे बाप आसमान में छेदकर पानी बरसाते थे। बस घोड़ी पर सवार मेरे बाप तुम्हारे बाप के घर पहुँच गये और उन्हें पानी बरसाने के लिए मना लिया।

फिर क्या कहना था ! जहां-जहां तुम्हारे बाप आसमान में छेद कर पानी बरसाते, वहां-वहां मेरे बाप घोड़ी को ले जाते और जहां-जहां घोड़ी जाती, वहां-वहां पीपल और जहां-जहां पीपल, वहां-वहां ज्वार का खेत। भाई मेरे, कुछ पूछो न ! ऐसी ज्वार हुई, ऐसी ज्वार हुई जैसे मोती- सफेद झक्क और मोटे दाने। ज्वार क्या थी भाई, अमृत था ! अब जो तुम्हारे बाप ने देखी वैसी अजूबा ज्वार तो मचल गए और पांच सौ रुपये की ज्वार लेकर ही रहे। मेरे बाप ने पैसे माँगे तो बोले, ‘अभी मेरे पास नहीं हैं, उधार दे दो।’ मेरे बाप बड़े दरियादिली तो थे ही, उन्होंने उधार दे दी ज्वार। और भाई क्या कहें, तुम्हारे बाप भी बड़े ईमानदार थे। उन्होंने कहा, ‘अगर मैं यह कर्ज न उतार सकूँ तो मेरे बेटे से पूरे पैसे ले लेना। मेरा बेटा बहुत अच्छा है और अच्छे बेटे अपने बाप का कर्ज जरूर अदा करते हैं।’’

दूसरे गप्पी ने यह सूना तो उसकी तो बोलती बंद ! न तो वह, सच है भाई, कह सकता था न, झूठ है, ही कह सकता था। सच कहता तो पाँच सौ रुपये का कर्ज चुकाना पडे़गा और झूठ कहता तो शर्त हारने के दो सौ रुपये देने पड़ेंगे। मतलब यह कि इधर कुँआ तो उधर खाई। उसने सोचा कुँए से तो खाई ही भली। वह झट बोला, ‘‘झूठ-झूठ-झूठ मेरे बाप ने कभी तुम्हारे बाप से पाँच सौ रुपये की ज्वार नहीं ली।’’ उसका इतना कहना था कि पहला गप्पी बोला, ‘‘मैं जीत गया, लाओ दो सौ रुपये दो।’’ दूसरे गप्पी ने दो सौ रुपये देकर अपनी जान छुड़ाई।
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25-03-2014, 01:35 PM
"इधर उधर से" नामक यह सूत्र ठीक एक वर्ष पूर्व यानि 25/03/2013 को आरम्भ किया गया था. इस सूत्र में मैंने विभिन्न विषयों पर खुद अपने तथा अन्य कवि-लेखक महानुभावों के विचार आपके सम्मुख रखने की कोशिश की. धीमी गति के बावजूद मेरा यह प्रयास रहा कि इसमें कुछ न कुछ रोचक सामग्री देता रहूँ. जैसा कि मैंने पहले भी अर्ज़ किया था इन पोस्टों का उद्देष्य मुख्य रूप से मनोरंजन ही है. इनमे कुछ आपको काम की चीज लगे तो उसे ग्रहण कर लें अन्यथा छोड़ दें. इस एक वर्ष में आपका साथ-सहयोग निरंतर मिलता रहा जिसके लिये मैं आपका हृदय से आभारी हूँ. समय समय पर आपकी राय से भी मुझे लाभ मिलता रहा. मेरा निवेदन है कि भविष्य में भी आप सूत्र के विषय में अपना सहयोग पूर्ववत जारी रखेंगे और मेरा मार्गदर्शन करते रहेंगे.

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25-03-2014, 02:04 PM
मंचों पर हास्यरस और वीर रस के मौसम
(आलेख आभार: राजेन्द्र धोड़पकर)

अपने देश में मंचों पर मौसम आमतौर पर हास्य रस या श्रृंगार रस का रहता है, लेकिन स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस के आसपास वीर रस के कवि सम्मेलन में तब्दील हो जाता है। परिवर्तन इतना तेज नहीं हो पाता इसलिए अक्सर माहौल कुछ कन्फ्यूज्ड सा रहता है, यानी कॉमेडी सर्कस में वीर रस या वीर रस में कॉमेडी सर्कस जैसा। जो लोग आम तौर पर फूहड़ता के मुकाबले में बाजी मारने को जुटे रहते हैं वे वीर रस के जुमलों पर ‘जरा दाद चाहूंगा’ या ‘जरा गौर कीजिएगा, तालियों की आवाज से प्रोत्साहन चाहूंगा’ वाले अंदाज में आ जाते हैं। इस बार 15 अगस्त के कुछ दिन पहले पांच फौजी शहीद हो गए इसलिए यही माहौल कुछ पहले से शुरू हो गया है। सीमा पर फौजी अपना कठिन और जोखिम भरा कर्तव्य निभाते हैं, यहां भाई लोग टीआरपी, तालियां और मलाई बटोरने में लगे होते हैं। सेना के बड़े अफसर कहते रहते हैं भाई जरा हमें शांति से अपना काम करने दीजिए, हम जानते हैं कि हमें क्या करना है। यहां ताली बटोरू ब्रिगेड उनके पीछे लगी होती है- नहीं, नहीं, हम बताएंगे कि तुम्हें क्या करना है, पांच के बदले पचास पाकिस्तानी सैनिकों के सिर लाओ, वगैरह। जैसे भारतीय सेना न हुई, सलीम दुर्रानी हो गए, जो डिमांड पर छक्का मार दें।

देशभक्तों की दिक्कत यह है कि उनकी याददाश्त उसी तरह छोटी है, जैसे ‘गजिनी’ फिल्म में आमिर खान की। स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस या सीमा पर किसी तनातनी के दौर में वह जाग जाती है, लेकिन 48 घंटे से ज्यादा नहीं ठहरती। गजिनी के आमिर खान की तरह ही इन्होंने भी अपनी देशभक्ति उल्टे अक्षरों में लिख रखी है और उसे जगाने के लिए पाकिस्तान के आईने की जरूरत होती है। इससे दिक्कत यही है कि ये लोग शोर बहुत मचाते हैं, खासकर टीवी पर तो ऐसा लगता है कि कुछ लोग टीवी से निकलकर पाकिस्तान पर हमला कर देंगे। वैसे टीवी एंकरों के नेतृत्व में ऐसे देशभक्तों की फौज को एकाध बार सीमा पर भेज देना चाहिए। पाकिस्तान से इससे बड़ा बदला क्या होगा? इसके बाद यह भी संभव है कि इनकी देशभक्ति की याददाश्त थोड़ी बड़ी हो जाए और शोर कुछ कम।

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25-03-2014, 02:55 PM
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की डायरी का एक पृष्ठ
(23 नवम्बर 1972 / पटना)

आज दिल्ली से लौटा तो ‘स्काला’ मैगज़ीन मिली इस अंक में इस विषय पर एक नोट है कि कोई साहित्यकार लिखता क्यों है ?

गेटे ने कहा था:
लेखन का धंधा करते मैंने कभी अपने आप से कभी यह नहीं पूछा कि जनता चाहती क्या है और किस प्रकार मैं जनता की सहायता कर सकता हूँ. बल्कि मैं तो बराबर अपने आप को पहले से अच्छा बनाता रहा हूँ, अपने व्यक्तित्व का विकास करता रहा हूँ, जिसे मैं शिव और सत्य मानता हूँ, उसी बात को सुन्दरता से लिखता हूँ.

एक लेखक का मत है:
मैं जीने के लिए लिखता हूँ. जब मैं लिखता हूँ तो मुझे अहसास होता है कि मैं जीवित हूँ.

एक अन्य लेखक का कहना है:
मेरे लिखने का उद्देश्य यह होता है कि मैं अपने भीतर के सत्य को पकड़ना चाहता हूँ.

एक लेखक यह सोचता है:
कि वह कुछ ऐसी बात कहना चाहता है जो उस युग में किसी को सूझ नहीं रही है अथवा अगर सूझी है तो वह उसे कह नहीं पाया है, अगर कह चुका है तो वह उस शैली में नहीं, जिसमे उसे कोई ख़ास लेखक कहना चाहता है. लेकिन एक ही शैली और एक ही युग में अगर वह बात कह दी गई है तब भी लेखक को अपनी भाषा में उसे दुहराना चाहिए, क्योंकि एक सत्य का आख्यान एक ही व्यक्ति करे, यह काफी नहीं है.
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25-03-2014, 02:56 PM
मेरी लुई ने कहा है:
“आप मुझ पर तरस भले ही खायें, किन्तु लिखते वक्त मुझे दूसरों की चिंता जरूर होती है, पाठकों का ख़याल जरूर आता है.”

एक दूसरे लेखक ने लिखा है:
“मैं अपने पाठकों की शान्ति भंग करना चाहता हूँ, मैं उससे कहना चाहता हूँ कि तुम संतुष्ट मत रहो, सोचो, चिंता करो, दिमाग पर जोर दो.”

गुंथर ग्रास कहते हैं:
मैं यह मान कर चलता हूँ कि मैं पाठक को नहीं जानता. कम से कम यह तो फ़िज़ूल की बात है कि कोई अपने पाठक की कल्पना कर के लिखे.

सिजफ्रिड लेन्ज़ ने कहा है:
“पाठक निराकार जीव है. वह नेबूला है. इस निराकार जंतु पर आँख गड़ा कर लिखना संभव नहीं है ... इससे लेखक की स्वतंत्रता मारी जाती है.
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rajnish manga
25-03-2014, 03:42 PM
सुनो! भारत माता क्या कहती है ...

https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcTYX5JRrXIFOMyBQNrXlRFGZaEGG8p0X mxC_hGNSdmaN7vG48hG


मैं भारत माता हूँ| धरती पर सबसे पुरानी संस्कृतियों में से एक, सदियों से मैंने अपने अन्दर भांति-भांति की भाषाओं, संस्कृतियों, परम्पराओं, धर्मों को समेटे रखा है| मेरे बच्चे, जो दुनिया भर में भारतवासी कहलाते हैं, प्रेम से मुझे “माँ” कहते हैं—”भारत माँ”| और सच कहूँ तो, मुझे गर्व है उन पर इस बात के लिए, क्यूंकि, उनका मुझे माँ कहना मेरे संस्कारों को दर्शाता है| दुनिया भर में और कोई ऐसा देश नहीं जिसके वासी उसे इतने प्रेम एवं सम्मान पूर्वक, मनुष्य जीवन का सबसे ऊंचा दर्जा देते हो—माँ का दर्जा| सुना है कभी तुमने, जापान चाचा, अमरीका अंकल, पाकिस्तान ख़ाला कहते हुए किसी को?

