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View Full Version : संत वाणी


aspundir
22-05-2013, 03:44 PM
भोजन का प्रभाव

सुखी रहने के लिए स्वस्थ रहना आवश्यक है। शरीर स्वस्थ तो मन स्वस्थ। शरीर की तंदुरूस्ती भोजन, व्यायाम आदि पर निर्भर करती है। भोजन कब एवं कैसे करें, इसका ध्यान रखना चाहिए। यदि भोजन करने का सही ढंग आ जाय तो भारत में कुल प्रयोग होने वाले खाद्यान्न का पाँचवाँ भाग बचाया जा सकता है।
भोजन नियम से, मौन रहकर एवं शांत चित्त होकर करो। जो भी सादा भोजन मिले, उसे भगवान का प्रसाद समझकर खाओ। हम भोजन करने बैठते हैं तो भी बोलते रहते हैं। 'पद्म पुराण' में आता है कि 'जो बातें करते हुए भोजन करता है, वह मानों पाप खाता है।' कुछ लोग चलते-चलते अथवा खड़े-खड़े जल्दबाजी में भोजन करते हैं। नहीं ! शरीर से इतना काम लेते हो, उसे खाना देने के लिए आधा घंटा, एक घंटा दे दिया तो क्या हुआ ? यदि बीमारियों से बचना है तो खूब चबा-चबाकर खाना खाओ। एक ग्रास को कम से कम 32 बार चबायें। एक बार में एक तोला (लगभग 11.5 ग्राम) से अधिक दूध मुँह में नहीं डालना चाहिए। यदि घूँट-घूँट करके पियेंगे तो एक पाव दूध भी ढाई पाव जितनी शक्ति देगा। चबा-चबाकर खाने से कब्ज दूर होती है, दाँत मजबूत होते हैं, भूख बढ़ती है तथा पेट की कई बीमारियाँ भी ठीक हो जाती हैं।
भोजन पूर्ण रूप से सात्त्विक होना चाहिए। राजसी एवं तामसी आहार शरीर एवं मन बुद्धि को रूग्न तथा कमजोर करता है। भोजन करने का गुण शेर से ग्रहण करो। न खाने योग्य चीज को वह सात दिन तक भूखा होने पर भी नहीं खाता। मिर्च-मसाले कम खाने चाहिए। मैं भोजन पर इसलिए जोर देता हूँ क्योंकि भोजन से ही शरीर चलता है। जब शरीर ही स्वस्थ नहीं रहेगा तब साधना कहाँ से होगी ? भोजन का मन पर भी प्रभाव पड़ता है। इसीलिए कहते हैं- 'जैसा खाये अन्न, वैसा बने मन।'अतः सात्त्विक एवं पौष्टिक आहार ही लेना चाहिए।
मांस, अण्डे, शराब, बासी, जूठा, अपवित्र आदि तामसी भोजन करने से शरीर एवं मन-बुद्धि पर घातक प्रभाव पड़ता है, शरीर में बीमारियाँ पैदा हो जाती हैं। मन तामसी स्वभाववाला, कामी, क्रोधी, चिड़चिड़ा, चिंताग्रस्त हो जाता है तथा बुद्धि स्थूल एवं जड़ प्रकृति की हो जाती है। ऐसे लोगों का हृदय मानवीय संवेदनाओं से शून्य हो जाता है।
खूब भूख लगने पर ही भोजन करना चाहिए। खाने का अधिकार उसी का है जिसे भूख लगी हो। कुछ नासमझ लोग स्वाद लेने के लिए बार-बार खाते रहते हैं। पहले का खाया हुआ पूरा पचा न पचा कि ऊपर से दुबारा ठूँस लिया। ऐसा नहीं करें। भोजन स्वाद लेने की वासना से नहीं अपितु भगवान का प्रसाद समझकर स्वस्थ रहने के लिए करना चाहिए।
बंगाल का सम्राट गोपीचंद संन्यास लेने के बाद जब अपनी माँ के पास भिक्षा लेने आया तो उसकी माँ ने कहाः "बेटा ! मोहनभोग ही खाना।" जब गोपीचन्द ने पूछाः"माँ ! जंगलों में कंदमूल-फल एवं रूखे-सूखे पत्ते मिलेंगे, वहाँ मोहनभोग कहाँ से खाऊँगा ?" तब उसकी माँ ने अपने कहने का तात्पर्य यह बताया कि "जब खूब भूख लगने पर भोजन करेगा तो तेरे लिए कंदमूल-फल भी मोहनभोग से कम नहीं होंगे।"
चबा-चबाकर भोजन करें, सात्त्विक आहार लें, मधुर व्यवहार करें, सभी में भगवान का दर्शन करें, सत्पुरूषों के सान्निध्य में जाकर आत्मज्ञान को पाने की इच्छा करें तथा उनके उपदेशों का भलीभाँति मनन करें तो आप जीते-जी मुक्ति का अनुभव कर सकते हैं।