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View Full Version : यात्रा-संस्मरण


VARSHNEY.009
02-07-2013, 10:08 AM
ह्वेनसांग स्मृति संग्रहालय
वास्तव में चीनी सरकार के सहयोग से निर्मित यह एक भव्य, स्वच्छ तथा सुनियोजित तरीके से निर्मित संग्रहालय है जिसके माध्यम से ह्वेनसांग को याद किया गया है। ह्वेनसांग स्मृति संग्रहालय पहुँच कर मन प्रसन्नता से भर उठा। वह एक यात्री, एक विद्यार्थी, एक शिक्षक और एक इतिहासकार जिसने हमें इतना कुछ दिया कि अकल्पनातीत है उसकी स्मृति को ठीक इसी तरह संरक्षित किये जाने की आवश्यकता थी। इस संग्रहालय के निर्माण का मूल श्रेय नव नालंदा महाविहार के पूर्वनिदेशक श्री जगदीश कश्यप को जाता है जिनकी यह संकल्पना थी। लेकिन इस संबंध में भारत के प्रथम प्रधान मंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू तथा चीनी राष्ट्रपति चाउ इन लाई के संयुक्त प्रयासों को नजरंदाज नहीं किया जा सकता जिन्होंने दो राष्ट्रों की परस्पर मैत्री भावना को इस अनुपम सूत्र ह्वेनसांग के माध्यम से आगे बढाया। इस परियोजना पर कार्य तो १९५७ में ही आरंभ हो गया था तथापि मुख्य भवन १९८४ में बन कर तैयार हो सका। वर्ष २००१ में इस निर्मित भवन को नव नालंदा महाविहार को सौंप दिया गया जबकि संग्रहालय का विधिवत उद्घाटन फरवरी २००७ में हुआ था।
संग्रहालय का विशाल मुख्यद्वार

संग्रहालय का विशाल मुख्यद्वार पूर्वाभिमुख है तथा काँसे से निर्मित है जो अपने मुख्य भवन से साम्यता रखने के उद्देश्य से उतना ही भव्य बनाया गया है। मुख्यभवन में चीनी संस्कृति और कलात्मकता की झलख दिखाई पड़ती है तथा भवन की छत का नीला रंग आँखो को सुकून पहुँचाता है। चटकीले लाल, स्वर्णिम तथा नीले रंगों के प्रयोग से द्वार तथा मुख्य भवन की दीवारों को सौन्दर्य प्रदान किया गया है; संभवत: यह माना जाता है कि लाल रंग नकारात्मक ताकतों का निवारण करता है, स्वर्णिम रंग का सम्बन्ध शुद्धता तथा समृद्धि से है एवं नीले रंग को अमरत्व की निशानी माना जाता है। मुख्यद्वार से भीतर प्रविष्ट होते ही दाहिनी ओर एक विशाल घंटा एक सफेद कलात्मक खुले भवन के नीचे लगाया गया दृष्टिगोचर होगा जिसपर भगवान बुद्ध उपदेशित कोई सूत्र चीनी भाषा, देवनागरी तथा संस्कृत में अंकित है। मुख्यद्वार से दाहिनी ओर ह्वेनसांग के सम्मान में चौकोर संगमरमर से निर्मित श्वेत स्तम्भ स्थापित किया गया है। ठीक सामने ह्वेनसांग की काले रंग की भव्य कांस्य प्रतिमा स्थापित की गयी है जिस पर लिखा है – “ह्वेनसांग (६०३ ई – ६६४ ई.) दुनिया के विशिष्ट महापुरुषों में से एक थे जिनका महान उद्देश्य मानवजाति का कल्याण और मानव सभ्यता के उद्दात्त मूल्यों की व्याख्या करना था”। मुख्य भवन में प्रवेश से ठीक पहले एक बड़ा सा कलात्मक पात्र रखा हुआ है। सुगंधित पदार्थ जला कर वातावरण को शुद्ध रखने के लिये निर्मित इस काले रंग के पात्र पर चीनी भाषा में कुछ अंकित है।
भव्य सभागार

मुख्यभवन के भीतर एक भव्य सभागार है जिसमें सामने की ओर ध्यानस्थ ह्वेनसांग की विशाल प्रतिमा लगाई गयी है जिनके सामने काष्ठ की एक कलात्मक मेज रखी गयी है जिसे फूलों से सजा दिया जाता है। प्रतिमा के ठीक सामने भगवान बुद्ध के चरण चिह्न से अंकित एक पाषाण शिला रखी गयी है। कहते हैं कि ह्वेनसांग ने य्वीहुआ महल में बौद्ध सूत्रों का अनुवाद करते हुए स्वयं बुद्ध के चरण चिन्हों को तराशने का संचालन किया तथा लेख उत्कीर्ण करवाया। “पश्चिमी जगत के अभिलेख” के अनुसार महात्मा बुद्ध ने पाटलिपुत्र, मगध में अपने चरणचिन्ह छोड़े थे। ह्वेनसांग ने उस पवित्र पदचिन्ह की पूजा की तथा प्रतिलिपि बना कर यवीहुआ महल ले गये थे। १९९९ में यह शिला खोजी गयी। ह्वेनसांग की मुख्य-प्रतिमा के ठीक पीछे सफेद दीवार पर मैत्रेय बुद्ध की प्रतिमा उत्कीर्ण है। दीवारों पर बडे बडे पैनल लगाये गये हैं जिनपर ह्वेनसांग का सम्पूर्ण जीवन चित्रित किया गया है। सभागार की छत पर अजंता के चित्रों के अनुकल्प अंकित हैं। सभागार में कई महत्त्वपूर्ण तैलचित्र भी लगे हुए हैं जिनमें प्रमुख हैं - ह्वेनसांग के विभिन्न कार्य, उनके भ्रमण की कठिनाइयाँ, उनकी सम्राट हर्षवर्धन से मुलाकात, प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु शीलभद्र आदि आदि।
शोध और यात्राएँ

ह्वेनसांग की यात्रा और उनके वृतांत महत्त्वपूर्ण हैं। अगर वे उपलब्ध न रहे होते तो प्राचीन भारत के इतिहास का बहुत सा कोना अँधेरे में डूबा रहता जिसमें नालंदा विश्वविद्यालय से संबंधित वृतांत भी सम्मिलित है। ह्वेनसांग एक असंतुष्ट शोधकर्ता थे इसलिये यात्री बन गये। चीन के होनान फू के पास जनमे ह्वेनसांग बौद्ध धर्म की ओर आकृष्ट हुए किंतु और जानने की लालसा और उपलब्ध ज्ञान से असंतुष्टि उन्हें भारत खींच लाई। भारत यात्रा के लिये चूँकि चीनी सम्राट ने उन्हें पारपत्र जारी नहीं किया अत: वे गुप्त रूप से अनेकों कठिनाइयों का सामना करते हुए इस भूमि में प्रविष्ट हुए। वे अपने दो साथियों के साथ लांगजू पहुँचे वहाँ से आगे बढ कर गोबी की मरुभूमि को पार किया। दुष्वारियाँ इतनी थी कि साथी लौट गये कितु ह्वेनसांग चलते रहे – हामी, काशनगर, बल्ख, बामियान, काबुल, पेशावर, तक्षशिला और सन ६३१ ई में कश्मीर जहाँ उन्होंने लगभग दो वर्षों तक अध्ययन किया। कश्मीर से पुन: यात्रा प्रारंभ हुई तो मथुरा, थानेश्वर होते हुए वे कन्नौज पहुँचे जो सम्राट हर्षवर्धन की राजधानी हुआ करती थी। सम्राट से स्वागत व सहायता प्राप्त करने के बाद यात्री पुन: चल पडा अयोध्या, प्रयाग, कौशाम्बी, श्रावस्ती, कपिलवस्तु, कुशीनगर, पाटलीपुत्र, गया, राजगृह होते हुए नालंदा। नालंदा विश्वविध्यालय में ह्वेनसांग एक अध्येता रहे और कालांतर में वहाँ के शिक्षक भी नियुक्त हुए। अब भी यह यात्री नहीं थका था उत्तर भारत से सुदूर दक्षिण भारत की ओर निकल पडा। वे पल्लवों की राजधानी कांची पहुँचे जहाँ से उन्होंने स्वदेश लौटना निश्चित किया। चीन लौटने पर वहाँ सम्राट ने ह्वेनसांग का भव्य स्वागत किया। ह्वेनसांग अपने साथ ६५७ हस्तलिखित बौद्धग्रंथ घोडों पर लाद कर चीन ले गये थे। अपना शेष जीवन उन्होंने इन ग्रंथों के अनुवाद तथा यात्रावृतांत के लेखन में लगाया।

तत्कालीन भारतीय समाज का जो आईना ह्वेनसांग ने प्रस्तुत किया है वह प्रभावित करता है तथापि एक घटना ने मुझे चौंकाया भी है। बात ६४३ ई. की है जब महाराजा हर्षवर्धन ने कन्नौज में धार्मिक महोत्सव आयोजित किया था। इस आयोजन में साम्राज्य भर से बीस राजा, तीन सहस्त्र बौद्ध भिक्षु, तीन हजार ब्राम्हण, विद्वान, जैन धर्माचार्य तथा नालंदा विश्वविद्यालय के अध्यापक सम्मिलित हुए थे। ह्वेनसांग ने स्वयं इस आयोजन में महायान धर्म पर व्याख्यान व प्रवचन दिये थे तथा उन्हें यहाँ विद्वान घोषित कर सम्मानित भी किया गया था। यह आयोजन अत्यधिक विवादों में रहा। कहते हैं कि हर्षवर्धन ने अन्यधर्मावलंबियों को स्वतंत्र शास्त्रार्थ से वंचित कर दिया था। कई विद्वान लौट गये तो कुछ ने गड़बड़ी फैला दी। आयोजन के लिये निर्मित पंडाल और अस्थायी विहार में आग लगा दी गयी यहाँ तक कि सम्राट हर्षवर्धन पर प्राणघातक हमला भी किया गया। यह घटना उस युग में भी स्थित धार्मिक प्रतिद्वन्द्विता को समझने में नितांत सहायता करती है।

यह निर्विवाद है कि हमें ह्वेनसांग का कृतज्ञ होना चाहिये। नालंदा विश्वविद्यालय के पुरावशेष देखने के पश्चात हर पर्यटक और शोधार्थी को मेरी सलाह है कि एक बार ह्वेनसांग स्मृति संग्रहालय अवश्य जाएँ। इस संग्रहालय को सम्मान दे कर वस्तुत: हम अपने इतिहास की कडियों को प्रामाणिकता से जोड़ने वाले उस व्यक्ति को सम्मानित कर रहे होते हैं जिसने भारतीय होने के हमारे गर्व के कारणों का शताब्दियों पहले दस्तावेजीकरण किया था।

VARSHNEY.009
02-07-2013, 10:12 AM
अनोखा आकर्षण आम्बेर
हदाकार के लिए चित्र को क्लिक करें
गणेश पोल आंबेर, आम्बेर क़िले का प्रवेशद्वार

राजस्थान का नाम वहाँ के रेगिस्तान और रेत के कारण ही नहीं जाना जाता, वहाँ की संस्कृति और धार्मिक परम्पराएं देश भर में अनोखा स्थान रखती है। वहां के स्थापत्य और किले अपने सौंदर्य और उत्कृष्ट कारीगरी के लिये विश्वभर में जाने जाते हैं। जयपुर राजस्थान की राजधानी है, जयपुर नगर से लगभग १२ किलोमीटर दूर एक छोटी सी नगरी है "आमेर", जो अपने प्रसिद्ध किले और मंदिर के प्रसंग में विश्वभर में जानी-पहचानी जाती है।
जयपुर से दिल्ली मार्ग पर अरावली की एक छोटी और सुन्दर टेकड़ी पर बसी यह नगरी "आमेर" अपने दो संदर्भों में वहाँ के लोगों की किंवदंतियों और चर्चाओं में जीवित है। कुछ लोगों को कहना है कि अम्बकेश्वर भगवान शिव के नाम पर यह नगर "आमेर" बना, परन्तु अधिकांश लोग और तार्किक अर्थ अयोध्या के राजा भक्त अम्बरीश के नाम से जोड़ते हैं। कहते हैं भक्त अम्बरीश ने दीन-दुखियों के लिए राज्य के भरे हुए कोठार और गोदाम खोल रखे थे। सब तरफ़ सुख और शांति थी परन्तु राज्य के कोठार दीन-दुखियों के लिए खाली होते रहे। भक्त अम्बरीश से जब उनके पिता ने पूछताछ की तो अम्बरीश ने सिर झुकाकर उत्तर दिया कि ये गोदाम भगवान के भक्तों के गोदाम है और उनके लिए सदैव खुले रहने चाहिए। भक्त अम्बरीश को राज्य के हितों के विरुद्ध कार्य करने के लिए आरोपी ठहराया गया और जब गोदामों में आई माल की कमी का ब्यौरा अंकित किया जाने लगा तो लोग और कर्मचारी यह देखकर दंग रह गए कि कल तक जो गोदाम और कोठार खाली पड़े थे, वहाँ अचानक रात भर में माल कैसे भर गया।
भक्त अम्बरीश ने इसे ईश्वर की कृपा कहा। चमत्कार था यह भक्त अम्बरीश का और उनकी भक्ति का। राजा नतमस्तक हो गया। उसी वक्त अम्बरीश ने अपनी भक्ति और आराधना के लिए अरावली पहाड़ी पर इस स्थान को चुना, उनके नाम से कालांतर में अपभ्रंश होता हुआ अम्बरीश से "आमेर" या "आम्बेर" बन गया।
अम्बेर किला दूसरी मंज़िल से एक विहंगम दृश्य
कहानी चाहे कुछ भी हो, आम्बेर देवी के मंदिर के कारण देश भर में विख्यात है। शीतला-माता का प्रसिद्ध यह देव-स्थल भक्तों की मनोकामना पूर्ण करने, देवी चमत्कारों के कारण श्रद्धा का केन्द्र है। शीतला-माता की मूर्ति अत्यंत मनोहारी है और शाम को यहाँ धूपबत्तियों की सुगंध में जब आरती होती है तो भक्तजन किसी अलौकिक शक्ति से भक्त-गण प्रभावित हुए बिना नहीं रहते। देवी की आरती और आह्वान से जैसे मंदिर का वातावरण एकदम शक्ति से भर जाता है। रोमांच हो आता है, रोंगटे खड़े हो जाते हैं और एक अजीब सी सिहरन सारे शरीर में दौड़ जाती है। पूरा माहौल चमत्कारी हो जाता है। निकट में ही वहाँ जगत शिरोमणि का वैष्णव मंदिर है, जिसका तोरण सफ़ेद संगमरमर का बना है और उसके दोनों ओर हाथी की विशाल प्रतिमाएँ हैं।



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शीशमहल का बाहरी दृश्य
आम्बेर का किला अपने शीश महल के कारण भी प्रसिद्ध है। इसकी भीतरी दीवारों, गुम्बदों और छतों पर शीशे के टुकड़े इस प्रकार जड़े गए हैं कि केवल कुछ मोमबत्तियाँ जलाते ही शीशों का प्रतिबिम्ब पूरे कमरे को प्रकाश से जगमग कर देता है। सुख महल व किले के बाहर झील बाग का स्थापत्य अपूर्व है।
भक्ति और इतिहास के पावन संगम के रूप में स्थित आमेर नगरी अपने विशाल प्रासादों व उन पर की गई स्थापत्य कला की आकर्षक पच्चीकारी के कारण पर्यटकों के लिए आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है। पत्थर के मेहराबों की काट-छाँट देखते ही बनती है। यहाँ का विशेष आकर्षण है डोली महल, जिसका आकार उस डोली (पालकी) की तरह है, जिनमें प्राचीन काल में राजपूती महिलाएँ आया-जाया करती थीं। इन्हीं महलों में प्रवेश द्वार के अन्दर डोली महल से पूर्व एक भूल-भूलैया है, जहाँ राजे-महाराजे अपनी रानियों और पट्टरानियों के साथ आँख-मिचौनी का खेल खेला करते थे। कहते हैं महाराजा मान सिंह की कई रानियाँ थीं और जब राजा मान सिंह युद्ध से वापस लौटकर आते थे तो यह स्थिति होती थी कि वह किस रानी को सबसे पहले मिलने जाएँ। इसलिए जब भी कोई ऐसा मौका आता था तो राजा मान सिंह इस भूल-भूलैया में इधर-उधर घूमते थे और जो रानी सबसे पहले ढूँढ़ लेती थी उसे ही प्रथम मिलन का सुख प्राप्त होता था।
यह कहावत भी प्रसिद्ध है कि अकबर और मानसिंह के बीच एक गुप्त समझौता यह था कि किसी भी युद्ध से विजयी होने पर वहाँ से प्राप्त सम्पत्ति में से भूमि और हीरे-जवाहरात बादशाह अकबर के हिस्से में आएगी तथा शेष अन्य खजाना और मुद्राएँ राजा मान सिंह की सम्मति होगी। इस प्रकार की सम्पत्ति प्राप्त करके ही राजा मान सिंह ने समृद्धशाली जयपुर राज्य का संचलन किया था। आमेर के महलों के पीछे दिखाई देता है नाहरगढ़ का ऐतिहासिक किला, जहाँ अरबों रुपए की सम्पत्ति ज़मीन में गड़ी होने की संभावना और आशंका व्यक्त की जाती है।
http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2003/amber/kanchaursangmarmar_s.jpg (http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2003/amber/kanchaursangmarmar.jpg)
आमेर नगरी और वहाँ के मंदिर तथा किले राजपूती कला का अद्वितीय उदाहरण है। यहाँ का प्रसिद्ध दुर्ग आज भी ऐतिहासिक फिल्मों के निर्माताओं को शूटिंग के लिए आमंत्रित करता है। मुख्य द्वार गणेश पोल कहलाता है, जिसकी नक्काशी अत्यन्त आकर्षक है। यहाँ की दीवारों पर कलात्मक चित्र बनाए गए थे और कहते हैं कि उन महान कारीगरों की कला से मुगल बादशाह जहांगीर इतना नाराज़ हो गया कि उसने इन चित्रों पर प्लास्टर करवा दिया। ये चित्र धीरे-धीरे प्लास्टर उखड़ने से अब दिखाई देने लगे हैं। आमेर में ही है चालीस खम्बों वाला वह शीश महल, जहाँ माचिस की तीली जलाने पर सारे महल में दीपावलियाँ आलोकित हो उठती है। हाथी की सवारी यहाँ के विशेष आकर्षण है, जो देशी सैलानियों से अधिक विदेशी पर्यटकों के लिए कौतूहल और आनंद का विषय है।

VARSHNEY.009
02-07-2013, 10:13 AM
आबू की प्राकृतिक सुषमा
प्राकृतिक सुषमा और विभोर करनेवाली वनस्थली का पर्वतीय स्थल 'आबू पर्वत' स्वास्थ्यवर्धक जलवायु के साथ एक परिपूर्ण पौराणिक परिवेश भी है। यहाँ वास्तुकला का हस्ताक्षरित कलात्मकता भी दृष्टव्य है। पर्यटक हैं कि खिंच चले आते हैं और आबू का आकर्षण है कि आए दिन मेला, हर समय सैलानियों की हलचल चाहे शरद हो या ग्रीष्म। आबू ग्रीष्मकालीन पर्वतीय आवास स्थल और पश्चिमी भारत का प्रमुख पर्यटन केंद्र रहा है। यह ४३० मील लंबी और विस्तृत अरावली पर्वत शृंखला में दक्षिण-पश्चिम स्थित तथा समुद्रतल से लगभग ४००० फुट की ऊँचाई पर अवस्थित है। गुरु शिखर इस पर्वत का सर्वोच्च शिखर है जो समुद्रतल से ५६५० फुट ऊँचा है।
आबू का भूगोल- दिल्ली एवं जयपुर के दक्षिण पश्चिम और बड़ौदा एवं अहमदाबाद के उत्तर में स्थित आबू का पर्वत बड़ा ही रमणीक, मनोहारी और आध्यात्मिकता का आगार है। यहाँ पहुँचने के लिए पश्चिमी रेलवे की दिल्ली-अहमदाबाद रेलवे लाइन द्वारा दिल्ली से १८ घंटे, बंबई से १६ घंटे और अहमदाबाद से ५ घंटे की आबू रोड की यात्रा तय करनी होती है। आबू रोड से आबू पर्वत जाने के लिए टैक्सियों के अतिरिक्त राजस्थान सरकार की बस सेवा भी उपलब्ध है। आबू पर्वत का पर्यटन काल में १५ मार्च से ३० जून और शरद में १५ सितंबर से १५ नवंबर है। ग़ैर पर्यटन काल (ऑफ सीजन) १ जनवरी से १४ मार्च और एक जुलाई से १४ सितंबर तथा १६ नवंबर से ३१ दिसंबर है। स्थिति यह है कि जुलाई से सितंबर तक मानसून बना रहता है और ६० से ७० इंच तक वर्षा होती है। लगभग २५ वर्ग किलोमीटर के आबू पर्वतीय क्षेत्रफल में नदी, झील, सूर्यास्त स्थल, घुड़सवारी और अनेक दर्शनीय आकर्षण हैं। राज्य सरकार द्वारा प्रतिवर्ष शरद महोत्सव मनाए जाने से यहाँ की हलचल पूर्व से कई गुनी हो गई है।
अंतर्कथाएँ- आबू पर्वत की उत्पत्ति और विकास की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के संबंध में अनेक पौराणिक कथाएँ, भौगोलिक तथ्य और आख्यायिकाएँ यहाँ प्रचलित हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार आबू पर्वत उतना ही प्राचीन है, जितना सतयुग। यह भी कि महाभारत में वर्णित सर्प सम्राट हिमालय के पुत्र अर्बुदा के नाम पर आबू पर्वत का नामकरण हुआ। एक और पौराणिक कथा के अनुसार वर्तमान में जहाँ आबू पर्वत है, किसी समय वहाँ एक बड़ा गड्ढ़ा था जिसमें एक दिन कामधेनु गाय 'नंदिनी' गिर गई। वह महर्षि वशिष्ठ को प्रिय थी और उन्होंने शिव से उसके उद्धार की प्रार्थना की थी। शिव ने कैलाश से नंदीवर्धन को गड्ढ़े को पाटने और महर्षि की पीड़ा दूर करने भेजा, किंतु उसके पहुँचने के पूर्व ही सरस्वती देवी ने अपनी एक नदी के प्रवाह को गड्ढ़े की ओर मोड़ दिया, जिससे गाय बाहर आ गई, फिर भी नंदीवर्धन के गड्ढ़े के स्थान पर पर्वत शृंखला उत्पन्न की, जो अर्बुदा कहलाई। पूर्व में आबू पर्वत आस्थिर था, अतः शिव ने पाँव के प्रहार से इसे स्थिर किया, जिससे पाँव का अगला भाग उस पर अंकित हो गया। यह भाग आज भी प्रसिद्ध अंचलेश्वर मंदिर में प्रतिष्ठित है। बाद में आबू पर्वत परमार शासकों और उसके बाद देलवाड़ा चौहानों के अधीन रहा। अंग्रेज़ी शासनकाल में लगभग एक शताब्दी तक यह विकासशील रहा और रियासतों के विलीनीकरण के बाद यह बंबई राज्य की प्रशासनिक देखरेख में रहा। राजस्थान में यह भाग १९५६ से मिला दिया गया और अब आबू पर्वत राज्य के सिरोही जिले का एक उपखंड है।
http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2009/mt.abu/nakkijheel.jpgनक्की झील- नक्की झील देवताओं के नाखूनों द्वारा ज़मीन को खुरचकर बनाई गई झील है, जो आबू पर्वत के मध्यस्थ है और पवित्र मानी जाती है। प्राकृतिक सौंदर्य का नैसर्गिक आनंद देनेवाली यह झील चारों ओऱ पर्वत शृंखलाओं से घिरी है। यहाँ के पहाड़ी टापू बड़े आकर्षक हैं। यहाँ कार्तिक पूर्णिमा को लोग स्नान कर धर्म लाभ उठाते हैं। झील में एक टापू को ७० अश्वशक्ति से चलित विभिन्न रंगों में जल फव्वारा लगाकर आकर्षक बनाया गया है जिसकी धाराएँ ८० फुट की ऊँचाई तक जाती हैं। झील में नौका विहार की भी व्यवस्था है।
श्रीरघुनाथ मंदिर- श्रीरघुनाथ मंदिर और आश्रम नक्की झील के तट पर दक्षिण-पश्चिमी हैं। यहाँ चौदहवीं शताब्दी में जगतगुरु वैष्णवाचार्य रामानंदाचार्यजी द्वारा प्रतिष्ठित श्रीरघुनाथजी प्रतिमा है। श्वेत संगमरमर पत्थर से बने इस मंदिर के मुख्य मंडप के गुंबद में हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गई हैं।
टॉड रॉक- नक्की झील के पश्चिमी तट की ओर ऊपर पर्वत पर एक ऐसी चट्टान है, जिसकी आकृति मेढ़क (टॉड) जैसी है। टॉड रॉक के नाम से प्रसिद्ध यह चट्टान अन्य चट्टानों से एकदम भिन्न और एक विशाल खंड है।
सूर्यास्त-स्थल- आबू पर्वत के पश्चिमी छोर पर आकर्षक एवं प्रकृति के बीच के स्थल को जहाँ से संध्या समय सूर्यास्त के दृश्य को देखा जा सकता है, सूर्यास्त स्थल कहा जाता है। इस स्थान तक पहुँचने के लिए सड़क मार्ग है वहाँ सीढ़ियाँ भी हैं। यहाँ सूर्यास्त दर्शन के लिए उद्यासन भी बने हुए हैं।
अर्बुदा देवी- आबू पर्वत की आवासीय बस्ती के उत्तर में अर्बुदा देवी का ऐतिहासिक एवं दर्शनीय मंदिर है जो पर्वत उपत्यकाओं के मध्य एक मनोरम स्थल है। यहाँ प्रतिष्ठित अर्बुदा देवी आबू की अधिष्ठात्री देवी के रूप में पूज्य है और इसे 'अधर देवी' भी कहा जाता है।
कुँवारी कन्या का मंदिर- देलवाड़ा के दक्षिण में वृक्षों एवं लताओं से आच्छादित प्रकृति के शांति निकेतन में कुँवारी कन्या का मंदिर है। इस मंदिर में कुँवारी कन्या की मूर्ति के सामने ही एक रसिया बालम की मूर्ति है।
ट्रेवर ताल- देलवाड़ा से ही कोई दो मील दूर उत्तर में राजस्थान सरकार के वन विभाग का वन्य जीव संरक्षण स्थल है, जहाँ प्राकृतिक संपदा से युक्त एक ट्रेवर ताल है। यहाँ वन्य जीव निर्भय होकर विचरते हैं। यह स्थल पर्वतों के मध्यस्थ होने के कारण रमणीक औऱ लुभावना है। ताल पर एक विश्राम गृह भी है। यह स्थान भ्रमणार्थियों के लिए आनंददायक औऱ पिकनिक की अच्छी जगह है।
गुरु शिखर- अरावली पर्वत शृंखला की यह सर्वोच्च चोटी आबू पर्वत की बस्तियों से कोई नौ मील की दूरी पर है। शिखर के लिए ओरिया नामक स्थान से लगभग तीन मील का पैदल मार्ग है। इस सर्वोच्च शिखर पर भगवान विष्णु के अवतार गुरु दत्तात्रेय एवं शिव का मंदिर है, जिसमें बड़े आकार का कलात्मक घंटा भी है। यहाँ दूसरी चोटी पर दत्तात्रेय की माता का मंदिर भी दर्शनीय है जहाँ १४वीं शताब्दी के धर्म सुधारक स्वामी रामानंद के चरण स्थापित हैं।http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2009/mt.abu/delwada.jpg
देलवाड़ा के जैन मंदिर- अनेक आकर्षणों के केंद्र आबू पर्वत में देलवाड़ा जैन मंदिर सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। यहाँ आर्थिक पुरातत्व, शिल्प, वास्तुकला एवं पौराणिकता का ऐसा समन्वित रूप है, जिसे घंटों ही और निर्निमेष देखने पर भी आँखें नहीं थकतीं। यहाँ कला चातुर्य के साथ आध्यात्मिक आनंदानुभूतियों और आत्मानंद का जो सुख मन को मिलता है, वह दुनिया की माया से काफी हटकर है। देलवाड़ा के जैन मंदिर के कारण आबू पर्वत की ख्याति विश्व स्तर पर रही है। अन्य प्रमुख दर्शनीय स्थलों में नक्की झील एवं फव्वारा, सूर्यास्त स्थल, टॉड रॉक, श्री रघुनाथ मंदिर, धूलेश्वर मंदिर, नीलकंठ महादेव, अर्बुदा देवी का मंदिर, दूध बावड़ी, विमलसहि मंदिर, कुँवारी कन्या का मंदिर, भीम गुफ़ा, अचलगढ़ दुर्ग एवं मंदिर और गुरु शिखर आदि हैं।
अन्य दर्शनीय स्थल- आबू पर्वत के अन्य महत्वपूर्ण, दर्शनीय एवं ऐतिहासिक स्थलों में अचलेश्वर महादेव का मंदिर, नंदाकिनी कुंड, भर्तृहरि गुफा, अचलागढ़ एवं उसके जैन मंदिर लखचौरासी, राजभवन, संग्रहालय, पर्यटक विश्राम गृह, मधुमक्खी पालन केंद्र और राजाओं की कोठियाँ आदि हैं।

rajnish manga
03-07-2013, 10:26 AM
आबू की प्राकृतिक सुषमा


पूरा सूत्र ही पर्यटन को बढ़ावा देने की दृष्टि से उपयोगी जानकारी से भरा हुआ है. चित्र आकर्षक हैं.

dipu
07-07-2013, 09:55 AM
nice ..................

bindujain
07-07-2013, 05:06 PM
आबू की प्राकृतिक सुषमा
प्राकृतिक सुषमा और विभोर करनेवाली वनस्थली का पर्वतीय स्थल 'आबू पर्वत' स्वास्थ्यवर्धक जलवायु के साथ एक परिपूर्ण पौराणिक परिवेश भी है। यहाँ वास्तुकला का हस्ताक्षरित कलात्मकता भी दृष्टव्य है। पर्यटक हैं कि खिंच चले आते हैं और आबू का आकर्षण है कि आए दिन मेला, हर समय सैलानियों की हलचल चाहे शरद हो या ग्रीष्म। आबू ग्रीष्मकालीन पर्वतीय आवास स्थल और पश्चिमी भारत का प्रमुख पर्यटन केंद्र रहा है। यह ४३० मील लंबी और विस्तृत अरावली पर्वत शृंखला में दक्षिण-पश्चिम स्थित तथा समुद्रतल से लगभग ४००० फुट की ऊँचाई पर अवस्थित है। गुरु शिखर इस पर्वत का सर्वोच्च शिखर है जो समुद्रतल से ५६५० फुट ऊँचा है।
आबू का भूगोल- दिल्ली एवं जयपुर के दक्षिण पश्चिम और बड़ौदा एवं अहमदाबाद के उत्तर में स्थित आबू का पर्वत बड़ा ही रमणीक, मनोहारी और आध्यात्मिकता का आगार है। यहाँ पहुँचने के लिए पश्चिमी रेलवे की दिल्ली-अहमदाबाद रेलवे लाइन द्वारा दिल्ली से १८ घंटे, बंबई से १६ घंटे और अहमदाबाद से ५ घंटे की आबू रोड की यात्रा तय करनी होती है। आबू रोड से आबू पर्वत जाने के लिए टैक्सियों के अतिरिक्त राजस्थान सरकार की बस सेवा भी उपलब्ध है। आबू पर्वत का पर्यटन काल में १५ मार्च से ३० जून और शरद में १५ सितंबर से १५ नवंबर है। ग़ैर पर्यटन काल (ऑफ सीजन) १ जनवरी से १४ मार्च और एक जुलाई से १४ सितंबर तथा १६ नवंबर से ३१ दिसंबर है। स्थिति यह है कि जुलाई से सितंबर तक मानसून बना रहता है और ६० से ७० इंच तक वर्षा होती है। लगभग २५ वर्ग किलोमीटर के आबू पर्वतीय क्षेत्रफल में नदी, झील, सूर्यास्त स्थल, घुड़सवारी और अनेक दर्शनीय आकर्षण हैं। राज्य सरकार द्वारा प्रतिवर्ष शरद महोत्सव मनाए जाने से यहाँ की हलचल पूर्व से कई गुनी हो गई है।
अंतर्कथाएँ- आबू पर्वत की उत्पत्ति और विकास की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के संबंध में अनेक पौराणिक कथाएँ, भौगोलिक तथ्य और आख्यायिकाएँ यहाँ प्रचलित हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार आबू पर्वत उतना ही प्राचीन है, जितना सतयुग। यह भी कि महाभारत में वर्णित सर्प सम्राट हिमालय के पुत्र अर्बुदा के नाम पर आबू पर्वत का नामकरण हुआ। एक और पौराणिक कथा के अनुसार वर्तमान में जहाँ आबू पर्वत है, किसी समय वहाँ एक बड़ा गड्ढ़ा था जिसमें एक दिन कामधेनु गाय 'नंदिनी' गिर गई। वह महर्षि वशिष्ठ को प्रिय थी और उन्होंने शिव से उसके उद्धार की प्रार्थना की थी। शिव ने कैलाश से नंदीवर्धन को गड्ढ़े को पाटने और महर्षि की पीड़ा दूर करने भेजा, किंतु उसके पहुँचने के पूर्व ही सरस्वती देवी ने अपनी एक नदी के प्रवाह को गड्ढ़े की ओर मोड़ दिया, जिससे गाय बाहर आ गई, फिर भी नंदीवर्धन के गड्ढ़े के स्थान पर पर्वत शृंखला उत्पन्न की, जो अर्बुदा कहलाई। पूर्व में आबू पर्वत आस्थिर था, अतः शिव ने पाँव के प्रहार से इसे स्थिर किया, जिससे पाँव का अगला भाग उस पर अंकित हो गया। यह भाग आज भी प्रसिद्ध अंचलेश्वर मंदिर में प्रतिष्ठित है। बाद में आबू पर्वत परमार शासकों और उसके बाद देलवाड़ा चौहानों के अधीन रहा। अंग्रेज़ी शासनकाल में लगभग एक शताब्दी तक यह विकासशील रहा और रियासतों के विलीनीकरण के बाद यह बंबई राज्य की प्रशासनिक देखरेख में रहा। राजस्थान में यह भाग १९५६ से मिला दिया गया और अब आबू पर्वत राज्य के सिरोही जिले का एक उपखंड है।
http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2009/mt.abu/nakkijheel.jpgनक्की झील- नक्की झील देवताओं के नाखूनों द्वारा ज़मीन को खुरचकर बनाई गई झील है, जो आबू पर्वत के मध्यस्थ है और पवित्र मानी जाती है। प्राकृतिक सौंदर्य का नैसर्गिक आनंद देनेवाली यह झील चारों ओऱ पर्वत शृंखलाओं से घिरी है। यहाँ के पहाड़ी टापू बड़े आकर्षक हैं। यहाँ कार्तिक पूर्णिमा को लोग स्नान कर धर्म लाभ उठाते हैं। झील में एक टापू को ७० अश्वशक्ति से चलित विभिन्न रंगों में जल फव्वारा लगाकर आकर्षक बनाया गया है जिसकी धाराएँ ८० फुट की ऊँचाई तक जाती हैं। झील में नौका विहार की भी व्यवस्था है।
श्रीरघुनाथ मंदिर- श्रीरघुनाथ मंदिर और आश्रम नक्की झील के तट पर दक्षिण-पश्चिमी हैं। यहाँ चौदहवीं शताब्दी में जगतगुरु वैष्णवाचार्य रामानंदाचार्यजी द्वारा प्रतिष्ठित श्रीरघुनाथजी प्रतिमा है। श्वेत संगमरमर पत्थर से बने इस मंदिर के मुख्य मंडप के गुंबद में हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गई हैं।
टॉड रॉक- नक्की झील के पश्चिमी तट की ओर ऊपर पर्वत पर एक ऐसी चट्टान है, जिसकी आकृति मेढ़क (टॉड) जैसी है। टॉड रॉक के नाम से प्रसिद्ध यह चट्टान अन्य चट्टानों से एकदम भिन्न और एक विशाल खंड है।
सूर्यास्त-स्थल- आबू पर्वत के पश्चिमी छोर पर आकर्षक एवं प्रकृति के बीच के स्थल को जहाँ से संध्या समय सूर्यास्त के दृश्य को देखा जा सकता है, सूर्यास्त स्थल कहा जाता है। इस स्थान तक पहुँचने के लिए सड़क मार्ग है वहाँ सीढ़ियाँ भी हैं। यहाँ सूर्यास्त दर्शन के लिए उद्यासन भी बने हुए हैं।
अर्बुदा देवी- आबू पर्वत की आवासीय बस्ती के उत्तर में अर्बुदा देवी का ऐतिहासिक एवं दर्शनीय मंदिर है जो पर्वत उपत्यकाओं के मध्य एक मनोरम स्थल है। यहाँ प्रतिष्ठित अर्बुदा देवी आबू की अधिष्ठात्री देवी के रूप में पूज्य है और इसे 'अधर देवी' भी कहा जाता है।
कुँवारी कन्या का मंदिर- देलवाड़ा के दक्षिण में वृक्षों एवं लताओं से आच्छादित प्रकृति के शांति निकेतन में कुँवारी कन्या का मंदिर है। इस मंदिर में कुँवारी कन्या की मूर्ति के सामने ही एक रसिया बालम की मूर्ति है।
ट्रेवर ताल- देलवाड़ा से ही कोई दो मील दूर उत्तर में राजस्थान सरकार के वन विभाग का वन्य जीव संरक्षण स्थल है, जहाँ प्राकृतिक संपदा से युक्त एक ट्रेवर ताल है। यहाँ वन्य जीव निर्भय होकर विचरते हैं। यह स्थल पर्वतों के मध्यस्थ होने के कारण रमणीक औऱ लुभावना है। ताल पर एक विश्राम गृह भी है। यह स्थान भ्रमणार्थियों के लिए आनंददायक औऱ पिकनिक की अच्छी जगह है।
गुरु शिखर- अरावली पर्वत शृंखला की यह सर्वोच्च चोटी आबू पर्वत की बस्तियों से कोई नौ मील की दूरी पर है। शिखर के लिए ओरिया नामक स्थान से लगभग तीन मील का पैदल मार्ग है। इस सर्वोच्च शिखर पर भगवान विष्णु के अवतार गुरु दत्तात्रेय एवं शिव का मंदिर है, जिसमें बड़े आकार का कलात्मक घंटा भी है। यहाँ दूसरी चोटी पर दत्तात्रेय की माता का मंदिर भी दर्शनीय है जहाँ १४वीं शताब्दी के धर्म सुधारक स्वामी रामानंद के चरण स्थापित हैं।http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2009/mt.abu/delwada.jpg
देलवाड़ा के जैन मंदिर- अनेक आकर्षणों के केंद्र आबू पर्वत में देलवाड़ा जैन मंदिर सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। यहाँ आर्थिक पुरातत्व, शिल्प, वास्तुकला एवं पौराणिकता का ऐसा समन्वित रूप है, जिसे घंटों ही और निर्निमेष देखने पर भी आँखें नहीं थकतीं। यहाँ कला चातुर्य के साथ आध्यात्मिक आनंदानुभूतियों और आत्मानंद का जो सुख मन को मिलता है, वह दुनिया की माया से काफी हटकर है। देलवाड़ा के जैन मंदिर के कारण आबू पर्वत की ख्याति विश्व स्तर पर रही है। अन्य प्रमुख दर्शनीय स्थलों में नक्की झील एवं फव्वारा, सूर्यास्त स्थल, टॉड रॉक, श्री रघुनाथ मंदिर, धूलेश्वर मंदिर, नीलकंठ महादेव, अर्बुदा देवी का मंदिर, दूध बावड़ी, विमलसहि मंदिर, कुँवारी कन्या का मंदिर, भीम गुफ़ा, अचलगढ़ दुर्ग एवं मंदिर और गुरु शिखर आदि हैं।
अन्य दर्शनीय स्थल- आबू पर्वत के अन्य महत्वपूर्ण, दर्शनीय एवं ऐतिहासिक स्थलों में अचलेश्वर महादेव का मंदिर, नंदाकिनी कुंड, भर्तृहरि गुफा, अचलागढ़ एवं उसके जैन मंदिर लखचौरासी, राजभवन, संग्रहालय, पर्यटक विश्राम गृह, मधुमक्खी पालन केंद्र और राजाओं की कोठियाँ आदि हैं।
अच्छा है

jai_bhardwaj
07-07-2013, 06:35 PM
जानकारी से भरा हुआ मनोरंजक सूत्र है बन्धु ... आभार।

VARSHNEY.009
12-07-2013, 05:15 PM
सिक्किम के सफर पर
गर्मियाँ पूरे शबाब पर हैं। आखिर क्यों न हों, मई का महिना जो ठहरा। ऐसे में भी सूर्य देव अपना रौद्र रूप हम सबको ना दिखा पाएँ तो फिर लोग उन्हें देवताओं की श्रेणी से ही हटा दें। ऐसे दिनों में पिछले महीने तमाम ऊनी कपड़ों के बावजूद हम सर्दी से ठिठुरते रहे। हमारा पहला पड़ाव गंगतोक था।

सिलीगुड़ी से ३० किलोमीटर दूर निकलते ही सड़क के दोनों ओर का परिदृश्य बदलने लगता है, पहले आती है हरे भरे वृक्षों की कतारें खत्म होने लगती हैं और ऊपर की चढ़ाई शुरू हो जाती है। सिलीगुड़ी से निकलते ही तिस्ता हमारे साथ हो ली। तिस्ता की हरी भरी घाटी और घुमावदार रास्तों में चलते–चलते शाम हो गई और नदी के किनारे थोड़ी देर के लिए हम टहलने निकले। नीचे नदी की हल्की धारा थी तो दूर पहाड़ पर छोटे–छोटे घरों से निकलती उजले धुएँ की लकीर।

गंगतोक से अभी भी हम ६० किलोमीटर की दूरी पर थे। करीब ७ .३० बजे ऊँचाई पर बसे शहर की जगमगाहट दूर से दिखने लगी। गंगतोक पहुँचते ही हमने होटल में अपना सामान रखा। दिन भर की घुमावदार यात्रा ने पेट में हलचल मचा रखी थी। सो अपनी क्षुधा शांत करने के लिए करीब ९ बजे मुख्य बाज़ार की ओर निकले। पर ये क्या एम .जी .रोड पर तो पूरी तरह सन्नाटा छाया हुआ था। दुकानें तो बंद थीं ही, कोई रेस्तरां भी खुला नहीं दिख रहा था! पेट में उछल रहे चूहों ने इत्ती जल्दी सो जाने वाले इस शहर को मन ही मन लानत भेजी। मुझे मसूरी की याद आई जहाँ रात १० बजे के बाद भी बाज़ार में अच्छी खासी रौनक हुआ करती थी। खैर भगवान ने सुन ली और हमें एक बंगाली भोजनालय खुला मिला। भोजन यहाँ अन्य पर्वतीय स्थलों की तुलना में सस्ता था।

वह अनोखा स्वागत
http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2006/sikkim/gangtok.jpgसुबह हुई और निकल पड़े कैमरे को ले कर। होटल के ठीक बाहर जैसे ही सड़क पर कदम रखा सामने का दृश्य ऐसा था मानो कंचनजंघा की चोटियाँ बाहें खोल हमारा स्वागत कर रही हों। सुबह का गंगतोक शाम से भी ज़्यादा प्यारा था। पहाड़ों की सबसे बड़ी खासियत यही है कि यहाँ मौसम बदलते देर नहीं लगती। सुबह की कंचनजंघा १० बजे तक तक बादलों में विलुप्त हो चुकी थी। कुछ ही देर बाद हम गंगतोक के ताशी विउ प्वाइंट (समुद्र तल से ५५०० फुट) पर थे। यहाँ से दो मुख्य रास्ते कटते हैं। एक पूरब की तरफ जो नाथू ला जाता है और दूसरा उत्तर में सिक्किम की ओर, जिधर हमें जाना था।

हमने उत्तरी सिक्किम राजमार्ग की राह पकड़ी। बाप रे एक ओर खाई तो दूसरी ओर भू–स्खलन से जगह–जगह कटी–फटी सड़कें! बस एक चट्टान खिसकाने की देरी है कि सारी यात्रा का बेड़ा गर्क! और अगर इंद्र का कोप हो तो ऐसी बारिश करा दें कि चट्टान आगे खिसक भी रही हो तो भी गाड़ी की विंडस्क्रीन पर कुछ ना दिखाई दे! खैर हम लोग कबी और फेनसांग तक सड़क के हालात देख मन ही मन राम–राम जपते गए! फेनसांग के पास एक जलप्रपात मिला। यहाँ से मंगन तक का मार्ग सुगम था। इन रास्तों की विशेषता ये है कि एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ जाने के लिए पहले आपको एकदम नीचे उतरना पड़ेगा और फिर चढ़ाई चढ़नी पड़ेगी।

मंगन पहुँचते पहुँचते ये प्रक्रिया हमने कई बार दोहराई। ऐसे में तिस्ता कभी बिलकुल करीब आ जाती तो कभी पहाड़ के शिखर से एक खूबसूरत लकीर की तरह बहती दिखती। शाम के ४:३० बजे तक हम चुंगथांग में थे। लाचेन और लाचुंग की तरफ से आती जल संधियाँ यहीं मिलकर तिस्ता को जन्म देती हैं। थोड़ा विश्राम करने के लिए हम सब गाड़ी से नीचे उतरे। चुंगथांग की हसीन वादियों और चाय की चुस्कियों के साथ सफ़र की थकान जाती रही। शाम ढलने लगी थी और मौसम का मिजाज़ भी कुछ बदलता–सा दिख रहा था।

हम शीघ्र ही लाचेन के लिए निकल पड़े जो हमारा अगला रात्रि पड़ाव था। लाचेन तक के रास्ते में रिहाइशी इलाके कम ही दिखे। रास्ता सुनसान था, बीच–बीच में एक–आध गाड़ियों की आवाजाही हमें ये विश्वास दिला जाती थी कि सही मार्ग पर ही जा रहे हैं। लाचेन के करीब १० कि .मी .पहले मौसम बदल चुका था। घाटी पूरी तरह गाढ़ी सफेद धुंध की गिरफ्त में थी और वाहन की खिड़की से आती हल्की फुहारें मन को शीतल कर रहीं थीं। ६ बजने से कुछ समय पहले हम लगभग ९,००० फुट ऊँचाई पर स्थित इस गाँव में प्रवेश कर चुके थे। पर हम तो मन ही मन रोमांचित हो रहे थे उस अगली सुबह के इंतज़ार में जो शायद हमें उस नीले आकाश के और पास ले जा सके। लाचेन की वह रात हमने एक छोटे से लॉज में गुज़ारी।

VARSHNEY.009
12-07-2013, 05:15 PM
दुर्गम रास्ते

http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2006/sikkim/durgam_raste.jpgलाचेन से आगे का रास्ता फिर थोड़ा पथरीला था। सड़क कटी–कटी सी थीं। कहीं–कहीं पहाड़ के ऊपरी हिस्से में भू–स्खलन होने की वजह से उसके ठीक नीचे के जंगल बिलकुल साफ़ हो गए थे। आगे की आबादी ना के बराबर थी। बीच–बीच में याकों का समूह ज़रूर दृष्टिगोचर हो जाता था। चढ़ाई के साथ–साथ पहाड़ों पर आक्सीजन कम होती जाती है। १४,००० फीट की ऊँचाई पर बसे थांगू में रुकना था, ताकि हम कम आक्सीज़न वाले वातावरण में अभ्यस्त हो सकें। चौड़ी पत्ती वाले पेड़ों की जगह अब नुकीली पत्ती वाले पेड़ो ने ले ली थी। पर ये क्या? थांगू पहुँचते–पहुँचते तो ये भी गायब होने लगे थे। रह गए थे, तो बस छोटे–छोटे झाड़ीनुमा पौधे।

थांगू तक धूप नदारद थी। बादल के पुलिंदे अपनी मन मर्जी से इधर उधर तैर रहे थे। पर पहाड़ों के सफ़र में धूप के साथ नीला आकाश भी साथ हो तो क्या कहने! पहले तो कुछ देर धूप–छांव का खेल चलता रहा। पर आख़िरकार हमारी यह ख्वाहिश नीली छतरी वाले ने जल्द ही पूरी की। नीला आसमान, नंगे पहाड़ और बर्फ आच्छादित चोटियाँ मिलकर ऐसा मंज़र प्रस्तुत कर रहे थे जैसे हम किसी दूसरी ही दुनिया में हों। १५,००० फीट की ऊँचाई पर हमें विक्टोरिया पठारी बटालियन का चेक पोस्ट मिला। दूर–दूर तक ना कोई परिंदा दिखाई पड़ता था और ना कोई वनस्पति! सच पूछिए तो इस बर्फीले पठारी रेगिस्तान में कुछ हो–हवा जाए तो सेना ही एकमात्र सहारा थी। थोड़ी दूर और बढ़े तो अचानक एक बर्फीला पहाड़ हमारे सामने आ गया! गुनगुनी धूप, गहरा नीला गगन और इतने पास इस पहाड़ को देख के गाड़ी से बाहर निकलने की इच्छा मन में कुलबुलाने लगी। पर उस इच्छा को फलीभूत करने पर हमारी जो हालत हुई उसकी एक अलग कहानी है। वैसे भी हम गुरूडांगमार के बेहद करीब थे! यही तो था इस यात्रा का पहला लक्ष्य!