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25-03-2014, 03:44 PM
ये मेरे संस्कार ही तो हैं, जिनके कारण मेरे बच्चे रिश्तों का मूल्य समझते हैं| तभी तो यहाँ के लोग बचपन में ही पारिवारिक बंधुओं व पड़ोसियों को मामा, चाचा, काका, काकी, भाभी इत्यादि जैसे नामों से पुकारना सीख जाते हैं| तभी तो मैं, और सारा विश्व ये जानता और मानता है की भारत भूमि जैसी और कोई भूमि नहीं|

तुम सोच रही होगी, जिस माँ को उसके बच्चों का इतना सहारा हो, उसे भला तुम्हारी जैसी निर्जीव वस्तु की ज़रूरत क्यूँ पड़ी? तो लो, मैं बताती हूँ तुम्हे आज की जब बच्चे माँ का निरादर करने लगे, उसके दिए हुए संस्कारों को भूलकर, हर गलत रास्ते पर चलने लगे, तो कितना दुःख होता है| कितनी लाचार होगी वो माँ जिसके गुहार सुनने वाला कोई नहीं, जिसके बच्चे उसी को नोच नोच कर ख़त्म करने की होड़ में लगे हुए हैं—जानबूझ कर या अनजाने में, ये पता नहीं|

आज मेरी जो हालत उस बूढी, पगली भिखारन से कुछ कम नहीं, जो दर दर ठोकरें खाती फिरती है; जिसे लोग निकलते-गुज़रते गालियाँ देते जाते हैं और कुछ तो, उसके घावों पर और ज़ख्म देने से भी नहीं चूकते| फर्क बस इतना है, कि उस भिखारन पर तो फिर भी शायद कोई तरस खाकर उसे रोटी या थोड़े से सिक्के दे जाता हो, लेकिन मुझपर तरस खाने वाले, मेरे हित की सोचने वाला आज कोई नहीं| कोई नहीं|

सोचा करती थी कि मेरे बच्चे खूब नाम कमाएंगे, सारे जग़ को दिखा देंगे की इस देश जैसा कोई नहीं, तरक्की करेंगे, आगे बढ़ेंगे, अच्छे काम करेंगे और हमेशा मिल-बाँट के रहेंगे| पर ऐसा नहीं हुआ| जो हुआ, इसके बिलकुल विपरीत हुआ| बिलकुल विपरीत|
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rajnish manga
25-03-2014, 03:46 PM
आज ये लोग आपस की ही लड़ाई नहीं सुलझा पा रहे, तो बाहरी ताक़तों का सामना कैसे करेंगे| एक वो वक़्त था, जब अंग्रेजों को भगाने की मुहीम में मेरे सारे बच्चे एक हो गए थे, जब मेरी रक्षा करने के लिए मेरे कई सपूतों और सुपुत्रिओं ने जान की बाज़ी लगाने में भी देर ना लगायी थी; यहाँ तक कि, आपसी मतभेदों को भुलाकर, हर कोई, अपने तरीक़े से एक ही क्रान्ति का हिस्सा बन बैठा था| फक्र हुआ था तब मुझे, अपनी संतानों पर| गर्व से फूली ना समां पा रही थी मैं, ये जानकार कि मेरे लाल मेरी आन पर कभी आंच ना आने देंगे| गलत थी मैं|

आज देखो तो पता चलता है, एकता में अनेकता क्या होती है| मेरी सरकार से जनता नाखुश है, जनता से सरकार नाखुश है, जनता आपस में भी नाखुश है और सरकार से सरकार में आने की होड़ में लगी अन्य पार्टियाँ नाखुश है| अरे कोई मुझसे भी तो पूछो, मैं तो इन सबसे ही नाखुश हूँ|

दूसरे देशों से आतंकवादी बेहया घुस आते हैं और मेरे मासूम बच्चों को मार गिराते हैं| मैं चुप हूँ, ये सोचकर कि मेरे बड़े बच्चे, जिन्हें छोटों ने मान देकर, वोट के ज़रिये भरोसा करते हुए सिंघासन पर बिठाया है, वो बदला लेंगे, मुजरिमों को उनके किये की सजा देंगे| अन्याय के ऊपर न्याय की जीत होनी ही चाहिए—मैंने उन्हें सिखाया है| एक साल, दो साल, तीन साल….सालों साल गुज़र जाते हैं और छोटे—जो तकनीकी तौर पर “जनता” कहलाते है—न्याय की अपेक्षा करते करते उम्र बिता जाते हैं| सरकारें बदलती हैं, नेतृत्व करने के लिए नए लोग आते-जाते रहते हैं, पर सुधार का कहीं नामों-निशान तक नहीं|

क्या यही सिखाया था मैंने अपने बच्चों को?
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rajnish manga
25-03-2014, 03:49 PM
लोगों के आपस के लड़ने का रोना तो मैं क्या ही रोऊँ, जिस देश की सबसे ऊंची पदवी पर से लोगों का भरोसा उठ चुका हो, जहाँ न्याय की अपेक्षा करना बंद हो चुका हो, जहाँ ऊपर से नीचे तक हर शख्स भ्रष्टाचार का शिकार हो चुका हो, वहाँ मानवता, प्रेम, एकता की उम्मीद करना मेरी बेवकूफी होगी| आज सबको पैसा चाहिए—सही पैसा, गलत पैसा, पर बस पैसा| हर कोई अपनी सोच रहा है| माँ-माँ कहके जिसके सामने बड़े हुए, उस भारत वर्ष की देखभाल करने वाला, उसके संस्कारों का नाम रौशन करने वाला आज कोई नहीं| नफरत सबके दिल में घर कर चुकी है| सब एक दूसरे पर दोष लगाने में व्यस्त हैं|

किसी के पास इतना वक़्त नहीं की एक क्षण ठहरे और सोचे क्या सही है और क्या गलत| कहीं जाने ली जा रही हैं, तो कहीं भुखमरी से इंसान तड़प तड़प के दम तोड़ रहा है, कहीं मेरे हित और उद्धार के लिए लोगों का दिया पैसा भ्रष्ट मंत्रियों की जेबें गरम कर रहा है और कहीं धर्म-जाति के झगड़े आज भी समाप्त होने का नाम नहीं ले रहे हैं| मनुष्य मनुष्य की इज्ज़त करना भूल चुका है, आदमी औरत की और सरकार लोकतंत्र की| समस्याएँ अनेक हैं पर आपस में सब जुडी हुई| वहीँ मै सोच रही हूँ, मेरा क्या कुसूर जो इस दर्द से गुज़रना पड़ रहा है मुझे? क्यूँ मेरा नाम बदनाम कर रहे हैं ये सब? क्यूँ अब भी अपने बच्चों को “भारत माँ की जय हो” के झूठे नारे सिखा रहे हैं, मेरे नाम का झंडा लहरा रहे हैं जबकि वास्तव में इनके दिल में मेरा कोई स्थान है ही नहीं? आखिर क्यूँ?

बहुत देख लिया खून-खराबा, बहुत देख लिया कपट, लालच और भ्रष्टाचार, अब मेरी सहनशक्ति जवाब दे चुकी है| एक और बार अगर इनमे से किसी ने मुझे माँ कहकर पुकारा, तो मेरे सब्र का बाँध टूट जाएगा| अब तो बस उसी दिन का इंतज़ार है जब मैं आखरी ---
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rajnish manga
28-03-2014, 07:27 PM
अशफाकऔर बिस्मिल > क्रांतिकारी भी और शायर भी

अशफाकऔर बिस्मिल की तरही शायरीफाँसी की स्मृति में बना अमर शहीद अशफ़ाकउल्ला खां द्वार (फ़ैजाबाद जेल, उत्तर प्रदेश)राम प्रसाद 'बिस्मिल' कीतरह अशफाक भी बहुत अच्छे शायर थे। इन दोनों की शायरी की अगर तुलना की जायेतो रत्ती भर का भी फर्क आपको नजर नहीं आयेगा। पहली बार की मुलाकात में हीबिस्मिल अशफाक के मुरीद हो गये थेजब एकमीटिंग में बिस्मिल के एक शेर का जबाव उन्होंने अपने उस्ताद जिगरमुरादाबादी की गजल के मक्ते से दिया था। जब बिस्मिल ने कहा-

"बहेबहरे-फना में जल्द या रब! लाश 'बिस्मिल' की।
कि भूखी मछलियाँ हैंजौहरे-शमशीर कातिल की।।"

तो अशफाक ने "आमीन" कहते हुए जबाव दिया-

"जिगरमैंने छुपाया लाख अपना दर्दे-गम लेकिन।
बयाँ कर दी मेरी सूरत ने सारीकैफियत दिल की।।"

एक रोज का वाकया है अशफाक आर्य समाज मन्दिर शाहजहाँपुरमें बिस्मिल के पास किसी काम से गये। संयोग से उस समय अशफाक जिगरमुरादाबादी की यह गजल गुनगुना रहे थे-

"कौन जाने ये तमन्ना इश्क कीमंजिल में है।
जो तमन्ना दिल से निकली फिर जो देखा दिल में है।।"

बिस्मिलयह शेर सुनकर मुस्करा दिये तो अशफाक ने पूछ ही लिया-"क्यों राम भाई! मैंनेमिसरा कुछ गलत कह दिया क्या?" इस पर बिस्मिल ने जबाब दिया- "नहीं मेरेकृष्ण कन्हैया! यह बात नहीं। मैं जिगर साहब की बहुत इज्जत करता हूँ मगरउन्होंने मिर्ज़ा गालिब की पुरानी जमीन पर घिसा पिटा शेर कहकर कौन-सा बडातीर मार लिया। कोई नयी रंगत देते तो मैं भी इरशाद कहता।" अशफाक को बिस्मिलकी यह बात जँची नहीं; उन्होंने चुनौती भरे लहजे में कहा- "तो राम भाई! अबआप ही इसमें गिरह लगाइये, मैं मान जाऊँगा आपकी सोच जिगर और मिर्ज़ा गालिबसे भी परले दर्जे की है।" उसी वक्त पण्डित राम प्रसाद 'बिस्मिल' ने ये शेर कहा-

"सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।
देखना है ज़ोर कितना बाजु-ए-कातिल में है?"

यह सुनते ही अशफाक उछल पड़े और बिस्मिल को गले लगा के बोले- "राम भाई! मान गये; आप तो उस्तादों के भी उस्ताद हैं।"
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rajnish manga
28-03-2014, 07:37 PM
इसके बाद तो अशफाक और बिस्मिल में होड़-सी लग गयी एक से एक उम्दा शेर कहने की। परन्तु अगर ध्यान से देखा जाये तो दोनों में एक तरह की टेलीपैथी काम करती थी तभी तो उनके जज्बातों में एकरूपता दिखायी देती है। मिसाल के तौर पर चन्द मिसरे हाजिर हैं: बिस्मिल का यह शेर-

"अजल से वे डरें जीने को जो अच्छा समझतेहैं।
मियाँ! हम चार दिन की जिन्दगी को क्या समझते हैं?"

अशफाक की इस कता के कितना करीब जान पड़ता है-

"मौत एक बार जब आना है तो डरना क्या है!
हम इसे खेल ही समझा किये मरना क्या है?

