dipu
24-06-2013, 04:54 PM
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इतिहास की सबसे बड़ी प्राकृतिक आपदा की शिकर केदारनाथ-ब्रदीनाथ की घाटियों में अब भी कई तीर्थयात्री जिंदगी की जंग लड़ रहे हैं। सवाल कई हैं..सवा अरब की आबादी और 66 साल की आजादी वाले देश में कहां है आपदा प्रबंधन। सच तो है कि देश में भूकंप, बाढ़ और भूस्खलन की स्थिति से निपटने के प्रबंधों की कलई केदारनाथ-हादसे ने खोल दी है।
आज पूरा देश केदारनाथ-बद्रीनाथ में हुई त्रासदी से दुखी है, परंतु इस त्रासदी को मात्र प्राकृतिक आपदा स्वीकार करने से पहले उस क्षेत्र के विकास का विशेषज्ञों द्वारा अध्ययन किया जाना चाहिए। वहां बनाए गए बांध के लिए डूब में आए क्षेत्र में कितने हजार वृक्ष नष्ट हुए और पर्यटन में सुविधा के लिए पहाड़ों की छाती चीरकर चौड़ी सड़कें बनाते समय कम वक्त में अधिक काम की खातिर कितनी अतिरिक्त बारूद पहाड़ों के पेट में भर दी गई और परिणामस्वरूप प्राकृतिक आपदा को रोकने की उनकी स्वाभाविक क्षमता कम हो गई।
यह भी गौरतलब है कि उत्तराखंड की आबादी लगभग एक करोड़ है, परंतु पर्यटन के लिए आने वालों की संख्या करीब ढाई करोड़ है। उनकी सुविधाओं के लिए नियम तोड़कर रहने, खाने-पीने की जगहें बनाई गई हैं, जिसके कारण प्रकृति का संतुलन बिगड़ा है। यह संभव है कि विकास का यह आयात किया गया मॉडल प्रकृति के प्रति कितना क्रूर रहा है।
दरअसल, इतनी बड़ी त्रासदी के कारणों की विशद वैज्ञानिक जांच आवश्यक है। इसे महज प्राकृतिक कहकर अपनी सुविधा के कालीन के नीचे दफन नहीं किया जाना चाहिए। इस भीषण त्रासदी पर सभी राजनीतिक दलों द्वारा बहाए हुए आंसू मगर के आंसू हैं और हमारी पूरी व्यवस्था में व्याप्त सड़ांध को ही उजागर करते हैं।
ऐसी घटनाओं से निपटने के लिए ये हैं समाधान...
तमाम समस्याएं दूर करने के लिए मौजूदा वैश्विक तापमान में दो फीसदी की गिरावट लाना जरूरी है। पर्यावरण अनुकूल कृषि को बढ़ावा दिया जाए। आपदा प्रबंधन ढांचा, स्वास्थ्य एवं बाढ़ नियंत्रण समेत तमाम क्षेत्रों के लिए रणनीति बनाई जाए। ये है भारत में मानसून के बदले मिजाज पर विश्व बैंक की ताजा रिपोर्ट के कुछ अंश।
इतिहास की सबसे बड़ी प्राकृतिक आपदा की शिकर केदारनाथ-ब्रदीनाथ की घाटियों में अब भी कई तीर्थयात्री जिंदगी की जंग लड़ रहे हैं। सवाल कई हैं..सवा अरब की आबादी और 66 साल की आजादी वाले देश में कहां है आपदा प्रबंधन। सच तो है कि देश में भूकंप, बाढ़ और भूस्खलन की स्थिति से निपटने के प्रबंधों की कलई केदारनाथ-हादसे ने खोल दी है।
आज पूरा देश केदारनाथ-बद्रीनाथ में हुई त्रासदी से दुखी है, परंतु इस त्रासदी को मात्र प्राकृतिक आपदा स्वीकार करने से पहले उस क्षेत्र के विकास का विशेषज्ञों द्वारा अध्ययन किया जाना चाहिए। वहां बनाए गए बांध के लिए डूब में आए क्षेत्र में कितने हजार वृक्ष नष्ट हुए और पर्यटन में सुविधा के लिए पहाड़ों की छाती चीरकर चौड़ी सड़कें बनाते समय कम वक्त में अधिक काम की खातिर कितनी अतिरिक्त बारूद पहाड़ों के पेट में भर दी गई और परिणामस्वरूप प्राकृतिक आपदा को रोकने की उनकी स्वाभाविक क्षमता कम हो गई।
यह भी गौरतलब है कि उत्तराखंड की आबादी लगभग एक करोड़ है, परंतु पर्यटन के लिए आने वालों की संख्या करीब ढाई करोड़ है। उनकी सुविधाओं के लिए नियम तोड़कर रहने, खाने-पीने की जगहें बनाई गई हैं, जिसके कारण प्रकृति का संतुलन बिगड़ा है। यह संभव है कि विकास का यह आयात किया गया मॉडल प्रकृति के प्रति कितना क्रूर रहा है।
दरअसल, इतनी बड़ी त्रासदी के कारणों की विशद वैज्ञानिक जांच आवश्यक है। इसे महज प्राकृतिक कहकर अपनी सुविधा के कालीन के नीचे दफन नहीं किया जाना चाहिए। इस भीषण त्रासदी पर सभी राजनीतिक दलों द्वारा बहाए हुए आंसू मगर के आंसू हैं और हमारी पूरी व्यवस्था में व्याप्त सड़ांध को ही उजागर करते हैं।
ऐसी घटनाओं से निपटने के लिए ये हैं समाधान...
तमाम समस्याएं दूर करने के लिए मौजूदा वैश्विक तापमान में दो फीसदी की गिरावट लाना जरूरी है। पर्यावरण अनुकूल कृषि को बढ़ावा दिया जाए। आपदा प्रबंधन ढांचा, स्वास्थ्य एवं बाढ़ नियंत्रण समेत तमाम क्षेत्रों के लिए रणनीति बनाई जाए। ये है भारत में मानसून के बदले मिजाज पर विश्व बैंक की ताजा रिपोर्ट के कुछ अंश।