गुरूडांगमार झील दरअसल गुरूडांगमार एक झील का नाम है जो समुद्र तल से करीब १७,३०० फुट पर है। ज़िंदगी में कितनी ही बार ऐसा होता है कि जो सामने स्पष्ट दिखता है उसका असली रंग पास जा के पता चलता है। अब इतनी बढ़िया धूप, स्वच्छ नीले आकाश को देख किसका मन बाहर विचरण करने को नहीं करता! सो निकल पड़े हम सब गाड़ी के बाहर। पर ये क्या बाहर प्रकृति का एक सेनापति तांडव मचा रहा था, सबके कदम बाहर पड़ते ही लड़खड़ा गए, बच्चे रोने लगे, कैमरे को गले में लटकाकर मैं दस्ताने और मफलर लाने दौड़ा। जी हाँ, ये कहर वो मदमस्त हवा बरसा रही थी जिसकी तीव्रता को १६००० फीट की ठंड, पैनी धार प्रदान कर रही थी। हवा का ये घमंड जायज़ भी था। दूर–दूर तक उस पठारी समतल मैदान पर उसे चुनौती देने वाला कोई नहीं था, फिर वो अपने इस खुले साम्राज्य में भला क्यों ना इतराए।

http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2006/sikkim/gurudongmarlake.jpgखैर जल्दी–जल्दी हम सब ने कुछ तसवीरें खिंचवाई। इसके बाद नीचे उतरने की जुर्रत किसी ने नहीं की और हम गुरूडांगमार पहुँच कर ही अपनी सीट से खिसके। धार्मिक रूप से ये झील बौद्ध और सिख अनुयायियों के लिए बेहद मायने रखती है। कहते हैं कि गुरूनानक के चरण कमल इस झील पर पड़े थे जब वे तिब्बत की यात्रा पर थे। यह भी कहा जाता है कि उनके जल स्पर्श की वजह से झील का वह हिस्सा जाड़े में भी नहीं जमता। गनीमत थी कि १७,३०० फीट की ऊँचाई पर हवा तेज़ नहीं थी। झील तक पहुँच तो गए थे पर इतनी चढ़ाई बहुतों के सर में दर्द पैदा करने के लिए काफी थी। मन ही मन इस बात का उत्साह भी था कि सकुशल इस ऊँचाई पर पहुँच गए। झील का दृश्य बेहद मनमोहक था। दूर–दूर तक फैला नीला जल और पाश्र्व में बर्फ से लदी हुई श्वेत चोटियाँ गाहे–बगाहे आते जाते बादलों के झुंड से गुफ्तगू करती दिखाई पड़ रहीं थीं। दूर कोने में झील का एक हिस्सा जमा दिख रहा था। नज़दीक से देखने की इच्छा हुई, तो चल पड़े नीचे की ओर। बर्फ की परत वहाँ ज़्यादा मोटी नहीं थी। हमने देखा कि एक ओर की बर्फ तो पिघल कर टूटती जा रही है! झील के दूसरी ओर सुनहरे पत्थरों के पीछे गहरा नीला आकाश एक और खूबसूरत परिदृश्य उपस्थित कर रहा था।

वापसी की यात्रा लंबी थी इसलिए झील के किनारे दो घंटे बिताने के बाद हम वापस चल पडे.। नीचे उतरे थे तो ऊपर भी चढ़ना था पर इस बार ऊपर की ओर रखा हर कदम ज़्यादा ही भारी महसूस हो रहा था। सीढ़ी चढ़ तो गए पर तुरंत फिर गाड़ी तक जाने की हिम्मत नहीं हुई। कुछ देर विश्राम के बाद सुस्त कदमों से गाड़ी तक पहुँचे तो अचानक याद आया कि एक दवा खानी तो भूल ही गए हैं। पानी के घूंट के साथ हाथ और पैर और फिर शरीर की ताकत जाती सी लगी। कुछ ही पलों में मैं सीट पर औंधे मुंह लेटा था। शरीर में आक्सीजन की कमी कब हो जाए इसका ज़रा भी पूर्वाभास नहीं होता। खैर मेरी ये अवस्था सिर्फ २ मिनटों तक रही और फिर सब सामान्य हो गया।

वापसी में हमें चोपटा घाटी होते हुए लाचुंग तक जाना था। सुबह से ७० कि.मी. की यात्रा कर ही चुके थे। अब १२० कि .मी .की दुर्गम यात्रा के बारे में सोचकर ही मन में थकावट हो रही थी। इस पूरी यात्रा में दोपहर के बाद शायद ही कहीं धूप के दर्शन हुए थे। हवा ने फिर ज़ोर पकड़ लिया था। सामने दिख रहे एक पर्वत पर बारिश के बादलों ने अपना डेरा जमा लिया था।

VARSHNEY.009
12-07-2013, 05:15 PM
चोपटा और चुंगथांग

http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2006/sikkim/chungthang.jpgहम थांगू के पास चोपटा घाटी में थोड़ी देर के लिए रुके। दो विशाल पर्वतों के बीच की इस घाटी में एक पतली नदी बहती है जो जाड़ों के दिनों में पूरी जम जाती है। लाचेन पहुँचते–पहुँचते बारिश शुरू हो चुकी थी। जैसे–जैसे रोशनी कम हो रही थी वर्षा उतना ही प्रचंड रूप धारण करती जा रही थी। गज़ब का नज़ारा था...

थोड़ी–थोड़ी दूर पर उफनते जलप्रपात, गाड़ी की विंड स्क्रीन से टकराती बारिश की मोटी–मोटी बूँदे, सड़क की काली लकीर के अगल बगल चहलकदमी करते बादल और मन मोहती हरियाली ...सफ़र के कुछ अदभुत दृश्यों में से ये भी एक था। करीब ६ बजे तक हम चुंगथांग पहुँच चुके थे। यही से लाचुंग के लिए रास्ता कटता है।

चुंगथांग से लाचुंग का सफ़र डरे सहमे बीता। पूरे रास्ते चढ़ाई ही चढ़ाई थी। एक ओर बढ़ता हुआ अँधेरा तो दूसरी ओर बारिश की वजह से पैदा हुई सफेद धुंध! इन परिस्थितियों में भी हमारा कुशल चालक ६०–७० कि.मी. प्रति घंटे की रफ्तार से अपनी महिंद्रा हाँक रहा था। रास्ते का हर एक यू–टर्न हमारे हृदय की धुकधुकी बढ़ाता जा रहा था। निगाहें मील के हर पत्थर पर अटकती थीं, आतुरता से इस बात की प्रतीक्षा करते हुए कि कब लाचुंग के नाम के साथ शून्य की संख्या दिख जाए। ७:३० बजे लाचुंग पहुँच कर हमने चैन की साँस ली। बाहर होती मूसलाधार बारिश अगले दिन के हमारे कार्यक्रम पर कुठाराघात करती प्रतीत हो रही थी। थकान इतनी ज़्यादा थी कि चुपचाप रजाई के अंदर दुबक लिए।

लाचुंग की वह सुबह अनोखी थी। दूर–दूर तक बारिश का नामोनिशान नहीं था। गहरे नीचे आकाश के नीचे लाचुंग का पहाड़ अपना सीना ताने खड़ा था। पहाड़ के बीचों–बीच पतले झरने की सफेद लकीर, चट्टानों के इस विशाल जाल के सामने बौनी प्रतीत हो रही थी। पर असली नज़ारा तो दूसरी ओर था। पर्वतों और सूरज के बीच की ऐसी आँखमिचौनी मैंने पहले कभी नहीं देखी थी। पहाड़ के ठीक सामने का हिस्सा जिधर हमारा होटल था अभी भी अंधकार में डूबा था। दूर दूसरे शिखर के पास एक छोटा सा पेड़ किरणों की प्रतीक्षा में अपनी बाहें फैलाए खड़ा था। उधर बादलों की चादर को खिसकाकर सूर्य किरणें अपना मार्ग प्रशस्त कर रहीं थीं। थोड़ी ही देर में ये किरणें कंचनजंघा की बर्फ से लदी चोटियों को यों प्रकाशमान करने लगीं मानो भगवान ने पहाड़ के उस छोर पर बड़ी सी सर्चलाइट जला रखी हो। शायद वर्षों तक यह दृश्य मेरे स्मृतिपटल पर अंकित रहे। अपने सफ़र के इस यादगार लमहे को मैं अपने कैमरे में कैद कर सका ये मेरी खुशकिस्मती है। कंचनजंघा को कंचनजंघा क्यों कहते हैं यह इस फ़ोटो को देख कर ही जाना जा सकता है। (फोटो बिलकुल नीचे)

यूमथांग घाटी

http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2006/sikkim/flowers.jpgअगला पड़ाव यूमथांग घाटी था। ये घाटी लॉचुंग से करीब २५ कि .मी .दूर है और यहाँ के लोग इसे फूलों की घाटी के नाम से भी बुलाते हैं। दरअसल यह घाटी रोडोडेन्ड्रोन्स की २४ अलग–अलग प्रजातियों के लिए मशहूर है। सुबह की धूप का आनंद लेते हुए हम यूमथांग की ओर चल पड़े। सारा रास्ता बैंगनी रंग के इन छोटे–छोटे फूलों से अटा पड़ा था। करीब डेढ़ घंटे के सफ़र के बाद हम यूमथांग में थे। रास्ते में ही हमें रोडोडेन्ड्रोन्स के जंगल दिखने शुरू हो गए थे। मार्च अप्रैल से इनके पौधों में कलियाँ लगने लगती हैं। पर पूरी तरह से ये खिलते हैं मई के महीने में, जब पूरी घाटी इनके लाल और गुलाबी रंगों से रंग जाती है।

चूँकि यह घाटी १२,००० फीट की ऊँचाई पर स्थित है यहाँ गुरूडांगमार की तरह हरियाली की कोई कमी नहीं थी। कमी थी तो बस आसमान की उस नीली छत की जो सुबह में दिखने के बाद यहाँ पहुँचते ही गायब हो गई थी। घाटी के बीच पत्थरों पे उछलती कूदती नदी बह रही थी। जाड़े में ये पत्थर बर्फ के अंदर दब जाते हैं। इन गोल मटोल पत्थरों के ढेर के साथ–साथ हम सब काफ़ी देर तक चलते रहे। किसी ने कहा रात में बारिश हुई है तो साथ में बर्फ़ भी गिरी होगी। फिर क्या था नदी का पाट छोड़ हम किनारे पर दिख रहे वृक्षों की झुरमुटों की ओर चल पड़े। पेड़ों के बीच हमें बर्फ गिरी दिख ही गई। पास में ही सल्फर युक्त पानी का सोता था पर वहाँ तक पहुँचने के लिए इस पहाड़ी नदी यानि यहाँ की भाषा में कहें तो लाचुंग चू को पार करना था। वहीं से इस ठुमकती चू को कैमरे से छू लिया। गर्म पानी का स्पर्श कर हम वापस लाचुंग लौट चले।

भोजन के बाद वापस गंगतोक की राह पकड़नी थी। गंगतोक के रास्ते में तिस्ता घाटी की अंतिम झलक पाने के लिए हम गाड़ी से उतरे। काफी ऊँचाई से ली गई इस तसवीर में घुमावदार रास्तों के जाल के साथ नीचे बहती हुई तिस्ता को आप देख सकते हैं। तिस्ता से ये इस सफ़र की आखिरी मुलाकात तो नहीं पर उसकी अंतिम तसवीर ये ज़रूर थी। सांझ ढलते–ढलते हम गंगतोक में कदम रख चुके थे।अपना अगला दिन नाम था सिक्किम के सबसे लोकप्रिय पड़ाव के लिए जहाँ प्रकृति अपने एक अलग रूप में हमारी प्रतीक्षा कर रही थी।

VARSHNEY.009
12-07-2013, 05:16 PM
छान्गू झील, नाथू ला और बाबा मंदिर

http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2006/sikkim/chhangujheel.jpgअगली सुबह पता चला कि भारी बारिश और चट्टानों के खिसकने की वजह से नाथू–ला का रास्ता बंद हो गया है। मन ही मन मायूस हुए कि इतने पास आकर भी भारत–चीन सीमा को देखने से वंचित रह जाएँगे पर बारिश ने जहाँ नाथू–ला जाने में बाधा उत्पन्न कर दी थी तो वहीं ये भी सुनिश्चित कर दिया था कि हमें सिक्किम की बर्फीली वादियाँ के पहली बार दर्शन हो ही जाएँगे। इसी खुशी को मन में संजोए हुए हम छान्गू (या त्सेंग अब इसका उच्चारण मेरे वश के बाहर है, वैसे भूतिया भाषा में त्सेंग का मतलब झील का उदगम स्थल है) की ओर चल पड़े। ३७८० मीटर यानि करीब १२००० फीट की ऊँचाई पर स्थित छान्गू झील गंगतोक से मात्र ४० कि .मी .की दूरी पर है।

गंगतोक से निकलते ही हरे भरे देवदार के जंगलों ने हमारा स्वागत किया। हर बार की तरह धूप में वही निखार था। कम दूरी का एक मतलब ये भी था की रास्ते भर ज़बरदस्त चढ़ाई थी। ३० कि.मी. पार करने के बाद रास्ते के दोनों ओर बर्फ के ढेर दिखने लगे। मैदानों में रहने वाले हम जैसे लोगों के लिए बर्फ की चादर में लिपटे इन पर्वतों को इतने करीब से देख पाना अपने आप में एक सुखद अनुभूति थी पर ये तो अभी शुरुआत थी। छान्गू झील के पास हमें आगे की बर्फ का मुकाबला करने के लिए घुटनों तक लंबे जूतों और दस्तानों से लैस होना पड़ा। दरअसल हमें बाबा हरभजन सिंह मंदिर तक जाना था जो कि नाथू–ला और जेलेप–ला के बीच स्थित है। ये मंदिर २३ वीं पंजाब रेजीमेंट के एक जवान की याद में बनाया है जो डयूटी के दौरान इन्हीं वादियों में गुम हो गया था। बाबा मंदिर की भी अपनी एक रोचक कहानी है जिसकी चर्चा हाल–फिलहाल में हमारे मीडिया ने भी की थी। छान्गू से १० कि .मी .दूर हम नाथू ला के इस प्रवेश द्वार की बगल से गुज़रे।

हमारे गाइड ने इशारा किया की सामने के पहाड़ के उस ओर चीन का इलाका है। मन ही मन कल्पना की कि रेड आर्मी कैसी दिखती होगी वैसे भी इसके सिवाय कोई चारा भी तो ना था। थोड़ी ही देर में हम बाबा मंदिर के पास थे। सैलानियों की ज़बरदस्त भीड़ वहाँ पहले से ही मौजूद थी। मंदिर के चारों ओर श्वेत रंग में डूबी बर्फ ही बर्फ थी। उफ्फ क्या रंग था प्रकृति का, ज़मीं पर बर्फ की दूधिया चादर और ऊपर आकाश की अदभुत नीलिमा, बस जी अपने आप को इसमें। विलीन कर देने को चाहता था। इन अनमोल लमहों को कैमरे में कैद कर बर्फ के बिलकुल करीब जा पहुँचे।

http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2006/sikkim/snowmountain.jpgहमने घंटे भर जी भर के बर्फ पर उछल कूद मचाई। ऊँचाई तक गिरते पड़ते चढ़े और फिर फिसले। अब फिसलने से बर्फ भी पिघली। कपड़ो की कई तहों के अंदर होने की वजह से हम इस बात से अनजान बने रहे कि पिघलती बर्फ धीरे–धीरे अंदर रास्ता बना रही है। जैसे ही इस बर्फ ने कपड़ों की अंतिम तह को पार किया, हमें वस्तुस्थिति का ज्ञान हुआ और हम वापस अपनी गाड़ी की ओर लपके। कुछ देर तक हमारी क्या हालत रही वो आप समझ ही गए होंगे। खैर वापसी में भोजन के लिए छान्गू में पुनः रुके। भोजन में यहाँ के लोकप्रिय आहार मोमो का स्वाद चखा। भोजन कर के बाहर निकले तो देखा कि ये सुसज्जित याक अपने साथ तसवीर लेने के लिए पलकें बिछाए हमारी प्रतीक्षा कर रहा था। अब हमें भी इस याक का दिल दुखाना अच्छा नहीं लगा सो खड़े हो गए गलबहियाँ कर। नतीजा आपके सामने है। अगला दिन गंगतोक में बिताया हमारा आखरी दिन था।

सिक्किम प्रवास के आखिरी दिन हमारे पास दिन के ३ बजे तक ही घूमने का वक्त था। तो सबने सोचा क्यों ना गंगतोक में ही चहलकदमी की जाए। सुबह जलपान करने के बाद सीधे जा पहुँचे फूलों की प्रदर्शनी देखने। वहाँ पता चला कि इतने छोटे से राज्य में भी ऑर्किड की ५०० से ज़्यादा प्रजातियाँ पाई जाती हैं जिसमें से कई तो बेहद दुर्लभ किस्म ही हैं। इन फूलों की एक झलक हमें चकित करने के लिए काफी थी। भांति–भांति के रंग और रूप लिए इन फूलों से नज़रें हटाने को जी नहीं चाहता था। ऐसा खूबसूरत रंग संयोजन विधाता के अलावा भला कौन कर सकता है।

फूलों की दीर्घा से निकल हमने रोपवे की राह पकड़ी। ऊँचाई से दिखते गंगतोक की खूबसूरती और बढ़ गई थी। हरे भरे पहाड़ सीढ़ीनुमा खेत सर्पाकार सड़कें और उन पर चलती चौकोर पीले डिब्बों जैसी दिखती टैक्सियाँ। रोपवे से आगे बढ़े तो सिक्किम विधानसभा भी नज़र आई। रोपवे से उतरने के बाद बौद्ध स्तूप की ओर जाना था। स्तूप की चढ़ाई चढ़ते चढ़ते हम पसीने से नहा गए। इस स्तूप के चारों ओर १०८ पूजा चक्र हैं जिन्हे बौद्ध भक्त मंत्रोच्चार के साथ घुमाते हैं।

http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2006/sikkim/tista.jpgवापसी का सफ़र ३ की बजाय ४ बजे शुरू हुआ। गंगतोक से सिलीगुड़ी का सफ़र चार घंटे मे पूरा होता है। इस बार हमारा ड्राइवर बातूनी ज़्यादा था और घाघ भी। टाटा सूमो में सिक्किम में १० से ज़्यादा लोगों को बैठाने की इजाजत नहीं है पर ये जनाब १२ लोगों को उस में बैठाने पर आमादा थे। खैर हमारे सतत विरोध की वजह से ये संख्या १२ से ज़्यादा नहीं बढ़ पाई। सिक्किम में कायदा कानून चलता है और लोग बनाए गए नियमों का सम्मान करते हैं पर जैसे ही सिक्किम की सीमा खत्म होती है कायदे–कानून धरे के धरे रह जाते हैं। बंगाल आते ही ड्राइवर की खुशी देखते ही बनती थी। पहले तो सवारियों की संख्या १० से १२ की और फिर एक जगह रोक कर सूमो के ऊपर लोगों को बैठाने लगा पर इस बार सब यात्रियों ने मिलकर ऐसी झाड़ पिलाई की वो मन मार के चुप हो गया।

उत्तरी बंगाल में घुसते ही चाँद निकल आया था। पहाड़ियों के बीच से छन कर आती उसकी रोशनी तिस्ता नदी को प्रकाशमान कर रही थी। वैसे भी रात में होने वाली बारिश की वजह से चाँद हमसे लाचेन और लाचुंग दोनों जगह नज़रों से ओझल ही रहा था, जिसका मुझे बेहद मलाल था। शायद यही वजह थी कि चाँदनी रात की इस खूबसूरती को देख मन में एतबार साजिद की ये पंक्तियाँ याद आ रही थीं–
वहाँ घर में कौन है मुंतज़िर कि हो फिक्र दर सवार की
बड़ी मुख्तसर सी ये रात है, इसे चाँदनी में गुज़ार दो
कोई बात करनी है चाँद से, किसी शाखसार की ओट में
मुझे रास्ते में यहीं कहीं किसी कुंज–ए–गुल में उतार दो

चंद दिनों की मधुर स्मृतियों को लिए हमारा समूह वापस लौट रहा था कुछ अविस्मरणीय छवियों के साथ। उनमें एक छवि इस बच्चे की भी थी जिसे हमने चुन्गथांग में खेलते देखा था! सिक्किम के सफ़र का पटाक्षेप करने से पहले तहे दिल से सलाम हमारे ट्रेवेल एजेन्ट प्रधान को जिसने बंदगोभी की सब्जी खिला–खिला कर ना केवल १५,००० फीट पर भी हमारे खून में गर्मी बनाए रखी बल्कि रास्ते भर अपने हँसोड़ स्वभाव से माहौल को भी हल्का–फुल्का बनाए रखा।
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VARSHNEY.009
12-07-2013, 05:31 PM
इतिहास प्रसिद्ध इस्तांबूल -पर्यटक नैसर्गिक एवं प्राकृतिक सौन्दर्य की अनुपम छटा बिखेरती सूर्यरश्मियाँ, बफार्नी पहाडियाँ, समुद्रीतट व झीलों के नयनाभिराम परिदृश्यों से पर्यटको को लुभाता, दो महाद्वीपों के आलिंगन में बंधा राष्ट्र टर्की। भारत से यूरोप जाते समय टर्की रास्ते में पडता है, बिना किसी अतिरिक्त किराये के आप इसकी राजधानी अंकारा एवं प्रसिद्ध नगर इस्तंबूल के भमण की सुखद अनुभूति कर सकते है।

बोसफोरस की संकरी जल प्रणाली दोनो महाद्वीपो के मध्य सीमारेखा के रूप मे विद्यमान है, किन्तु टर्की का अधिकांश भू भाग एशिया महाद्वीप के अन्र्तगत पडता है। बोसफोरस के एक तरफ यूरोपियन इस्तंबूल का पुराना शहर है जो पर्यटको के आर्कषण का केन्द्र है। इस्तंबूल का दूसरा भाग नया शहर है, जो पाश्चात्य तरीके का व्यवस्थित उपनगर है। बोसफोरस के ऊपर दो आकर्षक पुल हैं। फातिह सुल्तान मुहम्मद पुल तथा बोस्फोरस पुल। बोस्फोरस पुल विश्व का सबसे बडा झूले पर आधारित पुल है। बोसफोरस की यह खूबसूरत नहर पर्यटकों के लिये आकर्षण का केन्द्र है। सूर्यास्त के सुंदर चित्रों के लिये प्रसिद्ध दृश्यों वाली इस नहर पर दिन में अनेक प्रकार की नावों द्वारा नौकाविहार की व्यवस्था है किन्तु एकांत में शांत पानी को देखते रहने का सुख भी कुछ कम नहीं।

http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2002/turkey/bosphores1.jpgप्राकृतिक सौन्दर्य के आनंद को दुगना करने के लिये बोसफोरस के तट पर स्थित रेस्त्राओं मे हर प्रकार का भोजन मिलता है और इनकी साज सज्जा व चहल पहल देखते ही बनती है। शाकाहार के प्रेमियों के लिये थोड़ी कठिनाई ज़रूर होती है पर भूख मिटाने के लिये कुछ न कुछ मिल ही जाता है।

सूर्यास्त के समय बोसफोरस के जल पर झिलमिलाती लालिमा और दूसरे तट पर स्थित इमारतों की प्रतिछाया का मोहक दृश्य देखकर लगता है कि शताब्दी पूर्व इन्हीं दृश्यों के लिये इस विलक्षण स्थान पर इमारते बनायी गयी होंगी।

यहाँ के ढाई हजार वर्ष पुराने स्मारक टर्की के सुदूर गौरवमयी अतीत के साक्षी देते हैं।संसार के प्रसिद्ध ऐताहासिक नगरों में इस्तंबूल की गणना होती है। समय के साथ साथ इस्तंबूल का नामकरण होता रहा, परन्तु आज भी इसे यूरोप और एशिया के संगम के रूप में जाना जाता है। विभिन्न प्राकृतिक परिदृश्यों के कारण यहाँ एक दिन में ही आप तीनों ऋतुओं का आनन्द उठा सकते हैं, जहाँ एक ओर अप्रैल की तीक्ष्ण गर्मी वहीं बैगनी पुष्पों से आच्छादित सम्पूर्ण नगर मनोहारी लगता है।

http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2002/turkey/haqiqasophia1.jpg12लाख लोगो के जनसंकुल और कोलाहल ने इस शहर को चित्ताकर्षक बना दिया है। वास्तव में इस्तंबूल की मिश्रित संस्कृति, राजप्रासाद, संग्रहालय, चर्च, विशाल मस्जिद, बाजार और प्राकृतिक दृश्यों का सौन्दर्य अनन्त प्रतीत होता है। नगर के बीच स्थित विशालकाय स्टेडिायम "हिप्पोड्रोम" इस्तांबूल का एक जीवंत परिसर है। यह विशाल मनोरंजन का क्षेत्र आज घुडदौड, रथदौड, सर्कस, प्रर्दशनी एवं सभी प्रकार के मनोरंजन का केन्द्र बन गया है।
बस से जाते समय अया सोफिया का बाहरी हिस्सा बहुत आर्कषक नही लगा लेकिन अन्दर पहुँचने पर विस्मयकारी लगता है। इसकी विलक्षणता देखकर स्वमेव ही लगता है कि बाइजन्टाइन स्थापत्य कला कितनी विकसित थी। इस चर्च का 105 फुट घेरे वाले गुम्बद की गणना विश्व के सबसे बडे एवं खूबसूरत गुम्बदों में की जाती थी, जब तक रोम के सेन्ट बेसिलका का निमार्ण नही हुआ था। कानस्टेनटाइन के द्वारा बनाये गये चर्च को 1453 में ओटोमन ने मस्जिद के रूप में परिवर्तित करा दिया था। बाद में टर्की गणतन्त्र के संस्थापक अतातुर्क मुस्तफा कमाल ने इसे संग्रहालय के रूप मे प्रतिष्ठित कर दिया।

http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2002/turkey/haram1.jpgआज यह पैलेस इस्तांबूल के महत्वपूर्ण संग्रहालयों में से एक है। 700,000 वर्ग मीटर तक फैला हुआ यह वृहदाकार किला 1459 में मुहम्मद द्वितीय ने अपने रहने के लिये बनवाया था। इस किले में तीन विशाल चौक और एक हरम शामिल है। हरम बाद में 16वीं शताब्दी में बनवाया गया। 1839 तक यह भवन राजमहल के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा। इसके बाद तत्कालीन बादशाह मुहम्मद मसीत ने अपने लिये बोसफोरस के किनारे नये महल का निर्माण करवाया और यह महल संग्रहालय के रूप में परिवर्तित कर दिया गया।
समुद्र तट पर थोडी उँचाई पर एक बहुत बडे घेरे के अन्दर निर्मित टोपकपी पैलेस तक अया सोफिया से पहुँचने में 5 मिनट लगते हैं ,जहाँ इस्तंबूल का अत्यन्त ऐताहासिक परिदृश्य आपका स्वागत करता है। सभी ओटोमन सुल्तानों ने इसे अपनी स्थापत्य कल्पनाओं के अनुरूप अलंकृति करते रहे हैं।यहाँ पर संग्रहीत शाही वस्तुओं को देखने से टर्की के ओटोमन सुल्तानों की विलासता एवं वैभव की स्पष्ट झलक मिलती है। टर्की ऐतिहासिक इमारतों और संग्रहालयों का देश है। केवल इस्तांबूल में ही ग्यारह से अधिक संग्रहालय हैं। पुरातात्विक संग्रहालय में ग्रीस और रोमन सभ्यताओं तथा ट्राय और एफेस्स द्वारा निर्मित दुर्लभ व प्राचीन वस्तुओ का संग्रह हैं जो उनके अतीत की गरिमा का परिचय देता प्रतीत होता है।

सुल्तान अहमद स्क्वायर इस्तंबूल के ऐताहासिक,सांस्कृतिक एवं पयर््ाटकीय गतिविधियो का केन्द्र है। ओटोमन शाही वंश के दीप बुझने के बावजूद शाही राजप्रसाद आज भी अपनी गरिमा के दीप से प्रज्वालित हो रहा है। तुर्की और इस्लामिक कलाकृतियों के संग्रहालय को भी यहीं स्थापित कर दिया गया है, जहाँ विभिन्न हस्तलिपियों की पुस्तकें, एवं अन्य दुर्लभ वस्तुओं को संग्रहित किया गया है।

http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2002/turkey/bluemosque1.jpgअतीत के भाव मे डूबे हुए बढते कदम ‘ब्लू मास्क’ यानी नीली मस्जिद के प्रागंण पहुँच गये, जिसे इजनिक क्षेत्र से लाये गये नीले रंग के टाइल्स से सजाया गया है। यहाँ के फर्श को अदभुत मोजे.क से सजाया गया है जो दस्तकारी की अनुपम कृति प्रतीत होती है।

विदेशों से लाये गये खूबसूरत क्रिस्टल लैम्प प्रकाश के लिए प्रयोग में लाये जाते हैं। इस मस्जिद की एक और विशेषता है इसके कोणो पर बनी हुयी 6 मीनारे। टर्की में ऐसी कोई अन्य मस्जिद नही है। इसके अवलोकन से प्रतीत होता है कि इसका अद्वितीय अलंकरण मानव जाति के चमत्कारों का अनूठा उदाहरण है। यदि आप अपनी प्रथम यात्रा में ही सब कुछ देख लेना चाहते है तो कुछ विशेष स्थानो को अनदेखा नही किया जा सकता। ट्रेजरी चैम्बर उनमे से एक है जहाँ शाही वंश के सिंहासन, हीरे जवाहरात के विशिष्ठ संग्रह तथा रत्न जडित अस्त्र शस्त्र एवं शाही वंश के वस्त्रो को देखकर उनके वैभव पूर्ण जीवन की कल्पना की जा सकती है। विश्व का सबसे बडा हीरा यहाँ देखा जा सकता है। इसी प्रागंण मे संचालित रेस्त्रा में सुस्वादु भोजन का आनन्द लेते हुये बोसफोरस का मनमोहक नजारा किया जा सकता है।

इस्तंबूल जाडे में अत्याधिक ठंडा एवं गर्मी में काफी गर्म रहता है। स्थानीय लोगो के अनुसार वसन्त या बरसात का मौसम अत्यन्त लुभावना रहता है। यहाँ के स्थानीय लोग सप्ताहांत मे अपनी छुट्टियाँ मनाने मारमरा समुद्री द्वीप पर जाते है जहाँ पहुचने में लगभग 45 मिनट लगते है।ग्रीनबरसा शहर के बगीचों, पार्को और हरे भरे मैदानों की निराली प्राकृतिक छटा के कारण यहां पर्यटको का जमावडा बना रहता है। यह नगर फलों और सिल्क व्यवसाय के लिए चर्चित है।

टर्की में दो प्रमुख बाज़ार हैं। खुला बाज़ार जिसे मिस्र बाजार कहते हैं और दूसरा लंबे बारामदों और गुंबदों से सुसज्जित ग्रैड बाजार। इन दोनों बाज़ारों का सौंदर्य देखने लायक है। ग्रैंड बाज़ार के लंबे बरामदों की रंगीन नक्काशीदार छतों का http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2002/turkey/grand_bazar.jpgसौन्दर्य देखते ही बनता है और मिस्र बज़ार में मिठाइयों और मसालों की रंगीन दूकानों का आकर्षण अनुपम है। टर्की में प्रतिवर्ष लगभग तीन लाख पर्यटको का सैलाब उमडता रहता ह। यहाँ ज्यादातर पर्यटक पश्चिमी राष्ट्रों से आते क्योंकि यहाँ उनको अपनी मुद्रा की वास्तविक कीमत प्राप्त हो जाती है।
खरीद फरोख्त अपनी उच्च प्राथमिकता बनाए हुए है। शोर मचाते पर्यटकों के झुंड को मिट्टी के बर्तन, चित्रो के पोस्टकार्ड, कपडे एवं अन्य वस्तुए खरीदते देखा जा सकता है। टर्की के बने हुए कम्बल और कालीन काफी प्रसिद्ध है। सस्ते क्रिस्टल, रंगीन कांच की वस्तुएं और नीले टाइल के लिये टर्की सारी दुनियाँ में जाना जाता है।

अभी टर्की में देखने को बहुत कुछ शेष था किन्तु समय सीमा को ध्यान में रखते हुए मेरे कदम स्वमेव ही वापस मुड गये मानस पटल पर अकित टर्की की सुखद स्मृति के पल आखो के सामने नाच रहे थे।

VARSHNEY.009
12-07-2013, 05:33 PM
एक स्मृति-यात्रा महोबा होकर खजुराहो की
ग्रीष्मावकाश, ईस्वी सन् १९८०

`बारह बरस लौं कूकुर जीवे,
सोलह बरस लौं जिये सियार
अठारह बरस लौं छत्री जीवे,
आगे जीवन को धिक्कार ।`

डिंगल काव्य का यह बहुश्रुत दोहा मेरी साँसों में ऊभ-चूभ कर रहा है कानपुर से महोबा जाती बस के शोर के साथ-साथ।धुर बचपन में सुनी लोककाव्य आल्हा की अनूठी स्वर-लहरियाँ भी गूँज-अनुगूँज बन कर साँसों में व्याप रहीं हैं। महोबा जैसे-जैसे नज़दीक आ रहा है, `आल्ह-खंड' के नायक-द्वय आल्हा और ऊदल के शौर्य के प्रसंग भी जैसे साकार होते जा रहे हैं। बुंदेलखंड की भूमि अप्रतिम शौर्य की भूमि रही है। उसमें भी झाँसी और महोबा का अपना अलग ही स्थान है।

उत्सुक-उत्कंठित हूँ मैं। बस की खिड़की से मैं देख रहा हूँ धरती की उन अनगढ़ ऊँची-नीची होतीं आदिम आकृतियों को, जिनमें पग-पग पर बिछी हैं अनन्त शौर्यगाथाओं की अनगिनत स्मृतियाँ। भारत के सामूहिक अवचेतन का जो हिस्सा मुझे मिला है, उनमें ये कथाएँ भी समोई हुई हैं।

महोबा आए हुए तीन दिन हो चुके हैं। भारत में मुस्लिम शासन के तुरन्त पूर्व के इतिहास के एक खंडावशेष को अवलोकने, उसके खंडहर हो चुके अस्तित्व को परखने का जो मौका मुझे मिला है, उससे मैं अभिभूत और असंतुष्ट, दोनों हूँ। राजपूत इतिहास की ढलती हुई प्रभा का साक्षी रहा है यह नगर भी। `पृथ्वीराजरासो' के महानायक पृथ्वीराज चौहान की राज्य-लिप्सा एवं उसके शौर्य का, उससे उपजे जन-संहार का भी। दिल्ली के रायपिथौरा के खंडहरों से मैं उस उत्कट राजपूत महानायक की शौर्य-गाथा सुन चुका था। आल्हा-ऊदल की इस वीरभूमि ने उसके महानायकत्व को चुनौती दी थी। महोबा का किला तो साधारण-सा ही, किंतु उसे विशिष्टता प्रदान कर रहीं थीं मेरी कल्पना में उभरतीं कृपाण एवं कंकण-किंकिण की मिली-जुली ध्वनियाँ और शौर्य तथा सौन्दर्य की जीवंत होतीं आकृतियाँ। कभी आल्हा-ऊदल इसी भूमि पर विचरे होंगे। इन्हीं छोटी-छोटी बीहड़ पहाड़ियों में उनके घोड़ों की टापों की, उनकी युद्धोन्मुख ललकारों की, उनके शस्त्रों-शिरस्त्राणों-कवचों की झंकारों की गूँज भरी होगी। आज सब कुछ शांत है। मन विचरण कर रहा है और मैं उदास हो गया हूँ मनुष्य की महत्वाकांक्षाओं के बारे में सोचकर। हमारा यह जो आज है, यह भी तो कभी अतीत हो जाएगा इसी तरह।

महोबा एक छोटा-सा शहर है। मेरे पैतृक-स्थान लखनऊ के मुकाबले में बहुत ही छोटा। छोटा-सा ही है हाट-बाज़ार, जिसका प्रमुख आकर्षण है पान की मंडी। हाँ, महोबा आज पान के उत्पादन का एक महत्वपूर्ण केन्द्र है।पान का एक खेत मैं भी देख आया हूँ छोटे भाई महेन्द्र के साथ। महेन्द्र यहाँ पी०डब्ल्यू०डी० में इंजीनियर है। उसी के पास हम आये हैं, हम यानी मैं, पत्नी सरला और हमारे दोनों बच्चे, अपर्णा और राहुल। महेन्द्र की पत्नी मिलनसार, हंसमुख और स्नेहिल है, एक कुशल गृहिणी भी। उनके दो छोटी-छोटी प्यारी-सी बेटियाँ हैं- हमारे लिए यहाँ आने का एक विशेष आकर्षण। ग्रीष्मावकाश में हम सुदूर हरियाणा के हिसार शहर से पितृगृह लखनऊ हर वर्ष आते हैं। महेन्द्र और उसका परिवार अबकी बार हमसे मिलने वहाँ नहीं आ सके। इसीलिए हम आ गये। साल भर में एक बार अपने सभी आत्मीयों-प्रियजनों से मिलकर उनके स्नेह की ऊर्जा संजोने का यह सुयोग ही हमें अगले ग्रीष्मावकाश तक सक्रिय रखता है।

http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2011/khajuraho/khajuraho1.jpgपिछले तीन दिनों में मैंने पूरा महोबा छान मारा है। बाज़ार तो सिर्फ एक दिन सभी के साथ गया था। पान की मंडी देखकर मैं चकित रह गया। पूरा एक महाहाट। हाँ, यहाँ का पान पूरे उत्तर भारत में जाता है। नवीं शताब्दी के चंदेल राजा राहिला द्वारा निर्मित सूर्यमंदिर अनूठा लगा। भारतभूमि पर कुछ गिने-चुने ही मंदिर हैं सूर्य के। सूर्य को एकमात्र जाग्रत देवता कहा गया है शास्त्रों में। इसीलिए संभवत: उनके प्रतिमा-विग्रह के पूजन का चलन कम ही रहा है। महोबा नगर की जल-आपू़र्ति हेतु जिन कीरत सागर, विजय सागर, मदन सागर नाम के तीन महातालों का निर्माण चंदेल-प्रतिहार राजाओं ने करवाया था, उन्हें भी देख आये हैं हम। जल-संरक्षण एवं जल-आपूर्ति की यह व्यवस्था अपने समय में यानी ग्यारहवीं-बारहवीं सदी में सचमुच अनूठी-अद्भुत रही होगी। हमारे धर्मग्रन्थों में ताल-कुएँ-बावड़ी बनवाने को एक महापुण्य माना गया है। अंग्रेजी शासन में और उसके बाद इन पारंपरिक जल-संरक्षण प्रविधियों के रख-रखाव की ओर समुचित ध्यान नहीं दिया गया। इसी से पानी की भयंकर समस्या आज पैदा हो रही है। महोबा की गोरख पहाड़ी भी ऐतिहासिक है। कहते हैं नाथपंथ के बाबा गोरखनाथ ने यहाँ कुछ काल तक वास किया था और यह एक सिद्धभूमि है। आज भी यहाँ गुरू गोरखनाथ के अनुयाइयों का हर वर्ष जमावड़ा होता है।

सुबह घूमने जाने की मेरी आदत है। यहाँ भी सुबह तड़के ही निकल जाता हूँ मैं आसपास की पहाड़ियों पर चढ़ने-उतरने। धरती की उतार-चढ़ाव वाली ऊबड़-खाबड़ संरचना मुझे सदैव ही लुभाती रही है। महोबा के पहाड़ काफी टूटे-फूटे हैं। चढ़ते-उतरते तमाम छोटे-छोटे पत्थर बिखरे दीखते हैं। एक दिन एक अज़ीब बात हुई। मेरे दोनों बच्चे, महेन्द्र की बड़ी बेटी शालू भी साथ थे। अचानक मेरी नज़र एक पत्थर पर पड़ी। छोटा-सा बेडौल तिकोना पत्थर। उसके उभरे-हुए तल पर मुझे एक आकृति दिख गई थी। बच्चों को मैंने वह पत्थर दिखाया। उन्हें उसमें कुछ भी नहीं दिखा। घर पर सरला, महेन्द्र और पुष्पा को भी उसमें कुछ नहीं दिखा। मैंने शालू के कलर-बॉक्स से काला रंग लेकर उसमें छिपी आकृति को उभार दिया। अब सभी को वह दिखने लगी। बाद में मैंने उसे शीर्षक दिया- `कंकाल का वीणा-वादन'। हाँ, महोबा के कंकाल हुए इतिहास का अनन्त वीणा-वादन उसमें अंकित था। हर अतीत की गूँज ऐसी ही तो होती है। सुरीली किंतु मृत्यु की झंकृति से भरी हुई। वह पत्थर आज भी मेरे ड्राइंग रूम में टंगा इतिहास की उस यात्रा की सुखद स्मृतियों से मुझे जोड़ता रहता है। जीवन की जिज्ञासा और मृत्यु के अतीन्द्रिय रहस्य से भी।

महोबा से बीस किलोमीटर की दूरी पर स्थित है चरखारी, जिसे `बुदेलखंड का कश्मीर' कहा जाता है। यह एक खूबसूरत रियासत नगर है। इसे बुंदेलखंड के महाराजा छत्रसाल ने मदनशाह और वंशियाशाह नामके दो भाईयों को उनकी सेवाओं से प्रसन्न होकर जागीर के रूप में दिया था। इसका प्राचीन नाम मांडवपुरी था। कहते हैं मांडव ऋषि का आश्रम यहीं पर था। इसे मिनी-वृंदावन की मान्यता भी प्राप्त है।यहाँ भगवान कृष्ण के कई मंदिर हैं, जिनमें गुमान बिहारी मंदिर और गोवर्धन मंदिर की विशेष ख्याति है। कार्तिक मास में यहाँ गोवर्धन मेला का आयोजन होता है, जिसमें आसपास के क्षेत्र से बड़ी संख्या में भक्तजन एकत्रित होते हैं। यहाँ का कालीमाता का मंदिर भी दर्शनीय है। चरखारी एक रमणीय स्थान है। रतन सागर, कोठी ताल और टोला ताल के साथ लगभग ६०३ फीट की ऊँचाई वाले इस स्थान की शोभा देखते ही बनती है। मुलिया पहाड़ी पर स्थित चरखारी का किला, जिसे मंगलगढ़ कहा जाता है, लगभग ढाई सौ वर्ष पूर्व बनवाया गया था। काफी ऊँचा है यह किला। इसमें प्रवेश करते ही मुझे रोमांच हो आया। इतिहास और काल के व्यतीत का आतंक मेरे मन-प्राण पर छा गया। हम कल तीसरे पहर यहाँ के पी०डब्ल्यू०डी० के रेस्टहाउस में आ गए थे। आज पूरा दिन चरखारी में बिताकर भी मन की संतुष्टि नहीं हो पाई। पर लौटना तो था ही। कल सोमवार है और महेन्द्र को ऑफिस जाना है।

VARSHNEY.009
12-07-2013, 05:34 PM
गतांक से आगे
http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2011/khajuraho/khajuraho2.jpgमहोबा उत्तर प्रदेश के दक्षिण सीमांत पर स्थित है। उसके ठीक दक्षिण में उससे बिल्कुल सटा हुआ है मध्य प्रदेश का छतरपुर। छतरपुर जिले में ही स्थित हैं विश्वविख्यात खजुराहो के मंदिर। महोबा से केवल चव्वन किलोमीटर की दूरी पर स्थित है कामतीर्थ खजुराहो। मनुष्य के रतिभाव का यहाँ जिस रूप में उदात्तीकरण किया गया है, वह भारतीय मनीषा के धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष के पुरूषार्थ चतुष्टय को ही परिभाषित-व्याख्यायित करता है। बाहर की दीवारों पर मनुष्य की वासना का अंकन और भीतर देवालय में मनुष्य की दैवी आस्था का आस्तिक रूपायन- यही तो है इस कामतीर्थ का विरोधाभासपरक दार्शनिक रूपक। मनुष्य की देह और उसकी आत्मा का रूपक भी तो यही है। मैं खजुराहो के कंदारिया महादेव मंदिर के परिसर में खड़ा अपने मन के इसी विरोधाभास से जूझ रहा हूँ। देह की वासनाएँ मुझे परिसीमित करती हैं। वहीं भीतर निरन्तर जाग्रत देवभाव मुझे अनन्त-असीम भी बनाता है। हाँ, मै भी तो हूँ देह-प्राण से एक ऐसा ही कामतीर्थ।

मंदिर का एक शिलालेख बताता है कि कलियुग के सत्ताइस सौ वर्ष बीतते-बीतते सीमांत प्रदेश पर म्लेच्छों के बार-बार आक्रमण के कारण राजपूतों की बड़गुज्जर शाखा पूर्व की ओर पलायन कर गई और मध्यभारत में उन्होंने अपने राज्य स्थापित किए। वर्तमान राजस्थान के धुन्धार क्षेत्र से लेकर आज के बुंदेलखंड तक उनके राज्य का विस्तार था। वे महापराक्रमी शासक महादेव शिव के उपासक थे। उन्हीं शासकों द्वारा नवीं से ग्यारहवीं शताब्दी के बीच खजुराहो के मंदिरों का निर्माण कराया गया। कहते हैं कि मूल स्वरूप में हिन्दू एवं जैन मतावलंबियों द्वारा निर्माण कराए गए मंदिरों की कुल संख्या पच्चासी थी, जिन्हें आठ द्वारों का एक विशाल परकोटा घेरता था और उसके हर द्वार पर दो-दो सुनहरे खजूर वृक्ष लगे हुए थे। आज न तो वह परकोटा है और न ही उतनी संख्या में मंदिर ही। मुस्लिम आक्रमणकारियों की धर्मान्धता का शिकार हुआ यह विशाल मंदिर-परिसर भी। अधिकांश मंदिर विनष्ट हो गए। आज जो बीस-पच्चीस मंदिर लगभग बीस वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में बिखरे पड़े हैंं, उनमें से कुछ ही संपूर्ण हैं।