वतन हमारा रहे शाद काम और आबाद, हमारा क्या है अगर हम रहे, रहे न रहे।।"

मुल्क की माली हालत को खस्ता होता देखकर लिखी गयी बिस्मिल की ये पंक्तियाँ-

"तबाही जिसकी किस्मत में लिखी वर्के-हसदसे थी,
उसी गुलशन की शाखे-खुश्क पर है आशियाँ मेरा।"

अशफाक के इस शेर सेकितनी अधिक मिलती हैं-

"वो गुलशन जो कभी आबाद था गुजरे जमाने में,
मैं शाखे-खुश्क हूँ हाँ! हाँ! उसी उजड़े गुलिश्ताँ की।"
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rajnish manga
28-03-2014, 07:41 PM
इसी प्रकार वतन की बरवादी पर बिस्मिल की पीड़ा-

"गुलो-नसरीनो-सम्बुल की जगह अब खाक उडती है,
उजाड़ा हाय! किस कम्बख्त ने यह बोस्ताँ मेरा?"

से मिलता जुलता अशफाक का यह शेर किसी भी तरह अपनी कैफियत में कमतर नहीं-

"वो रंग अब कहाँ है नसरीनो-नसतरन में,
उजडा हुआ पड़ा है क्या खाक है वतन में?"

बिस्मिल की एक बडी मशहूर गजल उम्मीदे-सुखन की ये पंक्तियाँ-

"कभी तो कामयाबी पर मेरा हिन्दोस्ताँ होगा।
रिहा सैय्याद के हाथों से अपना आशियाँ होगा।।"

अशफाक को बहुत पसन्द थीं। उन्होंने इसी बहर में सिर्फ एक ही शेर कहा था जो उनकी अप्रकाशित डायरी में इस प्रकार मिलता है:-

"बहुत ही जल्द टूटेंगी गुलामी की ये जंजीरें,
किसी दिन देखना आजाद ये हिन्दोस्ताँ होगा।"
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Dr.Shree Vijay
28-03-2014, 09:22 PM
"इधर उधर से" नामक यह सूत्र ठीक एक वर्ष पूर्व यानि 25/03/2013 को आरम्भ किया गया था. इस सूत्र में मैंने विभिन्न विषयों पर खुद अपने तथा अन्य कवि-लेखक महानुभावों के विचार आपके सम्मुख रखने की कोशिश रखे. धीमी गति के बावजूद मेरा यह प्रयास रहा कि इसमें कुछ न कुछ रोचक सामग्री देता रहूँ. जैसा कि मैंने पहले भी अर्ज़ किया था इन पोस्टों का उद्देष्य मुख्य रूप से मनोरंजन ही है. इनमे कुछ आपको काम की चीज लगे तो उसे ग्रहण कर लें अन्यथा छोड़ दें. इस एक वर्ष में आपका साथ-सहयोग निरंतर मिलता रहा जिसके लिये मैं आपका हृदय से आभारी हूँ. समय समय पर आपकी राय से भी मुझे लाभ मिलता रहा. मेरा निवेदन है कि भविष्य में भी आप सूत्र के विषय में अपना सहयोग पूर्ववत जारी रखेंगे और मेरा मार्गदर्शन करते रहेंगे.


फ़ोरम में करीब १३००० सूत्रों में से ऐसें गुलदस्ते तो मात्र गिनती के ही हैं,
"इधर उधर से" ना होकर यह तो विविध रंगो, रूपों और रसो का सुन्दरतम गुलदस्ता हैं,
इस गुलदस्ते के लिए आपका हार्दिक आभार..........


:hello: :hello: :hello:

rajnish manga
28-03-2014, 10:42 PM
फ़ोरम में करीब १३००० सूत्रों में से ऐसें गुलदस्ते तो मात्र गिनती के ही हैं,
"इधर उधर से" ना होकर यह तो विविध रंगो, रूपों और रसो का सुन्दरतम गुलदस्ता हैं,
इस गुलदस्ते के लिए आपका हार्दिक आभार..........

:hello: :hello: :hello:


आपकी उपरोक्त पंक्तियों के लिये आपका बहुत बहुत धन्यवाद, डॉ. श्री विजय जी. आपके शब्द बहुत उत्साहवर्धक हैं और मेरे प्रति उदारता से भरे हुये हैं. आशा करता हूँ कि आपका यह स्नेह सदा मेरे साथ रहेगा.

rajnish manga
01-04-2014, 03:27 PM
दोन्यूँ तज्या पिराण


https://encrypted-tbn1.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcRUZ809E1jO_MmaBi2ZfKVzveg6FGHdN bLeKnRMBv7KRQmlhm4t
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एक वन में मृग और मृगी का जोड़ा रहता था. उन दोनों में आपस में बहुत प्रेम था. साथ साथ ही चारा करते थे. साथ ही पानी पीने को जाते. इस प्रकार दिन रात साथ एक दूसरे के साथ रहते. एक दिन की बात है कि वे आसपास के क्षेत्र में चरने गये तो एक शिकारी ने बहुत दूर तक उनका पीछा किया. वे शिकारी से तो बच गये पर अपने घर का रास्ता भूल गये.

भटकते-भटकते उन्हें बड़े जोरों की प्यास लगी. वे पानी की तलाश में इधर-उधर घूमने लगे. पानी न मिलने के कारण दोनों प्यास से व्याकुल हो गये. आखिर खोजते खोजते उन्हें एक खड्डा दिखाई दिया. जिसमें थोड़ा सा पानी था – एक प्राणी की प्यास बुझाने लायक. मृगी ने मृग से कहा कि पानी तुम पियो. मृग ने मृगी से आग्रह किया कि पानी तुम पी लो. एक पानी पी ले और दूसरा बिना पानी के रह जाये यह किसी को भी स्वीकार नहीं था. वे एक दूसरे से आग्रह करते रहे किन्तु पानी किसी ने न पिया. अंत में प्यास के मारे दोनों के प्राण पखेरू उड़ गये. लेकिन दोनों मरे शांत चित्त से.
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http://www.deshbandhu.co.in/uploaded_files/news_photo/img_reg_79413.jpg (http://www.google.co.in/url?sa=i&rct=j&q=&esrc=s&source=images&cd=&cad=rja&uact=8&docid=mr2tXEa_CDp4ZM&tbnid=1m5x7ZPJ0RDkWM:&ved=0CAUQjRw&url=http%3A%2F%2Fwww.deshbandhu.co.in%2Fnewsdetail %2F79413%2F2%2F190&ei=2pg6U_f2E4bnrAeC14HACg&psig=AFQjCNEiw4hhHmd1RspLo5EHW_krovAXdA&ust=1396435179527661)

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rajnish manga
01-04-2014, 03:32 PM
दोनों के शव जहां पड़े थे, वहां से हो कर दूसरे दिन प्रातःकाल सैर के लिये जाते हुये जब दो सखिया गुजरीं तो एक सखी को यह देख कर आश्चर्य हुआ कि ये मृग मृगी कैसे मर गये? न तो इनके शरीर में किसी रोग के लक्षण दिखाई पड़ते हैं और न ही इनके टन बाण से बिंधे हुये हैं. यह देख कर उसने अपनी सखी से पुछा,

“खड़यो न दीखे पारधी, लग्यो न दीखे बाण i
मैं तन्ने पूछूं हे सखी, किस बिध तज्या पिराण ii”

(न कोई शिकारी खड़ा दीखता है और न इनको कोई बाण ही लगा दीखता है. अतः हे सखी, मैं तुझसे पूछती हूँ कि इन्होने प्राण कैसे तज दिए)

दूसरी सखी जो अधिक सयानी थी, अनुमान से सब कुछ समझ गयी. उसने कहा,

“जल थोड़ो नेहो घणो, लग्या प्रीत का बाण i
तू पी तू पी करत ही, दोन्यूँ तज्या पिराण ii”

(श्री भागीरथ कनोड़िया की कथा से प्रेरित)


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rajnish manga
13-04-2014, 09:31 PM
सबसे बड़ा ग़रीब

महात्मा को एक बार रास्ते में पड़ा धन मिल गया। उन्होंने निश्चय किया कि वे इससबसे गरीब आदमी को दान कर देंगे। निर्धन आदमी की तलाश में वे खूब घूमे। उन्हें कोईसुपात्र नहीं मिला। एक दिन उन्होंने देखा राजमार्ग पर राजा के साथ अस्त्र-शस्त्रोंसे सजी विशाल सेना चली आ रही है। राजा महात्मा को पहचानता था।

हाथी से उतरकरउसने महात्मा को प्रणाम किया। महात्मा ने अपनी झोली से धन निकाला और राजा को थमादिया। राजा ने विनीत स्वर में कहा महाराज! यह क्या? आपके आशीर्वाद से मेरे खजानेमें हीरे-जवाहरात का भंडार है। महात्मा ने उत्तर दिया राजन! मैं गरीब आदमी की तलाशमें था। तुम सबसे गरीब हो। यदि तुम्हारे खजाने में धन का अंबार है तो सेना लेकरकहां जा रहे हो? अगर तुम्हें किसी बात की कमी नहीं तो यह सब किसलिए? राज्य काविस्तार और धन के लिए। महात्मा की बातों ने असर किया। राजा ने तत्काल अपनी सेना कोलौटने का आदेश दिया। वह ऐसे जा रहा था मानो अनमोल खजाना जीतकर लौट रहा हो।

rajnish manga
14-04-2014, 10:52 AM
सुरक्षा गार्ड और सुरक्षा
(इंटरनेट से)

कुछ समय पूर्व एक सर्वे किया गया, जिसके तहत इस बारे में रिसर्च की गई थी कि कुछ कोऑपरेटिव हाउसिंग सोसायटीज में अक्सर चोरी-डकैती की घटनाएं क्यों होती हैं, जबकि अन्य सोसायटीज में ऐसा कुछ नजर नहीं आता? इससे मिले नतीजे चौंकाने वाले थे। जिन सोसायटीज में सुरक्षा गार्ड आने-जाने वाले लोगों को सलाम ठोकता रहता है, वहां पर लूटपाट या चोरी-डकैती की घटनाएं सामने नहीं आतीं, लेकिन जहां पर सुरक्षा गार्ड सोसायटी के कुछ ही लोगों (मसलन कमेटी के सदस्यों) को नमस्कार या सलाम करते हैं, वहां इस तरह की घटनाएं अमूमन देखी जाती हैं। आपको यह निष्कर्ष अजीब लग सकते हैं, लेकिन वास्तव में तथ्य यही है। जब कोई सुरक्षा गार्ड किसी को सलाम करता या उससे गुड मॉर्निंग, गुड आफ्टरनून या गुड नाइट कहता है, तो इसमें उसकी मुंह और हाथ की मांसपेशियां भी हरकत में आती हैं, जो परोक्ष तौर पर मस्तिष्क को सजग रहने के लिए चेता देती हैं।

जापान में ट्रेन के किसी भी सिग्नल पर पहुंचने पर उसका ड्राइवर अपना हाथ उठाकर सिग्नल की ओर इशारा करता है और जोर से बोलता है कि सिग्नल लाल है या हरा। वह सिग्नल के रंग के बारे में खुद को जोर-से बोलकर सुनाता है और अपनी उंगली से इसकी ओर इशारा भी करता है। ऐसा करते हुए ड्राइवर यह सुनिश्चित करता है कि उसने सिग्नल की गलत पहचान नहीं की है। जापानी भाषा में इस विधि को 'शिसा कांको' कहते हैं। इसे अपनाने से मानवीय चूक के चलते होने वाली दुर्घटनाओं की दर तीन फीसदी से गिरकर एक फीसदी तक आ गई है।

मैंने इसके बारे में 1985 में ‘द जापान टाइम्स’ के एक अंक में पढ़ा था और तबसे ही मैं अपने बैंक लॉकर को ऑपरेट करते समय इसका इस्तेमाल करता चला आ रहा हूं। बैंक लॉकर को ऑपरेट करने के बाद वहां से निकलने पर अक्सर मेरे दिमाग में यह शंका उभरने लगती कि 'क्या मैंने तमाम जेवरात वापस लॉकर में रख दिए हैं?', 'क्या मैंने लॉकर को ढंग से लॉक कर दिया है?' इत्यादि-इत्यादि। ऐसी शंकाओं से बचने के लिए मैं खुद से जोर से कहता हूं कि मैंने तमाम चीजें वापस लॉकर में रख दी हैं और इसे समुचित रूप से बंद भी कर दिया है। वैसे भी लॉकर रूम में उस वक्त लॉकर मालिक के अलावा कोई नहीं रहता।

हम में से कई लोगों को किसी फैमिली फंक्शन के लिए घर से निकलने के बाद इस तरह की चिंताएं सताने लगती हैं कि क्या हमने नल की टोंटी खुली तो नहीं छोड़ दी, हम मास्टर बेडरूम की लाइट-पंखे वगैरह स्विच ऑफ करके आए हैं या नहीं, या फिर कहीं हम घर की चाभी तो नहीं भूल आए। ऐसा ख्याल मन में आते ही हम अपनी जेब या बटुआ टटोलने लगते हैं और चाबियां मिल जाने पर राहत की सांस लेते हैं।

मेरे कई दोस्त भी इस 'शिसा कांको' तकनीक को अपनाने लगे हैं, जिससे उन्हें अब अपने घर से या लॉकर ऑपरेट कर बैंक से निकलने के बाद इस तरह की शंकाएं नहीं घेरतीं।

तकनीक इस तरह की घटनाओं को रोकने का एक तरीका हो सकती है, लेकिन ऑपरेटिंग टेक्नोलॉजी में इंसानी दखल जरूरी हो जाता है, ताकि थकान या उदासीनता के चलते किसी तरह की चूक या लापरवाही आपके समक्ष तुरंत उजागर हो सके।

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rajnish manga
14-04-2014, 11:07 AM
लोगों की लुक्स पर न जायें
(इन्टरनेट से)

लोगों को पूर्वग्रह के चश्मे से देखना ठीक नहीं है। किसी व्यक्ति के बाहरी लुक के आधार पर उसका आकलन करने के बजाय उसके भीतर झांकना ज्यादा जरूरी है।

यह 1960 के दशक की बात है। उस वक्त मेरे माता-पिता महाराष्ट्र में वर्धा के निकट स्थित सेवाग्राम में महात्मा गांधी आश्रम के लिए काम करते थे। चूंकि सेवाग्राम में ज्यादा स्कूल नहीं थे, लिहाजा मैं नागपुर में रहकर पढ़ते हुए वीकेंड पर सड़क या रेलमार्ग के जरिए वहां आना-जाना करता था। सफर में मुझे नए-नए लोगों से मिलना अच्छा लगता था। मैं उस वक्त काफी छोटा था, लिहाजा मुझे ऐसी सीट पकड़ा दी जाती, जिस पर अमूमन नियमित यात्री बैठने से कतराते। मैं भी अपनी हर यात्रा में रोजमर्रा की गंदगी और रेत-मिट्टी के बीच से इंसानी करुणा के कुछ दाने चुन ही लेता। चीजें हमेशा वैसी नहीं होतीं, जैसी लगती हैं। लोग अक्सर बाहरी आवरण के पीछे छिपी अच्छाई को प्रदर्शित करते हुए आपको चकित कर देते हैं।

मैं सेवाग्राम से नागपुर लौट रहा था। मैं अमूमन अपने बाजू में बैठे शख्स को परिचय देते हुए बातचीत करने लगता था, लेकिन उस दिन मुझे ऐसा करना ठीक नहीं लगा। मेरे बाजू में बैठा शख्स बाईस-तेईस साल का एक सख्त किस्म का युवक था। उसके पास से सस्ते-से आफ्टर-शेव लोशन जैसी बू आ रही थी और उसने भारीभरकम जैकेट पहन रखी था, जो शायद फैशन था। संक्षेप में कहूं तो वह उन गंदे किरदारों की तरह लग रहा था, जिनसे आपकी मां दूर रहने के लिए चेताती रहती हैं। मैंने उस पर नजर डाली और अपना बैग ऊपर लगेज रैक में रखने के बजाय गोद में ही रख लिया, मानो वह उसे लेकर भाग जाएगा। मैं बगैर कुछ बोले खिड़की के बाजू वाली सीट में ही दुबक गया। मैं लगातार खिड़की से बाहर देखे जा रहा था, ताकि किसी भी सूरत में हमारी नजरें आपस में न टकराएं।
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rajnish manga
14-04-2014, 11:08 AM
हालांकि वह बातचीत के मूड में था। वह बार-बार मुझसे बातचीत करने की कोशिश करता। उसने मुझसे पूछा कि मैं कहां से आ रहा हूं, क्या मैं नागपुर में ही रहता हूं या नहीं और खुद अपने काम के बारे में भी बताया। मैंने बड़ी रुखाई से कम शब्दों में उसे जवाब दिया, जिससे मेरी झुंझलाहट साफ जाहिर हो रही थी। आखिर मेरे मूड को भांप वह चुप हो गया। उसी वक्त मुझे नींद आने लगी। चूंकि मुझे अपने बाजू वाले मुसाफिर पर तनिक भी भरोसा नहीं था, लिहाजा मैं खुद को मोड़ते हुए अपनी ही सीट के दायरे में सिमटकर बैठ गया। ठंडी हवा के झोंकों ने जल्द ही मुझे सुला दिया।

थोड़ी देर बाद जब मेरी नींद खुली, तो मैंने देखा कि मेरी बाजू वाली सीट खाली थी और मेरा बैग भी गायब था। मैं बहुत परेशान हो गया। तभी पीछे की सीट पर बैठे एक मुसाफिर ने बताया कि मेरे सोते वक्त कुछ बदमाश मेरे हाथ से बैग छीनकर भाग रहे थे। बाजू वाला मुसाफिर तुरंत बाहर दौड़ा और उन गुंडों से लड़ते हुए मेरा बैग वापस ले लिया। लेकिन तब तक ट्रेन चलने लगी थी, लिहाजा वह शख्स दौड़कर पीछे वाली बोगी में चढ़ गया है और अगले स्टेशन पर वह हमारे पास आ जाएगा। उसने मुझे बताया कि वह इस पूरे दृश्य को अपनी खिड़की से देख रहा था। अब मुझे अपने बर्ताव पर बहुत ग्लानि हो रही थी। जिस शख्स को मैं इतना गलत समझ रहा था, उसने मुझे अहसास दिलाया कि मैंने उसके साथ कितना ओछा बर्ताव किया। जल्द ही अगला स्टेशन आ गया। वह पीछे से दौड़ता हुआ आया और मुझे मेरा बैग दे दिया। अपना बैग लेते वक्त मेरे पास उससे माफी मांगने के लिए शब्द नहीं थे। मैंने उसका नाम नहीं पूछा और न ही उसने मुझसे मेरा। लेकिन मैं उसे कभी भूल नहीं पाया।
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rajnish manga
17-04-2014, 01:21 PM
गुलाब क्यों सुन्दर होता है?
(from internet)
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https://encrypted-tbn2.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcQZSUFjVqu0AZIXHHA23jLA0JI4kuUci KLW44IswMDOU_zG9UtAxQ
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“बताओ! गुलाब क्यों सुन्दर होता है?” कुलकर्णी सर थे तो अंग्रजी के शिक्षक पर उनकी आदत थी कि कक्षा का प्रारम्भ किसी ना किसी प्रश्न से किया जाये। और लगभग हर बार प्रश्न ऐसा ही कुछ उटपटांग हुआ करता था। अब इसी को ले लो। गुलाब क्यों सुन्दर होता है? 7 वी कक्षा की बुद्धि के अनुसार छात्र उत्तर देते रहे, ‘गुलाब का रंग सुन्दर होता है इसलिये!’ किसी ने कहा उसकी पंखुड़ियों की रचना के कारण। कोई भी जबाब कुलकर्णी सर को संतुष्ट नहीं कर सका। वैसे भी उनके प्रश्नों का उत्तर उनके स्वयं के पास जो होता था वही उनको मान्य होता था। दो दिन का समय दिया गया छात्रों को ताकि घर में भी सब को पूछ सकें और फिर ये सिद्ध हो जाय कि कोई भी सही जबाब नहीं जानता। वैसे भी इस प्रश्न का माता -पिता भी क्या जबाब दें। ‘‘ये भी कोई बात हुई भला! गुलाब सुन्दर होता ही है अब इसमें क्यों क्या बताये। भगवान ने ही उसे सुन्दर बनाया है।’’

rajnish manga
17-04-2014, 01:23 PM
पढ़ते समय आप भी सोचने लगे ना कि गुलाब क्यों सुन्दर होता है? अब आपको कुलकर्णी सर का उत्तर बता ही देते है। सारे उत्तरों को खारिज कर देने के बाद ही शिक्षक वो उत्तर बताता है जो उसके अनुसार सही होता है और अक्सर छात्र इस बात से सहमत नहीं होते कि वो सही उत्तर है। पर कुलकर्णी सर का प्रश्न पूछने के पीछे हेतु ही अलग होता था। उन्होंने उत्तर दिया, ‘‘गुलाब इसलिये सुन्दर होता है क्योंकि सब कहते है कि वो सुन्दर होता है। हर कवि कहता है, हर फिल्म में कहा जाता है कि तुम गुलाब सी सुन्दर हो। इसलिये हम भी मान लेते है।’’
https://encrypted-tbn3.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcQsNgdNVdmgYSPq8KSCqEVwuy76n7N2i MgwxYrde4ZTrRbHaqHuBg

देखा सर ने भी नहीं बताया कि क्यों गुलाब सुन्दर होता है? जब छात्रों ने ये बोला तो सर ने कहा, ‘‘मै तो बता दूँगा। पर मेरा पूछने का आशय ये था कि अधिकतर बाते हम जीवन में ऐसे ही मान लेते है क्योंकि सब कहते है। सोचते कहाँ है कि इसका वास्तविक अर्थ क्या है?’’
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Dr.Shree Vijay
17-04-2014, 04:31 PM
दोन्यूँ तज्या पिराण


सबसे बड़ा ग़रीब

सुरक्षा गार्ड और सुरक्षा

लोगों की लुक्स पर न जायें
गुलाब क्यों सुन्दर होता है?