मंदिर तीन भौगोलिक इकाइयों में बंटे हैं- पश्चिम,पूर्व और दक्षिण। ये मंदिर अधिकांशत: बलुहा पत्थर के बने हैं। खजुराहो के मंदिरों को आम तौर पर कामसूत्र मंदिरों की संज्ञा दी जाती है, किंतु वस्तुत: केवल दस प्रतिशत शिल्पाकृतियाँ ही रतिक्रीड़ा से संबंधित हैं। न ही वात्स्यायन के `कामसूत्र `में वर्णित आसनों अथवा वात्स्यायन की काम-संबंधी मान्यताओं और उनके कामदर्शन से इनका कोई संबंध है।

हाँ, खजुराहो का प्रमुख एवं सबसे आकर्षक मंदिर है कंदारिया महादेव मंदिर। आकार में तो यह सबसे विशाल है ही, स्थापत्य एवं शिल्प की दृष्टि से भी सबसे भव्य है। समृद्ध हिन्दू निर्माण-कला एवं बारीक शिल्पकारी का अद्भुत नमूना प्रस्तुत करता है यह भव्य मंदिर। बाहरी दीवारों की सतह का एक-एक इंच हिस्सा शिल्पाकृतियों से ढंका पड़ा है। सुचित्रित तोरण-द्वार पर नाना प्रकार के देवी-देवताओं, संगीत-वादकों, आलिंगन-बद्ध युग्म आकृतियों, युद्ध एवं नृत्य, सृजन-संरक्षण-संहार, सद्-असद्, राग-विराग की विविध मुद्राओं का विशद अंकन हुआ है। उपासना-कक्ष के मंडपों की सुंदर चित्रमयता मन मोह लेती है। सुरबालाओं की कमनीय देह-वल्लरी की हर भंगिमा का मनोरम अंकन हुआ है इस भव्य शिवालय में। उनके अंगांे-प्रत्यंगों पर सजे एक-एक आभूषण की स्पष्ट आकृति शिल्पकला के कौशल को दर्शाती है। मुख्य वेदी के प्रवेश-द्वार पर पवित्र नदी-देवियों गंगा और यमुना की शिल्पाकृतियाँ मंत्रमुग्ध कर देती हैं। गर्भगृह में संगमरमर का शिवलिंग स्थापित है। गर्भगृह की परिक्रमा-भित्तियों को भी मनोरम शिल्पाकृतियों से सजाया गया है। नीचे की पंक्ति में आठों दिशाओं के संरक्षक देवताओं का अंकन किया गया है। मंदिर की बाहरी दीवारों पर चारों दिशाओं में देवी-देवताओं, देवदूतों, यक्ष-गंधर्वों, अप्सराओं, किन्नरों आदि का तीन वलय वाले आवरण-पटकों के रूप में चित्रण किया गया है। वस्तुत: यह मंदिर हिन्दू शिल्पकला का एक पूरा संग्रहालय है। प्रसिद्ध अंग्रेजी लेखक ऑल्डस हक्सले ने ताज़महल को शिल्प की दृष्टि से बंजर कहा है। शिल्प-समृद्धि की दृष्टि से उसने राजस्थान के मंदिरों का विशेष उल्लेख किया है। उसने खजुराहो की इस महान कलाकृति को नहीं देखा होगा, वरना निश्चित ही वह इसका भी ज़िक्र करता। इस मंदिर को देखते हुए मैं बार-बार अभिभूत होता रहा, आत्मस्थ होता रहा। सरला भी मंत्रमुग्ध निहार रहीं थीं इस शिल्प-समृद्धि को।

http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2011/khajuraho/khajuraho3.jpgविशालता और शिल्प-वैभव की दृष्टि से दूसरा उल्लेखनीय मंदिर है लक्ष्मण मंदिर। इसे रामचन्द्र मंदिर या चतुर्भुज मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। इसके चारों कोनों पर बने उपमंदिर आज भी सुरक्षित हैं। इस मंदिर का मुख्य आकर्षण इसका सुसज्जित प्रवेश-द्वार है। द्वार के शीर्ष पर भगवती महालक्ष्मी की प्रतिमा है। उसके बाएँ स्तम्भ पर प्रजापति ब्रह्मा एवं दाहिने पक्ष पर शिव के संहारक स्वरूप की मूर्तियाँ हैं। गर्भगृह में चतुर्भुज और त्रिमुखी सृष्टि के पालनकर्ता भगवान विष्णु की लगभग चार फुट ऊँची प्रतिमा अलंकृत तोरण के मध्य स्थापित है। मूर्ति का बीच का मुख तो मानुषी है, किन्तु पार्श्ववर्ती शीश नृसिंह और वाराह अवतारों के हैं। मंदिर के भीतरी और बाहरी भित्तियों पर दशावतारों, अप्सराओं, योद्धाओं आदि की आकृतियों के साथ-साथ प्रेमालाप, आखेट, नृत्य, मल्लयुद्ध एवं अन्य क्रीड़ाओं का सुन्दर अंकन किया गया है। मंडप में एक शिलालेख है, जिसके अनुसार मंदिर का निर्माण नृप यशोवर्मन ने करवाया था। इसमें स्थापित भगवान विष्णु की प्रतिमा उसे कन्नौज के राजा महिपाल से प्राप्त हुई थी। यशोवर्मन का एक नाम लक्षवर्मन भी था। इसी से इस मंदिर का नाम लक्ष्मण मंदिर पड़ा।

तीसरा उल्लेखनीय हिन्दू मंदिर है चित्रगुप्त मंदिर। यह मंदिर बाहर से चौकोर, किन्तु अंदर से अष्टकोण है और उस अष्टकोण को भी क्रमश: घटते हुए गोलाकारों का आकार दिया गया है- अष्टदल कमल के समान। इसमें सात घोडों के रथ पर आसीन पांच फीट ऊँची सूर्यदेव की भव्य प्रतिमा स्थापित है। वेदी की दक्षिण दिशा में एक ताखे में स्थापित है भगवान विष्णु की एक अनूठी मूर्ति-ग्यारहमुखी इस विग्रह का बीच का मुख भगवान विष्णु का स्वयं का है और शेष मुख उनके दशावतारों के हैं।यह मूर्ति वास्तुशिल्प का एक अद्भुत नमूना है। बाहर चबूतरे पर हस्तियुद्धों, उत्सव एवं आखेट दृष्यों का अंकन मन मोह लेता है।

खजुराहो का सबसे प्राचीन मंदिर है चौसठ योगिनी मंदिर। कनिंघम के अनुसार यह ईस्वी सन् आठ सौ से भी पहले का बना हुआ है। कभी पूरे भारत में चौसठ योगिनी मंदिरों की संख्या भी चौसठ थी, किंतु अब केवल चार मंदिर ही बचे हैं, जिनमें से दो हैं उड़ीसा में, एक है जबलपुर में और एक यह खजुराहो में है। स्थापत्य की दृष्टि से यह मंदिर सामान्य हिन्दू मंदिरों से बिल्कुल अलग है। पहली बात तो यह कि इस मंदिर में कोई मंडप या छत नहीं है। संभवत: यह इस कारण है क्योंकि योगनियाँ गगनचारी होती हैं और अपनी इच्छा से कहीं भी उड़कर जा सकती हैं। इसकी दूसरी विशेषता है आम हिन्दू मंदिरों से अलग इसका उत्तरपूर्व से दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर उन्मुख होना। इसकी तीसरी ख़ास बात यह है कि खजुराहो का यह एकमात्र मंदिर है, जो पूरी तरह अनगढ़ गे्रनाइट पत्थरों का बना है और चौथी विशेषता यह कि अन्य मंदिरों से अलग इस मंदिर-परिसर में कोई भी मिथुन शिल्पाकृति नहीं है। मंदिर का अनगढ़ सादा परिवेश अपनी गुह्य रहस्यमयता से आतंकित करता है। ऊँचे चबूतरे पर १०३ फीट लंबे और ६० फीट चौड़े विस्तृत प्रांगण में कभी पूरे पैंसठ कक्ष थे, किंतु अब केवल पैंतीस ही बचे हैं। दक्षिण-पश्चिमी दीवार के मध्य स्थित है मुख्य कक्ष, जिसके पास एक विवर है। उसी से प्रवेश होता है मंदिर के चारों ओर बने गुप्त गलियारों में। उन गलियारों के रहस्यमय वातावरण में प्रवेश करने का हमारा साहस नहीं हुआ। कोठरियों के शिखर कोणस्तूप के आकार के हैं और उनके निचले भाग में त्रिभुजाकार चैत्य-खिड़कियाँ हैं। बीच की बड़ी कोठरी में महिषासुरमर्दिनी की प्रतिमा है और उसके दोनों बगल की कोठरियों में चतुर्भुजा ब्रह्माणी एवं महेश्वरी की मूर्तियाँ हैं। मंदिर के परिसर से बाहर निकलकर भी कुछ देर तक मंदिर की रहस्यमयता का आतंक मेरे मन पर बना रहा। मेरे मन में तांत्रिक साधना से जुड़े तमाम संदर्भ उभरते रहे। भैरवी या देवी महाकाली की उपासना नवीं से तेरहवीं शताब्दी तक भारत में अपने पूरे उत्कर्ष पर रही। संथाल जनजातियों में आज भी इसके अवशेष वनदेवी की गुह्य उपासना-क्रियाओं में मिलते हैं। http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2011/khajuraho/khajuraho2.jpgबौद्धधर्म की वज्रयान शाखा में भगवान बुद्ध की मातुश्री महामाया की उपासना में भी इसी प्रकार की गुह्य पूजाक्रियाओं का समावेश हुआ।मध्यकाल में प्रचारित नाथ पंथ में भी गुरू मत्स्येन्द्रनाथ ने असम के कामरूप प्रदेश में जाकर इसी प्रकार की कोई साधना की होगी। कौल संप्रदाय के प्रभाव से वाममार्गी अर्थात् योगिनी-डाकिनी-शाकिनी के साथ-साथ पंचमकारों यानी मत्स्य-मद्य-मांस-मुद्रा-मैथुन के माध्यम से सिद्धि प्राप्त करने की कई क्रियाएँ शक्ति-उपासना में शामिल हो गईं। संभवत: यही विकृति इसके पतन का कारण भी बनी। महाकाली या भद्रकाली की उपासना में आज भी एक गुह्य रहस्यमयता का पुट विद्यमान है। भारत से इतर देशों में भी मातृशक्ति की पूजा की गुह्य क्रियाओं का चलन रहा है। प्राचीन मिस्र में मुख्य देवी आइसिस की पूजा में कुछ तांत्रिक साधना जैसी क्रियाएँ की जातीं थीं। प्राचीन यूनान की मातृदेवी हेरा की उपासना भी गुह्य रूप में ही की जाती थी। उसी का प्रवेश आरम्भिक ईसाई धर्म में भी हुआ। उसमें एक अलग पंथ बना, जो ईसा और मैरी मैग्डलीन को पति-पत्नी के रूप में पूजता था। किंतु ईसा के प्रमुख शिष्यों के प्रबल विरोध के कारण वह संप्रदाय शीघ्र ही पहले गुप्त हुआ और फिर लुप्त हो गया। उसमें भी कुछ गुह्य क्रियाओं का समावेश था। इन्हीं सब पर विचार करता हुआ मैं अन्य मंदिरों की ओर बढ़ चला।

जगदम्बी देवी का मंदिर वर्तमान में कालीमंदिर के रूप में जाना जाता है, पर मूल रूप में यह विष्णु मंदिर रहा होगा, क्योंकि इसके वेदीगृह के द्वार पर विष्णु की मूर्ति खुदी हुई है एवं इसमें जो मूर्ति स्थापित है, वह मकरासन पर विराजमान है, जो यह दर्शाता है कि वह देवी गंगा की मूर्ति है। इसके महामंडप एवं अर्धमंडप की छतें देखने योग्य हैं। बाहरी सजावट कंदारिया मंदिर के समान ही दर्शनीय है। वेदी के दक्षिण में स्थित यमराज की मूर्ति भावाभिव्यक्ति की दृष्टि से बड़ी ही चित्ताकर्षक है। पश्चिम में अष्टाशिर शिव की प्रतिमा भी ध्यान आकर्षित करती है।

दूल्हादेव या नीलकंठ मंदिर खजुराहो के सर्वोत्तम मंदिरों में गिना जाता है। अन्य मंदिरों के समान इसमें पांच कोष्ठ तो हैं, किन्तु इसमें प्रदक्षिणा-पथ नहीं है। इसकी महामण्डप की छत अन्य मंदिरों की छतों से अलग ढंग से बनी है। एक-दूसरे पर आरोपित प्रस्तर-खंडों के उत्तरोत्तर छोटे होते वृत्तों वाली यह छत, सच मंे, स्थापत्य की दृष्टि से अनूठी एवं अद्भुत है। नारी के अंग-प्रत्यंगों के सौन्दर्य का अंकन इसमें भी अत्यन्त समृद्ध है। इसमें अंकित विद्याधरों के हाव-भाव, उनकी भवों और बरौनियों की भंगिमा अत्यन्त आकर्षक है।

कुछ अन्य महत्वपूर्ण मंदिर हैं मातंगेश्वर मंदिर, पार्वती मंदिर, विश्वनाथ एवं नन्दी मंदिर, वराह मंदिर तथा जतकारी या चतुर्भुज मंदिर। मातंगेश्वर मंदिर एक अलंकरण-विहीन वर्गाकार मंदिर है, जिसमें पूजा-अर्चना आज भी चलती है। इसमें स्थापित महाकाय स्फटिक शिवलिंग को परम पूजनीय माना जाता है। पार्वती मंदिर में स्थापित गौरी पार्वती की प्रतिमा गोह पर सवार दिखाई गई है। विश्वनाथ मंदिर में प्रजापति ब्रह्मा की एक अत्यन्त भव्य मूर्ति है। उसी चबूतरे पर उसके ठीक सामने शिव-वाहन नन्दी की एक विशाल प्रतिमा है। वराह मंदिर में भगवान वराह की एक भव्य महाकाय प्रतिमा है। जतकारी गांव में स्थित चतुर्भुज मंदिर में भगवान विष्णु की नौ फुट की विशाल मूर्ति के अतिरिक्त भगवान शिव की अर्धनारीश्वर मूर्ति एवं नृसिंह भगवान की शक्ति को रूपायित करती एक नारीसिंही मूर्ति है, जो इस मंदिर को विशिष्ट बनाती है। इनके अतिरिक्त हिन्दू मंदिर-शृंखला में हनुमान मंदिर, वामन मंदिर, ब्रह्मा मंदिर, जवेरी मंदिर और लाल गुआन महादेव मंदिर हैं।

जैन मंदिर समूह में पार्श्वनाथ मंदिर, आदिनाथ मंदिर, शांतिनाथ मंदिर एवं घंटाई मंदिर विशिष्ट हैं।

http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2011/khajuraho/khajuraho1.jpgपार्श्वनाथ मंदिर को पुरातत्त्ववेत्ताओं एवं कलामर्मज्ञों द्वारा खजुराहो के मंदिरों में सर्वश्रेष्ठ और सुन्दरतम माना गया है। किसी भी मंदिर के स्थापत्य में पांच अंगों को अनिवार्य माना जाता है अर्थात् अर्धमण्डप, महामण्डप,अन्तराल, प्रदक्षिणा एवं गर्भगृह। इस मंदिर के ये सभी अंग समृद्ध एवं सम्पन्न हैं। मंदिर के अंतरंग में प्रकाश की व्यवस्था करने के लिए झरोखों या मोखों के स्थान पर छोटे-छोटे छिद्रोंवाली प्रस्तर-जालियों का निर्माण किया गया है। इसमें प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी की आराध्य-देवी चक्रेश्वरी की अष्टभुजा प्रतिमा स्थापित है। मंदिर के बाहर और भीतर जो शिल्प उकेरे गए हैं, वे सभी बड़े कलापूर्ण एवं मनोरम हैं। जैन देव-प्रतिमाओं के अतिरिक्त इसमें हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियों की उपस्थिति उस युग की समन्वयवादी दृष्टि की साक्षी देती है। इसमें विविध रूपों, मुद्राओं एवं क्रियाकलापों में नारी-आकृतियों का विशद अंकन किया गया है। हम अपलक इन कलाकृतियों को निहारते रहे।बार-बार देखकर भी तृप्ति नहीं हो रही थी।़ मन तो यही कर रहा था कि वहीं समाधिस्थ हो जाएँ।

आदिनाथ मंदिर में कोई प्रदिक्षणा-पथ नहीं है। इसके बाहरी भाग पर तीन पंक्तियों में मूर्तियाँ अंकित है। ऊपर की पंक्ति में गंधर्व-किन्नर तथा विद्याधरों की आकृतियाँे तथा अन्य दो पंक्तियों में देवों, यक्षों-अप्सराओं एवं विभिन्न मिथुन-मुद्राओं का अंकन किया गया है। बीचवाली पंक्ति में कुलिकाएँ हैं, जिनमें सोलह देवियों की चतुर्भुज ललितासन मूर्तियाँ स्थापित हैं। इन अप्सरा-शिल्पों में अपने शिशु पर ममता से निहारती, उसे दुलराती एक मां की आकृति अत्यन्त स्वाभाविक बन पड़ी है। तोरण-द्वार के सबसे ऊपरी भाग में तीर्थंकर महावीर की मातुश्री के सोलह स्वप्न बड़े ही सुन्दर ढंग से उकेरे गये हैं।

घंटाई मंदिर में उच्च कोटि की शैल्पिक कला देखने को मिलती है। इसके स्तम्भों पर उकेरी घंटियों की बेलनुमा लड़ियाँ एवं वेणियाँ इतनी सुन्दर एवं सजीव हैं कि उन्हें देखते ही रहने का मन करता है। इस मंदिर में भी तीर्थंकर महावीर के गर्भावतरण के समय उनकी माता को दिखाई दिये सोलह स्वप्नों का अंकन किया गया है।

VARSHNEY.009
12-07-2013, 05:35 PM
गतांक से आगे
शांतिनाथ मंदिर प्राचीन जैन मंदिरों की खंडित शिल्प-सामग्री को उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में पुनर्संयोजित करके बनाया गया था। इसमें भगवान शांतिनाथ की बारह फुट ऊँची कायोत्सर्ग मुद्रा की अतिशय मनोज्ञ प्रतिमा है। मूर्ति के पृष्ठ पर संवत् १०८५ का एक पंक्ति का लेख तथा हिरण का चिह्न बना हुआ है। मंदिर के आँगन में बायीं दीवार पर तीर्थंकर पार्श्वनाथ के सेवक धरणेन्द्र और माता पद्मावती की अत्यन्त सुन्दर मूर्तियाँ बनी हुई हैं। किंवदंती है कि मुगल सम्राट औरंगजेब ने जब इस क्षेत्र की सर्वश्रेष्ठ भगवान शांतिनाथ की मूर्ति को तोड़ने के लिए ज्यों ही मूर्ति की कनिष्ठिका पर टांकी चलाई, उस स्थान से दूध की धार बह निकली और फिर तत्काल ही मधु-मक्खियों ने उसकी सेना पर आक्रमण कर दिया, जिससे घबराकर वह सेना सहित वहाँ से भाग खड़ा हुआ।

शाम होने लगी है और महोबा जाने के लिए आखिरी बस का समय भी होने लगा है। हमने जल्दी-जल्दी खजुराहो की शिल्पाकृतियों की कुछ अनुकृतियाँ बतौर स्मृतिचिह्न खरीद ली हैं और बस में आकर बैठ गए हैं। महोबा है तो केवल चव्वन किलोमीटर, पर यहाँ की बसें धीमी चलती हैं, कुछ सड़कों का भी हाल ठीक नहीं है। आते समय दो घंटे से ऊपर ही लग गए थे।
और इस प्रकार साक्षी हुए हम भारत के इस महान कामतीर्थ के। इसके माध्यम से हमने सभ्यता के आवरण से ढंके-मुँदे अपने आदिम स्वभाव का, उसमें छिपी अपनी आवरण-रहित वासनाओं का सीधा-सच्चा साक्षात्कार किया, उन्हें परखा-जाँचा और समझा; मनुष्य की ऊर्जा के मूल स्रोत को देखा; उस कामवृत्ति को महसूसा, जाना, जो देवत्व की भावभूमि बनाती है और जिससे समस्त मानुषी कलात्मकता का उद्भव होता है। हाँ, यही तो है मानुषी अवचेतना में युगों-युगों का समोया वह कामतीर्थ, जिसके हमने आज दर्शन किए हैं। लौटती यात्रा में मेरे मन में कविवर केदारनाथ अग्रवाल की प्रसिद्ध कविता `खजुराहो के मन्दिर' की ये पंक्तियाँ गूँज रही हैं - http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2011/khajuraho/mahoba.gif`चंदेलों की कला-प्रेम की देन देवताओं के मन्दिर बने हुए अब भी अनिंद्य जो खडे हुए हैं खजुराहो में याद दिलाते हैं हमको उस गए समय की जब पुरूषों ने उमड़-घुमड़ कर
रोमांचित होकर समुद्र-सा
कुच-कटाक्ष वैभव विलास की
कला-केलि की कामनियों को
बाहु-पाश में बांध लिया था
और भोग-संभोग सुरा का सरस पानकर
देश-काल को, जरा-मरण को भुला दिया था ।'

VARSHNEY.009
12-07-2013, 05:36 PM
कालिंजर बाँदा जनपद का ऐतिहासिक गौरव है। कहा जाता है कि यहाँ शंकर ने कालकूट विष पीकर शांति प्राप्त की। अनेक पौराणिक एवं ऐतिहासिक प्रसंग जुड़े हैं कालिंजर से। कालिंजर के दुर्ग ने देखे हैं अनेक युद्ध। अनेक आक्रमण झेले हैं उसने।

कालिंजर बाँदा जिले के दक्षिण पूर्व में बाँदा से पचपन किलो मीटर दूर है। बाँदा से बस द्वारा गिरवाँ होते हुए नरौनी और फिर कालिंजर पहुँचा जा सकता है। कालिंजर दुर्ग का प्रथम द्वार सिंह द्वार के नाम से पुकारा जाता है। दूसरा द्वार गणेश द्वार तथा तीसरा द्वार चंडी द्वार कहलाता है। चौथा बुद्धगढ़ द्वार (स्वर्गारोहण द्वार) है जिसके पास भैरवकुंड नामक सुंदर जलाशय है, जो गंधी कुंड नाम से प्रसिद्ध है। दुर्ग का पाचवाँ द्वार अत्यंत कलात्मक है जिसे हनुमान द्वार कहते हैं। यहाँ कलात्मक पत्थर की मूर्तियाँ और शिलालेख उपलब्ध हैं। इन शिलालेखों का संबंध चंदेल शासकों से है। जिनमें मुख्यतः कीर्ति वर्मन और मदन वर्मन मुख्य हैं। यहाँ श्रवण कुमार का चित्र भी देखने को मिलता है। छठा द्वार लाल द्वार है जिसके पश्चिम में हम्मीर कुंड है। चंदेल वंश की कला की प्रतिभा इस द्वार के समीप की दो मूर्तियों से भली भाँति व्यक्त हुई है। सातवाँ द्वार अंतिम द्वार है जिसे नेमि द्वार कहा जाता है। इसे महादेव द्वार भी कहते हैं।

http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2010/nilakanthatemple.jpgकालिंजर दुर्ग में नीलकंठ महादेव का प्राचीन मंदिर है। यह दुर्ग के पश्चिम कोने में स्थित है। नीलकंठ महादेव कालिंजर के अधिष्ठाता देवता हैं। नीलकंठ मंदिर जाने के लिए दो द्वारों से होकर जाना पड़ता है। यहाँ पर अनेक गुफ़ाएँ तथा मूर्तियाँ पर्वत को काट कर बनाई गई है। नीलकंठ मंदिर का मंडप चंदेल वास्तुशिल्प की अनुपम कृति है। मंदिर के प्रवेशद्वार पर चंदेल शासक परिमाद्रदेव द्वारा शिवस्तुति है। मंदिर के अंदर स्वयंभू लिंग स्थापित है। मंदिर के ऊपर पर्वत को काटकर दो जलकुंड बनाए गए हैं। जिन्हें स्वर्गारोहण कुंड कहते हैं। इसके नीचे पर्वत को काटकर बनाई गई कालभैरव की प्रतिमा है। इसके अतिरिक्त मंदिर परिसर में ही सैकड़ों मूर्तियाँ पर्वत को काट काट कर उत्कीर्ण की गई हैं।

दुर्ग के दक्षिण मध्य की ओर मृगधारा है। यहाँ पर पर्वत को तराश कर के दो कक्ष बनाए गए हैं। एक कक्ष में सप्तमृगों की मूर्तियाँ हैं यहाँ पर निरंतर जल बहता रहता है। यह स्थान पुराणों में वर्णित सप्त ऋषियों की कथा से समृद्ध माना जाता है। यहाँ पर गुप्त काल से मध्यकाल के अनेक तीर्थयात्री अभिलेख हैं। सबसे ज्यादा दुर्गम स्थान पर शिला के अंदर वह खोदकर बनाई भैरव व भैरवी की मूर्ति बहुत सुंदर तथा कलात्मक है।

कालिंजर दुर्ग के अंदर ही पाषाण द्वारा निर्मित एक शैय्या और तकिया है। इसे सीता सेज कहते हैं। यहाँ पर शैलोत्तीर्ण एक लघु कक्ष है। जन श्रुति के अनुसार इसे सीता का विश्राम स्थल कहा जाता है। यहाँ पर तीर्थ यात्रियों के आलेख हैं। एक जलकुंड है जो सीताकुंड कहलाता है। वृद्धक क्षेत्र में दो संयुक्त तालाब हैं। इसका जल चर्म रोगों के लिए लाभकारी कहा जाता है। ऐसी अनुश्रुति है कि यहाँ स्नान करने से कुष्टरोग दूर हो जाता है। चंदेल शासक कीर्ति वर्मन का कुष्ट रोग यहाँ पर स्नान करने से दूर हो गया है। कोटि तीर्थ अर्थात जहाँ पर सहस्रों तीर्थ एकाकार हों यहाँ के ध्वंसावशेष अनेक मंदिरों का आभास कराते हैं। वर्तमान में यहाँ पर एक तालाब तथा कुछ भवन हैं। http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2010/inside.jpg
यहाँ पर गुप्त काल से लेकर मध्य काल के अनेक अभिलेख विद्यमान हैं। शंखलिपि के तीन अभिलेख भी दर्शनीय हैं। बुंदेलवंश शासक अमानसिंह ने अपने रहने के लिए कालिंजर दुर्ग के कोटि तीर्थ तालाब के तट पर एक महल बनवाया था। यह बुंदेली स्थापत्य का अनुपम उदाहरण है। अब यह ध्वस्त अवस्था में है तथा यहाँ पर पुरातत्त्व विभाग द्वारा दुर्ग में बिखरी हुई मूर्तियों का संग्रहालय बना दिया गया है। यहाँ पर रखी मूर्तियाँ शिल्प कला की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। दुर्ग के प्रथम द्वार के पहले आकर्षक महल है जो सन १५८३ ईस्वी में अकबर द्वारा निर्मित किया गया था।

कालिंजर दुर्ग में पातालगंगा, भैरवकुंड, पांडुकुंड, सिद्ध की गुफ़ा, राम कटोरा, चरण पादुका, सुरसरि गंगा, बलखंडेश्वर, भड़चाचर आदि अन्य स्थल भी दर्शनीय हैं। कालिंजर दुर्ग में एक भव्य महल है। जिसे चौबे महल के नाम से जाना जाता है। इसे चौबे बेनी हजूरी तथा खेमराज ने निर्मित कराया था। कालिंजर के संबंध में यह जनश्रुति प्रचलित है कि जो व्यक्ति कालिंजर के प्रसिद्ध देवताओं की झील में स्नान करेगा उसे एक हज़ार गायों के दान के समान पुण्य प्राप्त होगा।

VARSHNEY.009
12-07-2013, 05:37 PM
दो संस्कृतियों का सेतुः जनकपुर
जनकपुर वो पवित्र स्थान है जिसका धर्मग्रंथों, काव्यों एवं रामायण में उत्कृष्ट वर्णन है। उसे स्वर्ग से ऊँचा स्थान दिया गया है जहाँ मर्यादा पुरुषोत्तम रामचंद्र एवं आदर्श नारी सीता का विवाह संपन्न हुआ। त्रेता युग के प्रकांड विद्वान एवं तत्कालीन मिथिला नरेश शिरध्वज जनक ने अपने राज्य में आए अकाल के निवारण हेतु ऋषि-मुनियों के सुझाव पर हल जोतना प्रारंभ किया। हल जोतने के क्रम में एक लड़की मिली। राजा ने उसे अपनी पुत्री स्वीकार किया। फलस्वरूप सीता, 'जानकी' भी कही जाती है। राजा जनक शिवधनुष की पूजा करते थे। एक दिन उन्होंने देखा जानकी इसे हाथ में उठाए हुई थीं। शिवधनुष उठाना किसी साधारण व्यक्ति के बस का नहीं, जनक समझ गए कि जानकी साधारण नारी नहीं है। अतः राजा जनक ने प्रतिज्ञा की कि जो शिवधनुष तोड़ेगा उसी से जानकी की शादी होगी। अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार राजा जनक ने धनुष-यज्ञ का आयोजन किया। इस यज्ञ से संपूर्ण संसार के राजा, महाराजा, राजकुमार तथा वीर पुरुषों को आमंत्रित किया गया। समारोह में अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र रामचंद्र और लक्ष्मण अपने गुरु विश्वामित्र के साथ उपस्थित थे। जब धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने की बारी आई तो वहाँ उपस्थित किसी भी व्यक्ति से प्रत्यंचा तो दूर धनुष हिला तक नहीं। इस स्थिति को देख राजा जनक को अपने-आप पर बड़ा क्षोभ हुआ। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में लिखा है-
अब अनि कोउ माखै भट मानी, वीर विहीन मही मैं जानी
तजहु आस निज-निज गृह जाहू, लिखा न विधि वैदेही बिबाहू
सुकृतु जाई जौ पुन पहिहरऊँ, कुउँरि कुआरी रहउ का करऊँ
जो तनतेऊँ बिनु भट भुविभाई, तौ पनु करि होतेऊँ न हँसाई
राजा जनक के इस वचन को सुनकर लक्ष्मण के आग्रह और गुरु की आज्ञा पर रामचंद्र ने ज्यों ही धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई त्यों ही धनुष तीन टुकड़ों में विभक्त हो गया। बाद में अयोध्या से बारात आकर रामचंद्र और जनक नंदिनी जानकी का विवाह माघ शीर्ष शुक्ल पंचमी को जनकपुरी में संपन्न हुआ। कहते हैं कि कालांतर में त्रेता युगकालीन जनकपुर का लोप हो गया। करीब साढ़े तीन सौ वर्ष पूर्व महात्मा सूरकिशोर दास ने जानकी के जन्मस्थल का पता लगाया और मूर्ति स्थापना कर पूजा प्रारंभ की। तत्पश्चात आधुनिक जनकपुर विकसित हुआ। जनकपुर नेपाल के तराई क्षेत्र में है जो भारत के बिहार राज्य के सीतामढ़ी, दरभंगा तथा मधुबनी जिले के नज़दीक है।
नौलखा मंदिर
जनकपुर में राम-जानकी के कई मंदिर हैं। इनमें सबसे भव्य मंदिर का निर्माण भारत के टीकमगढ़ की महारानी वृषभानु कुमारी ने करवाया। पुत्र प्राप्ति की कामना से महारानी वृषभानु कुमारी ने अयोध्या में 'कनक भवन मंदिर' का निर्माण करवाया परंतु पुत्र प्राप्त न होने पर गुरु की आज्ञा से पुत्र प्राप्ति के लिए जनकपुरी में १८९६ ई. में जानकी मंदिर का निर्माण करवाया। मंदिर निर्माण प्रारंभ के १ वर्ष के अंदर ही वृषभानु कुमारी को पुत्र प्राप्त हुआ। जानकी मंदिर के निर्माण हेतु नौ लाख रुपए का संकल्प किया गया था। फलस्वरूप उसे 'नौलखा मंदिर' भी कहते हैं। परंतु इसके निर्माण में १८ लाख रुपया खर्च हुआ। जानकी मंदिर के निर्माण काल में ही वृषभानु कुमारी के निधनोपरांत उनकी बहन नरेंद्र कुमारी ने मंदिर का निर्माण कार्य पूरा करवाया। बाद में वृषभानुकुमारी के पति ने नरेंद्र कुमारी से विवाह कर लिया। जानकी मंदिर का निर्माण १२ वर्षों में हुआ लेकिन इसमें मूर्ति स्थापना १८१४ में ही कर दी गई और पूजा प्रारंभ हो गई। जानकी मंदिर को दान में बहुत-सी भूमि दी गई है जो इसकी आमदनी का प्रमुख स्रोत है।
जानकी मंदिर परिसर के भीतर प्रमुख मंदिर के पीछे जानकी मंदिर उत्तर की ओर 'अखंड कीर्तन भवन' है जिसमें १९६१ ई. से लगातार सीताराम नाम का कीर्तन हो रहा है। जानकी मंदिर के बाहरी परिसर में लक्ष्णण मंदिर है जिसका निर्माण जानकी मंदिर के निर्माण से पहले बताया जाता है। परिसर के भीतर ही राम जानकी विवाह मंडप है। मंडप के खंभों और दूसरी जगहों को मिलाकर कुल १०८ प्रतिमाएँ हैं।
विवाह पंचमी
विवाह पंचमी के दिन पूरी रीति-रिवाज से राम-जानकी का विवाह किया जाता है। जनकपुरी से १४ किलोमीटर 'उत्तर धनुषा' नामक स्थान है। बताया जाता है कि रामचंद्र जी ने इसी जगह पर धनुष तोड़ा था। पत्थर के टुकड़े को अवशेष कहा जाता है। पूरे वर्षभर ख़ासकर 'विवाह पंचमी' के अवसर पर तीर्थयात्रियों का तांता लगा रहता है। नेपाल के मूल निवासियों के साथ ही अपने देश के बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, राजस्थान तथा महाराष्ट्र राज्य के अनगिनत श्रद्धालु नज़र आते हैं। जनकपुर में कई अन्य मंदिर और तालाब हैं। प्रत्येक तालाब के साथ अलग-अलग कहानियाँ हैं। 'विहार कुंड' नाम के तालाब के पास ३०-४० मंदिर हैं। यहाँ एक संस्कृत विद्यालय तथा विश्वविद्यालय भी है। विद्यालय में छात्रों को रहने तथा भोजन की निःशुल्क व्यवस्था है। यह विद्यालय 'ज्ञानकूप' के नाम से जाना जाता है।
मिथिला-राजधानीः जनकपुर
जनकपुर के बाज़ार में भारतीय मुद्रा से आसानी से व्यापार होता है। जनकपुर से करीब १४ किलोमीटर उत्तर के बाद पहाड़ शुरू हो जाता है। जनकपुर से राष्ट्रीय स्तर पर विमान सेवा उपलब्ध है। नेपाल की रेल सेवा का एकमात्र केंद्र जनकपुर है। जनकपुर जाने के लिए बहार राज्य से तीन रास्ते हैं। पहला रेल मार्ग जयनगर से है, दूसरा सीतामढ़ी जिले के भिठ्ठामोड़ से बस द्वारा है, तीसरा मार्ग मधुबनी जिले के उमगाँउ से बस द्वारा है। जनकपुर से काठमांडू जाने के लिए हवाई जहाज़ भी उपलब्ध हैं। जनकपुर में यात्रियों के ठहरने हेतु होटल एवं धर्मशालाओं का उचित प्रबंध है। यहाँ के रीति-रिवाज बिहार राज्य के मिथलांचल जैसे ही हैं। क्यों न हो मिथिला की राजधानी मानी जाती है जनकपुर। भारतीय पर्यटक के साथ ही अन्य देश के पर्यटक भी काफी संख्या में जनकपुर आते हैं।
जनकपुर आकर ऐसा नहीं लगता कि हम किसी और देश में हैं। यहाँ की हर चीज़ अपनेपन से परिपूर्ण लगती है। नेपाल हमारा सर्वाधिक निकट पड़ोसी राष्ट्र है। खासकर जनकपुर में दो देशों की संस्कृतियों के अभूतपूर्व संगम पर आश्चर्य होना स्वाभाविक है। यहाँ के परिवेश के निरीक्षण के पश्चात यदि हम जनकपुर को दो देशों तथा दो संस्कृतियों का 'सेतु' कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2009/janakpurnepal/viharkund.jpg

VARSHNEY.009
12-07-2013, 05:37 PM
न्यूजीलैंड का नैसर्गिक सौंदर्य

सन दो हज़ार पाँच के बड़े दिन की छुट्टी में मुझे न्यूज़ीलैंड के दक्षिणी द्वीप और कुछ अन्य भागों की सैर करने का एक अनोखा मौका मिला, जब मेलबोर्न में रहने वाले मेरे एक 'कीवी' मित्र ने मुझे अपने घर आने का निमंत्रण दिया। न्यूज़ीलैंड की रोमांचक छवि के चलते और ऑस्ट्रेलिया में टीवी पर आकर्षक विज्ञापन देखने के बाद मैं इस प्रलोभन को ठुकरा न पाया और हम दोनों ने आख़िरकार न्यूज़ीलैंड की दस–दिवसीय भ्रमण–योजना बना ही डाली।

२४ दिसंबर की सुबह की मेलबोर्न से ड्यूनेडिन की फ्रीडम एयर की उड़ान काफ़ी रोमांचकारी रही। करीब सवा लाख की आबादी वाला ड्यूनेडिन नगर न्यूज़ीलैंड के ओटागो प्रांत की राजधानी है और यह क्राइस्टचर्च के बाद दक्षिणी द्वीप का दूसरा सबसे बड़ा नगर है। हवाईअड्डे पर मेरे मित्र के परिवारजन हमें लेने के लिए आ रहे थे, इसलिए मैं बिल्कुल निश्चिंत हो कर विमान से नीचे धरती के बदलते हुए परिवेश को निहार रहा था। तस्मान सागर पार करने के बाद न्यूज़ीलैंड के दक्षिण–पश्चिम में स्थित अदभुत प्रांत फ़ियोर्डलैण्ड के दर्शन हुए। फ़ियोर्डलैण्ड में सामान्यतः कोई आबादी नहीं बसी हुई है। यहाँ बस आड़ी–तिरछी लकीरों की तरह नीला समुंदर हिमाच्छादित पहाड़ियों को चीरते हुए धरती पर अपना रास्ता बनाता हुआ दिखाई देता है। न्यूज़ीलैंड की सबसे बड़ी झील 'वाकाटिपू' और इसके मनोहारी तट पर बसा नगर क्वींसटाउन भी आकाश से दिखाई पड़ा। कुछ समय पश्चात ड्यूनेडिन हवाईअड्डे पर उतर कर मेरे मित्र के परिवारजन हमें देख कर भाव–विभोर हो उठे।

http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2006/newzealand/nz_otago.jpgहम उनकी कार में बैठकर न्यूज़ीलैंड के आठवें सबसे बड़े नगर इन्वर्कारगिल की तरफ़ चल पड़े तीन घंटे के इस सफ़र में ओटागो और साउथलैण्ड प्रांतों की ऊँची– नीची पहाड़ियों पर हरी–भरी घास पर चरती भेड़ों, गायों और हिरणों को देख कर हृदय प्रफुल्लित हो उठा। ऑस्ट्रेलिया के वीराने रेगिस्तानी भूमिपरिवेश से कहीं दूर न्यूज़ीलैण्ड में सर्वत्र ऐसी हरीतिमा देख कर यह मानना असंभव–सा प्रतीत होता है कि यह दोनों देश ओशिएनिया में एक–साथ गिने जाते हैं।

२४ दिसंबर व क्रिसमस का दिन हमने इन्वर्कारगिल में ही बिताया। ५० हज़ार की आबादी वाला इन्वर्कारगिल शहर अपनी चौड़ी–चौड़ी सड़कों व क्वींस पार्क के लिए जाना जाता है। क्रिसमस की शाम को मेरे मित्र के कुछ अन्य संबंधी भी घर पर आए और हम सब ने मिलकर स्वादिष्ट क्रिसमस भोज का आनंद उठाया।

अगले दिन का कार्यक्रम था – न्यूज़ीलैंड के तीसरे द्वीप स्ट्युअर्ट आईलैण्ड के लिए प्रस्थान। अधिकांश लोगों ने इस द्वीप के बारे में सुना ही नहीं होता है। न्यूज़ीलैंड सरकार के शासन के तहत स्ट्युअर्ट द्वीप के अलावा औकलैंड व कैम्पबैल जैसे कई अंतः–अंटार्कटिक द्वीप भी आते हैं, पर कड़ाके की ठंड के कारण वैज्ञानिकों व पशु–पक्षियों के अतिरिक्त इन द्वीपों पर कोई नहीं रहता स्ट्युअर्ट द्वीप पर केवल एक ही कस्बा है – ओबन। सरकार ने द्वीप का ८२ प्रतिशत भाग मानव की विकासलीलाओं से बचा कर रैकुरा राष्ट्रीय उद्यान के रूप में भविष्य के लिए सुरक्षित बना कर रखा है। स्ट्युअर्ट द्वीप वस्तुतः कई छोटे–छोटे द्वीपों का एक समूह है, जिनमें से उल्वा द्वीप अपने अनोखे पक्षी उद्यान के लिए विशेषकर जाना जाता है।

http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2006/newzealand/bluff2.jpgइन्वर्कारगिल से करीब २० मिनट की बस यात्रा से न्यूज़ीलैंड के दक्षिणतम शहर ब्लफ़ पहुँच कर हमने नाव द्वारा ओबन के लिए प्रस्थान किया। वैसे तो विशेष छोटे आकार के विमानों द्वारा भी स्ट्युअर्ट द्वीप पर शीघ्रता से पहुँचा जा सकता है। ब्लफ़ से नाव द्वारा यहाँ जाने में करीब एक घंटे का समय लगता है।

दक्षिण प्रशांत महासागर का यह भाग इतना गहरा नीला है जितना मैंने और कहीं नहीं देखा। पानी भी कुछ ज़्यादा ही ठंडा और खारा है ओबन कस्बे में नाव के पहुँचते ही पहले हम अपने होटल में सामान रखने के लिए गए, और फिर गर्मा–गर्म भोजन का स्वाद उठाया। सामने समुद्र–तट पर छोटी–छोटी अनेकानेक निजी नावें लहरों पर थिरकती हुई बहुत सुंदर लग रही थीं। भोजन के बाद मनमोहक प्रकृति का लुत्फ़ उठाते हुए हम पहाड़ियों पर घूमने चल पड़े पूरा का पूरा दिन न जाने कैसे बीत गया पता ही न चला।

भूमध्य रेखा से काफ़ी दक्षिण में होने के कारण ग्रीष्म–ऋतु में पृथ्वी के इस भाग में सूर्योदय बहुत तड़के व सूर्यास्त रात में काफ़ी देर से होता है, इसलिए दिन में लगभग १६–१७ घंटे का प्रकाश रहता है। पर्यटकों के लिए तो यह और भी अच्छा है, क्योंकि इसके चलते वे पूरे दिन–भर घूम सकते हैं। हमने भी अगले दिन उल्वा द्वीप में प्रकृति की १६–१७ घंटे की मनोहारी छटा का भरपूर आनंद उठाया। उल्वा द्वीप के राष्ट्रीय प्राणी उद्यान में न्यूज़ीलैंड के कीवी पक्षी के दिव्य–दर्शन तो नहीं हो पाए, परंतु वीका पक्षी के शिशुओं समेत एक पूरे परिवार को निकट से देख कर मानो यहाँ आने का लक्ष्य साकार हो गया। और भी कई प्रकार के तोते, मैना और बहुरंगी चिड़ियाँ देख कर हम ब्लफ़ की ओर नाव से रवाना हो गए।

http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2006/newzealand/weka_bird.jpgस्ट्युअर्ट द्वीप समूह से वापस आने और छुट्टी बचाने के उद्देश्य से मेरे मित्र ने यह सुझाव दिया कि क्यों न हम नववर्ष की पूर्वसंध्या तक का समय इन्वर्कारगिल और साउथलैण्ड में ही गुज़ारें। वैसे भी वह कुछ और समय अपने माता–पिता के साथ बिताना चाहता था मैंने भी हामी भर दी और अगले दिन हम इन्वर्कारगिल देशाटन के लिए निकल पड़े। नगर का मुख्य भाग छुट्टियों के लिए किसी नववधू की तरह सजाया हुआ था। हमने पूरा दिन यहाँ के ऐतिहासिक क्वींस पार्क और संग्रहालय में गुज़ारा क्वींस पार्क में मैंने न्यूज़ीलैंड के देशीय वुड पिजीयन को अपने प्राकृतिक माहौल में देखा। हरे रंग के वक्षस्थल और भूरे रंग के शरीर वाला यह वृहदाकारी कबूतर न्यूज़ीलैंड के बड़े आकार के फलों के बीज फैला कर यहाँ के पर्यावरण के संरक्षण में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। पार्क के नज़दीक ही एक पक्षी–उद्यान में यहाँ के कई अन्य देशीय पक्षियों के दर्शन भी हुए, पर अभी तक न्यूज़ीलैंड के राजपक्षी कीवीदेव हमारे साथ लुका–छिपी का खेल खेलते रहे। मैं इस बात को लेकर थोड़ा उद्विग्न था कि क्या हम न्यूज़ीलैंड आ कर भी कभी कीवी देख पाएँगे अब तक हमें कीवी क्यों न दिखा इस बात का रहस्य तो दो दिन बाद क्वींसटाउन पहुँच कर ही प्रकट हुआ।

अगले दिन हम भेड़ की ऊन काटने की प्रक्रिया देखने के लिए ओहाई ग्राम में एक कृषक के घर पहुँचे। न्यूज़ीलैंड में भेड़–पालन व ऊन–उद्योग काफ़ी अच्छी तरह से विकसित है और यहाँ की अर्थव्यवस्था में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2006/newzealand/bhed.jpgसंतानोत्पत्ति के महीनों में तो यहाँ भेड़ों की आबादी मानव जनसंख्या की सात गुना हो जाती है और रमादान के पावन महीने में ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड से पानी के जहाज भर–भर कर भेड़ें और मेमने हलाल के लिए मध्य–पूर्व के देशों में पहुँचाए जाते हैं। यहाँ कृषक के भेड़–फ़ार्म में करीब २०० भेड़ों का झुंड एक दड़बे में खड़ा दिखाई पड़ा। तीन भेड़ के रखवाले कुत्ते चारों तरफ़ से भौंक–भौंक कर भेड़ों का नियंत्रण कर रहे थे।

एक अन्य कमरे में तीन कर्मचारी भेड़ों को इलेक्ट्रॉनिक क्लिप्परों की सहायता से मूँड रहे थे और क्लिप्पर की आवाज़ से घबराई हुई बेचारी भेड़ें असहाय–सी कर्मचारियों के हाथों में छटपटा रही थीं। मेरे लिए जीवन में ऐसा पहला अवसर था और करीब एक घंटे तक हमने इस हास्यप्रद माहौल का पूरा मज़ा उठाया। वहाँ से निकल कर हम कार में बस ऐसे ही घूमते–घामते न जाने कैसे फ़ियोर्डलैण्ड की सीमा पर स्थित न्यूज़ीलैंड की सबसे गहरी झील 'हॉरोका' के तट पर पहुँच गए। झील के स्पष्ट जल व किनारे के घने जंगलों को निहार कर स्वर्ग का आनंद आ गया। हॉरोका झील न्यूज़ीलैंड के एक माओरी समुदाय द्वारा 'टापू', यानि पवित्र मानी जाती है, क्योंकि इस समुदाय का मानना है कि यहाँ उनके पितरों की आत्माएँ निवास करती हैं। अन्य किसी माओरी समुदाय के लोगों का यहाँ आना निषिद्ध है, पर हमें किस बात की चिंता – हम माओरी तो नहीं। कितनी ही देर बस झील के तट पर यों ही चुपचाप बैठे रहने के बाद हम वहाँ से वापस इन्वर्कारगिल की ओर चल पड़े। रास्ते में एक दुकान से तस्मान सागर की ताज़ी पकड़ी हुई ब्लू–कॉड मछली ख़रीद कर मित्र के परिवारजनों के साथ घर पर उसका जम के आनंद उठाया।

http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2006/newzealand/lakewakatipu1.jpgअगले दिन नववर्ष की पूर्वसंध्या थी मित्र के परिवारगणों से विदा ले कर हम इन्वर्कारगिल से क्वींसटाउन के लिए चल पड़े। दो घंटे के इस सफ़र में प्रकृति के ऐसे दिव्य–दर्शन हुए जिसे मैं कभी भुला नहीं सकता। वाकाटिपू झील के तट पर बसा और रिमार्केबल्स पर्वत–शृंखला से घिरा क्वींसटाउन शहर 'विश्व की रोमांच राजधानी' के नाम से जाना जाता है। यहाँ आपको मनोरंजन व रोमांचक क्रीड़ाओं का कौन सा साधन नहीं मिल सकता!

यहाँ पहुँचने के तुरंत बाद टाइटेनिक से भी पुराने वाष्प–चालित जलपोत 'टी एस एस अर्नस्लॉ' पर डेढ़ घंटे की वाकाटिपू झील की हमारी सैर बेहद हृदयाह्लादक रही इस नौकायन के बाद नववर्ष पूर्वसंध्या के रात के कार्यक्रम के लिए तैयार होने के लिए हम अपने अपने ब्रेड एण्ड ब्रेकफ़ास्ट होटल में आराम करने के लिए चले गए।

नववर्ष की पूर्वसंध्या के लिए पूरा नगर रुचिकर तरीके से सजाया हुआ था हमने एक कोरियाई रेस्तरां में ऑक्टोपस स्ट्यू का भोजन किया और झील के तट पर बैठे हुए हम घड़ी की सुई के १२ बजने का इंतज़ार करने लगे। ज्यों ही घड़ी की सुइयाँ मिलीं, त्यों ही झील के अंधकार में छिपी एक नौका से आसमानी आतिशबाजी छूट पड़ी चारों तरफ़ संगीत की धुनें और तीव्र हो गईं और कुछ नौजवान लोग हड़कंप मचाने लगे। वैसे तो पुलिस ने सार्वजनिक क्षेत्रों में मदिरापान पर प्रतिबंध लगा रखा था करीब १५ मिनट तक की शानदार आतिशबाजी देख कर हृदय पुलकित हो गया।

http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2006/newzealand/kiwi.jpgपहली जनवरी का दिन पूरे भ्रमण काल का सबसे यादगार दिन रहा। हम प्रातः तड़के ही उठ कर घूमने के लिए चल पड़े। सूर्यदेव आज बादलों के साथ लुका–छिपी का खेल खेल रहे थे और जल्द ही मूसलाधार वर्षा शुरू हो गई पर हम युवाओं को पानी या ठंड की क्या चिंता – बारिश में भीगते–भागते हम बॉब पीक की गोंडोला राइड के स्टेशन की ओर जा ही रहे थे कि मेरी नज़र कीवी–हाउस नाम के एक पक्षी–विहार के मुख्य–द्वार पर पड़ी। एकाएक दिल में आया कि हो सकता है यहाँ हमें कीवी पक्षी के दर्शन हो जाएँ आव देखा न ताव – बस हम दोनों महँगे टिकट के बावजूद भी विहार–भ्रमण के लिए अंदर चले गए। विश्व की नवीनतम स्वचालित श्रवण–तंत्र तकनीक से युक्त यह विहार अपने–आप में एक अनोखा अनुभव था। मैं धन्य हो गया जब एक कृत्रिम अंधकारमय गुहा में मुझे एक मादा कीवी के दिव्य–दर्शन हुए।

वस्तुतः कीवी एक उड़ानहीन, बड़े आकार का पक्षी होता है जो कभी न्यूज़ीलैंड में लाखों की संख्या में पाया जाता था, परंतु १२वीं सदी में माओरी समुदाय के पदार्पण और फ़िर श्वेत उपनिवेशकों द्वारा बिल्लियों, कुत्तों और सियारों जैसे भक्षक पशुओं के छोड़े जाने के कारण अब यहाँ मात्र ७०,००० कीवी ही बचे हुए हैं। मादा कीवी का अंडा उसके भार का २०–३० प्रतिशत होता है – यानि कि पक्षी–जगत के हिसाब से बहुत बड़ा – और नर कीवी अंडे सेने और फ़िर चूजे की देखभाल करने का काम करता है। यह तथ्य भी यहाँ उजागर हुआ कि कीवी रात का प्राणी है, दिन का नहीं – अब समझ में आया कि उल्वा द्वीप व इन्वर्कारगिल के पक्षी उद्यान के दिन के भ्रमण में हमें कीवी क्यों न दिखाई पड़ा। वैसे भी मुक्त रूप से जंगलों में घूमने वाले अब बहुत कम कीवी बचे हुए हैं। कीवी के अलावा इस पक्षी–विहार में हमने टुआटारा नामक डायनासोर काल की न्यूज़ीलैंड की एक मूल छिपकली भी देखी। टुआटारा अब विश्व में कहीं और नहीं पाई जाती। यहाँ माओरी ग्राम की एक अनुकृति भी थी जिसके माध्यम से माओरी समुदाय की दैनिक जीवन–शैली के बारे में विस्तृत जानकारी भी मिली।

http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2006/newzealand/gondolabobpeak.jpgकीवी दर्शन के बाद अपनी इस विजयश्री पर स्वयं को सराहते हुए हम गोंडोला स्टेशन की ओर निकले समुद्र–तल से करीब ८०० मीटर ऊँची बॉब चोटी पर जाने के लिए स्काईलाइन कंपनी ने यहाँ एक गोंडोला–तंत्र का निर्माण किया है। करीब १० मिनट की यह यात्रा बहुत ही रोमांचक रही और चोटी पर पहुँच कर हमें नीचे क्वींसटाउन नगर का विहंगम दृश्य देखने को मिला। शीत–ऋतु में यहाँ बर्फ़ जमी रहती है और जम कर स्कीइंग की जाती है आजकल तो यहाँ बर्फ़ नहीं थी, पर थोड़ी ही दूरी पर बंजी–जंपिंग और फ्री–स्विंग क्रीड़ाओं का आनंद उठाते पर्यटकों को देख कर दिल दहल गया। ऊँची चोटी से गुरूत्वाकर्षण द्वारा सीधे नीचे गिरते हुए भारहीनता कैसी प्रतीत होती होगी, मैं तो इसकी कल्पना भी नहीं कर सकता बस दूर से ही उन पर्यटकों को इतनी ऊँची चोटी से नीचे गिरते देख कर रोमांच का मुफ़्त में आनंद उठा लिया।

गोंडोला से नीचे क्वींसटाउन नगर आने तक हम बारिश में पूरी तरह भीग चुके थे और फ़िर कुछ करने का साहस नहीं रह गया था। रात भी ढल रही थी मित्र ने सुझाव दिया कि क्यों न गर्म भोजन कर सिनेमा देखने चला जाए। सुझाव पसंद आया और हम एक तुर्क रेस्तरां में मेमने के कबाब का आनंद उठा कर बॉक्सिंग डे को निकली ज़बर्दस्त फ़िल्म 'नार्निया' देखने गए। इसकी शूटिंग न्यूज़ीलैंड में ही की गई थी और आजकल यह हॉलीवुड में ब्लॉकबस्टर चल रही थी। रात में १२ बजे फ़िल्म समाप्त होने के बाद टैक्सी द्वारा हम अपने ब्रेड एण्ड ब्रेकफ़ास्ट होटल चले आए।

अब हमारा भ्रमण–काल ख़त्म होने को आ रहा था अगले दिन हम बस द्वारा क्वींसटाउन से ड्यूनेडिन के लिए निकल पड़े। चार घंटे के सफ़र के बाद ड्यूनेडिन पहुँच कर एक बैकपैकर्स में रात के लिए कमरा ले लिया।http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2006/newzealand/firstchurch.jpg अगले दिन वापस मेलबोर्न की उड़ान दोपहर में थी, अतः सवेरे ड्यूनेडिन के कला–संग्रहालय व फ़र्स्ट चर्च देखने की योजना बनाई गई। दोनों ही स्थान काफ़ी पसंद आए।

अब न्यूज़ीलैंड से विदा लेने का समय आ गया था। विमान से क्राइस्टचर्च व मेलबोर्न की ओर प्रस्थान करते समय इस यादगार यात्रा का स्मरण करते हुए हृदय भाव–विभोर हो उठा व मन ही मन हमने संकल्प किया कि एक दिन फ़िर से न्यूज़ीलैंड की नैसर्गिक सुंदरता देखने अवश्य आएँगे।

VARSHNEY.009
12-07-2013, 05:38 PM
गोवा की गलियों में

VARSHNEY.009
12-07-2013, 05:38 PM
गोवा की गलियों में

भारत के पश्चिमी घाट के पश्चिम किनारे पर स्थित गोवा एक छोटा राज्य है। ३० मई, १९८७ को इसे राज्य का दरजा दिया गया। गोवा की राजधानी है पणजी। इस शहर के एक तरफ़ मांडवी नदी बहती है और दूसरी तरफ़ समुद्र है, जो इसकी शोभा को बढ़ाने में सहायक हैं। गोवा के अन्य प्रमुख नगर हैं मडगाँव, म्हापासा, कांदा और वास्को। पश्चिमी घाट (सह्याद्रि पर्वत) से निकलकर अनेक नदियाँ अरब सागर में मिलती हैं। किंतु गोवा की दो ही नदियाँ प्रमुख हैं- मांडवी और जुवारी।
गोवा में अनेक मंदिर हैं, जो बड़े स्वच्छ, प्रकृति की गोद में निर्मित तथा अपने सुंदर, आकर्षक परिसरों से युक्त हैं। हर मंदिर के सामने तालाब और दीप स्तंभ बने हुए हैं। श्री मंगेश मंदिर, रामनाथ का मंदिर, शांता दुर्गा मंदिर, गोपाल-गणेश का मंदिर, शिव मंदिर, भगवती मंदिर, श्री दामोदर मंदिर, पांडुरंग मंदिर, महालसा मंदिर उल्लेखनीय मंदिर हैं। प्रत्येक मंदिर के अपने संस्थान हैं, जहाँ रहने और भोजन की सुचारु रूप से व्यवस्था की जाती है।
पणजी-पेंडा की मुख्य सड़क पर पणजी से २२ कि.मी. दूर श्री मंगेश संस्थान का मंदिर है। इस बड़े संस्थान के आराध्य श्री मंगेश जी हैं। मंगेश जी के पास ही लगभग एक कि.मी. की दूरी पर महालसा देवी का प्रसिद्ध मंदिर है। यहाँ नवरात्र का उत्सव और अत्यधिक ऊँचाई पर समई (दीप) दर्शनीय हैं। बांदोडा गाँव में पोंडा से ८ कि.मी. दूर नागेश संस्थान का नागेश मंदिर रामायण के चित्रित प्रसंगों के कारण प्रसिद्ध है। इसके पास ही महालक्ष्मी का मंदिर भी है।
http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2009/goa/mangeshtemple.jpgपोंडा से चार कि.मी. की दूरी पर स्थित रामनाथ संस्थान का शिव मंदिर अपने शिवरात्रि के भव्य विशाल मेले के कारण जाना जाता है। पोंडा से ही तीन कि.मी. दूर कवले गाँव में शांता दुर्गा संस्थान का विख्यात मंदिर स्थित है, जिसे शांता दुर्गा का मंदिर कहते हैं। यह बहुत ही भव्य और प्राचीन मंदिर है। शांता दुर्गा गोवा निवासियों की ख़ास देवी हैं। कहते हैं कि बंगाल की क्षुब्धा दुर्गा गोवा में आकर शांत हो गईं और शांता दुर्गा के नाम से पूजी जाने लगीं।
पणजी से ६० कि.मी. दूर सह्याद्री घाटी में गोवा-कर्नाटक सड़क के पास तांबडासुर्ल गाँव में तांबड़ीसुर्ल-शिव मंदिर अपने कलात्मक शिल्प एवं वैभव के कारण जाना जाता है। चौदहवीं शताब्दी में कदंब राजाओं के समय इसका निर्माण हुआ।
मडगाँव से ४० कि.मी. दूर कोणकोण गाँव में श्री मल्लिकार्जुन का मंदिर है। वन-श्री हरीतिमा वेष्ठित चतुर्दिक पहाड़ियों से घिरे इस मंदिर को देखने जो भी यात्री आता है, वह इसके प्राकृतिक श्री-सौंदर्य कोदेख मुग्ध होकर वहीं का हो जाता है। मडगाँव से १८ कि.मी. दूर गोवा के लोगों की अपार श्रद्धा का केंद्र दामोदर मंदिर है। नार्वे-डिचोली गाँव में पणजी से ३७ कि.मी. दूर श्री सप्त कोटेश्वर मंदिर है। ऊँचे पहाड़ों पर अवस्थित चंद्रेश्वर तथा सिद्धनाथ मंदिर भी देखने लायक हैं।
वस्तुतः सर्वाधिक मनोमुग्धकारी परिदृश्य गोवा के समुद्र तट ही उपस्थित करते हैं। मीराभार, कलंगुट, बागा, अंजुना, बागातोर, हरमट, कोलवा, बेतुल, पालालें आदि समुद्र तट अपनी सुंदरता के कारण जाने जाते हैं। गोवा का पश्चिमी किनारा अनेक सागर तटों से भरा-पूरा है। बेतुल के समुद्र तट में दो नदियाँ इधर-उधर से आकर मिलती हैं, जिससे वहाँ एक विशेष आकर्षण पैदा हो जाता है। इसी तरह का सौंदर्य बागा का समुद्र तट भी प्रदान करता है। देशी-विदेशी पर्यटकों का मेला-सा समुद्र तटों पर लगा रहता है। भारतीय एवं पाश्चात्य संस्कृति के समरूप हैं ये समुद्र तट। प्राकृतिक सौंदर्यानुभूतियों की संवेदनशीलता भी समुद्र के साहचर्य से केंद्रीभूत हो उठती हैं। प्रकृति एवं मानवी सौंदर्य का ऐसा समवेत उद्रेक दुर्लभ है।
गोवा के किलों, गिरजाघरों, मसजिदों तथा अभयारण्यों का भी महत्त्व है। शत्रुओं से रक्षार्थ पुर्तगालियों ने वार्देज तालुका में मांडवी नदी जहाँ समुद्र से संगम बनाती हैं, भाग्वाद का किला बनवाया था। पास में ही वागाताटे समुद्र तट पर निर्मित कामसुख का किला भी दर्शनीय है। गोवा की राजधानी पणजी के पास मांडवी नदी के किनारे रेयश मागुश का किला स्थित है। पणजी से ही यह दिखाई पड़ जाता है। गोवा-महाराष्ट्र सीमा के उत्तरी छोर पर तेरे खोल का किला है। ये सभी किले मज़बूत, विशाल और अभेद्य हैं।
http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2009/goa/Basilica_Bom_Jesus.jpg>प्राचीन और विशाल गिरजाघरों के दर्शन गोवा में होते हैं। पुराने गोवा के गिरजाघर सोलहवीं शताब्दी में निर्मित हुए हैं। आज भी वे पणजी-पोंडा मुख्य मार्ग के किनारे शान से खड़े हैं। इसी स्थान पर एक ओर पुर्तगाल के महान कवि तुईशद कामोंइश का विशाल पुतला खड़ा है, तो दूसरी ओर महात्मा गांधी की भव्य प्रतिमा।
चार सौ वर्षों से सुरक्षित विख्यात संत फ्रांसिस जेवियर का शव बासिसलका बॉम जीसस गिरजाघर में रखा हुआ है। पुराने गोवा में सर्वाधिक विशाल और आकर्षक चर्च है- सा कैथेड्राल चर्च। इसका आंतरिक भाग कलात्मक संत पाँच घंटियों से सुशोभित है। इनमें से एक घंटी सोने की है और बड़ी भी। संत फ्रांसिस आसिसी चर्च का प्रवेश द्वार भव्य और आंतरिक भाग चित्रों से सज्जित है।
इसके पीछे गोवा का प्रसिद्ध संग्रहालय है। संत काटेजान चर्च के प्रवेशद्वार को कहा जाता है कि आदिलशाह के शासनकाल में क़िले का दरवाज़ा था। और भी दर्शनीय गिरजाघर हैं। सांगेगाँव की जामा मस्जिद और पोंडागाँव की साफा मस्जिद के अतिरिक्त बहुत-सी छोटी-छोटी मसजिदें हैं।
गोवा में अनेक सुंदर और विशाल जल प्रपात हैं, जो पर्यटकों को अपनी ओर खींचते रहते हैं। मडगाँव से ४० कि.मी. दूर सह्याद्रि घाटी में है- दूध सागर जल प्रपात। केवल रेल से ही यहाँ पहुँचा जा सकता है। पर्वत शिखर से झरता फेनिल जल-प्रवाह दूध-धारा का भ्रम पैदा करता है। यहाँ पर्यटकों की भीड़ लगी रहती है और घंटों बैठे-बैठे लोग इस मनोरम नयनाभिराम दृश्य का अवलोकन कर रोमांचित होते रहते हैं। सांखली गाँव में एक लघु जल प्रपात है, जिसे हरवलें जल प्रपात कहा जाता है।
डिचोली के पास मायम गाँव में मायम झील है, जिसमें पर्यटक नौका विहार का आनंद उठाते हैं। गोवा के अभयारण्य भी पर्यटकों के आकर्षण के केंद्र हैं। भगवान महावीर वन्य पशु रक्षित वन, बोंडला वन्य पशु रक्षित वन, खोती गाँव वन्य पशु रक्षित वन, विभिन्न जानवरों से सुशोभित हैं। सलीम अली पक्षी रक्षित केंद्र चोडण द्वीप में स्थित है। यहाँ रंग-बिरंगे पक्षियों का कलरव-कूजन संगीत का-सा आनंद प्रदान करता है। पणजी और मडगाँव से पर्यटन विभाग की बसें चलती हैं, जिनसे कम खर्च में गोवा के सभी दर्शनीय स्थानों को सरलता से देखा जा सकता है। जिसने एक बार भी गोवा के श्री-http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2009/goa/mayemlake.jpgसौंदर्य, रम्य प्रकृति और विभिन्न मनमोहक नयनाभिराम छवि को देख लिया, वह बार-बार देखना चाहता है और उसके लिए गोवा-पर्यटन का आनंद भूल पाना कठिन है।
आवागमन-
कलकलाती, छलछलाती सरिताओं, हरी-भरी वन-श्री सुशोभित पर्वत श्रेणियों, रम्य, सुदर्शन सागर-तटों के कारण गोवा का सारा क्षेत्र दर्शनीय है। इसकी श्री-सुषमा एवं प्राकृतिक सौंदर्यमय वैभव के कारण इसे दक्षिण का कश्मीर कहलाने का गौरव प्राप्त है। गोवा में यातायात के प्रचुर साधन उपलब्ध हैं। रेल से, बस से, पानी के जहाज से, हवाई जहाज से गोवा जाया जा सकता है। मडगाँव रेलवे का महत्वपूर्ण जंक्शन है। यहाँ से केरल को उत्तर भारत से जोड़नेवाली कोंकण रेलवे तथा गोवा को दक्षिण भारत से जोड़नेवाली दक्षिण मध्य रेलवे गुजरती है। कोणकोण, करमली, थिर्वी, पेड़पे कोंकण रेलवे के अन्य महत्त्वपूर्ण स्टेशन हैं। वास्को, सावर्डे और कुर्ले दक्षिण मध्य रेलवे के प्रमुख स्टेशन हैं। मुंबई, पुणे, कोल्हापुर, बंगलौर, मंगलूर से बस के रास्ते गोवा पहुँच सकता है। दामोली हवाई अड्डे से भारत के विभिन्न स्थानों में हवाई जहाज़ से भी जाया जा सकता है। मुंबई से गोवा तक पानी का जहाज़ भी चलता है। विश्राम हेतु होटल, कॉटेज एवं धर्मशालाएँ सुलभ हैं।

VARSHNEY.009
12-07-2013, 05:39 PM
चरो रे भैया, चलिहें नरबदा के तीर
सतपुड़ा-मैकल और विंध्य पर्वत शृंखला के संधि स्थल पर सुरम्य नील वादियों में बसा अमरकंटक ग्रीष्मकाल के लिए अनुपम पर्यटन स्थल है। इसे प्रकृति और पौराणिकता ने विविध संपदा की धरोहर बख्शी है। चारों ओर हरियाली, दूधधारा और कपिलधारा के झरनों का मनोरम दृश्य, सोननदी की कलकल करती धारा, नर्मदा कुंड की पवित्रता, पहाड़ियों की हरी-भरी ऊँचाइयाँ है और खाई का प्रकृति प्रदत्त मनोरम दृश्य मन की गहराइयों को छू जाता है। अमरत्व बोध के इस अलौकिक धाम की यात्रा सचमुच उसके नाम के साथ जुड़े 'कंटक' शब्द को सार्थक करती है। हम जहाँ दुनिया के छोटी हो जाने का ज़िक्र करते थकते नहीं, वहीं अमरकंटक की यात्रा आज भी अनुभवों में तकलीफ़ों के शूल चुभो जाती है। पर एक बार सब कुछ सहकर वहाँ पहुँच जाने के बाद यहाँ की अलभ्य सुषमा और पौराणिक आभा सब कुछ बिसार देने को बाध्य करती है।
अमरकंटक, मध्यप्रदेश के शहडोल जिले के अन्तर्गत दक्षिण-पश्चिम में लगभग ८० कि.मी. की दूरी पर, अनूपपुर रेलवे जंक्शन से ६० कि.मी., पेंड्रा रोड रेलवे स्टेशन से ४५ कि.मी. और बिलासपुर जिला मुख्यालय ये ११५ कि.मी. की दूरी पर स्थित है। यहाँ रुकने के लिए अनेक छोटी मोटी धर्मशालाएँ, स्वामी श्रीरामकृष्ण परमहंस का आश्रम, बरफानी बाबा का आश्रम, बाबा कल्याणदास सेवा आश्रम, जैन धर्मावलंबियों का सर्वोदय तीर्थ एवं अग्निपीठ, लोक निर्माण विभाग का विश्रामगृह, साडा का गेस्ट हाउस और म.प्र. पर्यटन विभाग के टूरिस्ट कॉटेज आदि बने हुए हैं। यहाँ घूमने के लिए तांगा, जीप, ऑटो रिक्शा आदि मिलते है। खाने के लिए छोटे-बड़े होटल हैं लेकिन १५ कि.मी. पर केंवची का ढाबा में खाना खाने की अच्छी व्यवस्था रहती है। जंगल के बीच खाना खाने का अलग आनंद होता है।
अमरकंटक, शोण और नर्मदा नदी का उद्गम स्थली है जो २०' ४०' उत्तरी अक्षांश और ८०' ४५' पूर्वी देशांश के बीच स्थित है। नर्मदा नदी १३१२ कि.मी. चलकर गुजरात में २१' ४३' उत्तरी अक्षांश और ७२' ५७' पूर्वी देशांश के बीच स्थित खंभात की खाड़ी के निकट गिरती है। यह नदी १०७७ कि.मी. मध्यप्रदेश के शहडोल, मंडला, जबलपुर, नरसिंहपुर, होशंगाबाद, खंडवा और खरगौन जिले में बहती है। इसके बाद ७४ कि.मी. महाराष्ट्र को स्पर्श करती हुई बहती है, जिसमें ३४ कि.मी. तक मध्यप्रदेश और ४० कि.मी. तक गुजरात के साथ महाराष्ट्र की सीमाएँ बनाती हैं। खंभात की खाड़ी में गिरने के पहले लगभग १६१ कि.मी. गुजरात में बहती है। इस प्रकार इसके प्रवाह पथ में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, और गुजरात राज्य पड़ता है। नर्मदा का कुल जल संग्रहण क्षेत्र ९८७९९ वर्ग कि.मी. है जिसमें ८०.०२ प्रतिशत मध्यप्रदेश में, ३.३१ प्रतिशत महाराष्ट्र में और ८.६७ प्रतिशत क्षेत्र गुजरात में है। नदी के कछार में १६० लाख एकड़ भूमि सिंचित होती है जिसमें १४४ लाख एकड़ अकेले मध्यप्रदेश में है, शेष महाराष्ट्र और गुजरात में है।
विश्व की प्रमुख संस्कृतियाँ नदियों के किनारे विकसित हुई परन्तु भारत का प्राचीन सांस्कृतिक इतिहास तो मुख्यत: गंगा, यमुना, सरस्वती और नर्मदा के तट का ही इतिहास है। सरस्वती नदी के तट पर वेदों की ऋचाएँ रची गई, तो तमसा नदी के तट पर क्रौंच वध की घटना ने रामायण संस्कृति को जन्म दिया। न केवल आश्रम-संस्कृति की सार्थकता और रमणीयता नदियों के किनारे पनपी, वरन नगरीय सभ्यता का वैभव भी इन्हीं के बल पर बढ़ा। यही कारण है कि नदी की हर लहर के साथ लोक मानस का इतना गहरा तादात्म्य स्थापित हो गया कि जीवन के हर पग पर जल और नदी संस्कृति ने भारतीयता को परिभाषित कर दिया। छोटे से छोटे और बड़े से बड़े धार्मिक अनुष्ठान व यज्ञ आदि के अवसर पर घर बैठे सभी नदियों का स्मरण इसी भावना का तो संकेत है? गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति, नर्मदे सिन्धु कावेरि, जले स्मिन सन्निधि कुरू।।
http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2008/amarkantak/kapildhar.jpgइस प्रकार मेकलसुत सोन और मेकलसुता नर्मदा दोनों का सामीप्य सिद्ध है। वैसे मेकल से प्रसूत सभी सरिताओं का जल अत्यंत पवित्र माना गया है-मणि से निचोड़े गए नीर की तरह...। ऐसे निर्मल पावन जल प्रवाहों की उद्गम स्थली के वंश-गुल्म के जल से स्नान, आचमन, यहाँ तक कि स्पर्श मात्र से यदि अश्वमेध यज्ञ का फल मिलना बताया गया हो तो उसमें स्नान अवश्य करना चाहिए। लेकिन यह विडंबना ही है कि अब अमरकंटक की अरण्य स्थली में प्रमुख रूप से नर्मदा और सोन नदी के उद्गम के आसपास एक भी बाँस का पेड़ नहीं है। यही नहीं यहाँ नर्मदा कुंड का पानी पीने लायक भी नहीं है। बल्कि इतना प्रदूषित है कि आचमन तक करने की इच्छा नहीं होती। इसके विपरीत सोन नदी के उद्गम का पानी स्वच्छ और ग्रहण करने योग्य है। नर्मदा कुंड को मनुष्य की कृत्रिमता ने आधुनिक बनाकर सीमित कर दिया है। सोन-मुड़ा, सोन नदी की उद्गम स्थली अभी भी प्रकृति की रमणीयता और सहजता से अलंकृत है। वृक्षों पर बंदरों की उछलकूद और साधु संतों की एकाग्रता यहाँ की पवित्रता का बोध कराती है। यहाँ साडा द्वारा सीढ़ियों पर बैठने की व्यवस्था की गई है, जहाँ से प्रातः सूर्योदय का दृश्य दर्शनीय होता है।

VARSHNEY.009
12-07-2013, 05:39 PM
चम्बा की घाटी
विख्यात कलापारखी डॉ. बोगल ने चम्बा को यों ही "अचम्भा" नहीं कह डाला था और सैलानी भी यों ही इस नगरी में नहीं खिंचे चले आते। चम्बा की वादियों में कोई ऐसा सम्मोहन ज़रूर है जो सैलानियों को मंत्रमुग्ध कर देता है और वे बार–बार यहाँ दस्तक देने को लालायित रहते हैं। यहाँ मंदिरों से उठती धार्मिक गीतों की स्वरलहरियों जहाँ परिवेश को आध्यात्मिक बना देती हैं, वहीं रावी नदी की मस्त रवानगी और पहाड़ों की ओट से आते शीतल हवा के झोंके सैलानी को ताज़गी का अहसास कराते हैं।

चम्बा में कदम रखते ही इतिहास के कई वर्क पंख फड़फड़ाने लगते हैं और यहाँ की प्राचीन प्रतिमाएँ संवाद को आतुर प्रतीत हो उठती हैं। चम्बा इतिहास, कला, धर्म और पर्यटन का मनोहारी मेल है और चम्बा के लोग अलमस्त, फक्कड़ तबीयत के। चम्बा की खूबसूरत वादियों को ज्यों–ज्यों हम पार करते जाते हैं, आश्चर्यों के कई नये वर्क हमारे सामने खुलते चले जाते हैं और प्रकृति अपने दिव्य सौंदर्य की झलक हमें दिखाती चलती है। चम्बा की किसी दुर्गम वादी में अगर कोई पंगवाली युवती मुस्करा कर हमारा अभिवादन करती है तो किसी वादी में कोई गद्दिन युवती अपनी भेड़–बकरियों के रेवड़ के साथ गुज़रती हुई अपनी मासूमियत से हमारा दिल जीत जाती है। चम्बा के सौंदर्य को बड़ी शिद्दत से आत्मसात करने के बाद ही डॉ. बोगल ने इसे "अचंभा" कहा होगा।
http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2006/chamba/chambakalam.jpgचम्बा को यह सौभाग्य प्राप्त रहा है कि इसे एक से बढ़कर एक कलाप्रिय, धार्मिक व जनसेवक राजा मिले। इन राजाओं के काल में यहाँ की लोक कलाएँ न केवल फली–फूलीं अपितु इनकी ख्याति चम्बा की सीमाओं को पार कर पूरे भारत में फैली। इन कलाप्रिय नरेशों में राज श्री सिंह (१८४४), राजा राम सिंह (१८७३) व राजा भूरि सिंह (१९०४) के नाम विषेश रूप से उल्लेखनीय हैं। वास्तुकला हो या भित्तिचित्र कला, मूर्तिकला हो या काष्ठ कला, जितना प्रोत्साहन इन्हें चम्बा में मिला, शायद ही ये कलाएँ देश में कहीं अन्यत्र इतनी विकसित हुई हों। "चम्बा कलम" (विशेष कला शैली : चित्र दाहिनी ओर) ने तो देश भर में एक अलग पहचान बनाई है। किसी घाटी की ऊंचाई पर खड़े होकर देखें तो समूचा चम्बा शहर भी किसी अनूठी कलाकृति की तरह ही लगता है। ढलानदार छत्तों वाले मकान, शिखर शैली के मंदिर, हरा–भरा विशाल चौगान और इसकी पृष्ठभूमि में यूरोपीय प्रभाव लिए महलों का वास्तुशिल्प सहसा ही मन मोह लेता है। चम्बा में पहुंचते ही रजवाड़ाशाही के दिनों में लौटने की कल्पना भी की जा सकती है और यहाँ के प्राचीन रंगमहल व अखंडचंडी महल में घूमते हुए अतीत की पदचाप भी सुनी जा सकती है।

चम्बा के संस्थापक राजा साहिल वर्मा ने ९२० ई .में इस शहर का नामकरण अपनी बेटी चंपा के नाम पर क्यों किया था, इस बारे में एक बहुत ही रोचक किंवदंती प्रचलित है। कहा जाता है कि राजकुमारी चंपावती बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति की थी और नित्य स्वाध्याय के लिए एक साधू के पास जाया करती थी। एक दिन राजा को किसी कारणवश अपनी बेटी पर संदेह हो गया। शाम को जब साधू के आश्रम में बेटी जाने लगी तो राजा भी चुपके से उसके पीछे हो लिया। बेटी के आश्रम में प्रवेश करते ही जब राजा भी अंदर गया तो उसे वहाँ कोई दिखाई नहीं दिया। लेकिन तभी आश्रम से एक आवाज़ गूँजी कि उसका संदेह निराधार है और अपनी बेटी पर शक करने की सज़ा के रूप में उसकी निष्कलंक बेटी छीन ली जाती है। साथ http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2006/chamba/chaugan.jpgही राजा को इस स्थान पर एक मंदिर बनाने का आदेश भी प्राप्त हुआ। चम्बा नगर के ऐतिहासिक चौगान (चित्र में) के पास स्थित इस मंदिर को लोग चमेसनी देवी के नाम से पुकारते हैं। वास्तुकला की दृष्टि से यह मंदिर अद्वितीय है। इस घटना के बाद राजा साहिल वर्मा ने नगर का नामकरण राजकुमारी चंपा के नाम पर किया, जो बाद में चम्बा कहलाने लगा।

चम्बा में मंदिरों की बहुतायत होने के कारण इसे "मंदिरों की नगरी" भी कहा जाता है। चम्बा में लगभग ७५ मंदिर हैं और इनके बारे में अलग–अलग किंवदंतियाँ हैं। इनमें से कई मंदिर शिखर शैली के हैं और कई पर्वतीय शैली के। शिल्प व वास्तुकला की दृष्टि से ये मंदिर अद्वितीय हैं।

लक्ष्मीनारायण मंदिर समूह तो चम्बा को सर्वप्रसिद्ध देवस्थल है। इस मंदिर समूह में महाकाली, हनुमान, नंदीगण के मंदिरों के साथ–साथ विष्णु व शिव के तीन–तीन मंदिर हैं। सिद्ध चर्पटनाथ की समाधि भी यहीं है। मंदिर में अवस्थित लक्ष्मीनारायण की बैकुंठ मूर्ति कश्मीरी व गुप्तकालीन निर्माण कला का अनूठा संगम है। इस मूर्ति के चार मुख व चार हाथ हैं। मूर्ति की पृष्ठभूमि में तोरण है, जिस पर १० अवतारों की लीला चित्रित है।

http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2006/chamba/museum.jpgचम्बा कलानगरी भी कहलाती है। यहाँ भूरिसिंह नाम का संग्रहालय है जहाँ चम्बा घाटी की हर कला सुशोभित है। भारत के ५ प्राचीन प्रमुख संग्रहालयों में से एक माने जाने वाला यह संग्रहालय शहर के ऐतिहासिक चौगान में स्थित है और विश्व भर के पर्यटकों, शोधार्थियों व कलाप्रेमियों के आकर्षण का केंद्र है। इस संग्रहालय में ५ हज़ार से अधिक ऐसी दुर्लभ कलाकृतियाँ हैं जो इस तथ्य की साक्षी हैं कि उस समय चम्बा की कला अपने स्वर्णिम युग में थी। इन कलाकृतियों में भित्तिचित्र भी हैं और मूर्तियाँ भी, पांडुलिपियाँ भी हैं और विभिन्न धातुओं से निर्मित वस्तुएँ भी। यही नहीं, प्राचीन सिक्के और आभूषण भी बड़ी सँभाल के साथ यहाँ रखे गए है। विश्व प्रसिद्ध "चम्बा रूमाल" भी यहाँ शीशे के बक्सों में देखा जा सकता है। संग्रहालय में रखी गई मूर्तियाँ उन्नत शिल्प कला का बेजोड़ उदाहरण हैं। इनमें से एक मूर्ति भगवान वासुदेव की हैं (चित्र दायीं ओर)। यह मूर्ति इस संग्रहालय की सुरक्षित प्रस्तर प्रतिभाओं में से सब से छोटी है।

चम्बा की कलात्मक धरोहर में यहाँ की पनघट शिलाओं को भी शामिल किया जा सकता है। ये शिलाएँ चम्बा जनपद के ग्रामीण आंचलों में बनी बावड़ियों और नौणा जैसे प्राकृतिक जल स्त्रोतों के किनारे आज भी प्रतिष्ठित देखी जा सकती हैं। घाटियों में घूमता कोई घुमक्कड़ जब अपनी प्यास बुझाने इन जल स्त्रोतों के पास पहुंचता है तो वहाँ रखी पनघट शिलाओं के कलात्मक शिल्प और इन पर खुदी आकृतियों को देखकर दंग रह जाता है। ये शिलाएँ चम्बा की गौरवपूर्ण संस्कृति व इतिहास का आइना भी हैं। खुले आकाश तले प्रतिष्ठित होने के बाबजूद ये अपना मौलिक स्वरूप बरकरार रखे हुए हैं। कुछ विशिष्ट शिलाएँ तो भूरिसिंह संग्रहालय में भी प्रदर्शित की गई हैं।

चम्बा के अखंड चंडी महल और रंग महल भी देखने योग्य हैं। अखंड चंडी महल तो एक ऐतिहासिक स्मारक होने के साथ–साथ अनूठे वास्तु स्थापत्य और चित्रकला के लिए देशभर में मशहूर हैं। इस महल में घूमते हुए सैलानी रजबाड़ाशाही के युग में लौट जाता है और चम्बा के राजाओं की कलात्मक अभिरुचियाँ और राजसी ठाठ–बाठ उसके निगाहों के आगे तैरने लगते हैं। चम्बा के ऐतिहासिक चौगान से साफ़ दिखने वाला यह महल इतिहास के कई थपेड़ों का मूक साक्षी है। रजवाड़ाशाही के दौर में राजा आते–जाते रहे और इस महल के निर्माण व विस्तार का काम चलता रहा।

http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2006/chamba/minjarmela.jpgनगर के उत्तरी भाग में किलानुमा दिखने वाला रंगमहल भी चम्बा की कलात्मक व ऐतिहासिक धरोहर है। अखंड चंडी महल का निर्माण तो बाद में हुआ, पहले रंग महल ही चम्बा के राजाओं का आवास हुआ करता था। इस रंगमहल की नींव १७५५ में तत्कालीन चम्बा नरेश उमेद सिंह ने रखी थी। उमेद सिंह ने १७४८ से १७६४ तक चम्बा राज्य पर शासन किया। उसकी इच्छा थी कि यह भवन इतना विशाल व आलीशान बने कि पड़ोसी रियासतों के राजा भी इसकी खूबसूरती से ईर्ष्या करें लेकिन उमेद सिंह के जीवन काल में यह भवन पूरा नहीं हो पाया। इसका बाकी निर्माण कार्य उसके पुत्र राजा राजसिंह ने पूरा करके अपने पिता का स्वप्न साकार किया। यह महल अनूठी कलात्मक धरोहर भी बने, इस उद्देश्य से इसके भीतर पहाड़ी शैली के अनूठे चित्र बनाए गए।

चम्बा की सांस्कृतिक धरोहर में यहाँ के मेलों को भी शामिल किया जा सकता है। वैसे तो इस जनपद में बहुत से मेलों का आयोजन होता है लेकिन मिंजर मेला और मणीमहेश मेला, दो ऐसे आयोजन हैं जिन्होंने देशव्यापी ख्याति अर्जित की है। चम्बा मिंजर मेला जहाँ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाया जाता है वहीं मणीमहेश मेला को राज्य स्तरीय दर्जा हासिल है। मिंजर मेला उन दिनों लगता है जब सावन की हल्की–हल्की फुहारों से लोग भीग रहे होते हैं। इसे सावन की फुहारों में लगने वाला मेला भी कहा जाता है। इस मेले में आयोजित लोकनृत्यों में तो समूची चम्बा घाटी की संस्कृति देखने को मिलती है।
http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2006/chamba/laxminarayantemplechamba.jpg

VARSHNEY.009
16-07-2013, 10:40 AM
पौषपत्री
अमरनाथ यात्रा में महागुनस चोटी को पार करके एक स्थान आता है- पौषपत्री। जहां महागुनस (महागणेश) चोटी समुद्र तल से 4276 मीटर की ऊंचाई पर है वहीं पौषपत्री की ऊंचाई 4114 मीटर है। यहां से एक तरफ बरफ से ढकी महागुनस चोटी दिखाई देती है, वही दूसरी ओर दूर तक जाता ढलान दिखता है। पौषपत्री से अगले पडाव पंचतरणी तक कहीं भी चढाई वाला रास्ता नहीं है। टोटल उतराई है। पौषपत्री का मुख्य आकर्षण यहां लगने वाला भण्डारा है। देखा जाये तो पौषपत्री पहुंचने के दो रास्ते हैं। एक तो पहलगाम से और दूसरा बालटाल से पंचतरणी होते हुए। यह शिव सेवक दिल्ली वालों द्वारा लगाया जाता है। मुझे नहीं लगता कि इतनी दुर्गम जगह पर खाने का सामान हेलीकॉप्टर से पहुंचाया जाता होगा। सारा सामान खच्चरों से ही जाता है। हमें यहां तक पहुंचने में डेढ दिन लगे थे। खच्चर दिन भर में ही पहुंच जाते होंगे, वो भी महागुनस की बर्फीली चोटी को लांघकर।
वैसे तो यात्रा में अनगिनत भण्डारे लगते हैं। लेकिन सबसे शानदार भण्डारा मुझे यही लगा। खाने के आइटमों के मामले में। अभी फोटो और एक वीडियो दिखा रहा हूं। इसे देखकर किसी अमीर बाप को अपने इकलौते बेटे की शादी की पार्टी देने में भी शर्म आने लगेगी।



http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TINUkPx8K5I/AAAAAAAADXY/a56mWEdjH6w/AMARNATH%201_thumb%5B3%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TINUi7bY2-I/AAAAAAAADXU/bVfGb0W0Mec/s1600-h/AMARNATH%201%5B5%5D.jpg) महागुनस चोटी को पार करके पौषपत्री आता है।


http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TINUnHno7tI/AAAAAAAADXg/D6-z9Qi87vg/AMARNATH%202_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TINUlgul_5I/AAAAAAAADXc/STUiveolQeU/s1600-h/AMARNATH%202%5B3%5D.jpg) यह भण्डारे वालों ने ही लगा रखा है।


http://lh6.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TINUp8ofZeI/AAAAAAAADXo/q_KqCJRuA1U/AMARNATH%203_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh6.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TINUoqtMSfI/AAAAAAAADXk/riXE4rDfWI0/s1600-h/AMARNATH%203%5B3%5D.jpg) पौषपत्री से पंचतरणी जाने का रास्ता।


यह है भण्डारा- फ्री में।


पहले डोसा खाओ।




नमकीन खाने की भरमार है तो…


… मीठे की भी भरमार है।


खाने से पहले यह भी सोचना पडेगा कि हम इस समय खडे कहां पर हैं। समुद्र तल से 4114 मीटर की ऊंचाई पर, वो भी डेढ दिन से पैदल यात्रा करके यहां पहुंचे हैं। बरफ और ठण्ड को झेलते हुए। धन्य हैं वे लोग जो यात्रा में भण्डारे लगाते हैं।


एक सच्चाई यह भी है। “घोडे और पिट्ठू वालों का भण्डारा नीचे है।” स्थानीय लोगों के लिये अलग से भण्डारे लगाये जाते हैं। उन्हे ज्यादातर जगहों पर मुख्य भण्डारे में नहीं घुसने दिया जाता। उनके भण्डारे में सब्जी-रोटी और चावल होते हैं।


http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TINVEwiFsRI/AAAAAAAADYs/DjVKOHS1coQ/AMARNATH%2011_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TINVDmjV91I/AAAAAAAADYo/vxScvueaVn8/s1600-h/AMARNATH%2011%5B3%5D.jpg) यह है असली सूरत पौषपत्री की। पीछे महागुनस दर्रा दिख रहा है।


http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TINVHxsJwNI/AAAAAAAADY0/zx054yV-nZM/AMARNATH%2012_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh6.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TINVGm8kfmI/AAAAAAAADYw/FJrilDUajI4/s1600-h/AMARNATH%2012%5B3%5D.jpg) अब चल पडे पंचतरणी की ओर। अभी पंचतरणी 6-7 किलोमीटर और है।


http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TINVKatnSZI/AAAAAAAADY8/WSlvJP7H7u4/AMARNATH%2013_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh6.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TINVJICiw9I/AAAAAAAADY4/uXAKU6-NsD4/s1600-h/AMARNATH%2013%5B3%5D.jpg) पंचतरणी की ओर जाते यात्री।


http://lh6.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TINVNhYUmEI/AAAAAAAADZE/sweaSHx6Jlg/AMARNATH%2014_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh5.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TINVL8jKr9I/AAAAAAAADZA/4fmABljNVpQ/s1600-h/AMARNATH%2014%5B3%5D.jpg) पीछे महागुनस पर्वत।

VARSHNEY.009
16-07-2013, 11:11 AM
पंचतरणी- सुन्दरतम जगह

पौषपत्री से चलकर यात्री पंचतरणी रुकते हैं। यह एक काफी बडी घाटी है। चारों ओर ग्लेशियर हैं तो चारों तरफ से नदियां आती हैं। कहते हैं कि यहां पांच नदियां आकर मिलती हैं इसीलिये इसे पंचतरणी कहते हैं। लेकिन असल में ऐसा नहीं है। इस घाटी में छोटी-बडी अनगिनत नदियां आती हैं। चूंकि यह लगभग समतल और ढलान वाली घाटी है, इसलिये पानी रुकता नहीं है। अगर यहां पानी रुकता तो शेषनाग से भी बडी झील बन जाती। इन पांच नदियों को पांच गंगा कहा जाता है। यहां पित्तर कर्म भी होते हैं। यहां भी शेषनाग की तरह तम्बू नगर बसा हुआ है। अमरनाथ गुफा की दूरी छह किलोमीटर है। दो-ढाई बजे के बाद किसी भी यात्री को अमरनाथ की ओर नहीं जाने दिया जाता। सभी को यही पर रुकना पडता है। हम इसीलिये शेषनाग से जल्दी चल पडे थे, और बारह बजे के लगभग यहां पहुंचे थे। हमारा इरादा आज की रात गुफा के पास ही बिताने का था।
बालटाल से हेलीकॉप्टर सुविधा भी मिलती है। पहले हेलीकॉप्टर गुफा के बिल्कुल सामने ही उतरते थे, जिससे ज्यादा प्रदूषण होने की वजह से शिवलिंग पर असर पडता था। इस बार हेलीपैड पंचतरणी में बना रखा था। पंचतरणी तक हेलीकॉप्टर से आओ, फिर या तो छह किलोमीटर पैदल जाओ, या खच्चर-पालकी में बैठो। अब जो लोग हेलीकॉप्टर से आते हैं, वे पैदल तो चल नहीं सकते; इसलिये सभी खच्चर-पालकी ही पकडते हैं।
पौषपत्री से जब हम चले तो मेरा प्रेशर बनने लगा। वहीं नदी किनारे बैठकर प्रेशर रिलीज किया। धोने के लिये जैसे ही पानी में हाथ डाला तो जान निकल गयी। उम्मीद नहीं थी कि पानी इतना ठण्डा भी हो सकता है। ऊपर मौसम साफ था, इसलिये धूप जोर की निकल रही थी। धूप की वजह से गर्मी लग रही थी। अब तक शरीर के नंगे हिस्से जैसे हथेली के पीछे का हिस्सा, गर्दन और चेहरा पूरी तरह जल गये थे। जलने की वजह से अब धूप बर्दाश्त भी नहीं हो रही थी। चेहरे पर तौलिया लपेट लिया, जिससे चेहरे और गर्दन को कुछ आराम मिला।
चलिये, बहुत हो गया। फोटू देखते हैं।



http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TIb1WZKDFkI/AAAAAAAADZM/cFH22CpvzeU/AMARNATH%201_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TIb1Vd9frKI/AAAAAAAADZI/EOZr90dTukI/s1600-h/AMARNATH%201%5B3%5D.jpg) अगर इस चित्र का विकर्ण (diagonal) खींचा जाये, तो केन्द्र में पौषपत्री वाला महान भण्डारा दिखाई देगा। उसके पीछे महागुनस चोटी और दर्रा भी दिख रहा है। इसी बर्फीले दर्रे को पार करके यात्री शेषनाग से यहां आते हैं।

http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TIb1Ys-yhyI/AAAAAAAADZU/KSoby6Hpnv4/AMARNATH%202_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh6.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TIb1XbIO8RI/AAAAAAAADZQ/1ckQfyYNoKk/s1600-h/AMARNATH%202%5B3%5D.jpg) सामने वाले पहाडों की तलहटी में पहुंचना है। फिर बायें मुडकर पंचतरणी है। इसका मतलब है कि आगे का रास्ता उतराई वाला है।


http://lh5.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TIb1a8HP_XI/AAAAAAAADZc/PSqfr2itzHA/AMARNATH%203_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TIb1Z7d2N-I/AAAAAAAADZY/jksL5MTrIbI/s1600-h/AMARNATH%203%5B3%5D.jpg)


http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TIb1fAloukI/AAAAAAAADZs/qq31IUM9T7M/AMARNATH%205_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TIb1eFqN1XI/AAAAAAAADZo/-I3f8O1zQDA/s1600-h/AMARNATH%205%5B3%5D.jpg) नीचे तलहटी में कुछ तम्बू दिखाई दे रहे हैं, वही पंचतरणी है।