बेहतरीन ज्ञानवर्धक........

ndhebar
17-04-2014, 05:15 PM
अधिकतर बाते हम जीवन में ऐसे ही मान लेते है क्योंकि सब कहते है। सोचते कहाँ है कि इसका वास्तविक अर्थ क्या है?’’
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बात तो बिल्कुल सही है............

rajnish manga
07-05-2014, 11:16 AM
भारत की एकता का निर्माण
(सरदार पटेल के भाषण 1947-1950)

भारत की पहली हड़ताल फरवरी 1918 में अहमदाबाद के लगभग 5000 कपड़ा मिल मजदूरों ने मिल कर की थी. हड़ताल के दौरान अहमदाबाद के मिल मालिकों ने मजदूरों में फूट डालने और उनका मनोबल तोड़ने की पूरी कोशिश की. मजदूरों ने पहले अनुसूया साराभाई से इस मामले में हस्तक्षेप करने की गुजारिश की. बाद में अहमदाबाद मिल ओनर्स एसोसियेशन के प्रधान की बहन अनुसूया साराभाई के आग्रह पर महात्मा गाँधी भी बीच में आ गये. और जब उन्होंने देखा कि मजदूर ढीले पड़ रहे हैं तो उन्होंने फ़ाका (अनशन) की प्रतिज्ञा की और कहा कि वे अन्न छोड़ रहे हैं. और यह उनका भारत आने के बाद पहला अनशन था. इससे मजदूर और मिल मालिक दोनों ही बड़े चिंतित हुये. उन्होंने आपस में निश्चय किया कि भविष्य में मजदूरों और मालिकों के प्रतिनिधि बातचीत से समस्याओं को सुलझाएंगे. करीब सात वर्ष तक महात्मा गांधी मजदूरों के प्रतिनिधि के तौर पर इस काम को करते रहे.

rajnish manga
07-05-2014, 11:19 AM
विधर्मी मेहमान

शेख़ सादी ने अपनी विश्वविख्यात पुस्तक “बोस्तान” में एक बुज़ुर्ग पैग़म्बर की कहानी कही है जो अपनी मेहमाननवाज़ी के लिये बड़े मशहूर थे. बिना किसी अतिथि को शामिल किये खाना न खाते थे. जब कोई अतिथि न होता तो वे किसी मुसाफिर की खोज में दूर दूर तक निकल जाते और उसे जबरदस्ती अपने घर ला कर खाना खिलाते थे. एक दिन इसी खोज में निकले कि वन में एक सफ़ेद दाड़ी वाला वृद्ध मुसाफिर मिला और आदत के अनुसार उसे घर लिवा लाये. जब खाने पर बैठे तो मुसाफिर ने खाना शुरू करते समय ईश्वर का नाम न लिया. बुज़ुर्ग मेज़बान को इस बात पर बड़ा आश्चर्य हुआ. मुसाफिर ने उत्तर दिया, “मेरा धर्म दूसरा है, मैं आपके धर्म का नहीं.” अब बुज़ुर्ग मेज़बान का क्रोध और बढ़ा तथा उस धर्महीन मुसाफिर को उसी समय खाने से उठा दिया. उसके उठ कर जाते ही आकाशवाणी हुई –

“ऐ पैग़म्बर, हमको देखो कि इस वृद्ध की आयु सौ वर्ष की है और हमने इसकी धर्महीनता के कारण एक समय भी इसका खाना बंद न किया और तुमसे एक समय भी खाना न खिलाया गया !!

rajnish manga
07-05-2014, 11:34 AM
हेलेन केलर और उनकी विशेषता

हेलेन केलर के दोनों हाथ उसके लिये आँखों और कानों का काम करते थे. और ये कभी कभी उसे न सिर्फ इस योग्य बनाते थे कि वह अपने मित्रों को पहचान सके, बल्कि यह भी मालूम कर सके कि वे उदास हैं अथवा प्रसन्न. फूलों को छू कर वह कहा करती, “कितने सुन्दर हैं यह फूल !!”वह सफ़ेद और लाल गुलाब में अंतर ढूंढ लेती थी, चूँकि सफ़ेद पत्तियां पतली होती हैं और रंगीन मोटी होती हैं. हेलेन अपने हाथों में और पैरों में आवाजे महसूस कर सकती थी. वह फर्श पर चलते हुये संगीत की लहरें महसूस कर सकती थी और गाने के साथ अच्छी तरह नाच सकती थी. वह लोगों के क़दमों की आवाज से उनके चरित्र मालूम कर सकती थी. वह बता सकती थी कि वह व्यक्ति शूरवीर है, दृढ़ निश्चय वाला है, थका हुआ है या गुस्से में है. तभी तो उन्होंने कहा था कि ईश्वर जब एक दरवाजा बंद कर देता है तो कई अन्य दरवाजे खोल देता है. परन्तु हमारी विडम्बना यही है कि हम बंद दरवाजे को ही ताकते रहते हैं.

rajnish manga
12-05-2014, 02:35 PM
मेरी डायरी के पन्ने / 26 सितम्बर 1995

टीवी कार्यक्रमों के बारे में आजकल यह हाल है कि दर्शक टीवी के सामने बैठा हुआ लगातार चैनल बदलता रहता है- मल्टी चैनेल चॉइस और रिमोट कण्ट्रोल की बदौलत मेरा खयाल है कि यदि आप आधा घंटा से अधिक किसी प्रोग्राम को बिना चैनेल बदले हुये देखते हैं तो मानना पड़ेगा कि निश्चय ही उस प्रोग्राम में कोई न कोई विशेषता जरुर है. एक ऐसे समय जब पांच मिनट भी एक चैनल लगातार नहीं चलता, वहां यह किसी उपलब्धि से कम नहीं माना जायगा. ऐसे कार्यक्रम के निर्माता-निर्देशक-पात्र-संयोजक अवश्य बधाई के पात्र हैं. पीटीवी के प्रोग्राम “या मोहिउद्दीन” अपनी साहित्यिक तथा नाटकीय प्रकृति की उल्लेखनीय प्रस्तुति के कारण और “तारिक़ अज़ीज़ शो” आमंत्रित श्रोताओं के सम्मुख प्रश्नोत्तर शैली के कारण जिसमे हरेक सही उत्तर के लिये उत्तर देने वाले को तुरन्त गिफ्ट हेम्पर दे दिया जाता था, काबिले तारीफ़ हैं. हमारे यहाँ दिखाई गयी फिल्म “रावण” इसी श्रेणी में गिनी जायेगी. अन्य कार्यक्रमों में “चन्द्रकान्ता” “बोर्नवीटा क्विज़ कांटेस्ट” तथा समाचारों से जुड़े कार्यक्रम अद्वितीय हैं, जैसे अंग्रेजी के कार्यक्रमों में “newstrack” “eye witness” ‘insight” तथा हिंदी में प्रस्तुत किये जा रहे कार्यक्रमों में “आजतक” “घूमता आईना” और “परख” जिसे विनोद दुआ द्वारा पेश किया जाता है.

rajnish manga
12-05-2014, 02:50 PM
उपरोक्त कार्यक्रमों के अतिरिक्त भी कुछ कार्यक्रम अनायास स्मृति पटल पर उभर आते हैं. दूरदर्शन पर आने वाला साप्ताहिक कार्यक्रम “सुरभि” (जिसके अब तक यानि सितम्बर 1997 तक लगभग 190 एपिसोड हो चुके हैं), ज़ी टीवी पर प्रस्तुत किया जाने वाला व रजत शर्मा द्वारा पेश किया गया कार्यक्रम “आप की अदालत” (जो कालान्तर में उनके खुद के चैनल ‘इंडिया टीवी’ का आकर्षण बन गया) और El TV का कार्यक्रम रू-ब-रू.

कल शाम यानि सोमवार, 25 सितम्बर को टीवी पर एक फिल्म दिखाई गयी थी “रावण” (1984) जो हर लिहाज़ से एक बेहतरीन तथा उल्लेखनीय फिल्म कही जायेगी. इस फिल्म में स्मिता पाटिल, विक्रम, गुलशन अरोड़ा और ओम पुरी व अन्यों ने लाजवाब काम किया है. निर्माता-निर्देशक जॉनी बख्शी हैं और संगीत जगजीत- चित्रा सिंह का है. कहानी व पटकथा बहुत कसी हुई तथा निर्देशन बहुत अच्छा और गठा हुआ है. यह फिल्म आम फार्मूला फिल्मों से अलग एक साफ़-सुथरी फिल्म है. फिल्म इन्डस्ट्री, जहाँ फिल्म बनाने का एक बड़ा उद्देष्य मुनाफ़ा कमाना है, ऐसी कलात्मक फ़िल्में बनाने से कतराती है.

नोट: आज इन्टरनेट के ज़रिये मालूम होता है कि इस फिल्म ने अपनी रिलीज़ पर ठीक ठाक कारोबार किया था और यह फिल्म वर्ष 1984 की 10 सफलतम फिल्मों में से एक थी. मेरा अपने साथी पाठकों से अनुरोध है कि यदि उन्होंने यह फिल्म अभी तक नहीं देखी तो एक बार अवश्य देखें. इन्टरनेट पर इसका लिंक आसानी से मिल जायेगा.
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Dr.Shree Vijay
12-05-2014, 06:21 PM
भारत की एकता का निर्माण
(सरदार पटेल के भाषण 1947-1950)

विधर्मी मेहमान

मेरी डायरी के पन्ने / 26 सितम्बर 1995



सभी प्रसंगो की कड़ीयों को बड़ी सुन्दरता से यह पिरोयागया.........

rajnish manga
12-05-2014, 08:40 PM
मेरी डायरी के पन्ने / 6 अक्तूबर 1995

आज डी डी (II) पर सुबह पुराने ज़माने की मशहूर गायिका-अदाकारा राज कुमारी का इंटरव्यू प्रसारित किया गया. मैंने इनके गाने सुने तो हैं लेकिन इनके बारे में अधिक नहीं जानता था. इनके गाये हुये कुछ गाने इस प्रकार हैं:

1. अखियाँ मिला के जिया भरमा के चले नहीं जाना

2. सुन ..... बैरी बालम सच बोल ..... इब क्या होगा

उन्होंने खेमचंद प्रकाश के संगीत निर्देशन में “घबरा के जो हम सर को, टकरायें तो अच्छा” गा कर बेशुमार शोहरत पाई.


http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32921&stc=1&d=1399909135