ओहो, महाराज जी।


ओहो, दूसरा महाराज। ये लोग भी बडी संख्या में जाते हैं।


http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TIb1lmk6JeI/AAAAAAAADaE/abEO0FNSSsU/AMARNATH%208_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh6.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TIb1kkwZduI/AAAAAAAADaA/m2_KNulJBo0/s1600-h/AMARNATH%208%5B3%5D.jpg) ग्लेशियरों की कोई गिनती नहीं।




http://lh5.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TIb1p-z3BCI/AAAAAAAADaU/aFxGYvgVk6g/AMARNATH%2010_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TIb1o_V-RAI/AAAAAAAADaQ/hUZlQ0Vg4wc/s1600-h/AMARNATH%2010%5B3%5D.jpg) यह है पंचतरणी घाटी।


http://lh5.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TIb1sCWqL2I/AAAAAAAADac/DoIVEouBtk0/AMARNATH%2011_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TIb1rJ2M0UI/AAAAAAAADaY/IT7ypcVV-bA/s1600-h/AMARNATH%2011%5B3%5D.jpg)


घाटी में छोटी-छोटी नदियों का जाल-सा बिछा है। सभी को पैदल ही पार किया जाता है।


http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TIb1yTR0rlI/AAAAAAAADa0/xXMHr5z_EPY/AMARNATH%2014_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TIb1xiFHmRI/AAAAAAAADaw/kBO6T4fcdKQ/s1600-h/AMARNATH%2014%5B3%5D.jpg)
पंचतरणी घाटी के कुछ और फोटू।


http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TIb12eqbrQI/AAAAAAAADbE/hxBkjlPsS5A/AMARNATH%2016_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TIb11bLo6II/AAAAAAAADbA/vt6OSmh0XpQ/s1600-h/AMARNATH%2016%5B3%5D.jpg)
http://lh6.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TIb14l2ZAFI/AAAAAAAADbM/1Tf1i8K88RM/AMARNATH%2017_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TIb13q7CVJI/AAAAAAAADbI/cbwEYUXxsz0/s1600-h/AMARNATH%2017%5B3%5D.jpg)







http://lh6.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TIb1_bWm1JI/AAAAAAAADbo/wj3LqLWL_M0/AMARNATH%2020_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh5.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TIb1-OqG1wI/AAAAAAAADbk/kmGNTAiwytE/s1600-h/AMARNATH%2020%5B3%5D.jpg)
http://lh5.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TIb2BlNEILI/AAAAAAAADbw/9DI3gr577ao/AMARNATH%2021_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TIb2Ah2uXgI/AAAAAAAADbs/Q_66MRzXi28/s1600-h/AMARNATH%2021%5B3%5D.jpg)
http://lh6.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TIb2ESR2tNI/AAAAAAAADb4/Nf0gnmfTGMI/AMARNATH%2022_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh5.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TIb2C5qLNOI/AAAAAAAADb0/vEK2_8SEQCE/s1600-h/AMARNATH%2022%5B3%5D.jpg)
http://lh5.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TIb2GQ4N4qI/AAAAAAAADcA/AQTPw302bJo/AMARNATH%2023_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh5.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TIb2FXUxOvI/AAAAAAAADb8/Wan9tveMdR8/s1600-h/AMARNATH%2023%5B3%5D.jpg)
http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TIb2IrYLLtI/AAAAAAAADcI/zkXaiAmhSxU/AMARNATH%2024_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh6.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TIb2Hm5tIAI/AAAAAAAADcE/WuZcGI1139I/s1600-h/AMARNATH%2024%5B3%5D.jpg)
http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TIb2KBmkiEI/AAAAAAAADcQ/tVwE6COoi6A/AMARNATH%2025_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TIb2Jc1_J8I/AAAAAAAADcM/4S_N1GoSn6I/s1600-h/AMARNATH%2025%5B3%5D.jpg) अब हेलीपैड को अमरनाथ गुफा के सामने से हटाकर छह किलोमीटर दूर पंचतरणी में स्थापित कर दिया है।







http://lh5.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TIb2O4QXEYI/AAAAAAAADcg/p_ZbK6s324o/AMARNATH%2027_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TIb2N9MxxtI/AAAAAAAADcc/ALjBfo_Gt0E/s1600-h/AMARNATH%2027%5B3%5D.jpg)





http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TIb2TJFw9OI/AAAAAAAADcw/Rgw-RUglbmU/AMARNATH%2029_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh5.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TIb2SJ4yEgI/AAAAAAAADcs/P1lr9lcFgBA/s1600-h/AMARNATH%2029%5B3%5D.jpg) एक नजर सुरक्षा पर भी।


http://lh6.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TIb2VNS7-pI/AAAAAAAADc4/9hdyu6crZZI/AMARNATH%2030_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TIb2UEfwCMI/AAAAAAAADc0/EKwNHOlXz_M/s1600-h/AMARNATH%2030%5B3%5D.jpg) इनके बिना यात्रा हो ही नहीं सकती।







http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TIb2Z-yOr_I/AAAAAAAADdI/QykIvbGco7Q/AMARNATH%2032_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh5.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TIb2Y-krURI/AAAAAAAADdE/Zm2fJ89aLa0/s1600-h/AMARNATH%2032%5B3%5D.jpg) असल में यहां से ज्यादा सुरक्षा की जरुरत पहलगाम और बालटाल में है। ये दोनों शहर छावनी बने रहते हैं। जम्मू-कश्मीर पुलिस ना तो पहलगाम में दिखी और ना ही उसके बाद रास्ते में कहीं। घोडे-खच्चर वालों को केवल पैसे से मतलब है। एक ये ही ऐसे लोग हैं, जो यात्रियों के हर सुख-दुख में काम आते हैं। मन खुश हुआ, किसी ने कहा कि फौजी भाई, एक फोटो; तो मजे में फोटो खिंचवाते हैं। कोई दुखी-परेशान है, तो उसके लिये भी हरदम तैयार।

VARSHNEY.009
16-07-2013, 11:15 AM
छह-साढे छह के करीब हमने पहलगाम से एक गाडी ली और चन्दनबाडी पहुंच गये। चन्दनबाडी (या चन्दनवाडी) के रास्ते में एक जगह पडती है – बेताब घाटी। इसी घाटी में बेताब फिल्म की शूटिंग हुई थी। लगभग पूरी फिल्म यही पर शूट की गयी थी। ऊपर सडक से देखने पर बेताब घाटी बडी मस्त लग रही थी।
चन्दनबाडी से एक-डेढ किलोमीटर पहले ही गाडियों की लाइनें लगी थी। असल में जाम लगा था। दूसरों की देखा-देखी हमारा दल भी गाडी से उतरकर पैदल ही चन्दनबाडी की ओर चल पडा। चन्दनबाडी में भी यात्रियों और सामान की तलाशी ली जाती है। हमने अपना भारी और गैरजरूरी सामान तो गाडी में ही छोड दिया था। अब केवल बेहद जरूरी सामान ही था। यहां से अमरनाथ की पैदल यात्रा शुरू होती है। चन्दनबाडी पहलगाम से सोलह किलोमीटर दूर है। यहां कई भण्डारे भी लगे थे। अमरनाथ यात्रा का एक आकर्षण भण्डारे भी होते हैं। करोडों का खर्चा करते हैं ये भण्डारे वाले।
यहां पर एक कागज हाथ लगा जिस पर यात्रा मार्ग की सभी दूरियां लिखी थीं- पिस्सू घाटी 3 किलोमीटर, फिर जोजपाल, शेषनाग, महागुनस, पौष पत्री, पंचतरणी, संगम और गुफा। इसमें पहला स्टेप है चन्दनबाडी से पिस्सू घाटी का। यह मार्ग तीन किलोमीटर का है लेकिन सबसे मुश्किल भी। ऊपर देखने पर जब सिर गर्दन को छूने लगे तो एक चोटी दिखती है, उसे पिस्सू टॉप कहते हैं। ध्यान से देखने पर वहां भी रंग-बिरंगी चींटियां सी चलती दिखती हैं। कई यात्री जो घर से सोचकर आते हैं कि हम पूरी यात्रा पैदल ही करेंगे, इस चोटी को देखते ही ढेर हो जाते हैं। जरा सा चढते ही खच्चर वालों से मोलभाव करते दिखते हैं।
कहते हैं कि कभी इस स्थान पर देवताओं का और राक्षसों का युद्ध हुआ था। देवता जीत गये। उन्होंने राक्षसों को पीस-पीसकर उनका ढेर लगा दिया। उस ढेर को ही पिस्सू टॉप कहते हैं। पिस-पिसकर लगे ढेर को पिस्सू नाम दे दिया।
यह रास्ता बेहद चढाई भरा है। ऊपर से पानी भी आता रहता है। खच्चर वाले भी सबसे ज्यादा इसी पर मिलते हैं, क्योंकि आगे का रास्ता अपेक्षाकृत आसान है। पथरीला पहाड है तो जाडों में बरफ पडने से बना बनाया रास्ता अगले सीजन तक टूट जाता है। इसलिये इसे पक्का भी नहीं बनाया जा सका। पैदल यात्री शॉर्ट कट से चलना पसन्द करते हैं। उनकी वजह से कभी कभी पत्थर भी गिर जाते हैं। जो पत्थर एक बार गिर गया, वो नीचे तक लोगों को घायल करता चला जाता है। भगदड भी मच जाती है, जान भी चली जाती है।
हमारे दल में सबसे तेज शहंशाह चल रहा था, फिर मैं। ऐसे पहाड पर चढने का मेरा अपना तरीका है। धीरे-धीरे केवल अपने पैरों को देखते हुए चलता हूं, थकान नहीं होती। जब मैं ऊपर पहुंचा तो शहंशाह वही बैठा मिला। धीरे-धीरे दल के सभी सदस्य आ गये। घण्टे भर तक यहां आराम किया। दो-तीन भण्डारे भी लगे थे। नीचे से यहां तक के रास्ते में क्या हुआ, उसे चित्रों के माध्यम से देखिये:









http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TGEWlJ5OsqI/AAAAAAAADFo/SeLcrHzH6zk/CHANDANWARI_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh5.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TGEWjMeDBpI/AAAAAAAADFk/Y_uqzItiLk0/s1600-h/CHANDANWARI%5B3%5D.jpg) चन्दनवाडी का विहंगम दृश्य





http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TGEWqTNxzkI/AAAAAAAADF4/XanNWt8ZsBg/SNOW%20BRIDGE_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh5.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TGEWpAYT_KI/AAAAAAAADF0/agme53pKr6U/s1600-h/SNOW%20BRIDGE%5B3%5D.jpg) चन्दनवाडी के पास बरफ का पुल





http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TGEWwas4ZeI/AAAAAAAADGI/NQuT3VRdfnM/NEAR%20CHANDANWARI_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TGEWvcGhRxI/AAAAAAAADGE/KL03bivgHME/s1600-h/NEAR%20CHANDANWARI%5B3%5D.jpg) शानदार झरना










http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TGEW4Y0c1NI/AAAAAAAADGg/fGckOTQg7kY/AMARNATH%20YATRA%2001_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh6.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TGEW3Gk8WII/AAAAAAAADGc/-yjqdrASrq8/s1600-h/AMARNATH%20YATRA%2001%5B3%5D.jpg) पिस्सू घाटी की चढाई







http://lh5.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TGEXC5aYwGI/AAAAAAAADG4/3hpKal1uMA4/OM%20AT%20PISSU%20TOP_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh6.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TGEXArAap6I/AAAAAAAADG0/TTFQ2jqs1Z0/s1600-h/OM%20AT%20PISSU%20TOP%5B3%5D.jpg) पिस्सू टॉप पर














http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TGEXWB66XRI/AAAAAAAADHk/MBJ-gwC4KDI/MAP_thumb%5B1%5D.png?imgmax=800 (http://lh5.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TGEXSxjYonI/AAAAAAAADHg/_NJGX-9Q67o/s1600-h/MAP%5B1%5D.png) यह चित्र मैने गूगल अर्थ से लिया है। इसमें नीचे चन्दनवाडी और ऊपर पिस्सू टॉप दिखाया गया है। गूगल अर्थ ने यह चित्र जाडों में लिया होगा। तभी तो हर तरफ बरफ ही बरफ दिख रही है। अब यात्रा के समय यहां पहाडों पर बरफ नहीं थी।

VARSHNEY.009
16-07-2013, 11:17 AM
सोनामार्ग (सोनमर्ग) के नजारे
सोनमर्ग बालटाल से आठ किलोमीटर दूर श्रीनगर वाले रास्ते पर है। इसे सोनामार्ग कहते हैं, जो आजकल सोनमर्ग बोला जाता है। यह इलाका घाटी के मुकाबले बिल्कुल शान्त है, इसलिये यहां रुकने में डर भी नहीं लग रहा था। जिस होटल में हम ठहरे थे, उसका मालिक एक हिन्दू था। उस होटल में काम करने वाला बाकी सारा स्टाफ मुसलमान। हिन्दू मालिक बताता है कि हफ्ते दस दिन में मेरे पास मिलिटरी का एक कर्नल आ जाता है। कर्नल ने उसे अपना फोन नम्बर दे रखा है कि अगर कभी तुम पर कोई दिक्कत आये तो तुरन्त फोन कर देना। दो मिनट में फौज होटल में पहुंच जायेगी। और हां, पूरे सोनमर्ग में वही अकेला हिन्दू है।


साल में पांच-छह महीने यह इलाका बरफ से ढका रहता है। इस दौरान यहां कोई आदमजात नहीं दिखती। अप्रैल मई आने पर सबसे पहले होटल वाले ही यहां पहुंचते हैं। साफ-सफाई करते हैं, पिछले कई महीनों से जमी बरफ को हटाकर रास्ता बनाते हैं। फिर धीरे-धीरे पर्यटक और घुमक्कड पहुंचते हैं। सबसे व्यस्त सीजन अमरनाथ यात्रा के दौरान होता है।


चलो खैर, बहुत पढाई कर ली। अब फोटू देखिये:


http://3.bp.blogspot.com/_n4dvGkVExFQ/TLKIRAQieLI/AAAAAAAADns/sFbDkmaaKms/s640/SONAMARG+6.JPG (http://3.bp.blogspot.com/_n4dvGkVExFQ/TLKIRAQieLI/AAAAAAAADns/sFbDkmaaKms/s1600/SONAMARG+6.JPG)


http://4.bp.blogspot.com/_n4dvGkVExFQ/TLKHxLjr8EI/AAAAAAAADnk/JcK9v6__CoU/s640/SONAMARG+3.JPG (http://4.bp.blogspot.com/_n4dvGkVExFQ/TLKHxLjr8EI/AAAAAAAADnk/JcK9v6__CoU/s1600/SONAMARG+3.JPG) सामने पहाड पर टंगा थाजीवास ग्लेशियर दिख रहा है।

http://1.bp.blogspot.com/_n4dvGkVExFQ/TLKHwxodsbI/AAAAAAAADnc/Jqf8cSvaB2Q/s640/SONAMARG+2.JPG (http://1.bp.blogspot.com/_n4dvGkVExFQ/TLKHwxodsbI/AAAAAAAADnc/Jqf8cSvaB2Q/s1600/SONAMARG+2.JPG)


http://2.bp.blogspot.com/_n4dvGkVExFQ/TLKHweag_yI/AAAAAAAADnU/aB-LFwEJmrE/s640/SONAMARG+1.JPG (http://2.bp.blogspot.com/_n4dvGkVExFQ/TLKHweag_yI/AAAAAAAADnU/aB-LFwEJmrE/s1600/SONAMARG+1.JPG)






http://2.bp.blogspot.com/_n4dvGkVExFQ/TLKGVQ_ofSI/AAAAAAAADnM/UlZOeNnPHho/s640/SONAMARG+5.JPG (http://2.bp.blogspot.com/_n4dvGkVExFQ/TLKGVQ_ofSI/AAAAAAAADnM/UlZOeNnPHho/s1600/SONAMARG+5.JPG)


http://3.bp.blogspot.com/_n4dvGkVExFQ/TLKGU1KPGII/AAAAAAAADm8/P0guzPeUlaM/s640/SONAMARG+7.JPG (http://3.bp.blogspot.com/_n4dvGkVExFQ/TLKGU1KPGII/AAAAAAAADm8/P0guzPeUlaM/s1600/SONAMARG+7.JPG)


http://4.bp.blogspot.com/_n4dvGkVExFQ/TLKGUPLv3II/AAAAAAAADm0/Ccu3zGzfTc4/s640/SONAMARG+8.JPG (http://4.bp.blogspot.com/_n4dvGkVExFQ/TLKGUPLv3II/AAAAAAAADm0/Ccu3zGzfTc4/s1600/SONAMARG+8.JPG)


http://3.bp.blogspot.com/_n4dvGkVExFQ/TLKGTpZQ6UI/AAAAAAAADms/fUM-VRfDinA/s640/SONAMARG+4.JPG (http://3.bp.blogspot.com/_n4dvGkVExFQ/TLKGTpZQ6UI/AAAAAAAADms/fUM-VRfDinA/s1600/SONAMARG+4.JPG) थाजीवास ग्लेशियर- सोनमर्ग की शान

http://2.bp.blogspot.com/_n4dvGkVExFQ/TLKF32a63dI/AAAAAAAADmk/zGMD6-DZMls/s640/SONAMARG+9.JPG (http://2.bp.blogspot.com/_n4dvGkVExFQ/TLKF32a63dI/AAAAAAAADmk/zGMD6-DZMls/s1600/SONAMARG+9.JPG)





http://1.bp.blogspot.com/_n4dvGkVExFQ/TLKFd1Kht9I/AAAAAAAADmM/P3asehyJD1s/s640/SONAMARG+11.JPG (http://1.bp.blogspot.com/_n4dvGkVExFQ/TLKFd1Kht9I/AAAAAAAADmM/P3asehyJD1s/s1600/SONAMARG+11.JPG)

VARSHNEY.009
16-07-2013, 11:24 AM
बिजली महादेव


"श्री भगवान शिव के सर्वोत्तम तपस्थान (मथान) 7874 फुट की ऊंचाई पर है। श्री सदा शिव इस स्थान पर तप योग समाधि द्वारा युग-युगान्तरों से विराजमान हैं। सृष्टि में वृष्टि को अंकित करता हुआ यह स्थान बिजली महादेव जालन्धर असुर के वध से सम्बन्धित है। दूसरे नाम से इसे कुलान्त पीठ भी कहा गया है। सात परोली भेखल के अन्दर भोले नाथ दुष्टान्त भावी, मदन कथा से नांढे ग्वाले द्वारा सम्बन्धित है।
यहां हर वर्ष आकाशीय बिजली गिरती है। कभी ध्वजा पर तो कभी शिवलिंग पर बिजली गिरती है। जब पृथ्वी पर भारी संकट आन पडता है तो भगवान शंकर जी जीवों का उद्धार करने के लिये पृथ्वी पर पडे भारी संकट को अपने ऊपर बिजली प्रारूप द्वारा सहन करते हैं। जिस से बिजली महादेव यहां विराजमान हैं।”
ये तो थी वहां लिखी हुई बातें। अब मेरे विचार। ब्यास और पार्वती नदियों की घाटी में संगम पर एक स्थान है, कुल्लू से दस किलोमीटर मण्डी की ओर- भून्तर। यहां पर एक तरफ से ब्यास नदी आती दिखती है और दूसरी तरफ से पार्वती नदी। दोनों की बीच में एक पर्वत है। इसी पर्वत की चोटी पर स्थित है बिजली महादेव। पहले पहल तो मेरा इरादा भून्तर की तरफ से ही जाने का था। लेकिन बाद में कुल्लू की तरफ से चला गया। और हां, भून्तर की तरफ से यहां आने का कोई रास्ता भी नहीं है। केवल एकमात्र रास्ता कुल्लू से ही है।
बिजली महादेव से कुल्लू भी दिखता है और भून्तर भी। दोनों नदियों का शानदार संगम भी दिखता है। दूर तक दोनों नदियां अपनी-अपनी गहरी घाटियों से आती दिखती हैं। दोनों के क्षितिज में बर्फीला हिमालय भी दिखाई देता है। मैं भून्तर की तरफ मुंह करके खडा हूं। दाहिने ब्यास है, बायें पार्वती। मेरी कल की योजना है मणिकर्ण जाने की। मणिकर्ण पार्वती घाटी में भून्तर से करीब 35 किलोमीटर दूर है। जहां तक भी मुझे पार्वती नदी दिखाई देती है, उसके साथ-साथ मणिकर्ण जाती हुई सडक भी दिखती है।
अब मेरा हौसला देखिये। मैं आज तक अचम्भित हूं कि कैसे मैने इतना बडा निर्णय ले लिया, वो भी अकेले। इरादा किया सीधे भून्तर की ओर उतरने का। कोई रास्ता नहीं है। कुछ दूर तक तो मैं उतर गया। एक मैदान में कुछ गायें-भैंसें चर रही थीं। चरवाहे भी पास में ही बैठे थे। मैं उनके पास पहुंच गया। उनसे कुछ बातें हुईं। क्या बातें हुईं? आज नहीं अगली बार बताऊंगा। फोटू नहीं देखने हैं क्या?



http://lh6.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TB4OBB_DxQI/AAAAAAAACco/OFFVfDfClpg/SAM_0187_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TB4N_d6sZFI/AAAAAAAACck/qrP0WUgDLPg/s1600-h/SAM_0187%5B3%5D.jpg) जब कुल्लू से बिजली महादेव पहुंचते हैं तो यह नजारा दिखाई देता है।


http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TB4OE8ltR3I/AAAAAAAACcw/PBF0jJ8OcgA/SAM_0188_thumb%5B2%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TB4ODZ64UXI/AAAAAAAACcs/vNtIve-dZaY/s1600-h/SAM_0188%5B4%5D.jpg) सर्दियों की पडी बरफ पिघलने पर यहां घास उग आती है जो माहौल को मस्त बना देती है।


http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TB4OIhq3mEI/AAAAAAAACc4/i446MqRhAYU/SAM_0189_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TB4OG1uGsLI/AAAAAAAACc0/h9otqmp47N8/s1600-h/SAM_0189%5B3%5D.jpg) अरे, यह क्या? मोटरसाइकिल? मतलब कहीं ना कहीं से मोटरसाइकिल के चढने लायक भी रास्ता है।


http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TB4OMuxigTI/AAAAAAAACdA/03QNf9h4Vwk/SAM_0191_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TB4OKVm7jEI/AAAAAAAACc8/BDsYAcUOmm0/s1600-h/SAM_0191%5B3%5D.jpg) यहां गद्दी लोग पशु चराते हैं। क्योंकि घास के बडे-बडे मैदान हैं।


http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TB4OQo4zV1I/AAAAAAAACdI/GI0_UnaT9z4/SAM_0193_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh5.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TB4OOq2UkBI/AAAAAAAACdE/WKx8jPobhcU/s1600-h/SAM_0193%5B3%5D.jpg) पशुओं के पीने के लिये तालाब (जोहड) भी हैं। देखने में तो झील लग रहे हैं।


http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TB4OVl_-JGI/AAAAAAAACdU/mRIVgOW0xWc/SAM_0194_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TB4OTi8mK8I/AAAAAAAACdM/_841WpTMUeg/s1600-h/SAM_0194%5B3%5D.jpg) एक ही जगह खडे होकर अलग-अलग कोण से कितने भी फोटो खींचो, सभी में नयापन लगता है।


http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TB4Oam1qs2I/AAAAAAAACdc/WxqVj1emWIk/SAM_0197_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TB4OY87V7fI/AAAAAAAACdY/GAYHY4nB0jM/s1600-h/SAM_0197%5B3%5D.jpg)

http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TB4Oe2EZP0I/AAAAAAAACdo/xTOVJcz4maA/SAM_0198_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh5.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TB4OdWMNq-I/AAAAAAAACdk/Q2fBJyRXKeM/s1600-h/SAM_0198%5B3%5D.jpg) एक बछडा, एक कटडा। या दोनों बछडे? कन्फ्यूजन बरकरार।


http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TB4OiuVnZnI/AAAAAAAACdw/TFRA7aYfDEU/SAM_0200_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh6.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TB4OgyqwF5I/AAAAAAAACds/2HUnL9nLcgI/s1600-h/SAM_0200%5B3%5D.jpg) सामने पार्वती घाटी है और बायें कहीं मणिकर्ण है।


http://lh6.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TB4Ol1fkTfI/AAAAAAAACd4/1bImhzBDMuM/SAM_0204_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh6.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TB4OkfpGc3I/AAAAAAAACd0/vhFV4_bkIPc/s1600-h/SAM_0204%5B3%5D.jpg) बिजली महादेव मन्दिर। हर साल सावन में शिवलिंग पर बिजली गिरती है। शिवलिंग टूटकर टुकडे-टुकडे होकर बिखर जाता है। और फिर उसको मक्खन से जोडा जाता है।


http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TB4OphJaP5I/AAAAAAAACeA/YRo4CxbDjkQ/SAM_0205_thumb%5B2%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh5.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TB4OouJU_II/AAAAAAAACd8/5AV4xbeKqIk/s1600-h/SAM_0205%5B4%5D.jpg) मन्दिर के सामने नन्दी है।


http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TB4Or9mC7JI/AAAAAAAACeI/haxVzbV7OTg/SAM_0208_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TB4OqhI_8TI/AAAAAAAACeE/0xWjWdQdIbo/s1600-h/SAM_0208%5B3%5D.jpg) यह ध्वजा है। बिजली इसी पर गिरती है। इसके और शिवलिंग के बीच कुछ सम्बन्ध है। असर शिवलिंग पर होता है।


http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TB4OvqQ6NJI/AAAAAAAACeQ/9hnT-u7gD9k/SAM_0212_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh6.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TB4OtzAM9gI/AAAAAAAACeM/4Oz8J8EWqnE/s1600-h/SAM_0212%5B3%5D.jpg) ऊपर से ऐसा दिखता है भून्तर कस्बा। बायें से पार्वती आ रही है और दाहिने से ब्यास। दोनों मिलकर सीधी चली जाती हैं।


http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TB4Oxj7PwlI/AAAAAAAACeY/AWhI0RN-1VE/SAM_0215_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh5.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TB4Owrd8G6I/AAAAAAAACeU/8Nu5vY2deWk/s1600-h/SAM_0215%5B3%5D.jpg) भून्तर की तरफ घास के ही ढलान हैं।


http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TB4O1I9F9dI/AAAAAAAACeg/48I6IAJf40A/SAM_0217_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh6.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TB4Oznsd6OI/AAAAAAAACec/CHhnv00bfwg/s1600-h/SAM_0217%5B3%5D.jpg) इन ढलानों पर ही पशुओं के लिये साल भर की घास पैदा होती रहती है।

VARSHNEY.009
16-07-2013, 11:25 AM
मणिकर्ण के नजारे

कहते हैं कि एक बार माता पार्वती के कान की बाली (मणि) यहां गिर गयी थी और पानी में खो गयी। खूब खोज-खबर की गयी लेकिन मणि नहीं मिली। आखिरकार पता चला कि वह मणि पाताल लोक में शेषनाग के पास पहुंच गयी है। जब शेषनाग को इसकी जानकारी हुई तो उसने पाताल लोक से ही जोरदार फुफकार मारी और धरती के अन्दर से गरम जल फूट पडा। गरम जल के साथ ही मणि भी निकल पडी। आज भी मणिकरण में जगह-जगह गरम जल के सोते हैं। एक कथा यह भी है कि गुरू नानक देव जी यहां आये थे। उन्होंने यहां काफी समय व्यतीत किया। अगर नानक यहां सच में आये थे तो उनकी हिम्मत की दाद देनी होगी। उस समय जाहिर सी बात है कि सडक तो थी नहीं। पहाड भी इतने खतरनाक हैं कि उन पर चढना मुश्किल है। नीचे पार्वती नदी बहती है, जो हिमालय की तेज बहती नदियों में गिनी जाती है। पहले आना-जाना नदियों के साथ-साथ होता था। इसलिये नानक देव जी पहले मण्डी आये होंगे, फिर ब्यास के साथ-साथ और दुर्गम होते चले गये। भून्तर पहुंचे होंगे। यहां से पार्वती नदी पकड ली और मणिकर्ण पहुंच गये। वाकई महान घुमक्कड थे नानक जी। उन्ही की स्मृति में एक गुरुद्वारा भी है।
मणिकर्ण में हर जगह प्राकृतिक गर्म जल मिलता है। इसी से गुरुद्वारे के लंगर का भोजन भी बनता है। होटलों में भी इसी पानी की आपूर्ति होती है। उस दिन शाम को जब मैने एक धर्मशाला में कमरा लिया तो मैने पूछा कि सुबह को नहाने के लिये गर्म पानी मिल जायेगा क्या? मुझे नहीं पता था कि यहां हर जगह प्राकृतिक गर्म पानी उपलब्ध है। उसने कहा कि हां, मिल जायेगा। सुबह जब मैं उठा तो बाथरूम में देखा कि नल से हल्का गुनगुना पानी आ रहा है। तुरन्त बाल्टी भरी और नैकर-तौलिया ले आया। कपडे निकालकर फिट होकर नहाने बैठा तो बाल्टी में हाथ देते ही दिमाग ठिकाने लग गया। लगा कि सौ डिग्री के पानी में हाथ डाल लिया। शुरू में जब मैने पानी चेक किया था तब ठण्डे वातावरण की वजह से पाइप में तीन-चार फीट तक पानी गुनगुना हो गया था, लेकिन बाद में अति गर्म आने लगा। इतने तेज पानी में नहाना मेरे बसकी बात नहीं थी।
और क्या बताऊं मणिकर्ण के बारे में? चलिये खैर, चित्र देखिये:



http://lh6.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TDGQb1X9VLI/AAAAAAAACs0/Vonv_uZyF88/SAM_0307_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh6.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TDGQaOSY83I/AAAAAAAACsw/k_cjpbghNeY/s1600-h/SAM_0307%5B3%5D.jpg) श्री मणिकर्ण साहिब गुरुद्वारा



http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TDGQgWnhjhI/AAAAAAAACs8/WSgUSUFnAm4/SAM_0303_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh5.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TDGQeU7mZhI/AAAAAAAACs4/tw3egO1I-aM/s1600-h/SAM_0303%5B3%5D.jpg) यह गुरुद्वारे की धर्मशाला है। इसमें कमरे मुफ्त में मिलते हैं। कमरों का आरक्षण लंगर भवन में होता है। दिन ढलने से जितना पहले आरक्षण करा लें, उतना ही बेहतर है। इसके नीचे ही पार्वती बह रही है।


http://lh5.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TDGQlM5fPUI/AAAAAAAACtE/2nAfOs-wDec/SAM_0309_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh6.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TDGQjW9XsOI/AAAAAAAACtA/aD6MBvFxZCs/s1600-h/SAM_0309%5B3%5D.jpg) शिव मन्दिर


http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TDGQp4Bi6YI/AAAAAAAACtM/ve21LgbIrnk/SAM_0315_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TDGQoF_StfI/AAAAAAAACtI/2pYfeQs3GjQ/s1600-h/SAM_0315%5B3%5D.jpg) यहां हिन्दु-सिख संस्कृति का एक अनोखा संयोजन है। यहां गुरुद्वारे में मत्था टेकने और लंगर में खाना खाने से ना तो हिन्दुओं का धर्म खतरे में पडता है और ना ही शिव मन्दिर की परिक्रमा करने और गर्म जल के कुण्ड में चावल पकाने से सिखों का। काश ऐसा संयोजन दूसरे धर्मों में भी होता।


http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TDGQt9weiSI/AAAAAAAACtU/5r--h1SJMls/SAM_0316_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh5.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TDGQsK3LqrI/AAAAAAAACtQ/_bAoLCBzEAA/s1600-h/SAM_0316%5B3%5D.jpg) ऐसा है मणिकर्ण

http://lh5.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TDGQyZ2SPqI/AAAAAAAACtc/ubp3oVFMqro/SAM_0370_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TDGQw-zjhKI/AAAAAAAACtY/t33bv79uNYo/s1600-h/SAM_0370%5B3%5D.jpg) शिव मन्दिर परिसर में गर्म जल के कुण्ड में चावल और चने पकाते लोग। चावल दस मिनट में और चने आधे घण्टे में पक जाते हैं।


http://lh6.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TDGQ2KKU7SI/AAAAAAAACtk/AYocJ2JgSBs/SAM_0372_thumb%5B2%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TDGQ0rTowwI/AAAAAAAACtg/RKHKrPTmYMk/s1600-h/SAM_0372%5B4%5D.jpg) बगल में ही एक कुण्ड और है। इसमें लंगर का सामान पक रहा है। बायें वाली हाण्डियों में चावल पक रहे हैं और दाहिने वाली ढकी हाण्डियों में दाल।


http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TDGQ4uJLQEI/AAAAAAAACts/3lACFViu7mQ/SAM_0376_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TDGQ3I56EKI/AAAAAAAACto/WZBFo6gyHqo/s1600-h/SAM_0376%5B3%5D.jpg) जय जय शिव शंकर।


http://lh5.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TDGQ9nhxMiI/AAAAAAAACt0/zb_Tlys1Ko8/SAM_0378_thumb%5B2%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TDGQ7gyMwPI/AAAAAAAACtw/Lc3DQ-43wp4/s1600-h/SAM_0378%5B4%5D.jpg) मणिकर्ण का बाजार।


http://lh5.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TDHYVe6yVHI/AAAAAAAACt8/q8Vy0xcXkeY/SAM_0390_thumb1.jpg?imgmax=800 (http://lh6.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TDGQ_cZ_mdI/AAAAAAAACt4/P7XsXzd3v9I/s1600-h/SAM_0390%5B3%5D.jpg) लंगर


http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TDHYevp8hcI/AAAAAAAACuE/sbOlx2TsRzM/SAM_0393_thumb1.jpg?imgmax=800 (http://lh5.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TDHYb0c4D6I/AAAAAAAACuA/hQOkkLayJdQ/s1600-h/SAM_03933.jpg) यह पुल कैसा लग रहा है?



http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TDHaF04D7kI/AAAAAAAACuM/DZwva2rgYcw/SAM_0394_thumb1.jpg?imgmax=800 (http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TDHYlskzoYI/AAAAAAAACuI/Qyje9o0KylI/s1600-h/SAM_03943.jpg) उस पुल से दिखता मणिकर्ण साहिब।


http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TDHaRjmIwLI/AAAAAAAACuU/aAsVgA87yDw/SAM_0407_thumb1.jpg?imgmax=800 (http://lh6.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TDHaMm1qenI/AAAAAAAACuQ/KZP_nq6vlVk/s1600-h/SAM_04073.jpg) ऐसे रास्ते हैं मणिकर्ण जाने के। हैं ना खतरनाक?



धhttp://lh5.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TDHakYZibHI/AAAAAAAACuk/MaY0HNDLKTg/SAM_0428_thumb1.jpg?imgmax=800 (http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TDHafyTGkpI/AAAAAAAACug/-knERulGtxs/s1600-h/SAM_04283.jpg) राम मन्दिर के सामने रखा रथ। इसका प्रयोग त्यौहारों के मौके पर किया जाता है।


http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TDHbBNCJoAI/AAAAAAAACuw/KVfERhY3tzY/SAM_0430_thumb1.jpg?imgmax=800 (http://lh5.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TDHaq6Z0WJI/AAAAAAAACuo/W1ZF5RWKVJA/s1600-h/SAM_04303.jpg) नैना भगवती मन्दिर। कुल्लू में यही शैली चलती है।


http://lh5.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TDHbYULy2dI/AAAAAAAACu4/6A4NZKkefTI/SAM_0437_thumb1.jpg?imgmax=800 (http://lh6.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TDHbURp76mI/AAAAAAAACu0/ouwDH-PgbrE/s1600-h/SAM_04373.jpg) यह है रघुनाथ मन्दिर। यही मणिकर्ण का सबसे पुराना मन्दिर है। इसके पास भी गर्म जल के सोते हैं।


http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TDHbhbJ44QI/AAAAAAAACvA/KxydfG8oP9Q/SAM_0439_thumb1.jpg?imgmax=800 (http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TDHbcy6CHcI/AAAAAAAACu8/Ywfs42nOBwg/s1600-h/SAM_04393.jpg) नैना भगवती मन्दिर और बाजार।

VARSHNEY.009
16-07-2013, 11:28 AM
अनछुआ प्राकृतिक सौन्दर्य- खीरगंगा
हिमाचल प्रदेश में कुल्लू जिले में एक स्थान है- मणिकर्ण। मणिकर्ण से 15 किलोमीटर और आगे बरशैणी तक बस सेवा है। बरशैणी से भी एक-डेढ किलोमीटर आगे पुलगा गांव है जहां तक मोटरमार्ग है। इससे आगे भी गांव तो हैं लेकिन वहां जाने के लिये केवल पैरों का ही भरोसा है। पुलगा से दस किलोमीटर आगे खीरगंगा नामक स्थान है। खीरगंगा पार्वती नदी की घाटी में है। अगर पुलगा से ही पार्वती के साथ-साथ चलते जायें तो चार किलोमीटर पर इस घाटी का आखिरी गांव नकथान आता है। नकथान के बाद इस घाटी में कोई गांव नहीं है। हां, आबादी जरूर है। वो भी भेड-बकरी चराने वाले गद्दियों और कुछ साहसी घुमक्कडों की।
तो हुआ ये कि अपन भी अपना साहस देखने खीरगंगा चले गये। यहां एक सीधा-सपाट सा ढलान है। इस ढलान पर घास ही उगी रहती है। यानी एक चरागाह भी कह सकते हैं। यहां खाने-पीने और ठहरने के लिये होटलों की कोई कमी नहीं है। सोचकर अजीब सा लग रहा होगा कि इतनी दुर्गम जगह और दिन-भर में गिने चुने घुमक्कड ही आते हैं, फिर भी होटलों की कोई कमी नहीं। असल में ये बडे-बडे टेण्ट हैं, जो गद्दियों के बनाये हुए हैं। इस इलाके में गद्दियों का आना-जाना लगा रहता है, इसलिये घुमक्कडों के खाने-पीने की चीजें भी वे ले आते हैं।
यहां का मुख्य आकर्षण है- खीर गंगा। जमीन के अन्दर से एक जलधारा निकलती है। जलधारा नहीं खीरधारा कहना चाहिये। कभी बाबा परशुराम के जमाने में यहां से खीर निकलती थी। गर्मागरम मीठी खीर। खीर खाने के लालच में यहां लोगों का आनाजाना बढ गया। तब परशुराम जी ने श्राप दे दिया था कि अब यहां से खीर नहीं निकलेगी। बस, खीर निकलनी बन्द। लेकिन आज भी जमीन के अन्दर से निकलती जलधारा काफी दूर ऐसी लगती है जैसे कि खीर ही है। अजीब सी गन्ध भी आती है। गरम खौलता हुआ पानी निकलता है।
इस पानी को इकट्ठा करके दो कुण्ड बनाये गये हैं, नहाने के लिये। एक चहारदीवारी वाला कुण्ड महिलाओं के लिये और दूसरा खुला कुण्ड केवल पुरुषों के लिये। बगल में एक नन्हा सा मन्दिर भी है। मन्दिर में शिवलिंग है तो जाहिर सी बात है कि शिव मन्दिर ही है।
आज के कलयुगी विज्ञान की नजर से देखें तो यहां खीर-वीर कुछ नहीं है। एक तरह की सफेद काई है। हमारे यहां काली काई या हरी काई होती है ना? रपट जाते हैं उस पर चलकर। इसी तरह यहां सफेद काई है, चिकनी भी है। चलो, बहुत हो गया। फोटू देखिये:



http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TEuw2diXStI/AAAAAAAAC6E/iVt0yKh4ffM/KHEERGANGA_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh6.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TEuw0bOh0GI/AAAAAAAAC6A/w_c1MThGyhU/s1600-h/KHEERGANGA%5B3%5D.jpg) ये नजारे यहां चारों ओर दिखते हैं।


http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TEuw8p9FP_I/AAAAAAAAC6M/yhJOpSnQQ2E/KHEERGANGA_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TEuw6cJbv-I/AAAAAAAAC6I/degPtObwMQ4/s1600-h/KHEERGANGA%5B3%5D.jpg) होटल


http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TEuxHGljmQI/AAAAAAAAC6U/RzHj9PoqwO4/KHEERGANGA_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TEuxCUlvU0I/AAAAAAAAC6Q/S7irZLG1M2g/s1600-h/KHEERGANGA%5B3%5D.jpg) पार्वती के इस तरफ यह चरागाह है, उस तरफ सामने वाला पहाड है।



http://lh5.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TEuxSscD5vI/AAAAAAAAC6c/UHSPA19bNWY/KHEERGANGA_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TEuxNLHv0GI/AAAAAAAAC6Y/8pOSPL0BzXA/s1600-h/KHEERGANGA%5B3%5D.jpg)



http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TEuxaUsDgnI/AAAAAAAAC6k/NuDfxu8UQZ8/KHEERGANGA_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh5.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TEuxWXIwBrI/AAAAAAAAC6g/y47h8AW9iJ8/s1600-h/KHEERGANGA%5B3%5D.jpg) यह है नन्हा सा शिव मन्दिर


http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TEuxflrRkvI/AAAAAAAAC6s/0zbc7mm-ODE/KHEERGANGA_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TEuxcmwJfZI/AAAAAAAAC6o/07-CKJDp3Hg/s1600-h/KHEERGANGA%5B3%5D.jpg)




http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TEuxp30pxHI/AAAAAAAAC60/nHqCziyQX90/KHEERGANGA_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh5.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TEuxn83OpzI/AAAAAAAAC6w/K798Wv7vVuA/s1600-h/KHEERGANGA%5B3%5D.jpg) खीरगंगा


http://lh3.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TEuxt0rYw4I/AAAAAAAAC68/ZToGpPtIuXY/KHEERGANGA_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh5.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TEuxsK7NDII/AAAAAAAAC64/r6xO9V3tqa4/s1600-h/KHEERGANGA%5B3%5D.jpg)



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http://lh4.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TEuyG4QFcrI/AAAAAAAAC7U/WrqFWveY_fo/KHEERGANGA_thumb%5B1%5D.jpg?imgmax=800 (http://lh6.ggpht.com/_n4dvGkVExFQ/TEuyCqPkjgI/AAAAAAAAC7Q/-Orugln2B_E/s1600-h/KHEERGANGA%5B3%5D.jpg)
वही शिव मन्दिर



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मैं वापस चलने ही वाला था कि मणिकर्ण से ये सरदार आ गये। मैने तय किया कि वापस अकेला नहीं जाऊंगा, बल्कि इनके साथ ही जाऊंगा।



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पानी में सरदार जी कैसे लग रहे हैं?

rajnish manga
16-07-2013, 01:15 PM
कमाल का यात्रा वर्णन, और उसके साथ ही स्थान विशेष के दर्जनों नयनाभिराम चित्रों ने आपके सूत्र को गरिमापूर्ण बना दिया है. हमें भी बैठे-बैठे तीर्थ यात्रा का सुख व पुण्य प्राप्त होता रहा. आपका आभार.

Dr.Shree Vijay
13-08-2013, 10:45 PM
सुन्दर प्रस्तुति एवं अतिसुन्दर चित्रावली...................................

VARSHNEY.009
25-10-2013, 12:44 PM
http://www.abhivyakti-hindi.org/kaladirgha/folkart/saharanpur-1.jpg
सहारनपुर की सांस्कृतिक विरासत
युगों-युगों से उत्तर प्रदेश का गंगा जमुना दोआब क्षेत्र कला तथा संस्कृति का एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थल रहा है। ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक पुरातात्विक विपुल सामग्री से भरपूर है यह क्षेत्र। यहाँ की अनेक अनजानी जगहों पर आज भी अनेक सिसकते हुए पुरावशेष अपने जिज्ञासुओं की प्रतीक्षा करते रहते हैं।

इस क्षेत्र की उत्तर पश्चिमी सीमा में स्थित सहारनपुर जनपद ऐसा ही क्षेत्र है जहाँ आज भी एक जमाने की सांस्कृतिक धरोहर के रूप में अनेक भित्तिचित्र विद्यमान हैं। इन चित्रों का निर्माण १९ वीं सदी २० वीं सदी के तीसरे दशक तक होता रहा था। लगभग एक सौ वर्षों के जमाने की गाथा इन चित्रों में संजोयी हुई है। ये चित्र न केवल भवनों के साज-सजावट की ही सामग्री थे वरन् यहाँ के समाज की जीवन पद्धति के जीवंत प्रतिबिम्ब भी रहे हैं। इतनी विपुल संख्या में इन चित्रों को देखकर मेरी शोधवृत्ति ने इनका विस्तृत अध्ययन करने को मुझे प्रेरित किया। संपूर्ण जनपद-क्षेत्र का गहनता से विधिवत सर्वेक्षण करने पर मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि कलात्मक महत्व की इतनी बड़ी संख्या में बिखरी कलाकृतियाँ अभी तक कला-समीक्षकों, अन्वेषकों और सांस्कृतिक जिज्ञासुओं की नजरों से अनदेखी पड़ी रही हैं।

ऐसा भी लगा कि मानों यहाँ के निवासी भी इनसे अनजान हैं और यह कलाकृतियाँ उन सबके बीच रहते हुए भी गुमनाम सी पड़ी हुई हैं। इस जनपद से प्राप्त पुरातात्विक सामग्री इसकी प्राचीनता को सिंधु घाटी सभ्यता और सरस्वती सभ्यता के युग तक ले जाती है। यहाँ की अति उपजाऊ धरती हरा सोना उगलती रहती है। अतएव यहाँ की संपन्नता और समृद्धि ने समय-समय पर धन के लोभियों को खूब ललचाया जिसके फलस्वरूप ११वीं सदी में महमूद गजनवी से लेकर अंग्रेजी कम्पनी के शासन काल तक अनेक आक्रांताओं ने इसे कई बार जी भर कर लूटा और विनाश भी किया। बहुत लम्बे समय तक अहिन्दू और विदेशी शासकों के अधिपत्य में रहने और विध्वंस के थपेड़ों के कारण यहाँ की सांस्कृतिक संपदा विलुप्त होती चली गयी।

उन्नीसवीं सदी के आरम्भ होते ही, अनुकूल वातावरण पाकर यहाँ की निष्प्राण संस्कृति पुनः सशक्त हो उठी। भवन-निर्माण, लकड़ी पर नक्काशी, संगतराशी, गचकारी, मनोतगिरि, मुसव्वरी, ग्रंथ लेखन, मिट्टी के खिलौने व बर्तन बनाना, कठपुतली बनाना और कई दूसरे कलात्मक शिल्पों का व्यापक विस्तार इस जनपद में तेजी से हुआ। स्थानीय जमींदारों और अन्य संपन्न व्यक्तियों के उदार आश्रय में नये मंदिरों, हवेलियों तथा अन्य धार्मिक भवनों का निर्माण हुआ जिनको अनेक नयनाभिराम भित्तिचित्रों से सजाया गया। यह रचनात्मक आंदोलन लगभग सौ वर्षें तक चलता रहा। एक दो स्थानों पर नहीं वरन पूरे जनपद में विद्यमान हैं ये भित्तिचित्र। इस जनपद में गंगोह, नकुड़, देवबन्द, कनखल, भगवानपुर, कोटा, झबरहेड़ा, लंढौरा, मंगलौर, चिलकाना, सुल्तानपुर के ग्रामीण क्षेत्र तथा सहारनपुर शहर के कई भवनों पर ये चित्र आज भी देखे जा सकते हैं।

इन भवनों के छज्जे, खिड़कियाँ, कंगूरे, महराब, साये, गोखे, सिरदल, सपील, छत, कोने, आले, छतरी, गुमटी और दीवारें आदि छोटे-बड़े चित्रों व फूल-पत्तियों की आकर्षक सजावट से अटीं पड़ी हैं। कोई हवेली तो इतनी ऊँची है कि किसी जमाने में उस पर बने चित्रों को भरपूर नजर से देखने वालों की टोपियाँ गिर जाती थीं किन्तु आज अपने रंगों और रेखाओं में एक जमाने के उतार-चढ़ाव की गाथा समेटे हुए ये चित्र चुपचाप विसूरते रहते हैं। किसने बनाये थे ये सुन्दर चित्र? इस प्रश्न का कोई प्रामाणिक समाधान नहीं मिल सका। क्योंकि इनके रचयिताओं ने चित्रों पर या अन्य कहीं पर अपना नाम या अपनी कोई पहचान तक नहीं छोड़ी थी। कुछ व्यक्तियों ने दावे से बताया कि उनके ही कई बुजुर्ग संबंधियों ने ही इन चित्रों को बनाया था लेकिन वे कोई प्रामाणिक सूचना नहीं दे सके। यह ज्ञात हो सका कि इन चितेरों को अन्य श्रमिकों की भांति दैनिक पारिश्रमिक दिया जाता था।

इन चित्रों में विविध प्रकार के कई विषयों को अभिव्यक्त किया गया है किन्तु धार्मिक विषयों की अधिकता है इनमें। श्रीकृष्ण, विष्णु, राम, शिव और देवी दुर्गा आदि से संबंधित प्रसंगों की बहुत सरल व रोचक अभिव्यक्ति की गयी है। इनके अतिरिक्त समकालीन सामंती व संपन्न व्यक्तियों व साधारण लोक समाज के दैनिक जीवन के क्षण, प्रेम प्रसंग, बिहारी सतसई से प्रेरित श्रंगारिक भावपूर्ण विषय, कुछ देशी-विदेशी व्यक्तियों के शबीह (पोट्रेटस), ऐतिहासिक प्रसंग, लोक गाथाओं के कुछ रोचक अंश, प्रतीकात्मक आकृतियाँ, पशु पक्षियों के चित्रों की भी संख्या कुछ कम नहीं है। इस सबसे हटकर फूल पत्तियाँ व अन्य चित्रों के बॉर्डर व फ्रेम रूप-अलंकारों द्वारा सजाये हुए एक से बढ़कर एक सुन्दर पैनल, आलेखन तथा बारीक सजावट भी अपने आप में अनूठी और अनोखी है। इन चित्रों से प्रतीत होता है कि शिक्षित न होते हुए भी चित्रकारों की अभिरुचि, सौंदर्यात्मक अनुभूति, संवेदनशीलता तथा उन्मुक्त कल्पना में रचनात्मक मौलिकता का समावेश था।

कुछ चित्र तो अत्यंत गहन आध्यात्मिक विषय की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति प्रस्तुत करते हैं। इस दृष्टि से ‘नौ नारी के हाथी पर सवार कृष्ण’, ‘नौ नारी के घोड़े पर श्रीकृष्ण’, ‘नौ नारी की पालकी पर कृष्ण’ तथा अन्य चित्र भी हैं किन्तु इनका विवरण अधिक स्थान की अपेक्षा करता है। इन भित्ति चित्रों को तैयार करने की सदियों पुरानी परम्परात्मक, तकनीक को अपनाया गया है जिसके अन्तर्गत चित्रण के आधार को चूने के महीन पलस्टर से विशेष विधि से तैयार किया जाता है तथा खनिज मिट्टी व पत्थरों से रंग तैयार किये जाते हैं। इस विधि को ‘फ्रेस्को सेक्को’ कहा जाता है। चित्रों के रंग सीमित, सपाट किन्तु चमकदार हैं। कला-सिद्धांतों व नियमों की अज्ञानता अथवा अवहेलना होते हुए भी इनमें ऐसा सम्मोहन है कि ये दर्शकों के बढ़ते हुए कदमों को रोक लेते हैं और निगाहें चित्रों से हटती ही नहीं।

इन चित्रों की शैली में भारतीय चित्रकला की जानी मानी मुगल, पहाड़ी और कम्पनी शैलियों की मिली-जुली छाप है जिसमें क्षेत्रीय लोक तत्व और चित्रकारों की निजी विशेषताओं की जुगलबंदी से एक नवीन शैली का आभास होता है। चित्रों में बनी मानवाकृतियों की वेशभूषाओं तथा अन्य सामग्री से हिन्दू, मुगल तथ अंग्रेजी संस्कृति प्रतिबिम्बित होती है। सर्वाधिक उल्लेखनीय है, इन चित्रों की स्त्री आकृतियों में अंकित बड़े आकार वाली ‘नथ’ जो यहाँ की हिन्दू विवाहित महिला के ‘सुहाग’ की निशानी मानी जाती है और उसकी अति प्रिय वस्तु भी। जनपद की उत्तरी सीमा से लगे गढ़वाल क्षेत्र में बड़े आकार वाली नथ पहनने का आज भी बहुत प्रचलन है।
http://www.abhivyakti-hindi.org/kaladirgha/folkart/saharanpur-2.jpg
अधिकांश चित्रों की शैली के विश्लेषणात्मक अध्ययन से ऐसी अवधारणा बनती है कि भित्ति चित्रण की यह परम्परा यहाँ के लोक समाज में उन्नीसवीं सदी से भी पहले लगभग पचास वर्षों की काल-गहराई तक अस्तित्व में रही होगी। इन चित्रों को सहारनपुर जनपद की ही नहीं वरन समूचे पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सांस्कृतिक विरासत कहा जाय तो अनुचित न होगा। धन्य हैं, वे लोग जिन्होंने थोड़े से पारिश्रमिक के बदले में समाज को एक अमूल्य निधि दे डाली और उस पर अपनी मुहर भी नहीं लगायी। आज के जमाने में चारों ओर बदलते हुए परिवेश में यह समृद्ध परम्परा समाप्त हो चुकी है और ये चित्र एक-एक करके गिरते छिपते जा रहे हैं। इनके महत्व से अनभिज्ञ समाज द्वारा इनकी उपेक्षा और प्रकृति के क्रूर थपेडों की चोट से यह सांस्कृतिक कला कोश ओझल होता जा रहा है।

VARSHNEY.009
25-10-2013, 12:58 PM
छत्तीसगढ़ में राम के वनवास स्थल

http://www.abhivyakti-hindi.org/paryatan/2013/chhatisgarh/rama_vanvaas.jpg
अयोध्या नरेश राजा दशरथ के द्वारा चौदह वर्षों के वनवास आदेश के मिलते ही, माता-पिता का चरण स्पर्श कर राजपाट छोड़कर रामचंद्र जी ने सीताजी एवं लक्ष्मण जी के साथ अयोध्या से प्रस्थान किया, उस समय अयोध्या वासी उनके साथ-साथ तमसा नदी के तट तक साथ-साथ गये एवं अपने प्रिय प्रभु को तमसा नदी पर अंतिम बिदाई दी।
रामचंद्र जी तमसा नदी पार कर वाल्मीकि आश्रम पहुँचे जो गोमती नदी के तट पर स्थित है। प्रतापपुर से २० कि.मी. राई मंदिर के पास बकुला नदी प्रवाहित होती है। वाल्मीकि ऋषि के नाम पर इस नदी का नाम बकुला पड़ा। इसके बाद नदी के तट से सिंगरौल पहुँचे, सिंगरौल का प्राचीन नाम सिंगवेद है। यहाँ नदी तट पर निषादराज से भेंट हुई। इसे निषादराज की नगरी के नाम से जाना जाता है। यह गंगा नदी के तट पर स्थित है। सीताकुण्ड के पास रामचंद्र जी गंगा जी को पार कर श्रृंगवेरपुर पहुँचे, इस श्रृंगवेरपुर का नाम अब कुरईपुर है। कुरईपुर से यमुनाजी के किनारे प्रयागराज पहुँचे। प्रयागराज से चित्रकूट पहुँचे।
चित्रकूट में राम-भरत मिलाप हुआ था। यहाँ से अत्रि आश्रम पहुँचकर दण्डक वन में प्रवेश किया। दण्डक वन की सीमा गंगा के कछार से प्रारंभ होती है। यहाँ से आगे बढ़ने पर मार्ग में शरभंग ऋषि का आश्रम मिला, वहाँ कुछ समय व्यतीत कर सीता पहाड़ की तराई में बने सुतीक्ष्ण ऋषि से मिलने गये। इसके बाद वे अगस्त ऋषि के आश्रम पहुँचे। उन दिनों मुनिवर आर्यों के प्रचार-प्रसार के लिये दक्षिणापथ जाने की तैयारी में थे। मुनिवर से भेंट करने पर मुनिवर ने उन्हें गुरू मंत्र दिया और शस्त्र भेंट किए। आगे उन्होंने मार्ग में ऋषिमुनियों को विघ्न पहुँचाने वाले सारंथर राक्षस का संहार किया। इसके बाद सोनभद्र नदी के तट पहुँचे, वहाँ से जहाँ मार्कण्डेय ऋषि का आश्रम है। मार्कण्डेय ऋषि से भेंट कर उन्होंने सोनभद्र एवं बनास नदी के संगम से होकर बनास नदी के मार्ग से सीधी जिला (जो उन दिनों सिद्ध भूमि के नाम से विख्यात था) एवं कोरिया जिले के मध्य सीमावर्ती मवाई नदी (भरतपुर) पहुँच कर मवाई नदी पार कर दण्डकारण्य में प्रवेश किया। मवाई नदी-बनास नदी से भरतपुर के पास बरवाही ग्राम के पास मिलती है। अतः बनास नदी से होकर मवाई नदी तक पहुँचे, मवाई नदी को भरतपुर के पास पार कर दक्षिण कोसल के दण्डकारण्य क्षेत्र,(छत्तीसगढ़) में प्रवेश किया।

दक्षिण कोसल (छत्तीसगढ़) में सवाई नदी के तट पर उनके चरण स्पर्श होने पर छत्तीसगढ़ की धारा पवित्र हो गयी और नदी तट पर बने प्राकृतिक गुफा मंदिर सीतामढ़ी हरचौका में पहुँच कर विश्राम किया अर्थात रामचंद्र जी के वनवास काल का छत्तीसगढ़ में पहला पड़ाव भरतपुर के पास सीतामढ़ी हरचौका को कहा जाता है। सीतामढ़ी हरचौका में मवाई नदी के तट पर बनी प्राकृतिक गुफा को काटकर छोटे-छोटे १७ कक्ष बनाये गये हैं जिसमें द्वादश शिवलिंग अलग-अलग कक्ष में स्थापित हैं। वर्तमान में यह गुफा मंदिर नदी के तट के समतल करीब २० फीट रेत पट जाने के कारण हो गया है। यहाँ रामचंद्र जी ने वनवास काल में पहुँचकर विश्राम किया। इस स्थान का नाम हरचौका अर्थात् हरि का चौका अर्थात् रसोई के नाम से प्रसिद्ध है। रामचंद्रजी ने यहाँ शिवलिंग की पूजा अर्चना कर कुछ समय व्यतीत किया इसके बाद वे मवाई नदी से होकर रापा नदी के तट पर पहुँचे। रापा नदी और बनास कटर्राडोल (सेमरिया) के पास आपस में मिलती हैं। मवाई नदी बनास की सहायक नदी है। अतः रापा नदी के तट पर पहुँच कर सीतमढ़ी थाथरा पहुँचे। नदी तट पर बनी प्राकृतिक गुफा नदी तट से करीब २० फीट ऊँची है। वहाँ चार कक्ष वाली प्राकृतिक गुफा है। गुफा के मध्य कक्ष में शिवलिंग स्थापित है तथा दाहिने, बाएँ दोनों ओर एक-एक कक्ष है जहाँ मध्य की गुफा के सम्मुख होने के कारण दो गुफाओं के सामने से रास्ता परिक्रमा के लिये बनाया गया है। इन दोनों कक्षों में राम-सीताजी ने विश्राम किया तथा सामने की ओर अलग से कक्ष है जहाँ लक्ष्मण जी ने रक्षक के रूप में इस कक्ष में बैठकर पहरा दिया था।
यहाँ कुछ दिन व्यतीत कर वे धाधरा से कोटाडोल पहुँचे। इस स्थान में गोपद एवं बनास दोनों नदियाँ मिलती हैं। कोटडोल एक प्राचीन एवं पुरातात्विक स्थल है। कोटाडोल से होकर वे नेउर नदी के तट पर बने सीतामढ़ी छतौड़ा आश्रम पहुँचे। छतौड़ा आश्रम उन दिनों संत-महात्माओं का संगम स्थली था। यहाँ पहुँच कर उनहोंने संत महात्माओं से सत्संग कर दण्डक वन के संबंध में जानकारी हासिल की। यहाँ पर भी प्राकृतिक गुफा नेउर नदी के तट पर बनी हुई है। इसे 'सिद्ध बाबा का आश्रम' के नाम से प्रसिद्धी है। बनास, नेउर एवं गोपद तीनों नदियाँ भँवरसेन ग्राम के पास मिलती हैं। छतौड़ा आश्रम से देवसील होकर रामगढ़ पहुँचे। रामगढ़ की तलहटी से होकर सोनहट पहुँचे। सोनहट की पहाड़ियों से हसदो नदी का उद्गम होता है। अतः हसदो नदी से होकर वे अमृतधारा पहुँचे। अमृत धारा में गुफा-सुरंग है। यहाँ कुछ समय व्यतीत किया तथा महर्षि विश्रवा से भेंट की। तत्पश्चात् वे जटाशंकरी गुफा पहुँचे, यहाँ पर शिवजी की पूजा अर्चना कर समय व्यतीत कर बैकुण्ठपुर पहुँचे। बैकुण्ठपुर से होकर वे पटना-देवगढ़, जहाँ पहाड़ी के तराई में बसा प्राचीन मंदिरों का समूह था। सूरजपुर तहसील के अंतर्गत रेण नदी के तट पर होने के कारण इसे अर्ध-नारीश्वर शिवलिंग कहा जाता है। अतः जमदग्नि ऋषि के आश्रम में कुछ समय व्यतीत करने के बाद वे विश्रामपुर पहुँचे। रामचंद्र जी द्वारा इस स्थल में विश्राम करने के कारण इस स्थान का नाम विश्रामपुर पड़ा। इसके बाद वे अंबिकापुर पहुँचे। अंबिकापुर से महरमण्डा ऋषि के आश्रम बिल द्वार गुफा पहुँचे। यह गुफा महान नदी के तट पर स्थित है। यह भीतर से ओम आकृति में बनी हुई है। महरमण्डा ऋषि के आश्रम में कुछ समय व्यतीत कर वे महान नदी के मार्ग से सारासोर पहुँचे।

सारासोर जलकुण्ड है, यहाँ महान नदी खरात एवं बड़का पर्वत को चीरती हुई पूर्व दिशा में प्रवाहित होती है। कहा जाता है कि पूर्व में यह दोनों पर्वत आपस मे जुड़े थे। रामवन गमन के समय राम-लक्ष्मण एवं सीता जी यहाँ आये थे तब पर्वत के उस पार यहाँ ठहरे थे। पर्वत में एक गुफा है जिसे जोगी महाराज की गुफा कहा जाता है। सारासोर-सर एवं पार अरा-असुर नामक राक्षस ने उत्पात मचाया था तब उनके संहार करने के लिये रामचंद्रजी के बाण के प्रहार से ये पर्वत अलग हो गये और उस पार जाकर उस सरा नामक राक्षस का संहार किया था। तब से इस स्थान का नाम सारासोर पड़ गया। सारासोर में दो पर्वतों के मध्य से अलग होकर उनका हिस्सा स्वागत द्वार के रूप में विद्यमान है। नीचे के हिस्से में नदी कुण्डनुमा आकृति में काफी गहरी है इसे सीताकुण्ड कहा जाता है। सीताकुण्ड में सीताजी ने स्नान किया था और कुछ समय यहाँ व्यतीत कर नदी मार्ग से पहाड़ के उस पार गये थे। आगे महान नदी ग्राम ओडगी के पास रेण नदी से संगम करती है। इस प्रकार महान नदी से रेण के तट पर पहुँचे और रेण से होकर रामगढ़ की तलहटी पर बने उदयपुर के पास सीताबेंगा- जोगीमारा गुफा में कुछ समय व्यतीत किया। सीताबेंगरा को प्राचीन नाट्यशाला कहा जाता है तथा जोगीमारा गुफा जहाँ प्रागैतिहासिक काल के चित्र अंकित हैं। रामगढ़ की इस गुफा में सीताजी के ठहरने के कारण इसका नाम सीताबेंगरा गुफा पड़ा। इसके बाद सीताबेंगरा गुफा के पार्श्व में हथफोर गुफा सुरंग है, जो रामगढ़ की पहाड़ी को आर-पार करती है। हाथी की ऊँचाई में बनी इस गुफा को हथफोर गुफा सुरंग कहा जाता है। रामचंद्रजी इस गुफा सुरंग को पार कर रामगढ़ की पहाड़ी के पीछे हिस्से में बने लक्ष्मणगढ़ पहुँचे। यहाँ पर बनी गुफा को लक्ष्मण गुफा कहा जाता है। यहाँ कुछ समय व्यतीत कर रेण नदी के तट पर महेशपुर पहुँचे। महेशपुर उन दिनों एक समृद्धशाली एवं धार्मिक केंद्र था। यहाँ उन्होंने नदी तट पर बने प्राचीन शिवमंदिर में शिवलिंग की पूजा की थी, इसी कारण से इस स्थान का नाम महेशपुर पड़ा।

महेशपुर से वापस रामगढ़ में मुनि वशिष्ठ के आश्रम पहुँचे। यहाँ उनकी मुलाकात मुनि वशिष्ठ से हुई। मुनि वशिष्ठ से मार्गदर्शन प्राप्त कर चंदन मिट्टी गुफा पहुँचे। चन्दन मिट्टी से रेणनदी होकर अंबिकापुर से 18 कि.मी. की दूरी पर नान्ह दमाली एवं बड़े दमाली गाँव हैं। इनके समीप बंदरकोट नामक स्थान है। यह अंबिकापुर से दरिमा मार्ग पर स्थित है। इस बंदरकोट का नाम दमाली कोट था। कहा जाता है कि असूर राजा दमाली बड़ा दुष्ट हो गया था और इसका अत्याचार बढ़ गया था। सरगुजा के लोक गीत में (देव दमाली बंदर कोट ताकर बेटी बांह अस मोट-राजा दमाली की अत्याचार से मुक्त कराने के लिये बंदरराज केसरी ने दमाली का वध किया) और किले पर कब्जा कर लिया तब से यह बंदरकोट कहलाने लगा। इस किले में बंदर ताल के पास प्राचीन शिवलिंग के अवशेष हैं। कहा जाता है कि यही सुमाली की तपस्या स्थली थी। यहाँ पर एक अंजनी टीला है कहा जाता है कि गौतम ऋषि की पुत्री अंजनी ने, जो हनुमान की माता जी है। इस टीले पर तपस्या की थी। इसी कारण से इस टीले का नाम अंजनी टीला पड़ा। त्रेतायुग में भगवान राम ने वन गमन के समय केसरी वन के जंगलों में अधिकांश समय व्यतीत किया था। जहाँ भगवान राम महर्षि सुतीक्ष्ण के साथ महर्षि दन्तोलि के आश्रम मैनपाट गये थे। बंदरकोट किले के ऊपर से ही बंदरों ने उन्हें अपनी किलकारी द्वारा अपने को समर्पित किया था। बंदरकोट में आज भी बंदरों का झुण्ड मिलता है।
रामचंद्र जी बंदरकोट के केसरीवन में सुतीक्ष्ण मुनि से भेंट कर मैनी नदी से होकर मैनपाट पहुँचे, जहाँ महर्षि शरभंग एवं महर्षि दंतोली से मुलाकात की। मैनपाट के मछली पाईंट के पास आज भी शरभंग ऋषि के नाम पर शरभंजा ग्राम है। मैनपाट अपने भौगोलिक आकर्षण के कारण मुनियों एवं तपस्वियों की तपोभूमि रही है। इस पवित्र स्थान में रामचंद्रजी ने वनवास काल रुक कर कुछ समय व्यतीत किया। यहाँ टाईगर पाईंट भी आकर्षण का केंद्र था। टाईगर पाईंट से मैनपाट नदी निकलती है। इसके बाद वे मैनी नदी से होकर माण्ड नदी के तट पर पहुँचे। मैनी नदी काराबेल ग्राम के पास माण्ड नदी से संगम करती है। यहाँ से वे सीतापुर पहुँचे। सीतापुर में माण्डनदी के तट पर मंगरेलगढ़ पहुँचे। यहाँ नदी तट पर बसे प्राचीन मंगरेलगढ़ के अवशेष मिलते हैं। यहाँ मंगरेलगढ़ी की देवी का प्राचीन मंदिर है। मंगरेलगढ़ से होकर माण्ड नदी के तट से होकर देउरपुर पहुँचे, जिसे अब महारानीपुर कहा जाता है। महारानीपुर में प्राचीन समय में मुनि आश्रम थे। यहाँ कुछ समय व्यतीत किया। यहाँ प्राचीन विष्णुमंदिर का भग्नावशेष एवं शिवमंदिर के अवशेष मिलते हैं।

सीतापुर में मंगरेलगढ़, देउरपुर (महारानीपुर) से होकर माण्ड नदी से पम्पापुर पहुँचे। पम्पापुर में किन्धा पर्वत है। रामायण में उल्लेखित किष्किन्धा का यह अपभ्रंश है। किन्धा पर्वत एवं उसके सामने दुण्दुभि पर्वत है। पम्पापुर में स्थित किन्धा पर्वत में राम भगवान की मुलाकात सुग्रीव से हुई थी। यहाँ के पर्वत में सुग्रीव गुफा भी है। दुण्दुभि राक्षस एवं बालि का युद्ध हुआ था। इसी कारण से इन पर्वत का नाम दुण्दुभि एवं किन्धा रखा गया है। पम्पापुर नामक ग्राम आज भी यहाँ स्थित है। पम्पापुर से आगे बढ़ने पर माण्ड नदी के तट पर पिपलीग्राम के पास रक्सगण्डा नामक स्थान है। रक्सगण्डा से ऊपर पहाड़ी से जलप्रपात गिरता है। इस प्राकृतिक स्थान का नाम रक्सगण्डा इसलिये पड़ा कि रक्स याने राक्षस, गण्डा याने ढेर अर्थात् राक्षसों का ढेर को रक्सगण्डा कहा जाता है। वनवास काल में उन्होंने इस स्थल में ऋषि-मुनियों के यज्ञ-हवन में विघ्न डालने वाले उत्पाती राक्षसों का वध कर ढेर लगा दिया था। इसी कारण से इस स्थान का नाम रक्सगण्डा रखा गया है। रक्सगण्डा से माण्ड नदी होकर पत्थलगाँव में १२ किमी. की दूरी पर माण्ड नदी के तट पर बने किलकिला आश्रम पहुँचे। किलकिला में प्राचीन शिवमंदिर है। यहाँ के आश्रम में कुछ समय व्यतीत किया। किलकिला में आज भी मंदिरों का समूह मिलता है तथा किलकिला का नाम रामायण में उल्लेखित हुआ है।
यहाँ से वे माण्ड नदी से होकर धर्मजयगढ़ पहुँचे। यहाँ नदी तट पर प्राचीन देवी का मंदिर है जो अंबे टिकरा के नाम से प्रसिद्ध है। यहाँ से माण्ड नदी से होकर चंद्रपुर पहुँचे। चंद्रपुर माण्ड और महानदी का संगम है। इसी संगम तट पर चंद्रहासिनी देवी का मंदिर बना है, तथा मंदिर के पीछे के भाग में नदी तट पर प्राचीन किले का द्वार है। इसी द्वार के दाहिनी ओर प्राचीन शिवमंदिर का भग्नावशेष है। रामचंद्रजी यहाँ शिवलिंग की पूजा अर्चना कर यहीं से वे माण्डनदी को छोड़कर महानदी के तट से शिवरीनारायण पहुँचे, जहाँ पर जोक, शिवनाथ एवं महानदी का संगम है। शिवरीनारायण में मतंग ऋषि का आश्रम था। मतंग ऋषि की शबर कन्या शबरी के गुरू थे। शबरी छत्तीसगढ़ की शबर कन्या थी, जो मतंग ऋषि के गुरूकुल की आचार्या थी। इन्होंने रामचंद्र जी को वनवास काल में यहाँ पहुँचने पर अपने जूठे बेर खिलाये थे। अतः शबरी-नारायण के नाम से इस स्थान का नाम शबरीनारायण पड़ा जो आज शिवरीनारायण के नाम से प्रसिद्ध है। श्री राम इन्हीं संतों से मिलने यहाँ आये थे। यहाँ पर नदी संगम में शबरीनारायण का प्राचीन मंदिर है।
शिवरीनारायण में कुछ समय व्यतीत कर वे वहाँ से तीन कि.मी. दूर खरौद पहुँचे, खरौद को खरदूषण की राजधानी कहा जाता है। खरौद में प्राचीन शिवमंदिर है, जो लक्ष्मणेश्वर शिवमंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। इस शिवलिंग में लगभग एक लाख छिद्र हैं। यहाँ राम-लक्ष्मण दोनों ने शिवलिंग की पूजा की थी। यहाँ से जाँजगीर पहुँचे। जाँजगीर को कलचुरी शासक जाजल्य देव ने बसायी थी। यहाँ पर राम का प्राचीन मंदिर है। इसके बाद वे महानदी से मल्हार पहुँचे। मल्हार को दक्षिण कोसल की राजधानी होने का गौरव प्राप्त था। यहाँ मंदिरों के प्राचीन अवशेष में मानस कोसलीय लिखा हुआ सिक्का मिला है, जिससे इस स्थान का नाम कोसल होने की पुष्टि करता है। मल्हार से महानदी से धमनी पहुँचे। धमनी में प्राचीन शिवमंदिर है। धमनी होकर बलौदाबाजार तहसील में पलारी पहुँचे। पलारी में बालसमुंद जलाशय के किनारे प्राचीन ईंटों से निर्मित शिवमंदिर है। पलारी से महानदी मार्ग से नारायणपुर पहुँचे, नारायणपुर में प्राचीन शिवमंदिर है। नारायणपुर से कसडोल होकर तुरतुरिया पहुँचे। बालुकिनी पर्वत के समीप बसा तुरतुरिया को वाल्मीकि आश्रम कहा जाता है।

VARSHNEY.009
25-10-2013, 12:58 PM
वाल्मीकि आश्रम में कुछ समय व्यतीत कर मुनिवर से मुलाकात कर उनसे मार्गदर्शन लेकर महानदी के तट पर बसे प्राचीन नगर सिरपुर पहुँचे। सिरपुर में राममंदिर एवं लक्ष्मणमंदिर तथा गंधेश्वर शिवमंदिर स्थिापित हैं। सिरपुर से आरंग पहुँचे। महानदी तट पर बसा आरंग में कौशल्या कुण्ड है। कहा जाता है कि कोसल नरेश भानुमंत की पुत्री का विवाह अयोध्या के राजकुमार दशरथ से हुआ था। विवाह बाद राजकुमारी का नाम कोसल से होने के कारण कौशल्या रखा गया। जैसा कि कैकय देश से कैकयी। इस प्रकार विवाह के बाद स्त्री का नाम बदलने की परंपरा की रामायणकालीन जानकारी मिलती है। आरंग माता कौशल्या की जन्मस्थली थी। अतः रामचंद्र जी ने वनवास काल में अपने ननिहाल में जाना पसंद किया था और यहाँ अधिकांश समय व्यतीत किया था । यही कारण है कि महाभारत कालीन मोरध्वज की राजधानी होने के बाद किसी अन्य राजा ने अपनी राजधानी इसे नहीं बनाया था, क्योंकि राम की जननी की जन्म स्थली होने के कारण यह एक पवित्र स्थान माना जाता है। आरंग से लगे हुए मंदिरहसौद क्षेत्र में कौशिल्या मंदिर भी है आरंग में प्राचीन बागेश्वर शिव मंदिर है। यहाँ उनके दर्शन किये फिर आरंग से महानदी तट से होते हुए फिंगेश्वर पहुँचे। फिंगेश्वर-राजिम मार्ग पर प्राचीन माण्डव्य आश्रम में श्री राम ऋषि से भेंट कर चंपारण्य होकर कमलक्षेत्र राजिम पहुँचे। राजिम में लोमस ऋषि के आश्रम गये, वहाँ रुक कर उनसे मार्गदर्शन लेकर कुलेश्वर महादेव की पूजा अर्चना की। यहाँ कुछ समय व्यतीत किया। यहाँ पर सीता वाटिका भी है। इसके बाद उन्होंने पंचकोशी तीर्थ की यात्रा की, जिसमें पटेश्वर, चम्पकेश्वर, कोपेश्वर, बम्हनेश्वर एवं फणिकेश्वर शिव की पूजा की। राजिम राजीवलोचन मंदिर आज भी राजिम तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है। यहाँ एक सुरंग में मंदिर प्राचीन राजिम आश्रम में बना हुआ है, जहाँ प्राचीन शिवलिंग स्थापित है।
इनके दर्शन कर वे महानदी से रूद्री पहुँचे। रूद्रेश्वर शिव का प्राचीन मंदिर रूद्री में स्थित है। पाण्डुका के पास अतरमरा ग्राम में एक आश्रम है, जिसे अत्रि ऋषि का आश्रम कहते हैं। यहाँ से होकर वे रूद्री गये। रूद्री से गंगरेल होकर दुधावा होकर देवखूँट पहुँचे। नगरी स्थित देवखूँट में मंदिरों का समूह था जिसमें शिवमंदिर एवं विष्णुमंदिर रहे होंगे, जो बाँध के डूबान में आने के कारण जलमग्न हो गए। देवखूँट में कंक ऋषि का आश्रम था। यहाँ से वे सिहावा पहुँचे। सिहावा में श्रृंगि ऋषि का आश्रम है। वाल्मीकि रामायण में कोसल के राजा भानुमंत का उल्लेख आता है। भानुमंत की पुत्री कौशल्या से राजा दशरथ का विवाह हुआ था। इसके बाद अयोध्या में पुत्रयेष्ठि यज्ञ हुआ था, जिसमें यज्ञ करने के लिये सिहावा से श्रृंगी ऋषि को अयोध्या बुलाया गया था। यज्ञ के फलस्वरूप कौशल्या की पुण्य कोख से भगवान श्री राम का जन्म हुआ था। राजा दशरथ की पुत्री राजा रोमपाद की दत्तक पुत्री बनी, जिसका नाम शांता था। शांता भगवान राम की बहन थी, जिसका विवाह श्रृंगी ऋषि से हुआ था। सिहावा में श्रृंगी ऋषि के आश्रम के आगे के पर्वत में शांता गुफा है। यही कारण है कि रामचंद्र ने बहन -बहनोई का संबंध सिहावा में होने के कारण अपने वनवास का अधिक समय इसी स्थान में बिताया था तथा यह स्थान उन दिनों जनस्थान के नाम से जाना जाता था।
सिहावा में सप्त ऋषियों के आश्रम विभिन्न पहाड़ियों में बने हुये हैं। उनमें मुचकुंद आश्रम, अगस्त्य आश्रम, अंगिरा आश्रम, श्रृंगि ऋषि, कंकर ऋषि आश्रम, शरभंग ऋषि आश्रम एवं गौतम ऋषि आश्रम आदि ऋषियों के आश्रम में जाकर उनसे भेंट कर सिहावा में ठहर कर वनवास काल में कुछ समय व्यतीत किया। सिहावा महानदी का उद्गम स्थल है। राम कथाओं में यह वर्णन मिलता है कि भगवान राम इस जनस्थान में काफी समय तक निवासरत थे। सिहावा की भौगोलिक स्थिति, ऋषि मुनियों के आश्रम, आवागमन की सुविधा आदि कारणों से यह प्रमाणित होता है। दूर-दूर तक फैली पर्वत श्रेणियों में निवासरत अनेक ऋषि-मुनियों और गुरूकुल में अध्यापन करने वाले शिक्षार्थियों का यह सिहावा क्षेत्र ही जनस्थान है। जहाँ राम साधु-सन्यासियों एवं मनीषियों से सत्संग करते रहे। सीतानदी सिहावा के दक्षिण दिशा में प्रवाहित होती है, जिसके पार्श्व में सीता नदी अभ्यारण बना हुआ है। इसके समीप ही वाल्मीकि आश्रम है। यहाँ पर कुछ समय व्यतीत किया। सिहावा में आगे राम का वन मार्ग कंक ऋषि के आश्रम की ओर से काँकेर पहुँचता है। कंक ऋषि के कारण यह स्थान कंक से काँकेर कहलाया। काँकेर में जोगी गुफा, कंक ऋषि का आश्रम एवं रामनाथ महादेव मंदिर दर्शन कर दूध नदी के मार्ग से केशकाल पर्वत की तराई से होकर धनोरा पहुँचे।
गढ़ धनोरा प्राचीनकाल में एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक केंद्र था। पुरातात्विक दृष्टि से महत्वपूर्ण इस क्षेत्र में ६वीं शती ईस्वी का प्राचीन विष्णु मंदिर मिला है, तथा अन्य मंदिरों के भग्नावशेष भी मिले हैं। धनौरा से आगे नारायणपुर पहुँचे। नारायणपुर में अपने नाम के अनुरूप विष्णु का प्राचीन मंदिर है। नारायणपुर के पास राकसहाड़ा नामक स्थान राकस हाड़ा याने राक्षस की हड्डियाँ कहा जाता है वनवास काल के समय श्रीराम एवं लक्ष्मण जी ने ऋषि-मुनियों की तपोभूमि में विघ्न पहुँचाने वाले राक्षसों का भारी संख्या में विनाश किया था और उनकी हड्डियों के ढेर से पहाड़ बना दिया था। यह स्थान आज भी रकसहाड़ा के नाम से विख्यात है। वहीं पर रक्शाडोंगरी नामक स्थान भी है। इसके बाद नारायणपुर से छोटे डोंगर पहुँचे छोटे डोंगर में प्राचीन शिव मंदिर के भग्नावशेष मिले हैं। छोटे डोंगर से होकर प्राचीन काल में बाणासुर की राजधानी बारसूर पहुँचे। बारसूर एक सांस्कृतिक एवं धार्मिक केंद्र है। यहाँ प्रसिद्ध चंद्रादितेश्वर मंदिर, मामा-भांजा मंदिर, बत्तीसा मंदिर तथा विश्व प्रसिद्ध गणेश प्रतिमा स्थापित है। बारसूर से चित्रकोट पहुँचे। चित्रकोट जलप्रपात जो इंद्रावती पर बना हुआ है, यह रामवनगमन के समय राम-सीता की यह रमणीय स्थली रही। यहाँ कुछ समय व्यतीत किया था। यह राम-सीता की लीला स्थली भी कही जाती है। सीता एवं रामचंद्र के नाम पर एक गुफा भी है।
कहा जाता है कि भगवान राम से चित्रकोट में हिमगिरी पर्वत से भगवान शिव एवं पार्वती मिलने आये थे। चित्रकोट होकर नारायणपाल जो इंद्रावती नदी के तट पर बसी प्राचीन नगरी है। यहाँ विष्णु एवं भद्रकाली मंदिर हैं। नारायणपाल से दण्डकारण्य के प्रमुख केंद्र जगदलपुर से होकर गीदम पहुँचे। गीदम के संबंध में किवदंती है कि यह क्षेत्र गिद्धराज जटायु की नगरी थी। गिद्धराज राजा दशरथ के प्रिय मित्र थे। अनेक युद्धों में दोनों ने साथ-साथ युद्ध किया था। अतः रामवनगमन के समय गिद्धराज से मिलने गये थे। गिद्धराज के नाम से इस स्थान का गीदम होने की पुष्टि होती है। रामकथा में उल्लेख मिलता है कि रामचंद्र जी के पर्णकुटी में जाने के पूर्व उनकी भेंट गिद्धराज से हुई थी।
गीदम से वे शंखनी एवं डंकनी नदी के तट पर बसा दंतेवाड़ा पहुँचे जहाँ पर आदि शक्तिपीठ माँ दंतेश्वरी का प्रसिद्ध मंदिर है। दंतेवाड़ा से काँगेर नदी के तट पर बसे तीरथगढ़ पहुँचे। तीरथगढ़ में सीता नहानी है। यहाँ पर राम-सीता जी की लीला एवं शिवपूजा की कथा प्रसिद्ध है। तीरथगढ़ एक दर्शनीय जलप्रपात है। इस मनोरम स्थल में कुछ समय व्यतीत करने के बाद कोटूमसर पहुँचे, जिसे कोटि महेश्वर भी कहा जाता है। कोटूमसर का गुफा अत्यधिक सुंदर एवं मनमोहक है। कहा जाता है कि यहाँ वनवास काल के समय उन्होंने भगवान शिव की पूजा की थी। यहाँ प्राकृतिक अनेक शिवलिंग मिलते हैं। कुटुमसर से सुकमा होकर रामारम पहुँचे। यह स्थान रामवनगमन मार्ग में होने के कारण पवित्र स्थान माना जाता है। यहाँ रामनवमी के समय का मेला पूरे अंचल में प्रसिद्ध है। रामाराम चिट्मिट्टिन मंदिर प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि राम वन गमन के समय यहाँ भू-देवी (धरती देवी) की पूजा की थी। यहाँ की पहाड़ी में राम के पद चिन्ह मिलने की किवदंती है। रामारम से कोंटा पहुँचे। कोंटा से आठ कि.मी. उत्तर में शबरी नदी बहती है। इसी के तट पर बसा छोटा सा ग्राम इंजरम है। इंजरम में प्राचीन शिवमंदिर रहा होगा। उसके भग्नावशेष आज भी भूमि में दबे पड़े हुये हैं। कहा जाता है कि भगवान राम ने यहाँ शिवलिंग की पूजा की थी।
शबरी नदी से होकर गोदावरी एवं शबरी के तट पर बसे, कोंटा से ४० कि.मी. दूर आंध्रप्रदेश के तटवर्ती क्षेत्र कोनावरम् पहुँचे। यहाँ पर शबरी नदी एवं गोदावरी का संगम है। इस संगम स्थल के पास सीताराम स्वामी देव स्थानम है। कहा जाता है कि पर्णकुटी जाने के लिए कोंटा से शबरी नदी के तट से यहाँ राम-सीता वनवास काल में पहुँचे थे। इसके बाद गोदावरी नदी के तट पर बसे भद्रचलम पहुँचे। जहाँ पर्णकुटी (पर्णशाला) है। कहा जाता है कि दण्डकारण्य के भद्राचलम में स्थित पर्णकुटीर रामवनगमन का अंतिम पड़ाव एवं दक्षिणापथ का आरंभ था। पर्णकुटीर आज भी दर्शनीय है। भद्राचलम (आंध्रप्रदेश) में गोदावरी नदी के तट पर बना प्राचीन राम मंदिर (राम देव स्थानम) आज भी दर्शनीय है। ऐसी मान्यता है कि यहाँ पर्णशाला (पर्णकुटीर) होने के कारण त्रेतायुग में इस स्थान का विशेष महत्व था। इसी पर्णशाला से सीताजी का हरण हुआ था। इस पर्णकुटीर में लक्ष्मण रेखा बनी हुयी है। इस स्थान के आगे का हिस्सा भारत का दक्षिणी क्षेत्र अर्थात् द्रविणों का क्षेत्र कहा जाता है। इस प्रकार छत्तीसगढ़ की पावन धरा में वनवासकाल में सीताजी एवं लक्ष्मण जी के साथ मर्यादा पुरूषोत्तम रामचंद्रजी का आगमन हुआ। इनके चरण स्पर्श से छत्तीसगढ़ की भूमि पवित्र एवं कोटि-कोटि धन्य हो गयी।

rajnish manga
31-10-2013, 07:59 PM
छत्तीसगढ़ में रामकथा से जुड़े और धार्मिक, सांस्कृतिक महत्त्व के स्थानों के बारे में उपरोक्त आलेख में बहुत विषद वर्णन किया गया है और उनके साथ जुड़े प्रसंग भी प्रस्तुत किये गये हैं. हार्दिक धन्यवाद.

dipu
02-11-2013, 11:30 AM
बहुत बदिया

rajnish manga
09-12-2013, 09:24 PM
सिन्धु दर्शन व यात्रा वृत्तान्त
(साभार: पांचजन्य एवम् श्री रविप्रकाश टेकचन्दानी)
http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32066&stc=1&d=1386609738
जैसे-जैसे सिन्धु दर्शन अभियान हेतु जाने की तिथि पास आती जा रही थी, मुझे अनजाना सा उत्साह दिखने लगा था। रोज मन मचलता, प्रश्न उत्पन्न होता कि लेह जाऊं या न जाऊं? अगर जाऊं तो बस से जाऊं या हवाई जहाज से, कितने दिन लगेगे। छुट्टी मिलेगी या नहीं। क्या कार्यक्रम बनेगा? प्रश्नों की कतारें। 19 अगस्त की रात बरेली से मौसा श्री मोहन लाल खट्टर का फोन आया, उन्होंने जोश दिलाया। दादा खटर ने कहा नौंटकी (उ.प्र. की लोक कला) न करो, लेह चलना है और वह भी बस से। अब कोई प्रश्न नहीं। तैयारी की, मात्र एक दिन में लेह जाने की तैयारी हुई। बक्सों से गरम कपड़े निकल पड़े। दस दिनों का कार्यक्रम बना। 21 को चलना, 30 अगस्त को लौटना। लगभग 10 दिनों के लिए कपड़े, चने, चबैने इत्यादि बैग में, भरे पूरा दिन कुछ यहां से कुछ वहां से लेने में बीत गया।

rajnish manga
09-12-2013, 09:27 PM
आखिर 21 अगस्त की प्रात: आ गई सभी तीर्थ यात्री "एक नए तीर्थ का उदय' देखने हेतु नई दिल्ली से हिमाचल भवन के निकट मंडी हाऊस पहुंचे। हिमाचल पर्यटन की दो बसें कुल 70 यात्रियों के लिए उपलब्ध थीं। शेष लगभग 400 यात्रा देश के विभिन्न कोनों से हवाई जहाज पर्यटन जहाज से जाने वाले थे। दोनों बसों में से एक बस की जिम्मेदारी मुझे सौंपी गई और दूसरी बस का दायित्व श्री हेमनदास मोटवानी ने स्वयं लिया।

हिमाचल भवन के प्रांगण में सिन्धु यात्रियों का सुखद यात्रा हो सके, इस उद्देश्य से दिल्ली सरकार के अधिकारी श्री मनोज कुमार पहले से उपस्थित थे। प्रांगण में लगभग तीस मिनट का संक्षिप्त कार्यक्रम हुआ। भारतीय सिन्धु सभा के दिल्ली प्रदेश के अध्यक्ष श्री नारी थधाणी जी ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की। दिल्ली सरकार के तत्तकालीन मंत्री श्री सुरेन्द्र कुमार रातवाल ने स्वागत भाषण देते हुए घोषणा की कि आप सभी यात्रियों का पचास प्रतिशत खर्च दिल्ली सरकार वहन करेगी। श्री रातावाल ने सभी को माल्यार्पण भी किया, शुभ-कामनाएं दीं और साथ में डिब्बाबंद जलपान भी। हिमाचल पर्यटन के वेद प्रकाश पाण्डेय हमारे साथ मनाली तक चले।

बस के चलते ही, सारा वातावरण भारतमय हो गया। भारत माता की जय, सिन्धु माता की जय, वंदे-मातरम् के जयघोष से गुंजायमान दिल्ली की मनोहर प्रात: सिन्धु तट पर न जा सकने वालों को लालयित कर रही थी।

rajnish manga
09-12-2013, 09:28 PM
बस में कुल 35 तीर्थ यात्री थे। जिसमें 10 महिलाएं व 25 पुरुष थे। दिल्ली से कुल 12, मुम्बई से 8, गोरखपुर से 9, अयोध्या से 3, अहमदाबाद से 2 तथा बरेली से मात्र एक। गोरखपुर से आए सभी यात्री बहुत ही मिलनसार थे। उनके पास मिठाई-नमकीन का भण्डार था। थोड़ी ही देर में सभी यात्रियों में मिठाईयां बांटी गईं। बस, हम सभी विभिन्न रिश्तों में बंध गए। किसी ने आंटी तो किसी ने भाभी, तो किसी ने माता जी बना लिया। परिचय के पश्चात् गीत-संगीत का कार्यक्रम चला। गीतों में हम सभी इतने अधिक मस्त हो गए कि कब हम हिमालय प्रदेश के पर्यटन विभाग के होटल शिवालिक में, जो परवानू में स्थित है, दोपहर के भोजन हेतु पहुंचे, पता ही न चला। वहां पहुंचने पर हम यात्रियों का फूल मालाओं से स्वागत किया गया होटल के अधिकारियों में श्री आ.सी.गुप्ता ने हमें अपनी आंखों पर बैठा लिया। इतनी सुन्दर व्यवस्था देखकर हम सभी गदगद हो गए। भोजन भी लाजवाब। हिमाचल सरकार के मुख्यमंत्री श्री प्रेम कुमार घूमल ने सिंधु दर्शन अभियान के यात्रियों को सरकार के अतिथि के रूप में माना था। ठीक 45 मिनट के पश्चात् निर्धारित समय पर सभी पुन: बस से सवार हो चुके थे।

हमारी बसें अब प्रकृति के आंचल में दौड़ रही थी। चारों तरफ हरियाली, स्वच्छ वायु, मन तो मचलेगा ही। सभी एकाग्रचित प्रकृति का आनंद ले रहे थे। हंसते-खेलते शाम की चाय मंडी के होटल मांडव में पी गई। अधिकारियों ने कहा मौसम के कारण ही आप लोग कुछ लेट हुए अत: रात्रि भोजन की व्यवस्था मनाली के बदले कुल्लू में ही की गई। अधिकारियों ने हमारी भूख को ध्यान में रखते हुए भोजन की व्यवस्था कुल्लू में कर दी। कुल्लू का होटल अति मनोहारी लग रहा था। प्रकृति के बीच जैसे छोटा सा घोंसला बना हो। रात्रि का भोजन कुल्लू के होटल से करते लगभग रात्रि के एक बजे मनाली के होटल व्यास में पहुंचे। सुन्दर अति सुन्दर व्यवस्था। सभी को अलग-अलग कक्ष दिए गए। सारे कक्ष आधुनिक सुविधाओं में परिपूर्ण थे। सभी यात्रियों को अपने-अपने कमरे में जाकर सोने में रात्रि के 1.30 हो गए। होटल व्यास के अधिकारी श्री कपूर तो रात्रि के लगभग 2.15 पर सभी की व्यवस्था हो जाने के बाद ही वहां से गए। क्योंकि अभी तक दूसरी बस नहीं पहुंची थी। लगभग 2 बजे रात्रि में मोटवाणी जी ने मुझे जगाया, व्यवस्था की बात हुई।

rajnish manga
09-12-2013, 09:29 PM
प्रात: उठते ही व्यास नदी पर बना होटल व्यास, पहाड़ों से घिरा, हल्की-हल्की फुहार, भीनी-भीनी नैसंर्गिक खुशबू ने सभी के मन को मोह लिया। मनाली से आगे की यात्रा के लिए हमें स्वादिष्ट जलपान व दोपहर का भोजन मिला। साथ ही एक सुन्दर साथी, हमराही श्री के.एल. मस्ताना, जो हमें आगे की यात्रा का आंखों देखा हाल सुनाने के लिए तथा हमारा मार्गदर्शन करने हेतु हमारे साथ आए। मस्ताना जी का जैसा नाम वैसा काम। अपने मधुर व्यवहार से उन्होंने हमारी यात्रा को और खुशहाल बना दिया। मस्ताना जी, श्री पाण्डे के स्थान पर हमारे साथ चले।