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गुजरे जमाने की गायिका राजकुमारी का जन्म 1924 में गुजरात में हुआ था। कहते हैं कि पूत के पांव पलने में दिखने लगते हैं। कुछ ऐसी ही शख्सियत गायिका राजकुमारी थी। उन्होंने महज 14 वर्ष की उम्र में ही अपना पहला गाना एचएमवी में रिकार्ड कराया। गाने के बोल थे सुन 'बैरी बलमा कछू सच बोल न।' यह अलग बात थी राजकुमारी ने किसी संस्था से संगीत की कोई शिक्षा नहीं ली थी। लेकिन ईश्वर ने जो उन्हें कंठ बख्शा था वह कम नहीं था। इसके बाद तो उन्होंने विभिन्न मंचों पर अपनी गायिकी का सफर जारी रखा। कहते हैं एक बार वह सार्वजनिक मंच पर गाना गा रही थीं। वहीं उनकी मुलाकात फिल्म निर्माता प्रकाश भट्ट से हो गई। फिर क्या उन्होंने उन्हें प्रकाश पिक्चर से जुड़ने का न्यौता दे दिया। इस बैनर के तहत बनने वाली गुजराती फिल्म 'संसार लीला' में कई गाने पेश किए। इस फिल्म को हिन्दी में भी ‘संसार’ नाम से फिल्माया गया। इसमें राजकुमारी जी ने गीत पेश किया 'आंख गुलाबी जैसे मद की प्यालियां, जागी हुई आंखों में है शरम की लालियां।' इसके बाद तो उनकी प्रतिभा बालीवुड में सिर चढ़कर बोलने लगी।

rajnish manga
12-05-2014, 09:16 PM
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32921&d=1399909134 (http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32921&d=1399909134)

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गायिका-अभिनेत्री राजकुमारी
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वर्ष 1933 में फिल्म ‘आंख का तारा’, ‘भक्त और भगवान’, 1934 में ‘लाल चिट्ठी’, ‘मुंबई की रानी’ और ‘शमशीरे आलम’ में गीत पेश कर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा दिया। इस दौरान उनकी कई कालजयी गीतों ने लोगों को गुनगुनाने के लिए बाध्य कर दिया। जैसे 'चले जइयो बेदर्दा मैं रो पडूंगी, काली काली रतिया कैसे बिताऊं, बिरहा के सपने देख डर जाऊं।' इसके बाद 'नजरिया की मारी-मरी मोरी दइया।' ने तो उन्हें बुलंदियों पर पहुंचा दिया। इसी दौरान उन्होंने पंजाबी और बांग्ला में भी कई गीत पेश किए। इतना ही नहीं उन्होंने मशहूर गायक मुकेश के साथ भी गीत गाए। 'मुझे सच सच बता दो कब मेरे दिल में समाए थे,'जब तुम पहली बार देखकर मुस्कराए थे'। इसी दौरान वाराणसी निवासी बी के दूबे से उन्होंने शादी कर ली। 1952 में उन्होंने ओ पी नैयर के संगीत निर्देशन में भी कई गीत गाए। यह एक विडम्बना ही कही जायेगी कि भले ही उनका नाम राजकुमारी था। लेकिन अंत उनका मुफलिसी में हुआ। इस दौरान उन्होंने गायिका और अभिनेत्री के रुप में जो काम बालीवुड में किया उसे कभी भुलाया न जा सका.

फिल्म ‘बावरे नैन’ में राजकुमारी की दिलकश आवाज़ में ‘सुन बैरी बलम सच बोल, इब क्या होगा’ गीत सुनने के लिये कृपया निम्न लिंक को क्लिक कीजिये. परदे पर अदाकारी दे रहे हैं राजकपूर और गीता बाली:

http://www.youtube.com/watch?v=IiNd8ABJ578 (http://www.youtube.com/watch?v=IiNd8ABJ578)

rajnish manga
13-05-2014, 05:44 PM
मेरी डायरी के पन्ने / 24 अक्तूबर 1995

सदी का अंतिम पूर्ण सूर्य ग्रहण

आज इस (बीसवीं) सदी का अंतिम पूर्ण सूर्य ग्रहण था जो भारत में भी बहुत बड़े क्षेत्र में देखा गया. वैज्ञानिकों तथा आम जनता दोनों में इस पूर्ण सूर्य ग्रहण को ले कर बहुत उत्साह दिखाई दिया. दूरदर्शन ने इसे विभिन्न स्थानों से लाइव दिखाने के लिये व्यापक इंतज़ाम किये थे. तीन स्थानों से लाइव कवरेज के लिये विस्तृत व्यवस्था की गई थी. ये स्थान थे: 1) नीम का थाना, 2) डायमंड हार्बर तथा 3) इलाहाबाद में इरादत गंज. इन स्थानों पर दुनिया भर से वैज्ञानिक एकत्र हुये थे ताकि इस दुर्लभ अवसर की गतिविधियों का वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अध्ययन किया जा सके. टीवी स्क्रीन पर थोड़ी थोड़ी देर के अंतर से इन तीनों स्थानों से पूर्ण सूर्य ग्रहण के दृष्य दिखाये जा रहे थे. प्रातः 8 बज कर 31 मिनट पर नीम का थाना क्षेत्र में पूर्ण सूर्य ग्रहण आरम्भ हुआ था. उपरोक्त तीनों स्थान भारत की उस सैंकड़ों किलोमीटर लम्बी भू पट्टी पर स्थित थे जहां से सूर्य ग्रहण की शुरूआत होनी थी और कुछ समयोपरांत उसकी समाप्ति होनी थी. इस तरह के सूर्य ग्रहण का सबसे महत्वपूर्ण क्षण वह होता है जब चन्द्रमा सूर्य को पूरी तरह ढक लेता है और धरती पर देखने वालों को सूर्य एक चमकती हुई अंगूठी की भांति दिखाई देता है जिसमें एक ओर कोई जगमगाता हीरा जड़ा हुआ हो (फोटो देखें).

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32924&stc=1&d=1399984843 ^ http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32925&stc=1&d=1399984843
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http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32926&stc=1&d=1399984843
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rajnish manga
13-05-2014, 05:52 PM
सूर्य ग्रहण के समय ध्यान देने योग्य बातें इस प्रकार हैं:

यह ध्यान देने वाली बात है कि सूर्य को कभी नंगी आँखों से नहीं देखना चाहिए. सूर्य ग्रहण में तो हमें और भी सतर्क रहने की जरुरत है.

पूर्ण सूर्य ग्रहण में कुछ क्षण ऐसे होते हैं जब दूसरे और तीसरे संपर्क के मध्य में सूर्य को सीधे देखना निरापद होता है. लेकिन इस बारे में जनता को पूरी जानकारी न होने के कारण इससे बचना ही ठीक होगा. हाँ, उपयुक्त उपकरणों की सहायता से हम सूर्य ग्रहण को बिना किसी डर के देख सकते हैं. पहले व दूसरे तथा तीसरे व चौथे संपर्क में जब ग्रहण अपूर्ण होता है, हम पिन होल कैमरा, सही फ़िल्टर या गहरे रंग की एक्स रे फिल्म के ज़रिये हम सूर्य ग्रहण के दृष्य को देख सकते हैं. या फिर मिटटी घुले पानी में सूर्य की परछाईं देख सकते हैं.

भविष्य में भारत में दिखाई देने वाले कुछ पूर्ण सूर्य ग्रहण (दिनांक तथा ग्रहण पथ सहित):

20.03.2034 ..... जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश
03.06.2114 ..... राजस्थान, म.प्र., उ.प्र., बिहार, पश्चिम बंगाल
14.05.2124 ..... म.प्र., बिहार, उत्तर-पूर्वी राज्य
05.07.2168 ..... केरल, कर्नाटक, तमिलनाड़ु
08.11.2189 ..... केरल, तमिलनाड़ु
18.09.2248 ..... गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश
07.05.2255 ..... केरल, कर्नाटक, तमिलनाड़ु, आन्ध्र प्रदेश

Dr.Shree Vijay
13-05-2014, 09:45 PM
प्रसाद :

http://keraladishes.com/wp-content/uploads/2010/11/besan-laddu.jpg

एक बार मेरी माताश्री मंदिर से प्रसाद लेकर आयीं। प्रसाद के वे लड्डू देकर उन्होंने मुझसे कहा "बेटा मोहल्ले में प्रसाद बाँट दे।" मैं आस-पड़ोस के घरों में प्रसाद बाँटने चल निकला।

पड़ोस ही में एक युवा छात्र अकेला रहता था, उसके कमरे पर भी मैं गया। हाथ में एक लड्डू उसकी ओर करते हुये मैं बोला "ये लड्डू ले लो।"

उसने कहा "धन्यवाद, लेकिन लड्डू मुझे पसंद नहीं हैं।"

मैं बोला "भैया ये प्रसाद के लड्डू हैं"

उसने चेहरे के भाव तुरंत बदले, और उसने कहा "ओह, प्रसाद है? तब खा लूंगा।"

उसकी हथेलियाँ अंजलि बनाकर मुझसे लड्डू गृहण कर चुकीं थीं। जो लड्डू उसे १ मिनट पहले तक पसंद नहीं थे, अब वह उन्हीं लड्डुओं को हाथ जोड़कर पूरी श्रद्धा से खा रहा था।

यदि हम सब कुछ भगवान का प्रसाद मानकर गृहण करें, तो दुख को भी सुख में बदलते देर नहीं लगेगी। इसी का नाम है प्रसादबुद्धि!

rajnish manga
13-05-2014, 10:22 PM
प्रसाद :
.....
यदि हम सब कुछ भगवान का प्रसाद मानकर गृहण करें, तो दुख को भी सुख में बदलते देर नहीं लगेगी। इसी का नाम है प्रसादबुद्धि!