अब हम पूर्णत: हिमाचल की गोद में थे। लगभग 5-6 किमी. की दूरी पर रोहतांग पास (समुद्र तल से ऊंचाई लगभग 13,500 फीट) पहुंचे। यहां से व्यास नदी का उद्गम माना जाता है और यहीं पर ऋषि व्यास का मन्दिर बना है। यहां का मौसम ठंडा था। वातावरण में आक्सीजन भी थोड़ी कम थी। लेकिन सभी प्रकृति का पूर्ण आनंद ले रहे थे सभी अपने-अपने अंदाजों में फोटो खिंचवा रहे थे। बच्चों-बूंढ़ों में कोई अंतर नहीं दिख रहा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों प्रकृति की सारी खूबियां अपने छोटे-छोटे कैमरों में कैद कर लेंगे।

रोहतांग पास (दर्रा) से हम आग बढ़े। लगभग 2 घण्टे के पश्चात् हम लोग केलांग पहुंचे। यह स्थान समुद्र के तल से 10,500 फीट की ऊंचाई पर है तथा लाहौल स्पीति जिले का जिला मुख्यालय है। केलांग में हम सभी ने भोजन लिया। यहां से हमारे साथ सुरक्षा अधिकारी भी चल पड़े। हमें अपने व्यूह में समा लिया उन्होंने। यद्यपि कोई विशेष डर नहीं थी। लेकिन भई हम इस सिंधु दर्शन अभियान के पहले बस यात्री थे। पर हमें तो सिर्फ मस्ती, मौसम, माहौल और मस्ताना के सिवा कुछ सूझ नहीं रहा था। दोपहर के भोजन के पश्चात् हम बारालाचा पास (दर्रा) से होते हुए रात्रि में लगभग 8.30 बजे सुर्चू पहुंचे। यह स्थान एक समतल मैदान था। चारों ओर काले-काले पहाड़ दिख रहे थे। रात में झरने की आवाजें भी आ रही थी। प्रकृति की माया अपरम्पार है। यह हिमाचल प्रदेश का अंतिम गांव है। यहां पर हिमाचल पर्यटन विभाग ने हमारे लिए रात्रि विश्राम की व्यवस्था की थी।

rajnish manga
09-12-2013, 09:31 PM
पटकुटी अंदर से बहुत गर्म थी। बाहर मौसम बहुत ठंडा था। चिकित्सक भी हमारी सेवा के लिए उपस्थित थे। सहयोगियों में रामपाल ठाकुर व भांगचंद ठाकुर भी थे। डाक्टर ने हम सभी का निरीक्षण किया, सभी से प्यार से बात की, दवा दीं, कुछ हिदायतें भी दीं। मन भावुक हो उठा। इतनी सेवा, इतनी आत्मीयता, अवर्णनीय है सब। वह भी सरकारी कर्मचारियों की यह आत्मीयता? एक अनोखा विचित्र अनुभव था। हम सभी रात्रि भोजन के पश्चात् सो गए, यह पूरी यात्रा की सर्वाधिक ठण्डी रात थी। पर पटकुटी के अंदर इतनी सुन्दर व्यवस्था थी कि ठण्ड का पता तक न चला।

http://myhindiforum.com/attachment.php?attachmentid=32067&stc=1&d=1386610592

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23 अगस्त की प्रात: सुर्चू में हमने सभा की, हल्का व्यायाम किया, प्रार्थना की और लगभग 8.30 प्रात: तैयार होकर लेह की और, सिन्धु मैया के दर्शन हेतु चल पड़े। सुर्चू से हम सभी के लिए वहां के व्यवस्थापक श्री रामपाल ठाकुर ने बहुत ही सुन्दर डिब्बे में स्वादिष्ट जलपान दिया। शुभकामनाएं दी, आज हमें लगभग 270 किमी. यात्रा करनी थी। सुर्चू से लेह का यह सफर अपने आप में कुछ अलग था। सुर्चू को पार करते ही हमें सेना ने अपनी सुरक्षा चौकी पर रोका। हमारा स्वागत किया। हमें फलों के रस के 27 पैकेट दिए और हमारे साथ सुरक्षा अधिकारियों को भेजा। हमने भारत माता की जय का उद्घोष किया। आयोलाल-झूलेलाल को याद किया। हिमाचल पीछे छूट गया, अब हम जम्मू-कश्मीर राज्य के लद्दाख क्षेत्र में थे। संकरे रास्ते, ऊंचे-ऊंचे पर्वत हरियाली बहुत कम, बिल्कुल सीधे व नग्न पहाड़। मन को अच्छे भी लगे, डर भी लगा। कभी हमारे ऊपर पहाड़ तो कभी हम पहाड़ों के ऊपर। अभी-अभी तो नीचे थे, अब सबसे ऊपर चल रहे हैं। लोगों में अथाह उत्साह। देशभक्ति के गीतों का गान। कश्मीर व लद्दाख पर गर्मा-गर्म चर्चा, मन मस्तिष्क पूर्णत: यहीं का हो चुका था। हम सभी अपने-अपने घरों को भूल चुके थे। याद था तो सिर्फ प्रिय भारत देश। भारत की सभ्यता, संस्कृति। उसकी रक्षा के उपाय। देश के वीर सैनिक, मस्तिष्क में समुद्र मंथन हो रहा था। कुछ अमृत, कुछ हलाहल बाहर आ रहा था। प्रकृति ने पूर्णत: हम पर विजय पा ली थी।

rajnish manga
09-12-2013, 09:41 PM
सुर्चु से लेह की यात्रा में हमें लगभग 50 किमी. का पहाड़ों के बीच मैदानी भाग मिला। हल्की-हल्की घास। गहरी-गहरी खाई। मदमाता मौसम। और उसके बाद पूरे सफर का सर्वाधिक ऊंचा दर्रा "लपांगला', जो लगभग 18000 फीट की ऊंचाई पर था। वहां पहुंचते ही सभी के चेहरे खिल उठे। चांदी के वर्क के भांति पहाड़ों पर धूप नजर आ रही थी। ऐसा लग रहा था। मानों चांदी के पहाड़ हमें अपने पास बुला रहे हों। अदभूत दृश्य था। प्रकृति का। कैमरे बाहर निकल पड़े। लेकिन स्वास्थ्य की दृष्टि से सुर्चू में चिकितस्कों ने यहां अधिक देर न रूकने का कठोर निर्देश दिया था। कारण, यहां आक्सीजन की समस्या थी। परन्तु हम सभी स्वस्थ रहे। किसी को भी कुछ न हुआ।

दोपहर के लगभग हम सेना के शिविर में पहुंचे। यहां लेफिटनेंट कर्नल श्री बी.एल. ग्रेबाल हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। पुन: वर्दियों के बीच में एक वीराना स्थान। हमारे वीरे सैनिक देश के लिए मर मिटने को तैयार यहां अकेले सिर्फ भारत मां की याद में रह रहे हैं।

श्री ग्रेवाल ने हमे स्वादिष्ट भोजन करवाया, वहां पर हमारे लिए बूंदी भी बनाई गई थी। सभी ने जी भरकर खाया। सभी ने वहां पर सैनिकों के जीवन को नजदीक से देखा, समझा। और सभी ने मन ही मन यह प्रण किया आज से हमारा व्यवहार इन वीर सैनिकों के प्रति सदैव सकारात्मक होगा। चलते समय ले. कर्नल ने हमें हमारी सुखद यात्रा हेतु शुभ-कामनाएं दी, हम सभी ने उन्हें भी अपने स्नेह का स्वाद चखाया। दिल दोनों तरफ से भरे थे। आंसू आंखों तक आ गए थे। लगभग तीन बजे हम यहां से आगे बढ़े। सायंकाल पुन: एक सैन्य शिविर में हमें शाम की चाय मिली। और ढेर सा प्यार मिला! हम सभी यात्री वीर सैनिकों से इतना प्यार पाकर उनके हो चुके थे। इस तरह यह यात्रा और आगे बढ़ी और लगभग रात्रि के 8.45 पर लेह के सेना शिविर में पहुंचे। हमारी रहने की सुन्दर व्यवस्था की गई। वीर सैनिकों के साथ हम भी वैरकों में रहने चले गए।

24 अगस्त की प्रात: तक दूसरी बस लेह नहीं पहुंची थीं, चिंता बढ़ रही थी। सूचना मिली कि मोटवाणी जी बस को लेकर लगभग 2 बजे दोपहर में पहुंचेगें।

मैं बस की प्रतीक्षा करने लगा। तभी दूर से अपनी बस आती दिखी। बस जैसे-जैसे शिविर के निकट आ रही थी। आयोलाल झुलेलाल, सिंधुमाता की जय, भारत माता की जय के उद्घोष सुनाई देते जा रहे थे। बस पहुंची, बस के यात्री पहुंचे। हम सभी ने लेह, लद्दाख पहुंचकर सिंधु दर्शन अभियान को सफल बनाने के लिए संकल्प प्रस्तुत किया, और सिन्धु नदी के तट पर आयोजित इस कार्यक्रम शामिल हो गए।


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VARSHNEY.009
17-07-2014, 02:47 PM
जन्नत कहीं है तो वह यहीं है, यहीं है, यहीं है कहते हैं कि जहांगीर जब सबसे पहली बार कश्मीर पहुंचे तो कहा कि जन्नत कहीं है तो वह यहीं है, यहीं है, यहीं है।
मैं १९७५ की जून में कश्मीर गया था। मुन्ने की मां कभी नहीं गयी। हम लोगों ने कई बार कश्मीर जाने का प्रोग्राम बनाया पर बस जा न सका। हमारे सारे दायित्व समाप्त हैं। इसलिये मन पक्का कर, इस गर्मी में हम लोग कश्मीर के लिये चल दिये।
दिल्ली से श्रीनगर के लिये हवाई जहाज पकड़ा। रास्ते में भोजन मिला। प्लेट में एक प्याला भी था। चाय नहीं मिली पर जब प्लेट वापस जाने लगी। तो मैने परिचायिका से पूछा कि यदि चाय या कॉफी नहीं देनी थी तो प्लेट में कप क्यों रखा था। वह मुस्कराई और बोली,
‘आज फ्लाईट में बहुत भीड़ है। फ्लाईट केवल एक घन्टे की है इतनी देर में सबको चाय या कॉफी दे कर सर्विस समाप्त करना मुश्किल था। इसलिये नहीं दी, पर लौटते समय जरूर मिलेगी।’
परिचायिका का मुख्य काम तो अच्छी तरह से बात करना होता है। लौटते समय कौन किससे मिलता है।


बम्बई का फैशन और कश्मीर का मौसम – दोनो का कोई ठिकाना नहीं है
श्रीनगर पहुंचते ही, हम टैक्सी पकड़कर पहलगांव के लिए चल दिये। पहलगांव समुद्र तट से लगभग ७५०० लगभग फीट की ऊँचाई पर है। यहां लिडर और शेषनाग नदियों का संगम है। श्रीनगर से पहलगांव का रास्ता लिडर नदी के साथ चलता है और सुन्दर है।
हमारे टैक्सी चालक का नाम ओमर था। उसने कहा कि बम्बई का फैशन और कश्मीर का मौसम दोनो एक जैसे हैं, पता नहीं कब बदल जाय। बहुत ज्लद ही इसका अनुभव हो गया। रास्ते में कहीं पांच मिनट बारिश, तो फिर तेज धूप।
रास्ते में हमने रूक कर कशमीरी कहवा पिया। यह सुगंधित चाय सा था। इसमें दूध तो नहीं पर दालचीनी और बादाम पड़े थे।
पहलगांव में हम हीवान (Heevan) होटल में ठहरे। यह होटल लिडर नदी के बगल में है। खिड़की के बाहर सफेद हिम अच्छादित पहाड़ या फिर पेड़ों से भरी हरी पहाड़ियां थीं। देखने में मन भावन दृश्य था।
पहलगांव, पहुंचते शाम हो चली थी। लिडर नदी पर रैफ्टिंग भी होती है। मैंने सोचा क्यों न रैफ्टिंग कर ली जाय। होटेल वालों ने कार से दो किलोमीटर ऊपर नदी के किनारे छुड़वाया फिर नदी पर रैफ्ट के ऊपर, तेज धार के साथ, तीन किलोमीटर का सफर – सर पर हैमलेट और बदन पर जैकट। रैफ्टिंग करने में पूरी तरह भीग गये। बीच में पानी भी बरसने लगा, रही सही कमी भी पूरी हो गयी। रैफ्ट ने होटल के आगे छोड़ा । वहां से दौड़ लगाकर वापस होटल आए तो कुछ गर्मी आई। कमरे में आकर कपड़े बदले फिर गर्म चाय पी तो जान में जान आयी।
हम लोग पहले मां के साथ ऐसी जगहों पर जाते थे। मां हमेशा एक छोटी बोतल में ब्रांण्डी साथ रखती थी। ठंड लगने पर गर्म दूध में एक चम्मच ब्रांडी डालकर पीने के लिए देती थी। हम लोग ब्रांडी नहीं ले गए थे। मुझे फिर मां की याद आयी। अगली बार अवश्य साथ ले जाऊंगा।
यदि आप यह सोचते हैं कि कश्मीर में विस्की से गर्मी पा सकती हैं। तो भूल जाइये। इस्लाम में शराब पीना हराम है। वहां अधिकतर लोग मुसलमान हैं इसलिये कश्मीर में शराब हराम है। हां, चोरी छिपे जरूर पी जाती है।
यहां पर आकर लगा कि हमे छाता भी लाना चाहिए था मालुम नहीं कब, पांच मिनट के लिए बरसात।
कश्मीर में एक अनुभव और हुआ। यहां होटल अच्छे हैं। खाना अच्छा है पर तौलिये साफ नहीं होते हैं। उसका कारण यह बताया कि सूखने में मुश्किल होती है। मुझे लगा कि अपने साथ छोटे छोटे तौलिये भी रहने चाहिये ताकि बदन पोंछा जा सके।
बहुत अच्छा हुआ कि मैंने पहुंचते ही रैफ्टिंग कर ली। मुन्ने की मां ने नहीं की थी। उसे डर लगता था। अगले दिन रैफ्टिंग नहीं हो रहीं थी। होटल वाले ने बताया कि किसी ने रैफ्टिंग वाले को पीट दिया था इसलिए उनकी हड़ताल है। एक बार का वे २०० रूपये लेते हैं। एक दिन में कम से कम १००० लोग रैफ्टिंग करते हैं। यानि हड़ताल में २ लाख का घाटा। सच है हड़ताल से, हड़ताल करने वालों का ही घाटा होता है।
अगले दिन हम लोग आड़ू गये। आड़ू ले जाने के लिये स्थानीय टैक्सी करनी होती है। हमने भी एक टैक्सी की। उसके चालक का नाम शहनवाज था। आड़ू में प्राकृतिक सौंदर्य है। वहां लोग पहुंच कर घोड़े पर घूमते हैं। हम लोग घोड़े पर नहीं गये। पैदल ही घूमने निकल गये। यह सुन्दर जगह है।
जब हम लोग पैदल जाने लगे तो हमारा टैक्सी चालक, शहनवाज, भी हमारे साथ था। उसका कहना था,
‘कश्मीरी पाकिस्तान के साथ नहीं जाना चाहते। वे या तो हिन्दुस्तान के साथ या फिर स्वतंत्र रहना चाहते हैं। उसके मुताबिक पाकिस्तान उग्रवाद फैला रहा है पर पैरा-मिलिट्री फोर्स भी उग्रवादी की तरह काम कर रही है। यदि किसी के घर उग्रवादी जबरदस्ती घुस जाय। तो उसके घर की महिलाओं की इज्जत लूटते हैं। आग लगा देते हैं।’

VARSHNEY.009
17-07-2014, 02:49 PM
आड़ू बहुत छोटा सा गांव है जिसमें एक सरकारी मिडिल स्कूल है। दो साल पहले तक यह पांचवी तक था अब ८वीं तक है। इसे जवाहरलाल नेहरू ने शुरू करवाया था। मैं हमेशा स्कूल, विश्वविद्यालय में बच्चों के साथ समय व्यतीत करना चाहता हूं। उनके साथ रह कर जीवन में नया-पन आता है। इसलिये इस स्कूल में बच्चों से मिलने पहुंच गया।
इस स्कूल में लगभग १५० बच्चे हैं। हम जब वहां पहुंचे तो वे प्रार्थना कर रहे थे। उसके बाद हर बच्चा आकर कोई गीत सुनाता था या सामान्य ज्ञान का प्रश्न पूछता था। http://bp0.blogger.com/_VD9tZkRYrQ0/Rnt-qLDvfLI/AAAAAAAAAGc/EIYAlIDcRzE/s200/Students+Aru.jpg (http://bp0.blogger.com/_VD9tZkRYrQ0/Rnt-qLDvfLI/AAAAAAAAAGc/EIYAlIDcRzE/s200/Students+Aru.jpg)वे अध्यापक को उस्ताद शब्द से संबोधित कर रहे थे। उस्ताद के अनुसार यह उन्हे नेतृत्व करने की शिक्षा देता है। स्कूल में अंग्रेजी, उर्दू तथा कश्मीरी पढ़ाई जाती थी। कुछ बच्चों ने अंग्रेजी में सवाल पूछे और कविता भी सुनायी, कुछ ने उर्दू में भी सुनायी।
मैनें कुछ समय बच्चों के साथ गुजारा। मैंने उनसे पूछा कि उनका सबसे पसंदीदा हीरो कौन है उनका जवाब था मिथुन चक्रवर्ती। मुझे आश्चर्य हुआ। उन्होंने इसका कारण यह बताया कि वह बहुत अच्छी फाइट करता है इसलिए वह पसन्द है। उनके उस्ताद जी ने बताया कि वहां ‘ज़ी क्लासिक’ चैनल आता है उसमें पुरानी पिक्चरें आती है इसलिए वे मिथुन चक्रवर्ती का नाम ले रहे हैं।
मैने भी विद्यार्थियों से एक सवाल पूछा। मिथुन चक्रवर्ती के यहां एक चौकीदार था। एक दिन सुबह हवाई जहाज से मिथुन को कलकत्ता जाना था। चौकीदार ने जाने के लिए मना किया। उसने कहा,
‘मैंने अभी सपना देखा है कि हवाई जहाज की दुर्घटना हो गयी है और सब यात्री मर गये हैं।’
मिथुन चक्रवर्ती उस फ्लाइट से नहीं गये। उस फ्लाइट की दुर्घटना हो गयी और सब यात्री मर गये। मिथुन चक्रवर्ती ने चौकीदार को इनाम दिया पर नौकरी से निकाल दिया । मैंने पूछा,
‘इनाम तो इसलिए दिया कि जान बच गयी पर चौकीदार को नौकरी से क्यों निकाला।’
कुछ संकेत देने के बाद एक बच्चे ने सही जवाब बता दिया।

VARSHNEY.009
17-07-2014, 02:49 PM
कश्मीर में जल्द ही अन्तरजाल की याद आने लगी। पहलगांव में एक ही साईबर कैफे है। वहां पहुंचा तो पता चला कि वह खराब है :-(
पहलगांव में कोई हिन्दू या सिख नहीं है पर पुलिस स्टेशन के सामने एक मंदिर और गुरूद्वारा है। मेरे पूछने पर बताया गया,
‘जब अमरनाथ की यात्रा होती है तो यात्री इसमें जातें हैं। सिख यात्रियों के लिए गुरूद्वारा में लंगर होता है।’
पहलगांव में ९ होल का गोल्फ कोर्स है। उस पर काम चल रहा है और अन्तरराष्ट्रीय स्तर का १८ होल का गोल्फ कोर्स बन रहा है। इस समय इसके तीन होल पर ही खेल हो सकता है।
पहलगांव से पास में चन्दरबाड़ी भी है। यहां टैक्सी से जाया जा सकता है। यहां पर बर्फ रहती है और स्लेजिंग की जा सकती है। हमारे लिये समय कम था। यह करना संभव नहीं था। इसलिये वहां नहीं गये।

VARSHNEY.009
17-07-2014, 02:50 PM
आप स्विटज़रलैण्ड में हैं
पहलगांव में बाईसरन भी देखने की जगह है। वहां पैदल या फिर घोड़े पर बैठ कर जाया जा सकता है। वहां जाने के लिये रोड तो है पर बहुत खराब है। घोड़े वालों की विरोध के कारण, टैक्सी नहीं जा सकती पर आप अपनी कार से जा सकते हैं।
बाईसरन, एक घासस्थली (Meadow) है। http://bp1.blogger.com/_VD9tZkRYrQ0/RoL590wiNQI/AAAAAAAAAGk/ryaefVMBBww/s200/Bisaran.jpg (http://bp1.blogger.com/_VD9tZkRYrQ0/RoL590wiNQI/AAAAAAAAAGk/ryaefVMBBww/s200/Bisaran.jpg)वहां हम लोग घोड़ों पर गये। पहुंचते ही, घोड़े वाले ने कहा,
‘आप लोग स्विटज़रलैण्ड में हैं।’
मैं कभी स्विटज़रलैण्ड नहीं गया इसलिये कह नहीं सकता कि उसकी बात सच है या नहीं पर यह जगह बहुत खूबसूरत बड़ा सा मैदान है।
हम जब मुन्ने के साथ ऎसी जगह जाते थे तो हमेशा चटाई रखते थे और फिर शतरंज होता था। मुन्ने की मां को शतरंज पसन्द नहीं है इसलिए उसके साथ तो नहीं खेला जा सकता। हांलाकि यदि वह खेलती होती तो भी मैं उससे जीत नहीं पाता। कहीं पत्नियों से चालों में कोई जीत सका है।
ऐसी जगह हम लोग कभी-कभी donkey-donkey भी खेलते थे। इसमें गेंद या फ्रिस्बी को एक फेकता है और दूसरा पकड़ता है। पहली बार न पकड़े जाने पर D दूसरी बार O और इसी तरह से जो पहले Donkey बन जाय वह बाहर।
शिव-पार्वती का निवास – गौरीमर्ग पर अब गुलमर्ग
हम लोग पहलगांव से गुलमर्ग पहुंचे। गुलमर्ग लगभग ९,००० फीट पर है। कहा जाता है कि यहां शिव-पार्वती का निवास है इसलिये यह गौरीमर्ग कहलाता था। सोलहवीं शताब्दी में कश्मीर के सुलतान यूसुफ शाह ने इसका नाम गुलमर्ग अर्थात फूलों की घाटी (Valley) कर दिया।

हम तुम बॉबी हट में बन्द हों
गुलमर्ग में एक मन्दिर है जिसमें ‘आप की कसम’ फिल्म के गाने ‘जय जय शिवशंकर’ के कुछ भाग की शूटिंग हुई है। इसकी कुछ शूटिंग http://bp2.blogger.com/_VD9tZkRYrQ0/RpB-YkwiNZI/AAAAAAAAAHs/ZytPOLSWfkU/s200/Bobby+hut.jpg (http://bp2.blogger.com/_VD9tZkRYrQ0/RpB-YkwiNZI/AAAAAAAAAHs/ZytPOLSWfkU/s200/Bobby+hut.jpg)श्रीनगर के शंकराचार्य मंदिर में हुई है। गुलमर्ग में ‘बॉबी हट’ है। इस फिल्म के एक गाने ‘हम तुम एक कमरे में बन्द हों’ की शूटिंग इसी हट में हुई है।
गुलमर्ग में १८ होल का गोल्फ कोर्स है। यह दुनिया का सबसे ऊंचा पर स्थित गोल्फ कोर्स है। यह बहुत सुन्दर है पर यह बहुत अच्छी स्थिति में नहीं था। इस पर कोई भी खेल नहीं रहा था।

VARSHNEY.009
17-07-2014, 03:14 PM
गुलमर्ग में अगले दिन हम लोग सुबह ‘गंडोला’ तारगाड़ी पर गऐ। १० बजे टिकट मिलना था, लाइन पर लगे रहे, लगभग ११ बजे टिकट मिला। गंडोला दो चरण में है पहला चरण खिलनमर्ग के पास तक १०,५०० फीट तक जाता है और दूसरा चरण उपर १३,००० फीट तक जाता है। दूसरे चरण पर जाने के लिये हम लोग ने लाइन लगायी। यहां पर मेरी मुलाकात अहमदाबाद में काम कर रहे डाक्टरों से हुई। वे मुझसे गुजराती में बात करने लगे। मैं ने बताया कि मैं गुजरात से नहीं हूं न ही गुजराती समझ पाता हूं। इसके बाद वे हिन्दी में बात करने लगे।
इन लोगों के मुताबिक गुजरात के हालात बहुत अच्छे हैं। मैने पूछा कि क्या मुसलमान भी ऎसा सोचते हैं। उन्होंने कहा,
‘हम चार परिवार एक साथ आये हैं एक मुसलमान परिवार है। आप उन्हीं से पूछ लीजये।’
मैंने मुसलमान डाक्टर से बात की तो उसका भी वही जवाब था। इनका कहना था,
‘हमारे अस्पताल में कोई बिजली का जेनरेटर नहीं है। क्योंकि पिछले दो साल में एक मिनट के लिए भी बिजली नहीं गयी। हालांकि बिजली के लिए ८/-रू० प्रति यूनिट देना पड़ता है। पानी भी २४ घंटे आता है। अगले पाँच साल में गुजरात बाकी राज्यों को बहुत पीछे छोड़ देगा।’
मैंने कहा कि मीडिया तो कुछ अलग सी रिपोर्ट करता है। उनके मुताबिक, मीडिया सनसनीखेज बातों पर निर्भर है। वे अक्सर कुछ ज्यादा या गलत लिख देते हैं।
कुछ समय पहले गुजरात में पुलिस मुठभेड़ (Encounter) में कुछ लोग मार दिये गये थे। मिडिया के मुताबिक यह फर्जी मुठभेड़ था। मैंने इसके बारे में उनके क्या कहना है। उनका जवाब था,
‘वह शक्स पुलिस को मारने के जुर्म में हत्यारा था इसलिए मुठभेड़ में मार दिया गया। ऎसा हर जगह होता है। पुलिस ने यदि बचाव के लिये मुख्य मंत्री का नाम डाल दिया तो कोई बात नहीं। हमारे गुजरात में रात को लड़किया सुरक्षित (Safely) घूम सकती हैं।’
मुन्ने को जब अमेरिका जाना था तो मैं कुछ साल पहले, उसे स्पोकन इंगलिश की परीक्षा दिलवाने, अहमदाबाद ले गया था। मुझे कुछ इसी तरह का अनुभव हुआ था हांलाकि मुझे गुजरात का अधिक अनुभव नहीं है।
मुझे यह डाक्टर पसंद आये। वे अपने प्रदेश के बारे अच्छे विचार रखते थे। उत्तर भारत के कई प्रदेशों के लोग, अपने प्रदेश के बारे में अच्छी राय नहीं रखते हैं।
मैं उन लोगों से और बात करना चाहता था और उनके चित्र भी लेना चाहते था पर वहां ओले गिरने लगे। हमें श्रीनगर भी जाना था। हमें लगा कि हम दूसरे चरण में नहीं जा पायेंगे और वापस आ गए।
हम लोगों से गलती हो गयी थी। सुबह खिलनमर्ग तथा आसपास हमें घोड़े पर चले जाना चाहिये था दस बजे तक सारा काम कर गंडोला के पहले स्टेज पर घोड़े से पहुंचकर, दूसरे स्टेज का टिकट लेना चाहिये था। मिलता तो ठीक था नहीं तो गंडोला से वापस चले आना था। गंडोला में एक तरफ का भी टिकट मिलता है। चलिये अगली बार इसी तरह से ही करेंगे।

VARSHNEY.009
17-07-2014, 03:14 PM
हम लोग गुलमर्ग से श्रीनगर आये। यहां हम हाउस बोट में रहे। यहां पर मेरी मुलाकात हेलगा कैटरीना से हुई। वे फिनलैण्ड से हैं और डाक्टर हैं। कैटरीना साड़ी बहुत अच्छी तरह से पहने हुयी थी। मेरे उन्हें यह बताने पर, मुस्कराईं और बोलीं, ‘मैं भारत तीसरी बार आई हूं। मुझे यह देश बेहद पसन्द है। मुझे पढ़ना अच्छा लगता है और पहली बार, कृष्णामूर्ती को पढ़ने के बाद, मैंने भारत आने का मन बनाया था।’
कैटरीना के एक लड़का (१६साल) और एक लड़की (१४ साल) है। वे तलाकशुदा हैं पर उनकी पती से अब भी मित्रता है। इस समय उनके पती, उनके घर में रह कर बच्चों की देखभाल कर रहे हैं।
Linus Torvalds फिनलैंड से है। वे, १९९१ में, हेलसिंकी पॉलीटेक्निक में पढ़ रहे थे। उस समय, उन्होने Linux का करनल (Kernel) प्रकाशित किया था। जाहिर है हमारी बातों में Linus Torvalds भी थे। कैटरीना ने बताया कि Linus Torvalds का सही उच्चारण लीनुस टोरवाल्डस् है और फिनलैंड में Linux को लीनुक्स बोलते हैं न कि लिनेक्स। क्या मालुम क्या सही और क्या नहीं।
कैटरीना में मुझसे पूंछा कि क्या मैं लीनुस के परिवार के बारे में जानता हूं। मैंने कहा कि मैंने उसकी आत्मजीवनी ‘Just for fun : The story of a accidental revolutionary’ पढ़ी है। इस लिये उनके जीवन के बारे में काफी कुछ मालुम है। यह पुस्तक कैटरीना ने नहीं पढ़ी थी। मैंने उसे बताया कि यह पुस्तक बहुत अच्छी है और न केवल पढ़ने योग्य है पर प्रेरणा की स्रोत है। उसने वायदा किया कि वह उसे पढ़ेगी और अगली बार हम उस पर कुछ बात भी करेंगे।
कैटरीना के बताया,
‘फिनलैण्ड की सबसे अच्छी बात वहां की सुरक्षा है। हमारे देश में यहां टैक्स ज्यादा है पर चिकित्सा, पढ़ाई सब मुफ्त है। सारे विश्वविद्यालय सरकारी हैं। मैं बढ़ई के चार बच्चों में से एक हूं। मेरे पिता डाक्टरी की पढ़ाई का पैसा नहीं दे सकते थे पर मैं डाक्टर इसलिए बन पायीं क्योंकि पढ़ाई के लिए पैसे नहीं देना पड़ा।’
कैटरीना के पीठ पर एक चिन्ह था। मैंने पूछा कि यह ठप्पा है या टैटू। उसने मुस्करा कर कहा,
‘यह टैटू है। इसे मैंने अपने आप को चालिसवें जन्मदिन पर उपहार दिया है। अगले साल मैं पच्चास की हो जाउंगी। मैं नहीं समझ पा रही कि मैं अपने आप को क्या उपहार दूं।’
कैटरीना को अपने लिये उपहार तय करने में देर नहीं लगी। हम लोग शाम को हाउस बोट पहुंचे तो वहां पर बनारसी साड़ियों का मेला लगा था। चारो तरफ साड़ियों फैली हुई थी। वह बोली,
‘मैं पच्चासिवें जन्म दिन के लिये साड़ी खरीद रहीं हूं पर तय नहीं कर पा रही हूं कि कौन सी लूं। क्या आप मेरी मदद करेंगे।’
मुझे हरे रंग वाली साड़ी अच्छी लग रही थी। उसने वही ले ली।
मुझे कैटरीना साहसी महिला लगीं। वह भारत अकेले आयीं हैं और कशमीर में पैदल ट्रेक कर रही थीं। फिर बोट पर ट्रेकिंग करने जा रहीं थीं। उसने मुझे फोटो दिखाये जिसमें वह घोड़े वालों या गाइड के घर में या फिर टेंट में रूकी। मेरे पूछने पर कि क्या वह यह सब, बिना अपने बच्चों के, अकेले आनन्द से कर पा रहीं हैं। उसने कहा,
‘मेरे बच्चे साहसी नहीं हैं, उन्हें इस तरह ट्रेक करने में मजा नहीं आता है। वे जरा सी गन्दगी से घबरा जाते हैं इसीलिए मैं उन्हें साथ नहीं लायी।’
मुझे ट्रेकिंग अच्छी लगती है पर मुन्ने की मां को नहीं। जब मुन्ना साथ रहता था तब हम लोगों ने कई इस तरह के ट्रिप लिये थे पर अब नहीं। अकेले हिम्मत नहीं पड़ती है। कैटरीना से बात हो गयी है अगली बार जब वह भारत आकर ट्रेकिंग पर जायेंगी तब मैं भी साथ रहूंगा।
अच्छा तो हम चलते हैं
मैं १९७५ की गर्मी में कश्मीर आया था। यह मेरी दूसरी ट्रिप है और मेरी पत्नी की पहली। उस समय डल झील के बीचोबीच चार चिनार के पेड़ थे और प्लेटफार्म बनाकर एक रेस्ट्राँ चला करता था, इसमें कटी पतंग के एक गाने ‘अच्छा तो हम चलते हैं’ की शूटिंग हुयी थी। यह बहुत सुन्दर जगह थी। मुझे बताया गया कि अब यह बन्द हो गया है।
http://bp0.blogger.com/_VD9tZkRYrQ0/RsOr-qc9s-I/AAAAAAAAAJU/QAYZzXpmSBU/s200/Eagle-1.jpg (http://bp0.blogger.com/_VD9tZkRYrQ0/RsOr-qc9s-I/AAAAAAAAAJU/QAYZzXpmSBU/s200/Eagle-1.jpg)हमारी हाउसबोट के बगल एक पेड़ था। उसमें चील दम्पत्ति ने अपना घोसला बना रखा था। उनके दो बच्चे भी थे। वे खाना लाकर उन्हें खिलाते थे। जब मैं उनकी फोटो ले रहा था तो वह चील मुझे घूर कर देख रही थी कि कहीं मैं उसके बच्चों को कुछ चोट न पहुंचा दूं।
मुझे यहां जहीर आलम मालिश करने वाला मिला। वे बीकानेर के रहने वाले हैं और इनकी शादी भोपाल में हुयी है वहीं पर घर जमा लिया है। वहां इनकी Face to face नाम की बाल काटने की दुकान पुराने भोपल में है। साल में ४ महीने भोपल में और ८ महीने कश्मीर में रहते हैं। मैंने उनसे मालिश करवायी। मैंने इसके पहले कभी नहीं करवायी थी। समझ में नहीं आया कि अच्छी थी कि नहीं, पर २०० रूपये जरूर जेब से निकल गये।
हमने पूथ्वी मां को अपने बच्चों से गिरवी ले रखा है
http://bp1.blogger.com/_VD9tZkRYrQ0/Rs9nG6c9tFI/AAAAAAAAAKs/CJz_AiCoICs/s200/sunset-1.jpg (http://bp1.blogger.com/_VD9tZkRYrQ0/Rs9nG6c9tFI/AAAAAAAAAKs/CJz_AiCoICs/s200/sunset-1.jpg)यहां पर हाउसबोट का नगर बसा है लगता है श्रीनगर में आने वाला पर्यटक यहीं रूकता है नाव वाले फेरी लगाते रहते हैं। कोई ठण्डा बेच रहा है कोई जूता। कोई आपको जैकेट बेचना चाहता है तो कोई आपको गहने। उसी के बीच जीवन चल रहा है। यह सब डल झील को बर्बाद भी कर रहा है।
मैं १९७५ में जून में श्रीनगर गया था मुझे याद नहीं पड़ता कि डल झील पर इतनी हाउसबोट थीं या नहीं। डल लेक भी बहुत साफ थी। इस बार गन्दी लगी। लोगों से पूछने पर पता चला कि यह सारी हाउसबोट अवैधानिक है। बहुत कुछ गन्दगी इन्हीं के कारण है। वहां के लोगों का कहना है,
‘२५ साल पहले डल लेक की परिधि ३२ किलोमीटर थी। अब घटकर १६ हो गयी है। लोग इसे मिट्टी से पाटकर कब्जा करते जा रहे हैं। इसमें बदमाशी में राज्य सरकार भी भागीदार है। दो साल पहले जम्मू एवं कश्मीर उच्च न्यायालय में लोकहित याचिका दाखिल की गयी जिसे कारण यह रोका जा सका और डल लेक में कुछ सफाई शुरू की गयी।’
गोवा में भी हमने देखा (http://unmukt-hindi.blogspot.com/2007/04/iron-and-magnese-ore.html) कि न्यायपालिका के कारण वहां का समुद्रीतट बचा। दिल्ली में भी यदि प्रदूषण कम हुआ तो वह न्यायपालिका के कठोर कदमों के कारण।
यह पूथ्वी मां हमें अपने पूर्वजों से नहीं मिली है इसे तो हमने अपने बच्चों से गिरवी ली है। यह हमारे ऊपर है कि हम इसे कैसे उन्हें वापस देते हैं। यह बात शायद केवल न्यायपालिका ही समझ पा रही है बाकी लोग तो शायद …
लोग अक्सर न्यायपालिका के न्यायिक क्रिया-कलापों (Judicial activism) की आलोचना करते हैं पर यदि आप देखें तो बहुत जगह न्यायपालिका के कारण ही पर्यावरण बचा हुआ है । नेता ऎसे निर्णय नहीं लेते, जिससे उनके वोट बैंक में कमी आये।
जय-जय शिवशंकर
मैं, १९७५ की जून में एक महीने श्रीनगर रहा था। जिस घर में ठहरा था उसके बगल में पहाड़ी है उसके ऊपर शिवजी का मंदिर है। यह शंकराचार्य जी का मंदिर कहलाता है क्योंकि उन्होंने ही शिवलिंग की स्थापना की थी मैं तब कई बार पैदल उस मंदिर तक गया था। उस समय मंदिर में केवल हमी लोग होते थे। अब पक्की रोड बन गयी है और अन्त में २४० सीढ़ियां है। पहाड़ी रास्ते से जाने की इजाजत नहीं है। सब तरफ पुलिस का पहरा है। आप मंदिर तक कैमरा भी नहीं ले जा सकते हैं। इस मंदिर में ‘आपकी कसम’ फिल्म के गाने ‘जय-जय शिवशंकर’ के आधे भाग की शूटिंग हुयी है। इस बार जब हम लोग मंदिर पहुंचे तब वहां सैकड़ों लोग थे। बहुत भीड़ थी।http://bp3.blogger.com/_VD9tZkRYrQ0/RtzVtKc9tPI/AAAAAAAAAL8/F5FZzxB6n_k/s200/Hajbal.jpg (http://bp3.blogger.com/_VD9tZkRYrQ0/RtzVtKc9tPI/AAAAAAAAAL8/F5FZzxB6n_k/s200/Hajbal.jpg)
कश्मीर के हरियाली और फूल श्रीनगर में जगह-जगह बाग हैं मुगल राज्य के समय के दो बाग निषाद और शालीमार अब भी पुराने समय की दास्तान बिखेर रहे हैं।
निषाद बाग से हजरतबल मस्जिद दिखायी पड़ती है जिसमें कुछ साल पहले उग्रवादी घुस गये थे और मुश्किल से निकाले जा सके।
http://bp1.blogger.com/_VD9tZkRYrQ0/RtzWXqc9tQI/AAAAAAAAAME/rNwd0zpHpwU/s200/chashme-shahi.jpg (http://bp1.blogger.com/_VD9tZkRYrQ0/RtzWXqc9tQI/AAAAAAAAAME/rNwd0zpHpwU/s200/chashme-shahi.jpg)श्रीनगर में चश्मेशाही है यहां पानी निकलता है। कहा जाता है कि इसमें औषधीय तत्व हैं: पीने से पीलिया तथा पेट की बीमारी दूर हो जाती है। मेरा पेट कुछ खराब चल रहा था। मैंने पानी पिया। यह मनोवैज्ञानिक कारण था या वास्तविक पर मेरे दस्त ठीक हो गये। कहा जाता है कि जवाहरलाल नेहरू के पीने के लिये पानी यहां से जाता था।
http://bp2.blogger.com/_VD9tZkRYrQ0/RtzXC6c9tRI/AAAAAAAAAMM/veKFUyPIrmw/s200/Pari+Mahal.jpg (http://bp2.blogger.com/_VD9tZkRYrQ0/RtzXC6c9tRI/AAAAAAAAAMM/veKFUyPIrmw/s200/Pari+Mahal.jpg)श्रीनगर में परी महल भी है इसे शाहजहां के लड़के दाराशिकोह ने सूफी संतों के रहने और अध्ययन के लिये बनवाया था। कहा जाता है कि इसका नाम पीर महल था सरकार ने इसका नाम परी महल कर दिया है। सरकार के मुताबिक परियां पवित्र जगह जाती हैं, http://bp2.blogger.com/_VD9tZkRYrQ0/Rs9lEKc9tEI/AAAAAAAAAKk/TECmrrHDuII/s200/dsc00377.jpg (http://bp2.blogger.com/_VD9tZkRYrQ0/Rs9lEKc9tEI/AAAAAAAAAKk/TECmrrHDuII/s200/dsc00377.jpg) यहां पवित्र आत्मायें रहती थीं – इसलिये इसका नाम परी महल रख दिया गया।
मालुम नहीं, क्या सच है – इस समय तो इसमें न सूफी सन्त रहते हैं न ही परियां – इसमें पैरा मिलिट्री वालों ने कब्जा जमा लिया है।
श्रीनगर में एक नया १८ होल का अन्तरराष्ट्रीय गोल्फ कोर्स बना है परी महल से पूरा दिखायी पड़ता है। यह बहुत सुन्दर है।
तारीफ करूं क्या उसकी जिसने तुझे बनाया
कश्मीर में सबसे अच्छी बात यह लगी कि बहुत कम महिलायें बुरका पहने दिखायी पड़ीं। मैं केरल और हैदराबाद भी जाता रहता हूं। वहां पर ज्यादा महिलायें बुरका पहने दिखायी पड़ती हैं बनिस्बत कश्मीर के। महिलायें व लड़कियां सर पर स्कार्फ लगाये, स्मार्ट और सुन्दर लगती हैं; देखने में भी अच्छा लगता है। काला बुरका जैसे सुन्दरता पर कालिख पोत दी गयी हो।
समार्ट और प्यारी युवतियों को देख कर, मुझे शम्मी कपूर के द्वारा फिल्म कश्मीर की कली में शर्मीला टैगोर के लिये गाया यह गाना याद आया,

VARSHNEY.009
17-07-2014, 03:15 PM
सिक्किम के पाँच खज़ाने
http://www.hindinest.com/desperdes/02619r.jpg अस्त्युत्तरस्याम् दिशि देवतात्मा हिमालयोनाम नगाधिराजः
पूर्वापरौ तोयनिधीवगायः सितः पृथिव्या इव मानदण्डः।। - कालिदास, कुमारसम्भव
भारत के उत्तर में देवता के समान पूजनीय हिमालय नाम का विशाल पर्वत है। वह पूर्व और पश्चिम के समुद्रों तक फैला हुआ ऐसा लगता है मानो वह पृथ्वी को नापने तौलने का मानदण्ड है।
'सोसायटी ऑफ नेचर फोटोग्राफर्स' की शीतकालीन (वर्ष 1987) कार्यशाला, सिक्किम ललित कला अकादमी के तत्वावधान में होने जा रही थी और सदस्य के नाते मेरे पास भी सूचना आई। अब सोचना पडा, क्योंकि यदि कश्मीर होता, कुलू मनाली, कोडाली-कनाल जैसे जाने माने सुंदर स्थल या काजीरंगा, कान्हा आदि अभयारण्य होते तो बिना सोचे हाँ कह देता किंतु सिक्किम। सिक्किम की क्या खासियत है, क्या आकर्षक है? हिमालय पर्वत श्रृंखला इस पृथ्वी पर विशालतम प्राकृतिक संरचना है और विश्व का प्रथम प्राकृतिक आश्चर्य है। बहुल अनुपम और अद्वितीय वनस्पतियों और औषधियों का भंडार है, हजारों जातियों के सुंदर पक्षियों का बसेरा है तथा अलौकिक सौंदर्य का खजाना है। भारतवर्ष में लगभग 45 हजार जाति की वनस्पतियां हैं, 15 हजार पुष्प से सजने वाली हैं और लगभग 25 हजार औषधि का काम करती हैं। विश्व में लगभग 35 हजार अनोखी छटा वाले ऑर्किड (एक प्रकार के 'जीवन्ती' नाम के फूल) पुष्पी पौधे हैं। इनमें से लगभग 1300 जातियां भारतवर्ष में हैं जिनमें से लगभग 600 सिक्किम में हैं। भारतवर्ष मे लगभग 12500 जातियों के पक्षी हैं, जबकि सिक्किम में लगभग 550। सारे भारतवर्ष में लगभग 15 हजार पुष्पीय पौधें हैं जबकि सिक्किम में लगभग 4000। इससे यह तो साबित हो जाता है कि सिक्किम की उपलब्धि विशेष है तथा उसका कारण उसका हिमालय की गोद में खेलना है।

सिक्किम की प्राकृतिक संरचना एक सुदृढ क़िले के समान है। इस की पश्चिम (नेपाल) सीमा पर सिंहलीला, उत्तरी (तिब्बत) पर चोमियोमों, पूर्व (तिब्बत तथा भूटान) सीमा पर दोख्या नाम की पर्वत श्रंखलाएं हैं, और दक्षिण दिशा में भारत की ओर तीस्ता नदी की घाटी उसका मुख्य द्वार है। इसकी चौडाई पूर्व_पश्चिम मे लगभग 65 किलोमीटर है और लंबाई उत्तर-दक्षिण दिशा मे 100 किलोमीटर है। तीन तरफ ऊंचे पहाडों से घिरा होने के कारण सिक्किम के दक्षिण द्वार से जब मानसून पानी से लडी हवायें ले जाता है तब वे इस छोटे से क्षेत्र में लगभग 630 सेंटीमीटर की वर्षा प्रतिवर्ष करती हैं।

यदि हम तीस्ता के पठार से बढना शुरू करें तो पहले हमें उष्ण कटिबंधीय पौधे और वृक्ष जैसे, आम, नीम, कटहल आदि मिलेंगे। फिर लगभग 7000 फुट की ऊंचाई चढने पर समशीतोष्ण कटिबंधीय वृक्ष जैसे, चीड, स्प्रूस (एक प्रकार का देवदार) बांज या बलूत (ओक), मैग्नोलिया आदि मिलेंगे और 10 हजार फुट की ऊंचाई चढने पर आल्पीय (अल्प पर्वत सदृश्य) मखमली घास, जिसमें रंग-बिरंगे विभिन्न किस्म के फूल जैसे प्रिम्यूला, ब्लूजैन्शियन, सैक्सीफ्राज, ईडलवाइस आदि खिले मिलेंगे। फिर तिब्बती, ठंडा मरुस्थली पठार और फिर कंचनजंगा की अनंतकालीन बर्फ। इसी तरह पक्षियों और अन्य जंतुओं की विविधता भी मिलती है। विश्व में अन्यत्र इतनी वानस्पतिक तथा जलवायु की विविधता पाने के लिए कुछ हजार किलोमीटर की यात्रा तय करनी पडेग़ी, जबकि सिक्किम में मात्र 50-60 किमी की यात्रा यथेष्ट होगी। मैंने गौर किया कि जिस तरह छोटे से सिक्किम में विश्व के पाँचों प्रकार के वानस्पतिक प्रकार मिल जाते हैं और इतनी विभिन्नता लिए हुए, एक साथ मेल जोल से रह रहे हैं कुछ वैसे ही हम लोगों की संस्था सोसायटी ऑव नेचर फोटोग्राफर्स है जिसमें सारे भारत के लोग हैं अपनी अपनी विभिन्नता लिए किन्तु जब आपस में मिलते हैं तो कितनी समानताएं - सोचने में, मूल्यों में, जीवन दर्शन में - मिलती हैं।

कंचनजंगा का नाम मैंने सुन रखा था और लगता था कंचनजगा जैसे सिक्किम का पर्यायवाची है। कंचनजगा की ऊंचाई 282216 फुट मानी जाती है। (हिमालय की चोटियां अभी भी बढ रही हैं) और विश्व की सबसे ऊंची चोटी में इसका स्थान तीसरा है। इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि कंचनजंगा का सिक्किम की संस्कृति में विशेष महत्त्व है। लेप्चा भाषा में कंचनजगा का सही उच्चारण खाँगचेंदजोंगा है और इसका अर्थ है, 'हिम के पाँच अनंत खजाने'। क्योंकि कंचनजंगा मे 5 चोटियां हैं और ये 5 खजाने स्वर्ण जैसे बहुमूल्य खनिज, औषधियां, अस्त्र शस्त्र, वस्त्र और धर्मग्रंथ हैं। कंचनजंगा को सिक्किम लोग अपने प्रिय रक्षक देवता (देवी नहीं) के रूप में मानते हैं और उनकी यह श्रध्दा इतनी गहरी है कि 1955 के ब्रितानी पर्वतारोही दल को उन्होंने कंचनजंगा पर इस शर्त पर चढने की अनुमति दी थी वे उसके शिखर पर नहीं चढेंग़े और इसलिए वह दल शिखर से 5 फुट नीचे तक जाकर ही वापस लौटा। ये पांच खजाने साधारण आदमी की मुख्य आवश्यकताओं को पूरा करते हैं। इसका अर्थ यही समझा जाना चाहिए कि प्राकृतिक और पारस्थितिकी (इकोलॉजी) की दृष्टि से सिक्किमी लोग हजारों वर्ष पहले सिक्किम की समृध्दि के लिए कंचनजंगा का महत्त्व समझ गए थे और उसका सम्मान करते आए हैं। यदि इन खजानों को मैं आधुनिक नाम देने की धृष्टता करूं तो वे क्रमशः इस प्रकार होंगे : प्राकृतिक सौंदर्य, वनस्पति और आर्किड, इलायची, शांतिप्रिय लोग, धर्मग्रंथ।

VARSHNEY.009
17-07-2014, 03:15 PM
सन् 1848 मे एक प्रसिध्द अंग्रेज वनस्पतिज्ञ, जॉन डॉल्टन हुक्कर ने सिक्किम आकर न केवल यहां के प्राकृतिक दृश्यों का आनंद उठाया, वरन यहां की बहुत सारी अनुपम और बाकी विश्व में न मिलने वाली वनस्पतियों और आर्केडों को वे सिक्किम से बाहर ले गए और उनका प्रचार यूरोप में अधिक हुआ। जॉन हुकर वही थे जिनकी मूल्यवान सलाह चार्ल्स डार्विन ने अपने मानव विकास सिध्दांत के लिए ली थी। विश्व में सबसे पहले लेख का जिसमें कि एवरेस्ट चोटी का जिक्र किसी विदेशी ने किया हो, श्रेय संभवतः इन्हीं डॉ ज़ॉन डाल्टन हुकर को मिलेगा। सन 1848 में उन्होंने कंचनजंगा पर्वत श्रृंखला पर घूमते हुए पश्चिम की दिशा में एक बहुत ही भव्य ऊंची चोटी देखी जोकि वहां से लगभग एक सौ पच्चीस किलोमीटर थी और उन्होंने अपनी डायरी में नोट किया कि वह चोटी हिमालय पर्वत श्रृंखला के उस क्षेत्र की चोटियों में सबसे ऊंची और भव्य है तथा नेपाली लोग उसे 'त्सुन्याओं' के नाम से पुकारते हैं।

वैज्ञानिक सर्वेक्षण की त्रिकोणमितीय पध्दति से हिमालय की चोटियों की परिशुध्द स्थिति एवं ऊंचाई मापने का कार्य भारतीय सर्वेक्षण विभाग ने 1849-1885 में किया था। तथा 1856 में ही गणना से सिध्द हुआ कि 29028 फुट ऊंची चोटी सबसे ऊंची चोटी है। श्री एवरेस्ट ने भारतीय सर्वेक्षण विभाग में 1816 से कार्य करना प्रारम्भ किया था, तथा 1830-1843 तक भारतीय सर्वेक्षण विभाग के सर्वोच्च पद पर रहे। दृष्टव्य है कि श्री एवरैस्ट को, जिन्होने यह वैज्ञानिक त्रिकोणमितीय सर्वेक्षण पध्दति का शुभारम्भ कराया था, सम्मान देने के लिये उनकी सेवा निवृत्ति के तेरह वर्षों बाद उनके सम्मान में सर्वोच्च शिखर को उनका नाम दिया गया।

हम लोग जलपाईगुडी 25 दिसंबर 1987 को सुबह 11 बजे ही पहुंच गए थे और लगभग 12 बजे वहां से सिक्किम नेशनल ट्रांसपोर्ट की बस से गंतोक के लिए चल पडे। ग़ंतोक जाने की सडक़ तीस्ता नदी (सिक्किम की गंगा) के किनारे-किनारे ही चलती है। यात्रा के शुरू में हम लोगों को अपने गर्म पुलोवर उतार देने पडे क्योंकि दिसंबर के महीने में भी, उस समय बडी ग़र्मी लग रही थी और हम ठंडी हवा के साथ-साथ मनोरम दृश्यों का आनंद ले रहे थे। प्रारंभ में इस सडक़ के दोनों तरफ वनों में शाल के वृक्षों की अधिकता थी और बीच-बीच में सागोन, अश्वपत्र, आम, नीम, आदि ऊष्ण-कटिबंधीय वृक्षों के तनों पर एपीफाइट (उपरिरोही) फर्न (पुष्पहीन वनस्पति) पायल या बाजूबंद की तरह सजे हुए थे और कहीं-कहीं भाग्यवान तनों पर भव्य रंग रूप वाले ऑर्किड शोभायान थे। शाल का जंगल घना होता है। और वह बडा साफ और प्रकाशवान रहता है, क्योंकि राजसी तथा 'शालीन' वृत्ति का शाल वृक्ष बेलों, झाडियों और लताओं आदि को अपने पास पनपने का प्रोत्साहन नहीं देता है। थोडी दूर चलने पर और थोडी ऊंचाई पर जाने पर जंगल अधिक घना हो जाता है और उनमें बेलों लताओं और दूसरे उपरिरोही तथा परजीवी पौधों की संख्या बढ ज़ाती है। सडक़ की वह यात्रा जिसमें एक तरफ तीस्ता का प्रवाहमान शुध्द जल मन को आह्लादित करता है और दूसरी तरफ वृक्षों की हरीतिमा मन को हर लेती है, ॠषिकेश से बद्रीनाथ के दृश्यों की याद दिलाती है। किन्तु यहाँकी वनस्पति में अधिक विविधता है, विशेषकर प्रारंभ में ऊष्ण कटिबंधीय पौधे और वृक्ष अधिक है।

अभी सिक्किम की सीमा, शायद बारह-पन्द्रह किमी होगी कि, पश्चिम की ओर दार्जिलिंग जाने वाली सडक़ मिली थी। दार्जिलिंग में भी आकर्षण है, किन्तु वह रहस्य नहीं जे 'गन्तोक' नाम में है। आगे चलने पर सीमा से आठ-दस किमी पहले पूर्व की ओर जाती एक सडक़ मिली - जो कलिम्पोंग जाती है। कलिम्पोंग, इस क्षेत्र में अपने पुष्पों के लिये बहुत विख्यात है, तथा आधुनिक भागमभाग से बचा हुआ भी। रंगपो एक छोटा शहर है, जो पश्चिम बंगाल और सिक्किम की सीमा पर स्थित है। रंगपो पहुंचते-पहुंचते चार बज चुके थे और अब हवा में थोडी ठंडक और बढ ग़ई थी, इसलिए सिक्किम प्रवेश करते हुए हमने अपने पुलओवर पहन लिए। यहां पर शराब की दुकानें बहुत हैं, शराब पर कर भी कम है। बौध्द लोग धार्मिक कृत्यों के साथ मद्यपान भी करते हैं। किन्तु ऊधम या शोर मचाने वाले शराबी बहुत कम देखे।

वैसे तो पहाड क़ी चढाई-उतराई बहुत पहले शुरू हो गयी थी, किन्तु रंगपो के बाद घुमाव ज्यादा हैं और यहां की वनस्पति अब बदलकर समशीतोष्ण कटिबंधीय हो गई थी। शाल और सागोन आदि के स्थान पर बलूत (ओक), देवदारु (स्प्रूस) आदि आने शुरू हो गये थे। इस सडक़ पर यात्रा करते समय एक बात और ध्यान में आई, वह यह कि यहां पर ट्रेफिक कम है और गांवों के आस-पास भी लोग जरा कम ही नजर आते हैं क्योंकि वनों के साथ सुखी सहस्तित्व रखते हुए घनी आबादी का रहना मुश्किल ही है। सिक्किम में बर्फीले पहाडों के बावजूद लगभग 12 प्रतिशत जंगल हैं किन्तु अब चाय तथा नारंगी की खेती बढाने के लिए कृष्य जमीन का प्रतिशत भी धीरे-धीरे बढता जा रहा है।

VARSHNEY.009
17-07-2014, 03:16 PM
सिक्किम हिमालय की गोद में खेलते हुए निस्संदेह सुखद विशेषता वाला प्रदेश है। तभी भूटिया लोग इसे डेनजांग कहते हैं जिसका अर्थ होता है 'सूखी घर' या 'नया महल' तथा लेप्चा भाषा में इसे 'नाइमाईल' कहते हैं, जिसका अर्थ होता है स्वर्ग। इन नामों से यह पता लग जाता है कि सिक्किम और उसके आस-पास के सारे लोग सिक्किम के सौंदर्य को तथा उसके गुणों को बहुत पहले से समझते आये हैं और उनका सुख लेते आए हैं (लूटते नहीं!)।

लेप्चा लोगों की लोक-कथाओं में उनका बाहर से सिक्किम आने का जिक्र कहीं नहीं मिलता, इसलिए लगता है कि वे यहां के सबसे पुराने निवासी हैं, उनकी अपनी संस्कृति, रहन-सहन और भाषा है। भूटिया लोग तिब्बती इलाके से कोई 13वीं सदी के आस-पास आये और उन्होंने जब इसे चावल का प्रदेश पाया तो उनकी खुशी की सीमा न रही। नेपालियों का आगमन, सिक्किम में 19वीं सदी में शुरू होता है। यद्यपि नेपाली बहुतायत से हिन्दू होते हैं, किंतु नेपाली हिंदू और बौध्दों की संस्कृति में और भी अधिक समानता पाई जाती है। चूंकि हिन्दु और बौध्द धर्म दोनों ही उदार प्रकृति के हैं इसलिए नेपाली हिन्दू और बौध्द तथा भूटिया और लेप्चा बौध्द लोगों में आपस में शांति और प्रेम के संबंध हैं। अब लेप्चा, भूटिया तथा नेपाली लोगों में वैवाहिक सम्बन्ध होने लगे हैं। लेप्चा लोगों की मांग पर, सिक्किम सरकार ने, लेप्चा लोगों के लिए विशेष संरक्षित क्षेत्र निश्चित कर दिए हैं। हम लोग ऐसे ही एक क्षेत्र जोंगु घूमने गए।

गंतोक से जोंगु की यात्रा लगभग 2 घण्टे की है और यह गंतोक से उत्तर जाने वाले राजमार्ग से लगभग दस किमी हटकर है। तीस्ता नदी के किनारे तथा पहाडों से घिरा यह बहुत ही रम्य स्थल है। जब हम लोग जोंगु पहुंचे तब वहां एक मेला लगा हुआ था। इस मेले की अपनी एक विशेषता थी। आम तौर पर मेले में जो दुकानें होती हैं वे तो थीं किन्तु वे सब की सब एक फुटबाल मैदान के चारों तरफ सजाकर लगाई गई थीं और इस सारे मेले का केन्द्र यह फुटबाल मैदान था और इस मैदान में भिन्न-भिन्न दलों के फुटबाल मैच एक के बाद एक हो रहे थे। ऐसा अनूठा मेला और खेल का मेल मैंने कहीं-नहीं देखा और मैंने गौर किया कि एक आम सिक्किमी आदमी या औरत का शरीर अच्छा, स्वस्थ और सशक्त होता है। एक तो उन्हें पहाडों पर हमेशा चढना और उतरना पडता है और दूसरे उनमें से जो लोग गाँव या शहर में आ गए हैं उन्हें फुटबाल का शौक बहुत ज्यादा है। मेले में फुटबाल के इन खेलों में लडक़ियों के फुटबाल खेल ने बहुत प्रभावित किया क्यों कि शेष भारत में फुटबाल लडक़ियों में इतना लोकप्रिय नहीं हो पाया है, जितना विकसित देशों में किन्तु सिक्किम की लडक़ियां फुटबाल की लोकप्रियता के मामले में किसी भी विदेशी से पीछे नहीं हैं।

जोंगु घूमते हुए हमने देखा कि तीस्ता के किनारे-किनारे डोंडा (बडी ऌलायची) के बडे-बडे खेत थे। हम नदी के किनारे घूमते हुए जा रहे थे। वहां से हमें कंचनजंगा का जो दृश्य दिखाई दिया वह अद्वितीय था। वैसे तो सिक्किम में लगभग सभी स्थानों से कंचनजंगा अपनी ऊंचाई के कारण दिख जाती है किन्तु उस स्थान की तीस्ता की घाटी से कंचनजंगा देखना मानों 'विस्टाविजन' का आनंद दे रहा था। घाटी में सूरज की छाया आ चुकी थी और इसलिए तुलनात्मक रूप से वह अंधेरे में थी किंतु कंचनजंगा खुली धूप में चांदी सी चमचमा रही थी। इस कारण घाटी हमारे पास होते हुए भी, हावी न होकर कंचनजंगा की शोभा बढा रही थी।

हम गंतोक में सिन्योलचू लॉज में ठहरे हुए थे। इस होटल से कोई आधा घण्टे की चढाई के भीतर ही जो हनुमान टेक है, वहां से कंचनजंगा का दृश्य देखने के लिए सारे गंतोक से उत्साही घुमकड सुबह ही पहुंच जाते हैं। हम लोग भी सूर्योदय से लगभग आधा घण्टा पहले पहुंच गए थे और सूर्य की आभा से प्रतिक्षण बदलता वहां प्राकृतिक दृश्य देखने का आनंद तो अद्भुत ही है। इससे पहले कि सूर्य अपनी किरणें कंचनजंगा पर डाले, कंचनजंगा एक अरुण आलोक में जैसे चंदन लगा कर स्नान करती दिखती है, मानो वह अपने प्रियतम से मिलने के लिए श्रृंगार कर रही हो। और यदि अपने प्रियतम से मिलने के लिए वह श्रृंगार नहीं कर रही होती तब उसकी झलक मिलते ही, पहली किरन पडते ही, लज्जा से उसके कपोल लाल लाल कैसे हो जाते। प्रियतम के चुम्बन के प्रयत्न मात्र से ! धुंधलके से एकदम प्रकाश में आ जाने पर कंचनजंगा का व्यक्तित्व जैसे निखर उठा! क्या अज्ञान से ज्ञान में प्रवेश, अंधकार से प्रकाश में प्रवेश, भोलेपन से प्रेम में प्रवेश में बहुत समानता नहीं है। और थोडी ही देर में जैसे कंचनजंगा की चोटी स्वर्णमय हो जाती और इसके बाद जब सूर्य थोडा चढता है तब वह चांदी सी धवल जगमगाती है। शायद इसी सूर्योदय के इन रंगीन दृश्यों का आनंद लेने के कारण सिक्किमी लोग कंचनजंगा में तांबा, सोना और चांदी के खजानों का स्थान मानते हैं। यह सूर्योदय इतना निराला और अद्भुत था कि इस सारे अनुभव ने मेरे हृदय में एक कविता की प्रेरणा दी। यह कविता सौंदर्य बोध से उद्भूत कविता है। इस सौंदर्य का पान करने के पश्चात जब मैं लौटकर आ गया था और कमरे में आराम से बैठ गया तब अचानक कविता की प्रेरणा के साथ एक नया रूपक भी मेरे मानस में कौंधा था। कंचनजंगा के लिए होटल से निकलने से लेकर सूर्योदय के आनन्द में डूबने तक के प्रत्येक कार्य में और कविता रचने के प्रत्येक कार्य में एक सशक्त और जीवन्त संबन्ध एकाएक मेरे मन में कौंध गया दो, बिलकुल अलग विधियों से सौंदर्य सृजन की विधियों में एक गहरी समानता दिखलाई दी

VARSHNEY.009
17-07-2014, 03:16 PM
कंचनजंगा और कविता
अंधेरे मुंह
होटल के तारों को छोड
चढता हूँ पहाडी पर
अदृश्य चोटी की ओर

कंचनजंगा के दर्शन करने
कल्पना ही पकड सकती है
जिन नक्षत्रों की दूरी
उन्हीं की सुरमई रोशनी में
टटोलता हूं राह मैं
कभी हल्के से टिके
पत्थरों सा फिसलता
कभी आडी तिरछी
पगडंडियों सा भटकता
पहुंचता हूं चोटी पर
चट्टानों की गरिमा
और पेडों की हरीतिमा
मेरी धमनियों में फैल जाती है
और बढ ज़ाती है मेरी उत्कंठा
अवगुण्ठन में पर
छिपी बैठी है कंचनजंगा

थोडी ही देर में देखता हूं
हल्की अरुणाई आभा में
उषा लगा रही है
कंचनजंगा को
चंदन का उबटन
हैरान हूं
कहां है सूरज !
कहां से आया यह उबटन

अरे कंचनजंगा के कपोल
अरुणिम अरुणिम
ज्यों गोपियों के बीच
कृष्ण का हो आगमन
और ढँक लिए हों लाज ने
सबसे पहले राधा के कपोल

और मुझे पूर्व में
अभी नहीं दिख रहा है सूर्य
क्या पहली किरन
छिपकर फेंक रहा है सूर्य !

अब कंचनजंगा की
सखियों के भी गाल
हो रहें हैं लाल लाल
मैं देख रहा हूं
सब तरफ लाल ही लाल

अब कंचनजंगा
दमक रही है
तृप्त और दीप्त
स्वर्णिम स्वर्णिम
प्रेम से प्रथम मिलन पर
मुस्करा रहा है सूर्य
मधुरिम मधुरिम

अब कंचनजंगा
चमक रही है
शुध्द रजत धवला सी
हरियाली गाने लगी है गीत,
भौंरे गुनगुना रहे हैं
कंचनजंगा के प्रेम पर
सीमा है आकाश

मैं खडा हूं चोटी पर
निस्तब्ध
डूब गया हूं
आकाश से उतर आई है
सौंदर्य सरिता
जैसे कोरे कागज पर
यह कविता

VARSHNEY.009
17-07-2014, 03:19 PM
लौटते समय रास्ते में एन्चे गुम्पा भी देखा। यह गुम्पा लगभग 200 साल पुराना है। ऐसा माना जाता है कि, इसकी संस्थापना करने वाले लामा दुपथाब कार्पो दक्षिण सिक्किम की मैनम पहाडी से उड क़र इस स्थान पर आये थे। हम जब एन्चे गुम्पा में घूम रहे थे तो वातावरण बहुत ही शांत था, हमारे मंदिरों में ऐसी शांति नहीं मिलती।

गुम्पा के एक कोने में धूप जलाते हैं। यह इस तरह का धूप आला, लगभग सभी गुम्पाओं के आस-पास देखा। उस समय दो महिलाएं वहां 'धूप' जला रही थीं। वे साडी पहने खुले बाल रखे आधुनिक साजसज्जा में थीं। वह 'धूप' मैंने देखा कि वहां बहुतायत से पाये जाने वाले वृक्ष 'जूनिपर' (जिसे हिंदी में धूपी कहते हैं) की सूखी पत्तियां ही थीं। ये पत्तियां आम पत्तियों के आकार की न होकर कुछ इस तरह की होती हैं जिस तरह से कसीदाकारी में पत्ती काढ क़र दिखाई जाती है। हवा में एक मनमोहक सुगंध फैली हुई थी। वे स्त्रियां इस धूप के साथ कत्थई रंग का पदार्थ भी रख रही थीं। जब मैंने उनसे दूसरे पदार्थ के बारे में पूछा, जोकि गाढा कत्थई रंग का था, उन्होंने बताया कि छांग (चावल से बनाई हुई स्थानीय मदिरा) बनाने के बाद जो अवशेष बचता है यह पदार्थ वह ही है।

जब मैंने उनसे पूछा कि, क्या पूजा के समय मद्यपान उचित है ? एक ने मुस्कराकर उत्तर दिया, ''मदिरा यदि अन्य समय के लिये उचित है तो पूजा के लिए क्यों नही ?'' मैंने उत्तर दिया, ''पूजा तो एक पुण्य कार्य है, उस समय मद्यपान तो वातावरण को दूषित कर सकता है।'' उसने फिर मुस्करा कर उत्तर दिया, ''मद्यपान पुण्य कार्य में भी मदद कर सकता है, वह मद्यपान करनेवाले की मानसिक क्षमता पर निर्भर करता है।'' हम लोग इस तरह बातें भी कर रहे थे और उन महिलाओं के पूजा करते हुए फोटो भी ले रहे थे। उनके फोटो लेने में हमें विशेष आनन्द आ रहा था क्योंकि वे सुन्दर और सौम्य तो थी हीं तथा साथ ही हमारे फोटो लेने पर वे नाक भौंह नहीं सिकोड रही थीं।

इस गुम्पा के पास जाते समय चारों ओर घूमते समय जो बात प्रभावकारी थी वह यह थी कि जहां-तहां झण्डे फहरा रहे थे। इन झण्डों का आकार एक बहुत चपटे आयात के समान होता है। इनकी ऊंचाई तो बहुत ज्यादा होती है किन्तु चौडाई बहुत ही कम और इसलिये ये हवा में लहराते खूब हैं। इन झण्डों पर बौध्द धर्म के मंत्र लिखे थे। बौद्व लोगों का विश्वास है कि हवा में जब ये झंडे लहराते हैं तो इन झण्डों से मंत्र की पुनीत शक्ति हवा में आ जाती हैं और वह हवा आसपास के दुष्टों और पापियों को दूर भगा देती है। इसलिए सिक्कम में पहाडों पर भी जगह-जगह इस तरह के बहुत से झण्डे एक कतार में लगे रहते हैं और इसी ध्येय से हर गुंपा के चारों तरफ प्रार्थना चक्र भी लगे रहते हैं, जिन्हें श्रध्दालु भक्त आकर घुमाते हैं और 'ओम मणिम् पद्ये हुम्' मंत्र जाप करते हैं। इस मंत्र का अर्थ होता है 'कमलरूपी मणि में निवास करने वाले की जय।' सतही तौर पर देखने से ऐसा लग सकता है कि यह प्रक्रिया एक आदिम अंधविश्वास जनित प्रक्रिया है और आदिम लोग ही इसे जादू की तरह प्रभावकारी मान सकते हैं किंतु थोडा गहराई से सोचने पर मुझे लगा कि कि इसमें एक गहरा मानवीय सत्य छिपा है। ये झण्डे इतने ऊंचे और इतनी सख्या में होते हैं कि किसी भी व्यक्ति को आसानी से दिखते हैं। और जब वह व्यक्ति उन्हें विश्वास के साथ देखता है तो वह यह मानता है कि इससे दुष्ट और पापी लोग दूर भागते हैं। तब उसके हृदय में भी जो दुष्ट या पापी प्रवृतियां होती हैं वे भी स्वतः ही भागती हैं क्योंकि यह प्रक्रिया विश्वासी मनुष्य के अर्ध_चेतन और अचेतन में जाकर काम करती है। हमारे अधिकाश कार्य हमारे विश्वास पर ही आधारित होते हैं और उनसे ही वे शक्ति पाते हैं। इस मनोवैज्ञानिक गहरे सत्य को बौध्दों ने बहुत पहले पहचाना और उसका उपयोग किया।

कोई मुझसे यदि पूछे कि दुनिया का सबसे निराला फूल का परिवार कौन सा है, तो मैं कहूंगा ऑर्किड। इस पुष्प की तीन विशेषताएं बिलकुल निराली हैं। सबसे पहली विशेषता तो इसके रंग और रूप की है, जिसे निखारने और बनाने में प्रकृति ने अविश्वासी जादुई कर्तब दिखलाया है। इस फूल का रंग-रूप, अक्सर , की तरह होता है और ये पुष्प कीडों के रंग-रूप की नकल करने में इतने कुशल और परिशुध्द होते हैं कि नर कीडे ऌन फूलों को मादा समझकर उनके साथ संभोग करने आते हैं। इस संभोग की प्रक्रिया में यह तो पता नहीं कीडों को कितना आनंद मिलता है, किंतु इन पुष्पों का पराग उन कीडों के पंख में लग जाता है और फिर वे कीडे दूसरे ऐसे ही पुष्प पर जाते हैं तब वे स्वपरागण तो नहीं कर पाते किन्तु वे पर परागण (क्रॉस पोलीनेशन) कर देते हैं। कुछ ऑर्किड हवा तथा अन्य विधियों द्वारा परागित (पौलीनेट) होते हैं। इनके नाम भी परागण के सहायक कीडे क़े नाम पर पड ज़ाते हैं जैसे मक्खी ऑर्किड, मधुमक्खी ऑर्र्किड आदि।

यदि हम ऑर्किड शब्द के मूल पर जाएं तो हम देखेंगे कि यूनानी भाषा का शब्द ऑर्किस, इसका स्रोत है, जिसका अर्थ होता है 'अंड ग्रंथि' (टेस्टिकल्स)। इस पुष्प के जो कंद होते हैं वे अंडग्रंथि के समान दिखते हैं। इसकी दूसरी विशेषता यह है कि इसके पुष्पों का जीवन लंबा होता है। ये पुष्प एक बार सजाने पर कई दिनों तक उस कमरे में तरोताजा रहते हैं और इसके कारण भी यह पुष्प आज विश्व में बहुत लोकप्रिय हो गया है और बडी मात्रा में मलेशिया और श्रीलंका आदि देशों से इसका निर्यात होता है। भारतवर्ष से इसके निर्यात के लिए बहुत गुंजाइश है। आयुर्वेद की ऐसी दवाईयों में जिसमें दीर्घजीवन का गुण लाना हो इन पुष्पों को उपयोग होता है। इसीलिये इस परिवार के कुछ पुष्पों का नाम जीवन्ती है। इसकी तीसरी विशेषता है कि यह बारहमासी काष्ठहीन पौधा अधिकतर पराश्रयी होता है और इसलिये दूसरे वृक्षों पर फूलता और फलता है। किन्तु गौर करने की बात यह है कि यह उन वृक्षों का आश्रय ही लेता है, 'भोजन और पानी' नहीं लेता। सभी आर्किड फूलों का आकार दुहरा सममित (बाइलेट्रल सिमेट्रिकल) होता है। इनमें 3 बाह्य दल (सैपल) होते हैं तथा तीन पंखुडियां। एक पंखुडी अक्सर अन्य पंखुडियों की अपेक्षा रंगरूप में बहुत ही भिन्न होती है और अक्सर नीचे की तरफ लटकती रहती है। इसलिए इस पंखुडी क़ा नाम होंठ है तथा यह होंठ प्रत्येक आर्किड को एक विशिष्टता प्रदान करता है। ऑर्किड इन्हीं तीन पंखुडियों तथा तीन बाह्य दलों के रंग, रूप और आकार बदलकर विभिन्न कीटों के शरीर की नकल, लगभग शत प्रतिशत सफलता के साथ करता है।

आर्किड पुष्पों ने परागण के कितने अनोखे तरीके अपनाए हैं उन सबका वर्णन करने में एक मोटी पुस्तक भर जाएगी। मैं दो अनुपम परागण विधियों की संक्षिप्त में चर्चा करूंगा। एक आर्किड है मैसडिवैलिया मस्कोजा, इसका पुष्प मात्र एक से मी बडा। किन्तु यह लघु पुष्प का ओंठ (ओंठ ही तो आर्किड को विशिष्टता प्रदान करते हैं) इतना संवेदनशील है कि इस पर सूक्ष्म कीट बैठा और इसने धीरे धीरे उठना शुरु किया और फिर अपने वेग को बढाते हुए पुष्प के मुंह पर फटाक से फाटक की तरह बैठकर उस कीट को कैद कर लेता है (कमल भी भंवरे को कैदकर लेता है, पर मात्र सूर्यास्त पर)। कीट जो मात्र चुम्बन लेने आया था, अब पुष्प की आगोश में 'कैद' है। यह पुष्प उस कीट को कुछ देर अपने आलिंगन में बांधकर रखता है और तब ही उसका दरवाजा (ओंठ) खुलता है। खुलते ही कीट उडक़र निकल जाता है, और जब किसी अन्य मैसडिवैलिया मस्कोजा के पास चुम्बन के लिए जाता है तब फिर उसके आलिंगन पाश का आनन्द उठाता है और इन पुष्पों का 'पर परागण' करता है। मेरे विचार से उस सूक्ष्म कीट को मात्र चुम्बन नहीं, भोजन (मकरंद) भी प्राप्त होता होगा।

VARSHNEY.009
17-07-2014, 03:20 PM
केटसीटम' प्रजाति के कुछ पुष्प देखने में पक्षियों सरीखे दिखते हैं। इस प्रजाति का एक पुष्प आश्चर्यजनक रूप से किलकिला (किंग फिशर) सरीखा दिखता है मेरी समझ मे यह पक्षियों के रूप की नकल, पक्षियों को आकर्षित करने के लिए नहीं है, वरन वह मानव के पक्षी प्रेम का लाभ उठाने के लिए है। इस पक्षी की एक टाँग, जो वास्तव में एक तंतु है जो प्रजनन स्तंभ से निकलकर, ओष्ठ तक आती है।ज्योंही कोई कीडा या पतंगा इस ओंठ पर बैठता है और, अनजाने में ही, इस तंतु को स्पर्श करता है (अर्थात वह उसकी टाँग खींचता है), कि उसके ऊपर मधुर पराग कणों की वर्षा हो जाती है। उस तंतु के खिंचने से वह चाकू सी धार वाला तंतु पराग कणों को रखने वाली झिल्ली को काट देता है। झिल्ली के कटते ही, द्रव पराग कण बाहर निकलते हैं और हवा का स्पर्श पाते ही वे लगभग ठोस होकर, उस कीट पर गिरते हैं। आर्किडों में सचमुच मत्रमुग्ध करने की क्षमता है और विविधता है - रंग की, रूप की, आकार की, सुगंध की और परागण की।

गंतोक से 14 कि मी पर बहुत ही विशाल राष्ट्रीय ऑर्किडेरियम है। इसमें लगभग 300 जातियों के आर्किड हैं और कुछ उष्णकटिबंधीय ऑर्किडों के लिए उष्ण गृह भी हैं। यद्यपि हम लोग दिसंबरांत में घूमने गए थे, तब भी कुछ ऑर्किडों ने हिम्मत करके शीत पर अपनी रंगीन छटा बिखेर ही दी थी, किन्तु बहुत से ऑर्किड उष्ण गृह में तो बाहर की शीत से बेखबर होकर होली मना रहे थे। यूरोप में जो ऑर्किड पहले बहुत लोक प्रिय हुआ था उसका नाम 'वनीला' है (आइसक्रीम की याद तो नहीं आ रही है आपको ?) और ऐसा केवल उसकी हल्की मधुर तथा निराली सुगंध के कारण हुआ था।

सेमतांग के पहाडों पर चाय के बागान बहुत हैं। वहां से सूर्यास्त का दृश्य भी बहुत ही मनोरम होता है। इसलिए हम लोगों ने वहां सूर्यास्त का अनिवर्चनीय आनंद लिया। चाय का पौधा कोई 30 सेंटीमीटर ऊंचा होता है और यह बहुत ही पास-पास नाली के रूप में लगाया जाता है। दूर से देखने पर ऐसा लगता है जैसे खेत में हरी कालीन बिछी हों। उस समय इसमें भी फूल नहीं लगे थे। सिक्किम की चाय भी हम लोगों ने खूब पी, इसमें जो महक और जायका आया वह भी निराला और आहलादकारी था। चाय की खेती सिक्किम में कुछ ही वर्षों से शुरू हुई है और ऐसा लगता है कि सिक्किम के उत्साही लोग चाय की खेती बहुत बढाना चाहते हैं।

रूमटेक गुंपा, पेमयांची के बाद सिक्किम का सबसे प्रसिध्द गुंपा है। यद्यपि सिक्किम में बौध्द धर्म की निंगमा शाखा सर्वाधिक प्रचलित है, कर्मा शाखा भी काफी प्रचलित है और रूमटेक इसी शाखा का प्रधान गुंपा है। यह गंतोक से 30 किलोमीटर की दूरी पर, एक छोटी सी पहाडी क़ो पृष्ठभूमि में लेकर बनाया गया है। इस गुंपा में लामाओं का शिक्षण बडे पैमाने पर होता है। और हम लोग जब देखने गए तब 20 से 5 वर्ष की उम्र तक के शिक्षार्थी लामा जमीन पर पंक्तिबध्द बैठकर धर्मग्रथों के श्लोकों को कंठस्थ कर रहे थे और एक वृध्द लामा एक कुर्सी पर बैठे हुए चुपचाप देख रहे थे। विशेष बात यह थी कि रूमटेक गुंपा के विशाल प्रांगण में ये शिक्षाथीं लामा कहीं भी बैठे हुए थे और अधिकतर दीवार के बहुत पास उसकी तरफ मुंह करके बैठे थे। उस वातावरण में बडे लामा को कुछ बोलना नहीं पड रहा था, एक छूट भी थी किन्तु अनुशासन जैसे स्वेच्छा से सब तरफ छाया था जिसके लिए मात्र उनकी उपस्थिति यथेष्ठ थी। समाज में इतना अनुशासन होना चाहिए कि पुलिस भी बस इसी तरह चुप देखती रहे।

इतने में दूसरी मंजिल पर दो लामा बहुत लंबी (लगभग 2 मीटर) तुरही समान, किन्तु आकार में बिल्कुल सीधे, वाद्यों को फूँक कर बजाने लगे। वह संध्याकाल का समय था और लगा कि वे संध्याकाल की पूजा का आह्वान कर रहे थे। उनकी गंभीर और भारी आवाज आकर्षित तो कर रही थी, किन्तु लाउड स्पीकरों समान विघ्न नहीं डाल रही थी। उसके बाद दो लामाओं ने एक शहनाई सरीखे वाद्य पर मधुर स्वरों में संगीत निकालना शुरू किया। ढलते सूरज की किरणें उनकी तुरही, शहनाई, और उनके घुटे हुए सिरों पर आकर्षक आभा दे रही थीं। लगता था जैसे थके हुए सूरज की थकान डूब रही है और शांति वातावरण में बढती जा रही है। मैंने अक्सर देखा है कि शाम का ही एक ऐसा वक्त होता है जब कुछ अजीब लगता है। कुछ सूनासूनापन, कुछ खालीपना लगता है कि कुछ नई विचारणा चाहिए, कुछ ऊंची चीज करना चाहिए, कुछ निराला काम करना चाहिए। संभवतः इसीलिए संध्या समय भी पूजा करने का विशेष विधान है, वरन एक, प्रकार के ध्यान और पूजन का नाम ही 'संध्या' है। इस तरह के कार्य - कर्मकाण्ड (रिचुअल) - व्यस्त दिन और उनींदी रात्रि के बीच एक मनोहर पुल बनाते हैं, खेल भी यह काम कुशलता पूर्वक निभाते हैं। यदि खेल भी न हों तब सिनेमा, दूरदर्शन या शराब भी साधारण जन के लिये, शायद कुछ अधिक ही सुविधाजनक पुल बनाते हैं।

VARSHNEY.009
17-07-2014, 03:20 PM
हम लोग ऊपर की मंजिल से उतर कर नीचे आये तो देखा कि नीचे गुंपा के बरामदे में कुछ लामा लोग गोलाकार में घूम रहे थे। थोडी देर में समझ में आ गया कि ये सब लामा धीरे-धीरे चक्कर लगाते हुए नृत्य कर रहे थे। इनके नृत्य विलंबित लय में थे और ऐसा अतींद्रय आनंद आ रहा था कि जैसे अच्छे शास्त्रीय गायन में आलाप सुनने में आता है। कुछ देर के लिये तो हम लोग स्तब्ध देखते रहे। बरामदे की तीन दीवारों पर बुध्द और पद्मसंभव आदि के सुंदर और आकर्षक चित्र बने हुए थे। सारे गुंपा के भीतर चाहे कपडे हों या दीवार आदि, वे मुख्यतः एक ही परिवार के रंग में नजर आ रहे थे। ये सब रंग सूर्य तथा अग्नि से निकले हुए तेजस्वी लाल और पीले रंग के मिश्रण से बने थे। केसरिया रंग ही लामाओं का सबसे प्रिय रंग है और इसके भिन्न-भिन्न रूप, किसी में ललामी ज्यादा है तो किसी मे स्वर्णिम रंग, अपनी छटा बिखेर रहे थे। इन रंगों में सूर्य का सा त्याग और अग्नि का सा तेज झलकता है और हमारे मनोभावों को यह उसी रूप में प्रभावित कर सकता है।

सिक्किम के पश्चिम में पैमयांची नाम का एक छोटा सा गाँव, जो पश्चिमी जिले की राजधानी गेजिंग से लगभग 15 किलोमीटर दूरी पर है, और इसके बाद कहीं भी आगे जाना हो तो आधुनिक यात्रिक वाहनों को छोडक़र पैदल ही जाना पडता है - गेजिंग का अर्थ होता है राजधानी और गंतोक के पहले गेजिंग सिक्किम की राजधानी थी - पैमयांची लगभग 2600 मीटर की ऊंचाई पर स्थित बहुत ही सुंदर गुंपा गाँव है। बौध्द धर्म की निंगमा शाखा का यह सबसे बडा गुम्पा है। उसे लाल टोपी वाले लामाओं का गुंपा भी कहते हैं, क्योंकि इसके सब लामा लाल रंग की टोपी पहनते हैं। पेमयांची के इतिहास से सिक्किम के आधुनिक इतिहास का प्रारम्भ होता है। सन् 1642 में युकसैम नामक गाँव (पेमयांची से लगभग 25 किमी उत्तर में) में तीन प्रसिध्द लामा मिले। आठवीं शती में तिब्बत मे बौध्दधर्म की पुनर्स्थापना करने वाले महागुरु पद्मसंभव की भविष्यवाणी के अनुसार, तीनों लामाओं ने सिक्किम में महागुरु पद्मसंभव द्वारा छिपाए गए सुरक्षित धर्मग्रंथों को खोजकर बौध्द धर्म का पुनर्स्थापन किया। युकसैम का अर्थ होता है - तीन लामा। पैमयांची गुंपा का स्थल जिसने भी चुना, वह अवश्य ही न केवल प्रकृति प्रेमी होगा, वरन प्रकृति को ईश्वर की प्रिय संरचना मानता होगा क्योंकि यहां जो प्राकृतिक दृश्य दिखाई देते हैं, वे न केवल बहुत ही मनोहारी हैं वरन हमारे मन को नोन तेल लकडी क़ी अपेक्षा बहुत ऊंचा उठा देते हैं। इस गुंपा के अम्दर संगथोपाल्बो नाम की उत्कृष्ट कलाकृति इसकी पहली मंजिल में स्थापित है, जो जीव की सात अवस्थाओं का वर्णन कलात्मक ढंग से करती है। वह विशाल कलाकृति एक ही लामा द्वारा लकडी पर की गई जटिल संरचना वाली कलाकृति है, जिसको बनाने में उस लामा को 5 वर्ष लगे थे। इसमें साधारण मानव और बोधिसत्व की स्थिति से लेकर बुध्द और शंकर तक की स्थिति का वर्णन है। कक्ष के भीतर दीवारों पर बहुत ही सुंदर चित्र हैं जो भारतीय वाम तंत्र शाखा से बहुत अधिक प्रभावित जान पडते हैं। बुध्द धर्म की यह शाखा जो सिक्किम में निंगमा नाम से बहुत ही प्रचलित है, बौध्द धर्म और भारतीय तंत्र योग का बहुत ही विलक्षण मिश्रण है।

जोंगु क्षेत्र में तीस्ताा के तट पर घूमते समय एक पहचाना सा पौधा दिखा।रामबाण या गमारपाठ (aloe) जैसे सर्पाकार मोटे दल वाले हरे पत्ते - छत्ते के रूप में या गुलाब के फूल की पंखुडियों जैसे आकार में (किन्तु अन्य सब में नितान्त भिन्न) - शुष्क जलवायु के लिये उपयुक्त पौधे दिख रहे थे। उनके केन्द्र में से एक ऊंचा ऊर्ध्वाधर डम्ठल जिसपर एक धवल पुष्प! आकर्षक! जो पता लगा डोंडा या बडी ऌलायची के पौधे थे। शायद आपको यह जानकर आश्चर्य हो कि संसार का सबसे अधिक बडी ऌलायची का उत्पादक प्रदेश सिक्किम है। यहाँलगभग 2 हजार टन इलायची प्रति-वर्ष पैदा की जाती है जोकि विश्व की उपज का लगभग 50 प्रतिशत है। ग्वाटेमाला, भूटान, अरुणाचल और नागालैंड अन्य स्थान हैं जहां यह इलायची पैदा हाती है। यह इलायची सत्कार और मिठाइयों के काम में आने वाली छोटी इलायची नहीं हैं, वरन, मसाले के काम में आने वाली बडी ऌलायची है, जिसे डोंडा भी कहते हैं।

बडी ऌलायची के अलावा अदरक और हल्दी भी सिक्किम में खूब पैदा की जाती है। मुझे लगा कि इन तीनों में संभवतः कोई संबंध हो। पता लगाने पर मालूम हुआ कि ये तीनों उपज 'जिजीबरेशी' परिवार की सदस्य हैं। सिक्किम में नारंगियों के सुंदर और समृध्द बगीचे भी बहुत हैं। सिक्किम में घूमते समय, लोगों से मिलते समय वहां की समृध्दि देखकर सुखद आश्चर्य होता है। उत्तरी पहाडी प्रदोश गढवाल, कुमायूं, तथा 1962 के पूर्व का हिमांचल प्रदेश गरीबी में ग्रस्त दिखते हैं। क्या ये तीन नकद - उपज सिक्किम की समृध्दि के महत्त्वपूर्ण संसाधन हैं!

गंतोक स्थित तिब्बत शास्त्र संस्थान को भी देखने गए। यह, संभवतया विश्व में बौध्द धर्म के ग्रन्थों तथा अन्य उपादानों का सर्वाधिक मूल्यवान संग्रहालय है।

सिक्किम के लोग बहुत ही मितभाषी है, और जब भी बातचीत शुरू की मैंने उन्हें विनम्र स्नेही और खुला पाया। सिक्किम में बहुत फोटो लिये और सिक्किम लोगों ने बडे ख़ुशी-खुशी फोटो उतरवाए। सिक्किम में लडक़ियां और महिलाएं बहुत ही स्मार्ट होती हैं, खुलकर बातें करती हैं। कई लडक़ियों ने पूछने पर बडे ग़र्व से बतलाया कि वे प्रेम विवाह में विश्वास करती हैं और इसे काफी मात्रा में सामाजिक मान्यता प्राप्त है। सिक्किम में मुख्यतया दो धर्मावलंबी हैं : हिंदू 65 प्रतिशत तथा बौध्द 27 प्रतिशत। चूंकि हिंदू और बौध्द धर्म दोनों ही उदार प्रवृत्ति के हैं इसलिए इनमें बडे सौहार्दपूर्ण संबंध हैं। शांत प्रकृति, लोगों का सौम्य स्वभाव, सहजता, आपसी सद्भाव, फूलों भरी सौंदर्य_सुषमा सिक्किम के जन-जीवन के प्रतीक हैं।

सिक्किम के प्रथम धर्मराज फुटसांग न म्ग्याल ने आधुनिक सिक्किम राज्य की नींव डालते समय (1642) 'लो-मेन-त्सुमत्सुम' का नारा बुलन्द किया था जिसका अर्थ है लेप्चा, भूटिया और नेपाली एक है। पश्चिम बंगाल में (दार्जलिंग क्षेत्र विशेषकर) गुरखाओं ने आतंक फैलाया था और जहां तहाँ विनाश की लीला खेल रहे थे, वहीं सिक्किम में (यहाँतक कि सीमा पर स्थित रंगपो में भी) पूर्ण शांति विराजमान थी। यही शांतिप्रिय लोग आधुनिक सिक्किम के पाँचवे खजाने हैं।

VARSHNEY.009
17-07-2014, 03:50 PM
'इन्डीपेन्डेन्स डे'
''बेटा अंकल जी को ''फैनी'' तो दिखाओ '' भाभी जी ने इठलाते हुये अपने छोटे सुपुत्र से कहा। और उसके ऊपर पंखे की तरफ उंगली करने पर गौरान्वित महसूस किया।मैं ''फैनी'' माने पंखे की पहेली को छोड भाईसाहब से स्वतंत्रता दिवस के आयोजन के लिये पूछने लगा।तभी अचानक भाईसाहब के बडे क़ुलदीपक ज़ो कि कोई विदेशी चलचित्र देख रहे थे बोले ''अंकल 15 अगस्त को तो इंडिया का इंडिपेंडेंस डे होता है, जैसे कि यू एस ए का 4 जुलाई को होता है।भारत आजाद कब हुआ था ?''
आप उत्तर जानना चाहेंगे ? - कभी नहीं।
मेरे विचार में तो हम आज भी गुलाम हैं।फर्क बस इतना ही है कि तब हाथ में बेडियाँ थीं अाज विचारों में हैं। तब अंग्रेज शासन करते थे अाज अंग्रेजियत।तब शायद हम आजादी के लिये लडते भी थे पर आज तो हम दिन प्रतिदिन गुलामी की ओर बढ रहे हैं।स्वयं को हाई-क्लास कहलाने की धुन में हम ना जाने क्या क्या कर जाते हैं।हिन्दी बोलना हमारी शान के खिलाफ है और अंग्रेजी हमें आती नहीं।पर हम बोलेंगे अवश्य।नतीजा एक बडी ही बेमेल भाषा जिसे कि हिंगलिश कहने के लिये हम सभायें करते फिरते हैं।
आज हम इस स्वतंत्रता दिवस पर स्वयं आकलन करें तो पायेंगे कि ना सिर्फ भाषा बल्कि संस्कृति भी हम दूसरों से माँग कर जी रहे हैं।जब आज सारा संसार भारतीय संस्कृति जानना चाहता है तब हम भारतीय स्वयं अपनी ही संस्कृति की लुप्तता के लिये कार्य कर रहे हैं।
क्या यही आजादी है? वही आजादी जिसके लिये हमारे पूर्वज लडे थे?
आईये हम स्वतंत्रता दिवस को एक नयी परिभाषा दें। इसे विचारों और संस्कृति के स्वावलंबन से जोडें। ऌसे स्वाभिमान और हिन्दोस्तानियत से जोडें

rajnish manga
17-07-2014, 11:30 PM
मित्र वार्ष्णेय जी, सिक्किम और कंचनजंगा के विषय में आलेख प्रस्तुत करने का शुक्रिया. यदि वहाँ की कुछ तस्वीरें भी पोस्ट करते तो आलेख में चार चाँद लग जाते.