आपके द्वारा वर्णित इस प्रसंग में भारतीय संस्कृति का शाश्वत संदेश छुपा हुआ है. यह सत्य ही है कि यदि हम हर परिस्थिति को ईश्वर का वरदान मान कर स्वीकार कर लें, तो हमारी सारी समस्याएं स्वतः समाप्त हो जायेंगी. आपका अतिशय धन्यवाद, डॉ. श्री विजय.

rajnish manga
14-05-2014, 10:48 AM
मुंशी प्रेमचंद का साहित्य से लगाव और फिल्मों से जुड़ाव

"मेरा जीवन सपाट, समतल मैदान है। जो सज्जन पहाड़ों की सैर के शौकीन हैं, उन्हें यहां निराशा ही होगी। जब मेरी उम्र कोई तेरह साल की रही होगी, मैं हिंदी न जानता था। उर्दू के उपन्यास पढ़ने का उन्माद था। मौलाना शरर, पं रतननाथ सरशार, मिर्जा रुसवा, मौलवी मुहम्मद अली हरदोई निवासी उस वक्त के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे। इनकी रचनाएं जहां मिल जाती थीं, स्कूल की याद भूल जाती थी और पुस्तक समाप्त करके ही दम लेता था। मेरा विवाह करने के साल बाद ही मेरे पिता परलोक सिधारे। उस समय मैं नौवें दर्जे में पढ़ता था। घर में मेरी स्त्री थी, विमाता थीं, उनके दो बालक थे और आमदनी एक पैसे की नहीं थी। घर में जो कुछ लेई-पूंजी थी, वह पिताजी की छह महीने की बीमारी और क्रिया-कर्म में खर्च हो चुकी थी और मुझे अरमान था वकील बनने का और एमए पास करने का। नौकरी उस जमाने में इतनी ही दुष्प्राप्य थी, जितनी अब है।..मेरे उपन्यास सेवासदन की फिल्म बनी।"

"उस पर मुझे सात सौ पचास रुपये मिले। अगर इस तंगी में वे रुपये नहीं मिल जाते, तो न जाने क्या दशा होती..फिर बंबई की एक फिल्म कंपनी ने बुलाया। वेतन पर नहीं, कॉण्ट्रैक्ट पर- आठ हजार रुपये साल। मैं उस अवस्था में पहुंच गया था, जब मेरे लिए ‘हां’ करने के सिवा और कोई उपाय नहीं रह गया था..बंबई गया अजंता सिनेटोन में। यहां की दुनियां दूसरी है।.. मैं इस लाइन में यह सोचकर आया था कि मुझे आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र होने का मौका मिलेगा। मैं धोखे में था।"
- मुंशी प्रेमचंद

bindujain
15-05-2014, 10:15 PM
कुछ इधर की कुछ बहुत उधर की
* मरने के बाद भी वह शासन करता रहा -
फ्रेंच कोंगो के कोंडे प्रदेश के शासक, 'कोकोडो, के मरने के बाद उसका शव एक चौकोर कौफीन में तीन साल तक रख छोडा गया था। उसे भोजन और पैसा उपलब्ध कराया जाता रहा था। ऐसा इसलिए की वह आराम से सोच सके की उसे मृत रहना है की नहीं।
नोट :- उसने मृत रहने का ही निर्णय लिया।

* पोपाई द सेलर का जीता जागता रूप -
जापान के डाक्टर काकुजी योशीदा ने बच्चों को स्वस्थ रखने का गुर सिखाने के लिए एक अनोखा कारनामा किया। उन्होंने ६ साल में करीब ८२८० पाउंड पालक खाई। तकरीबन तीन पाउंड रोज। उनका कहना था इससे वे खुद को भी स्वस्थ और तरोताजा रख सके थे।

* शव यात्रा, जो साल भर तक चली -
चीन के एक जनरल की शवयात्रा, पेकिंग से चल कर काश्गार, सिंकियांग तक गयी थी। जिनके बीच की दूरी २३०० मील थी। यह यात्रा एक जून १९१२ से शुरू हो कर एक जून १९१३ तक चलती रही थी।

* खानदानी असर -
बीमारी इत्यादि का असर तो सुना है, पीढियों तक चलता है। पर इसको क्या कहेंगे जब वाशिंगटन के रोजलिन इलाके के विलियम लुमस्देंन ने अपना बायाँ हाथ एक एक्सीडेंट में खोया तो वह अपने खानदान की चौथी पीढी का ऐसा सदस्य बन गया। इसके पहले उसके परदादा, दादा और पिता उसी की उम्र में अपना बायाँ हाथ किसी न किसी हादसे में गंवा चुके थे।

* अस्थिर दिमाग का अनोखा उदाहरण -
बेल्जियम की एड्रियेंन कुयोत की २३ सालों में ६५२ बार मंगनी था ५३ बार शादी हुई। पर वह कभी भी स्थिर दिमाग नहीं रह पायी और ओसत हर १२ वें दिन उसने अपना मन बदल कर सम्बन्ध तोड़ लिए।

rajnish manga
15-05-2014, 11:39 PM
कुछ इधर की कुछ बहुत उधर की

* खानदानी असर -
बीमारी इत्यादि का असर तो सुना है, पीढियों तक चलता है। पर इसको क्या कहेंगे जब वाशिंगटन के रोजलिन इलाके के विलियम लुमस्देंन ने अपना बायाँ हाथ एक एक्सीडेंट में खोया तो वह अपने खानदान की चौथी पीढी का ऐसा सदस्य बन गया। इसके पहले उसके परदादा, दादा और पिता उसी की उम्र में अपना बायाँ हाथ किसी न किसी हादसे में गंवा चुके थे।


सचमुच यह आश्चर्यजनक सूचना है. इसी को कहते हैं "परम विचित्र किन्तु सत्य"

rajnish manga
22-05-2014, 12:17 AM
ह्युयेन सांग तथा नालंदा विश्वविद्यालय
https://encrypted-tbn2.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcR3XTnMdkffQyy6JOVSkaAqXnFjrrjjc jdUjwWVvan6Bg2d_UIB^*^https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcRK8UIj29QUke3U1cLYOkNt6rcVgFxNr aGhkSSO_rnZK6z4jxbySA
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ह्युयेन सांग के जीवन का एक प्रसंग

सम्राट हर्षवर्धन के कार्य काल के दौरान चीनी यात्री ह्युयेन सांग (जीवन 602 ई.पू. से 664 ई.पू. तक) भारत आया था. वह भारत की धर्म और संस्कृति से बहुत प्रभावित था. यहाँ रहते हुये उसने बिहार, नालंदा विश्वविद्यालय तथा और अनेक स्थानों का भ्रमण किया और बोद्ध धर्म व अन्य अनेक विषयों का अध्ययन किया और जाते हुये यहाँ से बहुमूल्य ग्रन्थ अपने साथ ले कर चल पड़े. उसके साथ उसके कई शिष्य भी जा रहे थे. इनकी यात्रा स्थल तथा जल मार्ग से हो कर चल रही थी. सिन्धु नदी के पास तक ये लोग आराम से पहुँच गये. आगे के लिये ये नदी मार्ग से जाने के लिये नाव पर रवाना हए. अभी नदी के बीच में ही पहुंचे थे कि जोर जोर की हवाएं चलने लगी और नाव हिचकोले खाने लगी. ऐसा लगा कि नाव उलट जायेगी.

rajnish manga
22-05-2014, 12:20 AM
सभी के मन में जान जाने का डर तो था लेकिन इससे भी बढ़ कर सारे बहुमूल्य ग्रंथों का पानी में डूब जाने और नष्ट हो जाने का खतरा भी सामने था. अब क्या किया जाये. वर्षों के मेहनत के बाद इकठ्ठा की हुयी इस ज्ञान राशि को यूँ ही डूब जाने दिया जाये. ह्युयेन सांग चिंता से भर उठा. तभी एक छात्र ने सुझाव दिया कि यदि नाव में वजन कम हो जाये तो इसके उलटने का खतरा कम हो जायेगा. पर यह कैसे होगा? तभी वह छात्र यह कह कर कि मेरी जान की कीमत इस ज्ञान के भण्डार से अधिक नहीं हो सकती, नाव से कूद कर नदी में छलांग लगा दी. इसके पश्चात, एक के बाद एक कई छात्र नाव से कूद गये और अथाह जलराशि में कई शरीर विलुप्त हो गये. नाव धीरे धीरे संभल गयी और कुछ ही देर में किनारे जा लगी. छात्रों के बलिदान को याद कर के ह्युयेन सांग की आँखे छलछला आयीं.

इतिहास हमें यह नहीं बता सकेगा कि उन युवक छात्रों में से कितने तैर कर नदी के किनारे तक पहुँच सके और कितनों ने अपने जीवन की पूर्ण आहुति दे दी. किन्तु मानव मात्र का ज्ञानार्जन हेतु तथा ज्ञान की वाहक बहुमूल्य पुस्तकों के प्रति जो श्रद्धा का भाव उस समय से लेकर आज तक देखने को मिलता है, वह कभी कम नहीं हुआ. इसे अलौकिक ही कहा जायेगा.

rajnish manga
10-06-2014, 08:25 AM
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http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32951&stc=1&d=1402370624

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rajnish manga
10-06-2014, 04:47 PM
वह जन मारे नहीं मरेगा
सप्तक कवि: केदारनाथ अग्रवाल

जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है
तूफ़ानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है
जिसने सोने को खोदा लोहा मोड़ा है
जो रवि के रथ का घोड़ा है
वह जन मारे नहीं मरेगा
नहीं मरेगा

जो जीवन की आग जला कर आग बना है
फौलादी पंजे फैलाए नाग बना है
जिसने शोषण को तोड़ा शासन मोड़ा है
जो युग के रथ का घोड़ा है
वह जन मारे नहीं मरेगा
नहीं मरेगा

Dr.Shree Vijay
10-06-2014, 05:39 PM
मुंशी प्रेमचंद का साहित्य से लगाव और फिल्मों से जुड़ाव


ह्युयेन सांग तथा नालंदा विश्वविद्यालय

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http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32951&stc=1&d=1402370624

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मुंशी जी की बराबरी आज कोंई नही कर सकता हें,

ऐसे ज्ञान पिपासुओ की वजह से ही ज्ञानगंगा आज भी अविरत बह रही हें,

हम हमेशा परमात्मा पे ही दोष लगाते हें की आपने हमे कुछ नही दिया, परन्तु परमात्मा ने हमे इतना कुछ दिया की उसका मोल इसी जन्म में तो क्या अरबो जन्म में भी नही चूका सकते हें, .....

rajnish manga
13-06-2014, 10:53 PM
मनोज वाजपेयी के पुराने ब्लॉग से

फिल्म एसिड फैक्ट्री का प्रमोशन करते वक़्त मुझे ऐसा लगा कि जैसे मैं अपने मुँह ही मियाँ मिट्ठू हो रहा हूँ। और शायद यह कहें कि हर फिल्म के प्रमोशन के वक़्त ही ऐसा लगता है। ये प्रमोशन का सबसे वीभत्स अनुभव होता है, जब आप ख़ुद ही फिल्म की तारीफ़ कर रहे होते हैं, और ख़ुद ही भूमिका के बारे में बातें कर रहे होते हैं। ये एक ऐसा पहलू है प्रचार-प्रसार का, जो मुझे रास आता नहीं है। लेकिन, ज़माना ऐसा बदला है कि जिन फिल्मों का प्रचार-प्रसार हुआ नहीं, जिन फिल्मों की तारीफ़ उनके अपने अभिनेताओं ने की नहीं, वो भी प्रदर्शन के पहले, तो दर्शक उन फिल्मों को देखने ही नहीं गए।

तो ठीक है। अगर दर्शकों के फिल्म देखने की शर्त यही है तो यही सही। आशा करता हूँ कि इस ब्लॉग से जुड़े सारे मेरे दोस्त मेरी फिल्मों से संतुष्ट होंगे। आपकी प्रतिक्रियाओं के लिए धन्यवाद। एसिड फैक्ट्री के रिलीज़ के बाद एक बार फिर आपसे प्रतिक्रियाओं को लेकर बात करुंगा।

rajnish manga
14-06-2014, 08:15 AM
क्रिकेटर से पाकिस्तान के राजनेता बने इमरान खान की किताब "पाकिस्तान: ए पर्सनल हिस्ट्री" जो उनकी आत्मकथा भी कही जा सकती है, के कुछ मनोरंजक अंश नीचे दिए जा रहे हैं:

> ऑक्सफर्ड में मेरा सबसे अच्छा मित्र एक भारतीय विक्रम मेहता था। मैं, बेनजीर भुट्टो और विक्रम अच्छे दोस्त बन गए थे। इसकी वजह एक जैसी पृष्ठभूमि और एक जैसे सब्जेक्ट्स: पॉलिटिक्स और इकॉनमिक्स थे। विक्रम और मैं हर संडे लेडी मारग्रेट हॉल जाया करते थे, जहां ऑक्सफर्ड यूनियन के प्रेजिडेंट का पद पाने की कोशिश कर रही बेनजीर दिन भर चीज और स्नैक्स खिलाया करती थीं।

> अफगानिस्तान पर सोवियत संघ के हमले से जनरल जिया हल उक के इस्लामीकरण कार्यक्रम को मजबूती मिली। जनरल जिया शीत युद्ध के दौरान अमेरिका के अहम सहयोगी बन गए। शायद यहीं से उस कहावत की शुरुआत हुई कि पाकिस्तान की अगुवाई के लिए अल्लाह, आर्मी और अमेरिका की मदद की जरूरत होगी।

> मेरी मां को भी वन्य जीवन और पर्वतों से बहुत प्यार था। वह मुझे अपने बचपन की कहानियां सुनाया करती थीं। कुछ शिमला की पहाडि़यों के बारे में होती थीं। वह अपनी छुट्टियां माता-पिता के साथ डलहौजी में बिताया करती थीं। मुझे डरावनी कहानियां काफी पसंद थीं।

rajnish manga
17-06-2014, 08:53 AM
https://encrypted-tbn2.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcRevAoLTYJkoHw_0agxk9XtZBCGmiAF1 N0csetzYT0KNhFuJb25gw
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डॉ. राही मासूम रज़ा


कुछ यादें
डॉ. राही मासूम रज़ा

हर आदमी के पास लिखने के लिए एक जीवनी होती है, पर हर आदमी वह जीवनी लिख नहीं पाता... हर आदमी लिखना चाहता भी नहीं क्योंकि कुछ यादें इतनी निजी होती हैं कि उनमें किसी को शरीक करने को जी नहीं चाहता। मेरे पास ऐसी यादें ज्यादा हैं। इसलिए मैं कभी अपनी जीवनी नहीं लिखूंगा परंतु मेरी झोली में भी कुछ लोग ऐसे हैं जिनसे मैं लोगों को मिलाना चाहता हू क्योंकि उन लोगों को जानने से जिंदगी भरी-भरी दिखाई देने लगती है।

मैं तो बंबई महानगर में जब अपने आप से ऊबने लगता हूँ, उन लोगों में से किसी एक या दो को समय की गर्द झाड़ कर पास बिठा लेता हू और थोड़ी देर के बाद अपने जीवन-संघर्ष के लिए ताजा दम हो जाता हू।

दस साल से बंबई में अपनी यादों के सहारे जी रहा हू। बंबई ने आज तक मुझे कोई ऐसा क्षण नहीं दिया, एक क्षण के सिवा, जिसे यादों की दुनिया में जगह मिले। यह क्षण है मेरी बेटी, मरियम की पैदाइश का क्षण।

rajnish manga
17-06-2014, 08:55 AM
यहाँ कई दोस्त मिले जिनके साथ अच्छी-बुरी गुजरी। कृशन चंदर, भारती, कमलेश्वर, जो शुरू ही में ये न मिल गये होते तो बंबई में मेरा रहना असंभव हो जाता। शुरू में मेरे पास कोई काम नहीं था और बंबई में मैं अजनबी था। उन दिनों इन दोस्तों ने बड़ी मदद की। इन्होंने मुझे जिंदा रखने के लिए चंदा देकर मेरी तौहीन नहीं की। इन्होंने मुझे उलटे-सीधे काम दिये और उस काम की मजदूरी दी। पर इसका मतलब यह नहीं कि मैं इन लोगों के एहसान से कभी बरी हो सकता हूँ।

मुझे वह दिन आज भी अच्छी तरह याद है जब नैयर होली फ़ैमिली अस्पताल में थीं। चार दिन के बाद अस्पताल का बिल अदा करके मुझे नैयर (पत्नी) और मरियम (बेटी) को वहां से लाना था। सात-साढ़े सात सौ का बिल था और मेरे पास सौ-सवा सौ रुपये थे। तब कमलेश्वर ने 'सारिका', भारती ने 'धर्मयुग' से मुझे पैसे ऐडवांस दिलवाये और कृशन चंदर जी ने अपनी एक फ़िल्म के कुछ संवाद लिखवा के पैसे दिये और मरियम घर आ गयी। आज सोचता हू कि जो यह तीनों न रहे होते तो मैंने क्या किया होता? क्या मरियम को अस्पताल में छोड़ देता? वह बहुत बुरे दिन थे। कुछ दोस्तों से उधार भी लिया। कलकत्ते से ओ० पी० टांटिया और राजस्थान से मेरी एक मुंहबोली बहन लनिला और अलीगढ़ से मेरे भाई मेंहदी रजा और दोस्त कुंवरपाल सिंह ने मदद की। कर्ज़ उतर जाता है। एहसान नहीं उतरता और कुछ बातें ऐसी हैं जो एहसान में नहीं आती पर उन्हें याद करो तो आँखें नम हो जाती हैं।

rajnish manga
23-07-2014, 11:31 PM
आधे घंटे का एकांत चिंतन प्रतिदिन

हम में से ऐसे कई लोग हैं, जो अकेलेपन से घबराते हैं. हम हमेशा चाहते हैं कि कोई न कोई हमारे पास हो, जिससे हम बातें कर सकें. यदि मजबूरीवश हमें घर में अकेला रहना पड़े, तो हम टीवी, गानों, किताबों, इंटरनेट, अपने पालतू का सहारा लेते हैं.इस तरह हम सिर्फ अपने दिमाग में तरह-तरह के विचारों को भरना चाहते हैं, ताकि हमारा ध्यान अपनी समस्याओं, चिंताओं, चुनौतियों, बोरियत से हट जायें. लेकिन यदि हम सफल लोगों की दिनचर्या देखें, तो हमें पता चलेगा कि वे सभी तमाम जिम्मेवारियों, लोगों से मीटिंग्स, इंटरव्यूज, काम के बावजूद कुछ घंटे अपने चिंतन के लिए अवश्य निकालते हैं. इस तरह वे खुद के बारे में सोचते हैं. वे अपनी समस्याओं के हल खोजते हैं, आगे की प्लानिंग करते हैं, निर्णय लेते है कि क्या सही है, क्या गलत.अमेरिका में एक प्रोफेशनल डेवलपमेंट प्रोग्राम के तहत 13 विद्यार्थियों को दो सप्ताह तक हर दिन एक घंटे तक एकांत में रहने के लिए कहा गया. उनसे कहा गया कि वे सारी बाधाओं से दूर, बिल्कुल एकांत में किसी भी घटना के बारे में रचनात्मक रूप से सोचें.

यकीन मानिए, दो सप्ताह बाद उन विद्यार्थियों के व्यवहार में अंतर आ चुका था. वे आत्मविश्वास से भरे थे. उन्होंने अपनी कई समस्याओं का हल खोज निकाला था. उन्होंने कई बड़े ऐसे निर्णय लिये, जो 100 प्रतिशत सही थे, जिसके लिए वे काफी लंबे समय से परेशान थे.मेरे एक मित्र ने अपना एक अनुभव सुनाया. उसने बताया कि कुछ दिनों पहले ही उसका एक सहकर्मी से बहुत बड़ा झगड़ा हो गया. उसने आक्रोश में आकर इस्तीफा टाइप किया और बॉस को मेल कर दिया. बॉस ने उसे केबिन में बुलाया और कहा कि इस बात पर आराम से सोचो. इस घटनाक्रम पर शांत दिमाग से एकांत में बैठ कर चिंतन करो और दो दिन बाद अपना निर्णय लो.दोस्त ने ऐसा ही किया. उसने सुबह के शांत माहौल को चुना और कॉफी पीते हुए उस झगड़े पर सोचा. कई घंटे बीतने के बाद उसे अहसास हुआ कि गलती उसकी ही थी. उसके गुस्से ने बात को बिगाड़ दिया. उसे इस्तीफा नहीं देना चाहिए था. उसे तो सहकर्मी से माफी मांगनी चाहिए थी. वह दूसरे दिन ही ऑफिस गया और उसने उस साथी को सॉरी कहा.

बात पते की

हर दिन कम-से-कम तीस मिनट पूरी तरह एकांत में जरूर रहें. इससे आपके जीवन में, सोचने के तरीके में बहुत अंतर आयेगा.आप एकांत में किसी समस्या या विषय पर निरपेक्ष ढंग से सोचें और इससे आपको सही जवाब मिल जायेगा. यह खुद को जानने का अचूक तरीका है.

rajnish manga
24-07-2014, 11:10 PM
बारह हजार वर्ष पहले के ग्रामोफोन रिकॉर्ड !!!
(ओशो)

1937 में तिब्बत और चीन के बीच बोकाना पर्वत की एक गुफा में सातसौ सोलह पत्थर के रिकार्ड मिले थे— पत्थर के।

आकार में वे रिकार्ड है भगवान महावीर से दस हजार साल पुराने यानी आज से कोई साढ़े बारह हजार साल पुराने। बड़े आश्चर्य के है, क्योंकि वे रिकार्ड ठीक वैसे ही है जैसे ग्रामोफोन का रिकार्ड होता है। ठीक उसके बीच में एक छेद है, और पत्थर पर ग्रूव्ज़ है जैसे कि ग्रामोफोन के रिकार्ड पर होते है।अबतक राज नहीं खोला जा सका है कि वे किस यंत्र पर बजाये जा सकेंगे।

लेकिन एक बात तो हो गई है— रूस के एक बड़े वैज्ञानिक डा. सर्जीएव ने वर्षों तक मेहनत करके यह प्रमाणित कर दिया है कि वे है तो रिकार्ड ही। किस यंत्र पर और किस सुई के माध्यम से वे पुनरुज्जीवित हो सकेंगे, यह अभी तय नहीं हो सका। अगर एकाध पत्थर का टुकड़ा होता तो सांयोगिक भी हो सकता है।

सात सौ सोलह है। सब एक जैसे, जिनमें बीच में छेद हे। सब पर ग्रूव्ज़ है और उनकी पूरी तरह सफाई धूल-ध्वांस जब अलग कर दी गयी और जब विद्युत् यंत्रों से उनकी परीक्षा की गई तब बड़ी हैरानी हुई, उनसे प्रति पल विद्युत् की किरणें विकिरणित हो रही है।

लेकिन क्या आदमी के आज से बाहर हजार साल पहले ऐसी कोई व्यवस्था थी कि वह पत्थर में कुछ रिकार्ड कर सके? यदि ऐसा सिद्ध हो जाता है तब तो हमें अपना सारा इतिहास दूसरे ढंग से लिखना पड़ेगा।